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वीर सेवा मन्दिर दिल्ली
क्रम संख्या
काल नं०
खण्ड
१८३४
२६४
मुख्ता
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HAMAKAAMRAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAL
* बन्दजिनवरम् *
॥ आर्यमतलीला॥
( जैनगजटसे उद्धृत )
सिरसावा निवासी वा० जुगलकिशोर जैन; मुख्तार अदालत
देवबन्द जिला सहारनपुर द्वारा सम्पादित ।
ट्रेक्ट नं०८
जिसकी चन्द्रमेन जैन वैद्य, मंत्री श्री जननत्य प्रकाशिनी ममा इटावा ने मर्व साधारण के
हितार्थ छपाकर प्रकाशित की।
3 प्रथमाति । श्री बांगना मन्चन ( कीमत ) आ. २०७०
( सकडा २१) रु०
Printed. P. Builunil
With Pri.
Simmat the
all.
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श्रीर
वेद
* बन्देशिमबरम् *
आर्यमत लीला। [क-भाग
गलियों का काम है सभ्य विद्वानों सत्यार्थ प्रकाश का नहीं। भला जो परमेश्वर का नि
यम है उसको कोई तोड़ सकता है? जो परमेश्वर भी नियम को उलटा
पुजटा करे तो उस की श्राज्ञा को | स्वामी दयानन्द सरस्वतीने सत्या
कोई न मागे और वह भी सर्वज्ञ चे प्रकाश नामक पुस्तक के तेरहवें
और निर्धम है। ऐसे तो जिस २ समुन्नाम में ईमाई मत खंडन करते
कमारिका के गर्भ रह जाय तब सब हुवे ईसाई मत की पुस्तक मती र
कोई ऐसे कह सकते हैं कि इममें गर्भ . चित पुस्तक का लेख इस प्रकार
का रहना ईश्वर की ओर से है और | दिया है:
झूठ मूठ कह दे कि परमेश्वर के इतने "यीशुखीष्ट का जन्म इम रीति से मुझको स्वप्न में कह दिया है कि यह
कि उसकी माता मरियम की गर्म परमात्माकी भोरसे है-जैसा यह | | यूसफ मे मंगनी हुई थी पर उनके इ. असम्भव प्रपंच रचा है वैसा ही मूर्य कर्ट होनेके पहिल ही वह देख पडी ।
से कुंती का गर्भवती होना भी पुराकि पवित्र शात्मा से गर्भवती है। णोंमें असंभव लिखा है-ऐमी २ बातों देखो परमेश्वर के एक दूतने स्वप्न में | को प्रांख के अंधे गांठ के पूरे होग उसे दर्शन दे कहा-हे दाऊद के स- मान कर भमजाल में गिरते हैंन्तान यूमफ तू अपनी स्त्री मरियम इसही प्रकार स्वामी दयानंदजी को यहां लानेमे मत डर क्योंकि उस
आठवें समुल्लाम में लिखते हैं। को जो गर्भ रहा है सो पवित्र आत्मा “जसे कोई कहे कि मेरे माता पिता
न ये ऐसे ही मैं उत्पन्न हुवा हैं ऐसी नन्द मामकार लिख कर स्वामी दया- | असंभव वात पागल लोगों की है। दिया है:- इसका खंडन इम प्रकार | स्वामी जी महाराज दूसरे मतों के "इन बातों
| खंडन में तो ऐसा कह गये परंतु शोक ........ को कोई विद्वान नहीं | है कि स्वामीजी को अपने मवीन प्रमाण और मधिकि जो प्रत्यक्षादि | मत में भी ऐसी ही वरन इममे भी का मानन क्रमसे विरुद्ध हैं | अधिक असम्भव घातें लिखनी पडी
* मूर्ख मनुष्य जं. | हैं-स्वामीजी इसही सरह भाठा स
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(२)
आर्यमतलीला।
मुस्लाम में लिखते हैं कि परमेश्वर | हने के इस पौराणिक कथन को तो ने सृष्टि की आदि में सैकड़ों और | असम्भव लिख दिया और ऐसी बाहजारों जवान मनाय पैदाफर दिये- | तों के मानने वालों को आंख के अंधे हंसी आती है स्वामी जी के इस लेख । बना दिया परन्तु इससे भी अधिक को पढ़कर और दया भाती है उन बिना माता पिता के और विना भोले मनष्यों की बुद्धिपर जो स्वामी | गर्भ के ही सैकडों और हजारों मन जी के मत को ग्रहण करते हैं क्योंकि | प्यों की उत्पत्ति के मिद्धान्त को स्वयं सृष्टि नियम और प्रत्यक्षादि प्रमाण अपने चेलों को सिखाया। आश्चर्य है से स्पष्ट सिद्ध होता है और स्वामी कि स्वामी जी ने अपने चेलों को जी स्वयं मानते हैं कि बिना माता जिन्हों ने स्वामीजी की ऐमी प्रमपिता मनष्य उत्पन्न नहीं होसक्ता / म्भव बातें मानली आंखका अंधा है। ईमाईयों ने इस सष्टि नियम को क्यों न कहा ? स्वामी जी अपने दिल प्राधा तोड़ा अर्थात् बिना पिता के में तो हंमते होंगे कि जगत् के लोम केवल माता से ही ईसामसीह की कैसे मुर्ख हैं कि उनको कैसी ही अपैदायश बयान की, जिस पर स्वामी सम्भव और पर्यापर विरोधकी बातें दयामन्द जी इतने क्रोधित हुवे कि मिखा दी जावें वह मध वातों को ऐसी बात मानने वालोंको मूर्ख और स्वीकार करने के वास्ते नय्यार हैं-- जंगली बताया परन्त आपने सष्टि के तमाशे की बात है कि मष्टि नियम के सम्पूर्ण विरुद्ध बिना माता | को आदि में बिना माता पिता के
और बिना पिता के सृष्टि की प्रादि | मैकड़ों जवान मनुष्य आपमे प्राप में सैकडों और हजारों मनप्यों के | पैदा होकर कदने लगे होंगे । जवान पैदा होने का सिद्धान्त स्थापित कर | पैदा होनेका कारण स्वामीजी ने यह दिया और किंचित् भी न मनाये लिखा है कि यदि वामक पैदा होते महीं मालूम यहां स्वामी जी प्रत्य- तो उनको दृध कौन पिनाता कौन क्षादि प्रमाणों को किम प्रकार भृम्न उनका पालन करता? कोंकि कोई गये और क्यों उनको अपनी बुद्धि माता तो उनकी थी ही नहीं परन्तु पर क्रोध न पाया और क्यों उन्हों स्वामी जी को यह रयान न पाया ने ऐमे वदों को झटा न टहराया कि जब उनकी उस तिबिना माता जिनमें ऐमे गपोहे निखे हुवे हैं। स्वा- के एक अमम्भव पति से हुई है तो मी जी ने कुन्ती को सूर्य से गर्भ र- । उनका पालन पोषण भी असम्भव
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मार्यमतलीला।
(३) रीतिसे होना या मुशकिल है? - । उपादान से ही बनाया । तो कृपा पांत् लिख देते कि बालक ही पैदा करके यह भी कह दीजिये कि ईश्वर हुवे थे और जवान होने तक बिना | ने मष्टि की आदि में पहले मिट्टी के खाने पीने के बढ़ते रहे थे उनको पुतले जवान मनुष्यों के आकार बमाता के दूध श्रादिक की कछ प्रा- नाये होंगे वा लकड़ी वा पत्थर वा वश्यकता नहीं थी
किसी अन्य धातुको मूर्ति पड़ी होंगी स्वामी जी ने यह भी मिखाया है | और फिर उन मूर्तियों के अवयवों कि जीव प्रकृति और ईश्वर यह तीन | को हट्टी चमड़ा मांस रुधिर प्रादिक बस्तु अनादि हैं इनको किसीने नहीं | के रूप में बदल दिया होगा ? परबनाया है और उन लोगों के खंडन न्तु यहां फिर आप को मुशकिल प. में जो उपादान कारण के बिदून ज-ईगी क्योंकि स्वामी जी यह भी लिगत् की उत्पत्ति मानते हैं स्वामी जी | खते हैं कि “जो स्वाभाविक नियम ने लिखा है कि यद्यपि ईश्वर सर्व अर्थात् जैमा अग्नि उष्णु जम्न शीतल शक्तिमान् है परन्त मर्व शक्तिमान् | और पृथिव्यादिक मब अष्टों को विका यह अर्थ नहीं है कि जो अमम्भव परीत गुण बाले ईश्वर भी नहीं कर बात को करमकै, कोई वस्तु बिना | सक्ता” तब ईश्वर ने उन पुतलों को उपादान के बनती हुई नहीं देखी कैमे परिवर्तन किया होगा। गरज जाती है कम हेतु उपादान का ब- स्वामी जी की एक असम्भव बात मा. नाना असम्भव है अर्थात् ईश्वर उ- | नकर आप हज़ार मुशकिलों में पष्ट पादान को नहीं बमा मक्ता है। प्रय जावेंगे और एक असम्भब बातके मिद्ध हम स्वामी जी के च नोंसे पूछते हैं कि करने के वास्ते हज़ार अमम्भन बात सृष्टि की प्रादिमें जब ईश्वर ने एक | मानकर भी पीछा नहीं छुटैगाअमम्भव कार्य कर दिया अर्थात बि- स्वामीजी ने ईमामसीह की उत्प. ना मा बाप के जवान मनुष्य कूदते ति के विषय में लिखा है कि यदि फांदते पैदा कर दिये तो क्या उनका | बिना पिता के ईसाममोह की नु. शरीर भी बिना उपादान के बना. त्पत्ति मानली जाधै तो बहुत मी दिया ? इम के उत्तर में स्वामी जी के / कमारियों को बहाना मिलगा कि इम मिद्धान्त को लेकर कि बिना उ. वह गर्भ रहने पर यह कह देवें कि पादान के कोई वस्तु नहीं बन सक्ती | यह गर्भ हम को ईश्वर से है हम कहै आपको यह ही कहना पड़ेगा कि } हते हैं कि यदि यह माना जावै कि
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(४)
प्रार्यमतलीला।
सृष्टि की प्रादि में ईश्वर ने माता | मानते हैं नहीं तो मत के घड़ने वा. पिता के बिदून मनुष्य उत्पन्न कर लों ने तो मन माना जो चाहा घ. दिये तो बहुत मी स्त्रियों को यह ह दिया हैमौका मिलेगा कि वह कुत्सित गर्भ स्वामीजी ईमाई मत को खंडमकरहने पर परदेश में चली जाया करें रते हुए ईसामसीहको उत्पत्ति बिना और बच्चा पैदा होने के पश्चात प्र- पिताके होने पर तो लिख गये कि मति क्रिया ममाप्त होने पर बालक "जो परमेश्वर भी नियम को उलटा को गोद में लेकर घर आजाया करें पनदा करे तो उस की प्राज्ञा को
ओर कहदिया करें कि परमेश्वर ने यह कोई न माने” परन्नु स्वयं नियमके बच्चा श्राप मे आप बमाकर हमारी विरुद्ध बिना माता और पिता के गोदी में देदिया इसके अतिरिक्त मनुष्यकी उत्पत्तिको स्थापित करते यह बड़ा भारी उपद्रव पैदा हो म- ममय स्वामीजी को विचार न हुआ क्ता है कि जो स्त्रियां अपना व्यभि- कि ऐसे नियम को तोड़ने वाले परचार छिपानेके वास्ते उत्पन्न हुवे या- मेश्वर के बाक्यों को जो बंद में निखे लक को बाहर जंगलमें फिंकवा देनी हैं कौन मानेगा? पर स्वामीजीने तो हैं और तुम बाना की सूचना होने जांच लिया था कि मंत्रारके मनष्यों पर पुनिम बही भारी तहकीकात क- की प्रकृति ही ऐमी है कि वह म रली है कि यह वाम्नक किमया है : मिटान्तोंको जांचते हैं और न ममस्वामी जी का सिद्धान्त मानने पर। झने और सीखने की कोशिश करते लिम को कोई भी तहकीकात की है वरन जिमकी दो चार छाह्यवाते जहरत न रहै और यह ही निग्न देना अपने मन न गती मानस हुई असही पाहा करेगा कि एक बालक बिना के पीछ ही लेते हैं और उमकी मब माबाप के ईश्वर का उत्पन्न किया बातों में हां हां' मिन्नानेको तैयार हुमा प्रमुक जंगल में मिला-डपही | हो जाते हैं -स्वामी जी ग्यारहवें समुन्ना प्रकार के और सैकड़ों उपद्रव उठ | म में स्नियने हैं "यह आर्यावर्त देश खड़े होंग। यह तो उमही समय तक एमा है जिसके सदृश भगोनमें दूसरा कशन है जब तक राजा और प्रजा कोई देश नहीं है इसी लिये इम गण इस प्रकार के असम्भव धार्मिक
भूमि का नाम सुवर्ण भूमि है क्योंकि मिटान्तों को अपने मामारिक और | यही सुवर्णादि रत्रोंको उत्पन्न करती पारिका का में समम्मच ही । इमी लिये मष्टि की प्रादिमें आर्य
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प्रार्यमसलीला।
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....
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स्वोग मी देश में भाकर बसे इस | की भादि में कुछ कालके पश्चात् तिलिये हम सृष्टि विषयमें कह पाये | व्वतसे सूधेसी देशमें आकर बसे घे-- हैं कि भार्य नाम उत्तम पुरुषोंका है जो आर्यावर्त देशमे भिन्न देश हैं वे
और प्रार्थों से भित्र मनुष्यों का नाम दस्यु देश और म्लेच्छ देश कहाते हैं।" दम्यु है जितने भूगोलमें देश हैं व हम खामीजीके चेलोंसे पूछते हैं कि सब इसी देश की प्रशंसा करते और
| पायर्यावर्त देशको ईश्वरने मन्त्र देशों प्राशा रखते हैं। पारस मणि पत्थर मे उत्तम बनाया परन्तु उम को सुना जाता है वह बात तो झूठ है | खानी छोड़ दिया और मनुष्यों को तिपरन्त आर्यावर्त देश ही सच्चा पा- | अब देश में उत्पन्न किया क्या यह अरस मणि है कि जिमको लोहे रुप
संगत बात नहीं है ? जब यह श्रादरिद्र विदेशी छूतेके माथ ही सुवर्ण
यावर्त देश मबसे उत्तम देश बनाया अर्थात् धनाढय हो जाते हैं."
था तो इसही में मनष्योंकी उत्पत्ति स्वामीजीने यह तो मब ठीक लिखा।
करता-म्वामीजीने जी यह लिखा है यह हिंदुस्तान देश ऐमा ही प्रशंस
कि मनप्यों को प्रथम तिब्बत देश में नीय है परन्तु प्राश्चर्यकी बात है कि
उत्पन्न किया उसका कारण यह मास्वामी जी अष्टम समुल्लासमें इम प्रकार लिखते हैं-" मनुष्यों को भादि
लूम होता है कि सर्कारी स्कूलों में जो
इतिहास की पुस्तक पढ़ाई जाती हैं में तिठबत देश में ही ईश्वरने पैदा किये-"
उनमें अंगरेज विद्वानोंने ऐमा लिखा '' पहल एक मनष्य जाति थी पश्चात्
था कि इस आर्यावर्त देशसे उत्तरकी अष्ठोंका नाम सायं और दुष्टोंका दस्यु नाम होनेसे आर्य और दस्यु दो नाम तरफ जो देश था वहांके रहने वाले हुए जब आर्य और दस्युनों में मदा लोग अन्य देशोंके मनष्यों की अपेक्षा लड़ाई बखेड़ा हुआ किया, जब बहुत
कछ बडिमान् हो गये थे पश समान उपद्रव होने लगा तब आर्य लोग मब वहशी नहीं रहते थे वरन प्राग जभूगोलमें उत्तम इस भूमिके स्वराड को | लामा अन्न पकाकर खाना और खेती जानकर यहीं आकर बसे इसीसे इस | करना सीख गये थे वह कह तो हिन्ददेशका नाम “प्रार्या बर्त” हुआ इसके स्तानमें आकर बसे और कुछ अन्य
पूर्व इस देशका नाम कोई भी नहीं | देशोंको चले गये-वामीजीके चेलों के ! था और न कोई आर्योंके पूर्व इस देश | हृदयमें स्कूल की किताबों में पढ़ी हुई ; में बमते थे क्योंकि आर्य लोग मष्ठि ' यह वात पूरी तरहसे समाई हुई थी
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. आर्यमललीला।
इम कारण स्वामी जीने अपने चेलों | आने से पहिले इस देश में भील संके हृदय में यह बात और भी दृढ़ क.. थाल प्रादिक जंगली मनष्य रहते थे रने के बास्ते ऐसा लिख दिया कि सृष्टि जिन को खेती करना मादिक नहीं को आदिमें मनुष्प प्रथम तिब्बत देश
प्रासाथा । जब आर्य लोग उत्तरकी में उत्पन्न कियेगये क्योंकि हिमालय
तरफसे प्रथम पंजाब देश में पाए तो से परै हिन्दुस्तान के उत्तर में तिव्यत उन्होंने इन भील मादिक बहशी लो। ही देश है-और यह कहकर अपने गोंसे युद्ध किया बहुतोंको मारदिया
चे नोंको ख ग करदिया कि जो लोग | और बाकी को दक्षिण की तरफ भगा तिव्यत से हिन्दुस्तानमें श्राकर बसे दिया और पंजाब देशमें बसगए फिर वह बिद्वान् और धर्मास्मा थे इम ही | इस ही प्रकार कुछ और भी आगे हेतु इम देशका नाम आर्यावर्त देश | बढ़े यह ही कारण है कि पंजाब और हुआ है
उमके समीपस्थ देश में भील आदिक अंगरेज इतिहासकारोंकी इतनी बात | वहशी जातियोंका नाम भी नहीं पातो स्वामी जी ने मान नी परन्तु यह
या जाता है और यह लोग प्रायः दबात न मानी कि तिशत से प्राय
क्षिणा ही में मिलते हैं इस कथन में लोग जिस प्रकार हिन्दुस्तानमें आये
उत्तरसे आने वाले मार्योंपर एक प्रइस ही प्रकार अन्य देशों में भी गए कार का दोष आता है कि उन्होंने बरन हिन्दुस्तान वासियों की बहाई हिन्दुस्तान के प्राचीन रहने वालों को करनेके वास्ते यह निषदिया कि अ- मारकर निकाल दिया और स्वयम् न्य सब देश दस्यु देश ही हैं अर्थात् इस देशमें बसगयेअन्य मब देशमें दम्य ही जाकर बसे ऐमा विचार कर स्वामी जीने यह और दस्युका अर्थ चोर डाकू प्रादिक ही लिखना उचित ममझा कि जब किया है यह कैसे पक्षपात की बात प्रार्य लोग तिठयतमे इस देशमें पाये है ?-इम प्रकार अपनी बड़ाई और मो उम ममय यह देश खाली या कोई अन्य पुरुषों की निन्दा करना अद्धि- नहीं रहता था बरणा तिब्धत देशके मानोंका काम नहीं हो सकता-परन्त दम्य लोगोंमे लडाईमें हार मानकर अपने चेनों को खश करने के वास्ते स्वा
और तङ्ग आकर यह आर्य लोग इस मीजीको सब कच करना पड़ा.
हिन्दम्तान में भाग यायचे और खाली अंगरेज इतिहासकारों ने यह भी । देश देखकर यहीं था बसे थे-स्वामी लिखा था कि भार्यों के हिन्दुस्तानमें । जीको यह भी प्रसिद्ध करना या कि
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श्रार्यमतलीला।
(७)
मनुष्य मात्रको जो जान प्राप्त हुप्रा | विषयको बार २ पढ़ते पढ़ते तवियत्त है वह वेदोंसे ही हुआ है बिना बंदों तकना जाती है और नाक में दम प्रा के किसी भनष्यको कोई ज्ञान नहीं जाता है और पढ़ते २ वेद ममाप्त नहीं हो सकता है और वेदोंको मृष्टिके प्रा- দ্ধি । কানা ফন্ধি ফল সন্ধান दि ही में ईश्वरने मनुष्यों को दिये इस | को हजारों बार कैसे कोई पढ़े और कारण यदि वह यह मानते कि प्रा. इम एक ही बातको हजारों बार प. पोके हिन्दुस्तान में आने से पहिले ढने में किस प्रकार कोई अपना चित्त भीम प्रादिक वहशी लोग रहते थे लगावे ? जिससे स्पष्ट विदित होता तो मष्टि के प्रादिमें ईश्वर का वेदोंका है कि हजारों कधियों ने एक ही विदेना अमिद्ध हो जाता इम कागा भी षय पर कबिता की है और इन क. स्वामीजीको यह कहना पड़ा कि ति बितानों का संग्रह होकर घेद नाम हो ठयतसे प्रार्योके मानेसे पहिले हि- गया है-यह सब बात तो हम प्रा. न्दुस्तानमें कोई नहीं रहता था-यह | गामी लेखों में स्वामीजीके ही अर्थोंबात तो हम आगे दिखावेंगे कि वे | से स्पष्ट मिद्ध करेंगे परन्तु इम सदोंसे कदाचित् भी मनुष्य को ज्ञान मय तो हमको यह ही विचार करप्राप्त नहीं हुप्रा क्योंकि स्वामीजीके ना है कि क्या सष्टिकी आदिमें मअर्थों के अनमार वद कोई उपदेश | नुष्य तिटबतमें पैदा हुए और तिब्बत : या ज्ञान की पुस्तक नहीं है बरा वह | से आनेसे पहिले हिन्दुस्तान में कोई गीतोंका संग्रह है और गीत भी प्रायः मनुष्य नहीं रहता था? हमको शोक है राजाकी प्रशंगामें हैं कि हे शस्त्रधारी कि म्वामीजी ने यह न बताया कि
राजा तू हमारी रक्षा कर, हमारे श- यह बात उनको कहांसे मालम हुई : ओंको बिनाश कर, उनको जानमे | कि सष्टिकी आदिमें सब मनुष्य तिमारहाल, उनके नगर ग्राम विध्वंस | वतमें पैदा किये गये थे। करदे, हम भी तेरे साथ संग्राम में लहें स्वामी जीने अपने चेलोंको खश कऔर तू हमको धन दे अन्न दे,-और रनेके वास्ते ऐसा लिख तो दिया प. तमाशा यह कि प्रायः सत्र गीत इस रन्तु उनको यह विचार न हुआ कि एक ही विषयके हैं-जो गीत निका- | भील आदिक जङ्गली जाति जो इस लो जो पसा खोल कर देखो उम में
समग्र हिन्दुस्तान में रहती हैं उनकी प्रायः यही विषय और यही मज- बाबत यदि कोई पूरूँगा कि कहांसे मूम मिलेगा यहां तक कि एक ही । आई तो क्या जवाब दिया जावेगा?
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(८)
मार्यमतलीला।
मार्यावतं देश जहां तिब्बतसे पाकर | गये-परन्तु यह तो बड़ी हेटी बात आर्योका बास करना स्वामीजीने - | होगई -स्वामी जी ने तो उत्तर से माने ताया है उसकी सीमा इस प्रकार ब- | वालों के शिरसे यह कलंक हटाने के
न की है कि, उत्तर में हिमालय, द- वास्ते कि उन्हों ने इस देश के प्राक्षिण में बिम्ध्याचल, पश्चिममें मरस्व- । चीन भील आदिक वहशी जातियों ती और पर्वमें अटक नदी- और इस को मारकर भगा दिया और उनका ही पर स्वामीजीने लिखा है कि आर्या देश छीन लिपा इतिहाम कारों के वर्त से भिन्न पर्व देशसे लेकर ईशान 3- बिरुद्ध यह मिद्धान्त बनाया था कि तर वायव्य, और पश्विम देशों में रहने हिन्दुस्तान में पहले कोई नहीं रहवालोंका नाम दस्य और म्लेच्छ तथा ता था बरण यह देश खाली था प. असुर है और नैर्मत दक्षिण तथा प्रा- रन्तु इस मिद्धान्तसे तो हमसे भी बग्नेय दिशाओं में आर्यावर्त देशसे भिन्न ढ़िया दोष लगगया अर्थात् यह मा. रहने वाले मनुष्यों का नाम राक्षम है।
नना पड़ा कि भील आदिक वहशी स्वामीजी लिखते हैं कि अब भी दे
जातियां जो हम समय हिन्दुस्तान खलो हबशी लोगोंका स्वरूप भयङ्कर
में मौजूद हैं वह यिद्वान् भार्याभों
| से ही बनी हैं। जमा राममोंका वर्णन किया है वैमा
- प्यारे प्रार्य ममाजियो ' पाप घबही दीख पड़ता है। हम स्वामीजीके
राये नहीं स्वामी जी स्वयम् लिखते चलोंसे पूछते हैं कि यह भील वारा
हैं कि सृष्टिको प्रादिमें प्रथम एकही क्षम घा वहशी लोग कहीम आकर | मनुष्य जाति थी पश्चात् तिब्बत ही बसे वा पहलेसे रहने हैं वा जो मा- |
देश में उन प्रादि मनुष्यों की संतान ये लोग यहां आये उन्होंमेंसे राक्षम
में जो २ मनुष्य श्रेष्ठ हुवा वह भाप वनगये? इमका उत्तर कुछ भी न बन कहनाने लगा और जो दुष्ट हुवा उपड़ेगा क्योंकि यह तो स्वामीजी ने सका दस्यु नाम पाटगया इस कारण कहीं कथन किया ही नहीं है कि द- हे प्रार्यममाजियो ! सब पायर्या अर्थात् स्य लोग भी हिन्दुस्तानमें आये और | श्रेष्ठ पुरुष अपने दष्ट भाइयों से हर इस बातका स्पष्ट निषेध ही किया है | कर हिन्दुस्तान में तो पागये परन्त | पहिले इस हिन्दुस्तानमें कोई वसता जो हिन्दस्तान में आये उनकी सं. था तब लाचार यह ही मानना पड़े | तान में भी बहुत से तो श्रेष्ट ही रगा कि प्राओं में से ही भीम्न प्रा. | हे होंगे और बहुत से तो दुष्ट हो दिक वहशी और भयङ्कर राक्षम बन गये होंगे क्योंकि यह नियम तो
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प्रार्यमतलीला ॥
गील के पार बजे उन की संतान में भी और दुए होते
|
है ही नहीं कि जैना पिता हो उसकी संतान भी वैसी ही हो। यदि ऐसा होगा तोष्टिक आदि में एक जाति के मनुष्य उत्पन्न किये थे तो फिर उनकी संतान श्रेष्ठ और दुष्ट दो प्रकार की क्यों हो जाती और वर्षा प्राश्रम भी जन्म पर ही रहना अर्थात् प्रास्मता का पुत्र ब्राह्मण और ही रहता स्वामीनी के कथनानुसार शूद्र मनुष्य की उच्चता वा कर्म पर न रहती परन्तु खामी जी तो पुकार पुकार कहते हैं कि का पुत्र का पुत्र होना है। इसक विश्रेष्ठ सनुष्य तिमेदिन्दु में शुद
नाके
कीर कोणी और
व
और दी इसमें दिवाना चाहिये कि की जीवन एकता जगत् मिथ्या आदिकवी और सादिक । उदयं का नित्र माया भर जाति भी हसत नहीं और श्री जैनियों के की के उस मत को स्वीकार ओ अर्थात् दृस्तु दुष्ट लोग दिल में | किया हो तो कुछ घच्छा है" रहने और हिन्दुसतान के निवार यांत सामीजी लिखते हैं कि यदि शंकराचार्य जी ने जय मतके खंडन करने के वाले झूठा मत स्थापन किया हो तो अच्छा किया अर्थात् दूसरे के मनको खंडन करने के वाहने स्वामी जी कूड़ा सत स्थापन कभी पसन्द करते हैं जिसमे स्पष्ट विदित होता है कि चाहे मूंठा
ये
रहेहोंगे अर्थात् उमविषयान और अन्य सर्व देव मी देशों में श्रेष्ठ और सर्वश्री दे दुष्ट मिट्ट हुबे | स्वामी जी के कथ नानुमार श्रेष्ठ लोग आते हैं और दुष्ट लोग दस्यु अर्थात् पृथ्वी को गर्व ही देशों में आये और दस्यु ब
में
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(c)
सते हैं और बसते रहे हैं देखिये स्वामी जी के मन घन्त कथन का क्या उलटासार निकल गया और कार्या भाइयोंका यह कहना ठीक न रहा कि हिन्दुस्तान के रहने वालों को चाहिये कि यह अपने आपको ना कहा करें क्योंकि उन्हों के रूपनांनुसार मय ही देश में सब ही देशाने दग्यु,
रेजीमें एक कहावत प्रसिद्ध है कि संग्राम में और इश्क में सब प्रकारके झूठ और धोके दवित होते हैं परंतु धर्मविषय में असत्य और मायाचार की कमी से उचित नहीं कहा है परन्तु हमको शक है कि स्वामीजी सत्यार्थ प्रकाश के ११ वे समुहास में गिरी है-
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(१७)
मार्यमतलीला ॥ मस मनुष्यों में प्रचलित करना पड़े, इसके और क्या प्रयोजन हो सकता है? परन्त जिम सरह होसके दूसरे की | कि यह दिखाया जावे कि वेदों की । बात को खखन करनी चाहिये - | भाषा इस समय ऐसी भाषा होगई है र्थात् अपना नाक कटै सो कटै कि उसके जो चाहो अर्थ लिखे जा परन्तु दूसरे का अपशगुन
सकते हैं इस हेतु यदि हमारे चेलों
को हमारे किये हुवे अर्थ अप्रिय हों करदेना ही उचित है इस से
तो सत्यार्थ प्रकाशकी तरह इन अधों पूर्ण रूप से सिद्ध होगया कि स्वामी को रद करके दूमरे अर्थ लिख दिये जी का कोई एक मत नहीं था बरण जावें देखिये स्वामी जी अग्वेद के प्रजिसमें उनके चेले खुशहों वही उनका | घम मंडल के छठे अध्यायके सूक्त ९१ मसचा यह ही कारण है कि प्रथम में पांचवीं ऋचाके दो अर्थ इस प्र- . बार सत्याचे प्रकाश पुस्तक सपने और | कार करते हैं। उनके चनोंके पास पहुंचने पर जब उनके प्रथम अर्थ-“हे समस्त संसारके उ- . चेले नाराज हुवे और उस सत्यार्थ प्र- | स्पन्न करने वा सब विद्याओंसे देनेकाश में लिखी बातें उनको स्वीकार | वाले परमेश्वर ! था पाठशाला प्रादि . न हई तब यह जानकर तुरंत ही | व्यवहारों के स्वामी विद्वान् शाप अस्वामी जी ने उस सत्यार्थप्रकाश को | विनाशी जो जगत् कारस या विद्य- . मंसूख कर दिया और दूसरी सत्यार्थ | मान कार्य जगत् है उमके पानने हार । प्रकाश नामक पुस्तक बनाकर प्रकाश | हैं और प्राप दुःख देने वाले दुष्टों के । करदी जिसमें उन सब बातों को र.
विनाश करने हारे मनके स्वामी विद्या दृ कर दिया जो उनके चेलों को प- के अध्यक्ष वा जिस कारण प्राप सन्द नहीं हुई थीं वरण उन प्रथम | अत्यन्त मुख करने वाले हैं वा ममस्त ' लेखों के विरुद्ध सिद्धान्त स्थापन कर | बुद्धि युक्त वा वुद्धि देने वाले हैं इसीसे ' दिये। इसके मिवाय वेदोंका अर्थ जो | आप सब विद्वानों के सेवने योग्य हैं : स्वामी जी ने किया है वह भी वि- दूसरा अर्थ-" सब श्रीषधियोंथाग- लकल मनमाना किया है और जहां गादाता सोम औषधि यह प्रौषधियों
जनसे हो मका है उन्होंने वेदके में उत्तम ठीक २ प करनेताले : अर्थों में वहही बातें भरदी हैं जो की पालना करने हारा है। और यह . उनके चेलों को पमन्द थीं-वरण शायद मोम मेघके समान दोषोंका नाशक रोइस खयाल से कि नहीं मालूम हमारे गोंके विनाश करनेके गणोंका प्रकाश , चनोंको कौन बात पसन्द हो कहीं २ दो | करनेवाला है वा जिस कारण यह सेवने . दो और तीन तीन प्रकार के अर्थ | योग्य वा उत्तम बुद्धिका हेतु है सीसे करके दिखला दिये हैं जिससे मिवाय | वह सब बिद्वानोंके सेक्नेके योग्य है।
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मार्यमतलीला ॥
इन तमाम बातों से यह ही विदित होता है कि स्वामीजीकी इच्छा और कोशिश अपने चेलों को खश करने ही की रही है वास्तविक सिद्धान्तसे उन को क मतलब नहीं रहा है । परन्तु इससे हमें क्या गरज स्वामीजीने जो मिट्टान्त लिखे हैं वह अपने मनसे सच समझ कर लिखे हों वा - पने चेलोंको बहकानेके वास्ते, इनको तो यह देखना है और जांच करनी है। कि उनके स्थापित किये हुए सिद्धान्त कहां तक पूर्वापर विरोधसे रहित और सत्य सिद्ध होते हैं और स्वामीजीके प्रकाश किये अके अमार बेदोंका
मजमून ईश्वरका वाक्य है वा राजाकी
ܡ
प्रशंमाके गीतोंका संग्रह। इस हो जांच में सबका उपकार है और सबको सख मतों की इस ही प्रकार जांच करनी चाहिये ।
॥ आर्यमत लीला ॥
( २ )
स्वामीजी ने यह बात तो लिखदी कि सृष्टि की आदि में सृष्टि नियम के बिरुद्ध ईश्वरने बिना मा वापके सकड़ों और हज़ारों मनुष्य उत्पन्न कर दिये परन्तु यह न बताया कि उन्होंने पैदा होकर किस प्रकार अपना पेट भरा और पेट भरमा उनको किसने सिखाया ? घर बनाना उनको किस तरह जाया और कब तक वह वे घर रहे ? कपड़ा उनको कब मिला और कहां से मिला और कब तक वह नंगे
( ११ )
रहे ? कपड़ा बनाना उन्होंने कहां से सीखा ? अनाज बोमा उनको किसने सिखाया ? इत्यादिक अन्य हज़ारों बस्तु बनानी उनको किस प्रकार आई और कब खाई ? ॥
इन प्रश्नों को पढ़कर हमारे विद्वान् भाई हम पर इंसेंगे क्योंकि पशुओं को पेट भरना कौन सिखाता है ? इस के अतिरिक्त बहुत से पक्षी बय्या घादिक श्रद्भुतर घोंसला बनाते हैं, मकड़ी सुन्दर जाला पूरती है और वत्तखका अंडा यदि मुर्गी के नीचे सेया जाकर बच्चा पैदा कराया जाये और वह बच्चा मुर्गी ही के साथ पाला जावे तौभी पानी को देखते हो स्वयस् तैरने लग जावेगा - यह तो पशुपक्षियों की परन्तु पशुपक्षियों में इतना प्रबल ज्ञान नहीं होता है कि वह अपनी जातिके अनुसार पशुज्ञान से अतिरिक्त कोई कार्य कर सकें घा
दशा
त्वय्या जैसा घोंसला बनाता है वैसा ही बनायेगा उसमें सबति नहीं कर सक्ता है परन्तु मनुष्य में पशु से विशेष ज्ञान इस ही बात से सिद्ध होता है कि वह संसार की अनेक बस्तुओं और उनके गुण और स्वभाव को देखकर अनुमान ज्ञान पैदा कर ता है और वस्तुओं के गुणों का प्र योग करता है इस अपनी ज्ञान शक्ति
के द्वारा श्राहिस्ता प्राहिस्ता मनुष्य बहुत उन्नति कर जाता है और करता रहता है - इस मनुष्य जाति को उन
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( १२ )
भार्यमतलीला। ति करने में एक यह भी सुबीता है , रफ घिनकी गाड कर और ऊपर भी | कि इस में बार्तालाप करने की शक्ति शाखाएं छानकर ऊपर पत्त छान दिये
है यदि प्रत्येक मनष्य एक एक बहुत जार्वती शीत और वषांसे बप नए हैं मोटी मोटी बात का भी अनुनान करें ऐका समझकर नही पत्थगेंके औदो हज़ार मनष्य एक दूमर से अपनी जार में शाखा काटता है और एक मातको कहकर पल ही में हमार२ वा खराज मा पर आना लेता है। बात मान लेते हैं और इन बातों की मी को किमी ममय लममें से ऐमा । गांद का नवीन ही बारीया बात } सकता है कि यदि ताक की पत्तों । पैदा कर लते हैं। इसके अतिरिक्त | में शरीर ढरंशः लावैलो गर्मी प्राधिकारी । आज कल भी वहशी मनध्य अफरीका प्रभास मिलता है इन प्रकार आदि देशों में मोजद हैं जो पश् के । न संपने का प्रचार हो जाता है। समान नंगे विचरते हैं और पश के ! पक्षियों के घोंगलों और सही ही समान उनका खाना पीना और जालों को देखकर किसी के पास में | रात दिन का व्यवहार है उनमें से पद पाता है कि याद क्षों की बहुत से स्थान के बहणियों ने बहन वनको प्रापुम में उलझा लिया जाये कुछ उमति मी करनी है और बहन यात् न लिया जाये तो अच्छा कुछ उन्नति करते जाते हैं और
मानने का प्रखर आय फिः कई ता को प्रात होते जाने में उनकी न- यह खजर, मन, कशास मानिक के न्नति के क्रम को दसकर विद्वान हु-बर रेशां को बनने गमाता है। तिहासकार में इन विषय में बहुत जान में प्रकार का सी घस्न लिी । वह लिखते हैं और फल पा होते हैं मयको खात २ कि किमी समय में जब उन में कोई । उनको यद भी ममम जाने भगती है। गरा ममझदार हाना है यह पत्थर के !
कि कौन दक्ष गणकारी है और कौन ! नोकदार वा धारदार टकहो की घर
। खान में दुखदाई-मार कारी होता ती के खोदने का मकसो प्राधिकरनको मारने का प्रीशार बनाने
है उसकी रक्षा करने लगते हैं शीर । ता है और आपके दना देखी मान्यभी दुखदाई को त्याग देत- जंगल में बांम सब लोग पत्थरों को समान में बने । के यो में प्रापका में रगड खाकर आग । लगते है-किमी ममय में किसी गहना माया करती है एम प्रागमे यह . धन की देशकर उस मे किली को बहशी लोग मदुल डरते हैं परन्तु
मा मान कालाई यदि हमी कानान्तर में किमी समय कोई इनके । की शामा मिली ग्यान पर पान-बाने की बस्तु यदि इस भाग में भन .
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आर्यमत्तलीला ॥
( १३ ) जाती है और जलती नहीं है और। भाईयो ! यद्यपि मनध्यकी उन्नति उसको इनमें से कोई खालेना है तो इस प्रकार हो मक्ती है और इस ही वह बहुत स्वाद मालम होती है और कारण किनी प्रश्न के करने की प्रावश्य तब यह बिधार होता है कि प्राग ता नहीं थी परन्तु हम इन प्रश्नांके को किमी प्रकार काब करना चाहिये करने पर इम कार या मजघर हुव है।
और इसे खाने के पदार्थ भन गिये | कि श्री स्वामी दयानन्द जोने अपने | · जाया करें । कालान्तर में कोई ज़रा चगों को सम प्रकार मनष्य की उन्नति ममझदार पा निर मनुष्य आग को होने के विपरीत शिशादी है-स्वामी
अपने ममीप भी ले पाता है और जी को वदों को ईश्वर का वाक्य और । लकडो में लगाकर उसको रक्षा करना प्राचीन मिल करने के वास्ते इनकी
है और उम में हाल कर खाने की वस्तु | उत्पति मष्टिकी श्रादि में वर्णन कर- | । भन लेता है। क्रम २ पत्थर की मिन्न | नी पड़ी और उस ममय इनके प्रगट ; वा परथर के गोले प्रादिक से खाने | करने की जरूरत को इस प्रकार जा: आदिककी बातुका चरा करना सी म्ब | हिर करना पड़ा कि मनुष्य बिना | आत हैं फिर जब कभी कहीं में उनकी निखाय कछ मीख ही नहीं भरता है। : लोहे प्रादिककी ग्यान मिल जाता है | स्यामीजी इम विषयमें इस प्रकार नि
तो सभको पत्थरों से छट पीटकर | खते हैं:। कोई बाजार बनानेते हैं इनही प्रका- "ब वरने प्रथम बंद रचे हैं उन । र सब काम अद्धि से निकालते चलेजात को पढ़ने के पश्चात् ग्रन्थ रचने की
है जब २ उनमें कोई विशेष बदि बाला माम रच किमी मनष्यको हो मक्की है। । पदा होता रहता है तब तब अधिक | उनके पढ़ने और ज्ञान बिना कोई . बात प्राप्त होजाती है यह एक मा- | भी मनुष्य विद्वान नहीं हो सकता । धारणा बात है कि म मनष्य एकमा जने इस ममय में किसी शास्त्रको पढ़के | अद्धिके नहीं होते हैं कभी २ कोई म- | किसी का उपदेश सुनके और मनष्यों नुष्य बहुन विशेष बुद्धि का भी पदा | के पास्पर व्यवहारोंको देखके ही मनु बोजाया करता है और उमसे बहुत प्यों को ज्ञान होना है । अन्यथा कभी का चमत्कार हो जाता है जैगा कि नहीं होता । जैसे किमी मनुष्यके बाभायो भाइयोंके कथनानमार स्वामी लकको जन्म से एकांतमें रखके उसकी दरानन्द मरस्वती जी एक अद्भुत अद्धि अन्न और जन युक्तिसे देवे, उसकेमाथ के मनष्य पैदाहुवे और अपने ज्ञान , भाषणादि व्यवहार लेशमात्र भी कोई के प्रकाश से मारे भारतके मनष्यों में | मनुष्य न करे कि जब तक उमका म- । उजियाला कर दिया।
| रण न हो तब तक उमको इमी प्र
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(१४)
मार्ममवलीला । कारसे रक्खे तो मनुष्य पनेका भी ज्ञान | सका जब तक कि उसे म्यूकोमन के नहीं हो मक्ता तथा जैसे बड़े बन में | बनाये हुए एंजिन की मरम्मत करने मनुष्योंको बिना उपदेशके यथार्थ ज्ञान | का अवसर न मिला।" नहीं होता है किन्त पशओं की भांति इसही प्रकार अन्य बहुत बातें क. उनकी प्रवृत्ति देखने में आती है वैसे | रके हमारे भार्या भाई वेदों की बही वेदोंके उपदेशके बिना भी सब | डाई यहां तक करना चाहते हैं कि मनुष्यों की प्रवृत्ति होजाती” दनिया भर में जो कछ भी किसी प्र
इस विषयमें श्रीबाबराम शर्मा एक कार की विद्या मोजद है वा जो कह प्रार्यासमाजी महाशय "भारतका प्रा- नवीन २ कल बनाई जाती हैं या चीन इतिहास' नामक पुस्तक में लि
मागे को बनाई जावेगीं उन सबका खते हैं किः
जान वेदों के ही द्वारा ममण्यों को “युरोपके अनेक विद्वानोंने यह सिद्ध हुआ है। सष्टि की धादि में जो कड करने की चेष्टाकी है कि ज्ञान और भी जान मनष्य को हो सकता है वह भाषा ईश्वर प्रदत्त नहीं है प्रत्युत म- | सब जान वेदों के द्वारा तिसत देशमें नुष्यों ने ही इन्हें बनाया है, परन्तु मनप्यों के पैदा करते ही ईश्वर ने देयुक्ति और प्रमाण शून्य होनेसे उनका दिया था और पृथिवी भर में मब यह कथन कदापि माननीय नहीं हो | देशों में तिपत से ही मनुष्य जाकर सकता।
बसे हैं । इस कारण उस ही घेदोक्त "प्रतएव सिद्ध है कि मनुष्पोंको अ- | जाम के द्वारा मन प्रकार की विद्या स्पन करते ही उस परमपिता परमा
| के कार्य करते हैं। यदि ईश्वर वेदोंके त्माने अपना मान भी प्रदान किया
द्वारा सर्व प्रकार का नाम न देता तो था जिसके द्वारा मनुष्य अपने भाव
मनुष्य जाति भी पशु ममानही रहती। एक दूसरे पर प्रगट कर ममें और | प्यारे पाठको ! यह हिन्दुस्तान किसृष्टि की समस्त बस्तुओं के गुणागुणों | मी समय में प्रत्यन्त उन्नति शिखर का अनुभव करके उसको धन्यवाद | को पहुंच चुका है और अनेक प्रकार देते हुए अपने जीवन को सुख और की विद्या इस हिन्दुस्तान में होपको शान्ति पूर्वक धितावें।
है कि जिसका एक अंश भी अभी तक "यदि अम्सबाटने पकती हुई खि- अंगरेज भादिक विद्वानोंको प्राप्त नहीं चड़ी के ऊपर सड़कते हुए ढकने का हुश्रा है परन्तु ऐमा ज्ञात होता है कारण भाप की शक्ति को अनुभव | कि जब इस हिन्दुस्तान के प्रभाग्य किया तो भाप के गुण जानने पर भी का उदय माया उस समयमें ही किमी वह स्टीम एंजिन तब तक नहीं बना । ऐसे मनुष्य ने जो स्वामी दयानन्द
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आर्यमतलीला।
( १५ ) जेपी बुद्धि रखलपा। हिन्दुस्तानियों। बिद्या और कारीगरी की बातों में को ऐमी शिक्षा दी कि मनग्य अपने अपना बिचार लगाना नहीं चाहते बिधार से पदार्थों के गणों का प्रयोग हैं, जब कि सब लोग निरुद्यमी और करके नवीन कार्य उत्पादन नहीं कर पालमी हो रहे हैं और एक कपड़ा सकता है। ऐसी शिक्षा के प्रचार का सीने की सुई तक के वास्ते विदेशियह प्रभाव हया कि विद्या की जो योंके आश्रित हो रहे हैं ऐसे नाजक उमति हिन्दुस्तान में हो रही थी | ममय में स्वामी जी की यह शिक्षा कि वह बन्द हो गई और जो विज्ञानको मनुष्य अपने विचार से कुछ भी वि. बातें पैदा करली थीं आहिस्ता २ उन
जान प्राप्त नहीं कर सकता है हिन्दुको भी भल गये क्योंकि विचार शक्ति | स्तानियों के वास्ते जहर का काम को काम में लाये बिन विज्ञान की देती है। यदि स्वामी जी के प्रोंक बासों का प्रचार रहमा असम्भव ही | अनुसार वेदों में पदार्थ विद्या और हो जाता है। यह भी मालूम होता | कारीगरी प्रादिक की प्रारम्भिक शिक्षा है कि समाग्य के उदयसे हिन्दुस्तान
भी होती तो भी ऐसी शिक्षा कुछ में नशेकी चीजके पोने का भी प्रचार विशेष हानि न करती परन्तु वदों में उस समय में बहुत हो गया था जिम तो कुछ भी नहीं है सिवाय प्रशंमा को सोम बहते थे । इस से रहा महा और स्तुति के गीतों के और वह भी जान बिलकल ही नष्ट होगया और | इस प्रकार कि एक २ विषय के एक इस देश के मनुष्य अत्यंत मूर्ख और ही मजमून के सैकड़ों गीत जिनको मालमी हो गये।
पढ़ता २ प्रादमी सकताजावे और यदि वेदों के अर्थ जो स्वामी जी ने बात एक भी प्राप्त न हो । खैर यह तो किये हैं वह टीक हैं तो इन अर्थोसे
हम आगामी दिखावेंगे कि वेदों में यह ही ज्ञाप्त होता है कि इस मूर्खता
क्या लिखा है ? परन्तु इस स्थानपर के समय में ही वेदों के गीत बनाये तो हम इतना ही कहना चाहते हैं गये क्योंकि स्वामी जी के अर्थों के | कि यदि कोई बालक जो ममष्यों से अनसार वेदों में सिवाय ग्रामीण म. | अलग रक्ता जावे । केवल एक वेदपाठी नयों के गीत के और कछ नहीं है। गुरु उसके पास रहै और उमको स्वामी है. वेदों में कुछ भी हो हमको तो | जीके अर्थ के अनुमार सबवेद पढ़ा देने शोक इस बात का है कि स्वामी जी | तो वह बालक इतना मी बिज्ञान प्राप्त इस वर्तमान समय में जब कि हिन्दु- न कर सकेगा कि छोटीसे छोटी कोई स्ताममें अविद्या अन्धकार फैला हुमा | वस्तु जो गांवके गंवार घनालेते हैं है जब कि हिन्दुस्तानी लोग पदार्थ | बनालेवे । गांवके बाढ़ी चर्खा यमालेते
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( १६ )
भार्यमतलीला। हैं गांव के जमाहे मोटा कपड़ा बुन , पानमें भी कोई ऐसा उपदेशक नरूपलेते हैं। गांव के ही घर चटाई और जाता जो हम बात की शिक्षा टोकरे घनानेते हैं गंवार लोग खेत दवा किसनय बिना दूसरे के मिखाबा लेते हैं परन्त वह बालक सर्व विये सपने विचारमे कुछ भी बिज्ञान द्वान तो क्या प्राप्त करेगा मानी ग. प्राप्त नहीं कर सका है तो जापान वार बालकों के बराबर भी जान र ! भी पंचाग प्रभागा ही रहता । पररखने वाला नहीं होगा । ऐमी दशामें
न्तु यह तो अभागा हिन्दुस्तान ही है हिन्दुस्तानियों को स्वामीजी का यह | जो स्वयम् निरुद्यमी हो रहा है और उपदेश कि विचार और सरुवा क
निसनाही होने का इम ही को रने से कोई विज्ञान मनुष्य को प्राप्त
उपदेश भी मिलता है । हे प्यारे प्रार्य नहीं हो सका है बरगा जो ज्ञान
भाईयो ! जरा विचारकी आंखें खोलो प्राप्त होता है वह वदों से ही होता
और अपनी और अपने देशकी दशा है क्या यह प्रभाग हिन्दुस्तानियों के
" | पर ध्यान दो और उद्योगमें लगाकर साथ दुश्मनी करना नहीं है ?।। यदि मविज्ञान भी कुछ संमार में
| इस देश की उन्नति करो-हम प्रापको है वदों ही से प्राप्त होता है तो अब
धन्यवाद देते हैं कि श्राप परोपकार
स्वयम् भी करते हैं श्रीर अन्य मनुकि स्वामी दयानन्द मी ने वेदों का
ज्यों को भी परोपकारका उपदेश देते भाषा मे सरल अयं कार दिया है ह
हैं परन्तु कृपा कर ऐसा उपदेग मत मारे भायां भाई इन बदाका पढ़कर
दीगि जिम एनकी उम्नतिमें बाधा क्यों नाना प्रकार की एमी लान नहीं बनालेते हैं जो अंगरेजों और जापा
पड़े बरण मनुष्य जानकी शक्तिको
| प्रकट करो बिचार करना, बतु स्व. नियों को भी चकित कर हैं परन्तु मादी में जो चाहे प्रशंसा करदी गाव पर
भात्र योजना और बस्तु स्वभाव जा. स्वामी जी के बनाये वदोंके अर्थको प
नफर उनसे नवीन २ काम बनाना ढकर तो ग्वाट बनना वा मिट्टीके ब
मिखानी--बदों के भरोसे पर मत रहो तन बनाना प्रादिक बहुत छोटे २ उम में कल महीं रक्खा है। यदि इस काम भी नहीं मीखे जा सकते हैं । मा- वातका श्राप का यकीन न आवे तो पानियों ने आशयन घोड़े ही दिनों कृपाका एकबार स्वामीजीके अर्थ समें बड़ी भारी उन्नति कर ली है और | हित वेदाको पर जाइये तब भाप पर अनेक प्रकार की कान और प्रौगार | मघ कगाई घुस्न वावगी--दूरको ही प्रबनाकर अनेक अद्भुत और मस्ती शंसा पर मत रहो कल जांच पड़ताल बस्तु बनाने लगे हैं परन्तु यदि ला- | से भी काम लो-फारमी और उर्दू के
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श्रार्यमतलीला ॥
( ११ )
शांत कविताओं की बात । वासजीन जीत किये
है उससे माहोला है कि जोगीन प्रधानपुरुषको व
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कृष्ण
तो यह बात प्रनिदु थी कि वह पनी कविताएं में असंभव राय दर दिया करते हैं जैसा कि एक उर्दू क विने लिखा है--नातवानीच बचाया कोहि में ही फिरती कुत्रा थी मैं न था "धांत प्रीतम की जुदाई में में ऐसा दुखा और शरीर हो गया कि मृत्यु को मा रने के वास्ते आई परन्तु अपने शरीर होने के कारा में मृत्यु ही न पड़ा और मृत्यु दगया। प्यारे पाठको ! विचार कीजिये कविने केसी गप्प मारी है शरीर इतना भी कृष हो सकता है कि मृत्युको भीड़ष्टिगोचर न हो-- हम
हाई का उन से दान के वास्ते ओट से थे वा भी गीत भंग धतूरा अदिक कोई नकी वस्तु पनि स मनोम कहते थे उम ममय कलांग गाते थे वा श्रमिमें होम करके मगध गाये जाते थे वा जा गीत ग्रामीण लोग बड़ाई झगड़े के ममयलडाई की उत्तेजना देने और शत्रुओं की मारनेके बास्ने कसने के वास्ते गाथेवा और प्रकारके गीत जो माधारा मनुष्य गाया करते थे उनका मंग्रह होकर वेद बने हैं - इमी का
कृष
दृष्टि
क
एकएक विषयके सेकड़ों गोल बेद में मौजूद हैं- यहां तक कि एक विष
वियोंकी
तो
परन्तु स्वामीजी ने हमसे भी बढ़िया उड़ाई है कि प्रकारका विज्ञान म नुष्य की बदों से ही होता है२२ विज्ञान की बाजी अमरीका और जापान आदि देश के विद्वानों को मानम वेदोंमें कहां हैं? परन्तु यदि गोटी शिक्षा भी वेदों में मिलती जी सृष्टि की प्रादिमें विना मा बाप उत्पन हुए मनुष्य श्री बनने के वा मनुष्य जरूरी है, तो भी यह ग्रहण किपरे प्रकार उचित हो जाता कि यकी सर्व शिक्षायें वेदोंदी में प्राप्त हुई हैं परन्तु षदों में तो हमारी भी शिक्षा नहीं है वरन बंद शिक्षास्तु
गीता में विषय भी वह ही दृष्टान्त भी बद ही और बहुतसे गीत शब्द भी वही है । आज कल धार्मिक मगाचार पत्रों में स्वदेशी के प्रचारके वास्ते अनेक कविता पती हैं और गजाचार पत्रों से अलग भी स्वदेशी मार पर अनेक कवितायें बनाई जातीं हैं यदि इन सब कविताओंको संग्रह करके एक पस्तक बनाई जाने तो सर्व पुस्तक गीतो कड़ों और हजारों होकर बहुत मोटी पुस्तक बन जावेगी परन्तु विषय मारी पुस्तक में इतना ही निकलेगा कि अन्यदेशकी देशका धन विदेशको
नहीं है - वेद तो गोलका संग्रह है ओर जाता है और यह देश निर्धन होता
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(१८)
पार्यमतलीला ॥ जाता है इस कारण देशकी ही बस्तु | ऐमा न करके और शेखों में आकर अ. लेनी चाहिये चाहे वह अधिक मूल्य पने चेलोंको बहकानेके वास्ते इस बात को मिले और विदेशी के मुकाबले में के निद्ध करने की कोशिश की कि उस सादर भी न हो । यही दशा वेदों मगध में रेल भी चलती थी और समुके गीतोंकी है। हमको कार्य है कि में जहाज भी जारी थे जिनमें ऐंजिन इस प्रकार के पुम्न सकी बाबत खामी | जड़ते थे और भागके जोरसे विमान जीने किस प्रकार लिया दिया कि वह भी आकाशमें उछते थे । वाह स्वामी ईश्वर थाक्य है और मनष्यों को भी जो बाह ! श्रापको शाबाश है आप ज्ञान प्राप्त हुआ है वह इन ही के ! क्या भिद्ध करना चाहते ध और उस द्वारा हुआ है ? क्या स्वामीजी यह को भिद्धि में कह गये यह बात जो अजानते थे कि कोई इनको पढ़कर नहीं। पनी ही बातको खण्डन करेंदेखगा और दूरको ही प्रशंसासे श्रद्धा- इस लेख में द ग यह मिद्ध करना नहीं न ले आयेगा।
चाहते हैं कि स्वामीजनिकिमी प्रकार परन्तु हमारा प्रापर्य दूर हो जाता घेदोंका अर्थ बदल कर उममें रेन मेंहै जब हम देखते हैं कि स्वामी जी जिन जहाज और बिमान आदि का सारी ही बातें उन्नाटी पुलटी और ब. | वर्णन दिखाया है क्योंकि हमको तो सिर पैरकी करते हैं । देखिये स्वामी इस सारे लेखमें यही मिद्ध करना लीको यह मिद्ध करना था कि सष्टि | है कि स्वामीजी के प्रों के मनमार भी की आदि में ईश्वरने उन मनुष्यों को | वेदोसे शिक्षा मिलती है और वेद दोंके द्वारा ज्ञान दिया जो बिना मा ईश्वरका वाक्य मिद्ध होते हैं या नहीं बापके सत्पन्न किये गये थे। श्राज कन्न | मीर बस मस्टिकी श्रादिमें दिये गये जो बामक पैदा होता है वह पैदा होने वा नहीं ? हम जो कुछ लेख लिखरहे पर मकान-दुकान बाजार-खाट पीढ़ा हैं वह स्वामीजी के प्रोंको मत्य मान बरतन-मन्त्र और अनेक बस्तु और मल कर ही लिख रहे हैं और स्वामी जी के नप्यों के अनेक प्रकार के काम देयता है। प्रोंके अननार मर्ब बातें मिल करगेपरन्तु यह मनध्य जो विना मा बाप iऋग्वंदा प्रथग माउनको पक्त ४६ की के पैदा हुए होंगे वह तो विल्कल
क्रमशः ऋचा ३---८ के अर्थ में इस ऐसी ही दशामें होंगे जमा कि जंगल प्रकार लिखा हैमें पशु, इस कारण स्वामी जी को घा- "हे कारीगरी जो वृद्धावस्यामें वर्तमान दिये था कि एमे मनप्य को जिन जिन | घले विद्वान् तुम शिरूप विद्या पढ़ने वातोंकी शिक्षा की जरूरत होती है वह | पढान वालोंको विद्याप्रोंका उपदेश पाते वदोंमें दिख नाते परन्तु उन्होंने करो तो प्राप लोगोंका बनाया हुआ
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भार्यमतलीला ॥
(१८)
| रथ अर्थात् बिमानादि मवारी पति- हैं जब कि मनष्य विमान और जहायोंके तुल्य अन्तरिक्ष में ऊपर घस्ने ” ! ज बनाना जानते थे और ऐसे महान् " हे व्यवहार करने वाले कारीगरो ! विद्वान् हो गये थे कि केवल इतनी जो श्राप मनुष्योंकी नौकामे पार जाने घातका उपदेश देने पर कि लहाण में के लिये हमारे लिये विमान आदि भाग पानी और बिजली और लोहा पान समूहोंको युक्त कर चलाइये” । लगानी वह दुखानी जहाज बनाम-- "हे कारीगरो ! जो आप लोगोंका
| स्वामीजीने रेल जहाज़ तार बरकी यानममह अर्थात् अनेक विधि समा- बिनान आदि का चस्मना अनि जन री हैं उनको समुद्रों के तराने वाले में और बिजली प्रादिकसे सुन लिया था यान रोकने और बहुत अन्नके घाह इम कारण इतने ही शब्द वह वेदोंके ग्रहणार्थ लोहे का साधन प्रकाशमान अर्थों में ला सके परन्तु शोक इम बाबिजली अग्न्यादि और जालादि को तका रहगया कि कस्नों की विद्याको श्राप युक्त कीजिय--"
स्वामी जी कुल भी नहीं जानते थे यहां इम भूक्तसे विदित होता है कि जिम तक कि उनको यह भी मालूम नहीं समय यह मुक्त बनाया उन समय प्रा- था कि किस २ कल में क्या २ पर्जे हैं काशमें चलने वाले विमान और स-और उन के क्या २ नाम हैं ? नहीं मुद्र में चलने वाले महागके बनाने वाले | तो कछ न कुछ कस्न पनों का निमौजद थे । परन्तु ऐसे विद्वान् का- | कर भी बंदों
| कर भी वेदों में जरूर मिलता और रीगर अर्थात् बड़े इन्जिनियर किप्त | उप ममप शायद कुछ मिलसिला भी महान् कालिजमें कलों । विद्या को ठीकटमाता परन्तु प्रव्य तो रेलतार पढ़े यह मालूम नहीं होता है। हम
और विमान प्रादिकका ज़िकर पाने सूक्तका यह मन पढन्त प्रधं तो कर मे उनका माग कथन ही मंठा हो दिया परन्तु स्वामी माने यह न बि- | गया और वेद ही ईश्वर के वाक्य न रहे चारी कि हममे हमारा मारा होक- स्वामी जी ने प्राग और पानी मे थन अमत्य होजावेगा क्योंकि आबकि ! सवारी चन्नाने अर्थात् रेस्न बनाने का वंदों में करलोके बनाने की विद्या नहीं वर्णन और भी कई यार वेदों में दिबताई गई है और न विमान और खाया है परंतु उपरीक्त हाब्दों के सिवाय जहान के कल पर्जे वताये गये हैं तो और विशेष बात नहीं लिख मके हैंयह सहज ही में सिद्ध हो जावेगा कि ऋग्वेदके प्रथम मण्डल के ८७ मतकी यह सब विद्या मनुष्योंने विना वदों, ऋचा २ के अर्थ में यह लिखते हैंके ही सीखी और वेद सप्टिको प्रादि | "जो तुम्हारे रथ मे के समान अमें नहीं बने बरन वेद उस समय बने | काशमें घनते हैं उन में मघर और |
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छिडको,
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आर्यमतलीला ॥ निर्मल जल को अच्छे प्रकार उपमित्त । आदिमें नहीं बने। वेशक वेदोंका इस करी अर्थात् उन रथों के भाग श्रीर | प्रकारका अर्थ इस बातको सिद्ध करने पवनके कल घरोंके समीप प्रज्छे प्रकार के वास्ते काम में आ सकता है कि
हिन्दुस्तान में भी किसी ममय में मई सक्त ८८ की ०२ के अर्थमें लिख
प्रकार की विद्या थी और रेल और
जहाज आदिक जारी थे परन्तु स्वामी _ “जैसे कारीगरीको जामने वाले
जी तो यह कहते हैं कि वेदों में सर्व विद्वान् लोग उत्तम व्यबहार के लिये
प्रकार के विज्ञान की शिक्षा है जो अच्छे प्रकार अनिके तापसे लाल वा
मष्टि की आदि में ईश्वर ने उन मनअग्नि और जलके संयोगकी उठी हुई
प्यों को दी थी जो गिना मा बापक भाफोंसे कुछ क श्वेत जोकि विमान
पैदा हुये थे और जिम्हों ने मकाम मादि रथोंको चन्नाने वाले अर्थात् अतिशीघ्र उनको पहुंचाने के कारण
बस्त्र बर्तन प्रादिक भी कोई धम्तु न
हीं देखी बरन उनकी दशा विनम्न भाग और पानी की कस्लोंके घररूपी
ऐमी थी जेभी जली जानबरों की घोडे हैं उनके साथ विमान प्रादि । हम करती है। रथकी बजके तुल्य पहियोंकी धारमे स्वामी जी ने और भी कई मकों प्रशसित बनने अन्तरिक्ष वायुको का- में इम का वर्णन मि.या है। टने और उत्तेजना रखने वाले शूरना
| ऋग्वंद प्रथम मंडन सूक्त १०० ऋ०१६
| के अर्थ में वह सप्रकार लिखते हैं:-- धीरता बुद्धिमत्ता आदि गुणोंमे अद्ध
! "जिमका प्रकाश ही निवाम है वह त मनप्य के ममान मार्गको हनन करते और देश देशान्तरको जाते आते
नीच म्नान ऊपर से काली अग्नि की हैं ये उत्तम सुखको चारो ओरमे प्राप्त
ज्याला नोह की अच्छी २ बनी हुई होते हैं वैमेम भी इसको करके श्रा
कलाओं में प्रयुक्त की गई वंग वाले नन्दित होवें-"
विमान आदि याम ममूह को धारणा इम अर्थ के पढ़नेसे मालम होता है। करती हुई प्रानन्द की देने वागी मकि स्वामीशी को अंगरेजों के रेल जहान नुष्यों के इन मन्तानों के निमिम धन विमान प्रादिकका वर्णन सुनकर उ- की प्राप्ति के लिये वर्तमान है उमको तेजना होती थी कि हम भी ऐमी हो | जो अच्छे प्रकार माने वह धनी होता है।" कने बनाव। यही भाव स्वामीजी इस अर्थ मे यह मालूम होता है कि का घेदोंका अर्ध करते हुये वेदों में जिनको यह उपदेश दिया गया है वह आगया । पाल शोक है कि इमभे कम बनाना तो जानते थे परन्तु उस यह स्पष्ट मिद्ध होगया कि येद नष्ट की । अग्नी को नहीं जानते थे जो ऊपर से
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बनावे"
मार्यमनलीला ॥ काली और नीचे से जान होती है।। इममे भी मिद होता है कि इम मत परन्त इतनाही इशारा वारने पर रेल के बनने से पहले बिमान और नाव और जहाज बनाना मीख गये। काम में लाये आते थे परन्तु वेदों में
सूक्त १११ के अर्थ में एमा प्राशय मी कहीं इनके बनाने की तरकीब नहीं। लिखा है । “अग्नि और जनसे मना मिलती है।
इमही प्रकार मक्त ११८ के अर्थों में | ___ “हे शिल्प कारियो हमारे लिये ऐमा आशय प्रगट किया हैविमान आदिक बना”
__ "बिमान मे नीचे उनरी” बिमान इसमे नो स्पष्ट मिद्ध होगया कि प-जिनमें ऊपर नीचं पीर बीच में तीन इल मे कारीगर लोग बिमान बनाना बन्धन हैं और बाज पखरू की ममान जानते थे । वदों में कहीं बिमान ब- जिसका रूप है वह तुमको देश देशानाने की तरकीब लिखी मो गई ही न्तर को पहुंचाते हैं। नहीं है इम हेतु वेद कदाचित भी सष्टि जो माहब ! इम में तो बिमान ब. की प्रादि में नहीं हो मकते हैं बरण नाने की तरकीब स्निग्न दी और हमारे उम ममय के पश्चात बने हैं जब कि माया भाई इमसे बिमान बनाना बिमान प्रादिक बनाना जान गये थे। मीख भी गये होंगे हमके अतिरिक्त
और यदि कुल बंद उम ममय में नहीं और भी कहीं २ हम ही प्रकार ऐंजन बना है तो यह मक्त ती अवश्य ऐसेही बनाना मिखाया गया है। दखिये नीचे समय का बना हुआ है।
लिखे मूक्त में जब यह यता दिया कि इस ही प्रकार उक्त प्रथम मंडन के अग्नित्नान २ होती है और रथके प्रसक्त ११६ की ऋचा १ ली और तीस- | गल भागमें उभको लगानी चाहिये तब री के अर्थ में लिखा है:
रेलगाड़ी चलाना सिखाने में क्या क“हे मनुष्यो जैसे सरुच पुण्यात्मा शि- मर छोड़दी। रूपी अर्थात् कारीगरों ने छोड़े हुबंधि- ऋग्वंद के पांचवें मंडल के सक्त ५६ मान प्रादि रथ मे जो स्त्री के समान की छठी ऋचाका अर्थ इस प्रकार पदार्थों को निरन्तर एक देश मे दृमरे ! लिखा हैदेशको पहुंचाते हैं वैसे अच्छा यत्न क- "हे बिद्वान् कारीगरो ! आप लोग रता हुआ मैं मार्ग वैसे एक देश को | बाहन में रक्त गुगों से विशिष्ट घोष्ठिजाता हूं”
| योंके मदृश वास्नाओं को युक्त कीजिये "हे पवन "तुम शत्रों को मारने वा- रथों में लाल गुण वाले पदार्थों को ले सेनापति उन नावोंसे एक स्थान युक्त कीजिये और अग्रभाग में प्राप्त से दूसरे स्थान को पहुंचानो।” करने के लिये जाने वाले धारण और |
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(२२)
आर्यमनलीला ॥ आकर्षण को तथा अग्रभाग में स्था- | वह गीन उस टाजे में उमही प्रकार | नान्तर में प्राप्त होने के लिये अत्यन्त | गाये जाते हैं इत्यादिक बहुत प्रकार पहुंचाने वाले निश्चय अग्नि और पव- की अदन कलें हैं जिनमें आग पानी, नको यक कीजिये।"
माप, और निचोकी शक्ति नहीं लगरम कहां तक लिसें यदि स्वामी गाई जाती है दम प्रकार की हजारों जी के अर्थ ठीक हैं तो वेदों से कदा-कल हैं जिनका हम लोगों ने नाम भी जित यह मिद नहीं होता है कि बेद सुना है और इम ही कारण स्वामी जी सष्टि की शादिमें बिना मा पाप के -
3. के अर्थ किये हुवे बंई में भी उन का त्पन्न हुय जंगली मनुष्यों को मर्व प्र
नान नही मिलता है। मुजरा यदि कार का विज्ञान देनेके वास्ते देवा ने वेदों में किसी साल का नाम प्राने से प्रकाश वा इन घेदों से कुछ विज्ञान प्राप्त हो सकता है। हां यहां वेदों में
ही उन कल के बनाने की विद्या बंद ऐनी मंत्र शक्ति है कि रेलका नाम | पढ़ने वाले को प्राप्त हो जाती है तो लेने से रेल बनाना प्रागावे और
यह हजारों प्रकार की कलें जिनका जाहाज का नाम लेने में जहाज बनाना। वदों में नाम नहीं है कहां से बनगई आजाव तो सब कुछ ठीक है। परन्त और सब वेदपाठी पूरे इन्शिनिइम में भी बहुत मुश्किल पड़ेगी क्योंकि यर क्यों नहीं बन जाते हैं प्यारे कगों की विद्या के जानने वाले वि- भाइयो कितनी ही बातें बनाई जा द्वानों ने हजारों प्रकार की अद्भुत कलें परन्तु यह मानना ही पड़ेगा कि म बनाई हैं और नित्य नवीन कलें ब- | नुष्य अपने बुद्धिबिचार मे बस्तयों नाते जाते हैं और वेदों में रेल और के गुणों की परीक्षा करके उन बस्ततार और जहाज और बिमान की हीरों को उनके गण के अनमार काममें नाम स्वामी जी के अर्थों के अनुनार लाकर बहुन कश विज्ञान निकाल लेता मिलता है तब यह अनेक प्रकार की है और अनेक अद्भुत वस्तु बनालता कान कहां में बन गई ? समय देखने को है वेदों ही के अपारण से उतरनेकी घडी, कपड़ा मीने की चाखी, कुए में | आवश्यकता नहीं है। से पानी निकालने का पम्प, फोटोकी हमें आश्चर्य इन यात का है कि । तमनीर बनाने का केमरा भादिक ब-किस मुंह से स्वामीजी ने कह दिया हुन सी फलनो हिन्दुस्तानी सबही म- और उनके चनों ने मान लिया कि नष्यों ने देखी होंगी और फोनो ग्राफ | कुन विज्ञान जो मनुष्य प्राप्तकर मक्ता को बाजामी सुना होगा जिस में गाने है वह वेदों के ही द्वारा हो सकता वालों के गीत भर लिये जाते हैं और है और बिना वदों के कोई ज्ञाम नहीं
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आर्यमतलीला ॥
(२३)
हो सकता है क्योंकि संसार में अनेक | हम यहां नकल करते हैं। विद्या वर्तमान है किम किम विद्या स्वामी जी ने वेद की ऋचा लिख | 'मा बर्णन हमारे शार्थ भाई बंदी में कर उनका भाचार्य इम प्रकार लिखा है। दिखावेंगे। एक गणित विद्या मोही (एकाच मे.) पन मन्त्रों में वही ' देखिये कि यह कितनी बड़ी विद्या प्रयोजन है फिर भी जोर रेखा
है । साधारण गणित, बीजागा यात. रेखा भ६ म जो तीन प्रकार की गणित विद्या गांगत और तृमोगा गागात भादिक सताया है उनमें मे प्रथम अंक जो जिसकी बहुत शाखा है । इम विद्या संख्या है (१) मो दो बार गिनने मे बजारों महान् ग्रन्ध हैं जिनको पढ़-दी की बाचक होती है जैसे १+१=२ ते २ मनुष्य की आयु व्यतीत होजाय एसे ही एक के भाग एक तथा एक के और विद्या पढना वाकी रह जाय। ह-आगे दो वा दो के आगे एक आदि मारे पाठकों में से जो भाई मरकारी जोड़ने से भी समझ लेना, इसी प्रकार मदरसों में पढ़ चके हैं उन्हों उकलै | एक के माथ तीन जोड़ने से चार तथा दम ( Buchid ) और जबर मुकाबला तीन को तीन ३ के साथ जोड़ने से (६) ( Algebra ) पढ़ा होगा और उम ही अथवा तीन को तीन से गुणाने से ३४३ से उन्होंने जांच लिया होगा कि यह कैसा गहण बन है। परन्तु जो रेखा इमी प्रकार चार के साथ चार पांच गशित स्कूलों में पढ़ाई जाती है वह | के माथ पांच छः के माथ छः पाठ के तो बच्चों के वास्ते प्रारम्भिक बिद्या
माथ पाठ इत्यादि जोड़ने वा गुणने है इसमे अधिक यह विद्या कालिजो तथा मब मन्त्रों के आशय को फैलाने में बी. ए. और एम. ए. के विद्यार्थि- मे मब गणित विद्या निकलती है जैसे यों को पढ़ाई जाती है और उममे भी
पांच के माथ पांच (५५) वैसे ही पांच २ अधिक यह बिद्या एम. ए पाम करने |
छः २ (५५) (६६) इत्यादि जान लेना के पश्चात् वह पढ़ते हैं जो चांद भर्य चाहिये। ऐसे ही कुन मन्त्रों के अर्थो और तारों को और उन की चालको को आगे योजना करने से अंको मे प्र. जांचते और भापते हैं। यह गणित नक प्रकार की गणित विद्या मिद्ध होती विद्या इतनी भारी होने पर भी स्वामी है क्योंकि इन मन्त्रों के अर्थ और अदयानन्द सरस्वती जी इस गित विद्या | नेक प्रकार के प्रयोगों से मनुष्यों को को वेदों में हम प्रकार सिद्ध करते हैं। अनेक प्रकार की गणित विद्या अवश्य ऋग्वेदादि भाष्य भमिका में स्वामी जाननी चाहिये और जो कि वेदों का जी ने गणितविद्या विषय जिम प्र- अंग ज्योतिष शास्त्र कहाता है उसमें कार लिखा है उन सबके भाषार्थ की भी इसी प्रकार के मन्त्रों के अभिप्राय
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(२४)
आर्यमतलीला ॥ से गायात विद्या मिद्धकी है और अंकों क्या चीज है (निदानम् ) अर्थात् कारसे जो गणित विद्या निकलती है वह ण जिम में कार्य उत्पन्न होता है वह निश्चित और असंख्यात पदार्थों में नि- क्या चीज है ( प्राज्यं ) जगत में जानने युक्त होती है और अज्ञात पदार्थों की के योग्य मार भत क्या है ( परिधिः ) मरूया जानने के लिए जो बीजगणित परिधि किमको कहते हैं ( छन्दः ) स्वहोता है मो मो ( एकाच भे. ) इत्या- तंत्र वस्तु क्या है (प्र ३०) प्रयोग और दि मन्त्रों ही से मिद्ध होता है जसे शब्दों में स्तुति करने योग्य क्या है (अ+क) ( अ-क ) ( क ) इत्यादि इन मात प्रश्नों का उत्तर यथाबत दिया संकेत से निकलता है यह भी वदो ही जाता है ( यहे वा देव०) जिस को मन मे ऋषि मुनियों ने निकाला है और विद्वान् लोग पूजते हैं वही परमेश्वर इमी प्रकार से तीसरा भाग जो रेखा प्रमा आदि नाम वाला है इन मंत्रों गणित है मो भी वेदों ही मे मिद्ध में भी प्रमा और परिधि आदि शब्दों होता है (अना ) कुन मन्त्रके म. मे रेवा गगित साधने का उपदेश परकेतों से भी बीज गणित निकलता है। मात्मा ने किया है मो यह तीन प्र.
