Book Title: Ahimsa Vishvakosh Part 01
Author(s): Subhadramuni
Publisher: University Publication
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा विश्वकोश (वैदिक/ब्राह्मण संस्कृति) विद्यावाचस्पति सुभद्रगति भाग-1 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा विश्वकोश सुख व शांति, प्रत्येक प्राणी के लिए अभिलषित हैं। वैयक्तिक सुख-शांति ही नहीं, विश्व-शांति की प्रक्रिया में भी अहिंसा को व्यावहारिक जीवन में प्रतिष्ठापित करने की आवश्यकता निर्विवाद है। आधुनिक युग का आतंकवाद हिंसक वातावरण की उपज है, जिसने विश्व के प्रत्येक देश को अहिंसा का महत्त्व समझने के लिए बाध्य किया है। भारतवर्ष की संस्कृति का 'उत्स' अहिंसा है। भारतवर्ष अहिंसा का सन्देश समस्त विश्व को देता आ रहा है जिसका प्रतिफल यह है कि विश्व क प्रायः सभी धर्मों में अहिंसा को उपादेय माना गया है। आधुनिक युग में, धर्म-दर्शन के क्षेत्र में, खण्डन-मण्डन के स्वर के स्थान पर, समन्वयात्मक दृष्टिकोण व सहिष्णुता को अपनाने को प्रमुखता दी जा रही है। विद्वानों का यह सर्वत्र प्रयास हो रहा है कि सभी धर्मों दर्शनों में व्याप्त समानता को अधिकाधिक रेखांकित किया जाय ताकि वे एकता के सूत्र में बंधकर, सामूहिक रूप से समस्त मानवता के लिए सुख-शांति का मार्ग प्रशस्त कर सकें। इसी वैचारिक पृष्ठिभूमि में 'अहिंसा विश्वकोश' की संकल्पना हुई थी। जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकर और अहिंसा के अवतार भगवान् महावीर के 2600वें जन्म कल्याणक के अवसर पर, भारत सरकार ने ई. 20012002 को 'अहिंसा वर्ष' के रूप में मनाने की घोषणा की थी। इसने भी प्रस्तुत विश्वकोश के निर्माण में गतिशीलता प्रदान की। ___भारतीय धरा पर अनेक धर्म/दर्शनों का प्रादुर्भाव व विकास होता रहा है और उन्हें प्रमुखताः (1) वैदिक ब्राह्मण परम्परा और (2) श्रमण परम्परा-इन दोनों में वर्गीकृत किया जाता है। प्रस्तुत विश्वकोश के निर्माण का उद्देश्य यह रहा है कि सभी धर्म-दर्शनों में अनुस्यूत 'अहिंसा' के समस्त पक्षों को उजागर करते हुए इसके सार्वजनीन महत्त्व को रेखांकित किया जाय। इसके तीन खण्ड प्रस्तावित हैं:-(1) वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड, (2) जैन संस्कृति खण्ड। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा-विश्वकोश अहिंसा के दार्शनिक, धार्मिक व सांस्कृतिक स्वरूपों को व्याख्यायित करने वाले प्राचीन शास्त्रीय विशिष्ट सन्दर्भो का संकलन (प्रथम खण्ड : वैदिक/ब्राह्मण संस्कृति) [जैनशासन-सूर्य, संघशास्ता, आचार्य-कल्प गुरुदेव मुनिश्री रामकृष्ण जी महाराज के सुशिष्य आचार्यकल्प, विद्यावाचस्पति, संघ-शास्ता] सुभद्र मुनि सहयोग व सम्पादन : डॉ. दामोदर शास्त्री अध्यक्ष, जैन दर्शन विभाग राष्ट्रीय संस्कृति संस्थान जयपुर (राजस्थान) डॉ. महेश जैन प्रकाशक यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन नई दिल्ली -110 002 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ pera s विवान महावीर के 2600 वें जन्म-कल्याणक-समारोह को गरिमामय बनाने हेतु भारत सरकार द्वारा घोषित अहिंसा वर्ष (ई 2001-2002) के सन्दर्भ में परिकल्पित Veeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeery © प्रकाशक संस्करण 2004 ISBN 81-7555-088-0 मूल्य 1200.00 रुपये प्रकाशक प्रकाशक यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन 7/31, अंसारी रोड़, दरियागंज नई दिल्ली -110 002 मुद्रक नागरी प्रिंटर्स, नवीन शाहदरा, दिल्ली-32 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAHINSA-ENGYGLOPAEDIA S S (Compilation of ancient textual important references explaining Religious, Philosophical & Cultural aspects of Ahinsa] {Vol.1: Vedic/Brahamanic Culture} SUBHADRA MUNI [Disciple of Revered Sangha-Shasta, Shasan-Surya, Acharyakalp Gurudev Munishri Ramkrishna Ji Maharaja] es Co-Compilor & Editor : Dr. Damodar Shastri Head, Deptt. of Jain Darshan, Rastriya Sanskrit, Sansthan, Jaipur (Raj.) Dr. Mahesh Jain Publisher University Publication New Delhi-110 002 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Conceived to commemorate Ahinsa year (2001-2002) declared by Govt. of India, to glorify 26th Birth Century of Lord Mahaviral © Publisher Edition 2004 ISBN 81-7555-088-0 Price Rs. 1200.00 Publisher UNIVERSITY PUBLICATION 7/31, Ansari Road, Darya Ganj, New Delhi-110 002 Printer Nagri Printers Naveen Shahadra, Delhi-110 032 es Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धा-समर्पण समस्त मानवता को विश्वबन्धुत्व, करुणा, दया, अनुकम्पा, प्रेम, परस्पर सहयोग, सौहार्द आदि का मंगलमय संदेश देने वाले, अहिंसा के साक्षात् अवतार भगवान महावीर तथा उनकी सांस्कृतिक धार्मिक परम्परा को एवं अहिंसा की महाज्योति को जीवन्त रखने एवं जन-जन के अन्तर्मन को ज्ञान आलोक से उद्योतित करने वाले महान् धर्म प्रभावक, संघशास्ता, जैन शासन-सूर्य, आचार्यकल्प, परमपूज्य प्रातःस्मरणीय गुरुदेव मुनिश्री रामकृष्ण जी महाराज वन्दनीय चरण कमलों में श्रद्धा व पररा भक्ति से कमर्पित - सुभद्र मुनि Page #8 --------------------------------------------------------------------------  Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अटिंया-विश्वकोश (वैदिकाबाठाण संस्कृति रखण्ड) - || अनुक्रमणिका|| 1.प्राक्क थन..... ......... VII veeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee 2. विषय-अनुक्रम ........... 3. उद्धरण-स्थल-संकेत (स्पष्टीकरण) .......... 4 . अहिंसा-कोश ................... 5. आधार-स्रोत ग्रन्थों/प्रकाशनों का विवरण ........ 6. विषय-सूची (अकारादि-क्रम से) . . . . . . . . 7. उद्धरणों के प्रारम्भिक अंशों की अकारादिक्रम से संयोजित सूची... 353 ........ . ......" Page #10 --------------------------------------------------------------------------  Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ प्राक्कथन ॥ प्राचीन बिहार के सुप्रसिद्ध वज्जी गणतंत्र की राजधानी वैशाली के राजा सिद्धार्थ की पत्नी त्रिशला के गर्भ से 30 मार्च 599 ई. में 'वर्द्धमान' बालक का जन्म हुआ। राजकीय ) परिवार में सहज सुलभ अत्यधिक सुख-सुविधा व भोग-विलास की सामग्री को त्याग कर, उन्होंने 30 वर्ष की अवस्था में कठोर मुनि - जीवन की साधना अंगीकार की। 12 वर्षों की कठोरतम साधना में अपने आत्म-संयम, अप्रमाद व समत्व के बल पर क्रमशः अग्रसर होते ) हुए उन्होंने सर्वोच्च स्थिति 'वीतरागता' प्राप्त की, और 'जिन' (आत्मविजयी) कहलाये । उन्हें सम्पूर्ण निरावरण ज्ञान यानी 'सर्वज्ञता' प्राप्त हो गई थी। वे जैन धर्म के अन्तिम 24 वें ) तीर्थंकर हुए। भारत की सर्वधारण जनता को उन्होंने 30 वर्षों तक धार्मिक व आध्यात्मिक विषयों का उपदेश दिया, और 72 वर्ष की आयु में ई. पू. 527 में भौतिक शरीर को छोड़कर निर्वाण / मोक्ष प्राप्त किया। उन्होंने समाज के सभी वर्गों को शाश्वत सुख का मार्ग दिखाया । जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उन्होंने 'अहिंसा' की व्यावहारिकता, उपयोगिता व सार्थकता का दृष्टिकोण प्रस्तुत ) किया। उन्होंने अहिंसा को 'समता' व 'वीतरागता' की भूमिका पर प्रतिष्ठित कर उस युग की। चिंतन - धारा को एक नया आयाम दिया। भगवान् महावीर के धार्मिक उपदेशों से उस समय ) वर्ण-विषमता, विचार - संकीर्णता, धार्मिक अज्ञानता आदि के कारण प्रचलित उन अमानवीय व अन्यायपूर्ण प्रवृत्तियों को गहरा आघात लगा जो सामाजिक व धार्मिक क्षेत्र में व्याप्त थीं । ' Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Seeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee उनके उपदेश का सार था- मन, वचन व शरीर से 'अहिंसा' या 'समता' की ये र साधना ही 'मोक्ष' की साधना है। उनके अनुसार 'धर्म' की पहली सीढ़ी है-सच्ची/यथार्थ ए दृष्टि, जिसकी पहचान है-शांति व मैत्री भाव के मानस का निर्माण। जिस व्यक्ति के मन में प्राणियों के प्रति मैत्री भाव नहीं है, वह धार्मिक नहीं हो सकता। किसी भी प्राणी को मारना, र S उसे पीड़ित करना और उसका शोषण करना 'अधर्म' है। इस 'अधर्म' में प्रेरक होना या अनुमोदक/समर्थक होना भी पाप है। 'जीओ और जीने दो'- उनके उपदेश का सार है। ए उनके द्वारा उपदिष्ट 'जैन धर्म' समस्त प्राणिमात्र के अभ्युदय का मार्ग प्रशस्त करता है, Sइसीलिए उसे 'सर्वोदय तीर्थ' के नाम से भी जाना जाता है। भगवान महावीर की 'अहिंसा' अपने में समग्र धार्मिक सद्गुणों को समेटे हुए है। 'अहिंसा' का अर्थ मात्र किसी को न मारना ही नहीं है, अपितु उन सभी कार्यों व विचारों से बचना है जिनसे कोई भी प्राणी पीड़ित, दुःखी, शोषित या व्यथित होता हो। अहिंसा की । Sसर्वोत्कृष्ट स्थिति तो उस उदात्त मानसिक स्थिति का निर्माण होना है जहां किसी भी प्राणी केS प्रति मनोमालिन्य या मनोविकारों का उत्पन्न होना ही समाप्त हो जाय। क्षमा, मैत्री, दया, ले एकरुणा, प्रेम, उदारता, परोपकारिता,सह-अस्तित्व-भावना, मानसिक सरलता व पवित्रता, Sसमता-भाव, सभी प्राणियों में आत्मवत् दृष्टि (सर्वभूतात्मता)-ये सभी अहिंसा रूपी महानदी । की विविध धाराएं हैं। आज समस्त मानवता को संघर्ष, वैर-विरोध, असहिष्णुता, विचारसंकीर्णता, आतंकवाद, शक्ति-विस्तार की लालसा, घृणा, द्वेष आदि-आदि राक्षसी वृत्तियों व विभीषिकाओं ने घेर रखा है और मानवता का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। इस भयावह र एस्थिति में भग. महावीर की अहिंसा ही विश्व-शान्ति की स्थापना कर, समस्त मानवता को से बचाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। र सन् 1974 में भगवान महावीर का 2500 वां परिनिर्वाण दिवस मनाया गया था। यह S समारोह एक वर्ष तक न केवल भारत में चला था, अपितु विदेशों में भी उत्साह और उमंग LAGeeeeeeeeeeeeeeeeeneral II Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sके साथ सम्पन्न हुआ था। भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी स्वयं भगवान महावीर के 2500 वें परिनिर्वाण दिवस समारोहों के लिए गठित राष्ट्रीय समिति की अध्यक्ष थीं। ए अहिंसा-वर्ष में हमारे देश के प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी की प्रेरणा से और उनके Sनेतृत्व में भगवान महावीर का 2600 वां जन्म-जयंती महोत्सव राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर र भव्य रूप में आयोजित करने का निर्णय हुआ था। उक्त महोत्सव के अधीन विविध समारोह र (6 अप्रैल, 2001 से प्रारंभ होकर 25 अप्रैल, 2002 तक वर्ष-पर्यंत चले। इस पूरे वर्ष को Sभारत सरकार ने 'अहिंसा-वर्ष' के रूप में विधिवत् मनाया। र शताब्दी-पुरुष राष्ट्र-पिता महात्मा गांधी के शब्दों में "भगवान महावीर अहिंसा के र अवतार थे। उनकी पवित्रता ने संसार को जीत लिया था। महावीर स्वामी का नाम इस समय यदि किसी सिद्धान्त के लिए पूजा जाता है तो वह 'अहिंसा' है। अहिंसा-तत्त्व दर्शन को यदि किसी ने विकसित किया तो वे महावीर स्वामी थे"। इस चिन्तन-प्रक्रिया के परिप्रेक्ष्य में भ. महावीर के 2600 वें जन्म-जयंती महोत्सव को-'अहिंसा वर्ष' के साथ मनाना अत्यन्त प्रासंगिक व न्यायोचित था। ए 'अहिंसा-वर्ष' के दौरान यह चिन्तन मेरे मन में उठा कि भगवान् महावीर द्वारा ए उपदिष्ट अहिंसा के पोषक जो उपयोगी व महत्त्वपूर्ण विचार-कण प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक परम्परा के प्रतिनिधि-वांग्मय में उपलब्ध हैं, उनका संकलन एक विश्वकोश के रूप में किया र एजाय जिससे वे सर्वसाधारण को सुलभ हो सकें और विद्वानों के लिए भी उपयोगी सिद्ध हों। चूंकि प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक धरोहर जिस वांग्मय में बिखरी हुई है, वह बहुत विशाल है,5 है इसलिए सुविधा की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों को ही रेखांकित कर, उन्हीं के आधार र पर अहिंसा-सम्बन्धी उद्धरणों के संग्रह का कार्य प्रारम्भ किया गया। इसके अतिरिक्त, समस्त Sकार्य को विविध खण्डों में विभाजित करने का निर्णय लिया गया। वे खण्ड हैं-(1)वैदिक/ र ब्राह्मण संस्कृति खण्ड, (2) जैन संस्कृति खण्ड, और (3) सर्वधर्म खण्ड। उक्त निर्णय केर ए अनुरूप, उक्त खण्डों को पृथक्-पृथक् व क्रमशः प्रकाशित किया जा रहा है। DII Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S विश्वकोश के प्रस्तुत वैदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड में जिस महत्त्वपूर्ण वांग्मय को आधार बनाया गया है, उसके अन्तर्गत चयनित ग्रन्थ हैं-समस्त वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, ए सामवेद, अथर्ववेद), ब्राह्मण ग्रन्थ, उपनिषद, रामायण व महाभारत, गीता, विविध स्मृतियां (मनु स्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति आदि), धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र (चाणक्य नीति, शुक्रनीति र Sआदि), विविध पुराण (विष्णु पुराण, भागवत पुराण आदि), दार्शनिक सूत्र-ग्रन्थ आदि। अध्येताओं की सुविधा के लिए संगृहीत उद्धरणों का हिन्दी अनुवाद भी साथ में दिया जा ए रहा है। संक्षेप में भारतीय संस्कृति के अंगभूत (वैदिक/ब्राह्मण) संस्कृति में अहिंसा' के S सम्बन्ध में जो भी महत्त्वपूर्ण/ उपयोगी चिन्तन उपलब्ध है, उस वैचारिक चिन्तन की र अमूल्य धरोहर को एक जगह संगृहीत करने की भावना मेरे मन में उपजी, उसी को मूर्त | Sरूप देने का आंशिक प्रयास प्रस्तुत 'अहिंसा-विश्वकोश' के प्रथम खण्ड वैदिक/ब्राह्मण र संस्कृति खण्ड के रूप में सार्थक हुआ है। इस विश्वकोश के द्वितीय खण्ड (जैन संस्कृति) C में भी उक्त नीति के अनुरूप संकलन और उनका प्रस्तुतीकरण किया जा रहा है। 2 एक बात ‘अहिंसा-विश्वकोश' की प्रबन्धन-योजना नीति के सम्बन्ध में भी स्पष्ट र ए करना चाहता हूं। 'अहिंसा' एक व्यापक अवधारणा है। सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, C Sआदि सभी इस 'अहिंसा' में अनुस्यूत हैं। क्षमा, दया, करुणा, अनुकम्पा, मैत्री, सौहार्द, र परोपकार, अभयदान, समत्व-दृष्टि आदि भी अहिंसा-वृक्ष की ही शाखा-प्रशाखाएं हैं। यदि 'अहिंसा' को समझना है, तो इससे जुड़ी हुई उक्त सभी सद्भावनाओं का भी निरूपण र अपेक्षित होगा ही। इसी दृष्टि से 'अहिंसा' को 'परम धर्म' कहा गया है। शास्त्रकारों ने स्वयं ए स्वीकारा है कि जिस प्रकार एक हाथी के पांव में सभी प्राणियों के पांव समाहित हो जाते 5 हैं, उसी तरह 'अहिंसा' में सभी धर्म समाहित हैं। अब, यदि सभी शाखा-प्रशाखाओं के ए साथ मूल वृक्ष अहिंसा' का विश्वकोश तैयार किया जाय तो वह एक 'धर्म-विश्वकोश' का रूप ले लेगा। Caeeeeeeeeeeeeeeeeeennel IV Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Feeeeeeeeeeeeeeeeeeeepe S वस्तुस्थिति यह है कि 'अहिंसा ' की तरह ही, अहिंसा के अंगभूत सत्य, क्षमा, ए दया, आदि में से प्रत्येक पर पृथक्-पृथक् एक-एक विश्वकोश तैयार हो सके- इतनी प्रचुर ए Sसामग्री शास्त्रों में भरी पड़ी है। इस सम्बन्ध में हमारी नीति मध्यममार्गी रही है। हमारा यह र प्रयास रहा है कि अहिंसा- केन्द्रित विवरणों को ही प्रमुखता दी जाए और उन्हीं उद्धरणों को र C विश्वकोश में स्थान दिया जाय जिनसे अहिंसा का उदात्त व महनीय स्वरूप रेखांकित हो रहा हो। साथ ही अहिंसा व अहिंसात्मक आचरण के विविध घटकों- क्षमा, करुणा, दया, ले ए अनुकम्पा, जीवरक्षा, प्राणदान, अभयदान आदि का भी संक्षिप्त रूप से प्रतिपादन हो सके। Sकुछ स्थलों पर अपेक्षित टिप्पणी भी दी गई है, ताकि प्रतिपाद्य विषय-वस्तु की पृष्ठभूमि भी ज्ञात हो सके। S यह संकलन कार्य कितना श्रम-साध्य है- इसे विद्वान स्वयं समझ सकते हैं। किन्तु जैन शासन-सूर्य, संघशास्ता, आचार्यकल्प परमपूज्य गुरुदेव श्नी रामकृष्ण जी महाराज र के शुभाशीर्वाद से यह कार्य अल्प समय में, सम्पन्न हो सका। इस कार्य में मेरे सहयोगी संघीय मुनियों , विशेषकर मेरे प्रिय शिष्य-रत्न श्री अमित मुनि का अमूल्य सहयोग रहा है, रजिसके लिए उन्हें मेरा अनन्त आशीष है। S डा. दामोदर शास्त्री ने इस कृति में प्रमुख सहयोगी होकर, उसे सम्पादित करने का ए उत्तरदायित्व स्वीकार किया, इसके लिए वे भी साधुवाद के पात्र हैं। आशा है, 'वैदिक/ ब्राह्मण संस्कृति-खण्ड' के रूप में 'अहिंसा-विश्वकोश' का प्रस्तुत प्रथम भाग जैन दर्शन व र जैन संस्कृति के विज्ञ जनों, मनीषियों व चिन्तकों के लिए उपादेय सिद्ध होगा और भगवान र महावीर के चरणों में मेरी एक विनम्र ‘श्रद्धाप्रसूनाञ्जलि' भी होगा। - सुभद्र मुनि Page #16 --------------------------------------------------------------------------  Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा-विश्वकोश (वैदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड) ॥ विषय-अनुक्रम॥ ....1-5 • . . . . . ...5-6 . . . . . ........... 9 1. अढ़िया और टिंया (आमान्य पृष्ठभूमि)........ 5 • अहिंसाः एक सार्वत्रिक व सार्वकालिक धर्म • अहिंसाः दशांग धर्म का एक विशेष अंग.... • अहिंसा से समन्वित आचरण ही धर्म. . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .6 । अहिंसाः एक परम तप. . . . . . . . . . . . . . . . हिंसाः धर्म नहीं, अधर्म है..... र . अहिंसाः शिव-धर्म की आधार. ... • अहिंसा की परम धर्म के रूप में प्रतिष्ठा ... ..10-13 ए . अहिंसा-समृद्धि से सम्पन्न देश ही सेवनीय . . . . • अहिंसाः एक सात्त्विक गुण . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .14 • अहिंसाचरण का लौकिक, पारलौकिक व आध्यात्मिक लाभ ........ • हिंसा की निन्दा . . . . . . . . . ... • हिंसाः एक तामसिक प्रवृत्ति. . . . . . . . . . ...........9-10 ......14 .....26-27 • . . . .27 VII Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MPARAMMARY • हिंसा के लौकिक व पारलौकिक दुष्परिणाम . . . . . . . . . . . . . . . . 28-40S • हिंसाः पापात्मा का लक्षण . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . 40-41 • हिंसकः पृथ्वी पर भारभूत . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . • अहिंसक आचरणः पुण्यात्माओं/ संत महात्माओं की पहचान ........ S2.ठिं/अठिं का विशेष स्वरूप और उसके विविध व्यावहारिक रूप • हिंसा का आधारः मानसिक विकार/कषाय ........ ... • हिंसा/अहिंसा का भावात्मक परिवार . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . 48-51 [हिंसा का अधार्मिक भावात्मक परिवार; अहिंसा का धार्मिक भावात्मक परिवार;] • हिंसा/अहिंसा का व्यापक स्वरूप और उसके विविध प्रकार ....... 51 • अहिंसा का व्यापक परिभाषित स्वरूप . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .हिंसा का व्यापक परिभाषित स्वरूप . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . ........53 .हिंसा/अहिंसा के भेद ................. . . . . . . . . . . . . . . 530 • अहिंसा का विध्यात्मक स्वरूप : जीव-रक्षा . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . • हिंसा-अहिंसा का आधारः अशुभ व शुभ भाव . . . • हिंसा-फलः कर्ता के भावानुरूप ही . . . . . . . . . . . . . . . . . . १५......... 23. अटिंयाः भारतीय संस्कृति वधर्मकी केन्द्र-बिन्दु...... • अहिंसाचरण के लिए सर्वथा उपयुक्त भूमिः भारतवर्ष . • अहिंसा की स्थापना के लिए ईश्वरावतार . . . . . . . . . . . . . . . . • अहिंसा की प्रमुखताः श्रेष्ठ युग की आधार . . . . . . . . . . . . . . . • हिंसा-प्रमुखताः कलियुग की विशेषता . . . . . . . . . . . . . . . . . • अहिंसाः ईश्वरीय स्वरूप (क्षमा आदिः देवी का स्वरूप) ........ • अहिंसक ही वैष्णव एवं ईश्वर-भक्त .......... VIII Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • • • • . . . . . . . . . . . ......84 .........94 54. अठियक आचार-विचार के सूत्रः भारतीय आंस्कृतिक वांग्मय में.. 68-1403 • अहिंसाः दैनिक जीवन में आचरणीय . . . . . . . .. ........ • अहिंसा की नींव: सबसे आत्मवत् व्यवहार . . . . . . . . . . . . . . . . अहिंसा का आधारः प्रशस्त विचार व समत्व-दर्शन . . . . . . ....78-81 • रक्षणीय/अवध्य प्राणीः स्त्रियां, गौ, पक्षी आदि . . . . . . .. ............81-83 ए .भ्रूण-हत्याः निन्दनीय व वर्जनीय . .रक्षणीयः प्रधान व श्रेष्ठ व्यक्ति ....... ........................885 . मानव-मात्र की रक्षा का भाव....... • अहिंसा के व्यावहारिक रूपः क्षमा, अभयदान, प्राणदान अहिंसात्मक अभयदान के प्रेरक वचन ..... • • • • • • • • • .........92-94 • अहिंसाः प्रशस्त मनोभावों की स्रोत . . . . . . (दया, करुणा, परदुःखकातरता, मैत्री आदि भाव) • अहिंसा की अभिव्यक्तिः परोपकार/अनुग्रह/ पर-कल्याण ........ • अहिंसा की सार्थकताः छल, कपट, द्वेष व कुटिलता से रहित व्यवहार . .104-106 • अहिंसाः वाणी-व्यवहार में भी . ..... 106-111 • अहिंसक दृष्टिः अनुशासन में भी अपेक्षित . . . . . . . ......... 111 अहिंसा के प्रतिकूल धर्मः पर-निन्दा, परदोषारोपण, आत्म-स्तुति आदि......112अहिंसाः आहार-सेवन में .......... .....117-140 हिंसा-दोषः मांस-भक्षण में अनिवार्य .. . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .. 177-119 • अहिंसा की पूर्णताः मांस-भक्षण के त्याग से ही . हा . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . 119-120 • अहिंसक: मांस के क्रय-विक्रय आदि का भी त्यागी ..... ...... 121-123 मांस-भक्षण: निन्दनीय व वर्ण्य ...... निन्दनाय ववज्य.. . . . . . . . . . . . . . . . . ............123-124 मद्य व मांसः ब्रह्मचारी व संन्यासी के लिए विशेषतः वर्ण्य ...... वण्य . . . . ...........124-125 • मद्य व मांस के त्याग की महिमा .... • हिंसक भावों की पोषक: मदिरा ......136-139 . अहिंसक: मदिरा व मांस का त्यागी .... ......139-140 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ eeeeeeee 5. अहिंसाः अनेक धर्मों की प्राण. • अहिंसा और सत्यः परस्पर-सम्बद्ध • अहिंसा / हिंसा की कसौटी पर ही सत्य असत्य का निर्णय हिंसक वचन कटुवचन. हिंसक असत्य वचन त्याज्य • अहिंसक की वाणी: प्रिय व हितकर हो • अहिंसकः वाणी- प्रयोग में कुशल / अप्रमत्त अहिंसक वचन का सुप्रभाव अहिंसकः कटुवचन सुन कर भी अनुद्विग्र अहिंसा और संतोष / अपरिग्रह धर्म ● हिंसक वृत्तिः असन्तोष व परिग्रह • हिंसात्मक (वैर - विद्वेष) आदि भावों का वर्धकः परिग्रह • हिंसात्मक / साहस कार्य से अर्जित 'काले धन' का अशुभ फल हिंसा के लिए प्राय: अनुर्वरा भूमिः निर्धनता ... अहिंसा और दया / आनृशंस्य-धर्म ● अहिंसा (आत्मवत् व्यवहार)- दया दया, करुणा व सौहार्द - एकार्थक दया ईश्वरीय स्वरूप 'दया जीव वध से निवृत्ति. 'दया के पात्र प्राणिमात्र • दयापूर्ण व्यवहारः पालतू पशुओं के प्रति . दया धर्म की महनीयता दया/अनुकम्पा/करुणा से रहित व्यक्ति निन्दनीय . . • अहिंसकः शरणागत-रक्षक • हत्या के दोषी : शरणागत-रक्षा से विमुख दया/ अनुकम्पा आदि के विशेष पात्रः शरणागत 'दया/ अनुकम्पा की अभिव्यक्ति: शरणागत- रक्षा शरणागत पर दया / करुणा: श्रेष्ठता की पहचान . X • 141-234 141 .142-146 146-147 .148-153 154-157 157-162 .163-166 166-169 .169-173 169-170 170-171 ..172 173 174-192 .174-175 .176 176 176 177-178 178-184 .184-188 188-189 .. 189 .189-190 190 190-191 ...191-192 ecces Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • अहिंसा और क्षमा/अक्रोध धर्मः परस्पर-सम्बद्ध .............. 192-204 (क्षमावान् ही अहिंसक) .क्षमा से धम का पूणता......... ता....... . . . . . . . . . . . . . . . . . ............193 ....... जाहलामक थात . मा . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . - - - .211 । . . . . . ................ .क्षमाः सत्पुरुषों व वीरों का अलंकार... . . . . . . . . : ................194-195 • अहिंसात्मक प्रवृत्तिः क्षमा ...... .......195-196 .क्षमा की महत्ता . . . . . . . . . . . . . . . . . . ..... • . . . . . . . . . . . . . . . . .197-200 • क्षमा व क्षमाशीलः प्रशंसनीय . . . . . . . . . . . . . . . . . . ........ 201-204 अहिंसा-पालन में सहयोगी: दान-धर्म ............. .......205-227 • दान: मौलिक सनातन धर्म.. • अहिंसकः उत्तम दाता ......... • अहिंसा की सहज अभिव्यक्तिः अनुकम्पादान व अभयदान. . . . . . . . . . . .हिंसा-पापनाशक: दान-धर्म ......... ......... 209 कृपणता- नशंसता/हिंसात्मक कार्य ...... कृपणता= आत्मघाती प्रवृत्ति........... • दान धर्म का स्वरूप. • • • . . . . . . . . . . . . . . . . . ....211-212 अहिंसक: दान का योग्य पात्र ........... .दान धर्म की महत्ता और उसके महनीय फल.. ........212-213 . अन्न आदि का दानः प्राणदान/प्राण-रक्षा . . . . . . . . . . . . .... • अहिंसात्मक दान-धर्म और उसके स्थायी प्रतीक ...... .......219-222 • दान धर्म के प्रेरक वचन . • अहिंसा और शौच धर्म. अहिंसा और अस्तेय/अचौर्य धर्म . . . . . . . . . .....228• अहिंसा और इन्द्रिय-निग्रह आदि धर्म. . . . . . . . . . ...... 228-2290 (इन्द्रिय-संयम, दम, जितेन्द्रियता, ब्रह्मचर्य आदि) •अहिंसा और तप धर्म .. .... 231-2326. . . . . ... Caeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeel XI Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसाः वर्णाश्रम-धर्म एवं अध्यात्मयोग की अंग ...233-2585 • अहिंसा/अहिंसक आचरण सभी वर्गों के लिए . ........ 233-235 • अहिंसा और ब्राह्मण वर्ण . ब्राह्मण वर्ण . . . . . . . . . . ...................... 235-237 2 . अहिंसा और क्षत्रिय वर्ण................... . . . . . . . ........ 237-238 . अहिंसा और शद्र वर्ण ..................................... 239C • अहिंसा/अहिंसक आचरणः ब्रह्मचर्य आश्रम में ... • अहिंसा/अहिंसक आचरणः गृहस्थ आश्रम में ........... हिंसक विवाह आदि वर्ग्य ........242 • हिंस. (सूना)-दोष के निवारक पांच यज्ञ ......... .......242-243 •दया-भाव की अभिव्यक्तिः गृहस्थ के भूत-यज्ञ में ... . . . . . . . .244-2450 • अहिंसा/अहिंसक आचरणः वानप्रस्थ आश्रम में . ........2460 • अहिंसा/अहिंसक आचरणः संन्यास आश्रम में ..... .......246-2490 • अहिंसा और अध्यात्म-साधना . . . . . . . . . . • • • • • • • • • . . . . . . . . . . . .250-252 • अहिंसाः क्रियायोग व ज्ञानयोग में. ... . अहिंसा और ध्यान-यज्ञ ................ . . . . . . . . . . . . . . . • अहिंसाः ब्रह्मरूपता की प्राप्ति का साधन ................. .........254-255 अभयदाता एवं प्राणिमित्रः ब्रह्मलोक का अधिकारी...... ......255-258 .... veeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee 7. अढ़िया और यज्ञीय विधान ......... ....... 259-2646 • यज्ञ में जीव-हिंसा शास्त्र-सम्मत नहीं ....... • अहिंसक यज्ञ की समर्थक विविध कथाएं. . . . . . . . . . . . . . (राजा वसु का उपाख्यान) हिंसा व मांस-दान वर्जितः श्राद्ध में........ XII Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . . . . . . . . . . ....277 28. अढ़िया और राज-धर्म ...... ....273 • हिंसक/अमर्यादित स्थिति का राजा ही नियन्त्रक.............. 273• अहिंसक व दयालु स्वभावः राजा के लिए अपेक्षित ........... • आदर्श अहिंसक राज्यः रामराज्य. . . . . . •वध-दण्ड/उग्र दण्डः सामान्यतः वर्जित ...... ..................278-279 • राजा की अहिंसक दृष्टिः कर-ग्रहण में. . . . . . . . . . ........279-282 .हिंसक युद्धः सामान्यतः वर्जित. . . . . . . . . . . . . . . •हिंसक युद्ध का भयावह परिणाम. . . . . . . . . . ........285-288 • हिंसक युद्ध की विद्वेष-पूर्ण आगः पीढ़ी-दर-पीढ़ी.......... •दया-दानः राजा का विशिष्ट कर्तव्य. . . . ........290-291 •दया-दान द्वारा निर्धन/अनाथों का पोषणः शासकीय कर्तव्य........ • अहिंसक दृष्टि से सम्पन्न युद्धः धर्मयुद्ध. . . . . . . . . . . . . . . . . . . 293-302 •कूट/तीक्ष्णतम शस्त्रास्त्रों (परमाणु-अस्त्रों) का प्रयोग युद्ध में वर्ण्य.... 302-304 XII Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्धरण-स्थल-संकेत (स्पष्टीकरण) संगृहीत उद्धरणों के अन्त में दाईं ओर, उस ग्रन्थ का और उसके उस स्थल का र कोष्ठक के अन्दर संकेत किया गया है जहां से वह श्लोक/पद्य उद्धृत है।मुद्रण-सुविधा की दृष्टि से ग्रन्थ के नामव स्थल को प्रायः संक्षिप्त रूप में अंकित किया गया है जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार समझना चाहिए: संक्षिप्त ग्रन्थ नाम ग्रन्थ का पूर्ण नाम उद्धृत स्थल-संकेत (स्पष्टीकरण) = अथर्ववेद (काण्ड/सूक्त/मंत्र संख्या) = अग्निपुराण (अध्याय/ श्लोक संख्या) = अत्रि स्मृति (श्लोक संख्या) = आंगिरस स्मृति (शक संख्या) = आपस्तम्ब स्मृति (अध्याय/श्लोक संख्या) = ईशावास्योपनिषद् (मन्त्र-संख्या) = उत्तर रामचरित (भवभूति) (अंक/श्लोक संख्या) =ऋग्वेद (मंडल/सूक्त/मंत्र संख्या) = ऐतरेय उपनिषद् (अध्याय/खण्ड/मंत्र संख्या) = ऐतरेय ब्राह्मण (पंचिका/अध्याय/खण्ड) = ऐतरेय आरण्यक (आरण्यक/अध्याय/खण्ड) = औशनस स्मृति (श्लोक संख्या) =कठोपनिषद् (अध्याय/वल्ली मन्त्र संख्या) का. स्मृ. = कात्यायन स्मृति (खण्ड/श्लोक संख्या) XIV Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए कौ. ब्रा. से कौषी. से गी. र गौ. स्मृ. 2 कू. पु. = कूर्म पुराण (भाग/अध्याय/श्लोक संख्या) र केन. = केन उपनिषद् (खण्ड/मन्त्र संख्या) = कौषीतकी ब्राह्मण = कौषीतकी ब्राह्मण उपनिषद् S ग.पु. गरुड पुराण (खण्ड/ अध्याय/श्लोक संख्या) = गीता (भगवद्गीता) (अध्याय/श्लोक संख्या) गो. ब्रा. = गोपथ ब्राह्मण (भाग/प्रपाठक/काण्डिका संख्या) = गौतम स्मृति ____ (प्रकरणनाम) चाणक्यनीति/वृद्धचाणक्य (अध्याय/श्लोक संख्या) चाणक्य सार संग्रह (अध्याय/श्लोक संख्या) छांदो. = छांदोग्य उपनिषद् (अध्याय/खण्ड/मन्त्र संख्या) ता.ब्र. = ताण्ड्य ब्राह्मण (अध्याय/खण्ड/कण्डिका संख्या) तैत्ति. आ. = तैत्तिरीय आरण्यक (प्रपाठक/अनुवाक संख्या) = तैत्तिरीय उपनिषद् (वल्ली/अनुवाक/मन्त्र संख्या) S तैत्ति. ब्रा. = तैत्तिरीय ब्राह्मण (अष्टक/प्रपाठक/अनुवाक/मन्त्र) र द. स्मृ. = दक्ष स्मृति (अध्याय/श्लोक संख्या) दे. भा. =देवी भागवत पुराण स्कन्ध/अध्याय/श्लोक संख्या र ना. पु. = नारदीय महापुराण खण्ड/ अध्याय/श्लोक संख्या = नीतिशतक(भर्तृहरि) (श्लोक संख्या) र न्या.द. = न्यायदर्शन (अध्याय/आन्हिक/सूत्रसंख्या) प.पु. = पद्मपुराण (खण्ड/अध्याय/श्लोक संख्या) र तैत्ति. ए नी.श. र XV Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , प. स्मृ. र पं. त. पु. स्मृ. प्रश्न. werere = पराशर स्मृति (अध्याय/श्लोक संख्या) । = पंचतंत्र ___ (तंत्र संख्या/श्लोक संख्या) = पुलस्त्य स्मृति (श्लोक संख्या) = प्रश्नोपनिषद् (प्रश्न/मन्त्र संख्या) = बृहस्पति स्मृति (अध्याय/श्लोक संख्या) = बृहदारण्यक उपनिषद् (अध्याय/ब्राह्मण/मन्त्र संख्या) = बौधायन स्मृति (प्रकरणनाम/सूत्रसंख्या) = ब्रह्माण्ड पुराण (पाद/अध्याय/श्लोक संख्या) = ब्रह्म पुराण (अध्याय/श्लोक संख्या) = ब्रह्मवैवर्त पुराण (खण्ड/अध्याय/श्लोक संख्या) = भविष्य पुराण (पर्व/अध्याय/श्लोक संख्या) = भागवत पुराण (स्कन्ध/अध्याय/श्लोक संख्या) = महानारायण उपनिषद् (खण्ड/मन्त्र-संख्या) = मण्डलब्राह्मणोपनिषत् (ब्राह्मण/मन्त्र संख्या) ए = मत्स्य पुराण (अध्याय/श्लोक संख्या) = महाभारत(गीता प्रेस संस्करण)(पर्व/अध्याय/श्लोक संख्या) veeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeens في منه म.ना.उ. [अठारह पर्यों की सूचक संख्या इस प्रकार है- 1.आदि पर्व,2.सभा पर्व 3. वन पर्व,4.विराट पर्व, 5. उद्योग पर्व, 6. भीष्म पर्व,7. द्रोण पर्व, 8. कर्ण पर्व, 9. शल्य पर्व, 10. सौप्तिक पर्व, 11. स्त्री पर्व, 12. शान्ति पर्व, 213. अनुशासन पर्व, 14. आश्वमेधिक पर्व, 15. आश्रमवासिक पर्व, 16. मौसल पर्व,17. महाप्रस्थानिक पर्व, 18. स्वर्गारोहण पर्व] [म.भा3/20704 से तात्पर्य है- महाभारत के वन पर्व के 207वें अध्याय का 74 वां श्लोक] म. स्मृ. = मनुस्मृति (अध्याय सं./श्लोक संख्या) 2 महो. =महोपनिषद् (अध्याय/मन्त्र संख्या) व XVI Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ > माण्डू. र मै. आ. मैत्रा S य.स्मृ. C यो. सू. = माण्डूक्य उपनिषद् ( मन्त्र संख्या) ( मा. पु. = मार्कण्डेय पुराण ( अध्याय/श्लोक संख्या) मुण्ड. = मुण्डक उपनिषद् (मुण्डक/ खण्ड/मन्त्र सं.) =मैत्रायणी आरण्यक (प्रपाठक/ कण्डिका संख्या) = मैत्रायणी उपनिषद् = यजुर्वेद ( अध्याय/श्लोक संख्या) = यम स्मृति (श्लोक संख्या) र या.उ. = याज्ञवल्क्योपनिषद् (मन्त्र संख्या) S या. स्मृ. = याज्ञवल्क्य स्मृति (अध्याय/प्रकरण/श्लोक संख्या) = योगवाशिष्ठ (वाल्मीकि) (प्रकरण-नाम /सर्ग/श्लोक संख्या) = योग सूत्र (पाद/सूत्र संख्या) र ल. हा. स्मृ. = लघुहारीत स्मृति (अध्ययन/श्लोक संख्या) S यो. सू.भो. वृ. = योगसूत्र-भोजवृत्ति र लि. स्मृ. = लिखित स्मृति (श्लोक संख्या) S व. स्मृ. = वशिष्ठ स्मृति (श्लोक संख्या) वा.पु. = वामन पुराण (अध्याय/श्लोक संख्या) वा. रामा.. = वाल्मीकि रामायण (काण्ड/अध्याय/श्लोक संख्या) . [काण्डों की सूचक संख्या इस प्रकार है- 1.बालकाण्ड, 2.अयोध्या काण्ड, 3. अरण्यकाड, 4.किष्किन्धा काण्ड, 5. सुन्दर काण्ड, 6. युद्ध काण्ड,7. उत्तर काण्ड।] [वा.रामा. 5/18/30 से तात्पर्य है- वाल्मीकि रामायण के पांचवें-सुन्दर काण्ड के 18 वें अध्याय का 30 वां श्लोक] र वि. ध. पु. = विष्णुधर्मोत्तर पुराण खण्ड/अध्याय/श्लोक संख्या ए वि. स्मृ. = विष्णु स्मृति (श्लोक संख्या या प्रकरणनाम) ReeeeeeeeeeeeeeeeeeeeRad XVII Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ വ वि. पु. वे. स्मृ. वै.द. व्या. स्मृ. श. प. शं. स्मृ. शा. स्मृ. शां. भा. शि. पु. शु.नी. श्वेता. सं. स्मृ. सा. स्कं. पु. हा. स्मृ. reces = = = = = = = = = = विष्णु पुराण वेदव्यास स्मृति वैशेषिक दर्शन = = व्यास स्मृति शतपथ ब्राह्मण (काण्ड / अध्याय / ब्राह्मण/कण्डिका संख्या) शंख स्मृति (अध्याय / श्लोक संख्या) (श्लोक संख्या) शातातप स्मृति शांकर भाष्य - शुक्रनीति श्वेताश्वतर उपनिषद् शिव पुराण संवर्त स्मृति • सामवेद = स्कन्द पुराण = हारीत स्मृति ( अंश / अध्याय / श्लोक संख्या) (अध्याय / श्लोक संख्या) (अध्याय / आन्हिक / सूत्र संख्या) (अध्याय / श्लोक संख्या) (संहिता / खण्ड/अध्याय / श्लोक संख्या) (अध्याय / प्रकरण / श्लोक संख्या) (अध्याय / मन्त्र संख्या) (श्लोक संख्या) (भाग सं/ अध्याय / खण्ड/ समग्रमन्त्र संख्या) (खण्ड/ उपखण्ड/अध्याय / श्लोक संख्या) (अध्याय / श्लोक संख्या) ree XVIII ম Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा - विश्वकोश Page #30 --------------------------------------------------------------------------  Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TEE E EEEEEEEER {1} अठिंआ और टिंआ (आमान्य पृष्ठभूमि) अहिंसा: एक सार्वत्रिक व सार्वकालिक धर्म 11 अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। दानं दमो दया क्षान्तिः सर्वेषां धर्मसाधनम्॥ ___(या. स्मृ. 1/5/122) अहिंसा, सत्य, अचौर्य, शौच (पवित्रता), इन्द्रिय-संयम, दान, दम (अन्तःकरण 卐 का संयम), (दीनों पर) दया और (अपकारी पर भी)क्षमा-ये सभी के लिये (सामान्य 卐रूप से) धर्म के साधन हैं। ___{2} अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियसंयमः। दमः क्षमाऽऽर्जवं दानं सर्वेषां धर्मसाधनम्॥ (ग.पु. 1/96/29) अहिंसा, सत्य, अचौर्य, शौच (शुद्धि), इन्द्रिय-संयम, दम (आत्म-दमन), क्षमा, सरलता व दान-ये सभी के लिए 'धर्म'-साधन हैं। $$$$$$$$$$$$$$$$$$$ {3} अहिंसा सर्वभूतानामेतत् कृत्यतमं मतम्। एतत् पदमनुद्विग्नं वरिष्ठं धर्मलक्षणम्। (म.भा.13/अनुगीता पर्व/50/2-3) सब प्राणियों के लिए अहिंसा ही सर्वोत्तम कर्तव्य है-ऐसा माना गया है। यह सर्वश्रेष्ठ उद्वेग-रहित स्थिति है, और धर्म का मुख्य लक्षण है। PUUUUHHHHनगनननननन. ELELEUCUCUEUEUEUEUEUEUEUEUEUEUEUEUELELELCLCLCLELELELELELELELE अहिंसा-कोश/1] Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEne इष्टाचारो दमोऽहिंसा दानं स्वाध्यायकर्म च। अयञ्च परमो धर्मो यद्योगेनात्मदर्शनम्॥ (ग.पु. 1/93/8) लोकमान्य आचार, दम (जितेन्द्रियता), अहिंसा, दान, स्वाध्याय एवं योगसाधना द्वारा आत्मसाक्षात्कार-ये उत्कृष्ट धर्म हैं। {5} अहिंसा सत्यमक्रोध आनृशंस्यं दमस्तथा। आर्जवं चैव राजेन्द्र निश्चितं धर्मलक्षणम्॥ (म.भा. 13/22/19) अहिंसा, सत्य, अक्रोध, कोमलता (दया), इन्द्रिय-संयम और सरलता-ये धर्म के निश्चित (स्थायी) लक्षण हैं। 16} वेदाभ्यासस्तपो ज्ञानमिन्द्रियाणां च संयमः॥ अहिंसा गुरुसेवा च निःश्रेयसकरं परम्॥ (अ.पु. 162/4-5) वेदाभ्यास, तप, ज्ञान, इन्द्रिय-संयम, अहिंसा, गुरु-सेवा- ये सभी (प्रवृत्तिपरक धर्म) परम निःश्रेयसकारी धर्म हैं। %%%¥¥¥¥%%%%%%巩巩巩乐编织%巩巩巩巩巩明听听听听听听听听听听乐听听听听听听听听 अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियसंयमः। दानं दया च क्षान्तिश्च ब्रह्मचर्यममानिता॥ शुभा सत्या च मधुरा वाङ् नित्यं सत्क्रियारतिः। सदाचारनिषेवित्वं परलोकप्रदायकाः॥ ___ (वा.पु. 15/2-3) (1) अहिंसा, (2) सत्य, (3) अस्तेय, (4) शौच, (5) इन्द्रिय-संयम, (6) दान, (7) दया, (8) क्षमा, (9) ब्रह्मचर्य, (10) निरभिमानता, (11) शुभ, सत्य व मधुरवाणी, (12) सदा सत्कर्म में अनुरक्ति, (13) सदाचार-सेवन- ये सभी धर्म परलोक को सुधारने वाले हैं। (वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/2 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %%% %%弱弱弱 弱 弱弱弱弱弱弱弱%%% % % %%% % स्वाध्यायो ब्रह्मचर्यं च दानं यजनमेव च। अकार्पण्यमनायासो दयाऽऽहिंसा क्षमादयः॥ जितेन्द्रियत्वं शौचं च मांगल्यं भक्तिरच्युते। शंकरे भास्करे देव्यां धर्मोऽयं मानवः स्मृतः॥ (वा. पु. 11/23-24) स्वाध्याय, ब्रह्मचर्य, दान, यज्ञ, अकृपणता (उदार दानशीलता), थकान न रखना है * (धार्मिक कार्यों में उत्साह), दया, अहिंसा, क्षमा, जितेन्द्रियता, शौच, मंगलमयता, एवं * अच्युत, शंकर, सूर्य व देवी में भक्ति होना-ये सभी मानवीय धर्म माने गये हैं। __ } अद्रोहश्चाप्यलोभश्च दमो भूतदया शमः।। ब्रह्मचर्यं तपः शौचमनुक्रोशं क्षमा धृतिः। सनातनस्य धर्मस्य मूलमेतद्दुरासदम्॥ __ (म.पु. 143/31-32) ईर्ष्याहीनता, निर्लोभता, इन्द्रियनिग्रह, जीवों पर दयाभाव, मानसिक स्थिरता, ब्रह्मचर्य, तप, पवित्रता, करुणा, क्षमा और धैर्य-ये सनातन धर्म के मूल ही हैं, जो बड़ी कठिनता से प्राप्त किये जा सकते हैं। 用纸纸编织乐乐乐坂圳坂垢垢玩垢听听听听垢纸巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩明 {10} सामान्यमन्यवर्णानामाश्रमाणाञ्च मे श्रृणु॥ सत्यं शौचमहिंसा च अनसूया तथा क्षमा। आनृशंस्यमकार्पण्यं सन्तोषश्चाष्टमो गुणः॥ ___ (मा.पु. 28/31-32) __ (राजकुमार अलर्क की माता 'मदालसा' का कथन-) अन्य वर्णों तथा अन्य आश्रमों के जो सामान्य धर्म हैं, उन्हें मैं बता रही हूं, सुन लो। सत्य, शौच, अहिंसा, अनसूया, क्षमा, दया, अदैन्य और आठवां सन्तोष-ये सभी वर्गों और आश्रमों के लिए सामान्य धर्म हैं। अहिंसा कोश/3] Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RXXXXXXXXXX####FEEEEEEEEEEng 準 - सत्यं दया तथा दानं स्वदारागमनं तथा। अद्रोहः सर्वभूतेषु समता सर्वजन्तुषु॥ एतत्साधारणं धर्मम् .......। (दे. भा. 6/11/21-22) सभी प्राणियों के प्रति अद्रोह (अहिंसा), सभी प्राणियों के प्रति समता-दृष्टि, सत्यभाषण, दान, स्वपत्नीव्रत- ये सर्वसामान्य (सभी के लिए आचरणीय) धर्म हैं। {12} अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। स्वधर्मपालनं राजन् सर्वतीर्थफलप्रदम्॥ । (दे. भा. 6/12/21-22) अहिंसा, सत्य, अचौर्य, शौच, इन्द्रिय-निग्रह और स्व-धर्म का पालन- इनसे वही सुफल प्राप्त होता है जो समस्त तीर्थों के सेवन से प्राप्त होता है। 乐頻頻與與與纸纸加州纸折纸纸纸编织乐纸折纸纸纸垢乐乐乐玩玩乐乐垢妮妮妮妮妮妮 {13} अहिंसा सत्यवादश्च सत्यं शौचं दया क्षमा। वर्णिनां लिंगिनां चैव सामान्यो धर्म उच्यते।। (पु. स्मृ. 22, ग.पु. 1/205/22 __ में आंशिक परिवर्तन के साथ) अहिंसा, सत्य-भाषण, सत्य-निष्ठा के साथ रहना, (आन्तरिक) पवित्रता, दया व क्षमा-ये समस्त वर्णों और वेषधारियों के लिए सामान्य धर्म हैं। 9乐乐玩玩玩玩乐乐乐玩玩乐乐明明听乐乐听听听听听听垢玩垢%¥¥¥¥纸货玩乐乐垢呢呢呢呢呢呢呢监听 {14} एष धर्मों महायोगो दानं भूतदया तथा। ब्रह्मचर्यं तथा सत्यमनुक्रोशो धृतिः क्षमा। सनातनस्य धर्मस्य मूलमेतत् सनातनम्। (म.भा.13/अनुगीता पर्व/91/33-34) यही धर्म है, यही महान् योग है। दान, प्राणियों पर दया, ब्रह्मचर्य, सत्य, करुणा, ॐ धृति और क्षमा-ये सनातन धर्म के सनातन मूल हैं। 年の近所所所所所所所所所所所野野野野野野野野野野野野野野野さ वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/4 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 他明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明男%%%%%%%%%% {15} अहिंसा सत्यमक्रोधो दानमेतच्चतुष्टयम्। अजातशत्रो सेवस्व धर्म एष सनातनः॥ (म.भा.13/162/23) (भीष्म का युधिष्ठिर को उपदेश-) अहिंसा, सत्य, अक्रोध, और दान-इन चारों का सदा सेवन करो। यह सनातन धर्म है। . {16} कर्मणा मनसा वाचा सर्वभूतेषु सर्वदा। हिंसाविरामको धर्मो ह्यहिंसा परमं सुखम्॥ (ग.पु.1/229.14) मन, वचन व कर्म से सर्वदा सभी प्राणियों की हिंसा से निवृत्त होना परम सुखकारी # अहिंसा धर्म है। {17} अद्रोहः सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा। अनुग्रहश्च दानं च सतां धर्मः सनातनः।। (म.भा.12/162/21) मन, वाणी और क्रिया द्वारा सभी प्राणियों के साथ कभी द्रोह न करना तथा दया व दान-ये सभी अहिंसात्मक कार्य सब श्रेष्ठ पुरुषों के सनातन धर्म के रूप में मान्य हैं। अहिंसाःदशांग धर्म का एक विशेष अंग {18} ब्रह्मचर्येण सत्येन तपसा नित्यवर्तनैः। दानेन नियमैश्चापि क्षमाशौचेन वल्लभ॥ अहिंसया च शक्त्या वाऽस्तेयेनापि प्रवर्तते। एतैर्दशभिरंगैश्च धर्ममेवं प्रसूयते॥ संपूर्णो जायते धर्म अंगैर्गर्भो यथोदरे। ___ (प.पु. 5/89/8-10) जिस प्रकार (नारी के) उदर में गर्भ विविध अंगों से परिपूर्ण होकर जन्म लेता है, + उसी प्रकार 'धर्म' दश अंगों से समृद्ध/परिपूर्ण होकर ही मूर्तिमान होता है। वे दश अंग हैंH (1) ब्रह्मचर्य, (2) सत्य, (3) तप, (4) नित्यकर्म, (5) दान, (6) नियम, (7) क्षमा, (8) शौच, (9) अहिंसा, और (10) अस्तेय। 巩巩巩垢玩垢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢 अहिंसा कोश/5] Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAINEERIEREMEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEyme {19) ब्रह्मचर्येण सत्येन मखपंचकवर्तनैः॥ दानेन नियमैश्चापि क्षमा-शौचेन वल्लभ। अहिंसया सुशक्त्या च अस्तेयेनापि वर्तनैः॥ एतैर्दशभिरंगैस्तु धर्ममेवं प्रपूरयेत्॥ (प.पु.2/12/46-48) (विदुषी सुमना ब्राह्मणी का पति सोमशर्मा को कथन)-ब्रह्मचर्य, सत्य, पञ्च यज्ञ, *दान, नियम, क्षमा, शौच (शुद्धि), अचौर्य, सुशक्ति (आत्म-शक्ति, दम) व अहिंसा -ये धर्म के दस अंग हैं। इनसे धर्म को पूर्ण समृद्ध करे (अर्थात् इन सभी के अनुष्ठान से ही धर्म का सर्वांग रूप से अनुष्ठान सम्भव हो पाता है)। अहिंसा से समन्वित आचरण ही धर्म 片卡片頻挥挥货埃挥挥挥挥挥圳頻頻頻乐娱乐明垢玩垢玩垢玩垢垢坎坎明垢玩垢妮F垢玩垢明明明明垢 {20} अहिंसार्थाय भूतानां धर्मप्रवचनं कृतम्। यः स्यादहिंसासम्पृक्तः स धर्म इति निश्चयः॥ (म.भा.12/109/12) प्राणियों की हिंसा न हो ,इसी के लिये धर्म का उपदेश किया गया है; अतः जो अहिंसा से युक्त हो, वही धर्म है, ऐसा धर्मात्माओं का निश्चय है। {21} यत् स्यादहिंसासंयुक्तं स धर्म इति निश्चयः। अहिंसाय भूतानां धर्मप्रवचनं कृतम्॥ (म.भा.8/69/57) सिद्धान्त यह है कि जिस कार्य में हिंसा न हो, वही धर्म है। महर्षियों ने प्राणियों की हिंसा न होने देने के लिये ही (अर्थात् अहिंसा के प्रचार-प्रसार के लिए ही) उत्तम धर्म का # प्रवचन किया है। E EEEER EPEEEEEEEEEEEEEEE [वैदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/6 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C%與职明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明》 अहिंसा: एक परम तप {22} अहिंसा सत्यवचनमानृशंस्यं दमो घृणा। एतत् तपो विदुर्धीरा न शरीरस्य शोषणम्॥ (म.भा.12/79/18) किसी भी प्राणी की हिंसा न करना, सत्य बोलना, क्रूरता को त्याग देना, मन और इन्द्रियों को संयम में रखना तथा सब के प्रति दयाभाव बनाये रखना- इन्हीं को धीर पुरुषों ने 'तप' माना है। केवल शरीर को सुखाना ही 'तप' नहीं है। REEEEEEEEEEEEEE EEEEEEEEEEEEKKERASHTRA {23} अहिंसा सत्यमक्रोधः, सर्वाश्रमगतं तपः॥ (म.भा.12/191/15; ना. पु. 1/43/116) किसी भी प्राणी की हिंसा न करना, सत्य बोलना और मन में क्रोध न आने देनाये सभी आश्रमों से सम्बन्धित 'तप' हैं। 黑垢玩垢玩垢玩垢垢與垢玩垢垢巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩垢垢绵绵巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩明书 {24} अहिंसैव परंतपः। . (प. पु. 3/31/27; म. भा. 13/115/23; 13/116/28; स्कं. पु. ब्रह्म/धर्मारण्य/36/64) अहिंसा ही 'परम तप' है। {25} परोपघातो हिंसा च पैशुन्यमनृतं तथा। एतान्संसेवते यस्तु तपस्तस्य प्रहीयते॥ (ना. पु. 1/44/12) जो व्यक्ति दूसरों पर प्रहार करता है, उनका वध करता है, असत्य बोलता है तथा दूसरे की चुगली करता है, उसका तप क्षीण हो जाता है। 男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男、 अहिंसा कोश/7] Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XXXXNEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEng {26} अहिंस्रस्य तपोऽक्षय्यमहिंस्रो यजते सदा। . (म.भा.13/116/31) जो हिंसा नहीं करता, उसकी तपस्या अक्षय होती है। हिंसा:धर्म नहीं, अधर्म है {27} हिंसा चाधर्मलक्षणा। . (म.भा. 14/43/21) "हिंसा' तो 'अधर्म' (ही) है। {28} हिंसया वर्तमानस्य व्यर्थो धर्मो भवेदिति। कुर्वन्नपि वृथा धर्मान्यो हिंसामनुवर्तते॥ (ना. पु. 2/10/7) हिंसा में जीने वाले व्यक्ति का धर्माचरण व्यर्थ हो जाता है, इसलिए जो भी 'हिंसा का आचरण करता है, वह धर्माचरण को व्यर्थ करता है। 明明明明明明垢玩垢明明明明明明明垢與乐呢呢呢呢呢呢呢明明明明明明明明垢明明明明明明明明劣劣劣垢乐 {29} हिंसया संयुतं धर्ममधर्मं च विदुर्बुधाः। (ना. पु. 2/10/9) हिंसा से समन्वित (तथाकथित) धर्माचरण को विद्वानों ने 'अधर्म' ही बताया है। {30) अभक्ष्यभक्षणं हिंसा मिथ्या कामस्य सेवनम्। परस्वानामुपादानं चतुर्धा कर्म कायिकम्॥ (स्कं. पु. 1/(2)/41/20) निरर्थक हिंसा, अभक्ष्य-भक्षण, काम-भोगादि का (अमर्यादित) सेवन, तथा दूसरों के धन को हड़प लेना- ये चार कार्य शारीरिक (पाप) हैं। 明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明、杀 [वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/8 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAJEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE {31} एतद् रूपमधर्मस्य भूतेषु हि विहिंसता। (म.भा.3/33/33) प्राणियों का प्राण-हरण रूप यह हिंसा कार्य अधर्म का स्वरूप ही है। {32} अहिंसा सकलो धर्मः, हिंसाऽधर्मस्तथाऽहितः।। ___ (म.भा.12/272/20) अहिंसा ही 'सम्पूर्ण धर्म' है, और हिंसा अहितकारी व अधर्म है। अहिंसाः शिव-धर्म की आधार {33} अथ धर्माः शिवेनोक्ताः शिवधर्मागमोत्तमाः। हिंसादिदोषनिर्मुक्ताः क्लेशायासविवर्जिताः। सर्वभूतहिताः शुद्धाः सूक्ष्मायासमहत्फलाः॥ (प.पु. 2/69/1-2) भगवान् शिव ने धर्मों का कथन किया है, और वे धर्म शिव-धर्म के शास्त्रों में प्रमुखता से वर्णित हैं। ये धर्म हिंसा आदि दोषों से सर्वथा रहित हैं, इनके अनुष्ठान में क्लेश भी नहीं होता, ये सभी प्राणियों के लिए हितकारी हैं, दोष-रहित होने से शुद्ध हैं तथा ये थोड़े ही परिश्रम से * महान् फल को देने वाले हैं। 巩巩巩呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢。 . {34} आराध्यते महादेवः सर्वदा सर्वदायकः। जीवहिंसा न कर्तव्या विशेषेण तपस्विभिः॥ (स्कं. पु. 1/(3)/11/69) सब कुछ देने वाले शिव की सदा आराधना करनी चाहिए। ( इस धर्म के आराधक) तपस्वियों द्वारा जीव-हिंसा विशेष रूप से वर्ण्य है। 男男男男男男男男男男男男男男男男男男男宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪 अहिंसा कोश/9] Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RXXXEXXEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE {35} ज्ञानध्यानसुपुष्पाढ्याः शिवधर्माः सनातनाः॥ तथाऽहिंसा क्षमा सत्यं ह्रीः श्रद्धेन्द्रियसंयमः। दानमिज्या तपो ज्ञानं दशकं धर्मसाधनम्॥ (प.पु. 2/69/35) शिव-धर्म सनातन हैं तथा ज्ञान व ध्यान रूपी पुष्पों से परिपूर्ण हैं। शिव-धर्म के दस साधन इस प्रकार हैं:-(1)अहिंसा, (2) क्षमा, (3)सत्य, (4)ह्री, (5) श्रद्धा, (6) इन्द्रिय-संयम, (7)दान, (8) यज्ञ, (9) तप, व (10) ज्ञान (आत्म-ज्ञान)। अहिंसा की परम धर्म के रूप में प्रतिष्ठा __{36} अहिंसा परमो धर्मः॥ (म.भा. 3/207/74; 13/116/28;14/43/21; दे.भा. 4/13/55; शि. पु. 2/5/5/18; स्कं. पु. 1/(2)। 63/37; वि. ध. पु. 3/268/12) 'अहिंसा' परम धर्म है। 明明明明垢垢垢埃瑞斯乐乐坂圳坂垢垢乐乐坂圳坂明明明明明明明明明%%¥¥听听听听乐乐%垢玩垢乐垢%, {37} अहिंसा परमो धर्मः, तथाऽहिंसा परंतपः। अहिंसा परमं सत्यं, यतो धर्मः प्रवर्तते॥ (म.भा. 13/115/23) 'अहिंसा' परम धर्म है, यही परम तप है, और यही परम सत्य है क्योंकि अहिंसा # से (अर्थात् उसी के आधार पर) धर्म का प्रवर्तन/ अस्तित्व होता है। 1381 अहिंसा परमो धर्मः, अहिंसा च परं तपः। अहिंसा परमं ज्ञानम्, अहिंसा परमं फलम्॥ (स्कं.पु. ब्रह्म/धर्मारण्य/36/64) अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा ही परम तप है, अहिंसा परम ज्ञान है, और अहिंसा * ही सर्वोत्कृष्ट (पुरुषार्थ-) फल है। 男男男男男男男男%%%%%%%明明明明明明明明明明明明明明明明、 [वैदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/10 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE {39} अहिंसा परमो धर्म इति वेदेषु गीयते। दानं दया दम इति सर्वत्र हि श्रुतं मया॥ तस्मात्सर्वप्रयत्नेन कार्यं वै महतामपि॥ (प.पु. 6(उत्तर)/64/63-64) अहिंसा परम धर्म है, ऐसा वेदों में कहा गया है। दान, दया, व दम- इन (के * महत्त्व) को भी मैंने सर्वत्र सुना है। इसलिए सभी तरह से महान् लोगों द्वारा सेवनीय अहिंसा आदि का आचरण करना चाहिए। {40} अहिंसा परमो धर्मः पुराणे परिकीर्तितः। (ना. पु. 2/107) अहिंसा को पुराणों में परम धर्म' (सर्वोत्कृष्ट धर्म) के रूप में वर्णित किया गया है। {41} 9用圳坂明明明明明明明明明明明明明编织乐明明明明明明明明明明明明听巩巩巩巩明明明明明明明明明明明 प्राणिनामवधस्तात सर्वज्यायान् मतो मम। (म.भा. 8/69/23) प्राणियों की हिंसा न करना ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है। {42} यथा नागपदेऽन्यानि पदानि पदगामिनाम्। सर्वाण्येवापि धीयन्ते पदजातानि कौञ्जरे॥ एवं सर्वमहिंसायां धर्मार्थमपि धीयते। अमृतः स नित्यं वसति यो हिंसां न प्रपद्यते। (प.पु. 1/15/373-374; म.भा. 5/245/18-19;13/114/6 में तथा अ.पु. 372/4-5 में आंशिक परिवर्तन के साथ) जैसे पैरों द्वारा चलनेवाले अन्य प्राणियों के सम्पूर्ण पद-चिन्ह हाथी के पद-चिन्ह में * समा जाते हैं, उसी प्रकार सारा धर्म और अर्थ अहिंसा में अन्तर्भूत हैं। जो किसी की भी हिंसा नहीं करता, वह सदा अमृत (जन्म व मृत्यु के बन्धन से मुक्त) होकर निवास करता है। 男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男 अहिंसा कोश/11] Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 「 {43} प्रविशन्ति यथा नद्यः समुद्रमृजुवक्रगाः । सर्वे धर्मा अहिंसायां प्रविशन्ति तथा दृढम् ॥ (प.पु. 3/31/37) जैसे टेढ़ी-मेढ़ी चलने वाली सभी नदियां समुद्र में प्रविष्ट हो जाती हैं, वैसे ही सभी धर्म 'अहिंसा' में समाविष्ट हो जाते हैं - यह निश्चित है। {44} अहिंसा परमो धर्म:, तथाऽहिंसा परो दमः । अहिंसा परमं दानम्, अहिंसा परमं तपः ॥ (म.भा. 13/116/28 ) अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा परम संयम है, अहिंसा परम दान है और अहिंसा परम तपस्या है। {45} तस्मात् प्रमाणतः कार्यो धर्मः सूक्ष्मो विजानता । अहिंसा सर्वभूतेभ्यो धर्मेभ्यो ज्यायसी मता । (म.भा.12/265/6) विज्ञ पुरुष को उचित है कि वह वैदिक प्रमाण से धर्म के सूक्ष्म स्वरूप का निर्णय करे । सम्पूर्ण भूतों के लिये जिन धर्मों का विधान किया गया है, उनमें अहिंसा ही सबसे बड़ी मानी गयी है। [वैदिक / ब्राह्मण संस्कृति खण्ड / 12 {46} सर्वयज्ञेषु वा दानं सर्वतीर्थेषु वाऽऽप्लुतम् । सर्वदानफलं वापि नैतत्तुल्यमहिंसया ॥ (म.भा.13/116/30) सम्पूर्ण यज्ञों में जो दान किया जाता है, समस्त तीर्थों में जो गोता लगाया जाता है तथा सम्पूर्ण दानों का जो फल है - यह सब मिल कर भी अहिंसा के बराबर नहीं हो सकते। 規 廣。 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEng {47} अहिंसा परमो यज्ञः, तथाऽहिंसा परं फलम्। अहिंसा परमं मित्रम्, अहिंसा परमं सुखम्॥ (म.भा.13/116/29) अहिंसा परम यज्ञ है, अहिंसा परम (उत्कृष्ट) फल है, अहिंसा परम मित्र है, और अहिंसा परम सुख है। {48} अहिंसा परमो धर्मः, अहिंसैव परं तपः। अहिंसा परमं दानम्, इत्याहुर्मुनयः सदा॥ (प.पु. 3/31/27) 'अहिंसा' परम धर्म है, परम तप है, परम दान है, ऐसा सदैव मुनियों का कहना है। 明明明明明明明明明乐乐乐玩玩乐乐玩乐乐乐乐乐乐听听听听听听纸纸纸折纸兵纸架架架架架加 ___{49} न भूतानामहिंसाया ज्यायान् धर्मोऽस्ति कश्चन। (म.भा.12/262/30) प्राणियों की हिंसा न करने से जिस 'अहिंसा' धर्म की सिद्धि होती है, उससे * बढ़ कर महान् धर्म कोई नहीं है। 明明明明明听听听听听听听听听听听听听听听听呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢乎 1503 अहिंसायाः परो धर्मो नास्त्यहिंसापरं सुखम्। (कू.पु. 2/11/15) अहिंसा से बढ़ कर दूसरा कोई न तो परम धर्म है और न ही उससे बढ़कर कोई (कार्य) परम सुख को देने वाला है। REEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEER अहिंसा कोश/13] Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XXXXXXXXXXXEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEL अहिंसा-समद्धि से सम्पन्न देश ही सेवनीय {51} एकपादस्थिते धर्मे यत्र क्वचन गामिनि॥ कथं कर्तव्यमस्माभिर्भगवंस्तद् वदस्व नः। यत्र वेदाश्च यज्ञाश्च तपः सत्यं दमस्तथा। अहिंसाधर्मसंयुक्ताः प्रचरेयुः सुरोत्तमाः। स वो देशः सेवितव्यो मा वोऽधर्मः पदा स्पृशेत्॥ (म.भा.12/340/87-89) ___ (देवों व ऋषियों का भगवान से प्रश्न-) भगवन् ! जब कलियुग में सर्वत्र धर्म का है एक ही चरण अवशिष्ट रहेगा, तब हमें क्या करना होगा? यह बताइये। (भगवान का * उत्तर-) जहां अहिंसा-धर्म के साथ वेद, यज्ञ, तप, सत्य, इन्द्रियसंयम प्रचलित हों, उसी देश का तुम्हें सेवन करना चाहिये। ऐसा करने से तुम्हें अधर्म अपने एक पैर से भी नहीं छू सकेगा (अर्थात् कलियुग में वही स्थान, प्रदेश या देश/राष्ट्र निवास-योग्य है जहां अहिंसा * धर्म का आचरण दृष्टिगोचर होता है। ऐसे राष्ट्र में निवास करने से कलियुग के दुष्प्रभाव से सुरक्षित रहा जा सकता है।) %%%%%%%垢玩垢听听听听听听¥¥¥¥¥¥¥¥¥明巩巩巩巩巩听听听听听听听听听听听听听听听听非 अहिंसाः एक सात्त्विक गुण {52) अकार्पण्यमसंरम्भः क्षमा धृतिरहिंसता। समता सत्यमानृण्यं मार्दवं ह्रीरचापलम्॥ सर्वभूतदया चैव सत्त्वस्यैते गुणाः स्मृताः॥ (म.भा.12/301/18,20) अकार्पण्य (दीनता का अभाव), असंरम्भ (क्रोध का अभाव), क्षमा, धृति, अहिंसा, समता, सत्य, ऋण से रहित होना, मृदुता, लज्जा, अचंचलता, परोपकार और सम्पूर्ण प्राणियों में # पर दया- ये सब सात्त्विक उत्तम गुण बताये गये हैं। E EEEEEM EPSEEEEEEEEEEEE वैदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/14 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE अहिंसाचरण का लौकिक, पारलौकिक व आध्यात्मिक लाभ {53} अहिंसकः समः सत्यो धृतिमान् नियतेन्द्रियः। शरण्यः सर्वभूतानां गतिमाप्नोत्यनुत्तमाम्॥ (म.भा. 5/245/20) जो व्यक्ति अहिंसक, समदर्शी, सत्यवादी, धैर्यवान्, जितेन्द्रिय और सम्पूर्ण प्राणियों को शरण देनेवाला होता है, वह अत्यन्त उत्तम गति पाता है। {54} xxXXXXKKKEEEEEEEEEEEEEEETA यो न हिंसति सत्त्वानि मनोवाकर्महेतुभिः॥ जीवितार्थापनयनैः प्राणिभिर्न स बद्ध्यते। __ (म.भा. 12/277/27-28) जो व्यक्ति मन, वाणी, क्रिया तथा अन्य कारणों द्वारा किसी भी प्राणी की जीविका का अपहरण करके उसकी हिंसा नहीं करता, उस (अहिंसक) को दूसरे प्राणी भी वध या . बन्धन के कष्ट में नहीं डालते। 呢頻圳FFFF编编编垢玩垢玩垢玩垢垢玩垢玩垢垢垢垢玩垢明明明明明明垢玩垢頻頻頻垢垢玩垢坎坎垢垢, {55} अनसूया ह्यहिंसा च सर्वेऽप्येते हि पापहाः। ___ (ना. पु. 1/15/136) परदोष-दर्शन की अप्रवृत्ति तथा अहिंसा- ये पाप को नष्ट करती हैं। {56) न्यायोपेता गुणोपेताः सर्वलोकहितैषिणः॥ सन्तः स्वर्गजितः शुक्लाः संनिविष्टाश्च सत्पथे। सर्वभूतदयावन्तस्ते शिष्टाः शिष्टसम्मताः॥ __ (म.भा. 3/207/87-88) जो न्यायपरायण, सद्गुणसम्पन्न, सब लोगों का हित चाहनेवाले, हिंसारहित और सन्मार्ग पर चलनेवाले हैं, वे श्रेष्ठ पुरुष स्वर्गलोक पर विजय पाते हैं। जो सभी प्राणियों के प्रति दया-भाव रखते हैं, वे ही शिष्ट पुरुष माने गये हैं। EXEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEM अहिंसा कोश/15] Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NIXXXXXXXXXEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE {57} अहिंसा सत्यवचनमानृशंस्यमथार्जवम्॥ अद्रोहो नाभिमानश्च हीस्तितिक्षा दमः शमः। धीमन्तो धृतिमन्तश्च भूतानामनुकम्पकाः॥ अकामद्वेषसंयुक्तास्ते सन्तो लोकसाक्षिणः। __(म.भा.3/207/91-93) जो अहिंसा , सत्यभाषण, कोमलता, सरलता (दया), अद्रोह, अहंकार का त्याग, लज्जा, सहनशीलता, इन्द्रिय-निग्रह,शान्ति व धैर्य-इन्हें धारण करते हैं और समस्त प्राणियों पर अनुग्रह करते हैं, वे संत/सज्जन ही सम्पूर्ण लोकों के लिये प्रमाणभूत /आदर्शभूत होते हैं। {58} अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः॥ (यो.सू. 2/35) . योगी में अहिंसा की दृढ़ स्थिति हो जाने पर, उस योगी के समीप आने पर, परस्पर सभी प्राणी अपनी जन्म-जात शत्रुता का परित्याग कर देते हैं, अर्थात् जाति, देश, काल, समय की सीमा से ऊपर उठ कर अहिंसा का पालन करने वाले योगी में जब यह अहिंसा म की भावना दृढ़ स्थिति को प्राप्त कर लेती है, तब उस योगी के समीप में सहज व स्वाभाविक विरोध वाले सर्प-नेवला, गज-सिंह इत्यादि जीव भी वैर व द्वेषभाव को छोड़ कर मित्रभाव से विचरण करते हैं। {59} दाक्षिण्यं रूपलावण्यं सौभाग्यमपि चोत्तमम्। धनं धान्यमथारोग्यं धर्मं विद्यां तथा स्त्रियः॥ राज्यं भोगांश्च विपुलान्, ब्राह्मण्यमपि चेप्सितम्। अष्टौ चैव गुणान्वापि दीर्घ जीवितमेव च॥ अहिंसकाः प्रपद्यन्ते यदन्यदपि दुर्लभम्। ___ (वि. ध. पु. 3/268/3-5) ___(1) दाक्षिण्य (चातुर्य आदि), (2) रूप-लावण्य, (3) उत्तम सौभाग्य, (4) ॐ धन-धान्य, आरोग्य, धर्म, (5) विद्या व स्त्रियां, (6) राज्य, (7) विपुल काम-भोग, (8) * अभीप्सित ब्राह्मणत्व- इन आठ गुणों को तथा दीर्घ जीवन को एवं अन्य दुर्लभ पदार्थों को * अहिंसक प्राप्त कर लेता है। %% %%%%%% %%%%%%%%%%%%%%%%%%%、 वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/16 的坑坑坑坑坑垢玩垢垢與垢巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩垢玩垢玩垢玩垢玩垢巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEM {600 येषां न कश्चित् त्रसति, त्रस्यन्ति न च कस्यचित्। येषामात्मसमो लोको दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥ (वि. ध. पु. 2/122/16) जो न तो किसी अन्य को त्रास/पीड़ा देते हैं, और न ही किसी से त्रस्त होते हैं, संसार को आत्म-तुल्य दृष्टि से देखने वाले वे लोग दुर्गम संकटों को पार कर लेते हैं। {61} अहिंसा सर्वधर्माणां धर्मः पर इहोच्यते। अहिंसया तदाप्नोति यत् किंचिन्मनसेप्सितम्॥ (वि. ध. पु. 3/268/1) सभी धर्मों में श्रेष्ठ धर्म 'अहिंसा' कही जाती है। अहिंसा के द्वारा व्यक्ति अपना सब क कुछ अभीप्सित प्राप्त कर सकता है। {62} अहिंस्रः सर्वभूतानां यथा माता यथा पिता।। एतत् फलमहिंसाया भूयश्च कुरुपुंगव। न हि शक्या गुणा वक्तुमपि वर्षशतैरपि। ___(म.भा.13/116/31-32) हिंसा न करने वाला मनुष्य सम्पूर्ण प्राणियों के माता-पिता के समान है। ये सब * अहिंसा के फल हैं। यही क्या, अहिंसा का तो इससे भी अधिक फल है। अहिंसा से होने वाले लाभों या गुणों का तो सौ वर्षों में भी वर्णन नहीं किया जा सकता। %%¥乐纸纸明明明明明呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢 {63} धर्मे रताः सत्पुरुषैः समेताः, तेजस्विनो दानगुणप्रधानाः। अहिंसका वीतमलाश्च लोके, भवन्ति पूज्या मुनयः प्रधानाः॥ (म.भा. 2/109/31) जो कभी किसी प्राणी की हिंसा नहीं करते तथा जो (हिंसा आदि के) मलसंसर्ग से जा रहित हैं, ऐसे धर्म-तत्पर, तेजस्वी सत्पुरुषों की संगति करने वाले श्रेष्ठ मुनि ही संसार में पूजनीय होते हैं। 期期男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男%%%%%%% अहिंसा कोश/17] Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 規 蝸蛋蛋蛋蛋頭頸卐頃頃頃卐頃蝸卐坂坂頭頃頃卐頃 अहिंसकस्ततः सम्यक् धृतिमान् नियतेन्द्रियः । शरण्यः सर्वभूतानां गतिमाप्नोत्यनुत्तमाम् ॥ {64} , जो इन्द्रियजय धृतिसम्पन्न, पूर्णत: / सम्यक्तया अहिंसक होता हुआ, समस्त प्राणियों के लिए शरण-स्थान होता है, वह उत्तम गति को प्राप्त करता है । {65} कर्मणा मनसा वाचा ये न हिंसन्ति किंचन । ये न मज्जन्ति कस्मिंश्चित्ते न बध्नन्ति कर्मभिः ॥ प्राणातिपाताद्विरताः शीलवन्तो दयान्विताः । तुल्यद्वेष्यप्रिया दान्ता मुच्यन्ते कर्मबन्धनैः ॥ सर्वभूतदयावन्तो विश्वास्याः सर्वजन्तुषु । त्यक्तहिंस्त्रसमाचारास्ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ [वैदिक / ब्राह्मण संस्कृति खण्ड / 18 ( ब्रह्म. 15/75) (ब्रह्म.पु. 116/7-9) जो मन, वचन व कर्म से किसी की हिंसा नहीं करते हैं, और जो किसी विषय में (राग-ग्रस्त होकर) डूबते नहीं है, वे कर्मों के बन्धन में नहीं बंधते । जो प्राणि-वध से निवृत्त हैं, शील-सम्पन्न व दयालु हैं, इन्द्रियजयी हैं, तथा शत्रु व मित्र में समभाव रखते हैं, वे कर्म-बन्धन से छूट जाते हैं । {66} अहिंसा सत्यवचनं सर्वभूतेषु चार्जवम् । क्षमा चैवाप्रमादश्च यस्यैते स सुखी भवेत् ॥ यश्चैनं परमं धर्मं सर्वभूतसुखावहम् । दुःखान्निःसरणं वेद सर्वज्ञः स सुखी भवेत् ॥ (म.भा. 12/215/6-7) अहिंसा, सत्यभाषण, समस्त प्राणियों के प्रति सरलतापूर्ण बर्ताव, क्षमा तथा प्रमादशून्यता- ये गुण जिस पुरुष में विद्यमान हों, वही सुखी होता है। जो मनुष्य इस अहिंसा रूपी परम धर्म को समस्त प्राणियों के लिये सुखद और दुःख निवारक जानता है, वही _ सर्वज्ञ और सुखी होता है । 規規規 1、 鼻 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E乐乐巩巩巩巩乐乐¥¥¥¥¥¥¥安¥¥¥¥¥¥%%%%%%%%%$明 ___{67} अहिंसा समता शान्तिरानृशंस्यममत्सरः। द्वाराण्येतानि मे विद्धि॥ (म.भा. 3/314/8) (यक्षवेषधारी धर्मराज का युधिष्ठिर को उपदेश-)अहिंसा, समता, शान्ति, दया और अमत्सरता (डाह का न होना)-ये मेरे पास पहुंचने के द्वार हैं- ऐसा समझना चाहिए। {68} न ताडयति नो हन्ति प्राणिनोऽन्यांश्च देहिनः। यो मनुष्यो मनुष्येन्द्र तोष्यते तेन केशवः॥ (वि.पु. 3/8/15) हे नरेन्द्र ! जो मनुष्य किसी प्राणी अथवा (वृक्षादि) अन्य देहधारियों को पीड़ित ॐ अथवा नष्ट नहीं करता, उससे श्रीकेशव सन्तुष्ट रहते हैं। 明明明明明明明明明明明明明明明明明明娟娟娟娟垢玩垢頻FFFFFFF與其上上 {69} अप्रमादोऽविहिंसा च ज्ञानयोनिरसंशयम्॥ (म.भा. 5/69/18) प्रमाद से दूर रहना तथा किसी भी प्राणी की हिंसा न करना-ये निश्चय ही 'ज्ञान' (तत्त्व-ज्ञान) के उत्पादक हैं। 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听巩巩巩巩巩巩巩巩乐事 {70 कानि कर्माणि धाणि लोकेऽस्मिन् द्विजसत्तम। न हिंसन्तीह भूतानि क्रियमाणानि सर्वदा॥ श्रृणु मेऽत्र महाराज यन्मां त्वं परिपृच्छसि। यानि कर्माण्यहिंस्राणि नरं त्रायन्ति सर्वदा॥ __(म.भा.12/296/35-36) (राजा जनक का पराशर मुनि से प्रश्न-) द्विजश्रेष्ठ! इस लोक में कौन-कौन से ऐसे धर्मानुकूल कर्म हैं, जिनका अनुष्ठान करते समय कभी किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं होती है (अपितु रक्षा होती है)? - (पराशर मुनि का राजा जनक को उत्तर) महाराज! तुम जिन कर्मों के विषय में पूछ । रहे हो, उन्हें बताता हूं, मुझ से सुनो। जो कर्म हिंसा से रहित हैं, वे ही सदा मनुष्य की रक्षा कारक्षकहाताह TM E EEEEEEEine अहिंसा कोश/19] Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % % % % % %% %% % %%%% %% %%%%%% % % {71) आर्तप्राणप्रदा ये च, ये च हिंसाविवर्जकाः। अपीडकाश्च भूतानां ते नराः स्वर्गगामिनः॥ ___(वि. ध. पु. 2/117/18) आर्त (दुःखी/ पीड़ित) व्यक्तियों को प्राण-दान देने वाले, हिंसा से निवृत्त रहने * वाले और प्राणियों को कभी पीड़ा नहीं देने वाले व्यक्ति स्वर्ग जाते हैं। {72} रूपमैश्वर्यमारोग्यमहिंसाफलमश्रुते। ___ (म.भा.13/7/15, बृ.स्मृ. 1/71; वि. ध. पु. 3/237/26) अहिंसा धर्म के आचरण से रूप , ऐश्वर्य और आरोग्यरूपी फल की प्राप्ति होती है। {73} रूपमव्यंगतामायुर्बुद्धिं सत्त्वं बलं स्मृतिम्। प्राप्तुकामैनरैहिँसा वर्जिता वै महात्मभिः॥ (म.भा.13/115/6) जो सुन्दर रूप, पूर्णांगता, पूर्ण आयु, उत्तम बुद्धि, सत्त्व , बल और स्मरणशक्ति प्राप्त # करना चाहते थे, उन महात्मा पुरुषों ने (अभीष्ट-प्राप्ति के लिए) हिंसा का सर्वथा त्याग कर ॐ दिया था। (अर्थात् हिंसा-त्याग या अहिंसा से अभीष्ट फल प्राप्त किया जा सकता है।) 呢挥挥挥蝦蝦拼拆拆拆拆拆拆拆巩听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 अहिंसैका सुखावहा। (म.भा. 5/33/52,विदुरनीति 1/52) एकमात्र 'अहिंसा' (धर्मचर्या) ही सुख देने वाली है। ___{75} ये वा पापं न कुर्वन्ति कर्मणा मनसा गिरा। निक्षिप्तदण्डा भूतेषु दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥ (म.भा.12/110/7; वि. ध. पु. 2/122/13) जो मन, वाणी और क्रिया द्वारा कभी पाप नहीं करते हैं और किसी भी प्राणी को है शारीरिक हिंसा से कष्ट नहीं पहुंचाते हैं, वे संकट से पार हो जाते हैं। R 明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明男男男男男男男男 वैदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/20 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 乐乐听听听听听听听听听听听巩巩巩巩¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥%%%。 {76} कर्मणा मनसा वाचा सर्वावस्थासु सर्वदा। परपीड़न कुर्वन्ति, न ते यान्ति यमालयम्॥ (प.पु. 3/31/25) जो किसी भी स्थिति में कर्म, वाणी व मन से किसी को पीड़ित नहीं करते, वे कभी यमलोक में नहीं जाते। {771 यो बन्धनवधक्लेशान् प्राणिनां न चिकीर्षति। स सर्वस्य हितप्रेप्सुः सुखमत्यन्तमश्रुते॥ (म.स्मृ. 5/46) जो जीवों का वध व बन्धन नहीं करना चाहता है, वह सब का हिताभिलाषी व्यक्ति अत्यन्त सुख प्राप्त करता है। 178) यद्ध्यायति यत्कुरुते धृतिं बध्नाति यत्र च। तदवाप्नोत्ययत्नेन यो हिनस्ति न किंचन॥ (म.स्मृ. 5/47) जो किसी की हिंसा नहीं करता, वह जिसका चिन्तन करता है, जो कार्य करता है और जिस (परमात्मचिन्तन आदि) में ध्यान लगाता है; उन सबों को बिना (विशेष) प्रयत्न के ही प्राप्त कर लेता है। 呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢听听听听听听听听坎听听听听听听纸听听听听听听听听听听听听听听听听 {79} न हिंसयति यो जन्तून् मनोवाक्कायहेतुभिः। जीवितार्थापनयनैः प्राणिभिर्न स हिंस्यते॥ (म.भा.12/175/27) जो मनुष्य मन, वाणी और शरीर रूपी साधनों द्वारा प्राणियों की हिंसा नहीं करता, # जीवन और अर्थ का नाश करने वाले हिंसक प्राणी उसकी भी हिंसा नहीं करते हैं। % %%%%% %%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%% अहिंसा कोश/21] Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EEEEEEEEEEEEEEEEEE ng {80} अहिंसा सत्यमक्रोधः, तपो दानं दमो मतिः। अनसूयाऽप्यमात्सर्यमनीा शीलमेव च॥ एष धर्मः कुरुश्रेष्ठ कथितः परमेष्ठिना। ब्रह्मणा देवदेवेन अयं चैव सनातनः॥ अस्मिन् धर्मे स्थितो राजन् नरो भद्राणि पश्यति। ___ (म.भा.12/109/ पृ. 4705) __ अहिंसा, सत्य, अक्रोध, तपस्या, दान, मन व इन्द्रियों का संयम,विशुद्ध बुद्धि, किसी के दोष न देखना, किसी से डाह और जलन न रखना तथा उत्तम शीलस्वभाव का * परिचय देना-ये धर्म हैं। इसका परमेष्ठी ब्रह्मा ने उपदेश किया था और यही सनातन धर्म है। इस धर्म में जो स्थित है, उसे ही कल्याण का दर्शन होता है। {81} अजातशत्रुरस्तृतः। (ऋ. 8/93/15) अजातशत्रु (निर्वैर) कभी किसी से हिंसित (विनष्ट) नहीं होता। 求职埃¥编织绵绵纸纸纸纸折纸步步步巩$$$$$$乐坎坎坎纸纸编织乐乐乐乐乐乐加乐乐垢玩垢年 {82} लोकद्वये न विंदन्ति सुखानि प्राणिहिंसकाः। ये न हिंसन्ति भूतानि, न ते बिभ्यति कुत्रचित्॥ (प.पु. 3/31/36) जो प्राणि-हिंसा करते हैं, वे इहलोक और परलोक दोनों जगह, सुख से वंचित होते हैं। जो प्राणि-हिंसा से विरत हैं, उन्हें कहीं भय नहीं होता। {83} सर्वहिंसानिवृत्ताश्च साधुसंगाश्रये नराः। सर्वस्यापि हिते युक्तास्ते नराःस्वर्गगामिनः॥ (प.पु. 2/96/25) जो व्यक्ति सभी प्रकार की हिंसाओं से निवृत्त हैं, साधु (सज्जन) लोगों की संगति भ # करते हैं और जो सभी के हित-साधन (परोपकार) में संलग्न रहते हैं, वे स्वर्ग में जाते हैं। वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/22 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 斯斯斯斯斯斯斯斯斯所野野野野野西新50 84} यस्तु शुक्लाभिजातीयः प्राणिघातविवर्जकः। निक्षिप्तशस्त्रो निर्दण्डो न हिंसति कदाचन ॥ न घातयति नो हन्ति जन्तं नैवानुमोदते। सर्वभूतेषु सस्नेहो यथाऽऽत्मनि तथा परे॥ ईदृशः पुरुषोत्कर्षों देवि देवत्वमश्नुते। उपपन्नान् सुखान् भोगानुपाशाति मुदा युतः॥ अथ चेन्मानुषे लोके कदाचिदुपपद्यते। तत्र दीर्घायुरुत्पन्नः स नरः सुखमेधते॥ ____ (म.भा. 13/144/56-59) जो शुद्ध कुल में उत्पन्न और जीव-हिंसा से अलग रहने वाला है, जिसने शस्त्र और दण्ड का परित्याग कर दिया है, जिसके द्वारा कभी किसी की हिंसा नहीं होती, जो न मारता + है, न मारने की आज्ञा देता है और न मारने वाले का अनुमोदन ही करता है, जिसके मन में सब प्राणियों के प्रति स्नेह बना रहता है तथा जो अपने ही समान दूसरों पर भी दयादृष्टि रखता है ॐ है, देवि! ऐसा श्रेष्ठ पुरुष तो देवत्व को प्राप्त होता है और देवलोक में प्रसन्नतापूर्वक स्वतः उपलब्ध हुए सुखद भोगों का अनुभव करता है। यदि कदाचित् वह मनुष्य-लोक में जन्म म लेता भी है तो वह मनुष्य दीर्घायु और सुखी होता है। %%%%%%垢听听听听听听垢听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听织听听听 185} तदेतदुत्तमं धर्मम्, अहिंसाधर्मलक्षणम्। ये चरन्ति महात्मानो नाकपृष्ठे वसन्ति ते ॥ (म.भा.13/115/69) यह अहिंसा-रूप धर्म सब धर्मों से उत्तम है। जो इसका आचरण करते हैं, वे महात्मा स्वर्ग-लोक में निवास करते हैं। 1863 धृतिः शमो दमः शौचं कारुण्यं वागनिष्ठरा। मित्राणां चानभिद्रोहः सप्तैताः समिधः श्रियः॥ (म.भा. 5/38/38) धैर्य, मनोनिग्रह, इन्द्रियसंयम, पवित्रता, दया, कोमल वाणी और मित्र से द्रोह न 卐 करना-ये सात बातें लक्ष्मी को बढ़ाने वाली हैं। 明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明男男男男男男男男男男男男男 अहिंसा कोश/23] Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 中换城與货货货玩玩乐乐频圳坂坂纸频听垢玩垢玩垢玩垢玩垢玩垢玩垢玩垢听听听听听听听听听听 %% %% %%%%% %%% %%%%%%% %%%%%%% %%%% % {87} शुभेन कर्मणा देवि प्राणिघातविवर्जितः। निक्षिप्तशस्त्रो निर्दण्डो न हिंसति कदाचन ॥ न घातयति नो हन्ति नन्तं नैवानुमोदते। सर्वभूतेषु सस्नेहो यथाऽऽत्मनि तथा परे॥ ईदृशः पुरुषो नित्यं देवि देवत्वमश्रुते। उपपन्नान्सुखान्भोगान्सदाऽश्राति मुदा युतः॥ अथ चेन्मानुषे लोके कदाचिदुपपद्यते। एष दीर्घायुषां मार्गः सुवृत्तानां सुकर्मणाम्। प्राणिहिंसाविमोक्षेण ब्रह्मणा समुदीरितः॥ (ब्रह्म.पु. 116/54-57) (पार्वती को शंकर का कथन-) हे देवि! शुभ कर्मों वाला व्यक्ति प्राणि-वध के कार्य से दूर रहता है और वह शस्त्र व दण्ड के प्रयोग को त्याग कर किसी की भी हिंसा नहीं : करता। वह न स्वयं किसी का वध करता है, न ही किसी को प्राणि-वध हेतु प्रेरित करता है म है और न ही प्राणि-वध का अनुमोदन करता है। वह सभी प्राणियों के प्रति स्नेह-भाव बनाये रखता है। ऐसा व्यक्ति (मरकर) 'देव' बनता है और वहां उपलब्ध सुखों का सानन्द म उपभोग करता है। वह मनुष्य-योनि में आता भी है तो वहां भी सुख भोगता है। प्राणि-हिंसा का त्याग करने के कारण प्राप्त होने वाले एवं सदाचार व सत्कर्म के दीर्घ आयु वाले मार्ग का निरूपण ब्रह्मा ने किया है। {88} निर्ममश्चानहङ्कारो निर्द्वन्द्वश्छिन्नसंशयः। नैव क्रुद्ध्यति न द्वेष्टि नानृता भाषते गिरः॥ आक्रुष्टस्ताडितश्चैव मैत्रेण ध्याति नाशुभम्। वाग्दण्डकर्ममनसां त्रयाणां च निवर्तक :॥ समः सर्वेषु भूतेषु ब्रह्माणमभिवर्तते। (म.भा.12/236/34-35) जिसने ममता और अहंकार का त्याग कर दिया है, जो शीत, उष्ण आदि द्वन्द्वों को समान भाव से सहता है, जिसके संशय दूर हो गये हैं, जो कभी क्रोध और द्वेष नहीं करता, ' झूठ नहीं बोलता, किसी की गाली सुनकर और मार खाकर भी उसका अहित नहीं सोचता, ॐ सब पर मित्रभाव ही रखता है,जो मन, वाणी और कर्म से किसी जीव को कष्ट नहीं पहुँचाता है भार समस्त प्राणियो पर समानभाव रखता जEEEEEEEEEEEEEEEEE [वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/24 का प्रतिसाता अदभाव Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Fp圳乐乐乐乐听听玩乐乐玩玩乐乐乐玩玩乐乐听听听听听听听听听听听垢垢玩垢玩垢玩垢玩垢听听听听听圳垢垢s NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE {89} अपरः सर्वभूतानि दयावाननुपश्यति। मैत्रदृष्टिः पितृसमो निर्वैरो नियतेन्द्रियः।। नोवैजयति भूतानि न विघातयते तथा। हस्तपादैः सुनियतैर्विश्वास्यः सर्वजन्तुषु॥ न रज्वा न च दण्डेन न लोष्टैर्नायुधेन च। उद्वेजयति भूतानि भूक्षणकर्मा दयापरः॥ एवंशीलसमाचारः स्वर्गे समुपजायते। तत्रासौ भवने दिव्ये मुदा वसति देववत्॥ स चेत् कर्मक्षयान्मयों मनुष्येषूपजायते। अल्पाबाधो निरातङ्कः सः जातः सुखमेधते॥ सुखभागी निरायासो निरुद्वेगः सदा नरः। एष देवि सतां मार्गों बाधा यत्र न विद्यते॥ (म.भा. 13/145/37-42) निर्दय व्यक्ति के विपरीत, जो मनुष्य सब प्राणियों के प्रति दया-दृष्टि रखता है, सब को मित्र समझता है, सबके ऊपर पिता के समान स्नेह रखता है, किसी के साथ वैर नहीं # करता और इन्द्रियों को वश में किये रहता है, जो हाथ-पैर आदि को अपने अधीन रखकर * किसी भी जीव को न तो उद्वेग में डालता और न मारता ही है, जिस पर सब प्राणी विश्वास ज करते हैं,जो रस्सी डंडे, ढेले और घातक अस्त्र-शस्त्रों से प्राणियों को कष्ट नहीं पहुंचाता,जिसके ॐ कर्म कोमल एवं निर्दोष होते हैं तथा जो सदा ही दयापरायण होता है, ऐसे स्वभाव और ॥ * आचरण वाला पुरुष स्वर्ग लोक में दिव्य शरीर धारण करता है और वहां के दिव्य भवन में 3 देवताओं के समान आनन्दपूर्वक निवास करता है। फिर पुण्यकर्मों के क्षीण होने पर यदि वह # मृत्युलोक में जन्म लेता भी है, तो उसके ऊपर बाधाओं का आक्रमण अत्यन्त कम होता है। वह निर्भय हो सुख से अपनी उन्नति करता है और सुख का भागी होकर, आयास * (कष्ट)व उद्वेग से रहित जीवन व्यतीत करता है। यह सत्पुरुषों/सज्जनों का (अहिंसा का) मार्ग है, जहां किसी प्रकार की विघ्न-बाधा नहीं आने पाती है। %%%%%% %% %%%%%%%%%% %%%%%% %%%%%%% % अहिंसा कोश/25] Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {90} अहिंस्त्रो याति वैराज्यं नाकपृष्ठमनाशकम्। ( प.पु. 6 (उत्तर) / 32/65) हिंसा से विरत अहिंसक व्यक्ति को अविनाशी स्वर्गीय राज्य का आधिपत्य प्राप्त होता है। हिंसा की निन्दा {91} सर्वेषामेव पापानां हिंसा परमिहोच्यते । हिंसा बलमसाधूनां हिंसा लोकद्वयापहा ॥ (fa. u. g. 3/252/1) सभी पापों में बड़ा पाप 'हिंसा' ही कही जाती है। हिंसा असज्जनों/ दुष्टों का ही बल होती है और वह उनके दोनों लोकों को बिगाड़ने वाली होती है। {92} वने निरपराधानां प्राणिनां च मारणम् ॥ गवां गोष्ठे वने चाग्नेः पुरे ग्रामे च दीपनम् ॥ इति पापानि घोराणि सुरापानसमानि तु ॥ ( प.पु. 2/67/60-61) वन में निरपराध प्राणियों को मारना, तथा गौशाला में और वन, नगर व ग्राम में आग लगा देना- ये सुरापान की तरह ही घोर पाप हैं। [वैदिक / ब्राह्मण संस्कृति खण्ड / 26 {93} त्यक्तस्वधर्माचरणा निर्घृणाः परपीडकाः । चंडाश्च हिंसका नित्यं म्लेच्छास्ते ह्यविवेकिनः ॥ ( शु.नी. 1/44) जो लोग स्वधर्माचरण को छोड़ने वाले, दयाशून्य, दूसरे को पीड़ा पहुंचाने वाले, क्रोधी तथा हिंसा करने वाले होते हैं, वे 'म्लेच्छ' हैं । उनमें विवेक का लेश भी नहीं होता है। 興建規規規 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < %%%%%%%%%%%% %%%%%%%%%%%男男男男男男男男 {94} प्राणवियोगप्रयोजनव्यापारो हिंसा, सा च सर्वानर्थहेतुः। __ (यो.सू. 2/30 भो.वृ.) शरीर से प्राण को वियुक्त या पृथक् करने के उद्देश्य से किया गया कार्य या चेष्टा 'हिंसा' है। यह हिंसा सभी अनर्थों का मूल कारण है। 1953 {95} निजन्नन्यान्हिनस्त्येनं सर्वभूतो यतो हरिः॥ (वि.पु. 3/8/10) दूसरों की हिंसा करने वाला उन्हीं भगवान् (हृदयस्थित ईश्वर) की हिंसा करता है, क्योंकि भगवान् हरि सर्वभूतमय हैं- वे सभी प्राणियों में स्थित हैं। {96} हिंसा गरीयसी सर्वपापेभ्योऽनृतभाषणम्॥ (शु.नी. 2/207) ¥¥¥明明明明明听听听听听听听听听听听听听听听听玩玩玩乐乐听听听听听听听听听垢妮FFFFFFFF सब पापों से बढ़कर हिंसा और झूठ बोलना है। 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听。 1972 हिंसारतश्च यो नित्यं नेहासौ सुखमेधते॥ (म.स्मृ. 4/170) सर्वदा हिंसा में निरत मनुष्य परपीडा में संलग्न है; वह मनुष्य इस लोक में सुखी व समृद्ध नहीं होता है। हिंसाः एक तामसिक प्रवृत्ति .. {98} सत्त्वोदयाच्च मुक्तीच्छा कर्मेच्छा च रजोगुणात्। तमोगुणाज्जीवहिंसा कोपोऽहंकार एव च॥ (ब्र.वै.पु. 4/24/61-63) शरीर में सत्त्व के उद्रेक होने से जीव को मुक्ति की इच्छा होती है, रजोगुण के उदय क होने पर (सांसारिक) कर्म करने की इच्छा होती है, और तमोगुण से जीवों में हिंसा, क्रोध और अहंकार उत्पन्न होते हैं। 男男男男男男男男弱弱弱弱弱明明明明明明明明明明明明明明明明明明 अहिंसा कोश/27] Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XXXXXXXXXXXXXEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE हिंसा के लौकिक व पारलौकिक दुष्परिणाम {99) त्रातारं नाधिगच्छन्ति रौद्राः प्राणिविहिंसकाः। उद्वेजनीया भूतानां यथा व्यालमृगास्तथा॥ (म.भा.13/115/32) जैसे हिंसक पशुओं का लोग शिकार करते हैं और वे पशु अपने लिये कहीं कोई रक्षक नहीं पाते, उसी प्रकार प्राणियों की हिंसा करने वाले क्रूर मनुष्य दूसरे जन्म में सभी पापियों द्वारा उद्विग्न पीड़ित किये जाते हैं और उन्हें अपने लिये कोई संरक्षक भी नहीं मिलता। 城與埃斯埃斯埃纸纸纸折纸折纸垢玩垢呢坎坎坎坎坎坎坎坎¥¥¥¥统埃乐乐玩 {100} अहिंसादिकृतं कर्म इह चैव परत्र च। श्रद्धां निहन्ति वै ब्रह्मन् सा हता हन्ति तं नरम्॥ __ (म.भा. 12/264/6) अहिंसा और दया आदि भावों से प्रेरित होकर किया हुआ कर्म इहलोक और परलोक में भी उत्तम फल देनेवाला है। यदि मन में हिंसा की भावना हो तो वह श्रद्धा का नाश कर देती है। फिर वह नष्ट हुई श्रद्धा कर्म करने वाले इस हिंसक मनुष्य का ही सर्वनाश * कर डालती है। {101} ये पुरा मनुजा देवि सर्वप्राणिषु निर्दयाः। जन्ति बालांश्च भुञ्जन्ते मृगाणां पक्षिणामपि॥ एवंयुक्तसमाचाराः पुनर्जन्मनि शोभने। मानुष्यं सुचिरात् प्राप्य निरपत्या भवन्ति ते। पुत्रशोकयुताश्चापि नास्ति तत्र विचारणा॥ (म.भा.13/145/पृ. 5968) (शिव का पार्वती को धर्म-निरूपण-) देवि! जो मनुष्य पहले समस्त प्राणियों के प्रति # निर्दयता का बर्ताव करते हैं, मृगों और पक्षियों के भी बच्चों को मारकर खा जाते हैं, ऐसे है + आचरण वाले जीव फिर जन्म लेने पर दीर्घकाल के पश्चात् मानव-योनि को पा कर संतानहीन म तथा पुत्रशोक से संतप्त होते हैं, इसमें विचार (या सन्देह) करने की आवश्यकता नहीं है। .. [वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/28 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < % %%%%%%%%% % % %%%% %% %%%%% %%% % {102} योऽहिंसकानि भूतानि हिनस्त्यात्मसुखेच्छया। स जीवंश्च मृतश्चैव न क्वचित्सुखमेधते॥ (म.स्मृ. 5/45) जो व्यक्ति अहिंसक जीवों का अपने सुख ( जिह्वास्वाद- शरीरपुष्टि आदि) की इच्छा * से वध करता है, वह जीता हुआ तथा मर कर भी कहीं पर सुख-समृद्धि नहीं प्राप्त करता। {103} प्राणिनां प्राणहिंसायां ये नरा निरताः सदा। परनिन्दारता ये वै ते वै निरयगामिनः॥ (प.पु. 2/96/7) जो लोग प्राणियों की प्राण-हिंसा में सदा लगे रहते हैं और जो पर-निन्दा में प्रवृत्त रहा करते हैं, वे निश्चय ही नरकगामी होते हैं। {104} हरति परधनं निहन्ति जन्तून् वदति तथाऽनृतनिष्ठराणि यश्च। अशुभजनितदुर्मदस्य पुंसः कलुषमतेर्हदि तस्य नास्त्यनन्तः॥ (वि.पु. 3/7/28) जो पुरुष दूसरों का धन हरण करता है, जीवों की हिंसा करता है तथा मिथ्या और कटु भाषण करता है, इन अशुभ कर्मों के कारण मदमत्त उस दुष्टबुद्धि के हृदय में भगवान् 'अनन्त' नहीं टिक सकते। {105) हिंसकान्यपि भूतानि यो हिनस्ति स निघृणः। स याति नरकं घोरं कि पुनर्यः शुभानि च?॥ (पं.त. 3/106) जो मनुष्य हिंसक प्राणियों को भी मारता है, वह निर्दयी होता है और वह भीषण नरक को प्राप्त होता है, तथा जो अहिंसक पशुओं को मारता है उसका तो # कहना ही क्या (वह तो घोर नरक को प्राप्त होता ही है)। E EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE अहिंसा कोश/29] Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 明奶奶身男 男 男男男%% %% %% %%% %% %%%%% {106} भूतेषु बद्धवरस्य न मनः शान्तिमृच्छति। (भा. पु. 3/29/23) ___ जो अन्य प्राणियों के साथ वैरभाव रखता है, उसके मन को कभी शान्ति नहीं मिल सकती। {107} दुष्टं हिंसायाम्। (वै.द. 6/1/7) हिंसा के कारण अच्छे-से-अच्छा साधक भी दुष्ट (मलिन) हो जाता है। F撰兵與蝦蝦與與與與FF挥挥坝坝坝坝坝呢巩巩巩巩巩巩巩巩巩明明明明明媚明明明明明明明圳出 {108} शास्त्रदृष्टानविद्वान् यः समतीत्य जिघांसति॥ स पथः प्रच्युतो धर्मात् कुपथे प्रतिहन्यते। __ (म.भा. 10/6/20-21) शास्त्रदर्शी पुरुषों की आज्ञा का जो मूर्ख उल्लङ्घन करके दूसरों की हिंसा करना * चाहता है, वह धर्ममार्ग से भ्रष्ट हो कुमार्ग में पड़ कर स्वयं ही मारा जाता है। 