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“અહો શ્રુતજ્ઞાનમ” ગ્રંથ જીર્ણોધ્ધાર ક્રમાંક - ૦૩ શ્રી અદ્વીતા – શ્રી ભગવદ્ગીતા
: દ્રવ્ય સહાયક: અધ્યાત્મયોગી આચાર્ય દેવ શ્રીમદ્ વિજય કલાપૂર્ણસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના શિષ્યરત્ન પ.પૂ. આ. શ્રી કલાપ્રભસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના આજ્ઞાતિબ્રાધ્વીજી શ્રી મયુરકળાશ્રીજી મ.સા.ની પ્રેરણાથી શા. વિમળાબેન સરેમલ ઝવેરચંદજી બેડાવાળાઆરાધના ભવનની બહેનોની જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી
: સંયોજક : શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા
શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર
હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૩૮૦૦૦૫. વિક્રમ સંવત ૨૦૭૫ (મો.) ૯૪૨૬૫૮૫૯૦૪ (ઓ) ૨૨૧૩૨૫૪૩ (રહે.) ૨૭૫૦૫૭૨૦
ઈ. સ. ૨૦૦૯
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अर्ह श्रीमहावीर ग्रंथमाला प्रथम पुष्पं १ महामहोपाध्याय श्री मेघविजयजी गणिविरचिता श्रीमद् अर्हद्गीता - भगवद्गीता - या तत्वगीता
प्रकाशकः - श्री महावीर ग्रंथमालाके मानद मंत्री S. K. Kotecha
मुद्रक : --- कालीदास सिताराम पंडित समर्थ इलेक्ट्रिक प्रेस धुलिया, पश्चिम खानदेश सर्वेधिकारः स्वाधिनाः
वीरसंवत् २४३३
विक्रमाइ १९९३
चतुर्थावृत्ति ५०० )
( मूल्यं सप्तरूप्यकम्
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*HERONEDROOOOODC.
(१) अहगीता-भगवद्गीता-या तत्वगीता चतुर्थावृत्ति प्रत्येकका किंमत रु. ७ U(२) मानतुङ्ग शास्त्र (मानतुङ्ग सुरकृित, गुजराती, हिंदी संस्कृत टीकासाथ ) तृतीयावृत्ति प्रत्येकका किं. रु. ३ (३) विद्यारत्न महानिधि (भाषांतर सहीत दश पूर्वधर भद्रगुप्ताचार्यकृत) तृतीयावृत्ति प्रत्येकका किंमत रु. २५, (४) चंदप्पह चरियं (मुळमागधी टीका और संस्कृत छाया सहित यमकवद्ध कर्ता जिनेश्वर सूरी) तृ. प्र. किं.रु.२ ॥ (५) आकाशगाभिनी औषधी कल्प पादलेप शक्ति और गोपीचक्र कल्प (सरळ भाषांतर सहित) सू.प्र.किं. रु.१५ (६) अर्हच्चूडामणीसार ( मूल मागधी टीकासहित चौध पूर्वधर भद्रबाहु स्वामिकृत ) त. प्रत्येकका किं रु.३ (७) सिद्ध बीशाकल्प-कर्ता श्रीमहामहोपाध्याय मेघविजयकृत पद्मावती देवीका बतायाहुवा भाषांतरसहित ४५०
फोटोके साथ तृतीयावृत्ति प्रत्येकका किंमत रु. १० (८) न्यायविशारद श्रीमद् यशोविजयजीका अनुभूत नवगाथाका उपसर्गहरस्तोत्र यंत्रके साथ विधिसहित
द्वितीयावृत्ति प्रत्येकका किंमत रु.॥ ( जगत्सुंदरी पयोगमाला (जैन सायन्स) कर्ता मुनि जसबई तृतीयावृत्ति प्रत्येककी किंमत रु. १० (१०) युक्तिप्रकाश-मूल टीकाके भाषांतरके साथ द्वितियावृत्ति प्रत्येकका किंमत रु. २
मिलने का ठिकान:-एस्. के. कोटेचा (आग्रारोड ) धुलिया (प. खानदेश) *8080808080808086880000-
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प्रिय विज्ञ महानुभाव पाठक वृन्दः
आपको यह जानकर हर्ष होगाकि अपने जैनधर्ममें आजतक गीता जैसे ग्रंथका अवश्यही अभावथा. जिसकी पूर्ति आज आप महानुभावोंके समक्ष यह "अर्हद्गीता” नामक गीताग्रंथ प्रकाशित करवाके की जारही है? 5
वैष्णव धर्ममें भगवद्गीताको कितना मान है। अहंगीताभी मानव समुदायकेलिये वैष्णव भगद्गीतासे कहीं अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकती है.
यदि विज्ञपाठकोंने इसे आदरकी रष्टीसे अपनाया तो। क्योंकि यह अहंद्गीता जिस अध्यात्मज्ञानरूपी सुधारससे ओतप्रोत हैं यह अद्वितीय है?
श्रीगौतमस्वामि प्रथमही प्रश्न करते है कि भगवान योगियों और गृहस्थोंका मन वशमें हो जाता है तो क्या कोई इसकी विधि है ?
उत्तरमें-भगवान महावीर विधि बतलाते हुए क्या कहते हैं. यह ग्रंथकी आदिमें आपके दृष्टीगोचर हैं ? |
महामहोपाध्याय श्री मेघविजयजी गणीके समयका निर्णय. विक्रम संवत १७४७ में धर्मपुरमें "मातृकाप्रसाद" इस नामका ग्रंथ जिसमें “ॐ नमः सिद्धं" इसका बडाही भावपूर्ण रसात्मक विवरण है।
इसीसे समय निर्णीत है.
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आपका वंश वृक्षः
श्री हीर विजय सूरीश्वरजी श्री कनक विजयजी श्री शील विजयजी
श्री कमल विजयजी
श्री चरित्र विजयजी श्री सिद्धि विजयजी श्री कृपा विजयजी श्री मेघ विजयजी
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आपकी ग्रंथरचना व पुस्तकोंके नाम. १ अर्हद्गीता. भगवद्गीता अथवा तत्वगीता. १४ वर्ष प्रबोध. २ युक्तिप्रबोध.
१५ मध्यम व्याकरणम् (३५०० श्लोकममित) ३ लघुत्रिषष्टी चरित्रं ( अमुद्रित.)
१६ लघुव्याकरण. ४ हेम कौमुदी (चंद्रप्रभा)व्याकरण. ५ श्री शान्तिनाथ चरित्रं.
१७ थावच कुमार खाध्याय.
१८ श्रीमंधरखामिस्तवनम्. ६ मेघदुत समस्यापादपूर्ति. ७ देवानन्दाभ्युदर्य माघकाव्य समस्यारूपं श्रीविजय
१९ पर्वलेखा. देव माहात्म्य विवरणम्.
२० पार्श्वनाथ नामावली, गुर्जरगिरागुंफिता. ८ शंखेश्वर प्रभुस्तवन
२१ भक्तामर टीका. ९ श्री विजयसेन सूरी दिगविजय काव्य.
२२ उदयदीपिका. १० मातृकाप्रसाद ॐ नमः सिद्धका वर्णमरूप. २३ राणवंश इतिहास ११ संप्तसंधान महाकाव्यम् श्रीऋषभदेव शान्ति नेमी, |
२४ भूविश्वेत्यादि काव्यविवरणम् पार्थ, वीर, कृष्ण, रामचंद्रका वर्णन है.
२५ रावणपार्श्वनाथाष्टकम्. १२ हस्त संजीवनी स्वोपज्ञ वृत्ति
२६ विंशती यंत्रविधि (पद्मावतीकी बताई हुई.) १३ ब्रह्मबोध.
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२७ पंचार्थी स्तव आचार्यनामगर्भित.
| ३१ अर्जुन पताका. २८ जैन रमल शास्त्र
३२ भाषा चौविशी. २९ पंचाख्यान.
३३ विजय पताका. ३० पंचमीकथा.
| ३४ धर्ममंजुषा. (मूर्तिपूजा सिद्ध) पांचहजारसे भी अधिक धन खर्च करके जिस गहरे परिश्रमसे और अनेकों खुशामदोंसे अहद्गीता टीका और भाष्यादि ग्रंथ हमें प्राप्त हुवे हैं. यदि पाठकोंने इन्हें स्वीकृत किये तो हमारा श्रम अवश्य सफल होगा.
गीताकी एक कॉपी टीका भाष्यकेसाथ जिसमें "अहद्गीता" ऐसा नाम लिखाहै, और दूसरी मूळ कॉपि |जिसमें "भगवद्गीता" ऐसा नाम लिखा है, तथा तीसरी कॉपि जिसमें तत्वगीता ऐसा नाम लिखाहै. हम यह तीनोंही | नाम पाठकोंके समक्ष इसलिये रख रहे हैं कि इनमेंसे जोभी नाम आपमहानुभावोंको पसंद हो, उसकी हमें अवश्य सूचनादें ताकि हम अगली आवृत्तीमें वही नाम रखसकें! हम अपने इस उत्तर दायित्वपूर्ण कृतकार्यमें कहांतक सफल हुवे है इसका निर्णय विज्ञपाठकोंपरही निर्भरहै। प्रेसकें भूतोंकी कृपासे यदि कहीं शुद्धाशुद्धीका नियम भंग हुवा होतो विज्ञ उसे सुधारकर पढ़ें। यह अहंद्गीता विज्ञ समाजमें एक नई लहर पैदा करदेगी. यदि पाठकोंने इसे अपनायातो ऐसी आशा है ।
निवेदन एस्. के. कोटेचा जैन. मु. धूलिया [जि. प. खानदेश.]
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अध्याय
श्री अर्हद्गीता सरस्वती सदा भूया-दाहती शाश्वती श्रिये ॥ पूर्णाप्रभातसञ्जात-प्रभेवेन्दुविवस्वतोः ॥ १ ॥ यस्यां नैकान्त जडता।नोष्मता न तमोलवः॥निर्दोषां सुप्रकाशाङ्गीं-स्तुमस्तामाईती गिरम् ॥ २॥ मेघगम्भीरघोषत्वा-यदीयाऽव्यक्तवर्णता ॥ गीतारंभ इवाऽन्वर्थ-दर्शने स्पष्टवर्णता ॥ ३ ॥ साध्यक्षा श्रुतदेवीवा-ऽनुयोगाङ्ग चतुर्भुजा ॥ आत्मानुशासनाद् ब्राह्मी । संविदे हंसगामिनी ॥ ४ ॥ बृहत्त्वाद् ब्रह्म सद्ज्ञानं । तद् ब्रह्माऽर्हति केवलम् ॥परेब्रह्मणि निर्माय । शिवे सिद्धे स्वरूपतः॥ ५ ॥ ब्रह्मास्मिन्निति जीवोपि । ब्रह्मात्मैव तदाश्रयात् ॥ वन्हेराश्रयतोङ्गारो । वन्हि मण्डलमंशुमान् ॥ ६ ॥ ब्रह्मणाज्ञायमानोर्थः । सर्वो ब्रह्माऽभिधीयते ॥ तत्तद्विषयिणः शुद्धे-विषयेऽध्यवसायतः ॥ ७ ॥ सुधेयमिति चिन्तायां । गोचरः सलिलं सुधा॥राजवाग विषयोऽप्यर्थो । राजवागीयमच्यते ॥८॥ वस्तुयत्कर्मविषय-स्तत्कर्मार्चादिकंस्फुटम् ॥ व्यापारविषये भावे। व्यापारोयमितिस्थितिः ॥ ९ ॥ ब्रह्मणो विषयादेवं यत्सत्तब्रह्म निश्चितम् ॥ जीवोपि ब्रह्मशुद्धस्य । तस्य ब्रह्मपदं शिवम् ॥१०॥
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अध्याय
जीवन्मुक्तोपिसर्वज्ञः । प्रास्तदोषः सुसम्वृतः॥ ब्रह्मचर्यपरः साक्षा-त्परब्रह्मतयोच्यते ॥ ११॥ लोकालोकोप्यनन्तत्वा-दृहणोब्रह्मनामभृत् ॥ तद्ज्ञानमपिसद्ब्रह्म। ह्यग्निशमनुजेऽग्निवत् ॥१२॥ स्त्रियांस्त्रीवाचकोग्रामः ग्रामाख्याग्रामवासिनी ॥ नष्टोग्रामोगतोग्राम-इत्याद्याश्रयलक्षणात् ॥ १३ ॥ ज्ञाताज्ञेयं तथाब्रह्म । ब्रह्मत्रयमपि स्मृतं ॥ श्रेष्ठत्वात्परमं ब्रह्म-सिद्धोर्हन्नातकेवलः ॥ १४ ॥ तदुक्तार्थनुसारेण । सूत्रंतद्गीतमुच्यते ॥ तस्यैवार्थस्तुभाष्यादि-र्गीतार्थतद्विदाम्बरः ॥१५॥ गीतार्थमननात्पूज्यः श्रीगीतार्थोपि सूरिवत् ॥ अतः प्रथमतोगीता-भ्यास एव विधीयताम् ॥ १६ ॥ ___ ॐ अस्यश्रीअर्हगीताख्यपरमागमबीजमंत्ररूपस्य सकलशास्त्ररहस्यभूतस्य श्री गौतमऋषिः अनुष्टुपछंदः श्रीसर्वज्ञोजिनः परमात्मा देवता 'प्राप्रेपिनुभवेयत्नः कार्यःप्राणभृतातथा इतिबीजं येनात्मात्मन्यवस्थाता तद्वैराग्यं प्रशस्यते इतिशक्तिः अमक्कोपि क्रमान्मक्तो निश्चयास्यादनिच्छया इतिकीलकं । अनि विषयासक्तो-प्याध्यामिकशिरोमाणः इत्यंगुष्ठाभ्यां नमः । यतिर्योगी ब्राह्मणोवाऽपीच्छावानात्मबोधकः । * इतितर्जनीभ्यांनमः । आध्यात्मिकं तारतम्यमिच्छाबिजयतः क्रमात् इतिमध्यमाभ्यांनमः ।अज्ञान मोहमेवाहु ।
स्तस्मादिच्छाततोभवः इत्यनामिकाभ्यांनमः । इच्छया निच्छयापिस्या-त्कियैकापिस्वरूपतः इतिकनिष्टिका
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अध्याय
भ्यानमः । मुख्यैव कर्मबंधाय निर्जरायै परापुनः इतिकरतलकरपृष्ठाभ्यांनमः । आनिच्छु विषयासक्त इतिहृदयायनमः । यतियोंगी ब्राह्मणोवा इतिशिरसेस्वाहा । आध्यात्मिकं तारतम्यं इतिशिखायै वषट् । अज्ञानमोहमेवाहुः इतिकवचायहूं इच्छयानिच्छयापिस्यात् इतिज्ञानादिनेत्रत्रयायसंवौषट् । मुख्यैवकर्मबंधाय
इतिअस्त्रायफट् । श्रीजिनेश्वरप्रीत्यर्थं जपे विनियोगः। e श्रीवीरेण विबोधिता भगवता श्रीगौतमायस्वयं । सूत्रेणग्रथितेन्द्रभूतिमुनिना साद्वादशांग्यांपराम् ॥ PM अद्वैतामृतवषिणीभगवतीं षट् त्रिंशदध्यायिनीं । मातस्त्वां मनसा दधामिभगवद्गीतेभवोषिणीम् ॥ १॥
इतिपरसमयमार्गपद्धत्या शास्त्रप्रज्ञा श्रुतदेवतावतारः॥
* ॐ हीं श्री अहं नमः अर्हन्तं श्रमणं वीरं भगवन्तं नमन्जगौ । तस्मिन् कालेऽथसमये 'चंपायां' गौतमोगणी ॥ १ ॥
श्री गौतम उवाच देवाधिदेव भगवन् लोकालोकप्रकाशकः । योगिनोऽपि मनोवश्यं जायते तद्वदाधुना ॥ २॥
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अध्याये
१
द
य
+ श्री भगवानुवाच
प्राप्तेपि नृभवे यत्नः । कार्यः प्राणभृता तथा ॥ परमेष्टिपदं येन लभ्यतेऽत्राऽपुनर्भवं ॥ ३ ॥ हेतुस्तस्य पुनर्ज्ञानं । वैराग्यजनकं क्रमात् ॥ तद्ज्ञानंप्रथमंगीता -भ्याससाध्यं पशोरपि ॥ ४ ॥ मनोदमनकृद्गीता -भ्यासोहि शिवसाधनम् ॥ इच्छाविनाशाद्द्रव्याणां पर्यायपरिभावनैः ॥ ५ ॥ जायते पवनाभ्यासा — जाड्य मैहिकसिद्धये ॥ देवाः सागरसंख्यान - रानपानैर्नमुक्तिगाः ॥ ६ ॥ सूक्ष्माः स्युः प्राणसंचारा-स्तर्थे केन्द्रियदेहीनाम् ॥ बाह्यस्तु तेषांपवना -भ्यासएव न केवलः ॥ ७ ॥ तथापिनकथामुक्ते— रेषांपुद्गलसंग्रहात् በ भयाहारादिसंज्ञाभिः स्थावराणांभवभ्रमः ॥ ८ ॥ भवेद्ज्ञानान्मनोऽनिच्छं । भावोऽनित्यादिभावनात् । शिवायशाश्वतोध्येयः स्वभावः परमात्मनः ॥ ९ ॥ इदमाध्यात्मिकंतत्वं । परमैश्वर्यलक्षणम् ॥ पन्थामृत्युंजयस्यायं । शिवस्यावश्यमात्मनाम् ॥ १० ॥ तावान्कषायविषय-हेतुर्यस्य परिग्रहः ॥ तस्यापिभरतस्याऽभू-स्कैवल्य मात्मभावनात् ॥ ११ ॥ येनात्मात्मन्यवस्थाता । तद्वैराग्यंप्रशस्यते ॥ आत्मैव ह्यात्मनावेद्यो । ज्ञानात् शिवमयोऽव्ययः ॥ १२ ॥
भ
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अध्याय
अज्ञानास्केचन प्राहु-मुक्तिकेचित्तपोबलात् ॥ भजनात्केवलात्केचि-द्वयंचाध्यात्मभावनात् ॥ १३ ॥ शास्त्रानुबादादध्यात्म । कथनान्नात्मभावनम् ॥ नेच्छाद्युपरमोयाव-त्तावन्नाध्यात्मिकोजनः ॥ १४ ॥ अनिच्छुर्विषयाऽसक्तो-प्याध्यात्मिकशिरोमणिः॥यतिर्योगीब्राह्मणोवा-पीच्छावान्नात्मबोधकः ॥ १५ ॥ आध्यात्मिकं तारतम्य-मिच्छाबिजयत:क्रमात् ।। गुणस्थानानि तेनैव । प्रोचुरूच्चावचान्यपि ॥ १६ ॥ अमुक्तोपिक्रमान्मुक्तो। निश्चयात्स्यादनिच्छया ॥ अज्ञानं मोहमेवाहू-स्तस्मादिच्छाततोभवः ॥ १७ ॥ इच्छयानिच्छयापिस्यात् । क्रियैकापिस्वरूपतः ॥ मुख्यैवकर्मबंधाय । निर्जरायै परापुनः ॥ १८ ॥ कैवल्यायात्मनोज्ञानं । ध्यानं वस्तुविरागता ॥ भवायानात्मनोज्ञानं । ध्यानं वस्तुविरागता ॥ १९ ॥ आध्यात्मिकोविरक्तःस्या-त्तदेवाध्यात्मलक्षणम् ॥ कषायविषयैर्बान्तिः । स्यादध्यात्मसुधारसे ॥२०॥ औदासीन्यात्प्रवृत्तिःस्याद् । ज्ञानिनोनिर्जरास्पदम्॥ तत्वज्ञानादतोमुक्तिं । जगुर्नैयायिका:जिनाः ॥ २१ ॥
॥ इतिअर्हद्गीतायांप्रथमोऽध्यायः॥१॥
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अध्याय
॥श्री गौतमउवाच ॥ ऐन्द्रज्योतिर्जगज्येष्टं । श्रेष्टंकेवलमुज्वलम् ॥ सिद्धमाहत्यमाविभ्रत् । कथंतप्रकटीभवेत् ॥ १ ॥