(इयवेदिः अभि प्र०) इन मन्त्रों में कार की गागात विद्या आर्यों ने वदो रेखागणित का प्रकाश किया है क्यों में ही मिद्ध की है और इमी प्रायवर्त कि वेदी की रचना में रेखागणित का देश में मर्वत्र भगोल में गई हैभी उपदेश है जैने तिकोन चौकोन मेन । वाह स्वामी जी वाह ! आपने खब पक्षी के प्राकार और गोल प्रादि जो सिद्ध कर दिया कि गणितकी मब विद्या वेदी का आकार किया जाता है मो मंमार भर में वदो से ही गई है-अब आर्यों ने रेखागणित ही का द्रष्टान्त जिनकी इम विषय में संदेहर है ममझना माना था क्यों कि ( परोसन्तः पृ० )
चाहिये कि वह गागात विद्या को ही पृथिवी का जो चारों ओर घरा है उन |
उन नहीं जानता है परन्तु स्वामी जी इन को परिधि और ऊपर मे जो अन्त तक को तो एक संदेह है कि गणित विद्य जो पृथिवी की रेखा है उमको व्याम के मिखाने के वास्ते आपके परमात्मा कहते हैं । इपी प्रकार मे इन मन्त्री उपरोक्त तीनचार मंत्र वेदों में क्यों लिखे में प्रादि, मध्य और अन्त आदि रे- मारी गणित विद्या के सीखनेके वास्ते खात्रों को भी जानना चाहिये इमी तो एक ही मंत्र बहुत था और आपके रीति मे तिर्यक बिपवत् रेखा श्रादि | कथनानुमार एक भी मंत्र की आवश्यभी निकलती है -॥३॥ ( काली अं०) | कता नहीं थी वरण एक और एक दो अर्थात् यथार्थ ज्ञान क्या है (प्रतिमा) | इतना ही शब्द कह देना बहुत था इम जिम पदार्थों का तोल किया जाय मी ही से सारी गणित विद्या प्राजाती
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भार्यमनलीला ॥
(२५) हमागी ममझ में तो जो लोग सी. ए. बापत बड़े २ महान् हज़ारों ग्रन्थ रऔर एम. ए. तक पचामों पक ग-च िदो जिनके द्वारा प्रतिवर्ष पंचांग णित विद्या की पढ़ते हैं और फिभी प्रार्थात मंत्री बनाते हैं कि अमुक दिन यह कहते हैं कि गनिजल विद्यामन अमुक ताका निकलेगा और अमुक दिन अभी कुछ नहीं सीखा उनकी वी भन्न अम्त होगा प्री प्रमुक दिन अमुक समय है उनको उपरोक्त यद तीन चार वेदले चान्द गर्यका ग्रहण होगा और इतना मंत्र सुननेने चाहिये बम इनाहीसे भागा । परन्तु आप नो यह ही कहेंगे गणितविद्या प्राकानी और परिपूण कि जबदाम चान्द और मर्यकानाम को जावेंगे इमही प्रकाः जो विद्यार्थी भागया ना मात्र जयोतिष विद्या वेदों स्कूल में अंक गणित (Arithmetic) में गति होगई और वेदों हीसे सर्व बीज गणित अर्थात् जबर मकाना मंसार में कम विद्याका प्रकाश हुमा । (Ayera ) और रेग्या गगन अर्थात् धन्य है हमार वार धन्य है ऐसे वदों उसले दम ( Eclil ) पर रात दिन को और स्वामी दयानन्दगी को। वर्षों टक्कर मारते हैं उनको शायद यह क्यों मरीजी संमारमें हजारों और खबर नहीं होगी कि बदाके तीन चार :
लारवा शौषधि है और इन श्रीधियों हो मंत्रों के सुनने मे मा गणिन विद्या।
कं गुणा के विचार पर अनेक महान् आजाती है यदि उनको यह खबर पुस्तक रचा हुई है और राग भी हजाहोजावै तो वेशक यह महान् परित्राम
रों प्रकार के हैं और उनके निदानके से बचनाव--और इन मंत्रों को देखकर इत् भी अनेक पुस्तके हैं परन्तु यह वशक मबको निश्चय और प्रदान रिया भी तो वदामे ही निकलीहोगी कर लेना चाहिये किमानयद्यपि वदों में किमी औषधिका नाम मर्ष विद्या वदों ही में है और वेदों और उसका गगा और एक भी बीमारी हो से अन्य देशों में गई है--मनष्यने
का नाम और उनका निदान वर्णन नहीं अपनी बुद्धि विचारमे कुछ नहीं किया किया गया है परन्त क्यों स्वामी जी क है-धन्य है ऐसे वेदको जिममें इस प्रहना तो यह ही चाहिये कि ओषधि कार मंमारका मर्व विज्ञान भगा या विद्या जितनी संसार में है वह मय वेदों है ! और धन्ग है स्वामीजी को मिन्द्रों में मौजद है और ऐमा कहने के वास्ते ने ऐमे बदोंका प्रकाश किया। तभी तो प्रथा है जिसका कुछ ज
क्यों स्वामीजी ! यद्यपि नागोंने चांदबाव ही नहीं हो सकता है अथात् जिस सूर्य और नागगणाझी विद्याको अ-प्रकार बंदों में एक और एक दो लिखा त् गणित ज्योतिषको बड़ा विम्नार दे । मानिने से मर्व गणित विद्या वदों रक्खा है और इनकी चाल जानने की में भिद्ध होती है इसही प्रकार वेदों
पोत
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| ( २६ )
प्रार्यमतलीला। में सोम पदार्थका नाम आने से जिम | का मनोर्थ मिट्ट करते हैं जो मच्चे प्र का अर्थ स्वामी जीने किमी किसी स्थान द्वान से इनको भक्ति और पजाकर तुमें औषधियों का समूह किया है मर्वही म्हारी श्रद्धा में कुछ फरक रहा होगा
वधियांका वरई न वदाने सिद्ध होगया जिममे कार्य मिद्ध नहीं हुआ । परन्तु और यह भी मिद होगा कि श्रीषधि हे प्रार्य भाइयो तुम बिद्यावान और की मब विद्या वेदोंसे ही मर्य संसार लिखे पढ़े होकर किम प्रकार एन स्वामी में फैली है?
जी को अर्थ के किये हुये वेदों पर श्रद्धा इमही प्रकार यद्यपि अन्य अनेक ले आये और यह कहने लगे कि संमारकी विद्याओं का नाम भी वेदों में नहीं | मर्च विद्या वेदों ही में भरी है तुम्हारी है जो संमार में प्रचम्मित हैं परन्तु वदों परीक्षा वास्ते तो कोई देवी देवता में ऐमा शब्द तो पाया है कि सर्व विद्या
नहीं हैं जिनकी परीक्षाके लिये प्रथम पढ़ो या सीखो फिर कौन मी विद्या
ही श्रद्धान लानेकी भत्रश्यक्ता हो वरह गई जो वेदों में नहीं है और कौन
| रण तहको तो बंदा प्रथात् पुस्तकके कदमका है कि वेदों की शिक्षा के दि.
मजमून की परीक्षा करनी है जिमकी दन कोई विद्या किमी मनायले अपनी परीक्षा के वास्ते महज उपाय जम पविचार बद्धिसे पैदा करनी : इम प्रजनम्तकका पढ़ना और उस पर विचार यक्ति से तो हम भी कायल हो गये- करना है फिर तुम क्या परीक्षा नहीं मार्य भाइयो ! हिन्दस्तान में अमे-करने हो जिनसे वदाको विल्कल बेस
को देवता पजे जाते हैं जिन को की प्रशंसा जैमी अब कर रहे हो न क बाबत स्वामी जी ने लिखा है और रनी पछु। बंदा में क्या विषय है ? यह भाप भी कहते हैं कि इम में अविद्या तो हम आग च नकर दिखावगे परन्तु अंधकार होजानेके कारण मूर्य लोगों यदि आप जरा भी परीक्षा करना चा को जिमने जिम प्रकार पाहा बद-हते हैं तो हम बदाक बनाने बालेका का लिया और पेटा) नागे। ने देवी ज्ञान आपको दिखाते हैं:देवता स्थापन करके और उनमें अनेक ऋग्वंदके पांचवें मंडलके सूक्त ४५ की गतियां वर्णन करके जगतके मनुष्यों मातवी ऋचाके अर्थ में स्वामी जी ने को अपने काम में कर लिया । एक तो इस प्रकार लिखा है: वह लोग मूख जो इम प्रकार वह- "जिम मे दम मंमारमें नवीन गमन काये में आये और दृमरे यदि कोई वाले दश वैत्र श्रादि महीने वर्तमान देवी देवता की शक्तिको परीक्षा कर- हैं" फिर इसही वक्त का ११ वी ऋचा ना चाहे तो पजारियों को यह कहने के अर्थ में पाप लिखने हैं:का मौका कि यह देयो देबना दी। "हे मन यो जिसमे नबीन गमनवाले
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प्रार्यनतलीला ||
( 29 )
दश महीने पार होते हैं इन बद्धि से | कारण जब हम उस देवी देवता का
•
हम लोग विद्वानों के रक्षक होवें और इस बुद्धिसे पाप वा पापसे उत्पन्न दुःख का अत्यन्त विनाश करें आपकी मुख!
ध्यान करते हैं तो वह हमको जो पूछते हैं, मो बतादेना है या कोई २ ऐसा कह देते हैं कि देवी वा देवता का विभाग करता है जिससे उन बुद्धि | हमारे सिर आता है और उस ममय जो कोई कुछ पूछे तो वह ठीक २बता देता है- भारतवर्ष के मूर्ख और भोले मनुष्य और विशेष कर कुपड़ स्त्रियें ऐसे लोगोंक बहकाये में छा जाती हैं और अपने बच्चों के रोगका कारण वा प्र
को प्राणों में मैं धारण करू"
!
इसके पढ़ने से स्पष्ट जात होता है कि वेदका बनाने बाला और विशेष कर हम सूक्त का बनाने वाला बर्षके दस ही महीने जानता था हमको पढ़
कर तो हमारे आर्या भाई बहुत चौंके । पते और कुटुम्बियों के किसी कष्ट का गे और बंदों को पढकर देखना आवश्य जरुरी नमझेंग – हम आगे चलकरवेदों | हेतु और उनका उपाय पूछते हैं जिस | की पूढा लेना कहते हैं और बहुत कुछ भेंट देते हैं और मेवा करते हैं श्री
से ही माफ तौर पर यह मिलकर दें वेंगे कि वे ऐसे ही विद्या अधकार समय में बने हैं और उनमें मती कर भंगी आदिक देवी देवताके भक्त मे वाले और गांव के गंवार मातृअटकनपच्च मन घड़न्त बातें बताकर लो गीतके नियाय और कुछ भी नहीं | उनको सूत्र उगते हैं-है । इम ममय तो इनको केवन यह दुनियां दिखाना है कि बंद ईश्वर वाक्य हो । के वास्ते जाते हैं जानते हैं कि यह सक्ते हैं या नहीं ।
जो उनसे पूछा पूकने
आर्य मत लीला |
भक्त लोग माधारथा और छोटे मनुष्यों में हैं और अपने नित्यके व्यवहार में ऐसे हो मुख हैं जैसे इनके अन्य भाई बन्धु और प्राचरजा भी इन के ऐसे ही हैं जैसे इनके अन्य भाई बन्दों. रखने वाले परन्तु उन पर श्रद्धा लोग कहते हैं कि हम को इनकी बुद्धि और श्रावसकी जांच तो नम्र करनी होती जब यह भक्त लोग यह कहते कि हमको इतना ज्ञान हो गया है कि गुप्त बात बतामकें-- पर यह तो ऐसा नहीं कहते हैं वह तो यह ही कहते हैं कि हम को तो कभी ज्ञान
( ३ )
भ्रातृगण हो ! अविद्या अन्धकार के कारण आाशकन इस भारतवर्ष में अनेक ऐसी प्रवृत्ति हो रही हैं जिनसे भीने ! मनुष्य ठगे जाकर बहुत दुख उठाते हैं दृष्टान्त रूप विचारिये कि भंगी, चमार, कहार और जुलाहा सादिक छोटी जातियों में कोई २ स्त्री पुरुष ऐसा क हदिया करते हैं कि इनकी किसी दे atar देवताका इष्ट है, वह हम पर प्रसन्न है, और हम उसके भक्त हैं इन
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( २८ )
आर्यमतलीला ॥ नहीं है, जो कल गप्त वार्ता हम बता- और अधम कार्य करने पड़ते हैं उम ते हैं वह तो हमारे इष्टदेवी देवनाका का हेतु एक यह ही है कि भारत के ज्ञान है अर्थात् वह देवी देवता इन लोगों के चितमें यह श्रद्धान घुमा हुआ अपने भक्तों के द्वारा गुप्त वार्ता बता है कि भत भविष्यात और बर्तमानका देता है-इस हेतु नाहे यह भक्त लोग इमान रखने वाली शक्ति किमी मनष्य से भी अधिक मूर्ख हों यहाँ तक कि के द्वारा अपना जान किसी विषय चाहे बह पागल और जंगली पशों में पकट कर सक्ती है। यदि यह श्रद्धाके समान अजान हों तो भी हम को न हमारे भाइयों के हृदय मेंसे हटजावे क्या वह गुप्त शक्ति अर्थात् देवी दे-तो भारतवर्ष में से यह सब अंधकार वता जो इनके द्वारा हमारी गप्त बात मिट जावे और इन भक्तों की कल भी बताते हैं उन को तो तीन काल का पूछ न रहे। क्योंकि फिर जो कोई गप्त | ज्ञान है-यह भक्त लोग तो हमसे वा-बार्ता बताने का दावा करै वह अपने | र्तालाप होनेके वास्ते एक निमित्त मात्र
ही जानके आश्रय पर करें और किसी के समान हैं-इम कारण हम को इन
गुप्त शक्ति के प्राश्रय पर कोई बात न भक्तोंको किमी प्रकार की परीक्षा लेने
हो सके और जब कोई यह कहे कि की प्रावश्यकता नहीं है-चाहे यह कैसे
मुझको इतना जान हो गया है कि मैं ही पापी और अधम हों और पाहगुप्त बात बता सक्ता हूं तो उनकी प. कैसे दी मूर्ख हों इमसे हमारे प्रयोजन
रीक्षा बहत मामानी मे हो मके क्यामें कुछ फ़रक नहीं पाता है--
कि अपने नित्यके व्यवहारमें भी उम प्यारे भाइपो ! यह मब अन्धकार को अपने आपको इतना ही ज्ञानवान जो भारतमें फैला हुआ है जिसके का- याना पड़े कि जिममे उनका तीन रगा हमारे भोले भाई और मोनी ब- काल को बातका जानना सिद्ध होता हने ठगी जाती हैं और जिनमे अनेक | हो अथात् फिर धोका न चल मके। अपवादा होते हैं--जिम के कारगा| प्यारे भाइयो ! मच पूछिये तो इस बच्चों के रोगों को श्रीवधि नहीं होती सिद्धान्त ने कि तीन काल की बात । है, योग्य वैद्यों और हकीमोंसे उनका जानने बाली गुप्त शक्ति अपने ज्ञानको इलाज नहीं दोना है, जिन के कारण किमी मनुष्य के द्वारा प्रकट कर सक्ती अनेक बच्चे नृत्यु को प्राप्त होने हैं- है, केवल यही अंधकार नहीं फैलाया है जिन के कारमा भनी की बनाई हुई बरण समार के सैकड़ों जितने मत म. बानोंमे घशेम गारी पानद और मर तांतर फैले हैं वह सब उस ही सिद्धाबडे दोष फैल जाते हैं. के कागान्त के महारे फल हैं, क्योंकि जब जब उनकी स्त्रियों का घर बनी कोई किमी नवीन मत का स्थापन क
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आर्यमतलीला ॥
( २९ )
रने वाला हुआ है उमने यही कहा है यह मिद्धान्त पैदा कहांसे हुया ! इम कि मैं अपने ज्ञान में कुछ नहीं कहता प्रश्न के उत्तर में प्यारे भाइयो आपको यह हूं वरण मुझको यह सब शिक्षा जिम ही कहना पड़ेगा कि वेदोंसे क्योंकि का मैं उपदेश करता हूं परभेश्वरमे प्राप्त । मब मत मतान्तरोंके स्थापित होनेसे
पहल वदो ही का प्रकाश होना बयान मुमलमानी मनके स्थापन करने वाले किया जाता है और वेदोंकी हो - मुहम्मद साहब की निम्ब। कहा जाता स्पत्तिमें यह मिद्धान्त स्थापित किया है कि वह बिना पढ़े लिख माधारण
जाता है कि परमेश्वरने सष्टिकी प्रादि बुद्धिके प्रादमी थे परन्तु उनके पास में हजारों मनप्यों को बिना मा बाप परमेश्वरका दूत परमेश्वरके वाक्य लाता के पैदा करने के पश्चात् उनमेंमे चार मथा जिसका संग्रह होकर फरान बना! नयाका जिनका नाम प्राग्न, वायु, प्राहै-- परमेश्वर के इन ही वाक्योंका उपदित्य तथा अंगिरा था एक एक वंद देश महम्मद माहव अश्य के लोगें।को का जान दिया और उन्होंने उम ई. दिया करते थे--ईसासमोह और इनमे श्वर के ज्ञान को मनुष्यों पर प्रकट करपहले जो पैगम्बर हुये हैं उनके पाम दिया-प्यारे भाइयो ! आप जमे बभी परमेश्वर की ही आज्ञा पाया करती । द्विमानों को जो भारतवर्षका अंधकार थी इम ही प्रकार अन्य मत मतांतरों का दूर करना चाहते हैं ऐमा सिद्धान्त मा. हाल है..दान में भी पंजाबदेश के कानना योग्य नहीं है वरन आपको हम दियान नगरमें एक मुमलमान महाशय
का निषेध करना चाहिये जिससे इस मौजद हैं जिनके पास परमेश्वरको प्रा- देश के बहुत उपद्रव दूर हो जावेंजा पाती है और इम ही कारगा भा
nी और सी कारण भा. डम स्थान पर हम वडे गौरखके माल गत वर्षके हजारों हिन्दू मुमनमान उन
यह प्रकट करते हैं कि यह केवलमात्र | पर श्रद्धा रखते हैं
जैनमत के ही तीर्थंकर हुए हैं प्यारे आर्य भाइयो ! उपर्युक्त लेखमे | जिन्होंने इम मिद्धान्तका प्राश्रय नहीं पापको पर्णतया विदित हो गया कि | लिया है जिन्होंने तप और ध्यान के यह सिद्धान्त कि तीन काम का ज्ञान | बन्न से अपनी अत्मास मोह आदिक मैल . रखने वाली शक्ति अपना ज्ञान किसी को धोकर आत्माकी निज शक्ति अर्थात मनष्यके द्वारा प्रकट कर सकती है, कैसा | पर्णज्ञानको प्राप्त किया है और अपने केव भयंकर और अंधकार फैलाने वाला है | ल ज्ञानके द्वारा चराचर सर्व बस्तनों को
और इसके कारण अनेक मत मतान्तर पूर्णरूप जानकर अपनी ही सर्वज्ञताका फैलानेसे संमार में कैमा उपद्रव मचा है नाम लेकर सत्यधर्भका प्रकाश किया ! परन्तु कृपाकर विचार कीजिये कि 'है-और किसी दूसरेके जानका प्राश्रय
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( ३० )
प्रार्यमतलीला |
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नहीं बताया है--अर्थात् उन्होंने मनु- हो सकती है । कृपाकर आप इस मि ष्योंको मौका दिया है कि वह उनकी द्वान्त को स्थापित करने में पहले स्वामी सर्वज्ञताकी सर्व प्रकार परीक्षा कर लेवें । जीके अर्थ किये हुये वेदों का पढ़ तो और तब उनके उपदेश पर श्रद्धा लावें | लहें और उन की ज़रा जांच तो कर अन्य भन स्थापन करने वालोंकी तलवें कि ऐसे गीत ईश्वर वाक्य हो भी रहमे उन्होंने यह नहीं कहा कि में जो मकते हैं या नहीं--प्यारे भाइयां ! जब कुछ कहता हूं वह ईश्वर के बाक्य हैं मैं आप जरा भी वेदों को देखेंगे तो आप स्वयम् कुछ नहीं जानता हूं इन कारण को मालन हो जावेगा कि बंदों में साधारण मांसारिक मनुष्यों के गीतों के सिवाय और कुछ भी नहीं है वेदों में धार्मिक और सिद्धान्तका कथन तो क्या मिलेगा इममें को माधारणा ऐमी भी शिक्षा नहीं मिलती है जैमी मनुस्मृति आदिक पुस्तक में मिलती है देखिय क्या निम्न लिखित वाक्य ईश्वर के हो सकते हैं ? ॥
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fararक्योंके मिवाय मेरी अन्य बातोंकी परीक्षा मत करो क्योंकि मैं तुम्हारे ही जैना भाधारण मनुष्य हूं-भाइयो! जैनधर्म में जो तस्वार्थ बर्णन किया गया है वह इन ही कारण बस्तु स्वभाबके अनुकूल है कि वहस वंश का कहा हुआ है--प्रात्मीक ज्ञान. फर्मों के ज्ञान, कर्मों के भेद उनकी उ त्यत्ति विनाश और फल देनेकी फिलासफी अर्थात सिद्धान्त हम ही हेतु जैन धर्ममें भारी विस्तार के माथ मि. लता है कि यह ज्ञान मर्वझकी ही हो सकता है न कि गुप्त शक्तिके ज्ञान पर आश्रय करने वाले फी-
ऋग्वेद
मातयां सूक्त २४ ऋषा २ • हे देनेवाले जी नाना प्रकारकी विद्या युक्तवाणी और सुन्दर
परमेश्वर्य देनेवाले पुरुषको निरन्तर बुलहान जिसकी ऐनी यह प्रिया स्त्री लाती है उनकी धारण करती है जि हे प्यारे आार्य भाइयो ! यह भयंकर | मे प्रयत् विद्या और पुरुषार्थसे बढ़मने तेरा मन ग्रहण किया तथा जो दो और अन्धकार फैजाने वाला मिद्धान्त फि, कोई ज्ञानवान गुप्त शक्ति अपना | औषधियोंका रम है [ मोमकी बावत् ता वह उत्पन्न किया हुआ ( सोम ) ज्ञान किती मनुष्यके द्वारा प्रकाश कर सकती है, यदि आपको मानना भी था तो किमी कार्यकारी वासके ऊपर माना होता परन्तु वेदों को ईश्वर के वा
मि करने वाले ऐसे सिद्धान्तका स्थापित करना तो ईश्वरको निन्दा करना है क्योंकि वेद ती गीतका सग्रह हैं वह शिक्षाकी पुस्तक कदाचित् नहीं
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हम आगे सिद्ध करेंगे कि यह भंग श्रादिक नशों की कोई बस्तु होती थी जि मके पीनेका उपदेश वेदों में बहुत मि लता है ] और जहां सब ओरसे सींचे हुये दाख वा शहत बादि पदार्थ हैं उन्हें मेबो--"
ऋग्वेद दूसरा मंडल मूक्त ३२ ऋमा ६-८ हे मोटी २ जंघाओं वाली ओ अ
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प्रार्थमलगोला ॥
( ३९ )
तिप्रेमसे विद्वानों की बहन है मो तू | वाले हम लोगों में शोभा भी हो-,,
ऋग्वेद प्रथम मंडनसूक्त ११० ४
मैंने जो सब ओरसे होना है उस देने योग्य द्रव्यको प्रीतिसे सेवन कर - "
6."
"वधर से वा उत्तर से वा कहीं से सब ओर से प्रसिद्ध वीर्य रोकने वा अव्यक्त शब्द करने वाले वृषभ आदि ! का काम मुझ को प्राप्त होता है अ
!
२
हे पुरुषो जैसे मैं जं । गुण सुङ्ग बोलें | या जो प्रेमास्पदको प्राप्त हुई जो पौ * मामीके समान वर्तमान अर्थात् जैसे चन्द्रमाको पूर्णकान्ति मे युक्त पौर्णमासी होती है वैमी पूर्ण कान्तिमती और जो विद्या तथा सुन्दर शिवा महित वाणी से युक्त वर्तमान है उन पर मैंश्वर्ययुक्तको रक्षा आदिके लिये बुला ता हूँ उन श्रेष्ठकी स्त्रीको मुखके लिये बुलाता हूं वैसे तुम भी अपनी स्त्री को बुलाओऋग्वेद प्रथम मंडल मूक्त १२३ ऋचा १०-१३ | हे कामना करने हारी कुमारी जो तूं शरीर से कन्या के समान वर्तमान व्यवहारों में अतिजी दिखाती हुई अत्यंत संग करते हुए विद्वान् पति की प्राप्त होती और सन्मुख अनेक प्रकार सद्गुणोंसे प्रकाशमान जवानीको प्राप्त हुमन्दमन्दमती हुई छाती आदि अंगों की प्रसिद्ध करती है मो तू प्रभात बेलाकी उपमाकी प्राप्त होती है-"
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|
प्यारे पाठको वेदों में कोई कथा नहीं है किमी एक स्त्री वा पुरुष का बगन नहीं है बग्ण अनेक पृथक् पृथक् गीत हैं तत्र किमी विशेष स्वीका कथन क्यों आया कथारूप पुस्तकों में तो इम प्रकार के कथन आने सम्भव हैं परन्तु ऐमी पुस्तक में जिसकी बावल यह कहा जाता है कि उस पुस्तक को ईश्वर ने सर्व मनुष्यों को ज्ञान और शिक्षा देने के वास्ते बनाया ऐसा कथन झाना - सम्भव ही है-- यदि हमारे भाई वेदों को पढ़कर इस प्रकार के कथनों की संगति मिला कर दिखा देवें तब वे शक हमारा यह ऐनगज हट जावे नहीं तो स्पष्ट विदित है कि जिस बात पर कविताई करते समय कवियों का ध्यान गया उम ही बात का गीत जोड़ दिया इस प्रकार बंदों के गीतों में कवियों ने अनेक कविताई की है । कविताओं के धनुषकी तारीफ में इसप्रकार गीत हैं:
"हे प्रातः समय की वेला मी अन बेली स्त्री तूं आज जैसे जन्नकी किरण को प्रभात समय की बेना स्वीकार करती वैसे मनसे प्यारे पतिको अनुकू लता से प्राप्त हुई हम लोगों में अच्छी २ बुद्धि कामको घर और उत्तम सुख देने वाली होती हुई हम लोगों को ठहरा जिससे प्रशंमित धन
:
उनके मदृश काम देव उत्पन्न होता है और धीरज से रहित वा लोप हो जाना लुकि जाना ही प्रतीत का चिन्ह है जिसका मो यह स्त्री वीर्यवान धीरज युक्त श्वास लेते हुए अर्थात् शयनादि दशा में निमग्न पुरुषको निरन्तर प्राप्त होती और उससे गमन भी करती है."
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( ३२ )
श्रार्यमतलोला ।
ऋग्वेद छटा मंडल सूक्त १५ ऋचा ३ | के समान पदार्थों का सेवन करती और "हे शूरवीर जो यह प्रत्यचा अर्थात् | हनती हुई स्त्री के तुल्य रूप की निरधनुष की तांति जैसे विदुषी (विद्वान् | न्तर प्राप्त होती है
स्त्री) कहने वाली होती मैंने अपने : इन प्रथम उत्पन्न जेठी बहिप्यारे मित्र के समान वर्तमान प्रतिकी |नियों में अन्य कोई पीछे उत्पन्न हुई मत्र और से संग किये हुए पत्नी स्त्री | छोटी बहिन किन्हीं दिनों में अपनी कामको निरंतर प्राप्त होती है येमे । जेठी बहिन के प्रागे जावे और पीछे धनुष के ऊपर बिस्तारी हुई तांति | अपने घर को चली जावे येसे जिन से संग्राम में पार को पहुंचाती हुई गुंज- अच्छे दिन होते व प्रातः समय की देना हम लोगोंके लिये निश्चय युक्त ती है उसीक तुम यथावत् जानकर उसका प्रयोग करोजिनमें पुरती धन की धरोहर है उस प्रशंभित पदार्थ युक्त धनका प्रतिदिन अत्यन्त नवीन होती हुई प्रकाश की करें ये अन्धकारको निराला करें
८
ऋचा ५
हे मनुष्यो बहुत बागों की पालना करने वाले के ममान इसके बहुत पुत्र के समान प्राण संग्रामों की प्राप्त होकर धनुषचीं श्रीं शव्द करता है तथा पीठ पर नित्य बंधा और उत्पन्न होता हुआ ममस्त संग्रामम्य वैरियोंकी टोली और सेनाओंोंको जीतना है वह तुम लोगों को यथावत् बनाकर धारण करना चा हिये
"
प्रभात वेला अर्थात् सुबह के समय की प्रशंसा वेदांके कवियों ने इम प्रकार गीत बनाये हैं
ऋग्वेद प्रथम मंडन सूक्त १२४ ऋचा १-९ " यह प्रातः समय की बेला प्रत्येक स्थान को पहुंचती हुई विन भाई की कन्या जैसे पुरुषको प्राप्त हो उसके म मान वा जैसे दुःखमपी गढ़में पड़ा हुआ जन धन आदि पदार्थों के विभाग करने के लिये राजगृह को प्राप्त हो वैसे मब ऊंचे नीचे पदार्थो की पहुंचती तथा अपने पति के लिये कामना करती हुई
पवनकी प्रशंसा में कविताई ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त १६८ ऋचा "हे विद्वानों जब पवन मेघों में हुई गर्जना रूपवाको प्रेरणा देते अर्थात् बटुलों को जाते हैं नब नदियां वज तुल्य किरणों से अर्थात् विजुनीकीलपद झपटोंसे होभित होती हैं और जब पवन मेघों के जन्न वर्षाते हैं तब बिजुलियां भूमि पर मुसुकियात सो जान पड़ती हैं वैसे होश्रो ।" तुम प्रिय पाठको हम इस समय इम बातकी बहन नहीं करते हैं कि वेदों में क्या २ विषय और क्या क्या मज़मून हैं इस को हम आगामी लेख में .. प्रकट करेंगे इस समय तो हम केवल इतना कहना चाहते हैं कि यदि परमेश्वर उन पुरुषोंको जो बिना मा बाप के जंऔर सुन्दर बत्रों वाली विवाहिता स्त्री । गल बयाबान में उत्पन्न हुये थे, जो
"
श
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श्रार्यमतलीला ||
( ३३ )
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तृप्त हो जाते हैं और उनको ईश्वर वा क्य कहते हैं - यदि वह वेदोंको पढ़ें तो अवश्य उनको ज्ञान प्राप्त हो और अ वश्य उनके हृदय का यह अंधकार दूर हो ।
|
|| आर्यमत लीला ||
( ४ )
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किसी प्रकार की भी भाषा नहीं जान ते थे कुछ ज्ञान वा शिक्षा देता तो क्या कबिलाई में शिक्षा देता और कविताई मी सिलसिलेवार नहीं वरन पृथक २ गीतों में, और गीत भी एक एक ही विषय के सैकड़ों और गीतोंका भी सिलसिला नहीं कि एक वातकी शिक्षा देकर उस बात के उपरान्त जो दूसरी arin प्रत्येक गीतको सूक्त कहते हैं बात सिखाने योग्य हो दूसरा गीत दक्ष | और इन गोतोंकी प्रत्येक कलीको ऋचा दूसरी बातका हो वरण वेदों में तो कहते हैं- स्वाथीजी के अर्थके अनुसार स्वामीजी के अर्थोके अनुसार यह गीत दोंका मजनून इतना असंगत है कि ऐसे बिना सिलमिले के हैं कि यदि एक प्रत्येक सूक्त अर्थात् गीतके मज़मूनका गीत की प्रशंसा में है तो दूसरा ही सिलसिला मिलता हुआ नहीं है ara fare में और तीसरा राजाकी बरण एक सूक्तकी ऋचाका भी मज़ स्तुति में और चौथा बायुको प्रमा में और पांचयां संग्राम करने और मून सिलसिलेवार नहीं मिलता है अर्थात् एक ऋचा एक विषयको है तो शस्त्रोंसे बेरीको मारने काटने के विषय दूसरी ऋचा बिल्कुल दूसरे बिषय की, में और छठा सोम पीने के उपदेश में फारसी व उर्दू में जो कबि लोग ग़जल और फिर राजा की स्तुति में और बनाया करते हैं उन ग़जलों में तो बेफिर अति की प्रशंना में और फिर शक यह देखने में जाता है कि कवि सोमपान के विषय में और फिर वायु को इस बातका ध्यान नहीं होता है की प्रशंसा में गरज इमही प्रकार ह । कि एक ग़जल की सब शेरें एक ही जारों गीतोंका बेतुका सिलसिला चला | बिषय की हों बरन उसका ध्यान इस गया है और जिस विषय का जो गीत | ही बात पर होता है कि एक ग़जल मिलता है उसमें बहुधा कर वह ही की सब शेरोंकी एकही तुक हो अर्थात् बात होती है जो उस विषय के पहले रदीफ़ और क़ाफ़िया एक हो परन्तु गीलों में थी यहां तक कि एक विषय संस्कृत और हिन्दीकी कबिताई में ऐसी के बहुत से गीतों में एक ही दृष्टान्त वात देखने में नहीं आई -व और एक ही प्रकार के शब्द मिलते | स्वामी जी के अर्थ किये हुये बंदों ही में हैं- हमको शोक है तो यह है कि मिलती है कि एक ही राग अर्थात एक हमारे भाई वेदोंको पढ़कर ही सूतकी प्रत्येक ऋचा अर्थात् कली नहीं देखते हैं वरण वेदों के नामसे ही । का एक टूमरे से बिलक्षण ही विषय है ॥
|
--वह बात
५
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( ३४ )
प्रार्यमतलीला ॥
हमारे चार्या भाइयोंका यह प्रदान | जाती है- सारे वेद में ढूंड ढांटकर एक तो ऋषा मिली पर उस में भी अनो खाही मुक्तिका स्वरूप स्थापित किया गया परन्तु इस समय इस लेख में तो हमको यह नहीं दिखाना है कि मुक्ति का स्वरूप क्या होना चाहिये था वरग इस ममय तो यह कथन जारहा है कि वेदों की एक सूक्तकी प्रत्येक ऋत्वा का भी विषय नहीं मिलता है वरण एकही सूक्त की एक ऋथा में कुछ है और दूसरी में कुछ और इस ही मूक्त की छठी ऋचा को स्वामी जी के के अनुमार देखिये वह इस प्रकार हैः
है कि वेदोंमें मुक्ति आदिक धर्मके वि वय तो अवश्य कथन किये होंगे । य द्यपि वेदो में ऐसा कथन तो वास्तव में नहीं है परन्तु हमने डटांड कर एक सूक्त की ऐसी ऋचा तलाश की है जिसमें मुक्ति शब्द को, छार्थ लिखते हुये जिस तिस प्रकार लिख ही दिया है उसका अर्थ स्पष्ट सुलने के वास्ते हम वेदोंके शब्दों सहित उसको स्वामीजीके बेदमाध्यमे लिखते हैंऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त १४० ऋचा ५ " ( यत् ) जो ( कृष्णाम् ) काले बर्ण के ( अभ्त्रम् ) न होने वाले ( महि ) बड़े (वर्यः ) रूप को ( ध्वसयन्तः ) बिनाश करते हुए मे ( करिक्रतः ) अत्यंत कार्य करने वाले जम ( वृथा ) मिथ्या ( प्रेरते ) प्रेरणा करते हैं (ते) वे ( अस्य ) इस मोक्ष की प्राप्ति को नहीं योग्य हैं जो (महीम् ) बड़ी (प्रदनिम् ) पृथिवी को ( अभि, मर्मृशत् ) सब ओर से अत्यन्त महता ( अभिव सन् ) सब ओर से श्वास लेना ( नानदत् ) अत्यंत बोलता और ( स्तनयन्) बिजली के समान गर्जना करता हुआ गुणों को ( सीम् ) सब ओर से ( एति ) प्राप्त होता है (आत् ) इसके | अनन्तर वह मुक्ति को प्राप्त होता है- -" वाह वाह क्या बिलक्षण सिद्धान्त स्वामी जी ने वेदों में दिखाया है कि जो मनुष्य काले रंगका है उसकी मुक्ति नहीं हो सकती है और जो बहुत बोलता और गरजता है उसकी मुक्ति
"जो अलंकृत करता हुआ साधर्म की धारणा करने वालियों में अधिक नम्र होता वा यक्ष संबंध करने वाली स्त्रि यों को अत्यन्त बात चीत कह सुनाता
|
वैन के समान बलको और दुख से पकड़ने योग्य भयंकर सिंह मोंगों को जैसे बैसे यल के समान आचरण करता हुआ शरीर को भी सुन्दर शोभायमान करता वा निरन्तर चलाता अर्थात् उनसे पेश करता वह अत्यन्त सुख को प्राप्त होता है-"
इन हो सूक्त नं० १४० की सातवीं ऋचा के अर्थ को देखिये वह इस म कार है:
"हे मनुष्यो जैसे यह अच्छा ढांपने वा मुख फैलाने वाला विद्वान् सुन्दरता से अच्छे पदार्थों का ग्रहण करता वैसे जानता हुवा नित्य मैं ज्ञानवती उत्तम स्त्रियों के ही पास सोता हूं । जो माता
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आर्यमतलीला ॥
पिता के और विद्वानों में प्रसिद्ध रूप, प्रकाशके सासवें समुल्लास में इस प्रकार को निश्चपसे प्राप्त होते हैं वे धार बार | लिखते हैं:बढ़ते हैं और उत्तम उत्तम कार्यों को “जिस मंत्रार्थ का दर्शन जिस जित भी करते हैं वैसे तुम भी मिला हुवा ऋषि को शुभ्रा और प्रथम ही जिसके काम किया करो"
पहले उन मंत्र का अर्थ किसी ने प्रप्यारे भाइयो ! विचार कीजिये कि कामित नहीं किया था किया और दूइस सूक्त अर्थात् गीत को उपर्यत पां- मरों को पढ़ाया भी इस लिये अद्याचवीं बटी और सातवीं ऋचा अर्थात | वधि उस उस मंत्र के साथ ऋषि का कली का विषय मिलता है वा नहीं? | नाम स्मरणार्थ लिखा पाता है जो प्रद्धिमानो ! यदि आप स्वामी जी के कोई ऋपियों को मंत्र कर्ता वसलावें अर्थों के अनुसार घेदको पढ़ेंगे तो आप उन को मिथ्यावादी समझ व तो मंत्रों
| के अर्थ प्रकाशक है." को विदित हो जावेगा कि इस उप
हम का शोक है कि इस लेख का यंत ऋचाओं का विषय तो शायद |
| लिखते समय स्वामी जी को पूर्वापर कुछ मिलता भी है परन्तु ऐमे सूक्त छ
लता भी है परन्तु एम सूक्त ब- का कल भी ध्यान न रहा यह बात हुत हैं जिन की ऋचाओं का विषय |
भज गये कि हम क्या सिद्ध करना चाघिरकुल नदी मिलता है-इस कारण |
हते हैं ? स्वामी जी आप ही तो यह वंद कदाचित् ईश्वर धाक्य नहीं हो कहते हैं कि वेदों को ईश्वर ने सष्टिकी सकते हैं
आदि में गुन मनध्योंके सान के वास्ते वंद के पढ़ने मे यह भी प्रतीत होता प्रकाश किया जो सष्टि की प्रादिमें है कि वेदोंक प्रत्येक सूक्त अपांत् गीत बिना मा बाप के जंगल बयाधान में अलग अलग मनुष्यों के बनाये हुवे हैं। पैदा किये गये थे और जो किसी बात यदि एक ही मनुष्य इन गीतों को ब- का भी ज्ञान नहीं रखते थे-क्या ऐसे नाता तो एक एक विषय के सैकड़ों मनष्यों की शिक्षा के वास्ते ईश्वर ने गीत न बनाता और वेदों का कथन ऐमा कठिन वेद दिया जिसका अर्थ मी सिलसिलेवार होता-स्वामी जी के मघ लोग नहीं समझ सकते थे ? वरया | लेख मे भी जो उन्हों ने सत्यार्यप्र-वह यहाँ तक कठिन थे कि उस वेदके काश में दिया है यह विदिल होता है | एक एक मंत्र का अर्थ ममझने के वास्ते कि वेदका प्रत्येक गीत पृथक पृषक ऋ- कोई कोई ऋषि पैदा होता रहा और षिके नामसे प्रसिद्ध है-और प्रत्येक मंत्र | जिम किसी ऋपि ने एक मंत्र का अर्थ अर्थात् मीतके साथ उस गीतके घनाने भी प्रकाश कर दिया वह घेद का मंत्र | वाले का नाम भी लिखा चला शाता उम ही ऋषि के नाम से प्रसिद्ध हो है इस विषय में स्वामी जी सत्यार्थ | गया स्वामी जी का यह कथन बेदों के
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(३६)
आर्यमतलीला ॥ मानने वाले पुरुषों को कदाचित् भी | प्यारे भाइयो स्यामीजीका कोई भी माननीय नहीं हो सकता है क्योंकि कथन इस विषय में सत्य नहीं होता इस से वेदों का सष्टि की आदि में उ-है क्योंकि श्राप जानते हैं कि संसारमें त्पन्न होना खंष्ठित होता है इस कारण हजारों और लाखों प्रकार के पक्ष में यह प्राचीन लेख ही सत्य है कि वेदके और मनुष्यों द्वारा पृथक् २ वक्ष का प्रत्येक मंत्र अर्थात् गीतको प्रत्येक ऋषि | पृषक २ नाम रक्खा हुअा है परन्तु वेने बनाया है और इन सब गीतोंका | दोंमें दश पांच ही वृक्षोंका नाम मिसंग्रह होकर वेद बन गया है इन ऋ-लेगा-संमारमें हजारों और लाखों प्र. षियों को यदि हम धामिक ऋषि म | कारक पशु और पक्षी हैं और अलग कहैं बरण कवि कहैं तो कुछ अनुचित अलग सबका नाम मनुष्योंकी भाषामें नहीं है क्योंकि कधि लोग साधारण | है परन्तु वेदों में दम बीमका ही नाम मनुष्यों से अधिक बुद्धिमान् समझे जाया मिलेगा। संसार में हजारों प्रकार की करते हैं प्राज कल भी जो लोग स्वांग औषधि हजारों प्रकार के औज़ार इ. बनाने की कबिता करते हैं वह उ-जारों प्रकारको बस्त हैं और ममष्यों स्ताद कहलाये जाते हैं और स्वांग ब- | ने मब के नाम रख रक्खे हैं और जो। नाने वालों के चेले स्वांग बनाने वाले | नवीन वस्त बनाते जाते हैं उसका भी उस्तादोंकी बहुत प्रशंसा किया करते हैं. नाम अपनी पहचान के वास्ते रखते
हे प्रार्य मारयो ! स्वामी जी ने यह जाते हैं । परन्त इनमे बीस तीम ही तो फार दिया कि ईश्वरने मनुष्यों को सृष्टि बम्तके नाम बंद में मिलते हैं। तो क्या की प्रादिमें वेदों के द्वारा ज्ञानदिया पर- अनेक वस्तुओं के नाम मनुष्यों ने प्रनए वह न वताया कि वेदोंकी भाषा स-पने आप नहीं रख लिये हैं और क्या मझनेके वास्ते उन मनष्योंको वेदोंकी |
| इन ही प्रकार मनुष्य अपनी भाषा भाषा किनने सिखाई ? स्वामीजीका नहीं बना लेते हैं। यदि ऐमा है तो तो यह ही कथन है कि भापा मनुष्प फिर आप क्यों स्वामी जी के मकअपने पाप नहीं बना सकता है बरण | धन को मानती हैं कि बिना वेदों के ईश्वर ही उन को भापा निवाता है | मनष्य अपनी भाषा भी नहीं बना सब वेदों के प्रकाश से पहले ईश्वर ने
| सकता है? किसी मनुष्य का रूप धारण करके ही
कहा, हम अपने आर्य भाइयों से पड़ते हैं उन मनष्योंको भाषा मिखाई होगी। कि संस्कृत भाषा सब में श्रेष्ठ और सक्योंकि वेदों में तो भाषा मीने की | सम भाषा है या नहीं और गंवार कोई विधि नहीं है घरण बंदोंमें तो भाषा का संस्कार करके अर्थात् शब्दकप्रारम्भ से अन्ततक गीत ही गीत हैं- रके ऋषियों ने इमको बनाया है वा
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धार्यमतलीला ॥
(३७) महीं । इन बातों के सिद्ध करने के उत्तम भाषा बना सकता है यदि बारते तो आप को किमी भी हेतु की | नहीं बना सकता है तो ऋषियोंने क्यों भावश्यकता नहीं होगी क्योंकि आप | संस्कृत बनाई और क्यों माप लोग स्वयम् संस्कृत भाषा की प्रशंमा किया | संस्कृत भाषा की प्रशंसा करते हैं? ब. करते हैं और संस्कृत शब्द काही रण उन ऋषियों को मूर्ख और ईश्वर वह अर्थ होता है कि वह संस्कारको विरोधी कहना चाहिये जिन्होंने ई. हुई है अर्थात् शुद्ध की हुई है। प. |श्वर की भाषा को नापमन्द करके और रन्तु पारे भाइयो श्राप यह भी जा-मका संस्कार करके अर्थात् उसमें कुछ | नते हैं कि वेदोंकी भाषा संस्कृत भाषा| अलट पलट करके संस्कृत भाषा बनाई। नहीं है बरण संस्कृत से बहुत मिलती | परन्तु ऐमा न कह कर यह ही कहना जलती है और यह भी आप मार्नेगे पड़ेगा कि वेद ईश्वर का वाक्य नहीं है कि पदोंकी भाषा पहली है और सं- और वेदों की भाषा ईश्वर की भाषा स्कृत भाषा उसके पश्चात् बनी है 4 महीं है। हम यह नहीं कहते हैं कि र्थात् वेदोंकी भाषा कोही संस्कार क. गंवारों और मुखों को समझानेके वास्ते रने अर्थात् शुद्ध करने से संस्कृत नाम | विद्वान् लोग मन मूखों की भाषा में पहा है। अर्थात् संस्कृतमे पहले भाषा उपदेश नहीं कर सकते हैं वरण हमतो गंवारथी जिमको शुद्ध करके ऋषियों इस बात पर जोर देते हैं कि मूखों और ने मनोहर और मुन्दर संस्कृत भाषा गंवारों को उन की ही गंवार बोली बनाई है। इमसे स्पष्ट सिद्ध होता है में उपदेश देना चाहिये जिससे वह उकि धेदों की भाषा गंधार है और वेद पदेश को अच्छे प्रकार समझ सके की भाषा और संस्कृत भाषा में इतना | परन्तु जिस समय स्वामी जी के कही अन्तर है जितना गांवके मनष्यों बनानुसार ईश्वर ने वेदप्रकाश किकी और किमी बड़े शहर की भाषा | ए उस समय तो कोई भापा प्र. में अंतर होता है। यदि वेदोंकी भाषा
चलित नहीं थी जिस में अपना गंवार भाषा न होती तो वह ऋषि |
जान प्रकाश करने के वास्ते ईश्वर मजन जिनको शुद्ध ममोहर संस्कृत भाषा
जबर होता बरण उस समय तो मष्टि बमाने की आवश्यक्ता हुई वह संस्कृत
की प्रादि थी और प्रार्या भाइयों के भाषा सुन्दर और मनोहर होती तो
कथन के अनसार उम समय के मनुष्य वेदों की ही भाषाका प्रचार करते प-कोई भाषा नहीं बना सकते थे इस रन्तु स्वामी जीके कथनानुमार वेदकी | कारण उन को जो भाषा सिखाई वह भाषा को तो ईश्वर की भाषा कहना ईश्वने दी सिखाई। वह भाषा जो इस चाहिये तो क्या मनण ईश्वर से भी प्रकार सष्टिको आदिमें सिखाई यह घेदों
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(३८)
मार्यमतलीला ॥
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को ही भाषा हो सकती है कि कोई । सब भाषामों का कारण भी है। और भाषा । परन्तु घेदों की भाषाको बाह ! स्वामी दयामननी ! धन्य है तो विद्वान् ऋषियों ने नापसन्द किया | भापको ! क्या आपका यह नाशप है।
और जन को शुद्ध करके संस्कृत बनाई कि जिस समय ईश्वरने वेदों को प्रका। तत्रयों ईशवर ने सष्टिको मादि में |श किया उस समय पृथिवीके सब देऐसी भाषा दी जिसको शुद्ध करना प-शो में इस ही प्रकार मित्र भित्र भाषा हा। इससे स्पष्ट सिद्ध होगया है कि वे थी जिस प्रकार इस समय अनेक प्रकादोंको भाषा ईश्वर की भाषा नहीं है। रक्षी भाषामें प्रचलित हो रही हैं। यघरण ग्रामीण करियों ने अपनी गंधार द्यपि इस स्थानपर भाप ऐसा ही प्रभाषामें कबिता की है जिसका संग्रह गट करना चाहते हैं परन्तु दूसरे स्थान होकर वेद बन गये हैं।
| पर माप तो वेदों का प्रकाश होना उम वेद की भापाके विषम में स्वामीजीने | समय सिद्ध करते हैं जब कि सष्टिकी एक अद्भत प्रपंच रचा है वह सत्या- आदि में ईश्वरने तिव्वत देशमें मनु
प्रकाशके सप्तम ममुखानासमें लिखते हैं। प्यों को बिना मा धाप के पैदा किया __ " ( प्रश्न ) किसी देश भाषामें वेदों था और जब कि पृथिवी में सभ्य किसी का प्रकाश न कर के संस्कृतमें क्यों किया स्थान पर कोई ममष्य नहीं रहता था
" ( उत्तर ) जो किसी देश भाषामें | और जो मनुष्य तिव्बतमें उत्पन्न किये प्रकाश करता तो ईश्वर पक्षपाती हो । गय थे सनकी भी कोई भाषा नहीं थी! जाता क्योंकि जिस देशकी भाषा प्र- मालूम पड़ता है कि स्वामीजीको सकाश करता उनको सुममता और वि- त्यार्थप्रकाश में यह लेख लिखते समय देशियोंको टिनता वेदोंके पढ़ने प-सस ममयका ध्यान नहीं रहा जब सढ़ाने की होती इसलिय संस्कृत ही में टिकी मादि में ईश्वर को वेदों का प्रप्रकाश किया जो किमी देशी भाषा काश करने वाला बताया जाता है. नहीं और घेदभाषा अम्य मम भाषा-रगा स्वामीजीको अपमे ममयका ध्यान जोका कारण है उसी में वेदोंका प्रकाश रहा और यह ही समझा कि हम ही किया । जैसे ईश्वर की पृथिवी नादि इस समय वेदों को प्रकाश करते हैं - सष्टि सय देश और देशवालो के लिये | र्यात् बनाते हैं क्योंकि स्वामी जीके एकसी और सब शिल्पविद्याका कारण | ममबमें बेशक पृथिवीके प्रत्येक देशको है वैसे परमेश्वरको विद्याकी भाषा भी पृथक २ भाषा है और संस्कृत भाषा एक सी होनी चाहिये कि सब देश- जिसमें वेदों का प्रकाश स्वामी जी ने बालों को पढ़ने पढ़ानेमें तुल्य परिश्रम किया स्वामीजीके समय में किसी देश होनेमे ईश्वर पक्षपाती नहीं होता और की प्रचलित भाषा भी नहीं थी । इस
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शार्थमसलीला ||
|
और
कारण स्वामी जी लिखते हैं कि इसलिये संस्कृत ही में प्रकाश किया जो किसी देश की भाषा नहीं fee से चलकर इस ही लेखमें इस ही को पुष्ट करते हुए स्वामीजी लिखते हैं" कि सब देशवालों को पढ़ने पढ़ानेमें तुझ्य परिश्रम होनेसे ईश्वर पक्षपाती नहीं होता " स्वामीजीका यह कथन बिल्कुल सत्य होता यदि यह प्रपने आपको बेदों का बनाने वाला कहृते परन्तु यह तो ईश्वरको वेदों का प्रकाश करने वाला बताते हैं तब स्वा मीजीका यह लेख कैसे संगत हो सक. ता है क्या स्वामीजीका यह आशय है। कि सृष्टि की आदि में में बंद प्रकाश किये अम्य भाषा बोलते थे उस प्रचलित भाषा से अर्थात् संस्कृत भाषा प्रकाश किया ? ऐसी
"
( ३९ )
नुष्यों की नहीं थी उन्होंने जो भाषा सीखी वह वेदों से हो मीखी। इसके प्रतिरिक्त यदि वह आदि में उत्पन हुवे मनुष्य कोई और बोली बोलते थे और बंद जिसके त्रिहून मनुष्य को कोई ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता है वह संस्कृत में दिया गया तो उन मनुष्यों में ईश्वर ने वेद को प्रकाश किस तरह किया होगा । ? वह लोग तो पशु समान जंगली और अज्ञानी थे अपनी कोई
में उत्पन्न हुवे समुष्य जो भाषा बोलने ये वह भाषा उन को किमने सिखाई । और किस रीति से सिखाई ? क्या उ उन्होंने अपने बोलने के बास्ते अपने आप भाषा बनाली ? परन्तु प्राप तो यह कहते हैं कि मनुष्य बिना सिखाये कोई काम कर ही नहीं सकता है और अपने बोलने के वास्ते भाषा भी नहीं बना सकता है इस हेतु लाचार प्राप को यह ही कहना पड़ेगा कि वेदों के प्रकाश होने से पहले कोई भाषा म
जंगली भाषा बोलते होंगे परन्तु उम मूर्खों को छोटी मोटी सब बात सीखने के वास्ते उपदेश मिला संस्कृत में जो उस की बोली नहीं थी तो इससे जिन मनुष्यों | मनको क्या लाभ हुआ होगा ? वेदांका गये वह कोई | उपदेश प्राप्त करने से पहले उनको संऔर ईश्वर मे | स्कूल भाषा पढ़मी पड़ी होगी परन्तु भिन्न भाषा में पढ़ाया किसने और उन्होंने पढ़ा कैसे ? में वेदों का इससे विदित होता है कि वेदोंके प्रदशा में वेदों | काश करने से पहले ईश्वर ने संस्कृत दहाके प्रकाश होने के समय सृष्टिकी शादि । करण और संस्कृत कोव और संस्कृत की अन्य बहुत सी पुस्तकें किसी विधि प्रकाश की होंगी जिनसे इतनी विद्या प्राप्त हो सके कि वेदों के अर्थ समझ में जा सकें और घंदों के प्रकाश करने से पहले सृष्टि की आदि में पैदा हुये - ज्ञान मनुष्यों के पढ़ने तथा संस्कृत भाषा पढ़ाने के वास्ते अनेक पाठशा लायें भी खोली होंगी और सर्व मनुष्यों को उन पाठशालाओं में संस्कृत पढ़ाई होगी। परन्तु इसकी संस्कृत पढ़ने के वास्ते जिससे वेदों का अर्थ समझ में
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(४०)
मार्यमतलीला ॥ भाजावं कम से कम १५ धा २० वर्ष, मनुष्यों की बोलीथी परन्तु यदि वेदों लगते हैं आश्चर्य है कि इतने लम्बे को ईश्वरकृत कहा जाये तो यह भी समय तक यह लोग गीवित किस त-मानना पड़ेगा कि ईश्वर ने मनुष्यों रह रहे होंगे ! क्योंकि जब तक मनग्य को बह भाषा बोलने के वास्ते दीजो संस्कृत भाषा न सीख लेवे तब तक | वेदों में है। परन्त वेदों की भाषा उनको वेद शिक्षा किम प्रकार दीजावे
यह भाषा नहीं है जो संस्कृत भाषा और स्वामी जी के कथनानुसार मनुष्य कहलाती है चरण वेदों की भाषा को बिना वेदोंके कोई ज्ञान प्राप्त नहीं कर
| संशोधन करके ऋषि लोगों में संस्कृत सकता है न उसको भोजम बनाना आ सकता है और न कपड़ा पहनना और भाषा बन
| भाषा बनाई है अर्थात् ईश्वर को भाषा न घर बना कर रहना । इस कारण
| को संशोधन किया अर्थात् चाहे वह जप तक वह संस्कृत पढ़ते रहे होंगे | वेदों की भाषा ईश्वर की दी हुई थी तब तक पशु की ही समान विचरते | वा ईश्वर की भाषा थी वा जो कछ । रहे होंगे और डंगरों की तरह घाम थी परन्तु पी वह गंवार भाषा जिम ही चरते होंगे और ऐमी दशा में उनका संस्कार करके सुन्दर संस्कृत बनाई की भाषा ही क्या होगी क्योंकि जब
| गई। इस हेतु यदि वह ईश्वरको भाषा तक कोई पदार्थ जिनको मनुष्य काम |
थी तो ऋषिजन जिन्होंने संस्कृत बमें लाते हैं बना ही नहीं तब तक उन पदार्थों का नाम ही क्या रक्खा जा
माई वह ईश्वरमे भी अधिक जानधाम सकता है और पदार्थों के नाम रक्से
और ईश्वर से अधिक सुन्दर बस्तु ब-1 बिदून भाषा ही क्या बन सकती है? नाने बाले घे॥ इस कारण हमारे आर्य भाइयों को आर्यमत लीला। लाचार यह ही मानना पढेगा कि वेदों के प्रकाश होने के समय वह दी भाषा
[ख-भाग] बोली जाती थी जिस भाषा में वेदों
ऋग्वेद का मज़मून है और कम से कम यह
(५) कहना पढेगा कि वेदोंके प्रकाश होने से पहले कोई भाषा नहीं दी बरण
भाज करत अफरीका देश में हवशी | वेदों ही के द्वारा ईश्वर ने मनष्योंको | रहते हैं यह लोग अग्मि नलाना नहीं वह भाषा बोलनी सिखाई जो वेदों जानते थे बरण जिस प्रकार शेर वहा. में है। नतीजा इन सब बातों का यह थी अग्नि से पुरते हैं इस ही प्रकार हुप्रा कि घेदों के समय वेद की भाषा | ये भी डरा करते थे। अंगरेजों ने इन
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भार्यमतलीला॥
देशों में जाकर बड़ी कठिनाई से | माया और उससे भी यह ही बात इनको अग्नि जलाना, अनाज भूनना पूंछी । माहब ने भी बहुत कुछ समऔर भोजन पकाकर खाना आदिक काया परन्तु उसकी कुछ समझमें न बात क्रियायें सिखाई हैं परन्त अब आया वह तुरन्त वहांसे चलागया और तक भी वह ऐसे नहीं हुये हैं जैसे हि- उस इंटमें, जिस पर साहब ने चिट्ठी न्दुस्तान के ग्रामीण मनुष्य होते हैं। लिखी थी, एक सूराख करके और रस्सी हमारे ग्रामीण मनष्य अब भी हमसे डालकर उसको गलेमें लटकाकर ढोल बहुत ज्यादा होशियार और सभ्य हैं | बजाता हुआ गांव गांव यह कहता अंग्रेजी की एक पुस्तक में एक ममय हुआ फिरने लगा कि अंग्रेज लोग जा का वर्शन लिखा है कि जिन हवशियों दूगर हैं जो ईंटके द्वारा बात चीत कको अंगरेजोंने बहुत का सभ्यता मि- रते हैं। देखो इस ईट ने मेमसाहब खादी थी और वह बहत कछ होशि- को यह कह दिया कि साहव गणिया
मांगता है ॥ यार होगये थे उनके देश में एक अंग्रेज एक नदी का पुल वनवा रहा था, ह
___ स्वामी दयानन्द स्वतीजीने जो बशी लोग मजदूरी कर रहे थे, अंगरेज
वेदोंके अर्थ किये हैं उनके पढ़नेसे भी
यह मालूम होता है कि किसी देश में को पुलके काम में गणिया की जरूरत हुई, रहने का मकान दूर था इस कार
हषाशी लोग रहते थे उन हअशियों
ने जिस समय अग्नि जलाना और णा साहबने एक ई टपर चिट्ठी लिखकर
अग्निमें भोजन आदिक बनादा जान एक हवशी को दी और कहा कि यह
लिया उस समय उनको बहुत अचम्मा ईट हमारे मकान पर जाकर इमारी
हमा और उन्होंने ही अग्निकी प्रशंमेमसाहबको देदो-हवशी ईट लेगया
सा और अन्य मनष्योंको अग्नि जला मेमने पढ़कर मुणिया हबशीको देदि.
ना सांसनेकी प्रेरणा आदिक में वेदों या कि लेजायो। हबशीको बहुत अ-के गीत बनाये हैं। इस प्रकारके सैकड़ों चम्मा हा और मेमसाहब का गीत वदों में शौजद हैं परन्त हम कुछ पकड़ कर कहने लगा कि सच बता तुम |
" | वाक्य स्वामी दयानन्दजीके वेद भाष्य किमने कहा कि साहब को गुणिया दर- हिंदी अर्थो मेंसे नीचे लिखते हैं:कार है। मेमने हाथी को बहुत कुछ मम- ऋग्वंद दुसरा मगहन सूक्त ४ ऋचा १ काया कि जो ईट तू लाया था उस पर | : जैसे-मैं अग्नि की तुम लोगोंके लिये लिखा हुआ था परन्तु वह कुछ भी प्रशंसा करता हूं दमे हम लोगों के लिये न समझ सका क्योंकि यह लिखने प-तुम अग्नि की प्रशंसा करो--" ढनेकी विद्याको कुछ भी नहीं जानता ऋग्वेद दूमरा मराठा सक्त ६ ऋचार था । वह गुणिया लेकर साहब के पास! "हे शोभन गुणों में प्रसिद्ध घोडेके
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(४९)
आर्यमतलीला।
इच्छा करने और वल को न पतन। ऋग्वेद प्रथम मंडन सक्त १ कराने वाले अग्नि के समान प्रकाश- हम अग्नि की बारम्बार अशा क-1 मान आपके सम्बंध में जो अग्नि है रते हैं-यह अग्नि नित्य खोजने योग्य है। उसकी इस समिधा से और उत्तमतासे अग्निही को संयुक्त करने से धन प्राप्त कहे हुए सूक्त से हम लोग सेवनकरें-" होता है ऋग्वेद प्रथम मण्डल मक्त २१ ऋचा १ अग्नि ही मे यज्ञ होता है
"संमारी पदार्थों की निरन्तर रक्षा अग्निदिव्य गुणवानी हैकरने बाले वायु और अग्मि हैं उन | ऋग्वेद प्रथम मंडल सक्त १२ को और मैं अपने समीप कामको सिद्धि | "हम अग्नि को स्वीकार करते हैं, के लिये वश में लाता है। और उनके ।
"जैसे हम ग्रहगा करते वैसे ही तुम लोग और गुगोंके प्रकाश करने को हम लोग
भी करो,
__ “अग्जि होम किये हुए पदार्थ को इच्छा करते हैं।" ___ऋग्वेद दुमरा मंडला सूक्त ८ ऋ४ |
ग्रहण करने वाली है और खोज करने "जो बिजली रूप चित्र विचित्र अद्भुः “अभिकी ठीक २ परीक्षा करके प्र.
योन्य है" त अग्नि अविनाशी पदार्थोंसे सब पोर.
सवारयोग करना चाहिये। से सब पदार्थों को प्रकट करता हुआ अग्नि बहान कार्यकारी है जो लाल अग्नि प्रशंसनीय प्रकाशमेप्रादित्यके सलाल मस वानी है मान अहले प्रकार प्रकाशित होता है। "हे मनध्य मब मुखों की दाता अनि वह सब को ढंढ़ने योग्य है।"
को सब के समीप मदा प्रकाशित वार ऋग्वेद मंडल सात सूक्त १ ऋ०१ ।
जो प्रकाश और दाह गुण वाले अग्नि "हे विद्वान् मनप्यो जसे आप उ-का सेवन वारता है उमकी अग्नि नाना तेजित क्रियाओंने हाथों प्रकट होनेमकार के मुखाम रक्षा करने वाला है.-" वाली घनाने स.प निघासे (अरसम) अग्नि की रति बिद्वान करते हैं.. अरसी नामक जयर नीथके दो काष्टा वेदनमरा मंडल मत २५ । में दर में देखने योग्य अग्नि को प्रकट "अनि को आत्मा में तुम लोग विकरें-"
शंप कर जानो" ऋग्वेद मंडल भात सूक्त १५ ऋ०८ ऋग्वेद तीमरा मंडल मुक्त ऋ२ | "हे राजन् हम को चाहने वाले सुन्दर| "जिन्होंने अग्नि उत्तम प्रकार धाबीर पुरुषों से युक्त प्राप रात्रियों और रस किया उन पुरुषों को भाग्य शाली फिर श यक्त दिनों में हनको प्रमाशित जानना चाहिये ---, कीजिये छाप के माय सुन्दर अग्नियों। ऋ ० ३ ० २ ० ५ का भावार्थ बाले हम लोग प्रतिदिन दस शितही” " मनुष्य मथकर भक्निको उत्पन्न
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आर्यमतलोला ।
करके कार्यों को सिद्ध करने की इच्छा | तुम लोग सेवन करो ।”
|
ऋग्वेद दूसरा मंडल सूक्त ३५ ऋ० १९ "हे मनुष्यो जो इस अग्नि का सुंदर सैन्यके समान तेज और अपने गुणों से निश्चित श्राख्या अर्थात् कथन प्राणों के पौत्र के समान बर्तमान व्यवहार से बढ़ता है या जिसको प्रवल यौवनवती स्त्री इस हेतु से अच्छे प्रकार मदीप्त करती हैं वा जो तेजोमय शोभन शुद्ध स्वरुप जल वा घी और अच्छा शोधा हुआ खाने योग्य प्रम् इस अग्निके सं ऋग्वेद पंचम मंडन मुक्त ६ ऋ०२ बंध में वर्त्तमान है उसको "जिसकी से प्रशंसा करता हूं वह । ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त १३ ० ३ जानो - " तुम अग्नि है उसके प्रयोग से अध्यापकों में अग्नि जगाता हूं जो यक्षमें जलाई के लिये अन्न को भब प्रकार धारण! जाती है और काली, कराली, मनोज कीजिये,,
ऋग्वेद पंचम मंडल ए ११० ४ "हे विद्वान् जिम की संपूर्ण माओ ग्रहण करने योग्य अग्नि प्रशंसा की प्राप्त होता है-'
""
करते हैं वे संपूर्ण ऐश्वर्य युक्त होते हैं। (नोट) उम ममय दोवासलाई तो घी नहीं इसी कारण दो वस्तुओं को रगड़ कर वा टकराकर अग्नि पैदा करते थे
ऋग्वेद पंचम मंडल सूक्त ३ ऋ० ४ अग्नि को विस्तारते हुए विद्वानम नुष्य चिल्ला चिल्ला उसका उपदेश दे रहे हैं वे मृत्यु रहित पदवी को मात होद
( ४३ )
वा, सुलोहिता सुवर्णा, स्फलिंगिनों और जिसकी जीभ हैं अग्नि को मात जीभ हैं ॥
वेदांके पढ़ने से यह ज्ञात होता हैकि नम समयके बहशी लोगोंने अग्निको ऋग्वेद प्रथन मंडल कूल ९४८ ऋ०९ पाकर और उससे भोजन आदिक - "विद्वात्जन मनुष्य मम्बन्धिनी प्र.नेक प्रकारको सिद्धि को देखकर अग्नि
जाओं में सूर्य के समान अद्भुत और रूप के लिये विशेषताने भावना करने वाले जिस अग्नि को सब ओर से निरंतर धारण करते हैं उस अग्निको तुम लोग
धारण करो
'"
पुजना प्रारम्भ किया और अग्नि को जलाकर उसमें घी दूध आदिक वह द्रव्य जिनको वह सबसे उत्तम रामकते थे अग्निमें चढ़ाने लगे इस प्रकार की पूजाको दह लोग यज्ञ कहते थे फिर कुछ सभ्यता पाकर यक्ष के संबंध के - नेक गीत उन लोगों ने बना लिये । बंदों में ऐसे गीत बहुत ही ज्यादा मि
ऋग्वेद सप्तम मंडल सूक्त १५ ०६ " हे मनुष्यो ! वह अत्यन्त यज्ञकर्ता देने योग्य पदार्थों को प्राप्त होनेवाला पावक प्रति हमारी इस गुत्रु क्रिया | लते हैं:को और बाणियों को प्राप्त हो उसको
स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेदभाष्य
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( 8 )
भार्यमतलीला। के हिन्दी अर्थों में से हम कुछ वाक्य ! जिस पूर्वोक्त वायु और अनिके गुणों इस विषयके नीचे लिखते हैं:- को प्रकाशित तथा सब जगह कामोंमें ऋग्वेद सप्तम मण्डत्व सूक्त २ ऋथा ४ प्रदीप्त करते हो उन को गायत्री छन्द
हे मनुष्यों जैसे बिद्वानों के समीप वाले वेदके स्तोत्रों में षड्ज प्रादि स्वपग पीछे करके सन्मुख घोटूं जिनके रोंमें गानो--" हों वे विद्यार्थी विद्वान होकर सत्य! ऋग्वेद मरा मंडल सूक्त ४१ ऋ० १९ का सेवन करते और विद्याको धारण “ हे स्त्री पुरुषो जो सुख की सम्भाकरते हुए अन्न के साथ उत्तम घृत वना कराने वाले दोनों स्त्री पुरुष यन्त्र प्रादि को अग्निमें छोरते हैं , की विद्याओंको प्राप्त होते और इस्य | ऋग्वेद प्रथम मंडल मूक्त १२ ऋ० ५.११. / द्रव्यको पहुंचाने वाले अग्नि को प्राप्त जिसमें घी छोड़ा जाता है वह अ- होते उन्हीको हम लोग अच्छे प्रकार नि राक्षसोंको विनाश करती है--“भी-| स्वीकार करते हैं-" सिक अनि अच्छी प्रकार मन्त्रोंके न-! वेदोंके गीत बनाने वालों ने केवल | वीन २ पाठ तथा गान युक्त स्तुति और अग्निही की प्रशंसा में गीत नहीं बगायत्री छन्द वाले प्रगाथोंसे गुणों के साथ नाये हैं बरण जो जो बस्तु उन को ग्रहण किया हुआ उक्त प्रकारका धन उपकारी जात होती रही हैं उस ही और उक्त गण वाली उत्तम क्रियाको |
| को पूजने लगे हैं और उस ही के विअच्छी प्रकार धारण करता है-" पप गीत जोड़ दिया है। दृष्टान्तरूप ऋग्वेद प्रथम महल सूक्त १३ ऋ०६८
जल की स्तुतिका एक गीत हम स्वामी "हे विद्वानो ! आज यज्ञ करने के दयानन्दजीके वेद भाष्यके हिन्दी अनुलिये घर धादिके अलग ३ मत्य सुख बादमे लिखते हैं
और जल के वृद्धि करने वाले तथा प्र. ऋग्वेद मप्तम मंडल सूक्त ४ ऋचा २ काशित दरबाजोंका सेवन करो अर्थात् “ हे मनप्य जो शुद्ध जल चते हैं अथवा अच्ची रचनासे उनकी बनाओ मैं इस
खोदने से उत्पन्न होते हैं वा जो पाप 3| घर में जो हमारे प्रत्यक्ष यजको प्राप्त
त्पन्न हुए हैं अथवा समुद्र के लिये हैंवा जो करते हैं उन सुदर पूर्वोक्त सात जीभ,
पवित्र करने वाले हैं वह देदीप्यमान पदार्थीका ग्रहण करने, तीव्र दर्शन देने जल इस संमारमें मेरी रक्षा करें-"
और दिव्य पदार्थों में रहने वाले प्र- नदी की प्रशंसा वेदों में इस प्रकार सिद्ध और अप्रसिद्ध अग्मियों को उप- की गई है-- कारमें लाता हूं।
ऋग्वेद सप्तम मंडल सूक्त ५० प्रा० ४ ऋग्वेद प्रथम मंडल मक्त २१ ऋ०२ | "जो जाने योग्य नीचे वा अपरसे "हे यत करने वाले ममुष्यो ! तुम देशों को जाती हैं और जो जलसे भरी
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प्रार्यमतलीला ॥
(४५)
Aana
बा जल रहित हैं वे सब नदियां ह-, परतन्त्र करने में वे दूरसे सिंहके सदृश मारे लिये जलसे सींचती हुई वा तृप्त कम्पाते वा चलते हैं और पर्जन्य वकरती हुई भोजनादि व्यवहारों के र्षाओं में हुए अन्तरिक्षको करता अर्थात् | लिये प्राप्त होती हुई श्रानन्द देने और | प्रगट करता है उसको पाप पुकारिये मख करने वाली हों और भोजनादि भावार्थ-जैसे सारथी घोहों को यथेष्ट स्नेह करने वाली हों-"
स्थानमें लेजानेको समर्थ होता है वैसे बादल की स्तुति वेदों में इस प्रकार ही मेघ जलोंको इधर उधर लेजाता है की गई है
जिस प्रकार वेदोंके कवियोंने अग्नि ऋग्वेद पंचम मंडल मूक्त ४२ ऋ० १४ | जल आदिक अनेक बस्तुमसे प्रार्थना
" हे स्तुति करने वाले प्राप जो मे- की है इस ही प्रकार सर्प प्रादि भय घोंसे युक्त और बहुत जल घाला अ-कारी जीवोंसे भी प्रार्थना की है हम तरिक्ष और प्रथिवी को सींचता हुआ| स्वामी दयानन्दजी के प्रोंके अनुसार) विमलीके साथ प्राप्त होता है और जो कुछ वाक्य यहां लिखते हैं। उत्तम प्रशंसा युक्त है उस गजना करते ऋग्वेद प्रथम मंडल सू२१९१ ऋ०५-६ । हुए को निश्चय से प्राप्त होनो और | " वे ही पूर्वोक्त विषधर वा विष माप शब्द करते हुए पृथिवीके पागन रात्रिके प्रारम्भमें जैसे चोर वैसे प्रतीकरने वासेको उत्तम प्रकार जनाइये । तिसे दिखाई देते हैं। हे दृष्टि पथ न
ग्यद पंचम मंडल सूक्त ४२ ० १६ आने वाले वा सबके देखे हुए विषधा" हे विद्वान् ....और दाता भाप रियो तुम प्रतीत ज्ञानसे अर्थात ठीक और जो यह प्रशंमा करने योग्य मेघ | समयसे युक्त होत्रो ,. घा पन्हि धन के लिये भूमि प्राकाश | "हे दुष्टि गोचर न होने वाले और और यव प्रादि ओषधियों तशा बट सबके देख हुए विषधारियो जिन का और अश्वत्थ आदि वनस्पतियों को | मर्यके समान सन्ताप करने वाला तुप्राप्त होता है उस को प्राप अच्छे प्र- म्हारा पिता पथ्वी के समान माता चकार प्राप्त हूजिये वह मेरे लिये सुख का-न्द्रमाके समान भाता और विद्वानोंकी रक होवै जिससे यह पृथिवी ( माता) अदीन माताके समान वहन है वे तुम | माताके सदृश पालन करने वाली हम | उत्तम सुख जैसे हो ठहरो और अपने लोयोंको दुष्ट बद्धि में नहीं धारण करै-" | स्यानको जाओ--, ऋग्वेद पंचम मंडल मुक्त ८३ ऋ०३ | जिस प्रकार कविलोग खियोंका व.
"हे विद्वन् जो मेघ मारने के लिये | न किया करते हैं उम ही प्रकार - रस्सी अर्थात् कोडेसे घोड़ों के सन्मुख दोंके कवियों ने भी स्त्रियों का वर्णन लाता हाम्रा बहत रघवालेके सदृश व-|किया है हम कुछ वाक्य स्वामी दयापांत्रों में श्रेष्ठ दूतों को प्रकट करता है मन्द सरस्वतीजीके बेदभाष्यसे लिखते हैं
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(४६ )
मार्यमतलीला॥ ऋग्वद मष्ठा सात सूक्त १ ऋ०६ ।हुई और ऐश्वर्य के लिये जगाती हुई " जैसे यवावस्या को प्राप्त कन्या- प्रकाशसे अद्भुत स्वरूप वाली किंचित् रात्रि दिन अच्छे बन मुक्त जिम पति हाल प्राभा युक्त कान्तियों को सब को समीपसे प्राप्त होती है. वैसे - प्रकार प्राप्त कराती हुई बड़ी अत्यन्त ग्नि विद्याको प्राप्त हो तुम लोग आ- प्रकाशमान प्रातःकाल को चला जाती नन्दित होओ--,
| और भाती है वैसे धाप इनिये-. ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त ५६ ऋ०५ | ऋग्वंद प्रथम मंदुल सूक्त ८२९६
" हे मभापति शत्रुओं को मार अ- "हे उत्तम शस्त्र युक्त सेनाध्यक्ष जैसे मैं पने राज्यको धारण कर अपनी स्त्रीको तेरे अनादि से युक्त नौकारथ में सूर्य श्रानन्द दियाकर । "
की फिरग के समान प्रकाश मान घो. ऋग्वेद प्रथम मंडस्म सूक्त ८२ ऋ०५ डों को जोड़ता हूं जिम में बटके तू भाप के जो सुशिक्षित घोड़े हैं उन हायों में घोड़ों की रस्मी को धारण को रथमें युक्त कर जिम तेरे रथके एक करता है उम रथ मे और शत्रों की घोडा दाहिने और बाई ओर हो उम शक्तियों को रोकने हारा अपनी स्त्री रथ पर बैट शत्रोंको जीतके अतिप्रिय के साथ अच्छप्रकार प्रानंद को प्राप्त हो.. स्त्रीको माघ बेटा आप प्रसन्न और उम ऋग्वेद दूमरा महा सूक्त ३ ऋ०५ । को प्रमन्न करताहुना अन्नादि सामग्री के "हे पुरुषो पाप अनादि को वा पथिसमीपस्थ होके तू दोनों शत्रओं को बी के माय व्तमान द्वारों के समान जीतने के अर्थ जाया करो। शोभावती हुई श्रीर ग्रहण की हुई ऋग्वेद चीषामंडन सूक्त ३ ऋ०२ जिनकी सुन्दर पाल पर रहित मन"हे राजन् हम लोग आप के जिम प्यों में अवमा को प्राप्त उत्तम बीरासे गृह को बनाबैं सो यह गृह स्वामी के युक्त यश और अपने रुपको पवित्र लिये कामना करती हुई सुन्दर वस्त्रोंसे करती हुई ममस्त गुगों में व्याप्ति र. शोभित मन की प्यारी स्त्री के मद्रश खने वाली देदीप्यमान अपांत् चमकइस बर्तमान काल में हुाा म ब प्रकार ती दमकती हुई स्त्रियों को विशेषता व्याप्त उत्तम गण जिम में ऐसा हो उस से श्राश्रय करा और उनके माप शास्त्र में प्राप निवास करी
या सुखों को विशेषता से कहो सुनो,, ऋग्वेद चौथा मंडल सूक्त १४ ऋ०३, ऋग्वेद दूसरा मंडरल सूक २० ऋ० १ हे विद्या यक्त और उत्तम गुगा वाली हे सर्य के तुल्य विद्याके प्रकाशक ज्ञा. स्त्री त जैसे उत्तम प्रकार जोसते हैं घो- नया नियमों को धारण किये गए हों को जिम में उस बाहन के सदृग विद्वान् लोगो तुम मेरे दूर वा समीप अपने मिाशों से प्राणियों को जनाती | में सत्य को प्रवृत्त करो एकांतमें जनने
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प्रार्यमतलीला ॥
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पाली व्यभिचारिणी के तुल्य अपराध | वालोंको बहुत दान दिया करते हैं। को मत करो
| हम स्वामी जीके येद भाष्यसे कश्यावय ऋग्वेद दूसरा मंडल सक्त ३२ ०४५/ नाच लिखत ह जा इस बातका सिद्ध
"मैं मात्मा से उस रात्रि के जो पर्थ | करते हैं: - प्रकाशित चंद्रमा से युक्त है समान व
ऋग्वंद प्रथम मंडल सूक्त १२१ ऋचा३ र्तमान सुन्दर रपर्दा करने योग्य जिम! "हे बलवान विद्वाना हम लोगों से स्त्री की शोभन स्तति के साथ पर्दा स्तुति किये हुए श्राप हमको सुखी कशे करता व नमको और प्रशंसाको प्राप्त होता हुआ सत्का करने वाली हम लोगों को सुने और रक
र करने योग्य पुरुष अतीव सुख की भाजाने न छेदन करने योग्य सई से कर्म वना करने वाला हो।' मीने का करें (शनदायम) असंख्य- ऋग्वेद पथम मण्डल सूक्त १६९ ऋचा ४ ) दाय भाग वाले की सीब ( उक्थ्यम् ), हे बहुत पदार्थोंके देनेवाले प्रापतो और प्रशंमा के योग्य असंख्य दाय हमारे लिये अतीब बलवती दक्षिणाके भागी उत्तम संतान को दई-- माघ दान जैसे दिया जाय वैसे दान
हे रात्रि के ममान मुख देने वाली को तथा इस दुगधादि धनको दीजिये जो आप की सुन्दर रूप वाली दीति कि जिमसे आपकी और पयमकी भी और उत्तम बुद्धि हैं जिनगे श्राप देने जो स्तुति करने वाली हैं वे मधर उबाले पति के लिये धनों को देती हो तम दूधके भरे हुए स्तनके समान चाउन से हम लोगों को प्राज प्रसन्नचित्त | हती और अन्नादिकों के साथ बछरों हुई समीप आओ। हे सौभाग्य यक्त को पिलाती हैं -" स्त्री उत्सम देने वाली होती हई हम ऋगवद सप्तम मण्डल सूक्त २५ ऋ०४ लोगों के लिये अरुप प्रकार से पुष्टि
| 'हे--मेनापति--श्राप के सदृश रक्षा फो देशो-"
| करने वाले के दानके निमित्त उद्यत हूं
उम मेरे लिये तेजस्वी श्राप घर सिद्ध आर्य मत लीला।
करो बनाओ"
ऋग्वेद सप्तम मंडल सूक्त ३० ऋ०४ __ स्वामी दयानन्द सरस्वतीजीने जिस | "हमलोग प्राप की प्रशंमा धरै श्राप प्रकार घेदोंका अर्थ किया है उन अर्थों | हम लोगों के लिये धनों को देनो." के पढ़ने से मालूम होता है कि वेदोंके ऋग्वेद सप्तम मंडल मूक्त ३१ ऋ०५
ऋग्वेद सप्तम : गीत हुमवा भाटोंके बनाये हुए हैं जो "हे सद्गण और हरगाशील घोड़ों मनुष्यों की स्तुति करके और स्ततिके वाले हम लोग शाप के जिन पदार्थों अनेक कवित्त सुनाकर दाम मांगा कर को मांगते हैं उनको श्राश्वर्य है आप से हैं- ग्रामीण लोग ऐसे स्तुति करने। हम लोगों के लिये कब देशोगे--..