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听垢听听听听听听听听听听听听贝听听听听听听听F8 {109) भूतानि येऽत्र हिंसन्ति जलस्थलचराणि च। जीवनार्थं च ते यान्ति कालसूत्रं च दुर्गतिम्॥ (प.पु. 3/31/30) जो जलचर या स्थलचर प्राणियों को अपनी जीविका के लिए मारते हैं, वे 'कालसूत्र' नरक में दुर्गति को प्राप्त करते हैं। {110) अदत्तादाननिरतः परदारोपसेवकः। हिंसकश्चाविधानेन स्थावरेष्वभिजायते॥ (या. स्मृ., 3/4/136) चोरी करने वाला, पर-स्त्री का सेवन करने वाला तथा (शास्त्रीय विधि के विरुद्ध) 3 हिंसा करने वाला मर कर स्थावर (वृक्ष, लता आदि अधम कोटि) की योनि में जन्म लेता है। 乐乐乐乐乐乐%%%%%%¥¥¥¥¥¥¥求求求求求求 विदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/30 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 野野野野野近所野野野野野野野野野野野野野野野野野れる {111} हिंस्रा भवन्ति क्रव्यादाः। (म.स्मृ. 12/59) हिंसक (सदा हिंसा करने वाले बहेलिया, शिकारी आदि) मनुष्य दूसरे जन्म में क्रव्याद (कच्चे मांस खाने वाले बिलाव आदि) होते हैं। {112} देवत्वं सात्त्विका यान्ति मनुष्यत्वं च राजसाः। तिर्यक्त्वं तामसा नित्यमित्येषा त्रिविधा गतिः॥ (म.स्मृ. 12/40) स्थावराः कृमिकीटाश्च मत्स्याः सर्पाः सकच्छपाः। पशवश्च मृगाश्चैव जघन्या तामसी गतिः॥ हस्तिनश्च तुरंगाश्च शूद्रा म्लेच्छाश्च गर्हिताः। सिंहा व्याघ्रा वराहाश्च मध्यमा तामसी गतिः॥ रक्षांसि च पिशाचाश्च तामसीषूत्तमा गतिः॥ ___ (म.स्मृ. 12/42-44) सात्त्विक (सत्त्वगुण का व्यवहार करने वाले)व्यक्ति देवत्व को, राजस (रजोगुण * का व्यवहार करने वाले) मनुष्यत्व को और तामस (तमोगुण यानी हिंसा व क्रूरता से * सम्पन्न व्यक्ति) तिर्यक्त्व (पशु-पक्षी, वृक्ष, लता-गुल्म आदि की योनि) को प्राप्त करते हैं; + ये तीन प्रकार की गतियां हैं। स्थावर (वृक्ष, लता, गुल्म, पर्वत आदि अचर), कृमि (सूक्ष्म * कीड़े), कीड़े, मछली, सर्प, कछुवा, पशु, मृग; ये सब जघन्य (हीन)तामसी गतियां है। हाथी, घोड़ा, शूद्र, निन्दित म्लेच्छ, सिंह, बाघ और सूअर-ये मध्यम तामसी गतियां हैं। राक्षस और पिशाच-ये उत्तम तामसी गतियां हैं। {113} अतो वै नैव कर्तव्या प्राणिहिंसा भयावहा। वियोज्य प्राणिनं प्राणैस्तथैकमपि निर्घणः॥ . (वि. ध. पु. 3/252/13) एक भी प्राणी को उसके प्राणों से रहित करने वाला निर्दय कहा जाता है, अतः भयावह प्राणि-हिंसा कभी नहीं करनी चाहिए। EXEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE अहिंसा कोश/31] Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MIRREEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEma {114} अपि कीटः पतङ्गो वा न हंतव्यः कथंचन। महद् दुःखमवाप्नोति पुरुषः प्राणिनाशनात्॥ (वि. ध. पु. 3/252/2) कीट हो या पतंगा हो, उसे किसी भी परिस्थिति में नहीं मारना चाहिए। मनुष्य प्राणि-हिंसा के दुष्परिणाम स्वरूप महान् दुःख को प्राप्त करता है। {115} प्राणिहिंसाप्रवृत्ताश्च ते वै निरयगामिनः॥ (म.भा. 12/23/69) जिनकी प्रवृत्ति सदा जीव-हिंसा में होती है, वे निश्चय ही नरक में गिरते हैं। t中FFFF妮蜗蜗蜗蜗蜗垢垢垢玩垢玩垢坍塌垢圳听听听听听听垢玩垢巩巩巩巩巩垢垢玩垢圳明玉 {116} राजहा ब्रह्महा गोनश्चोरः प्राणिवधे रतः। नास्तिकः परिवेत्ता च सर्वे निरयगामिनः॥ (वा.रामा. 4/17/32) राजा का वध करने वाला, ब्रह्म-हत्यारा, गोघाती, चोर, प्राणियों की हिंसा में तत्पर रहने वाला, नास्तिक और परिवेत्ता (बड़े भाई के अविवाहित रहते अपना विवाह करने वाला छोटा भाई) -ये सब के सब नरकगामी होते हैं। {117} यो जन्तुः स्वकृतैस्तैस्तैः कर्मभिनित्यदुःखितः॥ स दुःखप्रतिघातार्थं हन्ति जन्तूननेकधा। ततः कर्म समादत्ते पुनरन्यनवं बहु॥ तप्यतेऽथ पुनस्तेन भुक्त्वाऽपथ्यमिवातुरः। (म.भा.12/329/54-55) . जो जीव अपने ही किये हुए विभिन्न कर्मों के कारण सदा दुःखी रहता है, वही उस दुःख का निवारण करने के लिए नाना प्रकार के प्राणियों की हत्या करता है। तदनन्तर वह और भी बहुत-से नये-नये (हिंसक) कर्म करता है और जैसे रोगी है अपथ्य खाकर दुःख पाता है, उसी प्रकार उन कर्मों से भी वह अधिकाधिक कष्ट पाता में रहता है। विदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/32 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F听听玩玩乐乐玩玩玩玩玩乐乐听听听听听听听玩玩乐乐玩玩乐乐加乐乐頻頻玩玩乐乐玩乐折纸折纸加 {118} ये त्विह वै भूतान्युद्वेजयन्ति नरा उल्बणस्वभावा यथा दन्दशूकास्तेऽपि प्रेत्य नरके दन्दशूकाख्ये निपतन्ति, यत्र नृप दन्दशूकाः पञ्चमुखाः सप्तमुखा उपसृत्य ग्रसन्ति यथा बिलेशयान्॥ यस्त्विह वा अतिथीनभ्यागतान्वा गृहपतिरसकृदुपगतमन्युः दिधिक्षुरिव पापेन चक्षुषा निरीक्षते, तस्य चापि निरये पापद्दष्टेरक्षिणी वज्रतुण्डा गृधाः कङ्ककाकवटादयः प्रसह्योरुबलादुत्पाटयन्ति॥ (भा.पु. 5/26/33,35) जो इस लोक में सों के सदृश उग्र स्वभाव वाले पुरुष प्राणियों को दुःख देते हैं, वे ' स्वयं भी मरने के बाद दन्दशूक नरक में जा गिरते हैं जहां पांच-पांच तथा सात-सात मुख के ॐ सर्प उनके समीप आकर उन्हें चूहों की भांति निगल जाते हैं। जो गृहस्थ पुरुष इस लोक में अतिथि तथा अभ्यागतों की ओर बार-बार क्रोध में भरकर, मानो उन्हें भस्म करना चाहता हो, ऐसी कुटिल दृष्टि से देखता है तो नरक में जाने के बाद उस पापदृष्टि के नेत्रों को गृध्र, कंक, काक ॐ तथा वट आदि वज्र के समान तीखी चोंचों के पक्षी एकाएक बरबस निकाल लेते हैं। {119} प्राणातिपाते यो रौद्रो दण्डहस्तोद्यतः सदा। नित्यमुद्यतशस्त्रश्च हन्ति भूतगणान् नरः॥ निर्दयः सर्वभूतानां नित्यमुद्वेगकारकः। अपि कीटपिपीलानामशरण्यः सुनिघृणः॥ एवंभूतो नरो देवि निरयं प्रतिपद्यते। विपरीतस्तु धर्मात्मा रूपवानभिजायते॥ (म.भा. 13/144/49-51; ब्रह्म. 116/48-50 में आंशिक परिवर्तन के साथ) (महादेव शंकर का पार्वती को कथन) देवि! जो मनुष्य दूसरों का प्राण लेने के लिये हाथ में डंडा लेकर सदा भयंकर रूप धारण किये रहता है, जो प्रतिदिन हथियार उठा है कर जगत् के प्राणियों की हत्या किया करता है, जिसके भीतर किसी के प्रति दया नहीं होती, जो समस्त प्राणियों को सदा उद्वेग में डाले रहता है और जो अत्यन्त क्रूर होने के कारण चींटी और कीड़ों को भी शरण नहीं देता, ऐसा मानव घोर नरक में पड़ता है। जिसका स्वभाव ' * इसके विपरीत होता है, वही धर्मात्मा और रूपवान होकर जन्म लेता है। 5555555卐5555555555555555555555555555555555 中国男明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明 अहिंसा कोश/33] Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 坎坎货坎坎與玩玩纸听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听玩乐折纸折垢玩垢 ___{120) अर्थैरापादितैर्गुळ हिंसयेतस्ततश्च तान्। पुष्णाति येषां पोषेण शेषभुग्यात्यधः स्वयम्॥ वार्तायां लुप्यमानायामारब्धायां पुनः पुनः। लोभाभिभूतो निःसत्त्वः परार्थे कुरुते स्पृहाम्॥ कुटुम्बभरणाकल्पो मन्दभाग्यो वृथोद्यमः। श्रिया विहीनः कृपणो ध्यायञ्छ्वसिति मूढधीः॥ एवं स्वभरणाकल्पं तत्कलत्रादयस्तथा। नाद्रियन्ते यथापूर्वं कीनाशा इव गोजरम्॥ तत्राप्यजातनिर्वेदो म्रियमाणः स्वयंभृतैः। जरयोपात्तवैरूप्यो मरणाभिमुखो गृहे॥ आस्तेऽवमत्योपन्यस्तं गृहपाल इवाहरन्। आमयाव्यग्रदीप्ताग्निरल्पाहारोऽल्पचेष्टितः ॥ वायुनोत्क्रमतोत्तारः कफसंरुद्धनाडिकः। कासश्वासकृतायासः कण्ठे घुरघुरायते॥ शयानः परिशोचद्भिः परिवीतः स्वबन्धुभिः । वाच्यमानोऽपि न ब्रूते कालपाशवशं गतः॥ एवं कुटुम्बभरणे व्यापृतात्माऽजितेन्द्रियः। म्रियते रुदतां स्वानामुरुवेदनयाऽस्तधीः॥ ___ (भा.पु. 3/30/10-18) जो व्यक्ति हिंसा आदि क्रूर कर्मों द्वारा धन अर्जित कर अपने परिवार आदि का * पोषण करता है, उसकी (स्वयं उसके परिवार में) दुर्गति इस प्रकार होती है:- कुटुम्बियों क के भोजन से बचे हुए टुकड़े भी उसे कठिनाई से मिलते हैं। जीविका के लिए किये गये विविध उद्योगों के बार-बार निष्फल हो जाने पर मनुष्य, लालच में पड़ कर, चोरी आदि दुष्कर्म करने लग जाता है। परिवार के परिपालनार्थ वह अभागा जो उपाय करता है वही ॥ निष्फल हो जाता है, तब वह परिवार के पालन की चिन्ता से गहरी सांसें लिया करता है। # पालन-पोषण करने में उसके असमर्थ हो जाने पर, स्त्री-पुत्र आदि उसका वैसे ही अनादर करने लगते हैं जैसे किसान बूढ़े बैल का। पहले जिनको खिला कर खाता था, आज उन्हीं का मोहताज होने, बुढ़ापे के कारण कुरूप हो जाने और मौत के मुंह में पैर लटकाये रहने ¥¥¥¥¥¥乐乐玩玩乐乐乐玩玩乐乐听听听听听玩玩玩乐乐听听听听听听听孫 (वैदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/34 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 男明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明 म पर भी उसकी आंखें नहीं खुलतीं। चिन्ता और बुढ़ापे के कारण उसे रोग घेर लेते हैं, पाचन# शक्ति बिगड़ जाने से भर-पेट भोजन भी वह नहीं कर सकता, इससे वह किसी काम-काज # * के लायक नहीं रहता। इस दशा में अनादर के साथ घरवालों के दिये हुए टुकड़ों पर वह * पालतू कुत्ते का-सा जीवन बिताता है। ऊर्ध्वश्वास चलने से आंखें निकल आती हैं, नाड़ियों # की गति को कफ रोक देता है,खांसने और सांस लेने में भी उसे बड़ा कष्ट होता है और कफ अटक जाने से गले से घर-घर शब्द होने लगता है। मौत के फन्दे में फंसा हुआ, चिन्तित भाई-बन्धुओं के बीच लेटा हुआ, वह प्राणी घरवालों के बार-बार बुलवाने पर भी क्लेश # के मारे नहीं बोल पाता। इस प्रकार वह अभागा, भाई-बन्धुओं को रोते-कलपते छोड़कर, ॐ यम-यातना भोगने हेतु सदा के लिए आंखें मूंद लेता है। {121} निद्रालुः क्रूरकृल्लुब्धो नास्तिको याचकस्तथा। प्रमादवान्भिन्नवृत्तो भवेत्तिर्यक्षु तामसः॥ (या. स्मृ., 3/4/139) निद्राशील, करकर्मा (प्राणियों को पीड़ा देने वाला), लोभी, नास्तिक (धर्मादि का + निन्दक), मांगने वाली, प्रमादी (कार्याकार्य-विवेकशून्य) और विरुद्धाचरण करने वाला ॐ तमोगुण-युक्त व्यक्ति मर कर तिर्यक् (पशु) की योनि में जन्म ग्रहण करता है। 职%%%%坑坑坑坑坑坑听听听听玩玩乐乐听听听听听听听织垢玩垢玩垢玩垢玩垢听听听听听听听听听听乐乐 {122} हिंस्रः स्वपापेन विहिंसितः खलः, साधुः समत्वेन भयाद् विमुच्यते। (भा. पु. 10/8/31) हिंसक दुष्ट व्यक्ति को उसके स्वयं के पाप ही नष्ट कर डालते हैं, जब कि साधु सज्जन पुरुष अपनी समता (सम-दृष्टि) से ही सब खतरों से बच जाता है। {123} न हिंसा-सदृशं पापं त्रैलोक्ये सचराचरे। हिंसको नरकं गच्छेत् स्वर्गं गच्छेदहिंसकः॥ (शि.पु. 2/5/5/20) __ चराचर-सहित समस्त त्रैलोक्य में हिंसा-समान कोई पाप नहीं है। हिंसक नरक भ * जाता है, और अहिंसक स्वर्ग प्राप्त करता है। 明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明男男男男男男男 अहिंसा कोश/35] Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 原廠 $$$$$$$$$$$$$$$$$$、 {124} यस्त्विह वा उग्रः पशून्पक्षिणो वा प्राणत उपरन्धयति तमपकरुणं पुरुषादैरपि विगर्हितमत्र यमानुचराः कुम्भीपाके तप्ततैले उपरन्धयन्ति ॥ (भा.पु. 5/26/13) जो महाक्रूर पुरुष इस लोक में जीवित पशु तथा पक्षियों को रांधता ( मार कर पकाता है), राक्षसों से भी निन्दित उस निर्दयी प्राणी को परलोक में यमराज के सेवक कुम्भीपाक नरक में ले जाकर खौलते हुए तेल में रांधते हैं। [ वैदिक / ब्राह्मण संस्कृति खण्ड / 36 {125} लोभात्स्वपालनार्थाय जीविनं हन्ति यो नरः । मज्जाकुण्डे वसेत्सोऽपि तद्भोजी लक्षवर्षकम् ॥ ततो भवेत्स शशको मीनश्च सप्तजन्मसु । एणादयश्च कर्मभ्यस्ततः शुद्धिं लभेद् ध्रुवम् ॥ .पु. 2/30/31-32) जो लोभवश अपने भरण-पोषण के लिए किसी अन्य जीव का हनन करता है, वह लाख वर्ष तक मज्जा के कुण्ड में उसे ही खा कर पड़ा रहता है। अन्त में सात जन्मों तक वह शशक (खरगोश), मछली, मृग आदि योनियों में उत्पन्न होकर दुःखानुभव करता है, उपरान्त ही उसकी शुद्धि हो जाती है - यह निश्चित है । {126} निरयं याति हिंसात्मा याति स्वर्गमहिंसकः । यातनां निरये रौद्रां स कृच्छ्रं लभते नरः ॥ यः कश्चिन्निरयात् तस्मात् समुत्तरति कर्हिचित् । मानुष्यं लभते चापि हीनायुस्तत्र जायते ॥ (म.भा. 13/144/53-54) जिसका चित्त हिंसा में लगा होता है, वह नरक में गिरता है और जो किसी की हिंसा नहीं करता है, वह स्वर्ग में जाता है। नरक में पड़े हुए जीव को बड़ी कष्टदायक और भयंकर यातना भोगनी पड़ती है। यदि कभी कोई उस नरक से छुटकारा पाकर मनुष्य - योनि में जन्म ता भी है, तो वहां उसकी आयु बहुत थोड़ी होती है। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %%%%%%%%%%%% %%%%%%%%%%% %%%%%%%% {127} पापेन कर्मणा देवि वध्यो हिंसारतिर्नरः। अप्रियः सर्वभूतानां हीनायुरुपजायते॥ ___ (म.भा. 13/144/52; 13/144/55; ब्रह्म 116/53 में आंशिक परिवर्तन के साथ ) देवि! हिंसाप्रेमी मनुष्य अपने पापकर्म के कारण दूसरों का वध्य, सब प्राणियों का अप्रिय तथा अल्पायु होता है। {128} यस्तु रौद्रसमाचारः सर्वसत्त्वभयंकरः। हस्ताभ्यां यदि वा पद्भ्यां रज्वा दण्डेन वा पुनः॥ लोष्टैः स्तम्भैरायुधैर्वा जन्तून् बाधति शोभने। हिंसार्थं निकृतिप्रज्ञः प्रोद्वेजयति चैव ह॥ उपक्रामति जन्तूंश्च उद्वेगजननः सदा। एवं शीलसमाचारो निरयं प्रतिपद्यते॥ स वै मनुष्यतां गच्छेद् यदि कालस्य पर्ययात्। बह्वाबाधपरिक्लिष्टे जायते सोऽधमे कुले॥ लोकद्वेष्योऽधमः पुंसां स्वयं कर्मफलैः कृतैः। एष देवि मनुष्येषु बोद्धव्यो ज्ञातिबन्धुषु॥ (म.भा. 13/145/32-36 ; ब्रह्म. 117/31-35 में आंशिक परिवर्तन के साथ) जिस मनुष्य का आचरण क्रूरता से भरा हुआ है, जिससे समस्त जीव भयभीत होते के हैं, जो हाथ, पैर, रस्सी, डंडे और ढेले से मारकर ,खम्भों में बांध कर तथा घातक शस्त्रों का प्रहार करके जीव-जन्तुओं को सताता रहता है, छल-कपट में प्रवीण होकर हिंसा के उद्देश्य से उन जीवों में उद्वेग पैदा करता है तथा उद्वेगजनक होकर सदा उन जन्तुओं पर आक्रमण म करता है, ऐसे स्वभाव और आचरण वाले मनुष्य को नरक में गिरना ही पड़ता है। यदि वह * काल-चक्र के फेरे से फिर मनुष्ययोनि में आता भी है तो अनेक प्रकार की विघ्न-बाधाओं जा से कष्ट-पूर्ण जीवन बिताने वाले अधम कुल में उत्पन्न होता है। ऐसा मनुष्य अपने ही किये हुए कर्मों के फल के अनुरूप ही मनुष्यों में तथा जाति-बन्धुओं में नीच समझा जाता है और सब लोग उससे द्वेष रखते हैं (अर्थात् कोई भी उसका मित्र नहीं होता)। 2 % %%%%% %%% % %%%%%%%%%% %% %%%%% 、 अहिंसा कोश/37] Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {129) सोपधं निकृतिः स्तेयं परीवादो ह्यसूयिता। परोपघातो हिंसा च पैशुन्यमनृतं तथा॥ एतानासेवते यस्तु तपस्तस्य प्रहीयते। यस्त्वेतान् नाचरेद् विद्वांस्तपस्तस्य प्रवर्धते॥ (म.भा. 12/192/17-18) प्राणि हिंसा, कपट, शठता, चोरी, पर-निन्दा, दूसरों के दोष देखना, दूसरों को हानि पहुंचाना, चुगली खाना और झूठ बोलना- इन दुर्गुणों का जो सेवन करता है,उसकी तपस्या क्षीण होती है। किन्तु जो विद्वान् इन दोषों को कभी आचरण में नहीं लाता, उसकी तपस्या निरन्तर बढ़ती रहती है। 洛基些參與與與與與垢玩垢玩垢玩垢$$听听听听听听乐乐坊乐乐巩巩巩巩巩巩乐乐乐历坎坎坎坎坎坎明星 {130} धर्मध्वजी सदा लुब्धश्छामिको लोकदम्भकः। बैडालव्रतिको ज्ञेयो हिंस्रः सर्वाभिसन्धकः॥ (म.स्मृ. 4/195) ते तपन्त्यन्धतामिस्त्रे तेन पापेन कर्मणा॥ (म.स्मृ. 4/197) हिंसक, धर्मध्वजी (अपनी प्रसिद्धि के लिये धर्म का ढोंग करने वाला), लोभीॐ कपटी, संसार को ठगने वाला (किसी की धरोहर नहीं वापस करने वाला आदि) और दूसरों के गुण को सहन नहीं करने से उनकी निन्दा करने वाला 'बिडालव्रतिक' कहा गया है। ऐसे 卐 लोग अपने पाप के कारण 'अन्धतामिस्र' नरक में जाते हैं। {131} ये त्विह यथैवामुना विहिंसिता जन्तवः परत्र यमयातनामुपगतं त एव रुरवो ॐ भूत्वा तथा तमेव विहिंसन्ति तस्माद्रौरवमित्याहू रुरुरिति सर्पादतिक्रूरसत्त्वस्यापदेशः॥ (भा.पु. 5/26/11) __इस संसार में कुटुम्ब का पोषण करने के लिये ही उसने जिस जीव की जिस प्रकार # हिंसा की होती है, परलोक में यम-यातना को प्राप्त होने पर उसे वे ही जीव 'रुरु' होकर उसी तरह पीड़ित करते हैं। अतएव उसे 'रौरव' नरक कहते हैं। 'रुरु' नाम के जीव सर्प + से भी अधिक क्रूर स्वभाव के होते हैं। %%%%%%%% %%%%%%% %%%% % 男%%%%%%% वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/38 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % % %%% % %%%%% %%%%% % %%% %% %% %%%%%% {132} ये नरा इह जन्तूनां वधं कुर्वन्ति वै मृषा। ते रौरवे निपात्यन्ते भियंते रुरुभीरुषा॥ यः स्वोदरार्थे भूतानां वधमाचरति स्फुटम्। महारौरवसंज्ञे तु पात्यते स यमाज्ञया॥ ___ (प.पु. 5/48/11-12) जो लोग इस लोक में निरर्थक प्राणि-वध करते हैं, वे 'रौरव' नरक में जाते है और # 'रुरु' प्राणियों के भयानक क्रोध से छिन्न-भिन्न होते हैं। जो अपने पेट को भरने के लिए प्राणियों का वध करता है, वह यम की आज्ञा से महारौरव नरक में डाल दिया जाता है। 听乐听听听听听听乐乐听听玩玩乐乐¥%%%贝听听听听听听听听听听听听听听听听听坎玩乐明明听听听听 {133} कर्मणा मनसा वाचा परपीडां करोति यः। तद् बीजं जन्म फलति, प्रभूतं तस्य चाशुभम्॥ (वि.पु. 1/19/6) जो व्यक्ति मन, वचन तथा कर्म से दूसरों को पीड़ा पहुंचाता है- इसके कारण उस व्यक्ति को अनेक अशुभ जन्म लेने और भोगने पड़ते हैं। 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听垢听听听听听听听听听听界 {134} भूतद्रोहं विधायैव केवलं स्वकुटुम्बकम्। पुष्णाति पापनिरतः सोऽन्धतामित्रके पतेत्॥ (प.पु. 5/48/10) जो व्यक्ति प्राणियों से द्रोह कर केवल पाप-कार्यों में उद्यत होता हुआ अपने कुटुम्ब ॐ का भरण-पोषण करता है, वह अन्धतामिस्र नरक में जाता है। {135} अस्ति देवा अंहोरुर्वस्ति रत्नमनागसः। (ऋ. 8/67/7) देवों! (विद्वानों) पापशील हिंसक को महापाप होता है, और अहिंसक धर्मात्मा को म अतीव दिव्य श्रेय (सुकृत) की प्राप्ति होती है। 第二%%%%%%%%% % %%%%%%% %%%%%%% % % अहिंसा कोश/39] Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {136} नाम नरके सर्वसत्त्वभयावहे । 原 रौरवे इह लोकेऽमुना ये तु हिंसिता जन्तवः पुरा ॥ त एव रुरवो भूत्वा परत्र पीडयंति तम् । तस्माद् रौरवमित्याहुः पुराणज्ञाः मनीषिणः ॥ (दे. भा. 8/22/10-11 ) जिन प्राणियों को व्यक्ति इस लोक में मारता है, उनका वध करता है, वे ही प्राणी उस हिंसक पुरुष को (जब वह पापकर्म-वश रौरव नरक में जाता है,) सभी प्राणियों के लिए भयंकर रौरव नरक में 'रुरु' प्राणी बन कर पीड़ा देते हैं, इसीलिए पुराण - ज्ञाता मनीषियों ने इस नरक का नाम 'रौरव' बताया है। हिंसाः पापात्मा का लक्षण [वैदिक / ब्राह्मण संस्कृति खण्ड / 40 {137} परनिन्दा कृतघ्नत्वं परमर्मावघट्टनम् ॥ नैष्ठर्यं निर्घृणत्वञ्च परदारोपसेवनम् । परस्वहरणाशौचं देवतानाञ्च कुत्सनम् ॥ निकृत्या वञ्चनं नृणां कार्पण्यं च नृणां वधः । यानि च प्रतिषिद्धानि तत्प्रवृत्तिश्च सन्तता ॥ उपलक्ष्याणि जानीयान्मुक्तानां नरकादनु । (मा.पु. 15/39-42) परनिन्दा, कृतघ्नता, किसी को मर्मान्तक पीड़ा पहुंचाना, निष्ठुरता, निर्दयता, परनारी सेवन, परधनापहरण, अपवित्रता, देवनिन्दा, कपट से किसी को ठगना, कृपणता, नरहत्या तथा अन्य निषिद्ध कर्मों में निरन्तर प्रवृत्ति आदि ऐसे चिन्ह हैं जिनसे यही अनुमान करना चाहिये कि ऐसा करने वाले लोग नरक की यातना भोग कर नरक से निकले हैं और मनुष्य योनि में आये हैं । {138} हिंसा बलमसाधूनाम्। (म.भा. 5/39/69, विदुरनीति - 7/69) हिंसा पापी पुरुषों का ही बल है। 規 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 55555 %% % %% %% %% %%% %%% %% % % %% %%% %% % {139} दयादरिद्रहृदयं वचः क्रकचकर्कशम्। पापबीजप्रसूतानामेतत्प्रत्यक्षलक्षणम्॥ __(प.पु. 1/134/32-33) दया से दरिद्र (रहित) हृदय होना और आरी के समान कर्कश वाणी होना-ये उन # पुरुषों के प्रत्यक्ष लक्षण हैं जो पाप रूपी बीज से उत्पन्न (अर्थात् पापात्मा) हैं। {140} हिंसा च हिंस्रजन्तूनां सतीनां पतिसेवनम्। (ब्र.वै.पु. 3/35/94) जिस प्रकार सती-पतिव्रता स्त्रियों का बल पति-सेवा होती है, वैसे ही हिंसक स्वभाव वाले प्राणियों का बल 'हिंसा' होती है। {141} अनार्यता निष्ठरता क्रूरता निष्क्रियात्मता। पुरुषं व्यञ्जयन्तीह लोके कलुषयोनिजम्॥ (म.स्मृ. 10/58) इस लोक में अनार्यता, निष्ठरता, क्रूरता, क्रिया (यज्ञ-सन्ध्यावन्दनादि कार्य-) की # हीनता, ये सब नीच योनि में उत्पन्न पुरुष का परिचय करा देती हैं अर्थात् इन गुणों से युक्त में मनुष्य अधम कोटि का है, ऐसा जानना चाहिये। 5555555555555555555555555 {142} हिंसा बलं खलानां च तपस्या च तपस्विनाम्। (ब्र.वै.पु. 3/35/88) दुष्टों का बल 'हिंसा' होती है और तपस्वियों का बल उनका तप होता है। {143} अतीवरोषः कटुका च वाणी नरस्य चिह्नं नरकागतस्य॥ ___ (प.पु. 1/134/131) अत्यन्त रोष से युक्त होना, कटु वाणी बोलना यह उस व्यक्ति के चिन्ह हैं जो नरक से आया हुआ है। % %%% %%%%% %%%%% %%% %% %%% % %%%%%%% अहिंसा कोश/41] Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SEXAAAAEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE हिंसकः पृथ्वी पर भारभूत {144} ये मिथ्यावादिनस्तात दयासत्यविवर्जिताः। निन्दका गुरुदेवानां तेषां भारेण पीड़िता॥ जीवघाती गुरुद्रोही ग्रामयाजी च लुब्धकः।। शवदाही शूद्रभोजी तेषां भारेण पीड़िता॥ (ब्र.वै.पु. 4/4/23,26) (पृथ्वी माता का प्रजापति को कथन-) हे तात! जो मिथ्याभाषी (झूठे), दयासत्य से हीन तथा गुरु व देवों की निन्दा करने वाले हैं, उन लोगों के भार से मैं पीड़ित रहती है हूँ। जीव-हिंसक, गुरुद्रोही, गाँव-गाँव यज्ञ कराने वाला, कसाई, शूद्रों के शव का दाह और ॥ उनका अन्न-भोजन करने वाला -इन लोगों के भार से मैं पीड़ित हो रही हूँ। 天兵兵兵兵兵兵兵妮妮妮妮頻頻折纸坎听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 अहिंसक आचरणः पुण्यात्माओं/संत महात्माओं की पहचान {145} दया भूतेषु संवादः परलोकप्रतिक्रिया॥ सत्यं भूतहितार्थोक्तिर्वेदप्रामाण्यदर्शनम्। गुरु-देवर्षि-सिद्धर्षिपूजनं साधुसङ्गमः॥ सत्क्रियाभ्यसनं मैत्रीमिति बुध्येत पण्डितः। अन्यानि चैव सद्धर्मक्रियाभूतानि यानि च॥ स्वर्गच्युतानां लिङ्गानि पुरुषाणामपापिनाम्। (मा.पु. 15/43-45) भूतदया, प्रेमालाप, परलोक के सुख के लिये सत्कर्म, सत्यवादिता,प्राणिकल्याण के लिये जनोपदेश, वेद के प्रामाण्य पर विश्वास, गुरुसेवा, देवपूजा, ऋषिपूजा, सिद्धसेवा, ' सत्सङ्ग, सद्धर्मानुष्ठान, मैत्री भाव तथा अन्य सद्धर्माचरण-सम्बन्धी क्रियाकलाप ऐसे चिह्न के हैं, जिनके द्वारा यह जाना जाता है कि ऐसा करने वाले लोग धर्मात्मा हैं और स्वर्ग से ' ॐ भूलोक पर आये हैं। %%%%%%%%%%% % % %%%%% % 第一男男男男男弱%%% वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/42 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < %%%%%%%%%%%% %%%%% %%% 穷 穷穷男男男男 {146} प्रदानं प्रच्छन्नं गृहमुपगते सम्भ्रमविधिः, प्रियं कृत्वा मौनं सदसि कथनं चाप्युपकृतेः। अनुत्सेको लक्ष्या निरभिभवसाराः परकथाः, सतां केनोद्दिष्टं विषममसिधाराव्रतमिदम्॥ (नी.श. 57) गुप्त रूप से दान-धर्म करना, कोई अपने दरवाजे आए तो उसका आदर-सत्कार करना, लोगों का भला करना और किसी के सामने अपनी बड़ाई न जताना, दूसरों ने कुछ उपकार किया हो तो सबके सामने उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करना, धन-सम्पत्ति पाने पर अभिमान न करना, दूसरों की निंदा या तिरस्कार न करना-ये सब तलवार की धार पर चलने जैसा है, इसे सत्पुरुषों/सज्जनों को न जाने किसने सिखाया। {147} 望明巩巩巩巩巩巩乐垢玩垢织听听听听听听听听听听听听听圳FF听听听听听圳乐听听听听听听听巩巩巩巩巩巩年 अनिन्दा परकृत्येषु स्वधर्मपरिपालनम्॥ कृपणेषु दयालुत्वं सर्वत्र मधुरा गिरः। प्राणैरप्युपकारित्वं मित्रायाव्यभिचारिणे॥ गृहागते परिष्वङ्गः शक्त्या दानं सहिष्णुता। एवं समृद्धिष्वनुत्सेकः परबुद्धिष्वमत्सरः॥ अ-परोपतापि वचनं मौनव्रत-चरिष्णुता। बन्धुभिर्बद्धसंयोगः स्वजने चतुरस्रता॥ उचितानुविधायित्वम्, इतिवृत्तं महात्मनाम्॥ (अ.पु.238/19-22) संत-महात्माओं का समग्र चरित इस प्रकार है-दूसरों के बारे में निन्दा न करना, # अपने धर्म/कर्तव्य का निर्वाह, कृपण लोगों के प्रति दया-भाव, सर्वत्र मधुर भाषण, अपने * प्राण देकर भी किसी का उपकार करना, घर में मित्र आए तो उसे गले लगाना, यथाशक्ति + दान, सहनशीलता, समृद्धि में अभिमान न होना, दूसरों की उन्नति/समृद्धि पर ईर्ष्या नहीं + करना, ऐसा वचन न बोलना जिससे दूसरे को संताप/पीड़ा हो, प्रायः मौन रहना, बन्धुॐ बांधवों के साथ सहयोग-भावना से जुड़े रहना, आत्मीय जनों के प्रति सहयोगी होना, और ॥ उचित कार्य को ही करना। 乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐明乐乐乐乐听听乐乐乐玩玩乐乐乐乐乐乐乐乐乐器 अहिंसा कोश/43] Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AXEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE . {148} मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णाः, त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः। परगुणपरमाणून्पर्वतीकृत्य नित्यम्, निजहदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः॥ (नी.श. 70) जो मनसा-वाचा-कर्मणा सत्कर्म-रूपी अमृत से पूर्ण हैं, तीनों लोकों की भलाई में # लगे रहते हैं और सदा दूसरों की छोटी-से छोटी भली बात को बढ़ा-चढ़ा कर बखान करने ई में ही आनंद मानते हैं-ऐसे संत/सज्जन पुरुष इस संसार में बहुत कम पाए जाते हैं। 我找到與航與玩坎坎坎與职纸垢玩垢玩垢频听听听听听听听听巩巩巩巩巩巩妮妮妮妮妮妮妮妮妮妮垢% 1149 अभयं सत्त्वसंशुद्विर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः। दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्॥ अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्। दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्॥ तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता। भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत॥ (म.भा. 6/40/1-3, गीता 16/ 1-3) (1)भय का सर्वथा अभाव, (2)अन्तः करण की पूर्ण निर्मलता, (3) तत्त्वज्ञान के है लिये ध्यानयोग में निरन्तर दृढ़ स्थिति, (4) सात्त्विक दान, (5) इन्द्रियों का निग्रह/दमन, (6)यज्ञ, (7) तप, (8)अन्तःकरण की सरलता, (9)मन, वाणी और शरीर से किसी प्रकार म भी किसी को कष्ट न देना, (10) यथार्थ और प्रिय भाषण, (11)अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोध का न होना, (12) अभिमान का त्याग, (13) अन्त:करण की उपरति अर्थात् ' चित्त की चंचलता का अभाव,(14) किसी की निन्दा आदि न करना, (15) सब प्राणियों में निष्कारण दया, (16) इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्ति का न होना, (17) कोमलता, (18) लोक और शास्त्र से विरुद्ध आचरण में लज्जा, (19) व्यर्थ है चेष्टाओं (चंचलता) का अभाव, (20) तेजस्विता, (21)क्षमा, (22) धैर्य, (23) बाहर की शुद्धि, (24)किसी के भी शत्रुभाव का न होना, और (25)अपने में पूज्यता के अभिमान ' का अभाव- ये ऐसे लक्षण हैं जो दैवी-सम्पदा के साथ उत्पन्न हुए पुरुष में पाए जाते हैं। 职巩巩巩巩巩巩巩巩乐乐编织乐乐听听听听听听听听听听听听听听听垢玩垢巩巩巩巩巩巩垢玩垢听听听听听舉 1 555斯斯斯野野野野野野野野野野野野野野野野野野野野野野野野野野 विदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/44 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男 {150} तृष्णां छिन्धि भज क्षमा जहि मदं पापे रतिं मा कृथाः, सत्यं ब्रह्यनुयाहि साधुपदवीं सेवस्व विद्वजनम्। मान्यान्मानय विद्विषोऽप्यनुनय प्रच्छादय स्वान्गुणान्, कीर्तिं पालय दुःखिते कुरु दयामेतत्सतां लक्षणम्॥ (नी.श. 69) लालच त्यागना, सहनशील बनना, पाप कर्मों से दूर रहना, मन से भी बुरा विचार # न करना, सच बोलना, महापुरुषों के मार्ग पर चलना, विद्वानों की सेवा-शुश्रूषा करना, बड़ों ॥ 4 का आदर करना, शत्रुओं के साथ भी प्रेम का व्यवहार करना, स्वाभिमान की रक्षा करना, ॐ दीन-दुखियों पर दया करना, यही सब सत्पुरुषों/सज्जनों के लक्षण हैं। {151} नवनीतोपमा वाणी करुणाकोमलं मनः। धर्मबीजप्रसूतानामेतत्प्रत्यक्षलक्षणम् ॥ __ (प.पु. 1/134/31-32) मक्खन जैसी वाणी और करुणा से युक्त कोमल मन- उस व्यक्ति के प्रत्यक्ष लक्षण हैं जो धर्म-रूपी बीज से उत्पन्न हुए हैं (अर्थात् धर्मात्मा हैं)। 5555555555555555555555555555555555 {152} त्रीण्येव तु पदान्याहुः सतां व्रतमनुत्तमम्। न चैव दुह्येद् दद्याच्च सत्यं चैव सदा वदेत्॥ (म.भा. 3/207/93-94) श्रेष्ठ पुरुष तीन ही पद (मुख्य बातें) बताते हैं-(1) किसी से द्रोह न करे, (2) दान करे और (3) सदा सत्य ही बोले। ये ही श्रेष्ठ पुरुषों के सर्वोत्तम व्रत हैं। {153} सर्वलोकहितासक्ताः साधवः परिकीर्तिताः। (ना. पु. 1/16/30) साधु/सज्जन -महात्मा लोग सभी के हित के लिए तत्पर रहते हैं। %%%%%%% %%% %%%%%%%%%%%%%%%%% %% अहिंसा कोश/45] Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %%%%%%明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明男男男男男男 {154} सुधियः साधवो लोके नरदेव नरोत्तमाः। नाभिद्रुह्यन्ति भूतेभ्यो यर्हि नात्मा कलेवरम्॥ (T.. 4/20/3) जो श्रेष्ठ मनुष्य बुद्धिमान तथा साधु/सज्जन स्वभाव के होते हैं, वे संसार में अन्य जीवों से द्रोह नहीं करते। क्योंकि यह दृश्यमान शरीर आत्मा नहीं है (और चैतन्य रूप आत्मा सभी जीवों में विद्यमान रहती है)। 坎坎纸加與與與與乐乐乐编织乐坂乐乐乐长乐听听听听听听圳乐乐乐乐乐坎坎坎坎巩巩巩巩巩乐乐乐坂垢知 %垢堆垢垢妮妮妮妮妮妮妮妮妮妮妮%垢垢垢玩垢听听听听听听听垢听听听听听听听听听听听听听听听听听 玩玩乐乐乐乐玩玩玩乐乐巩巩巩巩巩巩巩听听听听听听听玩明垢玩垢玩玩乐乐玩法 Rews/46 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 明明明明明明宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪 {2 ढ़िया/अहिंसा का विशेष स्वरूप और उसके विविध व्यावहारिक रूप हिंसा का आधार: मानसिक विकाराकषाय 電巩巩巩埃垢听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {155) शोकः क्रोधश्च लोभश्च कामो मानः परासुता। ईर्ष्या मोहो विधित्सा च कृपाऽसूया जुगुप्सुता॥ द्वादशैते महादोषा मनुष्यप्राणनाशनाः। एकैकमेते राजेन्द्र मनुष्यान् पर्युपासते। यैराविष्टो नरः पापं मूढ़संज्ञो व्यवस्यति॥ (म.भा. 5/45/1-2; 5/43/16-17 में आंशिक परिवर्तन के साथ) (ज्ञानी सनत्सुजात का कथन-)शोक, क्रोध, लोभ, काम, मान, अत्यन्त निद्रा, ईर्ष्या, 卐 मोह, तृष्णा, कायरता, गुणों में दोष देखना और निन्दा करना-ये बारह महान् दोष मनुष्यों के ॐ प्राणनाशक हैं। (तात्पर्य यह है कि क्रोध आदि कषाय/मनोविकार हिंसक हैं, जिसमें उत्पन्न होते हैं, वह तो अपने स्वरूप का घात करता ही है, अपने से सम्बद्ध व्यक्ति के लिए भी घातक सिद्ध क होते हैं।) क्रमशः एक के पीछे दूसरा आ कर ये सभी दोष मनुष्यों को प्राप्त होते जाते हैं, जिनके ॐ वश में होकर मूढ-बुद्धि मानव (हिंसा आदि) पापकर्म करने लगता है। {156} लोभात् क्रोधः प्रभवति लोभात् कामः प्रवर्तते। लोभान्मोहश्च माया च मानः स्तम्भः परासुता।। (म.भा. 12/158/4) लोभ से ही क्रोध प्रकट होता है, लोभ से ही काम की प्रवृत्ति होती है और लोभ से ही माया, मोह, अभिमान, उद्दण्डता तथा 'परासुता' अर्थात् दूसरों के प्राण-हरण की इच्छा ॐ आदि दोष प्रकट होते हैं। 第一步明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明 अहिंसा कोश/47] Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEM {157} परासुता क्रोधलोभाद्, अभ्यासाच्च प्रवर्तते। (म.भा. 12/163/9) क्रोध और लोभ के बारंबार आवेग जब होते हैं तब व्यक्ति में परासुता' (दूसरों को 3 जान से मार देने की प्रवृत्ति) पैदा होती है। {158} लोभात् त्यजन्ति धर्मं वै कुलधर्मं तथैव हि। मातरं भ्रातरं हन्ति पितरं बान्धवं तथा॥ (दे. भा. 6/16/48) लोभ (ही व दुर्गुण है, जिस) के कारण लोग धर्म को तथा कुल-धर्म को छोड़ कर, माता, पिता, भाई, बन्धुजनों की भी हत्या में प्रवृत्त होते हैं। 兵兵兵兵兵兵出垢玩垢圳垢玩垢听听听听听听听听听听听听听听听听巩巩巩巩巩巩%¥¥¥¥圳圳坂圳 __{159) कामादप्यधिको लोके लोभादपि च दारुणः। क्रोधाभिभूतः कुरुते हिंसां प्राणविघातिनीम्॥ (दे. भा. 6/7/10) संसार में काम (इच्छा, तृष्णा) से भी अधिक भयंकर तथा लोभ से भी अधिक दारुण 'क्रोध' है, जिसके कारण व्यक्ति किसी का भी प्राण-घात कर हिंसा-कार्य करते (देखे जाते) हैं। 巩巩巩巩巩巩巩巩巩货乐劣劣听听听听听听听听听听乐乐%垢玩垢玩垢乐乐乐听听听听听听听听听%劣听纸纸张 हिंसा/अहिंसा का भावात्मक परिवार [वैदिक पुराणों में कही-कहीं अलंकारिक-प्रतीकात्मक शैली अपना कर कई भावात्मक पदार्थों के स्वरूप को समझाने का प्रयास दृष्टिगोचर होता है। एक पौराणिक स्थल पर असत्यकारिता (मृषा) रूपी पत्नी के पति के रूप में 'अधर्म' का निरूपण है और उसी के वंश-क्रम में होने वाली भावी सन्तानों के रूप में हिंसा, माया, दम्भ (मान), लोभ आदि को वर्णित किया गया है। एक अन्यत्र स्थल पर, हिंसा के पति के रूप में 'अधर्म' को वर्णित कर, माया, असत्य, शोक, क्रोध, ईर्ष्या आदि को वंशजात सन्ततियों के रूप में निरूपित किया गया है। निस्कर्षतः पौराणिक है ग्रन्थकार मानसिक विकारों से सम्बद्ध एक अधार्मिक प्रवृत्ति के रूप में 'हिंसा' को प्रस्तुत करना चाहते हैं। इसी तरह, अन्यत्र पुराण में 'धर्म' के परिवार के रूप में अहिंसा, क्षमा, शान्ति आदि को चित्रित किया गया है। इस वर्णन के पीछे भी, पौराणिक मनीषियों का आशय यही है कि 'अहिंसा' एक धार्मिक प्रवृत्ति है, और सत्य, क्षमा, शान्ति- ये स #. उससे सम्बद्ध हैं। इसी सन्दर्भ में कुछ विशिष्ट उद्धरण यहां प्रस्तुत हैं-] 明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明男男男男男男%%%%%%* [वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/48 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 他明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明男男男男男男男男男男男 [हिंसा का अधार्मिक भावात्मक परिवार] 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {160} यथाऽऽवृतः स वै ब्रह्मा तमोमात्रा तु सा पुनः। पुत्राणां च तमोमात्रा अपरा निःसृताऽभवत्॥ प्रतिस्रोतात्मकोऽधर्मो हिंसा चैवाशुभात्मिका। (ब्र.पु. 2/9/30-31) जज्ञे हिंसा त्वधर्माद् वै निकृतिं चानृतं च ते। निकृत्यनृतयोर्जज्ञे भयं नरक एव च॥ माया च वेदना चापि मिथुनद्वयमेतयोः। मयाजज्ञेऽथ वै माया मृत्यु भूतापहारिणम्॥ वेदनायां ततश्चापि जज्ञे दुःखं तु रौरवात्॥ मृत्योर्व्याधिर्जराशोकक्रोधासूया विजज्ञिरे। दुःखोत्तराः स्मृता ह्येते सर्वे चाधर्मलक्षणाः॥ तेषां भार्याऽस्ति पुत्रो वा सर्वे ह्यनिधनाः स्मृताः। इत्येष तामसः सर्गों जज्ञे धर्मनियामकः॥ (ब्र.पु. 2/9/63-67) ___ [यही कथा मार्कण्डेय पुराण- 47/29-32 में तथा पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड (-अ.3/191-194) में भी वर्णित है।] ब्रह्मा की मानसी सृष्टि के अन्तर्गत तामसी सृष्टि का प्रसार इस प्रकार हुआ:- पहले अधर्म और हिंसा उत्पन्न हुए। (30-31) अधर्म का अशुभ हिंसा से विवाह हुआ और इन दोनों के निकृति (शठता/माया/छल, # कपट) नामक पुत्री तथा अन्त (असत्य) नामक पुत्र हुए। निकृति ने अनृत के साथ विवाह किया और भय व नरक दो पुत्रों को तथा माया व वेदना- इन दो पुत्रियों को जन्म दिया। भय ने माया से विवाह कर मृत्यु को तथा नरक ने वेदना से विवाह कर दुःख को जन्म दिया। मृत्यु से व्याधि, जरा (वृद्धावस्था) , शोक, क्रोध, असूया (ईर्ष्या) उत्पन्न हुए। (63-67) 號听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 % %%%%%%%%%%%% %% %%%%%%%%%%%%%%%% अहिंसा कोश/49] Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 原廠過過過過過 DEA ( {161} मृषाऽधर्मस्य भार्याऽऽसीद्दम्भं मायां च शत्रुहन् । असूत मिथुनं तत्तु निर्ऋतिर्जगृहेऽप्रजः ॥ तयोः समभवल्लोभो निकृतिश्च महामते । ताभ्यां क्रोधश्च हिंसा च यद्दुरुक्तिः स्वसा कलिः ॥ (भा.पु. 4/8/2-3) अधर्म की मृषा (झूठ) नाम की भार्या थी । हे शत्रुसूदन ! उसके दम्भ नाम का पुत्र और माया नाम की कन्या उत्पन्न हुई । उन दोनों पुत्र - कन्या को निर्ऋति (अनिष्ट संकट) ले गया, क्योंकि उसके कोई सन्तान नहीं हुई थी । हे महामते ! उनसे लोभ तथा तथा निकृति अर्थात् शठता की उत्पत्ति हुई। उनसे क्रोध तथा हिंसा और उनसे कलह व दुरुक्ति (दुर्वचन) की उत्पत्ति हुई । [ अहिंसा का धार्मिक भावात्मक परिवार ]. {162} अथ धर्मः समायातः स्वरूपेण च वै तदा । ब्रह्मचर्यादिभिर्युक्तस्तपोभिश्च स बुद्धिमान् ॥ सत्यं ब्राह्मणरूपेण ब्रह्मचर्यं तथैव च। तपस्तु द्विजवर्योऽस्ति दमः प्राज्ञो द्विजोत्तमः ॥ क्षमा शान्तिस्तथा लज्जा अहिंसा च ह्यकल्कना । एताः सर्वाः समायाताः स्त्रीरूपास्तु द्विजोत्तम ॥ एवं धर्मः समायातः परिवार - समन्वितः । ( प.पु. 2/12/60-63, 68 ) (दुर्वासा ऋषि की तपश्चर्या से प्रभावित होकर धर्म - परिवार की प्रत्यक्ष रूप से उपस्थिति हुई, उसका पौराणिक वर्णन ) - वहां धर्म अपने स्वरूप से (साकार होकर) ब्रह्मचर्य व तप आदि पारिवारिक सदस्यों के साथ उपस्थित हुआ । ब्राह्मण का रूप धारण कर सत्य, ब्रह्मचर्य, तप, दम तथा इसके अतिरिक्त क्षमा, शान्ति, लज्जा, अहिंसा, अकल्कना(अवंचकता ) - ये सभी स्त्री-रूप में वहां पधारीं । 乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐 [ वैदिक / ब्राह्मण संस्कृति खण्ड / 50 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S男男男男男男男%%%%%%%%%%%%%男男男男男男男男男男男男男男 {163} प्रसन्ना सा क्षमायुक्ता सर्वाभरणभूषिता। पद्मासना सुरूपा सा श्यामवर्णा यशस्विनी।। अहिंसेयं महाभागा भवन्तं तु समागता। (प.पु. 2/12/86-87) ( स्वयं धर्म द्वारा अपने परिवार के विषय में दुर्वासा को कथन)-हे महाभाग! म देखिए, यह जो (आपके सामने) प्रसन्न मुद्रा में स्थित है, अपनी सहचरी क्षमा के साथ विराजमान है, सभी प्रकार के आभरणों से अलंकृत है, कमल पर बैठी है, वह सुन्दर रूप धारिणी, व श्याम वर्ण वाली यशस्विनी 'अहिंसा' है, जो आपके समक्ष पधारी है। [धर्म के परिवार की विशेष जानकारी हेतु द्रष्टव्य-ब्र. पु. 2/9, प. पु. 2/8, 2/12 आदि-आदि।] हिंसा/अहिंसा का व्यापक स्वरूप और उसके विविध प्रकार 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听乐%%%%听听听听听听听听听听听听听%%%%%% [किसी का अपकार या अहित करना, पीड़ा देना, सुख में बाधक बनना, निन्दा करना, भयभीत करना, वध ॥ करना आदि-आदि कार्य'हिंसा' ही हैं। अत: 'अहिंसा' में वे सभी कार्य समाहित हैं जिनसे किसी को उपकृत किया जाय, सुख पहुंचाया जाय, दुःख व संकट में सहायता दी जाय, प्राण-रक्षा की जाय, अपकारी पर क्षमा की जाय आदिआदि। इसी दृष्टि से क्षमा, दया, अनुकम्पा, करुणा, वैयावृत्त्य, दान, परोपकार, अभयदान, दुर्वचन का त्याग, समत्व-म दृष्टि और ऐसी सभी प्रवृत्तियां जिनसे प्राणियों का हित होता हो-'अहिंसा' के अन्तर्गत ही हैं। इसी सन्दर्भ में वैदिक/ ब्राह्मण परम्परा के ग्रन्थों से कुछ विशिष्ट उद्धरण यहां प्रस्तुत हैं-] 统听听听听听听听听听听听听听听听垢听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听来 अहिंसा का व्यापक परिभाषित स्वरूप {164} कर्मणा मनसा वाचा सर्वभूतेषु सर्वदा। . अक्लेशजननं प्रोक्ता त्वहिंसा परमर्षिभिः॥ (कू.पु. 2/11/14) किसी भी जीव को मन, वचन व कर्म से, किसी भी रूप में, किसी भी प्रकार का क्लेश न पहुंचाने का नाम 'अहिंसा' है- ऐसा परम ऋषियों ने कहा है। 第二场男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男%%%% Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 規 {165} अहिंसा नाम सर्वभूतेषु अनभिद्रोह: । चक्षुर्मनोवाक्शरीरकर्मणां न्यासः । कर्मेन्द्रिय- बुद्धीन्द्रियाणां संयमः । अहंकारकामक्रोधलोभ-उपनिवर्तनम् ॥ (सांख्याचार्य हारीत का वचन, उद्धृत लक्ष्मीधर भट्ट रचित 'कृत्यकल्पतरु' का 'मोक्षकाण्ड' प्रकरण, द्रष्टव्यः उदयवीर शास्त्री - कृत 'प्राचीन सांख्य सन्दर्भ', पृ. 192) अहिंसा का अर्थ है- समस्त प्राणियों के प्रति द्रोह का न होना । अहिंसा का अर्थ हैनेत्र, मन, वचन व शरीर से उन प्रवृत्तियों को नहीं करना जिनसे किसी प्राणी को कष्ट/पीड़ा हो, तथा कर्मेन्द्रियों व ज्ञानेन्द्रियों की उन प्रवृत्तियों पर संयम / अंकुश रखना जो अन्य प्राणी को अनिष्ट हो। अहिंसा का अर्थ है - प्राणी- पीड़क अहंकार, काम, क्रोध व लोभ (आदि मानसिक) विकारों का त्याग । (ना. पु. 1/33/76) पर- पीड़ा / क्लेश के सभी प्राणियों को क्लेश न हो - इस प्रकार व्यवहार रखना, या कार्यों से दूर रहना- यही 'अहिंसा' है जिसे सन्त महापुरुषों ने योग-सिद्धि देने वाली बताया है। (अर्थात् करुणा, अनुकम्पा, दया, परोपकार, क्षमा, दया दान, प्राण-दान, अभय-दान, आदि -आदि कार्य प्राणियों की पीड़ा / क्लेश को दूर करते हैं, अतः ये सभी 'अहिंसा' के अन्तर्गत आते हैं ।) {166} सर्वेषामेव भूतानामक्लेशजननं हि यत् । अहिंसा कथिता सद्भिर्योगसिद्धि-प्रदायिनी ॥ न करना । (37.g. 372/4) अहिंसा धर्म ही उत्तम धर्म है | अहिंसा का अर्थ है - प्राणियों को पीड़ा देने का कार्य 原 [ वैदिक / ब्राह्मण संस्कृति खण्ड / 52 {167} भूतापीडा ह्यहिंसा स्यात्, अहिंसा धर्म उत्तमः ॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 出版 出演男出 हिंसा का व्यापक परिभाषित स्वरूप {168} उद्वेगजननं हिंसा सन्तापकरणं तथा ॥ रुक्कृतिः शोणितकृतिः पैशुन्यकरणं तथा । हितस्यातिनिषेधश्च, मर्मोद्घाटनमेव च ॥ सुखापन्हुतिः संरोधो वधो दशविधा च सा । 。 (अ.पु. 372/5-7) (अहिंसा का अर्थ है-हिंसा न करना ।) हिंसा में दश प्रकार के कार्य आते हैं, अत: वह दश प्रकार की है। वे दस कार्य हैं- (1) किसी को उद्विग्न करना (घबराहट पैदा करना), (2) सन्ताप (मानसिक पीड़ा) देना, (3) रोग (स्वास्थ्य - हानि) करना, (4) खून बहाना, (आघात आदि से क्षत-विक्षत करना), (5) पैशुन्य (चुगली, परोक्ष - निन्दा), (6) हित (अभीष्ट कार्यसिद्धि आदि) में व्यवधान डालना या उसे नष्ट करना, (7) गुप्त रहस्य को प्रकट करना, (8) सुख में बाधा / रुकावट डालना, (9) गमनागमन आदि में रुकावट डालना, तथा ( 10 ) वध करना । [ इसी प्रकार, उक्त हिंसक कार्यों से निवृत्ति रूप अहिंसा भी 10 प्रकार की सिद्ध हो जाती है ।] हिंसा / अहिंसा के भेद {169} वितर्का हिंसादयः कृत-कारितानुमोदिता लोभ - क्रोध- मोह पूर्वका मृदुमध्याधिमात्रा दुःखाज्ञानानन्तफलाः ॥ (यो.सू. 2/34) हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य, परिग्रह- ये पांच 'वितर्क' ( योग-साधना में प्रतिकूलता पैदा करने वाले कार्य ) हैं । वे पांचों वितर्क तीन-तीन प्रकार के होते हैं । (1) कृत-स्वयं किए गए। (2) कारित - प्रेरणा देकर दूसरों से कराये गए । (3) अनुमोदित दूसरों के हिंसा इत्यादि वितर्कों का अनुमोदन करना । अपनी अनुमति से हिंसा आदि का समर्थन करना ही अनुमोदित वितर्क हैं। ये वितर्क लोभ-क्रोध-मोहपूर्वक होते हैं । इन सब मृदु, मध्य, अधिमात्र ( अत्यधिक ) - ये तीन प्रकार होते हैं। ये वितर्क अनन्त दुःख एवं अनन्त अज्ञान रूप फल प्रदान करने वाले हैं । अर्थात् ये हिंसा इत्यादि वितर्क सदैव दुःख एवं अज्ञान ही प्रदान करते हैं, कभी भी इनसे सुख तथा ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती । [ हिंसा के 81 भेद:- कृत, कारित व अनुमोदित-ये हिंसा के तीन भेद हुए, इनमें से प्रत्येक के लोभ-जनित, क्रोध-जनित व मोह-जनित, इस प्रकार तीन-तीन भेद होकर नौ भेद हुए। इनमें से प्रत्येक के मृदु, मध्य व तीव्र- इस प्रकार तीन-तीन भेद होकर 27 भेद हुए। इनमें से भी प्रत्येक के तीन-तीन भेद होते हैं-जैसे मृदु के तीन भेद-मृदुमृदु, मध्यमृदु, तीव्रमृदु, मध्य के तीन भेद -मृदुमध्य, मध्यमध्य, तीव्रमध्य, तीव्र के तीन भेद- मृदुतीव्र, मध्यतीव्र तीव्रतीव्र, इस प्रकार कुल 81 भेद होते हैं] [द्रष्टव्य: यो. सू. 2/34 पर व्यास- भाष्य ] 蛋蛋蛋五五五五五五五五五五五五五五五五五五五 卐 纸, अहिंसा कोश / 53] Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा का विध्यात्मक स्वरूपः जीव-रक्षा {170} जीवितुं यः स्वयं चेच्छेत् कथं सोऽन्यं प्रघातयेत्। यद् यदात्मनि चेच्छेत तत् परस्यापि चिन्तयेत्॥ (म.भा.12/259/22) जो स्वयं जीवित रहना चाहता हो, वह दूसरों के प्राण कैसे ले सकता है? मनुष्य अपने जलिये जो-जो सुख-सुविधा चाहे, उसी को दूसरे के लिये भी सुलभ कराने के लिए सोचे। {1712 अहिंसापूर्वको धर्मो यस्मात् सद्भिदाहृतः। यूकामत्कुणदंशादींस्तस्मात् तानपि रक्षयेत्॥ (पं.त. 3/105) चूंकि (धर्मवित्) सजन मनुष्यों ने अहिंसा को ही धर्म कहा है, इसलिए यूका (जू), खटमल और डांस आदि (तुच्छप्राणियों) की भी रक्षा करनी चाहिए। 與與與與與與與垢玩垢玩垢垢玩垢乐乐听听听听听听听听听听听听听听听垢玩垢巩巩巩巩巩华乐巩巩巩巩听听。 {172} ---------------अहिंसां तु वदाम्यहम्। तृणमपि विना कार्यं छत्तव्यं न विजानता। अहिंसा-निरतो भूयाद, यथाऽऽत्मनि तथा परे॥ (प.पु. 2/13/22-23) (विदुषी सुमना ब्राह्मणी का अपने पति सोमशर्मा को कथन-) अहिंसा का स्वरूप मैं बता रही हूं (सुनो)। स्वयं की तरह सब को देखते हुए, सभी में आत्मवत् व्यवहार करते हुए, निरर्थक तृण तक का भी छेदन नहीं करते हुए, अहिंसा का अनुष्ठाता (अहिंसक) होना ॐ चाहिए। अर्थात् जैसे स्वयं को अपना पीड़ित व सन्तापित आदि होना अच्छा नहीं लगता, वैसे ही दूसरे के लिए, भले ही वह घास-फूस या छोटा पौधा ही क्यों न हो, पीड़ा आदि देने का कार्य नहीं करना अहिंसा' का अनुष्ठान /आचरण है। 玩玩乐乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听擊 乐乐%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%, विदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/54 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 家乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 हिंसा-अहिंसा का आधारः अशुभ व शुभ भाव %%%%%垢玩垢玩垢听听听听听听听巩巩听听听听听听听听听听听听听听听听听听听垢垢乐乐乐明明明明明年 {173} स्यात् प्राणवियोगफलो व्यापारो हननं स्मृतम्॥ रागद्वेषात् प्रमादाच्च स्वतः परत एव वा॥ बहूनामेककार्याणां सर्वेषां शस्त्र-धारिणाम्। यद्येको घातकस्तत्र सर्वे ते घातकाः स्मृताः॥ आक्रोशितस्ताडितो वा धनैर्वा परिपीडितः॥ यमुद्दिश्य त्यजेत् प्राणान्, तमाहुर्ब्रह्मघातकम्॥ औषधाधुपकारे तु न पापं स्यात्कृते मृते। (अ.पु. 173/1-5) राग या द्वेष से और प्रमाद से, स्वयं या किसी के द्वारा ऐसी चेष्टा, जिससे किसी के प्राण चले जाएं, हिंसा कही गई है। (इस सन्दर्भ में विशेष बात यह है कि कोई व्यक्ति हिंसा म का दोषी है या नहीं- इसका निर्णय इस बात पर निर्भर है कि उस व्यक्ति के मन अशुभ भाव थे या शुभ भाव। जैसे-) ___ 1. जहां बहुत-से शस्त्रधारी व्यक्ति किसी एक व्यक्ति को मारने के उद्देश्य से * आक्रमण करें, वहां यद्यपि किसी एक व्यक्ति-विशेष द्वारा ही हिंसा होती है, तथापि उस म कार्य में सम्मिलित होने वाले सभी व्यक्ति (हिंसा के समर्थक होने के कारण) घातक/ ॐ वध-दोषी माने जाते हैं। 2. यदि कोई व्यक्ति किसी ब्राह्मण (आदि) पर आक्रोश करे, प्रताड़ना करे, धनहरण कर पीड़ित करे, उस स्थिति में जिस पर आक्रोश आदि किया गया है, वह ब्राह्मण + प्राणहीन हो जाय-मर जाय, तो इसमें जो कारणभूत व्यक्ति है, वही ब्रह्मघातक माना ॐ जाएगा, अन्य नहीं। 3. उपकार की भावना से किसी को औषध आदि देने में किसी के प्राण चले जाएं, तो (चिकित्सक को उसकी भावना शुभ होने के कारण) हत्या का पाप नहीं लगता। %%%%%%%%%听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听乐听听听听听垢听听 2. %%%%%%% %%%%%% % %%%%%%% %%%%%%%%%、 अहिंसा कोश/55] Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男%%% {174) भवत्यधर्मो धर्मो हि धर्माधर्मावुभावपि। कारणाद् देशकालस्य देशकालः स तादृशः॥ मैत्राः क्रूराणि कुर्वन्तो जयन्ति स्वर्गमुत्तमम्। धाः पापानि कुर्वाणा गच्छन्ति परमां गतिम्॥ (म.भा.12/78/32-33) देश-काल की परिस्थिति के कारण कभी अधर्म तो धर्म हो जाता है और धर्म + अधर्म रूप में परिणत हो जाता है, क्योंकि वह वैसा ही देश-काल है। सब के प्रति मैत्री का भाव रखने वाले मनुष्य भी (दूसरों की रक्षा के लिये किसी * दुष्ट के प्रति) क्रूरतापूर्ण बर्ताव करके उत्तम स्वर्गलोक पर अधिकार प्राप्त कर लेते हैं, तथा म धर्मात्मा पुरुष किसी की रक्षा के लिये (पीड़ा आदि) तथाकथित पाप-कार्य करते हुए भी है * परम गति को प्राप्त हो जाते हैं। (उदाहरणार्थ- अस्पताल आदि विशिष्ट स्थानों में तथा शल्य चिकित्सा करने के समय चिकित्सक रोगी के प्रति पीड़ादायक कार्य करता हुआ भी पापग्रस्त नहीं होता।) 我乐乐乐乐编织乐垢玩垢玩垢听听听听听听听听听听听听听听听听听听听%%%%%%%%听听听听听听 हिंसा-फलः कर्ता के भावानुरूप ही {175} यथा सूक्ष्माणि कर्माणि फलन्तीह यथातथम्। बुद्धियुक्तानि तानीह कृतानि मनसा सह॥ भवत्यल्पफलं कर्म सेवितं नित्यमुल्बणम्। अबुद्धिपूर्वं धर्मज्ञ कृतमुद्रण कर्मणा॥ (म.भा.12/291/15-16) जैसे मन से सोच-विचारकर बुद्धि द्वारा निश्चय करके, जो स्थूल या सूक्ष्म कर्म यहां किये जाते हैं, वे यथायोग्य फल अवश्य देते हैं, उसी प्रकार हिंसा आदि उग्र कर्म के द्वारा ॐ अनजान में किया हुआ भयंकर पाप यदि सदा किया जाता रहे तो उसका फल भी मिलता म ही है; अन्तर इतना ही है कि जान-बूझ कर किये हुए कर्म की अपेक्षा, अनजाने में किये हुए कर्म का फल बहुत कम हो जाता है। %%%%% %%%%%% %%%% % %%%%男、 %% %% विदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/56 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {176} जानता तु कृतं पापं गुरु सर्वं भवत्युत। अज्ञानात् स्वल्पको दोषः प्रायश्चित्तं विधीयते॥ (म.भा.12/35/45) जान-बूझकर किया हुआ सारा पाप भारी होता है और अनजान में वैसा पाप बन * जाने पर कम दोष लगता है। इस प्रकार भारी और हल्के पाप के अनुसार ही उसके प्रायश्चित्त का विधान है। * 明明听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听玩玩乐乐听听听听听听听听听听见 {177} अज्ञानात् तु कृतां हिंसामहिंसा व्यपकर्षति। ब्राह्मणाः शास्त्रनिर्देशादित्याहुब्रह्मवादिनः॥ तथा कामकृतं नास्य विहिंसैवानुकर्षति। इत्याहुब्रह्मशास्त्रज्ञा ब्राह्मणा ब्रह्मवादिनः॥ ___ (म.भा.12/291/12-13) अनजान में जो हिंसा हो जाती है, उसे अहिंसा-व्रत का पालन दूर कर देता है। ब्रह्मवादी ब्राह्मण शास्त्र की आज्ञा के अनुसार ऐसा ही कहते हैं; किन्तु स्वेच्छा से जान बूझ # कर किये हुए हिंसामय पापकर्म को अहिंसा का व्रत भी दूर नहीं कर सकता। ऐसा वेद शास्त्रों के ज्ञाता और वेद का उपदेश देने वाले ब्राह्मणों का कथन है। 5555555555555555555555 अहिंसा कोश/57] Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 野野野野野野野野野野野野がる {3} अहिंसाः भारतीय संस्कृति व धर्म की केन्द्र-बिन्दु [भारतीय संस्कृति व धर्म का केन्द्र-बिन्दु 'अहिंसा' रही है। हमारी भारत भूमि ही 'अहिंसा' को क्रियान्वित करने की समुचित पुण्य-स्थली है- ऐसा माना गया है। सतयुग, द्वापर, त्रेता, कलि-इन चार क्रमिक सांस्कृतिक युगों के विभाजन के पीछे भी 'अहिंसा' रूपी मानदण्ड का होना दृष्टिगोचर होता है। सतयुग में अहिंसा का साम्राज्य है, तो 'कलियुग' अल्प अहिंसा वाला एवं हिंसा-बहुल माना गया है। ईश्वर या किसी महापुरुष द्वारा अवतार लेने का भी मुख्य उद्देश्य 'अहिंसा' की पुनः प्रतिष्ठा करना होता है या हिंसा-बहुल (आतंकवादी/आततायी है दैत्य आदि) व्यक्तियों द्वारा प्रवर्तित हिंसक वातावरण का समूल विनाश करना होता है। भक्ति-परम्परा के समर्थक मानते हैं- भक्ति में शक्ति है। वास्तव में 'अहिंसा' में शक्ति है, क्योंकि उक्त 'भक्त' या 'ईश्वरीय प्रिय' होने के लिए 'अहिंसक' होना आवश्यक है। इन्हीं विचारों के समर्थक कुछ शास्त्रीय उद्धरण यहां प्रस्तुत हैं-] अहिंसाचरण के लिए सर्वथा उपयक्त भमिः भारतवर्ष 與與與與與頻頻頻頻頻玩玩乐乐坎坎坎坎坎坎坎坎坎坎坎妮妮听听听听听听听听听听听织乐乐巩巩巩巩巩巩 %%坑坑坑坑坑垢玩垢玩垢乐乐听听听听听听巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩乐乐乐听听听听听听听听听听听 {178} यत्र देवताः सदा हृष्टा जन्म वाच्छन्ति शोभनम्। नानावतफलं चैव नानाशास्त्रफलं तथा॥ अहिंसादिफलं सम्यक्फलं सर्वाभिवाञ्छितम्। ब्रह्मचर्यफलं चैव स्वाध्यायेन च यत्फलम्॥ इष्टापूर्तफलं चैव तथाऽन्यच्छुभकर्मणाम्॥ प्राप्यते भारते वर्षे न चान्यत्र द्विजोत्तमाः॥ कः शक्नोति गुणान् वक्तुं भारतस्याखिलान् द्विजाः॥ एवं सम्यक् मया प्रोक्तं भारतं वर्षमुत्तमम्। सर्वपापहरं पुण्यं धन्यं बुद्धिविवर्धनम्॥ (ब्रह्म. 25/75-79) (प्रजापति ब्रह्मा का मुनियों को कथन-) यह पुण्यस्थली भारत-भूमि धन्य है, जहां * ज्ञान की वृद्धि और समस्त पापों का नाश करना सम्भव है। इस भारत-भूमि के समस्त गुणों 卐 को कौन वर्णन कर सकता है? यही वह भूमि है जहां किये गये शुभ-कर्मो का हमें फल [वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/58 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 玩玩玩玩玩玩玩玩玩玩玩玩玩玩玩乐乐买买买买玩玩乐乐玩乐乐乐乐 भ मिल सकता है, अन्यत्र (भोगभूमियों में) नहीं। यहीं, अहिंसा आदि के आचरण का सर्वॐ वांछित फल मिलता है,यहीं ब्रह्मचर्य का, स्वाध्याय का, इष्ट व पूर्त कार्यों का, इसी तरह + अन्यान्य शुभकर्मों का फल मिल सकता है। यहां जन्म अनेकों व्रतों के आचरण से तथा # विविध शास्त्रों के अध्ययन के फलस्वरूप ही प्राप्त हो पाता है। यही कारण है कि देवता भी सदैव हर्ष-पूर्वक यहां जन्म लेना चाहते हैं। अहिंसा की स्थापना के लिए ईश्वरावतार {1793 ¥¥¥¥¥听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听巩巩巩¥¥¥¥¥¥ 'यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्। दैत्या हिंसानुरक्ताश्च अवध्याः सुरसत्तमैः॥ ___ (ब्रह्म. 53/35-36) (द्रष्टव्य-गीता 4/7-8) (भगवान की स्वीकारोक्ति-) जब-जब धर्म की ग्लानि (ह्रास-स्थिति) और अधर्म की उन्नति होने लगती है, दैत्य गण हिंसा में अनुरक्त हो जाते हैं और श्रेष्ठ देवों द्वारा भी है उनका वध नहीं हो पाता, तब मैं स्वयं को (महापुरुष के रूप में) अवतरित करता हूं। अहिंसा की प्रमुखताः श्रेष्ठ युग की आधार {180} कृतं प्रावर्तत तदा कलिर्नासीत् जगत् -त्रये। धर्मोऽभवच्चतुष्पादश्चातुर्वण्र्येऽपि नारद॥ तपोऽहिंसा च सत्यं च शौचमिन्द्रियनिग्रहः। दया दानं त्वानृशंस्यं शुश्रूषा यज्ञकर्म च॥ ___(वा.पु. 75/10-12) (राजा बलि के शासन में) धर्म, अपने पूर्ण रूप में, चारों पादों के साथ फलफूल रहा था। चारों वर्गों में सत्-युग ही प्रवृत्त हो रहा था, कलियुग का नामों-निशान भी नहीं रहा' ॐ था। तप, अहिंसा, सत्य, शौच, इन्द्रिय-निग्रह, दया, दान, आनृशंस्य (अक्रूरता/दया), # शुश्रूषा, यज्ञ कर्म-ये सभी समस्त जगत् में अनुष्ठित हो रहे थे। %% %% % % % %%%%%% %% % % %% %%% * अहिंसा कोश/59] Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 两场军事项 场弱弱弱弱% % % % % %%%%% %% हिंसा-प्रमुखताः कलियुग की विशेषता {181} हिंसा मानस्ता च, क्रोधोऽसूयाऽक्षमाऽधृतिः॥ पुष्ये भवन्ति जन्तूनां लोभो मोहश्च सर्वशः। संक्षोभो जायतेऽत्यर्थं कलिमासाद्य वै युगम्॥ (म. पु. 144/36-37) हिंसा, अभिमान, ईर्ष्या, क्रोध, पर-दोष-दर्शन/उद्भावन, अक्षमा (असहिष्णुता), # अधैर्य, लोभ व मोह- ये कलियुग में प्राणियों में अधिकांशतः रहते हैं। कलियुग में प्राणियों में अत्यधिक क्षोभ भी अवश्य रहता है। {1821 यदा सदाऽनृतं तन्द्रा निद्रा हिंसादिसाधनम्। शोकमोहौ भयं दैन्यं स कलिस्तमसि स्मृतः॥ (ग.पु. 1/215/27) जहां असत्य, तन्द्रा (आलस्य), निद्रा शोक, मोह, भय, दीनता एवं हिंसा आदि ॐ (पापों) के साधन सर्वदा दृष्टिगोचर हों, वहां तमोमय 'कलियुग' की उपस्थिति है- ऐसा माना गया है। %垢玩垢听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {183} हिंसा स्तेयानृतं माया दम्भश्चैव तपस्विनाम्। एते स्वभावाः पुष्यस्य साधयन्ति च ताः प्रजाः॥ (म. पु. 144/30) हिंसा, स्तेय (चौर्य) ,असत्य, माया, तपस्वियों में दम्भ-ये 'कलि' के स्वभाव में + अन्तर्भूत हैं, कलियुग में प्रजा भी इन्हीं का समर्थन करती हैं। ___{184} विश्वस्तघातिनः क्रूरा दयाधर्मविवर्जिताः। भविष्यन्ति नरा विप्र कलौ चाधर्मबान्धवाः॥ (ना. पु. 1/41/63) कलियुग में विश्वासघाती, क्रूर, दया-धर्म से शून्य तथा अधर्म के साथी/सहयोगी होंगें। % %% % %%% %%%%%% % %%%%%% %%% % वैिदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/60 % Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 他%% % %%%% %% % %%%% %% % % % %%%%%% % {185} धर्मस्त्रिपाच्च त्रेतायां द्विपाच्च द्वापरे स्मृतः। कलौ प्रवृत्ते पादात्मा, सर्वलोपस्ततः परम्॥ ___(ब्र.वै. 2/7/69) अहिंसा आदि धर्म त्रेतायुग में तीन पैरों से, द्वापर में दो पैरों से और कलियुग में एक म पैर से रहता है, अन्त में समस्त धर्म लुप्त हो जाता है। {186} हिंसकाश्च दयाहीनाः पौराश्च नरघातिनः। हरेर्नाम्नां विक्रयिणो भविष्यन्ति कलौ युगे॥ (दे. भा. 9/8/35,40) भावी कलियुग में प्रायः लोग मनुष्यघाती, हिंसक, दयाहीन, तथा ईश्वर (हरि) के नाम को बेचने वाले (अर्थात् धर्म को व्यापार बनाने वाले) होंगे। {187} 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听纸听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 शठाः क्रूरा दाम्भिकाच, महाहंकारसंयुताः। चौराश्च हिंसकाः सर्वे भविष्यन्ति ततः परम्॥ (ब्र.वै. 2/7/18) कलियुग में मनुष्य शठ, क्रूर, दम्भी (पाखण्डी), अहंकारी, चोर व हिंसक होंगें। RS55555555555555555555555555 अहिंसाः ईश्वरीय स्वरूप {188} धर्मो यज्ञस्तपः सत्यमहिंसा शौचमार्जवम्। क्षमा दानं दया लक्ष्मीः, ब्रह्मचर्य त्वमीश्वर॥ (वा.पु. 3/20) (शंकर द्वारा विष्णु की स्तुति)- हे ईश्वर! धर्म, यज्ञ, तप, सत्य, अहिंसा, शौच, आर्जव, क्षमा, दान, दया, लक्ष्मी व ब्रह्मचर्य-ये सब तुम्ही हो। %%%%% %%%%%%%%%男男男男男男男男男男男男男男 अहिंसा कोश/61]] Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (क्षमा आदिः देवी के स्वरूप) {189} त्वया युक्तः शिवोऽहं च, सर्वेषां शिवदायकः । त्वया विना हीश्वरश्च शवतुल्यो ऽशिवः सदा ॥ प्रकृतिस्त्वं च बुद्धिस्त्वं शक्तिस्त्वं च क्षमा दया । तुष्टिस्त्वं च तथा पुष्टिः शान्तिस्त्वं क्षान्तिरेव च ॥ (ब्र.वै. 3/2/11-12 ) (शिव का देवी पार्वती को कथन ) हे देवि! तुम से युक्त होकर ही मैं 'शिव' हूं और सब के लिए कल्याणकारी हूं। तुम्हारे बिना मैं 'शिव' न होकर 'शव' हूं और अकल्याणकारी हूं। तुम प्रकृति, बुद्धि, शक्ति, क्षमा, दया, तुष्टि, पुष्टि, शान्ति व सहिष्णुता हो । अहिंसक ही 'वैष्णव' एवं ईश्वर-भक्त {190} हिंसादम्भकामक्रोधैर्वर्जिताश्चैव ये नराः । लोभमोहपरित्यक्ता ज्ञेयास्ते वैष्णवा द्विज ॥ पितृभक्ता दयायुक्ताः सर्वप्राणिहिते रताः । अमत्सरा वैष्णवा ये विज्ञेयाः सत्यभाषिणः ॥ (प.पु.1/21-22) वैष्णव भक्त की पहचान यह है कि वे हिंसा, दम्भ, काम, क्रोध-इनसे रहित होते हैं, लोभ व मोह को छोड़ चुके होते हैं, पितृभक्त, दयालु, सभी प्राणियों के हित में संलग्न, मात्सर्य-हीन एवं सत्यवादी होते हैं । 2个 {191} शौचसत्यक्षांतियुक्तो रागद्वेषविवर्जितः । वेदविद्याविचारज्ञो यः स वैष्णव उच्यते ॥ का ज्ञाता व्यक्ति 'वैष्णव' कहलाता है। [ वैदिक / ब्राह्मण संस्कृति खण्ड / 62 ( प.पु. 6 (उत्तर) /82/4) शौच, सत्य व क्षमा से युक्त, राग व द्वेष से रहित और वेद-विद्या सम्बन्धी विचार *乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐消消消消消消消消乐乐乐、 筑 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 原廠線 1 {192} विमलमतिरमत्सरः प्रशान्तश्शुचिचरितोऽखिलसत्त्वमित्रभूतः । प्रियहितवचनोऽस्तमानमायो वसति सदा हृदि तस्य वासुदेवः ॥ (fa.g. 3/7/24) जो व्यक्ति निर्मल-चित्त, मात्सर्यरहित, प्रशान्त, शुद्ध - चरित्र, समस्त जीवों का सुहृद्, प्रिय और हितवादी तथा अभिमान व मायासे रहित होता है, उसके हृदय में भगवान् वासुदेव सर्वदा विराजमान रहते हैं । {193} क्षमां कुर्वन्ति क्रुद्धेषु दयां मूर्खेषु मानवाः । मुदञ्च धर्मशीलेषु गोविन्दे हृदयस्थिते ॥ (ग.पु. 1/222/27) जिसके हृदय में भगवान् गोविन्द स्थित होते हैं, वे लोग क्रोधी व्यक्तियों को क्षमा करते हैं और मूर्ख/अज्ञानी लोगों के प्रति दया भाव रखते हैं। {194} न चलति निजवर्णधर्मतो यः सममतिरात्मसुहृद्विपक्षपक्षे । न हरति न च हन्ति किञ्चिदुच्चैः सितमनसं तमवेहि विष्णुभक्तम् ॥ (fa.g. 3/7/20) जो पुरुष अपने वर्ण-धर्म से विचलित नहीं होता, अपने सुहृद् और विपक्षियों के प्रति समान भाव रखता है, किसी का द्रव्य हरण नहीं करता तथा किसी की हिंसा नहीं करता, उस अत्यन्त रागादि-शून्य और निर्मलचित्त व्यक्ति को ही भगवान् विष्णु का भक्त जानो । {195} अहिंसा सत्यवचनं दया भूतेष्वनुग्रहम् । यस्यैतानि सदा राम तस्य तुष्यति केशवः ॥ (fa. u. J. 1/58/1) भगवान शंकर का श्री परशुराम को कथन - ) हे परशुराम ! अहिंसा, सत्य - भाषण, दया तथा प्राणियों पर अनुग्रह - दृष्टि- ये जिसके द्वारा पालन किये जा रहे हों, उस व्यक्ति पर भगवान् विष्णु प्रसन्न रहते हैं । 出 अहिंसा कोश / 63] Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AREEKAAREEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEng {196} कर्मणा मनसा वाचा परपीडां न कुर्वते। अपरिग्रहशीलाच, ते वै भागवतोत्तमाः॥ ____ (स्कं.पु. वैष्णव./वेंकटा./21/41; ना. पु. 1/5/51) कर्म, मन व वचन से जो किसी भी प्राणी को पीड़ित नहीं करते, और जो परिग्रह है भी नहीं रखते, वे ही उत्तम 'भागवत' (भगवद्भक्त) हैं। {197} बहुधा बाध्यमानोऽपि यो नरः क्षमयान्वितः। तमुत्तमं नरं प्राहुर्विष्णोः प्रियतरं सदा॥ (ना. पु. 1/37/34) जो व्यक्ति अनेक प्रकारों से बाधित/पीड़ित होने पर भी, (पीड़ा देने वाले पर) क्षमा भाव रखता है, उसे विष्णु का प्रिय (भक्त) और श्रेष्ठ पुरुष कहा जाता है। {198} F片片垢玩垢玩垢状听听听听听听听听听听听垢玩垢听听听听听玩乐乐垢坎坎坎听听听听听听听听听听听听 अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यापरिग्रहौ। वर्तते यस्य तस्यैव तुष्यते जगतां पतिः। सर्वभूतदयायुक्तो विप्रपूजापरायणः। तस्य तुष्टो जगन्नाथो मधुकैटममईनः॥ (ना. पु. 1/34/20-21) अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह- इन्हें जो व्यक्ति पालन करता है, जगदीश्वर उसी से सन्तुष्ट रहते हैं। जो व्यक्ति सभी प्राणियों के प्रति दयाभाव रखता हुआ म विप्रों की पूजा में तत्पर रहता है, उससे मधुकैटभ-संहारक जगन्नाथ भगवान् प्रसन्न रहते हैं। {199} सर्वभूतदयावन्तः सर्वभूतहिते रताः। सदा गायन्ति देवेशम्, एतान् भक्तान् अवेहि वै॥ (स्कं.पु. वैष्णव./वेंकटा./6/58) जो सभी प्राणियों के प्रति दयालु हैं, सबके कल्याण में संलग्न हैं, भगवान का सदा कीर्तन करते हैं- निश्चय उन्हें ही (ईश्वर का) भक्त समझो। 听听听听听听听听听听听听听听明明明明听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 兵兵兵兵兵兵兵兵兵乐乐乐乐玩玩玩玩玩玩乐乐乐乐乐乐乐玩玩乐乐民乐部 वैदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/64 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {200} सर्वभूतहिते युक्ताः सर्वभूतहिते रतः। सर्वभूतानुकम्पी च, तस्य तुष्यति केशवः। (वि. ध. पु. 1/58/23) (भगवान शंकर का श्री परशुराम को कथन-)जो व्यक्ति सभी प्राणियों के हित में अपने को जोड़ता है, सभी प्राणियों के हित-साधन में संलग्न रहता है, सभी प्राणियों पर अनुकम्पा रखता है, उस पर भगवान् विष्णु प्रसन्न रहते हैं। {201} $听听听听听听听听听听听听听听听听听听听乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 परपीडाकरं कर्म यस्य नास्ति महात्मनः। संविभागी च भूतानां, तस्य तुष्यति केशवः॥ (वि. ध. पु. 1/58/7) (भगवान शंकर का श्री परशुराम को कथन-) जो व्यक्ति ऐसा कोई कार्य नहीं करता जिससे दूसरों को पीड़ा हो, और जो प्राणियों को (अन्न आदि कुछ न कुछ) देता है, ॐ उस महात्मा पर भगवान् विष्णु प्रसन्न रहते हैं। 55555555555555555555555555555555555 {202} नायं मार्गो हि साधूनां हृषीकेशानुवर्तिनाम्। यदात्मानं पराग्गृह्य पशुवद्भूतवैशसम्॥ (भा.पु. 4/11/10) इस जड़ शरीर को ही आत्मा समझकर इसके लिए पशुओं की भांति प्राणियों को मारना भगवान् विष्णु की भक्ति करने वाले सज्जनों का मार्ग नहीं हो सकता। {203} सर्वभूतदयावन्तः शान्ता दान्ता विमत्सराः। अमानिनो बुद्धिमन्तस्तापसाः शंसितव्रताः॥ (कू.पु.1/12/276) __ (जो ईश्वर-भक्त होते हैं, वे) बुद्धिमान तपस्वी व प्रशस्त व्रत-निष्ठ लोग सभी है ॐ प्राणियों के प्रति दयालु, शान्त, दान्त, मात्सर्य-हीन व मान-रहित होते हैं। 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听玩乐听听听听听听听听, अहिंसा कोश/65] Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 與此巩巩巩巩巩听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 %%% %%% % %% %%%% %%% %%%%% % {204} कृपालुरकृतद्रोहस्तितिक्षुः सर्वदेहिनाम्। सत्यसारोऽनवद्यात्मा समः सर्वोपकारकः॥ कामैरहतधीर्दान्तो मृदुः शुचिरकिञ्चनः। अनीहो मितभुक् शान्तः स्थिरो मच्छरणो मुनिः॥ अप्रमत्तो गभीरात्मा धृतिमाञ्जितषड्गुणः। अमानी मानदः कल्पो मैत्रः कारुणिकः कविः॥ आज्ञायैवं गुणान्दोषान्मयाऽऽदिष्टानपि स्वकान्। धर्मान्संत्यज्य यः सर्वान्मां भजेत स सत्तमः॥ ___ (भा.पु. 11/11/29-32) (श्रीकृष्ण का उद्धव को कथन-) जो पुरुष कृपालु, द्रोह न करने वाला, सब पर क्षमा करने वाला, दृढ़ सत्यता से युक्त, ईर्ष्या इत्यादि दोषों से रहित, सब का उपकार करने वाला, कामविकार-रहित चित्तवाला, बाहरी इन्द्रियों को संयम में रखनेवाला, कोमलचित्त, सदाचारी, परिग्रह-हीन, निष्काम, प्राप्त भोजन से तृप्त, शान्तचित्त, अपने म धर्म में दृढ़, केवल मुझ (ईश्वर) पर आश्रित, विचारशील, सावधान, निर्विकार, दीनताशून्य, ॐ तथा क्षुधा, प्यास, शोक, मोह, वृद्धता व मृत्यु को कुछ न समझनेवाला, प्रतिष्ठा का * अनभिलाषी, औरों की प्रतिष्ठा करनेवाला, दूसरों को समझाने में समर्थ, धूर्ततारहित, 卐 करुणाशील और सत्यज्ञानी है तथा वेदरूप मेरी आज्ञा से सूचित अपने धर्मों के करने में 4 गुणों को एवं न करने में दोषों को जानता है, किन्तु उन सब धर्मों को छोड़ कर मेरी भक्ति करता है, वह श्रेष्ठ साधु है। 听听听听听听听听听听F听听听听听听听听听听听听听听乐听听听听听听坎贝贝听听听听听听听听听听听听。 {205} यस्मान्नोद्विजते लोको लोकानोद्विजते च यः। हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः॥ ___ (म.भा. 6/36/15 गीता, 12/15) जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग कोई ॐ प्राप्त नहीं होता, तथा जो हर्ष,अमर्ष, भय और उद्वेग आदि से रहित है, वही ईश्वर को प्रिय है। 明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明那 वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/66 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %%%%%%% %%%%%%% %%% %%%%% %%%%% % % {206} अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च। निर्ममो निरहंकारः समदुःखसुखः क्षमी।। संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः। मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः।। (म.भा. 6/36/13-14, गीता- 12/13-14) जो पुरुष सब भूतों में द्वेषभाव से रहित, स्वार्थरहित, सब का प्रेमी और निष्कारण दयालु है; तथा ममता से रहित, अहंकार से रहित, सुख-दुःखों की प्राप्ति में समभावी और क्षमावान् है अर्थात् अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला है, तथा जो योगी एवं निरन्तर संतुष्ट है, मन-इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किये हुए है,और ईश्वर को अर्पण किये हुए मन-बुद्धि वाला है, वही ईश्वर-भक्त एवं ईश्वर को प्रिय है। {2073 तत्र भागवतान्धर्माञ्छिक्षेद गुर्वात्मदैवतः। अमाययाऽनुवृत्त्या यैस्तुष्येदात्माऽऽत्मदो हरिः॥ सर्वतो मनसोऽसङ्गमादौ सङ्गं च साधुषु। दयां मैत्री प्रश्रयं च भूतेष्वद्धा यथोचितम्॥ शौचं तपस्तितिक्षां च मौनं स्वाध्यायमार्जवम्। ब्रह्मचर्यमहिंसां च समत्वं द्वन्द्वसंज्ञयोः॥ सर्वत्रात्मेश्वरान्वीक्षां कैवल्यमनिकेतताम्। विविक्तचीरवसनं सन्तोषं येन केनचित्॥ (भा.पु. 11/3/22-25) ('प्रबुद्ध' मुनि का राजा निमि को उपदेश-) गुरुदेव को ही आत्मा तथा इष्टदेव मानता हुआ उन्हीं से भागवत-धर्मों को सीखे। गुरु के प्रति निष्कपट आचरण करने से स्वयं + अपने को दे डालने वाले श्रीकृष्ण प्रसन्न हो जाते हैं। भागवत धर्म इस प्रकार हैं-सर्वप्रथम ॐ सब ओर से मन की असङ्गता, साधुजनों का सङ्ग, सब प्राणियों के प्रति यथोचित दया, मैत्री म एवं विनयभाव, शौच, तप, तितिक्षा अर्थात् द्वन्द्वों को सहना, मौन अर्थात् व्यर्थ वार्ता9 वर्जन,मननशील स्वाध्याय, सरलता, ब्रह्मचर्य, अहिंसा, सुख-दुःखादि द्वन्द्वों में समान व्यवहार, * आत्मस्वरूप श्रीहरि को सर्वत्र देखना, एकान्तसेवन, अनिकेतता अर्थात् गृह आदि में ममत्व म का अभाव, पवित्र वस्त्र पहनना, और जो कुछ मिल जाय उसी में सन्तोष करना। . 筑听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听巩巩巩巩明明明明明明听听听听听听听听听听听听听听听听 呢呢呢呢呢呢呢听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 अहिंसा कोश/67] Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {4} अठिंयक आचार-विचार के सूत्रःभारतीय संस्कृतिक वांग्मय में [भारतीय संस्कृति के सर्वप्राचीन ग्रंथ 'वेद' माने जाते हैं। वेद में अहिंसा या अहिंसक आचरण के अनेक प्रेरक वचन प्राप्त होते हैं। वेदोत्तर संस्कृत साहित्य (महाभारत, गीता, योगवाशिष्ठ, और मनुस्मृति आदि स्मृति ग्रन्थों, उपनिषदों,विविध पुराणों, नीति-ग्रन्थों आदि-आदि) में भी भारतीय संस्कृति का वैचारिक प्रवाह निरंतर दृष्टिगोचर होता है। 'अहिंसा' तथा इसके सभी पक्षों को जीवन में उतारने के लिए इन ग्रन्थों में उपयोगी निर्देश उपलब्ध हैं। # प्राणवध, द्वेष, निन्दा, क्रोध, पर-अपकार, पर-अपमान, छल, कपट, ईर्ष्या, कटुवचन, दुराचार, क्रूरता, असत्य : दोषारोपण-आदि-आदि परपीड़ाकारी कार्य 'हिंसा' ही हैं, इनका निषेध करने हेतु उनमें उपदेश हैं, तो क्षमा, दया, करुणा, परोपकार, मैत्री-सौहार्द, दान, पर-अनुग्रह, परदुःखकातरता, सदाचारपूर्ण बर्ताव, समत्व-भाव आदि-आदि अहिंसक आचरण अपनाने की भी प्रेरणाएं प्राप्त हैं। किसी अहिंसा-आराधक व्यक्ति का व्यावहारिक जीवन कैसा होना 卐 चाहिए-इसे समझने के लिए उक्त ग्रन्थों के उपयोगी व महत्त्वपूर्ण उद्धरणों को सूत्र रूप में विभिन्न शीर्षकों के अन्तर्गत प्रस्तुत किया जा रहा है-] अहिंसाः दैनिक जीवन में आचरणीय F垢玩垢垢玩垢听听听听听听听听乐乐明 垢玩垢听听听听听听听听听听听听听听坎坎坎听听听听听听听听听 FF听听听听听听听听听乐明明明明明听听听听听听听听听听听听听听听乐听听听听听听听听听听听听听听 {208} मा हिंसीस्तन्वा प्रजाः। (य.12/32) तू अपने शरीर से किसी को भी पीड़ित न कर। {209} मा हिंसीः पुरुषं जगत्। (य.16/3) मनुष्य और जंगम (गाय, भैंस आदि) पशुओं की हिंसा न करो। {210}. कविर्देवो न दभायत् स्वधावान्। (अ.4/1/7) क्रान्तदर्शी श्रेष्ठ ज्ञानी ऐश्वर्य से समृद्ध होकर भी किसी को पीड़ा नहीं देते हैं, सब ॐ पर अनुग्रह ही करते हैं। %%%%%%%%% %%%%%% % %%%% %%%% % %%%% विदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/68 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {211) नान्योऽन्यं हिंस्याताम्। (श.प.3/4/1/24) परस्पर एक दूसरे को हिंसित अर्थात् पीड़ित नहीं करना चाहिए। {212} नेदमन्योऽन्यं हिनसात। (श.प. 1/1/4/5) (मनुष्य) एक-दूसरे का हनन न करें। 巩听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {213} इमाँल्लोकाञ्छान्तो न हिनस्ति। (श.प.3/6/4/13) शान्त पुरुष किसी भी प्राणी की हिंसा (पीड़ा देने आदि कार्य) नहीं करते हैं। {214} प्राणिहिंसां न कुर्वीत॥ (प.पु. 5/10/56) प्राणियों की हिंसा न करें। 第蛋听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听形 ___{215} अहिंसालक्षणो धर्म इति धर्मविदो विदुः। यदहिंसात्मकं कर्म तत् कुर्यादात्मवान् नरः॥ (म.भा.13/116/12) धर्मज्ञ पुरुष यह जानते हैं कि अहिंसा ही धर्म का लक्षण है। मनस्वी पुरुष वही कर्म करें, जो अहिंसात्मक हो। {216} यत् तपो दानमार्जवमहिंसा सत्यवचनमिति ता अस्य दक्षिणाः। (छांदो. 3/17/4) जो व्यक्ति तप, दान, ऋजुता,अहिंसा और सत्य वचन में जीवन व्यतीत करता है, # उसका जीवन 'दक्षिणा' (यज्ञ की पूर्णता) का जीवन है। 乐乐乐玩玩乐乐玩玩乐乐玩玩乐乐玩玩乐乐乐玩玩乐乐乐玩玩乐乐玩玩乐乐乐张 अहिंसा कोश/69] Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INXXXEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEng {217} मा हिंसीः पुरुषं जगत्। (श्वेता. 3/6) जगत् में किसी पुरुष (प्राणी) की हिंसा मत करो। ___{218} अहिंस्रः सर्वभूतानां मैत्रायणगतश्चरेत्॥ ___ (म.भा.12/189/12; ना. पु. 1/43/75) किसी भी प्राणी की हिंसा न करे, सब के साथ मैत्रीपूर्ण बर्ताव करे। 明明明明明明坂垢玩垢玩垢玩垢听听乐乐乐乐听听听听听听听听听听听听垢垢玩垢听听听听听听听听听听听听 {219) न हिंस्यात् सर्वभूतानि मैत्रायणगतश्चरेत्। नेदं जीवितमासाद्य वैरं कुर्वीत केनचित्॥ (म.भा.12/278/5, 3/213/34; ना. पु. 1/60/53-54 में आंशिक परिवर्तन के साथ) ___ मुमुक्षु पुरुष समस्त प्राणियों में से किसी की भी हिंसा न करे-किसी को भी पीड़ा # न दे। सबके प्रति मित्रभाव रखकर विचरता रहे। इन नश्वर जीवन को लेकर किसी के साथ शत्रुता न करे। 乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听玩玩乐乐乐乐乐乐乐垢玩垢明举 {220} न हिंस्याद्भूतजातानि न शपेन्नानृतं वदेत्। (भा.पु. 6/18/47) (महर्षि कश्यप की उक्ति-)व्रत-पालन करते समय, साधक को चाहिए कि वह कभी किसी प्राणी की किसी भी तरह हिंसा न करे, झूठ न बोले। ____{221} सत्यमार्जवमक्रोधमनसूयां दमं तपः। अहिंसां चानृशंस्यं च विधिवत् परिपालय॥ (म.भा.12/321/5) सत्य, सरलता, अक्रोध, किसी का दोष न देखना, इन्द्रिय-संयम, तप, अहिंसा और ॐ दया आदि धर्मों का विधिपूर्वक पालन करो। %%% %% %%% %%%% % %%%% % %% %% % विदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/70 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 男男男男男男男男男第需%%%% 男男男男男男男男男男男男男男男男男男男%%%%%%%%%%%%%%%% {222} पक्वविद्या महाप्राज्ञा जितक्रोधा जितेन्द्रियाः। मनसा कर्मणा वाचा नापराध्यन्ति कर्हिचित्॥ अनीर्षवो न चान्योन्यं विहिंसन्ति कदाचन। न च जातूपतप्यन्ते धीराः परसमृद्धिभिः॥ निन्दाप्रशंसे चात्यर्थं न वदन्ति परस्य ये। न च निन्दाप्रशंसाभ्यां विक्रियन्ते कदाचन। ___(म.भा.12/229/12-14) मनीषी पुरुषों का ज्ञान परिपक्व होता है। वे महाज्ञानी, क्रोध को जीतने वाले और जितेन्द्रिय होते हैं तथा मन, वाणी और शरीर से कभी किसी का अपराध नहीं करते हैं। उनके मन में एक दूसरों के प्रति ईर्ष्या नहीं होती। वे कभी हिंसा (हिंसक आचरण) नहीं करते तथा ' 5 वे धीर पुरुष दूसरों की समृद्धियों से कभी मन-ही-मन जलते नहीं हैं। पुरुष दूसरों की न तो निन्दा करते हैं और न अधिक प्रशंसा ही। उनकी भी कोई निन्दा या प्रशंसा करे तो उनके ॥ मन में कभी विकार नहीं होता है। 雷克男跑男男男男男 ___{223}, %%%%%巩巩巩巩巩巩巩巩巩垢玩垢乐乐乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听學 अद्रोहः सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा। अनुग्रहश्च दानं च शीलमेतत् प्रशस्यते॥ (म.भा.12/124/66) मन, वाणी और क्रिया द्वारा किसी भी प्राणी से द्रोह न करना, सब पर दया करना और यशाशक्ति दान देना-यह शील कहलाता है, जिसकी सब लोग प्रशंसा करते हैं। $$$$$$雷雷雷雷雷 {224} यदन्येषां हितं न स्यादात्मनः कर्म पौरुषम्। अपत्रपेत वा येन न तत् कुर्यात् कथंचन॥ (म.भा.12/124/67) अपना जो भी पुरुषार्थ और कर्म दूसरों के लिये हितकर न हो अथवा जिसे करने में * संकोच का अनुभव होता हो, उसे किसी तरह नहीं करना चाहिये। % %%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%% %%% %%% %、 अहिंसा कोश/71] Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 明明明明明明明明明明明明明明明男男男男男男男男男男男男男男男男男男男 {225} परोपतापनं कार्यं वर्जनीयं सदा बुधैः। (दे. भा. 5/15/15) विद्वानों को पर-सन्तापकारी कार्य कभी नहीं करना चाहिए। {226} त्रीण्येव तु पदान्याहुः पुरुषस्योत्तमं व्रतम्। न द्रुह्येच्चैव दद्याच्च सत्यं चैव परं वदेत्॥ (म.भा.13/120/10) वेद मनुष्य के लिये तीन बातों को उत्तम व्रत बताते हैं-(1) किसी के प्रति द्रोह न करे, (2) दान दे, तथा (3) दूसरों से सदा सत्य बोले। 坎坎坎坎坎垢玩垢玩垢玩垢听听听听听听听听听听听巩巩巩垢玩垢垢玩垢听听听听听听听听听听垢玩垢听听 {227} संसिद्धाधिगमं कुर्यात् कर्म हिंसात्मकं त्यजेत्। (म.भा.12/294/24) मनुष्य को उन्नत होने का प्रयत्न तो करना चाहिये, किंतु हिंसात्मक कर्म का त्याग म कर देना चाहिये। 乐乐乐编织听听听听听听听听听听听听听听乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听贝听听听听形 {228} न प्राणाबाधमाचरेत् (म.स्मृ. 4/54) गृहस्थ ऐसा कोई कार्य न करे जिससे किसी प्राणी को बाधा/पीड़ा हो। अहिंसा की नींवः सबसे आत्मवत व्यवहार {229) आत्मवत्सर्वभूतेषु यो हिताय प्रवर्तते। अहिंसैषा समाख्याता वेदसंविहिता च या॥ (स्कं. पु. 1/(2)/55/15) सभी प्राणियों में आत्मवत् दृष्टि रखते हुए उनका हितकारी कार्य करना- यही # 'अहिंसा' है जो 'वेद' में प्रतिपादित है। 乐乐玩玩乐乐乐乐乐乐玩乐乐乐听听听听听听听听听乐乐乐乐乐玩玩乐乐明F वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/72 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {230} यथैव मरणाद् भीतिः अस्मदादिवपुष्मताम्। ब्रह्मादिकीटकान्तानां तथा मरणतो भयम्॥ सर्वे तनुभृतस्तुल्याः, यदि बुद्ध्या विचार्यते। इदं निश्चित्य केनापि नो हिंस्यःकोऽपि कुत्रचित्॥ (शि.पु. 2/5/5/14-15) जिस प्रकार हम शरीरधारियों को मृत्यु से भय का अनुभव होता है- वैसे ही ब्रह्मा से लेकर कीट-पर्यन्त सभी को मरण से भय होता है। यदि बुद्धिपूर्वक विचार किया जाय तो + सभी शरीरधारियों की स्थिति समान है। इस (आत्मवत् दृष्टि) का निश्चय करके कोई एवं कभी भी किसी की हिंसा न करे। 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {231} प्राणा यथाऽत्मनोऽभीष्टाः भूतानामपि ते तथा। आत्मौपम्येन गन्तव्यमात्मविद्भिर्महात्मभिः॥ (वि. ध. पु. 3/268/11) जैसे अपने स्वयं के प्राण (प्यारे व) अभीष्ट हैं, वैसे ही अन्य प्राणियों को भी ॐ अभीष्ट हैं- इस प्रकार आत्मवेत्ता महात्माओं को आत्मौपम्य-दृष्टि रख कर व्यवहार करना चाहिए। 巩巩巩巩巩巩听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听擊以 . {232} अहिंसा-निरतो भूयाद्, यथाऽऽत्मनि तथा परे॥ (प.पु. 2/13/23) सबसे आत्मवत् व्यवहार करते हुए, अहिंसा के आचरण में उद्यत होना चाहिए (अर्थात् जैसे स्वयं को अन्य द्वारा अपने प्रति किया हुआ हिंसक आचरण अच्छा नहीं लगता, उसी तरह स्वयं भी अन्य के प्रति हिंसक आचरण न करे)। {233} आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्। (कू.पु. 2/16/36 ; प. पु. 3/55/33, 1/19/336; वि. ध. पु. 3/254/44) जो अपने को प्रतिकूल लगे, वह कार्य अन्य के साथ भी न करे। 男男男男男男男男男男男%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%、 अहिंसा कोश/73] Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ANSARANANEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE {234} संक्षेपात् कथ्यते धर्मो जनाः! किं विस्तरेण वः। परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्॥ श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम्। आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्॥ (पं.त. 3/103-104) हे मनुष्यों! संक्षेप में तुम्हें धर्म का स्वरूप बताता हूं, विस्तार से क्या लाभ? परोपकार करना ही पुण्य है और दूसरों को दुःख देना ही पाप है। (अत:दूसरों को कष्ट न ई देते हुए सदैव परोपकार में ही संलग्न रहना चाहिए)। धर्म का सार तत्त्व सुनो और सुनकर उसे हृदय में धारण करो। जो कार्य अपने लिए * अहितकर प्रतीत हो उन्हें दूसरों के साथ भी नहीं करना चाहिए। 坎坎坎坎坎坎坎垢玩垢玩垢垢乐听听听听听听听听听听坎坎坎坎坎坎垢玩垢坎坎坎坎贝听听听听听听听听听 ___{235} यथा परः प्रक्रमते परेषु तथाऽपरे प्रक्रमन्ते परस्मिन्। तथैव तेऽस्तूपमा जीवलोके यथा धर्मो नैपुणेनोपदिष्टः॥ (म.भा.13/113/10) जैसे एक मनुष्य दूसरों पर आक्रमण करता है, उसी प्रकार अवसर आने पर दूसरे भी उसके ऊपर आक्रमण करते हैं। इसी को तुम जगत् में अपने लिये भी दृष्टान्त समझो। है अतः किसी पर आक्रमण नहीं करना चाहिये। इसी प्रकार, धर्म का कौशलपूर्वक उपदेश किया गया है। {236} यदन्यैर्विहितं नेच्छेदात्मनः कर्म पूरुषः। न तत् परेषु कुर्वीत जाननप्रियमात्मनः॥ (म.भा.12/259/20) मनुष्य दूसरों द्वारा किये हुए जिस व्यवहार को अपने लिये वांछनीय नहीं मानता, दूसरों के प्रति भी वह वैसा बर्ताव न करे। उसे यह जानना चाहिये कि जो बर्ताव अपने लिये अप्रिय है, वह दूसरों के लिये भी प्रिय नहीं हो सकता। 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听非 % %%%%%%%%%%%% %%%%% %%%%%%% %%%%% (वैदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/74 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 原 原蛋 {237} न तत् परस्य संदध्यात् प्रतिकूलं यदात्मनः । एष संक्षेपतो धर्मः कामादन्यः प्रवर्तते ॥ (म.भा.13/113/8;5/39/71) जो बात अपने को अच्छी न लगे, वह दूसरों के प्रति भी नहीं करनी चाहिये । यही धर्म का संक्षिप्त लक्षण है। इससे भिन्न जो बर्ताव होता है, वह कामनामूलक (रागादिजनित ) है। {238} सर्वाणि भूतानि सुखे रमन्ते सर्वाणि दुःखस्य भृशं त्रसन्ते । तेषां भयोत्पादनजातखेदः कुर्यान्न कर्माणि हि श्रद्दधानः ॥ (म.भा. 12/245/25 ) सम्पूर्ण प्राणी सुख में प्रसन्न होते और दुःख से बहुत डरते हैं, अतः प्राणियों पर भय आता देख कर जिसे खेद होता है, उस श्रद्धालु पुरुष को भयदायक कर्म नहीं करना चाहिये । {239} मनसोऽप्रतिकूलानि प्रेत्य चेह च वांछसि । भूतानां प्रतिकूलेभ्यो निवर्तस्व यतेन्द्रियः ॥ (म.भा.12/309/5) यदि इस लोक और परलोक में अपने मन के अनुकूल वस्तुएं पाने की इच्छा है तो अपनी इन्द्रियों को संयम में रखते हुए उन सभी आचरणों से अपने को दूर रखो जो अन्य प्राणियों के लिए प्रतिकूल हैं (अर्थात् उन्हें दुःख पहुंचाते हैं) । {240} यथाऽऽत्मनि च पुत्रे च सर्वभूतेषु यस्तथा । हितकामो हरिस्तेन सर्वदा तोष्यते सुखम् ॥ (fa.g. 3/8/17) जो व्यक्ति स्वयं अपने और अपने पुत्रों के समान ही समस्त प्राणियों का हितचिन्तक होता है, वह सुगमता से ही श्रीहरि को प्रसन्न कर लेता है। $$$$$$ हिंसा कोश / 75] Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 原 原 {241} जनस्याशयमालक्ष्य यो यथा परितुष्यति । तं तथैवानुवर्तेत पराराधनपण्डितः ॥ (शु.नी. 3/15) दूसरे को खुश रखने में निपुण व्यक्ति को चाहिये कि वह लोगों के भावों को समझ कर, तदनुसार जो जैसे खुश हो, उसके साथ वैसा व्यवहार करे । {242} पीडामथोत्पाद्य नरस्य राम, यथाकथंचिन्नरकं प्रयाति । तस्मात् प्रयत्नेन विवर्जनीया परस्य पीडा मनुजेन राम ॥ (वि. ध. पु. 2 / 118/134) (हे परशुराम !) जो व्यक्ति जिस किसी भी तरह दूसरों को पीड़ा देता है, वह नरक गामी होता है, इसलिए, मनुष्य को चाहिए कि वह सावधानी - पूर्वक पर- पीड़ा के कार्यों से दूर रहे | [वैदिक / ब्राह्मण संस्कृति खण्ड / 76 原 {243} न पापे प्रतिपापः स्यात् साधुरेव सदा भवेत् । आत्मनैव हतः पापो यः पापं कर्तुमिच्छति ॥ (म.भा.3/207/45) यदि कोई अपने साथ बुरा बर्ताव करे, तो भी स्वयं बदले में उसके साथ बुराई न करे। सब के साथ सदा सज्जन ही रहे, अर्थात् सद् व्यवहार ही करे। जो पापी दूसरों का अहित करना चाहता है, वह स्वयं ही नष्ट हो जाता है। {244} प्रत्याख्याने च दाने च सुखदुःखे प्रियाप्रिये । आत्मौपम्येन पुरुषः प्रमाणमधिगच्छति ॥ (म.भा.13/113/9) मांगने पर दाता द्वारा देने या इन्कार करने से, सुख या दुःख पहुंचाने से तथा प्रिय या अप्रिय करने से पुरुष को स्वयं जैसे हर्ष - शोक का अनुभव होता है, उसी प्रकार दूसरों के लिये भी समझे। 五五五五五五五五五五 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 五五五五五五五五五五五五五五五五五五五五五五 {245} जीवितुं यः स्वयं चेच्छेत् कथं सोऽन्यं प्रघातयेत् । यद् यदात्मनि चेच्छेत तत् परस्यापि चिन्तयेत् ॥ (म.भा.12/259/22) जो स्वयं जीवित रहना चाहता हो, वह दूसरों के प्राण कैसे ले सकता है? मनुष्य अपने लिये जो-जो सुख-सुविधा चाहे, उसी को दूसरे के लिये भी सुलभ कराने के लिए सोचे । {246} यो न हिंस्यादहं ह्यात्मा भूतग्रामं चतुर्विधम् । तस्य देहाद्वियुक्तस्य भयं नास्ति कदाचन । 出版 (बृ. स्मृ. 1/35 ) जो चारों प्रकार के प्राणियों को अपनी जैसी एक ही आत्मा का स्वरूप मानकर हिंसा नहीं करता है, वह अपने शरीर के छूटने पर भी कभी भयभीत नहीं होता है । {247} आत्मोपमस्तु भूतेषु यो वै भवति मानवः । न्यस्तदण्डो जितक्रोधः प्रेत्येह लभते सुखम् ॥ (म.भा. 12/66/36; तथा 13/113/6 में आंशिक परिवर्तन के साथ) जो मानव समस्त प्राणियों को अपने समान समझता है, ( उनके प्रति हिंसा आदि ) दण्ड का त्याग कर देता है, और क्रोध को जीत लेता है, वह इस लोक में, और मृत्यु के पश्चात् परलोक में भी, सुख पाता है। {248} आत्मवत् सर्वभूतानि ये पश्यन्ति नरोत्तमाः । तुल्या शत्रुषु मित्रेषु ते वै भागवतोत्तमाः ॥ (ना. पु. 1/5/57) जो श्रेष्ठ पुरुष सभी प्राणियों को आत्म-तुल्य देखते हैं और शत्रु या मित्र दोनों के प्रति समान व्यवहार करते हैं, वे भागवत ( भगवद्-भक्त) पुरुषों में श्रेष्ठतम हैं । 過 अहिंसा कोश / 77] Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 555% %% %%%%%% %%%% %%%% % %%%%% %%%% % {249) परद्रोहं तथा हिंसा प्रयत्नेन विवर्जयेत्॥ (वि. ध. पु. 2/90/77) (प्रत्येक) मनुष्य को चाहिए कि वह दूसरे से द्रोह करना तथा हिंसक आचरण। इन्हें प्रयत्नपूर्वक छोड़ दे। 勇 勇勇%%%%%%%%%%%男男男男男男男男男男男男男男男男男男 {250 यथैवात्मेतरस्तद्वद् द्रष्टव्यः सुखमिच्छता। सुखदुःखानि तुल्यानि यथाऽऽत्मनि तथा परे।। सुखं वा यदि वा दुःखं यत्किञ्चित् क्रियते परे। ततस्तत्तु पुनः पश्चात् सर्वमात्मनि जायते॥ (द. स्मृ., 3/20-21) जिस प्रकार अपनी आत्मा है, वैसी ही दूसरे की आत्मा है- ऐसा प्रत्येक सुखार्थी ॐ पुरुष को सोचना-देखना चाहिए। जैसे अपने स्वयं को दुःख या सुख होते हैं, वैसे ही दूसरों को भी होते हैं । सुख या दुःख जो भी दूसरे के लिए किए जाते हैं, वे कुछ समय बाद उसी तरह (सुख या दुःख रूप में) अपने लिए भी उत्पन्न होते हैं। अहिंसा का आधारः प्रशस्त विचार व समत्व-दर्शन ___{251) मातृवत् परदारांश्च परद्रव्याणि लोष्टवत्। आत्मवत् सर्वभूतानि यः पश्यति स पश्यति॥ ___ (प.पु. 1/19/336-337; आ.स्मृ. 10/11; ग.पु. 1/111/12 एवं पं.तं 1/435 में आंशिक परिवर्तन के साथ) जो परस्त्रियों को माता के समान, परधन को लोष्ट (ढेले) के समान, और सब प्राणियों को अपनी आत्मा के समान देखता है, वस्तुतः वही द्रष्टा है, देखने वाला है। [समत्व-दर्शन सम्बन्धी विवरण हेतु द्रष्टव्यः भा. पु. 7/14/9, 11/11/16; गीता 5/18-19; 6/9, 29,32; - 12/18; ब्रह्म. 128/20; प. पु. 1/50/92; म. भा. 12/239/21-22 आदि-आदि] वैदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/78 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男 ____{252} तितिक्षया करुणया मैत्र्या चाखिलजन्तुषु। समत्वेन च सर्वात्मा भगवान्यं प्रसीदति॥ (भा.पु. 4/11/13) . सभी प्राणियों के प्रति सहनशीलता, दया, मित्रता और समता का भाव रखने वाले पर सर्वात्मा भगवान् प्रसन्न होते हैं। {253} मानसं सर्वभूतानां धर्ममाहुर्मनीषिणः। तस्मात् सर्वेषु भूतेषु मनसा शिवमाचरेत्॥ (म.भा.12/193/31) मनीषी पुरुषों का कथन है कि समस्त प्राणियों के लिये मन द्वारा किया हुआ है क (अहिंसा) धर्म ही श्रेष्ठ है; अतः मन से सम्पूर्ण जीवों का कल्याण ही सोचता रहे। {254} 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 55555555555555555555555555555555555 सर्वभूतसमत्वेन निर्वैरेणाप्रसङ्गतः। ब्रह्मचर्येण मौनेन स्वधर्मेण बलीयसा॥ यदृच्छयोपलब्धेन संतुष्टो मितभुङ् मुनिः। विविक्तशरणः शान्तो मैत्रः करुण आत्मवान्॥ (भा.पु. 3/27/7-8) मुमुक्षु पुरुष प्राणिमात्र को समदृष्टि से देखे, वैर-भाव न रक्खे, आसक्ति से बचा 卐 रहे, ब्रह्मचर्य और मौनव्रत का पालन करे, ईश्वरार्पण- बुद्धि से धर्म-कर्म करे। जो कुछ है भ मिल जाय, उसी में सन्तुष्ट रहे, आहार परिमित किया करे, मनन करने की आदत डाले, + एकान्तवास किया करे, चित्त में अशान्ति न आने दे, और वह लोकहितचिन्तक, दयालु व 卐 धैर्यवान् हो। {255} यदा न कुरुते भावं सर्वभूतेष्वमंगलम्। समदृष्टेस्तदा पुंसः सर्वाः सुखमया दिशः॥ (भा.पु. 9/19/15; वि. पु. 4/10/25 में आंशिक परिवर्तन के साथ) जब मनुष्य सब प्राणियों के प्रति अमंगल/अप्रशस्त विचार नहीं रखता, तब उस ॐ समदर्शी के लिये सब दिशाएं आनन्ददायिनी हो जाती हैं। 野野野野野野乃乃西野筑西巧野野野野野野野野乃万頭筋浜野野野野野野野野野、 अहिंसा कोश/79] Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明用兵界之 {256} न जीयते चानुजिगीषतेऽन्यान् न वैरकृच्चाप्रतिघातकश्च। निन्दाप्रशंसासु समस्वभावो न शोचते हृष्यति नैव चायम्॥ (म.भा. 5/36/15, विदुरनीति 4/15) जो न तो स्वयं किसी से पराजित होता है और न दूसरों को जीतने की इच्छा करता है, न किसी के साथ वैर करता और न दूसरों को चोट पहुंचाना चाहता है, जो निन्दा और प्रशंसा में समानभाव रखता है, वही हर्ष-शोक से परे हो पाता है। 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听贝贝听听听听听听听 {257} भावमिच्छति सर्वस्य नाभावे कुरुते मनः। सत्यवादी मृदुर्दान्तो यः स उत्तमपूरुषः॥ (म.भा. 5/36/16, विदुरनीति 4/16) जो सब का (अस्तित्व रूप) कल्याण चाहता है, किसी के अस्तित्व को समाप्त है * करने सम्बन्धी अकल्याण की बात मन में भी नहीं लाता और जो सत्यवादी, मृदुस्वभाव युक्त व जितेन्द्रिय है, वही उत्तम पुरुष माना गया है। 9乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {258} समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्। न हिनस्त्यात्मनाऽऽत्मानं ततो याति परां गतिम्॥ (गीता-13/28) जो पुरुष परमेश्वर को सबमें समभाव से स्थित देखता है, वह स्वयं अपनी हिंसा ॥ नहीं करता (स्वयं के शान्त स्वभाव को नष्ट नहीं करता), इससे वह परम गति को प्राप्त क होता है। {2597 अमित्राश्च न सन्त्येषां ये चामित्रा न कस्यचित्॥ य एवं कुर्वते माः सुखं जीवन्ति सर्वदा॥ ____ (म.भा.12/229/17) मनीषी पुरुषों के न कोई शत्रु होते हैं और न वे ही किसी के शत्रु होते हैं। जो मनुष्य ॐ ऐसा करते हैं, वे सदा सुख से जीवन बिताते हैं। 明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明外 विदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/80 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TAEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEng {260} नापध्यायेन्न स्पृहयेत्, नाबद्धं चिन्तयेदसत्॥ (म.भा.12/215/8) किसी का अहित न सोचे और न चाहे। असम्भव व मिथ्या पदार्थों का चिन्तन भी मन करे। {261} द्वन्द्वोपशमसीमान्तं संरम्भज्वरनाशनम्। सर्वदुःखातपाम्भोदं समत्वं विद्धि राघव॥ मित्रीभूताखिलरिपुर्यथाभूतार्थदर्शनः । दुर्लभो जगतां मध्ये साम्यामृतमयो जनः॥ ' (यो.वा.निर्वाण (4)198/11-12) समता को सुख-दुख, शीतोष्ण आदि द्वन्द्वों की शान्ति की परमसीमा, संशयरूपी * ज्वर की विनाशक तथा सकल दुःखरूपी आतप के लिए मेघरूप जाने। समतारूपी अमृत से ओतप्रोत व्यक्ति के लिए सभी शत्रु मित्र-रूप हो जाते हैं, ऐसा यथार्थदर्शी पुरुष त्रिलोकी में दुर्लभ है। रक्षणीय/अवध्य प्राणीः स्त्रियां, गौ, पक्षी आदि {262} अवध्यो ब्राह्मणो बालः स्त्री तपस्वी च रोगभाक्। (पं.त. 1/214) ब्राह्मण, बालक, स्त्री, तपस्वी और रोगी अवध्य होते हैं अर्थात् इन्हें मृत्यु-दण्ड नहीं दिया जाता है। {263} अवध्याः शत्रुयोषितः। (म.पु. 188/49) शत्रु की स्त्रियाँ भी अवध्य होती हैं। EPSEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE ) अहिंसा कोश/81] Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE ___{264} रक्षेद् दारांस्त्यजेदीर्ध्या तथाऽन्हि स्वप्नमैथुने। परोपतापकं कर्म जन्तु-पीड़ां च सर्वदा। ___ (ब्रह्म. 113/74) गृहस्थ का कर्त्तव्य है कि वह स्त्रियों की रक्षा करे, ईर्ष्या छोड़े, दिन में निद्रा आदि न करे। साथ ही प्राणियों को पीड़ित करने एवं दूसरों को संताप देने वाला कार्य भी कदापि न करे। {265} अवध्यां स्त्रियमित्याहुः धर्मज्ञा धर्मनिश्चये। ___ (म.भा. 1/157/31) धर्मज्ञ विद्वानों ने धर्म-निर्णय के प्रसंग में नारी को अवध्य बताया है। 與¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥明明垢垢听听听听听听听听听听听听听听¥垢圳听听听听听听听听听听听听听垢圳步 {2663 प्रहरन्ति न वै स्त्रीषु कृतागस्वपि जन्तवः। (भा.पु. 4/13/20) यदि स्त्रियों से कोई अपराध भी हो जाय, तो भी, और साधारण जीव भी, उन्हें नहीं 明明明明明听听听听听听听听听听听听听乐乐乐乐%%%织垢玩垢明明明明明明听听听听听听听听听垢乐垢举 मारते। {267} पक्षिणां जलचराणां जलजानाञ्च घातनम्। कृमकीटानाञ्च। मद्यानुगत-भोजनम्। इति मलावहानि। . (वि. स्मृ., मलिनीकरण-प्रशामन-वर्णन) पक्षियों, जलचरों और जल में उत्पन्न प्राणियों का घात करना, कृमि और कीड़ों को मारना एवं मद्य के साथ भोजन करना-ये मलावह पाप कहे जाते हैं। ___{268} स्त्रियो रक्ष्याः प्रयत्नेन, न हंतव्याः कदाचन। स्त्रीवधे कीर्तितं पापं मुनिभिर्धर्मतत्परैः॥ (दे. भा. 7/25/76) स्त्रियों को कभी नहीं मारना चाहिए, अपितु उनकी रक्षा करनी चाहिए। धर्मपरायण मनियों ने स्त्री-हत्या को पाप बताया है। 男男男男男男男男%%%%%%%%%%%%%%%%%% %% % % वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/82 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {269} अध्या इति गवां नाम क एता हन्तुमर्हति। महच्चकाराकुशलं वृषं गां वाऽऽलभेत् तु यः॥ (म.भा.12/262/47) श्रुति (वेद) में गौओं को अघ्न्या (अवध्य) कहा गया है, फिर कौन उन्हें मारने का विचार करेगा? जो पुरुष गाय और बैलों को मारता है, वह महान् पाप करता है। {270} गो-ब्राह्मणं न हिंस्यात्। (म.भा.13/127/107) गौ और ब्राह्मण का वध नहीं करे। {271 注州听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听明明听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 अवध्या ब्राह्मणा गावो ज्ञातयः शिशवः स्त्रियः। येषां चान्नानि भुञ्जीत ये च स्युः शरणागताः॥ (म.भा. 5/36/66) ब्राह्मण, गौ, कुटुम्बी, बालक, स्त्री, अन्नदाता और शरणागत- ये अवध्य होते हैं। %%%%¥¥¥¥¥¥%%%%巩巩巩巩听听听听听听听听听听听听听听听听坎坎听听听听听听听听听听F平 {272} आचार्यं च प्रवक्तारं पितरं मातरं गुरुम्। न हिंस्याद् ब्राह्मणान् गांश्च सर्वांश्चैव तपस्विनः॥ (म.स्मृ. 4/162) आचार्य, वेदादिका व्याख्यानकर्ता, पिता, माता, गुरु, ब्राह्मण, गौ और सब (प्रकार के) तपस्वी-इनकी गृहस्थ कभी हिंसा ( अर्थात् इनके प्रतिकूल आचरण) न करे। {273} अवध्याश्च स्त्रियः प्राहुः, तिर्यग्योनिगतेष्वपि॥ __ (ब्र.पु. 2/36/185; ब्रह्म 2/80; प.पु. 2/28/118 में आंशिक परिवर्तन के साथ) स्त्रियां, भले ही वे पशु-योनि में ही क्यों न हों, अवध्य मानी गई हैं। अहिंसा कोश/83] Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 国斯劳斯男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男 भूण-हत्याः निन्दनीय व वर्जनीय {274} भ्रूणहत्या अपात्र्या। (तै.ब्रा. 3/9/15/57) भ्रूण-हत्या व्यक्ति को / अपात्र अयोग्य बनाती है। {275} गर्भत्यागो भर्तृनिन्दा स्त्रीणां पतनकारणम्। (ग.पु. 1/105/47) ___ पति की निन्दा तथा गर्भ गिरवाना-ये (दोनों) कार्य स्त्रियों के अध:पतन के कारण होते हैं। 明明明明明坂野坂听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {276} भ्रूणहाऽऽहवमध्ये तु शुद्ध्यते शस्त्रपाततः। आत्मानं जुहुयादग्नौ समिद्धे तेन शुद्धयते॥ (म.भा.12/165/46-47) गर्भस्थ बालक की हत्या करने वाला (अपने पाप से) तभी शुद्ध होता है जब वह युद्ध में शस्त्र-आघात से मर जाय, या प्रज्वलित अग्नि में कूद कर, अपनी जान दे दे (अर्थात् युद्ध में या जलकर स्वयं मृत्यु या वध का वरण करना ही उसकी शुद्धि का उपाय है)। {277} सुरापोऽसम्मतादायी भ्रूणहा गुरुतल्पगः। तपसैव सुतप्तेन नरः पापात् प्रमुच्यते॥ (म.भा. 12/161/6) (1) शराब पीने वाले, (2) स्वामी की अनुमति के बिना उसकी वस्तु (चोर कर) ले लेने वाले, तथा (3) गुरु-पत्नी-गमन करने वाले व्यक्तियों की तरह भ्रूण-हत्या - करने वाले व्यक्ति को भी अपने (भ्रूण -वध) पाप से तभी मुक्ति मिल सकती है, जब वह # बहुत अच्छी तरह की गई विशेष तपस्या के द्वारा स्वयं को तपाये। %%听听听听听听听乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听形 %%%% %%% %%%% %%%%%%%%%%、 %%%%% विदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/84 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %%%%%% %%%%%%%%%%%%%%%%%%%%乐乐乐乐乐%%% {278} भ्रूणधाऽवेक्षितं चैव संस्पृष्टं चाप्युदक्यया। पतत्रिणाऽवलीढंच शुना संस्पृष्टमेव च॥ (म.स्मृ. 4/208) गर्भहत्या करने वाले से देखा हुआ या स्पर्श किया गया, पक्षी (कौवा आदि) से आस्वादित और कुत्ते से छूआ या अन्न-इन्हें कभी नहीं खावे। {279) अन्नादे भ्रूणहा मार्टि। (म.स्मृ.-8/317) भूण-हत्यारा अपना पाप उसे दे देता है जो उसका अन्न खाता है। (अर्थात् उसका अन्न खाने वाला भी पाप का भागी होता है।) {280) 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听乐乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 भ्रूणं च घातयेद्यस्तु शिशुं वा आतुरं गुरुम्। ब्रह्महा स्वयमेव स्यात्.....॥ (प.पु. 1/48/53) जो भ्रूण-हत्या करावे, या किसी बालक, रोगी या गुरु का वध करावे, वह स्वयं ब्रह्मघाती है। %%%巩巩巩巩巩巩巩听听听听听听听听听圳坂听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听巩巩巩乐乐乐平 {281} भ्रूणहा गुरुहन्ता च गोनश्च मुनिसत्तमाः। यान्ति ते रौरवं घोरम्॥ (ब्रह्म. 19/8) भ्रूण-घातक, गुरु-घातक और गो-घातक घोर रौरव नरक में जाते हैं। {282} भ्रूणहा निवसेच्चण्डे। (स्कं. पु. 1/(3)/5/12) भ्रूण-हत्या करने वाला 'चण्ड' नामक नरक में निवास करता है। %%%%%%%%%%%%% %%%%%%%%%% %%% %%%%%% % अहिंसा कोश/85]] Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 妮妮妮妮妮听听听听听听坂听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听巩巩巩巩巩巩巩 男男%%% %%% % % %% %%% %% %%%%%%%%%%% {283} गोहत्यां ब्रह्महत्यां च स्त्रीहत्यां च करोति यः। मित्रहत्यां भ्रूणहत्यां महापापी च भारते॥ कुम्भीपाकं स च वसेद्यावदिन्द्राश्चतुर्दश। ताडितो यमदूतेन घूर्ण्यमानश्च संततम्॥ क्षणं पतति वह्नौ च क्षणं पतति कण्टके। क्षणं च तप्ततैलेषु तप्ततोयेषु च क्षणम्॥ क्षणं च तप्तपाषाणे तप्तलोहे क्षणं ततः। गध्रः कोटिसहस्त्राणि शतजन्मानि सूकरः॥ काकश्च सप्तजन्मानि सर्पः स्यात्सप्तजन्मसु। षष्टिवर्षसहस्राणि ततो वै विट्कृमिर्भवेत्॥ ततो भवेत्स वृषलो गलत्कुष्ठी दरिद्रकः। यक्ष्मग्रस्तो वंशहीनो भार्याहीनस्ततः शुचिः॥ (ब्र.वै.पु. 2/30/144-149) गोहत्या, ब्रह्महत्या, स्त्रीहत्या, मित्रहत्या, भ्रूणहत्या करने वाला महापापी कुम्भीपाक फ नरक में चौदहों इन्द्रों के समय तक रहता है, वहाँ धर्मराज के दूतगण उसे मारते हुए निरन्तर क घुमाया करते हैं। वह वहाँ क्षण में अग्नि में गिरता है, क्षण में काँटों के कुण्डों में गिरता है, क्षण में खौलते हुए तेल में, क्षण में संतप्त जल में, क्षण में तप्त पत्थर पर और क्षण में तप्त लोहे पर गिरता है। अनन्तर करोड़ों जन्म तक गीध, सौ जन्म तक सूकर, सात जन्म तक ॐ कौवा और सात जन्म तक सर्प होकर साठ सहस्र वर्ष तक विष्ठा का कीड़ा होता है। उसके के उपरान्त शूद्र, गलत्कुष्ठ का रोगी, दरिद्र, यक्ष्मा-पीड़ित, वंशहीन, और स्त्रीहीन मनुष्य होता म है, तब जाकर उसकी शुद्धि होती है। 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听。 {284} शस्त्रावपाते गर्भस्य पातने चोत्तमो दमः। उत्तमो वाऽधमो वापि पुरुषस्त्रीप्रमापणे॥ ___ (या. स्मृ., 2/23/277) किसी के शरीर पर मारने के उद्देश्य से शस्त्र चलाने पर, तथा (दासी या ब्राह्मणी , फ को छोड़ कर अन्य का) गर्भपात कराने पर, उत्तम साहस का दण्ड होता है। पुरुष और स्त्री # को मारने पर (उसके शील और वृत्त के अनुसार) उत्तम (एक हजार पण) या अधम 卐 साहस (ढाई सौ पण) का दण्ड होता है। 明明明明明明明明明明明明明明男男%%%%%%%%%% %%、 विदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/86 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {285} हत्या गर्भमविज्ञातमेतदेव व्रतं चरेत्। राजन्यवैश्यौ चेजानावात्रेयीमेव च स्त्रियम्॥ (म.स्मृ. 11/87; अ.पु. 169/18 में पूर्वार्द्ध समान) अज्ञात (स्त्री, पुरुष या नपुंसक का ज्ञान हुए बिना) गर्भ की हत्या, यज्ञ करते हुए क्षत्रिय या वैश्य की हत्या और आत्रेयी (गर्भिणी या संस्कार-सम्पन्न या रजस्वला ब्राह्मणी) की है # हत्या करके (ब्रह्महत्या का) प्रायश्चित्त करना आवश्यक है (अर्थात् अज्ञात गर्भ-लिंग-परीक्षण : कराये बिना जो गर्भ है-उसकी भी हत्या करने/करवाने वाले को ब्रह्म-हत्या के समान महापातक # लगता है और उसे वही प्रायश्चित्त करना चाहिए जो ब्रह्म-हत्या करने पर किया जाता है)। 注垢玩垢FF圳垢听听听听听听听听听听听听听圳绵绵$$$$$$$听听听听听听听听听听听听听%%%%垢 ___{286} भिक्षुहत्यां महापापी भ्रूणहत्यां च भारते। कुम्भीपाके वसेत्सोऽपि यावदिन्द्राश्चतुर्दश॥ ___ (दे. भा. 9/34/24) जो भारत में भ्रूण-हत्या और भिक्षु-हत्या करता है, वह महापापी कुम्भीपाक नरक * में तब तक निवास करता है, जब तक 14 इन्द्र शासन करते हैं (अर्थात् जितने काल तक 14 अ * इन्द्रों का शासन समाप्त हो, उतने दीर्घ काल तक उसे नरक दुःख भोगना पड़ता है)। [टिप्पणीः भ्रूणघाती को नरक गमन का प्रतिपादन ब्र.पु. 4/2/153-154 में भी किया गया है।] 第明垢巩巩巩巩巩乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听圳乐乐 {287} वृषक्षुद्रपशूनां च पुंस्त्वस्य प्रतिघातकृत्। साधारणस्यापलापी दासीगर्भविनाशकृत्॥ पितृपुत्रस्वसृभ्रातृदम्पत्याचार्यशिष्यकाः । एषामपतितान्योन्यत्यागी च शतदण्डभाक्॥ (या. स्मृ., 2/20/236-37) (1) बैल, एवं बकरे आदि छोटे पशुओं को बांझ बनाने वाला, (2) साधारण वस्तु के विषय में भी वञ्चना/ठगी करने वाला, (3) दासी के गर्भ को गिराने वाला, (4) पिता पुत्र, भाई-बहिन, पति-पत्नी, आचार्य-शिष्य-इनमें से एक दूसरे को-जो पतित नहीं हुआ 卐 है-त्यागने वाला (पत्नी को तलाक देने वाला पति, पति को तलाक देने वाली पत्नी आदि)ॐ ये सभी सौ पण (आर्थिक) दण्ड के भागी होते हैं। %%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%% % अहिंसा कोश/87] Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {288} भ्रूणघ्नस्य न निष्कृतिः। (ना. पु. 1/7/53) भ्रूण-घातक का (अपने पाप से) कभी उद्धार नहीं हो पाता। ___{289} शस्त्रावपाते गर्भस्य पातने चोत्तमो दमः। (अ.पु. 258/64) शस्त्र से प्रहार करने अथवा गर्भपात करने पर भी उत्तम साहस (1000 पणों का ) का दण्ड दिया जाता है। 埃妮妮頻頻頻頻頻頻听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听圳乐乐垢玩垢玩垢听听听 {290 नीचाभिगमनं गर्भपातनं भर्तृहिंसनम्। विशेषपतनीयानि स्त्रीणामेतान्यपि ध्रुवम्॥ (या. स्मृ., 3/6/297) नीच वर्ग के पास जाना, गर्भ गिराना, पति की हत्या-ये स्त्रियों को विशेष रूप से पतित करने वाले कर्म हैं। [ऐसी स्त्री का परित्याग करना शास्त्र में बताया गया है। वह स्त्री तिरस्कृत/परित्यक्त रूप से किसी पास के दूसरे घर में रहते हुए, मात्र रोटी-पानी की हकदार होती है। (द्र.या.स्मृ. 3/6/296)] {291} गर्भपातनजा रोगा यकृत्प्लीहजलोदराः। (शा. स्मृ., 104; प.पु. 5/48/47) गर्भ का पतन कराने के पाप से यकृत् व प्लीहा के और जलोदर रोग होते हैं। रक्षणीयः प्रधान व श्रेष्ठ व्यक्ति {292} संरक्षेद् बहुनायकम्। (शु.नी. 3/163) जो बहुतों का नेता (या स्वामी) हो, उसकी रक्षा करनी चाहिए (ताकि उसके रक्षित # होने पर बहुतों का भरण-पोषण हो सके)। वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/88 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE ¥听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {293} यस्मिन्कुले यः पुरुषः प्रधानः, स सर्वयत्नैः परिरक्षणीयः। तस्मिन्विनष्टे कुलसारभूते न नाभिषङ्गे डरयो वहन्ति॥ (पं.त. 1/314) कुल के प्रधान व्यक्ति की प्रत्येक उपाय से रक्षा करनी ही चाहिए। क्योंकि कुल के सार स्वरूप उस व्यक्ति के नष्ट हो जाने से शत्रु लोग उस कुल को पराजित कर देते हैं। 12947 नैकमिच्छेद् गणं हित्वा, स्याच्चेदन्यतरग्रहः। यस्त्वेको बहुभिः श्रेयान् कामं तेन गणं त्यजेत्॥ (म.भा. 12/83/12) एक ओर एक व्यक्ति (की सुरक्षा या हित-सिद्धि का प्रश्न) हो ओर दूसरी ओर एक समूह (की) सुरक्षा या हित-सिद्धि का प्रश्न हो तो समूह को छोड़कर एक व्यक्ति-विशेष ॐ को ग्रहण करना (अर्थात् उसकी रक्षा को महत्व देना) उचित नहीं है। परन्तु कभी एक व्यक्ति विशेष बहुत मनुष्यों की अपेक्षा गुणों में श्रेष्ठ हो, और दोनों में से यदि किसी एक को ग्रहण करने का (उसकी रक्षा का) प्रश्र हो तो ऐसी परिस्थिति में एक (व्यक्ति-विशेष) के लिए समूह को त्याग देना चाहिए। मानव-मात्र की रक्षा का भाव {295} पुमान् पुमासं परिपातु विश्वतः। (ऋ. 6/75/14) मनुष्य, मनुष्य की सब प्रकार से रक्षा करे। {296} विश्वे ये मानुषा युगा पान्ति मर्यं रिषः। (ऋ.5/52/4) सभी श्रेष्ठ जन सदैव दुष्टों से मनुष्यों की रक्षा करते हैं। %%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%、 अहिंसा कोश/89] Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XXXXXEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE अहिंसा के व्यावहारिक रूपः क्षमा, अभयदान, प्राणदान 與玩乐我乐乐架纸折纸玩乐玩玩乐乐玩玩乐乐乐听听听听听听听听听乐听听听听听听听听听听听听乐乐 {297) प्राणदानात् परं दानं न भूतं न भविष्यति। न ह्यात्मनः प्रियतरं किंचिदस्तीह निश्चितम्॥ अनिष्टं सर्वभूतानां मरणं नाम भारत। ___(म.भा.13/116/16-17) प्राणदान से बढ़कर दूसरा कोई दान न हुआ है और न होगा। अपने आत्मा से बढ़ कर प्रियतर वस्तु दूसरी कोई नहीं है। यह निश्चित बात है। किसी भी प्राणी को मृत्यु अभीष्ट नहीं है। {298} सर्वभूतेषु यः सम्यग् ददात्यभयदक्षिणाम्। हिंसादोषविमुक्तात्मा स वै धर्मेण युज्यते॥ (म.भा. 13/142/27) जो सम्पूर्ण प्राणियों को अभयदान कर देता है और (फलस्वरूप सभी) हिंसासम्बन्धी दोषों से विमुक्त हो जाता है, उसी को धर्म का फल प्राप्त होता है। %垢玩垢听听听听听听听听垢听听听听听听听听听听听听听垢听听听听听听听巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩明 {299) सर्वभूतेषु यो विद्वान् ददात्यभयदक्षिणाम्। दाता भवति लोके स प्राणानां नात्र संशयः॥ (म.भा. 13/115/18) जो विद्वान् सब जीवों को अभयदान कर देता है, वह इस संसार में नि:संदेह प्राणदाता माना जाता है। {300} सर्वथा क्षमिणा भाव्यं तथा सत्यपरेण च। वीतहर्षभयक्रोधो धृतिमाप्नोति पण्डितः॥ (म.भा.12/162/20) मनुष्य को सदा क्षमाशील होना तथा सत्य में तत्पर रहना चाहिये। जिसने हर्ष, भय * और क्रोध तीनों को त्याग दिया है, उस विद्वान् पुरुष को ही 'धैर्य' की प्राप्ति होती है। %%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%男 %% %% % %%%%%% वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/90 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M玩玩乐乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听玩玩玩 (301) अवज्ञातः सुखं शेते इह चामुत्र चाभयम्। विमुक्तः सर्वदोषेभ्यो योऽवमन्ता स बध्यते॥ (म.भा.12/229/22) सम्पूर्ण दोषों से मुक्त महात्मा पुरुष तो अपमानित होने पर भी इस लोक और + परलोक में निर्भय होकर सुखपूर्वक से सोता है, परंतु उसका अपमान करने वाला पुरुष तो पाप-बन्धन में बन्धता ही है। {302} सर्वतश्च प्रशान्ता ये सर्वभूतहिते रताः। न क्रुद्ध्यन्ति न हृष्यन्ति नापराध्यन्ति कर्हिचित्॥ (म.भा.12/229/15) मनीषी पुरुष सर्वथा शान्त और सम्पूर्ण प्राणियों के हित में संलग्न रहते हैं, न कभी क्रोध करते हैं, न हर्षित होते हैं और न किसी का अपराध ही करते हैं। “听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 2021 {303} अभयं सर्वभूतेभ्यो यो ददाति दयापरः। अभयं तस्य भूतानि ददतीत्यनुशुश्रुम॥ क्षतं च स्खलितं चैव पतितं कृष्टमाहतम्। सर्वभूतानि रक्षन्ति समेषु विषमेषु च॥ नैनं व्यालमृगा नन्ति न पिशाचा न राक्षसाः। मुच्यते भयकालेषु मोक्षयेद् यो भये परान्॥ (म.भा.13/116/13-15) जो दयापरायण पुरुष सम्पूर्ण भूतों को अभयदान देता है, उसे भी सब प्राणी अभयदान देते हैं। ऐसा हमने सुन रखा है। वह घायल हो, लड़खड़ाता हो, गिर पड़ा हो, म पानी के बहाव में खिंचकर बहा जाता हो, आहत हो अथवा किसी भी सम-विषम अवस्था ॐ में पड़ा हो, सब प्राणी उसकी रक्षा करते हैं। जो दूसरों को भय से छुड़ाता है, उसे न हिंसक पशु मारते हैं और न पिशाच व राक्षस ही उस पर प्रहार करते हैं। वह भय का अवसर आने ॐ पर उससे मुक्त हो जाता है। 听听听听听听听听听巩听听坎坎听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听舉 明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明男男男男男男男 अहिंसा कोश/91] Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE ng {304} अक्रोधेन जयेत् क्रोधम्। (म.भा.5/39/72, विदुरनीति 7/72) अक्रोध (क्षमा, शान्ति) से क्रोध को जीते। {305} हन्ति नित्यं क्षमा क्रोधम्॥ (म.भा.5/39/42, विदुरनीति 7/42) क्षमा सदा ही क्रोध का नाश करती है। 乐纸版纸坎坎坎坎玩玩玩乐乐玩玩乐乐乐坎坎坎玩玩乐乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {306} षडेव तु गुणाः पुंसा न हातव्याः कदाचन। सत्यं दानमनालस्यमनसूया क्षमा धृतिः॥ (म.भा. 5/33/81) मनुष्य को कभी भी सत्य, दान, कर्मण्यता, अनसूया (गुणों में दोष दिखाने की प्रवृत्ति का अभाव), क्षमा तथा धैर्य-इन छ: गुणों का त्याग नहीं करना चाहिये। 听听听听听听听巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 अहिंसात्मक अभयदान के प्रेरक वचन {307} अभयमिव ह्यन्विच्छ। (गो.ब्रा.2/6/4) तू अभय की खोज कर। {308 न तत् क्रतुसहस्त्रेण नोपवासैश्च नित्यशः। अभयस्य च दानेन यत् फलं प्राप्नुयानरः॥ (म.भा. 11/7/26) अभयदान से मनुष्य जिस फल को पाता है, वह उसे सहस्रों यज्ञ और नित्यप्रति उपवास करने से भी नहीं मिल सकता है। % %%% % % %%%%%%%%%%%%%%%、 %%%%%%% % विदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/92 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है {309) बाधतां द्वेषो ,अभयं कृणोतु। (ऋ.10/131/6) द्वेष से दूर रहिए, सब को अभय बनाइए। {310} सर्वे वेदाश्च यज्ञाश्च तपो दानानि चानघ। जीवाभयप्रदानस्य न कुर्वीरन्कलामपि॥ (भा.पु. 3/7/41) जीवों को अभयदान देने का जो पुण्य होता है, सब वेद, यज्ञ, तप तथा दान आदि उसके षोडशांश की भी बराबरी नहीं कर सकते। 听听听听听听听听听听听听听听听听听乐%%%听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 13111 सन्ति दानान्यनेकानि किं तैस्तुच्छफलप्रदैः। अभीतिसदृशं दानं परमेकमपीह न॥ (शि.पु. 2/5/5/21) स्वल्प फल प्रदान करने वाले दान अनेक प्रकार के हैं- परन्तु अभयदान करना जैसा # कोई दान नहीं है- इस लोक में। 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听垢%%%%%%%%%¥¥¥听听听听听乐平 {312} भीतेभ्यश्चाभयं देयं व्याधितेभ्यस्तथौषधम्। देया विद्यार्थिनां विद्या देयमन्नं क्षुधातरे॥ __ (शि.पु. 2/5/5/23) भयभीत को अभयदान देना चाहिए, व्याधिग्रस्त को ओषधि-दान करना चाहिए। विद्यार्थी को विद्या दी जानी चाहिए और भूखे को अन्न दिया जाना चाहिए। {313 भूताभयप्रदानेन सर्वकामानवाप्नुयात्। दीर्घमायुश्च लभते सुखी चैव तथा भवेत्।। (सं. स्मृ., 53) प्राणियों को अभय दान देने से व्यक्ति समस्त कामनाओं की पूर्ति करता है, तथा ' दीर्घ आय पाता है और सखी होता है। %%%%%%%%%%%%%%男男男男明明明明明明明明明明明明明明明明男、 अहिंसा कोश/93]] Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 求求求求求與張巩巩巩巩巩巩巩巩巩听听听听听听听玩玩玩玩乐乐玩玩乐乐 {314} तपोभिर्यज्ञदानैश्च वाक्यैः प्रज्ञाश्रितैस्तथा। प्राप्नोत्यभयदानस्य यद् यत् फलमिहाश्रुते॥ (म.भा. 12/262/28) तप, यज्ञ, दान और ज्ञान संबंधी उपदेश के द्वारा मनुष्य यहां जो-जो फल प्राप्त करता है, वह सब उसे केवल 'अभय दान' से मिल जाता है। {315} लोके यः सर्वभूतेभ्यो ददात्यभयदक्षिणाम्। स सर्वयज्ञैरीजानः प्राप्नोत्यभयदक्षिणाम्॥ (म.भा. 12/262/29) जो जगत् में सम्पूर्ण प्राणियों को अभय की दक्षिणा देता है, वह मानों समस्त ॐ यज्ञों का अनुष्ठान कर लेता है तथा उसे भी सब ओर से अभय-दान प्राप्त हो जाता है। PHEEEEEEEEEEEEE卐卐EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEM {316} दानं भूताभयस्याहुः सर्वदानेभ्य उत्तमम्। __(म.भा. 12/262/33) प्राणियों को अभय-दान देना सब दानों में उत्तम कहा गया है। 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 अहिंसाः प्रशस्त मनोभावों की स्त्रोत (दया, करुणा, परदुःखकातरता, मैत्री आदि भाव) {317} दृते दूंह मा, मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्,मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे। (य.36/18) __ हे देव! मुझे शुभ कर्म में दृढ़ता प्रदान करो। सभी प्राणी मुझे मित्र की दृष्टि से देखें। + मैं भी सब प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखू । हम सब एक दूसरे को परस्पर मित्र की दृष्टि # से देखें। 玩玩玩玩乐乐玩玩玩乐乐垢玩垢听听听听听听听听听听听听听听玩玩玩玩乐 वैदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/94 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明男男男男男男男 {318} ये स्थवीयांसोऽपरिभिन्नास्ते मैत्रा, न वै मित्रः कंचन हिनस्ति, न मित्रं कश्चन हिनस्ति। (श.प.5/3/2/7) जो महान् और अभिन्न होते हैं, वे ही मित्र होते हैं। जो मित्र होता है, वह किसी की हिंसा नहीं करता है तथा मित्र की भी कोई हिंसा नहीं करता है। {319} भयात्पापात्तपाच्छोकादारिद्र्यव्याधिकर्शितान्॥ विमुंचन्ति च ये जन्तूंस्ते नराः स्वर्गगामिनः॥ (प.पु. 2/96/29) भय, पाप-कर्म, संताप, शोक, दरिद्रता व व्याधि आदि से ग्रस्त प्राणियों को जो व्यक्ति (संकट से) मुक्ति दिलाते हैं, वे स्वर्ग में जाते हैं। 听听听听听听听听听听听听听听听听听乐明明听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听乐乐 {320} योऽध्रुवेणात्मना नाथा न धर्मं न यशः पुमान्। ईहेत भूतदयया स शोच्यः स्थावरैरपि॥ एतावानव्ययो धर्मः पुण्यश्रोकैरुपासितः। यो भूतशोकहर्षाभ्यामात्मा शोचति हृष्यति॥ (भा.पु. 6/10/8-9) जो प्राणी अपने अनित्य शरीर से सब जीवों पर दया करते हुए धर्म तथा यश के म उपार्जन का उद्योग नहीं करता, वह वृक्षादिकों की दृष्टि में भी शोचनीय होता है। दूसरों के दुःख में दुःखी होना तथा उसके सुख में सुखी होना ही पुण्यकीर्तिशाली पुरुषों द्वारा सेवित के एक अविनाशी धर्म है। 5555555555555555555555555555555555555 {321} भद्रं नो अपि वातय, मनो दक्षमुत क्रतुम्। (ऋ. 10/25/1) हमारे मन को शुभसंकल्प वाला बनाओ, हमारे अन्तरात्मा को शुभ कर्म करनेवाला म बनाओ, और हमारी बुद्धि को शुभ विचार करने वाली बनाओ। %%%%乐乐乐乐乐乐玩玩乐乐乐玩玩乐乐玩玩乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐买 अहिंसा कोश/95] Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 廣告 'शिव' बन ! 出 {322} त्वं हरसा तपञ्जातवेदः शिवो भव । (य.12/16) हे विज्ञ पुरुष! अपनी ज्योति से प्रदीप्त होता हुआ तू सब का कल्याण करने वाला {323} सखेव सख्ये पितरेव साधुः । (ऋ. 3/18/1 ) जैसे, हितोपदेश आदि के माध्यम से मित्र-मित्र के प्रति, और माता-पिता अपने पुत्र के प्रति हितैषी होते हैं, वैसे ही तुम सब हितैषी बनो । {324} भद्रं मनः कृणुष्व । अपने मन को भद्र (कल्याणकारी, उदार) बनाओ। {325} पापेऽप्यपापः परुषे ह्यभिधत्ते प्रियाणि यः । मैत्रीद्रवान्तःकरणस्तस्य मुक्तिः करे स्थिता ॥ (ऋ.8/19/20) (fa.g. 3/12/41) जो पुरुष कभी पापी के प्रति पापमय व्यवहार नहीं करता, कुटिल पुरुषों से भी प्रिय भाषण करता है तथा जिसका अन्तःकरण मैत्री से द्रवीभूत रहता है, मुक्ति उसकी मुट्ठी में रहती है। {326} अभयं मित्राद् अभयममित्राद्, अभयं ज्ञाताद् अभयं पुरो यः । अभयं नक्तमभयं दिवा नः सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु ॥ " (37.19/15/6) हमें शत्रु एवं मित्र किसी से भी भय न हो। न परिचितों से भय हो, न अपरिचितों से । न हमें रात्रि में भय हो, और न दिन में । किंबहुना, सब दिशाएँ मेरी मित्र हों, मित्र के समान सदैव हितकारिणी हों । [वैदिक / ब्राह्मण संस्कृति खण्ड / 96 ! 1 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男%%%%%%%%%; {327} शर्म यच्छत द्विपदे चतुष्पदे। (ऋ.10/37/11) मनुष्य और पशु-सब को सुख अर्पण करो। {328} यत्ते क्रूरं यदास्थितं तत्त आ प्यायताम्। (य.6/15) जो भी तेरा क्रूर कर्म या क्रूरता आदि का अशांतिपूर्ण विचार है, वह सब शांत हो जाए। {329} प्रियं मा कृणु देवेषु प्रियं राजसु मा कृणु। प्रियं सर्वस्य पश्यत उत शूद्र उतार्ये॥ (अ.19/62/1) __ हे देव! मुझ को देवों में प्रिय बनाइए और राजाओं में प्रिय बनाइए। मुझे जो भी * ॐ देखें, मैं इन का प्रिय रहूँ, शूद्रों और आर्यो में भी मैं प्रिय रहूँ। {330} स्वस्तिदा मनसा मादयस्व, (ऋ..10/116/2) विश्व के प्राणियों को स्वस्ति (मंगल-कामना) दो, आनन्द दो,और अन्तरमन से सदा प्रसन्न रहो। 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听凯听听听听非 {331} अनभिध्या परस्वेषु सर्वसत्त्वेषु सौहृदम्। कर्मणां फलमस्तीति त्रिविधं मनसा चरेत्॥ (म.भा. 13/13/5) दूसरे के धन को लेने का उपाय न सोचना, समस्त प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव रखना भ और 'कर्मों का फल अवश्य मिलता है' इस बात पर विश्वास रखना-ये मन से आचरण म करने योग्य तीन कार्य हैं। इन्हें सदा करना चाहिये। (इनके विपरीत, दूसरे के धन का लालच है म करना, समस्त प्राणियों से वैर रखना और कर्मों के फल पर विश्वास न करना-ये तीन # मानसिक पाप हैं-इनसे सदा बचे रहना चाहिये)। %% %%%%% %%% %%%%% %%% %%%% %%% % अहिंसा कोश/97] Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %%¥¥乐乐乐明明明明明明明听听听乐乐乐乐乐乐乐玩玩乐乐乐乐玩玩乐乐过 {332} अवैरा ये त्वनायासा मैत्रचित्तरताः सदा। सर्वभूतदयावन्तस्ते नराः स्वर्गगामिनः॥ ___ (ब्रह्म.पु. 116/35) जो किसी से वैर नहीं करते, सहज जीवन जीते हुए मैत्री-भाव में अनुरक्त रहते हैं, तथा जो सभी प्राणियों के प्रति दया-भाव रखते हैं, वे लोग स्वर्ग जाते हैं। {3333 सत्यं दानं दयाऽलोभो विद्येज्या पूजनं दमः। अष्टौ तानि पवित्राणि शिष्टाचारस्य लक्षणम्॥ (ग.पु. 1/205/5) शिष्टाचार के अन्तर्गत निम्नलिखित आठ पवित्र कार्य आते हैं- (1) सत्य, (2) दान, (3) दया, (4) निर्लोभता, (5) विद्या, (6) यज्ञ, (7) पूजा, और (8) दम (इन्द्रिय-निग्रह)। 明明垢與垢垢玩垢垢玩垢明明明明明明明明听听听听听听听听听听听听听明明明明明明明明明明明明 {334} भद्रं कर्णेभिः श्रृणुयाम देवाः, भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः। स्थिरैरंगैस्तुष्टुवांसस्तनूभिः, व्यशेम देवहितं यदायुः॥ (ऋ .1/89/8) जीवन की सुख-शान्ति के लिए हम संकल्प करें कि हम देवजन कानों से शुभ वार्ता ही सुनें, श्रेष्ठ बातों में ही रस लें; आंखों से श्रेष्ठ दृश्य देखना ही हमें रुचिकर हो और प्रभु-कृपा से प्राप्त स्वस्थ-सबल शरीर द्वारा दीर्घायु होकर कल्याण-मार्ग पर चलते रहें। {335} न कामयेऽहं गतिमीश्वरात्परामष्टर्द्धियुक्तामपुनर्भवं वा। आर्तिं प्रपद्येऽखिलदेहभाजामन्तःस्थितो येन भवन्त्यदुःखाः॥ (भा.पु. 9/21/12) (राजा रन्तिदेव की अभिलाषा-) मैं भगवान से अष्टैश्वर्ययुक्त परम गति नहीं चाहता और मुझे मोक्ष की भी चाह नहीं है। मैं तो सभी देहधारियों के हृदय में बैठ कर उनका दुःख ॐ स्वयं सहना चाहता हूं, जिससे उनका दुःख दूर हो जाय। %%%%%%%%% %% %%%% %%%%%%、 %%% %% [वैदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/98 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {3363 यो ज्ञातिमनुगृह्णाति दरिद्रं दीनमातुरम्। स पुत्रपशुभिवृद्धिं श्रेयश्चानन्त्यमश्नुते॥ (म.भा. 5/39/17-18) - जो अपने कुटुम्बी, दरिद्र, दीन तथा रोगी पर अनुग्रह करता है, वह पुत्र और पशुओं से वृद्धि को प्राप्त होता और अनन्त कल्याण का अनुभव करता है। {337} पर- द्रव्येष्वभिध्यानं मनसा दुष्टचिन्तनम्। वितथाभिनिवेशश्च त्रिविधं कर्म मानसम्॥ ' (वि. ध. पु. 3/253/5) दूसरे के धन को हड़पने का विचार करना, मन से दूसरे के बारे में अमंगल सोचना, तथा असत्य बात पर भी अपना दुराग्रह रखना- ये तीनों मानसिक पाप कर्म हैं (जो त्याज्य हैं)। {338} न स्वर्गे ब्रह्मलोके वा तत् सुखं प्राप्यते नरैः। यदार्तजन्तुनिर्वाण-दानोत्थमिति मे मतिः॥ __(मा.पु. 15/56) (स्वर्गगामी राजा 'विपश्चित्' की उक्ति-) मेरी तो अपनी धारणा यह है कि जो सुख मानव को आर्त प्राणियों की पीड़ा के प्रशमन में मिलता है, वह न तो स्वर्गलोक में मिल सकता है और न ब्रह्मलोक में ही। 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {339} यस्तु प्रीतिपुरोगेन चक्षुषा तात पश्यति। दीपोपमानि भूतानि यावदर्थान्न पश्यति॥ (म.भा.12/297/35) जो समस्त प्राणियों को दीपक के समान स्नेह से संवर्धन करने योग्य मानता है और उन्हें स्नेह भरी दृष्टि से देखता है एवं जो समस्त विषयों की ओर कभी दृष्टिपात नहीं करता, वह परलोक में सम्मानित होता है। 乐乐乐玩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩听听听听听听玩乐乐玩玩玩乐乐玩玩乐乐乐张 अहिंसा कोश/99] Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEng {3403 अतीवगुणसम्पन्नो न जातु विनयान्वितः। सुसूक्ष्ममपि भूतानामुपमर्दमुपेक्षते॥ (म.भा. 5/39/10) जो अधिक गुणों से सम्पन्न और विनयी है, वह प्राणियों का तनिक भी संहार होते ॐ देख उसकी कभी उपेक्षा नहीं कर सकता। 與妮妮妮妮妮妮妮坎坎坎贝听听听听听听听贝听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听, {341} दुःखितानां हि भूतानां दुःखोद्धर्ता नरो हि यः। स एव सुकृती लोके ज्ञेयो नारायणांशजः॥ कपोतार्थं स्वमांसानि, कारुण्येन पुरा शिविः। दत्त्वा दयानिधिः स्वर्गे राजते कीर्तिवारिधिः॥ दधीचिरपि राजर्षिः, दत्वाऽस्थिचयमात्मनः। त्रैलोक्यकौमुदीं कीर्तिं लब्धवान् स्वर्गमक्षयम्॥ सहस्रजिच्च राजर्षिः प्राणानिष्टान् महायशाः। ब्राह्मणार्थे परित्यज्य गतो लोकाननुत्तमान्॥ न स्वर्गे नापवर्गेऽपि तत्सुखं लभते नरः। यदार्तजन्तुनिर्वाणदानोत्थमिति नो मतिः॥ (प.पु. 5/102/17,20-23) जो लोक में दुःख-पीड़ित प्राणियों के दुःख को दूर करता है, वह पुण्यवान है और नारायण के (ईश्वरीय) अंश से उत्पन्न है। प्राचीन काल में, राजा शिवि ने एक कबूतर की जान बचाने के लिए करुणा से अपने मांस को भी दे दिया था, वह दयासागर राजा इस दान से स्वर्ग में विराजित हुआ और कीर्ति भी प्राप्त की। इसी तरह, राजर्षि दधीचि ने (देवताओं * को उनके अस्त्र-निर्माण में सहायता करने के लिए) अपनी हड्डियों तक को भी दान कर दिया था, वे भी अक्षय स्वर्ग में गये और उन्होंने त्रिलोक-व्यापिनी कीर्ति प्राप्त की। इसी 5 तरह, राजर्षि सहस्रजित् ने ब्राह्मण के लिए अपने प्राण दिए, वे भी श्रेष्ठतम लोक में गए। ॥ * वस्तुतः दुःखी-पीड़ित प्राणियों के दुःख को शान्त करने से जो सुख मिलता है, वह सुख न फू तो स्वर्ग में और न मुक्ति में ही मिलता है। वैदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/100 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男 {342} स्वस्तिर्मानुषेभ्यः। (तैत्ति.आ.1/9) (अहिंसक की प्रशस्त भावना)- मानव-जाति का कल्याण हो। {343} कोमलं हृदयं नूनं साधूनां नवनीतवत्। वह्निसंतापसंतप्तं तद्यथा द्रवति स्फुटम्॥ (प.पु. 5/101/31-32) साधु/सज्जन व्यक्तियों का हृदय नवनीत के समान कोमल होता है जो दूसरों के संताप/दुःख रूपी आग के कारण द्रवित हो जाता है। अहिंसा की अभिव्यक्ति: परोपकार/अनुग्रह/ पर-कल्याण 巩巩巩巩巩听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 ___{344} परोपकारेऽविरतं स्वभावेन प्रवर्तते। यः स साधुरिति प्रोक्तः प्रमाणं त्वस्य चेष्टितम्॥ (यो.वा.निर्वाण (4)197/10) जो निरन्तर परोपकार में सहज भाव से प्रवृत्त रहता है, वह साधु/सज्जन कहा गया त है। उसकी चेष्टा सब लोगों के लिए प्रमाण होती है अर्थात् सब लोगों की स्वभावतः + सन्मार्ग-प्रवृत्ति में साधुओं/सज्जनों का सदाचार-दर्शन ही कारण है। 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {345} शश्वत्परार्थसर्वेहः परार्थैकान्तसम्भवः । साधुः शिक्षेत भूभृद्भ्यो नगशिष्यः परात्मताम्॥ (भा.पु. 11/7/37-38) __ (अवधूत का राजा यदु से कथन-) साधु/सज्जन का कर्तव्य है कि जिनकी सारी ॥ चेष्टाएं सर्वदा दूसरों के लिये रहती हैं और जिनकी उत्पत्ति केवल परोपकार के लिये होती है, उन पर्वत तथा वृक्षों से परोपकार करना सीखे। %%%% %%%%%%%%%%% %% %%%% % %%%%%%% % % अहिंसा कोश/101] Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( % %% %%% % % % %%%% %%%%%% %%%%%%%%% % {346} परेषामुपकारं च ये कुर्वन्ति स्वशक्तितः। धन्यास्ते चैव विज्ञेयाः, पवित्रा लोकपालकाः॥ (स्कं.पु. माहे./केदार/12/49) जो व्यक्ति शक्तिभर दूसरों का उपकार करते हैं- वे ही लोक का पालन करने वाले कृतकृत्य पुरुष हैं। {347} परोपकरणं येषां, जागर्ति हृदये सताम्। नश्यन्ति विपदस्तेषां, संपदः स्युः पदे पदे॥ (चाणक्य-नीति 17/120) जिन सज्जनों के हृदयों में परोपकार का भाव सदा जागरूक रहता है, उनकी सभी विपदाएं नष्ट हो जाती हैं और उन्हें पग-पग पर संपत्ति प्राप्त होती है। 用頻頻頻頻頻折坎坎坎坎坎坎坎坎坎圳乐乐乐乐听听听听听听听听听乐乐乐巩巩巩巩巩巩巩听听听听听听听听 {348} हितं यत् सर्वभूतानामात्मनश्च सुखावहम्। तत् कुर्यादीश्वरे ह्येतन्मूलं सर्वार्थसिद्धये॥ (म.भा.5/37/40, विदुरनीति 5/40) जो सम्पूर्ण प्राणियों के लिये हितकर और अपने लिये भी सुखद हो, उसे ईश्वरार्पणबुद्धि से निष्काम रूप से करे; सम्पूर्ण सिद्धियों का यही मूलमन्त्र है। {349} कर्मणा मनसा वाचा यदभीक्ष्णं निषेवते। तदेवापहरत्येनं तस्मात् कल्याणमाचरेत्॥ (म.भा. 5/39/55, विदुरनीति 7/55) मनुष्य मन, वाणी और कर्म से जिसका निरन्तर सेवन करता है, वह कार्य उस पुरुष को अपनी ओर खींच लेता है (अर्थात् उसे करने के लिए प्रेरित करता रहता है)। इसलिये सदा कल्याणकारी कार्यों को ही करे। 9%垢玩垢听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听垢巩巩听听听听听听听 {350} प्रोक्तं पुण्यतमं सत्यं परोपकरणं तथा॥ (शु.नी. 2/206) सत्य और परोपकार को सब पुण्यों से श्रेष्ठ कहा गया है। वैदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/102 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M乐听听听听听听听听听听听听听听听听听玩玩乐乐垢玩垢玩垢玩垢听听听听听听P. {351) सर्वेषां यः सुहृन्नित्यं सर्वेषां च हिते रतः। कर्मणा मनसा वाचा स धर्मं वेद जाजले॥ (म.भा.12/262/9) जो सब जीवों का सुहृद् होकर और मन, वाणी तथा क्रिया द्वारा सदा सब के हित में लगा रहता है, वही वास्तव में धर्म के स्वरूप को जानता है। {352} अद्रोहः सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा। अनुग्रहश्च दानं च सतां धर्मः सनातनः॥ (म.भा.3/297/35) मन, वाणी और क्रिया द्वारा किसी भी प्राणी से द्रोह न करना, सब पर दयाभाव बनाये रखना और दान देना-यह साधु पुरुषों का सनातन धर्म है। {353} 望坑坎听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 सर्वलौकहितैषित्वं मंगलं प्रियवादिता। सामान्यं सर्ववर्णानां मुनिभिः परिकीर्तितम्॥ (ना. पु. 1/24/28-29) मुनियों ने समस्त वर्णो के लिए सामान्य धर्म इस प्रकार बताए हैं- सभी लोगों के + हित-साधन की भावना, सभी के लिए मंगल-भावना, प्रिय-भाषण आदि-आदि। %%%%%%听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {354} दधीचिना पुरा गीतः श्लोकोऽयं श्रूयते भुवि। सर्वधर्ममयः सारः सर्वधर्मज्ञसंमतः॥ परोपकारः कर्तव्यः प्राणैरपि धनैरपि। परोपकारजं पुण्यं तुल्यं क्रतुशतैरपि॥ (प.पु. 6(उत्तर)/129/238-239) ___दधीचि ऋषि द्वारा पूर्व काल में कथित यह प्रशंसात्मक वचन पृथ्वी पर सुना जाता ॐ है, जिसमें सभी धर्मों का सार निहित है और जो सभी धर्मज्ञों द्वारा संमत है- 'अपने प्राणों के 4 से तथा धन से भी परोपकार करना चाहिए, और परोपकार से उत्पन्न पुण्य सैकड़ों यज्ञों के के समान होता है। 乐乐玩玩玩乐乐玩玩乐乐乐乐乐乐听听听听听听听听听听听听听听听听听乐开除 अहिंसा कोश/103] Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 廣廣編碼編碼編碼 {355} न हि कल्याणकृत्कश्चिद् दुर्गतिं तात गच्छति । (अ. पु. 381/12, गीता - 6/40) (सबका) कल्याण करने वाला कभी दुर्गति को प्राप्त नहीं होता है । (356) संतस्त एव ये लोके परदुःखविदारणाः । आर्तानामार्तिनाशार्थं प्राणा येषां तृणोपमाः ॥ तैरियं धार्यते भूमिर्नरैः परहितोद्यतैः । ( प.पु. 5/101/36-37) वे ही लोग' सन्त' हैं जो संसार में दूसरों के दुःख को दूर करते हैं और दुःखी व्यक्ति के दुःख को दूर करने में जो अपने प्राणों को तृण की तरह तुच्छ समझते हैं। ऐसे परउपकारी सन्त लोगों के कारण ही यह पृथ्वी टिकी हुई है। अहिंसा की सार्थकता: छल, कपट, द्वेष व कुटिलता से रहित व्यवहार {357} अति निहो अति सृuisत्यचित्तीरति द्विषः । (37.2/6/5) कलह, हिंसा, पाप-बुद्धि और द्वेष-वृत्ति से अपने आपको सदा दूर रखिए । [वैदिक / ब्राह्मण संस्कृति खण्ड / 104 (358) यो नः कश्चिद् रिरिक्षति रक्षस्त्वेन मर्त्यः । स्वैः ष एवै रिरिषीष्ट युर्जनः ॥ (.8/18/13) व्यक्ति किसी को राक्षस भाव (दुर्भाव) से नष्ट करना चाहता है, वह स्वयं अपने ही पापकर्मों से नष्ट हो जाता है, अपदस्थ हो जाता है। {359} मिथो विघ्नाना उप यन्तु मृत्युम् । परस्पर एक दूसरे से झगड़ने वाले मृत्यु को प्राप्त होते हैं। (37.6/32/3) 建 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAAYEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEyms {360) सहृदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि वः। (अ3/30/1) आप सब परस्पर एक दूसरे के प्रति हृदय में शुभ संकल्प रखें, द्वेष न करें। {361} मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्, मा स्वसारमुत स्वसा। (अ3/30/5) भाई-भाई आपस में द्वेष न करे, बहिन-बहिन आपस में द्वेष न करें। {362} सर्वं परिक्रोशं जहि। (ऋ.1/29/7) सब प्रकार के मात्सर्य का त्याग कर। {363} यथोत मनुषो मन एवेर्योर्मतं मनः। (अ.6/18/2) जिस प्रकार मरते हुए व्यक्ति का मन मरा हुआ-सा हो जाता है,उसी प्रकार ईर्ष्या करने वाले का मन भी मरा हुआ-सा रहता है। {364} अव ब्रह्मद्विषो जहि। (सा.1/2/9/1/194) सदाचारी विद्वानों से जो द्वेष करने वाले हैं, उन्हें त्याग दो। {3653 मा वो वचांसि परिचक्ष्याणि वोचम्। (सा.1/6/3/9/610) मैं त्याज्य अर्थात् निन्द्य वचन नहीं बोलता। %%%%%%%%%%男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男、 अहिंसा कोश/105] Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( % %% %% %%% %% %% %%% %%%% %%% %% %%% %% %%%%% % {366} सर्वतीर्थेषु वा स्नानं सर्वभूतेषु चार्जवम्। उभे त्वेते समे स्यातामार्जवं वा विशिष्यते॥ (म.भा. 5/35/2) सब तीर्थों में स्नान और सब प्राणियों के साथ कोमलता का बर्ताव-ये दोनों एक समान हैं, अथवा कोमलता के बर्ताव का विशेष महत्त्व है। {367} कूटेन व्यवहारं तु वृत्तिलोपं न कस्यचित्॥ न कुर्याच्चिन्तयेत्कस्य मनसाऽप्यहितं क्वचित्। (शु.नी. 3/157-158)) किसी के साथ कपटपूर्ण व्यवहार या आजीविका की हानि नहीं करनी चाहिये, । और कभी किसी का अहित भी मन से नहीं सोचना चाहिये, इन्हें वस्तुतः करना तो दूर रहा। 兵兵兵兵兵兵兵来听听听听听听听听听听听听垢听听听听听听听听听听听听听听听乐乐垢玩垢玩垢玩垢玩乐 {368} ये परेषां श्रियं दृष्ट्वा न वितप्यन्ति मत्सरात्। प्रहृष्टाश्चाभिनंदन्ति ते नराः स्वर्गगामिनः॥ (प.पु. 2/96/35) जो लोग दूसरों की समृद्धि देखकर मात्सर्य-ग्रस्त और संताप-ग्रस्त नहीं होते, अपितु हर्षित व आनन्दित होते हैं, वे स्वर्गगामी होते हैं। 9明與明明明明明明明明明听听听听听听巩巩明明听听听听听听听听听听听听垢玩垢听听听听听听听听垢垢垢明举 {369} येऽभिद्रुह्यन्ति भूतानि ते वै पापकृतो जनाः॥ (म.भा.13/120/25) जो प्राणियों से द्रोह करते हैं, वे ही पापाचारी समझे जाते हैं। अहिंसा: वाणी-व्यवहार में भी {370 न वदेत् सर्वजन्तूनां हृदि रोषकरं बुधः। (शि.पु. 1/13/80) __ऐसी कोई बात किसी भी प्राणी के विषय में न कहे जिससे उसके हृदय में कोई रोष पैदा हो।' 玩玩玩乐乐玩玩玩玩乐乐玩玩玩玩乐乐乐玩玩乐乐玩玩乐乐乐乐明珠 [वैदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/106 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 原廠 蛋蛋蛋蛋 原 {371} यां वै दृप्तो वदति, यामुन्मत्तः सा वै राक्षसी वाक् । (ऐ.ब्रा.2/1/7) जो ऐश्वर्य एवं विद्या के घमंड में दूसरों का तिरस्कार करने वाली वाणी बोलता है, जो पूर्वापर-सम्बन्ध से रहित विवेकशून्य वाणी बोलता है, वह राक्षसी वाणी है। {372} जिह्वा मे भद्रं वाङ् महो, मनो मन्युः स्वराड् भामः । (य. 20/6) मेरी जिह्वा कल्याणमयी हो, मेरी वाणी महिमामयी हो, मेरा मन प्रदीप्त साहसी हो, और मेरा साहस स्वराट् हो, स्वयं शोभायमान हो, उसे कोई खण्डित न कर सके । {373} वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु । वाणी के अधिपति विद्वान् हमारी वाणी को मधुर एवं रोचक बनाएं। {374} भद्रवाच्याय प्रेषितो मानुषः सूक्तवाकाय सूक्ता ब्रूहि । (य. 11/7) (य.21/61) मनुष्य कल्याणकारी सुभाषित वचनों के लिए ही प्रेषित एवं प्रेरित हैं, अत: तुम कथनयोग्य सूक्तों (सुभाषित वचनों) का ही कथन करो । {375} मधुमन्मे निक्रमणं मधुमन्मे परायणम् । वाचा वदामि मधुमद्, भूयासं मधु संदृशः ॥ (37.1/34/3) मेरा निकट और दूर- दोनों ही तरह का गमन मधुमय हो, अपने को और दूसरों को प्रसन्नता देने वाला हो। अपनी वाणी से जो कुछ बोलूँ, वह मधुरता से भरा हो। इस प्रकार सभी प्रवृत्तियाँ मधुमय होने के फलस्वरूप मैं सभी देखने वाले लोगों का मधु (मीठाप्रिय ) होऊं । 1、 蛋蛋蛋蛋蛋米 蛋蛋蛋蛋蛋蛋蛋蛋蛋蛋蛋卐 अहिंसा कोश / 107] Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男%%%%%%%%%%%%% {376} अन्यो अन्यस्मै वल्गु वदन्त एत। (अ. 3/30/3) एक दूसरे के साथ प्रेमपूर्वक मधुर संभाषण करते हए आगे बढ़े चलो। {377} जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शन्तिवाम्॥ (अ.3/30/2) पत्नी पति के साथ मधुर सुखदायिनी वाणी बोले। {378} सम्यञ्चः सव्रता भूत्वा, वाचं वदत भद्रया॥ (अ3/30/5) भाई-बहन आदि सभी परस्पर कल्याणकारी शिष्ट भाषण करें। 埃斯埃斯斯與纸折纸玩乐乐頻頻頻頻頻垢玩垢玩垢玩垢玩垢坂玩玩玩乐乐乐乐乐坎坎坎坎垢玩垢玩垢玩垢, 乐乐乐步听听听听听听听听听听织玩乐听听听听听听听乐乐听听听听听听乐听听听听听听听听听听听听听听 {379} उदीरत सूनृता उत्पुरन्धी रुदग्नयः शुशुचानासो अस्थुः। (ऋ. 1/123/6) हमारे मुख से प्रिय एवं सत्य वाणी मुखरित हो, हमारी प्रज्ञा उन्मुख-प्रबुद्ध हो, सत्कर्म के लिए हमारा अत्यन्त दीप्यमान तेजस्तत्व (संकल्प बल) पूर्ण रूपेण प्रज्वलित हो। {380} घृतात् स्वादीयो मधुनश्च वोचत। (ऋ. 8/24/20) घृत और मधु से भी अत्यन्त स्वादु वचन बोलिए। {381} मा वो वचांसि परिचक्ष्याणि वोचम्। (सा.1/6/3/9/610) मैं त्याज्य अर्थात् निन्द्य वचन नहीं बोलता। %%%%%%%%%%%%% %%%%%%%%%%%%%%%%%%% वैिदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/108 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 原 {382} परापवादं न ब्रूयात् नाप्रियं च कदाचन । (वि. ध. पु. 2 / 233 /51) दूसरों की निन्दा / अपयश-वर्णन न करें और किसी को अप्रिय भी न बोलें । 出 {383} जिह्वया अग्रे मधु मे, जिह्वामूले मधूलकम् । ममेदह क्रतावसो मम चित्तमुपायसि ॥ " (37.1/34/2) मेरी जिह्वा के अग्रभाग में मधुरता रहे, मूल में भी मधुरता रहे। हे मधुरता ! तू मेरे कर्म और चित्त में भी सदा बनी रहो । {384} यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः । ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च ॥ (य. 26/2) मैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र, वैश्य, अपने, पराये - सभी जनों के लिए कल्याण करने वाली वाणी बोलता हूं। {385} यस्तु सर्वमभिप्रेक्ष्य पूर्वमेवाभिभाषते । स्मितपूर्वाभिभाषी च तस्य लोकः प्रसीदति ॥ (म.भा.12/84/6) जो सभी को देखकर (उनके बोलने से) पहले ही बात करता है और सब से मुसकराकर ही बोलता है, उस पर सभी लोग प्रसन्न रहते हैं। {386} भद्रं भद्रमिति ब्रूयान्नानिष्टं कीर्तयेत्कचित् । ( अ.पु. 155/20; वि.ध. पु. 2/89/29) सदैव कल्याणकारी बातों को ही करना चाहिये और कहीं पर अनिष्ट भाषण नहीं करना चाहिए। 出 अहिंसा कोश / 109] Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 玩玩玩玩玩乐乐巩巩巩巩巩巩听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 ___{387} पयस्वन्मामक वचः। (अ3/24/1) मेरा वचन दूध जैसा मधुर, सारयुक्त एवं सब के लिए उपादेय हो। {388} त्वंकारो वा वधो वापि गुरूणामुभयं समम्॥ (स्कं. पु. 1/(2)/41/168) गुरु-जनों के प्रति 'तुम' कह कर बोलना या उनका वध करना- दोनों समान ही हैं। {389} अवधेन वधः प्रोक्तो यद् गुरुस्त्वमिति प्रभुः। (म.भा. 8/69/86) __गुरु (जैसे पूज्य व्यक्ति) को 'तूं' इस शब्द से तुच्छता की दृष्टि से सम्बोधन करना ॐ ही उसे बिना मारे ही मार डालना है। 典與明纸兵纸%%%%%%%%¥¥听听听听听听听听听听听听编织织¥¥¥¥¥¥垢玩垢妮妮妮妮听听听听 {390} मूढानामवलिप्तानामसारं भाषितं बहु। दर्शयत्यन्तरात्मानमग्निरूपमिवांशुमान्॥ (म.भा.12/287/33) घमंडी मूर्तों की कही हुई असार बातें उनके दूषित अन्तःकरण का ही प्रदर्शन म कराती हैं, ठीक उसी तरह जैसे सूर्य सूर्यकान्तमणि के योग से अपने दाहक अग्निरूप को ही प्रकट करता है। {391} न जातु त्वमिति ब्रूयादापन्नोऽपि महत्तरम्। त्वंकारो वा वधो वेति विद्वत्सु न विशिष्यते॥ (म.भा.13/262/52) ___युधिष्ठिर ! तुम कभी बड़े-से-बड़े संकट पड़ने पर भी किसी श्रेष्ठ पुरुष के प्रति 'तुम' का प्रयोग न करना। किसी को 'तुम' कहकर पुकारना उसका वध कर म डालना-इन दोनों में विद्वान पुरुष कोई अन्तर नहीं मानते। 都如均为男男场场均明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明、 विदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/110 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 你 〇〇〇〇量: {392} अतिवादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कञ्चन । न चेमं देहमाश्रित्य वैरं कुर्वीत केनचित् ॥ (भा.पु. 12/6/34) जो परमपद पाना चाहे वह दूसरों के दुर्वचन सहे, किसी का अपमान न करे और इस शरीर से किसी के साथ वैर भाव न रखे। {393} अनर्थाः क्षिप्रमायान्ति वाग्दुष्टं क्रोधनं तथा । ( म.भा. 5/38/35) जो बुरे वचन बोलने वाला और क्रोधी है, उसके ऊपर शीघ्र ही अनर्थ (संकट) टूट पड़ते हैं। {394} गुरूणामवमानो हि वध इत्यभिधीयते । गुरुजनों का अपमान ही उनका वध होना कहा जाता है । अहिंसक दृष्टि: अनुशासन में भी अपेक्षित {395} न कुर्यात्कस्यचित्पीडां सुतं शिष्यञ्च ताडयेत् । ( म.भा. 8/70/ 52 ) (कू.पु. 2/16/56) किसी को भी पीड़ित न करे, यहां तक कि अपने पुत्र व शिष्य की भी ताडना नहीं करे। {396} परस्य दण्डं नोद्यच्छेत् क्रुद्धो नैव निपातयेत् । (म.स्मृ. 4/164) गृहस्थ दूसरों के ऊपर डण्डा न उठावे तथा क्रोध कर दण्डे से किसी को न मारे। 線 अहिंसा कोश / 111] Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%% %%%%%%% अहिंसा के प्रतिकूल धर्मः पर-निन्दा, परदोषारोपण, आत्म-स्तुति आदि {397} स्पृहयालुरुग्रः परुषो वा वदान्यः क्रोधं बिभ्रन्मनसा वै विकत्थी। नृशंसधर्माः षडिमे जना वै प्राप्याप्यर्थे नोत सभाजयन्ते॥ __(म.भा. 5/45/3) लोलुप, क्रूर, कठोरभाषी, कृपण, मन-ही-मन क्रोध करने वाले और अधिक आत्मप्रशंसा करने वाले-ये छः प्रकार के मनुष्य निश्चय ही क्रूर कर्म करने वाले होते हैं। ये # प्राप्त हुई सम्पत्ति का उचित उपयोग नहीं करते । 與妮妮妮妮妮妮妮垢玩垢坂垢垢玩垢频听听听听听听听听听听听听听坂听听听听听听听听听听听妮妮妮妮星 {398} अनृते च समुत्कर्षो राजगामि च पैशुनम्। गुरोश्चालीकनिर्बन्धः समानि ब्रह्महत्यया॥ (म.भा. 5/40/3) झूठ बोल कर उन्नति करना, राजा के पास तक चुगली करना, गुरुजन पर भी झूठा के दोषारोपण करने का आग्रह करना- ये तीन कार्य ब्रह्महत्या के समान है। {399} परस्य निन्दां पैशुन्यं धिक्कारं च करोति यः। तत्कृतं पातकं प्राप्य स्वपुण्यं प्रददाति सः॥ (प.पु. 6(उत्तर)/112/17) जो व्यक्ति जिस किसी दूसरे की निन्दा करता है, चुगली करता है तथा उसे धिक्कारता है, तो वह उस व्यक्ति के पाप को ग्रहण करता है और उसे अपना पुण्य दे देता है। (अर्थात् निन्दा करने वाला व्यक्ति अपना पुण्य तो गंवाता ही है, जिसकी निन्दा करता है उसका पाप भी अपने सिर चढा लेता है।) 明明明明明明明垢乐乐玩玩乐乐乐乐明明垢垢玩垢玩垢坎坎坎听听乐乐明明听听听听听听听听听听听听听听听书 {400 आत्माभिष्टवनं निन्दां परस्य च विवर्जयेत्॥ __ (वि. ध. पु. 2/90/87) आत्म-स्तुति तथा पर-निन्दा का त्याग करना चाहिए। %%%% % %%%%%% %%%% %%%% %%%% %% %%%、 वैदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/112 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 明明明明明明明明明明明明明明明明明明明听听听听听听听听听听听听听听 {401} मार्दवं सर्वभूतानामनसूया क्षमा धृतिः। आयुष्याणि बुधाः प्राहुर्मित्राणां चाविमानना॥ (म.भा. 5/39/52) सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति कोमलता का भाव, गुणों में दोष न देखना, क्षमा, धैर्य और मित्रों का अपमान न करना-ये सब गुण आयु को बढ़ाने वाले हैं-ऐसा विद्वान् लोग कहते हैं। मैं {4021 न वाच्यः परिवादोऽयं न श्रोतव्यः कथञ्चन। कर्णावथ पिधातव्यौ प्रस्थेयं चान्यतो भवेत्॥ असतां शीलमेतद् वै परिवादोऽथ पैशनम्। गुणानामेव वक्तारः सन्तः सत्सु नराधिप॥ ____ (म.भा.12/132/12-13) किसी की भी निन्दा नहीं करनी चाहिये और न उसे किसी प्रकार सुनना ही चाहिये। # यदि कोई दूसरे की निन्दा करता हो, तो वहाँ अपने कान बंद कर ले अथवा वहाँ से उठकर ॐ अन्यत्र चला जाय। दूसरों की निन्दा करना या चुगली खाना यह दुष्टों का स्वभाव ही होता है। श्रेष्ठ व सज्जन पुरुष तो सज्जनों के समीप दूसरों के गुण ही गाया करते हैं। F$$$$$$垢听听听听听听听听听听听听听听巩巩巩FF听听听听听听听听听听听听听FFFFFFF $听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {403} परवाच्येषु निपुणः सर्वो भवति सर्वदा। आत्मवाच्यं न जानीते जानन्नपि च मुह्यति।। (म.भा. 8/45/44) दूसरों के दोष को बताने में सभी लोग सदा निपुण होते हैं, परन्तु उन्हें अपने दोषों की पता नहीं होता या फिर वे उन्हें जान कर भी अनजान बने रहते हैं। {404} न चक्षुषा न मनसा न वाचा दूषयेदपि। न प्रत्यक्षं परोक्षं वा दूषणं व्याहरेत् कचित्॥ (म.भा.12/278/4) न नेत्र से, न मन से और न वाणी से ही वह दूसरे के दोष देखे, सोचे या कहे। भकिसी के सामने या परोक्ष में पराये दोष की चर्चा कहीं न करे। %%%%%%%男男男男男男男男男男男男%%%%%%%%%%%%% अहिंसा कोश/113] Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男 ___{405} परेषां च तथा दोषं न प्रशंसेद् विचक्षणः। विशेषेण तथा ब्रह्मन् श्रुतं दृष्टं च नो वदेत्॥ (शि.पु. 1/13/79) विद्वान व्यक्ति को चाहिए कि दूसरों का दोष-कथन न करे, और कोई विशेष दोष किसी का देखा-सुना भी हो तो उसे नहीं कहे। {406} असूयैकपदं मृत्युरतिवादः श्रियो वधः। अशुश्रूषा त्वरा श्लाघा विद्यायाः शत्रवस्त्रयः।। (म.भा. 5/40/4) गुणों में दोष देखना एकदम मृत्यु के समान है, निन्दा करना लक्ष्मी का वध है तथा * + सेवा का अभाव, उतावलापन और आत्मप्रशंसा-ये तीन विद्या के शत्रु हैं। {407} 判纲听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 सम्भोगसंविद् विषमोऽतिमानी, दत्त्वा विकत्थी कृपणो दुर्बलश्च। बहुप्रशंसी वन्दितद्विद् सदैव, सप्तैवोक्ताः पापशीला नृशंसाः॥ (म.भा. 5/45/4) सम्भोग में मन लगाने वाले, विषमता रखनेवाले, अत्यन्त अभिमानी, दान देकर आत्मश्लाघा करनेवाले, कृपण, असमर्थ होकर भी अपनी बहुत बड़ाई करने वाले और संमान्य पुरुषों से सदा द्वेष रखने वाले ये सात प्रकार के मनुष्य ही पापी और क्रूर कहे गये हैं। 第垢玩垢听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 第 {408} अधीयानः पण्डितंमन्यमानो यो विद्यया हन्ति यशः परस्य। तस्यान्तवन्तः पुरुषस्य लोका न चास्य तद् ब्रह्मफलं ददाति॥ (म.पु. 39/24) जो विद्याओं को पढ़कर, अपने को महान् पण्डित समझ कर, अपनी विद्या के बल पर दूसरे (को पराजित कर, उस) के यश को नष्ट करता है, उस पुरुष के लिए सभी लोक तो बिगड़ ही जाते हैं, वह (ज्ञान से मिलने वाले फल) ब्रह्म-प्राप्ति रूपी फल से भी वंचित हो जाता है। 男男男男男男男男男男男%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%岁 विदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/114 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 他身男男男男男%%%%%% %% %%% %%%%% %%%% % %%% {409) सदाऽनार्योऽशुभः साधुं पुरुषं क्षेप्तुमिच्छति॥ (म.भा. 7/198/26) दुष्ट और अनार्य पुरुष सदैव सज्जन पुरुष पर आक्षेप (दोषारोपण) करने की इच्छा रखता है। 明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明娟乐。 {410} आत्मोत्कर्ष न मार्गेत परेषां परिनिन्दया। स्वगुणैरेव मार्गेत विप्रकर्षं पृथग्जनात्॥ निर्गुणास्त्वेव भूयिष्ठमात्मसम्भाविता नराः। दोषैरन्यान् गुणवतः क्षिपन्त्यात्मगुणक्षयात्॥ अनूच्यमानास्तु पुनः ते मन्यन्तु महाजनात्। गुणवत्तरमात्मानं स्वेन मानेन दर्पिताः॥ अब्रुवन् कस्यचिनिन्दामात्मपूजामवर्णयन्। विपश्चिद् गुणसम्पन्नः प्राजोत्येव महद् यशः॥ ___(म.भा.12/287/25-28) दूसरों की निन्दा करके अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने का प्रयत्न न करे। साधारण मनुष्यों * की अपेक्षा जो अपनी उत्कृष्टता है, उसे अपने गुणों द्वारा ही सिद्ध करे (बातों से नहीं)। यदि उनको उत्तर दिया जाय तो फिर वे घमंड में भरकर अपने-आपको महापुरुषों से भी अधिक ॐ गुणवान् मानने लगते हैं। गुणहीन मनुष्य ही अधिकतर अपनी प्रशंसा किया करते हैं। वे अपने में गुणों की कमी देखकर दूसरे गुणवान-पुरुषों के गुणों में दोष बताकर उन पर आक्षेप किया करते हैं। परंतु जो दूसरे किसी की निन्दा तथा अपनी प्रशंसा नहीं करता, ऐसा उत्तम गुणसम्पन्न विद्वान् पुरुष ही महान् यश का भागी होता है। 望听听听听听听听听听听听听听听听乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听擊5 411) रहस्य-भेदं पैशुन्यं, पर-दोषानुकीर्तनम्। पारुष्यं कलहं चैव, दूरतः परिवर्जयेत्॥ (चाणक्य-नीतिशास्त्र, तृतीय शतक- 188) किसी के रहस्य को प्रकट करना, निरर्थक बुराई करना, दूसरे के दोषों का कीर्तन, कठोर व्यवहार और झगड़ा-इन का सर्वथा परित्याग कर देना चाहिए। の野汁野野野野野野野野野野野野野野野西野亮牙牙牙牙牙牙野巧真野野野野野野野 अहिंसा कोश/115] Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 他身男男男男%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%% %%%% {412} सद्वाऽसद् वा परीवादो ब्राह्मणस्य न शस्यते। नरकप्रतिष्ठास्ते वै स्युर्य एवं कुर्वते जनाः॥ (म.भा. 5/45/8) सच्ची हो या झूठी, दूसरों की निन्दा करना ब्राह्मण को शोभा नहीं देता। जो लोग दूसरों की निन्दा करते हैं, वे अवश्य ही नरक में पड़ते हैं। {413} परनिन्दा विनाशाय, स्वनिन्दा यशसे परम्। (ब्र.वै. 4/41/7) पराई निन्दा करने से विनाश होता है और अपनी निन्दा परम यश प्रदान करती है। 明明明明听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {414} न चात्मानं प्रशंसेद्वा परनिन्दां च वर्जयेत्॥ (प.पु. 3/55/35) न तो स्वयं की प्रशंसा करे और न ही पर-निन्दा में प्रवृत्त हो। {415} आत्मनिन्दाऽऽत्मपूजा च परनिन्दा परस्तवः। अनाचरितमार्याणां वृत्तमेतच्चतुर्विधम्॥ __ (म.भा. 8/35/45) वाणी द्वारा अपनी निन्दा व प्रशंसा तथा परायी निन्दा व प्रशंसा करना- इन चार म प्रकार के आचरणों को श्रेष्ठ पुरुष कभी नहीं करते। “乐乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 (वैदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/116 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TH%%%%%%乐乐乐乐乐乐乐乐玩玩乐乐乐乐乐乐乐乐乐¥¥¥¥¥¥乐乐乐 अहिंसाः आहार-सेवन में [आहार हमारे शरीर को तो पुष्ट करता ही है, साथ ही हमारी बुद्धि को भी प्रभावित करता है। सात्त्विक आहार से हमारे अन्दर अहिंसात्मक मनोभाव पोषित होते हैं, किन्तु तामसिक आहार से हिंसात्मक मनोभाव ही जागृत होते हैं। कुछ तामसिक पदार्थ तो सीधे हिंसा से जुड़े होते हैं, उन्हें तो सर्वथा त्याज्य माना गया है। इस सन्दर्भ में ॥ ब्रह्मचारी व संन्यासी को तो और भी अधिक सावधान रहने के लिए कहा गया है। इसी दृष्टि से मद्य, मांस आदि का सेवन शास्त्रों में वर्जित है। इस सन्दर्भ में प्राचीन भारतीय वांग्मय के कुछ उपयोगी उद्धरण यहां प्रस्तुत हैं-] हिंसा-दोषः मांस-भक्षण में अनिवार्य {416) 听听听听听听听听听听 听听听听听听听听听听听听听听玩垢累垢听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 नाकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्पद्यते क्वचित्। न च प्राणिवधः स्वर्ग्यः तस्मान्मांसं विवर्जयेत्॥ (म.स्मृ. 5/48) जीवों की बिना हिंसा किये, कहीं भी मांस नहीं उत्पन्न हो सकता है और जीवों की + हिंसा कभी स्वर्ग-प्राप्ति का साधन भी नहीं है, (अपितु नरक-प्राप्ति का साधन है) अतः मांस को छोड़ देना (नहीं खाना) चाहिये। 听听听听听听听听听 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {417} न हि मांसं तृणात् काष्ठादुपलाद् वापि जायते। हत्वा जन्तुं ततो मांसं तस्माद् दोषस्तु भक्षणे॥ (म.भा. 13/115/24) तृण से, काठ से अथवा पत्थर से मांस नहीं पैदा होता है, वह जीव की हत्या करने पर ही उपलब्ध होता है; अतः उसके खाने में (हिंसा-जनित) महान् दोष होता ही है। {418} यदि चेत् खादको न स्यान तदा घातको भवेत्। घातकः खादकार्थाय तद् घातयति वै नरः॥ (म.भा. 13/115/29) यदि कोई भी मांस खानेवाला न हो तो पशुओं की हिंसा करने वाला भी कोई न रहे; अ क्योंकि हत्यारा मनुष्य मांस (खाने के लिए या) खानेवालों के लिये ही तो पशुओं की हिंसा करता है। % %%%%%%%%%% %%%%%%%%%%%%%%%%% % अहिंसा कोश/117] Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 他男男男明明明明明明明明明明明男男%%%%%%%%%%%%%% {419} अभक्ष्यमेतदिति वै इति हिंसा निवर्तते। खादकार्थमतो हिंसा मृगादीनां प्रवर्तते॥ (म.भा. 13/115/30) यदि मांस को अभक्ष्य समझकर सब लोग उसे खाना छोड़ दें तो पशुओं की हत्या स्वतः ही बंद हो जाय; क्योंकि मांस खानेवालों के लिये ही तो मृग आदि पशुओं की हत्या होती है। 坎坎听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听巩巩巩巩巩巩听听听听听听听听听听 {420} ऋषयो ब्राह्मणा देवाः प्रशंसन्ति महामते। अहिंसालक्षणं धर्मं वेदप्रामाण्यदर्शनात्॥ कर्मणा मनुजः कुर्वन् हिंसां पार्थिवसत्तम। वाचा च मनसा चैव कथं दुःखात् प्रमुच्यते॥ ___(म.भा.13/114/2-3) (युधिष्ठिर का भीष्म से प्रश्न-) वैदिक प्रमाण के अनुसार देवता, ऋषि और ब्राह्मण ॐ सदा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा किया करते हैं। अतः नृपश्रेष्ठ ! मैं पूछता हूं कि मन, वाणी और क्रिया से भी हिंसा का ही आचरण करने वाला मनुष्य किस प्रकार उसके दुःख से छुटकारा पा सकता है? 參巩巩巩垢垢玩垢玩垢妮妮妮妮妮听听听听听听听听听垢听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {421} विकारणं तु निर्दिष्टं श्रूयते ब्रह्मवादिभिः। मनो वाचि तथाऽऽस्वादे दोषा ह्येषु प्रतिष्ठिताः॥ न भक्षयन्त्यतो मांसं तपोयुक्ता मनीषिणः। __ (म.भा. 13/114/9-10) (भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को उत्तर-)ब्रह्मवादी महात्माओं ने हिंसा-दोष के प्रधान तीन कारण बतलाये हैं-मन (मांस खाने की इच्छा), वाणी (मांस खाने का उपदेश) और आस्वाद ( प्रत्यक्षरूप में मांस का स्वाद लेना)। ये तीनों ही हिंसा-दोष के आधार हैं। इसलिये तपस्या में लगे हुए मनीषी पुरुष कभी मांस नहीं खाते हैं। 明明明明明明明明明明明宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪、 वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/118 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (男男男宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪 . {422} समुत्पत्तिं च मांसस्य वधबन्धौ च देहिनाम्। प्रसमीक्ष्य निवर्तेत सर्वमांसस्य भक्षणात्॥ (म.स्मृ. 5/49) मांस की उत्पत्ति और जीवों के वध व बन्धन ( में होने वाली हिंसा के दोष) को समझ कर, सब प्रकार के मांस-भक्षण से निवृत्त होना चाहिये। अहिंसा की पूर्णताः मांस-भक्षण के त्याग से ही 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {423} यथा सर्वश्चतुष्पाद् वै त्रिभिः पादैन तिष्ठति। तथैवेयं महीपाल कारणैः प्रोच्यते त्रिभिः॥ यथा नागपदेऽन्यानि पदानि पदगामिनाम्। सर्वाण्येवापिधीयन्ते पदजातानि कौञ्जरे॥ एवं लोकेष्वहिंसा तु निर्दिष्टा धर्मतः पुरा। कर्मणा लिप्यते जन्तुर्वाचा च मनसाऽपि च॥ पूर्वं तु मनसा त्यक्त्वा तथा वाचाऽथ कर्मणा। न भक्षयति यो मांसं त्रिविधं स विमुच्यते। (म.भा. 13/114/5-8) (युधिष्ठिर को भीष्म का उत्तर-) जैसे चार पैरोंवाला पशु तीन पैरों से नहीं खड़ा रह सकता, उसी प्रकार केवल (मन, वचन व शरीर-इन) तीन ही कारणों से पालित हुई है अहिंसा पूर्णतः अहिंसा नहीं कही जा सकती। जैसे हाथी के पैर के चिन्ह में सभी पदगामी ॥ प्राणियों के पदचिन्ह समा जाते हैं, उसी प्रकार पूर्व काल में इस जगत के भीतर धर्मतः म अहिंसा का निर्देश किया गया है अर्थात् अहिंसा धर्म में सभी धर्मो का समावेश हो जाता है, ऐसा माना गया है। जीव मन, वाणी और क्रिया के द्वारा हिंसा के (त्रिविध) दोष से लिप्त म होता है, किंतु जो क्रमशः पहले मन, से फिर वाणी से और फिर क्रिया द्वारा हिंसा का त्याग करके सदैव मांस नहीं खाने का भी नियम पालता है, वही पूर्वोक्त तीनों प्रकार की हिंसा के 5 * दोष से मुक्त हो जाता है (अर्थात् जो व्यक्ति मन, वाणी व कर्म से हिंसा का त्याग तो करता, म किन्तु वह अहिंसा-धर्म का पूर्णतः पालक तभी हो पाता है जब वह मांस-भक्षण का भी है म त्याग कर दे। इस चतुर्विध अहिंसा के पालन से ही वह हिंसा-दोष से मुक्त हो पाता है)। 绵绵纸纸听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听张 乐乐乐乐乐听听听听听听听听乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐 अहिंसा कोश/119] Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 666666666 555555555555 {424} यस्माद् ग्रसति चैवायुर्हिसकानां महाद्युते । तस्माद् विवर्जयेन्मांसं य इच्छेद् भूतिमात्मनः ॥ (म.भा. 13/115/31) हिंसकों की आयु को उनका ( जीव - हिंसा आदि का) पाप ग्रस लेता है। इसलिये जो अपना कल्याण चाहता है, वह मनुष्य ( जीव - हिंसा से बचने के लिए) मांस का सर्वथा परित्याग कर दे। 用 अहिंसक जीव को मांस - त्यागी होना चाहिए। {425} अहिंसकस्तथा जन्तुर्मांसवर्जयिता भवेत् ॥ [वैदिक / ब्राह्मण संस्कृति खण्ड / 120 (वि. ध. पु. 3/268/5) {426} एवं वै परमं धर्मं प्रशंसन्ति मनीषिणः । प्राणा यथाऽऽत्मनोऽभीष्टा भूतानामपि वै तथा ॥ आत्मौपम्येन मन्तव्यं बुद्धिमद्भिः कृतात्मभिः । मृत्युतो भयमस्तीति विदुषां भूतिमिच्छताम् ॥ किं पुनर्हन्यमानानां तरसा जीवितार्थिनाम् । अरोगाणामपापानां पापैर्मासोपजीविभिः ॥ तस्माद् विद्धि महाराज मांसस्य परिवर्जनम् । धर्मस्यायतनं श्रेष्ठं स्वर्गस्य च सुखस्य च ॥ ( म.भा. 13 / 115/19-22) इस प्रकार मनीषी पुरुष अहिंसा रूप परमधर्म की प्रशंसा करते हैं। जैसे मनुष्य को अपने प्राण प्रिय होते हैं, उसी प्रकार समस्त प्राणियों को भी अपने-अपने प्राण प्रिय होते हैं । जो बुद्धिमान् और पुण्यात्मा है, उन्हें चाहिये कि सम्पूर्ण प्राणियों को अपने समान समझें। जब अपने कल्याण की इच्छा रखने वाले विद्वानों को भी मृत्यु का भय बना रहता है, तब जीवित रहने की इच्छा वाले नीरोग और निरपराध प्राणियों को, जो मांस पर जीविका चलाने वाले पापी पुरुषों द्वारा बलपूर्वक मारे जाते हैं, क्यों न भय प्राप्त होगा? इसलिये मांस का परित्याग धर्म, स्वर्ग और सुख का सर्वोत्तम आधार है - ऐसा समझें । 卐 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसकः मांस का क्रय-विक्रय आदि का भी त्यागी {427} यो हि खादति मांसानि प्राणिनां जीवितैषिणाम्। हतानां वा मृतानां वा यथा हन्ता तथैव सः॥ ___(म.भा. 13/115/37) जीवित रहने वाले प्राणी चाहे मारे गए हों या स्वयं मर गए हों, उनके मांस को जो व्यक्ति खाता है, वह, भले ही उन प्राणियों को नहीं भी मारता है, फिर भी, उन प्राणियों का ई हत्यारा ही है। {428} “听听听听听听听听听听听听听听听听乐乐%%%%%%%%%听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 धनेन क्रयिको हन्ति खादकश्चोपभोगतः। घातको वधबन्धाभ्यामित्येष त्रिविधो वधः॥ (म.भा. 13/115/38; वि. ध. पु. 3/268/14-15 में आंशिक परिवर्तन के साथ) खरीदने वाला धनके द्वारा, खानेवाला उपभोग के द्वारा और घातक व्यक्ति वध एवं बन्धन के द्वारा पशुओं की हिंसा करता है। इस प्रकार यह तीन तरह से प्राणियों का वध होता है। 听听听听听听听听听听听听听听听乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听听垢听听听听听听听听听听听听。 {429} अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी। संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः॥ ___ (म.स्मृ. 5/51; वि. ध. पु. 3/252/23-24) (वध की)अनुमति देने वाला, शस्त्र से मरे हुए जीव के अङ्गों को टुकड़े-टुकड़े करने वाला, मारने वाला, खरीदने वाला, बेचने वाला, पकाने वाला, परोसने या लानेवाला और खाने वाला; (जीव-वध में) ये सभी घातक (हिंसक) माने गए हैं। {430} यदि चेत् खादको न स्यात् न भवेत् घातकस्तथा। एतास्मात्कारणात् निन्द्यो घातकादपि खादकः॥ (वि.ध. पु. 3/252/18) यदि (कोई मांस का) खाने वाला ही न हो तो (पशु आदि को)मारने वाला ही कोई नहीं होगा। इसलिए वध करने वाले से खाने वाला अधिक निन्दा का पात्र है। 听听听听听听听听玩玩乐乐玩玩乐乐玩玩乐乐玩玩玩乐乐玩玩乐乐贝贝听听听听张 अहिंसा कोश/121] Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 男男%%%%%%男男男男男男男男男男%%%% %% %%% %%%%% {431} आहर्ता चानुमन्ता च विशस्ता क्रयविक्रयी। संस्कर्ता चोपभोक्ता च खादकाः सर्व एव ते।। (म.भा. 13/115/45) जो मनुष्य पशु-हत्या के लिये पशु पालता है, जो उसे मारने की अनुमति देता है, जो उसका वध करता है तथा जो खरीदता, बेचता, पकाता और खाता है, वे सब-के-सब खानेवाले ही माने जाते हैं। अर्थात् वे सब खानेवाले के समान ही पाप के भागी होते हैं। 加垢玩垢听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {432} षविधं नृप ते प्रोक्तं विद्वदिभर्जीवघातनम्॥ अनुमोदयिता पूर्वं द्वितीयो घातकः स्मृतः। विश्वासकस्तृतीयोऽपि चतुर्थो भक्षकस्तथा। पंचमः पाचकः प्रोक्तः षष्ठो भूपात्रविग्रही॥ ___ (ना. पु. 2/10/8-9) विद्वानों ने छः प्रकार के जीवघाती बताये हैं- (1) अनुमोदना देने वाला (2) स्वयं वध करने वाला, (3) विश्वास (अर्थात् वध में सहयोग) देने वाला (4) मारे गए (के ई मांसादि) को खाने वाला, (5) मृत मांस को पकाने वाला, तथा (6) पात्र आदि के संग्रह में भागीदार। 听听听听乐乐听听听听乐乐乐听听听听听听听乐明明听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {433} विक्रयार्थं हि यो हिंस्याद् भक्षयेद् वा निरंकुशः। घातयन्तं हि पुरुषं येऽनुमन्येयुरर्थिनः॥ घातकः खादको वापि तथा यश्चानुमन्यते। यावन्ति तस्य रोमाणि तावद् वर्षाणि मज्जति॥ (म.भा. 13/74/3-4) ___ जो उच्छृखल मनुष्य मांस बेचने के लिए गौ आदि पशु की हिंसा करता या उनका मांस खाता है तथा जो स्वार्थवश घातक पुरुष को गाय आदि पशु मारने की सलाह देते हैं, 卐 वे सभी महान् पाप के भागी होते हैं। गौ आदि पशुओं की हत्या करने वाले, उसका मांस में खाने वाले तथा हत्या का अनुमोदन करने वाले लोग गौ आदि पशुओं के शरीर में जितने रोएँ म होते हैं, उतने वर्षों तक नरक में डूबे रहते हैं। [वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/122 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 男 男男男男男男男男男男男男%%%%% %%%%%%%% %% %% % {434} खादकस्य कृते जन्तूनू यो हन्यात् पुरुषाधमः। महादोषतरस्तत्र घातको न तु खादकः॥ (म.भा. 13/115/42) जो मांस खाने वाले अन्य लोगों के लिये पशुओं की हत्या करता है, वह मनुष्यों में के अधम है। क्योंकि घातक को जितना बहुत भारी दोष लगता है और मांस खानेवाले को उतना दोष नहीं लगता। मांस-भक्षणः निन्दनीय व वर्जनीय {435} क्रव्यादान् राक्षसान् विद्धि जिह्वानृतपरायणान्॥ (म.भा. 13/115/25) जो कुटिलता और असत्य-भाषण में प्रवृत्त होकर सदा मांस-भक्षण किया करते हैं, उन्हें राक्षस समझो। 望听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {436) $听听听听听听坎坎坎巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩听听听听听听听听听听听听听听听巩巩巩巩听听听听听听听织举 मज्जो नाश्नीयात्। (छान्दो. 2/19) मांस न खाएं। {437} न मांसमश्नीयात्। (तैत्ति.ब्रा.1/1/9/71-72) मांस नहीं खाना चाहिए। {438} य इच्छेत् पुरुषोऽत्यन्तमात्मानं निरुपद्रवम्। स वर्जयेत मांसानि प्राणिनामिह सर्वशः॥ (म.भा. 13/115/48) जो मनुष्य अपने आप को अत्यन्त उपद्रवरहित रखना चाहता हो (निर्विघ्न जीवन जीना चाहता हो), वह इस जगत् में प्राणियों के मांस का सर्वथा परित्याग कर दे। %% % %%% % %%%%% %%%%%%%%%% %%% 、 अहिंसा कोश/123] Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 蛋蛋蛋蛋卐 2 {439} मद्यपो रक्तपित्ती स्यात् । (शा. स्मृ., मद्यपान करने वाले मनुष्य को रक्त-पित्त की व्याधि होती है । {440} अभक्षणे सर्वसुखं मांसस्य मनुजाधिप ॥ मांस-भक्षण न करने में ही सब प्रकार का सुख है। {441} यो यस्य मांसमश्नाति स तन्मांसाद उच्यते । मत्स्यादः सर्वमांसादः तस्मान्मत्स्यान् विवर्जयेत् ॥ {442} मांस भक्षयितामुत्र यस्य मांसमिहाम्यहम् । एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ (म.भा. 13/115/52) ( म. स्मृ. 5 / 15 ) जो जिसके मांस को भक्षण करता है, वह उसीका 'मांसाद' कहा जाता है किन्तु मछली के मांस को भक्षण करने वाला तो 'सर्वमांसाद' (सबके मांस का भक्षण करने वाला) होता है, इस कारण से मछली (के मांस) को छोड़ दे (अर्थात् कभी न खाए ) । 91) मद्य व मांसः ब्रह्मचारी व संन्यासी के लिए विशेषतः वर्ज्य {443} स्त्रग्गन्धमधुमांसानि ब्रह्मचारी विवर्जयेत् । [वैदिक / ब्राह्मण संस्कृति खण्ड / 124 (म.स्मृ. 5/ 55; वि. ध. पु. 3/252/21-22) जिसके मांस को यहां पर खाता हूं, वह मुझे परलोक में खायेगा, विद्वान् 'मांस' शब्द का यही मांसत्व (मांसपना अर्थात् मांस शब्द की निरुक्ति) बतलाते हैं। (अर्थात् 'मांस' की निरुक्ति यह बताती है कि उसे जो खाता है, उस खाने वाले को ही वह (मांस) परलोक में या दूसरे जन्म में खाता है- अपना भोजन बनाता है ।) (सं. स्मृ., 5) ब्रह्मचारी को माला, सुगन्धित पदार्थ, मधु और मांस के सेवन का त्याग कर देना चाहिए। 原名 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2卐 {444} वर्जयेन्मधु मांसं च गन्धं माल्यं रसान् स्त्रियः । शुक्तानि यानि सर्वाणि प्राणिनां चैव हिंसनम् ।। (म.स्मृ. 2/177) [ द्रष्टव्य: ग.पु. 1/94/19; अ.पु. 153/14] (ब्रह्मचारी) मधु (शहद), मांस, सुगन्धित ( कपूर, कस्तूरी आदि) पदार्थ, फूलों माला, रस ( गन्ना- जामुन आदि का सिरका आदि), स्त्री, अचार आदि का भक्षण और जीव-हिंसा (किसी प्रकार से जीवों को कष्ट पहुंचाना ) - इन्हें छोड़ दे। {445} मधुमांसाञ्जनोच्छिष्टशुक्तस्त्रीप्राणिहिंसनम् । भास्करालोकनालीलपरिवादादि वर्जयेत् ॥ (या. स्मृ., 1/2/33) मधु व मांस का सेवन (घृतादि से शरीर की मालिश तथा काजल से आंख का ) अंजन, (गुरु के अतिरिक्त अन्य का) जूठा भोजन खाना, कठोर वचन बोलना, स्त्री - सेवन, प्राणिवध, (उदय तथा अस्त के समय) सूर्य को देखना, अश्लील (अवाच्य या असत्य) भाषण, परदोषान्वेषण- इन सब का ब्रह्मचारी त्याग करे । {446} वर्जयेन्मधु मांसं च भौमानि कवकानि च । (म.स्मृ. - 6 /9; प.पु. 3/58/12 ) (वानप्रस्थाश्रमी को चाहिए कि वह) मधु (शहद), मांस, पृथ्वी में उत्पन्न छत्राक (कुकुरमुत्ता) - इन का त्याग करे ( इन्हें नहीं खावे ) । {447} ब्रह्मचर्यात् परं तात मधुमांसस्य वर्जनम् । मर्यादायां स्थितो धर्मः शमश्चैवास्य लक्षणम् ॥ (म.भा. 13/22/25) 1 मांस और मदिरा का त्याग ब्रह्मचर्य से भी श्रेष्ठ है- वही उत्तम ब्रह्मचर्य है । वेदोक्त मर्यादा में स्थित रहना सबसे श्रेष्ठ धर्म है तथा मन और इन्द्रियों को संयम में रखना ही सर्वोत्तम पवित्रता है। 過 अहिंसा कोश / 125] Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 明明明明明明听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢 明明明明明明明明明明明男男男男男男男男男男%%%%%%%%%%%%% मद्य व मांस के त्याग की महिमा {448} यः सर्वमांसानि न भक्षयीत, पुमान् सदा भावितो धर्मयुक्तः । मातापित्रोरर्चिता सत्ययुक्तः, शुश्रूषिता ब्राह्मणानामनिन्द्यः॥ 'अक्रोधनो गोषु तथा द्विजेषु, धर्मे रतो गुरुशुश्रूषकश्च। यावजीवं सत्यवृत्ते रतश्च, दाने रतो यः क्षमी चापराधे॥ मृदुर्दान्तो देवपरायणश्च, सर्वातिथिश्चापि तथा दयावान्। ईदृग्गुणो मानवस्तं प्रयाति, लोकं गवां शाश्वतं चाव्ययं च॥ (म.भा. 13/73/11-15) जो सब प्रकार के मांसों का भोजन त्याग देता है, सदा भगवच्चिन्तन में लगा रहता ॥ म है, धर्मपरायण होता है, माता-पिता की पूजा करता, सत्य बोलता और ब्राह्मणों की सेवा में ॐ संलग्न रहता है, जिसकी कभी निन्दा नहीं होती, जो गौओं और ब्राह्मणों पर कभी क्रोध नहीं है करता, धर्म में अनुरक्त रहकर गुरुजनों की सेवा करता है, जीवन भर के लिये सत्य का व्रत + ले लेता है, दान में प्रवृत्त रहकर किसी के अपराध करने पर भी उसे क्षमा कर देता है, म जिसका स्वभाव मृदुल है,जो जितेन्द्रिय, देवाराधक, सब का आतिथ्य-सत्कार करने वाला * और दयालु है, ऐसे ही गुणों वाला मनुष्य उस सनातन एवं अविनाशी गो-लोक में जाता है। {449} मधु मांसंच ये नित्यं वर्जयन्तीह मानवाः। जन्मप्रभृति मद्यं च दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥ (म.भा. 12/110/22) जो मानव जन्म से ही सदा के लिये मधु, मांस और मदिरा का त्याग कर देते हैं, वे दुस्तर दुःखों से छूट जाते हैं। 乐乐乐乐乐乐乐听听听听听听听听听听听听听%%%%%%%%听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听非 {450} धन्यं यशस्यमायुष्यं स्वयं स्वस्त्ययनं महत्। मांसस्याभक्षणं प्राहुर्नियताः परमर्षयः॥ (म.भा. 13/11 नियम-परायण महर्षियों ने मांस-भक्षण के त्याग को ही धन, यश, आयु व स्वर्ग फ़ की प्राप्ति का प्रधान उपाय एवं परम कल्याण का साधन बताया है। वैदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/126 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男 {451) मधु मांसं च ये नित्यं वर्जयन्तीह धार्मिकाः। जन्मप्रभृति मद्यं च सर्वे ते मुनयः स्मृताः।। (म.