॥श्री भगवानुवाच ॥ परमैश्वर्यभागिन्द्रः शान्तंकान्तंचतन्महः ॥ ज्ञानलक्षणमाम्नातं । ख्यातं धर्मपदेन तत् ॥ २ ॥ ज्ञानधर्मस्तस्यधर्मी । परमात्मेतिगीयते ॥ मोहरूपाऽज्ञानमुक्तः । ऐन्द्रज्योतिः स्फुटंभवेत् ॥ ३ ॥ इन्द्रआत्मातदन्वेष्टा । श्रवणान्मननाद्गुरोः ॥ ध्यानेन साक्षात्कारेण । सहिश्रावकउच्यते ॥ ४ ॥ यचिन्हमिन्द्रियंलोके । ज्ञेयातेनेन्द्रतात्मनि ॥ तज्ज्योतिश्चेतप्रसन्नंस्या-नश्येत्तर्हितमोभरः ॥ ५ ॥ ऐन्द्रज्योतिर्नतास्त्विन्द्राः । शकचक्रभृतोऽधिपाः ॥ इन्द्रानुजार्कचंद्राद्याः । मणयोजगदम्बुधौ ॥ ६ ॥ जीवयोनिषु मानुष्यं । मुख्यं तत्र सुबोधिता ॥ तत्रापि केवलं ज्ञानं । तद्वित्तं परमर्हति ॥ ७ ॥ क्षणिक विद्युतस्तेजो । दीपेमौहूर्तिकं च तत् ॥ घस्त्रेदेवसिकं विष्णो रात्रिकं पाक्षिकं विधौ ॥ ८ ॥ अयनं तु सहस्त्रांशौ। भूषणे वार्षिकं महः ॥ इच्छामलविनिर्मुक्तं । ऐन्द्रज्योतिस्तु शाश्वतम् ॥ ९ ॥ ऐन्द्रमेवातरं चक्षु-आनंजतोः समुन्मिषेत् ॥ तदासचक्षुष्माबिश्वं पश्येदात्मसमं शमी ॥ १०॥
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अध्याय
दीपः प्रकाशयेद्हं । मण्डलं रविमण्डलम् ॥ ऐन्द्रज्योतिर्जगत्पूज्यं । लोकालोकप्रकाशकम् ॥ ११ ॥ द्रव्यप्रकाशात्सूर्यादे-र्यत्तमोनविलीयते ॥ तदज्ञानभानुनानाश्यं । धर्माचरणकारिणा ॥१२॥ येनाचारेण यावत्स्याद् । ज्ञानिनो मोहवर्जनम् ॥ तावान् धर्मोदयस्तत्र। गतिस्तदनुसारिणी ॥१३॥ स्वल्योपि धर्मसंसिद्धो । सौवयं कुरुतेऽयसः ॥ भावितो विविधैर्भावे-निधर्मस्तथांगिनः ॥ १४ ॥ महान्मोहोदयोयस्मि-नाचारधर्मतानवम् ॥ त्याज्य: सधर्माचारोपि । शक्तेनारोहकर्मणि ॥ १५॥ जानाति सर्वं ज्ञानेन । सम्यग्दृष्टिस्ततोभवेत् ॥ विरमेत्पातकाजीवो । मोहोदयविधायिनः ॥ १६ ॥ तत्पूर्वं ज्ञानमादेयं । हेयोपादेयगोचरम् ॥ चक्षुर्जन्मनि बालोपि । पूर्वमुन्मीलयेद्यतः ॥१७॥ विद्याभ्यासस्तत: पूर्व जनैर्वालस्य कार्यते ॥ कार्ये कार्यः पुरोदीपो-रात्रौज्ञानं पुरस्तथा ॥१८॥ पठनान्नोच्यते ज्ञानी। यावत्तत्वंनबिन्दति ॥ रामनामशुकोजल्पन् । नतैरश्च्यः तदर्थवित् ॥ १९ ॥ तृष्णांकषायविषय-विषयान्यस्त्यजेज्जनः ॥ ज्ञानी धर्मी विवेकी स । मुत्तों धुतस्ततोऽपरः ॥२०॥ आजीविकायै शास्त्रज्ञाः केपिवैराग्यशालिनः ॥ सम्यग्ज्ञानधनानते । योऽनिच्छुःपूज्य एव सः ॥२१॥
॥ इतिअर्हद्गीतायांद्वितीयोऽध्यायः॥२॥
BHARRRRRRRRRRRRIYAR
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अध्याय
३
श्री गौतमउवाच ऐन्द्रज्योतिः कथंसाक्षा-नेक्षते तपनादिवत् ॥ कथंतदव्ययं नाथ ॥ ततःस्यात्कीदृशं फलम् ॥१॥
8 श्री भगवानुवाच - ज्योतिश्चान्द्रविषयभूः । सौरंतेजः कषायभूः ॥ आभ्यांयत्परमज्येति-स्तदैन्द्रंपरिभाव्यते ॥ २ ॥ यत्प्रसादेन विषये। व्याप्तावपि न लिप्यते ॥ पवित्रमिन्द्रेतज्ज्योतिः । शंखेश्वर इवोन्नतम् ॥ ३ ॥ राज्ञस्तेजोर्कवत्साक्षा-नैवनैशतमोपहम् ॥ तथापि दीपयेन्न्याय-धर्ममिन्द्रमहस्तथा ॥ ४ ॥ सेविताएवसंशुध्यै । विषयानंदिषेणवत् ॥ क्षारमृन्मेलनात् किंस्या-सयः शुद्धं न चीवरः ॥ ५ ॥ देवतामिवनिसेवतां-विषेनोन्मितंविषयजंसुखंसुधीः॥चित्तधैर्यविधयेति किंजनोनाहिफेनमपिकार्यसाधनम्॥६ सेवितेनबिषयेन दुर्लभा।प्राप्यतेयदिविरागजासभा॥ नागरे पथि यतः शिवंभवे-चौरएवसहिपौरपुंगवः॥७॥ ऐन्द्रज्योति:प्रभावेन । विकटापि तमोघटाः ॥ दिगमोहनमनाक्कुर्यात् । तदेवसमुपास्यते ॥ ८॥ ज्ञानाहानंतपः शीलं । पूजाध्यानंचभावना ॥ क्षणान्मोक्षफलं दत्ते । नामृतं ज्ञानतः परम् ॥ ९ ॥ पथ्यं विनापि भैषज्यं । निरुज्यं कुरुते जने ॥ तथाज्ञानं विनाकष्टं । स्पष्टं निष्टंकयेच्छिवम् ॥ १०॥
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अध्याय
विनाज्ञानं न दानादि-रवदातक्रिया मनाक् ॥ फलंकिञ्चनसंधत्ते । प्रत्युतानर्थसंभवः ॥११॥ ज्ञानचक्षुः स्वतो जंतो । मार्गामार्गविवेचनात् ॥ विश्वप्रकाशात् सहस्त्रः। सहस्त्रांशूदयायते ॥ १२ ॥ धौव्यभावनयाद्रव्ये । धूवनिष्टं धूवंस्वतः ॥ निर्मलं केवलं ज्ञानं । दत्तेशिवं भ्रूवं फलम् ॥ १३ ॥ यथाञ्जनादिनाचक्षु । नैर्मल्यंलभतेञ्जसा ॥ लोकभावनया ज्ञानं । तथाभवति शाश्वतम् ॥ १४ ॥ विद्यमाने यथाभानौ । नग्रहे रुचिरारुचिः ॥ सम्यग्ज्ञानोदयेतद्व-त्परिग्रहरुचिःक्वचित् ॥ १५ ॥ कान्तारागमिवाऽसेव्यं । कांतारागं समन्यते ॥ दुःख कञ्चकिसंसर्ग । मत्वातत्वाशयःपुमान् ॥ १६ ॥ संयोगान्सकलान्दत्त । विप्रयोगान्विमर्शयन् ॥ पुर्वमेववियोगार्थी । यति यतिविद्विषः ॥ १७ ॥ वैभवं वैभवंचित्ते । चितयन्सुकृतैकदृक् ॥ भोगानिव भुजङ्गानां । भोगान् स दूरतस्त्यजेत् ॥ १८ ॥ निर्विक्रियाःक्रियाः कुर्व-नशुभध्यानरोधिकाः ॥ ज्ञानवाननुतेलीलाः । शिववासेनरोधिकाः ॥ १९ ॥ अनंतमव्ययं भास्वत् । स्वतोजातमहोदयम् ॥ ऐन्द्रज्योतिर्जनमभ्रं । भ्राजतां शुचिसौरवत् ॥ २० ॥ अनालंम्बमनाछाद्यं । नमूर्त्तव्याप्तमञ्जसा ॥ तेजोऽनन्तमिवानन्त-मैन्द्रंजयतुभास्वरम् ॥ २१ ॥
॥ इतिअर्हद्गीतायांतृतीयोऽध्यायः ॥३॥
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ऐन्दव्यपि कलावृद्धिं । लभतेऽनुक्रमाद्यथा ॥ तथेहतत्वविद्यापि । ज्ञानिनां बाह्यहेतुभिः ॥१॥ अज्ञानहेतवः सर्वे-प्यधर्मा विषयायथा ॥ तथा धर्मोज्ञानबीजं । दयादानादिकाःक्रियाः ॥ २॥ आयुघृतं यशस्त्यागः । कार्यकारणयोगतः ॥ पूजाध्ययनदीक्षादि-र्धमसाध्याय साध्यते ॥३॥ स्वाध्यायः स्याद्गुरूपास्ते । शास्त्रध्ययनवाचनैः ॥ हेयोपादेयबोधोऽस्मा-ततःकैवल्यसंपदः ॥ ४ ॥ सुदृष्टपरमार्थानां । जंगमस्थावरात्मनाम् ॥ सेवायात्रादिभिः कार्ये । निर्मले ज्ञानदर्शने ॥ ५ ॥ युक्ताहारविहाराद्यैः । समितीनांप्रवर्तनः ॥ निवर्त्तनैः कषायादे-र्ज्ञानाच्चरणमद्भुतम् ॥ ६ ॥ ज्ञानदर्शनचारित्र-योगाद्धर्मस्फुटंभवेत् ॥ शैवः पंथाअयंसेव्य-स्सम्यक्तत्वविमर्शिना ॥ ७ ॥ दानान्निदानल्लक्ष्मीणां । दानावरणसंक्षयः ॥ येनविश्वप्रबोधार्थ । दातात्माजायतेस्वतः ॥ ८ ॥ वेयावृत्त्येऽन्नपानाद्यै-गुरुचैत्यादिषुध्रुवम् ॥ आत्मनोजायतेसर्व-लाभभोगावृत्तिक्षयः ॥ ९ ॥ तेनसर्वार्थबोधस्य । लाभश्चानंन्दभोगयुक् ॥ अनन्तःस्याद्यथाबीजं । फललाभोविनिश्चयात् ॥१०॥ तथोपभोगबीर्यादेः । सर्वथावरणक्षयः ॥ बीर्याचारात्तपस्यादौ । तेनस्याज्जगदर्चनम् ॥११॥ छत्रचामरपुष्पाद्यैः । पुजासननिवेशनम् ॥ पादपेम्बुजन्यासा-दिकंचजिनपुजनात् ॥१२॥
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अध्याय
धर्मेऽधिकेऽधिकोधर्म-स्तथाऽधर्मोप्यधर्मतः ॥ कारणानुगतं कार्यं दृष्टतन्न्यायवेदिभिः ॥ १३॥ भवेस्याद्विभवोदाना—दनंतज्ञानताशिवे ॥ शीलाद्रुपंवलंपुर्वे । परेचानंन्तवीर्यता ॥१४॥ आरोग्यंतपसादेहे---ऽप्यदेहेऽकर्मलितता ॥ सुखं सांसारिकंभावा-द्भवेसिद्धेस्वभावजम् ॥१५॥ जिनादेर्नमनान्नम्यः । सेव्यः सेवनयाभवेत्॥पूज्यः पूजनयाध्येयो। ध्यानादात्माऽनयादिशा ॥ १६ ॥ ज्ञानदानेऽक्षयंज्ञानं । सुदृष्टिदृढदर्शनात् ॥ प्राणातिपाताद्विरते-रेवसिद्धेऽक्षयस्थितिः ॥१७॥ अधर्मकारणं त्याज्यं । यथामोक्षार्थिना तथा ॥ ग्राह्योज्ञानमयोधर्मः । शर्मस्यात्शाश्वतंयतः ॥१८॥ संवरः स्यादाश्रवोपि । संवरोप्याश्रवायते ॥ ज्ञानाज्ञानफलं चैत-मिथ्यासम्यक्श्रुतादिवत् ॥ १९ ॥ चित्रसारथिनामाया । कोपोगाणविनिग्रहे ॥ मानः पराऽनतेईस्य । मुनेःपात्रादिसंग्रहः ॥ २० ॥ विषमप्यमृतंज्ञाना-दज्ञानादमृतं विषम् ॥ इत्येवंसाधनैःसाध्यो-ज्ञानधर्मोऽस्तिनिश्चयात् ॥ २१ ॥ ॥ इतिअर्हद्गीतायांचतुर्थोध्यायः॥४॥
BER
११
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अध्याय
श्री गौतमउवाच ऐन्द्रस्वरूपंभगवन् । स्तवैवाध्यक्षमीक्ष्यते ॥ दर्शयप्रत्ययंधम्यं । यतस्तत्रोद्यमीनरः ॥१॥
श्री भगवानुवाच ज्योति:शास्त्रप्रत्ययोहि । यथैव ग्रहणादिना ।। तथाधर्मस्यवन्ह्यादे-दिव्येऽस्तिप्रत्ययःस्फुटः ॥ २ ॥ कुमारीवाकुमारः स्या । त्करावतरणादिषु ॥ प्रयोज्य:शकुनादौवा । सएषशीलनिश्चयः ॥ ३ ॥ देवपूजा तीर्थयात्रा । स्वप्नः शुभफलस्तथा ॥ साधोदर्शनवाक्यादिः । शुभःसद्धर्मनिश्चयः ॥ ४ ॥ जन्मपत्रग्रहधर्म-प्रत्ययः क्रियतांजनैः ॥ दातु:पुजयितुर्यद्वा-दुष्टस्याप्यशुभैःशुभैः ॥ ५ हिंस्रोवाऽनृतवाक्चौर-स्तथैवपारदारिकः ॥ दुष्टोतिलोभीनक्कापि । धर्मस्यप्रत्ययस्त्वयम् ॥ ६ ॥ दातुर्दयाभृतः सत्य-वाच:स्त्रीविरतस्यवा ॥ भगवद्भक्तिभाजोवा । लोकलाचैवनिश्चयः ॥ ७ ॥ यथैवबातपित्तादि-विक्रियानाडिकाविधेः ॥ ज्ञेयामनोविधेस्तद्वत् । धर्मस्याऽन्यस्यवास्थितिः ॥ ८॥ शान्तंज्योतिस्तदैवेन्द्रं । भासतेभगवत्यहो ॥ चराचरमयेलोके । सर्वस्यापिसुखावहम् ॥ ९ ॥ निश्चितःसर्वशास्त्रेषु । दयादानदमादिकः ॥ धर्मविधिविधेयोय-मस्मात्क: प्रत्ययःपरः ॥१०॥
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अध्याय
तपसि स्वात्मपीडा स्यात् । परपीडार्चनादिषु ॥ तथापि जगतिश्लाघा । पावित्र्यं धर्मनिश्चयात्॥११॥ शुंगाराद्यैःरसै:स्पष्टै-रष्टधापि प्रदीपितैः ॥ शान्तनामाहि नवमो। रस:साध्यःक्रमाद्भुवः ॥१२॥ इत्येभिःप्रत्ययैर्यस्यः । मनोनधर्मकामनम् ॥ उच्छृखलः शृंखलकं । तस्यनैवास्तिदामनम् ॥ १३॥ शुद्धबंशभवे धर्मे । गुणारोहोपिचार्हति ॥ यदाश्रयान्मार्गणेऽस्य । प्रत्ययोलक्ष्यलाभतः ॥ १४ ॥ आशिषःस्युश्चिरं जीवे-त्याद्यादातरि सजने ॥ शीलात्स्त्रीकष्टमोक्षादि-स्तपसाऽपात्रपात्रताम् ॥ १५॥ दप्तिज्योतिर्भवेन्मोहात् । शान्तंज्ञानमयात्मनः ॥ दीप्तादुन्मार्गगमनं । शांताद्धमान स्फुरन्तु विविधाचारा-श्चाराइवमहीभुजः॥शास्त्राभ्यासेति चतुरा। न्याय्याधर्येव तक्रिया ॥ १७ ॥ धर्मादेवजयःपापात् । क्षयोलोकोक्तिरीदृशी ॥ धर्मस्तयैवप्रत्येय-स्तत्रविप्रतिदर्शनम् ॥१८॥ मायाचरित्रेचतुरो-प्युच्यते शठएव सः ॥ चौरोमालम्लुचःस्नातो-प्ययंधर्मस्य निर्णयः ॥ १९ ॥ ख्यातमाबालगोपालं । विरोधे समुपस्थिते ॥ जनैविवेकीप्रष्टव्यः । प्राप्यायेनगतिः शुभा ॥ २० ॥ विशुद्धबुद्धिर्बालोपि । वृद्धोवृद्धः प्रपूज्यते ॥ ज्ञानधर्मोदयादत्र । शालिवाहनिदर्शनम् ॥ २१ ॥
॥ इतिअर्हद्गीतायांपंचमोध्यायः॥५॥
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श्री गौतमउवाच ऐश्वर्येण धनुर्वेदे । ज्योतिःशास्त्रेपिगारुडे ॥ आयुर्वेदे शाकुनेवा । कथं धर्म प्रधानता ॥ १ ॥
श्री भगवानुवाच * सर्वशास्त्रोदिते यत्ने । फलंदैवानुसारतः ॥ तदनुगुण्यं धर्मेण । तद्वैगुण्यविपर्ययात् ॥ २ ॥ छात्रःपात्राधयापाठ्य-मानोपि विदुषांमुखात् एकोनारदवज्ञाता-ऽज्ञातापर्वतवत्परः ॥३॥ शुभाशुभफलंचैत-चेतसासुविमृश्यताम् ॥ तुल्यपि साधने हेतुं । विनाभेदः फलेकुतः ॥ ४ ॥ यथासर्वेषुवृक्षेषु । जलमेकं पयोमुचः । नानारसान् जनयति । धर्मः प्राणिगणे तथा ॥५॥ धर्माधर्ममयोलोक-स्तत्रापि धर्ममुख्यता ॥ जीवाजीवमये देहे । जीवस्यैवास्ति तत्वतः ॥ ६ ॥ काले यथैव त्रैविध्य-मपचारेण गीयते ॥ ज्ञानधर्मेतथैकस्मिन । भेदत्रयमदाहतम् ॥७॥ मननाद्वस्तुनो ज्ञानं । श्रद्धानादर्शनंपुनः ॥ विरत्याचरणंतत्वा-दुपयोगैक्यमाहितम् ॥ ८॥ धर्मपुंसो मुखं ज्ञानं । हृदयं दर्शनं स्मृतम् । शेषांगानि पाणिपाद-मुख्यानि चरणं परम् ॥ ९ ॥ धर्मस्यान्होमुखं ज्ञानं । मध्यान्हस्तस्य दर्शनम् ॥ व्यापारसंवृत्तेः संध्या । योगश्चरणमुच्यते ॥ १० ॥
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अध्याय
धर्माकाशेशुमान् ज्ञानं । दर्शनंचामृतद्युतिः ॥ परेग्रहाःमंगलाद्याः । पंचचारित्रपंचकम् ॥ ११ ॥ वाल्यं ज्ञानं वयस्तस्मा-पुरोदर्शनमुद्यतम् । चारित्रविज्ञताधर्मे-ऽवस्थात्रयमिदं शुभम् ॥ १२ ॥ धर्मस्यादिःस्मृतं ज्ञानं । सम्यकत्वंमध्यमुच्यते ॥ चारित्रमवसानोऽस्य। तत्रैकैवोपयुक्तता ॥ १३ बोधो बीजं तथा मूलं । सम्यक्त्वंदृढतायतः ॥ चारित्रपंचकंशाखा । फलंधर्मतरोःशिवम् ॥ १४ ॥ वातं विजयतेज्ञानं । दर्शनं पित्तवारणम् । कफनाशाय चरणं । धर्मस्तेनामृतायते ॥ १५ ॥ दक्षिणांगं भवेद्ज्ञानं । वामांगंभक्तिभाजनम् ॥ मध्यभागस्ति चारित्रं । धर्मदेहस्य साधनम् ॥ १६ ॥ ज्ञानपुस्त्वं पुनःस्त्रीत्वं । भक्त्यादशनवृद्धये ॥ तदंगजन्माचारित्रा-चार:स्यादुभयात्तमः ॥१७॥ ज्ञानं स्यादेकबचने-द्वित्वेपिज्ञानदर्शने ॥ ज्ञानदर्शनचारित्रै-धर्माऽस्ति बचनत्रयी ॥१८॥ उर्ध्वलोके स्थितं ज्ञान–मधोलोकेच दर्शनम् ॥ चारित्रं मध्य लोकस्थं । धर्मस्थं भुवनत्रयम् ॥ १९ ॥ संध्याभक्तिर्दिनं ज्ञानं । यामिनी चरणं स्मृतम् ॥ धर्मध्यानादृतेसर्व-व्यापारभरसंवरात् ॥ २० ॥ एवंत्रिधाबस्तुगते। तंभविने निदर्शितम् ॥ रत्नत्रयंतत्वतोपि स्यादेकंतदनेकभूः ॥२१॥
॥ इतिअर्हद्गीतायांपष्टोऽध्यायः ॥ ६॥
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अध्याय
७
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श्री गौतम उवाच
I
ऐहिक मुष्मिकफलं । यथाज्योतिर्विदोजनाः ॥ जानन्तितदज्ञानधर्म - मार्गाद्वेद्यं कथंप्रभो ॥ १ ॥ ॐ श्री भगवानुवाच अतिचारोऽथवत्वं । ज्योतिर्विद्भिर्निषिध्यते ॥ मार्गएवंग्रहात्साध्य - स्तथैवधामिकैरपि ॥ २ ॥ स्पष्टीभूतेयथाभानौ । ज्योतिर्मागप्रकाशनम् ॥ तथाज्ञानधर्मसूर्ये । सम्यग्मार्गनिरीक्षणम् ॥ ३ ॥ ज्ञानमेव सहस्त्रांशु । हृदिब्रह्मामृतंपरम् ॥ ज्योतिःशास्त्रेपितेनैव । यथार्थमननंभवेत् ॥ ॥ ज्ञानंदुग्धंदद्धिश्रद्धा । घृतंतच्चरणंस्मृतम् ॥ गुरोर्गव्यमिदंधर्म्यं । धार्यचानन्तवीर्यदम् ॥ ५ ॥ ज्ञानार्थं गुरवः सेव्या । देवा दर्शनपुष्टये ॥ वस्त्रपात्रं चरित्राय । धर्मस्तत्वत्रयीमयः ॥ 11 संशोध्यतपनात्कृत्वा । व्रताज्यमकषायकम् ॥ अजरामरतालव्ध्यै निपीतममृतोपमम् ॥ ७ ॥ ज्योतिश्वयथाव्योनि । ज्ञानचकंतथाहृदि ॥ दिव्यंमनोभिधानंत-द्विश्वविश्वप्रकाशकम् ॥ ८ ॥ संसारचक्रात्संवृत्य | ब्रह्मण्याधीयते मनः ॥ प्रसन्नचन्द्रवतर्हि । सयकेवलमुद्भवेत् ॥ ९ ॥ संकल्पबातैरुल्लास्य-मानंस्यान्मनसः सरः ॥ कलुषंकिलतन्मध्य-मग्नकिञ्चिन्नवीक्ष्यते ॥ १० ॥