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ARMANMA
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मार्यमतलीला ॥ ऋग्वेद सप्तम मंडल सूक्त ४ १ दिया करो।
हे विद्वानो जिस स्थिर धनुष बाले ऋग्वेद प्रयम मंडल सूक्त ५१ १०१ । शीघ्र जाने वाले शख अखों वाले तथा
म....जोंको बिअपनी ही बस्तु और अपनी धार्मिक
दारण करने वाले राजाको बाखियोंसे क्रिया को धारण करने वाले शत्रुओं से न सहे जाते हुए शत्रुओं के महने को
हर्षित करो उस धनके देने वाले वि-1. ममर्थ तीन मायुध शख युक्त मेधावी
द्वानका सत्कार करो--, शत्रों को सलाने वाले शरवीर न्याय | ऋग्वद प्रथम मंडल सूक्त ५२ ऋ० २.१० की कामना करते हुए विद्वान केलिये “हे राज प्रजा जन जैसे.....वैसे को इम वासियों को धारण करो वह हम तू शत्रुओं को मार असंख्यात रक्षा कलोगों की इन वाशियों को सुनो। रने हारे वनों में बार २ हर्षको प्राप्त ऋग्वेद छठा मंडल सूक्त ११ ऋ०६ ।
महल सूक १९ ३२६ करता हुमा अनादि के माय बर्तमान हे शनेक सेनानों से युक्त दान करने वाले बलवान के सन्तान प्राप"हम |
| बराबर बढ़ता रह " " अानन्दकारी लोगों के लिये धनों को देते हैं
| व्यवहार में वर्तमान शत्रु का शिर काऋग्वेद छठा मंडल सूक्त ६८ २८
टते हैं सो पाप हम लोगोंका पालन हे सूर्य और चन्द्रमा के तुल्य वर्त- कीजिये । " मान हम लोगोंको प्रशंसा करने और | ऋग्वेद सप्तम मंडल सूक्त १८ ऋ०१-२ देनेवाले राज प्रजा जनी ! जैसे तुम दोनों | "हे राजन श्रापके होते जो हमारे उत्तम यश होने के लिये धन का संव-ऋतुओं के समान पालना करने वाले
सेमे बने अलको प्रमाक और स्तति कर्ताजन समस्त प्रशंमा क. रते हुए हम लोग नाव जालोंको मे | रने योग्य पदार्थों की याचना करते हैं वैसे दख से उल्लंघन करने योग्य कष्टों | आपके होते मुन्दर कामना परने वाली को शीघ्र तरें---
गौये हैं उनकी मांगते हैं प्राप ही के ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त ४२ ऋ० १० होते जो बड़े २ घोडे हैं उनको मांगते हे मनष्य लोगो जेसे हम लोग (सत्तः) | हैं जो पाप कामना करने वाले के लिये वेदोक्त स्तोत्रों से सभा और सेनाध्यक्षा प्रतीव पदार्थों को अलग करने वाले को गुण गान पूर्वक स्तुति करते हैं शत्रु होते हुए पन देते हैं सो आप सबको को मारते हैं उत्तम बस्तनों को याच- सेवा करने योग्य हैं-, ना करते हैं और आपसमें द्वेष कभी " हे ऐश्वर्यवान विद्वान जो नाप उ-1 नहीं करते थैमे तुम भी किया करो। त्पन्न हुई प्रजात्रोंसे जैसे राजा वैसे ऐन
ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्क ४६ ऋ०६ और घोडोंसे धनके लिये तुम्हारी काहे ममा सेनाध्यक्षो हमको प्रमादि मना करते हुए हम लोगोंको तेज बद्धि
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भार्यमतलीला।
(४९)
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वाले करो । जो विद्वान कविताई क-1 के लिये विज्ञानका जिसमें रूप विद्यरनेमें चतुर होते हुए रुपसे वाणियों मान उम उत्तम बुद्धको भिकरीको तीक्ष्ण करो दिनोंसे ही सब ओर | “हे मरण धर्मा मनुष्यो ! जो रक्षा और से निरन्तर निवास करते हो उन्ही | सुन्दर बुद्धि प्रेरणा प्रों में तुम लोगोंकी प्रापको हम लोग निरन्तर उत्साहित मनोहरके समान प्रशंसा करें या जिस
से अच्छे प्रकार की सिद्धिको प्रतीब पार ऋग्वेद दूसरा मंडल सूक्त १९ ऋ पहुंचानी और अपराधको निवृत्त करो
" हे विद्वान आप हमारे लिये प्र- | वा जिमसे निन्दानोंको मोचो अर्थात् भायको मत नष्ट करो और जो आपकोदो वह घोडों को प्राप्त होने वाली की ऐश्वर्यवती दक्षिणा दानकी स्तुति कोई क्रिया बन्दना करने वालेको प्रा-1 करने वाले के उत्तम पदार्थको पूर्ण करे त हो।" वाह जसे हम लोगों के लिये प्राप्त हो! ऋग्वंद चौथा मंडल सूक्त ३२ ऋ०१८-१० वैसे इम को विद्या की कामना करने "हे धन के ईश ! पाप का धन हम वालो के लिये मिखाइये जिममे उत्तम नोगों में प्राप्त हो और पाप की गौके बीरों वाले हम लोग निश्च से मंग्राम हमारों और सकड़ों समूहको हम लोग
प्राप्त कराते हैं.., | ऋग्वद दूमरा मंडल मुक्त २० ऋ० १ . “हे शत्रुत्रों के नाश करने वाले ! जिम " हे विद्वान् जमे मैं महीनं के तुल्य रा- मे अप बहनों के देने वाले हो इसमें जपषों के लिये जिन इन प्रत्यक्ष छत पाप के सुवर्ण के बने हुए घटों के दश को शुद्ध कराने वाली शुद्ध की हुई मत्य मरुया युक्त समूह को हम लोग प्राप्त वाणियांका जिव्हारूप माधनमे होम | होवे--" करता अर्थात् निवेदन करता हूं उन, ऋग्वेद पंच मंगुल मूक्त ६ ऋचा . हमारी वाणियोंको यह मित्र बा मे-! हे विदन...स्तति करने बालोंके लिये वने योग्य बलादि गणोंसे प्रसिद्ध श्रेष्ठ अन्नको अच्छे प्रकार धारण कीजिये.” चतुर दुष्टोंके सम्यक विनाशक पाया- ऋग्वेद पंचम मंदन मक्त १० ऋ० १ धीश प्राप मदेव सुनिये-”
"हे दाता...तथा स्तति करने वालो! ऋग्वंद दूसरा मंडल मुक्त ३४ ऋ०६-१५ | और स्तुति करने वाले के लिये हम
" हे क्रोध से युक्त मनप्यो : तुम हम लोगों को धारण कीजिये और संग्रामों में ! स्नोगों के लिये धनोंको सिद्ध करी घो- वृद्धि के लिये हम लोगों को प्राप्त हूजिये-, होके सम न रात्रि में बागी को प्राप्त ऋग्वेद पंचम मंडल सूक्त ३६ ऋ. १ होमो मनुष्योंकी जैसे स्तुति वैसे ऐश्व- "हे मनुष्यो जो दाता द्रव्योंके देनेको ग्यौंको प्राप्त हो ग्नत कने वाले मानता और धनोंकी देने कालियोंको
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श्रार्यमतलीला ||
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जानता है वह पिपासासे व्याकुल के म और अन्तरिक्षमें चलने वाले के सत्य और असत्यके विभाग कर ने बालोंको प्राप्त होने वाला और काम ना करता हुआ हम लोगोंको सब पकार से प्राप्त होवे और प्राणों के देने वरचे दुग्ध का पान करे भावार्थ उसी को राजा नामो
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ऋद पंचम मंडल सूक्त ६५ "बेदार्थ के जानने वाले हम लोगों का गौमों के पीने योग्य दुग्ध आदि में नहीं निरादर करिये " ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त ५५ हे स्तुति को सुनने वाले ! सोन को पीने वाले सभाध्यक्ष !
०७
ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त ५० ऋ०५ हे सेनादि बल वाले सभाध्यक्ष छाप इस स्तुति करता के कामना को परिपूर्ण करें
| मान आप हम लोगों के बहुत पोषण करने के लिये और धन होने के लिये नाभि में प्राण के समान प्राप्त होवें और ग्रात्मा से जो तुरन्त रक्षा करने वाला अद्भुत आश्चर्य रूप बहुत घा पूरा धन है उस को हम लोगों के लिये प्राप्त कीजिये"
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ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त १८४ ० ४ हे देने वालो ! जो तुम दोनों की नथुरादि गुण युक्त देनि वर्तमान है वह हम लोगों के लिये हो । और तुम प्रशंसा के योग्यकार करने वाले की प्रशंसाको प्राप्त हो प्रो और अपनेको सुनने की इच्छासे जिन तुमको उत्तम पराक्रम के लिये साधारया मनुष्य अनुमोदन देते हैं तुम्हारी कामना करते हैं उनको हमभी अनुमोदन देखें - " ऋग्वेद दूसरा मंडल सूक्त ९४ २९२ "हे धम देने वाले परम ऐश्वर्य युक्त सुन्दर जीरों वाले हम लोग जो तुम्हा रा बहुत अद्भुत पृथिबी बादि बसु से भिन्दु हुए बहुत समृद्धि करने वाले धनको अभोंके लिये हित करने बाली पृथिवी के बीच प्रति दिन विज्ञानरूपी संग्राम यक्ष में कहैं उसको हमारे लिये देको आप ममर्थ करो--"
|
ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त १४१ ऋ० १२ "जो प्रशंसा युक्त जिसके रथ में चांदी | सोना विद्यमान जो उत्तम प्रकाश वाला जिस के ब्रेगवान बहुत घोड़े वह दान शीख जन हम लोगों को सुने और जो गमम शील भिवाम करने योग्य ग्नि के समान प्रकाशमान जन उत्पन्न किये हुवे अच्छे रूप को श्रतीव प्राप्ति क राने वाले गुणों से अच्छा प्राप्त करे वह हम लोगोंके बीच प्रशंमित होता है।' ऋद प्रथम मंडल सूक्त १४२ ऋ० १० प्यारे प्रार्य समाजी भाइयो ! तुम "हे विद्वान् हम लोगों की कामना को स्वामी दयानन्द सरस्वती जीने यह करने वाले विद्या और धन से प्रकाश | यकीन दिलाया है कि, परमेश्वर ने
आर्यमत लीला |
( ७ )
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आर्यनसलीला
(१) सष्टि के श्रादि में प्रथम पषिधी उत्प-1 है बरमा पृथक पृषक गोल हैं जो सूक्त। म की और फिर बिना मा बापके इम | कहलाते हैंपृथिवी पर करते फांदते अवान मन- ऋग्वेद सप्तम मंडल सूक्त २९ ऋचा । प्य तत्पन्न कर रिये । वह मनुष्य म-1 "आप हमारे पिता केसमान जानी थे और बिना मिखाये उनको | उत्तम बद्धि वाले हैं। कह नहीं पा सकता था। इस कारण | ऋग्वेद छठा मंडल सूक्त ४४ ऋचा २२ परमेश्वर ने चार वेदों के द्वारा तमको “हे राजन् जो पह मानन्द कारक सर्व प्रकार का ज्ञान दिया। अपने पिता के शस्त्र और प्रक्षों
शोक है कि स्वामीजी ने इस प्रकार को स्थिर करता है." कथन तो किया परन्तु यह न बताया ऋग्वंद प्रथम मंडल सूक्त १३२ ऋ०१ । कि उनकी इस बात का प्रमाण क्या "अगले महाशयों ने किये धन के है ? और इस बात का बोध उन को
निमित्त मनप्यों के समान आपरख कहां से हुआ कि मष्टि की श्रादि में
करते हुए मनुष्यों को निरंतर सहें।" | बिना मा बाप मे उत्पम मनुष्यों को
ऋग्वेद प्रथम मंडुल्म सूक्त १३४ ऋ० ।। वटों के द्वारा शिक्षा दी गई ? खामी | “मोम को अगले सज्जनों के पीने | जी ने ऋग्वंद का अर्थ प्रकाश किया के समान जो पीता है।" है जिस से स्पष्ट विदित होना है कि
ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त १३९ १०८ | सष्टि की आदि में बिना मा बाप के । “हे ऋतु २ में यह करने वाला उत्पन्न हुवे मनुष्यों को पदों के द्वारा
इस विद्वानो तुम्हारे वे सनातन पुरुषों में | उपदेश नहीं दिया गया है घरन खा
| उत्तम बल हम लोगों से मशतिरस्कृतहों मी जी ने जो अर्थ वेदोंके किये हैं उन |
ऋग्वेद दूसरा मंडल सूक्त २ प्रा.८ | ही अर्थों से ज्ञात होता है कि घेद के द्वारा उन मनुष्यों से मम्शोधन है जो पूवज विद्वामोंने विद्या पदा मा बाप से उत्पन्न हुवे ये, और जिनसे | कर किये विद्वाम वाप” पहले बहुत विद्वान् लोग दो पके हैं और अग्यद दूसरा मंडल सूक्त २० ० ५ उन पूर्वज बिद्वानों के नागकन्न वेद के |"पूर्वाचाय्यों ने किई हुई स्तक्तियों गीतों का बनाने वाला गीत मना रहा को बढ़ावे यह पुरुषार्थी जन हमारा है-हम इस विषय में विशेष न लिखकर | रमक हो । स्वामी दयानन्द जी के अर्थों के अनु- ऋग्वेद दूसरा मंडल सूत्र १२ ऋ.४ सार वेदों के कुछ वाक्य नीलिखते। “वह प्रथम पूर्याचार्यों ने किया और यह हम पहले लिख चके हैं कि उत्तमता से कहने योग्य प्रसिद्ध सन-1 वेदों का मजमून सिलसिले बार नहीं । ज्यों में सिद्ध पदार्थ
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प्रार्यमतलीला ॥
ऋग्वेद प्रथम मंडन्स मूक्त १८० ऋ० ३ ।द्वानजन स्तुति करते हुए धारवाकर
"जो युवावस्था को नहीं प्राप्त हुई/ते हैं उन्हीं की अच्छे प्रकार से प्रशंमा उस गौ में अयस्यासे परिपक्व भाग गौका | करता हूं, पूर्वज लोगोंने प्रसिद्ध किया हुआहे", ऋग्वेद प्रथममंडल सूक्त ११४ ऋ० ऋग्वेद प्रथम महल सूक्त १७६ ऋ०६ । “हे सभापति हम लोगों में से बडे वा
हे योग के ऐश्वर्य का ज्ञान चाहते पढे लिखे मनुष्यों को मत मारो हुए जन जैसे योग जानने की इच्छा .
और हमारे बालक को मत मारो ह. याले किया है योगाभ्यास जिन्हों ने |
मारे जवानोंको मत मागे हमारे गभ उन प्राचान योग गुणासाहया को मत मारो हमारे पिता को मत के जानने वाले विद्वानों से योगमा
मारो माता और स्त्री को मत मारो को पाकर और सिद्ध कर सिद्ध होते अर्थात् पोग सम्पन्न होते हैं वैसे होकर।"
और अन्याय कारी दुष्टों को मारो । ऋग्वेद प्रथम मंडल मुक्त ११ १०५
ऋग्वेद तीसरा मण्डल सूक्त ५५ ३० ३ "जिस बलसे वर्तमान सनातन नाना |
नाना | "उन पूर्वजनों से सिद्ध किये गये प्रकारको बस्तियों में मून राज्यमें परम्प
कर्मों को मैं उत्तम प्रकार विशेष करके रासे निवास करते हुए बिचारवान वि-प्रकरश करूं।" द्वान् जन प्रजाजनोंको चेतन्य करते हैं. ऋग्वद छठा मण्डल सक्त ३
हे बलवान के सन्तान ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त १६३ ऋ३।४/
। ऋग्वंद छठ। मण्डल सूक्त ५ | “म अग्निके दिव्यपदार्थ में तीन प्रयो
हे वनवान के पुत्र | जन अगले लोगों ने कहे हैं उस |
____ ऋग्वंद लठा मण्डल मूक्त १२ को तम लोग जानो-तीन प्रकाशमान हे वलिष्ठ के पत्र । अग्नि में मो बन्धन अगल लागाने अवद छठामराइल सूक्त १५ कहे हैं उसीके ममान मेरे भी हैं-" हे वनवानके सन्तान ।
अग्वेद सप्तम मगनुल नक्त ६ ऋ०२ । ऋग्वद सप्तममंडल सक्त १ | "हे गणन अग्निके ममान जिन आपकी हेव नवान केपुत्र-हेवलवान विद्वानपत्र वाणियांमे मेघ के तुल्य वर्तमान शत्रुओं ऋग्वेद सप्तममंडल मुक्त ४ के नगरोंको विदीर्ण करने वाले रामा हे बलवान के पुत्र के बडे पर्वजराजाओं ने किय ऋग्वेद सप्तमहल सूक्त ८ कर्मों को
हे अलिबलवान् के सत्यपुत्र ऋग्वेद मप्तम मंजुन्न मुक्त ५३ ऋचा १ ऋग्वंद सप्तममंडल सूक्त १५ “उन मूर्य्य और भूमिको अगले विहे अति बलवानके पुत्र राजन् ।
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पुत्र
आर्यमनस्ली ला ॥
( ५३ ) ऋग्वेद मप्तममंडल मूक्त १६ । जिम में सुगम हिन्दी भाषा में भी हे वलबान के पुत्र विद्वान्
वेदों के अर्थ प्रकाश किये गये हैं और ऋग्बद प्रथममंडल सूक्त ४८
जो वैदिक मंत्रालय अजमेर से मिलते | हे पूर्ण वनयुक्त के पुत्र
हैं पढ़ें और वदों के मजमून को जांचें। ऋग्वद प्रथममडल मूक्त 90
स्वामी जी कहते हैं कि वह ईश्वर हे प्रकाश युक्त विद्वान् बलयुक्त पुरुषके कृत हैं हम कहते हैं कि वह ग्रामीगा
कबियों के बनाये हुवे हैं-स्वामी जी ___ ऋग्वेद तीसग मंडल मुक्त २४ ।।
कहते हैं कि उनमें सर्व प्रकारका ज्ञान हे राजधर्मके निवाहक वलयान के पुत्र
है हम कहते हैं कि वह धामिक वा __ ऋग्वेद सप्तममंडल मूक्त १८
लौकिक ज्ञान की पुस्तक नहीं हैं बल्कि हे राजा क्षमा शीन रखने वालके पुत्र
ग्राम के किसान लोग जैसे अपनी माऋग्वेद प्रथम मंडल मूक्त १२१
धारण बुद्धि से गीत जोड़ लिया करते
हैं वैसे गीत वेदों में हैं और एक एक हे बुद्धिमान्के पुत्र
विषय के सैकड़ों गीत हैं बिल्कुन्न बे ___ऋग्वेद प्रथममंडल मुक्त १२२ । विद्याकी कामना करते हुए का पुत्र में तरता
प तरतीब और ब मिल सिला संग्रह प्यारे प्राय: भाइयो ! वेदों के इन उ
किये हुवे हैं आपको हमारे इस सव पर्युक्त वाक्यों को पढ़कर आपको अव
कथन पर अचम्भा पाता होगा और श्य आश्चर्य हुआ होगा और विशेष
मम्भव है कि कोई भाई हमारा कथन आश्चर्य इन बातका होगा कि स्वामी पक्षपात से भरा हुआ समझता हो पदयानन्द सरस्वतीजी में श्राप ही वदों | रन्तु हम जो कुछ भी लिखते है वह के ऐसे अर्घ किये और फिर आप ही इम ही कार गा लिखते कि आप लोगों मत्यार्थप्रकान और वंदभाष्य भमिका को वदों के पढ़ने की उत्तेजना हो। में लिखते हैं कि मष्टि की आदि में | स्वामी जी के वेद भाष्य में जो अर्थ बिना मा बाप के उत्पन्न हरा मनयां | हिन्दी भाषा में लिखे गये हैं वह बमें वेदप्रकाश किये गये । परन्तु प्यारे हुत सुगम हैं पाप की समझ में बहुत भाइयो ! आपने हमारे प्रथम लेखों के | आसानी से भामक्त हैं । इस हेतु आप द्वारा पूरै तीर से जान लिया है कि अवश्य उनको पढ़ें। जिससे यह मब स्वामीजी के कथन अधिकतर पर्वापर बाते आप पर विदित हो जावें । यबिरोधी होते हैं। हम कारण आपको द्यपि हम भी स्वामी जी के भाष्य में उचित है कि आप सत्यार्थप्रकाश और से कुछ कुछ वाक्य लिखकर अपने सब वंदभाष्य भमिका पर निर्भर नर हैं,बरण कथन को सिद्ध करेंगे। परन्तु हम कहां स्वामी जी के बनाये वेद भाष्य को, | तक लिखेंगे ? आप को फिर भी यह
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(५४)
मार्यमतलीला। ही संदेह रहेगा कि वेदों में और भी । बैगी वा प्रथम लकीर चनो सिलाई सर्व प्रकार के विषय होंगे जो इन्होंने | जायेगी ? यदि किसीको होशपार ब.। नहीं लिखे हैं। इस कारण आप हमारे | ढईका काम सिखाना हो तो उसको प्रकहने से अवश्य वेदों को प। म मेज कुर्सी व सुन्दर सन्दूकची मा
जब हम यह बात कहते हैं कि वेद दि बनाना और स्वकड़ी पर सदाईका गंवारों के गीत हैं तो श्राप को अच- काम करना सिखाया जावेगा वा प्रथम म्भा होता है क्योंकि स्वामी जी ने | कुल्हाईसे लकड़ी फाड़ना ! इस ही प्रइसके विपरीत भाप को यह निश्चय कार प्राप स्वयं विचार मारले कि यदि कराया है कि संसार भर का जो शान | वदोंमें उन जंगली मनुष्यों के वास्वेचिहै और जो कछ विद्या धार्मिक वा क्षा होती तो कैसी मोटी और गबारू। लौकिक संसार भर में है वा भागेको शिक्षा होती। होने वाली है वह सब वेदों में है और इस के उत्तर में श्राप यह ही करेंगे वेदों से ही मनष्यों ने सीखी हैं। कि उसके वास्ते प्रथम शिक्षा बहुत ही परन्त यदि आप जरा भी विचार क- मोटी मोटी बातोंकी होती और क्रम २ रेंगे तो आप को हमारी बातका कुछ / से कुछ युख बारीक बातोंकी शिक्षा बभी अचम्मा नहीं रहेगा क्योंकि स्वा-ढ़ती रहती परन्तु यदि शाप बंदोंको मीजी यह भी कहते हैं कि सष्टिको मा- पढ़े तो आप को मालूम हो जाये कि दिमें जो मनुष्य बिना मा बाप के ई- स्वामी दयानन्दजीके अयोंके अनुमार श्वरने उत्पन्न किये थे, बह पश ममान | वदा
| वेदोंका सब मज़मून प्रारम्भसे अस तक अज्ञानी और अंगली वहशियोंकी स
एक ही प्रकार का है। यद्यपि उस में मान अनजान रहते यदि उनको वेदों
कोई शिक्षाकी बात नहीं है बल्कि साके द्वारा माम न दिया जाता। अब
| धारण कमियों के गीत है, परन्तु यदि श्राप विचार कीजिये कि ऐसे पा स-| श्राप उन गीतोंको शिक्षाका ही मज. मान मनष्योंको क्या शिक्षा दी जास-भून कहैं तो भी जिस प्रकार और जिस । कती है? यदि किसी अनपढ को प-विषयका गीत प्रारम्भ में है सतक | ढाया जावै तो क्या उसको वह विद्या | वैसा ही चसागया है। श्राप जानते हैं पढ़ाई जायेगी जो कालिगों में एम० ए० कि ग्रामीण लोन जो खेती करते और | वा बी ए. वालों को पढ़ाई जाती है:/पशु पालते हैं वह वहशी जंगलो कोगोंसे | वा प्रथम मश्रा वगैरह अक्षर सिखाये | बहुत होशमार हैं क्योंकि कमसे कम घर जायेंगे ? यदि किसीको सुन्दर तमवीर बनाकर रहना, नागरे पक्षाकर रोटीसा | वनाना सिखाया जावं तो उसको प्रथम ना बख पदमना, धादिक बहुत काम हो मुन्दर तसवीर बैंचनी बताई जा-| जानते हैं, और वहशी लोग इन कामों
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मार्यमतलीला ॥
(५५) में से कोई काम भी नहीं जानते। देरहा है वा संसारको मनुष्य अपनी न
खानीजी के कथनानुसार जो मनुष्य | घस्था को अनुमार कथन कर रहे हैं.. सधिकादिमें बिना मा बाप पैदा | ऋग्वेद प्रथम मंडला सूक्त १६१ ऋ० ११ किये गये घे वह तो वहणियों से भी प्र- " हे नेता अग्रगन्ता जनी तुम अपने शाम होंगे क्योंकि सम्होंने तो अपनेसे | को उत्तम कामकी इच्छासे इस गवादि पहले किमी मनव्यको या ममय कि- पशुके लिये नोचे और ऊंचे प्रदेशों में सो कर्तव्यको देखा ही नहीं है। इस | काटने योग्य थामको और जलोंको 3कारण जो शिक्षा ग्रामीण लोगों को दी। स्पा करो। जा सकती है उससे भी बहुत मोटो २ जाग्वद चौथा मंडल सूक्त ५७ ऋ४५-८ पातों को शिक्षा वाही लोगों को दी “हे खेती करने वाले जन : जैसे बैल श्राजा सकती है और सष्टिकी भादि में | दि पशु सुख को प्राप्त हों, मुखिया क़. उत्पन हुए मनुष्यों के वास्ते तो बता पायान सुखको करें, हलफा अवयब सुख ही ज्यादा मोटी शिक्षाको अमरत है-- |
जसे हो धैले पथिवी में प्रविष्ट हो और
बैलप्मी रस्मी सुख पूर्वक यांधी जाय, इस कारमा बदि हम यह कहते हैं कि
कसे खेती के साधन के अवयव को मुख वेदों का मज़मून ग्रामीण लोगोंके घि-
पर्यफ ऊपर चलायो। षषका ६ तो हम वहा का मशमा क हे क्षेत्र के स्वामी और भन्य साप रते हैं और जो लोग यह कहते हैं कि दोनों जिम इम कृषिविद्याको प्रकाश घेदों की शिक्षा सष्टिके आदिमें उत्पन्न करने वाली वाणी और जल को कृषि हुए मनुष्यों को दी गई थी जो जंगनी विद्याके प्रकाशमें करते हैं उनकी सेवा। पशु के समान थ अथोत् ग्रामीण लोगो करो इम से इस भमिको साँचो । से। से भी मुख पे तो वह वेदों की निन्दा भनि खोदने की फाल वैन श्रादिकों के करते हैं - खैर ! निन्दा हो वा स्तुति हम को
द्वारा हम लोगों के लिये भूमिको सुख |
| पूर्वक खोर्दै किसान सुख को प्राप्त हों वेदोंके हो मज़मूनों से देखना चाहिये: कि उसका मजमून किन लोगोंके प्रति | मेघ मधुर प्रादि गुण से और जलों से | मासूम होता है-इस बात की जांचक सुखको वर्षा पैसे सुख देनेवाले स्वामी बास्ते हम स्वामी दयानन्द सरस्वती और भृत्य कृषिकर्म करनेवास्ते तुम दोनों जीके वेदभाष्य मर्यात स्वामीजीके ब- हम लोगों में सुखको धारणा करो।, माये वेदोंके भोंसे कुछ वाक्य लिखते | ऋग्वेद पंचम महान सूक्त २० ऋ०२ हैं जिससे यह सब बात स्पष्ट विदित | "हे सबमें प्रकाशमान विद्धन जो अहो जावेगी। और यह भी मालम हो सम प्रकार प्रशंसा किया गया अत्यंत जावेगा कि वेदोंके द्वारा ईश्वर शिक्षा बढ़ता अर्थात् वृद्धि को प्राप्त होता हुआ
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(५६)
भार्यमतलीला। मेरे गौमों के सैकड़ों और बीशों संख्या प्रकार कामना बा उनका उपदेश करता वाले ममूह को और युक्त उत्तम धुरा हुमा विद्वान् प्राप्त होता वा जाता है जिनमें उन ले चलने वाले घोहोंको भी तथा सत्तमता से बजता है उसका तुम | देता है उन तीन गुणों वाले पुरुष के लोग सेवन करो।" लिये श्राप गृह वा सुखको दीजिये।, (दध दहनेवाले ग्वालेकागीत)
ऋग्वेद प्रथम मडल सक्त १२० १०८ | | "आपकी रक्षासे हम लोगोंको दूध | "जैसे सुन्दर जिसके हाथ और गी को
| ऋगवेद प्रथम मंडल सूक्त १६४ . २६ भरे घनों से अपने बछड़ों ममेत मनुच्यादिको पालती हुई गोयें बछड़ोंसे 30
| दुहता हुआ मैं इस अच्छे दुहाती - रहित अर्थात् बन्ध्या मत हों और वे
योत् कामोंको पूरा करती हुई दूध देने हमारे घरोंसे विदेश में मत पहुंचे।" वाली गौ रूप विद्याको स्वीकार कर" ऋग्वंद छठा मंडल सूक्त ५ -१० ऋगवेद मंडल छटा सूक्त १ ऋ०१२
"हे भब प्रोरसे पविद्याके प्रकाश"हे वसने वाले आप हम लोगों में - करने वाले जो आप की व्याप्त होने और पुत्रके लिये पशु गौ श्रादिको तथा बाली, जिस में गौएं परस्पर मोती हैं...गृह और... अन्न आदि सामग्रियों को
और जिससे पशुओं को मिद्ध करते हैं। बहुन धारणा करिये जिमसे हम लोगों वह क्रिया वर्तमान है उम से आपके
के लिये ही मनुष्यों के मदृश फल्यान सुखको हम लोग मांगते हैं। ,
कारक उत्तम पकार संस्कार से युक्त अन्न " हे पशु पालने वाले विद्वान श्राप |
में हुए पदार्थ हों। हम लोगोंके लिये प्राप्तिके अर्थ गौओंको
ऋगवेद पंचम मसहल सू०४१ ऋ.१ अलग करनेवानी और घाहोंका विभाग
| "यज्ञ की कामना करते हुए के लिये
हम लोगों की रक्षा करिये वा प ओं करने वाली और अन्नादि पदार्थ का विभाग करने वाली उत्तम बुद्धिको |
और अन्नों के मदृश हम लोगोंके लिये |
भोगोंको पाप्त कराइये ।, मनष्यों के तुल्य करो।,
ऋग्वेद छठा मंडल सूक्त ५८ ऋ०२) ऋग्वेद पृथम मंडल सू० २८ ३० ९.२ "हे मनुष्यो जो भड़ बकरी और घोड़ों को रखने वाला जो पशुओं की रक्षा
"हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्य युक्त कर्मके करने करने वाला तथा घर में अक्षोंको रख | वाले मनुष्य तुम जिन यज्ञ प्रादि व्यवने वाला बद्धिको तृप्त करता है वह हारों में बड़ी जड़का जो कि भमिसे कह समग्र संसार में स्थापन किया हुआ | ऊंचे रहनेवाले पत्थर और मूसनको अपुष्टि करने वाला शिधि और पदार्थों बादि कूटने के लिये युक्त करते हो उनमें में व्याप्त बुद्धि और गृहों की अच्छे | उसली मूमलके कटे हुए पदार्थों को ग्रहण
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मार्यमतलीला॥
( ५७ ) करके उनकी मवा उत्तमताके भाच रक्षा ने अतिथून काट के उखनी मूमन मिकरो और अच्छे विचारसमे युक्ति के साथ किये हों जो हमारे ऐश्वर्य प्राम कपदार्थमिद होने के लिये इससोनित्य राखाले व्याहार के लिये आज मही चलाया करो-भावार्थ-भारी से प- धुर आदि प्रशंसनीय गुगणवाले पदाशों स्था में गड़ा करके भमि में गाडोमा मिह करने के हेतु होते होंवे मभमिसे कुछ ऊंचा रह उसमें अन्न स्या- दा मनन्धों को माधने योग्य हैं। पन करके मूमल से धमकी कटो।" ऋग्वद प्रथम मंडल मुक्त १६१ ऋ०८ __ "हे"ऐश्वर्य वाले विद्वान् मनाय तुम हे उत्तर धनुषवाला में कुशल अच्छे दो अंघों के ममान जिम व्यवहार में वैद्यो, तुम पथ्य भोऊन वाहनेवाअच्छे प्रकार वा प्रसार अलग २ करनालो से अमाको पिओ इस मज के के पात्र अपांत् शिल घट्ट होते हैं उन! तृों ने शुद्ध निधे हुए जल को पिना को अच्क प्रकार मिद करके शिलबह अथवा नी पिनो यस प्रकार से ही से शुद किये हुए पदार्थों के नकाश कहो औरा को उपदेश देओ।" स मारको प्राप्त हो और उत्तम विचार ऋग्वेद प्रथम मंडल मक्त १२४ से उमी को बार बार पदार्थों पर ध. १ ११ “जमे यह प्रभाव होला लाली ला। भावार्थ । एक तो पत्थरकी शिला लिये हुए सूर्यको किरणोंके सेनाके सनीच रक्वं और दमरी ऊपर से पीमने मान ममूहको जोड़ती और पहले बके लिये यहा जिमको हाथ में लेकर ढ़ती ने पूरी चौबीम ( २४ ) वर्ष । पदार्थ पीसे जांय इनसे प्राधि प्रादि की बान-स्त्रो सान रंगके गौ आदि पदार्थ पीमकर खावं यह भी दृमरा पशुओं के समूहको जोड़नी पीछे उन्नति माधन उखली मूमन के ममान धनना या प्राप्त हानी--, चाहिये।"
। (नोट) किमी गांवके रहने वाले कवि | हे ( इन्द्र ) दुन्द्रियों को स्वामी जीवने या उपरोक्त प्रशंसा पशु चराने बात शिम कर्म में घर के सील स्त्रियां लोखी को की है ।। पनी संगि स्त्रियों के लिये उक्त नव बदनीपरा मंडल मुक्त ३० ऋ० २ सों से मिट्ट की दुई विद्या को "वत्रों को श्रीढ़ती हुई सुन्दर खी हाल ना निकलनादि क्रिया करनी हो- के तुल्य ॥" ती है वैसे उन विद्या को शिक्षा अ (नोट ) इससे विदित होता है कि ! हण करती और कराती हैं नल को वर मभय वस्त्र पहनने का प्रचार बह. भनेक तर्कों के माघ सुनो और हुमत नहीं हुआ था जो स्त्री वस्त्र पहनका उपदेश करो।"
ती थी वह प्रशंमा योग्य होती थी । जो रस खो चने में चतुर बड़े विद्वानों ऋग्वेद प्रथम मंडग मूक्त २६ ऋ. १ ।
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( ५८ )
आर्यमनलीला ।
"हे बल पराक्रन और अनादि प. शेष वृक्षको काटते हैं और जो घोडे के दार्थों का पालन करने और कराने वा-लिये पकानेको धारण करते और पष्टिक ले विद्वान त बस्त्रोंको धारण कर ही। रते हैं। जो उनके बीच निश्चयसे सब भोर | हम लोगोंके इम प्रत्यक्ष तीन प्रकारके से उद्यमी है वह हम लोगोंको प्राप्त होवे। यज्ञको मिद्ध कर। ,
__ "हे विद्वान इस शीघ्र दूसरे स्थानको नोट इससे विदित होता है कि पहुंचाने वाले बलवान घोडेकी जो अउस समय में मनुष्य वस्त्र नहीं पहनते |
नत च्छे प्रकार दी जाती है और घोड़ों को थे इस ही कारणा यज्ञके समय बस्न प
दमन करती अर्थात् उनके बलको दहन कर पाने पर जोर दिया गया है।
खाती हुई लगाम है जो शिरमें उत्तम __ ऋग्वेद छठा मंडल सूक्त २८ ऋ०६ | व्याप्त होने वाली रस्मी है अथवा नो " उत्तम प्रतीत कराने वाले द्वार आदि इमीके मुखमें तृण वीरुध घास अच्छे जिस में उम कल्यान करने शुद्ध वायु प्रकार भरी होघं समस्त तुम्हारे पदार्थ जल और वृक्ष पाले गृहको करिये।, विद्वानों में भी हों।" ऋग्वेद सप्तम मंडल सूक्त ५५ ऋ०५-८ | " हे घोडेके सिखाने वाले शीघ्र जाने
"जो मनष्य जैसे मेरे घर में मेरी मा- | वाले घोडोंका जो निश्चित चलना नि. ता सब ओरसे सोवे पिता मोव कुत्ता सोवे प्रजापति मोवे मब संबन्धी मछ|
श्चित बैठना नाना प्रकार मे चलाना
फिराना और पिछाड़ी बांधना तथा प्रारसे मोवे यह उत्तम विद्वान् मोवे |
उमको उढ़ाना है और यह घोड़ा जो वेमे तुम्हारे घरमें भी मोवें।,
“हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग जो अ-पाता आर जा घासको खाना है व सतीव सब प्रकार उत्तम सुखोंकी प्राप्ति मस्त उक्त काम तुम्हारे हों और यह | कराने वाले घरमें सोती हैं या जो प्रा
| समस्त विद्वानों में भी हों।" प्ति कराने वाले घरमें सोती वा जोप- (नोट) इससे विदित होता है कि लंग मोने वाली उत्तम स्त्री विवाहित घोडे की माई मीका काम उम समय बतथा जिन का शुद्ध गन्ध हो उन मदों हुत अद्भुत समझा जाता था । को हम लोग उत्तम घरमें सुलावे वैसे | ऋग्वेद तीमरा मंडल सूक्त ५३ ऋ० १४ तुम भी उत्तम घरमें सुलानो, “हे विद्वान् ! आपके अनार्यदेशोंमें
ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त १६२ ऋ०६- बमने वालों में गायोंसे नहीं दग्ध प्रा८--१४
दिको दुहते हैं दिनको नहीं पाते हैं को खम्भके लिये काष्ठ काटने वाले वे क्या करते वा करेंगे। और भी जो खम्भेको प्राप्त कराने वाले (मोट ) इससे विदित होता है कि जन पोहों के बांधनेके लिये किसी वि- उस समय ऐसे भी देश जहांके रहने
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भार्यमतलीला।
वालोंको दूधको दुहमा प्रादिक भी न- नहीं हुई है, उनके बास्ते हम यहां हीं पाता था।
तक लिखना चाहते हैं कि वेदोंके गीतों जिस प्रकार खेती करने वाले ग्रा- | के ग्रामीण मनुष्य अपने ग्रामके मुखिमीणा लोग पान कल अपना बैठना | या वा चौधरी या मुकद्दम वा पटेलको उठना उम ही मकानमें रखते हैं जिम ही राजा कहते थे। वेदों में राजाका में डंगर ( पशु) बांधे जाते हैं और व- बहुत वर्णन है और राजाकी प्रशंसा ही पर अपने गंवार गीत भी गाते र- | में ही बहुधा कर वेद भरा हुआ है पहते हैं इस ही प्रकार वेदों के वनाने रन्त जिम प्रकार अधिक खेती और श्रवाले करते थे
धिक पशु रखने वाले ग्रामीणो वेदों अग्वेद प्रथम मंडल सूक्त १७३ ऋ० १ | में राजा माना गया है ऐसा ही सदों "जो सुख सम्बन्धी वा सुखोत्पादक में उनकी ग्रामीण बातोंकी प्रशंसा की अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त प्राकाशके बीच में
| गई है। इस विषय में हम स्वामी दया साध अर्थात् गगन मंडलमे च्याप्त साम | नन्द सरस्वतीजीके वेद भाष्यके हिन्दी गान को विद्वान् आप जैसे स्वीकार अर्थों से कुछ वाक्य नीचे लिखते हैंकरें वैसे गावें और अन्तरिक्षमें जो क
| ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त ११७ ऋचा५ रणें उन के ममान जो न हिमा करने |
| "हे दुःखका नाश करनेवाले कृषि कर्म योग्य दूध देने वाली गौये मनोहर जि-.
| की विद्यामें परिपूर्ण ममा सेनाधीशो ममें स्थित होते हैं उम घरको अच्छे
| तुम दोनों प्रशंसा करमेके लिये भमिके प्रकार सेवन करें उम मामगान और
ऊपर रात्रि में निवास करते और सुख उन गौत्रों को हम लोग मराहें उन का सत्कार करें॥"
समाते हुए के ममान वा सूर्यके समान
| और शोभाके लिये सुवर्णके ममान आयमत लाला। देखने योग्य रूप फारेसे गोते हुए खेत
को ऊपरसे बोओ।" प्यारे प्रायां भाईयो ! हमने स्वामी | ऋग्वेद छठा मंडल सूक्त ४७ ऋचा २२ दयानन्द सरस्वती के भोंके अनुम र "हे सूर्यके सदृश अत्यन्त ऐश्चर्य में यक्त वेदोंके वाक्यों से स्पष्ट मिद्ध करदिया | आ आपके बहुत अन्नोंसे युक्त धन की है कि वदोक गीतों में ग्रामीण लोगों | दशा कोशों ग्वजानोंको प्राप्त होनेवाने अपने नित्य के व्यवहार के गीतगाये | ली भमियों की स्तुति करनेवाला ।” हैं इससे आपको विदोंको स्वयम् पढ़कर ( नोट ) आजकल रैली ब्रादर कठों देखने और जांच करनेका शौक अवश्य रुपयामा अन्न हिन्दुस्तानसे विलायत पैदा होगया होगा जिन भाइयोंको को ले जाता है परन्त वेदोमें उसकी अव भी वेदोंकी जांच करनेकी उसजना सबसे ज्यादा ऐश्वर्यवान माना गया है
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( ६० )
प्रार्यमतलीला ॥
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जिसके दस खाती अनाज हो। करने वाले बुद्धि और प्रजासे युक्त श्राप ___ ऋग्वद चौथा मंडल सूरू २४ ऋ२७ को गौओं को गतियोंके सदृश मच्छ "जो राजा प्राज...एश्वर्य युक्तके लिये प्रकार चलने वाली भमियां और सा ( सोमम् ) ऐश्वर्यको उत्पन्न करें पाकों मयं वाली बछड़ोंकी विस्तृत पंक्तियों को पकायें और यचों को भो......बल के सदृश आपकी प्रजा हैं।" युक्त मनुष्य को धार गा करै वह बहुत | ऋग्वेद छठा मंडल सूक्त २० ऋ०४ जीतने वाली सेनाको प्राप्त होवे।| "हे विद्वानों में अग्रणी जनों, जिसराजा | ऋग्रद सप्तम मंडल सूक्त २७ ऋ० १ | के होने पर पाक पकाया जाता है भंजे
"हे राजा जी शत्रों की हिंसा करने हुए अन्न हैं चारों ओर से अत्यंत वाले वन मे कामना करते हुए श्राप मिला हुआ उत्पन ( सोम ) ऐश्वर्यका मनप्य जिस में बैठने वा गौये जिम में योग वा ओषधिका रस होता है...... विद्यमान ऐसे जाने के स्थान में हम यह पाप हम लोग के राजा दूजिये।" लोगों को अच्छे प्रकार सेधिये ।" (नोट) यह हम अगले लेखों में सिद्ध । ( नोट ) ग्रामीण लोगोंके बैठने का करेंगे कि भंगको सोमरस कहते थे देखो बह ही मकान होता है जिस मैं गौ वेदोंके ममय में जिम राजाके राज्य
आदि पशु बांधे जाते हैं। होने के समय में भोजन पकाया जादै __ ऋग्वेद छठा मंडन्न सूक्त १५ ऋ० १६ | अ
| और भना हुमा अनाअभीर भंगवाटी। "हे सुन्दर सेना वाले विद्वान् राजन् ।
| आवै उसकी प्रशंमा होती थी
| ऋग्वद छठा मंडल सूक्त ४५ ऋ० २४/ प्रसिद्ध आप मम्पर्ण विद्वानों वा बीर जी दष्ट चोरोंको मारने वाला राजा परुषोंके साथ बहुत अरके वस्त्रों से यदि वा काँसे अत्यंत विभाग कर युक्त गृह में वर्तमा हो।”
में वान्लेके प्रशंमिन गौन्द्यिमान और (नोट) यह हमने पहले सिद्धकिया
चलते हैं जिम में उसको प्राप्त होता! किटानों के माप में वस्त्र पहननका
है वह ही हम लोगों को स्वीकार कर | प्रवाद बहुत कम था और राजा मा
र राजा आ. (नीट) जिम राजाके यहां गऊ और दिनई दबी जो बस पहनते थ चढनेके वास्ते सवारी उसकी प्रशंसा 'उनको नरहन प्रमा होती थी और ऐया की गई है। मानम होता है फि ईका कपडा बु- ऋग्वेद प्रथम मंडल सक्त १३४ ऋ०६ न की विद्या उनकी मान्य नहीं शो "हे पान बनवान...जो आपकी ममस्त बरमा उन में ही काजल आदिक बा- गए हो भोगने के कान्तियुक्त पतको लेते थे।
| पूरा करती और अच्छे प्रकार भोजन ऋग्वेद छठा मंडल यन्स २४ ऋ० ४ करने योग्य दुग्धादि पदार्थ को पूरा "हे बहुन मामध्यवान दत्रके नाश करती ।"
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ऋग्वेद पंचम मंडल सूक्त ३१ "सेनाका देश गौश्रांका पालन
बाला ।,,
आर्यनतलीला ॥
ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त ११५ ऋ० २ " हे सूर्य के समान वर्तमान राजन् श्राप के जी प्रवल ज्वान वृषभ उत्तम अन्न का योग करने वाले शक्ति बन्धक और रमण साधन रथ और निरन्तर गमनशील घोड़े हैं उनको यत्नवान करो अथात् उन पर चढ़ो उन्हें कार्य कारो करो ।”
ग्रामीण लोगों में जैसे खमी आदिका काम अन्य मनुष्यों अधिक जानने वाला
से
कुछ बुद्धिमान गिना जाता है। इस
ऋग्वेद मप्तन मंडल सूक्त १८ ऋ० १६ | ही प्रकार वेदोंमें जिनको जो ऐश्वर्य युक्त शत्रुछोंको विदीकर | विद्वान् वर्णन किया गया है
ने वाला शुभ गुणों में व्यास राजा पके हुए दूधको पनि वा वर्षने वा तल करने वाले सेनापतिको पाकर अनैश्वर्य को दूर करता है
वह ऐसे ही ग्रामीण लागधे यथा:
"
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ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त ४२०८ हे सभाध्यक्ष... उत्तम यत्र यदि औषधि होने वाले देश की प्राप्त कीfaa .. ऋग्वेद छडा मंडल सूक्त ६० ऋ० ७ “हे सुबकी भावना कराने वाले सूर्य और faith समान ममा सेनाघोशो आप दोनों ओ प्रशंसा ये प्रशंसा करती हैं उनसे सब ओर से उत्पन्न किये हुए दूध आदि रमको पिश्री ।"
..
० १ करने
ऋग्वेद दूसरा मंडल सूक्त २१ ऋ२९३ "जो पत्रित्र हिंमा अर्थात् किमी से दुख को न प्राप्त हुआ राजा जिनसे अच्छे जी आदि अन्न उत्पन्न हों उन जलों के निकट बनता है।
( ६१ )
ऋग्वद प्रथम मंडल सूक्त १३८ ऋ०४ "हे पुष्टि करने वाले जिनके दूरी (बकरी) और घोड़े विद्यमान हैं ऐसे ।,,
ऋग्वेद प्रथम मंडल मुक्त ५३ ० २ विद्वानोंकी पूजा स्तुति करते हैं जो कृषि शिक्षा दें सित्रोंके मित्रों दूध देने वाली गौके सुख देने वाले द्वारों को जाने उत्तम यव आदि अन्न और उत्तम धनके देने वाले हैं ।
आनंद प्रथम मंडल सूक्त १४४ ऋ० ६ "हे सूपके समान प्रकाशमान विद्वान् आप ही पशुओं की पालना करने वाले के ममान अपने से अन्तरिक्ष में हुई बृष्टि आदि के विज्ञान को प्रकाशित करते हो ।
०५ ऋग्वेद दूसरा मं
"
हल मूक्त 9 हे भव विषयों को धारण करने वाले विद्वान् जो मनोहर गोत्रों से वा बेगों से वाजिन में शा ठ सत्यासत्य के निर्णय करने वाले चरमा हैं, उन बाणों से बुलाये हुये आप हम लोगोंके लिये सुख दियेहुए हैं मो हम लोगोंसे महकार पाने योग्य हैं,, ०६ ऋग्वेद दूसरा मंडल सूक्त
ܕ ܙ
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( ६२ )
मार्यमतलीला। २७ " हे विद्वान लोगो ! हमको-उपदे- समय में प्रागे को बढ़ावें और बलवान श करो और जो यह बड़ी कठिनता | आप दीपते हुए अग्नि की लपट से से टूट फूटे ऐसे विद्यापामादि के रिश- जैसे काष्ठ मादिके पात्रको वैसे दुःशीमा ये बना हुवा घर है वह हमारे लि- दुराचारी दस्यु को जलानो इस से ये देशो ।,
| मान्यभागी होश्रो।" ऋग्वेद दूसरा मंडल सूक्त ४२ ऋ०३ ___ ऋग्वद प्रथम मंडल सूक्त ५२ ऋ०५ " कल्यान के कहने वाले होते हुवे
८-१० . जो सूर्य के समान अपने शश्राप उत्तम घरोंके दाहिनी ओर से
खां की दृष्टि करता हुवा शत्रुओं को शब्द करा अथांत उपदेश करी जिप्तसे
प्रगल्भतादि खाने हारा शत्रों को चोर हम लोगों को कष्ट देने को मत म
छदन करने वाले शख समूह से युक्त मर्थ हो ।
सभाध्यक्ष हर्ष में इस युद्ध करते हुए ऋग्वेद तीमरा मंडल सूक्त २१ ऋ२९ / शत्र के ऊपर मध्य टढी तीन रेखा"हे संपर्ण उत्पन्न पदार्थो के ज्ञाता
ओं से सब प्रकार ऊपर की गोल चिकने घत और छोट पदार्थोके दाता
रेखा समान बगको सब प्रकार भेदन विद्वान !,
करता है,-हे मभापति भजाओंके आर्यमत लीला। .
मध्य लोहे के शस्त्रों को धारण की.
जिये बीरों को कराइये ॥ राजपूताने के पुराने राजाओं की क- | "बलकारी बज़ के शब्दोंसे और भयमे थानों के पढ़ने से मालूम होता है कि | बनके माथ शत्रु लोग भागते हैं।" राजा लोग लडाई में भाटों को अपने | ऋग्वंद प्रथम मंडल मुक्त ६३ ऋचा २-६-७ साथ ले जाया करते थे जो लड़ाई के “हे सभाध्यक्ष जिस बज से शत्रओं कविता सुना कर बीरों को लड़ने की को मारते तया जिम से उनके बहुत उत्तेजना दिया करते थे। इस प्रकार नगरों का आतने के लिये इच्छा करते के गीत वेदों में बहुत मिलते हैं। हम और शत्रओं के पराजय और अपने स्वामी दयानन्द के वद भाष्य से कुछ बिजय के लिये प्रतिक्षण के जाते हो बाक्य इस विषय के नीचे लिखते हैं। | इमसे मब विद्याओं की स्तुति करने ऋग्वद प्रथम मंडल सूक्त १७५ ऋचा ३ | वाना मनुष्य आप के भुजाओं के बल
"हे सेनापति जिम कारण शूरबीर के आश्रय से बज को धारण करताहै। निडर सेना को संबिभाग करने अर्थात् हे मभाध्यक्ष संग्राम में श्राप को नि पद्मादि व्यूह रचना से बांटने वाले श्चय करके पुकारते हैं। श्राप मनुष्या और युद्ध के लिये प्रवृत्त | हे उत्तम शस्त्रां से युक्त"सभा के नकिये हुए रथ को प्रेरणा दें अर्थात् युद्ध | धिपति शत्रुओंके साथ युद्ध करते हुवे
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आर्यमतलीला ॥
जिस कारण तुम उन २ शत्रुओं के नगरों को बिदारण करते हो हम काया आप हम सब लोगों को मत्कार करने योग्य हो ।”
ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त ८० ऋचा १३ अपनी सभाओं का शत्रुओं के साथ अच्छ प्रकार युद्ध करा शत्रु को मारनेवाल .... आप का यश बढ़ेगा ।" ऋग्वेद तोमरा मंडल सूक्त ४६ ऋ० २ प्रसिद्ध बीरों को लड़ाइये शत्रुओं को पराजय को पहुंचाइये । ऋग्वेद प्रथम मंडन सूक्त १६२ ऋचा १ ऋतु २ में यज्ञ करने हारे हम लोग संग्राम में जिस वेगवान विद्वानों में वा दिव्य गुणों से प्रगट हुए घोड़े के पराक्रमों की कहेंगे उम हमारे घोड़े के पराक्रमों को मित्र श्रेष्ठ न्यायाधीश ज्ञाता ऐश्वर्यवान बुद्धिमान और ऋविज् लोग छोड़के मत कहैं और उसके उनकी प्रशंमा करें । प्रनुकूल
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ऋग्वेद चौथामंडल सूक्त१८ ऋ० का भावार्थ। जैसे नदियां खलल अरांती हुई saar करती हुई तटों की तोड़तो हुई जाती हैं वैसे ही सेना शत्रुओं के सन्मुख प्राप्त होवे ।
ऋग्वेद चौथा मंडन सूक्त १९ ऋ०८ सेना से शत्रुओं का नाश करो जैसे नदी तटको तोड़ती है । ऋग्वेद चौधा मंडल सूक्त ४९ ऋचा २ वह महाशयों के साथ संग्रामों में शत्रुओं की सेनाओं और शत्रुओं का नाश करता है उसको यशस्वी सुनता हूं
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( ६३ )
ऋग्वेद मम मंडल सूक्त ६ ऋचा ४ हे मनुष्यों जो मनुष्यों में उत्तम २ बाशियों से बरा चलना जिसमें हो उम अन्धकार में प्रान्न्द करती हुई पूर्वको चलने वाली सेनाओं को करता है... उसका हम स्लोग मत्कार करें ।,,
वेद में बहुत से गीत ऐसे मिलते हैं जो योधा लोग अपनी शूरवीरता की प्रशंसा में और लड़ाई की उत्तेजना में गाया करते थे तथाः
ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त १६५ ऋ० ६-८
" जमे बन्नवान् तीव्र स्वभाव वाला में जो बलवान् ममग्र शत्रुके बधसे न्हवाने वाले शस्त्र उनके साथ नमता हूं उसी मुझको तुम सुखसे धारण करो। "
हे प्राणके ममान प्रिय विद्वानो ! जिसके हाथमें वज है ऐसा होने वाला मैं जैसे सूर्य मेघको मार जलों को सुन्दर जाने वाले करता है वैसे अपने कोघसे और मन से बल से शत्रुओं को मा रता हूं ।
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ऋग्वेद तोमरा मंडल सूक्त ३१ ० १ हे सेना के अधीश जैसे हम लोग मेघके नाश करने के लिये जो बल उस के लिये सूर्यके ममान संग्राम के सहने वाले बलके लिये आपका आश्रय करते हैं वैसे आप भी हम लोगोंको इस बल के लिये बर्ती । "
ऋग्वेद पंचम मंडल सूक्त ४ ऋ० १ आपके साथ संग्रामको करते वा कराते हुए हम लोग मरण धर्म वाले शत्रुनोंकी सेनाओं को मब ओरमे जीतैं इससे धन, और यश से युक्त हावें,
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(६४)
आर्यमतमीला ॥ स्वामी दयानन्द सरस्वतीजीके वेदों, सार तो हमारे अनुमान में प्रायः एक के अर्थोंस यह मालूम होता है कि वेदों निहाई वेद शत्रओंके मारने के गीतोंके बनानेके ममय में एक ग्रम | को ही चर्चामें भरा हुआ है वामियोंका दूसरे ग्राम बामियों से नि- ऐमा भी मालूम होता है कि संग्राम त्य युद्ध रहा करता था और बहुत कुछ लड़के वास्ते भी होता था अर्थात् शमार धाड़ रहती थी-आज कल भी द-त्रओं को पराजय कर के उनको लटलेते खने में प्राता है कि एक ग्राम याले दू-थे और नटको पोद्धा लोग आपस में सरे ग्राम वाले को खतो काट लेते हैं बांट लाते थे हम स्वामी दयानन्द के पश घरा लगाते हैं वा मीमापा झवेद भाष्यक हिन्दी अर्थोसे कच वाक्य गड़ा हो जाता है परन्तु मत्र ग्राम | | इस विषय में नीचे निखते हैंवाले एक राज्यके आधीन होने के का- ऋग्वेद नीमरा मंडन सक्त ३७ ऋ०५ रण आज कल लड़ाई नहीं बढ़ती है। जिस प्रकार सेना का अधीशमैं-- बरमा अदालतमें मुकदमा चलाया जा- शत्रुके नाशके लिये तथा संग्रामों में ता है परन्तु उस समय जैसा हमने गत | धन आदि को बांटने के लिये | लेखमें सिद्ध किया है ग्रामका चौ | राजाको ममीप मैं कहता हूं वैसे आप
| लोग भी इमके समीप कही--, धरी वा मुखिया ही उस ग्रा.
ऋग्वद पंचम मंडल सूक्त ६२ ऋ०९ मका जमीन्दार वा राजा हो | "जिमसे हम लोग विभाग कतांथा इस कारण ग्राम के मव लोग जानते
रते हुए शत्रुओंके धनों की जी. उमही के साथ होकर दूमरे ग्राम वालों
"तने की इच्छा करने वाले हवे-, से लहा करते घ और मनप्य बध कि ऋबंद छठा मंडल मुक्त २० ऋचा १० या करते थे--तुम ममय का इ कोई राजा
" श्राप रहगा श्रादि से हम लोग ऐमा भी होता था जो दो चार वा अ-मान नारियांका विभाग करें।, धिक ग्रामोंका गाजा हो और लड़ाई वेदांके गीतों के बनाने वाले कवियों में कई २ ग्राम के राजा भी मम्मिलत का ऐमा बिचार था कि मेघ अर्थात् वाहोजाया करते थे- वटामें शत्रओं दल पानीकी पोट बाध लेता है और को जान से मारडालने और पानी की भूमि पर नहीं गिरने देता
.! है-सर्दी जो मनष्यों का बहुत उपकारी
है वह वादल से युद्ध करता है और की प्रेरणा के विषय में बहुत का प्ररणा क विषयम बहुतमार मार कर बादलोंको तो हालता
अधिक गीत भरे हुए हैं खामी है तब पानी परमता है वेदों के कदयानन्द सरस्वतीजीके अर्थों के अनु- | वियों ने बादलोंको मार डालने के का
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प्रार्यमतलीला ॥
(६५) रण सूर्य को महान योद्धा और सा- | मैं वैसे शत्रुओं को मासं उनको इधर इसी माना है वेदों के गीतों में वेदों उधर फेंक और उन को तथा किला के कवियों ने योद्वानों और वीर प- प्रादि स्थानों से युद्ध करने के लिये रुषों की प्रशंसा करते समय वा उन | आई मेनाओं को छिन्न भित्र करूं। को युद्ध की उत्तेजना करते ममय यह दुष्ट अभिमानी युद्ध की इच्छा न क. ही दृष्टान्त दिया है कि जिस प्रकार | रने वाले पुरुष के ममान पदार्थों के सर्य मेघों को मारता है इस प्रकार रसको इकट्ठे करने और बहुत शत्रुओं सम शत्रों को मारो हमारे अनमान को मारने हारे के तुल्य अत्यन्त बल | में तो वेदों में एक हजार बार वा कम युक्त शूरबीर के ममान सूर्य स्नोक को | से भी अधिक बार यह ही दृष्टान्त दि- ईर्ष्या मे पुकारते हुए के सदृश बर्तता या गया है बरण ऐमा मालम होता है जब उमको रोते हुए के मदृण सूर्य है कि वेद बनाने बोल्ने कधियों के पास | | ने मारा तब वह मारा हुवा सूर्यका इस दृष्टान्त के सिवाय कोई और तु- गत्र मेघ सूर्य से पिस जाता है और ष्टान्त ही नहीं था-इस प्रकार वेदों में वह इस सूर्य की ताड़नाओं के ममूह हज़ारों बार कहे हुवे एक दृष्टान्त के | को सह नहीं मक्ता और निश्चय है कि हम पांच सात वाक्य नमूने के तौर | इस मेघ के शरीर से उत्पन्न हुई न. पर लिखते हैं
दियां पर्वत और पृथिवी के बड़े बड़े ऋग्वेद छठा मंडल सूक्त १७ ऋचा १ / टीलों को छिन्न भिन्न करती हुई वह
हे शस्त्र है हस्त में जिनके ऐसे-ती हैं बैंसे ही सेनाओं में प्रकाशमान मेघों को सूर्य जैसे वैसे सम्पूर्ण
सेनाध्यक्ष शत्रओं में चेष्टा किया करें। शवों को प्राप विशेष करके नाश
जल को मेघ रोके हुये होते हैं ढके
रखते हैं सर्य मेघ को तोडकर ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक ३२ ऋ०१-६-११ | जल घरसाता है।
हे विद्वान् मनुष्यों तुम लोग जसे | ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त ६२ ऋचा ४ सूर्य के जिन प्रसिद्ध पराक्रमोंको कही जैसे सूर्य्य मेघ को हनन करता है उनको मैं भी शीघ्र कहूं जैसे वह सब | वैसे शवों को विदारण करते हो । पदार्थों के छेदन करनेवाले फिरणोंसे | | ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त ८० ऋचा १३ युक्त सूर्य मेघ को हनन करके बर्षाता सूरज मेघ को जिस प्रकार हनन कउस मेघ के अवयव रूप जलों को नीचे | रता है इस प्रकार शत्रु को मारनेवाले अपर करता उसको पथिवी पर गि- मभापति । राता और सन मेघों के सकाश से न- ऋग्वेद प्रथम मंडल सक्त १२१ की ऋ० दिपों को छिन्न भिन करके बहाता है | ११ का प्राशय
करिये।
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।
| करिये।,
(६६)
भार्यमतलीला ॥ जिसप्रकार सूर्य मेघकी मारताहै। निश्चयसे इन शत्रुनोंको तोड़ कोहर इस तरह शोंको मारकर ऐसी नींद / लट पुलट कर अपनी कीर्ति से दिशामुलानो कि वह फिर न जागे।
ओं को अनेक प्रकार ज्यात करो। ऋग्वेद तीसरा मंडल सूक्त ३० वा
ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त १९७ २०२१ जसे सूर्य मेषको पीमता है वैसे प्रा- "डाक दुष्ट प्राशीको अग्नि से जलाते प शत्रों का नाश करो।
हुये अत्यंत बड़े राज्यको करो।" ऋग्वेद तीसरा मंडल सूक्त ४५ ० २ | ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त १३३ १०२
सर्य जैसे मेघों को तोडता है वैसे "शत्रुओंके शिरों को विक भिष कर।, हम लोग भी शत्रओं के नगरोंके मध्य | ऋग्वेद तीसरा मंडल सूक्त १८०१ में वर्तमान बीरों को नाश करें। | "उन प्रतिकूल बर्तमान शत्रुओं को भस्म | शत्रओं को मारने के गीतों
ऋगवेद तीसरा मंडल सूक्त ३० ऋ०६ में तो साराही वेद भरा पड़ा
“दूरस्थल में विराजमान शत्रुओं की है परंत उसमेसे हम कुछ एक
। वाक्य स्वामी दयानन्दके वेद | ऋगवेद तीमरा मंडल सूक्त ३० ३०१५ | भाष्य से नाचे लिखते हैं। | "जो मारनेके योग्य बहुत विशेष शस्त्रों ऋग्वेद सप्तम मंडल सूक्त ३० ऋचा ३ | वाले शत्रु मनुष्य हों उनका नाश क
हे सर्यके समान वर्तमान इम संग्रामो | रके बढ़िये ।" में"उमहोम करने वाले के समान श ऋगवेद चौथा मंडल सूक्त ४ ०४-५ अनओं को युद्ध की आग में होमते हुए | “शत्रुओं के प्रति निरन्तर दाह देखो। अग्नि के समान ।
"शत्रुओंका अच्छे प्रकार नाश करिये | ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त २१ ऋचा ५/
और बार बार पीडा दीजिये।, जिस अमि वायुसे शत्रुजन पुत्रादि |
। ऋगवेद चौथा मंडल सूक्त १७ ०३ रहित हों उनका उपयोग सब लोग
"शस्त्र को प्राप्त होते हुए बलसे शत्रुक्यों न करें।
ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त ३२ ऋचा१२ | ओं की सेना का नाश करो और सेना साप शत्रुनोंको बांध शस्त्रोंसे काटते | से शत्रुनोंका नाश करके रुधिरोंको ब.|
इस ही कारख यवों में हम आपको हो।" अधिष्ठाता करते हैं।
स्वामी दयानन्दजीके अयों के अनु. अग्वेद प्रथम मंडल सूक्त ३८ ऋचा३ | सार वेदोंके पढ़ने से यह भी मालम | जिम प्रकार वायु अपने बल मे वृक्षा- होता है कि जिम ग्राम वासियों ने दि को उग्बाइ के तोड़ देती है वैसे | वेदके गीत बनाये हैं उनकी कह वि-! शोंकी सेनाओंको नष्ट करो और | शेष ग्राम वासियों से शत्रता पूरी
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श्रार्यमतलोला ॥
((s)
ऋगवेद प्रथम मंडल सूक्त ५४ वा ६ आप दुष्ठों के हह नगरों को नष्ट करते हो ।"
जमी हुई थी और उन शत्रुओं को और | प्राप्त होने को समर्थ होते हैं।" उनके नगरोंको सर्वथा नाश करना ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त ५३ ०७-८ चाहते थे और बहुतसे ग्रामों वाले मि | प्राप इस शत्रुनों के नगर को नष्ट करते. लकर इनके शत्रु हो गये थे । यथाः- हो दुष्ट मनुष्यों के सकड़े नगरों को ऋगवेद प्रथम मंडल सूक्त १७४ ० ८ भेदन करते हो । "हे सूर्य्य के समान प्रतापवान राजन् | आप युद्ध को निवृत्तिके लिये हिंसक शत्रुजनोंको सहते हो । आप जैसे मा चीन शत्रुओं की नगरियों की नि भिन्न करते हुए वैसे भिन्न अलग २शariat दुष्ट नगरियको नमाते ढहा ते हो उससे राक्षस पन संचारते हुये शत्रुका नाश होता है यह जो आप के म शूरपने काम हैं उनको नवोन प्रजा जन प्राप्त होवें ।” ऋग्वेद सप्तम मंडल सूक्त१८ ऋ० १३ " जैसे परम ऐश्वर्य्यवान् राजा बल से हम शत्रयों के सातों पुरों को विशेष ता से छिन्न भिन्न करता ।,,
ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त ९३०००० "आप शत्रुओं की नवे नगरियों को बिदारते नष्ट भ्रष्ट करते ।,,
ऋग्वेद तीसरा मंडल सूक्त ३४ ऋ० ९ "हे राजपुरुष शत्रुओं के नगरों को तोड़ने वाले आप शत्रुओं का उल्लं पन करो ।
ऋग्वेद इठा मंडल सूक्त ३१ ऋषा ४ "हे राजन् प्राप शत्रुके सैकड़ों नगरों का नाश करते हो ।
ऋगवेद चौघा मंडल सूक्त ३० ऋ० ३० "जो तेजस्वी सूर्य के सदृश प्रकाशके सेत्रने वाले और देने वाले के लिये मेंघों के समूहों के सदृश पाषाणों से बने हुए नगरों के सैकड़े को काटे वही विजयी होने के योग्य होवै ।"
ऋग्वेद वठा मंडल सूक्त १३ कुत्रा २ शत्रुओं को मारता हुआ तथा धनोंको प्राप्त होता हुआ शत्रुओं के नगरोंको निरन्तर विदीर्ण करता है वह ही से नापति होने योग्य है ।"
ऋग्वेद चौथा मंडल सूक्त ३२ ऋ० १० "हे राजन् कामना करते हुए आप श त्रुनों की जो सेविकाओं (दासियों') के सदृश सब प्रकार रोग युक्त नगरियों को सब ओर से प्राप्त हो कर जीतते हों उन आपके बल पराक्रम से युक्त कम का हम लोग उपदेश करें ।”
ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त ४१ ऋषा ३ "जो राजा लोग इन शत्रुओंके (दुर्ग) दुःखसे जाने योग्य प्रकोटों और नगर को छिन्न भिन्न करते और शत्रुओोंको करदेते हैं वे चक्रवर्ती राज्य को
ऋग्वेद सप्तम मडल सूक्त १८ ऋ०१४ "जिन्हों ने परमैश्वर्य युक्त राजा के सम स्त ही पराक्रम उत्पन्न किये वे अपने
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(€)
श्रार्यमतलोला ॥
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सोते हैं ।"
आर्यमत लीला ॥ ( १० )
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की भूमि चाहते और दुष्ट अधर्मी जमों | आदि में ईश्वर ने प्रकाश को मारने की इच्छा करते हुए साठवी | नहीं किये बरण जब कि दस्यु र अर्थात् शरीर और मात्मा के बल लोगोंके साथ लड़ाई हुआ और शूरता युक्त मनुष्य छः सहस्र शत्रुओं को अधिकता से जीतते हैं वे रती थीं और मकान और न भौ छासठ सैकड़े शत्रु जो सेबन की गर और कोट और दुर्ग अकामना करता है उसके लिये निरंतर | र्थात् किले बन गए थे उस समय वेदों के गीत बनाये गये हैं-वेदों में स्वामी जी के प्रथ अनुसार दस्यु लोगों को कृष्ण वर्ण स्वामी दयानन्द सरस्वतीओ ने स- अर्थात् काले रंग के मनुष्य त्यार्थप्रकाश के अष्टम समुल्लास में लि- किया है-जिस से मालूम होता है खा है कि आदि सृष्टि में एक मनुष्य कि स्वामी जी ने जो दस्यु का अर्थ जाति थी पश्चात् श्रेष्ठों का नाम श्रार्य चोर डाकू किया है वह ठीक नहीं है विद्वान देव और दुष्टों का दस्यु - क्योंकि सृष्टि की आदि में चोर डाकू र्थात् डाकू मूर्ख नाम होनेसे श्रार्य और हो जाने से क्या कोई मनुष्य काले रंग दस्यु दो नाम हुए आर्थों में पूर्वोक्त का हो जाता था इस से यह ही माप्रकार से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और नम होता है कि जो लोग अपने को शूद्र चार भेद हुए जब आर्य और द आर्य कहते थे वह अन्य देश के रहने स्युमों में अर्थात् विद्वान् जो देव - वाले थे और काले रंग के दस्यु म्य विद्वान् जो असुर उन में सदा लड़ाई | देश के रहने वाले थे अर्थात् अंग्रेजोंका बखेड़ा हुआ किया जब बहुन उपद्रव कथन इस से सत्य होता मालम होता होने लगा तब आर्य लोग यहां आकर | है कि श्रार्य लोगों का हिम्दुस्तान में बसे और इस देश का नाम श्रार्यावर्त भील गौड़ संघाल आदि जंगली और हुत्राकाले वर्ण की जातियों से बहुत भारी युद्ध रहा
बंद के पढ़ने से भी यह मालूम होता है कि जिनके साथ वेदोंके गीत स्वामी जी सत्यार्थप्रकाश में लिखते बनाने वालों की लड़ाई रहती थी । हैं कि श्रार्य और दस्यु लोगों का जत्र और नित्य मनुष्यों को मारकर खून | बहुत उपद्रव रहने लगा तब लाचार बढ़ाया जाता था उन को बहुधाकर होकर अर्थात् हारकर प्रार्य लोग तिवेदों में दस्तु लिखा है - इस से भी रूपवत से इस हिन्दुस्तान देश में भाग छाये ष्ट मिट्ट होता है कि वेद सृष्टि की परंतु आश्चर्य है कि बेदों को ईश्वर का
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आर्यमतलीला ॥
(16) वाक्य बताया जाता है और ईश्वर ने अर्थात् तिब्बत देश में प्रथम मनुष्यों वेदों में चिल्ला २ कर और बार बार का उत्पन्न होनाही सर्वषा प्रसंगात बरण हजारों बार यह कहा है कि होता है और यह ही मालम होता है तुम्हारी जीत हो, तुम शत्रों को कि
| कि मर्व ही देशों में मनुष्य रहते चले मारो और दस्यों का नाश करो प-आये हैं।
| दस्यु और राक्षमोंको विध्वंम करने रंतु ईश्वर का एक भी वाक्य सच्चा न
के विषय में जो गोन वेदों में है उन हना और प्रायों को ही भागना पड़ा-1 में से कछ बाक्य स्वामी जी के प्रों स्वामी दयानन्दजी ने सत्यार्थप्रकाश
के अनुसार नीचे लिखे जाते हैं। में यह भी लिखा है कि मार्यावर्तदेश
ऋग्वेद चौथा महामसक्त १६ ऋचा १२-१३ से दक्षिणा देश में रहने वाले मनुष्यों
| सहस्रों (दस्यन्) दुष्ट चोरों को शीघ्र का नाम राक्षम है, परन्तु वेदों में रा.