भा. 13/115/70) जो धर्मात्मा पुरुष जन्म से ही इस जगत् में शहद, मद्य और मांस का सदा के लिये परित्याग कर देते हैं, वे सब-के-सब मुनि (जैसे) माने गये हैं। 1452) अखण्डमपि वा मांसं सततं मनुजेश्वर। उपोष्य सम्यक् शुद्धात्मा योगी बलमवाप्नुयात्॥ (म.भा.12/300/46) जो लगातार जीवनभर के लिये मांस नहीं खाता है और विधिपूर्वक उत्तम व्रत का पालन करके अपने अन्तःकरण को शुद्ध बना लेता है, वह योगी योगशक्ति प्राप्त कर लेता है। ¥%%%%%%%听听听听听听听听听听听听听听听听听听乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {453} इष्टं दत्तमधीतं च क्रतवश्च सदक्षिणाः। अमांसभक्षणस्यैव कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥ आत्मार्थे यः परप्राणान् हिंस्यात् स्वादुफलेप्सया। व्याघ्रगृध्रशृगालैश्च राक्षसैश्च समस्तु सः॥ स्वमांसं परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति। उद्विग्नवासं लभते यत्र यत्रोपजायते॥ संछेदनं स्वमांसस्य यथा संजनयेद् रुजम्। तथैव परमांसेऽपि वेदितव्यं विजानता॥ (म.भा.13/145/पृ. 5990) __यज्ञ, दान, वेदाध्ययन तथा दक्षिणासहित अनेकानेक यज्ञ-ये सब मिलकर मांस-भक्षण म के परित्याग की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं होते। जो स्वाद की इच्छा से अपने लिए दूसरे के प्राणों की हिंसा करता है, वह बाघ, गीध, सियार और राक्षसों के समान है। जो पराये म मांस से अपने मांस को बढ़ाना चाहता है, वह जहाँ-कहीं भी जन्म लेता है, वहीं उद्वेग में पड़ा है क रहता है। जैसे अपने मांस को काटना अपने लिये पीडाजनक होता है, उसी तरह दूसरे का मांस * काटने पर उसे भी पीड़ा होती है। यह प्रत्येक विज्ञ पुरुष को समझना चाहिये। 男男男男男男男男男男男男男男男男明明明明明明明明明明明明明明明明明、 अहिंसा कोश/127] %%%%%%%%%%听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听乐听听张 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%% %%%%%%% {454} मधु मांसं च ये नित्यं वर्जयन्तीह मानवाः। जन्म प्रभृति मद्यं च दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥ (वि. ध. पु. 2/122/23) जो मनुष्य जन्म से लेकर जीवन-पर्यन्त मधु, मांस व मद्य (आदि) का सेवन नहीं है # करते, वे दुर्गम संकटों को पार कर लेते हैं। 呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢 {455} यस्तु सर्वाणि मांसानि यावजीवं न भक्षयेत्। स स्वर्गे विपुलं स्थानं लभते नात्र संशयः॥ यत् तु वर्षशतं पूर्णं तप्यते परमं तपः। यच्चापि वर्जयेन्मांसं सममेतन वा समम्॥ न हि प्राणैः प्रियतमं लोके किंचन विद्यते। तस्मात् प्राणिदया कार्या यथाऽऽत्मनि तथा परे॥ ___ (म.भा.13/145/पृ. 5990) जो जीवन भर सब प्रकार के मांस त्याग देता है-कभी मांस नहीं खाता, वह स्वर्ग में विशाल स्थान पाता है, इसमें संशय नहीं है। मनुष्य जो पूरे सौ वर्षों तक उत्कृष्ट तपस्या करता है और वह जो सदा के लिये मांस का परित्याग कर देता है-उसके ये दोनों कर्म * समान हैं अथवा समान नहीं भी हो सकते हैं (मांस का त्याग तपस्या से भी उत्कृष्ट है)। 卐 संसार में प्राणों के समान प्रियतम दूसरी कोई वस्तु नहीं है। अतः समस्त प्राणियों पर दया है करनी चाहिये। जैसे अपने ऊपर दया अभीष्ट होती है, वैसे ही दूसरों पर भी होनी चाहिये। 號垢玩垢听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听垢听听听听 {456} अचिन्तितमनिर्दिष्टमसंकल्पितमेव च। रसगृद्ध्याऽभिभूता ये प्रशंसन्ति फलार्थिनः॥ ___ (म.भा. 13/114/16) जो मांस के रस/स्वाद के प्रति होने वाली आसक्ति के कारण उसी अभीष्ट फल (मांस-भक्षण) की अभिलाषा रखते हैं तथा उसके बारंबार गुण गाते हैं, उन्हें ऐसी अचिन्तित क दुर्गति प्राप्त होती है, जिसे वाणी द्वारा कहा नहीं जा सकता तथा जिसकी कल्पना भी नहीं की है ॐ जा सकती। % %%%%%%%%%%%%%% % % % %%% % %%%%%%%% वैदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/128 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N E卐卐卐EEEEEEEE卐म卐卐e {457} वर्जको मधुमांसस्य तस्य तुष्यति केशवः॥ वराहमत्स्यमांसानि यो नात्ति भृगुनन्दन। विरतो मद्यपानाच्च, तस्य तुष्यति केशवः॥ (वि. ध. पु. 1/58/2-3) (भगवान् शंकर का परशुराम को कथन-) हे भृगु-पुत्र! जो व्यक्ति मधु व मांस का सेवन नहीं करता, उस पर भगवान विष्णु प्रसन्न रहते हैं। जो वराह व मत्स्य का मांस नहीं खाता, मद्य-पान भी नहीं करता, उस पर भी भगवान् विष्णु प्रसन्न रहते हैं। 听听听听听听听坎坎听听听听听听听听圳乐听听听听听听斯乐听听听听听听听听听听听听听听乐乐%%%% {458} न भक्षयति यो मांसं न च हन्यान घातयेत्। तन्मित्रं सर्वभूतानां मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत्।। (म.भा. 13/115/10) स्वायम्भुव मनुका कथन है कि जो मनुष्य न मांस खाता है और न पशु की हिंसा करता है और न दूसरे से ही हिंसा कराता है, वह सम्पूर्ण प्राणियों का मित्र है। 明明明明听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听贝贝听听形 . {459) सर्वमांसानि यो राजन् यावजीवं न भक्षयेत्। स्वर्गे स विपुलं स्थानं प्राप्नुयानात्र संशयः॥ ये भक्षयन्ति मांसानि भूतानां जीवितैषिणाम्। भक्ष्यन्ते तेऽपि भूतैस्तैरिति मे नास्ति संशयः॥ मासं भक्षयते यस्माद् भक्षयिष्ये तमप्यहम्। एतन्मांसस्य मांसत्वमनुबुद्ध्यस्व भारत॥ (म.भा.13/116/23-25) जो जीवनभर किसी भी प्राणी का मांस नहीं खाता, वह स्वर्ग में श्रेष्ठ एवं विशाल भ स्थान पाता है, इसमें संशय नहीं है। जो जीवित रहने की इच्छा वाले प्राणियों के मांस को * खाते हैं, वे दूसरे जन्म में उन्हीं प्राणियों द्वारा भक्षण किये जाते हैं। इस विषय में मुझे संशय + नहीं है। (जिसका वध किया जाता है, वह प्राणी कहता है-) मांस भक्षयते यस्मात् भक्षयिष्ये । तमप्यहम् । अर्थात्, आज मुझे वह खाता है तो कभी मैं भी उसे खाऊँगा। यही मांस का मांसत्व ' है-इसे ही मांस शब्द का तात्पर्य समझो। 乐乐乐乐圳乐乐乐乐明明明明明明明明乐乐乐明明明明明明明明明明明明明示 अहिंसा कोश/129]] Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男%%%%%%%%%%%% {460} यो यजेताश्वमेधेन मासि मासि यतव्रतः। वर्जयेन्मधु मांसं च सममेतद् युधिष्ठिर॥ ___(म.भा. 13/115/8) जो पुरुष नियमपूर्वक व्रत का पालन करता हुआ प्रतिमास अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान करे तथा जो केवल मद्य और मांस का परित्याग करे, उन दोनों को एक-सा ही फल मिलता है। {461} न भक्षयति यो मांसं विधिं हित्वा पिशाचवत्। स लोके प्रियतां याति व्याधिभिश्च न पीड्यते॥ (म.स्मृ. 5/50) शास्त्रोक्त विधि का त्याग कर पिशाच के समान मांस-भक्षण करने का जो त्याग करता है, वह लोगों का प्रिय बनता है तथा रोगों से पीड़ित नहीं होता। 明妮妮妮妮妮妮妮妮妮听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听绵纸纸垢坎坎坎垢折垢玩垢 {462} कान्तारेष्वथ घोरेषु दुर्गेषु गहनेषु च। रात्रावहनि संध्यासु चत्वरेषु सभासु च॥ उद्यतेषु च शस्त्रेषु मृगव्यालभयेषु च। अमांसभक्षणे राजन् भयमन्यैर्न गच्छति॥ शरण्यः सर्वभूतानां विश्वास्यः सर्वजन्तुषु। अनुद्वेगकरो लोके न चाप्युद्विजते सदा॥ (म.भा. 13/115/26-28) जो मनुष्य मांस नहीं खाता, उसे संकट-पूर्ण स्थानों, भयंकर दुर्गों एवं गहन वनों क में, रात-दिन और दोनों संध्याओं में, चौराहों पर तथा सभाओं में भी दूसरों से भय नहीं प्राप्त होता। यदि अपने विरुद्ध हथियार उठाये गये हों अथवा हिंसक पशु एवं सर्पो का भय सामने हो तो भी वह दूसरों से नहीं डरता है। वह समस्त प्राणियों को शरण देनेवाला और म उन सब का विश्वासपात्र होता है। संसार में न तो वह दूसरे को उद्वेग में डालता है और न स्वयं ही कभी किसी से उद्विग्न होता है। %%%%%%%玩玩乐乐明明明明听听听听听听听听听听听听听听听听乐乐听听听听听听听听听听乐乐乐乐乐熊 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听小说 वैिदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/130 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 規 2 {463} मांसभक्षणहीनस्य सदा सानुग्रहा ग्रहाः । (fa. &. y. 1/106/12) जो मांस नहीं खाता, उस पर सभी ग्रहों का सदैव अनुग्रह रहता है । {464} निवृत्ता मधुमांसेभ्यः परदारेभ्य एव च । निवृत्ताश्चैव मद्येभ्यस्ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ जो मद्य, मांस, मदिरा और पर- स्त्री इन से दूर रहते हैं, वे मनुष्य स्वर्ग लोक में जाते हैं। {465} सप्तर्षयो बालखिल्यास्तथैव च मरीचिपाः । अमांसभक्षणं राजन् प्रशंसन्ति मनीषिणः ॥ ( म.भा. 12/23/89) (म.भा. 13/115/9 ) सप्तर्षि, बालखिल्य तथा सूर्य की किरणों का पान करने वाले अन्यान्य मनीषी महर्षि मांस न खाने (के व्रत) की ही प्रशंसा करते हैं। {466} अधृष्यः सर्वभूतानां विश्वास्यः सर्वजन्तुषु । साधूनां सम्मतो नित्यं भवेन्मांसं विवर्जयन् ।। ( म.भा. 13 / 115 / 11 ) जो पुरुष मांस का परित्याग कर देता है, उसका कोई भी प्राणी तिरस्कार नहीं करता है, वह सब प्राणियों का विश्वासपात्र हो जाता है तथा श्रेष्ठ पुरुष उसका सदा सम्मान करते हैं। {467} अधृष्यः सर्वभूतानामायुष्मान् नीरुजः सदा । भवत्यभक्षयन् मांसं दयावान् प्राणिनामिह ॥ ( म.भा. 13/115/40) जो व्यक्ति मांस नहीं खाता और इस जगत् में सब जीवों पर दया करता है, उसका कोई भी प्राणी तिरस्कार नहीं करता और वह सदा दीर्घायु एवं नीरोग होता है । 廣 请的 अहिंसा कोश / 131] Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 他明明明明明明明明明明男男男男男男男男男%%%%%%%%%%%% {468} ददाति यजते चापि तपस्वी च भवत्यपि। मधुमांसनिवृत्त्येति प्राह चैवं बृहस्पतिः॥ (म.भा. 13/115/13) जो मद्य और मांस त्याग देता है, वह दान देता, यज्ञ करता और तप करता है अर्थात् उसे दान,यज्ञ और तपस्या का फल प्राप्त होता है- ऐसा बृहस्पति का कहना है। {469} मासि मास्यश्वमेधेन यो यजेत शतं समाः। न खादति च यो मांसं सममेतन्मतं मम॥ (म.भा. 13/115/14; द्र. वि. ध. पु. 3/268/6) जो सौ वर्षों तक प्रतिमास अश्वमेध यज्ञ करता है और जो कभी मांस नहीं खाता 卐 है- इन दोनों का समान फल माना गया है। 坎坎坎垢玩垢乐乐乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {470} वर्षे वर्षेऽश्वमेधेन यो यजेत शतं समाः। मांसानि च न खादेद्यः,तयोः पुण्यफलं समम्॥ (म.स्मृ. 5/53) जो प्रति वर्ष अश्वमेध यज्ञ सौ वर्ष तक करे तथा जो मांस नहीं खावे; उन दोनों * का पुण्यफल (स्वर्गादि लाभ) बराबर है। 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {471} वर्जयन्ति हि मांसानि मासशः पक्षशोऽपि वा। तेषां हिंसानिवृत्तानां ब्रह्मलोको विधीयते॥ ___ (म.भा. 13/115/57) जो एक-एक मास अथवा एक-एक पक्ष तक भी मांस खाना छोड़ देते हैं, हिंसा से दूर हटे हुए उन मनुष्यों को ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है (फिर जो कभी भी मांस नहीं ॐ खाते,उनके लाभ की तो कोई सीमा ही नहीं है)। %%%%%%%%%, %%%%%% %%%%%%%%%%%%%% वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/132 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < % %%%%%%% %%%%%%%%%%%%% %% %%%%%%%% % ___{472} सदा यजति सत्रेण सदा दानं प्रयच्छति। सदा तपस्वी भवति मधुमांसविवर्जनात्॥ (म.भा. 13/115/15) मद्य और मांस का परित्याग करने से मनुष्य सदा यज्ञ करने वाला, सदा दान देने वाला और सदा तप करने वाला होता है। 4731 सर्वे वेदा न तत् कुर्युः सर्वे यज्ञाश्च भारत। यो भक्षयित्वा मांसानि पश्चादपि निवर्तते॥ (म.भा. 13/115/16) जो पहले मांस खाता रहा हो और पीछे उसका सर्वथा परित्याग कर दे, उसको जिस पुण्य की प्राप्ति होती है, उसे सम्पूर्ण वेद और यज्ञ भी नहीं प्राप्त करा सकते। 望听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {474} सर्वान्कामानवाप्नोति हयमेधफलं तथा। गृहेऽपि निवसन्विप्रो मुनिर्मासविवर्जनात्॥ . ___ (या. स्मृ., 1/7/181) मांस का त्याग करने वाला ब्राह्मण सभी कामनाओं को प्राप्त करता है तथा म अश्वमेध यज्ञ के फल को प्राप्त करता है। ऐसा ब्राह्मण गृह में निवास करते हुये भी मुनि (तुल्य) है। {475} हिरण्यदानैर्गोदानैर्भूमिदानैश्च सर्वशः। मांसस्याभक्षणे धर्मो विशिष्ट इति नः श्रुतिः॥ (म.भा. 13/115/41) सुवर्णदान, गोदान और भूमिदान करने से जो धर्म प्राप्त होता है, मांस का भक्षण न करने से उसकी अपेक्षा भी अधिक विशिष्ट धर्म की प्राप्ति होती है। ऐसा हमारे सुनने में के आया है। 明明明明明明明明明明明明明明明勇勇勇%%%%%%%%%%%%%%%、 अहिंसा कोश/133] Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 坑巩巩巩货货货货玩乐巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩听听听听听听听听垢玩垢玩垢玩垢s {476} भक्षयित्वाऽपि यो मांसं पश्चादपि निवर्तते। तस्यापि सुमहान् धर्मो यः पापाद् विनिवर्तते॥ (म.भा. 13/115/44; वि. ध. पु. 3/268/15-16) जो पहले मांस खाता भी हो, किन्तु कभी उससे निवृत्त हो जाता है, उसको भी अत्यन्त महान् धर्म की प्राप्ति होती है; क्योंकि वह पाप से निवृत्त हो गया है। {477} दुष्करं च रसज्ञाने मांसस्य परिवर्जनम्। चर्तुं व्रतमिदं श्रेष्ठं सर्वप्राण्यभयप्रदम्।। (म.भा. 13/115/17) मांस के रस का आस्वादन एवं अनुभव कर लेने पर उसे त्यागना और समस्त प्राणियों को अभय देने वाले इस सर्वश्रेष्ठ अहिंसाव्रत का आचरण करना अत्यन्त कठिन है। 明明媚¥¥¥明明垢听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听明明明明明明明明明明 {478} मांसं तु कौमुदं पक्षं वर्जितं पार्थ राजभिः। सर्वभूतात्मभूतस्थैर्विदितार्थपरावरैः । नाभागेनाम्बरीषेण गयेन च महात्मना। आयुनाथानरण्येन दिलीप-रघु-पूरुभिः॥ कार्तवीर्यानिरुद्धाभ्यां नहुषेण ययातिना। नृगेण विष्वगश्वेन तथैव शशबिन्दुना॥ युवनाश्वेन च तथा शिबिनौशीनरेण च। मुचुकुन्देन मान्धात्रा हरिश्चन्द्रेण वा विभो॥ (म.भा. 13/115/58-61) जिन राजाओं ने आश्विन मास के दोनों पक्ष अथवा एक पक्ष में मांस-भक्षण का ॐ त्याग किया था, वे सम्पूर्ण भूतों के आत्मारूप हो गये थे और उन्हें परावर (परम) तत्त्व का है + ज्ञान हो गया था। उनके नाम इस प्रकार हैं- नाभाग, अम्बरीष, महात्मा गय, आयु, म अनरण्य, दिलीप, रघु, पूरु, कार्तवीर्य, अनिरुद्ध, नहुष, ययाति, नृग, विश्वगश्व, शशबिन्दु, ॐ युवनाश्व, उशीनर पुत्र शिबि, मुचुकुन्द, मान्धाता और हरिश्चन्द्र। 的听听听听听听听听听听听听听听听听听听乐垢垢乐乐乐圳乐乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 玩玩玩玩乐乐玩玩玩乐乐玩玩玩玩玩玩玩玩玩乐乐玩玩乐乐玩玩乐乐玩玩乐乐 वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/134 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 他明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明男男男男%%%%% {479} यस्तु वर्षशतं पूर्णं तपस्तप्येत् सुदारुणम्। यश्चैव वर्जयेन्मांसं सममेतन्मतं मम॥ (म.भा. 13/115/53) (भीष्म का कथन-) जो मनुष्य सौ वर्षों तक कठोर तपस्या करता है तथा जो अ केवल मांस का परित्याग कर देता है-ये दोनों एक समान हैं- ऐसा मेरा मानना है। {480} फलमूलाशनैर्मेध्यैर्मुन्यन्नानां च भोजनैः। न तत्फलमवाप्नोति यन्मांसपरिवर्जनात्॥ (म.स्मृ. 5/54) पवित्र फलों, कन्द-मूलों और मुन्यन्न ( तिनी आदि) के खाने से (मनुष्य) वह फल नहीं पाता है, जो मांस के त्याग से पाता है। H呎听听听听听巩巩听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {481} चतुरो वार्षिकान् मासान् यो मांसं परिवर्जयेत्। चत्वारि भद्राण्यवाप्नोति कीर्तिमायुर्यशोबलम्।। (म.भा. 13/115/55) जो मनुष्य वर्षा के चार महीनों में मांस का परित्याग कर देता है, वह चार कल्याणमयी ' वस्तुओं -कीर्ति, आयु, यश और बल को प्राप्त कर लेता है। 第¥¥¥¥¥听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听明举 {482} अथवा मासमेकं वै सर्वमांसान्यभक्षयन्। अतीत्य सर्वदुःखानि सुखं जीवेन्निरामयः॥ (म.भा. 13/115/56) एक महीने तक सब प्रकार के मांसों का त्याग करने वाला पुरुष भी सम्पूर्ण दुःखों से पार हो सुखी एवं नीरोग जीवन व्यतीत करता है। 乐乐乐乐乐乐%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%% अहिंसा कोश/135]] Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FL听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听乐明明步步。 呢呢呢呢明明听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听玩乐听听听听听 {483} श्येनचित्रेण राजेन्द्र सोमकेन वृकेण च। रैवते रन्तिदेवेन वसुना संजयेन च।। एतैश्चान्यैश्च राजेन्द्र कृपेण भरतेन च। दुष्यन्तेन करूषेण रामालर्कनरैस्तथा॥ विरूपाश्वेन निमिना जनकेन च धीमता। ऐलेन पृथुना चैव वीरसेनेन चैव ह॥ इक्ष्वाकुणा शम्भुना च श्वेतेन सगरेण च। अजेन धुन्धुना चैव तथैव च सुबाहुना॥ हर्यश्वेन च राजेन्द्र क्षुपेण भरतेन च। एतैश्चान्यैश्च राजेन्द्र पुरा मांसं न भक्षितम्।। ब्रह्मलोके च तिष्ठन्ति ज्वलमानाः श्रियान्विताः। उपास्यमाना गन्धर्वैः स्त्रीसहस्त्रसमन्विताः॥ तदेतदुत्तमं धर्मम् , अहिंसाधर्मलक्षणम्। ये चरन्ति महात्मानो नाकपृष्ठे वसन्ति ते॥ (म.भा. 13/115/63-69) श्येनचित्र, सोमक, वृक, रैवत, रन्तिदेव, वसु, संजय, अन्यान्य नरेश, कृप, भरत, दुष्यन्त, करूष, राम, अलर्क, नर, विरूपाश्व, निमि, बुद्धिमान् जनक, पुरूरवा, पृथु, वीरसेन, म इक्ष्वाकु, शम्भु, श्वेतसागर, अज, धुन्धु, सुबाहु, हर्यश्व, क्षुप, भरत- इन सब ने तथा अन्यान्य म राजाओं ने भी भी मांस नहीं खाया था। वे सब नरेश अपनी कान्ति से प्रज्वलित होते हुए वहां ॐ ब्रह्मलोक में विराज रहे हैं, गन्धर्व उनकी उपासना करते हैं और सहस्रों दिव्यांगनाएं उन्हें घेरे रहती हैं। अत: यह अहिंसा रूप धर्म सब धर्मों से उत्तम है। जो महात्मा इसका आचरण # करते हैं, वे स्वर्ग लोक में निवास करते हैं। हिंसक भावों की पोषकः मदिरा {484} हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम्। ऊधर्न नग्ना जरन्ते॥ (ऋ.. 8/2/12) जिस प्रकार दुष्ट मद से युक्त व्यक्ति परस्पर लड़ते हैं, उसी प्रकार दिल खोलकर शराब के * पीने वाले लोग भी परस्पर लड़ते-झगड़ते हैं तथा नङ्गों की भांति (निर्लज्ज होकर) रात भर 卐 बड़बड़ाया करते हैं। 明宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪、张 वैदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/136 听听听听乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听形 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {485} धृति लज्जांच बुद्धिं च पानं पीतं प्रणाशयेत्। तस्मान्नराः सम्भवन्ति निर्लज्जा निरपत्रपाः॥ पानपस्तु सुरां पीत्वा तदा बुद्धिप्रणाशनात्। कार्याकार्यस्य चाज्ञानाद् यथेष्टकरणात् स्वयम्॥ विदुषामविधेयत्वात् पापमेवाभिपद्यते॥ (म.भा.13/145/पृ. 5987) पी हुई मदिरा मनुष्य के धैर्य, लज्जा और बुद्धि को नष्ट कर देती है। इससे मनुष्य निर्लज और बेहया हो जाते हैं। शराब पीने वाला मनुष्य उसे पीकर बुद्धि का नाश हो जाने 卐 से, कर्त्तव्य और अकर्तव्य का ज्ञान न रह जाने से, स्वच्छन्द कार्य करने से तथा विद्वानों की * आज्ञा के अधीन न रहने से पाप को ही प्राप्त होता है। {486} 望听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 गुरूनतिवदेन्मत्तः परदारान् प्रधर्षयेत्। संविदं कुरुते शौण्डैन शृणोति हितं क्वचित्। एवं बहुविधा दोषाः पानपे सन्ति शोभने। केवलं नरकं यान्ति नास्ति तत्र विचारणा॥ तस्मात् तद् वर्जितं सद्भिः पानमात्महितैषिभिः। यदि पानं न वर्जेरन् सन्तश्चारित्रकारणात्। भवेदेतज्जगत् सर्वममर्यादं च निष्क्रियम्॥ तस्माद् बुद्धेर्हि रक्षार्थं सद्भिः पानं विवर्जितम्। (म.भा.13/145/पृ. 5987) वह मतवाला होकर गुरुजनों से बहकी-बहकी बातें करता है, परायी स्त्रियों से बलात्कार करता है, धूर्तों और जुआरियों के साथ बैठ कर सलाह करता है और कभी किसी म की कही हुई हितकर बात भी नहीं सुनता है। शोभने! इस प्रकार मदिरा पीने वाले में बहुत से दोष हैं। वे केवल नरक में जाते हैं, इस विषय में कोई विचार (संदेह) करने की बात नहीं हैं। इसलिये अपना हित चाहने वाले सत्पुरुषों ने मदिरा-पान का सर्वथा त्याग किया है। यदि + सदाचार की रक्षा के लिये सत्पुरुष मदिरा पीना न छोड़ें तो यह सारा जगत् मर्यादारहित और 4 ॐ अकर्मण्य हो जाय। अतः श्रेष्ठ पुरुषों ने बुद्धि की रक्षा के लिये ( उसे हिंसक भावों से ' * बचाने के लिए) मद्यपान को त्यागा है। $乐乐乐乐乐玩玩乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐听听听听听听听听听听听听听听听听听 अहिंसा कोश/137] Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {487} अमेध्ये वा पतेन्मत्तो वैदिकं वाप्युदाहरेत् । अकार्यमन्यत्कुर्याद्वा ब्राह्मणो मदमोहितः ॥ (म.स्मृ. 11/96) (क्योंकि मद्यपान से मतवाला) ब्राह्मण अपवित्र ( मल-मूत्रादि से अशुद्ध नाली आदि) में गिरेगा, वेदवाक्य का उच्चारण करेगा और निषिद्ध कर्म (अहिंस्य - हिंसा आदि ) करेगा (अत एव उसे मद्यपान नहीं करना चाहिये) । {488} न हि धर्मार्थसिद्ध्यर्थं पानमेवं प्रशस्यते । पानादर्थश्च कामश्च धर्मश्च परिहीयते ॥ 。 ( वा.रामा. 4/33/46) धर्म और अर्थ की सिद्धि के निमित्त प्रयत्न करने वाले पुरुष के लिये मद्यपान अच्छा नहीं माना जाता है, क्योंकि मद्यपान से अर्थ, धर्म और काम- इन तीनों का नाश होता है। {489} केचिद्धसन्ति तत् पीत्वा प्रवदन्ति तथा परे । नृत्यन्ति मुदिताः केचिद् गायन्ति च शुभाशुभान् ॥ कलिं ते कुर्वतेऽभीष्टं प्रहरन्ति परस्परम् । क्वचिद् धावन्ति सहसा प्रस्खलन्ति पतन्ति च ॥ अयुक्तं बहु भाषन्ते यत्र क्वचन शोभने । नग्ना विक्षिप्य गात्राणि नष्टज्ञाना इवासते ॥ एवं बहुविधान् भावान् कुर्वन्ति भ्रान्तचेतनाः । ये पिबन्ति महामोहं पानं पापयुता नराः ॥ [वैदिक / ब्राह्मण संस्कृति खण्ड / 138 (म.भा.13/145/पृ. 5987) (शिव द्वारा पार्वती को मदिरा पीने के दोष बताना - ) मदिरा पीने वाले उसे पीकर नशे में अट्टहास करते हैं, अंट-संट बातें बकते हैं, कितने ही प्रसन्न होकर नाचते हैं और भले-बुरे गीत गाते हैं । वे आपस में इच्छानुसार कलह करते और एक दूसरे को मारते-पीटते हैं। कभी सहसा दौड़ पड़ते हैं, कभी लड़खड़ाते और गिरते हैं। शोभने ! वहाँ जहाँ-कहीं भी अनुचित बातें बकने लगते हैं और कभी नंग-धड़ंग हो हाथ-पैर पटकते हुए अचेत से हो जाते हैं। इस प्रकार भ्रान्तचित्त होकर वे नाना प्रकार के (हिंसक) भाव प्रकट करते हैं। जो महामोह में डालने वाली मदिरा पीते हैं, वे मनुष्य पापी होते हैं। $$$$$$$$$$$ 乐乐 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE m 3 ____{490} परिभूतो भवेल्लोके मद्यपो मित्रभेदकः। सर्वकालमशुद्धश्च सर्वभक्षस्तथा भवेत्॥ विनष्टो ज्ञानविद्वद्भ्यः सततं कलिभावगः। परुषं कटुकं घोरं वाक्यं वदति सर्वशः॥ __ (म.भा.13/145/पृ. 5987) मदिरा पीने वाला पुरुष जगत में अपमानित होता है। मित्रों में फूट डालता है, सब कुछ खाता और हर समय अशुद्ध रहता है। वह स्वयं हर प्रकार से नष्ट होकर विद्वान् विवेकी में पुरुषों से झगड़ा किया करता है। सर्वथा रूखा, कड़वा और भयंकर वचन बोलता रहता है। अहिंसकः मदिरा व मांस का त्यागी 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {491} सुरां वै मलमन्नानां पाप्मा च मलमुच्यते। तस्माद् ब्राह्मणराजन्यौ वैश्यश्च न सुरां पिबेत्॥ - (म.स्मृ. 11/93; वि. ध. पु. 3/234/41) सुरा (मदिरा) अन्नों (खाद्य पदार्थों) का मल है और इसे खाने वाला पापी भी मल कहा जाता है, इस कारण से ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्यों को सुरा नहीं पीना चाहिये। 14921 अपेयं वाऽप्यपेयञ्च तथैवास्पृश्यमेव च। द्विजातीनामनालोच्यं नित्यं मद्यमिति स्थितिः॥ तस्मात्सर्वप्रयत्नेन मद्यं निन्द्यञ्च वर्जयेत्॥ पीत्वा पतितः कर्मभ्यो न सम्भाष्यो भवेद् द्विजैः॥ (कू.पु. 2/17/41-42; प.पु. 3/56/44) सभी द्विजातियों के लिए मद्य एक ऐसी वस्तु है जो कभी भी पीने, छूने, यहां तक है कि देखने के योग्य भी नहीं है-यह सर्वसम्मत तथ्य है। इसलिए द्विजातियों को चाहिए कि फ किसी भी तरह मद्य का त्याग करें। जो मद्य पीता है, वह कर्म से पतित हो जाता है और र उससे भाषण भी नहीं करना चाहिए। %%%%%%%%% %%%%%%%%% %%%%%%%%%%%%% अहिंसा कोश/139] Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 過 出 {493} यस्य कायगतं ब्रह्म मद्येनाप्लाव्यते सकृत् । तस्य व्यपैति ब्राह्मण्यं शूद्रत्वं च स गच्छति ॥ (म.स्मृ. 11/95) जिस ब्राह्मण का शरीरस्थ ब्रह्म (वेद-संस्कार रूप से अवस्थित उसका जीवात्मा) एक बार भी मद्य से आप्लावित होता है अर्थात् जो ब्राह्मण एक बार भी मद्य पीता है, तो उसका ब्राह्मणत्व नष्ट हो जाता है तथा वह शूद्रत्व को प्राप्त करता है । {494} यक्षरक्षः पिशाचान्नं मद्यं मांसं सुरासवम् । तद् ब्राह्मणेन नात्तव्यं देवानामश्नता हविः ॥ (म.स्मृ. 11/95) मद्य, मांस, सुरा और आसव- ये चारों यक्ष-राक्षसों तथा पिशाचों के अन्न (भक्ष्य पदार्थ) हैं, अत एव देवताओं के हविष्य खाने वाले ब्राह्मणों को उनका भोजन (पान) नहीं करना चाहिये । {495} ब्रह्महत्या सुरापानं स्तेयं गुर्वङ्गनागमः । महान्ति पातकान्याहुः संयोगश्चैव तैः सह ॥ (37.g. 168/24) ब्रह्महत्या, मदिरापान, चोरी, गुरुपत्नी - समागम करना तथा ऐसे व्यक्तियों के साथ संयोग (मेलजोल आदि ) - ये पांचों कार्य महापातक कहे गये हैं । {496} यस्त्विह वै विप्रो राजन्यो वैश्यो वा सोमपीथस्तत्कलत्रं वा सुरां व्रतस्थोऽपि वा पिबति प्रमादतस्तेषां निरयं नीतानामुरसि पदाऽऽक्रम्यास्ये वह्निना द्रवमाणं कार्ष्णायसं निषिञ्चन्ति ॥ (भा.पु. 5/26/29) जो सोमरस पीनेवाला ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा उनकी स्त्री यज्ञव्रत ग्रहण करके भी प्रमादवश मदिरा पीते हैं, उन्हें यम के दूत नरक में ले जाते और उनकी छाती पर पांव रख कर उनके मुंह में गलाया हुआ गरम लोहा डालते हैं । 原出, [वैदिक / ब्राह्मण संस्कृति खण्ड / 140 原廠 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < %%%%%%% %%%%%%%%%% % %%% %%%% {5} अहिंसाः अनेक धर्मों की प्राण - [अहिंसा के अतिरिक्त अन्य जो भी अनेक धर्म हैं, जैसे - सत्य, अचौर्य, दया, क्षमा, दान, आदि आदि, उन सब की पूर्णता, अहिंसा के बिना सम्भव नहीं हो पाती। दूसरे शब्दों में अहिंसा के पूर्णतः पालन से सभी अन्य धर्मों की पालना सहजतया हो जाती है। सभी धर्मों में 'अहिंसा' एक अनिवार्य घटक के रूप में अनुस्यूत दृष्टिगोचर होती है। जहां असत्य, परिग्रह, निर्दयता, क्रूरता, क्रोध, कृपणता आदि में हिंसा कहीं न कहीं जुड़ी होती है, वहां सत्य, अपरिग्रह, दया, क्षमा आदि धर्म 'अहिंसा' रूपी परम धर्म की शाखा- प्रशाखाएं है। इसी तथ्य से सम्बधित कुछ शास्त्रीय उद्धरण यहां प्रस्तुत हैं-] 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 अहिंसा और सत्यः परस्पर-सम्बद्ध ___{497} अहिंसा सत्यवचनं सर्वभूतहितं परम्। अहिंसा परमो धर्मः स च सत्ये प्रतिष्ठितः। सत्ये कृत्वा प्रतिष्ठां तु प्रवर्तन्ते प्रवृत्तयः।। (म.भा. 3/207/74) ___ अहिंसा और सत्यभाषण-ये समस्त प्राणियों के लिये अत्यन्त हितकर हैं। अहिंसा के सबसे महान् धर्म है, परंतु वह सत्य में ही प्रतिष्ठित है और (सत्य) उसी के ही आधार पर ॐ श्रेष्ठ पुरुषों के सभी कार्य आरम्भ होते हैं। {498} सत्यं च समता चैव दमश्चैव न संशयः। अमात्सर्यं क्षमा चैव हीस्तितिक्षाऽनसूयता॥ त्यागो ध्यानमथार्यत्वं धृतिश्च सततं स्थिरा। अहिंसा चैव राजेन्द्र सत्याकारास्त्रयोदश॥ (म.भा. 12/162/8-9) सत्य, समता, दम (इन्द्रिय-निग्रह), मत्सरता का अभाव, क्षमा, लज्जा, तितिक्षा (सहनशीलता), अनसूया, त्याग, परमात्मा का ध्यान, आर्यता (श्रेष्ठ आचरण), निरन्तर स्थित रहने वाली धृति (धैर्य) तथा अहिंसा-ये तेरह (सद्गुण) सत्य के ही स्वरूप हैं, न इसमें संशय नहीं है। 第 勇 %%%%%% %%%%%%%%%% %%%%%% %% %%%% % अहिंसा कोश/141] 听听听听听听听听巩巩巩听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 、所所所所所所所所所所所野野野野野野野野野野野野野野野野野野野店 अहिंसा/हिंसा की कसौटी पर ही सत्य/असत्य का निर्णय {499} यद् भूतहितमत्यन्तं तत् सत्यमिति धारणा। विपर्ययकृतोऽधर्मः पश्य धर्मस्य सूक्ष्मताम्॥ (म.भा. 3/209/4; वि. ध. पु. 3 /265/13) (धर्म-व्याध का कौशिक ब्राह्मण को कथन-) जिससे परिणाम में प्राणियों का म अत्यन्त हित होता हो, वह वास्तव में सत्य है। इसके विपरीत जिससे किसी का अहित होता फ़ हो या दूसरों के प्राण जाते हों, वह देखने में सत्य होने पर भी वास्तव में असत्य एवं अधर्म है। इस प्रकार विचार करके देखिये, धर्म की गति कितनी सूक्ष्म है। {500) 卯卯卯听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 अनृतं तद्धि विज्ञेयं सर्वश्रेयोविरोधि तत्। (ना. पु. 1/16/28) जो वचन सभी के कल्याण/हित का विरोधक होता है, उसे 'असत्य' जानना चाहिए। %%%%%%%听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听形 {501) सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यं ज्ञानं हितं भवेत्। यद् भूतहितमत्यन्तं तद् वै सत्यं परं मतम्॥ (म.भा. 3/213/31) सत्य बोलना सदा कल्याणकारी है। सत्य-सम्बन्धी यथार्थ ज्ञान हितकारी होता है। जिससे प्राणियों का अत्यन्त हित होता है, उसे ही उत्तम सत्य माना गया है। {502} स्त्रीषु नर्मविवाहे च वृत्त्यर्थे प्राणसंकटे। गोब्राह्मणार्थे हिंसायां नानृतं स्याज्जुगुप्सितम्॥ (भा.पु. 8/19/43) 'स्त्रियों में, हास-परिहास के समय, विवाह में , आजीविका की रक्षा के लिए, # प्राणसंकट उपस्थित हो जाने पर , गौ या ब्राह्मणों के हित के लिये तथा किसी की हिंसा (को रोकने)में असत्य-भाषण करना निन्दनीय नहीं माना गया है। 明明明 明 明劣%% %%% %%%%%%%%%%%%%%%%%%% वैिदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/142 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 男男男男男男男男%%%%%%%% %%% % %%%%%%%% {503} परत्र स्वबोध-संक्रान्तये वाग् उक्ता, सा यदि न वञ्चिता भ्रान्ता वा प्रतिपत्तिवन्ध्या वा भवेद् इति। एषा सर्वभूतोपकारार्थं प्रवृत्ता,न भूतोपघाताय। है यदि चैवमपि अभिधीयमाना भूतोपघातपरैव स्यात्, न सत्यं भवेत्, पापमेव 9 भवेत्।... तस्मात् परीक्ष्य सर्वभूतहितं सत्यं ब्रूयात्। (यो.सू. 2/30 पर व्यास-भाष्य) अपने अनुभव/ज्ञान को दूसरे के पास संक्रान्त करने के उद्देश्य से वाणी का प्रयोग किया जाता है, वह सत्य तभी कहलाएगी यदि वह वञ्चना व भ्रान्ति से युक्त एवं प्रतिपादनई सामर्थ्य-हीन न हो। सत्य वाणी समस्त प्राणियों के उपकार हेतु ही प्रवृत्त होती है, न कि ॐ प्राणि-घात हेतु । यदि वह वाणी प्रयुक्त होकर प्राणि-विघातक ही हो, तो वह 'सत्य' नहीं * होगी, 'पाप' (असत्य) ही होगी।----इसलिए सोच-समझकर सर्वप्राणि-हितकारिणी ॐ सत्य-भाषा ही बोलनी चाहिए। 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听%%%%%%%%%听听听听听听听听听听听听听听听听听 {504} येऽन्यायेन जिहीर्षन्तो धनमिच्छन्ति कस्यचित्। तेभ्यस्तु न तदाख्येयं स धर्म इति निश्चयः।। __(म.भा. 12/109/14) जो अन्याय से अपहरण करने की इच्छा रखकर किसी धनी के धन का पता लगाना चाहते हों, उन लुटेरों से उसका पता न बतावे और यही धर्म है, ऐसा निश्चय रक्खे। }%%%巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩听听听听听听听听听听听听巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩 {505} पृष्टं तु साक्ष्ये प्रवदन्तमन्यथा, वदन्ति मिथ्या पतितं नरेन्द्र। एकार्थतायां तु समाहितायां, मिथ्या वदन्तं त्वनृतं हिनस्ति॥ ___ (म.भा.1/82/17) किसी निर्दोष प्राणी का प्राण बचाने के लिये गवाही देते समय किसी के पूछने पर अन्यथा (असत्य) भाषण करने वाले को यदि कोई पतित कहता है तो उसका कथन + मिथ्या है। परंतु जहां अपने और दूसरे, दोनों के ही प्राण बचाने का प्रसंग उपस्थित हो, अ वहाँ केवल अपने प्राण बचाने के लिये मिथ्या बोलने वाले का असत्यभाषण उसका नाश म कर देता है। 玩玩玩玩乐乐巩巩巩听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 अहिंसा कोश/143] Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WASEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE ms {506} सत्यमिति अमायिता, अकौटिल्यं वाड्मनःकायानाम्। (केन. शां. भा. 4/8) मन, वाणी व कर्म की माया-रहितता तथा अकुटिलता का नाम 'सत्य' है। F明明听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听垢听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听。 {507} सर्वस्वस्यापहारे तु वक्तव्यमनृतं भवेत्। तत्रानृतं भवेत् सत्यं सत्यं चाप्यनृतं भवेत्॥ तादृशं पश्यते बालो यस्य सत्यमनुष्ठितम्। भवेत् सत्यमवक्तव्यं न वक्तव्यमनुष्ठितम्। सत्यानृते विनिश्चित्य ततो भवति धर्मवित्॥ (म.भा. 8/69/34-35) जब किसी का सर्वस्व छीना जा रहा हो तो उसे बचाने के लिये झूठ बोलना कर्तव्य है। वहां असत्य ही सत्य और सत्य ही असत्य हो जाता है। जो व्यवहार में सत्य को सर्वत्र सत्य (और असत्य को सर्वत्र असत्य) रूप में देखता-समझता है, वह 'मूर्ख' है। व्यवहार में जो सत्य भी बोलने योग्य नहीं हो, तो उसे नहीं बोलना चाहिए। इस तरह, पहले सत्य और असत्य का अच्छी तरह निर्णय करना चाहिए।जो ऐसा करता है, वही धर्म का ज्ञाता है। 听听听听听听听听听听听听乐乐乐加乐乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {508} अनृतां वा वदेद् वाचं, न तु हिंस्यात् कथंचन॥ (म.भा. 8/69/23) किसी भी प्राण-रक्षा के लिए झूठ बोलना पड़े तो बोल दे, किन्तु उसकी हिंसा न होने दे। {509} प्राणात्यये विवाहे च वक्तव्यमन्तं भवेत्। अर्थस्य रक्षणार्थाय परेषां धर्मकारणात्। (म.भा. 12/109/20) प्राण-संकट के समय, विवाह के अवसर पर, दूसरे के धन की रक्षा के लिये तथा है # धर्म की रक्षा के लिए असत्य बोला जा सकता है। 第 %%%% %%% %%% %% %%%%%%%% %% %% % % 勇 % %% %%% %% वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/144 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 他男男男%%%%%%%%%%% %%%%%%%%%% %%%%%%% ___{510} अकूजनेन चेन्मोक्षो नावकूजेत् कथंचन। अवश्यं कूजितव्ये वा शङ्केरन् वाप्यकूजनात्॥ श्रेयस्तत्रानृतं वक्तुं सत्यादिति विचारितम्। यः पापैः सह सम्बन्धान्मुच्यते शपथादपि॥ न तेभ्योऽपि धनं देयं शक्ये सति कथंचन। पापेभ्यो हि धनं दत्तं दातारमपि पीडयेत्॥ ___ (म.भा. 12/109/15-17) यदि न बताने से लुटेरों से किसी धनी का बचाव हो जाता हो तो किसी तरह वहां ॐ कुछ बोले ही नहीं, परन्तु यदि बोलना अनिवार्य हो जाय और न बोलने से लुटरों के मन में [ संदेह पैदा होने लगे तो वहां सत्य बोलने की अपेक्षा झूठ बोलने में ही कल्याण है -यही इस विषय में विचार पूर्वक निर्णय कर्तव्य है। यदि शपथ खा लेने से पापियों के हाथ से छुटकारा मिल जाये तो वैसा ही करे। जहां तक वश चले, किसी तरह भी पापियों के हाथ में धन न फ जाने दे; क्योंकि पापाचारियों को दिया हुआ धन दाता को ही पीड़ित करता है। 日¥¥¥¥听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听圳听听听听听听出职报 $听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 ___{511} तद्वदन् धर्मतोऽर्थेषु जाननप्यन्यथा नरः। न स्वर्गाच्च्यवते लोकाद् दैवीं वाचं वदन्ति ताम्॥ शूद्रविक्षत्रविप्राणां यत्रतॊक्तौ भवेद्वधः। तत्र वक्तव्यमनृतं तद्धि सत्याद्विशिष्यते॥ (म.स्मृ.-8/103-104) तथ्य को जानता हुआ धर्म (दया, जीवरक्षा आदि) के निमित्त से प्रस्तुत अवसर पर अन्यथा कहने वाला मनुष्य स्वर्गलोक से भ्रष्ट नहीं होता अर्थात् धर्मबुद्धि से असत्य अ साक्षी देने वाले का स्वर्ग नहीं बिगड़ता है। (मनु आदि महर्षिगण) उस वाणी को दैवी (देव ॥ सम्बन्धिनी) वाणी कहते हैं। अत: जहां सत्य कहने पर शूद्र वैश्य, क्षत्रिय या ब्राह्मण को प्राणदण्ड (फांसी) हो सकता हो; वहां असत्य कहना (गवाही देना) चाहिये, क्योंकि वह * (असत्य कहना) सत्य कहने से श्रेष्ठ है। . 明明明明听听听听听听听听听听听听听听乐乐玩玩乐乐玩玩乐乐乐乐乐乐乐乐乐 अहिंसा कोश/145] Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % % % %% %%%% %%%%%% %%%% % % % %% % {512} वर्णिनां हि वधो यत्र, तत्र साक्ष्यनृतं वदेत्।। ___(या. स्मृ., 2/5/83) जहां (सत्य बोलने से) चारों वर्गों में से किसी का वध होता हो, वहां साक्षी (गवाह) (उनकी रक्षा-हेतु)असत्य बोले। {513} प्राणत्राणेऽनृतं वाच्यमात्मनो वा परस्य च। (म.भा. 12/34/25) अपने या दूसरों के प्राण बचाने के लिये, गुरु के लिये असत्य बोलना उचित है। हिंसक वचनः कटुवचन F听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听乐贝贝听听听听听听听听听听听听听 {514} रोहते सायकैर्विद्धं वनं परशुना हतम्। वाचा दुरुक्तं बीभत्सं न संरोहति वाक्क्षतम्॥ (म.भा. 5/34/78, विदुरनीति 2/78; पं.त. 3/111 में आंशिक परिवर्तन के साथ) बाणों से बिंधा हुआ तथा फरसे से काटा हुआ वन भी अंकुरित हो जाता है; किंतु कटु वचन के रूप में वाणी से किया हुआ भयानक घाव (कभी) नहीं भरता। ___{515} वाक्सायका वदनान्निष्पतन्ति, पैराहतः शोचति रात्र्यहानि। परस्य नामर्मसु ते तपन्ति, तान् पण्डितो नावसृजेत् परेषु॥ (म.भा. 1/87/11; 5/34/80, तथा 2/66/7 एवं 12/299/9 में; वि. ध. पु. 3/233/280 और म.पु. 36/11 में भी आंशिक परिवर्तन के साथ) दुष्ट मनुष्यों के मुख से कटुवचन रूपी बाण सदा छूटते रहते हैं, जिनसे आहत होकर ॥ मनुष्य रात-दिन शोक व चिन्ता में डूबा रहता है। वे कटुवचन रूपी बाण दूसरों के मर्मस्थानों : के पर ही चोट करते हैं। अतः विद्वान पुरुष दूसरे के प्रति ऐसी कठोर वाणी का प्रयोग न करे। 乐乐乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 वैदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/146 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 055555555555555555555555555555 男男男男男男男男男男男男男男男男%%%%%%%%%%%%%%%%%% {516} तथाऽरिभिर्न व्यथते शिलीमुखैः शेतेऽर्दिताङ्गो हृदयेन दूयता। स्वानां यथा वक्रधियां दुरुक्तिभिर्दिवानिशं तप्यति मर्मताडितः॥ (भा.पु. 4/3/19) शत्रुओं के द्वारा बाणों से विद्ध हो जाने पर इतना क्लेश नहीं होता जितना कि अपने * कुटिलबुद्धि वाले स्वजनों के कुवाक्यों से होता है। क्योंकि बाणों से शरीर के छिन्न-भिन्न हो जाने पर मनुष्य के हृदय में पीड़ा रहने पर भी किसी तरह नींद आ सकती है, किन्तु दुष्टों के कुवाक्यों से मर्मस्थान के विद्ध हो जाने पर, रात-दिन बेचैनी बनी रहती है। 5171 अदेशकालज्ञमनायतिक्षमं यदप्रियं लाघवकारि चात्मनः । योऽत्राब्रवीत् कारणवर्जितं वचः न तद्वचः स्यात् विषमेव तद्वचः॥ (पं.त. 3/112) इस संसार में जो मनुष्य विना कारण ही देश-काल के विरुद्ध, भविष्य में दुःखदायी, अप्रिय और अपने ओछेपन (लघुता) को प्रकाशित करने वाला वचन बोलता है वह वचन, वचन नहीं है, अपितु विष ही होता है। %%%听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {518} कर्णिनालीकनाराचान् निर्हरन्ति शरीरतः। वाक्शल्यस्तु न निर्हर्तुं शक्यो हदिशयो हि सः॥ ___ (म.भा. 5/34/79, विदुरनीति 2/79) 卐 कर्णि, नालीक और नाराच नामक बाणों को शरीर से निकाल सकते हैं, परन्तु कटु वचनरूपी बाण नहीं निकाला जा सकता; क्योंकि वह हृदय के भीतर तक धंस जाता है। [टिप्पणी:- 1.जिधर बाण के फल का रुख हो, उससे विपरीत रुखवाले दो कांटों से युक्त बाण को कर्णी ॥ कहते हैं। शरीर में धंस जाने पर यदि उसे निकाला जाय तो वह आंतों को भी अपने साथ खींच लेता है, इसलिये अतिपीड़ादायक होता है। 2. नालीक नामक बाण अत्यन्त छोटा होता है, वह शरीर में पूरा-का-पूरा घुस जाता है, अतः उसे भी निकालना कठिन हो जाता है। 3. नाराच सम्पूर्ण लोहे का बना तीक्ष्ण बाण होता है जिसमें पांच कांटें। पंख होते हैं।] 第勇男男男男%%%%%%%%%%% %%%%%%%%%% %%%男 अहिंसा कोश/147] Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसक असत्य वचन त्याज्य {519} निष्ठरं भाषणं यत्र तत्र नित्यं वसाम्यहम्॥ (प.पु. 6(उत्तर)/116/15) (अलक्ष्मी/ दरिद्रता का कथन-) जहां-जहां लोग कठोर भाषण करते हैं, वहां मैं सर्वदा निवास करती हूं। {520} अभ्यावहति कल्याणं विविधं वाक् सुभाषिता। सैव दुर्भाषिता राजन्ननायोपपद्यते॥ __ (म.भा. 5/34/77, विदुरनीति 2/77) मधुर शब्दों में कही हुई बात अनेक प्रकार से कल्याण करती है; किन्तु वही यदि कटु शब्दों में कही जाय तो महान् अनर्थ कारण बन जाती है। 圳坂垢垢织乐乐听听听听听听听听听听听垢听听听听听听听听听听听听听听听听听听听坎坎贝听听听听听听听 {521} न वदेत् सर्वजन्तूनां हृदि रोषकर बुधः।। 乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 (शि.पु. 1/13/80) ___ ऐसी कोई बात किसी भी प्राणी के विषय में न कहे जिससे उसके हृदय में कोई रोष पैदा हो। {522} तस्मात् सान्त्वं सदा वाच्यं न वाच्यं परुषं क्वचित्। ___ (म.भा. 1/87/13) कभी कठोर वचन न बोले। सदा सान्त्वनापूर्ण मधुर वचन ही बोले। {523} कक्षा परुषा वाचो न ब्रूयात्।। (बौ. स्मृ. स्नातक व्रत/28) ब्रह्मचारी को चाहिए कि वह रूखे और परुष (कठोर) वचन नहीं बोले। 把身男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男%%%%%%%%%%%、 विदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/148 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 乐乐明明明明明明明明明明明明明明乐乐乐乐乐乐乐虫虫听听听听听乐乐乐乐 (524 वर्जयेदुशती वाचं हिंसायुक्तां मनोनुदाम्। ' (म.भा.12/240/9) साधक को चाहिये कि मन को पीड़ा देने वाली हिंसायुक्त वाणी का प्रयोग न करे। {525} नित्यं मनोपहारिण्या वाचा प्रह्लादयेज्जगत्। उद्वेजयति भूतानि क्रूरवाग्धनदोऽपि सन्॥ __ (शु.नी. 1/166) हमेशा मनोहर वचनों से जगत् को प्रसन्न करना चाहिये, क्योंकि यदि धन देने वाला कुबेर के समान भी हो, परन्तु क्रूर वाणी बोलने से वह मनुष्यों को उद्विग्न ही करता है। “明明明明明明明明明明垢听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听老 ___{526} कोपात्कटूक्तिर्नियतं कटूक्त्या . शत्रुता भवेत्। तथा चाप्रियता सद्यः शत्रुः कः कस्य भूतले॥ को वा प्रियोऽप्रियः को वा किं मित्रं को रिपुर्भवेत्। इन्द्रियाणि च बीजानि सर्वत्र शत्रुमित्रयोः॥ ___ (ब्र.वै.पु. 4/24/64-65) ___ कोप से कटूक्ति निश्चय ही बोली जाती है, कटूक्ति से शत्रुता होती है और शत्रुता से तुरंत अप्रियता आ जाती है-नहीं तो पृथिवी पर कौन किसका शत्रु है? कौन प्रिय है और मैं # कौन अप्रिय? सर्वत्र शत्रु-मित्र होने में जिह्वा आदि इन्द्रियां ही कारण होती हैं। 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听學 {527} वैरं पञ्चसमुत्थानं तच्च बुध्यन्ति पण्डिताः। स्त्रीकृतं वास्तुजं वाग्जं ससापत्नापराधजम्॥ (म.भा.12/139/42) __ वैर पांच कारणों से हुआ करता है, इस बात को विद्वान् पुरुष अच्छी तरह जानते ॥ म हैं:- 1. स्त्री के लिये, (2) घर और जमीन के लिये, (3) कटोर वाणी के कारण, (4) # जातिगत द्वेष के कारण, और (5) किसी समय किये हुए अपराध के कारण। $%%%%男男男男男男男男男男男男宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪、 अहिंसा कोश/149] Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ $$$$$$$$ 編編編, {528} अरुन्तुदं परुषं तीक्ष्णवाचं वाक्कण्टकैर्वितुदन्तं मनुष्यान् । विद्यादलक्ष्मीकतमं जनानां मुखे निबद्धां निर्ऋतिं वहन्तम् ॥ (म.भा. 1/87/9; 5/36/8, म. पु. 36/9 कुछ परिवर्तित रूप में, विदुरनीति 4 / 8 ) जो स्वभाव का कठोर हो, दूसरों के मर्म में चोट पहुंचाता हो, तीखी बातें बोलता हो और कठोर वचनरूपी कांटों से दूसरे मनुष्य को पीड़ा देता हो, उसे अत्यन्त लक्ष्मीहीन (दरिद्र या अभागा ) समझें। (उसको देखना भी बुरा है ; क्योंकि) वह कड़वी बोली के रूप में (मानों) अपने मुंह में बंधी हुई एक पिशाचिनी को ढो रहा है। {529} नारुन्तुदः स्यान्न नृशंसवादी न हीनतः परमभ्याददीत । ययाऽस्य वाचा पर उद्विजेत न तां वदेदुषतीं पापलोक्याम् ॥ (म.भा. 1/87/8; 2/66/ 6; 12 / 299/8; वि. ध. पु. 3/233/279 ; म. पु. 36/8 में कुछ परिवर्तित रूप में) क्रोधवश किसी के मर्म-स्थान में चोट न पहुंचाये ( ऐसा बर्ताव न करे, जिससे किसी को मार्मिक पीड़ा हो) । किसी के प्रति कठोर बात भी मुंह से निकाले । जो मन को जलाने वाली हो, जिससे दूसरे को उद्वेग होता हो, ऐसी बात मुंह से न बोले; क्योंकि पापी लोग ही ऐसी बातें बोला करते हैं। शत्रु के विरुद्ध भी अनुचित उपाय का सहारा न ले। {530} मर्माभिघातमाक्रोशं पैशुन्यञ्च विवर्जयेत् । दम्भाभिमानतीक्ष्णानि न कुर्वीत विचक्षणः । मूर्खोन्मत्तव्यसनिनो विरूपान्मायिनस्तथा ॥ न्यूनाङ्गांश्चाधिकाङ्गांश्च नोपहासैर्विदूषयेत् । (मा.पु. 34/ 45-47) किसी के प्रति मर्मान्तक वचन, आक्रोश तथा चुगलखोरी से अपने आप को सदा बचाते रहे । मनुष्य की बुद्धिमत्ता इसी में है कि वह दम्भ, अभिमान तथा कटुवचन का परित्याग करे। साथ ही किसी मूर्ख, उन्मत्त, दु:खी, कुरूप, मायावी, न्यूनाङ्ग तथा अधिकाङ्ग व्यक्ति की हंसी न उड़ावे । [वैदिक / ब्राह्मण संस्कृति खण्ड / 150 卐, Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男%%%%%%%%%%% ___{531} कटुवाचा बान्धवांश्च खलत्वेन च यो नरः। दग्धान्करोति बलवान्वह्निकुण्डं प्रयाति सः॥ (ब्र.वै.पु. 2/30/2) जो बलवान् खल पुरुष अपनी दुष्टता के नाते कटु वाणी द्वारा बान्धवों को जलाया करता है, वह 'अग्नि कुण्ड' नामक नरक में जाता है। {532} यस्मादुद्विजते लोकः सर्वो मृत्युमुखादिव। वाक्क्रूराद् दण्डपरुषात् स प्राप्नोति महद् भयम्॥ (म.भा. 12/262/18) जैसे सब लोग मौत के मुख में जाने से डरते हैं, उसी प्रकार जिसके स्मरणमात्र से सब लोग उद्विग्न हो उठते हैं तथा जो कटुवचन बोलने वाला और दण्ड देने में कठोर है, ऐसे क मनुष्य को महान् भय का सामना करना पड़ता है। {533} 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 कामं दुग्धे विप्रकर्षत्यलक्ष्मी कीर्तिं सूते दुर्लदो निष्पलाति। शुद्धां शान्तां मातरं मङ्गलानां धेनुं धीराः सूनृतां वाचमाहुः॥ (उ.रा. 5/31) सत्य और प्रिय (सूनृता) वाणी मनोरथ को पूर्ण करती है, अलक्ष्मी (दरिद्रता)का ॐ परिहार करती है, कीर्ति को उत्पन्न करती है और शत्रुओं का विनाश करती है। इसी कारण, सुधीजन ऐसी वाणी को शुद्ध, शान्त, कल्याण (मंगल) कार्यों की जननी और कामधेनु के समान बताते हैं। 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {534} मर्माण्यस्थीनि हृदयं तथासून रूक्षा वाचो निर्दहन्तीह पुंसाम्। तस्माद् वाचमुषतीं रूक्षरूपां धर्मारामो नित्यशो वर्जयीत॥ ___ (म.भा. 5/36/7, विदुरनीति 4/7) इस जगत में रूखी बातें मनुष्यों के मर्मस्थान, हड्डी, हृदय तथा प्राणों तक दग्ध है म करती रहती हैं; इसलिये धर्मानुरागी पुरुष जलानेवाली रूखी बातों का सदा के लिये 卐 परित्याग कर दे। 玩玩玩玩乐乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听器 अहिंसा कोश/151] Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %%%%%%%% %%%%% %%%%%%%%%%%%%%%%%%% {535) आजन्मसेवितं दानैर्मानैश्च परितोषितम्। तीक्ष्णवाक्यान्मित्रमपि तत्कालं याति शत्रुताम्। वक्रोक्तिशल्यमुद्धर्तुं न शक्यं मानसं यतः॥ (शु.नी. 3/233-34) जिसकी जन्म से ही सेवा की गई हो और दान तथा मान से पोषण किया गया हो, ऐसा मित्र भी तीक्ष्ण वाक्यों के कहने से तत्काल ही शत्रु बन जाता है, क्योंकि चित्त में चुभे हुये कटु-वचन रूपी कांटों को निकाल कर दूर करने में वह समर्थ नहीं होता है। अतः मित्रों को भी तीक्ष्ण बातें नहीं सुनानी चाहिये। 呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {536} संवादे परुषाण्याहुर्युधिष्ठिर नराधमाः। प्रत्याहुर्मध्यमास्त्वेतेऽनुक्ताः परुषमुत्तरम्॥ न चोक्ता नैव चानुक्तास्त्वहिताः परुषा गिरः। प्रतिजल्पन्ति वै धीराः सदा तूत्तमपूरुषाः॥ (म.भा. 2/73/8-9) नीच मनुष्य साधारण बातचीत में भी कटुवचन बोलने लगते हैं। जो स्वयं पहले कटुवचन न कहकर दूसरे के कटु वचन के प्रत्युत्तर में कठोर बातें कहते हैं, वे मध्यम श्रेणी के पुरुष हैं। परंतु जो धीर एवं श्रेष्ठ पुरुष हैं, वे किसी के कटुवचन बोलने या न बोलने पर भी अपने मुख से कभी कठोर एवं अहितकर बात नहीं निकालते। 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听劣听听听听听听乐乐听听听听听听形 {537} यथा वृक्ष आविर्मूल: शुष्यति स उद्वर्तते, एवमेवानृतं वदन्नाविर्मूलमात्मानं करोति, स शुष्यति, स उद्वर्तते, तस्मादनृतं न वदेत्। (ऐ. आ. 2/3/6) जिस प्रकार वृक्ष मूल (जड़) के उखड़ जाने से सूख जाता है और अन्ततः नष्ट हो 卐 जाता है, उसी प्रकार असत्य बोलने वाला व्यक्ति भी अपने आप को उखाड़ देता है, जन# समाज में प्रतिष्ठाहीन हो जाता है, निन्दित होने से सूख जाता है-श्री हीन हो जाता है, और म * अन्ततः नरकादि दुर्गति पाकर नष्ट हो जाता है। 明明明明明明明明明玩玩乐乐乐乐乐乐玩玩乐乐乐乐明明听听听听乐乐乐乐條 वैदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/152 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 明明明明明明明明明明明男男男男男男男男男男男男%%%%%%%%%%%% {538} कुवाक्यान्तञ्च सौहृदम्। (पं.त. 5/72) कटु वाक्य के प्रयोग से मैत्री नष्ट हो जाती है। {539} - नारुन्तुदः स्यादातॊऽपि न परद्रोहकर्मधीः। ययाऽस्योद्विजते वाचा नालोक्यां तामुदीरयेत्॥ (म.स्मृ. 2/161). स्वयं दुःखित होते हुए भी दूसरे किसी को दुःख न दे, दूसरे का अपकार करने का विचार न करे और जिस वचन से कोई दुःखित हो, ऐसा स्वर्ग-प्राप्ति का बाधक वचन न कहे। (明明细听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {540} असन्नस्त्वासत इन्द्र वक्ता। (अ.8/4/8) हे इन्द्र ! असत्य भाषण करने वाला असत्य (लुप्त) ही हो जाता है। {541} ये वदन्ति सदाऽसत्यं परमर्मावकर्तनम्। जिह्वा चोच्छ्रियते तेषां सदस्यैर्यमकिंकरैः॥ (ब्रह्म.पु. 106/96-97) जो लोग दूसरे को मर्मान्तक पीड़ा देने वाली असत्य भाषा बोलते हैं, यमलोक में यम के दूत उनकी जिह्वा का उच्छेद करते हैं। 明明明垢编垢巩巩听听听听听听听听听听听听听听垢听听听听听听听听听听听听听卯卯卯听听听听听听听乐平 {542} शिश्नोदरे ये निरताः सदैव, स्तेना नरा वाक्परुषाश्च नित्यम्। अपेतदोषानपि तान् विदित्वा, दूराद् देवाः सम्परिवर्जयन्ति॥ (म.भा.12/299/36) जो सदा पेट पालने और उपस्थ-इन्द्रियों के भोग भोगने में ही लगे रहते हैं तथा जो ॐ चोरी करने एवं सदा कठोर वचन बोलने वाले हैं, वे यदि प्रायश्चित्त आदि के द्वारा उक्त कर्मों मैं के दोष से छूट जाएं, तो भी देवता लोग उन्हें पहचान कर दूर से ही त्याग देते हैं। 明明明明明明男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男、 . अहिंसा कोश/153] Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 玉巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩听听听听听听听听听听听A. अहिंसक की वाणीः प्रिय व हितकर हो {543} सर्वभूतदयावन्तो अहिंसानिरताः सदा॥ परुषं च न भाषन्ते सदा सन्तो द्विजप्रियाः। (म.भा. 3/207/84-85) जो समस्त प्राणियों पर दया करते, सदा अहिंसा-धर्म के पालन में तत्पर रहते और कभी किसी से कटु वचन नहीं बोलते, ऐसे संत सदा समस्त द्विजों के प्रिय होते हैं। {544} अहिंसयैव भूतानां कार्यं श्रेयोऽनुपालनम्। वाक् चैव मधुरा ह्यस्याः प्रयोज्या धर्मकांक्षिणा॥ (वि. ध. पु. 3/233/85; म. स्मृ. 2/159 में आंशिक परिवर्तन के साथ) जो धर्म का पालन करना चाहते हैं, उन्हें चाहिए कि वे 'अहिंसा' को अपना कर प्राणियों का कल्याण करें और मधुर वाणी बोलें। ¥與妮妮妮妮听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听垢听听听听听听听听听听听 {545} परपरिवादः परिषदिन कथञ्चित् पण्डितेन वक्तव्यः। सत्यमपि तन्न वाच्यं यदुक्तमसुखावहं भवति॥ (पं.त. 3/114) विद्वान् व्यक्ति को सभा के सामने किसी की निन्दा नहीं करनी चाहिए और वह सत्य ॐ भी नहीं कहना चाहिए जो कहने पर किसी के लिए दुःखदायी या अप्रीतिकर हो। 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {546} सर्वलोकहितं कुर्यात् मृदुवाक्यमुदीरयेत्॥ (ना. पु. 1/24/21) सभी लोगों को हित करे और मृदु- कठोरतारहित वचन बोले। {547 न वदेत् परपापानि। (ना. पु. 1/26/28) दूसरों के पाप/अपराध का बखान न करे। % %%% %%%%%%%%%% %%% %%%%%%% %%% विदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/154 % Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 男%%%%%% %%%% %%%% %%%% %%%%% %%%% %%%% %% {548} परस्परस्य मर्माणि न कदापि वदेत् द्विजः। (ना. पु. 1/26/38) द्विज को चाहिए कि वह एक दूसरे के रहस्यों को कभी न खोले। {549} सक्तुमिव तितउना पुनन्तो, यत्र धीरा मनसा वाचमक्रत। अत्रा सखायः सख्यानि जानते, भद्रैषां लक्ष्मीनिहिताधि वाचि॥ (ऋ.10/71/2) जैसे सत्तू को सूप (छाज) से परिष्कृत (शुद्ध) करते हैं, वैसे ही मेधावी जन अपने बुद्धि-बल से परिष्कृत की गई भाषा को प्रस्तुत करते हैं। विद्वान लोग वाणी से होने वाले अभ्युदय को प्राप्त करते हैं, इनकी वाणी में मंगलमयी लक्ष्मी निवास करती है। 巩巩巩明明听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听明年 {550} सत्यां हितां वदेद्वाचं परलोकहितैषिणीम्॥ (ल.हा.स्मृ. 1/30) परलोक में, या अन्य लोगों के लिए उपकार करने वाली, सत्य व हितकारी वाणी बोलनी चाहिये। 的乐垢垢垢明明明明听听听听听听听垢巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩垢垢乐听听听听听听听听 {551} प्रयुञ्जीत सदा वाचं मधुरां हितभाषिणीम्। (औ.स्मृ.,123; प. पु. 3/53/16 में आंशिक परिवर्तन के साथ) सर्वदा हितकारी मधुर वाणी का प्रयोग करना चाहिए। {552} ऋतं च सूनृता वाणी कविभिः परिकीर्तिता। (भा.पु. 11/19/38) सत्य व मधुर वाणी का ही नाम 'ऋत' है। 乐乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听! अहिंसा कोश/155] Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 他明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明 {553} परापवादं पैशुन्यमनृतं च न भाषते। अन्योद्वेगकरं वाऽपि तोष्यते तेन केशवः॥ (वि.पु. 3/8/13) ___ जो पुरुष दूसरों की निंदा, चुगली अथवा मिथ्या-भाषण नहीं करता तथा ऐसा वचन भी नहीं बोलता जिससे दूसरों को खेद हो, उससे निश्चय ही भगवान् केशव प्रसन्न रहते हैं। {554} ये प्रियाणि प्रभाषते प्रियमिच्छंति सत्कृतम्। श्रीमन्तो वंद्यचरिता देवास्ते नरविग्रहाः॥ (शु.नी. 1/170) जो लोग मीठी वाणी बोलते हैं और अपने प्रिय का सत्कार करना चाहते हैं, ऐसे प्रशंसनीय चरित वाले लोग मनुष्य रूप में देवता ही हैं। 明坎坎坎坎坎坎坎听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {555} विचक्षणवतीं वाचं भाषन्ते चनसितवतीं विचक्षयन्ति। (गो. ब्रा. 2/2/22) ब्रह्मवादी लोग सत्य तथा प्रिय वाणी बोलते हैं। 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {556} हितप्रियोक्तिभिर्वक्ता, दाता सन्मानदानतः। (व्या. स्मृ. 4/60) हितकारी प्रिय वचन बोलने वाला ही श्रेष्ठ वक्ता है, सम्मानपूर्वक देने वाला ही श्रेष्ठ दाता है। ___{557} हे जिह्वे कटुकस्नेहे, मधुरं किं न भाषसे। मधुरं वद कल्याणि, लोकोऽयं मधुरप्रियः॥ (चाणक्य-नीतिशास्त्र, द्वितीय शतक- 173) हे जिह्वा! कडुआ बोलना ही क्यों अच्छा लगता है? तू मधुर क्यों नहीं बोलती? तू तो के लोगों का कल्याण करने वाली हैं! तू मधुर बोल, क्योंकि यह दुनिया मधुरता को चाहती है। SF玩玩乐乐乐玩玩玩乐乐乐玩玩乐乐玩乐乐玩玩玩玩玩玩乐乐玩玩乐乐乐乐乐所崇 वैिदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/156 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男%%%%%%%%% {558} देवि वाग् यत्ते मधुमत् तस्मिन् माधाः।। (ता.ब्रा. 1/3/1) स्वयं वाग्देवी में जो माधुर्य है, वह मनुष्य की वाणी में भी स्थापित होना चाहिए। 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 अहिंसकः वाणी-प्रयोग में कुशल/अप्रमत्त {559} वचनं त्रिविधं शैल लौकिके वैदिके तथा। सर्वं जानाति शास्त्रज्ञो निर्मलज्ञानचक्षुषा॥ असत्यमहितं पश्चात्साम्प्रतं श्रुतिसुन्दरम्। सुबुद्धं शत्रुर्वदति न हितं च कदाचन ॥ आपातप्रीतिजनकं परिणामसुखावहम्। सत्यसारं हितकरं वचसां श्रेष्ठमीप्सितम्॥ एवं च त्रिविधं शैल, नीतिशास्त्रनिरूपितम्। (ब्र.वै. 1/39/53-57) ___ (वशिष्ठ ऋषि का हिमवान् पर्वत को कथन-) लोक में वेद में तीन प्रकार के वचन माने गये हैं। शास्त्रज्ञ पुरुष अपनी निर्मल ज्ञान-दृष्टि से उन सभी को जानता है। पहले प्रकार का वचन वह होता है जो पहले कानों में मधुर लगता है और बोधगम्य 卐 भी होता है, किन्तु परिणाम में असत्य व अहितकर सिद्ध होता है। ऐसा वचन शत्रु ही कहता # है। दूसरे प्रकार का वचन वह है जो प्रारम्भ में भले ही दुःखदायक प्रतीत हो, किन्तु परिणामतः सुखदायक होता है। यह वचन दयालु व धर्म-रत पुरुष अपने भाई-बन्धुओं को समझाने के लिए प्रयुक्त करते हैं। तीसरे प्रकार का वचन कानों में पड़ते ही अमृत के समान 5 मधुर प्रतीत होता है और परिणाम में भी सुखद होता है। ऐसा वचन सत्यसार, हितकारी व म अभीष्ट माना गया है। हे शैलराज! इस प्रकार नीति-शास्त्र में तीन प्रकार के वचन कहे गये क हैं। (इनका अवसरानुरूप प्रयोग करना चाहिए तथा दूसरे व तीसरे वचन को ही हिंसा-दोष 5 से रहित समझना चाहिए।) 乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听巩巩巩巩巩巩巩听听听听听听听听听听听 अहिंसा कोश/157] Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % %%%%%% % %%%%%%%%%% %%%%%%%%% {560} अव्याहृतं व्याहृताच्छ्रेय आहुः सत्यं वदेद् व्याहृतं तद् द्वितीयम्। प्रियं वदेद व्याहृतं तत् तृतीयं धर्मं वदेद् व्याहृतं तच्चतुर्थम्॥ (म.भा. 5/36/12,12/299/38, विदुरनीति 4/12) बोलने से न बोलना ही अच्छा बताया गया है, (यह वाणी की प्रथम विशेषता है और यदि बोलना ही पड़े तो) सत्य बोला जाय- यह वाणी की दूसरी विशेषता है यानी मौन की अपेक्षा भी अधिक लाभप्रद है। (सत्य और) प्रिय बोलना वाणी की तीसरी विशेषता है। यदि सत्य और प्रिय के साथ ही धर्म-सम्मत भी कहा जाय, तो वह वचन की (सर्वोत्तम) चौथी विशेषता है। इन चारों में उत्तरोत्तर श्रेष्ठता है। ____{561} काले हितं मितं ब्रूयादविसंवादि पेशलम्॥ (शु.नी. 3/12) उचित अवसर पर, थोड़े शब्दों में, और सुसंगत व मधुर वचन बोलना चाहिये। 贝听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 ___{562} तस्मात्सत्यं वदेत्प्राज्ञो यत्परप्रीतिकारणम्। सत्यं यत्परदुःखाय तदा मौनपरो भवेत्॥ (वि.पु. 3/12/43) अतः प्राज्ञ पुरुष को वही सत्य कहना चाहिये जो दूसरों की प्रसन्नता का कारण हो। यदि किसी सत्य वाक्य के कहने से दूसरों को दुःख होता जाने, तो मौन रहे। %%听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听學 ___{563} सत्यं ब्रूयात्प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात्सत्यमप्रियम्। प्रियं च नानृतं ब्रूयाद् एष धर्मः सनातनः॥ (म.स्मृ. 4/138; अ.पु. 372/8; ग.पु. 1/ 229/15; वि. ध. पु. 3/233/177) सत्य (जैसा देखा है वैसा) बोले, प्रिय ('तुम्हें पुत्र हुआ है, तुम परीक्षा में उत्तीर्ण म हो गये इत्यादि प्रीतिजनक वचन') बोले, सत्य भी यदि अप्रिय हो तो उसे न बोले; यही है ॐ सनातन (अनादि काल से चला आता हुआ) धर्म है। %%% %%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%% |वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/158 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {564} न प्रहृष्यति सम्माने नावमानेन कुप्यति। न क्रुद्धः परुषं ब्रूयादेतत् साधोस्तु लक्षणम्॥ ___ (ग.पु. 1/113/41) साधु पुरुष का लक्षण यह है-वह न तो सम्मान में प्रसन्न होता है और न ही अपमान से कुपित होता है, तथा वह कभी क्रोध-युक्त होकर किसी को कठोर वचन नहीं बोलता। 宝贝听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {565} असत्प्रलापं पारुष्यं पैशुन्यमनृतं तथा। चत्वारि वाचा राजेन्द्र न जल्पेन्नानुचिन्तयेत्॥ (म.भा. 13/13/4) _[द्रष्टव्यः ब्रह्म 144/19] मुंह से बुरी बातें निकालना, कठोर बोलना, चुगली खाना और झूठ बोलना-ये चार वाणी से होने वाले पाप हैं। इन्हें न तो कभी जबान पर लाना चाहिये और न मन में ही सोचना चाहिये। 場听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听乐乐乐 {566} नाक्रोशमृच्छन्न वृथा वदेच्च, न पैशुनं जनवादं च कुर्यात्। सत्यव्रतो मितभाषोऽप्रमत्तस्तथाऽस्य वाग्द्वारमथो सुगुप्तम्॥ (म.भा. 12/269/25) किसी को गाली न दे, व्यर्थ न बोले, दूसरों की चुगली या निन्दा न करे, मितभाषी फ हो, सत्य वचन बोले तथा इसके लिये सदा सावधान रहे-ऐसा करने से वाक्-इन्द्रियरूप द्वार की रक्षा होती है। {567} अद्रोहं सर्वभूतेषु मैत्री कुर्याच्च पण्डितः। वर्जयेदसतीं वाचमतिवादांस्तथैव च॥ __ (मा.पु. 55/71) पण्डित/समझदार व्यक्ति को चाहिए कि वह सर्वभूत (संसार) से अद्रोह अर्थात् ॥ + वैररहित हो सबसे मित्रता करे, मिथ्या न बोले और अधिक विवाद (या बुरी बात) भी नहीं म करे। %%%%%%%%%%%%%%%% %%%%%%%%%%%%%%% %% अहिंसा कोश/159] Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 他明明明明明明明明明明明明明明明明明明牙牙乐乐男男男男男男男男男牙牙牙牙 ____{568} श्लक्ष्णां वाणी निराबाधां मधुरां पापवर्जिताम्। स्वागतेनाभिभाषन्ते ते नराः स्वर्गगामिनः॥ परुषं ये न भाषन्ते कटुकं निष्ठरं तथा। अपैशुन्यरताः सन्तस्ते नराः स्वर्गगामिनः॥ पिशुनां न प्रभाषन्ते मित्रभेदकरी गिरम्। ऋतं मैत्रं तु भाषन्ते ते नराः स्वर्गगामिनः॥ (म.भा.13/144/21-23; ब्रह्म 116/20-22) (शिव का पार्वती से वाणी-धर्म का कथन-)जो स्नेह-पूर्ण, मधुर, बाधा-रहित और पापशून्य तथा स्वागत सत्कार के भाव से युक्त वाणी बोलते हैं, वे मानव स्वर्ग-लोक 9 में जाते हैं। जो किसी की चुगली नहीं खाते और कभी किसी से रूखी, कड़वी और म निष्ठुरतापूर्ण मुँह से बात नहीं निकालते, वे सज्जन पुरुष स्वर्ग में जाते हैं। जो दो मित्रों में फूट डालने वाली चुगली की बातें नहीं करते हैं, सत्य और मैत्री भाव से युक्त वचन बोलते हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोक में जाते हैं। {569} 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 ये वर्जयन्ति परुषं परद्रोहं च मानवाः। सर्वभूतसमा दान्तास्ते नराः स्वर्गगामिनः॥ शठप्रलापाद् विरता विरुद्धपरिवर्जकाः। सौम्यप्रलापिनो नित्यं ते नराः स्वर्गगामिनः॥ न कोपाद् व्याहरन्ते ये वाचं हृदयदारणीम्। सान्त्वं वदन्ति क्रुद्धाऽपि ते नराः स्वर्गगामिनः॥ एष वाणीकृतो देवि धर्मः सेव्यः सदा नरैः। (म.भा.13/144/24-27; ब्रह्म. 116/23-26) : ____ जो मानव दूसरों से तीखी बातें बोलना और द्रोह करना छोड़ देते हैं, सब प्राणियों के प्रति समान भाव रखने वाले और जितेन्द्रिय होते हैं, वे स्वर्ग-लोक में जाते हैं। जिनके 9 मुँह से कभी शठतापूर्ण बात नहीं निकलती, जो विरोधयुक्त वाणी का परित्याग करते हैं और ॥ * सदा सौम्य (कोमल) वाणी बोलते हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं। जो क्रोध में आ कर भी ॐ हृदय को विदीर्ण करने वाली बात मुँह से नहीं निकालते हैं तथा क्रुद्ध होने पर भी सान्त्वनापूर्ण है ॐ वचन ही बोलते हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं। यह वाणी-जनित (अहिंसा-समन्वित)धर्म है बताया गया है। 勇勇%%%%%%%%%%%%% %%%%%% %%% % %%%%% % वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/160 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男 {570} तथा न क्रीडयेत् कैश्चित् कलहाय भवेद्यथा। विनोदेऽपि शपेन्नैवं ते भार्या कुलटाऽस्ति किम्॥ (शु.नी. 3/312) क्रीडा अर्थात् मनोविनोद की ऐसी बात भी नहीं करनी चाहिये जिससे झगड़ा खड़ा हो जाय। जैसे-विनोद में भी ऐसा नहीं कहना चाहिये कि क्या तुम्हारी स्त्री कुलटा है? ___{571} लज्ज्यते च सुहृद् येन भिद्यते दुर्मना भवेत्॥ वक्तव्यं न तथा किंचिद्विनोदेऽपि च धीमता। ___ (शु.नी. 3/229-30) जिस वचन से मित्र लजित हो जाय या उसके मन में फर्क पड़ जाय या चित्त दुःखी है हो जाय, वैसे वचनों को विनोद में भी बुद्धिमान व्यक्ति को थोड़ा भी नहीं कहना चाहिये। 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {572} अनायसं मुने शस्त्रं मृदु विद्यामहं कथम्। येनैषामुद्धरे जिह्वां परिमृज्यानुमृग्य च॥ शक्त्याऽन्नदानं सततं तितिक्षाऽर्जवमार्दवम्। यथार्हप्रतिपूजा च शस्त्रमेतदनायसम्॥ ज्ञातीनां वक्तुकामानां कटुकानि लघूनि च। गिरा त्वं हृदयं वाचं शमयस्व मनांसि च॥ ___(म.भा.12/81/20-22) ( श्रीकृष्ण का महर्षि नारद से जिज्ञासा-)मुने! बिना लोहे के बने हुए उस कोमल # शस्त्र को मैं कैसे जानूँ, जिसके द्वारा परिमार्जन और अनुमार्जन करके सब की जिह्वा को म उखाड़ लूँ (ऐसा अस्त्र बताइये जो हो बहुत ही कोमल, किन्तु जिससे सब का मुंह बन्द हो जाय)। (महर्षि नारद का श्रीकृष्ण को उत्तर-) श्रीकृष्ण! अपनी शक्ति के अनुसार सदा अन्नदान करना, सहनशीलता, सरलता, कोमलता तथा यथायोग्य पूजन (आदर-सत्कार) म करना-यही बिना लोहे का बना हुआ शस्त्र है। जब सजातीय बन्धु आपके प्रति कड़वी तथा ई म ओछी बातें कहना चाहें, उस समय आप मधुर वचन बोलकर उनके हृदय, वाणी तथा मन ॥ * को शान्त कर दें। 明明明明明明明明明明明明明男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男、 अहिंसा कोश/161] 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听擊 h Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 分玩玩乐乐巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩乐乐玩玩乐乐Ts {573} वात्सल्यात्सर्वभूतेभ्यो वाच्याःश्रोत्रसुखा गिरः। परितापोपघातश्च पारुष्यं चात्र गर्हितम्॥ ___ (म.भा.12/191/14) वाणी ऐसी बोलनी चाहिये, जिसमें सब प्राणियों के प्रति स्नेह भाव हो तथा जो # सुनते समय कानों को सुखद जान पड़े। दूसरों को पीड़ा देना, मारना और कटुवचन सुनाना ये सब निन्दित कार्य हैं। . {574) नानिष्टं प्रवदेत् कस्मिन्न च्छिद्रं कस्य लक्षयेत्। (शु.नी. 3/118) किसी के लिये दुर्वचन न कहे, और न ही किसी के छिद्र को देखे/सूचित करे। 明明明明明明明听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听圳听得 {575} विवक्षता च सद्वाक्यं धर्मं सूक्ष्ममवेक्षता। सत्यां वाचमहिंस्रां च वदेदनपवादिनीम्।। कल्कापेतामपरुषामनृशंसामपैशुनाम् । ईदृगल्पं च वक्तव्यमविक्षिप्तेन चेतसा॥ (म.भा. 12/215/10-11) जो सूक्ष्म धर्म को ध्यान में रखते हुए उत्तम वचन बोलना चाहता हो, उसको ऐसी , वाणी कहनी चाहिये जो सत्य होने के साथ ही हिंसा व परनिन्दा से रहित हो और जिसमें है। # शठता, कठोरता, क्रूरता और चुगली आदि दोषों का सर्वथा अभाव हो, ऐसी वाणी भी बहुत थोड़ी मात्रा में और सुस्थिर चित्त से ही बोलनी चाहिये। %%%%%%%%%乐乐乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听形 {576} अपशब्दाश्च नो वाच्या मित्रभावाच्च केष्वपि। गोप्यं न गोपयेन्मित्रे तद्गोप्यं न प्रकाशयेत्॥ ___ (शु.नी. 3/313) किसी व्यक्ति के लिये मित्रभाव से भी अपशब्दों का प्रयोग करना उचित नहीं है। अ मित्र से गोप्य विषय को न छिपाये, और उसके गोप्य विषय को कहीं प्रकाशित न करे। 第一步明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明 वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/162 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE .mx अहिंसक वचन का सुप्रभाव 15772 प्रियवाक्यप्रदानेन, सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः। तस्माद् तदेव वक्तव्यं, वचने का दरिद्रता॥ (चाणक्य-नीति 16/115) प्रिय वाक्यों के बोलने से सभी प्राणी प्रसन्न होते हैं। अतः प्रिय ही बोलना चाहिए। आखिर, बोलने में दरिद्रता क्यों? {578} सान्त्वेनान्नप्रदानेन प्रियवादेन चाप्युत। समदुःखसुखो भूत्वा स परत्र महीयते॥ (म.भा.12/297/36) जो सब लोगों को सांत्वना प्रदान करता, भूखों को भोजन देता और प्रिय वचन बोल कर सब का सत्कार करता है, वह सुख-दुख में सम रहकर (इहलोक और) परलोक में प्रतिष्ठित होता है। ¥¥¥¥¥¥¥¥纸¥¥¥乐%%%%%垢玩垢呢呢呢呢呢呢呢呢呢巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩听听听听听听 {5791 द्वे कर्मणी नरः कुर्वन्, अस्मिंल्लोके विरोचते। अब्रुवन् परुषं किंचित्, असतोऽनर्चयंस्तथा। (म.भा. 5/33/54, विदुरनीति 1/54) जरा भी कठोर न बोलना तथा दुष्ट लोगों को मान-सम्मान न देना-इन दो कामों को करने वाला मनुष्य इस लोक में विशेष शोभा पाता है। {580} आदानादपि भूतानां मधुरामीरयन् गिरम्। सर्वलोकमिमं शक्र सान्त्वेन कुरुते वशे॥ (म.भा. 12/84/8) __ मधुर वचन बोलने वाला मनुष्य लोगों की कोई वस्तु ले भी ले तो भी वह अपनी मधुर वाणी द्वारा इस सम्पूर्ण जगत् को वश में कर लेता है। ¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥%%%%F अहिंसा कोश/163] Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 明明明明明明明乐乐乐¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥%%%%%%%% {581 प्रियवचनवादी प्रियो भवति। (म.भा. 3/313/113) मधुर वचन बोलने वाला (सभी का) प्रिय बन जाता है। {582} एकं प्रसूयते माता द्वितीयं वाक् प्रसूयते। वाग्जातिमधिकं प्रोचुः सोद-दपि बन्धुवत्॥ (पं.त. 4/6) एक बन्धु को माता उत्पन्न करती है और दूसरी को वाणी (सम्भाषण) अर्थात् ज वाग्दान से (भाई) बनाया जाता है। पण्डित लोग इन दोनों में सम्भाषण से उत्पन्न बन्धु को है सोदर भाई से भी श्रेष्ठ बताते हैं। {583} 坎坎坎坎听听玩玩乐乐乐坂垢玩垢垢玩垢玩垢玩垢听听听听听听听听听听听乐乐%%%%%%垢垢听听听听听 कः परः प्रियवादिनाम्॥ (पं.त. 2/125) प्रिय बातें बोलने वालों के लिए न कोई पराया होता है और न ही कोई शत्रु होता है। {584} सत्यं च धर्मं च पराक्रमं च भूतानुकम्पां प्रियवादितां च। द्विजातिदेवातिथिपूजनं च पन्थानमाहुस्त्रिदिवस्य सन्तः॥ (म.भा. 2/109/31) समस्त प्राणियों पर दया तथा सबसे प्रिय वचन बोलना-इन्हें (सत्य, धर्म, देवता व ब्राह्मणों (विद्वानों) की पूजा- इन कार्यों की तरह) साधु पुरुषों ने स्वर्गलोक का मार्ग बताया है। {585} प्रियमेवाभिधातव्यं नित्यं सत्सु द्विषत्सु वा। शिखीव केका मधुरां वाचं ब्रूते जनप्रियः॥ (शु.नी. 1/168) सज्जन हो या दुर्जन, सभी के साथ सदैव मधुर वचन बोलना चाहिये, क्योंकि जो मनुष्य मयूर की तरह मधुर वचन बोलता है, वह जनप्रिय होता है। 乐乐乐乐玩玩玩乐乐乐乐玩玩玩乐乐买买买玩玩乐乐乐买买玩玩乐乐乐照 वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/164 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %% %%% %%% %%%% 乐乐%%%%%%%%%%¥¥¥¥¥职% “ {586} पशवोऽपि वशं यान्ति दानश्च मृदुभाषणैः। (शु.नी. 3/86) पशु भी चारा देने एवं पुचकार कर बुलाने से वश में हो जाते हैं। फिर मनुष्यों के विषय में तो सोचना ही क्या है? {587} वाचा मित्राणि संदधति। ___ (ऐ. आ. 3/1/6) प्रिय वाणी से ही स्नेही मित्र एकत्र होते हैं। {588} 望呢呢呢呢呢呢呢听听听听听听听听听听听听听听听听听听听垢听听听听听听听乐乐听听听听听听听听垢玩垢 मार्दवं सर्वभूतेषु व्यवहारेषु चार्जवम्। वाक् चैव मधुरा प्रोक्ता श्रेय एतदसंशयम्॥ (म.भा.12/287/18) सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति कोमलता का बर्ताव करना, व्यवहार में सरल होना तथा मीठे वचन बोलना-यह भी कल्याण का संदेहरहित मार्ग है। {589} न हीदृशं संवननं त्रिषु लोकेषु विद्यते। दया मैत्री च भूतेषु दानं च मधुरा च वाक्॥ (म.भा. 1/87/12, शु.नी. 1/171, तथा म. पु. 36/12 में परिवर्तित रूप में प्राप्त) # सभी प्राणियों के प्रति दया व मैत्री का बर्ताव, दान, और सबके प्रति मधुर वाणी का प्रयोग-इन कार्यों के समान तीनों लोकों में कोई वशीकरण मन्त्र नहीं है। 15903 मदरक्तस्य हंसस्य कोकिलस्य शिखंडिनः। हरंति न तथा वाचो यथा वाचो विपश्चिताम्॥ (शु.नी. 1/169) मद से युक्त हंस, कोकिल या मयूर की वाणी मन को उतना नहीं हरण करती है, + जितना कि अच्छे विद्वानों की वाणी (मन को प्रिय लगती है)। 玩玩玩乐乐玩玩玩玩乐乐听听听听听听听听听听听玩玩玩乐乐乐乐乐乐乐乐玩手游 अहिंसा कोश/165] Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男 1591 प्रियवाक्यात् परं लोके नास्ति संवननं परम्। (वि. ध. पु. 3/294/5) प्रिय वचन बोलने से ज्यादा प्रभावकारी कोई वशीकरण मन्त्र नहीं है। {592} सत्यवादी जितक्रोधो ब्रह्मभूयाय कल्पते। (कू.पु. 2/15/21) सत्यवादी और क्रोध-जयी व्यक्ति 'ब्रह्म' रूप पाने के योग्य हो जाता है। {593} प्रणीतिरस्तु सूनृता। (ऋ. 6/48/20) सत्य एवं प्रिय वाणी ही ऐश्वर्य देने वाली है। 明明明明明明垢玩垢巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩听听听听听明明明明明明明明明明明听听听听听 第明乐乐乐听听听听听听听听听听乐乐乐乐乐乐听听听听听听听听玩玩乐乐玩玩乐乐乐巩巩听听听听听听听听 अहिंसकः कटुवचन सन कर भी अनद्विग्न {594} दुर्वाक्यं दुःसहं राजंस्तीक्ष्णास्त्रादपि जीविनाम्। संकटेऽपि सतां वक्त्राद् दुरुक्तिर्न विनिर्गता॥ __ (ब्र.वै.पु. 3/35/64) जीवों का कटुवचन तीक्ष्ण अस्त्र से भी दुःसह होता है। कितना ही बड़ा संकट क्यों न हो, सज्जनों के मुख से कभी भी बुरी बात नहीं निकलती है। {595} हदि विद्ध इवात्यर्थं यथा संतप्यते जनः। पीडितोऽपि हि मेधावी न तां वाचमुदीरयेत्॥ (शु.नी. 1/167) पीड़ित होने पर भी बुद्धिमान् व्यक्ति ऐसी वाणी न बोले, जिससे सुनने वाले व्यक्ति 卐 के हृदय में बाण जैसी लगे और वह अत्यन्त छटपटाने लगे। %%%%%%%%%男男男男男男男男男男男男男男男男男男%%%%% वैदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/166 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明男男男男男男男男男 {596} आक्रुश्यमानो नाक्रोशेन्मन्युरेव तितिक्षतः। आक्रोष्टारं निर्दहति सुकृतं चास्य विन्दति॥ (म.भा. 5/36/5, 12/299/16; विदुरनीति 4/5; द्रष्टव्यः वि. ध. पु. 3/269/2) दूसरों से गाली सुनकर भी स्वयं उन्हें गाली न दे। (गाली को) सहन करने वाले द्वारा रोका हुआ क्रोध गाली देने वाले को ही जला डालता है और उसके पुण्य को भी ले लेता है। 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {597} प्रत्याहु!च्यमाना ये न हिंसन्ति च हिंसिताः। प्रयच्छन्ति न याचन्ते दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥ (म.भा. 12/110/4) जो दूसरों के कटु वचन सुनाने या निन्दा करने पर भी स्वयं उन्हें उत्तर नहीं देते; मार खाकर भी किसी को मारते नहीं; तथा स्वयं दान देते हैं, परंतु दूसरों से मांगते नहीं; + वे दुर्गम संकट से पार हो जाते हैं। %%%%听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {598} उक्ताश्च न वदिष्यन्ति वक्तारमहिते हितम्। प्रतिहन्तुं न चेच्छन्ति हन्तारं वै मनीषिणः॥ (म.भा.12/229/9) श्रेष्ठ बुद्धि से सम्पन्न मनीषी पुरुषों से कोई कटु वचन कह दे तो वे भी उस कटुवादी पुरुष को बदले में कुछ नहीं कहते। वे अपना अहित करने वाले का भी हित ही चाहते हैं है तथा जो उन्हें मारता है, उसे भी वे बदले में मारना नहीं चाहते हैं। 599 अतिवादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कञ्चन। न चेमं देहमाश्रित्य वैरं कुर्वीत केनचित्॥ (म.स्मृ.-6/47; भा. पु. 12/6/34 ) संन्यासी व्यक्ति मर्यादा से बाहर (भी) किसी के कही हुई बात को सहन करे, किसी का अपमान न करे और इस (नश्वर)शरीर को धारण कर किसी के साथ वैर न करे। 第历历历明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明、 अहिंसा कोश/167] Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {600 साधवो ये महाभागाः संसारान्मोक्षकांक्षिणः। न कस्मैचित्प्रकुप्यंति निन्दितास्ताडिता अपि॥ क्षमाधना महाभागा ये च दान्तास्तपस्विनः। तेषां चैवाक्षया लोकाः सततं साधुकारिणाम्॥ यस्तु दुष्टैस्तु दण्डाद्यैर्वचसाऽपि च ताडितः। न च क्षोभमवाप्नोति स साधुः परिकीर्त्यते॥ ___(ब्रह्म.पु. 3/31/9-11) जो संसार से मुक्ति चाहते हैं, निन्दित व ताडित होने पर भी जो किसी के प्रति कुपित # नहीं होते, क्षमा ही जिनका धन है, इन्द्रिय-जयी व तपस्वी हैं, वे महाभाग 'साधु' हैं। सभी का हित करने वाले उन साधु पुरुषों को अक्षय लोक प्राप्त होते हैं। 'साधु' वही है, जो दुष्टों द्वारा दण्ड आदि से या वाणी से ताडित होने पर भी मन में कोई क्षोभ नहीं करता। ¥织與用圳乐乐明明听听听听听听听听听货垢乐乐乐明垢玩垢玩垢玩垢巩巩巩巩巩巩乐听听听听听听听听 {601} अतिवादस्तितिक्षेत नाभिमन्येत कंचन। क्रोध्यमानः प्रियं ब्रूयादाक्रुष्टः कुशलं वदेत्॥ म.भा.12/278/6) यदि कोई अपने प्रति अमर्यादित बात कहे-निन्दा या कटुवचन सुनाये तो मुमुक्षु पुरुष उसके उन वचनों को चुपचाप सह ले। किसी के प्रति अहंकार या घमंड न प्रकट करे। कोई क्रोध करे तो भी उससे प्रिय वचन ही बोले। यदि कोई गाली दे तो भी उसके प्रति हितकर वचन ही मुँह से निकाले। {602} परश्चेदेनमभिविध्येत बाणैर्भृशं सुतीक्ष्णैरनलार्कदीप्तैः। स विध्यमानोऽप्यतिदह्यमानो विद्यात् कविः सुकृतं मे दधाति॥ __(म.भा. 5/36/9,विदुरनीति 4/9) यदि किसी को कोई दूसरा व्यक्ति अग्नि और सूर्य के समान दग्ध करने वाले अत्यन्त 卐 तीखे (वाणी रूपी) बाणों से बहुत चोट पहुंचावे तो वह विद्वान पुरुष चोट खाकर अत्यन्त ॐ वेदना सहते हुए भी ऐसा समझे कि वह मेरे पुण्यों को ही पुष्ट कर रहा है। 第一勇勇勇勇勇男明明明明明明明明明明勇%%%%%%%%%%%%%、 विदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/168 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {603} सदाऽसतामतिवादांस्तितिक्षेत् सतां वृत्तं चाददीतार्यवृत्तः॥ : (म.भा. 1/87/10) दुष्ट लोगों की कही हुई अनुचित बातें सदा सह लेनी चाहिये तथा साधु पुरुषों के व्यवहार को ही अपनाते हुए श्रेष्ठ सदाचार से सम्पन्न होना चाहिये। {604} आक्रोशन्तं स्तुवन्तं च तुल्यं पश्यन्ति ये नराः। शांतात्मानो जितात्मानस्ते नराः स्वर्गगामिनः॥ (प.पु. 2/96/43) जो अपने पर आक्रोश करने वाले और स्तुति करने वाले दोनों को समान भाव से देखते हैं, और जो प्रशान्त-चित्त एवं जितेन्द्रिय हैं, वे स्वर्ग में जाते हैं। अहिंसा और संतोष/अपरिग्रह धर्म 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听乐乐乐听听听听听听听听听听听听听听明明听听听听听 明明明明明劣听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 [संतोष और अपरिग्रह- ये दोनों धर्म एक ही प्रवृत्ति के दो रूप हैं। इन दोनों का पालन तभी सम्भव हो सकता है जब असंतोष, तृष्णा, परिग्रह-भावना जैसी हिंसक प्रवृत्तियों पर नियंत्रण हो और उनसे विरति हो। असंतोष व परिग्रह की हिंसकता को इंगित करने वाले कुछ शास्त्रीय वचन यहां प्रस्तुत हैं-] हिंसक वृत्तिः असन्तोष व परिग्रह {605} नाच्छित्वा परमर्माणि, नाकृत्वा कर्म दारुणम्। नाहत्वा मत्स्यघातीव प्राप्नोति महतीं श्रियम्॥ (म.भा. 1/139/77; 12/15/14) (राजा या कोई व्यक्ति) मछलीमार की तरह जब तक किसी प्राणी के मर्म का उच्छेद नहीं करता, तथा अत्यन्त क्रूर कर्म कर किसी का प्राण-वध नहीं करता, तब तक + अत्यधिक सम्पत्ति नहीं प्राप्त कर सकता। [जैसे मछलीमार मछली का पेट चीर कर तथा क्रूरता से उसे मार कर ही उसके पेट से हीरे -मोती आदि प्राप्त कर पाता है, वैसे ही कोई भी व्यक्ति धन या संपत्ति का अर्जन करता व हिंसा का सहारा लेकर ही कर सकता है।] %%%%%%%%%%%%%%%%%%% %%%%% %%%%% अहिंसा कोश/169] Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 他明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明男男 {606} पापेन कर्मणा विप्रो धनं प्राप्य निरंकुशः। रागमोहान्वितः सोऽन्ते कलुषां गतिमश्रुते॥ अपि संचय-बुद्धिर्हि लोभमोहवशंगतः॥ उद्वेजयति भूतानि पापेनाशुद्धबुद्धिना॥ __ (म.भा. 14/91/29-30) जो व्यक्ति पाप-कर्म से (अन्यायपूर्ण रीति से) धन कमा कर उच्छृखल होता हुआ राग व मोह के वशीभूत हो जाता है, वह अंत में दुर्गति को ही प्राप्त होता है। वह लोभ व मोह के वशीभूत होता हुआ संग्रह/परिग्रह की प्रवृत्ति को अपनाता है, और बुद्धि को ' कलुषित कर देने वाले पाप-कर्मों के द्वारा (अन्य) प्राणियों को उद्विग्न/ पीड़ित करता है। 玩乐乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {607} कृच्छ्राच्च द्रव्यसंहारं कुर्वन्ति धनकारणात्। धनेन तृषितोऽबुद्धया भ्रूणहत्यां न बुद्धयते॥ (म.भा. 12/20/8) लोग धन के लिये बड़े कष्ट से नाना प्रकार के द्रव्यों का संग्रह करते हैं। परंतु धन ' के लिये प्यासा हुआ मनुष्य अज्ञान-वश भ्रूणहत्या जैसे पाप का भागी हो जाता है, इस बात को वह नहीं समझता। 明明明明听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听舉 हिंसात्मक (वैर-विद्वेष) आदि भावों का वर्धकः परिग्रह {608) स्तेयं हिंसाऽनृतं दम्भः कामः क्रोधः स्मयो मदः। भेदो वैरमविश्वासः संस्पर्धा व्यसनानि च॥ एते पञ्चदशानर्था ह्यर्थमूला मता नृणाम्। तस्मादनर्थमाख्यं श्रेयोऽर्थो दूरतस्त्यजेत्॥ (भा.पु. 11/23/17-19) हिंसा, चोरी, झुठाई, पाखण्ड, काम, क्रोध, गर्व, अहंकार, भेदबुद्धि, वैर, अविश्वास, स्पर्धा, व्यसन-ये पन्द्रह अनर्थ मनुष्यों को धन से ही होते हैं। अतएव कल्याण का इच्छुक ॐ पुरुष इस अर्थरूपी अनर्थ को दूर से ही त्याग दे। 野野野乃乃乃所所西野野野野野野野野野野野野巧弥西西西西西西西野野野野野野 वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/170 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {609} संपन्मत्तः सुमूढश्च सुरामत्तः सचेतनः। बान्धवैर्वेष्टितः सोऽपि बन्धुद्वेषकरो मुने॥ संपन्मदप्रमत्तश्च विषयान्धश्च विह्वलः। महाकामी साहसिकः सत्त्वमार्गं न पश्यति॥ ___(ब्र.वै.पु. 2/36/50-51) सम्पत्ति से मतवाला, अत्यन्त मूढ़ तथा मदमत्त व्यक्ति चेतना से युक्त तथा ई बान्धवों से घिरा हुआ होने पर भी बन्धुओं से द्वेष करता है। सम्पत्ति-रूपी मद (नशे) से महामत्त प्राणी (सदैव) विषयों (भोगों) से अन्धा, व्याकुल, महाकामी तथा साहसिक होने से सात्त्विक मार्ग को नहीं देख पाता है। 听听听听听听听听垢听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {610} न संकरेण द्रविणं प्रचिन्वीयाद् विचक्षणः। धर्मार्थं न्यायमुत्सृज्य न तत् कल्याणमुच्यते॥ (म.भा. 12/294/25) बुद्धिमान् पुरुष को चाहिए कि न्याय को छोड़कर (अन्याय-मार्ग से) पापमिश्रित तरीके से धन का संग्रह/परिग्रह न करे, क्योंकि (अहिंसा आदि) धर्माचरण के लिए वह कल्याणकारी नहीं है। 呢呢呢呢呢呢呢呢听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听那 {611} ईहेत धनहेतोर्यस्तस्यानीहा गरीयसी। भूयान् दोषो हि वर्धेत यस्तं धनमुपाश्रयेत्॥ (म.भा. 12/20/7) जो धन के लिये विशेष चेष्टा करता है, वह वैसी चेष्टा न करे-यही सब से अच्छा है; क्योंकि जो उस धन की उपासना करने लगता है, उसके महान् दोषों (हिंसादि अवगुणों) की वृद्धि हो जाती है। 男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男 अहिंसा कोश/171] Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %%%%%%%%%%%%%%%%%男男男男男男男男男男%%%%%%%% हिंसात्मक/साहस कार्य से अर्जित 'काले धन' का अशभ फल 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听贝贝听听听听听听听听听听听 ___{612} अथ गृहाश्रमिणस्त्रिविधोऽर्थो भवति। शुक्ल: शबलोऽसितश्चार्थः। शुक्लेनार्थेन यदैहिकं करोति तद्देवमासादयति। यच्छबलेन तन्मानुष्यम्। यत्कृष्णेन तत्तिर्यक्त्वम्। स्ववृत्त्युपार्जितं सर्वं सर्वेषां शुक्लम्। अनन्तरवृत्त्युपात्तं शबलम्। अन्तरितवृत्त्युपात्तञ्च कृष्णम् क्रमागतं प्रीतिदायं प्राप्तञ्च सह भार्यया। अविशेषेण सर्वेषां धनं शुक्लं प्रकीर्तितम्। उत्कोचशुल्कसंप्राप्तप्तमविक्रेयस्य विक्रये। कृतोपकारादाप्तञ्च शबलं समुदाहृतम्। पार्श्विक-चूत-चौर्याप्त-प्रतिरूपक-साहसम्। व्याजेनोपार्जितं यच्च तत्कृष्णं ' समुदाहृतम्। यथाविधमवाप्नोति स फलं प्रेत्य चेह च। (वि. स्मृ., गृहस्थाश्रम-वर्णन) गृहस्थाश्रम में रहने वाले मनुष्यों के पास तीन प्रकार का अर्थ (धन) होता की है। एक शुक्ल, दूसरा शबल और तीसरा कृष्ण । शुक्ल धन से जो अपना शारीरिक ॐ कृत्य करता है, वह देव योनि को प्राप्त करता है । शबल धन से दैहिक आवश्यकता का काम चलाता है, वह मनुष्य योनि में जन्म ग्रहण करता है । जो कृष्ण अर्थ (काले धन)से अपना देह-सम्बन्धी व्यय पूरा करता है, वह तिर्यक् योनि में जन्म लेता है। # अपनी उचित वृत्ति द्वारा अर्जित धन 'शुक्ल' नाम से प्रसिद्ध होता है। अनन्तर-वृत्ति ॥ * (मुख्य जीविका से पृथक्, ऊपरी आमदनी)से अर्जित धन 'शबल' धन होता है। 卐 अन्तरित वृत्ति (लुक-छिप कर, अनुचित उपार्यों) द्वारा कमाया हुआ धन कृष्ण ॐ (काला) कहा जाता है । पैतृक परम्परागत क्रम से मिला हुआ, प्रीतिपूर्वक दिया हुआ + और भार्या के साथ प्राप्त धन सामान्य रूप से सब का 'शुक्ल' धन होता है । रिश्वत आदि से प्राप्त और न बिकने योग्य वस्तु के विक्रय करने से मिला हुआ तथा जिसकी भलाई कर दी उससे उपलब्ध धन 'शबल' नाम से कहा गया है। पाश्विक (जादूगरी), द्यूत (जूआ)और चोरी से प्राप्त एवं प्रतिरूपक (नकली ॐ माल तैयार करना) तथा साहस (हिंसक कार्य) से उपलब्ध और (शोषक वृत्ति से है पूर्ण) व्याज से उपार्जित धन 'कृष्ण' कहा गया है । मनुष्य जिस प्रकार के धन से जो कुछ भी करता है, उसका फल यहाँ मरने के बाद उसे उसी प्रकार का (काले धन भ से काला/उग्र भयंकर फल, शुक्ल धन से सौम्य फल आदि) मिलता है। 055555555万野野野野野野野野野野野野野野野 वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/172 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听形 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 乐乐乐乐玩玩乐乐乐¥¥¥¥¥¥¥明明明明明明明明明明明明明明明明明明明? हिंसा के लिए प्रायः अनुर्वरा भूमिः निर्धनता 垢玩垢听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听乐听听听听听听听听听听听 ___{613} असतः श्रीमदान्धस्य दारिद्र्यं परमञ्जनम्। आत्मौपम्येन भूतानि दरिद्रः परमीक्षते॥ यथा कण्टकविद्धाङ्गो जन्तोर्नेच्छति तां व्यथाम्। जीवसाम्यं गतो लिङ्गैर्न तथाविद्धकण्टकः॥ दरिद्रो निरहंस्तम्भो मुक्तः सर्वमदैरिह। कृच्छं यहृच्छयाऽऽप्नोति तद्धि तस्य परं तपः॥ नित्यं क्षुत्क्षामदेहस्य दरिद्रस्यान्नकांक्षिणः। इन्द्रियाण्यनुशुष्यन्ति हिंसाऽपि विनिवर्तते॥ ___(भा.पु. 10/10/13) जो असत्पुरुष ऐश्वर्य के मद में अन्धा हो रहा हो, उसके लिये दरिद्रता ही उत्तम + अञ्जन है (अर्थात् दरिद्र होना ही उसके लिए कल्याण कारक है क्योंकि तभी उसको दरिद्रता # के दुःख की अनुभूति होने से उसकी आंखें खुल सकती है और तब वह हिंसक कार्यों से * सहजतया विरत हो सकता है।)। क्योंकि दरिद्र पुरुष अन्य जीवों को अपने समान देखता है। है जिस पुरुष के अङ्ग में कांटा गड़ता है, वह जैसे अपनी तथा दूसरों जीवों की पीड़ा की है # तुल्यता का अंदाजा करके दूसरों के लिये उसका व्यथा का न होना चाहता है, वैसे ही वह पुरुष, जिसे कांटा लगने की व्यथा का अनुभव नहीं हैं, नहीं चाहता। दरिद्र पुरुष अहंकार से भ होने वाला औद्धत्य और सब प्रकार के मदों से रहित होता है। उसे दैवयोग से जो कष्ट प्राप्त है होता है, वही उसका परम तप है। जिसका शरीर क्षुधा से क्षीण हो जाता है और जो सर्वदा अन्न की चाह में रहता है, ऐसे दरिद्र पुरुष की इन्द्रियां शीघ्र ही शुष्क हो जाती हैं और उसमें 9 हिंसावृत्ति भी नहीं रह जाती। [तात्पर्य यह है कि निर्धनता की स्थिति में रोजी-रोटी कमाने की है * सार्वकालिक चिन्ता के कारण उसके मन में हिंसा, वैर-विरोध के भाव उठ ही नहीं पाते।] 明%%%$$$垢听听听听听听听听听听听乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听圳乐乐团 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 अहिंसा कोश/173] Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 “男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男 अहिंसा और दया/आनृशंस्य धर्म 55 [दया, करुणा आदि अहिंसा रूपी बीज से उत्पन्न वृक्ष की शाखा-प्रशाखाएं ही हैं। दया, करुणा व अनुकम्पा के भाव को विकसित किए बिना 'अहिंसक होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। इसी सन्दर्भ में कुछ विशिष्ट शास्त्रीय उद्धरण यहां प्रस्तुत हैं-] अहिंसा =आत्मवत् व्यवहार)= दया 5 555 {614} सर्वभूतदयावन्तो विश्वास्याः सर्वजन्तुषु॥ त्यक्तहिंसा-समाचारास्ते नराः स्वर्गगामिनः। (म.भा. 13/144/9-10) __जो सब प्राणियों पर दया करने वाले तथा सब जीवों के विश्वासपात्र होते हैं और जिन्होंने हिंसामय आचरण को त्याग दिया है, इस प्रकार वे (अहिंसा के निषेधात्मक व विधेयात्मक-दोनों पक्षों का अनुष्ठान करने वाले) मनुष्य ही स्वर्ग में जाते हैं। ; 卐 ¥职编织乐乐%%%¥¥頻頻乐乐编织乐乐频听听听玩玩乐乐玩玩乐乐乐乐圳乐乐坎坎坎坎垢玩垢玩垢玩垢% $$$ {615} आत्मवत्सर्वभूतेषु यो हिताय प्रवर्तते। अहिंसैषा समाख्याता वेदसंविहिता च या॥ ____ (कं. पु. 1/(2)/55/15) सभी प्राणियों में आत्मवत् दृष्टि रखते हुए उनका हितकारी कार्य करना- यही 'अहिंसा' है जो 'वेद' में प्रतिपादित है। $$$$$$$ {616} परस्मिन् बन्धुवर्गे वा मित्रे द्वेष्ये रिपौ तथा। आत्मवद् वर्त्तितव्यं हि दयैषा परिकीर्तिता। (अ. स्मृ. 41) पराये लोग/शत्रुओं या बन्धुवर्ग के प्रति, मित्र या अपने से द्वेष रखने वाले के प्रति जो आत्मवत् व्यवहार है, वही 'दया' कही गई है। $$$$$ %%%%%%% %%%%%%%%%%%%% %% % %% %%%%%%%% वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/174 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %% %%%%%% %%%%% %% %% %% %% %% %%% %%%%%% % {617} अपरे बन्धुवर्गे वा, मित्रे द्वेष्टरि वा सदा। आत्मवद्वर्तनं यत् स्यात् सा दया परिकीर्तिता॥ ___ (भ.पु. 1/-/2/158) चाहे कोई दूसरा हो या अपना, शत्रु हो या मित्र- इन सबके प्रति किए गए आत्मवत् व्यवहार का ही नाम 'दया' है। {618} न हि प्राणात् प्रियतरं लोके किंचन विद्यते। तस्माद् दयां नरः कुर्याद् यथाऽऽत्मनि तथा परे॥ (म.भा. 13/116/8) ___ जगत् में अपने प्राणों से अधिक प्रिय दूसरी कोई वस्तु नहीं है। इसलिये मनुष्य जैसे अपने ऊपर दया चाहता है, उसी तरह दूसरों पर भी दया करे। {619) न ह्यात्मनः प्रियतरं किंचिद् भूतेषु निश्चितम्। अनिष्टं सर्वभूतानां मरणं नाम भारत॥ तस्मात् सर्वेषु भूतेषु दया कार्या विपश्चिता। __ (म.भा. 11/7/27-28) यह बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि प्राणियों को अपनी आत्मा से अधिक प्रिय कोई भी वस्तु नहीं है; इसीलिये मरना किसी भी प्राणी को अच्छा नहीं लगता; 4 अतः विद्वान् पुरुष को सभी प्राणियों पर दया करनी चाहिये। {620 नात्मनोऽस्ति प्रियतरः पृथिवीमनुसृत्य ह। तस्मात् प्राणिषु सर्वेषु दयावानात्मवान् भवेत्॥ (म.भा. 13/116/22) इस भूमण्डल पर अपनी : 'त्मा (स्वयं के जीवन) से बढ़कर कोई प्रिय वस्तु नहीं म है। इसलिये सब प्राणियों पर दया करे और सब को अपनी आत्मा (अपने जैसा) ही समझे। %% %% % %% %% %%%% %% %% % %%%% %% % अहिंसा कोश/175] Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEms दया, करुणा व सौहार्द-एकार्थक {621 स्वदुःखेष्विव कारुण्यं परदुःखेषु सौहृदात्। दयेति मुनयः प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य साधनम्॥ ___(कू.पु. 2/15/31; प.पु. 3/54/29) दूसरों के दुःख में अपने जैसा दुःख समझना और उनके प्रति करुणा व सौहार्द भाव प्रकट करना 'दया है, जो धर्म का साक्षात् साधन है। दयाः ईश्वरीय स्वरूप ¥圳坑坎妮妮妮妮妮妮妮妮妮妮妮妮听听听听听听听听听听听听听听听听听听玩玩玩玩玩乐乐玩玩乐乐巩巩巩 {622} श्रद्धा दया तितिक्षा च क्रतवश्च हरेस्तनूः। (भा. पु. 10/4/41) श्रद्धा, दया, तितिक्षा एवं क्रतु-(सत्कर्म)-ये भगवान् हरि के शरीर हैं। दयाः जीव-वध से निवृत्ति {623} परासुता क्रोधलोभादभ्यासाच्च प्रवर्तते। दयया सर्वभूतानां निर्वेदात् सा निवर्तते। (म.भा. 12/163/9-10) क्रोध ओर लोभ से तथा उनके अभ्यास से परासुता (दूसरों के मारने की इच्छा)प्रकट क होती है। सम्पूर्ण प्रणियों के प्रति दया से और वैराग्य से वह निवृत्त होती है। %%%%%%%%% %%%%%% %%%%% %%% % % %%% %%%% वैदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/176 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 男男男男%%%%%%%%%%%%%明明明明明明明明明明明明勇 दया के पात्रः प्राणिमात्र 16243 पापानां वा शुभानां वा वधार्हाणामथापि वा। कार्यं कारुण्यमार्येण न कश्चिन्नापराध्यति॥ __ (वा.रामा. 5/113/45) कोई पापी हों या पुण्यात्मा, अथवा वध के योग्य अपराध करने वाले ही वे क्यों न भ हों, श्रेष्ठ पुरुष को चाहिये कि उन सब पर दया करे, क्योंकि ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है, जिससे कभी अपराध हुआ या होता ही न हो। {625} 野野野野斯斯斯55防汚汚555555野野野野野野野坂野野野野野野野野野野野城野野野野巧野野野野 लोकहिंसाविहाराणां क्रूराणां पापकर्मणाम्। कुर्वतामपि पापानि नैव कार्यमशोभनम्॥ (वा.रामा. 5/113/46) जो लोगों की हिंसा में ही रमते (आनन्दित होते) हैं, उन पापाचारी व क्रूरस्वभावी लोगों का भी कभी अमंगल नहीं करना चाहिये। 5555555555555555555555555卐5555555555555 {626} अहिंसकानि भूतानि दण्डेन विनिहन्ति यः। आत्मनः सुखमन्विछन् स प्रेत्य न सुखी भवेत्॥ (म.भा. 13/113/5) जो मनुष्य अपने को सुख देने की इच्छा से अहिंसक प्राणियों को भी डंडे से मारता है, वह कभी परलोक में सुखी नहीं होता है। . {627} निर्गुणेष्वपि सत्त्वेषु , दयां कुर्वन्ति साधवः। न हि संहरते ज्योत्स्नां,चन्द्रश्चाण्डालवेश्मनि॥ (चाणक्य-नीतिशास्त्र-155) सज्जन पुरुष गुणहीन प्राणियों पर भी दया करते हैं। जैसे चांद अपनी चांदनी को चाण्डाल के घर से नहीं हटाता। 明明明明明明男男男男男男男%%%%%%%%%%%%%%%%%%% अहिंसा कोश/177] Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TEEEEEEEEEEEEEE.me {628} दुर्जनेष्वपि सत्त्वेषु दयां कुर्वन्ति साधवः॥ (ना. पु. 1/9/23) सत्यपुरुष दुर्जन प्राणियों पर भी दया करते हैं। दयापूर्ण व्यवहारः पालतू पशुओं के प्रति {629) रोधनं बन्धनं चैव भारप्रहरणं तथा। दुर्गप्रेरण-योक्त्रं च निमित्तानि वधेषु षट्॥ (प.स्मृ. 9/31) घेर कर रोकना, बाँधना, भार लादना, आघात करना, कठिन स्थानों पर चराने के # लिए ले जाना जुए में जोतना-ये छः कर्म वध (मृत्यु) में कारण होते हैं (इन कार्यों से बैल + के वध-तुल्य पीड़ा होने की सम्भावना रहती है, अतः सावधानी बरते)। ¥乐明明明明明明听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听垢妮妮妮妮妮妮听听听听听听听听听听听听 {630} द्वौ मासौ दापयेद् वत्सं द्वौ मासौ द्वौ स्तनौ दुहेत्। द्वौ मासावेकवेलायां शेषकाले यथारुचि।। (आ. स्मृ., 3/20-21) व्याई हुई गौ का दूध दो मास तक उसके बच्चे को पिलावे और इसके बाद दो | मास तक केवल दो स्तनों का ही दूध लेवे अर्थात् दुहे। दो मास तक केवल एक समय (दिन में या सायंकाल, केवल एक बार) ही दूध का दोहन करे, बाद में अपनी इच्छा के म अनुसार दूध लिया जा सकता है। (अर्थात् ब्याही हुई गौ का दूध सारा निकालने पर उसका ॐ बछड़ा भूखा रह सकता है, जिससे उस गौ को पीड़ा हो सकती है। अत: अहिंसक व्यक्ति म उक्त हिंसक कार्य से बचे।) 明明明明明明明明明明明垢玩垢听听听听听坎坎坎坎坎坎坎坎坎坎坎听听听听听听听听听坑坑坑坑垢玩垢玩垢 {631} यः शतौदनां पचति कामप्रेण स कल्पते। (अ.10/9/4) ___ जो सैकड़ों लोगों को अन्न-भोजन देने वाली (शतौदना) गौ का पालन पोषण # करता है, वह अपने संकल्पों को पूर्ण करता है। वैदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/178 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 他男男男男男男男%%%%%%%%%%%% %% %% % %% %%%% 1632} यः कुक्कुटान्निबधाति मार्जारान्सूकरांस्तथा। पक्षिणश्च मृगाञ्छागान्सोऽप्येनं नरकं व्रजेत्॥ (ब्रह्म.पु. 4/2/165) जो व्यक्ति मुर्गे, बिल्ली, सूअर, पक्षी, मृग, बकरी (आदि प्राणियों) को बांधकर अ रखता है, वह भी घोर (पूयवह)नरक में जाता है। {633} अदंशमशके देशे सुखसंवर्धितान् पशून्। तांश्च मातुः प्रियाञ्जानन्नाक्रम्य बहुधा नराः॥ बहुदंशकुलान् देशान् नयन्ति बहुकर्दमान्। वाहसम्पीड़िता धुर्याः सीदन्त्यविधिना परे॥ न मन्ये भ्रूणहत्याऽपि विशिष्टा तेन कर्मणा। (म.भा.12/262/43-45) तेल, घी, शहद और दवाओं की बिक्री करने से क्या हानि है, बहुत से मनुष्य तो डांस और मच्छरों से रहित देश में उत्पन्न और सुख से पले हुए पशुओं को यह जानते हुए भ में भी कि ये अपनी माताओं के बहुत प्रिय हैं और इनके बिछुड़ने से उन्हें बहुत कष्ट होगा, फ जबरदस्ती आक्रमण करके ऐसे देशों में ले जाते हैं जहां डांस, मच्छर और कीचड़ की अधिकता होती है। कितने ही बोझ ढोने वाले पशु भारी भार से पीड़ित हो, लोगों द्वारा म अनुचित रूप से सताये जाते हैं। मैं समझता हूं कि उस क्रूर कर्म से बढ़कर भ्रूण-हत्या का * पाप भी नहीं है। 張听听听听听听听听听听听听玩玩乐乐听听听听听听听听听听听听听听听¥听听听听听听听听听听听听听听 {634} दण्डेन ताडयेद्यो हि वृषं च वृषवाहकः। भृत्यद्वारा स्वतन्त्रो वा पुण्यक्षेत्रे च भारते॥ प्रतप्ततैलकुण्डे च स तिष्ठति चतुर्युगम्। गवां लोमप्रमाणाब्दं वृषो भवति तत्परम्॥ ____ (ब्र.वै.पु. 2/30/54-55) जो किसान इस पुण्य-क्षेत्र भारत में स्वयं अपने या नौकर द्वारा दण्डे से बैल को पीटता है, वह चारों युगों तक प्रतप्त तैल कुण्ड में रहता है। अनन्तर, उस बैल के शरीर पर में जितने रोंएं हों, उतने वर्षों तक वह बैल होता है। अहिंसा कोश/179] Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 他明明明明明明明明明明明明明男男男男男男男男男男男男男%%%% 55 {635} विषमं वाहयेद् यस्तु दुर्बलं सबलं तथा। स गोहत्यासमं पापं प्राप्नोतीह न संशयः॥ यो वाहयेद् विना सस्यं खादंतं गां निवारयेत्। मोहात्तृणं जलं वापि स गोहत्यासमं लभेत्॥ __ (ब्रह्म. 48/117-118) ___ जो व्यक्ति दुर्बल या सबल बैल को विषम (ऊबड़-खाबड़) जगह में जोतता है, म उसे गो-हत्या के समान पाप होता है। जो बैल को घास खाने से रोकता है या बिना खिलाये * भूखे बैल को जोतता है, या अनजाने में ही घास खाने व जल पीने से बैल को रोकता हैम उसे भी गो-हत्या का पाप लगता है। 呢呢呢呢呢圳乐乐乐垢乐听听听听听听听听听听听听听听乐垢玩垢听听听听听听听听听听听圳坂听听听听听听 {636} अष्टगव्यं धर्महलं षड्गवं वृत्तिलक्षणम्॥ चतुर्गवं नृशंसानां द्विगवं गोजिघांसुवत्। द्विगवं वाहयेत्पादं मध्याह्ने तु चतुर्गवम्॥ षड्गवं तु त्रियामाहेश्ष्टाभिः पूर्णं तु वाहयेत्। नाप्नोति नरकेष्वेवं वर्तमानस्तु वै द्विजः॥ (प.स्मृ. 2/8-10) आठ बैलों का हल धर्महल (उत्तम/श्रेष्ठ) होता है, और छ: बैलों से वृत्ति या ' * जीविका चलाने जैसा होता है। चार बैलों से निर्दयी लोगों के और दो बैलों से गौ की हत्या 卐 करने वालों के जैसा कर्म होता है। दो बैलों का हल हो, तो उसे प्रहर भर ही जोतना चाहिये, है और चार बैलों का हल हो तो दो प्रहर तक ही। छः बैलों को तीन प्रहर तक तथा आठ बैलों से पूरे दिन भर जोते। इस भांति (बैलों को अनुचित पीड़ा न देते हुए) जो द्विज कृषि-कार्य फ़ करता है, वह नरक में नहीं जाता। $$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$ {637} $ ब्रह्महत्यासमं पापं तन्नित्यं वृषताडने। वृषपृष्ठे भारदानात्पापं तद्विगुणं भवेत्॥ सूर्यातपे वाहयेद्यः क्षुधितं तृषितं वृषम्। ब्रह्महत्याशतं पापं लभते नात्र संशयः॥ $$ $ %%%%%%% %%% %%%%%、 m %%% %%%%%%% विदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/180 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 野野野野野野野野野野野野野野野野野野野野野野野野野野野野野野物 अन्नं विष्ठा जलं मूत्रं विप्राणां वृषवाहिनाम्। पितरो नैव गृह्णन्ति तेषां श्राद्धं च तर्पणम्॥ देवता नहि गृह्णन्ति तेषा पुष्पं फलं जलम्। ददाति यदि दम्भेन विपाताय प्रकल्पते॥ यो भुंक्ते कामतोऽन्नं च ब्राह्मणो वृषवाहिनाम्। नाधिकारो भवेत्तेषां पितृदेवार्चने नृप॥ लालाकुण्डे वसत्येव यावच्चन्द्रदिवाकरौ। विष्ठा भक्ष्यं मूत्रजलं तत्र तस्य भवेद् ध्रुवम्॥ त्रिसंध्यं ताडयेत्तं च शूलेन यमकिंकरः। उल्कां ददाति मुखतः सूच्या कृन्तति संततम्॥ षष्टिवर्षसहस्त्राणि विष्ठायां च कृमिर्भवेत्। ततः काकः पञ्चजन्मस्वथैवं बक एव च॥ पञ्चजन्मसु गृध्रश्च शृगालः सप्तजन्मसु। ततो दरिद्रः शूद्रश्च महाव्याधिस्ततः शुचिः॥ ___ (ब्र.वै.पु. 2/51/58-67) बैलों को (उस कार्य में) नित्य मारने-पीटने से ब्रह्महत्या के समान पाप लगता है 4 और उनके ऊपर भार (बोझ) लादने से उसका दुगुना पाप होता है। इस प्रकार (सूर्य) * के(प्रचण्ड) धूप में जो भूखे-प्यासे बैलों को अपने (जोतने-लादने के) काम में लगाये रहता है, उसे सौ ब्रह्म-हत्याओं के समान पाप होता है, इसमें संशय नहीं। उन वृषवाही (बैलों द्वारा जोतने-लादने के काम करने वाले) ब्राह्मणों का अन्न विष्ठा के समान और जल मूत्र के समान होता है तथा उनके श्राद्ध-तर्पण को पितर लोग ग्रहण नहीं करते हैं। देवता भी उनका फूल, फल एवं जल ग्रहण नहीं करते हैं। जो ब्राह्मण स्वेच्छा से वृषवाहकों का अन्न खाता है, उसे पितृकार्य एवं देवकार्य (पूजादि) में अधिकार भी नहीं रहता है। (इस कारण) चंद्रमा और सूर्य के समय तक उसे लाला (लार) कुण्ड नरक में रहते हुए विष्ठा-भोजन और * मूत्र-पान निश्चित ही करना पड़ता है। यमराज के सेवक शूल द्वारा तीनों संध्याओं में . (अर्थात् दिन में तीन बार) उसे ताड़ना देते हैं, मुख में जलती हुई लकड़ी डाल देते और सूई भ से शरीर में निरन्तर छेदते रहते हैं। पश्चात् वह साठ सहस्र वर्ष तक विष्ठा का कीड़ा, पाँच जन्मों तक कौवा और बगुला, पाँच जन्मों तक गीध और सात जन्मों तक सियार होता है। ॐ अनन्तर, दरिद्र और महारोगी शूद्र होकर उसके पश्चात् कहीं शुद्ध हो पाता है। 555555555555 明宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪宪明、 अहिंसा कोश/181] Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AXEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEng {638} ये पुरा मनुजा भूत्वा घोरकर्मरतास्तथा। पशुपुंस्त्वोपघातेन जीवन्ति च रमन्ति च॥ एवंयुक्तसमाचाराः कालधर्म गतास्तु ते॥ दण्डिता यमदण्डेन निरयस्थाश्चिरं प्रिये॥ (म.भा.13/145/पृ. 5969) जो मनुष्य पहले भयंकर कर्म में तत्पर होकर पशु के पुरुषत्व का नाश करने अर्थात् 卐 पशुओं को बधिया करने के कार्य द्वारा जीवन निर्वाह करते और उसी में सुख मानते हैं, प्रिये! ऐसे आचरण वाले मनुष्य मृत्यु को पाकर यमदण्ड से दण्डित हो, चिरकाल तक नरक में निवास करते हैं। {6391 आहारं कुर्वतीं गांच पिबन्तीं यो निवारयेत्। दण्डैर्गास्ताडयेत् मूढो यो विप्रो वृषवाहकः। दिने दिने गवां हत्यां लभते नात्र संशयः॥ (ब्र.वै. 2/30/172-173) जो व्यक्ति खाती हुई या पीती हुई गौ को रोकता है, और जो विप्र दण्डों से गौ (या # बैल) को मारता-पीटता है, गाड़ी या बैल में बैल को जोतता है, उसे प्रतिदिन गो-हत्या का दोष लगता है- इसमें सन्देह नहीं। ___{640} वृषक्षुद्रपशूनां च पुंस्त्वस्य प्रतिघातकृत्। साधारणस्यापलापी. दासीगर्भविनाशकृत्॥ पितृपुत्रस्वसृभ्रातृदम्पत्याचार्यशिष्यकाः । एषामपतितान्योन्यत्यागी च शतदण्डभाक्॥ (या. स्मृ., 2/20/236-37) (1) बैल, एवं बकरे आदि छोटे पशुओं को बांझ बनाने वाला, (2) साधारण वस्तु 卐 के विषय में भी वञ्चना/ठगी करने वाला, (3) दासी के गर्भ को गिराने वाला, (4) पिता# पुत्र, भाई-बहिन, पति-पत्नी, आचार्य-शिष्य-इनमें से एक दूसरे को-जो पतित नहीं हुआ 4 है-त्यागने वाला (पत्नी को तलाक देने वाला पति, पति को तलाक देने वाली पत्नी आदि)ॐ ये सभी सौ पण (आर्थिक) दण्ड के भागी होते हैं। 常勇男男%%%%%%%%%%%%%%%%%%男男男男男男男男男男男男、 वैिदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/182 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (原名: {641} स्थिराङ्गं नीरुजं दृप्तं सुनर्दं षण्ढवर्जितम् । वाहयेद्दिवसस्यार्द्धं पश्चात्स्नानं समाचरेत् ॥ (प.स्मृ. 2/4) जिस बैल के अङ्ग दृढ़ हों, जो रोगरहित हो, दर्प से भरा हो, गर्जना करता हो, और बधिया न हो ऐसे बैल को आधा दिन ही जोते, बाद में स्नान करे। {642} पशूंश्च ये वै बध्नन्ति ये चैव गुरुतल्पगाः । प्रकीर्णमैथुना ये च क्लीबा जायन्ति वै नराः ॥ (ब्रह्म.पु. 117/52) जो व्यक्ति पशुओं को बांध कर रखते हैं, गुरु-पत्नी से समागम करते हैं, जहां कहीं भी व्यभिचार करते हैं, वे मर कर दूसरे जन्म में नपुंसक होते हैं। {643} न नारिकेलबालाभ्यां न मुञ्जेन न चर्म्मणा । एभिर्गास्तु न बध्नीयाद् बद्ध्वा परवशो भवेत् । । कुशैः काशैश्च बध्नीयाद् वृषभं दक्षिणामुखम् । ( आ. स्मृ. 1/25-26 ) नारियल के बने हुए रस्सों से, बालों की रस्सी से, मूंज की और चमड़े की रस्सी से गौ-वंशज (बैल) को नहीं बाँधना चाहिए (क्योंकि ये कठोर होती हैं)। कुश या घास की बनी हुई रस्सियों से ही बैलों को दक्षिणाभिमुख कर बांधना चाहिए। {644} न नारिकेलैर्न च शाणबालै र्न चाऽपि मौजैर्न च वल्कश्रृङ्खलैः । तैस्तु गावो न निबन्धनीया बद्ध्वाऽपि तिष्ठेत् परशुं गृहीत्वा ॥ (प.स्मृ. 9/33) नारियल, सन, बाल, मूंज, पेड़ के छाल की रस्सी तथा लोहे की जंजीर से कभी किसी गाय या बैल को न बांधे। यदि बांध ही दे, तो उसे काटने के लिए शस्त्र (परशु) लेकर खड़ा रहे (ताकि जब उसे पीड़ा हो तो तुरन्त रस्सी काट सके) । 编 अहिंसा कोश / 183] Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEng {645} हलमष्टगवं धन॑ षड्गवं जीवितार्थिनाम्। चतुर्गवं नृशंसानां द्विगवञ्च जिघांसिनाम्।। __(आ. स्मृ. 1/23, अ. स्मृ 222-223; अ. पु. 152/4) हल को चलाने के कार्य में कृषक को वस्तुतः आठ बैल रखने चाहिएं-यही धर्म* सम्मत है। छ: बैलों से भी जो हल का काम लेते हैं, वे अपने जीविका-निर्वाह करने के इच्छुक माने जाते हैं। चार बैलों से काम लेने वाले क्रूर होते हैं, और केवल दो बैलों से हल के द्वारा भूमि जुताई करने वाले जिघांसु (कसाई -बैलों को मार डालने का यत्न करने वाले) ॐ कहे जाते हैं। {646} कुशैः काशैश्च बनीयाद् गोपशुं दक्षिणामुखम्। (प.स्मृ. 9/34) कुश या घास की बनी रस्सियों से ही बैल या गाय को, उसे दक्षिण-मुख करते हुए, बांधे। 與巩巩巩巩巩巩听听听听听听听听听听听听听听听听听坂听听听听听听听听听听听巩巩听听听听听听听听听 {6471 क्षुधितं तृषितं श्रान्तं बलीव न योजयेत्। हीनाङ्गं व्याधितं क्लीबं वृषं विप्रो न वाहयेत्॥ (प.स्मृ. 2/3; ग.पु. 1/107/6 में पद्यार्ध समान) ब्राह्मण को चाहिए कि वह भूखे, प्यासे और थके हुए बैल को जूए में न जोते। जो बैल अङ्गहीन हो, अथवा रोगी हो, तथा क्लीब (बधिया किया गया) हो, उसे तो हल में - बांधना, जोतना ही नहीं चाहिये। दया धर्म की महनीयता {648} धर्मो जीवदयातुल्यो न क्वापि जगतीतले। तस्मात् सर्वप्रयलेन कार्या जीवदया नृभिः॥ (शि.पु. 2/5/5/16) इस जगती-तल में जीवदया के समान दूसरा कोई धर्म नहीं है, इसलिए सब प्रकार 卐 के प्रयत्न से लोगों द्वारा जीवदया करनी ही चाहिए। 男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男 विदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/184 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男%%%%%%%%%%%% {649} न धर्मस्तु दयातुल्यो, न ज्योतिश्चक्षुषा समम्॥ ___ (स्कं.पु. वैष्णव/वेंकटा./17/19; ना. पु. 2/22/18) न दया के बराबर कोई धर्म है और न ही आंख के समान कोई ज्योति है। {650 p圳圳坂明明圳坂垢玩垢听听听听听听听听听听听圳坂垢玩垢玩垢听听听听听听听听听听听圳FFFFFF दया सुर्वसुखैषित्वम्। (म.भा. 3/313/90) सब के सुख की इच्छा रखना ही उत्तम दया है। 16511 न दयासदृशो धर्मो न दयासदृशं तपः। न दयासदृशं दानं न दयासदृशः सखा॥ (प.पु. 5/102/15) दया के समान न कोई धर्म है, न कोई तप है, न कोई दान और और न कोई मित्र है। {652} सर्वभूतदयायुक्तः पूज्यमानोऽमरैर्द्विजः। सर्वभोगान्वितेनासौ विमानेन प्रयाति च॥ (ना. पु. 1/31/27) जो सभी प्राणियों के प्रति दया भाव रखता है, वह (मृत्यु के बाद) देवताओं से पूजित होता हुआ समस्त भोग- सुविधाओं से पूर्ण देव-विमान द्वारा (परलोक में) जाता है। {653} न ह्यतः सदृशं किंचिदिह लोके परत्र च। यत् सर्वेष्विह भूतेषु दया कौरवनन्दन॥ न भयं विद्यते जातु नरस्येह दयावतः। दयावतामिमे लोकाः परे चापि तपस्विनाम्॥ (म.भा.13/116/10-11) इस लोक और परलोक में इसके समान दूसरा कोई पुण्यकार्य नहीं है कि इस जगत् में * का समस्त प्राणियों पर दया की जाय।इस जगत् में दयालु मनुष्य को कभी भय का सामना नहीं करना है # पड़ता। दयालु और तपस्वी पुरुषों के लिये इहलोक और परलोक दोनों ही सुखद होते हैं। . 明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明那 अहिंसा कोश/185] Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XEXXEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE {654} सर्वभूतानुकम्पी यः सर्वभूतार्जवव्रतः। सर्वभूतात्मभूतश्च स वै धर्मेण युज्यते॥ (म.भा. 13/142/28) जो सम्पूर्ण प्राणियों पर दया करता, सब के साथ सरलता का बर्ताव करता और समस्त भूतों को आत्मभाव से देखता है, वही धर्म के फल से युक्त होता है। {655} सर्वभूतेष्वनुक्रोशं कुर्वतस्तस्य भारत। आनृशंस्यप्रवृत्तस्य सर्वावस्थं पदं भवेत्॥ (म.भा. 12/66/19) ___ जो समस्त प्राणियों पर दया करता है और क्रूरता-रहित कर्मों में ही प्रवृत्त होता है, उसे सभी आश्रम-धर्मों के सेवन का फल प्राप्त होता है। {656} सर्वत्र च दयावन्तः सन्तः करुणवेदिनः।। गच्छन्तीह सुसंतुष्टा धर्मपन्थानमुत्तमम्। शिष्टाचारा महात्मानो येषां धर्मः सुनिश्चितः।। (म.भा. 3/207/94-95) जो सर्वत्र दया करते हैं, जिनके हृदय में करुणा की अनुभूति होती है, वे श्रेष्ठ पुरुष इस लोक में अत्यन्त संतुष्ट रहकर धर्म के उत्तम पथ पर चलते हैं जिन्होंने (अहिंसा) धर्म को अपनाये रखने का दृढ़ निश्चय कर लिया है, वे ही महात्मा व सदाचारी हैं। 乐垢玩垢听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听垢听听听听听听听听听听听听听听听听 {657} कमिकीटवयोहत्या मद्यानुगतभोजनम्। फलैधःकुसुमस्तेयम्, अधैर्यं च मलावहम्॥ ___ (म.स्मृ. 11/70; अ.पु. 168/40) ' कृमि (अत्यन्त छोटे कीड़े), कीट (कृमि से कुछ बड़े कीड़े) एवं पक्षियों का वध करना, मद्य के साथ लाए गए पदार्थ का सेवन, फल-लकड़ी व फूल को चुराना और है 7 (साधारण अनिष्ट-कारक कष्टादि में भी) अधीरता-ये प्रत्येक कर्म मनुष्यों को मलिन करने वाले हैं। 勇勇勇勇勇勇勇勇强弱弱弱弱弱弱勇勇勇勇明明明明明明明 विदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/186 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEXXXXANANEEK {658} तिष्ठन् गृहे चैव मुनिर्नित्यं शुचिरलंकृतः। यावजीवं दयावांश्च सर्वपापैः प्रमुच्यते॥ (म.भा. 3/200/101) जो सद्गुण-सम्पन्न व्यक्ति निरन्तर घर पर भी पवित्र भाव से रहते हुए, जीवन भर सब प्राणियों पर दया रखता है, उसे मुनि ही समझना चाहिए। वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है। {659} खराश्वोष्ट्रमृगेभानामजाविकवधस्तथा । संकरीकरणं ज्ञेयं मीनाहिमहिषस्य च॥ (म.स्मृ. 11/68) गधा, कुत्ता, मृग (हिरण), हाथी, अज (खसी,), भेड़, मछली, सांप और भैंसा, # इनमें से किसी को भी मारना मनुष्य को वर्णसङ्कर के दोष से दूषित करने वाला होता है। {660) सर्वहिंसानिवृत्ताश्च नराः सर्वंसहाश्च ये। सर्वस्याश्रयभूताश्च ते नराः स्वर्गगामिनः॥ (म.भा. 13/23/92) जो सब प्रकार की हिंसाओं से अलग रहते हैं, सब कुछ सहते हैं और सबको आश्रय देते रहते हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोक में जाते हैं। {661} बालवृद्धेषु कौन्तेय सर्वावस्थं युधिष्ठिर। अनुक्रोशक्रिया पार्थ सर्वावस्थं पदं भवेत्॥ (म.भा. 12/66/20) जो बालकों और बूढ़ों के प्रति दयापूर्ण बर्ताव करता है, उसे भी सभी आश्रम-धर्मों : के सेवन का फल प्राप्त होता है। आनृशंस्यं परो धर्मः। (म.भा. 3/313/76; 3/313/129; ना. पु. 1/60/49; वि. ध. पु. 3/270/1) लोक में 'दया' श्रेष्ठ धर्म है। 男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男飛 अहिंसा कोश/187] {662} Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE {663} अपराधिषु सस्नेहा मृदवो मृदुवत्सलाः। आराधनसुखाश्चापि पुरुषाः स्वर्गगामिनः॥ (म.भा. 13/23/95) जो अपराधियों के प्रति भी दया करते हैं, जिनका स्वभाव मृदुल होता है, जो मृदुल स्वभाव वाले व्यक्तियों पर प्रेम रखते हैं तथा जिन्हें दूसरों की आराधना (सेवा) करने में ही सुख मिलता है, वे मनुष्य स्वर्ग लोक में जाते हैं। दया/अनुकम्पा/करुणा से रहित व्यक्ति निन्दनीय 坑坑坑坑坑坑坑坑坑骗巩巩巩巩听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听乐明听听听听听听听听听% {664} यो नाऽत्मना न च परेण च बन्धुवर्गे, दीने दयां न कुरुते न च मर्त्यवर्गे। किं तस्य जीवितफलं हि मनुष्यलोके, काकोऽपि जीवति चिराय बलिं च भुङ्क्ते॥ (पं.त. 1/25, ग.पु.1/115/35 ___ में आंशिक परिवर्तन के साथ) जो स्वयं दूसरे प्रकार के सगे-संबन्धियों, दीनों और प्राणियों पर दया नहीं करता है, इस संसार में उसके जीवित रहने का फल ही क्या है? यों तो कौवा भी दूसरों द्वारा दी ॐ गई बलि से पेट पालता हुआ बहुत दिनों तक जीवित रहता है। %垢玩垢玩垢玩垢玩垢垢垢妮妮听听听听听听听听听垢垢玩垢听听听听听听听巩巩听听听听听听听乐垢玩垢听形 {665} न ज्ञातिभ्यो दया यस्य शुक्लदेहोऽविकल्मषः। हिंसा सा तपसस्तस्य नानाशित्वं तपः स्मृतम्॥ (म.भा. 3/200/100) जिसने व्रत, उपवास आदि के द्वारा शरीर को तो शुद्ध कर लिया और जो नाना प्रकार के पापकर्म भी नहीं करता, किंतु जिस के मन में अपने कुटुम्बीजनों के प्रति दया नहीं आती, उसकी वह निर्दयता रूप हिंसा उसके तप का नाश करने वाली होती है; क्योंकि केवल भोजन छोड़ देने का ही नाम तपस्या नहीं है। % %% % % %%%%%%%%%% %%%%%% 、 % %%%% %%% विदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/188 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %%%%%明與 %%%¥¥¥¥¥¥¥¥¥巩巩巩%%%%%% E%% 1666 अनाथं विक्लवं दीनं रोगार्तं वृद्धमेव च। नानुकम्पन्ति ये मूढास्ते वै निरयगामिनः॥ (प.पु. 2/96/18) जो लोग अनाथ, विकलांग, दीन, रोगी व वृद्ध व्यक्तियों पर अनुकम्पा नहीं करते, वे मूढ लोग नरक में जाते हैं। अहिंसकः शरणागत-रक्षक {667} अहिंसकस्ततः सम्यक् धृतिमान् नियतेन्द्रियः। शरण्यः सर्वभूतानां गतिमाजोत्यनुत्तमाम्॥ (ब्रह्म. 15/75) जो इन्द्रियजयी , धृतिसम्पन्न, पूर्णत:/सम्यक्तया अहिंसक, एवं समस्त प्राणियों के ई लिए शरण-स्थान होता है, वह उत्तम गति को प्राप्त करता है। हत्या के दोषीः शरणागत-रक्षा से विमुख ___668} धिक्तस्य जीवितं पुंसः शरणार्थिनमागतम्। यो नार्तमनुगृह्णाति वैरिपक्षमपि ध्रुवम्॥ (मा.पु. 128/25) शत्रुपक्षी मनुष्य के भी आर्त होकर शरण में आने पर जो मनुष्य उसकी रक्षा नहीं करता, उस मनुष्य के जीवन को धिक्कार है। {669} आशया ह्यभिपन्नानामकृत्वाऽश्रुप्रमार्जनम्। राजा वा राजपुत्रो वा भ्रूणहत्यैव युज्यते॥ (म.भा.12/360/9) जो आशा लगाकर अपनी शरण में आये हों, उनके आँसू जो नहीं पोंछता है, वह राजा हो या राजकुमार, उसे भ्रूणहत्या का पाप लगता है। 4CXEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEERS अहिंसा कोश/189] Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEX {670} धर्मो हि महतामेष शरणागतपालनम्॥ शरणागतं च विप्रं च रोगिणं वृद्धमेव च। य एतान्न रक्षन्ति, ते वै ब्रह्महणो नराः॥ ___ (स्कं.पु. माहे./केदार/9/49-50) बड़े लोगों का कर्तव्य यह है कि वे शरणागतों का पालन करे।वे मनुष्य ब्रह्महत्यारे हैं जो शरणागत, विप्र, रोगी और वृद्धजनों की रक्षा नहीं करते। {671} आगतस्य गृहं त्यागस्तथैव शरणार्थिनः। याचमानस्य च वधो नृशंसो गर्हितो बुधैः॥ (म.भा.1/160/10) घर पर आये हुए शरणार्थी का त्याग और अपनी रक्षा के लिये याचना करने वालों का वध -यह विद्वानों की राय में अत्यन्त क्रूर एवं निन्दित कर्म है। 埃垢圳坂¥¥垢妮妮妮妮妮妮頻頻頻頻頻垢玩垢玩垢玩垢玩垢玩垢圳坂圳妮妮妮妮妮妮頻頻頻圳纸纸垢玩垢圳 字與圳FFFFF垢玩垢與圳垢與與與與與與與與與與與與與與與與與與與垢垢與與與與與與娟娟娟娟 दया/अनुकम्पा आदि के विशेष पात्रः शरणागत {672} बद्धांजलिपुटं दीनं याचन्तं शरणागतम्। न हन्यादानृशंस्यार्थमपि शत्रु परंतप॥ (वा.रामा. 5/18/27) यदि शत्रु भी शरण में आये और दीन भाव से हाथ जोड़कर दया की याचना करे तो उस पर प्रहार नहीं करना चाहिये। दया/अनुकम्पा की अभिव्यक्तिः शरणागत-रक्षा {673} आतॊ वा यदि वा दृप्तः परेषां शरणं गतः। अरिः प्राणान् परित्यज्य रक्षितव्यः कृतात्मना॥ __(वा.रामा. 5/18/28) यदि कोई शत्रु भी दुःखी होकर अपनी शरण में आए, तो स्वयं शत्रु होते हुए भी शुद्ध फ हदय वाले पुरुष को चाहिए कि वह अपने प्राणों का भी मोह छोड़कर शत्रु की रक्षा करे। Firs #EKHENEFENE FREE FREE FREEEEEEEEE HAN वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/190 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ c他男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男 {674} विनष्टः पश्यतस्तस्य रक्षिणः शरणं गतः। आनाय सुकृतं तस्य सर्वं गच्छेदरक्षितः।। एवं दोषो महानत्र प्रपन्नानामरक्षणे। अस्वयं चायशस्यं च बलवीर्यविनाशनम्॥ ___ (वा.रामा. 5/18/30-31) यदि शरण में आया हुआ पुरुष संरक्षण न पाकर उस रक्षक के देखते-देखते विनाश को प्राप्त हो जाय, तो वह (मर कर शरणागत पुरुष) उसके सारे पुण्य को अपने साथ ले जाता है। इस प्रकार शरणागत की रक्षा न करने से महान् दोष बताया गया है। शरणागत की रक्षा न कर पाना स्वर्ग और सुयश की प्राप्ति को मिटा देता है और मनुष्य के बल और पराक्रम का नाश करता है (अर्थात्, उसकी सार्थकता को समाप्त कर देता है)। #FFFFFFFFF圳垢圳垢圳圳坂F圳乐乐圳坂圳坂垢垢玩垢圳坂货货货垢垢玩垢FFFFFFFF {675} बलात्कृतेषु भूतेषु परित्राणं कुरूद्वह। शरणागतेषु कौरव्य कुर्वन् गार्हस्थ्यमावसेत्॥ (म.भा. 12/66/21) जिन प्राणियों पर बलात्कार हुआ हो और वे शरण में आये हों, उनका संकट से उद्धार करने वाला पुरुष गार्हस्थ्य-धर्म (के पालन से मिलने वाले पुण्यफल) का भागी होता है। शरणागत पर दया/करुणाः श्रेष्ठता की पहचान 16761 यस्तु शत्रोर्वशस्थस्य शक्तोऽपि कुरुते दयाम्। हस्तप्राप्तस्य वीरस्य तं चैव पुरुषं विदुः॥ (म.भा.12/227/23) जो शक्तिशाली होकर भी अपने वश में पड़े हुए अथवा हाथ में आए हुए वीर शत्रु म पर दया करता है, उसे ही अच्छे लोग उत्तम पुरुष मानते हैं। 4XXXEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE अहिंसा कोश/191] Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 男男男男男男男男男男男男男男男男男%%%%%%%%%%%%%% {677} अमित्रमपि चेद् दीनं शरणैषिणमागतम्। व्यसने योऽनुगृह्णाति स वै पुरुषसत्तमः॥ (म.भा. 13/59/10) शत्रु भी यदि दीन होकर शरण पाने की इच्छा से घर पर आ जाय तो संकट के समय जो उस पर दया करता है, वही मनुष्यों में श्रेष्ठ है। {678} स चेद् भयाद् वा मोहाद् वा कामाद्वापि न रक्षति। स्वया शक्त्या यथान्यायं तत् पापं लोकगर्हितम्।। ___ (वा.रामा. 5/18/29) यदि वह (श्रेष्ठ पुरुष) भय, मोह अथवा किसी कामना के कारण, न्यायानुसार ॐ यथाशक्ति उसकी रक्षा नहीं करता तो उसके उस पाप-कर्म की लोक में बड़ी निन्दा होती है। 與妮妮妮妮妮垢玩垢玩垢听听听听听听听听圳坂听听听听听听听听听听听听巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩 {679} शरणागतं यस्त्यजति, स चाण्डालोऽधमो जनः। (वा.पु. 14/92) जो शरणागत को छोड़ देता है (उसे शरण नहीं देता), वह व्यक्ति चाण्डाल है, अधम है। 乐垢垢垢玩垢玩垢玩垢听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 अहिंसा और क्षमा/अक्रोध धर्मः परस्पर-सम्बद्ध (क्षमावान् ही अहिंसक) {680} क्षान्तो दान्तो जितक्रोधो धर्मभूतोऽविहिंसकः। धर्मे रतमना नित्यं नरो धर्मेण युज्यते। (म.भा.13/142/32) क्षमाशील, जितेन्द्रिय, क्रोधविजयी, धर्मनिष्ठ व्यक्ति अहिंसक होता है और सदा ॐ धर्मपरायण मनुष्य ही धर्म के फल का भागी होता है। वैिदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/192 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEENm {681} क्षमाऽऽहिंसा क्षमा धर्मः क्षमा चेन्द्रियनिग्रहः॥ क्षमा दया क्षमा यज्ञः क्षमयैव धृतं जगत्। (म.भा.13/वैष्णव धर्म पर्व/92/ पृ.6375) अहिंसा, धर्म और इन्द्रियों का संयम क्षमा के ही स्वरूप है। क्षमा ही दया और क्षमा ही यज्ञ है। क्षमा से ही सारा जगत् टिका हुआ है। क्षमा से धर्म की पूर्णता {682} क्षमा धर्मो ह्यनुत्तमः॥ (म.भा. 4/16/अ.,पृ.1890) क्षमा सबसे उत्तम धर्म है। ___{683} 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听號 ब्रह्मचर्येण सत्येन मखपंचकवर्तनैः॥ दानेन नियमैश्चापि क्षमा-शौचेन वल्लभ। अहिंसया सुशक्त्या च अस्तेयेनापि वर्तनैः॥ एतैर्दशभिरंगैस्तु धर्ममेवं प्रपूरयेत्॥ __ (प.पु.2/12/46-48) ___(विदुषी सुमना ब्राह्मणी का पति सोमशर्मा को कथन)-ब्रह्मचर्य, सत्य, पञ्च यज्ञ, दान, नियम, क्षमा, शौच (शुद्धि), अचौर्य, सुशक्ति (आत्म-शक्ति, दम) अचौर्य व अहिंसा म -ये धर्म के दस अंग हैं । इनसे धर्म को पूर्ण समृद्ध करे (अर्थात् इन सभी के अनुष्ठान से ही , धर्म का सर्वांग रूप से अनुष्ठान सम्भव हो पाता है। %%%%%%垢玩垢妮妮%垢听听听听听听听听巩巩巩巩巩巩垢與與與妮妮妮听听听听听听听听听¥¥¥¥¥学 {684} क्षमेदशक्तः सर्वस्य शक्तिमान् धर्मकारणात्। अर्थानों समौ यस्य तस्य नित्यं क्षमा हिता॥ (म.भा. 5/39/59, विदुरनीति 7/59) जो शक्तिहीन है, वह तो सब पर क्षमा करे ही; जो शक्तिमान है, वह भी धर्म की सिद्धि के लिये क्षमा करे। जिसकी दृष्टि में अर्थ और अनर्थ दोनों समान हैं, उसके तो हितकारिणी क्षमा सदा विद्यमान ही रहती है। ARYANEEEEEEEEEEEEEEEEEEEENA अहिंसा कोश/193] H Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEng क्षमाः सत्पुरुषों व वीरों का अलंकार {685} अलंकारो हि नारीणां क्षमा तु पुरुषस्य वा। (वा.रामा. 1/33/7) स्त्री हो या पुरुष,उसके लिये क्षमा ही आभूषण है। {6868 क्षमा तेजस्विनां तेजः क्षमा ब्रह्म तपस्विनाम्। क्षमा सत्यं सत्यवतां क्षमा यज्ञः क्षमा शमः॥ (म.भा. 3/29/40) क्षमा तेजस्वी पुरुषों का तेज है, क्षमा तपस्वियों का ब्रह्म है, और क्षमा सत्यवादी पुरुषों का सत्य है। क्षमा ही यज्ञ है और क्षमा ही शम (मनोनिग्रह) है। {687} ¥¥¥¥¥¥呢呢呢呢呢呢圳职垢听听听听纸呢呢呢呢呢呢呢呢呢坂听听听听听听听听听听听听听听听听听 अनसूया क्षमा शान्तिः संतोषः प्रियवादिता। कामक्रोधपरित्यागः शिष्टाचारनिषेवणम्॥ कर्म च श्रुतसम्पन्नं सतां मार्गमनुत्तमम्। __(म.भा. 3/207/96-97) क्षमा, शान्ति, संतोष, प्रियभाषण और काम व क्रोध का त्याग, दोष-दृष्टि का # अभाव, शिष्टाचार का सेवन और शास्त्र के अनुकूल कर्म करना-यह श्रेष्ठ पुरुषों का अति # उत्तम मार्ग है। {688} सुजनो न याति वैरं परहितनिरतो विनाशकालेऽपि। छेदेऽपि चन्दनतरुः सुरभीकरोति मुखं कुठारस्य॥ (वा.रामा.माहात्म्य 4/21) दूसरों के हित-साधन में लगे रहने वाले साधुजन किसी के द्वारा अपने विनाश का समय उपस्थित होने पर भी उसके साथ वैर नहीं करते। चन्दन का वृक्ष स्वयं को काटने वाले ॐ कुठार की धार को भी सुगन्धित ही करता है। %%% %% % %%%%%%%% % %%%%% %%%% 、 विदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/194 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEtime {689} क्षमा गुणवतां बलम्॥ ___ (म.भा. 5/34/75; 5/39/69, विदुरनीति 2/75) गुणवानों का बल है-क्षमा। {690} क्षमा हि परमं बलम्।क्षमा गुणो ह्यशक्तानां शक्तानां भूषणं क्षमा॥ ___(म.भा. 5/33/49, विदुरनीति 1/49) क्षमा बहुत बड़ा बल है। क्षमा असमर्थ मनुष्यों का गुण है तो समर्थों का एक भूषण है। {691} दुर्जनस्य कुतः क्षमा॥ (चाणक्य-नीतिशास्त्र, प्रथम शतक- 167) दुर्जन को क्षमा भाव कहां? (क्योंकि वह तो सज्जनों का ही धर्म है।) 明乐乐乐玩玩乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐乐明明明明明明明明明玩玩乐乐玩玩乐乐坎坎贝贝听听听听听玩玩乐乐乐 अहिंसात्मक प्रवृत्तिः क्षमा .. {692} आक्रुष्टस्ताडितः कुद्धः क्षमते यो बलीयसा। यश्च नित्यं जितक्रोधो विद्वानुत्तमपूरुषः॥ (म.भा. 3/29/33) जो बलवान् पुरुषों के गाली देने या कुपित होकर मारने पर भी क्षमा कर देता है तथा जो सदा अपने क्रोध को काबू में रखता है; वही विद्वान है और वही श्रेष्ठ पुरुष है। वाचा मनसि काये च, दःखेनोत्पादितेन च। न कुप्यति न चाप्रीतिः, सा क्षमा परिकीर्तिता॥ ___ (वि.पु. 1/-/2/159) कोई व्यक्ति दुःख दे तो भी, मन-वचन व शरीर से क्रोध या अप्रसन्नता प्रकट न करना-यही क्षमा है। %%%%%%%%%%% % %%%%%% %% % % %% %%% %%%% % अहिंसा कोश/195] Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 筑 無 * {694} क्षान्त्यास्पदं वै ब्राह्मण्यं क्रोधसंयमनं तपः ॥ क्रोध के नियंत्रण रूप तप का ही नाम 'क्षमा' है। क्षमा ही ब्राह्मणत्व है। {695} आकुष्टोऽभिहतो यस्तु नाक्रोशेत्प्रहरेदपि । अदुष्टो वांग्मनःकायैस्तितिक्षा सा क्षमा स्मृता ॥ (म.पु. 145/46) जो निन्दित होने पर बदले में निन्दक की निन्दा नहीं करता तथा आघात किये जाने पर भी बदले में उस पर प्रहार नहीं करता, अपितु, मन, वचन व शरीर से प्रतीकार की भावना से रहित हो उसे सहन कर लेता है, उसकी उस क्रिया को 'क्षमा' कहते हैं। {696} विगर्हातिक्रमाक्षेपहिंसाबन्धवधात्मनाम् । अन्यमन्युसमुत्थानां दोषाणां मर्षणं क्षमा ॥ ( मा.पु. 60/20 ) (कू.पु. 2/15/30; प.पु. 3/54/28) निन्दा, आक्रमण, आक्षेप, हिंसा, बन्धन व हत्या करने वाले लोगों (के दुराचरण) तथा दूसरों के क्रोध से उत्पन्न दोषों को सह लेना 'क्षमा' है । [वैदिक / ब्राह्मण संस्कृति खण्ड / 196 {697} क्षमा द्वन्द्व-सहिष्णुत्वम्। ( म.भा. 3/313/88) मान-अपमान, सुख-दु:ख, अनुकूलता - प्रतिकूलता- इन द्वन्द्वों को सहन करना ही 'क्षमा' है। {698} आक्रुष्टो निहतो वापि नाक्रोशेद्यो न हन्ति च । वाङ्मनःकर्मभिर्वेति तितिक्षैषा क्षमा स्मृता ॥ (ब्रह्म. पु. 2/32/49) कोई दूसरा आक्रोश करे तो उस पर आक्रोश न करे, कोई मारे तो उसे न मारे, इस प्रकार मन, वचन व कर्म से आकोशकारी व घातक के प्रति सहनशीलता का होना यह 'क्षमा' है। 廣 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩 क्षमा की महत्ता {699} क्षमा वशीकृतिलॊके क्षमया किं न साध्यते। शान्तिखड्गः करे यस्य किं करिष्यति दुर्जनः॥ __ (म.भा. 5/33/50, विदुरनीति 1/50) इस जगत में क्षमा वशीकरणरूप है। भला, क्षमा से क्या नहीं सिद्ध होता? जिसके हाथ में शान्ति (क्षमा)रूपी तलवार है, उसका दुष्ट पुरुष क्या कर लेंगे? %%%%%%%%%%%%听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听乐乐 {700} क्षमा धनुः करे यस्य, दुर्जनः किं करिष्यति। अतृणे पतितो वह्निः, स्वयमेवोपशाम्यति॥ (लघु चाणक्य,2/198) जिसके हाथ में क्षमा रूपी धनुष है, दुर्जन उसका क्या बिगाड़ सकता है? जैसे, ॐ तिनकों (घास-फूस) से रहित भूमि पर पड़ी आग स्वतः शान्त हो जाती है, वैसे ही दूसरे म का क्रोध क्षमावान् के आगे स्वतः शान्त हो जाता है। ¥¥%%%听听听听听听听呢呢呢呢呢呢听听听听听听听听巩巩巩巩巩巩听听听听听听听听垢听听听听听听听 {701} पापीयसः क्षमेतैव श्रेयसः सदृशस्य च। विमानितो हतोत्क्रुष्ट एवं सिद्धिं गमिष्यति॥ (म.भा.12/299/18) पाप करने वाला अपराधी अवस्था में अपने से बड़ा हो या बराबर, उसके द्वारा अपमानित होकर, मार खाकर और गाली सुनकर भी उसे क्षमा ही कर देना चाहिये। ऐसा करने वाला पुरुष परम सिद्धि को प्राप्त होगा। {702} क्षान्त्या शुद्ध्यन्ति विद्वांसः। (म.स्मृ.-5/107) विद्वान क्षमा से शुद्ध होते हैं। の野野野野野野野野野野野野野野野野野城野野野野野野野野野野野野野野野 अहिंसा कोश/197] Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ $$$$$$$$$$$$$$$$$$$$ 驅 卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐 {703} क्षमा ब्रह्म क्षमा सत्यं क्षमा भूतं च भावि च । क्षमा तपः क्षमा शौचं क्षमयेदं धृतं जगत् ॥ (म.भा. 3/29/37) क्षमा ब्रह्म है, क्षमा सत्य है, क्षमा भूत है, क्षमा भविष्य है, क्षमा तप है, क्षमा शौच (शुद्धता, निर्लोभता) है। क्षमा ने ही सम्पूर्ण जगत् को धारण कर रखा है। {704} क्षन्तव्यमेव सततं पुरुषेण विजानता । विद्वान पुरुष को सदा क्षमा का ही आश्रय लेना चाहिये । [वैदिक / ब्राह्मण संस्कृति खण्ड / 198 {705} क्षमा सत्यं क्षमा दानं क्षमा धर्मः क्षमा तपः । क्षमावतामयं लोकः परलोकः क्षमावताम् ॥ (म.भा. 4/16/अ.,पृ.1890) क्षमा सत्य है, क्षमादान है, क्षमा धर्म है और क्षमा ही तप है। क्षमाशील मनुष्यों के लिये ही यह लोक और परलोक है। 1 {706} क्षमा धर्मः क्षमा सत्यं क्षमा शौचं क्षमा बलम् । क्षमा यज्ञः क्षमा दानं क्षमा च परमं तपः ॥ ( म.भा. 3/29/42) (वि. ध. पु. 3/269/1 ) क्षमा धर्म है, क्षमा सत्य है, क्षमा शौच है, क्षमा बल है, क्षमा यज्ञ है, क्षमा दान है और क्षमा ही परम तप है। । {707} यदा हि क्षमते सर्वं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ 卐卐卐卐卐5 जब मनुष्य सब कुछ सहन कर लेता है, तब वह ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है। ( म.भा. 5/33/52, विदुरनीति 1 / 52 ) 新卐卐卐卐卐卐 $$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 鲋$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$骹 卐卐卐卐卐卐 {708} 卐卐, आक्रोशपरिवादाभ्यां विहिंसन्त्यबुधा बुधान् । वक्ता पापमुपादत्ते क्षममाणो विमुच्यते ॥ (म.भा. 5/34/74, विदुरनीति 2/74) मूर्ख मनुष्य विद्वानों को गाली और निन्दा से कष्ट पहुंचाते हैं। गाली देने वाला तो पाप का भागी होता है, किन्तु क्षमा करने वाला पाप से मुक्त हो जाता है। {709} क्षमा गुणो हि जन्तूनामिहामुत्र सुखप्रदः । (आ. स्मृ., 10 / 5 ) क्षमा प्राणियों का एक ऐसा अद्भुत गुण है, जो इस संसार में और परलोक में भी सुख प्रदान करता है। {710} मुक्तिमिच्छसि चेत् तात, विषयान् विषवत् त्यज । क्षमार्जवं दयां तोषं, सत्यं पीयूषवद् भज ॥ ( चाणक्य नीति 9 /76) यदि आप मुक्ति की इच्छा करते हैं, तो विषयों को विष मानकर उनका त्याग कर दीजिए। क्षमा, सरलता, संतोष और सत्य को अमृत समझकर उन्हें धारण कीजिए । {711} क्षमातुल्यं तपो नास्ति, न संतोषात् परं सुखम् । न च तृष्णा-परो व्याधिः, न च धर्मो दया- परः ॥ (लघु चाणक्य, 3 / 203) क्षमा बराबर तप नहीं, संतोष से बढ़ कर सुख नहीं, तृष्णा से बढ़ कर रोग नहीं, और भूत - दया से बढ़कर धर्म नहीं है। {712} क्षमैका शान्तिरुत्तमा । ( म.भा. 5 / 33 /52, विदुरनीति 1/ 52 ) एकमात्र क्षमा ही शान्ति का सर्वश्रेष्ठ उपाय है। 卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐 $$$$$$卐9 अहिंसा - विश्वकोश / 199] Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFF5555 {713} नातः श्रीमत्तरं किंचिदन्यत् पथ्यतमं मतम्। प्रभविष्णोर्यथा तात क्षमा सर्वत्र सर्वदा॥ (म.भा. 5/39/58) समर्थ पुरुष के लिये सब जगह और सब समय में क्षमा के समान हितकारक और अत्यन्त श्रीसम्पन्न बनाने वाला उपाय दूसरा नहीं माना गया है। 1714} क्षमा दानं क्षमा सत्यं क्षमा यज्ञाश्च पुत्रिकाः॥ क्षमा यशः क्षमा धर्मः क्षमायां विष्टितं जगत् ॥ ____ (वा.रामा. 1/33/8-9) क्षमा दान है, क्षमा सत्य है, क्षमा यज्ञ है, क्षमा यश है और क्षमा धर्म है। क्षमा पर 卐 ही यह सम्पूर्ण जगत् टिका हुआ है। 明明明明明明明明听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {715} क्षमावतो जयो नित्यं साधोरिह सतां मतम्॥ (म.भा. 3/29/14) ___ संत जनों का यह विचार है कि इस जगत में क्षमाशील सज्जन पुरुषों की सदा जय भी होती है। 色弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱%%%%%%%%%%%%%%%}%%%%%%%%% {716} येषां मन्युर्मनुष्याणां क्षमयाऽभिहतः सदा। तेषां परतरे लोकास्तस्मात् क्षान्तिः परा मता॥ (म.भा. 3/29/44) जिन मनुष्यों का क्रोध सदा क्षमाभाव से दबा रहता है,उन्हें सर्वोत्तम लोक प्राप्त होते * हैं। अतः क्षमा सबसे उत्कृष्ट मानी गयी है। REE [वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/200 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमा व क्षमाशीलः प्रशंसनीय {717} यः समुत्पादितं कोपं क्षमयैव निरस्यति ॥ इह लोके परत्रासौ, अत्यन्तं सुखमश्रुते । क्षमायुक्ता हि पुरुषा लभन्ते श्रेय उत्तमम् ॥ (स्कं. पु. वैष्णव./का./11/18-19) जो व्यक्ति उद्बुद्ध क्रोध को क्षमा से शान्त कर देता है, वह इस और उस- दोनों लोकों में अति सुख प्राप्त करता है । ये क्षमाशील पुरुष ही हैं जो उत्तम श्रेय की उपलब्धि करते हैं। {718} येषां मन्युर्मनुष्याणां क्षमयाऽभिहतः सदा । तेषां परतरे लोकास्तस्मात् क्षान्तिः परा मता ॥ (म.भा. 3/29/44) जिन मनुष्यों का क्रोध सदा क्षमाभाव से दबा रहता है, उन्हें सर्वोत्तम लोक प्राप्त होते हैं। अतः क्षमा सबसे उत्कृष्ट मानी गयी है । {719} बहुधा वाच्यमानोऽपि यो नरः क्षमयाऽन्वितः ॥ तमुत्तमं नरं प्राहुर्विष्णोः प्रियतरं तथा । ( वा.रामा. माहात्म्य 4/19-20 ) जो मनुष्य बारंबार दूसरों की गाली सुनकर भी क्षमाशील बना रहता है, वह उत्तम व्यक्ति कहलाता है । उसे परमेश्वर का भी अत्यन्त प्रियजन माना गया है। {720} द्वाविमौ पुरुषौ राजन् स्वर्गस्योपरि तिष्ठतः । प्रभुश्च क्षमया युक्तो दरिद्रश्च प्रदानवान् ॥ ( म.भा. 5 / 33 /58, विदुरनीति 1/58; वि. ध. पु. 1 / 218 / 17 ) दो प्रकार के पुरुष स्वर्ग के भी ऊपर स्थान पाते हैं- एक वह जो शक्तिशाली होते हुए भी क्षमा करे, और दूसरा वह जो निर्धन होने पर भी 'दान' दे। अहिंसा कोश / 201] Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEng ____{721} यो नात्युक्तः प्राह रूक्षं प्रियं वा यो वा हतो न प्रतिहन्ति धैर्यात्। पापं च यो नेच्छति तस्य हन्तुस्तस्येह देवाः स्पृहयन्ति नित्यम्॥ ___ (म.भा.12/299/17) जो दूसरों के द्वारा अपने लिये कड़वी बात कही जाने पर भी उसके प्रति कठोर या प्रिय कुछ भी नहीं कहता तथा किसी के द्वारा चोट खाकर भी धैर्य के कारण बदले में न तो मारने वाले को मारता है और न उसकी बुराई ही चाहता है, उस महात्मा से मिलने के लिये है देवता भी सदा लालायित रहते हैं। {722} यस्मात्तु लोके दृश्यन्ते क्षमिणः पृथिवीसमाः। तस्माजन्म च भूतानां भवश्च प्रतिपद्यते॥ (म.भा. 3/29/31) इस जगत में पृथ्वी के समान क्षमाशील पुरुष भी देखे जाते हैं, इसीलिए प्राणियों की उत्पत्ति व वृद्धि होती रहती है (अन्यथा क्रोध से एक दूसरे को मार कर सब नष्ट हो जाएं)। 兵兵兵兵兵兵兵兵斯城玩玩乐乐玩玩乐乐听听听听听听听听坂听听听听听妮妮妮妮妮妮妮听听听听听巩巩巩 張蛋乐乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听%%%%听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {723} क्षन्तव्यं पुरुषेणेह सर्वापत्सु सुशोभने। क्षमावतो हि भूतानां जन्म चैव प्रकीर्तितम्॥ (म.भा. 3/29/32) पुरुष को सब तरह की आपत्तियों में क्षमा-भाव बनाये रखना चाहिए। चूंकि क्षमाशील व्यक्ति दुनिया में है, इसीलिए लोगों का जीवन चल रहा है। . {724} क्षमावान् ब्राह्मणो देवः क्षमावान् ब्राह्मणो वरः॥ क्षमावान् प्राप्नुयात् स्वर्गं क्षमावानाप्नुयाद् यशः। क्षमावान् प्राप्नुयान्मोक्षं तस्मात् साधुः स उच्यते॥ ___(म.भा.13/वैष्णव धर्म पर्व/92/ पृ.6375) जो ब्राह्मण क्षमावान् है, वह देवता कहलाता है, वही सबसे श्रेष्ठ है । क्षमाशील * मनुष्य को स्वर्ग, यश और मोक्ष की प्राप्ति होती है, इसलिये क्षमावान् पुरुष साधु * * कहलाता है। वैदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/202 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % % % %% % %%%% %%%% % % %%%%%%%% % {725} अति यज्ञविदां लोकान् क्षमिणः प्राप्नुवन्ति च। अति ब्रह्मविदां लोकानति चापि तपस्विनाम्॥ (म.भा. 3/29/38) यज्ञवेत्ता, ब्रह्मवेत्ता और तपस्वी पुरुषों (को प्राप्त होने वाले लोकों) से भी ऊंचे लोकों को क्षमाशील मनुष्य प्राप्त करते हैं। ___{726} क्षमावतामयं लोकः परश्चैव क्षमावताम्। इह सम्मानमृच्छन्ति परत्र च शुभां गतिम्॥ (म.भा. 3/29/43) क्षमावानों के लिये ही यह लोक है। क्षमावानों के लिये ही परलोक है। क्षमाशील पुरुष इस जगत् में सम्मान और परलोक में भी उत्तम गति पाते हैं। ¥纸织$$¥¥¥¥¥¥¥¥巩巩巩巩巩听听听听听听垢垢玩垢听听听听听听垢垢垢圳垢玩垢军¥¥% {727} अन्ये वै यजुषां लोकाः कर्मिणामपरे तथा। क्षमावतां ब्रह्मलोके लोकाः परमपूजिताः॥ ___ (म.भा. 3/29/39) यज्ञ कर्मों का अनुष्ठान करने वाले पुरुषों के लोक दूसरे हैं एवं (सकामभाव से) वापी, कूप, तड़ाग और दान आदि कर्म करने वाले मनुष्यों के लोक दूसरे हैं। परंतु क्षमावान् के लोक (उनसे भी ऊपर) ब्रह्मलोक के अन्तर्गत हैं, जो अत्यन्त पूजित हैं। {728} प्रभाववानपि नरः तस्य लोकाः सनातनाः। क्रोधनस्त्वल्पविज्ञानः प्रेत्य चेह च नश्यति॥ (म.भा. 3/29/34) वह क्षमावान् मनुष्य ही प्रभावशाली कहा जाता है। उसी को सनातन लोक प्राप्त होते . की हैं। इसके विपरीत, क्रोधी मनुष्य अल्पज्ञ होता है। वह इस लोक और परलोक-दोनों में है (दुर्गति)विनाश को प्राप्त करता है। E EEEEEEEEEEEEEEEEEEEti अहिंसा कोश/203] Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEyms {729} ये क्रोधं संनियच्छन्ति क्रुद्धान् संशमयन्ति च। न च कुप्यन्ति भूतानां दुर्गाण्यतितरन्ति ते।। ___ (म.भा. 12/110/21) जो क्रोध को काबू में रखते, कोधी मनुष्यों को शान्त करते और स्वयं किसी भी प्राणी पर कुपित नहीं होते हैं, वे दुर्लंघ्य संकटों से पार हो जाते हैं। 與共振頻頻頻頻頻頻頻垢玩垢圳垢玩垢玩垢块頻听听听坂明明明明明明明明明明坂田坂明明明明明明明明 {730} क्षमा तु परमं तीर्थं सर्वतीर्थेषु पाण्डव। क्षमावतामयं लोकः परश्चैव क्षमावताम्॥ मानितोऽमानितो वापि पूजितोऽपूजितोऽपि वा। आक्रुष्टस्तर्जितो वापि क्षमावांस्तीर्थमुच्यते। क्षमा यशः क्षमा दानं क्षमा यज्ञः क्षमा दमः। (म.भा.13/वैष्णव धर्म पर्व/92/ पृ.6375) पाण्डुनन्दन! समस्त तीर्थों में भी क्षमा सबसे बड़ा तीर्थ है। क्षमाशील मनुष्यों को ॐ इस लोक और परलोक में भी सुख मिलता है। कोई मान करे या अपमान, पूजा करे या है तिरस्कार, अथवा गाली दे या डाँट बतावे, इन सभी परिस्थितियों में जो क्षमाशील बना रहता + है, वह तीर्थ कहलाता है। क्षमा ही यश, दान, यज्ञ और मनोनिग्रह है। 呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 17318 क्षमावन्तश्च धीराश्च धर्मकार्येषु चोत्थिताः। मंगलाचारसम्पन्नाः पुरुषाः स्वर्गगामिनः॥ (म.भा.,13/23/88) जो क्षमावान्, धीर, धर्म-कार्य के लिये उद्यत रहने वाले और मांगलिक आचार से सम्पन्न हैं, वे पुरुष स्वर्गगामी होते हैं। EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEN वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/204 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %%% %% %%%%% % %%%%% %% % अहिंसा-पालन में सहयोगी: दान धर्म {732} दृढ़कारी मृदुर्दान्तः क्रूराचारैरसंवसन्। अहिंस्रो दमदानाभ्यां जयेत्स्वर्गं तथाव्रतः॥ (म.स्मृ. 4/246) दृढ़कर्ता (विघ्नादि के आने पर भी प्रारम्भ किये गये कार्य को पूरा करने वाला), मनिष्ठरता से रहित, सुखदुःखादि द्वन्द्वों को सहने वाला, क्रूर आचरण वालों का साथ नहीं करने के ॐ वाला-ऐसा अहिंसक व्यक्ति दम (इन्द्रिय-संयम) व दान का व्रत धारण कर उक्त व्रत के प्रभाव से स्वर्ग को जीत लेता (प्राप्त करता) है। ___{733} तत्र वै मानुषाल्लोकाद् दानादिभिरतन्द्रितः। अहिंसार्थसमायुक्तैः कारणैः स्वर्गमश्नुते ॥ विपरीतैश्च राजेन्द्र कारणैर्मानुषो भवेत्। तिर्यग्योनिस्तथा तात विशेषश्चात्र वक्ष्यते॥ कामक्रोधसमायुक्तो हिंसालोभसमन्वितः। मनुष्यत्वात् परिभ्रष्टस्तिर्यग्योनौ प्रसूयते॥ (म.भा. 3/181/10-12) दान आदि कार्य अहिंसा की सार्थकता हेतु आयोजित किये जाते हैं, इन दान आदि कार्यों में जो व्यक्ति आलस्य/प्रमाद का त्याग कर प्रवृत्त होता है, वह इस मनुष्य लोक से * स्वर्ग लोक को प्राप्त करता है। राजेन्द्र ! इसके विपरीत कारण (हिंसक आचरण) उपस्थित के होने पर मनुष्य-योनि में तथा पशु-पक्षी आदि योनि में जन्म लेना पड़ता है। तात! पशु-पक्षी # आदि योनियों में जन्म लेने का जो विशेष कारण है, उसे भी यहां बतलाया जाता है। जो काम, क्रोध, लोभ और हिंसा में तत्पर होकर मानवता से भ्रष्ट हो जाता है, अपनी मनुष्य होने # की योग्यता को भी खो देता है, वही पशु-पक्षी आदि योनि में जन्म पाता है। {734} दण्डन्यासः परं दानम्। ___(भा.पु. 11/19/37) सब प्राणियों के प्रति द्रोह व हिंसक-वृत्ति का त्यागना ही परम दान है। (अर्थात् ॥ * उत्तम दान में अहिंसा का पालन आनुषंगिक रूप से होता है।) EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEES अहिंसा कोश/205] 垢玩垢听听听听听听听听听巩巩巩垢玩垢¥听听听听听听听听听听听听听明明明明听听听听听听听听听听听听 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEma दानः मौलिक सनातन धर्म {735} एष धर्मो महायोगो दानं भूतदया तथा। ब्रह्मचर्यं तथा सत्यमनुक्रोशो धृतिः क्षमा॥ सनातनस्य धर्मस्य मूलमेतत् सनातनम्। (म.भा. 14/91/33-34) दान, प्राणि-दया, करुणा, क्षमा, धृति, सत्य, ब्रह्मचर्य - ये धर्म हैं तथा महायोग हैं। सनातन धर्म के ये सनातन मूल हैं। ___{736} दानं यज्ञाः सतां पूंजा वेदधारणमार्जवम्। एष धर्मः परो राजन् बलवान् प्रेत्य चेह च॥ (म.भा. 3/33/46) इह लोक और परलोक-दोनों जगह, यज्ञ ,सम्मान पूजा, वेद-स्वाध्याय, सरलता । आदि की तरह 'दान' एक उत्तम व प्रबल धर्म है। अहिंसकः उत्तम दाता {737} तेन दत्तानि दानानि पापेनाशुद्धबुद्धिना। तानि सर्वाण्यनादृत्य नश्यन्ति विपुलान्यपि॥ तस्याधर्मप्रवृत्तस्य हिंसकस्य दुरात्मनः। दानेन कीर्तिर्भवति न प्रेत्येह च दुर्मतेः॥ धर्म-वैतंसिको यस्तु पापात्मा पुरुषाधमः। ददाति दानं विप्रेभ्यो लोकविश्वासकारणम्॥ (म.भा. 14/91/25-26,28) अशुद्ध बुद्धि वाले पापी पुरुष द्वारा कितना ही अधिक दान दिया जाय, वह सारा * का सारा अनादृत/ तिरस्कृत होता हुआ नष्ट/व्यर्थ हो जाता है। अधर्म में प्रवृत्त दुर्बुद्धि, दुरात्मा व हिंसापरायण व्यक्ति दान करने पर भी इहलोक व ॐ परलोक-दोनों में कीर्ति नहीं प्राप्त करता। वह पापात्मा व नराधम धर्म का तो ढोंग करता है। " ॐ ब्राह्मणों आदि को दान तो वह इसलिए देता है ताकि लोक में (उसके अपने धर्मात्मा होने ज का) विश्वास जम जाय। 男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男明: वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/206 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा की सहज अभिव्यक्तिः अनुकम्पादान व अभयदान {738} अनाथान् पोषयेद् यस्तु कृपणान्धकपङ्गुकान्। स तु पुण्यफलं प्रेत्य लभते कृच्छ्रमोक्षणम् ॥ वेदगोष्ठाः सभाः शाला भिक्षूणां च प्रतिश्रयम् । यः कुर्याल्लभते नित्यं नरः प्रेत्य शुभं फलम् ॥ (म.भा. 13/145/पृ.6000 ) जो अनाथ, दीन-दुखियों, अन्धों और पंगु मनुष्यों का पोषण करता है, वह मृत्यु के पश्चात् उसका पुण्यफल पाता और संकट से मुक्त हो जाता है। जो मनुष्य वेदविद्यालय, सभाभवन, धर्मशाला तथा भिक्षुओं के लिये आश्रम बनाता है, वह मृत्यु के पश्चात् शुभफल पाता है। {739} कुटुम्बिने सीदते च ब्राह्मणाय महात्मने । दातव्यं भिक्षवे चान्नमात्मनो भूतिमिच्छता ॥ ( म.भा. 13/63/9) अपने कल्याण की इच्छा रखने वाले मनुष्य को चाहिये कि वह अन्न के लिये दु:खी, बाल-बच्चों वाले, महामनस्वी ब्राह्मण को और भिक्षा माँगने वाले को भी अन्नदान करे । {740} अभयं सर्वभूतेभ्यो व्यसने चाप्यनुग्रहः । यच्चाभिलषितं दद्यात् तृषितायाभियाचते ॥ दत्तं मन्येत यद् दत्त्वा तद् दानं श्रेष्ठमुच्यते । दत्तं दातारमन्वेति यद् दानं भरतर्षभ ॥ ( म.भा. 13/59/3-4) सम्पूर्ण प्राणियों को अभयदान देना, संकट के समय उन पर अनुग्रह करना, याचक को उसकी अभीष्ट वस्तु देना तथा प्यास से पीड़ित होकर पानी माँगने वाले को पानी पिलाना उत्तम दान है और जिसे देकर दिया हुआ मान लिया जाय अर्थात् जिसमें कहीं भी ममता की गंध न रह जाय, वह दान श्रेष्ठ कहलाता है। वही दान दाता का अनुसरण करता है । 過, अहिंसा कोश / 207] Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEmy क्षुधितस्य द्विजस्यास्ये यत्किञ्चिद्दीयते यदि। प्रेत्य पीयूषधाराभिः सिंचते कल्पकोटिकम्॥ (प.पु. 3/61/55) __ किसी भूखे ब्राह्मण के मुख में जो कुछ भी दिया जाता है, वह पर-लोक में करोड़ों कल्पों तक अमृत-धारा बन कर दाता को सिंचित करता है। {742} अभयस्य प्रदानेन नरः स्यात्सर्वकामदः। अश्वमेधफलं तस्य यो रक्षेच्छरणागतम्॥ (वि. ध. पु. 3/302/6) जो व्यक्ति अभयदाता होता है, वह समस्त कामनाओं का प्रदाता होता है। जो शरणागत की रक्षा करता है, उसे अश्वमेध यज्ञ करने का फल प्राप्त होता है। ¥¥筑听听听听听听听听乐听听听听听听听听听听听听听听听听听明明明明明明明听听听听听听明听听%, {743} वधकस्य हस्तगतं पशुं क्रीत्वा नरोत्तमः। नाकलोकमवाप्नोति सुखी सर्वत्र जायते॥ (वि. ध. पु. 3/302/24) जो वधक/कसाई के हाथ में गए हुए पशु को खरीदता है और उसके प्राण बचाता है, वह पुरुष-श्रेष्ठ इस लोक में सर्वत्र सुख प्राप्त करता है और (मर कर) स्वर्ग-लोग प्राप्त करता है। 乐乐垢听听听听乐听听听听听听听听垢期货货货明用明明明明明明明明明明明明明明明劣兵兵兵兵历兵挥挥 {744} दीनश्च याचते चायमल्पेनापि हि तुष्यति। इति दद्यात् दरिद्राय कारुण्यादिति सर्वथा॥ __(म.भा.13/138/10) यह बेचारा बड़ा गरीब है और मुझसे याचना कर रहा है, यह दयामूलक दान है। थोड़ा देने से भी संतुष्ट हो जाएगा-यह सोचकर दरिद्र मनुष्य के लिये सर्वथा दयावश दान # देना चाहिये। 男男男男男男男男%%%%%%%%%%%%%%%%%% वैिदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/208 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEM {745} अभयस्य प्रदानाद्धि नान्यद्दानं विशिष्यते। सर्वेषामेव दानानां प्राणदानं विशिष्यते॥ (वि. ध. पु. 3/302/2) - अभय-दान से बढ़ कर कोई दूसरा दान नहीं है। सभी दानों में प्राण-दान का विशिष्ट स्थान है। {746) चौरग्रस्तं नृपग्रस्तं रिपुग्रस्तं तु मोक्षयेत्। (वि. ध. पु. 3/302/27) चोरों से, राजा से तथा शत्रुओं से घिरे/आक्रान्त व्यक्ति को छुड़ाना चाहिए। {747} वधभीतस्य यः कुर्यात् परित्राणं नरोत्तमः। शक्रलोकः स्मृतस्तस्य यावदिन्द्राश्चतुर्दश॥ __ (वि. ध. पु. 3/302/11) प्राण-वध से भयभीत व्यक्ति की जो रक्षा करता है उस नर-श्रेष्ठ को 14 इन्द्रों के राज्य-काल तक इन्द्रलोक का सुख प्राप्त होता है। 45555555555555555555555555555555555) {748} आनृशंस्येन सर्वस्य दद्यादन्नं विचक्षणः॥ (वि. ध. पु. 3/301/42) विद्वान् व्यक्ति को चाहिए कि वह सभी को अनुकम्पा/दया के साथ अन्न-दान करे। हिंसा-पापनाशकः दान-धर्म 749} रौद्रं कर्म क्षत्रियस्य, सततं तात वर्तते। तस्य वैतानिकं कर्म दानं चैवेह पावनम्॥ (म.भा. 13/61/4) क्षत्रिय को सदा कठोर/क्रूर कर्म करने पड़ते हैं, अतः यज्ञ व दान ही उसे पवित्र है # करने वाले होते हैं। अहिंसा कोश/209] Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明男男男男男男男男男男男男男 कृपणता=नशंसता/हिंसात्मक कार्य {750} याचमानमभीमानाद् अनासक्तमकिंचनम्। यो नार्चति यथाशक्ति स नृशंसो युधिष्ठिर॥ (म.भा. 13/59/9) जो अनासक्त अकिंचन याचक की, अपने अभिमान के कारण, यथाशक्ति (दान 卐 देकर) पूजा-अर्चना (सत्कार आदि) नहीं करता है, वह मनुष्य 'निर्दय' ही है। {751} एकः सम्पन्नमश्नाति वस्ते वासश्च शोभनम्। योऽसंविभज्य भृत्येभ्यः को नृशंसतरस्ततः॥ (म.भा. 5/33/41) जो अपने द्वारा भरण-भोषण के योग्य व्यक्तियों को बांटे बिना, अकेले ही उत्तम भोजन करता और अच्छा वस्त्र पहनता है, उससे बढ़कर क्रूर कौन होगा? 明明垢巩巩巩坂听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听垢玩垢听听听听听听听听 {752} भक्ष्यं पेयमथालेह्यं यच्चान्यत् साधु भोजनम्। प्रेक्षमाणेषु योनीयात्, नृशंसमिति तं वदेत्॥ ब्राह्मणेभ्यः प्रदायाग्रं, यः सुहृद्भ्यः सहाश्रुते। स प्रेत्य लभते स्वर्गमिह चानन्त्यमश्रुते॥ (म.भा. 12/154/11-12) दूसरे लोग देखते रहें, फिर भी उनके सामने ही जो उत्तम भक्ष्य, पेय आदि पदार्थों 1 को (अकेला ही)खाता है, उसे नृशंस/निर्दय ही कहना चाहिए। किन्तु जो (स्वयं खाने से) पहले ब्राह्मणों (धर्मात्मा ज्ञानी जनों) को देकर, फिर मित्र-वर्ग के साथ भोजन करता है, ॐ वह इस लोक में अनन्त सुख पाता है और मर कर स्वर्ग लोक में जाता है। 乐乐乐乐乐乐明明听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听乐听听听听听听听听听听听形 {753} अददानमश्रद्दधानमयाजमानमाहुरासुरो बत। (छांदो. 8/8/5) जो दान नहीं देता, श्रेष्ठ आदर्शों के प्रति श्रद्धा नहीं रखता, और यज्ञ (लोकहितकारी सत्कर्म) नहीं करता, उसे 'असर' कहते हैं। विदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/210 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 男 男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男 कृपणता= आत्मघाती प्रवृत्ति {754} हिंस्ते अदत्ता पुरुषं याचितां च न दित्सति। (अ.12/4/13) जो पुरुष माँगने पर भी जिस वस्तु को नहीं देना चाहता, वह (न दी हुई वस्तु) अन्ततः उस पुरुष का संहार कर देती है। {755} अहमस्मि प्रथमजा ऋतस्य, पूर्वं देवेभ्यो अमृतस्य नाम यो मा ददाति स इदेवमावद्, अहमनमनमदन्तमद्मि ॥ (सा.1/6/1/9/594) मैं अन्न देवता, अन्य देवताओं तथा सत्यस्वरूप अमृत ब्रह्म से भी पूर्व जन्मा हूँ। जो मुझ अन्न को अतिथि आदि को देता है, वही सब प्राणियों की रक्षा करता है। जो लोभी दूसरों को नहीं खिलाता है, मैं अन्न देवता उस कृपण को स्वयं खा जाता हूँ, नष्ट कर देता हूँ। 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听玩乐听听听听听听听听听听听听听听听听听乐乐乐乐 听听听听听垢听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听。 {756} यत्सर्वं नेति ब्रूयात् पापिकाऽस्य कीर्तिर्जायेत,सैनं तत्रैव हन्यात्। (ऐ. आ. 2/3/6) जो लोभी मनुष्य प्रार्थी लोगों को सदैव 'ना ना' करता है, तो जनसमाज में उस की है म अपकीर्ति (निन्दा) होती है और वह अपकीर्ति उस को घर में ही मार देती है, अर्थात् जीता हुआ भी वह कृपण निन्दित मृतक के समान हो जाता है। दान धर्म का स्वरूप {757} यद्यदिष्टतमं द्रव्यं न्यायेनैवागतं च यत। तत्तद् गुणवते देयमित्येतद् दानलक्षणम्॥ (म.पु. 145/51) जो-जो पदार्थ अपने को अभीष्ट हों तथा न्याय द्वारा उपार्जित किये गये हों, उन्हें ' म गुणी व्यक्ति को दे देना-यह 'दान' का लक्षण है। अहिंसा कोश/211] Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEEEEEEEEEEE ng {758} अहन्यहनि दातव्यमदीनेनान्तरात्मना। स्तोकादपि प्रयत्नेन दानमित्यभिधीयते।। (अ. स्मृ. 40) अदीनता-पूर्वक उदार मन से प्रतिदिन कुछ न कुछ देना ही चाहिये। चाहे अपने 卐 पास थोड़ा भी हो, उसमें से भी प्रयत्नपूर्वक देना ही 'दान' कहलाता है। {759} ब्रह्मणाऽभिहितं पूर्वमृषीणां ब्रह्मवादिनाम्॥ अर्थानामुचिते पात्रे श्रद्धया प्रतिपादनम्। दानमित्यभिनिर्दिष्टं भुक्तिमुक्तिफलप्रदम्॥ (कू.पु. 2/26/2; प.पु.3/57/1-2) योग्य पात्र को श्रद्धा-पूर्वक अपना द्रव्य (सम्पत्ति, वस्तु आदि) देना ही 'दान' कहा जाता है, और यह 'दान' (ऐहलौकिक)भोग और (पारलौकिक) मोक्ष का देने वाला है। 过呢呢呢%%%%%听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听% 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 अहिंसकः दान का योग्य पात्र {760} सन्तुष्टाय विनीताय सर्वभूतहिताय च। वेदाभ्यासस्तपो ज्ञानमिन्द्रियाणां च संयमः।। ईदृशाय सुरश्रेष्ठ! यद्दत्तं हि तदक्षयम्। आमपात्रे यथा न्यस्तं क्षीरं दधि घृतं मधु।। विनश्येत्पात्र-दौर्बल्यात्तच्च पात्रं विनश्यति। (बृ. स्मृ. 1/57-59) दान सर्वदा योग्य पात्र को देना चाहिए। जो सदा सन्तोषी हो, विनम्र व्यवहार वाला है। हो, समस्त प्राणिमात्र का भला करने वाला हो, तप और ज्ञान से युक्त हो और इन्द्रियों को म संयम में रखने वाला हो, उसी को दान का योग्य पात्र कहा जाता है। उपर्युक्त गुणगणके विशिष्ट ब्राह्मण को जो दान दिया जाता है, वह अक्षय होता है और सर्वदा उसका फल प्राप्त है भ होता है। कच्चे पात्र में रक्खा हुआ दूध, दही, घृत और मधु जिस प्रकार पात्र की कमजोरी के कारण नष्ट हो जाता है, और वह पात्र भी स्वयं नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार जो अयोग्य म.पात्र को दान दिया जाता है,वह भी निष्फल होता है। %%%%%%%%%%% %%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%、 वैदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/212 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S 明乐乐乐乐乐加明垢%%%%%垢明明听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 %%% % %% %%%%%%%%%% %%%%%% %% % %%% {761} अक्रोधना धर्मपराः सत्यनित्या दमे रताः। तादृशाः साधवो विप्रास्तेभ्यो दत्तं महाफलम्॥ अमानिनः सर्वसहा दृढार्था विजितेन्द्रियाः। सर्वभूतहिता मैत्रास्तेभ्यो दत्तं महाफलम्॥ अलुब्धाः शुचयो वैद्या ह्रीमन्तः सत्यवादिनः। स्वकर्मनिरता ये च तेभ्यो दत्तं महाफलम्॥ _ (म.भा. 13/22/33-35) ___ जो क्रोधरहित, धर्मपरायण, सत्यनिष्ठ और इन्द्रिय-संयम में तत्पर हैं, ऐसे ब्राह्मणों को श्रेष्ठ समझना चाहिये और उन्हीं को दान देने से महान् फल की प्राप्ति होती है। (अतः म उन्हीं को श्राद्ध में भोजन कराना चाहिए।) जिनमें अभिमान का नाम नहीं है, जो सब कुछ सह लेते हैं, जिनका विचार दृढ़ है, जो जितेन्द्रिय, सम्पूर्ण प्राणियों के हितकारी तथा सब के है के प्रति मैत्रीभाव रखने वाले हैं, उनको दिया हुआ दान महान् फल देनेवाला है। जो निर्लोभ, # पवित्र, विद्वान, संकोची, सत्यवादी और अपने कर्तव्य का पालन करने वाले हैं, उनको दिया हुआ दान भी महान् फलदायक होता है। {762} अक्रोधः सत्यवचनमहिंसा दम आर्जवम्। अद्रोहोऽनभिमानश्च ह्रीस्तितिक्षा दमः शमः॥ यस्मिन्नेतानि दृश्यन्ते न चाकार्याणि भारत। स्वभावतो निविष्टानि तत्पात्रं मानमर्हति॥ (म.भा. 13/37/8-9) क्रोध का अभाव, सत्य-भाषण, अहिंसा, इन्द्रिय-संयम, सरलता, द्रोहहीनता, अभिमानशून्यता, लज्जा, सहनशीलता, दम और मनोविग्रह-ये गुण जिनमें स्वभावतः दिखायी दें और धर्मविरुद्ध कार्य दृष्टिगोचर न हों, वे ही दान के उत्तम पात्र और सम्मान के अधिकारी हैं। 乐乐听听听听听听听听坂听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 _{763} निर्मर्यादे चाशुचौ फरवृत्तौ, हिंसात्मके त्यक्तधर्मस्ववृत्ते। हव्यं कव्यं यानि चान्यानि राजन्, देयान्यदेयानि भवन्ति चास्मै॥ __(म.भा.12/63/6) जो ब्राह्मण मर्यादा-शून्य, अपवित्र, क्रूर स्वभाव वाला, हिंसापरायण तथा अपने ई धर्म और सदाचार का परित्याग करने वाला है, उसे हव्य-कव्य तथा दूसरे दान देना न देने ॥ केही बराबर है. अर्थात निष्फल है। 男男男男男男 男男男男男男%%%% %%%%%%%%%%%%%%、 अहिंसा कोश/2131 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明男男男男男男% %%%%%%%听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 दान धर्म की महत्ता और उसके महनीय फल 1764} यद्ददाति विशिष्टेभ्यो यच्चानाति दिने दिने। तच्च वित्तमहं मन्ये शेषं कस्याभिरक्षति।। यद्ददाति यदनाति तदेव धनिनो धनम्। अन्ये मृतस्य क्रीडन्ति दारैरपि धनैरपि।। किं धनेन करिष्यन्ति देहिनोऽपि गतायुषः। यवर्द्धयितुमिच्छन्तस्तच्छरीरमशाश्वतम् ॥ अशाश्वतानि गात्राणि विभवो नैव शाश्वतः। (वे. स्मृ., 4/16-19) ___ जो पास में रहने वाला धन विशिष्ट योग्य व्यक्तियों को दान रूप में दे दिया जाता है और जिसका प्रतिदिन अपने भोजनादि में व्यय किया जाता है, वास्तव में उसी धन को th मैं धन मानता हूं। उसके अतिरिक्त धन की रक्षा किसलिए की जाती है? अर्थात शेष धन ॐ व्यर्थ ही रहता है। जो दान में दिया जावे और जिसका भोजनादि कार्य में स्वयं उपभोग करले, वही वस्तुतः धनी पुरुष का अपना धन है, बाकी जो धन या स्त्री-वर्ग बचा रहता है, 卐 वह मरने के पश्चात् दूसरे लोगों के ही काम में आता है। क्षीण आयु वाले देहधारी धन को बचा कर क्या करेंगे? जिस शरीर के उपयोग के लिए धन-वृद्धि की इच्छा किया करते हैं, * वह शरीर तो सर्वदा नहीं रहने वाला, अनित्य एवं नाशवान् है। 中医垢玩垢期货明明明明明听听听听听听¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥听听听听听听¥¥¥¥¥听听听听听听听听听听形 {765} ये याचिताः प्रहृष्यन्ति प्रियं दत्वा वदन्ति च॥ त्यक्तदानफलेच्छाश्च ते नराः स्वर्गगामिनः॥ (प.पु. 2/96/32) ___ जो लोग किसी के मांगने पर हर्षित होकर देते हैं, दे कर प्रिय बोलते भी हैं और जिन्हें दान के फल की इच्छा भी नहीं होती, वे स्वर्गगामी होते हैं। {766} नास्ति दानात् परं मित्रमिह लोके परत्र च। (अ. स्मृ. 150) - इस लोक और परलोक दोनों ही में, दान से बढ़ कर कोई मित्र (हितकारी)नही है। 男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男、 वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/214 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 分巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩听听听听听听听听听听听听听听听听听听 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {767} कृमयः किं न जीवन्ति भक्षयन्ति परस्परम्। परलोकाविरोधेन यो जीवति स जीवति।। पशवोऽपि हि जीवन्ति केवलात्मोदरम्भराः। किं कायेन सुगुप्तेन (सुपुष्टेन ) बलिना चिरजीविनः।। ग्रासादर्धमपि ग्रासमर्थिभ्यः किं न दीयते। इच्छानुरूपो विभवः कदा कस्य भविष्यति।। अदाता पुरुषस्त्यागी धनं संत्यज्य गच्छति। दातारं कृपणं मन्ये मृतोऽप्यर्थं न मुञ्चति। प्राणनाशस्तु कर्तव्यो यः कृतार्थो न सोऽमृतः। अकृतार्थस्तु यो मृत्युं प्राप्तः खरसमो हि सः।। अनाहूतेषु यद् दत्तं यच्च दत्तमयाचितम्। भविष्यति युगस्यान्तस्तस्यान्तो न भविष्यति।। ___ (वे. स्मृ., 4/22-26) केवल अपने ही आमोद में तत्पर रहने वाले पशु भी अपना पेट भर कर जीवित प्र रहते हैं। जो अपना ही उदर भरने में परायण रहे, ऐसे परिपुष्ट, बलवान् और अधिक समय तक जीवित शरीर से क्या लाभ है? जितना भी अपने पास हो, उसमें से कुछ दान में देना ही चाहिए। एक ग्रास में से भी आधा ग्रास याचकों को देना उचित है। यों तो अपनी इच्छा की ॐ पूर्ति करने वाला धन-वैभव किसी के पास भी नहीं होता है। अदाता और त्यागी-दोनों ही है धन को अन्त समय में यहीं त्यागकर चले जाते हैं। जो धन का दान नहीं करता है, उसको ॐ कृपण माना जाता है, क्योंकि वह मरते समय भी धन को नहीं छोड़ता। प्राणों का नाश तो म एक दिन अवश्य ही होना है। किन्तु जो कृतार्थ (धन का उचित उपयोग कर चुका) होता है, वह नहीं मरता है। जो अकृतार्थ है वह गधे के समान ही मृत्यु को प्राप्त होता है। बिना भ बुलाये हुए जो स्वयं ही उपस्थित हो गये हों, ऐसे व्यक्तियों को दिया हुआ दान सफल होता है है। युग का भले ही अन्त हो जाए, किन्तु उक्त दान का अन्त कभी नहीं होता है। %%%%%%%%%%%%%%%%%%%听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听平 {768} दानधर्मात्परो धर्मो भूतानां नेह विद्यते। ___ (कू.पु. 2/26/55) दान-धर्म से बढ़कर कोई अन्य धर्म प्राणियों के लिए कर्तव्य नहीं है। %%%%%%%%%%%%%男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男、 अहिंसा कोश/215] Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “男男男男男男男男男男%%%%%%%%%%%勇勇勇勇勇勇勇勇男男男男男 1769} श्रेयो दानं च भोगश्च धनं प्राप्य यशस्विनि। दानेन च महाभागा भवन्ति मनुजाधिपाः॥ नास्ति भूमौ दानसमं नास्ति दानसमो निधिः॥ (म.भा. 3/1417, पृ. 5923) धन पाकर, उसका दान व भोग करना ही श्रेयस्कर है। दान करने से तो व्यक्ति सौभाग्यशाली नरेश होते हैं। इस धरती पर दान के समान कोई दूसरी वस्तु नहीं है और न ही कोई निधि है। 巩巩巩听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {770 येन धनेन प्रपणं चरामि, धनेन देवा धनमिच्छमानः। तस्मिन्म इन्द्रो रुचिमा दधातु, प्रजापतिः सविता सोमो अग्निः॥ (अ3/15/6) ( वैदिक ऋषि के उद्गार-) धन के माध्यम से (पुण्य रूपी) धन कमाने का के इच्छुक मैं जिस धन से (विनिमयात्मक) व्यापार करता हूं,उस (धन के सदुपयोग) में मेरी रुचि को इन्द्र, प्रजापति, सविता, सोम व अग्नि देव स्थिर करें। 听听听听听听听听听听听听听听贝贝听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听船 {771} धनं फलति दानेन। (बृ. स्मृ. 1/71; प.पु. 6(उत्तर)/32/61) धन दान देने ही से फलप्रद (सफल) होता है। {772} ऋतं तपः, सत्यं तपः, श्रुतं तपः, शान्तं तपो, दानं तपः। (म.ना.उ.8/1) ऋत (मन का सत्य संकल्प) तप है। सत्य (वाणी से यथार्थ भाषण) तप है। श्रुत (शास्त्रश्रवण या शास्त्र-ज्ञान) तप है। शान्ति (ऐन्द्रियिक विषयों से विरक्ति) तप है। दान का तप है। 男男男男男男男男男男男男男男%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%、 [वैदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/216 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < %% %%% %% %% % % % % % %%% %% %%%%% %% % {773} दानमिति सर्वाणि भूतानि प्रशंसन्ति, दानान्नातिदुष्करम्। (म.ना.उ. 21/2) सभी प्राणी दान की प्रशंसा करते हैं, दान से बढ़कर अन्य कुछ दुर्लभ नहीं है। {774} वदन् ब्रह्माऽवदतो वनीयान्, पृणन्नापिरपृणन्तमभि ष्यात्। (ऋ.10/117/7) जैसे प्रवक्ता विद्वान अप्रवक्ता से अधिक प्रिय होता है, वैसे ही दान-शील धनी व्यक्ति दानहीन धनी से अधिक जनप्रिय होता है। 呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢听听听听听玩 {775} नाकस्य पृष्ठे अधितिष्ठति श्रितो, यः पृणाति स ह देवेषु गच्छति। (ऋ. 1/125/5) जनता को परितृप्त करने वाला दानी स्वर्ग के देवताओं में प्रमुख स्थान प्राप्त करता है। 1776} दक्षिणावतामिदिमानि चित्रा, दक्षिणावतां दिवि सूर्यासः। दक्षिणावन्तो अमृतं भजन्ते, दक्षिणावन्तः प्रतिरन्त आयुः॥ (ऋ. 1/125/6) दानियों के पास अनेक प्रकार का ऐश्वर्य होता है, दानी के लिए ही आकाश में सूर्य प्रकाशमान है। दानी अपने दान से अमृतत्व पाता है, वह अति दीर्घ आयु भी प्राप्त करता है। {777} दक्षिणावान् प्रथमो हूत एति, दक्षिणावान् ग्रामणीरग्रमेति। तमेव मन्ये नृपतिं जनानां, यः प्रथमो दक्षिणामाविवाय॥ (ऋ.10/107/5) दानशील व्यक्ति प्रत्येक शुभ कार्य में सर्वप्रथम आमंत्रित किया जाता है, वह समाज प्र में ग्रामणी अर्थात् प्रमुख होता है, सब लोगों में अग्रस्थान पाता है। जो लोग सबसे पहले दक्षिणा (दान) देते हैं, मैं उन्हें जन-समाज का नृपति (स्वामी एवं रक्षक) मानता हूं। अहिंसा कोश/217] Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 他 虽 %%%%%% % %% %% %%% % %% %%%%%%%%% % {778} न भोजा ममुर्न न्यर्थमीयुर्, न रिष्यन्ति न व्यथन्ते ह भोजाः। इदं यद् विश्वं भुवनं स्वश्चैतत्, सर्वं दक्षिणेभ्यो ददाति। ___ (ऋ.10/107/8) दाताओं की कभी मृत्यु नहीं होती, वे अमर है। उन्हें न कभी निकृष्ट स्थिति प्राप्त होती है, न वे कभी पराजित होते हैं, और न कभी किसी तरह का कष्ट ही पाते हैं। इस पृथ्वी या स्वर्ग में जो कुछ महत्त्वपूर्ण है, वह सब दाता को 'दान' करने से मिल जाता है। {779) यो देवकामो न धनं रुणद्धि, समित् तं रायः सृजति स्वधाभिः। (अ.7/50/6) जो मनुष्य अच्छे कार्य के लिए अपना धन समर्पण करता है, दान के सुप्रसंगों में अपने पास धन को रोक नहीं रखता है, उसी को अनेक धाराओं से विशेष धन प्राप्त होता है। 乐乐乐乐频听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听妮妮玩乐¥¥¥¥听听听听听听听听听听 {780} दानेन द्विषन्तो मित्रा भवन्ति, दाने सर्वं प्रतिष्ठितम्। (म.ना.उ. 22/1) दान से शत्रु भी मित्र हो जाते हैं, दान में सब कुछ प्रतिष्ठित है। {7811 दानानि हि नरं पापात् मोक्षयन्ति न संशयः॥ (म.भा. 13/59/6) दान मनुष्य को पाप से निश्चय ही मुक्त करा देते हैं। {782} उच्चा दिवि दक्षिणावन्तो अस्थुः। (ऋ.10/107/2) जो लोग दक्षिणा (दान) देते हैं, वे स्वर्ग में उच्च स्थान पाते हैं। [दान-प्रशंसा हेतु द्रष्टव्यः ब्र.पु. 3/16 अध्याय, ग.पु. 1/213/4, प.पु. 3/57 अध्याय] %% %% %%%% % %%%% % %%% % % %%% %%% %%% [वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/218 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 蛋蛋蛋蛋 2。 {783} मा पृणन्तो दुरितमेन आरन् । दानी कभी दुख नहीं पाता, उसे कभी पाप नहीं घेरता । अन्न आदि का दानः प्राणदान/प्राण-रक्षा {784} प्रत्यक्षं प्रीतिजननं भोक्तुर्दातुर्भवत्युत । सर्वाण्यन्यानि दानानि परोक्षफलवन्त्युत ॥ अन्नाद्धि प्रसवं यान्ति रतिरन्नाद्धि भारत । धर्मार्थावन्नतो विद्धि रोगनाशं तथाऽन्नतः ॥ अन्नं ह्यमृतमित्याह पुराकल्पे प्रजापतिः । अन्नं भुवं दिवं खं च सर्वमन्त्रे प्रतिष्ठितम् ॥ अन्नप्रणाशे भिद्यन्ते शरीरे पञ्च धातवः । बलं बलवतोऽपीह प्रणश्यत्यन्नहानित: ॥ आवाहाश्च विवाहाश्च यज्ञाश्चान्नमृते तथा । निवर्तन्ते नरश्रेष्ठ ब्रह्म चात्र प्रलीयते ॥ अन्नतः सर्वमेतद्धि यत् किंचित् स्थाणु जङ्गमम् । त्रिषु लोकेषु धर्मार्थमन्नं देयमतो बुधैः ॥ (ऋ. 1/125/7) ( म.भा. 13/63/29-34) अन्न का दान ही एक ऐसा दान है, जो दाता और भोक्ता, दोनों को प्रत्यक्ष रूप से संतुष्ट करने वाला होता है। इसके सिवा अन्य जितने दान हैं, उन सबकां फल परोक्ष है । अन्न से ही संतान की उत्पत्ति होती है । अन्न से ही रति की सिद्धि होती है । अन्न से ही धर्म और अर्थ की सिद्धि समझो। अन्न से ही रोगों का नाश होता है । पूर्वकल्प में प्रजापति ने अन्न को अमृत बतलाया है। भूलोक, स्वर्ग और आकाश अन्नरूप ही है, क्योंकि अन्न ही सबका आधार है। अन्न का आहार न मिलने पर शरीर में रहने वाले पाँचों तत्त्व अलग-अलग हो जाते हैं। अन्न की कमी हो जाने से बड़े-बड़े बलवानों का बल भी क्षीण हो जाता है। निमन्त्रण, विवाह और यज्ञ भी अन्न के बिना बंद हो जाते है । अन्न न हो तो वेदों का ज्ञान भी भूल जाता है। यह जो कुछ भी स्थावर-जङ्गमरूप जगत् है, सब का सब अन्न के ही आधार पर टिका हुआ है। अतः बुद्धिमान पुरुषों को चाहिये कि तीनों लोकों में धर्म के लिये अन्न का दान अवश्य करें। 原 $$$$$$$$$$$$$$$$$$$ अहिंसा को 219] Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CHERE - {785} अन्नं प्राणा नराणां हि सर्वमन्ने प्रतिष्ठितम्। अन्नदः पशुमान पुत्री धनवान् भोगवानपि॥ प्राणवांश्चापि भवति रूपवांश्च तथा नृप। अन्नदः प्राणदो लोके सर्वदः प्रोच्यते तु सः॥ __(म.भा. 13/63/25-26) ___ अन्न ही मनुष्यों के प्राण हैं, अन्न में ही सब प्रतिष्ठित है, अतः अन्नदान करने वाला ॐ मनुष्य पशु, पुत्र, धन, भोग, बल और रूप भी प्राप्त कर लेता है। जगत् में अन्नदान करने ॥ वाला पुरुष प्राणदाता और सर्वस्व देने वाला कहलाता है। 弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱 {786} सर्वेषामेव दानानामन्नदानं परं स्मृतम्। सर्वेषामेव जन्तूनां यतस्तज्जीवितं फलम्।। तस्मादन्नात् प्रजाः सर्वाः कल्पे कल्पेऽसृजत् प्रभुः। तस्मादन्नात् परं दानं न भूतो न भविष्यति। अन्नदानात् परं दानं विद्यते न हि किञ्चन। अन्नाद् भूतानि जायन्ते जीवन्ति च न संशयः।। ____(सं. स्मृ., 8/83) समस्त दानों में प्राणों को कायम रखने वाले अन्न का दान सबसे बड़ा दान कहा ॐ गया है, क्योंकि समस्त प्राणियों का जीवन उसी में रहता है। प्रभु ने जिस अन्न से कल्प卐कल्प में समस्त प्रजा की सृष्टि की थी, उस अन्न के दान से बढ़ कर कोई भी बड़ा-से बड़ा ॐ दान नहीं होता है, न हुआ है और न भविष्य में भी होगा। अन्न से प्राणियों की सृष्टि होती है है और अन्न से ही जीवधारी जीवित रहते हैं, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। 2弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱 {787} सर्वेषामेव दानानाम्, अन्नदानं विशिष्यते। अन्नदानात् परं दानं न भूतं न भविष्यति॥ (वि.ध.पु. 3/315/1) सभी दानों में अन्नदान का सर्वोच्च/विशिष्ट स्थान है। अन्न-दान से बढ़कर कोई अन्य दान न हुआ है और न होगा। SETURESEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE विदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/220 听听听听听听听听听听听 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 原 {788} दानवद्भिः कृतः पन्था येन यान्ति मनीषिणः । ते हि प्राणस्य दातारस्तेभ्यो धर्मः सनातनः ॥ (म.भा. 13/112/24) दाता पुरुषों ने जिस मार्ग को चालू किया है, उसी से मनीषी पुरुष चलते हैं । अन्नदान करने वाले मनुष्य वास्तव में प्राणदान करने वाले हैं। उन्हीं लोगों से सनातन धर्म की वृद्धि होती है। [ टिप्पणी: अन्न-दान की महिमा हेतु द्रष्टव्यः ब्र.पु. 