Book Title: Agam Sagar Kosh Part 05
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХ नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य आनन्द-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागरगूरूभ्यो REMEIN LITERALLIT IMITERREN IIIMa CEILLION +II IMARINEERINEERIERRITORIES XXXXNNXXXXX. XXXXXXXXXXXXXX XXXXXXXX TITT RRIERRRRENT HTTEEHEET REEEEEELINEERIAL IIIIIIIIIIIIIIRLD HEREIIIIIIIIIIEIRL IIIIIIIIIIIIII. TETTERLETIMIL IIIIIIIIIMIRENIMIREER आगम-सागर-कोष: [मूल शब्दसंकलनकर्ताः- पूज्य आगमोद्धारक आचार्यश्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराज LI ILLIAT RRIEND .XXXAAAOXX. IIEIALA TLEMIIIIRL LEMIIIII AMERIERRAM III s HTTERIER ++ T HTTER TTTIIIEEE. LIERREEERI INEER TRIEWEREILA TEENEERI MERELEELA RAREILLER HTTEER TIMILLER MATTER VILLLLLLLLLLLLLLERRI MERELIMILLITE +LALITI ALLITILLLLLLLLL CLINICILLLLLLLLL IITTTTTTTT LEARTIME HEREILEREILLA CHILLIERELLLLLA REMIIIIIIIIIIIIIIIR T C XXXXXXXXXXXX 4RELIATI TIMITED LLLLLLLLLLLLLL IITTERRITO IIIIIIIII ALLLLLLLLLLLLLLLLLLLL ALLLLLLLLLLLLLLLLLLLLERS AAAAAAAA IIIIIIIIIIII AAVAANWARXXNXXX THRAM... TIMONITIME. ITTERTILLLLLLLED REILEELATERIA AKARMIREMIEREMIERRERAR (प्राकृत-संस्कृत-शब्द एवं तेषाम् ससंदर्भ-व्याख्या सह) ____कोष-रचयिता XOXO मुनिश्रीदीपरत्नसागरजी महाराज [M.com._M.Ed._Ph.D. श्रुतमहर्षि KIXXXXAANAWWW.MAAYOOOXXXXXXXXXX. XXXXXXXX. XXXXXXXXX OXXX. INONVAVANAVANAVANAVAAAAXXXXXXXXXXXXXXXXXXOXOOVA XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX KXXXXXXXXXXXXXXXX M AAVAVAVAVANAVANAVAVVAAAAAAVOYOYOXOXOXOXOXOXOXO) 4XXXXXXXXXXXAANWWWXXXXXXXXXXXOXOXOXOXOXOXOXOXON XXXXXXXXXXX XXXXXXXXXX XXXXXXXXXXXXXXXX R NXXXXX Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य आनन्द-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागरगूरूभ्यो नमः आगम-सागर-कोष:-५ [मूल शब्दसंकलनकर्ता:- पूज्य आगमोद्धारक आचार्यश्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी ..पूज्यपाद आचार्य श्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराज.. प्राकृत-संस्कृत-शब्द एव तेषाम् ससंदर्भ-व्याख्या सह) कोष-रचयिता मुनिश्री दीपरत्नसागरजी महाराज IM.Com. M.Ed.,Ph.D. श्रुतमहर्षि] 12/11/2018 सोमवार, २०७५. कारतक सुद ५: Type Setting: - आशुतोष प्रिन्टर्स, जेतपुर Mobile: 9925146223 It's a Net publication of "jainelibrary.org? [North America] मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [2] “आगम-सागर-कोषः" [५] Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] "आगम-सागर-कोष:” विषयक किञ्चित् स्पष्टीकरण पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेबने अपने युगमे आगमो के बहोत से शब्दो एवं उन की व्याखाओ का चयन किया था, किन्तु ईसे शब्दकोष के रुपमे संकलन और मुद्रण पूज्य आचार्यश्री कंचनसागरसूरिजी आदिने करवाया | ईस कोष का नाम 'अल्प-परिचित-सैद्धान्ति-शब्दकोष:' रक्खा. परन्तु इसमे शब्दार्थ भी है, बहोत स्थान पर शब्दो की आगमिक व्याख्याए भी है और शब्दो के बीच अनेक स्थान पर खास नाम भी है | पूज्य गच्छाधिपति आचार्य सूर्योदयसागरसूरिजी कि सूचना एवं उनसे हुए विचार-विमर्श अनुसार हमने ईस 'कोष' के अध्ययनमे देखा की -कई जगह पर सिर्फ शब्द है, कई जगह शब्द और संदर्भ है मगर अर्थ नहि है, कई जगह पर संदर्भ के नाम है मगर पृष्ठांक नहि है तो कहीं कहीं शब्दो के अ-कारादि क्रममे गलति दिखी है | ऐसी अनेक मर्यादाओ का उल्लेख स्वयम् आचार्यश्री कंचनसागरसूरिजीने 'अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोष' भाग -१ मे किया है | हमने ईस कोष की रचना करते वक्त सिर्फ पूज्यपाद आनन्दसागर सूरीश्वरजी महाराज दवारा संचित शब्दो एवं व्याख्याओ को ध्यानमे ले कर ईस 'कोष' की रचना की है | रचना करते वक्त विशेषावश्यकभाष्य, उपदेशमाला, तत्त्वार्थसूत्र और पउमचरियं के शब्द निकाल कर सिर्फ आगमो के शब्दो को हि स्थान दिया है । अनेक स्थानो पर प्रत्यय या विभक्ति को हटा कर 'शब्दकोष' के नियमानुसार मूल शब्द रख दिये है, परिणाम स्वरुप जहा जहा समान शब्द प्राप्त हए, उन शब्दो को एकसाथ रख कर उन के संदर्भ वहि नीचे जोड दिये है, कहीं कहीं एक हि शब्द की व्याख्या से पता चलता है की ये शब्द भले एक है मगर 'अर्थ' कि द्रष्टि से वे शब्द भिन्न भिन्न है, तो उन शब्दो को अलग अलग भी कर दिया है | जहा प्राकृत और संस्कृत दोनो शब्द है, वहा प्राकृत शब्द को पीछे से आगे ले कर बोल्ड टाईपमे रक्खे है | ऐसे अनेक परिवर्तन कर के कोष का उपोगिता मूल्य बढाकर हमने ईस कोष की रचना की है | हमने ईस 'कोष' का नाम "आगम-सागर-कोष:” पसंद किया है | यहा सिर्फ़ आगमिक शब्दो को हि स्थान दिया है इसिलिए 'आगम' शब्द पसंद किया, सागरजी महाराज दवारा शब्द संचित हुए इसिलिए 'सागर' शब्द लिया, ईस कोषमे शब्द, खासनाम और व्याखयाए तिनो का समावेश हुआ है इसिलिए शब्दकोष नाम कि जगह सिर्फ कोष [Dictionary] शब्द रक्खा है | ईस 'कोष' को हमने पांच भागोमे प्रगट किया है, करीब 1200 पृष्ठोमें रहे हए ईस ग्रन्थमे 41,000से ज्यादा शब्दो [+नामो+धातु का समावेश हुआ है | अनेक शब्दो की व्याख्याए भी है और इन शब्दो या व्याख्याओ के आगमसंदर्भ भी दिये है | इस के साथ हम एक मर्यादा का भी स्वीकार कर लेते है- इस कोष के मूल संपादनमे बहोत से शब्द और अनेक व्याख्याए समाविष्ट नहीं हुई है, इसिलिए यहा पर भी अनेक शब्द और व्याख्याए छुट गए है | शब्दो और खास-नामो के लिए आप हमारा [१] आगम सद्दकोसो भाग १ से ४ और [२] आगम नाम एवं कहाकोसो देख शकते है, और व्याख्याओ के लिए हम भविष्यमें 'जैन आगम कोष:' बनाने का आयोजन कर रहे है | परमात्मा की कृपा हुइ तो मेरे पांच-सो नब्बे [590] प्रकाशनो की तरह 'जैन-आगम-कोष:' भी अवश्य आप के कर-कमलोमें समर्पित हो जायेगा | ...मुनि दीपरत्नसागर..... मुनि दीपरत्नसागरजी रचित "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] संक्षेप ०४ चतु. आतु महाप. भक्त. तन्दु संस्ता . गच्छा . गणि ०६ देवे. ३३ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) संक्षेप-सूचि → क्रम आगम का नाम संक्षेप क्रम आगम का नाम ०१ । आचाराङ्ग आचा. ।। २४ | चत:शरणप्रकीर्णक सूत्रकृताङ्ग सूत्र. | २५ | आतुरप्रत्याख्यानप्रकीर्णक ०३ स्थानाङ्ग स्था . २६ | महाप्रत्याख्यानप्रकीर्णक समवायाङ्ग सम. २७ भक्तपरिज्ञाप्रकीर्णक ०५ | भगवती(अङ्ग) भग. | २८ तन्दुलवैचारिकप्रकीर्णक ज्ञाताधर्मकथाङग ज्ञाता. | २९ । संस्तारकप्रकीर्णक ०७ उपासकदशाङ्ग उपा. | गच्छाचारप्रकीर्णक अन्तकृद्दशाङ्ग अन्त. ३१ | गणिविदयाप्रकीर्णक | अनुत्तरोपपातिकदशाङ्ग अनुत्त 1 ३२ | देवेन्द्रस्तवप्रकीर्णक १० | प्रश्नव्याकरणाङ्ग प्रश्न | मरणसमाधिप्रकीर्णक ११ विपाकश्रुताङ्ग विपा. | ३४ | निशीथछेदसूत्र १२ | औपपातिकोपाङ्ग औप. | ३५ बृहत्कल्पछेदसूत्र १३ | राजप्रश्नीयोपाग राज. | ३६ | व्यवहारछेदसूत्र १४ जीवाजीवाभिगमोपाङग जीवा. | ३७ | दशाश्रुतस्कन्धछेदसूत्र १५ | प्रज्ञापनोपाङ्ग प्रज्ञा ३८ जीतकल्पछेदसत्र सूर्यप्रज्ञप्त्युपाङ्ग सूर्यः ।। ३९ । महानिशीथछेदसूत्र १७ | चन्द्रप्रज्ञप्त्यपाङ्ग चन्द्र० ।। ४० आवश्यकमूलसूत्र १८ | | जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्युपाङ्ग जम्बू० ।। ४१ ओघनियुक्तिमूलसूत्र | निरयावलियकोपाङ्ग निर. | ४१ पिण्डनियुक्तिमूलसूत्र कल्पवतन्सिकोपाङ्ग कल्प. | ४२ | दशवैकालिकमूलसूत्र पुष्पिकोपाङ्ग पुष्पि . | ४३ | उत्तराध्ययनमूलसूत्र २२ पुष्पचूलिकोपाङ्ग पुष्प० ।। ४४ | नन्दीचूलिकासूत्र | वृष्णिदशोपाङ्ग वृष्णि . | ४५ अनुयोगद्वारचूलिकासूत्र देशीय शब्द चूर्णि मरण. निशी बृह. व्यव० दशाश्रुः १९ कि जीत. महानि आव. ओघ. पिण्ड दशवै. उत्त नन्दी अनुओ० २० दे सूचना- [१] उपरोक्त ४५ आगमो के जो शब्द या व्याख्या संदर्भ ईस कोषमे शामिल किये है, उसमें ६ छेदसूत्रो और चन्द्रप्रज्ञप्ति के अलावा बाकी सभी आगमो श्री सागरानन्दरिजी महाराज संपादित प्रतो से है, चन्द्रप्रज्ञप्ति के संदर्भ सूर्यप्रज्ञप्ति अनुसार है, सिर्फ ६ सूत्र के संदर्भ हस्तपोथी से लिए है [२] यहां आगमो के जो संदर्भ दिये है, वे उन आगमो की प्रत या पोथी के पृष्ठ-अंक है | __ [३] हमारा प्रकाशन “सवृत्तिक आगम सुत्ताणि” भाग १ से ४० मे ये सभी आगम मुद्रित है। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] नमो नमो निम्मलदंसणस्स | शबरा- येषामनेकशाखे शृङ्गे भवतः। जम्बू. १२४॥ बाल ब्रह्मचारीश्री नेमिनाथाय नमः शबल- बकुशः-कर्बुरः। स्था० ३३६। बकुशम्। भग० ८९१| आचा. ९७ पूज्य-आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः शबलीभूत-उन्मिश्रम्। आचा० ३२१| श शब्द-राजग्राह्यत्वे शब्दकरणम्। नन्दी० १५८ शक- म्लेच्छदेशविशेषः। उत्त० ३३७ शब्दकरत्व-रात्रौ महाशब्देनोल्लापितत्वम्। शकुनिक- पक्षी। उत्त० ३७८१ सप्तदशममसमा-धिस्थानम्। प्रश्न. १४४| शकुनिकसग्रहणकं- पञ्चरम्। उत्त० ३७८| शब्दनिःस्पृहत्वं- प्रथमा भावनावस्तु। प्रश्न. १५९। शकनिका- पक्षिणी। उत्त०४०९। शब्दवेधी- धनुर्वेदविशेषः। आचा. १७६| शक्ति- शक्तिः प्रहरणविशेषः। भग० १८२। शब्दसप्तैकक- आचाराङ्गद्वितीयश्रुतस्कंधे प्रहरणविशेषः। आव. ५८८ द्वितीयचूडायां चतुर्थमध्ययनम्। स्था० ३८७। शक्र-सौधर्मकल्पे इन्द्रः। ज्ञाता० १२७) शब्दाबैत- सर्वशब्दात्मकमिदमित्येकत्वं प्रतिपन्नः। शक-शङ्कः- लौकिककालोपायः। दशवै० ४०| कालश स्था० ४२५ र्दध्ययर्थं साधनविशेषः। आव० ५५४। शब्दादबैतवादी- सर्वं शब्दात्मकमिदमित्येकत्वं शङ्ख-जीवमिश्रे दृष्टान्तः प्रज्ञा० २५८1 जीवा. १९१| प्रतिपन्नः। स्था० ४२११ शुक्लवर्णपरिणतः प्रज्ञा० १० द्वीन्द्रियजीवविशेषः। शब्दापाति- वर्तुलवैताढ्यः। सम० ९५) प्रज्ञा० २३ शब्दापाती- वर्तुलविजयार्द्धपर्वतविशेषः। प्रश्न० ९५६। शङ्खचर- द्वीप विशेषः। अनुयो. ९०। शब्दायते- आकारयति। जीवा. २४३। शङ्खनक-जीवमिश्रे दृष्टान्तः। प्रज्ञा० २५८। शब्दोन्नतिक- उन्नतशब्दम्। जीवा० १२३, १६४। शङ्खा- वापीनाम। जम्बू० ३७१ शय्यम्भव- परिपाट्या प्रभवशिष्यः। आव०६२ अनाचीर्णे शखावर्ता- वापीनाम। जम्बू० ३७१। आचार्यः। स्थविरविशेषः। आव०६२। बृह. १६६ अ। शङ्खोत्तरा- वापीनाम। जम्बू० ३७१। शय्यातरपिण्डभोजन- पञ्चमः शबलः। प्रश्न. १४४| शची- शक्रस्य दवितीयाऽग्रमहिषी। जम्बू. १५९| शय्यातरावग्रह- पञ्जविधावग्रहे चतुर्थः। आचा० १३४। शत- ग्रन्थान्तरपरिभाषयाऽध्ययनम्। भग०११ शय्यापरिकर्मवर्जन- तृतीयभावनावस्तु। प्रश्न. १२८१ शतपत्र-सुरभिगन्धे दृष्टान्तः। प्रज्ञा०४७३। शय्याभाण्ड- शय्योपकरम्। निर० २७। शतपत्रिका- पूष्पविशेषः। अनुयो० २१४१ शरिध- तोणः। प्रश्न । तोणः। ३२२॥ शतपद- वास्तुन्यासविशेषः। जम्बू० २०८। शरपर्शी- मुञ्जः। स्था० ३३९। शतपर्वा- शतपत्री-पवर्गवनस्पती। आचा० ५७। शराव- अवधेराकारविशेषः। आचा. १५) शतमुख- आधाकर्मपरिभोगे गुणचन्द्रश्रेष्ठिनः पुरम्। शरासन- भद्रम्। भग० १४७ पिण्ड०७४। शरिका-आचा० ३१७ शतातीक- वृद्धः वर्षशतमानः। सूत्र० ८४। शरीर-नैषेधिकी। आव. २६६। शतायुः- अजितसेनापरनाम। सम० १५९। शरीरपर्याप्ति- यया तु रसीभूतमाहरं धातुरुपतया शतारुक-क्षुद्रकोष्ठम्। आचा० २३५। एकादशं क्षुद्रकुष्ठम्। परिणमयति सा शरीरपर्याप्तिः । बृह. १८४ आ। प्रश्न.१६१ शरीरसम्पत्- आरोहपरिणाहयुक्ततादिचतुर्भेदभिन्ना शफ-खुरः। जीवा० ३८। खुरः। प्रज्ञा०४५। सम्पत्। उत्त०३९ शबर- म्लेच्छदेशविशेषः। उत्त० ३३७। म्लेच्छविशेषः। शरीरानुगतः- उद्गारोच्छवासादिः। स्था० ३३६| आचा० ३७७ शर्क- मणिपरीक्षायां ज्ञातव्यः। जम्बू. १३८1 शबरदेशजा- शबरी। ज० १९११ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] शर्करा- मधुररसपरिणता। प्रज्ञा० १० अभ्याहृत-विवरणे देवशर्ममडखस्य ग्रामः। पिण्ड. ९७ शर्करिकालेपः-। ओघ० १४५ शालिभद्र- शुलभोबोधौ दृष्टान्तः। राज०| शर्करिल-पादेषु न्यस्यमानेषु शर्करामात्रसंस्पर्शः। प्रज्ञा० । शाकूल- दर्दूरः। दशवै० १४१। ८०१ शावकः-बोहित्थः, पोतो वा। प्रश्न. ३९| शलभ-सम्मूर्छनजीवविशेषः। आचा०७०| शावितः- शादितः-आकारितः। व्यव० १४४ अख। सम्मूर्च्छनज-विशेषः। दशवै० १४१। शास्ता- तीर्थकृदादिः। आचा० २५० अर्हन्। आव० ११९। शलाका- भूमिस्फोटकविशेः। आचा ५७ घटे कारणम्। शास्ति-निराकरोति। भग० १७४। आचा० २२८१ शिक्षक-नवदिक्षीतः। आचा० ८० शल्लकी-स्कन्धबीजा। दशवै०१३९। शिक्षेत- आसेवेत। आचा. २९११ शव-कणपः। प्रश्न. ५२ शिखरी- वर्षधरः। स्था०६८ शसि-नृपतिविशेषः। उत्त० ३८८1 शिबिका-यानविशेषः। आचा०६० शश्वद्भाव- प्रलयाभावः। जीवा० ९९। शिरः- मस्तकम्। आचा० ३८१ शकुलिका- भक्ष्यविशेषः। प्रश्न. १६३। शिरसिज- केशः। उत्त० ३३८१ शष्प- हरितम्। दशवै० २३५१ शिरीषकुसुम- सुकुमारकुस्मविशेषः। जीवा. २७०। शस्त्रपरिज्ञा- आचाराङ्गे प्रथममध्ययनम्। आव० ५६३।। | शिरोविशुद्ध-शिरसि प्राप्तो यदि नानुनासिकः। स्था० शाकटिक-सारथिः। स्था० २४० ३९६। स्वः शिरसि प्राप्तः सन्नान्नासिको भवति ततः शाकढिक-सौपारके वृद्धश्रावकः। व्यव० १७४ आ। शिरोविशुद्धम्। जम्बू. ४०।। शाकिनी- डाकिनी। प्रश्न. ५२। शिलाप्रवाह-विद्रुमं रत्नम्। जीवा. १६४| शाक्य- मतविशेषः। आचा०४०३। शाक्यः-मतविशेषः। शिलीमुख- द्रव्यशल्यम्। आव०७८३। उत्त० ३३७ शाक्यः । आव०५९| शिल्प-कादाचित्कं, नित्यव्यापारः। भग० ५७३, ३६८१ शाटक- वस्त्रविशेषः। उत्त. ९२ शिल्पं-साचार्यकं, नित्यव्यापारस्तु शिल्पमिति। स्था. शान्तिकर्म- होमादि। स्था० ३९४१ २८३, शिल्पं-साचार्यकं नित्यव्यापारश्च। आव०४१५) शान्तिचन्द्र- जम्बूद्वीपप्रज्ञत्तिवृत्तिकर्तारः। जम्बू० साचार्यकं कादाचित्कं वा। नन्दी.१४४१ सिद्धिशब्दाभिधेय-साम्ये भेद। स्था० २५० शान्तिचन्द्रगणिः- जम्बूद्वीपप्रज्ञत्तिवृत्तिविधायकः। शिवक-शिवकः। स्था०६। जम्बू० ४२४१ शिवकोष्टक- तगरायामाचार्यस्य शिष्यः। व्यव० ३१७ अ। शाम्ब- द्रव्यभावसङ्कोचे दृष्टान्तः। जम्बू. १० शिवदेव- आधायाःप्रामित्यदवारविवरणे श्रेष्ठी। पिण्ड, द्रव्यभाव-सकोचे दृष्टान्तः। आव. ३७९| ९९| शारि-अष्टापदयूतभेदः। जम्बू. १३७। शिवा- शक्रस्य द्वितीयाऽग्रमहिषी। जम्बू. १५९| शाङ्ग- विष्णुधनुः। प्रश्न० ८८५ आधायाः प्रामित्यदवारविवरणे शिवदेवश्रेष्ठिपत्नी। शालनकं- पुष्पकं फलप्रभृतिः। जीवा० २७८। शाकः। प्रश्न | पिण्ड० ९९। १४१। भोज्यपर्दाविशेषः। पिण्ड० १७२शालनकं- | शिशिर- हेमन्तऋतुः। ओघ० २१२। व्यञ्जनं तक्रादि वा। भग० ३२६। शालनकम्। व्यव० शिशुपाल- महाबलराजसूनः। प्रश्न० ८८ १४२। शिशुपालिका- बालवत्सा। ओघ. १६३। शालिका-संमूर्छिमजीवविशेषः। आचा०७० शिशकुमार- मकरविशेषः। पिण्ड. १४६| शालिग्राम- ग्रामविशेषः। दशवै. २८१। आधाकर्मपरिहरणे | शिष्टं-विष्टत्त्वं-अभिमतसिद्धान्तोक्तार्थता, वक्तः ग्रामणीवणिजस्थानम्। पिण्ड०७२३। आधाया शिष्टतासू-चकत्वम्। सम०६३। ୨୫ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित 160 "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] शिष्यते- निराक्रियते। जीवा० ३८८१ शुष्कगोमयः- नन्दी० १५१ शिष्णपयितुं- आसेवनाशिक्षाग्रहणप्रदानतः। व्यव. २१५ | शुष्कुलीकर्ण- अनन्तद्वीपविशेषः। जीवा० १४४| शीतं- प्रासुकम्। दशवै. २०६। शीता-वैशयकृत् स्तम्भन- | शूर- भटः। भग०४६३। स्वभावः। स्था० २६। शूल- आयुद्धविशेषः। ज्ञाता० १३८१ शूलः। सम० १२६) शीतरुपा-योनिभेदः। आचा. २४। शूलपाणि- अस्थिकग्रामे यक्षः। स्था० ५०१| शीतला-दाहस्फोटकात्मको रोगविशेषः। उत्त० ३५८। शृगालत्वविहारी- दीनः। आचा० २५४। शीतलिका- व्याधिविशेषः। व्यव० १९२। शृगालभक्षित- भक्तविषयं प्रयोजनं सम्यक् न करोति शीता- महानदीविशेषः। प्रश्न. ९६। शीता-नीलपर्वते (यः)। व्यव० १६३ आ। चतुर्थकूटम्। स्था०७२ शृङ्ग- वृतम्। निशी० ६२। शीताकार- भोगः, क्षेत्रपरिमाणोद्भवो वा। आय०४९९। शृङ्गाटक-समूर्छिमतरुजीवः। आचा० ५७ शृङ्गाटकःशीतीभूत- निर्वृत्तः। आचा० २५८१ त्रयस्रसंस्थाने दृष्टान्तः। प्रज्ञा० ११| शीतोदा- निषधपर्वते सप्तमकूटम्। स्था०७२ शगारमति- गर्भाधानपरिसाटरूपमलदवारविवरणे शीतोदामहा-नदीविशेषः। प्रज्ञा० ९६ सिन्धुरा-जपत्नी। पिण्ड० १४५ शीतोदाद्वीप-द्वीपविशेषः। जम्बू. ३०९। शृङ्गाङ्गि- युयुत्सया योधयोर्वल्गनम्। जम्बू० १३९। शीतोदाप्रपातकुण्ड- कुण्डविशेषः। जम्बू० ३०९। शेखरक- आपीडः, आमेलकः। जीवा० ३६१। शेखरकःशीतोष्परुपा-योनिभेदः। आचा० २४१ आपीडः। प्रज्ञा० ९६। शेखरकः-शिरोवेष्टनम्। स्था. शीर्षद्वारिका- कल्पेन शिरः स्थगनरुपा। बृह. १२५आ। ३०४। शीर्षप्रहेलिका- गणनास्थानविशेषः। आचा० ८९। शेषवत्-त्रिविधानुमाने द्वितीयमनुमानम्। भग० २२२ शीला- गुणसमृद्धनृपपत्नी। पिण्ड०४७ शैक्षकपरिपालना- यावन्नोपस्थाप्यते तावन्न भिक्षां शुक-कीरः। जीवा. १८८1 हिंडापयितव्यः। बृह. ६४ अ। शक्ति-भाजनविधिविशेषः। जीवा० २६६। शैली- रूढिः। नन्दी. १५७ शुक्तिक- द्वीन्द्रियजीवविशेषः। प्रज्ञा० २३। शैवाल- बादरनिगोदविशेषः। प्रज्ञा० ७८1 शुक्तिसंपुट- मुक्ताधारप्टम। प्रश्न. १५२।। शौभन- मध्यस्थः कथः। प्रश्न. ११४| शुक्लपाक्षिकः- किञ्चिदूनपुद्गलपरावर्धिमात्रसंसारको | श्यामाक-बीजविशेषः। आचा० २८५४ जीवः। प्रज्ञा० ११७ अंशना-देशतो भगः। प्रश्न. १३८५ शुक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाति- शुक्लध्यानस्य तृतीयो भेदः। श्रम- दौर्बल्यम्। आचा० ३८०१ प्रज्ञा० १०९ श्रव्यशब्दार्थ- मधुरम्। अनुयो० १३३। शुचिविधा- मन्त्रशौचम्। स्था० ३४१५ श्रस्तरः- सस्तरणम्। उत्त० ३८० शुण्ठो- पर्वगभेदः। आचा० ५७। श्राद्ध-पितृक्रिया। जीवा० २८१। शुण्डामकरा- मत्सविशेषः। सम० १३५१ श्राद्धधर्म-सम्यक्त्वमूलानि दवादशव्रतानि। बृह. १८८1 शुद्धयोग- निर्दोषव्यापारः। उत्त० ६५७। श्रावक- व्रतवान्। आचा० २८१। शुद्धोञ्छ- उत्सर्गपदम्। बृह. २५० आ०| श्रावकढङ्ककुम्भकार- सुदर्शनायाः-स्थिरकारकः श्राद्धः। शुल्क-करः। आव० ४९९। विशे०९३६। शुल्कपालः- सामच्छेदिकानां प्रतिबोधकः श्रावकविशेषः। श्रावकदुहिता- विद्वज्जुगुप्सायाम्दाहरणम्। प्रज्ञा०६१। स्था०४१२ श्रावस्ती- कुणालजनपदे नगरी। ज्ञाता० १२५ शुल्व-ताम्रम्। प्रश्न. १५२। श्री- हिमववर्षधरे षष्ठकुटः। स्था०७१। शुषिर- शङ्खवेण्वादौ। आचा० ४१२। | श्रीकान्ता- उदितोदयस्य राज्ञी। नन्दी. १६६। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text]] श्रीखण्ड- मलयम्। जीवा. २४४१ श्रीखण्डं-सुरभिगन्धप- सिद्धिः। आव० ५३३। श्रेणिकः-श्रद्धावान्। आचा. २४९। रिणतः। प्रज्ञा० १०॥ श्रेणिस्वस्तिक-नाट्यविशेषः। जम्बू०४१४। श्रीजयसिंहसूरि-निःसङ्गचूडामणिराचार्यः। अनुयो. २७१। | श्रेणीव्यवहारादि-व्यवहारः- पाटीगणितप्रसिद्धोऽनेकधा। श्रीदामगण्डक- जलजादिभास्वरपञ्चवर्णकुसुमनिर्मितम्। स्था० ४९७ स्था०४०११ श्रेयान- परमप्रशस्यः । जीवा० ३८६। श्रीदामराजसुत- मथुरायां नृपतिः। स्था० ५०८। श्रेयांस- जातिस्मरणरूपविज्ञानवान। आचा० २११ श्रेयांसःश्रीदेवी- श्रीदेवीसमाश्रयमध्ययनम्। स्था० ५१२। येन भगवद्दर्शनाद् सामायिकं अवाप्तम्। आव० ३४७। श्रीनिलय- नगरविशेषः, आधानमोदनायां श्रेष्ठी- श्रीदेवताध्यासितसौवर्णविभूषितोत्तमाङ्गः। गुणचन्द्रराजधानी। पिण्ड०४९। राज०१२११ श्रीपर्णीफल- कासवनालीयम्। आचा० ३४९। लक्षणः-सूक्ष्मः। जीवा० २३४१ लक्षणः-लक्ष्णपगलश्रीमती- गोचरविषयोपयुक्ततायां सागरदत्तश्रेष्ठिवधूः। स्कन्ध निष्पन्नम्। जीवा० १६०| पिण्ड०७८१ लक्ष्णमत्स्य- मत्स्यभेदः। सम० १३५१ श्रीयक-स्थूलभदहस्वामिलघुभ्राता। बृह. १०० अ। श्लाघा- श्लोकः भग०६७३। श्रीवत्स- शुभनाम। भग० २८२। श्लीपद- रोगविशेषः। बृह. १७० अ। श्रीस्थलक- भानुराजनगरम्। पिण्ड० ३३ श्लेषणता- आचा० २५५ श्रुतं- शोभनमाकर्णितम्। व्यव० ४४० अ। श्लोक-लाघा। आव० ४७२। श्रुतकेवलिता- चतुर्दशपूर्वी। भग० १२। श्वपता- चाण्डाला ये शुनः पचन्ति तन्त्रीश्च श्रुतजिन- विशिष्ट श्रुतधरः। आव० ५०१। विक्रीणतीति। व्यव. २८५ अ। श्रुतज्ञानलाभ- भावदीपः। सूत्र. १८५) श्वयथु-रोगविशेषः। बृह. १७०ण। श्रुतनिश्रित- यत्पूर्वमेव कृतश्रुतोपकारं इदानीं श्वेतपट- अर्हत्पुत्रकः। नन्दी० १५२। पुनस्तदनपेक्ष-मेवानप्रवर्तते तद् अवग्रहादिलक्षणं श्वेतविका- यत्रार्याषाढः। विशे०९५२। श्रुतनिश्रितम्। आव०९। -x-x-x-x षकारः श्रुतभेद- सूत्रार्थोभयविषयः। स्था० ३८११ श्रुतव्यवहारिणः- अवशेषपूर्वधरा एकादशाङ्गधारिणः। षट्परिक्षेपा- षड्जातीयाः परिक्षेपाः। जम्बू. २८६। षड्जीवनिकायः- दशवैकालिके चर्थमध्ययनम्। आव० व्यव० ५। ५६३। श्रुतसम्पत्- बहु श्रुततादिचतुर्भेदभिन्नं सम्पत्। उत्त. षण्णवतिछेदनकदायी-यो राशिरर्द्धनार्द्धन छिदयमानः ३९ श्रुतसमाधिप्रतिमा- समाधिप्रतिमायां प्रथमो भेदः। सम० षष्णवतिं वारान् छेदं सहते पर्यन्ते च सकलमेकं रूपं ९६। समाधिप्रतिमायां प्रथमो भेदः। स्था०६५) पर्यवसितं भवति स राशिः। प्रज्ञा. २८१। श्रेणी:- पकिः । राज०९६| षर्द्ध-सागरियं। निशी० ३३ अ। श्रेणिक- नन्दपतिः। नन्दी. १५०श्रेणिकः नन्दिषेणपिता षष्टितन्त्र- कुशास्त्रविशेषः। नन्दी. २४९। राजा। नन्दी. १६६। श्रेणिकः-क्षायिके दृष्टान्तः। आव. षोडशीकला- चन्द्रमण्डलं बुदध्या दवाषष्ठिसइख्यैर्भागेः परिकल्प्यते, परिकल्प्य च तेषां भागानां ३८२ श्रेणिकः-चारित्रमोहनीयकर्मोदये दृष्टान्तः। उत्त. पञ्चदशभिर्भागो ह्रियते लब्धाश्चत्वारो दवाषष्ठिभागाः १८५ श्रेणिकः-आत्मोपक्रमे मृत्वा नरकोत्पन्ने दृष्टान्तः। भग० ७९६। श्रेणिकः-केवलसम्यग्दर्शनी शेषौ दवौ भागौ तिष्ठतः तौ च सदाऽनावृतौ एषा किल व्यक्तिविशेषः। आव० ८०५ श्रेणिकः षोडशी कला। सूर्य. १४८१ क्षायिकसम्यग्दृष्टिवतोऽपि चरणक-रणरहितस्य न षोलिका- काञ्चनकोशी। जम्बू. ५२८१ -x-x-x-x मुनि दीपरत्नसागरजी रचित "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सकारः विकल्पः। ज्ञाता० २८१ सं-सम् सङ्गता। स्था० १४०। सम्-सम्यक् प्रवृत्त्या। संकप्पओ- सकल्पजः-यो मनसः सकल्पाज्जायते उत्त० २२५७। सम्-एकत्र। स्था० १३९। सम्-भृशम्। उत्त० | प्राणा-तिपातः। आव०८१८ ४९९। सम्-भृशम्। उत्त०६०५। संशब्दः प्रकर्षादिवचनः। | संकप्पियं- तुज्झे यं पछित्तं विज्जिहिति। निशी० ३०६| औप० ८४। सम्-सन्ततम्। स्था० ५८। सम्-भृशम्। | संकम-यां प्रकृतिं बध्नाति जीवः तदनुभावेन उत्त० १८३। सम्-परस्परसंश्लेषार्थः। भग० ३७सम्- प्रकृत्यन्तरस्थं दलिकं वीर्यविशेषण यत्परिणमयति स साङ्गत्त्यं, एकसभावो वा। उत्त० ५६७। एकीभावः। सङ्क्रमः। स्था० २२श संकमिज्जति जेण, पाणियस्स प्रज्ञा०५५९। सम्यग् रमणीयतया। जम्बू०७७ वागडाए वा भण्णइ। दशवै०७४। सङ्क्रमगम्यो एकीभावः। आव० २७८१ संशब्दस्यातिशयार्थत्वाद्वा नदीपथः। बृह० १६१ आ। तत्थ जइ संकमणं तं। निशी. अतिप्रभाते, प्रतिशब्दार्थत्वादवा प्रतिप्रभातम्। स्था. २० आ। सङ्क्रमः। आव० १५०| सङ्क्रमः११८ सम्यग्-एकीभावः। प्रज्ञा० १८ संशब्दः। विषमोत्तरणमार्गः। प्रश्न. ८1 सङ्क्रमःप्रकर्षादिवचनः। भग०१४। सड़करेण अनेकेष्टकादिनिर्मितः। ओघ० ३१। निशी. २३२ आ। स्वपरलाभमीलनात्मकः। भग० ७२७। काष्टचारः। निशी०११९ । सङ्क्रमः, सेतू। जम्बू० संकट्ठ-संकष्टो-संथासः। व्यव० ३१२आ। २३०। सङ्क्रमः-जलग परिहाराय पाषासंकड- सङ्कट-दुष्टप्रवेशम्। ओघ० १८१। सङ्कटं णकाष्ठरचितः। दशवै. १६४| विषमम्। पिण्ड० १७१। सङ्कट-गहनम्। प्रश्न०५२। संकमइ- सङ्क्रामति-याति। दशवै० १२२ संकडमुह-सङ्कटमुखभाजनः कमठादि। ओघ. १८२। संकमण- फुडियस्स गमणकाले संकमण भण्णति। निशी संकणिज्जे-सङ्कपदं-भयजनकम्। ज्ञाता० ७८1 ८३ । सङ्क्रमणं-मूलप्रकृत्यभिन्नानामत्तरप्रकृतीसंकपय- शङ्कापदं किमेतन्मदारब्धमनुष्ठानं निष्फल नामध्यवसायविशेषेण परस्परं सञ्चारणम्। भग० २५१ स्यादि-त्येवंभूतो विकल्पःशका तय्याः पदं सङ्क्रम्यतेऽनेनेति सङ्क्रमणं चारित्रम्। आचा० १२२ निमित्तकारणम्। आचा० १९७५ संकमणकाल-सङ्क्रमणकालं-मरणकालम्। आव० ३४५) संकप्प-सकल्पः-भयादिविकल्पः। भग० २०२। संकममाण-सङ्क्रामन् सङ्क्रमितभिच्छन्। सूर्य०४९। सङ्कल्पः-प्रक्रमाद्रागद्वेषमोहरूपाध्यवसायः। उत्त. संकमिउ- सङ्क्रमित्म। आव० १९२ ६३७। सकल्पः-कर्तव्याध्यवसायः। आचा० २०३। संकर-सङ्कर, उक्कुरुडिका। उत्त० ३५९। सङ्करःसङ्कल्पः-विकल्पो मनोविशेषः एव विमर्शः। स्था. कङ्कीर्यते सङ्करणं वा-सम्पिण्डनं सङ्करः। १८३। संकल्पः- इष्टा-निष्टवियोप्राप्तिजो मानस परिग्रहस्य सप्तमं नाम। प्रश्न. ९२२ सङ्करःआतङ्कः। दशवै. २७३। सकल्पः भिन्नजातीयानां मीलकः। सूत्र. ११| निशी. १३३आ। अप्रशस्ताध्ययवसायः। दशवै० ८५ तृणादिकचवरः। ब्रह. १८ अ। संमिलनशीलः निर्भयो संकल्पश्चदविधाध्याना-त्मकः चिन्तात्मकश्च, तत्र वा। बृह. ९७ अ। सड्करः- नाम किञ्चिद ग्रामोऽपि आद्यः स्थिराध्यवसायलक्षण खेटमपि खेटमपि आश्रमोऽपि। ब्रह. १८१ आ। सड्करःस्तथाविधदृढसंनहनादिगुणोपेतानां, तृणाद्यवष्करः। व्यव० ११५आ। द्वितीयश्चलाध्यवसा यलक्षणस्तदितरेषाम्। जम्बू० | संकरक्षत्रिय- प्रदानक्षत्रियः, द्विजेन क्षत्रिययोषितो २०३। सङ्कल्पः-वधाध्य वसायः, छेदनं वा। भग० ९३। जातः। आचा०1 सङ्कल्पः-विकल्पः। भग० ११६| सङ्कल्पः संकरदूस- सङ्करः स चेह अध्यवसायस्यैकर्थिकः। विपा० ३८ अब्रह्मणः षष्ठं प्रस्तावात्तृणभस्मगोमयाङ्गारादि- मीलक नाम, विकलपस्तत्प्रभवत्वादस्य सङ्कल्पः। प्रश्न. उक्कुरुडिकेतियावत् तत्र दुष्यं-वस्त्रं सङ्करद्ष्यम्। ६६। युक्तायुक्तविवेचनम्। ज्ञाता०२८। सङ्कल्पः- उत्त० ३५९। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] ११०| संकरिसण- आगभिन्यामुत्सर्पिण्यां नवमवासुदेवः। सम० | | संकितगणणोवगा- शड़कितगणनोपगा शड़किता चासौ १५४१ गणना च शकितगणना तां संकला- शृङ्खला। आव० २५०| शकितगणनामुपगच्छति या प्रत्युपेक्षणा सा। ओघ. संकलिआ-सङ्कलिका। ओघ०७९ संकलियं- श्रृंखला। महाप०। संकिन्न- सकिर्णः-स्वपक्षपरपक्षव्याकुलः। भग० ९१९) संकसमाण- सम्-एकीभावेन कसन्-गच्छन् संकसमानः। संकिय-शकितं सम्भाविताधाकर्मादिदोषम, प्रथम जीवा० १२३। कवलप्रक्षेपं कुर्वन्तः। अथवा एषणादोषः। पिण्ड. १४७ आस्वादयन्तः। निशी. ५१ अ। संकिलि-सङ्कल्पय। बृह. ९१ अ। संकया- सङ्कथा-वार्तालापः-आव० ६६५। सङ्कथा। संकिलेस-असमाधिः। स्था०४८९। सङ्क्लेशः-तीव्राउत्त० १९२ शुभपरिणामः। आव०६६१। संका-संकणं शंका-अनिरपेक्षाध्यवसायः। निशी. ९९ अ। | संकिलिस्समाण-सक्लिश्यमानकं, तत्तूपशमश्रेणितः शङ्का-विकल्पः। आचा० १९७। शङ्कनं शङ्का-संशय- प्रच्यवमानस्य। प्रज्ञा०६८५ करणम्। आव०८११ संकु- शङ्कप्रमाणः। जीवा. १८९| संकाइय- साङ्कयिकं-भारोदवहनयन्त्रं साकायिकम्। संकुइअ- सङ्कचितं अशुभकायव्यापारपरित्यागात्। भग० ५२०१ आव० १५४। संकामणे- सङ्क्रामणं-प्रस्तुतप्रमेयेऽप्रस्तुतप्रभेयस्य | संकुइय-संकुचितं-वलीभृतम्। बृह० २४४ आ। प्रवेशनं, प्रमेयान्तरगमनमित्यर्थः, अथवा संकुचिअपसारिअ- सङ्कचितप्रसारितं दिव्यनाट्यविधिः, प्रतिवादितमते आत्मनः सङ्क्रामणं सङ्कोचनेन सङ्कचितं प्रसारणेन च प्रसारितम्। ४१२। परमाताभ्यनुज्ञानमित्यर्थः। अष्टमदोषः। स्था० ४९३ | संकुचिय- सङ्कचितं गात्रसङ्कोचकरणम्। दशवै० १३१] संकामिओ- सङ्कामितो दत्तः। बृह० ७९ । स्वस्थानात् | संकुडण- सङ्कोचनम्। ओघ० १७८५ परं स्थानं नीतः सङ्क्रामितः। आव० ५७४। संकुडा- सङ्कवा सङ्कचिता। सूर्य०६७) संकामिय-सङ्क्रामितं विभक्तिवचनाद्यन्तरतया संकुडिअ-सकटितं सङ्कचितम्। जम्बू. १७०| परिणामितं तदनुयोगः। स्था० ४९५। संकुडिय- सङ्कटितम्। भग० ३०८। संकास-सङ्काशः-सदृशः। उत्त० ३५९। सङ्काशं-सदृशम्। | संकुला- सङ्कटा। प्रश्न. १६ उत्त०८४| संकाशः-छायाविशेषः। आव०१८६। संकुलिकन्नदीव- लवणसमुद्रे विदिक्षु संकासा- सकासा-सदृशी। उत्त०६५२| चतुर्थोऽन्तरद्वीपः। स्था० २२६। संकिए- शङ्कितः-सजातशङ्कः। भग० ११४१ | संकुलिकन्ना- सङ्कुलिकर्णद्वीपे मनुष्याः। स्था० २२६। संकिओ- शकितः-भिक्षादोषविशेषः। आव० ५७५१ | संकये- केतनं-केतं-चिह्नमङ्गुष्ठमुष्ठिग्रन्थिगृहादिकं स संकिट्ठा-संकृष्टा-विलिखिता। ज्ञाता०१। संक्लिष्टा-अति- | एव केतकः सह केतकेन सकेतक ग्रन्थादिसहितम्। सङ्कटा। व्यव० १८१ आ। नवमं प्रत्याख्यानम्। स्था० ४९८ सङ्कतं केतं सचिह्न, संकिण्ण- सङ्कीर्णः-शबलीकृतचारित्रः। बृह. १९ अ। अङ्गुष्ठादिचिह्नसहितम्। आव० ८४० संकित- एषणेऽप्यनेषणीयतया शङ्कितः। स्था० ४८४ । संकोए- सङ्कोचनं जानुसदंशकादेः। ओघ० २१४। शकितः-यस्य त्रीणी स्थानान्यहितादित्वाय भवन्ति संकोडणा- सङ्कोटता गात्रसङ्कोचनम्। प्रश्न. ५६) स शकितः-देशतः सर्वतो वा संशयवान्। स्था० १७६। संकोधिय-संक्रोधिकम्। सूत्र० ३२८१ शकितः-किमिदं निष्पत्स्यते न वेत्येवं विकल्पवान्। संकोय-सङ्कोचः। भग० २३६| ज्ञाता०९४| शकितः-एकभावविषयसंशययुक्तः। स्था० | संख्यावत्त- ललाटः। निशी० ३४७ अ। २४७ संक्रम- अनेकेष्टकादिनिर्मितः। ओघ. ३१| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [10] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] संख- एकोनविंशतितममहाग्रहः। स्था० ७८। शङ्खः- संखडी-सखडिः-विवाहादिप्रकरणं, सखड़यन्ते प्राणिनो महानिधिः। जम्बू. २५९। तृतीयवेलन्धरपर्वते पल्योप- अस्यामिति सखडिः। पिण्ड० ७९। यत्र मस्थितिको देवः। स्था० २२६। घनजनसमुदायो जेमनार्थं मिलितः। आव०८५६) सप्तमभावितीर्थंकरपूर्वभ-वनाम। सम० १५४। शङ्खः। गोचरीदोषः। आव० ३१४। सड़खडिः-सामयिकीभाषया प्रज्ञा० ३६१। शङ्खः- महाग्र-हविशेषः। जम्बू. ५३४। भोजनप्रकरणार्थः। ओघ० २३॥ प्रकरणम्। ओघ० ४७। शखो वक्षस्कारः। जम्बू० ३५७। शङ्खः-मायोदाहरणे सङ्खडि। आव० ८४६, ३९६। छिंडिका। बृह० १५आ। गजपुरनगरे इभ्यश्रावकः, यस्य पूर्वभवे धनश्रीः सा निशी. १८५ सर्वाङ्गसुंदरी दुहिता जाता। आव० ३९४। शङ्खः- संखणग- सङ्खागारो। निशी. १७ आ। शङ्खनक-शखामथुरायां युवराजः। उत्त० ३५४| चक्रवर्तेर्न कृतिरेवात्पन्तलघुर्जीवः। उत्त०६९५। शङ्खनकःवममहानिधिः। स्था० ४४८१ लघुशङ्खः। जीवा० ३१। शङ्खनकः-शङ्ख एव लघुः। दवाविंशतिनेमिजिनपूर्वभव-नाम। सम० १५१| प्रज्ञा०४१। भगवत्यां दवादशमशतके प्रथमोद्देशकः। भग. ५५२ संखणाभ- शङ्खनाभः ग्रहविशेषः। जम्बू. ५३४ भगवत्यां त्रयोदशशतके दृष्टान्तः। भग०६१८ तृतीयो संखतलं- शङ्खतलं-शङ्खमध्यभागः। जम्बू० ४२७। वेलन्धरनागराजः। जीवा० ३११। शङ्खः शङ्ख-तलं-शखस्योपरितनो भगः। जम्बू०४९। तृतीयवेलन्धरनागराजस्य आवासपर्वतः। जीवा० ३१११ शङ्खतलं-शङ्ख-स्योपरितनो भागः। जीवा० २०५१ शङ्खः-गणराजः, सिद्धार्थराजमित्रम्। आव. २१४। | संखदत्तित-सङ्ख्यादत्तिकः-सङ्ख्याप्रधानाः- परिमिता संग्रामः। बृह. २५६ अ। श्रमणोपासकविशेषः। भग. एव दत्तयः-सकृद्भक्तादिक्षेपलक्षणा यस्य सः ५५२ शङ्खः- वाद्यविशेषः। भग० २१६) सङ्ख्याद-त्तिकाः। स्था० २९८१ काशीवाणास्यां नरपतिः। ज्ञाता० १४१। काशीराजा। | संखदल- शङ्खदलं-शङ्खदलचूर्णम्। प्रज्ञा० १०७) ज्ञाता० १२४। शङ्खः-दीर्घा-कृतिः। निशी. ६अ। शङ्खदलं शङ्खशकलम्। जीवा० ३६० शङ्खः- काशीजनपदराजः वाराणसी निवासी। स्था० संखधमग- शङ्ख ध्मात्वा यो जेमति। भग० ५१९। ४०१। शङ्खः-समुद्रोद्भवो जन्तुविशेषः। जीवा० ३१| संखधमा-शइखं ध्मात्वा ये जेमन्ति, तापसविशेषः। शङ्खः। आचा०४१२ निर० २५ संखचुण्णः- शङ्खचूर्णः-शङ्खनिष्पन्नरजः। पिण्ड० १६४। | संखपाल- धरणस्य चतुर्थो-लोकपालः। स्था० १९७१ संखडः- । स्वक्षेत्रपक्षपातजनिता राटिरिति। ओघ०७०।। संखमाला- शङ्खमाला द्रुमगणविशेषः। जम्बू. ९८१ कलहः। पिण्ड० १०० एकोरुकद्वीपे वृक्षविशेषः। जीवा० १४५/ संखडति-सङ्खण्डयति। आव० ११११ संखय- संस्कर्तृ-तन्तुवात्सन्धातुम्। सूत्र०६७। संस्कृतः न संखडि-सखडिः-सङ्खड्यन्ते-विराध्यन्ते प्राणिनः यत्र तात्त्विकशुद्धिमान् किन्तूपचरितवृत्तिः, सा सङ्खण्डिः। आचा० ३२९। सङ्खडि-सङ्खडिभक्तम्। संस्कृतागमप्ररूप-कत्वेन वा। उत्त० २२७। आचा० ३३०| संखडी-प्रकरणविशेषः। ओघ०४७ संखलेत्तूण- विशृङ्खलय्य। उत्त० १०० प्रकरणम्। बृह० ४३ आ। असावाहारय सङ्खड्यन्ते संखवण- आलभिकानगर्यामदयानम्। उपा० ३६। आलभिप्राणिनोऽस्यामिति सङ्खण्डिः। आचा० ३०६। कायां चैत्यम्। भग० ५५० संखडिकरणं-सङ्खड्यन्ते प्रणिनो यस्यां सा सइखडिः- संखवण्ण-विंशतितममहाग्रहः। स्था० ७८। अने-कसत्त्वव्यापत्तिहेतुः तस्याः करणं संखवण्णाभ- शङ्खवर्णाभः-ग्रहविशेषः। जम्बू०५३४| सखडिकरणम्, प्रथमा-लिकादि। ओघ० ११| निशी. संखवन्नाभः- एकविशंतितममहाग्रहः। स्था० ७९। २८५। संखवाल-धरणाभिधाननागराजस्य लोकपालः संखडिनिवेस-संखडिनिवेशः। आचा० ३३१| शङ्खपालकः, वरुणस्थ पुत्र स्थानीयो देवः। भग. १९९| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [11] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] शङ्खपालकः अन्ययूथिकः । भग० ३२३ | आजीवकोपाशकः। भग० ३७०१ संखसमए - साङ्ख्यसमयः साङ्ख्यसमाचारः । ज्ञाता० १०५ | संखसिला शङ्खशिला मुक्तशैलादिका शिला सूत्र २९२ संखा सम्यक् ख्यायते प्रकाश्यतेऽनयेति संख्या प्रज्ञा । आचा० २५१। वीन्द्रियविशेषः शङ्खः समुद्रोद्भवः । प्रज्ञा० ४१। साङ्ख्यतम् । ज्ञाता० १०५ ॥ संख्यायन्ते - परिच्छिद्यन्ते जीवादयः पदार्थों येन तज्ज्ञानं आगम - सागर - कोषः ( भाग : - ५ ) सङ्ख्या। सूत्र० २३५। स्था० ८०| साङ्ङ्खा ब्राह्मणपरिव्राजकः । औप. ९९१। सङ्ख्या व्यवस्था । सूत्र० ४१३५ संखाइआ- सङ्ख्यानं सङ्ख्या तामतीताः सङ्ख्या असङ्ख्येया इत्यर्थः। ओघ० २७| संखाण- सङ्ख्यानं गणितम् । स्था० ४५२ | भगवत्यां दृष्टान्तः । भग० ९७४ | सङ्ख्यानं गणितस्कन्धः । भग० ११४ | संखादत्तिए भिक्षाचर्याया भेदः । भगः ९२१ सङ्ख्या प्रधानाः पञ्चषादयो दत्तयोर्भिक्षाविशेषाः । भग० ९२४५ संखादत्तिय सङ्ख्याप्रधानाभिर्दत्तिभिश्चरति यः सः सख्यादत्तिकः । प्रश्न. १०६१ संखाय सङ्ख्याय अवधार्य आचा० २५८ ल संखायण- साङ्ख्यायानं श्रवणगोत्रम् । जम्बू० ५०० संखायणसगोत्त श्रवणनक्षत्रगोत्रम् सूर्य. १५०) संखार- संस्कारः । बृह० २५५आ । संखारा तुन्नाकविशेषः । प्रज्ञा० १६ | संखालग शङ्खवन्तौ च शङ्खयोः । अक्षिप्रत्यासन्नावयववि-शेषयोः संलग्नोसम्बद्धावित्येके । ज्ञाता० १३३ | संखावत्ता शङ्खावर्त्ता शङ्खस्येवावात्त यस्यां सा स्था॰ १२२| शङ्ङ्खस्येवावर्तो यस्याः सा शङ्खावर्त्ता, मनुष्ययोनौ द्वितीयो भेदः । प्रज्ञा० २२७ संखिआ शखिका लघुशङ्खरूपा, तस्याः स्वरो मनाक् तीक्ष्णो भवति न तु शङ्खस्येवाति यम्भीरः । जम्बू॰ १०१ | संखिगा शाहखि ह्रस्वः शङ्खः । भग० २१६| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [12] [Type text] संखिज्ज- सङ्ख्येयः-वर्षसहस्रात्परः नन्दी० ९४। संखित्त संक्षिप्त स्तोकावगाहनम्। भग० २६६॥ संखिद- शङ्खकं, चन्दनगर्भशङ्खहस्तः, माङ्गल्यकारिणः शङ्खध्मा जम्बू. १४ संखिय- चन्दनगर्भशङ्खहस्तः शङ्खवादकः भग० ४८PI संखिया शंखिका लघुशङ्खरूपा जीवा० २६६। ह्रस्वशङ्खो जात्यन्तरात्मकः शङ्खिका । राज० ४९ । संखुन्न- सङ्क्षन्नं- सङ्कुचितम्। बृह॰ २६४आ। संखेज्जइभाग- सङ्ख्येयभागः । अनुयो० १६३। संखेज्जक- सङ्ख्यातक-सङ्ख्यातवर्षसहस्रलक्षणम्। प्रश्न० २४| संखेज्जजीवित सङ्ख्यातजीविकः सङ्ख्यातजीवःवनस्पतिकाये प्रथमो भेदः । स्था० १२स संखेज्जलीविया वृक्षजीवितव्ये प्रथमो भेदः । भग० ३६४५ संखेज्जवित्थड सङ्ख्येयविस्तृत सङ्ख्येययोजनप्रमाणं विस्तृतं विस्तारो यस्य स जीवा० १०६ ॥ संखेव सक्षेप सङ्ग्रहः । स्था० ५०३ सङ्क्षेपणं सङ्क्षेपः । आव० ३६४ | सङ्क्षेपः- सङ्ग्रहः । स्था० ५०४ | संखेवरुई- सङ्क्षेपरुचिः सङ्क्षेपः- सङ्ग्रहस्तस्मिन् रुचिर्यस्य स उत्त० १६३१ सक्षेप सङ्ग्रहः तत्र रुचिर्यस्य विस्तरार्थापरिज्ञानात् स सङ्क्षेपरुचिः । प्रज्ञा० ५६। सङ्क्षेपः संग्रहः तत्र रुचिः सङ्क्षेपरुचिः चिलातिपुत्रवत्। स्था० ५०३१ संखोभिज्जमाणी- सङ्क्षोभ्यमाना अधो निमज्जनतः तद्ग-तलोकक्षोभोत्पादात्। ज्ञाता० १५६। संखोभयपुव्व कायेनापरस्य चरकादेः कायः सङ्क्षोभित। पूर्वः । आचा० ३३२ संग सङ्गः यस्य महामुनेरवगतसंसारमोक्षकारणस्येयं - सङ्गः- आरम्भः । आचा० २५८। सङ्गः भावतोऽभिष्वङ्गः, स्नेहगुणतो रागः आव• ७२३३ सङ्गः सम्बन्धः शब्दादि वाऽभिष्वङ्गविषयः। उत्तः १८३। सङ्ग-अष्टाविधं कर्म विषयसङ्गः । आचा० ७९ | संगइ सङ्गतिः नियतिः । सू० ३१॥ संगइय- स्वाङ्गिकं परिभुक्तप्रायम्। दातुः स्वाइङ्गिकं परिभक्त प्रायम् आवा० ४००| नियतिः । सूत्र० २८९ यस्मिन् दिवसे यद्वाहयते तत्सङ्गतिकम्। बृह० १०६ आ। "आगम- सागर-कोषः " (५) Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] । २८३ संगए-परिचितः सङ्गतं विदयते यस्यासौ साङ्गतिकः। सङ्ग्रहो-महासामान्यमात्राभ्युपगमपर इति। स्था० स्था० २४५१ १५२। संगृह्यते इति सङ्ग्रहः-वर्षाकल्पादिः। उत्त. संगएइ-सागतिकः, सङ्गतिमात्रघटितः। जम्बू. १२३। ५२७। सङ्ग्रहः-समुदायः। स्था० २२३। सङ्ग्रहःसंगकर-सङ्गकरः-प्रतिबन्धोत्पादकः। उत्त० ३९० शिष्याणां श्रुतोपादानम्। स्था० ३५०| सङ्ग्रहःसंगतं-सङ्गतं-मैत्रीगतं गमनं-सविलासं चकमणम्। समुदायः। दशवै०७ सूर्य. २९४१ संगहकाओ-संग्रहकायः-प्रभूता अपि यत्रैकवचनेन संगतिकपात्र- पात्रविशेषः। बृह. १०६ अ। दिश्यन्तो गृह्यन्ते स सङ्ग्रहः, तत्सम्बन्धी कायः। संगंथ- सङ्ग्रन्थः-स्वजनस्यापि स्वजनः पितृव्यपुत्रशा- आव०७३७ लादिः। आचा० १०० सङ्ग्रन्थः-स्वजस्यापि स्वजनः संगहकाय-सङ्ग्रहकायःपितृव्यपुत्रशालादिः। जम्बू. १४९। सङ्ग्रहैकशब्दवाच्यस्त्रिकटकादि-वत्। दशवै० १३५१ संगम- नदीमीलकः। ज्ञाता० ३३॥ सङ्गमः-नदीमिलकः। | संगहठ्ठय- सगृहीतः-शिष्यीकृतः। स्था० ३५० ज्ञाता०६३। संगहपरिन्ना-संग्रहपरिज्ञा अष्टमीपरिज्ञा। व्यव० ३९१ संगमओ- सङ्गमकः। आव० २१९। सङ्गमकःसौधर्मकल्प-वासीदेवः, अभवसिद्धिकः। आव २१६) संगहिअ- सम्यग् गृहीत-उपात्तः सगृहीतः पिण्डित संगमकः-कण-यितचतुर्थभङ्गे दृष्टान्तः। व्यव. २०६ एकजातिमापन्नोऽथो विषयः। अनुयो० २६४। आ। संगहिओ- ज्ञानादिभिः सङ्गृहीतः। आव० ७९३। संगमथेर-सङ्गमस्थविरः, नित्यवासी आचार्यविशेषः।। संगहिय- आभिमुख्येन गृहीतः, उपात्तः संगृहीतः। आव. आव० ५३५। सङ्गमस्थविरः-कुल्लयरनगरवास्तव्य आचार्यः। उत्त० १०८सङ्गमस्थविरः-नित्यवासी संगाणपरिणा- सड़गपरिज्ञा, योगसङ्ग्रहे त्रिंशत्तमो आचार्यविशेषः। आव० ५३८ आयरिया। निशी. ९५आ। योगः। आव०६६४१ संगय-सङ्गतः-सर्वकामविरक्तताविषये संगाम- सङ्ग्रामः-तृतीयवासुदेवनिदानकारणम्। आव० देवलासुतराजस्य दासः। आव०७१४१ सङ्गतं १६३ सृष्टिम्। जीवा०२७६। सङ्ग-उपपत्तिभिरबाधितम्। संगामरह- सङ्ग्रामरथः, सङ्ग्रामार्थं रथः। जीवा० २८१। प्रश्न. १२० सङ्गतः-उचितः। ज्ञाता०१३। सङ्गतः- संगामसीस- सङ्ग्रामशीर्षः-युद्धप्रकर्षः। उत्त० ४८६) देहप्रमाणोचितः। जीवा. २७१। सङ्गतः-अनुगतः संगामिया- कृष्णवसुदेवस्य द्वितीया भेरी। बृह. ५६ अ। सदृशः। प्रश्न० ८४ सनामिकी-देवतापरिगृहीता गोशीर्षचन्दनमयी भेरी। संगलिया- फलिका मुद्रा भाषाश्च। अनुत्त०४१ आव. ९७। संगह-सङ्ग्रहणं भेदानां सङ्ग्रह्णाति वा भेदान् संगार-सङ्गारः-संकेतः प्रथग्भावकाले कर्तव्यः। ओघ. सगृह्यन्ते वा भेदा येन स सङ्ग्रहः। स्था० ३९० १७ सकेतः आव० ३६७। सकेतस्तस्माद्या सा सामान्यप्रतिपादनपरः मूलनयः। स्था० ३९० सङ्घारप्रव-ज्या, मेतार्यादीनामिवेति। स्था० १२९। सङ्ग्रह्णातीति सङ्ग्रहः। ओघ० २०७। दशविधदाने सङ्गारः-सकेतः। सूत्र० १११ सङ्गारः। ओघ०७३। द्वितीयो भेदः, व्यसनादौ सहायकरणं-तदर्थं दानम्। सङ्गारः- सङ्केतः। स्था० २४५। सङ्केतः। आव० १६५ स्था० ४९६। सङ्ग्रहः-शिष्यादिसङ्ग्रहणम्। प्रश्न. १२६। | सङ्गारः। ओघ०१७। संकेतः। ब्रह. ३७ । सङ्केतः। सङ्ग्रहः-सम्यक् पदार्थानां सामान्याकारतया ग्रहणं ज्ञाता०९१सङ्गारः-सङ्केतः। व्यव० १३० अ। सङ्ग्रहः। सूत्र० ४२६। नयविशेषः। प्रज्ञा० ३२७। सङ्ग्रहः- | संगारदिण्णओ- दत्तसङ्केतः। आव० ९५१ शिष्याणांसङ्ग्रहणम्। व्यव० १७२ अ। सङ्ग्राहकः। संगिण्ह-संगृह्णात-स्वीकृरुत। भग० २१९। व्यव. २४७। संग्रहण भेदानां कगृह्यन्ते वा येन स, | संगिल्लं- समुदायम्। व्यव० ३१ अ। मनि दीपरत्नसागरजी रचित [13] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] संगहणाति- क्रोडीकरोति। अनयो. २२३॥ संघट्टेइ- सङ्घट्टयति-स्पृशति। आव०६१३ संगेल्ल-सगिल्लं-समुदायः। व्यव० ३२ अ। संघट्टेति- सङ्घट्टयति-अतीव सङ्घातविशेषमापादितान् संगोवग-सड़गोपकः यदृच्छाचारितायां संवरणात। कुर्वन्ति। प्रज्ञा० ५९२ ज्ञाता०२४२ संघट्टेह- सङ्घट्टयथ-स्पृशथ। भग० ३८१। संगोवयामि-संगोपयामि क्षेमस्थानप्रापणेन। भग०६३७ संघडदंसि- निरंतरदर्शी। आचा. १९५१ संगोवित्ता- सङ्गोपयिता-अल्पसागरिककरणेन संघडिए- समर्थः-तद्दिवसपर्याप्तभोजी वा। बृह. १९७ अ। मलिनतारक्ष-णेन वेति। स्था० ३८६) संघडिय- सम्यग् घटितः-परस्परं स्नेहेन सम्बद्धः वयस्य संगोवेति-संगोपयति, पालयति अनाभोगेन इति। उत्त० ३९४। देशीपदमव्युत्पन्नमेव हस्तस्खलनक-ष्टेभ्यः। जम्बू. १२६। मित्राभिधायि। उत्त. ३९। संगोवेमाणी-सङ्गोपयन्ती स्थगयन्ती। ज्ञाता०९११ संघथेरा-सङ्घस्थविराः-लौकिकस्य लोकोत्तरस्य च संघ- सङ्घः-गुणरत्नपात्रभूतसत्त्वसमुहः। स्था० २८२।। व्यव-स्थाकारिणस्तद्भक्तश्च निग्राहकाः। स्था० ५१६) संघः-समुदायः। प्रज्ञा० ८८ सङ्घः-समस्त एव साध्वा- | संघधम्म-सङ्घधर्मः-गोष्ठीसमाचारः आर्हतानां वा दिसङ्घातः। आव०५१०| सङ्घः-चातुर्वर्णः श्रमणादिस- गणसमु-दायरूपश्चतुर्वणो वा सङ्घस्तद्धर्मः ङ्घातः। नन्दी०४३। संघः-साधूसाध्वीवर्गः। व्यव० १५३ तत्समाचारः। स्था०५१६) अ। सङ्घः-गणसमुदायः, चतुर्वर्णरूपो वा। बृह. २६१ कुलगणसंघथेराः। निशी. २०७ अ। अ। सङ्घः-गणसमुदाय इत्येवं सूत्रद्वयेन दशविधं संघभत्त-सङ्घभक्तम्। पिण्ड० ८८1 वैयावृत्त्य-माभ्यन्तरतपोभेदभूतं प्रति-पादितमिति। संघयण-संहनवः-अस्थिरचनाविशेषः। शक्तिविशेषो वा। स्था० २९९। सङ्घः-चतुर्विधरूपः। आव०४११। सङ्घः- प्रज्ञा० ४७०| संहननः-अस्थिसंचयः। सम० १५० समुदायः। जीवा० १६०, २२७। संहननं-शरीर-सामर्थ्यहेतुः वज्रऋभनाराचादि। उत्त. संघट्ट-सङ्घट्टः-परस्परं संघर्षः। व्यव० १३० आ। सङ्घट्टः- २३५॥ संहननं-अस्थिनिचयः। जीवा. १५॥ संहननंजंघार्धप्रमाणे उदकसंस्पर्श सङ्घटः नाभिप्रमाणे अस्थिसंचयः। भग०७२। संहननं-अस्थिसञ्चयः। स्था. उदकसंस्पर्शे। व्यव. २५आ। जंघा अर्द्ध बूडति स ३५७। संहननं-वपर्दृढीकारकारणास्थिनिचयात्मकम्। सङ्घट्टः। बृह. १६१ अ। अत्थ तले पादतलातो आर- जम्बू०७०/ संहननं-अस्थिसञ्चयविशेषः। भग० १२१ भेऊणं जाव सक्क जंघाए अद्धं छुट्ठति एस संघट्टो संहननः। आव० ४२० भन्नति। निशी० ७८ आ। सङ्घट्टयेत्-चालयेत्। ओघ० | संघरिससमुट्ठिय- सङ्घर्षसमुत्थितः११२। जङ्घार्द्धमात्रप्रमाणा जलं सङ्घट्टः। ओघ० ३२॥ अरण्यादिकाष्ठनिर्मन-समझतः तेजस्कायिकः। सङ्घट्टः-जङ्घार्धमुदकम्। आव० ६५६॥ वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० २९ प्रज्ञा० ३२ संघसिज्ज-संघर्षम्। आचा० ३४४। संघट्टए-सङ्घट्टयेत्-स्पृशेत्। दशवै. २२८॥ संघाइए- सङ्घातयति-निष्पादयति। सम०७५ संघट्टण- सङ्घट्टनं-अविधिना स्पर्शनम्। आव० १७४। संघाइम- संघातिमं, यत्पुष्पं पुष्पेण परस्परनालप्रवेशेन सङ्घट्टनं-सम्मनम्। पिण्ड० १६१। संयो-ज्यते। जम्बू० १०४| संघात्यं कञ्चकादि। दशवै. संघट्टिओ- सङ्घट्टितः-मनाक् स्पृष्टः। आव० ५७४। ८७ संङ्घातितः-अन्योन्यं गात्रैरेकत्र लगितः। आव० संघट्टिज्ज-सङ्घट्टम्। आचा० ३४४। ५७४। सङ्घातिमं-यत्पुष्पं पुष्पेण परस्परं नालप्रवेशेन संघट्टिय-सङ्घट्टितं-परस्परं घर्षयक्तम्। जीवा. १९२२ संयोज्यते। जीवा. २६७। सङ्घातिम-संघातेन निष्पन्नं, संघट्टिया-सङ्घट्टश्चाक्रमणभेदोऽत आक्रान्तानां इतरेतरनिवे-शित-नालपुष्पमालावत्। प्रश्न० १६० पृथिव्यादीनां यादृशी वेदना भवति तत् प्ररूपणा। भग० सङ्घातिमं-यत्पर-स्परतो नालसङ्घातेन सङ्घात्यते। ७६६] जीवा० २५३। सङ्घातिमं मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [14] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] बहवस्त्रादिखण्डसङ्घातनिष्पन्नो वस्त्रविशेषः। | संघात- सङ्घातं-अधिकं गात्रसंकोचनम्। आचा० ५५। कञ्चुकवत्। अनुयो० १३। सङ्घातिम-यत्परस्परतो अन्योन्यगात्रसंकोचनम्। आव० १११ परोप्परतो नालसङ्घातनेन सङ्घात्यते। भग० ४७७। गत्ताणं संपिंडणा। दशवै० ६९। संघाए- अनन्तानां परमाणनां विशि-ष्टैकपरिणामापत्तिः | संघातत्ता- सङ्घातत्त्वं-तथारूपशरीरपरिणतिभावः। सङ्घातः। अनुयो० १७६) जीवा० ३४१ संघाएइ-सङ्घटयति अन्योऽन्य गात्रैः संहतं करोति। संघातिम- सङ्घातिमं-यत्परस्परतः। भग. २३० पुष्पनालादिसङ्घातनेनो-पजन्यत इति। स्था० २८६) संघाएति-सङ्घातयत्ति परस्परं सङ्गातमापन्नं कुर्वति। सङ्घातिमं-सङ्घातनिष्पादयम्। ज्ञाता० २७९। प्रज्ञा० ५९२० चोलकादि। आचा० ४१४। निशी० ७९) संघाएह- सङ्घातयथ-संहतां कुरुथ। भग० ३८१। गतिपट्टापव्वारेण| निशी० ७९ अ। संघाओ-सङ्घातः प्राथमिको ग्रहः। आव० ४६२। संघातेत- सङ्घातयतः-पूरयतः। सूर्य. २२॥ संघाड-सङ्घाटः ज्ञातायां द्वितीयमध्यनम्। आव०६५३। | | संघाय-सङ्घातः-परस्पर गात्रसंस्पर्शपीडारूपः। दशवै. सम० ३६। सङ्घातः-षष्ठाङ्गे द्वितीयं ज्ञातम्। उत्त. १५६। ६१४। शृङ्गारकम्। प्रज्ञा०४०। सङ्घाटकः संघायणनाम- सङ्घात्यन्ते-पिण्डीक्रियन्ते श्रेष्ठिचौरयोरेकबन्धन औदारिकादिपु-गला येन तत्सङ्घातं तच्च तन्नाम च बद्धत्वमिदमप्यभीष्वर्थज्ञापकत्वात् ज्ञातमेवः। ज्ञातायां सङ्घातनाम। प्रज्ञा०४७०| द्वितीयमध्ययनम्। ज्ञाता० १० सङ्घाटः संघायणा-संघातना। आव० ४१० संघातनासमानलिङ्गयुग्म-रूपम्। राज०६९। सङ्घाटकम्। संहन्यमानानां -संयुज्यमानानामौदारिकादिपुद्गलानां आव० ९१। सङ्घाडो-युग्मवाची। जम्बू० २३॥ तैजसकार्मणपुद्गलैः सह संघाडइल्ल-सङ्घाटकीयः। आव०८६३। सङ्घाटिकः। यदात्मनस्तत्त्पुद्गलग्रहणात्मिकासु तदनुकूलक्रियासु निशी० ९६ आ। वर्तनात्मकं प्रयोजकत्वं सा। उत्त० १९८१ संघाडओ-सङ्घाटकः। आव० ३६७। संघायणिज्ज-संघातनीया-प्रमाणपुरुषतया मीलनीयः। संघाडगो-सङ्घाटकः। आव० ८३८1 उत्त०५९३। संघाडि- संघाटी-निर्ग्रन्थिकाप्रच्छदविशेषः। ज्ञाता० २०४। | संघाययति-सङ्घातयति-योजयतिः। दशवै०१६२। सङ्घाटी- वस्त्रसंहतिजनिता। उत्त० २५०| संघायसंखा- दय्यायक्षरसंयोगरूपाः सङ्ख्येयाः संगडिए- समर्थः तद्दिवसपर्याप्तभोजी वा। बह. १७९ अ। सङ्घातस-ङ्ख्याः। अनुयो० २३३ सङ्घाटिकः सहचारी। जम्बू. १२३। संघाया-सङ्घाता-द्विधा पर्यवाणामक्षराणां च। बृह०४३। संघाडिम- कंचुकादिसु कट्टसंबंधीसु वा संघाडिम। निशी संचइया- घयगुलमोइगाइणा जे अविणासी। निशी० २०२ ७१ आ। आ। संचयसंजात एषामिति संचयिताः संघाडिया- शृङ्घाटिका। आव०६२२॥ तारकादिदर्शनादितः प्रत्ययः येषां षण्यां मासानां परतः संघाडी- सङ्घाटी। आव० ३१३। सङ्घाटी। ओघ० २०९। सप्तमासादिकं यावदुत्क-र्षतोऽशीतं शतं मासानां सङ्घाटी-कल्पद्वयं त्रयं वा। आचा० ३०९। सङ्घाटी:- प्रायश्चित्तप्राप्तास्ते संचयिताः। व्यव० ९७ आ। उत्त-रीयविशेषरूपः। स्था० १८७। प्रायेण संचतिता-जे छण्हं मासाणं पारणपिच्छित्तं पत्ता तं संघडिज्जंतित्ति संघाडी गुणसंघायकारिणी वा संघाडी। सत्तमा-सादि जाव आसी तं सतं मासाणं ठितेसिं निशी०६३ उवणारोवणविभा-गेण दिवसा घेत्तुं छम्मासो संघाडए- संघाटकः-साधुयुग्मम्। बृह. ८६ आ। णिप्पाएता दिज्जंति। निशी. १२२ आ। संघाडेति-संघातयति। आव० ९९। | संचय- संचीयते संचयनं वा सञ्चयः, परिग्रहस्य द्वितीयं मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [15] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] नाम | प्रश्न० ९२ संचयकृत्स्नं अशीतं मासाशतं ततः परस्य संचयस्याभावात्। व्यव० ११८ आ संचयया होड़- सञ्चयपराभवन्ति अनागतमेव चिन्तयति। ओघ० १००| संचरणं- उपयोगगमनम्। उत्त॰ १६६। संचाएइ- शक्नोति। भग० ११२ | शक्नोति । स्था० १४३ | शक्नोति । आचा० ३३१ | संचारति- शक्नुवति। स्था० ३१२ संचाएज्जा- शक्नुयात्। प्रज्ञा० ३९९। संचार सञ्चार: · आगम - सागर - कोषः ( भाग : - ५ ) सञ्चारिमकीटिकामत्कोटादिसत्त्वव्याघातः । पिण्ड० १६२ | संचारसम- सञ्चारसम वंशतन्त्र्यादिभिर्यदङ्गुलसञ्चारसमं गीयते तत् । स्था० ३९६। वंशतन्त्र्यादिष्वेवाङ्गलीसञ्चार समं यद्गीयते तत् सञ्चारसमम्। अनुयो० १३३ | संचालेति संचालयति संचारयतीति पर्यालोचयतीत्यर्थः । ज्ञाता० २४| संचितित संसुवितम्। आक० १८९१ संचिक्ख संतिष्ठति। ओघ० ४०% चिक्ख- सन्तिष्ठते। आचा० २४२ प्रतीक्ष्यते, कार्याद्वि-रमति। आव ०७५५ | संचिक्खमाण- समतया ईक्षमाणः पश्यत् । उत्त० ४०६ । संचिक्खाविज्जति संरक्ष्यते । आव० ८३८ | संचिक्खावे प्रतिपालयति। ओघ १ta संचिक्खावेत्ता प्रतीक्ष्य आजझ ६४९| संचिक्खे- निरूपयति। ओघ० १६७ । संतिष्ठेत् । ओघ० ५९ । समाधिना तिष्ठेत् । न कुजनर्करायितादि कुर्यात्त् । उत्त० १२०॥ संतिष्ठति । ओघ० ४० संचिक्खेड़- परिभावयति व्यव० २५७ अ संचित्रण संस्थानं अवस्थितिक्रिया भग- ४७% संचिणा कायस्थितिः । जीवा० ६९ । अवस्थानम् । जीवा. ६१| सातत्येनावस्थानम् जीवा• ७८१ कायस्थितिः । जीवा० ४०६, ४२८ संचिनोति बघ्नाधाति । उत्त० २४६२ संचिय- आबाधाकालातिक्रमेणोत्तरकालवेदनयोग्यता मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [16] [Type text ) निषि-क्तम् । प्रज्ञा० ४५९ | संच्छिन्न- व्याप्तः । ज्ञाता० ७८ | संच्छोभ- संक्रामणम् । बृह० ३०१ आ । संछण्णं संछन्नं जलेनान्तरितम्। जम्बू० १२३, २९१। संचणपत्तभिसमुणाल- समून्नपत्रबिंशमृणालः। आव० ८१९| संछन्न- जलेनान्तरितम् । जम्बू० ४२ । संछोभ प्रक्षेपकम् बृह० २६५ अ प्रक्षेपः व्यव० ३४२ अ - संजइज्ज- उत्तराध्ययनेषु अष्टादशममध्ययन् । सम. ६४ | संजइत्त संयतीसत्कः व्यव० ३१ अ संजईज्ज संयतीयं- उत्तराध्ययनेष्वष्टादशममध्ययनम् । उत्त० ९। संज- सम्यग् यतः संयतः असद्व्यापारेभ्य उपरतः । उत्त० ३६० | संजए संयतः रागद्वेषावपाकृत्यः स्थितः । दश. १७८ संजणित संजनितः उत्पादितः । ज्ञाता० ३१| संजतासंजत संयतासंयत देशविरतः । प्रज्ञा० ३९२॥ संजत्ता सङ्गता यात्रा देशान्तरगमनं संयात्रा ज्ञाता० १३२| संजत्ताणावावाणियया सङ्गता यात्रा - देशान्तरगमनं संयात्रा तत्प्रधाना नौवाणिजकाः-पोतवणिजा-संयात्रान वाणिजकाः । ज्ञाता० १३२ | संजम संयमनं संयमः पापोपरमः । स्था० ३२३ | संयमःप्रत्त्युपेक्षादिः। भग० ७५९। संयमः-मूलगुणरूपः। अनुयो० २६५ | संयमः -संवरः । ज्ञाता० ८| संयमःसंयमवान्, साधुः । उत्त० ३१५ | संयमःप्राणातिपाताद्यकरणम् स्था० १५६। संयमः प्रेक्षोत्प्रेक्षाप्रमार्जनादिलक्षणः । स्था० ३६० । संयमः अनवद्यानुष्ठानलक्षः आव० ३४१ संयमः - हिंसात उपरमः अहिंसायाश्चत्त्वारिंशत्तमं नाम । प्रश्न० ९९| संयमः पञ्चाश्रवनिरोधादिलक्षणः सूर्यः ५ संयमःपृथिव्यादिसंरक्षणलक्षणोऽभिनवकर्मानुपादानफलः। प्रश्न. १०२ | संयमः रक्षा | भग० १२२ संयमःप्रज्ञापनाया द्वित्रिंशत्तमं पदम् । प्रज्ञा० ६ संवरः । भग० १३ संयमः प्रतिपन्नचारित्रः । भग० ४३३| संयमः "आगम- सागर-कोषः " (५) Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text) पञ्चाश्रवनिरोधादिलक्षणः। जम्बू. १६ संयमःसत्यम् । आव ७५ संयम:- देशविरत्यात्मकः । उत्त० २४९१ संयमं पृथिव्या दिसंरक्षणलक्षणः। भग० १०० संयमो-रक्षा ज्ञाता० ६०] संयम:प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणः आव० ६०४| संजमखेत्त- जत्थ आहारोवहिसेज्जाकाले वा सति सततं अविरुद्धो य उवहि लब्भति । निशी० १३० आ । निशी० आगम- सागर - कोषः ( भाग : - ५ ) ३५४अ । संजमघाय संयमघातकं संयमविनाशकम् आव ७३११ संजमजाया- संयमयात्रा संयमानुपालनम्। भग. २९४ संजमजीय- संयमजीवितम् । आव० ४८० संजमजीविय संयमजीवितं साधूनाम् स्था• ७ संजमजोओ संयमयोगः संयमव्यापारः आव० २६३ | संजमजोग संयमयोगः प्रत्त्युपेक्षणादिः । बृह. १७२अ संजमज्जवगुण संयमार्जवगुणं संयमार्जवे गुणों यस्य तपसः स । दशवै० २०७ | संजम - संयमार्थः अनाश्रवत्वम् । भग० १०० | संजमणा समयः ओघ० १९४ संजमबहुल संयमबहुल: पृथिव्यादिसंरक्षणप्रचुरः। प्रश्न १२८। संयमं- आश्रवविरमणादिकं बहु इति बहुसङ्ख्यं यथा भवति संजमबहुलम् । उत्तः ४२२१ संजमभयउव्वेयकारि- संयमभयोवेगकारिकः-संयमस्य दुष्करत्वप्रतिपादनपरः । ज्ञाता० ४९ । संजमरिया- संयमेर्या-सप्तदशविधसंयमानुष्ठानम्। आचा० ३७५| संजमावसत संयमनामवसयो गृहम् व्यव. १७३ आ संजय संयतः इन्द्रियनोइन्द्रियसंयमवान्। आचा० ३५०१ संयतः पृथ्व्यादिव्यपादननिवृत्तः । उत्त० ११४ संयतः। सम- एकीभावेन यतः संयतः, क्रियां प्रति यत्नवान्। आव० ५१६ | संयतः सम्यक् संयमानुष्ठाने यतःयत्नपरः ओघ० ७५। संयतः सम्यगुपयुक्ता आचा० ३२२| संयमः-निरवद्येतरयोगप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपः । प्रज्ञा० ५३५ । संयतः - श्राद्धः । आव० ७९८, ७९९ । संयतःसामस्त्येन यतः । आव० ७६२ संयतः सप्तः दशप्रकारः संयमोपेतः । दशवै० १५२ संयतः वधादिपरिहारे प्रयतः । भग० २९५ | उत्त० ४८७ । संयतः । आव० ३०० | संयतः सं यच्छति स्म सर्वसावद्ययोगेभ्यः मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [17] [Type text ) सम्यगुपरमति स्मेति संयमः । प्रज्ञा० ४२४ संयतःहिंसादिपापस्थाननिवृत्तिः प्रज्ञा० १३५१ संयतःप्रयत्नवान्। दश० १५५१ संजयजण संयतजनः साधुलोकः । आव० ४००१ संजयमणुस्स संयतमनुष्यः साधुः । स्था० ३२० | संजयलाभ - संयतलाभः स्वर्गापवर्गप्राप्तिरूपः । उत्त ४७८ संजयासंजय संयतासंयतः हिंसादीनां देशतो निवृत्तः । प्रज्ञा० ५३५| संजयोय संयतीयं- उत्तराध्ययनेष्वष्टादशममध्ययनम् । उत्त० ४३७ | संजलण सञ्जलतीति सञ्जलनः प्रतिक्षणरोषः, अष्टममसमाधिस्थानम् । सम० ३७॥ चतुष्प्रकारकषायः । सम० ३१॥ सज्ज्वलन:- मुहुर्मुहुः क्रोधाग्निना ज्वलनम्। भग० ४७२१ संज्वलनः यो मुहूर्ते २ रुष्यति, अष्टमम-समाधिस्थानम्। आव॰ ६५३॥ संज्वलनः क्षणे क्षणे संज्वलयतीतिसंज्वलनः अत्यन्तक्रोधनः । सूत्र- ३१३ सज्वलयति दीपयति सर्वसावदद्यविरतिमपीन्द्रियार्थसम्पाते वा सज्वयलति दीप्यत इति सञ्ज्वलनःयथाख्यातचारित्रावारकः । स्था० १९४ | सज्वलनंगुणोद्धासनम्। उत्त० १७९१ संजलणा- ईषज्ज्वलनात् संज्वलनाः, सपदि परीषहादिसङ्घा-तज्वलनावा, क्रोधादयश्चत्वारः कषायः । आव ७८ परी षहोपसर्गनिपाते सति चारित्रिणमपि सम्-ईषत् ज्वलयन्तीति सज्वलनाः । प्रज्ञा० ४६८। - संजले निर्यातने प्रति भूतवाक्रोशदानातः सञ्ज्वलते, तन्निर्यातनार्थं देहदाहलौहित्यप्रत्याक्रोशाभिघातादिरग्निव-द्दीप्यते। उत्त० १११ | संजाई- सञ्जातिः। सूर्य० २८२ | सञ्जातिः । जीवा० ३४७ संजाए सञ्जातः प्रीणितः महाकायः दशवै० १७| संजात: प्रचुरं लब्धम् । ओध. १८७१ संजायभया- सञ्जातभया भयप्रकर्षाभिधानायैकार्थीकः । विपा० ४३ | सञ्जातभया । भग० १६६ | संजायसड्ढा संजायश्रद्धः प्रकर्षेण जात श्रद्धः । सूर्य० ६ 1 "आगम- सागर- कोषः " [५] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] संजीवणी- सञ्जीवनी - जीविदात्री नरकभूमिः । सूत्र० १३७ । संजुग- सयुगं-संग्रामः । बृह० २३० आ । संजुत्त- संयुक्तः समुपेतः । जीवा० २६८| संयुक्तं अर्थक्रियाकरणयोग्यम्। आव• ८३९। संयुक्तं भूषणयुतं जीवयुक्तं यः स्त्रीशरीरम् । बृह० ४१ अ संजुत्तदव्वसम्म संयुक्तद्रव्यसम्यक् ययोर्द्रव्ययोः संयोगो गुणान्तराधानाय नोपमर्दाय उपभोक्तुर्वा मनः प्रीत्यै पयः शर्करयोरिव तत्संयुक्तद्रव्यसम्यक् । आचा० १७६ । संजुत्तयसंजोग समिति सगतो योगः संयोगः, सयुक्तमेव संयुक्तकं अन्येन संश्लिष्टं, तस्य संयोगोवस्त्वन्तरसम्बन्धः संयुक्तसंयोगः उत्त• २३॥ संजुत्ता समिति सम्यग् भृशं वा युक्ता संयुक्ताः । उत्तः ७१३ | परिणीता । निशी० १०१ । संजुत्ताहिगरण संयुक्ताधिकरणेअर्थक्रियाकरणयोग्यम-धिकरणम् । आव० ८३० | संजूह संयूथ : ग्रन्थरचना अनुयो० १५०| संयूथ निकायविशेषः। भग॰ ६७६। दृष्टिवादे सूत्रेऽष्टमो भेदः । सम १२८१ सङ्गतं युक्तार्थम् । स्था० ४९५ सामान्यःसंक्षेपः । सूत्र० ३०५| संजोएमाण संयोजयन प्रतिसमयमपरापरेणोपयोगरूपतयो- त्त्पद्यमानेन घटयन्। उत्त० ५९३ । संजोग- संयोगः सम्यग् - अविपरितो योगः-समाधिः उत्तः २०| संयोगं-ममत्वपूर्वकं सम्बन्धम्। आचा १७२॥ संयोगः- भङ्गः । पिण्ड० १६५ | संजोगट्टी- संजोगार्थी आगम- सागर - कोषः (भाग:-५) धनधान्यादिहिरण्यद्विपदचतुष्पदरा ज्या भार्यादिसंयोगस्तेनार्थी आचा० १०१। संयुज्यते संयोजनं वा संयोगोऽर्थः प्रयोजनं संयोगार्थः सोऽस्यास्तीति संयोगार्थी शब्दादिविषयः संयोगो मातापितादिभिर्वा तेनार्थी कालाकालसमुत्थायी आचा. मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [18] [Type text] १७१ आ । संजोगा संयोगा: औषधद्रव्यमीलनसंयोगाः । बृह० २८९। संजोगाभिलासा- संयोगाभिलाषः कथंममैभिर्विषयादिभि रायत्यां सम्बन्ध इतीच्छ आव ५८५ | संजोगम- संयोगिमः यस्तैलवत्त्यग्रिसंयोगेन निर्वृतः । उत्त० २१२ संजोयणा- तत् (उदय) फलभूतेन कर्मणा संसारेण वा संयोजयतीति संयोजना। आव० ७७ । संयोजनंएकजात्ती यातिचारमीलनं संयोजना प्रायश्चित्तम् । स्था॰ २००| संयुजना-निर्वत्तितानामेकत्र सङ्घातना । बृह० २३४ अ । संयोज्यन्तेसम्बन्धन्तेऽनन्तसङ्ख्येर्भवैर्जन्तवो यैस्ते संयोजना | १०१ | संयोगदिट्ठपाठी- अनेकान् संयोगान् व्यापार्यमाणान् यो दृष्टावान् यश्च तत्पाठं पठितवान् सः संयोगदृष्टपाठी । व्यव० १३१ आ । संजोगपाठी- संयोगपीठन:- योग्यद्रव्यसंयोगवेदिनः बृह० संज्झागयाइ- दुष्टनक्षत्राणि गणि० । प्रज्ञा० ४६८ | संयोजणादोस- आहारलोलुपतया दधिगुडादेः संयोजनां विदधतः संयोजनादोषः । आचा० ३५१| संजोयणादोसदुट्ठ- संयोजनादोषदुष्टं संयोजना- द्रव्यस्य गुणविशेषार्थ द्रव्यान्तरेण योजनं सैव दोषस्तेन दृष्टम्। भग० २९२ संजोयणाहिगरणिया यत्पूर्व निर्वर्तितयोः खड्गतत्मुष्ट्यादिकयोरर्थयोः संयोजनं क्रियते सा संयोजनाधिकरणिकी। स्था० ४१ । संज्झति सहाया । निशी० ९५आ । संज्झब्भरागसरिस सन्ध्याभरागसदृशः उत्त० ३२९| संज्झागत जम्मि उदिते सूरो उदिते तं सज्झागयं, जं सूरस्स पिद्वतो अग्गतो वा वण्णतरं तं निशी. ९९ अ संज्झप्पभ सन्ध्याप्रभं प्रथमस्य इन्द्रलोकपालस्य सोमस्य विमानम्। भग. १९४१ संज्झब्भराग- सन्ध्याभरागः वर्षासु सन्ध्यासमयभावी अभ्ररागः । जम्बू० ३४ | संज्झा - सन्ध्या-कालनीलाद्यभ्रपरिणतिरूपा प्रतीतैव । अनुयो० १२१ ॥ संज्झगय- यत्र नक्षत्रे सूर्यो अनन्तरं स्थास्यति तत्, आदित्यपृष्टस्थितमन्ये पुनराहुर्यस्मिन्नुदिते सूर्य उदयति तत् संध्या- गतम् । सूर्यस्य पृष्टतौऽयतौ वा अनन्तरनक्षत्रं संध्यागतम्। व्यव० ६२ अ "आगम- सागर-कोषः " (५) Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] संज्झाणुरागसरिआ- सन्ध्यानुरागेण सदृशात् वर्णतः। | व्यव० ३१ अ। खण्डं, वनम्। जम्बू. २४२। षण्डः। आव. ज्ञाता०२३१ ४१४१ संज्झाराग-सन्ध्यारागः। प्रज्ञा० ३६१। संडास-सदंसं-ऊरूसन्धिम्। ओघ० ८४ सण्डासं-जङ्घोसंज्ञासूत्र- त्रिविधसूत्रे प्रथमम्। बृह. ५० आ। वरिन्तरालम्। ओघ० १०७। संदेशकः। बृह० २५९ आ। संज्ञि- सम्यक्त्ववान्। आचा० २८१।। सदंशः। दशवै. १२३। संदंशकः- सगुष्ठतर्जन्योरग्रम्। सट्टमाणिय-स्यन्दमानिकः-पुरुषप्रमाणं जन्पानविशेषः। आव०६४| निशी०१८। भग०५४७। | संडासए- अङ्गुष्टप्रदेशिनीभ्यां यत्गृह्यते। व्यव० ३६९ संठप्पय-संथाप्यतः तत्कृत्यकरणम्। भग०४६९। संठवण-महादीर्ण उज्जभावणं। निशी० १२३ अ। लिंपणं। | संडसगं- संडासकं नासिकाकेशोत्पाटनम्। सूत्र. ११७५ निशी० २३२आ। ज्ञाता० १४३। संठवावेति-संथापयति। आव०५५५ संडासत-संदंशकम्। आव. २२७। संठविय- संस्थापितः-संस्कृतः। नन्दी०६४। संस्थापितः- संडासतोंड- संदंसतुण्डः-संदंशकाकारमुखपक्षी। प्रश्न. १४। मीलितः। प्रश्न०६४ संडिर्भ-संडिम्भं-बालक्रीडास्थानम्। दशव १६६) संठवेयव्व-संस्थापयितव्यः। आव. ५६० संडिब्भं- बालरूवागि रमंति धणहि। दशवै. ७५ संठाण-संस्थान-मृगशिरः। जम्बू० ४९७। संस्थानं- संडिय-तृणविशेषः। प्रज्ञा० ३३ आकारविशेषः। जीवा० १०३। संस्थानं-कटीनिविष्टकरा- | संडिल्ला- शाण्डिल्याः जनपदविशेषः। यत्र नंदीपुरनगरम्। दिसन्निवेशात्मकम्। उत्त०४२८। संस्थानं-आकारः। प्रज्ञा०५५ स्था०६८। संस्थापनं-आकारविशेषः। प्रज्ञा० ४७२ | संडेय- षण्डेयः-षण्डपुत्रकाः। औपर। संस्थान-स्कन्धाकारः। भग० ८५८१ संस्थान-आरोपित- | संडेया- षाण्ढेयाः-षण्ढपुत्रकाः षण्ढा। ज्ञाता० १। ज्याधनुराकारः। स्था०६८। संस्थानः-मृगशिरो नक्षत्रम्। | संडेल्ला-काश्यपे द्वितीयो भेदः। स्था० ३९० सूर्य. २२५। संस्थान-सम्यगवस्थानम्। जीवा० ३४५) संडेवए- सण्डवकः-पाषाणादि। ओघ. ३१ सण्डेवकःसंस्थानं-आकारविशेषः। प्रज्ञा० २९३। संस्थानं पाषापणादि योऽन्यस्मिन्पाषाणादो पादनिक्षेपःस विन्यासविशेषः। दशवै०२३७। संस्थानं-आकारः। भग. संडेवकः। ओघ. ३११ ११। संस्थानं शरीराकृतिरवयवरचनात्मिका। स्था० | संडेवा- तज्जातशिलादयः, अन्यतो वा नीताः इट्टालका३५७। संस्थानं-यथास्थामनङ्गोविन्यासः। जम्बू. १८२। दयश्च। बृह. १६२ अ। संठाणविजए- धर्मध्यानस्य चतुर्थो भेदः, संणाय- कुटुम्बम्। आव० ४०५ संस्थानानिलोकद्वी-पसम्द्राद्याकृतयः तस्याः संणायकुल-सजातीयक्लम्। आव० ८४६। विचयो-निर्णयो यत्र तदा संस्थानविचयः। भग. ९२३। संणिवेस- सत्थावासणत्था णं संणिवेसं गामो वा पिंडितो संठिई-संस्थितिः-व्यवस्था। जम्बू०५४३। संस्थितिः। संनिविट्ठो जत्थ गतो वा लोगो संनिविट्ठो सण्णिवेसं। सूर्य०६७। संस्थितिः-अवस्थानम्। सर्य.७। संस्थितिः- निशी०७०आ। व्यवस्था। सूर्य०६, ८1 सण्णा- सज्ञाःसंठिए- संस्थितं-सदृशकारम्। अनुयो० १७२। असातावेदनीयमोहनीयकर्मोदयसम्पादया संठित-संस्थितः विशिष्टसंस्थानवद। ज्ञाता०२ आहाराभिलाषादिरूपाश्चेतनाविशेषः। सम०१० संस्थितं-वृत्तचतुरस्रम्। बृह० २४४ आ। संस्थितः- संत-श्रान्तः शरीरतः। ज्ञाता० ९७। सन्तः व्यवस्थितः। सूर्य०४। सौम्यमूर्तित्वात्। ज्ञाता०१०३ श्रान्तः-शान्तो वा संठियंमि-संस्थिते। ओघ. २१११ मनसा। ज्ञाता० १३९। श्रान्ताः-खिन्नः। ज्ञाता० २२४। संड- षण्डः। आव० ८२५। षण्डः। व्यव० ३१ अ। सत्कः। | श्रान्तो भवभ्रमणात्। जं० १४६। अन्तर्वृत्त्या शान्तः। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [19] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] श्रान्तो भवभ्रमणात्। औप. ३५ श्रान्तः देहदेखने। | | निशी० २५५ आ। विपा०४१। शान्तः-अत्ययन्तम-न्दभूतः। जम्बू. ३१८५ संताणगसंकमण-पिपीलगमक्कोडगादीणं भण्णति। श्रान्तः। दशवै०१०५ निशी० ८३ । संतइभाव- अनन्तरोऽनुभवभावः सन्ततिभावः। प्रज्ञा० संतावणी- संतापयतीति सन्तापनी कुम्भी। सूत्र० १३६। ३२३॥ संतासती-सावयभयं वा अण्णो य परिरएण पंथो संतकम्म-सत्कर्म-सत्तावस्थं कर्म। सम०४०। णत्थिएसा सव्वा। निशी० १२४ आ। संतत्तभाव-सन्तप्तभावः-समिति-समन्तात् तप्त इव संति-शमनं शान्तिः -अशेषकर्मापगमोऽतो मोक्ष एव तप्तः अनिवृत्तत्वेन भावःकरणमस्येति। उत्त० ३९९। शान्तिः। आचा० १२८। शमनं-शान्तिः-अहिंसा इत्यर्थः। संतपय- सच्च तत्पदं चेति सत्पदं सन्तं तत् पदं आचा० २५६। शान्तिः -मोक्षः। स्था० ४२६। सन्तपदं-गत्यादि। आव. १९। शाम्यन्त्यस्यां सर्व-द्रितानीति शान्तिः-निर्वाणं, संतपयपरूवणया- सत् इति सद्भूतं विद्यमानार्थमित्यर्थः। उपशमः। उत्त० ३४१५ सच्च तत्पदं व सत्पदं तस्य प्ररूपणा। आव० ८३१। शान्तियोगात्तदात्मकत्वात्तत्त्कर्तृत्वादवा शान्तिः सत्पदप्ररूपणतागत्यादिभिदवारराभिनिबोधिरकस्य षोडशो जिनः, यस्मिन् गर्भगते सति कर्तव्या। आव. १९ महदशिवमुपशान्तमतः शान्तिः। आव०५०५। शान्तिःसंतया- सन्ततम्। भग० २० सामायिकचतुर्थपयार्यः। आव०४७४। शान्तिः-उपशमः, संतर-सान्तरं-सव्यवधानम्। प्रज्ञा० २६४१ अंतरकप्पो, प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्याभिव्यजहासत्तीए चउत्थमादी करेंति। निशी० ३५३ आ। क्तिलक्षणसम्यग्दशर्नज्ञानचरणकलापः। आचा० ७७ स्वान्तरः स्वकृत अन्तरः। बृह. १७० ।। संतिओ-सत्कः। आव० ५३५ संतरण- प्लवनम्। ओघ० २३। जत्थ त्ति णदीए एसिं संतिकम्म- शान्तिकर्म-अग्निकारिकादिकम्। प्रश्न. ३९। पंचण्हं णदीणं किम्हिइ उतरणं संतरणं अथवा संतिकम्मगिह-शान्तिकर्मगह-यंत्र शान्तिकर्म क्रियते। बहुदगथामे संतरणं। निशी०७७ आचा० ३६६। संतरित्तए- सन्तरीतुं-साङ्गत्येन नावादिना लवयितुम्, | संतिग- सत्कः। आव० ४२५) सकृद्वोत्तरीतुमनेकशः सन्तरीतुमिति। स्था० ३०९। । संतिगिह-शान्तिगृह-शान्तिकर्मस्थानम्। भग. २००९ संतरित्ततुं- भूयः प्रत्यागन्तुम्। बृह० १६१ आ। संतिज्जाघर- शान्त्यार्यागृहम्। उत्त० २१६) संतरूत्तर- सान्तराणि संतिसुव्वया- शान्तिसुव्रताः-सन्ति विद्यते शोभनानि वर्द्धमानस्वामिसत्कयतिवस्त्रापेक्षया या सम्यग्ज्ञानाधिष्ठितत्वेन व्रतानि-हिंसाविरमणादीनि कस्याचित्कदाचिन्मानवर्णविशेषतो विशेषतानि येषां ते सुव्रताः शान्ता वा उपलक्षिताः सुव्रताः उत्तराणि च-महाधनमूल्यतया प्रधानानि शान्तिसुव्रताः। उत्त० २९२। प्रक्रमाद्वस्त्राणि यस्मिन्नसौ सान्तरोत्तरः। उत्त. संती-पञ्चमचक्रवर्ती। आव०१५९। सम० १५२ शान्तिः५०० द्रोहविरतिः अहिंसायाश्चतुर्थं प्रश्न. ९९| निशी. २७६ संतविरिय- विद्यमानसामर्थ्यः। आव. ५३४। आ। असिवपसमणट्ठाणं। निशी. ७० अ। संतसे- सन्त्रसेत्-उद्विजेत्। उत्त० ९१| संतुट्ठ- संतुष्ठः-लाभालाभयोः समः। दशवै० १८७। संताण- जालकम्। बृह. १६६ । सन्तानः-निबन्धनम्। संतुयट्ट- शयितः। ज्ञाता० १८१, २०९।। पिण्ड०१४५। सन्तानः-प्रवाहः। आव०६०१| संथड- संस्तुतं-धनं संनिपतितम्। आचा० ३४०| संस्तृतं संताणा- जालकम्। बृह. १६६ अ। धनं प्रेक्ष्य। आचा० ३३३। संस्तृतं-धनम्। आचा० ३३३। सांताणए-सन्तानः-कालिकतन्तकम्। ओघ० ११७ । संस्कृतं नाम राज्यं यदविलिप्तम्। व्यव. २७९ आ। संताणग- कोलियपुडगं अकुजियं संताणगो। निशी० ८३ | संस्तृतः-व्याप्तः। ओघ० २१९। समर्थः। दशवै० २१९। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [201 "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] पज्जत्तं लभंतो। निशी. ३१२ । सस्तीर्णं आच्छा- । संसरः-दर्शकुशंकम्बलीवस्त्रादिः। आव० ८३६। संस्तारःदितम्। भग. ३७, १५३। संस्कृतः। आचा० ३३३। अर्द्धतृतीयहस्तः। आव० ७२७। संस्तारकः। ओघ. २१७ संथडिओ- हट्ठसमत्धो। निशी. ३०८ आ। संस्तारकः। दशवै० ८९। संस्तारकं-तृणमयादिरूपम्। संथडी- पर्याप्तभक्तपानलभः सन्ततभोजी वा। बृह. १८२ | दशवै. २३१। अट्ठाइयहत्थो। निशी० १६० आ। संतारकः| निशी० ३१२ अ। दिणे पज्जतं वा अपज्जतं शय्यापट्टः। पिण्ड० १९। एन्द्रजालिकः। तन्द०। भुजंतो। नि० ३१ आ। संस्तरंति-साधवोऽस्मिन्निति संस्तारः-उपाश्रयः। व्यव० संथय-संस्तयः-परिचयः। पिण्ड० १९७५ ८आ। निशी. १५आ। संथर-संस्तरः-निवार्हः। पिण्ड० ११९। संस्तरेत्-यापयितुं संथारए- संस्थारकः। ज्ञाता०६० समर्थः। दशवै०१८२१ फासुएसाणिज्जा असणादि या | संथारक- संस्तारकः-तृणमयः। ओघ० ५६। पज्जत्ती लब्भंति जत्थ हट्ठो य तं। २०२ अ। संथारग- संस्तारको-लघुतरः। स्था० ३१२। संस्तारकःसंथरओ-संसूरतो निसूरतः। बृह. ५२ अ। लघुतरः। ज्ञाता० १०७। संस्तारकः-शय्यातो हीनः। संथरण-संस्तरणं-संतरणम्। ओघ. १४३। संस्तरणं- औप०४१। संस्तारकम्। प्रज्ञा०६०६। संथारभूमी। प्राशुकमेषणीयं वाऽशनादिपर्याप्तं प्राप्यते, न किमपि निशी० ८३ अ। संस्तारकः-लघुतरः। भग० १३६ ग्लानत्वं विद्यते। बृह. २५१ अ। संस्तारकः। आचा० ३७६। संस्तारकः-अर्द्धतृतीयहस्तः। संथरमाण-संस्तरन-संयमानपरोधेन वर्तमानः। आव. प्रश्न. १२० ५३८1 संथारगत- संस्तारगतः-संलिख्यकृतप्रत्याख्यानः। व्यव० संथरे-संस्तरति। ओघ. २१६ ४१४ आ। संथव-संस्तवः-परिचयो भूयो गमनाद्भवति। आचा० १८४१ | संस्थारणिज्जा-साधुणो अक्खा सगुणा जणवया संस्तवः-पूर्वपश्चात्संस्तवरूपो वचनसंवासरूपो वा। संथारणि-ज्जा। नि० ४३आ। उत्त०४८७। संस्तावकम्। ज्ञाता०२१३। संस्तवः- संथारपट्ट-संसारपटः। ओघ० ८३। परिचयः। सूत्र०७२। संस्तवः- परिचयः। दशवै. १०९। संथारपायदंडग- वनस्पतौ प्रयोजनम्। स्था० ३३९। संस्तवः-वदनं प्रशंसा। आचा. २६। संस्तवः संथुअ- संस्तुतः-भूयो भूयो दर्शनेन परिचितः, अथवा प्रशंसावचनम्, स्तुतिः। पिण्ड० १४१। संस्तवः-परिचयः पूर्वसंस्तुतो मातापित्रादिभिहितः। पश्चात्संस्तुतः। कामसम्बन्धः। सूत्र. १७७। संस्तवः-परिचयः। प्रज्ञा० आचा० १००। संस्तुतः-स्नेहात्प्रशंसितः। भग० ६४७। ६०|संस्तवः -तैर्मात्रादिभिः पश्चात्संस्तुतैश्च संस्तुतः-भयो दर्शनेन परिचितः। जम्बू. १४९।। श्वश्रादिभिः परिचयः। उत्त०४१४१ श्लाघा तः-दशनभाषणादिभिः परिचितः। प्रश्न. १४० वचनसंस्तवः। पिण्ड. १३९। संस्तवो-गणकीर्तनम्। संस्तुतः-सम्यगभिवन्दितः। उत्त० ५१२। लोग्गजत्ताउत्त. ५६६। संवासोः। निशी० २४२ । संस्तवः- परिचयं| निशी. १४७ । परिचयः अभिष्वङ्गहेतुत्वात्परिग्रहः, परिग्रहस्य संथुया- संस्तुताः-प्रपौत्रश्वशुरादयः। बृह. १३५ अ। द्वाविंशतितमं नामः। प्रश्न. ९२ संदसिए- सन्दर्शितः-उपलम्भितः। ज्ञाता० २११। संथवपिंड-संस्तवपिण्डः पूर्वपश्चात् संस्तवादवाप्तः। संदट्ठ- संदृष्टः मुसलाभिश्चुम्बितः। जम्बू०५७। आचा० ३५११ संदहओ- सदृशपूर्वापरसूत्रद्वयेन संदंशकेनैव गृहितत्वात् संथवेज्जा-स्त्र्यादिसंसक्तां वसतिं सेवेत। आव० ३५९। संदष्टकः। बृह. १९५अ। संथार- संस्तारः-लघुकोऽर्द्धतृतीयहस्तमानः। अनुयो० २०| | संदण-स्यन्दनः रथविशेषः। पश्न०८1 संस्तारं-कम्बल्यादि। उत्त० ४३४। संस्तारकः। अर्द्धतृ- | संदमाणि-स्यन्दमानिका-पुरुषप्रमाणो जम्पानविशेष। तीयहस्तप्रमाणः। आचा० ३६९। संस्तारकः-भूमिरूपः। | जीवा० १८९। ओघ०९०। संस्तारकं-अपवर्तकमाश्रित्य। आचा० ३६९। | संदमाणिअ-स्यन्दमानिकः-पुरुषप्रमाणजम्पानविशेषः। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [21] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text]] जम्बू० ३० सन्धिः -दविधाभावलक्षणः। सूत्र. २८। सन्धानं सन्धिःसंदमाणिआ-स्यन्दमानिका-पुषायामप्रमाणः उत्तरोत्तर-पदार्थपरि-ज्ञानम्। सूत्र. २८। सन्धिःशिबिकावि-शेषः। जम्बू. १२३। दीर्घा जम्पानविशेष- फलद्वयापान्तराल-प्रदेशः। जीवा० १९८। सन्धिपुरुषस्य स्वप्र-माणावकाशदायी स्यन्दमानिका। सन्धिमेलः। जीवा० ३५९। सन्धिः -सन्धानम्। जीवा० जम्बू०३७ २७१। सन्धिः -यथाकालमन-ष्ठानविशधायी यो यस्य संदमाणिय- पुरुषप्रमाणायामो जम्पानविशेषः। भग० वर्तमानः कालः कर्तव्यतयोपस्थि-तस्तत्करणतया १८७, २३७। पुरुषप्रमाणायामो जम्पानविशेषः। अनुयो० तयेव सन्धत्तः। आचा० १३१। सन्धिः -मीलनम्। १५९| ज्ञाता० १५७। सन्धिं-कर्तव्यकालम्। आचा० १३१| संदमाणिया-शिबिकाविशेषः। सूत्र. ३३० सन्धिः -क्षत्रम्। उत्त. २०७। सन्धिः -चौरखातं संदमाणी-स्यन्दमाना। ज्ञाता० ३ भित्तिसन्धिम्। आचा० ३४१। सन्धिः-सन्निकर्षः। संदमाणीया-स्यन्दमानिका पुरुषस्य प्रश्न. ११७। सन्धिः । आव. २१९। सन्धिः -चित्तं क्षत्रम्। स्वप्रमाणावकाशदायी। जीवा० १९२१ स्यन्दमानिका- दशवै. १६६। दोण्ह घराणं अंतरा छिंडो। निशी०५३ अ। पुरुषप्रमाणजम्पानविशेषः। औप०४॥ संधिकंम- सवुडकरणं। निशी. २३२ आ। संदाणियं- संघातीतं पुव्वागारे द्ववियं सत्तेण वा संधिकरण-सन्धिकरणं-दवयोर्विवादमानयोः संदाणियं। निशी० १५२ अ। सन्धानकरणम्। उपा०७ संदिट्ठ- गुरुणाऽभिहितः संदिष्टः। आव. २६८ संदिष्टः- संधिचारी-सन्धिचारी-छिद्रान्वेषी। आचा० ३६५ उक्तः। ओघ० २१। प्रेषितः। बृह० ८९ आ। संदिष्टः- संधिच्छेय-सन्धिच्छेदः-क्षात्रखानकः। प्रश्न. ४६। उक्तः। ओघ०८५ सन्दिष्टः-भूक्तः। ओघ. १९०| संधिच्छेयएअ सन्धिच्छेदकः-छात्रखानकः। ज्ञाता० ७८1 संदिसह- संदिशत-ददत्त। ओघ० १७९। संधिच्छेयग-सन्धिच्छेदकः गृहभित्तिसन्धीन विदारकः। संदिसावेऊण-संदिश्य। दशवै० ३८ ज्ञाता० २३६। यो भित्तिसन्धीन भिनत्ति स संदीण- संदीयते-जलप्लावनात् क्षयमाप्नोतीति सन्दीनः। | सन्धिच्छेदकः। वीपा० ५६। उत्त० २१२सन्दीनः-क्षोभ्यः। जम्बू० ८। यो हि संधिदोस-सन्धिदोषः-विश्लिष्टसंहितत्वं व्यत्ययो वा, संदीयते-जलप्लावनात् पक्षमासादावदकेन प्लाव्यते स | सूत्रो-च्चारणे दवात्रिंशत्तमदोषविशेषः। आव० ३७४ सन्दीनः। जम्ब०८ सन्दीनः-प्रचुरेन्धनतया विवक्षित- | संधिपाल-सन्धिपालः-राज्यसन्धिरक्षकः। भग० ३१९| कालावस्थाप्यसन्दीनो वितरीतस्तुं सन्दीन इति, संधिमेल-सन्धिः । जीवा. १८० आदित्य-चन्द्रमाडण्यादिरसन्दीनोऽपरस्तु सन्दीनः। । संधिय-सन्धितः-संयोजितः, संधानं सन्धा सा जाताआचा० २४७ ऽस्येति। उत्त० २१२ संदेह- नाद्याद्यपदकनिमझनलक्षणः। बृह. २२ अ। संधिल्लाओ-संधातवन्तः। व्यव० १६९ आ। संधणद्वा-सन्धानार्थ-अविच्छिन्नप्रवाहार्थम। ओघ. १८३। | संधिवाल- सन्धिपाल राज्यसन्धिरक्षकः। भग०४६४। संधणा- विस्मृत्यापांतराले तुटितस्य पुनः सन्धानकरणं सन्धिपालः राज्यसन्धिरक्षकः। औप०१४। सन्धिपालःसन्धना। व्यव० ३७६ अ। सन्धना-प्रदेशान्तरविस्मृ- राज्यसन्धिरक्षकः। राज०१४०| सन्धिपालः-राज्यसतस्य सूत्रादेर्मेलनं घटना योजना। आव० २६७। न्धिरक्षकः। जम्बू. १९० सन्धानम्। आव०६३४१ संधिस्सामि-सन्धास्यामि-पटितं-पटितं सेविष्यामि। संधावइ-सन्धावति-पौनःपन्येन गच्छति। आचा. २४। आचा० २४४। संधि- सन्धिः-कर्मसन्ततिः सन्धीयत इति वा संधी-सन्धिः कर्मसन्ततिरूपः। आचा० २२४। सन्धिः भवाद्भवान्त-रमनेनेति सन्धिः। आचा० २०९। सन्धिः- फलकानां सन्धिमेलः। जम्बू. २३। सन्धिः-सन्धिमेलः। अवसरः। आचा० २६५। सन्धिः -अवसरः। आचा० २०४। | जीवा० १८० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [22] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] संधीणामजो-जो पण्णस्स मज्झे पासलतो पुट्ठीवसोत्ति। संनि-वेशः। दशवै० १८३ स्था०८६। सन्निवेशः वृत्तं भवति। निशी० १४१ । घोषादिः। भग० ३६ संधीसंखेडग- जतो गमिस्संति सो दिसाभागो। निशी० ८६ | संनिवेसणा- संनिवेशना-स्थापना। उत्त० ५८६। । संनिवेसमारी-सन्निवेशमारी-मारीविशेषः। भग. १९७१ संधुकिओ- प्रगुणितः। आव०६९३| संनिसिज्जा-सम्यग् निषीदन्ति-उपविशन्त्यस्यामिति संनत-सन्नतः अधोनमतम्। प्रश्न०८० सनि-षद्या-पाठाद्यासनम्। उत्त० ४२४। संनद्ध-सन्नद्धः-सन्नहत्यः कृतसन्नाहः। विपा०४६। संनिहाण- सन्निधानं-यो हि लघुकर्मा सम्यग् निधियते संना-संज्ञा-समाचारः। बृह० ११३ आ। नारकादिगतिष येन तत् सन्निधानं-कर्म। आचा. संनायग-सञ्झातकः स्वजनः। बृह. ११९ आ। २७५ सन्निधीयते यत्र कारणं तत् सन्निधानंसंनाहपट्ट- विहारे शरीरेणोपधैर्बन्धनार्थकः पटः। बह. अधिकरणम्। आव २७८1 २५३ आ। संनिहाणसत्थ- सम्यग् निधीयते नरकादिगतिष येन संनिओग-सन्नियोगः-स्वपरप्रयोजनेष तत्स-न्निधानं कर्म तस्य स्वरूपनिरूपकं शास्त्रं यदि सम्यग्व्यापारणम्। उत्त०६३१| वा सन्निधा-नस्य-कर्मणः शस्त्र संयमः संनिकास-संनिकाशः प्रभा। जीवा. २१४१ सन्निधानशस्त्रम्। आचा० २७५ संनिकेय-संनिकेत-स्थानम्। भग० ४६९। संनिहि-सन्निधिः-सम्यग्निधीयत इति सन्निधिःसंनिगब्भ-सज्ञिगर्भसङ्खयः। भग० ३७३। विनाशि-द्रव्यः। आचा० १३० सम्यग् निधीयते संनिचओ- सम्यग निश्चयेन चीयत इति सन्निचयः। अवस्थाप्यते स सन्निधिः। आचा० १०८। सन्निधिःआचा० १३०। सन्नियः-प्राच्र्यम्पभोग्यद्रव्यनिचयः। गोरसादिः। आचा० ३२७। सन्निधिः- पर्युषितम्। दशवैः आचा. १०८1 संनिचयाइ-सन्निचयः-धान्यसञ्चयः। भग० २००। संनिहिए- अणपण्णिकानमिन्द्रः। स्था०८५ संनिचिए- संनिचितं प्रचयविशेषनिबिडम्। भग. २७५, संनिहिय-सन्निहितं-विनिवेशितम्। ज्ञाता०१३०| सन्नि२७७ धिकः-दाक्षिणात्याणपन्निकव्यन्तराणामिन्द्रः। प्रज्ञा० संनिचित-सन्निचितः प्रचयविशेषान्निबिडीकृतः। अनुयो०१८२ संनिहिसंनिचओ- सन्नियचः सन्निधिस्तस्य। संनिभा- छाया। उत्त० ६५२। सन्निचयः। आचा० १०८1 संनिरुद्ध- सन्निरुद्धः-गृहस्थाकला वसतिर्भवति। आचा० | संनिही- सन्निधिः-घृतगडादीनां सञ्चयक्रिया। दशवै. ३७० ११७। सन्निधीयते नरकादिष्वनेनात्मेति सन्निधिः। संनिवाइए-सन्निपातिकः उदयादिवयादिभावानां घृतादेरुचित-कातिक्रमेण स्थापनम्। उत्त०४५६। मेलकः सन्निपातः। स एव तेन वा निर्वृतः। अनुयो. | संनी- संजी-गृहीताणुव्रतः अविरतिसम्यग्दष्टिर्वा। बृह. ११४॥ २९७ आ। संनिवाइय-सान्निपातिकः द्रव्योपसर्गे भेदः। आव० ४०५। | संपइ- राया-असोगसिरिदिण्णरज्जो। निशी० ४४ आ। संनिविट्ठ- सन्निविष्टं, सम्यग्-निश्चलतया संपउत्त- संप्रयुक्तः-योजितः। ज्ञाता० ५७। सम्प्रयुक्तः अपदपरिहारेण च निविष्टम्। जम्ब० २९२। सम्यक्- सज्जितः। जम्बू. २६५ स्वशरीरानाबाधाया निविष्टः सन्निविष्टः। जीवा. | संपओग- सम्प्रयोगः-प्रवर्तनम्। ज्ञाता० २३८। संप्रयोगः१९४। सन्निविष्टः-आवासितः। आचा० ३३५१ सम्यक संगतो वा प्रयोगः संप्रयोगः अकल्पितः। दशवै. संनिवेस-सन्निवेशः-यत्र सार्थादिरावासितः। जीवा० २७९। । ४०| संप्रयोगः-सम्यर्कः। ओघ ८८1 सनिवेशः-यात्रादिसमायातजनावासः। उत्त०६०५) संपक्खाल- मृतिकादिघर्षणपूर्वकं योऽङ्ग क्षालयत्ति। १९८१ ९ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [23] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] भग. ५१६। सम्प्रक्षालः-मृतिकादिघर्षणपूर्वकं योऽङ्ग | संपराग-सम्परायः-कषायः। स्था० ३२४॥ क्षालयत्ति । औप. ९०१ संपराण्हाणिग- सोधगो। निशी. ४३ अ। संपक्खालगा- मृतिकाघर्षणपूर्वकं योऽङ्गं प्रक्षालयति, संपराय-सम्परायः-संसारः-सूर्य. १४१। सम्परायः संसारः तापस-विशेषः। निर०२५ परिषहोपसर्गसङ्ग्रामः। दशवै० ९५। सम्पर्येति-पर्यटति संपगाढ- सम्प्रगाढ-अतिशयासक्तः। उत्त० ४७९। अनेन संसारमिति सम्परायः-लोभाख्यः कषायः। उत्त. संपट्टण-संवर्तनं-मार्गमिलनस्थानम्। ज्ञाता०७९। ५६८। सम्परायन्तिभृशं पर्यन्त्यस्मिन् जन्तव इति संपडिलेह-सम्प्रयुपेक्षते-प्रतिजागति गृह्णाति। उत्त. सम्प-रायः-संसारः। उत्त० ४७८१ संपरैति-पर्यटति ୨୦୩ संसारम-नेनेति सम्परायः-क्रोधादिकषायः। अन्यो. संपडिवज्जइ-सम्प्रतिपद्यते-सम्यगवबुध्यते। दशवै. २२२। सम्प-रायः-कषायः। भग० १०६। संपरायः२५६] कषायोदयः। प्रज्ञा०६८ सम्परायः-कषायः। भग० ३८५। संपडिवाइओ-सम्प्रतिपातितः-संस्थितः। उत्त०४९६) संपरिवुड- संपरिवृत्तः-सम्यक्परिवारितः परिकरभावेन संपडुगभंडभारी- संपादुकभाण्डधारी नामा यावन्मात्रमुप- परि-करितः। भग० १३७ करणं उपयुज्यते तावन्मानं धरति शेषं परिष्ठापयति। संपलग्ग- योद्धं सम्प्रलग्नः। ज्ञाता० १४६, २३९। व्यव० ३१६ आ। संपलत्त-संप्रलप्तः-प्रतिपादितः। ज्ञाता०८६) संपण्ण- षड्रोसोपेतम्। बृह० १७९ अ। संपलियंक- सम्पर्यङ्कः-पद्मासनम्। औप० ९५ संपत्त-सम्प्राप्तं-शोभनेन प्रकारेण स्वाध्यायकरणादिना पद्मासनम्। ज्ञाता०७७ प्राप्तम्। दशवै १६३। ज्ञाता०३९। संपलियंकणिसन्न-सम्पर्यङ्कनिषण्णःसंपत्ती-समापत्तिः । आव. ३७३। भवितव्यता। आव. पद्मासननिषण्णः। स्था० २३२॥ ८३३। सम्प्राप्तिः-प्राणातिपातापत्तिः। ओघ० ३६। संपलियंकनिसण्ण- पद्मासनोपविष्टः। भग० १२८१ संपदाय- संप्रदायकः-यश्चौराणां भक्तकादि प्रयच्छति स।। | संपऽसंप-संपातिमासंपातिमं। ब्रह. ३३अ। प्रश्न.४७ संपसारणं- संप्रसारणं-पर्यालोचनम्। सूत्र. १८१। संपदावण-सत्कृत्य प्रदाप्यते तस्मै उपलक्षणत्वात् संपसारतो- गिहीणं कज्जाणं गरुलाघवेणं संपसारंतो सम्प्रदीयते वा यस्मै स सम्प्रदानं सम्प्रदापनं वा। स्था० | संपसारतो। नि० ९२ आ। ४२८ संपसारेइ- पर्यालोचयति। स्था० ३७११ संपन्न-सम्पन्नः ज्ञानादिगणपरिपूर्णः सत्प्रज्ञः-सम्यग् संपसारेति-मन्त्रयतीत्यर्थः। व्यव. २२४ अ। अविपरीता प्रज्ञा सत्प्रज्ञा वा। उत्त०६५। सङ्गता प्रज्ञा संपाउणिज्जासि- सम्यक् प्रापयेत्। उत्त० ३५३। यस्य सः सम्प्रज्ञः-सम्पन्नो वा ज्ञानादियतः। उत्त० । संपाउणेज्ज- पगलान् गृह्णियात्, आहारयेदित्यर्थः। ४६५। सम्पन्नः -समृद्धः। दशवै० २२२ भग० ७३० संपमज्जेइ-विरजीकरोति। औप०६४। संपाउप्पायक-सम्पाताना-अनर्थमलीकानामुत्पादकः संपमारए-सम्पमारयेत्। सम्-एकीभावेन प्रकर्षण सम्पातोत्पादकः। परिग्रहस्याष्टादशमं नाम। प्रश्न प्राणानां मारणं अव्यक्तत्वापादनम्। आव० ३९) संपया- सम्पत्-सम्पन्नता सम्पत्-उदयोदीरणादिरूपा । | संपागड- सम्प्रकटं-अगीतार्थं प्रत्यक्षम्। स्था० २१८१ विभूतिर्वा। उत्त०६६। सम्प्रकटं अगीतार्थसमक्षमकल्प्य भक्तादि। स्था. संपयायं-सम्पदामायो-लाभः-सम्पदायः। उत्त० ४७४। संपराइयं- सम्परायिकी- कषाहेत्कः कर्मबन्धः। भग० संपागडकिच्च-समत्थजणस्य पागडाणि अधिच्चाणि १०५ करेति जो सो संपागडकिच्चा, अहवा असंजमकिच्चाणि संपराए-सम्परायः-सङ्ग्रामः। ज्ञाता०१५९| संपाग-डादि करेति जो सो संपागडकिच्चो, संपागडसेवी ९२ २०२२ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [24] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] ८१ ५२४१ वा, मूलगुणउत्तरगुणसेवतीत्यर्थः। निशी. ९२ आ। सङ्गतासङ्गतविभागतः पर्यालोचयति। भग० १२८। संपात-अनर्थमलीकम्। प्रश्न. ९३। प्रातः-प्रभातं तेन सम्प्रे-क्षते-पर्यालोचयति। भग० ११६) सम्प्रातः सम्प्रातरपि च प्रभातसमकालमपि, सम्प्रेक्षतेपर्यालोचयति। जम्बू. २०३। अतिप्रभातः। स्था० ११७ संपेहेति-सम्पहेक्षते। आव० ३०३। सम्प्रेक्षतेसंपातिम- सम्पतितुं-उत्प्लुत्योत्प्लुत्य गन्तुमागन्तुं वा । पर्यालोचयति। ज्ञाता०६१। पर्यालोचयति। निर०१५) शीलं येषां ते सम्पातितः प्राणिनः। आचा० ५५ संफुसिज्ज- संस्पर्शनं-सकृद् बहु स्पर्शनम्। दशवै० १५३। संपाती-उल्लावकः। उत्त० १६९। संबंधि- सम्बन्धी श्वशुरादिः। जम्बू० २७०। सम्बन्धीसंपाय-संपातः-चलनचमत्कारः। उत्त०४४०।। मातृपक्षीयः, श्वसुरकुलीनो वा। भग० १६३। सम्बन्धीःसंपाविउकामे-यातुमनाः-प्राप्तुकामः। भग० २१॥ श्वशुरादिः। भग० ४८३। संपिडिय-सम्पिण्डितः-एकत्रपिण्डीभूतः। जीवा. १८८१ | संबंधी- सम्बन्धी-श्वशुरादी। औप. १०३। दैवरादिः। औप. संपिणद्ध-सम्पिनद्धं-अत्यर्थ वेष्टितम्। भग० ४६९। संपिनद्ध-सम्पिन्नद्धः-वद्धः। ज्ञाता०२२२१ संबंधीसंथव-सम्बन्धिसंस्तवः-परिचयसंस्तवः। पिण्ड. संपिहति-संपदिधति-परिभुंजते। बृह० २१९ अ। १३९ संपीआ-संप्रीताः-सम्यगान्तरप्रीतिभाजः। उत्त० ३९४१ संब-शाम्बः-अंतकृद्दशानां चतुर्थवर्गस्य संपीडन- सङ्घातं, यद्वा समिति-भृशं पीडा सप्तममध्ययनम्। अन्त०१४। शाम्बःदुःखकृताबाधा संपीडा तामुपैति। उत्त० ६३१| कृष्णजम्बूमतीसुतः। अन्त० १८ शम्बः-यादवविशेषः। संपुच्छण-कुशलं भवत इत्यादि सम्प्रच्छनम्। आव. प्रश्न०७३। शम्बः-दुदोन्तमुख्यः। अन्त०२। शाम्बः कृतिकर्मदृष्टान्ते वासुदेवपुत्रो भावव-न्दकः। आव. संपुच्छणा- सम्प्रश्न-सावद्यो गृहस्थविषयः, राढार्थं ५१५। दुर्दन्ते मुख्यः। ज्ञाता० २०७। याद-वविशेषः। कीदृशो वाऽहमित्यादिरूपः। दशवै० ११७ सम्प्रश्नः- ज्ञाता० २१३। दुर्दान्तकुमार विशेषः। ज्ञाता० १००० पर्यालोचम्। जीवा० १६६। अप्पणो अंगावयवाणि द्वारवत्यां कुमारः। बृह. ३० अ। शाम्बः। आव० ९४। अपुच्छमाणो परं पुच्छड़। दशवै० ५० संबद्ध-सम्बद्ध-स्वात्मनः शरीरसंलग्नम्। जीवा. १२० संपुच्छिया- सम्पोच्छिका-पादादिलूषिका। ज्ञाता० ११९। सम्बद्धं-अनुबद्धम्। प्रज्ञा० ८१। सम्बद्धः-गृहस्थः। सूत्र० संपुड- सम्पुटं-काष्टयन्त्रम्। प्रश्न० ५६। दुगाइफलगा। ९११ वायाए परोप्परं सविउमारद्धं । निशी० २१६ आ। निशी०६१। संबद्धा- सम्बद्धा-अतिशय्या वसतेश्च एक एव पृष्टवंशः। संपुडग- फलकद्विकादिमयं पुस्तकम्। बृह० २१९ आ। व्यव० १३५ । संपुडण- संपुटं-मीलनं निमिषणम्। बृह. १४७ आ। संबर-सम्बरः-यस्यानेकशाखे-श्रगे भवतः, एतादृशो संपुडफलए- संपुटफलकः-पुस्तकपञ्चके चतुर्थो भेदः। मृगविशेषः। प्रश्न.७ द्विखुरविशेषः। प्रज्ञा०४५ स्था० २३३। सम्पुटफलकपुस्तक यद् विकादिकं स्थानिकः शोधकः। व्यव० २३१ आ। तनुपत्रोच्छ्रतरूपम्। आव० ६५२॥ संबररुहिर-सम्बररुधिरम्। प्रज्ञा० ३६१| संपुडय- पोत्थगपणमे पंचमं। निशी. १८१ अ। संबल- सुदंष्ट्रेन समं युद्धकः। आव० १९७। संपुण्णकुड- सम्पूर्णकुटः-कुटेषु चतुर्थः। आव० १०१। सबलथइया- शम्बलस्थगिका। आव० ३५४। संपुल- सम्पुलः दधिवाहनस्य कञ्चुकी। आव० २२५ संबलमोदग- शम्बलमोदकः। आव० ३५४। संपहा-सम्प्रेक्षा-पर्यालोचना। आचा० ११४। सम्प्रेक्षा- संबलिय- शाल्मकी। आव० ३५१। पर्यालोचना। आचा० ११५ सम्यग-अविपरिता | संबाइ- द्वारावत्यां कुमाराः। बृह० ३० अ। प्रेक्षाबुद्धिः। उत्त० २८१। संबाह-सम्बाधः-यत्र कृषीबललोकऽन्यत्र कर्षणं वणिग् संपेहेइ-सम्प्रेक्षते-पर्यालोचयति। ज्ञाता० ३०| सम्प्रेक्षते- | वर्गो वा वाणिज्यं कृत्वाऽन्यत्र पर्वतादिषु विषमेष मनि दीपरत्नसागरजी रचित [25] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] स्थानेषु संवोडुमिति। बृह. १८१ आ। संबाहः- यत्र संभरइ-संस्मरति। ओघ. १७६| पर्वतनित-म्बादिदुर्गे परचक्रभयेन रक्षार्थं धान्यादीनि संभरिज्जा-संस्मरेत्। आव०६७६) संबहन्ति स संबाहः। स्था० २९। संबाधः-प्रभुत। संभलि-दूती। व्यव० १२५ अ। चातुर्वर्ण्यनिवासः। उत्त०६०५। सम्बाधः संभव-सम्भवः-सम्भवन्ति प्रकर्षेण भवन्ति चतुर्विशदयात्रामागतप्रभूतजननिवेशः। जीवा० ४०० तिशयगुणा अस्मिन्निति सम्भवतः तृतीय जिनः। संबाहा-सम्बाधाः-पीडाः, सम्बाधयन्तीति सन्बाधाः- यस्मिन् गर्भे सति अभ्यधिका शस्यनिष्पत्तिरतः। पीडाः उपसर्गजनिता नानाप्रकारातकजनिता वा। आव० ५०२सम्भवः-सदा भवनम्। सूत्र० ३५० आचा० २१६। सम्बाधा-शैलशृङ्गशायिनो निवासाः, | संभवानुमान- व्याकरणादिना शास्त्राभ्यासेन यात्रासमागतप्रभूत-जननिवेशा वा। जम्बू० १२१ संस्क्रियमाणा याः प्रज्ञाया ज्ञानातिशयो ज्ञेयावगमं संबाधा-यात्रासमागतप्रभू-तजननिवेशाः। जीवा० २७९। प्रत्युपलब्धः। सूत्र. २१३ स्था०८६) संभाइयं-सम्भाजितः। आव. २००९ संबुक्क- शम्बूकः-शङ्खः। उत्त० ६०५ शम्बूकः-शङ्खः। संभार- सम्भारः-प्राभूत्यम्। जम्बू. १००| संभारःस्था० २१६। सम्बूकः-द्वीन्द्रियजन्तुविशेषः। जीवा० अवश्यंतया कर्मणो विपाकानुभावेन वेदनम्। सूत्र ३१॥ रावणभागिनेयः खरदूषणचन्द्रनखासुतः ४१४। उपरि प्रक्षेप्यद्रव्यम्। ज्ञाता० १९६। विद्याधरकुमारः। प्रश्न० ८७। शङ्खः बहुद्रव्यसंयोगः। बृह. १८८ अ। सम्भारः-प्राभृत्यम्। तद्वच्छङ्खभ्रमिवत्। स्था० ३६६) जीवा० २६५। संधियते-धार्यते संभरणं वा धारणं संभारः। संबुक्कवट्टा- संवुक्कः-शङ्खः तद्वच्छङ्खभ्रमिवदित्यर्थो । परिग्रहस्य षष्ठं नाम । प्रश्न. ९२२ या वृत्ता सा सन्बुक्कवृत्ता। स्था० ३६५५ संभारयति-सम्भृतं करोति। ज्ञाता०१७७ संबुक्का- द्वीन्द्रियविशेषः। प्रज्ञा० ४१। संभारितं- वासितं कर्पूरपाटलादिर्वासितं सम्भारितम। संबुद्ध-सम्बुद्धः-विदितविषयस्वभावः सम्यग्दृष्टिः। बृह. १७२ आ। दशवै. ९९। स्था० ५१६। ज्ञाता० १०७ संभावणत्थतक्क- प्राकृतशैल्या अर्थसंभावना एवमेव संबोहण- सम्बोधनम्। आव० ३०८। ज्ञाता० १५१| चायमर्थ उपपद्यत इत्यादिरूपोतर्कः। दशवै० १२५ संभंत-सम्भ्रान्तः-उत्सुकः। विपा० ४३। सम्भ्रान्तः- संभावियाई- वयं शोभानानीत्यवमन्यन्ते। बृह. १८८ आ। आकुलः। दशवै० १६३। सम्भ्रान्तः- साश्चर्यः। जम्बू० | संभास- सम्भाषणं-स्मरकथाभिर्जल्पः, संप्राप्तकामस्य ४१८१ तृतीयो भेदः। दशवैः १०४। संभताओ-आकुलीभूतः। ज्ञाता० २९। संभिच्च- एकत्रः। निशी० १७१ अ। संभग्ग-सम्भग्नं-मथितम्। ज्ञाता०८६। संभिण्ण-समेकीभावेन भिन्नं सम्भिन्नं यथा बहिस्तथा संभज्जिय-आमर्दितम्। आचा० ३२३॥ मध्येपि, अथवा सम्भिन्नमिति द्रव्यं गृह्यते, कथम्संभभ- सम्भ्रमः प्रमौदकृदौत्सुक्यम्। विपा० ८६। काल-भावौ हि तत्पर्यायौ ताभ्यां समन्तावा भिन्नं सम्भ्रमः-सम्भ्रमः। ओध०५२। सम्भ्रमः संभिन्नम्। आव० ८५ गतिस्खलनम्। जम्बू० ३८८ सम्भ्रमः। राज०१६) संभिण्णलोगनालि-संभिन्नलोकनाडीसम्भ्रमः-उदकाग्निहस्त्या-द्यागमनसमुत्थः चतुर्दशरज्वात्मिका कन्यका चोलकसंस्थाना। आव. आकास्मिकः। बृह० २६१ अ। त्वरित्त-त्वरिता ४०१ प्रवृत्तिः। राज०२४। सम्भ्रमः-परचक्रादिभयम्। अनुयो | संभितं-सम्भृतं-उपस्कृतम्। प्रश्नव १६३| १३९। सम्भ्रमो-व्याकुलत्वम्। अन्यो० १३७। अग्गि- | संभिन्न- परिपूर्णम्। जीवा० ४०२ परिपूर्णम्। प्रज्ञा० ५४१। उदगचोरबोधेगादियं| निशी० ४२आ। सम. १२८ सम्-एकीभावेन भिन्नं सभ्भिन्नं यथा संभमा-आउमादिया। निशी. २६३ अ। बहिस्तथा मध्येऽपीत्यर्थः स्था०६१। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [26] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] संभन्नश्रोत- संभिन्नश्रोत- अभिधानलब्धियुक्तं । ठाणा ६२०१ संभिन्नसोत यः सर्वतः शृणोति स संभिन्न श्रोता, संभिन्न नु वा परस्परतो लक्षणतोऽभिधानतश्च सुबहूनपि शब्दान्शृणोति सम्भिन्नश्रोता आव ४७ भिन्नसोता- सम्भिन्नं सर्वतः सर्वशरीरावयवैः श्रृण्वन्तीति सम्भिन्नश्रोतार, सभिन्नानि प्रत्येकं ग्राहकत्वेन शब्दादि विषयैर्व्याप्तानि श्रोतांसि इन्द्रियाणि येषां ते सम्भिन्न श्रोतासः । सामस्त्येन वा भिन्नान् परस्परभेदेन शब्दान् शृण्वन्तीति वा सम्भिन्नश्रोतारः। प्रश्न. १०५ आगम - सागर - कोषः ( भाग : - ५ ) संभिन्नसोय सम्भिन्नान् बहुभेदभिन्नान् शब्दानान् पृथक् २ युगपच्छ्रेपन्तीति सम्भिन्नश्रोतारः । संभिन्नानि वा शब्देन व्याप्तानि शब्दग्राहीणि, प्रत्येकं वा शब्दादिविषयैः श्रोतांसि सर्वेन्द्रियाणि येषां ते सम्भिन्नश्रोतारः । औप० २८ संभ-लेष्मिकः । आव० ४०५ । सम्भृतः - सस्कृतः । उत्त० ४०५ | संभुंजित - सम्भोजयितुं भोजनमण्डल्यां निवेशयितुम् । स्था० ५७| संभूअ सम्भूतः - त्रिपृष्ठवासुदेवधर्माचार्यः आव० १६२ | संभूतं-पाकातिशयतः ग्रहणकालोचितम्। दशवै० २१९ | संभूअजई सम्भूतयतिः- विश्वभूतिदीक्षागुरुः । आव० १७२ संभूत- वाराणस्यां चण्डालः, ब्रह्मदत्तपूर्वभवः । उत्त० ३७६। जस्सभद्दस्सीसो निशी० २४३ आ निशी० ३०४ अ सम्प्राप्तः । उत्त० २६३ | संभूतिविजए सम्भूतिविजयः अनरगारविशेषः । विपा० ९५| संभूय सम्भूतं सम्यक् परिपालनाय भूतं संवृत्तम् । आचा० १२३३ सम्भूतविजयो माटरगोत्रः । नन्दी• ४९॥ संभूयविजय सम्भूतिविजय स्थूलभद्रगुरवः । आव० ३९५| संभोइए- अशेषसमानसामाचारिकः । ओघ० १६ | संभोइय- सांभोगिकं-अशेषसमानसामाचारिकम् । ओघ० १६ | सम्भोगिकः आचा० ३५२ | निशी० १८ आ । सांभोगिकं-समसुखदुःखः । व्यव० २४१ | साम्भोगिकःएकसामाचारीप्रविष्ठः । आचा० ४०३॥ एकसामाचारिकता । औप० ४२ । साम्भोगिकः । आव ० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [27] [Type text] ६५२ संभोए मण्डलीसम्भोगः । ओध० २११| संभोत्ता मिश्रयित्वा आचा० ३४६ संभोग समिति संकरेण स्वपरलाभमीलनात्मकेन भोगः सम्भोगः । उत्त० ५८७ | कामविकारः । नन्दी० १६३ | एकमण्डल्यां समुद्देसनादिरूपः। बृह० १४० आ। संभोगः - एकत्र भोजनं समं भोगो सम्भोगो यथोक्तविधिना सम्भुजन्ते, सम्भजते वा स्वस्य वा भोगः | निशी० २३४ अ । सम्भोगः एकमण्डोली भोक्तृत्वम्। भग• ७२७ सम्मोग:समानधर्मिकाणां परस्परेण भक्तादिदानग्रहणरूपः । भग० ९२५| संभोगकाल सम्भोगकालः- उपभोगप्रस्तावः । उत्त० ६३२ संभोगपच्चक्खाण एकमण्डलीकभोक्तृत्वस्य प्रत्याख्यानं गीतार्थावस्थायां जिनकल्पयुयत् विहारप्रतिपत्त्या परिहारः सम्भोगप्रत्याख्यानम्। उत्तः ५८७ । संभोगय सम्- एकत्र भोगो भोजनं सम्भोगः, साधूनां समानसामाचारीकतया परस्परमुपध्यादिदानग्रहणसंव्यवहारलक्षणः स विद्यते यस्य स सम्भोगिकः । स्था० १३९ | साम्भोगिक: एकसामाचारीकः । स्था० ४०० भोतित साम्भोगिकं एकभोजनमण्डलिकादिकम् । स्था० ३००| संभोयण एकमण्डल्यां भोजनम्। वृह. १५७ अ संमं सम्यग् अपुनरागमनेन आचा० १११। सम्यग्ज्ञानंसम्यक्त्वम् आचा० २१२१ संभसंपुच्छणाबहुल सम्मतिसम्प्रनबहुलः संमत्या उत्त-मया मत्या यः संप्रश्नः पर्यालोचनं तद्बहुलः । जीवा० १६६ । संमए- सम्मतम् । भग० १२२ ॥ संमज्जग जन्मज्जनस्यैवासकृत्करणम्। भग. ११९१ उन्मज्जनस्यैवासकृत्करणेन यः स्नाति स ऑफ० ९०| उन्मज्जनस्यैवासकृत्करणेन यः स्नाति तापसविशेषः । निर० २५ संमज्जण समार्जनं दण्डपुञ्छनादिना अनुयो• २६ मज्ज | निशी० २३१ अ । प्रमार्जणम्। निशी० १७२ "आगम- सागर-कोषः " (५) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम- सागर- कोषः ( भाग : - ५) आ । संमज्जिअ सम्मार्जितं अपहृतकचवरम्। ज्ञाता० २५| संमज्जिय- सम्मार्जनं शलाकाहस्तेन कचवरशोधनम् । प्रश्न० १२७ | सम्मार्जित कचवरशोधनेन । जीवा० २४६ । संमृज्य-वस्त्रादिनाऽऽर्द्रतामपनीय । आचा० ३३६ | - संमृष्टः- आकर्णपूरितः । जम्बू० ९५| संसृष्टःआकर्णभृतम्। भग० २७७ । मट्ठा प्रमार्जिता । निशी० २३२अ | संमत- वल्लभः। निशी० १६अ। संमत्त- सम्यक्त्वं-प्रशस्तं शोभनं एकं सङ्गतं वा तत्त्वं सम्यक्त्वम्। आचा० २४५। सम्यक्तवं आचारप्रकल्पस्य चतुर्थो भेदः । आव० ६६० | सम्पूर्णंनिरूपचरितम्। सूत्र० ४०२ | सम्यक्त्वं तत्त्वार्थश्रद्धानरूपम् । आव० ७८ । संमत्तकिरिया- सम्यक्त्वक्रिया-सुन्दराध्यवसायात्मिका क्रिया । जीवा० १४३ | संमतदंसिण- समत्त्वदर्शितः सम्यक्त्वदर्शिनः समस्तदर्शितः । आचा० १८८ संमद्दण- सम्मर्द्दनं-पूर्वच्छिन्नानामेवापरिणतानां मर्दनम् । दशवै० १८५ | संमद्दा- वस्त्रस्य मध्यप्रदेशे संवलिताः कोणा भवन्ति प्रत्युपेक्षणीयोपधिवेण्टिकायामेवोपविश्य प्रत्युपक्षेपते सा सम्म । स्था० ३६१ | समर्धा यत्र मध्यप्रदेशे वस्त्रस्य संवलिताः बहुमतः । ओ०१७७ संमयसच्च- सम्मतसत्यं कुणुदकुवलयोत्पलतामरसानां समाने पङ्कस्मभवे गोपादीनामपि सम्मतमरविन्दमेव पङ्कजमिति । दशवै० २०८ संमाजिया- सम्मार्जिका-गृहस्यान्तर्बहिश्च बहुकरिकावाहिका। ज्ञाता० ११९| संमाण- सन्मानं वस्त्रपात्रादिभिः पूजनम्। दशवै० ३०| सन्मानः विश्रामणादि। बृह० २३७ अ । संमिक्ख- मसक्ष्य पर्यालोच्य । उत्त० १२० | संमित- सम्मितः-प्रमाणोपेताङ्गः । ज्ञाता० १२० | संमिस्स-सम्मिश्रं-वल्ल्यादि पुष्पादि वा । आव० ८२ संमिश्रं-स्फुटितत्वक्। आचा० ३४९ । सम्मुदितं कुटिलतया कारकः । व्यव० २४१| मई - सम्मतिः । जम्बू० १७७ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [28] [Type text] समुच्छंति- सम्मूर्च्छन्तितत्पुद्गलमीलनात्तदाकारतयो त्पद्यते। भग० २६९| संमुच्छ सम्मूर्च्छ:-गर्मोपपातव्यतिरेकेण एवमेव प्राणिना-मुत्पादः। प्रज्ञा० ४४ । सम्मूर्छनं सम्मूर्च्छःगर्भोपपातव्य-तिरेकेणैव यः प्राणिनामुत्पादः । जीवा० ३५| मुच्छ सम्मूर्छति सम्मूर्छजन्मना लब्धात्मलाभो भवति । जीवा० ३०७ | संमुच्छिम- सम्मूर्च्छा-अतिशयमूढता। उत्त॰ ६९८। संमुच्छिम- व्यजनादिजन्यः सम्मूर्च्छिमः । स्था० ३३६ | सम्मूर्च्छन निर्वृत्तः- सम्मूर्च्छिमः । स्था० २७३ | सम्मूर्च्छिमः- अगर्भजः । स्था० ११४ | सम्मूर्च्छिमः । सम० १३५ | सम्मूर्च्छिमः- अचित्तस्य पञ्चमी भेदः । ओघ० ११३| सम्मूर्च्छिमः-पद्मिनीशृङ्गाटकपाठशैवलादयः । आचा० ५७| संमुच्छिममणुस्सा- सम्मूर्च्छिममनुष्याः । प्रज्ञा० ५७ मुच्छिमा सम्मूर्छन सम्मूच्छं-गर्भोपपातव्यतिरेकेण एवमेव प्राणिनामुत्पादः, तेन निर्वृत्ताः सम्मूर्च्छिमाः । प्रज्ञा० ४४| सम्मूर्च्छनं सम्मूर्च्छा - अतिशयमूढता तया निर्वृताः सम्मूच्छिमाः, समित्युत्पत्तिस्थानपुद्गलैः सहैकीमावेन मूर्च्छन्ति तत्पुद्गलोपचयात्सम्मूर्च्छिमाः भवन्तीत्यौणदिक इभप्रत्यये सम्मूर्च्छिमाः । उत्त० ६९८। सम्मुच्छिमाः-प्रसि-द्वबीजाभावेन पृथिवीवर्षादिः समुद्भवं तथाविधं तृणादि। दशवै० १४०| सम्मूर्च्छनजाःशलभपिपीलिकामक्षिकाशा- लूकादयः । दशवै० १४१ | संमुति - पण्डजनपदे शतद्वारानगरे राजा। भग० ६८८। - जम्बूर आगामिन्यायुत्सर्पिण्यां षष्ठःकुलगरः। स्था॰ ५१८ संमूढ- सं-भृशं भूढः- वैचित्र्यमुपागतः सम्मूढः । उत्त १८३ | सम्मूछयेयु- उत्पादयेयुः । बृह० १०२ आ । संमेल- परिजनसन्मानभक्तं गोष्ठी भक्तं वा । आचा० ३३४ | गोठते वा भत्तं संमेलं भण्णति । कंभारंभे सुहासिता जे ते संमेलो। निशी० २२आ। संमोह- सम्मोह भावनाजनितः सम्मोहः । स्था० २७४ | सम्मोहः- मूढता। भग० ९२६ । सम्मोहः किं कर्तृव्यता मूढता | अनुयो० १३७। मूढात्मानो देवविशेषः । बृह० २१२ “आगम-सागर-कोषः " [५] Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text]] संलवण-संलपनं-पौनःपुन्येन सम्भाषणम्। आव० ८११। संयताद्यवगम- सन्दिग्धबुद्धिः। अव्यक्तमतः। आव० । संलाप-संलापः-परस्परभाषणलक्षणः। ज्ञाता० १३॥ ३११ मिथोभाषा। भग० ४७८१ संयमकेडे- केषु करोतीत्यर्थः। निशी० २१४ अ। संलाव-संलापः-पत्या सह सकामं स्वहृदयप्रत्यर्पणक्षम संयमधूवयोगयुक्तता- संयमः-चरणं तस्मिन् ध्रुवो-नित्यो परस्परं सम्भाषणम्। जम्बू०११६। संलापः-मुहुर्मुयोगः-समाधिस्तयुक्तता, सन्ततोपयुक्ततेति। हर्जल्पः। भग० २२३। संलापः-पत्या सह सकामस्वहृदआचारसम्पत्ते प्रथमो भेदः। उत्त० ३९। चरणे नित्यं यप्रत्यर्पणक्षमं परस्परसंभाषणम्। जीवा० २७६। समाध्युपयुक्तता। स्था०४२३॥ संल्लापः-प्रियेण सह सप्रमोदं संक्रामं परस्परं सड़कथा। संयमस्थान-संयमः-सामायिकच्छेदोपस्थापनीयपरिहार सूर्य. २९४१ संल्लापः- परस्परभाषणम्। स्था० ४०८। विशुद्धिसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातरूपः तस्य संलापः-संकथा। बृह० २६९ आ। पञ्चविधस्या-ऽप्यसङ्ख्येयानि संयमस्तानानिः आचा संलिख्यते- शरीरकषायादि कृशीक्रियते। उपा० १२ ८९ संलिह-सलेखनं-इषल्लेखनम्। दशवै. २२८१ संयमासंयम- चारित्रारित्रम्। भग. ३५० संलिहनकल्प-भिक्षाभक्तविलिप्तानां पात्रकाणां-संलिहनं संयुग- गर्भाधानपरिसाडरूपमूलद्वारविवरणे कर्तव्यमित्यर्थः। ओघ. १९०| सिन्धुराजनगरम्। पिण्ड० १४५ संलिहित्ता- संलिख्य-प्रदेशिन्या निरवयवं कृत्वा। दशवै. संयोजण-संयोजन-हलगरविषकूटयन्त्राद्यङ्गानां १८२ पूर्वनिर्वत्ति-तानां मीलनम्। भग० १८२॥ संलिहिय-संलिखितम्। आव० ८५७। संलिह्य-निरवयवं संयोजनाधिकरणक्रिया- अधिकरणक्रियाया दवितीयो कृत्त्वा । आचा० ३३६| भेदः, सिद्धानां संयोजनलक्षणा। प्रश्न. ३७) संलिहे-संलिलेत्। दशवै० २२८१ संयोजनाधिकरणिकी-संयोजनं-पूर्वनिर्वत्तितानां संलिहेज्जा- सलिखेत्। आचा० ३३८1 हलगरविष-कूटयन्त्राद्यङ्गानां मीलनं तदेव संलीण- एकाश्रयस्थः संलीनः। दशवै. ११९ संसारहेतृत्त्वादाधिकरणिकी संयोजनाधिकरणिकी। संलीणया-संल्लीनता-बाह्यतपोविशेषः। दशवै० २९। प्रज्ञा०४३६| संलीनता। उत्त०६०७ संयोजनाप्रायच्छित्त- प्रायच्छित्तविशेषः। व्यव० ११ । | संलुंचिआ- संलुञ्च्यः अपनीय-छित्त्वा। दशवै. १८५। संरंभकरण-संरम्भकरणं पृथिव्यादिविषयमेव मनः- संलेह- कवलत्रयम्। बृह. १८१ आ। सङ्क्लेशकरणम्। स्था० १०८1 संलेहणा- संलेखना-भक्तपानप्रत्याख्यानम्। सम० १२० संरक्खग-नानाव्यसनेभ्यः संरक्षकः। ज्ञाता०२०४१ संलेखता-तपोविशेषः। स्था०५७ संलेखना-शरीरस्य संरक्खणा-संरक्षणा आभिष्वङ्गवशाच्छरीरादिरक्षणम्। तपसा कृशीकरणम्। औप. ९६। संलेखना-तपोविशेषलपरिग्रहस्य षोडशमं नाम। प्रश्न. ९२२ क्षणा। आव०८४०| संलेखना-संलीख्यते-कृशीक्रियतेऽसंरक्षणता- यत्र तिष्ठतामगारिणो भवन्ति । नया शरीकषायादि सा, तपोविशेषलक्षणा। भग. २९७ गवादिभिर्भज्यमानां वसतिमन्यद्वा समीपवतिगुहं संलिख्यते-कृषीक्रियतेऽनयेति। संलेखना-तपः। भग. संरक्षता। बृह. २५४ आ। १२७। संलेखना-तपोविशेषलक्षणा। उपा० १२ संरोहण- औषधविशेषः। आवा० २२७ संलेणाज्झूसणाझूसिय-संलेखनासेवनाजुष्टः। ज्ञाता० संरोहिणी-औषधिविशेषः। आव०४०२ ७५। संलेखनाजोषणाजोषितः-संलेखनक्षपणया संलग्गिरि- परस्परं हस्तावलगिकया व्रजन्ति, युगलिता क्षपितकायः। संलेखनाजोषणया-सेवनया जोषितःव्रजन्ति । ओघ. ५५ सेवित उत्तमार्थ-गुणैरित्येवंभूतः। सूत्र० ४१९। संलवएति-संलपति-लपति। आव० ४३३। संलेहणाझूषणाराहणया- संलेखनाजोषणाराधना मनि दीपरत्नसागरजी रचित [29] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text) संलेखना -यास्तपोविशेषलक्षणायाः जोषणं सेवनं तस्याराधना-अखण्डकालस्य सरणम् । आव० ८३९ | संलेहणासु संलेखना श्रुतं द्रव्यभावसंलेखना यत्र श्रुते प्रतिपाद्यते तत् । नन्दी. २०१ संलेहा- तिण्णिलंबणा । निशी० ३११ अ । संवग्ग संवर्ग:- गुणनम्। व्यव• ७६ अ संवच्छर- सावत्सरं-ज्योतिषम् । सूत्र० २१८। संवत्सरातिचारनिर्वृतं प्रतिक्रमणं सांवत्सरिकम् । आव० ५६३ । संवत्सरः अयनद्वयमानः स्था० ८६। संवत्सरः दवे अयने जीवा- ३४४१ कालविशेषः। भग. ८८८ संवत्सरः-वर्षासु चातुर्मासिको। ज्येष्ठावग्रहः। दशवॅ॰ २८३ | संवच्छरपडिलेहणग- जम्मदिनादारभ्यः संवत्सरः प्रत्युपेक्ष्यते एतावतियः संवत्सरोऽद्य पूर्ण इत्यवं निरूप्यते महोत्सवपूर्वकं यत्रदिने आगम- सागर - कोषः ( भाग : - ५ ) तत्संवत्सरप्रत्युपेक्षणकम् । ज्ञाता० १३१। संवह संवतः संहारः भगः ३२२॥ संवर्त्तन्ते पिण्डीभवन्त्यस्मिन् भयत्रस्ता जना इति । उत्त• ६०५ चोरधाडि भएण बहू गामा एगडिता णायगाहद्विता य । निशी० ३५८ व संवर्तः परचक्रामेऽनेकग्रामाणामेकत्र स्थानम् बृह० ५४ आ संवर्त जालम् आव० ३४६ | संवदृइत्ता- संवर्त्य-सङ्कोच्य। स्था० ९०| संवट्टए- संवर्त्तनमपवर्त्तनं संवर्तः स एव संवर्त्तकः - व्यव० ३६२ आ। संवर- संव्रियते कर्मकारणं प्राणातिपातादि निरुध्यते येन परिणामेन स संवरः- आश्रवनिरोधः । स्था० १९ | संवरःआश्रवनिरोधः इन्द्रियकषायनिग्रहादिभेदः । स्था० १८१ । संवरः- इन्द्रियनोइन्द्रियनिवर्त्तनम्। भग० १००। संवरकर्मणामनुपादानम्। प्रश्न. १०१ संवर: अहिंसाया विचत्वारिंशत्तमं नाम प्रश्न० ९९| संवियतेनिरुध्यते आत्मत डागे कर्मजलं प्रविशदेभिरिति संवर:प्राणातिपातविरमणादिकः प्रश्नः २ शम्बरदिखुरश्चतुष्पदः । जीवा ३८ संवर- शुभाध्यवसायः । भग० ४३३ | संवरः । प्रज्ञा० ५६ संवर चारित्रम् दशव १८८० संवरः सर्वप्राणातिपाता दिविनिवृत्तिरूपो धर्म:चारित्रधर्म इत्यर्थः । दशकै १५९। संवरः व्यव० २६९ आ । चतुर्यतीर्थकृत्पिता । सम० १५०] संवर:अभिनन्दनपिता आव० १६१। आग मीन्यामुत्सर्पिण्यामष्टादशमतीर्थकृत् । सम० १५४॥ स्ता निकः शोधकः । व्यव० २१७ आ । संवरःयोगसङ्ग्रहे विंशतितमो योगः । आव० ६६४ । स्तानिकःशोधकः । व्यव० २८५आ। उपक्रमः । स्था० ६७। संवर्तयति-नाशयति । जम्बू० १७३ | संवग संवर्त्तकः तृणकाष्ठादिनामपहारको वातविशेषः । जम्बू. १६७। संवर संवरार्थः अनाश्रवत्वम् । भग. १०ol संवट्टगपवण- संवर्त्तकपवनं वायुविशेषः आव. १२ संवट्टगवाए संवर्तकवातः यो बहिः स्थितमपि तृणादि विवक्षितक्षेत्रान्तः क्षिपन्तीति । उत्त० ६९४५ संवर्त्तकवातः तृणादिसंवर्तनस्वभावः । जीवा० २९ ॥ संवट्टण- संवर्तनः वस्तुनाशः । बृह० ४२ अ संवरणं निवारणम् । बृह ११० आ प्रत्याख्यानम् । ओघ० ३३ जीवतडागे कर्म्मजलस्य निरोधनं संवरः । स्था० ३१६ | संवरबहुल- संवरबहुलःप्राणातिपाताद्याश्रवद्द्वारनिरोधप्रचुरः । प्रश्न. १२८॥ संवट्टय- संवर्त्तकः तृणकाष्ठादीनां संवर्त्तकः । भग० ३०६ । संवरिय- संवृत्तः-हर्षातिरेकादतिस्थूरीभवन्तः निषिद्धः । संवट्टयवाय- संवर्त्तकवातः-तृणादिसंवर्त्तनस्वभावो भग॰ ४६०। संवृतं-आसेवितम्। ११२ । संवरियासवदार- संवृता श्रवद्द्वारं स्थगित प्राणातिपातादिकम् आव० ७७४१ वातः । भग० १९६| संवड़वाए संवर्तकवातः णादिसंवर्त्तनस्वभावः । प्रज्ञा० ३०| संवहिज्जा संवर्त्तयेत् संक्षिपेत्। आचा० २८४ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] [30] संवहियं संवर्त्तितं संवर्त्तयतुं । आव० ४२९१ संवइ- संवर्त्तयति एकत्रस्थाने न्यस्यति । औप० ६४ संवट्टेमाणी संवेष्टयन्ती- पोषयन्ती ज्ञाता० ९९| संवढणा संवर्धना । आव०५६। संवणिया परिचिता, प्रसादिता उत्त० ५३॥ संवत्ते यत्र विषमादो भयेन लोका संवर्तीभूतस्तिष्ठति । संवरेमाणे- संवृण्वन् निवर्त्तयन्, आचक्षाणः। भग ५४८ संवर्त्मक वातविशेषः । नन्दी० १४८ "आगम- सागर-कोषः " (५) Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] संवतकवात- संवतकं-योजनं यावत् क्षेत्रसृद्धिकारको संविकिख्य-संविकीर्णम्। आव०६३९। वातः संवर्तकवातः। सम०६१। संविग्ग- संविग्नः-मोक्षं प्रति प्रचलितः-संसारभीरूः। भग. संवतयति- वेण्टलिकां करोति। ओघ०७४। ५०२। मोक्षसुखाभिलाषी। ओघ. २०२। संविग्नः संवर्त्य-सारानेकीकृत्य। स्था० ३८४१ मोक्षार्थी। आव० ८६०। संविग्नः। आव०५३९। संविग्नः। संवलिय- संवलितः मिश्रितः। आव०७२१। आव० १०१। संविग्नः-मोक्षाभिलाषी। ओघ०५६, ४९। संववहारिय- व्यवहारिकश्च यद्यपि भूयोऽपि संविग्नम्। व्यव० १४० अ। संविग्नः संभोगिकः निगोदावस्था-मुपयन्ति तथापि सः सांव्यवहारिकः। उयितविहारी। व्यव० ३२८ आ। सांभोगिकःप्रज्ञा० ३८० समसुखदुःखः गीतार्थः। व्यव० २४४ अ। संवसित्तए- संवासयितुं संस्तारकमण्डल्यां निवेशयितुम्। उद्यतविहारी। बृह०६५। उद्यतवि-हारी। बृह० २९३ स्था०५७ आ। णिच्चं संसारभओव्विगचित्तो। निशी० ७४ आ। संवसित्ता- समष्य-सहैवासित्वा। उत्त० ४०४। संविग्गपक्खि-संविग्नपाक्षिकः-संविग्नानां संवहणं- जो रहजोगो तं संवहणं। दशवै० ११० पक्षस्तत्पक्षस्तत्र भवस्तत्पाक्षिकः। व्यव. १५९ अ। संवाद- जल्पविधिः। नन्दी० २३४। संविग्गभाविय-संविग्नभावितः-श्रमणोपासकविशेषः। संवाय-संवादः-परस्परभाषणं वचनैक्यं वा। उत्त०४९८१ स्था० ११०| उज्जुयविहारी हि जे सद्दा भाविता ते। संवादः-शुभाशुभगतः संलापः। सम० १२४। निशी. २०२। संवास-संवासः-चिरं सहवासः। स्था० १९७। संविग्नपाक्षिकः- लघुपर्यायः। स्था० १९७। उत्त०४३४। संवासनं- शयनं संवासः। स्था० २७४। संवसनं-परिभोगः। संविग्नभावित-श्रमणोपासके भेदः। भग. २२७१ सूत्र. ११३। संवासौ-मैथुनार्थं संवसनम्। स्था० १९३। संविचिन्न-संविचरितः आसेवितः। ज्ञाता० ९९। संवसनम्। ओघ. ५५संवासः। आव. २१३१ संविज्ञो- जो एताणि करेंतो वि संविज्ञोसंवासेइ-समिति भृशं वासयति संवासयति-गात्रिं दिवं गीतार्थपरिणामकः। निशी० ५२ आ। चाव-स्थापयति। उत्त. ३२२१ संवित्तिः - ज्ञा। आव. २८२। संवाह-संबाधः यात्रासमागतप्रभूतजनविशेषः। प्रज्ञा०४८। | संविदे- संवित्ते। उत्त० २८२। अन्नत्थ किसिंकरेत्ता अन्नत्थ वोढं वसंति तं संवाह संविद्धपह- संविद्धपथः-सम्यग्विद्धः-ताडितः क्षुण्णः भण्णति। निशी० ७० आ। संवाहः-पर्वतनितम्बादिदुर्गे | पन्थाः-मोक्षमार्गी ज्ञानदर्शनचारित्राख्यो येन स तथा। स्था-नम्। औप०७४। संवाहः-रक्षार्थं आचा० २१२ धान्यादिसंवहनोचितद्-र्गविशेषरूपः। प्रश्न०६९। संविधानक- संविधानकः। स्था० १३५। नन्दी. १६१। संम्बाधः-अतिबहुप्रकारलोकस-कीर्णस्थानविशेषः। संविधय-परिषहोपसर्गान प्रमथ्य। आचा. २८६) अनयो० १४२। संवाहः-स्थापनी। प्रश्न. ९२ संविभागसील-संविभागशीलःसंवाहण- सम्बाधनं-शरीरस्यास्थिस्खत्वादिना नैपुण्येन लब्धभक्तादिसंविभागकारी। प्रश्न. १२६। मर्दनविशेषः। स्था० २४७। संबाधनं-अस्थिमांसत्वग्रोम- | सविल्लिया-सङ्कोचिता। उपा०२४१ सुखतया चतुर्विधं मर्दनम्। दशवै० ११७। संविह-आजिविकोपाशकः। भग० ३६९। संवाहणिए-क्षेत्रादिभ्यस्तृणकाष्ठ धान्यादेगुहादावानयनं संवीत- संवीतः-प्रहतः। सूत्र० ८३ तत्प्र-योजनानि संवाहनिका। उपा०३। संवुड- संवृत्तः-समाहितः। सूत्र०६३। संवुतः-सकलाश्रवसंवाहति- एक्कसि परिमद्दति। निशी० ११६अ। विरमणम्। उत्त०६१। संवृत्तः-निरुद्धाश्रवः। उत्त०६६) संवाहमारी-मारीविशेषः। भग० १९७५ संवृत्तं-समन्तत आवृतम्। सूर्य. २९३। संवाहिती-संवाहयन्ती। आव० ५५९। इन्द्रियकषायसंव-रेण संवृतः। प्रश्न० १४२। संवृतःसंविक्खति- विलम्बते प्रतीक्षते। आव० ६३७ उपयुक्तः। दशवै. १७८। संवत्तं-पार्वतः मनि दीपरत्नसागरजी रचित [31] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] कटकुट्यादिना सङ्कटद्वारम् उत्त० ६० संवृतःपिहितास्रवद्वारः । आचा. ३५०/ संवुड अणगार भगवत्यां नवमशतके द्वितीयोद्देशकः । भग० ४९२ संवुडबउस संवृतबकुशः प्रच्छन्नकारी । बकुशे चतुर्थो भेदः । स्था• ३३७| बकुशे तृतीयो भेदः। भग. ८९० संवुडबकुस संवृतबकुशः यो मूलगुणादिषु संवृतः सन् करोति । बकुशस्य तृतीयो भेदः । उत्त० २५६। संवुडबहुल-संवृतबहुलः कषायेन्द्रियसंवृतत्वप्रचुरः । प्रश्नः आगम- सागर - कोषः ( भाग : - ५ ) १२८ संवुडा संवृता सङ्कटा घटिकालयवत्। स्था० १२२१ संवृता नारकाणां योनिः प्रज्ञा० २२७॥ संवुढ संवृद्धः । आचा० ३४८ संवर्द्धितः भोजनदानादिना अनाथपुत्रकः । स्था० ५१६| संय- संवृतः परिगतः परिवृतो वा औप० ६६। संवृतविवृता योनिभेदः आचा० २४ संवृता योनिभेदः । आचा० २४ कल्पना उत्त० ४७२१ एकैकस्मिन् वर्णे गन्धे रसे स्पर्शे च संवृता योनिः । प्रज्ञा० २८ संवेग संवेग :- संसाराद्वयं मोक्षाभिलाषो वा सम० ५ल संवेगः - भवभयः भग० ९० संवेग मोक्षसुखाभिलाषा। दशव ३९। संवेग : सिद्धिश्च देवलोकः सुकुलोत्पत्तिश्च भवति संवेगः । दशवै० ११३ | संवेगः - मोक्षाभिलाषः । उत्त॰ ४४१। प्रशमादिगुणेषु द्वितीयः। आव० ५९१। संवेगः-धर्मकथा-यास्तृतीयो भेदः । दशवै० ११० । संवेगःशरीरादिपृथग्भावः मोक्षौत्सुक्यं वा आव० ५५० संविग्नः । आव ० ५२ | संवेगः । उत्त० ३२४ | मोक्षाभिलाषः । भग• ७२७| संवेगःसुकुलोत्पत्तिरित्यादेरभिलाषः संवेगः । बृह० ३८ अ । संवेग :- योगसग्रहे सप्तदशो योगः आव- ६६४१ भवमयं मोक्षाभिलाषः । भग० ५५० संवेगजणिअहास- संवेगः - मोक्षाभिलाषस्तेन जनितो हासो-मुखविकाशात्मकोऽस्येति संवेगजनितहासःमुक्त्युपायोऽयं दीक्षेत्युत्सवमिव तां मन्यमानः, प्रहसितमुख इति । उत्त० ४६४५ संवेयणी- संवेगयति संवेगं करोतीति संवेद्यते वा संबोध्यते संवेज्यते वा संवेग ग्राह्यते श्रोपाऽनयेत मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] संवेदनी संवेजणी स्था० २१०१ संवेज्यतेमोक्षसुखाभिलाषो विधीयते श्रोता यकाभिस्ता संवेजनी । औप० ४६ संवेल्लित परिवेष्टितः । प्रज्ञा० ३०६ | संवेत्रित्रता संवेल्लन्ती सङ्कोचिता वा ज्ञाता ६६ संवेल्लिय संवेल्लितं संवृतम्। जीवा० २०७| संवेल्लितंसंवृतं किञ्चिदाकुञ्चितम्। जम्बू० १२१ संवेल्लितंसंवृत्तम्। राज० ४९। संवेह संज्जोगो । निशी० १०८ अ । संवेधः संयोगः । व्यव० ७६अ। संवियते निरुध्यते प्रश्न रा संश्लेषः समवायः । आव० २७८ । संसए- संशयः-अनिर्द्धारितार्थम् । औप० ८४ | संशयःअनवधारितार्थ ज्ञानम्। भग- १३। अनवधारितार्थ ज्ञानम्। जम्बू० १६। संशयः - अनवधारितार्थं ज्ञानम् । [32] -- राज० ५८। संसग्ग- संसर्गः सम्बन्धः । दशवै० १६५ | संसग्गि. संसर्गिः सम्पर्कः, अब्रह्मणश्चतुर्थं नामः । प्रश्न ६६ | संसर्गः । उत्त० ४७ । संसग्गी- संसयि:- प्रीतिः। बृह. १३७ आ। निशी. ३७ अ संसज्जड़ संसज्यते। आव• ६४४१ संसज्जिम संसक्तिकान् तन्मध्यनिपतितजीवयुक्तः । पिण्ड १५०1 संस संसृष्ट:- आकर्ण पूरितः । अनुयो० १८२१ संसृष्टःभूमिकर्मादिना संस्कृतः । आचा० ३६१। संसृष्टंभोक्तुकामेन गृहीतकूरादौ क्षिप्तो हस्तः क्षिप्तो न तावत् मुखे क्षिपति तच्च लेपालेपकरणस्वभावम् । स्था• १४८ संसृष्टं भोक्तुकामम्। व्यव० ३५३ आ । संसृष्टं उच्छिष्टम्। बृह० २७२आ। संसृष्टगोरससंसृष्टे भाजने प्रक्षिप्तं सद्यदुदकं गोरसरसेन परिणामितम्। बृह० २६७ आ । संसृष्टं खरण्टितेनेत्यर्थो हस्तभाजनादिना दीयमानम् । स्था० २९८ । संसट्ठेहिं हत्थमत्तेहिं देतित्ति संसद्धो निशी १२ अ संसृष्टम् । - आव० ८५८। संसडकप्प संस्पृष्टकल्पः स्था० ३७२१ संसृष्टकल्पःमैथुनप्रतिसेवा व्यव. २०५ आ । संसृष्टकल्प: मैथुनप्रतिसेवा बृह० २२४ आ । "आगम- सागर-कोषः " (५) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] संसहकप्पित-संसृष्टेन-खरण्टितेनेत्यर्थो संसयकरणी- अनेकार्थप्रतिपत्तिकारी संशयकरणी। भग० हस्तभाजनादिना दीयमानं कल्पिकं-कल्पवत् ५०० याऽनेकार्थाभिधायितया परस्य संशयमुत्पादयति कल्पनीयमुचितमभिग्रहविशेषा-द्भक्तादि यस्य स सा भाषा संशयकरणी। प्रज्ञा० २५६। संशयकरणीसंसृष्टकल्पिकः। स्था० २९८१ अनेकार्थ-साधारणा, असत्यामषाभाषाभेदः। दशवै. संसद्वपाणग-संसृष्टपानकं-उष्णोदकं तन्दुलधावनादि २१० वा। बृह. २९८ आ। संसयपट्ठ- संशयप्रश्नः-क्वचिदर्थे संशयः सति यो संसहोवहड- संसृष्टोपहृतं-संसृष्टमेवं भुतमुपहतम्। स्था० विधीयते। स्था० ३७५। १४८ संसरण- संसरणं-ज्ञानावरणादिकर्मयुक्तानां गमनम्। संसत्त-संसक्तं-सङ्कीर्णम्। सम०१५। संसक्तः दशवै०७१। संस्मरणंकदाचित्-संविग्नगणानां कदाचित्पार्श्वस्थादिदोषाणां संकल्पिकतद्रूपस्यालेख्यादिदर्शनम्। असं-प्राप्तकामे सम्बन्धाद गौरव-त्रयसंसजनाच्च। ज्ञाता०१११| चतुर्थो भेदः। दशवै० १९४१ संसक्तं-त्रसयुक्तम्। ओघ० १६८। संसक्तं संसरपासय-संसरत्पाशकम्। आव० ८२० आरनालाद्यपरेण। दशवै. २००| संसक्तम्। दशवै०४७। संसा- पसंसा। निशी०५८ आ। संसक्तः-सन्निहितदोषगुणः। आव. ५१८ संसक्तं- संसार- संसरणं संसारः। आव०७०| संसारःद्वीन्द्रियादिजीवमिश्रम्। बृह. ४७ अ। गतिचतुष्टयम्। स्था० २२०। संसरणं संसारःसंसत्तगाहणी-संसक्तग्रहणिः कृमिसंसक्तोदरः। ओघ. मनुष्यादिपर्यायान्नारकादि-पर्यायगमनाम्। स्था० १२५ २१९। संसरणं संसारः-नारकतिर्यसंसत्ततव-संसक्ततपा- 'आहार-उवहि-पूयासु जस्स इनरामरभवभ्रमणलक्षणः। जीवा० ८। संसारंभावो उ निच्च संसक्तो। भावोवहतो क्णई अ संजाततन्दु-लादिसारम्। दशवै० २१९। संसारःतवोवहाणं तदट्ठाए'। बृह० २१५आ। तिर्यग्नरना-रकामरभ-वसंसरणरूपणः। दशवै. ३९। संसत्ततवोकम्म-संसक्ततपःकर्म संसरणं संसारः-नारकतिर्यग्नरामरभवानभवलक्षणः। आहारोपधिशय्यादिप्रति-बद्धभावतपश्चरणः। स्था० प्रज्ञा. १८१ २७५ संसारअपरित्त-संसारापरीत्तः-कृष्णपाक्षिकः। जीवा. संसत्तदेस- संसक्तदेशः। आव० ६२३। ४४६। संसत्तपिट्ठ- भत्तावसेसं। निशी. २७० अ। संसारकंतार-संसार एव कान्तारं-अरण्यं संसारकान्तारम्। संसद्द-संशब्दं काशितादिरूपम्। ओघ. ५२ ज्ञाता०८९। संसारः कान्तारमिवातिगहनतया संसारसंसुद्धणाणदंसणधर- संसुद्धज्ञानदर्शनधरः संशुद्धे कान्तारः। उत्त० २३३॥ ज्ञानदर्शने धारयति यः स। उत्त. २५७। संसारणीयं-कथनीयम्। आचा० ३८४। संसप्पग- संसप्पतीति संसर्पकः, संसर्पकः-पिपीलिको- | संसारपयणुकरण- संसारप्रतनुकरणः-संसारक्षयकारकः। ष्ट्रादिः। आचा० २९१। संसर्पगः-पिपीलिकादिः। ओघ. आव०४९३। २०१। संसर्पतीति-संसर्पकः-शून्यगृहादावहिलकलादि | संसारपरित्त- संसारपरीत्तः- अपार्द्धपुद्गलपरावर्तान्तः यो प्राणीनः। आचा० ३०८१ संसारः। जीवा० ४४६। संसारपरीतः। सम्यक्त्वादिना संसय-संशीतिः संशयः- उभयांशावलाम्बा प्रीतितिः कृतपरिमित-संसारः। प्रज्ञा० २९४। संशयः। आचा. २००| संशीतिः संशयः इदमित्थं संसारमंडल-संसारमण्डलं-एवमुक्तक्रमेण भविष्यति संशयः। आचा. २००१ संशीतिः संशयः वैमानिकावसानं संसारिजीवचक्रवालं नेतव्यमित्यर्थः, इदमित्थं भवि-ष्यति नवेत्यभयांशावलम्बनः प्रत्ययः। अथ चेह स्थाने वाचनान्तरे उत्त०३१२ कुलकरतीर्थकरादिवक्तव्यता दृश्यते, ततश्च मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [33] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] संसारमण्डलशब्देन पारिभाषिकसंज्ञया सेह सूचितेति | बह० २९७ आ। संसष्टः-पर्वपरिचित उदभ्रामकः। बह. सम्भावते। भग० २२५ ९आ। भगवत्यां चतुर्दशशतके षष्ठोद्देशकः। भग०६३० संसारमुक्ख- संसारान्मोक्षो-विश्लेषः संसारमोक्षः संसुद्ध-सामस्त्येन शुद्ध एकान्ताकलङ्कम्। आव०७६० निर्वृत्तिः। उत्त० ४०० संशुद्धः-अशबलचरणः अकषायत्वात्। स्था० २१। संशुद्धंसंसारमोचक- दृष्टान्तविशेषः। प्रश्न. ३५ सामस्त्येन शुद्धं-एकान्ताकलङ्कम्। ज्ञाता०४९। संसारविउसग्ग- नारकायष्कादिहेतूनां संसुमा- धन्यसार्थवाहस्य पञ्चपुत्रोपरिबालिका। ज्ञाता० मिथ्यादृष्टित्वादीनां त्यागः। भग० ९२७। २३५ संसारसमावण्ण-संसारो संसेइम-संस्वेदजं पिष्टोदकादि। दशवै. १७७। नारकतिर्यग्नरामरभवान्भवलक्ष-णस्तं सम्यग्- तिलधावनोदकं यदि एकीभावेनापन्नः संसारवर्ती। प्रज्ञा० १८॥ संसार- वाऽरणिकादिसस्विन्नधावनोदकम्। आचा० ३४६। चतुर्गतिभ्रमणरूपं सम्यग-एकीभावेनापन्नः-संसार- | संसेइमा- संस्वेदजाः-मत्कुणयूकाशतपदिकादयः। दशवै. समापन्नः प्रज्ञा०४३७ १४१ संसाराणुप्पेहा- संसारानुप्रेक्षा-संसारस्य-चतस्रषु गतिषु संसेतिम-संसेकेन निवृत्तमिति संसेकिम-अरणिकादिपत्र सर्वावस्थासु संसरणलक्षणस्यानुप्रेक्षा। स्था० १९०। शाकमुत्काल्प येन शीतलजलेन संसिच्यते तत्, संसारिए- संसारिका-स्थापना। बृह. १५५आ। संसेकेन निर्वृत्तम्। स्था० १४७। संसारिण-संसारिजनः। प3. १०२, १०४१ संसेतिमाम- णाम पिठेरपाणियं तावेत्ता पिडियट्ठिया संसारिय-सांसारिकम्। सूत्र. ३८० तिला तेण ओलहिज्जंति, तत्थ जे आमा तिला ते संसारिया-स्थानान्तरादुचितस्थाननिवेशितः। ज्ञाता० संसेतिमाम। भण्णति आदिग्गहणेणं जंपि अण्णं किंचि एतेणं कमेणं संसिज्जति तंपि संसेतिमामं भण्णति। संसारेति- ईषत्स्वस्थानात् स्थानान्तरनयनेन। ज्ञाता० निशी० १२५ । ९४, ९७ संसेयंति-संस्विदयन्ते। भग. २६९। संसाहग-अणुवच्चगो। निशी० २६ । चोलापकः-पृष्ठत संसेवियं-संसेवितं-सञ्चिन्तितम्। आव० ५८९। आगतः। बृह. १२९ आ। संसेविया- अधिष्ठिता। बृह. १६९ अ। संसाहण-संसाधनं-गच्छतः सम्यगन्व्रजनम्। उत्त०१७ | संसेसिय- सांश्लेषिकी-कर्मसंश्लेषजननी। आचा० ४१६। संसाधनं-गच्छतः अनुगमनम्। दशवै. २४१। संसाधण- संशोधण-संशोधनं हरीतक्यादिदानेन गच्छतोऽन्व्रजनम्। व्यव० १९आ। पित्तायुपशमनम्। पिण्ड० १३३ संसाहेहि-संसाधय व्रज संश्लाघय-साधुक्तं साध्वित्येवं | संसोहन- गात्रस्य सम्यक् सोधनं। संशोधनं-विरेचनम्। प्रशंसां कुरु। ज्ञाता० १८९। आचा०३१३ संसि-स्वके-क्वकीये। भग०६८४| संस्कार- यथा लोके वक्तारः। नन्दी०१७ संसिआ-संश्रितः-उत्पत्तिकायां स्थितः। जं० २२० संस्कारवत्-संस्कारवत्त्वं-संस्कारादिलक्षणयक्तत्वं, संसिचिय- संसिच्य-अर्थनिचयं संवर्ध्य। आचा० १२३। वचनातिशये प्रथमः। सम०६३। संसिच्चमाण- संसिच्यमानः आपूर्यमाणः। आचा० १५९| | संस्कारस्कन्धः-पुण्यापुण्यादिधर्मसमुदायः। प्रश्न० ३१॥ संसिज्जइ- संस्विद्यते सन्मूर्छनाभिमुखीभवति। जीवा. | संस्कारस्कन्धः-पुण्यापुण्यादिधर्मसमुदायः। सूत्र० २७। ३२ संस्विदयते-सन्मर्छति, वर्षां वर्षति। जीवा० ३४४। | संस्कृते-रथादेर्भग्नजीर्णपोढापरावयवसंस्कारादिति, संस्विदयते-उत्पत्तयाभिमखीभवति। जीवा० ३०७ संस्कृत-द्रव्यसम्यक्। आचा. १७६| संसिट्ठ-संश्लिष्टं, संसर्गवत्। भग० ८७ संश्लिष्टः- संस्थान- नेपथ्यं-तत्तद्देशप्रसिद्धम्। उत्त०४२४ स्नेहात् सम्बद्धः। भग०६४७। संसृष्ट-गोरसभावितम्। | संस्थापना- वसतेः संस्कारकरणम्। बृह० २२४ आ। १३३ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [34] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] संस्थिति- तत्पर्यायानुबन्धः। भग० ५८६। सइज्जिआए- सह सखिक्रियया। ओघ०७२। संइह-संहतिः-मिलनम्। भग० १०४। सइज्झिया- प्रातिवेश्मिकी। बृह० २४१ आ। संहणण- संहननं-अस्थिसञ्चयरूपम्। प्रश्न० ८२ सइत्तु-स्वप्तुं-निद्रातिवाहनं कर्तुम्। दशवै० २०४। संहनन-अस्थिबन्धविशेषः। सम० १४९। सइरप्ययारी-स्वैरपचारी स्वच्छन्दविहारी। ज्ञाता०२३६) संहरइ- संहरति-सङ्कोचयति। जीवा० २५५ सइरायार- स्वैराचारः। आव०७१० संहरण-कर्मभूम्यारकर्मभूमिष् नयनम्। जीवा. ५६। सई-स्मरणं-स्मृतिः-पूर्वानुभूतार्थालम्बनः प्रत्ययः। आव. देवादिना अन्यत्र नयनम्। बृह. २२६ अ। १८ सती-स्त्री। ओघ० १४६। सदा। उत्त० २८० संहरत-प्रापयत। जम्बू०१६१| सईणा- तुवरी। भग० २७४। तुवरी। स्था० ३४४। संहरति-संस्थापयति। बृह. ३२ आ। सउज्जोय-सोदयोतंसंहरिय- संहृतं-संलीनीकृतम्। औप०६० बहिर्व्यवस्थितवस्तुस्तोमप्रकाशनकरम्। प्रज्ञा० ८७ संहरेमाण- संहरन्-अन्यत्र नयन्। भग० २१८१ सउज्जोया- सहोद्योतेन-वस्तुप्रभासनेन वर्तन्ते ये ते। संहर्षः-स्पर्द्धा। ठा० १५२ स्था० २३२१ संहिच्च-संहित्त्य- सह संभूय। ज्ञाता०९३। सउण- शकुन-श्येनादिपक्षिः। प्रश्न० ३७। शकुनः-पक्षिविसंहिता- अस्खलितपदोच्चारणम्। ओघ० २। शेषः। प्रश्नः । शकुन-श्येनः पक्षिविशेषः। अनुयो. अस्खलितादि-गुणोपेतो विविक्ताक्षरो झटिति १३०| शकुनः। ज्ञाता० १२४१ मेघाविनामर्थप्रदाया संनि-कर्षः-सम्यकः सदर्थानां हिता | सउणरुअ-शकुनरुतं, पक्षिभाषितम्। जम्बू. १३६। संहिता। बृह. ४९। सउणा- शकुनाः-काककपोतादयः। बृह० १५२ आ। संहिय-संहितः सन्ततः। सन्ततः-अपान्तरालरहितः। | सउणिज्झया- शकुनिध्वजा-शकुनिचिह्नोपेता ध्वजा। जीवा० २७५। सहिकः क्षमः। जम्बू. ११४| संहितः- जीवा० २१५ मिलितः। आचा० ३०२। संहितः-संयतीभिः युक्तः। सउणिपलीणगसंठित-शकनिप्रलीनकसंस्थितःओघ. ५७ धनिष्ठान-क्षत्रसंस्थानम्। सूर्य. १३०| संहिया- सहिता- चारकसुश्रुतरूपा। ओघ० ५३। संहिता- | सउणी- सकुनी अंगवेदमीमांसान्यायपुराणधर्मशास्त्रवित्। अस्खलितपदोच्चारणम्। अन्यो० २६३। बृह. १८ आ। शकुनिः-अष्टमकरणः। जम्बू० ४९३। सअडिय-सास्थिकं सहास्थिः । आचा० ३४७) शकुनी-चतुर्दश विद्यास्थानानि। आव० ५२०| शकुनी। सई-सकृद्-एकां वाराम्। ओघ० ११८ सकृत्-एकैकं ज्ञाता०२०८१ वारम्। सूर्य. ११। सकृत्-एकमेव। उत्त. २३९। स्वयं | सउणीघरए- शनिगृहं-वंशनिर्मितं छब्बकम्। ओघ. स्वभावेन। स्था०६३। सरय। बृह. १९० आ। पटमवारा। | १८४ निशी० २१८ अ। सुखलक्षणफलबलता। ज्ञाता० १६२। सउत्तिंग-सचित्तवती। सम० ३९। संइगाल-सागारं प्रशंसाहभोजनम्। पिण्ड. १७५ आचा. सउलिया- कुलिकाभिः सह वर्तमाना शनि वा। अन्यो. १३१| सउवयार- जेसिं आगयाणं उवयारो कीरइ ते। निशी० २०८ सइ-स्मृतिः- उपयोगलक्षणा। आव० ८३४। बहुफलत्वम्। । औप०७४। सन्। दशवै० १२५। बहुः। भग० ४८२। सत्- | सउववारा- सोपचाराः-त्रिषु स्थानेषु प्रयुक्तनैषेधिकी विद्यमानम्। ओघ०५१। स्मृतिः। उपा०९। शब्दः। यद्वा संयतीभिर्येषां वक्ष्यमाण उपचारः सइअकरणा- स्मृत्यकरणं प्रयुक्तस्ते सोपचाराः। बृह० २११ अ। उपयोगलक्षणास्मृतेरनासेवनम्। आव० ८३४। सऊणरुय-कलाविशेषः ज्ञाता० ३८५ सइओ-शतिकः। दशवै. १०८ सएज्जए- सहवासी- प्रातिवेश्मिकः। बृह. १६४ अ। सइकाल-सत्कालः-देसकालः-ब्रह. २०६अ। | सएज्झियाओ- सख्यः। आव० ३५३। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [35] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सओ-सन्तः। भग०४५५ ३०० सकंसा-सह कांस्यः द्रव्यमानविशेषः सकांस्यः। उपा०४८। तः-पक्षिविशेषः। अनुयो०१४१| सक- शकः। प्रश्न०१४। सकुर-आचामामाम्लम्। आव०८५५) सकक्कस-सकार्कश्यं-कर्कशभावोपेतम। औप०४२ सकलिका- शकीनका। निशी०४४ आ। ओघ.१८१ सकुली- पर्पटिः। निशी. २६० आ। सकडक्ख-सकटाक्षः-सापङ्गदर्शनः। ज्ञाता०१६५ सकुहर- सच्छिद्रः। जम्बू० ४०० सकडाह- समांसं-सगिरं तथा कटाहम्। प्रज्ञा० ३७। सकुहरगुंजंतवंसतंतीसुसंपउत्त- सकुहरो गुञ्जन् यो वंशो सकण्ण-सकर्णः। आव० ३९८१ यत्र-तन्त्रीतलताललयग्रहसुसंप्रयुक्तं भवति, सक्हरे सकथ- तत्समयप्रसिद्ध उपकरणविशेषः। निर० २७। वंशे गुञ्जति तन्त्र्यां च वाद्यमानायां सकम्मपरिणामज्जणिय-स्वकर्मपरिणामजनितम। यत्तन्त्रीस्वरेणाविरुद्धं तत् सकुहरगुआव०५८६| जवंशतन्त्रीसुसंपहयुक्तम्। जीवा. १९५१ सकरणं- मनोवाक्कायकरणसाधनः सलेश्यजीवकर्तुको सकृत- एकवारः। ओघ० १८११ जीवप्रदेशपरिस्पन्दात्मको व्यापारः। सकरणं-वीर्यम्। संकेय-संकेतक-केतनं केतःभग०५७ चिह्नमङ्गुष्ठमुष्ठिग्रन्थिगृहादिकं स एव केतकः सकल- शकलं- खण्डरूपम्। सूर्य १३६। सहकेतकेन सकेतक-ग्रन्थादिसहितम्। स्था०४९९। सकलचन्द्रः- वाचकविशेषः। जम्बू. ५४४| सकोतिगा- गमणागमणसचेट्ठा। ते य सवीरियत्तणतो सकलचन्द्रगणिः- शान्तिचन्द्रगुरवः। जम्बू. ४२४। चेव सकोतिगा। निशी. ११६ आ। सकषायोदय- विपाकावस्थां प्राप्तः स्वोदयम्पदर्शयन् | सकोसं-तस्यां पूर्वादिशु दिक्षु प्रत्येक कषाय-कर्मपरमाणुः। प्रज्ञा० १३५। सगव्युतमूर्ध्वमधश्चार्द्ध-कोशं अर्धयोजनेन च समं ततो सकसाई-सकषायी-कषायोदयसहितः। प्रज्ञा० १३५ सह यस्य ग्रामोऽसन्ति सत्सकोशम्। व्यव० ३७२ अ। कषायो यस्य येन वेति सकाषायः-जीवपरिणामविशेषः सक्क- सोधर्मदेवलोके इन्द्रः। स्था० ८५ शक्रः-देवराजा। स विद्यते यस्य स सकषायी। प्रज्ञा० ३८६। आव० ३५९। शक्रः-आसनविशेषाधिष्ठाता शक्रः, सकसाए- सकषाय-सचित्तपृथिव्याद्यवयवगुण्ठितः। दक्षिणा-र्द्धलोकाधिपति। जम्ब०७५ शक्रः-सौधर्मेन्द्र। आचा. ३४६। स्था० ५१८ शक्रः- देवानां स्वामी। उत्त. ३५०। इन्द्रः। सकसिणं- अखंडिय। निशी. १३६ आ। ज्ञाता०२५३। सकह-सकथा-तत्समयप्रसिद्ध उपकरणविशेषः। भग. सक्कणोमि- शक्नोमि। आव० ४०२। ५२०| सक्थि , दाढम्। जम्बू. १६२ सक्कदूए- शक्रदूतः। शक्रादेशकारी पदात्यनीकाधिपतिः सकहा- सक्थी अस्थी। सम० ६४। सकथा-हनमा। आव० हरि-नैगमेषीदेवः। भग. २१८ १६९| सक्कप्पभ- शक्रदेवेन्द्रस्य उत्पातपर्वतः। स्था० ४८२१ सकाम- सह कामेन-अभिलाषेण वर्तते इति सकामं, सक्करप्पभा- शर्कराप्रभा द्वितीयानरकपृथ्वी। प्रज्ञा० ४३। सकाममिव सकामं मरणं प्रत्यसंत्रस्ततया। उत्त० २४२। शर्कराप्रभा-उपलखण्डप्रकाशवती पृथ्वीविशेषः। अन्यो। एकशः। बृह. १४ । ८९। सकाममरण-भक्तपरिज्ञानादि प्रशस्तः। उत्त० २४१ | सक्करा- शर्कराः-कीरकाः। जम्ब० ३७४। शर्करासकालष्य-आविलम्। ५३ लघूपशकलरूपा। प्रज्ञा० २७। पृथिवीभेदः। आचा० २९ सकिरिए- सक्रियः-कायिक्यादिक्रियायुक्तः सकर्मबन्धनो | | शर्करा-कर्करकः। जीवा. २८२ शर्करा-काशादिप्रभवा। वा। भग० २९५। आचा० ४२५ प्रज्ञा० ३६४। शर्करा-लघूपलशकलरूपा पृथिवी। जीवा० २३। सकिरित- सक्रियं-प्रस्तावादशुभकमबन्धयुक्तम्। स्था० | शर्करा-लघूपलसकलरूपा। उत्त०६८९। शर्करा मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [36] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] कच्छमत्रको रोगः। बह. २४९ अ। शर्करा-भ्रूणपथिवी। | सक्कारिय-सत्कारितः वस्त्रादिना। भग० ५. जीवा० १४० शर्करा-लक्ष्णपाषाणशकलरूपा। उत्त. | सक्कारेमो- सत्कारयामः आदरं कुर्मः वस्त्राचनं वा ६९७। शर्करा, काशादिप्रभवा। जम्बू. ११८ शर्करा सन्मानयामः। भग० ११५ काशादिप्रभा-वातद्रसो वा। उत्त०६५४१ आचा० ३३७) सक्कुणोमि- सत्कारयामः आदरं कुर्मः वस्त्राचनं वा सक्कराभा- गौतमगोत्रे पञ्चमभेदः। स्था० ३९० सन्मानयामः। भग० ११५ सक्का- युक्तम्। निशी. ९७आ। सक्कुरओ- सत्तुरतः-प्रद्योतनसभायां कश्चिदन्धो सक्कार-सत्कारः अर्धप्रदानादिः। उत्त०६६८ सत्कार:- ___ गायकः। आव० ६७४। स्तवनवन्दनादिः। स्था०४०८। सत्कारः वस्त्रादिभिः। | सक्कुलि-शष्कुनिः तिलपर्य-टिका। दशवै० १७६। स्था० १३७ सत्कारः-वन्दनाभ्युत्थानादिकः। ओघ० | शष्कुलो-तलपर्पटिका। प्रश्न० १५३॥ ७०| सत्कारः-वन्दनस्तवनादिः। सम० ९५१ सत्कारो- सक्कुलिकन्ना- शष्कुलीकर्णनामा अष्टम अन्तरद्वीपः। वन्दनादिनाऽऽदरकरण वस्त्रादिदानम्। भग० ६३७ प्रज्ञा० ५० सत्कारः- सेव्यतालक्षणः। जम्बू. १२२। सत्कारो- सक्कुलिगा- शुष्कखायकं मोदकवत्। बृह. १७७ अ। वस्त्राभ्यर्चनम्। स्था० ३५८| सत्कारः-वस्त्रादिपूजा। सक्ख- साक्षम्। ज्ञाता० २२१| भग० ३९० अभ्युत्थानादिसम्भ्रमः सत्कारः। आव. सक्खि -साक्षी। आव० ८२२ साक्षी। प्रश्न. ३० ४०६। सत्कारः-भक्तपानवस्त्रपात्रादीनां परतो लाभः, सक्खेत्त-स्वक्षेत्रं-सक्रोशयोजनामन्तरम्। बृह. १८३ अ। एकोनविंशतितमः परीषहः। आव०६५७। सत्कारः- सक्थिनी- पाश्चात्यपादयोर्जामूपरिभागः। जम्बू० ३७ स्तवनवन्द-नादिः। दशवै. ३० सत्कार: सखलियार-सोपवारम। आव०४०१। सेव्यतालक्षणः। जीवा० २८०| सत्कारः- वस्त्रादिभिः सखा- मित्रम्। आचा० १०० पूजनम्। उत्त० ८३। सत्कारः-भक्तपानवस्त्रपात्रादीनां सखिखिणिय-सकिङ्किणीकः। क्षुद्रघष्टिकोपेतः। ज्ञाता० परतो लाभः। आव०६५८ सत्कार: ३१ वन्दनाभ्युत्थानादिः। बृह० २३७ अ। सत्कारः- सखुड्ड- सबालं यदि वा सह क्षुद्रः सिंहमार्जारादिः। आचा. स्तुत्यादिगुणोन्नतिकरणम्। राज० २७। सत्कारः- રૂદ્રા . प्रवरस्त्रीदिभिः पूजनम्। स्था० ५१५। सत्कारः-स्तुत्या- | सखेत्तं- सक्रोशयोजनमात्रं क्षेत्रम्। बृह० १४० आ। निशी० दिभिणोन्नतिकरणम्। जम्बू० ३९८१ सत्कारः - प्रवरव- | १८ । स्त्राभरणादिभिरभ्यर्चतम्। आव०७८७। सत्कारा- सगंथ-सग्रन्थ-श्वशक्लसम्बन्धसम्बद्धः अभ्युत्थानासनदानवन्दनानुव्रजनादिः। आव० ८३७ । ___ शालकशालिकादिः। प्रश्न. १४० सक्कारणिज्ज- सत्कारणीयम्। सूर्य. ३६७। वस्त्रादिभिः। | सगज्जिए- सगर्जितः-मुक्तमहाध्वनिः। ज्ञाता० २४॥ भग० ५०५। वस्त्रैः । औप०५१ सगड- शकटं सुभद्राभद्रवाहपुत्रशकटनामा सक्कारपुरक्कार- सत्कारः-वस्त्रादिभिः पूजन पुरस्कारः- विपाकेऽध्ययनम्। स्था० ५०७ शक्नोति शक्यते वा अभ्युत्थानासनादिसंपादनम्। धान्यादिकमनेन वोढ-मिति शकटम्। उत्त० २४७) सकलैवाभ्युत्थानाभिवादन-दानादिरूपा प्रतिपतिः शकटं-गड्डुकादि। अनुयो० १५९। सव्वमेतं कृतम्। सत्कारस्तेन पुरस्करणम् सत्कार-पुरस्कारः। उत्त० निशी० १३८ आ। शकटं प्रतीतम्। जीवा० २८१। शकट८३ गन्त्री। प्रश्न० ८ भग० २३७। शकटं-मन्त्री। प्रश्न० १६१, सक्कारवत्तिया- सत्कारप्रत्ययं-सत्कारनिमित्त ९१। शङ्कटः-शकटा-भिधसार्थवाहस्तः, दुःखविपाकानां प्रवरवस्त्रा-भरणादिभिरभ्यर्चननिमित्तम। आव. चतुर्थमध्ययनम्। विपा०६५। ७८६| सगडतित्तिदी- शकटतित्तिरी शकटयुक्ता तित्तिरी। सक्कारिता-सत्कारयित्वा वस्त्रादिना। स्था० १११ दश.५९ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [37] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सगडब्भि-स्वकृद्भित्-स्वकृतमनेकजन्मोपात्तं कम्म | सगीतार्थ- प्रत्त्युच्चारणसमर्थः। निशी० ३२२ आ। भिनत्तीति स्वकृतभित्। आचा० १७१। सगेवेज्ज-सह ग्रैवेयकेण- ग्रीवाबन्धनेन यथाभवति सगडमुह- शकटमुखं-उद्यानविशेषः। आव० १४७। शकट- तथा। ज्ञाता०८६। मुख-उद्यानम्। आव० २१०| शकटमुखम्। जम्बू. १५०| | सगोप- परस्परबाहुगुम्फनं स्तनोपरिमर्कटबन्धमिति। सगडलट्टणीपएसबद्ध- शाकटलट्ठनी(कट) प्रदेशबद्धः। उत्त०४०४१ आव०४१७ सग्ग-स्वर्ग:-देवलोकदेशः प्रस्तटः। भग० २२११ सगडवडा- शकटवर्तनी। आव० ३५८, ५१४। सग्गपयाणग-स्वर्गे गन्तव्ये प्रयाणकमिव-गमनमिव सगडवूह- शकटव्यूहः-शकटाकारः सैन्यविन्यासविशेषः। यत् स्वर्गप्रयाणकम्। प्रश्न. १०२ निर०१८ सग्गह-जं क्रूरग्रहेणोत्क्रान्तं तं सग्गह। निशी० ९९ अ। सगडाल-शकटालः-योगसङ्ग्रहे शिक्षादृष्टान्ते कल्पकवं- | दालन्यागसङ्ग्रहाशक्षादृष्टान्त कल्पकव- | सकट-सङ्कलः। प्रश्न.१६| शप्रसूतो नवम नन्दराजमन्त्री। आव०६७०। शकटालः सङ्कटद्वार-क्षुद्रद्वारः। आचा० ३२९। स्थूलभद्रपिता। उत्त. १०४, १०५ शकटालः-नवमे नन्दे | सङ्कलन- गणितम्। स्था० ४७८1 सङ्कलनंकल्पकवंशप्रसूतः। आव०६९३। गणितविशेषः। नन्दी० २३८१ सगडीसागड- शकट्यो-गन्त्रिका-शकटानां गन्त्रिविशेषाणां | सङ्कलनादिकं-। स्था० २६३ समूहः। भग० ६६८। शकट्योः -गन्त्र्यःशकटानां समूहः । | सङ्कलिका- सूत्रकृताङ्गस्य पञ्चदशमाध्ययननाम, शाकटं च शकटीशाकटम्। ज्ञाता० ११८ अस्याध्यय-नस्यान्तदिपदयोः सङ्कलनात् सगड्डढिसंठिय- शकटोद्धिसंस्थितं सङ्कलिका। सूत्र. २५३। रोहिणीनक्षत्रसंस्थानम्। सूर्य. १३० सङ्कलित- गणितविशेषः। जम्बू. १३७। सगइद्धीसंठिय-शकटोर्द्धिसंस्थितः। सूर्य०७३। सङ्कीर्णभाषा- शौरसैन्यादिः। जम्बू. २५९। सगडुद्धी- शकटोर्द्धिः। आचा० १५ सकुल- ग्रामविशेषः। आधासम्भवदृष्टान्ते सगपाय-अप्पणिज्जो सण्णामत्तओ। निशी. १९३। जिनदत्तश्रावकस्य भद्रशिलग्रामनिकटे ग्रामः। पिण्ड. सगर- जम्बूभरते द्वितीयचक्रवर्ती। सम० १५२। सगरःपरिनिर्वृतः चक्रवर्तिविशेषः। उत्त०४४८ सगरः-राज- | सक्लिश्यमानक-उपशमश्रेणितः प्रच्यवमानस्य शार्दुलः, द्वितीयचक्रवर्ती। आव० १५९। सगरः सूक्ष्मस-म्परायम्। स्था० ३२४| चक्रवर्ती-विशेषः। प्रज्ञा० ३०० सक्षेपः- समासः-भेदष्वन्तर्भावः। भग० ३५७। सगरचक्रवर्ती- सुबुद्धिमहामात्यवान्। नन्दी. २४२ सखडिमनादर-यत्रेवासौ सड़खडिः स्यात्तत्र न सगारदुअ- सह अगारेण वर्तत इति सागारी गृहस्थः गन्तव्यम्। आचा० ३२९। तयोर्दवयं तादेव द्वौ। ओघ०१६) सङ्गम- परग्रामदूतीत्वदोषविवरणे सुन्दरस्य जामता। सगरसुत-ज्वलनप्रभनागाधिपकृतोपद्रववान्। जम्बू. पिण्ड० १२७ २२३। सगरचक्रवर्तीपुत्रः। आव० १६९। सङ्गमस्थविर-कृतिकर्मणि नित्यवासविषये उदाहरणम्। सगह-संगह क्रूरग्रहेणाक्रान्तं तत्। व्यव० ६३ अ। आव. ५१७। क्रीडनधात्रीदोषविवरणे आचार्याः। पिण्ड. सगा- म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० ५५ १२७ सगार- सागरः-सह आगारेण वर्तत इति गृहस्थः। औप. सङ्गर-सङ्गरः। नन्दी. २११ १६| सङ्ग्रहणि- अर्थे प्रकारः। सम० १०९, १११| सगास-सकाशं-मूलम्। ओघ० २०| सङ्ग्रहपरिज्ञासगिं- सकृत्। व्यव० २७५अ। बालदुर्बलग्लाननिर्वाहबहुजनयोग्यक्षेत्रग्रह-णलक्षणादि सगिहगमणं-स्वगृहगमनम्। ज्ञाता० १६९। | चतुर्भेदभिन्ना। उत्त० ४० ६३॥ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [38] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सङ्ग्रामरथः- | जीवा० १८९। वा। बह०१६२आ। वाक्कभंणोरविसंवादिता। बह. ३१३ सङ्घात-संपीडनम्। उत्त०६३१। सङ्घातः। नन्दी०४३। अ। सत्यं-सम्य-ग्वादः। औप० ३३। सद्भ्यो-मुनिभ्यो सङ्घातकरणं- करणस्य तृतीयभेदः। आव० ४५८ गुणेभ्यः पदार्थेभ्यो गुणेभ्यः पदार्थोभ्यो वा हितं सङ्घातपरिशाटकरण- करणस्य तृतीयभेदः। आव० ४५८ सत्यम्। प्रश्न. ११४। सत्त्यं-सद्भूतार्थम्। प्रश्न० १२० सचमक्कारया- सचमत्कारता साशङ्कता। बृह. २१२ सत्यं-षष्ठं पूर्वम्। स्था० १९९। संयमः शौचं। च आव. आ। ७०५। सद्भ्यो हितं, परमार्थो यथावस्थितपदार्थ सचिट्ठ-सचेष्टः- सक्रियः। दशवै० १०९। यथावस्थितपदार्थनिरूपणं वा मोक्षो वा तद्पायभूतो वा सचित्त- पृथिव्यादि। आव. २२८। सचित्तं-अण्डकादि। संयमः सत्यम्। सूत्र. २१४। सत्यो वा संयमः, सन्तःदशवै०१५५ प्राणिनस्तेभ्यो हितत्वात्। सूत्र. २५५। सत्यःसचित्तद्रव्यपरियूनः- जीर्णशरीरः स्थविरका जीर्णवृक्षो अविसंवादी। उत्त. २८१। तदादेशनामवितथत्त्वात्। वा। आचा० ३५ ज्ञाता० १३०| सत्यं-वचनविषयम्। ज्ञाता०७ सचित्तनिक्खेवण-सचित्तनिक्षेपण सच्चइ- सत्यकिः-विद्याधर। दशवे. १०७। आगामिन्यां व्रीह्यादिष्वन्नादेर्निक्षेपणम्। आव० ८३८1 चतुर्विंशत्याकेकादशमतीर्थकृत्पूर्व भवनाम। सम० १५४| सचित्तपडिबद्धाहार- सचित्तप्रपितबद्धाहारः वृक्ष सच्चई-सत्यकी-प्रधानर्शनवतोऽपि चारित्रेण विनाऽघर प्रतिबद्धा-हारः। आव० ८२८१ गतिप्राप्तौ दृष्टान्तः। आव० ४३२। सचित्तपरिणाए-सचेनाहारः परिज्ञातः सच्चग-सत्यका-लौकिकमदारणम्। उत्त०११८। तत्स्वरूपादिपरिज्ञा-नात्प्रत्याख्यातो येन स सच्चती- सत्यकीनिर्ग्रन्थीपुत्रः। स्था० ४५७। सचित्ताहारपरिज्ञातः श्रावकः। सप्तमी प्रतिमा। सम० सच्चतीय- सत्यकिः-वेटकदुहितुर्ब्रह्मचारिण्याः पुत्रः, १९| भावी वहेश्वरः। आव० ६८६) सचितरए- सचित्तरजः-अरण्ये वातोद्भूतपृथिवीरजः। सच्चनेमी- सत्यनेमिः-अन्तकृद्दशानां चतुर्थवर्गस्य आव०७३२ नवमम-ध्ययनम्। अन्त०१४। सत्यनेमिःसचितसंयिस्साहारः- सचितसंयिसाहारः समुद्रविजयस्य तृतीयः सुतः। उत्त०५९६) सचित्तपुष्पवल्ल-यादिमिश्राहारः। आव० ८२८। | सच्चपरक्कम- सत्यः-अवितथस्तात्त्विकत्वेन परेसचित्ताणं दव्वाणंविउसरणया- सचित्तानां द्रव्याणां- भावशत्र-वस्तुषामाक्रमणं आक्रमः-अभिभव यस्यासौ पुष्प-ताम्बूलादीनां व्यवसरणं व्युत्सर्जनम्। ज्ञाता० सत्यपराक्रमः। उत्त० ४४४। सच्चप्पवाय-सत्यप्रवादं सत्यं-संयमो वचनं वा सत्सत्यं सचिल्लय- सर्वापचक्षुः। प्रश्न० २५१ संयमं वचनं वा प्रकर्णेण स प्रवञ्चं वदतीति सचिव- सचिवः-वस्त्रः। व्यव० १२५आ। सत्यप्रवादम्, षष्ठमपूर्वम्। नन्दी० २४१। सत्यप्रवादः सची- शक्रदेवेन्द्रस्याग्रमहिषी। जीवा० २६५। पूर्वविशेषः। दशवै. १३ सच्च-सत्थः-आगमः। आचा० १६९। सत्यं-ऋतं तपः | सच्चप्पवायपुव्वं- षष्ठं पूर्वम् यत्र सत्यः-संयमः सत्यं संयमो वा। आचा० १६५। सत्यं-अविसंवादनयोगाद्या- वचनं वा सभेद सप्रतिपक्षं च प्रोच्यते त्मकम्। उत्त० १६५। सत्यं-सद्धयो-जीवेभ्यो हितताया सत्सत्यप्रवादपूर्वम्। सम० २६) प्रतिज्ञातशूरतया वा। स्था० ३५३। सत्त्यः -संयमः सच्चभामा- सत्यभामा-अन्तकृद्दशानां सदागमो वा। उत्त. २६४। सद्भ्यो-जीवेभ्यो हितः पच्चमवर्गेऽध्ययनम्। अन्त०१५, १८ सस्य-संयमः। स्था० ९९। सत्यः-संयमः। सम० २७५ | सच्चभासय- यः सम्यग्पयुज्ह सर्वज्ञमतानुसारेण सदभ्यो हितः सत्त्यः संयमः। आचा. १६२ सदभ्यो ठानबुध्य भाषते स सत्यभाषकः। प्रज्ञा० हितं सत्थं समेभूतं वा। ज्ञाता०४९। सद्भावसारं संयमो રકા ४६। 11. वस्तुप्रति-ब मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [39] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] اواهم सच्चमंत-सत्त्वं प्रधानं महंतीएवि अवदीए जो आदिणो | सच्चोवाए- सत्यावपातं सफलसेवम्। ज्ञाता० १३० भवति सो। निशी०६१। सच्छंद-स्वछन्दः-स्वाभिप्रायः। ज्ञाता० १५२। सच्चरए- सत्यं-अवितथभावणं तस्मिन् रतः-आसक्तः सच्छंदमई-स्वछन्दमतिः-निरर्गलबुद्धिरत एव सत्यरतः। उत्त० ३४५ स्वच्छन्दवि-हारी। ज्ञाता० २३६) सच्चवती- दंतपुरणगरे दंतचक्करायस्स भज्जा। निशी. सच्छंदा- आभिग्रहिका। व्यव. ३२१ आ। स्वच्छन्दाआ१२८ । भिग्रहिका। बृह. २३३ आ। सच्चवदी-सत्यवती योगसङ्ग्रहे निरपलापदृष्टान्ते सच्छाया- सती-शोभना छाया यस्याः सा। जीवा० २९४| दन्तपुरन-गराधिपतिदन्तचक्रराज्ञः पत्नी। आव०६६६। | सजीव-कोट्यारोपितप्रत्यञ्चः। ज्ञाता० २३७ सच्चविल-मनोवचनकायसत्यवेदी। महाप०। सजोगि-सहयोगैः-कायव्यापारादिभिर्यः सः सयोगी। सच्चविती- दन्तपुरनगरे दन्तचक्रराजपत्नी। व्यव० स्था० ५० सजोगी-सयोगी-अनिरुद्धयोगः भवस्थकेवलिग्रामः, सच्चसंध- सत्यसन्धः। आव० ६९१। भूतग्रा-मस्य त्रयोदशमं गणस्थानम्। आव० ६५० सच्चसेण- जम्बवैरवते। त्रयोदशमतीर्थकृत्। सम० १५४१ सज्ज- वर्तमानः। निशी० ५९ अ| षड्जः-शरीरषसच्चसेव- सेवायाः सबलीकरणात् सत्यसेवम्। ज्ञाता०४। ट्स्थानजातः, सप्तस्वरे प्रथमः। अन्यो० १२७षड्भ्यो सच्चा- सन्तो-मुनयः सद्भ्यो हिता जातः षड्जः। नालाकण्ठोरुताजिह्वादन्तसंश्रितः। इहपरलोकाराधकत्वेन मुक्तिप्रापिका सत्या, यो वा स्था० ३९३ यस्मै हितः स तत्र साधुरिति सत्यः, सन्तो सज्जक्खय- आतंको शूलम्। निशी० १४८ अ। मूलोत्तरगुणाः विद्यमान वा तेभ्यो हिता तेष साध्वी, सज्जक्खार-सद्यो भस्म। ज्ञाता० १७५ वा यथाऽवस्थित वस्तुतत्त्वरूपणेनेति व, सज्जगाम- प्रथमो ग्रामः। स्था० ३९३। आराधनीत्वाद्वा। सत्त्या। प्रज्ञा० २४७) सतां हिता सज्जग्गहणा- वट्टमाण कालग्गहणं अभिक्खग्गहणं। सत्या, सन्तो मुनयस्तदुपकारिणी, सन्ती निशी. १० । मूलोत्तरगुणास्तदनुप-घातिनी वा सन्तः-पदार्था सज्जणत्ता-आसेवणाभावे सज्जणता। निशी० ७१। जीवादयः तद्धिता तत्प्रत्याय-नफला सज्जह-सज्जतं-सङ्गं कुत। ज्ञाता० १४७ जनपदसत्यादिभेदा वा सत्या। आव०१६) सज्जा- वनस्पतिविशेषः। भग०८०४। सच्चाण-सत्याणः कायोत्सर्गदृष्टान्ते यक्षविशेषः। आव० | सज्जासंथार- शयनं शय्या तदर्थं संस्तारकः शय्यासंस्ता८०१ रकः, शय्या-सर्वाङ्गीकी संस्तारकःसच्चामोस- उभयस्वभावा वस्त्वेकदेशप्रत्यायनफला अर्धतृतीयहस्तप्रमाणः। आचा० ३६९। उत्प-न्नमिश्रादिभेदा सत्यामृषा। आव०१६) सज्जिए-सज्जितः-निष्पादितः। जम्बू. १०५ सच्चित्त-सचित्तवर्जकः-श्रावकस्य सप्तमी प्रतिज्ञा सज्जिओ-सज्जितः-निष्पादितः। जीवा. २६८। सप्तमा-सप्रमाणा। आव० ६४६। सज्जित्था- गिहीत्यर्थः। निशी० ५१ अ। सच्चित्तदवियकप्प- सच्चित्तद्रव्यकल्पः-तद्यथा- सज्जिय-सज्जितं-वितानितम्। प्रश्न ७६। सज्जयित्वा। प्रव्राजना-मुडापना-शिक्षापना-उपस्थापना-संभञ्जना आव० ४२२॥ संवासना च, एवंविध षड़विधमपि सज्जीव- कलाविशेषः। ज्ञाता० ३८१ सच्चित्तद्रव्यकल्पमाचरन्ति। बृह. २५८ अ। सज्जीवकरणंमृतघात्वा-दीना सहजस्वरूपापादनम्। सच्चित्तरजो- सचित्तरजः व्यवहारसमन्विता वातोद्धता जम्बू०१३९। लक्ष्णधूलिस्तच्च सचित्तरजः। व्यव० २४० अ। | सज्जेउ- सज्जयितुम्। आव० ८१३। सच्चिल्लओ- सत्यः। आव. २०३। | सज्जो पुढवी- सज्जपुढवि-कुमारपृथवी। ज्ञाता० १०५। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [40] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सज्झंतिए- सहाध्यायि। व्यव० १३६ अ। सज्झंलिओ-सब्रह्मचारी। बृह. १३६ आ। सज्झं- सह्यम्। आव० ४०८१ सज्झगिरिसिद्धओ-सह्यगिरिसिद्धकः क्रमसिद्धोदाहरणे सिद्धविशेषः। आव०४०८। सज्झयनिमित्त-स्वाध्यायनिमित्तं प्रतिपृच्छानिमित्तम्। व्यव० ४५अ। सज्झाए- कुहणविशेषः। प्रज्ञा० ३३॥ सज्झाओ-स्वाध्यायः-वाचनादिनि। आव० ४४९। अभ्य न्तरतपसि चतुर्थो भेदः। भग. ९२२ सज्झादी-सज्झिकाः-प्रतिवेशिर्मकाः। ब्रह० ४९ अ। सज्झाय-स्वाध्यायः- अन्प्रेक्षणादिः। उत्त० ४३८ सष्ठ आ-मर्यादया अधीयत इति स्वाध्यायः अङ्गादि तमुद्देष्टुं योगविधिक्रमेण सम्यग्योगेनाधीष्वेदमित्येवम्पदेष्टम्। स्था० ५७ स्वाध्यायः-वाचनादिरूपः, तत्त्वचिन्तायां धर्महेतुत्वाद्धर्मः। दशवैः २३। शोभना अध्यायः स्वाध्यायः। आव०७३१॥ स्वाध्यायः-सूत्रपौरुषीलक्षणः। आव०५७६) स्वाध्यायः-अधीतगुणनरूपः। प्रश्न. १११। स्वाध्यायःनन्दयादिसूत्रविषयो वाचनादिः। स्था० २१३। स्वाध्यायः- शोभनं आ-मर्यादया अध्ययनंश्रुतस्याधिकमनुसरणं स्वाध्यायः। स्था० ३४९। सज्झायपोरुसि-स्वाध्यायपौरुषी। आव. ३१३। सज्झायभूमि-स्वाध्यायभूमिः सा चागाढयोगमधिकृत्योत्क-र्षतः षण्मासा। व्यव० ७८ अ। सज्झायमंगल-स्वाध्यायमङ्गलं-स्वाध्याय एव मङ्गलम्। ओघ०१८४ सज्झायसज्झाण-स्वाध्याय एव सध्यानं स्वाध्यायस ध्यानम्। दशवै. २३८१ सज्झिग- सहवासी। बृह. २१५आ। सज्झिया- सज्झिका-प्रातिवेश्मिकी। बृह. १३९ अ। सज्झिलग-लघुभ्राता। व्यव. १९४ आ। भ्राता। पिण्ड. १००। सहोदरः। बृह० ५५अ। सखायौ। ओघ. १७२। भगिनी। पिण्ड० ९८१ सज्झोरुवा- सज्झोरूपा। व्यव. १२४ आ। सज्वलन- क्रोधादिभेदवान्। आचा०९१| सञ्जवलनत्व- प्रतिक्षणरोषणत्वम्। अष्टममसमाधिस्थानम्। प्रश्न. १४४। सञ्झा- सन्ध्या । ओप० २०२। सज्ञाक्षर- सज्ञाक्षरं-अक्षराऽऽकारविशेषः, यथा घटिकासंस्थानो धकारः, कुरुण्टिकासंस्थानश्चकार इत्यादि। आव. २४१ सञ्झिभूता- विशिष्टावधिज्ञान्यादयः। भग० ४७२। सज्ञास्कन्धः-सज्ञानिमित्तोदग्राहणात्मकः प्रतययः। सूत्र. २७१ सती-सडवल्लो। निशी. ५१ अ। सट्टियर- बन्धुः। निशी. २४३ अ। सट्टक-सङ्घातवन्तः। व्यव० १६९ आ। सहगा- सालिभेओ। दशवै. ९२। सहाणंतर-स्वस्थानं-परमाणोः परमाणभाव एव, तत्र वर्तमा-नस्य यदन्तरं-चलनस्य व्यवधानं निश्चलत्वभवनलक्षणं सत्स्वस्थानान्तरम्। भग. ८८६) सहाण- स्वस्थानं-यत्रासते बादरपृथिवीकायिकाः पर्याप्ताः आसीनाश्च वर्णादिविभागेनोदेष्टुंशक्यन्ते तत्स्वस्थानम्। प्रज्ञा०७३। स्वस्थानम्। ज्ञाता० १६९। स्वस्थानं-चुल्य-वचुल्यादिकम्। पिण्ड० ८९। सुत्ते णिबद्धं तं। निशी. १४७ अ। मलवसहग्गामोघरं। निशी. १८३ । सहाणवाणंतराणं- शीर्षप्रहेलिकापर्यवसानानि तेषां स्वस्था-नात्-पूर्वपूर्वस्थानादुत्तरोत्तरस्य संख्यास्थानस्योत्पत्ति-स्थानात् संख्याविशेषलक्षणात् गणनीयादित्यर्थः, स्थाना-न्तराणि-स्थानान्तराण्यपि अनन्तस्थानान्यव्यवहितस-ङ्ख्याविषया गुणाकारनिष्पन्ना येषु तानि स्वस्थानस्थाना-न्तराणि क्रमव्यवस्थितसङ्ख्यानविशेषा इत्यर्थः, अथवा स्वस्थानानि च-पूर्वस्थानानि स्थानान्तराणि चअन्तर-स्थानानि स्वस्थानस्थानान्तराणि, अथवा स्वस्थानात् प्रथमस्थानात् पूर्वाङ्गलक्षणात् स्थानान्तराणि-विवक्षित-स्थानानि स्वस्थानस्थानान्तराणि। सम०९११ सहाणवट्ठो-तिण्णिवारा मासलहुं चउत्थवाराए तमेव मासगुरु एवं चउलहुओ चउगुरुं छल्लहुओ छग्गुरुं। निशी० २३४ आ। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [41] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] साणसन्निगास स्वं आत्मीयं स्थानं पर्यवाणामाश्रयः स्वस्थानं पुलाकादेः पुलाकादिरेव तस्य सन्निकर्ष:संयोजन स्वस्थानसन्निकर्षः। भगः ९००| स- संजमे सेट्ठा जस्स सा सही निशी. २०० अ सहिआ षष्टिकाः-शालिभेदः । दशवै० १९३ सट्ठिग- षष्टिकाः षष्ठ्यहोरात्रैः परिपच्यमानास्तन्दुलाः । जम्बू० २४३१ सतत- कापिलीय शास्त्रम् । भग० ११२| षष्ठितन्त्रंसाङ्ख्य-मतम् । ज्ञाता० १०५ | सडण- शटनं कुष्टादिनाङ्गुल्यादिः। भग० ४६९। सडणपडणविद्धंसणधमम्मक शटनपटनविध्वंसनधर्मकः । उत्त ३२९| सडसडिंत शटितशटितम् आव० ६८० | सडिण वनस्पतिविशेषः । भग. ८०२ सडिय शाटितः वाधिविशेषाच्छीर्णतां गतः। जाता० ११५ सडियपडियं- शटितपटितम्। आव० ३४५॥ सड्ढ- श्राद्धः । औप० ९० श्राद्धः । भग० ५१९ । श्राद्धःतापसविशेषः । निर० २५| श्राद्धः श्रद्धा श्रद्धानं यस्मिन् अस्ति स श्रद्धेयवचनः । स्था० १३९| आगम- सागर - कोषः (भाग:-५) सड्ढर- आरजालम् । बृह० ११७ आ । सड्ढा- श्रद्धा-धम्र्मेच्छा। आचा० २२३३ श्रद्धा तत्त्वश्रद्धानं सदनुष्ठानचिकीर्षा भग० ५५० श्रद्धा इच्छा। राज० ५८१ श्रद्धा इच्छा। भग० १३ श्रद्धा-इच्छा निर० ३ सूर्य० ५| सड्ढावं- श्रद्धानम्। आव० ८१५| - श्रद्धा श्रद्धानम् । भग० ९० श्रद्धा-अस्याऽस्तीति श्रद्धी-गिट्टी, अण्णतित्थि उ वा निशी० १८३ आ श्रद्धावन्तिः । अध० ९६| सढिकिडी अविरतसम्यग्दृष्टिका यथाभद्रिका व्यव० २५०| सड्ढियर अतिश्राद्ध श्रीगुप्तस्थविरशिष्यों रोहगुप्ताभिधः आव• ३१८० सड्ढी- शैक्षः । उत्त० १६८ | श्रद्धा मोक्षमार्गोद्यमेच्छाविद्यते यस्यासौ श्रद्धावान्। आचा १७३ | श्रद्धा-रुचिरस्यास्तीति श्रद्धावान्। उत्त० २५१| श्रावकः । निशी० १४७ अ । सढ- सढः-तदवयवरूपः केशरिस्कन्धसटावद् । भग० ६७२। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [42] [Type text] सशस्य मायिनः कर्मत्वात् । अधर्मद्वारस्य द्वितीयं नाम । प्रश्न० २६ | शढं यत् साठयेन विश्राम्भार्थ वन्दते । ग्लानि व्यपदेशं वा कृत्वा न सम्यग् वन्दते। कृतिकर्मणि विंशतितमो दोषः । आव ० १४४॥ शढ: संयमयोगेष्वनादृतः। दशवै० २४७॥ शठः । दशकै० ८९ । शढः- तत्तन्नेपथ्यादिकरणतोऽन्यथाभूतमात्मानमन्यथा दर्शयति । उत्तः २४५। शढः-वक्राचारः। उत्त० २७४ | शाढ्ययोगाच्छढःविश्वस्तजनवञ्चकः। उत्तः २८०१ शठः मायावी आव० ५३७ शद- अन्तः सद्भावशून्यं वन्दनम्। बृह. १२ आ सदओ स्तम्बः बृह० २६८ आ । सणंकुमार- सनत्कुमार-कल्पोपगवैमानिकभेदविशेषः। प्रज्ञा० ६९। सनत्कुमारः चातुन्तचक्रवर्ती राजा, प्रथमा अन्तकि-रियावस्तु । उत्तः ५८२ सनत्कुमारःचतुर्थचक्रवर्ती समः १५२ सनत्कुमार:नारायणवासुदेवागमनदेवलोकः । आव० १६३। सणंकुमारवडिंसग- सप्तसागरोपमस्थितिकदेवविमानम् । सम० १३ | सणकुमारावडिंसए सनत्कुमारावतंसकः सनत्कुमारस्य मध्येऽवतंसकः । जीवा. १९१६ सणंदिघोस द्वादशविधतूर्यनिनादोपेतः । जम्बू० ३राण सण- सनः त्वक्प्रधानो धान्यविशेषः । स्था० ४०६ | त्वक्प्रधाननालो धान्यविशेषः । भग० २७४ | वल्कप्रधानो वनस्पतिविशेषः। ज्ञाता० १६०। गुच्छाविशेषः । प्रज्ञा० ३२ वनस्पतिविशेषः । भग० ८०२ शणं त्वक्प्रधाननालो धान्यविशेषः जम्बू. १२४॥ शणः आव० १३०१ औषधिविशेषः। प्रज्ञा० ३३ | धान्यविशेषः । उत्त० ६५३। सणपल्ली पल्लीविशेषः व्यव० ३१२अ सणफ सह नखैः नखरात्मकैर्वर्तत इति सनखम्। उत्तः ६९९| सणप्फदा सनखानि दीर्घनखपरिकलितानि पदानि येषां ते सनखपदाः श्वादयः । प्रज्ञा० ४५ | सणप्फय- सनखपदः नाखरः सिंहादिः । स्था० २७३ | सनखपदः दीर्घनखपरिकलितं पदं यस्य स आश्वादिः । जीवा० ३८८ सणबंधण सनबन्धनं सनपुष्पवृन्तम् । ज्ञाता० ६। सणवण सणवनं- वनविशेषः । आव० १८६ | भग० ३६ । "आगम- सागर-कोषः " (५) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सणसत्तरस- शणसप्तदशानि-व्रीहिर्यवो मसूरो गोधूमो । तैरुपगतः सन्नानाज्ञानोपगतः। उत्त० ४८७) मुगमाषतिलचणकाः अणवः प्रियङ्गुकोद्रवमष्टकाः | सण्णातग-सज्ञातीयः। आव० (व०) २८९। सज्ञातीयः। शालिरालकम्। किञ्चित् शालयकलत्थो आव०५७८1 शणसप्तदशानि। बृह. १३९ अ। सण्णातय- सजातीयः। आव० ३७० सणहपय-सनखपदः सिंहादिः। प्रश्न. १५ सण्णापाणय-सज्ञापानीयम्। आव०५१३। सणायग-स्वजनः। ओघ० १९० सण्णाभूमि-सज्ञाभूमिः-पुरीषोत्सर्गभूमिः। आव० ५७९) सणाहा- सस्वामिका। ज्ञाता० १५०० संज्ञाभूमिः-विहारभूमिः। दशवै०११। सणिंचरसंवच्छर-यावता कालेन शनैश्चरो सण्णाभूमी- सज्ञाभूमिः। उत्त० १९२। सज्ञाभूमिः- पुरीनक्षत्रमेकमथवा द्वादशापि राशीन् भुङ्क्ते स षोत्सर्गभूमिः। आव० ५७७। शनैश्चरसंवत्सरः। स्था० ३४४। सण्णाय-सज्ञातीयः। आव०६४७ सणिंचारि- शनैश्चारी-मन्दचारी, भारते वर्षे मनुष्यभेदः। सण्णायग-संज्ञातीयः-निजकः। आव०६१८ भग०२७६ सण्णि-संज्ञानं संज्ञा-सम्यग्ज्ञानं तदस्यास्तीति संज्ञीसणिंचारी- शनैश्चारिणः। जम्बू. ३१३। शनैश्चारिणः- सम्यग्दृष्टिः। नन्दी. १९११ सज्ञी-श्रावकः। ओघ २२ शनैः-मन्दमुत्सुकत्वाभावाच्चरन्तीत्येवंशीलाः। जम्बू. सज्ञी-श्रावकः। ओघ० ५९। ૨૮. सण्णिएल्लग-संज्ञितः। आव० ३०५१ सणिइ- शनैः। आव०७१७। सण्णिगब्भ- गर्भस्थः संज्ञी सज्ञिगर्भः। आव. १७९। सणिच्छर- शनैश्चरः-चतुर्थो महाग्रहः। सूर्य. २९४।। सण्णिगास-सन्निकाशः-प्रकाशः। जम्बू०५२। शनैश्चरः-महाग्रहः। जम्बू. ५३४। चतुर्थो महाग्रहः। सण्णिचिए- सन्निचितः-प्रचयविशेषान्निबिडीकृतः। स्था० ७८1 जम्बू०६५ सणिच्छरसंवच्छर-शनैश्चरैर्निष्पादितः संवत्सरः सण्णिनाणे-सज्ञिज्ञानं सज्ञो-समनस्कस्तस्य ज्ञानं शनैश्चरसंव-त्सरः शनैश्चरसम्भवः। सूर्य. १५३। सज्ञिज्ञानं, शनैश्चर-संवत्सरः। सूर्य. १७२। तच्चेहाधिकृतसूत्रान्यथानुपपत्तेर्जातिस्मरणमेवः। सण्ण-काइयं। निशी. ११६अ। सम०१८ सण्णा- संगारेत्यर्थः। निशी. ५५ अ। संज्ञानं-संज्ञा सण्णिवाय-सन्निपातः- आगमनम्। जम्बू० २८० सम्यग्ज्ञानम्। राज० १३३। संजाणतीति सण्णा, जं सण्णिविट्ठ-सन्निविष्ट-सन्निवेश, पाटकः। औप० २। पुव्वण्हे गोविं दद्दूण अवरण्हे पुणो पच्चभिजाणइ, जहा सण्णिहि-सन्निधिः, पर्यषितखाद्यादिः। जम्बू. ११८ सो चेव एस गोवित्ति। दशवैः ५४१ संज्ञानं-संज्ञा- सण्णी- सज्ञी। आव० २८९। सज्ञी-विशिष्टस्मरणादिव्यञ्जनावग्रहोत्त-रकालभावी मतिविशेषः। आव०१८ रूपमनोविज्ञानभाक्। जीवा०१७ वासिष्ठगोत्रे षष्ठो अभिलाषो-आत्म-परिणामः। आव. ५८० सज्ञानं भेदः। स्था० ३९०| सज्ञी-श्रावकः। ओघ. ३८५ सज्ञा। जीवा. १५ सज्ञा। आव० ३६९। संज्ञानं संज्ञा- दीर्घकालि-क्यपदेशेन संजी। आव. २११ दंसणसंपण्णो। अवगमः। आचा० १२१ संज्ञा, ज्ञानं, अवबोधः। आचा० निशी. ३२५ अ। सावओ सयणा वा अहाभद्दओ। निशी० १३ संज्ञानं सज्ञा १२६ आ। सज्ञी-श्रावकः। ओघ० ३८1 सज्ञीश्रावकः। भूतभवद्भाविभावस्वभावपर्यालोचम्। जीवा० १७ ओघ० १०२ सण्णाइओ-संज्ञायितः। दशवै०४४। सण्ह- लक्ष्ण-मृष्टः। जीवा० ३४३। लक्ष्णः। ओघ० २१६। सण्णाणनाणोवगत-सन्ति शोभनानि 'नाने' ज्ञाता० १६। लक्ष्णो नाम चूर्णितलोष्ठकल्पा त्यनेकरूपाणि ज्ञानानि मृद्पृथिवी। प्रज्ञा० २६। लक्ष्लः। आव० ६२४लक्ष्णंसङ्गत्यागपर्यायधर्माभिरूचित्त्वाद्यवबोधात्कानि । लक्ष्णपुद्ग-लस्कन्धनिष्पन्नम्। प्रज्ञा० ८७। लक्ष्णः न मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [43] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text) मसृणः स्निग्धः । जम्बू० २१८ | श्लक्ष्णानि सूक्ष्मस्कन्धनिष्पन्नत्वात् श्लक्ष्णदलनिष्पन्नम्। सम० १३८ सहकरणी लक्ष्णानि चूर्णरूपाणि द्रव्याणि क्रियन्ते यस्यां साश्लक्ष्णकरणी भग० ७६६ | सहपट्ट- सूक्ष्मपट्टः । भग० ५४२ | सहबायरपुढविक्काइया श्लक्ष्णाश्च ते आगम - सागर - कोषः ( भाग : - ५ ) बादरपृथिवीकायि-काश्र्च, श्लक्ष्णा चासौ बादरपृथिवी च सा कायः शरीरं येषां त एव श्लक्ष्णबादरपृथिवीकायिकाः । जीवा २२ सहमच्छ मत्स्यविशेषः । प्रज्ञा० ४३ | मत्स्यविशेषः । जीवा० ३६ | सहसहिया- प्राक्तनप्रमाणापेक्षयाऽगुणत्वाद् उध्द र्वरेण्वपेक्षया त्वष्टमभागत्वात् श्लक्षणलक्ष्णिका । भग० २७५५ प्राक्तनप्रमाणादष्टगुणत्वादूर्ध्वरेणपेक्षया त्वष्टमभागवर्त्तित्वात् श्लक्ष्ण-लक्ष्णिका । अनुयो० १६३ | सहा श्लक्ष्णा चूर्णितलष्टकल्पा मृहः पृथिवी तदात्मका जीवा अपि । उत्त० ६८९| श्लक्ष्णाः श्र्लक्ष्णपुद्गलस्कन्धनिष्पन्नाः । जम्बू० २० | लक्ष्णा। आवटपणा लक्ष्णपरमाणुस्कन्धनिष्पन्ना। स्था० २३२१ श्लक्ष्णा-चूर्णितलोष्टकल्पा मृहपृथिवी जीवा २२ निशी० २४६ अ । सहापुढवी श्लक्ष्णपृथिवी मृद्दी चूर्णीतलोष्टकल्पा पृथिवी । जीवा० १४० सहावरण्णग- लोमपक्षिविशेषः । जीवा० ४१ | सहिसहिआ अनन्तानां व्यावहारिकपरमारणूनां समुद-यसमितिसमागमेन या परिमाणभात्रा गम्यते सैका अतिशयेन श्लक्ष्णा श्लक्ष्णश्लक्ष्णा सैव श्र्लक्ष्णश्र्लक्ष्णिका। जम्बू० ९४ | सतंज- शतञ्जयः त्रयोदशमदिवसः । सूर्य० १४७ सतंत स्वतन्त्रं स्वसिद्धान्तोक्तः प्रकारः बृह. १५ सतए- आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां दशमतीर्थकृत्पूर्वभवनाम । सम० १५४१ सतग्धि शतघ्नी- महती यष्टिः प्रश्न. न सतत उत्सर्पीण्यां मोक्षगामिका स्थान ४५ला सतदुबार शतवारं नगरं विमलवाहनराजधानी । विपा० ', मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [44] [Type text] ९५। पाण्डुजनपदे नगरम् । स्था० ४५८ । सतधणू- उत्सर्पीण्यां भावी दशमकुलकरः । स्था० ५१८ | सतपुप्फी- वलयविशेषः । प्रज्ञा० ३३॥ सतपोरग - पर्वगविशेषः । प्रज्ञा० ३३ | वनस्पतिविशेषः । भग० ८०२१ सतर- सतरं दधि । ओघ० ४८ । वनस्पतिविशेषः । भग ८०३ | सता- सदा-प्रवाहतोऽनाद्यपर्यवसितं कालम् । स्था० ४७१ | सता- शतायुर्नाम या शतवारं शोधिताऽपि स्वस्वरूपं न जहाति । जम्बू. १००| शतायुः या शतवारं शोधिताऽपि स्वस्वरूपं न जहाति सा जीवा० २६५| सताणितो- वत्थजणवए कोसंबीणगरी, तस्स अधिवो सताणितो निशी १६ अ सति स्मृतिः पूर्वानुभूतस्मरणम्। जीवा० १२३ । सति काल प्राप्ता भिक्षावेला । ओघ० १५५| सत्कालः मिक्षासमयः बृह० २५६ अ सत्तित्य उन्भावण स्वतीर्थोद्भावना आव० ५३७| सतिरं- सेच्छा निशी २६४ आ सती धर्मकथायां नवमवर्गेऽध्ययनम् । ज्ञाता० २५३३ शोभना स्वकीया वा । व्यव० ५३ आ । विशिष्टा । निशी. १४९ अ सतीते- शक्रेन्द्रस्याग्रमहिषीणां राजधानी । स्था० २३१ | सतेरा तृतीया विदयुतकुमार महत्तरिका स्था० १९८ जम्बू० ३९१| धरणस्याग्रमहिषी। ज्ञाता० २५१| सत्त- सत्त्वं-चित्तविशेषः । भग० ४६९। सत्त्वं-परीषहेषु साधोः सङ्ग्रमादावितरस्य वा । स्था० ३४२ । सत्त्वंअवैक्लव्यकरमध्यवसानकरम्। भगः ४६९ | सत्त्वाः । ज्ञाता० ६०॥ सत्त्वं आपत्स्ववैक्लव्यकरमध्यवसानकरम्। ज्ञाता० २११ | सत्त्वं दैन्यविनिर्मुक्तो मानसोऽवष्टम्भः । अनुयो० १५८। सत्त्वं-आपत्स्ववैकल्यकरमवध्यसानकरम् । उत्त॰ ५९०। सक्तः-सामान्येनैवासक्तिमान्। उत्तः ६३२ | सक्तः आसक्तः, शक्तो वा समर्थो सम्बद्धो वा । भग० ११२ | सक्तः बद्धाग्रहः । उत्त० २६७॥ सत्त्वंधैर्यम्। बृह० १९७॥ सत्त्वं स्थैर्यम् । बृह० १८६ अ । सत्त्वम्। उत्त॰ १३५। सत्तं इक्षुरसादि। आव० ६२४| सत्त्वं दश० १५५ सत्त्वं साहसम् जम्बू० १८२ "आगम- सागर-कोषः " (५) Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] सत्त्वः सांसारिक- संसारानीतभेदः आव० ७३० | सत्त्वाः पृथिव्यप्तेजोवायवः । प्रज्ञा० १०७। तत्त्वंधृतिबलम् बृह० २१७ अ सत्त्वं वीर्यान्तरायकर्मक्षयोपशमादिजन्य आत्मपरिणामः । आगम- सागर - कोषः ( भाग : - ५ ) आव० २३६| सत्तकित्ति जम्बूभरते आगामिन्यां दशमतीर्थकृत् । सम० १५३ | सत्तग्ग- शक्त्यग्रं-प्रहरणविशेषाग्रम् । जीवा० १०६ | सत्तधणू- निरयावल्यां पञ्चमवर्गे दशममध्ययनम् । निर० ३९| सत्तपदिग सप्तभिः पदैर्व्यवहरतीति सप्तपदिकः । आव० ९२ सत्तपदिवय साप्तपदिकव्रतम् आव० ९२ सत्तपन्न- सप्तपर्णः सप्तच्छदः। भग० ३७ । सत्तपन्नवण- सप्तच्छदवनम् । स्था० २३२| सत्तभावणा- सत्त्वभावना। आव० २०२१ सत्तम- सप्तमः सप्तप्रमाणः । सप्तसङ्ख्यः । प्रश्न. १३५| सत्तमासिआ सप्तमा भिक्षुप्रतिमा समः २१ | सत्तसिया भिक्षुप्रतिमाविशेषः । ज्ञाता० ७२१ सत्तरत्त सप्तरात्र:- दिनाविनाभावित्वाद्रात्रीणां सप्ताहोरात्रः । उत्त० ५३१ । सप्तरात्रं- सप्त दिनानि यावत् । जम्बू० २४४ सत्तरातिंदिया- प्रतिमाविशेषः । ज्ञाता० ७२ सत्तवइ- सप्तवृतिम्। आव० ४०५ | सत्तवइय मारे 3 कामेणं जावइएणं कालेणं सत्तपयाडं ओसक्किज्जति एव इयं कालं, पडिक्खित्ता मारेव्वं । बृह० २९ आ । सत्तवण्ण सप्तपर्ण वृक्षविशेषः । जीवा० २२२ सप्तपर्णः सप्तच्छदः । ज्ञाता० १६०। सप्तपर्णःसप्तच्छदः । अनुयो० क्ष४३॥ सत्तवण्णवण- सप्तच्छदवनम् । स्था० २३०| सप्तपर्णवनम्। जीवा० १४५ | सत्तवदिआ सप्तपदिका गुणविषये दृष्टान्तः आव ८१९| सत्तवन्न- सप्तपर्ण वृक्षविशेषः प्रज्ञा० ३१ सप्तपर्ण:वृक्ष - विशेषः । भग० ८०३1 मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [45] [Type text] सत्तवन्नवडिंसए- सौधर्मकल्पे द्वितीयं बडिंसगविमानम् । अग. १९४ सत्तवेत्त वृक्षविशेषः । अगः ८०२१ सत्त सत्तमिया सप्त सप्तमानि दिनानि यस्यां सा सप्तसप्तमिका सम० ७०] सप्तसप्तमानि दिनानि यस्यां सा सप्त सप्तमिका । स्था० ३८७ | सप्तसप्तमिका-सप्तभिर्दिनानां सप्तकैर्भवति सा । औप० ३१। सप्तसप्तमिकाभिक्षुप्रतिमा - विशेषः । अन्तः २८ सप्तसप्तकादिनानां यस्यां सा सप्त सप्तमिका । व्यव• ३४७ अ । भिक्षुप्रतिमाविशेषः व्यव० ३४६ आ सत्तसत्तिक्कया- अनुद्देशकतयैकसरत्वेन एक्का:अध्ययनविशेषः । आचाराङ्गस्य द्वितीय श्रुतस्कन्धे द्वितीयचूडारूपाः, ते च समुदायतः सप्तेतिकृत्वा सप्तैकका। स्था० ३८७ | आचारप्रकल्पे द्वितीयश्रुतस्कन्धस्याष्टमादारभ्य यावच्चतुदशममध्ययनम् । प्रश्र्न० १४५| सत्तहत्था- लोमपक्षीविशेषः । प्रज्ञा० ४९ | सत्ता सत्त्वाः पृथिव्यादयेकेन्द्रियः । आचा- ७१। सत्त्वाः-तिर्यङ्नरामराः । आचा० २५६ । सत्त्वाःपृथिव्यादयः । स्था० १३६॥ सत्त्वाःपृथिव्यप्तेजोवायुकायिकाः । जम्बु० ५३९ | अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावा सूत्र. ४२६ जाती स्त्रीवचनम् । प्रज्ञा० २५१ | सत्तावरी - एसा अनंतजीवा छल्ली । निशी० १४१ अ । सत्तासुओ सत्त्वासुकः उत्तरपौरस्त्यो वातविशेषः । आव० ३८६ | सत्तावहबद्दल सप्ताहवर्दल सप्ताहमेघः ओघ० १५१| सन्ति शक्तिः प्रहरणविशेषः आक• ४८७ शक्ति:त्रिशूलम् प्रश्न. २१॥ शक्तिः प्रहरणविशेषः। दशवै० २४४| शक्तिः शस्त्रविशेषः । आव० ६५१ । शक्तिःत्रिशूलरूपः । प्रश्न० ४८१ शक्तिः त्रिशूलम् । जम्बू• २६६ ॥ शक्तिः-प्रहरण-विशेषः । जीवा० १०८ | शक्तिः शस्त्रविशेषः। प्रज्ञा० ९७| शक्तिः- त्रिशूलम् । औप० ७१ । सत्तिक्कसत्तया सप्तसप्तकं आचाराङ्गस्य सप्तदशमतो त्रयोविंशतितममध्ययनम् । सम० ४४ सत्तिम्- शक्तिमत् शरीरमन्त्रतत्रपरिवारादिसामार्थ्ययुक्तम् स्था० ३५३1 *आगम- सागर-कोषः " [५] Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] सत्तिवण्ण- अजितनाथस्य चैत्यवृक्षम् । सम० १५२ सत्तिवण्णवण सप्तपर्णवनं वनखण्डनाम जम्बू. ३२०१ सत्तिवन्न भवणवासीदेवानां द्वितीयं चैत्यवृक्षम् । स्था० आगम- सागर - कोषः ( भाग : - ५ ) ४८७ । सत्ती - शक्तिः प्रहरणविशेषः । भग० ९३ | शक्तिःशक्तिहेतुत्त्वं अहिंसायाश्चतुर्थ नाम प्रश्न० ९९ ॥ शक्तिः प्रवृत्तिः । नन्दी० १९० | शक्तिः शक्तिरूपम् । जीवा० ११७ | सत्तुंज- शत्रुञ्जयः, मूलगुणप्रत्याख्याने साकेतनगराधिपतिः । आव ७१५ सत्तु शत्रुः :-प्रत्यनीकः । राज० ११। शत्रुः । स्था० ४६३ । सत्तुअ- शक्तुकः, आचाम्यस्य गोण्णं तृतीयं नाम । आव० ८५४| सत्तुए- सक्तवः-भ्रष्टवयक्षोदरूपाः । बृह० आ० २६७ आ । सत्तुग- सक्तुः यवक्षोदरूपः पिण्ड० १६८१ ते य जवविगारो दश. ८० सत्तुसे - अन्तकृद्दशान्तं तृतीयवर्गस्य षष्ठममध्ययनम् । अन्तःश सत्तुस्सेह- सप्तहस्तोच्छ्रितः । ज्ञाता० ६२| सत्तू शत्रुः अगोत्रजः । औप- १२१ सत्तेक्कतय सप्तैककः, आचारप्रकल्पस्य सप्तदशादारभ्य त्रयोविंशतिरन्तानि अध्ययनानि । आव० ६६०| सत्तेरा- सत्तारा-विदिचकवास्तव्या विद्युत्कुमारीस्वामिनी। आव० १२२ सत्तोपसत्त सक्तोपसक्तः सक्तश्च पूर्वमुपसक्तश्च पश्चात् । उत्त० ६३२ सत्त्व- जीवाः । भग० ११२ | सत्त्वपरिग्रह सत्वपरिगृहीत्वं साहसोपेतता, त्रयत्रिंशत्तमवच - नातिशयः । सम० ६३ । सत्थ- शस्त्रं- उपघातकारि आचा० १०२ । सार्थ:-गणिमधरिमादिभृतपृषभादिसङ्घातः उत्त० ६०५१ शस्त्रंउपघातकारी आचा० १७४ शस्त्रं हिंसकं वस्तु स्था० ४९२१ सार्थ आव• ३४८ शास्त्रं शस्त्रं अर्थशास्त्रापि खङ्गादि अक्षेप्यायुधम्। प्रश्र्न० ११६ | शास्तयेऽनेनास्मादस्मिन्निति वा ज्ञेयमात्मेति वा शास्त्रम् आव० ८६। शास्त्रं- आप्तवचनम दशकै० १२८१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [46] [Type text] शस्त्रम् आव० २७३ शस्यन्ते-हिंस्यन्तेऽनेन प्राणिन इति शस्त्रं उत्सेचनगालन उपकरणधावनादि स्वकायादि च वर्णायापत्तयो वा पूर्वास्थाविलक्षणः । शस्त्रम्। आचा• ४६| सत्यवाहो। निशी० ३९ / शस्त्रंक्षुरिका दिकम्। भग० १२० | शिष्यतेऽनेनेति शास्त्रं श्रुतम् । आव• २६ | शस्त्रं क्षुरिकादि। ज्ञाता० ३० सत्थकुसल- शस्त्रेषु शास्त्रेषु वा कुशलाः शस्त्रकुशलाः शास्त्र -कुशला वा उत्त० ४७पा सत्थकोस- शस्त्रकोशः-क्षरनखरदनादिभाजनम्। ज्ञाता० १८१ । नि० १८ आ । शस्त्रकोषः - नखरदनादिभा - जनम् । विपा० ४९% सत्थकोसग - शस्त्रकोषकः । उत्त० २०२ | सत्यजाय शस्त्रजातं आयुधविशेषः । आचा० ३७९ ॥ सत्थपरिणा- शस्त्रपरिज्ञा-आचारङ्गस्य प्रथममध्ययनम् । उत्त० ६१६ । सत्थपरिणाभिय- शस्त्रेण परिणामितं कृतातिनवपर्याय शस्त्रपरिणामितम्। भग० २१३ | सत्यपरिण्णा आचाराड्गे प्रथममध्ययनम् । सम• ४४॥ शस्त्रपरिज्ञा आचारप्रकल्पे प्रथमश्रुतस्कन्धस्य प्रथममध्यय-नम्। प्रश्न. १४५१ शस्त्रपरिज्ञाआचारप्रकल्पस्यं प्रथमो भेदः । आव० ६६०| सत्थपरिन्ना- शस्त्रं द्रव्यभावभेदादनेकविधं तस्य जीवनशंस-नहेतोः परिज्ञा-ज्ञानपूर्वकं प्रत्याख्यानं यत्रोच्यते सा शस्त्र - परिज्ञा । स्था० ४४४ | सत्थर- स्रस्तरः- शयनम् । प्रश्न० १६३ | सत्थवज्झ- शस्त्रवध्यः । ज्ञाता० १९९| सत्यवाह सार्थवाहः । भग० ३१९ | सत्यं वाहेति सो निशी० २७० आ निशी. २३७ आ जो वाणिओ रातीहिं अब्भण्णातो सत्यं वाहेति सो निशी० २०९ आ । सार्थवाहः सार्थनायकः प्रज्ञा• ३३० ॥ ज्ञाता० ७९॥ सार्थवाहः। प्रश्र्न० ९६। गण्यंधार्यमेयं परिच्छेद्यं च द्रव्यजातं गृहीत्वा योऽन्यदेशं व्रजति, नृपबहुमतः, प्रसिद्धः, दीनानाथेषु पथि वत्सलः पथि स सार्थवाहः । अनुयो० २३१ सार्थवाहक - सार्थनायकः स्था० ४६३२ सार्थवाहः यो गणिमादिद्रव्यजातं गृहीत्वा लाभार्थमन्यदेशं व्रजति, नृपब-हुमतः प्रसिद्धः, पथि दीनानाथानां वत्सलः स जीवा० २५० सार्थवाहः यो " "आगम- सागर- कोषः " [५] Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] गणिमादिक्रयाणकं गृहीत्वा देशान्तरं गच्छन् सह सदिव्व-सह दिव्यैः सादिव्यं-गन्धर्वनगरादिदिव्यकृतम्। चारिणामध्वसहायो भवति। जम्बू. १२२॥ आव०७३११ सत्था- शास्ता-तीर्थकरः। निशी० २७ आ। सद्द- शपनं शपति वा असौ शय्यते वा तेन वस्त्विति सत्थातीत- शस्त्रातीतं शस्त्रादग्न्यादेरतीतं उत्तीर्णम्। शब्द-स्तस्यार्थपरिग्रहादभेदोपचारान्नयोऽपिशब्दः। भग. २९३ पञ्चममूलनयः। स्था० ३९० शब्दः-कलहबोलः, महान् सत्थातीय- शस्त्रातीतं शस्त्रेण-उदुखलमुशलयन्त्रकादिना शब्दः। आव०६४५ शब्दः तत्स्थान एव व्यापी श्लाघा। अतीतमतिक्रान्तम्। भग० २१३। दशवै. २५७। शब्दः-शब्दाख्यनयः। उत्त०७७शब्दःसत्थाहपुत्तो- सार्थवाहपुत्रः। आव० ११६| आतस्परः। प्रश्न. १९। शब्दः। औप० ५। शब्दःसत्थियमुह-स्वस्तिकमुखं-स्वस्तिकाग्रभागः। सूर्य०७१। शब्दशास्त्रः। जम्बू० २०९। शब्दः-नयविशेषः। प्रज्ञा० सत्थिल्लिओ-सार्थकः। आव० ११५ ३२७। व्याकरणम्। निशी० ३०आ। शब्दःसत्थोवाडण- शस्त्रेण-क्षुरिकादिना अवपाटनं-विदारणं अर्द्धदिग्व्यापी। स्था० ५०३। शब्दः-अर्द्धदि-ग्व्यापी। देहस्य यस्मिन् मरणे तत् शास्त्रोत्पाटनम्। भग० १२० भग० ६७३। शब्दयतेऽनेनेति शब्दः, भाषात्वेन शस्त्रेणक्षु-रिकादिना अवपाटनं-विदारणं स्वशरीरस्य परिणतःपुद्गलराशिः। आव० १४। शब्दःयस्मिस्तच्छ-स्त्रावपाटनम्। स्था० ९३। मन्मनभाषितादि। उत्त०४२७। शब्दः शब्दयतेशस्त्रेणावपाटनम्। ज्ञाता० २०२। अभिधीय-तेऽभिधेयमनेनेति शब्दो-वाचको ध्वनिः। सत्पुरुषा- किंपुरुषभेदविशेषः। प्रज्ञा० ९०| स्था० १५२। शब्दः शब्दनमभिधानं शब्दयते वा ये न सत्य- सिद्धं, प्रतिष्ठितम्। दशवै० ३३। वस्तु स शब्दः। स्था० १५३ सत्यकि- चारित्रमोहनीयकर्मोदयवान्। उत्त. १८५१ सद्दकर- शब्दकरः-रात्रौ महत्ता केवल-सम्यग्दर्शनी व्यक्तिविशेषः। आव० ८०५। प्रदवेषे शब्देनोल्लापस्वाध्यायादिका-रको गृहस्थभाषाभाषको दृष्टान्तः। आचा. १४६। सत्यकिः-प्रव्राजने दृष्टान्तः। वा। प्रश्न० १२५ सप्तदशममसमा-धिस्थानम्। सम० निशी. २८ । सत्यकिः-केवलसम्यग्दर्शनी ३७शब्दकरः-यः कलहबोलं करोति, विकालेऽपि महता व्यक्तिविशेषः। आव०८०५ शब्देनैव वदति वैरात्रिकं वा गार्हस्थभाषां भाषते। सत्यकी- दवेषतो दवैपायनेन व्यापादितः। व्यव० १२ अ। षोडशमासमाधिस्थानम्। आव०६५३। सत्यभामा- कृष्णवासुदेवभार्या। प्रश्न. ८८ सद्दकरणं- शब्दकरणं-उक्तिः । आव०६४६। सथणिए- सस्तनितः-कृतमन्दमन्दध्वनिः। ज्ञाता० २४। | सद्दणय- शब्दयते वस्त्वनेनेति शब्दः, तमेव गुणीभुतार्थं सदक्खिणं- सदानम्। ज्ञाता० २२० मुख्य-तया यो मन्यते स नयोऽप्युपचाराच्छब्दः। सदारमंतभेए-स्वदारमन्त्रभेदः अनुयो० २६५ स्वकलत्रविश्वब्धविशिष्टा-वस्थामन्त्रितान्यकथनम, सद्दणया-शब्दनयाः-शब्दप्रधाना नयाः। स्था० १५३ स्थूलमृषावादविरमणे तृतीयोऽतिचारः। आव०८२० सद्दनया- शब्दप्रधाना नयाः शब्दनयाःसदारसंतोस-स्वदारसन्तोषः स्वकलत्रसन्तोषः। आव. शब्दसमभिरूद्वैवंभूताः शब्देनार्थं गमयन्तीत्यतः ८२३। स्वदारसन्तोषः शब्दनया उच्यते। अनुयो० २२४। आत्मीयकलत्रादन्यत्रेच्छानिवृत्तिः। स्था० २९११ सद्दपडियं- शब्दपतितम्। आव० २९२। सदारसंतोसिए-स्वदारैः सन्तोषः स्वदारसन्तोषः स एव । सद्दवेही- शब्दं लक्षीकृत्य विध्यति यः स शब्दवेधी। स्वदारसन्तोषिकः। स्वदारसन्तुष्टिः उपा० ३। ज्ञाता०२३६। शब्दवेधी। आव०४००। सदारा- नागेन्द्रस्य तृतीयाग्रमहिषी। भग० ५०४। सद्दहइ- श्रद्धत्ते-सामान्येनैवमिदमिति। स्था० २४७) सदावरी- त्रीन्द्रियजीवभेदः। उत्त०६९५ सद्दहइत्ता- श्रद्धाय शब्दार्थोभयरूपं सामान्येन प्रतिपदय। सदाशिवः- | उत्त० ८१। सदाशिवः। स्था० २०२। उत्त०५७ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [47] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सद्दहण- श्रद्धानं-तथेतिप्रत्ययलक्षणः। स्था० ३४९। श्रद्धानं | सदिय- शब्दः-प्रसिद्धः स सञ्जातो यस्य तच्छब्दितः। सम्यक्त्वमोहनीयकर्माणक्षयक्षयोप(शमोप) ज्ञाता०३ शमसमुत्थात्म-परिणामरूपं सम्यक्त्वम्, श्रद्धानं- | सहूल- शार्दूलः-व्याघ्रविशेषः। प्रश्न. ७। शार्दूलः-व्याघ्रः। सम्यक्त्वं भवत्याख्यातं, तच्च श्रद्दधाति जीवा० २७२। जीवादितत्त्वमनेनेति श्रद्धानं सम्यक्त्वमोह सद्धल-सद्धलः भल्लः। प्रश्न. २१ नीयकर्माणुक्षयक्षयोप (शमीप) शमसमुत्थात्म- सद्धा- श्रद्धा-प्रवर्द्धमानसंयमस्थानकण्डकरूपा। आचा० ४३। परिणामरू-पम्। उत्त० १६३१ श्रद्धा-मनःप्रसादः। आव. २६३। श्रद्धा-रूचिः। आव० ३४१। सद्दहणकप्प-सट्ठाणसद्दहंतस्स। निशी. १४६ अ। श्राद्धं-पितृक्रियाः। जम्बू. १२३। श्रद्धा-तत्त्वे सद्दहणसुद्ध- श्रद्धनेन-तथेतिप्रत्ययलक्षणेन शुद्धं-निरवयं सुश्रद्धानमास्तिक्यं, अनुष्ठानेषु वा निजोऽभिलाषः। श्रद्धानशुद्धम्। स्था० ३४९। स्था० ४१६। श्रद्धा-वाञ्छा। उत्त० ३६१। श्रद्धा-तत्त्वेषु सद्दहणा- श्रद्धाना-श्रद्धानशुद्धिः-प्रत्याख्यानद्ध्याः प्रथमो श्रद्धानमास्तिक्यमित्यर्थः। स्था० ४१६। श्रद्धा-भक्तिः, भेदः। आव० ८४७ भावना च। आव. ३४१। श्रद्धा-निजोऽभिलाषः। आव. सद्दहति- श्रद्धत्ते-प्रत्येति-प्रीतिविषयीकरोति। स्था० १७६) ७८७। श्रद्धा-श्रवणं प्रति वाञ्छा। सूर्य० २६६। श्रद्धाप्रधासद्दहमाण- श्रद्दधानः आर्द्रचित्ततया मन्यमानः जीवा०४। नगुणस्वीकरणरूपा। दशवै० २३८। श्रद्धासद्दहित- अद्धितः-सामान्येन प्रतीतः। स्था० ३५६। विशुद्धश्चित्तपरिणामः। आव० ८३७। परिणामो। सद्दहामि- श्रद्दधे सामान्येनैवमेवमयमिति। आव०७६१। दशवै० १२७श्रद्धा-तत्करणाभिलाषरूपा। उत्त० ५७७। निग्रन्थं प्रवचनमस्तीति प्रतिपदयते। भग० १२१ श्रद्दधे श्रद्धा-तत्सङ्गमा-भिलाषः। असम्प्राप्तकामस्य तृतीयो सामान्यतः। भग०४६७। श्रद्दधे-अस्तीत्येवं प्रतिपयो। भेदः। दशवै० १९४१ श्रद्धा-अभिलाषः। ज्ञाता० १६५ ज्ञाता०४७ सद्धादी- आत्मास्तित्ववादी। निशी. १० अ। सद्दहिए- अद्धितः। भग०१०११ सद्भावप्रतिषेध- सर्वस्मात् सद्भावप्रतिषेधः। स्था० २९०/ सद्दहियं-अब्भवगयं| निशी० १४७ अ। सद्य- प्रगणीभूतः सज्जः। जीवा. १९३। सद्दहे- श्रद्धत्ते। उत्त० ५६९। सदयोविस्यन्दित-तत्कालनिष्पादितः। जीवा० ३५५। सद्दहेज्जा- श्रद्दधीत-श्रद्धाविषयां कुर्यात्। प्रज्ञा० ३९९) सधूम-सधूमं अङ्गारत्वमप्राप्तं ज्वलदिन्धनम्। पिण्ड. सद्दाइ- शब्द-शब्दद्रव्यम्। भग० २१६। १७६। सधूमं निन्दाहभोजनम्। पिण्ड० १७५। सधूमम्। सद्दाउलग- शब्देनाकुलं शब्दाकुलं शब्दाकुलं-बृहच्छब्दं, आचा० १३१| तथा महता शब्देनालोच्यति। स्था०४८४। सन- सनसूत्रम्। उत्त० १७१। सद्दाउलय- शब्दाकुलं-बृहच्छब्दं यथा सनखपद- चतुष्पदतिर्यञ्चे चतर्थो भेदः। सम० १३५ भवत्येवमालोचयति, अगीतार्थान् श्रावयन्नित्यर्थः। सनत्कुमार- विषयविपाके दृष्टान्तः। आचा० १२६। आलोचने सप्तमो दोषः। भग०६१९। सनत्कु-मारः-क्वचिद्रोगसम्भवे विनष्टाङ्गे दृष्टान्तः। सद्दाणुवाए- शब्दानुपातः शब्दोच्चारम्। देशावकाशिके सूत्र० ८२। सनत्कुमारः-वर्णात्त्वचच्छायातोऽपचीयत्वे तृती-योऽतिचारः। आव० ८३४। दृष्टान्तः। सूत्र० २९४। सनत्कुमारः-असातवेदनीये सद्दालपुत्त- सद्दालपुत्रः तत्त्ववक्तव्यताप्रतिबद्धम्। स्था० दृष्टान्तः। आचा० २०६। ५०९। महावीरस्य सप्तमश्राद्धः। उपा० १। सनाइपिंड-स्वज्ञातयः-स्वकीयस्वजनास्तैर्निजक इति सद्दावई- शब्दापातिनाम वृत्तवैताढ्यपर्वतः। जम्बू० २९५ यथेप्सितो यः स्निग्धमधरादिराहारो दीयते सः शद्धापाती- वृत्तवैताढ्यपर्वतः। जम्बू. २९९। शब्दापाती स्वज्ञाति-पिण्डः। उत्त० ४३६) -वृत्तवैताढ्यः, हैमवतवर्षस्य पर्वतः। जीवा० ३२६| सन्तः- प्राणिनः पदार्था मनयो वा। स्था० ४९० सन्तःसद्दावाती- शब्दपाती-हेमवते पर्वतः। स्था०७१। | मुनयः-पदार्था वा। प्रज्ञा० ३१८। सन्तः-मुनयः-मूलो मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [48] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] त्तरगुणाः विद्यमानाश्च। प्रज्ञा० २४७। सन्तः-मुनयो सञ्जायते सम्यक् परिच्छिदयते पूर्वोपलब्धो वर्तमानो गुणा पदार्था वा। आव०७६०| भावी च पदार्थो यया सा वा, विशिष्टा मनोवृत्तिरिति। सन्दमाणिया- पुरुषप्रमाणो जम्पानविशेषः। जीवा० २८२ प्रज्ञा० ५३३। सज्ञा-सम्यग्द-र्शनम्। भग० ४२१ सज्ञानं सन्द्रावो- द्रव्यसमूहः। निशी० २१ अ। सज्ञा-आभोग इत्यर्थः, मनो-विज्ञानमित्यन्ये, सन्ध्या- सन्ध्याकालः-नीलाद्यभ्रपरिणतिरूपा। जीवा० सज्ञायते वाऽनयेति सज्ञा-वेदनीयमोह-नीयोदयाश्रया २८३ ज्ञानदर्शनावरणक्षयोपशमाश्रया च विचित्राहासन्ध्याभराग- वैश्रसिकरागः। आव. ३८७) रादिप्राप्तये क्रियैव। भग० ३१४| सज्ञा-प्रज्ञापाया सन्ध्याविराग-सन्ध्यारूपो विरुद्धस्तिमिररूपत्वाद्रागः। अष्टमं पदम्। प्रश्न०६। सज्ञा-पुरीषम्। पिण्ड० ८३। जीवा. २६६। सज्ञा-अन्तःकरणवृत्तिः। सूत्र० १२९। सज्ञासन्न- निगम्नः। उत्त० २९१। सन्नः-सन्नकः खिन्नः। सम्यग्दर्शनम्। प्रज्ञा० ३३४ सज्ञा-सज्ञानं, आभोगः, प्रश्न. ६२। सज्ञा। आव० ४१८१ संज्ञान-संज्ञा सज्ञायतेऽन-याऽयं जीवो वेति, उभयत्रापि अनुस्मरणं इदं तदिति ज्ञानम्। दशवै० १२५ वेदनीयमोहोदयाश्रिता ज्ञानासन्नद्ध-सन्नद्धः-सन्निहतिकया कृतसन्नाहः। भग. वरणदर्शनावरणक्षयोपशमश्रिता च विचित्राऽऽहारादि १९३। सन्नद्धः-कृतसन्नाहः। ज्ञाता० २२१। सन्नद्धः- प्राप्ति क्रिया। प्रज्ञा० २२२॥ सन्नहन्या-दिना कृतसन्नाहः। प्रश्न. ४७। सन्नद्धः। सन्नाइ-स्वज्ञातिः- अत्यन्तसुहृत्। उत्त० १३० आव० ३४४। शरीरारोपणात् सन्नद्धः। राज०११८ सन्नाखंध-सज्ञास्कन्धःसन्नसुत्त- सज्ञासूत्रम्। बृह. २०१ । सज्ञाननिमित्तोङ्ग्राहणात्मकः। प्रश्न. ३१| सन्नहनी-सन्नद्धाः-कृतसन्नाहाः। प्रश्न०४७ सन्नाड- सज्ञाकुलः। आव० ३७०| सन्नहिया- प्रतिहार्यम्। व्यव० २५९ आ। सन्नाभूमिः- सज्ञाभूमि-| आव० २९१। सन्ना-सज्ञान-सज्ञा-विषयाभिष्वङ्गजनितसुखेच्छा | सन्नायग-सज्ञातकः। आव०४२२ परिग्रहसज्ञा वा। आचा० १४८१ संज्ञा- चैतन्यम्। स्था० | सन्नायपल्लो- सञज्ञातपल्लो स्वज्ञातीयस्थानम्। उत्त. २७७। सज्ञानं सज्ञा-व्यञ्जनावग्रहोत्तरकालभावी ११११ मति-विशेषः, आहारभयाद्युपादिका वा चेतना सज्ञा, | सन्नासिद्धि- सज्ञासिद्धिः-संज्ञासम्बन्धः। दशवै०७१। अभिघानं वा सज्ञेति। स्था० २१। सन्नाः-विषण्णा सन्नि-सहनी-श्रावकः। बृह. ५१ आ। निमग्नाः। आचा० ११३। सज्ञा-ईहापोहविमर्शरूपा। सन्निकास-सन्निकाश-सदृशम्। ज्ञाता०२२२१ सूत्र. ३६७सज्ञा-परिभाषिकी। दशवै. ९६। संज्ञा- सन्निकाशः- प्रकाशः। जीवा. २०७। सन्निकाशःअर्थावग्रहरूपं ज्ञानम्। भग०५९। सज्ञानं सज्ञा- समप्रभम्। जीवा. २५० पूर्वोपलब्धेऽर्थे तदुत्तरकाल-पर्यालो-चना। सूत्र० ३६८।। सन्निधापनी-मद्राविशेषः। जम्बू० ११| सज्ञानं सज्ञा-आभोग इत्यर्थः, मनोविज्ञानमित्यन्ये । सन्नाय- सन्निनादः-सन्नह्यत इत्यादिष् समो सज्ञायते वा आहाराद्यर्थी जीवोऽनयेति सज्ञा भृशार्थस्यापि दर्शनादतिगाढध्वनी। उत्त०४९० वेदनीयमोहनीयोदयाश्रयाज्ञानदर्शनावरणक्षयोपश- सन्निनाय-सज्ञिपञ्चेन्द्रियः सन् भूतः नारकत्वं गतः माश्रया च विचित्रा आहारादिप्राप्तये क्रियैवेत्यर्थः। स्था० सजिभूतः। प्रज्ञा० ३३४| सजिभ्य उत्पन्नः ५०५ सज्ञा-पुरीषोत्सर्जबुद्धिः। औप. १९७। सज्ञा- सज्ञिभूतः। प्रज्ञा० ५५७। सज्ञीभूताः-सज्ञाव्यावहारिकार्थावग्रहरूपा मतिः। भग०७६३। सज्ञानं- मिथ्यादर्शनं तद्वन्तः सजिनः सम्झिनो भूताः सज्ञा व्यञ्जनावग्रहोत्तरकालभवी मतिविशेषः। सज्ञित्वे गताः संज्ञीभूताः। भग० ११। सज्ञीभूतः नन्दी. १८७। देवादीनां यथावत्परिज्ञानम्। बह०५१ आ। पर्याप्तकीभूतः। भग० ४२। सज्ञा-सम्य-ग्दर्शनं सा सज्ञानं सज्ञाभूतभवद्भविभावस्वभावपर्यालोचनम्, | यस्यास्तीति सज्ञो स भूतः-यातः-सज्ञित्वं प्राप्त इति मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [49] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सज्ञिभूतः प्रज्ञा० ३३४] नरकादिष्वात्माऽनयेति सन्निधिः। दशवै. १९८१ सन्निय-सज्ञिनः सङ्केतितः। उत्त. ९८१ सन्निधिः-सम्यग्-एकीभावेन निधीयतेसन्निर-सन्निरं-पत्रशाकम्। दशवै. १७६) निक्षिप्यतेऽनेनाऽऽत्मा नरकादिष्विति। सन्निधिःसन्निरुद्ध-सन्निरुद्ध-अत्यन्तसंक्षिप्तः संक्षिप्तः। उत्त. प्रातरिदं भविष्यतीत्यादयभि२८३ सन्धितोऽतिरिक्ताशनादिस्थापनम्। उत्त० २६९। सन्निरोह- सन्निरोधः एकस्थानोपवेशनम्। बृह. ७ आ। | सन्निहिय-संनिहितं-सानिध्यम्। भग०६५३। सन्निवाइए- सन्निपाती-मेलकस्तेन निवृत्तः सन्निहियपाडिहर-सन्निहितप्रातिहार्यः। आव०६२ सन्निपातिकः। स्था० ३७८१ सन्निपातः सन्निडिया- सन्निहिता देवताऽधिष्ठिता। आव०७५८१ औदायिकादिभावानां व्यादि-संयोगस्तेन निवृत्तः सन्नी- प्रज्ञापनाया एकत्रिंशत्तमं पदम्। प्रज्ञा०६। सज्ञीसान्निपातिकः। भग०६४९। सन्निपातः अवधिज्ञानी, जातिस्मरः, सामान्यतो विशिष्टमनः पूर्णिमानक्षत्रात् अमावास्यायाममावास्यानक्ष-त्राच्च पाटवोपेतो वा। प्रज्ञा० २५३। सज्ञी विशिष्टावधिज्ञानी। पर्णिमायां नक्षत्रस्य नियमेन सम्बन्धः। जम्बू. ५१३॥ प्रज्ञा० ३०४। सज्ञिनी। आव० ३५८। सज्ञीसन्निपातः-अमावास्यापौर्णमासी। सूर्य. ९। विशिष्टस्मरणादिरूपमनो-विज्ञान-भाक्। प्रज्ञा० ५३३) सन्निवातिते-सन्निपातः-संयोगो दव्योस्त्रयाणां वा वातो सजी-सिद्धपुत्रः। व्यव० २०० अ। सज्ञानिदानमस्येति वातिकः। स्था० २६५। देवगुरुधर्मतत्त्वानां यत्परिज्ञानं सा विद्यते यस्य सः सन्निवाय-सन्निपातः-संयोगः। सूर्य सन्निपातः- संजी-श्रावकः। बृह० ५१ आ। श्रावकः। बृह. ७८ आ। मेलापकः। सूत्र. ३८६। सन्निपातः-मेलकः। स्था० ३७८। । सन्नीनाण-सज्ञिज्ञानं-सम्यग्दृशः संन्निपातः-अपरारस्थानेभ्यो जानानामेकत्र मीलनम्। स्मृतिरूपमतिभेदात्मकम्। उत्त०४५२| भग० ४६३। सन्निपातः-अपरापरस्थानेभ्यो सन्नीभूय- सज्ञीभूतः पर्याप्तकीभूतः। प्रज्ञा० ३३४| जनानामेकत्र मील-नम्। औप०५७ सपक्ख-समानपक्ष-समपार्श्वम्। सम०५९। स्वपक्ष:सन्निविट्ठ- सन्निवेसः पाटकः। राज०२। संयतवर्गः। आव० १२०१ स्वपक्षः-साधुसाध्वीवर्गः। बृह. सन्निवेश-नगरम्। प्रश्न. ५९| २१५आ। स्वपक्षः-पार्श्वस्थादिवर्गः। बृह. ५आ। तथाविधप्राकृतलोकनिवासः। व्यव. १६८ अ। सञ्जता। निशी० २२७ आ। स्वपक्षः-संयतः। बृह. सन्निवेशन- सन्निविष्टं पाटकः। औप० २१ ११४| सावगादि। निशी. ९८ आ। स्वपक्षः। पिण्ड०६७) सन्निवेस-सन्निवेशः-यात्रासमागतजनावासो सपक्ष-समानाः पक्षाः पूर्वापरदक्षिणोत्तररूपाः पार्खा जनसमागमो वा। आचा० २८५। सन्निवेशः- यत्र यस्मिन् दूरमुत्पतने तत् सपक्षम्। जीवा० ३९११ प्रभूतान भाण्डानां प्रवेशः। आचा० ३२९। सन्निवेश- | सपक्खि- पक्षाणां दक्षिणवामादिपाश्र्वानां सदृशता समता स्थानम्नां। आचा० २३४| सन्निवेश:- घोषादिः। अन्यो. सप-क्षमित्यव्ययीभावस्तेन समपार्श्वतया १४२। संनिवेशः-यत्र प्रभू-तानां भाण्डानां प्रवेशः स। समानीत्यर्थः। स्था० १२५ समानाः पक्षाः-पाश्र्चा दिशो स्था० २९४। सन्निवेशः-घोष-प्रभृतिः। औप०७४। यस्मिन्। तत्सपक्ष, सदृशा-पक्षैरिति सन्निवेसः-कटकादीनामावासः। ज्ञाता० १४०। भग० सपक्षमित्यव्ययीभावो वेति। स्था० २५१। समाः सर्वे ६६२। सन्निवेशः-तथाविधप्राकृत-लोकनिवासः। राज. पक्षा:- पार्वाः पूर्वापरदक्षिणोत्तरा यत्र स्थाने तत्सपक्षम्। भग० १६७। सपक्ष-समान् दिग्। भग० सन्निसन्न- सङ्गततया निषण्णः, सुखासीन इत्यर्थः।। ५७६। समानाः पक्षाः-पूर्वापरदक्षिणोत्तररूपाः पार्वा भग० ३२४१ यस्मिन् दूरमुत्पतने तत् सपक्षम्। प्रज्ञा० १०५) सन्निहिंकाडं- सन्निधीकर्तु-सञ्चयीकर्तुम्। प्रश्न. १५३। | स्वपक्षम्। अन्त०२११ सह पक्षैरिति सपक्षं सर्वेष् पक्षेषु सन्निहि- घृतगुडादिस्थापनम्। भग० २००। सन्निधीयते । पूर्वापरदक्षिणोत्तररूपे-ष्वित्यर्थः। सूर्य. २९०/ ११४१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [50] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सपगास- सपकाशं सूत्रस्पर्शिकनियुक्ति सहितम् बृह. सपिप्पलीयं- सपिप्पलीकं । १४५॥ अपरसंस्कारकद्रव्यसमन्वितम्। सूत्र० ३९९| सपच्चवाय-सप्रत्यपायं- व्याधादिप्रत्यपायबलम्। आव० | सपिराश्रवत्व- लब्धिवेशषः। स्था० ३३२ ३८४॥ सपिल्लिय-सशिशुः। उक्त० १२११ सपच्चवाया-सप्रत्यपाया सम्भाव्यमानापाया। पिण्ड. सपिसल्लय-सह पिसल्लयेन-पिशाचेन वर्तत इति १५८1 सपिसल्लयः। प्रश्न. २५ सपच्छाग-सपटलम्। औप० १७५ सपुज्ज-सत्पूज्यः-सन पूजार्हः। सती वा पूजा यस्य सः। सपच्छागा-सड वाहाया निषादयया हस्तप्रमाणया उत्त. २५३। भवति। ओघ० २१७। सपुरोहडं- प्रायोग्यविचारभूमिकम्। बृह. १८१ आ। सपज्जाय-स्वपर्यायः। भग. ३६३। सपुव्वावर- सपूर्वावरं सह पूर्वेण-पूर्वाणकर्तव्येनापरेण सपडाय-सलध्वजः। जम्बू. ३७ च अपराह्णकर्तव्येन, पूर्व यत्क्रियते स्नानादिकं तथा सपडिच्छग- तेणस्स वा जो पडिच्छति। निशी० ४५ परं च यत्क्रियते विलेपनभोजनादिकं तेन सह वर्तत सपडिच्छगपडिच्छगो- पडिच्छगस्स जो पुणो अन्नो पडि- इति। सूत्र० ३२५। सह पूर्व यस्य येन वा सपूर्व, तच्च च्छाति। निशी० ४५। तदपरं च सपू-र्वापरः- पूर्वापरसमुदायः। जीवा० २९० सपडिदिसं-सप्रतिदिक्-समानविदिक्। भग. ५७६) पूर्वापरसमुदायः। जम्बू०६०। सह पूर्वेण पदपरं तत् समानाः-प्रतिदिशो विदिशो यस्मिंस्तत्सप्रतिदिक्। सपूर्वापरसङ्ख्यानम्। जम्बू०७४। पूर्व चापरं च पूर्वापरं स्था० २५१। समानाः प्रतिदिशो-विदिशो यत्र तत् सह तद् येन सः सपूर्वापरः। जीवा० १३७ सह पूर्वेणेति सप्रतिदिक। प्रज्ञा० १०५। प्रतिदिशो- विदिशो यत्र तत् सपूर्वं, सपूर्वं च अपरं च सपूर्वापरं पूर्वापरमीलनम्। सूर्य सप्रतिदिक्। प्रज्ञा० १०५। प्रतिदिशां-विदिशा २६७। सपूर्वापरं-सङ्ख्यानम्। जीवा० २१५ सप्रतिदिक्। स्था० १२५। समाः-सर्वाः प्रतिदिशो यत्र तत् | सपेहा-स्वप्रेक्षा-स्वेच्छा चक्षुः पक्ष्मनिपातः। भग० १८४ सप्रतिदिक्। भग. १६७। सप्रतिदिक्। अन्त०२१। सपेहाए-सम्प्रेक्ष्य-पर्यालोच्य। आचा. १०७। सम्प्रेक्ष्य, समानप्रतिदिक्तया अत्य-र्थमभिमखादिक्। अन्त० सम्यगालोच्य। उत्त. २८१। सम्प्रेक्षया-सम्यग् बद्ध्या १४ समानाः प्रतिदिशो-विदिशो यत्र तत् सप्रतिदिन। स्वपेक्षया वा। उत्त० ३६४। जीवा० ३९११ सप्तधातु- रसासृग्मांसमेदोऽस्थिमज्जाशुक्रलक्षणः। सपडिवक्ख-सप्रतिपक्षम्। स्था०१८४१ सप्रतिपक्षः प्रज्ञा०२५ सापवादः। ओघ. १४७ सप्तशतार- एतदभिधान नयचक्राध्ययनम्। उत्त०६८। सपयं-पारचियं| निशी. ३९ आ। सप्प-सर्पः इति यथोऽसावेकदृष्टिर्भवत्येवं गोचारगतेन सपरक्कमो-जो भिक्खवियारं अन्नं गामं वा गंतं संयमैकदृष्टिता भवितव्यमित्यर्थसूचकत्वादिति, समत्थो। निशी. ५३ । अथवा यथा द्रागस्पृशन् सर्पो बिलं प्रविशत्येवं सपरिच्छिन्नः- परिवारोपेतः। व्यव० ८८ अ। साधुनाऽप्यनास्वादयता भोक्तव्यमिति सपरियार- सपरिचारः-परिचारणासहितः। प्रज्ञा० ५४८५ साधोरुपमानम्। दशवै०१८ सर्पः-सर्पप्रधाना विदया। सपर्या- पूजा। आव० ८४० आव० ३१८ सपांसुलिग-सपास्थिी । प्रश्न० ५७। सप्पएसं-सप्रदेश, प्रदेशो निकरः, शुद्धपुद्गलसमुहमयः। सपाउया-स्वकीयपाद्का। भग०४७९। आव०६६९। सपाहडिया- ठावणलेवणादिकरणं। निशी० २३० आ। । सप्पएसो- नियतदेशाभिग्रहः। मरण०२० सपिंडरस-सपिण्डरसं अतीवरसाधिकं खर्जरादि। पिण्ड. सप्पखेल्लावग-सर्पक्रीडकः। आव. ५३५ १६4 | सप्पगती- गुंजालिया। निशी० ७० आ। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [51] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सप्पभ- सप्रभं-स्वरूपतः प्रभावत्। प्रज्ञा० ८७ सप्रभं स्वरूपतः प्रभावान्। जीवा० १६१| सप्पभा- त्रयोदशमतीर्थकृत्शीबिका। सम० १५११ स्वरूपतः प्रभावती सप्रभा। जम्बू० २११ सप्रभा-देवानन्दकत्वादिप्रभावयुक्ताः, अथवा स्वेन आत्मना प्रभान्ति न परत इति स्वप्रभाः। स्था० २३२॥ सप्पसर-सप्रसरं-अनेकधा स्फारयन्। दशवै०४४। सप्पसुगंधा-बीजरुहावनस्पतिविशेषः। भग०८०४। सप्पसुघंधा-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा० ३४॥ सप्पह-सप्रभां सप्रभावां, अथवा स्वेन-आत्मना प्रभाति शोभते प्रकाशते वेति स्वप्रभम्। सम० १३८५ सप्पहासो- अतीवसहासो। दशवै० १२५ सप्पि-सी पीठसी, स पाणिगहीतकाष्टः सर्पतीति। प्रश्न. १६२ सप्पिआस-सर्पिराश्रवः लब्धिविशेषः। औप०२८ सप्पिवासव- सपिपासम्। आव. १८९। सप्पिसल्लग-सप्पिसल्लकः-यः सह पिसल्लकेन पिशाचकेन वर्तते सः, ग्रहगृहीत इति। प्रश्न० १६२। सप्पुरिस- किंपुरुषेन्द्रः। स्था० ८५। गान्धर्वेन्द्रविशेषः। जीवा. १७४। सत्पुरुषः दक्षिणनिकाये षष्ठो व्यन्तरेन्द्रः। भग०१५८ सफा- वनस्पतिविशेषः। भग० ८०४। सफाए- कुहणविशेषः। प्रज्ञा० ३३॥ सफुसिए- प्रवृत्तप्रवर्षणबिन्दुः। ज्ञाता० २४। सफुसिय- सोदकबिन्दुः। भग० ४६८१ सफेणगावत्त-आवत्तने फेनविनिर्गमो भवति सफेनकावतः। राज०४९। सबर- शबरः अनार्यविशेषः। भग० १७०| वनचरकः। प्रश्न. १५ शबरः-म्लेच्छविशेषः। प्रश्न०१४। म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० ५५ सबरनिवंसणियं- शबरनिवसनकं-तमालपत्रम्। उत्त. भुंजमाणे ३आहाकम्मं च भंजते ४||१|| तत्तो य रायपिंडं ५कीयं ६ पामिच्च ७अभिहडं ८ छेज्जं ९| भुंजते सबले ऊ पच्च-क्खियऽभिक्खभंजइ १०य ।।२।। छम्मासब्भंतरओ गणा-गणं संकमं करेंते ११य। मासब्भंतरतिण्णि य दगलेवा ऊ करेमाणो १३ पाणाइवायउहि कुव्वते १४ मसं वयंते १५य ||४|| गिणहते य अदिन्नं १६ आउट्टि तह अणंतरहियाए। पुढवी य ठाणासेज्जं निसीहियं वावि चेतेइ ।।9। एवं ससणिद्धाए ससरक्खाचित्तमंतसिललेलं। कोलावासपहट्ठा कोल घूणा तेसि आवासो || ६ || संडसपाणसवीओ जाव उसंताणए भवे तहियं। ठाणाइ चेयमाणो सबले आउट्टिआए १७ 3 || ७|| आउट्टि १८ मूलकंदे पुप्फो य फले य बीय-हरिए च। भुजंते सबलेए तहेव संवच्छरस्संतो ।। ८ ।। दस १९ दगलेवे कव्व तहमाइट्ठाण दस य वरिसंतो। २० आउ-ट्टिय सीउदगं वग्घारियहत्थमत्ते य ।। ९ ।। दव्वीह भायणेण व दीयंतं भत्तपाण घेतूणं। भुंजइ २१ सबलो एसो इगवीसो होइ नायव्वो ||१०||" आव०६५५। सबलः-नरके चतुर्थः परमाधार्मिकः। आव० ६५०| सबलः-चतुर्थः परमाधार्मिकः। सूत्र० १२४। सबलः-पञ्चदशसु परमाधार्मिकेषु चतुर्थः। उत्त० ६१४। सबलःसदंष्ट्रदेवकृतोपसर्गनिवारकः। आव. १९९। शब्बलःभल्लः। प्रश्न. ४८। 'सबलेति चावरे' त्ति शबल इति चापरः परमाधार्मिक इति प्रक्रमः स चान्त्रवसालृदयकालेयकादीन्युत्पाटयति वर्णत्तश्च शबलः कर्बुर इत्यर्थः। सम० २९। शबलं-कर्बुरं चारित्रं यैः क्रिया-विशेषेण भवति स शबलस्तद्योगात्सधुरपि। सम० ३९। शबलः-करकर्मकरणादिकः क्रियाविशेषः। आव०६५५ चित्तविचित्तं। निशी०५१ आ। शबलंकर्बरं, द्रव्यतः पटादिभावतः सातिचारं चारित्रम्। स्था. ५११। शबलः-चित्तलः। ओघ० २११। शबलःक्रियाविशेषः। उत्त०६१५ सबलत्त-शबलत्वं-श्वित्रलक्षणं सहजम्। आचा० १२०/ सबलीकरणं- शबलीकरणम्। ओघ० २२५। सव्वभाव- सत्तां भावः सद्भावः-जीवादिस्वरूपम्। आव. ५२७। सद्भावः। परमार्थः। दशवै. ७९। सद्भावः। दशवै. ४२ सद्भावः। आव. २१३। सतो भावः सद्भावः तथ्यः। १४ सबरी- शबरीः-धात्रिविशेषः। ज्ञाता० ३७। भग० ४६० शबरी-धात्रिविशेषः। ज्ञाता०४११ सबल- करकर्मकरणादि, शबलभेदाः २१ "तंजह 3 हत्थकम्मं कुव्वते १ मेहणं च सेवंते २ । राई च मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [52] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] आव० ७६७। सद्भावः। आव० ३५७। सद्भावः-तत्त्वं सभा-स्थानम्। आचा० ४१३। आस्थायिका। भग० ४८३। सम्यग्दर्शनम्। ओघ०४७। तद्भावः तत्त्वं, सभा। भग० २३७ भारतादिकथाविनोदेन यत्र लोकस्तिसम्यग्दर्शनम्। ओघ०४७ ष्ठति सा सभा। अनुयो० २४। सभा। आव० ३८९। सब्भावगिहंतर-सद्भावगृहान्तरं-गृहद्वयमध्यम्। बृह. आगम-नगृहम्। स्था० १५७। सभा-महाजनस्थानम्। २३ प्रश्न. १२६। भगवत्यां दशमशतके सब्भावठवणा- यत्र पुनस्त एवाक्षास्त्रिप्रभृत एकत्र सुधर्भसभाप्रतिपादकी षष्ठोद्दे-शकः। भग०४९२ स्थाप्यन्ते तदा सद्भावस्थापना। ओघ. १२९। सभा-जनोपवेशनस्थानम्। ज्ञाता०७९। कोष्टकसभा। सब्भावदायणा-सद्भावदायणा। ओघ. २२५ ओप०८२ ग्रामजनसमवायस्थानम्। व्यव० ३६२ आ। सब्भावपच्चक्खाण- सद्भावेन-सर्वथा सभा-पुस्तकवाचनभूमिबहूजनसमा-गमस्थानं वा। पुनःकरणासम्भवात्प-मार्थेन प्रत्याख्यानं अनुयो० १५९। ग्रामप्रधानानां नगरप्रधानां सद्भावप्रत्याख्यानं सर्वसंवररूपा शैले-शीति। उत्त. यथासुखमवस्थानहेतुर्मण्डपिका। राज० २३ ५८९। बहुजनोपवे-शनस्थानं शाला वा। बृह. १०७ आ। सब्भावपयत्थ- सद्भावेन-परमार्थेनानुपचारेणेत्यर्थः सभ्यस्थानम्। निशी० ६९ आ। भग०६१७ पदार्था-वस्तूनि सद्भावपदार्थः। स्था० ४४६। एकत्रोपविष्टपुरुष-समुदायः। बृह. १२४ आ। सब्भावसावओ-सद्भावश्रावकः। आव० ८१३। प्रतिभवनविमानभाविनीस-धर्मसभादिका। प्रश्न. १३५। सब्भाविय-साद्भाविकः-पारमार्थिकः निरुपचरितोऽर्थः, सभाओवासा- सभावकाशा। आव०६३। अहिंसादिः। दशवै०६३। सभाव-स्वो भावः-स्वभावः। आव० ५९२। सहजभावः। सभिंतरबाहिर-सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्परतः निशी. ५४ आ। तावन्मण्डलेषु सक्रमणं यावत् सर्वबाह्य मण्डलं सभावहीणं-स्वभावहीनं यदवस्तुनः स्वभावतोऽन्यथा सर्वबाह्याच्च मण्डलाद-र्वाक तावन्मण्डलेषु सङ्क्रमणं वचनम्। सूत्रे एकोनविंशतितमो दोषः। आव० ३७४। यावत् सर्वाभ्यन्तरमिति साभ्यन्तरबाह्यम्। सूर्य | सभाविय- स्वस्मिन् भावे भवः स्वभाविकः। सूत्र०७। | सभिक्खु- उत्तराध्ययनेषु पञ्चदशममध्ययनम्। उत्त० सभिंतरबाहिरियं-सहाभ्यन्तरेण मध्यभागेन बाहिरिकया च प्राकाराबहिर्निगरदेशेन या सा। ज्ञाता० | सभिक्खुगं- उत्तराध्ययनेषु पञ्चदशममध्ययनम्। सम० ६४१ सब्भूत- सद्भूतः-सत्ता प्रकारेण भूतः-यतः सद्भूतः। ज्ञाता० | सभिन्नश्रोतृत्वं- युगपत्सर्वशब्दश्रावितेत्यर्थः। १७५ ऋद्विविशेषः। स्था० ३३२ सब्भूयमसब्भूय- सद्भूते-परमाणौ असद्भूतं-अर्धादि १, | सभूमिभाग- शतद्वारनगरस्य वायव्यकोणे उद्यानम्। असद्भूते-सर्वगात्मनि सद्भूतं चैतन्यं २, सद्भूते-परमाणौ भग०६८९ सद्भूतं निष्प्रदेशत्वं ३, असद्भूते सर्वगात्मनि असद्भूतं सभूयं- समीपे भूमौ। आव० ३९८१ कर्तु-त्वमिति ४, सद्भूतमसद्भूतम्। भग० १०५। सभोइआ- स्वाधीनभर्तुका। बृह० ५७ आ। सभए-नास्तिकादिसमयप्रतिपादनपरमध्ययनं समयः, | समं- यत्र लुठनं न भवति। ओघ. १२२ तालवंशस्वरा सकतांगे प्रथममध्ययनम। सम० ३१। जीवतस्स वि दिसभानुगतम्। जम्बू०४०। पूर्णम्। सूर्य. १०४। रण्णो बीहिगेहिं समंततो अभियं जंजच्चिरं सभयं। तालवंशस्वरादिसमनगतं सम्मम्। स्था० २९६। समंनिशी० ७१ । पादैरक्षरैश्च समम्। स्था० ३९६। सम-पादैरक्षरैश्च सभणय- अचलपुरीयः कौटुम्बिः । मरण | समम्। स्था० ३९७। परिपूर्णः। जीवा० ३२२। सभयं- चोराकूलेत्पर्यः। निशी० ४६ आ। समंजरीपल्लवपुप्फचित्त-सह मजरीभिः प्रतीताभिः २७६। १०१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [53] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] पल्लवैश्च-किशलयैर्यानि पुष्णाणि-कुसुमानि तैश्चित्रः- | सङ्केतः। दशवैः ४२। कर्बुरः मञ्जरीप-ल्लवपुष्पाचित्रः। उत्त० ३०० समकडग-समकटकं-नगरम। उत्त० ३७९। समंतओ- समन्ततः-सर्वासु विदिक्षु। प्रज्ञा० ३५६। समकरण- माध्यस्थपरिणामः। उत्त० ११५। समन्ततः-सर्वासु विदिक्षु। प्रज्ञा० ३५६। विदिक्षु। जीवा. | समक्खित्त-समाख्यातः-निर्धारितः। आव० ३१० १८१। समन्ततः। आव० २१६ समखित्त- यावत् प्रमाण क्षेत्रमहोरात्रेण गम्यते समंता- समन्ततः-सामरस्त्येन। जीवा० ३२७। विदिक्षु। नक्षत्रैस्ताव-त्क्षेत्रप्रमाणं चन्द्रेण 'सह' योगं यद गच्छति औप० ६। सर्वात्मप्रदेशेषु सर्वेषु वा विशुद्धस्यार्थकेषु। तत्तत्क्षेत्र समक्षेत्रम्। सूर्य. १७७। नन्दी० ८५ विदिक्षु। विपा० ५०| समखेत- त्रिशन्मुहर्तभोग्यं तदानक्षत्रं। ब्रह. १४८ आ। समंतो- समन्ततः-सामस्त्येन। जम्बू. ५६। समक्षेत्रम्। आव० ६३४। समक्षेत्रां-सम-स्थूलन्यायमासम- यत्र चतुर्वेपि पादेषु समान्यक्षराणि। स्था० ३९७। श्रित्य त्रिंशन्महर्तभोग्यं क्षेत्रं-आकाशदेशलक्षणं यस्य स्थूल-न्यायमाश्रित्य त्रिंशन्मुहूर्तभोग्यं क्षेत्रम्। स्था० तत्। स्था० ३६८१ ३६८ समः-मध्यस्थः-आत्मानमिव परं पश्यतीत्यर्थः। | समगं-समकं एककालमेव। सूर्य. १७२ समकम्। ओघ. आव० ३२९। रागादिरहितः। स्था० ३२३। १४९| ज्ञानदर्शनचारित्राख्यो मोक्षमार्गः। आचा. २२१। समः- समग्ग-समग्र युक्तः-गीतार्थः। ओघ. २२२। समग्रत्वं रागद्वेषविरहितः। रागद्वेष-वियुक्तः। आव० ८३१| अही-नधनपरिवारतया। ज्ञाता०१३ समग्रंउत्त० ५६७। सम-सर्वम्। भग० ८३। समश्रेण्या समम्। द्रव्यभाण्डोपकर-णादि। सूर्य० २९२ सूर्य. २६१। जस्स चक्कागारो भंगो समो। निशी० ५४१ | समग्गा- समग्रा-सहिता। जम्बू० ३४८। समग्रासम्पूर्णा। समः रागद्वेवियुक्तः। आव०८३१। समः आपूर्यमाणा। जम्बू० २९३। रागद्वेषविरक्तः। उत्त० ५६७। समं त्रिविधे पद्ये समग्घो- समर्घः अल्पार्थः। उत्त० २०९। प्रथमम्। दशवै० ८८ सप्तसागरोपमस्थिकं समचउक्कोणसेढिय- समचतुष्कोणसंस्थितः। सूर्य०६९। देवविमानम्। सम० १३। समं समचउरंस- समचतुरस्र-समं नाभेरुपरिअधश्च तालवृंशस्वरादिसमन्गतम्। अन्यो० १३२ सकलपुरुष-लक्षणोपेतावयवतया तुल्यं तच्च-तच्चतुरस्रं रागदवेषान्तरालवर्ती समः-मध्यस्थः। आव० ३६४। च-प्रधानं समचत्रस्रम्। समाःश्रमः-अध्वादिखेदः। स्था०१३। सम-अनुकूलम्। सूत्र. शरीरलक्षणोक्तप्रमाणाविसंवादिन्यश्च-स्रोऽस्रयः यस्य ६५ सम-तालवंशस्वरादिसमनगतम्। जीवा. १९४१ तत् समचतुरस्रम्। भग० ११। समाः समाः-वर्षाणि। जम्बू० ८९। समः-सर्वः। भग० १६७ शरीरलक्षणशास्त्रोक्तप्रमाणाविसंवादिन्यश्चतस्रोऽस्रयः समइच्छिमाणे- समतिक्रामन्। भग० ४८३। - अन्युनाधिकाश्चतस्रोऽप्यसयो यस्येति पूर्ववत्। समइय- सम्यग्-दयापूर्वकं जीवेषु गमने समयः सोऽस्या- जम्बू. १५) सम-तुल्यं अधः स्तीति समयिकम्। आव० ३६४। कायोपरिकाययोर्लक्षणोपपेततया तच्च तच्चतुरस्रमिव समए- समयः-अवसरः। सूर्य २९४। समयः-चरकचीरि- चतरसं च-प्रधानलक्षणोपपेततयैव समचतु-रस्रम्। कभिक्षुपण्ड्रङ्गणां सिद्धान्तः। तृतीयः कुडङ्गः। आव० औप०१६ समाः शरीरलक्षणशास्त्रोक्तप्रमाणावि८५६। समयः-परमनिरुद्धकालः। स्था० २४। समयः- संवादिन्यश्चतस्रोऽसयो यस्य तत् समचतुरस्रम्। क्षणः। भग० २११। समयः-कालः कर्मलघ्तासमयः। समाः-अन्यूनाधिकाश्चतस्रोऽप्यस्रयो यत्र तत्। आव०४४१। समयः-अवसरवाची। जम्बू०३। विस्तारोत्सेधयोः समत्वात् समचतुरस्रम्। सूर्य०४। समओ-समयः-अवसरः। सूर्य. १। समयः-सम्यगयनं- समाः-शास्त्रोक्तलक्ष-णाविसंवादिन्यश्चर्दिग्वर्तिनः परिणतिविशेषः स्वभाव इति। सूत्र. १। समयः अवयवरूपाश्चतस्रोऽसयो यत्र तत् समचतुरस्रं स्थानम्। सूत्रकृता-ङ्गस्य प्रथममध्ययनम्। उत्त० ६१४। समगः- | अनुयो० १०१। तुल्यारोहपरिणाहं सम्पूर्णोद्मावयवं मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [54] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] स्वागुल्याऽष्टशतोच्छ्रयं समचतुरस्रं, चतुर आकारः समचतुरस्रसंस्थानम्। भग० ११| सत्वात्तस्य चतुरस्रम्। भग०६४९। समाः समचक्कवालसंठिय- समचक्रवालसंस्थितःशरीरलक्षणो-क्तप्रमाणाविसंवादिन्यश्चतस्रोऽस्रयो चन्द्रादिविमान-रूपाणां संस्थाने एको विकल्पः। सूर्य यस्य तत् समचतुरस्रम्। स्था० ३५७। समचतुरस्रं-तुल्यं ३६। संस्थानविशेषः। आव० ३३७ समाः-शरीरलक्षणः- समचित्त-समचित्तः रागदवेषरहितचितः। दशवै.७९ शास्त्रोक्तप्रमाणाविसंवादिन्यश्च-तस्रोऽस्र यो यस्य तत् | समच्छेय-समच्छेदः। आव०६४५ समचतुरस्रं, अस्रयस्त्विह चतुर्दिग्वि-भागोपलक्षिताः समजाल-समज्वालः- पिठरोपरिगामि शरीरावयवाद्रष्टव्याः, अन्ये त्वाहः समा ज्वालाकलापोऽग्निः, वह्नः षष्ठो भेदः। पिण्ड० १५२ अन्यूनाधिकाश्चतस्रोऽप्यस्रयो यत्र तत् समचतुरस्रम्। समजोउञ्झय-समा ज्योतिषा अग्निना भूतः राज०५६। विस्तारोत्सेधयोः समत्वात् समचतुरस्रम्। समज्योतिर्भूतः। भग० १६६| राज० ५७। उच्छ्रयपरिधिभ्यां तुल्यम्। बृह० २४४ आ। समज्जिणेसु- समर्जिवन्तः गृहीतवन्तः। भग० ९३९। समाः समट्ठ- समर्थः-उपपन्नः। प्रज्ञा० ५९९। समर्थः-उपपन्नः। सामुद्रिकशास्त्रोक्तप्रमाणाविसंवादिन्यश्चतस्रोऽस्रयः। । सूर्य. २६७। ज्ञाता०६२ चतुर्दि-ग्विभागोपलक्षताः शरीरावयवा यत्र तत् समण- यथा मन न प्रियं दुःखं प्रतिकूलत्वात्, ज्ञात्वैवमेव समचतुरस्रम्। जीवा० ४२। सर्वजीवानां दुःखप्रतिकूलत्वम्, न हन्ति स्वयं न समचउरससंठिया- समचतुरस्रसंस्थिता चन्द्रसूर्यस्थितौ घातयत्य-न्यैः। च शब्दाद् घ्नन्तं नानुमन्यतेऽन्यम्, एका प्रतिपत्तिः । सूर्य०६९। इत्यनेन प्रकारेण समम्, अणति-तुल्यं गच्छति समचतुरंसत्तं- समचतुरस्रत्वं उर्ध्वकायाधःकाययोः यस्तेनासौ श्रमणः। दशवै० ८३। श्रमणः-सर्वजीवेस् समग्रस्व-स्वलक्षणतया तुल्यत्वम्। प्रश्न. ८२ समत्वेन सममणतीति समणः। अनुयो० २५६। श्रमणःसमचतुरंससंठाणं-समचत्रस्रसंस्थानं, साधुः। राज०१२८ श्रमणः-लिगमात्रधारी। औप०७५ चन्द्रादिविमानरूपाणं संस्थाने विकल्पः। सूर्य० ३६। श्रमणः-तपोयुक्तः। स्था० ५२१। श्रमणंयदुदयादसुमतां समचतुर-स्रसंस्थानमुपजायते तत् शाक्याजीवकपरिव्राट्तापसनिर्ग्रन्थानां अन्यतमम्। समचतुरस्रसंस्थानम्। प्रज्ञा० ४७२। आचा० ३१४। समं मनोऽस्येति श्रमणः-निर्ग्रन्थः। उत्त. मानोन्मानप्रमाणानि अन्यनान्यनतिरिक्तानि आइगो- ५२८ श्राम्यतीति श्रमणः-तपस्वी। आचा०४०३। पाङ्गानि च यस्मिन् शरीरसंस्थाने तत् श्राम्यति-तपस्यतीति श्रमणः, इदं चान्तिमजिनस्य समचतुरस्रसंस्थानम्। सम० १५०। सम-नाभेरुपरि सह सम्पन्नं नामान्तरमेव। सम०२ श्रमणःअधश्च सकलपुरुषलक्षणोपे-तावयवतया तुल्यं तच्च श्रामण्यमनचरता धर्ममायावस्थामास्थितः। उत्त. तच्चतुरस्रं च प्रधानं समचतुरस्रम्, अथवा समाः- ५७१। श्रमणः-शाक्यादिः। स्था० ३१२। श्राम्यति-तपशरीरलक्षणोक्तप्रमाणाविसंवादिन्यश्चतस्रोऽ-स्रयो स्यतीति श्रमणः, सह मनसा शोभनेनयस्य तत् समचतुरस्रम्। अस्रयस्त्विह चतुर्दिग्विभा - निदानपरिणामलक्ष-णपापरहितेन च तपसा वतत इति गोपलक्षिताः शरीरावयवाः इति, अन्वे समनसः, समानं-स्वज-नपरजनादिष् तुल्यं मनो यस्य अन्यू-नाधिकाः चतस्रोऽप्यस्रयो यत्र तत्समचतुरस्रम्, स समनसः। समिति समतया शत्रुमित्रादिष्वणतिअस्रयश्च पलकासनोपविष्टस्य जाननोरन्तरं प्रवर्तत इति समणः। स्था० २८२ श्रमणः-श्राम्यतिआसनस्य ललाटोपरि-भागस्य चान्तरं दक्षिणस्कधस्य मुक्त्यर्थ खिद्यत इति साधः। उत्त० २९२ श्रमण:वामजाननश्चान्तरं वामस्क-न्धस्य शाक्यादिः। ओघ. २२३। श्रमणः-पाख-ण्डिकः। आचा. दक्षिणजानुनश्चान्तरमिति, अन्ये त्वाहः-विस्तारो- | १८५। शमनं-औषधम्। व्यव० ९१ अ। श्रमणःत्सेधयोः समत्वात्समचतुरस्रं तच्च तत् संस्थानं च श्राम्यति-तपस्यति इति श्रमणः, प्रव्र-ज्यादिवसादारभ्य मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [55] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सकलसावद्ययोगविरतो गुरुपदेशादनश सूत्रार्थेष्वतृप्तिः, एषणायाशनादौ चाविशेषप्र-वृत्तेरिति, नादियथाशक्त्याऽऽप्राणोपरमात्तपश्चरति। दशवै. २३। सागरसमो गम्भीरत्वाज्ञानादिरत्नाकरत्वात् श्राम्यतीति श्रमणः सममना वा। सूत्र० २९८ श्रमणः- स्वमर्यादानतिक्रमच्च, नभस्तलसमः सर्वत्र निर्ग्रन्थादिः। सूत्र० ३९। समिति-समतया शमित्रा- निरालम्बन-त्वात्, तरुगणसमःदिष्वणति प्रवर्तत इति समणः। श्रमयति-तपस्यतीति अपवर्गफलार्थिसत्वशकुनालथत्वात् श्रमणः। सह मनसा शोभनेन वासीचन्दनकल्पत्वाच्च, भ्रमरसमःनिदानपरिणामलक्षणपापरहितेन च चेतसा वर्तत इति अनियतवृत्तित्वात्, मृगसमः-धरणिसमःसमना, तथा समानं-स्वजनपरजना-दिषु तुल्यं मनो । सर्वस्वेदसहिष्णुत्वात्, जलरूहसमः यस्य स समना। स्था० २८२। श्रमयि-तपसा खिद्यत कामभोगोद्भवत्वेऽपि पङ्कजलाभ्यामिव तदूर्ध्ववृत्तेः, इतिकृत्वा श्रमणः। समं तुल्यं मित्रादिष् मनः-अन्तः- रविसमः धर्मास्तिकायादिलोकमधिकृत्य विशेषेण मरणं यस्य स समनाः सर्वत्र वासीचन्दनकल्पः। सूर्य प्रकाशकत्वात्, पवनसमः-अप्रतिबद्धविहरित्वात्, २६३। नास्ति यस्य कश्चित् दवेष्यः प्रियो वा सर्वेष्वेव इत्थमरगादिसमश्च यतो भवति ततः श्रमणः। दशवै. जीवेषु यः सः सम् अणतिगच्छति इति समणः। आव. ८३ श्रमणः निर्ग्रस्थः- शाक्यादिः। दशवै०१७३। शमनं३६६। श्रमणः-तीर्थिकः वाल इव रागद्वेषकलितः। सूत्र० चिकित्सा। आव०६१० सभावम्। प्रश्न. १३६। श्रमणः३८३। सममनाः नास्ति तस्य कश्चिद दवेष्यः प्रियो वा साधुः। भग० १४१। श्राम्यति तपस्यति इति श्रमणः। सर्वे-ष्वेव जीवेषु तुल्यमनस्त्वात्, एतेन भवति दशवै० ८ श्राम्यति तप-स्यति इति श्रमणः। सममनाः, समं मनो यस्येति सममनाः। दशवै० ८३। प्रव्रज्यादिवसादारभ्य सकलसावद्ययो-गविरतौ शोभनं धर्मध्यानादि-प्रवृत्तं मनोऽस्येति सुमनः। आव० गुरूपदेशादनशनादि यथाशक्त्याऽऽप्राणोपरमात्तप३६५। श्रमणः-निर्ग्रन्थः। सूत्र. १४३। श्रमणः सममनस श्चरति “यः समः सर्वभूतेषु, त्रसेषु स्थावरेषु च। तथाविधवधेऽपि धर्म प्रति प्रहितचेतता। उत्त. ११४१ तपश्चरति शुद्धात्मा श्रमणोऽसौ प्रकीर्तितः।" दशवै. श्रमणः-साधुः। भग० १४०श्रमणः-वृद्धा-वासः। आव० २३॥ ७९३। 'श्रम तपसि खेदे च ति वचनात् श्राम्यति- समणग- श्रमणकः। आव०५५८ तपस्यतीति श्रमणः, अथवा सह शोभनेन मनसा वर्तत | समणधम्म- श्रमणधर्मः-साधधर्मः। क्षान्त्यादिकः। आव. इति समनाः, शोभनत्वं च मनसो व्याख्यात स्तवप्रस्तावात्, मनोमात्रसत्त्वस्यास्तत्वात्, संगतं वा-यथा | समणपडिलेहिया- श्रमणप्रतिलेखिता। दशवै० ४८१ दशवै. भवत्येवमणति-भाषते समो वा सर्वभूतेषु सन् अणति २३ अनेकार्यत्वाद्धातूनां प्रवर्तत इति श्रमणः। भग०७। । समणभए- श्रमणो-निर्ग्रन्थस्तद्वद्यस्तदनुष्ठानुकरणात् योऽनि-श्रितादिगुणायुक्तः, दान्तः शुद्धो द्रव्यभूतो स श्रम-णभूतः, साधुकल्प, एकादशमी श्राद्धप्रतिमा। निष्प्रतिकर्मतया व्यत्सृष्टकायः सः श्रमणः। सूत्र सम० १९। श्रमणभूतः-श्रावकस्यैकादशमी प्रतिमा। २६४। श्रमणः-ततः भवति पापमनाः, स्वजने च जने च आव०६४६। समः समश्च मानापमानयोरिति श्रमणः। दशवै. ८३। समणभूओ- अनुभूतवान्। संस्ता० । श्रमणः तपसि। आचा० ३०७। महावीरविभोर्नाम। आचा० समणवणीमत- श्रमणाः-पञ्चधा-निर्ग्रन्थाः ४२२। श्रमणः-यथोक्तकारी। सूत्र० ४२५। श्रमणः शाक्यास्तापसा गैरिका आजीविकाश्चेति अनेऽपि परिव्राजकविशेषः। सूत्र० ३४१ श्रमणः-उरगसमः तापसावनीपकादयः। स्था० ३४१। परकृतविलनिवासित्वादा-हारानास्वादनात्संयमै- समणविब्भंत-श्रमणो भूत्वा विविधं भ्रान्तो-भग्नःकदृष्टित्वाच्च, गिरिसमः-परिसह-पवनाकम्प्यत्वात्, श्रमणवि-भ्रान्तः। आचा० २५४१ ज्वलनसमः-तपस्तेजः प्रधानत्वात् तृणादिष्विव समणसड्ढ- श्रमणश्राद्धः-चक्षुरिन्द्रियान्तदृष्टान्ते ५७ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [56] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] वसन्तपुरे जिनदत्तसार्थवाहपुत्रः। आव० ३९९। समणुबद्ध- समनुबद्धः-अविरहितः। प्रश्न० ४१। समणसमयकेउ- श्रमणसमयकेतुः, समणुवासिज्जासि- समनुवासयेद्-भावयेञ्जयेत् साधुसिद्धान्तचिह्नभूतः। आव० ८४७। सम्यग्अपु-नरागमनेनान्वितिसमणसेज्ज- श्रमणशय्या-साध्वसतिः। आव०७९५) यथोक्तानुष्ठानात्याश्चादात्मना समनुवास-येसमणा-सह मनसा शोभनेन अधिष्ठापयेद। आचा० १११| निदानपरिणामलक्षणपापरहितेन च चेतसा वतत इति | समणोवास- श्रमणोवाश्रयः साधुवसतिः। भग० २८१। समनसः, तया समानं-नमो येषां ते समनसः। स्था० समणोवासओ- श्रमणोपासकः-श्रावकः। आव०८१८ २८२। समना समं मनोऽस्येति भवति समं मनोऽस्येति | समणोवासग-श्रमणान-साधूनपास्ते इति श्रमणोपासकःनिरुक्तविधिना समना। अन्यो० २५६। श्रमणाः श्रावकः। स्था० २३६] पञ्चधाः, निर्ग्रन्थाः शाक्यास्तपसा गैरिका आजी- समणोवासय- विरिष्टोपदेशार्थं श्रमणानपासते-सेवते इति विकाश्चेति। स्था० ३४२। शक्रदेवेन्द्रस्याग्रमहिषीनां श्रमणोपासकः। सूत्र. ३३६। राज-धानी। स्था० २३१॥ समण्णागत-समन्वागतः-समन्प्राप्तः समागमनं समणाणुकया- श्रमणेभ्योऽनुकम्पा श्रमणानुकम्पा। समन्वाहारः। स्था० १८८ दशवै०६७ समण्णेइ- समन्वेति समनुच्छति। ज्ञाता० १६५। समणी- प्रशमनः। आव० २३९। समतलपत्तिया- समतले द्वयोरपि भूवि विन्यस्तत्वात् समणुगम्ममाण-समनुगम्यमानः-जात्यन्तर्भावेन स्वत | पदेपादौ यस्याः सा। ज्ञाता० २०९। एव सूत्रतः। जीवा० १३६। समता- समशत्रुमित्रता क्वचिदरक्तद्विष्टता वा। उत्त. समणुगाहि- समनुग्राह्यभावः परेण सूत्रत एव। जीवा० २२५१ १३६ समताल-समास्ताला-हस्तताला उपचारात् तद्रवो समणुचिंत्तिज्जमाण- समनुचिन्त्यमानः-तथा तथा यस्मिस्तत्समतालम्। स्था० ३१६। समतालम्। ज्ञाता० तन्त्र-यक्तिभिः। जीवा० १३६] समणुचिन्ना- समनुचीर्णा-आसेविता। प्रश्न० १०७ समतालपडुक्खेवसमणण्ण- संभोतितो। निशी. २३७ अ। समनोज्ञः- मुरजर्कासिकादिगीतोपकारकातोद्यानां ध्वनिः एकसामाचारीप्रतिबद्धः। ओघ. १५६। अणभती। निशी प्रत्युत्क्षेपः नर्तकीपदप्रक्षेपलक्षणो वा प्रत्यत्क्षेपः, समौ ६९ आ। गीतश्वरेण तालप्रत्युत्क्षेपौ यत्र तत् समणुण्णा- पुरः कर्मकृतं गृह्णतामपकायविराधना । समतालप्रत्युत्क्षेपम्। अनुयो० १२२॥ अनुमतिः। बृह. २८७ आ। उज्जयविहारी। निशी. १५१ | समतिच्छमाणी- समतिक्रामन्ती। ज्ञाता०१३३| आ। समनोज्ञाः एकसम्भोगिका आचार्याः। व्यव० ४८ समतिक्रान्ती। ज्ञाता०२१२। आ। समनुज्ञा-तस्यैव साधोरन्ज्ञा। ओघ०४४। समतुरंगेमाण- समाश्लिष्यन् अन्योन्यमन्प्रविष्यन्। समणन्न-समनोज्ञः-साम्भोगिकः। ओघ०५४। समनोज्ञः- भग० १६७। समौ-तुल्यौ तुरङ्गस्य अश्वस्य उद्युक्तविहारी। आचा०४०३१ समोत्क्षेपणं कुर्वन् समतुरंगायमानः। भग० ६२। जीवा. समणुन्ना- समनोज्ञा-लोकसम्मताः उद्युक्तविहारिणः।। ११७ आश्लिष्यन्तः। ज्ञाता० १३४। आचा० २५०। समनोज्ञाः। आचा० ३५२। समिति-सङ्गता | समतुल्ल- समतुल्यः-सदृशः। स्था०६८। औत्स-र्गिकगुणयुक्तत्वेनोचिता आचार्यादितया समत्त-समस्तः-सर्वः। औप०६५। सम्यक्त्वं- आचारअनुज्ञासमनुज्ञा। स्था० १३९। प्रकल्पे प्रथमश्रुतस्कन्धस्य चतुर्थमध्ययनम्। प्रश्न. समणुपेहिज्जमाण- समनुप्रेक्ष्यमाणः अनुप्रेक्षया १४५। आचाराङ्गस्य चतुर्थममध्ययनम्। सम०४४| अर्थालोचन-रूपया। जीवा. २३६। समत्तदंसिणो- समत्वदर्शिनः-रागदवेषरहिताः ૨૮ી. मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [57] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सम्यक्त्वदर्शिनः वा सम्यक् तत्त्वं सम्यक्त्वं तद्दर्शिनः | आयातेसु समपादद्वितौ जुञ्झति तन्दु । निशी. ९० परमार्थदृशः। आचा० १४४१ आ। समत्तपारायण- समस्तपारायणः। आव० ३०० | समपादपुता- उपवेशनविशेषः। बृह. २०० अ। यस्यां समौ समत्तमाउह-समाप्तायुधः पादौ पुतौ च स्पृशतः सा। स्था०२९९। समौ-समतया संपूर्णतपःप्रभृतिखङ्गायायुधः। दशवै० २३८। भूलग्नौ पादौ च पुतौ च यस्यां सा। स्था० ३०२। समत्थ-समर्थः। ओघ०६६। सङ्गतप्रयोजनः। भग० १७६] | समपेज्जा- समाप्नुयात्। आव० २९२१ व्यव.२६१ आ। समप्पउ- समाप्यताम्। आव० ३२२। सरतु-समाप्यताम्। समत्थखल्लगा-उपानदसम्पूर्णे पादं स्थगयति सा आव०७२३॥ समस्तख-ल्लका। बृह. २२२ आ। समप्पभ- यत्र सप्तसागरोपमस्थितिकः देवः। सम० १३॥ समत्थसद्दो- युक्तवाचकः-वीर्ययुक्त इत्यर्थः। निशी. समप्पेंति- समाप्नुतः प्रविशतः। जम्बू० २५६। १७३ आ। समभर- अविषमः जलसमुदायो यत्र स समभरः सर्वथा समनुज्ञा- अतः केषाञ्चिद् गुणानामभावेऽप्यनुज्ञा भृतं वा समभरः। भग० ८३। समग्रहगुण-भावे तु समनुज्ञा। अथवा स्वस्य मनोज्ञा- | समभरघड- सम-परिपूर्णो भरो-भरणं यस्य सः समभरः समानसमाचारी-कतया अभिरुचिता स्वमनोज्ञाः सह वा | परिपूर्णभूतः सञ्चासौ घटश्च समभरघटः। जीवा. मनोजैर्ज्ञानाभिरिति समनोज्ञः-एकसम्मोगिकाः ૩રરા. साधवः। स्था० १४० समभिगच्छति- भवनिस्तरणकारणतया प्राप्नोति। स्था० समन्तादनुपतन्ति- प्रमत्तसंयतानामन्नपानं प्रति ३०६। अनाच्छादिते सम्पातिमाः सत्वा विनश्यन्ति। आव. समभिजाणमाण- सम्यगभियानं आसेवनापरिज्ञया ६१३ आसेवमानः। आचा० २८२। समन्नावए- समन्वागतः उद्युक्तविहारी। आचा० ३५४।। समभिजाणहि-समभिजानीहि-आसेवनापरिज्ञा समन्वागतः-समन्प्राप्तः। जीवा० १२२ समनुतिष्ठ, गुरुसाक्षिगुहितप्रतिज्ञानिर्वाहकोवः। आचा० समन्नागय-समन्वागतः गहाप्राप्तः। जम्बू. ३९| १६९। समन्नेइ- समन्वेति समन्गच्छति। आव० ३२१| समभिजाणिज्जा-समभियानीयात् आसेवनपरिज्ञया समपज्जवसिए- समपर्यवसितः-समपर्यवसानः। सूर्य आसेवेति। आचा० २७८१ ર૦૮ समभिपडित्तते- समभिपतितू-आक्रमितम्। अन्त०२१| समपद- यत्र दवावपि पादौ समौ नैरन्तर्येण स्थापयति समभियति- समागच्छन्ति। बृह. ९१ आ। तत् स्थानम्। उत्त० २०५१ समभिरुढ- समभिरूढः-वाचकं वाचक प्रति वाच्यभेदं समपय- समपादं-वावपि पादौ समं निरन्तरं स्थापयति, सम-भिरोहयतिआश्रयति यः सः समभिरूढः। स्था० लोकप्रवहे पञ्चमं स्थानम्। आव०४६५) १५३। समभिरूढः। -दृष्टिवादे स्त्रे एकोनविंशतितम समपाइया-समपादिका। स्था० २९९। समपादं-योधानां भेदः। सम० १२८ समभिरूढ-नानार्थेष नानासंज्ञा चतुर्थं स्थानम्। द्वावपि पादौ समौ दक्षिणवामतो सभमिरोहणात् समभिरूढ। स्था० ३९० समभिरूढःपसार्य ऊरुपसारयति यथा मध्ये मंडलं भवति अन्तरा नयविशेषः। प्रज्ञा० ३२७। समभिरूढः नानाऽर्थेष् चत्वारः पादास्तत्मंडलं द्वावपि पादौ समौ निरंतरं नानासंज्ञा समभिरोहणात् समभिरूढः। स्था० ३९२। यतस्स्थापयति। जानुनीउरू चातिसरले करोति तत् समभिरूढः-शब्दनयस्य द्वितीयो भेदः। उत्त०७७ समपादम्। व्यव० ४६ आ। समभिलति- वसहिमागच्छति। निशी. १७५आ। समपाद- शरीरन्यासविशेषः। स्था० ३। ओघस्थाने समभूभाग-संकक्तादिदोषरहितः सुखविहारः क्षेत्रः समो पञ्चमः। आचा० ८९। जं पुण तेसु चेव जाणूरुसु वा। आचा. २२११ मनि दीपरत्नसागरजी रचित [58] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सममागच्छइ-सम-अविषमं आगच्छति-निष्क्रामति पिण्ड०४१ सममागच्छति अविषमं निष्क्रामति। भग. ९० समयक्खित्त- समयक्षेत्रं-समयः-कालस्तद्पलक्षितं समय- राजसमयः-नीतिशास्त्रः। व्यव. १६९ आ। समयः- समक्षेत्रं मनुष्यक्षेत्रमित्यर्थः। स्था० २५१। अवसरः। ज्ञाता० १८ समयः- निर्द्धर्मप्रणीतः। पिण्ड. समयखेत्त-कालोपलक्षितं क्षेत्रं मनुष्यक्षेत्रम्। सम०६९। ७१। समयः-कालद्रव्यम्। प्रज्ञा० ४२९। समयः-अवसरः सूर्यादिक्रियाव्यङ्ग्यः समयो नाम कालद्रव्यमस्ति भिन्नमुहर्तावशेषकालः। प्रज्ञा०६०६। समयः तत्स-मयक्षेत्रं मानुष्यक्षेत्रम्। प्रज्ञा० ४२९। अहोरात्रादि-कालस्य-निर्विभाग भावः। सूर्य. २९२ समयनिबद्धं- मनसा निबद्धसङ्केतं यथा प्रतिबोधनीया समयः-सिद्धान्तः। ओघ० ३६। समयः-अवसरः। स्था. वयं परस्परेणेति, समकनिबद्धां वा सहितैर्वा उपात्ता २१३। समयः-सिद्धान्तः। ओघ० १२८। समयः जातिस्तां देवाः अनुत्तरेणेति, समकनिबद्धां वा सांख्यादीनां सिद्धान्तः। स्था० १५१। समयः-सिद्धान्तः। सहितैर्वा उपात्ता जातिस्तां देवाः अनुत्तरसुराः सन्तः। सम० ११०। समयः परमनिकृष्टकालः। आव. २५७ ज्ञाता०१४७ समय-क्षणः। भग० १५१। समयः-कालविभागः। भग. समयपरन्ना-समयप्रतिज्ञा समाचाराभ्यपगम ८१। समयः-कालः। भग० १४६। समयः सिद्धान्ताभ्यू-वगमः वाउ ११५ तरङ्गवल्यादिकः। दशवै०११४समताः-माध्यस्थम्। | समयविरुद्ध- स्वसिद्धान्तविरुद्धम्। अन्यो० २६२१ उत्त०६३। कालः। भग०६६। पदातिसमाचारः। भग० स्वसिद्धा-न्तविरुद्धम् सूत्रे चतुर्विंशतितमो दोषविशेषः। १९४१ समयप्रसिद्ध आव. ३७४। पटशाटिकापाटनदृष्टान्तप्रज्ञापनीयस्वरूपः। समयशास्त्र- जैनबौद्धादिसिद्धान्तशास्त्रम। प्रश्न०६४। परमनिकृष्टका-लविशेषः। समयः। जम्बू. ९०| समयः- समयसब्भाव-समयसद्धावं सिद्धान्तार्थमिति हृदमम्। परमनिरुद्वका-ललक्षणः। उत्त०६५७। समयः आव०६०२ जैनादिसिद्धान्तः। स्था० १७४। समयः-अवसरः। आचा० | समया- समता रागद्वेषाकरणलक्षणा। आचा० ३८६) २८४। अवसरवाचकता। जम्बू. १५२। समयः-विवक्षितः समता-सामायिकप्रथमपर्यायः। आव०४७४। विशिष्टः कालः। आचा० ४२५। समयः समयासी-समदर्शी। गच्छा। सूत्रकृताङ्गाद्यश्रुतस्कन्धे प्रथममध्ययनम्। आव० | समर-समरः-जनमरकयुक्तो यः सङ्ग्रामः-रणः। प्रश्न. ६५११ सर्वेषां कालप्रमाणानामाद्यः परमसूक्ष्मोऽभेद्यो ४३। समरः-सममरिभिर्वर्तत इति समरः द्रव्यतः निरवयव उत्पलपत्रशतव्यतिभेदादयदाहरणोपलक्षेतः जनसंहारकारी सङ्ग्रामः, भावतः भावत्त् समयः। स्था० ८५। समकं-सममेव समकं स्त्रीणामरिभूतत्वाद् ज्ञानादिजीव-स्वतत्त्वघातिनः। सरसविरसादिष्वङ्गा-दिविशेषरहितम्। उत्त०६१। उत्त०५७। समरं सम एव तदगणनया सामान्यतः कालः। प्रज्ञा०४४५। समयः-आचारः। राज. सृष्टास्पृष्टावस्थयोरसुलभा एव समन्तादरयः शत्रवो ११३। समयः-सिद्धान्तः समाचारः। प्रश्न. ११८ यस्मिन्निति संग्रामशिरोविशेषणम्। उत्त. ९१। समयः-सिद्धान्तार्थः। प्रश्न० ८६। समकं एककालम्। खरकुटी। उत्त० ५७। समरः-संग्रामः। आव० ५५७। ओघ० २०५स्वभावः-समता। समयः। आचा० १६६ समरकणग-समरकणकः संग्रामवाद्यविशेषः। जम्बू. समता-समभावः समशमित्रता। आव० १५३। समयः- ၃၃ आचारः- अनुष्ठानम्। आचा०१५३। समयः-संकेतः समरवहिय-सङ्ग्रामे हतः। भग. ३२२१ प्रस्तुतभङ्गकरचनव्यवस्था। अनुयो० ७६सभक- समर्थना- भजना सेवना च। आव० ३३९। युगपत्-एककालम्। दशवै० १२८। समल्लीण- सम्यगए लीनस्तदासन्नः। राज०९। समयओ-समयतः-आचारतः आचरेण। जीवा. २६०। समवगूढ-समवगाढः संश्लिष्टः। जम्बू० ३०० नन्दी. समयकय-समयज-अन्वर्थरहित समय एव प्रसिद्धम्। १०३ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [59] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] समवतार- शास्त्रीयोपक्रमे षष्ठः । आव० ५६ । शास्त्रीयउपक्रमः । आचा० ३] शास्त्रोपक्रमे भेदः । स्था० ४) लागवार्थ प्रतिद्वारं समवतारणाद्वारेण प्रदर्शितः एव । आव ० ५२ समवया समवया । आव० ३८८ समवसरणं पर्युषणम्। बृह• २७७ आ। समवसरन्ति- अवतरन्ति । स्था० २६८ आगम-सागर- कोषः ( भाग : - ५) समवसृता- अवष्टब्धा । उत्त० ४९३ । समवाई- समवायः संश्लेषः एकीभावेनापृथण्णमनम्। आव० २७८ समवाए- समवायः- मेलकः । आचा० ३२८ । समवायःगोष्ठ्यादिमेलकः । आव० १२९| समवाय समिति सम्यक् वेत्याधिकेन अयनमय:परिच्छेदो जीवाजीवादिविविधपदार्थसमार्थस्य यस्मिन्नसौ समवायः । समवयन्ति वा समवतरन्ति समिलन्ति नानाविधा आत्मा-दयो भावा अभिधेयतया यस्मिन्नसौ समवायः । सम० १| निशी० २६८ आ । समवासितक- आसन्नः । आव० ८३५ | समसंहतं समप्रमाणः सन् संहतः समसंहतः । जीवा० २७४ | समसण्णा - समसञ्जः तुल्यबुद्धिः । आव० ७९९| समसहिया सहिताः । पिंड ४५ समहिट्ठाए- समधिष्ठाता गृहपतिना निक्षिप्तभरः । आचा० ४०३। समधिष्ठाता प्रभुनियुक्तः । आचा० ३७०। समा- समा सामुद्रिकशास्त्रोक्तप्रमाणलक्षणाविसंवादिनी । प्रज्ञा० ४१२१ वरिसा। निशी० ८१ आ । संवत्सराः । व्यव० २५१) शरीरलक्षणशास्त्रोक्तप्रमाणाविसंवादिन्यः । अन्यूनाधिकाः । जम्बू. १५) आव. १६३ | सूर्य. १५ सामुद्रिकशास्त्रोक्तप्रमाणाविसंवादिती जीवा० ४२ समा उत्सर्पिणयवसर्पिणी। आव० ३८ समाइ- समानि ज्ञानादीनि । स्था० ३२३| समाइण्ण- समाचीर्णं-सामाचरितम् । भग० २१६ | समाइण्णा- समाकीर्णा व्याप्ता । उत्त० २५२ समाहिं समावृत्ताः प्रहवीभृताः । सूत्र. २८०। समान समाकुल:- सम्मिश्रः । जीवा० २०८८ समाकुलःआकीर्णः-परिबृंहितः। उत्त० ४९८ । - समाएस- समादेशं विभागौद्देशिकचतुर्थभेदः । पिण्ड० ७९ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] समागम- समागमः-संयोगः- एकीभवनम् । अनुयो० १६१ | समागमः परस्परं सम्बद्धतया विशिष्टोऽकपरिणामः । अनुयो० ४२१ समागमः संयोगः- एकीभवनम् जम्बू० ९० मीलकः । उत्त० ५०० | समागम्म- समागम्य यद्यस्योचितं तत्तथैव ज्ञात्वा । उत्त० ५०३ | समाचारी- यतिजनेतिकर्तव्यतारूपाम् । उत्त० ५३३ | समाज समूहः । उत्त० ३५१ | समाण- समानः- सम्भोगिकः । आचा० ३५५ | दृष्टिवादेऽष्टविंशतिसूत्रभेदे षष्ठः । सम० १२८ आनतकल्पेऽष्टादशसा गरोपमस्थितिकः देवः । सम० २५ सह। उत्त० ४०७ | सन् । स्था० ११९। समानःसाधारणः । स्था० २४३ | समाधीवान् । निशी० १४६ अ समाणइत्ता समाप्य बुद्ध्यवलोकनेन समाप्तिं नित्वा । आव० ७८१ । समाणणाति परिसमाप्तिं नयतीत्यर्थः । निशी० २१० आ । समाणत्तं समाज्ञप्तम् । आव० ४०८ | समाणधमिय प्रवचनं प्रतिपन्नः। निशी. ७३ आ समाणा सन्निहिता बृह० २५१ आ समाणितो- समानीतः समाप्तिं नीतः व्यव. ११३ आ [60] समाणियं समापितः । बृह० १३९ आ समापितम् । उत्तः १६० | परिसमाप्तिः । आव० २७१। समाणेइ- समापयति निष्ठां नयति । आव० ५२७| समानयति- करोति । ओघ० २२७ | समाणे संपूर्य । निशी० ३५१ आ । समाणेत्ता प्रतिपत्तिविशेषेण सन्मानयित्वा स्था० १११ | समाणेरि समानां । व्यव० २२४ आ । समादाण- समादानं कर्मोपादानहेतुः । जीवा० १२१ ॥ समादीया- समादयः- समप्रारभ्भाः । सूर्य० २०८। समादेशिकं श्रमणानुदिश्यादेशं निर्यथानधिकृत्य समादेशम्। बृह॰ ८३अ । समाधिः- मात्रकम्। आव० २६८ \ आचा० ४०९ | समाधिप्रतिमा प्रतिमाविविशः । सम० ९६| समाधी - समाधानं समाधिः समता सामान्यतो रागाद्यभावः । स्था० ४७३ | समाधीतं सम्म आहितं जस्स सो चितसमाहि-समाधितं "आगम- सागर- कोषः " [५] Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] आरुहितं जहा समाहितं भारं देवदत्तो आरुहेति समावडियं-समापतितं-जातम्। आव० ८२५॥ समाहितं घडं गेण्हइ सोभणेण पगारेणेति वा। दशवै. समावडिया- समापतिता। उत्त० ८७ १४७ समावत्ती-समापत्तिः -भवितव्यता। दशवै. ३५१ समान- एकम्। आचा०५९| समापत्तिः-भवितव्यता। उत्त०८९। समौ पत्ती। आव० समाना-समानाः जवाबलपरिक्षीणतयैकस्मिन्नेव क्षेत्रे २२४। भवि-तव्यता। उत्त० ३५६) तिष्ठन्तः। आचा० ३३६। समावन्न-समापन्नः-युक्तः। उत्त०२५१। समापन्नःसमाय-समवायः चतुर्थाङ्गम्। स्था० ४४८। समवायः- शङ्कागृहीतः। आचा० ३३२१ चतुर्थ अङ्गम्। सम०११४। समयः कालविभागलक्षणः। | समावन्नग- समापन्नकः-आश्रितः। स्था० ३९।। जम्बू. ९८ समो रागद्वेषरहितत्वाद आयोगमनं समास- समासः-लेखनकल्पः। बृह. २६८ आ। समाससमायः। समानां- ज्ञानदर्शणचारित्राणामायो-लाभः संकोचनम्। विशे०६४४। समासः-सक्षेपः। दशवै. १५ समायः। प्रज्ञा०६३ साङ्गत्येनैकीभावेन वा आयोगमनं शोभनमसनं समासः। आव० ३६४। संखेवो पिंडार्थः। प्रवर्तनं समायः समो-रागदवेषविरहितः। स चेह निशी०६३आ। प्रस्तावाच्चित्तपरिणामस्तस्मिन्नायो -गमनम्। समासअ-समासतः-सामान्येन। आचा०५१ उत्त० ५६७। समाजः-पथिकसमूहः। उत्त०६०५ समासिज्जंति-समस्यन्ते-प्रक्षिप्यन्ते। नन्दी० २२९। समानां-समस्यरागादिरहितस्याऽऽयो-गुणानां लाभः, समासेडं- संलिख्य। बृह० २७२ अ। ज्ञानादीनामायः समायः। स्था० ३२३। समायः- समासोद्देश- सङ्क्षपोद्देशः। आव० १०६। कलविभागः। स्था.७६| समाहतः- शृङ्गादार्वाद्यन्तरवस्तुमयेनाङ्गुलीकोशकेन समायरिंसु-विपाकान्भावः। भग०९३९। समाहतम्। अनुयो० १३२॥ समायार-समाचारः अनुष्ठानम्। आचा०६४| समाचारः- | समाहय- समाहतः-अभिभूतः। प्रश्न० ६२ शिष्ट जनसमाचरितः क्रियाकलापः। विशे०८४१। समाहरइ- समाहरति-आनयति। आचा० ३५४। समारंभ- समारम्भः-उपार्जनोपायः। आचा० १३०| समा- | समाहाण- समाधान-विषयायौत्सुक्यनिवृत्तिलक्षणं रम्भः-परितापः। भग० ३३५ स्वास्थ्यम्। अनुयो० १४०। समाधानं-स्वास्थ्यम्। आव० समारंभइ-समारम्भाते-परितापयति। भग० १८४। ५९३३ समारंभकरण-समारम्भकरणं-पृथिव्यादि उपमईनं समाहारा- द्वादशमा रात्री। जम्बू०४९१। तस्य-कृतिः-करण स एव वा दक्षिणरूचकवास्तव्या प्रथमा दिक्कुमारी महत्तरिका। करणमित्याररम्भकरणमेव, तेषामेव सन्तापकरणण। जम्बू० ३९१। द्वादशमा रात्री। सूर्य. १४७। स्था.१०८1 दक्षिणरुचकवा-स्तव्या दिक्कुमारी। आव० १२२॥ समारंभति-समारंभते-उपद्रवयतः। भग० ३२७। समाहि-समाधि-मरणसमाधिम्। आचा० २९०। समाधिसमारंभाविज्जा-समारंभेत-प्रवर्तयेत्। दशवे. १४७। इन्द्रियप्रणिधानम्। आचा० २५०| समाधिसमारण- आकर्षणम्। ओघ० १४४। शरीरसमानम्। आचा०३१३। समाधानं समाधिःसमारभत- समारभतः-प्रवर्ततः। उत्त० २४४। प्रशस्तभावलक्षणः। स्था०६५। समाधिः-समाधानं समारभिज्जा-समारभेयाः-व्यपरोपयेः। आचा० १६४। प्रशान्तता। सम०१७ समाधिः-समता सामान्यतो समालद्ध-समालभ्य-परिधायः। उत्त० २०८५ रागाद्यभावः। स्था० ४७४। समाधिः प्रशमवाहिता समालब्भ- गृहीत्वा। बृह० २५५ अ। ज्ञानादिर्वा। स्था० १८१। समाधिः चित्तस्वास्थ्यंसमालभामो- समालभामः। आव०६५ शुभचित्तैकाग्रता। उत्त० २९६। समाधिः समाधानं समालहण- समालभनम्। दशवै० १०८1 समाधिः-परमार्थत आत्मनो हितं सुखं स्वास्थ्यम्। समालहेति- समानलभते। आव० १२३। दशवै. २५६। समाधिः-चेतसः स्वास्थ्यम्। उत्त०६६। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [61] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] कायकी। निशी. १९४ | समाधानं समाधिः। आव० ५०७। समाधिः-अनाकुलत्वम्। दशवै० २७६) समाहिए- समाहितमनः-विस्रोतसिकारहितः। आचा० ३०७। सम्यगाहितं-व्यवस्थापितम्। आचा. २९२२ समाहिओ- उपधानादिषु सदभिप्रायः। व्यव० २३६। समाहिगय-समाधिगतः। उत्त० ८९। समाहिजोग-समाहियोगो समाधिः-चित्तस्वास्थ्य तत्प्रधानो योगः-शुभमनोवाक्कायव्यापारः समाधियोगः, समाधिर्वा शुभचित्तैकाग्रता योगःप्रथमेव प्रत्युपेक्षादिको व्यापारः समाधियोगः। उत्त. २९६। समाधियोगः-ध्यानविशेषः। दशवै० २४६। समाहिज्जइ- समाधीयते सम्यगाख्यायते। सूत्र० ३२७। समाहिठाण-समाधिस्थानं-उत्तराध्ययनेषु षोडशममध्यय-नम्। उत्त०६। उत्तराध्ययने षोडममध्ययनम्। सम०६४। समाहितमण- समाहितमना-समं तुल्यं रागद्वेषानाकलितं आहितं-उपनीतमात्मनि मनो येन सः। समेन वा-उपशमेन अधिकं मनो यस्य स समाधिकमनः। प्रश्न.११११ समाहिपाण- उदरमलशोधकम्। भक्तः। समाहिबहुल- समाधिबहुलः-चित्तस्वास्थ्यप्रचुरः। प्रश्न. १२८१ समाहिय- समाहतः-गृहीतः। आचा० २८२। समाहितःउपयुक्तः। आचा० ४३०। समाहितः-समाधिप्राप्तः। भग० ९२४। समाहितः-बद्धः। उत्त० ५०७। समाहितःउपश-मितः। आचा० २८४। समाहियच्च-समाहितार्चः, सम्यगाहिता-व्यवस्थापिता अर्चा-शरीरं येन स समाहिताः नियमित्तकायव्यापार इत्यर्थः। अर्चा-लेश्या सम्यगाहिता-जनिता लेश्या येन स समाहिताः अतिविशुद्धाध्यवसाय इत्यर्थः। आचा० २८४। समाहियाण-सम्यगाहिताः तपःसंयम उदयुक्ताः समाहिताः-अनन्यमनस्काः । आचा० २३३। समाहिवीरय-णाम- मणादीणं परिसंमणादि समाहाणमप्प-ज्जति। निशी० १९ अ। समाही- समाधिः-गुर्वादीनां कार्यकरणेन स्वस्थतापादनम्। आव० ११९। समधिः सूत्रकृताङ्गाद्यश्रुतस्कन्धे दशम-मध्ययनम्। आव. ६५१। भरते आगामिन्यामत्सर्पिण्यां सप्तदशमतीर्थकुन्नाम। सम.१५४। समाधिःसूत्रकृताङ्गस्य दशममध्ययनम्। उत्त० ६१४। समाधिः। प्रश्न १४६। समाधिः-समता। अहिंसायास्तृतीयं नाम। प्रश्न. ९९। समाधिः-चेतसः स्वास्थ्यम्। योगसङ्घहे त्रयोदशम योगः। आव०६६४। समाधानं समाधिः-चेतसः स्वास्थ्यं-मोक्षमार्गेऽवस्थितिः। आव०६५३। सूत्रकृताङ्गे दशममध्ययनम्। सम० ३१| समिति- मिलता। आव० ८४२। समिअ-समितः-सुप्रत्युपेक्षितादिक्रमेण सम्यक् प्रवृत्तः। औप० ३५ समिइ- सम-एकीभावेनेतिः समितःशोभनैकाग्रपरिणामचेष्टा। आव०६१५। समिति, मीलनम्। जम्बू० ९०। समितिः-नैरन्तर्येण मीलनम्। अनुयो० ४२ समिइओ- समितिकः-उत्तराध्यनेष चतुर्विंशतितमम ध्ययनम्। उत्त०९। समिइम-समितिमः भाण्डादिकः। पिण्ड०७३। समिई-समितिः-सम्यक्-सर्ववित्प्रवचनानुसारितया इतिः आत्मनः चेष्टा समितिः, तान्त्रिकी सजा ईर्यादिचेष्टासु पञ्चस्। उत्त०५१४। समितिःईर्यासमित्यादिका प्रवि-चाररूपा। सूत्र. २४४। समितिःसम्यक्प्रवृत्तित्वः। अहिं-साया अष्टात्रिंशत्तमं नाम। प्रश्न. ९९। समितिः-सम्यक्सर्व-वित्प्रवचनानसारितया इतिः समितिः-आत्मनःचेष्टा। उत्त० ५१४। मर्यादा। व्यव० २५४ समिए- सम्यगितः-सम्यग्भावं गता समितिभिः समितो वेति। आचा० ३१० समितः-सम्यगितः-संयत इत्यर्थः। आचा० ३२६। सम्यग्वा इतो मोक्षमार्गे समितः। आचा० १६१। समितो-दत्तावधानः पुरतः युगमात्रभूभागन्यस्तदृष्टिगामी। आचा० ४२८। समितःउपयुक्तः। जम्बू. १०८। समितिः-सम्यक्प्रवृत्तिः। भग० १२२ समिओ-समितयः-प्रवीचाररूपाः पञ्च। आव० ५७२। समितः आर्यसमितः। आव०४१२ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [62] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] समिक्ख- समीक्षते पर्यालोचयति अङ्गीकुरुते वा। वैश्रमणस्य पुत्रस्था-नीयो देवः। भग० २०० समृद्धःसमैक्षिष्ट समीक्षितवान्। उत्त० ३०५। समीक्ष्य- धनधान्यादिविभूतियुक्तः। सूर्य. १। समृद्धःआलोच्य। उत्त. २६४ सनधान्यादियुक्तः। ज्ञाता०१। समिक्खति-समीक्षते-परीक्षते। उत्त. १७३। समिती- समृद्धिहेतुत्वेनैषाऽपि समृद्धिः। अहिंसाया समित-समितं उपपन्नम्। सूर्य. ९२ अट्टकः। बृह. २६७ | एकोनविंशतितमं नाम। प्रश्न. ९९। समितदसण- समतामितं-गतं दर्शनं-दृष्टिरस्येति समियं- सम्यक् सपरिमाणं वा। भग० १०४१ सप्रमाणम्। समितद-र्शनः, समदृष्टिरित्यर्थः। आचा० २५६) भग. १८३। सन्ततम्। भग. २५३। समितं, पूर्ण, समितसूरिः- पादलेपनरुपयोगदृष्टान्ते आचार्याः। पिण्ड० युगपत्। उत्त० २०९। निरन्तरम्। स्था०४७१। समितं१४२ रात्रौ दिवसस्य च पूर्वापरयाः प्रहरयोः सपरिमाणम्। समिता- कणिक्का। निशी० ६३ अ। कणिक्का। ब्रह. २५१ भग० ८३। समितः भाषासमितः। आचा० ३८६। मण्डकः। अ। समिका-उत्तमत्वेन स्थिप्रकृतितया समवती, पिण्ड० ८३ स्वप्रभोर्वा कोपौत्सुक्यादिभावान् समियदंसण- शतिमदर्शनः शमितं दर्शनं शमयत्युपादेयवचनतयेति शमिका, शमिता वा प्रस्तावन्मिथ्यान्वा-त्मकं येन सः, सम्यक् इतं-गतं अनुद्धता। चमरस्य प्रथमा पर्वत्। भग. २०२। शमिका- जीवादिपदार्थेषु दशनं दृष्टिरस्येति सम्यग्दृष्टिः सन् शक्रदेवेन्द्रस्य अभ्यन्तरिका। पर्षत्। जीवा० ३९० समितदर्शनः। उत्त० ३६४ समितदर्शनः-सम्यग् इतंसमिताः-योगद्वारविवरणे सूरयः। पिण्ड० १४४। गतं-दर्शनं यस्य स समितदर्शनः सम्यग्दृष्टिरित्यर्थः। समिताः-आधायाः परावर्तितद्वारे आचार्याः। पिण्ड आचा० २४३। शमितं-उपशमं नीतं दर्शनं१००| चमरासुरेन्द्रस्य आभ्यन्तरिका पर्षत्। जीवा० दृष्टिनिमस्येति शमितदर्शनः, उपशान्ताध्यवसाय १६४। असुरकुमारस्य अभ्यन्तरा परिषत्। स्था० १२७। इत्यर्थः। आचा० २५६। समिति-समितं मर्यादाम्। व्यव० २५४ अ। समितिः- समिया- शमिनो भावः शमिता-समता। आचा० २९२ मीलनम्। भग० २७६। समितिः-बह मीलनम्। अन्यो। सम्यक् समिता वा शमोऽस्याऽस्तीति शमी तद्भावः १६१। समितिः-सङ्गता प्रवृत्तिः। सम० १११ समितिः शमिता। आचा० २०५१ सम्यक् प्रतिपन्नाः । आचा० सम्यक्प्रवृत्तिः। प्रश्न. १०४। समितिः १८७। समिता, गोधूमम्। जम्बू. १०५। समितयः, समित्यध्ययनाभि-हिता क्रिया अभ्यन्तरादिपर्षदः। जम्बू. २७८सम्यगिति प्रशंसार्थो कायिक्याधिकरणिकीप्रादवेषिकीपारितापनिकी- निपातस्तेन सम्यक् ते व्याकर्तुं वतन्ते प्राणातिपातरूपा। उत्त०६१३॥ अविपर्यासास्त इत्यर्थः, समञ्चतीति वा सम्यञ्चः, समितिमा- मण्डकाः-पूपलिका वा। बृह. २५१ आ। समिता वा सम्यक् प्रवृत्तयः श्रमिता वा अभ्याशुष्कमण्डकाः। बृह. १२९ अ। सवन्तः। भग० १४०| पिष्टम्। निशी० १५१ अ। समिती- समितिः कणिक्काः । बृह. ४९ अ। सम् कणिक्का। ज्ञाता०२२९। एकीभावेनेतिः-प्रवृत्तिः समितिः समियाए- समितया सम्यग्वा समतया वा व्यवस्थितः। शोभनैकाग्रमरिणामस्य चेष्टेत्यर्थः। स्था० ३४३। आचा० ३०९। समितीओ- उत्तराध्ययने चतुर्विंशतितममध्ययनम्। | समियायरियो- वयरसामिमाउलो। निशी. १०३ अ। सम०६४१ समिरिय-समरीचि बहिर्विनिर्गतकिरणजालम्। प्रज्ञा० समिद्ध- समृद्धिः-पुरान्तःपुरकोशकोष्ठागारबलवानरूपाः ८७ सम्पदः। सम० १२८1 समृद्धं-निष्पन्नम्। व्यय० २५५) समिरिया- समरीचिका- सकिरणा वस्तस्तोमप्रकाशकरी। समृद्धः धनधान्यादियुक्तः। औप० १। समृद्धः जम्ब० २१। सह मरीचिभिः किरणैर्ये ते तथा। स्था. धनधान्या-दिविभूतियुक्तः। भग०७। समिद्धः- । २३२ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [63] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] समिल्ल-द्रव्यपूतिनिरूपणे नगरम्। पिण्ड० ८३। समुद्गकवत् पक्षौ येषां ते समुद्गकपक्षिणः। स्था० समिह-समिधः अश्वत्थादिवृक्षाणां प्रतिशाखाखण्डम्। २७३ पिण्ड० १२९। समुग्गय- समुद्गकः-भाजनविशेषः। सम० ६४। समिहाउ- इन्धनभूताः काष्ठिकाः। अन्त०११| समुद्गकं-संपुटरूपभाण्डम्। जम्बू०५३३। समुद्गकःसमिहाओ-समिधः काष्ठिकाः। भग. ५२० सूतिका-गृहम्। जीवा० २०४। समुद्गकः पक्षिविशेषः। समिहाकट्ठ-समित्काष्ठं हवनोपयोगीनीन्धनानि जीवा० २७०| समुद्गकः शूचिकागृहम्। राज०६२। समिधस्तद्रूपं काष्ठम्। जम्बू० ३९२१ समुग्घात- समुद्घातः शरीरादबहिर्जीवप्रदेशप्रक्षेपः। स्था० समीकरणया-समकरणाय। प्रज्ञा०६०२। ૨૮૮ समीरिअ-समीरितं प्रेरितम्। दशवै. २३८५ समुग्घाय- हननं-घातः सम्-एकीभावेन उत्-प्राबल्येन समीहिए- समीहितः कल्पितः। उत्त० २७४। ततश्चैकीभावेन प्राबल्येन च घातः। समघातः। भग० समआण- समदानं भावभैक्ष्यम्। दशवै०१८६। समदान- १२९। समुद्घातः-प्रज्ञापनायाः षट्त्रिंशत्तमं पदम्। उचितभिक्षालब्धम्। दशवै० २५३।। प्रज्ञा०६। सम्-एकीभावेन उत्-प्राबल्येन घातः समुआणचारिया- समुदानचर्या अनेकत्र समुद्घातः। जीवा० १७ समुद्घातः-जीवव्यापारः। याचितभिक्षाचरणम्। दशवै. २८० ज्ञाता० ३४। मारणान्तिकस-मुद्घातः। भग० ९६३। समुइ- प्रकृतिः। बृह. २९५आ। त्रयोदशशतके समुदघातप्रतिपादनार्थो दशमोद्देशकः। समुइ-देशीवचनत्वादभ्यासः। बृह. २२० आ। स्वभावः। भग० ५९६। व्यव० २१६आ। समुग्घायपद-समुद्घातपदं, प्रज्ञापनायाः षट्त्रिंशत्तमं समुइओ- व्याप्तः। महाप्र० पदम्। भग० १२९ समुइय-समुदितं, सम्यक्प्रकारेण उदयं आप्तम्। जम्बू. | समुच्चयबंध-सङ्गतः-उच्चयापेक्षया विशिष्टतर उच्चयः १७५ समुच्चयः स एव बन्धः समुच्चयबन्धः। भग० ३९५) समुक्कसति- समुत्कर्षति समुत्कर्ष याति। आव० ३६५। | समुच्छद- समिति सामस्त्येन निरन्वयात् उदिति-उर्द्ध समुक्कसे- समुत्कर्षति गर्वमायाति। दशवै० २६८१ क्षणा-दुपरी भवनात् छेदो-नाशः समुच्छेदस्तं वेत्ति समुक्कसेज्जा- समुत्कर्षयेत्-धनदानादिनोत्कृष्टं कुर्यात्। | तत्त्वधियेति समुच्छेदः। उत्त० १५२॥ स्था० ११७ समुच्छय-समच्छ्रयं-अन्तः कार्मणशरीरं बहिरौदारिकम्। समुक्खित्त- समुत्क्षिप्तः निसर्गार्थमाकृष्टः। शरधिः। । उत्त० २५४। ज्ञाता०२३७ समुच्छा-प्रसूत्यनन्तरं सामस्त्येन प्रकर्षच्छेदः विनाशः। समुग्ग- समुद्गकंतत्पिधानयः सन्धिः। प्रश्न० ८०| सम्- आव० ३११ द्गकः- पक्षिविशेषः। जम्बू. ११०| समुद्गः एतदभि- समुच्छिन्नकिरिए- समुच्छिन्ना क्षीणा क्रियाधानभाजनविशेषः। औप० २०। समुद्गः अविद्यमानम्- कायिक्यादिका शैलेशीकरणे निरुद्धयोगत्वेन द्गोऽपि कर्पूराद्याधारविशेषः। समुद्गः। अनुयो० १४१। यस्मिंस्तत्तथा समुच्छिन्नक्रिया। औप०४४। समुग्गका- समुद्गकाः चूलिकागृहाणि। जम्बू० ४८। समच्छिन्ना-क्षीणा कायिक्यादिका क्रिया शैलेशीकरणे समुग्गपक्खि- समुद्गपक्षी समुद्गकारपक्षवान् निरुद्धयोगत्येन अस्मिंस्तत्तथा। स्था० १९११ पक्षिविशेषः। उत्त०६९९।। समुच्छिया- समुक्षिका- प्रातर्गृहाङ्गणे समग्गपक्खो- गच्छतामपि समदगकवत स्थितौ पक्षौ । जलच्छटकदायिका। ज्ञाता० ११७। उत्त० ४९२॥ समगकपक्षौ तद्वन्तः समगकपक्षिणः। प्रज्ञा०४९। समुच्छिहिति- समच्छेत्स्यति सम्यग-निरवशेषतया गच्छतामपि समदगकवस्थितौ पक्षौ तदवान् उच्छे-त्स्यति-उच्छेदं यास्यति-क्षयं प्राप्स्यतीति समगकपक्षी। जीवा०४१। समगकवत् पक्षौ येषां ते सामस्त्येनोत्-प्राबल्येन सेत्स्यति वा सिद्धिं यास्यति। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [64] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सूत्र० ३७३ स्पृष्टनिधत्तनिकाचिताव-स्थया च स्वीकरणं सम्दानं समुच्छे- समुच्छिन्द्यात् अपनयेत। सूत्र०६५ तदेव कर्म समुदानकर्म। आचा० ९४। समुच्छेदवाती- समुच्छेदं-प्रतिक्षणं निरन्वयनाशं वदति | समुदाणकिरिया- समुदानक्रिया-यत्कर्म प्रयोगगृहीतं यः स समुच्छेदवादी। स्था० ४२५) समुदा-यावस्थं सत्प्रकृतिस्थित्यनभावप्रदेशरूपतया समुज्जया- समुद्यता-उत्पादिता। व्यव० ३५२ अ। यया व्यव-स्थाप्यते सा। सूत्र० ३०४। समुदानक्रियासमुज्झुतो- समुदयुक्तो-अप्रमादी। व्यव० १३१ आ। कर्मोपादानम्। स्था० ३१७। प्रयोगक्रिययैकरूपतया समुहाई- समतिष्ठते अभ्युद्यतमनुष्ठानं करोति। आचा० गृहीतानां कर्मवर्ग-णानां समिति सम्यक् १०१| प्रकृतिबन्धादिभेदेन देशसर्वोपघाति-रूपतया च आदानं समुट्ठाण- सम्यक् सङ्गतं प्रशस्तं वोत्थानं समुत्थानम्। स्वीकरणं समुदानं निपातनात्तदेव क्रिया-कर्मेति आव० ३७८१ समदानक्रिया। स्था० १५३ समुट्ठाणसुय- समुपस्थानं-भूयस्तत्रैव वासनं तहेतुः श्रुतं समुदाणितो- भिक्षयन्-भिक्षां भ्राम्यन्। आव० ४३४। समुपस्थानश्रुतम्। नन्दी० २०७१ समुदाणिय- समुदानानि-भिक्षास्तेषां समुहःसमुट्ठाय- सम्यगुत्थाय-अभ्युपगम्य। आचा० ५४। समुदानिकम्। उत्त०४३६) समुत्था-यप्रतिपद्य। आचा० ११३। समुदान- भिक्षणः। स्था० २१३। व्यव० ३३० अ। समुट्टिए- सम्यक् सततं सङ्गतं वा समुदायाणिज्जइ- थोवंथोवं पडिवज्जइ। दशवै० ८६। संयमानुष्ठानेनोत्थितः, समुदायार- समुदाचारः-आचारः। आव० ७१०। समुदानानाविधशस्त्रकर्मसमारम्भोपरतः समुत्थितः। चारः-यत्किञ्चननुष्ठानम्। सूत्र० ३२९। आचा० १३० समुदगपक्षी-खचरतिर्यञ्चपञ्चेन्द्रिये तृतीयो भेदः। सम. समुट्ठिय- समुत्थितः-सञ्जातः। उत्त० १४३। समुद्धतंउत्क्षिप्तम्। प्रश्न. ७६। समवस्थितः-आश्रितः। जीवा. समुद्घात- सम्यक्-समन्ततः उत्-प्राबल्येन हननं-इत २०७। समवस्थितः-आश्रितः। जम्बू०५२ श्वेतश्चात्मप्रदेशानां प्रक्षेपणं सम्रातः। आचा० ८५ समुता- मंडवगोत्रे द्वितीयो भेदः। स्था० ३९० शरीराद्वहिर्जीवप्रदेशप्रक्षेपलक्षणम्। भग० ३९९। सम्समुत्तइओ- गार्वितः। पिण्ड० १३४। एकी-भावेनोत्-प्राबल्येन च घातं-निर्जरणं समदघातः। समुत्थाय- उत्पद्य, कथञ्चिद्भूत्वा वा। आव० २४२। सम०१२ समुदय- समुदयः-समुदायः, उदयवर्तित्वं वा। प्रश्न०६३। | समुद्घोषाः- जैनाचार्याः। पिण्ड० ९९। समुदयः, सम्यगुदयः। जम्बू. १८४। समुदायः वृन्दम्। | समुद्द- समुद्रः नागादिनामासमुद्रः। जीवा० ३२१। समुद्रःभग० २७६। समुदयः वृन्दम्। जम्बू० ९० अन्तकृद्दशानां प्रथमवर्गस्य द्वितीयमध्ययनम्। समुदाचार- समुदाचारः-समाचारः स प्रमोदो वाऽऽचारः। अन्त० १। समुद्रः अन्तकृद्दशानां द्वितीयवर्गस्य भग० ५६०। समुदाचारः-समाचारः। विपा० ४८१ तृतीयमध्ययनम्। अन्त० ३। समुद्रः। प्रज्ञा० ७१। स्था० समुदाण- समुदान समग्रमुपादानं। आव० ६१४। समुदानं भैक्ष्यम्। अनुत्त० ४। समुदानं-भैक्षम्। भग० १३९। समुद्दगंभीरसमा- गाम्भीर्येण-अलब्धामध्यात्मकेन गुणेन समदान-भैक्ष्यम्। प्रश्न. १०६। स्लभप्रायोग्यद्रव्यम्। समा गाम्भीर्यसमाः सम्द्रस्य गाम्भीर्यसमाः बृह. २आ। भिक्खा। निशी. ११४आ। समुद्रगाम्भीर्यसमाः। उत्त० ३५३। समुदाणकम्म- प्रयोगकर्मणैकरूपतया गृहितानां | समुद्ददत्त- चतुर्थवासुदेवपूर्वभवनाम। सम० १५३| कर्मवर्गणानां समुद्रदत्तः मायोदाहरणे पूर्वभवे धनपतिः। सम्यग्मूलोत्तरपकृतिस्थित्यनभागप्रदेशबन्धभेदेनाङ्- साकेतपुरेऽशोकदत्तेभ्युपुत्रः। आव० ३९४| समुद्रदत्तःमर्या-दया देशसर्वोपघातिरूपतया तथा | पुरुषोत्तमवासुदेवपूर्वभवः। आव० १६३॥ समुद्रदत्तः उक्त १३५१ ८६| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [65] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text]] सौर्यपुरे मत्स्यबन्धः। विपा० ७९। समुद्देसो- समुद्देशः- व्याख्या अर्थप्रदानम्। व्यव० २६ अ। समुद्ददत्ता- समुद्रदत्ता सौर्यपुरे । निशी० २५६ आ। सामण्णेणं पासहीणं| निशी पह० समुद्रदत्तमत्स्यबन्धभार्या। विपा.७९। २३० आ। विसेसओ समुद्देसो, जहा अमुगगणिस्स समुद्दनाम-समुद्रनाम नारायणवासुदेवधर्माचार्यः। आव. दाहामो वायगस्स वा। निशी० १०८ अ। स्थिरपरि-चितं १६३। अष्टमवासुदेवस्य धर्माचार्यः। सम० १५३। कुर्विदमिति गुरुवचनविशेषः एव समुद्देशः। अनुयो० ४। समुद्दपालिज्ज- समुद्दपालीयं-उत्तराध्ययनेषु समुद्देसणायरिय- सूत्रस्य समुद्देशनाचार्यः। दशवै० ३१| एकविंशतितम-मध्ययनम्। सम०६४। उत्त० ९०९। समुद्देसिय- समुद्देशिकं विभागौद्देशिके द्वितीयो भेदः। समुद्दलिक्खा- समुद्रलिक्षा-समुद्रोद्भवा लिक्षा। जीवा० ३१| पिण्ड० ७९ द्वीन्द्रियविशेषः। प्रज्ञा०४१। | समुदायमाणक- उद्वावनं-प्रहाराय मसुत्तिष्ठन्। प्रश्न समुद्दवायस- चर्मपक्षीविशेषः। प्रज्ञा०४९। भग०६२७। समुद्रवायसः चर्मपक्षिविशेषः। जीवा० ४१। समुद्धारो- अण्णुण्णा। निशी० ८९ अ। समुद्दविजए- चतुर्थचक्रीपिता। सम० १५२। समुद्रविजयः- समुद्रः- सह मुद्रया-मर्यादया वर्तत इति समुद्रः मघवपिता। आव० १६२रा नेमिनाथपिता। सम० १५१| प्रचुरजलोप-लक्षितः क्षेत्रविशेषो वा। अनुयो० ९० समुद्रविजयः-नेमिनाथपिता। आव० १६१। समुद्रविजयः- वसुदेवज्येष्ठभ्राता। प्रश्न. ९०| समुद्रविजयः-सौर्यपुरनृपतिः। उत्त० ४८९। अन्धकवृष्णिः । दशवै. ९७। समुद्दविजओ- समुद्रविजयः शौचोदाहरणे शौर्यपुरे राजा। समुन्नइओ- माणाभिभूतो। निशी० १०० आ। आव० ७०५ समुपस्थान- भूयस्तत्र वासनम्। नन्दी. २०७१ समुद्दविजय-द्वारवत्यां दसाईः। ज्ञाता० २०७। समुपेहिआ- संप्रेक्ष्य सम्यग्दृष्टया। दशवै० २२३। दशाहमुख्यः। ज्ञाता०९९। समुद्रविजयः दशार्हविशेषः। | समुप्पण्ण- समुत्पन्नं-लब्धसत्ताकं जातम्। जम्बू. २७७। अन्त० समुप्पेहमाण- सम्यगुत्प्रेक्षमाणं पश्यतो समुद्दा- समुद्राः। अनुयो० १७१। अनित्यताघ्रातमिदं शरीरमित्येवमनवधारयन्। आचा. समुद्दिह- समुद्दिष्टम्। आ० ८५७। समुद्दिष्टः-भक्तः। २०६। उत्त० १०८। समुद्दिष्टः भुक्तः। आव० ५३६। समुब्भूय- सम्मुखभूतां एकहेलोत्पन्नम्। स्था० १८७। समुद्दिट्टा- सिद्धाः। आव० ७२७) समुयाण- समुदानं-भक्षम्। ज्ञाता० १८८। समुदानंसमुद्दिसण- समुददीशनम्। ओघ० ८१] भिक्षाम्। ओघ० ७९। समुद्दिसिउं- समुद्देष्टुम्। आव० ८५९। समुद्देष्टुं-अत्तुम्। समुयाणकिरिया- समदानक्रिया-विंशतिक्रियामध्ये आव० ११५ सप्तदशम। समुदायोऽष्टकर्माणि, तेषां यथोपादानं समुद्दिस्स- समुद्दिश्य-आश्रित्य। उत्त० २७२। समुद्दिश्य- क्रियते सा समुदान-क्रिया। आव० ६१२॥ आश्रित्य। आचा० २७१। समयाणिअ-भिक्षातिचारः। ओघ. १७५ समुद्देस- समयप्रसिद्ध साङ्केतिकं नाम। पिण्ड०६। प्रज्ञा० | समुल्लासिया- प्रहरणविशेषः। ज्ञाता० २३९। ४४७ समुवट्ठिया- समुपस्थिता-उभयत्र पद्यता। उत्त० ५१२। समुद्देशकम्म- द्वादशविधे विभागोद्देशके यः चरमत्रिकं समुर्विति- समुपयान्ति प्राप्नुवन्ति, उत्पद्यन्ते। दशवैः तत्र प्रथमः। बृह. ८३। २४७ समद्देशनाचार्यः- सूत्रस्य समद्देशनाचार्यः। स्था० २९९।। | समुविठ्ठ- सम्यक्-परस्परानाबाधया उपविष्टः समुद्देशिक- पाषंडिन उद्दिश्य क्रियमाणं समुद्देशम्। उद्दिष्टं | समुपविष्टः। जीवा. १९४। कृतं कर्म च-उद्दिष्टचतुर्विधमौदेशिकं समुद्देशिकम्। | समुवेक्खमाण- समुत्प्रेक्षमाणो-निरूपयन्-व्यापारयन्। ज्ञाता०११॥ बृह. ८३ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [66] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] आ। समुव्वहन्त- समुद्वहन् कुर्वन्। अनुयो० १३१। समवसरणं कुलगणसङ्घान्यतमस मवायः। बृह. ६१ समुसरणं-समवसरणम्। आव० १५७) आ। पहाणं। निशी० २३९ आ। समवसरणं-सम्यग् एकत्र समुस्सय- समुच्छ्रयः-संघातः। दशवै० १९८। समुच्छ्रयं- गमनम्। ओघ० १४६। समव-सरणं-विविधमतमीलकः। शरीरकं कर्मोपययं वा। आचा. १९३। स्था० २६८। समवसरणं-स्नात्रादि। ओघ०५४। समुस्सिणोमि- समुच्छृणोमि- आदेरारभ्यापूर्वं करोमि समवसरणः-साध्वागमः। आव० ५७७। समवसरणंसंसारं वा करोमीत्येवं प्राञ्जलिस्वनतोत्तमाङ्गः सन् सूत्रकृताङ्गाद्यश्रुतस्कन्धे द्वादशममध्य-यनम्। अनशनादिन निमन्त्रयेत्। आचा० २७१। आव०६५१। ओघ० १६१। समवसरणः-सूत्रकृ-ताङ्गस्य समुहागय- परस्परसंमुखस्थितः। सन्मुखागतः। जीवा. द्वादशममध्ययनम्। उत्त० ६१४। साधुसमुदाय१९४१ विषयः। पिण्ड० ९१। समवसरणं-बहनामेकत्र मीलनम्। समुहिया- श्र्वमुखिका-कौलेयकः। भग० ६७३। राज०१३३ समूलडाल- समूलशाखम्। महाप० समोसरणा-समवसरन्ति नानापरिणामा जीवाः समूहणंग- समूषणकंत्रि कटुकं तस्याङ्ग कथञ्चित-तुल्यतया येषु मतेषु तानि समवसरणानि, सुण्ठीपिप्पलीमरीच-द्रव्यम्। उत्त० १४२। समवसृतयो वाऽन्योन्यभिन्नेषु कथञ्चित्तुल्यत्वेन समूसवियं- समुच्छ्रितं हर्षातिरेकादूर्वीकृतम्। प्रश्न०४९। क्वचित्केषाञ्चिदवादिनाम-वताराः समवसरणानि। समूसिय- समुच्छ्रितका उद्धर्वीकृतः। प्रश्न० ५१। भग. ९४४१ समूहति- परिभावयति। व्यव० १५० अ। समोसियग- प्रातिवेश्मिकः। निशी. १४ | निशी. २११ समृद्धः-चूर्णद्वारविवरणे सुस्थितसूरिशिष्यः। पिण्ड. १४३। समृद्धं-ऋद्धिविशेषकारणम्। स्था० २४७ समोसीइयं-समवसृतम्। आव० ३६७। समेमाणा- शाम्यन्तो-गायेनात्यर्थमासेवां कर्वन्तः। समोहए- समवहतः-कृतमारणान्तिकसमुद्घातः। भग० आचा० १८०१ ७३० समेमाणे- समागच्छन्। आचा० २६५। समोहणंति-सम्पहन्यते-सम्पहतो भवति सम्पहन्ति समोअर-सम्यग-अविरोधनावरणं-वर्तनं समतारोऽविरो- वा-क्षिपति प्रदेशानिति गम्यते व्यापारविशेषपरिणतो धवृत्तिता। अन्यो० ५९। भवतीति भावः। ज्ञाता० ३१। भज्जंति। निशी. १३३ समोच्छुओ-समास्तृतः व्याप्तः। आव० ३४६। समोत्यरंत-समवस्तृणं-महीपीठमाक्रामन्। ज्ञाता० २५४ | समोहणइ- समुपहन्यते सम्पहता भवति समुपहन्ति वा समोभंगो-हीरविरहितः। निशी० १४१ अ। प्रदे-शान् वा विक्षिपति। भग० १५४। समवहन्यते समोयार- समवतारः प्रतिद्वारमधिकृताध्ययनसमवतार- समवहतो भवति। जीवा. २४३। लक्षणः। स्था० ५। समावतारः-योजना। पिण्ड० ७६) समोहन्नइ- समवहन्ति-समद्रघाताय प्रयतते। प्रज्ञा. समोसढ- साधूचित्तचवग्रहः। ज्ञाता० ३९। समवसृतः- ६०२ आगतः। आव० ८१९। समवसृतः-स्थितः-धर्मदेशनार्थं | समोहया- समुद्घाते वर्तमानाः कृतदण्डाः। भग० ७६४। वा प्रवृत्तः। दशवै० १९१। समवसृतः। आव० ३९२१ सम्पन्नजोव्वण- मातृपितृपरिपालनामपेक्षन्तः। सम० समोसरण-समवसरणं-वसतिः। औप०६१। जिनस्नपनर- ७० थानुयानपट्टयात्रादिषु यत्र बह्वः साधवो मिलन्ति सम्पानक- पूपः। आव० ४५८१ तत्सम-यसरणम्। सम० २३। समवसरणं सम्पूर्ण-कृत्स्नम्। आय० ५०० आगमविचाररूपम्। सूत्र० ३४१। समवसरणं-त्रयाणां सम्बध्नति- गृह्यमाणतयैव स्पृशति। उत्त० २२६। त्रिषष्ठयधिकानां प्रवा-दिशतानां मतपिण्डनरूपम। सम्बाध- यात्रासमागतप्रभूतजननिवेशः। राज०११४| सम० ३१ सम्यग्यात्रावगाह-नान्नत्र तत्रमिलितानां | सम्बुद्धि- आमन्त्रणी। अनुयो० १३४। आ। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [67] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सम्भवन्तः- वर्तमानः। आचा० २५२ कर्मप्रकृतीः सप्तसप्ततिसङ्ख्या यया बध्याति सा। सम्भवानुमान-अनुमानविशेषः। आचा. २३। सूत्र० ३०४१ सम्भोग-सं-एकीभूय समानसमाचारणां साधूनां भोजन सम्मत्तपज्जव-सम्यक्त्वपर्यवःसम्भोगः। सम०२२ सम्यक्त्वरूपपरिणामविशेषः। ज्ञाता० १७६। सम्भोगार्थ-नाम यत्रोपसम्पन्नस्ततोऽपि सम्मत्तवेदणिज्ज-जिनप्रणीततत्त्वश्रद्धानात्मकेन विसम्भोगकारणे सदनलक्षणे सत्यप्रकामतीति। स्था० सम्यक्त्व-रूपेण यद्वेद्यते तत्सम्यक्त्ववेदनीयम्। ૨૮રા. प्रज्ञा०४६८1 सम्म- वीतरागोक्तेन विधिना सम्यग। दशवै. २५७। | सम्मत्तसद्दहण-सम्यक्तत्त्वश्रद्धानं सम्यग-प्रशंसार्थः। समञ्चति परमार्थसंस्तवादिभिः सम्यक्त्वमस्तीति श्रद्धीयत जीवादीनवैपरित्येनावगच्छतीति सम्यक्। उत्त० १५१। इत्यर्थः। प्रज्ञा०६० सम्यग्भावं विनयमित्यर्थः स्था० ३९९। सम्यग्- सम्मत्ताभिगमी- सम्यक्त्वाधिगामीयथौचित्यम्। स्था० ३३२ समञ्चतीति सम्यक् सम्यक्त्वप्राप्तवान्। प्रज्ञा० ५४७। अविपरीतम्। मोक्ष-सिद्धि प्रतीत्यानुगुणमित्यर्थः। सम्मत्ताराहणा- अहिंसायाश्चत्दृशं नाम, सम्यक्त्वंस्था० १५९। शर्मः। अन्यो० १४६। सम्यक् सम्यग्बो-धिरूपमाराध्यते यया सा सम्यक्त्वाराधना। अविपरीत्तम्। नन्दी० १०६| प्रश्न. ९९। सम्म उवउत्त- सम्यगुपयुक्तः-यः सम्मदिही- सम्यग्दृष्टिः सम्यग्दर्शनशुद्धिः, सम्यग् पूर्वापरानुसन्धानपाटवोपेतः श्रुतज्ञानेन पर्यालोच्यार्थान् अविपरीता दृष्टिः। योगसङ्ग्रहे वादशसमयोगः। भाषते स। प्रज्ञा० २५२। आव०६६४। सम्यग्-अविपरिता दृष्टिःसम्म बुद्ध-सम्यग्बुद्धः-अविपरीतबोधवान्। उत्त०४४६| जिनप्रणीतवस्तुतत्त्वप्रतिपत्तिर्यस्य स सम्यग्दृष्टिः। सम्मइ-स्वकीयमतिः-स्वमतिः। आचा. २०० जीवा० १८१ सम्मओ-सन्मृतः। महाप० सम्मइंसण-सम्यग्दर्शनंसम्मट्ठ- कचवरापनयनेन समृष्टम्। जीवा० २४६। मिथ्यात्वमोहनीयकर्माणवेदनोपश-मक्षयोपशमसमुत्थ सम्मत-आधायाः प्रामित्यदवारविवरणे देवराजपत्रः। आत्मपरिणामः। भग० ३५० पिण्ड. ९८१ सम्मद्दिहिया- सम्यग्-अविपरीता दृष्टिः-दर्शनं-रूचिस्तसम्मति- आधायाः प्रामित्यदवारविवरणे देवराजदारिका। | त्त्वानि प्रति येषां ते सम्यग्दृष्टिः। स्था० ३०| पिण्ड० ९९। सम्मद्दिट्ठी- सम्यक्-अविपरीता दृष्टिःसम्मत्त- सम्यक्त्वं-सामायिक-दवितीयपर्यायः। आव. जिनप्रणीतवस्तुप्रति-पत्तिर्येषा ते सम्यग्दृष्टी। नन्दी. ४७४१ सम्यक्त्वं १०५। सम्यग्-अविपरिता दृष्टिःमिथ्यात्वमोहनीयक्षयोपशमादिसमत्थो जीवप जिनप्रणीतवस्तुतत्त्वप्रतिपत्तिर्यस्य स रिणामः। प्रश्न. १३२। सम्यक्त्वं-सम्यग्बोधिरूपम्। सम्यग्दृष्टिः,स चान्तरकरणकालभाविना प्रश्न. १०३। सम्यकत्वसमत्वम्। आचा. २७८। औपशकिसम्यक्त्वेन सास्वादन-सम्यक्त्वेन सम्यक्त्व-प्रज्ञापनायामेकोनविंशतिमं पदम्। प्रज्ञा०६। | विशुद्धदर्शनमोहपुञ्जोदयसम्भवति क्षयोपशमिकसम्यक्त्वं-आचाराङ्गस्य चर्थमध्ययनम्। उत्त. सम्यक्त्वेन ६१६। सम्यक्त्वं अचलं विधेयं, न तापसादीनां सकलदर्शनमोहनीयक्षयसमत्थक्षायिकसम्य-क्त्वेन वा कष्टतपःसेविनामष्टगणैश्वर्य-मदवीक्ष्य दृष्टिमोहकार्य द्रष्टव्यः। प्रज्ञा० ३८७ इति प्रतिपादनपरं सम्यक्त्वम्। स्था०४४४। सम्ममणुप्पवातित्ता- सम्यगनप्रवाचयिता पाठयति। समत्तकिरिया- सम्यक्त्वक्रिया-सम्यग्दर्शनयोग्याः स्था० ३०११ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [68] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सम्ममिच्छदिहि-सम्यक् च मिथ्या च दृष्टिर्येषां ते | सम्मावात- सम्यग-अविपरीतो वादः-सम्यग्वादः। स्था. सम्यग्मि-थ्यादृष्टयः, येषामेकस्मिन्नपि च वस्तुनि ४९१। सम्यग्-अविपरीततत्त्वानां वादः सम्यग्वादःतत्पर्याये वा मति-दोर्बल्यादिना एकान्तेन सम्यक अस्तित्त्वम्। अविपरीततत्त्वानां वादः सम्यग्वादःपरिज्ञानमिथ्याज्ञानाभावतो न सम्यक्श्रद्धानं अस्ति-त्त्वम्। स्था० २१११ नाप्येकान्ततो विप्रतिपत्तिः ते सम्यग्मिथ्या -दृष्टयः। सम्मावाद-सम्यग्वादः। दशवै० १११| नन्दी . १०६। सम्मेय-सम्मेतः-सम्मेतशिखरम्। आव०८२७। सम्ममिच्छदिही-सम्यग्मिथ्यादृष्टिः-सम्यक्त्वं सम्मोहणंति-समवघ्नन्ति-आत्मप्रदेशान्विक्षिपन्ति। प्रतिपद्यमानः प्रायः सजाततत्त्वरूचिः, भूतग्रामस्य जम्बू० २४१| तृतीयं गुणस्थानम्। आव०६५०| सम्यक्त्व- देशकालसंहननरूपं यथाशक्तियथावदनुष्ठानं सम्मय- सम्मतम्। स्था० ४८९। सम्यक्त्वम्। पिण्ड०६९। सम्मयसच्चा-सम्मतसत्या या सकललोकसाम्मत्येन | सम्यग्निर्याण- मारणान्तिकोपसर्गनिपाते सति सत्य-तया प्रसिद्धा। प्रज्ञा० २६५। अदिनमनस्केन सम्यग्निर्याणम्। आचा० २५९। सम्मसुय- सम्यक्श्रुतं-भावश्रुतम्। उत्त० ३४३। सयं-स्वयमात्मनालिङ्गानपेक्षम्। भग० ४५५। स्वयंसम्मा- तेहिं वंदणादीहि वत्थपत्तादी य जो सव्वपगारेण | आत्मना स्वरूपेण। ज्ञाता० १३१| सकृत्-एकवारम्। कीरइ सो वा। दशवै० ८८1 सन्मानः-पादप्रक्षालनादिकः। | ओघ० १८१। सकृत्-एकैकं वारम्। सूर्य. ११| ओघ०७० सन्मानः-अभ्युत्थानादिः। उत्त०६६८१ सयंजए- शतञ्जयः-त्रयोदशमदिवसनाम। जम्बू०४९० सन्मानः-वस्त्रपात्रादिपूजनम्। स्था० ४०८। सन्मानः- संजल-द्वितीय इन्द्रलोकपालस्य वरुणस्यविमानम्। वस्त्रादिपूजनम्। सम०६५ सन्मानः-मानसः भग. १९४१ अतीतायामवसर्पिण्यां प्रथमकलगरः (भारहे प्रीतिविशेषः। जम्बू० ३९८। सन्मानः वा०) सम० १५० स्तुत्यादिभिर्गुणोन्निकरणम्। मानसः-प्रीतिविशेषो वा। | सयंपभ-आगामिन्यामत्सर्णिण्यां भारतवर्षे आव० ७८७। सन्मानः-वस्त्रपा-त्रादिलाभनिमित्तः। चतुर्थकुलकरः। सम० १५३। जम्बूभरते दशवै.१८७ आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां चतुर्थती-र्थकरः। सम० १५३। सम्माणणिज्ज- बहमानविषयतया सम्माननीयः। औप० । स्वयंप्रभः चतुषष्ठितममहाग्रहः। जम्बू. ५३५ ५। सन्माननीयः। आव. २६७। अतीतायामुत्सर्पिण्यां चतुर्थकुलकरः (भारहे वासे) सम. सम्माणवत्तिया- सन्मानप्रत्ययं १५०। आगामिन्यामुत्सीण्यां चतुर्थकुलकरः। स्था० स्तुत्यादिभिर्गुणोन्नतिकरण-निमित्तम्।आव० ७८६। ३९८। अतीतायामुत्सपीण्यां चतुर्थकुलकरः। स्था० ३९८१ सम्मणेमो- उचितप्रतिपत्तिभिः सन्मानयामः। भग. रत्नबहलतया स्वयमादित्यादिनिरपेक्षा प्रभा-प्रकाशो ११५ यस्याऽसौ स्वयम्प्रभः मेरुः। जम्बू. ३७५) सम्मामिच्छदिहिया- सम्यग्मिथ्यादृष्टिकाः षष्ठषष्ठीतममहाग्रहः। स्था०७९। स्वयम्प्रभा। सूर्य. जिनोक्तभावान् प्रत्यदासीनाः। स्था० ३१| ७८1 सम्मामिच्छाकिरिया- सम्यग्मित्थ्यात्वक्रिया सयंपभा- स्वयंप्रभा निर्नामिका या पूर्वभवः श्रेयांसजीवः, तद्योग्याः प्रकृ-तीश्चतुःसप्ततिसङ्ख्य्यासख्या यया | इशाने श्रीप्रभविमाने ललिताङ्गपत्नी। आव० १४६| क्रियया बध्नाति सा। सूत्र० ३०४। सयंभु-स्वयम्भूः, तृतीयवासुदेवः। सम० ९४। स्वयम्भुःसम्मामिच्छादिही- एकान्तसम्यग्रूपमिथ्यारूपप्रतिपत्ति- | तृतीयवासुदेवः। आव० १५९। कुन्थनाथप्रथमशिष्यः। विकलः सम्यग्मिथ्यादृष्टिः। जीवा० १८१ सम० १५२। सनत्कुमारमाहेन्द्रे षट्सागरोपमस्थितको सम्मावाओ- सम्यग्वादः-एकादिविरहेण यथावद वदनम्। देवः। सम० १२ आव० ३६४। | सयंभूमहावर-स्वयम्भूमहावरः स्वयम्भूरमणे समुद्रे मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [69] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] परार्धादि-पतिर्देवः। जीवा० ३७० सयग्धि- शतघ्न्यः -शतानामघातकारिण्यः सम० १३८। सयंभूमरमण- सन्तकुमारमाहेन्द्रे षट्सागरोपमस्थितिको ___ शतघ्न्यो महायष्ट्यो महाशिलामय्यः याः पातिताः देवः। सम० १२ शतानि पुरुषाणां घ्नति। ज्ञाता० २१ शतघ्नी-महायष्टिः सयंभुरमणभद्र-स्वयम्भूरमणभद्र स्वयंभूरमणे द्वीपे महाशिला वा, या पतिता ता पुरुषाणां शतं घ्नति सा। पूर्वार्धाधि-पतिर्देवः। जीवा०३७० जीवा० १६० शतघ्नन्तीति-शतघ्नयः। उत्त० ३११| सयंभू-स्वयं भवतीति-स्वयम्भूः विष्णुरन्यो वा। सूत्र शतघ्नी-महायष्टि महाशिला वा। औप. ३। शतघ्न्यो४। स्वयं भवतीति सव्यम्भूर्देवः। सूत्र. १४९। महायष्टयो-महाशिला वा। जम्बू.७६। शतघ्न्यःसयंभूरमण-स्वयम्भूरमणः, द्वीपविशेषः महायष्टयो महाशिला वा साः पातिताः सत्यः पुरुषाणां समुद्रविशेषश्च। जीवा० ३७०| द्वीपसमुद्रौ। जीवा. शतानि घ्नन्ति। प्रज्ञा०८६) ३२१। स्वयम्भूरमणः-स्वयम्भूरमणाभिधानः समुद्रः। सयज्जल- भरतेऽतीतायामुत्सपीण्यां प्रथम कुलकरः। उत्त० ३५३। स्वयम्भूरमणः-महासागरः। आव० ५६७। स्था०५१८ सयंभूरमणमहाभद्द-स्वयम्भूरणमहाभद्रः-स्वयम्भूरमणे सयज्जलकूड- शतज्जलकूटं विद्युत्प्रभवक्षस्कारे कूटम्। दवीपेऽपरार्धाधिपतिर्देवः। जीवा० ३७० जम्बू० ३५५ सयंभूरुप्पुणा- स्वयम्भूरूक्पूर्णाः। चतु। सयण- शयनं-पर्यकादि। दशवै० २१८ भग० २३८५ सयंमएल्लओ-स्वयं म्लानः-मृतः। आव० २८७ स्वजनः पितृव्यादिः। जम्बू० २७०। शयनं-संस्तारकादि। सयंवसि-स्वयंवशः। मरण। दशवै० २८१। शयनं-शय्या। प्रश्न. १३८ शयनंसयंसंबुद्ध-स्वयंसम्बुद्धः-स्वयं-आत्मनैव नान्योपदेशतः पर्यङ्कादि। सूत्र० १०६। शयनंसम्यग्बुद्धो हेयोपादेयवस्तुतत्त्वं विद्वानिति पर्यङ्कतूलीप्रच्छदपटोपधानयुक्तम्। सूत्र० ८७। स्वयंसम्बुद्धः। सम० ३। स्वयं-अपरोपदेशेन स्वजनः पितृव्यादिः। जम्बू० १४९। शयनं-शय्या। प्रश्न सम्यग्वरबोधिप्राप्त्या बुद्धो शयनं-संस्तारको वसतिर्वा। आव०७९५ शयनःमिथ्यात्वनिद्रापगमसम्बोधेन स्वयंसम्बद्धः। जीवा० तुल्यादिशयनीयः। ज्ञाता०१२। स्वजनः २५५ मातापित्रादिकः। आव० ८२। स्वजनः-पितृव्यादिः। सय-शत-शतशब्देन अध्ययनानि उच्यन्ते। सम० ८९। आचा० १००। स्वजनः-मात्रादिकः। आव० ३६६) शतभिषक् । सूर्य० २११। स्वजनः-पितृपितृव्यादिः। सम० १२८स्वजन:सयइ- स्वदते स्वादु प्रतिभाति, स्रवति-निर्गच्छति। सूत्र. पितृपितृव्यादिः। भग० ४८३। शयनं- संस्तारकादौ ३२६] तिर्यक् शरीरनिवेशनम्। उत्त०६०९। स्वजनः। आव० सयइत्ति-स्वदतीति उपकारे न वर्तते। आचा० ३५६। ३६६। स्वजनः। औप० १०३। शयनं-शय्यते यस्मिनिति सयक्कऊ- शतक्रतुः शतं क्रतवः-प्रतिमा-अभिग्रहविशेषाः, शयनम्। आचा० ३०२। शयनं-आश्रयस्थानम्। आचा० श्रमणोपासकपञ्चमप्रतिमारूपः, ३०८। शयनं-पल्यङ्कादि। उत्त० २६२। शयनंकार्तिकश्रेष्ठिभवापेक्षया यस्याऽसै इन्द्रः। भग. १७४। फलकसंस्तारकादि। उत्त०४२३। शयनः-वसतिः। सयक्कतू- शतक्रतुः-इन्द्रः, शतं कृतानि आचा० ३०७ प्रतिमानामभिग्रह-विशेषाणां सयणविहि- शयनं-शय्या पल्यकादिस्तविधिः अथवा श्रमणोपासकपञ्चमप्रतिमारूपाणां वा कार्तिकश्रे- शयनं स्वप्नं तद्विषयको विधिः। जम्बू. १३७। ज्ञाता० ष्ठिभवापेक्षया यस्यासौ। प्रज्ञा० १०१। ३८ सयग्गसो- शतपरिमाणः शतपृथक्कृतम्। भग० ९०५) सयणा- जे गुणदोसविहण्ण। दशवै० ११५ सयग्गह-स्वयं-आत्मना दत्तं गृह्यते-यत्तत् स्वयं सयणासण- शयनासनं-शय्याफलकादि। आचा० ३८५ ग्राह्यम्। प्रश्न. १५४१ | सयणिज्ज-शयनीयं-शय्या। आव० ५०५। शयनीयम्। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [70] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] आव०५१४१ घनमसृणनिरुपहतं वस्त्रम् सदसियागं वस्त्रम्। ब्रह. सयणिज्जग-स्वजनः। ओघ. २०| सज्ञातीयः। उत्त. २२६ आ। १५० सयलग-शकलम्। आव०४२५ सयणिज्जय-स्वजनः। आव० ३४५ सयवत्त- शतपत्रम्। प्रज्ञा० ३७। सयनि-दीर्घकायप्रसारणेन शेते-वर्तते। जीवा. २०११ | सयवसह- त्रयोविंशतितममुहूर्तनाम शतवृषभः। जम्बू० सयदुवार- द्वादशमअममतीर्थकृत्पत्तिस्थानम्। अन्त० ४९१३ १६। शतद्वारं नगरविशेषः। अन्त०१६। शतद्वारं-नगरं | सयवाइय- त्रीन्द्रियविशेषः। प्रज्ञा० ४२॥ धनपतिराजधानी। विपा० ३९। भग० ६७८। सयसाहस्सीय-लक्षम्। सम.१०४। सयदेव- अचलपुरीयकौम्बिकः। मरण | सयसिक्कर- शतशर्करम्। आव. २७३। सयधणू- जम्ब्वैरवते सया-सदा-सर्वदा। भग० ८३ आगामिन्यामुत्सर्पिण्यामष्टमकुलकरः। सम० १५३।। सयाउ- स्वयम्।आव० ६८३। जम्बूभरतेऽतीतायामवसीनिरयावल्यां पञ्चमवर्गे दवादशममध्ययनम्। निर०९। | ण्यां द्वितीयकुलकरः। स्था०५१। सयनं- त्वग्वर्तनम्। निशी० २४७ अ। सयाऊ-जम्बूभरतेऽतीतायामवसीण्यां द्वितीयकुलकरः। सयपत्त-कमलविशेषः। प्रज्ञा० ३३। ज्ञाता०९६| सम० १५० सयपाग- शतपाकं-रूपकानां शतेन मूल्यतः पच्यते। स्था० | सयाजला-सदा-सर्वकालं जलं-उदकं यस्या सा सदाजला। ११८ शतपाकं-शतेनौषधीनां पक्वं, शतवारा वा। बृहः । सूत्र. १४० १०९आ। शतपाकं शतकृत्वोऽपरापरौषधिरसेन सयाणिओ- शतानीकः कौशाम्बीनगराधिपतिः। आव. कार्षापणानी शतेन यत्पक्वं तत्तैलम्। जम्बू. ३९४१ २२२। शतानीकः-कौशाम्बीनगराधिपतिः। आव०६३ सयपुप्फा- शतपुष्पा। उत्त० १४२। वनस्पतिविशेषः। भग० | सयाणीए- शतानीकः-कौशाम्बीनृपः। विपा० ६८१ ८० सयाणीय- उदायनपीता मृगावतीभर्ता। भग०५५६ सयपोरागकिमि-शतपर्वकृमिः इक्षुपर्वकृमिः। जीवा. सयाली-आगामी एकोनविंशतितमतीर्थकृतत्पूर्वभवनाम। ११७ सम०११४ सयबल- शतबलराजा। आव० ११६) सयावरणं- सदावरण- शोभार्थं दंशमशकादिरक्षार्थं वा सयभत्ति-शतभक्तिः -शरसड़खाविच्छित्तिः। औप०६७। प्रच्छादानपटः। जम्बू० २३६) सयभिसया- त्रयोविंशतितमनक्षत्रम्। स्था० ७७ सयासवा- आश्रवति-ईषत्क्षरति जलं यैस्ते आश्रवाःशतभिषक् । सूर्य. १३० सुक्ष्म-रन्ध्राणि सन्तो विद्यमाना सदा वा-सर्वदा सयय-सततं-अनवरतम्। भग० १९। शतसङ्ख्या वाऽऽश्रया यस्यां साः सदाश्रवाः शताश्रवा। सयरह- जम्बूभरते अतितायामवसर्पिण्यां दशमकुलकरः। भग०८३॥ सम० १५०। भरतेऽतीतायामुत्सीण्यां दशमकुलकरः।। | सयासुक्ख- सदासौख्यः-उपवर्गो नित्यसुखः। आव० ८५२। स्था०५१८ सरंढ- भुजपरिसर्पविशेषः। प्रज्ञा० ४६। भजपरिसर्पः सयराह- झटिति। अनुयो० १७५। अकस्मात् हेलयेत्यर्थः। तिर्यगयोनिकः। जीवा० ४० औप. १०१। युगपदर्थाभिधायकं त्वरितार्थाभिधायकं वा | सरंष- शरम्बः-भुजपरिसर्पविशेषः। प्रश्न० ८१ देशीवचनम्। आव० १५०| एकहेलया। प्रश्न. ४९। सर-स्वरः-गाम्भीर्यादिगुणोपेतः। उत्त० ४८९। स्वरःसयरिसह- शतवृषभः। सूर्य. १४६। शब्दः षड्जादिः। स्था० ४२७। स्वरः-शिवादिरुतरुपः। सयरी- शतरी-वृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३२| उत्त० ४१७। स्वरंसयल-सकलम्। उत्त०६७९| जीवाजीवादिकाश्रितस्वरस्वरूपफलाभि धायक सयलकसिण- एकपरं एकतलं चर्म। ब्रह. २२ आ। शास्त्रम्। सम०४९। सरः-स्वतः सम्भवो जलाश मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [71] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] १२६। यविशेषः। प्रश्न. १३४। गोशालकशतके गोशालकेन | सरजस्क- मतविशेषः। आचा० ३२११ मतविशेषः। आचा. प्ररू-पितकालविशेषः। भग०६७४। केवलं पुष्पावकीर्ण ४०३। शैवाः। आव० ५९। सरः। प्रज्ञा०७२। सरः-स्वयं सम्भूतजलाशयविशेषः। सरजस्कपीणिपादत्व- चतुर्दशममसमाधिस्थानम्। प्रश्न भग० २३८। सरः। प्रश्न०८ सरः-केवलं १४४ पुष्पप्रकरवद्विप्रकीर्णं सरः। प्रज्ञा० २६७। सरः सरड-सरटः-जन्तुविशेषः। आव०४१८ सरटोदाहरणंस्वयंसम्भूतो जलाशयविशेषः। अन्यो० १५९। सरः- औपपातिकीबुद्धौ दृष्टान्तः। नन्दी० १५२। शरटः। आव० स्वभावजो जलाशयविशेषः। प्रश्न. १६०| सरः ७११। सरदः-कृकलाशः। प्रश्न० ८। सरटः। आव० ६४९। स्वभावनिष्पन्नम्। उपा०१० स्था० ८६| स्वर: भुजपरिसर्पविशेषः। प्रज्ञा० ४६। सरटः-कृकलाशः। ओघ. सकलजनादेयत्वप्रकृतिगम्भीरतादिगुणालङ्कृतो ध्वनिः। अनुयो० १५८१ पर्वगविशेषः। प्रज्ञा० ३३। स्वरः- सरडीभूतं- आमम्। निशी. १२६ अ। शब्दः षड्जदिर्वा। प्रश्न० ८२॥ सरकः गुडधातकीसिद्धं । सरडु- सलादुः कोमलम्। पिण्ड. १९ मद्यम्। प्रश्न. १६३। स्वरं-स्वरविषयम्। आव०६६। । सरडुफल- अबद्धास्थिकफलम्। बृह. १७९ आ। एगं महापमाणं सरं। निशी० ७०आ। सरः-स्वयंसम्भू- | सरडूय- अरटअबद्धास्थिकफलम्। बृह. १७९ अ। तजलाशयविशेषः। भग० ३७३। जलाशयविशेषः। ज्ञाता० | सरणं-उवस्सए ठाणं। दशवै. ५१। शरणं-त्राणमज्ञानोप६३| शरः-बाणः। ज्ञाता०२३७) द्रवोपहतानां तद्रक्षास्थानं, तच्च परमार्थतो निर्वाणम्। सरअ-शरकः निर्मन्थनकाष्टः। भग० ५२० सम०४॥ शरणंसरऊ- महानदी। स्था०४७७। संसारकान्तारगतानामतिप्रबलरागादिपीडितानां सरओ- अविणासिदव्वं, चिरमवि अच्छइन विणस्सइ समाश्वासनस्थानकल्पं तत्त्वचिन्तारूपमध्यवसानम्। सो। निशी० २६९ आ। राज० १०९। गमनम्। ज्ञाता०७१। शरणंसरकंचुओ- सरकञ्चुकः। नन्दी० ८९। तणमयावसरिकादि। अन्यो०१५९। शरणंसरक-वंशमयच्छिक्का शिक्काकृतिः। जीवा० २६६। संसारकान्तारगतानामतिप्रबलरागादि-पीडितानां सरक्ख- सरजस्कः-कापालिकः। ओघ० १३५ समाश्वसनस्थानकल्पं, तत्त्वचिन्तारूपमध्यवसासरजस्कलिङ्गः भौतलिङ्गः। आव० ६२८भस्म। नम्। जीवा० २५५। शरणम्। जीवा. २६९। शरणं तृणमऔघ०१३३। सरजस्कं-पृथ्वीरजोऽवण्ठितम्। दशवै. यम्। जम्बू. १०७। शरणं-आश्रयः। आव० ५७१। शर२२८। सरजस्कं-भस्म। पिण्ड० १९। सरजस्कः -क्षारः। णम्। प्रश्न ८ शरणं-आश्रयः। उत्त०६५। शरणं-स्मरबृह. २७३ अ। पंसू। दशवै ६८। सरजस्कं णम्। औप० २२। शरणं-तृणमयावसरिकादिकम्। भग. अतिश्लक्ष्णतया भस्मकल्पम्। पिण्ड० १४९। सरक्खखरंडिय-स्वभस्मखरण्टितम्। आव. ३२१| सरणद-सरणंसरक्खग- सरजस्कः भौताः। औघ०८९। संसारकान्तारगतानामतिप्रबलरागादिपीडि-तानां सरक्खसूई- सरक्षासूची, रक्षा सूची चेत्यर्थः। पिण्ड० १७। समाश्वसनस्थानकल्पं तत्त्वचिन्तारूपमध्यवसानं सरक्खा- कापालिकादयः। बृह. २५४ आ। रक्खा। निशी. ददा-तीति शरणदः। जीवा० २५६। ३५७ आ। सरणदए- शरणं-त्राणमज्ञानोपद्रवोपहतानां तद्रक्षास्थानं, सरक्खि-सरजस्कः-सरक्षाको वा। पिण्ड० २११ तच्च परमार्थतो निर्वाणं, तद्दयत इति शरणदयः। सम० सरग-सरगं-शरकाभिः कृतं सर्यादि। आचा० ३५७। शरकः। ४॥ शरणं-त्राणं नानाविधोपद्रवोपद्रतानां तद्रक्षास्थानं, ज्ञाता० २४२। शरकं-शरप्रतिप्रकृतितीक्ष्ण तच्च परमार्थतो शरणदयः-निर्वाणदायकः महावीरः। मुखमग्न्युत्पा-दकं काष्ठविशेषम्। जम्ब० ३९२। निर० भग०७ २७। सरकः-मदिरापात्रम्। जम्बू०१०१। | सरणाए- शरणाय-निर्भयस्थित्यर्थम्। आचा० १०८। शा ૨૨૮. मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [72] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] १२ सरण्ण-शरणे साधुः शरण्यः, रागादिपरिभूताश्रितसत्वव- १३३ त्सलः रक्षको वा। आव० ५८२। सरमाण-स्मरन् चिन्तयन्। ज्ञाता० १६५ सरते- शरत्। सूर्य० २०९। सरय- शरत्-कार्तिकमार्गशीर्षो। ज्ञाता० ३। सरत्थभ-शरस्तम्बः । आव० ३५१| सरल- वलयविशेषः। प्रज्ञा० ३३वनस्पतिविशेषः। भग. सरद-शरत्-मार्गशीर्षादिः। भग०४६२१ ८०३। सरलः-देवदारुः। जम्बू० ९८१ कार्तिकमार्गशीर्षो। ज्ञाता०१६) सरलक्खण-स्वरलक्षणं कालस्वरगम्भीरस्वरादिकम्। सरदहतलायसोसणया- सरोह्रदतडागशोषणता, चतुर्दशमं सूत्र० ३१८१ कर्मादानम्। आव. २९ सरलमनस्क- औत्पातिक्यां दृष्टान्तः। नन्दी. १५७ सरदुअ-बद्धट्ठियं। निशी. १५७ आ। सरलवण- वनविशेषः। जीवा० १४५ सरदुप्फल- तरुण अवद्धट्ठियं वा जाव कोमलं वा सरवण- सन्निवेशविशेषः। आव. १९९। सन्निवेशविशेषः। सरदुप्फलं भण्णति। निशी० १४२ अ। भग०६६० सरपंति-पक्तिभिर्व्यवस्थापितानि सरांसि। अनयो । सरस- रुधिरप्रधानं पदगजचर्म। ज्ञाता० १३४१ अभिमानर१५९। स्था० ८६। एकैकपङ्क्त्या व्यवस्थितानि सरांसि सोपेतम्। ज्ञाता० १६६। सरसः-सरच्छायः। जीवा० २२७। यत्र सा सरःपक्तिः । प्रज्ञा. २६७। सरःपक्तिः । भग. रक्तचन्दनः। जम्बू०७६। शृङ्गारः रसोपेतं निरुहपतो ૨૩૮૫ वा स्वो रसो यत्र तत्। औप० ५४। उक्ट्ठो । निशी० ५५ सरपंतिओ- बहूनि केवलकेवलानि पुष्पाकीर्णकानि सरांसि आ। आर्द्रम्। प्रज्ञा. ९१। एकपङ्क्त्या व्यवस्थितानि सरःपङ्क्तिः सललितास्ता सरसपउम- सरसपद्मा-सरसमुखस्थगनकमलः। ज्ञाता० बहव्यः सरःपङ्क्त्यः , तथा येषु सरः पङ्क्त्या व्यवस्थि-तेषु कूपोदक प्रणालिकया संचरति सा सरसवहिय- सरसं-अभिमानरसोपेतं वधितो-हतो यः। सरःपङ्क्तिः । राज०७८ ज्ञाता० १६६। सरपंतिय-सरःपक्तिः । आचा० ३८२। सरसर- अनुकरणशब्दः तेन तादृशं शब्दं कुर्वाणी कपाटौ। सरपंतिया- बहनि सराणि एक पङ्क्त्या व्यवस्थितानि जम्बू. २२४१ सरःपङ्क्तिस्ता पङ्क्त्यः सरःपङ्क्त्यः । प्रज्ञा० ७२। सरसरपंतिआ- एकस्मात्सरसोऽन्यत्र ततोऽपि अन्यत्र सरः पक्तिका- सरसां पद्धतिः। ज्ञाता०६३। कपाटसञ्चारकेनोदक सञ्चरति यत्र सा सरःसरः सरपंती- एग महाप्रमाणं सरं, ताणि चेव बहणि पङ्क्तिः । अन्यो० १५९|| पंतीठियाणि पत्तेय बयुत्ताणि सरपंती। निशी. ७० | सरसरपंतिय-सरःसरःपङ्क्ति -परस्परसंलग्नसरः। आ। आचा० ३८२ सरभ- शरभः आटव्यमहाकायः। भग० ५४२। सरभः- सरसरपंतिया- यासु सरःपङ्क्तिषु परासरः। प्रश्न०२१। शरभः-अष्टापदः। जम्बू.४३। एकस्मात्सरसोऽन्यस्मिन्न-न्यस्मादन्यत्रैवं विखुरविशेषः। प्रज्ञा०४५ सरभः-परासरः । भग० सञ्चारकपाटकेनोदकं संचरति तासु बहुवि४७८। सरभः-महकाय आटव्यपविशेषः, परासरः यो धास्तरुपल्लवाः प्रचूराणि पानीयतृणानि च यस्य हस्तिनमपि पृष्ठे समारोपयति। प्रश्न०७। परासरः- भोगतया स तथा। ज्ञाता०६७। येषु सरस्स् पङ्क्त्तया विखुरश्चतुष्पदविशेषः। जीवा० ३८। सरभः व्यवस्थितेष कूपोदकं प्रणालिकया सञ्चरति सा आटव्यमहाकायपशुः। राज०३६ सरःसरःपङ्क्तिः । जीवा० १९७। सरःसरः पङ्क्तिकः - सरभस-सहर्षम्। ज्ञाता० १६५ सरःपक्तिःष एकसरसः अन्यस्मिन् अन्यस्मादन्यत्र सरमंडल-स्वरमण्डलं-षड्जादिस्वरसमूहम्। स्था० ३९७। । सर्वसंचारकपारकेनोदकं संचरति सा सरःसरः स्था० ३९४| स्वरमण्डलं-षड्जादिस्वरसमूहम्। अनुयो० | पङ्क्तिका। भग० २३८॥ येषु सरःसु षङ्क्त्या मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [73] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] व्यवस्थितेषु कूपोदकं प्रणालिकया संचरति सा सरिआगुम्मा- सरिकागुल्मा। जम्बू० ३३९) सरःसरः-पक्तिः । ता बह्वः सरःसरःपक्तियः। प्रज्ञा. | सरिओ-सृतः। आव० २९२। ७२॥ येषु सरस्सु पङ्क्त्या व्यवस्थितेषु कूपोदकं सरिक्ख- सरजस्कः । ओघ० २१५ प्रणालि-कया सञ्चरति सा। प्रज्ञा० २६७) सरित्तए-सदृक्त्वक् सदृशच्छवी। भग० ९४१ यत्रैकस्मात्सरसोऽन्यस्मिन् अन्यस्मादन्यत्र सरित्तया- सदृशच्छवी। ज्ञाता० ३९। सञ्चारकपारकेनोदकं सञ्चरति सा सर: सरिवन्न-तुल्यवणः। आव०४४३। सरःपङ्क्तिकाः। प्रश्न. १६०| सरियं-सरातोऽतिसरियं। निशी० २५४ आ। मुक्तावली। सरसरपंती- ताणि चेव बहूणि अन्नोन्नकवाडसंज्जुताणि। प्रश्न०७० निशी. ७०आ। सरिष्यति- पूर्तिर्भविष्यति। पिण्ड०८८1 सरसि-सरसी-महत्सरः। औप. ९३। सरित- सादृश्यं लक्षणम्, अन्यघटसदृशः पाटलिपुत्रको सरसिगाल- अलर्कशृगालः। मरण। घट इति। आव. २८१। ज्ञाता०१८५ सदृशम्। ओघ. सरस्यः - महंति सरांसि। ओघ. १५९। १४६। सरस्वती- वापीनाम। जम्बू. ३७०| ज्ञाताधर्मकथाटीकायां | सरिसव-सर्षपः-सिद्धार्थकः। स्था०४०६। सर्षपः। आव. टीकाकर्तृकृतनमस्कारा। ज्ञाता०२५३। ८५४सर्षपः-धान्यविशेषः। अन्यो० १९२। सरस्सई- सरस्वती धनावहराज्ञी। विपा. ९४। गीतरतेः हरितविशेषः। प्रज्ञा०३३। औषधिविशेषः। प्रज्ञा० ३२ तृतीयाऽग्रमहिषी। भग०५०५। सिद्धार्थकः। भग० २७४। वनस्पतिविशेषः। भग० ८०२। सरस्सती- गीतरतीन्द्रस्य चतुर्थाऽग्रमहिषी। स्था० २०४। निशी० १२० धर्मकथायां पञ्चमवर्गेऽध्ययनम्। ज्ञाता० २५२। सरिसवय-सदृशवयसः। निर०२४। सरस्सर- अनुकरणशब्दः। ज्ञाता० २१९। सरिसवया- एकत्र सदृशवयसः-समानवयसः अन्यत्र सरहस्स- सरहस्यः-ऐदम्पर्ययुक्तः। ज्ञाता० ११०| सर्षपाः सिद्धार्थकाः। ज्ञाता०१०७५ सरा-स्वराः शब्दविशेषः। स्था० ३९४। स्वरान्। स्था० सरिसवा- एकत्र प्राकृतशैल्या सदृशवयसः समानवयसः। ३९७ अन्यत्र सर्षपाः-सिद्धार्थकाः। भग०७५८। सरागसंजय-सरागसंयतः-अक्षीणानपशान्तकषायः। | सरिसव्व-सदृग्वयः-समानयौवनः। भग. ९४| प्रज्ञा०३४०१ सरिसव्वया- सदृग्वयसाः समानकालकृतावस्थाविशेषाः। सराव- शरावम्। आचा० ३१७ ज्ञाता०३९ सरासण- शरासन-धनः। भग. १९३। शरा अत्यन्तेक्षिप्य- | सरीरंग- शरीराङ्ग-शिर-उर-उदर-पृष्ठ-बाह-ऊरू चेत्यादि न्तेऽस्मिन्निति शरासनः-इधिः। जीवा० २५९। रूपम्। उत्त० १४३। शरीराङ्ग-शरीरस्य शरासनं-इषुधिः। राज० ११८१ शिराद्याष्टाङ्गानि। उत्त. १४३। सरासणपट्टिए- शरासनपट्टिका धनुर्दण्डः। जम्बू० २१९। | सरीर- शरीरः, कौकुचिके द्वितीयो भेदः। स्था० ३७३। शरासनपट्टिका-धनुर्दण्डो, बाहुपट्टिका। भग० ३१८१ शरीरं-बोन्दिः -तनः। प्रज्ञा० १०८। शरीरं-शरीरयोगः। सरासणपट्टिया- शरासनपट्टिका-धनुर्यष्टिः। अथवा प्रज्ञा० २१७। शरीरं-प्रज्ञापनायां दवादशमं पदम्। प्रज्ञा. शरासन-पट्टिका धनुर्धरप्रतीता। भग० १९३। ६। शरीरं- कायः। आव०७६७। शीर्यते-अनक्षणं सरासणपट्टी- शरासनपट्टिका-धनुर्यष्टिर्बाहुदण्डिका वा। चयापचयाभ्यां विनश्यतीति शरीरम्। स्था० ५५ शरीरंविपा०४७ विशीर्यते उत्पत्तिसमयतः प्रमृति सरासणवट्टिया- शरासनं-धनस्तल्लक्षणा पट्टिका, अथवा पुद्गलवचटनाविनश्यतीति शरासनपट्टिका। ज्ञाता०८५ औदारिकादिपञ्चमेदभिन्नम्। उत्त. १६७। शरीरंसरासन- इषुधिः । जीवा० ३५९। तृतीयाप-रिज्ञा। व्यव० ३९१ अ। भगवत्यां मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [74] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] चतुर्दशशतके तृती-योद्देशकः। भग० ६३० प्राकृतनिषेद्धत्वात् सकलमेवेदं परिकल्पितं सरीरअणुवातो- वज्जरिसहणारायसंघयणातिगो। न० भविष्यतीति शङ्कः। दशवै. १०२ १४९ । सकलोऽस्तिकायजातः सर्वशङ्काः। आव०८१४। सरीरकरण- शरीरं च तत्करणं च तां तां कियां सर्वानुभूती- वीरदेवशिष्यमुक्ता तेजोलेश्या प्रतिसाधकत-मत्वेन शरीरकरणम्। उत्त. २०११ सहकोऽणगारः। जम्बू० २२४| सरीरकाओ- शरीरकायः-औदारिकादिशरीरमाश्रित्य सलक्खण- लक्ष्यते तदन्यव्यपोहे नावधार्यते वस्त्वनेनेति कायः। आव०७६७ लक्षणं स्वं च तल्लक्षण च स्वलक्षणम्। स्था० ४९२ सरीरकुक्कुइओ-हस्तादिना प्रस्तरादिक्षेपकः। बृह० २४७ सलक्षणः-लक्षणज्ञः-कविः। दशवै० ८७ सरीरचिंता- शरीरचिन्ता। आव०४२०| शरीरचिन्ता। सलणय-शरणकम्। उत्त०१३७। उत्त० २२० सललिय- यत्स्वरघोलनाप्रकारेण ललितीव तत् सह तेन सरीरठीइ- शरीरस्थितिः। आव०४३०| सललितम्। यदवा श्रोत्रेन्द्रियस्य शब्दस्पर्शनमतीव सरीरपच्चक्खाण- शरीरस्य प्रत्याख्यानं सूक्ष्म-मुत्पादयति सुकुमारमिव च प्रतिभासते तत् अभिष्वङ्गप्रतिवर्जत-पपरिज्ञानं शरीरप्रत्याख्यानम्। सललितम्। जीवा. १९४। सललितः-समाधूर्यः। औप० भग०७२७ ५६| सरीरपरिमंडण- शरीरपरिमण्डनं-केशश्मश्रुसमारचनादि। सललियविल्लहलगई- सललिता-मृद्वी वेल्लहला-स्फीता उत्त० ४२९। गतिर्यस्याः सा सललितवेल्लहलगतिः। आव० ५६६। सरसरबीय- शरीरबीजं-सप्तधातवः। उत्त० ४७५) सलागपडिया-आवकहिगा। निशी. ४५आ। सरीरमेत्तीओ- पुरुषमात्रो। सम० १५६) सलागा- लोक्यत्ते केवलिना दृष्यन्त इति लोका सरीरय- शरीरकं-शरीरमेव जरादिभिरभिभूयमानतयाऽन- व्याख्यादिह वक्षमाणः शलाकापल्यरूपः। अनुयो० २३६) कम्पनीयम्। उत्त० ३३८ शलाका-कीलरूपा। प्रश्न. ५७ शलाका। आव० २२७) सरीरसक्कारपोसह- शरीरसत्कारपौषधः-पौषधस्य निशी० २५६ आ। द्वितीयो भेदः। आव० ८३५ सलागापल्ल- शलाकापल्यः-जम्बूद्वीपप्रमाणो द्वितीयः सरीराणुगए- शरीरानुगतं-अचित्तस्य चतुर्थो भेदः। ओघ० । पल्यः। अन्यो० २३७ १३३ सलागाहत्यगं-शिलाकहस्तकंसरूवि- सरूपी-संस्थानवर्णादिमान सशरीरः। स्था० ३९| सरित्पर्णादिशलाकसमुदायं-सम्मार्जनीम्। राज० २३। सरो- शरो। बृह. १७८ । सलाहिओ-लाधितः। आव० १९८१ सर्ज-क्षारविशेषः। भग. ३०६| सलिंग-स्वलिङ्ग-रजोहरणादि। निशी. ९२ आ। सर्जकषाय- नोकर्मद्रव्यकषायः। आव. ३९० स्वलिङ्गः। ओघ. २१६। सर्पच्छत्र-भूमिस्फोटकविशेषः। आचा० ५७। सलिंगी- रजोहरणादिसाधुलिङ्गवान्। प्रज्ञा० ४०६| सर्वकाङ्क्षा- सर्वाण्येव दर्शनानि सलिलं-सलिलं-पानीयं लावण्यम्। जम्बू. २३६। शोभनानीत्येवमनुचिन्तनम्। प्रज्ञा० ६१। सलिलबिल- भूनिर्झरः। जम्बु. १६८। सलिलविलंभूनिसर्वजघन्य- परिहारतया मासिकम्। व्यव० १४६ अ। झरः। भग० ३०७ सर्वतोधार- शास्त्रविशेषः। दशवै० २०११ सलिला- गङ्गादिमहानदी। प्रश्न. ९६। सलिलंसर्वतोभद्र- दशषु दिक्सु प्रत्येकमहोरात्रकायोत्सर्गरूपा जलमस्या-मस्तीति नदीः। उत्त० ३५२२ अहो-रात्र दशकप्रमाणा प्रतिमा। स्था०६५ सलिलावती- विजयविशेषः। ज्ञाता० १२१। स्था० ८० अक्षभेदविशेषः। प्रज्ञा०७० सलिलासय-विजयविशेषः। प्रश्न. १४१ सर्वशङ्का- किमस्ति आहेतो मार्गो नवेति। आचा०४३। सलिलल्ललोहिय-सलिलार्द्ररुधिरम्। मरण । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [75] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सलुद्धरण- शल्योद्धरणम्। ओघ० २२५१ सल्ला- भुजपरिसर्पविशेषः। प्रज्ञा० ४६। सलेडुग-समूलः। आव० २१२। सल्लीपति-शल्लीपतिः-पाटलीपुत्रे नन्दः। आव०४३३। सलेड्डुवाय- भग०६६५ सल्लुद्धरण- शल्योद्धरणं यन्त्रप्रयोजकः-कष्टकोद्धारः। सलेसमिस्स-श्लेषमिश्र-श्लेषद्रव्यविमिश्रतम्। जीवा० विपा. ८११ २६॥ सल्लूद्धरणी- शल्योद्धरणी-औषधीविशेषः। आव० ३४८१ सलोग-समानो लोकोऽस्येति सलोकः। उत्त. २५१। सवंगसुन्दरी- सर्वाङ्गसुन्दरी मायायां सलोद्द- सहोढं-सलोद्धम्। राज० १४०| वैकल्पिकदृष्टान्तः। आव० ३९३। सर्वाङ्गसुन्दरी सलोमहत्थ- लोममयप्रभाजनकयुक्तम्। औप. ११॥ मायोदाहरणे पूर्वभवे धनश्री-गंजपुरनगरे सल्ल- शल्यं-पापानुष्ठानम्, तज्जनितं वा कर्म। सूत्र० इभ्यश्रावकशङ्खस्य दुहिता। आव० ३९४। २६१। शल्यते-बध्यते अनेनीत शल्यम्। स्था० १४९। सवउहुत्तो- सपक्षम्। उत्त० १३९। शल्य-मायादि। आव०७७९। शल्यमिव शल्यं- सवक्कसुद्धि- सद्वाक्यशुद्धि स्ववाक्यशुद्धिं वा कालान्तरेऽप्यनि-ष्टफलविधानं। प्रत्यवन्ध्यतया। सवाक्यसिद्धं वा। दशवै० २२३। उत्त० २३३। शल्यम्। आव० ३४८। शल्यः आव० ७६५) सवग्ग- सर्वग्रो गुणि। व्यव० ३४८ आ। सल्लइ- गुच्छाविशेषः। प्रज्ञा० ३१ सेल्लकी-गजप्रिया। सवट्ठ- सर्वार्थविमानम्। आव० १७७ प्रज्ञा० ३१। वनस्पतिविशेषः। भग० ८०३। सवण- एकविंशतितम नक्षत्रम्। स्था० ७७। श्रुयतेऽनेनेति सल्लइकुसुम- सल्लकीक्समम्। जीवा. १९१| श्रवणम्। नन्दी० १७४। श्रवणः। सूर्य. १२९। श्रवणःसल्लइपत्तय- सल्लकी वृक्षविषेशस्तस्य पत्रक-दलम्। व्यक्तगणधरस्य जन्मनक्षत्रम्। आव० २५५। श्रवणंज्ञाता० ११६| धर्मस-म्बद्धं यतिः। आव० ३४१| श्रवणम्। भग० ११५) सल्लइय- शल्यकितः-शुष्कपत्रतया सजातशलाकः। श्रवणः-तपस्वी। उत्त. १४५ ज्ञाता०११६| सवणफल-सिद्धान्तः-श्रवणफलम्। भग० १४१| सल्लई-शल्लकी। जीवा. ३५५। सवणया- श्रवणस्य-श्रवणशब्दस्य भावः प्रवृत्तिनिमित्तं सल्लकहत्त- शल्यहत्त्यं राज्यस्य हत्या-हननमुद्धारः शतिरेव श्रवणता श्रवणमेवेत्यर्थः। प्रज्ञा० ३९९) तत्प्र-तिपादकं शस्त्रम्। विपा० ७५ सवणा- श्रवणौ की। जम्बू. ११३। सल्लकी- गच्छविशेषः। आचा० ३० सवणुगह- श्रवणं-धर्मसम्बद्धं अवग्रहः-धर्मावधारणं सल्लग- सल्लगः-शोभनं लगनं-संवरण-इन्द्रियसंयमरूपं श्रवणावग्रहः श्रवणः वा तपस्विनस्तेषामवग्रहः सुन्दरा सल्लगः तद्भावः सल्लगत्वं, शल्यवच्छल्यं एत इत्यवधारणं श्रवणावग्रहः। उत्त० १४५) मायानुष्ठानमकार्यं तद्गायति कथयतीति शल्यगं सवणोग्गह- श्रवणावग्रह यत्यवग्रहः। आव० ३४१। शल्यगत्वम्। सूत्र० ३२३। शल्यकः-शल्यवान् सवत्त- सपत्नः-विरोधी। दशवै. १९५ शूलादिशल्यभिन्न इति। प्रश्न. १६२ सवत्तग- सापत्न्यम्। आव० ४५२। सल्लगत्तण- मायादिशल्यकर्तनम्। भग०४७१। शल्यानि | सवत्तिणी- सपत्नी। आव०८२४| मायादीनि कृन्ततोति शल्ककर्तनम्। ज्ञाता०४९। सवत्तिसमाण- समानः-साधारणः-पतिरस्याः सपत्नी, कृन्त-तीति कर्तनं शल्यानि-मायादीनि तेषां कर्त्तनं- यथा सा सपत्न्या ईर्ष्यावशादपराधान् वीक्षते एवं यः भवनिब-न्धनमायादिशल्यच्छेदकमित्यर्थः। आव० साधुषु दूष-णदर्शनतत्परोऽनपकारी च स अभिधीयत इति सपत्नी-समानः। स्था० २४३। सल्लरोहणी- शल्यरोहिणी-औषधीविशेषः। आव० ३४८१ सवन- कर्मस् प्रेरणम्। सर्य. १६९। सल्लहता- शल्यस्य हत्या-हननमुद्धारः शल्यहत्या सवनसंवत्सर- सवनं-कर्मष प्रेरणं, तत्प्रधानः। संवत्सरा तत्प्रतिपा-दकं तन्त्रमपि शल्यहत्या। स्था० ४२७ । सवनसंवत्सरः। सूर्य. १६९। ७६० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [76] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सवन्न-सवणः-सदशीकरणम्। स्था० ४९७) भग०४। सर्व-समस्तः । भग० १४९। सर्वतन्त्रः । ब्रह. ३१ सवरि- शबरी वस्त्ररहिता। भिल्ली, कायोत्सर्गे षष्ठो आ। सर्वशब्दोऽपरिशेषवाची। प्रज्ञा० ३८५ दोषः। आव०७९८१ सव्वउत्तरगुणपच्चक्खाण- सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानं सवलद्धा-आश्वस्तः। आव०६६५॥ दशविधम-नागतमतिक्रान्तम्। आव० ८०४। सवह- शपथः। ज्ञाता० २९। सव्वओ-सर्वतः-समन्तादथवा दिक्षु विदिक्षु च। स्था० सहसाविया- सपथशापिता। आव २१३। १७७। सर्वतः दिक्षुः। जीवा० १८१। सर्वतः-सर्वदिक्षु। सवाय-स चायं भगवान्। सह वादेन सवाद, सदवाचं वा, भग० ७७। सर्वतः-सर्वासु दिक्षु। जम्बू० १६। सर्वादिक्षु। शोभनभारतीकं वा। सूत्र०४०९। विपा० ५०| सर्वासु दिग्विदिक्षु। नन्दी० ८५। सर्वतः। सवास-स्वकीय सहवासः। बृह. १९२ आ। सर्वासु दिक्षु। प्रज्ञा० ३५६। सर्वतः-सर्वदिक्षु। औप०६। सवि- सर्वे। बृह० ८५आ। सर्वः-सर्वात्मप्रदेशः। भग. २२। सर्वतः-सर्वप्रकारेण सविज्जा-स्वविद्या परलोकोपकारिणी केवलश्रुतरूपा। द्रव्यादिना। आचा० १७२। दशवै. २०७४ सव्वओधार- सर्वतः-सर्वासु दिक्षु धारेव धारा-जीवनासिसविज्जुए- सविद्युत्कः। ज्ञाता० २४१ काशक्तिरस्येति सर्वतोधारम्। उत्त०६६६) सविट्ठा- श्रविष्ठा-धनिष्ठ। सूर्य. ११११ श्रविष्ठा-धनिष्ठा। | सव्वओभद्द-महाशुक्रे षोडशसागरोपमस्थिकदेवविमानम्। जम्बू०५०६| सम० ३२दृष्टिवादे सूत्रभेदे विंशतितमो भेदः। सम० सविभव- समृद्धियुक्तं-महाधनम्। ज्ञाता० २३२। १२८। सर्वतोभद्र-ईशानेन्द्रलोकपालस्य यमस्य तृतीयं सविम्हओ- सविस्मयः-साश्वर्यः। आव० ५८७ विमानम्। भग० २०३। सर्वतोभद्रः। औप० ५२। सवियार- सविचारं चेष्ठात्मकविचारसहितं सर्वतोभद्रः। जम्बू०४०५। सर्वतोभद्रा प्रतिमाविशेषाः। मरणानशनतपः। उत्त०६०१। बद्धस्य च हस्ताद् आव. २१५ गृह्यते यदि स सविचारो भवति-परिष्वषित्तुं शक्नोति। । सव्वओभद्दसण्णिवेस- सर्वतोभद्रसन्निवेशः। जम्बू. २०९। ओघ १६५। सपराक्रमसं-लेखनावतः। भक्त सव्वओभद्दा- सर्वतोभद्रा यस्यां दशस् दिक्षु विच्छिन्नो-सविस्तरः। बृह. ३०६। प्रत्येकमहोरात्रं कायोत्सर्ग करोति। ओप० ३० सविलियं- सव्रीडम्। ज्ञाता० १६५ सर्वतोभद्रा प्रतिमाविशेषः। आव० २१५ सविसए-स्वः-स्वकीयो विषयः स्पृष्टावगाढानन्तरावगा- | सव्वकंखा-सर्वकाक्षा सर्वाण्येव दर्शनानि काइक्षति। ढाख्यः स्वविषयः। भग० २१। स्वविषयं-स्वोचिताहार- दशवै. १०२ योग्यम्। जीवा. २०१ सव्वकज्ज-सर्वकार्यः सन्धिविग्रहादिः। ज्ञाता० १११ सविसयनियय-स्वविषयनियतत्त्वं-असहायत्वम्। आव० | सव्वकाम-सर्वकामः वैश्रणस्य पुत्रस्थानीयो देवः। भग. ५३१| २०० सविसेसं-सादरं-साहिगयरं। निशी. १४ आ। सव्वकामगुणिों- सकलसौन्दर्यसंस्कृतम्। आव० ४४७। सविसेसयरं- सविशेषतरं-अतिरिक्ततरम्। ओघ. २१०।। सव्वकामगुणिय- सर्वे कामगुणा- अभिलाषविषयभूता सवीरिए-सवीर्यः उत्थानादिक्रियावान्। भग० ९५१ रसादयः सजाता यत्र तत्सर्वलाभगणितम्। भग. सवेंटया- सवृन्तिका तुम्बोच्चत्वमानदण्डयत्तां ६६२। प्रथमपरिपाट्यां च पारणकं सर्वकामगुणिकं, सर्वे पात्रकेसरिका। बृह. २०२ आ। काम-गुणाः-कमनीयपर्याया विकृत्यादयो विद्यन्ते यत्र सवेला- संजता। निशी० ५० अ। तत्तथा, दवितीयायां निर्विकृतं तृतीयायामलेपकादि सव्वंति-सर्वतः-सर्वास् दिक्षु। भग० ७८१ चतर्थ्यामाचा-म्लमिति, प्रथमपरिपाटीप्रमाणं चतर्गणं सव्व-सर्व-कात्स्नम्। आचा० १३१॥ सर्व क्षेत्रम्। भग०७८५ सर्वप्रमाणं भवतीति। ज्ञाता० १२२। सर्वे कामगणासर्वः, सार्वः-अर्हन, श्रव्यः-श्रवणार्हः, सव्यः-दक्षिणम्। । अभिलषणीयपर्याया रूपर-सगन्धस्पर्शलक्षणाः सन्ति मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [77] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] ४७६। सजाता वा यत्र तत् सर्वकाम-गुणिकं सर्वकामगुणितं सव्वग- सर्वाग्रं उत्सेधः। जीवा० ३२५ वा। ज्ञाता० १५३। सर्वे कामग्णा-अभिलषणीया । सव्वगुणाधाण-सर्वगुणाधान-अशेषगणस्थानम। आव रसादिगुणाः सजाता यस्मिन् तत्तथा सर्व-रसोपेतम्। अन्त०२६। सर्वकामगुणितं-सकलसौन्दर्य-संस्कृतम्। सव्वजणिगा-सर्वजननी। मरण। प्रज्ञा० ११२। सर्वे कामगुणाअभिलषणीया रसादिगुणाः ।। सव्वजस- सर्वयशः-वैश्रमणस्य पुत्रस्थानीयो देवः। भग. सजाता यस्मिन् तत् सर्वरसोपेतम्। अन्त०५६। २०० सव्वकामविरत्तया- सर्वकामविकरक्तता, योगसङ्ग्रहे सव्वजिणसासाणगाई-सर्वैजै३ः शिष्यन्ते-प्रतिपाद्यन्ते द्वाविं-तितमो योगः। आव०६६४। यानि तानि सर्वजिनशासनानि तान्येव कप्रत्यये सव्वकामसमिद्ध- सर्वकामसमृद्ध, षष्ठो दिवसः जम्बू । सर्वजिनशासन-कानि। प्रश्न. १०२ ४९०। सर्वकामसमृद्धः, षष्ठमदिवसनाम। सूर्य. १४७। | सव्वजुइ- सर्वद्युतिः-यथाशक्तिविस्फारितं शरीरतेजः। सव्वकामिय-सर्वकामैर्निवृत्तं तत्प्रयोजनं वा सर्वकामिकं जीवा० २४५ षडू -सोपेतम्। उत्त० ५२३। सर्वाणि कामानि- | सव्वजुइए- आभरणादिसम्बन्धिन्या सर्वयुक्त्याअभिलषणी-यवस्तूनि यस्मिंस्तत् सर्वकाम्यम्। उत्त. उचितचेष्टा-वस्तृघटनालक्षणया सर्वदयुत्या। भग ४२३ सव्वक्खरसन्निवाइ- सर्वाक्षरसन्निपातो सर्वे च सव्वजोणिया-सर्वयोनिकाः-सर्वगतिभाजः। आचा० ३०४। तेऽक्षरसन्नि-पाताश्च-तत्संयोगाः सर्वेषां वाऽक्षराणां सव्वज्जु-सर्वर्जुः संयमः, सद्धर्मो वा, तं सर्वर्जुकं सत्यम्। सन्निपाताः सर्वाक्षर-सन्निपातास्ते यस्यं ज्ञेयतया । सूत्र० ३६ सन्ति। भग० १२॥ श्रव्याणि श्रवणसुखकारीणि सव्वज्जुणसुवन्नमयी- सर्वात्मना श्वेतसुवर्णमयी। प्रज्ञा० अक्षराणि साङ्गत्येन नितरां वदितुं शीलं यस्य सः श्रव्याक्षरसन्निवादी। भग०१२ सव्वट्ठ- सर्वार्थाः सर्वे तेऽर्थाश्च सर्वार्थाः-पञ्चप्रकाराः सव्वक्खरसन्निवाइणो- सर्वाणि-समस्तानि कामगुणास्तत्सम्पादकाः वा द्रव्यनिचयाः। आचा० यान्यक्षराणिअ-कारादीनि तेषां सन्निपातनं २९५। सर्वार्थः-एकोनत्रिंशत्तममुहूर्तनाम सर्वार्थः। तत्तदर्थाभिधायकतया साङ्गत्येन घटनाकरणं एकोनत्रिंशत्तम-मुहूर्तनाम। सूर्य. १४६। जम्बू. ४९१। सर्वाक्षरसन्निपातः स विदयते-अधिगमविषयतया येषां सर्वे-शयना-दिभिरर्थः प्रयोजनमस्येति सर्वार्थ:-क्षत्रियः तेऽमी सर्वाक्षरसान्निपात्तिनः। उत्त० ३४४। भ्रष्टराजाः। उत्त. १८३। सव्वक्खरसन्निवाई- अक्षराणां सन्निपाताः-संयोगाः सर्वे सव्वद्वसिद्ध-अनुत्तरोपपातिके भेदविशेषः। सर्वार्थसिद्धः। च ते अक्षरसन्निपाताश्च सर्वाक्षरसन्निपाताः ते यस्य प्रज्ञा०६९। सर्वार्थसिद्धः-विमानविशेषः। आव० १२० ज्ञेयानि। सूर्य. सर्वेषामक्षराणां अकारादीनां सव्वड्ढी- सर्वर्द्धिः परिवारादिका। जीवा. २४५) सन्निपातां-द्वयादि संयोगाः। अनन्तत्वादनन्ता अपि सव्वणाणावरणिज्ज-सर्वं ज्ञानं-केवलाख्यमावृणोतीति ज्ञेयानि। सूर्य | सर्वेषामक्षराणां अकारादीनां सर्व-ज्ञानावरणीयम, केवलावरणं हि आदित्यलक्षणस्य सन्निपातां-द्वयादिसंयोगाः। अनन्तत्वादनन्ता अपि केवल-ज्ञानरूपस्य जीवस्याच्छादकतया ज्ञेयतया विद्यन्ते येषां ते। जम्बू. १५४। सान्र्द्रमेघवृन्दकल्पमिति। स्था० ९७। सव्वक्खरसन्निवात-सर्वे-अकारादि अक्षरसन्तिपाताः- सव्वणुभई- जम्बूभरते आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां अकारादिसंयोगा विद्यन्ते ते तथा पञ्चमतीर्थकृत्। सम० १५३ विदितसकलवाङ्मयः। स्था० १७८। सव्वणोज्जुत्तो- श्रामण्योदयक्तः। मरण० सव्वखुड्डागा-सर्वदीपसमद्रेभ्यः क्षुल्लको सव्वण्णाण- सर्वज्ञानम्। स्था० १५४| लघुरायमविष्क-म्भाभ्यां सर्वाक्षुल्लकः। सूर्य. १३ | सव्वतो- सर्वतः-सर्वासु दिक्षु। जीवा० ३२७। اواهم मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [78] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] ૨૬૮૧. सव्वतोभद्द-सर्वतोभद्रं नगरम्। विपा० ८९। सर्वतोभद्रं सव्वधम्माइक्कमणा- प्रवचनमातृणां लङ्घनं यस्यां सा जितशत्रुराजधानी। विपा०६५ सर्वधर्मातिक्रमणा, आशातनाभेदः। आव० ५४८१ दिग्दशकाभिमुखस्याहोरा-त्रप्रमाणः कायोत्सर्गः सा सव्वन्नू-सर्वस्य-वस्तुस्तोमस्य विशेषरूपतया सर्वतोभद्रा। स्था० १९५१ ज्ञायकत्वेन सर्वज्ञः। भग०७ सर्वज्ञः। जीवा० २५६) सव्वतुय- सर्वतुकं सर्वर्तुभावि। जीवा० १७२। सव्वपाणभूयजीवसत्तसुहावहा- सर्वप्राणभूतजीवसत्वः सव्वत्थ- सर्वार्थः-रूचके द्वीपे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः। जीवा. सुखा-वहा, सर्वेषां प्राणभूतजीवसत्वानां सुखावहा उपद्रवकारि-त्वाभावत्, इषत्प्राग्भाराय द्वादशमं नाम। सव्वदंसो- सर्व समस्तं गम्यमानत्वात्प्राणिगणं पश्यति प्रज्ञा० १०७ आत्म-वत्प्रेक्षत इत्येव शीलः अभिभूय रागद्वेषौ सर्वं । सव्वपरिन्नाचारी- सर्वपरिज्ञाचारी विशिष्टज्ञानान्वितः वस्तु समतया पश्यतीत्येवं शीलो वा सर्वदर्शी, सर्वदंशी सर्वसंव-रचारित्रोपेतः। आचा० १४७। सर्वदर्शी, सर्व दशति-भक्षयतीत्येवं शीलो वा। उत्त. सव्वप्पग- सर्वत्राप्यात्मा यस्यासौ सर्वात्मको लोभः। ४१४१ सूत्र० ३४१ सव्वदरिसणावरणिज्ज-सर्वदर्शनावरणीयं-निद्रापञ्चक सव्वप्पणया- सर्वात्मना सर्वैरात्मप्रदेशैः। प्रज्ञा० ५०३। केवलदर्शनावरणीयम्। स्था० ९७१ सर्वात्मना-सर्वात्मप्रदेशैः। भग० २२। भग०७६२। सव्वदरिसी- सर्वस्य वस्तुस्तोमस्य सामान्यरूपतया सव्वपभा-सर्वप्रभा उत्तररुचकवास्तव्या षष्ठी ज्ञायकत्वेन सर्वदर्शी। भग०७। सर्वदर्शी। जीवा० २५६। दिक्कुमारी महत्तरिका। आव० १२२ सव्वदुक्ख- सर्वदुःखं आध्यात्मिकाधिभौतिकाधिदैविक- सव्वप्पाणभूतजीवसत्तसुहावह- सर्वे-विश्वे ते च ते लक्षणम्। उत्त० २६६। सर्वदुःखः-नरकादिगतिभाविः प्राणाश्च द्वीन्द्रियादयो भूताश्च-तरवः जीवाश्चशरीरमानसः क्लेशः। उत्त० २९२ पञ्चेद्रियाः सत्त्वाश्च-पृथिव्यादया इति, तेषां सुखं, सव्वदुक्खप्पहीण- सर्वदुःखप्रक्षीणः-मोक्षगतः। भग० शुभं वा आहतीति सर्वप्राण-भूतजीवसत्वसुखावहः स्था० १११। सर्वदुःखप्रहीणः-मोक्षः तत्कारणम्। आव० ७६१।। ४९१। सव्वदुक्खप्पहोणट्ठा- प्रकर्षण हानिं गताति-क्षीणानि वा | सव्वफालितामए-सर्वं निरवशेषं स्फटिकविशेषमणिमयं सर्वदुःखानि यस्मिन् यदि वा सर्वदुःखानां प्रहीणं-पक्षीणं | सर्वस्फटिकमयम्। जीवा० ३७९। वा यस्मिन् यच्च सिद्धक्षेत्रमेव सदर्थयन्त इवार्थयन्ते | सव्वकालियामए- सर्वं निरवशेष स्फटिकविशेषमणिमयं सर्वार्थे-च्छोपरमेऽपि तगामितया ये ते तथाविधाः। सर्वस्फटिकमयं चन्द्रविमानम्। सूर्य. २६२। प्रहीणानि वा सर्वदुःखान्याश्च-प्रयोजनानि तेषां ते सव्वफालियामय- सर्वसफटिकमयं सर्वात्मना यथाविधाः। उत्त. १६९। स्फटिकमयम्। जीवा. १७४। सव्वदुक्खप्पहिणमग्ग- सर्वदुःखप्रक्षीणमार्गः-सकलाकर्म- | सव्वफालिहमय- सर्वस्फटिकमयं सर्वात्मना क्षयोपायः। ज्ञाता०४९। स्फटिकमयम्। प्रज्ञा० ९९। सव्वद्धा-सर्वाद्धा-अतीतानागतवर्तमानकालस्वरूपा। सव्वबंध- जीवो यदा प्राक्तनं शरीरकं विहायान्यद अनुयो० १०० गृह्णाति तदा प्रथमसमये उत्पत्तिस्थानगतान् सव्दध- सर्वं दधातीति सर्वध-निरविशेषवचनम्। आव० शरीरप्रायोग्यपुद्गलान् गृह्णात्येवेत्यं सर्वबन्धः। भग. ४०० सव्वधत्ता- सर्व-जीवाजीवारव्यं वस्तु धत्तं निहितमस्यां सव्वबल-सर्वबलं-सामास्त्यः स्वस्वहस्त्यादिसैन्यम्। विवक्षायामिति सा सर्वधं-निरविशेषवचनं सर्वध्मातं- जीवा० २४५ आगृहीतं यस्यां विवक्षायां सा सर्वधत्ता। आव०४७७) सव्वबाहिरिया-सर्वबाह्या। सर्य०६७। सव्वधम्मा- सर्वधर्मा-अष्टै प्रवचनमातरः। आव० ५४८५ | सव्वब्भंतर- सर्वाभ्यन्तरः। सूर्य. ११| اواوا मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [79] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सव्वभंतरिए- सर्वाभ्यन्तरकः। सर्वात्मना-सामस्त्येना- सव्वविससमुदओ- सर्वविषसमुदयः भ्यन्तरः। जीवा० १७७ सर्वव्यसनैकराजमार्गः। आव० ५६७। सव्वब्भंभरिया-सर्वाभ्यन्तरिका। सूर्य०६७) सव्ववेतालीओ- सर्ववैतालिकः। आव. २५५। सव्वभंडिओ-सर्वभाण्डिकः। उत्त० १२३। सव्वसंभम- प्रमोदकृतौत्सुक्यम्। भग० ४७६। सर्वोत्कृष्टः सव्वभत्ती- सर्वभक्तिः सर्ववस्त्रप्रकारः। स्था० ४४९। सम्भ्रमः सर्वसम्भभः। जीवा० २४५१ सव्वभाव- सर्वभावः शक्त्यनुरूपम्। दशवै० २३०| साक्षा- | सव्वसमण्णागयपण्णाण-सर्वसामान्यागतप्रज्ञानः। त्कारः। स्था० ३४१। सर्वप्रकारः स्पर्शरसगन्धरूपज्ञानं सर्वाव-बोधविशेषानुगतः। अविपरीतज्ञानः घटमित्यर्थः। स्था. ५०६। सर्वमेव साक्षात्कारः-चक्षुप्र- सर्वद्रव्यपर्यायज्ञानः, अशेषज्ञेयज्ञानः, त्यक्षः। भग० ३४२। मोक्षानुष्ठानकर्तृज्ञानः। आचा० ७९। सव्वभावविऊ-भाव्येकादशमजिनः। सम० १५३ सव्वसमाहिवत्तियागार- सर्वसमाधिकारः। आव० ८५३। सव्वभावा- सव्वपज्जया। दशवै० १२९॥ सव्वसमुदय- सर्वसमुदायःसव्वभासाणुगामी- सर्वभाषानुगामी सर्वभाषाः-आर्यानार्या- | | स्वस्वाभियोग्यादिसमस्तपरिवारः। जीवा. २४५। मरवाचः अनगच्छन्ति अनकर्वन्ति तद्भाषाभाषित्वात पौरादिमीलनम्। भग०४७६| स्वभा-षयैव वा। सर्वभाषाः-संस्कृतप्राकृतमागध्याद्या । सव्वसामंतोवणिवाइया- सर्वसामन्तोपनिपातिकी, यत्र अनुगमयन्ति-व्याख्यायन्तीत्येवं शीला येते तथा। सर्वतः-समन्तात् पेक्षकानामागमो भवति सा क्रिया। औप० ३४१ आव०६१३ सव्वभूयप्पभूय- सर्वभूतेष्वात्मभूतः सर्वभूतात्मभूतः यः । सव्वसाहू- सर्वे सामायिकादिविशेषणाः प्रमत्तादयः आत्मवत् सर्वभूतानि पश्यति। दशवे. १५७। पुलाका-दयः वा सव्वभूमिया- सर्वभूमिका-मन्त्रिअमात्यादिस्थानकः। जिनकल्पिकप्रतिमाकल्पिकयथालन्दकल्पिकपज्ञाता०११| रिहारविशुद्धिकल्पिकस्थविरकल्पिकस्थितकल्पिकता सव्वमूलगुणपच्चक्खाण- सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानं, स्थि-तकल्पिकस्थितास्थितकल्पिककल्पातीत भेदाः, पञ्चमहा-व्रतानि। आव० ८०४१ प्रत्येकबु-द्धस्वयम्बद्धबुद्धबोधितभेदाः भारतादिभेदाः, सव्वरतणा-देवेन्द्रस्य राजधानी। स्था० २३१। सुषमदुःष-मादिविशेषिता वा साधवः सर्वसाधवः। भग० सव्वरयण-सर्वरत्नं सर्व्वरत्ननामा निधिः। स्था०४४८।। ४। ये सर्वेभ्यो जीवेभ्यो हिताः सार्वाः ते च ते साधवश्च। मानुष्योत्तरपर्वते तृतीयाः कूटः। स्था० २२३। सर्वर- सार्वस्य वा अर्हतः साधवः सार्वसाधवः। सर्वान् वा त्नाख्यः महानिधिः। जम्बू० २५८। शुभयोगान् साधयन्ति-कुर्वन्ति सार्वान् वा अर्हतः सव्वरयणामय-सर्वरत्नमयं सर्वात्मना-सामस्त्येन साधयन्ति-आराधयन्ति प्रति-ष्ठापयन्ति वा नत्वेकदे-शेन रत्नमयं समस्तरत्नमयं वा। प्रज्ञा० ८७। दुर्नयनिराकरणादिति सर्वसाधवो वा। श्रव्येषु सव्वरसालू-सर्वरसाढ्यम्। आव० ४३४। श्रवणार्हेषु वाक्येषु साधवः-निपणाः। सव्यसाधवः ये सव्वरहस्सिओ-सर्वराहस्थिकः भाण्डविशेषः। आव०४१११ सव्येषु दक्षिणेसु अनुकूलेषु कार्येसु साधवोनिपुणाः सव्वलोहिय-सकललोहमयी। आव०६८५ श्रव्यसाधवः वा सव्यसाधवः। भग०४॥ सव्ववडु- सर्वबहः। आव० ४०८। सव्वसिणाण- सर्वस्नानम्। दशवै. ११७। सव्वविभूई-सर्वविभूतिः सव्वसिद्धा- सर्वसिद्धा चतुर्थीरात्रिनाम। सूर्य. १४८। स्वस्याभ्यन्तरवैक्रियकरणादिबाह्य-रत्नादिसम्पद। | सव्वसत्तमहोदही- सर्वसूत्राणां महोदधिरिवः महोदधिः जीवा०२४५ साम-त्स्येन तदाधारतया तत्सम्बोधनं सव्वविभूसा- सर्वविभूषा यावच्छक्तिस्फारोदार सर्वसूत्रमहोदधिः। उत्त० ५११। शृङ्गारकरणम्। जीवा० २४५ | सव्वसूयगा- सर्वसूचकाःस्वनगरं पुनरागच्छन्ति मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [80] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] اواوا पुनर्यान्ति तत्र ये सूचिकाः तैः श्रुतं द्रष्टं ६३ सर्वमनुसूचकेभ्यः कथयन्ति। व्यव० १७० आ। ससउ- सुकुमालियावद्धभाउ। निशी० २५८ अ। ससओ सव्वसो-सर्वप्रकारेण| निशी. २७ अ। जितशत्रुराजपुत्रः भसकभ्राता। निशी० २५८ अ। ब्रह. सव्वाणंद- जम्ब्वैरवते आगामिन्यां षोडशमतीर्थकृत्। ११३॥ सम.