STAY
१६
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अध्याय
मनोमलविशुध्यै तत् । मुनिर्निर्दोषमाहरेत् ॥ पर्वण्युपोष्यशेषेन्हि । द्विवैकशोऽशनंशनैः ॥ ११ ॥ रागसंवर्धनं भूरि । विकृत्यादिविषादिकम् ॥ द्वेषकृन्मोहकृन्मद्यं । नाश्नीयाद्ज्ञानवान्मुनिः ॥१२॥ यथान्यचेतसोवृत्ते । ज्ञानायलग्नमक्ष्यिते ॥ चन्द्र स्वरूपमत्रापि । तथास्वमनसोप्यहो ॥ १३ ॥ चन्द्रराशिर्मनश्चक्रं । तिथयोवत्सरास्तथा ॥ तत्रिंशांशावादशांशा-न्मासापक्षस्तु होरया ॥ १४ ॥ नवग्रहाःनवांशेभ्यो। बाराःसप्तांशलाभतः ॥ भावाश्चराशिकुण्डल्यां। भाव्या:ग्रहबलोदयात् ॥ १५ ॥ चन्द्रविश्ववशाबिष्टाः। षट्त्रिंशद्वादशाथवा ॥ प्रतिद्रेष्काणमिन्दोस्यात् । नक्षत्रनवकंक्रमात् ॥ १६ ॥ आदौमध्येऽवसानेवा । ज्ञेयंभानां त्रयं त्रयं ॥ त्रयेप्यायंचरेच्चन्द्रे । द्वितीयंभंस्थिरेपुनः ॥ १७ ॥ द्विखभावेतृतीयंभ-मेवंनक्षत्रानिर्णयः ॥ प्रभुत्वान्मनसचेन्दो-रेवंगम्यामनोगतिः ॥१८॥ दुष्टायांमनसोगत्यां । ज्ञातायांनशुभांक्रियाम् ॥ कुर्याच्चीतुर्यवान्धीरः। श्रेष्टायां नाशुभांततः ॥ १९ ॥ अधर्मेचेत्प्रवर्तेत् । मन: स्वीयं पुनः पुनः ॥ तदाभाविमहदुःखं । मत्वातत्धारयेत्ततः ॥ २० ॥ धर्मेयस्यमनोवश्यं । वश्यंतस्यजगत्रयम् ॥ सेवापरवसा:देवाः भवेयुस्तद्भवप्यहो ॥ २१ ।।
॥ इतिअर्हद्गीतायांसप्तमोऽध्यायः॥ ७॥
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अध्याय
ऐन्द्रे प्रवहणे धर्मे । ज्ञानी मार्गप्रकाशकः ॥ निर्यामकस्तुचरणी । दर्शनी पारगः स्थिरः ॥ १ ॥ राग:कजलिकाद्वेषो-ऽनग्निस्थानंविमूर्छनाः ॥ मोहएतत्रयीनाशे पारदोगीसुसिद्धिभाक् ॥ २॥ ज्योतिर्ज्ञानं पुन: स्नेहः। श्रद्धावृत्तंतुवर्तिका ॥ जिनप्रवचने सोधे । धर्मदीप:प्रकाशताम् ॥ ३॥ पञ्चेन्द्रियाणि ज्ञानस्य । क्रियाया:पंचवस्तुतः ॥अनिन्द्रियस्य मनसः । श्रद्धाकार्याणि साधयेत् ॥ ४ ॥ लोकप्रतीता सर्वज्ञे । यथानेत्रत्रयीश्वरे ॥ खेष्टदानेश्वरस्यासौ । ज्ञानादिर्धर्मभूभुजः ॥ ५ ॥ विनारत्नत्रयं धयं । नैवालंकृतिता क्वचित् ॥ व्यसनाद्वारिते तस्मिन् । ध्रुवं दोर्गत्यवान्नरः ॥ ६ ॥ यानपात्रं सितपटः । विनाकस्तारयेजले ॥ तस्माद्भवजलोत्तारे । न्याय्यः सितपटादरः ॥ ७ ॥ ज्ञानं सूत्ररुचिश्चार्थो-नियुक्तिरुभयात्मकम् ॥ चरणंतत्रयेधर्म-शास्त्रंबोधाय देहिनाम् ॥ ८॥ धर्मो वृषभमूर्येव । श्रद्धेय श्राद्धरोचकैः ॥ पदैश्चतुर्भि:पूर्णोयं । नात्र किं सुकृतोदयः ॥ ९ ॥ देव:कृष्णो वराहास्यः । कल्कयित्राभिमन्यते ॥ विप्रयोगिगुरुत्वंच । धर्मसकलितोदितः ॥ १०॥ जातवेदःप्रतिष्टाने । भूसुराद्रितगौरवे ॥ मतिर्नावति हासादौ । रागीधर्मेणतत्रकः ॥ ११ ॥ यत्रास्तिबामनोदेवो । धर्मेनाम्नाजनार्दनः । गुरौचकण्ठमालास्मिन् । न्यायःपूज्य कालप्रियः ॥ १२ ॥
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अध्याय
देवोऽस्थिधन्वा पुरुषा-स्थिमाला यत्रभैरवः ॥ कापालिकाश्च गुरव-स्तद्धर्मे बातया शिवम् ॥ १३॥ देवो मायासुतस्तस्य । मायाराध्यैव बुध्यते ॥ मायाराधनतो ब्रह्म-मयो धर्म:श्रुतौमतः ॥१४॥ देवःश्रीनाभिभूःपूर्वो । वर्धमानस्तथान्तिमः ॥ अन्योप्यजितशान्त्याद्य-स्तत्रधर्मेशिवंदृढं ॥१५॥ क्षमाप्रधानागुरवः । सर्वांगज्ञानभाजनम् ॥ दक्षाःषडङ्गिरक्षायां । शिक्षायां सुगुरोस्तथा ॥ १६ ॥ धर्मस्यमलंविनयः । स्वरूपंनियमाः यमाः ॥ विस्तारः पंचधाचारः । फलं चास्यापनर्भवः ॥१७॥ धर्मध्यानान्मनःशौचं । वाक्शौचं सत्यनिश्चयात् ॥ दयाचरणतःकाय-शौचमालोचयेन्मुनिः ॥१८॥ शौचं चद्रव्यभावाभ्यां । यथार्हचाहतास्मृतम् ॥ अखाध्यायंनिगदता । दशधौदारिकोद्भवम् ॥ १९ ॥ कुदेवे कुत्सिता भक्तिः । कुज्ञानं कुगुरोर्भवेत् ॥ कुलिंगात् धर्मकुत्सैव । ज्ञेया श्रीधनपालवत् ॥ २०॥ उज्वलात्पक्षतःकृष्णे-पक्षेऽन्येयांतिधार्मिकाः॥आर्हताःकृष्णता शुक्ले। विशन्ति सुधियोन किं ॥ २१॥
॥ इतिअहंद्गीतायांअष्टमोऽध्यायः ॥ ८॥
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अध्याय
ऐन्द्रज्योतिः स्फुटं धर्मा-त्स्वरूपाध्यानतो भवेत् ॥ नित्यक्षयात्पुद्गलानां। जातेऽधतमसां क्षये ॥ १ ॥ नीचैःपुद्गलबाहुल्याम् । नरकादौतमोधनम् ॥ द्रव्यतोभावतोप्युचै-ज्योतिर्बाहुल्यतोंगिनाम् ॥ २ ॥ यथैवोच्चैर्गतिर्वन्हेः । प्रकाशात्मतया खतः ॥ तथात्मनोपि तद्धर्मा-दुच्चैर्गतिरवाप्यते ॥ ३ ॥ मोहात्पुद्गलसंयोगे । भवेज्जाड्यमयं तमः ॥ नीचैर्गतिस्ततोऽधर्मा-गौरवेनम्रताध्रुवम् ॥ ४ ॥ यादृशो ध्यायते येन । फलंमाप्येततादृशम् ॥ शुभयोगःशुभध्याना-दशुभध्यानतोऽशुभम् ॥ ५ ॥ वर्णादिःपुद्गलगुण-च्छायामायामयी ततः ॥ जनयत्यंगिनांमोहं । नमोहःसात्विकेमनाक् ॥ ६ ॥ यथा यथा त्यजेन्माया-मियं वश्या तथा तथा ॥ वणिजोदीक्षणेजाताः । संपदोपि पदेपदे ॥७॥ स्त्रीत्वान्मायास्ति वामांगी।योऽस्यावश्यः सदाशयः॥ त्यक्तातं दासवहरे। भोक्तारमपरं भजेत् ॥ ८॥ ज्ञानप्रधानतापुसः। भोगेनार्यास्ततःसुते ॥ पाठ:प्रियः कुमार्यास्तु । भ्रमिक्रीडा मनःप्रिया ॥९॥ ज्ञानधर्मः पौरुषांकं । त्यजेद्यस्तुकदापिन ॥ लक्ष्मी गप्रियाने। चेतसोनाम मुञ्चति ॥१०॥ पौरुषंभोगलुब्धेन । त्यक्तधर्मात्मकं धिया ॥ स्त्रीमयान्मुर्खतस्तस्मा लक्ष्मीर्दूराऽभिसर्पति ॥ ११ ॥ संसारमुलंस्त्रीतस्याः । प्रकृतिभोगभावनम् ॥ तन्मयो यस्तुतस्याधः-पातोन्याय्यःस्त्रियाईव ॥ १२ ॥
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अध्याय
वैरलक्ष्म्या:सरस्वत्या। नैतत्प्रमाणिकंबचः ॥ ज्ञानधर्मभृतोवश्या । लक्ष्मीन जडरागिणी ॥ १३ ॥ ज्ञानी पापाद्विरतिभाग । यः सवै पुरुषोत्तमः॥ तस्यैववल्लभालक्ष्मीः । सरखत्येवदेहभा॥१४॥ ज्ञानीनविरमेन्मोहा-लक्ष्मीस्तस्यैवबौरिणी ॥ अज्ञानव्रतकष्टस्थे । सरखत्याहि शात्रवं ॥१५॥ भोगासक्तोनसद्ज्ञानी। ज्ञानी तत्वाद्विरागवान् ॥ विरुद्धताऽनयोःस्थाना-रस्याच्छायातपयोरिव ॥ १६ ॥ धर्मो यथेप्सितं दातुं । कतुवा परमेश्वरः ॥ यत्रावतीणोंनिर्दभं । ससाधुःपूज्यते सुरैः ॥ १७ ॥ पात्रेऽवतीर्णोदेवादि-स्तन्मुखेनप्रजल्पति ॥ तभक्तिः पात्रभक्त्यैव । साधोधर्मस्थितिस्तथा ॥१८॥ तुलान्यायेन समता । धर्मः सर्वार्थसिद्धिदः ॥ रागो द्वेषोप्यधर्मागं । सारमेतत्सतांगिरः ॥१९॥ द्वेषादपिचदुर्जेयो । रागः संसारकारणम् ॥ तज्जयाद्वीतरागोयं । देवानामधिदैवतम् ॥२०॥ यो वीतरागोऽसौदेव-स्तद्वाक्यानुगतोगुरुः ॥ तदाज्ञाराधनं धर्म-स्सोयंतत्वसमुच्चयः ॥२१॥
॥ इतिश्रीअर्हद्गीतायांनवमोध्यायः॥९॥
PARRESTERNHSMARY
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अध्याय
ऐन्द्रज्योतिः प्रकाशाय । रागद्वेषजिगीषया ॥ एकत्वभावनाविश्वे-ऽप्यादिष्टाविश्वबेदिभिः ॥ १ ॥ शुभाशुभाद्यनकत्वं । विशेषविषयंपुनः ॥ हेयोपादेयबोधेन । प्राकाशीच्छाविमुक्तये ॥ २ ॥ पूर्वेपृथक्त्ववीचारं । शुक्लध्यानांहिमामृशेत् ॥ ततोप्येकत्वबीचारात् । केबलज्ञानमुल्लसेत् ॥ ३ ॥ स्यात्सामान्यविशेषात्म-भवःप्रामाण्यगोचरः ॥ ज्ञेयोऽनेकान्तवादेन । नयमार्गादनेकधा ॥ ४ ॥ सामान्यसंग्रहोबक्ति । ऋजुसूत्रोविशेषवाक् ॥ स्वतंत्रौनेगमादेतौ । लोकोक्त्याव्यवहारधीः ॥५॥ मृत्सुबर्णायसांकुंभा । एक एवाम्बुधारणे ॥ परिमाणाकृतिस्थान-मुल्यैःसर्वेपृथक्पृथक् ॥६॥ अपक्वेन जलाहारः । पक्केऽसौतौततःपृथक् ॥ कुंभत्वंकाणकुंभेपि । व्यवहारेणमन्यते ॥७॥ चत्वारोऽर्थनया एतेः। परंशद्वे नयत्रयम् ॥ बाच्यबाचकयोर्योगाद । शाद्विकावार्थकाःसमे ॥८॥ आर्यदेशे धर्म इति । श्रुत्याशब्देन धर्मवान् ॥ देशोऽवती व्रती धर्मी । श्राद्धःसमभिरूढतः ॥९॥ मुनि मुर्निक्रियाविष्ट-स्तन्मुक्तोन मुनिःपुनः ॥ एवंभूतनयादेवं । सिद्धोस्ति केवली ॥१०॥ धर्मीजीवःसमयोपि । ज्ञानवान्श्चेतनारतः ॥ ऐकेन्द्रियाणामज्ञान-मृजुसूत्रनयार्पणात् ॥ ११ ॥ वस्तुस्मृत्याभवज्ञानी । सोऽज्ञानीविस्मृतेर्मतः॥नेगमाशिशुरज्ञानी । व्यवहारदृशोरसात् ॥ १२ ॥
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अध्याय
प्रसुप्तेर्मूर्छितेमत्ते । नज्ञानं शाद्विकेनये ॥ तदर्शनोपयोगश्च । नज्ञानीत्यागमेवचः ॥ १३॥ घटज्ञात्वा पटज्ञान । घटज्ञोप्यभिरूढितः ॥ ऐवंभूतेनघटज्ञ । एवंसर्वत्रभावना ॥ १४ ॥ मिथ्यादृष्टिरतोऽज्ञानी । ज्ञानी विमलदर्शनी ॥ योयत्रानुपयुक्तोयं । द्रव्यजीवस्तदा तथा ॥१५॥ अमुक्तेमुक्ततापीष्टा । जिने राजर्षिता मुनौ । असाधोरतिमुक्तस्य । साधुसेवागमोदिता ॥१६॥ सूर्यबिम्बेपि सूर्यत्वं । जिनविम्बेजिनागमः ॥ युक्ताहारबिहारादौ । साधुर्हन्ताप्यहिंसकः ॥ १७॥ अनाश्रवः केवलीति । सत्यप्याश्रवसप्तके ॥ बद्धदेवायुषोदेवो । बाच्यःसतिनृजन्मनि ॥१८॥ अल्पेऽभावविवक्षातः । कचिद्वाहुल्यचिन्तया ॥ पक्षेसिताऽसितत्वादि । व्यवहारदिशाक्कचित् ॥ १९॥ विधेयेऽपिनिषिद्धत्वं । निषिद्धेषु विधेयतां ॥ आगमेपि समादेशि वीरेणजगदीशिना ॥२०॥ तस्माद्बहुश्रुतैःपूर्वैराचीर्णश्चरणोयतैः ॥ धर्मः शर्मकरः कार्यः । श्रद्धेयस्तत्वकांक्षिभिः ॥ २१ ॥
॥ इतिअर्हद्गीतायांदशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
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अध्याय
श्री गौतमउवाच ऐन्द्रोधर्मःस्मृतंज्ञान-मात्मधर्मस्य निश्चयात् ॥ तदानाऽधर्मवान्कोपि। चैतन्यात्सर्वजन्तुषु ॥ १ ॥
- श्री भगवानुवाच - ज्ञानं द्विधा मयानातं । स्वभावातशुद्धमात्मनः ॥ अशद्धपद्मलोपाधे-राद्यधर्मोऽन्यथापरं ॥ २ ॥ यस्माद्देहे सुखं स्वल्पं । महद्दःखतथात्मनः ॥ तद्ज्ञानंतत्वतोनेष्टं । श्रेष्टं येनात्मनः सुखम् ॥ ३ ॥ विषमिश्रपयःपान-समानस्याँद्भवेसुखम् ॥ पुद्गलानामुपादानात् । प्रत्युतानर्थकारणम् ॥ ४ ॥ अर्थोप्यनर्थहेतुःकिं । नाज्ञानादुद्यमस्पृशाम् ॥ चतुर्णावणिजामत्र । दृष्टांतात्कुमतित्यज ॥ ५ ॥ गव्यंदुग्धमुपादेयं । हेयमर्कस्नुहीभवम् । तथाज्ञानमुपादेय-मेकंहेयंविवेकिना ॥ ६ ॥ येनात्मनःस्यादानन्दः। केवलोमाययाविना ॥ तदवाच्यं सुखंमोक्षं । तत्रभिल्लनिदर्शनम् ॥ ७ ॥ हेयमेवमुपादेय-मादेयमपिहीयते ॥ द्रव्यक्षेत्रकालभावः । स्याद्वादस्यादरस्ततः ॥८॥ ज्ञानंविशिष्टमादेयं । हेयोपादेयगोचरम् ॥ अज्ञानीतद्विनाजंन्तु-लालापानान्नचाम्बुपः ॥९॥ यथैवानुदराकन्या-प्यलोमा ऐडकापूनः ॥ लोमाहारेप्यनशनी। युक्तचेलोप्यकिञ्चनः ॥१०॥
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अध्याय
कान्ताऽबलानगारोपि । शय्यादिषु वसन्नपि ॥ वस्त्रपात्रादिधरणे-प्यपरिग्रहवान्मुनिः ॥ ११ ॥ माया विहीनं ब्रह्मैवः । कैवल्याय विचिंत्यते ॥ साक्षरो वा सकर्णस्या-च्छास्त्रज्ञोऽनक्षरः परः ॥ १२ ॥ आखुकुर्कुरमार्जारः । सद्भिःकोपि नगोधनी ॥ धनीवारेणुभस्मोघे-स्तथा ज्ञानी भवोन्मुखः ॥ १३ ॥ योयं संश्रयते मार्ग । स तंशुद्धं प्रपद्यते ॥ तत्सुद्धज्ञानलाभाय । परीक्षैषाविधीयताम ॥ १४ ॥ बलिनाछलिनाप्युच्चैः। कलिना मलिनात्मना ॥ नाश्यं शुद्धमशुद्धं च । प्रकाश्यं तन्मयो ह्ययम्॥ १५॥ संगत:सर्वशास्त्रेषु । सुधिया च परीक्षितः ॥ सोयंभागवतः पंथा । विभिन्नस्तुतदन्यथा ॥ १६ ॥ सत्यं शौचं दयाक्षान्ति-स्त्यागःसंतोषआर्जवम् ॥ शमोदमस्तपःसाम्यं । तितिक्षोपरतिः श्रुतम् ॥ १७ ॥ ज्ञानं विरक्तिरास्तिक्यं । प्रागलभ्यमनहंकृतिः॥मार्दवं प्रश्रयः शीलं । स्थैर्य च कौशलं स्मतिः॥ १८ ॥ इमे चान्येपि धैर्याद्याः। नित्यायस्मिन्महागुणाः॥प्रा.महत्वमिच्छद्भिहीयतेस्म न कर्हिचित्॥ १९ ॥ प्रायशोगणपात्रेण । श्रीनिवासेन सांप्रतम् ॥ दश्यते रहितो लोकः । पाप्मना कलिनेक्षितः ॥ २०॥ क्ष्यांत्यादिदशधाधर्मे-तर्भवन्तिगुणाःसमे ॥ शुद्धर्यत्तैर्गुणैर्योगा-त्तत्ब्रह्म समुपाश्यताम् ॥ २१ ॥
॥ इतिश्रीअर्हद्गीतायांमेकादशोध्यायः ॥ ११ ॥
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अध्याय
9 श्री गौतम उवाच ऐन्दवाच्चारतोज्योतिः । शास्त्रेण भाविमन्यते ॥ मनसा तत्कथं बेद्यं । तन्मार्ग कथय प्रभो ॥ १ ॥
6 श्री भगवानुवाच 8 मानसान्येव वर्षाणि । अयनं वार्तवस्तथा ॥ मासापक्षो दिनं वेला-वाराभं तिथयः पुनः ॥ २ ॥ सूर्योदयान्मनोम्भोजे । कलाबोधस्य वर्धते ॥ तमारभ्यैव वर्षाणां । षष्टिःप्रतिकलंस्मृताः ॥ ३ ॥ वर्षाणांप्रभवादीनां । भावो मनसि जायते ॥ सुक्ष्मत्वात्सतुदुर्ज्ञानः । संज्ञेयःसुधिया स्वयम् ॥ ४ ॥ उग्रे दिप्ते तपो रक्ते । तेजस्विन्युत्तरायणम् ॥ चित्तेशांतिःजाड्यभाजि । निद्राणेदक्षिणायनम् ॥ ५ ॥ दिनं प्रमाणं कथितं । मानसंयुत्तरायणम् ॥ देवएव सतां चेतो । रात्रिस्तद्दक्षिणायनम् ॥ ६ ॥ साहंकारेच सोत्कर्षे । खस्यवृत्तोवसन्तकः ॥ क्रुद्धे सतृष्णे लोकानां । तापनेग्रीष्मवानृतुः ॥ ७ ॥ दाने रसे प्रकाशादौ । बर्षा मनसि निश्चिते ॥ शौचे देशान्तरभ्रान्तौ । शरदेव धनार्जने ॥ ८ ॥ जाड्ये प्रदीपने बन्हेः । परिधाने च भोजने ॥ हेमन्तः शिशिरः क्रीडा । ब्रीडा पीडारतादिषु ॥ ९ ॥ सूर्योदयादहोरात्रे । मानेन दशनाडिकाः ॥ बसन्ताद्याहिऋतवः । प्रोक्ता मंत्रागमे ततः ॥१०॥