नाश कीजिये ममीप में इंदन कीजिकमों से भी युद्ध करने और उनका स- ये सहस्रों कृष्ण वर्ण वाले सैन्य जनों त्यानाश करने का वर्णन है। इससे | का विस्तार करो और दुष्ट पुरुषों का स्पष्ट बिदित होता है कि वेदों के नाश करो। गीतों के बनाने के ममय आर्यावर्त ऋग्वंद चौथा मंडन सूक्त २८ ऋचा ४ देश से दक्षिणा में रहने वाले मनुष्यों | (दस्यन) दुष्टों को सबसे पीडा युक्तकरें से भी लड़ाई होती थी। तिब्बत प्रा. ऋग्वेद चौथा मंडल सूक्त ३० सवा १५ यावर्त देश के उत्तर में है और राक्ष- पांचसो वा महस्री दृष्टों का नाश करो स आर्यवर्त देश से दक्षिण में है इस ऋग्वेद चौथा मंडल सूक्त ३८ चा १ हेत राक्षमों से लड़ाई हो नहीं मक्ती राजन आप और सेनापति हरते जब तक लाने वाले भारावर्त में न हैं दस्य जिससे ऐसे होते हुए । बसते हों। इस से स्वामी जी का ऋग्वेद पंचम मंडल सूक्त०४चा ६ यह कथन सवधाही झठ होता हे बलवान के पुत्र-बध से ( दस्यु )। है कि नियत देश में सष्टि साहस कर्मकारी चौर का अत्यंत की आदि में वेदों का प्रकाश
| नाश करो।
ग्वेद पंचम मंडल सूक्त २९ ऋचा १० किया गया और तिब्बत से
मुख रहित ( दस्यून् ) दुष्ट चोरों का आने से पहले किसी देश में आनस पहल कसा दश मबध से नाश करिये। कोई मनुष्य नहीं रहता था अग्वेद पंचम मंडल सूक्त 97 ०३ क्योंकि यदि कोई मनुष्य नहीं रहता जिमसे हम लोग शरीरोंसे (दस्पन्के) था तो भार्यावर्त देश के दक्षिण में इष्ट चौरों का नाश करें। राक्षस लोग कहां से उत्पन्न हो गये? | ऋग्वेद छठा मंडल सूक्त २३ ऋचा २
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कार्यमसलीला ॥
के समान इस वर्त्तमान पुष्ट करने के योग्य छ आदि के विभाग कारक : संग्राम में धनों के उत्तम प्रकार जीतने वाले प्रति प्रधान संग्रामोंमें नाश करते और सुनते हुए तेजस्वी वृद्धि कर्ता अत्यंत धन से युक्त शत्रुओं के बिदारने वाले का स्वीकार वा प्रशंसा
वेदों के बढ़ने से मालूम होता है कि वेदों के समय में प्रायः तीर और बज अर्थात् गुज यह दोही हथियार थे । धनुष के द्वारा तीर चलाते थे मौर गुर्ज हाथ में लेकर शत्रु को मारते थे । ऋग्वेद तीसरा मंडल सूक्त ३१ ० २२ और तोरों की आघात से बचने के हे बीर पुरुषो जैसे हम लोग रक्षा | वास्ते कबच जिसको फारसी में जरा श्रादिके लिये मेघों के अवयवों को सूर्य | बक्सर कहते हैं पहनते थे । तीर और गुजं और कवच का कथन वेदों के मेक गीतों में आया है। इन के सिवाय और किसी अन शस्त्र का नाम नहीं मिलता है । परन्तु आज कल तोप और बन्दूक जारी होगई हैं जिनके सामने तीर और बज सब हेच हो गये हैं और तोप बंदूक के गोले गोलियों के मुकाबिले में कवच से कुछ भी रक्षा नहीं हो सकती है। इसी कारण थाज कल कोई फ़ौजी सिपाही कवच नहीं पहनता है। और प्राज कल सोप और बंदूक भी नित्य नई से नई और
ऋग्वेद तीसरा मंडल सूक्त ५३०१ छअसुर का अर्थ शत्रु ॥
अद्भुत बनती जाती हैं । यद्यपि वेदों में तीर, बज्र और कवच के सिवाय और किमी हथियार का वर्णन नहीं है परन्तु जिस प्रकार बेदी के गंवारू गीतों में स्वामी जी ने कहीं कहीं रेल और रेल के ऐंजिन और दुखानी ज अनेक प्रकार के रूप वा विकारयुक्त हाज़ का नाम अपने अर्थों में ज़बरदरूप वाले शत्रु 11 ऋग्वेद चौथा मंडल सूक्त ४० १ १५ सन्ताप देने वाले शस्त्र आदिकों से ( राक्षमः ) दुष्टों को पीड़ा देखो(राक्षसः) दुष्टा चरणों को भस्म कीजिये
( ७0 )
दस्युकानाश करिये
ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त ५२८ ५ मापक्ष- (दस्त्येषु ) डाकु यों के हननरूप संग्रामों में उन को नि भिन्न कर दीजिये ।
करे वैसे इस पुरुष का आप लोग भी ब्राह्नान कर-ऋग्वेद तीसरा मंडल सूक्त ३४० दस्यूका नाश करके प्रार्थोकी रक्षा करें ऋग्वेद तीसरा मंडल सूक्त ४० ऋ० २ शत्रुओं को दुख देनेवाले बीरों के माथ दस्यु के प्रायुः अवस्था का शीघ्र नाश करे उसको सब का स्वामी करो
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स्ती घुमेड़ दिया है, इस ही प्रकार ऋग्वेद प्रथम मंडलके सूक्त ८ की ऋचा
३
के हिन्दी अर्थ में तोप बंदूक थादिक सब कुछ प्रकाश कराया है अर्था तु इस प्रकार शिक्षा है।
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भार्यमतलीला ॥
(११) हम लोग पार्मिक और शूरवीर हो| अज्ञानी रहना विल्कुल अ. पर अपने विजय के लिये ( बज्ज )| प्रमाण सिद्ध होजाता है परन्तु गनों के बलका नाश करने का हेतु जो कुछ भी हो उन का कथन कितना मायाखादि अस्त्र और ( घना) श्रेष्ठ ही पूर्वापर विरुद्ध हो जावै और चाहे शत्रों का समूह जिनको कि भाषा में उनके मारे मिद्धान्त श्राप से श्राप खंतोप बंदूक तलवार और धनुषवागा डित होजावे परन्तु स्वामीजी को तो मादि कर के प्रसिद्ध करते हैं जो युद्ध रेल तारबर्की, और तोप बन्दूक का की सिद्ध में हेतु हैं उन को ग्रहण क- नाम किमी न किसी स्थान पर लिख
कर यह जाहिर करना था कि वेदों में बद्धिमान पुरुषो ! बिचार करो कि सर्व प्रकारकी विद्या भगी हुई है। अब वज और घना हम दो शब्दों हम स्वामी दयानन्दजीके ही वेदों के के अर्थ में किम प्रकार तोप बंदूक श्रा
अर्थोंको नीचं निखकर दिखाते हैं कि दिक अनेक हथियार घमेड गये हैं: किस प्रकार वेदों में तीर और गर्म और परन्तु हमारा काम यह नहीं है कि / कवचकाही वणन किया है और उन हम स्वामी जी के प्रों में गलती नि.का अवस्था एस हा हाथयारोके धारण काले प्योंकि हम तो प्रारम्भ मे वेदो करनेकी थी । वेदोंके गीत बनाने वाले के विषय में जो कह स्मिख रहे हैं बह ग्रामीण लोग तोप बन्दूकको स्वप्न में स्वामी जी के ही अर्थों के अनुमार | भी नहीं जानते थे । और यदि उस लिखरहे हैं और आगामी भी उनही | ममय तोप बन्दूक होते तो शरीर को के प्रों के अनुमार लिखेंगे । इस का- | कवचसे क्यों ढकते ? ॥ रख इमतो केवल इतनाही कहना चा-| ऋग्वेद मप्तम मंडल सूक्त १६ ऋ०२-५ हते हैं कि वेदों में कहीं भी तोप बं- “बिजली के तुल्य बजको दुष्टों पर दूक के बनाने की विधि नहीं बताई प्रहार कर-हे हाथमें बज रखने वाले , गई है वरन तीर, कमान, बज वा घना ऋग्वेद बठा मंडल सक्त २२ ऋचार के बनाने की भी बिधि नहीं मिखाई " दाहिने हाथ में (बजम ) शख है जिस से यह ही जात होता है कि और अखको धारण करिये।" वेदों के प्रकाश से पहले से मनुष्य ऋग्वेद छठा मंडल सूक्त २३ | तोप बंदक शादिक का बनाना जानते “भजात्रों में बज को पारख करते। थे जिससे वेदों का सष्टि की हुए जाते हो।
ऋग्वेद छठा मंडल मूक्त २७ ऋचा ६ आदिमे उत्पल हाना आर"तीस सेकडे कवच को धारण किये हुए। वेदों के विना मनुष्यों का ग्वेद छठा मंडल सूक्त ७५ चा९-१६-१७
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| (७२)
प्रार्यमतलीमा ।
" हे वीर...कवचधारी होकर अजीके अर्थों के अनसार दिखा चुके हैं। नवि शरीरसे तुम शत्रुओं को जीतो अब हम सोमका बर्थन करते हैं जिसके सो कवचका महत्व तुम्हें पाले , मधन में भी अनुमान एक चौथाई वेद
"हे बागों को व्याप्त होने वालों में मरा हुधा है! मोम एक मद करने उत्तम मैं तेरे शरीरस्थ जीवन हेतु अं- वाली वस्तु थी जिसको उम समयके गोंको कवचसे ढांपता हूं।" लोग इकट्ठे होकर पीते थे । वेदों में ऋग्वेद तोमरा मंडल सूक्त ३० ऋ०१६ सोम पीने की बहुत अधिक प्रेरणाकी
" इन शत्र ओंमें अतिशय तपते हुए गई है मोम पीने के बास्ते मित्रों को बजको फेंकके इनको उत्तम प्रकार वि- बुलाने के बहुन गीत गाये गये हैं प नाश कीजिये।,
रन्तु यह नहीं बताया है कि सोम
श्या बस्तु है? स्वामी दयानन्द मरऋग्वेद तीमरा मंडल सूक्त ५३ ऋ२४ |
स्वती जीने वेदोंके अर्थ करने में मोम " संग्रामम धनुषका तात क शब्दका का अर्थ औषधिका रम वा बड़ी प्रोनित्य सब प्रकार प्राप्त करते हैं उसकी
| षधिका रम बा ओषधि समूह वा सो और उन को आप अपने प्रात्माके स-मलता वा सोमवाली किया है। परदृश रक्षा करो।,
स्तु यह आपने भी नहीं बताया कि ऋग्वेद पंचम मंडल सूक्त ३३ ऋचा | जिस सोम पीने की प्रेरणामें एक चौ.
" संग्राममें त्वचाकी आच्छादन क-चाई वेद भरा हुआ है वह सोम क्या रने और रक्षा करने वाले कवच को औषधि है। वदोंमें सिवाय इस मोम देते हुए । ,
के और किसी औषधिका बर्षम नहीं ऋ. पंचम मंडल सूक्त ४२ ऋचा १९ है और न किसी रोगका कथन है । " जो सुन्दर बालोंसे युक्त उत्तम घ. इस कारण स्वामी जीको बताना चानुष वाला,
हिये था कि यह क्या औषधि है और आर्यमत लीला। किस रोग के वास्ते है।
| केवल औषधि कह देनेसे कह काम प्यारे मार्य भायो ! प्राधा वेदन- नहीं चलता है क्योंकि जितनी खाने हाई करने' शत्रओं को मारने, मनष्यों की वस्तु हैं वह सब ही औषधि हैं
अन भी औषधि है और दूध भी, शका खून करने और लुटमार श्रादिक . की प्रेरणा और उत्तेजना वा राजासेला
राव भी औषधि है और संखिया भी:
मालम होता है कि स्वामी जी रक्षा की प्रार्थमा में भरा हुधा है।को यह सिद्ध करना था कि संसारभर जिस का नमूना हम भली भांति पि- में जो विद्या चाहे वह किसी विष. बले लेख में खामी दयानन्द सरस्वतीय की हो वह सब वेदोंमें है और वेदों
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मार्यमतलीला #
( ७३ )
वेदों से भित्र मनुष्य को किसी प्रकार को भी विद्या नहीं हो सकती है । स्वामी जी ने वेदभाग्य भूमिका में वेद की एक ऋषा लिखकर जिसमें यह
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से ही संसार के मनुष्यों में सीखी है | स्वामी जी मे तो सारी वैद्यक सिखा दी परंतु हम ऐसे भागे हैं कि हम पर इस मंत्र का कुछ असर न हुवा और हम को किमी एक भी औषधिका नाम वा उस का गुण मालूम न हुआ इस कारण हम की इस बात के खोज कदार्थ है ?- इस हेतु हम इस की खोज रने की जरूरत हुई कि सोम क्या प वेदों ही से करते हैं
विषय था कि एक श्रौर एक दो और दो और एक तीन होता है यह सिद्ध कर दिया है कि वेदों में सारी गणित विद्या भरी हुई है। और किसी किसी स्थान में जबरदस्ती रेल, तारबर्को | श्रौर घाग पानी के जिन का नाम घुमेड़ कर यह विदित कर दिया है कि वदों में मधे प्रकार की कलों की विद्या है । और एक सूक्त के अर्थ में ज़बर
'वेदों में अनेक स्थान में सोम का पोना मद अर्थात् नशे के वास्ते वर्णन किया है स्वामी जी ने मद का अर्थ श्रानन्द किया है इस अर्थ से भी नशे की पुष्टि होती है क्योंकि नशा नं
दस्ती तोप बंदूक का नाम इस बातकेद के ही वास्ते किया जाता है वेदों में स्थान स्थान पर सोम को मदके वास्ते ही पोने की प्रेरणा की है परंतु हम उनमें से कुछ वाक्य स्वामी जी के वेद भाध्यके हिन्दी अर्थोंसे नीचे लिखते हैं। ऋग्वेद उठा मंडल सूक्त ६८ ऋचा १०
का शब्द
जाहिर करने के वास्ते लिख दिया है कि सर्व प्रकार के शस्त्रों की विद्या भी वेदों में है । इसी प्रकार सोम को अर्थ प्रौषधि का समूह करने का यह ही मंशा मालूम होती है कि यह सिद्ध होजाये कि वेदों में सब प्रकार की प्रौषधियों का भी वर्णन है और है भी ठीक जब औषधि समूह वेदों में आ गया तो धन्य कौन मो औषधि रही जो वेदों में नहीं है ? बरम यही कहना चाहिये कि वैद्यक, यूनानी हिशमत डाक्टरी आदिक जितनी विद्या इस समय संसार में प्रचलित हैं वा जो जो श्रौषधि जागामी को निकाली जायेगी वह भी सब वेदों में मौजूद हैं"प्रौषधि
( मद्यम् ) जिससे जीव प्रानन्द को प्राप्त होता है उस सोम को पियोऋग्वेद तीसरा मंडल सूक्त ४१ ० ९ सङ्ग्राम और (मदाय ) ज्ञानन्द के लिये ( मोम ) श्रेष्ठ औषधि के रसका पान करो और पेट में मधुर की को सेवन करो ।
लहर
ऋग्वेद चौथा मंडल सूक्त १४ ० ४ हे स्त्री पुरुषो ये क्रिम कारण जाप दोनों के (सोमः ) ऐश्वर्य के सहित पदार्थ इस मेल करने योग्य गृहाश्रम में मधुर समूह" यह मंत्र लिखकर गुणों से पीने योग्य के लिये होते हैं
1
१०
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( ४ )
प्रार्बनरलीला ॥
इस कारण उन का इस संसार में सेवन | समझा है और इस कारण कि सोन
करके पराक्रम वाले होते हुए आप दोनों (मादयेघाम) ग्रामन्दित होवें ।
ऋग्वेद सप्तन मंडल सूक्त २६ ऋ० २ सोमरस "जीवात्मा को इर्षित करता है ऋग्वेद का मंडल सूक्त ४० ऋचा १ हे राजन् ! जो आप के लिये (मदाय) हर्ष के अर्थ उत्पन्न किया गया सोमलता का रस है उसको पीजिये । ऋग्वेद छठा मंडल सूक्त ४४ ऋचा ३ (मदः) ज्ञानन्द देने वाला वह (सोम) श्रीषधियों का रस पत्र किया गया आप का है उसकी भाप वृद्धि कीजिये ऋग्वेद चौघा मंडल सूक्त ४९ ऋचा २ हे राजा और उपदेशक विद्वान् जनो ! | आप दोनों के मुख में ( मदाय ) - नन्द के लिये पान करने को प्रति उसम (सोमः) घड़ी प्रौषधिका रस यह सब प्रकार से सींचा जाता है इस से आप समर्थ होवें । ऋग्वेद पंचम मंडल सूक्त ४३ ऋचा ५ हे अत्यंत ऐश्वर्य से युक्त विद्वन् जिन से आप के बड़े प्रीति से सेवन किये गये प्रज्ञान तथा चातुर्य्य बल और (मदाय) आनंद के लिये (सोमः ) बड़ी जोषधियों का रस वा ऐश्वर्य उत्पन किया जाय । हम ऐसा सुनते हैं कि फिरंगी वि- | द्वान् जिन्हों ने वेदों का अर्थ किया है और वेदों को पढ़ा है उन्होंने वेदों में | यह कथन देखकर कि सोम मदके बास्ते पिया जाता था सोम को मदिरा
ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त १७५० २ हे सभापति छाप का जो सुख क रने वाला स्वीकार करने योग्य वीर्य कारी जिसमें बहुत बहन शीलता बिद्यमान जो अच्छे प्रकार रोगों का विभाग करने वाला जिससे मनुष्यों की सेना को सहते हैं और जो मनुष्यस्वभाव से विलक्षण (मदः) प्रोषधियों का रस है वह इन लोगों को प्राप्त हो । ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त ९६६ ० १ जो स्तम्भन देने वाले अर्थात् रोक देने वाले जिनका धन विनाशको नहीं प्राप्त हुवा पूर्ण शत्रुओं के मारने हारे मच्छी प्रशंसाको प्राप्त जन संग्रामों में शूरता आदि गुण युक्त युद्ध करने वाले के प्रथम पुरुषार्थों वलों को जानते हैं ( मदिरस्य) अानन्द दायक रस ( पीतये ) पीने को सत्कार करने यो ग्य विद्वान का अच्छा सत्कार करते हैं। ऋग्वेद कठा मंडल सूक्त २० चा ६
|
रस की उत्पत्ति वेदों में वनस्पति से लिखी है उन्होंने यह नतीजा निकाला है कि ताड़ी आदि किसी कि शेष वृक्ष का यह मद है जिस से मा पैदा होता है उन का ऐसा समझना कुछ अचम्भे की भी बात नहीं है क्योंकि वेदों में मदिरा का भी वर्णन मिलता है इसकी सिद्धि के अर्थ हम कुछ वाक्य स्वामी दयानन्द जी के वेद भाग्य से लिखते हैं-
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मार्यमतलीला ॥
(७ (मदिरम् ) मादक द्रव्य- देवे और गुख वेलेवें जो ये बडे हो
परन्त वेदों में कही सपनहोसोम और तुम दोनों की इच्छा कराए पदापि मदिरा नहीं हो सकती है ब-(सोमासः) ऐचर्य युक्त माश रहित रन बह भंग और पता है जिसको (अतिरोमालि) अतीवरीमा अर्थात् वेदों के गीत बनने के समय पिया क- नारियल की जटाओं के प्राकार समा-1 रते थे और जिस को अब भी वेदों के | तन सुखों के समान औरोंसे तिरछे मानने वाले हिन्दू लोग बहुधा कर शुद्धि करने वाले पदार्थों और तुम दोपीते हैं । यसप देश में भंग का प्रचार नों को चारों ओर से सिद्ध करें उम नहीं है यह लोग भंग को नहीं जानते को तुम पित्रो और अच्छे प्रकार प्राप्त हैं इन कारण भंग का अनभव होगा होशोउनको असम्भव पाइसही हेतु उन्हों। (नोट) वेद में प्रतिरोमाथि शब्द ने यह गलती खाई है परन्तु हम स्वा- जिसका अर्थ है बहुत रोमवाला स्वामी मी जी के प्रों के अनुसार ही वेद जी ने भी प्रतीवरीमा अर्थ किया है। वाक्यों से सोम को भंग और धतूरा| परन्तु अर्थ को रलाने के वास्ते यह सिद्ध करेंगे-सोम भंग और धतूरे के सि | भी लिख दिया है कि अर्थात नारियचाय और कोई वस्तु होही नहीं सक्ती-ल की जटाओं के प्राकार। है-सोम का अर्थ वास्तव में चन्द्रमा है। भंग सिल बडे पर रगड़ी जाती है। चन्द्रमा शीतल होता है और इसदेश जिसका बर्णन नीचे लिखे वाक्यों में के कवि लोग शीतल बस्तुको चन्द्रमा है और रगड़ कर पानी मिलाने का से उपमा दिया कहते हैं भंग पीने वा- कयन है। ले भंगको ठंडाई कहते हैं इस ही से ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त १३००२ ऐसा मालम होता है कि कवियों ने हे सभापसि अतीव प्यासे बेल भंग का नाम मीम रखलिया था- के समान वलिष्ठ विभाग करने वाले __ भंग का पत्ता देखने पर मालम हुधा प्राप शिलाखंडों से निकालनेके योग्य कि उस पर छोटे छोटे बस रोमहोते | मेघसे बढ़े और संयुक्त किये हुवे के सहैं और पत्ते पर तिर्की लकीर होती मान सोम को अच्छे प्रकार पिनोहैं ऐसा ही स्वरूप वेद में सोम का माग्वेद प्रथम मंडल सूक्त १३७० बणन किया है
| हे प्राण और तदान के समान सर्व ऋग्वेद प्रथम मंडल सक्त १३५ ०६ मित्र और सर्वोत्तम सज्जमो हमारे
या की चाहमा करने वालों ने जलों अभिमुख होते हुए तुम तुम्हारी जिस | में उत्पन्न किई ( सोमः ) बड़ी २ श्री. निवास कराने वाली घेन के समान षधि पुष्टि करती हुई तुम दोनों को पत्थरों से बड़ी हुई सोम बल्ली को
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( ७६ )
छे
दुइते जलादिसे पूर्ण करते मेघों से | (सोमपीतये) उत्तम प्रोषधि रस जिस में पिये जाते उसके लिये ऐश्वर्य को परिपूर्ण करते उसको हमारे समीप पहुंचाओ जो यह मनुष्यों ने सोम रस सिद्ध किया है वह तुम्हारे लिये प्रकार पीने को सिद्ध किया गया है । ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त १३५ ऋ० ५ अच्छे प्रकार पर्वत के टूक वा खली मूसलों से सिद्ध किये अर्थात् कूट पीट बनाये हुये पदार्थों के रस ( मदश्य ) आनन्द के लिये तुम पीओ ऋग्वेद तीसरा मंडल सूक्त ३६ ऋ० २-६
को
सेचनों से मथे हुए बढ़ाने वाले रस का पान कीजिये ।
प्रार्थनतलीला ॥
जो राजा श्रेष्ठ पुरुष होता हुआ सभात्रों को प्राप्त होवे इससे वह गुणों से पूर्ण औषधियों का सार भाग और (सोम) औषधियों का समूह जल को जैसे प्राप्त होवे वैसे सम्पूर्ण प्राणियों को सुख देता है ।
दूधिया हो जाता है उसका वर्णन इस प्रकार है । ऋग्वेद चौथा मंडल सूक्त २१ ऋचा ५ हे मनुष्यों जो बहुत श्रेष्ठ धन युक्त गौश्रोंसे सम्बद्ध बढ़े हुए श्वेत वर्ण बाले घड़े जल और छानको पीनेके लिये (मदाय ) श्रानन्दके लिये धारणा करता है और जो ( शूर ) भयसे रहित अत्यन्त ऐश्वर्यवाला (मदाय ) ज्ञानन्द के लिये अपने नहीं नाश होनेकी इच्छा करने वालोंके साथ मधुर आदि गुणों के प्रथम प्रयत्न से सिद्ध करने योग्य छानन्द के पीने को धारण करता है वह नहीं मह होने वाले बलको प्राप्त होता है ।"
भंग में मोठा मिलाया जाता है उस का वर्णन निम्न प्रकार है और वेदोंके पढ़ने से यह भी मालूम होता है कि वेदों के समयमें शहतकी ही मिठाई थी और कोई मिठाई नहीं थी । ऋग्वेद छठा मंडल सूक्त ४४ ऋचा २१
“प्राप उत्तम सुखके वर्षाने वाले लिये पानको स्वाद से युक्त मोमलताका रस ( मधुपेयः ) शद्दत के साथ पीने योग्य हो ।,,
भंग पाकर दही आदिक भोजन खाते हैं उसका वर्णन इस प्रकार हैऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त ९३१ ऋचा २ " हे पढ़ने वा पढ़ाने वाले जो सुन्दर मित्रके लिये पीनेको और उत्तम जनके
सफेद | लिये सत्याचरण और पीनेको प्रभात
भंग में दूध मिलाया जाता है उसका भी बर्णन इस प्रकार है:
पीता है।
ऋग्वेद तीसरा मंडल सूक्त ५८ ऋ० ४ गौवों के दूध आदि से मिले हुए सोमलता रूप औषधियों के रसों की मित्र लोगों के सदृश देवें । ऋग्वेद चौथा मंडल सूक्त २३ ऋचा १ (सोम) दुग्ध आदि रसको
दूध मिलाने से भंग
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आर्यनतलीला ॥
बेलाके प्रबोधमें सूर्य मंडलकी किरणों | आर्यमत लीला॥ के साथ औषधियोंका रस सब ओरसे
(१२) सिद्ध किया गया है उसको तुम प्राप्त | हो तुम्हारे लिये ये गोले वा टपकते |
घेदों में सोम पीने वाले की बड़ी
| तारीफ (प्रशंसा) की गई है यहां तक हुए ( सोमासः) दिव्य औषधियोंके।
कि जो चोरी करके पीवे उसकी बहुत रस और जो पदार्थ दहीके साथ भोजन किये जाते उनके समान दही से |
ही प्रशंमा है भंगह लोग भी भंग पीने
वाले को इम ही प्रकार प्रशंसा किया मिले हुए भोजन सिद्ध किये गये हैं उन्हें।
करते हैं हम इस विषय में स्वामी जी भी प्राप्त होश्रो।,
के वेदभाष्य के हिन्दी अर्थों से कह ऋग्वेद तीसरा मंडल सूक्त ५२ प्राचा
माक्य नीचे लिखते हैं। हे (शूर) दुष्ट पुरुषके नाश कर्ता उस
ऋग्वेद तीसरा मंडल सूक्त ४८ ०४ आपके लिये दधि आदि से युक्त भोजन
जो यह भक्षण करने वाली सेनाओं करनेके पदार्थ विशेष और भूजे अन्न | में साम की चोरी करके पीव"वह रातथा पुत्राको देवं उसको समूह के सहित | ज्य करने के योग्य होवेबर्तमान प्राप उत्तम मनुष्यों के साथ भ. | ऋग्वेद सप्तम मंडल सूक्त ३१ ऋचा १ क्षमा कीजिये और सोमकोपान कीजिये।, हे मित्रो तुम्हारे मनुष्य वा हरण. धतूरेके बीज भीभंगमें मि-शील घोड़े जिसके विद्यमान हैं उस
| सोम पीने वाले परम ऐश्वर्यवान्के लिये लाये जाते हैं उसका बर्णम
| प्रानंद से तुम अच्छे प्रकार गाओ। इस प्रकार है:
ऋग्वेद चौथा मंडल सूक्त ४६ ऋ०१ ऋग्वंद प्रथम मंहरू सूक्त १८७ ऋचा हे वायु के सदृश बलयुक्त जिस से
हे (मोम) यधादि औषधि रस व्या- | श्राप श्रेष्ठ क्रियाओंमें पूर्व वर्तमान जनों पी ईश्वर गौके रससे बनाये वा यवादि का पालन करने वाले हो इससे मधुर औषधियोंके संयोगसे बनाये हुए उस रसों के बीच में उत्तम उत्पन्न कियेगये अबके जिस सेवनीय अंशको हम लोग | रमको पाम कीजिये।। सेबते हैं उमसे हे ( बातापे ) पवम के | ऋग्वेद पंचम मंडल सूक्त र ऋ०५ समान सब पदार्थों में व्यापक परमेश्वर जो सम्पूर्ण विद्वान् जम मोम ओषउत्तम वृद्धि करने वाले हूजिये।,, | |घि पान करने योग्य रस को अनुकूल ऋग्वंद तीसरा मंडल सूक्त ३६ ऋचार देते हैं वे बुद्धिसे विशेष ज्ञानी होते हैं।।
"जिस पुरुषके दोनों ओरके उदर | ऋग्वेद पंचम मंडल सूक्त ४० ऋ०४ के अवयव (सोमधानाः ) मोमरूप | । जो सोमरसका पीने धाला दुष्ट शत्रुऔषधियोंके बीजोंसे युक्त गम्भीर ज- ओंका माश करने वाला हो उसही को लाशयोंके सदृश बर्तमान हैं।,, अधिष्ठाता करो।
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प्रार्थमसलीला ||
१८ )
ऋग्वेद पंचम मंडल सून ७२ ऋ० २ हे निश्चित रक्षण और यह कराते हुए जनों वाले मनुष्यो जो तुम धर्म के और धर्म युक्त कर्मके साथ वर्त्तमा न होवे सोम पीने के लिये उत्तम व्यबहार में उपस्थित हूजिये,
ऋग्वेद दूसरा मंडल सूक्त १८० ४०-५ हे परम ऐश्वर्य युक्त बुलाये हुए छाप दो हरण शील पदार्थों के साथ मान से जाइये चार हरण शील पदार्थों के साथ यान से छानो छः पदार्थों से युक्त यान से जानी जाठ वा दश पदार्थो
।
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ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त ५४ सोम के पीने वाले धार्मिक विद्वान पुरुष कर्म से वृदु शत्रुओं के बल ना शकवे सब प्राप की सभा में बैठने योग्य सभासद और भृत्य होवे I
|
शाम फल जिम प्रकार भंग पीने वा ले मंगड़ भंग न पीने वालों की बुराई करते हैं और भंग की तरंग में गीत गाते हैं कि, वेटा होकर भंग न पीवे बेटा नहीं वह बेटी है।
इस ही प्रकार वेदों में भी न पीने वाले की बुराई की गई है, बरन उस पर क्रोध किया गया है यहां तक कि उसको मारने और लूट लेने का उपदेश किया है यथा
ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त ११६ ० ४ हे राजन् प्राप उस पदार्थों के सार | खींचने आदि पुरुषार्थ से रहित और से बिनाशने योग्य समस्त छादुःख लखी गण को मारो दंडदेओ कि जो | विद्वान् के समान व्यवहारों को प्राप्ति करता है और तुम्हारे सुख को नहीं पहुंचता तथा आप इस के धनको इमारे अर्थ धारया करो
युक्त यान से माओ जो यह उत्पन किया हुआ पदार्थों का पीने योग्य रस है उस पदार्थों के रस के पोनेके लिये भ्राम्रो ।
हे असंख्य ऐश्वर्य देने वाले युक्त होते हुए आप वीस और तीस हरने वाले पदार्थों से चलाये हुए मानसे जो मो थे को जाता है उस सोम आदि औषधियों में पीने योग्य रस को प्राप्त होश्रो प्राशी चालीस पदार्थों से युक्त रथ से आओ पचास इरणशील पदार्थों से युक्त सुन्दर रथों से प्राछो साठ वा सत्तर हरणशील पदार्थोंसे युक्त सुन्दर रथोंसे श्राश्रो,
(इसी प्रकार आगेकी ऋचामें मट और सौ भी कहते चले गये हैं हम क हां तक लिखें )
ऋग्वेद दूसरा मंडल सूक्त ३० ऋचा ७ ' हे मनुष्यो ! जो मुझे तृप्त करे जो मुझको सुख देवे तो मुझ को निश्चित बोध करावे जो इन्द्रियों से यज्ञ करते हुए मुझ को अच्छे प्रकार समीप प्राप्त होवे वह मुझ को सेवने योग्य है जो मुझको नहीं चाहता नहीं श्रम करता
मोम की तरंग में इस प्रकार बेतुका और नहीं मोह करता इन लोग जिस गीत गाया गया है । को ऐसा नहीं कहें उस ( सोमम् ) श्री
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( 9 )
fe रमको तुम लोग मत खींचो। " ऋग्वेद वठा मंडल सूक्त ४७ ऋचा ३
हे मनुष्यो ! जैसे यह पान किया। गया सोमलता का रस मेरी वाणी को कामना करती हुई बुद्धि को बढ़ाता है। जिससे यह जन कामनाको प्राप्त होता है जिससे यह छः प्रकारको भमियोंको ध्यान करने वाला बुद्धिमान् जन जैसे निर्मास करता है और जिनसे दूर वा समीप में कभी भी संमारको रचता है यह बैद्यकशास्त्र की रीतिसे बनाने यो ग्य है ! "
नके समान बा सेवन करने वालोंके समान बैठते स्थिर होते इनके भुत्र एकन्धों में जैसे प्रत्येक कामका प्रारम्भ क रने वाली स्त्री संलग्न हो वैसे संग्र होता हूं जिन्होंने हाथोंमें भोजन और क्रिया भी धारणा किई है उनके साथ सब क्रियाओं को अच्छे प्रकार धारण, करता हूं ।
|
"
प्रार्थनीला ॥
ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त ४८ ऋचा १२ “हे प्रभात के तुल्य स्त्री मैं सोम पीने के लिये ऊपर से अखिल दिव्य गुण युक्त पदार्थों और किस तुझको प्राप्त होता हूं उन्हीं को तू भी अच्छे प्रकार प्राप्त हो-"
सोम इकट्ठे होकर पिया जाता था जिस प्रकार भंग इकट्ठे होकर पीते हैं । यथा:ऋवंद प्रथम मंडल सूक्त ४५ ऋचा
66
मैं जिस इस हृदयों में पिये हुए ( सोमम् ) ओषधियोंके रसको उपदेश पूर्वक कहता हूं उसको बहुत कामना | सोम रमके पीनेके लिये प्रातःकाल दु
हे - विद्वानो ! मैं सज्जन... प्राज
सोमके नशे में जो कोई अ पराध हो जाये उसकी क्षमा इस प्रकार मांगी गई हैऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त ११६ ऋषा ५
वाला पुरुष ही सुख संयुक्त करे अर्थात् अपने सुख में उनका संयोग करे जिस अपराधको हम लोग करें उसको शीघ्र सब भोर से समीप से सभी जन छोड़ें र्थात् क्षमा करें-.
-
13
रुषार्थ को प्राप्त होने वाले विद्वानों... और उत्तम शासनको प्राप्त कर । " ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त ४१ ऋचा १०
66
हे बहुत विद्वानों में बसने वाले... जहां विद्वानोंकी पियारी सभामें आप लोगोंको अतिशय श्रद्धा कर बुलाते हैं वहां तुम लोग पीछे मनातन सुख को प्राप्त होखो और निश्चय से सोम को पीओो । "
सोम पीकर कामदेव उत्पन्न होता था और भोजन की इच्छा होती थी जिस प्रकार भंगसे होती है । यथा-ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त १६६ ऋ० ३ 'मैं जो पवनोंके समान विद्वान् जिनसे सूर्य किरण आदि पदार्थ तृप्त होते
"
ऋग्वेद दूसरा मंडल सूक्त ३० ऋचा ३ सब ओर से उद्यम कर मौर मेल और वे कूट पीट निकाले हुए सोमादि । कर प्राप्तिले प्राप बबन्तादि ऋतुनों के औषधि रस हृदयों में पिये हुए हों उ- साथ सोमको पोलो "
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( . )
आर्यमतलीला। ऋग्वंद बठा मण्डल सूक्त १६ ऋ२४४ हे-इन्द्र जो ये मानन्द कारक गोले "हे बिद्वान् ! आप हम लोगोंको उत्तम सोम आप के रहने के स्थान को प्राप्त प्रकार सोम रसके पानके लिये सब पोर होते हैं उनका श्राप सेवन करो। 1 से प्राप्त होमो
जो श्राप के "स्नेह करने वाले होवें किसीके राजा होनेपर सोम | उनके समीप से भोग करने योग्य - रस बांटा जाना था। यथा:
त्तम प्रकार बनाया सोम को उत्पनहो 'अग्वेद छठा मगदुल सूक्त २९ ऋ४
सुख जिम में उस पेट में आप धरो। __ "हे विद्वानो में अग्रणी जनो! जिन |
ऋग्वेद पंचम मंहन सूक्त ७२ ऋ०१ राजाके होनेपर पाक पकाया जाता है।
। हे अध्यापक और उपदेशक जनो.. भंजे हुए प्रश्न हैं चारों ओरसे अत्यन्त | श्राप सोम रसका पान करने के लिये मिला हुमा उत्पन्न सोम रस होता है... | उसम गृह वा आमन में बेठिये। वह श्राप हम लोगों के राजा हूजिये-" | वेदों में मोमरम पीनेके वास्ते मन
सोमको पेट भर कर पीने की प्रेरणा व्यों को बुलाने के बहुन गीत हैं जिस की जाती थी जिस प्रकार भंगड़ दो प्रकार भांग पीने वाले भंग घोटकर दो लोटे पी जाते हैं। " पथा:- बलाया करते हैं । यथाः
ग्वेद दूसरा मयखुरल सूक्त १४ ऋ० ११ / ऋग्वेद पंचम मंडल सूक्त ८ ० २ । सम ऐश्वयवान को यव अन्न से जैसे सोमलता के पश्चात् जैसे हरिश दोमटका को वा डिहरा को येसे ( मोम |इते हैं वैसे और जैसे दो मृग दौड़ते हैं। भिः) मोमादि औषधियों से पूरी प-वेने भाइये। रिपूर्ण करो
ऋग्वेद अठा मंडल सूक्त ६० वर ऋग्वेद सप्तम मण्डल सूक्त २२ ऋ० १ हे नायक'मामपान के लिये इस |
पोहे के समान मोम को पीनो- अध्ई प्रकार संस्कार किये हुए जिमसे | ऋग्वेद चौया मंडल सफा ४४ ऋ४
| उत्पन्न करते हैं उस के समीप प्राप्त हे मत्याचरख बाले अध्यापक और
होमो। सपदेशक जनो माप दोनों हम यन्त्रको
ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त १०० ऋ० ७-८ प्राप्त होनी और मधुर प्रादि गुणों से युक्त सोमरस का पान करो।
__ हे स्वामी और सेवको सुख की वर्षा ऋग्वेद तीसरा मंडन सूक्त ४००२-४५ / *
करते हुवे प्राओ-मोम को पिमओ। हेन्द्र प्रत्यन्त तृप्ति करने और या शावेद सप्तम मंडल सूक्त २४३ के सिद्ध करने वाले उत्तम संस्कारों से सोम को पीने के लिये हमारे इस उत्पन सोमकी कामना और पान करो वर्तमान उत्तम स्थान वा अवकाश को उससे बेल के सदृश बलिष्ठ होओ। पामो ।
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कार्यमतलीला॥
(९१) ऋग्वेद मप्तम मंठग सूक्क २९ ऋ० १ । हे यापते आदि भूत पाप उत्तम हे बहुधन और प्रशस्त मनुष्य युक्त क्रिया के साथ अत्युत्तमता से गृहीत दारिद्रय बिनाने वाले जो यह सोम दान के कारण क्रिया से सिद्ध किये रस, जिपको मैं तो सम्हारे लिये हुए सोमरम को अच्छे प्रकार पित्रो। खींचता हूं उस को तुम पी मा घह श्रेष्ठ हे धारणा करने वाले के पत्रो नायक गृह जिसका है ऐसे होते हुए पात्रो | मनुष्यो जैमे अच्छे प्रकार मिले हुए इम सुन्दर निर्माण किये और सुन्दर
श्वेत वर्ण पारे जन अच्छी क्रियाओं जन के धनों को प्राप्त होते हुए हमारे से युक्त प्राप्ति कराने वाली पवन की लिये देखो।
गतियों से प्राप्त हुए ममय में और का. काग्वेद छठा संत्रस्न सूक्त ४० व ४९ ऋ० |
मना करते हुओं में अन्तरिक्ष को प.
हुंच कर पवित्र व्यवहार में उत्पन्न पीने योग्य मोमलताको रसको पीने हुए प्रकाश से सोमरस को पीते हैं। के लिये समीप प्राप्त इजिये।
तुम पित्रो। उत्पन्न किये गये लता आदि के मृद दूसरा मंडल मुक्त ४१ ऋ४ जन पवित्र यी है उसके ममीप आइये! “ हे...अध्यापको ! जो यह तुन दोनों
बंद छटा मउगा सक्त ५ मा १० मे मोनरम उत्पन्न हुमा उसको पोके | उत्तम शिक्षालवाशियों के माथ इम ही यहां मेरे आवाहनको सुनि--, सोम के पीने को प्रायो।
ऋग्वेद घटा मंजुम भक्त ४३ ऋ० १ ऋग्वेद तीसरा मन सूक्त ४२ झ ४ "यह ( मोम ) बुद्धि और बन का
सोमरसके पीने के वास्ते ( जिम प्र- बहाने बास्ना रस आपके लिये उत्पन्न स्यंत विद्या आदि ऐश्वर्य वालको इम किया गया है उसका आप पान करिसंमार में पुकारे धद हम लोगों के म-17
ये।, मीप बहुत बार सायं ।
ऋग्वेद तीमरा मंउग्न सूक्त ३२ ऋ५ ऋग्वेद पंचम मंडन रक्त ११ ऋचा ३ ! “निरनर अनादि भिद्ध बलके लिये |
हे मित्र श्रेष्ठ ! आप दोनों सम देने | सोम रसको पीयो-." वाले के सोमरम को पीने के लिये हम । ऋग्वंद तीमरा मंडल मक्त ५१ ऋ०१० लोगों के उत्पन्न किये हुए पदार्थ के “आप बलसे इसके एप्त सिद्ध किये समीप में प्राइये।
गये सोमलता रूप रसका पान कीजिये सोम की प्रशंपा और पीने की प्रेर-निश्चमे और पान करने की इच्छा से गा में अनेक गीत गाये गये हैं उन में इस मोमलताका पान करो-." से पार हम यहां लिखते हैं। ऋग्वद मंडल चोथा भक्त ४ ऋ:५६ ऋग्वद इमरा मडल मक्त ३६ ऋ० १.२ " हे अध्यापक ! और उपदेशक ज
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हो।
(८२)
भार्यमतलीला। नो जैसे हम लोग बाणियोंसे इस ( सो-1 बीर पुरुषों के सहित सोमका पान मस्य) ओषधियोंसे उत्पन्न हुए रसके | कीजिये। पागके लिये श्राप दोनोंका स्वीकार क-1 श्राग्वेद तीसरा मंडल सूक्त ५३ मा ४-६ रते हैं वैसे इस के उत्पन्न होने पर हम .जब कब हम लोग सामलाता के रस लोगोंका स्वीकार करो-,
| संचित करें उसको पाप शत्रुओंके संताप "हे राजा और मन्त्री जनो ! श्राप |
देने वाले बिजुली के समान प्राप्त | दोनों दाता जनके स्थानमें (सोमम् ) प्रति उत्तम रसपा पान करो और हम |
सोमका पान करिये और पीकर लोगोंको निरन्तर ( माइयेथाम् ) श्रा-1: गन्द देमो ।"
|श्रेष्ठ संग्राम जिससे उसको प्राप्त हो
होइये। सोम पीकर युद्ध में जानेकी
ऋग्वंद चौथा मंडल सूक्त १० ऋ०३ प्रेरणा इस प्रकार की गई है. जैसे मेना का ईश प्रकाश के स्थान ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त १७१ ऋ०३ / में "सोमको सेनामोंके मध्य में पीता है।
“हे-बलिष्ठ राजन् ! हम लोगों को ऋग्वेद चीथा मंडल सूक्त ४५ ऋ० ३-५ प्राप्त होते और रस प्रादिसे परिपूर्ण हे सेना के ईश'मधर रसों को पीने होते हुए भाप जो अपने लिये सोम | वाले बीर पुरुषों के साथ मपुर मारि रस उत्पन्न किया गया है उसमें मोठे गम ने यक्त पदार्थ के मनोहर रमको मीठे पदार्थ सब ओरसे साँचे हुए हैं| पिमोजा मघर प्रादि गुण युक्त मोम उस रसको पीकर मनुष्योंके प्रयल हरणशील घोड़ोंसे दृढ़ रथ को जोड़ युद्ध
को उत्पन्न करता है उनको-सिद्ध करो। का यन करो वा युद्धको प्रतिक्षा पूर्ण ।
। ऋग्वेद पंचम मंडल सूक्त ४० ऋ० १ करो नीचे मार्ग से समीप मानो। हे मोमपते सोम को पान कीजिये शग्वेद प्रथम मंडल सूक्त ५५ ऋ०२और संग्राम को प्राप्त हूजिये ! “जो सबाध्यत...सोम पीनेके लिये वेदों में सोम पीने का समय सुबह बैलके समान आचरण करता है वह और दोपहर वर्णन किया है भंगह भी युद्ध करने वाला पुरुष...राज्य और स-इम ही समय में भंग पीते हैं। यहास्कार करने योग्य है।"
| ऋग्वेद तीसरा ममडल सूक्त ३२ ऋ०३ ऋग्वेद तीसरा मंडल सूक्त ४१ २-४ वीर पुरुषों के साथ समूह के सहित
"सकल विद्याओं का जाननेवाला पुरुष बर्तमान प्राप मध्य दिन में सोम लसोमलता के रस को पीजिये और श-तादि औषधि का पान करो। अओं को देश से बाहर करके नष्ट क-1 ऋग्वेद पचम महल सूक्त ३४ शा३ रिये।
हे मनुष्यो जो इस के लिये दिन में
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प्रायंमतलीला ॥
(३) भी अथवा प्रभात समय में ( सोमम् ) । लम क्या विषय होगा? इस कारण हजन का पान करता है।
|मको यजर्वेद के विषय का भी नमूना ऋग्वेद पंचम मण्डन सूक्त ४४ ऋ० १४ दिखाने की जरुरत हुई है जिस से प्र
जो ( जागार ) अविद्या सप निद्रा गट हो जावे कि यजर्वेद में भी ऐसे ही से उठके जागने वाला उसको यह (मोमः) | गंधारू गीत हैं। हम अपने पाठकोंको सोमनता श्रादि औषधियों का समूह यह भी निश्चय कराते हैं और श्रागाया ऐश्वर्य के सदृश निश्चित स्थान वाला मी सिद्ध भी करेंगे कि ऋग्वेद और यमित्रत्व में आप का मैं हूं इस प्रकार |
जर्वेदके अतिरिक्त जो अन्य दो घेद हैं। कहता है।
उन में भी वैसे ही गीत है जैते माग्वेद ऋग्वेद पंचम मगनुल सूक्त ५१ ऋ०३ हे बुद्धिमान आप प्रातकाल में जाने
में दिखाये गये हैं । बरन उन दो वेदों वाले विद्वानों के और बुद्धिमानों के
1 में तो बहुधा वह ही गीत हैं जो ऋ
| ग्वेद में हैं और यह ही कारण है कि साथ मोमलता नामक औषधि के रस | के पीने के लिये प्राप्त हूजिये।
| स्वामी दयानन्द जी ने सन दो वेदों
का अर्थ प्रकाश करना व्यर्थ समझा है आर्यमत लीला ॥
यजुर्वेद के मज़मून को सिलसिले बार [ग-भाग] तो हम भागामी लेखों में दिखावेंगे-परयजद ।
न्तु इससे पहले हम बानगीके तौर
पर कुछ ऋचाओं का अर्थ स्वामी द(१३) वेद धार हैं जिन में से ऋग्वेद और यानन्द जी के भाष्प में से लिखते हैं
काभाय स्वामी दयानन्दजी ने जिससे मालूम हो आवेगा कि यनर्वेद किया है बाकी दो वेदों कामाय नहीं में किस प्रकार के गंधार गीत हैं:किया है। स्वामी दयानन्द शोके अर्थों यजुर्वेद अध्याय १८ चा १२ के अनुसार हमने ऋग्वेद के बहुतमे वा- “मेरे चावल और माठीके धाम मेरे क्य लिखकर पिछले लेखों में यह सिद्ध जौ और अरहर मेरे उरद और मटर किया है कि वेद कोई धर्मशिक्षा की | मेरा तिल और नारियल मेरे मंग पस्तक नहीं है यहां तक कि बह सा | और उसका बनाना मेरे चणे और धारण शिक्षाको भी पस्तक नहीं है - उमका सिद्ध करना मेरी कंगुनी और रन ग्रामीया मिसानोंके गीतोंका बेसि- उसका बनाना मेरे सूक्ष्म 'चावल और लसिले संग्रह है-शायद हमारे पाठकों उन का पाक मेरा समा (श्यामाकाः) मेंसे कोई यह सन्देह करता हो कि ऋ. | और मडुमा पटेरा चेना आदि छोटे ग्वेद में ही मनाही किसानों के गंवर अन्न मेरा पसाई के पावल जो कि गीत हैं परन्तु अन्य वेदों में नहीं मा- बिना बोए उत्पन्न होते हैं और इन
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(58)
का पाक मेरे गेहूं और उनका पकाना तथा मेरी और इनका संबन्धी
नोंके दाता परमे
श्रार्यमतलीला ॥
मसूर
अन्य प्रश्न ये सब श्वर से समर्थ हों"
यजुर्वेद अध्याय १८ ऋचा २६ मेरा तीन प्रकारका भेड़ों वाला और इससे भिन्न सामग्री मेरी तीन प्रकार की भेड़ों वाली स्त्री और इनसे उत्प
।
( नोट ) "यज्ञेन कल्पन्ताम् ” - हम वाक्यका अर्थ स्वामीजीने यह किया है सब अन्नों के दाता परमेश्वर से ममर्थहों यजुर्वेद अध्याय १८ ऋचा १४ "मेरा अग्नि और बिजली आदि [ 'ष' शब्द का अर्थ बिजुली आदि किया है ] मेरे जल और जलमें होने वाले रत्न मोती आदि [ 'च, शब्दका अर्थ जल में होने वाले रत्न मोती आदि किया है ] मेरे लता गुच्छा और शाक आदि मेरी मोममता आदि औषधि | और फल पुष्पादि मेरे खेतों में पकते हुए अन्न आदि और उत्तम अन्न मेरे जो जंगल में पकते हैं व अन्न और जो पर्वत आदि स्थानों में पकने योग्य हैं
|
हुए घृतादि मेरे खंडित क्रियानों में |हुए दिनों को पृथक करने वाला और इसके संबन्धी मेरी उन्हीं क्रियाथों को प्राप्त कराने हारी गाय आदि घौर उसको रक्षा मेरा पांच प्रकार की भेड़ों बाला और उसके घृतादि मेरी पांच प्रकार की मेड़ों वाली जी और इसके उद्योग यदि मेरा तीन बड़े वाला और उनके बड़े आदि मेरी तीन बछड़े वानी की और उस के घृतादि मेरा चौथे वर्ष को प्राप्त हुवा बेलादि इमको कान में खाना मेरी चौथे वर्ष को प्राप्त गौ और हम की शिक्षा यह सब पदार्थ पशुओं के पालन के द्विधान में समर्थ होवें [ यज्ञेन कल्पन्ताम ] इस वाक्य का अर्थ- पशुओं के पालन के विधान ते ममर्थ होवें किया है ] शुर्वेद अध्याय १८ ऋषा २७ मेरे पीठ से भार उठाने हारे हाथी ऊंट आदि और उनके संबंधी मेरी पीठसे भार उठाने हारी घोड़ो ऊंटनी और उनसे उठाये गये पदार्थ मेरा वीर्य सेवन में समर्थ वृषभ और वीर्य धारकरने वाली भौ आदि मेरी बंध्या बोय्यंहीन बैल मेरा समर्थ
मेरे गांव में हुए गौ आदि और नगर में ठहरे हुए [ 'च, शब्द का अर्थ नगर में ठहरे हुये किया है ] तथा मेरे बन में होनेहारे मृग आदि और सिंह आदि पशु मेरा पापा हुआ पदार्थ और मय धन मेरी प्राप्ति और पाने योग्य मेरा रूप और नाना प्र कार का पदार्थ तथा मेरा ऐश्वर्य और उसका साधन ये सब पदार्थ मेल करने योग शिल्पविद्या से समर्थ हों [ यज्ञेन । गी और कल्पन्ताम् ] इस वाक्य का अर्थ मेन बैल और बलवती गौ मेरी गर्भ गिकरने योग्य शिल्पविद्या से समर्थ हों।
|
किया है ]
राने बाली और मामर्थ्य होन गौ मेरा हल और गाड़ी आदि को चलाने
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मार्यमतलीला ।
(८३) में मम बैल और गाडीवान प्रादि | अति विस्तार युक्त अंतरिक्ष से रहने मेरी नवीन व्याती दूध देने हारी गाय तथा जलका ग्रहण करनेवाला मेघ है और नसको दोहने बाला जन ये मब तम और इम बिद्या को जगदीश्वर
सम्हारे लिये कृपा करके जनाधे । वि. पशुशिक्षा रूप पक्षकर्म से समर्थ हो ।।
द्वान् पुरुष भी पृथिवी की त्वचा के ! [यज्ञेन कल्पन्ताम् का प्रार्थ पशु |
समान उक्त घरकी रचना को जाने । शिक्षा सूप यज्ञ कर्म में समर्थ हो कि
(नोट) छम से मालूम होता है कि
उस समय सघ लोग घर बनाकर नहीं ___ यजर्वेद अध्याय २४ चा १२ ।
| रहते थे वरन गंवारों से भी अधिक जो ऐसे हैं कि जिनकी नीन में ये गाते हों की रक्षा करने वाली है।
__ यजर्वेद तीमरा अध्याय ऋ० ४४ लिये जिनके पांच भेटे हैं ये तीन प्र
हम लोग विद्या रूपी दुःख होने ति शरीर वाणी और मनसंबन्धी से अलग होके बराबर प्रीति के सेवन | मुखों के स्थिर करमेके लिये जो बि.
फरने और पके हुए पदार्थों के भोजन नाश में न प्रसिद्ध हों उन की प्राप्ती |
करने वाले अतिथि लोग और यज्ञ ककराने वाले मंमार की रक्षा करने | रने वाले बिष्ट्वान् लोगों को सत्कार की जो क्रिया उसके लिये जिन के पर्वक नित्यप्रति बनाते रहें। तीन बछड़ा वा जिनके तीन स्थानों में |
(नोट) इमसे मालूम होता है कि उस निवास वे पीछे से रोकने की क्रिया के समय के लोग ऐसे गंमार थे कि सब लिये और जो अपने पशुओं में चौथे
भोजन को पकाकर नहीं खाते थे घरन को प्राप्त कराने वाले हैं वसिम क्रिया जो कोई २ भोजन पकाकर खाता था। से उत्तमताके साथ प्रमन्न हों उम क्रिया | वह बड़ा गिना जाता था। के लिये अच्छा यन करें व सुखी हों। यजुर्वेद छठा अध्याय ऋ० २८
यजुर्वेद प्रथम अध्याय ऋचा १४ । हे वैश्यजन ! तू हल जोतने योग्य है हे मनुष्यो तुम्हारा घर सुख देनेवा- | तुझे अन्तरिक्ष के परिपूर्ण होने के लिये ला हो। उम घर से दुष्ट स्वभाव वाले अच्छे प्रकार उत्कर्ष देता हूं तुम सब प्रामी अलग करो और दान आदि | लोग यज्ञ शोधित जलों से जल और धर्म रहित शत्र दूर हो । उक्त गृह प- औषधियों से औषधियों को प्राप्त थिवी की त्वचा के तुल्य हों । ज्ञान होमो । स्वमुप ईश्वर ही से उस घर को सब यजर्वेद १९ वां अध्याय ऋ० २१ मनुष्य जाने और प्राप्त हों तथा जो| हे मनुष्यो तुम लोग होम करने योग्य बनस्पती के निमित्त से उत्पन्न होने यंत्र द्वारा खींचने योग्य औषधि रूप
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मार्यमतलीला ॥ रसके रूपको भने हुए अन मथन का, यजुर्वेद २१ वां अध्याय .४१ साधन सत्तू सब भारसे वीजका बोना "हे (होतः ) देने हारे तसे (होता)। दृधदही दहीदूध मीठे का मिलाया हुआ और देने हारा अनेक प्रकार के व्यवप्रशस्त मनों को सम्बन्धी मार बस्तहारोंकी संगति करे पश पालने वा खेती और शहत के गुण को जानो।" करने वाले (बागस्य) बकरा गौ भैंस
यजर्वेद १९ वा अध्याय ऋ० २२ आदि पश संबन्धी धा ( वपापाः ) "हे मनुष्यो तुम लोग भंजे हुए जौमा- | बीज बोने वा सत के कपड़े आदि बदि प्रमोंका कोमल बेर सा रूप पिसा माने और ( मेदसः ) चिकने पदार्थ के न प्रादि का गेहूं रूप सतुओं का बेर लेने देने योग्य व्यवहार का (जषेताम्)। फनके समान रूप दही मिले सत्तू का सेवन करें वैसे ( पत्र ) च्यवहारों की ममीप प्राप्त जो सूप है ऐसा जाना संगति कर । हे देने हारे जन तू जैसे करो।"
( होता ) लेने हारा भेढ़ाके (वपामाः)| यजुर्वेद १९ वा अध्याय ऋ. २३
बीज को बढ़ाने बानी क्रिया और "हे मनष्यो तुम लोग जो यव हैं उन को पानी वा दूध के रूप मोटे पके |
म चिकने पदार्थसंबंधी अमिमादिछोड़ने हुये बेरी के फलोंके समान दही के
योग्य संस्कार किये हुए अन्न श्रादि पस्वरूप बहुत अन्न के सार के समान
दार्थ और विशेष जान वाली वाणीका
(जषतां) सेवन करे वा उक्त पदार्थों का सोम औषधि के स्वरूप और दूध दही
| यथायोग्य मेल करे वैसे सव पदार्थोंका के संयोगसे बने पदार्थके समान सोमा
| यथायोग्य मेल कर । हे देने हारे त ! दि औषधियोंके सार होने के स्वरूप
जैसे लेने द्वारा बैल को ( वपायाः ) - को सिद्ध किया करें।"
ढाने बाली रीति और चिकने पदार्च यजर्वेद बीसवां अध्याय ऋ० ८
संबन्धी ( हधिः ) देने योग्य पदार्थ "हे विद्वान् ! घोड़े और उत्तम बैल तथा|
। और परम ऐश्वर्य करने वाले का सेवन अतिबली वीर्यके सेवन करने हारे करे या यथायोग्य उक्त पदार्णका मेन बैल बंध्यागायें और मेढ़ा अच्छे प्रका-करे वैसे ( यज) यथायोग्य पदायाँको 'र शिक्षा पाये और सब ओर से ग्रहण मेल कर... किये हए जिस व्यबहार में काम कर- यजद २३ वा अध्याय ०१३ ने हारे हों उस में सू अन्तःकरण से | हे विद्यार्थी जम ! अच्छे प्रकार पा. सोम विद्या को पूछने और उत्तम मन कोंसे धूल कार्यप पवन काटने की के रस को पीने हारे बुद्धिमान अनि क्रियाओं से काली चोटियों वाला प्र. के समान प्रकाश मान जन के लिये | मि और मेघोंसे घट पक्ष उन्नतिके सात | अति उत्तम बुद्धि को प्रगट कर।" | सैर पर तुझको पाले--
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भार्यमतलीला ॥
( ८७ ) | यजर्वेद २३ वां अध्याय श्राचा २३ । कर अपने विद्वान पयिहतों से पूछ कर
हे यमके समान पाचरण करने हारे हमको बतायें कि इस २४ वें अध्याय | राजा तू हम लोगों के प्रति झूठ मत के मजमूनका क्या प्राशय है ? क्या सोम बोलो और बहुत गप्प सप्प बकते हुए पीकर भंगको तरंगमें बंद के गीत बनामनुष्य के मुख के समान तेरा मुख मत |ने वालों में से किमीने यह बरह हांकी हो यदि हम प्रकार जो यह राजा ग-है ? वा वास्तव में परमेश्वरने बंदके द्वापमध्य करेगा तोनिर्बल पखेतके स-रा शार्य भाइयों को कोई अद्भत शिक्षा मान भलीभांति उजिवन जैसे हो इम | दी है जिमको कोई दूसरा नहीं समझ प्रकार ठगा जायगा।"
| सकता है और हमारे प्रार्य भाई उन पनवेद २३ वा अध्याय ऋ०३८ देवताओं का पूजन करते हैं या नहीं "हे मित्र ! बहुत विज्ञान युक तू हम जिन का वर्णन इप अध्याय में पाया व्यवहार में इन मनुष्यों से जो बहुत है और इन देवताओं का पशु पक्षियों से जी आदि अनाज के ममूह को भर | से पा सम्बन्ध है ? और कौन कौन श्रादि से पृथक कर और क्रम मे छरन | पशु पक्षी किस २ देवताके निमित्त हैं ? करते हैं उन के और जो जल या अन्न | यजाद अध्याय २४ ऋचा १ सम्बन्धी बधनको कहकर मत्कार क-| "हे मनुष्यो तुम ! जो शीघ्र चलनेहारा रते हैं उनके भोजनोंको करो।" | घोडा हिंसा करने वाला पशु और गौके आर्यमत लीला।
समान बर्तमाम नीलगाय है वे प्रजा पा
लक सूर्य देवता वाले अर्थात सूर्य मंडलके (१४)
गुणों से युक्त जिमषी काली गर्दन वह इससे पूर्वके लेखमें जो ऋचाएं यज- पशु अग्नि देवतावाला प्रथमसे लला. बंदकी हममे स्वामी दयानन्द के भाष्य ट के मिमित्त मेढी सरस्वती देवता के अनुमार लिखी हैं उनसे हमारे पा- | वाली नीचे से ठोढ़ी वाम दक्षिण भाठक भलीभांति समझ जायेंगे कि भेट गों के और भुजाओं के निमित्त नीचे बकरियों के चराने वाले गंवार लोगों | रमण करने वाले जिन का अश्वदेवता के गीत यजर्वेद में भी इस ही प्रकार | वे पशु सोम और पूषा देवता वाला
जिस प्रकार माग्वेदमें है-इस प्रकार काले रंग से युक्त पशु तन्दो के निमिनमूना दिखाकर अब हम सबसे पहले त और बांई दाहनी ओर के नियम गजर्वेदके २४ अध्यायको स्वामी द- सुफेद रंग और काला रंग वामा और यामन्द जी के भाष्य के हिन्दी अर्थों के सूर्य वा यम सम्बन्धी पशु वा पैरोंकी अनमार दिखाते हैं और अपने प्रार्य | गांठियों के पास के भागों के निमित्त भाइयोंसे प्रार्थना करते है कि वह कृपा | जिसके बहुन रोम विद्यमान ऐसे गां
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!( ८८ )
आर्यमतलीला ॥ |ठियों के पाम के भाग से युक्त स्वष्टा के और अंग से और अंगमें सुपेदी के देषता वाले पशु वा पूंछ के निमित्त चिन्ह और जिसके सबोरसे अगले मुफेद रंग बाला वायु जिसका देवता है गोड़ों में सुपदी के चिन्ह है ऐसे जो वाह वा जो कामाट्टीपम समय के बि- पशु हैं ये एहस्पति देवता बाले तथा ना वैल के समीप जाने से गर्भ मष्ट क- | जो सब अंगोंसे अच्छी छिटकी हुई सी रने वाली गौ वा धिष्ण देवता वाला जिस के छोटे २ रंग बिरंग घोंटें और
और नाटा शरीर से कुछ टेड अंग- जिस के मोटे २ छींटे है वे सब प्राण वाला पशु इन मभों को जिस के सु- | और उदान देवता वाले होते हैं यह | न्दर २ कर्म उस ऐश्वर्य युक्त पुरुष के जानना चाहिये--, लिये संयुक्त करो अर्थात् उक्त प्रत्यक
ऋचा ३ अंगो मानंद मिमित्तक उक्त गुणा याल “हे मनुष्यो ! तुम को जो जिस के पशुओं को नियत करो। । शुद्ध वाम वा शुद्ध छोटे छोटे अंग जि
(नोट) कृपाकर हमारे प्रार्य भाई - सके समस्त शुद्ध बाल और जिसके म. सावें कि शरीरके पृथक २ अवयव जैसे | पिके समान चिलकते हुए बाल हैं ऐसे ललाट, टाढ़ी, भुजा, तुदी परों की ग- | जो पशु धे सध सूर्य चन्द्र देवसा वाले ठियां, आदिक यो निमित्त पृथक पथक अर्थात् सूर्य्य चन्द्रमा के समान दिथ्य पश पक्षी पयां धर्शन किये गये हैं- गुणा वाले जो सुपेद रंग युक्त जिसकी ऋचा २
मुपेद प्राखें और जो नाला रंग थाना हे मनष्यो तुपको जो सामान्य लाल है व पशों की रक्षा करने और दुष्टों धमेला लाल और पके वेर के मभान | को सनाने हारे लिये जा ऐसे है कि लाल पशु हैं घे माम देवता अर्थात् जिनसे काम करते हैं व धाय देवता सोम गुरु वाले जो न्योना के समान | वाले जिनके उन्नति युक्त अंग अर्थात् धुमेना लालामी लिये हुए न्योले के स्थान शरीर हैं वे प्राण घायु आदि देसमान रंग वाना और शगा की स-धता वाले तथा जिनका आकाशके म. मता को लिये हुए के ममान रंग यक्त मान नीलारुप है ऐसे जो पश हैं ये पशु हैं वे सब वरुण देवता वाले प्र.. सब मेघ देवता वाले जानने चाहिये।, चात् श्रेष्ठ जो शिति रम्घ्र अर्थात् जिम
चा४॥ के मर्म स्थान प्रादि में सुपदी जो और "हे मनष्पो ! जो पछने योग्य जिअंग में छेद से ही पे जिमके जहां समा सिरहा स्पर्श और जिसका जंचा तहां सुपेदी सौर जिमके पय ओर से | षा उराम स्पर्ण है वे वायु देयता वाले छदों के समान सुपेदी के चिन्ह हैं वे जो फलों को प्राप्त हों जिनकी लाल कर्ण सब सविता देवता वाले जिम के प्र.अर्थात् देह के बाल और जिम की च गले भजाओं में सुपेदी के चिन्ह जिन चल चपन प्रांखें ऐसे जो पशु हैं वे स.
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मार्यमतलीला॥
रखती देवता वाले जिसके कानमें प्ली- “हे मनुष्यो ! जो ऐसे हैं कि जिन हा रोग के आकार चिन्ह हों जिमके की खिंची हुई गर्दन या खिंचा हुश्रा सरोका और जिसके अच्छे प्रकार प्रा-खाना निगलमा वे अग्नि देवता वाले स हुए सुवर्ष के समान कान ऐसे जो जिनकी सुपेद भौहें हैं वे परिवी शादि
पर हैं वे सब त्वष्टा देवता वाले जो बसुओं के जो लाल रंगके हैं वे प्राण प्रा•काले पले वाले जिसके पांजरसी मोर | दि ग्यारह रुद्रोंके जो सुपेद रंगके और उपेद अंग और जिम की प्रसिद्ध जंघा
| अवरोध करने अर्थात् रोकने वाले हैं।
| सूर्य सम्बन्धी महीनोंके और जो ऐसे अर्थात् स्थल होनेसे अलग विदित हो |
हैं कि जिन का जलके समान रूप है वे ऐसे जो पश है वे सब पवन और वि
जीव मेघ देवता वाले अर्थात् मेघ के जली देवता वाले तथा जिसकी करो
| सदृश गुणों वाले जानने चाहिये । " दी हुई चाल जिसकी थोष्ठी चाल और |
ऋचा जिम को बड़ी चाल ऐसे जो पशु हैं घे| "हे मनष्यो! तुमको जो ऊंचा और सब उषा : वप्ता बाले होते हैं यह जा. श्रेष्ठ टेटे अंगों वाले नाटा पशु हैं वे वि. मना चाहिये ।” ऋचा ५
जली और पवन देवता वाले जो . " हे मनुष्पा! तुमको जो सुन्दर रु.
|चा जिसका दूसरे पदार्थको काटती हांपवान् और शिल्प कार्यों की मिद्धि क
टती हुई भजात्रों के समान बल और रने वाली विश्वे देव देवता वाले वागी
|जिसकी सूक्ष्म की हुई पीठ ऐसे जो पश के लिये नीचे से ऊपर को चढ़ने योग्य हैं वे वाय और सर्य देवता वाले जिजो तीम प्रहारजी भहें पयिवीके लिये नका सुग्गों के समान रूप और पेग वाले विशेष कर न जानी हुई भेड़ आदिकबरे भी हैं वे अग्नि और पवन देवता धारण करने के लिये एकमे रूप वाली | वाले तथा जो कालेरंग के हैं वे पुष्टि तथा दिव्य गण बाले विद्वानों की खि- निमित्तिक मेघ देवना वाले जानने चायोंके लिये अतीव छोटी २ घोड़ी अ-हिये।" ऋचा वस्था बाली बछिया जाननी चाहिये।, “हे मनुष्यो ! सुमको ये पूर्वोक्त द्वि
(मोट ) हम नहीं समझते कि वि.रूप पश अर्थात् जिनके दो दो रूप हैं द्वानोंकी सियां घोड़ी अवस्था वाली ये वाय और विजनी के संगी जो टेढ़े कोटी २ बहियाओंसे क्या कारज सिद्ध अंगों वाले व नाटे और बैल हैं वे सोम कर सकती हैं और यदि त्रियोंका कोई और अग्नि देवता वाले तथा अग्नि कार्यम से सिद्ध होता है सो विशेष | और वायु देवता वाले जो वन्ध्या गौ कर विद्यामकीही नियोंके वास्ते ही हैं वे प्राण और उदाम देवता वाली क्यों यह छोटी २ पछिया वर्णन की और जो कहीं से प्राप्त हों वे मित्र के गई हैं। ऋचा ६ 'प्रिय व्यवहार में जानने चाहिये ।"
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(९०)
मार्यमतलीला॥ ऋचा
| बोटी २ बखिया हैं वे वाली देवता "हे मनुष्यो ! तुमको जो काले गलेके वाली जो काले वर्ण के पुष्टि हैं वे अग्निदेवता वाले जो न्योले के रने हारे मेप देवता घाले नो पक्षने रंग के समान रंग वाले हैं वे सोमदेव- योग्य हैं वे मनुष्य देवता वाले नो बहु ता वाले जो सुपेद हैं वे वायु देवता रूपी अर्थात् जिनके अनेक सूप में बाले जी विशेष चिन्ह से कुछ न जाने समस्त विद्वान् देवता वाले और जो गये जो कभी नाश नहीं होती उस | निरन्तर चिलकते हुए, वे भाकाश उत्पत्ति रूप क्रिया के लिये जो ऐसे हैं पृथिवी देवता वाले जानने चाहिये। कि जिनका एकसा रूप है धे धारण
सचा १५ करने हारे पवन के लिये और जो छो- "हे मनप्यो ! तमको ये कहे हुए जो टी २ बहिया है व सूय भादि लोकों अच्छे प्रकार चलने हारे पशु श्रादि हैं। की पालना करने वाली क्रियाओं के वे इन्द्र और अग्नि देवता वाले जो | जानने चाहिये।
खींचने वा जोतने हारे हैं वे वरुण दे. (नोट) माश्चर्य है कि छोटी २ बहि-वता वाले और जो चित्र विचित्र चिन्ह या सूर्य लोक में क्या काम देसक्ती हैं। युक्त मनष्य कैसे स्वभाव वाले हिंसक और सूर्य लोक का उपकार उनसे किस प्रजापति देवता वाले हैं यह जा. बिभि से लेना चाहिये ?॥ नना चाहिये।
ऋचा १७ "हे मनुष्यो ! तुमको जो काले रंग के "मनष्यो!तमको जो ये बायु और बिचा खत धादि क जतान वाल एवजली देवता वाले वा जिन के उत्तम भमि देवता वाले जो धमेले हैं वे अ-जाँग हैं वे महेन्द्र देवता वाले बा तरिक्ष देवता वाले जो दिव्य गुण कर्म | बहुत रंग युक्त विश्व कर्म देवता वाले स्वभाव युक्त बढ़ते हुए और थोड़े सु-जिनमें पच्छ प्रकार प्राते जाते हैं वे मार्ग पेद हैं वे बिजली देवताक्षले और जो निरूपण किये उनमें जाना प्रामा पामंगल करानेहारे हैं वे दुल के पार उ. |हिये । " अाचा १९ तारने वाले बानने चाहिये।" "हे मनुष्यो ! तुम जो ये सुनासीर
देवता वाले अर्थात खेतीकी सिद्धि क-1 मनष्यो ! तुम को जो काले गलेरने वाले माने जाने हारे पवन के स--- बाले हैं वे अग्नि देवता वाले जो सब मान दिव्य गल युक्त अपेद रंग वाले का धारक पोषर करने वाले है वेवा सर्यके समान प्रकाशमान पुणेद रंग सोम देवता वाले जो नीचे के समीप केश को उन को अपने कार्यों में गिरे हुए हैं वे सविता देवता वाले जो 'अच्छे प्रकार निरन्तर नियुक्त कर । -1
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आर्यमतलीला ॥
(६१) ऋचा २०। | नस्पति अर्थात् विना पुष्प फल देने वाले "हे मनुष्यो ! पत्तियोंको जामने वा-पक्षोंके लिये उल्ल पक्षियों अग्नि और ला जम बसन्त ऋतुके लिये जिन कपि- मोनके लिये नीलकंठ पक्षियों सूय चन्द्रजल नामके विशेष पक्षियों ग्रीष्म ऋतु माके लिये मयूरों तथा मित्र और वरुपये के लिये चिरोटा नामले पक्षियों वर्षा | लिये कबतरों को अच्छे प्रकार प्राप्त जितुझे लिये तीतरों शरद ऋतुके लिये होता. बेले. इनको तुम भी प्रास बतकी हेमन्त ऋतुके लिये ककर मामलो ।"
पक्षियों और शिशिर ऋतु के अर्थ बिककर नाम के पक्षियों को अच्छे
"हे ममाप्यो । जैसे पक्षियों का काम प्रकार प्राप्त होता है उन को तुम जा-जानने वाला जन ऐश्वर्य के लिये बनो। ऋचा २१
टेरों प्रकाश के लिये कोलीक नामक "ममन्यो ! जैसे जलके जीवोंको पक्षियों विद्वानों को त्रियों के लिये | पालना करनेको जानने वाला जम म. हा जलाशय समुद्र के लिये जो अपने
नो गौओंको मारती हैं उन परियों बालकों को मार डालते हैं उन शिशु
विद्वानों की बहिनियोंके लिये कुली
क नामक पखेरियों और जो अग्निके मारों मेघके लिये मेहको जालोंके लिये मालियों मित्रके समान सुख देते हुए
समान वर्तमान यह पालन करनेवाला सूर्य के लिये कुस्लीपन मामके जंगली प.
उसके लिये पारुष्य पक्षियों को प्राप्त शुओं और बरूण के लिये नाके मगर
होता है वैसे तुम भी प्राप्त होगी।,, जल जन्तुओंको अच्छे प्रकार प्राप्त होता
(नोट) ममझ में नहीं माया कि है वैसे तुम भी प्राप्त होगी।"
विद्वानों की त्रियों के वास्ते गौनों
का मारने वाला कौन सा पक्षी बता. ऋचा २२ __ "हे मनायो ! जैसे पक्षियोंके गणका
या है और है और किम कार्य के अर्थ? विशेष जान रखने वाला पुरुष चन्द्रमा | और बिद्वानों की वहमोंके वास्ते कोन वा बोषधियों में उत्तम सोम के लिये | सा पक्षी नियत किया गया है और हंसों पवनके लिये बगलियों इन्द्र और किस काम के वास्ते ? ॥ शनिके लिये सारसों मित्रके लिये जास्त ऋचा९२५ । के कनवों वा सुतरमुगों और बरुणके "हे मनुष्यो ! जैसे काल का जानने लिये चकई चकवों को अच्छे प्रकार प्रा-बाला दिवस के लिये कोमल शब्द क प्त होता है वैसे तुम भी प्राप्त होनो।" रने वाले कबतरों रात्रि के लिये सीऋचा २३
चापू नामक पक्षियों दिन रात्रि के स" हे मनुष्यो । जैसे पक्षियोंके गुण | धियों अर्थात् प्रातः सायंकालके लिये | जानने वाला जन अग्निके लिये मुर्गों ब- 'जतू नामक पक्षियों महीनोंके लिये |
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| (९२)
आर्यमतलीला। काले कौनों और वर्षके लिये बढे २ अर्पण कर देना चाहिये और यदि कसुन्दर २ पंखों वाले पक्षियोंको अच्छे रना चाहिये तो किस प्रकार ? ॥ प्रकार प्राप्त होता है वैसे तुम भी
तुम ऋचा ३१ प्रचार
. इमको प्राप्त होगी। .
__ "हे मनुष्यो ! तुमको प्रजापति देवता
| वाला किंनर निन्दित ममाय और जो "हे मनुष्यो ।जैसे भूमि के जंतुनोंके |
छोटा कीड़ा विशेष सिंह और बिलागुगा जानने वाला पुरुष भूमि के लिये |
र हैं वह धारणा कर ने वाले के लिये मूषों अन्तरिक्ष के लिये पंक्ति सपके |
| उजली चील्ह दिशात्रोंके हेतु धुला चलने वाले विशेष पक्षियों प्रकाश के |
नामकी पक्षिणी अग्नि देवता वाली लिये का नाम के पक्षियों पूर्वप्रादि
जो चिरौटा लाल सांप और तालाव दिशाओं के लिये मेडलों और प्रबा
में रहने वाला है वे मब स्वष्टा देवता न्तर अर्थात् कोसा दिशाओं के लिये भी
घाले तथा पानी के लिये सारस खान भरे विशेष नेवलों को अच्छे प्रकार
ना चाहिये।,, प्राप्त होता है वैसे तुम भी प्राप्त होगी |
ऋचा ३२ ऋचा २७ "हे मनुष्यो ! जैसे पशुओं के गुणोंका | “हे मनुष्यो ! यदि तुमने सोम के लिये जानने वाला जन अग्नि प्रादि वसुओं जो कुलंग नामक पशु बा बनेला बकके लिये ऋश्य जातिके हरिणों प्राण
रा न्योला और सामर्थ्य वाला विशेष प्रादि रुद्रों के लिये रोज नामी जंतु
पशु हैं वे पुष्टि करने बामे के सम्बन्धी
या विशेष सियार के हेतु सामान्य श्री बारह महीनों के लिये न्यङकु ना मक पशुओं समस्त दिव्य पदार्थों वा
सियार वा ऐश्वर्य युक्त पुरुष के अर्थ
गोरा हिरण वा जो विशेष मग किसी विद्वानोंके लिये पृषत् जाति के मृग विशेषों और सिद्ध करने के योग्य
और जासिका हरिण और कुट भान हैं उनके लिये कलङग नाम के पश|का मृग है वे अनुमति के लिये तथा विशेषों को अच्छे प्रकार प्राप्त होता | सुने पीछे सुनाने वाली के लिये चकर है वसे इन को तुम भी प्राप्त होमो।,, | चकवा पक्षी अच्छे प्रकार पक्ति किये
(नोट ) पपा बारह महीमोंको भो| जावें तो बहुत काम करने को समर्थ अग्नि वायु आदि के समान देवता | हो सके। माना है। और बारह महीने के वा- (नोट) सोमको अाग्वेद में एक प्रकास्ते म्याकु नाम का पशु रिस कारण |र की बनस्पति वर्णन किया है जिस से नियत किया है ? उम पशु को वा| को सिल बडे से पीसकर और पानी र महीने वाले देवता के नाम पर और दूध और मिगई मिलाकर मद
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मार्यमतलीला।
के वास्ते पीते थे जिसको स्वामी जीने | है वह पसबाहोंके अर्थ जो ऋश्यजाति
औषधि लिखा है और हमने अपने का मृग मयूर और अच्छे पंखों वाला पिल लेखों मैं भंग सिद्ध किया है उस विशेष पक्षी है वेगाने वालों के और सोमके साथ कलंग नामका पश वा / जलोंके अर्थ जो जलचर निंगचा है वह गली बकरा किस प्रकार युक्त किया
| महीनों के अर्थ जो कछुमा विशेष एग जा सका और उससे या कार्य सिद्ध कुंचवाची नामकी बनमें रहने वाली होता है हमारी समझ नहीं पाया? का मालात
पश जाति है वह किरण, प्रादि पदा मनष्यो! तमको जिसका सर्व देवतायो के अर्थ और जो काले गुण वाला है यह गुलिया तथा जो पपीहा पक्षी विशेष पशु है वह मृत्यु के लिये जान सृजय नामवाला और शयांड पक्षी हैं ना चाहिये। वे प्राय देवता वाले शुग्गी पुरुष के स- (मोट ) अपसोस है कि परमेहर ने मान बोलने हारा शुग्गा नदी के लिये जिसको वेदका बनाने वाला कहा जा. सेही भमि देवता वाली जो केशरी सिंह ता मृत्यु के लिये जो पशु है उस भेहिया और सांप हैं वे क्रोध के लिये का कछ भी पता नदिया केवल इतना तथा शद्धि करने हारा शमा पक्षि और ही कह कर छोड़ दिया कि काले गुब जिसकी मनुष्य की बोली के समान वाला विशेष पशु । स्वामी दयानन्द बोली है वह पक्षी समुद्र के लिये जा-जी के कथनानुसार वेद तो मनुष्योंको नना चाहिये।
| उस समय दिये गये जब वह कुछ नहीं भाचा ३६
जानते थे और जो बिद्यावेद में नहीं हेमनष्यो! तुमको जोहरिणी है वह है उसको कोई मनुष्य जान नहीं ब. दिन के अर्थ जो मेंडका मूषटी और कता है। पदि ऐसा है तो घेद के बतीसरि पाखी हैं वे सपो के अर्थ जोनाने वाले परमेश्वर को यह न सूझी कोई बनचर विशेष पशु वह अश्व देव- कि जगत् के मनुष्ष मृत्यु के पशु को ता वाला जो काले रंगका हरिण प्रा- किस तरह पहचानेंगे? और वह परदि है वह रात्रि के लिये जो रीख जतू मेश्वर वेद में यह भी लिखना भल गया माम वाला और मुषिली का पक्षी है कि उस पशु का मत्यु से क्या सम्बंध है वे और मनुष्यों के अर्थ और अंगोंका मृत्य के लिये उस पशु से क्या और संकोच करने हारी पक्षिणी विष्णु दे किस प्रकार काम लेना चाहिये ॥ बता वाली जानना चाहिये।,
ऋचा ३८ ऋचा ३७
हे मनुष्यो! तुम को जो वर्षा को बुहे मनष्यो! तुमको जो कोकिला पक्षी लाती है वह मेंडकी वसन्त श्रादि .