3/16/52-55; ग. पु. 1 / 213 / 19; ब्रह्म 109/10-32; अ.पु. 211/44-46; प.पु.; 2/13/10-18, 2/69/17-25, 5/119/40-41, प. पु. 6 (उत्तर)/118/14, 7 (क्रिया) /20/ 52-56; वि.ध.पु. 3/315/ आदि-आदि ] {789} प्राणा वै प्राणिनामेते प्रोच्यन्ते भरतर्षभ । तस्माद् ददाति यो धेनुं प्राणानेष प्रयच्छति ॥ ( म.भा. 13/66/49) गौएं प्राणियों ( को दूध पिलाकर पालने के कारण उन) के प्राण कहलाती हैं, इसलिये जो दूध देने वाली गौ का दान करता है, वह मानों प्राण- दान देता है। {790} अन्ने दत्ते नरेणेह प्राणा दत्ता भवन्त्युत ॥ प्राणदानाद्धि परमं न दानमिह विद्यते । ( म.भा. 13/67/ 8-9 ) जिस मनुष्य ने यहाँ किसी को अन्न दिया, उसने मानों प्राण दे दिये और प्राणदान से बढ़कर इस संसार में दूसरा कोई दान नहीं है। {791} व्याधितस्यौषधं दत्वा प्राणदानफलं लभेत् । रोगार्तं परिचर्याथ प्राणदानफलं लभेत् ॥ (वि. ध. पु. 3 / 302/29) रोग से पीड़ित व्यक्ति को औषध देने से प्राण-दान का फल प्राप्त होता है। इसी तरह, रोगी की परिचर्या (इलाज, सेवा - शुश्रूषा) करने भी प्राण- दान का फल प्राप्त होता है। 原 版 अहिंसा कोश / 221] Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEma {792} औषधं स्नेहमाहारं रोगिणे रोगशान्तये। ददानो रोगरहितः सुखी दीर्घायुरेव च॥ (कू.पु. 2/26/50) रोगी को उसके रोग की शान्ति के लिए औषध व स्निग्ध आहार देने वाला व्यक्ति नीरोग, सुखी व दीर्घायु होता है। {7933 अन्नं हि जीवितं लोके प्राणाश्चान्ननिबन्धनाः। अन्नदः प्राणदो लोके सर्वदश्च तथाऽन्नदः॥ (वि.ध.पु. 3/315/4) अन्न इस लोक में 'जीवन' स्वरूप है। अन्न पर प्राण टिके रहते हैं। इसलिए अन्न का दान करने वाला व्यक्ति लोक में 'प्राणदाता' होता है। अन्नदाता सब कुछ देने वाला है (अर्थात् वह सभी प्रकार के दानों के फल को प्राप्त करता है)। 明明明明明明听听听听听听听听听听听听听听听听听听乐听听听听听 $$$$$$$巩巩巩巩听听听听听听 अहिंसात्मक दान-धर्म और उसके स्थायी प्रतीक 乐玩玩乐乐巩巩巩巩巩垢玩垢玩垢玩垢玩垢玩垢垢玩垢听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听那 [अहिंसक दयालु होता है, करुणा की मूर्ति होता है, उसकी प्रवृत्ति उन कार्यों में होनी स्वाभाविक है जिनसे लोक-कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है। भूख-प्यास व रोग आदि से मरते हुए या संकटग्रस्त प्राणियों को अन्न, जल व औषधि आदि देकर बचाना, भोजन कराना, तालाब आदि खुदवाना, अस्पताल खुलवाना, आदि आदि कार्य उसकी है उसी प्रवृत्ति के अंग माने जाते हैं। इन लोककल्याणकारी दानों के सन्दर्भ में उपलब्ध कुछ शास्त्रीय वचनों को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है-] {794} अश्वमेधसहस्राणां सहस्रं यः समाचरेत्॥ एकाहं स्थापयेत्तोयं तत्पुण्यमयुतायुतम्। विमाने मोदते स्वर्गे नरकं न स गच्छति॥ __ (अ.पु. 64/42-43) लाखों अश्वमेध यज्ञ करने से जो फल होता है, उससे भी असंख्य गुना अधिक * फल एक बार की जलाशय-प्रतिष्ठा (तालाब, बावड़ी आदि के निर्माण) से होता है। वह जलदान करने वाला व्यक्ति स्वर्ग में विमान पर आरूढ़ होकर विहार करता है, वह नरक भ में कभी नहीं जाता। 学乐乐乐纸步步步明明明明明明明明劣坎坎坎明明明明明货货货货货货货货货乐乐长 विदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/222 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEng 795) पानीयं परमं दानं दानानां मनुरब्रवीत्। तस्मात् कूपांश्च वापीश्च तडागानि च खानयेत्॥ अंधैं पापस्य हरति पुरुषस्येह कर्मणः। कूपः प्रवृत्तपानीयः सुप्रवृत्तश्च नित्यशः॥ ___(म.भा. 13/65/3-4; प.पु.उत्तर (6)/27/1-2) मनुजी ने कहा है कि जल का दान सब दानों से बढ़ कर है, इसलिये कुएं, बावड़ी + और पोखरे खोदवाने चाहिएं। जिसके खोदवाये हुए कुएँ में अच्छी तरह पानी निकल कर , # यहाँ सदा सब लोगों के उपयोग में आता है, वह कार्य उस मनुष्य के पापकर्म का आधा भाग है हर लेता है। {796} गवादि पिबते यस्मात्तस्मात्कर्तुर्न पातकम्। तोयदानात्सर्वदानफलं प्राप्य दिवं व्रजेत्॥ (अ.पु. 64/44) जलाशय के निर्माण करने से गौ आदि प्राणी जल पीकर तृप्त होते हैं। इसलिए जलाशय-निर्माता को कोई पाप नहीं लगता (अर्थात् तालाब आदि बनाने में जो कुछ भी ॐ जीवहिंसा हो जाती है, उसके पाप से मुक्त होता है)। वह जलदान से सब दानों के फल को प्राप्त करता है तथा स्वर्ग का अधिकारी होता है। {7972 सर्वं तारयते वंशं यस्य खाते जलाशये। गावः पिबन्ति विप्राश्च साधवश्च नराः सदा॥ निदाघकाले पानीयं यस्य तिष्ठत्यवारितम्। स दुर्ग विषमं कृत्स्नं न कदाचिदवाप्नुते॥ (म.भा. 13/65/5-6; प.पु.उत्तर (6)/27/3-4) जिसके खोदवाये हुए जलाशय गौ, ब्राह्मण तथा श्रेष्ठ पुरुष सदा जल पीते हैं, वह जलाशय उस मनुष्य के समूचे कुल का उद्धार कर देता है। जिसके बनवाये हुए तालाब में गरमी के दिनों में भी पानी मौजूद रहता है, कभी घटता नहीं है, वह पुरुष कभी अत्यन्त भविषम संकट में नहीं पड़ता। 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听妮听听听听听听听听玩乐听听听听听听听 %%%%%%%%%%%%%% 穷 穷穷穷穷穷穷穷穷穷穷穷穷穷穷穷 अहिंसा कोश/m3] Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %%%%%% %%%% %%%% % %%%% %%%%% {798} तडागे यस्य गावस्तु पिबन्ति तृषिता जलम्। मृगपक्षिमनुष्याश्च सोऽश्वमेधफलं लभेत्॥ यत् पिबन्ति जलं तत्र स्नायन्ते विश्रमन्ति च। तडागे यस्य तत् सर्वं प्रेत्यानन्त्याय कल्पते॥ दुर्लभं सलिलं तात विशेषेण परत्र वै। पानीयस्य प्रदानेन प्रीतिर्भवति शाश्वती॥ (म.भा. 13/58/17-19) जिसके तालाब में प्यासी गौएं पानी पीती हैं तथा मृग, पक्षी और मनुष्यों को भी - जल सुलभ होता है, वह अश्वमेध यज्ञ का फल पाता है। यदि किसी के तालाब में लोग स्नान करते, पानी पीते और विश्राम करते हैं तो इन सब का पुण्य उस पुरुष को मरने के बाद अक्षय सुख प्रदान करता है। जल दुर्लभ पदार्थ है। परलोक में तो उसका मिलना और भी कठिन है। जो जल का दान करते हैं, वे ही वहाँ जलदान के पुण्य से सदा तृप्त रहते हैं। ¥¥¥¥¥听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听F垢玩垢听听听听听听。 {799} तडागारामकर्तारस्तथाऽन्ये वृक्षरोपकाः। कूपानां ये च कर्तारो दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥ (वि. ध. पु. 2/122/25) जो तालाब, बगीचे व कुंआ आदि का निर्माण करते-कराते हैं और वृक्ष लगाते हैं, वे दुर्गम संकटों को पार कर लेते हैं। 55555555555555555555555555 {800} सर्वदानैर्गुरुतरं सर्वदानैर्विशिष्यते। पानीयं नरशार्दूल तस्माद् दातव्यमेव हि॥ (म.भा. 13/58/21) जल-दान सब दानों से महान् एवं समस्त दानों से बढ़ कर है, अतः उसका दान अवश्य करना चाहिये। वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/224 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *$$$$$$$$$$$$$$$嬀消消消乐出乐乐乐 {801} पुष्करिण्यस्तडागानि कूपांश्चैवात्र खानयेत् । एतत् सुदुर्लभतरमिहलोके द्विजोत्तम ॥ आपो नित्यं प्रदेयास्ते पुण्यं ह्येतदनुत्तमम् । प्रपाश्च कार्या दानार्थं नित्यं ते द्विजसत्तम । भुक्तेऽप्यन्नं प्रदेयं तु पानीयं वै विशेषतः ॥ (म.भा. 13/68/21-22 ) (यम का एक ब्राह्मण को कथन ) द्विजश्रेष्ठ ! मनुष्य को यहाँ पोखरी, तालाब और कुएँ खुदवाने चाहियें। यह इस संसार में अत्यन्त दुर्लभ - पुण्य कार्य है । विप्रवर! तुम्हें प्रतिदिन जल का दान करना चाहिये। जल देने के लिये प्याऊ लगानी चाहिये । यह सर्वोत्तम पुण्य कार्य है। (भूखे को अन्न देना तो आवश्यक है ही,) जो भोजन कर चुका हो, उसे भी अन्न देना चाहिये। विशेषतः जल का दान तो सभी के लिए आवश्यक है। {802} वापीकूपतडागानि देवतायतनानि च । अन्नप्रदानमारामाः पूर्तं धर्मं च मुक्तिदम् ॥ ( अ.पु. 209/2 ) बावड़ी, कूप तथा तालाब खोदवाना, देवालय बनवाना, अन्नदान करना तथा सार्वजनिक बगीचा लगवाना -यह 'पूर्त' धर्म कहलाता है और यह मुक्ति दिलाने वाला हुआ करता है। {803} वापीकूपतडागादौ धर्मस्यान्तो न विद्यते । पिबन्ति स्वेच्छया यत्र जलस्थलचरास्तदा ॥ ( प.पु. 3/31/51) जहां जलचर व स्थलचर प्राणी सदा स्वेच्छा से जल पीते हों, उन वापी, कूप व तालाब आदि के निर्माण में अनन्त धर्म होता है । $$$$$$$ 出 अहिंसा कोश / 225] Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %%%%% % 男男男男男男男弱弱弱弱男男男%%%%%%%%% दान धर्म के प्रेरक वचन 18049 आ नो भर दक्षिणेनाभिसव्येन प्रमश। (ऋ.8/81/6) दाएं और बाएं-दोनों हाथों से दान करो। {805} दानमेव परं श्रेष्ठं दानं सर्वप्रभावकम्। तस्माद्दानं ददस्व त्वं दानात्पुण्यं प्रवर्तते॥ दानेन नश्यते पापं तस्माद्दानं ददस्व हि॥ (प.पु. 2/39/40-41) (भगवान विष्णु का 'वेन' को कथन-) दान परम श्रेष्ठ (धर्म) है, वही सर्वाधिक प्रभावशाली (सत्कर्म) है, इसलिए तुम 'दान' करो, क्योंकि दान से 'पुण्य' होता है। {8063 绵绵圳坂圳垢圳坂圳圳圳垢垢巩巩巩听听听听听听听听听听圳绵绵明明明明明明明明明明明明听听听听听 दातव्यमसकृच्छक्त्या। (म.भा.13/141/77) अपना कल्याण चाहने वाले पुरुष को निरंतर अपनी शक्ति के अनुसार दान करते रहना चाहिये। 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听乐听听听听听听乐乐听听听听听听听听听听听乐平 {807} शतहस्त समाहर सहस्त्रहस्त सं किर! कृतस्य कार्यस्य चेह स्फातिं समावह। (अ3/24/5) हे मनुष्य! तू सौ हाथों से कमा और हजार हाथों से उसे समाज में फैला दे अर्थात् दान कर दे। इस प्रकार तू अपने किये हुए तथा किये जाने वाले कार्य की अभिवृद्धि कर। {808} विदद्वस उभयाहस्त्या भर। (ऋ. 5/39/1) हे धनिक! दोनों हाथों से दान कर। EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEN वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/226 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 作為男明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明 {809} श्रद्धया देयम्, अश्रद्धया देयम्, श्रिया देयम्, ह्रिया देयम्, भिया देयम्, संविदा देयम्। (तैत्ति.1/11/3) श्रद्धा से दान देना, अश्रद्धा से भी देना, अपनी बढ़ती हुई (धनसम्पत्ति) में से देना, श्री-वृद्धि न हो तो भी लोक-लाज से देना, भय (समाज तथा अपयश के डर) से देना, और संविद् (प्रेम अथवा विवेक-बुद्धि) से देना (अर्थात् श्रद्धा, अश्रद्धा किसी भी भाव से हो, 'दान' एक धर्म-कार्य है)। ¥¥¥¥¥听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {810} धर्मागतं प्राप्य धनं यजेत दद्यात्सदैवातिथीन्भोजयेच्च। अनाददानश्च परैरदत्तं सैषा गृहस्थोपनिषत्पुराणी॥ (म.पु. 40/3; म.भा. 1/91/3) धर्म-सम्मत रीति से धनार्जन कर यज्ञ करे, सदैव अतिथियों को दान दे और उन्हें भोजन करावे। दूसरों की बिना दी हुई वस्तु न ले-यही प्राचीन गृहस्थोपनिषात् (गृहस्थ के लिए रहस्यपूर्ण उपदेश-सार) है। अहिंसा और शौच धर्म {811) योऽर्थे शुचिः स हि शुचिः न मृद्वारिशुचिः शुचिः। ततश्चाप्याधिकं शौचम् अहिंसा परिकीर्तित्ता॥ (वि.ध. पु. 3/249/6) मिट्टी व जल से शुद्धि प्राप्त करने वाला शुद्ध नहीं, अपितु जो रुपए-पैसों आदि के मामलों में शुद्ध है, वही शुद्ध है। उससे भी अधिक शुद्धता यदि कोई है, तो वह 'अहिंसा' है। %%%%%%%%%%%% %%%%%%% %% %%%%% %%、 अहिंसा कोश/227] Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEEEEEEEEEEEE S अहिंसा और अस्तेय/अचौर्य धर्म 5555555 ___{812} स्तेयादभ्यधिकः कश्चित् नास्त्यधर्म इति स्मृतिः॥ हिंसा चैषा परा दिष्टा सा चात्मज्ञाननाशिका। यदेतद् द्रविणं नाम प्राणा ह्येते बहिश्चराः॥ स तस्य हरति प्राणान् यो यस्य हरते धनम्। ___(कू. पु. 2/29/30-32) ___ चोरी से बढ़कर कोई अधर्म नहीं है- यह स्मृति-वचन है। चोरी सबसे बड़ी हिंसा है जो आत्म-ज्ञान को नष्ट करती है। धन-सम्पत्ति वास्तव में लोगों के बाह्य प्राण हैं, अतः है जो जिसकी धन-सम्पत्ति लूटता व चोरी करता है, वह उसके प्राणों का हरण (प्राण-वध) ही करता है। (अर्थात् चोरी करना हिंसा- कार्य के समान ही है।) ;;;; ;; {813} स्त्रीहिंसा-धनहिंसा च प्राणिहिंसा च दारुणा। हिंसा च त्रिविधा प्रोक्ता वर्जिता पंडितैनरैः॥ (वि.ध. पु. 3/252/11) पंडित लोगों ने तीन प्रकार की हिंसाओं को वर्जनीय माना है। वे हैं- (1) स्त्रीहिंसा, (2) धन- हिंसा (चोरी, डकैती आदि कर धन हडपना) (3) दारुण प्राणि-हिंसा म (निर्दयता से किसी को मारना)। ; ;;; ;; ;;;; {814) अहिंसकस्तु यत्नेन वर्जयेत् तु परस्त्रियम्। विजनेऽपि तथा न्यस्तं परद्रव्यं प्रयत्नतः॥ (वि.ध. पु. 3/252/12) __ अहिंसक को चाहिए कि वह प्रयत्नपूर्वक पर-स्त्री का त्याग करे, साथ ही पर-द्रव्य को भी (उसके स्वामी से आज्ञा लिये बिना) ग्रहण न करे, भले ही वह निर्जन स्थान पर पड़ा महुआ हो। ;;卐 m 听听听听听听听听听听听听听听听听玩巩巩巩巩巩听听听听听听听听听听听听發 वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/228 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 明明明明乐乐出出出出出出出出乐乐巩巩巩$$$%%%%%%%%%%%%。 {815} स्त्रीहिंसा-धनहिंसा च प्राणिहिंसा तथैव च। त्रिविधां वर्जयन् हिंसां ब्रह्मलोकं प्रपद्यते। (वि.ध. पु. 3/268/2) स्त्री-हिंसा, धन-हिंसा, प्राणी-हिंसा- इन तीन प्रकार की हिंसाओं का त्याग करने वाला ब्रह्म लोक को प्राप्त करता है। अहिंसा और इन्द्रिय-निग्रह आदि धर्म (इन्द्रिय- संयम, दम, जितेन्द्रियता, ब्रह्मचर्य आदि) [जब तक अहिंसा या दया, क्षमा आदि अहिंसक आचरण जीवन में नहीं आते, तब तक इन्द्रिय-निग्रह, इन्द्रिय-संयम, ब्रह्मचर्य, दम व जितेन्द्रियता आदि धर्मो की पूर्णता संभव नहीं है। इसी तथ्य को पुष्ट करने वाले कुछ शास्त्रीय वचन यहां प्रस्तुत हैं-] ¥¥¥頻頻頻垢妮妮頻頻頻垢玩垢玩垢玩垢玩垢玩垢听听听听听垢垢玩垢垢玩垢垢玩垢玩垢乐娱乐垢妮FFFF {816} दमो ह्यष्टादशगुणः प्रतिकूलं कृताकृते। अनृतं चाभ्यसूया च कामार्थौ च तथा स्पृहा॥ क्रोधः शोकस्तथा तृष्णा लोभः पैशुन्यमेव च। मत्सरश्च विहिंसा च परितापस्तथाऽरतिः॥ अपस्मारश्चातिवादस्तथा सम्भावनाऽऽत्मनि। एतैर्विमुक्तो दोषैर्यः स दान्तः सद्भिरुच्यते॥ ___(म.भा. 5/43/23-25) दम (इन्द्रिय-विजय) के लिए अठारह गुण अपेक्षित हैं। निम्नलिखित अठारह दोषों # के त्याग से ही अठारह गुण उत्पन्न हो सकते हैं (1) हिंसा संबंधी दुष्प्रवृत्ति (2) कर्त्तव्य अकर्तव्य के विषय में विपरीत धारणा, (3)असत्यभाषण, (4)गुणों में दोषदृष्टि, (5) स्त्रीविषयक कामना, (6) सदा धनोपार्जन में ही लगे रहना, (7) भोगेच्छा, (8) क्रोध, (9) शोक, (10) तृष्णा, (11) लोभ, (12) चुगली करने की आदत, (13) डाह, (14) संताप, 4 (15) शास्त्र में अरति, (16) कर्त्तव्य की विस्मृति, (17) अधिक बकवाद और (18) अपने को बड़ा समझना-इन दोषों से जो मुक्त है, उसी को सत्पुरुष दान्त (जितेन्द्रिय) कहते हैं। 明明明明明明明明听听听听听听听听听听听听听听听听呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢 अहिंसा कोश/229] Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ¥¥¥¥¥¥宝宝乐宝宝}$$%%%%%%%%%乐明明听听听听听听。 {817} क्षमा धृतिरहिंसा च समता सत्यमार्जवम्। इन्द्रियाभिजयो धैर्य मार्दवं ह्रीरचापलम्॥ अकार्पण्यमसंरम्भः संतोषः श्रद्दधानता। एतानि यस्य राजेन्द्र स दान्तः पुरुषः स्मृतः॥ (म.भा. 5/63/14-15; 12/160/15-16 में आंशिक परिवर्तन के साथ) __ [द्रष्टव्यः प.पु. 1/19/308-309] जिस पुरुष में क्षमा, धैर्य, अहिंसा, समदर्शिता, सत्य, सरलता, इन्द्रियसंयम, धीरता, मृदुता, लज्जा, स्थिरता, उदारता, अक्रोध, संतोष और श्रद्धा-ये गुण विद्यमान हैं, वही पुरुष दान्त (इन्द्रियविजयी )माना गया है। {818} मदोऽष्टादशदोषः स स्यात् पुरा योऽप्रकीर्तितः। लोकद्वेष्यं प्रातिकूल्यमभ्यसूया मृषा वचः॥ कामक्रोधौ पारतन्त्र्यं परीवादोऽथ पैशुनम्। अर्थहानिर्विवादश्च मात्सर्यं प्राणिपीडनम्॥ ईर्ष्या मोदोऽतिवादश्च संज्ञानाशोऽभ्यसूयिता। तस्मात् प्राज्ञो न माद्येत सदा ह्येतद् विगर्हितम्॥ . (म.भा. 5/45/9-11) (दम अर्थात् इन्द्रिय विजय का विरोधी दोष है- मद। जितेन्द्रिय होने के लिए मद संबंधी हिंसक कार्यों से रहित होना अनिवार्य है-) मद के अठारह दोष हैं, जो पहले सूचित करके भी स्पष्ट रूप से नहीं बताये गये थे:-(1) लोगों के साथ द्वेष रखना, (2) शास्त्र के प्रतिकूल आचरण करना, (3) गुणियों पर दोषारोपण, (4) असत्यभाषण, (5) काम, 卐 (6) क्रोध, (7) पराधीनता, (8) दूसरों के दोष बताना, (9) चुगली करना, (10) धन ॐ का (दुरुपयोग से) नाश, (11) कलह, (12) डाह, (13) प्राणियों को कष्ट पहुँचाना, (14) ईर्ष्या, (15)हर्ष, (16) बहुत बकवाद, (17) विवेकशून्यता तथा (18) गुणों में # दोष देखने का स्वभाव। इसलिये विद्वान् पुरुष को मद के वशीभूत नहीं होना चाहिए, ॐ क्योंकि सत्पुरुषों ने इस मद को सदा ही निन्दित बताया है। 注绵绵明明明明明明明明明听听听听听听明明听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 % %%%% %%%%%男男男男 男男男男男男男男男男男男%%%%%% [वैदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/230 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < %%%%% % %%% %%%%%%% %% %%%%%%%% %%% % {819} तेषां लिङ्गानि वक्ष्यामि येषां समुदयो दमः। अकार्पण्यमसंरम्भः संतोषः श्रद्दधानता॥ अक्रोध आर्जवं नित्यं नातिवादोऽभिमानिता। गुरुपूजाऽनसूया च दया भूतेष्वपैशुनम्॥ जनवादमृषावादस्तुतिनिन्दाविवर्जनम् । साधुकामश्च स्पृहयेन्नायतिं प्रत्ययेषु च॥ (म.भा.12/220/9-11) उन लक्षणों का वर्णन किया जा रहा है, जिनकी उत्पत्ति में 'दम' ही कारण है। कृपणता का अभाव, उत्तेजना का न होना, संतोष, श्रद्धा, क्रोध का न आना, नित्य सरलता, अधिक बकवाद न करना, समस्त जीवों पर दया करना, किसी की चुगळी न करना, लोकापवाद, असत्यभाषण तथा निन्दा-स्तुति आदि को त्याग देना, सत्पुरुषों के संग की इच्छा तथा भविष्य में आने वाले सुख की स्पृहा और दुःख की चिन्ता न करना। {820) अभयं यस्य भूतेभ्यः सर्वेषामभयं यतः। नमस्यः सर्वभूतानां दान्तो भवति बुद्धिमान्॥ (म.भा.12/220/15) जो समस्त प्राणियों से निर्भय है तथा जिससे सम्पूर्ण प्राणी निर्भय हो गये हैं, वह ॐ दमनशील (इन्द्रियजयी) एवं बुद्धिमान् पुरुष सब जीवों के लिये वन्दनीय होता है। अहिंसा और तप धर्म 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 [शास्त्रों में तप को भी एक विशिष्ट धर्म माना गया है। तप के तीन भेद माने गए हैं- शारीरिक, वाचिक, मानसिक। ये तीनों ही तप एक प्रकार से अहिंसक आचरण की साधना ही हैं। इस तथ्य के पोषक कुछ शास्त्रीय वचन यहां प्रस्तुत हैं-] {821} देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्। ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्चते॥ (म.भा. 6/41/14, गीता 17/14) देवता, ब्राह्मण, गुरु व ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसाये सब शरीर-सम्बन्धी तप के अन्तर्गत हैं। 男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男 अहिंसा कोश/231] Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % %% %%% % %% % %% %%%%%% %% %%%% %% %%% % % {822} तपो यज्ञादपि श्रेष्ठमित्येषा परमा श्रुतिः। अहिंसा सत्यवचनमानृशंस्यं दमो घृणा। एतत् तपो विदुर्धीरा न शरीरस्य शोषणम्॥ (म.भा.12/79/17-18) __यज्ञ की अपेक्षा भी तप श्रेष्ठ है, यह वेद का परम उत्तम वचन है। किसी भी प्राणी है की हिंसा न करना, सत्य बोलना, क्रूरता को त्याग देना, मन और इन्द्रियों को संयम में रखना है # तथा सब के प्रति दयाभाव बनाये रखना- इन्हीं को धीर पुरुषों ने तप माना है। केवल शरीर को सुखाना ही तप नहीं है। 18233 明明明明明明明听听听听听听听听垢听听听听听听听听听听听乐贝贝听听听听听听听听听F垢玩垢听听听听 सोपधं निकृतिः स्तेयं परीवादो ह्यसूयिता। परोपघातो हिंसा च पैशुन्यमनृतं तथा॥ एतानासेवते यस्तु तपस्तस्य प्रहीयते। यस्त्वेतान् नाचरेद् विद्वांस्तपस्तस्य प्रवर्धते॥ (म.भा. 12/192/17-18) ___ कपट, शठता, चोरी, पर-निन्दा, दूसरों के दोष देखना, दूसरों को हानि पहुंचाना, प्राणी-हिंसा, चुगली खाना और झूठ बोलना- इन दुर्गुणों का जो सेवन करता है,उसकी तपस्या क्षीण होती है। किन्तु जो विद्वान इन दोषों को कभी आचरण में नहीं लाता, उसकी तपस्या निरन्तर बढ़ती रहती है। 玩玩乐乐垢玩垢听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {824} मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः। भावसंशुद्धिरित्येतत् तपो मानसमुच्यते॥ (म.भा. 6/41/16, गीता 17/16) ___ मन की प्रसन्नता, शान्तभाव, मौन रहना, मन का निग्रह और अन्त:करण के भावों की भलीभांति पवित्रता-ये सब मानसिक तप कहे जाते हैं। विदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/232 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥乐%%%%%%%%%%% {6} अढ़ियाः वर्णाश्रम-धर्म एवं अध्यात्मयोग की अंग [शास्त्रों में वर्णों व आश्रमों से सम्बन्धित सामान्य व विशेष धर्मों का निरूपण किया गया है। उनमें अहिंसा या उसके अभिन्न अंगों-दया, करुणा, प्राणि-रक्षा को प्रमुख स्थान प्राप्त हुआ है, और क्रूरता व हिंसा के कार्यों का निषेध भी किया गया है। गृहस्थ जीवन हो या आध्यात्मिक साधक का जीवन, दोनों की चर्याओं में, व्यक्ति की भूमिका के अनुरूप, अहिंसा का मुखरित होना अपेक्षित माना गया है। इसीलिए महाभारत (12/191/15) तथा नारदीय पुराण के (1/43/116) में अहिंसा को सभी आश्रमों के लिए आचरणीय बताते हुए कहा गया है- 'अहिंसा सत्यमक्रोधः सर्वाश्रमगतं तपः'। इस सन्दर्भ से जुड़े कुछ अन्य उपयोगी व महत्त्वपूर्ण शास्त्रीय वचन यहां प्रस्तुत हैं।] अहिंसा/ अहिंसक आचरण सभी वर्गों के लिए {825} दया समस्तभूतेषु तितिक्षा नातिमानिता। सत्यं शौचमनायासो मङ्गलं प्रियवादिता॥ मैत्र्यस्पृहा तथा तद्वदकार्पण्यं नरेश्वर। अनसूया च सामान्यवर्णानां कथिता गुणाः।। (वि.पु. 3/8/36-37; ब्रह्म 114/16-17) समस्त प्राणियों पर दया, सहन-शीलता, अभिमान-हीनता, सत्य, शौच, अधिक परिश्रम न करना, मङ्गल-आचरण, प्रियवादिता, मैत्री, निष्कामता, अकृपणता और किसी के ' दोष न देखना-ये समस्त वर्णों के सामान्य गुण हैं। {826} अहिंसा सत्यमस्तेयमकामक्रोधलोभता। भूतप्रियहितेहा च धर्मोऽयं सार्ववर्णिकः॥ (भा.पु. 11/17/21) अहिंसा, अस्तेय, काम-क्रोध व लोभ से रहित होना और प्राणियों की प्रिय व क परोपकारिणी चेष्टा में तत्पर रहना-ये सभी वर्गों के साधारण धर्म हैं। अहिंसा कोश/233] Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEng ___{827} अहिंसा प्रियवादित्वमपैशुन्यमकल्कता॥ सामासिकमिमं धर्मं चातुर्वण्र्येऽब्रवीन्मनुः। (कू.पु.1/2/68; ग.पु. 1/49/23 में आंशिक परिवर्तन के साथ) मनु महाराज ने चारों वर्गों के लोगों के लिए इन धर्मों का विधान किया है- अहिंसा, प्रियवादिता, अपिशुनता (चुगलखोरी न करना), तथा अस्तेय (चोरी न करना)आदि। 编听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听%%%%%%听听听听听听听听听听听 {828} अहिंसा सत्यमस्तेयं दानं क्षान्तिर्दमः शमः। अकार्पण्यं च शौचं च तपश्च रजनीचर॥ दशाङ्गो राक्षसश्रेष्ठ धर्मोऽसौ सार्ववर्णिकः॥ ___ (वा.पु. 14/1-2) अहिंसा, सत्य, अस्तेय, दान, क्षमा, दम, शम, अकृपणता, शौच, तप-ये दशविध # धर्म सभी वर्गों के लिए करणीय माने गए हैं। {829} अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रिय-निग्रहः। एतं सामासिकं धर्मं चातुर्वण्र्येऽब्रवीन्मनुः॥ (म.स्मृ.-10/63) अहिंसा, सत्य, चोरी न करना, शौच (आन्तरिक स्वच्छता/शुद्धता), इन्द्रियों पर नियन्त्रण- इन्हें चारों वर्गों के लिए आचरणीय धर्म के रूप में मनु ने संक्षेप में बताया है। {830} क्षमा सत्यं दमः शौचं दानमिन्द्रियसंयमः। अहिंसा गुरुशुश्रूषा तीर्थानुसरणं दया। आर्जवत्वमलोभश्च देवब्राह्मणपूजनम्। अनभ्यसूया च तथा धर्मः सामान्य उच्यते। __ (वि. स्मृ. वर्णाश्रमवृत्ति धर्म वर्णन) सभी वर्गों के साधारण धर्म हैं-क्षमा, सत्य, दम, शौच, दान, इन्द्रियों का संयम, ई अहिंसा, गुरु की सेवा, तीर्थाटन, दया, आर्जव होना, अलोभ, देवता और ब्राह्मणों की पूजा, म और अनभ्यसूया (निन्दा न करना) आदि।। 第四步步步明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明、 वैिदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/234 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 巩巩巩巩乐乐乐%%%¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥乐坂$$$$$ . {831} अहिंसा सत्यवचनं दया भूतेष्वनुग्रहः। तीर्थानुसरणं दानं ब्रह्मचर्यममत्सरः॥ देवद्विजातिशुश्रूषा गुरूणां च भृगूत्तम। श्रवणं सर्वधर्माणां पितृणां पूजनं तथा॥ भक्तिश्च नृपतौ नित्यं तथा सच्छास्त्रनेत्रता। आनृशंस्यं तितिक्षा च तथा चास्तिक्यमेव च॥ वर्णाश्रमाणां सामान्यधर्मा धर्मं समीरितम्। (अ.पु. 151/3-6) सभी वर्गों के लिए और आश्रमों के लिए सामान्य धर्म इस प्रकार हैं:- अहिंसा, सत्यभाषण, दया , प्राणियों पर अनुग्रह, तीर्थाटन, दान, ब्रह्मचर्य, अमात्सर्य, देव, गुरु व ब्राह्मणों की सेवा, सभी धर्मों का श्रवण, पितृ-पूजन, राजा में भक्ति, तथा नित्य सच्छास्त्रों से मार्गदर्शन लेना, अक्रूरता (दया), सहनशीलता/क्षमा तथा आस्तिकता। 巩巩巩巩巩巩巩垢玩垢玩垢听听听听听听听听听垢坎坎听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听提 अहिंसा और ब्राह्मण वर्ण 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听乐听听听听听听听听垢听听听听听听听听听听听听听听 {832} सर्वभूतहितं कुर्यान्नाहितं कस्यचिद् द्विजः। मैत्री समस्तभूतेषु ब्राह्मणस्योत्तमं धनम्॥ (वि.पु. 3/8/24) ब्राह्मण को कभी किसी का अहित नहीं करना चाहिये और सर्वदा समस्त प्राणियों के हित में तत्पर रहना चाहिये। सम्पूर्ण प्राणियों में मैत्री रखना ही ब्राह्मण का परम धन है। 1833} अभयं सर्वभूतेभ्यः सर्वेषामभयं यतः। सर्वभूतात्मभूतो यस्तं देवा ब्राह्मणं विदुः॥ __ (म.भा.12/269/33) जो सम्पूर्ण भूतों से निर्भय है, जिससे समस्त प्राणी भय नहीं मानते हैं तथा जो सब 9 भूतों का आत्मा है, उसी को देवता ब्राह्मण/ब्रह्मज्ञानी मानते हैं। 勇 %%%%%%%%%%% %%%%%%%%%%%%%%%% % अहिंसा कोश/235] Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 蛋蛋蛋蛋 原廠廠 $$$$$$$$$$$$$$$$ {834} तस्माद् प्राणभृतः सर्वान्, न हिंस्याद् ब्राह्मणः क्वचित् । ब्राह्मणः सौम्य एवेह भवतीति परा श्रुतिः ॥ वेदवेदाङ्गविन्नाम सर्वभूताभयप्रदः। अहिंसा सत्यवचनं क्षमा चेति विनिश्चितम् ॥ ब्राह्मणस्य परो धर्मो वेदानां धारणाऽपि च । (म.भा. 1/11/14 - 16) ब्राह्मण को समस्त प्राणियों में से किसी की भी कभी व कहीं भी हिंसा नहीं करनी चाहिए। ब्राह्मण वेद व वेदाङ्गों का ज्ञाता होने के साथ-साथ सभी प्राणियों को अभय देने वाला होता है । अहिंसा, सत्यभाषण, क्षमा और वेदों का स्वाध्याय - ये निश्चय ही ब्राह्मण के उत्तम धर्म हैं। {835} यज्ञश्च परमो धर्मस्तथाऽऽहिंसा च देहिषु । अपूर्वभोजनं धर्मो विघसाशित्वमेव च ॥ भुक्ते परिजने पश्चात् भोजनं धर्म उच्यते । ब्राह्मणस्य गृहस्थस्य श्रोत्रियस्य विशेषतः ॥ (म.भा. 13/141/41-42 ) (गृहस्थ-धर्म का निरूपण - ) घर में पहले भोजन न करना तथा विघसाशी होना कुटुम्ब के लोगों के भोजन करने के बाद ही अवशिष्ट अन्न का भोजन करना - यह भी उसका धर्म है। जब कुटुम्बी जन भोजन कर लें, उसके पश्चात् स्वयं भोजन करना - यह गृहस्थ ब्राह्मण का, विशेषतः श्रोत्रिय (वेदाभ्यासी) का, मुख्य धर्म बताया गया है। {836} शान्ता दान्ताः श्रुतिपूर्णकर्णा जितेन्द्रियाः प्राणिवधान्निवृत्ताः । प्रतिग्रहे संकुचिताग्रहस्तास्ते ब्राह्मणास्तारयितुं समर्थाः ॥ (व. स्मृ., 186 ) जो शान्त हों, इन्द्रिय-दमन से सम्पन्न हों, वेद के श्रवण से पूर्ण श्रोत्र वाले हों, इन्द्रियों को जीतने वाले हों, प्राणियों की हिंसा न करने वाले हों, प्रतिग्रह (दान) में जिनके हाथ संकुचित हों अर्थात् आगे न बढते हों - इस प्रकार के ब्राह्मण ही मनुष्यों के उद्धार करने में समर्थ होते हैं । $$$$$$$$$$$$ [वैदिक / ब्राह्मण संस्कृति खण्ड / 236 原廠! Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEng {837} क्षमा दया च विज्ञानं सत्यं चैव दमः शमः। अध्यात्मनिरतज्ञानमेतद् ब्राह्मणलक्षणम् ॥ (कू.पु. 2/15/27) क्षमा, दया, विज्ञान, सत्य-आचरण, दम (इन्द्रिय-निग्रह), शम (शान्ति), तथा ) * आध्यात्मिक विद्या में लगा हुआ ज्ञान-ये 'ब्राह्मण' के लक्षण/ चिन्ह हैं। {838} अद्रोहेणैव भूतानामल्पद्रोहेण वा पुनः। या वृत्तिस्तां समास्थाय विप्रो जीवेदनापदि॥ (म.स्मृ. 4/2) सामान्यतः कोई विपत्ति न पड़ी हो, तो ऐसी स्थिति में ब्राह्मण को चाहिए कि वह जीवों को बिना पीड़ित किये अथवा कम से कम पीड़ित करते हुए अपनी जीविका चलावे। 1839} वेदाभ्यासस्तपो ज्ञानमिन्द्रियाणां च संयमः। अहिंसा गुरुसेवा च निःश्रेयसकरं परम्॥ (म.स्मृ. 12/83) (उपनिषद् के सहित) वेद का अभ्यास, (प्राजापत्य आदि) तप, (ब्रह्मविषयक) ज्ञान, इन्द्रियों का संयम, अहिंसा और गुरुजनों की सेवा-ये ब्राह्मण के लिये श्रेष्ठ मोक्षसाधक छः कर्म हैं। अहिंसाः और क्षत्रिय वर्ण {840} पानमक्षाः स्त्रियश्चैव मृगया च यथाक्रमम्। एतत्कष्टतमं विद्याच्चतुष्कं कामजे गणे॥ (म.स्मृ.-7/50) कामजन्य व्यसन-समुदाय में मद्यपान, जूआ, स्त्रियां, और शिकार (आखेट)- इन चारों को (क्षत्रिय राजा)क्रमशः अधिकाधिक कष्टदायक समझे। अहिंसा कोश/237] Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 乐乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {841} दश कामसमुत्थानि तथाष्टौ क्रोधजानि च। व्यसनानि दुरन्तानि प्रयत्नेन विवर्जयेत्॥ कामजेषु प्रसक्तो हि व्यसनेषु महीपतिः। वियुज्यतेऽर्थधर्माभ्यां क्रोधजेष्वात्मनैव तु॥ मृगयाऽक्षो दिवा स्वप्नः परिवादः स्त्रियो मदः। तौर्यत्रिकं वृथाट्या च कामजो दशको गणः॥ पैशुन्यं साहसं द्रोह ईर्ष्याऽसूयाऽर्थदूषणम्। वाग्दण्डजं च पारुष्यं क्रोधजोऽपि गणोऽष्टकः॥ (म.स्मृ.-7/45-48) (क्षत्रिय राजा) कामजन्य दस तथा क्रोधजन्य आठ, कुल मिलाकर इन अठारह व्यसनों को, जो परिणाम में दुःखदायक सिद्ध होते हैं,प्रयत्नपूर्वक त्याग कर दे। क्योंकि कामजन्य व्यसनों में आसक्त राजा अर्थ तथा धर्म से भ्रष्ट हो जाता है और क्रोधजन्य व्यसनों 4 में आसक्त राजा आत्मा से ही (अपने स्वरूप से ही) भ्रष्ट (स्वयं नष्ट) हो जाता है। मृगया है 卐 (शिकार), जुआ, दिन में सोना, पराये की निन्दा, स्त्री में अत्यासक्ति, मद (नशा-मद्यपान ॐ आदि), नाच-गाने में अत्यासक्ति और व्यर्थ (निष्प्रयोजन) भ्रमण-ये दस कामजन्य व्यसन हैं। चुगलखोरी, दुस्साहस, द्रोह, ईर्ष्या (दूसरे के गुण को न सहना), असूया (दूसरों के गुणों में दोष बतलाना), अर्थदोष (धनापहरण या धरोहर आदि को वापस नहीं करना), कठोर प्र वचन और कठोरदण्ड-ये आठ क्रोधजन्य व्यसन हैं। {842} दण्डस्य पातनं चैव वाक्पारुष्यार्थदूषणे। क्रोधजेऽपि गणे विद्यात्कष्टमेतत् त्रिकं सदा॥ (म.स्मृ.-7/51) क्रोधजन्य व्यसन-समुदाय में दण्ड-प्रयोग, कटुवचन और अर्थ-दूषण (अन्याय से दूसरे की सम्पत्ति हड़प लेना)-इन तीनों को (क्षत्रिय राजा) सर्वदा अतिकष्टदायक माने। 勇勇男明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明、 (वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/238 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E乐乐乐乐乐乐玩¥¥¥¥巩巩巩巩巩巩职职¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥%%%%%% अहिंसा और शूद्र वर्ण {843} अहिंसकः शुभाचारो दैवतद्विजवन्दकः। शूद्रो धर्मफलैरिष्टैः स्वधर्मेणोपयुज्यते॥ __(म.भा.13/141/ पृ.5921) शूद्रों को अहिंसक, सदाचारी और देवों व ब्राह्मणों का पूजक होनी चाहिए। ऐसा शूद्र धर्म-पालन कर अभीष्ट धर्म-फलों का भागी होता है। अहिंसा/अहिंसक आचरण: ब्रह्मचर्य आश्रम में {844} अप्रियं न वदेजातु ब्रह्मसूत्री विनीतवाम्। (ग.पु. 1/96/37) ब्रह्मसूत्रधारी ब्रह्मचारी विनय-संपन्न रहे और कभी अप्रिय भाषण न करे। 端¥¥¥¥¥¥¥¥¥妮听听听听玩听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 अहिंसा/ अहिंसक आचरण: गृहस्थ आश्रम में ___{845} विभागशीलो यो नित्यं क्षमायुक्तो दयापरः। देवतातिथिभक्तश्च गृहस्थः स तु धार्मिकः।। दया लज्जा क्षमा श्रद्धा प्रज्ञा योगः कृतज्ञता। एते तस्य गुणाः सन्ति संगृही मुख्य उच्यते।। ___ (द. स्मृ., 2/48-49) जो नित्य बांट कर खाने के स्वभाव वाला, क्षमा से युक्त, दया-परायण तथा देवता है व अतिथियों का भक्त गृहस्थ होता है, वही गृही वस्तुतः परम धार्मिक होता है। जिस गृहस्थ + में दया, लज्जा, क्षमा, श्रद्धा, प्रज्ञा, योग, कृतज्ञता-ये गुण विद्यमान होते हैं, वही गृहस्थ सब प्र में प्रमुख व परम प्रशस्त होता है। 巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩乐: अहिंसा कोश/239] Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 宝宝%%%¥¥乐巩巩巩巩巩巩%%%%%%呢呢呢呢呢呢明明明明明明明明明以 {846} अहिंसा सत्यवचनं सर्वभूतानुकम्पनम्। शमो दानं यथाशक्ति गार्हस्थ्यो धर्म उत्तमः॥ ___ (म.भा. 13/141/25) किसी भी जीव की हिंसा न करना, सत्य बोलना, सब प्राणियों पर दया करना, मन और इन्द्रियों पर काबू रखना तथा अपनी शक्ति के अनुसार दान देना-यह सब गृहस्थॐ आश्रम के उत्तम धर्म हैं। {847} कर्मणा मनसा वाचा बाधते यः सदा परान्। नित्यं कामादिभिर्युक्तो मूढधीः प्रोच्यते तु सः॥ __ (ना. पु. 1/4/73) जो व्यक्ति मन, वचन व कर्म से दूसरों को पीड़ा देता है, और सदा काम-भोगों में आसक्त रहता है, वह मूढबुद्धि कहा जाता है। ·过宝听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {848} न संशयं प्रपद्येत नाकस्मादप्रियं वदेत्। नाहितं नानृतं चैव न स्तेनः स्यान्न वार्धषी॥ (या. स्मृ., 1/6/132) गृहस्थ संशयपूर्ण (प्राण-विपत्ति के सन्देहवाले) कर्म में प्रवृत्त न हो, निष्कारण # अप्रिय वचन न बोले, अहितकारी तथा अनृत (असत्य) वचन भी (अकस्मात्) न बोले। * चोरी न करे तथा निषिद्ध सूद से जीविका न चलावे। 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听垢 {849) सतां धर्मेण वर्तेत क्रियां शिष्टवदाचरेत्। असंक्लेशेन लोकस्य वृत्तिं लिप्सेत वै द्विज॥ (म.भा. 3/209/44;12/235/26 में परिवर्तित अंश के साथ) मनुष्य को चाहिये कि वह सत्पुरुषों के धर्म का पालन करे, शिष्ट पुरुषों के समान ॐ बर्ताव करे और जगत् में किसी भी प्राणी को कष्ट दिये बिना जिससे जीवन-निर्वाह हो # सके, ऐसी आजीविका प्राप्त करने की इच्छा करे। 第明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明、 विदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/240 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEma 18500 न हिंस्यात्सर्वभूतानि नानृतं वा वदेत्वचित्। नाहितं नाप्रियं ब्रूयान स्तेनः स्यात्कथञ्चन॥ (कू.पु. 2/16/1) गृहस्थ को चाहिए कि वह किसी भी प्राणी की हिंसा न करे और न ही असत्य बोले। वह न तो अहितकारी व अप्रिय भाषण करे, और न ही कभी चोरी करे। {851) गृहस्थधर्मो नागेन्द्र सर्वभूतहितैषिता॥ (म.भा. 12/359/7) समस्त प्राणियों के हित की रक्षा करना गृहस्थ का धर्म है। ¥¥¥¥¥¥¥¥听听听听听听听听听听听听听听听听垢玩垢玩垢玩垢听听听听听听听听听听听听听听听斯加 {852} द्वेषं दम्भं च मानं च क्रोधं तैक्ष्ण्यं च वर्जयेत्॥ (म.स्मृ. 4/163) गृहस्थ द्वेष, दम्भ, अभिमान, क्रोध और क्रूरता का त्याग करे। {853} ज्ञातिसम्बन्धिमित्राणि व्यापन्नानि युधिष्ठिर। समभ्युद्धरमाणस्य दीक्षाऽऽश्रमपदं भवेत्॥ (म.भा. 12/66/8) जो संकट में पड़े हुए सजातियों, सम्बन्धियों व मित्रों का उद्धार करता है, उसे वानप्रस्थ आश्रम-धर्म के पालन से मिलने वाले पद की प्राप्ति होती है। {854} कर्मणा मनसा वाचा यत्नाद्धर्मं समाचरेत्। अस्वयं लोकविद्विष्टं धर्म्यमप्याचरेन्न तु॥ (या. स्मृ., 1/6/156) गृहस्थ ऐसे धर्म का भी आचरण न करे जो स्वर्ग को न देने वाला तथा लोक से 卐 * विद्वेष कराने वाला हो। %% %%% %% %% % % % % %% %%%%%% % %% %%%% $ अहिंसा कोश/241] Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % %%%%%%%% %%%%% % %%% %% %% %% %% % %%%%%% {855} न कुर्याद्दुःखवैराणि विवादं चैव पैशुनम्। (कू.पु. 2/16/33) गृहस्थ दुःखप्रद शत्रुता, विवाद व पिशुनता (चुगलखोरी) का व्यवहार किसी से न करे। हिंसक विवाह आदि वर्ण्य 呢呢呢呢呢听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听巩巩听听听听听听听。 {856 हत्वा छित्त्वा च भित्त्वा च क्रोशन्तीं रुदतीं गृहात्। प्रसह्य कन्याहरणं राक्षसो विधिरुच्यते॥ (म.स्मृ. 3/33) कन्या के पक्ष वालों को मारकर या उनका अङ्गच्छेदन आदि कर और गृह या # द्वारादि को तोड़ कर ('हा पिताजी! मैं बलात्कार से अपहृत हो रही हूं' इत्यादि) चिल्लाती म तथा रोती हुई कन्या को बलात्कार से हरण करके लाना 'राक्षस' विवाह कहा गया है (जो म अधम कोटि का होने से त्याज्य है)। हिंसा (सूना)-दोष के निवारक पांच यज्ञ {857} पंच सूना गृहस्थस्य चुली पेषण्युपस्करः। कण्डनी चोदकुम्भश्च बध्यते यास्तु वाहयन्। तासां क्रमेण सर्वासां निष्कृत्यर्थं महर्षिभिः । पञ्च क्लृप्ता महायज्ञाः प्रत्यहं गृहमेधिनाम्॥ अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम्। होमो दैवो बलिभीतो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम्॥ पञ्चैतान्यो महायज्ञान हापयति शक्तितः। स गृहेऽपि वसन्नित्यं सूनादोषैर्न लिप्यते॥ देवताऽतिथिभृत्यानां पितृणामात्मनश्च यः। न निर्वपति पंचानामुच्छ्वसन्न स जीवति॥ वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/242 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TAKXIXEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE ma (म.स्मृ. 3/68-72) गृहस्थ के लिये चुल्ही, चक्की (जांता), झाडू, ओखली-मुसल और जल का घटये पांच पाप/हिंसा के स्थान हैं; इन वस्तुओं का उपयोग करता हुआ गृहस्थ अनजाने में होने वाली जीव-हिंसा के पाप से बंधता (पापभागी होता) है। उन सबों की निवृत्ति के लिये महर्षियों ने पञ्च महायज्ञ करने का विधान गृहस्थाश्रमियों के लिये बतलाया है। वेद का * अध्ययन और अध्यापन करना 'ब्रह्मयज्ञ' है, तर्पण करना 'पितृयज्ञ' है, हवन करना 'देवयज्ञ' है, बलिवैश्वदेव करना 'भूतयज्ञ' है तथा अतिथियों का भोजन आदि से सत्कार है करना 'नृयज्ञ' है। यथाशक्ति इन पञ्चमहायज्ञों को नहीं छोड़ने वाला गृहस्थाश्रम में रहता है हुआ भी द्विज पञ्चसूना (पांच हिंसा-प्रसंग) के दोषों से युक्त नहीं होता है। जो गृहस्थाश्रमी # देवताओं ( तथा भूतों), अतिथियों, माता-पिता आदि वृद्धजनों (तथा सेवकों),पितरों और # स्वयं को अन्नादि से सन्तुष्ट नहीं करता है, वह श्वास लेता हुआ भी नहीं जीता है (मरे हुए के समान है)। [इन पांच सूना-दोषों का निर्देश अन्य ग्रन्थों में भी प्राप्त है। उदाहरणार्थ-विष्णु-स्मृति (गृहस्थाश्रमवर्णन),मत्स्य-पुराण-52/15-16; याज्ञवल्क्य स्मृति- 1/5102, भागवत पुराण-5/26/18, महाभारत- 12/36/34#35, आदि आदि।] 35, आदि आदि।] ... [स्पष्टीकरणः गृह-कार्य व रसोई आदि की व्यवस्था में अनिवार्य रूप से हिंसा हो जाती है। इन हिंसा-युक्त स्थलों को 'सूना' नाम से अभिहित किया गया है। प्रथम 'सूना' वह है जो अचानक जल में प्रवेश, जल में डुबकी लेने, वस्त्र से बिना छाने हुए जल-ग्रहण करने आदि की क्रियाओं के दौरान उत्पन्न होती है। दूसरी 'सूना' वह है जो अन्धकार में इधर-उधर चलने, शीघ्रता से हिलने-डुलने, अनजाने में कीड़ों-मकोड़ों पर चढ जाने आदि से होती है। तीसरी 'सूना' वह है जो पीटने या काटने (कुल्हाड़ी से वृक्ष/काष्ठ आदि के काटने-पीटने), चूर्ण करने, (लकड़ी आदि) चीरने से होती है। चौथी 'सूना' वह है जो अनाज कूटने, रगड़ने या पीसने से उत्पन्न होती है और पांचवी सूना वह है जो (लकड़ी आदि के) घर्षण से, (जल आदि के) गर्म करने से, भूनने, छीलने, या पकाने से होती है। गृहस्थ लोगों को इन पांच प्रकार की हिंसा के पापों से छुटकारा दिलाने के लिए पांच 'यज्ञों विशिष्ट कृत्यों का विधान किया गया है। प्रथम 'यज्ञ' है- (1) ब्रह्मयज्ञ-वेद/ सत्शास्त्र का अध्ययन-अध्यापन व स्वाध्याय। (2) पितृयज्ञ-पितरों के प्रति श्रद्धार्पण (3) देवयज्ञ-अग्नि में आहुति डालना, (4) भूतयज्ञ-जीवों को अन-दान, (5) नयज्ञ / मनुष्ययज्ञ-अतिथि को अन्न-भोजनादि का दान। इनमें अन्तिम दो (भूत-यज्ञ व मनुष्य-यज्ञ) यज्ञों में व्यक्ति ब्रह्माण्ड या आसपास में रह रहे प्राणियों व मनुष्यों के प्रति अपने धार्मिक उत्तरदायित्वों व कर्तव्यों को, त्याग की भावना के माध्यम से, क्रियात्मक रूप देता है और इस प्रकार अनजाने में हुई जीव-हिंसा के पाप से मुक्ति पाने का प्रयास करता है।। 玩玩玩乐乐巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩玩玩玩乐乐场 अहिंसा कोश/243] Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEET दया-भाव की अभिव्यक्ति: गृहस्थ के भूत-यज्ञ में [भूत-यज्ञ के माध्यम से गृहस्थ तुच्छ, उपेक्षित जीव-जन्तुओं के प्रति तथा परिवार व समाज के दीन व एवं रोगी व्यक्तियों के प्रति अपनी दया भावना को अभिव्यक्त करता है। इस सम्बन्ध में कुछ विशिष्ट उद्धरण यहां प्रस्तुत हैं-] 呢妮妮妮妮听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听垢听听听听听听听听听听听听纸巩巩听听听听听听。 {858} नात्मार्थे पाचयेदन्नम्॥ (प.पु. 1/15/302; म.भा.12/243/5; ग.पु. 1/96/15 में आंशिक परिवर्तन के साथ) गृहस्थ केवल अपने ही भोजन के लिये रसोई न बनावे (अपितु अन्य प्राणियों की # भूख मिटाने के उद्देश्य से बनावे) । {859} येषां न माता न पिता न बन्धु वान्नसिद्धिर्न तथाऽन्नमस्ति। तत्तृप्तयेऽन्नं भुवि दत्तमेतत् ते यान्तु तृप्तिं मुदिता भवन्तु॥ भूतानि सर्वाणि तथानमेतदहं च विष्णुर्न ततोऽन्यदस्ति। तस्मादहं भूतनिकायभूतमन्नं प्रयच्छामि भवाय तेषाम्॥ (वि.पु. 3/11/53-54) [अन्नदान करते समय गृहस्थ द्वारा अभिव्यक्त भाव-] सम्पूर्ण प्राणी, यह अन्न और मैं-सभी विष्णु हैं, क्योंकि उनसे भिन्न और कुछ है ही नहीं। अतः मैं समस्त भूतों का शरीर रूप यह अन्न उनके पोषण के लिये दान करता हूँ। {860} बालस्ववासिनीवृद्धगर्भिण्यातुरकन्यकाः । संभोग्यातिथिभृत्यांश्च दम्पत्योः शेषभोजनम्॥ (या. स्मृ., 1/5/105; ग.पु. 1/96/15-16 में आंशिक परिवर्तन के साथ) बालक, सुवासिनी (पिता के घर में रहने वाली) विवाहिता स्त्री, वृद्ध, गर्भिणी व 卐 रोगी कन्या, अतिथि और भृत्य-इन सब को भोजन बांट कर (देकर) जो शेष बचे, उसे # गृहस्थ पति-पत्नी खायें। EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEENP विदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/244 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55 N EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEng {861} शुनां च पतितानां च श्वपचा पापरोगिणाम्। वायसानां कृमीणां च शनकैर्निर्वपेद् भुवि॥ (म.स्मृ. 3/92) (देवयज्ञ के बाद, भूत-यज्ञ का सम्पादन इस प्रकार है-) कुत्ता, पतित, चाण्डाल, # पापजन्य (कुष्ठ या यक्ष्मा आदि) रोग से युक्त व्यक्ति, कौवा, कीड़ा-इन सूक्ष्म व अत्यन्त उपेक्षित प्राणियों के लिये धीरे से ( जिससे धूलि आदि से नष्ट अन्न नहीं हो) अवशिष्ट कुछ अन्न को पात्र से निकालकर, पृथक् रख देवे। 5 {862} चतुर्दशो भूतगणो य एष तत्र स्थिता येऽखिलभूतसंघाः। तृप्त्यर्थमन्नं हि मया विसृष्टं तेषामिदं ते मुदिता भवन्तु॥ इत्युच्चार्य नरो दद्यादन्नं श्रद्धासमन्वितः। भुवि सर्वोपकाराय गृही सर्वाश्रयो यतः॥ (वि.पु. 3/11/55-56) यह जो चौदह प्रकार का भूतसमुदाय है, उसमें जितने भी प्राणिगण अवस्थित हैं, उन सब की तृप्ति के लिये मैंने यह अन्न प्रस्तुत किया है, वे इससे प्रसन्न हों। इस प्रकार उच्चारण करके गृहस्थ पुरुष श्रद्धापूर्वक समस्त जीवों के उपकार के लिये पृथिवी में अन्नदान करें, क्योंकि गृहस्थ ही सबका आश्रय है। 555555555555555555555555555 : 1863 देवा मनुष्याः पशवो वयांसि सिद्धास्सयक्षोरगदैत्यसंघाः। प्रेताः पिशाचास्तरवस्समस्ता ये चान्नमिच्छन्ति मयाऽत्र दत्तम्॥ पिपीलिकाः कीटपतङ्गकाद्या बुभुक्षिताः कर्मनिबन्धबद्धाः। प्रयान्तु ते तृप्तिमिदं मयाऽन्नं तेभ्यो विसृष्टं सुखिनो भवन्तु॥ (वि.पु. 3/11/51-52) (प्राणियों को अन्न-दान करते समय गृहस्थ द्वारा अभिव्यक्त किये जाने वाले भाव-) 'देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी, सिद्ध, यक्ष, सर्प, दैत्य, प्रेत, पिशाच, वृक्ष तथा अन्य भी चींटी आदि कीट पतङ्ग जो अपने कर्मबन्धन से बँधे हुए क्षुधातुर होकर मेरे दिये हुए अन्न की इच्छा करते है हैं, उन सब के लिये मैं यह अन्न दान करता हूँ। वे इससे परितृप्त और आनन्दित हों।' 男男男男男男男男男男男男明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明外 अहिंसा कोश/245] Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 他明明明明明明明明明明明明明明明男男男男男男男弱弱%%%%%%% %% अहिंसा/अहिंसक आचरणः वानप्रस्थ आश्रम में {864} स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्याद्दान्तो मैत्रः समाहितः। दाता नित्यमनादाता सर्वभूतानुकम्पकः॥ (म.स्मृ.-6/8) (वानप्रस्थ आश्रम में साधक) सर्वदा वेदाभ्यास में लगा रहे; ठंडा-गर्म, सुखदुःख, मान अपमान आदि सभी द्वन्द्वों को सहन करे, सब से मित्रभाव रखे,मन को वश में # रखे, दानशील बने, दान न ले और सब जीवों पर दया करे। अहिंसा/अहिंसक आचरणः संन्यास आश्रम में {865} अहिंसा ब्रह्मचर्यं च सत्यमार्जवमेव च। अक्रोधश्चानसूया च दमो नित्यमपैशुनम्। अष्टस्वेतेषु युक्तः स्याद् व्रतेषु नियतेन्द्रियः॥ आशीर्युक्तानि सर्वाणि हिंसायुक्तानि यानि च। लोकसंग्रहधर्मं च नैव कुर्यान्न कारयेत्॥ परं नोद्वैजयेत् कंचिन्न च कस्यचिदुद्विजेत्। विश्वास्यः सर्वभूतानामग्र्यो मोक्षविदुच्यते॥ __ (म.भा.13/अनुगीता पर्व/46/29-30, 39, 41) संन्यासी को चाहिए कि वह अहिंसा, ब्रह्मचर्य, सत्य, सरलता, क्रोध का अभाव, मदोष-दृष्टि की त्याग, इन्द्रिय-संयम और चुगली न खाना-इन आठ व्रतों का सदा सावधानी # के साथ पालन करे। इन्द्रियों को वश में रखे। जितने भी कामना और हिंसा से युक्त कर्म हैं, उन सबका एवं लौकिक कर्मों का न स्वयं अनुष्ठान करे और न दूसरों से करावे। किसी दूसरे ॐ प्राणी को उद्वेग में न डाले और स्वयं भी किसी से उद्विग्न न हो। जो सब प्राणियों का ॐ विश्वासपात्र बन जाता है, वह सबसे श्रेष्ठ और मोक्ष-धर्म का ज्ञाता कहलाता है। KEE5554555555555555555555555555555 m 1866) भिक्षोर्धर्मः शमोऽहिंसा। (भा.पु. 11/19/42) शान्ति तथा अहिंसा-ये संन्यासी के प्रधान धर्म हैं। 明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明那 विदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/246 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %%%%%%%%%%%%%%%%男男男男男男男男男男男男男男男%%%% {867} रागद्वेषविमुक्तात्मा, समलोष्टाश्मकाञ्चनः॥ प्राणिहिंसा-निवृत्तश्च, मौनी स्यात्सर्वनिःस्पृहः। दम्भाहंकारनिर्मुक्तो निन्दापैशन्यवर्जितः। आत्मज्ञानगुणोपेतः, यतिर्मोक्षमवाप्नुयात्॥ ___ (कू.पु. 2/28/18-19,22) संन्यासी को चाहिए कि वह राग-द्वेष से हीन हो, पत्थर व सोने में सम-भाव रखे, + प्राणियों की हिंसा से सर्वथा दूर रहे, मौन रखे तथा सभी पदार्थों से निःस्पृह/अनासक्त रहे। दम्भ व अहंकार से भी वह निर्मुक्त हो, पर-निन्दा व चुगलखोरी न करे, और आत्म-ज्ञान रूपी गुण से युक्त हो-ऐसा यति/संन्यासी मोक्ष को प्राप्त करता है। {868} अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यं तपः परम्। क्षमा दया च सन्तोषो व्रतान्यस्य विशेषतः॥ (कू.पु. 2/28/27) अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य रूपी परम तप, क्षमा, दया, सन्तोष- ये सभी 'यति' के लिए विशेष व्रत रूप से पालनीय हैं। 编听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听贝贝听听听听听听听听听听听听听听明 {869) ब्रह्मचर्यमहिंसां च सत्यास्तेयापरिग्रहान्। सेवेत योगी निष्कामो योग्यतां स्वमनो नयन्॥ (वि.पु. 6/7/36) योगी को चाहिये कि अपने चित्त को ब्रह्म-चिन्तन के योग्य बनाता हुआ ब्रह्मचर्य, ॐ अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह का निष्कामभाव से सेवन करे। {870} त्रैवर्गिकांस्त्यजेत्सर्वानारम्भानवनीपते । मित्रादिषु समो मैत्रस्समस्तेष्वेव जन्तुषु॥ (वि.पु. 3/9/26) भिक्षु के लिए उचित है कि वह अर्थ, धर्म और काम रूप त्रिवर्ग सम्बन्धी समस्त कर्मों को छोड़ दे, शत्रु-मित्रादि में समान भाव रखे और सभी जीवों का सुहृद् हो। NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEN अहिंसा कोश/247] Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥%%%%%%%%%% {871} सर्वं ब्रह्ममयं पश्येत्स संन्यासीति कीर्तितः। सर्वत्र समबुद्धिश्च हिंसामायाविवर्जितः॥ क्रोधाहंकाररहितः स संन्यासीति कीर्तितः। (ब्र.वै.पु. 2/36/123-124) सब को ब्रह्ममय देखे, उसे 'संन्यासी' कहते हैं। सर्वत्र समान बुद्धि रखने वाला, F हिंसा व माया से रहित तथा क्रोध व अहंकार से शून्य हो, उसे 'संन्यासी' कहा जाता है। {872} सर्वभूतहितो मैत्रः समलोष्टाश्मकाञ्चनः। ध्यानयोगरतो नित्यं भिक्षुर्याति परां गतिम्। (शं. स्मृ. 7/8) संन्यासाश्रमी यति प्राणी-मात्र से प्रेम करे और सुवर्ण तथा मिट्टी के ढेले को समान भाव से देखे। सदा ध्यान-योग में संलग्न रहने वाला ही यति परमगति को प्राप्त होता है। 明明听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听垢听听听听听听听提 {873} जरायुजाण्डजादीनां वांग्मनःकायकर्मभिः। युक्तः कुर्वीत न द्रोहं सर्वसङ्गांश्च वर्जयेत्॥ (वि.पु. 3/9/27) भिक्षु को चाहिए कि वह निरन्तर योग-निष्ठ रहकर जरायुज, अण्डज और स्वेदज आदि समस्त जीवों से मन, वाणी अथवा कर्म द्वारा कभी द्रोह न करे तथा सब प्रकार की म आसक्तियों को त्याग दे। {874} तृप्तकेशनखश्मश्रुः पात्री दण्डी कुसुम्भवान्। विचरेन्नियतो नित्यं सर्वभूतान्यपीडयन्॥ (म.स्मृ.-6/52) बाल, नाखून और दाढ़ी-मूंछ कटवा कर (बिल्कुल मुण्डन कराकर), भिक्षापात्र (मिट्टी का सकोरा आदि), दण्ड तथा कमण्डलु को लिये हुए सभी (किसी भी) प्राणियों 卐 को पीड़ित न करते हुए (संन्यासी) सर्वदा विचरण करे। 明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明那 वैदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/248 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 明明明明明明明明明明明明明明明明明明男男男男男男男男男男男男男男 {875} प्राणिहिंसानिवृत्तश्च मौनी स्यात् सर्वनिःस्पृहः। (प.पु. 3/59/19) भिक्षु/संन्यासी को चाहिए कि वह प्राणियों की हिंसा से सर्वथा निवृत्त रहे, मौन रखे और सभी में नि:स्पृह रहे। {876} नाश्रमः कारणं धर्मे क्रियमाणो भवेद्धि सः। अतो यदात्मनोऽपथ्यं परेषां न तदाचरेत्॥ (या. स्मृ., 3/4/65) (आत्मोपासन रूप) धर्म (के आचरण) में आश्रम (का प्रतीक दण्ड-कमण्डलु ॐ आदि) कारण नहीं है, अपितु वह धर्म करने (आचरण) से होता है। इसलिये जो अपने लिये अपथ्य (अहितकारी) है, उसे दूसरे के लिये नहीं करना चाहिये। {877} अहिंसयेन्द्रियास वैदिकैश्चैव कर्मभिः। तपसश्चरणैश्चोग्रैः साधयन्तीह तत्पदम्॥ (म.स्मृ.-6/75) अहिंसा, विषयों की अनासक्ति, वेदप्रतिपादित कर्म और कठिन तपश्चरणों से (संन्यासी) इस लोक में उस पद (ब्रह्मपद) को साध लेते हैं ( इन कर्मों के आचरण से ब्रह्म-प्राप्ति की योग्यता प्राप्त कर लेते हैं)। 18781 संरक्षणार्थं जन्तूनां रात्रावहनि वा सदा। शरीरस्यात्यये चैव समीक्ष्य वसुधां चरेत्॥ (म.स्मृ.-6/68) (संन्यासी)शरीर के पीड़ित होने पर भी, रात में या दिन में, सब जीवों की रक्षा के लिए सर्वदा भूमि को देखकर चले। 第一场骗骗骗骗骗骗骗骗明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明一 अहिंसा कोश/249] Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा और अध्यात्म-साधना [मनुष्यत्व-देवत्व-परमात्मपद-इन क्रमिक सोपानों पर अग्रसर होने हेतु अनेक साधनाएं हैं। गीता का कर्मयोग हो या योगसूत्र की योग-साधना, अनासक्ति का ज्ञान-मार्ग हो या कठोर तपश्चर्या, सभी में अहिंसा'को जीवन में प्रतिष्ठित किये बिना लक्ष्य-सिद्धि नहीं हो पाती। इसी विषय-वस्तु को प्रतिबिम्बित करने वाले कुछ शास्त्रीय वचन यहां प्रस्तुत हैं-] {879) आनृशंस्यं क्षमा सत्यमहिंसा च दमः स्पृहा। ध्यानं प्रसादो माधुर्यं चार्जवं च यमा दश॥ __ (वि. ध. पु. 3/233/203) (1)आनृशंस्य (दया/कोमलता), (2)क्षमा, (3) सत्य (4) अहिंसा, (5) दमक (इन्द्रिय-निग्रह), (6) (मोक्ष की) स्पृहा, (7) ध्यान, (8) प्रसाद (प्रसन्नता), (9) मधुरता तथा (10) ऋजुता-सरलता- ये दस 'यम' हैं। ¥¥¥乐乐编织乐娱乐垢玩垢听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听垢垢提 {880 अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यापरिग्रहौ। यमाः संक्षेपतः प्रोक्ताश्चित्तशुद्धिप्रदा नृणाम्॥ (कू.पु. 2/11/13) __ अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह-ये पांच 'यम' हैं, जो योग-साधना के प्राथमिक आधार हैं और (मुमुक्षु) लोगों के लिए चित्त-शुद्धि के उपाय/साधन हैं। {881} ब्रह्मचर्यमहिंसां च सत्यास्तेयापरिग्रहान्। सेवेत योगी निष्कामः योगितां स्वमनोनयन्॥ (ना. पु. 1/47/12) योग-साधक को चाहिए कि वह निष्काम रूप से योग-साधना को अंगीकार करते * हुए ब्रह्मचर्य, अहिंसा, सत्य, अचौर्य व अपरिग्रह- इनका आश्रयण ले। NEEEEEEEEEEEEEEEEEEE [वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/250 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % %% %% %%%%%%%%% % %%%%% % %%%%%% {882} अस्तेयं ब्रह्मचर्यश्च त्यागोऽलोभस्तथैव च। व्रतानि पञ्च भिक्षूणामहिंसापरमाणि वै॥ (मा.पु. 41/16) योगियों के ये पांच व्रत हैं-(1) अस्तेय, (2) ब्रह्मचर्य, (3) त्याग, (4) अलोभ तथा अन्तिम (5) अहिंसा। {883} अ 8455555555555555555555555555555555 तत्र अहिंसा सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानाम् अनभिद्रोहः। उत्तरे च यम# नियमाःतन्मूलाः,तत्सिद्धिपरतयैव तत्प्रतिपादनाय प्रतिपाद्यन्ते, तदवदातरूपकरणाय उपादीयन्ते। तथा चोक्तम्-स खलु अयं ब्राह्मणो यथा यथा व्रतानि बहूनि ई समादित्सते,तथा तथा प्रमादकृतेभ्यो हिंसा-निदानेभ्यो निवर्तमानः,तामेव अवदातरूपामहिंसां करोति। (यो.सू. 2/30 पर व्यास-भाष्य) पांच यमों मे पहला 'यम' अहिंसा है, जिसका अर्थ है- समस्त प्राणियों के प्रति * द्रोह (दुर्भाव)का त्याग। उत्तरवर्ती यमों व नियमों (सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह-ये + चारों यम, और शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर-प्राणिधान-ये पांचों नियम) का मूल # 'अहिंसा' ही है। चूंकि अहिंसा की सिद्धि होने पर ही सत्यादि की सिद्धि/सफलता सम्भव * होती है, इसलिए 'अहिंसा' के स्पष्ट प्रतिपादन के लिए ही उनका प्रतिपादन/निरूपण किया है जाता है। कहा भी है- "यह ब्राह्मण जैसे-जैसे बहुत -से व्रतों को धारण करता जाता है, वैसे-वैसे प्रमादकृत हिंसा-हेतुओं से निवृत्त होता हुआ, उसी अहिंसा को और भी अधिकाधिक निर्मल बनाता जाता है।" %¥¥¥¥¥¥¥巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩%%%%%%%巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩 {884} ब्रह्मचर्यं दया क्षान्तिानं सत्यमकल्कता। अहिंसाऽस्तेयमाधुर्य्यदमाश्चैते यमाः स्मृताः॥ (ग.पु. 1/105/56) ब्रह्मचर्य, दया, क्षमा, ध्यान, सत्य, अकल्कता (शुद्धता), अहिंसा, अस्तेय, मधुरता, दम (इन्द्रिय-जय)-ये 'यम' हैं। - अहिंसा कोश/251] Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NXXXEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEma {885} अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यापरिग्रहौ। अक्रोधश्चानसूया च प्रोक्ताः संक्षेपतो यमाः॥ (ना. पु. 1/33/75) अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, क्रोध न करना (अर्थात् क्षमा भाव), परदोष दर्शन में प्रवृत्ति न रखना- ये संक्षेप से 'यम' कहे गए हैं। {886} अहिंसा-सत्यास्तेय-ब्रह्मच-परिग्रहा यमाः॥ (यो.सू. 2/30) ___ अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह -ये पांच 'यम' (योग साधना के प्राथमिक अंग) हैं। {887} अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यापरिग्रहौ । यमाश्च-------------------॥ (अ.पु. 161/19-20, 372/2, + 382/31; ग.पु. 1/218/12) 'यम' पाँच हैं-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। {888} आस्ते यम उप याति देवान्। (अ.4/34/3) जो (अहिंसा, सत्य,अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप) यमों में रहता है, वह देवत्व को प्राप्त होता है। . {889} अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यं दयाऽऽर्जवम्। क्षमा धृतिर्मिताहारः शौचं चेति यमा दश॥ (दे. भा. 7/35/6) अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, दया, ऋजुता (सरलता), क्षमा, धैर्य, परिमित9 भोजन, शौच (शुद्धि)- ये दस 'यम' हैं। 明明明明明弱勇勇馬頭明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明 [वैदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/252 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE अहिंसाः क्रियायोग व ज्ञानयोग में {890) अहिंसा सत्यमक्रोधो ब्रह्मचर्यापरिग्रहौ। अनीता॑ च दया चैव योगयोरुभयोः समाः॥ __ (ना. पु. 1/33/35) * अहिंसा, सत्य, क्रोध न करना (अर्थात् क्षमा), ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, ईर्ष्या न करना, दया- ये (क्रियायोग व ज्ञानयोग- इन) दोनों योग-साधनाओं में समान रूप से पालनीय हैं। }巩巩巩%%%听听听听听听听听听听听听听听听听听听妖妖听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听乐 {891} कर्मणा मनसा वाचा सर्वलोकहिते रतः। समर्चयति देवेशं क्रियायोगः स उच्यते॥ (ना. पु. 1/33/42) . मन, वचन व कर्म से सभी लोगों के हित-साधन में प्रवृत्त रहते हुए ईश्वर की आराधना-अर्चना करना- यह 'क्रियायोग' कहा जाता है। 9與瑞¥¥¥¥¥%%%%圳乐乐乐娱乐垢玩垢玩垢玩垢玩垢纸此與圳¥¥¥¥與圳¥¥¥¥¥¥¥¥ अहिंसाः और ध्यान-यज्ञ {892} ध्यानयज्ञः परः शुद्धः सर्वदोषविवर्जितः। तेनेष्ट्वा मुक्तिमाजोति बाह्यशुद्धैश्च नाध्वरैः॥ (अपु. 374/13-14) हिंसादोषविमुक्तित्वाद्विशुद्धिश्चित्तसाधनः॥ ध्यानयज्ञः परस्तस्मादपवर्गफलप्रदः। (अ.पु. 374/14-15) ध्यानयज्ञ अत्यन्त शुद्ध और सभी दोषों से रहित है। इसलिए ध्यानयज्ञ से ही मोक्ष प्राप्त होता है, (केवल) बाह्य शुद्ध यज्ञों से नहीं। हिंसा और दोष से विमुक्त होने के बाद जो चित्त की विशुद्धि होती है, उस के बाद ही 'ध्यान यज्ञ' पूर्ण होता है जो मोक्ष-फल को देने वाला है। EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEN अहिंसा कोश/253] Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEms अहिंसाः ब्रह्मरूपता की प्राप्ति का साधन {893} आनृशंस्यं क्षमा शान्तिरहिंसा सत्यमार्जवम्। अद्रोहोऽनभिमानश्च हीस्तितिक्षा शमस्तथा॥ पन्थानो ब्रह्मणस्त्वेते एतैः प्राप्नोति यत्परम्। तद् विद्वाननुबुद्ध्येत मनसा कमंनिश्चयम्॥ (म.भा. 12/270/39-40) समस्त प्राणियों पर दया, क्षमा, शान्ति, अहिंसा, सत्य, सरलता, अद्रोह, निरभिमानता, ॐ लज्जा, तितिक्षा और शम-ये परब्रह्म की प्राप्ति के मार्ग हैं। इनसे व्यक्ति पर-ब्रह्म को पा लेता है है। इस प्रकार विद्वान को मन के द्वारा कर्म के वास्तविक परिणाम का निश्चय करना चाहिये। {894 與妮妮弗埃听听听听听听听听听听听垢听听听听听听听听听听听听听听听听听垢%¥¥¥¥听听听听听听听听 यदाऽसौ सर्वभूतानां न द्रुह्यति न काङ्क्षति। कर्मणा मनसा वाचा ब्रह्म सम्पद्यते तदा॥ (म.भा. 12/21/5) जब (कोई रागादि-विजयी) व्यक्ति मन, वाणी और क्रिया द्वारा सम्पूर्ण प्राणियों में # किसी के साथ न तो द्रोह करता है और न किसी की अभिलाषा ही रखता है, तब वह परब्रह्म है। परमात्मा के स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। {895} अहिंसापाश्रयं धर्मं यः साधयति वै नरः॥ त्रीन् दोषान् सर्वभूतेषु निधाय पुरुषः सदा। कामक्रोधौ च संयम्य ततः सिद्धिमवाप्नुते॥ (म.भा. 13/113/3-4) (बृहस्पति का युधिष्ठिर को उत्तर-) जो मनुष्य अहिंसायुक्त धर्म का पालन करता है, वह अन्य समस्त प्राणियों के प्रति व्यवहार में मोह, मद और मत्सरतारूप तीनों दोषों को (दूर) रख कर एवं सदा काम-क्रोध का संयम/निग्रह करके सिद्धि को प्राप्त हो जाता है। %%%%%%%% %%%% % %%%%%男男 % %%%%%%% विदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/254 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAHEENAEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEng 1896} अहिंसा वैदिकं कर्म ध्यानमिन्द्रियसंयमः। तपोऽथ गुरुशुश्रूषा किं श्रेयः पुरुष प्रति॥ _ (म.भा. 13/113/1) (युधिष्ठिर का बृहस्पति से प्रश्न-)अहिंसा, वेदोक्त कर्म, ध्यान, इन्द्रिय-संयम, तपस्या है * और गुरुशुश्रूषा-इन में से कौन-सा कर्म मनुष्य का (विशेष) कल्याण कर सकता है? {897} वीतरागा विमुच्यन्ते पुरुषाः कर्मबन्धनैः। कर्मणा मनसा वाचा ये न हिंसन्ति किंचन॥ . (म.भा. 13/144/7) मन, वाणी और क्रिया द्वारा किसी की हिंसा नहीं करने वाले वीतराग (राग आदि मनोविकारों से रहित) पुरुष ही कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाते हैं। {898} प्राणातिपाताद् विरताः शीलवन्तो दयान्विताः॥ तुल्यद्वेष्यप्रिया दान्ता मुच्यन्ते कर्मबन्धनैः। (म.भा. 13/144/8-9) जो किसी के भी प्राणों की हत्या से दूर रहते हैं तथा जो सुशील और दयालु हैं,वे कर्मों के बन्धनों में नहीं पड़ते। जिनके लिये शत्रु और प्रिय मित्र दोनों समान हैं, वे जितेन्द्रिय ॐ पुरुष ही कर्मों के बन्धन से मुक्त होते हैं। अभयदाता एवं प्राणि-मित्रः ब्रह्मलोक का अधिकारी {899) अभयं सर्वभूतेभ्यो दत्त्वा नैष्कर्म्यमाचरेत्। सर्वभूतसुखो मैत्रः सर्वेन्द्रिययतो मुनिः॥ (म.भा.13/अनुगीता पर्व/46/18) (वानप्रस्थ की अवधि पूरी करके) सम्पूर्ण भूतों को अभय-दान देकर कर्मम त्यागरूप संन्यास-धर्म का पालन करे। सब प्राणियों के सुख में सुख माने। सब के साथ # मित्रता रखे। समस्त इन्द्रियों का संयम और मुनि-वृत्ति का पालन करे। NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEN अहिंसा कोश/255] Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MINSEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEng {900} यो दत्त्वा सर्वभूतेभ्यः प्रव्रजत्यभयं गृहात्। तस्य तेजोमया लोका भवन्ति ब्रह्मवादिनः॥ (म.स्मृ.-6/39) जो सब (स्थावर तथा जङ्गम) प्राणियों के लिये अभय देकर गृह से संन्यास ले म लेता है, उस ब्रह्मज्ञानी के तेजोमय लोक (ब्रह्मलोक आदि) होते हैं अर्थात् वह उन लोकों 卐 को प्राप्त करता है। {901} न बिभेति यदा चायं यदा चास्मान बिभ्यति। कामद्वेषौ च जयति तदाऽऽत्मानं च पश्यति॥ (म.भा.12/21/4) जब मनुष्य किसी से भयभीत नहीं होता और उससे भी जब कोई प्राणी भयभीत # नहीं होता, तब काम व द्वेष का विजेता वह व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार कर लेता है। 呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {902 9%%%%听听听听听听听听听¥¥¥¥¥¥¥听听听听听听听听听听听听乐乐明明明明明明明斯系 अभयं सर्वभूतेभ्यो दत्वा यश्चरते मुनिः। न तस्य सर्वभूतेभ्यो भयमुत्पद्यते क्वचित्॥ (म.भा. 12/192/4; ना. पु. 1/43/125) जो मुनि (संन्यासी) सब प्राणियों को अभय-दान देकर विचरता है, उसको भी सभी प्राणियों की ओर से कहीं भी भय प्राप्त नहीं होता। {9031 परिव्राजकः सर्वभूताभयदक्षिणां दत्वा प्रतिष्ठे अथाप्युदाहरन्तिःअभयं सर्वभूतेभ्यो दत्वा चरति यो मुनिः । तस्यापि सर्वभूतेभ्यो न भयं. जातु विद्यते। (व. स्मृ., 244-246) परिव्राजक समस्त प्राणियों को अभयदान की दक्षिणा देकर प्रतिष्ठित होता है। कहा + भी गया हैं:-जो मननशील मुनि समस्त प्राणियों को अभय देकर विचरण करता है, उसको ॐ भी समस्त प्राणियों से कभी किसी प्रकार भय नहीं होता है। NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEENA वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/256 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 他明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明男%%%% {904} अभयं सर्वभूतेभ्यो यो ददाति महीपते। स गच्छति परं स्थानं विष्णोः पदमनामयम्॥ (म.भा. 11/7/25) जो सम्पूर्ण प्राणियों को अभयदान देता है, वह भगवान् विष्णु (परामात्मा)के अविनाशी परमधाम में चला जाता है। {905} यस्मादण्वपि भूतानां द्विजान्नोत्पद्यते भयम्। तस्य देहाद्विमुक्तस्य भयं नास्ति कुतश्चन॥ (म.स्मृ.-6/40) जिस द्विज से जीवों को लेशमात्र भी भय नहीं होता, शरीर से विमुक्त (मरे) हुए उस द्विज को (परलोक आदि में) कहीं से भी भय नहीं होता (अर्थात् वह सर्वदा के लिये निर्भय # हो जाता है)। 七FFFF垢垢折折纸折纸垢听听听听听听坎坎坎折纸圳到與明明媚垢玩垢听听听听听听垢垢玩垢玩垢玩垢垢 {906} दानं हि भूताभयदक्षिणायाः सर्वाणि दानान्यधितिष्ठतीह। तीक्ष्णां तनुं यः प्रथमं जहाति सोऽनन्त्यमाप्नोत्यभयं प्रजाभ्यः॥ (म.भा. 12/245/26) इस जगत् में जीवों को अभय की दक्षिणा देना सब दानों से बढ़कर है। जो पहले भ से ही हिंसा का त्याग कर देता है, वह सब प्राणियों से निर्भय होकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है। {907} अभयं सर्वभूतेभ्यो दत्त्वा यः प्रव्रजेद् द्विजः। लोकास्तेजोमयास्तस्य प्रेत्य चानन्त्यमश्नुते।। (म.भा.12/244/28) जो ब्राह्मण सम्पूर्ण प्राणियों को अभयदान देकर संन्यासी हो जाता है, वह मरने के पश्चात् तेजोमय लोक में जाता है और अन्त में मोक्ष प्राप्त कर लेता है। % %%%% %%%% % % %%% %%% %%%%% %% %% %% % % अहिंसा कोश/257] Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEthe {908} छित्त्वाऽधर्ममयं पाशं यदा धर्मेऽभिरण्यते। दत्त्वाऽभयकृतं दानं तदा सिद्धिमवाप्नुते॥ (म.भा.12/298/4) जो मनुष्य जब अधर्ममय बन्धन का उच्छेद करके धर्म से अनुरक्त हो जाता और 5 सम्पूर्ण प्राणियों को अभयदान कर देता है, उसे उसी समय उत्तम सिद्धि प्राप्त होती है। {909} अभयं वै ब्रह्म। (बृहदा. 4/4/25) अभय ही ब्रह्म है-अर्थात् अभय हो जाना ही ब्रह्मपद पाना है। 19103 योऽभयः सर्वभूतानां स प्राप्नोत्यभयं पदम्।। (म.भा.12/262/17) जो अभय प्रदान करता है, वही निर्भय पद को प्राप्त होता है। REEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEER विदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/258 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEL (7) अहिँया और यज्ञीय विधान [अहिंसाप्रधान भारतीय संस्कृति में 'यज्ञ' के अनुष्ठान को महनीय स्थान प्राप्त है। पश-हिंसा यज्ञीय विधान का अंग हो ही नहीं सकती। 'अज्ञान' या अज्ञान-जनित भ्रांति के कारण 'पश-हिंसा'को कालान्तर में है यज्ञीय विधान से जोड़ने का प्रयास हुआ, किन्तु वह पूर्णतया निष्फल हुआ।जिन्होंने उक्त प्रयास किया, उनकी अधोगति हुई। यज्ञ हो या श्राद्ध आदि पित-यज्ञ हो, जीव-हिंसा सर्वतोभावेन वर्जित है, इसी प्रकार मांस-भक्षण या मांस-दान आदि भी वर्जित हैं। इसी तथ्य के पोषक कुछ विशिष्ट शास्त्रीय वचन यहां प्रस्तुत हैं-] 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听乐垢妮妮妮妮妮妮妮妮與F यज्ञ में जीव-हिंसा शास्त्र-सम्मत नहीं {911) श्रूयते हि पुरा कल्पे नृणां व्रीहिमयः पशुः। येनायजन्त यज्वानः पुण्यलोकपरायणाः॥ ऋषिभिः संशयं पृष्टो वसुश्चेदिपतिः पुरा। अभक्ष्यमपि मांसं यः प्राह भक्ष्यमिति प्रभो॥ आकाशादवनिं प्राप्तस्ततः स पृथिवीपतिः। एतदेव पुनश्चोक्त्वा विवेश धरणीतलम्॥ __(म.भा. 13/115/49-51) सुना है, पूर्वकल्प में मनुष्यों के यज्ञ में पुरोडाश आदि के रूप में अन्नमय पशु का ॥ ही उपयोग होता था। पुण्यलोक की प्राप्ति के साधनों में लगे रहने वाले याज्ञिक पुरुष उस + अन्न के द्वारा ही यज्ञ करते थे। प्राचीन काल में ऋषियों ने चेदिराज वसु से अपना संदेह पूछा # था। उस समय वसु ने मांस को भी, जो सर्वथा अभक्ष्य है, भक्ष्य बता दिया था। उस समय आकाशचारी राजा वसु अनुचित निर्णय देने के कारण आकाश से पृथ्वी पर गिर पड़े थे। बाद में पृथ्वी पर भी फिर यही निर्णय देने के कारण वे पाताल में समा गये थे। {912} नवधः पूज्यते वेदे, हितं नैव कथंचन॥ (म.भा. 6/3/54) वेद में हिंसा की प्रशंसा नहीं की गई है। हिंसा से किसी प्रकार का हित/ कल्याण भी नहीं हो सकता। पEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEENA अहिंसा कोश/259] Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {913} ये त्विह वै पुरुषमेधेन पुरुषाः यजन्ते याच स्त्रियो नृपशूखादन्ति, तांश्च ते ॐ पशव इव निहता यमसदने यातयन्तो रक्षोगणाः सौनिका इव स्वधितिनावदायासृक् ॐ पिबन्ति नृत्यन्ति च गायन्ति च हृष्यमाणा यथेह पुरुषादाः।येत्विह वा अनागसोऽरण्ये ग्रामे वा वैश्रम्भकैरुपसृतानुपविश्रम्भय्य जिजीविशूछूलसूत्रादिषूपप्रोतान्क्रीडनकतया ॥ यातयन्ति तेऽपिच प्रेत्य यमयातनासु शूलादिषु प्रोतात्मानः क्षुतृड्भ्यां चाभिहताः कङ्कवटादिभिश्चेतस्ततस्तिग्मतुण्डैराहन्यमाना आत्मशमलं स्मरन्ति॥ (भा.पु. 5/26/31-32) इस लोक में जो पुरुष नरमेधादि यज्ञ के द्वारा यजन करते तथा जो स्त्रियां पुरुषपशुओं को खाती हैं, उन्हें पशु के समान वे मारे हुए पुरुष यमलोक में राक्षस बन कर विविध प्रकार # यातनाएं देते हैं और व्याधों की तरह अपने शस्त्रों से काट-काटकर उनका लोहू पीते हैं। जैसे वे मनुष्यभोजी पुरुष इस लोक में उसका मांस खा कर आनन्दित होते थे, वैसे ही वे रक्त # पीते और आनन्दित होकर नाचते-गाते हैं। जो पुरुष इस लोक में वन या गांव के निरपराध . जीवों को, जो अपने प्राणों की रक्षा चाहते हैं, अनेक उपायों से विश्वास दिला तथा अपने ॐ पास आने पर धोखे से पकड़ कर कांटे या सूत्रादि में पिरो कर खेल करते हुए सताते हैं, वे भी मरने पर यमयातनाओं के समय शूल से बींधे जाते हैं। तब भूख-प्यास से व्याकुल तथा : कंक, वट आदि तीखी चोंच के पक्षियों द्वारा नोचे जाने पर, वे अपने पुराने पापों का स्मरण करते हैं। {914} ते मे मंतमविज्ञाय परोक्षं विषयात्मकाः। हिंसायां यदि रागः स्याद्यज्ञ एव न चोदना॥ हिंसाविहारा ह्यालब्धैः पशुभिः स्वसुखेच्छया। यजन्ते देवता यज्ञैः पितृभूतपतीन्खलाः॥ (भा.पु. 11/21/29-30) __ (श्रीकृष्ण का उद्धव को कथन-) विषय-आसक्त व्यक्ति मेरे गूढ़ अभिप्राय को ॐ नहीं जानते कि वेदों में हिंसा की प्रेरणा नहीं की गयी है, बल्कि यदि किसी की हिंसा में विशेष प्रवृत्ति हो तो वह यज्ञ में केवल पशु-आलभन (स्पर्शमात्र) भर करे, हिंसा न करेहै ऐसा नियम किया गया है। हिंसा में रत वे दुष्ट अपने सुख की इच्छा से पशुओं की बलि देकर, देवता, पितर तथा भूतपतियों का यज्ञों द्वारा यजन किया करते हैं। [वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/260 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE.mx {915} यद् घ्राणभक्षो विहितः सुरायास्तथा पशोरालभनं न हिंसा। एवं व्यवायः प्रजया न रत्या इमं विशुद्धं न विदुः स्वधर्मम्॥ ये त्वनेवंविदोऽसन्तः स्तब्धा सदभिमानिनः। पशून्दुह्यन्ति विस्रब्धाः प्रेत्य खादन्ति ते च तान्॥ (भा.पु. 11/5/13-14) सौत्रामणि यज्ञ में मद्य का केवल सूंघना ही विहित माना गया है, पीना नहीं। यज्ञादि 3 में पशु के केवल आलभन अर्थात् स्पर्श करने का विधान है, हिंसा करने का नहीं। और 4 केवल सन्तानोत्पत्ति के लिये ही स्त्री-प्रसंग में प्रवृत्त होने को कहा गया है, विषय-सुख के लिए नहीं। इस विशुद्ध धर्म को वे मूर्ख लोग नहीं जान पाते । इस तात्पर्य को भली भांति न * जानने वाले तथा अत्यन्त गर्वीले और अपने में श्रेष्ठपन का अभिमान रखने वाले जो प्राणी हैं तथा जो किसी लाभ पर विश्वास करके पशुओं से द्रोह किया करते हैं, उनके द्वारा मारे हुए ॐ पशु मर कर उन्हीं को खा जाते हैं। ___{916} सर्वकर्मष्वहिंसा हि धर्मात्मा मनुरब्रवीत्। कामकाराद् विहिंसन्ति बहिर्वेद्यां पशून्नराः॥ (म.भा. 12/265/5) धर्मात्मा मनु ने सभी (धार्मिक) कार्यों में अहिंसा का ही प्रतिपादन किया है। यज्ञ है की वेदी पर पशुओं का जो बलि-दान किया जाता है, वह लोगों की मनमानी/स्वच्छन्दता के # कारण ही होता है। {917} एतेऽपि ये याज्ञिका यज्ञकर्मणि पशून् व्यापादयन्ति, ते मूर्खाः परमार्थं श्रुतेः न # जानन्ति। तत्र किल एतदुक्तम्-'अजैःयष्टव्यम्',अजा-व्रीहयः तावत् सप्तवार्षिकाः कथ्यन्तेः, पुनः पशुविशेषाः। (पं.त. 3/106 के बाद गद्य) जो वैदिक लोग यज्ञ कर्मों में पशुओं को मारते हैं वे अत्यन्त मूर्ख हैं, क्योंकि वे * श्रुति का वास्तविक अर्थ नहीं समझते। श्रुति में वहां केवल यह कहा गया है कि 'अजों से + यज्ञ करना चाहिए'। (वस्तुतः) सात वर्ष के पुराने यव 'अज' कहलाते हैं न कि 'पशु-ई विशेष' छाग। EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEES अहिंसा कोश/261] 與與與與與¥¥¥¥¥¥呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢班纸呢呢呢呢呢呢呢听听听听听听听听听听听明 职%%%%%呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢听听听听听听听 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 出 {918} यज्ञियाश्चैव ये वृक्षा वेदेषु परिकल्पिताः ॥ यच्चापि किंचित् कर्तव्यमन्यच्चोक्षैः सुसंस्कृतम् ॥ महासत्त्वैः शुद्धभावैः सर्वं देवार्हमेव तत् ॥ ( म.भा. 12/265/11-12 ) वेदों में जो यज्ञ-सम्बन्धी वृक्ष बताये गये हैं, उन्हीं का यज्ञों में उपयोग होना चाहिये। शुद्ध आचार-विचार वाले महान् सत्त्वगुणी पुरुष अपनी विशुद्ध भावना से प्रोक्षण आदि के द्वारा उत्तम संस्कार करके जो कोई भी हविष्य या नैवेद्य तैयार करते हैं, वही सब देवताओं को अर्पण करने के योग्य होता है । {919} शरीरवृत्तमास्थाय इत्येषा श्रूयते श्रुतिः । नातिसम्यक् प्रणीतानि ब्राह्मणानां महात्मनाम् ॥ (म.भा. 12/79/16) शरीर - निर्वाह मात्र के लिये धन प्राप्त करके यज्ञ में प्रवृत्त हुए महामनस्वी ब्राह्मणों द्वारा जो यज्ञ सम्पादित होते हैं, वे भी यदि हिंसा आदि दोषों से युक्त हों तो उत्तम फल नहीं देते हैं, ऐसे 'श्रुति' (वेद) का सिद्धान्त सुनने में आता है। 出。 (प.पु. 1/13/323 पं.त. 3/107 में आंशिक परिवर्तन के साथ) पशु की हत्या कर और खून का कीचड़ बहा कर यज्ञ किया जाय और उससे स्वर्ग-प्राप्ति होती हो तो फिर नरक किसको मिलेगा? {920} यज्ञं कृत्वा पशुं हत्वा कृत्वा रुधिरकर्दमम् । यद्येवं गम्यते स्वर्गो नरकः केन गम्यते ॥ [वैदिक / ब्राह्मण संस्कृति खण्ड / 262 {921} ( म.भा. 13/115/43 ) मांसल भी मूर्ख एवं अधम मनुष्य यज्ञ-याग आदि वैदिक मार्गों के नाम पर प्राणियों की हिंसा करता है, वह नरकगामी होता है। इज्यायज्ञ श्रुतिकृतैर्यो मार्गैबुधोऽधमः । हन्याज्जन्तून् मांसगृधुः स वै नरकभाग् नरः ॥ 鼻 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男明宪宪宪宪宪 {922} यद्यधर्मरतः सङ्गादसतां वाऽजितेन्द्रियः। कामात्मा कृपणो लुब्धः स्त्रैणो भूतविहिंसकः॥ पशूनविधिनाऽऽलभ्य प्रेतभूतगणान्यजन्। नरकानवशो जन्तुर्गत्वा यात्युल्बणं तमः॥ ___ (भा.पु. 11/10/27-28) जीव अधम पुरुषों के संग में पड़कर अधर्मरत, अजितेन्द्रिय, स्वेच्छाचारी, कृपण, * लोभी, स्त्रैण (स्त्री-सदृश स्वभाव वाला) तथा प्राणिहिंसक होकर बिना विधि के ही पशुओं का वध करके भूतप्रेत आदि को बलि देता है, तो वह अवश्य परवश होकर नरक में जाता ॐ है और अन्त में घोर अन्धकार अर्थात् अज्ञान में जा पड़ता है। ___{923} ते तु तद् ब्रह्मणः स्थानं प्राप्नुवन्तीह सात्त्विकाः। नैव ते स्वर्गमिच्छन्ति न यजन्ति यशोधनैः॥ . सतां वानुवर्तन्ते यजन्ते चाविहिंसया। वनस्पतीनोषधीश्च फलं मूलं च ते विदुः॥ न चैतानृत्विजो लुब्धा याजयन्ति फलार्थिनः। ___ (म.भा.12/263/25-27) सात्त्विक महापुरुष उस ब्रह्मधाम को प्राप्त होते हैं, उन्हें स्वर्ग की इच्छा नहीं होती, # वे यश और धन के लिये यज्ञ नहीं करते, सत्पुरुषों के मार्ग पर चलते और हिंसा-रहित यज्ञों + का अनुष्ठान करते हैं। वनस्पति, अन्न और फल-मूल को ही वे हविष्य मानते हैं, धन की ॐ इच्छा रखने वाले लोभी ऋत्विज ही इनसे यज्ञ नहीं कराते हैं। {924} वेदधर्मेषु हिंसा स्याद् अधर्मबहुला हि सा। कथं मुक्तिप्रदो धर्मो वेदोक्तो बत भूपते॥ (दे. भा. 1/18/49) (श्री शुकदेव जी का जनक जी से प्रश्न-) हे राजन्! वैदिक धर्म में (कहीं-कहीं) ॐ अधर्म-बहुल (यज्ञीय) हिंसा का विधान बताया गया है, ऐसी स्थिति में उक्त धर्म मुक्तिप्रद कैसे हो सकता है? 另%%%%%%%%%%%%%%% %%%%%%%%%、 अहिंसा कोश/263] Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SEE EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEme {925} अहिंसां च तथा विद्धि वेदोक्तां मुनिसत्तम। रागिणां साऽपि हिंसैव निःस्पृहाणां न सा मता॥ (दे. भा. 1/18/59) (जनक जी का श्री शुकदेव जी को उत्तर-) मुनिवर्य! वेद में अहिंसा का ही कथन है। वस्तुतः हिंसा राग आदि से युक्त लोगों द्वारा ही अनुष्ठित होती है, निःस्पृह. (वीतराग) व्यक्तियों द्वारा 'हिंसा' मान्य नहीं की जाती। 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听呢呢呢呢呢呢呢呢坎坎坎坎坎垢玩垢听听 {926} इदं कृतयुगं नाम कालः श्रेष्ठः प्रवर्तितः। अहिंस्या यज्ञपशवो युगेऽस्मिन् न तदन्यथा॥ चतुष्पात् सकलो धर्मो भविष्यत्यत्र वै सुराः। ततस्त्रेतायुगं नाम यी यत्र भविष्यति॥ प्रोक्षिता यत्र पशवो वधं प्राप्स्यन्ति वै मखे। यत्र पादश्चतुर्थो वै धर्मस्य न भविष्यति॥ (म.भा. 12/340/82-84) यह सत्ययुग नामक श्रेष्ठ समय चल रहा है। इस युग में यज्ञ-पशुओं की हिंसा नहीं की जाती।अहिंसा-धर्म के विपरीत यहां कुछ भी नहीं होता है। इस सत्ययुग में चारों चरणों # से युक्त सम्पूर्ण धर्म का पालन होगा। तदनन्तर त्रेतायुग आयेगा, जिसमें वेदत्रयी का प्रचार # होगा। उस युग में यज्ञ में मन्त्रों द्वारा पवित्र किये गये पशुओं का वध किया जाने लगेगा और धर्म का एक पाद (चतुर्थ अंश) कम हो जायेगा। 明明明明明明明明明明明明明明明明明男男男男男男男男男男男男男男男男男男 वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/264 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ <男男男男男男男男男男男男男%%%%%%%%% %%% %%% % % % % अहिंसक यज्ञ की समर्थक विविध कथाएं (राजा वसु का उपाख्यान) [शास्त्रों में (राजा वसु से सम्बन्धित) कुछ ऐतिहासिक/प्राचीन कथानक प्राप्त हैं, जिनसे यह प्रमाणित होता है कि अज्ञान व स्वार्थ-साधन की प्रवृत्ति के कारण यज्ञ की अहिंसकता को दुष्प्रभावित करने का निष्फल प्रयास हुआ और उक्त प्रयास करने वालों की अधोगति हुई। महाभारत व पुराण में प्राप्त कुछ कथानकों को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है-] महाभारत के शांति पर्व में प्राप्त कथा 明明明明明垢玩垢听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听¥¥¥¥¥¥ {927} अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। ऋषीणां चैव संवादं त्रिदशानां च भारत॥ अजेन यष्टव्यमिति प्राहुर्दैवा द्विजोत्तमान्। स च च्छागोऽप्यजो ज्ञेयो नान्यः पशुरितिस्थितिः॥ बीजैर्यज्ञेषु यष्टव्यमिति वै वैदिकी श्रुतिः। अजसंज्ञानि बीजानि च्छागं नो हन्तुमर्हथ। नैष धर्मः सतां देवा यत्र वध्येत वै पशः। इदं कृतयुगं श्रेष्ठं कथं वध्येत वै पशुः॥ (म.भा. 12/337/2-5) (भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को प्राचीन कथा बताना-) इस विषयों में ज्ञानी-जन ऋषियों # और देवताओं के संवादरूप इस प्राचीन इतिहास को उद्धृत किया करते हैं । एक बार * देवताओं ने वहां आये हुए सभी श्रेष्ठ ब्रह्मर्षियों से कहा:- 'अज' से यज्ञ करने का शास्त्रीय विधान है। यहां 'अज' का अर्थ बकरा समझना चाहिये, दूसरा पशु नहीं, ऐसा हमारा मत है। किन्तु ऋषियों ने कहा-देवताओं! यज्ञों में बीजों द्वारा यजन करना चाहिये , ऐसी वैदिकी ॥ श्रुति है। बीजों का ही नाम 'अज' है, अतः बकरे का वध करना हमें उचित नहीं प्रतत होता है। जहां कहीं भी यज्ञ में पशु का वध हो, वह सत्पुरुषों का धर्म नहीं है। यह श्रेष्ठ सत्ययुग में चल रहा है। इसमें पशु का वध कैसे किया जा सकता है? बE EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEP अहिंसा कोश/265] Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 弱弱弱弱弱%%%%%%%%% %%%%%%%%%%%%%%%% % तेषां संवदतामेवमृषीणां विबुधैः सह। मागांगतो नपश्रेष्ठस्तं देशं प्राप्तवान् वसुः॥ अन्तरिक्षचरः श्रीमान् समग्रबलवाहनः। तं दृष्ट्वा सहसाऽऽयान्तं वसुं ते त्वन्तरिक्षगम्॥ ऊचुर्द्विजातयो देवानेष च्छेत्स्यति संशयम्। यचा दानपतिः श्रेष्ठः सर्वभूतहितप्रियः॥ कथंस्विदन्यथा ब्रूयादेष वाक्यं महान् वसुः। एवं ते संविदं कृत्वा विबुधा ऋषयस्तथा। अपृच्छन् सहिताभ्येत्य वसं राजानमन्तिकात्। भो राजन् केन यष्टव्यमजेनाहोस्विदौषधैः॥ एतन्नः संशयं छिन्धि प्रमाणं नो भवान्मतः। (म.भा. 12/337/6-11) इस प्रकार जब ऋषियों का देवताओं के साथ संवाद चल रहा था, उसी समय # नृपश्रेष्ठ वसु भी उस मार्ग से आ निकले और उस स्थान पर पहुंच गये। श्रीमान् राजा उपरिचर वसु अपनी सेना और वाहनों के साथ आकाश मार्ग से चलते थे।उन अन्तरिक्षचारी वसु को सहसा आते देख ब्रह्मर्षियों ने देवताओं से कहा- ये नरेश हम लोगों का संदेह दूर # कर देंगे, क्योंकि ये यज्ञ करने वाले, दानपति, श्रेष्ठ तथा सम्पूर्ण भूतों के हितैषी एवं प्रिय हैं। ये महान् पुरुष वसु शास्त्र के विपरीत वचन कैसे कह सकते हैं? ऐसी सम्मति करके ॐ देवताओं और ऋषियों ने एक साथ राजा वसु के पास आकर अपना प्रश्न उपस्थित किया: राजन्! किसके द्वारा यज्ञ करना चाहिये? बकरे के द्वारा अथवा अन्न द्वारा? हमारे इस संदेह का आप निवारण करें। हम लोगों की राय में आप ही प्रामाणिक व्यक्ति हैं। 呢呢呢呢呢呢呢呢巩巩巩巩巩%¥¥¥¥¥听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 स तान् कृताञ्जलिभूत्वा परिपप्रच्छ वै वसुः॥ कस्य वै को मतः कामो बूत सत्यं द्विजोत्तमाः। धान्यैर्यष्टव्यमित्येव पक्षोऽस्माकं नराधिप। देवानां तु पशुः पक्षो मतो राजन् वदस्व नः। देवानां तु मतं ज्ञात्वा वसुना पक्षसंश्रयात्॥ छागेनाजेन यष्टव्यमेवमुक्तं - वचस्तदा। (म.भा. 12/337/11-14) तब राजा वसु ने हाथ जोड़ कर उन सब से पूछा-विप्रवरों ! आपलोग सच-सच म बताइये, आप लोगों में से किस पक्ष को कौन-सा मत अभीष्ट है? कौन 'अज' का अर्थ ) बकरा मानता है और कौन अन्न? (ऋषियों ने कहा-) हम लोगों का पक्ष यह है कि अन्न से 卐 यज्ञ करना चाहिये तथा देवताओं का पक्ष यह है कि छाग नामक पशु के द्वारा यज्ञ होना 男男男男骗骗骗骗骗骗骗骗骗骗男男男男明明明明明明明明勇勇男男男男男男、 विदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/266 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' ' FFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFE ॐ चाहिये। राजन्! अब आप हमें अपना निर्णय बताइये। देवताओं का मत जानकर राजा वसु ने उन्हीं का पक्ष लेकर कह दिया कि अज' का अर्थ है-छाग (बकरा) , अतः उसी के द्वारा यज्ञ करना चाहिये। कुपितास्ते ततः सर्वे मुनयः सूर्यवर्चसः॥ ऊचुर्वसं विमानस्थं देवपक्षार्थवादिनम्। सुरपक्षो गृहीतस्ते यस्मात् तस्माद् दिवः पत ॥ अद्यप्रभृति ते राजन्नाकाशे विहता गतिः। अस्मच्छापाभिघातेन महीं भित्त्वा प्रवेक्ष्यसि॥ विरुद्ध वेदसूत्राणामुळं यदि भवेन्नप। वयं विरुद्धवचना यदि तत्र पतामहे। ततस्तस्मिन् मुहूर्तेऽथ राजोपरिचरस्तदा। अधो वै सम्बभूवाशु भूमेर्विवरगो नृप। (म.भा. 