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अध्याय
वर्षासु लवणममृतं । शरदिजलं गोपयश्चहेमन्ते ॥ शिशिरे चामलकरसं । घृतंवसन्तेगुडश्चान्ते ॥ ११ ॥ दृश्यते चिंत्यते यद्वा । कथ्यते यादृशो रसः ॥ ताहग्ऋतुः प्रश्नफले। मनोज्ञेन विमृश्यताम् ॥ १२॥ मेषोदिदृक्षया जल्पे । वृषो भोगेतु मैथुनम् ॥ जलेवांछाबलात् कर्की । सिंहः सांत्विकचिंतया ॥ १३ ॥ कन्याजाड्येन चापल्ये । क्षमायां सुभगादरे ॥ व्यवसाये तुलाकीटः। पैशुन्यखलतेच्छया ॥१४॥ रणे छायावाहनादेः । संग्रहेधन्वितान्विता ॥ समुद्रबार्तया क्रोर्या-चापल्येमकरोहृदि ॥१५॥ स्थैर्येण कार्ये सारस्ये-ऽमलिनाचरणारुचेः ॥ कुंभोदयोथ मांगल्ये । मीनो धर्मे शिते शुभे ॥१६॥ बस्तुयद्राशिसंबद्ध-मुपानेयमचिन्तितम् ॥ भक्ष्यंवा मनसा ध्येयं । मनोराशिःमनोजवत् ॥१७॥ जल्पदयद्राशिमानजीवो। भवेद्यद्वा मनप्रियम् । मनःशास्त्रविदामान्य-स्तद्राशिौनसस्तदा ॥१८॥ अधर्मभावनाद्रात्रि-दिवसोधर्मनिष्टया ॥ शुभभावनया शुक्ल-पक्षःकृष्णोविपर्ययात् ॥१९॥ वृद्धौ नन्दा शिवेभद्रा । युद्धराज्येजयेच्छया ॥ योगे रिक्ता मोक्षलाभे । पूर्णापूर्णेच्छयाहृदि ॥ २०॥ एभिश्चिन्हैमनोमत्वा । कार्ये तात्कालिके फले ॥ प्रश्नेभाविनि वा भावे। लाभयसिद्धिनिश्चयम् ॥ २१ ॥
॥ इतिश्रीअर्हद्गीतायांद्वादशोऽध्यायः ॥ १२॥
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अध्याय
" श्री गौतमउवाच ऐन्द्रप्रधानतो ज्योतिः । मनस्येवविजृम्भते ॥ तिथिवारभमेतस्य । प्रकाशय जगत्प्रभो ॥ १॥
* श्री भगवानुवाच एक्येतिथिः स्यात् प्रथमा। द्वितीयाद्वित्ववांछया ॥ त्रिधाप्रवृत्तौ तृतीया । चतुर्थी त्यागयोगतः ॥ २ ॥ पंचमी पंचकधिया । षष्टीषडबस्तुभावनात् ॥ सप्तमीसप्तधाभावात् । अष्टमी अष्टधार्थतः ॥ ३ ॥ एवंयत्संख्ययाभाव-चिंत्यते दृश्यतेऽथवा ॥ कथ्यते तिथिरावेद्यः । प्रश्ने तत्संख्ययाहृदः ॥ ४ ॥ लिखित्वांकानपंचदश । यद्वा तन्दुलपुञ्जकान् ॥ विन्यस्य नाणकं तेषु । क्रियते तिथिनिर्णयः॥ श्रावणःस्यात्श्रुतौधर्म-शास्त्रेभाद्रपदःपुनः ॥ धर्मकर्मच्छिवप्राप्ते-रिच्छया तपसोऽश्विनः ॥ ६ ॥ स्नानभुषणसाम्राज्य-वांछयाकार्तिकःस्मृतः ॥ जगच्छीर्षे शिवपदं । तन्मार्गेच्छापरः परः ॥ ७ ॥ पोषोऽतिपोषात्पुत्रादे-माघो वैरिविनाशने ॥ फाल्गुनो मैथुनेपात्र-त्यागेविवसनाशया ॥ ८ ॥ चैत्रो विचित्रव्यापारे । परः शाखासु बर्धनः ॥ ज्येष्टानुसारज्ज्येष्टोपि । शुचौशौचं शिवस्पृहा ॥ ९ ॥ मनस्योंदयोद्रष्टुं । भोक्तुंपातुंतथैच्छया ॥ जाड्येनशांत्यावाक्येन । मृष्टेनचविधूदयः ॥१०॥
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अध्याय
कषाये नोकषायेवा । बांछा मंगलवारतः ॥ ज्ञानेध्यानेशास्त्रबार्ता । विधौवारस्तुबोधनः ॥ ११ ॥ देवार्चने गुरोःसम्यक् । सेवने पांथकादिवत् ॥ परोपकारेविद्यादौ । हृदि बांछागुरूदयः ॥ १२ ॥ राजन्यायेथ यवना-चारा ध्ययनचिन्तने ॥ स्थापनोत्थापनेतीर्थ यात्रायां भार्गवोहृदि ॥ १३ ॥ हिंसायामनृतेकर-कार्ये चोर्यादिकर्मणि ॥ द्युतादेरिच्छया मांये। ज्ञेयं मंदमयं मनः ॥ १४ ॥ अश्विनीच्छावशागत्यां। याम्यं रोगेऽर्थ संग्रहे ॥ व्रते तपसि वाग्नेयं । ब्राम्ांस्यात्पाठशौचयोः॥ १५॥ मृगाचापल्यमायां । स्नाने पानेम्बुवर्षणे ॥ पुनर्वसूधनोत्पादे । पुष्यः पोषणकर्मणि ॥ १६ ॥ सायं विषेऽन्यदोषोक्तौ । मघा स्वपितृतर्पणे ॥ भोगादौ पुर्व फाल्गुन्या-मुत्ररात्वग्निदीपने ॥ १७ ॥ कलाभ्यासवलंहस्ते। विचित्रेच्छा तु चित्रया॥स्वातौवातप्रयत्नाद्यै-श्वर्यकाम्यं विशाखया ॥ १८ ॥ राजदेव कलामैत्रे । जेष्टायां जेष्टसंगतिः ॥ धनं वाभोजनं मूले । महान्लोभः परद्वये ॥ १९ ॥ श्रुतौधाश्रुतिसेवा । धनिष्टायां महद्धनं ॥ जलक्रीडादिवारूण्यां । शिवमिछेत्परद्वये ॥ २० ॥ अन्यायवारणेभूयः । प्रतापोदयः कारणे । राजधर्मात् प्रजापोषे । रेवत्यां मानसीरुचिः ॥ २१ ॥
॥ इतिश्रीअर्हद्गीतायांत्रयोदशोऽध्यायः ॥१३॥
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अध्याय
श्री गौतमउवाच ऐन्द्रवरूपंनाडीभिज्योतिर्जा वा भिषग्वरः ॥ भूतं भाविभवद्वेत्ति । ज्ञेयं तन्मनसा कथम् ॥ १॥
श्री भगवानुवाच . नाभिस्थं नाडिकोरःश्वं । मनश्चक्रप्रचालयेत् ॥ बायुना तेन संकल्या । जायन्तेबाह्यहेतुभिः ॥ २ ॥ प्राणायामबलान्मंत्र-ध्यानाजीवस्यभावनात् ॥ ब्रह्मद्वारे मनोलीनं । भवेद्विश्वप्रकाशकम् ॥ ३॥ वातोदयाद्भवञ्चित्ते । जडताऽस्थिरताभयम् ॥ शुन्यत्वं विस्मृतिः श्रांति-ररतिश्चित्तविभ्रमः ॥ ४ ॥ पित्तोदयाचंचलत्वं । साहसंक्रुद्धतास्मरः ॥ कफोदयात् स्नेहहास्य-शोकामौढ्यं रतिःपरा ॥ ५॥ ज्ञानावरणसंज्ञेयो । वातःसिद्धान्तवादिनाम् ॥ पित्तमायुः स्थितेर्बाच्यं । नामकर्मकफात्मकम् ॥६॥ रक्ताधिक्येनपित्तेन । मोहप्रकृतयोऽखिलाः ॥ दर्शनावरणंरक्त-कफसांकर्यसंभवम् ॥७॥ तत्तद्विकारजं वेद्यं । गोत्रं पित्तकफात्मकम् ॥ अन्तरायःसन्निपाता--देषांविकृतिकारणम् ॥८॥ ज्ञात्वाभ्यासान्मनोभावान् ।वाखैराध्यास्मिकैस्तथा ॥अमीभिर्हेतुभिर्वश्यं ।मनोऽवश्यमनिच्छया ॥९॥ परमात्माततः साक्षात् । प्राणरूढमनःस्थितिः ॥ मनःसाध्यो मनोध्येयो । मनोदृप्तस्समीक्षते ॥१०॥
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अध्याय
मनोवश्याय जायन्ते । ह्युपाया वहुधाजने ॥ ज्ञाने क्रियान्विते सर्वे-तर्भर्वान्ति भवद्रूहः॥ ११ ॥ अज्ञानवादिनस्त्याज्या।आक्रियावादिनोऽपिच ॥ यतो ज्ञानक्रियायुक्तः। पिण्डायंदृश्यते न किम्॥ १२॥ संसरेत् सक्रियो जीवो। निष्क्रियोऽकर्मवाशिवः॥ क्रियेन्द्रियाण्यधःपिण्डे। ज्ञानेन्द्रियाणिचोपरि॥१३॥ ज्ञानस्य पुंसःस्थैर्याय । क्रिया प्रियास्ति सात्विकी॥शान्तोरसस्तयासाध्यः।प्रीणनीयोऽमुनामुनिः॥१४॥ काये हि लक्षणं भावि । बस्तुनः स्फुरणादिना ॥बाच्योपश्रुतिसूक्ताद्यै-स्तथा चित्तेऽर्थभावनैः॥ १५ ॥ लोकानुभावेन जलं । यथा शरदि निर्मलम् ॥ मनः सद्ज्ञानसंबद्धं । लोकालोकप्रकाशकम् ॥ १६ ॥ प्रधानं कारणं ज्ञानं । मोक्षस्य न तथा क्रिया॥अन्यलिंगेन किं सिद्धिः-र्ज्ञानात्साम्ये समीयुषि ॥ १७ ॥ ऋतेज्ञानान्नमुक्तिः स्यात् । क्रियाक्लेशे महत्यपि॥ तद्ज्ञानं मनसःशुध्या।बुध्या वृध्याभिजायते॥१८॥ अनित्याशरणत्वादि-लोकान्तपरिभावनैः॥ मनोतिनिर्मलं धारं । सत्प्रकाशाय जायते ॥ १९ ॥ तत्वचिन्तनयाशास्त्र-ऽनुगामिन्या मनःशिवे ॥ आत्मन्येव निवनाति । योगी नेन्द्रियगोचरे ॥ २०॥ मनसि श्रद्धया धर्मों । न कृतोपि फलप्रदः ॥ वलभद्र इवब्रह्म-लोकभाग्ध्यानवान्मृगः ॥ २१ ॥
॥ इतिश्रीअर्हद्गीतायांब्रह्मकाण्डेचतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥
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अध्याय
१५
श्री गौतमउवाच ऐन्द्रपुज्यः जगन्नाथ । प्रसादेन निवेदय ॥ किंतत्वं विदुषां ज्ञेयं । साधनं शिवसंपदः ॥ १ ॥
8 श्री भगवानुवाच सत्वरूपं महातत्वं । यद्ब्रह्मेत्यभिधीयते ॥ तदेकं परमं बस्तु । द्वैतं तत्र न भासते ॥ २ ॥ भावः पदार्थः सद्रूपो-ऽस्तिक्रियार्थः परोगुणी॥ शुद्धद्रव्यं तथा धारः। प्रमेयश्चाऽभिधान्वयी ॥ ३ ॥ अनन्तःपरीणामीचा-नन्तशक्ति धरः स्वभूः॥ लोकालोकतयाख्यातः। सिद्धो बुद्धः शिवोऽव्ययः॥ ४ ॥ स्यादेकं केवलं ज्ञानं । ज्ञेयं तस्यैकमिष्यते ॥ ज्ञानाद्ज्ञेयं न भिन्नंस्या-त्सर्वथास्वप्रकाशवत् ॥ ५ ॥ ज्ञेयग्रहपरिणामाद् । ज्ञानिज्ञेयाकृतिः स्मृतः॥ तेनात्मा भगवान् विष्णु-रहन् ब्रह्ममयःस्वयम् ॥ ६ ॥ लोकालोकस्वरूपज्ञः । सलोकालोक उच्यते ॥ अग्निज्ञानादिव ज्ञाता । ऽऽगमेप्यग्निरुदीरितः ॥७॥ यदेकत्वविमर्शःस्या-त्तदैव केवलोदयः ॥ ध्रौव्यभावनया द्रव्यं । विकृतं न कृतं क्वचित् ॥ ८॥ उत्पादो वा विपत्तिश्च । द्रव्येऽवस्थान्तरोदयात् ॥ नावस्थातद्वतो भिन्ना। सर्वथाश्रयवर्जिता ॥९॥ नसंबंधं विनाकिञ्चित् । प्रकाश्यं स्यात्प्रकाशकैः ॥न सर्वथा स संबंधि-भेदेवाचकवाच्यवत् ॥ १० ॥
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अध्याय
सूर्यः प्रातर्यथारत्न-जलादर्शादिबस्तुषुः ॥ संक्रामं स्तापवत्सर्वं । करुते गुरुतेजसा ॥ ११ ॥ एकस्तथैवसद्भावः । खर्विवर्तेः प्रवर्त्तते ॥ हेयोपादेयता बुद्धि-स्त्याज्या सांसारिकीततः ॥ १२ ॥ खं परं लघुवास्थुलं । नशुभंनाशुभंहृदि ॥ त्याज्यं ग्राह्यं नकिञ्चित्स्या-द्विधेरैक्ये सुबुद्धिवत् ॥ १३ ॥ मान्यं यथान्ये सामान्यं । स्यादेकं व्यक्तिषु स्फुटम्।एको वा समवायोप्य-वयव्यवयवादिषु ॥ १४ ॥ जैना अपि द्रव्यमेकं । प्रपन्नाजगतितले ॥ धर्मोऽधर्मोऽस्तिकायोवा । तथैक्यं ब्रह्मणे मतम् ॥१५॥ लोकालोकाप्तमाकाशं । परिणाम्येकमात्मना ॥ तथा कथा न वितथा। स्यादेकब्रह्मणः सतः॥ १६ ॥ स्याद्भाव एक एवाय-मस्तिप्रत्ययगोचरः॥ तल्लक्षणो निषेधोपि । सविधेः सविधेखलु ॥१७॥ संत्तांविनानासत्तास्या-न्नाजीवोजीवबर्जने ॥ ज्ञेयत्वादिगुणैरेवं । नभावो भावतोऽपरः ॥१८॥ विधिविधत्तेखं रूपं । खेनविश्वेन संगतम् ॥ विधिद्योजगत्कर्ता । भर्ता हर्तास्वशक्तितः ॥१९॥ ऐकस्य ब्रह्मणःसर्वे । विबर्ताः प्रतिभांत्यमी । अनंतशक्ते नाऽर्थः । क्रियाभावेन वास्तवाः ॥ २० ॥ परसंग्रहवागेषा । विषयोऽस्याहि तात्विकः ॥स तात्विकस्तं यो वेत्ति । ज्ञानवैराग्यसात्विकः ॥ २१ ॥ ॥ इतिश्रीअर्हद्गीतायांब्रह्मकाण्डेपंचदशोऽध्यायः ॥१५॥
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अध्याय
श्री गौतमउवाच ऐक्यं सर्वत्र सर्वज्ञः । कथं मनास भाव्यते ॥ प्रपंचोऽर्थक्रियाकारी । वस्तुतः वस्तुनः क्षितौ ॥१॥ लोकोलोक स्तथाजीवो । ऽजीवस्याञ्चेतनोऽन्यथा ॥रूप्यरूपी तथासिद्धः । साधकः सेव्यसेवको॥ २॥ पुण्यपापे वंधमोक्षौ । वेदनानिर्जरेत्वपि ॥ आश्रवःसंवरधेति । साक्षाद्वैविध्यमार्थिकम् ॥ ३ ॥
श्री भगवानुवाच * वैकल्पिकमिदं सर्वं । व्यवहारनयाश्रयात् ॥ गौणमुख्यविवक्षातः । ख्यातः सर्वोऽर्थसंचयः ॥ ४ ॥ भावएकस्तस्य शक्तिः। द्वैविध्यं मुलतोमतम् ॥ समयस्यारात्रंवा-ध्यक्षं तत्तदुपाधितः ॥ ५ ॥ लोक्यते केवलज्ञात्रा । लोकोऽपिद्रव्यपर्ययैः ॥ लोकवसिद्धएवायं । तन्नैकान्तेन तद्भिदा ॥ ६ ॥ चेतन्ये गुणभावेना-ऽनंत्यात्पुद्गलवस्तुनः ॥ धर्माधर्मादियुक्तोपि । व्योम्नालोकोह्यलोकवत् ॥ ७॥ भावनासु यथाभाव्यः। संसारस्योपलक्षणात् ॥ सिद्धः स्वभावलोकस्य । तथा लोकोपिशाश्वतः॥ ८॥ उर्ध्वलोकादधोलोको-ऽप्यलोकोऽस्मात्तथैव सः॥भव्यलोकादभव्योपि । सिद्धः संसारिलोकतः ॥९॥ चैतन्यशक्त्याविष्टःसद्भावोजीवईतिस्मृतः॥ तदभावादजीवोऽन्यः।ख्यातेयं कल्पनाभुविः॥१०॥
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अध्याय
जीवोप्यजीवोऽजीवज्ञः । इति प्रबचने बच ॥ अजीवोजविसंज्ञेय-स्तात्स्थात्तद्वयपदेशतः ॥ ११ ॥ सूरबिम्बपिसूरत्वं । लोकेलोकोतरेस्फुटम् ॥ अजीवे स्थापनाजीवः । निक्षेपस्तेनसंगतः ॥ १२ ॥ शिवोजीवोऽभवत्राणे-जीवोजीवोपिपुद्गलः ॥ दशप्राणैरभावेन । स्थावरे जीवता क्वचित् ॥ १३ ॥ जीवो ज्ञानसदंशस्यः । प्राधान्यात्सत्वनामभृत् ॥ अजीव: सत्वयोगेपि । तन्निषेधादचेतनः ॥ १४ ॥ उपादानं चेतनायाः । जीवोऽजीवोनिमित्तकम् ॥ तेनाऽशुद्धाशनात्साधु-श्चौर्यचर्यापरोऽभवत् ॥ १५॥ रूपस्यान्नीलपीतादि । तद्योगे रूपवानणुः ॥ अणुसंबंधतोजीवो-प्ययंरूपिकथंचन ॥ १६ ॥ रूपीसिद्धोपितद्ज्ञानात्। खंरूपिस्यात्तदाश्रयात्॥अलोके पिवियपि। लोकखात्सर्वथाऽभिदः॥ १७ ॥ यथाक्षिदेशे भावेक्षी। चक्षुष्मान्जीवउच्यते ॥ लोकाकाशे जीवसत्वात्। तथाऽलोकःसचेतनः॥१८॥ यथाक्रमेण सिद्धं स्या-द्वान्यवासाधकं जने ॥ तथात्मनः सिद्धतापि । क्रमात् साधकताभृतः॥ १९ ॥ शिवेऽपरपरिणामा-पेक्षयासिद्धताऽक्षया ॥ स्वपर्यायाऽगुरुलघु-वृत्यासाधकतापुनः ॥२०॥ ऐवंभावाभावरूपं । द्वैविध्यं तद्विकल्पजं ॥ मुक्ताभावैक्यमालोक्यं । पारमैश्वर्यसिद्धये ॥ २१ ॥ ॥ इतिश्रीअर्हद्गीतायांब्रह्मकाण्डेषोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥
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अध्याय
१७
व अथकर्मकांड
@ श्री गौतमउवाच ऐक्यं प्रपश्यतस्तत्वात् । स्वामिस्तनुभृतो नतु ॥ विधेयमविधेयं वा । किंचिन्नैवप्रभासते ॥१॥ एवं सति नदेवः स्यात् । सेव्यःकश्चिन्नवागरुः ॥ नधर्म:शर्मणेकार्य-स्त्याज्योऽधर्मश्च कश्चन ॥ २ ॥
श्री भगवानुवाच .. साध्यार्थी यतते सर्वः । साधने निर्विवाधने ॥ साध्येब्रह्मणितत्कार्यः कामनाशोऽस्यवाधनः ॥ ३॥ मायापि ब्रह्मरूपैव । तद्विवर्तमयीस्वयम् ॥ सत्वात्तथार्थकारित्वात् । प्रपंचोऽस्याः विजृभते ॥ ४॥ भास्वन्मणि प्रदीपादेः । प्रभानकान्ततोऽपरा ॥ नधर्मिण:परासत्ता। धर्माणां सर्वथा कचित ॥५॥ प्रपंचजननान्माया-पीच्छामात्मनि वर्द्धयेत् ॥ तस्यानिवृत्तये भाव्या । व्युत्पादविगमावपि ॥ ६॥ एकंमौलनयात्तत्वं । स्यात्सत्गौणनया द्विधा ॥ एकस्मिन्भूरुहेनाना । मूलं पुष्पं फलं दलं ॥७॥ एकंयत्तदनेकंस्या-सदसभिन्नमन्यथा ॥ अनित्यनित्यमाख्येयं । मनाख्येयं जगद्विधा ॥८॥ लोकोलोकस्तथाजीवो । ऽजीव:परोऽपरःपुन: रूप्यरूपी जडोदक्षः । प्रत्यक्षो वा परोक्षकः ॥९॥ स्त्रीपुंसौ द्रव्यपर्यायौ । शरोऽर्थोप्यशुभंशुभम् ॥ रात्रिर्दिनंक्रियाज्ञान-मेवंभावोभयी गतिः ॥ १० ॥