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(c)
प्रार्यशतलीशा : #
सुत्रों के अर्थ मूषा सिखाने योग्य कश | जो नीलगाय वह बन के लिये को जुगविशेष है वह रुद्र देवता बाला जो कथि नामका पक्षी मुर्गा और कौमा हैं वे घोड़ों के अर्थ और जो कोकिला है वह काम के लिये अच्छे प्रकार नवे चाहिये ।
ལུ
म
नाम वाला पशु और मान्य नामी विशेष जन्तु हैं वे पालना करने वालों के अर्थ बल के लिये बड़ा संप अग्नि जादि वसुओं के अर्थ कपिंजल नामक जो कबूतर उल्लू और खरहा हैं वे मिऋति के लिये और बरुवं के लिये (नोट) अफसोस है कि न तो बेद बनेला मेढ़ा जानना चाहिये ।,, बनाने वाले परमेश्वरने ही वेदमें लिखा (नोट) यह बात हमको बंदों से हो और न खामी दयानन्द जीने अपने मालूम हुई कि वर्षा को मेंडक हो में जाहिर किया कि बड़ा बकरा जिस लाती है, यदि मेंडक न बुलावे तो शा के कंठ में बन है बुद्धि के वास्ते किस यद वर्षा भावे । यदि ऐसा है तो प्रकार कार्यकारी हो सक्ता है ? शायद मेंडक को अवश्य पूजना चाहिये क्यों प्रार्य भाइयों के कान में स्वामी जी कि वर्षा के विटून जगत के सर्व मनु- इसकी तरकीब बता गये हों और off का नाश हो जाये । वर्षा हो म श्रार्य भाइयोंने ऐसी कोई तरकीब को नुध्य की पालना करती है और वर्षा भी हो। यह ही कारण मालूम होता खाती है मेंहकों के बुलाने से तबलो | है कि वह ऐसे बड़े बुद्धिमान् होगये हैंमहक ही सारे जगत के प्रतिपालक कि बेदों के गंवारू गीतों को ईश्वरका वाक्य कहते हैं क्योंजी बुद्धिमान् आर्य भाइयो ! स्वामी दयानन्दजीने तो वेदों को प्रकाश करके उनका भाग्य बनवार जगत्का उपकार किया है आप कृपा कर इतना ही बता दीजिये कि जुर्ने और कब्बे घोड़ों के अर्थ किस प्रकार हैं ? ॥
हुये। भाईयो ! जितना २ आप विचार | करेंगे आपको यह हो सिद्ध होगा कि यह गंवारों के गीत हैं ? ग्रामी बुद्धि होम माड़ी लोगों का जैसा विचार था. वैसे बेतुके और वे मतलब गीत उन्होंने जोड़ लिये । बेचारे भेड़ बकरी चराने वाले गंवार इससे अच्छे और क्या गीत जोड़ सकते थे ? ॥
ऋचा ४०.
ऋचा ३०
वि
"हे मनुष्यो: तुम को जो ऊचे और “हे मनुष्यों तुमको जो चित्र विधि | पैने सींगों वाला गेड़ा है वह सब त्र रंगवाला पशु विशेष वह समय के द्वानोंका जो काले रंग वाला कुत्ता बड़े Maraों के अर्थ जो ऊंट तेजस्वि विकानों वाला गदहा और व्याघ्र हैं सब शेष पशु और कंठ में जिसके यम ऐसा वे सब राक्षस दुष्ट हिंसक हबवियों बड़ा बकरा है वे सब बुद्धि के लिये के अर्थ जो अमर है वह शत्रुमों को
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बानतलीला
विदापाले राजाके लिये जी सिंह “श्री मांसाहारी जिसमें मांस पकाते रबह मस्त देवता वाला जो गिर हैं उस पाक सिद्ध करने वाली बाटलोई गिटान प्रिय नाम की पक्षिसी का निरन्तर देखमा करते इसमें वैमन
और पसिना सब जो शरबियों | स्य कर जो रसके अच्छे प्रकार सेचनके में जल उत्तम उसके लिये और प्राधार बा पात्र वा गरमपन उत्तम | जी पन्जाति के हरिण हैं वे सब विपदार्थ बटलोहयोंके मुख ढांपनेकी -1 द्वानों के अर्थ जानना चाहिये ।" कमियां अन्न प्रादिके पकानेके आधार
(नोट) प्रिय पाठको अब पाप स- बटलोई कडाही प्रादि बर्तनोंके लाल मक गये होंगे कि इस अध्याय में कैसे
Marमें से उनको अच्छे जानते और पोहोंको गोही प्रकारका वर्णन सारे सुशोभित करते हैं वे प्रत्येक काममें
अध्याय में है परन्तु मेह बकरी चराने प्रेरित होने हैं। वाले गंवारों को जैमी बद्धि होती है। अग्वद पंचन मंडल सूक्त३४ ३. वैसा ही उन विचारों ने गीतोंमें अ- हमनग्या को कामना करता हुधा टसप बीन किया है ॥
बहुत धनसे युक्त जन सोमलतास -
|स्पन रससे उदरकी अग्निको अच्छे प्रआर्यमत लीला। | कार पूर्ण करे और मधुर प्रादि गुलोंसे (१५)
युक्त भन्न धादिका भोग करके प्रानन्द
करे और जो अत्यन्त नाश करने वाला वेदों में मांसका भी वर्णन मिलता है।
| ( मृगाय ) हरिखको मारने के लिये ह. स्वामी दयानन्द सरस्वतीजीके मोंके |
"जारों दहन जिससे उस बधको सब अनुसार हम कुछ वेद मंत्र लिखते हैं।
| प्रकारसे देवै वह सब सुखको प्राप्त | और अपने उन प्रार्या भाइयोंसे जो
| होता है। मांसका निषेध करते हैं प्रार्थना करते |
| यजुर्वेद २१वां अध्याय ३० ye हैं कि वह क्या कर इन मंत्रोंको पढ़े
| "हे मनुष्यो जैसे यह पचाने के प्रकारों और विचार करें कि-वेदों में मांसका
को पचाता अर्थात् सिद्ध करता और वर्षन किस कारण पाया है। और
| यात प्रादि कर्ममें प्रसिद्ध पाकोंको प. यदि भले प्रकार विचारके पश्चात् भी चाता हुशा यह करने हारा मुखोक उसकी यह ही सम्मति हो कि वेद ई-टेने वाले प्रागको स्वीकार वा से प्रापर वाप हैं और अबश्य मानने योग्य | ख और अपान के लिये छेरी (बकरी
तो परोपकार बुद्विसे वह इन मंत्रों का बच्चा) विशेष जान युक्त वापीके का भाशय प्रकाशित कर देखें ॥ लिये भेड़ और परम ऐश्वर्य के लिये बैल |ग्वेद प्रथम मंडल सूक्त १६२ ऋ० १३ 'को बांधते हुए वा प्रास अपान विशेष
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शामलीला
जाग युक्त वासी और भली भांति रात तंगी और समाही पिकासार क्षा करने हारे राजाके लिये उत्तम रस धादिमें बांधनेली रस्सी-बाजोरि युक्त पदापों का सार निकालते हैं वेके में होने वाली महमें बात रस्ती तुम प्राजकरो-,
हिराशादि अपवा जोसोमब बजर्वेद २ वां अध्याय ६० में पास दूब मादि विशेष काम"हे मनुष्यों जैसे भाज भली मालिताने घरी होवे सब पदार्थ समीपस्बिर होने वाले और दिव्य गुरु और यह उक्त समस्त बस्तु ही विद्वान बाला पुरुष बट का प्रादिके समान नोंमें भी हो.." जिस प्राय और भयानके लिये दुःख “हे मनग्यो ! जो मक्सी लते हुए बिनाश करने वाले डेरी शादि पशुसे शीघ्र जाने वाले घोडेका भोजन करती बापीके लिये मेढ़ासे परम ऐवर्षके लिये अर्थात् कुछ मल रुधिर भादि खाती वैलसे भोग करें उन सुन्दर चिकने अथवा जो स्वर बजके समान वर्तमान पापोंके प्रति पचाने योग्य बस्तुओंका हैं वा यन करने हारेके हाथों में जो बस्त यह करें प्रथम उत्तम संस्कार किये प्राप्त और जो नसों में प्राप्त है सब हुए विशेष मनोदेवद्धिको प्राप्त हों प्राय पदार्थ तुम्हारे हों तथा यह समस्तव्य-1 अपान प्रशंसित वाली भलीभांति रक्षा बहार विद्वानोंमें भी होवें।। करने हारा परम ऐवधान राज को यजुर्वेद २५ वा अध्याय मा०३५ भरकरनेसे उत्पन हों उन औषधि "जो घोडेके मांसके मांगनेकी उपारसोंको पी वैसे प्राप होवो., समा करते और जो पोड़ा को पाया|
यणर्वेद २५ वां अध्याय ०९ मा मारने योग्य कहते हैं उनको नि" जो पाखंभाके छेदने बनाने और रन्तर हरो दूर पहुंचामो-जो वेगवान् | जो यस्तम्भ को पहुंचाने वाले घोडा | घोहोंको पक्का सिखाके सब घोरसे देके बांधनेके लिये सम्माके खंडको का- खते हैं और उनका अच्छा सुगन्ध और एतेसंटते और जो घोडाके लिये जि-सब ओर से उद्यम हम लोगों को प्राप्त समें पाक किया जाम उस कामको प्र-हो उनके अच्छे काम इन को प्राप्त के प्रकार धारण करते वा पुष्ट करते इस प्रकार दूर पहुंचानी। " और जो उत्तम यत्र करते हैं उन का पर्वेद २५ वा अध्याय ०३६ सब प्रकारसे उद्यन हम लोगों को व्याप्त जो गरमियों में उत्तम ढापने और और प्राप्त होवे.
| सिचाने हारे पात्र वा जो मांस जिस यजुर्वेद २५ वां अध्याय ०३१-३२ में पकाया जाय उस बटलोई का कि "हे विद्धन् ! प्रशस्त बन वाले इस कष्ट देखना बा पात्रों के समक्षा किएएस बलबान घोडेका जो उदर बन्धन अ.1 प्रसिद्ध पदार्थ तथा बढ़ाने वाले पो
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मार्यमतलीता।
डेको सब बोरसे सुशोभित करते हैं वे | प्रादि हैं जिनका वर्णन यजुर्वेद अध्यासब स्वीकार करने योग्य हैं।” २५ में किया है ? यजुर्वेद २५ वां अध्याय ऋ०३७
आर्यमत लीला। : हेमनष्यो ! जैसे विद्वान जन जिस चाहे हुये प्राप्त चारों ओरसे जिसमें उ
[घ-भाग |द्यम किया गया ऐसे क्रियासे सिद्ध हुए आर्यों का मुक्ति वेगवान् घोड़े को प्रति प्रतीतिसे ग्रहण सिद्धान्त। करते उसको तुम सब ओर से जानी उ. सको धनांमें गन्ध जिसका वह अग्निः |
भेड़ बकरी चराने वाले गंधारोंके जो मत शब्द करे वा उसको जिमसे किमी गीत वदोंसे उद्धल कर हम स्वामी दया बस्तको संघते हैं वह चमकती वट लोईना प्रों के अनमार जैनगजट मत हिसवावे।,, __ यजुर्वेद २८ वा अध्याय ऋ०४६
में [ पिछले लेखों में ] लिखते रहे हैं
उम को पढ़ते पढ़ने हमारे भाई उकता "हे मन्त्रार्थ जामने वाले विद्वान
गये होगें-हमने वहुप्त मा भाग वेदोंका पुरुष । जैसे यज करने हारा इस स
जैन गजट में छाप दिया है शेष जो मय नाना प्रकार के पाकोंको पकाता
छपने से रह गया है उस में भी प्रायः और यामें होमनेके पदार्थको पकाता
इसही प्रकार के गंवारू गीत हैं इम हुमा तेजस्वी होता को प्राज स्वीकार
कारण यदि आगामी भी हम वेदों के करे वैसे सबके जीवन को पढ़ाने हारे वाक्य छापते रहेंगे तो हमारे पाठकों उत्तम ऐश्वर्य के लिये वेद न करने वाले को अरुचि हो जावेगीबकरी प्रादि पशुको बांधते हुए स्त्री अतः अब हम वाद वाक्यों का लिस्पना कार कीजिये,
छोड़ कर भार्य मतके मिदान्तां और यजुर्वेद २५ वां अध्याय ऋ. ४२
| स्वामी दयानंद जी की कर्तृत को दि"हे मनष्यो ! जमे प्रकला वमन्ति | खाना चाहते हैंमादि ऋत शोभायमान घोडका वि- हमारे पाठक जानते हैं कि पृथ्वी शेष करके रुपादिका भेद करने वाला पर अनेक देश हैं परन्तु हिन्दुस्तानके होता है या जो दो नियम करने वाल अतिरिक्त अन्य किमी देश वासियों होते हैं वैसे जिन तम्हारे अंगों वा पि-को जीवात्मा के गुगा स्वभाव और गहों के ऋतु सम्बन्धी पदार्थों को में क-कर्म का ज्ञान नहीं है-अाजकल अंगरेरता हूं उन २ को भागमें होमता हूं-, लोग बहुत बुद्धिमान कलाते हैं
( नोट ) अंगों वा पिण्डॉक ऋतु और पदार्थ विद्या में बहुत कुछ जाम सम्बन्धी पदार्थ क्या वही पशु पक्षी | प्राप्त कर उन्होंने अनेक ऐनो कल व.
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प्रार्यमतलीला ।
भाई हैं जिन को देखकर हिंदुस्तानी | नाम धर्म है। इसही साधन के गृहस्थ आश्चर्य मानते हैं परंतु उनका सब और मन्पास मादिक अनेक दर्जे महजान नहु अर्थात् प्रचंतन-पद्गल प-|र्षियों ने बांध हैं और इस ही के सादार्थ के विषयमें है जीवात्मा के वि-धनों के बर्णन में अनेक शाख रचे हैं। पय को वह कुछ भी नहीं जानते हैं इन ही शास्त्रों के कारण हिन्दुस्तानका और वह यह मानते भी हैं कि जी
गौरव है और सत्य धर्म की प्रवृत्ति है। वात्मा के विषय में जो कुछ जान प्राप्त यद्यपि हम कलिकाल में इस धर्मपर हो सकता है वह हिंदुस्तानसे ही हो |
| चलने वाले बिरले ही रह गये हैं विसकता है. यह ही कारण है कि वह
शेष कर वाह्य माम्बर के ही धर्माहिंदुस्तान के शास्त्रों को बहुत खोज
स्मा दिखाई देते हैं परन्तु ऋषि प्र. करते हैं और हिंदुस्तान का जो कोई
णीत शास्त्रोंका विद्यमान रहना और धार्मिक विद्वान् उनके देश में जाता है।
है। मनुष्यों की उन पर श्रद्धा होना भी उसका वह मादर मस्कार करते हैं और
गनीमत था और इतनेही से धर्म की उसके व्याख्यान को ध्यानसे सुनते हैं।
बाहुन कुछ स्थिति थी। परन्तु इम कजीवात्मा के विषय को जानने वाले निकाल को इतना भी मंज़ा नहीं है हिन्दुस्तानियों का यह सिद्धांत सर्व और कल न हुवा तो इम काल के प्रमान्य है कि जीव नित्य है, अनादि भाव से स्वामी दयानन्द सरस्वती जी है, अनन्त है, नई अर्थात् अचेतन प. महाराज पैदा होगये जिन्हों ने धर्म दार्थ मे भिन्न है, कर्म बश बंध में फंमा
| को सर्वथा निर्मल कर देना ही अपना है इमी से दुःख भोगता है परंतु कर्मों | को दूर कर बंधन से मुक्त हो सकता है।
कर्तव्य समझा और धर्मको एक बच्चों
का खेल बनाकर हमारों भोले भाईयों जिम को मुक्ति कहते हैं और मुक्ति दशा को प्राप्त होकर मदा परमानन्द |
| की मति (बुद्धि) पर अज्ञान का पर्दा में मग्न रहता है। यह गूढ बात हि- डाल दिया और उम हिन्दुस्तान में म्दुस्तान के ही शास्त्रों में मिलती है जो जीवात्मा और धर्म के ज्ञान में जकि जीव का पुरुषार्थ सुख की प्राप्ति गत् प्रसिद्ध है ऐपा विषका बीज बो. और दुःख का बियांग करना ही है। कार
कार चनदिये कि जिमसे सत्य धर्म बि. दुःस्त्र प्राप्त होता है इच्छा से और सुख फुल ही नष्ट भष्ट हो जाये वह अपने गाम है सच्छा के न होने का इस का- धेनों को यह विलक्षम मिदान्त मिखा रण परम श्रानन्द जिम को मुक्ति कह- गये हैं कि जीवात्मा कभी कर्मों से ते हैं यह इच्छाके सम्पर्ण प्रभाव होने | रहिन हो ही नहीं सकता है बरन से ही होती है। हम ही हेत इच्छा| इच्छा द्वेष आदिक उपाधि इस के वा राग द्वेष के दूर करमेके साधनोंका | सदा बनी ही रहती हैं।
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आर्यमतलीला ॥
• प्यारे प्रार्य भाइयो ! यदि आप कुछ सुनना नहीं चाहते हैं क्योंकि धर्म के सिद्धान्त और उन के लक्षणों आप के हृदय में यह दृढ़ प्रतीति है पर ध्यान देंगे तो आप को मानम कि स्वामी जी ने हिन्दुस्तान का बहोजावेगा कि स्वामी जी का यह न-हुत उपकार किया है और जो कुछ वीन सिद्धान्त धर्म की जड़ पूरी तोर धर्म का प्रान्दोलन हो रहा है वह एन । पर उखाडकर फेंक देने वाला है परन्तु ही की कृपा का फल है। प्यारे भाक्या किया जाय पाप तो धर्मकी तरफ इयो! यह आप का ख्याल एक प्रध्यान ही नहीं देते हैं ? आप ने - कार बिल्कल मच्चा है और हम भी पना सारा पुरुषार्थ संमार की ही वृद्धि | ऐभा ही मानते हैं परन्तु जरा ध्यान में लगा रक्खा है। प्यारे आर्य भाइ-दकर बिधारिये कि मंमार में जो ह. यो ! संमार में अनेक प्रकार के अनन्तजारों मत फैल रहे हैं या जो लाखों जीव हैं परन्त धर्म को समझने और मत फैलते रहे हैं उन मतों के चलाने धर्म माधन करने की शक्ति एक मात्र वाले क्या परोपकारी नहीं थे? और मनुष्य को ही है नहीं मानम श्रापका क्या उम ममय उनसे संमार का उप
और हमारा कौन पुरय उदय है जो कार नहीं हवा है ? परत बहतसे धर्म यह मनुष्य जन्म प्राप्तहो गया है और के बनाने वाले परोपकारियों का नहीं मालूम कितने काल मनुष्य शरीर | परोपकार उभ सगय के अनुकूल होने | के अतिरिक्त अन्य कीड़ी मकोड़ी कु-से थोडे ही दिनों तक रहा है पश्चात् | ता बिल्ली आदिक जीबों के शरीर धा
वहही उनके सिद्धांत विषसे समाम रण करते हुवे रुलते फिरते रहे हैं ? | हमारा यह ही अहो भाग्य नहीं है
| हानिकारक हो गये हैं दृष्टान्त रूप बि
चारिये कि आपके ही कथनानुसार उस है कि हमने मनुष्य जन्म पाया बरगा हमसे भी अधिक हमारा यह अहो
समय में जब कि यवन लोग हिंदों भाग्य है कि हम ने हिन्दुस्तान में ज
की कन्यानोंको जबरदस्ती निकाह में भ्म लिया जहां ऋषि प्रणीत अनेक |
लेने (विवाहने) लगेतोकाशीनाथजी सत् शाख जीवात्मा का ज्ञान प्राप्त इम प्राशय का श्लोक घड़के कि देश कराने वाले हमको प्राप्त हो सकते हैं | वर्ष की कन्या का विवाह कर देना इस कारण हमको यह ममय बहुत ग़नी-|चाहिये हिन्दों का कितना बड़ा मत समझना चाहिये और अपने कल्याशा में अवश्य ध्यान देना चाहिये और
भारी उपकार किया परन्तु वास्तव में सत्य सिद्धान्तोंकी खोज करनी चाहिये। यह उपकार नहीं था अपकार था और ।
ज्यादा मुशकिल यह है कि आप पूरीरदुश्मनीकी थी क्योंकि काशीनाथ लोग स्वामी दयानन्द जी से विरुद्ध जी ने सत्य रीति और सत्य शिक्षा से
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भार्यमतलीला । काम नहीं लिया बरन धोके से काम | मेरे प्यारे भाइयो ! यदि आपने लिया और उम समय के मनुष्यों को स्वामी दयानंद जी के वेदों के भाग्य बहकाया कि दश घर्ष की कन्या का को पढ़ा होगा और पदि नहीं पढ़ा विवाह कर देना चाहिये इसके उपरांत तो जैनगजट में जो वेदों के विषय में बिबाह न करने से पाप होता है -य- लेख छपे हैं उनसे जान गये हो कि यपि उस समय के लोगों को उनका वेद कदाचित् भी ईश्वर कृत नहीं कहे. यह कृत्य उपकार नजर माया परंतु | जा सकते हैं बरस वह किसी विद्वान् । उसका यह जहर खिन्ना ( फैमा) कि मनुष्य के बनाये हुवे भी नहीं है पर इस ही के कारण सारा हिंदुस्तान नि- केवन भेड़ बकरी चराने वाले मूर्स ग-1 बल और शक्ति शून्य हो गया नीरवारों के गीत हैं। ननमें कोई विद्या। इमही के प्रचार के कारण व्याग विवाह को यात नहीं है परन्तु मत्यार्थ प्रकाश के रोकने में जो कठिनाई प्राप्त हो रही में स्वामी जीने वेदों को श्वरकृत सहै वह श्राप का मन ही जानता है। मझाया है और दुनियां भरकी विद्या प्यारे प्रार्यभाइयो ! जितने मन
का भण्डार उनको बताया है । इसका मतान्तरोंका स्वामी जीने खगहन कि
कारगा क्या : स्वामी दयानन्द जी जिया है और आप खगडन कर रहे हैं
न्होंने स्वयम् वेदों का अर्थ किया उनके चलाने वाले उसही प्रकार परी-है क्या इस बात को जानते नहीं थे पकारी थे जिस प्रकार स्वामी दयान- कि वे कोई ज्ञान की पुस्तक नहीं है? न्द जी और उस समयके मनोगोंने उन
बह मत्र कछ जानते घे परस्त मीधे को ऐमा ही परोपकारी मानाथा ना मच्चे रास्ते पर चलना उनका उद्देश कि स्वामी दयानन्द की माने जाते हैं। नहीं था वह अपना परम धर्म इस ही परन्त जिन परोपकारियों ने मत्य में ममफते थे कि जिस बिधि हो से काम लिया यद्यपि उन के पी
पना मननय निकामा जावे । वह जा. पकार का प्रचार कन हुश्रा पतु मते घ कि हिन्दस्तान के प्रायः मई वह सदा के वास्ते परोपकारी रहेंग |
दी मनुष्य वेदी पर श्रद्धा रखते हैं इस और जिन्होंने काशीनाथ की त
कारण उनको भय था कि वेदों के रह बनावट से काम लिया और ममय निबंध करने में कोई भी उनकी न की जमरन के अनुसार मनघडंत मि- मनेगा हम कारण उन्हों ने घेदों की दांत स्थापित करके काम निकाला 3. प्रशमा की। परंतु सच पहो तो इस
ने यद्यपि उम समय के वास्ते उ-काम में उन्होंने आर्य समाज के पकार किया परंतु वे सदा के वास्ते
स्त माघ दुश्मनी की पोंकि प्राण कल अधर्म रुपी विष फला गये हैं। हिन्दी भाषा और संस्कृत विद्या का
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आर्यनतलोला ॥
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स्वामी जी
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लगाचा ? इस कारज्ञ को उम समय के अंगरेजी पढ़े हिन्दुनों की रुचिके वास्ते जहां अन्य अनेक नवीन सिद्धान्त घड़ने पड़े वहां मुक्तिके विषयमें भी धर्मका बिल्कुल विध्वंस करने वाला यह सिद्धान्त निकर्मोसे रहित होही नहीं सकता है यत करना पड़ा कि जीवात्मा कभी और इच्छा द्वेष इससे कभी दूर होही नहीं सकते हैं ॥
प्रचार अधिक होता जाता है लोग पदले की तरह ब्राह्मणों वा उपदेशकों के वाक्यों पर निर्भर नहीं है वरण स्वयम् शास्त्रों का स्वाध्याय करते हैं। हम कारण जब प्राप्यं लोगों में वेदों के पढ़ने का प्रचार होगा तब हो उन को जाम झूठा प्रतीत हो जावेगा ।
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प्यारे आय् भाइयो! आपको संदेह होगा और छाप प्रश्न करेंगे कि स्वामी की को प्रार्थ्य मत स्थापन करने और झूठ सच बातें बनाकर हिन्दुप्यारे कार्य भाइयो ! हमारा यह अस्तान के लोगों को अपने झंडे तले लाने की क्या प्रावश्यकता थी ? इम नुमान ही नहीं है बरण हम मत्यार्थका उत्तर यदि आप विचार करेंगे तो | प्रकाशमे स्पष्ट दिखाना चाहते हैं कि आप को स्वयम् ही मिल जावेगा कि स्वामी जी अपने हृदय में मानते थे कि स्वामी जी एक प्रकार से परोपकारी | इच्छाके दूर होनेसे ही सुख होता है। थे उनके समय में बहुत हिंदू लोग ई- इच्छा द्वं पक्के पूर्ण प्रभाव से ही परमासाई होने लगे और अगरेजी लिखे नन्द प्राप्त होता है । परमानन्द ही का पढ़ों की हिन्दू धर्म से घृणा होने ल नाम मुक्ति होता है और मुक्ति प्राप्त गी थी । स्वामी जी को इम का बड़ा होकर फिर जीव कर्मोके बंधन में नहीं दुःखया उन्होंने जिम तिम प्रकार पड़ता है परन्तु ऐसा मानते हुए भी अंगरेजी पढ़ने वाले हिन्दुओं को ई- स्वामीजीने इन सब मिद्धान्तों के विमाई होने से बजाया और जो २ बातें। रुद्ध कहना पसन्द किया । देखियेउन लोगों को प्रिय थीं वह सब प्राचीन हिंदू ग्रन्थों में खाई और वेद जो प्रसिद्ध थे उन की नवीन सिद्धान्तों का आश्रय बनालिया । अंगरेजी पढ़ लिखे | हिंदू भाई जिन्हों ने अंगरेजी फ़िलासफ़ी में अचेतनपदार्थ का ही वर्णन पढ़ा था उनकी समझ में जीवात्मा का कर्म रहित होकर मुक्ति में नित्य के
(१) सत्यार्थप्रकाशके पृष्ठ २५० पर सिद्ध करके दि | स्वामीजी लिखते हैं-सब से प्राचीन
सब जीव स्वभावसे सुख प्राप्तिकी इच्छा और दुःखका का वियोग होना चा इते हैं- ।”
( २ ) सत्यार्थप्रकाशके पृष्ठ ९८८ पर स्वामीजी लिखते हैं:
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जब उपामना करना चाहे तब एकान्त शुद्ध देशमें जाकर प्रासन लगा लिए रहने का सिद्धांत कब खाने । प्राणायाम कर बाह्य विषयों से इन्द्रि
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प्रार्थमतलीला ॥ यों को रोक.... अपने प्रात्मा और हते फिन्तु अपने स्वाभाधिक परमात्माका विवेचन करके परमात्मा शट गण रहते है" में मग्न होकर संयमी होवें ,
। (६) सत्यार्थप्रकाशके पृष्ठ २३० पर "धसे परमेश्वर के समीप प्राप्त होनेसे |
स्वामी जी लिखते हैं:सबदोष दुःख छूटकर परमे
" क्योंकि जो शरीर वाले होते श्वरके गण कर्म स्वभावके सदृमांमारिक दससे रहित नहीं हो सश जीवात्माके गण स्वभाव कते जसे इन्द्र से प्रजापतिने कहा है कि पवित्र होजाते हैं"
हे परम पनि धनयुक्त पुरुष : यह (३) मत्यार्थप्रकाशके पृष्ठ २५२ पर
रमन गरीर भरख था है और जैसे स्वामीजी लिखते हैं
| सिंहके मुख में बकरी हो यह शरीर " मुक्तिमें जीवात्मा निमग्न होनेसे | मृत्युके मुख के बीच है मा शरीर म पूर्णज्ञानी होकर तमको सघ सम्मि-मरण और शरीर रहित जीवात्माका
निवासस्थान इमीलिये यह जीव सुख हित पदार्थोंका भान यथावत् होता है,
और दःखमे मदा ग्रस्त रहना है क्योंकि (४) मत्याच प्रकाशक पृष्ठ २३६. पर शरीर महिन जी के ममारिक प्रमाना स्वामीजी प्रश्नोत्तररूपमें लिखते हैं:- |
को निति होती है और जो शरीर __ " ( प्रश्न) मुक्ति किसको कहते हैं? ( उत्तर ) “ मुझुन्ति पृथग्भवन्ति जना- रहित मुक्ति जीवात्मा ब्रह्ममें यस्यां सा मुक्तिः” जिसमें छूट जाना ही रहता है उसको सांसारिक सुख . उसका नाम मुक्ति है ( प्रश्न ) किमसे | छूट जाना ? ( उत्तर ) जिमसे छुटनेको दुःखका स्पर्श भी नहीं होता इच्छा मय जीव करते हैं । ( प्रश्न ) किन्त सदा आनन्द में रहता है। किमसे छुटनेकी इच्छा करते हैं (उत्तर)
| स्वामीजीके उपर्युक्त वाक्यों मे स्पष्ट जिममे छटना चाहते हैं (प्रश्न) किस में | इटना चाहते हैं ? (उत्तर) दुःखसे (प्रश्न)
विदित होता है कि स्वामी दयानन्द
भरस्वतीजी मत्य मिहान्तकी झलकको
पर ममझने और जानने परम्त अपने हते हैं: ( उत्तर ) मुम्बको प्राप्त होते चलोंको बहकाने और राजी रखने के हैं और ब्रह्ममें रहते हैं" वास्ते ठम्होंने कमही मत्याप्रकाशमें |
(५) सत्यार्थप्रकाशके पष्ठ २३७ पर ऐमी अनहोनी बातें कहीं हैं जिमको स्वामीजी लिखते हैं:
पढकर यह की कहना पड़ता किया " मोक्षमें भौतिक शगीर वा इन्द्रि- कुछ भी नहीं जानते थे और बिलक योंके गोलक जीवात्माके साथ नहीं र- अजान ही थे।
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सार्यमनलीला ॥
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देखिये हम बात के सिद्ध करने में कि मालम पड़ता है कि स्वामीजीको छमुक्तिसे लौटकर फिर जोध संसार के बं-न्द्रियों के विषयको अत्यन्त नोलपता पी! धनमें भाता हैस्वामीजी मत्यार्थप्रका- | और विषय भोगको ही वह परम सुख शके पाठ २४०-४१ पर लिखते हैं:- | मानते थे तबही तो वह मुक्ति मुसके ___“दुःखके अनभवके बिना सुख कह | निषेधमें लिखते हैं कि "कि जसे कोई भी नहीं हो सकता जमे कट नही तो मनुष्य मीठा मधर ही खाता पीसा मधुर क्या जो मधुर नहो तो कटु क्या | जाय उसको नैमा मुख नहीं होता जैमा महाव? क्योंकि एक स्वादक एकरके मन प्रकार के रमों को भोगने घालेको विरुद्ध होनेसे दोनों की परीक्षा होती है।
होता है ,-वाह ! स्वामी जी चाह !! जमे कोई मनप्य मधर ही खाता पीता धन्य है आपको : वंशक मुक्ति के स्वरूप जाय ममको वैमा सुख नहीं होता जैसा
को मापक मिवाय और कौन समझ मब प्रकार के रमाको भोगने धानोंको
मकता है ? इस प्रकार मुक्तिका स्वरूप
न किमी ने समझा और न मागेको कोई होता है-और जो इंवर अन्त धाले कमौका अनन्त फन देव तो उमका न्याय
ममझगा : क्यों जी ! मुक्तिको प्राप्त होमष्ट हो जाये जो जितना भार उठासके
कर और ईश्वरसदृश गुण, कर्म, उतना उम पर धरना अद्विमानोंका | स्वभाव धारण कर जीवात्मा को काम है जेमा एक मनभर उठाने वाले | मुक्तिका मानन्द भोगते २ अकता कामा के शिर पर दशमन धरनेसे भार धरने | चाहिये और सामारिक विषय भोगों वाले की निम्मा होती है। वैसे अस्पात के वास्ते मंमार में फंसना चाहिये? सरप सामर्य वाले जी य पर अनन्त सुख | वाह स्वामीजी ! क्या कहने हैं श्रापकी का भार घरना ईश्वर के निये ठीक नहीं" बद्धिके ! भापका तो अवश्य यह भी
पाठकगस !या उपरोक्त लेखको प-मिद्धान्त होगा कि जिम प्रकार एक मीठा ढकर यही कहना नहीं पड़ेगा कि ही खाता हुमा मनुष्य उतना सुख प्राप्त पा तो स्वामी दयानन्दजी निरे मूर्ख घे नहीं कर सकता है जिसना सर्वप्रकारके और मुक्ति विषयको कुछ भी समझ नहीं | रमोंको भोगने वालेको होता है। इस सकते थे, अपवा जान बझकर उन्होंने ही प्रकार एक पुरुषले मन्तष्ट मियाउलटी अधर्मकी बातें सिखानेकी को-हिता स्त्री को इतना सुख प्राप्त नहीं शिश की है-हमारी समझमें तो ना-होता है जिसना वेश्याओं को होता है दाम यालक भी ऐमी उलटी बातें न जो अनेक पुरुषों से रमण करती हैं और करेंने ऐमी उलटी पुलटी बातें तो बा- आपका तो शायद यह ही उपदेश होगा बता की किया करता है जिसके दिमा- कि जिस प्रकार इन्द्रियोंके नाना भोग ग़में फरक भागया हो
भोगनेके वास्ते मुक्त जीवको संसार में
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श्रार्यमतलीला ॥
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फिर जन्म लेना चाहिये इन ही प्रकार | और कभी झूठ ! इन कारण
विवाहिता स्त्रीको भी चाहिये कि वह निज भरतारकी छोड़कर वंश्या वनकर अनेक पुरुषोंसे रमण करे - ?
क्यों स्वामीजी ! ब्रह्म अर्थात् परमे श्वर भी तो एकड़ी स्वरूप है जब जी बाक्साको मुक्तिदशा में ब्रह्मके गुण कर्म स्वभाव के सदृश होकर एक स्वरूप में रहनेसे उतना सुख प्राप्त नहीं हो सकता जितना संसारमें जन्म लेकर इन्द्रियोंके अनेक विषय भोगों के भोगने से होता है। तो अवश्य आपके कथनानुसार ईश्वर तो घावश्य दुख र हता होगा और संभारी जीवोंकी नाई अनेक जन्म लेकर संसारकी सर्वप्रकार की अवस्था भोगनेकी इच्छा में तड़कना रहना होगा कि मैं भी जीव क्यों न हो गया जो संमारके सर्वप्रकार के रस चखता?
अवश्य घोलना चाहियेधर्मात्मा पुण्यवान् जीवोंको जय हो पूर्णसुख मिलता होगा जब वह साथ २ पाप भी करते रहें। मनुष्य जन्म पाकर धर्मात्मा बनना और इस बातका यत्र करना मूर्खता होगा कि श्रागामी की भी मैं मनुष्य जन्म ही लेता हूं बर आपने तो मनुष्य जन्मके सुख से उकताकर इस ही प्रातकी कोशिश की होगी कि आगामीका मनुष्यजन्म प्राप्त महोबरा कीड़ो मकोका कुत्ता विज्ञो प्रादिक अनेक सर्व प्रकार के जन्मोंके भोग भोगने को मिलें ? ॥
स्वामी जी आप मुक्ति के माधन के वास्ते स्वयम् लिखते हैं कि. "बाह्य विषयोंसे इन्द्रियों को रोक अपने खात्मा छोर परमात्माका विवेचन करके परमात्मा में मम हो संयमी हावें, जिस पहले यह लिखकर भी कि " मुक्ति से स्पष्ट विदित है कि इच्छा और द्वेष में जीव ब्रह्म में रहता है और ब्रह्मके । से रहित होने से ही मुक्ति होती है
सदू उसके गुया कर्म स्वभाव होजाते हैं, " जितना जितना इच्छा द्वेष दूर होता मुक्ति जीवको संसार में लानेकी श्राव जावंगा उतना ही अन्तःकरण निर्म श्यकता की मिट्ट करने में स्वामी जी! होता जायगा अन्तःकरण की ही सफाई आपको यह दृष्टान्त देते हुए कुछ भी को धर्म कहते हैं इस ही के अनेक सा लज्जानाई कि एक मोठा मीठा ही धन ऋषियोंने वर्शन किये हैं और इखाते हुए को उतना सुख नहीं होता है। कहा द्वेषक ही सर्वथा छूटजानेका नाम जितना मवरसोंके चखने वालेको होता मुक्ति है परन्तु फिर मा छाप जीजाहै । क्यों स्वामी जी आपके कथनात्माको इतना अधिक विषयानक व नमार तो मत्य ही बोलने वालेको ख- नाना चाहते हैं कि मुक्तिसे भी लोट तना सुख नहीं होता होगा जितना उम | खानेका लालच दिलाते हैं और कहते को होता होगा जो कभी मत्य बोले हैं कि एक स्वरूपमें रहने से मानद नहीं
झूठ भी
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नार्यमतमीला ॥
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मिनेगा वरगा मुक्तिसेनीटयर और मं- , जो गरीर रहित मुक्ति जीवात्मा प्रता मार में भ्रमण कर समार के मर्व विषय में रहता है उसको ममारिक सुग्न दुःख भोगौमे ही प्रानन्द मावैगा ! का स्पर्श भी नहीं होता किन्तु सदा
प्यारे आर्य भाइयो ! काा उपरोआनन्दमें रहता है" फिर यह निखना स्वामीजीके मिद्धान्त ने मत्यधमाका नाश कि परमेश्वर फिर जीवात्माको मुक्तिसे |
और अधर्मकी प्रवृत्ति नहीं होती है ? लौटाकर मंसारमें भमाना है परमेश्वर अवश्य होती है क्योंकि धर्म बदही को माक्षात अन्याई बनाना है-जीहोमकता है जो जीवको रागद्वे एक कम-वाला ने तो अपने आप को निर्मल करने या दूर करनेकी विधि ताव औरोर पवित्र कर के मुक्ति में पहुंचाया अधर्म यही है जो राग में फंमा यहां तक कि उसको स्थान भी ब्रह्ममें वाममार्ग इन ही कारण तो निन्दनीय हो याम करने का मिल्दा परन्त स्वा. है कि वह विषयाशक्त बनाता है-इम मीजीक कथनानुसार ब्रह्मो फिर उम ही हेतु जो सिद्धान्त रागय और संकी निर्मननाको विगाता और मंमार सारके विषयभोगको प्रेग्गार कर व: अ.के पापों में कमाने के बास्ते मझिसे बावश्य निन्दनीय होना चाहिये ॥ हर निकाला
स्वामी दपानन्द मरस्वती जी अपने | स्वामीजी ! यदि आपको यह मिद्ध नवीन सिद्धान्तको सिद्ध करने के बाम्ते करना था कि जीवात्मामें मुक्ति प्राप्त यह भी भय दिखाते हैं कि जो ई-करने की शक्ति ही नहीं है-पाप की श्वर अन्त वाले काँका अनन्त फल दवे | अद्भन ममझके अन्दुमार यदि उसका तो उमका न्याय नष्ट हो जाय. जो जि-निर्मल होना उम पर अधिक यमनानमा भार ठाम उतना तुम पर घटना है तो समापने यह क्यों लिग्बा कि रना बद्धिमानोंका काम है जने एकमन "जीवात्माके गण कर्न स्वगाव ईश्वर के भार उठाने वाले के शिर पर दश मनग कम स्वभावके अनमार पवित्र हो धरने ने भार धरने वाले को निन्दा होगीआने हैं और वह मदा मानन्दमें रहता है वै अल्पज्ञ प्रय मामय वाले जी है"-मापको की यह ही लिखना था पर अनन्त सुखका भार धरना ईश्वरके । कि जीवात्मा कभी इन्द्रियों के विषय | लिये ठीक नहीं"..--
| भोग में विरक्त हो ही नहीं मनाता है। पारे पाठको ! इस हेतमे भी स्वामी बरगा पदा मंगार के ही मजे उड़ाता जीकी बद्धिमानी टपकता है क्योंकि रहता है - परन्न् स्वामी जी क्या करें प्रया पर
निकाले गत ! ऋषियों ने तो मब गन्धों में यह ही क स्वमा के पदा जव म के गाजिव दिया कि जीवात्मा रागढष मे रकर्म स्व व पवित्र हो जाते हैं और हिन होकर स्वच्छ और निर्मल हो ।
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मार्यमतलीला जाता है और इस मुक्त दशा में वह विद्यमान रहता है (प्रश्न ) कहां रह परम भानन्द भोगता है जो कदाचित् ता?? ( उत्तर ) ब्रल में ( प्रश्न) भी संसार में प्राप्त नहीं हो सकता है हम | | ब्रह्म कहां है और वह मुक्तजीव एक कारण उनको ऋषियोंके धाक्य लिखने ठिकाने रहता है वा स्वेच्छाचारी हो ही पहे परन्त जिस तिस प्रकार उन | कर सर्वत्र विचरता है? ( उत्तर ) जो को रट्ट करने और संसार बहानेका 3- ब्रह्म मर्वत्र पूर्ण है उसी में मुक्तजीव पदेश देनेकी भी कोशिश की गई। अव्याहत गति अधांत सम को कहीं
रुकावट नहीं विधान मानन्द पूर्वक आर्यमत लीला।
खतंत्र विचरता--
। सत्याप्रकाश पष्ठ २३८ यह बात नव प्रसिद्ध है कि एक “उस से उन को सब लोक और सब असत्य बात को संभालने के वास्ते - काम प्राप्त होते हैं अर्थात् जो जो मंभार मंट बोखने पड़ते हैं और फिर
कल्प करते हैं वह वह लोक और वह भी यह बात नहीं बनती है-पह ही
वह काम प्राप्त होता है और वे मुक्त जीव
म्यस्त शरीर छोड़कर संकल्प मय शरीर मुशकिल स्वामी दयानन्द को पेई |
मे प्रकाश परमेश्वर में विचरते हैं." है-स्वामी जी ने अपने अंगरेजी पढ़े
व मत्यार्थप्रकाश पष्ठ २४५ चेनों के राजी करने के वास्ते यह |
__ "मुक्ति तो यही है कि जहां इच्छा स्थापन तो कर दिया कि मुक्ति सेना
पन ता कर दिया कि मुक्ति हो वहां बिचरे" जीव लौट कर फिर संमार में माता मत्यार्थ प्रकाश पष्ठ २४९ है परन्तु इस अद्भुत मिद्धांन के स्थिर "अर्थात् जिम जिम प्रानंद की कारखने में उनको अनेक कट पटांग बातें ममा करता है उम २ मानन्द को प्राप्त बनानी पड़ी हैं
होता है यही मुक्ति कहाती हैस्वामी जी को यह तो लाचार मा- पाठक वंद! विचार कीजिये कि मना पहा कि नीवात्मा स्वच्छ और जीव को पच्छा में कमाने के वास्ते निर्मन्न होकर मुक्ति को प्राप्त होकर स्वामी जी ने मुक्ति को कैमा बालकों ब्रह्म में बाम करता है परन्तु मुक्ति का खेल बनाया है?-स्वामी जी को में भी जीव को रच्डा के वश में पं- इतनी मी समझ म हुई कि जहां इ. माने के वास्ते स्वामी जी मे अनेकदा वहां प्रानंद कहां? जब तक दात धमाई हैं । यथा:
जीव में रहा बनी हुई है तब तक | मन्यार्थप्रकाश पृष्ठ २३६
वह शुद्ध और मिमग्न ही कहां हुमा| "(प्रश्न) मुक्ति में जीव का मय हो-है:-बच्छा ही के तो दूर करनेके घाना है वा विद्यमान रहता है ? (उत्तर) | स्ते संयम सम्पास और योगाभ्यास
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प्रार्यनतलीला ||
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आदि साधन किये जाते हैं-मुक्ति तो मी रखना चाहिये आप तो यह भी बहुत दूर बात है संसार में भी सा कहते हैं कि जीवात्मा मुक्ति प्राप्त कमार साधु की निन्दा की जाती है रने के पश्चात् संकल्प मय शरीर से और वह बहुरूपिया गिना जाता है इच्छानुसार विचरता रहता है शरीर यदि वह इच्छा के वश होता है-संसार संकल्प मय हो वा स्थूल हो परन्तु के सर्व जीव इच्छा हो के तो बंधन में शरीर जब ही कहलावेगा जब कि माफंसे हुवे भटकते फिरते हैं परन्तु स्वाकार होगा और जब कि मुक्ति दशा में भी जीव का शरीर रहता है तो मी दयानन्द जी ने जीवात्माको सदा के लिये भटकने के वास्ते मुक्ति दशा जीव को श्राप निराकार कह ही नहीं में भी उम को इच्छा का गुलाम बना सकते हैं । आप ने तो अपना मुंह दिया ! स्वामी जी को इतनी भी सूझ याप बन्द कर लिया। आप को तो न हुई कि इच्छा ही का तो नाम | जीव को स्वाभाविक साकार मानना दुःख है जहां पृच्छा है वहीं दुःख है पड़ गया। यदि आप यह कहैं कि और जहां इच्छा नहीं है वहीं मुख है । ब्रह्म सर्वव्यापक है कोई स्थान ब्रह्म परन्तु स्वामी जी को यह बात सूझती से खाली नहीं है और मर्व जगत् उम कैसे ? उनका ती उद्देश्य ही यह था ही में बास करता है तो यह कहना कि वैराग्य धर्म का गोप करके संसार बिल्कुल व्यर्थ हुआ कि मुक्ति दशा को वृद्धिकी शिक्षा मनुष्यमात्र को प्राप्त होकर जीवात्मग्रह्म में बाम क स्वामी जी महाराज इम २० से! रता है क्यं प्रकार तो जीव पूछते हैं कि मुक्ति दशा में जीवात्मा ब्रह्म में बास करता है ऐसा जो आप मे लिखा है इसका अर्थ क्या है? क्या ब्रह्म कोई मकान वाले क्षेत्र हैं जिसमें मुक्ति जोव जा बनता है ? जाप तो ब्रह्म को निराकार मानते हैं उस में कोई दूसरी वस्तु बाम कैसे कर सक्ती है ? यदि आप यह कहें कि जिस प्रकार ब्रह्म निराकार है उस ही प्रकार जीव भी निराकार है इस कारण निराकार वस्तु निराकार में बास कर
सदा ही ब्रह्म में बास करता है वह चाहे मुक्त हो चाहे संसारी चाहे पुम्यवान हो वा पापी बरक कुत्ता बिजो ईंट पत्थर सब हो ब्रह्म में बास कर रहा है मुक्त जीवके वास्ते ब्रह्म में बाम करने की कोई विशेषता न हुई
पाठक गयो ! स्वामी जी स्वयम् एक स्थान पर यह लिखते हैं कि मुक्त होकर जीवात्मा के गुण कर्म और स्वभाव ब्रह्मके स सकती है। परंतु स्वामीजी महाराज ! मान हो जाते हैं और स्वामीजी जरा अपनी कही हुई बात को यः । को यह भी लिखना पड़ा है कि
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प्रार्यमतलीला ॥
मत जीव ब्रह्म में रहकर | ऐसी दशा में वह कौन से अंग में र.. सदा आनन्द में रहता है |हना है और शेष अंग किस प्रकार. स्वामी जी के इन वाक्यों के साथ जब
जीवित रहता है? इन बातों के ल. आप इस वाक्य पर ध्यान देंगे कि. |
त्तर देने में आप को बहुत कठिनाई मुक्ति जीव ब्रह्म में बास करता है। प्राप्त होगी। इस कारण आपको नि. तो सभ का अर्थ स्पष्ट नाप को यहाँ
|श्चय रूप यह ही मानना पड़ेगा कि प्रतीत होगा. मुक्त जीव ब्रह्म ही जीवात्मा में मंकोच विस्तार की शक्ति हो जाता है--परन्त स्वामी जी ने
है नम की परिमाणबद्ध कोई लम्बाइस बात की रलाने के वास्ते ऐसीई चौडाई नहीं है बरश जैमा शीर ऐमी वतकी बात मिनाई हैं कि मक्त | उम को मिलता है उम होके परिमाया . जोध इच्छा के अनुमार संकल्प मग जीव नम्बा चौड़ा हो जाता है और । शरीर बनाकर ब्रह्म में विचरता रहताहै। बान्नक अवस्था मे वृद्धावस्या तक ज्यों
स्वामी दयानन्द मरम्वती जी यह | ज्यों शरीर बढ़ता वा घटना रहता है तो मानते हैं कि मनष्य का जीव ज-3 प्रकार जीवकी लम्बाई चौडाई न्मान्तर में अन्य पण पक्षी का शरीर भी घटनी बढ़ती रहती है और यदि धारण कर लेता है परन्त हाथी का | शरीर का कोई अंग कट जाना है तो शरीर बहुत बड़ा है और धीवटी का मोव मंकोच कर शेप शरीर में रहनाबाहुन छोटा और बहनमे मे भी की छे । ता है इस प्रकार ममझाने के पश्चात् हैं जो चीयटी में भी बहुत छोटे हैं। हम स्वामी दयानन्द जी मे पछते हैं
और मनष्य का मंझना शरीर है इम कि जीव मुक्ति पाकर कित्तमा नम्बा कारण हम म्यानी जी से पछते हैं कि चौटा रहता है : भिम प्रकार मंमार जीवात्मा स्वाभाविक कितना लम्बा में अनेक जीवों के शरीर का परिमाचौला, क्या जीव की नम्बाईची गा है कि हाथी का शरीर यहा और हाई परिमागद है और लोष्टी अडीचीवटी का शरीर बहुत छोटा रमही नहीं हो सकती ? यदि ऐमा है तो प्रकार का मुक्त जीव का कोई परिजोत्र चीबदी आदिक छोट जाया का मागा है वा जिम शरीर मे मुक्ति हो. जन्म धारणा करके शरीर में बाहर ही है उतना परिमाया मुक्त जीय का निकला रहता होगा और द्वायी प्रा- होना है। शिक बाई जीवों का जन्म या कर-! इम के उत्तर में यही कहना पके जीवात्मा शरीर के किसी एक बैगा कि मुक्ति जीव को मुक्ति होने के नंग में रहना होगा और प अंग ममय घर ही नम्बाई चौड़ाई होगी की ने रहित ही रहना होगा परंतु जाप मनुष्य शरीर की थी जिनको
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आर्यनतस्त्रीला
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त्यागकर मुक्ति प्राप्त की और यह म वह परमानन्द भोगता है ? जाना जावे और मुक्ति जीव का कोई | क्योंकि जय मुरु जीव में भी स्वामी नियमित शरीर माना जावे तो भी | दयानन्द के कथनानुसार इकठा है और स्वामी दयानन्द सरस्वतीजी महारावह अपनी इच्छा के अनुसार आनन्द मुक्तजीव में हाका दीप पैदा भोगता फिरता रहता है तो क्या म करने के वास्ते यह ही कहेंगे कि मु- को ऐसी इच्छा होनी असम्भव है कि फि होते ममय जी का कुछ होश सर्व स्थानों का आनन्द एक ही बार शेर हो परन्तु मुक्ति अवस्था में मुक्त | भोगलं ? और उनकी ऐमी हु जीव अपनी कल्पना अर्थात एक के हो मकती है और उन इच्छा की पूअनुमार अपना शरीर घटाता बढ़ा तिंन हो सके तो जमा के विषता रहता है । बीन कार्य होने ही का तो नाम दुःख है- दुःख इसके सिवाय और तो कोई बस्तु नहीं है फिर परमानंद कहां रहा? गरज स्वामी जी की यह श्रमत्यबात किसी प्रकार भी मिटु नहीं हो सक्ती कि. मुक्ति जीव में इच्छा रहती है, है बरण अपभी है।
क्यों प्यारे प्रायं भाइयो ! हम प्राप से पढ़ते हैं कि स्वामी दयानन्द के इस मिद्धान्त पर कभी आपने ध्यान भी दिया है कि मुक्त जीव अपनी छा
अनुमार अपने संकल्पी शरीर के साथ सब जगह विचरता हुआ परमानन्द भोगता रहता है ? प्यारे भाइयो ! यदि ज़रा भी आपने इस पर ध्यान दिया होता तो कदाचित् भी आप इस मिट्टान्त को न मानते । परन्तु स्वामी जीने जाप को संमार की वृद्धि में ऐमा प्रासक्त कर दिया है कि आपको उन धार्मिक सिद्धान्तों पर विचार करने का अवसर ही नहीं मिलता है। आप जानते हैं कि जीवको
इस पर हम यह पूछते हैं कि मुक्त जीव अपने थापको अपनी कल्पना के अनुसार मना भी बड़ायना सकता ३ वा नहीं कि वह म म में फैन आबे प्रथांत ईश्वर की नाई सर्व व्यापक हो। जावें ? यदि यह कहा जाये कि वह ऐसा कर सकता है तो मुक्त जीव मुक्ति पाते ही मर्वव्यापक यों नहीं हो जाते हैं जिम से उन को नाना प्रकार के मंकरूपी रूप धारण करने और जगह जगह विचरने अर्थात् मुख की प्राप्ति में भटकते फिरने की छात्रश्यकता न रहे बरण एक ही समय में सुखों का मजा स्वामी जी के कथनानुमार उड़ाते रहें ।
यदि यह कही कि मुक्ति जीव मर्य व्यापक नहीं हो सकता वरणा प्राकाश और परमेश्वर यह दोही सर्वव्यापक हैं और हो सकते हैं तो यह क्यों क इते हो कि जीवन के
मुक्त गुण कर्म स्वभाव ब्रह्मके सदृश होकर
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प्रार्यमतलीला ॥
एक प्रकार के कार्य को छोड़कर दूसरे हैं कि देखो पुन्य पापका फल, एक पा. प्रकार का कार्य ग्रहण करने की प्रा-नकी में प्रानन्दपूर्वक बैठा और दूवश्यकता सभी होती है जब प्रथम सरे बिना जते पहिरे ऊपर नीचेसे तकार्य से पृसा हो जाती है अर्थात् वह प्यमान होते हुए पालकी को उठाकर दुखदाई को जाता है व दूसरा काये | ले जाते हैं परन्तु बद्धिमान् लोग इसमें उमसे अधिक सुखदाई प्रतीत होने - यह जानते हैं कि जैसे २ कचहरी निगता है इस ही प्रकार मुक्त जीव अप
| कट पाती जाती है वैसे माहूकार को ने एक प्रकार के संकल्पी गरीर को |
बड़ा शोक और मन्देह बढ़ता जाता तभी होगा और एक स्थान मे दूमरे.
मर और कहारोंको प्रानन्द होता जाता है"स्थान में तब ही विचरैगा जबकि प. हला संगरूपी शरीर उसको दुखदाई
| प्रिय पाठको ! उपर्युक्त लेख में स्वामी प्रतीत होगी वा दूभरे प्रकार का ग-जान स्वयं मिट्ट करा दया कि सुख दुःख रीर या दूमरा स्थान अधिक सुखदाई किमी सामग्रीके कम बेश मिलने पर मातम छागा । अब पाप ही विचार नहीं है बरमालाकी कमी वा बढलीजिये कि यदि मक्ति में इस प्रकार ती पर है-परन्तु इन तमाम बातोंको मुक्त जीव की अवस्था होनी रहती है मानते हुए भी स्वामी दयानन्दने धर्म तो क्या यह कहना ठीक है कि मक्तजीव को नष्ट भष्ट करने और हिन्दुम्नानके परमानन्द में रहता है? कदापि नहीं । जीवों को मंमार के विषयों में मोहित
मंमारमें जो कुछ दःख है वह यह हरुडा करनेके वास्ते डहाका यहां तक सहोतो है उमके मिवाय मंमार में भी और बक या पाठ पढ़ाया कि मुक्तिदशामें या दःख है ? नहीं नो संसारको कोई भी वा सिखादी और संसारको इवस्तु या कोई अवस्था भी जोधके बा- तनी महिमा गाई कि मुक्तिने भी सं. स्ते सुखदाईबा दुखदाई नहीं कही जा| मारमें पानेकी आवश्यकता बतादीसकती है. इस हमारी बातको स्वामी स्वामी दयानन्द सरस्वतीजीको प्रदयानन्द ने मत्यार्थप्रकाशके पृष्ठ २४७ पर पनी अमात्य और अधर्मको बातां सिद्ध । एक दृष्टान्त देकर मिटु किया है जिस करनेके वास्ते बड़ी बेतुकी दलीलोंकी को हम क्योंका त्यों लिखते हैं:
काममें लाना पड़ा है। पाप लिखते * "जैसे किमी माहकारका विवाद राज घरमें लाख रुपये का हो तो वह अपने
है कि यदि मुक्तिो जीव जाते ही हैं।
और लीटें नहीं तो मुक्तिके स्थान में ' घरसे पालकी में बैठकर कचहरी में उण| काल में जाता हो बाज़ारमें होक उम |
बहुत भीड़ भाका होजायेगा। को जाता देखकर अन्नानी लोग कहते | + सत्यार्थप्रकाशके पष्ठ २४० पर।।
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प्रामसलीला ॥
हमरे ार्य भाई स्वामीजीके इभ न्तु जगत् की स्थूल बस्तु अन्य स्थल हेतु पर फूले नहीं समाते होंगे परन्तु बस्तुको उमही स्थानमें माने नहीं देती हम कहते हैं कि ऐमी घेतकी बातोंको है और भीड करती हैं स्वामीजी विहेत कहना ही लज्जाकी बात है नारेने संमारी स्थल वस्तों को देखकर कि स्वामीजी स्वयम् कहते है कि, जीव यह हेतु लिख मारी । वह बंचारे इन मुक्ति पाकर ब्रह्ममें रातार मौर ब्रल बातोंको क्या समझे? परम्त हम समसर्वव्यापक है और मुक्ति जीव सब जाते हैं कि निराकार खस्त भीड नहीं गह बिचरता फिरता रहमा -अफ-1 किया करती है बरस भी स्थल बस्त से सोस : इतनी बात मूर्ससे मूर्स भी सही हमा करतो 2-निराकार और मक सकता है कि ब्रह्माया जिसमें स्पलमें यह हो तो भेद है-बर को ब्रल मध्यापको और जो मुक्तजीवों स्वामीजी निराकार कहते हैं इस काका स्थान स्वामीजीके कपनानमार है। रमा तमके मर्यध्यापक होनेसे भीड नहीं उममें ही जगतकी ममामग्री स्थित है हो सकती.. जगत्को मर्वग्रस्तुओं मे तो भीष्ट हुई दम ही प्रकार आकाश निराकार है नहीं परन्तु मुक्ति जीवोंमे भीड़ भडका दम हेत ममे भी भीड न हुई परन्तु हो जायगा-ऐमी अद्भुत बुद्धि स्वागी मंमारको अन्य स्थल बस्तुओं से भीड़ हुई दयानन्द की ही हो सकती है और स्वामीजीको चाहिये था कि पहले यह किमकी होती।
विचार लते कि मुक्त जीव की बाबत बमके अतिरिक्त स्वामीनी परमेश्वर यह कदाजाता है कि वह ब्रह्म में बास को संबंख्यापक कहते हैं जब वह सर्व-करता है तो क्या वह स्थल शरीरके स्थानमें व्यापक होगया तो अन्य बस्तु माच बाम करता है? स्वामी जी स्व. उम ही स्थानमें केमे प्रा सकती है? यम ही कई स्थान पर लिखते हैं कि परम्तु स्वामीजी स्वयम् यह कहते हैं स्थून शरीर मुक्ति अवस्था में नहीं रकि जिम मबस्थानमें पर व्यापक है हता है तब तो पही कहना पड़ेगा कि उम ही सर्वस्थान में प्राकाशं भी सर्व मुक्ति में निराकार ब्रह्म में जीव निध्यापक है-ईश्वरने मई में प्यार कर | राकार अवस्था ही में बाम करता है भी ना करदी बरस जिम २ स्थान | तब भीड़ भड़क्का की बात कैसे उठ | में चरम सर्वही स्थानमें श्राकाश सकती है ? परन्तु स्वामी जी को त. भी ट्याप गया और स्वर और भाकाश अपना संसार मिटु करने के वास्ते वेतुके मईक पापक होने पर भी उस ही स्थान की हांकने से मतलब, चाहे वह बार में जगत् को सर्वबस्तुयें ट्याप गई पर- युक्ति पूर्वक हो वा न हो ।
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प्रायमतलीला ॥
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आयमत लीला। या है और अपने घेलों को मिखाया
है कि स्वर्ग और नरक कहीं नहीं है, ( १८ )
कुम ही प्रकार मुक्ति का भी निषेध गत दो लेखों में हमने दिखाया है कर देने, और कह देने कि कुछ सुख कि, स्वामी दयानन्दन अंगग्य धर्मको
दुःख होता है वह इस पृथ्वी पर ही नष्ट करने और संसार के विषय पापा
ही रहता है । परन्तु मुक्ति को स्थायों में मनष्यों को फंभाने के वास्ते
| पन करके उनको कारागार बताना बहिन्दुस्तान के जगत् प्रामद मिद्धांत के
। हुन अन्यार है। विरुद्ध यह स्थापित किया है कि मुक्ति। क्या मक्ति में लीटी कर संमार में प्राप्त होने के पश्चात् भी जीव बंधन में फिर बापिम आने की आवश्यकता
पता है और मनार में समता है । को दिखाने के वास्ते स्वामी जी की स्वामी जी को अपने इस अद्भुत और कोई भीर दृष्टान्त नहीं मिगता था, जो नवीन सिद्धान्त का यहां तक प्रेम हमा कारागार का दृष्टान्त देकर यह ममहै कि वह मुक्ति को जेलखाना बनाते | माया कि अनित्य मुक्ति तो ऐमी है हैं सत्यार्थप्रकाश पृष्ठ २४१ पर स्वामी जैमा किमी को दो चार बरमके वास्ते जी लिखते हैं:
कैद खाना हो जाये, और मियाद पूरी इस लिये यही व्यवस्था ठीक हैकि होने पर अपने घर पर फिर बापिम मुक्ति में जाना यहां मे पुनः माना ही चला प्राव और गित्य मुक्ति ऐमी है अच्छा है। क्या थोडं मे कारागार से जमा किनी को जन्म भरके वास्ते कंद मन्म कारागार दंड वान प्रासी प्रय-खाना हो जाये और घर वापिस पाने या फांसी को कोई अच्छा मानता है की उम्मेद ही ग र है, वा जसा किसी। जब वहां से पाना ही न होती सन्म को फांमी हो जावै कि वह फिर अपकारागार में इतना ही अंतर है कि ने घर वापिम हो न आमके ? ता. वहां मजरी नहीं करनी पड़ती और स्पर्य इसका यह है कि जिस प्रकार ब्रह्ममें लय होना समुद्र में डब मरना है। गृहस्थी लोग अपने घर पर अपने बाल
पाठक गमा ! नहीं मानम स्वामीजी बच्चों में रहना पसन्द करते हैं और को मुक्ति दशा में क्यों इतनी घृणा जन्न खाने में फमना महा कष्ट ममझते हुई है कि उन्होंने उस को कारागार हैं, इम ही प्रकार जीवका मनध्य पशु
और फांसी के समान बताया । यदि पक्षी प्रादिक अनेक शरीर धारण कस्वामी जी को मुक्ति ऐमी ही बरी रते हुव मंसार में विचरना अच्छा है, मालूम होती थी, तो शिम प्रकार - और मुक्ति का हो जाना महा कष्ट है न्होंने स्वर्ग और नरकका निषेध कि-' स्वामी जी के कथनानुसार मुक्ति में
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आर्यमतलीला ॥
११३ और अल थाने में इतना ही अन्तर है | को माते मे अगाया। फजल खर्ची, कि मुक में मन की बाल विवाह और अन्य कुरीतियों को एमी और मेल खाने में कामो हटाना निग्या या जिनमें हमारा गृहस्थ है। परन्तु म्यामा की श्री मा 7 अत्यन्त दमाई होरहा था, संस्कृत कि कैद भी दो प्रकार की होलीविया नहीं मयि दिगाई जिम एक कंद मुगवन जिनमें मनन कर-को हम किन भन्न बठे थे और मनी पड़ती है और दूसरी ६.६ महजबसे ब्रहा भारी उपकार याद किया कि जिममें मिहनत की कमी gaiन्दुिओंको ईमाई और मुसलमान
म कारणा स्वामी जी के कथना मारहारमे बचाया । परन्तु इम प्रयोजन के मुक्ति में जाना कद महोदाम्ने उनको मत्य धर्मको विल्कन ममार है। दमी है वायो - न भ माना पीर से मिद्धांत र यो मी भीमा ! म्यापन करने पावश्यक पच जो नन के वास्ते नहो, असा या दिनांक पुरुषको समिकर थे जो अंगरेजी धारते ही जिम की जिन तिम प्रकार पाकर ईसाई वा मुमनमानी धर्मको भगत कर फिर जीव संमार में प्रामक तरफ आकर्षित होते थे। उन कारख मोर मंमार के विषय भोग भोग मने स्वामीजीपा उपकार किमी ममय में ___प्यार प्रायं भाइयो : स्वामी प्रकार का कार देगा शोर मंमार में इम कचन में स्पष्ट वान
अत्यन्त प्रयको फैलाने ठाना होजास्वामीजको मंगाए
गा ! इनोद कम भाइयो ! श्राप बाही गानमा थोर उ नको "ाि है कि बाप कनर हिमान ना नमसे होमका है, मनुरोध को बांधे और प्राचीन प्राचार्यों के गत से घटाकर मकिके माधनाम पता - गज करें मीर वधsक कर स्टाराकर मंमारकी पुष्टि और टिम बमोगा के उन मद्धांतों को रद्द कर देव गानेकी कोशिश की है। इस का जो अधर्म के जाने वाले हैं । एमा कप्रापको उचित है कि पारख माचार में आपका प्रार्य नाम मार्थक हैं। स्वामी दयानन्द के वागां अन्न कर जावेगार मार्यममाज सदाके निय न करें वरण अपने कल्याणक अयं ग कल्यामा कानी होकर अपनीवृद्धिरेगा। त्य धर्मको खोम करें और मत्य के हो प्यारे भाइयो ज्यां ज्यों भाप सा. ग्रहणकी चेष्टा करें।
मी जीके लखांपर विचार करेंगे तो प्यारे भाइयो : हम स्वामी जी को त्यों माप की माला होगा कि या तो भाभारी है कि उन्होंने हिन्दुस्तान में स्वामी जी कि धर्म की म रहने वाले प्रमादमें फंसे हुये मनुष्यों हो नहीं पं. दाने का.. कर
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भार्यमत्तलीला ॥
बावाला बनना पमन्द किया है। दे. यदि ईश्वर जगत् का है और वृक्षमी खिये स्वामीजी सत्यार्थ प्रकाश मुक्ति वही पैदा करता है नो या स्वामी से लौटकर फिर संसार में आने की जी का यह अभिप्राय है कि होटे से : भावश्यकता को मिद्ध करने के वास्ते बीज से बहा भारी पक्ष बना देने में पष्ठ २४१ पर लिखते हैं
चर अन्याय करता है? यदि कोई “और जो ईबर अन्त वाले कमौका किसी को एक पप्पड़ मार दे तो राअनन्त फल देखें तो उसका म्याय नष्ट | जा उसको बहुत दिनों का कारागार हो जाय"
का दंड देता है। क्या स्वामी जी के प्यारे भाइयो ! क्या एम से यह हेत के अनमार राजा बम प्रकार दंड | स्पष्ट बिदित नहीं होता कि स्वामी
। देमे में अन्याय करता है और एक जी मुक्ति प्राप्ति को भी कमों का फम्म..
| पप्पड़ मारने का दंड एक को थप्पड़ समझते हैं ? अर्थात जिस प्रकार जीव
होना चाहिये क्या जितने दिनों तक के कर्मों से मनुष्य, पशु पक्षी, प्रादिको जीवकोई कर्म उपार्जन कर नम कर्म पर्याय मिलती है उमही प्रकार मुक्ति का फन भी उतने ही दिनोंके वास्ते भी एक पर्याय है जो जीयके कर्मों के मिलना चाहिये ? और धैमा हो भि. अनुसार ईश्वर देता है
लना चाहिये अर्थात् कोई किमी को प्यारे भाइयो ! यदि मापने पूर्वा- गाली दे तो गाली मिले और गोजन चार्यों के ग्रन्थ पढे होंगे तो आप को दे तो भोजन मिले यदि ऐमा है तो मालम हो जायेगा कि मुक्ति कमौका भी स्वामी जी को समझना चाहिये फम नहीं है घर म कमोमे गहन हो- पा किकमों का फन मति कदाचित कर जीव का स्वच्छ और शुद्ध होना भी नहीं हो सकता है क्योंकि कोई ना है अर्थात् मर्ष उपाधियां दूर ही-भी कम ऐमा नहीं हो मकता है जो कर जीव का निज खभाव प्रगट होमा | मक्ति के ममान हो क्योंकि कर्म सं. है म बात को हम भागामी गिद्ध मार में किये जाते हैं और घंध अवस्था करेंगे। परन्तु प्रथम सो हम यह पृछ- में किये जाते हैं और मुक्ति संमार ते हैं कि यह मानकर भी कि मुक्ति और बंध दोनों मे यिनक्षम है। भी कर्मों का ही फग्न है क्या स्वामीजी प्यारे प्रार्य मारयो ! मुक्ति के स्व. का पद हेतु ठीक है कि अंत वाले रुप को जानने की कोशिश करो। काँका मानना फन नहीं सिम मकना प्राचार्यों के लेखों को देखो और तर्क है? क्या खग पण के दाने के ममान बितक मे परीक्षा करो। मुक्ति को एक छोटे से बीज मे बड़ का बहुत का फल कदापि नहीं हो सकती है बहा वृक्ष नहीं बन जाता है और बग्गा कर्मों के क्षय होने तथा जीवका
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पार्यमतलीला ॥
शुद्ध स्वभाव प्राप्त करने का नाम मुक्ति | ता है कि कमौके क्षय होने और जीव है। इस भय से कि स्वामी दयानन्द | के शुद्ध स्वरुछ और निर्मल हो जाने | के वचनों में प्रासक्त होकर भाप ह-|का ही नाम मुक्ति है। मारे हेतों और प्राचार्यों के प्रमाणों ऋग्वेदादि भाष्य भमिका के अपरके को शायद म सुने हम इस विषय की लेख से यह भी विदिन होता है कि पष्टि स्वामी दयानन्द के ही लेखों से मुक्ति नित्य के वास्ते है अनित्य नहीं करते हैं
है। बेशक जब कि सर्व उपाधि दूर प्राग्वेदादि भाष्य भूमिका पृष्ठ १९२ होकर अर्थात कर्मों का सर्वथा नाश
"कवल्य मोक्ष का लक्षण यह है कि होकर जी के शुद्ध निज स्वभाव के | ( पुरुषार्थ ) अर्थात् कारण के मत्व, प्रगट होने का नाम मुक्ति है तो यह रजी और तमो नण और उन के सब सम्भव ही नहीं हो सकता है कि जीव कार्य पुरुषार्थ मे नष्ट होकर प्रात्मा में मुक्ति में लीटकर फिर संसार में भाव विज्ञान और शद्धि यथावत् होके स्व- क्योंकि मंमार को दुःख मागर और अप प्रतिष्ठा जैसा जीयका सत्व है वमा मुक्ति को परम आनंद घार २ कई it स्वभाविक शक्ति और गुणों से युक्त स्थान में स्वयम् स्वामी दयानंद जोमे | होके शुद्ध स्वरूप परमेश्वर के स्वरूप भी लिखा है। इस कारक मुक्ति जीव बिज्ञान प्रकाश और नित्य आनन्ध में अपने साप तो मुक्ति के परनानंदको जा रहमा है उमी को कैवल्य मोक्ष खोहकर संमार के दुः५ में फंमना पसं. करने हैं"
|द कर ही नहीं सकता है सौर किमी पारे पाटको ! पर्यत नेस्व के प्र. प्रकार भी मंमार में माही नहीं सक्ता नुमार मुक्ति पार्मों का पान है या कों है और यदि ईश्वर जगत्का कर्ता हो के मर्वथा नष्ट होने से मुक्ति प्रेमी है तो वह भी ऐमा अन्याई और अपं. जख मन्व, रज और तम तीनों उपा-राधी नहीं हो सकता है कि शुद्ध, निधिक गुण और उनके कार्य नष्ट होगये मल और उपाधि रहित मुक्ति जीवको और जाव शुद्ध यथावत् जेसा जीव का बिना किसी कारगम, विना उसके कितत्व है वेमा ही स्वभाविक शक्ति और सी प्रकार के अपराध के परमानन्द गण माहिस रहगया तो क्या फिर भी रूप मुक्तिस्थान मे धक्का देकर दुःख जीव के साथ कोई फर्म वाकी रहगये? दाई संमार कप में गिरादे और मुक्त .
ग्वेदादि भाष्प भूमिका में इस प्र- जोव को स्वच्छता ओर शुद्धता को कार जो मुक्ति का लक्षणा वर्णन किया नष्ट भष्ट करके सत, रज, और तम प्रा. . है मसे तो किंचित् मात्र भी मंदेह दि उपाधिय उम के साथ चिमटादे । नहीं रहता है बरगा स्पष्ट विदित हो- ऐमा कठोर हृदय तो मित्राय म्वामी
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प्रायमतलीला ॥
दयानन्द जीके और किसी का भी नहीं, वका शदु होगामा है. ऐमी मोटी और हो मकता है कि निराधी मुक्त मोधी है कि इसके वास्ते किमी देत मोवी ' म्हम् संमार में फंसाकर की जमरत नहीं है परन्त स्वामी दअपरा : सखरखें।
यानन्द के प्रमो : भोले भाइयों के मम. | पाउ। .या ! वही दो ही तो झाने के वास्ते हमने स्त्रान् स्वामीजी । पकवा हैं एक बंध को दूसरी मोक्ष की बनाई पम्त माग्दादि माध्यमपद दोनों अवस्था प्रति पक्षी हैं। बंधमका भी नव विदिया है न शब्द हो इस बात को बता रहा है पर भी यदि किमी भाइको यह शंका कि जब तक जीव उपाधियों में फमा हो कि नहीं मालग स्वामी गाने यह रहता है तब तक यंध अवस्या कहात व भमि में किनभिप्रागसे निखा है और जब उन उपाधियोंसे नुक हो हो हम स्वामाशा की पुस्तक के मार भी जाता है अयात् छट जाना है तघास का करते हैं जिनके मोर भवस्था होती है। प्राचा
पगमे यार में बाबा नरेगा -- है ! कि स्वामी की उत्तन भी
चदाद भाप्य भानमा पुन २ समझ न हुई कि फर्भ उपाधिमे मुक्त ! सोना अधात छटने का नाम मुक्ति है
“जय मिश्या ज्ञान प्रान् अविद्या वा मुक्ति भी कोई पापी है शोक
न होजाती तब दीप जब
नष्ट हो जाते हैं उनके पीछे ( प्रवृत्ति) मों को अनुमार प्राप्त होती है परन्तु व नष्ट हो जाते हैं 3 मोचे ममझ भी ने लोगों को करने
अपात् अपमन्याय विषयाशक्ति वाम्ने यह लिखमारा कि भनिन्य भ
"आदिको बामना मर ही जानी है। मौका फन नित्य मुक्ति न की मक
उमक नाग हानेने (जस) अ यात फिर ती मामा जी..