12/337/14-17) [ब्रह्माण्ड पुराण (पूर्व भाग/अनुषंगपाद/29 अ.) ___में भी श्रोक 6-32 तक यही कथा वर्णित है।] ___यह सुनकर वे सभी सूर्य के समान तेजस्वी ऋषि कुपित हो उठे और विमान पर बैठकर देव पक्ष की बात कहने वाले वसु से बोले। तुमने यह जानकर भी कि 'अज' का " अर्थ अन्न है, देवताओं का पक्ष लिया है, इसलिये स्वर्ग से नीचे गिर जाओ। आज से आकाश में विचरने की तुम्हारी शक्ति नष्ट हो गयी। हमारे शाप के आघात से तुम पृथ्वी को भेद कर पाताल में प्रवेश करोगे। तुमने यदि वेद और सूत्रों के विरुद्ध कहा हो तो हमारा यह शाप अवश्य लागू हो और यदि हम शास्त्रविरुद्ध वचन कहते हों तो हमारा पतन हो जाय। ऋषियों के इतना कहते ही उसी क्षण राजा उपरिचर आकाश से नीचे आ गये और तत्काल ॐ पृथ्वी के विवर में प्रवेश कर गये। {928} (महाभारत के अनुगीता पर्व में प्राप्त कथा-) पुरा शक्रस्य यजतः सर्व ऊचुर्महर्षयः। ऋत्विक्षु कर्मव्यग्रेषु वितते यज्ञकर्मणि॥ हुयमाने तथा वही हो। गुणसमन्विते। देवेष्वाहूयमानेषु स्थितेषु परमर्षिषु ॥ सुप्रतीतैस्तथा विप्रैः स्वागमैः सुस्वरैप। अश्रान्तश्चापि लघुभिरध्वर्युवृषभैस्तथा। आलम्भसमये तस्मिन् गृहीतेषु पशुष्वथ। महर्षयो महाराज बभूवुः कृपयान्विताः॥ '' '''' ' ' R E EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEET अहिंसा-विश्वकोश/267] Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MANEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEng ततो दीनान् पशून् दृष्ट्वा ऋषयस्ते तपोधनाः। ऊचुः शक्रं समागम्य नायं यज्ञविधिः शुभः॥ (म.भा.13/अनुगीता पर्व/91/8-12) जब इन्द्र का यज्ञ हो रहा था और सब महर्षि मंत्रोच्चार कर रहे थे, ऋत्विज लोग अपने-अपने कर्मों में लगे थे, यज्ञ का काम बड़े समारोह और विस्तार के साथ चल रहा था, उत्तम गुणों से युक्त आहुतियों का अग्नि में हवन किया जा रहा था, देवताओं का आवाहन हो रहा था, बड़े-बड़े महर्षि खड़े थे, ब्राह्मण लोग बड़ी प्रसन्नता के साथ वेदोक्त मंत्रों का उत्तम स्वर से पाठ कर रहे थे और शीघ्रकारी उत्तम अध्वर्युगण बिना किसी थकावट के अपने कर्तव्य का पालन कर रहे थे। इतने ही में पशुओं के आलम्भ (वध) का समय आया। जब पशु पकड़े लिये गये, तब महर्षियों को उन पर बड़ी दया आयी। उन पशुओं की दयनीय अवस्था देखकर वे तपोधन ऋषि इन्द्र के पास जाकर बोले-यह जो यज्ञ में पशुवध का विधान है, यह शुभकारक नहीं है। 听听听听听听听乐听听听听听听听听听听听听听听听听听圳坂听听听听听听听听听听听听听听听听玩乐听听 अपरिज्ञानमेतत् ते महान्तं धर्ममिच्छतः। न हि यज्ञे पशुगणा विधिदृष्टाः पुरंदर॥ धर्मोपघातकस्त्वेष समारम्भस्तव प्रभो। नार्य धर्मकृतो यज्ञो न हिंसा धर्म उच्यते॥ आगमेनैव ते यज्ञं कुर्वन्तु यदि चेच्छसि। विधिदृष्टेन यज्ञेन धर्मस्ते सुमहान् भवेत्॥ यज बीजैः सहस्राक्ष त्रिवर्षपरमोषितैः। एष धर्मो महान् शक्र महागुणफलोदयः॥ (म.भा.13/अनुगीता पर्व/91/13-16) पुरंदर! आप महान् धर्म की इच्छा करते हैं तो भी जो पशुवध के लिये उद्यत हो गये हैं, यह आपका अज्ञान ही है, क्योंकि यज्ञ में पशुओं के वध का विधान शास्त्र में नहीं देखा गया है। प्रभो! आपने जो यज्ञ का समारम्भ किया है, यह धर्म को हानि पहुंचाने वाला है। म यह यज्ञ धर्म के अनुकूल नहीं है, क्योंकि हिंसा को कहीं भी धर्म नहीं कहा गया है। यदि 卐 आपकी इच्छा हो तो ब्राह्मण लोग शास्त्र के अनुसार ही इस यज्ञ का अनुष्ठान करें। शास्त्रीय विधि के अनुसार यज्ञ करने से आपको महान् धर्म की प्राप्ति होगी। सहस्रनेत्रधारी इन्द्र! आप तीन वर्ष के पुराने बीजों (जौ, गेहूँ आदि अनाजों) से यज्ञ करें। यही महान् धर्म है और ॐ महान् गुणकारक फल की प्राप्ति कराने वाला है। %%%听听听听听听听听听听听听听听听¥¥¥坂巩巩巩巩巩妮妮妮妮妮妮妮妮妮听听听听听听听听听呢 EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEN [वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/268 Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE शतक्रतुस्तु तद् वाक्यमषिभिस्तत्त्वदर्शिभिः। उक्तं न प्रतिजग्राह मानान्मोहवशं गतः। तेषां विवादः सुमहान् शक्रयज्ञे तपस्विनाम्॥ जङ्गमैः स्थावरैवापि यष्टव्यमिति भारत। ते तु खिन्ना विवादेन ऋषयस्तत्त्वदर्शिनः। तदा संधाय शक्रेण पप्रच्छुपति वसुम्। धर्मसंशयमापन्नान् सत्यं ब्रूहि महामते॥ . (म.भा.13/अनुगीता पर्व/91/17-19) तत्त्वदर्शी ऋषियों के कहे हुए इस वचन को इन्द्र ने अभिमानवश नहीं स्वीकार किया। वे मोह के वशीभूत हो गये थे। इन्द्र के उस यज्ञ में जुटे हुए तपस्वी लोगों में इस प्रश्न को लेकर महान् विवाद खड़ा हो गया। एक पक्ष कहता था कि जंगम पदार्थ (पशु आदि) + के द्वारा यज्ञ करना चाहिये और दूसरा पक्ष कहता था कि स्थावर वस्तुओं (अन्न-फलई ॐ आदि) के द्वारा यजन करना उचित है। वे तत्त्वदर्शी ऋषि जब इस विवाद से बहुत खिन्न हो गये, तब उन्होंने इन्द्र के साथ सलाह लेकर इस विषय में राजा उपरिचर वसु से पूछामहामते! हमलोग धर्म-विषयक संदेह में पड़े हुए हैं। आप हमसे सच्ची बात बताइये। महाभाग कथं यज्ञेष्वागमो नपसत्तम। यष्टव्यं पशुभिर्मुख्यैरथो बीजै रसैरिति॥ तच्छ्रुत्वा तु वसुस्तेषामविचार्य बलाबलम्। योपनीतैर्यष्टव्यमिति प्रोवाच पार्थिवः॥ एवमुक्त्वा स नपतिः प्रविवेश रसातलम्। उक्त्वाऽथ वितथं प्रश्नं चेदीनामीश्वरः प्रभुः॥ (म.भा.13/अनुगीता पर्व/91/21-23) महाभाग नृपश्रेष्ठ! यज्ञों के विषय में शास्त्र का मत कैसा है? मुख्य-मुख्य पशुओं द्वारा यज्ञ करना चाहिये अथवा बीजों एवं रसों द्वारा? यह सुन कर राजा वसु ने उन दोनों पक्षों + के कथन में कितना सार या असार है, इसका विचार न करके यों ही बोल दिया कि जब जो ॐ वस्तु मिल जाए, उसी से यज्ञ कर लेना चाहिये। इस प्रकार कह कर, असत्य निर्णय देने के * कारण चेदिराज वसु को रसातल में जाना पड़ा। ¥¥¥¥%%%¥听听听听听听听听听听听听巩巩巩垢玩垢玩垢听听听听听垢听听听听听听听听听巩巩巩巩F8 REEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEN अहिंसा कोश/269] Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE {929} (मत्स्य पुराण में प्राप्त कथा-) मन्त्रान् वै योजयित्वा तु इहामुत्र च कर्मसु । तथा विश्वभुगिन्द्रस्तु यज्ञं प्रावर्तयत् प्रभुः॥ दैवतैः सह संहृत्य सर्वसाधनसंवृतः। तस्याश्वमेधे वितते समाजग्मुर्महर्षयः॥ (म.पु. 143/5-6) विश्वभोक्ता सामर्थ्य-शाली इन्द्र ने एहलौकिक कर्मों में मन्त्रों को प्रयुक्त कर देवताओं के के साथ सम्पूर्ण साधनों से सम्पन्न हो यज्ञ प्रारम्भ किया। उनके उस अश्वमेध-यज्ञ के आरम्भ होने पर, उसमें महर्षि-गण उपस्थित हुए। 斯斯斯斯斯斯斯55555斯斯斯西野野野野野野野野野野真55555555555555555 महर्षयश्च तान् दृष्ट्वा दीनान् पशुगणांस्तदा। विश्वभुज ते त्वपृच्छन् कथं यज्ञविधिस्तव॥ अधर्मों बलवानेष हिंसा धर्मेप्सया तव। नव पशुविधिस्त्विष्टस्तव यज्ञे सुरोत्तम। अधर्मो धर्मघाताय प्रारब्धः पशुभिस्त्वया। (म.पु. 143/11-13) महर्षि उस दीन पशुओं को देखकर उठ खड़े हुए और वे विश्वभुग नाम के # विश्वभोक्ता इन्द्र से पूछने लगे-'देवराज'! आपके यज्ञ की यह कैसी विधि है? आप धर्म* प्राप्ति की अभिलाषा से जो जीव-हिंसा करने के लिये उद्यत हैं, यह तो महान् अधर्म है। सुरश्रेष्ठ! आपके यज्ञ में पशु-हिंसा की यह नवीन विधि दीख रही है। ऐसा प्रतीत * होता है कि आप पशु-हिंसा के व्याज से धर्म का विनाश करने के लिये अधर्म करने पर तुले है हुए हैं। यह धर्म नहीं है। यह सरासर अधर्म है। तेषां विवादः सुमहान् जज्ञे इन्द्रमहर्षिणाम्। जङ्गमैः स्थावरैः केन यष्टव्यमिति चोच्यते॥ ते तु खिन्ना विवादेन शक्त्या युक्ता महर्षयः। संधाय सममिन्द्रेण पप्रच्छुः खचरं वसुम्॥ ___(म.पु. 143/16-17) इन्द्र और उन महर्षियों के बीच स्थावरों या जङ्गमों में से किससे यज्ञानुष्ठान करना * चाहिये' इस बात को लेकर एक अत्यन्त महान् विवाद उठ खड़ा हुआ। यद्यपि वे महर्षि * शक्तिसम्पन्न थे, तथापि उन्होंने उस विवाद से खिन्न होकर इन्द्र के साथ संधि करके (उसके Sirst EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEN वैदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/270 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEN का निर्णयार्थ एक उपाय तय करके) उपरिचर (आकाशचारी राजर्षि) वसु (को मध्यस्थ मान ॐ कर उस) से प्रश्न किया। महाप्राज्ञ त्वया दृष्टः कथं यज्ञविधिनप। औत्तानपादे प्रब्रूहि संशयं छिन्धि नः प्रभो॥ (म.पु. 143/18) उत्तानपाद-नन्दन नरेश! आप तो सामर्थ्यशाली एवं महान् बुद्धिमान हैं। आपने * किस प्रकार की यज्ञ-विधि देखी है, उसे बतलाइये और हम लोगों का संशय दूर कीजिये। 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听FF श्रुत्वा वाक्यं वसुस्तेषामविचार्य बलाबलम्। वेदशास्त्रमनुस्मृत्य यज्ञतत्त्वमुवाच ह॥ यथोपनीतैर्यष्टव्यमिति होवाच पार्थिवः। यष्टव्यं पशुभिर्मेध्यैरथ मूलफलैरपि। हिंसा स्वभावो यज्ञस्य इति मे दर्शनागमः। तथैते भाविता मन्त्रा हिंसालिङ्गा महर्षिभिः॥ (म.पु. 143/19-21) उन ऋषियों का प्रश्न सुन कर महाराज वसु उचित-अनुचित का कुछ भी विचार न # कर, वेद-शास्त्रों का अनुस्मरण कर यज्ञतत्त्वका वर्णन करने लगे। उन्होंने कहा-'शक्ति एवं समयानुसार प्राप्त हुए पदार्थों से यज्ञ करना चाहिये। पवित्र पशुओं और मूल-फलों से भी यज्ञ किया जा सकता है। मेरे देखने में तो ऐसा लगता है कि हिंसा यज्ञ का स्वभाव ही है। इसी . ई प्रकार (तारक आदि मन्त्रों के ज्ञाता उग्रतपस्वी) महर्षियों ने हिंसासूचक मन्त्रों को उत्पन्न किया है।' इत्युक्तमात्रो नृपतिः प्रविवेश रसातलम्। ऊवचारी नृपो भूत्वा रसातलचरोऽभवत् ॥ वसुधातलचारी तु तेन वाक्येन सोऽभवत्। धर्माणां संशयच्छेत्ता राजा वसुरधोगतः॥ ___ (म.पु. 143/25-26) ऐसा कहते ही राजा वसु रसातल में चले गये। इस प्रकार जो राजा वसु एक दिन आकाशचारी थे, रसातलगामी हो गये। ऋषियों के शाप से उन्हें पाताल-चारी होना पड़ा। धर्म-विषयक संशयों का निवारण करने वाले राजा वसु इस प्रकार अधोगति को प्राप्त हुए। बEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEENA अहिंसा कोश/271] Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE तस्मान्न हिंसा यज्ञे स्याद् यदुक्तमृषिभिः पुरा। ऋषिकोटिसहस्त्राणि स्वैस्तपोभिर्दिवं गताः॥ तस्मान हिंसायज्ञं च प्रशंसन्ति महर्षयः। (म.पु. 143/29-30) (सूत जी का उक्त कथा के आधार पर निष्कर्ष-) इसलिये पूर्वकाल में जैसा ऋषियों ने कहा है, उसके अनुसार यज्ञ में जीव-हिंसा नहीं होनी चाहिये। हजारों करोड़ ऋषि अपने तपोबल से स्वर्गलोक को गये हैं। इसी कारण महर्षिगण हिंसात्मक यज्ञ की ॐ प्रशंसा नहीं करते। हिंसा व मांस-दान वर्जितः श्राद्ध में 呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢垢玩垢垢玩垢听听听听听听听听听听呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢 {930} न दद्यादामिषं श्राद्धे न चाधाद्धर्मतत्त्ववित्। मुन्यन्त्रैः स्यात्परा प्रीतिर्यथा न पशुहिंसया॥ नैतादृशः परो धर्मो नृणां सद्धर्ममिच्छताम्। न्यासो दण्डस्य भूतेषु मनोवाक्कायजस्य यः॥ ___ (भा. पु. 7/15/7-8) धर्म के मर्म को समझनेवाला पुरुष श्राद्ध में (खाने के लिये) मांस न दे और न स्वयं ही खाय, क्योंकि पितृगणकी तृप्ति मुनिजनोचित आहार से ही होती है, पशुहिंसा से नहीं होती। सद्धर्मकी इच्छा वाले पुरुषों के लिये सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति मन, वाणी और शरीर से दण्ड (हिंसा) का त्याग कर देना-इसके समान और कोई श्रेष्ठ धर्म नहीं है। {931} मधुपर्के पशोर्वधः .................। मांसादनं तथा श्रद्धे वानप्रस्थाश्रमस्तथा।(14) एतान् धर्मान् कलियुगे वर्ध्यानाहुर्मनीषिणः॥ (ना. पु. 1/24/14,16) कुछ धार्मिक क्रियाओं को मनीषियों ने कलियुग में वर्जनीय माना है। वे क्रियाएं म है- (1) मधुपर्क (अतिथि या दूल्हे के स्वागतार्थ की जाने वाली धार्मिक क्रिया) में पशु का वध करना, (2) श्राद्ध में मांस-भक्षण, (3) वानप्रस्थ आश्रम.....आदि आदि। 與玩乐與與與與與與與买买买乐乐乐乐乐买兵兵兵兵兵兵兵兵兵兵兵买买买 विदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/272 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE (8) अहिंसा और राजधर्म EASE [राजा या शासक-वर्ग का प्रमुख कार्य प्रजा-रक्षण होता है। देश या प्रजा के अहितकारी तत्त्वों का विनाश करना, और प्रजा व देश का सर्वविध कल्याण करना-ये दोनों कार्य'प्रजा-रक्षण के साथ जुड़े हुए होते हैं। दुष्टों के नियन्त्रण आदि कुछ अपवाद-कार्यों को छोड़ कर, राजा को अहिंसक रूप धारण करना चाहिए। यथाशक्ति उसे हिंसा *या उग्र रूप अथवा कठोरता से बचना चाहिए। यहां उन शास्त्रीय निर्देशों को प्रस्तुत किया जा रहा है, जिनमें राजा से है अहिंसा-प्रिय होने की अपेक्षा व्यक्त की गई है। वस्तुतः हिंसा के ताण्डव-नृत्य को समाप्त करने के लिए ही तो 'राजा' पद की प्राचीन काल में उद्भावना की गई थी-], 期货期货圳乐乐明明听听听听听听听乐乐界明明明明明明明明明明明明明明明明明明明與 हिंसक/अमर्यादित स्थिति का राजा ही नियन्त्रक {932} यथा ह्यनुदके मत्स्या निराक्रन्दे विहङ्गमाः। विहरेयुर्थथाकामं विहिंसन्तः पुनः पुनः॥ विमथ्यातिक्रमेरंश्च विषह्यापि परस्परम्। अभावमचिरेणैव गच्छेयुर्नात्र संशयः॥ एवमेव विना राज्ञा विनश्येयुरिमाः प्रजाः। अन्धे तमसि मज्जेयुरगोपाः पशवो यथा॥ हरेयुर्बलवन्तोऽपि दुर्बलानां परिग्रहान्। हन्युक्यच्छमानांश्च यदि राजा न पालयेत्॥ ___ (म.भा.12/68/11-14) जैसे सूर्य और चन्द्रमा का उदय न होने पर, समस्त प्राणी घोर अन्धकार में डूब जाते में हैं और एक दूसरे को देख नहीं पाते हैं, जैसे थोड़े जल वाले तालाब में मत्स्यगण तथा ॐ रक्षक-रहित उपवन में पक्षियों के झुंड परस्पर एक दूसरे-पर बारंबार चोट करते हुए इच्छानुसार विचरण करते हैं, वे कभी तो अपने प्रहार से दूसरों को कुचलते और मथते हुए * आगे बढ़ जाते हैं और कभी स्वयं दूसरे की चोट खा कर व्याकुल हो उठते हैं, इस प्रकार * आपस में लड़ते हुए वे थोड़े ही दिनों में नष्टप्राय हो जाते हैं, इसमें संदेह नहीं है। इसी तरह राजा के बिना वे सारी प्रजाएँ आपस में लड़-झगड़ कर बात-की-बात में नष्ट हो जाएंगी * और बिना चरवाहे के पशुओं की भाँति दुख के घोर अंधकार में डूब जाएंगी। यदि राजा प्रजा * की रक्षा न करे तो बलवान् मनुष्य दुर्बलों की बहू-बेटियों को हर ले जाएं और अपने घरप्रवार की रक्षा के लिये प्रयत्न करने वालों को मार डालें। कAAEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE E T अहिंसा कोश/273] EFFFFFFFFFti Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 明明明明明明明明明明明男男男男男男男男男男男弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱乐 {933} धर्ममेव प्रपद्यन्ते न हिंसन्ति परस्परम्। अनुगृह्णन्ति चान्योन्यं यदा रक्षति भूमिपः॥ (म.भा.12/68/33) जब राजा रक्षा करता है, तब सब वर्गों के लोग नाना प्रकार के बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान करते हैं और मनोयोगपूर्वक विद्याध्ययन में लगे रहते हैं। {934} यानं वस्त्रमलङ्कारान् रत्नानि विविधानि च। हरेयुः सहसा पापा यदि राजा न पालयेत्॥ पतेद् बहुविधं शस्त्रं बहुधा धर्मचारिषु। अधर्मः प्रगृहीतः स्याद् यदि राजा न पालयेत्॥ मातरं पितरं वृद्धमाचार्यमतिथिं गुरुम्। क्लिश्रीयुरपि हिंस्युर्वा यदि राजा न पालयेत्॥ वधबन्धपरिक्लेशो नित्यमर्थवतां भवेत्। ममत्वं च न विन्देयुर्यदि राजा न पालयेत्॥ अन्ताश्चाकाल एव स्युर्लोकोऽयं दस्युसाद् भवेत्। पतेयुर्नरकं घोरं यदि राजा न पालयेत्॥ __ (म.भा.12/68/16-20) यदि राजा प्रजा का पालन न करे तो पापाचारी लुटेरे सहसा आक्रमण करके वाहन, वस्त्र, आभूषण और नाना प्रकार के रत्न लूट ले जाएं। यदि राजा रक्षा न करे तो धर्मात्मा पुरुषों पर बारंबार नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों की मार पड़ें और विवश होकर लोगों को अधर्म का मार्ग ग्रहण करना पड़े। यदि राजा पालन न करे तो दुराचारी मनुष्य माता, पिता, वृद्ध, आचार्य, अतिथि और गुरु को क्लेश पहुंचावें अथवा मार डालें। यदि राजा रक्षा न करे तो धनवानों को प्रतिदिन वध या बन्धन का क्लेश उठाना पड़े और ॥ किसी भी वस्तु को वे अपनी न कह सकें। यदि राजा प्रजा का पालन न करे तो अकाल में ही लोगों की मृत्यु होने लगे, यह समस्त जगत् डाकुओं के अधीन हो जाए और (पाप के कारण) घोर नरक में गिर जाए। 9玩玩乐乐玩玩乐乐兵用玩乐听听乐乐巩巩巩巩巩巩巩巩與妮妮頻頻與與與與與與乐¥¥¥¥¥¥垢玩垢玩垢 EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEENA वैिदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/274 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEme अहिंसक व दयालु स्वभावः राजा के लिए अपेक्षित {935} आनृशंस्यं परो धर्मः सर्वप्राणभृतां यतः। तस्माद्राजाऽऽनृशंस्येन पालयेत्कृपणं जनम्॥ (शु.नी. 1/159) सभी प्राणियों के प्रति क्रूरता न करना (अर्थात् दया) ही परम धर्म है। अतः राजा क्रूरता छोड़ कर (दया-भाव के साथ) ही दीन और निःसहाय जन का पालन करे। {936} अदानेनापमानेन छलाच्च कटुवाक्यतः। राज्ञः प्रबलदण्डेन नृपं मुञ्चति वै प्रजा॥ (शु.नी. 1/140) राजा के दान न करने से, राजा द्वारा किये गये अपमान व छल से, उसके कटुवचन ॐ से, और उसके कठोरतम दण्ड से प्रजा उसे छोड़ देती है। ¥¥¥¥¥¥¥圳巩巩听听听听听听听听听听听听听听听呢呢呢呢呢呢呢圳垢妮妮妮妮妮妮妮妮妮妮妮妮F+ {937} न हि स्वसुखमन्विच्छन्पीडयेत्कृपणं जनम्। कृपणः पीड्यमानः स्वमृत्युना हन्ति पार्थिवम्॥ (शु.नी. 1/160) अपने सुख के लिए गरीब को कभी न सताये, क्योंकि सताया हुआ गरीब अपनी मृत्यु से राजा को नष्ट कर देता है। 1938} तस्मान्नित्यं दया कार्या चातुर्वर्ण्य विपश्चिता। धर्मात्मा सत्यवाकचैव राजा रञ्जयति प्रजाः॥ (म.भा.12/56/36) विद्वान राजा को चारों वर्गों पर सदा दया करनी चाहिये, धर्मात्मा और सत्यवादी ॐ नरेश ही प्रजा को प्रसन्न रख पाता है। %% %%% % %%% % % %%% %%%% %% %% %% %% %% % % अहिंसा कोश/275] Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 原 原名: {939} विपरीतस्तामसः स स्यात् सोऽन्ते नरकभाजनः । निर्घृणश्च मदोन्मत्तो हिंसकः सत्यवर्जितः ॥ ( शु.नी. 1/32 ) सात्त्विक राजा से विपरीत रूप में, तामसी राजा निर्दयी, मदोन्मत्त, हिंसक, सत्यवर्जित होता है और इसी लिए मरने पर वह नरक को जाता है। {940} वाक्पारुष्यं न कर्तव्यं दण्डपारुष्यमेव च । परोक्षनिन्दा च तथा वर्जनीया महीक्षिता ॥ (म.पु. 220/10) राजा को कटुवचन बोलना और कठोर दण्ड देना- ये दोनों ही कर्म नहीं करने चाहियें। {941} क्षमते योऽपराधं स शक्तः स दमने क्षमी । क्षमया तु विना भूपो न भात्यखिलसद्गुणैः ॥ ( शु.नी. 1/82 ) जो अपराधों को क्षमा करनेवाला क्षमाशील एवं दुष्टों का दमन करनेवाला है, वही शक्तिमान कहलाता है । सम्पूर्ण गुणों से युक्त होने पर भी, राजा यदि क्षमा-रहित होता है, तो उसकी शोभा नहीं होती है । {942} कदापि नोग्रदण्डः स्यात् कटुभाषणतत्परः । भार्या पुत्रोऽप्युद्विजते कटुवाक्यादुग्रदण्डतः॥ ( शु.नी. 3/85) तत्पर नहीं होना उद्विग्न हो उठते हैं। राजा को कभी भी प्रचण्ड दण्ड देनेवाला एवं कटुभाषण करने में चाहिये, क्योंकि स्त्री तथा पुत्र भी कटुभाषण करने एवं प्रचण्ड दण्ड देने से {943} राष्ट्रपीडाकरो राजा नरके वसते चिरम् । ( अ.पु. 223/7 ) राष्ट्र को पीड़ा पहुँचाने वाला राजा चिरकाल तक नरक में निवास करता है। [वैदिक / ब्राह्मण संस्कृति खण्ड / 276 卐 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEme {944} क्षमा वै साधुमायाति न ह्यसाधून्क्षमा सदा। क्षमायाश्चाक्षमायाश्च पार्थ विद्धि प्रयोजनम्॥ विजित्य क्षममाणस्य यशो राज्ञो विवर्धते। महापराधे ह्यप्यस्मिन् विश्वसन्त्यपि शत्रवः॥ मन्यते कर्षयित्वा तु क्षमा साध्वीति शम्बरः। असंतप्तं तु यद् दारु प्रत्येति प्रकृतिं पुनः॥ नैतत् प्रशंसन्त्याचार्याः, न च साधुनिदर्शनम्। अक्रोधेनाविनाशेन, नियन्तव्याः स्वपुत्रवत्॥ (म.भा.12/102/29-32) सत्पुरुषों को सदा क्षमा करना आता है, दुष्टों को नहीं। क्षमा करने और न करने का प्रयोजन बताता हूँ, इसे सुनो और समझो जो राजा शत्रुओं को जीत लेने के बाद, उनके अपराध क्षमा कर देता है, उसका यश बढ़ता है। उसके प्रति महान् अपराध करने पर भी शत्रु उस पर विश्वास करते हैं। शम्बरासुर का मत है कि पहले शत्रु को पीड़ा द्वारा अत्यन्त दुर्बल करके फिर उसके प्रति क्षमा का प्रयोग करना ठीक है, क्योंकि यदि लोहे की टेढ़ी छड़ी को है बिना गर्म किये ही सीधी किया जाय तो वह फिर ज्यों की त्यों हो जाती है। परन्तु आचार्य* गण इस मत की प्रशंसा नहीं करते हैं, क्योंकि यह सज्जन पुरुषों का दृष्टान्त नहीं है। राजा को ' तो चाहिए कि वह पुत्र की. ही भांति अपने शत्रु को भी बिना क्रोध किये ही वश में करे, उसका विनाश न करे। ¥¥¥¥¥¥¥坎坎坎坎妮妮妮妮妮妮妮妮妮妮妮听听听听听听听听听听听听听呢呢呢呢呢呢呢呢垢玩垢玩垢 आदर्श अहिंसक राज्यः रामराज्य {945} सर्वं मुदितमेवासीत् सर्वो धर्मपरोऽभवत्। राममेवानुपश्यन्तो नाभ्यहिंसन् परस्परम्॥ (वा. रामा. 6/128/100) सब लोग सदा प्रसन्न ही रहते थे। सभी धर्मपरायण थे और श्रीराम (के आदर्श क स्वरूप) को ही बारंबार दृष्टि में रखते हुए, वे सभी एक दूसरे की हिंसा (या एक दूसरे से 5 हिंसक व्यवहार) नहीं करते थे। 玩玩玩玩玩玩乐乐玩玩玩玩玩玩玩乐乐听听听听听听玩玩玩乐乐玩玩玩乐乐部 अहिंसा कोश/277] Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 他骗骗骗骗骗骗骗明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明 वघ-दण्ड/उग्र दण्डः सामान्यतः वर्जित {946} असाधुश्चैव पुरुषो लभते शीलमेकदा। साधोश्चापि ह्यसाधुभ्यः शोभना जायते प्रजा॥ न मूलघातः कर्तव्यो नैष धर्मः सनातनः। अपि स्वल्पवधेनैव प्रायश्चित्तं विधीयते॥ उद्वेजनेन बन्धेन विरूपकरणेन च। वधदण्डेन ते क्लिश्या न पुरोहितसंसदि॥ ____ (म.भा.12/267/11-13) दुष्ट पुरुष भी कभी साधुसंग से सुधर कर सुशील बन जाता है तथा बहुत-से दुष्ट पुरुषों की संतानें भी अच्छी निकल जाती हैं। इसलिये दुष्टों को प्राणदण्ड देकर उनका मूलोच्छेद नहीं करना चाहिये। किसी की जड़ उखाड़ना सनातन धर्म नहीं है। अपराध के ' अनुरूप साधारण दण्ड देना चाहिये, उसी से अपराधी के पापों का प्रायश्चित्त हो जाता है। अपराधी को उसका सर्वस्व छीन लेने का भय दिखाया जाय अथवा उसे कैद कर लिया है। जाय या उसके किसी अंग को भंग करके उसे कुरूप बना दिया जाय, परंतु प्राणदण्ड देकर # # उनके कुटुम्बियों को क्लेश पहुँचाना उचित नहीं है। इसी तरह यदि वे पुरोहित ब्राह्मण की शरण में जा चुके हों तो भी राजा उन्हें दण्ड न दे। {947} वाग्दण्डं प्रथमं कुर्याद् धिग्दण्डं तदनन्तरम्। तृतीयं धनदण्डं तु वधदण्डमतः परम्॥ (म.स्मृ.-8/129) राजा गुणियों को प्रथम बार अपराध करने पर वाग्दण्ड (वाणी से डांटना आदि), उसके बाद (दूसरी बार अपराध करने पर) धिग्दण्ड (धिक्कारना आदि), तीसरी बार आर्थिक दण्ड (जुर्माना) और इसके बाद वधदण्ड (अपराधानुसार शरीरताडन अर्थात् कोड़े * या बेंत से मारकर, या अधिक गम्भीर अपराध में ही, यदि उक्त दण्डों से न सुधर पाये तो, * अङ्गच्छेद आदि या प्राणदण्ड) से दण्डित करे। REEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEENP (वैदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/278 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 蝸蝸蜥蝸 {948} न निहन्याच्च भूतानि त्विति जागर्ति वै श्रुतिः ॥ तस्मात् सर्वप्रयत्नेन वधदण्डं त्यजेन्नृपः । (शु.नी.4/1/92-93) 'प्राणियों का वध नहीं करना चाहिये' ऐसी श्रुति का वचन (वेद का वचन ) है । अतः राजा को अत्यन्त प्रयत्नपूर्वक वध - दण्ड के प्रयोग को त्याग देना चाहिये । {949} नापराधं हि क्षमते प्रदण्डो धनहारकः । स्वदुर्गुणश्रवणतो लोकानां परिपीडकः ।। नृपो यदा तदा लोकः क्षुभ्यते भिद्यते यतः । ( शु. नी. 1/129-130) जो राजा अपराध को सहन नहीं करता है तथा उग्र दण्ड देता है, धन का हरण कर लेता है, अपने दुर्गुणों के सुनने पर कहने वाले को पीड़ा पहुंचाने लगता है, उससे प्रजा दुःखी हो उठती है और राजा से प्रेम हटा लेती है। राजा की अहिंसक दृष्टिः कर- ग्रहण में (950) मालाकारोपमो राजन् भव माऽऽङ्गारिकोपमः । तथायुक्तश्चिरं राज्यं भोक्तुं शक्ष्यसि पालयन् ॥ : (म.भा. 12/71/20) (भीष्म का युधिष्ठिर को उपदेश - ) तुम माली के समान बनो। कोयला बनाने वाले के समान न बनो (जैसे, माली वृक्ष की जड़ को सींचता और उसकी रक्षा करता है, तब उससे फल और फूल ग्रहण करता है, परंतु कोयला बनाने वाला वृक्ष को समूल नष्ट कर देता है; उसी प्रकार माली बनकर राज्यरूपी उद्यान को सींच कर सुरक्षित रखना चाहिए और फल-फूल की तरह प्रजा से न्यायोचित 'कर' (टैक्स) लेते रहना चाहिए, कोयला बनाने वाले की तरह सारे राज्य को जला कर भस्म नहीं करना चाहिए), ऐसा करके प्रजापालन में तत्पर रहकर तुम दीर्घकाल तक राज्य का उपभोग कर सकोगे । अहिंसा कोश / 279] Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 與與與與與與與與與與與與與與與與與用兵兵與與與與與與與與與與與出 1951} अर्थमूलोऽपि हिंसां च कुरुते स्वयमात्मनः। करैरशास्त्रदृष्टैर्हि मोहात् सम्पीडयन् प्रजाः॥ (म.भा. 12/71/15) __ (भीष्म का युधिष्ठिर को उपदेश) जो धन का लोभी राजा मोहवश प्रजा से शास्त्रविरुद्ध अधिक कर (टैक्स) लेकर उसे कष्ट पहुंचाता है, वह अपने ही हाथों अपना विनाश करता है। {952} यथा मधु समादत्ते रक्षन् पुष्पाणि षट्पदः। तद्वदर्थान् मनुष्येभ्य आदद्यादविहिंसया॥ (म.भा. 5/34/17, विदुरनीति 2/17) [द्रष्टव्यः ग.पु. 1/113/5-6] जैसे भौंरा फूलों की रक्षा करता हुआ ही उनके मधु का ग्रहण करता है, उसी प्रकार 卐 राजा भी प्रजाजनों को अहिंसापूर्वक अर्थात् उन्हें कष्ट दिये बिना ही उनसे धन (टैक्स आदि) ले। 與乐乐頻頻頻頻¥¥¥¥¥¥¥¥¥頻頻頻出货货货货货货垢垢听听听F垢玩垢玩垢玩垢乐明明垢頻乐坂 3 {953} भृतो वत्सो जातबलः पीडां सहति भारत। न कर्म कुरुते वत्सो भृशं दुग्धो युधिष्ठिर॥ राष्ट्रमप्यतिदुग्धं हि न कर्म कुरुते महत्। यो राष्ट्रमनुगृह्णाति परिरक्षन् स्वयं नृपः॥ संजातमुपजीवन् स लभते सुमहत् फलम्। (म.भा. 12/87/21-23) (भीष्म का उपदेश-) भरतनन्दन युधिष्ठिर! जिस गाय का दूध अधिक नहीं दुहा जाता, उसका बछड़ा अधिक काल तक उसके दूध से पुष्ट एवं बलवान् हो भारी भार ढोने है * का कष्ट सहन कर लेता है; परंतु जिसका दूध अधिक दुह लिया गया हो, उसका बछड़ा कमजोर होने के कारण वैसा काम नहीं कर पाता। इसी प्रकार, राष्ट्र का भी अधिक दोहन # करने से वह दरिद्र हो जाता है; इस कारण वह कोई महान् कर्म नहीं कर पाता। जो राजा स्वयं रक्षा में तत्पर होकर समूचे राष्ट्र पर अनुग्रह करता है और उसको प्राप्त हुई आय से 卐 अपनी जीविका चलाता है, वह महान् फल का भागी होता है। वैिदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/280 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NAEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE 1954} मालाकारस्य वृत्त्यैव स्वप्रजारक्षणेन च। शत्रु हि करदीकृत्य तद्धनैः कोशवर्धनम्॥ करोति स नृपः श्रेष्ठो मध्यमो वैश्यवृत्तितः। अधमः सेवया दण्डतीर्थदेवकरग्रहः॥ ___(शु.नी.4/2/18-19) जो माली की तरह व्यवहार रख कर प्रजा की रक्षा करे और शत्रु को 'कर' देने योग्य ॐ बना कर उसके धन से कोष को बढ़ाता है वह नृप श्रेष्ठ कहलाता है, जो वैश्यवृत्ति व्यवसाय है आदि से कोश बढ़ाता है वह मध्यम, एवं सेवा कराकर तथा जुर्माना, तीर्थ-स्थान एवं ॐ देवमंन्दिरों पर 'कर' लगाकर जो कोष बढ़ाता है, वह अधम राजा कहलाता है। 與垢玩垢與異與明明乐听听听听听听听听听听听罢蛋蛋乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {955} उच्चावचकरा दाप्या महाराज्ञा युधिष्ठिर॥ यथा यथा न सीदेरंस्तथा कुर्यान्महीपतिः। फलं कर्म च सम्प्रेक्ष्य ततः सर्वं प्रकल्पयेत्॥ (म.भा. 12/87/15-16) (भीष्म का युधिष्ठिर को उपदेश-)युधिष्ठिर! राजा को चाहिये कि वह लोगों की है हैसियत के अनुसार भारी और हल्का कर (टैक्स) लगावे। भूपाल को उतना ही कर लेना ॐ चाहिये, जितने से प्रजा संकट में न पड़ जाय। उनका कार्य और लाभ देखकर ही सब कार्य * करने चाहिये। 军坑骗出與與與與與與與與與與垢與乐娱乐頻頻頻巩巩明明明明明明明明明明明明明明明明明劣埃斯與纸纸 {956} राजन्दुधुक्षसि यदि क्षितिधेनुमेनाम्, तेनाद्य वत्समिव लोकममुं पुषाण। तस्मिश्च सम्यगनिशं परिपुष्यमाणे, नानाफलं फलति कल्पलतेव भूमिः। (नी.श. 37) हे राजन् ! यदि तू इस धरती रूपी गौ को दुहना चाहता है, तो तू इस धरती पर रहने वाले इन मनुष्यों का, दुधारू गौ के थन में खूब दूध छोड़कर, बछड़ों की तरह भलीभाँति ॥ पालन-पोषण कर। जनता सुखी व समृद्ध रहे तो पृथ्वी माता कल्पतरु बन कर तुझे मुंह* मांगा फल देगी। E EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEER अहिंसा कोश/281] Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 他明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明男男男男%%%%%%%%%% {957} ग्रामेषु भूपालवरो यः कुर्यादधिकं करम्। स सहस्रकुलो भुंक्ते नरकं कल्पपञ्चसु॥ __ (ना. पु. 1/15/91) ग्राम (आदि) में जो राजा अधिक 'कर' (टैक्स) वसूल करता है, वह हजारों कुलों/पीढ़ियों के साथ पांच कल्पों तक नरक-दुःख भोगता है। {958} ऊधश्छिन्द्यात् तु यो धेन्वाः क्षीरार्थी न लभेत् पयः। एवं राष्ट्रमयोगेन पीड़ितं न विवर्धते॥ (म.भा. 12/71/16; ग.पु. 1/111/5) जैसे दूध चाहने वाला मनुष्य यदि गाय का थन काट ले तो इससे वह दूध (कदापि) नहीं पा सकता, उसी प्रकार राज्य में रहने वाली प्रजा का अनुचित उपाय से शोषण किया जाय तो उससे राष्ट्र की उन्नति नहीं होती। हिंसक युद्धः सामान्यतः वर्जित {959) कार्याण्युत्तमदण्डसाहसफलान्यायाससाध्यानि ये, प्रीत्या संशमयन्ति नीतिकुशलाः सानैव तै मन्त्रिणः। निःसाराल्पफलानि ये त्वविधिना वाञ्छन्ति दण्डोद्यमैः, तेषां दुर्नयचेष्टितैर्नरपतेरारोप्यते श्रीस्तुलाम्॥ (पं.त. 1/407) ___जो अत्यन्त उग्र दण्ड और साहस युक्त फल वाले कष्ट-साध्य युद्ध जैसे कार्यों को * प्रेम तथा शान्ति (साम और दाम) से शान्त कर देते हैं, वे ही सच्चे मन्त्री होते हैं; और जो के निरर्थक और थोड़े से फलों वाले कार्य को अन्याय (भेद नीति) तथा युद्ध (दण्ड नीति) से ॐ पूरा करना चाहते हैं, उन मन्त्रियों की इस बुरी नीति के कारण राजा की राज्यलक्ष्मी ही खतरे भी 4 में पड़ जाती है। 学须巩巩巩巩¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥巩巩與與與與與與與與與與與與人 विदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/282 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 他写男男男男男男男男男男男男男男%%%%%%%%%%%%%%% {960 वर्जनीयं सदा युद्धं राज्यकामेन धीमता। उपायैस्त्रिभिरादानमर्थस्याह बृहस्पतिः॥ सान्त्वेन तु प्रदानेन भेदेन च नराधिप। यदर्थे शक्नुयात् प्राप्तुं तेन तुष्येत पण्डितः॥ (म.भा. 12/69/23-24) जो बुद्धिमान् राजा राज्य का हित चाहे, उसे सदा युद्ध को टालने का ही प्रयत्न करना # चाहिये। बृहस्पतिजी ने साम,दान और भेद-इन तीन उपायों से ही राजा के लिये धन की 9 आय बतायी है। इन उपायों से जो धन प्राप्त किया जा सके, उसी से विद्वान् राजा को संतुष्ट भ होना चाहिये। 3555555555555555555555555555 1961} उपायविजयं श्रेष्ठमाहुर्भेदेन मध्यमम्। जघन्य एष विजयो यो युद्धेन विशाम्पते॥ __ (म.भा. 6/3/81) साम-दानरूप उपायों से जो विजय प्राप्त होती है, उसे श्रेष्ठ बताया गया है। भेदनीति * के द्वारा शत्रुसेना में फूट डाल कर जो विजय प्राप्त की जाती है, वह मध्यम है तथा युद्ध के के द्वारा मार-काट मचा कर जो शत्रु को पराजित किया जाता है, वह सब से निम्न श्रेणी की विजय मानी गई है। ¥¥¥¥¥¥纸圳频频¥¥¥¥頻頻頻頻頻呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢纸圳纸货频 {962} साम्ना दानेन भेदेन समस्तैरथवा पृथक् । विजेतुं प्रयतेतारीन् न युद्धेन कदाचन ॥ (म.स्मृ.-7/198) (राजा) (1) साम (प्रेम-प्रदर्शन),(2) दान, (3) भेद (शत्रु के राज्यार्थी दायाद या मंत्री आदि को विजय होने पर राज्य आदि देने का लोभ देकर अपने पक्ष में करना)- इन तीनों उपायों से अथवा इनमें से किसी एक या दो उपायों से, शत्रुओं को जीतने का प्रयत्न ॐ करे, (पहले) युद्ध से जीतने की कदापि चेष्टा न करे। 與與與乐乐娱乐巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥乐 अहिंसा कोश/283] Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE {963} उपायाः साम दानं च भेदो दण्डस्तथैव च। सम्यक्प्रयुक्ताः सिद्धयेयुर्दण्डस्त्वगतिका गतिः॥ (या. स्मृ., 1/13/346) साम, दान, भेद और दण्ड-ये चार (शत्रु आदि को वश में करने के) उपाय हैं। इनका सुविचारपूर्वक विधिवत् प्रयोग करने पर सफलता प्राप्त होती है। इनमें दण्ड का तभी प्रयोग करे, जब अन्य कोई उपाय काम न करे। {964} सामादिदण्डपर्यन्तो नयः प्रोक्तः स्वयम्भुवा। तेषां दण्डस्तु पापीयांस्तं पश्चाद्विनियोजयेत्॥ (पं.त. 1/408) ब्रह्मा ने साम से लेकर दण्ड तक (साम, दाम, भेद, दण्ड)जितनी नीति कही हैं उसमें दण्ड-नीति सबसे पाप-पूर्ण है। अतः उसका प्रयोग सबसे अन्त में (साम, दाम आदि नीतियों के विफल होने पर)करना चाहिए। {965) अयुद्धेनैव विजयं वर्धयेद् वसुधाधिपः। जघन्यमाहुर्विजयं युद्धेन च नराधिप॥ (म.भा. 12/94/1) राजा युद्ध के सिवा किसी और ही उपाय से पहले अपनी विजय-वृद्धि की चेष्टा करे; युद्ध से जो विजय प्राप्त होती है, उसे अधम श्रेणी की बताया गया है। {966} अनित्यो विजयो यस्माद् दृश्यते युध्यमानयोः। पराजयश्च संग्रामे तस्मायुद्धं विवर्जयेत्॥ (म.स्मृ.-7/199) चूंकि युद्ध करते हुए दो पक्षों की विजय तथा पराजय अनिश्चित रहती है, इस कारण युद्ध का त्याग करे। 男男男男男男男男男男男男男男男男男男%%%%%%%%%%%%%%、 विदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/284 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ $$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$年 卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐 {967} संसारे दुःखदं युद्धं न कर्तव्यं विजानता । लोभासक्ताः प्रकुर्वन्ति संग्रामं च परस्परम् ॥ लोभ में आसक्त व्यक्ति (राष्ट्र) ही परस्पर संग्राम करते हैं । किन्तु युद्ध संसार में दुःख ही पैदा करता है, अत: समझदार व्यक्ति (या राष्ट्र) को चाहिए कि वह युद्ध न करे ( यथाशक्ति उससे बचे ) । {968} न सुखं कृतवैरस्य भवतीति विनिर्णयः । संग्रामरसिकाः शूराः प्रशंसन्ति न पण्डिताः ॥ युद्धे विजयसन्देहो निश्चयं बाणताडनम् । दैवाधीनमिदं विश्वं तथा जयपराजयौ ॥ दैवाधीनाविति ज्ञात्वा न योद्धव्यं कदाचन । (दे. भा. 5/11/61) हिंसक युद्ध का भयावह परिणाम (दे. भा. 6/6/8,10-11 ) वैर बांध कर किसी को सुख नहीं मिलता - यह निश्चित बात है। इसलिए पण्डित एवं युद्ध-रसिक वीर भी इस (वैर भाव व युद्ध) की प्रशंसा नहीं करते। युद्ध में विजय मिलेगी या नहीं - यह संदेह बना ही रहता है, बाण आदि अस्त्रों के वार भी झेलने पड़ते हैं, जय व पराजय- दोनों ही भाग्य के अधीन हैं- ऐसा जान कर कभी युद्ध नहीं करना चाहिए। {969} को ह्यपि बहून् हन्ति नन्त्येकं बहवोऽप्युत । शूरं कापुरुषो हन्ति अयशस्वी यशस्विनम् ॥ ! पुरुष यशस्वी वीर को पराजित कर देता है । 筑 ( म.भा. 5 / 72/51) $$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$ युद्ध में एक योद्धा भी बहुत से सैनिकों का संहार कर डालता है तथा बहुत से योद्धा मिलकर एक को ही मार देते हैं। कभी कायर शूरवीर को मार देता है और कभी अयशस्वी 卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐 卐 अहिंसा - विश्वकोश / 285] Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Fa虫虫¥¥¥¥¥¥¥¥¥乐乐%%%%¥¥¥¥¥¥出與與與织%%%%% {970} महादोषः संनिपातस्तस्याद्यः क्षय उच्यते। (म.भा. 6/3/82) युद्ध महान् दोषों का भण्डार है। उन दोषों में सबसे प्रधान है-जनसंहार। 1971) संग्रामो वै क्रूरम्। संग्रामे हि क्रूरं क्रियते। (श.प.1/2/5/19) युद्ध क्रूर होता है। युद्ध में क्रूर काम किए जाते हैं। {972} युद्धे कृष्ण कलिर्नित्यं प्राणाः सीदन्ति संयुगे। (म.भा. 5/72/49) (युधिष्ठिर का श्रीकृष्ण को कथन-) युद्ध में सदा कलह और लोगों के प्राणों का नाश ही होता है। 9纸纸编织听听听听听听垢听听听听听乐乐%%%%¥¥¥¥¥¥¥¥妮妮妮妮妮妮妮妮妮妮妮听听听听圳坂4 {973} . पराजयश्च मरणान्मन्ये नैव विशिष्यते। यस्य स्याद् विजयः कृष्ण तस्याप्यपचयो ध्रुवम्॥ (म.भा. 5/72/54) पराजय और मृत्यु में कोई ज्यादा फर्क नहीं है। जिसकी विजय होती भी है, उसे भी निश्चय ही धन-जन की भारी हानि उठानी पड़ती है। {974} जयो नैवोभयोर्दृष्टो नोभयोश्च पराजयः। तथैवापचयो दृष्टो व्यपयाने क्षयव्ययौ॥ (म.भा. 5/72/52) कभी-कभी ऐसा भी होता है कि न तो दोनों पक्षों की विजय होती है और न दोनों की पराजय ही। हां,दोनों के धन-वैभव का नाश अवश्य देखा गया है। यदि कोई पक्ष पीठ दिखाकर भाग जाय, तो उसे भी धन और जन-दोनों की हानि उठानि पड़ती है। ########## ############### #HANNE विदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/286 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {975} सर्वथा वृजिनं युद्धं को घ्नन्न प्रतिहन्यते । हतस्य च हृषीकेश समौ जय-पराजयौ ॥ ( म.भा. 5/72/53) युद्ध तो सर्वथा पाप रूपी ही है। जो दूसरों को मारने पर उतरे, वह भी क्या किसी से मारा नहीं जाएगा? और जो युद्ध में मारा गया, उसके लिये तो विजय हो या पराजय- दोनों समान हैं। {976} अन्ततो दयितं घ्नन्ति केचिदप्यपरे जनाः । तस्यांगबलहीनस्य पुत्रान् भ्रातृनपश्यतः ॥ निर्वेदो जीविते कृष्ण सर्वतश्चोपजायते । ( म.भा. 5/72/55-56) जब तक युद्ध समाप्त होता है, विजयी योद्धा के अनेक प्रियजन (विपक्षी सैनिकों द्वारा ) मार डाले जाते हैं। जो विजय पाता भी है, वह भी (कुटुम्ब और धनसम्बन्धी) बल से शून्य हो जाता है। जब वह युद्ध में मारे गये अपने पुत्रों और भाईयों को नहीं देखता है, तो वह सब ओर से उदासीन व विरक्त हो जाता है; उसे अपने जीवन से भी वैराग्य हो जाता है। {977} ये ह्येव धीरा ह्रीमन्त आर्याः करुणवेदिनः ॥ त एव युद्धे हन्यन्ते यवीयान् मुच्यते जनः । हत्वाऽप्यनुशयो नित्यं परानपि जनार्दन ॥ ( म.भा. 5/72/56-57) जो लोग धीर-वीर, लज्जाशील, श्रेष्ठ और दयालु हैं, वे ही प्रायः युद्ध में मारे जाते हैं और अधम श्रेणी के मनुष्य जीवित बच जाते हैं। शत्रुओं को मारने पर भी उनके लिये सदा मन में पश्चात्ताप बना रहता है। 出 अहिंसा कोश / 287] Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “明明明明明明明明明明明明明明明男男男男男男男男%%%%%%%%%% {978} न युद्धे तात कल्याणं न धर्मार्थी कुतः सुखम्। (म.भा. 5/129/40) युद्ध करने में कल्याण नहीं है। उससे धर्म और अर्थ की भी प्राप्ति नहीं हो सकती, फिर सुख तो मिल ही कैसे सकता है? हिंसक युद्ध की विद्वेष-पूर्ण आगः पीढ़ी-दर-पीढ़ी {979} जातवैरश्च पुरुषो दुःखं स्वपिति नित्यदा। अनिवृत्तेन मनसा ससर्प इव वेश्मनि। (म.भा. 5/72/60-61) __ किसी से वैर बांधने वाला पुरुष उद्विग्नचित्त होकर सदा उसी तरह दुःख की नींद म सोता है जैसे सो से भरे घर में रहने वाला व्यक्ति। 明明明明明乐乐听听听听听玩玩乐乐垢玩垢玩垢听听听听听听听听听听听听听听听听听听纸纸坑坎听听听听听 {980} उत्सादयति यः सर्वं यशसा स विमुच्यते। अकीर्तिं सर्वभूतेषु शाश्वतीं सोऽधिगच्छति। ____ (म.भा. 5/72/61-62) जो शत्रु के कुल में आबालवृद्ध सभी पुरुषों का उच्छेद कर डालता है, वह वीरोचित यश से वंचित हो जाता है। वह सभी लोगों में उस अपकीर्ति (निन्दा) का भागी होता है जो कभी समाप्त नहीं होती। 1981) न चापि वैरं वैरेण केशव व्युपशाम्यति॥ हविषाऽग्निर्यथा कृष्ण भूय एवाभिवर्धते। ___ (म.भा. 5/72/63-64) जैसे घी डालने पर आग बुझने के बजाय और अधिक प्रज्वलित हो उठती है, उसी प्रकार वैर करने से वैर की आग शान्त नहीं होती, अधिकाधिक बढ़ती ही जाती है। %%%% %%% % % % %% %%%%%、 %%%%% %%% वैिदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/288 Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {982} शेषो हि बलमासाद्य न शेषमनुशेषयेत् ॥ सर्वोच्छेदे च यतते वैरस्यान्तविधित्सया । ( म.भा. 5/72/58-59 ) मारे जाने वाले शत्रुओं में से कोई-कोई जो बचा रह जाता है, वह शक्ति का संचय करके, विजेता के पक्ष में जो लोग बचे हैं, उनमें से किसी को जीवित नहीं छोड़ना चाहता । वह शत्रु का अन्त कर डालने की इच्छा से, विरोधी दल को सम्पूर्णरूप से ही नष्ट कर देने का प्रयत्न करता है। {983} अतोऽन्यथा नास्ति शान्तिर्नित्यमन्तरमन्ततः ॥ अन्तरं लिप्समानानामयं दोषों निरन्तरः । ( म.भा. 5/72/64-65 ) (चूंकि दोनों पक्षों में से किसी पक्ष को सदा कोई न कोई छिद्र अर्थात् दूसरे के लिए प्रतिकूल अवसर मिलने की सम्भावना रहती है, इसलिये) दोनों पक्षों में से एक का सर्वथा नाश हुए बिना (दूसरे पक्ष को) पूर्णतः शान्ति नहीं प्राप्त होती है। जो लोग (शत्रु को नष्ट करने का छिद्र/अवसर ढूंढते रहते हैं, उनके सामने तो अशान्ति बने रहने का ) यह दोष निरन्तर रहता है । {984} पौरुषे यो हि बलवानाधिहृदयबाधनः । तस्य त्यागेन वा शान्तिर्मरणेनापि वा भवेत् ॥ अथवा मूलघातेन द्विषतां मधुसूदन । फलनिर्वृत्तिरिद्धा स्यात् तन्नृशंसतरं भवेत् ॥ ( म.भा. 5/72/65-66) पूर्व वैर की स्मृति के कारण, मन में जो प्रबल चिन्तारूप आधि / रोग हृदय को पीड़ित करता रहता है, उसकी शान्ति तभी संभव है जब उस (वैर-भाव) को छोड़ दिया. जाय, या व्यक्ति मर जाय, या फिर अपने शत्रुओं को समूल नष्ट करना संभव हो सके और अभीष्ट फल की सिद्धि हो जाय, किन्तु यह (समूल नाश का कार्य) तो अत्यन्त क्रूरता का कार्य है। 廣廣廣告 廣廣 अहिंसा कोश / 289] Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 男男男男男男男男男男男男男男男男%%%%%%%%%%%%%% {985} जयो वैरं प्रसृजति दुःखमास्ते पराजितः। (म.भा. 5/72/59-60) विजय की प्राप्ति भी चिरस्थायी शत्रुता (के वातारण) की सृष्टि करती है। पराजित पक्ष बड़े दुःख से समय बिताता है। {986} न हि वैराणि शाम्यन्ति दीर्घकालधृतान्यपि॥ आख्यातारश्च विद्यन्ते पुमांश्चेद् विद्यते कुले। (म.भा. 5/72/62-63) दीर्घकाल तक मन में दबाये रखने पर भी वैर की आग सर्वथा बुझ नहीं पाती; क्योंकि यदि कोई भी उस कुल में विद्यमान (जीवित) है, तो उससे पूर्व में घटित वैर बढ़ाने + वाली घटनाओं को बताने वाले बहुत से लोग उसे मिल जाते हैं जिससे वैर की आग पुनः ॥ बढ़ती रहती है। 明纸頻頻頻頻垢玩垢玩垢玩垢玩垢坂乐频圳纸纸编纸垢玩垢玩垢玩垢玩垢玩垢玩垢玩垢玩垢听听頻玩坎坎坎妮 .. {987 न हि वैराग्निरुद्भूतः कर्म चाप्यपराधजम्। शाम्यत्यदग्ध्वा नृपते विना ह्येकतरक्षयात्॥ (म.भा.12/139/46) प्रज्वलित हुई वैर की आग एक पक्ष को दग्ध किये बिना नहीं बुझती है और अपराधजनित कर्म भी एक पक्ष का संहार किये बिना नहीं शान्त होता है। 蛋蛋垢乐乐坂¥¥¥¥¥¥明明明明明明明乐F%%¥¥¥¥呎¥¥¥¥¥¥¥¥¥妮妮妮妮妮妮妮妮 4 दया-दानः राजा का विशिष्ट कर्तव्य शिव कर्तव्य .. {988}. . आनृशंस्यं परो धर्मो याचते यत् प्रदीयते। अयाचतः सीदमानान् सर्वोपायैर्निमन्त्रयेत्॥ (म.भा. 13/60/6) याचक को जो दान दिया जाता है, वह दयारूप परम धर्म है, परंतु जो लोग क्लेश + उठा कर भी याचना नहीं करते, उन ब्राह्मणों को प्रत्येक उपाय से अपने पास बुला कर दान देना चाहिये। %% % %% % %% % % % % % %%%%%% % % % % विदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/290 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 出。 {989} आपद्येव तु याचन्ते येषां नास्ति परिग्रहः । दातव्यं धर्मतस्तेभ्यस्त्वनुक्रोशाद् भयान्न तु ॥ जिन लोगों के पास कुछ भी संग्रह नहीं है, वे यदि आपत्ति के समय याचना करें तो उन्हें धर्म (कर्तव्य) समझ कर और दया करके ही देना चाहिये, किसी भय या दबाब में पड कर नहीं । दया- दान द्वारा निर्धन / अनाथों का पोषणः शासकीय कर्तव्य {990} अवृत्तिव्याधि - शोकार्ताननुवर्तेत शक्तितः ॥ आत्मवत् सततं पश्येदपि कीटपिपीलिकाम् । (म.भा.12/88/23) ( शु. नी. 3 / 10-11 ) जीविका से रहित तथा व्याधि या शोक से आर्त्त लोगों को यथाशक्ति सहायता पहुंचा कर राजा को उनका उपकार करना चाहिये, एवं कीड़े तथा चीटियों तक के भी सुखदुःखादि को अपनी ही तरह समझना चाहिये । {991} कृपणानाथवृद्धानां विधवानां च योषिताम् । योगक्षेमं च वृत्तिं च नित्यमेव प्रकल्पयेत् ॥ (म.भा. 12/86/24; अ. पु. 225/25; म. पु. 215/62) राजा को चाहिए कि वह दीन, अनाथ, वृद्ध तथा विधवा स्त्रियों के योगक्षेम एवं जीविका का सदा ही प्रबन्ध करे । {992} अनाथान् व्याधितान् वृद्धान् स्वदेशे पोषयेन्नृपः ॥ (म.भा. 13/145/पृ. 5950 ) राजा को चाहिये कि अपने देश में जो अनाथ, रोगी और वृद्ध हों, उनका स्वयं पोषण करे । अहिंसा कोश / 291] Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEng {993} येषां स्वादूनि भोज्यानि समवेक्ष्यन्ति बालकाः। नाश्रन्ति विधिवत तानि किं न पापतरं ततः॥ यदि ते तादृशो राष्ट्र विद्वान् सीदेत् क्षुधा द्विजः। भ्रूणहत्यां च गच्छेथाः कृत्वा पापमिवोत्तमम्॥ धिक् तस्य जीवितं राज्ञो राष्ट्रे यस्यावसीदति। द्विजोऽन्यो वा मनुष्योऽपि शिविराह वचो यथा। (म.भा. 13/61/27-29) . (भीष्म का युधिष्ठिर को कथन-) जिसके छोटे-छोटे बच्चे स्वादिष्ट भोजन की * ओर तरसती आँखों से देखते हों और वह उन्हें न्यायतः खाने को न मिलता हो, उस पुरुष है के लिए इससे बढ़ कर पाप और क्या हो सकता है? राजन! यदि तुम्हारे राज्य में कोई वैसा # विद्वान् ब्राह्मण भूख से कष्ट पा रहा हो तो तुम्हें भ्रूण-हत्या का पाप लगेगा और कोई बड़ा भारी पाप करने से मनुष्य की जो दुर्गति होती है, वही तुम्हारी भी होगी। राजा शिवि का | कथन है कि जिस क राज्य में ब्राह्मण या कोई और मनुष्य क्षुधा से पीड़ित हो रहा है, उस * राजा के जीवन को धिक्कार है। {994} सहस्रम्भरः शुचिजिव्हो अग्निः। (य.11/36) समाज के अग्रणी नेता को पवित्र जीभ वाला और हजारों का पालन-पोषण करने वाला होना चाहिए। {995} विकलाङ्गान् प्रव्रजितान् दीनानाथांश्च पालयेत्। (शु.नी. 3/126) राजा को विकलाङ्ग, संन्यासी, दीन और अनाथ लोगों का पालन करना चाहिये। SEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE वैदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/292 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < %%% %%% % %%%% %%%% %%% %%%%%%% % %%% % % अहिंसक दृष्टि से सम्पन्न युद्ध: धर्मयुद्ध [ अहिंसा धर्म के व्याख्याकारों ने छल, कपट, अमर्यादित क्रूरता आदि धर्म-विरुद्ध उपायों से बचते हुए, अहिंसक दृष्टि के साथ, एक सीमित मर्यादा में ही युद्ध करने की अनुज्ञा दी है। उक्त धर्मयुद्ध के मूल में मुख्य + रूप से पांच अहिंसात्मक भावनाएं निहित है- (1) हिंसा कम से कम हो तथा निरर्थक हिंसा से बचा जाए, (2) छल, कपट आदि का प्रयोग न हो तथा नियम-विरुद्ध प्रहार न हो, (3) निहत्थे, युद्धविमुख, युद्ध में सहायता कार्य करने वाले, तथा अपने से निर्बल साधन वाले व्यक्ति पर प्रहार न करना, (4) परम्परा से हट कर असाधारण या अत्यधिक उग्र अस्त्रों (परमाणु अस्त्रों आदि) के प्रयोग से बचना तथा (5) खेल-भावना के साथ, दिन के युद्ध की समाप्ति के बाद, पुनः परस्पर प्रेम से रहना। इसी धर्म-युद्ध से सम्बन्धित नियम महाभारत में निर्दिष्ट हैं, जिन्हें यहां प्रस्तुत किया जा रहा है-] {996} ततस्ते समयं चक्रुः कुरुपाण्डवसोमकाः॥ धर्मान् संस्थापयामासुर्युद्धानां भरतर्षभ। . (म.भा. 6/1/26-27) कौरव, पाण्डव तथा सोमकों ने परस्पर मिलकर युद्ध के सम्बन्ध में कुछ नियम बनाये। उन्होंने युद्ध-धर्म की मर्यादा स्थापित की। 1997 नैवासनद्धकवचो योद्धव्यः क्षत्रियो रणे। एक एकेन वाच्यश्च विसृजेति क्षिपामि च॥ से चेत् सन्नद्ध आगच्छेत् सन्नद्धव्यं ततो भवेत्। सचेत् ससैन्य आगच्छेत् ससैन्यस्तमथाह्वयेत्॥ स चेन्निकृत्या युद्धयेत निकृत्या प्रतियोधयेत्। अथ चेद् धर्मतो युद्धयेद् धर्मेणैव निवारयेत्॥ (म.भा. 12/95/7-9) जो कवच बांधे हुए न हो, उस क्षत्रिय के साथ रणभूमि में युद्ध नहीं करना चाहिये। एक योद्धा दूसरे एकाकी योद्धा से ही कहे-तुम मुझ पर शस्त्र छोड़ो- मैं भी तुम पर प्रहार 3 करता हूं। यदि वह कवच बांधकर सामने आए तो स्वयं भी कवच धारण कर ले। यदि ॐ विपक्षी सेना के साथ आवे तो स्वयं भी सेना के साथ उस शत्रु को ललकारे। यदि वह छल * से युद्ध करे तो स्वयं भी उसी रीति से उसका सामना करे और यदि वह धर्म से युद्ध आरम्भ ॥ करे तो धर्म से ही उसका सामना करना चाहिये। %% %% % % %%% %%% %%%% %%% %%% % % %%% %%%% * अहिंसा कोश/293] 呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢坂呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢纸¥¥¥¥¥ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEma {998} वाचा युद्धप्रवृत्तानां वाचैव प्रतियोधनम्। निष्क्रान्ताः पृतनामध्यान्न हन्तव्याः कदाचन॥ रथी च रथिना योध्यो गजेन गजधूर्गतः। अश्वेनाश्वी पदातिश्च पादातेनैव भारत॥ (म.भा. 6/1/28-29) जो वाग्युद्ध में प्रवृत्त हों, उनके साथ वाणी द्वारा ही युद्ध किया जाय। जो सेना से * बाहर निकल गये हों उनका वध कदापि न किया जाय। रथी को रथी से ही युद्ध करना चाहिये, इसी प्रकार हाथीसवार के साथ हाथीसवार, घुड़सवार के साथ घुड़सवार तथा पैदल के साथ पैदल ही युद्ध करे। 明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明听%%%%%%妮妮妮妮妮妮明明與¥¥¥¥% {999) यथायोगं यथाकामं यथोत्साहं यथाबलम्। समाभाष्य प्रहर्तव्यं न विश्वस्ते न विह्वले॥ (म.भा. 6/1/30) जिसमें जैसी योग्यता, इच्छा, उत्साह तथा बल हो, उसके अनुसार ही तथा विपक्षी को बताकर उसे सावधान करके ही, उसके ऊपर प्रहार किया जाय। जो विश्वास करके असावधान हो रहा हो अथवा जो युद्ध से घबराया हुआ हो, उस पर प्रहार करना उचित नहीं है। 中乐明明明明明明明明明明明明明垢乐纸货货货货货听听听听听听纸¥¥¥¥¥圳坂%圳货货货乐娱乐频 {1000) भग्नशस्त्रो विपन्नश्च कृत्तग्यो हतवाहनः। चिकित्स्यः स्यात् स्वविषये प्राप्यो वा स्वगृहे भवेत्॥ निर्वणश्च स मोक्तव्य एष धर्मः सनातनः। तस्माद् धर्मेण योद्धव्यमिति स्वायम्भुवोऽब्रवीत्॥ (म.भा. 12/95/13-14) जिसके शस्त्र टूट गये हों, जो विपत्ति में पड़ गया हो, जिसके धनुष की डोरी कट गयी हो तथा जिसके वाहन मार डाले गये हों, ऐसे मनुष्य पर भी प्रहार न करे। ऐसा पुरुष यदि अपने राज्य में या अधिकार में आ जाये तो उसके घावों की चिकित्सा करानी चाहिये अथवा उसे में उसके घर पहुंचा देना चाहिये। उसे घाव आदि ठीक होने पर छोड़ देना चाहिए यह सनातनधर्म है। अतः धर्म के अनुसार युद्ध करना चाहिये, यह स्वायम्भुव मनु का कथन है। वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/294 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEXAXEEEEEEEEEEEEEEEEEEEXXXXEEEEEEma {1001} निवृत्ते विहिते युद्धे, स्यात् प्रीतिर्नः परस्परम्॥ यथापरं यथायोगं, न च स्यात् कस्यचित् पुनः। (म.भा. 6/1/27-28) वे नियम इस प्रकार हैं-चालू युद्ध के बंद होने पर, संध्या-काल में हम सब लोगों में परस्पर प्रेम पूर्ववत् बना रहे। उस समय पुनः किसी का किसी के साथ शत्रुतापूर्ण अयोग्य मैं बर्ताव नहीं होना चाहिये। {1002} नाश्वेन रथिनं यायादुदियाद् रथिनं रथी। व्यसने न प्रहर्तव्यं न भीताय जिताय च॥ (म.भा. 12/95/10) ___घोड़े के द्वारा रथी पर आक्रमण न करे। रथी का सामना रथी को ही करना चाहिये। # यदि शत्रु किसी संकट में पड़ जाय तो उस पर प्रहार न करे।रे और पराजित हुए (अपनी ॥ * हार मान चुके) शत्रु पर भी कभी प्रहार नहीं करना चाहिये। 纸與與與與坂斯玩玩乐乐听听玩玩乐乐玩玩乐乐明娱乐¥¥¥¥¥¥%%¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥妮妮妮妮 {1003} न सूतेषु न धुर्येषु, न च शस्त्रोपनायिषु। न भेरीशङ्खवादेषु, प्रहर्तव्यं कथंचन॥ (म.भा. 6/1/32) घोड़ों की सेवा के लिए नियुक्त हुए सूतों, बोझ ढोने वालों, शस्त्र पहुंचाने वालों तथा भेरी व शङ्ख बजाने वालों पर भी कोई किसी प्रकार भी प्रहार न करे। {1004} नायुधव्यसनप्राप्तं नातं नातिपरिक्षतम्। न भीतं न परावृत्तं सतां धर्मानुस्मरन्॥ (म.स्मृ.-7/93) अपने शस्त्र-अस्त्र से टूटने आदि से दुःखी, पुत्र आदि के शोक से आर्त, बहुत घायल, डरे हुए और युद्ध से विमुख योद्धा को, सज्जन क्षत्रियों के धर्म का स्मरण करते हुए 4 (राजा या कोई भी योद्धा) न मारे। % %%%%%%%%%%%% %%%%%% % %%% %、 अहिंसा कोश/295] Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INMENMEANERNXXXXEEEEEEEEEEEEEEEEEEEXX. {1005} नघहन्यात्स्थलारुढं म क्लीन कृताञ्जलिम्। न मुक्तकेशं नासीनं न तवास्मीति वादिनम्॥ (म.स्मृ.-7/91; शु.नि. 4/7/358) (रथ पर बैठा हुआ)योद्धा (1) भूमि पर स्थित योद्धा को, तथा (2) नपुंसक, * (3)हाथ जोड़े हुए, (4) बाल खोले हुए, (5)बैठे हुए और (6) मैं तुम्हारा हूं' ऐसा कहने वाले (शरणागत) योद्धा को न मारे। {1006} न सुप्तं न विसन्नाहं न नग्नं न निरायुधम्। नायुध्यमानं पश्यन्तं न परेण समागतम्॥ (म.स्मृ.-7/92; शु.नि. 4/7/359 में आंशिक परिवर्तन के साथ) सोये हुए, कवच से रहित, नंगे, शस्त्र से रहित, युद्ध से विरत, (केवल युद्धको) देखने वाले (जैसे-युद्ध-संवाददाता आदि) और दूसरे के साथ युद्ध में भिड़े हुए योद्धा को भी न मारे। 坎坎坎坎坎呢明明听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听明明明明垢玩垢巩听听听听听听巩 {1007} एकेन सह संयुक्तः, प्रपन्नो विमुखस्तथा। क्षीणशस्त्रो विवर्मा च, न हन्तव्यः कदाचन ॥ (म.भा. 6/1/31) जो एक के साथ युद्ध में लगा हो, शरण में आया हो, पीठ दिखाकर भागा हो, और जिसके अस्त्र-शस्त्र और कवच कट गये हों; ऐसे मनुष्य को कदापि न मारा जाय। __{1008} गोब्राह्मणनृपस्त्रीषु सख्युर्मात्तुर्गुरोस्तथा।। हीनप्राणजडान्धेषु सुप्तभीतोत्थितेषु च। मत्तोन्मत्तप्रमत्तेषु न शस्त्राणि च पातयेत्॥ (म.भा. 10/6/21-22) . (युद्ध में) गौ, ब्राह्मण, राजा, स्त्री, मित्र, माता , गुरु, दुर्बल, जड़, अन्धे, सोये हुए, * डरे हुए, मतवाले, उन्मत्त और असावधान पुरुषों पर मनुष्य शस्त्र न चलाये। EHREEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEERS [वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/296 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEES {1009) सत्सु नित्यः सतां धर्मस्तमास्थायन माशयेत्। यौ चै नयत्यधर्मेण क्षत्रियो धर्मसंगरः।। आत्मानमात्मना हन्ति पापो निकृतिजीवनः। (म.भा. 12/95/15-16) सज्जनों का धर्म सदा सत्पुरुषों में ही रहा है। अतः उसका आश्रय लेकर उसे नष्ट ॐ न करे। धर्मयुद्ध में तत्पर हुआ जो क्षत्रिय अधर्म से विजय पाता है, छल-कपट को जीविका का साधन बनाने वाला व पापी स्वयं ही अपना नाश करता है। {1010} मोक्षे प्रयाणे चलने पानभोजनकालयोः। अतिक्षिप्तान् व्यतिक्षिप्तान् निहतान् प्रतनूकृतान्॥ सुविश्रब्धान् कृतारम्भानुपन्यासान् प्रतापितान्। बहिश्चरानुपन्यासान् कृतवेश्मानुसारिणः॥ ... ..... (म.भा.12/100/27-28) शस्त्र और कवच उतार देने के बाद, युद्धस्थल से प्रस्थान करते समय, घूमते-फिरते ॐ समय और खाने-पीने के अवसर पर किसी को न मारे। इसी प्रकार, जो बहुत घबराये हुए है हों, पागल हो गये हों, घायल हों, दुर्बल हो गये हों, निश्चिन्त होकर बैठे हों, दूसरे किसी काम में लगे हों, लेखन का कार्य करते हों,पीड़ा से संतप्त हों, बाहर घूम रहे हों, दूर से सामान लाकर लोगों के निकट पहुँचाने का काम करते हों अथवी छावनी की ओर भागे जा जी रहे हों, उन पर भी प्रहार न करे। 编织坎坎垢玩垢玩垢垢玩垢巩巩巩巩乐乐垢玩垢玩垢用現折纸兵纸明明明明明明明明明明明纸圳乐乐圳职职 {1011} गजो गजेन यातव्यस्तुरगेण तुरङ्गमः। रथेन च रथो योग्यः पत्तिमा पत्तिरेव च। एकेनैकश्च शस्त्रेण शस्त्रमस्त्रेण वाऽस्त्रकम्। __ (शु.नी.4/7/357-358) हाथी पर सवार सैनिक हाथीवालों से, घुड़सवार घुड़सवारों से, रथ पर चढ़े हुये रथवालों से और पैदल सैनिक पैदल सैनिकों से युद्ध करें, और अकेला अकेले से, ॐ शस्त्रवाला शस्त्रवालों से एवं अस्त्रवाला सैनिक अस्त्रवालों से ही लड़े। SHREEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEN अहिंसा कोश/297] Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEma {1012} नोको बहुभिर्याय्यो वीरो योधयितं यधि॥ न्यस्तवर्मा विशेषेण श्रान्तश्चाप्सु परिप्लुतः। भृशं विक्षतगात्रश्च हतवाहनसैनिकः॥ (म.भा. 9/32/52-53) रणभूमि में किसी एक वीर को बहुसंख्यक वीरों के साथ युद्ध के लिये विवश करना ॐ न्यायसंगत नहीं है। विशेषतः उस वीर को जिसने अपना कवच उतार दिया हो, जो थक कर जल में गोता लगाकर विश्राम कर रहा हो, जिसके सारे अङ्ग अत्यन्त घायल हो गये हों, तथा जिसके वाहन और सैनिक मार डाले गये हों, किसी समूह के साथ युद्ध के लिये बाध्य करना कदापि उचित नहीं है। 11013} निष्प्राणो नाभिहन्तव्यो नानपत्यः कथंचन॥ (म.भा. 12/95/12) जो बलहीन और संतानहीन हो , उस पर तो किसी प्रकार भी आघात न करे। {1014} तवाहंवादिनं क्लीबं निहेतिं परसंगतम्। न हन्याद्विनिवृत्तं च युद्धप्रेक्षणकादिकम्॥ __(या. स्मृ., 1/13/326) 'मैं आपका हूं' ऐसा (विनतिपूर्वक) कहने वाले, हिंजड़े, शस्त्रहीन, दूसरे से युद्ध कर रहे, युद्ध से विरत तथा युद्ध के दर्शक आदि को न मारे। {1015} बलेन विजितो यश्च न तं युध्येत भूमिपः। संवत्सरं विप्रणयेत् तस्माज्जातः पुनर्भवेत्॥ (म.भा. 12/96/4) जो बल के द्वारा पराजित कर दिया गया हो, उसके साथ राजा कदापि युद्ध न करे। * उसे कैद करके एक साल तक अनुकूल रहने की शिक्षा दे; फिर उसका नया जन्म होता है। (वह विजयी राजा के अनुकूल हो जाता है)। ### ##########EEE EEEEEEN वैदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/298 Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MANANEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEma {1016} बृद्धो बालो न हन्तव्यो नैव स्त्री केवलो नृपः॥ यथायोग्यं तु संयोग्यं निघ्नन् धर्मो न हीयते। (शु.नी.4/7/361-362) वृद्ध , बालक, स्त्री या केवल अकेला बचा हुआ राजा-इन सभी को नहीं मारना चाहिये, बल्कि उनके साथ यथायोग्य व्यवहार करके उन्हें केवल अपने अधीन करे, ऐसा ई करते हुए राजा स्वधर्म से च्युत नहीं कहा जाता है। {1017} वृद्धबालौ न हन्तव्यौ न च स्त्री नैव पृष्ठतः॥ तृणपूर्णमुखश्चैव तवास्मीति च यो वदेत्। __(म.भा. 12/98/48-49) युद्ध में वृद्ध, बालक और स्त्रियों का वध नहीं करना चाहिये, किसी भागते हुए की ॐ पीठ में आघात नहीं करना चाहिये, जो मुंह में तिनका लिये शरण में आ जाय और कहने लगे कि मैं आपका ही हूं, उसका भी वध नहीं करना चाहिये। ¥¥¥¥¥¥¥乐玩玩乐乐听听听听听听听听听听听听听听玩玩乐乐玩玩玩玩玩乐乐玩呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢 ¥妮妮妮妮頻頻頻纸纸呢呢呢呢呢垢妮妮妮妮妮妮妮妮妮妮妮巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩¥¥¥¥¥¥¥¥ ___{1018} विशीर्णकवचं चैव तवास्मीति च वादिनम्। कृताञ्जलिं न्यस्तशस्त्रं गृहीत्वा न हि हिंसयेत्॥ (म.भा. 12/96/3) जिसका कवच छिन्न-भिन्न हो गया हो, जो मैं आपका ही हूं-ऐसा कह रहा हो और हाथ जोड़े खड़ा हो, अथवा जिसने हथियार रख दिये हों, ऐसे विपक्षी योद्धा को कैद करके # मारे नहीं। ___{1019} अशस्त्रं पुरुषं हत्वा सशस्त्रः पुरुषाधमः। अर्थार्थे यदि वा वैरी मृतो जायेत वै खरः॥ (ब्रह्म.पु. 109/100) यदि कोई सशस्त्र नराधम, चाहे वैर भाव से या धन प्राप्ति के लोभ से किसी शस्त्रहीन (निहत्थे) व्यक्ति को मारता है तो वह मर कर गधा बन कर जन्म लेता है। ENAMEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEERS अहिंसा कोश/299] Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INEEMEENAEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE. {1020) प्रकीर्णकेशे विमुखे ब्राह्मणेऽथ कृताञ्जलौ॥ शरणागते न्यस्तशस्त्रे याचमाने तथाऽर्जुन। अबाणे भ्रष्टकवचे भ्रष्टभग्नायुधे तथा॥ न विमुञ्चन्ति शस्त्राणि शूराः साधुव्रते स्थिताः। (म.भा. 8/90/111-113) जो केश खोल कर खड़ा हो, युद्ध से मुँह मोड़ चुका हो, ब्राह्मण हो, हाथ जोड़कर शरण में आया हो, हथियार डाल चुका हो, प्राणों की भीख मांगता हो, जिसके बाण, कवच # और दूसरे-दूसरे आयुध नष्ट हो गये हों, ऐसे पुरुष पर उत्तम व्रत का पालन करने वाले शूरवीर शस्त्रों का प्रहार नहीं करते हैं। {10211 अहो जीवितमाकाक्षेनेदृशो वधमर्हति। सुदुर्लभाः सुपुरुषाः संग्रामेष्वपलायिनः॥ कृतं ममाप्रियं तेन येनायं निहतो मृधे। इति वाचा वदन् हन्तृन् पूजयेत रहोगतः॥ हन्तृणामाहतानां च यत् कुर्युरपराधिनः। क्रोशेद् बाहुं प्रगृह्यापि चिकीर्षन् जनसंग्रहम्॥ एवं सर्वास्ववस्थासु सान्त्वपूर्वं समाचरेत्। प्रियो भवति भूतानां धर्मज्ञो वीतभीनृपः॥ __ (म.भा. 12/102/36-39) 'सभी लोग अपने प्राणों की रक्षा करना चाहते हैं, अतः प्राण-रक्षा चाहने वाले पुरुष * का वध करना उचित नहीं है। संग्राम में पीठ न दिखाने वाले सत्पुरुष इस संसार में अत्यन्त दुर्लभ हैं। मेरे जिन सैनिकों ने युद्ध में इस श्रेष्ठ वीर का वध किया है, उसके द्वारा मेरा बड़ा है अप्रिय कार्य हुआ है'। शत्रु-पक्ष के सामने वाणी द्वारा इस प्रकार खेद प्रकट करके राजा एकान्त में जाने पर अपने उन बहादुर सिपाहियों की प्रशंसा करे, जिन्होंने शत्रु पक्ष के प्रमुख के वीरों का वध किया हो। इसी तरह शत्रुओं को मारने वाले अपने पक्ष के वीरों में से जो के हताहत हुए हों, उनकी हानि के लिये इस प्रकार दुःख प्रकट करे, जैसे अपराधी किया करते है * हैं। जनमत को अपने अनुकूल करने की इच्छा से जिसकी हानि हुई हो, उसकी बांह पकड़ * कर सहानुभूति प्रकट करते हुए जोर-जोर से रोवे और विलाप करे। इस प्रकार सब अवस्थाओं में जो सान्त्वनापूर्ण बर्ताव करता है, वह धर्मज्ञ राजा सब लोगों का प्रिय एवं FEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEER [वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/300 與此明與與與頻頻出現坑妮妮妮妮妮¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥¥圳坑坑坑坑坑坑坑與埃纸编织 Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SE NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEma निर्भय हो जाता है। {10229 धर्मनिष्ठे जयो राज्ञि योद्धव्याश्च समाः समैः। गजाद्यैश्च गजाधाश्च न हन्तव्याः पलायिनः॥ (अ.पु. 236/57) जो राजा धर्म से युक्त होकर युद्ध करता है, उसकी विजय होती है। युद्ध अपने बराबर वालों के साथ करना चाहिये, जैसे हाथीसवार को हाथी आदि पर सवार योद्धाओं के साथ ही युद्ध करना चाहिये। संग्राम से भागने वालों को नहीं मारना चाहिये। - {1023} ¥¥¥¥¥听听听听听听听听听听听听听听听听听玩乐听听听听听听听听听听坎坎坎F圳乐乐乐乐听听听听 न प्रेक्षकाः प्रविष्टाश्च अशस्त्राः पतितादयः। शान्ते निद्राभिभूते च अर्थोत्तीर्णे नदीवने॥ (अ.पु. 236/58) युद्ध देखने वाले, निःशस्त्र होकर युद्ध में प्रवेश करने वाले, गिरे हुए, शान्त तथा निद्रा से अभिभूत पुरुषों को नहीं मारना चाहिये। 5 {1024} मत्तं प्रमत्तमुन्मत्तं सुप्तं बालं स्त्रियं जडम्। प्रपन्नं विरथं भीतं न रिपुं हन्ति धर्मवित्॥ . (भा.पु. 1/7/36) ____ मद्यादि से मत्त, असावधान, ग्रहादि के आवेश से उन्मत्त, सोता हुआ बालक, स्त्री, निष्क्रिय, शरणागत, जिसका रथ टूट गया है और डरा हुआ शत्रु-इन को धर्मज्ञ पुरुष नहीं मारते। {1025) राज्ञा राजैव योद्धव्यस्तथा धर्मो विधीयते। नान्यो राजानमभ्यस्येदराजन्यः कथञ्चन॥ __ (म.भा. 12/96/7) राजा को राजा के साथ ही युद्ध करना चाहिये (अन्य के साथ नहीं)। उसके लिये # यही धर्म विहित है। जो राजा या राजकुमार नहीं है, उसे किसी प्रकार भी राजा पर अस्त्रॐ शस्त्रों का प्रहार नहीं करना चाहिये।। %%%%%%%%弱弱弱明明明明明明明明明明明明明明明明》 अहिंसा कोश/301] 55555555 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 男男男男男男男男男男男男男男男%%%%%%%%%%%%%%%%%% {1026} न रिपून् वै समुद्दिश्य विमुञ्चन्ति नराः शरान्। रन्ध्र एषां विशेषेण वधः काले प्रशस्यते॥ (म.भा.1/117/16) मनुष्य अपने शत्रुओं पर भी, विशेषतः जब वे संकट काल में हो, बाण नहीं छोड़ते। उपयुक्त अवसर (संग्राम आदि) में ही शत्रुओं के वध की प्रशंसा की जाती है। {1027} पिबन्तं न च भुञ्जानमन्यकार्याकुलं न च॥ न भीतं न परावृत्तं सतां धर्ममनुस्मरन्। (शु.नी.4/7/358-361) जलपानादि करते हुये, भोजन करते हुए, युद्ध के अतिरिक्त अन्य कार्मों में व्यस्त भ हुए, डरे हुए एवं युद्ध से विमुख हुए, ऐसे सैनिकों के ऊपर प्रहार नहीं करे। 巩巩听听听听听听听听听听听听听听听听听垢听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {1028} न हि प्रहर्तुमिच्छन्ति शूराः प्रद्रवतो भृशम्। तस्मात् पलायमाननां कुर्यान्नात्यनुसारणम्॥ (म.भा.12/99/14) शूरवीर जोर-जोर से भागते हुए योद्धाओं पर प्रहार करना नहीं चाहते हैं, अतः पलायन करने वाले सैनिकों का अधिक दूर तक पीछा नहीं करना चाहिये। 斯加听听听听听听听听听听听听听听明明听听听听听听听听听听乐乐乐乐出乐乐乐玩乐乐¥¥¥¥¥¥圳 कूट/तीक्ष्णतम शस्त्रास्त्रों (परमाणु-अस्त्रों) का प्रयोग युद्ध में वर्ण्य __{10291 एतत् तपश्च पुण्यं च धर्मश्चैव सनातनः॥ चत्वारश्चाश्रमास्तस्य यो युद्धमनुपालयेत्। (म.भा. 12/98/47-48 जो युद्ध-धर्म का निरन्तर पालन करता है, उसके लिये यही तपस्या, पुण्य, सनातनधर्म तथा चारों आश्रमों IAAAEKापालन है। वैिदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/302 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 原 {1030} शुद्धात्मानः शुद्धवृत्ता राजन् स्वर्गपुरस्कृताः । आर्यं युद्धमकुर्वन्त परस्परजिगीषवः ॥ शुक्लाभिजनकर्माणो मतिमन्तो जनाधिप । धर्मयुद्धमयुध्यन्त प्रेप्सन्तो गतिमुत्तमाम् ॥ न तत्रासीदधर्मिष्ठमशस्तं युद्धमेव च। नात्र कर्णी न नालीको न लिप्तो न च बास्तिकः ॥ न सूची कपिशो नैव न गवास्थिर्गजास्थिजः । इषुरासीन्न संविष्टो न पूतिर्न च जिह्मगः ॥ ऋजून्येव विशुद्धानि सर्वे शस्त्राण्यधारयन् । सुयुद्धेन पराँल्लोकानीप्सन्तः कीर्तिमेव च॥ (म.भा. 7 / 189/9-13 ) (दिव्यदृष्टि संजय द्वारा कौरव - पाण्डवों के मध्य हो रहे धर्म - युद्ध (आर्ययुद्ध) का धृतराष्ट्र के समक्ष वर्णन-) सब योद्धाओं के हृदय शुद्ध और आचार-व्यवहार निर्मल थे। वे सभी स्वर्ग की प्राप्ति रूप लक्ष्य को अपने सामने रखे हुए थे; अतः परस्पर विजय की अभिलाषा से वे आर्यजनोचित युद्ध (धर्म युद्ध) करने लगे। जनेश्वर ! उन सब के वंश शुद्ध और कर्म निष्कलङ्क थे; अतः वे बुद्धिमान् योद्धा उत्तम गति पाने की इच्छा से धर्मयुद्ध में तत्पर हो गये। वहाँ अधर्मपूर्ण और निन्दनीय युद्ध नहीं हो रहा था, उसमें कर्णी, नालीक, विष लगाये हुए बाण और बस्तिक नामक अस्त्र का प्रयोग नहीं हुआ था। ( टिप्पण - कर्णी, नालीक व बस्तिक आदि अस्त्र अपेक्षाकृत अधिक तीक्ष्ण होने से युद्ध में वर्जित हैं)। उस युद्ध में न सूची, न कपिश, न गाय की हड्डी का बना हुआ, न हाथी की हड्डी का बना हुआ, न दो फलों या काटों वाला, न दुर्गन्धयुक्त और न जिह्मग (टेढ़ा जाने वाला) बाण ही में लाया गया था । ( टिप्पण - सूची, कपिश आदि बाण भी अधिक तीक्ष्ण होने से इनका प्रयोग धर्म-युद्ध में वर्जित है ।) वे सब योद्धा न्याययुक्त युद्ध के द्वारा उत्तम लोक और कीर्ति पाने की अभिलाषा रखकर सरल और शुद्ध (सामान्यतः उपयोग में लाये जाने वाले ) शस्त्रों ही धारण किये हुए थे । 9595 अहिंसा कोश / 303] Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEXnx ___{1031} न कूटैरायुधैर्हन्याधुध्यमानो रणे रिपून्। न कर्णिभिर्मापि दिग्धैर्नानिज्वलिततेजनैः॥ (म.स्मृ.-7/90) युद्ध करता हुआ (राजा या कोई योद्धा) कूटशस्त्र (बाहर में लकड़ी आदि तथा * भीतर में घातक तीक्ष्णशस्त्र या लोहा आदि से युक्त शस्त्र); कर्णि के आकार वाले फल ॐ (बाण का अगला भाग), विषादि में बुझाये गये, तथा अग्नि से प्रज्वलित होनेवाले अर्थात् # अंत में आग का गोला बन कर संहार करने वाले (अणुबम आदि) अस्त्र-शस्त्रों से शत्रुओं म को न मारे। [टिप्पणी:- आज की स्थिति के परिप्रेक्ष्य में परमाणु-अस्त्रों, रासायनिक व जैविक अस्त्रों का प्रयोग युद्ध में करना धर्मविरुद्ध कहा जायेगा।] 呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听玩玩呢呢呢呢呢呢呢呢 {1032} इषुर्लिप्तो न कर्णी स्यादसतामेतदायुधम्। यथार्थमेव योद्धव्यं न क्रुद्धयेत जिघांसतः॥ (म.भा. 12/95/11) युद्ध में विषलिप्त और कर्णी (नामक तीक्ष्ण) बाण का प्रयोग नहीं करना चाहिये। ॐ ये दुष्टों के अस्त्र हैं। यथार्थ (सर्वमान्य) रीति से युद्ध करना चाहिये। यदि कोई व्यक्ति युद्धक * में किसी का वध करना चाहता हो तो उस पर क्रोध नहीं करना चाहिये (किन्तु यथायोग्य 卐 प्रतीकार करना चाहिये)। KEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE {1033} कर्म चैतदसाधूनामसाधून् साधुना जयेत्।। धर्मेण निधनं श्रेयो न जयः पापकर्मणा। (म.भा. 12/95/16-17) छल-कपट का काम तो दुष्टों का काम है। श्रेष्ठ पुरुष को तो दुष्टों पर भी धर्म से ही विजय पानी चाहिये। धर्मपूर्वक युद्ध करते हुए मर जाना भी अच्छा है;परंतु पापकर्म के द्वारा विजय पाना अच्छा नहीं है। ........ .. ........ EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEES विदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/304 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयुक्त ग्रन्थों / प्रकाशनों का विवरण 1. वाल्मीकि रामायण (हिन्दी अनुवाद सहित, भाग-ढ्ढ व ढढ्ढ), प्रका. गीता प्रेस, गोरखपुर, संवत् 2044 (छठा) संस्क., 2. महाभारत (हिन्दी अनुवाद सहित, खण्ड 1 से 6 तक), प्रका. गीता प्रेस, गोरखपुर, अनुवादक : पं. रामनारायण दत्त शास्त्री 'राम', सं. 2044 (पंचम) संस्क., 3. मनुस्मृति, अनुवादक, पं. हरगोविन्द शास्त्री, प्रका. चौखम्बा संस्कृत संस्थान, वाराणसी, संवत् 2049 (चतुर्थ) संस्क., 4. याज्ञवल्क्य स्मृति, अनुवादक : डा. गंगासागर राय, प्रका. चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान, दिल्ली-110007, 1999 ई. संस्क., 5. श्री विष्णु पुराण (हिन्दी अनुवाद सहित ), अनुवादक: मुनिलाल गुप्त, प्रका. गीता प्रेस, गोरखपुर, संवत् 2043 (दसवां) संस्क., 6. बीस स्मृतियां (खण्ड-ढ्ढ व ढ्ढढ्ढ), संपा. पं. श्रीराम शर्मा आचार्य, प्रका. संस्कृत संस्थान, बरेली - 243003 (उ.प्र.), 1987 ई. संस्क., 7. शुक्रनीति, चाणक्य नीति, वृद्ध चाणक्य (क एवं ख), चाणक्य सार संग्रह, नीतिशतक (भर्तृहरि), संग्रह ग्रन्थ : संस्कृत के लोक-विश्रुत नीति काव्य एवं आकलन, डा. किरण शुक्ल, प्रका. जे. पी. पब्लिशिंग हाउस, के. 447, प्रेमनगर - II, नांगलोई, दिल्ली-110041, 1999 ई. संस्क., 8. ऋग्वेद (ढ-ढ्ढङ्कभाग), भाष्यकार : पं. श्रीपाद दामोदर सातवलेकर, प्रका. स्वाध्याय मण्डल, पारडी (बलसाड, गुजरात), 1985 ई. संस्क. 9. यजुर्वेद, भाष्यकार : पं. श्रीपाद दामोदर सातवलेकर, प्रका. स्वाध्याय मण्डल, पारडी (बलसाड, गुजरात), 1985 ई. संस्क. 10. अथर्ववेद का सुबोध भाष्य, भाष्यकरः पं. श्रीपाद दामोदर सातवलेकर, (1-3 भाग), प्रका. स्वाध्याय मण्डल, पारडी (बलसाड, गुजरात), 1983 ई. संस्क. ६६६६६६६६ अहिंसा कोश / 305] Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 中国兵兵兵兵兵兵兵兵兵兵用玩玩乐乐玩玩玩乐乐玩玩乐乐FE EEEEEEEEEEEEEEENA 11. ऋग्वेद संहिता (सायण-भाष्य सहित), 1-4 भाग, संपा. मैक्समूलर, प्रका. कृष्णदास अकादमी, वाराणसी, 1983 ई. (द्वितीय संस्क.), 12. शुक्ल यजुर्वेद संहिता (वाजसनेयी माध्यन्दिन शाखा), उव्वट-महीधर-भाष्य- सहित, प्रका. मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली-वाराणसी, 1978 ई. (पुनर्मुद्रण). 13. कृष्ण यजुर्वेद (तैत्तिरीय) संहिता, सायण-भाष्य सहित, प्रका. आनन्दाश्रम संस्कृत ग्रन्थ मुद्रणालय, पुणे, 1978 ई.संस्क. 14. तैत्तिरीय संहिता, सायण-भाष्य सहित, प्रका. वैदिक संशोधन मण्डल, पुणे, 1972 ई. संस्क. 15. कृष्णयजुर्वेदीय तैत्तिरीय संहिता, संपा. पं. श्रीपाद दामोदर सातवलेकर, प्रका. स्वाध्याय मण्डल, पारडी (बलसाड, गुजरात), चतुर्थ संस्क. 16. सामवेद संहिता, सायण-भाष्य सहित, (1-5 भाग), संपा. श्री सत्यव्रत सामश्रमि भट्टाचार्य, प्रका. मुंशीराम मनोहरलाल, दिल्ली, 1983 ई. संस्क. 17. शतपथ ब्राह्मण (वाजसनेयि-माध्यन्दिन), 1-5 भाग (सायण-भाष्य सहित), प्रका. ज्ञान पब्लिशिंग हाउस, 29/6 शक्तिनगर, दिल्ली-7, 1987 ई. संस्क.. 18. ताण्ड्य महाब्राह्मण (सामवेदीय) सायण-भाष्य सहित, (1-2 भाग), प्रका. चौखम्भा संस्कृत संस्थान, वाराणसी, वि. सं. 2044 (द्वितीय संस्क.) 19. गोपथ ब्राह्मण (भाष्यम्)(अथर्ववेदीय), भाष्यकारः पं. क्षेमकरणदास त्रिवेदी, प्रका. डा. इन्द्रदयाल सेठ, इलाहाबाद, 1977 ई. (द्वितीय संस्क.) 20. ऐतरेय ब्राह्मण, सायण-भाष्य-सहित, संपा. डा. सुधाकर मालवीय, (1-2 भाग), प्रका. तारा प्रिंटिंग वर्क्स, वाराणसी, 1980-83 ई. संस्क. 21. तैत्तिरीय ब्राह्मण (कृष्णयजुर्वेदीय), (1-2 भाग), सायण-भाष्य सहित, प्रका. आनन्दाश्रम (संस्कृत ग्रन्थालय), पुणे, 1979-81 ई. संस्क. 22. तैत्तिरीय ब्राह्मण, (भट्ट भास्कर मिश्र-भाष्य सहित), (1-4 भाग), प्रका. मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, 1985 ई. संस्क. 23. मैत्रायणी संहिता (यजुर्वेदीय), संपा. पं. श्रीपाद दामोदर सातवलेकर, प्रका. स्वाध्याय मण्डल, पारडी (बलसाड, गुजरात), चतुर्थ संस्क., 24. ऐतरेय आरण्यक (सायण-भाष्य सहित), संपा. डा. मुनीश्वर देव, प्रका. विश्वेश्वरानन्द . वैदिक शोध संस्थान, होशियारपुर, 1992 ई. संस्क. EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEP [वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/306 SEEEEEEEEEEEEEEEEEEE 參與听听听听听乐听听听听听听听听乐听听听听听听听乐娱乐乐%¥¥垢乐乐乐乐明垢玩垢妮乐乐乐娱乐¥4 Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “男男男男男男男男男男男男男男%%%%%% %% %% % % % %%% % 25. पाराशर स्मृति (हिन्दी टीका सहित), प्रका. चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी, 1998 ई. (द्वितीय संस्क.) 26. लघु हारीत स्मृति (हिन्दी व्याख्या सहित), प्रका. चौखम्बा ओरियण्टालिया, वाराणसी, 1996 ई., 27. मत्स्य पुराण, प्रका. आनन्दाश्रम (संस्कृत ग्रन्थावली), पुणे, 1981 ई., 28. मार्कण्डेय महापुराण, 1-5 भाग (हिन्दी अनुवाद सहित), प्रका. पौराणिक तथा वैदिक अध्ययन एवं अनुसन्धान संस्थान, नैमिषारण्य, सीतापुर, 1984 ई., 29. मार्कण्डेय महापुराण (हिन्दी अनुवाद सहित), प्रका. नाग पब्लिशर्स, दिल्ली-110007, 30. ब्रह्मवैवर्त पुराण (पूर्वभाग व उत्तरभाग), हिन्दी अनु. तारिणीश झा, प्रका. हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, 1981 व 1984 ई. संस्करण। 31. योगवाशिष्ठ (वाल्मीकि-प्रणीत) (1-5 भाग) हिन्दी अनु. डा. महाप्रभुलाल गोस्वामी, प्रका. तारा बुक एजेन्सी, वाराणसी, 1994 ई. संस्क. 32. योगवाशिष्ठ (वाल्मीकि-प्रणीत) (1-3 खण्ड), संपा. डा. कान्ता गुप्ता, प्रका. नाग । पब्लिशर्स, दिल्ली-7, 1998 ई. संस्क. ... 33. उपनिषत्संग्रहः, प्रका. मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, 34. वेद-सुधा, संग्राहक व अनुवादकः डा. सत्यकाम विद्यालंकार, प्रका. राजपाल एण्ड सन्स, दिल्ली, 1972 ई. संस्क. 35. गरुड महापुराणम्, संपा. पं. श्रीरामतेज पाण्डेय, प्रका. चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी, 1986 ई. संस्क. 36. ब्रह्माण्ड महापुराण, संपा. डा. के .वी.शर्मा, प्रका. कृष्णदास अकादमी, वाराणसी, 1983 ई. संस्क. 37. पद्ममहापुराण (उत्तरखण्ड व क्रियाखण्ड), प्रका. नाग पब्लिशर्स, दिल्ली, 1984 ई. संस्क. 38. संक्षिप्त पद्मपुराण (हिन्दी), प्रका. गीता प्रेस, गोरखपुर, सं. 2043 संस्क. 39. पद्मपुराण (सृष्टि खण्ड), प्रका. नाग पब्लिशर्श, दिल्ली, 1984 ई. संस्क. 40. पद्मपुराण (भूमिखण्ड, स्वर्गखण्ड, ब्रह्म खण्ड, पाताल खण्ड), प्रका. नाग पब्लिशर्स, दिल्ली, 1984 ई. संस्क. , 41. अग्नि महापुराण, प्रका. नाग पब्लिशर्स, दिल्ली, 1985 ई. संस्क. %% % %%%%% % %%% % %%%% % % %%% % %% अहिंसा कोश/307] Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE ___42. वामन महापुराण, प्रका. नाग पब्लिशर्स, दिल्ली, 1985 ई. संस्क. 43. ब्रह्म महापुराण, प्रका. नाग पब्लिशर्स, दिल्ली, 1985 ई. संस्क. 44. अग्नि पुराण-(1-2 भाग), हिन्दी अनुवादः तारिणीश झा, प्रका. हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, 1986 ई. 45. विष्णु पुराण, प्रका. नाग पब्लिसर्स, दिल्ली, 1985 ई. 46. भविष्य पुराण (1-3 भाग), प्रका. नाग पब्लिसर्स, दिल्ली, 1984 ई. 1 47. स्कंदपुराण (1-7 भाग), प्रका. नाग पब्लिसर्स, दिल्ली, 1986 ई. 48. शिव पुराण (1-2 भाग), प्रका. नाग पब्लिसर्स, दिल्ली, 1986 ई. 49. देवी भागवत पुराण, प्रका. प्रका. नाग पब्लिसर्स, दिल्ली, 1986 ई. 50. नारदीय महापुराण, प्रका. नाग पब्लिसर्स, दिल्ली, 1986 ई. 51. विष्णुधर्मोत्तर पुराण, (1-2 भाग), प्रका. नाग पब्लिसर्स, दिल्ली, 1986 ई. ........ .. -........ 黑垢埃斯埃斯埃斯加明媚乐乐垢垢玩垢玩垢玩垢玩垢玩垢坑坑坑坑坑坑坑坑頻頻出货坎坎圳乐乐斯斯與纸 8 EEEEEEEP NEEEEEEEEEEEEEEEEEEE विदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/308 Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा विश्वकोश (वैदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड) . ॥ विषय-सूची॥ (अकारादि-क्रम मे संयोजित) • प्रस्तुत अहिंसा-विश्वकोश (के वैदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड) में प्रतिपादित Sसमस्त विषयों को अकारादि-क्रम से संयोजित कर, एक तालिका बनाई गई है जो नीचे प्रस्तुत है। तालिका में चयनित प्रत्येक विषय के सामने उनसे सम्बद्ध श्लोकों/उद्धरणों की अनुक्रम-संख्या दर्शाई गई है। प्रस्तुत कोश में (अन्दर) प्रत्येक उद्धरण/श्लोक से पूर्व र उसकी अनुक्रम-संख्या अंकित है। नीचे की तालिका में चयनित विषय के सामने सम्बद्ध र श्लोक/उद्धरण की संख्या के अतिरिक्त, सम्बद्ध पृष्ठ की संख्या भी, उद्धरण-संख्या के सामने र अंकित की गई है। इसके आधार पर पाठक चयनित विषय पर उद्धरण आदि खोजना चाहें, ए एतो वे निर्दिष्ट अनुक्रम-संख्या व पृष्ठ-संख्या पर उसे खोज सकते हैं। विषय-शीर्षक श्लोक/उद्धरण संख्या | पृष्ठ संख्या 20 अक्रोध [देखें-क्षमा] 90-92 192-204 297-306 680-731 1,2 7 8-10 13-14 15-18 अहिंसा-विश्वकोश/309] Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-शीर्षक श्लोक/उद्धरण संख्या पृष्ठ संख्या || 498 141 206 234 236 237 239 735 828,830 834 837 845 868 879 889 893 941 944 247 252 254 276 277 20 अचौर्य/अदत्तादान-विरति [देखें-अहिंसा और अस्तेय/अचौर्य धर्म] 228-229 812-815 1-2 Feeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee 129 198 193 233 234 683 826 827,829,830 868-869 881 882-889 247 250 251-252 अध्यात्मयोग/अध्यात्म-साधना [देखें-अहिंसा और अध्यात्म-साधना; अहिंसाः वर्णाश्रम-धर्म एवं अध्यात्म योग की अंग] 825-910 233-258 Greeeeeeeeeeeeeeeeeepend विदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/310 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-शीर्षक श्लोक/उद्धरण संख्या | पृष्ठ संख्या SO अनुकम्पा/दया 5,7 8-10 13-14 17 57 195 200 206-207 223 336,339 352 584 677 831 846 864 अनुकम्पा-दान [देखें-अहिंसा की सहज अभिव्यक्ति... दया-दान द्वारा..; दान धर्म] 738-748 988-995 767 207-209 290-292 215 277 809 अनुग्रह [देखें-अहिंसा की अभिव्यक्ति...] 343-356 101-104 52 147 153 190 200 204 253 302 अहिंसा-विश्वकोश/311] Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-शीर्षक श्लोक/उद्धरण संख्या | पृष्ठ संख्या 826 233 291 अन्नदान 312 739 748 801-802 207 209 225 30 अन्न आदि का दानः प्राणदान/प्राणरक्षा |784-793 219-222 अपरिग्रह [देखें-अहिंसा और सन्तोष...] 169-173 605-613 196, 198 204 880-881 885-888 66 250 252 890 253 अभयदाता व प्राणि-मित्रः र ब्रह्मलोक का अधिकारी... 899-910 255-258 208 COअभयदान [देखें-अहिंसा की सहज अभिव्यक्ति...; अहिंसा के व्यावहारिक रूप ...; अहिंसात्मक अभयदान के प्रेरक वचन] 209 742,744 745-747 303 308 309-13 314-316 477 833 134 235 236 834 CareeeeeeeeeeeeeeeeeeeeRJ विदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/312 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-शीर्षक श्लोक/उद्धरण संख्या| पष्ठ संख्या 0अवध्य [देखें-रक्षणीय...] 262-273 81-83 1017 299 असत्य [देखें- अहिंसा और सत्य, अहिंसाः वाणी-व्यवहार में भी] 497-498 379 141 108 असन्तोष [देखें-हिंसक वृत्तिः असन्तोष व परिग्रह] 605-607 169-170 CO अस्तेय [देखें-अहिंसा और अस्तेय धर्म] 812-815 228-229 अहिंसक आचरणः पुण्यात्माओं/ संत महात्माओं की पहचान 145-154 42-46 SO अहिंसक आचरणः सभी वर्गों के लिए | 825-831 233-235 50 अहिंसक आचार-विचार के सूत्रः भारतीय सांस्कृतिक वांग्मय में.... 208-496 68-140 30 अहिंसकः उत्तम दाता 737 206 अहिंसकः कटुवचन सुन कर भी अनुद्विग्न 594-604 166-169 aeeeeeeeeeeeeeeeekeepenal अहिंसा-विश्वकोश/313] Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-शीर्षक श्लोक/उद्धरण संख्या पृष्ठ संख्या YO अहिंसक की वाणीः प्रिय व हितकर हो | 543-558 154-157 SD अहिंसकः दान का योग्य पात्र 760-763 212-213 SO अहिंसक दृष्टिः अनुशासन में 2 भी अपेक्षित 395-396 111 20 अहिंसक दृष्टि से सम्पन्न युद्धःधर्मयुद्ध | 996-1033 293-304 अहिंसकः मदिरा व मांस का त्यागी 491-496 139-140 र अहिंसकः माता-पिता-तुल्य अहिंसकः मांस के क्रय-विक्रय आदि का भी त्यागी र 427-434 121-123 911 259 20 अहिंसक यज्ञ की समर्थक विविध र कथाएं (राजा वसु का उपाख्यान) 927-929 265-272 SO अहिंसक वचन का सुप्रभाव 577-593 163-166 50 अहिंसक व दयालु स्वभावः राजा के लिए अपेक्षित 935-944 275-277 SO अहिंसकः वाणी-प्रयोग में कुशल/ अप्रमत्त 559-576 157-162 Releaseeeeeeeeeeeeeees [वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/314 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-शीर्षक श्लोक/उद्धरण संख्या प्रठ संख्या हेंसकः शरणागत-रक्षक 667 189 । अहिंसक=क्षमावान् [देखें-अहिंसा और क्षमा/अक्रोध धर्म...] 680-681 192-193 190-207 62-67 SO अहिंसक ही वैष्णव एवं ईश्वर-भक्त SO अहिंसाः अनेक धर्मों की प्राण 497-824 141-232 CO अहिंसा/अहिंसक आचरण: गृहस्थ आश्रम में 845-857 239-243 CO अहिंसा/अहिंसक आचरणः S ब्रह्मचर्य आश्रम में 844 രശസ CO अहिंसा/अहिंसक आचरण : वानप्रस्थ आश्रम में 864 246 SO अहिंसा/अहिंसक आचरण सभी 5 वर्गों के लिए 825-833 233-235 SO अहिंसा/अहिंसक आचरणः S संन्यास आश्रम में 865-878 246-249 174-175 SO अहिंसा (=आत्मवत् व्यवहार)= दया| 614-620 - अहिंसाः आहार-सेवन में 416-496 117-140 SO अहिंसाः ईश्वरीय स्वरूप (क्षमा आदिः देवी का स्वरूप) 138-189 अहिंसा-विश्वकोश/315] Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक/उद्धरण संख्या पृष्ठ संख्या 22-26 विषय-शीर्षक So अहिंसाः एक परम तप SO अहिंसाः एक सात्त्विक गुण CO अहिंसाः एक सार्वत्रिक व - सार्वकालिक धर्म . . 1-17 1-5 SO अहिंसा और अध्यात्म साधना 879-910 250-258 50 अहिंसा और अस्तेय/अचौर्य धर्म 812-815 228-229 CO अहिंसा और इन्द्रिय-निग्रह आदि धर्म (इन्द्रिय-संयम,दम,जितेन्द्रियता, ब्रह्मचर्य आदि...)| 816-820 229-231 1-2 4-9 2-3 . . . . . 