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सक्रियश्चाऽक्रियोभावः । सक्रियोपि च पुद्गलः॥अक्रियोऽनंतनिस्संख्य-प्रदेशात्मा द्विधामतः ॥११॥ अनंतोपि वियत्काल-भेदात्संख्यातिगस्तथा ॥ धर्माधर्मभिदाद्वेधा । वियल्लोकादलोकता ॥१२॥ निश्चयव्यवहाराभ्यांद्वेधाऽनेहा अपिस्मृतः॥ लोकोजीवादजीवाच्चा ऽलोको-ऽसंख्योपनन्तकः॥ १३॥ षोढाहानिर्विवृद्धिभ्या-मलोकस्थं वियद्विधा ॥ धर्मोधर्मश्चपूर्णोऽन्यः । सूक्ष्मोऽनणुश्चपुद्गलः ॥ १४ ॥ जीवोपिसिद्धः संसारी । सिद्धो ज्ञानी च दर्शनी ॥ पोढाहीनोथवावृद्धः । सान्तरोवाप्यनन्तरः ॥ १५॥ त्रसःस्थिरो वा संसारी-त्यादिर्बस्तुद्विरूपताम्॥भाव्यापृथक्तबीचारा-दिच्छानाशायसात्विकैः ॥ १६ ॥ कषायकलुषश्चात्मा।यावन्नविषयांस्त्यजेत् ॥ तावन्नेच्छा विनाशःस्यात् । प्रकाशोपि च वास्तवः॥ १७ ॥ भावनैस्तदनित्यायै-र्भावस्यापचयंचयम् ॥ पश्यतः करकंडुव-नश्यदिच्छाविरागिणः ॥ १८ ॥ कामास्थानानि कामिन्य--स्तास्त्याज्याताजगीषया॥ सर्वास्त्यक्तुंमशक्तोयः। स स्वीयामेवकामयेत्॥१९॥ मद्यमांसं नवनीतं । मधु नानारसात्मकम् ॥ अभक्ष्यं वर्जयेत्सर्वं । कामं संतर्जयेत् सुधीः ॥ २० ॥ वाह्यानाध्यात्मिकान् हेतु-स्त्यजन्नेवमधार्मिकान् ॥ केवलब्रह्मणःस्वादं । लभते सुकृती कृती ॥ २१ ॥
॥ इतिश्रीअर्हद्गीतायांकर्मकाण्डेसप्तदशोऽध्यायः॥१७॥
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बध्याय
एक्येपि तात्त्विकेनैक्यं ।भाव्यते ब्रह्मशुद्धये ॥अभ्यस्यते क्रिया किं नालोकैस्तस्याः फलषिभिः॥ १ ॥ यथापण्यमणेःशाणो-ल्लेखघर्षादिसंस्कृतिः ॥ स्वरूपलव्ध्यैतस्यैव । ब्रह्मशुद्धौ तथा क्रिया ॥ २ ॥ नकेवलाक्रियामुक्त्यै । न पुनर्ब्रह्मकेवलम् ॥ जीवन्मुक्तोपिशेलेश्या । केवलीस्याच्छिवंगमी ॥ ३ ॥ जगुर्ज्ञानक्रिया योगे । क्षणान्मोक्षं विचक्षणाः॥ योगाज्ज्योतिर्विदोवैद्या । ऋषयः सिद्धिमूचिरे ॥ ४ ॥ असत्या क्रिययाप्यंगी। नेयोदर्शनभूमिकाम् ॥ सदर्शनात् क्रियाशुद्धा। ध्यानादिः केवलाप्तये ॥ ५ ॥ वार्येध्याने आरोद्रे । धार्ये धर्मोज्वलैःखलु ॥ एतदर्थंजिनैः प्रोक्ताः । पंचधा नियमायमाः ॥ ६ ॥ द्रव्यक्षेत्रकालभावा-ऽपेक्षयाबहुधास्थितिः ॥ आचाराणां दृश्यतेसौ । न वादस्तत्र सादरः ॥ ७ ॥ रागद्वेषक्षयेयस्मा--द्भवेत्कैवल्यमुज्वलम् ॥ सैषप्रमाणमाचार-स्तारकत्वाद्भवाम्बुधौ ॥८॥ ज्ञानदर्शनचारित्र-साधनाय विधीयते ॥ आरंभःसह्यनारंभ । आश्रवेपि परिश्रवात् ॥ ९ ॥ यःपुनर्दभसंरंभ-संभवः संवरोप्ययम् ॥ तपः स्तेनवतस्तेना-दीनामिवमहाश्रवः ॥१०॥ यस्य संस्कार संस्कारः । कलंङ्कविकलं बलम् ॥ च्छलाचलचलंनान्तः करणं सशिवःस्वयम् ॥११॥ शिवेस्थिरश्रिय:सोम-प्रकृतेर्जगतीश्वरे ॥ महाव्रतानिसार्वज्ञं । तस्मिन्नश्रद्दधीतकः ॥१२॥
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अध्याय
१८
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सद्भावेष्वपिचैतन्ये । प्राधान्यं वस्तुभासनात् ॥ सत्वंजीवस्ततोऽजीव-स्तदभावः प्रतीतिभाक् ॥ १३ ॥ सत्वं गोधुमराज्ञादौ । यथावश्यंप्रशश्यते ॥ सत्वंगुणेष्वपि तथा । प्रशस्तंविक्रमार्कवत् ॥ १४ ॥ पाषाणाघोलनन्यायाद्भवभ्रममुखाः क्रियाः ॥ कुर्वलाघवमेत्यङ्गी । सम्यक्तधनमश्नुते ॥ १५ ॥ मिथ्यात्वाविरतित्यागात् । कषायविजयात् क्रमात् ॥ सयोगी योगरोधेन । जीवः शिवपदोचितः ॥ १६ ॥ भोगासक्ते ह्यधःपातो । ऽभ्युदयस्तूद्धरेत सः ॥ पुद्गलानामधोगत्या । जीवस्योच्चैरयं तथा ॥ १७ ॥ भरताया महारंभ - ऽप्यापु केवलमुज्वलम् ॥ माहात्म्यं तदपिस्पष्टं । वैराग्यस्यविमृश्यताम् ॥ १८ ॥ भावशुन्यापि जीवानां । सुखाय धार्मिकी क्रियाः ॥ तद्द्यैवेयकसंभूति-भव्येप्यतामता ॥ १९ ॥ मनोवाक्कायसंयोगा-च्चरणाचरणेततः ॥ साक्षान्मोक्षमुपेत्यङ्गी । किं चित्रं तत्र मन्यते ॥ २० ॥ फलं विरतिरेवासौ । ज्ञानस्य मुनिनोदिता ॥ अवकेशिविना तां तत् । मत्वा तत्वादृतो भवेत् ॥ २१ ॥
॥ इतिश्री अर्हद्गीतायां कर्मकाण्डे अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥
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अध्याय
® श्री गौतमउवाच ऐश्वर्यशालीपरम-स्त्वं तुभ्यं सततं नमः ॥ भगवन् वद मे येन । भवेत्तत्वप्रकाशनम् ॥ १ ॥
श्री भगवानुवाच । चिदानन्दमयं ज्योति-स्तत्वंस्पष्टं तपोवलात् ॥ जगत्प्रकाशकं मिथ्या। मोहध्वान्तविनाशकम् ॥ २ ॥ यथाग्नितापात् पूपादौ । सिद्धिःकर्णेऽर्कतोयतः। तथाङ्गिनस्तपोयोगात्ः। सिद्धिःशुद्धिःखरूपभाक्॥ ३ ॥ कायशुद्धिर्बाह्यतपो। योगाद्विनयसाधनात् ।। बाक्शुद्धिर्मनसः शुद्धिः । स्वाध्यायादेवकेवलात् ॥ ४ ॥ त्रेधाशुध्यात्मनःशुद्धि-रात्मतत्वंतदुत्तमम् ॥ आत्मतत्वायबोधाय । शेषतत्वप्ररूपणा ॥ ५ ॥ प्रसिद्धिर्नवतत्वानां । बहुधा जैनशासने ॥ अन्यथा तत्वदशकं । प्रतिपक्ष परीक्षया ॥ ६ ॥ तेनतृतीयतुर्याङ्गे । बेदनाया:पृथक्ग्रहः ॥ बंधेमोक्ष प्रतिपक्षो। बेदनायां हि निर्जराः ॥ ७ ॥ प्रदेशैर्वेदनावश्यं । विभाषात्वनुभागतः ॥ तत्वानि नव वा सप्त । तेन ख्यातानि लाघवात् ॥ ८ ॥ एकमेवात्मनस्तत्वं । ज्ञेयंसिध्दांतचिन्तनः ॥ निवार्यभवकार्याणि । मदनोन्मादनिग्रहात् ॥९॥ शास्त्राद्विदिततत्वस्य । विरक्तस्यापि कामिनः ॥ ध्यानेनात्माभवेत्साक्षा-दित्याहुर्योगपाक्षिकाः॥१०॥
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अध्याय १९
KELLY***T****
श्रोतव्यश्चापि मतव्यः । साक्षात्कार्यश्चभावनैः ॥ जीवोमायाविनिर्मुक्तः ॥ सएष परमेश्वरः ॥ ११ ॥ श्रोतव्योऽध्ययनैरेष | मंतव्यो भावनादिना ॥ निदिध्यासनमस्यैव । साक्षात्कारायजायते ॥ १२ ॥ साक्षाच्चकुपूर्वमतं । येःध्यानात्परमर्षयः ॥ तेऽपिध्येया सदामीषां । शुद्धाचरणचिन्तया ॥ १३ ॥ योध्यायति यथाभावं । तादात्म्यं लभते हि सः ॥ संसर्गयोगाद् ध्यानेन । भ्रमरीस्यादिहेलिका ॥ १४ ॥ पिण्डस्थं च पदस्थं च । रूपस्थंरूपवर्जितम् ॥ चतुर्धा ध्यानमाम्नातं । तादात्म्यप्रतिपत्तये ॥ १५ ॥ येदिव्यरूपा मुनयः । सिद्धास्तन्नामजापतः ॥ पदस्थं खलुरूपस्थं । स्यात्तेषां स्थापनादिषु ॥ १६ ॥ स्वस्मिन्नेव च ताद्रुष्ये। पिडस्थंभाविते सति ॥ आत्मन्येव यदात्मा या । स्थितिस्तद्रूपवर्जितम् ॥ १७ ॥ सिद्धानैकेनतन्मूर्ति - नीतेषुध्यानगोचराः ॥ ज्ञानदानात्पूर्वदशा - ध्येयैषां गोरखे ततः ॥ १८ ॥ ज्ञानेाद्योऽर्हदादिर्य - स्तद्ध्यानाच नमस्क्रियाः ॥ तादात्म्याप्राप्तयेध्यातः । पूजकादेरपिक्रमात् ॥१९॥ अर्हद्गुर्वी स्मृतिःसेवा । तत्वश्रद्धा च पूजना ॥ तदैकाग्यूं तदीयाज्ञा । विप्रस्येव महाश्रियै ॥ २० ॥ व्यक्तशक्तिर्भक्तिरूपा-चारः संसार पारदः ॥ धर्मस्यविनयोमूलं । प्रथमसिध्दिसाधनम् ॥ २१ ॥
॥ इति श्रीअहद्गीतायां कर्मकाण्डे एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥
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अध्याय
श्री गौतमउवाच ऐन्द्र श्वान्द्रे प्रपूज्योयः । सकीदृक्परमेश्वरः ॥ यद्भिक्तिःक्रियमाणासौ । सत्वानां शिवसंपदे ॥ १ ॥
श्री भगवानुवाच भवेस्ति मुख्यं मानुष्य-मृषभाद्यायदात्मकाः ॥ देवाधिदेवादेवानां । सेव्या लब्धमहोदयाः ॥ २ ॥ श्रीनारायणरामाद्याः । संजाताः पुरषोत्तमाः ॥ धर्मार्थकाममोक्षाख्यं । पुरुषार्थचतुष्टयम् ॥ ३ ॥ नरान्नारायणोत्पत्तिः । शाद्विकैरपि गीयते ॥ पौरूषं फलमित्येवं । नृजन्मोत्तममीरितम् ॥ ४ ॥ तत्रापि पुरूषो ज्येष्टः । श्रेष्टःसर्वगुणाश्रयः ॥ यजन्मनि भवेद्धर्षो । भिक्षूणां भूभुजांसमः ॥ ५ ॥ पुरुषेष्वपि यो धर्म । रसिक:स्यात्कषायजित्॥सएव देवदेवोऽर्थ्यः । स्तोतव्यःकाव्यकोटिभिः ॥ ६ ॥ जीवाजीवमयो लोकः । कर्त्तायपरमेश्वरः ॥ स्वरूपस्य स्वयंधर्ता । सिद्ध:शुद्ध सनातनः ॥ ७ ॥ दुग्धे सारं यथासर्पिः । पुष्पे परिमलस्तथा ॥ तथा लोकेपि चैतन्यं । तस्मिन् कैवल्यमुत्तमम् ॥ ८॥ सर्वसंगविनिर्मुक्तः । सिद्धः केवलबोधनात् ॥ स एव परमेष्टीति । गेयोहस्तात्विकैर्जनैः ॥ ९ ॥ तेनैव मातृकापाठे-ऽप्पोनमः सिद्धमुच्यते ॥ मायांगजो नवाकृष्णो । नरुद्रो वा नमस्कृतः ॥१०॥
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अध्याय
सिद्धेनानाभिधानानि । यथा गुरूपदेशनम् ॥ ओमित्याख्या तत्र मुख्याः। सर्वशास्त्र प्रतिष्टिताः ॥११॥ रक्षत्यवति सर्वान्यः । सोमतिचशाद्विकाः॥ अखण्डमव्ययंचैतत् । सिद्धस्यैवाभिधायकम् ॥१२॥ अर्हत्यर्चामिन्द्रकृता-महनवाच्योऽस्त्यकारतः ॥ डप्रत्ययानामसिद्धेः । शुद्धः केवलरूपभाक् ॥ १३॥ उइत्युच्चैर्गतौमोक्षे । दीर्घोकारस्तुरक्षणे ॥ अस्ययोगादुनासिद्धेः-संध्यक्षरे तृतीयके ॥ १४ ॥ अर्द्धचंद्राकृति:सिद्ध-शिलाबिन्दुस्तदुर्द्धगः॥ सिद्धेऽनाकारतोख्यायी । जगन्मूद्धनि संस्थिते॥ १५॥ ॐकाररूपात्साकारो। नाकारोविन्दुरूपतः ॥ सिद्धोऽनाकारसाकारो-पयोगादुभयात्मकः ॥१६॥ अतत्यात्माप्यकारेण । बाच्यःकेवलशालिनाम् ॥ उः पंचमीगतिर्मोक्षः । पंचमखरसंज्ञया ॥१७॥ तयोर्योगे मितिमहा-नन्दःसपुरुषोद्भवः ॥ परमेश्वरसंज्ञासौ । ताद्रुप्यंतत्स्मृतेर्भवत् ॥१८॥ अईत्यहन्ऋकारःश्री । ऋषभोरेभवेदतः ॥ अमित्यर्हन्महाबीर-स्तत्संधावोंप्रतीयते ॥१९॥ नमस्त्रिधोर्चिते सोर्हन् । विधि,विष्णुरीश्वरः ॥ सकइत्यादिशंकायां । सिद्धमित्याहनिर्णयात् ॥ २०॥ ज्योतिःशास्त्रेसिद्धशद्वा-चतुर्विशतिसंख्यया ॥ तावन्तीनतिराख्यायि । स्वयंमातृकयाऽन्वयात् ॥ २१॥ ॥ इतिश्रीअर्हगीतायांकर्मकाण्डविंशत्यऽध्यायः ॥ २० ॥
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अध्याय
श्री गौतमउवाच ऐश्वर्यं परमं यस्य । शिवः सिद्धिप्रसाधनम् ॥ सोऽर्हन्ब्रह्मार्यमाविष्णुः । शंभुर्बुध्दोऽथवापरः ॥ १ ॥
श्री भगवानुवाच लोकालोकमयोब्रह्म-रूपसत्वनिधिविधिः ॥ सर्वभूतमयीभूत-स्तद्ज्ञातापरमेश्वरः ॥ २ ॥ खरूपस्य खयंक" । जगद्भाव्यस्यशाश्वतः ॥ एकोनेकविवर्तात्मा । सर्वगःस्ववशःपरम् ॥ ३ ॥ लोकालोकमये ज्ञेये । ज्ञातुःप्राधान्यमिष्यते ॥ प्रत्यक्षस्तनुवाचित्तः । कर्तायं नापरोयतः ॥ ४ ॥ तन्वायैरिह कर्मात्तै- वैर्यःसर्वपुद्गलान् ॥ स्वीकृत्यानन्तश:सर्वां । चकारजगत:स्थितिम् ॥ ५ ॥ क्रियांविना नकर्मस्या-न्नकर्तारं विनाक्रिया ॥ भोक्ता क्रियाफलस्यैष । चेतनोऽस्तिसनातनः ॥ ६ ॥ अनन्तशक्तिरार्हन्त्य । भाजनंजनपूजितः ॥ विष्णुरात्माजगत्कर्ता । स्थुल सूक्ष्मःपरोऽपरः॥ ७ ॥ यो याद्वषयकं ज्ञानं । विभर्तिपरमार्थतः ॥ ज्ञानादज्ञेयाऽविभेदेन । कर्त्तात्मा बस्तुनःसतः॥८॥ यथाघटस्यदीपःस्या-प्रकाशेनोंशुजन्मना ॥ स्पष्टपर्याय कायं । तदात्मा ज्ञेयकारकः ॥ ९ ॥ चिदानन्दमयं ज्योति-पदास्य प्रकटीभवेत् ॥ तदात्मा परमात्मायं । शिवःसिद्धोऽभिधीयते ॥१०॥
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अध्याय
यथायथास्यमोहांध्यं । व्यपैतिस्वगुणोदयात् ॥ उदेति पारमैश्वर्यं । तथैन्द्रज्योतिरद्भुतम् ॥११॥ संपुर्ण पारमैश्वर्यं । सिद्धेस्ति परमेष्टिनि ॥ यदज्ञान ध्यानजापाद्यैः । सिद्धयोऽष्टोमहर्द्धयः॥१२॥ प्रकटे केवले ज्ञाने । योगातिशयशालिनि ॥ प्रसिद्धं पारमैश्वर्यं । स्पष्टमर्हति चार्हति ॥ १३॥ यदुक्तयोगमार्गेण । यध्यानादपियद्भवेत् ॥ तत्तत्कतृकमेवष्टं । वैद्यैत्रिःयथासुखं ॥१४॥ जिनोक्तयोगेनानेक-लब्धिर्विष्णुमुनेरिव ॥ ऐन्द्रर्द्धिभुक्तिमुक्तिश्चाऽ–वश्यंवश्यंजगत्रयं ॥१५॥ रागोद्वेषश्चसंसार-कारणंसद्भिरिष्यते ॥ तयोर्विवर्जितोज्ञाता । मुक्त:स परमेश्वरः ॥ १६ ॥ नजन्तुपीडा न ब्रीडा । नक्रीडा मैथुनादिकाः ॥ हास्यं नलास्यं नालास्यं । सएव परमेश्वरः ॥१७॥ शकचक्रयर्द्धचक्रयादि-यश्चान्यःपुरुषोत्तमः ॥ सोपि भाविनयापेक्षं । प्रत्यक्षः परमेश्वरः ॥१८॥ यावद्धमतिसंसारे । रागद्वेषवशंबदः ॥ आत्मा न पारमैश्वर्यं । तावत्प्राप्नोति निश्चयात् ॥१९॥ यस्यातिशयसाम्राज्यं । जगदाश्चर्यकारणम् ॥ शुद्धयोगेन योगी यः । सदेवःपरमेश्वरः ॥ २०॥ नानाजनानामित्युक्त्या । निर्णीयंपरमेश्वरम् ॥ तस्यैवभक्तिराधेया । प्रेयान् यदि महोदयः ॥ २१ ॥ ॥ इतिश्रीअर्हद्गीतायांकर्मकाण्डेएकविंशत्यऽध्यायः ॥२१॥
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अध्याय
ॐ श्री गौतमउवाच ऐन्दवी निर्मला कान्तिः । शान्तिभृत्परमेश्वरे॥ सिद्धे पूर्णतयाभाति । चिदानन्दाभिनन्दिनी ॥ १ ॥ एक्ये प्रतिष्टिते तस्मिन् । एकोहि परमेश्वरः ॥ आत्मनःपरमैश्वर्ये- ऽनैक्यंतद् घटते कथम् ॥ २ ॥
३ श्री भगवानुवाच । लोकालोकात्मकं बस्तु । सद्रूपमेकमेवतत् ॥ तच्छक्तिचेतनामुख्या । ताप्यात्तदनेकता ॥ ३ ॥ भावैक्यं द्रव्यदृष्टयैवः । पर्यायात्तदनेकता ॥ द्रव्यक्षेत्रे कालभावै-बहूधापर्ययोदयः ॥ ४ ॥ अर्हत्सुच यदार्हन्त्यं । या च सिद्धेऽस्तिसिद्धता ॥ तथा स्वभावादानैक्यं । तदेक्यंशाश्वतंस्वतः ॥ ५ ॥ यथा सिद्धे जिनेनैक्यं । शक्यं श्रीपरमैश्वरे ॥ यदेकंतदनेकंस्या-दितिव्याप्ति विनिश्चयात् ॥ ६ ॥ आत्मत्वजातिमानात्मा । सोऽवस्थाभेदतोद्विधा । क्षेत्रज्ञाःपरमात्माच । न भिन्नं द्रव्यमीश्वरः ॥ ७ ॥ न्यायशास्त्रमिति प्राह । लोकेप्रामाणिकं हि तत् ॥ जीवःशिवाशिवोजीव-इतिस्मानुशासनात् ॥ ८ ॥ चतुर्विशतिसंख्यादि-जिने सिद्धे प्रतीयते ॥ सा विवक्षितकालेन । बस्तुतस्तदनन्तता ॥ ९ ॥ एकोप्यकारस्तत्वेन । चतुर्विंशतिभेदभाक् ॥ तथा स्वरूपादेकस्मिन् । जिनेसिद्धेप्यनेकता ॥१०॥
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अध्याय