जन्म नहीं होना उमझे न होने में मय बने क्षय का २६ घ शुद्ध निर्मन
। दुधोका अन्यन्त प्रभाव हो जाता है। होगया तभी तो .. :: मुक्त कढ़ाया।
दः । के अभाव र एक परमानन्द बह कर्म फोनमा बाझो रगया शिमोगामें अयति मा विन लिगः परका मजार मेंस बनाने का मात्माक माय प्रानन्द ही भगनकी माके न्याय में
कितनी बाबा माता का नाम मोक्ष है, जान के पक्षात् फिर नकर और ननदाद मायभा: पृष्ठ ११ न: पशिना बिना कार सभी ता- अयोर मय दापनि लद परमा. | वय
नम को पाताल कि | यह बात. कि अधिक कमाँका फन्न परमानन्द भाषा मे गधन प्रनहीं है घाण कर्मों को क्षए कर के जी-योजना और जिम में हानि
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मार्यमलमोला ।
माम कभी नहीं होता ऐमे परमपदको "जमे मोने की अग्निमें तपाके निप्राप्त होके मद। भानन्द में रदने हैं "मग करदेते हैं वैसे ही प्रात्मा और मप्राग्वदादि भाष्यभूमिका पृष्ठ १९०नको धर्माचरा और शुभ गुणांके श्रा
"प लिखी हुई चिनकी पांच चरणा रूपमे निर्मन कर देना " त्तियों को यथावत् रोकने और माल पाटकगगा ! श्रापको प्राश्चर्य होगा | साधनमें मम दिन प्रत रहने मे पांच कि स्वामी दयानन्दगी अपनी पुस्तक कोश नष्ट हो जाते हैं प्रिया २ नंदादि माममिका में स्वयम् 3. मिना ३ गग ४ ६६५ निवश उनपर्यत प्रकार लिखकर फिर मत्यार्थप्रमें। अभिमतादि धार लगा और मि-काज में तुम बानके मिद करने की को
पा भाषणादि दीपांकी माता वि.शिश करते हैं कि मुक्ति मदाके वास्ते द्य है जो कि सूट जाबांशी अन्धमार नहीं होती है और कर्मों के क्षयमे मुक्ति में फमा के पान्म मर गादि दुर मग में नहीं होती है बागा मुक्ति भी कर्मों का म छुवाती है । परन्त मान विहान फन है । परन्तु यह कल आश्चर्य की बात और धर्मात्मा उपासक को मत्ययिता नहीं है क्योंकि कोई अमत्य की पष्टि में नाविद्या भिन्न २ होके नष्ट जाती करता है उसके वचन पर्वापर विरोध है नय के जीव मुक्ति को प्राप्त हो जाते हैं।
रहित हुआ ही नहीं करते हैं । स्थाऋग्वेदादि माध्यमांशा पर १८२ मीनिक ग्रन्यांको पटा और प्रायः .. जन अविद्यादि ग दूर मा नि.
मगार मि मुक्तिको सदाके वास्तलि द्यादि शभ गुगा माती तब जव
खापा और मुक्ति प्राप्त होनका का. मव बन्धना और गाने खटक मुकमा नकमाका क्षय होकर जीवका शुद्ध को प्रास होजाना,
प्र निर्भर गाना ही मानाऋग्दादि भाभगका पृष्ट १०२ माँ के वाक्यों में पाया इस कारण स्वा. " जय मव दोषांम प्रदान कि सान
मोमी गत्य यातनी दिपा न सके और की प्रार प्रात्म। झता है तय कंवल्य माक्ष धर्म के मकामाचन परिण डॉ. ऋग्वदादि भाष्यभूमिका में उनको ऐसा जाना है नमी जावको मोक्ष प्राप्त होता लिखना ही पट्टा । परन्तु अपने शिहै पांकि जबतक बन्धन कामामें ! ज्यों को खश करने के वास्ते इधर उधर जीव फमता जाता है तबतक उमका की अट कनपच्च यातासे उन्होंने मु- । मुक्ति प्राप्त होना असम्भव है." किसे नीटना भी सत्यार्थप्रकाशमें व
ऋग्वदादि भाष्यनिका पष्ठ १८१पर न करदिया ॥ मक्तिके माधनां में मे एक माधन तप है। ऋग्दादि भाष्यभूमिका के उपयुक्त जिमको ध्यारूपा स्वामी जी इस प्रकार पायासे हमारे प्रार्थ भाइयों को यह भी करते हैं
। विदित होगगा होगा कि मुक्ति का.
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मार्यमतलीला ॥ रागार नहीं है-जेलखाना नहीं है जि- भार में फिर रूलना पड़ेगा और दुःख ससे छटमा जरूरी हो बरण मुक्ति तो| सागर में इबना होगा, मुक्त जीवोंको ऐसा परमानन्दका स्थान है कि वह जितना क्लेश हो मकता है उसका बमानन्द संमारमें प्राप्त ही नहीं हो स- गन जिहासे नहीं हो सकता है और कता है। परन्तु स्वामी दयानन्द स. उनकी दशाको परमानन्द की दशा करस्वतीने मुक्तिको अनित्य वर्णन करके ना तो क्या मामान्य मानंदकी भी और मुक्तिसे लौटकर फिर संमारके ब-दशा नहीं कह सकते हैं। इस हेतु मु. म्धनमें पड़ने को प्रावश्यक स्थापित क
*वितसे लौटकर संमारमें पाने के सिद्धारके मुक्तिके परमानन्दको पाल में मिला
न्त को मानकर मुक्निका सर्व वर्णन ही दिया। क्योंकि प्रियपाठका ! पाप जा. नते हैं कि यदि हम किमी मनुष्यको
| नष्ट भष्ट होता है और सर्व कथन मिकहंदखें कि तुझको राजा बंद करदेगा
स्या हो जाता है। वा अन्य कोई महान् विपत्ति तुझ पर __ आर्यमत लीला। माने वाली है और उसको इस बात का निश्चय वा मंदेड तफ भी होजाये। तोकेदमें जाने वा अन्य विपत्तिके प्राने स्वामी दयानन्द सरस्वतीजी को संसे जो क्लेश होगा, उमसे अधिक कनेश मारके विषय भोगोंका इतना प्रेम है उप मनष्य को अभीमे प्राप्त हो जायेगा कि वह मंमारके विषयों को भोगनेके और याद वह इस समय प्रानन्द में भी वास्ते मुक्त जीवों का भी मुक्तिसे वापिस था तो मका यह मानन्द सघ मिट्टी पाना शावश्यक ममझते हैं और इम में मिल जावेगा । इम ही प्रकार यदिही पर यम नहीं करते बरगा वह मिद्ध • मुक्तिसे नीट कर मंमार के बन्धन में फं।
करना चहते हैं कि जितने दिन जीव मना मुक्ति जीवोंके भाग्य में आवश्यक
| मुक्ति में रहता है तन दिनों में भी मुक्ति है तो यह बात मुक्ति नीयों को प्रय
| जीव इलामे बंधन नहीं रहता है श्य मालम होगी क्योंकि स्वामी दया.
| वरण मुक्त दशा में भी स्वेच्छानुसार मनजीने स्वपम् मत्यार्थप्रकाशमें मिल
| सर्व ब्रह्मांड में विचरता रहता है और किया है कि मुक्ति जीव परमेश्वरके म
जगह २ का स्वाद मेता रहता है यदि दृश होगाते हैं और उनका संसारियों की तरह स्थल गरीर नहीं होता है।
कोई ऐमा कहै कि मुक्ति में जीव इच्छा और न इन्द्रियोंका भोग रहता है ब
द्वेष मे रहित रहता है तो स्वामीजी |. 'रण वह अपने ज्ञानसे हो परमानन्द को बहुत बुरा मालूम होता है और
भोगते हैं। यह मालूम होने पर तुरंत उसके खबहन पर तय्यार होते हैं 'हमको यह परम प्रानन्द खोडकर सं. स्वामीजीको तो संसार के ममयों को
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मार्यमतलीला ॥
११९ संसार से प्रेम कराना है इस कारण | से अनीति होजाती होगी । परन्तु मुक्तिजीवका एक स्थान में स्थिर रा स्वामी जी ने यह न ममझा कि ऐसा मा उनकी कब सुहाता है। वा तो कहने से स्वामीजी अपनी ही हमीक-1 वह ही चाहते हैं कि जिस प्रकार सं- राते हैं क्योंकि यह अनोखा मिद्धान्त सारी जीव इच्छा बश विधरते फिर-फिकर्मों के बंधन मे मुक्त होकर और | सम ही प्रकार मुक्त जो यों की रागद्वेष को छोड़कर और स्वच्छ निबालन कहा जाये मक्त जीवों में मंमार | मन होकर और मुक्तिको प्राप्त होकर भी के जीवन का विशेषता सिद्ध नहो । प्रोनि और अप्राति करने का गुणा
स्वामी जी सत्यार्थप्रकाश के पष्ठ ४४५ याकी रहता है और इधर उधर वि. पर लिखने हैं:
धरने की भी इच्छा रहती है, स्वामी "वह शिला पैंतालीम लाम्ब से दूनी जीके हो मुख मे गोभना है अन्य कोई ना नाग्य कोशकी होती तो भी वे मक्त विद्वान् एमा ढीठ महीं हो सकता है जीव बंधन में क्योंकि उस शिला कि ऐसी उलटी वार्ते बनावै । अफमो या शिवपुर के बाहर निकलने से सन | स ! स्वामीजीने अनेक ग्रंथ पढ़े परंस् की भक्ति छट जाती होगी और मदा मुक्ति और प्रानन्द का नाश न जाना अनमें रहने की प्रीमि और उममे खा. | स्वामीजी चारे तो प्रानन्द इस ही हर जाने में श्रमीति भी रहती होगी। में ममझने रहे कि जोव सर्व प्रकार के जहां भटकाव प्रीति और अमीनि है भोग करता हुआ स्वच्छन्द फिरता रहे समको भक्ति क्यों कर कह सकते हैं और किमी प्रकारका मटकाया किमी . पाठकगण ! इस लेख का अभिप्राय काम में रोक टोक व माने और जो। या कि जैनी लोग पैंतालीम लाख
चाई सो करै । योजन का एक स्थान मानते हैं जिस
पाठकगण ! जिस प्रकार बाजारी रं. में मक्तजीव राने हैं स्वामीजी इसके
डिये ग्रह त्यानी स्वभार संतुष्टाशियों विरुद्ध पा सिखाना चाहते हैं कि मुक्त
पर हमा करती हैं कि हम स्वछन्द | जीव सर्व ब्रह्मागहमें घूमना फिरता र- और विवाहिता बिये बंधन में | हमारेमकारया स्वामीजी जैनियों
मी हुई कारागारका दुःख भोगती के सिद्धान्तकी हमी अहाते हैं कि यदि |
था जिस प्रकार शराबी कबाबी लोग भक्ति जीव मक्ति लोकसे बाहर चला
स्पागियों की हंसी उडाया करते हैं। जाता होगा तो उसकी मुक्ति छुट जाती। |कि यह त्यागी लोग संभारका कुछ भी। होगी और मुक्ति स्थान में ही रहते स्वाद न ले सकेंगे इस ही प्रकार स्वामी। यो समको मुक्ति स्थानमे प्रीति और दयानन्दजी भी शुद्ध निर्मल स्वभावमें क्ति स्थान से बाहर जो लोक है उस स्थित उन मुक्त जीवोंकी हंसी उड़ाते |
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चार्यमतलीला ॥
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हैं जिनको कइ भी इच्छा नहीं है और नुष्य की वृत्ति मदा हर्ष शोक रुप एक स्थानमें स्या हैं और उनको ब-दुःस सागर में ही डूबी रहती है। धन में बतलाते हैं और इसके विरु- प्यारे पाठकों ! जरा स्वामीजी के द यद्ध द्धि करना चाहते हैं कि मुक्त इम सेख पर विचार कीजिये । जिस होकर भी जीव सारे ब्रह्मांड में मजे प्रकार तागाय का जल स्थिर होजाता सुहाता फिरता रहता है "तुल्टा सोग है। इस प्रकार मनकी वृत्तिको क कोतवाल को डांट" वाला दृष्टान्त यही कर स्थिर करने का उपदेश स्वामीजी घटता है
ऋग्यदादि भाष्य भमिका लिखते हैं पारे प्रार्दा भाग्यो! हम बारम्वार और शित स्थिर होने से आनन्द मापसे प्रार्थना करते हैं कि प्राप मिऔर चंचल होन मे टुःख बताते हैं - द्वान्तों को विचारें और प्राचार्यों के रन्तु मत्यार्थ प्रकाशमें जहां उनकी जे. लेखों को पढ़ें स्वामी दयानन्द जी के पृ-नियाँक ख गठन पर लेखनी उठाने की वापर विरुद्ध बायों पर निर्भर न र हैं।
आवरता हुई वहां मुक्ति जीवोंके क्योंकि स्वामी दयानन्दजी ने कोई धर्म
एक स्थानमें स्थिर रहने को बंधन ब. व धर्म का मार्ग प्रकाश नहीं किया है ताया और मर्च अलाम में स्वच्छान वरणा धमजाल रचा है। प्राइये ! हम
हम मार घमने फिरने को परमानन्द मम-1 आप को स्वयम् स्वामी दयानन्दजी के
वयम् स्वामी दयानन्दजाक झाया । यदि इम ही प्रकार म्यामोगी। ही लेख दिखावें जिससे उनका मव धमको जनियों का खरान करना था तो। मान प्रगट हो जाये।
उनको चित था कि मुक्ति का माध ग्वेदादि भाष्य भमिका पृष्ठ ११२ न चित्त वृत्ति का रोकना और मनको "जैसे जनके प्रवाहको एक ओर मे मिया करना न बताते घर वाममा दृढ़ बांधके रोक देते हैं नाजिम और
गियों की तरह स्वेच्छाचारी रहने नीचा होता है नम और चमके कहीं स्थिर होजाता है । इमी प्रकार मन
|भीर मनको बिस्कुन न रोकने में ही की दन्ति भी जब बाहर मे सकती है। मुक्ति
मुक्ति बनाते और चित्तकी वृत्ति को सब परमेश्वर में स्थिर होजाती है। एक
रोकना, नपाममा और ध्यान प्रादिक तो चित्तकी वृत्ति को रोकने का यह
को महा बंधन और दुःख का कारण प्रयोजन है और दूमरा यह है कि न.
बताते । मुक्ति से लौटकर फिर संसार पासक योगी और समारो मनष्य जय
में श्राने की प्रावश्यकता मिद्ध करने व्यवहार में प्रवत होते हैं तब योगीका में जी २ हेतु स्वामी जीने दिये हैं उन वृत्ति सदा हर्ष गोक रहित मानन्द | से तो यही मालम होता है कि स्वासे प्रकाशित होकर उस्माद और प्रा- मीजीकी पच्छा तो ऐमी ही थी क्योंकि मन्द युक्त रहती है और मंमारके म- । उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि, मीठा वा
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भार्यमतलीला ॥
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सहा एक प्रकारका ही रस चखने रो| "इत्यादि बचनों का अभिप्राय यह वह मानन्द नहीं प्रा मक्ता जो जाना है कि संन्यागियों को जो सुवर्ण दान प्रकार के रस चखनेसे पाता है म दे तो दाता नरक को प्राप्त होयेकारण मुक्ति जीवों को संसार के ना- पाटक गगो ! संन्यासी का काम है। नाप्रकार के विषयभोग भोगने के कि संमार को त्याग करने और अपने वास्ते मुक्ति को कोहकर अघप ममा | पित्त को स्थिर करने की कोशिश कर-1 रमें माना चाहिये केवन इतना ही ता रहै और मंसार व्यवहार में न पड़े। नहीं वरण स्वामीजीने तो यहां तक परंतु सुवर्ण अर्थात् नकदी माल संमार लिख दिया है कि मुक्ति केंद के भमा में फंसाने का कारण होता है इस कान है यदि वह कुछ कान के वास्ते हो। रण इम श्लोक में झिमी ने उपदेश तो ज्यों त्यों भागती भी जावै परन्तु दिया है कि जो कोई सन्यासी को पदि सदा के वास्ते हो तो अत्यन्त ही नकदी का दान देना है वह उस संदुःस दाई है । इमसे ज्यादा स्वामीजी
न्यासी को संमार में फंसाने का कारस अपने हायक विचारसा और क्या प-1 बनाना है अर्थात् अधर्म करता है परंतु रिचय देते?
स्वामी दयानंद जी उन लोक से बपद्यपि मुक्तिके माधनोंका वर्णन क-हुत नाराज हुवे हैं और श्लोक लिख रते हुये पूर्वाचार्यों के बाक्यों के प्रन-कर वह अपनी टिप्पणी इस प्रकार सार स्वामी जी को यह हो लिखनाते हैं। पड़ा कि मन्यामी अपने चित्त की वृक्ति "यह बात भी वर्णाश्रम विरोधी संको संसार की ओर से रोककर स्थिर प्रदायी और स्वार्थ सिंध वाले पौराकरे परन्तु ऐसा जिसनेका दुःव उनके गिाकों की करपी हुई हैं। क्योंकि सं. हुदध में बराघर बनाही रहा और वह यामियों को धन मिलेगा तो वे ह. यही चाहते रहे कि मुक्ति का मा: मारा खंडन बहुत कर सकेंगे और हधन करने वाला यही माना जावे मो मारी हानि होगी तथा वे हमारे भासंसार में ही लगा रहै। इस ही हेतु धीन भी न रहेंगे और जब भिक्षा स्वामी जी सत्यार्थप्रकाश के पृष्ठ १३५ टिपवहार हमारे आधीन रहेगा तो पर नीचे लिखा एक श्लोक लिपकर
पुरते रहेंगेउसका सराहन करते हैं
| इस उपर्युक्त नेख से स्वामी दयानंद | पतीनांकाञ्चनंदद्या
जी का अभिप्राय पाठकों को मालूम | ताम्बूलंब्रह्मचारिणाम् । होगया होगा कि वह संन्यासियों की | चौराखामभयंदद्या
वृत्ति किस प्रकार की हो जानी चास्सनरोनरकं ब्रजेत् ॥ हते थे और यह पहले ही मालूम हो
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भार्यमतलीला चुका है शिवह मोक्षको कोमा दुःख दा- | होकर परमात्मासे योम लगाता है मो| ई मानते थे।
उम को परमानन्द प्राप्त होता हैस्वामी जी का अभिप्राय कुछ भी | स्वामी दपानन्द जी ने जो सत्यार्थ हो हमतो यह खोज करनी है कि जिस प्रकाश में पर लिखा है कि मुक्तजीव प्रकार जैनी मानते हैं-जीव के स्थिर | ब्रन में वास करता है उस के भी केरहने में परमानंद है वा जिस प्रकार | बल यह ही अर्थ हो सकते हैं कि नीय खामी दयानंद बी सिखाते हैं-सीवके अपनी प्रास्मा में स्थिर होकर परमा. खेच्छानुसार सर्वस्थान में विचरने में स्मा से युक्त हो जाता है इस ही का. मुख है ? इम की परीक्षा में हम अ
| रण स्वामी जी ने मत्यार्थप्रकाश में पने मार्य भाइयों के वास्ते उपनिष
| लिखा है कि मुक्त जीव ब्रह्मके मदृश
हो जाता है। हम मर्च को स्पष्ट क द् का एक लेख पेश करते हैं जिमको
रने के वास्ते स्वयम् स्वामी दयानन स्वामी जी ने भी स्वीकार कर के म
जी ऋग्वेदादि भाष्य भमि का के पष्ठ त्यार्थ प्रकाश के पृष्ठ १८७ पर लिखा है
| १८६ पर लिखते हैंसमाधि निर्धनमानस्य चेनसोनिशे- से अग्नि के बीच में लोहा भी शितस्यात्मनि यत्सुखं भवेत् । न श-अग्नि रुप हो मासा है। मी प्रकार पते वर्णयितुं गिरा तदा स्वयम्त दन्तः | परमेश्वर के ज्ञान में प्रकाशमय होके करणेन गृह्यते ॥
अपने शरीर को भी भूले हुए के सशिम पमष के समाधि योगसे प्रवि
मान जान के प्रात्मा को परमेश्वर के द्यादि मल नष्ट हो गये हैं आत्मस्यहो
प्रकाश स्वरुप प्रानन्द और जामसे कर परमात्मा में वित्त जिनने लगा
| परिपूर्ण करनेको समाधि कहते हैंया है उम को जो परमात्मा के योग का मुख होता है वह बाबी से कहा लिलाया था कि प्रथम समापिल
पूर्वोक्त उपनिषद् के श्लोक में पा नहीं जा सकता स्पोंकि उस प्रानंदको दिशाट मग प्रांता , नीवात्मा अपने अन्तःकरण से ग्रहण
द्वेष भादिक को दूर करे फिर अपनी करता है।
मात्मा में स्थिर हो जाये और इस पाठक गत ! म सपर्यत लोक में बाक्य में समाधि का खप दिखलायह दिखाया गया है कि समाथि से या कि संमार से पित्त की पत्तिको अविद्यादि ममा नष्ट हो जाते हैं और हटा कर यहां तक कि अपने शरीरको जीव इस योग्य हो जाता है कि वह भी भाम कर परमात्मा के पास में पस अपनी प्रास्मा में नम्बर दो सके इस प्रकार स्मीन हो जावै कि अपने भापे प्रकार 'जय जीव अपनी प्रात्मा खिरका भी ध्यान न रहे जिस प्रकार कि
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भार्यमतलीला ॥
लोहा अग्नि में पहकर लाल अग्नि | काम हो जाता है तो उम दुःख के दूर रूप ही हो जाता है और अंगारा होने को यह जीव सुख मान रोना है मालम होने लगता है इम ही प्रकार परन्त इच्छादिर होकर परमात्मा के ध्याममें ऐना की तामीन और इसा दुध पाजो चित्तको हो जाये कि अपने प्रापेका भी ध्यान प्रवृत्ति मंसार को नाना वस्तयों और न प्राइम ही अवस्था में परमाम-नाना रूप कार्यों पर होती है उस प्रव प्राप्त होता है
शक्ति के रुकनेमे और जीवात्माके मा. वह प्रामद ऐसा मामन्द नहीं है जो स्ला में स्थिर होनेसे किसी प्रकार भी संसारियों को नामाप्रकार की वस्तुओं
दुःख नहीं हो सकता है और न पर के भोगने वा मानाप्रकार की क्रियाओं के करने से प्राप्त होता है बरख संमार
| संसार का झूठा मुख प्राप्त होता है जो का सुख हम सुख के सामने दुःख ही है
वास्तव में दुःख का किंचित् मात्र दूर और झूठा मुख है। अमलो मानन्द
होना है घरमा बम प्रकार रागद्वेष दूर और परमानन्द जीव की पत्तियों के होकर और जीवास्ना शुद्ध और निर्मल रुकने और प्रात्मामें स्थिर होनमें ही होकर उमके जानके प्रमाण होभेमे जो होता क्योंकि ममारका मुख तो यह सुग्म होता है वह ही मचासुख और है कि किसी बात की इच्छा मृत्पन | परनानन्द है। हर्ष और दःख प्राप्त हुना। फिर म | परमानंद का उपयुक्त स्वरूप होने इच्छा के दूर दाने में जो दुःख की नि- पर भी स्वामी दयानन्द मरस्वती जी पत्ति हई उमको मुख मान लिया। समार मुख को ही सुख मानते हैं और संमार के जिसने मुख हैं व सम मा.
मुक्ति जीव को भी पानंद की खोजमें | पक्षिक हैं। विमा दःख के संमार में |
| सव ब्रमांड में भलता हुया फिराना कोई मुख हो ही नहीं सकता है । यदि |
चाहते हैं और एक स्थान में स्थिर प्रभख म लगे तो भोजन खाने में मुग्यन
पने सान स्वरूप में मग्न मुक्त जीवों हमा करै यदि पास न लगे तो पानी |
को बंधन में बंधा हुआ बताकर जैनिपीने से सुख नहुमा कर या कामकी
|यों की हंमी उठाते हैं-परंतु वास्तव | पीहा न होमो स्त्री भोग में कुछ भी मामन्द न हो। इसही प्रकार चनमा |
में हंमी उसी को उनती है जो अटका फिरना सैर सपाटा सादिक जिन २ | पच्च और उलटी यातें बनाता है. संमारीक कामों में सुख कहा जाता है| हमको अत्यंत प्राश्चर्य है कि स्वामी या यही ही है कि प्रथम इच्छा - जी ने यह कैसे कह दिया कि, मुक्त स्पन होती है और हम इच्छासे दुःख | जीवों के एक स्थान में स्थिर रहने से होता है फिर जब पच्छाके अनुमार उमको उग स्थान से.प्रीति होजावेगी|
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मार्यमतलीला ॥
और उस स्थान से बाहरके स्थान से | के वास्ते स्वामी जी ने यह सब प्र-1 प्रमीति करने लगे गे? पा स्वामी जी | पंच रचा हैकी समझमें मुक्ति प्राप्त होने पर भी स्वामी जी ! यह मानने से कि मुक्का राग द्वेष जीव में बाकी रह जाता है जीव इच्छानुमार एमते फिरते रहते ।
हैं बड़ा भारी बखेड़ा उठ खड़ा होगा
क्योंकि श्राप सत्यार्थप्रकाश में यह में बनी रहती है। शायद यह ही
लिख चुके हैं कि “यदि मुक्ति से जीव समझ कर कि उस में ऐसी सपा
| लौटता नहीं है तो मुक्ति में अवश्य पिका कोई अंश वाकी रह जाता है स्वामी जी ने या कहा हो कि
| भीड़ भरा हो जावेगा, जिससे वि.
|दित होता है कि भाप मुक्ति जीवों मुक्ति जीव अपनी इच्छानुसार प्रा-का ऐमा शरीर मानते हैं जो दूमरे मंद भोगता हुना सर्व ब्रह्मांड में फि
मुक्त जीव के शरीर को रोक पैदा करे रता रहता है। परंतु ऐसा मानने से
ऐसा शरीर धरते हुने क्या यह मम्भव तो बड़ी हानि भावंगी क्योंकि जय
नहीं है कि एक मुक्ति भी जिभ मएक स्थान से प्रीति और अन्य स्थान मय जिस स्थान में जाना चाहै उमही से प्रप्रीति स्वामी जी के कथनानुमार | स्थान में उन हा ममय दूसरा मुक्त हो सकती है तो अन्य वस्तुओं से प्री-जीव जाने की वा प्रवेश करने की इ. ति वा अग्रीति क्यों नहीं हो सकती ? | छा रखता हो और स्वामी जी के और जब स्वामी जी के कथनान मार | कथनानुसार मुक्त जीवों का ऐमा शमुक्ति जीय मर्व बना में घमता फि-रोर है नहीं जो एक ही स्थान में कई रता रहना है तो नहीं मालूम किम जीव मना के वरण एक जीव मरे अम्त में प्रीति फर बैठे और किम विजय के मास्ते भी करता है तब तो षय में नामक्त हो जावे वा न मानम
| उन दोनों मुक्ति जीवों में जो एक ही किस पस्त वा जीवसे अप्रीति प्रांत स्थान में प्रवण करना चाहते होंगे खब | द्वेष कर लेवे और उमसे स्लर धैठे ? |
| लडाई होती होगी वा एक मुक्त बाब
को निराश होकर बड़ा से नीटना प. इस प्रकार मुक्ति जोय के एक स्थान
इता दोगा और इम में अवश्य उसको में अपने मान स्वरूप में स्थिर न र-!
दुःखाता होगा और ऐमा भी हो हने और सरुवानुमार ब्रह्मांड में बि-कता है कि जिधर एक मुक्त जोन चरते फिरने से ममारी और मुक्ति जीव जाना हो घर से दूसरा मुक्त भीष में कुल भी अंतर नहीं रहता है और ना हो और दोनों प्रापस में टकरा शायद इम ही अंतर को हटाने और यदि कोई कहने लगे कि एक उन मुक्ति के साधो से अचि दिलाने ही में से अनग-हटमा दुमरे को रास्ता दे
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प्रार्थमतलीला ॥
देता होगा तो स्वच्छन्दता न रही दूसरे के कारण से अलहदा हटना पड़ा संसार बंधन में जो दुःख है वह यह ही तो है कि संसार के अन्य जीवों और अन्य वस्तुओं के कारण अपनी कानुकूल नहीं प्रवर्त सकते हैं । हम को बड़ा है कि जब स्वयम् स्वामी जी यह लिखते हैं कि मुक्ति का बाधन रागद्वे षका दूर करना और अपनी आत्मा में स्वरूप स्थिर होना है इन दो माधन से जीवात्मा शुद्ध और निर्मन होता है और इस ही से नमकी उपाधि दूर होती हैं। तत्र नहीं मालन स्वामी दयानन्द की मम में मुक्ति की प्राप्त करने के पवात् जीवात्मा में कौन सी उपाधि मिट जाती है जिनके कारण वह अमी स्वरूपस्थित स्थिर अवस्था को कोकर मारे ह्मांड की सैर करता फिरने लगता है ? देखिये मुक्ति के स्वामी जी इस प्र
[
तथा धारण के पीछे ठमी देश में ध्यान करने और आश्रय लेनेके योग्य जो अंतर्यामी व्यापक परमेश्वर है उम के प्रकाश और आनन्द में अत्यंत वि चार प्रौर प्रेम भक्ति के माथ इस प्रकार प्रवेश करना कि जैमे ममुद्र के बीच में नदी प्रवेश करनी है । ऋग्वदादि भाष्यभूमिका पृष्ठ १८६ ध्यान और समाधि में इतना ही भेद है कि ध्यान में तो ध्यान करने वाला जिस मनमे जिम चीजका ध्यान
में
माधन स्वयम् कार लिखते हैं
ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका पृष्ठ १८३ "जी ary बाहर से भीतर को प्राता है उसको श्याम और जो भीतर से बा
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ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका पृष्ठ ११९ "इसी प्रकार बारंबार अभ्यास करने से प्राण उपासक के वश में होजाता है और प्राण के स्थिर होनेसे मन, मम के स्थिर होनेसे मारना भी स्थिर हो जाता है।"
ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पृष्ठ १८५
6.
"धारणा उनको कहते हैं कि मनको चंचलता से छुड़ा के नाभि, हृदय मस्तक, नामिका और जीभ के अग्रभाग प्रादि देशों में स्थिर करके प्रकारका अप और उनका अर्थ जो परमेश्वर है उसका विचार करना I
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हर जाता है उस की प्रश्वास कहते हैं उन दोनों के जाने जाने को बिचार | से रोके नासिका को हाथ से कभी न पकड़े किन्तु ज्ञान से ही उनके रोकने को प्राणायाम कहते हैं इनका - नुष्ठान इस लिये है कि जिनसे घिस | तो स्वामी जीने उपर्युक्त लेखक्रे छानुनिर्मल होकर उपासना में स्थिर रहे, सार यह बताया कि ध्यान करने वा
करता है वे तीनों विद्यमान रहते हैं | परन्तु समाधि में केवल परमेश्वर ही के आनन्द स्वरूप ज्ञान में ग्रात्मा मग्न हो जाता है वहां तीनों का भेद भाव नहीं रहता ।
प्यारे पाठको ! मुक्ति के साधन में
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मार्यमतलीसा ।
ला और जिस मनसे पान करता है। सत्या प्रकाश पष्ठ ६० और जिप का ध्यान करता है इन छाद्वेषप्रयत सुखदुःख जानान्यातीनों बातों का भी भेद मिटाकर प- | मनो लिंगमिति ,, ॥ पायः॥ . रमेश्वर के आनन्द स्वरुप जान में ऐसा १ । प्रा० १ । २०१० मग्न हो जाये कि इस बात का भंद जिममें ( इच्छा ) राग, (प) और, ही नर कि कौन ध्यान करता है ( प्रयत्न ) पुरुषार्थ, सुख, दुःख, (जाम) और किम का ध्यान करता है परन्तु जानना गुण हों वह जीवात्मा । वैशे. मुक्ति प्राप्त होने के पश्चात् स्वामी जी
षिश में इतना विशेष १ "प्राणापा. यह बताते हैं कि वह मर्व ब्रह्मांड की ननिमेवोन्मेष जीवन मनोगतीन्द्रि सैर करता हुमा फिरै ! क्या मुक्ति प्रा.
यान्तर विज्ञाराः सुख दुःखेकाषप्रप्त होने के पश्चात् जीव को परमेश्वर के
| पाश्चात्मनो निगानि,, ॥ वै० म० मानन्द स्वरूप शानमें मग्न रहने मौर
३। प्रा०२ । सू०४॥ अपने आप को भलाकर परमेश्वर ही में |
| ( प्रागा ) भीतर से वायु को निका-1 तल्लीन रहने की जरूरत नहीं रहती है।
|लना ( भगन ) बाहर मे वाप को या मुक्ति साधन के समय तो मान-भीतर लेना (निमेष) मांस को नीचे
र में तल्लीन होने से प्रासदांकना ( उम्मेष) प्रांस को ऊपर उहोता है और मुक्ति प्राप्त होने के प
| ठाना (जीवन) प्राय का धारण कबात वानमार सारे ब्रह्मांड में पू. रमा ( मनः ) ममन विचार प्रांत मते फिरने से प्राप्त होता है? जान ( गति) पंचष्ट गमन करना । अफमोम ! स्वामी जी ने बिना वि.
(इन्द्रिय ) इन्द्रियों को विषयों में च. चारे जो चाहरा लिखमारा और मामलाना उनसे विषयों का ग्रहण करना मद के स्वरूप को ही न जाना ।
( अन्तर्विकार ) आधा, मृषा. जबर, पीआर्यमत लीला। हा प्रादि विकारों का होना, सुख,
दुःख, इच्छा, द्वेष और प्रपा ये सब मत्यार्थ प्रकाश के पनने से मालम | आत्माके लिङ्ग अर्थात् कर्म और पुनी। होता है कि स्वामी दयानंद सरस्वती स्वामीजीने अनेक ग्रन्ध पढे और स्याजी ने जीव के स्वरूप को उलटा म- न स्थान पर सत्यार्थ प्रकाणमें पूर्वापार्यो मक लिया और इम ही कारण से जीव | केवाक्य उद्धत भी किये परन्त समझमें के मुक्ति से लौटने और मुक्ति में भी उनकी कुछ भी न पाया। वर ग्याय मुख के अर्थ विचाते फिरनेका सिद्धान्त | और वैशेषिक शाखों में उपरोकमत्रों स्थापित कर दिया। देखो स्वामी जी को पढ़कर यह ही समझ गये कि मांस बम प्रकार लिखते हैं
| लेना, प्रांख को खोलना मदना, जहां
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भार्यमततोला । चार माना जाना, निद्रयों का विषय है स्वाभाविक भाव नहीं है इसकी भोग करना, भंख, प्याम, शारीरिक कारण मुक्ति में शरीर नहीं होता है. बीमारी, सुख, दःख, इच्छा, देष और यदि देव धारण करना जीव का स्वा. प्रया यह सब बातें जीव के स्वाभा- भाविक भाव होता तो मुक्ति में भी विक गुण है, अर्थात् यह सब बातें शरीर कदाचित् न छूट सकता। देखो जीव के साथ सदा बनी रहती हैं और स्वामी जी स्वयम् सत्यार्थप्रकाश में कभी जीव से अलग नहीं हो सकी हम प्रफार लिखते हैं
मत्यार्थ प्रकाश पृष्ट १२८ है। तब की तो स्वामी जी यह कहते |
__ " न म शरीरस्यमतः नियमिययोर हैं कि मुक्ति दशा में भी जीवात्मा |
|पतिरम्स्यशरीरं वा वसन्तं न प्रियाअपनी इच्छा के अनुमार सर्व ब्रह्मांष्ठ |
प्रिये स्पशतः" ॥ छान्दो० ॥ में घमता फिरता रहता है और सर्व
जो देवधारी है वह सुख दुःख की स्थान के स्वाद लेता राता है और
राप्राप्ति से पथक कभी नहीं रह सकता तब ही तो स्वामी जी यह समझाते और जो शरीर रहित जीवात्मा मुक्ति है कि जनी लोग मुक्त जीवों के वास्ते |
वास्त में सर्व ध्यापक परमेश्वर के साथ शुद्ध एक स्थान नियत करके और नमकी |
"होकर रहता है तब तमको सांसारिक म्भिर अवस्था बना कर उनको जड़ बमुख दास प्राप्त नहीं होतास्त के समान बनाना चाहते हैं। | अपर के लेखसे स्पष्ट विदित है कि जिम प्रकार तोते को बहुत सी बो-मांसारिक अवस्था प्रोपाधिक अवस्था ली बोबनी मिसा दी जाती हैं और स्वाभाधिक अवस्था नहीं है क्योंकि या पती सम मिलाये हुने शब्दों को मक्ति में जीव शुद्ध अवस्था में रहता बोलने लगता है परन्तु सन वाक्योंका और संसार में उमको अवस्था प्र. अर्थ विकुन भी नहीं समझता, पशद्ध है-स्वमात्र से बिरुद्ध अवस्था को ही प्रकार स्वामी जी की दशा मालूम ही अशुद्ध अवस्या कहते हैं अशुद्धि,
ती कि भनेक ग्रन्थ देख डावे उपाधि और विकार यह सब शब्द एक परंत समझा कुछ नी माहीं । स्वामीजी अर्थक बाचक हैं और इनके प्रतिको इतनी भी मोटी समझ न हुई कि पक्षी शद्ध, स्वच्छ और निर्मल एक उपतको सक्षम जीव के न्याय वा अर्थ के बाचक हैं जब सर्व प्रकार की वाधिक दर्शनों में वर्णन किये हैं पर उपाधि जीव की दूर जाती हैं और संभारी जीव के देहधारी के हैं। जीव माफ होकर अपने असली स्वकोकि मुक्ति में जीव शरीर रहिन भाव में रह जाता तब ही जीव की मिर्मल और खहो जाता है। मुक्ति दशा कहलाती है। मुक्ति करते पारसकरना बीवका श्रीपाधिक भाव' टनेको छूटना जिससे विकारसे
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आर्यमतलीला ॥
अब देखना यह है कि सपाधि वाही सकता है। इस वास्ते रानी । विकार जो संमारी जीवों को लगे र-संसारी देहधारी उपाधिसहित जीवी में| हते हैं वह क्या है और जीव का अ- ही होता है। मुक्त जीव में रागद्वेष | सली स्वाभाव क्या है?= | भी नहीं हो सकता है। देखिये स्वामी
उपयत लेख से यह तो विदित ही दयानन्द जी मुक्ति सुखको इस प्रकार है कि शरीर धारी होना जीवका स्व- | वर्णन करते हैंभाव नहीं है धरण शरीर भी जीयके ऋग्वदादि भाष्य भूमिका पृष्ट १९२ वास्ते एक उपोधि है।
___ " सब प्रकार की बाधा इस प्रकार समझने के पश्चात् जन अर्थात् इच्छाविघात और हमारे प्यारे प्रार्य भाई न्याय और | वैशेषिक शाखों के कथन किये हुये |
| परतन्त्रता का नाम दुःख है जीवके लक्षणों को जांच करेंगे तो मा
फिर उस दःख के अत्यन्त अ लम होजावेगा कि यह मय लक्षण सं-भाव और परमात्माके नित्य सारी देहधारी जीवके हैं अर्थात् जीय | योग करने से जो सब दिनके के उपाधिक भाव के लक्षण हैं । जीव
लिये परमानन्द प्राप्त होता है के असली स्वाभाव के वह लक्षण क
उसी सुखका नाम मोक्ष है-" दाचित् नहीं हो सकते हैं क्योंकि वह | मब लक्षम देहधारी जीव में ही दो लपक लेख से स्पष्ट यिदित होता सकते हैं, देह रहित में कदाचित नहीं
है मिला और दंष ही जीव को हो सकते क्योंकि सांस लेना, प्रांखों
बाधा पहुंचाती हैं और इन ही के दूर
होनेसे जीव स्वच्छ और निर्मल :को खोलना मंदना, सांख, नांक, और
कर अपना प्रमली स्वभाव प्राप्त करता है।
| प्रयत्न भी संसारी जीव ही कोक इन्द्रियों के द्वारा विषय भोग करना
रना पड़ता है क्योंकि प्रयत्न उमही बात प्रादिक सर्व क्रिया देहधारी जीव में |
के वास्ते किया जाता है जो पहले से ही हो सकती हैं। देहरहित मुक्त जी-1
"प्राप्त नहीं है और जिसकी प्राप्ति की। में इनमें से कोई भी बात नहीं हो इच्छा है अर्थात् जिसकी अप्राप्ति से सकती है। और संमार में जो सुख दुःख जीव टःख मान रहा है। मुक्ति में न कारलाता है वह भी देहधारी ही में है और न दुःख है इस कारक होता है। मुक्त जीव तो संसारिक सुखमति में प्रयत्न की कोई आवश्यक्ता दःख से प्रषक होकर परमानन्द ही में ही नहीं है। वानमार गमनागन रहता है। संसारिक सुख दुःखका का-मी एक प्रकार का प्रयास का. रश सिवाय रागढ पके और कुछ नहीं 'रया यह भी मुक्ति में नहीं हो सका।
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मार्यमतलीला ॥
१२०
बरण मुक्ति में तो शांति और स्थिर-खाया जो म्याय और वैशेषिक शास्त्रों सा ही परमानन्द का कारण है। के पर्योक्त संमारी देहधारी जीवके ल
स्वामी दयानन्द सरस्वतीने भी स्थि- क्षणको अर्थात् औपाधिक भावको जी. रताको ही मुक्ति और परमानन्द कायका असली स्वभाव मान लिया और सपाय पर्वाचार्यों के अनुमार लिखा है। ऐमा मानकर शाद स्वरूप मुक्त जीवों ऋग्वेदादि भाष्य भमिका पत्र १८७ ) में भी यह सघ उपाधियां लगा दी "नो"भरपय अर्थात् शुद्ध हदय और मुक्त जीवको भी संभारी श्रीवके सपी बन में स्थिरता के साथ निवाम तुल्य बनाकर कल्याणके मार्गको मष्ट करते हैं वे परमेश्वर के समीप बास भट करदिया और धर्मकी जल काटदी। करते हैं,
पारे प्रार्य भाइयो ! यह नो माप ग्वंदादि भाष्य भूमिका पष्ठ १११ को मालूम होगया कि जिस प्रकार “जिससे पामम का मन एकाग्रता प्रस्थाभी दवानन्दजी ने जीवका साक्षगा मन्नता और शाम को यथावत् प्राप्त ममझा है और न्याय शीर वैशेषिक होकर स्थिर हो,
दर्शनोंके हयाले से लिखा है वह विसत्यार्थ प्रकाश पृष्ठ १२६ फार माहित बंधन में फंसे हुये जीव का"यरुद्वारा मनमीमाक्ष- लगा है परन्तु अब आप यह जानना स्तन्छ ज जानमारमनि। चाहते होंगे कि जीयका असली लक्ष. जानमात्मनिमहति नियमले, या है? हम कारण हम भापको
तद्यच्छच्छान्त आत्मनि ॥ सताते हैं कि जीवका लनव ज्ञान है। सन्यामी वृद्धिमान् वाणी भीर मान! लक्षण यह होता है जो तीन प्रकार को अधर्म से रोके उनकी जान नीर के दो पीसे रहित हो । १ अव्याप्त २ प्रात्मामें लगावे और ज्ञानस्वात्माको प्रतिव्यात असम्भव । जो लक्षण किमी परमात्मा में लगाये और उम विज्ञान | वस्तु का किया जाने यदि वह लक्षाशा को शान्त स्वरूप प्रात्मामें स्थिर करे.." उन वस्तु में कमी पाया जावे और
उपयंक्त स्वामी जी के ही लेखों में भी न पाया जावे या अम के एक सिद्ध होगया कि शान्ति और स्थिरता देश में पाया जाये तो उस लक्ष या ही जीवके वास्ते मुक्तिका साधन और में प्रव्याप्ति दोष कहलाता है जैमा स्थिरता ही परगानन्द का कारण है कि जो लतमा स्वामी जी में न्याय इस हेतु मुक्तिनीय इधर उधर डोलते और वैशेयक शास्त्र के कथनके शान मार नहीं फिरते हैं वरगा राग द्वेष रक्षित वर्णन किये हैं यह जीवके लक्षण नहीं स्थिर पित्त ज्ञान स्वरूप परमानन्द में हो सक्ते क्योंकि यह लक्षगा संसारी | मम रहते हैं।
जीव में पाये जाते हैं और मुक्ति जीव स्वामी दयानन्दजीसे बड़ा धोखा में नहीं, इस कार या इन लक्षणों में अ
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मार्यमतलीला ॥
ध्याप्त दोष है। परशा यदि अधिक भी ज्ञान नहीं है वह ही तो बातु जड़ विचार किया जावे तो संसारी जीव | व अचेतन कहलाती है। इस हेतु इम। के भी यह लक्षण नहीं हो सक्त हैं लक्षण में प्रत्याप्त दोष नहीं है। इस क्योंकि संमारी जीवों में स्वामी दया- में प्रतिध्याप्ति दोष भी नहीं है क्योंकि नन्द जी ने सत्यार्थप्रकाशमें वृक्ष प्रा. जीवके सिवाय ज्ञान किसी अन्य वस्तु दिक स्थावर जीव भी माने हैं, जो अपनी
| में होही नहीं सकता है। जीवमें जान पनी इच्छा के अनसार चल फिरनहीं प्रत्यक्ष विद्यमान है इस कारण इसमें मक्ते हैं और उन के भांखें भी नहीं | अमम्भव दोष भी नहीं है। होती हैं जिनको वह खोल मंद सकें।
स्वामी दयानन्द मरस्वतीजी यह तो और स्वामी दयानन्द जी ने वैशेषिक | मानते ही हैं कि मुक्ति अवस्थामें जीव शाखके आधार पर अपनी इच्छा के |
| देह रहित होता है और जान ससका अनमार चलना फिरना और भाखोंका
देहधारी जीवोंसे अधिक होता है। मूंदना खोलना भी जोवका लक्षण व- इस हेतु जीवके ज्ञानका आधार प्रांख र्णन किया है । लक्षणा वह ही हो सक
नाक कान मादिक इन्द्रियों पर नहीं ताको कभी किमी अवस्थामें भी
हो सकता है बरण संसारी जीव रागलक्ष्य वस्तुसे दूर न हो सके। जो लक्षण किमी वस्तु का कहा जाये
द्वेष प्रादिक विकारों के कारख अशुद्ध यदि वह लक्षणा उम वस्तुसे पृथक अन्य
हो रहा है जिसमे इसका ज्ञान गुण किमी वस्तु में भी पाया जाये तोम
मैगा रहता है और पूर्णकाम नहीं कर लक्षणा में अतिव्याप्त दोष होता है जैसे
मझता है । इम कारण संसारी देहधा
री जोवको इन्द्रियोंकी हम ही प्रकार आंखों का बोलना मंदना प्रादिक फ्रिया)
आवश्यकता होती है जिम प्रकार मांधातुके खिलौने में भी हो जाती हैं। जिनमें कोई काम लगा दी जाती है। ख के विकार वालोंको ऐनककी श्राव
जिम बस्तका लक्षण वर्णन कियावश्यकता होती है वा जिम प्रकार बयदि वह लक्षणा तम अन्त में कभी इट वा कमजोर मनुष्यको लाठी पकड भी न पाया जाये तो उस लक्षणमें अ-/ कर चचनेकी जरूरत होती है। क्यों संभव दोष होता है।
ज्यों अच्छा द्वष प्रादिक संसारी जीव जीवका नक्षण वास्तव में ज्ञानही हो | के मेन ध्यान, तप और समाधि माता है क्योंकि इस नक्षगामें इन ती-श्रादिकसे दूर होते जाते है त्यों त्यों नों दोनों में में कोई भी दोष नहीं है। जीवक्री ज्ञानशक्ति प्रकट होती है और कोई अवस्था जीवकी ऐसी नहीं हो अतीन्द्रिप जान प्राप्त होता जाता है।। मझती है जब इममें थोड़ा वा बहुत इम विषयमें स्वामी दयानन्द जी इस ज्ञान न हो क्योंकि जिम में किंचिन्मात्र प्रकार लिखते हैं।
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ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पृष्ठ १८५
"इस प्रकार प्राणायाम पूर्वक उपा सना करने से आत्मा के ज्ञानका प्रावरणा अर्थात् ढांकने वाला जो अज्ञान है वह नित्यप्रति नष्ट होता जाता है श्रीर ज्ञानका प्रकाश धीरे २ बढ़ता जाता है
प्रार्यमतलोखा ॥
इम प्रकार लिखने पर भी स्वामी जीको यह न सूझी कि मुक्ति प्रस्था तक बढ़ते घढ़ कहां ज्ञान बढ़ जाता स्वामी दयानन्दजीने यह मब कुछ है । और कहां तक बढ़ना रुकजाता लिखा परन्तु स्वामीजीको मुक्ति से कुछ | है | स्वामीजीको बिचारना था कि ज्ञानका इस प्रकार बढ़ना जीवने पृथक् किमो दूसरी वस्तु के सहारे पर नहीं है।
ऐमी चिढ़ थी कि उनकी मुक्तजीवको प्रशंसा तनक भी नहीं भाती थी । जब ही तो उन्होंने मुक्तिको कैदखा
!
जिस प्रकार कि पानीका गर्म होना के समान लिखा और नाना प्रकार अग्निके सहारे पर होता है कि जिके स्वाद लेने के वास्ते मुक्तिमे लौटकर तना अग्नि कमती बढ़ती होगा पानी संमार में जाने की आवश्यकता बताई। गर्म होजागा बरण यहां तो जीवके तब वह यह कब मान सकते थे कि निज स्वभावका प्रगट होना है । जीव मुक्ति में जीवको पूर्णज्ञान प्रकट हो के ज्ञानपर जीयावरण झारहा है उम जाता है और वह सब कुछ जानने ल का दूर दीना है अर्थात इच्छा द्वेषागता है अर्थात् सर्वज्ञ होजाता है। इस दिक मैल जितना दूर होता जाता है कारक स्वामीजीने यह नियम बांधउतना उतना ही जीवके ज्ञानका प्रादिया कि जी प्रत्यक्ष है वह सर्वज्ञ | वरणा दूर होता जाता है । और जीव होही नहीं सकता है अर्थात् मुक्ति में | का ज्ञान प्रगट होता जाता है। ब भी प्रत्यक्ष ही रहता है ॥ जीव पूर्ण शुद्ध हो जाता है अर्थात् पूर्ण आवरण नष्ट हो जाता तब जीव का पूर्ण ज्ञान प्रकाशित हो जाता है। तात्पर्य यह है कि मुक्ति दशा में जीवके ज्ञानमें कोई रुकावट वाकी नहीं रहती है अर्थात वह सर्वज्ञ होजाता है।
restraint बुराई करने में स्वामी जी ऐसे पक्षपाती बने हैं कि वह प्रपने लिखेको भूलजाते हैं देखिये यह सत्यार्थप्रकाशमें इस प्रकार लिखते हैं।
सत्यार्थप्रकाश पृष्ठ ४२ 'प्राणायामादशुद्धिक्षयेज्ञान दी
""
प्तिराविवेक ख्यातेः ॥
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- जबतक मुक्ति न हो तब तक उस के आत्मा का ज्ञान बराबर बढ़ता जाता है-'
सर्वक्ष के शब्द पर शायद हमारे आर्य भाई खटक क्योंकि वह कहेंगे कि म
" जब मनुष्य प्राणायाम करता है। देश तो ईश्वरका गुगा है । इस कारण लब प्रतिक्षण उत्तरोत्तर काल में अशुद्धि | यदि जीव मुक्ति पाकर सर्वज्ञ होजावे का नाश और ज्ञानका प्रकाश होजाता तो मानो वह तो ईश्वर के तुल्य होगया
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यायमसलीला ।
परन्त प्यारे आर्य भाइयो ! माप घ- ब्रह्ममें स्वच्छन्द घूमता, शुद्ध मान से बराइये नहीं स्वयम् स्वामी दयानन्दने सब सृष्टि को देखता, अन्य मुक्तों के यह बात मानली है कि मुक्त जीव साथ मिलता, सृष्टि विद्याको क्रमसे ईश्वर के तुल्य होता है-देखो वह इस | देखता हुआ सब लोक लोकान्तरों में प्रप्रकार लिखते हैं
र्थात् जितने ये लोक दीखते हैं और ___ सत्यार्थप्रकाश पृष्ठ १८८ नहीं दीखते उन सब में घमता है। __ "मय दोष दुःख छुटकर परमेश्वरके वह सब पदार्थों को जो कि उसके ज्ञान | गण कर्म स्वभावके सदृश जीवात्माके के भागे हैं देखता है जितना ज्ञान | गण कर्म स्वभाव पवित्र हो जाते हैं। अधिक होता है उसको उतना ही प्रा ___ स्वामी जी ने सत्यार्थ प्रकाश में नन्द अधिक होता है मुक्ति में जीवाकई स्थान पर यह भी लिखा है कि मा निर्मल होने से पूर्णज्ञानी होकर मुक्त जीव ब्रह्म में रहता है परन्तु ब्रह्मा उसको मय मन्निहित पदार्थों का भान | में रहने का अर्थ सिवाय इमझे और यथावत् होता है। . कछ भी नहीं हो सकता है कि वह प्र. प्यारे आर्य भायो ! स्वामी दया।
ह्म के मद्राश हो जाता है क्योंकि वो नन्द जी का नपर्युक्त लेख पढ़नेमे स्वा. सर्व व्यापार मानने से मुक्त अमुकत मी जी का यह मत तो स्पष्ट विदित सब ही जीवांका ब्रह्म में निवास मिट हो गया कि मर्व ब्रह्मांड में कोई स्थल | होता है फिर मुक्त जीयों में कोई बा सक्षम अस्तु ऐसी नहीं है जिमका विशिष्टता वाकी नहीं रहती । पारे ज्ञान मक्त जीव को न हो मक्ता हो आर्य भायो ! स्वामीजीने माजीव घरग मर्वका ज्ञान तमको होता है और को प्रत्यक्ष सो वर्णन कर दिया परन्त वह पूर्ण ज्ञानी है । और ज्ञान ही उम उन असमाता की कोई मीमा भी का प्रानन्द है। स्वामीजी कोई भीमा यांधी ? यदि आप इस पर विचार जीवके ज्ञानकी नहीं बांध सके कि प्रकरेंगे तो नाप को मारनम हो जादंगा मक वस्तुका वा उसके स्वभावका जान कि न तो स्त्र मीत्री कोई मीमा मक्त | होता है. और अमुक का नहीं, वरण जीवके ज्ञान की बांध मके और न बंध वह स्पष्ट लिखते हैं कि उसको सर्व सकती है। देखिये स्वयं स्वामीजी इम जान होता है और पूर्गाज्ञान होता प्रकार लिखते हैं:
है और इसके विरुष्टु जिया भी फेमे मत्यार्यप्रकाश पठ-५०
जा गता है ? क्योंकि जब मन "मेले कामाजिक मुन्ध गरीर के आ-जीव के प्रानन्द का प्राधार उनका धारमे भोगता है ये रे परमेरके आसान ही है और जितना २ जीव धार मुक्ति के मानन्दको जीवात्मा भी- निर्मल होता जाता है और उसका गता है। वह मनाशी प्रान्त व्यापक ज्ञान पढ़ता जाता है उतना पानन्द
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Romania-
-----AMRAPAMunna.. AAna .
मार्यमतलीला ॥ बढ़ता जाता है। तत्र पछि मुक्त जीव | जीयों के पूर्ण ज्ञान का विरोध करने के माल्पा रहेगा ससका ज्ञान पर्गा नहीं वास्ते चुपके से यह भी लिख दिया होगा अर्थात् वह सर्वज्ञ नहीं होगा कि यद्याप उनको पूर्ण ज्ञान मर्व पतो जमको परमानन्द भी प्राप्त नहीं दार्थों का होता है, परन्तु एक माथ होगा । जितनी उमके ज्ञानमें कमी नहीं होता है, वरगा क्रम में ही होता होगी उतना ही नमका प्रानंद कम है, और मन्निहित पदार्थों का ही ज्ञान होगा। परंतु स्वामी दयानन्द जी पू होता है अर्थात् जो पदार्थ उनके सघाचार्यों के आधार पर बार बार यह न्मस होता है उमही का ज्ञान होता लिख चुके हैं कि मकानीव ईश्वर के
है। मानो म्वामी जी ने मुक्त जीबके सदृश होकर परम आनंद भीगता है।
ज्ञान की सीमा बांधदी और मर्वत से उसके प्रानंद में कोई बाधा नहीं रहती है। और न उमको कोई रुकावट