2 2 2 2 2 = 2 2 2 8 3 ४३ 64-65 180 198 203 204 (वैदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/316 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-शीर्षक श्लोक/उद्धरण संख्या | पृष्ठ संख्या 206,207 221 254 257 333 448 498 569 680 681 730 732 735 821 824 RRNNN 829 831 836 837,839 864 879-882 884-890 899 234 235 236 237 246 250-251 251-253 255 SO अहिंसा और क्षत्रिय वर्ण 840-842 237-238 अहिंसा और क्षमा/अक्रोध धर्मः परस्पर-सम्बद्ध... 680-731 192-204 अहिंसा और तप धर्म 1821-824 231-232 174-192 SO अहिंसा और दया/आनृशंस्य धर्म 64-679 arsen L अहिंसा-विश्वकोश/317] Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ s विषय-शीर्षक श्लोक/उद्धरण संख्या पृष्ठ संख्या 20 अहिंसा और ध्यानयज्ञ 892 253 78 498 879 250 अहिंसा और ब्राह्मण वर्ण 832-839 235-237 अहिंसा और यज्ञीय विधान 911-931 259-272 CO अहिंसा और राज-धर्म 932-1033 273-304 SO अहिंसा और शूद्र वर्ण 843 239 । अहिंसा और शौच धर्म 227 811 1,2 8,10 191 207 683 703,706 821 828-30 889 COअहिंसा और सत्यः परस्पर-सम्बद्ध 497-498 141 विदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/318 eue Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-शीर्षक श्लोक/उद्धरण संख्या | पृष्ठ संख्या । अहिंसा और सन्तोष/अपरिग्रह धर्म 169-173 64 605-613 196,198 204 880-881 885-888 890 252 253 20 अहिंसा और हिंसा (सामान्य पृष्ठभूमि) 1-154 1-46 अहिंसा का आधारः प्रशस्त चिन्तन र वसमत्व-दर्शन... | 251-261 78-81 । अहिंसा का धार्मिक भावात्मक परिवार | 162-163 50-51 Co अहिंसा का विध्यात्मक स्वरूपःजीव-रक्षा | 170-172 अहिंसा का व्यापक परिभाषित स्वरूप 164-167 229 51-52 72 615 174 अहिंसा की अभिव्यक्तिः परोपकार| अनुग्रह/पर-कल्याण 344-356 101-104 अहिंसा की नींवः आत्मवत व्यवहार | 229-250 614-620 990 72-78 174-175 291 50 अहिंसा की परम धर्म के रूप में प्रतिष्ठा 36-50 10-13 17 अहिंसा-विश्वकोश/319] . Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-शीर्षक श्लोक/उद्धरण संख्या पृष्ठ संख्या ० अहिंसा की परिभाषा [देखें-अहिंसा का व्यापक परिभाषित स्वरूप] | 164-167 51-52 229 72 30 अहिंसा की पूर्णताः मांस-भक्षण ले के त्याग से ही 423-426 119-120 Pा अहिंसा की प्रमुखताः श्रेष्ठ ए युग की आधार... 180 CO अहिंसा की सहज अभिव्यक्तिः अनुकम्पादान व अभयदान... 738-748 207-209 SO अहिंसा की सार्थकताः कपट, S द्वेष व कुटिलता से रहित व्यवहार... |357-369 104-106 र अहिंसा की स्थापना के लिए ए ईश्वरावतार | 179 59 SO अहिंसा के प्रतिकूल धर्मः परनिन्दा, 5 परदोषारोपण, आत्म-स्तुति आदि... | 397-415 112-116 अहिंसा के व्यावहारिक रूपः क्षमा, अभयदान, प्राणदान... 297-306 91-92 विदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/320 Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ žviriminirriter विषय-शीर्षक अहिंसाः क्रियायोग व ज्ञानयज्ञ में अहिंसाचरण का लौकिक, पारलौकिक व आध्यात्मिक लाभ अहिंसाचरण के लिए सर्वथा उपयुक्त भूमिः भारतवर्ष... अहिंसात्मक अभयदान के प्रेरक वचन अहिंसात्मक दान-धर्म और उसके स्थायी प्रतीक... अहिंसात्मक प्रवृत्तिः क्षमा अहिंसाः दशांग धर्म का एक विशेष अंग " श्लोक / उद्धरण संख्या খ 899 891 53-90 178 307-316 794-810 738 692-698 18-19 अहिंसाः दैनिक जीवन में आचरणीय 208-228 अहिंसा परमो धर्मः [ देखें- अहिंसा की परम धर्म के रूप में प्रतिष्ठा ] 683 36-50 61 पृष्ठ संख्या 253 15-26 58-59 92-94 222-227 207 195-196 5-6 193 68-72 10-13 17 seeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeer अहिंसा - विश्वकोश / 321] Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय- शीर्षक अहिंसा - पालन में सहयोगी: दान-धर्म ० अहिंसाः प्रशस्त मनोभावों की स्रोत (दया, करुणा, परदुःखकातरता, मैत्री...) ० अहिंसाः ब्रह्मरूपता की प्राप्ति का साधन → अहिंसाः भारतीय संस्कृति व धर्म की केन्द्र-बिन्दु .... ० अहिंसाः वर्णाश्रम धर्म एवं अध्यात्मयोग की अंग अहिंसाः वाणी-व्यवहार में भी ० अहिंसाः शिव धर्म की आधार ० अहिंसा-समृद्धि से सम्पन्न देश ही सेवनीय ० अहिंसा से समन्वित आचरण ही धर्म अहिसा / हिंसा की कसौटी पर ही सत्य / असत्य का निर्णय... zzzz श्लोक / उद्धरण संख्या [वैदिक / ब्राह्मण संस्कृति खण्ड / 322 732-734 317-343 893-898 178-207 825-910 370-394 33-35 51 20-21 आत्मवत् व्यवहार 614-620 [देखें- अहिंसा - आत्मवत् व्यवहार; अहिंसा की नींव ] 229-250 614-620 990 499-513 पृष्ठ संख्या 205 94-101 254-255 58-67 233-258 106-111 9-10 14 19 6 142-146 174-175 72-78 174-175 291 Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Feeeeeeeeeeeeeeeeeeeeepany विषय-शीर्षक श्लोक/उद्भरण संख्या | पृष्ठ संख्या 1400 112 SO आत्मस्तुति [देखें-अहिंसा के प्रतिकूल धर्म] 114 406-407 410 414-415 1945 277 317-343 94-101 PO आदर्श अहिंसक राज्यः रामराज्य आनृशंस्य [ देखें-अहिंसा और दया; अहिंसाः प्रशस्त मनोभवों की स्रोत] 320 332-33,335 336,338-339 341 352 SO आहार-सेवन [देखें-अहिंसाः आहार-सेवन में] 416-496 117-140 30 इन्द्रिय-निग्रह/इन्द्रिय-संयम [देखें-अहिंसा और...] 229-231 816-820 1-2 4-9 2-3 64-65 अहिंसा-विश्वकोश/323]] Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-शीर्षक श्लोक/उद्धरण संख्या| पृष्ठ संख्या 89 180 198 203 204 160 192 193 204 206 207 221 254 257 333 448 498 569 680 681 730 732 735 821 824 829 831 836 837,839 864 879-882 884-890 899 Feeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee 205 206 231 232 234 235 236 237 246 250-251 251-253 255 20 ईश्वरावतार [देखें- अहिंसा की स्थापना] 179 514-518 146-147 10 कटुवचन [देखें- हिंसक वचन] 519-542 104 148-153 29 वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/324 Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-शीर्षक श्लोक/उद्धरण संख्या | पृष्ठ संख्या 139, 143 445 841-42 940, 942 125 238 कर (राजकीय टैक्स) [देखें- राजा की अहिंसक दृष्टि..] 950-958 279-282 0 करुणा [देखें- दया] 614-679 174-192 14 204 320 332-333,335 336,338-339 341 352 621 656 676 20 कलियुग [देखें- हिंसा-प्रमुखताः कलियुग की विशेषता] | 181-187 60-61 20 कषाय [देखें-हिंसा का आधारः मानसिक विकार/कषाय]| 155-159 47-48 काला-धन [देखें-हिंसात्मक कार्य से अर्जित] 612 172 Paeeeeeeeeeeeeeeeeeeerend अहिंसा-विश्वकोश/325] Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-शीर्षक श्लोक/उद्धरण संख्या| पृष्ठ संख्या O क्रूर/तीक्ष्णतम शस्त्रास्त्रों (परमाणु अस्त्रों) का प्रयोग युद्ध में वर्ण्य | 1029-1032 302-304 कृपणताः आत्मघाती प्रवृत्ति 754-756 2111 र कृपणता=नृशंसता/हिंसात्मक कार्य 750-753 210 क्षत्रिय वर्ण [देखें-अहिंसा और क्षत्रिय वर्ण] 840-842 237-238 .क्षमा [देखें- अहिंसा और क्षमा; अहिंसा के व्यावहारिक रूप;अहिंसात्मक प्रवृत्तिः क्षमा] 680-731 297-306 192-204 90-92 1,2 8-10 13-14 15,18 149 191 193 204 206 498 141 206 735 828,830 834 234 236 Paneeeeeeeeeeeeeeeeeeerend वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/326 Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-शीर्षक | श्लोक/उद्धरण संख्या | पृष्ठ संख्या 837 845 868 879 237 239 247 250 252 889 893 254 041 276 277 क्षमा आदिः देवी के स्वरूप 189 eeeeeeeeeeeeeeee DO क्षमा की महत्ता 699-716 197-200 क्षमा वक्षमाशीलः प्रशंसनीय 717-731 201-204 SO क्षमावान् ही अहिंसक 680-681 192-193 SO क्षमाः सत्पुरुषों व वीरों का अलंकार | 685-691 194-195 20 क्षमा से धर्म की पूर्णता 682-684 193 गर्भपात = हिंसा . [देखें- भ्रूण-हत्या] 274-291 84-88 CO गृहस्थ [देखें-अहिंसा/अहिंसक आचरणः गृहस्थ आश्रम में]| 845-857 239-243 30 घातक कौन? 427-432 121-122 Luce s so अहिंसा-विश्वकोश/327] Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक/उद्धरण संख्या | पृष्ठ संख्या विषय-शीर्षक SO जितेन्द्रियता [देखें-अहिंसा और इन्द्रिय-निग्रह] 229-231 816-820 1-2 2-3 -65 180 198 204 207 221 257 333 448 498 126 569 680 192 730 204 205 Vaeeeeeeeeeeeeeeeeeeerend विदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/328 Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-शीर्षक श्लोक/उद्धरण संख्या | पृष्ठ संख्या 231 821 824 232 829 831 836 837,839 864 879-882 884-890 234 235 236 237 246 250-251 251-253 899 255 तप [देखें- अहिंसाः एक परम तप; अहिंसा और तप धर्म] 22-26 821-824 7-8 331-332 35,37-38 129 207 216 221 314 472 479 703,705 198 199 711 216 772 828 234 868 247 pe अहिंसा-विश्वकोश/329] Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक/उद्धरण संख्या| पृष्ठ संख्या विषय-शीर्षक SOतीर्थ 12 204 234 235 [देखें- अहिंसा और इन्द्रिय-निग्रह] 229-231 816-820 1-2 4-9 Geeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee weeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee विदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/330 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-शीर्षक श्लोक/उद्धरण संख्या| पृष्ठ संख्या 448 126 498 569 680 681 730 732 735 821 824 829 831 836 837,839 864 879-882 884-890 231 232 234 235 236 237 246 250-251 251-253 899 255 दया 614-679 174-192 [देखें- अहिंसा और दया; अहिंसाः प्रशस्त मनोभावों की स्रोत] 5,7 8-10 13-14 17 57 ....... 195 200 206-207 223 320 332-333,335 336,338-339 341 100 अहिंसा-विश्वकोश/331] Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-शीर्षक श्लोक/उद्धरण संख्या पृष्ठ संख्या 352 584 677 103 164 192 831 235 846 240 864 1 5,7 8-10 13-14 17 190 195 198-199 203 221 303 320 332-33 448 . 455 131 467 589 165 681 710-11 735 193 199 206 विदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/332 Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-शीर्षक श्लोक/उद्धरण संख्या पृष्ठ संख्या 819 AN 231 232 233 234 235 236 239 247 253 254 868 890 893 935,938 275 ए दया/ अनुकम्पा आदि के विशेष पात्रः शरणागत 672 190 SO दया/अनुकम्पा/करुणा से रहित व्यक्ति निन्दनीय 664-666 188-189 10 दया/अनुकम्पा की अभिव्यक्तिः र शरणागत-रक्षा 673-675 190-191 CO दयाः ईश्वरीय स्वरूप । दया, करुणा व सौहार्द-एकार्यक 621 50 दया के पात्रः प्राणि-मात्र 624-628 177-178 दयाः जीव-वध से निवृत्ति 623 Greeeeeeeeeeeeeeeeeeepend अहिंसा-विश्वकोश/333] Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FEMARARAMARRRRRRRRRRepe) विषय-शीर्षक श्लोक/उद्धरण संख्या पृष्ठ संख्या दया-दान द्वारा निर्धन/ अनाथों का पोषणः शासकीय कर्तव्य 990-995 291-292 50 दया-दानः राजा का विशिष्ट कर्तव्य 988-989 290-291 SO दया धर्म की महनीयता 648-663 184-188 | 629-647 178-184 0 दयापूर्ण व्यवहारः पालतूपशुओं के प्रति CO दया-भाव की अभिव्यक्तिः गृहस्थ के भूत-यज्ञ में 858-863 244-245 SO दशांग धर्म 18-19 5-6 683 193 दान-धर्म 1-2 4,7 11-14 15, 17, 18 35 44,46 48 80 146, 147 149 152 180 201 216 विदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/334 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-शीर्षक श्लोक/उद्धरण संख्या पृष्ठ संख्या 223 226 306 314 333 448 126 468 132 472 589 683 705-706 714 730 733 735 828,830 831 846 133 165 193 198 200 204 205 206 234 235 240 COदान-धर्म का स्वरूप [देखें- अहिंसा- पालन में सहयोगी दान-धर्म; अहिंसकः उत्तम दाता; अहिंसात्मक दान धर्म;] | 757-759 211-212 CO दान-धर्म की महत्ता और र उसके महनीय फल 764-783 214-219 CO दान-धर्म के प्रेरक वचन 804-810 226-227 दानः मौलिक सनातन धर्म 735-736 206 धर्म-युद्ध [देखें- अहिंसक दृष्टि से सम्पन्न युद्धः धर्म-युद्ध] | 996-1033 293-304 अहिंसा-विश्वकोश/335] Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-शीर्षक श्लोक/उद्धरण संख्या | पृष्ठ संख्या ध्यान [देखें- अहिंसा और ध्यान-यज्ञ] 253 21 141 250 नरंक और हिंसा 103, 105 109 115-116 118-119 123 124,126 128 130-131 132-134 136-137 143 242 281-82 283 286 412 433 116 122 137 486 496 140 632 151 179 180 180-181 636 637 182 666 794 913 920-21 189 222 260 262 वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/336. Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Fameeroneeeeeeeena विषय-शीर्षक श्लोक/उद्धरण संख्या | पृष्ठ संख्या m 934 263 274 276 939,943 148 CO निर्धनता 519 . [देखें- हिंसा के लिए प्रायः अनुर्वरा भूमिः निर्धनता] 613 | 173 पर-कल्याण [देखें- अहिंसा की अभिव्यक्ति] 43-350 101-104 CO परकीय उपहास 530 150 CO परदुःखकातरता [देखें- अहिंसाः प्रशस्त मनोभावों की स्रोत] 335 338 340-41 100 evendererekeeeeeeeeee 112 पर-दोषारोपण [देखें-अहिंसा के प्रतिकूल धर्म...] 398 1401,403-404 409-410 113 115 55 155 47 60 125 229 230 232 252 पर-बिन्दा 102 129 137 140 Comic cerererererere .. अहिंसा-विश्वकोश/337] Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-शीर्षक श्लोक/उद्धरण संख्या या 154 146 149 155 382 545,547 553 566 574,575 841 867 159 162 परम धर्म [देखें- अहिंसा परमो धर्मः ] 10-13 36-50 409-410 115 । परिग्रह [देखें- हिंसक वृत्तिः असन्तोष व परिग्रह; हिंसात्मक भावों का वर्द्धकः परिग्रह] 605-607 608-611 169-170 170-171 CO परोपकार/अनुग्रह [देखें- अहिंसा की अभिव्यक्ति] 344-356 101-104 52 83 147 152 190 200 204 253 302 826 990 20 प्रशस्त चिन्तन [देखें- अहिंसा का आधार; अहिंसाः प्रशस्त मनोभावों की स्त्रोत; हिंसा/ 173-174 251-261 55-56 78-81 वैिदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/338 Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-शीर्षक .. श्लोक/उद्धरण संख्या पृष्ठ संख्या अहिंसा का आधारः अशुभ व शुभ भाव] 317-343 94-101 71 प्राण-दान [देखें-अन्न आदि का दानः प्राण-दान/प्राण-रक्षा; अहिंसा के व्यावहारिक रूप] . 89 170-172 295-296 618-20 743 745,747 784-793 175 208 209 219-222 10 प्राण-रक्षा [देखें- अन्न आदि का दानः प्राण-दान/प्राण-रक्षा; अहिंसा का विध्यात्मक स्वरूपः जीव-रक्षा; मानवमात्र की रक्षा का भाव] O ब्रह्मचर्य [देखें- अहिंसा और इन्द्रिय-निग्रह; अहिंसा/ अहिंसक-आचरणः ब्रह्मचर्य आश्रम में ] 239 844 816-820 229-31 8-9 79 735 - 821 206 231 235 246 831 865 868-69 880-82 884-890 247 250-251 251-253 Casleenneeeeeeeeeeeeeena अहिंसा-विश्वकोश/339] Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्लोक/उद्धरण संख्या| पृष्ठ संख्या र विषय-शीर्षक 0 ब्रह्मरूपता/ ब्रह्मलोक की प्राप्ति 88 24 132 471 592 704 815 166 198 229 258 263 909 923 O ब्राह्मण [देखें-अहिंसा और ब्राह्मण-वर्ण] 832-839 235-237 O भारत वर्ष [देखें- अहिंसाचरण के लिए सर्वथा उपयुक्त भूमिः| 178 भारत वर्ष; अहिंसा-समृद्धि से सम्पन्न देश] |51 58-59 14 COभारतीय संस्कृति ए [देखें- अहिंसाः भारतीय संस्कृति व धर्म की केन्द्र-बिन्दु) 178-207 58-67 CO भूण-हत्याः निन्दनीय व वर्जनीय . | 274-291 607 669 993 84-88 170 189 292 126-136 CO मद्य-त्याग [देखें- अहिंसकः मदिरा-मांस का त्यागी; मद्य व मांस के त्याग की महिमा; हिंसक भावों की पोषकः मदिरा] 448-483 484-490 491-496 136-139 139-140 186 261 657 915 50 मद्य व मांस के त्याग की महिमा | 448-483 126-136 ocessinerende [वैदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/340 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-शीर्षक लोक/उद्धरण संख्या| पृष्ठ संख्या CO मद्य व मांसः ब्रह्मचारी व संन्यासी C के लिए विशेषतः वर्ण्य 443-447 124-125 CO मधुर/प्रिय वाणी और अहिंसा 147 149 151 192 325 353 373,375 376-77,379-80 383 387 Feeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee 520 522 525 533 544 551-552 554-557 558 560-61 568 573 577-591 593 687 160 162 163-166 166 194 233 825 827 234 117-120 CO मांस-त्याग 416-426 [देखें- अहिंसकः मदिरा-मांस का त्यागी; अहिंसा 435-442 123-124 अहिंसा-विश्वकोश/341] Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-शीर्षक श्लोक/उद्धरण संख्या| पृष्ठ संख्या 126-136 की पूर्णता...; मद्य व मांस के त्याग की महिमा; | 448-484 मांस-भक्षण; हिंसा-दोषः मांस भक्षण में अनिवार्यः| 494 हिंसा ब मांस-दान वर्जितः श्राद्ध में] 930-931 140 .. . 272 मांस-भक्षणःनिन्दनीय व वर्जनीय 435-442 123-124 295-296 मानव-मात्र की रक्षा का भाव CO मृत्यु-दण्ड [देखें-वध-दण्ड/उग्र दण्ड...] 946-949 278-279 मैत्री [देखें- अहिंसाः प्रशस्त मनोभावों की स्रोत; दया]| 317 318 323,325-326 331 332 88 145. 207 218-219 252, 254 259 261 825 159 165 233 235 246 832 846 म्लेच्छ = हिंसक N [वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/342 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-शीर्षक श्लोक/उद्धरण संख्या पृष्ठ संख्या DO यज्ञ [देखें- अहिंसा और यज्ञीय विधान; हिंसा/सूना दोष के निवारक पांच यज्ञ] 857 991-931 242-243 259-272 308 314,315 333 354 453 460 468-470 472 681,683 686 706 714 127 130 132 133 193 194 198 200 . 204 50 यज्ञ में जीव-हिंसाः शास्त्र-सम्मत नहीं | 911-926 259-272 20 युद्ध 2 [देखें- हिंसक युद्ध...] 959-968 282-285 का योग-साधना 2 [देखें-अध्यात्म-साधना] 825-910 233-258 . ___ अहिंसा-विश्वकोश/343] Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | श्लोक/उद्धरण संख्या एक संख्या विषय-शीर्षक CO रक्षणीय/अवध्य प्राणीः स्त्रियां, गौ, पक्षी आदि 262-273 81-83 1017 299 50 रक्षणीयः प्रधान व श्रेष्ठ व्यक्ति 292-294 88-89 SOराज-धर्म [देखें- अहिंसा और राज-धर्म] 932-1033 273-304 141 100 50 राजर्षि-दधीचि (अहिंसा के आराधक) SO राजा की अहिंसकदृष्टि कर-ग्रहण में 354 103 950-958 279-282 राजा रन्तिदेव (अहिंसा के आराधक) SO राजा शिवि (अहिंसा के आराधक) 1341 100 0 राम-राज्य [देखें- आदर्श अहिंसक राज्यः रामराज्य] 945 277 का वध-दण्ड/उग्र दण्डः सामान्यतः वर्जित | 946-949 278-279 वानप्रस्थ [देखें- अहिंसा/अहिंसक आचरणः वानप्रस्थ आश्रम में] 864 246 | 676-679 191-192 DOशरणागत पर दया/करुणाः र श्रेष्ठता की पहचान... LORaeeeeeeeeeeeeeeenel [वैदिकाबाहाण संस्कृति खण्ड/344 Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक उद्धरण संख्या | पृष्ठ संख्या 53 64 1005, 1007 1014 1018 1020 1024 शिव-धर्म [देखें- अहिंसाः शिव धर्म की आधार] 33-35 [देखें-अहिंसा और शूद्रवर्ण] 843 शौच [देखें- अहिंसा और शौच धर्म] 811 1,2 8, 10 191 207 683 703,706 821 828-30 889 lemoensenrenrernal अहिंसा-विश्वकोश/345] Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-शीर्षक .... . . टा श्लोक/उद्धरण संख्या| प्रत संख्या SO सत्य/ सत्यवादिता [देखें- अहिंसा और सत्य;अहिंसाः वाणी-व्यवहार में भी;अहिंसा/ हिंसा की कसौटी पर...] .141-146 497-513 1-2 5,7 10 11-14 15, 18 35, 37 51-52 80 145 150, 152 190-191 204 216 221 257 126 193 194 300 306 448 683 686 703,705-706 710 714 735 772 198 199 200 206 216 233 234 235 825 828 831 विदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/346 Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-शीर्षक ............ श्लोक/उद्धरण संख्या | पृष्ठ संख्या 236 237 meeeeee 240 835 837 846 868-69 879-80 884 885-89 890 252 253 254 893 सन्तोष [देखें-अपरिग्रह] 605-613 169-173 10 67 194 207 687 710-11 817 819 865 230 231 246 868 247 संन्यास [देखें- अहिंसा/अहिंसक आचरणः संन्यास आश्रम में] | 865-878 246-249 10 समत्व-दर्शन 1 [देखें- अहिंसा का आधार...] 251-261 20 साधु/ सज्जन पुरुष व अहिंसा 122 153 154 343-345 600 603 169 57 - अहिंसा-विश्वकोश/347] Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-शीर्षक श्लोक/उद्धरण संख्या | पृष्ठ संख्या 243 343-345 402 409 113 115 177 178 194 200 202 277 278 297 सार्वत्रिक/सार्वकालिक धर्म [देखें अहिंसाः एक सार्वत्रिक/सार्वकालिक धर्म] स्वर्ग और अहिंसा 319 455 Gueeeeeeeeeeeeeeeeeene विदिक ब्राह्मण संस्कृति सन्ड/348 Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Asmeeeeeeeeeeeeeeeeeena विषय-शीर्षक : | श्लोक/उद्ररण संख्या पलस 1459 129 131 614 660 197 188 720 201 202 204 205 724 731 732,733 752 782 796 210 218 223 हत्या के दोषीःशरणागत से विमुख 1668-671 189-190 Oहिंसक/अमर्यादित स्थिति का र राजा ही नियन्त्रक 932-934 273-274 SO हिंसक असत्य वचन त्याज्य 519-542 148-153 DO हिंसकः पृथ्वी पर भारभूत र हिंसक भावों की पोषकः मदिरा 484-490 136-139 20 हिंसक युद्ध का भयावह परिणाम 989-978 285-288 979-987 288-290 959-968 282-285 So हिंसक युद्ध की विद्वेषपूर्ण आगः पीटी-दर-पीढी So हिंसक युद्धः सामान्यतः वर्जित CO हिंसक वचनः कटुवचन 514-518 146-147 Laeeeeeeeeeeeeennel अहिंसा-विश्वकोश/349] Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-शीर्षक ..... ... | श्लोक/उद्धरण संख्या | पृष्ठ संख्या 148-153 519-542 514-518 146-147 519-542 148-153 104 139,143 445 841-42 940,942 276 हिंसक विवाह आदि वर्म्य 856 242 605-607 169-170 CO हिंसक वृत्तिः असन्तोष व परिग्रह हिंसा [देखें- अहिंसा और हिंसा] 1-154 1-46 : . QO हिंसा/अहिंसा का आधारः अशुभ व शुभ भाव 173-174 ....155-56 CO हिंसा/अहिंसा का भावात्मक परिवार | 160-163 . : 149-51. D हिंसा/अहिंसा का विशेष स्वरूप और उसके विविध व्यावहारिक रूप.... र 155-177 47-57 हिसा/अहिंसा का व्यापक स्वरूप और उसके विविध प्रकार... . र 164-11 हिसा/अहिंसा के भेद | 169 20 हिंसाः एक तामसिक प्रवृत्ति Vaeeeeeeeeeeeeeeeeeeene विदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/350 Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-शीर्षक श्लोक/उद्भरण संख्या| पृष्ठ संख्या 00 हिंसा का अधार्मिक भावात्मक परिवार 160-161 49-50 20 हिंसा का आधारः मानसिक र विकार/कषाय 155-159 47-48 NO हिंसा का व्यापक परिभाषित स्वरूप 168 30 हिंसा की निन्दा 91-97 26-27 O हिंसा की परिभाषा [देखें- हिंसा का व्यापक परिभाषित स्वरूप] 168 519 148 CO हिंसा के लिए प्रायः अनुर्वरा ए भूमिः निर्धनता... 613 173 CO हिंसा के लौकिक व पारलौकिक दुष्परिणाम 99-136 28-40 170-171 SO हिंसात्मक (वैर, विद्वेष) आदि भावों का वर्धकः परिग्रह... | 608-611 0 हिंसात्मक/साहस कार्य से dr i 247........ अर्जित 'काले धन' का अशुभ फल... | 612 172 DD हिंसा-दोषः मांस-भक्षण में अनिवार्य | 416-422 117-119 CO हिंसाः धर्म नहीं, अधर्म है | 27-32 8-9 अहिंसा-विश्वकोश/351] Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RAMERemeeeeeee विषय-शीर्षक श्लोक/उद्धरण संख्या पृष्ठ संख्या SO हिंसा-पापनाशकः दान-धर्म | 749 209 हिंसाः पापात्मा का लक्षण 137-143 हिंसा-प्रमुखताः कलियुग की विशेषता | 181-187 60-61 O हिंसा-फलः कर्ता के भावानुरूप ही 175-177 56-57 एक हिंसा व मांस-दान वर्जितः श्राद्ध में | 930-931 272 CO हिंसा (सूबा)दोष केनिवारकपांच यज्ञ |ast 242-243 ererererererererererererererere विदिकाडाहान संस्कृति खण्ड/352 Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा विश्वकोश (वैदिक / ब्राह्मण संस्कृति खण्ड) उद्धरणों की अकारादिक्रम सूची पाठकों की सुविधा को दृष्टि में रख कर, प्रस्तुत अहिंसा - विश्व कोश में (पद्यात्मक व गद्यात्मक) उद्धरणों के प्रारम्भिक अंशों को अकारादि-क्रम से संयोजित कर निम्नलिखित सूची तैयार की गई है: उद्धरण का प्रारम्भिक अंश अकामद्वेषसंयुक्ताः... अकार्पण्यमसंरम्भः... 35 अकूजनेन चेन्मोक्षो... अक्रोध आर्जवं नित्यं... अक्रोधनाः धर्मपराः... अक्रोधश्चानसूया च.... अक्रोधः सत्यवचनम्... अक्रोधेन जयेत् क्रोधम्ः... अक्रोधनो गोषु तथा द्विजेषु.... अखण्डमपि वा मांसं :... अघ्न्या इति गवां नाम ... अचिन्तितमनिर्दिष्टम्.... अजातशत्रुरस्तृतः.... अजेन यष्टव्यमिति... अज्ञानात् तु कृतां हिंसां... अति निहो अति सृधो... अतियज्ञविदां लोकान्... अतिवादांस्तितिक्षेत... अतीवगुणसम्पन्नो..... उद्धरण पृष्ठ संख्या संख्या 57 52 817 510 819 761 865 762 304 448 452 269 456 81 927 177 357 725 392 599 601 340 16 ៩ ៩ ១ ៨ ៖ ៩ ១៩ ន ៩ ៖ ថ្ម ៩ ន ៦៖៥៥ ៩៥ ន ត 230 231 213 246 213 92 126 127 83 128 22 265 57 104 203 111 168 100 उद्धरण का प्रारम्भिक अंश अतीवशेषः कटुका च... अतोऽन्यथा नास्ति... अतो वै नैव कर्तव्या... अत्राप्युदाहरन्तीमम्... अथ गृहाश्रमिणः त्रिविधोऽर्थो ... अथ चेन्मानुषे लोके .... अथ धर्मः समायातः ... अथ धर्माः शिवेनोक्ताः अथवा मासमेकं वै .... अथवा मूलघातेन .. अदंशमशके देशे 'अदत्तादाननिरतः ... अददानमश्रद्दधानम्.... अदाता पुरुषस्त्यागी.... अदानेनापमानेन... अदेशकालज्ञमनायतिक्षमं... अद्य प्रभृति ते राजन्... अद्रोहं सर्वभूतेषु.... अद्रोहः सर्वभूतेषु... 33 "" *** उद्धरण पृष्ठ संख्या संख्या 143 983 113 31 927 265 172 612 84 23 87 162 33 482 984 633 41 110 753 767 936 517 927 567 17 223 352 8 28 28 28 2 289 24 50 9 135 179 30 210 215 275 147 267 159 5 71 103 अहिंसा - विश्वकोश / 353] Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 793m 784 219 79 85 700 268 उद्धरण का उद्धरण पृष्ठ प्रारम्भिक अंश संख्या संख्या अद्रोहश्चाप्यलोभश्च... 93 अद्रोहेणैव भूतानाम्... 838 237 अद्रोहो नाभिमानश्च... 57 16 अद्वेष्टा सर्वभूतानां... 206 67 अधर्मो धर्मघाताय... 929 270 अधर्मो बलवानेष... 929 270 अधीयानः पण्डितंमन्य... 408 114 अधृष्यः सर्वभूतानां ... 466 131 467 131 अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः... 857 242 अनभिध्या परस्वेषु ... 331 97 अनर्थाः क्षिप्रमायान्ति ... 393 111 अदत्तादाननिरतः ... 110 30 अनसूया क्षमा शान्तिः .... 687 194 अनसूया ह्यहिंसा च... 55 15 अनाथं विक्लवं दीनं... 666 189 अनाथान् पोषयेद् यस्तु... अनाथान् व्याधितान् वृद्धान्... अनायसं मुने शस्त्रं... 572 161 अनार्यता निष्ठुरता... 14141 अनाहूतेषु यद् दत्तं... 767 215 अनित्यो विजयो यस्माद्... __284 अनिन्दा परकृत्येषु... अनिष्टं सर्वभूतानां... 297 90 अनीर्षवो न चान्योन्यं... __ 71 अनुमन्ता विशसिता... 121 अनुमोदयिता पूर्वं ... 12 अनूच्यमानास्तु पुनः ... अनृतं तद्धि विज्ञेयं ... 142 अनृतां वा वदेद् वाचं ... 508 144 अनृते च समुत्कर्षो ... 398 112 अन्ततो दयितं घ्नन्ति ... अन्तरं लिप्समानानाम् ... अन्तरिक्षचरः श्रीमान् ... 927 266 उद्धरण का उद्धरण पृष्ठ प्रारम्भिक अंश संख्या संख्या अन्ताश्चाकाल एव स्युः... 934274 अन्नं प्राणा नराणां हि... 785 220 अन्नं विष्ठा जलं मूत्रं... 637 181 अन्नं हि जीवितं लोके... अन्नं हमृतमित्याह... 784 अन्नतः सर्वमेतद्धि... 784 219 अन्नदानात् परं दानं... 786 220 अन्नप्रणाशे भिद्यन्ते... अन्नादे भ्रूणहा मार्टि... अन्नाद्धि प्रसवं यान्ति... 784 219 अन्ने दत्ते नरेणेह... अन्ये वै यजुषां लोकाः... अपरः सर्वभूतानि... अपराधिषु सस्नेहाः ... अपरिज्ञानमेतत्ते ... 928 अपरे बन्धुवर्गे वा ... अपरोपतापि वचनं ... 147 43 अपशब्दाश्च नो वाच्याः ... 576 अपस्मारश्चातिवादश्च ... 816 अपि कीटः पतङ्गो वा ... 114 अपि संचयबुद्धिर्हि... 606 अपृच्छन् सहिताभ्येत्य... अपेयं वाप्यपेयञ्च... अप्रमत्तो गभीरात्मा... अप्रमादोऽविहिंसा च... 69 अप्रियं न वदेज्जातु... 844 अब्रुवन् कस्यचिन्निन्दाम्... 410 115 अभक्षणे सर्वसुखं... 124 अभक्ष्यभक्षणं हिंसा... अभक्ष्यमेतदिति वै... 419 118 अभयं मित्राद् अभयममित्राद्... .326 9 अभयं यस्य भूतेभ्यः ...... 820 अभयं वै ब्रह्म... अभयं सत्त्वसंशुद्धिः... 14944 617 291 am 147 43 115 440 500 30 976 287 983 909 विदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/354 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्धरण का प्रारम्भिक अंश उद्धरण पृष्ठ संख्या संख्या अभयं सर्वभूतेभ्यो ... 303 91 740 207 833 235 ___255 902 256 899 904 257 200 1019 764 257 ___92 745 613 73 742 520 208 ____148 17959 उद्धरण का उद्धरण पृष्ठ प्रारम्भिक अंश संख्या संख्या अव ब्रह्मद्विषो जहि... 364 105 अवृत्तिव्याधिशोकार्तान.... 990 291 अवैरा ये त्वनायासा... 332 98 अव्याहृतं व्याहृताच्छ्रेय आहुः... 560 158 अष्टगव्यं धर्महलं... 636 अशस्त्रं पुरुषं हत्वा... अशाश्वतानि गात्राणि... अश्वमेधसहस्राणां... 794 असतः श्रीमदान्धस्य... असतां शीलमेतद् वै... 402 113 असतालापं पारुष्यं... 159 असत्यमहितं पश्चात्... असन्नस्त्वासत इन्द्र वक्ता... 540 153 असाधुश्चैव पुरुषो... 946 असूयैकपदं मृत्युः... 406 अस्ति देवा अंहोरुर्वस्ति... 135 39 अस्तेयं ब्रह्मचर्यं च... 882 251 अस्मिन् धर्मे स्थितो राजन्... अहन्यहनि दातव्यम्... 758 212 अहमस्मि प्रथमजा ऋतस्य... अहिंसकः शुभाचारो... 843 अहिंसकः समः सत्यः... 53 15 अहिंसकस्ततः सम्यक्... 565 559 151 761 213 ___192 25980 42 11 487 138 376 108 138 अभयमिव ह्यन्विच्छ... अभयस्य प्रदानाद्धि... अभयस्य प्रदानेन... अभ्यावहति कल्याणं... अभ्युत्थानमधर्मस्य ... अमानिनः सर्वसहाः... अमित्रमपि चेद् दीनं... अमित्राश्च न सन्त्येषां... अमृतःस नित्यं वसति... अमेध्ये वा पतेन्मत्तः... अन्यो अन्यस्मै वल्गु... अयुक्तं बहु भाषन्ते... अयुद्धेनैव विजयं... अरुन्तुदं परुषं तीक्ष्णवाचं... अर्थमूलोऽपि हिंसां च... अर्थानामुचिते पात्रे... अर्थैरापादितैर्गुया... अर्धं पापस्य हरति... अलंकारो हि नारीणां... अलुब्धाः शुचयो वैद्याः... अवज्ञातः सुखं शेते... अवधेन वधः प्रोक्तः... अवध्यां स्त्रियमित्याहुः... अवध्या ब्राह्मणा गावो... अवध्याः शत्रुयोषितः... अवध्याश्च स्त्रियः प्राहुः... अवध्यो ब्राह्मणो बालः... 755 528 720 228 489 965 284 ___150 ___280 212 34 795 223 685 194 761 213 301 91 389 110 26582 7183 263 81 27383 26281 | 177 59 अहिंसकस्तथा जन्तुः... अहिंसकस्तु यत्नेन... अहिंसकानि भूतानि... अहिंसकाः प्रपद्यन्ते.. अहिंसया च शक्त्या वा... अहिंसयेन्द्रियासङ्गैः... अहिंसयैव भूतानां... अहिंसां च तथा विद्धि.. अहिंसां तु वदाम्यहम्... अहिंसादिकृतं कर्म... 249 154 18 877 544 925 172 100 264 54 28 अहिंसा-विश्वकोश/355] Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्धरण पृष्ठ संख्या संख्या उद्धरण का प्रारम्भिक अंश उद्धरण पृष्ठ संख्या संख्या उद्धरण का प्रारम्भिक अंश अहिंसादिफलं सम्यक्... अहिंसाधर्मसंयुक्ताः... अहिंसा नाम सर्वभूतेषु... अहिंसानिरतो भूयाद्... अहिंसा परमो धर्मः... 178 51 14 826 828 829 868 880 885 887 889 233 234 234 247 250 252 252 252 अहिंसा सत्यवचनम्... 497 822 831 235 58 171 827 16 54 234 846 अहिंसा परमो यज्ञः... अहिंसापाश्रयं धर्मं ... अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ... अहिंसापूर्वको धर्मः... अहिंसा प्रियवादित्वम्ः... अहिंसायाः परो धर्मः... अहिंसा ब्रह्मचर्यं च... अहिंसाय भूतानां... अहिंसालक्षणो धर्मः... अहिंसा वैदिकं कर्म... अहिंसा सकलो धर्मः.. अहिंसा सत्यमक्रोधः... अहिंसा सत्यवादश्च... अहिंसा-सत्यास्तेय... अहिंसा समता शान्तिः... अहिंसा सर्वधर्माणां... अहिंसा सर्वभूतानाम्... अहिंसा सर्वभूतेभ्यः... अहिंसेयं महाभागा... अहिंसा सुखावहा... अहिंसैव परं तपः... अहिंसः सर्वभूतानांः... 5 2 70 -- 26 -- 90 अहिंसा सत्यमस्तेयम् ... 1021 301 -- अहिंस्रस्य तपोऽक्षय्यम्... अहिंस्रो याति वैराज्यं... अहो जीवितमाकांक्षेत्... आकाशादवनिं प्राप्तः... आक्रुष्टस्तर्जितो वापि... आकुष्टस्ताडितः कुद्धः... आक्रुष्टस्ताडितश्चैव... - | 7 12 198 2 4 64 911 730 692 88 259 204 195 24 - विदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/356. Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्धरण पृष्ठ संख्या संख्या 7120 673 190 928 267 784 669 189 865 उद्धरण का प्रारम्भिक अंश आक्रुष्टो निहतो वापि ... आकुष्टोऽभिहतो यस्तु... आक्रोशितस्ताडितो वा... आक्रुश्यमानो नाक्रोशेत्... आक्रोशन्तं स्तुवन्तं च... आक्रोशपरिवादाभ्यां... आगतस्य गृहं त्यागः... आगमेनैव ते यज्ञं... आचार्यं च प्रवक्तारं... आजन्मसेवितं दानैः... आज्ञायैवं गुणान् दोषान्... आत्मनः प्रतिकूलानि... आत्मनिन्दाऽऽत्मपूजा च... आत्मवत् सर्वभूतानि... आत्मवत् सर्वभूतेषु... 671 888 20 182 136 929 264 उद्धरण पृष्ठ संख्या संख्या 698 196 695 196 ___173 55 596 167 604 169 708 199 190 928 268 272 83 535 152 204 __66 233 415 ____116 248 ___ 229 72 615 174 400 112 453 17 410 115 247 77 426 120 580 163 893 254 879 250 662 935 75 988 290 748 804 226 989 291 559 157 801 225 349 830 234 उद्धरण का प्रारम्भिक अंश आर्तप्राणप्रदा ये च... आर्तो वा यदि वा दृप्तः... आलम्भसमये तस्मिन्... आवाहाश्च विवाहाश्च... आशया ह्यभिपन्नानाम्... आशीर्युक्तानि सर्वाणि... आस्ते यम उपयाति... आस्तेऽवमत्योपन्यस्तं... आहर्ता चानुमन्ता च... आहारं कुर्वती गां च... इक्ष्वाकुणा शम्भुना च... इज्यायज्ञश्रुतिकृतैः... इति पापानि घोराणि... इत्युक्तमात्रो नृपतिः... इत्युचार्य नरो दद्याद्... इदं कृतयुगं नाम... इमांल्लोकाञ्छान्तो न... इषुर्लिप्तो न कर्णी... इष्टं दत्तमधीतं च... इष्टाचारो दमोऽहिंसा... इष्टापूर्तफलं चैव... इह लोके परत्रासौ... ईदृशः पुरुषोत्कर्षः... ईदृशः पुरुषो नित्यं... ईदृशाय सुरश्रेष्ठ... ईर्ष्या मोदोऽतिवादश्च... ईहत धनहेतोर्यः... उक्तं न प्रतिजग्राह... उक्ताश्च न वदिष्यन्ति... उच्चा दिवि दक्षिणावन्तो... उच्चावचकरा दाप्या... उत्सादयति यः सर्वं... उदीरत सूनृता उत्पुरन्धी.. उद्यतेषु च शस्त्रेषु... 862 926 213 1032 453 69 आत्माभिष्टवनं निन्दां... आत्मार्थे यः परप्राणान्... आत्मोत्कर्षं न मार्गेत... आत्मोपमस्तु भूतेषु... आत्मौपम्येन मन्तव्यं... आदानादपि भूतानां... आनृशंस्यं क्षमा शान्तिः... आनृशंस्यं क्षमा सत्यम्... आनृशंस्यं परो धर्मः... 4 178 717 84 22 87 . 24 187 आनृशंस्येन सर्वस्य... आ नो भर दक्षिणेन... आपद्येव तु याचन्ते... आपातप्रीतिजनकं... आपो नित्यं प्रदेयास्ते... आराध्यते महादेवः... आर्जवत्वमलोभश्च... 760 818 611 928 598 782 955 980 379 462 212 230 171 269 167 218 281 288 108 130 अहिंसा-विश्वकोश/357] Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्धरण का प्रारम्भिक अंश उद्वेगजननं हिंसा... उद्वेजनेन बन्धेन.... उपक्रामति जन्तूंश्च.. उपलक्ष्याणि जानीयात्... उपायविजयं श्रेष्ठम् ... ऊषुर्द्विजातयो देवान्..... ऊचुर्वसुं विमानस्थं.... ऊधश्छिन्द्यात् तु यो धेन्वाः.... ऋजून्येव विशुद्धानि... ऋतं तपः, सत्यं तपः श्रुतं ... ऋषयो ब्राह्मणा देवा..... ऋषिभिः संशयं पृष्टो... एकः सम्पन्नमश्नाति .... एकं प्रसूयते माता.... एकपादस्थिते धर्मे .... एकाहं स्थापयेत्तोयं... एकेन सह संयुक्त:... एकेनैकश्च शस्त्रेण... एकैकमेते.... एको हापि बहून् घ्नन्ति... एतत् तपश्च पुण्यं च.... एतन्नः संशयं छिन्धि... एतत् फलमहिंसायाः..... एतत्साधारणं धर्मम्..... एतद् रूपमधर्मस्य ..... एतानासेवेत यस्तु.... एतावानव्ययो धर्मः.... एते पञ्चदशानर्था.... एतेऽपि ये याज्ञिका..... एतैर्दशभिरंगैस्तु..... 33 एतैश्चान्यैश्च राजेन्द्र ... एवं कुटुम्बभरणे.... [ वैदिक / ब्राह्मण संस्कृति खण्ड / 358 उद्धरण पृष्ठ संख्या संख्या उद्धरण का प्रारम्भिक अंश एवं दोषो महानत्र... 278 एवं धर्मः समायातः.... एवं बहुविधा दोषाः एवं बहुविधान् भावान्..... एवंभूतो नरो देवि .... एवंयुक्तसमाचाराः.... 8 5 168 946 128 137 40 961 283 927 266 927 267 958 282 1030 303 772 216 420 118 911 259 751 210 582 164 51 14 794 222 1007 296 1011 297 155 47 969 285 1029 302 927 266 62 17 11 4 31 9 130 38 823 232 320 95 608 170 917 261 19 6 683 193 483 136 120 34 " एवं लोकेष्वहिंसा तु ... एवं वै परमं धर्मं .... एवं शीलसमाचारः... एवं सम्यक् मया प्रोक्तं ... एवं सर्वमहिंसायाम्..... एवं सर्वाष्यवस्थासु... एवं स्वभरणाकल्पं ... एवमुक्त्वा स नृपतिः.... एवमेव विना राज्ञा.... एष दीर्घायुषां मार्गः... एष धर्मः कुरुश्रेष्ठ... एष धर्मो महायोगः ... 33 उद्धरण पृष्ठ संख्या संख्या औषधं स्नेहमाहारं... औषधाद्युपकारे तु.... कः शक्रोति गुणान् वक्तुं .... कटुवाचा बान्धवांश्च... कथं कर्तव्यमस्माभिः ... कथंस्विदन्यथा ब्रूयाद्.... कटाऽपि नोदण्डः स्यात्..... करोति स नृपः श्रेष्ठो..... कपोतार्थं स्वमांसानि ... कर्णिनालीकनाराचान् .... कर्म च श्रुतसम्पन्नं ..... कर्म चैतदसाधूनाम्..... कर्मणा मनसा वाचा ... 33 674 162 486 489 119 101 638 423 426 89 178 42 1021 120 928 932 87 80 14 735 792 173 178 531 51 927 942 954 341 518 687 1033 16 65 191 14 2 2 3 4 4 4 4 4 = 8 59 68 5482 50 137 138 33 28 182 119 120 25 58 11 300 34 269 273 24 22 4 206 222 55 58 151 14 266 276 100 147 194 304 5 18 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्धरण पृष्ठ संख्या संख्या 367 106 18059 1021 300 991 147 767 138 149 343 101 149 526 607 657 170 186 435 816 200 871 248 उद्धरण का उद्धरण पृष्ठ प्रारम्भिक अंश संख्या संख्या 76 21 133. 39 16451 196 64 349 102 847 240 854 241 891 253 कर्मणा मनुजः कुर्वन्... . 420 118 कलिं ते कुर्वतेऽभीष्टं... 489 138 कल्कापेतामपरुषाम्... 575 कविर्देवो न दभायत्... 210 कस्य वै को मतः कामो... 927 266 कः परः प्रियवादिनाम्... काकश्च सप्तजन्मानि... 28386 कानि कर्माणि धाणि... 70 19 कान्तारेष्वथ घोरेषु... 462 130 कामजेषु प्रसक्तो हि... 841 238 कामं दुग्धे विप्रकर्षत्यलक्ष्मी... 533 ___151 कामक्रोधसमायुक्तो... 733 कामक्रोधौ पारतन्त्र्यं... 818 230 कामादप्यधिको लोके... 159 48 कामैरहतधीर्दान्तो... 204 66 कार्तवीर्यानिरुद्धाभ्यां... 478 134 कार्याण्युत्तमदण्डसाहस... 959 282 काले हितं मितं ब्रूयाद्... 561 158 किं धनेन करिष्यन्ति... 764 214 किं पुनर्हन्यमानानां.. 426 120 कुटुम्बभरणाकल्पो... 12034 कुटुम्बिने सीदते च... 739 207 कुम्भीपाकं स च वसेद्... 28386 कुवाक्यान्तञ्च सौहृदम्.... 538 153 कुशैः काशैश्च बनीयाद्... 643 646 184 उद्धरण का प्रारम्भिक अंश कूटेन व्यवहारं तु... कृतं प्रावर्तत तदा... कृतं ममाप्रियं तेन... कृपणानाथवृद्धानां... कृपणेषु दयालुत्वं... कृपालुरकृतद्रोहः... कृमयः किं न जीवन्ति... केचिद्धंसन्ति तत् पीत्वा... कोपात् कटूक्तिर्नियतं... कोमलं हृदयं नूनं... को वा प्रियोऽप्रियः को वा... कृच्छ्राच्च द्रव्यसंहारं... कृमिकीटवयोहत्या... क्रव्यादान् राक्षसान् विद्धि... क्रोधः शोकस्तथा तृष्णा... क्रोधाहंकाररहितः... क्षणं च तप्तपाषाणे... क्षणं पतति वन्हौ च... क्षतं च स्खलितं चैव... क्षन्तव्यं पुरुषेणेह... क्षन्तव्यमेव सततं ... क्षमते योऽपराधं स.. क्षमां कुर्वन्ति कुद्धेषु... क्षमा गुणवतां बलम्... क्षमा गुणो हि जन्तूनाम्... क्षमा गुणो ह्यशक्तानां... क्षमा तु परमं तीर्थं... क्षमातुल्यं तपो नास्ति... क्षमा तेजस्विनां तेजः... क्षमा दया च विज्ञानं.. क्षमा दानं क्षमा सत्यं... क्षमा द्वन्द्वसहिष्णुत्वम्... क्षमा धनुः करे यस्य... क्षमा धर्मः क्षमा सत्यं... 205 723 276 689 709 690 202 704 198 941 -193 195 199 195 730 711 199 686 194 837237 714 200 697 196 700 197 706 198 204 183 अहिंसा-विश्वकोश/359] Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्धरण पृष्ठ संख्या संख्या 486 137 850 241 147 43 1008 296 270 283 86 726 715 282 957 433 122 108 724 724 202 135 180 636 862 926 746 705 234 927 उद्धरण का उद्धरण पृष्ठ प्रारम्भिक अंश संख्या संख्या क्षमा धर्मोऽह्यनुत्तमः... 682 193 क्षमाधना महाभागाः... 600 168 क्षमा धृतिरहिंसा च... 817 230 क्षमा ब्रह्म क्षमा सत्यं... 703 198 क्षमायुक्ता हि पुरुषाः... 717 201 क्षमावतामयं लोकः... 203 क्षमावतो जयो नित्यं... 200 क्षमावन्तश्च धीराश्च... 731 204 क्षमा वशीकृतिर्लोके... 699 197 क्षमावान् प्राप्पुयात् स्वर्ग... 202 क्षमावान् ब्राह्मणो देवः... क्षमा वै साधुमायाति... 944 277 क्षमा शान्तिस्तथा लज्जा... 162 क्षमा सत्यं क्षमा दानं... 198 क्षमा सत्यं दमः शौचं.... 830 क्षमाऽहिंसा क्षमा धर्मः... 681 193 क्षमा हि परमं बलम्... 195 क्षमेदशक्तः सर्वस्य... 684 193 क्षमैका शान्तिरुत्तमा... 712 क्षान्तो दान्तो जितक्रोधो... 680 क्षात्या शुद्धयन्ति विद्वांसः..... 702 197 क्षान्त्यास्पदं वै ब्राह्मण्यं... 694 19 क्षुधितं तृषितं श्रान्तं... 647 184 क्षुधितस्य द्विजस्यास्य... 741 खराश्वोष्ट्रमृगेभानाम्... 659 , 187 खादकस्य कृते जन्तून्... 434 123 गच्छन्तीह सुसन्तुष्टाः... 656 186 गजो गजेन यातव्याः... 1011 297 गर्भत्यागो भर्तृनिन्दा... 27584 गर्भपातनजा रोगा... 291 88 गवां गोष्ठे वने चाग्नेः... गवादि पिबते यस्मात्... 223 ग्रासादर्धमपि ग्रासम्... 767 215 गुरूणामवमानो हि... 394 111 उद्धरण का प्रारम्भिक अंश गुरुनतिवदेन्मत्तः... गृहस्थधर्मो नागेन्द्र... गृहागते परिष्वङ्ग... गोब्राह्मणनृपस्त्रीषु... गोब्राह्मणं न हिंस्यात्... गोहत्यां ब्रह्महत्यां च... ग्रामेषु भूपालवरो यः... घातकः खादको वापि... घृतात् स्वादीयो मधुनश्च... चतुरो वार्षिकान् मासान्... चतुर्गवं नृशंसानां... चतुर्दशो भूतगणो य एष... चतुष्पात् सकलो धर्मो... चौरग्रस्तं नृपग्रस्तं... छागेनाजेन... छित्त्वाऽधर्ममयं पाशं... जङ्गमैः स्थावरैर्वापि... जज्ञे हिंसा त्वधर्माद् वै... जनवादमृषावादः... जनस्याशयमालक्ष्य... जयो नैवोभयो दृष्टिः... जयो वैरं प्रसृजति... नरायुजाण्डजादीनां... जातवैरश्च पुरुषो... जानता तु कृतं कर्म... जायापत्ये मधुमती... जितेन्द्रियत्वं शौचत्वं.. जिह्वया अग्रे मधु... जिह्वा मे भद्रं वाङ्महो... जीवघाती गुरुद्रोही... जीवितुं यः स्वयं चेच्छेत्... जीवितुं यः स्वयं नेच्छेत्... ज्ञातिसम्बन्धिमित्राणि... ज्ञातीनां वक्तुकामानां.... 690 908 928 16049 199 819 192 241 974 985 873 208 979 176 83 372 14442 170 245 853 241 572 161 विदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/360 Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 175 798 283 938 2017 उद्धरण का उद्धरण पृष्ठ प्रारम्भिक अंश संख्या संख्या ज्ञानाध्यानसुपुष्पाढ्याः ... 35 10 त एव युद्धे हन्यन्ते... 97 287 त एव रुरवो भूत्वा... 13640 तच्छ्रुत्वा तु वसुस्तेषाम्... 928 269 तडागारामकर्तारः... 799 224 तडागे यस्य गावस्तु... ततस्तस्मिन् मुहूर्तेऽथ... 927 267 ततस्ते समयं चक्रुः... 996 293 ततो दीनान् पशून् दृष्ट्वा... 928 ततो भवेत् स वृषलः... ततो भवेत्स शशको... 125 तत्र अहिंसा सर्वथा... 883 तत्र भागवतान् धर्मान्... तत्र वै मानुषाल्लोकात्... 733 तत्राप्यजातनिर्वेद... 120 तथा न क्रीडयेत् कैश्चित्..... 570 तथारिभिर्न व्यथते शिलीमुखैः 516 147 तथाऽहिंसा क्षमा सत्यं... तदा संधाय शक्रेण... तदेतदुत्तमं धर्मम्... 85 23 483 136 तद्वदन् धर्मतोऽर्थेषु... 511 तपोभिर्यज्ञदानैश्च... 314 94 तपो यज्ञादपि श्रेष्ठम्... 8m 232 तपोऽहिंसा च सत्यं च... - 180 तप्यतेऽथ पुनस्तेन... 117 32 तयोः समभवल्लोभो... 161 50 तवाहंवादिनं क्लीबं... 1013 तरमात् तद् वर्जितं... 486 137 तस्मात् प्रमाणतः कार्यः... 45 12 तस्मात् प्राणभृतः सर्वान्... 834236 तरमादन्नात् परं दानं... 786 220 तस्मादन्नात् प्रजाः सर्वाः... तस्माद् बुद्धेर्हि रक्षार्थं... 486 137 उद्धरण का उद्धरण पृष्ठ प्रारम्भिक अंश संख्या संख्या तस्माद् विद्धि महाराज... 426 120 तस्मात्सर्वप्रयत्रेन... 39 11 492 139 948 219 तस्मात् सर्वेषु भूतेषु.... 619 तस्मात् सान्त्वं सदा वाच्यं... 148 तस्मात्सत्यं वदेत्प्राज्ञः... 562 158 तस्मान हिंसायज्ञं च... 272 तस्मान्न हिंसा यज्ञे स्याद्... 929 272 तस्मान्नित्यं दया कार्या... 275 तस्याधर्मप्रवृत्तस्य... 737 206 तादृशं पश्यते बालो... 507 144 तासां क्रमेण सर्वासां... 857 तितिक्षया करुणया... 252 तिष्ठन् गृहे चैव मुनिः... 658 तीक्ष्णवाक्यान्मित्रमपि... 535 152 तृणमपि विना कार्य... 172 तृष्णां छिन्धि भज क्षमा... तेजः क्षमा धृतिःशौचम्... ते तपन्त्यन्धतामिले... ते तु खिन्ना विवादेन... तेतु तद्ब्रह्मणः स्थानं... 923 तेन दत्तानि दानानि... 737 ते मे मतमविज्ञाय... 914 तेषा भार्यास्ति पुत्रो वा... 160 तेषां लिङ्गानि वक्ष्यामि... तेषां विवादः सुमहान् 7o तेषां संवदतामेवम्... 266 तैरियं धार्यते भूमिः... 104 त्यक्तस्वधर्माचरणाः... त्यागो ध्यानमथार्यत्वं... त्रातारं नाधिगच्छन्ति... त्रिकारणं तु निर्दिष्ट... 118 त्रिसन्ध्यं ताडयेत्तं च... 929 145 263 819 786 637 181 अहिंसा-विश्वकोश/361] Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्धरण का प्रारम्भिक अंश त्रीण्येव तु पदान्याहु..... 152 226 895 त्रीन् दोषान् सर्वभूतेषु... त्रैवर्णिकांरत्यजेत् सर्वान्... 870 388 189 त्वंकारो वा वधो वापि ... त्वया युक्ताः शिवोऽहं च... त्वं हरसा तपञ्जातवेदः... दक्षिणावतामिदिमानि चित्रा... दक्षिणावान् प्रथमो हूत..... 777 322 776 दण्डन्यासः परं दानम्... 734 740 468 842 634 639 354 341 816 229 530 150 867 247 दयादरिद्रहृदयं .... 139 41 दया भूतेषु संवादः.... 145 42 दया लज्जा क्षमा श्रद्धा... 845 239 825 233 650 185 613 173 841 238 828 234 दया समस्तभूतेषु.... दया सर्वसुखैषित्वम्... दरिद्रो निरहंस्तम्भो... दश कामसमुत्थानि .... दशाङ्गो राक्षस श्रेष्ठ... दाक्षिण्यं रूपलावण्यं.... दातव्यमसकृच्छक्त्या..... दातारं कृपणं मन्ये.... दानं भूताभयस्याहु..... ..दानं यज्ञाः सतां पूजा... दानं हि भूताभयदक्षिणायाः... 906 59 16 806 226 767 215 316 94 736 206 257 दत्तं मन्येत यद्दत्वा ..... ददाति यजते चापि... दण्डस्य पातनं चैव... दण्डेन ताडयेद् यो हि..... दण्डैर्गास्ताडयेत् मूढो.... दधीचिना पुरा गीत:... दधीचिरपि राजर्षि..... दमो ह्यष्टादशगुण..... दम्भाभिमानतीक्ष्णानि ... दम्भाहंकारनिर्मुक्तो.... उद्धरण पृष्ठ संख्या संख्या [वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड / 362 45 72 254 247 110 62 96 217 217 205 207 132 238 179 182 103 100 उद्धरण का प्रारम्भिक अंश दानधर्मात्परो धर्मो.... दानमिति सर्वाणि भूतानि.... 773 768 788 दानवद्भिः कृतः पन्थाः.... दानमेव परं श्रेष्ठं... दानानि हि नरं पापात्... 805 781 दानेन द्विषन्तो मित्रा... 780 दानेन नश्यते पापं ... 805 दानेन नियमैश्चापि .... 19 683 744 341 691 628 798 594 477 107 732 317 857 637 112 821 831 927 863 558 929 968 261 155 720 579 852 " दीनश्च याचते चायम्... दुःखितानां हि भूतानां.... दुर्जनस्य कुतः क्षमा..... दुर्जनेष्वपि सत्त्वेषु.... दुर्लभं सलिलं तात .... दुर्वाक्यं दुःसहं राजन्... दुष्करं च रसज्ञाने.... दुष्टं हिंसायाम्... दृढकारी मृदुर्दान्तः.... दृते दृह मा, मित्रस्य ..... देवताऽतिथिभृत्यानां.... देवता न हि गृहणन्ति..... देवत्वं सात्त्विका यान्ति... देवद्विजगुरुप्राज्ञ.... देवद्विजातिशुश्रूषा.... देवानां तु पशुः पक्षो.... देवा मनुष्याः पशवो वयांसि ..... देवि वाग् 'यत्ते मधुमत्... दैवतैः सह संहृत्य .... दैवाधीनाविति ज्ञात्वा .... उद्धरण पृष्ठ संख्या संख्या द्वन्द्वोपशमसीमान्तं... द्वादशैते महादोषाः... द्वाविमौ पुरुषौ राजन्.... द्वे कर्मणी नरः कुर्वन्... द्वेषं दम्भं च मानं च... 215 217 221 225 218 218 226 6 193 208 100 195 178 224 166 134 30 205 94 242 181 31 231 235 266 245 157 270 285 81 47 201 163 241 Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 630 391 450 665 308 उकलण... 737 510 930 183 670 76 189 उद्धरण का उद्धरण पृष्ठ प्रारम्भिक अंश संख्या संख्या द्वौ मासौ दापयेद्... 178 धनं फलति दानेन... 71 216 धमेन क्रयिको हन्ति... 428 121 धन्यं यशस्यमायुष्यं... धर्मध्वजी सदा लुब्धः... 130 ॐ धर्मनिष्ठे जयो राज्ञि... 1022 301 धर्ममेव प्रपद्यन्ते... 933 214 धर्मवैतंसिको यस्तु... 206 धर्मस्त्रिपाच्च त्रेतायां... 185 धर्मागतं प्राप्य धनं... 810 227 धर्मे रताः सत्पुरुषैः... 17 धर्मो जीवदयातुल्यो... 648 184 धर्मोपघातकस्त्वेष... 928 268 धर्मो यज्ञस्तपः सत्यम्... 188 धर्मो हि महतामेष... 190 धिक्तस्य जीवितं पुंसः... 668 धिक् तस्य जीवितं राज्ञो... 993 धृति लज्जां च बुद्धिं च... 137 धृतिः शमो दमः शौचंः... ध्यानयज्ञः परः शुद्धः... न कामयेऽहं गतिमीश्वरात् 335 न कुर्यात् कस्यचित् पीडां... 395 न कुर्याद् दुःखवैराणि... 855 242 न कूटैरायुधैर्हन्याद्... 1031 304 न कोपाद् व्याहरन्ते ये... 569 न घातयति नो हन्ति... .. 84 23 87 24 न चक्षुषा न मनसा... 404 113 न चलति निजवर्णधर्मतो... : 194 63 न च हन्यात् स्थलारूढ़.... 1005 296 न चात्मानं प्रशंसेद्वा... 414 116 न चापि वैरं वैरेण... 981 1288 न चैतानृत्विजो लुब्धाः... 923 263 न चोक्ता नैव चानुक्ताः ... 536 152 564 159 292 उद्धरण का उद्धरण पृष्ठ प्रारम्भिक अंश संख्या संख्या न जातु त्वमिति ब्रूयात्... 110 न जीयते चानुजिगीषते 257 80 न ज्ञातिभ्यो दया यस्य... 188 न तत् क्रतुसहस्रेण... 92 न तत् परस्य संदध्यात्... 237 न तत्रासीदधर्मिष्ठम्... 1030 न ताडयति नो हन्ति... 68 19 न तेभ्योऽपि धनं देयं... 145 न दद्यादामिषं श्राद्धे... 272 न दयासदृशो धर्मो... 651 185 न धर्मस्तु दयातुल्यो... 649 185 न नारिकेलबालाभ्यां... 643 183 न नारिकेलैर्न च शाणबालैः 644 न निहन्याच भूतानि... 948 279 न पापे प्रतिपापः स्यात्... 243 न प्रहृष्यति सम्माने... न प्राणाबाधमाचरेत्... 228 न प्रेक्षकाः प्रविष्टाश्च... 1023 न बिभेति यदा चायं... 256 न भक्षयति यो मांसं... 129 130 न भक्षयन्त्यतो मांसं... 118 न भयं विद्यते जातु... 185 न भूतानामहिंसाया... न भोजा ममुर्न न्यर्थमीयु... T18 218 न मन्ये भ्रूणहत्यापि... 179 न मांसमश्रीयात्... 437 123 न मूलघातः कर्तव्यो... 946 278 न युद्धे तात कल्याणं... 978 288 न रज्ज्वा न च दण्डेन... 89 25 न रिपून वै समुद्दिश्य... 1026 302 न वदेत् परपापानि... 547 154 न वदेत् सर्वजन्तूनां... 370 106 521 148 72 301 86 892 98 13 ___160 VI T अहिंसा-विश्वकोश/363] Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 175 574 341 100 338 175 766 उद्धरण का उद्धरण पृष्ठ प्रारम्भिक अंश संख्या संख्या न वधः पूज्यते वेदे... 912 259 नवनीतोपमा वाणी... 151 45 न वाच्यः परिवादोऽयम्... न विमुंचन्ति शस्त्राणि.... __1020 ___300 न संकरेण द्रविणं... 610 171 न संशयं प्रपद्येत... 848 240 न सुखं कृतवरस्य... 968 285 न सुप्तं न विसन्नाहं... 1006 296 न सूची कपिशो नैव... 1030 न सूतेषु न धुर्येषु... 1003 न स्वर्गे नापवर्गेऽपि... न स्वर्गे ब्रह्मलोके वा... न हि कल्याणकृत् कश्चित्... 355 न हि धर्मार्थसिद्धयर्थं... 488 न हि प्राणात् प्रियतरं... 618 न हि प्राणैः प्रियतमं... 455 128 न हि मांसं तृणात्... 117 न हिंसयति यो जन्तून्... न हिंसासदृशं पापं... न हिंस्याद् भूतजातानि... न हिंस्यात् सर्वभूतानि... 850 241 न हि प्रहर्तुमिच्छन्ति... 1028 न हि वैराग्निरूद्भूतः... 987 290 न हि वैराणि शाम्यन्ति... 986 290 न हि स्वसुखमन्विच्छन्... 937 215 न हीदृशं संवननं... 589 165 न ह्यतः सदृशं किंचिद्... 653 न ह्यात्मनः प्रियतरं... 619 | 175 न ह्येको बहुभिर्व्याय्यो... 1012 298 नाकस्य पृष्ठे अधितिष्ठति 775 नाकृत्वा प्राणिनां हिंसां... 416 नाक्रोशमृच्छेन्न वृथा वदेच.... 566 नाच्छित्वा परमर्माणि... 605 169 उद्धरण का उद्धरण पृष्ठ प्रारम्भिक अंश संख्या संख्या नातः श्रीमत्तरं किंचिद्... 713 नात्मनोऽस्ति प्रियतरः... नात्मार्थे पाचयेदन्नम् ... नानिष्टं प्रवदेत् करिमन्.... नान्योऽन्यं हिंस्याताम्... 211 नापध्यायेन्न स्पृहयेत्... 260 नापराधं हि क्षमते... 949 नाभागेनाम्बरीषेण... 478 नायं मार्गो हि साधूनां..... 202 नायुधव्यसनप्राप्तं.... 1004 नारुन्तुदः स्यादातॊऽपि... 539 नारुन्तुदः स्यान्न नृशंसवादी 529 नाश्रमः कारणं धर्मे... 876 नाश्वेन रथिनं पापाद्... 1002 नास्ति दानात् परं भिन्नम्... नास्ति भूमौ दानसमं... 769 निकृत्या वञ्चनं नृणां... 137 निघ्नन्नन्यान् हिनस्त्येनं... नित्यं क्षुत्क्षामदेहस्य... नित्यं मनोपहारिण्या... निदाघकाले पानीयं... निद्रालुः क्रूरकृल्लुब्धो... निन्दाप्रशंसे चात्यर्थ... निरयं याति हिंसात्मा... निर्गुणास्त्वेव भूयिष्ठम्... निर्गुणेष्वपि सत्त्वेषु... 627 निर्दयः सर्वभूतानां... 119 निर्ममश्चानहंकारः... निर्माद चाशुचौ क्रूरवृत्तौ निर्वेदो जीविते कृष्ण... निव्रणश्च स मोक्तव्यः... 1000 निवृत्ता मधुमांसेभ्यः... 464 निवृत्ते विहिते युद्धे... 1001 निष्ठरं भाषणं यत्र... 519 148 417 302 126 410 185 98 3 217 117 वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/364 Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286 ___ m 139 137 405 346 344 उद्धरण का उद्धरण पृष्ठ प्रारम्भिक अंश संख्या संख्या निष्प्राणो नाभिहन्तव्यो... 1013 298 नीचाभिगमनं गर्भ... 290 88 नृपो यदा तदा लोकः... 949 279 नेदमन्योन्यं हिनसात... 21269 नैकमिच्छेद् गणं हित्वा... 294 89 नैतत् प्रशंसन्त्याचार्याः... 944 नैतादृशः परो धर्मो... 930 272 नैनं व्यालमृगा घ्नन्ति... .. 303 91 नैवासन्नद्धकवचो... 997 293 नैष धर्मः सतां देवाः... 927 265 नैष्ठर्यं निघृणत्वञ्च... नोद्वेजयति भूतानि... 89 न्यस्तवर्मा विशेषेण... 1012 298 न्यायोपेता गुणोपेताः... 56 15 न्यूनाङ्गांश्चाधिकाङ्गांश्च... 530 150 पंच सूना गृहस्थस्य... ___857 242 पक्वविद्या महाप्राज्ञा... 22271 पक्षिणां जलचराणां... 267 82 पञ्चजन्मसु गृध्रश्च... 181 पञ्चैतान्यो महायज्ञान्... 857 ___242 पतेद् बहुविधं शस्त्रं.. 934 274 पन्थानो ब्रह्मणस्त्वेते... 893 254 पयस्वन्मामकं वचः... 387 110 परत्र स्वबोध-संक्रान्तये... 143 परं नोद्वेजयेत् कंचित्... 865 परद्रव्येष्वभिध्यानं... 33799 परद्रोहं तथा हिंसां... 249 परनिन्दा विनाशाय... ___116 परनिन्दा कृतघ्नत्वं... 137 40 परपरिवादः परिवादि न... परपीडाकरं कर्म... 201 65 परवाच्येषु निपुणः... 403 113 परश्चेदेनमभिविध्येत... 602 168 परस्मिन् बन्धुवर्गे वा... 616 174 उद्धरण का उद्धरण पृष्ठ प्रारम्भिक अंश संख्या संख्या परस्य दण्डं नोद्यच्छेत्... 396 111 परस्य निन्दा पैशुन्यं... 399 112 पराजयश्च मरणात्... 973 परापवादं न ब्रूयात्... 382 109 परापवादं पैशुन्यम्... 553 परासुता क्रोधलोभाद्... 157 623 परिभूतो भवेल्लोके... 490 परिव्राजकः सर्वभूताभयदक्षिणां 903 256 परूषं ये न भाषन्ते... 568 160 परेषां च तथा दोषं... 114 परेषामुपकारं च... 102 परोपकरणं येषां... 347 102 परोपकारः कर्तव्यः... 354 103 परोपकारेऽविरतं.. 101 परोपघातो हिंसा च... 257 परोपतापनं कार्य... 72 पशवोऽपि वशं यान्ति... 586 पशवोऽपि हि जीवन्ति... 767 215 पशुंश्च ये वै बध्नन्ति... 183 पशूनविधिनाSS लभ्य... पानपस्तु सुरां पीत्वा... 485 पानमक्षाः स्त्रियश्चैव.... 840 पानीयं परमं दानं... 795 पापानां वा शुभानां वा... पापीयसः क्षमेतैव... 197 पापेन कर्मणा देवि... 37 पापेन कर्मणा विप्रो... पापेप्यपापः परूषे... 325 पितृपुत्रस्वसृभातृ... 287 640 पितृभक्ता दयायुक्ता... 190 पिपीलिकाः कीटपतङ्गकाद्याः..863 245 पिबन्तं न च भुआनम्... 1027302 225 165 637 642 263 503 223 246 177 413 606 - 62 - अहिंसा-विश्वकोश/365] Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 267 329 238 उद्धरण का उद्धरण पृष्ठ प्रारम्भिक अंश संख्या संख्या पिशुनां न प्रभाषन्ते... 568 160 पीडामथोत्पाद्य नरस्य... 242 पुमान् पुमांसं परिपातु 295 पुरा शक्रस्य यजतः... . 928 पुष्करिण्यस्तडागानि... 801 पुष्ये भवन्ति जन्तूनां... 181 पूर्व तु मनसा त्यक्त्वा ... 423 119 पृष्टं तु साक्ष्ये प्रवदन्तम्... 505 143 पैशुन्यं साहसं द्रोहः... 841 पौरुषे यो हि बलवान्... 984 289 प्रकीर्णकशे विमुखे... 1020 ___300 प्रकृतिस्त्वं च बुद्धिस्त्वं... 189 62 प्रणीतिरस्तु सूनृता... 593 166 प्रतप्ततैलकुण्डे च... 634 179 प्रतिस्रोतात्मको धर्मः... 160 49 प्रत्यक्ष प्रीतिजननं... 784 219 प्रत्याख्याने च दाने च... 24476 प्रत्याहुर्नोच्यमाना ये... 597 प्रदानं प्रच्छन्नं गृहमुपगते... 146 प्रपाश्च कार्या दानार्थं... प्रभाववानपि नरः... 728 प्रविशन्ति यथा नद्यः... प्रसन्ना सा क्षमायुक्ता... प्रहरन्ति न वै स्त्रीषु... प्राणत्राणेऽनृतं वाच्यम्... 513 प्राणदानात् परं दानं... 297 प्राणनाशस्तु कर्तव्यो... 215 प्राणवांश्चापि भवति... 220 प्राणवियोगप्रयोजन... प्राणातिपाताद् विरताः... 898 255 प्राणातिपाते यो रौद्रो... 119 33 प्राणात्यये विवाहे च... 509 144 प्राणा यथाऽत्मनोऽभीष्टाः... उद्धरण का उद्धरण पृष्ठ प्रारम्भिक अंश संख्या संख्या प्राणा वै प्राणिनामेते... 789 प्राणिनां प्राणहिंसायां... 103 प्राणिनामवधस्तात... 41 11 प्राणिहिंसां न कुर्वीत... 214 प्राणिहिंसानिवृत्ताश्च... 867 879 प्राणिहिंसाप्रवृत्ताश्च... 115 प्रियं मा कृणु देवेषु... प्रियमेवाभिधातव्यं... 585 प्रियवचनवादी प्रियो भवति... 581 प्रियवाक्यप्रदानेन... 577 प्रियवाक्यात् परं लोके... 591 प्रोक्तं पुण्यतमं सत्यं... 350 प्रोक्षिता यत्र पशवो... 926 फलमूलाशनैर्मेध्यैः... बद्धांजलिपुटं दीनं... 672 बन्धुभिर्बद्धसंयोगः... 147 बलात्कृतेषु भूतेषु 675 बलेन विजितो यश्च... 1015 बहुदंशकुलान् देशान्... 633 बहुधा बाध्यमानोऽपि... 197 बहुधा वाच्यमानोऽपि... 719 बहूनामेककार्याणाम्... बाधतां द्वेषो अभयं... 309 बालवृद्धेषु कौन्तेय... 661 बालस्ववासिनीवृद्ध... 860 बीजैर्यज्ञेषु यष्टव्यम्... ब्रह्मचर्यं तथा सत्यम्... ब्रह्मचर्यं तपः शौचम्... ब्रह्मचर्यं दया क्षान्तिः ... ब्रह्मचर्यमहिंसा च... 480 167 43 801 163 173 266 146 767 785 9A 65 881 ब्रह्मचर्यात् परं तात... ब्रह्मचर्येण सत्येन... 447 185 विदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/366 Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्धरण पृष्ठ संख्या संख्या 88 483 288 278 274 281 282 276 436 85 180 140 उद्धरण का प्रारम्भिक अंश भूणघ्नस्य न निष्कृतिः... भ्रूणघ्नाऽवेक्षितं चैव... भ्रूणहत्या अपात्र्या... भ्रूणहा गुरुहन्ता च... भ्रूणहा निवसेच्चण्डे... भ्रूणहाऽऽहवमध्ये तु... मज्जो नाश्नीयात्... मत्तं प्रमत्तमुन्मत्तं... मदरक्तस्य हंसस्य... मदोष्टादशदोषःस... मद्यपो रक्तपित्ती स्यात्... मधुपर्के पशोर्वधः... मधुमन्मे निक्रमणं... मधु मासं च ये नित्यं... 495 834 1024 134 752 590 818 210 439 95 उद्धरण का उद्धरण पृष्ठ प्रारम्भिक अंश संख्या संख्या 196 683 193 ब्रह्मणाभिहितं पूर्वम्... 759 212 ब्रह्मलोके च तिष्ठन्ति... ___136 ब्रह्महत्यासमं पापं... 637 ब्रह्महत्या सुरापानं... ब्राह्मणस्य परो धर्मो... 236 ब्राह्मणेभ्यः प्रदायान्नं... 752 210 भक्षयित्वाऽपि यो मांसं... 476 भक्ष्यं पेयमथालेा... भग्नशस्त्रो विपन्नश्च... 1000 भक्तिश्च नृपतौ नित्यं... 831 भद्रं कर्णेभिः श्रृणुयाम... 334 98 भद्रं नो अपि वातय... 321 भद्रं भद्रमिति ब्रूयात्... 386 109 भद्रं मनः कृणुष्व... 324 भद्रवाच्याय प्रेषितो मानुषः... 374 भयात्पापात् तपाच्छोकात्... 319 भवत्यधर्मो धर्मो हि... 174 56 भवत्यल्पफलं कर्म... 175 भवेत्सत्यमवक्तव्यं... 507 144 भावमिच्छति सर्वस्य... 257 भिक्षुहत्यां महापापी... 286 87 भिक्षोधर्मः शमोऽहिंसा... 866 246 भीतेभ्यश्चाभयं देयं... 312 भुक्ते परिजने पश्चात्... 835 भूतद्रोहं विधायैव... 134 39 भूतानि येऽत्र हिंसन्ति... ___ 30 भूतानि सर्वाणि तथान्नमेतद्... 859 भूतापीडा ह्यहिंसा स्यात्... भूताभयप्रदानेन... 31393 भूतेषु बद्धवैरस्य... 10630 भूतो वत्सो जातबलः... 953 भ्रूणं च घातयेद्यस्तु... 280 931 375 449 451 454 445 824 148 239 929 ___95 56 80 944 534 530 मधुमांसाधनोच्छिष्ट... मनः प्रसादः सौम्यत्वं... मनसिं वचसि काये... मनसोऽप्रतिकूलानि... मन्त्रान् वै योजयित्वा तु.... मन्यते कर्षयित्वा तु... मर्माण्यस्थीनि हृदयं... मर्माभिघातमाक्रोशं... महर्षयश्च तान् दृष्ट्वा... महादोषः संनिपातः... महाप्राज्ञ त्वया दृष्ट... महाभागा कथं यज्ञे... मातरं पितरं वृद्धम्... मातृवत् परदारांश्च... मानसं सर्वभूतानां... मानितोऽमानितो वापि... मानुष्यं सुचिरात् प्राप्य... मा पृणन्तो दुरित... 970 929 109 928 934 167 251 253 730 101 783 219 अहिंसा-विश्वकोश/367) Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 558 281 279 950 463 131 129 124 469 132 उद्धरण का उद्धरण पृष्ठ प्रारम्भिक अंश संख्या संख्या मा भ्राता धातरं द्विक्षन... 361 105 माया च वेदना चापि... 160 49 मार्दवं सर्वभूतानाम्... 401 113 मार्दवं सर्वभूतेषु... 165 मालाकारस्य वृत्त्यैव... 954 मालाकारोपमो राजन्... मा वो वचांसि... 365 105 मा वो वचांसि परि... 381 108 मांसं तु कौमुदं पक्ष... 478 134 मांसभक्षणहीनस्य... मांसं भक्षयते यस्माद्... 459 मां स भक्षयिताऽमुत्र... 442 मांसादनं तथा श्राद्धे... 931 212 मासि मास्यश्वमेधेन... मा हिंसीः पुरुषं जगत्... 209 217 मा हिंसीस्तन्वा प्रजाः... 20868 मित्रीभूताखिलरिपुः... 26181 मिथो विघ्नाना उपयन्तु... 359 104 मुक्तिमिच्छसि चेत् तात... 710 199 मूढानामवलिप्तानाम्... मृगयाऽक्षो दिवा स्वप्रः.... 841 मृत्योर्व्याधिर्जराशोक... 160 मृदुर्दान्तो देवपरायणश्च... 448 मृषाऽधर्मस्य भार्याऽऽसीद्... 161 मैत्राः क्रूराणि कुर्वन्तो... 174 मैत्र्यस्पृहा तथा तद्वदद्... 825 मोक्षे प्रयाणे चलने... 1010 297 य इच्छेत् पुरुषोऽत्यन्तम्... 438 यक्षरक्षःपिशाचान्नं... 494 140 यद्यापि किंचित् कर्तव्यम्... 918 यज बीजैः सहस्राक्ष... 928 यज्ञं कृत्वा पशुं हत्वा... यज्ञश्च परमो धर्मः.. 835 236 उद्धरण का उद्धरण पृष्ठ प्रारम्भिक अंश संख्या संख्या यज्ञियाश्चैव ये वृक्षाः... 918 262 यत् तपो दानमार्जवमहिंसा... 216 69 यत् तु वर्षशतं पूर्ण... 455 यत्ते क्रूरं यदास्थितं... 328 यत् पिबन्ति जलं तत्र... 798 यत्सर्वं नेति ब्रूयात्... 756 यत् स्यादहिंसासंयुक्तं... यत्र देवताः सदा हृष्टाः... यत्र वेदाश्च यज्ञाश्च.... यथा कण्टकविद्धानो... 613 यथाऽऽत्मनि च पुत्रे च... 240 यथा नागपदेऽन्यानि... 423 यथा परः प्रक्रमते परेषु... 235 यथा मधु समादत्ते... 952 यथा यथा न सीदरेन्... 955 यथायोगं यथाकामं... 999 यथा वृक्ष आविर्मूलः शुष्यति... 537 यथाऽऽवृतः स वै ब्रह्मा... यथा सर्वश्चतुष्पाद वै... यथा सूक्ष्माणि कर्माणि... 175 यथा हनुदके मत्स्याः ... 932 यथेमां वाचं कल्याणीम्.... 384 यथैव मरणाद् भीतिः... 230 यथैवात्मेतरस्तद्वद्... यथोत ममुषो मन... 363 यथोपनीतैर्यष्टव्यम्... यदन्येषां हितं न स्याद्... यदन्यैर्विहितं नेच्छेद्... 236 यदा न कुरुते भावं... 255 यदा यदा हि धर्मस्य... 179. यदा सदाऽनृतं तन्द्रा... 182 यदि चेत् खादको न स्यात्... 418 430 121 423 390 110 49 250 929 224 प... 920 262 A विदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/368 Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स 493 894 254 993 210 24 -286 968 उद्धरण का उद्धरण पृष्ठ प्रारम्भिक अंश संख्या संख्या यदि पानं न वर्जेरन्... 486 137 यदृच्छयोपलन्धेन... 25479 यदेतद् द्रविणं नाम... 812 228 यदाऽसौ सर्वभूतानां... यदि ते तादृशो राष्ट्र... 292 यद् घ्राणभक्षो विहितः... 915 261 यद् ददाति यदनाति... 764 214 यद् ददाति विशिष्टेभ्यो... 214 यद् ध्यायति यत्कुरुते... 78 21 यद्भूतहितमत्यन्तं... - 142 यद्यदिष्टतमं द्रव्यं... 757 211 यद्यधर्मरतः सङ्गाद्... 922 263 यश्चैनं परमं धर्मम्... 66 18 यस्तु दुष्टैस्तु दण्डायैः.. 600 168 यस्तु प्रीतिपुरोगेन... 33999 यस्तु रौद्रसमाचारः... 128 37 यस्तु शत्रोर्वशस्थस्य... 676 191 यस्मादुद्विजते लोकः... 532 151 यः कश्चित् निरयात्... 12636 यः कुक्कुटान्निबध्नाति... यः शतौदनां पचति... 631 यः समुत्पादितं कोपं... 717 201 यः सर्वमांसानि न भक्षयीत... 448 यः स्वोदरार्थे भूतानां... 39 यस्तु वर्षशतं पूर्णं... 479 यस्तु शुक्लाभिजातीयः... यस्तु सर्वमभिप्रेक्ष्य... ___ 109 यस्तु सर्वाणि मांसानि... ___128 यस्त्विह वा उग्रः पशून्... 124 36 यस्त्विह वै विप्रो... 496 140 यस्मात्तु लोके दृश्यन्ते... 722 202 यस्मादण्वपि भूतानां... 905 257 यस्माद् ग्रसति चैवायुः... यस्मान्नोद्विजते लोको.... 205 66 उद्धरण का उद्धरण पृष्ठ प्रारम्भिक अंश संख्या संख्या यस्मिन्कुले यः पुरुषः... 293 यस्मिन्नेतानि दृश्यन्ते... 762 यस्य कायगतं ब्रह्म... 140 यां वै दृप्तो वदति... 371 107 याचमानमभीमानाद्... 750 यानं वस्त्रमलङ्कारान्... 934 युद्धे कृष्ण कलिर्नित्यं... 972 युद्धे विजयसन्देहो... युवनाश्वेन च तथा... . 478 ये क्रोधं संनियच्छन्ति... 729 ये त्वनेवंविदोऽसन्तः... 915 ये त्विह यथैवामुना विहिंसिताः131 ये त्विह वै भूतान्युटेजयन्ति... 118 ये त्विह वै पुरुषमेधेन... 913 येन धनेन प्रपणं चरामि... TO ये नरा इह जन्तूनां... 132 येऽन्यायेन जिहीर्षन्तो... 504 143 ये परेषां श्रियं दृष्ट्वा... 106 ये पुरा मनुजा देवि... ये पुरा मनुजा भूत्वा... 182 ये प्रियाणि प्रभाषते... 554 156 ये भक्षयन्ति मांसानि... 459 129 येऽभिद्रुह्यन्ति भूतानि... ये मिथ्यावादिनस्तात... ये याचिताः प्रहृष्यन्ति... ये वदन्ति सदाऽसत्यं... 541 ये वर्जयन्ति परुषं... ये वा पापं कुर्वन्ति... येषां न कश्चित् त्रसति... येषां न माता न पिता... 859 येषां मन्युर्मनुष्याणां... 718 ये शान्ता दान्ताः श्रुतिपूर्ण... 836 236 ये स्थवीयांसोऽपरिभिन्नास्ते... 31895 368 101 638 178 369 106 42 135 *214 23 153 385 569 455 244 200 424 अहिंसा-विश्वकोश/369]] Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256 181 188 721 910 27 246 उद्धरण का प्रारम्भिक अंश संख्या संख्या येषां स्वादूनि भोज्यानि... 993 292 ये ह्येव धीरा हीमन्तः... 977 287 यो जन्तुः स्वकृतैस्तैस्तै... 117 32 यो ज्ञातिमनुगृहणाति... 336 यो देवकामो न धनं रुणद्धि... 779 218 यो दत्त्वा सर्वभूतेभ्यः... 900 योऽधुवेणात्मना नाथा... 320 95 यो नः कश्चिद् रिरिक्षति... 358 यो न हिंसति सत्त्वानि... 54 यो नात्मना न च परेण... 664 यो नात्युक्तः प्राह रूक्षं.... 202 योऽभयः सर्वभूतानां... - 258 यो भुक्ते कामतोऽन्नं च... 637 ___181 यो वाहयेद् विना सस्यं... 635 ____ 180 यो न हिंस्यादहं ह्यात्मा... यो बन्धनवधक्लेशान्... 77 यो यजेताश्वमेधेन... 460 130 यो यस्य मांसमश्राति... 441 __124 योऽर्थे शुचिः स हि शुचिः..... 811 27 यो हि खादति मांसानि... 121 योऽहिंसकानि भूतानि... , 102 रक्षांसि च पिशाचाश्च... रक्षेद् दारांस्त्यजेदीया... रथी च रथिना योद्धयः... 998 रहस्यभेदं पैशुन्यं... 411 115 रागद्वेषवियुक्तात्मा... 867 रागद्वेषात् प्रमादाच्च... 173 ____55 राजन्दुधुक्षसि यदि क्षिति... 956 ___281 राज्ञा राजैव योद्धव्यः 1025 ____301 राजहा ब्रह्महा गोनः... 11632 राज्यं भोगांश्च विपुलान्... राष्ट्रपीड़ाकरो राजा... 943 276 राष्ट्रमप्यतिदुग्धं हि... 953 280 रुकृतिः शोणितकृति... 168 - 53 उद्धरण का उद्धरण पृष्ठ प्रारम्भिक अंश संख्या संख्या रूपमव्यंगतामायुः... 7320 रुक्षा परुषा वाचो न ब्रूयात्... 523 148 रूपमैश्वर्यमारोग्यम्... 7220 रोधनं बन्धनं चैव.... 178 रोहते सायकैर्विद्धं... 146 रौद्रं कर्म क्षत्रियस्य... 209 रौरवे नाम नरके... लज्यते च सुहृद् येन... लालाकुण्डे वसत्येव... तृप्तकेशनखश्मश्रुः... 874 248 लोकद्वये न विन्दन्ति... . 22 लोकद्वेष्योऽधमः पुंसां.... लोकहिंसाविहाराणां... - 625 लोके यः सर्वभूतेभ्यो... 315 लोभात् क्रोधः प्रभवति... 156 लोभात् त्यजन्ति धर्मं वै... 158 लोभात्स्वपालनार्थाय... - लौष्टैः स्तम्भैरायुधैर्वा... वचनं.त्रिविधं शैल... वदन् ब्रह्माऽवदतो वनीयान्... 774 217 वधकस्य हस्तगतं... 208 वधबन्धपरिक्लेशो... वधभीतस्य यः कुर्यात्... वने निरपराधानां... वराहमत्स्यमांसानि... वर्जको मधुमांसस्य... वर्जनीयं सदा युद्धं... वर्जयन्ति हि मांसानि... 471 वर्जयेदुशतीं वाचं... वर्जयेन्मधु मांसं च... 444 125 446 125 वर्णाश्रमाणां सामान्य... 831 235 वर्णिनां हि वधो यत्र... 512 वर्तते.यस्य तस्यैव... 198 64 125 128 427 .29 112 31 264 82 294 247 132 524 149 512 146 विदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/370 Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 929 उद्धरण का प्रारम्भिक अंश विशीर्णकवचं चैव... विश्वस्तघातिनः क्रूराः... विश्वासकस्तृतीयोऽपि... विश्वे ये मानुषा युगा... वीतरागा विमुच्यन्ते... वृद्धबालौ न हन्तव्यौ.... वृद्धो बालो न हन्तव्यो... वृषक्षुद्रपशूनां च... 940 947 उद्धरण पृष्ठ संख्या संख्या 1018 229 18460 432 122 29689 897 255 1017 299 1016 299 287 87 640 182 738 924 195 165 94 207 वेदगोष्ठाः सभाः शालाः... वेदधर्मेषु हिंसा स्याद्... वेदनायां ततश्चापि... वेदवेदाङ्गविन्नाम... वेदाभ्यासस्तपो ज्ञानम्... __160 834 34 120 उद्धरण का उद्धरण पृष्ठ प्रारम्भिक अंश संख्या संख्या वर्षे वर्षेऽश्वमेधेन... 470 132 वसुधातलचारी तु... 271 वाक्सायका वदनान्निष्पतन्ति... 515 146 वाक्पारुष्यं न कर्तव्यं... 276 वादण्डं प्रथमं कुर्याद्... 278 वाचस्पतिर्वाचं नः... 373 107 वाचा मनसि काये च... 693 वाचा मित्राणि संदधति... 587 वाचा युद्धप्रवृत्तानां... 998 वात्सल्यात्सर्वभूतेभ्यः... 973 वापीकूपतडागानि... 802 वापीकूपतडागादौ... 803 वायुनोत्क्रमतोत्तारः... 120 वार्तायां लुप्यमानायाम्... 34 विकलाङ्गान् प्रव्रजितान् 995 विक्रयार्थं हि यो हिंस्याद् 433 122 विगर्हातिक्रमाक्षेप... 696 196 विचक्षणवतीं वाचं भाषन्ते... विजित्य क्षममाणस्य... 944 वितर्का हिंसादयः कृतकारित...169 विदद्वस उभयाहस्त्या... 808 ___226 विदुषामविधेयत्वात्... 485 विनष्टो ज्ञानविद्वद्भ्यः... 490 विनष्टः पश्यतस्तस्य... 674 191 विनश्येत् पात्रदौर्बल्यात्... 760 212 विपरीतस्तामसः स स्यात्... 939 276 विपरीतैश्च राजेन्द्र... 205 विभागशीलो यो नित्यं... 845 239 विमथ्यातिक्रमेरंश्च... 932 विमलमतिरमत्सरः प्रशान्तः 192 63 विरुद्धं वेदसूत्राणाम्... 927 267 विरूपाश्वेन निमिना... 483 136 विवक्षता च सद्वाक्यं... 162 विषमं वाहयेद् यस्तु... 635 180 839 527 791 149 555 156 30692 277 636 432 572 569 187 928 वैरं पञ्चसमुत्थानं... व्याधितस्यौषधं दत्त्वा... षडेव तु गुणाः पुंसा... षड्गवं तु त्रियामाहे... षड्विधं नृपते प्रोक्तं... शक्त्याऽन्नदानं सततं... शठप्रलापाद् विरता... शठाः क्रूरा दाम्भिकाश्च... शतक्रतुस्तु तद्वाक्यम्... शतहस्त समाहर... शयानः परिशोचद्भिः ... शरणागतं यस्त्यजति... शरणागते न्यस्तशस्त्रे... शरण्यः सर्वभूतानां... शरीरवत्तमास्थाय... शर्म यच्छत द्विपदे... षष्टिवर्षसहस्राणि... शश्वत्परार्थसर्वेहः शस्त्रावपाते गर्भस्य... 226 807 120 733 679 273 130 1020 462 919 32797 637 181 345 101 284 86 575 अहिंसा-विश्वकोश/371] Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 93 8 263 289 47 ____136 उद्धरण का उद्धरण पृष्ठ । प्रारम्भिक अंश संख्या संख्या 289 88 शास्त्रदृष्टानविद्वान् यः... 108 30 शिश्नोदरे ये निरताः सदैव... 542 शुक्लाभिजनकर्माणो.... 1030303 शुद्धात्मानः शुद्धवृत्ताः... 1030 303 शुनां च पतितानां च... 861 245 शुभा सत्या च मधुरा... 7 2 शुभेन कर्मणा देवि... शूद्रविट्क्षत्रविप्राणां... 145 श्रृणु मेऽत्र महाराज... शेषो हि बलमासाद्य... 982 शोकः क्रोधश्च लोभश्च... 155 शौचं तपस्तितिक्षां च... 20767 शौचसत्यक्षान्तियुक्तो... 191 ___62 श्येनचित्रेण राजेन्द्र... 483 श्रद्धया देयम्, अश्रद्वया देयम्... 809 श्रद्धा दया तितिक्षा च... 622 176 श्रुत्वा वाक्यं वसुस्तेषाम्... 271 श्रूयतां धर्मसर्वस्वं... 234 74 श्रूयते हि पुराकल्पे... 911 259 श्रेयस्तत्रानृतं वक्तुं... 510 145 श्रेयो दानं च भोगश्च... 216 शूक्ष्णां वाणी निराबाधां... 568 160 संक्षेपात् कय्यते धर्मो.... 234 संग्रामो वै क्रूरम्... 971 संछेदनं स्वमांसस्य... 453 संजातमुपजीवन् स... 953 संतस्त एव ये लोके... 356 104 संपन्मत्तः सुमूढश्च... 171 संपन्मदप्रमत्तश्च... 609 171 संरक्षणार्थं जन्तूनां... 878 249 संरक्षेद् बहुनायकम्... 292 88 संवादे परुषाण्याहुः... 536 152 संविदं कुरुते शौण्डैः.. 486 137 | उद्धरण का उद्धरण पृष्ठ प्रारम्भिक अंश संख्या संख्या संसारे दुःखदं युद्धं... 967 285 संसिद्धाधिगमं कुर्यात्... 22772 सखेव सख्ये पितरेव साधुः.. स चेत् कर्मक्षयान्मोक्षः... स चेत् सन्नद्ध आगच्छेत्... 997 स चेन्निकृत्या युद्धयेत... 9917 स चेद् भयाद् वा मोहाद् वा... 678 192 सतां धर्मेण वर्तेत... 849 240 सतां वानुवर्तन्ते... 923 सत्क्रियाभ्यसनं मैत्रीम्... 145 42 सत्यं च धर्मं च पराक्रमं च... 584 164 सत्यं च समता चैव... 498 141 सत्यं दया तथा दानं... 11 सत्यं दानं दयाऽलोभो... 333 सत्यं ब्राह्मणरूपेण... 162 सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्... 563 सत्यं भूतहितार्थोक्तिः... सत्यमार्जवमक्रोधः... 221 सत्यमिति अमायिता... सत्यवादी जितक्रोधः... 166 सत्यं शौचमहिंसा च... सत्यसारं हितकरं... 559 157 सत्यस्य वचनं श्रेयः... 142. सत्त्वोदयाच्च मुक्तीच्छा... 27 सत्सु नित्यः सतां धर्मः... 297 सदाऽनार्योऽशुभः साधु... 409 115 सदा यजति सत्रेण... 472 133 सदाऽसतामतिवादांरिततिदोत्... 603 स दुःखप्रतिघातार्थं... सद्वाऽसद् वा परीवादो... 412 सनातनस्य धर्मस्य... 144 227 929 769 501 74 127 609 735 206 सन्तः स्वर्गजितः शुक्लाः ... सन्ति दानान्यनेकानि... 56 15 31193 वैिदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/372 Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 __114 उद्धरण का उद्धरण पृष्ठ प्रारम्भिक अंश संख्या संख्या सर्वभूतात्मभूतस्थैः... 478 134 सर्वभूतानुकम्पी यः... 654 186 सर्वभूतेषु यः सम्यग्... सर्वभूतेष्वनुक्रोशं... 655 186 सर्वभूतेषु यो विद्वान्... 299 सर्वमांसानि यो राजन्... 459 सर्वयज्ञेषु वा दानं... 46 सर्वलोकहितं कुर्यात्... 546 सर्वलोकहितासक्ताः... 153 सर्वलोकहितैषित्वं... सर्वस्वस्यापहारे तु... 507 सर्वहिंसानिवृत्ताश्च... 83 660 सर्वाणि भूतानि सुखे रमन्ते... 238 सर्वान्कामानवाप्नोति... 474 सर्वे तनुभृतस्तुल्याः... 23073 सर्वे वेदा न तत् कुर्युः... 473 सर्वे वेदाश्च यज्ञाश्च... 310 सर्वेषामेव दानानाम्... 223 353 उद्धरण का उद्धरण पृष्ठ प्रारम्भिक अंश संख्या संख्या | सन्तुष्टः सततं योगी... 206 67 सन्तुष्टाय विनीताय... 760 212 सप्तर्षयो बालरिवल्याः... 465 131 समः सर्वेषु भूतेषु... 88 24 समं पश्यन्हि सर्वत्र.... समुत्पत्तिं च मांसस्य... 422 119 सम्पूर्णो जायते धर्मः... 18 सम्भोगसंविद् विषमोऽतिमानी... 407 सम्यञ्चः सव्रता भूत्वा... 378 ____ 108 सर्वं तारयते वंशं.... 797 सर्वं परिक्रोशं जहि... 105 सर्वं ब्रह्ममयं पश्येत्... सर्वं मुदितमेवासीत्... 945 सर्वकर्मस्वहिंसा हि... 916 सर्वतश्च प्रशान्ता ये... सर्वतीर्थेषु वा स्रानं... 366 106 सर्वतो मनसोऽसङ्गम्... 207 67 सर्वत्र च दयावन्तः... सर्वत्रात्मेश्वरान्वीक्षां... सर्वथा क्षमिणा भाव्यं... 300 सर्वथा वृजिनं युद्धं... 975 सर्वदानैर्गुरुतरं... 800 सर्वभूतदया चैव... 52 सर्वभूतदयायुक्तो... 362 871 302 91 656 207 786 781 287 91 166 14 198 351 982 128 341 सर्वाभूतदयावन्तः 199 सर्वेषामेव पापानां... सर्वेषामेव भूतानाम्... सर्वेषां यः सुहृन्नित्यं... सर्वोच्छेदे च यतते... स वै मनुष्यतां गच्छेत्... सहस्त्रजिच्च राजर्षिः.. सहस्रम्भरः शुचिजिव्हो... सहृदयं सांमनस्यम्... साधवो ये महाभागाः... सान्त्वेन तु प्रदानेन... सान्त्वेनान्नप्रदानेन... सामादिदण्डपर्यन्तो.... सामान्यमन्यवर्णानाम्... साना दानेन भेदेन... 360 600 960 163 543 614 ___ 174 25479 832 235 200 65 872 248 सर्वभूतसमत्वेन... सर्वभूतहितं कुर्यात्... सर्वभूतहिते युक्ताः... सर्वभूतहितो मैत्रः... 578 964 284 962 283 | अहिंसा-विश्वकोश/373] Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 89 250 645 688 483 267 2m 297 637 129 38 823 82 उद्धरण का उद्धरण पृष्ठ प्रारम्भिक अंश संख्या संख्या सुखभागी निरायासः... सुखं वा यदि वा दुःखं.. सुखापन्हुतिः संरोधो... 168 53 सुजनो न याति वैरं... ___194 सुधियः साधवो लोके... 154 46 सुप्रतीतैस्तथा विप्रैः... 928 सुरां वै मलमन्नानां... 491 सुरापोऽसम्मतादायी... 84 सुविश्रब्धान् कृतारम्भान्... 1010 सूर्यातपे वाहयेद्यः... 180 सोपधं निष्कृतिः स्तेयं... 232 स्तेयं हिंसाऽनृतं दम्भः... 608 170 स्तेयादभ्यधिकः कश्चित्... 812 228 स्त्रियो रक्ष्याः प्रयत्नेन... 268 स्त्रीहिंसा धनहिंसा च... 813 228 229 स्थावराः कृमिकीटाश्च... 112 स्थिराङ्गं नीरुजं दृप्त... 641 183 स्त्रीषु नर्मविवाहे च... 502 142 स्पृहयालुरुग्रः परुषो वा... 397 112 स्यात् प्राणवियोगफलो... 173 स्त्रग्गन्धमधुमांसानि... स्वदुःखेष्विव कारुण्यं... 176 स्वमांसं परमांसेन... स्वर्गच्युतानां लिङ्गानि... स्वस्तिदा मनसा मादयस्व... 330 स्वस्तिर्मानुषेभ्यः... 101 स्वाध्याये नित्ययुक्तः... 246 स्वाध्यायो ब्रह्मचर्यं च... हत्वा गर्भमविज्ञातम्... 87 हत्वा छित्वा च भित्वा च... 856 हन्ति नित्यं क्षमा क्रोधम्... 30592 हन्तृणामाहतानां च 1021 300 उद्धरण का उद्धरण पृष्ठ प्रारम्भिक अंश संख्या संख्या हरति परधनं निहन्ति जन्तून्... 104 29 हरेयुर्बलवन्तोऽपि... 932 273 हलमष्टगवां धर्म्य... 184 हस्तिनश्च तुरंगाश्च... 112 हर्यश्वेन च राजेन्द्र... हितप्रियोक्तिभिर्वक्ता... हिंसकान्यपि भूतानि हिंसकाश्च दयाहीनाः... हिंसया वर्तमानस्य... हिंसया संयुतं धर्मम्... हिंसा गरीयसी सर्व... हिंसा च हिंस्रजन्तूनां... हिंसा चाधर्मलक्षणा... हिंसादम्भकामक्रोधैः... हिंसादिदोषनिर्मुक्ताः... हिंसादोषविमुक्तित्वात्... हिंसा बलमसाधूनाम्... 138 हिंसा बलं खलानां च... | हिंसा मानस्ता ... हिंसारतश्च यो नित्यं... हिंसाविहारा ह्यालब्धैः... 914 हिंसा स्तेयानृतं माया.... हिंसा स्वभावो यज्ञस्य... हिंस्ते अदत्ता पुरुषं... 754 हिंस्रः स्वपापेन विहिंसितः... 122 हिंस्राः भवन्ति क्रव्यादाः... 111 हितं यत् सर्वभूतानाम्... 348 हिरण्यदानैर्गोदानैः... 475 हीनप्राणजडान्धेषु... 1008 हूयमाने तथा वन्हौ... 928 हृत्सु पीतासु युध्यन्ते... 484 136 हृदि विद्ध इवात्यर्थं... 166 हे जिह्वे कटुकलेहे... 557 156 " 815 55 442 124 127 342 242 595 विदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/374 Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दों और अंकों में : लेखक वैराग्य शुभ नाम : गुरुदेव श्री सुभद्र मुनि जी महाराज जन्म . : 12 अगस्त 1951 स्थान ग्राम रिण्ढाणा (हरियाणा) पिता : धर्मनिष्ट श्री रामस्वरूप जैन वर्मा माता : श्रीमती महादेवी जेन वर्मा 9 वर्ष की वय में बाबा गुरुदेव : योगराज श्री रामजी लाल जी महाराज पूज्य गुरुदेव : संघशास्ता श्री रामकृष्ण जी महाराज मुनि-दीक्षा : 16 फरवरी 1964 दीक्षा-स्थान : विविध भाषाविद्, आगम, निगम, पुराण, व्याकरण, काव्य, ज्योतिष, मन्त्र एवं विविध धर्म दर्शनों का गहन अध्ययन।। सृजन : विविध विषयों पर शताविक पुस्तकें पत्रिका : श्री सम्बोधि। शिष्य : श्री रमेश मुनि, श्री अरुण मुनि, श्री नरेन्द्र मुनि, श्री अमित मुनि, श्री हरि मुनि, श्री प्रेम मुनि। प्रशिष्य : श्री अरविन्द मुनि पद एवं : संघशास्ता, विद्यावाचस्पति, विद्या-सागर बहुमान (डी.लिट्), जैन रत्न, युवा मनीषी। विचरण पंजाब, हिमाचल, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेशा सम्प्रति : साहित्य सृजन, बाल संस्कार निर्माण, जन-जागरण एवं जीवन-मूल्यों की स्थापना। व्यक्तित्व : आत्म-साधना, व्याख्याता, लेखन। Rs. 1200.00 Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृति और कृतिकार 'दर्शन और जीवन' परिचय-पंक्ति में अंकित नहीं हो सकता। ठीक इसी प्रकार कृति के सर्जक भी परिचय-पक्ति की रेखाओं से ऊपर हैं। उनके द्वारा रचित अनेक ठोस व चिंतन-प्रधान ग्रन्थ देख कर यह स्वत: प्रामाणित होता है कि वे विद्यावाचस्पति गुरुदेव दार्शनिक मुनि हैं। जीवन के व्याख्याता हैं। मुनित्व उनकी सांसे हैं। दर्शन, जीवन और मुनित्व की सम्पूर्ण व्याख्या का जो स्वरूप बनता है तो यह है-श्री सुभद्र मुनि। ___ इनकी दृष्टि परम उदार है, साथ ही सत्यान्वेषक भी। सत्यान्वेषण करते हुए इनकी दृष्टि में पर, पर | नहीं होता। स्व, स्व नहीं होता। स्व-पर का परिबोध नष्ट हो जाना ही मुनित्व का मूलमंत्र है। स्व और पर युगपद हैं। 'पर' रहा तो 'स्व' अस्त्वि में रहता है। 'स्व' रहेगा, तब तक 'पर' मिट नहीं सकता। दर्शन जितना गूढ, जीवन-सा सरस और मुनित्व के आनन्द में रचा है, इनका व्यक्तित्व। यह व्यक्तित्व जितना आकर्षक है उतना ही स्नेहसिक्त भी है। ___ व्यवहार में परम मृदु। आचार में परम निष्ठावान्। विचार में परम उदार। कटुता ने इनकी हृदय-वसुधा पर कभी जन्म नहीं लिया है। इनका सम्पूर्ण जीवन- आचार, दर्शन का व्याख्याता है। प्रस्तुत कृति 'अहिंसा विश्वकोष' इनके विराट् चिंतन एवम् उदात्त भावों की संसूचक तो है ही, विश्व-संस्कृति को इनके मुनित्व का सार्थक योगदान भी है। हिंसा-ग्रस्त वर्तमान वातावरण में यह अहिंसा का प्रासंगिक हस्तक्षेप है। विश्व-शांति एवम् विश्व-मंगल की भविष्य-रेखाएं काल के भाल पर अंकित करने वाला सद्पुरुषार्थ है यह निश्चित है कि इसका सर्वत्र स्वागत मनुष्यत्व के सार की वर्तमान में उपस्थिति प्रमाणित करेगा। -संपादक ISBN 81-7555-088-0 यूनिवर्सिटी पाब्लकशन 7/31, अंसारी रोड, दरियागंज . नई दिल्ली - 110002 97881751550889 //