अवताराःह्यसंख्येया । एकस्यापिहरेर्यथा ॥ ब्रह्मविष्णुमहेशाद्या । एवमर्हन्ननेकधा ॥११॥ एकवर्षे यथापक्षा-श्चतुर्विंशतिसंख्यया ॥ राशिचक्रेऽथवाहोरा । तत्वानिमंत्रशासने ॥१२॥ एकस्मिन्नपि षट्पर्वी । न्यासेमुक्तावशेषिता ॥ तावत्यस्ति प्रयोगानि । तथातावन्ति रक्षणे ॥१३॥ प्रकृत्यवस्थानामाद्यै–श्चतुर्विंशतिधाजिनः ॥ एकोपि श्रूयतेताव-दण्डक भ्रमणच्छिदे ॥१४॥ चतुर्विशतिनाडीभ्यो । नस्यादूनं दिनं निशा ॥ चतुर्विशत्यक्षरात्मा । गायत्रीसूत्रितापरे ॥१५॥ मातृकासौभाग्यवती । खटिकालेखनात्सिता ॥ चतुर्विंशतिमेवाख्य-जिनानांस्वररूपतः ॥ १६॥ स्वयंराजंतइत्युक्ता । स्वराःस्वयम्भुवोजिनाः ॥ स्वयंसम्बुद्धभावेन । वर्णाम्नायेपिसूत्रिताः ॥१७॥ वर्णवर्णात्षोडशानां । षोडशादौखराजिनाः ॥ वर्गीयपंचमाशेषं । यवलाश्वजिनाष्टकम् ॥१८॥
सिक्यधर्मेण । स्वररूपममीष्वपि ॥ वर्णभेदेऽहंतामेषां । तथोक्तिर्व्यञ्जनाश्रयाः ॥१९॥ प्रायोभिप्रायतस्त्वेव-मेकस्याप्यर्हतःस्मृतम् ॥ चतुर्विंशतिसंख्यानं । यथाद्वादशता रखेः ॥२०॥ स्वस्वशासनपद्धत्या । वर्ण्यतांनकधाप्रभुः ॥ तादात्म्यानन्यरूपत्वा-देकःश्रीपरमेश्वरः ॥२१॥
॥ इतिश्रीअर्हद्गीतायांकर्मकाण्डेद्वाविंशत्यऽध्यायः ॥ २२॥
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अध्याय
"श्री गौतमनुवाच - ऐक्यं यदात्मनेस्वामि-त्रथैवं परमेशितुः ॥ ध्यानं दानं तपःस्थानं । किमर्थं क्रियते तदा ॥ १ ॥ आत्मायं मुक्तएवास्ति । निश्चयात्केवलात्मकः ॥ स्वरूपावस्थितःशुद्धः ।सिद्धः शिवे भवे प्यहो ॥ २ ॥
8 श्री भगवानुवाच. व्यक्ताऽव्यक्ततयाद्वेधा । परापरतयाऽथवा ॥ ब्रीहितन्दुलगत्येको-प्याम्नातः परमः प्रभुः ॥ ३ ॥ भवेत्पुनर्भवायैव । मनुष्यस्तन्दुलोयथा ॥ उत्पत्यैफलपत्रादे-निस्तुष स्त्वपुनर्भवः ॥ ४ ॥ एवं यावदयं कर्म । विदधत्कर्मरेणुना ॥ लिप्यते क्षिप्यते ताव-द्भवजालेङ्गभृशम् ॥ ५ ॥ निश्चयात्केवलोप्यात्मा । मलवान्व्यवहारतः ॥ समलं निर्मलं वांभ-शातकुम्ममिवद्विधा ॥ ६ ॥ कर्मवंधोभवेजीवः । कर्ममुक्तोभवेच्छिवः ॥ इतिस्मातगिराबोध्यं । द्वैविध्यं परमात्मनि ॥ ७ ॥ ध्ययःप्रज्योऽथवासेव्यः।सोप्यात्मा परमेश्वरः॥धाताप्यवंतथाप्युच्चैः। काचमण्योरिवान्तरम् ॥८॥ मायान्वितःपरब्रह्म । केवलब्रह्म सेवया ॥ नैर्मल्यमश्नुतेयोग-स्तेन सर्वत्रसंमतः ॥ ९ ॥ धातुनाधातुशुध्दिस्या-जलशुध्दिर्जलोत्तमात् ॥ वायुनावायुशुध्दत्व-मात्मशुध्दिस्तथात्मना॥ १०॥
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अध्याय
पूर्वयोगीश्वरध्याना-नैर्मल्यं परयोगिनि ॥ योयं ध्यायति यद्रूपं । तद्रूपं लभते स वै ॥११॥ संसर्गयोगात्ताद्रूप्ये । शुकद्वयनिदर्शनम् ॥ हस्तीसेचनको यद्वा । युक्तिनिम्बाम्रयोरपि ॥१२॥ एवंश्रीभगवानहन् । सिद्धःसर्वगतः शिवः ॥ तेनोक्तः समयो बेदः । पौरुषेयः प्रगीयते ॥ १३॥ तस्यैव भजनाल्लोकः । स्वयं तद्गुणभाजनम् ॥ पुष्पवासनया तैलं । नैव किं तन्मयीभवेत् ॥१४॥ जपनामापि तस्येह । तन्मुक्तौ स्थापयन्मनः ॥ तन्मयीस्याध्यानबलात् । पानीयममृतं न किं ॥१५॥ यदाकारं हृदिध्याये-नरस्तद्रूपमाप्नुयात् ॥ सविषोनिर्विषःकिनो । धवलध्यानधारयाः ॥१६॥ देवस्यस्मरणान्मंत्रा-धिष्टातांऽगेस्य तन्मये ॥ दृश्योऽवतणात्साक्षा-द्वाप्रतीतिःकिमन्यथा ॥ १७ ॥ पिण्डस्थाच्चपदस्थंत-ध्यानं श्रेष्टमतः पुनः ॥ रूपस्थं पुरषाकारं । रूपातीतं ततोऽपिच ॥१८॥ लोकाकृतेर्भावनया । संवरेलोक वंधनम् ॥ संस्थानविचयंधर्म-ध्यानमस्मादिहागमे ॥१९॥ नामाकृतिद्रव्यभावे-वंश्रीपरमेश्वरम् ॥ रागद्वेष परित्यक्तं । शिवं शांत्यात्मकं भजेत् ॥ २०॥ सोपिक्रमेणतादात्म्यं।माहात्म्यादस्य संस्पृशेत् ॥भक्तिरेव महाभक्तिः। व्यक्ताभगवती विभो ॥ २१॥ ॥ इतिश्रीअर्हद्गीतायांकर्मकाण्डेत्रयोविंशत्यऽध्यायः ॥ २३॥
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अध्याय २४
श्री गौतमउवाच ऐश्वर्यवान् शिवःसिद्धो-हन्नथपरमेश्वरः ॥ तदा किं पारमैश्वर्यं । लोकालोकव्यवस्थितम् ॥ १ ॥
श्री भगवानुवाच आधेयनामधारेपि । सूरविम्बेपि सूरवत् ॥ धनवन्नगरं नाम । सवलस्तन्निवासतः ॥ २ ॥ उज्वलःकम्बलस्तिक्ता । शुण्ठीसुरभिचंदनम् ॥ गृहीतेऽग्निमयेंगारे । वाच्यःकिं नाग्निसंग्रहः ॥ ३ ॥ चित्रिते गृहदेशेपि । गृहं चित्रितमुच्यते ॥ चन्द्रेकदेशे दृष्टेपि । दृष्टश्चन्द्रोनवोदितः ॥ ४ ॥ समुद्रोभू: समुद्रस्य । ग्रामभू:ग्रामईत्यपि ॥ यद्वाकणोपिलवणं । राशिलवणमेवहि ॥ ५ ॥ इत्यसौकेवलब्रह्मा-धारात्सद्भिःप्रगीयते ॥ लोकालोकोपितद्रूप-स्तद्योगे तत्वनिश्चयात् ॥ ६ ॥ अस्मादेवनयादर्हत् । कथितःज्ञानवान्गुरुः ॥ अर्हन्वाभगवान्भट्टारकश्च व्यपदिश्यते ॥ ७ ॥ परंपरागमस्तेन । प्रमाणं सांप्रतं मतः ॥ संयतर्षेगुरुगोत्र-पृच्छास्पष्टास्तदागमे ॥ ८॥ खयं गृहीतलिंगत्वं । निंद्यतेऽङ्गेपि पञ्चमे ॥ धर्मस्य विनयोमूलं । तन्मूलं गुरुरेवसः ॥ ९ ॥ अभ्यस्तोपिमहामन्त्रः । स्फुरेन्नैव गुरुं विना ॥ विनयेश्रेणिकोभिल्ल-स्तापसोवानिदर्शनम् ॥१०॥
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अध्याय
२४
कलाःप्रकाशयन् पूर्व । नमेत् किं न कलागुरुम् ॥ शास्त्रैःप्रदेशीत्यादेशि । केशिनानवकेशिना ॥११॥ त्रिःप्रदक्षिणयंत्येव । किं न केवलिनो जिनम् ॥ तीर्थं नमति देवोपि । देशना समये खयं ॥ १२ ॥ यश्चाचार्यमुपाध्यायं । श्रुताचारविनायकम् ॥ निन्देत्सपापश्रमणो । जमालिकूलवालवत् ॥ १३॥ गुरोदृष्टिशुभं भावं । समुन्नयतिनिश्चयात् ॥ तेनैव गणधर्मोयं । भवेदापंचमारकम् ॥१४॥ गुरुर्नेत्रं गुरुदीपः । सूर्याचन्द्रमसौ गुरुः ॥ गुरुर्देवोगुरुःपन्था । दिग्गुरु सद्गतिगुरुः ॥१५॥ नेकाशनस्यभंगस्या-दुत्थानं कुर्वतानराः ॥ गुरोविनयसिध्यर्थं । सिध्यार्थी तद्गुरुं भजेत् ॥१६॥ सूर्याचन्द्रमसरुचं । पदं शास्त्रेगुरोः स्मृतं ॥ गुरोपुर्णानुभावेन । सिद्धियोगो हि निश्चितः ॥१७॥ ऊनंकुर्याद्गुरुःपुर्ण । गुरोर्गौरवमश्नुते ॥ गुरोःस्थानेपि मांगल्ये । मंगलस्य सुहृद्गुरुः ॥.१८॥ गुरोरेकाग्यमातन्वन् । गणेषुप्रथम:श्रिये ॥ गुरोरतिक्रमे दुखं । बक्रतायां च जन्मिनां ॥१९॥ गुरुःपोतोदुस्तरेव्धौ । तारकः स्याद्गुणान्वितः ॥ साक्षात्पारगतःश्वेत-पटरीतिं समुन्नयन् ॥ २०॥
स्यादक्षरपदप्राप्ति-द्वैधापिगुरुयोगतः ॥ गुरुरूपेणभूभागे । प्रत्यक्ष:परमेश्वरः ॥२१॥ । ॥ इतिश्रीअर्हद्गीतायांकर्मकाण्डेचतुरविंशत्यऽध्यायः ॥ २४ ॥
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अध्याय
श्री गौतमउवाच ऐन्द्रस्वरूपं कैवल्ये । संस्कारात्कर्मण्यात्मताम् ॥ कैवल्यसिद्धये तस्मात् । किंकर्म प्रथमंमतम् ॥ १ ॥
8 श्री भगवानुवाच रुचिं नवनवैक्यिः । शास्त्रैर्वाजनयद्गुरुः ॥ ततोभव्यस्य शुश्रूषा । श्रवणाद्याधियोगुणाः ॥ २ शास्त्रादिव्यवहाराय । संज्ञापूर्वयथोच्यते ॥ तथानामपुर:श्राव्यं । देवस्य गुरुधर्मयोः ॥ ३ ॥ ज्ञानिभिः पुर्वजैर्नाम्नो । निक्षेपः प्रथमाकृतः ॥ नाम्नानैर्मल्यमापन्नः । स्थापनाद्यपि मन्यते ॥ ४ ॥ नाम्निवास्थापनायांय-स्तादात्म्यं हृदिचिन्तयेत् ॥ दृष्टेविम्बेश्रुतेनाम्नि । तुष्टः श्रद्धालुरुत्तमः॥ ५ ॥ तन्नाम चरितश्रुत्या । तदेकाग्रेण तन्मना ॥ तत् ध्यानभावनाजंतु । नूनंताद्रूप्यमश्नुते ॥ ६ ॥ नामजापोपिसंक्षेपा-द्विस्तराद्वाऽस्त्यनेकधा ॥ तस्मात्समासतोध्येयः । ॐकारसिद्धबाचक्रः ॥ ७ ॥ अईत्यहन्अशरीरः । पुनसिद्धोप्यतिस्थितः ॥ आआचार्यउपाध्यायः । उ:मकारोमुनिःस्मृतः ॥ ८ ॥ स्मायोइत्येवमोंकारे । पंचापिपरमेष्टिनः ॥ नमनाजापतोऽप्येषां । शिवादीनामिवश्रियः ॥ ९ ॥ अइत्यहनउगुरुःस्या-न्मुनेर्द्धर्मोमकारगः ॥ तस्य संवररूपेण । सुवृत्तात्माहि बिन्दुता ॥१०॥
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अध्याय
अर्हन्नपरिहन्तासा-ऽवऽरूहश्चेतिनामसु ॥ क्रमात् अईउईत्येते । प्राकृते भेदकाःस्वराः ॥ ११ ॥ अईउणितितत्सुत्रं । कृतंपाणिनिनादिमम् ॥ एतद्योगेनसिद्धत्व-मोंकारेण निरुप्यते ॥ १२॥ अईत्यस्मादधोलोकः । उईत्युद्धस्थसूचकः ॥ मेमर्त्यलोकस्तिर्यग्भूः । सुवृत्रस्ततओमिति ॥ १३॥ आकारात्उपवर्गस्य । स्थानीयोज्याससंगृही ॥ अपबर्गस्तदोंकारे । विन्दुःसिद्धोपितस्थितः ॥ १४ ॥ अइत्यात्माताद्वितकें । उर्मेमोक्षःशिवस्ततः ॥ अनाकारबिन्दुरूपः । ॐकारस्तन्मयोमतः ॥१५॥ आतिभक्तिविष्णुरूपात् । उपलब्धिरुकारगा-मेमहाव्रतमोंकार-स्त्रियोगेब्रह्मकेवलम् ॥१६॥ अतिविष्णुरुतिब्रह्मा । मेशिवस्तत्रयीमयः । ॐकारःपरमब्रह्म । ध्येयोगेयस्तदर्थिभिः ॥१७॥ अकारअततीत्यात्मा । सपञ्चमोपयोगतः ॥ उतोमितिमहानन्दे । शिवोविंद्वाकृतिर्भवेत् ॥१८॥ अर्हपदेव्यंजनेन । वर्जितेप्योंतव्ययम् ॥ सिद्धाभिधायकं ध्यायन् । शिवएवनिरंजनः ॥ १९॥ अः सूर्यःसउनायुक्तः । प्रकाशेनमकारके ॥ महावीरे शिवावस्था मोंकारेविन्दुनानमेत् ॥२०॥ अत्युकारे मकारेच । त्रिपदी या व्यवस्थिता ॥ तन्मयस्त्रिजगद्व्यापी । ॐकारः परमेश्वरः ॥२१॥ ॥ इतिश्रीअर्हद्गीतायांकर्मकाण्डपंचविशत्यऽध्यायः ॥ २५ ॥
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अध्याय
8 श्री गौतमउवाच. ॐकारस्त्रिजगद्व्यापीः । नाथ निश्चीयते कथम् ॥जगद्व्याप्तिं विनाब्रह्मा भिधत्ते परमं कुतः ॥ १ ॥
श्री भगवानुवाच । ज्ञेयं यदभिधेयं तत् । नज्ञानमभिधां विना ॥ विनाक्षरं नाभिधापि । नोंकारेण विनाक्षरम् ॥ २ ॥ प्रत्ययार्थाभिधानेन । तत्तुल्यंनामधेयताः ॥ वाच्यवाचकयोरेक्यं । स्यात्तद्वोधसमुद्भवात् ॥ ३ ॥ अकारादेवसर्वेषा-मक्षराणां समुद्भवः ॥ स्थानयत्नादि भेदेन । स्याद्विशेषः प्रकाशते ॥ ४ ॥ वृद्धौअकारेह्याकारः । स्पष्टो मात्रापरिग्रहात् ॥ पृष्टेइकार स्तर्ये-पीकारोऽधोप्युकारकः ॥ ५ ॥ तय॑वृद्धऊकारो-ऽधःपरान्मुखमात्रया ॥ ऋवर्णस्तद्विशेषेण । ऋवर्णः संधिजापरे ॥ ६ ॥ नक्षरत्यक्षरंराति । स्वमर्थ वा ततःस्वरः ॥ केवलोऽकारमेवाय-माकारायास्तुतद्भिदः ॥ ७ ॥ खारं खरसमुहस्तत् । पश्चालनोमकारजः ॥ नकारजोवाऽनुखारो । बिन्दु दविशेषवान् ॥ ८॥ विन्दुद्वयेविसर्गःस्या-न्नैतोपश्चात्वरंविना ॥ स्वरानुरणनरूपौतौ । घण्टादीर्घनिनादवत् ॥ ९ ॥ हस्वादीर्घ श्वासवृध्या। मात्राधिक्यंतत:प्लुते ॥ गीतादावेवतत्कार्यं । वर्णाम्नायेनतद्हः ॥१०॥
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अध्याय
वायोर्यथा स्थानघातं । वर्णोत्यादेः प्रयत्नतः॥ श्वासात् प्रकृतिसंयोगे । व्यक्तं व्यंजनमुच्यते ॥ ११॥ तत्राप्यायद्वितीयानां । वाणां शषसेपि च ॥ अघोषवं घोषवत्वं । बणे तेभ्यः परे स्फुटम् ॥ १२ ॥ सदीधैव्यंजनैः षष्टया । घटीतत्कालवृद्धितः॥ श्वासातियोगात्कंठ्योपि।हः स्यादौरस्य एव स॥ १३ ॥ समानपंचके स्थानः । प्रसंगात् पंचवर्ग्यपि ॥ अंतस्थाश्च तथोष्माणः । स्वरबर्गानुगामिनः ॥ १४ ॥ अकारो वर्णमुख्योयं । केवलात्मासतीर्थकृत् ॥ नाभिभृर्मरूदेवास्य । योनिलोके प्रसिद्धिभाक् ॥१५॥ अकारप्रभवाः सर्वे-प्येवंवर्णाप्रकीर्तिताः ॥ मातृकायां तदुच्चारे । तेनाकारपरिग्रहः ॥१६॥ केपिसार्वमुखस्थान-मवर्णमूचिरेततः ॥ मात्रायोगेप्युवर्णान्त-स्तस्यशेषस्तुसंधिजः ॥१७॥ ऋवर्णस्तुऋवर्णान्तः । सचवृद्धो गुणेऽग्रिमे ॥ प्रायोऽप्रयोगादीर्घच । नापठीतद्वादशाक्षरी ॥१८॥ अकारे सर्ववर्णोघं । मत्वामात्रानुबर्णिकं ॥ अनुस्वारे विसर्गच । ॐकारं सर्वगं जपेत् ॥१९॥ अकारः परमात्मासौ । विश्वभरोप्यधःक्षिपेत् ॥ उवर्णवत्सर्वमात्रां । तदा विन्दुरिवोर्द्धगः ॥२०॥ न्यासतोप्यव्ययंबक्ति । ॐकारः शक्तिमान्स्वयम् ॥ शद्वादपि क्षणाल्लोकं । व्याप्नोति ब्रह्मतेजसा ॥२१॥ ॥ इतिश्रीअर्हद्गीतायांकर्मकाण्डेषडविंशत्यऽध्यायः ॥ २६ ॥
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अध्याय
२७
श्री गौतमउवाच ऐश्वरं नामजयनं । निश्चित्येकाग्रमानसः ॥ शिवस्वरूपमादित्सुः । किकुर्यात्कर्मधार्मिकम् ॥ १ ॥
- श्री भगवानुवाच . तस्यैव दर्शनं कुर्या-दर्शनावराणाच्छिदे ॥ गुरोर्देवस्य चावश्यं । यस्यश्रद्धां धरेन्नरः ॥ २ ॥ यःस्वयं शिवमापन्नः । प्रेक्षणेपि शिवङ्करः ॥ यपूज्यते सदातेजो । भासुरैःश्रीसुरासुरैः ॥ ३ ॥ जिनःसनातनोजिष्णु-रच्युतः पुरुषोत्तमः ॥ स्वभूर्विश्वंभर इति–नाम्ना यो न जनार्दनः ॥ ४ ॥ स्वयंभः परमेष्टीच । नाभेयः सात्विकोत्तमः॥ वृषाङ्कः शङ्करः शंभु-र्यः सर्वज्ञोमहाव्रती ॥ ५ ॥ इत्याद्यन्वर्थनामाई-नुपदेष्टाशिवस्य यः ॥ तस्मान्नान्यःशिवःकश्चित् । मूर्तोतेनाऽस्यसान्तताः ॥ ६ ॥ न गौरीशो नकालीशः । खण्डपशुंधरोनवा ॥ न रुद्रोभैरवो नोयो । नभीमो वा नटेश्वरः ॥ ७ ॥ गौरी सती गले यस्य । लग्नाकाली ततोऽभवत् ॥आर्यापि चंडी तद्भक्ते।युक्तं स्याद्भवसेवकः ॥ ८ ॥ स्पष्टानभोगेर्या गङ्गा । ब्रह्मचारी यदङ्गजः ॥ शिवेन शिरसोदूढा-प्यपतल्लवणम्बुधौ ॥ ९ ध्यायन् श्मशानवेश्मानं । तंभक्त शिवमीक्षते ॥ वन्हिर्जलायते तस्य । विषमप्यमृतायते ॥१०॥
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अध्याय
२७