कमती जान मिद्ध कर दिया। रहती है जिसमें उनको दुःख प्राप्त हो।
__ मन्नहित अर्थात् मनिकर्ष धान चा.
वाक नास्तिकों ने माना है । जो बस्तु फिर माननीव को मज न मानना वास्तवमें नमको दुःखी बगान करना है।
| इन्द्रियों मे भिजावे उम ही का ज्ञान प्यारे पाठको! सत्यार्थ प्रकाश के पृष्ठ
होना दूरवर्ती पदार्थ का ज्ञान न होना २५२ मे जो लेख हमने स्वामी जी का
मनिक जान कहलाता है । वेचारे निखा है उसके पदन में आपका स्वामी स्वामी दयानन्द को मुक्त जीय की जी की चालाकी भी मानम हो गई। सर्वज्ञता नष्ट करने के वास्ते नास्तिक होगी। यद्यपि पूर्वाचायोंके कथनान- का भी मिद्धान्त ग्रहण करना पड़ा पमार स्वामी जी को लाचार यह | रन्तु कायं कुछ न वना, क्योंकि समा. लिखना पहा कि ज्ञान ही मुकजी-री जीव जो विकार सहित होने के का वोंका प्रानन्द है और उन को पा रगा इन्द्रियों के द्वारा ही ज्ञान प्राप्त शान होकर पर्ण प्रानन्द अर्थात् | करता है वह भी सूर्य और ध्रयतारा परम पानंद प्राप्त होता है, पर- प्रादिक बहुत दूरवर्ती पदार्थों को देमत स्वामीजी तो संमार सुखको सुख खमक्ता है । इस कार गा विकार रहित मानते हैं- प्रेम और प्रीतिके ही मोहचान स्वरूप मुक्तजीवमें मन्निकर्ष ज्ञान जाल में फंसे हुवे हैं और नाना प्रकारको स्थापन करना तो कत्यन्त ही मूकेही रस भीगने को प्रानन्द मानते खना है। स्वामी जी स्वयम् सत्यार्थ है इस कारण इस लिखने में न रुके प्रकाश में रहते हैं कि संमारी जीवों कि वह आपममें मुक्त जीवासे मिलते पर प्रज्ञान का प्रावरण होता है। हुये फिरते रहते हैं, अर्थात् मोहजाल यह पाबरगा दूर होकर ही जीयका में वह भी फंसे रहते हैं और मुक्त ज्ञान बढ़ता है और जब यह साबरण
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आर्यमतलीला ॥
पूर्व नष्ट होजाता है तब जीबको मुक्ति ही प्रकार मक्त जीव को होलमा पड़होजाती है। परन्त मक्त जीवमें स्वामी ता है तो मुक्त जीबको परमानंदकी | जी मनिकर्ष ज्ञान स्थापित करते हैं। प्राप्ति कदाचित् भी नहीं कही ना अर्थात् संमारी जीवोंसे भी कमती ज्ञान सक्ती है। क्योंकि जिसने स्थान वा सिद्ध करना चाहते हैं।
जितनी वस्तु का मान प्राप्त करना शायद कोई हमारा प्रार्यभाई यह बाकी है उतनी ही मुक्तनीय के प्रानं कहने लगे कि मन्निहित पदार्थों का अ- में कमी है। यह बात स्वामीजी कह भिप्राय यह है कि जो पदार्थ मुक्तजीव ही चके हैं कि पर्ण ज्ञानका होना ही के सन्मुख होते हैं उनहीं को देख मक्ता मुक जीव का श्रानंद है। इसके प्रतिहै। परन्त ऐमा कहना भी बिना बि रिक्त जब मुक्त जीवको गी यह अभि चारे है क्योंकि शरीर धारी जीवा में नाषा रही कि मुझको अमुक २ स्थानों तो उनकी इन्द्री ए स्थान पर स्थित वा अमुक २ पदार्थों को जानना है तो होती है जैमा कि आंख मुखके जपर उम को परम आनंद हो ही नहीं सक्ता होता है। संमारी जीव आंख के द्वारा है यरया दुःख है। शहां अभिलाषा है देखता है। इस कारण प्रांख के मन्मु वहां दस अवश्य है। इस कारगा यह ख जो पदार्थ है उमही को देख मक्ता ही मानना पड़ेगा कि मुक्तजीय में पूर्ण है प्रांख के पीछे की वस्तु को नहीं दख ज्ञान होता है अर्थात् वह मवंत ही सका है । परन्त मुक्त जीवके शरीर नहीं होता है नमका ज्ञान किमी इन्द्री के आश्रित नहीं होता है, वरण वह प्रायमत लोला। स्वयम् ही ज्ञान स्वरूप है अर्थात् मब |
r [कर्म फल और ईश्वर ]
a mओर से देखता है। उसके वास्ते सर्वड़ी। पदार्थ मन्मख हैं। म हेत किमी प्र-I
(२१ ) कार भो मनिहित पदार्थ के ज्ञानका स्वामी दयानन्द मरम्मती जी मत्या. नियम कायम नहीं रह सक्ता है। प्रकाश में लिखते हैं कि यदि परमे__ यदि स्वामी दयानन्द जीके कयना-श्वर मुक्ति जीवों को, जो राग द्वेष नमार मक्त जीवको पदार्थों का ज्ञानक्रम रहित इंद्रियों के विषय भोगों से बि. रुप होता है अधांत सर्व पदार्थों का हीन स्वच्छ निर्मन रू.प अपने पास्म एक मगय में जान नहीं होता है वरण | स्वरूप में ठहरे हुये हैं और अपने जिम प्रकार संभारी जीव को संसार | सान स्वरूप में मम परमानन्द भोग दशा को देखने के वास्ते एक नगर से रहे हैं, मुक्ति स्थान से ढकनकर संदुमरे नगर में और एक देशसे दृमरे देश मार रूपी दुःख सागर में न गिराये और में डालते हुये फिरना पड़ता है । इम | सदा के लिये मुक्ति ही में रहने दे तो
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आर्यमतलीला
१३३ परमेश्वर अन्यायी ठहरता है। पाठक | इम से भी अधिक हम यह समझना गण प्राश्चर्य करेंगे और कहेंगे कि अ- चाहते हैं कि जीव को कर्मों का फल न्यायी तो भक्ति से हटाकर फिर में देने ही में ईश्वर अन्यायी होता है सार में फमाने से होता है न कि इस घरगा इम से भी अधिक अर्थात् यह के विपरीत। परन्त स्वामी जी तो कि यदि ईश्वर कमों का फल देव तो मुक्ति को जेनखाना और संमार को | वह पापी हो जाता है और ईश्वर ही मजे उड़ाने का स्थान स्थापित करना नहीं रहता है। चाहते हैं हम कारण वह तो ईश्वरको। हमारे प्रार्य भाई जिन्हों ने अभी अन्यायी ही बतायेंगे यदि वह मुक्त तक कर्म और कर्म फल का स्वरूप नहीं जीवों को सदा के वास्ते मक्ति में | मगझा है, इस बात से प्रार्य करेंगे,
| परन्तु उनको हम प्रेम के साथ समस्वामी जी का कथन है कि ईश्वर झाते हैं और यकीन दिलाते हैं कि ही जीवां के बरे भने कर्मों का फल | वह बिचार पूर्वक श्राद्योपान्त इम लेख देता है और मुक्ति प्राप्त करना भी को पढ़ नवे तब उनका यह सत्र प्राकर्मों का फम है। कर्म अनित्य है | श्चर्य दूर हो जायेगा। इस बात के कारण उनका फन नित्य नहीं हो पायं करने में उनका कछ दोष नहीं मकता है इम हेत यदि ईश्वर अनित्य | है क्योंकि स्वयम् स्वामी दयानन्दजी, कर्मों का फन नित्य मुक्ति देवे तो | शिन की शिक्षा पर वह निर्भर हैं, कर्म अन्यायी हो आबंगा। परन्त पद और कर्म फन्न के स्वरूप को नहीं सुबात हम ने पिछने अंत में मनीमांति | मझते थे तय बिचारे मार्य भाई तो मिद्ध करदी है कि मुक्ति कर्मों का क्या समझ मझते हैं ? परन्तु उन को फल नहीं है घरमा मक्ति नाम है उचित है कि वह इस प्रकार के सिकर्मों के क्षप हो जाने का-सर्वथा नाश दांतों की खोज करते रहैं और सीखहोजाने का और जीवात्मा के स्वच्छ ।
ने का अभ्यास वनाये रक्खें-तब यह और निर्मल हो जाने का सर्व प्रौपा- सब कुछ सीख सकते हैं, क्योंकि पूर्वाधिक भाव दर हो जाने का। आज चार्यों और पूर्व विद्वानों की कृपा से इस लेख में हम यह ममझाना चाहते हिन्दुस्तान में अभी तक प्रात्मिक हैं कि मुक्तनीय को सदा के वास्ते तत्यके विषय में सर्व प्रकारके सिद्धांत मुक्ति में रहने देते में ईश्वर अन्यायी| हेतु और विचार सहित मिल सकते हैं। नहीं होता है बरण बिना कारणाम. प्यारे मार्य भाइयो ! आप संभार वित से नकेल कर संमार के पापों में में देखते हैं कि संसारी मनुष्य राग फंमाने में अन्यायी होता है। और 'द्वष में फंसे हुवे अनेक पाप किया क
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९३६
शामलीला ||
रते हैं और प्राप यह भी जानते हैं | पदेश देते हैं । कि रागद्वेष जीव का निज स्वभाव नहीं हैं बरा यह उस का जोवाधिक भाव है जो पूर्व कर्मों के यश उप को मास हुआ है। देखिये स्वयम् स्वामी दयानन्द श्री सत्यार्थ प्रकाश के पृष्ठ १२०-१९३० पर लिखने हैं:
"इंद्रियाणां निरोधन,
राग द्वेष क्षये । श्रहिमया च भूताना ममृतत्वाय कल्पते ॥ यदा भावेन भवति, सर्व भाषु निःस्पृहः । सदा सुखमवाप्नोति, प्रेत्य चेह च शाश्वतम्, इन श्लोकों का अर्थ स्वामी जी ने पृष्ठ १३१ पर हम प्रकार लिखा है -
(१) "इन्द्रियों को अधर्माचरण से रोक, राग द्वेषी छोड़, नत्र प्राणियों से निर बर्तकर मोक्ष के लिये सामबढ़ाया करे |
(२) जब संन्यासी सब भावों में प्रर्थात् पदार्थों में निःस्पृह फांक्षा रहित और सब बाहर भीतर के व्यवहारों में
भाव से पवित्र होना है तभी इस देह में और मरण पाके निरंतर सुख को प्राप्त होता है”
इस से स्पष्ट विदित हो गया कि राग द्वेष आदिक भावों को स्वामी जो भी खोपाधिक भानु बताते हैं इन ही कारण तो मुक्ति के माधन के या स्ते संन्यासी कोइन के छोड़ने का उ
इसी प्रकार स्वामी जी सत्यार्थ प्रकाश के पृष्ठ ४८ पर लिखते हैं"इन्द्रियाणां विवरताम्, विषयेष्वपारिषु । संपमे पत्रमातिष्ठ
द्विद्वान् यन्ते वाजिनाम् ॥"," अर्थ- जमे विद्वान् माथि घोड़ों की नियम में रखता है वैसे मन और शा
मा को खोटे कामों में खेंचने वाले विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों के निग्रह में प्रयत्न सन प्रकार से करें । इन्द्रियाणां प्रसंगेन,
दोष मृत्यसंशयम् । मन्नियम्यतु तान्येव, ततः सिद्धिं नियच्छति ॥ अर्थ- जीवात्मा इन्द्रियों के यश हो के निश्चित बड़े बड़े दोषों को प्राप्त होता है और जब इन्द्रियों को अपने बश करता है तभी सिद्विको प्राप्त होता है
वेदास्त्यागश्च यज्ञाश्च, नियमाश्च तपांसि च । न विप्रदुष्ट भावस्य सिद्धिं गच्छन्ति कर्हिचित् ॥ अर्थ- जो दुष्टाचारी अजितेन्द्रिय पुरुष है उसके बंद, त्याग, यक्ष, भियम और तप तथा अन्य अच्छे काम कभी सिद्धि को नहीं प्राप्त होते । प्यारे भाइयो ! अब विचारसीय यह है कि राग, द्वेष मौर छन्द्रियों के विषय भोग की बांच्छा श्रादिक बीमारी जिनके कारण यह जीव
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भार्यमतलीला ॥
१३७ | सर्व प्रकार के पाप करता है और जिन | कि जो कोई मनुष्य हिंसा वा चोरी,
बो दूर करने म को मुक्ति सुख | जारी करेगा उसको बहुत बहुत दंड मिलतापम जीवात्मा में फिस का दिया जायेगा-तो क्या वह राजा ख-1 रख लग जाती हैं। इस का उत्सर मब यम् अपराधी नहीं है? क्या वह स्वभाई शीघ्रताके साथ यह ही देखेंगे कि । पम् अपराध की प्रेरणा और सहायजीवके पूर्व उपार्जित कर्म ही इमके ना नहीं करता है? राजा और न्याय पारस परन्तु उन पूर्वापार्जित कर्मों का वा दंड दाता का तो यह काम का फल देता कौन? मका उत्तर | है और दंड इस ही हेतु दिया जाता देगा जरा बठिन बात है क्योंकि यदि है कि ऐमा दंध दिया जाये जिस से | र फल देता है तो ईश्वर प्रघश्य
अपराधी फिर वह अपराध न करे । अन्यायी, पापी और पापकी प्रवृति यह कदाचित् भी दंड नहीं हो सका। कराने वाला तथा पापकी सहायता
है कि अपराधी को ऐमा बना दिया करने वाला ठहरेगा।
जावै कि वह पहले से भी अधिक प्रबिचारवान् परुषो ! यदि किसी पराध करने लगे। अपराधी को जिमने एक मनुष्य का
| प्यारे भाक्यो ! ईश्वर जीवों के वासिर काटकर उमको प्रासांत करदिया। स्ते क्या कर्तव्य चाहता है? क्या वह | 1,राजा यह दंछ दे कि इसके मारे | यह चाहता है कि जीव मदेव राग शरीरसे ऐसे हथियार बांध दो जिमघ और इंन्द्रियों के विषय में फंमे | से यह अपराधी मनुष्यों को मार ने के रहे ? वा यह चाहता है कि इनसे विद्याप और कोई काम ही न करे, घा
विरक्त होकर परमानंद सूप मुक्तिको किसी चोर को यह दंड देवै कि कुंचल
प्राप्त हों? यदि वह राग, द्वेष और (क) लगाने के हथियार और
इन्द्रिपों के विषय में फंसने को पाप ताला तोड़ने के प्रोबार हमके हाथोंसे
समझता है तो राग, द्वेष करने वालों बांध दिये जावें जिससे यह चोरी ही
और इन्द्रियों के विषयमें फंमने वाले काकाम किया करे, या किसी अपराधी
जीवों को उनके इम पाप का यह दंड को जिमने परखो सेवन किया हो यद
क्यों देता है कि वह आगामी को भी दंर देव विरामको ऐमी औषधी
राग ट्रंप के वश में रहें और इन्द्रियों खिला दो जिस से या सदा कामातुर
के विषय में फंसे । मिसने हिंसा का रहा कर ओर इम अपराधी को ऐसे पाप किया उस को तो यह दंड दिया | नगर में बोहदो व्यभिचारसी कि भील, हाकू प्रादिक म्लेच्छों में उम चिये बात मिल सत्ती हैं, और साथ का जन्म हो जिससे वह सदा ही म ही इसके यह ढंढोरा भी पिटवाता है मष्यों को मार कर उनका धन हरण
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श्रार्यमतलीला ॥
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नाश, क्रूरता का होना, नास्तिक्य - र्थात् वेद और ईश्वर में श्रद्धाका नरह ना, भित्र २ अन्तःकरण की वृत्ति और एकाग्रता का प्रभाव और किन्हीं व्यसनों में फंसना होवे तब तमो गुबका लक्षण विद्वान् को जानने योग्य हैइस ही प्रकार मृत्यार्थ प्रकाश के पृष्ठ २५४ पर स्वामी जी लिखते हैं
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किया करे, वा सिंह आदिक क्रूर जीव बना दिया जिससे उस का उदर पोपण भी जीव हिंसा ही हुआ करे और हिंसा के सिवाय और कुछ काम ही न हो । जो कोई बी व्यभिचारिणी हो उस को यह दंड दिया कि वह रंडी के घर पैदा की जावे जहां सदा व्यभिचार ही होता रहे। इन ही प्रकार अन्य अपराधों के भी दंड दिये । जो मध्यम तमोगुणी हैं वे हाथी अथवा यदि हिंसा के अपराध का दंड घोड़ा, शूद्र, म्लेच्छ, निंदित कर्म करने द्वारे मिह, व्याघ्र, बराह अर्थात् सूकर हिंसक बनाना और व्यभिचार के छपके जन्म को प्राप्त होते हैं। जो उत्तम राध का दंड व्यभिचारी बनाना नभी हो तो भी हिंसक, व्यभिचारी तमो गुणी हैं वे श्वार, सुन्दर पक्षी, डाकू यादिक जितने पापी जीव दृष्ट पड़ते लिये अपनी प्रशंसा करने हारे राक्षस दांभिक पुरुष अर्थात् अपने सुख के हैं यह सब किसी न किसी अपराधके जो हिंसक, पिशाच, अनाचारी अर्थात ही दंड में ऐसे बनाये गये हैं जो आ-मद्यादि के आहार कर्ता और मलिन rritat afva ure करें । देखिये रहते हैं वह उत्तम तमोगुण के कर्म कर स्वामी दयानन्द जी भी मत्यार्थ प्रकाश | फल है जो मद्य पीने में प्रासक्त हो के पृष्ठ २५२ - पर लिखते हैं:ऐमे जन्म नीच रजो गुरु का फल है
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"मन से किये दुष्ट कर्मों में चांन प्रादि का शरीर मिलता है-"
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" रजोगुका उदय मत्य और तमोगुण का धन्ध होता है तय प्रारंभ में रुचिता धैर्य त्याग प्रसतु कर्मों का ग्रहण निरन्तर विषयों की सेवा में प्रीति होती है तभी समझना कि रजो गुण प्रधानता से मुझ में वते रहा है
प्यारे भाइयो! अब आपने जाम लिया कि पाप कर्म का फल यह मिलता है कि आगामी को भी पाप में ही शामक्त रहे । परन्तु क्या ईश्वर ऐसा फल दे सकता है? कदाचित नहीं बरण ऐसी दशा में ईश्वर को कर्मों के फलका देने वाला बताना परमेश्वर की कलंकित करना और उसको अपराधी ठहराना है क्योंकि जो कोई अप राध की सहायता वा प्रेरणा करता है वह भी अवश्य अपराधी ही होता है। क्या कोई पिता ऐसा हो सकता है जो अपने बालक को जो पाठशाला में क
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"
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"जब तमोगुणका उदय और दोनों का अन्तर्भाव होता है तब अत्यंत लोभ अर्थात् सब पापों का मूल बढ़ता, प्रत्यन्त प्रालस्य और निद्रा, धैर्य का |
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मती जाता है और पढ़ने में ध्यान किस कर्म का क्या क्या फल मिल रहा कम लगाता है घरमा अधिकतर खेल है ? इस से स्पष्ट विदित होता है कि कद में रहता है पाठशाला से उठी- कर्मों का फल देने वाली कोई चेतन लेख, सर्व पुस्तकें उससे छीन लेवे और शक्ति नहीं है बरगा वस्तु स्वभाव ही गेंद बल्ला ताश, चौपड़ सादिक खेल कर्म फल को कारण है अर्थात् प्रत्येक कोबस्त उसको ले देवे? या किसीका वस्तु अपने स्वभावानुसार काम करती बालक व्यभिचारी मालम पाठे तो उस उम ही से जगत् के सघ फल प्राप्त | को ले जाकर रंडियों के चकले में छोड़ होते हैं। जो पुरुष मदिरा पीधेगा तो देवे? वा बालक और कोई अपराध मदिरा और जीव के शरीर का स्वकरे तो राम को उसका पिता उस ही भाव मिल कर यह फल अवश्य प्राप्त अपराधका अधिक अभ्याम कराये और होगा कि पीने वाले को नशा होगा, अपराध करने का अधिक सुभीता और उसके ज्ञान गुण में फरक प्रावैगा और अधिक प्रेरणा देव और माच पाय अनेक कुचेष्टा उत्पन्न होगी । मदिरा यह भी कहता है कि मो कोई विद्या को इससे कुल मतलब नहीं है कि पढ़ेगा उसको मैं मुख दंगा और जो किसी का भला होता है या बरा किभंपराध करेगा उसको दंड ट्रंगा । यामी को दंड मिलता है या लाभ वह वह पिता महामूर्ख और अपनी संतो अपने स्वभाव के अनुसार अपना तान का पूरा शत्रु नहीं है? अयश्य | काम करेगी। है-इस कारण प्यारे भात्यो ! जीव को बहुत से मनुष्य ऐसे मूर्य और जिकर्म का फल देने वाला कदाचित मी हा इंद्री के ऐमे बशीभत होते हैं कि परमेश्वर नहीं हो सकता है-परमेश्वर | वह धीमारीमें परहेज नहीं करते और सपा बरण कोई भी चेलन अर्थात कछ| उन वस्तुओंको खा लेते हैं जिन को भी जान रखने वाला ऐसा उलटा कृत्य वैद्य बताता है कि इनके खाने से बीनहीं कर सकता है।
|मारी अधिक बढ़ जावेगी ऐसी बस्तु-1 इसके अतिरिक्त यदि कोई चेतन
|ों के खाने का फल यह होता है कि शक्ति जीवोंके कर्म का फल दिया क
बीमारी अधिक बढ़ जाती है और रती तो अवश्य जीव को यह सुझा
रोगी बहुत तकलीफ उठाता है। दिया करती-अच्छी तरह बता दिया हुत से लोग यह कह दिया करते हैं करती कि अमक कर्म का तम को यह कि कोई मनुष्य अपना नुकसान नहीं। फल दिया जाता है जिससे घह साव- चाहता है और कोई अपराधी अपनी धान हो जावै और भागामी को उस | राजी से कैदखाने में जाना नहीं चापर असर पड़े जीव को कुछ भी नहीं हत्ता है परन्तु नित्य यह ही देखने में मालम होता है कि मुझ को मेरे किस | आता है कि बहुत से रोगी कुपथ्य से
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आर्यमतलीला ॥
यम करके अपने हाथों अपना रोग | देखने में आता है कि अनेक प्रकार बढ़ा लेते हैं और प्रत्यंत दुःख उठाते। उलटे काम करके नुकसान उठाते हैं हैं। बहुत से बालकों को देखा है कि | अर्थात् अपने हाथों अपने आप को वह खेल कूद में रहते हैं और विद्या- मुसीबत में डालते हैं । ध्ययन में ध्यान नहीं देते। उनके माता संसारी जीवों पर अभ्यास और संपिता और मित्र बहुतेरा समझाते हैं। स्कार का बहुत असर पड़ता है। यदि कि हम समय का खेल कूद तुम को ब- वह विद्यार्थी जो पढ़ने पर बहुत कथाहुत बुःखदाई होगा परन्तु वह खेल न रखता है, एक महीने के वास्ते भो कूद में रह कर स्वयम् विद्या विहीन पाठशाला से अलग कर दिया जाये रहते हैं और मूर्ख रहकर अपनी जि' और उसको एक महीने तक खेल कूद न्दगी में बहुत दुःख उठाते हैं । बहुत हो में लगाया जाये तो महोने के पसे पिताओं को ममकाया जाता है कि | श्चात् पाठशाला में जाकर कई दिन तुम छोटी अवस्था में अपनी संतान | तक उस की रुचि पढ़ने में नहीं लगेका विवाह मत करो परन्तु वे नहीं | गो बरक खेल कूद का ही ध्यान प्रामानते और जब संतान उन की बोर्य ता रहेगा। इस हो प्रकार यदि मसे होन निर्बल नपुंसक हो जाती है तो आदमी को भी दुष्ट मनुष्य को संगति माथा पीटते हैं और हकीमों से पुष्टी | में अधिक रहना पड़े तो कुछ कुछ दुके नुमखे लिखवाते फिरते हैं। बहुत | ष्टता उस भले मनुष्य में भी भ्रा जाये से धनवानों को यह समझाया जाता गो । इन सब कामों का फल देने वाली है कि वह बेटा बेटीके विवाह में कोई अन्य शक्ति नहीं आवेगो बरब धिक द्रव्य न लुटायें परन्तु वह नहीं | यह उस के कर्म ही उस को बुरे फल मानते और बहुत कुछ व्यर्थ व्यय करके के दायक होंगे । अपने हांथों दरिद्री हो जाते हैं। इ
कारण से कार्य की मिट्टि स्वयम् त्यादिक संसार के मारे कामों में कोई स्वामी दयानन्द जी लिखते हैं । तब फल देने वाला नहीं जाता है वरण | जोध का कर्म जो कारण है उस से जैमा काम कोई करता है उसका को कार्य, अर्थात् कर्म फल अवश्य प्राप्त होफल है उनको प्रवश्य भांगना पड़ता । गा इस में चाहे जीव को दुःख हो व है और यदि यह दाम छोटा है और सुख हमको प्राचर्य है कि स्वामी जी स्वयं उसका फल दुःख है तो दुःख भी उसको यू जीव और प्रकृति अर्थात् जड़ पदार्थों अवश्य भोगना पड़ता है। वास्तव में को नित्य मानते हैं और जब इनको यह दुःख मने छाप ही अपने वास्ते नित्य मानते हैं तो इनके स्वभावको भी पैदा किया । जगत में नित्य यह ही मित्य बताते हैं । तो क्या यह सर्व
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अपने अपने स्वभाव के अनुसार कार्य | जीव धर्म सेवन करता है त्यों त्यों मान माया, लोभ, क्रोध ज्ञादिक की कालिमा उम से दूर होती रहती है क्योंकि धर्म उसही मार्ग का नाम है जो मान, माया, लोभ और क्रोध प्रादिक - बायों को दूर करने वा दवाने वा कम करने का हेतु हो । और जब इन कषायों को बिलकुल रोककर यह जीव अात्मस्थ होता है अर्थात् अपनी हो मात्मा में स्थिर हो जाता है तब भ्रागामी कर्म पैदा होने बंद हो जाते हैं और पिछले कर्म भी ग्राहिस्ते र क्षम हो जाते हैं तब ही यह जीव स्वच्छ और शुद्ध होकर मुक्ति को प्राप्त हो
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जाता है ।
नहीं करती हैं और उन से फल नहीं प्राप्त होते हैं? बहुत से मनुष्यों को बाबत प्राप ने सुना होगा कि उन्हों ने अपनी मूर्खता से मिट्टी के तेल का कनस्तर भाग से ऐसी असावधानी से सोला कि याग कनस्तर के अंदर प हुंच गई और बाग भड़क कर मारा मकान जल भुनकर खाक हो गया । इस महान् दुःख के कार्य में क्या उम की मूर्खता हो कारण नहीं हुई और | क्या यह कहना चाहिये कि मूर्खताका काम तो मनुष्य ने किया परंतु उम का फल अर्थात् बारे मकान का जला देना यह काम ईश्वरने प्राकर किया । प्यारे भाइयो! यह जीव जब माम माया, लोभ मोर क्रोध यादिक कपायों के वश होकर मान, माया, लोभ और क्रोध आदिक करता है और जब यह इन्द्रियों के विषय में लगता है तो इस को इन मान माया यादि कका संस्कार होजाता है और इन कामों का इसको अभ्यास पड़ जाता है अर्थात् मान, माया, लोभ क्रोध था दिक उपाधियां हम में पैदा हो जाती हैं और उनका जीवात्मा मलिन हो जाता है । यह हो उसके कर्मों का फल है । इत्यादिक और भी जो जो कर्म यह जीव समय समय पर करता रहता है उसका असर इसके चित्त पर पड़ता रहता है और जीवात्मा होता रहता है । और ज्यों ज्यों यह युक्त हो पश्चात् उसका निरोध कर
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ॥१॥ तदा द्रष्टुः स्वरूपेवस्थानम् ॥२॥ ये योग शास्त्र पातंजलि के सूत्र हैं । मनुष्य रजो गुण तमो गुण युक्त कम मन को रोक शुद्ध सत्व गुत युक्त कर्मों से भी मनको रोक शुद्ध सत्व गुण
से
अशुद्ध
स्वामी दयानन्द मरस्वती जी ने भी इस ही प्रकार लिखा हैसत्यार्थप्रकाश पृष्ठ २५५
" इस प्रकार सत्व, रज और तमो गुण युक्त बेग से जिन २ प्रकारका कर्म जीव करता है उस २ को उमी २ प्रकार फल प्राप्त होता है। जो मुक्त होते हैं वे गुणातीत अर्थात् सब गुलों के स्वभावों में न फंसकर महायोगी होके मुक्ति का साधन करें क्योंकि
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प्रायमसलीला ॥ एकाय अर्थात् एक परमात्मा और धर्म । इसके १४ गुणस्थान बर्शन किये हैं और यक्त कर्म इन के अग्र भागमें चित्तका प्रत्येक गुणास्थान के बहुत २ भेद किये ठहरा रखना निरुद्ध अर्थात् सब ओर हैं और कर्म प्रकृतियों के १४८ भेद से मन की बत्ति को रोकना ॥१॥ जब किये हैं। प्रत्येक गमस्थान में किसी२ चित्त एकाग्र और निरुद्ध होता है तब फर्म की सत्ता, उदय और बंध होता सब के द्रष्टा ईश्वर के स्वरूप में जीवा-है इसको बर्शन किया है और को ला की स्थिति होती
के उत्कर्षण अपकर्षण संक्रमण प्रादिक पारे भाइयो! इम सर्व लेख का का बर्णन यहत विस्तारके साथ किया अभिप्राय यह है कि स्वामी दयानन्द है। इस कारण सत्य की खोज करने का यह कहना कि मुक्ति भी कर्मों का घालों को उचित है कि वह पक्षपात |फल है बिस्कल असत्य है, बरस मुक्ति | छोष्ठकर जैन ग्रन्थोंका स्वाध्याय करें सोमई कर्मों के क्षय से प्राप्त होती है जिससे उनकी प्रविद्या दूर होकर क. अर्थात् जीव का सर्व प्रकार की सपा
| ल्याण का मार्ग प्राप्त होवे। धी से रहित होकर स्वतत्व सुप निर्मला और स्वच्छ हो जाना ही मुक्ति है।
| आर्यमतलीला। इस कारण स्वामी जी का यह कहना (ईश्वरकी भक्ति और उपासना) कि ईश्वर यदि मुक्ति जीव को मुक्ति
(२२) से निकाल कर और उसका परमानन्द स्वामी दयानन्द सरस्वतीजी मत्याछठाकर फिर उसको संसार में न डाले प्रकाश पृष्ठ १८२ पर यह प्रश्न उठाऔर दःख और पापों में न फंमावे तो ते हैं कि “ईश्वर अपने भक्तों के पाप ईश्वर अन्यायी ठहरता है बिलकुल ही क्षमा करता है या नहीं ? " फिर श्राअनाही पन की बात है-
पही इस प्रश्नका उत्तर इस प्रकार देते हैं। असल यह है कि स्वामीदयानन्दगी | “ नहीं क्योंकि जो पाप जमा करे ने कर्म और कर्म फलके गूढ मिद्वान्त | तो उसका न्याय नष्ट होजाय और सब को समझा ही नहीं। कर्म फिलोस मनुष्य महापापी होजावें क्योंकि क्षमा फी Philosophy का वर्णन जितना की बात सुनही कर उनको पाप करजैन ग्रंथों में है उतना और किसी भी नेमें निर्भयता और उत्साह होजाय मत के ग्रन्थों में नहीं है। स्वामी जैसे राजा अपराधको क्षमा करदे तो जी ने संसारी जीव के तीन गुणा | वे उत्माह,पर्वक, अधिक अधिक बड़े सत्व, रज और तम वर्णन किए हैं। पाप करें क्योंकि राजा अपना अपराध परन्तु जैन शास्त्रों में इम विषय को क्षमा करदेगा और उनको भी भरोसा इतना विस्तार के साथ लिखा है कि | होजाय कि राजासे हम हाथ जोड़ने
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प्रायमतशीला ॥
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भादि चेष्टा कर अपने अपराध कुहा- | ईश्वर स्तुति और प्रार्थना प्रादिक कलेंगे और जो अपराध नहीं करते वेरनेसे वा न करमेसे राजी वा माराज भी अपराध करनेसे न हरकर पाप क- नहीं होता है। रने में प्रवृत्त होजायंगे । इमलिये मब इस ही प्रकार स्वामी दयानन्द जी कमोका फल ययावत् देना ही ईश्वरका | सत्यार्थप्रकाशके पृष्ठ १८६ पर लिखते हैं काम है क्षमा करना नहीं।
__ " ऐसी प्रार्थना कभी न करनी चाप्यारे आर्य भाइयो ! स्वामीजीके उ-दिये और न परमेश्वर उसको स्वीकार पर्युक्त लेखसे स्पष्ट विदित है कि जो | करता है कि जैसे हे परमेश्वर ! श्राप कोई ईश्वरकी भक्ति करता है या जो मेरे शत्रों का नाश, मुझको सबसे बड़ा कोई भक्ति स्तुति नहीं करता है वा| मेरीही प्रतिष्ठा और मेरे प्राधीन सब जो कोई ईश्वरको मानता है या नहीं होजाय इत्यादि क्योंकि जब दोनों शत्रु मानता है, ईश्वर इन सब जीवोंको एक दूसरेके नाशके लिये प्रार्थना करें समान दृष्टि से देखता है । भक्ति स्तुति तो क्या परमेश्वर दोनोंका नाश कर करने वाले के ऊपर रियायत नहीं क- दे? मो कोई कहै कि जिमका प्रेम प्ररता अर्थात् उनके अपराधों को छोड़ धिक हो उसकी प्रार्थना सफल होजावे नहीं देता और उनके पापोंको मुश्राफ तब हम कह सकते हैं कि जिसका प्रेम नहीं करता और उनके पुरय कर्मोंसे न्यम हो उसके शत्रुका भी न्यन नाश अधिक कुछ लाभ नहीं पहुंचाता वरण होना चाहिये-ऐपी मूर्खता की प्रार्थजितने जिसके पुराय पाप हैं उनदी के ना करते २ कोई ऐसी भी प्रार्थना कअनुसार फल देता है और भक्ति स्तु-रेगा हे परमेश्वर ! श्राप हमको रोटी तिम करने वालों पर क्रोध नहीं क- बनाकर खिलाइये, मकान में झाष्ट्र ल. रता और सनपर नाराज होकर गाइये बस धो दीजिये और खेती | ऐसा नहीं करता है कि उनके पुण्य | बाड़ी भी कीजिये-" फलको म देवे वा न्यून पापका अधिक स्वामी दयानन्दजीके उपरोक्त लेख | दरख देदेवे बरण उनके पाप पुरुष क- से तो खुल्लम खुल्ला यह ज्ञात होगया मौके अनुमार ही सनको फल देता है। कि धन, धान्य, पुत्र, पौत्र, खो, कटु
इस ही प्रकार स्वामी दयानन्द जी | म्ब, महल, मकान, जमीन, जायदाद, सत्यार्थप्रकाशके पृष्ठ १८२ पर प्रश्न क-प्रतिष्ठा, और शरीर कशल आदिक रते हैं "क्या स्तुतिमादि करनेसे ईश्वर संसारी कार्योके वास्ते ईश्वरसे प्रार्थना अपना नियम छोड़ स्तुति प्रार्थना क-करना और इसके अर्थ उसकी भक्ति रने वालेका पाप सादेना ?" इसके स्तुति करना बिल्कुल व्यर्थ है। ईश्वर उत्तर में स्वामीजी लिखते हैं। नहीं"खशामदी नहीं है जो किसीको भक्ति इससे भी स्पष्ट विदित होता है कि स्तुति बा प्रार्थनासे खुश होकर उसका
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भार्यमतलीला ॥ काम करदेवे-वा खुशामदसे बहकायेमें | स्तुति प्रार्थना क्यों करना , इसके भाजावे-वा जो उपकी स्तुति प्रादि- उत्तरमें स्वामीजी लिखते हैं। उनके
न करे उससे रुष्ट होकर उसका काम करनेका फल अन्य ही है, " स्तुतिसे बिगाइ देवे । परन्तु ईश्वर तो बिस्कल ईश्वर में प्रीति उसके गुख कर्म स्वभाव निष्पक्ष रहता है उस पर निन्दा वा से अपने गुण कर्म स्वभावका सुधारना, स्तुतिका कुछ भी असर नहीं होता है प्रार्थनासे निरभिमानता उत्साह और बरस पर्व न्याय रुप होकर जीव के महायका मिलना उपासना से परब्रह्म भले बुरे कर्माका बुरा भला फल बरा- से मेल और उसका साक्षात्कार होना, वर देता रहता है
| माशय स्वामी दयानन्दजीके खेखका महीको पष्टि में स्वामीनी पाठ १६ यह है कि ईघर मप्रसे उत्तम गोंका पर इसके भाग लिखते हैं:
धारी है इस कारण यदि ईश्वरके गु. "स प्रकार जो परमेश्वरके भरोसे खोका चिन्तयन और उसके उत्तम गपालसी होकर बैठे रहते महामर्स खोकी स्तुति कीनावेगी तो स्तुति - हैं क्योंकि जो परमेश्वरको परुषार्थ करने वाले जीवके भी उत्तम गुणही रने की मात्रा है उसको जो कोई तोड़े
जावेंगे क्योंकि जीवनमी संगति करता वा वा मुख कभी न पावेगा--" ।
है, जैसी बाने देखता है, जिन बातोंने सीबी पाटी में स्वामीजी पाट १७/प्रेम करता है, जिन बातोंको चर्चा वा पर लिखते :
चितवम करता है और जैसी शिक्षा "जो-कोई गह मीठा है ऐसा काह
पाता है वैसे ही उमजीवके नुख, कर्म, तासमको गड प्राप्त वा उसको स्वाद |
|स्वभाव होजाते हैं। जो मनुष्य पद | मास कभी नहीं होता और जो यब
| माशोंके पास बैठेगा था बदमाशोंकी परता उसको शीघ्र वा बिलम्बसे बातें सुनेगा वा बदमाशीको बातोंमें गह मिल ही जाता है,
प्रेम लगावेगा या बदमाशोंकी प्रशंसा अभिप्राय इस का यह है कि ईश्वर
| करेगा उसके चित्तमें बदमाशीका अंश | की स्तुति करने और ईश्वर के उत्तम
अवश्य समाजावेगा और जो कोई - मुखोंकी प्रशंसा करनेसे कुछ नहीं होता मस्मिाओंकी संगति करेगा, उनसे प्रेम है बरस जीवको उचित है कि परुषार्थ रक्खेगा, उनकी प्रशंसा करेगा तो धर्म परके चरके समान अपने गल, कर्म का अंश उसके ,हृदयमें अवश्य पावेगा। और खनाव उत्तम बनावे और पुण्य
यह ही कारण है कि जुवारी के पास सपार्जन करे जिस से उसके मनारय बैठने वा रविडयों के मोबजे तक जाना सिद्ध हो
वा अश्लील पुस्तकोंका पढ़ना और पिर सत्यार्थप्रकाशके पृष्ठ १८३ पर अश्लील मूर्तियों तकका देखमा बुरा खामीजी यह प्रम करते हैं तो फिर समझा जाता है।
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श्रार्यमतलीला ॥
हब ही प्राशयको पुष्टीमें स्वामी दयानन्द जी सत्यार्थप्रकाश के पृष्ठ ९८३ पर लिखते हैं:--
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इमही की पुष्टिमें स्वामी दयानन्द श्री मत्यार्थप्रकाश के पृष्ठ १८४-८५ पर प्रार्थना और स्तुतिका कुछ नमूना लि हमसे अपने गुरु कर्म स्वभाव भी खते हैं कि किस प्रकार प्रार्थना और करना जैसे वह न्यायकारी है तो आप | स्तुति करनी चाहिये? जो प्रार्थना क भी न्यायकारी होवें और जो केवल रने वालेमें उत्तम गुणोंके देने वाली है high sate परमेश्वर के गुण कीर्तन उसका कुछ सारांश हम नीचे लिखते हैं करता जाता श्रीर अपने चरित्र नहीं आप प्रकाश स्वरूप हैं कृपाकर सुधारता उसका स्तुति करना व्यर्थ है--" मुझमें भी प्रकाश स्थापन कीजिये ।"। अभिप्राय इन लेखका बहुत ही स्पष्ट आप निन्दा स्तुति और स्वपराहै । स्वामी दयानन्द जी सगझाते हैं। धियोंका सहन करने वाले हैं कृपासे कि जो कोई परमेश्वरकी स्तुति प्रार्थना मुझको वैसा ही कीजिये । मेरा इस कारण करता है कि परमेश्वर मुझ | मन शुद्धगुणांकी इच्छा करके दुष्ट गुणों से प्रसन्न होगा तो उनका ऐसा करना पृथक रहै। हेजगदीश्वर ! जिससे चिकुन व्यर्थ है क्योंकि परमेश्वर स मत्र योगी लोग इन सब भूत, भविष्य पनी स्तुति प्रार्थना करने वाले राज़ी | वर्तमान, व्यवहारोंको जानते जो नाश या न करने वाले से नाराज नहीं होता | रहित जीवात्माको परमात्माके साथ है बरण परमेश्वर की स्तुति प्रार्थना क मिलके सव प्रकार त्रिकालज्ञ करता है रमेका हेतु तो यह ही है कि परमे जिनमें ज्ञान क्रिया है, पांच ज्ञानेन्द्रिय श्वरके गुणानुवादसे परमेश्वर जमे गुण | बुद्धि और आत्मायुक्त रहता है उस हममें होजायें इस कारण स्वामी दया- योगरूप यज्ञको जिससे बढ़ाते हैं वह मन्द जी कहते हैं कि परमेवर की स्तुति | मेरा मनयोग विज्ञान युक्त होकर विप्रार्थना करने वाले को उचित है कि अद्यादि क्लेशों से पृथक रहे । हे सर्व पने गुण कर्म स्वभावों को परमेश्वर के गया नियन्ता ईश्वर ! जो मेरा मन रस्मीसे कर्म स्वभावों के अनकल करनेकी को घोड़ोंके समान अथवा घोड़ों के निय शिश करता रहे और सदा इम यात न्ता सारथीके तुल्य मनुष्यों को अत्यन्त का विचार रक्खे कि मैं परमेश्वर के जिन गया कर्म स्वभावोंकी स्तुति करता हूं वैसे ही गुण कर्म स्वभाव मेरे भी हो जायें - तबही उसकी स्तुति प्रार्थना फलदायक होगी और यहही ईश्वरकी स्तुति प्रार्थनाका अभिप्राय है ॥
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इधर उधर बुलाता है जो हृदय में प्र तिष्ठित गतिमान् और अत्यन्त वेगवाला है वह सब इन्द्रियोंको धर्माचरण से रोकके धर्मपथमें सदा चलाया करे ऐसी कृपा मुझ पर कीजिये । ” | हे सुखके दाता ! स्वप्रकाशरूप सबकी
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मार्यमतलीसा ॥ जानने हारे परमात्मन् ! बाप हमको श्रे। ममीपस्थ नेके यहाही मर्प हो सकते ण्ठमार्गसे संपूर्ण प्रशानों को प्राप्त करा- हैं कि ईश्वर के गहोंके ध्यानमें इतना इये और जो हममें कटिल पापाचरण- मग्न होताना कि मानो अपने भद्रूपमार्ग है उससे पृथक् कीजिये । इ-गगों सहित ईश्वर समीप ही विरासीलिये हमलोग नम्रतापूर्वक भापको | शुतसी स्तुति करते हैं कि भाप हम | प्यारे मार्य भाइयो ! यह अति - को पवित्र करें।"
सम गण क्या हैं जिनकी प्राप्तिके वास्ते स्वामी दयानन्द की सत्यार्थप्रकाश के और वह निकृष्ट प्रवगण क्या हैं जिन पष्ठ १८७ पर उपासनाका अर्थ इम प्र
मप्र के दूर करनेके धास्ते ईश्वरको स्तुति कार लिखते हैं
प्रार्थना और उपासनाको प्रावश्यकता ___“ उपासना शब्द का अर्थ ममीपस्य
है ? इसके उत्तर में प्रापको विचारमा होना है अष्टांगयोगसे परमात्मा के समीपस्य होने और उसको सर्वव्यापी चाहिये कि जीव स्वभावसे तो रागद्वेष सर्वान्त र्शमी रूपसे प्रत्यक्ष करने के लिये रहित स्वच्छ और निर्मण है इस ही जो २ काम करना होता है वह २ सय
कारपा स्वामीजीने कहा है कि सपामकरना चाहिये,
नासे जीव के गुल कर्म स्वभाव ईश्वर स्वामीजी सत्याप्रकाशके पष्ट १८८ के मदृश पवित्र हो जाते हैं परन्त पर इस प्रकार लिखते हैं
कर्मों के वश होकर राग द्वेष प्रा. "परमेश्वर के समीप प्राप्त होनेसे समदिक उपाधियां इम नीबके माप लगी दोष दुःख रुटभर परमेश्वर के गठण कर्म हुई हैं इस ही कारमा संसारी जीव स्वभावके मद्रग जीवात्माके गम कर्म मोहान्धकारमें फंमकर मान माया लो. स्वभाव पवित्र दोजाते हैं । इमलिये भ क्रोध प्रादिक कषायों के वशीभत . परमेश्वरको स्तुति प्रार्थना और उपा.
मा पांच इन्द्रियों के विषय भोगोंका समा अवश्य करनी चाहिय । - प्यारे पाठको ! स्वामी दयानन्दनी
गुलाम बना हुआ अनेक दुःख उठाता के कथनानमार ईश्वर सर्वध्यापक है।
और भटकता फिरता रहता है और अर्थात् सब जगह मौजूद है यहां तक
मंमार में कभी इसको चैन नहीं मिलकिसय जीवोंके अन्दर व्याप्त है चाहे
ती है जा यह मब उपाधियां जमकी दर वह पापी है बाधर्मात्मा। इस कारण
होजाती हैं तय मुक्ति पाकर परमानउपासना करने में ईश्वर के समीपस्थ |न्द भोगता है और शान्तिके साथ स. होनेके पद पर्थ तो होही नहीं मकतेचा सुख उठाता है इस हेतु इन 8. किरके पाप जावैठना क्योंकि पाधियोंका दूर करना और स्वच्छ और समीप तो वह भदाही रहता है वरण निर्मल होजाना ही इसका परम कर्त.
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मार्यमसम्नीला ।
स्प है और रागद्वेष रहित होकर नि. | रहा है और यह जरासा साहम भी तुम मेग्न होजाना ही इमका उत्तम गुगा है। मे नहीं होसका कि अफीम स्थाना कोड़ जिमके वास्ते गोवको सब प्रकार के देव, इस प्रकार बहुत कुछ श्रम करके साथन करना चाहिये और बड़ी मार्ग | अफीम खाने का अभ्यास छोड़ता है। धर्म कहलाता है जो जीवको इन स- प्यारे भाइयो ! बिस्कुन ऐमी ही द पाधियों और दुःखसे रहित कर देवेशा संमारी जीव की है- एक दम रागपरन्तु चिरकाम्नका जमा हुमा मैल घ. द्वेषको छोड़ अपनी भास्मामें भात्मत्य हुन मुश्किल से दूर ठुमा करता है। होजाना और स्वच्छ निर्मल होकर जन्म जन्मान्तर में बराबर रागढ ष में जान स्वरूप परमानन्द भोगना जीवके फंसे रहने के कारन यह मव उपाधि एक वास्ते दामाध्य है इस कारण वह प. प्रकार का संमारी जीव का स्वभावमा हले राग, द्वेष रूप को कम करता है होगपा है और इनसे विरक्त होना अर्थात् यद्यपि राग द्वेष कार्य करता है सको बुरा लगता है । संसारी जीबकी | परन्त प्रन्याय और अधर्मके कामोंको दशा बिल्कुन ऐसे ही है जैसे अफीमी त्यागता है। की हो जाती है जिनको चिरकाल तक इस विषय में स्वामी दयानन्द जीने | अफीम खाते २ अफीम खालेमा अभ्याम सत्यार्थ प्रकाश के पृष्ठ १८७ पर इस प्र-1 होगया हो पद्यपि वह जानता हो कि कार लिखा है:-- अफीम खाने से मुझ को बहुत नुकमान | जो उपामनाका प्रारम्भ करना चाहोता है शरीर कृश होगया है, इन्द्रि- हे उनके लिये यह ही प्रारम्भ है कि पां शिथिल होगई हैं, पुरुषार्थ जाता। वह किमी से धेर न रक्य, मवदा सब रहा है और अनेक रोग ट्याप गये हैं। से प्रीति करे, सत्य बोले, मिथ्या कमी | परन्तु तो भी अफीम का होना उन्म | न बोने चोरी न करे सत्य गवहार। के वास्ते करमाध्य ही होता है वह मरे, जितेन्द्रिय हो, लंपट न हो, निप्रथम कुछ कम खानी शुरू करता है | भिमानी को अभिमान कभी न करे और अफीम खाना छोडसे का साहस यह पांच प्रकार के यम मिलके उषाऔर तत्माह अपने में पैदा हो- सना योग का प्रथम अंग , नेके वास्ते एमे पुरुषांमे मिनना है जि- हमके प्रागे स्वामी दयानन्द जी दून्होंने अफीम खानी छोड़ दी हो उन मरा अंग इस प्रकार लिखते हैं अपांत में पूछता है कि उन्होंने किम २ प्रकार अब भ म यमाक साधनका अभ्यास हो अफीम छोड़नेका अभ्याम किया. मनमें जाव तत्र इस प्रकार अगाडी बढ़े। उनकी प्रशंमा करता है जिन्होंने अ रागद्वप छोड़ भीतर और जनादि फीम छोड़ी और अपनी निन्दा करता से बाहर पवित्र र धर्मन पुरुषार्य कहै कि तू इम अफीमके हो बागमें हो रने मे लाममें न प्रमानना मार हानिमें
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मार्यमतलीला ॥
न अप्रसन्नता करे प्रमत्र होकर मालस्य | परन्तु प्यारे भाइयो । यदि आप धिछोड़ सदा पुरुषार्थ किया करे, सदा दुः-चार करेंगे तो आपको मालूम होगा समुखोंका सहन और धर्म ही का अ.कि जिस प्रकार स्वामीजी परमेश्वरकर नुष्ठान करे अधर्मका नहीं सर्वदा सत्य | स्वरूप वर्णन करते हैं उस प्रकारके - शाखोंकोपढ़े पहावे सत्पुरुषोंका संगकरे..रमेश्वरकी प्रार्थना,स्तुति और उपासना
तात्पर्य इस सब लेखका यह है कि वह कार्य सिद्ध नहीं होसका है जो भाप रामद्वेषको त्यागकर जीवके शुद्ध मिर्म-सिद्ध करना चाहते हैं क्योंकि जीवको ल होने के जो जो उपाय हैं वह ही माध्य है रागद्वेषका छूटना संसारका धर्म कहलाते हैं और संमारके सर्व प्र- ममत्व दूर होना संसारके बसेडेमें से कारके मोहको परित्याग कर अपनी अलग निकल कर एक चित्त शांतिस्वमात्मामें स्थित होमाही परम साधन | रूप होना और परमेश्वरके गुण स्वोमी है-यह संसारी जीव धर्म मार्गमें लग दयानन्दजो बतात ६ पस
दयानन्द जी बताते हैं इसके विपपर जितना २ इससे होमक्का है राग रीति वह कहते हैं कि ईश्वर जगत् द्वेषको कम करता जाता है अर्थात् धर्म का कत्ता है-कभी सष्टि बनाता है कसेवन करता है और अपनेमें रागढ़ष |
| भी प्रलय करता है, संमार में जो कुछ के अधिक छोहने और संमारके मो- होरहा है वह उस ही का किया हो हजाल से निकलने की अधिक उत्तेजना रहा है- समय समय पर संसार में जो कुछ
और अधिक माहस होनेके वामधी अनटन पलटन होती है वह मब बह शाखों को पढ़ता है, धर्मात्मानों की कररहा है.-सर्व संमारी जीवोंको जो शिक्षा और उपदेश मुनता है मां कुछ मुख दुः' पहुंच रहा है, जो मरना स्मानोंकी संगति करता है उन जीयों। जोना रोग नीरोग, धन, निर्धन प्रा. के जीवन चरित्रों को पढ़ना और सु-दिक व्यवस्था समय समय पर जीवों की नता है जिन्होंने रागढंघको त्यागकर पमट रही है वह ईश्वर ही उनके कमुक्ति प्राप्त कर ली है-मुक्ति जीवाम मानपा प्रगटा रहा है-तप प्यारे भा. प्रेम रखता है और उनका ध्यान क-पया ! यिचार कीजिये कि यदि ई. रता है।
श्वर अर्थात् उसके गुणों का विचार ___ संसारके मोह जामसे लटनेको स किया जायेगा उम के गुगों की स्तुति ही प्रकारको उत्तेजना और साहम येदा की जागी वा उस के गुणों मे ध्यान करने होके वास्ते स्वामी दयानन्दजीबांधा जावेगा तो राग पैदा होगा या ने परमेशा के काम्न गुग की भक्ति भ- वैराग्य, संमार के यखेड़ों में प्रीति होर्थात् प्रावतात और उपासनाको गी वा अप्रीति प्यारे मार्य भाइयो। कार्य का श्रावश्यक बताया है। ऐसे ईश्वर की भक्ति से तो संसार ही
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शामलीला ॥
गा
गा और फायदा कुछ भी न होया । देखिये स्वामी दयानन्द जी ने जो नमूना प्रार्थना का सत्यार्थप्रकाश के पृष्ठ १८४ पर दिया है और जिम का कुछ सारांश हम ने पूर्व इम लेख में दिया है और जिम से स्वामी जी ने इम बात के मिदु करने की कोशिश की है कि इस प्रकार प्रार्थना से ईश्वर के उत्तम गुण प्रार्थना करने वाले में पैदा होते हैं मही नमूनेमें स्वामी जी को इस प्रकार लिखना पड़ा है
|
।
"छाप दुष्ट काम और दुष्टों पर क्रोधकारी हैं मुझको भी वैसा ही कीजिये हे रुद्र ! (दुष्टों को पापके दुःख स्वरूप फल को देके रुलाने वाले परमेवर) छाप हमारे छोटे बड़े जिन, गर्भ, पिता, और प्रिय, बंधुवर्ग तथा श रोरों का हनन करने के लिये प्रेरित मत कीजिये ऐसे मार्ग से हम को चलाइये जिस से हम श्राप के दंडनीय नहीं ।
९४०
नन्द जी के हृदय में व्याप चुका है इस ही कारण उन को ईश्वर में सगुण और निर्गुण दो प्रकार के भाव स्थापित क रने पड़े हैं और वह सत्यार्थप्रकाश के पृष्ठ १८३ पर लिखते हैं
जिस २ राग द्वेषादि गुग्गा से पृथक मानकर परमेश्वर की स्तुति करना है वह निर्गुण स्तुति है ।
स्वामी दयानन्द की फिर इस ही बात को पृष्ठ १८६ पर लिखते हैं
अर्थात् जिस २ दोष वा दुर्गुण से परमेश्वर और अपने को भी पृथक मान के परमेश्वर की प्रार्थना की जाती है वह विधि निषेध मुख्ख होने से सगुणा निर्गुण प्रार्थना ।
के वास्ते स्वामी जी पृष्ठ १८८ पर लिफिर निर्गुण प्रार्थनाको मुख्य बताने खते हैं
देखिये प्यारे आर्य भाइयो ! श्रागई राग, द्वेष की झलक या नहीं ? साधन तो है राग, द्वं ष छोड़ने का और उल्टा राग, द्वेष पिचलने लगा-प्यारे भाइयो । फर्ता ईश्वर की भक्ति करने से कदाचित् भी संसार से विरक्तता नहीं हो सकती है बरण संसार के ही ब खेड़ों का ध्यान अवंगा और संसारके बखड़े ही ईश्वर के गुण होंगे जिनका ध्यान किया जावे- देखिये हमारे इम
|
वहां सर्वज्ञादि गुणों के साथ परमेश्वर की उपासना करनी सगुण और द्वेष, रूप, रस, गंध, स्पर्शादि गुणों से पृथक् मान प्रति सूक्ष्म प्रात्मा के भीस्थिति हो जाना निर्गुणोपासना क तर बाहर व्यापक परमेश्वर में दृढ़ हाती है ।
|
प्यारे श्रार्य भाइयो ! जरा बिचार कीजिये कि यह कैसा भ्रम जाल है ? ईश्वर को कर्ता मानकर उस को संसार के अनेक बखेड़ों में फंसाना और जब जीव को अपने कल्याण के अर्थ राम द्वेष छोड़ने की आवश्यक्ता हो और
ऐतराज का भय स्वयम् स्वामी दया | इस कार्य में अपना उत्साह और अ
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भ्यास बढ़ाने के लिये राग द्वेष रहित के ध्यान और मनन की छावश्यकता जीव को हो तो उनकी कर्ता ईश्वरको निर्गुण बताकर उनकी उपासना का
मनीला ॥
प्यारे भाइयो! यह जैन धर्म का सिद्धांत है जो मुक्त जीवों और साधुप्रों की ही भक्ति, स्तुति और उपास ना का उपदेश देता है परन्तु ऐसा उपदेश देना ओ ईश्वर सदा संमार के | मालूम होता है कि स्वामी दयानंद धंधा में लगा रहता है क्या उनका जी ने इस ही मय से कि यह सत्य निर्गुण रूप ध्यान जीव को हो मक्का | मिद्धांत ग्रहण करके संसार के जीव है ? और यदि अधिक ग्रात्मीक शक्ति कल्याया के मार्ग में न लग जायें मुक्ति रखने वाले तपस्वी पुरुष ऐमा ध्यान | दशा को निन्दा की है और मुक्ति बांध भी सकते हैं तो उन को ईश्वर | जीवों को यह कलंक लगाया है कि का महारा लेने ही की क्या आवश्य कता है यह धरती छात्मा में ही ए काय ध्यान क्यों न करेंगे ?
यारे प्रार्य भाइयां ! संसारी जीवों को तो यह ही उचित है कि वह अ पनी प्रात्मिक शक्ति बढ़ाने, संसार के मोह जान से घृणा पैदा करने और रागद्वेष को मांगने का उत्पाद और
आर्यमत लीला | ( सांख्यदर्शन और मुक्ति )
( २३ )
साहम प्रपने में उत्पन्न करने और ह न्द्रियों और क्रोध मान माया लोभास्वामी दयानन्द सरस्वतीजी ने अपदिक कथायों को वश में करने के बा स्ते उन शुद्ध जीवों की भांत, स्तुति नेही दर्शनका मानने वाला बताया और उपासना करें उनके गुणों का है और उनही के कथनानुसार हमारे चिन्तन करें, उनकी जीवनी को विश्रार्थ भाई भी अपनेको घटदर्शनोंका
चारें जिन्होंने सर्वथा रागद्वेषको त्याग कर और संसार के मोह जालको श्रिकुल छोड़कर और सर्व प्रकार की पाधियों और मेल को दूर करके स्व
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मानने वाला बताते हैं परन्तु स्वामी दयानन्दजीने सत्यार्थप्रकाश में जो मिद्वान्त स्थापित किया है वह दर्शन सिद्धान्तों के बिस्कुन विरुद्ध स्वामी श्री
sa और निर्मल होकर मुक्ति प्राप्त ] का मन पड़ना है। मिदान्त है-शोक
है कि हमारे आर्य भाई केवल सत्याप्रकाशको पढ़कर यह समझने लगते हैं कि सत्यार्थप्रकाश में जो लिखा है वह
करली है वा वन मन्यासियोंकी जो बिलकुल हम ही साधन में लगे हुए हैं ।
वह इच्छानुमार कल्पित शरीर बनाकर प्रानन्द भोगते हुने फिरते रहते हैं और उनकी फिर संसार में जाने की प्रावश्यकता बताकर मुक्ति को जेलखाना बताया है ।
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आगतलीला ॥
सत्य ही है और बुति, स्मृति शरद र्शन शास्त्रोंके अनुकूल ही है परन्तु यदि वह कुछ भी परीक्षा करें तो उन को महजड़ो में मत्यार्थप्रकाशका मायाजाल मालूम हो मकता है और उन का भ्रमजाल दूर होकर सच्चाईका मार्ग! | मिल सकता है-
यद्यपि जैनशास्त्र धर्मरत्नों का भगहार है और उनके द्वारा सहजी में मत्यमार्ग दिखाया जा सकता है और युक्ति प्र माण द्वारा प्रज्ञान अन्धकार दूर किया जा सकता है परन्तु संसारके मीत्रोंको पक्ष और द्वेषने ऐना घंग है कि वह दूमरेकी बातका सुनना भी पसन्द नहीं करते हैं इस कारण अपने आर्य भाइयोंके उपकारार्थ हम उन्हीं के मान्य ग्रन्थोंसे ही उनका मिध्यात्व दूर करनेकी कोशिश कर रहे हैं जिससे उनको सत्यार्थप्रकाशकाबाग्जान मालूम होकर पक्षपात और द्वेषका श्रावरण दूर हो और सत्य और कल्याण मार्गके खोज की चाह उत्पन्न हो-
प्यारे प्रार्य भाइयो! आप षट्दर्शनों को बड़े आदर की दृष्टिने देखते हैं और उनको प्रवर्तके अमूल्य रत्न समझते
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ने वर्णन किये हैं वह प्राचीन शास्त्रों के बिरुद्ध और धर्म श्रद्धा से भ्रष्ट करके जीवको संसार में रुलाने वाले हैं-
मुक्तिसे लौटकर फिर संभार में छाने के ही उल्टं मिट्टान्तकी बाबत खोज लगाइये कि प्राचीन प्राचार्य इस वियमें क्या कहते हैं -
मांख्यदर्शन में महर्षि कपिलाचार्यने मुक्तिमे लौटने के विषय में इस प्रकार लिखा है-
"तत्र प्राप्त विवेकस्यानावृत्ति श्रुतिः”मांख्य । ० १ ॥ २८३ ॥
मांरूप में प्रविवेक से बन्धन और विब्रेक प्राप्त होनेको मुक्ति बर्णन किया है--इम सूत्र में कपिलाचार्यजी लिखते हैं कि, श्रुति अर्थात् वेदों में विवेक प्राप्त अर्थात् मुक्त जीवको फिर लौटना नहीं लिखा है-
प्यारे प्रार्य भाइयो! मांख्यशास्त्र के बनाने वाले प्राचीन कपिलाचार्य यह बताते हैं कि बंदों में मुक्ति से लौटना नहीं लिखा परन्तु स्वामी दयानन्दजी वेदों और दर्शन शास्त्रों को भी उल्लंघन कर यह स्थापित करते हैं कि मुक्ति दशा से उकताकर संसार के अनेक विपथभोग भोगने के वास्ते जीवका मुक्ति से लौटना आवश्यक है और इस हो कारण मुक्तिको कारागारकी उपमा देते हैं- क्या ऐसी दशा में स्वामीजीका बघन माननीय हो सकता है ? ॥ प्यारे कार्य भाइयो ! यदि स्वामीजी के बचनों पर छापको इतनी श्रद्धा है
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परन्तु शोक है कि प्राप उनको पढ़ते नहीं हो, उन रखों के प्रकाश से पने हृदयको प्रकाशित नहीं करते हो देखिये षट् दर्शनोंमें सांख्यदर्शन के कुछ विषय हम आपको दिखाते हैं जिस से प्रापको मालूम हो जावेगा किसत्यार्थप्रकाशमें जो सिद्धान्त स्वामी जी
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मार्यमतलीला ॥ कि उसके मुकाबले में बंद बचन भी प्र.। " मुक्तिरन्तराय श्वस्तेनं परः ॥, माण नहीं तो साफ माफ़ तौर पर वेदों स० ० ६ सू० २०
और दर्शन शाखोंसे इनकार करके के अर्थ-मुक्ति कोई पर पदार्थ नहीं है। वल सत्यार्थप्रकाश पर ही भरोसा क- जिसकी प्राप्तिमे मुक्ति होती हो और रलो-परन्तु मरपार्यप्रकाश में तो स्वामी | प्राप्त होनेके पश्चात् किसी समय किसी जीने अपने कपोल कल्पित मिद्धान्त कारणसे उस पदार्थ के दिनजानेसे मुक्ति लिखकर यह भी लिखदिया है कि वेद | न रहती हो बरण मुक्ति तो अन्तराय | और षटदर्शनोंको ही मानना चाहि के नाश होनेका नाम है अर्थात् जीब ये और यह भी बहका दिया है कि ] को निज शक्ति अर्थात् केवल जान पर स्वामीजी के कथित मिद्धान्त धेद और
| जो अनादि कामासे अबिधेकमा पटल दर्शनोंके अनकल ही है--इस कारण | पहाहुआ था उम पटल के दूर होने हमारे भोले भार्य माई भमजाल में फंस | और निज शक्तिके प्रकट होनेका नाम । गये हैं--
मुक्ति है इस हेतु जन जीव को निम देखिये सांरूपदर्शनमें मुक्तिसे फिर | शक्ति प्राप्त होगई और उमका जान लौटनेके विषयमें कैसी रपष्टताके माथ प्रकाश होगया तब कौन उसको बविरोध किया है
न्धनमें फंसा सकता है ? भावार्थ फिर "न मक्तस्य पमबन्ध योगोऽप्यना | बंध नहीं हो सकता है.. त्ति श्रुतेः” ॥ सां० प्र०६ सू०१७ । प्यारे आर्य भायो ! सांख्यदर्शन में | अर्थ- मुक्त पुरुषका फिर दोबारा बंध इस प्रकार स्पष्ट मिद्ध करने पर भी कि. नहीं हो सकता है क्योंकि अतिमें क- मुक्तिसे फिर जीव लौट नहीं सकता
मतिम जीवनहीली. है, स्वामीजीने मुक्तिसे जीवके लौटने टता है
का मिद्धान्त मत्यार्थप्रकाशमें स्थापित __ "अपुरुषार्यत्व मन्यथा , ॥ सां० ॥ किया है और साथ ही इसके यह भी ०६॥ सू०१८
लिख दिया है कि दर्शनशास्त्र सच्चे और अर्थ-यदि जीव मुक्तिमे फिर बंधन मानने योग्य है-ऐमी पूर्वापर विरोध में जा सकता हो तो पुरुषार्थ अर्थात् से भरीहुई सत्याप्रकाश नामकी प. मुक्तिका साधन ही व्यर्थ होजावे- स्तक क्या भोले मनुष्योंको भमजाल में “विशेषापतितमयोः, ॥ मा0 0 कंसाने वाली नहीं है? और क्या पर
विद्वान् पुरुषों के मानने योग्य होस अर्थ--यदि जीव मुक्तिसे भी लौटकर कती है? कदाचित नहीं-- फिर बंधममें फंसता है तो मुक्ति और सत्यार्थप्रकाश में तो स्वामी जी को बन्धनमें फरक हो पा रहा? मुक्तिसे नीबोंके लौटनेका इतना पक्ष
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मामवलीला ॥
हुआ है कि यदि किसी | वाक्य में न लौटनेका उनको गन्ध भी खाया है तो वहीं अपने वाग्जाल ने उनको छिपाने की कोशिश की है--देखो मत्यार्थप्रकाश के पृष्ठ २५५ पर स्वामीजीको सांख्यदर्शनके प्रथमसूत्र को लिखने की जरूरत पड़ी है जो इस प्रकार है-त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्ति
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ޔ
९५३ कि स्वामीजी से प्रत्यंत शब्दका अर्थ लिखना रह गया बरण स्वामीजीने जानबझकर इस प्रकारकी सावधानी रक्खी है- देखो मृत्यार्थप्रकाशके पृष्ठ २४९ पर स्वामीजीने मुरडक उपनिषद्का एक जोक इस प्रकार दिया है:" भिद्यते हृदयग्रंथि -- शिवद्यन्ते सर्व संशयाः । क्षीयन्तेवास्य कर्माणि, तस्मिन्दृष्टे परावरे='
रस्यन्त पुरुषार्थः,
अर्थात् पुरुषका अत्यन्त पुरुषार्थ यह है कि तीन प्रकारके दुःखोंकी अत्यन्त निवृत्ति करदे परन्तु दुःखों की प्रत्यन्त । र्णन वृत्ति तो तबही कहला सकती है। जब कि फिर दुःख किसी प्रकार भी प्राप्त न हो इस कारण हम सूत्रमें स्वामीजीको दुःखोंकी निवृत्तिके साथत्यन्तका शब्द खटका और इसको प्रपने मिद्धान्त के विरुद्ध समझा, स्वामी जीने तो अन्यथा अर्थ करनेका सहज मार्ग पकड़ ही रक्खा था इस कारण यहां भी इस सूत्र का अर्थ करते हुए - त्यन्त का अर्थ न किया और केवल यह ही लिख दिया है कि त्रिविध दुःखको हाकर मुक्ति पाना अत्यन्त पुरुषार्थ है- संस्कृत जानने बाले से पूठिये प्यारे भाइयो ! क्या स्वामी जी की कि इस लोक में सर्वकमका क्षय लिखा ऐसी चालाकी इमही कारण नहीं है । है वा केवन दुष्ट कर्मोंका ? और क्या
इस लोक में कर्मोंके क्षय होनेका वहै परन्तु स्वामी दयानन्दजी की कर्मके क्षय होनेका कथन का सुहाता था क्योंकि वह तो कर्मों के क्षयसे मुक्ति नहीं मानते वरण मुक्तिको भी कर्मोंका फल स्थापित करते हैं और मुक्ति - वस्था भी कर्म कायम करना चाहते हैं इस कारण उन्होंने इस श्लोक के अर्थ में दुष्ट कर्मोंका ही क्षय होना लिखा जि सका भावार्थ यह हो कि श्रेष्ठ अर्थात पुण्य कर्म क्षय नहीं होते हैं
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प्यारे प्रार्य भाट्यो ! यदि आप संस्कृत जानते हैं तो स्वयम् नहीं तो कि सी
| कि वह जानते थे कि संस्कृतका प्रचार | न रहने के कारण संस्कृत पढ़ने बाले न हीं रहे हैं इस हेतु हिन्दी भाषामें हम जिस प्रकार लिख देंगे उसी प्रकार भोले मनुष्य वहकाये में छाजायेंगे - यह कस्मिक इतफाक की बात नहीं है
लोक में कोई भी ऐमा शब्द है जिससे दुष्ट कर्मके अर्थ लगाये जामकें? और कृपा कर यह भी पूछिये कि कहीं इस लोक में परमेश्वर में वास करने का भी कघन है कि नहीं जो स्वामीजीने प्रथ में लिखदिया है ? |
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१५४
मार्यमतलीला यह बहुत छोटी बातें हैं परन्तु स्वा-, क्या सांख्य दर्शनके कां कपिलाचार्य | मीनीने बET बहा देठ किया है और से भी अधिक दयानन्दजीको सरखती भोले मनुष्योंकी मांखों में धल डालनेकी का वर मिलगया कि कपिलाचार्यसे कोशिश की है-देखिये उन्होंने सत्या- भी अधिक वेद के ज्ञाता होगये और र्यप्रकाश पृष्ठ २३९ पर उपनिषद्का उपनिषदोंके बनाने वालोको भी बह एक बचन इस प्रकार लिखा है:- बात न सूझो जो सरस्वती जीको मः। नच पनरात न पनराबतति, झी ? यहां तक कि व्यामजी महाराज जिसका अभिप्राय यह है कि मुक्ति ने भी अपने शारीरक सूत्र में गलती से जीवका फिर वापिस पाना नहीं- खाई और इन सबकी गलतियोंको होता है
दुरुस्त करनेवाले कि वेदोंमें मुक्तिसे इसही प्रकार एक सूत्र शारीरकसत्र / जीवका लौटना लिखा है एक स्वामी का इस प्रकार दिया है:
जी ही हुये ? और तिसपर भी तुर्रा यह “अनावृत्तिःशब्दादानावृत्तिः शब्दात्"
कि स्वामीजी सांख्य दर्शनको मामाथिजिसका भी यह ही अभिप्राय है कि | मुक्तिसे जीव नहीं लौटता है-इस प्र-.
पाठकगण ! मुक्तिसे जीवका मली. कार उपनिषद् और शारीरक के बचन
टना के वन्न एकही उपनिषद् में नहीं लिखते हुये सरस्वती दयानन्द जी प्रश्न
लिखा है परन सब उपनिषद् प्रादि । उठाते हैं इत्यादि बचनोंसे विदित
। यन्धों में ऐमा हो मिसा है या:होता है कि मुक्ति वही है कि जिम
"एतस्मान पुनरावर्तन्ते" ( प्रश्नी-1 से निवृत होकर पुनः संसार में कभी
पनिषदि) नहीं आता" हम प्रकार प्रश्न उठाकर
अर्थ-ठमको प्राप्त होकर फिर नहीं स्वामीजी उत्तर देते हैं . यह बात
तेष ब्रह्म लोकेष परा परावतो बठीक नहीं क्योंकि वेद में इस बातका | सन्ति तेषां न पुनरावृत्तिः निषेध किया है.."
(वृहदारण्यक) पाठकगण ! स्वामीजीके इस उत्तर अर्थ उम ब्रह्म लोक में अनंतकाल को पढ़कर पा संदेह उत्पन्न नहीं होता वास करते हैं उनके लिये पुनरावृत्ति कि महाराज कपिल जीतो सांरूप शा- नहीं इस ही प्रकार मचं प्राचीन ग्रन्थों ख में ऐमा लिखते हैं कि वेदोंसे यह में जिन को स्वामी जीने मामा और ही सिद्ध है कि मुक्तिसे फिर लौटना जिनके आधार पर वेदोंका भाष्य क-1 नहीं होता और दयानन्द सरस्वती जीरना सरस्वती जी ने लिखा है यादी | लिखते हैं कि वेदों में लौटना लिखा लिखा मिलता है कि मुक्ति सदा के इन दोनों में से किमकी बात सत्य है? वास्ते है वहां से लौटकर फिर संसार
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प्रार्थमलीला
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में फंसना नहीं होता । परन्तु दया। फिर भी बड़ी पृथिवी के लिये दे जिस | नन्दजी के कथन से इस विषय में सर्व । से हम पिता और माता को देखें ॥१॥ ग्रन्थ कुठे और किसी ने आज तक | हम लोग देवतों के मध्य में प्रथम - वेदों की नहीं ममका ! सृष्टि की आग्नि देवता के सुंदर नाम को उच्चारदिले प्राज तक सिवाय दयानन्द जी करें वह हम को बड़ी पृथिवी के के और कोई वेदों को समझ भी नहीं लिये दे जिसमे हम पिता और माता सकता था क्योंकि साक्षात् मरस्वती को देखें ॥२॥ तो दयानन्द जी हो हुये हैं इन्हों ने हो यह बात निकालो कि मुक्ति से लौट कर जीव को फिर संसार में भ्र ना करना पड़ता है ।
पाठकगणो ! इन दोनों ऋषाओं में न मुक्ति का कथन है न मुक्तिसे लौट आाने का परन्तु इनका अर्थ स्वामीजी सत्यार्थप्रकाश में इस प्रकार दिया है। ( प्रश्न ) हम लोग किस का नाम पवित्र जानें? कौन नाश रहित पदापके मध्य में वर्तमान देव सदा प्र काश रूप है हम को मुक्ति का सुख भुगा कर पुनः इस संसार में जन्म देता और माता पिताका दर्शन कराता है ॥१॥ ( उत्तर ) हम इस स्वप्रकाश रूप - नादि सदा मुक्त परमात्मा का नाम पवित्र जानें जो हम को मुक्ति में प्रानंद भुगाकर पृथिवी में पुनः माता पिता के सम्बन्ध में जन्म देकर माता पिता का दर्शन कराता है वही परमात्मा मुक्ति की व्यवस्था करता सब का स्वामी है ॥२॥
सरस्वती जीके इन छार्यो को पढ़कर बड़ा आश्वर्य होता है कि स्वामी जी ने किस प्रकार यह अर्थ लगा दिये ? | इनकी खोज में स्वामी जीके वेद भाष्य को देखने पर मालूम हुआ कि सारेही अर्थ मन घढ़न्त लगाये हैं हमको ज्याचारण करें-कौनसा देवता हम को | दा खोज इस बात की थी कि "हम
| प्रकार के देवता के शोभन नाम को उ
प्यारे पाठको ! यह तो सब कुछ सही, मत्र झूठे और अविद्वान् हो सही परन्तु जरा यह तो जांच करलो कि मुक्ति से लौटना वेदों में कहां लिखा है और किम प्रकार लिखा है ?
स्वामी जी ने वेदों में से मुक्ति से जीव के लौटने के दो मंत्र ढंढ़कर निकाले हैं और उनको सत्यार्थ प्रकाश के पृष्ठ २३९ पर इस प्रकार लिखा हैकस्यनूनं कतमस्या मृतानांमनामहे | चारुदेवस्य नाम । कोनो मह्यादितये पुनदांत पितरञ्च दृश्यं मातरच्च” ॥१॥
"अग्नेर्नूनं प्रथमस्या मृतानामनामहे चारुदेवस्यनाम । मनो मह्याश्रदितये | पुनर्दात् पितरच दूर्शयंमातरच ॥ २ ॥ ऋ० मं० १ ॥ सू० २४ मं० १॥२॥
श्रुतियों
का अर्थ इस प्रकार हैहम लोग देवतों के मध्य में किम
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मार्यमतलीशा ॥
को मुक्तिका सुख भुगाकर" | वा हमारे लिये तो सब जानते हैं प इस प्रकार किन शब्दों का अर्थ किया रंतु आप के गुरू ने ऐसी कौनसी प्र गया है । स्वामी जी के वेदभाष्य से भुत अष्टाध्यायी व्याकरण आप को मालूम हुआ कि यह अर्थ "नः" शब्द दिया है जिस के आधार पर के किये गये हैं और इस प्रकार अर्थ
84 नः
किए हैं
संस्कृत पदार्थ प्रथम मंत्र
( नः ) अस्मान् भाषापदार्थ प्रथममंत्र (नः) मोक्षको प्राप्त हुए भी हमलोगोंको । संस्कृतपदार्थ दूमरामंत्र
"
मोक्षको प्राप्त
शब्द का अर्थ आप ने हुवे भी हम लोगों, ऐसा करके बारे मंत्र का ही अर्थ बदल दिया और मुक्ति से लौटना वेदों में दिखाकर सर्व पूर्वाचार्यो के वाक्य झूठे कर दिये
इन मंत्रों (ऋचाओंों ) का जो अर्थ स्वामी जी ने सत्यार्थप्रकाश में किया है उसका अभिप्राय तो यह मालम होता है कि इन मंत्रों के द्वारा ईश्वर ने जगत् के मनुष्यों को यह सिखाया है कि माता पिता के दर्शन इतने आवश्यक हैं कि उन के वास्ते मुक्ति से लौटकर फिर जन्म लेने की आवश्य का है। इस हो वास्ते प्रथम मंत्र में उम महान् देवता की खोज की गई है जो जोत्र का यह भारी उपकार कर कर दे कि लौटकर माता पिता के द.
करादे और दूसरे मंत्र में उत्तर दिया गया है कि ऐना उपकारी महान् देव परमेश्वर ही है परन्तु वेदभाष्य में स्वामी दयानंद को इन से भी प्रगाड़ी बढ़े हैं और प्रथम मंत्र के अर्थ में इस प्रकार लिखा है :
जिसमे कि हम लोग पिता श्रीर
(म ) अस्मभ्यम्
"
भाषापदार्थ दूसरा मंत्र ( नः ) हमकोहम को चर्य है कि प्रथममंत्र के भाषा में जो "नः " शब्द का अर्थ "मोक्ष को प्राप्त हुए लोगों को क्रिया | भो हम गया है वह कमरगा वा कोश के आधार पर किया गया है ? शायद स्वामी जी के पास कोई गुप्त पुस्तक हो वा परमेश्वर ने स्वामी जी के कान में कह दिया हो कि यद्यपि शब्दार्थसेशन मालूम नहीं होता परन्तु मेरा अभिप्राय ही यह है और इस अभिमा को मैं ने आज तक किमी पर नहीं खोला एक तुम पर ही खोलता हूं। क्योंकि तुम साक्षात् सरस्वती हो
प्यारे भाइयो ! दयानन्द जो इम एक "मः" शब्द के अपने कल्पित अर्थ के ही प्राधार पर यह मिट्ट करना चा हते हैं कि मुक्ति प्राप्त होकर भी जी फिर जन्म लेता है परन्तु स्वामी जी से कोई पूछे कि "नः” के अर्थ हम को
माता और बी पुत्र बन्धु आदि को देखने की इच्छा करें
और दूसरे मंत्र के अर्थ में इस प्र कार लिखा है
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भार्यमतलीला ॥
१५७
जिससे हम लोग फिर पिता और । मुक्तिसे लौट कर फिर नहीं माने के माता और लो पत्र बंध आदि | विषय में जो लेस हैं उनको मठा क
| रने के सबूतमें सत्यार्थप्रकाशके पृष्ठ २३९ अर्थात् वेदभाग्यके अर्थों के अनुसार पर सांख्य का यह सूत्र दिया है:माता पिता के दर्शनों के कारण नहीं इदानीमिव सर्वत्र नात्यन्तोच्छेदः।"
| और अर्थ इसका इम प्रकार कियाहैःबरव संसार के सर्व प्रकार के मोह के | कारमा घेद में इन मंत्रों द्वारा ऐसे म.
| "जैसे इस समय बंध मुक्त जीव हैं वसे हान् देवता के तलाश की शिक्षा दी हो सर्वदा रहते हैं अत्यन्त विच्छेदबंध गई है जो मोक्ष से निकाल कर फिर
मुक्ति का कभी नहीं होता किन्तु बंध जम्म देवे।
| और मुक्ति सदा नहीं रहती-" कुछ भी हो हम तो स्वामी दयानंद पाठक गया ? मांख्य दर्शन में स्वयम सरस्वती जी के साहस की प्रशंमा क-बहुत जोर के माथ मुक्ति मे लौटने का रते हैं हम ने इस लेख में मांरूप द.
निषेध किया है जैमा निम्न सूत्रोंसे
विदिन होता है:शंन के अनेक सूत्र लिखकर दिखाया है
___ 'न मुक्तस्य पुनर्बन्धयोगोऽप्यना.. कि सांख्य दर्शन ने मुक्ति से लौटनेका कृत्ति पतेः ॥ सा प्र० ६ १२ १७ स्पष्ट खंडन किया है परन्तु स्वामी जी |
। अर्थ-मुक्त परुष का फिर दोबारा पनिषदों और व्याम जी के शा-बंध नहीं हो सक्ता है क्योंकि अतिमें रीरक मन को अमत्य मिद्ध करने और कहा है कि मुक्त नीव फिर नहीं लौट मुक्ति मे लौटकर संमार में पढने की| ता मावश्यकता साबित करने के वास्ते "अपरुषार्थत्वमन्यथा॥ सांग ॥ प्रक मांरूप का भी एक सूत्र सत्यार्थप्रकाश६॥ स० १८ में दिया है भागामी में हम उस की अर्थ-यदि जीव मुक्तिसे फिर बन्ध भी व्याख्या करेंगे और सांख्य दर्शन न में पा सक्ता हो तो पुरुषार्थ अर्थाके शब्द शब्द से नित्य मुक्ति दिखावेंगे।। त् मुक्तिका माधन ही व्यर्थ हो जावे-- । प्रायेमत लीला।। ऐसी दशा में यह संभव हो नहीं
सक्ता कि सांरुपदर्शन में कोई एक ( सांख्यदर्शन और मुक्ति) सूत्र क्या वरण कोई एक शब्द भी ऐसा
हो जिससे मुक्तिसे लौटना प्रकट होता सांख्यदर्शन को स्वामी दयानन्दजी | हो-फिर स्वामी दयानन्दजीने सपर्यत ने इतना गौरव दिया है और ऐमा सूत्र कहांसे निख मारा? इसकी जांच मुरूप माना है कि उपनिषद् और म अवश्य करनी चाहियेहात्मा व्यास जी के शरीरक सूत्र में प्यारे आर्य भाइयो ! उपर्युक्त सत्र |
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१५८
भार्यमतलीला ॥
सांरूप दर्शनके प्रथम अध्याय का १५६ | भावा-जैमा वर्तमान काल में संसार घां सूत्र हैं जो अद्वैतवाद के खंडनमें है- विद्यमान है और प्रथक २ जीव हैं। सूत्र १४९ से अद्वैतका खंडन प्रारम्भ | इस ही प्रकार मर्यकाल में भी समझकिया है ययाः
ना चाहिये--ऐमा कभी नहीं होता कि "जम्मादि व्यवस्थातः पुरुषबहुत्वम् | ससार का
संसार का सर्वनाश हो कर सब कुछ ॥ मा० अंक १ ॥ सू० १४८
| झमें लय हो जाव और एक ब्रह्म ही __अर्थ-जन्मादि की व्यवस्थामे प- ब्रह्म रह जावंरुषोंका बहुत होना मिद्ध होता है - माश्चर्य है कि इस सूत्र के अर्थ में म. चात् पुरुष एक नहीं है यरया अनेक हैं| रस्वतीजी ने यह किम शब्द का अर्थ इस प्रकार अद्वैत के विरुद्ध लिखते लिख दिया "किन्त बंध और मुक्ति हुये और अम का खरा इन करते हुये सदा नहीं रहती,, सांख्य इस प्रकार लिखता हैं:-- । यदि मांख्यदर्शनको स्वामी जीने
“वामदेवादिर्मुक्तो नाद तम्,, | सां० प्राद्योपांत पढ़ा होता और उनके ए. ॥ १॥ १५७
दय में यह बात न होती कि अयिद्या अर्थ-वामदेव प्रादि मुक्त हैं यह प्र अंधकार फैला हुआ है, भोले मनुष्य द्वैत नहीं है क्योंकि इमसे नी द्वैत जिम तरह चाई बहकाये ना सक्त हैं। सिद्ध होता है कि अमुक पुरुष तो मुक्त | तो मुक्तिसे लौटने के मन में कभी हो गया और अन्य नहीं हुए। अदेत | भी वह मांरूपदर्शन का नाम तक न तो तब हो जब कि मजीव मुक्तक | लेते क्योंकि मांख्यदर्शनके तो पद २ र ब्रह्म में लय हो जावै भीर सिवाय | और गब्द २ से मुक्ति मदा हीके बास्त ब्रह्म के और कछ भी न रहै । परन्त- मिद्ध होती है.--मांख्य ने यही वही __ "अनादायद्ययायदभावाद्भविष्यदप्ये यक्तियों से मुक्ति से न लौटना मिद्ध वम् " ॥ मां ॥ २१॥ १५८ |किया है यया:--
अर्थ-अनादिकाल में अब तक सर्व प्रकारान्तरासम्भवादविवेकएपबंधः॥ जीव मुक्त होकर अद्वैत मिद्ध हुडा सां० प्र०६॥ म० १६ नहीं सोभविष्यत कान में केमे होमक्ता अर्थ-अन्य प्रकार संभव न होने से है। क्योंकि ( प्रब वह मत्र लिखते हैं अविवेकही बंध है-अर्थात् बंधका का जिनको स्वामी जी ने लिखा है) र अविवेकही है अन्य कोई भी का
"नुदानीमिव सर्वत्र नात्यन्तोच्छेदः| रण बंधके वास्ते मम्भव नहीं है। ॥सां० ॥ ०१॥ १५९
। “नरपेक्ष्येऽपि प्रकृत्युपकार वित्रेको अर्थ-वर्तमान काम्न के समान निमित्तम्” ॥ सां० ॥ ३ ॥ ०६॥ कभी भी मर्वनाश नहीं होता है। अर्थ--अपेक्षा न होने में भी प्रकृति
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भार्थमतलीला ॥
१५९ के उपकारमें अविकनिमित्त है - स्था दोष हो जावेगा लाचार यह ही चात् यद्यपि जीव और प्रकृति का सं- मानना पड़ेगा कि अविवेक जीव के बंध नहीं तो भी प्रकृति से जो कार्य | साथ अनादि हैहोते हैं अर्थात् जीव का बंधन होकर ___"न नित्यः स्यादात्मवदन्यथानुवर अनेक प्रकार के नाच नाचता है| छित्तिः , ॥ सां० अ६॥ म०॥ १३ उम का निमित्त अविवेकही है- | अर्घ-अविवेक मात्माके ममान नित्य __ "इतर इतरबत्तदोषात् ॥ मांग नहीं है क्योंकि यदि नित्य होतो १०३ ॥ सू० ६४ ॥
उममा नाश नहीं हो सका अर्थात् श्र अर्थ-जिमको ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ।
विवेक जीव के माप अनादि है परंतु | बह अजामीके समान अजान दोष से
वह नित्य नहीं है और प्रारमा नित्य बंधन में रहता है--
है इस कारया अधिवेक का नाश हो "अनादिरविको अन्यथा दोषद्वय प्रसक्तः" ॥ मां० ॥ ० ६ ॥ सू० १२
___ "प्रतिनियतकारगानाश्यत्वमस्यध्या-1 अर्थ--प्रविवेक अनादि है अन्यथा दो
|न्तवत्" ॥ मां० ॥ २६ ॥ सू: १४ ॥ दोष होने का प्रसंग होने में अर्थात् प्रबि आर्य - जिम प्रकार प्रकाश से प्रधकार वे जिसके कारण जीव बंधन में पड़ा का नाश हो जाना है इमही प्रकार हा है वह जीयके साथ अनादिका नियमित कारया में मांबवक का भी से लगा हुआ है-यदि एमा न माना | नाश हो जाता है । अपात् विक्षक प्रजाये तो दो प्रकार के दोष प्राप्त होते | कट हो जाता है। हैं.-प्रथम यदि अधिवक अनादि नहीं] "विमुक्तबोधानसष्टिः प्रधानस्य | है और किमी कान में जीव उममे प. लोकवस् .. सां० ॥ ६ सू२ ४३ ॥ हिले बंध में नहीं था अर्थात् मुक्त चा अर्थ--विमुक्त बोध होने से लोकके ऐमा मानने से पर दोष प्रायोकि मुक्त तुल्य प्रधान की सृष्टि नहीं होतीजीव भी बंधन में फंस जाते हैं परन्तु अर्थात जब प्रकृतिको यह मानम हो ऐमा होना असम्भव है। दूसरा दोष गया कि अमुक जीव मुक्त होगया है यह है कि यदि अधिवेक अनादि नहीं | तो वह प्रकृति उस जीबके वास्ते सष्टि है और किमी ममय जीव में उत्पन्न | को नहीं रचती अर्थात् फिर वह जीव दुमा तो उमके उत्पन्न होनेका कारण | बंधन में नहीं आता। क्या है ? --- कर्म प्रादिक भी जो का- "नान्योपमर्पणापि मुक्तोपभोगोनिर अविवेक पैदा होनेके वर्णन किये | मित्ताभावात, ॥ सां० ॥६॥ स०४४ जावें यदि उनका भी कारण ढूंढा जाबे अर्थ--यद्यपि प्रकृति अविवेकियोंको तो अविवेक ही होगा इस हेतु अनव | बंधन में फंसाती रहती है परन्तु किसी
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मार्यमतलीला ॥ प्रकार भी मुक्त जीवको बंधनमें नहीं। में रत होने के कारस भष्ट होरहाई
सामती है क्योंकि जिस निमित्तसे | और संसार भ्रमण कर रहा हूं तब फिप्रकृति जीवोंको बन्धनमें फंसा सक्ती र दोबारा वह कैसे प्रकृतिसे रत होहै वह निमित्त ही मुक्तजीवमें नहीं सक्ता है ? एक बार मुक्त हुमा जीव होता है। भावार्थ:-जीव अविवेक से सदा ही के वास्ते मुक्त रहेगा प्रकृति बंधनमें पड़ता है वह मुक्तजीवमें रह- को तो उनके पास भी फटकनेका हौंस. ता ही नहीं फिर मुक्त जीव कैसे बंध-ला नहीं होगा। नमें पड सक्ता है?
| बिबिक्तबोधात्सष्टि निवृत्तिःप्रधानस्य "नर्तकीवत्प्रवृत्तस्यापिनिवृत्तिवारि- सूदवत्पाके” ॥ सा० ॥ ०३ ॥ सू०६३ ॥ तार्यात्, ॥ मां ॥ अ. ३॥ स०६९ ॥ | अर्थ--जोधमें ज्ञान प्राप्त होजाने पर
अर्थ--नाचनेवाली के समान धरिता- प्रधान अर्थात् प्रकृतिको सष्टि निवृत्ति होने में प्रवत्तकी भी निवृत्ति होती होजाती है जैसे रसोइया रसोई बन है अर्थात् जिस प्रकार नाचने वाली जाने पर अलग होजाता है फिर उसे उमही समय तक नाचती है जब तक कुछ करना बाकी नहीं रहता है। उसका नाच देखने वाला देखना चाह | महाराज कपिलाचार्य ऐपी दशाको ता है । इमही प्रकार प्रकृति तसही स- मुक्ति ही नहीं मानते हैं नहांसे फिर मय तक जीवके साथ काम करके प्रवृत्ति लौटना हो वहतो मुक्त उसहीको माहोती है जब तक जीव सममें रत र-नते हैं जो सदाके वास्ते हो और मुक्ति इता है अर्थात् उसको अविवेक रहना| के वास्ते पुरुषार्थ करनेका हेतुही उन्हों। है और जब जीबको ज्ञान प्राप्त होगा ने यह वर्णन किया है कि उममें सदा | ता है और प्रकृति से बदामीन होजाता के वास्ते दुःखोंसे निवृत्ति रहती है। है तब प्रकृति भी उमके अर्थ प्रवृत्ति करना छोड़ देती है।
__“ नदृष्टत्तमिद्धिनिहत्तेप्यनुवृत्तिदर्श दोषोधेऽपिनोपसर्पगं प्रधानस्य | नात् । मा० ॥ १०॥ सू०२॥ कुमवथवत्" ॥ सां० ॥ ३ ॥ स.90 अर्थ--जो पदार्थ जगत्में दिखाई देते।
अर्थ- दोषके जात होजाने हीसे कुम्ल | हैं उनकी प्राप्ति से दुखोंकी अत्यन्त निबधूके समान प्रधान अर्थात् प्रकृतिका | वृत्ति नहीं होती क्योंकि जगत में देखा पास जाना नहीं होता--अर्थात् जिस जाता है कि दुःख दूर होकर भी कुछ प्रकार श्रेष्ठ घरोंकी खी दोष मालूम | समयकेपश्चात् फिर दुःख प्राप्त होजाताहहोने पर पतिको मुंह नहीं दिखाती | नानुअविकादपितत्सिहिःसाध्यत्वेना इसही प्रकार जब जीयको शान होग-वृत्तियोगादपुरुषार्थत्वम् ॥ सion woup पा और यह जान गया कि प्रकृति ही स०८२॥
यथा
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मार्यमतलीला ॥
अर्थ--वेदोक्त कर्मसे भी मुक्ति नहीं। किया करें। अब हम आगामी लेख में यह होमती क्योंकि यदि अगसे कार्य सिद्धि मिद करेंगे कि स्वामी दयानन्दने मुक्ति भी हो अर्थात् स्वर्गादि प्राप्ति भी हो के विषयमें जो २ कपोल कल्पित मितभी वहांसे फिर यापिस पाना होगा द्वांत सत्यार्थप्रकाशमें वर्णन किये हैं वे
नकारयालयात्कृतकृत्यतामग्नवत्या मब उनके मान्य सांख्य दर्शन से ख-1 नात् ॥ ॥ सां०॥ प्र०३ ॥ स. ५४ गिडत होते हैं।
अर्थ--कार शामें लय होने से कृतार्थता यामत लीला॥ नहीं है मनके ममान फिर मठनेसे प्र-| र्थात् प्रवत वादियोंके अनमार यदि
(२५) एक ब्रह्म ही माना जोवे और मर्व जो पिछले अंक में हमने स्वामी दयावों को जान काही स्वरूप कदाजावे और नन्द और प्रार्य भागोंके परन मान्य | जीवके अमल में नय होआनेको मक्ति मा- मांख्य दर्शन से दिखाया है कि मह-1 मा जाये तो कार्य मिटु नहीं होता है |र्षि कपिलाचार्य ने किम ओर के माथ क्योंकि कन्कत्यता तो तय हो जय कि मुक्ति से पापिम पाने के मिद्धान्त का फिर कभी बंधन न हो परन्तु यदि | विरोध किया है और पूरे तौर पर एक ही प्रल है और उम ही का अंश | मिद्ध किया है कि मुक्ति से कदाचित् बंधन में प्राकर जीव रूप हो जाता है भी जीव वापिम नहीं प्रामकता है जो जीव ब्रह्म में लय होने के पश्चात् फि- अब हम यह दिखाना चाहते हैं कि र बंधनमें प्रामक्ता है अर्थात् हबक ही मुक्ति के विषय में जो जो पापोल क. दशा रहेगी...
| ल्पित मिदान्त दयानन्द जी ने मत्या. पाठक ! देखो, मांरूप दर्शनमें महर्षि प्रमाण में वर्णन किये हैं वह सबही कपिणाचार्य्यने मुफिसे वापिस लौटने उनके मान्य ग्रन्थ सांख्य दर्शन से खके सिद्धांतका कितना जोरके माघ वि- डिन होते हैं। रोध किया है और स्वामी दयानन्द ने स्वामी जी मुक्ति से वापिस पानेके | उनके एक सूत्रका कितना दुरूपयोग मिलांत को मिद्ध करने के वास्ते एक करके भोले मनुष्योंको अपने माया- अद्भुत मिद्धान्त यह स्थापित करते हैं। जालमें फंसाने की चेष्टा की है। हिमक्ति भी कर्मों का फग है और
हम अपने श्रार्य भाइयों में प्रार्थना इस बात को लेकर मत्यार्थ प्रकाश में करते हैं कि वे अपने मान्य ग्रन्थ मां-लिखते हैं कि कर्म अनित्य है नित्य रूप दर्शन को प्राद्योपान्त पड़े और नहीं हो सकते और कर्मों का फग ई. | स्वामी दयानन्द के वाकयोंको ही ईश्वर |श्वर देता है इस हेतु यदि ईश्वर अनि| वाक्य न समझकर कुछ उनकी परीक्षाभी | त्य कर्मों का फग नित्य मुक्ति देव तो
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मार्यमतलीला ॥ वह अन्यायी हो जाये इस कारण ई- अर्थ-मात्मा स्वभाव से मुक्त है इस श्वर अनित्य ही मुक्ति देता है। हेतु मुक्ति प्राप्त होना बंध की निघु
यद्यपि यह बात सत्र जानते हैं कि त्ति होना अर्थात् दूर होना है समान मुक्ति कर्मों का फल नहीं हो सकती| होना नहीं हैबरण कर्मों के क्षय होने का नाम मुक्ति भावार्थ--बंध का नाश होकर है परन्तु अपने आर्य भाइयों को म- निज शक्ति का प्रकट होना मुक्ति है मझाने और सत्य मार्ग पर लाने के फिमी वस्तु का प्राप्त होना या किसी वास्ते हम उन के परममान्य ग्रन्थ परशक्ति का उत्पन्न होना मुक्ति नहीं सांख्य दर्शन से ही सरस्वती जी की इस हेतु मुक्ति किसी प्रकार भी
कर्मों का फल नहीं हो सकती है। अविद्या को सिद्ध करते हैं और उनके |
| "न स्वभावतो बद्धस्य मोक्षमाधनो माया जाल से अपने भाईयों को ब-| चाने की कोशिश करते हैं:- पदश विधिः' ॥मांक ०१ स.