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सरामः शस्त्रभृद्वान्यो । हयग्रीवो नृकेसरी ॥ शिवाय न विदासेव्या । ज्ञेयास्ते पुरुषोत्तमः ॥ ११ ॥ यः कैवल्यान्नमायास्पृक् । समदृक्योगनिश्चितः ॥ शुद्धः सिद्धः प्रबुद्धश्च । शान्तः श्रीभगवानयम् ॥ १२ ॥ मत्स्यकूर्मोबराहश्च - हयग्रीवो नृकेसरी ॥ चन्द्रादयो ग्रहापूज्याः । पादपद्मेऽस्य लक्षणैः ॥ १३ ॥ भगवद्भक्तिभाजोऽमी । स्थाप्या भागवतासने || प्रभोपूजनयापूजा - मीषामेष्यामनीषीभिः ॥ १४ ॥ एवं जिनः शिवोनान्यो । नाम्नि तुल्येऽत्रमात्रया ॥ स्थानादियोगाज्जशयो । नवयोश्चैक्यभावनात् ॥ १५ ॥ गुरावपि शिवध्यान - मर्हन्मार्गप्रतिष्टिते ॥ मुखवस्त्रिकया मौन - मुद्रा स्पष्टयति प्रभो ॥ १६ ॥ नशिरोवेष्टनं तेषां । द्विजानामिवासद्विधौ ॥ मातृकायांधकारेपि । शिरोबंध: किमिष्यते ॥ १७ ॥ श्वेताम्बरधरः सौम्यः । शुद्धः कश्चिन्निरम्बरः ॥ कारुण्य पुण्यः संबुद्धः । शान्तः क्षान्तः शिवोमुनिः ॥ १८ ॥ श्वेताम्बरधरा गौराः । पुरतः पुस्तकान्विताः ॥ व्याख्यान मुद्रयायुक्ताः । ध्यायन्तोवा हरिंजिनम् ॥ १९ ॥ सेवते दैवतमिव । गुरुं परंपरागतम् ॥ तत्पार्श्वेनियमात् शास्त्रं । शृणुते वृणुते धृतिम् ॥ २० ॥ गुरूपदेश संज्ञायै । कर्णवेधो विधीयते ॥ उपदेशात्मकर्णत्वं । नरेनाकृतिमात्रतः ॥ २१ ॥
॥ इतिश्री अर्हद्गीतायां कर्मकाण्डे सप्तविंशतितमोऽध्यायः ॥२७॥
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५७
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अध्याय
श्री गौतमउवाच ऐश्वराङ्गे गुरौ देवे । धर्मशास्त्रे क्रियासु च ॥ वैषेऽनुयोगे वाचारे । भेदः सर्वत्र बीक्ष्यते ॥ १ ॥ पृछंचते यस्यमध्यस्थैः। धर्म स स्वं वदेत् शुभं ॥ तदन्यं मन्यते दुष्टं। संशयालुर्जनस्ततः॥ २ ॥
ॐ श्री भगवानुवाच । यागतिः सामतिरिति-न्यायात्तत्वेप्यतत्वधीः ॥ द्रव्यक्षेत्रकालभावा-नान्वेतिप्रायसो मतिः ॥ ३ ॥ तस्या नैर्मल्यसंपत्यै । दयाशीलतपःश्रुतैः ॥ परीक्षणीयो धमोपि । कषै स्वर्णमिवोत्तमैः ॥ ४ ॥ रागद्वेषमोहदोषाः । साम्यभावनया हृदि ॥ क्षितादेवाः प्रतीतास्ते । व्यतीता भवविभ्रमात् ॥ ५ ॥ तदुक्तमार्गेये लीना । मीनाइव महोदधौ ॥ गुरवोगुरवोज्ञान-श्रद्धाचारतपोगुणैः ॥ ६ ॥ वेषः सधर्माचारेपि । क्रियाशास्त्रार्थपद्धतिः ॥ सैव प्रमाणं वैराग्यं । ज्ञानं श्रद्धायतोऽधिका ॥ ७ ॥ वलायाश्चोंकुशेनेभो । नस्त्यानङ्कान्वशीभवेत् ॥ वधूर्नाथिकयाशास्त्रो-पदेशेनतथापुमान् ॥ ८॥ शास्त्रं शास्त्रान्तरदृढं । गुरुपरंपरागमः ॥ पारंपर्य विनानेष्टं-स्तत्रभिल्ल्यानिदर्शनम् ॥९॥ व्याख्यापिवृत्तिभाष्यादि-सत्यायुक्त्यासमर्थया॥ शुद्धागमाविरोधेन । भुक्तिमुक्तिप्रदा नृणाम्॥१०॥
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अध्याय
रुचिं विनापि सद्वाक्यं । हिताय रोहिणेयवत् ॥ धर्मोपदेशे शुद्धत्वं । केवलज्ञानशालीनाम् ॥ ११ ॥ तदभावेऽवधिमनः । पर्ययश्रुतधीभृताम् ॥ केवलात्श्रुतधी: श्रेष्टाः । यतः प्रकृतिकारणात् ॥१२॥ श्रुतज्ञानेऽक्षरंमुख्यं । संज्ञाव्यञ्जनलब्धिभिः ॥ तत्रिधा तत्रसंज्ञासौ। भगवत्यां नमस्कृता ॥१३॥ तत्वज्ञानं देवतत्वा-गुरूतत्वादशंकितात् ॥ सूत्रार्थालोकनाधर्मोऽ-क्षरभावादिचिन्तनात् ॥१४॥ तदक्षरं पदंब्राह्मी । पुर्वमभ्यस्यते लिपिः ॥ मूलं कलानां सर्वासां । नेत्रं क्षेत्रं गुणश्रिया ॥१५॥ कुलदेवीव जीवानां । जीवनं विश्वपावनम् ॥ ज्ञानोपकारान्मोक्षस्य ॥ साधनं धनबर्धनम् ॥१६॥ देवीसरखतीनाम्ना--धिष्टात्रीश्रुतदेवता ॥ तस्या ब्रह्मेन्द्रएवान्य-मतेगणपतिःसुरः ॥१७॥ देवालोकान्तिकास्तस्या । वश्याः सारखतादयः॥स्वरव्यंञ्जनरक्षायै । यक्षास्तच्छक्तयः परा ॥१८॥ जगतः पालनाद्विश्व-व्याप्तासौ शक्तिरूपिणी ॥ मातृकागीयते श्वेता-म्बरनिष्टाऽर्थसाधनी ॥१९॥ भगवद्वदनाम्भोजे । राजहंसीव दीव्यति ॥ शुद्धवर्णा पदेरक्ता-ऽध्यक्षामौक्तिकदर्शनी ॥२०॥
भारतीभरतक्षेत्रो-त्पत्तेोरसबर्द्धनात् ॥ सरस्वतीमहर्षीणां । राजते राजतेजसा ॥२१॥ | ॥ इतिश्रीअर्हद्गीतायांकर्मकाण्डेऽष्टविंशतितमोऽध्यायः॥ २८ ॥
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अध्याय
श्री गौतमउवाच ऐन्द्रीशक्तिरिवाचिन्त्य-प्रभावामातृकाह्यसौ ॥ यस्यां विश्वप्रकाशात्मा । परमेष्टीप्रतिष्टितः ॥ १ ॥ पूर्वलेखाद्वयंकिञ्चि-दव्यक्तमक्षरं ततः ॥ विन्दुलेखेमातृकायां । कथं कथय नाथ मे ॥ २ ॥
श्री भगवानुवाच अव्यक्तपुर्वव्यक्तस्या-द्रन्थसन्दर्भवत् खलु ॥ व्याप्तेरितीदं तत्सूक्ष्मं । सात्मकंभूतपञ्चकम् ॥ ३ ॥ आदौबायुरधोलोके । जगतः स्थितिकारणम् ॥ तस्याई प्रायसोवृतिः। श्वासस्येवात्र नाभितः ॥ ४ ॥ एकारेखाततोबायो-द्वितीयापयसःपरा ॥ वायुनोन्नीयमानत्वाद् । घनस्याब्धेरिवोद्गतिः ॥ ५ ॥ तेनैवधारा लोकेपि । दृश्या मेघस्य तादृशी ॥ जलोपरिष्टात् पृथिवी । चतुरस्रा तदाकृतिः ॥ ६ ॥ तस्यामधोग्रांथरूपा-नागलोकःस्फुटःस्मृतः ॥ उच्चैरेफाकृतिः स्वर्ग । व्यापिकाग्निमुखाश्रयात् ॥ ७ ॥ श्रुन्याकारंनभस्तस्मा स्वर्गाकाशप्रतिष्टया ॥ ततोग्निभूतरेखैका । साक्षात्तस्योर्द्धवृत्तितः ॥ ८ ॥ द्वितीयाकारवाच्यस्या-त्मनोरेखोगामिनः ॥ मातृकायां ततोभूत-पञ्चकं सात्मकं स्मृतम् ॥ ९ ॥ प्रोक्तोविवाहप्रज्ञप्ता-वेवलोकास्थातस्ततः ॥ तदुईसिद्धसंस्थाना-दोनमःसमुदीर्यते ॥१०॥
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अध्याय
अकारस्यात्मनोलेखै-कापरापरमार्हतः ॥ ततः सरेफे हे हंसे । सिद्धेऽसौ पुरुषाकृतिः ॥११॥ विन्दुशुषिर तद्गोला-कारस्थानमकारजः ॥ अलोकस्यानन्तभावं । वक्त्यकारयुगं परम् ॥ १२ ॥ एवमहँ पदध्यानं । व्यक्ताव्यक्ततयोदितम् ॥ तद्ध्यानादव्ययः सिद्धः। स्यादोंकारस्वरूपभाक् ॥ १३ ॥ अस्त्यन्यतीर्थिकश्रद्धा । गणेशस्याकृतिसौ ॥ तेनाप्रोच्चैः करोल्लासः । पुरोविन्दुश्चमोदकः ॥१४॥ परेप्याख्यान्ति शेषोयं । नागराजःकृतोत्फणः ॥ नीचैःकुण्डलितःशब्दा-नुशासनादिकारकः ॥ १५॥ विन्दुरूपो मणिस्तस्य । पुरत.सद्भिरिप्यते ॥ लेखाश्चतस्रस्तादेव्या । बाचोऽवस्थानिरूपिकाः ॥ १६ ॥ आहुरन्येक्षराणांस्यात् । षष्टेरङ्कोयमीदृशः ॥ मातृकायांनियमिताः । षष्टिवर्णा नतत्परे ॥१७॥ व्यञ्जनानि त्रयस्त्रिंशत् । स्वराश्चैवचतुर्दश ॥ अनुस्वार विसर्गौच । जिह्वामूलीय एव च ॥१८॥ गजकुंभाकृतिवर्णः । प्लुताऽश्च परिकीर्तिताः ॥ एवंबर्णा द्विपंचाशत् । षष्टिर्वा मातृकाक्रमे ॥१९॥ षष्ट्यक्षराणां च पलं । तैडोद्युनिशं च तैः ॥ तत्षष्ट्याचऋतुस्तेषां । द्विषष्ट्या वर्षविंशिका ॥ २०॥ तासांत्रयेवत्सराणा- मेकषष्टिःप्रकीर्तिताः ॥ मासषष्ट्यायुगंयद्वा । तैदशभिरप्यसौ ॥ २१॥ ॥ इतिश्रीअर्हद्गीतायांकर्मकाण्डेएकोनत्रिंशतमोऽध्यायः ॥२९॥
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अध्याय
श्री गौतमउवाच ऐन्द्रं रूपं यथामुख्यं । सर्वदेवेषु गीयते ॥ ॐकारस्तद्वदणेषु । तत्राकारः पुरस्सरः ॥ १ ॥ अव्ययत्वादकारास्या-ऽनेकेऽर्थाःसद्भिराहिताः॥ तेनाकारण किंध्येयो-हन्वा कृष्णो विधिर्भवः॥ २ ॥
* श्री भगवानुवाच * कारागृहं च संसारो । जीवयोनिः भवभ्रमः । तद्भावादकारोऽर्हन् । कैवल्यादक्षरादिमः ॥३॥ नराः प्राणभृतां मुख्याः। प्रागुक्तास्तेषु शुद्धवाक् ॥वाक्शुदिातृकाभ्यासा-दकारस्तनमुखे ततः॥ ४ ॥ भवेत् सिद्धिः नृलोकस्य ।लोकविष्णोःसनाभिगः॥नाभिजवाद कारोऽर्हन्। ततःसंवृत यत्नवान्॥ ५॥ तथाऽष्टादशधाकारो-विबाराच्छादिके नये ॥ बोढा संवृत्तयत्नेन । चतुर्विंशतिधा ततः ॥६॥ उच्चारणेपि शब्देन । यदाकारो निराकृतिः ॥ लेखने साकृतिः द्वेधा । मुक्तोवा मोचकोप्ययम् ॥ ७ ॥ आकारस्तत एवास्य । स्वरूपाद्दीर्घतां दधौ ॥ अर्हत्पार्श्वस्थितेर्वेत्ता । तेनाकारं निषेवते ॥ ८ ॥ ऐकोप्यकारस्तादात्म्या । चतुर्विंशतिधा भवेत ॥ आकारादि भिदातद्व-दहन्नेकोपि वस्तुतः ॥ ९ ॥ वर्णव्यवस्था सकला-प्पाद्यान्नाभिभुवोऽर्हतः ॥ तथाकारादसौस्पष्टा । साक्षाद्विश्वंभरोप्ययम् ॥१०॥
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अध्याय
तेनाकारस्य मुख्यत्वं । यवनाध्ययनेप्यहो ॥ ऋजुःप्रकृतिधवलः । सकृष्णो नैव युज्यते ॥११॥ आकारकेवलात्मास्य।रूपं स्त्रीलिंगसंगजम् ॥ शाब्दिका अपिन प्राहुः। कृष्णमायाऽस्य तत्कुतः ॥१२॥ ज्ञानात्मनाजगद्व्याप्ति-विष्णौ वार्हति चार्हति ॥ नसा मायामयेह्यन्य-माने देवेस्ति तत्वत्ः ॥ १३॥ अइत्यर्हन् आदिदेवो-महावीरो मतिस्मृतः ॥ अंनमः कथनादर्ह-चतुर्विंशतिमानमेत् ॥ १४ ॥ मश्चशंभुरनेकार्थेऽपबर्गान्तप्रतिष्टितः ॥ महाब्रह्मपदेमुर्द्ध-न्यारोहे स्वरसंगतः ॥१५॥ सिद्धस्यार्थोविन्दुरूप-मनाकारात्तदीयभूः ॥ स्थानं सिद्धार्थभूस्तेन । महावीरो जिनःस्मृतः ॥ १६ ॥ सिद्धार्थाद्वाभवत्येष । भासमानेस्वरात्मनि ॥ मकारेणमहावीरो । बाच्यःसिद्धार्थभूरिति ॥१७॥ शिवरूपमनुस्वारे-ऽनाकारायस्तदात्मनः॥ भूःस्थाननेमिनाथोऽर्हन् । ख्यातस्तेनशिवात्मभूः ॥१८॥ नमःप्रसिद्धं यद्विन्दु-रूपं तथा विसर्जनम् ॥ द्वेधाप्रकृत्यास्तदपि । अकारादिस्वराश्रितम् ॥ १९ ॥ सोहं हंस सदा जापो-ऽनाहतो योगिनांमतः॥ तत्राप्यकारवाच्योऽर्हन् । नियमाद् योगसाधने ॥ २० ॥ अकार पृथिवी तत्व-मीषत् प्राग्भारिका स्थितः॥स्वरशास्त्रे खेष्टः सिध्यै-तद्वाच्योऽर्हन् न तत्परः॥२१॥ ॥ इतिश्रीअर्हद्गीतायांकर्मकाण्डेत्रिंशतमोऽध्यायः॥ ३० ॥
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अध्याय
man
श्री गौतमउवाच ऐन्द्राया शक्तयोऽनन्ता । यथार्हन्नाम्न्यकारके ॥ देवेप्यनन्तवीर्यस्या-दैक्याद्वाचकवाच्ययोः ॥ १ ॥ तत्केषांचन भावानां। स्वभावं मेऽर्हति स्थितम्॥ विभावय स्यां येनाहं । भावनात् पावनाशयः ॥ २ ॥
श्री भगवानुवाच अर्हन् अर्कसिद्धरुपोऽर्थ एष । सोऽय॑स्त्वब्जैरर्यमूर्तिमुखेन्हः ॥ तत्संज्ञायामष्टवर्गा ह्यकारे । तेनैवाहन्नीश्वरोप्यष्टमूर्तिः ॥ ३ ॥ श्रीआदिदेवो ह्यरुणोऽर्यमा वा । ह्यहर्पति निमलवृत्तकात्या ॥ अर्हन् सदार्कस्तदकारनाम्ना । प्रकाशकः शाश्वतएष विश्वे ॥ ४ ॥ अर्काभुवि द्वादशलोकसिद्धा-होराश्रयात्तद्विगुणाभवन्ति ॥ अहं चतुर्विंशतिधा तथैवा-ऽकारोपि तद्वाचक एष बोध्यः ॥ ५ ॥ स्युर्टादशाकारभिदोत्रदीर्घ--हस्वप्रपाठात् किलमातृकायाम् ॥ प्लुतस्यशास्त्रेवहूशोऽप्रयोगा-त्सव्यंजनोन्यश्चतथास्त्यकारः ॥ ६ ॥
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अध्याय
अजाऽच्युताद्या अपि ये पदार्थाः। स्युस्तेप्यकारेऽर्हति चाक्षरत्वात्॥ अनुत्तरात्वादपि बोधदृग्भि रहन्अकारे ह्यजरामरत्वात् ॥ ७ ॥ अर्हन्अकारो भगवन्भवान्या । स्वमौलिमालाललितैरपुजि॥ तेनावीपीठेऽर्हतएव बिम्ब-देवीविधेयाबुधसूत्रधारैः ॥ ८ ॥ अकारवाच्यस्तत एव न स्यात । कृष्णोहरोवाप्यपरोत्रदेवः ॥ कृष्णस्य लक्ष्म्याः किलसव्यभागे-(गेनिवेशेन भवस्यगौर्या ॥ ९ ॥ तितिक्षयाहन्नवनी च साक्षात् । शुद्धोम्बुराशेर्जलवत्स्वचित्ते ॥ तथाऽनिलोप्यऽप्रतिबद्धचारे-नल प्रभावस्तपसोग्रधाम्ना ॥१० ।। गत्यांऽशुमानप्रतिहन्यमान-स्तीक्ष्णांशुमालीवसुदीप्रतेजाः ॥ सौम्यः प्रकृत्याअमृतांशुरूपः । सदानिरालंवतयांबराभः ॥११॥ अस्यार्हतः श्रीऋषभात्ऋकारे । योगाद्भवेद ननुहस्तहर्षी ॥ श्रीमान्महावीरविभुर्वहस्तं । शीर्षेशिवोहपदबाच्य एषः ॥१२॥ ऋकारतः श्रीऋषभाख्ययाईन् । आकरतस्त्वाद्यईतोमकारः ॥ श्रीमान् महावीर ईति प्रसिद्धा-रामे चतुर्विंशतिराहतीयम् ॥ १३ ॥
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अध्याय
भूमिर्यदीषत् प्राग्भारा। नाम्ना सीतार्जुनधुतिः॥ तस्या श्रीमान्पतिश्चाहन्।सीता पतिरुदीर्यत ॥ १४ ॥ रकारेचरणेलीने । कंठजत्वादकारवत् ॥ हकारात्हर्षवान् अंगी । ईईषद्भुवमाश्रितः ॥१५॥ तत्रप्रणवमध्यस्था-कारस्यैवोपयोगतः ॥ हकारासिद्धयेयोग्यः । सर्वमन्त्रप्रतिष्टितः ॥१६॥ रहौनिवार्यध्येयंतत् । अईत्यर्थोऽथवापदे ॥ रहोरुभयतस्थित्या-हनवासिद्धमकारतः ॥१७॥ रहाभ्यां यत्परे द्वित्वं । तदपि स्वरयोगजम् ॥ व्योमाग्नितत्वयोः सिद्धि-रित्याहुः खरबेदिनः ॥१८॥
के केवलं दधति ये स्युरकारभाजो-ऽहध्यानतः सकलखेचरबन्दनीयाः ॥ खे भुंजते खविजया दुदीते खखाद्यम् । प्राप्तुं विवेकसुदृशः खऽमखाद्यमोक्षात् ॥ १९॥ वर्णोषु सर्वेषुयदस्त्यकारः । श्रीमातृकायां सकलार्थयोगात् ॥ तद्ज्ञानतोऽहन्नपि तद्वदेवः । देवप्रभावात् परीभावनीयः ॥ २० ॥ ज्ञेयादनन्ताद्भगवाननन्तो । ऽहंस्तद्विबोधी सचवीतरागः ॥
तत्पुजनात्तत् प्रणतेस्तदीय-ध्यानाद्भवेत्तन्मयएवसर्वः ॥२१॥ ॥ इतिश्रीअर्हद्गीतायांकर्मकाण्डेएकत्रिंशत्तमोऽध्यायः ॥३१॥
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NAREN
ऽध्याय
8 श्री गौतमउवाच
३२ ऐक्यादतः कथं सर्वे --ऽर्हतस्तत्र निवेदिताः ॥ सर्वस्वरेषु चैकोऽर्हन् । कैर्गुणैः प्रतिपाद्यते ॥ * श्री भगवानुवाच
१ ॥ अर्हन्आद्योऽवनीशोवा - नगारोऽष्टापदेचले ॥ निवृतोऽभिजितिप्रोक्तो - ऽवता रोप्यष्टमः परैः ॥ २ ॥ अजितोईन योध्याया-मवतारादधीश्वरः ॥ सेव्योदेव्याप्यजितया । यस्य लक्ष्माप्यनेकपः ॥ ३ ॥ अश्वलक्ष्माशंभवोऽर्हन् । भासुरोऽतिशयैर्घनः ॥ अयोध्यायामभूदर्हन् । अभिनंदननामभृत् ॥ ४ ॥ अलंकृतावतारेण । अयोध्यानंततेजसा । येनश्रीसुमतिर्देया- त्सोजरामरसंपदम् ॥ ५ ॥ पद्मप्रभोऽच्युताभ्यच्य-म्भोजलक्ष्मारुणद्युतिः ॥ द्वेधाप्यंगप्रभावेन । सुपार्श्वऽनङ्गावरणः ॥ ६ ॥ अमृतद्युतिलक्ष्मानु - राधायामवतीर्णवान् ॥ चंद्रप्रभपुष्पदन्तो । जितार्च्यस्त्वानतागतः ॥ ७ ॥ अशोकाच्र्योऽशोकतरौ । स्थातार्हन्शीतलः प्रभुः ॥ अनगाराधिपश्रेयान् । अच्युतादवतीर्णवान् ॥ ८ ॥ अष्टकर्मविजित्अष्ट-वस्तुभिः पूजितोष्टधा ॥ बासुपूज्योऽमरेशाच्र्यो । विमलोऽनर्थवारणः ॥ ९ ॥ अयोध्यायामनंतोऽर्हन् । अंकुशाच्र्योऽर्थसिद्धिदः ॥ धर्मोतिशयवान् अर्थ्यः सिद्धोऽष्टशतसाधुभिः ॥ १० ॥
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अचिरादचिरासुनुः । शांतयेशांतिरेनसाम् ॥ अवलाय॑कुन्थुररो-ऽवर्तीर्णश्चापराजितात् ॥११॥ अवर्ती!श्विनीचंद्रे-ऽष्टमेकेवलवान्यतिः ॥ मल्लिनाथसुब्रतोऽर्हन् । अवतीर्णोऽपराजितात् ॥ १२॥ संजातोनमिरश्चिन्यां । नेमिश्चाष्टमकेवलीः ॥ अम्बिकार्योऽरिष्टयेष्टा-वतारीचापराजितात् ॥ १३ ॥ अश्वसेनसुतःप्राप्तो-ष्टमेनैवानगारताम् ॥ केवलीचप्रभुःपाश्र्यो-ऽनन्तनागेन्द्रसेबितः ॥१४॥ अमराचलकपेन । धैर्ययेनाददे ततः ॥ अव्ययोऽभूदपापायां । वीरः पायादपायतः ॥१५॥ अर्हतः स्युरदः प्रकारचरितात् सर्वेप्यकारवरे। ध्येयाःकेवलशालिनः श्रुतधरैराकारयोगेस्मृताः ॥ ऐकोर्हन्भगवान्परापरतयाऽनेकेपिचाकारतः ॥ सर्वज्ञा स्तदिमेसमेविदधतांनर्मल्यमस्मदृशः ॥ १६ ॥ कस्यैकोभगवान्श्चकारविदितोऽसोधेपि युग्मं वने । तद्वायेसमतामवाप्यचगुणा लोकावकाशे दिशः ॥ अर्थाश्चेन्द्रियजाअवर्ण नियताजाताश्चतुर्विंशतिः । सर्वेतेऽकचसाधनावशमपाःपान्त्वहतांबाचका ॥१७॥ अर्हन् आद्यजिनः सइक्षुकुलभूः ईशस्तथोरुक्रमः । उच्चैर्नित्यमहोपयोगउदयी-स्थायीसदो शिवे ॥ नाम्नाश्रीऋषभश्चऋगणतनुश्रीमान्ः नृभिःसेवितः।नृगीतोऽत्रसएकएवभगवान् ऐश्वर्यदाताङ्गिनाम्॥१८॥
अर्हन्आत्माकेवलः स्यात्समात्रो । ऽपीच्छामुक्तेरीशएवोपयोगी ॥ उर्द्धस्थायीसत्रिलोक्यापरदिः । नृनांगेयः पुजनीयः सजात्यां ॥ १९ ॥
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अध्याय
३२
KA
おす
ऐकोनेकः स्त्रैर्गुणैरैन्द्रवंद्यं 1 ॐकाराद्यैमंत्र यंत्रैर्निवेद्यः ॥ तस्योन्नत्यंज्ञान शक्त्याप्यनंतो । मुक्ताकाराद्विन्दुरूपीशिवात्मा ॥ २० ॥ ॐकारात्कृतिभिःस्मृतोऽव्ययमहा नुत्पन्नकर्त्ताङ्गिनाम् ॥ अंगेयोऽर्हतएवशिद्धभवनेमुक्ताकृतिः खात्मनः॥ साक्षाद्वैनयिकपदं नमइतिप्राच्यप्रकृत्यादिशन् ॥ अः सिद्धार्थविसर्जनीय वपुषोयस्याश्रयः संश्रिये ॥२१॥
॥ इतिश्री अर्हद्गीतायां कर्मकाण्डेद्वात्रिंशत्तमोऽध्यायः ॥ ३२ ॥
* श्री गौतमउवाच
ऐन्द्रप्रभृतिशब्दानु - शासनैर्या पुरस्कृता ॥ सामातृकेव सर्वेषां । ध्येयामान्या च मातृका ॥ १ ॥ तदुक्तयैवपररीक्ष्येयं । कथं धर्मसभासदाम् ॥ नतत्वधीर्विना शास्त्रं । नशास्त्रं मातृकां विना ॥ २ ॥ ॐ श्री भगवानुवाच
३ ॥
प्रथमेनार्हतान्ब्राम्ह्या । स्वपुत्र्या प्रथमं यतः ॥ पाठिताक्षरराजीयं । ब्राह्मीतिहितकृन्नृणाम् ॥ ॐकार प्रथमस्तस्यां । तदन्तरक्षरत्रयम् ॥ अस्यात्मनोरक्षणंतत् । ऊस्ततोमितिमोक्षदम् ॥ अकारः सर्वृतः तस्मा - दहिंसादिक्रियार्थकः ॥ उरुद्योतश्चोपलंभात् । योगावोमितिसिद्धिबाक् ॥
४ ॥
५ ॥
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३२
अकारस्त्वसर्पिण्या । उरित्युत्सर्पिणीपदम् ॥ योगेऽनयोः कालचक्रं । सिद्धमुक्तामिहार्हता ॥ ६ ॥ पक्षोन्धकारोऽकारेण । पुर्वउस्तूज्वलः परः ॥ तदयोगेमितिमासःस्या-दव्ययत्वेस्यसिद्धता ॥ ७ ॥ अहर्दिनमुखारात्रि-रहोरात्रस्तयोयुजि ॥ सिद्ध एव तथात्मापि । ऊर्द्धगश्चाव्ययः शिवः ॥ ८ ॥ नमस्कारोहिविनय-स्तन्मुलं ज्ञानमिष्यते ॥ तन्मुलैवक्रियाताभ्यां । सिद्धोनाम्नायमोमिति ॥ ९ ॥ अवर्णेऽर्हस्तथाचार्यः । साधुश्चव्यंजनेर्लुका ॥ ईसिद्धउरुपाध्याय । अइउभ्य:शिवात्मता ॥१०॥ एषांमात्रावलादेयो-प्यवरत्वं न मन्यते ॥ यावद्व्यञ्जनयुक्तिों । हन्यात्सैवस्वरात्मताम् ॥११॥ ऋकारंऋषभंप्राहु-मूर्धन्यं शाब्दिकाअपि ॥ तदंशाश्रयणाद्रेफो–प्यूर्द्धस्याद्यअनेऽग्रगे ॥१२॥ ऋस्वरे वीतरागत्वं । दीर्घायं च महात्मनि ॥ एषांसमानतातस्मा-च्छब्दार्थयोरभेदतः ॥१३॥ अईउऋलइत्यस्य । सूत्रस्योच्चारमानतः॥ निर्व्यञ्जनवेसिद्धिस्या-तृणांसिद्धांतसंमता ॥१४॥ गुणवृद्धौयथायोगं । स्वराणांरूपमुद्भवेत् ॥ येषांगुरुत्वंसर्वत्र । तेषु युक्तो महोदयः ॥१५॥ संध्यक्षरत्वं तेनैषां । लोकालोकान्तरस्थितेः॥ शिवरूपमनाकारा-द्विन्दोराद्यश्वराश्रयात् ॥१६॥ रेफोग्निवीप्रकृति-विसर्गस्य निसर्गति ॥ जहातिनवराभ्यणं । खरसोपितत्स्मृतः ॥१७॥ यद्यप्युच्चैर्गतीरफो । व्यंजनेस्वरसंगमे ॥ अन्तस्थोसौ नतद्वित्वं ॥ हकारेऽस्यैवचोष्मणः ॥१८॥
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अध्याय
रेफः स्वभावेन विसर्जनीयः । क्लेशप्रवेशं कुरुते प्रजप्तः ॥
अधस्तनस्थानतयाहकारो । द्वयंनवाक्येबहुशप्रयोज्यम् ॥ १९ ॥ क्लीवत्वंऋलबर्णेयत् । क्वाप्युक्तंतन्मृषागमेहस्वाःपुमांसोनार्योऽन्ये । स्वराः क्लीवा न कहिचित् ॥ २० ॥ अकारोऽहंन्पुरोन्तस्था-ख्यानंयस्या रहोः कृतम् ॥ उक्ताऽद्यशंभुनाब्राह्मी।मातृका सा हितायते॥ २१॥ ॥ इतिश्रीअर्हद्गीतायांकर्मकाण्डेत्रयस्त्रिशत्तमोऽध्यायः॥३३॥
श्री गौतमउवाच ऐन्द्राधिदेवदेवत्वं । स्वरेष्वेवंविनिश्चितम् ॥ एषासकारकैवल्या-त्सर्वाक्षरमयः परः ॥ १ ॥ त्र्यष्टसुव्यंजनेष्वेत–दाहँत्यं चिन्त्यते कथम् ॥ प्रकृतेर्बर्द्धनान्नाना-रूपैराकारधारिषुः ॥ २ ॥
* श्री भगवानुवाच - षोडशैव हि सुवर्णभास्वरा । स्तीर्थपा इहसुवर्णभाः स्वराः ॥ व्यञ्जनैर्विरहिता हितायव-स्तेदिशति समहोदयं जयः ॥ ३ ॥
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अध्याय ३४
व्यंजनप्रकृतिवर्णभेदतोऽष्टोपरेपिमहसाऽष्टसिद्धिदाः ॥ पंचमासयवलाः स्वराश्रय । प्रस्तुतादधतिरूपमक्षरम् ॥ ४ ॥ अल्पांतरत्वाद्वहुलान्तराद्वा । तीर्थस्यलोपानवमाहतोवा ॥
विवेच्यवर्णाश्रयतोऽर्हदुक्तिः । क्वचित्तदुक्तः खरवद्यकारः ॥ ५ ॥ यद्वादात्रिंशताऽकारै । र्व्यञ्जनस्थैःसहस्वरा ॥ यदापोडशमाल्यंत । ऽष्टवेदास्य ४८ स्तदास्वरा ॥ ६ ॥ चतुर्विंशतिकायुग्म-मेवंस्यात् स्मृतमहतां ॥ उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यो-रतीतवर्त्तमानयोः ॥ ७ ॥ यद्वाचतुर्दशाहत-स्वराःशब्दानुशासनात् ॥ व्यंजनानुग्रहकराः । पृथग्उक्तादशापरे ॥ ८ ॥ तीर्णत्वंतारकत्वंच । बोधकत्वंचबुद्धता ॥ मुक्तत्वंमोचकत्वंचा-हतामत्रेवमाहितम् ॥ ९ ॥
तीर्थप्रभोःप्रवचनंश्रुतशास्त्रमाहु-स्तीर्थंकरास्वरवराः श्रुतमूलहेतोः ॥
तव्यञ्चनप्रकृतयो ह्यपवर्गकान्तं ।। स्युर्मातरश्चतुरुपाहित विंशकाद्याः ॥१०॥ महाप्रकृतिरंतस्था । उष्माणश्चभवानुगाः ॥ यथासौवर्गसंसर्गाद् । ब्राम्ह्यापाठेप्रकीर्तिताः ॥११॥
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अध्याय
३४
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वलेर्बलात्पाणिनीनास्त्रसूत्र - पुर्वोपदेशोरहयोर्व्यधायि
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मिथ्यामतेराश्रयणात्ताप । स्वरेषुपाठः शषसेषुमौलः ॥ १२ ॥
ककारात्कर्मणाविष्टो - कारः खात्खादनेन्द्रियैः ॥ गाद्गात्रं कुरुते घोषं । घात्प्राणं पंचमादिहा ॥ १३ ॥ एवं पर्याप्तयः पंच- कालैक्याद् घोषचेतसोः ॥ चाच्चित्तेछात्छलान्वेषी । जातूजातोझाद् ऽतृप्तिवान् ॥ १४ ॥ आदग्निद्वेषवशत-- ष्टाधुम्रमनसाकुलः ॥ ठोबहुध्वांतवान्शून्यो । भ्रमेत्डैर्मूढधीवत् ॥ १५ ॥ णान्मोक्षात्तस्करस्तात् स । थाद्भीत्राणेनदादयं ॥ दाताधाद्धर्म्मधनवान् । नात् बुद्ध: पात्सचाधिपः ॥ १६ ॥ फाद्रणेनिष्ठुरोक्तौवा -- कलिर्वाहुबलेखि ॥ भेशंभो भगवत्युच्चै – भक्तोमः शिवरूपभाक् ॥ १७ ॥ यात्पशुः सहिरेकामे | लात्खण्डनमिहाश्नुते ॥ वात्संयमात् शिवस्यात्वे । स्वर्गेसहरितस्तुहात् ॥ १८ ॥ लंपरब्रह्मलव्धाक्षः । क्षेमवानक्षरः परः ॥ एषात्मवाचको कारो । विन्दुस्तुशिवरूपवान् ॥ १९ ॥
काराद्भवेदात्मा । कारणऋजुलेखया || अर्हन् अकारेस्तद्वेधा । परमात्मात्मभेदतः ॥ २० ॥ एवं मातृकया जगत्रयमिदं - व्याप्तं प्रकृत्याश्रयात् ॥ एषापिस्वरसंगतास्थितिवशात्सर्वेप्यकारेस्वराः ॥ | सोप्यई प्रतिपादकः समाहिताः सिद्धाः सबुद्धा: शिव-स्ताद्रूप्यायनिसेव्य एव भगवान् भव्यैरनन्त श्रिया ॥ २१ ॥
॥ इतिश्री अर्हद्गीतायां कर्मकाण्डे चर्तुस्त्रिंशत्तमोऽध्यायः ॥ ३४ ॥
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७३
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अध्याय
श्री गौतमउवाच ऐश्वर्यमुपलब्धीनां । देव त्वय्येव निस्तुलम् ॥ तन्मातृकोपदेशेन । लोकरूपं निरूपय ॥ १ ॥
. श्री भगवानुवाच क्षःक्षेत्रं तदिहालोकः । ऊर्ध्वाधः पार्श्वयोयोः ॥ पूर्णविन्दुद्वयाकारात् । ज्ञेयोन्तः शुषिरः स्वतः ॥ २ ॥ उधोभूवयात्मत्वा-लस्तुलोको महाप्रभुः ॥ वहन्मूर्द्धन्यनुखारं । सिद्धरूपोपदेशकम् ॥ ३ ॥ क्षः क्रौंचवीजंबाहुल्या-तस्यक्षायाः समाश्रयात्॥मातृकान्तस्थितस्यास्य । वाच्यो नरकदंडकः ॥ ४ ॥ लमित्यंतेनसन्दिष्टाः । दशाप्यसुरदंडकाः ॥ नष्टाजातकचकेहि । लमित्यस्यदिगंकतः ॥ ५ ॥ बाच्यंरक्षोपिलक्षाभ्यां । बहुधाऽसुरवाचिलः ॥ लःपैशाच्यांप्राकृतोक्तौ । नागोक्तावपिलादरः ॥ ६ ॥ मंत्रागमेपि लमिति । वीजभूमर्निरूपितम् ॥ यवनानांभुविक्षेप-स्तन्मृतस्याऽसुराश्रयात् ॥ ७ ॥ तत्रप्येकग्रहेसर्व-ग्रहन्यायाल्लकारकः ॥ एक: सविन्दुः प्रायस्त-ल्लिपौबिन्दोर्घनाग्रहात् ॥ ८॥ परमाधार्मिका एषु । स्वभावात् क्रूरकर्मठाः ॥ वह्वालापेपि देशाप्ते-रेकवणेसमुच्चयः ॥ ९ ॥ पादयोष्टीव्यंतराणां । निकायाष्टकबाचकाः ॥ वाय्वग्निभूजलादीनां । वीजेष्वेषांविशेषतः ॥१०॥
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अध्याय
चातुर्वण्यं नृणामिष्टं । पायेवर्ण चतुष्टये ॥ ज्योतिष्काणां तथाताये। चातुर्विध्यं व्यवस्थितम् ॥ ११ ॥ वर्गीयपंचमाःपंचः । पुर्वेऽहंतःप्रकीर्तिताः ॥ पंचखेवजलेरुक्त-स्तद्वासपारमेश्वरः ॥१२॥ काद्याढांताःस्मृताःस्वर्गा । द्वादशत्रिदशान्विताः ॥ ऊकाराद्याविसर्गाताः । नवप्रैवेयकान्यपि ॥ १३ ॥ नऋवर्णोद्लुवर्णस्य । भेदभावोऽप्रयोजनात् ॥ अकाराद्याउकारांताः । पंचाप्यनुत्तरालयाः ॥१४॥ सर्वार्थसिद्धिःप्रथमो-ऽपरोऽपराजितस्ततः ॥ इस्वरेविजयोदीर्धे । विजयान्तोजयन्तके ॥१५॥ ॐकारकेवलज्ञानं । सिद्धःप्रागेवदर्शितः॥अस्त्यागसिद्धश्चारित्रात् । अंसिद्धोभक्तिशीलनात् ॥१६॥ योगेऽनयो:स्यादोंकारः। परोऽस्याऽर्थस्यदर्शनात॥नरांगरूपं यस्त्यागो। विसर्ग:सिद्धताऽनयोः॥१७॥ विसर्गप्रकृतेरेफ-स्याऽग्नेः केवलसेवनात् ॥ सिद्धः केवलभक्त्यावा । तो पुनर्भवभाजनम् ॥ १८॥ नमः शब्देनविनयो । भक्तिर्वाविनयोव्रतम् ॥ विशिष्टोवा नयः शास्त्रं । ज्ञानसिद्धस्त्रयादतः ॥ १९॥ नकारेष्टावतश्चैको । मे नंदा९षडविसर्गके ॥ चतुर्विंशतिरेखास्या-नष्टजातकचक्रजाः ॥ २०॥ लोकभावनयाचैवं । लोकालोकावलोकनात् ॥ लोकोभवत्यकारस्या-हतः सारूप्यभाग्भुवि ॥२१॥ ॥ इतिश्रीअर्हद्गीतायांकर्मकाण्डेपंचत्रिंशत्तमोऽध्यायः॥ ३५ ॥
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अध्याय
श्री गौतमउवाच ऐक्यं न दृस्यते धर्मे । नाना शास्त्रीयवार्तया ॥ श्रीवर्द्धमानतन्मे त्वं । धर्मतत्वं निवेदय ॥ १ ॥
* श्री भगवानुवाच वृत्ते ज्ञाने दर्शने वा । सर्वस्मिन्नक्षरत्रये ॥ यस्यगौरवमेवास्ति । श्रिये स मगणोर्हताम् ॥ २ ॥ यःसुदेव्यास्तनुजन्मा । गणोऽस्य यगणस्मृतः॥ तद्वर्णमुख्येपिलघौ । युक्ताग्रे गुरुता द्विधा ॥ ३ ॥ यः सदा रगणे लग्नो । नग्नोऽस्य गौरवे क्षितौ ॥ नचित्रमादीवन्तेपि । अन्तर्लघुतयाङ्गिनः॥ ४ ॥ सहिताः सगणोबणे । स्त्रिभिर्वन्द्योऽन्तगौरवात् ॥ तीर्थेशभावात्तगणं । भजतेऽनुक्रमेण यः॥ ५ ॥ अन्तर्गुरुधियंपुष्यन् । पार्श्वेलघुतयोपधेः ॥ रगणं च द्विषन्नीत्या । जगणोजगदर्यमा ॥ ६ ॥ भगवान्भगणः श्रेयान्।साक्षाद्गुरुमुखो हि सः॥ कीर्तिश्चन्द्रमसाकान्ते-र्धाताभावत एव यः ॥ ७ ॥ शिवानयनकृद् यस्य । स्थिति वितनन्दिनी ॥नगणः ससदानम्यो । गुणनगणनान्वितैः॥ ८॥ मन्दारःस्वेष्टदानेषु । यैकारोऽर्हन्युगादिजः ॥ राजराप्रथमोयोगी । सहितःप्रभयारवेः ॥ ९ ॥ तस्मात्तीर्थेश एवान्ये । जयंतइहजज्ञिरे ॥ सर्वेभावत एतेषां । गणनागणवर्णवत् ॥१०॥
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अध्याय
लोके नयनतुल्यास्ते । गुरुतां प्राप्य लाघवात् ॥ शिवखरूपमापन्ना-च्छदोमार्गानुरोधिनः ॥ ११ ॥ भवानुरागोक्रमतो गौरवं लाघवं भजन ॥ सर्वांग लाघवाद्धत्ते । ऽकारोऽर्हन्नार्जवं हि सः ॥१२॥ आकृतौ विकृतिर्नास्य । शिवोयमूर्द्धगामुकः ॥ प्रस्ताराद्विरतच्छन्दो । विश्रामायैवकेवलः ॥१३॥ यस्थाकृतिर्लिपिन्यासे । बक्राविकृतिभाग्गुरोः ॥ तस्याकारस्यबाच्योंगी। युक्तःप्रस्तारवानयम् ॥ १४ ॥ विश्राम्यति यथा छन्दो । रूपेभ्यः केवलोऽव्ययः ॥ अकारोलाघवादेवं-मात्रया र्यागणेष्वपि ॥१५॥ सर्वादिमोक्तानुसृते-र्येषांपंक्तिधृतिर्वरा ॥ वर्णानांविदुषां तेषां । प्रतिष्टावहतीनुवा ॥१६॥ येमीमांसाहतालोके । येषांमन्युक्रिया प्रिया ॥ नेश्वरस्तैस्ससर्वज्ञाः । प्राप्यते समये क्वचित् ॥ १७॥ नित्यं रतियेतिस्थाने । मतिर्दण्डकनिश्चये ॥ गतिःशनैःपदन्यासे । दिव्याकृतिषु संस्कृतिः ॥१८॥ पदं श्रुतिकटुत्याज्यं ।दुष्टं बाक्यमसक्रियम् ॥ यतः स्याद्गाम्यधर्मस्यो-दीपनं धियते न तत् ॥ १९॥ च्छंदोविशारदैरेव-मादर्शि शिवशर्मणे ॥ धर्मस्तस्मान्नित्यसुखं । श्रीमेघविजयोदयः ॥२०॥ आयंसर्वगुरुस्वरूपमुचितं जीवप्रकृत्यात्मकं ॥ प्रांतेसर्वलघुक्रियंपरिणतं-सिद्धं सुबुद्धं शिवम् ॥ च्छंदःशास्त्रगणेऽखिलेवरकुलेजात्याविशिष्टेप्यहो॥मन्येऽकारनिदर्शनं गुरुलघुस्थित्याहतोबाचकम् ॥ २१ ॥ ॥ इतिश्रीअर्हद्गीतायांकर्मकाण्डेषटत्रिंशत्तमोऽध्यायः ॥३६॥
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________________ * इति श्रीअर्हगीता सम्पूर्णम्