., अर्थ-बंध में रहना जीव का स्वभाव ____ "न कर्मण उपादानत्यायोगात्" |
नहीं है क्योंकि यदि ऐमा होवे तो मोक्ष सां० १० १ ० ८१
| साधन का उपदेश ही व्यर्थ ठहरै। अर्थ-कर्ममे मुक्ति नहीं है क्योंकि कर्म |
नाशश्योपदेशयिधिरूपदिष्टयनप- | उसका उपादान होने योग्य नहीं है।
देशः । सा० ॥ ० १॥ सूर काम्येऽकाम्येऽपि माध्यत्या विशेषा- |
अर्य--जो अशक्य है ( नहीं हो मफत् । सां० प्र० १ ० ८५॥ | ता ) उमका उपदेश नहीं दिया जा
अर्थ -चाहे कर्म निष्काम हो चाहे | ता क्योंकि उपदेश दिये जाने पर भी सकान हो परन्तु कर्म मे मुक्ति नहीं न दिये जाने की बराबर है अर्थात् है क्योंकि दोनों प्रकार के कर्म के मा- किमी को उसका उपदेश नहीं होता। धन में ममानता है।
स्वभावस्पानपायित्वादननुष्ठान लआर्य धर्म के मुख्य प्रचारक म्वामी क्षणामप्रामाण्यम्, मां०॥ ० ॥१॥सर दर्शनानन्द ने इम सूत्र की पुष्टिमें यह अर्थ-स्वाभाविक गुग्ण अधिनाशी होअति भी लिखी है।
|ते हैं इस कारण अतिमें जो मोह सा "न कर्मशा न प्रजया न धने- धन का उपदेश है वह अप्रमाण हो न त्यागे न मनत्यमानशुः" जायेगा। शार्यात् न तो कर्ममे मुक्ति होती है।
नित्य मुक्तत्वम्-सां ॥१०१ । सू० १६९ न प्रजासे न धन से
अर्थ-स्वाभाव से जीव नित्य मुक्तही निजमुक्तस्प बंधध्वंसमात्रं परं महै मर्यात् निश्चय नय से वह सदा मु. समानस्वम्" सां० ० १ ० ८६॥ कही है।
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भार्यमतलीला ॥
सौदामीन्यं चेति ॥मां॥ २१ सू १६३ / उम में गति असम्भव है-क्रिया और अर्थ--और निश्चय नप से बह सदा | गति प्रकृतिका धर्म है गति का वर्णन उदासीन भी है
| इस से पूर्व के सूत्र में है। स्वामी दयानन्द जी की जितनी बाते| "न कर्मयाप्य तदर्मत्वात्" [सां०॥
वह मन पद्धत ही हैं वह मत्या ०१॥स० ५२ प्रकाश में लिखते हैं कि, मुक्ति प्राप्त अर्थ-कर्ममे भी पुरुषका बंधन नहीं है करने के पश्चात् मुक्ति जीव अपनी इ
क्योंकि कर्म जीवका धर्म नहीं कला के अनु पार आनन्द भोगता हुआ | घमता फिरता रहता है, मुक्ति जीवां है वरण देहका धर्म है ॥ से मेल मुलाकात करता है और जगत् | "उपरागात्कर्तृत्वं चित्सानिध्यात, के मर्व पदार्थों का प्रानन्द लेता फि-॥ सां० ॥ ०१॥ स. १६४ रता रहता है. इसके विरुद्ध जनियों ने अर्थ -जीव में जो कांपना है वह जो मक्तिव के एक स्थान में अपनी | चित्त अर्थात् मन के समर्ग से उपराग सात्मा में न्यिा आर अपन ज्ञान स्व. पेटा होने रूप में मग्न रहना लिखा है उम का
। “असंगोऽयं पुरुष इति, सां भ०१/ मात्यार्थप्रकाश में भय का उड़ाया है--
म० १५॥ देखिये वम विषसे स्वामी दयानंद
| "अर्थ -पुरुष मंग रक्षित है अर्थात् अ-1 जी के मान्य ग्रन्थ मांख्यदशन से क्या पने स्वभाव में स्थित स्वच्छ और निसिद्ध होता है-- निर्गसादि प्रति विरोधश्चेति । मां
मा पारे आर्य भाइयो ! जय मुक्तजीव १० ११.५४॥
अर्थ-माक्षी चेता के वली निगमा श्च इ-1 के प्रकृति मे बना शरीर ही नहीं है त्यादिक अतियां जीव को निर्माण | बरगा मुक्ति दशा में वह असंग निर्मल कहा है यदि कोई क्रिया वा कर्म जीव और स्वच्छ है और क्रिया प्रकृति का में माने जावेंगतो ऋतिमे विरोध होगा- धर्म है अर्थात् जी क्रिया संरी जीव निर्गगत्वमात्मनोगत्यादिश्रुतेः सा करता है वह मत, रज, तम सुन तीन
| गुगों में से किसी एक गुगा के आश्रित ॥ ६॥ १० १०॥
अर्थ-अनि में जीव को अनंग वर्शन मारता है और यह तीनों गा प्रकृति किया है इम कार ना जीव गिगा है--उत्पन्न होते हैं मुक्तिदशामें प्रकृति
निष्क्रियस्य तदसंभवात् ॥ सां॥ में अन्नग होकर जीव निगा हो जाअ० १॥ म०४
ता है तब उमके चलना किग्गा मा. अर्थ-क्रिया रहित को वह मंभव दिन काग कसे बन सकते हैं। हीने से अर्थात् जोत्र क्रिया रहित है "योरेकतरस्य वौदासीन्धमपवर्गः,
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मार्यमतलीला ।
सां० ॥ ३॥ सू०६५
लगा सकता? अर्थ-दोनों वा एक का उदासीन | ध्यानं निर्विषयं ममः ॥ सां० ० होना मोक्षा है-अर्थात् जीव और प्रकृ. ६ सू० २५ ति दोनों का वा इन दोनों में से एक अर्थ-मनको बिषय से रहित करने | का उदासीन हो जाना अर्थात् दोनों का नाम ध्यान हैका सम्बन्ध छूट जाना ही मोक्ष, रागोपहसिानम् ॥ सां० ॥ ० कहलाता है.
पाठक गणो। जरा मुक्ति के साधन | अर्थ-राग के माश का जो हेतु है। पर ही ध्यान दो कि मांरूप में क्या | यह ध्यान है। लिखा है ? म ही से विदिन हो। वृत्ति निरोधात् तस्मिद्धिः ॥ सां० मावैगा कि मुक्तिजीव स्थिर रहते हैं | ०३॥ स. ३१ वा अन्य मुक्तिजीवों से मुलाकात क- वृप्ति के निरोप से ध्यान की सिद्धि रते फिरते रहते हैं..
होती है। तत्वाभ्यामाने तिनेतीति त्यागाद्विये प्यारे पाठको ! मांख्य ने मुक्ति को फसिद्धिः ॥ मां ॥ ३ ॥ मू. १५ प्राप्त होना कृतकृत्य होना मिटु किया
पर्य-यह प्रात्मा नहीं यह आत्मा है अर्थात् जिस के पश्चात् कुछ भी कनहीं है म त्याग रूप तत्व प्रस्चाम मे रना बाकी न रहे । परन्तु अफमोम विवेक की मिति -प्रथांत जीय जिम है कि स्वामी दयानन्द जी मंमारी को अपने में पथ समझना जावे उजीवों की तरह मुक्त जीवों को भी को त्याग करता भाव इस कार त्याग ! कानों में फंभाते और प्रानन्द प्राप्ति करते करते मर्व का त्याग ही जागा को भटक में कल्पित शरीर बनाकर और केवल अपने ही आत्मा का वि. जगतार में मक्ति जीवों का भमण कर. चार रह जावेगा यह चिंचकर इभ ना भत्याकाण में अर्शन करते हैं.. मे मुक्ति है। देश में सात्मा नहीं ! बिकाशिः शेप दःनिवृत्ती कृतकस्री पुत्रादिश जगत् मत्र जीव मेरे त्यता नलागतात् ॥ मां ॥३मः८४ अत्मा से भिन्न हैं और यही प्रकार
..... अर्धयिक ने ममस्त दःख निवृत्त जगत् के मर्य पदार्थ भिन्न हैं इस प्र. होने पर कृत कृत्यता है दूमरे से नहीं कार प्रात्मबोध हो जाता है.. अर्थात् पृया जान होने दी से दःख की
( नोट ) परन्तु क्या बोध प्राप्त होने परी परी नियति होती है और अब के पश्चात् प्रथात् मुक्ति प्राप्त करके प्रयासमान हो गया नब कुछ करना फिर अन्य वस्तु प्रधान मुक्ति मीयां वा याकी नहीं रक्षा अर्थात कृतकृत्य हो अगत् की अन्य बस्तु की और चित्त माना है
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प्रार्यमतलीला ॥
१६५
अत्यन्त दुःख निवृत्या कृतकृत्यता । अवस्था ही नहीं हो सकता है परन्तु ॥सां ॥ ६॥ ५॥
सांख्य दर्शन में ऊपर नीचे सब कुछ अर्थ-दःख की अत्यंत निवृत्ति से कृत
माना गया है:कृत्यता होती है. अर्थात् जीव कृत कृत्य |
"देवादिप्रभेदाः, ॥ सां० ॥ प्र.३॥ तब ही होता है जब दुःख की घि
अर्थ मष्टि यह है जिम में देव आदि एकल निवृत्ति हो जावे किमी प्रकार भेद हैं अर्थात् देव-नारकी मनुष्य का भी दुःख न रहे..
और तियंचयथा दुःखारनेगः पुरुषस्य न तथा “अई सत्व बिशाला, ॥ सां ॥ प्र. मुखादभिन्माषः ॥ मा० ॥ प्र० ६.६ ३ ॥ सू०४८
अर्थ--जीवको जैमा दुःख से द्वेष हो- अर्थ-मष्टि के ऊपर के विभाग में सता है ऐसी सुख की अभिलाषा नहीं है। त्वगगा अधिक है अर्थात् ऊपर के भाग ___ यद्वातद्वातदुछित्तिः पुरुषार्थ त दु- में सतोगुणी जीव रहते हैं भावार्थ :वित्तिः पुरुषार्थः" ॥मां० प्र०६॥सू०१० पर स्वर्ग है जहां देव रहते हैं।
भर्थ-जिम किमी निमिएसे ही उम| “नमो विशाला मूलतः , ॥ सां० ॥ का नाश पुरुषार्थ है अर्थात जीव और | अ० २॥ स०४० प्रकृति का मम्बंध को प्रनादि कान | अर्थ सष्टि के नीचे के विभाग में तसे हो रहा है वह चाहे कर्म निमित्त | मोगुण अधिक है अर्थात् नीचे के भाग में हो चाहे विधेफ से हो या यह में तमोगुणी जीव रहते हैं भावार्थ सम्बंध किसी शान्य कारण से हो पर-नीचे नरक है जहां नारकी रहते हैं। नतु इस सम्बंध का नाश करना ही मध्ये रजो बिशाला ॥ सां० ॥ ० पुरुषार्थ है क्योंकि इस संबंध ही से |३ ॥ सू० ५० दःख है और इस संबंध के नाश ही अर्थ--मष्टि के मध्य में रजोगण प्र. से जीय की शक्ति प्रकट होती है- |धिक है-भावार्थ मध्य में मनष्य और
स्वामीदयानन्द जी तो ऐमी प्रामा- | तिर्यच रहते हैं-- दी में आए हैं कि स्वर्ग और नरक से आगे लेख में हम दिखलायेंगे भी इन्कार कर दिया है बरगा ऐमी कि मांख्य दर्शन में कर्ता ईश्वर का अंग्रेजियत में पाए हैं कि जगत् में भनी भाति खंडन किया है और मुऊपर नीचे की अवस्था को ही प्राप क्ति जीवों की ही पूजा उपासना और नहीं मानते बरस जैनियोंका जो यह जीवन मुक्त अर्थात् केवल ज्ञान प्राप्त सिद्धांत है कि मोक्ष स्थान लोक शि-होने के पश्चात् जब तक शरीर रहै खर पर है इस बात की हंसी इम ही | उन का ही उपदेश मानने के योग्य है हेतु से उड़ाई है कि ऊपर नीचे कोई | और किसी का नहीं।
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प्रार्थमसलीला |
आर्यमतलीला | सांख्यदर्शन और ईश्वर (२६)
प्रिय पाठको ! स्वामी दयानन्दतीने यह प्रकट किया है कि वह पट्ट्र्शनके मानने वाले हैं और उनके अनुयायी हमारे शार्य भाई भी ऐसा ही मानते हैं- षट्दर्शनों में मांख्यदर्शन भी है जो बड़े ओर अनेक युक्तियों के साथ कर्ता ईश्वर का खण्डन करना है और जीव और प्रकृति यह दही पदार्थ मानता है - इस कारण आर्य भाइयोंकी भी ऐसा ही मानना उचित है-
अर्थ- प्रतिनियत कारण होनेसे बिना राग उसकी सिद्धि नहीं- अर्थात् बिना राग के प्रवृत्ति नहीं हो सकती है इम कारण ईश्वरका कुछ भी कार्य मानाजावे तो उसमें राग अवश्य मानना पड़ेगा-सां० ॥ २५ ॥ सू० 9 ॥ तद्योगोऽपि न नित्यमुक्तः
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अर्थ-यदि उनमें राग भी मान लिया जात्र तो क्या हर्ज है इनका उत्तर देते हैं कि फिर वह नित्यमुक्त कैसे माना जावेगा ? ईश्व के मानने वाले उसको नित्यमुक्त मानते हैं उसमें दोष आवेगाप्रधानशक्तियोगाच्चेत् मङ्गापत्तिः " ॥ मां० ॥ २५ ॥ सू
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अर्थ-जिम प्रकार कि जीव के माथ प्रकृतिका लग होकर और राग आदि पैदा होकर गंमारके अनेक कार्य होते हैं हम ही प्रकार यदि ईश्वरका मटि हत्तपन प्रधान अर्थात् प्रकृति के मंग से मानाजावे तो उसमें संगी होने का दीप आता है ।
"मामात्राच्चेत् सर्वैश्वर्यम् ॥ सां
दयारे प्रार्य भाइयो ! मांख्यशास्त्रको देखिये और स्वामी दयानन्द के भ्रम जानमे निकल कर सत्य का दस की जिये जिससे कल्याण ही - देखिये हम भी कमारांश मांख्य के हेतुओं का आपको दिखाते हैंनेश्वराधिष्ठिते निष्पत्तिः क मेणा तरिषदुः " ॥ मां ॥ ०५ ॥ ०२ ॥ ०५ ॥ २९ अर्थ-ईश्वर के अधिष्ठित होने में फली अर्थ-यदि यह माना जाये कि प्रकृति मिद्धि नहीं है कर्मने फन्नकी सिद्धिही का संग मसामात्र है - जिस प्रकार मणि नेसे अर्थात् कर्मा ही मे स्वामात्रिक के पास डांक रखने से मणिमें डांक का फल मिलता है यदि ईश्वरको फल देने रंग दोखने लगता है हम ही प्रकार वाला मानाजावे और कर्मों ही से स्वा- प्रकृतिको मत्ताने ही ईश्वर काम करना भाविक प्राप्ति न मानी बातो ठीक है प्रकृति उम्र में भिन्न नहीं जाती, तो नहीं होगा और फलकी प्राप्ति बाधा | जितने जीव हैं यह वही ईश्वर हो श्रावंगी - जायेंगे क्योंकि जितने संमारी जीव हैं
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नं रागादृते तमिः प्रतिनि-उन की व्यवस्था मांख्यने इसी प्रकार यत कारणत्वात् ॥ मां० ॥ ०५ ॥ सू० ६ मानी है ।
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भार्यमतलीला ॥
" प्रमाणाभाधानतस्मिदिः ॥सांon | अतिर्राप प्रधान कार्यत्वस्य ॥ मां० ०५॥ सू०१०
॥ अ५ सू० १२ अर्थ--ईश्वरकी मिदिमें कोई प्रगागा | अर्थ-यदि यह कहा जाये कि प्रत्यक्ष नहीं घटता है इस कारगा ईश्वर हैही और अनुमान नहीं लगते हैं तो शब्द नहीं। प्रत्यक्ष प्रमाण तो ईश्वर के विषय प्रमाणा मे ही ईश्वर को मान लेना चामें है ही नहीं क्योंकि ईश्वर नजर नहीं हिये-उमके उत्तर में मारुप कहना है
आता हम कारण अनमान की बावत | कि अति आर्यात् उन शास्त्रों में शिन कहते हैं।
का शब्द प्रमाण हो ईश्वर का बर्णन "मम्यन्धा भावान्नानुमानम् , मां नहीं है बरगा अति में भी मर्व कार्य ॥ ०५॥ सू२०११
प्रधान अर्थात प्रकृति के ही बताये अर्थ--मम्बन्ध के प्रभाव से अनुमान | गये हैं-- भी ईश्वर के विषय में नहीं लगता है- स्वामी दयानन्द प्ररस्वती जी ने भी अर्थात् विना व्याप्तिके अनुमान नहीं | मत्यार्थ प्रकाश के पष्ठ १८ पर सांख्य हो सकता है।
के यह तीन सूत्र दिये हैं-- माधन का माध्य बस्त के माथ नि- "ईशरा मिः " ॥ मां॥१॥स० ९२ त्यमम्बंध को च्याप्ति कहते हैं । जब | "प्रमाणामाबाजतस्मितिः, मां ॥ यह संबंध पहले प्रत्यक्ष देख लिया था. ५॥ मू०१० ता है तो पीछे से उन मम्झंधित ब- | “सम्बन्धाभावान्नानमानम् , ॥सां०॥ स्तनों में से माधन के देखने से माध्य | ०५॥ मू० ११ ।। बस्तु जान ली जाती है हम को अ- और अर्थ इनका मत्यार्थप्रकाश नमान कहते हैं जैसे कि पहले यह प्र- पृष्ठ १०० पर इस प्रकार सरस्वती जी त्यक्ष देखकर कि धुनां जब पैदा हो ने लिखा है -प्रत्यक्ष से घट सकते ई. सा तब अमिमे होता है अग्नि और श्वर की सिद्धि नहीं होती ॥१॥ क्योंकि थएं का सम्बंध अर्थात् व्याप्ति मान- जब उसको मिद्धि में प्रत्यक्ष ही नहीं ली जाती है पश्चात् धएं को देखकर | नो अनुमानादि प्रमाण नहीं हो सअग्नि का अनमान कर लिया जाता| कता ॥२॥ और व्याप्ति सम्बंध नरोने पाका प्रत्यक्षही नहीं है। मे अनुमान भी नहीं हो सकता पनः इस हेतु उमका किसी से संबंध ही प्रत्यक्षानुमान के न होने से शब्द प्र. कैसे माना नावे और कैसे व्याप्ति का-माण प्रादि भी नहीं घट सकते इस यम की जावे जिससे अनमान हो जब कारण ईश्वर की सिद्धि नहीं होसक्ती। सम्बंध ही नहीं तो अनमान कैसे हो इसका उत्तर सरस्वती जो इस प. । सकता है
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श्रार्थमतलीला ॥
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तर उपनिषद् प्र० ४ । मं० ५ ॥ अर्थ इनका स्वामी जी इस प्रकार करते हैं ।
(उत्तर) यहां ईश्वर को मिद्धि में प त्यक्ष प्रमाण नहीं है और न ईश्वर जगत् का उपादान कारण है और परुष से विलक्षण अर्थात् सर्वत्र पूर्ण होने से परमात्मा का नाम पुरुष और शरीर में शयन करने से जीव का भी नाम पुरुष है क्योंकि इसी प्रकरण में कहा है
।
जो जन्म रहित सत्व, रज, तमोगुख रूप प्रकृति है बढी स्वरूपाकार से व हुत प्रजारूप हो जाती है अर्थात् प्रकृति परियागिनी होने से अबस्थान्तर हो जाती है और पुरुष अपरिप्रधानशक्तियोगाच्च संगापतिः ॥ मां गामी होनेसे बह अवस्थांतर होकर
दूसरे रूप में कभी नहीं प्राप्त होता सदा कूटस्य निर्विकार रहता है । "
॥ २ ॥ ५ ॥ सू ८ सत्तामात्राच्चेत्सर्वैश्वर्य्यम् ॥ सां० ॥
अ० ५ ॥ सू० ल
श्रुतिरपि प्रधान कार्यत्वस्य ॥ सांग छ०५ ॥ सू० १२ इनका अर्थ मरस्वती जी ने इन मकार किया है ।
इस प्रकार लिखकर सरवनीजी ब|हुत शेखी में जाकर इस प्रकार लिखते हैं" इसलिये जो कोई कपिलाचार्यको अनीश्वरवादी कहना है जानो वही अनीश्वरवादी है कपिनाचार्य नहीं । "
पाठकगा! देखी सरस्वतीजीकी उहुण्डला ! इस प्रकार लिखने वालेको सरस्वती की पदवी देना इम कन्निकाल ही की महिमा नहीं तो और क्या है? मरस्वतीजी के इस वचनको जो प्रमाण मानते हैं उनसे हम पूछते हैं कि ईवर उपादान कारण न मेही निमित्त कारण ही मही परन्तु कपिलाचार्य ने जो यह भिद्ध किया है कि ईश्वर में कोई प्रमाण नहीं लगता है अर्थात् न वह प्रत्यक्ष है न उसमें अनुमान लगता है और न शब्द प्रमाणमें उमका वर्णन है इस हेतु ईश्वर प्रसिद्ध है इस का उत्तर मरस्वती जी ने क्या दिया है ? क्या उपादान कारके ही सिद्ध करने के वास्ते प्रमाण होते हैं और निमित्त कारणाके बास्ते नहीं ? सृष्टिके वास्ते
यदि पुरुष को प्रधान शक्तिका योग हो तो पुरुष में संगापत्ति हो जाय अर्थात् जैसे प्रकृति सूक्ष्म मे मिलकर कार्य रूप में संगत हुई है वैसे परमे वर भी स्थूल हो जाय इस लिये पर मेश्वर जगत का उपादान कारण नहीं किन्तु निमित्त कारण है जो चेतन से जगत् की उत्पत्ति हो तो जैमा परमे वर समग्रैश्वर्ययुक्त है बैमा संसार में भी aari का योग होना चाहिये सो नहीं है इम लिये परमेश्वर जगत् का उपादान कारण नहीं किन्तु निमित्त | कारण है क्योंकि उपनिषद् भी प्रधान ही को अगत् का उपादान कारण कहाना है ।
लोहित शुक्ल कृष्णां वही प्रजाः सृजमानां स्वरूपाः ॥ श्वेताश्व
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मार्यमतलीला ॥ उपादान हो चाहे निमित्त परन्तु पाप पानी चाहिये थी कि सांख्यदर्शनके । के कथनानमार बस्तु तो है और पाप कर्ता कपिलाचार्य ईश्वरवादी थे-दे. उस को अनादि मानते हैं इस कारण | खिये सारूप कमी सफाई के साथ ई. सप्टिका नहीं परन्तु अपना तो उपा-वरसे इन्कार करता है। दान है.-या इस स्थान पर आप यह ईश्वरासिद्धः”। मां०॥०॥ १॥स०६२ मानलेंगे कि जो उपादान सष्टि का है। अर्थ- इस कारणसे कि ईश्वरका होना बही परमेश्वरका है? कछ हो किमी सिद्ध नहीं है। न किमी प्रमाणने ही मिद्ध होगा तब "मुक्तपदयोरन्यतराभावात्रतत्सिद्विः ही मानाजावगा अन्यथा कर नाना मां० ॥ १॥ सू? ९३ ॥ जा सकता है-कपिन्नाचार्य कहते हैं| अर्थ- चैतन्य दोही प्रकारका है मुक्त कि वह किमी भी प्रमाणामे मिटु नही और बट इम मे अन्य कोई चतन्य इम कारण प्रवस्तु है--और मांख्य द- नहीं है बम हेतु ईश्वरको सिद्धि नहीं है। र्शनके अध्याय ५ के मूत्र ८ और ' के
| " उभयथाप्यमत्रत्वम् , ॥ मां ॥ अर्थ में जो सरस्वती जीन यह शब्द अ
| अ० १॥ सू० ८४ पने कपोलकल्पित लिखमारे हैं किन्तु निमित्त कारण है,, यह उक्त सत्र में तो
__ अर्थ दोनों प्रकार से ईश्वरका कर्तृत्व किमी शब्द मे निकलते नहीं। यदि ममिद्ध नहीं होता अर्थात् यदि वह मुक्त रस्वती जी का कोई चना बतादे कि है तो उसका विशेष क्या काम होमअमुक रीतिमे यह अर्थ निकलते हैं ता कता है ? जसे अन्य मुक्त जीव ऐसा ही हम उनके बहुत अनुग्रहीत हो। वह और यदि वह घद्ध है तो अन्य
इम ही प्रकार उपनिषद् का वाक्य | ममारी वा के ममान है--दोनों प्र. लिखकर उनके अर्थ में जो यह लिखा है | वम्याओं में ऐमा कोई कार्य नहीं जिसके
" और परुष अपरिणामी होने में | वास्त ईश्वरको स्थापित किया जाये। वह प्रस्थान्तर होकर इमरे रूप में कभी आर्यभाइयो ! यदि आपका भी विनहीं प्राप्त होता मदा कूट स्य निर्विचार को काममं लावगे और सारूपदकार रहता, यह कौनसे शब्दों को अर्थ को पढ़ेंगे तो आपको मालम होगा है? प्रतिमें तो ऐमा कोई शब्द है कि सांख्यने इंश्वरवादियोंका मखोल नहीं जिसका यह प्रथ कि पाजावे. हातक उड़ाया और प्रधान अर्थात् प्रकृयदि सरस्वतीजीको सरस्वतीका यही तिको ही ईश्वर कर दिखाया है यथाः-- बर हो कि वह अर्थ करते ममप शब्दों सहिमववित् सर्वकर्ता" ॥ सां०॥ से भिम भी जो चाहैं लिखदिया करें | अ० ३ सू० ५६ तो इसका कुछ कहना ही नहीं है। प्रथ--निश्वयमे वहही मब क जा. दयानन्दजीको यह लिखने में लज्जः | नने वाला और सर्व कर्ता है।
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आर्यमतलीला ॥ ईदृशेश्वरसिद्धिःसिद्धा ॥ सां० ॥३॥| अर्थ यद्यपि प्रधान अर्थात् प्रकृति
अवेतन है परंतु दुग्ध की तरह कार्य अर्थ-ऐमे ईश्वर की मिद्वि मिद्ध है । | उसके चेष्टित होते हैंभावार्य इन दोनों सूत्रों का यह है| कपिनाचार्य ने मांख्यदर्शन में ई. कि सांख्यकार जीव और प्रकृति यह घर की प्रसिद्धि में इतना जोर दिया। दोही पदार्थ मानता है मांख्यकार शी-है कि प्रथम अध्याय के सूत्र ९२, ३. 1 व को निर्माण और क्रिया रहित अका | और ४ में जैसा कि इन सूत्रों का अर्थ
ा सिद्ध करता है और सष्टि के मर्द हमने ऊपर दिया है, ईश्वर की अमि. कार्य प्रकृति से ही होता हुआ बता-द्वि माफ साफ दिखाकर भागे यहां तक ता है इम ही कारमा मांख्यकारने H-लिखा है कि पूजा उपासना भी मुक्त कृति का नाम प्रधान रक्ता है और जीवों को ही है और शब्द.भी उनके उमदी को मर्व कार्यों का कारण ही बनाया है न किमी एक ईश्वर की बताया है।
पूमा उपासना है और न उसका कोई सांख्यकार कहना है कि प्रधान (प्र-शब्द ना उपदेश प्रमाण है जैमा कि कृति) ही सब कुछ जानने वाला और निम्नलिखित मत्रों में विदित होता. सब कुछ करने वाला है और यदि उ मुक्तात्मनः प्रगंमा उपामा मिदस्य. को ईश्वर माना जावे तो वेशक एसे ई.या ॥ मां ० १ ॥ सू० ८५ घर का होना सिद्ध है-
| अर्थ-प्रशंमा उपामना मुक्त आत्मा मन्त्र ५८ में प्रकृति का कर्ता होना | की है वा मिद्ध कीस्पष्ट हो जाता है
| तस्मभिधानादधिष्ठातृत्वं मणिवत् प्रधानसष्टिः परार्य स्खतोऽप्यभोक्त- ॥ सा ॥ २१ ॥ सू० ९६ स्वादुष्ट्रकुंकुम वहनवत्
अर्थ-उसके सानिधान मे ममि के स. अर्थ-यद्यपि प्रधान अर्थात् प्रकृति | मान अधिष्ठाताधना है अर्थात् मुक्त सष्टि को करती है परंतु वह मष्टि द्र- वा सिद्ध जीवों की उपासना का का. सगे के लिये है क्योंकि उम में स्वयं रण यह नहीं है कि बढ़ कुछ देते हैं। भोग की सामथ्र्य नहीं है भाग 3मका | या कोई कार्य मिद कर देते हैं वरमा | जीव ही करते हैं, अमे इंट हा कुम उनके मविधान ने दी प्रमर पाता है। को लादकर ले जाना पाक निलय है. इस कार गा मुक्ति जीवों को अधिष्ठा-1 | और सय ५० में प्रकृति को मगझदा- नापना है। la के कार्य मिद किये है.
विशेष कारपेष्वपि जीवानाम् ॥मां० "सचेतनत्वेऽपिन्नीरज येष्टितं प्रधा- ० १॥ मू०१७ नस्य”.
अय--विशेष कायों में संमारी श्रीवों
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मार्यमतलीमा ॥
१७१ को भी कम ही प्रकार अधिष्ठासापना | अन्य का भी वचन प्रमाण हो तो अंहोता है अर्थात उन की प्रशंसा उपा-धाधुंध फैल जाये क्योंकि केवल मानके मना भी की जाती है।
| बिटून जो मन में प्रायै सो कहै. मिद्धम पश्खोदत्वादाक्यार्योपदेशः ॥२० चक्रभ्रममा दतशीरः ॥ सां ॥ ० अ. १॥ मू०६८
मिद्धरूपों के यथार्थ जाना होने से प्रय-जिम प्रकार कुम्हार अपने चाक सनका वाक्यार्य ही उपदेश है अर्थात् को लाठी मे चनाता है परंतु लाठी
के निकाल लेने और कुम्हार के अलग जीवन्मुक्तश्च ॥ मां० ॥ ३॥ सूर दाने के पश्चात् भी चक्र चलना र. जीवन मुक भी अधांत केवल पान
हता है इम ही प्रकार जीव प्राधिवेक प्राप्त होने पर जय तक शरीर बना
| से बंधन में पड़ा था और संचार के रहता है तब तक की अवस्था को जी
| चक्र में फंमा हुपा था अब अधिवेक धन मुक्त कहते हैं
| दृा हो गया और केवल ज्ञान की प्राउपदेश्योपदेष्टत्वात नहि यदिः ॥ मांप्ति हो गई परंता अविवेकने जो मसार म.३॥ सू. 6
| चक्र घनाया था वह अबिवेक के दूर अर्थ-उपदेश के योग्य को उपदेश क-होने पर अभी तक बंद नहीं हुआ रने वाले के भाव में 1को मिद्धि है। इनकार देह का संकार बाकी है अर्थात् उपदेश करने का अधिकार जब गर्यकार शांत हो जावंगे तय जीवन मुक्तता ही है क्योंकि उमदेव भोल: जये और जीव सिद्ध पहले केवल ज्ञान नहीं जो म पदा-पद का प्रप्त हो जायगापों का जानने दागा ही श्री केशा | मारले शात् तरिसद्धिः ॥ सां० शान होने पर देह त्याग के पश्चात ३ ॥ ० ८३ उपदेश ही नहीं नकता क्योंकि उपद- अर्थक मन्कार का लेश वाकी रह श बचन द्वारा ही हो सकता है और गया रेम ही कारण जीवन्मुक्त होने देह होने की ही अनम्या में वचन उपा भी शरीर चाकी है. त्पन्न होता है इस कारण उपदेश पाना |
पार्यमत लोला जीवन्मुक्त हो हो मकता हैअतिश्च ॥ मा० ॥ ३ ॥ सू: ८०
__ योग दर्शन और मुक्ति।। अर्थ -अनि में भी इसका प्रमाण है. इनरयान्धपरम्परा ॥ मा० ॥ ३॥ पदर्शनके नानने वाले प्यारे आर्य
| भयो । यद्य स्वामी दयानन्द ने अर्थ-यदि जीवनमरत की ही उप को वहाया है कि मत्य थेप्रकाश देश का अधिकार नही और किमी में जो मिदान्त उन्होंने स्थापित किये
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मार्यमतलीला ॥ हैं वे घटदर्शनके विरुद्ध नहीं हैं परन्तु | यह है कि मनुष्य मुक्ति माधन से नि. यदि आप पदर्शन को पढ़ें तो श्राप | रुत्साही होणावें । पयोंकिको मालूम हो जावेगा कि स्वामी जी चलना है रहना नहीं के सर्वसिद्धान्त कपोल कल्पित , पूर्वा- चलना घिसंच बीम। चापोंके विरुद्ध और मनुष्यों को धर्मसे ऐसे सहज सुहाग पर चष्ट करने वाले हैं।
कौन गदावे सीस ॥" प्यारे मार्य भाइयो ! योगदर्शन को (३) दर्शनकारों के मतके अनमार | आप जिम सादरकी निगाह से देखते प्रकृतिके संग में जीवमें सत, रज और हैं जितना आप इम ग्रन्थको मुक्तिका तम तीन गुण पैदा होते हैं और इन मार्ग और धर्म की बुनियाद समझते ही गुग के कारण जीवकी अनेक क्रिया हैं उसको आप ही जानते हैं परन्तु में और चटायें होती है और यही दुःख है यदि आप योगदर्शन और सत्यार्थप्रदर्शनकारोंके अनुसार जीव स्वभावमे काशको मिलावे तो आप को मालम | निगा है और हमही हेतु अपरिक्षामी होगा कि स्वामीजी ने मुक्ति और उस | है-मंमार में जीवका जो कुछ परिखाम के उपायोंकी जड़ ही उखड़ दी है-- | होता है वह प्रकृति के उपरोक्त तीन यात् धर्मका नाश हो करदिया है निग्न गुणों के ही कार या दोता है-प्रकृतिका लिखित विषय अधिक विचारणीय हैं- मंग छोडकर अथात् मोक्ष पाकर जीव
(१) दर्शन कार काँके क्षय से म- निर्गुण और परिणामी रह जाता है क्ति मानते हैं परन्तु स्वामी जी मुक्ति
और निर्मल होकर मर्व प्रकार के संकको भी कर्मों ही का फन बनाते हैं।
प विकल्प बंद कर ज्ञान स्वरुप अप-1 मानो स्वामीजीकी समझ में जीव कभी न आत्मा है। में स्थित रहता है और कर्म बंध नसे छूट ही नहीं मक्ता है। जानानन्दम मम रहता है परन्तु स्वामी
(२) मुक्ति किसी नवीन पदार्थ की दयानन्द का हमके विपरीत यह मिखा. प्राप्ति वा किमी नवीन शक्तिको उत्प
ते हैं कि मुक्ति पाकर भी जीव अप
पनी इच्छानुसार संकल्पी गैर बनात्तिका नाम नहीं है वाणा प्रकृति का नेता है और सर्व स्थानों का मानन्द संग छोडकर जीवका स्वच्छ और नि- भोगता हा फिरता रहता है और मल होजाना ही मुक्ति है इमहा इतन्य मक्तजीवों में मल मुलाकात करता मुक्ति के पश्चात् जावक फिर बधनम फ-रहना है। फन उनकी म शिक्षाका भने का कोई कारण ही नहीं है परन्तु यह कि समारी जीवों और मुक्त जीवों स्वामीजी मिखाते हैं कि मुक्तिसे नोट में कोई अंतर न रहै और भक्ति मा. कर जीवको फिर बंधनमें पड़ना प्राव-धन व्यर्थ ममझा जाफर मनष्य संसार । श्यक है- फल स्वामीजीके सिद्धान्त का! को ही उन्नति में लग रहैं।
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मार्यमतलीला ॥
(४) दर्शनकारों के मतके अनुमार स्वामीजी अपरिग्रही और वैगगी यो. जीव स्वभाव से सर्वत्र है परन्तु प्रकृति | गांकी नाप मन्द करते हैं बरका यहांतक संयोगसे उसके ज्ञान पर प्रावरण पहा शिक्षा देते हैं कि योगीको यहां तक हमा है जिससे यह प्रकाश होकर प्र. परिग्रही होना चाहिये कि स्वर्स प्रा. विधकी रहा है और हमके अधिक दिक भी अपने पाम रक्ख ग़ज़ स्वा. के कारण संसार में फंसकर अनेक दुःख मीजीकी नियत इममे यह मालम पद्धती
है कि धर्मके मर्व माधन दूर होकर मनुइस भावरम के दूर होने और मर्षता | ष्योंकी प्रवृत्ति समागमें द्रढ हो॥ प्राप्त होने की का नाम मोक्ष है-पर-1 प्यारे आर्य भारयो : प्राज हम योग न्तु स्वामी दयानन्द जी भिखाते हैं कि दर्शनका कछ सारांश इम लेख में आप जीव स्वभाव से ही अल्पज है इम हेतु | को दिखाते हैं जिसमे स्वामी जी का विमाक्षमें भी अल्पज रहना है अथात् पृ. लाया हा भ्रमजाल दूर होकर हमारे ण चिवक मोक्ष में प्राप्त नहीं होता है | भाइयों की चि सत्यधर्मकी भोर मग रामही कारण संकरूपी शरीर बनाकर देखिये योगशाख में मुक्तिका स्वरूप संमारी जीवों की तरह प्रानन्दकी खोज
इमप्रकार गिखा हैमें भटकता फिरता है। यह शिक्षा भी |
" पुरुषार्थ न्यानां गणानां प्रति. मनष्यको मुक्तिके माधन में निरुत्माही प्रमवः कैवल्यं स्वम्पप्रतिष्ठा वाचिति बनाने वाली है।
शक्तिरिति यो. प्र. ४ सू०-३४ (५) योगदर्शन में मुक्तिका उपाय | अर्थ-पुरुषार्थ शून्य गुणांका फिर स्थिर चित्त होकर संसारको सव य-पैदा न होना कंबल्य है वा स्वरूप प्रति से अपने ध्यान को हटाकर अपनी निष्ठा है वा चैतन्यशक्ति है- अर्थात् मत की प्रास्मा में मग्न होना बताया है-- | रज और तम यह तीन प्रकार के प्रकृ. इमही से मर्व बन्धन और मवं श्राव- तिके गण जब जीवको किमी प्रकारका रादा होने हैं और इसही से जान भी फन्न देना छोड़देते हैं परुषार्थ र. प्रकट होता है और ज्ञानम्वरूप प्रा- हित होजाते आगामीको यह गण पैदा स्मामें ही स्थिर रहना मोक्षका स्वरूप होजाने बंद हो जाते हैं। भावार्थ-जब मई
और भक्तिका परम आनन्द है परन्तु प्रकार के कर्मा और संस्कारोंकी निर्जरा दयानन्द सरस्वती जी एमी अवस्थाको और संबर होजाता है तब जीव कैवल्य हमी उड़ाते हैं और इसको जड़वत हो | अर्थात् सानिम और शाद रहमाता है आना बताते हैं - स्वामीजीकी तो सं- और अपने ही स्वरूप में प्रतिष्ठित हो सारी जीवांकी ताद अनेक घेष्टा और जाता है. अपने स्वरूपसे भिन्न जगत् क्रिया करना ही पसन्द है इमही हेतु की अन्य किसी वस्तु की तरफ जीवकी
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भार्यमतलीला ॥ प्रवृत्ति नहीं होती है और चतनाशक्ति | निजि समाधि होती है-अर्थात् सं. अथात् ज्ञान ही प्रान रह पाना है--स्कार विल्कुन बाकी नहीं रहना है
नोट-योगशास्त्रके इम सूत्रसे सत्या- और जीव अपनी आत्मा की में स्थित यंप्रकाश के मुक्तिविषयक मर्व मिद्धान्त होजाता है। अमत्य हो जाते हैं - क्योंकि इम सूत्र के नोट-उपर्यत माधनोंमे अर्थात् कर्मी अनमार मुक्ति कर्मों का फल नहीं कर पा | का मर्वणा नाश करनेसे योगदर्शनमें मकमौके नाशका काम मुक्ति है - मुक्ति | क्तिकी प्राप्ति कही है परन्तु दयानन्द के पश्चात् प्रागामी भी फाँको उत्व- सरस्वती जी भक्ति भी कर्मों का फन त्ति बन्द होजाती है इस हेतु मुक्ति में बताते हैं और कहते हैं कि यदि ईश्वर लौटना भी नहीं हो न कता है सत, अनित्य फर्मों का फन नित्य मुक्ति देव | नज और तम तीनां गम का नाश हो तो यह अन्याई होजाये। कर सक्तिनी ब में प्रकृति भी नहीं रह गमनः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्म ! नी है जिनमे वह संगो शरीर ब- वेदनीयः " ॥ १०२ मू० १२ ॥ नावै और कहीं घूमता फिरै बरण अ- अयं केश अर्थात् राग द्वेष अविद्या पनेही म्वाइप में स्थित रहता है और .
| प्रादि ही कर्म प्राणपके मृगकार गा हैं | इस प्रकार स्थिर रहने से यह पापागा
जो दृष्ट तथा अदृष्ट जन्मों में भीगा की मूर्ति ममान जड़ नहीं होगाता
जाता है। है यागा अपने ज्ञान में मग्न रहता है
" तेहाद परितापफना. पुरयापुराय | वह पूर्ण चेतन स्वप अर्थात् ज्योति
हेतत्वात्” ॥ २ ॥१४॥ स्वरूप हो जाता है
अर्थ ----वे आनन्द और दुःख फन युक | "तजः समारोऽन्यसंस्कार प्रतिबन्धी "
हैं पुगय और पापके हेत् होनेसे अपांत् यो० अ० १ :०
| कर्मो के दो भेद हैं पुण्य कर्म और पाप अर्य-उक्त ममाधिमे जो उत्पन्न हुआ। संसार वह अन्य संकायका नाग ककर्ष पुरा गर्मों में मांमारिक सुख मिलता रने व ना होना है -प्रांत मुक्तिका | है और पापकों ने दुःख मिलना है। उपाय ममाधि है और उसमे मर्व म- . मत्व पुरुपयो: शुद्विमाम्ये कैवल्यस्कार अर्थात् कर्मनाश होने हैं-- | मिति " ॥ ३ ॥ सू० ५४॥ इमके आगे जी संस्कार ममाधिसे उ. अर्थ-जन सब ओर पप दोनों श. त्पन्न होता है उनके नाश का वर्णन क- दुतामें ममान हो जाते हैं तब कैवल्य
होजाता है अर्थात् किमी वस्त्र में जब " तस्यापि निरोधे मर्मनिरोधानि | कोई दूपरी वस्तु मिलती है तबही जिस्ममाधिः ” अ० १ सू० ५१॥ोट कहा जाता है पाय दोनों वस्त् प्र। अर्थ-तुम संस्कार के भी निरोध से | नग २ पारदी जावें तो दोनों वस्तु स्व
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प्रार्यमत्तलीसा ॥
१९५ कर और खालिम कहलाती हैं-नही | दपानन्द जीने मुक्तजीवोंकी बताई है प्रकार जीव और प्रकृति मिमकर खोट कि भी क्रमरूप ही ज्ञान प्राप्त कपैदा होता है--प्रकृति के तीन गुण हैं | रते हैं--परन्तु प्यारे पाठको ! दर्शन मत्व, रज और तम-रज और तम के कार इम के विरुद्ध कहते हैं और प्रा. दूर होनेका वर्णन तो योगशास्त्र में पूर्व | त्माकी शक्ति माताकी बताकर मो. किया गया-योगी में एक मत्व गुगाका ) क्षमें मर्वनाकी प्राप्ति दिखाते हैं-देखो खोट रह गया था नमका वर्णन इस सूत्र | योगदर्शन इप्रकार कहता है:में करते हैं कि जब मत्य भी प्रात्मामे “ परिगामित्र यम पमादमीतानागत अलग होजावे और भात्मा और मत्व | जानम् ” ॥ २३॥ १० १६ ॥ दोनों प्रगग २ होकर शुद्ध हो गाव नब अर्थ-तीन परिणाम के संयमसे भत मात्मा कैवल्य अर्थात् खालिम हो जाना | और भविष्यतका ज्ञान होता है। है-मत रज और तम जनही तीनों . मत्यपरवान्यनागातिमात्रस्यगुगोंसे कर्म पैदा होते हैं जब प्रकृति | मर्व भावाधिष्ठातृत्वमर्वःतृत्वं प३।४८ के यह तीनों गुण नाश होकर मात्मा अर्थ--मत्य पुरुषकी अन्यना रूपाति कैवल्य होगया त कर्मका ती लेश भी मात्रको मर्व भावांका अधिष्ठातापना बाकी नहीं रह सकता है।
और मर्वज्ञपना होता है। नोट-नहीं मानम स्वामी जी को कहां क्षा सातत् क्रमयोः संयमाद्विवेकजा मे सरस्वतीका यह बर मिना है कि | नम ॥ ३ ॥ ५१ मुक्तिको भी कोंका ही फल वर्णन क- अर्थ -क्षगा ( काल का मब से छोटा रते हैं जिसमे हमारे लाखों भाइयों भाग ) और उसके क्रम में संयम करने फा श्रद्धान भ्रष्ट होगया और होने की से विवकज ज्ञान होता है। सम्भावना है।
। नोट-प्राश्चर्य है कि योगशास्त्र तो दयानन्द जीने मुक्तिको संमारके ही क्रम में संयम करने का उपदेश करता तन्य बनाने के धाम्ने मुक्ति पाकर भी है और उममे ही विक ज्ञान की जोयको अल्पज्ञ ही बर्शन किया है और प्राप्ति बताता है और दयानन्द जी मोक्षमें भी उसका क्रम पर्ती ज्ञान कहा ऐमी दया करते हैं कि मुक्तशीव के है अर्थात् जिम प्रकार मपारी जीव भी क्रमवर्ती ज्ञान बताते हैं मागे योग अपने जान पर कर्मों का प्रावरण होने दर्शनवित्रक ज्ञानको मर्बजता बताताहै की बजहमे इन्द्रियों का महारा लेते हैं। तारक मर्वविषयं मर्वथा विषयम
और आत्मिक शक्ति ढकी हुई हानेके क्रमंचेति विज्ञानम् ॥३॥६१ कारण संगारकी वस्तुओंको क्रम रूप अर्थ-तारक प्रात् संसार से तिराने देखते हैं अर्थात् मय बस्तुओं को एक बाला ज्ञान जी सर्व विषय को और साथ नहीं देख सक्त हैं ऐमो ही दशा | जन को सर्व अवस्थाओं को यगपत
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भार्पमतलीला ॥
जानने वाला होता है अर्थात् भूत भ. और इन हेतु, फल शादि के प्रभावसे विष्यस बर्तमान सर्व पदार्थों को एक वासनाओं का भी प्रभाव हो जाता ही धक्स में जानता है उमको विवेकज है भावार्थ इन दोनों सूत्रों का यह है जान कहते हैं।
कि यद्यपि बासनाएं अनादि हैं परंतु | नोट-प्यारे भाइयो, योगशास्त्र कमी ममाधि थमा से बाम नामों का नाश स्पष्टता के साथ योगी को सर्वज्ञता हो जाता है और मुक्ति अवस्था में प्राप्त होने का वर्णन करता है पर कोई बामना नहीं रहती है। स्वामी दयानन्द जी मुक्ति पाने पर | मुक्ति में कोई कर्म बाकी नहीं रहभी उसको प्रत्यक्ष ही रखना चाहते हैं। | ता कोई बामना नहीं रहती सत्व, सच तो यह है कि स्वामी दयानन्द रज और तम कोई गुमा नहीं रहता जी ने या तो आत्मिक शक्तिको जाना| प्रकृति मे मेल नहीं रहमा जीवात्मा नहीं है या प्रामि मिद्धान्तों को छि- निर्गगा हो जाता है और कैवल्य, स्वपा कर मनुष्यों को संमार में डुबाने की उछ रह जाता है फिर नहीं मालम चेष्टा को है पदि हमारे भाई एक न- स्वामी जी को यह लिखने का कैसे जर भी योग शास्त्र को देख जायना | माहस हुआ कि मुक्त जीव इच्छानुमार उन को मालम हो जावे कि दयान- संकल्पी शरीर बनाकर सबस्थानों के न्द जी ने मुक्ति को बिल्कुन बच्चों आनन्द भोगते हुये फिरते रहते हैं ? का खेन ही बना दिया है। स्वामी देखिये योग दर्शन में वैराग्यका ल. जी को सत्यार्थप्रकाश में यह लियते क्षण इस प्रकार किया है। हुने अवश्य लामा पानी चाहिये थी दृष्टानुअविक विषय वितृष्यास्य ब. कि मुक्ति जीव भी संकल्पी शरीर ब | शोकार संज्ञा वैराग्यम् ॥ १॥ १५ नाकर प्रानंद के वास्ते जगह २ फिरता अर्थ दृष्ट और अनुविक विषयों की है और अन्य मुक्त होवों से भी मि- सृष्णा से रहित चित्त के वश करने को बना रहता है।
वैराग्य कहते हैं। सासामनादिरखंधाशिषी नित्यत्या- तत्परमपुरुष ख्यातेर्गुल घेतृष्पपम् | त्॥ ४ ॥ १० अर्थ- बासना अनादि हैं सुख की | अर्ध-वह वैराग्य परम पुरुष की
या नित्य होने से। | स्थाति से प्रकृति के गुण प्रांत मत्व । हेतुफानाप्रयालम्पनैः संगृहीतवा दे | रज तम और उन के कार्य में वृक्षा पामभावतभावः ॥ ४ ॥११ रहित होना है।
अर्थ-हेतु, कम, प्रामय और भाग्न- अब हम पाते हैं कि जीध जब लम्बन से बामनाएं संग्रहीत होती है ' सत्व, रज और तम प्रकृमि के मसी
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भार्यमतलीला ॥ ~~..................... नों गुखों से रहित स्वच्छ हो सब वह सर्वत नहीं है तब तक शान में कमी | संकल्पी गरीर बना सकता है या नहीं ही है और इस कारण क्लेश है मरऔर संबपी शरीर बनाने की इच्छा वतीजी का भी यह ही कथन है कि और सर्व स्थानों का मानन्द लेते फि- सर्वच होने के कारण जीव एक ही सरना राग या वैराग्य ? क्या बेराग्य मय में सर्व बस्तु ओंका ज्ञान प्राप्त क. के द्वारा मुक्ति प्राप्त करके मुक्त होते रके एक साथ ही प्रानन्द नहीं ले ही फिर जीव रागी हो जाता है? सकता है बरण प्रसपास होने के कारण क्या यह अत्यंत बिरुद्ध यास नहीं है? नम को स्थान स्थान का ज्ञान प्राप्त और पदि ऐसा हो भी जाना है तो करने के वास्ते जगह २ घूमना पड़ता यह अवश्य दुःश में है क्योंकि जहां है क्या यह थोडा क्लेश है ? और सिराग वहां ही दमय है देखिये योग- सपर स्वामी जी कहते हैं कि मुक्तजीव शास्त्र में ऐसा लिखा है
परमानन्द भोगता है। योगशास्त्र में सुखानुशपी रागः ॥ २ ॥
| तो अविद्या को ही सर्व क्लेशों का
मूल बर्थन किया है. अर्थ-सुख के साथ अनुबंधित परि
| अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्तसनु बि-1 शाम को राग कहते हैं--भावार्थ यदि
छिछम्मो दाराणाम् ॥ १ ॥४॥ मुक्त जीव को मुखके अर्थ संकल्पी श
अर्थ-प्रसुप्त, तनु, विच्छिन्न और ७. रीर धारण करना पहता है और अ.
|दार रूप अगले सर्व क्लेशों का कारण गह र घममा होता है तो उम में अ-(संत्र) अविद्या ही है। वश्य राग है परंतु राग को योग द. अभिनिवेश का लक्षण योगशाख में श्रम में क्लेश वर्णन किया है.
| इस प्रकार हैविद्यास्मितारागढ़ षाभिनिवेशाः | स्वरमवादी घिदषोपि तथा सदोभिपचक्लेशाः ॥ २॥३
| निवेशः ॥ १॥ अर्थ विद्या-अस्मिता-राग-द्वेष और अर्थ जो भूख तथा पपिरतों को एक अभिनिवेग पर पांच प्रकार के क्लेश | समान प्रवेश हो उसे अभिनिवेश कह
ते हैं योगशास्त्र के भाष्यकारों ने इस हम हेतु दयानन्द जी के कथनान-का दृष्टान्त यह लिखा कि से इस सार दयानन्द जी की मुक्त जीवों पर बात का क्लेश मब को होता है कि ऐसी दपा होती है कि उन को बह हम को मरना है म श्री प्रकार के
लेशित बनाना चाहते है- कनेशित क्लेश अभिनिवेश कहाते हैं स्वामी जी कोवल राम ही के कारगा नहीं बरगाने मक्ति से सौटकर संमार में फिर अविद्या के कारण भी पोंकि जनता 'लौटने का भय दिखाकर बेचारे मुक्त
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РУС
प्रार्थमसलीला ॥
जीवों को प्रभिनिवेश करनेश में भी फंसा दिया इस ही प्रकार स्वामी जी के क धनानुसार स्मिता और द्वेषभी मुक्त जीयों में घटते हैं अर्थात् मुक्त जीव पांचों प्रकार के क्लेशों में बना है। नहीं मालूग सरस्वती जी को मुक्त जीवों से क्यों इतना द्वेष हुआ है कि | उन को सर्व प्रकार के क़शों में फंसा | तासे कहा है-ना चाहते हैं ? परन्तु मुक जीवों पर
तो स्वामी जी का कुछ बश नहीं घणेः कैवरूपम् ॥ २ ॥ २५ ॥
लेगा। हां, करुणा तो उन संमारी म
सहेतुरविद्या ॥ २ ॥ २४ अर्थ-संयोग का हेतु प्रविद्या है। तय हो तो स्वामी जी मे सुक्तशीच को अत्पक्ष बनाया है परन्तु प्यारे प्रायें भाइयो! स्वामी जी कुछ ही कहैं प्राप जरा योग दर्शन की शिक्षा पर ध्यान दीजिये देखिये कि स्पष्ट
सदभावात्मयोगाभावोहानम् तट्टू
अर्थ-उसके अर्थात् प्रविद्या के - भाव से संयोग का प्रभाव होता है और बही दृष्टाका कैवल्य अर्थात् मो.
है विना सर्वज्ञता प्राप्त होनेके और सर्व पदार्थों मे प्रवृत्ति को हटाकर ग्रा त्मस्थ होनेके बिदून मुक्ति ही नहीं हो सकती है । भावार्थ मत्यार्थप्रकाश में स्वामी जी ने मुक्ति का बर्तन नहीं किया है वरण मुक्ति को हंमी का स्थान बना दिया है ।
आर्यमतलीला ॥
rai पर प्रानी चाहिये जो दयानंद जी की शिक्षा पाकर मुक्ति साधन से अरुचिकर लेंगे और संसार के हो बढ़ाने में लगे रहेंगे
|
प्यारे श्रार्य भाइयो | योग दर्शनको पढ़ो और उस पर चलो जिसमें ऐमा लिखा है, सत्यार्थप्रकाश के भरोसे पर | क्यों अपना जीवन खराब करते हो - दृष्टदृश्ययोः संयोगो हेय हेतुः || २ || ११ अर्थ- देखनेवाला और देखने योग्य वस्तु इनका जो संयोग है वह स्याज्य का मूल है अर्थात् मोक्ष साधनमें त्याग ही एक उपादेय है और त्याग का मुरूप तत्व यह है कि शेष वा दृश्य
( २८ )
संभार तो यह ही देखने में जाता है कि तृष्प श्रान् को दुःख है और सघोत देखने योग सर्व वस्तुओं का मोन्तोषीको सुख - एक महाराजाको पात संयोग देखने वाला करता है बह त्याग खगडका राज्य मिलने से उतना सुख दिया जायेप्राप्त नहीं होता है जितना जंगल में परन्तु स्वामी जी इस feng क | पड़े हुए एक योगीको सुख है । धर्म सुहते हैं कि मुरु जीव हम हो संयोग | खप्राप्तिका मार्ग है हम हो हेतु धर्म मिलने के वास्ते संदरूपी शरीर बनाका सून त्याग है--इन्द्रियोंको विषय ता है और जगह २ घमता फिरता है। भोगोंसे हटाना चित्त की वृत्तियों को
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मार्यमतलीला॥
रोकना मुखप्राप्ति का उपाय है-और समझते हैं. उससे आपको विदित हो संभारके सर्व पदार्थों से चित्तको हटा | जायगा कि सरस्वतीजीकी शिक्षा विकर अपने ही प्रात्मा स्थिर और मुन धर्मनाके विरुद्ध और संसारमें शान्त होजामा परम मानन्द है और माने वाली है। याही मोक्षमा अपाय है-इम ही देखिये योगदर्शन इस प्रकार लिहेत मोक्ष में परम प्रानन्द है क्योंकि / खता है-- पहा ही शीवात्मा प्रकृति के मव घि. " योगश्चित्तत्तिनिरोधः - यो कारोंसे रहित हो कर पूर्व उप स्थिर | अ० १ २ २ और शस्त होता है--
अर्थ पित्तको वृत्तियों के निरोध - परन्त स्वामी दयानन्दजी इस सुख | र्थात् रोकने को योग करते हैं.-भावार्थ को नहीं मानते हैं धद म स्यिा और अपने ही प्रात्मा में स्थिता हो इस शान्ति दशाको पत्यरको मृत्ति के ममान / से बाहर किसी वस्तु की तरफ प्रकृति गाह बनजाना बताते हैं कम ही का-हो । रवा मुक्ति जीवोंके वास्ते भी 4 मा. "तदाद्रष्टुः स्वरूपेवस्थानम् ॥१॥३॥ वश्यक ममझने हैं कि वह अपनी मर्थ - उम ममय अर्थात् चित्तको
छान मार कल्पित शरीर बनाकर ज-त्तियोंका निरोध होने पर जीवात्मा गह २ का प्रानन्द भागते हुए फिरत का सनेही स्वरूप में भवस्थान होताह
है-स्वामी जी को मुक्तिका माधन क- "त्तिमारूप्यमितरत्र , ॥१॥४॥ रने वाले पोगियों का परिग्रह त्याग अर्थ मन्य अवस्था में अर्थात् जब
और आत्मध्यान भी व्यय काही कश चित्तको मप्रवृत्तियां रोककर जीवाप्रतीत पहता है उनको यह कप सनित्मा आपही स्वरूप में मन नहीं हो. कर हो सकता है कि योगी संसारकी ताहै तब वह चित्तवातगांक रुपमा मर्य अस्त और शरीरका ममत्व छोड़ | धारणा कर लेता है-- दशा मर्व मंदे और कपड़े पहने का अखड़ा न रख मानी जो बाकी रहती ही है.. कर नग्न अवस्था धारगा का प्रात्म- नोट--नहषियोंने मुक्तिका माधन तो ध्याममें मग? बरण स्वामी जी तो यहां यह बताया कि चित की वृत्तियों को तक चाहते हैं और मत्याप्रकाशमें रोककर पनीही प्रात्मामें अवस्थित उपदेश देते हैं कि योगी को चांदी पी- होजाये--परन्त स्वामी जी कहते हैं कि ना धन दौलत भी रखनी चाहिये । मुक्ति प्राप्त होने पर यदि वात्मा परन्तु प्यारे मार्यभाइयो : अपने और अपने ही प्रारम में स्थिर रहे और . स्वामीजी मान्य ग्रन्य योगदर्शन नाना प्रकार चेष्टा न करे. इच्छा प्राप्त को देखिये जिसको श्राप मुक्ति सोपान न हो इच्छानुमार कल्पित शरीर न
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मार्यमतलीला ॥
बनावै और जगद २ घमता न फिरतो करने को अभ्यास करते हैं। वह पत्थरके समान जड़ होजावे--पर- सतुदीर्घकाल नैरन्तर्य सत्कारासेविमत हमको आश्चर्य है कि सरस्वतीजी | तो दृढ़ भूमिः ॥ ०१ २०१४ ने इतना भी न विचारा कि यदि मुक्ति अर्थ -यह अभ्यान बहुत काल तक अवस्थामें इस प्रकार प्रवृत्ति करने और निरन्तर अर्थात् किमी समय किसी चित्त वृत्तियों में लगने और संसारी अवस्था में या किसी विन से त्याग न जीवों के समान वृत्तियों का रूप धा-करते हुवे अधिक मादरके साथ सेवन रम करने की जरूरत है तो मुक्ति करने से दृढ होता हैसाधन के वास्ते इन वृत्तियों के रोकने | प्यारे प्राये भाइयो ! योगशाचतो और अपने प्रात्मा में ही स्थिर होने | स प्रकार अत्यंत कमाय : की और योग धारण करने की क्या स्थिति और चित्त पत्तियों की के रोजरूरत है ? पोग धारण करना और कने में प्रानन्द बताता है स्वामी द. चित्त वृत्तियों को रोककर प्रारमा में यानन्द जी उनको पत्थर के समान ह| स्थिर होना कोई सहज बात नहीं है | भवस्था कई धा जो कुछ चाहे का.. इसके वास्ते योगी को बहुत कुछ अ- "निर्विचार देशारद्यध्यात्मप्रमादः | ग्यास और प्रयत्न करना पड़ता है प-॥१॥४७॥ रम्त जब मोक्ष में जाकर भी इन पृ- अर्थ-निर्विचार ममाधि के विशारद सियों में फंमना सौर माता स्थिरता भाव में अध्यात्मिक प्रमाद है-मर्यात् को छोड़ पर चंचल बनना है तो द-यात्मिक परम आनन्द प्राप्त होता है. यानन्द जी के कथनानुसार योग मा- पारे प्रार्य भाइयो ! योगदर्शन तो धन का सब उपाय व्यर्थ का ही कष्ट प्रारम्भ से अंत तक पिश वृत्तियों के ठहरता है
रोकने और प्रात्मा में स्थिर होने की देखिये योगदर्शन चित्त की वृत्तियों को मोक्ष मार्ग और धर्म का पाय को रोककर पागम्य होने के या यताना है. क्या पया उपाय बताता है
तन्त्र स्थिर सुग्नु मामगम् ॥२॥ ४६ "अभ्या7 घेराम्यायान्तनिरोधः" ॥! अर्थ-जिसमें स्थिर सुख हो वह प्रा.
मन कहामा है अर्थात् जिमकी महाय'अर्थ-बद गिरोध अर्थात् चित को मा से भली भांति बैठा जाय उसे प्रा. वतियों का रोकना अभ्यास मीर घरा- मन कहते हैं। वह पनामन, दरखाग्य से होता है
| सन, स्वस्तिक के नाम से विख्यात हैं वस्थितौयनोऽभ्यासः ॥ १॥ १३॥ यह मामन जब स्थिर कम्प रहित नार्थ-प्रात्मा में स्थिर होने में यत्र और योगी को मुख दायक होते हैं
१ ॥ १२ ॥
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आर्यमतलीला ॥
तब योग के अंग कहे जाते हैं. उसे प्राणायाम कहते हैं अर्थात् प्रा.
नोट-स्वामी दयानन्द जी लोप्रा- मन स्थिर होकर श्वाप उचाम के रुकमन को जड़ पत्थर के समान ही हो-/ने क प्राणायाम कहते हैं। जाना समझते होंगे।
__ मीट-दयानन्द जी मुक्त जीवों पर - प्रयत्नशैचिस्यामन्तममापित्तिभ्याम् तो आप की दया होगई जो उनको ॥२॥४७
स्थिरता से छडाकर इस प्रयत्न में लगा अर्थ-प्रयल के शिथिल होने और प्र- | दिया या संकल्पो शरीर बनाकर मन्त ममापिति से प्रामम की मिटि जगह जगह का प्रानन्द लेते फिरा होती है अर्थात् प्रामन निश्च न होते करें परन्तु योगियों पर भी तो कुछ हैं और चित्त की चंच-नसा उप होदया करनी चाहिये थी ? देखो मह. जाती है
पिं पातलिने तो योग दर्शन में सन नोट-दयानन्द मरस्वती जी तो मा भाम रोक कर मनमुन टी पस्था बात को कभी न मानते होंगे ? क्योंकि की मूर्ति बना दिया हमारे प्रार्यभाई प्रयत्न तो यह जीव का लिंग मताते हैं प्राणायाम के बहुत शौकीन हैं इनको चीर इस ही देत गोश में भी जीयका मी कोई ऐमा प्रयत्न बना दिया होप्रयत्न मिद्ध करते हैं स्वामी जी नो ता जिम को करते हुये भी प्राणायाम अनियों मे हम ही बात कष्ट हैंजिनिटु होता है और चंचलता भी मेनी मुक्तिजी का प्रयत्न रहित एक यनी रहै ? स्थान में स्थित ज्ञान स्थप श्रानन्द में | बाय : यन्तर विषपाक्षेपी चतुर्थः ॥२॥५१ मग्न रहना बताते हैं और कम ख- अर्थ-जिममें बाह्य श्रोर प्राभ्यंतर सहन में सत्यार्यप्रकाश में कई कागज बिषयों का परित्याग हो यह चौथा काले करते हैं-प्रापाधापी मनुष्य अर्थात प्राणायाम है-तीन प्रकार के प्राणायाम योगी को वास्ते इस प्रकार पत्थर बन पाने वर्णन करके इस सत्र में चौथा जाने को तो वाफघ पमन्द भरेंगे? बर्णन किया है।
परम्त स्वामी जी जो चाहैं मधील मोट-दपानन्द जी तो मुक्तजीव को उड़ाधे 'योगशान को तो ऐसी ही भी विषप रहित नहीं बनाना चा. शिक्षा है
हते हैं हम ही हेतु इच्छानुसार कतस्मिन् मतिश्चामानामयोर्गतिवि- सिपत शरीर बनाकर घमण करना च्छेदः प्रासायामः २॥४.
और अन्य मुक्त जीवों से मिलना ज. अर्थ-भासन स्थिा होने पर कोश्वामो लना प्रावश्यक बताते हैं। इस प्रकार वाम की गति का अवरोध होता है । की क्रिया वाह्य विषय से हो वा प्रा.
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आमलीला ॥
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भ्यंतर विषय से इम को मरस्वतीजी ही जानते होंगे ! परन्तु योगदर्शन में तो प्राणायाम ही में जो योग और मुक्तिमाधन का एक बहुत छोटा दहै, वाह्य और प्राभ्यंतर दोनों विषयों को दिया ।
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अर्ध-योग के अंगों को क्रमशः अनु छान करने से अशुद्धि के तय होने पर ज्ञान का प्रकाश होता है. क्रमशः का भावार्थ यह है कि यम के पश्चात् नियम और नियम का पाचन होने पर आमन इन ही प्रकार खिलमिले. वार ग्रया करता है । अर्थात् यम भ से कम दर्जे में और मन से प्रथम है । इन के पालन विदून तो जाये चल ही नहीं मकता है ।
ततः क्षीयते प्रकाशावर सम् ॥ २ ॥ ५२ ॥ |
तत्राहिमामत्यास्तेय ब्रह्मचर्या परिग्रहायनः ॥ २ ॥ ३०
अर्थ-तिन में महंगा, सत्य, अस्तेय. ब्रह्मवर्ष और अपरिग्रह यह पांच यम हैं ।
- प्राणायाम मिद्धि के अनन्तर ज्ञान का आवरण मनक्षय हो जाता है अर्थात् ज्ञान का प्रकाश होने ल गता है ।
नोट- दयानन्द श्री ने मुक्ति मिट्टि | पर मुक्त जीवों के माथ फिर वह बिकार लगा दिये हैं जो प्राणायाम में छोड़े गये थे अर्थात् प्रयत्न चंवलता और विषय बामना इन हो कारण जो ज्ञान का आवरण प्राणायाम के पश्चात् दूर हुआ था वह दयानन्द शी ने मुक्त जीवों पर कर उनकी अपक्ष बना दिया !
cuit पाठक ! योगदर्शन के अनमार योगी के वास्ते सब से प्रथम काम पांच यम पालन करना है ।
यमनियमाऽऽनन नावायामप्रत्या
जानिदेशकानन गयाऽनवािः मा वे भीमामा तम् ॥ २ ॥ ३१
अर्ध जाति देश, काल और समपकी मर्यादा से न करके मधेथा पालन कना महात्रत है अर्थात् उपरोक्त पां चोंयमों को बिना किसी मर्यादा के सबंधा पालन करना महाव्रत है और मर्यादा सहित पालन करना अणुव्रत है।
अब प्यारे आर्य भाइयो । विचार
हारधारणाध्यानसमाधयोष्टावंगानिने की बात है कि, परिग्रह कहते हैं
सांसारिक वस्तुओं (प्रा) और उन की भिनाय को संभार का कोई भी अस्म्राब न रखना और न उम में समस्य रखना अपरिग्रह कहलाता है । अपरिग्रह महाव्रत धारण करने में किसी प्रकार की मर्यादा नहीं रह
॥ २ ॥ २९
अर्थ-यम, नियम, श्रामन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि योग के यह घाट अंग हैं । योगाङ्गानुष्टाना दशु द्विक्षयज्ञानदीप्ति विवेक रुपातेः ॥ २ ॥ २८ ॥
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मार्यमवलीला
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ती है कि अमुक बस्तु रक्खं वा अ. आजादीके खपाल को लेकर मय वाहिमुक न रक्खू महाव्रत तो घिना यात और झटका पाठ पढ़ाना शुरूकर मर्यादा ही होता है इस हेतु पाप ही दिया और बहुत मी बातों को प्रससोचिए कि महाव्रती योगी वस्त्र रक्खे- म्भव और नामुमिकन बताकर भोले गा वा नहीं ? पा एक लंगोटी रखगालोगों के खयाम्न को बिगादिया ॥ भी अपरिग्रद महावतको भंग नहीं क- अफमोम है कि स्वामीजी के ऐसे घ. रेगा ? अवश्य करेगा--महाव्रती को यो तांबसे हमारे प्रार्यभाई जीवात्माकी | | गदर्शनके अनमार अवश्य नम रहना शक्तियों को समझनेसे वंचित रहेजाते होगा। इसके अतिरिक्त पारे भाइयो | हैं और अंगरेजीकी तरह जह पदार्थ जब भाप योगके प्राठी अंगों को मन को ही शक्तियों के ढंढने और मानने गे और वैराग्य हो को योगका साधन | में लगते जाते हैं-महर्षि पातञ्जलि ने जानगे तब आपको स्वयम् निश्चय हो योगशास्त्र में जो आत्मिक अतिशय जायगा कि योगीको वस्त्र, लंगोटी का वर्णन की हैं उनका सारांश हम नीचे ध्यान तो क्या अपने शरीर का भी लिखते हैं और अपने प्रार्य भाइयोंसे ध्यान नहीं होता है-नन रहने की प्रार्थना करते हैं कि इनमें सपना विलज्जा करमा वा अम्प कारणोंसे वस्त्र धार देव-और सात्मिक शक्तियोंकी की प्राबश्यक्ता समझना योगसाधन | खोज में लगें। का बाधक है और जिमको इस प्रकार | अहिंमा प्रतिष्ठायांतत्संबिधौ बेर साउना आदिकका ध्यान होगा उमसे | त्यागः ॥ २ ॥ ३५ ॥ तो संसार छूटा ही नहीं है वह योग अर्थ--योगीका चित्त जब अहिंसा में | साधन भीर मुक्तिका सपाय क्या कर स्थिर हो जाता है तब उसके समीप
कोई प्राणी बैंर भाव महीं करता है प्यारे भाइयो ! माधुके वास्ते मोक्षके | अर्थात् शेर, सांप बिच्छू प्रादिक दुष्ट भाधगमें नग्न रहना इतना आवश्यक | जीव भी उसको कुछ बाधा नहीं पहुं. होने पर भी हमारे बहुतसे मार्य भाई चा सके हैं। मग्न अवस्थाकी हमी उहाकर क्या धर्म " शब्दार्थप्रत्ययानामितरेतराध्याकी हंसी नहीं उडाते हैं: अवश्य 8-मासंकरस्तत्प्रविभाग संयमात् सर्व हाते हैं।
भतरुतधामम् ॥ ॥ ३ ॥ १७ मुश्किल यह है कि स्वामी दयानन्दजी अर्थ- शब्द भार्थ और जानमें परमे अंगरेजी पढ़े हुये भाइयोंको अपनी स्पर घनिष्ट सम्बन्ध होनसे शब्द सओर आकषित करने के वास्ते उनको करता है और उनके विभागमें संयम
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माधमतलीला करनेसे प्राणीमात्र की भाषाका जान करना है तो हिन्दुस्तान के महात्माओं होता है-अर्थात् पातंजलि ऋषिका और ऋषियोंने जो भात्मिक शक्तियों यह मत है कि योगीको सर्व जीवोंकी की खोजकी है और जिस कारण यह भाषा समझने का पान होसक्ता है हिन्दुस्थान सर्वोपरि है उसको समझो। भावार्थ जानवरों को भी बोली समझ और मुक्तिके सच्चे मार्गको पहचानो। सका है। संस्कारमाक्षात् करणास् पूर्व शान्ति
इित शुभम्। ज्ञानम् ॥३॥ १८॥
अर्थ--संस्कारों के प्रत्यक्ष रोनेसे पूर्व जम्मका जान होता है। "कपटकपेक्षुत्पिपासानिवृत्तिः ३९ अर्थ--कंठ के नीचे कपमें संयम करने से भूख और प्यास नहीं रहती। "मू ज्योतिषि पिद्धदर्शनम् ॥३॥३१ अर्थ-कपालस्थ ज्योतिमें संयम कर. नेसे सिद्धोका दर्शन होता है।
“ यदान जयांजल पंककंटकादिष्य | सं उत्क्रान्तिच " ॥३॥ ३८
अर्थ--उदानादि वायुके जीतनेसे कंटकादि का स्पर्श नहीं होता और तस्क्रान्ति भी होती है।
" काया काशयोः सम्भन्धसंयमाल घतलममापत्तेवाकाश गनमम् ,, ३॥४१
वर्ष-शरीर और प्राकाशके सम्बन्ध से संयम करनेसे और लघु आदि - दायों की समापत्तिसे भाकाश गमन | सिद्ध होता है।
प्यारे बार्य भायो ! विशेष हम | क्या करें आपको यदि अपना कल्या!
Naid
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RRIENCE
A
LAN
HASTARTPH
ENGTONE
TAGRAT
PANE
P4
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॥निवेदन ॥ भार्यसमाज नामक संस्थाके चतुर संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वतीजीने अ. पने लेख और सिद्धान्तोंमें यथा शक्ति यह सिद्ध करनेकी चेष्टाकी है कि वेद ( ऋग, यजु, साम और अथर्व नामंक चारोसंहिता) ईश्वर प्रणीत है, वह सर्व कल्याणकारी विद्याओंके उत्पादक स्थान हैं तथा उन्हीके उपदेशानुकूल चलनेसे मनुष्यका यथार्थ कल्याण होसक्ता है और अब भी स्वामी जीके अनुयायी हमारे आर्यसमाजी भाई अपने प्रयास भर वैसा प्रतिपादन करनेकी चेष्टा कर रहे हैं । उपरोक्त वेदोंके बर्तमान में सायण, महीधर और मोक्षमूलर ( Maxmuller ) आदि कृत अनेक भाष्य पाये जाते हैं और वह इतने विशद है कि अनेक परस्पर विरुख संप्रदायो | यहांतक कि थाममार्गादि ने भी अपना सिद्धान्त पोषक स्थान वेदको ही माना है परन्तु हमारे स्वामीजीने यह कहकर उन सर्व प्राचीन भायोंको अमान्य करदिया है कि घे मुष्टिक्रम विरुख, हिन्सा और व्यभिचारादि घृणित कार्योंसे परिपूर्ण हैं और उनके पढने से वे सर्व ईश्वर प्रणीत होना तो एक ओर किसी बुद्धिमान भी मनुष्य कृत प्रमाणित नहीं होसक्ते और इसी अर्थ अपने मन्तव्यो को पोषण करने के अर्थ स्वामीजीने उनपर अपनाएकखतन्त्र नवीन भाष्य रचा है। यद्यपि यह विषय विवाद प्रस्त है कि स्वामीजीका वेद भाप्य ही क्यो प्रामाणिक है परन्तु इसपर कुछ ध्यान न देते हुय जैनगजट के भूतपूर्व सुयोग्य सम्पादक सिरसावा निवासी श्रीयुत पावू जुगलकिशोर जी मुख्तार देवबन्दने अपने सम्पादकत्व कालमें सन् १९०८ १० के जैनगजट के २८ अंकों में यह "आर्यमत लीला" नामक विस्तृत और गवेषण पूर्ण लेखमाला निकालकर समाजका बहा उपकार किया है । बाबू साहबने अपनी सुपाच्य और मनोरंजक सरल भाषामे स्वामी दयानन्द सरस्वतीजीके भाप्यानुसार ही आर्यसमाजके माने हुये प्रामाणिक वेद व अन्य सिद्धान्तोकी जो ययार्थ समालोचना कर सर्व साधारण विशेषकर हमारे उदार हृदय, समाज सुधारक ( Social Reformer) सांसारिक उन्नतिकी उत्कट आकांक्षा रखनेवाले, उन्नतिशील और सधर्मके अन्वेषी आर्यसमाजी भाइयोंका भ्रमान्धकार दूर करनका जो श्लाघनीय परिश्रम किया है उसके कारण आप शतशः धन्यवादके पात्र हैं। जैन गजटके अंकों में ही इस "लीला" के बने रहनसे सर्व साधारणका यथा उचित विशेष उपकार नहीं होसकता ऐसा विचारकर हमारी सभाने अपने हदय से केवल सत्यासत्य निर्णयार्थ सर्वको यथार्थ लाभ पहुंचाने के सद् उद्देश्यसे ही इसको पुस्तकाकार मुद्रित कर प्रकाशित किया है। अन्तम हमको पूर्ण आशा तथा रद विश्वास है कि इसको निष्पक्ष एक वार पठन करने से और नहीं तो हमारे प्रिय आर्यसमाजी भाइयों को ( जिनका कि घेदोको पढना और पढाना परम धर्म भी है) अवश्य ही घेदोंको-जिनका कि पढना और समझना अव प्रत्येक पर्याप्त हिन्दी जानने वाले साधारण बुद्धिमान् पुरुष को भी वैदिकयन्त्रालय अजमेर से खल्प मूल्यमें ही प्राप्तव्य स्वामि भाष्य वेदोसे सुलभ साध्य होगया है-कमसे कम एकवार पाठ करनेका उत्साह और उसपर निष्पक्ष विचार करनेसे उनको वेदोका यथार्थ ज्ञान प्रगट होजायगा और ऐसा होनेपर उनको निज कल्याणार्थ सत्य धर्म की अवश्य ही खोज होगी। हमारी यह आन्तरिक माल कामना है कि मनुष्य मात्र वस्तु स्वभाष सच्चा धर्म लाभकर अपने अनन्त, आविनाशी, स्वाधीन, निराकुल, और आत्मस्वरूप आनन्दको प्राप्त होवे ॥ इति शुभम् ॥
जीवमानका हितैषीजनवरी १९११ ईस्वी । चन्द्रसेन जैन वैद्य, मन्त्री इटावा
श्री जैनतत्व प्रकाशिनी सभा
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