१५४१ ससक्ख-सगारीए। दशवै. ८८1 सव्वाण- वैश्रमणस्य पुत्रस्थानीयो देवः। भग० २००९ ससक्खा-सचित्तेण आरण्णरएण वितिभिण्णा ससक्खा। सव्वाणुभूती- गीशालकेन तेजोलेश्यया दग्धमुनिः। भग० निशी० ८२आ। ससणिद्धा- ईसिं उल्ला ससणिद्धा। निशी० ८२ आ। सव्वाणुलोम- सानुलोमता। व्यव. २२। ससमयसुत्तं-स्वसमयसूत्रं करेमि भंते' इत्यादि। बृह. सव्वादरा- सर्वादरः समस्तयावच्छक्तितोलनम्। जीवा० २०१। २४५ ससरुहिर- शशरुधिरम्। प्रज्ञा० ३६१। सव्वायर-सर्वोचितकृत्यकरणरूपः। भग० ४७६) ससा- शशकाः। ज्ञाता०६५ निशी० १०४ आ। स्वसा। सव्वारक्खिओ- एताणि सव्वाणि जो रक्खति सो। निशी. | पिण्ड० १४० १९४ आ। ससार-ससारः-ज्ञानदर्शनचारित्रसारवान्। ओघ. १८७। सव्वावं-सर्वात्मना सर्वेण वाऽऽतपेनापत्तिः-व्याप्तिर्यस्य | ससारनिविट्ठ-ससारनिविष्टः। ओघ. १८७ क्षेत्रं सर्वं, सर्वेणातपेनापो-व्याप्तिर्यस्य क्षेत्रस्य ससि- षष्ठं स्वप्नम्। ज्ञाता०२० तत्सर्वापम्, सामान्यः सर्वेणातपेन व्याप्तिनं तु ससिगुत्त- शशीगुप्तः-चन्द्रगुप्तः। व्यव० २५६ अ। प्रतिप्रदेशं। सह व्यापेन आतपव्याप्त्या ससिणद्ध-सस्निग्धं-यबिन्दुरहितमात्रम्। ओघ० १७० यत्तत्सव्वयापम्। भग० ७८१ सर्वस्याऽपि तस्याः सस्निग्धं- तोयेन उदकाम्। ओघ० १६८। सस्निग्धंपुष्करिण्याः सर्वप्रदेशेषु। सूत्र० २७२। सर्वस्मिन्। सूत्र० ईषल्लक्ष्यमाणजलखरण्टितम्। पिण्ड० १४९। बिंदूण ३५०। सर्वेऽपि। आचा० २३। सर्वस्मिन्नपि। आचा. संभति तं। निशी. ३८ अ। सस्निग्धं ईषद्दकयुक्तम्। રાઉ૪ दशवै. १७०सस्निग्धं-बिन्दुहितम्। दशवै० १७० सव्वेसणा-सर्वेषणा-सर्वा या सस्निग्ध-बिन्दूरहितम्। बृह. २८३ आ। आहारायुगमोत्पादनग्रासै-षणारुपा। आचा० २४३ | ससिणिद्धा-सस्निग्धा-आद्रा। आचा० ३३७। शीतोदकसव्वोवघायसमुदाणकिरिया- सर्वोपघातसमुदानक्रिया यत्र | स्तिमिता। आचा० ३४२। सस्निग्धा-गलदुदकबिन्दुः। सर्वप्रकारेणीद्रयविनाशं करोतीति। आव०६१५ आचा० ३४६) सव्वोसहि- सर्व एव विड्मत्रकेशनखादयो विशेषाः ससिरविगहोवराग- शशिरविग्रहोपरागः-शशिरव्योः खल्वौष-धयो यस्य, व्याध्यपशमहेतव इत्यर्थः। आव. राहुलक्षणेन ग्रहणम्। प्रश्न० ३९। ४७) सर्व एव खेलजल्लविपुड्केशरोमनखादयः औषधिः ससिरीय- सश्रीकः-सशोभाकः। जीवा० १३९। सौषधिः। औप. २८१ ससिवी- वल्लीविशेषः। प्रज्ञान ० ३२ सव्वोसही-सौषधिः सिद्धार्थकः। जीवा० २४४। ससिहार- शशिहारः। औप० ९१। सव्वोसहे- सर्व-विड्मूत्रादिकमौषधं यस्य सा सौषधः ससी- चन्द्रः । भग. १७७। शशी-भूषणविधिविशेषः। रोगोपशमसमर्थः। प्रज्ञा०४२५ जीवा. २६९। शसनं-शशः शशोऽस्यास्तीति शशी, सह सव्वोही-सर्वावधिः। प्रज्ञा० ५३८ श्रिया वतते इति सश्री। सूर्य. २९२ ससंकप्पविकप्पणास-स्वसंकल्पविकल्पनाशः। ससुंठि- वनस्पतिविशेषः। भग० ८०२। स्वस्यआ-त्मनः सङ्कल्पः-अध्यवसायस्तस्य ससुर- श्वसुरः। आव० ३४९। विकल्पा-रागादयो भेदास्तेषां नाशः-अभावः। उत्त. |ससेण- सशासनः भरताज्ञासहितः। जम्बू. २२० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [81] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text]] सस्सामिवयण- स्वं च स्वामी च स्वस्वामीनौ तयोर्वचनं | सहवढिया- सहवृद्धौ समेतयोवृद्धिमुपगतत्वात्। ज्ञाता० प्रतिपादनं तत्र स्वस्वामिवचनः-स्वस्वामिसम्बन्धः। ९१ स्था०४२८ सहवासिय- सहवासिकं-प्रतिवेश्मिकम्। सूत्र. ३२० सस्साविणी- साश्राविणी सहाश्राविः जलप्रवेशान्वितः। सहसंबवर्ण- सहस्रामवनम्। आव० १३७। हस्तिनागपुर प्रक्रमात्सन्धिः । उत्त०५०९। उद्यानम्। भग० ५३५। हस्तिनागरे वायव्यकोण सस्सिओ- सास्यकः-कृषीबलः। ब्रह. २३२ अ। उद्यानम्। भग०५१४| सहस्रामवनंसस्सिरिए- सश्रीकं-सशोभम्। भग० १२५ काकन्दीनगर्यामुद्यानविशेषः। उत्त० २। सस्सिरिय- शोभायुक्तः। भग० ४८२ हस्तकल्पायामुद्यानम्। ज्ञाता० २२६। नागपुर सस्सिरीय-स्वश्रीः आत्मसम्पद्। भग० ४८२। उद्यानम्। ज्ञाता० २५२ सश्रीकसशोभन्। सूर्य २६४ सहसंबद्ध-सह आत्मनैव सार्द्ध अनन्योपदेशतः। सह-सहः-सहिष्णः, भारते वर्षे पञ्चमो मनुष्यभेदः। भग० सहआत्मा नैव सम्यग्-यथावद् बुद्धो २७६। युक्तः। उत्त० ३६४। स्वयमात्मनैव। उत्त. ३०६) हेयोपादेयोपेक्षणीयवस्तु तत्त्वं विदितवानिति सम्बन्धवाची। आचा० २०| युगपदेव। सम० ११७) सहसम्बुद्धः। भग०७। सहसम्बुद्धः-स्वयमेव स्वयमेव सहकारिकारण- चक्रचीवरायनेकधा कारणम्। स्था० सम्यग्बोद्धव्यस्य बोधात्। औप० १४॥ ४९४॥ सहसंमइयाए-सहसा तत्क्षणमेव मत्यासहजातग- सहजातः। आव० ३४३| प्रातिभबोधावध्या-दिज्ञानेन सह वा ज्ञानेन ज्ञेयं सहजायया-सहजातौ जन्मदिनस्यैकत्वात्। ज्ञाता०९१। सच्छोभनया मित्थात्वकलका-करहितया मत्या। सहज्जिय-सखी। आव०४१९| आचा० २२७ सहते-स्थानाविचलनतः क्षमते। भग० ४९८ सहसंमुइय-सहात्मन या संगता मतिः स सहसम्मतिः सहत्थपाणाइवायकिरिया-स्वहस्तेन स्वप्राणान् परोपदेशनिरपेक्षतया जातिस्मरणप्रतिभादिरूपया। निर्वेदादिना परप्राणान्। वा क्रोधादिना अतिपातयः उत्त०५६४१ स्वहस्तप्राणातिपात-क्रिया। स्था०४१। सहसक्करणं-जाणमाणस्य परायत्तत्वेत्यर्थः। निशी. सहत्थपारियावणिया-स्वहस्तेन स्वदेहस्य परदेहस्य वा ३० । पारितापनं कुर्वतः स्वहस्तपरितापनिकी। स्था०९११ । सहसक्कार-सहसाकारः-असमीक्षितपूर्वापरदोषः सहदारदरिसिणो- सह दारान् पश्यन्तीत्वेवंशीलाः सहदार- सहसाक-रणम्। आचा० १०२। सहसाकार:दर्शिनः, एककालकृतकलत्रस्वीकाराः समानवयस इति। अकस्मात्करणः। स्था०४८४। सहसाकारःउत्त० ३७७ आकस्मिकक्रिया। भग. ९१९। सहदारदरसी- सहदारदर्शिनौ समानयौवनारम्भत्वात्। सहसक्खे-सहस्रमणं यस्यासौ इन्द्रः सहस्राक्षः। प्रज्ञा. ज्ञाता०९१। १०१ सहदेव- पाण्डुराजपञ्चमपुत्रः। ज्ञाता० २०८। सहसदाण-अप्रतर्कितदानम्। ओघ. १९५। सहदेवि- सहदेवी-सनत्कुमारमाता। आव० १६१। सहसम्मइ- सहसम्मत्या सह-आत्मना या सगता मतिः सहदेवी-औषधिविशेषः। उत्त० ४१७। चतुर्थचक्रीमाता। सा सहसम्मतिः। प्रज्ञा० १६६। सम० १५२ सहसख्या- सूलविसूइया। निशी० ५२। सहपंसुकीलिया-सहपांशुक्रीडितको समानबालभावात्वात्। | सहसलाह- सहसलाभः-विशिष्टस्य कथञ्चिल्लाभः। ज्ञाता०९१ आव०६४ सहभाव- इंदियाणं पत्तेयं जो जस्स विसयो सो सहभावो। सहसा- प्रकाण्ड एव। आव०७८४| सहसा-तत्क्षणम्। दशवै०७६| दशवै०४४। एककालम्। जीवा० २६७। पवावरं मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [82] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] अणालोचे। निशी० १३६ आ। आकस्मिकम्। ओघ. | जम्बू. ३९४। सहस्रपाकं तैलविशेषः। आव० ११६| १५४। सहसा-एककालम्। जम्बू. १०२। अवितर्व्य। सहस्सब्मक्खाण- सहसाभ्याख्यानम्। आव०८२० प्रश्न. ३० अप्रतर्कितम्। ओघ० २२६। सहस्साणीय- उदायनस्य पितृपिता। भग० ५५६) सहसाअब्भाक्खाण- सहसा-अनालोच्याभ्याख्यानं-असद्दो- | सहस्सार-सहस्रारः कल्पोपगवैमानिके भेदविशेषः। प्रज्ञा. षारोपणं सहसाऽभ्याख्यानम्। उपा०। ६९ सहसाकारेह- सहसात् कारयत- आश् पञ्चत्वं नयत। सहसारवडिंसग-आनतकल्पे आचा०२७३। अष्टादशसागरोपमस्थितिक-देवविमानं। सम० २५ सहसागार-सहसाकारः सत्यकल्पनायः भिक्षादोषविशेषः। सहस्रारावतंशकः। सहस्रारदेव-लोकस्य मध्येऽवतंसकः। आव०५७५ जीवा० १९२ सहसारर- सहस्रारः पुरुषोत्तमवासुदेवागमनस्थानम्। सहा- सभा चातुर्वैद्यादिशाला। ३६६। सखा-बालवयस्यः। आव० १६३ स्था० २४५। सखा-समानखादनपानोगाढतमस्नेर्सहसावत्तासियाणि- सहसाऽवत्रासितानि- पराङ्मुखतादेः स्थानम। जीवा. २८१। सभा। औप०४१। सहाः। जम्बू० सपदि त्रासोत्पदकान्यक्षिस्थानगर्भे घट्टनादीनि। उत्त. ३१३। सहाः। जम्बू. १२८। सभा। आस्थायिका। जम्बू. ૪ર૮ી. १४४| सखा-समानखादनपानो गाढतमस्नेहास्पदम्। सहसि- सहसा भयाभावेन। ज्ञाता०७१। जम्बू. १२३। सभा। जम्बू० ३८८ सभानाम सहसुद्राह- सहसा-अकस्माद् उद्दाहः-प्रकृष्टौ दाहः सहसो ग्रामनगरादीनां द्दाहः सहस्राणां वा लोकस्योद्दाहः। स्था०५०८। तद्वासिलोकास्थायिकार्यमागन्तुकशयनार्थं च सहस्रपत्र- जलजम्। प्रज्ञा० ३७। कुड्याद्या-कृतिः। आचा० ३०७। सहस्रपाकतैल-सहस्रपाकतैलम्। आचा० ३१३| सहाकार- विशेषितग्रहणशक्तिलक्षणः। स्था. ९३। सहस्रामवणं-द्वारकायां उद्यानम्। अनुत्त०४९२। सहाकिच्च-सहायकृत्यं-मित्रादिकृवं सहायकम। ज्ञाता० सहस्संबवण- सहस्रामवणं-हस्तिनापरे उदयानम्। विपा. | १९११ ९श सहस्रामवणं-हस्तिनापुरे उदयानम्। भग०७६७ सहामि- तदुत्पत्तावभिमुखतया। स्था० २४७। उदयानविशेषः। ज्ञाता०१५२। पोलासपुर उद्यानम्। सहाय-सहायः-साहाय्यकारी। ज्ञाता०८८। सहायःउपा० ३९| सहचरः। स्था० २४५ सहस्स- सहस्रं अनंतसङ्ख्यायाम्। आव० ४०७। सहायकिच्च-सहायकृत्यम्। आव. ३४६) सहस्सकार- पूर्वमदृष्ट्वा क्षिप्ते पादे यत्पुनः पश्येत् न च | सहायत्तं- सहायत्व साधूनां नमस्कारार्हत्वे हेतुः। आव० शक्नोति निवतितुं पादं तत् सहसात्कारः, ३८३। सहायत्वं अर्हदादीनां नमस्कारार्हत्वे हेतुः। आव० अतिचारविशेषः। आव० १६४। ३७३। सहस्सक्ख-सहस्रमणां यस्यासाविन्द्रः सहस्राक्षः। भग. | सहायपच्चक्खाण-सहायाः-साहाय्यकारिणो यतयस्तत्प्र १७४। पञ्चानां मन्त्रिशतानां सहस्रमणां भवतीति त्याख्याने तथाविधयोग्यताभाविनाऽभिग्रहविशेषरूपः। तद्यो-गादसौ सहस्राक्षः उपा० २६। उत्त० ५८१ सहस्राक्षःसहस्रलोचनः। उत्त०५।। सहावो- स्वभावः यद् मगादीनां राद्विस्वभावमितरद्वा सहस्सपत्त- सहस्रपत्रम्। प्रज्ञा० ३७। जलरुहविशेषः। स। प्रश्न. ३५॥ स्वभावः। प्रश्न ३५ स्वभावः-स्वरूपः। प्रज्ञा०३३ उत्त०६८५ सहस्सपाग- सहस्रेणौषधीनां सहस्रं वा वाराः पक्कम्। बृह. | सहावफुल्ल-स्वाभावफल्लं प्रकृतिविकसितम्। दशवै. २०९ अ। सहस्रपाकैः-शतकत्वोऽपरापरौषधिरसेन ७३ कार्षापणानां शतेन वा तच्छतपाकमेवं सहस्रपाकमपि। | सहावसिद्ध-स्वभावसिद्धं-आत्मार्थं कृतम्। उदगमादिदोष मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [83] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] रहितम्। दशवै०७३। सांशयिक- मिथ्यात्वे पञ्चमभेदः। स्था० २७ सहि-सखा-मित्रम्। जम्बू. १४९। सहिः। स्था० २४७ साइ- सादि नाभीतोऽधश्चतुरस्रलक्षणयुक्तमुपरि च न सहिए- सहितः महाग्रहः। जम्बू. ५३४। सहितः तदनुरूपं संसाथानम्। भग०६५०| अविश्रमः। ज्ञाता० सम्यग्दर्शनादिभिरन्यसाधुभिः। उत्त०४१४। स्वस्मै २३८। सह आदिना-नाभेरधस्तनभागेन हितः स्वहितः। उत्त०४१४१ सह हितेन वर्तत इति यथोक्तप्रमाणलक्षणेन वर्तते इति सादि। तृतीयं सहितः, सहितो-युक्तो वा ज्ञानादिभिः। स्वहितः- संस्थानम्। प्रज्ञा० ४१२। सादि उत्से-धबहलं संस्थानम्। आत्महितो वा। सूत्र०६९। सह हितेन वर्तत इति आव० ३३७। स्वातिः माया। दशा० २७२। सहितः। आचा०६२६| साइजोग- अविश्रम्भसम्बन्धः सातिशयेन वा द्रव्येण सहिओ- कालोचितस्वाध्यायप्रतिलेखनातपः सहितः। निरति-शयस्य योगस्तत्प्रतिरूपकरणम्। भग० ५७३। व्यव० २३६) साइजोगजुत्त- सादियोगयुक्तः अशुभमनोयोगयुक्तः। सहिण- लक्ष्णं-सूक्ष्मम्। आचा० ३९४१ लक्ष्णं-सूक्ष्मम्। दवाविंशतितममोहनीयस्थानम्। आव०६६१| आचा० ३९४। सहिष्णुः । बृह. ७० अ। साइज्जइ-स्वदत्ते-अनुमन्यते। भग० ६८४। आसादयति सहिणकल्लाण-लक्ष्णं-सूक्ष्मं तत् वर्णच्छव्यादिभिश्च प्रतिगृह्णाति। व्यव० २२३ अ। कल्याणं शोभनं वा सूक्ष्मकल्याणम्। आचा० ३९४१ साइज्जण-सातये-सङ्गोपये। बृह. २२१ अ। सहिय- सीहतः-मिलितः। उत्त०७०६। संहतम्। औप० ४७। | साइज्जणय-स्वदनता। भग० ९२४। सहितः-समुदितः। जीवा० १९४। साइज्जणया- सेवा। स्था० १४९। सहिया- सहिता-सन्तता नत्वपान्तरालव्यवच्छिन्ना। साइज्जणा- अणुमोयणा। निशी. १३४ अ। विहा जीवा० २७११ कारावणे अणुमोदणे च। निशी. १०३ आ। सहिष्ण-समर्थः। भग० २७८। साइज्जह-स्वदध्वः-अनुमन्यध्वः। भग० ३८१। सहीण-स्वाधीनं स्ववशम्। दशवै० २२५१ साइज्जिज्जा-आस्वादयेत्। आचा० ३९८ सहु- सहिष्णुः-निष्ठुरशरीरम्। उपा० । साइज्जित्तए-स्वादयित्-भोक्तम्। औप० ९५ सह-सहः समर्थः। ओघ० ४२। समर्थः। आव० ७७८१ साइज्जिस्सामि- स्वादयिष्यामि-उपभोक्ष्ये। आचा. २८२। सहिष्णुः । आव० ८५८५ स्वादयिष्यामि-अभिलषिष्यामि। आचा. २८१। सहे-सहते-क्षमते। आव० ५६८1 साइज्जेज्ज-स्वादयेत् सत्यकारदानतः स्वीकृर्यात्। सहेज्ज- सहेत। ज्ञाता० १७३। भग० २२९। अभ्युपगच्छत्। आचा० ३३१| सहो- सहः-समर्थः सहायादिगुणयुक्तः। आव० ५३७। साइतंकार- सत्यकारफ। आव०७०३। सहोढ-सलोप्तः। पिण्ड० ११३। समोषम्। ज्ञाता०८६) साइम-स्वादनं स्वादः तेन निवृत्त स्वादिमम्। स्था० सलोप्तः। निशी. १२८ अ। सलोप्तः। ब्रह. १५४ अ। १०९। स्वादिम स्वाद्यत इति स्वादिमं कर्पूरलवङ्गादि। सहोढ-सलोप्तम्। निशी. १०७। आचा. २६५। स्वादिमं कक्कोललवङ्गादि। आव०८११। सांकायिक- भारोदवहनयन्त्रम्। निर०२६। स्वादिमं -गुडताम्बुलपुगफलादि, स्वादयति गुणान्सांगइओ- साङ्गतिकः-सङ्गतिमात्रघटितः। जीवा० २८१। रसादीन् संयम-गुणान-रसादीन् वेति। आव० ८५०। सांतर- सान्तरः-सावकाशः-बृहदन्तरालः। ओघ०८२। स्वायं-ताम्बुलादि। दशवै० १४९। सांतरा- पत्नी। व्यव० ८५।। साइयंकार-सप्रत्ययम्। पिण्ड० १२८१ सांभरक-दीपसत्को रूपकः। ब्रह. २२७ अ। साइयसंठित- उत्तराषाढानक्षत्रसंस्थितिः। सूर्य. १३० सांमोही-सम्मोही, गढात्मनो देवविशेषास्तेषामियं साइया-सादिताः-खेदं प्रापिताः। ब्रह० ३०१ आ। साम्मोही। बृह. २१२ आ। साइसंठाणा-सादिसंस्थानं। तृतीयं संस्थानम्। प्रज्ञा सांयात्रिकः- सांयात्रिकः। आचा० २४७। ४७२। नाभितोऽधः मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [84] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सर्वावयवाश्चतुरस्रलक्षणाविसंवादिनो यस्योपरि च | साकेय- साकेतं नगरविशेषः। आव०६२। कुरूदत्तपुत्रप्रति यत्तदनुरूपंन भवित तत्सादिसंस्थानम्। सम० १५० मास्थितस्थानम्। उत्त. १०६। साइसंपओग-सहानिशयेन संप्रयोगः सातिशयेन द्रव्येण | साखा- शाखा। उत्त० ३०० शाखा-विडिमा। जीवा० ३६३। कस्तूरिकादिनाऽपरस्य द्रव्यस्य संप्रयोगः साखापारओ- शाखापारगः। आव० ३०० सातिसम्प्रयोगः। सूत्र० ३३०| सातिसम्प्रयोगः- साग-शाको-वस्तुलादिभर्जिका। स्था० ११०| शाकःविगुणद्रव्यस्य द्रव्यान्तरमी-लनेन तक्रसिद्धः। स्था० ११९। वृक्षविशेषः। उत्त०६५४| शाकः गुणोत्कर्षभ्रमोत्पादनम्। प्रश्न. ९७। वत्थुलभर्जिकादिः। पिण्ड० २२॥ वनस्पतिविशेषः। साई-स्वातिः। स्था० ७७ भग०८०२। शाकः-तक्रसिद्धः। भग. ३२६। शाकःभावीत्रयोविंशतितमतीर्थकृन्नाम। सम० १५स्वातिः- वस्तुलादि। उपा० ५। सौवस्तिकशाकः। उपा० ५। शाकःवायुभूतेर्जन्मनक्षत्रम्। आव० २५५ तक्रसिद्ध-शाकः। प्रश्न. १६३। शाकः-वस्तुलादिभर्जिका, साईकारावण-सत्यङ्कारः। आव०६८५) शाकः-तक्रसिद्धः। सूर्य० २९३। साउणिय- शकुनान् हन्तीति शाकुनिकः। प्रश्न. १३॥ सागओ-स्वागतः। आव० १८९। शकुनेन चरतीति शाकुनिकः। प्रश्न. १३। शकुनेन- सागड- शाकटं-गन्त्रीविशेषाणां समूहः। भग० ६७१। श्येनादिना मृगयां करोतीति शाकुनिकः। प्रश्न० ३७। सागतए-आलिङ्गनम्। आव० ३४९। शाकुनिकः शकुनेन चरति पापर्धिं करोति शकुनान् वा सागपत्त- शकपत्रम्। प्रज्ञा० ३६७ सर्गपत्रंघ्नन्तीति शाकुनिकः। अनुयो० १३०| वृक्षविशेषपर्णम्। प्रश्न 1 साए- हस्तविशेषः। प्रज्ञा० ३३। सागय-स्वागतम्। आव०६७। स्वागतसाएअ-साकेतं-चन्द्रावतंसकनगरम्। आव० ३६६। शोभनमागमनम्। भग० ११६| साएए-अनुत्तरोपपातिके पञ्चमवर्गे नगरम्। अनुत्त० सागयमणुरागयनगरविशेषः। अन्त०२३ शोभनत्वानुरूपत्वलक्षणधर्मद्वयोपेतमागमनम्। भग. साएय- साकेतं-नगरविशेषः। अनुयो० ८1 वारत्तते ११७ नगरम्। अन्त०२३। साकेतं-मूलगुणप्रत्याख्याने सागरंगमा- सागरं-समुद्रं गच्छतीति सागरङ्गमाशत्रुञ्जयरा-जधानी। आव०७१५। साकेतं समुद्रपातिनी। उत्त० ३५२। साकेतात्समकटकभ्रान्तः। उत्त० ३७९। साकेतं- सागर- सागरः-दत्तवासुदेवधर्माचार्यः। आव० १६३। बलदेअलोभोदाहरणे पुण्डरीकराजधानी। आव०७०१| ववासुदेवयोः पूर्वभवधर्माचार्यः। सम० १५३। दुरितविशेषः। प्रज्ञा० ३३। साकेतं-नगरं, यत्र अन्तकृद्दशानां प्रथमवर्गस्य तृतीयमध्ययनम्। अन्त० कुरूटोत्कुटौ दोषार्तेतरोपाध्यायौ कालं गतौ। आव. १। सागरः-इन्द्र-दत्तराजस्य दासचेटः। उत्त. १४८१ ४६५। केतं-चिह्न सह केतेन वर्तते सकेतं-सचिह्नम्। सागरः-अयं क्वचि-त्काले प्रचरसलिलो भवति भग. २९७। साकेतं-कोशलजनपदे आर्यक्षेत्रे नगरम्। क्वचित्पूनर्मर्यादावस्थ एव उप-माविषयः। ओघ०६९। प्रज्ञा० ५५ ईशानकल्पे सागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० २१ साकड्ढ़ते- समाकर्षयन्। भग० १७५१ द्वादशमं स्वप्नम्। ज्ञाता०२० सागरः-अन्तकृद्दशानां साकार- साकारत्वं द्वीतीयवर्गस्य द्वितीयमध्ययनम्। अन्त०३। विच्छिन्नवर्णपदवाक्यत्वेनाकारप्राप्तत्वम्। सम०६३। । सागरः-तितिक्षोदाहरणे चतुर्थो दासचेटः। आव० ७०२। साकारपस्सी-साकारपश्यत्ता। प्रज्ञा० ५३१| सागरः-दासचेटः। आव० ३४३| साकेअ-साकेअं-अभिनन्दनस्य प्रथमपारणकस्थानम्। सागरकंत-ईशानकल्पे सागरोपमस्थितिकं देवविमानम। आव. १४६ सम० २। साकेत- नगरविशेषः। दशवै. २८१। | सागरकूट- वक्षस्काराधिपतिवासकूटम्। जम्बू० ३३७। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [85] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] सागरखमण- सागरक्षपणः । उत्त० १२६ | प्रज्ञादृष्टान्तः । मरण | सागरचंद- सागरचन्द्रः चन्द्रावतंसकस्य सुदर्शनाराज्या ज्येष्ठपुत्रः युवराजा आव० ३६६| सागरचन्द्रनिषधपुत्रः । आव० ९४१ बारवर्ती बलदेवपुत्तस्य पुत्तो । बृह ३० अ सूच्युपसर्गसहः । मरण० । सागरचंदा- मुनिचन्द्रगुरवः-सागरचन्द्राः आचार्याः। उत्त॰ ३७५ | सागरचित्तकूड- सागरचित्रकूट- नन्दनवने कूटः । जम्बू० ३६७ | आगम- सागर - कोषः ( भाग : - ५ ) सागरतरङ्ग- नाट्यविशेषः । जम्बू० ४१४ । सागरदत्त- सागरदत्तः भद्रबलदेवपूर्वभवः आव० १६३३ सागरदत्तः- पाटलखण्डनगरे सार्थवाहः। विपा. ७४ सागरदत्तः ब्रह्मदत्तपत्न्या दीर्घशिखायाः पिता । उत्त० ३७९ ॥ तृतीयबलदेवपूर्वभवनाम सम० १५३| चम्पायां सार्थवाहः । ज्ञाता० २००१ गोचरविषयोपयुक्ततायां गुणाल-यपुरे श्रेष्ठी । पिण्ड ६८| सागरदत्ता कुन्थुनाथशीबिका। सम० १५१| सागरप्रविभक्ति द्वादशमो नाट्यभेदः । जम्बू- ४१६। सागरप्रविभक्तिनागप्रविभक्त्यभिनयात्मक: सागरनाग-प्रविभक्तिनामा द्वादशमो नाट्यविधिः । जीवा० २४६ | सागरबोद- सागरपोतः परलोकफलविषये सार्थवाहः । आव० ८६३ | सागरमह- उत्सवविशेषः । आचा० ३२८ सागरवर- स्वयम्भूरमणः । आव० ५१०। सागरवूह- सागरव्यूहः सागराकारः सैन्यविन्न्यासः । प्रश्न० ४७। सागरव्यूहः- चेटकस्य व्युहरचना आव० ६८४ | सागरसरिनामधेज्जा सागरसदृशनामधेयः । सागरोपमः । आव० १७१। सागरोवम कालमानविशेषः । स्था० ८६ | सागरेणोपमा यस्मिंस्तत्सागरोपमः । ठाणा । ९० पल्योपमानां दशभिः कोटाकोटाभिरेकं व्यावहारिकं सागरोपमम्। अनुयो० १८०१ सागरोपमं कालमानविशेषः । अनुयो. १०० | सागरोपमः । भग० २७५१ सागरोपमः मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [86] कालमानविशेषः । भग० २१० सागरोपमः दुर्लभपारत्वात् सागरेण समुद्रेणोपमा यस्य तत्सागरोपमं, असङ्ख्यकालत्वम् जम्बू० १२१ कालविशेषः । भग० ८८८ सागरोपमं पल्योपमानां दशकोटीकोटयः । जीवा० ३४५ [Type text] सागर- आक्रियन्त इत्यकाराः प्रत्याख्यानापवादहेतवोऽना-भोगाद्यास्तैराकारैः सहेि साकारम्। स्था० ४९८ । साकार:- विशेषग्राहकः । भग० ३५५| प्रत्याख्यानापवाद-हेतवोऽनाभोगादय आकारास्तैः सह साकारः । आव० ८४० | सागारःसागारिकः ओघ० ५० सागारठवंति सविकल्पं कुर्वन्ति । ओघ० ६९ ॥ सागारपासणया साकारपश्यता । ओघ० १५५| सागारिकः शय्यातरः । पिण्ड० ९७| सागारिअ - सागारिकं मेहनम् । आव० २२० सागारिकःशय्यातरः । ओघ० ७२ सागारिअसंघट्टण सागारिकसंस्पर्शः ओघ० ९० १ सागारिए - सागारिको वसतिस्वामी । बृह० १८३ आ । सागारिकः सागारयुक्तः गृह ३९ अ सागारिकःशय्यातरः ओघ १३८ सागारिकः स्तेनादिकः ओघ० ११२ सागारिओ - सेज्जातरो । निशी० १५२ आ । सेज्जा-तरो । निशी० २२५ आ । सेज्जायरो | निशी० ७३ आ । सागारिक- शय्यातरः। आव० १५६ | मैथुनम् । बृह० २०१ अ। मैथुनम्। बृह॰ ५१। सागारकड सागारकृतं यस्त्वनात्मार्थीकतम् । व्यव २७१। बृह० ८८ आ । सागारिकावग्रह- शय्यातरावग्रहः तृतीयोऽवग्रहः आव० १५६| सागारिगा - सद्दपडिबद्धा वसहीए ठिता। निशी० ६७अ । जत्थवसही ठियाणं मेहणुब्भवो भवति सा सागारिगा, अहवा जत्थ इत्थी पुरिसा वसंति से सागारिका । निशी० १ अ सागारित- अगारं गृहं सह तेन वर्त्तत इति सागारः, स एव सागारिकः - शय्यातरः । स्था० ३११ । सामारिय सागारिकं मैथुनम्। आचा० ३०२१ सागारिकःशय्यातरः । सूत्र. १८१| मैथुनम्। आचा० २०० सागा - 1 "आगम- सागर-कोष :" [५] Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] रिकम्। दशवै० ५७। सागारिकः-स्थानदाता। सम०४०। | साडुअ- अबद्धास्थिफलम्। आव० ६८४। सहागारेण-गेहेन वर्तत इति सागरः स एव सागारिकः। | साडेतूण- शाटयित्वा। आव० ८३१| भग०७००| सागारिकः- आव० ८५३| अंगादाणं| निशी० | साडोल्लए- उत्तरीयवस्त्रम्। ज्ञाता०२३५ ३३ अ। उत्प्रावाजनभयं। बृह. ४४ अ। मेहणं। निशी साडूढी- श्रद्धा-धर्मेच्छा सा विदयते यस्यऽसौ श्रद्धावान्। २१७ । सागारिकम्। आव०७३९| आचा० २२३ सागारियपसंग-मैथुनम्। बृह. २०८ अ। साणं-स्वेषां आत्मीयानाम्। प्रज्ञा० ८९। श्वानं-मण्डलम्। सागारियपिंड-सागारिकपिण्डं सागारिकः दशवै. १६७१ श्वानः-कौलेयकः। प्रश्न. ७ ज्ञाता०९४। शय्यातरस्तस्य- पिण्डं-आहारं, यदि वा सूतकगृहपिण्डं दिशाचरविशेषः। भग०६५९। जुगुप्सितं वर्णापस-पिण्डं वा। सूत्र० १८१। साणए- सणसूत्रमयं वस्त्रं सानकम्। बृह. २०१। सागारिया-सागारिकाः सज्ञातकाः। बृह० ३८ अ। साणत- सणसूत्रमयं सानकम्। स्था० ३३८1 सागारियागार-सागारिकाकारः। आव० ८५३। साणवणीमत- वणीमगे चतुर्थो भेदः। स्था० ३४१। सागारोवउत्त-आकारः-प्रतिनियतोऽर्थग्रहणपरिणामः, साणावच्छादारासंघट्टणा- श्वानवत्सदारकसंघट्टना। आव. सह आकारेण वर्तते इति साकारः स चासावुपयोगश्च १७५ साकारोप-योगः। प्रज्ञा० ५२६। साणिय-साणयं-साणवत्कलनिष्पन्नम्। आचा० ३९३। सागेय- कौशलाजनपदे राजा, साकेतः। ज्ञाता० १३०| साणी-सवणक्केहिं विज्जइ। दशवै. ७७। शाणीअतनगरविशेषः। अन्त० २३। साकेतं-यत्र सम्यक्त्ववान् सीवल्कजा पटी। दशवै. १६६। चन्द्रावतंसको नाम राजा। उत्त. ३७५ सिद्धौ नगरम्। । साणुक्कोस-सानुकोशः सदयः। प्रश्न०७४| सान्क्रोशःअन्त० २३। साकेतं नगरं, यत्र अशोगदत्तेभ्यस्य पूत्रौ सकरुणः। उत्त०४९१| जातौ। आव० ३९४। साणुक्कोसया- सानुकोशता। आव०६५ सानुकम्पता। सागेयनगर- महाकालिन्दायाः पूर्वभववास्तव्या नगरी। भग०४१२॥ ज्ञाता०२५२। साणुणाति- आरामे गंभीरे जत्थ वा खेत्ते पडिसद्दो भवति सागेयनयर- नगरविशेषः। आव. २५३। तं साणुणाति। निशी० ९९ आ। साङ्ख्य-शास्त्रविशेषः। आव० ३७५ साणुप्पओ- चउभागावसेसचरिमाए साचि- शाल्मलीतरुः। जीवा०४३। उच्चारपासवणभूमीओ पडिलेहेयव्वाउत्ति ततो साचिव्य- प्राधान्यम्। नन्दी. ९०| कालस्स पडिक्कमति ततो पडिले-हेति एस साणप्पओ। साची- शाल्मलीतरूः। प्रश्न०४१२। निशी० २१९। साडग- एगदेशखंडस्स पढणं| निशी० २३२ अ। साणुप्पग-प्रत्यूषवेलायां सान्प्रगः। बृह० ३०१ अ। साडगग्गहणा- परिहाणं जवलं वासं। निशी. ३२९ आ। | साणुवीय- अविध्वस्तयोनिबीजम्। आचा० ३४८। साडण- सातनं-उदराबहिःकरणम्। निर०११। शातनं साणुलट्ठिय- सानुलष्ठं-ग्रामविशेषः। आव० २१५१ शातनकरणं यस्य शङ्खोदाहरणम्। आव० ४६२। साणेति- मंदपादो शुक्लपादो वा। निशी. प्रव ३२४ आ। साडणा- शातना-गर्भस्य खण्डशो भवनेन पतनहेत्ः। साण्णि-सावगं| निशी० २११ अ। विपा०४२ सात-आलादः। जीवा० १२३। साडय- शाटकं-वस्त्रमात्रम्। भग० ४७६। शाटकम्। आव. सातवाहण- शातवाहनः प्रतिष्ठाननगरे राजा। व्यव. ३०६। शाटकं-वस्त्रमात्रम्। जम्बू० १६१। शाटिकः। आव. १९३ ३९४१ सातसोक्ख- सातसौख्यं अभिमानमात्रजनितमाहलादम्। साडीकम्म-शाटककर्म शाकटिकत्वेन जीवति। आव. जीवा० १२३ ८१९| | सातागारव- सातागौरवं-सुखशीलता। सूत्र० १७३। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [87] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] सातासात- क्रमेणोदयप्राप्तवेदनीयकर्मपुद्गलानुभवतः साता-साते। प्रज्ञा० ५५६ । साति सादि सह आदिना-नाभेरधस्तनभागेन यथोक्तप्रमाणलक्षणेन वर्त्तत इति सादि, तृतीयं संस्थानं उत्सेधबहुलम् जीवा० ४२ शाल्मलीतरुरिव यत्संस्थानम्। जीवा० ४२ | सातिचार छेदोपस्थापनिकचारित्रे द्वितीयो भेदः, मूलप्रायश्चित्तप्राप्तस्य भवति । स्था० ३२३| सातिज्जणा अणुमोयणे कारावणे निशी. ११५ आ सातिदत्त-स्वातिदत्तः ब्राह्मणविशेषः । आव० २२५ | सातियंकार- सत्यङ्कारः आव० ३४३| सातिरेगअणडिपोरिसी सातिरेकैकोनषष्टिपौरूषी सूर्यउद्गमसमये अस्तगमनसमये छाया । सूर्य० ९५ साती- सातिः- अविश्रम्भः, मृषावादस्य त्रयोदशं नाम । प्रश्न॰ २६। स्वातीनक्षत्रम् । सूर्य० १३० | सादिः - आदिरिहोत्सेधाख्यो नाभेरधस्तनो देहभागो गृहयते तेनादिना शरीरलक्ष-णोक्तप्रमाणभाजा सह वर्त्तत यत्तत् सादिः उत्सेधबहुलं परिपूर्णोत्सेद्यमित्यर्थः । स्था० ३५७ | सात्त्विक- अभिनयविशेषः । जम्बू० ४१४। सादिज्जति परिभुंजति। निशी० १०८ आ सादिय- सहादिना - मायया वर्त्तत इति सादिकं समायम् । सूत्र. १७३ 1 सादिव्वं - सादिव्यं सदेवत्वम् । उत्त० ३२३ | सादेव्यम् । उत्त० १०८ । देवताप्रातिहार्यम् । पिण्ड० १२५ | सादिव्यंदेवस-न्निधानम् । उत्त० ८५| सह दिव्यः सादिव्य तच्च गन्धर्वनगरादि दिव्यकृतम्। आक० ७३१। सादिसंपयोगपरा अवीसत्थहियया । दशवे. १५४४ सादीसह आदिना-नाभेरधस्तनकायलक्षणेन वर्त्तत इति आगम - सागर - कोषः ( भाग : - ५ ) सादिः । अनुयो० १०२ सादीणगंगा-सप्त महागंगा प्रमाणा । भग० ६७४ | सादेति लभति । निशी० २८० अ सादेव्वं- पादेव्यं - सान्निध्यम् । प्रश्न० ११५ । से दिव्येण सादेव्वं दिव्वतम्। निशी. ७० अ साधर्मिक संयतः आव० १५६| साधर्म्मिकावग्रह अवग्रहे पञ्चमो भेदः आचा० १३४ साधर्मिकावग्रहः संयतावग्रहः आव. १५६। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [88] [Type text] साधारणस्थान- प्रपततालम्बनम् । आव० ५३४ | साधारणा- धारणामेवार्यमुपयोगात् च्युतं जघन्यतोऽन्तर्मुहू-तादुत्कर्षतोऽसङ्ख्येयकालात् परतो यत्स्मरणं सा साधारणा नन्दी० १७६ ॥ साधु जैनसाधुः आव० १११ अर्हत्प्रणीतधर्मानुष्ठायी। आचा० ३६१ | साधुकार- साधुकारः । आव० ३४५ | साधुकृतं सुष्ठुकृतम् । नन्दी० १६४१ साधुगरहिणिज्ज- साधुगर्हणीयः । उत्तः ३३०| साधुरक्षितगणि क्षमाश्रमणविशेषः, मित्रवाचनकक्षमाश्रमणा देशवान्। व्यवः १०० आ साधू- णिग्गंथो । निशी० ९८ अ । साधूपसम्पत्- ज्ञानादिहेतोयदपरं गणं गत्वोपसम्पद्यते, सा साधुविषया। बृह• २२२अ आक० २६७ साध्यविकलत्वादि- लक्षणदोषः । स्था० ४९३ । साध्यविरुद्ध हेतौ भेदः । स्था० २ सानुनासिकमनुनासं- नासिकाविनिर्गतस्वरानुगतम्। जीवा. १९४९ सान्तन सभूपतिप्रासादः । जम्बू० २०९ | साफल्ल साफल्यं कालान्तरफलप्रदानलक्षणम्। दशवै. १३४| साबर मन्त्रविशेषः । साबर:- साधनरहितो मन्त्रविशेषः । आव० ४११ | साब्भाविप सद्भावेन निरुपचरितसकलदुःखक्षयाय । दशवै० ६३ | साभरगा- देशीवचनात् रूपक । बृह० १०३ अ रुवगो । निशी० १६७ अ । साभाविय जं अप्पणो अद्धारद्धं निशी. १४२अ स्वाभाविक श्रमणोऽन्यो वा प्रथममागच्छति तस्मै यदग्रपि-ण्डादि दीयते तत् स्वाभाविकम् । व्यव० १६० अ। साभावियहंसा साद्भाविकः- अकैतवकृतो घर्षोघर्षणम् । ज्ञाता० २१९| साभिण्णाण साभिज्ञानम् आव० ९२२ सामंत गिहसमीवं दशकै ७५ सामन्तं समीपम् । ज्ञाता०८ सामन्तं सन्निकृष्टम् । भग० १३ सामन्तसन्निकृष्टम् । जम्बू० १६ "आगम- सागर-कोषः " (५) Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सामंतरज्ज-सामन्तराजः। आव०७१२॥ सामर्थ्य-मन्त्रणम। प्रश्न. ५३।। सामंतरायपुत्त-सामन्तराजपुत्रः। आव०५५७ सामत्थण-स्वभटैः सह पर्यालोचनम्। पिण्ड० ४७ सामंतोवणिवाइया- सामन्तोपनिपातिकी, संप्रधारणम्। निशी० ८० अ। पर्यालोचनम्। बृह. ३ विंशतिक्रियाभध्ये नवमी। आव०६१२१ बृह. १९२। बृह. ९। बृह. ७२| सामंतोवणिवातियं- सामान्यतोविनिपातिक, तृतीयोऽभि- सामत्थयति-संप्रधारयति। व्यव० ३६५ अ। नयविधिः। जीवा० ४४७१ सामत्थियं- विचारितम्। निशी. २९८ आ। साम-श्यामः-तृतीयः परमाधार्मिकः। सूत्र० १२४। नरके सामत्थेऊण-विचार्य। व्यव० २४८१ तृतीयः परमाधार्मिकः। आव०६५०। यस्तु रज्जुहस्तम- सामन्त- सन्निकृष्टम्। सूर्य । हारादिना शातपातनादि करोति, वर्णतश्च श्यामः स । सामन्तोवणिवाइया- समन्तात्-सर्वत उपनिपातोश्यामः, तृतीयपरमाधार्मिकः। सम० २८। पञ्चदशस् जनमीलकस्तस्मिन् सामन्तोपनिपातिकी। स्था० ४२। परमाधार्मिकेषु तृतीयः। उत्त०६१४१ अश्वादिरथादिकं लोके श्लाघयति हृष्यतो परस्परोपकारप्रदर्शनगणकीर्तनादिना आश्वादिपतेरिति। स्था० ३१७ शत्रोरात्मवशीकरणम्। ज्ञाता०११। श्यामा-प्रियङ्गः सामन्न- श्रामण्य-व्रतम्। निर०२१ सामज्ञः। औप० ज्ञाता०२६। गुच्छाविशेषः। प्रज्ञा० ३२। सामः २०४। प्रियवचनम्। विपा० ६५ सामन्नरए- श्रामण्यरतः। भग० १२३। सामइए-समये-समाचारे सिद्धान्ते वा भवः सामयिकः सामन्नलक्खणं- सामान्यलक्षणं, यथा सिद्धत्वं सिद्धानां सामायिक वा। ओप०८२ सद्व्यजीवमुक्तादिधर्मैः सामान्यमिति। आव. २८१। सामइत- सामायिकः-कुटुम्बिविशेषः। सूत्र० ३८६) सामलया- श्यामलता-पियङ्गुलता। ज्ञाता०२३१| सामइय- सामयिकः-त्रिपिटकादिसमयवृत्तिः। दशवै. लताविशेषः। प्रज्ञा० ३२ श्यामलता-लताविशेषः। जीवा. १८२ सामकरिल्ल- श्यामा-प्रियङ्गुः। अनुत्त०४१ सामला- श्यामला-श्यामा। ज्ञाता०२३१| सामकोट्ठ- ऐरवते तीर्थकृत्। सम० १५३। सामलि- शाल्मली-वृषविशेषः। जीवा० २७३। तृतीयभवणसामग-तृणविशेषः। सूत्र० ३०९। वासिनश्चैत्यवृक्षः। स्था० ४८७ शाल्मलीवृक्षविशेषः। सामगादी-बीया। निशी० २५५। प्रश्न. १४१ सामग्गिय- सामग्य-सम्पूर्णः। आचा० ३४०। सामग्य- सामली- शाल्मली- वृक्षविशेषः। प्रश्न० ८२। समग्रता। आचा० ३२६) सामवेद-सामवेदः, चतुर्णां वेदानां तृतीयः। भग० ११२। सामणिय-श्रामण्यं-श्रमणभावः चरणपरिणामगर्भः। सामवेय- सामवेदः-तृतीयो वेदः। ज्ञाता० १०५ दशवै० २२३। सामस्त्यं-निरवशेषम्। प्रज्ञा० ५८२। सामण्णं-आणपाणेन्द्रः। स्था० ८५ सामहत्थि- भगवत्यां दशमशतके चतुर्थोद्देशकः। भग० सामण्णपुव्वग- श्राम्यतीति श्रमणः तद्भावः श्रामण्यं, ४९२१ तस्य पूर्वकारणं श्रामण्यपूर्वं तदेव श्रामण्यपूर्वकम्। सामहत्थी- महावीरविभोः शिष्यः। भग. ५०१। दशवैकालि-कस्य द्वितीयमध्ययनम्। दशवै० ८२। सामा- महासेनराजपत्रसिंहसेनस्य देवी। विपा० ८२ सामण्णोवणिवाइअं-सामान्योपनिपातिकं त्रयोद-शमतीर्थकृतमाता। सम० १५१। श्यामाअभिनयविशेषः। लौकमध्यावसानिकम्। जम्बू०४१२ विमलनाथमाता। आव० १६०| श्यामा-प्रियङ्ग्ः। प्रज्ञा. सामत्थ- मन्त्रः। ज्ञाता०५२ सामर्थ्य-बलम्। ज्ञाता० ३६०| चुलणीगा-थापतेर्भार्या। आव० ३१| श्यामा २११। णिव्वाधितो। निशी. २४आ। धितिसरीर-सत्ती। प्रियङ्गः। अनुत्त०४| श्यामा रात्रिः। औप. १४११ निशी० १ आ। सामर्थ्य-प्रज्ञाबलम्। दशवै० ४४। । श्यामाः-प्रियङ्गः। जम्बू० ३३॥ तृतीयजिनप्रथमशिष्या। १२७ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [89] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सम० १५२| श्यामाअतसी। उत्त० ३५१। श्यामाको- ६४६। समो-रागद्वेषवियुक्तो यः ध्यानविशेषः। राज० ३१ सर्वभूतान्यात्मवत्पश्यति तस्य आयःसामाइअ- यः सर्वभूतान्यात्मवत् पश्यति स प्रतिक्षणमपूर्वापूर्वज्ञानदर्शनचारित्रपर्यायणां रागद्वेषवियुक्तः समः तस्याऽऽयः-प्रतिक्षणं निरूपमसुखहेतुभूतानामधः ज्ञानादिगुणोत्कर्षप्राप्तिः समायः, समो हि कृतचिन्तामणिकल्पद्रुमोपमानां लाभः समायः स प्रतिक्षणमपूर्वः ज्ञानदर्शनचरणपर्यायै र्भवाटवीभ्रमण- प्रयोजनमस्यानुष्ठानस्येति सामायिकम्। उपा०९। हेतुसंक्लेशविच्छेदकैर्निरूपमसुखहेतुभिः सम्युज्यते सामामइयकप्पठिती- समानि ज्ञानादीनि तेषामायो-लाभः समायः, समायः प्रयोजनमस्याध्ययनस्य समायः स एव सामायिकं-संयमविषयः तस्य तदेव वा ज्ञानिक्रियासमुदायरूपस्येति सामायिकम्। अनुयो० कल्पः-करणमाचार इति सामायिककल्पः। स्था० १६७। ४४| समायेन निर्वृत्तं समाये भवं वा सामायिकं, यद्वा | सामाइया- सामाजिकाः-सहवृत्तयो लोकाः। उत्त० ३५१| समानां-ज्ञानदर्शनचारित्राणामायो-लाभः समायः समाय सामाए- श्यामाकी-धान्यविशेषः। जम्बू. ३३। एव सामायिकम्। प्रज्ञा०६३ सामाग- श्यामाकः गृहपतिविशेषः। आव. २२७। सामाइअकड- सामायिकं गाथापति-विशेषः। आचा०४२४१ सावद्ययोगपरिवर्जननिर्वदययोगा-सेवनस्वभावं कृतं- सामाचार्युपक्रमकालः- उपक्रमस्य प्रथमो भेदः। ओघ०१। विहितं देशतो येन स सामायिककृतः, सामाण- सहस्सारे सप्तसागरोपमस्थिकं देवविमानम्। आहिताग्न्यादिदर्शनात् क्तान्तस्योत्तरपदस्वं, सम० ३३। सामानः औदीच्याणपन्निव्यन्तराणामिन्द्रः। तदेवमप्रति-पन्नपौषधस्य दर्शनव्रतोपेतस्य प्रज्ञा० ९८१ प्रतिदिनमभयसन्ध्यं सामा-यिककरणं मासत्रयं सामाणा- लोकोत्तरपुरुषाः सूत्रार्थोभयदानादिना यावदिति, श्राद्धस्य तृतीया प्रतिमा। सम० १९। यथोत्तरम्-पकारविशेषकारी सामाना प्रामकृतत्वात् सामइयं कुज्जा-सामायिकं कर्याद-मध्यस्थो भूयात्। सामानाः। स्था० ११३ आव० ३३० सामाणिअ-सामानिकः-इन्द्रसमानर्द्धिकः। सम० ३९। सामाइय-समो-रागादिरहितस्तस्य अयो-गमनं सामाणिओ-सामानिकः-सन्निहितः, अप्रवसितः। आव. प्रवृत्तिरि-त्यर्थः समायः, समाय एव समाये भवं समायेन निर्वृत्तं सामायस्य विकारो-अंशो वा समायो | सामाणिय- समानया-इन्द्रतुल्या ऋद्ध्या चरतीति सामावा पहयोजनमस्येति सामायिकम्। स्था० ३२३। निकः। भग० १५४| सामाणियः-सामानिकः सामायिक-संयमविशेषः। स्था० १६७। सामायिक- इन्द्रसमाना-यष्कादिभावः। औप०५३। इन्द्रसमानर्द्धयः। चारित्रविशेषः। भग. ९०९। समानां-ज्ञानादीनां आयो- स्था० ११७ लाभः समायः स एव सामायि-कम्। स्था०६५) सामाणीअ- समाने-विजयदेवसदृशे आयुर्दयुतिविभवादौ सामायिकं-एकान्तोपशान्तिगमनम्। आव० ३६४। भवः सामानिकः। जम्बू०६१| समभावरूपम्। भग. १००| सामायिकं सामातिअ-सामाजिकः। निशी. १०७ आ। समशत्रुमित्रभावः। सूत्र. २६५। सामायिकं सामानां- सामान्नदिटुं- सामान्यतो दृष्टार्थयोगात् सामान्यदृष्टम्। ज्ञान-दर्शनचारित्राणां आयः समायः, समाय एव अनुयो० २१६) सामयिकम्। आव०७९। सामायिकं इति सामान्य- उपसर्जनीकृत तुल्यरूपाः प्रधानीकृततुल्यरूपाः रागद्वेषान्तरालवर्ती समः- मध्यस्थ उच्यते, समतया प्रज्ञायमानाः सामान्यमिति व्यपदिश्यन्ते। 'अयगता विति अयनं, अयः-गमन-मित्यर्थः समस्य स्था० १३। एकं नित्यं निरवपयं सवंगं सामान्यम्। स्था. अयः समायः स एव सामायिकम्। आव० ३६४। ३७ सामायिकप्रतिमा-श्रावकस्य तृतीया प्रतिमा। आव० सामान्यवादी-सर्वमेवैकं प्रतिपदयते। स्था०४२५) ३२९ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [90] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text) आगम - सागर - कोषः ( भाग : - ५ ) [Type text] सामान्यविशेषः- अनुवृत्तव्यावृत्तावबोधहेतुभूतम् । स्था० सामुच्छेद- समुच्छदेम् धीयते तदेदी वा क्षण चिभाव " ३९१ | प्ररूपकः चतुर्थनिनवमतः । आव २१९ । सामान्याभिधान देवदत्तभूक्ते सर्व कुटुम्बं सामुच्छेदिक निह्नवविशेषः क्षणिकपक्षवान् । उत्तः ४४४ | भुक्तमितिवत्, अन्यथा त्रयाणामित्यभिधेयं स्यात्, कालवृद्धयनुसारेण दर्शनात् चैवमभिधानं स्यान् । कालसामान्याभिधानम् । आव० ३२ ॥ सामान्यार्थावग्रहः- अवग्रहे द्वितीयो भेदः । नन्दी० १७४ | सामायारी- समाचरणं समाचारः तद्भावः सामाचार्यं तदेव सामाचारी-संव्यवहारः । स्था० ५०० | सोमाचारीशिष्टाचीरतक्रियाकलापता आव० २५८१ समाचारीउत्तराध्ययनेषु षट्विंशतितममध्ययनम् । उत्त १ समाचारी- समाचरणम्। उत्त० ६६। समाचारीउत्तराध्ययनेषु षट्विंशतितममध्ययनम् । उत्तः ५३२ उत्तराध्ययनेषु षट्विंशतित-ममध्ययनम् । सम• ६४१ सामायिइ- सामायिकं सम्यक्त्वश्रुतदेशविरतिरूपम् । उत्त० २५१ | सामायिक सामान्यसञ्ज्ञायामेवावतिष्ठते । अनुयो० २२२ बोधिः । आव० ३४७ | समासा - श्यामाशः श्यामा-रजनी तस्यामशनं श्यामाशः तदर्थम्। आचा. १३०| सामिआ स्वामिकाः, अज्ञातस्वामिन इत्यज्ञातार्थे कप्रत्ययः । जम्बू० २२० सामित्तं स्वामित्वं नायकत्वम् जीवा० २१७ | स्वामित्वस्वामिभावम्। सम॰ ८६ | आत्मलाभः | निशी० २१ आ । स्वमित्वं स्वस्वामिभावम् । भग० १५४ | स्वमस्यास्तीति स्वामी तद्भावः स्वामित्वं नायकत्वम् । जम्बू ६३| सामिधेय समित्समूहः । अन्तः ११। सामिय- स्वामिक:- अधिपतिः । ज्ञाता० १६५| सामिलिणा वच्छगोत्रे चतुर्थी भेदः । स्था० ३९०॥ सामिलाल स्वामिश्यालः । उत्तः २७३ 1 सामी स्वामी नेता, प्रभुः। आव. ६६१| स्वामी- जगद्गुरुभगवान् श्रीमहावीरः । सूर्य २२ स्वामी ग्रामादिनायकः । पिण्ड १११। सामुच्छेड़ता चतुर्थनिनवमान्यता स्था० ४१०/ सामुच्छेया नारकादिभावानां प्रतिक्षणं समुच्छेदं-क्षयं विदन्तीति सामुच्छेदिकाः । औप० १०४ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [91] सामुदाइया कृष्णणस्य भेरी जाता० २०८८ सामुदाणिय सामुदानिकं- भिक्षापिण्डम् । आचा• ३३६ ॥ भेरी विशेषः । निर० ४०| सामुदायिकी - जनमीलकप्रयोजना | ज्ञाता० १०१ | समुद्द- सामुद्रं - छन्दोविशेषः । सूत्र० २६२ सामुद्रं समुद्रसम्बन्धिलवणम्। दशवै० ११८ | सामुद्द- सामुद्रिक- समुद्रसम्बन्धी । भग० २१२ | सामुयाणिय भैक्षम्। आचा० ३३१| सामोसिओ एगगामणिवासी निशी० १९अ साम्प्रतः- शब्दनयस्य प्रथमो भेदः । उत्त० ७७॥ साम्भोगिक समसुखदुक्खभाजः । व्यकः ३०१अ । सायंकार- सत्यङ्कारः । उत्त० १४८ । साय आरणकल्पे विंशं सागरोपमस्थितिकं देवविमानम् । सम• ३८1 सातं सुखम्, तृतीयगारवम् । आव० १७९१ विकालवेला सूर्य १०६ । सन्ध्याकालः | सूर्य० ४५ा सातं सुखम् सातहेतुर्वा उत्त• ८९६ सातं सुखं शारीरं मानसं च इहोपचारान्निबंधनं कर्मेव । उत्त० ६४३ | सायणी - " हीनभिन्नस्वरो दीनो विपरीतो विचित्तकः । दुर्बलो दुःखितः स्वपति संप्राप्तो दशमीं दशाम् ।। १।।“। दशवे- ८ सायदुलह- सातगवेषकः । मरण० । सायमंड- वनस्पतिविशेषः । भग०८०२१ सायरदत्त- सागरदत्तः- मायोदाहरणे साकेतपुरे धनावहजीवः अशोकदत्तेभ्यपुत्रः । आव० ३९४॥ सायरव्यूह सून्यस्य व्यूहविशेषः । भगः १७ सायवाती- सातं सुखमभ्यसनीयमिति वदतीति सातवादी स्था० ४२५ सायवाहण । राया। निशी० ३४० अ । सायसोक्ख सातसौख्यं सातं आह्लादरूपं सौख्यम् । जीवा. ४०३१ साया- साता-सुखम्। आव० ५७९ । सायाउल- साताकुलः-भाविसुखार्थं व्याक्षिप्तः । दशवै० १६० | "आगम- सागर-कोषः " (५) Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सायागारव- सातगौरवं संयमानु-ष्ठाने रतः स्वारतः। आचा० १९३। सारकः। सुखप्राप्त्यभिमानाप्रात्तप्रार्थनद्वारेणा अध्यापनद्वारेण प्रवर्तकः स्मारको वा, अन्येषां त्मनोऽशुभावगौरवम्। आव० ५७९। विस्मृतस्य स्मारणात्। ज्ञाता० ११०| सायासुक्खपडिबद्ध- सातसौख्यप्रतिबद्धः-सातत्-पुण्य- सारकंता- संध्याग्रामस्य पञ्चमी मुर्छना। स्था० ३९३। प्रकृतेः सकाशान्यत्सौख्यं-सुखं गन्धरसस्पर्शलक्षणं सारकत्ताल- वलयविशेषः। प्रज्ञा० ३३ विषयसम्पादयं तत्र प्रतिबद्धः तत्परो ब्रह्मचारी। स्था० | सारक्खति- उचितोपचारकरणतः। संरक्षितः। जम्बू. ४४५ १२६| सायासोक्ख- सातात्-सातवेदनीयोदयात् सौख्यं सुखम्। | सारक्खण-संरक्षणा। आव०४०५। ज्ञाता० १८०| सातसौख्यं- आह्लादरूपं सौख्यम्। जीवा० | सारक्खणानुबंधि- संरक्षणानुबन्धिः-संरक्षणे-सर्वोपायैः ४०३ परि-त्राणे विषयसाधनधनस्यानबन्धो यत्र तत्। स्था. सायि-सातिः-विश्रामः। राज० ११५ १८९। सायिसंपओ- सातिसम्प्रयोगः-यः सातिशयेन द्रव्येण सारक्खणिज-संरक्षणीयम्। आव. ९३। कस्तू-रिकादिना अपरस्य सम्प्रयोगः। राज० ११५ सारक्खमाणी-संरक्षयन्ती पालयन्ती। ज्ञाता०९१| सायेय-साकेत नगरं, मित्रनन्दिराजधानी। विपा. ९५ सारक्खह- संरक्षय। आव० ३७३। संरक्षत। आव २०१। सारंग- सारङ्गं प्रधानदलम्, सारङ्गमदः-कस्तूरी। जम्बू सारक्खामि-संरक्षामि। भग० ६७३। १८३। चतुरिन्द्रियविशेषः। प्रज्ञा० ४२। चतुरिन्द्रियजन्तु- | सारक्खेत्ता-उपायेन चौरादिभ्यः संरक्षयिता। स्था० ३८६। विशेषः। जीवा० ३२ सारगल्ल- वनपस्तिविशेषः। भग०८०३। सारंभ-सरम्भः-वधसङ्कल्पः। भग० ३३५। सारण- यादवविशेषः। ज्ञाता०२१३। सारणः-यादवापत्यः। सारंभइ-संरभते-विनाशसड़कल्पं करोति। भग० १८३। प्रश्न०७३/कृत्यं प्रति प्रवर्तनः। उत्त०५३५/सारणः सार-सारः-सफलः। सम० १२२। सारः-परमार्थः। नन्दी. अन्तकृद्दशानां तृतीयवर्गस्य सप्तममध्ययनम्। अन्त० १५७, १६४। सारः काष्ठमध्यम्। स्था० १८६। सारः- फलं ३। पश्न०७३। कृत्यं प्रति प्रवर्तनः। उत्त० ५३५) सारणः प्रधानतरं वा। आव०६९। सारः-प्रधान्यम्। ओघ. २२२१ प्रसर्पणं स्मारणम्। ओघ० १५८१ सारः-गर्भः। जम्बू० ३८। सारः-शुभपुद्गलोप-चयजः, | सारणा- चोदना। आव० २७१। शिक्षणा। बृह. ११३। आ। शारीरः शक्तिविशेषः। अनुयो० १५८ अक्षय्यम्। प्रश्न | स्मारणा-विस्तृतेऽर्थे स्मारणा। व्यव० ७२।। ९। सारं-सामर्थ्यम्। आव० ७८८1 सारः-सन्दोहः। आव० | सारणि- सारिणी। आव० ५८१। ६१९। सारः-शुभपुद्गलोपचयजन्यो धातुविशेषः। जम्बू | सारदबलाहए- शाबदबलाहकः शरत्कालभावी बलाहकः। १८२। सारं-अभेद्यत्वेनाभगुरम्। जम्बू. २०१। प्रज्ञा० ३६३| भ्रमरपत्रान्तर्गतो विशिष्टश्यामतोपचितः प्रदेशः। सारइं- सार्द्र-यबदिः शुष्काकारमप्यन्तर्मध्ये सार्द्रमास्ते। जम्बू. ३२ सारः-समूर्छिमभजपरिसर्पतिर्यग्योनिकः। सूत्र० ३८६ जीवा०४० सारः-विवक्षितकर्मणः परमार्थः। आव. सारभंड- सारभाण्ड-महामूल्यवस्त्रादिः। उत्त० ४५५। ४२६। सारः- सामर्थ्य विभवो वा। सूत्र. २७८। कहूँ। सारमंत- सारवत्-विशिष्टार्थयुक्तम्। अनुयो० १३३। निशी० १४१ अ। प्रधानः। ज्ञाता०६। अर्थम्। बृह० ४० सारवं- सारवत् बहुपर्यायं सूत्रगुणः। आव० ३७६) आ। | सारवंत- सारवत् बहुपर्यायं सूत्रगुणविशेषः। आव० ३७६) सारइए-शारदिकः-शरदकालजातः। ज्ञाता० १०१। | सारवद-अर्थेन युक्तम्। स्था० ३९७। सारवत-गोशब्दवसारइयं- शरदि भवं शारदम्। उत्त० ३३८1 बहुपर्यायम्। अनुयो० २६२१ सारए- सारकः स्मारको वा प्रवर्तकः विस्मृतस्य सूत्रादेः | सारवए- सारपके-साराकारके व्यव० २०० स्मारणात्। भग० ११४। सुष्ठ्वा जीवनमर्यादया | सारवणं- निष्क्रिय, संमार्जितं वा। ओघ० ४१। प्रमार्जनम्। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [92] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] बृह० १५० आ । सारविअ संमार्जितः उपलिप्तः । ओघ० ७५ प्रमार्जितः | ओध० ९३३ आगम-सागर- कोषः ( भाग : - ५) सारविय प्रमार्जितः । बृह० १०९। सारवितः संमार्जितः । बृह० २४३ अ सारविया संरक्षिता । आव० ६७३ | सारवेइ- गोपयति। उत्त० १४८ । रक्षति । आव० ७०३ | सारवति संरक्षति । आव० ३४३ | सारस- सारसः लोमपक्षिविशेषः । जीवा० ४१ । सारसः दावघाट प्रश्न ू सारसत प्रथमलोकान्तिकः । स्था० ४३२ सारसवण्णा- सारसवर्णः ज्ञाता० २३१। सारसा - लोमपक्षिविशेषः । प्रज्ञा० ४९ | सारसी- सज्जग्रामे षष्ठी मूर्च्छना । स्था० ३९३ | सारस्वत- गणभेद: (मल्लसारस्वतः) । बृह० २४४ अ लोकान्तिकः । स्था० ११७ | सारस्सय- सारस्वतम् । आव० १३५ । सारस्वतः अर्चिविमानवासी प्रथमो लोकान्तिकदेवः । भग० २७१ प्रथमो लोकान्तिकः : सारस्वतः । ज्ञाता० १५१ | सारही सारथि: शाकटिकः । स्था० २४० | सारथि: प्रवर्त्तयिता उत्त० ४९९ सारा त्रप्तिः व्यव. १७१ अ भुजपरिसर्पविशेषः । प्रज्ञा ४६ । साराणिता दशविधप्रव्रज्यायां षष्ठी स्मरणाद्या सा स्मरणिका । स्था० ४७३ | सारि सागारिकः । गृह ३८आ। व्यव० ३४४ अ सारिओ सारितः हिते प्रवर्तितः। आव० ७९६ । सारिका आधायाः प्रामित्यद्वारविवरणे देवराजपत्नी । पिण्ड० ९८१ पक्षिविशेषः । उत्त० ४०९॥ सारिज्जताणं सुघोषानन्दिघोषानां सारणम्। राज० ५२ सारिणी दीर्घिका जीवा० १९७| निशी० २आ। सारियं सारितम् । आव० ३१५१ सारीकृतं - निगदितम्। जीवा० २७० | सारुट्ठ मनसा संरुष्ठः । भग० ३२२| सारुविया सारुपिका श्वेतवाससः । बृह. १८५ अ सावी- मुंडसिरा दो सुक्किलवत्थधारी कच्छं णो बंध भारिया से णत्थि भिक्खं हिंडइ वा ण वा, एरिसो मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [93] [Type text] सारुवो। निशी० ११३आ। सारुविग सुक्किलवत्यपरिहरि मुंडमसिहं धरेड़, अभज्जगो अपत्तादिसु भिक्खं हिंडड़, अण्णे भणति पच्छाकडसिद्धपुत्ता चैव जे असिहा ते सारुविगा । निशी० ८४ आ । निशी० ११५अ सारेति सारयति शिक्षयति । व्यव० ३२८ आ । चोदयति । निशी० २९० आ । सारेह अन्वेषयत सूत्र. ९१। सालंकातणा- कौशिकगोत्रे तृतीयो भेदः । स्था० ३९० साल- आनतकल्पेऽष्टादशसागरोपमस्थितिकं देवविमानम् । सम० ३५ एकशाटकपरिधानः । बृह० २९५ आ सालः- सज्जैः । जम्बू० ९८ सर्ज्जः वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३१। शाला-शाखा । जम्बू० २९| शाखा-शारणम्। आव• ७९६ । शाल:- पृष्ठचम्पानगरनृपतिः श्रीवीरशिष्यः केवली जातः । उत्त० ३२१, ३२३ | शालःपृष्ठचम्पानगर्यो राजा आव• २८६ वनस्पतिविशेषः । भग० ८०३ | वर्धमानस्वामीचैत्यवृक्षः समः १५1 शाखः प्रत्येकजीवः । प्रज्ञा० ३१ शालः- वृक्षविशेषः । ज्ञाता० ९३ अशितममहाग्रहः । स्था० ७९ | तृतीयतीर्यकृच्चैत्यवृक्षम् सम० १५१ शालः। जम्बू. १३५% बाहिरा छल्ली निशी० १२४ शालः । प्राकारः । प्रज्ञा० ८६ | सालइयापिय श्रावस्तीनिवासी सालयिकापिता । स्था० ५०९ | सालकोट्ठए- मेंढियग्रामे वायव्यकोणे चैत्यम् । भग० ६८५ | सालगरसम्। आचा० ४०५ | बाहिरछल्ली। निशी० २३ आ दीर्घशाखा आचा० ३५४१ शालकः पक्षिविशेषः । प्रश्न० ८1 सालघरग-शालगृहकं-पट्टशालाप्रधानं गृहकम्। जीवा० २००१ शालगृहकः-पट्टशालाप्रधानं गृहकम्। जम्बू ४५% सालज्जा- सलज्जा - शालार्या व्यन्तरीविशेषः । आव० २१० | सालण- वीडंका | निशी० १४४ अ सालणग- शालनकं-पुष्पफलप्रभृतिः। जम्बू० १०५| सालतिय- शारदिकम् । ज्ञाता० १९६ । सालनक- शालनकं व्यञ्जनविशेषः | सूर्य० २९३ | सालभंजिआ- शालभञ्जिका । जम्बू० ४९| सालभंजिया शालभञ्जिका पुत्रिका भगः ४७७ शालभ "आगम- सागर- कोषः " [५] Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] जिकापुत्रिका। ज्ञाता० १२, ३८1 शालभजिका-स्तम्भ- | सालिभंजिका- शालभजिका-पुत्तलिका। राज० २८१ पुत्तलिका। आव. २३१। शालभम्जिका-पञ्चाली। | सालिभद्द- शालिभद्रः-पूर्वभवे सबहमानं साधवे पायस जम्बू. ५१। शालभजिका पुत्रिका। ज्ञाता० ३८1 | दाता। स्था० ५१० बृह. २६७ अ। शालिभद्रः-वैश्रमणस्य सालवण- शालदनं-उद्यानविशेषः। आव० २१०| जीवा० पुत्रस्थानीयो देवः। भग. २००। शालिभद्रः-श्रावस्त्यां १४५ इभ्यविशेषः। उत्त. २८६) सालवाहण- शातवाहनः, यस्य पृथिवीनामाग्रमहिषी। सालिभसेल्लसरसा-व्रीहिकणिशशूकसमाः। उपा०२१। व्यव० १६८अ। प्रतिष्ठानपुरे राजा। बृह. २७ आ। शाल- | सालिम-शालिम-शालिमयम्। उत्त० ३६९। वाहनः-द्रव्यप्रणिधिविषये सालिवाहण- शालिवाहनः प्रतिष्ठानपूरे राजा। आव०८९) प्रतिष्ठानपराधिपतिर्बलकमृद्धः। आव०७१२। सालिसंपया- शालीसम्पत्। आव. १७७) सालहीपिया- महावीरस्य दशमश्राद्धः। उपा०१| सालिसए-सदृशकमतिनम्रत्वात्। ज्ञाता० १३। सालिस, साला- शाला-गृहविशेषः। ज्ञाता० ३४१ शाखा-मध्यभाग- सदृशकम्। जम्बू० २८५। सदृशकम्। जीवा० २३२। प्रभवा ऊर्ध्वगता शाखा। जम्बू. ३३२ शाला-शाखा। सालिसत्थियामच्छ-मत्स्यविशेषः। प्रज्ञा० ४४। जीवा० १८७। शाला-शाखा। ओघ० १६६। शाला- सालिसीसय- शालिशीर्षः-ग्रामविशेषः। आव २०९। गृहविशेषः। निर० २२। जत्थ विक्कड़ सा साला, अहवा साली- शालीः-लोहितशाल्यादिः। उत्त० ३१७ शालिःअक्कुडा साला। निशी० ६९ अ। जे खंधओ निग्गया ते धान्यविशेषः, तृणपञ्चके प्रथमो भेदः। आव०६५२| साला। दशवै० १११। शाला। बृह. ६२ | निशी० २६५ वलय-विशेषः। प्रज्ञा० ३३। औषधिविशेषः। प्रज्ञा० ३३ अ। शाखा। जीवा. २०७१ अटवी चोरप-ल्लीविशेषः। तृण-विशेषः। स्था० २३४। कलमादिकः। भग० २७४। विपा. ५५ शाला-शाखा। जीवा. २९४। शाला-शाखा। धान्य-विशेषः। सूत्र० ३०९। औप०७। शाला-भाण्डशालादिका। प्रश्न० १३८१ शाखा।। सालीपिहरासी- शालिपिष्टराशिः-शालिक्षोदपुञ्जः। प्रज्ञा० ३१। शाला-गृहम्। सूत्र० ३२४। शाखा जीवा० १९१| मूलशाखाविनिर्गतशाखा। जम्बू० ३२४। शाखा सालीवन्न-शालिवर्णः शक्लम्। ज्ञाता० २३०| विडिमाऽपरपर्याया दिक्प्रसृता सालु- शालकः-उत्पलकन्दः भगवत्यां एकादशशतके शाखामध्यभागप्रभवाऊर्ध्व-गता। जम्बू० ३३२ शाला- द्विती-योद्देशकः। भग० ५१११ शाखा। जीवा० २२८१ सालुअ-शालूकः-उत्पलकन्दः। दशवै०१८५ सालकंसालाग- शालाक्यं शलाकायाः कर्म शालक्यं कन्दकौजलजः। जाला० ३४८। तत्प्रतिपादकं तन्त्रमपि शालक्यं। आयुर्वेदस्य सालुग-सालकम्। आव०४०५। उप्पलकन्दः। दशवै. द्वितीयाङ्गम्। विपा० ७५ ८६| सालगिह-विक्केयं भंडं जत्थ छढं चिट्ठति सा। निशी. | सालुगा- शालियवादीनां तुषाः। बृह. १५८ आ। २६५। सावइज्ज-स्वापतेयं, द्रव्यम्। जम्बू० १४२। स्वापतेयंसालाती- शलाकायाः कर्म शालक्यं तत्प्रतिपादकं तन्त्रं रजतसुवर्णादिद्रव्यम्। ज० १२२ शालक्यम्। स्था० ४२७ सावए- श्रावकः-प्रतिपन्नाव्रतः। बृह. १२७ अ। श्रावकः सालि-शालि-औषधिः। भग० ३०६। शालिः-व्रीहिभेदः। -व्याख्यानविधौ दृष्टान्तः। आव० ९६। दशवै० १९३। शाली। आव० १८१। शालिः-कालमादिका- सावएज्ज-स्वापतेयं द्रव्यम्। भग० १६३। स्वापतेयं नामिति विशेषः शेषाणां व्रीहीणामिति। स्था० १२४ द्रव्यम्। अनुयो० २५४। सालिउद्देसए– षष्ठमशतस्य सप्तमोद्देशकः। भग० ५३४। | सावकंखा-सहावकाङ्क्षया-घटिकाद्वयाद्युत्तरकालं सालिणी- शालन्ते-शोभन्ते। प्रश्न. १४० भोजना-भिलाषरूपया वर्तत इति सावकाङ्क्षम्। उत्त० सालिपिहरासी-सालिपिष्टराशिः। प्रज्ञा० ३६१। ६०० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [94] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सावकाश-प्रच्छन्नप्रदेशः। ओघ० २०७। बहरतनिह्णवोत्प-त्तिस्थानम्। आव० ३१२ श्रावस्तिःसावग-श्रावकः। आव०११६ श्रावकः-ब्राह्मणः, वृद्ध- संभवजिनस्य प्रथम-पारणकस्थानम्। आव० १४६। श्रावकः। ज्ञाता० १९३। श्रावकः-ब्राह्मणः। अनुयो० २५४ श्रावस्ती-यत्र जमाली पञ्चशतपरिवारो गतः। आव. शावकः-पुत्रकः। नन्दी०६४। गिहियाणुव्वतो। निशी० ३१२। श्रावस्तिः -नगरी। अन्त०२३। ३२५ अ। श्रावकः धर्मशास्त्रश्रवणाद ब्राह्मणः। औप. प्रथमनिह्णवोत्पत्तिस्थानम्। भग० ४८४। श्रावस्तिः९०१ भद्रकुमारवास्तव्यानगरी। तृणस्पर्श दृष्टान्तः। उत्त. सावगरक्खस- श्रावकराक्षसः। आचा० ७६| १२२। कोष्ठगचैत्यस्थानम्। यत्राहगतीगाथापतिः। सावगा- श्रावकाः-श्रान्ति-पचन्ति तत्त्वार्थश्रद्धानं निष्ठां निर० २२यत्र सुप्रतिष्ठनामगाथापतिः। निर० २३॥ नयन्तीति श्राः, तथा वपन्ति-गुणवत्सप्तक्षेत्रेषु श्रावस्ती-स्वयम्भूवासुदेवनिदानभूमिः। आव० १६३। धनबीजानि निक्षिपन्तीति वास्तथा किरन्ति श्रावस्ती-मधवराजधानी। आव० १६१श्रावस्तिः -स्कक्लिष्टकर्मरजो विक्षिप-न्तीति कास्ततः कर्मधारये न्धकचरिते नगरी। भग० ११२ कुणालजनपदे नगरी। श्रावका इति। शृण्वन्ति जिन-वचनमिति श्रावकाः। ज्ञाता० १४०। कृणालजनपदे नगरी। राज०११६। नगरीस्था० २८२ विशेषः। ज्ञाता० २५३। सुंभगाथापतिवास्तव्या नगरी। सावज्ज-सावद्यः सपापः, वर्जपाठान्तरः। ज्ञाता०२५१। शुमनभद्रनगरम्। अन्त०२३। भगवत्यां पञ्चविंशतितमः पर्यायः। प्रश्न०७ सावयं दवादशशतके प्रथमोद्देशके नगरी। भग० ५५२ उत्त. गर्हितकर्मयुक्तम्। प्रश्न. ३७ शय्यायाः सप्तमप्रकारः। ३८० बृह. ९३। सावयं-सपापम्। आव० ८३४। सावज्जकड-सावद्यकृत्यम्। आचा० ३९० सावनमास-ऋतुमासपर्यायः। स्था० ३४५ सावज्जबहुल- सावद्यबहुल आर्तध्यानानुगतम्। दशवैः सावनसंवच्छर-सावनसंवत्सरः ऋतुसंवरः। जम्बू० ४८७। २०६। सावनसंवत्सरः- कार्मणसंवत्सरपर्यायः। स्था० ३४५। सावण-श्रावणः श्रविष्ठानक्षत्रेणोपलक्षितो मासः, सावय-श्वापदम्। आव०६०११ श्रावकः। आव०७९३| श्राविष्ठेति वा। सूर्य. १२११ ज्ञाता० १०७ अभ्युपेतसम्यक्त्वः प्रतिपन्नाणवतोऽपि प्रतिदिवसं सावणी- शाश्रयति-स्वापयति निद्रावन्तं करोति या, शेते यतिभ्यः सकाशात् साधूनां-अनगारिणां च समाचारी वा यस्यां सा शायती शयनी वा। स्था० ५१९। शृणोतीति श्रावकः। आव० ८०५। स्वापदः-व्याघ्रादिः। सावतेज्ज-स्वापतेयं-द्रव्यम्। औप० २७। ओघ० ६३। स्वापदं-मकरग्राहादिः। सम० १२७। श्रावकःसावतेय-स्वापतेयं-धनम्। जीवा० २८० शृणोति साधुसमीपे जिनप्रणीतां समाचारीमिति सावत्थि-श्रावस्तिः-संभवनाथजन्मभूमिः। आव० १६० श्रावकः-श्रमणोपा-सकः। अन्यो० ३०| स्वापदसिंहादिः। श्रावस्ती अलाभोदाहरणे नगरी। आव०७०१ श्रावस्ती- ओघ. २३। स्वापदः-सिंहव्याघ्रादिः। बृह. २६ अ। श्रीमहावीरविहारक्षेत्रम्। आव. २२१। उत्त० २८६। श्वापदः। ज्ञाता०६५। श्वापदः सिंहव्याघ्रादिः। बह. श्रावस्ती-कृणालजनपदे आर्यक्षेत्रम्। प्रज्ञा० ५५ २३१ अ। श्रावकः-अप्र-त्याख्यानकषायोदयवान्। आव. श्रावस्तिः -जमालिनिह्णवोत्पत्तिनगरम्। उत्त. १५३। ५३३। श्वापदः। आव० ६३३। श्वापदः-हिंस्रजीवः। जम्बू. श्रावस्तिः-केशीकुमारश्रमणस्थानम्। उत्त०४९८। ६६। सावत्थी- हलाहलकुंभकारवास्तव्या नगरी। भग० ६७५ | सावयइ- श्रावयति-प्रकाशवति। सूत्र० ४१३ श्रावस्तिः-जितशत्रुराजधानी। उत्त० ११४ श्रावस्तिः- सावसेस-सावशेष-सोद्धरितम्। उत्त० ५३९। कुम्भकारशालावती नगरी। आव. २१४। श्रावस्तिः- | सावस्सभ-सावभं-पृष्ठतोऽवष्टम्भयक्तमासनं गोशा-लकमाणुसमांसमिश्रभोजनलाभस्थानम्। आव. सिंहासन-मित्यर्थः सावस्सयम्। बृह. २०२ अ। २०४। जितशत्रुराजधानी। उपा० ५३। श्रावस्ती सावाहा-संकटा। ओघ. ९० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [95] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] साविता- इदं चेदं भविष्यतीत्येवंभूतवचांसि श्रावयन्तः। शश्वदन्यान्य-रूपतयोत्पन्नः। उत्त०४३०| शाश्वतंभग०४७९ नित्यम्। उत्त०२८९| शाश्वतम्। ज्ञाता०५५) साविट्ठा-श्राविष्ठा-श्रावणः। सूर्य. १२११ सासयचेइय-शास्वतचैत्यं सुरलोकादौ नित्यस्थायि। साविय-श्रापितः-श्रमणोपलम्भितः, शापितः। ज्ञाता० बृह. २७६ आ। २९॥ सासयवाई-शास्वता इव वदितुं शीलमस्येति साविया-श्राविका। आव०७९३। शाश्वतवादी। शाश्वतवादी-आत्मनि सावंत-श्रावयन् शपन् वा। औप०६९। मृत्युमनियतकालभाविनमपश्यत् शाश्वतवादीसावंता- श्रावयन्ता, इदं चेदं च परुत् निरूपक्रमायुष्को वा। उत्त० २२४१ परारिभविष्यतीत्येवंभू-तवचांसि सासया-शाश्वती-शश्वद्भवनस्वभावा। जम्बू. २७। श्रवणविषयीकारयन्तः। जम्बू० २६४। शाश्वता आकालिकी। आव. १५४। सास-मणिकारश्रेष्ठेः प्रथमो रोगः। ज्ञाता० १८१। शास- | सासयाणंतत- शाश्वतानन्तकं-अनादयपर्यवसितं शास्यमानम्। उत्त०६श शासत्-आज्ञापयन्। उत्त. यज्जीवादि-द्रव्यमनन्तसमयस्थितिकत्वादिति। स्था० ६१। श्वासः। भग० १९७१ ३४७ सासअ-शाश्वतः-सर्वकालावस्थायी। दशवै० १२९। सासवणालिया-सर्षपकन्दलिका। आचा० ३४८५ सासर-मा भूदनेकसर्गापेक्षयैव नियतत्वमिति सासवनाल-सर्षपभर्जिका। बृह. ७७ अ। प्रलयाभावान् शाश्वतः। स्था० ३३३। शाश्वतः-प्रतिक्षणं सासवनालिआ-सर्षपनालिका-सिद्धार्थमञ्जरी। दशवै. सत्त्वात्। स्था० ३३३। शाश्वतः-प्रतिक्षणं १८५१ सत्ताऽऽलिनिसत्वादवस्थितः अनेन रूपेण सासहरा-श्वासधरा। दशवै०९। नित्यत्वादिति। स्था० ३३३। आदित्योद्ग-तिरिव सासायण-सहैव तत्त्वश्रद्धानरसास्वादनेन वर्तते इति शश्वद्भवनात् शाश्वतः परैः क्वचिदप्यस्खलितः। सूत्र. सास्वा-दनम्। सम० २८। सहैव ३७० प्रतिक्षणस्थायी स्थिरमित्यर्थः। भग. २४८। तत्त्वश्रद्धानरसास्वादनेन वर्तत इति सास्वादनः। शाश्वतं -प्रतिक्षणं सद्भावात्। भग० ११९। शाश्वतः- भूतग्रामस्य द्वितीयं गणस्थानम्, प्रायः परित्ययावज्जीवमप-रिक्षयः। आचा. २९५ क्तसम्यक्त्वः । आव०६५० सासओ-शाश्वतः-कर्मबीजाभावादनुत्पत्तिधर्मा। दशवैः | सासित-शासितः-शिक्षा प्रापितः। आव० ८२२॥ १५९| सासियाओ-स्वाश्रया-स्वां-आत्मीयामत्पत्तिं प्रत्याश्रयो सासगंजण-पृथिवीभेदः। आचा. २९) यास् ताः स्वाश्रयाः। आचा० ३२३। सासग-सासकं-रत्नविशेषः। जम्ब० २११। सासको- सासु-असवः-प्राणः वह असवो यस्य येन वा तत् सास्ःबीयकनामा वृक्षविशेषः। ज्ञाता०२४ सासकः सचित्तमित्यर्थः। व्यव. १९५अ। धातुविशेषः। उत्त० ६९९| पारदः। प्रज्ञा० २७। पारदः। सासेंता- शासयन्तः परेषां गानादीनी शिक्षयन्तः। ज० जीवा. २३ सासण-शिष्यतेऽने-नेति शासन-प्रतिपादकं निवृत्तिपथ- | सासेरा-यन्त्रमयीनर्तकी (देशी)। बृह. २३५अ। शासनम्। नन्दी० ४७ शास्यन्तेऽनेन जीवादिशासनं सासेरी- (देशीवचनम्) यंत्रमयी नर्तकी। व्यव. १९२ अ। द्वादशा-ङ्गम्। आव० १४५ शासनं-आज्ञा। दशवै. साहजनी-महाचन्द्रराजधानी। विपा०६५। साहमियचेइय-साधर्मिकं चैत्यं-साधर्मिकाणामर्थाय सासणा- शासना-शिक्षणा। प्रश्न. १०९। यत्कृतं तत् साधर्मिकं चैत्यम्। बृह. २७६ आ। सासता- शाश्वती-शश्वद्भवनस्वभावा। जीवा० १८३। | साहइ-कथयति। आव० २२३। कथयति। दशवै० ९७। सासय-शाश्वतः मोक्षः। दशवै० २१३। शाश्वतः देशीवचनतः कथयति। आव. २३९। २६४। اوا? मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [96] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] साहहु - संहृत्य शरीराभिमुखमाक्षिप्य । आचा० ३७७॥ संहत्य - विधाय । उपा० २३ संहत्य- अपनीय ज्ञाता० १४०] संहत्य- अपनीय सूत्र० १८१ आव० ७१३॥ संहत्यविधाय विपा० ५३1 साहण साधनं कारणम्। आव० ५८९१ कथनम्। पिण्ड० ८१| साहणण- संहननं सङ्घातः । भग० १६८१ साहणणाबंध- संहननं अवयवानां सङ्घातनं तद्रूपो यो बन्धः स संहननबन्धः । भग० ३९५ साहति- संहन्यते-मिलति । भग० १०४। साहणय- धर्मकथिनाssचार्याय कथनीयं यदुतायमस्मद्व-सतिदाता । ओघ० ९४ । साहणिअ- एकत्र ओघ० ८३| साहणियति- एक्कतो काउं । निशी० १३८ आ । साहणिया- संहृत्य । व्यव० ११२ आ । साहण्णति संहन्यते सम्बध्यते। स्था० ६३ । आगम- सागर - कोषः (भाग:-५) साहत्थ- स्वहस्तः साक्षाद्। उपा० ४६। साहत्यि स्वहस्तः। भग- १७८ साहत्थिय- स्वाहस्तिकी विंशतिक्रियामध्ये एकादशी । आव० ६१२ | साहत्थिया - स्वहस्तेन निर्वृत्ता स्वाहस्तिकी । स्था० ४२ स्वहस्तगृहीत जीवादिना जीवं मारयतः स्था• ३१७ साहम्म साहू | निशी० २३४ आ साहम्मि साधर्मिकः - श्रावकः | ओघ० २४ साधर्मिक: । श्रावकः श्राविका पुस्तकं श्रावकम्। ओघ० २४। साहम्मिअ- साधर्मिकः एकः प्रवचनतः न लिङ्गतः एकः लिङ्गतो न प्रवचनतः, एको लिङ्गतोऽपि प्रवचनतोऽपि एको न लिङ्गतो न प्रवचनतः दश- ३१ साधर्मिक:लिङ्गप्रव-चनाभ्यां समानधार्मिकः । प्रश्र्न० १२६ । साहम्मिणी- साधर्म्मिणी संयती । बृह० ४७ आ साहम्मिय - साधर्मिक गीतार्थसमुदायविहारी संविग्नः । सम॰ ४५| साधर्म्मिकः-साध्वपेक्षया साधुः । भग० ७०१ | समानो धर्म्मः सधर्म्मस्तेन चरतीति साधर्म्मिकःसाधुः । स्था० ४७४ | साधर्म्मिकः । आचा० ३५२ | साधर्म्मिकः-सामान्य-साधुः । भग० ७२७| साधर्मिकःअपरसाधुः । आचा• ३६५ समानधर्म्मा लिङ्गता प्रवचनतश्चेति साधर्मिकः । स्था० २९९| साधर्मिक: मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [97] [Type text] साधुः । आचा० ४०३ | साहम्मियउग्गह- साधर्मिकाणां गीतार्थसमुदायविहारिणां सविग्नानामवग्रहोमासादिकालमानतः पंचक्रोशादिक्षेत्ररूपः साधर्मिकावग्रहः । सम० ४१५५ साहम्मी - जीवाद्यस्तित्ववादिनः कारुणिकश्चापि साधर्मिकः । बृह० ५७ अ साधर्मिकः साधुः। ओघ० ३८| साहम्मोवणीए - साधर्म्यापनीतं - साधर्म्येण उपनयो यत्र तत् । अनुयो० २१० साहय संहतः सुश्लष्टः । जीवा० २७४१ संहतंसङ्क्षिप्तम ध्यम् । औप. २०१ संहतं सङ्क्षिप्तम् । प्रश्न० ८०] संहतं सङ्क्षिप्तमध्यम्। जम्बू० १११। साहय - साधयति कथयति श्लाघते वा सूत्र ३९४ साहयसो णंद- संहृतसौनन्दंउद्ध्वीकृतमुसलाकृतिकाष्ठं, मध्ये तनु उभयोः पार्श्वयोर्बृहत् जीवा० २७० संहतसौनन्दं, उवकृतमुसलाकृतिकाष्ठं तच्च मध्ये तनु उभयोः पार्श्वयोर्बृहत्। संतं-सङ्क्षिप्तमध्यं सौनन्दं समायुधं मुसलविशेष एव मुसलम्। जम्बू. १९१। साहरइ- संहरति-निवेशयति । जम्बू० २०२१ साहरण- संहरणं क्षेत्रान्तरात् क्षेत्रान्तरे देवादिभिर्नयनम् । भग॰ ८९६| बलावद्वंभकरणं । निशी० ९६ अ । संहृत्य। ओघ ९२११ साहरति- संहरति-भक्तभाजनात् भोजनभाजनेषु क्षिपति । स्था• ९४८) निशी. २३२ आ साहरह - संहरत-समानयत। जम्बू० ३९४। साहराम आनेष्ये आव• ४५३१ साहरिए संहतो नीतः। सम० ८९॥ साहरिज्जमाणचरए- संह्रियमाणचरकः । ओघ० ३९| साहरित - संहृतः । आव० ३४८ | साहरित्तर- संहर्तु प्रवेशयितुम् । भग. २१८ साहरित्ता संहृदय आव० २१६| साहरिय- संहृतम्। आचा० ३४५। संहृतं अविक्षिप्ततया धृतम्। भग० ९२४ संहत अन्यत्र क्षिप्तम्, पञ्चम उद्गम-दोषः । पिण्ड. १४७) साहरेज्ज- साहरेत्-सङ्कोचयेत्। भग० ६२१| *आगम - सागर- कोषः " (५) Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] १९८१ साहल्लय-सफलता। ओघ०४१। साहारणा-साधारणा। आव० २०८ साहस-साध्वसं भयम्। बृह. २११ अ। अवितर्कितम्। साहारया-साधारा। आव० २६३ प्रश्न० १२९। साहि- गया। निशी० ३०४ आ। साहसगतिः- तारापरिभोगे सुग्रीवरूपकारकः साहिका- गृहपङ्क्तिरूपा। बृह० १४६ अ। खेचराधिपवि-शेषः। प्रश्न० ८९। साहिगरण-सहाधिकरणेन साधिकरणाः साहसिए-साहसिकः-अवितर्कितकारी। ज्ञाता०७९। | युद्धार्थमुपस्थितः। स्था० ३२९। साहसिओ-अवितर्कप्रवर्तित इति साहसिकः। प्रश्न. ५ | साहिज्जई-कथ्यते। दशवै० ११३। साहसिय- साहसिकः-अकृत्यकरणपरः। दशवै० २५१। साहिज्जति-कथ्यते, प्ररूप्यते। प्रज्ञा० ३६३। सहसा -अवितर्का भाषणे यो वर्तते सः साहसिकः। | साहिज्जसु-अचीकथत्। आव० १७५ प्रश्न. ३० साहियव्वं-कथयितव्यम्। बृह. १२३ आ। साहसीए- साहसिकः असमीक्षितकारी। ज्ञाता० २३६।। साही- गृहपक्तिः । बृह. १४९ आ। निशी. १२७ आ। साहस्सिओ-सहसा-अपर्यालोच्य गणदोषान् प्रवर्तत इति साहिका-गृहपक्तिः । बृह. १२आ। साही-श्रेणिक्रमेण साहसिकः चौर्यादिकृदिति। उत्त०६५६। सहसा गृहपरिपाटिः। बृह० ८० | पाटकः। व्यव० १०७ अ। असमीक्ष्य प्रवर्तत इति साहसिकः भीमः। उत्त. ५०७। जाया। आव०६९१। वर्तनी। पिण्ड० १०३। शाखासाहा- शाखा-वृक्षडालरूपा। दशवै० २२८। शाखा-वृक्षडा- पाटकः-गृहाणां पङ्क्तिः । आव० ६३६। घरपंती। निशी लम्। दशवै० ११४ १८७ अ। शाखा। आव०७४४| सुहृत्-मित्रम्। औप० ३३ साहापारत-शाखापारगः। उत्त० २२५ शोधिः-अकलुषहृदयः। औप० ३३। खडक्किका। ओघ० साहाभंग-शाखाभङ्गः-शाखैकदेशः। दशवै० १५४। शाखाभङ्गः पल्लवः। आचा० ३४५ निशी. ६० आ। साहीण-स्वाधीनः। आव. २०८ स्वाधीनः अस्तित्वेन साहार-अनन्तवनस्पतिकायिकः। बृह० ७१ आ। साधा- स्वायत्तः। ज्ञाता०१६। स्वाधीनः-सन्निहितः। ओघ. रण। ओघ. १९० १४०। कल्लशरीरो-भोगसमत्थो। दशवै. ३७। भत्तारो। साहारण-साधारणं-प्रकृतिपेलवस्य साधारणम्। आचा० निशी. १०९ आ। २९३। साधारणः-तुल्यः। ओघ. १८३। कायपरीत्तः। साह-निर्वाणसाधकान् योगान्जीवा० ४४६। साधारणः-तुल्यः। ओघ० १८७। साधारणं- सम्यग्दर्शनादिप्रधानव्यापारान् यस्मात्साधयतीति बहना सामान्यम्। आचा० ३५३। समानं-तुल्यं प्राणापा- साधुः-विहितानुष्ठानपरः। आव० ४४९। नायुपभोगं यथा भवति एवं साधयत्यपवर्गमिति साधुः। दशवै० ७४| साधुः-साधयति आसमन्तादेकीभावेनानन्तानां जन्तुनां धारणं सङ्ग्रहणं सम्यग्दर्शनादियोगैरपवर्गमिति साधुः। दशवै०७१। येन तत्साधारणम्। प्रज्ञा० ३०| साधारणं-मण्डल्यां साधुः सर्वोऽपि शिष्टः। उत्त० ४७२। साधुः। आव० ४८४॥ भोजनम्। बृह. २५आ। साधारणं-सामान्यम्। आचा० साहुक्कार- नन्दी० १६४। साधुकारः। आव० ३६०| ५९। समानं एकं धारण-अङ्गीकरणं शरीराहारादेर्यस्य स साधुकारः। उत्त० १५० साधारणः। आचा० ५९। सङ्घाटिका-दिसाधर्मिकस्य साहुजोणीओ- साधुपाक्षिकः आत्मनिन्दकः। निशी० ८६ सामान्यः साधारणः। प्रश्न. १२८।। आ। साहारणणाम-साधारणनाम-यद्दयवशात् साह-यः ज्ञानादिशक्तिभिः मोक्षं साधयति यः, सर्वभूतेष पुनरनन्तानन्तं जीवानामेक शरीरं भवति समतां धारयति यः, सहायकं संयमकारिणं धारयति स। तत्साधारणनाम। प्रज्ञा०४७४। भग०४। व्यव० १७० । साधयतीति साधः। ओघ १११ साहारणसरीरा-साधारण-अनन्तजीवानामपि समानमेकं साधुः-ज्ञानादिरूपाभिः। पौरुषेयीभिर्मोक्ष साधयतीति। शरीरं येषां तेऽमी साधारणशरीराः। उत्त०६९१| ओघ ११। निर्वाणसाधकान् योगान् साधयतीति साधुः। मनि दीपरत्नसागरजी रचित [98] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] आव० ५६९। साधयति पौरुषेयीभिः क्रियाभिरपवर्गमिति विभूषणादिभिर्मण्डनम्। प्रज्ञा० ५५०| शृङ्गारो साधुः। उत्त०६९। देससर्वविरताः। आचा० २६० शृङ्गाररूपः। जीवा० २७६। शृङ्गारो-मण्डनभूषणाटोपः। साहेति-कथयति। ओघ. ९०| साधयति-रन्धयति। भग. जीवा. २०७। कमनीयकामिनीदर्शनादिसम्भवो ५२० रतिप्रकर्मात्मकः शृङ्गारः। अनुयो० १३५ शृङ्गारःसिं-अमीषाम्। बृह. २१३ अ। पूरणे। उत्त० ३८७। अस्य। मण्डनभूषणाटोपः। राज०१२। शृङ्गाररसोपेतः। ज्ञाता० मरण। १६४| सिंखला-शृङ्खला मषीभाजनसत्का। जीवा० २३७। | सिंगारकलुणा-शृङ्गारकरूणा-शृङ्गारमृदुः शृङ्गाररसेन शृङ्खला। जीवा० २०७ करुणा-पादिका। प्रश्न. १३९| सिंग-शृङ्ग-विषाणम्। प्रश्न ८ वादयविशेषः। भग. सिंगारत्थं- शृङ्गारार्थ-विलासार्थम्। उत्त०४२९। २१६। शृङ्गम्। बृह० ६० अ। शृङ्ग-यद् सिंगारागार- शृङ्गारः-शृङ्गाररसपोषकः। आकार:उत्तमाङ्गकदेशेन वन्दते। कृतिकर्मणि चतुर्विंशतितमो तन्निवेश-विशेषो यस्य स शृङ्गाराकारः। सूर्य० २९३। दोषः। आव० १४४| शिम्बः। आव० ८२९। शृङ्ग- सिंगारागारुचारुवेसा- शृङ्गारो-मण्डनभूषणाटोपः ललाटवामदक्षिणपार्श्वस्पृद् वन्दनम्। बृह. १३ अ। तत्प्रधान आकारो यस्यां सा तथा, चारुवेषाःसिंगक्खोड-शृङ्गखोड:-शृङ्गप्रदेशः। ओघ०६८। मनोहरनेपथ्याः, शृङ्गारस्य प्रथमरस्यागारमिवशृङ्गखोड:-अप्रशस्तप्रदेशः शृङ्गप्रदेशः। ओघ०६८ गृहमिव चार वेषो यासां सा। जम्बू०४१। सिंगणं- प्रत्यभिज्ञानम्। निशी. ११८ आ। सिंगाल-सांगारं सरागम्। बृह. १७८ अ। सिंगणादित- सर्वेषु कायेषु मध्ये शृङ्गभूतं यत्कार्यं तत् | सिंगिया- शृङ्गता। आव० ९०। शृङ्गना-दितम्। बृह० ६० अ। सिंगिरड- चतुरिन्द्रियविशेषः। प्रज्ञा० ४२॥ सिंगणादियकज-श्रृङ्गनादित कार्यम्। उत्त० २५६ | सिंगिरीडी- चतुरिन्द्रिपयजीवभेदः। उत्त०६९६। सिंगनादित- कज्ज-शृङ्गनादित कार्यम्। नंदी० २०७। | सिंगीरागाररुव- हाराद्धहारादीया। निशी. २७६ आ। सिंगबेर-शृङ्गबेरं वनस्पतिकायिकविशेषः। जीवा. २७। सिंघ-सिंहः। आव. १७४१ शङ्गबेरं-आर्द्रकं तथाप्रकारमामलकादि। आचा० ३४८१ सिंघाडए-राहोः प्रथमं नाम। भग० १७५ शृङ्गबेरम्। प्रज्ञा० ३६५। वनस्पतिविशेषः। भग० ८०४। सिंघाडग-त्रिकोणजलजफलविशेषः। स्था० १४५। शृङ्गबेरं-कन्दविशेषः। उत्त०६९१। अनन्तकायभेदः। शृङ्गाटकं -त्रिकोण स्थानम्। औप०४। भग० २००। भग० ३००। साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा. शृङ्गाटकम्। भग० २३८। शृङ्गाटकं-शृङ्गाटकफलाकारं ३८ शृङ्गबेरं-आर्द्रकम्। दशवै० ११८ स्थानम्। भग. १३७ सिङ्घाटकंसिंगबेरचुण्ण- शृङ्गबेरचूर्णम्। प्रज्ञा० २६६। सिङ्घाटकाभिधानफलविशेषाकारं स्थानं त्रिकोणमिति। सिंगभेय-शगभेदा-महिषादिविषाणच्छेदः। ज्ञाता०६। औप० ५७। शृङ्गाटक-नानाहट्टगृहाध्यासित-स्त्रिकोणो निशी. ५०आ। भूभागविशेषः। शृङ्गाटक त्रिपथसमागमः। अनुयो० सिंगमाला- शृङ्गमाला। जम्बू० ९८। एकोरुकद्वीपे १५९। शृङ्गाटकं-त्रिकोणं रथ्यान्तरम्। स्था० २९४। वृक्षवि-शेषः। जीवा० १४५ सिङ्घाटकः-आकारविशेषः। आव० १३६। आचा० ३४८१ सिंगाडय-शृङ्गाटक-त्रिकोणं स्थानम्। जीवा० २५८। शृङ्गाटकं-सिङ्घाटकं सिङ्घाटकाकारं त्रिकोणं सिंगार- शृङ्गारः-अलङ्कारादिकृता शोभा, स्थानमिति। प्रश्न० ५८1 जलजबीजं फलविशेषः रसविशेषोऽपित-द्योगात् शृङ्गारः, शृङ्गारमिव तदाकृतिपथयुक्तं स्थानं -सिंघाटकम्। ज्ञाता० २५१ शृङ्गारमतिशयशोभावाद्। भग० ११८शृङ्गारो- सिंघाण- नासिकानिष्क्रान्तं श्लेष्मः। उत्त०५१७५ मण्डनभूषणाटोपः। प्रथमरसः। जम्बू०५२। शृङ्गार:- सिङ्घानं-नासिकोद्भवः श्लेष्मा। आव०६१६) शृङ्गाररसपोषकः। सूर्य. २९३। शृङ्गारो सिङ्घानकं-नासिका-श्लेष्मा। भग० १२२। सिङ्घानः मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [99] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text) नासिकामलः । जम्बू० १४८ सिङ्घानो नासामलः । ज्ञाता० १०३ | नासिका श्लेष्मा । सम० ११ नासिकाश्लेष्मा भगवा सिंघाणए कृष्णपुद्गलः । सूर्य- २८७। सम्मूर्च्छिममनुष्यो- त्पत्तिस्थानम् । प्रज्ञा० ५०| सिंघाणय- सिघानक-नासिकोद्भवं श्लेष्मा आव• ५६४१ सिंघान - नासिकोद्भवः श्लेष्मा | स्था० ३४३ | सिंचामि - सिञ्चामि उक्षामि - विध्यापयामि । उत्त० ५०६ | सिंझ - सिघ्म-क्षुद्रकुष्ठविशेषः । भग० ३०८। सिंदिकंदय- सिन्दीकण्डकः । आव २२स - आगम- सागर - कोषः ( भाग : - ५ ) - सिंदी खर्जूरी आव० २२स सिंदुवार - गुच्छाविशेषः । प्रज्ञा० ३२१ निर्गुण्डिः । ज्ञाता० २१८ वृक्षविशेषः शुल्ककुसुमवृक्षः । भग० ४७६ । निर्गुण्डी । जम्बू. ३५1 सिंदुवार गुम्मा- सिंदुवारगुल्माः । जम्बू० ९८ ॥ सिंदुवारमल्लदाम - सिन्दुवारमाल्यदामः । प्रज्ञा० ३६१| सिंधवए सैंधवम् । व्यव० २०४अ सिंधवओ सैन्धवीयः आव ४०८ सिंधु- देवविशेषः बृह० २५३ आ सिंधुकुंड- यत्र तु सिन्धुर्निपतति ततु सिन्धुकुण्डम् । जम्बू० सिंधुदत्त- बह्मदत्तराज्ञ्योर्वनराजीसोमयोः पिताः। उत्त० ३७९| सिधुदेवीकूड सिन्धुदेवीकूटम्। जम्बू• २९६ ॥ सिंधुसागरंत- सिन्धुसागरान्तः, सिन्धुनदीसङ्गतः। जम्बू. 2201 सिंधुसेण सिन्धुसेनः ब्रह्मदत्तराज्या वानीरायाः पिता । उत्त० ३७९| सिंहलदेशजः- सिंहल्यः । जम्बू० १९१ । सिंधुसोवीर सिन्धुसौवीर जनपदविशेषः । प्रज्ञा० १५ यत्र वीतीभयनगरम्। भग- ६१८ सिंधुसौवीर - यत्रोदायनराजा वीतभयनगरं च । बृह० १६६ । सिंहली - देशविशेषः । भग०४६०। सिंधू- महानदी । स्था० ४७७ सिंबलि- वृक्षविशेषः । भग० २९०, ६८०, ६४८ । शाल्मलिः, वल्लादिफलम्। दश. १७६| सिम्बलिः वृक्षविशेषः । भग० २९० सिंबलिकाली- शाल्मलीकालिका संस्ता०| सिंबलियालग - वल्लयादिफलीनां स्थाली, फलीनां वा मुनि दीपरत्नसागरजी रचित पाकः । आचा० ३५४ | सिंबली सौम्बली-वल्यादिफलिका भग०६८५ सिंबवण- शिम्बावर्द्धनं ध्यानसंवरयोगविषये नगरम् । [Type text] आव० ७२२ सिंभकाल - श्लेष्मकालः । आव० ६८९ । सिंभाधियं श्लेष्माधिक्यम् । आव. ३०३ सिंभित - वाधिविशेषः । स्था० २६५ | सिंह- चतुर्दशमं स्वप्नम् । ज्ञाता० २० सिंहः । दशवै. १५७। सिंहः पञ्चाननः । जीवा० २८२ क्षुल्लकोदाहरणे सूरयः । पिण्ड० १३४ | सिंहः - केशरीसिंहः । जीवा० २७२॥ क्रीड-नधात्रीदोषविवरणे सङ्गमस्थविराचार्यशिष्यः । पिण्ड १२५1 सिंहकेसर- मोदकविशेषः । आचा० ३०६ | सिंहगिरि - सिंहगिरिः । उत्त० ९६ । सिंहगिरी - सिंहगिरिः-सोपारकनगरनृपतिः । उत्त० १९२॥ सिंहगिरि:- योगसङ्ग्रहे आलोचनादृष्टान्ते सोपारकपत्तनाधिपतिः । आव० ६६५| सिंहनाए सिंहनादः । औप० ५९१ सिंहनिषद्यायतनं वार्धकीरत्नकृतं योजनायातं त्रिगव्यूतोच्छ्रितं सिंहानिषदया। आव० १६९ | सिंहपरिसा परं न तथासमर्थास्ते सिंहपर्षद् उच्यते। बृह १०२ आ । सिंहभक्खिय- यद् एकदेशादारभ्य सिंहवत् तावद् भुज्यते यावत्सर्वं भोजनं निष्ठितं तत् सिंहभक्षितम् । ओघ० १८७ | सिंहमारक कृतपापो व्यक्तिविशेषः । आव ५९०१ सिंहया- दार्दयस्थिरता भगः ५२७। सिंहस्थ- मायापिण्डदृष्टान्ते राजगृहे राजा सिंहरथः । पिण्ड० १३७५ सिंहविक्रीडीत - तपोविशेषः । व्यव० ११३ आ । सिंहव्यापादक- बहुप्रायश्चित्तवान् । व्यव० ३८६ आ । सिंहासन- सिंहासनं - भद्रासनम् । सूत्र० ३२५ सिंहासन आसनम्। उत्त० २६२॥ सि - श्री : - सम्पदः । ज्ञाता० ६५ | से तस्य । ओघ० २१९ । से तस्य । आव० ३६६ | [100] "आगम- सागर-कोषः " (५) Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सिआ-स्यात्-कदाचित्। दशवै०१७८५ सिक्खासील-शिक्षायां शीलः-स्वभावो यस्य शिक्षा वा सिइ-निःश्रेणिः। पिण्ड० १३६। शीलयति अभ्यस्यतीति शिक्षाशीलःसिउंढि-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा० ३४| विविधशिक्षाभ्यासकृत्। उत्त० ३४५) सिए-सितः-शुक्लः। भग० १४५ सिक्खिउ-शिक्षितस्य शिक्षितायां वा। आव०४२५ सिकता- वालूका। प्रज्ञा० ९९। वालुका। जीवा० १४०। सिक्खिऊण-शिक्षित्वा-अधीत्य। दशवै० १९० सिक्कए-शिक्यकः। जम्बू. ५८१ सिक्खिओ-शिक्षितः-अत्र गृहीतसूर्यप्रज्ञप्तिसूत्रार्थोभयः। सिक्कग-शिक्कगं दध्यादिभाजनानां सूर्य २७६| दवरकमयमाकाशेs-वलम्बनं लोकप्रसिद्ध शिक्कगम। सिक्खिज्ज-शिक्षेत्-व्यापारयेत्। आचा. २६१| उपा० २२। सिक्ककम्। आव० १५। सिक्खित-आदित आरभ्य पठनक्रियया यावदन्तं नीतं सिक्कय-सिक्ककम्। आव०६२१ सिक्ककम्। जीवा० तच्छिक्षितम्। अनुयो० १५ २०६। रूप्यमयं सिक्ककम्। जीवा. २१४। सिक्खियं शिक्षितं- अभ्यस्तम्। जम्ब० ३६५ सिक्कयणतय-सिक्कगस्स एवं पिहणं। निशी० १२१ सिक्खे- शिक्षते उपादत्ते। दशवै० २४२ सिक्खग-शिक्षकः-अभिनवप्रव्रजितः। दशवै. ३९। सिक्थ-मधूच्छिष्टम्। दशवै. १७२। आचा० १२९। शिक्षकः-योऽधुना प्रव्रजितः। दशवै. ३१ सिगालभुत्तं- शृगालभुक्तं शृगाल इवान्यत्रान्यत्र प्रदेशे सिक्खा-शिक्षा-अक्षरस्वरूपनिरूपकं शास्त्रम्। भग० भक्ष्यति तत् द्रावितरसमिति। ओघ० १९२। ११४| शिक्षा-अक्षरस्वरूपनिरूपकं शास्त्रम्। औप. ९३। | सिग्ग-सिग्रः-व्यव० १७२ अ। श्रान्तः। ओघ० १०० शिक्षा-अभ्यासेः। आव०८३९। शिक्षा (देशीपदमेतद) परिश्रमः। व्यव. १०। सिग्रः परिअक्षरस्वरूपनिरूपक शास्त्रम्। ज्ञाता० ११० श्रान्तः। बृह. २६८ अ। सिग्रः श्रान्तः। बृह० २४७) सूत्रार्थग्रहणम्। प्रश्न. १४६। शिक्षा ग्रहणासेवनरूपा। सिग्गउ- श्रमः। ओघ. २९। दशवै. १९२ शिक्षा-कलाग्रहणम्। प्रश्न. ११६। शिक्षा- सिग्गाणि-सिग्रानि-भग्नानि। ब्रह. ११९आ। इच्छामिच्छातहक्कारादिरूपा। सूत्र. २४१। शिक्षा-ग्रहणा | सिग्घ-शीघ्रं वेगवत्। भग०१६७। शीघ्रम्। ज्ञाता०२९। 'सेवन' भेदभिन्ना। योगसङ्ग्रहे पञ्चमो योगः। आव० शीघ्रत्वम्। ज्ञाता०९७। ६६३। शिक्षाया-व्रतासेवनात्मिका। उत्त० २५१। शिक्षा- | सिग्घया- शीघ्रता-लाघवविशेषः। जम्बू. २३६। धनर्वेदः। नन्दी. १५८ शिक्षा ग्रहणशिक्षा आसेवन- सिज्जंभव- शय्यम्भवः आर्यमणकेन कृतं शिक्षा च। नन्दी. २१०| शिक्षा-उपदेशः। अभ्यासः। दशवैकालिकश्रुता-राधनमिति हर्षश्रमोचकः आचार्यः। उत्त० ५०७ दशवे. २८४। नि० २७ आ। सिक्खापयवय-शिक्षापदव्रतं-अभ्यासस्थानव्रतम्। आव० | सिज्जंस-श्रेयांसः- ऋषभजिनप्रथमभिक्षादाता। आव. ८३९। १४७ श्रेयांसः-पुरुषोत्तमवासुदेवधर्माचार्यः। आव० १६३। सिक्खावण-शिक्षापनं-शिक्षणं श्रेयांसः-प्रथमजिनभिक्षादाता। सम० १५१। सिद्धार्थराप्रत्याचारवच्छुकसारिकादि-सुखेन ज्ञोवतीयनाम। आचा० ४२२। श्रेयान्-समस्तभुवस्यैव मानुषभाषासम्पादनात्। दशवै० १०० हितकरः प्राकृतशैल्या छन्दसत्वाच्च श्रेयांसः, एकादशो सिक्खावित्तए-शिक्षयितुं ग्रहणशिक्षापेक्षया सूत्रार्थौ । जिनः। आव० ५०४। श्रेयांसः-गजपुरनगरयुवराजः। आव. ग्राहयितुं, आसेवनाशिक्षापेक्षया तु प्रत्युपेक्षणादि। स्था० | १४७ ५७ सिज्जा- शय्या-वसती। आचा० ३०६। शय्या-वसतिः। सिक्खावियं-सूत्रादिग्रहणतः शिक्षितम्। ज्ञाता०६० आचा० ३२९। शय्या-संस्तारकः। आचा० ३६१। शय्यासिक्खावेति-शिक्षयति-अभ्यास कारयति। ज्ञाता० ३८ । सर्वागिकी। आचा० ३६९। शय्या। आचा० ३७६। शय्यते सिक्खासत्थं-शिक्षाशास्त्रम्। आव० ४२२॥ यस्यां सा शय्या संस्तारकः। स्था० २५१। शय्या-आचा मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [101] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] रप्रकल्पस्यैकादशो भेदः। आव ६६० शय्या महती सर्वाङ्गप्रमाणा अनुयो० २० शय्या प्रज्ञा० ६०६ । शय्या संस्तारकादिलक्षणा वा आव० १७४१ शेरतेऽस्यामिति शय्या उपाश्रयः एकादशमपरीसहः । उत्त० ८३ | सिज्जावर शय्यातरः- साधुवसतिदाता दशकै ११७ सिज्जासंथार - शय्यासंस्तारकः- शय्या वसतिस्तस्यां संस्तारकः शिलाफलकादिः । उत्त० ४९८ | सिज्जासण - शय्यासनं शयनीयविष्टरं वसत्यासनं वा । सम० १५| सिज्जिरिआ आचाराङ्ग एकादशममध्ययनम् । सम० आगम - सागर - कोषः ( भाग : - ५ ) ४४ सिज्झइ सिध्यति अवाप्तचरमभवतया सिद्धिगमनयोग्यो भवति । भग० ३४ | सिध्यति - निष्ठितार्थो भवति । जीवा० २५६ । सिध्यति निष्ठितार्थो भवति । प्रज्ञा० १०८ सिध्यति निष्ठितार्थो भवति । उत्त० ५८६ । सिज्झति - आगमसिद्धत्वादिना सिध्यति । उत्त० ५७२ | सिद्ध्यति निष्ठितार्थो भवति । प्रज्ञा० ६०५ सिध्यतिअणिमादिसंयमफलं प्राप्नोति । आव ७६१। सिज्झया - सिज्झिका-प्रातिवेश्मिकस्त्रियः । बृह० २७०१ सिज्झिस्संति– सेत्सयन्ति-अष्टविधमहर्द्धिप्राप्तया भोत्स्यन्ते केवलज्ञानेन तत्त्वम् सम० ७ सिज्झेज्जा- सिध्येत्-समस्ताणिमैश्र्वर्यादिसिद्धिभाग् भवेत् । प्रज्ञा० ४००| सिट्ठ- शिष्टम् । आव० ६३ | सिद्धी- श्रेष्ठी श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्टभूषितोत्तमाङ्गः । प्रज्ञा० ३२७| सिढिल- शिथिलः-अल्पपरिणामतया मन्दवीर्यः । संयमतप- सोर्धृतिद्रादिमरहितः । आचा० २१३ | सिढिलबंधण लयबन्धनं स्पृष्टता, बद्धता निधत्तता वा तेन बद्धः-आत्मप्रदेशेषु सम्बन्धितः । भग० ३४। सिढिलभाव- शिथिलभावः, निर्लज्जः । ज्ञाता० १६५९ सिढिलीकय- शिथिलीकृतं लधीकृतं मन्दविपाकीकृतम् | भग० २५१ | सिणणिद्ध स्निग्धा चिक्कणा जम्बू० १११) स्निग्धा मुनि दीपरत्नसागरजी रचित सतेजस्का जम्बू. १९४१ सिणवल्ली- सेनापल्ली आव०५३८१ सिणाण स्नानं सुगन्धिद्रव्यसमुदयः । आचा० ३६३२ स्नानं अपत्यार्थ मन्त्रौषधिसंस्कृतजलाभिषेचनम् । उत्त० ४९७ स्नानं शौचम्। उत्तः ९० स्नानंअङ्गप्रक्षालनम्। दशकै २०५१ स्नानम्। आचा० ३९५ तेल्लादिणा फासुगअफासु-गेण सव्वगातस्स सिणाणं। निशी० ८९ अ सिणाणवच्चसंलोए स्नानवर्चः संलोकः । आचा० ३४९ सिणात क्षालितसकलघातिकर्ममलपटत्वात् स्नात इव स्नातः स एव स्नातकः सयोगोऽयोगो वा केवलीति । स्था० ३३७ | स्नातकः - प्रधानः । स्था० १९३ । स्नातकोमोह- णिजाइघातियचउकम्मावगतः । उत्तः रपछा सिणा - स्नात इव स्नातोघातिकर्म्मलक्षणमलपटलाल-नाद, निर्बन्येषु पञ्चमभेदः । भग० ८९०| सिणायग– स्नातकः षट्कर्माभिरतो वेदाध्यापकः । शौचाचार-परतया नित्यस्नायी ब्रह्मचारी सूत्र ४००| स्नातकः बोधिसत्त्वः । सूत्र० ३९७| सिणाविज्ज स्नानं सोत्तमाङ्गं कुर्यात्। आचा. ३६३१ सिणिजंतो- साधू | निशी० २३८ अ सिणिद्ध- स्निग्धः-शुभकान्तिः । राज०४ सिणेह— स्नेहो-अवश्यायः । बृह० ८१ आ । स्नेहस्वजनादिषु प्रेमः। उत्त॰ २६४॥ [Type text] - सिणेहकाय- स्नेहकायः अप्कायविशेषः । भग० ८३ | सिणेहपाण स्नेहपानं द्रव्यविशेषपक्वघृतादिपानम् । ज्ञाता० १८१| सिणेहसुहुम स्नेहसूक्ष्मं अवश्यायहिममहिकाकरकहरतनु-रूपम्। स्था० ४३० स्नेहसूक्ष्मं - अवश्यायहिममहिकाकर कहरतनुरूपम् । दश० २२९१ सिन्हा- सिन्हा अवश्यायः । बृह. १८१ आ । सिनाअवश्यायः । ओघ० २१३ | सिहाए- सिस्तालकं फलविशेषः सेफालकम् । अनुत्त [102] ६। सिहाय- सिस्तालकं-फलविशेषः । सेफालकसिति प्रसिद्धम् अनुत्त० ६| "आगम- सागर-कोषः " (५) Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सितं- बद्धम्। प्रज्ञा० ११ बद्धमिहाष्टविधं कर्म। उत्त. निष्ठितार्थम्। प्रश्न ११३। रुक्मिवर्षधरे कूटम्। स्था. ४७२। बद्धमष्टप्रकारं कर्मेन्धनम्। प्रज्ञा० रा हड। निशी. ७२ सिद्धः-शिखरिवर्षधरे कूटम्। स्था० ७२ सितं-बद्धं ११८ आ। ध्मातं-भस्मीकृतमष्टप्रकारं कर्म येन स सिद्धः। सिति-उर्दध्वमधो वा गच्छतः। व्यव० ४०८ आ। नन्दी. ११२। सिद्ध-प्रतिष्ठितम्। दशवे. १२६। सिद्धपुत्रः। सित्थ-मधुसित्थं, औपपातिकीबद्धौ दृष्टान्तः। नन्दी. बृह. २४६ अ। प्रतिष्ठितम्। भग० २४३। विंशतिस्थानके १५५। सिक्थुः । आव० ६९२१ द्वितीयस्था-नकम्। ज्ञाता० १२२। भग० ११११ वैताढ्यै सित्थग-सिक्थकम्। आव०८४४। कूटम्। जम्बू० ३४|| सिद्धपुत्तो। निशी० ५२ अ। सिद्धःसित्थगकर-सिक्थकरः मधुसिक्थः। आव०४२१| निष्ठितार्थः। उत्त०६७। सितं-बद्धमिहाष्टविधं कर्म तद् सित्थू-सित्थुः। जीवा० २६८१ ध्मातं-भस्मसाद्भूतमस्येति सिद्धाः सिद्धंत-सिद्धं-अत्थं अन्तं णयतीति सिद्धन्तः। ब्रह. ३१ ध्यानानलनिर्दग्धाष्टकर्मे-न्धनः। उत्त० ४७२। सिद्धं अ। सिद्धान्तः -प्रतिष्ठितपरिच्छेदः। अनयो० १,३। पक्वम्। पिण्ड० ९५ सिद्धा-यतनकूट, सौमनसवक्षस्कारे सिद्ध-प्रमाणप्रतिष्ठितमर्थमन्तं-संवेदननिष्ठारूपं कूटम्। जम्बू. ३५३। सिद्धः -निष्ठितार्थः। जम्बू. १५८ नयतीति सिद्धान्तः। अनुयो० ३८१ प्रख्यातं-प्रथितम्। निशी. १४ आ। सिद्धं-कहियं। निशी. सिद्ध-सितं-बद्धमष्टप्रकारं कर्मेन्धनं ध्मातं-दग्धं ८२आ। जाज्वल्य-मानशुक्लध्यानानलेन यैस्ते निरुक्तविधिना | सिद्धगंडिया-सिद्धगण्डिका सिद्धस्थानप्रतिपादनपरं सिद्धाः, अथवा सेधन्ति स्म अपुनरावृत्या प्रकरणम्। भग०४३। नीर्वृत्तिपुरीमागच्छन्, यदि वा सिध्यन्ति स्म सिद्धजत्त-सिद्धयात्रः नाविकविशेषः। आव०१३७ निष्ठितार्था भवन्ति स्म, यवा सेधन्ते स्म सिद्धत्थ-सिद्धार्थः-येन बलदेवः प्रतिबोधितः। उत्त० ११७ शासितारोऽभवन् मङ्गलरूपतां वाऽनभवति स्मेति सिद्धार्थः-वीरविभोर्मातृस्वस्रयः। आव०१८८ सिद्धार्थ:सिद्धाः, अथवा सिद्धाः-नित्याः क्षत्रियकुण्डग्रामे क्षत्रियः। आव. १७९| सिद्धार्थःअपर्यवसानस्थितिकत्वात्, प्रख्याता वा मध्यमायां वणिग्। आव २२६। आरणकल्पे भव्यैरुपलब्धगुणसन्दोहत्वात्। भग० ३। महाहिमवत् विंशतितमसागरोपम-स्थितिकं विमानम्। सम० ३८ पर्वते कूटम्। नीलवर्षधरपर्वते कूटम्। स्था० ७२ सिद्धः- सिद्धार्थः-वर्द्धमानविभोः पिता। आव० १६१। जम्ब्वैरवते अशेषनिष्ठितकर्माशः, परमसुखी, कृतकृत्यश्च। आगामिन्यामुत्सर्पिणां दशमतीर्थकृत्। सम० १५४। द्वितीयस्था-नकम्। आव० ११९। ज्ञानसिद्धः-केवली। सिद्धार्थः-सर्षपः। अनुयो० २४। महावीरस्वामिपिता। भग. २७६। सिद्धं-सत्यं, प्रतिष्ठितं, अविचार्यम्। दशवै. सम० १५१। सिद्धार्थः-पाटलषण्डन-गराधिपतिः। विपा. ३३। सितं-बद्धमष्टप्रकारं कर्म घ्मातं-भस्मीकृतं येन ७४। काष्यपगोत्रियक्षत्रियः, वर्द्धमान-स्वामिनः पिता। सः सिद्धः। निर्दग्धकर्मेन्धनः मुक्त इति। जीवा० ४३६। आचा० ४२११ सितं ध्मात-मेषामिति सिद्धाः कृत्यकृत्यः। आव० ५०७ सिद्धत्थग-सिद्धार्थकः-सर्षपः। भग०५४२। सिद्धः सितं ध्मातमस्येति सिद्धाः निर्दग्धकर्मेन्धनः। । | सिद्धत्थगजाल-सिद्धत्थगादि जेण जालेण घेप्पति तं आव०८८१। सिद्धः -यो येन गणेन परिनिष्ठितो न पनः सिद्ध-त्थगजालं। निशी० ६१ अ। सिद्धार्थाः-सर्षपास्तेऽपि साधनीयः स सिद्ध उच्यते। नन्दी० ११२। सिद्धः कृतार्थो येन जलेन गृह्यन्ते तत्सिद्धार्थकजालम्। बृह. २२१ अ। जातः। स्था० ३६। सिद्ध्यति स्म-कृतकृत्योऽभवत् सिद्धत्थगाम- गोशालकविहारभूमिः। भग० ६६४। सेधति स्म वा-अगच्छत् अपनरावृत्या लोकाग्रमिति | सिद्धत्थपुरं-सिद्धार्थपरं-प्रथमशरदि स्थानम्। आव २१२१ सिद्धम्। सितं वा-बद्धं कर्म ध्मातं-दग्धं यस्य स सिद्धार्थपुरं-श्रीमहावीरविहारभूमी। आव० २२० सिद्धार्थनिरुक्तान सिद्धः-कर्मप्रपञ्चनिर्मक्तः। स्था० २५४ पुरम्। आव०२१४सिद्धार्थपरं-श्रेयांसनाथस्य प्रथमपारप्रतिष्ठितम्। आव०७८९| प्रमाणप्रतिष्ठितम्। णकस्थानम्। आव०१४६| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [103] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] सिद्धत्थय - सिद्धार्थकं भूषणविधिविशेषः । जीवा० २६१ | सिद्धार्थक सर्षपप्रमाणस्वर्णकणरचितसुवर्णमणिमयम् । जम्बू० १०६ । सिद्धत्थवण- सिद्धार्थवनं-वनविशेषः । आव० १८६ | सिद्धार्थवन-ऋषभप्रभोर्दीक्षावनम् । आव० १३७ | सिद्धार्थवनम् । आगम-सागर-कोषः (भाग : - ५ ) अनुयो० २० | सिद्धसेण - खमासमणो । निशी० ६६ आ । खमासमणो पुव्वद्धस्स भणियं । निशी० ७५अ । खमासमणो । निशी० ४१ आ भग० ३६| सिद्धत्था– चतुर्थतीर्थकृत्शिबिका । सम० १५१ । सिद्धार्थाःसर्षपाः । बृह० २२१ अ । आचार्यविशेषः । निर० ४ | चतुर्थतीर्थकृन्माता। सम० १५१ । सिद्धार्था - अभिनन्दन माता। आव० १६० | सिद्धत्थिया- सिद्धार्थिका । प्रज्ञा० ३६४ | सिद्धार्थिका सर्षपप्रमाणसुवर्णकणरचितसुवर्णमणिमयीकण्ठिका। औप० ५५| सिद्धपव्वओ - सिद्धपर्वतः- सिद्धोपलक्षितः पर्वतः । तदधिण्ठायकदेवताविशेषः । उत्तः ३२१ | सिद्धापर्वतः अष्टापदः । उत्त० ३२१| सिद्धपुत्त - सिद्धपुत्रः । आव० ३९९ । सिद्धपुत्रः - औत्पातिकीबुद्धौ दृष्टान्ते शतसहस्रविषये दृष्टान्तः । आव० ४२२ Artist सो सुक्कंबरो सभज्जगो सो सिद्धपुत्तो। निशी॰ ३१ आ । निशी० ७६ अ । निशी० ११५ अ। सिरमुंडं सिहं च धरेति भारिया से भवति वा ण वा । निशी० ११३ आ । सिद्धपुत्तरूव- सिद्धपुत्ररूपः । आव० ३९१ । सिद्धपुत्र - अपूर्व श्रावकः । स्था० २६०| ज्ञाततत्प्रतिज्ञः औत्पत्तिकीबुद्धौ दृष्टान्तः । नन्दी० १५१ । सिद्धपुत्रक - द्वौ शिष्यवान् निमित्तशास्त्रविद् । नन्दी० १६०| सिद्धमणोरम- सिद्धमनोरमः द्वितीयदिवसनाम । जम्बू० ४९०। द्वितीयदिवसनामः | सूर्य०१४७ सिद्धमन्त्र- आर्यखपुटवत् विद्यासिद्धः। दशवै० १०३ | सिद्धशिला– यत्र विधायानशनं जग्मुः शोभनां गतिं वाचंयमाः सा । अनुयो० । आव० ५। उत्त० ७२| सिद्धसिलं - सिद्धशैलम् । आव० ४३७ । सिद्धसिला- सिद्धशिला । आव० ६८५ | सिद्धसिलातल - यत्र साधवरतपः परिकर्मितशरीराः स्वयमेव गत्वा भक्तपरिज्ञाद्यनशनं प्रतिपन्नपूर्वाः प्रतिपद्यन्ते प्रतिप-त्स्यन्ते च तत् सिद्धसिलातलम् । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] सिद्धसेणियापरिकम्म- दृष्टिवादे परिकर्मे प्रथमो भेदः । सम० १२८| सिद्धश्रेणिकापरिकर्म । नन्दी० २३९ | सिद्धसेन - खमासमणो । निशी० २६अ। सिद्धा- सिद्धाः- भगवन्तोऽर्हन्तः, उत्पन्नकेवलज्ञाना न तु सिद्धाः सिद्धिगताः तेषां वचनयोगासम्भवात्। जम्बू• ९४| सिद्धाः-ज्ञानसिद्धाः। अनुयो० १६२ ॥ सिद्धाइगुणा- सिद्धानामादौ सिद्धत्वप्रथमसमय एव गुणाः सिद्धादिगुणाः। सम० ५५। सिद्धानामादित एव गुणाः सिद्धा-दिगुणाः । प्रश्न० १४६ । सिद्धानां वा आत्यन्तिका गुणाः सिद्धातिगुणाः । प्रश्र्न० १४६ | सिद्धादिगुणाः, सिद्धस्यादि-गुणाः यगपद्भाविनो न क्रमभाविन इत्यर्थः। आव॰ ६७३। सिद्धातिगुणाः संस्थानादिनिषेधरूपाः । उत्त० ६१८ | सिद्धादिगुणाःसिद्धाः- सिद्धिपदप्राप्तास्तेषामादौ प्रथमकाल एवातिशायिनो वा गुणाः । उत्त० ६१८ । सिद्धाइसयगुण - सिद्धातिशयगुणाः सिद्धानामतिशगुण कृष्णा न नीला इत्यादयो येषां ते । उत्त० ५८९ | सिद्धायतण- सिद्धायतनम्। राज० ९४ | सिद्धायतनंसुधर्मा-सभायां उत्तरपूर्वस्यां स्थानम् । जीव० २३३ । सिद्धायतनम्। जीवा० ३५८ सिद्धाययण - सिद्धानि शाश्र्वतानि सिद्धानां वा शाश्र्वतीनामर्ह-त्प्रतिमानामायातनं स्थानं सिद्धायतनम् | जम्बू० ७७| सिद्धायतनं सिद्धानि शाश्र्वतानि सिद्धानां वा शाश्वतीनामर्ह-त्प्रतिमानामायतनं स्थानं सिद्धायतनम्। स्था० २३२ सिद्धाययणकूड - मेरूत उत्तरपश्चिमायां सिद्धायतनकूटम् | जम्बू० ३१३। सिद्धायतनकूट - निसढवक्षस्कारे कूटम् । जम्बू० ३०८| सिद्धायतनकूटं विद्युत्प्रभवक्षस्कार पर्वते कूटम्। जम्बू॰ ३५५| सिद्धायतनकूटं पद्मकूटवक्षस्कारे कूटम्। जम्बू० ३४६। सिद्धायतनकूटचित्रकूटवक्षस्कारपर्वते कूटम्। जम्बू० ३४४ | सिद्धायतनकूटं शिखरीवर्षधरकूट नाम । जम्बू० ३८१ । सिद्धायतनकूटं एकशैलवक्षस्कारकू-टनाम। जम्बू० [104] “आगम-सागर-कोषः " [५] Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] ९८० ३४७ सिद्धिवरा-सकलकर्मक्षयलभ्या भवसिद्धिरिति। प्रश्न. सिद्धार्थ- महावीरपिता। ज्ञाता० १२८१ सिद्धार्थकम्मञ्जरी-सर्षपनालिका। दशवे. १८५। सिद्धिविग्गहगई-सिद्धावविग्रहेण-अवक्रेण गमनं सिद्धालए-सिद्धक्षेत्रस्य प्रत्यासन्नतयोपचारतः सिद्ध्यविग्र-हगतिः। स्था०४९७। सिद्धानामा-लयः, सिद्धालयः, प्रारभारायाः पञ्चमं नाम। | सिद्धी-सिद्धिः-सिध्यन्ति-कृतार्था भवन्ति यस्यां सा प्रज्ञा० १०७। इसत्प्राग्भारयाः षष्ठनाम। सम० २२॥ सिद्धिः, सा च यदयपि लोकाग्रं, सिद्धालत-सिद्धानामाश्रयत्वात् सिद्धाययः। स्था० ४४०। तत्प्रत्यासत्त्येषत्प्राग्भाराऽपि। सिद्धिः-कृतकृत्यः, सिद्धावास-सिद्ध्यावासः मोक्षवासनिबन्धनत्वम्। लोकाग्रमणिमादिका वा। स्था० २४१ सिद्ध्यन्ति अहिंसा-याश्चतुस्त्रिंशत्तमं नाम। प्रश्न. ९९। तस्यामिति सिद्धिः। स्था० ४४०। प्रसिद्धिः विपक्षे सिद्धि-सिद्धिः अशेषसंसारिकप्रपञ्चरहितस्वभावं दोषदर्शनं सिद्धिः। व्यव. १२८ आ। सिद्धिः-यदयपि अशेषद्वन्द्वो -परमलक्षणा वा। परमार्थतः सकलकर्मक्षयरूपा सिद्धाधाराssकाशरूपा वा अणिमालघिमामहिमाप्राकाम्याभीशित्वं वशित्वं तथाऽपि सिद्धाधाराकाशदेशप्रत्यासन्नत्वेनेषत्प्रारभारा प्रतिघातित्वं कामावसायित्वमैश्वर्यलक्षणा। सूत्र० ४६। पृथिवी सिद्धिरुक्ता। भग० ११९। सिद्धिः-सिद्धक्षेत्रस्य प्रत्यासन्नत्वात्। सिध्मः- अष्टम क्षुद्रकृष्टः। प्रश्न० १६६। क्षुद्रकुष्टः। ईषत्प्राग्भारायश्चतुर्थं नाम। प्रज्ञा० १०७। सिद्ध्यन्ति- आचा० २३५ निष्ठितार्था भवन्त्यस्यां प्राणिन इति सिद्धिः सिनाय-स्नातकः, निग्रन्थपञ्चके चतुर्थः। व्यव० ४०२। लोकान्तक्षेत्रलक्षणा। आव० ४०६। लोकाग्रक्षेत्रलक्षणा। | सिन्धु-महानदी। स्था० ७५] कूटविशेषः। स्था०७१। दशवै०१। सिद्धः-सम्बन्धवाचकः इष्टा-र्थसम्बन्धः। | सिन्धुराज- गर्भाधानपरिसाटनरूपमूलदवारविवरणे दशवै०६३। सिद्धः-लोकान्तक्षेत्रलक्षणा। जीव० २५६) राजा। पिण्ड० ४५ सिद्धिः-अशेषकर्मांशापगमेनात्मनः स्वरूपऽवस्था-नता। | सिन्धुविषय-अभिन्नवस्त्रप्रावरणे दृष्टान्तः। बृह० २५३ प्रज्ञा०६०४१ सिद्धिः-अणिमाद्यष्टप्रकाराः। सूत्र. २९९।। | । सिद्धिः-परलोकः। सूत्र. १६० सिद्धिः-अशेष सिन्धुसौवीर-उदायनराज्ञोः जनपदः। प्रश्न०८९। कर्मच्युतिलक्षणा। सूत्र० ३८१। सिद्धिकृतकृत्यता। प्रश्न | सिन्न-विश्रन्तः। ओघ० ९६। १३३। सेधनं सिद्धिः-हितार्थप्राप्तिः। आव०७६० सिप्प-स्थावरकायः। स्था० २९२। शिल्पं-तूर्णनादि इसत्प्राग्भारायाः पञ्चमं नाम। सम० २२॥ साचार्यकं वा। स्था० ३०४। शिल्पं-रथकारकर्मप्रभृतिः। सिद्धिगंडिया- सिद्धिस्वरूपप्रतिपादनपरावाक्यपद्धतिरौप- बह० ९२आ। शिल्प-यदाचार्योपदेशजं पातिकप्रसिद्धाः। भग० ५२११ ग्रन्थनिबन्धादवो-पजायते सातिशयं कर्मापि सिद्धिगइनामधेयं-सिध्यन्ति-निष्ठितार्था भवन्ति तच्छिल्पम्। आव०४०८ शिल्पं -आचार्योपदेशप्राप्यं यस्यां सा सिद्धिः सा चासौ गमनत्वाद् गतिश्च चित्रादि। प्रश्न. ९६। शिल्पं-आवर्जक, प्रीत्युत्पादकम्। सिद्धिगतिस्तदेव नामधेयं-प्रशस्तं नाम यस्य तत्तया पिण्ड० १२९। शिल्पं-कुम्भकारक्रियादि। दशवै. २४९। सिद्धिगतिनामधेयः, महावीरः। भग०७ शिल्पः तूर्णनसीवनप्रभृतिः। पिण्ड० १२९। सिद्धिगती- सिद्धश्चासौ गतिश्चेति वा सिद्धिगतिः। स्था० आचार्योपदेशजं शिल्पम्। जम्बू. १३६) ३३४॥ रहगारचुन्नगारादि। निशी. ४४ अ। शिल्पंसिद्धिमग्ग-सेधनं सिद्धिः-हितार्थप्राप्तिस्तत्मार्गः। चित्रपत्रच्छेदादिविज्ञानम्। उत्त०४२०| शिल्पंसिद्धिमार्गः। ज्ञाता०४९। हितार्थप्राप्त्युपायः। भग० अगमईनादि। औप०६५। शिल्पं चित्रादि। प्रश्न०६४। ४७१। शिल्पं-साचार्यकं चित्रकर्मादि। प्रश्न. ११७। शिल्पंसिद्धिमूल-चरणकरणम्। आव० ५३३। क्रियासु कौशलम्। जीवा० १२२ मनि दीपरत्नसागरजी रचित [105] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सिप्पसंपुडसंठित- सुक्तिकासंपुटसंस्थानसंस्थितः- दवितीयाs-ग्रमहिषी। जीवा० ३६५ शिवा-निरुपद्रवा। उद्वेधज-लस्य जलवृद्धिजलस्य चैकत्रमीलनचिन्तायां प्रश्न. ७६। शिबिका-कूटाकाराच्छादितो जम्पानविशेषः। शुक्तिकासंपुटा-कारसादृश्यम्। जीवा० ३२५ भग. १८७। सिताः-सम्बद्धाः। आचा० ३६। अवधारणे। सिप्पसय-शिल्पशतं, विज्ञानशतम्। जम्बू० २५८। निशी०७२। आसंका। दशवै. १३ स्यात्-कदाचित्। शिल्प-शतम्। जम्बू० १३६| आव० ३३९। स्यात्-कदाचित्। दशवै. ९४। अवधारणे। सिप्पा-शिल्पा-नदीविशेषः। आव०४१६) निशी. १३९ अ। सिता-बद्धा। जम्बू० ५३ सिप्पि-शिल्पिः। व्यव० ३४३ आ। शिल्पी-कुम्भकारा- सियाग-सुसाणो। निशी० ७२ आ। दिकः। औप.४॥ सियाल-शृगालः। आव० ३५१, ८५९। सनखपदचतुष्पदसिप्पिय-तृणविशेषः। प्रज्ञा० ३३। शक्तयः। उत्त०६९५ विशेषः। प्रज्ञा० ४५। शृगालः-गोमायुः। प्रज्ञा० २५४। वनस्पतिकायविशेषः। भग०८०२ सियालक्खइया- शृगालस्तु सिप्पिसंपुडा-संपुटरूपा शुक्तिः। द्वीन्द्रियविशेषः। न्यग्वृत्त्योपात्तस्यान्यान्यस्थान-भक्षणेन वा खादिता जीवा० ३१। द्वीन्द्रियविशेषः, संपुटरूपाः शुक्तयः। तत्स्व भावो वा। स्था० २७६। प्रज्ञा०४१। सिर-शिरः-शिरोजबन्धनम्। औप० ७७ शिरः-मस्तकम्। सिप्रा-उज्जैन्यां नदी। नन्दी. १४५ प्रश्न०६० सिबलि- मुद्गादीनां विध्वंस्ता फलिः। आचा० ३५४ सिरत्ताण-शिरस्त्राणं प्रहरणविशेषः। आव० ४८७। सिबिआ-शिबिका-कूटाकारेणाच्छादिता जम्पानविशेषः। | सिरमुह- शिरोमुखः-उर्दध्वमुखः। प्रश्न०४७ जम्बू. ३०| जम्पानविशेषरूपा उपर्याच्छादिता सिरविसुद्ध-शिरसि प्राप्तो यदि नानुनासिकस्ततः कोष्ठाकारा। जम्बू० ३७ शिरोवि-शुद्धम्। अनुयो० १३२ सिबिया-शिबिका-कूटाकारेणाच्छादिता जम्पानविशेषः। | सिरसावत्त-शिरसाऽप्राप्तं-अस्पृष्टम्, अथवा शिरसि वा जीवा. १८९, २८२ शिबिका जम्पानविशेषरूपा उपर्या- | आवर्तः आवृत्तिरावर्ततः-परिभ्रमणम्। भग० १२७। च्छादिता कोष्ठाकारा। जीवा० १९२। आचा० ४२३। शिरसाऽप्राप्तः शिरसा मस्तकेनाऽप्राप्तः-अस्पृष्टः। शिबिका। आव० ३६८ सिमे-सीमानि। गच्छा। शिर-स्यावतः-शिरसि वा आवर्तत इति। औप० २३। सिय सिरसोसिरि-शिरः श्रियं सर्वोत्तमां केवललक्ष्मीम्। उत्त. प्रशंसाऽस्तित्वविवादविचारणाऽनेकान्तसंशयप्रश्नादि- | ४४९। ष्वर्थेष। प्रज्ञा० १८१। स्यात्-कदाचित्। आचा० ३०५) सिरा-शिरा ग्रीवाधमनिः। जीवा०४४१। शिरा-नाडी। स्यात्-कथञ्चित्। जीवा. १८३। स्यात्-कदाचिद। भग. प्रश्न.६० ३५ स्यात्-नियातोऽनेयान्तद्योती। प्रज्ञा० ५६६। स्यात् | सिराण्हारुजालओणद्धसंविणदं-कश्चित्। प्रज्ञा० २४५। सित्तं-धवलम्। जीवा. ९७५ सिरास्नायुजलावनद्धसंविन-द्धम्। उत्त० ३२९। सितम्। भग० ८२। सितं-शुक्लम्। सूर्य. २६३। सितः- सिरापासणं-शिरादर्शनम्। आव० ४२४१ बद्धः कर्मणा गृहपाशेन रागद्वेषादिनिबन्धनेन वेति सिरोवेढ-शिरसि बद्धस्य चर्मकोशस्य गहस्थो अन्यतीर्थिको वा। आचा०४३०। स्यः। भग. संस्कृततैलापरलक्षणः शिरोवस्तिः । ज्ञाता० १८१| ७६८ स्युर्भवन्ति। भग० ३७१। सितं-द्रव्यशस्त्रम्। सिरावेह-शिरोवेधः-नाडीवेधनं-रुधिरमोक्षणम्। ज्ञाता० आचा० ७५ सितं-चामरम्। दशवै० १५४। स्यात्-भवेत्। १८१ शिरोवेधः-नाडीवेधः। विपा०४१। भग० ८३। श्रितं-आश्रितम्। आचा० ७२ सिरासयाइं-धमनीशतानि। तन्दु। सियलाविज्जइ- शीतलीयते। आव०६२४१ सिरि-निरयावल्यां चतुर्थवर्गे प्रथममध्ययनम्। निर० सिया-शिवा-सदा मङ्गलोपेतम्। प्रज्ञा० ८६। शिवा-समुद्र- | ३७ श्रीः-उत्तररुचकवास्तव्या | आव. १२२॥ विजयराज्ञी। उत्त० ४८९| शिवा-शक्रदेवेन्द्रस्य । श्रीः-उत्तररुचकवास्तव्या सप्तमी दिक्कुमारी मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [106] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] महत्तरिका। जम्बू०३९१ देवः। सम० ३९। सिरिउत्त-जम्बूभरते आगमिन्यामत्सर्पिण्यां । सिरिदामगंड- श्रीदामगण्डम्। आव०१२४। पञ्चमचक्री। सम. १५४१ सिरिदेवी-जम्बूभरते पञ्चमचक्रिमाता। सम० १५२ सिरिए-श्रीयकः-योगसंग्रहे शिक्षादृष्टान्ते सिरिनिलया- श्रीनिलया-पुष्करिणीनाम। जम्बू. ३३५ कलकवंशप्रसूतस्य नवमनन्दराजमन्त्रिशकटालस्य सिरिप्पभ-श्रीप्रभः-विमानविशेषः। आव० ११६। श्रीप्रभःलघुपुत्रः। आव०७० पुष्करोदे समुद्रे देवविशेषः। जीवा० ३४९। श्रीप्रभः-ईशाने सिरिओ- श्रीयकः-कल्पकवंशप्रसूतशकटाललघुपुत्रः। विमानः। आव० १६| आव०६९३ सिरिभद्दा- श्रीभद्रा-पितृदत्तगाथापतिभार्या। आव २०५। सिरिकंत-महाशुक्र चतुर्दशसागरोपमस्थितिकं सिरिभूई-जम्बूभरते आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां देवविमानम्। सम०२७। षष्ठचक्रवर्ती। सम. १५४१ सिरिता-मरूदेवकुलकरभार्या। स्था० ३९८मरूदेव- | सिरिमंदिरकारउ-नपुंसकविशेषः। निशी० ३२ आ। कुलकरभार्या। सम० १५०| श्रीकान्ता सिरिमइ- श्रीमती-मायोदाहरणेकोशलपुरे नन्दनेभ्यपुत्री, पारिणामिक्यामुदि-तोदयराज्ञी। आव०४३०| श्रीकान्ता- या पूर्वभवे धनपतिश्रेष्ठिपत्नी। आव० ३९४। अलोभोदाहरणे सार्थवाही। आव०७०११ श्रीकान्ता- | सिरिमहिअ-महाशुक्रे चतुर्दशसागरोपमस्थितिको देवः। षष्ठकुलकरपत्नी। आव० १११ श्रीकान्ता सम० २७ दत्तराजकन्या। विपा०९५/ श्रीकान्ता, सिरिमहिआ- श्रीमहिता-पुष्करिणीनाम। जम्बू० ३६०, पुष्करिणीविशेषः। जम्बू. ३३५, ३६० ३३५१ सिरिकंदलग- एकखुरविशेषः। प्रज्ञा०४५। सिरिमाल-श्रीमालं नगरविशेषः। आव. २९६। एकखुरचतुष्पदः। जीवा० ३८१ सिरिमाली- श्रीमाली-इन्द्रदत्तराजस्य ज्येष्ठपुत्रः। उत्त. सिरिकूड- श्रीदेवीकूटम्। जम्बू० २९६) १४९। श्रीमालिः तितिक्षोदाहरणे इन्द्रदत्तराज्ञो सिरिगुत्त- परप्पवादि। निशी० ९८ आ। श्रीगुप्तः-षड्लूके | ज्येष्ठपुत्रः। आव०७०३। श्रीमालिः इन्द्रदत्तराज्ञो कुत्रिकापणचर्चरीकारकः। दशवै० ५८। ज्येष्ठकुमारः। आव० ३३३ सिरिगुत्ता- श्रीगुप्ताः-अन्तरञ्जिकायां आचार्याः। उत्त० | सिरियंदलग-श्रीकग्दलकः-एकखुरविशेषः। प्रश्न० ७। १६८1 श्रीगुप्ताः-आचार्यविशेषः। आव० ३१८1 | सिरिय- वनस्पतिकायविशेषः। भग० ८०३। सिरिघर-श्रीगृहं-भाण्डागारम्। ज्ञाता० २१९। श्रीगृहम्। | सिरिया-अरनाथमाता। सम० १५१। आव. ३५७ श्रीगृह-भाण्डागारम्। आव. ९६। ज्ञाता०५३ | सिरिरुक्खा-श्रीवृक्षः-वत्सः। जीवा० २३४ सिरिघरिओ-लोभोदाहरणे जिनदत्तः श्रावकस्थापितः । सिरिलि-सिरिलः-वनस्पतिविशेषः। जीवा. २७। अनन्तश्रीगृहिकः। आव० ३९८१ कायविशेषः। भग० ३०० सिरिचंद-जम्ब्वैरवते आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां सिरिलो-कन्दविशेषः। उत्त०६९११ षष्ठतीर्थकृत्। सूत्र० १५४१ सिरिवच्छ-अच्युतकल्प एकविंशतिसागरोपमस्थितिकं सिरिचंदा-श्रीचन्द्रा पुष्करिणीनाम। जम्बू० ३३५, ३६० देव-विमानम्। सम० ३९। श्रीवत्सः-सुष्ठलाञ्छनः। सम. सिरिणिलया- श्रीनिलया-पुष्करिणीनाम। जम्बू० ३६० १५८ श्रीवत्सं-यानविमानविकुर्वको देवः। जम्बू. ४०५ सिरित-श्रीयकः-नन्दराजस्य अमात्यः। उत्त० १०५। श्रीवत्सः-तीर्थकरहृदयेऽवयवविशेषाकारः। औप०१० सिरितिलय-विमानविशेषः। मरण । श्रीवत्सः-अष्टमङ्गलेषु षष्ठः। जम्बू. ४१९। श्रीवत्सः। सिरिदाम-श्रीदामः-अनेकरत्नखचितं दर प्रश्न. ७७। श्रीवच्छः-लाञ्छनविशेषः। जम्बू. १११। आव० १८० श्रीवत्सः। औप. ५२॥ श्रीवत्सः-जिनप्रतिमायां प्रसिद्धो सिरिदामकंड-अच्युते विमानं, यत्र एकविंशतिस्थितिको | वक्षोऽन्तः सुप्रमाणोन्नतमांसलप्रदेशविशेषः। जम्बू० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [107] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] १८३ सिरोधरा-शिरोधरा-ग्रीवा। ज्ञाता० ९५॥ सिरिवच्छसंठाण- श्रीवत्ससंस्थानम्। उत्त. २१५ | सिरोवत्थी-शिरोबस्तिः-शिरसि बद्धस्य चर्मकोशकस्य सिरिवणं-श्रीवनं-पोलाशपुरे उदयानविशेषः। अन्त०२३। द्रव्यसंस्कृततैलाद्यापूरणलक्षणा। विपा०४१। सुप्रतिष्ठितनगरम्। अन्त० २३। श्रीवनं-भद्दिलरे सिलप्पवाल-शिलाप्रवाल-विद्रमम, शिला-मुक्ताशिलादि उद्यान-विशेषः। अन्त०४। प्रवाल-विद्रुमम्। भग० ३६८, ५७३। विद्रुमम्। भग० ४७०| सिरिसंभूआ-श्रीसंभूता-षष्ठमरात्रिनामः। जम्बू०४९१। शिला-राजपट्टादिरूपा प्रवालं-विद्रुमम्। भग० १६३। सिरिसंभूता- षष्ठमरात्रिः। सूर्य. १४७। शिलाप्रवालः-विद्रुमः। जम्बू०८१। शिलाप्रवालंसिरिस-सप्तमतीर्थकृच्चैत्यवृक्षः। सम० १५२। प्रवालाङ्कुरः। जीवा० १९१। श्रिया युक्तं प्रवालं श्रीप्रवालं सिरिसोम- जम्बूभरते आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां वर्णादिगुणोपेतम्। सूत्र० २९२। श्रीलप्रवालं-परिकर्मितसप्तमचक्री। सम० १५४| विद्रुमः शिलाप्रवालम्। जम्बू० २१३। सिरिसोमनस-महाशुक्रे चतुर्दशसागरोपमस्थितिकं सिला-शिला-दृषत्। प्रश्न. ३८१ करगा। दशवै. ११९। देववि-मानम्। सम० २७ शिला। मरण | शिला-घटनयोग्या सिरिहर-श्रीधरः-पुष्करोदे सम्द्रे देवविशेषः। जीवा० ३४९। देवकुलपीठाद्युपयोगी महान् पाषाणविशेषः। प्रज्ञा० २७५ सिरी- पद्महदे श्रीः। स्था०७३। श्रीः-शोभा। जीवा. १८११ शिला-राजपट्टादिरूपा। भग० १६३शिलापोलाशपुरे विजयस्य राज्ञी। अन्त० २३। श्रीः-वैश्र- विशालपाषाणः। दशवै० १५२। शिला-वृषभसुता मणदत्तराज्ञी। विपा. ८२२ श्रीः-षष्ठमचक्रिमाताः। कात्यायनसगोत्रा ब्रह्मदत्तराज्ञी। उत्त० ३७९| शिलाआव० १६१। श्रीः-कुन्थुनाथमाता। आव० १६०| श्रीः- पृथिवीभेदः। आचा० २९| शिला-पाषाणात्मिका। दशवै. वीरक-ष्णमित्रराज्ञी। विपा. ९५। श्रीः-वण्णिग्ग्रामे २२८१ शिला-घटनयोग्या देवकलपीठादयुपयोगी महान् मित्रराज्ञी। विपा०४५। पाषाणविशेषः। जीवा० २३। शिलासिरीआ-श्रिया-वचनार्थशोभया। स्था० ४६४। मुक्तशैलराजपट्टादीनाम्। अनयो० २५४शिला-दृषत्। सिरीए- श्रीकः-मित्रराजस्य महाणसिकः। विपा० ७९| उत्त०६८९। शिलापाषाणः। विपा० ७२ शिलाश्रीयकः। उत्त. १०४॥ अतिस्थिरत्वेन चर्मरत्नम्। जम्ब० २४३। शिला सिरीदाम-श्रीदामः-मथुरायां राजा। विपा०७० श्रीदामः। गन्धवेषणादिका। जम्बू. १२२१ ज्ञाता० १२५ सिलागहत्थ-शलाकाहस्तः-शलाकासघातरूपः। दशवै. सिरीदामगंड- श्रीदाम्नां-शोभावन्मालानां काण्डं-समूहः- १५२ श्रीदामकाण्डम्। ज्ञाता० १२५, १३१॥ सिलागहत्थग- शलाकाहस्तकः-सरित्पर्णादिशलाकासमुसिरीदेवी-श्रीदेवीः अर्जुनराजकन्या। विपा. ९५। श्रीदेवीः- दायः। सरित्पर्णादिशलाकामयी सम्मार्जनी। जम्ब० प्रियचन्द्रराजकन्या। विपा० ९५१ ३८ सिरीस-शिरीषः-वृक्षविशेषः। उत्त०६१४। शिरीष-शिरी- सिलागा- शलाका-अयःशलाकादिरूपा। दशवै. १५२ षाभिधानतरुकुसुमम्। औप०५६। पंचमभवणवासिनां सिलापब्भट्ठए-गोशालकमते पानके चतर्थो भेदः। भग. चैत्यवृक्षः। स्था० ४८७। शिरीषः-वृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३२ ૬૮૦૧ वनस्पतिकायविशेषः। भग० ८०३। सिलावट्ट- शिलापट्टः-मसूणशिला। ज्ञाता० २२९। सिरिसकसम-शिरीषकसम-कसमविशेषः। प्रज्ञा० ३६७। सिलावरिस-शिलावर्षः। आव० ७३४। करगादि। निशी. सिरीसकुसुमनिचत-शिरीषकुसुमनिचयः। जीवा० १९२। ७० । सिरीसव-सरीसृपः गोधादिः। ज्ञाता०६३। सिलावुटुं-शिलावृष्टं-हिमम्। दशवै० २२८१ सिरीसिव- सरीसृपः-भुजपरिसर्पः। प्रश्न० ८५ सिलावुट्ठि-शिलावृष्टिः-पाषाणनिपातनं सिरोज-शिरोजः-बालः। जीवा० २७४। करकारादिशिलावर्ष-मित्यर्थः। व्यव. २४ आ। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [108] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सिलिंका-शलाका। आव० ३६९। सि(खि)ल्लिं-रश्मि-संयमनरज्जु। उत्त० ५५१| सिलिंद-शिलिन्दः-मकण्ठः। दशवै. १९३। सिल्हक-तुरुष्कम्। प्रज्ञा०८७ सिलिंध- शिलिन्धं-इषद्रक्तवनस्पतिविशेषः। प्रज्ञा० ९१।। सिवंकर- शिवकरं-शिवं-मोक्षपदं तत्करणशीलं शैलेश्यवसिलिन्धं भूमिस्फोटकच्छत्रकम्। औप०४९। स्थागमनमिति। सूर्य. १९७५ सिलिग्न्ध्रः-भूमिस्फोटः। ज्ञाता० १६० सिव-शिवं-अशेषदूरितोपशमः। उत्त० ३४१। भग० ५५१, सिलिंधपुप्फ-शिलिन्ध्रपुष्पम्। जीवा. १६४। ५५२। शिवः-शिवहेतुः। ज्ञाता०७४| शिवःसर्वाऽऽबाधारशिलिन्ध्रपुष्पं-निलवर्णप्ष्पम्। प्रज्ञा० ९५ हितम्, महावीरः। भग०७। यत्र वेलन्धरनागराजो सिलिंधा-शिलन्ध्राः-छत्रकाणि। ज्ञाता०२५१ वस्ति। स्था० २२६। शिव-पवित्रम्। दशवै० १९५। शिवंसिलिट्ठ-श्लिष्ठम्। आव. ९९। सदा मङ्गलोपेतम्। जीवा. १६०| शिव-शिवहेतुत्वेन, सिलिट्ठसमिइगब्भ-लक्ष्णसमितिगर्भः अहिंसायाः सप्तत्रिंशत्तमं नाम। प्रश्न. ९९। शिवंअतिश्लक्ष्णकणिका मूलदलः। जीवा. २६८। अनुपद्रवः, अनुपद्रव-हेतुर्वा। भग० ११९| शिवंसिलिपई-लीपदनाम्ना रोगेण यस्य पादौ शनौ सर्वोपद्रवरहितम्। जीवा० २५६। शिवः व्यन्तरविशेषः, शिलावन्महा-प्रमाणो भवतः स एवंविधः श्लीपदी। ब्रह. आकारविशेषः, आकारविशेषधरो वा रुद्रः। भग० १६४| १९०। हस्तिनागपुरे राजा। भग. ५१४। शिवः -शिवहेतुः। भग० सिलिपत्तो-रोगो। निशी. १४८ अ। १२५। शिवःपोसमासस्य लोकोत्तरिक-नाम। जम्बू. सिलिया-शिलिका-किराततिक्तकादितृणरूपा। ज्ञाता० ४९०। भगवत्यां पुद्गलोद्देशके अतिदेशः। भग. ५११| १८१ शिलिका-किराततिक्तप्रभृतिका। विपा०४१। शिवः-मगधाजनपदे राजा। आव० ३५६। शिवःसिलिवय- लीपदं-पादादौ काठिन्यम्। आचा० २३५) पञ्चमबलदेववासुदेवपिता। सम० १५२। शिवःसिलदयय-शिलानां उत-ऊर्ध्वं शिरस उपरि चयः-सम्भवो देवताविशेषः। जीवा. २८१। शिवःयत्र स शिलोच्चयः। सूर्य.७८1 देवताकृतोपसर्गवर्जितः कालः। आव०६३९। शिवःसिलेच्छियामच्छ-मत्स्यविशेषः। जीवा० ३६| पुरुषसिंहवासुदेवपिता। आव० १६३। शिवः-लोकोत्तरे सिलेस- श्लेषः-केनचिज्जतसिक्थादि। दशवै० १७२। षष्ठो मासः। सूर्य. १५३। भगवत्यां महाबलाधिकारे श्लेषः- सर्जरसः। आचा. १७। श्लेषो-वज्रलेपः। भग. अतिदेशः। भग० ५४४। निरयावल्यां तृती यवर्गेऽष्टममध्ययनम्। निर० २१, ३६, २७ शिवःसिलेसगुलिया- श्लेष्मगुटिका। अनुत्त० ५। आकारविशेषधरः, व्यन्तरविशेषो वा। अन्यो० २५१ सिलेसद्द-श्लेषाद्र-वज्रलेपायुपलिप्तं स्तम्भक्ड्यादिकं शिवं-सर्वबाधारहितम्। सम. ५ शिवं-मोक्षः। सम० ६२१ यद् द्रव्यं तत्स्निग्धाकारतया श्लेषाम्। सूत्र० ३८६) भिक्षं सुरवविहारं च। बृह. १५१ अ। शिवो-महादेवः। सिलेसमिस्सा- श्लेषद्रव्यविमिश्रितम्। प्रज्ञा० ३४। ज्ञाता० १३४। शिवत्वं जरामरणाभावेन। उत्त०५१० सिलोग-श्लोकः-तत्तत्स्थान एव श्लाघा। स्था० ५०३ । सिवकोहग-शिवकोष्टकः-तगरायामाचार्यशिष्यः सद श्लोकः। दशवै. २७४१ श्लोकः-छन्दविशेषः। दशवै. व्यवहार-काचार्यः। व्यव० २५६ आ। २५६। श्लोकः-श्रलाघा। भग०६७३। श्लोकः। आव०७९३ | सिवग-शिवकः-द्वितीयो वेलन्धरनागराजः। भुजगेन्द्रो तत्स्थान एव श्लाघा। दशवै. २५७ भुजग-राजः। जीवा० ३११| सिलोगद्ध-श्लोकार्द्धम्। आव० ७९३। सिवदत्त-शिवदत्तः। उत्त० ३८० शिवदत्तःसिलोच्चय- शिलाना-पाण्डुशिलादीनामुक्-शिरस उपरि | नैमित्तिकवि-शेषः। आव० २०५। चयः-सम्भवो यत्र स शिलोच्चयः, मेरुनाम। जम्ब० सिवदत्ता-शिवदत्ता-शिवदत्तपत्री। उत्त० ३८० ३७५ सिवभद्द-भगवत्यामदायनवक्तव्यतायां सिल्ल-वालमयम्। बृह. ६९। केशिकुमारराज्याभिषेके अतिदेशः। भग०६१८, ६१९, ३९९। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [109] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सिहाराण ५४८॥ शिवधारण्योः पुत्रः। भग० ५१४। शिष्यः-स्वहस्तप्रवा-जित उपसम्पदागतः सिवभई-शिवभूतिः-रथवीरपरे सहस्रामल्लः, प्रातीच्छकश्च। आचा. २४९। बोटिकमूलपु-रुषः। उत्त० १७८। सिस्सिरिलि-वनस्पतिकायिक। जीवा० २७। सिवभूती-शिवभूतिः सहस्रमल्ल बोटिकमतप्ररूपकः। सिस्सिरिली-अनन्तकायः। भग० ३००। कन्दविशेषः। आव० ३२३ उत्त०६९१। सिवमह-महोत्सवविशेषः। ज्ञाता० ३९। शिवमहः- सिहंडिणो-छिडिणो-शिखावन्तः। ज्ञाता०५७। शिवस्य प्रतिनियतदिवसभावी उत्सवविशेषः। जीवा. सिह-शिखा। आव. २९५) ૨૮] सिहर-शिखर:-पर्वतोपरिवतिकटः। ज्ञाता०६३। श्रीधरः सिवरुव-शिवरूपं-भव्यरूपम्। आव० २१८१ शोभावान्। ज्ञाता०६५ शिखरःसिवलिंग-शिवलिङ्गम्। उत्त० २२१। समुद्रमध्यवर्तिगोस्तूपा-दिपर्वतः। प्रश्न० ९६। सिवसेण-जम्ब्वैरवते दशमतीर्थकृत्। सम० १५३। सिहरभूय-शिखरभूतः-शेखरकल्पः। प्रश्न. १५२ सिवा- शक्रदेवेन्द्रस्य द्वितीयाऽग्रमहिषी। भग० ५०५ | सिहरि-शिखरी-कूटविशेषः। स्था०७ शिखरी। स्था० चतुर्द-शतीर्थकर्तुः प्रथमा शिष्या। सम० १५२॥ ७०| नमिनाथस्य माता। सम० १५१| शिक्षायोगदृष्टान्ते सिहरिकुड-शिखरीवर्षधरनाम्नाकूटः। जम्बू० ३८१| हैहयकलसम्भूतवैशालिकचे-टकची पुत्री। आव. सिहरिणी-शिखरिणी-गुडमिश्रं दधिः। प्रश्न १५३। ६७६। शिवा-शृगाली। अनुयो० १४२। शिवा शिखरिणी-पानकविशेषः। आचा० ३३० मार्जिता। नेमिनाथमाता। आव० १६०| शिवा-धर्म-कथायां आचा० ३३६| निशी. ४० आ। नवमवर्गेऽध्ययनम्। ज्ञाता० २५३। शिवा-सदामङ्ग- सिहरिणि-चतुर्भिर्गन्धद्रव्यैराधिक्येनोपजनितवासा लोपेता। जम्बू०७६। शक्रदेवेन्द्राग्रमहिषीनां राजधानी। | कूरमध्ये प्रक्षिप्यमाणा शिखरं बध्नाति सा शिखरिणी। स्था० २३१। बृह. १७८1 सिवादवी- शिवादेवी-प्रयोतस्य चतर्थं रत्नं, देवी। आव० | सिहरी-शिखरी शिखरवान् गिरिः। भग० २३८1 शिखरीना६७३३ मवर्षधरपर्वतः। जम्बु. ३८११ शिखरी-शिखरसमन्वितः। शिवानन्दा-आनन्दश्राद्धस्य पत्नी। उपा० २। नन्दी. २८८ शिखरी-वृक्षस्तत्संस्था संस्थितानि सिवासद्द-शिवाशब्दः। आव० ४००० सर्वरत्न-मयानि सन्तीति तद्योगाच्छिखरी, कोऽर्थःसिविया-शिबिका-कूटाकाराच्छादितजन्पानरूपा। भग. अत्र वर्षधराद्रौ यानि ५४७ सिद्धायतनकूटादीन्येकादशकूटान्यक्तानि तेभ्योऽतिरिसिव्वे-सीवितम्। आव० ४२११ क्तानि बहनि शिखराणि वृक्षाकारपरिणतानि सन्तीति। सिसिर-शिशिरः-माघमासस्य लोकोत्तरीयनाम। जम्ब० जम्बू. ३८१। शिखरी-शिखरवान् पर्वता। अनुयो० १७१। ४९० शिशिरः-सप्तममासस्य लोकोत्तरनाम। सूर्य शिखरा-शिखरयुक्तः पर्वतः। प्रज्ञा० ७१] १५३। शिशिरः-शीतकालः। ओघ. १४५) सिहल-म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा. ५५ सिसुनाग-शिशुनागः-अलसः। व्यव० २८८ आ। सिहलि-सिंहलीः-धात्रिविशेषः। ज्ञाता० ३७, ४१। शिशुनागो-गण्डुपदोऽलसः। उत्त० २४६। सिहि- मयूरः-अग्निश्च। भग० ३०९। सिसुपाल-शिशुपालः-माद्रीसुतः। अवगतये दृष्टान्तम्। सी-सूत्रत्वेनाकारलोपात् असि-भवति। उत्त० ३३९। सूत्र० ७९। दमघोषपुत्रः। ज्ञाता० २०८। स्त्यायते-कठिनीभवत्यस्मिन जलादीति शीतम्। उत्त. सिस्स-शिष्यः-विनेयः। प्रश्न. ३८ शिष्यउपाध्यायस्यो-पासकः। जीवा० २८० शिष्यः सीअ-शीतः-अनकूलः परीषहः। स्था० ४४४। उपाध्यायस्योपासकः शिक्षणीय इत्यर्थः। जम्बू० १२२॥ | सीअधरं- शीतगृह-जलयन्त्रगृहम्। व्यव० ३९८ अ। ३८ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [110] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सीअल-धर्ममि जो पमायइ अत्थे वा। आचा० १५० सीतभारा-दगवातो। निशी. २३२ आ। सीअसोआ- शीतस्रोता महानदी। जम्बू. ३५७१ सीतल-शीतलः। सूर्य २८७। सीआ-सीताः-सीताभिधाना। पृथिवी। उत्त०६८५। शीता- | सीता-शीता-महानदी। स्था०७४। हलपद्धतिदेवता। बृह. कूट-शीतासूरीकूटम्। जम्बू. ३७७। सीता-सिद्धिभूमेवि- | १९९ अ। क्षेत्रम्। बृह० ४८ अ। तीयं नाम। आव० ४४२। सीता-शिबिकाविशेषः। आव० सीतामुहवणसंड-सीतायां वनखण्डः। ज्ञाता० २४२। १४२। सीता-पुरुषोत्तमवासुदेवमाता। आव० १६२। सीता | सीती-दव्वे णिस्सेणी भावे संजमं सीती। निशी० ५३ । -पाश्चात्यरुचकवास्तव्याऽष्टमी दिक्कुमारी सीतोदए- शीतोदकं नदीतडागावटवापीपुष्करिण्यादिषु महत्तरिका। जम्बू० ३९१। शीत-परिणामम्। प्रज्ञा० २८० सीआमुहवण-महाविदेहे वर्षे शीताया महानद्या सीतोदप्पवायद्दह-निषधाच्छीतोदानिपतति स शीतोदा उत्तरदिग्वर्ति-शीतायाः मुखे समुद्रप्रवेशे वनं प्रपा-तह्रदः, शीताप्रपातह्रदमानः। स्था० ७५ शीतामुखवनम्। जम्बू० ३४७। सीतोदा- शीतोदा-प्रवरा नदी। प्रश्न. १३५ शीतोदा-महासोई-निःश्रेणिः। पिण्ड० ३८१ नदी। स्था०७४। सीईभूओ-कषायाग्न्युपशमात् शीतीभूतः। आचा० १५० | सीदति-भ्रश्यति। प्रश्न. १२९| सीउंढी-सिळूढी-वनस्पतिकायिकभेदः। जीवा० २७। वन- | सीधु-सीधुं गुडधातकीसम्भवं मद्यम्। विपा०४९। सीधंस्पतिकायविशेषः। भग०८०४१ गुडधातकीभवं। उपा०४९। आचा० ३३०| ज्ञाता० २०६। सीउसिण-स्वां-स्वकीयामष्णा तेजोलेस्या। भग. २८२ | सीभर-य उल्लपन परम्। व्यव० ३३६ अ। उल्लपन् परं सीओ- शीताकूट-शीतासरित्सुरीकूटम्। जम्बू० ३३७) लालया सिंचति। व्यव० २९० आ। अक्षरादिभिः समा। सीओअदीव- शीतोदादवीपः। जम्बू. ३०७, ३०९। अनुयो० १३२। अक्षरादिभिः समा। स्था० ३९६) सीओअप्पवायकुण्ड– शीतोदाप्रपातकुण्डः। जम्बू० ३०७, | सीमंकर-सीमङ्करः-तृतीयकुलकरनाम। जम्बू. १३२॥ ३०९। भरते आगामिन्यामुत्सीण्या प्रथमकुलकरः। स्था० सीओआ-सीतोदा। जम्बू० ३०७। ५१८। जम्ब्वैरवते आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां सीओआकूड- शीतोदानदीसूरीकूटम्। जम्बू. ३०८१ द्वितीयकुलकरः। सम० १५३। शीतोदाकूट-विदयुप्रभवक्षस्कारे कूटम्। जम्बू० ३५५) सीमंठेऊण-विक्रीय। बृह. २३० सीओदए- शीतोदकं-नदीतडागादिषु शीतपरिणामम्। सीमंतक-मध्ये नरकावासः। स्था० ३६७। जीवा. २५ सीमंतकप्पभ-सीमन्तकस्य पूर्वस्यां नरकावासः। स्था० सीओदग- शीतोदकं-अप्रासुकोदकम्। सूत्र० ३९१। ३६७ शीतोदकं -अप्कायः। आचा० ३४२। सीमंतगमज्झिमओ-सीमन्तकस्य उत्तरस्यां सीओसणिज्ज- शीतोष्णीयं-आचारप्रकल्पे नरकावासः। स्था० ३६७) प्रथमश्रुतस्कन्ध-स्य तृतीयमध्ययनम्। प्रश्न० १४५ | सीमंतगावसिट्ठ-सीमन्तकस्य दक्षीणस्यां नरकावासः। आचाराङ्गस्य तृतीयम-ध्ययनम्। उत्त० ६१६। शीताः- | स्था० ३६७ अनुकूलाः परिषहा उष्णाः-प्रतिकूलास्तानाश्रित्य यत्कृतं | सीमंतावंत-सीमन्तकस्य पश्चिमस्यां नरकावासः। तत्सीतोष्णीयम्। स्था०४४४। शीतोष्णीयं स्था० ३६७ आचारप्रकल्पस्य तृतीयो भेदः। आव०६६० सीमंतोन्नयणं-सीमन्तोन्नयनं-गर्भस्थापनम। जीवा. सीओसणीअं-आचारागस्य तृतीयमध्ययनम्। सम. २८१। सीमंधर- सीमन्धरः चतुर्थकुलकरनाम। जम्बू. १३२॥ सीत- शीतः-देहस्तम्भादिहेतुः। प्रालेयाद्याश्रितः। भरते आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां द्वितीयः कुलकरः। स्था० अनुयो० ११०| शीवं-सुखम्। आचा० १५०| ___५१८ जम्ब्वैरावते आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां तृतीयः। ४४१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [111] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] कुलकरः। सम० १५३ आचा० ३१५ सीमंधरसामि-सीमन्धरस्वामी सीयभूए-शीतीभूतं-सर्वात्मना शीतत्वेन परिणतम्। निगोदस्वरूपप्ररूपकार्यरक्षि तदेशकः। आव० ३०९। जीवा० १२१ सीमन्धरस्वामी-शौचोदाहरणे सत्यपर्यायपृच्छायां सीयलपूर्वविदेहे तीर्थकरः। आव०७०६। सकलसत्त्वसन्तापकरणविरहादाल्हादजनकत्वाच्च सीमच्छेदा-सत्थप्पमाणेण उवग्गहे वट्टति ते य शीतलः-अरीणां मित्राणां चोपरि शीतलगृहसमानः, बहुगच्छा जति समंठिययातो साधारणं खेत्त तत्थ दशम-जिनः, यस्मिन् गर्भगते पितृहोपशमो जातः सीमच्छेदेण वसियव्यं इमो सीमच्छेदो। निशी०५८ आ। तस्मात् शीतलः। आव० ५०३। शीतलः। आव २०१। व्यव० ३७३। सीयलघरसमाण-शीतलगृहसमानः। आव० ५०३। सीमन्तक- एताद्दशाभिधानो नरकेन्द्रकः। जीवा.९० सीया-शिबिका-पुरुषसहस्रवाहनीयः कटाकारशिखराच्छानर-कविशेषः। आचा० ३८1 सीमान्तकः दितो जम्पानविशेषः। प्रश्न.1 शीता। आव०४२५ इन्द्रसत्कसीमन्तकः। सम० १३५। तन्नामा नरकः। प्रथमतीर्थकृत्शीबिका। सम० १५१| जम्बूपूर्वविदेह महाउत्त०२७५ नदी। ज्ञाता० २४२। शीता-जनकाभिधमिथिलानगरीरासीमन्धरः- इषुकारापरनाम। उत्त० ३९४। जस्य दुहिता। प्रश्न० ८६। चतुर्थवासुदेवमाता। सम० सीमन्धरस्वामी- वर्तमानजिनः। जीवा० ३। १५२ शीता-निश्रेणिगतिः। प्रज्ञा० १०७ शिबिकाऋयिधातिकाऽऽर्यादृष्टान्ते तीर्थकरः। दशवै. २७९। कूटाच्छादि-तजम्पानविशेषः। प्रश्न. ९१। शिबिकासीमा-विधिः-मर्यादा आचरणा च। आव०६३९। जम्पानविशेषः पार्श्वतो वेदिका उपरि च कूटाकृतिः। सीमाकार- ग्राहजन्तुभेदः। सम० १३५१ प्रश्न. १६१। शिबिका। आव०७२२। शिबिकासीमागार-सीमाकारः-ग्राहविशेषः। प्रश्न०७। ग्राह- कूटाकाराच्छादितो जम्पानविशेषः। अनुयो० १५९। सीता विशेषः। प्रज्ञा० ४४। जीवा०६६। पश्चिमरुचकवास्तव्या दिक्कुमारी। आव० १२२। सीमाविक्खंभ-सीमाविष्कम्भः। सूर्य. १७६। शिबिका। उत्त०४९२ शिबिका-कटाकारे-णाच्छादितो सीमाविष्कम्भः -पूर्वापरतश्चन्द्रस्य जम्पानविशेषः। औप०४।। नक्षत्रमुक्तिक्षेत्र विस्तारः। सम०७९। सीयाण- श्मशानम्। व्यव० २६६ अ। श्मशानम्। आव० सीय-शीतं-शिशिरः। उत्त० ८२। भग० २३७। शीतं-तृतीयः | ७४३। शीतत्राणां-श्मशानम्। आव० ४२६। परीषहः। आव०६५६। शीतं-किञ्चिन्यूनम्। सूर्य. ५८५ | सीयापीयय-रूप्यमयः सुवर्णमयश्च। भग० ४७७ शीतं-सोपचारवचः। उत्त०५७। शीतः-स्पर्शविशेषः। सीयाल-शृगालः-सनखपदश्चत्ष्पदविशेषः। जीवा० ३८। प्रज्ञा०४७३ सीयोया- निषधवर्षधरपर्वते महानदी। ज्ञाता० १२१। सीयइ-सीदति-फलति। पिण्ड० ३१| सीलंग-शीलाड़गं-पृथिवीकायसंरम्भपरित्यागादिः। आव. सीयई-फलति। ओघ. १५९। ६०२ सीयउरए- गच्छाविशेषः। प्रज्ञा० ३२१ सील- शील-अष्टादशभेदसहस्रसङ्ख्यं संयम, सीयणा-चोयणा। निशी. १४ अ। महाव्रतसमा-धानं, तिस्त्रः गप्तयः पञ्चेन्द्रियदमः सीयति-सीदति-नोत्सहते। आव. ५३४। कषायनिग्रहश्चेत्येतच्छी-लम्। आचा. २१०| शीलंसीयघरं-वद्धकीरयणणिम्मवियं चक्किणो गिह। निशी. अष्टादशशीलाङ्गसहस्रसङ्ख्यं, यदिवा २९६ आ। शीतगृह-वर्धकिरत्नकृतं चक्रिगृहम्। बृह०७४ महाव्रतसमाधानं पञ्चेन्द्रियजयः कषायनिग्रहस्त्रिगुप्ति-गुप्तता चेत्येतत्छीलम्। आचा० सीयपिंड-शीतलः पिण्डः आहारः शीतश्वासो पिण्डश्च २५०। शीलं-अनुष्ठानम्। प्रश्न० १३७। शीलंशीत-पिण्डः। उत्त० २९५। शीतपिण्डं-पर्युषितभक्तम्। | अनवरतापूर्वज्ञानार्जनं विशिष्टतपः करणं वा। सूत्र० आ। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [112] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] १५४। शील-समाधिः, शीलः-स्वभावः। स्था० १८३। शीलं- | सीलव-सीलेण हतो सीलवं। निशी० २७८ । ब्रह्मचर्यं समाधिर्वा। सम० १२७। शीलं-समाधानं चारित्र | सीलवएनिरइयार- शीलानि च-उत्तरगणा व्रतानि च वा। उत्त० ३७३। शीलं-महाव्रतानि। उत्त० ५०६। शीलं- | मूलगु-णास्तेषु पुनर्निरतिचारः। ज्ञाता० १२२ फलनिरपेक्षा वृतिः। उत्त०७०९। शीलः-स्वभावः। स्था० | सीलवय-शीलव्रतं-अणुव्रतम्। भग० ३६८। ४६८ शीलं-समाधानविशेषः, ब्रह्मचर्यविशेषः, शीलं- सीलव्वए-शीलव्रतं-उत्तरगुणमूलगुणात्मकम्। आव. अणुव्रतम्। स्था० २३६। शीलं ११९| पिण्डविशुद्ध्यायुत्तरगुणरूपम्। उत्त०४८५। शीलं सीलव्वय- शीलव्रतं-अणुव्रतम्। सम० १२० शीलव्रतंस्वा-भावम्। ज्ञाता०२१११ शीलं अणुव्रतम्। भग०१३६। शीलव्रतं-अणुव्रतम्। ज्ञाता० व्रतपालनात्मकोऽनुष्ठानवि-शेषः। उत्त० १८७। शीलः- १३४। शीलव्रतं-स्थूलप्राणातिपातविरमणादि। राज. स्वभावः समाधिराचारो वा। उत्त०४५। शीलं १२३ महाव्रतरूपम्। औप० ८२। शीलं-ब्रह्मचर्यम्। प्रज्ञा० ३९९। | सीलायार- शीलाचारः-शील-समाधिस्तत्प्रधानस्तस्य शीलं-चारित्रम्। प्रज्ञा०६०९। शीलं-महाव्रतादि वाऽऽचारः-अनुष्ठानं शीलेन वा-स्वभावेनाचार इति। उपचारातजनं वचोऽपि शीलं समाधान-कारी वा। उत्त० स्था० १८३ ५७। शीलं-मनःप्रणिधानम्। ७३ अ। शीलं सीलेति- पेक्खति। निशी० १३६ आ। परद्रोहविरतिरूपम्। दशवै० २४६। शीलं-भाव सीलेस-शीलेष-सर्वसंवररूपशरणप्रभुः। भग. ९५ समाधिलक्षणम्। दशवै. ९०| शीलं-शुद्धभावना। बृह. | सीवग-। जम्बू. १९४१ ३१३ अ। शीलं-रूवी। निशी० ७७ अ। शीलं-आचारः। सीवण-सीवनम् तन्तुना सन्धीकरणम्। दशवै० २७०| जम्बू. १८२। शीलं-समाधानम। प्रश्न. १०२। शीलं- सीवणी-सीवनी। आव० ४२५ व्रतादिसमाधानलक्षणम्। आव०६०४। शीलं सीवण्णि-श्रीपर्णी-वृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३१| क्रोधायुपशमरूपम्। सूत्र.४०० शीलं-स्वभावः। प्रश्न. | सीवण्णी -श्रीपर्णी। ओघ. १५८१ ३६। शीलं-व्रतविशेषः। सूत्र० ३४० शीलं-समाधानम्। सीवन्न-वनस्पतिकायविशेषः। भग० ८०३। अहिंसाया एकोनचत्त्वारिंशत्तमं नाम। प्रश्न. ९९। सीवन्नि-श्रीपर्णी-वृक्षविशेषः। पिण्ड. ३०० सीलई-परिव्राजकविशेषः। औप. ९११ सीस-शासितुं शक्यः शिष्यः। उत्त० ३८ शिरः-प्रकर्षासीलगुण-शीलगुणः-पराक्रुश्यमानोऽपि शीलगुणादेव न | वस्था संग्रामशिरः। उत्त० ९१। श्रिता अस्मिन् प्राणा क्रोधवशो भवति। आचा० ८७ इति शिरः। उत्त. २७३। सीलगुणवरव्वयाई- शीलं समाधानं गणाश्च-विनयादयः | सीसक-काललोहः। प्रश्न. १६४। नागम्। प्रश्न. १५२ तैर्वराणि-प्रधानानि यानि व्रतानि तानि सीसकरोडी- शीर्षकरोटिका। आव० ३७१। शीलगुणवरव्रतानि, शीलगुणावराव्ययानि वा, शीलस्य | सीसकाकर- यस्मिन्निरन्तरं महामषास्वयोदलं प्रक्षिप्य गुणवराणां च-वरगुणानां व्रजः-समुदयो येषु तानि सीस-कम्त्पाट्यते सः। जीवा. १२३॥ शीलगुणवरव्रजानि वा। प्रश्न. ९९। सीसग-सीसकं-पृथिवीभेदः। आचा. २९) सीलचंदणा- शीलचन्दना। आव० २२४। सीसगभग-शिष्या एव शिष्यकास्तेषां भ्रमासीलदोस-शीलदोषः। आव०६५४। भ्रान्तिर्यस्मिन् सः शिष्यकभ्रमः। विनीवतया सीलपरिघर-शीलपरिगृहं-चारित्रस्थानम्। अहिंसाया शिष्यतुल्य इति, शीर्षकं शिर एव शिरः कवचं वा तस्य एकच-त्त्वारिंशत्तमं नाम। प्रश्न. ९९। भ्रमः-अव्यभिचारितया शरीरक्षत्वेन वा सः शीर्षभ्रमः। सीलप्पए-समारभ्यते। बृह. १७१ । विपा०६श सीलवंत- शीलवन्तः-अष्टादशशीलाङ्गसहस्रधारिणः। सीसगुणा-शिष्यगणाः-भावविज्ञानादिकाः। उत्त०४० आचा० ३५०। शीलवन्तः-चारित्रिणः। उत्त. २५३। सीसघडिया- शीर्षघटिका। जीवा० २३४। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [113] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सीसघडी- शीर्षघटी-शिरःकटिका। अनुत्त०६। अनुत्तरोपपातिकदशानां दवितीयवर्गस्य सीसत्ता-शिक्षणीयता। भग० ५८११ दशममध्ययनम्। अनुत्त०श सिंहःसीसदुवार-सीसत्स आवरणं। निशी. १९१ अ। मत्स्यकच्छपविशेषः। जीवा० ३२१। सिंहःसीसवारिया-शीर्षद्वारिका-कल्पेन शिर्षस्थगनरूपा। सनखपदश्चतुष्पदविशेषः। जीवा० ३८१ सिंहः-हरिः। बृह. २५४ अ। शीर्षद्वारिका। दशवै० ८९। प्रश्न. ७ सहस्रारकल्पे सप्तदशसागरोपमस्थितिकं सीसनमण-शिरसा-उत्तमाङ्गेन नमनं-शिरोनमनम्। दैवविमा-नम्। सम० ३३। सिंहः-केसरी। जम्बू. १२४। आव. ५२४ तृतीयं स्वप्नम्। ज्ञाता०२० सीसपहेलिअंग-शीर्षप्रहेलिकाङ्गं सीहकंत-सहस्रारकल्पे सप्तदशसागरोपमस्थितिकं चतुरशीतिलक्षचूलिकाभिः। अनुयो० १०० दैवविमा-नम्। सम० ३३। सीसपहेलिआ-चतुरशीत्यालक्षैः शीर्षप्रहेलिकाङ्गः सीहकण्ण-सिंहकर्णः-अन्तरदवीपविशेषः। जीवा. १४४। शीर्षप-हेलिका। अनुयो० १०० सीहकन्नी-सिंहकर्णी-कन्दविशेषः। उत्त० ६९११ सीसपहेलिकंग-शीषप्रहेलिकाङ्ग साधारण-बादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा० ३४। चतुरशीतिश्चूलिकाशतसह-स्राणि। जीवा० ३४५ सिंहकर्णीवनस्पति-कायिकः। जीवा० २७ सीसपहेलियंग- शीर्षप्रहेलिकाङ्गः-कालविशेषः। सूर्य सीहकेसर-सिंहकेसरः-आस्तरणविशेषः। ज्ञाता०१३। ९१| कालविशेषः। भग० ८८८ सिहकेसरः-जटिलकम्बलः। ज्ञाता० १५ सीसपहेलिया-शीर्षप्रहेलिका सीहकेसरए-सिंहकेसरकः-मोदकविशेषः। पिण्ड० १३९ शीर्षप्रहेलिकाङ्गशतसहस्राणि। जीवा० ३४५ भग० २१०, सीहकेसरओ-सिंहकेसरिकः-मोदकविशेषः। आव० ३६६| २७५। कालविशेषः। भग० ८८८ सीहकेसरा-देवदत्तभिक्षा। अन्त०६। सिंहकेसराःसीसय-सीसकः। प्रज्ञा० २७ एतदभि-धाना मोदकाः। अन्त०६। सीसरक्ख-शीर्षरक्षकः। आव०८१९। सीहखइद-सिंहखादितम्। आव० ८५९) सीसरोग-शिरोरोगः। आव० ५८५१ सीहखइया-सिंहः शौर्यातिरेकादवज्ञोपात्तस्य सीसव- वनस्पतिकायविशेषः। भग०८०३। यथारब्धभक्षणेन वा स्वादिता तथाविधप्रकृतिर्वा। स्था० सीसवा-शिंशपा-वृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३१| २७६] सीसवादि-दारुम्। निशी० २२८ आ। सीहगई- शीघ्रगतिः। भग. १७८1 सीसवेयणा-शीर्षवेदना। आव० १९ शीर्षवेदना। भग सीहगती-अमितगतेस्तृतीयो लोकपालः। स्था. १९८५ १९७ सीहगिरि-आचार्यः। निशी. २८ । सिंहगिरिःसीसागर-सीसकाकरः। भग. १९९। आर्यसमितधर्मगुरुः। आव. २८९। सिंहगिरिः-छगलपुरासीसावेढ-शिर आवेष्टनम्। आव० ३६९। शीर्षावेष्टकम्। धिपतिः। विपा०६५। सिंहगिरिः। उत्त० ३३३। विंशतितमरण शीर्षावेष्टकम्। आव०६६११ मतीर्थकृत्पूर्वभवनाम। सम० १५१। सिंहगिरिःसीसक्कंपिय-शीर्षात्कम्पितम्। कायोत्सर्गे दोषः। आव. योगसङ्ग्रहे आलोचनायां मल्लवल्लभः ७९८१ सोपारकपत्तनाधिपतिः। आव०६६४। सोसोवहार- शीर्षोऽपहारः-पश्वादिशिरोबलिः। प्रश्न० ३९। | सीहगुहा- राजगृहे अग्नौ चोरपल्ली। ज्ञाता० २३६। सीहंढो-अनन्तकायः। भग. ३०० सिंहगुहा-यत्र चौरपल्लीः । आव० ३७०। सीह-शीघ्रः-वेगवान। भग० १७८ गोशालकशतके अण- | सीहज्झया-सिंहध्वजा-सिंहचिह्नोपेता ध्वजा। जीवा. गारः। भग० ६८५। सिंहः। आव० १७४। सिंहः-कालायां २१५ ग्रामकूटपुत्रः। आव. २०१। सीहणामगणः। निशी. ९५ । सीहणाय-संघयणसंतिसंपन्नो रुट्ठो तुट्ठो वा भूमी आ। सनखपदश्चतुष्पदविशेषः। प्रज्ञा० ४५। सिंहः- | अप्फालेत्ता सीहस्सेव णादं करोति सीहणाय। निशी. मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [114] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] ६१आ। ज्ञाता०२३७। वैश्रमणदासदग्धः। सं०। चतुर्दशतीर्थकृ-त्पिता। सम० सीहणिसाई-सिंहनिषादी-सिंहवन्निषीदतीत्येवंशीलः। १५१। अजितनाथप्रथमशिष्यः। सम० १५२। सिंहसेनःजीवा० ३४३। अनुत्तरोपपातिकदशानां द्वितीयवर्गस्य एकादशमसीहनाय-सिंहनादः। भग० ११५ मध्ययनम्। अनुत्त०२। सिंहसेनः-महासेनराजकुमारः। सीहनिक्कीलियं-सिहनिष्क्रीडितमिव सिंहनिष्क्रीडितं- विपा० ८२। सिंहसेनः-अनन्तनाथपिता। आव. १६१| सिंहो हि विहरन् पश्चाद्भागमवलोकयति एवं यत्र सीहस्सर-सिंहस्येव प्रभूतदेशव्यापी स्वरो यस्य स सिंहप्राक्तनं तप आव-त्र्योत्तरोत्तरं तद विधीयते तत्तपः | स्वरः। जीवा. २०७४ सिंहनिष्क्रीडितम्। ज्ञाता० १२२ सीहा- सिंहा-श्रमाभावेन सिंहगतिसमाना। भग० १६७। सीहपरिसा-मज्झे सीहपरिसा। निशी० ३८ आ। सीहाए-सिंहया तद्दायस्थैर्येण। ज्ञाता० ३१| सीहपरिसा-गीयगीत्था। निशी. १९ अ। सीहाणुग-जो महंतणिसिज्जाए ठितो सत्तमत्थं वा एति सीहपुच्छ-सिंहपुच्छं-पृष्ठिवर्धम्। आव० ६५१। चिट्ठइ वा सीहाणुगो। निशी. १३७ । सीहपच्छण-सिंहपच्छन-शेफत्रोटनम्। प्रश्न. १६४॥ | सीहानुग-सिंहानुगः-यो महत्वां निषद्यायां स्थितः सन् सीहपुच्छियय-सिंहपुच्छितकं-सिंहमेहनकं सूत्र-मर्थं वा वाचयति तिष्ठति वा सिंहानगः। व्यव. वोटितमेहनम्। औप. ८७ १२१ । सीहपुर-सिंहपुरं-श्रेयांसनाथजन्मभूमिः। आव० १६० सीहावलोय- पश्चादवलोकः। मरण। सिंहपुरं-सिंहदत्तराजधानी। विपा० ७० स्था० ८० सीहासण-सिंहासनं-यस्यासनस्याधो भागे सिंहो व्यवसिंहपुरं-स पद्मविजयस्य राजधानी। जम्बू. ३५७) स्थितः स। जीवा.२००० सीहमड-सिंहमृतः-मृतसिंहदेहः। जीवा० १०६। सीही-तत्प्रधाना विद्या। आव० ३१९| सीहमुह- सिंहमुखः-अन्तरद्वीपविशेषः। जीवा० १४४। | सीहका-सीधुका-मद्यविशेषः। प्रश्न० १६३। सीहमुहदीव-अन्तरद्वीपविशेषः। स्था० २२६। सीहोरासियं-सिंहसामर्थ्यजम्। मरण। सीहमुहा-सिंहमुखनाम अन्तरद्वीपः। प्रज्ञा० ५० सुंक- शुल्क-मूल्यम्। ज्ञाता० १३१| सीहरह- पञ्चदशमतीर्थकृत्पूर्वभवनाम। सम० १५१| सुंकपाल-शुल्कपालः। आव० ३१७| सिंहरथः-सिंहपुराधिपतिः। विपा० ७१। सुंकभय-शुल्कभयः। आव० ३५४॥ सीहल-सिंहलः चिलातदेशनिवासी म्लेच्छविशेषः। प्रश्न | सुंकलित-वनस्पतिविशेषः। भग० ८०२। १४॥ सुंकलितण-तृणविशेषः। प्रज्ञा० ३३ सीहलिपासगं- वीणासंयमनार्थमूर्णामयं कङ्कणं च। सूत्र० | सुकवाल- शुल्कपालः। उत्त० १६५ ११७ सुंकियतो-शुल्कग्राहकः। व्यव० ९४ आ। सीहविक्कमगतो-अमितगतेश्चतुर्थो लोकपालः। स्था० सुंकिया- गामिया। निशी० १४० अ। १९८१ सुंगा- शुङ्गायनं विशाखागोत्रम्। जम्बू. ५००/ सीहवीअ-सहसारकल्पे सप्तदशसागरोपमस्थितिके देव- | संगायणसगोत्ते-विशाखानक्षत्रगोत्रम्। सूर्य. १५० विमानम्। सम० ३३। सुंठ-तृणविशेषः। प्रज्ञा० ३३। पर्वगविशेषः। प्रज्ञा० ३३। सुहसीलवयत्ता-सुखशीलाव्यक्ता सुख-शरीरशुश्रूषादिकं सुंठए- शुण्ठकं-नारकपचनार्थं भाजनविशेषः। सूत्र. १२५ शीलयन्तीति सखशीलाः पाास्थादयः अव्यक्ताः- सुंठी-सिंगबेरो। निशी. ५० आ। सुख-शीलाव्यक्तः। बृह० १२७ आ। सुंड- साधुमन्यद्वा। आचा० ३३०| सीहसेण-आराधको गजः। मरण| सल्लुकीवने सुंडय-शुण्ठकम्। आव०६५१| गन्धहस्ती-सिंहचन्द्रमुनिबोधितः कुर्कटसपहतः | सुंडा- शुण्डा। आव० २१७ श्रीतिलकसुरः। मरण०| ऋषभसेनशिष्यः | इंडिया- शौण्डिका-अत्यन्ताभिष्यङ्गरूपा। दशवै० १८८५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [115] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text]] सुंदर-परग्रामदूतीत्वदोषविवरणे धनदत्तजामाता। शब्दसंस्पृ-ष्टार्थग्रहणहेतुरुपलब्धिविशेषः, एवमाकारं पिण्ड. १२७। त्रयोदशमतीर्थकृत्पूर्वभवनाम। सम० १५१। वस्तु जलाधारणा-द्यर्थक्रियासमर्थं सुंदरबाहू- सप्तमतीर्थकृत्पूर्वभवनाम। सम० १५१| घटशब्दवाच्यमित्यादिरूपतया प्रधानीकृतसुंदरमंगुलभाव-सुन्दरमगुलभावः त्रिकालसाधारणसमानपरिणामः, सुन्दरशुभेतरपदार्थः। आव० २८० शब्दार्थपर्यालोचनानुसारी सुंदरी-परिणामिकी दृष्टान्ते नासिक्यनगरे इन्द्रियमनोनिमित्तोऽवगमविशेषः। नन्दी०६५ श्रुतं नन्दवणिजस्त्री सुन्दरी। आव० ४३६) स्वदर्श-नानुगतसकलशास्त्रम्। नन्दी० १५) श्रुतंसुंदरीनंद-सुन्दरीनन्दः-परिणामिकी दृष्टान्ते द्वादशाङ्गम्। दशवै० २४६। आत्मैव सुन्दरीपतिर्नन्दो वणिक। आव०४३६) श्रुतोपयोगपरिणामानन्यत्वाच्छृणोति श्रुतम्। स्था० संदेर-सौन्दर्यम्। दशवै. १०७ ३४७ सुबंसुंब-दवरिका-दवरिकम्। आव० ६२। सुअक्खाया-स्वाख्यातं सदेवमनुष्यासुरायां पर्षदि सुष्ठु सुंब- रज्जुः । भग० १६७। आख्याता। दशवै. १३७ सुंबकड- शुम्बकः। आव० २८९। तृणविशेषनिष्पन्नः।। सुअग्गाही-श्रुतगाहीशुम्बकः। स्था० २७३। परमपुरुषप्रणीतागमग्रहणाभिलाषी। दशवै. २५० सुंबकिड्ड-वीरणकटम्। भग० ६२८१ सुअणुयत्त-स्वनुवर्तनीयः। आव० ५६। सुंभ- श्रावस्त्यां गाथापतिः। ज्ञाता० २५१। सुअत्थधम्मा-श्रुतार्थधर्मः-श्रुतधर्मार्थः गीतार्थः। दशवै. सुंभय-सुम्भकः-शुभवर्णकारीवस्तुविशेषः। अनुयो० १४२। २५११ सुभंतर-जणपदविशेषः। भग० ६८० सुअथेरा- श्रुतस्थविराः-समवायाद्यङ्गधारिणः। स्था० सुंभवडेंसए- बलीचर्चायां भवनम्। ज्ञाता० २५१। सुंभसिरी-सम्भगाथापतेर्भार्या। ज्ञाता०२५१। सुअपच्चक्खाण- श्रुतप्रत्याख्यानं प्रत्याख्याने भेदः। सुंभा-सुंभसूभश्रियोः दारिका। ज्ञाता० २५१। ज्ञातायां आव० ४७९। द्वितीयश्रुतस्कन्धे द्वितीयवर्गे प्रथममध्ययनम्। सुअलंकिय- सुष्ठ-अतिशयेन रमणीयतयाऽलंकृतः। ज्ञाता० २५१। स्वल-ड्कृतः। जीवा. २०६। सुंमुइ-पुण्डजनपदे शतद्वारनगरे कुलकरः। स्था० ४५८१ | सुअसमाही- श्रुतसमाधिः-द्वितीयं विनयसमाधिस्थानम् सुंस- षष्ठाङ्गेऽष्टादशमं ज्ञातम्। उत्त० ६१४। । दशवै० २५५ सुसमा- ज्ञातायामष्टादशममध्ययनम्। सम० ३६) सुआ-सूया-व्याजम्। दशवै. २४३॥ धनदत्त-पुत्री। नन्दी. १६६|| सुइ- शुचिः। आव० ६३१। श्रुयते इति श्रुतिः-शब्दः। ज्ञाता० सुंसमार-संसुमारः। जलचरविशेषः। उत्त० ६९९। २१५ सुंसु- ज्ञातायामष्टादशमध्ययनम्। आव० ६५३। सुइभूय- शूचिभूतः भावशुद्धिमान्, श्रुतभूतःसुंसुमा- सुसुमाभिधाना श्रेष्ठिदुहिता, प्राप्तसिद्धान्तः। औप० ३७ ज्ञातायामष्टादशममध्य-यनम्। ज्ञाता०९। संस्मा सुइयं-स्वपितुम्। उत्त० १२९॥ धनसार्थवाहदारिका। आव० ३७० सुइवाई-शुचीवादी-दकसौकरिकः। बृह० ९० आ। सुंसुमार-जलचरविशेषः। प्रश्न. ७ सुइव्वं- श्वस्तनम्। पिण्ड० ८२ सुसुमारपुर-यत्र चमरोत्पातः। आव. २२२ सुइसमाया- शुचिः समाचारः यस्य स। आचा० ३६४। सु-अतिशयेन सष्ठः। आव०५९१। शोभनं-अतिशायिः। | सुई- शुचिः सत्यम्। आव० ७०५। सत्यसंयमः। प्रश्न सूर्य. २९२। १४६। शुचिः-पवित्रम्। जीवा० २४६। संयमवता शुचिः, सुअ- श्रवणं श्रुत वाच्यवाचकभावपुरस्सरीकरणेन योग-सङ्ग्रहे एकादशमयोगः। आव० ६६४। ५१६ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [116] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] ३२ सुए- परिव्राजकविशेषः। ज्ञाता० १०५ शुकः-कीरः। प्रज्ञा० सुकुमारिका-तैलकि विशेषः। ब्रह. २६८ भोज्यपदा३६०| श्रुतमदः-अष्टमदेषु सप्तमः। आव० ६४६। श्वः- र्थविशेषः। पिण्ड० १७ आगमिनि दिनम्। उत्त० ११७ श्वः-कल्पः। बृह० ९५ | सुकुमाल-सुकुमारः-अकर्कशः। जीवा० २७४। सुकुमारःसुओ-शुकः-पक्षिविशेषः। आव० ४२८१ सुकुमारस्पर्शः। जीवा० २२९। सुकत-शुकान्तः घृतोदे समुद्रे पश्चिमाञधिपतिर्देवः। सुकुमालकोमलिय-सुकामारकोमलिकं-अत्यर्थं जीवा० ३५५ सुकुमारम्। ज्ञाता० २०० सुक-शुल्कं राजदेयद्रव्यम्। बृह. १५९ अ। शुल्कं- सुकुमालिका-विराधितसंयमेऽपि ईशानकल्पे उत्पादे राजदेवभागम्। राज०१३०| दृष्टान्तः। प्रज्ञा०४०६। सुकच्छ-सुकच्छोनामविजयः। जम्बू० ३४५। | सुकुमालिया-सुकुमालिका-स्पर्शेन्द्रियदृष्टान्ते सुकच्छकूड- सुकच्छकूटं-चित्रकूटवक्षस्कारे कूटम्। जितशत्रुभार्या। आव० ४०२। सुकुमालिका जम्बू० ३४४। भद्रासागरदत्तसार्थवाहपुत्री। ज्ञाता० २००| निशी० २५८ सुकड- सुकृतं-सुष्ठुकृतम्। दशवै० २२०। सुकृतं । सुष्ठुपरिपूर्ण कृतम्। उत्त० ६७। सुकृतं-सुष्ठ्वनुष्ठितम्।। | सुकुलपच्चायाइ-देवलोकादौ गत्वा सुकुले-इक्ष्वाकादौ उत्त०१०३ प्रत्यायाति-प्रत्यागमनं प्रत्याजातिर्वा-प्रतिजन्मेति। सुकडाणुमोयणा- अर्हत्त्वायनुमोदनम्। चतु० । स्था० २०२ सुकण्ह-निरयावल्यां प्रथमवर्गपञ्चममध्ययनम्। निर० सुकुलपच्चायाति-सुकुले-इक्ष्वाकादौ देवलोकात् प्रतिनिवृ-त्तस्य जातिः-जन्म आयतिर्वा-आगतिः सुकण्हा-सुकृष्णा-अन्तकृद्दशानामष्टमवर्गस्य सुकुलप्रत्याजातिः सुकुलप्रत्यायातिर्वा। स्था० १४४। पञ्चममध्यय-नम्। अन्त० २५, २८१ सुकोसल- ऐरावते आगमिन्यामुत्सर्पिण्यां तीर्थकृत्। सुकन्ना-सुकन्या-अप्रतिहतराज्ञी। विपा.९५१ सम० १५४। चित्रकूटेऽनशनी मातृव्यघ्रीभक्षितः। मरण. सुकय-सुकृतं-सुष्ठकृतं शोभितम्। प्रज्ञा०८६। सुकृतः- । मुद्गल-गिरौ व्याघ्रीहतः। भक्त। निपुणशिल्पिरचितः। जीवा० २२६) व्याघ्रीभक्षितमुनिः। संस्ता सुकयाणत्ति-सुकृताज्ञप्तिम्। भक्त० । सुक्क- शुष्कः। ओघ. २९। शुष्कः-वल्लचनकादि। आचा० सुकरण-सुखेन तस्य तस्य करणम्। दशवै. १००। । ३१५। शुक्लवर्णद्रव्यजनितः शुक्लः। स्था० ३२। असंसुकाल-निरयावल्यां प्रथमवर्गे प्रथममध्ययनम्। निर० किलिठ्ठपरिणामं अट्ठविहं वा कम्मरयं सोधते तद्मा । सुकालीपुत्रः। निर०२०॥ सुक्कं-परिणामविसेसो। दशवै० १४। ज्ञाता० १८५। शुक्रअष्टादशसागरोपमस्थितिकं देव-विमानम्। सम० ३५ सप्तमो धातुः। ज्ञाता० १४७। शुष्को नीरसशरीरत्वात्। सकालः-सौगन्धिकानगर्यां नीलाशो-कोदयाने यक्षः। ज्ञाता०७४। निरयावल्यां तृतीयवर्गे तृतीयममध्ययनम् विपा. ९५ । निर० २१। शुक्लं-शोधयत्यष्टप्रकारं कर्ममलं शुचं वा सुकाली-अन्तकृद्दशानामष्टमवर्गस्य क्लमयतीति शुक्लम्। स्था० १८८ शुक्लं शुचिः-निर्मदवितीयममध्ययनम्। अन्त०२५ आर्यविशेषः। अन्त० लम्। उत्त०६०९। शुल्कं-विक्रेयभाण्डं प्रति राजदेयं २७। कोणिकस्य चुल्ल-माता। निर०२० द्रव्यम्। भग० १४४। शुक्लं अवधासमोहादिलक्षणं चतुर्थं सुकिट्ठ- चत्वारसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० ध्यानम्। आव० ५८२। शुल्कं-कन्यामूल्यम्। उत्त० २०७। शुल्क-विक्रीतव्यभाण्डं प्रति राजदेयं द्रव्यम्। जम्बू. सुकिरण-सुकिरणं शोभमानकान्तिकम्। जम्बू० २११॥ १९४। शुष्कं-स्तोकव्यञ्जनम्। दशवै० १८१] सुकमारं- ललितं ललतीव यत् स्वरघोलनाप्रकारेण शब्द- सप्तदशसाग-रोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० ३३। स्पर्शनेन श्रोत्रेन्द्रियस्य सुखोत्पादनाद्वा। स्था० ३९६ | शुष्कः। ओघ० १८८1 शुल्कः-अभिन्नवृत्तः। भग० ३७३। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [117] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] शुल्कीयम्। उत्त॰ २२१। शुक्रःद्विचत्वारिंशत्तममहाग्रहः । जम्बू० ५३५ । शुष्कं - नीरसम्। भग० १२५| द्विचत्वारिंशत्तमम-हाग्रहः । स्था॰ ७९। शुक्लो-नामाभिन्नवृतोऽमत्सरी कृतज्ञः । भग० ६५७। ध्याने चतुर्थो भेदः । भग० ९२३ । अशुचिस्थानम्। प्रज्ञा० ५०। शुष्कः- चिक्खल्लः । ओघ० २९| आगम- सागर- कोषः ( भाग : - ५) सुक्कछिवाडिया - शुष्काछिवाडिः-वल्लादिफलिका सा च शुष्का सति किलतीव शुल्का भवतीति शुष्काछिवाडिका । प्रज्ञा० ३६१ | सुक्कपक्खिए- शुक्लपाक्षिकः-शुक्लानां वा आस्तिकत्वेन विशुद्धानां पक्षो वर्गः शुक्लपक्षस्तत्र भवः शुक्लपाक्षिकः । स्था० ६१ | सुक्कपक्खिय- शुक्लो विशुद्धत्वात् पक्षः अभ्युपगमः शुक्ल-पक्षस्तेन चरन्तीति शुक्लपाक्षिकः । स्था० ६० सुक्कपुग्गलपरिसाङ - अशुचिस्थानम्। प्रज्ञा० ५०| सुक्कयं - संस्कृतं विशिष्टसंस्कारसहितम् । व्यव० ३३५ | सुक्कवडिंसए– शुक्रावतंसकः-शुक्रलोकस्य मध्येऽवतंसकः । जीवा० ३९२ ॥ सुक्कहिय- सुक्कथितः यथाऽग्निपरितापतापितः । जीवा० ५४| सुक्का- मनस्तापेन शोणितशोषात् शुष्का। ज्ञाता० २८ सुक्काभ- शुक्राभं-सप्तमलोकान्तिकविमानम्। भग० २७१। सुक्किलपत्ता- चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः । जीवा० ३२ चतुरिन्द्रियविशेषः । प्रज्ञा० ४२ | सुक्किला- लहुगा । निशी० ३३आ। सुक्खायधम्म- सुष्ठु - शोभनः सर्वसावद्यविरतिरूपत्वादाङिति -अभिव्याप्त्याख्यातः तीर्थकरादिभिः कथितः स्वाख्यातः तथाविधो धर्मो यस्य सोऽयं स्वाख्यातधर्मा चारित्री । उत्त० ३१६| सुक्खाल्लओ - अन्यभाजनगृहीततीमनेनार्द्र ओदनः । बृह० २५० अ सुख - शीतम्। आचा० १५१ । विषये सुखो वह्निः १ सुख-वेदनाभावे २ विपाके हृष्टेन्द्रियार्थजं ३ मोक्षे अनुत्तमम् । तदु० १०। इहपरलोके सुखकरणात् सुखम् । व्यव० ३९८ | मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] सुखदुःखे - परोदीर्यमाणवेदनारूपे साताऽसाते। प्रज्ञा० ५५६ सुगंधि- सद्गन्धका । जीवा० १८८ । सुगन्धिः - गन्धवासः । जीवा० २१४॥ सुगंधिए - जलरुहविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । गंभीर - अतिशोभनम् । व्यव० ३०३ (?) । सुग- लोमपक्षिविशेषः । जीवा० ४१। सुगइ - सुगतिः सिद्धः । आव ०६०। सुगती- सुगतिः-शोभना गतिरस्मात् ज्ञानाच्चारित्राच्चेति ज्ञानक्रिये वा । सूत्र० १९७ सुगमं - अकृच्छ्रवृत्तिः । स्था० २९७| सुगा - लोमपक्षीविशेषः । प्रज्ञा० ४९ । सुगिम्ह- सुग्रीष्मः चैत्रपौर्णमासी । स्था० २१४ | सुगिम्हओ - सुग्रीष्मकः- चैत्रपूर्णिमा । आव० ७३६। सुगुत्त- सुगुप्तः शतानीकामात्यः । आव० २२२ सुगृहा- तदभिधाना चेटिका | नन्दी० ५७ | सुग्गइ - सोगतिं सुगतिं देवमनुष्यगतिलक्षणां मुक्तिं वा । उत्त० ६६१| सुग्गत- सुगतः - सुस्थः । स्था० १४७। सुगतः ईश्र्वरः । स्था० २४९| सुग्गीव - सुग्रीवं नगरविशेषः, बलभद्रराजधानी । उत्त ४५१। भुतानन्दस्य अश्र्वराजः । स्था० ३०२ । सुग्रीवःसुविधि-पिता। आव० १६१। सुविधिनाथपिता। सम १५१। नव-मवासुदेवप्रतिशत्रुः । सम० १५४। सुग्रीवः– वालिलघुभ्राता। प्रश्न० ८९ | सुघुट्ठ- सुघुष्टः- अतिशयेन मसृणः । जीवा० २०१ | सुघोषा - वाद्यविशेषः । जीवा० २६६ । सौधर्मकल्पे घण्टा। ज्ञाता० १२ सुघोस - सुघोषं नगरं - अर्जुनराजधानी । विपा० ९५| दशसागरोपमस्थितिकं देवविमानम् । सम० १७ षट् सागरोपम-स्थितिकं देवविमानम् । सम० १२ अतीतायामुत्सर्पिण्यां षष्ठः कुलकरः । स्था० ३९८ \ सम १५०| सुघोससंठिय- सुघोषसंस्थितः आवलिकाबाह्यपञ्चदशमं नरकसंस्थानम् । जीवा० १०४ | सुघोसा - गीतरतेः प्रथमाऽग्रमहिसी । भग० ५०५ | धर्मकथायां पञ्चमवर्गेऽध्ययनम् । ज्ञाता० २५२ | [118] “आगम- सागर- कोषः " [५] Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सुघोषाषघण्टाविशेषः। प्रश्न० १५९। सुघोषा सुजातं-मूलद्रव्य-शुद्धम्। जम्बू. ३२४। सुजातःवीणाविशेषः। जम्बू. १०१। गीत-रतेः प्रथमाऽग्रमहिषी। बीजाधानादाभ्य जन्म-दोषरहितः। जम्बू० १११| स्था० २०४। सुघोषा-देवलोकप्र-सिद्धा घण्टाविशेषः। सुजातः सुगुप्तः सुनिष्पन्नः। जीवा० २७०| शोभनं जातं आतोद्यविशेषो वा। जीवा० १०५। सुघोषा-शक्रस्य जन्म यस्य स सुजातविशुद्धसुधर्मासभायामेतदभिधाना सुस्वरा घण्टा। जम्बू० ३९६। मणिकनकरत्नमूलद्रव्यतया जन्मदोषरहितः जम्ब्वाः सचंद-भरतक्षेत्रेऽतितोत्सर्पिण्यां षष्ठः कुलकरः। सम० सुदर्श-नायाः सप्तमं नाम। जीवा० २९९। शोभनं-जातं१५३ जन्म यस्य सः सुजातःसुचिण्ण-सुचीर्णः-सुचरितः। जम्बू०४६। सुचीर्ण-सुचिरं- विशुद्धमणिकनकरत्नमूलद्रव्यजनिततया जन्मसुचरितजनितं कर्मापि वा। जीवा. २०१। दोषरहितः। जम्बू. ३३६। भुतानंदस्य तृतीयाऽग्रमहिषी। सुचिभूए- भावविशुद्धितः शुचिभूतः। स्था० ४६५) भग० ५०४१ सुचिर-प्रभूतत्वम्। उत्त० २८०| सुचिरः। निशी० २०१ सुजेहा- सुज्येष्ठा चेटकस्य षष्ठी पुत्री। आव० ६७६| अ। सुज्येष्ठा- शिक्षायोगदृष्टान्ते सुचिरिफलनिव्वाणमुत्तिमग्गं- । आचा० ४२४॥ हैहयकुलसंभूतवैशालिकचेटकस्य षष्ठी पुत्री। आव० सुचोयए- शोभने प्रेरयिता। उत्त०६५। ६७६| सुच्छित्तं- सुक्षेत्रम्। आव० २२५। सुजोषः- पिशाचभेदविशेषः। प्रज्ञा० ७०। सुच्छेत्ता- सुक्षेत्रनाम ग्रामः। आव० २१८। सुज्ज- नवसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० १५१ सजसा-सयशा-समाधिज्ञाते शिशनागश्रेष्ठिभार्या। आव० | सज्जकंत-नवसागरोपमस्थितिकं देवविमानम। सम. ७०७। चतुर्दशमतीर्थकृद्माता। सम० १५१। सुयशा- १५ अनन्तजिनमाता। आव० १६०| सुज्जफूड-नवसागरोपमस्थितिकं देवविमानम। सम० सुजह-सुखेन-अनायासेन हीयत इति सहानः-सुत्यजः। १५ सुज्जज्झय-नवसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० सुजाए- सुजाता-लक्षणप्रशस्तः। जम्बू० ५२९। सुजातः- १५ विपाकदशानां द्वितीयश्रुतस्कन्धे तृतीयममध्ययनम्। सज्जप्पभ-नवसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम. विपा० ८९। विनीतत्वादिना सुपुत्रः। स्था० ४६२। सुजातः- | १५ वीरकृष्णमित्रराजस्य कुमारः। विपा० ९५। सुजातः- सज्जलेस-नवसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० सुपरि-पाकागतः। जीवा० २६५५ १५ सुजाण- सुयानं-सुगतिम्। सम० १८१ सुज्जवण-नवसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० सुजात-सुजातः संवेगोदाहरणे सार्थवाहधनमित्रधनश्रीपुत्रः। आव० ७०९। सुज्जवित्त-नवसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम. तृतीयग्रैवयकप्रस्तटः। स्था०४५३ १५ सुजाता-अन्तकृद्दशानां सप्तमवर्गस्य सुज्जुत्तरवडिंसग-नवसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। एकादशममध्ययनम्। अन्त० २५। कालवालस्य सम० १५ तृतीयाऽग्रमहिषी। स्था० २०४। सुज्झ-रूप्यविशेषः। जीवा. १९७१ सुजाय-सुजातं-सुजातदारुमयम्। भग० ४५९। सुजातं- सज्झसिंग-नवसागरोपमस्थितिकं देवविमानम। सम० सुनिष्पन्नम्। ज्ञाता० १२। सुजातं-गर्भदोषविकलम्। आव० ७१९। सुजातं-मूलद्रव्यशुद्धम्। जीवा० २२८१ सुज्झसिट्ठ-नवसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० सुजातं-यथोक्तप्रमाणोपपन्नत्वम्। जीवा० २६९। उत्त० २९॥ ११ १५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [119] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सुट्टिए-सुस्थितः लवणाधिपतेर्नामधेयम्। जीवा० ३०३। विश्वरस्तोविश्वास-वान् निरुत्सुको वा। ज्ञाता० ३२ सुस्थितः-लवणाधिपः। जंवा० ३१५ सुणेति- शृणोति, गृह्णाति, उपलभते। प्रज्ञा० २९८१ सुद्विग्ग-त्रिवेदिकपिलसाधुगुरुः। बृह. ९८ अ। सुणेह-शृणुत-आकर्णयत, श्रवणं प्रत्यवहिता भवत, शृणु सुट्ठिय-पाण्डवगुरुः। मरण| ज्ञाता० २१७) 'इहे' ति जगति जितमते वा। उत्त. १९। सुहिया-आयरिया। निशी० ३१ आ, १०२ अ। सुण्ठी- कटुफरसपरिणतः। प्रज्ञा० १०| उत्त०६७७। सुहृतरमायाम- गंधारग्रामस्य षष्ठी मूर्च्छना। स्था० सुण्ण-शून्या-शून्यान्तरवर्गणा। आव०६५। शून्य ३९३ उद्वसम्। उत्त०१०९। सुढिओ- मेषः। आव० १०२। अतीवादृतः सुष्ठुः। बृह. ६६ सुण्णडविसओ- शून्यविषयः। आव० ३६५ अ। सुष्टो आदृतो भूत्त्वा। बृह० ५५आ। सुण्णागार-शून्यागारः। आव० ३०७ सुढिया-सुढिः-श्रान्तः। बृह० ४ आ। सुण्ह- श्रवक्ष्णः वृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३११ सुणंद-द्वादशमतीर्थकृत्प्रथमभिक्षादाता। सम० १५१| | सुण्हा-स्नुषा। आव० ३०५। स्नुषा। ओघ० १५६। पुत्रवधुः। पञ्च-दशसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० २९। ज्ञाता० ११५ सुनन्दः-तृतीयमासक्षपणे भगवन्तं भिक्षादाता। आव. | सुत- श्रुतं-आचारप्रकल्पादिश्रुतं, नवादिपूर्वाणां २००| गोशा-लकशतके गाथापतिः। भग०६६२। श्रुतत्वेऽप्य-तीन्द्रियार्थज्ञानहेतुत्वेन सुणंदा-सुनन्दा-तुम्बवनसन्निवेशे । सातिशयत्वादागमव्यपदेशः, केवल-वदिति द्वितीयो कश्चिद्गाथापतिसुता। उत्त० ३३३| कालवालस्य व्यवहारः। स्था० ३१७। बहुश्रुतः। बृह० २८० आ। प्रथमाऽग्रमहिषी। स्था० २०४। भुतानंदस्य सुतखंड-कलाविशेषः। ज्ञाता० ३८। प्रथमाऽग्रमहिषी। भग० ५०४। सुतत्थझरणहेउ- सूत्रार्थरक्षणहेतुः सुणइ- शृणोति। आव० ६६५) सूत्रार्थगुणनानिमित्तम्। ओघ० २००। सुणइयच्छिद्द- शून्यच्छिद्रम्। आव० ३५२। सुतत्था- श्रुतविषयो अर्थः-श्रुतार्थः-अभिलाप्यर्थविशेष सुणए-शुनकः-मृगदंशः। प्रज्ञा० २५४। इत्त्यर्थः, श्रुता वा-आकर्णिता जिनसकाशे गणधरेण ये सुणक्खत्त-भद्रासार्थवाह्याः पुत्रः। अनुत्त०८ अर्थास्ते श्रुतार्थाः अथवा श्रुतमिति सूत्र अर्थाअनुत्तरोपपा-तिके तृतीयवर्गे दवितीयममध्ययनम्। नियुक्त्यादय इति श्रुतार्थाः। सम० १०६। अनुत्त० २। गोशालक-शतके मुनिः। भग० ६७८५ | सुतपुव्व-श्रुतपूर्वः। आव० ३४८१ सुणक्खत्ता- सुनक्षत्रा-द्वितीयरात्रिनाम। जम्बू०४९१। | सुता- | स्था० ५१२।। द्वितीयरात्रिनाम। सूर्य १४७ | सुति- श्रुतिः। आव० ५१३। श्रुति-वार्तामात्रम्। ज्ञाता० ८४। सुणग- शुनकः-श्वानः। जम्बू० १२४। कौलेयकः। प्रश्न. २१। सनखपदविशेषः। प्रज्ञा० ४५। शुनकः-श्वानः। | सुतोवउत्त- श्रुतोपयुक्तः-साभिलापज्ञानोपयुक्तः। प्रज्ञा० जीवा० २८२। सनखपदश्चतुष्पादविशेषः। जीवा० ३८५ ४९१ शुनकः-कुक्रूरः। व्यव० ५२आ। सुत्त- सुप्तमिव वा सुप्तम्। स्था० ५२। सूत्र-आगमः। सुणगमड-श्वमृतः-मृतस्वदेहः। जीवा० १०६| स्था० १९०| सुक्तं सुस्थित्त्वेन व्यापित्वेन च सुणफ- श्वानः कौलेयकः। प्रश्न. ७ सुष्ठूक्तत्वाद्वा सूक्तम्। स्था० ५२। सुप्तः-निद्रावान्। सुणियं- शूनत्वं स्था० ३२०| सूचनात् सूत्रं वाख्येयं वा अविवृतं । श्वयथर्वातगीत्तश्लेष्मसन्निपातरक्ताभिधानजः। मुकुलतुल्यं वा। जाव०८६। सूत्र-वल्कवलितम्। सूत्र० आचा० २३५ ११८ श्रुतं-शेषमाचारप्रकल्पादि। भग० ३८४। सूत्रंसुणिया-शूनी। आव० ३८८1 दृष्टिवादे द्वितीयो भेदः। सम०४१। श्रुतं-काज्जिकम्। सुणिव्वुयवीसत्थे- सुष्ठुनिवृत्तः-श्वस्थात्मा, बृह. १३३ अ। श्रुतं-सूत्रमात्रं वा। स्था० ३५०| सुप्तो | सती- श्रुतिः। आव० ३५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [120] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] निद्रया। आचा० १५२। सूत्रं-आगमः। स्था० ५०३। सुत्थिए-स्वस्तिकः। जीवा० १८९। सुत्तअत्थकहणा- सूत्रार्थकथनां व्याख्यानः। आव० २६५। | सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगमः- निर्युक्त्यनुगमे भेदः। सुत्तखेड्ड-सूत्रखेल-सूत्रक्रीडा। जम्बू. १३९। जम्बू०९। सुत्तग-सुत्तकं-कटीसूत्रम्। उत्त० ४९२। सूत्रकं- सुदंसण-सुदर्शनः-जम्बूद्वीपाधिपदेवः। स्था० ४३७) हयमुखभू-षणविशेषः। जम्बू० २३५। सूत्रकं-वैकक्षककृतं सुदर्शनः। उत्त० ३७९। सुदर्शनः-कायोत्सर्गदृष्टान्ते सुवर्णसू-त्रम्। जम्बू० १०५ चम्पायां श्रेष्ठिपुत्रः। आव० ८००। सुदर्शनःसुत्तगमा-सुत्तप्रकारा। निशी. ११ | अन्तकृद्दशानां षष्ठमव-र्गस्य दशममध्ययनम्। अन्त० सुत्तत्थ-सूत्रार्थ एव केवलः प्रतिपाद्यते १८ राजगृहे श्रेष्ठिः । उत्त० ११२। सुदर्शनः। जम्बू० यस्मिन्ननुयोगेऽसौ सूत्रार्थः, २०४। सुदर्शनः-मथुरायां भण्डीरोद्याने यक्षः। विपा. सूत्रार्थमात्रप्रतिपादनप्रधानो वा सूत्रार्थः। आव० २७। ७०| पञ्चमबलदेवनाम। सम० १५४। सुदर्शनःसुत्तदोसा- द्वात्रिंशतप्रमाणः सूत्रदोषाः। आव० ३७४। अरचक्रीपिता। आव० १६२। सुदर्शनः- अरनाथपिता। सुत्तपरिवाडी- सूत्रपरिपाटी-सूत्रपद्धतिः। आव० ६७। सूत्र- आव० १६१। सुदर्शनः-स्वयम्भूवासुदेवध-र्माचार्यः। आव. परिपाटी, सूत्रपद्धतिः। विशे० ४९८१ १६३॥ सुदर्शनः-पञ्चमबलदेवः। आव० १५९। सुत्तप्फासिअनिज्जुत्ति-सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिः- नागकुमारस्य हस्तिराजः। स्था० ३०२। सूत्रस्पर्शका-रिणी नियुक्तिः। अनुयो० २५८५ अष्टमचक्रवर्तिपिता। सम० १५२ शोभनं सुत्तरुइ-सूत्रेण-आगमेन रुचिर्यस्य स सूत्ररुचिः। उत्त. जम्बूनदमयतया वज्ररत्नबहलतया च मनोनिवृत्तिकरं ५६३। सूत्र-आचाराङ्गाद्याङ्गप्रविष्टं अङ्गबाह्य- दर्शनं यस्याऽसौ सुदर्शनः। सूर्य० ७८। सुदर्शनः आवश्यक-दशवैकालिकादि तेन रुचिर्यस्य स तथा, मेरुर्जम्बूद्वीपनाभिभूतः। सूत्र. १४६। मल्लीनाथपिता। सूत्रमाचारदिक-मङ्गप्रविष्टमङ्गबाह्यमावश्यकादिकं सम० १५१। ग्रैवेयके षष्ठ-प्रस्तटः। स्था० ४५३। ततः यः सम्यक्त्वमवगाहते तृतीयबलदेववासुदेवस्य धर्माचार्यः। सम० १५३ प्रसन्नप्रसन्नतराध्यवसायश्च भवति स सूत्ररुचिः। पार्श्वनाथपूर्वभवनाम। सम० १५१। वाणिक-ग्रामे श्रेष्ठी। प्रज्ञा० ५६। सूत्रेण-आगमेन रुचिर्यस्य स सूत्ररुचिः। भग. ५३२ वाणिकग्रामे वास्तव्यः। अन्त० २३। सृष्ठउत्त० ५६३। शोभनं जाम्बूनदमयतया रत्नबहलतया च मनोसुत्तविहीणा-सूत्रविधिना। पिण्ड० १०५ निर्वृत्तिकरं दर्शनं यस्याऽसौ सुदर्शनः मेरूनाम। जम्बू सुत्तवेयालिया- कर्मार्यभेदविशेषः। प्रज्ञा० ५६। ३७५। राजगृहे श्रेष्ठी। अन्त० २०| गाथापतिः। अन्त० सुत्ता- सुप्तानीव सुप्तानि-बाल्यादअव्यक्तचेतनानि। । २०| नमस्कारात् श्रेष्ठिसुतः। भक्त० । राजगृहे ज्ञाता० ३८ गाथापतिः। निरया० ३७ सुत्ताणुगम- सूत्रानुगमः अनुगमे भेदः। आचा० ३। सुदंसणगिरि- सुदर्शनो गिरिः-मेरुः। दशवै० २७८१ सूत्रानुगमः -सूत्रव्याख्यानम्। अनुयो० २५८१ सुदंसणा- सुदर्शना-सुष्ठु दर्शनं अस्याः इति सुदर्शना। सुत्तानुगम-अस्खलितादिप्रकारं शुद्धं सूत्रमुच्चारणीयम्। स्था०६९। सुदर्शना-उत्तरकुरुषु जम्बूवृक्षः, पृथिवी दशवै० २० परिणामः-सुदर्शनेति तन्नाम। सम० १४। आधायाः सुत्तालावगनिप्फण-सूत्रालावकनिष्पन्नः, निक्षेपे भेदः। परावर्तितद्वारे निलयश्रेष्ठिपत्नी। पिण्ड० १००। दशवै०१५। सूत्रालापकनिष्पन्नः-निक्षेपे द्वितीयो भेदः। सुदर्शना-चन्द्रावतंसक-प्रथमराजपत्नी। आव० ३६६। आचा०३। सुदर्शना-श्रीमहावीरस्वामिनो भगिनी, अपर सुत्ति- शुक्तिः-चन्दनाद्याधारभूता। जम्बू. १०१। नामाऽनवद्याङ्गी। उत्त० १५३। सुदर्शना-अपर नाम सुत्तिमइ-नगरविशेषः। ज्ञाता०२०८। जम्बूवृक्षः। उत्त० ३५२। कालवालस्य चतुर्थाsसुत्तिया-कार्यभेदविशेषः। प्रज्ञा० ५६| ग्रमहिषी। स्था० २०४। अञ्जनपर्वते चतुर्था पुष्करिणी। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [121] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] स्था० २३०। पिशाचेन्द्रस्य चतुर्थाऽग्रमहिषी। स्था० २०४। | सुदित- जातिशुद्धो। निशी० २६८ आ। सुदर्शना सुष्ठ-शोभनं नयनमनसोरानन्दकत्वेन दर्शनं । सुदुक्कर-सुदुष्करः-सुदुःशकः। उत्त०४५७ यस्याः सा। जम्बू० ३३६। साहञ्जनीनगर्यां गणिका। | सुदेसिय- सुदेशितं-सुष्ठु सदेवमनुजासुरायां पर्षदि विपा०६५। शक्रेन्द्रस्य चतुर्थाऽग्रमहिष्या राजधानी। नानाविध-नयप्रमाणैरभिहितम्। प्रश्न.११३ स्था० २३१। कालपिशाचेन्द्रस्य चतुर्थ्याऽग्रमहिषी। भग० | सुद्द- शूद्रः। आव० २६२१ ५०४। अजित-नाथशीबिका। सम० १५१। सुदर्शना-शोभनं | सुद्ध-अप्पायच्छिती। निशी० ४१ आ। ऋणं न दाप्यते। दर्शनं-दृश्य-मानता यस्याः सा, जम्बाः सुदर्शनायाः बृह. २४५अ। बहुफलम्। निशी० १६५आ। शुद्धंप्रथमं नाम। जीवा० २९९। सुदर्शना। प्रश्न. १३६। अलेपकृतं शुद्धोदनं च। स्था० १४८। शुद्धं-शुद्धोदनो सुदर्शना-सुष्ठ-शोभनमति-शयेन वा दर्शनं व्यंजनरहितो भवति शुद्धम्। व्यव० ३५३ आ। यत् विचारणमनन्तरोक्तस्वरूपं चिन्तनम्। जम्बू. ३३६) अलेपकृतं काम्जिकेन पानीयेन वा सन्मिश्रीकृतं तत् सुदर्शना-सुप्रभबलदेवमाता। आव. १६२। सुदर्शना- शुद्धम्। व्यव० ३५३ आ। शुद्धः-शुद्धिमितिः-दोषर-हितः। पूर्वदिग्स्थिताञ्जनपर्वतस्य उत्तरस्यां दिशि पुष्क- उत्त० २९४। शुद्धं-भक्तदोषविवर्जितम्। सूर्य० २९३। शुद्धंरिणीविशेषः। जीवा० ३६४। सुदर्शना भक्तदोषवर्जितम्। भग० ३२६। शुद्धं केवलंदक्षिणपश्चिमरतिकर-पर्वतस्योत्तरस्यां शक्रदेवेन्द्रस्य अन्यपदासंसृष्टम्। दशवै० १२६) रोहिण्याग्रमहिष्या राजधानी। जीवा० ३६५। भ० सुद्धगंधारा- गंधारग्रामस्य चतुर्थी मुर्छना। स्था० ३९३। महावीरस्य ज्येष्ठा भगिनी। आचा० ४२२॥ धर्मकथायां शुद्धगान्धारा-गान्धारस्वरस्य चतुर्थी मुर्छना। जीवा० पञ्चमवर्गेऽध्ययनम्। ज्ञाता०२५२। सुदर्शना १९३ जम्बूसुदर्शना। जीवा० ३२६। सौगन्ध्यां नगर्यां श्रेष्ठीनी। | सुद्धगणी-शुद्धाग्निः अयपिण्डादौ। प्रज्ञा० २९। ज्ञाता० १०४। सुदर्शना-स्वामिदुहिता। आव० ३१२ सुद्धदंते-आगामिन्यां चतुर्थचक्रवर्ती। सम० १५४। शुद्धसुदक्खुजागरिया-सुडु दरिसणं सो सुदक्खू तस्स दन्तः-अनुत्तरोपपातिकदशानां दवितीयवर्गस्य जागरिया-प्रमादनिद्राव्यपोहेन जागरणं पञ्चममध्य-यनम्। अनुत्त०२। शुद्धदन्तःसुदक्खुजागरिया। भग० ५५ अन्तरद्वीपविशेषः। जीवा० १४४१ सुदत्त-सुदत्तः धर्मघोषस्थविरान्तेवासी अनगारः। शुद्धदन्तनामान्तरद्वीपः। प्रज्ञा० ५० विपा०९ शुद्धदंतदीव-अन्तरद्वीपविशेषः। स्था० २२६। सदर्शन-वासदेवस्य चक्रम। उत्त० ३५० चक्रविशेषः। | सुद्धपउम- कुसुमान्तरवियुतं पुण्डरीकं वा शुद्धपद्मम्। गा० प्रश्न.७७ चक्रनाम। सम० १५७) सुदाढ- सुदंष्ट्रः-नागकुमारराजः। आव० १९७। नागकुमार- | सुद्धपरिहार-जो सो वि सुच्चा पंचयामं अणत्तरं धम्म विशेषः। निशी० ७८ । परिहरइ -करोति। निशी० ८९आ। शुद्धपरिहारः-शुद्धस्य सुदाम-अतीतोत्सपिण्यां द्वितीयकुलकरः। सम० १५०| सतः परिहारसंचयमनुत्तरधर्मकरणं, यो विशुद्धः भरतेऽतीतायामुत्सर्पिण्यां द्वितीयकुलकरः। स्था० कल्पव्यव-हारक्रियते स शुद्धपरिहारः। व्यव० ४५ अ। ३९८१ सुद्धपरिहारिओ- शुद्धपरिहारिकः। जम्बू. १५० टि०| सदिवपरमत्थ-सष्ठ-यथावद्दर्शितया दृष्टा-उपलब्धाः- सुद्धपाण- अपाने चतुर्थो भेदः, दैवहस्तस्पर्शः। भग० ६८० परमार्थाः जीवादयो यैस्ते सदृष्टपरमार्थाः। | सुद्धपुढवी- शुद्धपृथिवी-पर्वतादिमध्ये या पृथिवी। जीवा. आचार्यादयाः। उत्त. १६६ १४०। शुद्धपृथिवी-अशस्त्रोपहता भूमिः। दशवै० २२८१ सुदिद्वपरमत्थसेवणा-सुष्ठ-सम्यग् रीत्या दृष्टाः शुद्धपृथिवी-नदीतटभीत्यादिरूपा। जीवा० २३। सत्थोपरमार्थाः-जीवादयो यैस्ते सदृष्टपरमार्थाः तेषां सेवता- वहता वि जाणवेत्थरि सा। दशवै. ११९| पर्युपास्तिः सुदृष्टपरमार्थसेवनम्। प्रज्ञा० ५६| | सुद्धप्पा- शुद्धात्मा। अन्त० २१। शुद्धात्मा-स्नानेन मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [122] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text]] शुचिकृ-तदेहः। औप० २३॥ नद्यादिगतं च। प्रज्ञा० २८ शुद्धोदकं-अन्तरिक्षसमुद्भवे सुद्धप्पावेसाइं- शुद्धात्मानी-वैश्याणि वेषोचितानि अथवा | नद्यादिगतं वा। जीवा. २७) शुद्धानि च तानि प्रवेश्यानि च राजादिसभाप्रवेशोचितानि | सुद्धोदग- शुद्धोदकं-अन्तरिक्षोदकम्। दशवै० १५३ शुद्धप्रवेश्यानि। भग० १३७ सुद्धोदण- शुद्धोदनः। आव० ८५६) सुद्धभूमि-शुद्धभूमिः लाढावज्रभूमिः। आव. २१२। | सुद्धोदणसुओ- शुद्धोदनसुतः। आव० ४१२। सुद्धवाए- शुद्धवातः मन्दस्तिमितो बस्तिदृत्यादिगतो वा। | सुद्धोदय-शुद्धोदकं-मेघमुक्तं समुद्रादिसम्बन्धि च जलम् जीवा० २९ | उत्त०६९१ सुद्धवाताणुओग- शुद्धा-अनपेक्षितवाक्यार्था या वाक्वचनं | सुद्धोयण- शाकादिवर्जितं कूरम्। भग० १६३। सूत्रमित्यर्थः तस्या अनुयोगो-विचारः शुद्धवागनुयोगः। | सुद्धोवहडे- शुद्धोपहतं-अल्पलेपाभिधानचतुर्थेषणाविषयस्था०४९५४ भूतम्। स्था० १४८५ सुद्धवाय-मंदस्तिमितः शीतकालादिष् शुद्धवातः। आचा० | सुद्धम्म-सुधर्मः अणगारविशेषः। विपा० ९५। सुधर्मः७४। स्थविरविशेषः। विपा. ९२२ सुखवाया- शुद्धवाताः-उत्कलिकायुक्तविशेषविकला सुधम्मसामी- सुधर्मास्वामी-काष्ठहारकदृष्टान्ते मन्दा-निलादयः। उत्त० ६९४| आचार्यः। दशवै० ९३। सुद्धवियड- शुद्धविकटं-प्रासुकमुदकम्। आचा० ३४६। सुधम्मा- सुधर्मा-विशष्टच्छन्दकोपेता विजयदेवस्य शुद्धविकटं-उष्णोदकम्। स्था० १४८१ सभा। जीवा० २२६। सुद्धसज्जा-सद्यग्रामस्य सप्तमी मूर्च्छना। स्था० ३९३। | सुधर्मसभा-सुधर्मविमाने सभा। प्रश्न. १३५१ सुद्धागणि- शुद्धाग्निः-निरिन्धन अग्निः। दशवै. १५४१ | सुधर्मस्वामी-पञ्चमगणधरः। आचा० ११| सुद्धागणी- शुद्धाग्निः-अयःपिण्डादौ योऽग्निः। जीवा० २९। पञ्चमगणधरः। स्था०७। जम्बूस्वामिनं प्रति शुद्धाग्नि-अयस्पिण्डायनुगतोऽग्निर्वियुदादिर्वा। गुरूपर्वक्रमलक्षणसम्बन्ध-स्योपदेष्टा। भग०६) जीवा० १०७ जम्बूस्वामिनं कथकः। आचा०२६। सुद्धागनि-शुद्धाग्निः-अयस्पिण्डान्तर्गतोऽग्निः। ज्ञाता० सुधर्मा- सौधर्मकल्पे सभा। ज्ञाता० १२७। १०४ सुधर्मास्वामी- अर्थतोऽनन्तरागमे पञ्चमगणधरः। सुद्धाणं-समत्ते वंदणे आयरिओ पणामं करोति एवं ज्ञाता०१॥ शुद्धाणं असत्तो गिलाणो शुद्धमेव केवलं पणमति। सुनंद-सुनन्दः-वासुपूज्यजिनप्रथमभिक्षादाता। आव. निशी. २३८ आ। १४७। सुनन्दः-हस्तिनापुराधिपतिः। विपा० ४८। अष्टमसुद्धाभिसित्त-जातिसुद्धोपि दिनादिएण अभिसित्तो तीर्थकृत् पूर्वभवनाम। सम० १५३| सुनन्दो चम्पायां सुद्धाभि-सित्तो। निशी० २६८ आ। श्रावकः। उत्त० १२३ सुद्धसणा- शु?षणा-दशैषणादोषरहित आहारादिः। आचा० सुनंदा-धनपालेभ्यस्य दुहिता। आव० २८९। सुनंदी- सत्समृद्धिकः। ज्ञाता० ५८ सुद्धेसगिए- शु?षणा-शङ्कितादिदोषपरिहारतः सुनक्खत्त- गोशालकशतके अनगारः। भग० ६७८१ पिण्डग्रहस्त-द्वांश्च शुद्धैषणिकः। भग० ९२१। सुनक्षत्र- वीरदेवकुशिष्यमुक्ततेजोलेश्यादग्धमुनिः। सद्धसणित-शद्वैषणिकः-शद्धा-अनतिचारा जम्बू० २२४॥ एषणाशकिता-दिदोषवर्जनरूपा तया चरति। स्था० सुनाभ- पद्मनाभपुत्रः, युवराजश्च। ज्ञाता० २१४। २९८१ सुनिउण- सुनिपुणः सुसूक्ष्मः वा सुष्ठुनिश्चितगुणः। सुद्धोदए- शुद्धोदकं-तडागसमुद्रनदीह्रदावटादिगतमवश्या- | सम० ११५। दिरहितं जलम्। आचा० ४०। शुद्धोदकं अन्तरिक्षसमुद्धवं | सुनिच्छिय- सुनिश्चितः-ज्ञानदर्शनचारित्राणां यावज्जीवं २४३॥ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [123] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] मया विराधना न कर्तव्येत्येवं सुष्ठ निश्चितवान् यः स | ते सुप्रश्नाः। शोभना आशाः-वाञ्छा येषां ते स्वशाः सुनिश्चितः। बृह. १३४ अ। सुखेन प्रश्न्यन्ते शास्यन्ते च शिक्ष्यन्ते ये ते सुनिम्मय-सुनिर्मित-सुष्ठ अधोमुखीकृतम्। भग० ५४१| सुप्रश्नशास्याः शोभनानि वा प्रश्नशस्यानिसुनिसीअं-सुनिशीतं-उज्वालितम्। दशवै० २६५) पृच्छाधान्यानि येषां ते तथ। सुप्रश्नाः शस्याश्चसुन्दरी-मूलद्वारविवरणे धनश्रेष्ठित्री। पिण्ड. १४४। प्रशंसनीयाः। औप०४८१ उत्त० ६३१। सुन्दराकारा। जीवा० २७४। नन्दपत्नी। सुपतिट्ठ-सावस्त्यां गाथापतिः। निर०२३। सुप्रतिष्ठः नन्दी. १६७। सुन्दरी-आधायाः परावर्तितद्वारे पर्वतविशेषः। आव० ८२७। तिलकश्रेष्ठिपत्नी। पिण्ड० १०० सुपतिहग-सुप्रतिष्ठकः। आधारविशेषः। जीवा० २१३। सुन्दरीनन्दः- द्वेषे दृष्टान्तः। उत्त० ६३१॥ सुपतिट्ठाभ-सुप्रतिष्ठाभ अष्टमं लोकान्तिकविमानम्। सुन्न- शून्यः कर्त्तव्यमूढः। प्रश्न० ६३। भग० २७१। सुन्नकाल- शून्यकालः सुपतिद्वित-सुतिष्ठितं स्थिरम्। ओघ० २१११ नारकभवानुगतसंसारावस्थानका-लस्यऽप्रथमो भेदः। सुपन्नत्ता-सुष्द प्रज्ञप्ता यथैवाख्याता तथैव सृष्ठभग०७ सूक्ष्मपरि-हाराभवनेन प्रकर्षण सम्यगासेविता। दशवै. सुन्नघर- शून्यगृहम्। ज्ञाता० ७९। १३७ सुन्नागार- शून्यागारं-उद्वसितगृहम्। उत्त०६६५। सुपम्ह-नवसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० १५ सुपइट्ठ-सुप्रतिष्ठं महासेनराजधानी। विपा० ८२ स्था० ८०| सुपक्ष्मो विजयः। जम्बू० ३५७) अन्तकृद्द-शानां षष्ठमवर्गस्य त्रयोदशममध्ययनम्। सुपरक्कंत-सुपराक्रान्तजनितं कर्म अन्त० १८शास्त्रीयद्वितीयमासनाम। सूर्य. १५३। सकलसत्यमैत्रीसत्यभाजीवा० २३४। षणपरद्रव्यानपहारसुशीलादिरूपसुपराक्रमजनितम्। सुपइट्ठग-सुप्रतिष्ठकं-स्थापनकं तच्चेहारोपितवारकादि। जम्बू. १०६। भग० ५२४। सुप्रतिष्ठकं-शरयन्त्रकं तच्चेह सुपरिक्कंत-सुपराक्रान्तं सुपराक्रान्तजनितं कर्मैव। उपस्थापितक-लशादिकं ग्राह्यम्। भग० २८८ जीवा० २०११ सुप्रतिष्ठकः। जम्बू०४१० प्रतिष्ठकं-स्थापनकम्। सुपावय-सुपापकम्। उत्त. ३६१| जम्बू० ११६। सुप्रति-ष्ठकः-पुष्पपात्रविशेषः। जम्बू० सुपास- ऐरवते भावितीर्थकृत्। सम० १५४। ऐरवते १०१। सुप्रतिष्ठकः-आधारविशेषः। जम्बू. १५८१ उत्सर्पि-ण्यां तीर्थकृत्। सम० १५४। भरते आगामिन्यां सुप्रतिष्ठकः। जम्बू० ८२। तृतीयतीर्थ-कृत्। सम० १५३। भरतेऽतीतायामुत्सर्पिण्यां सुपइहपुर-सुप्रतिष्ठपुरं-नगरविशेषः। विपा० ४४॥ तृतीयकुल-करः। सम० १५०| शोभनानि पाश्र्वान्यस्येति सुपइट्ठय- सुप्रतिष्ठकं-स्थापनकम्। प्रश्न० ८४। सुपार्श्वः सप्त-मजिनः, यस्मिन् गर्भगते सुपइट्ठाभ-अष्टसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० जनन्यास्तीर्थकरानुभावेन शोभनौ पाश्र्वौं जाताविति १४१ सुपार्श्वः। आव० ५०३। भरते अतीतायामु-त्सर्पिण्यां सुपइहाभ-सप्तमलोकान्तिकविमानम्। स्था० ४३२। तृतीयकुलकरः। स्था० २९८ भ० महावीरस्य पितृव्यः। सुपइडिअ-सुप्रतिष्ठितः-सत्प्रतिष्ठावान्। जम्बू. १०९। आचा०४२२ सुपइडिय-सष्ठ मनोज्ञतया प्रतिष्ठितः सुप्रतिष्ठितः। सुपासा-सुपााः पार्श्वनाथशिष्यप्रशिष्याः। स्था०४५७। जीवा० २०६। सुप्रतिष्ठावान्। प्रश्न० ८० सुपीए- सुपीतः पञ्चममुहूर्त्तनाम। सूर्य. १४६। सुपक्कखोतरसे-सुपक्वेक्षुरसमूलदलनिष्पन्नः | सुपंख-द्वादशसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० सुपक्वेक्षुरसः। ३६४। રા. सुपण्हपास- शोभनाः-प्रश्नाः येषां सुखेन वा प्रश्न्यन्ते ये | सुपुंड- द्वादशसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [124] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] રરા आव. १६२ सपुप्फ-विंशतिसागरोपमस्थितिकं देवविमानम। सम. | सुप्पमाण-सुप्रमाणः-उचितप्रमाणः। औप० १० ३८ सुप्पसिद्धा- चतुर्थतीर्थकृत्शीबिका। सम० १५३। सुपुष्पा– वापीनाम। जम्बू० ३७१। सुपतिष्ठकं-भाजनविधिविशेषः। जीवा. २६६। सुपेसल-स्पेशलं नाम शोभनं प्रीतिकरं वा इति वृद्धाः सुफणि-सुष्ठ सुखेन फण्यते-क्वाथ्यते तक्रादिकं यत्र ततश्च-सुपेशलं शोभनं प्रीतिकरं वा। उत्त० ३६१। तत्सफणि स्थालीपिठरादिभाजनम्। सूत्र० ११७ सुप्प-गयकण्णाकारं। निशी० ६० आ। सूर्पम्। प्रश्न० ८। | सुबंधु-सुबन्धुः श्रीदामराजस्यामात्यः। विपा.७० सूर्पः। आचा०७५ सुबन्धुः। उत्त० ३०६ सुप्पइण्णा-सूप्रतिज्ञा, दक्षिणरुचकवास्तव्या द्वितीया | सुबंधुसचिव-भोगान्तरायविशेषे दृष्टान्तः। प्रज्ञा० ४६५। दिक्कु-मारीमहत्तरिका। जम्बू० ३६१। सुबन्ध-प्रागामिन्यां सप्तमकुलकरः। सम० १५३। सुप्पकत्तर- शूर्पकतरं शूर्पखण्डम्। उपा० २१॥ द्वितीयब-लदेवपूर्वभवनाम। सम० १५३। भरते सुप्पकोण- शूर्पकोणम्। आव० २२४१ आगामिन्यामुत्सर्पि-ण्यां सप्तमकुलकरः। स्था० ३९८१ सुप्पणहं- शूर्पमिवधान्यशोधक भाजनविशेषवत् नखा | सुबंभ- एकादशसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० यस्य स शूर्पणखः। ज्ञाता० १३३। १९| सुप्पणिहिइंदिए- सुपणिहितेन्द्रियः सुबंभचेर- सुब्रह्मचर्य-संयमः। सूत्र. २४२। श्रोत्रादिभिर्गाढमुपयुक्तः। दशवै० १९०। सुबाह-रुक्मिधारिण्योर्दारिका। ज्ञाता०१४०। सुबाहःसुप्पणिहिय-सुप्रणिहितं-सुणिधानवत् सुरक्षितम्। प्रश्न. वज्रानिधारिण्योः पुत्रः। आव० ११७। ११२ सुबाहुकुमार-सुबाहुकुमारः। विपा० ९०| सुप्पदिण्णा-सुप्रदत्ता-दक्षिणरुचकवास्तव्या सुबाहू-सुबाहूः-विपाकदशानां द्वितीयश्रुतस्कन्धे दिक्कुमारी। आव० १२२॥ प्रथममध्य-यनम्। विपा० ८९। सुप्पबद्ध-अष्टमग्रैवेयकविमानप्रस्तटः। स्था० ४५३। सुबीए- सुपीतः। जम्बू०४९१ सुप्पबुद्धा- सुष्ठ-अतिशयेन प्रबुद्धा-उत्फुल्ला सा सुप्रबुद्धा। | सुबुद्धि- सगरचक्रे महामात्यः। नन्दी० २४२। सुबुद्धि जम्बू० ३३६। सुप्रबुद्धा सुष्ठ-अतिशयेन प्रबुद्धे व प्रबुद्धाः मंत्ति। निशी० ११९ । मणिकनकरत्नानि निरन्तरं सर्वतश्चाकचिक्येन | सुबुद्धी- सुबुद्धिः मन्त्रीविशेषः। ओघ० १०। सुबुद्धिः-महासर्वकाल-मुन्निन्द्राः, जम्ब्वा सुदर्शनायास्तृतीयं नाम। बलराज्ञोऽमात्यः। आव० ११६। सुबुद्धिः-गजपुरे जीवा० २९९। सुप्रबुद्धा, दक्षिणरुचकवास्तव्या तृतीया नगरश्रेष्ठी। आव० १४५। सुबुद्धिःदिक्कुमारिका मह-त्तरिका। जम्बू. ३९१। सुप्रबुद्धा- विजयबलदेवपूर्वभवनाम। आव० १६३॥ दक्षिणरुचकवास्तव्या दिक्कुमारी। आव० १२२॥ प्रतिबुद्धिनामराजस्य मन्त्री। ज्ञाता० १३०| चम्पायां सुप्पभ- सुप्रभः चतुर्थबलदेवविशेषः। आव० १५९। आगा- जितशत्रोरमात्यः। ज्ञाता० १७३। सचिवविशेषः। निशी. मिन्यां तृतीयकुलकरः। सम० १५३। भरते ३५१ आ। आगामिन्यामु-त्सर्पिण्यां तृतीयकुलकरः। स्था० ३९८१ सुब्भ- रूप्यविशेषः। राज०२८। रूप्यविशेषः। जम्ब० सुप्रभः क्षोदवर-द्वीपे पूर्वार्धाधिपतिर्देवः। जीवा० ३५५ २९११ पद्मप्रभजिनः षष्ठ-जिनः। नन्दी०४७ सम० १५४| सुब्भिदुब्भि- शुभाशुभः। प्रश्न० १६०| सुप्पभा- चतुर्थबलदेवमाता। सम० १५२ सुब्भिसद्द- शुभशब्दः। ज्ञाता० १७४। शुभशब्दः। प्रज्ञा० दवितीयतीर्थकृत्-शीबिका। सम० १५१| कालवालस्य ર૮°. तृतीयाऽग्रमहिषी। स्था० २०४। भूतानंदस्य | सुब्भिसद्दपरिणाम- शुभशब्दपरिणामः। जीवा० ३७३। षष्ठ्यग्रमहिषी। भग० ५०४। सुप्रभा-भद्रबलदेवमाता। | सुब्भिसद्दि- शुभशब्दो मनोज्ञाः। स्था० २५५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [125] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सुब्भी-जं भोयणं वण्णगंधरसफासेहिं सुभेहिं उववेतं तं द्वितीयबल-देवमाता। सम० १५२। प्रथमचक्रिणो सुब्भि। निशी. १५० आ। हस्त्रीरत्नम्। सम० १५२कालवालस्य सुभ-सुभवडेंसगे सींहासनम्। ज्ञाता० २५१। शुभं-निर- द्वितीयाऽग्रमहिषी। स्था० २०४। शुभद्रा-इहलोके पायम्। पिण्ड० २११ शुभं-मङ्गलभूतम्। जीवा० १८८५ कायोत्सर्गफलदृष्टान्ते जिनदत्तश्रेष्ठिस्ता। आव. शुभफलम्। जीवा० २०१। शुभं-सामायिकस्य ७९९। प्रतिमाविशेषः, तपविशेषः। औप. ३१| षष्ठपर्यायः। आव० ४७४। सुभगः-सौभाग्ययुक्तः। सूर्य अन्तकृद्दशानां सप्तमवर्गस्य दशममध्ययनम्। अन्त० २९२। शुभं-पुण्यम्। आव० ५९२। शुभं-अर्थावहम्। भग० २५। शुभद्रा-वणिग्ग्रामे विजयमित्रसार्थवाहभार्या । १६३। जलरुहविशेषः। प्रज्ञा० ३३ विपा० ४६। सुभद्रा-बलराज्ञी। विपा० ९५। सुभद्रादवीसागरोपमस्थितिकं देववि-मानम्। सम० ८1 विजयबलदेवमाता। आव० १६२। सुभद्रा-भद्रस्य नमिनाथस्य प्रथमशिष्यः। सम० १५२ भारिया। निर०२९। सुभद्रासुभकंत-द्वीसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम०८1 योगसंग्रहेऽनिश्रितोपधानविषये उज्जयिन्यां सुभगंध-दवीसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम०८1 श्रेष्ठिभार्या। आव०६७०| सुभद्रासुभग-सुभगम्। प्रज्ञा० ३७। पद्मविशेषः। राज०८। यद्द- भद्राप्रतिमासमाप्रतिमा। स्था०६५। शुभद्रायवशादनुपकृदपि सर्वस्य मनःप्रियो भवति भद्राप्रतिमासमाप्रतिमा, द्वितीया प्रतिमा। स्था० १९५१ तत्सुभगनाम। प्रज्ञा० ४७४। सभगं-पद्मविशेषः। जीवा० सुभद्रा। उत्त० ३५४| पञ्चप्रतिमायां द्वितीया। स्था० १७७ज्ञाता०९६| २९२। सुभद्रा-इहलोके कायोत्सर्गफलमितिदृष्टान्ते सुभगा-वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३ त्रीन्द्रियविशेषः। प्रज्ञा. कायो-त्सर्गकारिणीजिनदत्तश्रेष्ठिस्ता परमश्राविका। ४२। भूतेन्द्रस्य चतुर्थाऽग्रमहिषी। स्था० २०४। सुरूपभूते- आव०७९९। सुभद्रा-प्रियचन्दराज्ञी। विपा. ९५ न्द्रस्य चतुर्थाऽग्रमहिषी। भग० ५०४। सुभगं-पद्मविशेषः। जिनदत्तसुश्रावकस्य पुत्री सुभद्रा। दशवै०४७। जम्ब्वाःजम्बू. २६। धर्मकथायां पञ्चमवर्गेऽध्ययनम्। ज्ञाता० सुदर्शनायाः पञ्चमं नाम। जीवा. २९९। सुभद्रा२५२ सत्योदाहरणे शौर्यरे धनञ्जयश्रे-ष्ठिभार्या। आव. सुभगाकर- दुर्भगमपि सुभगमाकरोतीति विद्याविशेषः। ७०५ वैरोचनेन्द्रस्य दवितीयाऽग्रमहिषी। स्था० २०४। सूत्र० ३१९। अन्तकृद्दशानां सप्तमवर्गस्य दशममध्ययनम्। अन्त० सुभजोग- शुभयोगः-उपयुक्ततया प्रत्युपेक्षादिकरणम्। २५ भग० ३२ सुभद्दाव-मण्डयेत्। गणि। सुभणाम- शुभनाम-यदुदयाद्नाभेरुपरितना अवयवाः सुभद्र- यक्षभेदविशेषः। प्रज्ञा०७० शुभा जायन्ते तत्शुभनाम। प्रज्ञा० ४७४। सुभद्रा-वापीविशेषः। जम्बू० ३७०| कृष्णवासुदेवभागिनी सुभद्द- द्वितीयवासुदेवधर्माचार्यः। सम० १५३| सुभद्रः- अर्जुनपत्नी। प्रश्न० ८९। भरतचक्र स्त्रीरत्नम्। जम्बू. सहजनीनगर्यां सार्थवाहः। विपा०६५ २५२, २७२। अनुशिष्ट्यामुदाहरणम्। व्यव० ११७ अ। द्वितीयौवेयकप्रत-स्तटः। स्था०४५३। अरुणोदे सम्द्रे | सुभफास-विसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० ८। देवविशेषः। जीवा० ३६७। षोडशमसागरोपमस्थितिकं । सुभर-कुव्वासहेत्यर्थः। निशी. ३३२आ। देवविमानम्। सम० ३२। शुभद्रः सुभलेस-विसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम०८1 द्विपृष्ठवासुदेवधर्माचार्यः। आव० १६३। निर-यावल्यां सुभवण्ण-विसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम. द्वितीयवर्गे चतुर्थममध्ययनम्। निरया० १९। अचलपुरीयः कौटुम्बिकः। मरणः | सभा– रमणिज्झविजये राजधानी। जम्बू. ३५२। शुभासुभद्दा-वतिरोयणेन्द्रस्य दवितीयाऽग्रमहिषी। भग. वैरोचनेन्द्रस्य प्रथमाऽग्रमहिषी। भग. ५०३। शुभा-| ५०४। नागवित्रस्य द्वितीयाऽग्रमहिषी। भग० ५०४ स्था० ८०| शुभफला। जम्बू०४६। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [126] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सुभासियं- शोभनव्यक्तवाग्रूपं सुभाषितं शुभाश्रितं यस्याऽसौ। जीवा० २४३। सुमनः-शोभनमनः। उत्त. सुखाश्रितं सुधाश्रितम्। प्रश्न० ११४। ३८५। सुमनः रुचक-समुद्रे पूर्वार्धाधिपतिर्देवः। जीवा. सुभासुभ-शुभाशुभं दुर्भिक्षादि। ओघ० १३५१ ३६८1 सुमनसः-पुष्पाणि। ओघ०७५) सुभिक्ख- सुभिक्ष-सुकालः-भिक्षुकाणां भिक्षासमृद्धिः। सुमणभद्द-सुमनोभद्रः-अन्तकृद्दशानां षष्ठमवर्गस्य भग० १९९। द्वादशम-मध्ययनम्। अन्त०१८ चम्पायां मशकहतः। सुभूम-चक्रवर्तीः। भग०७५३| अष्टमचक्रवर्ती। सम. मरण| सुमनोभद्रः-वैश्रमणस्य पुत्रस्थानीयो देवः। १५२। आगामिन्यां दवितीयकलकरः। सम. १५३। भग० २००१ सुमनोभद्रः। अन्त० २३। मानिक्ष-त्रियः। सूत्र० १७३। कार्तवीयसुतः त्रिः सुमणस-वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३२सुमनसःसप्तकृत्त्वो ब्रह्मणा व्यापादिताः। सूत्र० १७०| सुभौमः- नन्दीश्वरोदे समुद्रे देवविशेषः। जीवा. ३६५ अष्टमचक्रवर्ती। आव० १५९। सभूमः-कार्तवीर्यपत्न्याः सुमणा-सप्तमतीर्थकृतस्यप्रथमा शिष्या। सम० १५२ सभ्रमेण सुखेन पलितः। आव० ३९२। सुभूमः- सुमना -नागमित्रस्य चतुर्थाऽग्रमहिषी। भग० ५०४। अष्टमचक्रवर्ती। जीवा० १२११ सुमनाः-शोभनं यस्याः सकाशाद् भवति सा सुमनाः। सुभूमिभाए-चम्पायामुद्यानम्। ज्ञाता०९१। जम्बू. ३३६। सुमनाः-दक्षिणपूर्वरतिकरपर्वतस्य पूर्वस्यां सुभूमिभाग-उद्यानम्। ज्ञाता० १९६| शक्रदेवेन्द्रस्य पद्मनामिकाया अग्रमहिष्याः राजधानी। पृष्ठचम्पायामुद्यानवि-शेषः। उत्त. ३२३। जीवा० ३६५। शोभनं मनो यस्याः सकाशाद् भवति सा उद्यानविशेषः। ज्ञाता०२०४१ सुमना। जम्ब्वाः सुदर्शनायाः अष्टमं नाम। जीवा० २९९। सुभोगा- तृतीया दिक्कुमारी। जम्बू० ३८३। सुभोगा- सुमनाः कालवाले-न्द्रस्य चतुर्थाऽग्रमहिषी। स्था० २०४। अधोलोकवास्तव्या दिक्कुमारी। आव० १२१। सुमनसः- मनः कालुष्याभावात् सौमनसः। जम्बू०३५४| सुभोम- ग्रामविशेषः। आव. २१८ भरते सुमणातिया-अन्तकृद्दशानां सप्तमवर्गस्य आगामिन्यामुत्स-पिण्यां द्वितीयकुलकरः। स्था० ३९८१ | द्वादशममध्ययनम्। अन्त०२५ सुमंगल-विमलवाहनराज्ञो नोदितोमुनिः। भग० ६८९।। | सुमणुभद्द-सुमनोभद्रः-चम्पायां जितशत्रोः पुत्रः युवराजःऐरवते आगामिन्यां प्रथमतीर्थकृत्। सम. १५४ धर्मघोषशिष्यः। उत्त० ९२। सुमनोभद्रः-अरुणोदे समुद्रे सुमङ्गलः-शिक्षा-योगदृष्टान्ते जितशत्रुाजपत्रः। आव० | देवविशेषः। जीवा० ३६७ ६७८समङ्गलः-ग्रामविशेषः। आव. २२५१ समतिस्वामी- गर्भस्थे तज्जनन्या व्यवहारकारकः सुमंगला-भरतमाता। आव० १६१। प्रथमचक्रवर्तेर्माता। | तीर्थंकरः। नन्दी० १५८१ सम० १५२ सुमत्तओ-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा० । सुमई- सुमतिः-प्रथमकुलकरः। जम्बू. १३२। शोभना सुमना-वापीनाम। जम्बू. ३७०। मतिरस्येति सुमतिः-पञ्चमजिनः, यस्मिन् गर्भगते सुमनोभद्रा- यक्षभेदविशेषः। प्रज्ञा० ७०| जननी सर्वत्र विनिश्चयेषु अतीव मतिसंपन्ना जाताऽतः । | सुमरणीया-स्मतव्या। चतु०। सुमतिः। आव० ५०२। सुमतिः-धृतिमतिविषये मुख्या समरुत-अन्तकृद्दशानां सप्तमवर्गस्य षष्ठममध्ययनम् पाण्डववंशे कनिष्ठा पाण्डुसेणराजपुत्री। आव० ७०८५ । अन्त० २५ ऐरवते आगामि-न्यां दशमकुलकरः। सम० १५३। सुमहंदोस-सुमहान् दोषः। ओघ० २२११ समण- समनः-नन्दीश्वरोदे समद्रे देवविशेषः। जीवा. सुमह-सुमहान्-अतिशयगुरुरत्युच्चः। उत्त० ३५२। ३६५ स्वप्ना-निद्राविकृतविज्ञानप्रतिभातार्थविशेषः। सुमहु- वनस्पतिकायविशेषः। भग० ८०४। स्था० ५०२। शोभनं-धर्मध्यानादिप्रवृत्तिं वृत्तं सुमागह-समागधः-राष्ट्रकविशेषः। आव० २१९। मनोऽस्येति सुमनः। आव० ३६५। इशानेन्द्रलोकपालस्य | सुमिणतय-स्वप्नान्तः। आव० ७०२। सोमस्य विमानम्। भग. २०३१ समनः-शोभनं मनो समिणतियं-स्वप्नान्तिकं स्वप्नप्रत्ययं कर्म। सूर्य. १२ मनि दीपरत्नसागरजी रचित [127] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सुमणि-स्वप्नः-निन्द्रावशविकल्पज्ञानः। सम० १७ स्वप्नं -स्वप्नफलाविर्भावकम्। सम०४९। स्वप्नंस्वप्नफलम-पचारात् स्वप्नम्। सम० १८स्वप्नःनिद्राविक्रमः। प्रश्न. १०९। सुमिणगदंसणोवम-स्वप्नदर्शनोपमः। उत्त. ३२९। सुमित्त-द्वितीयचक्रवर्तिपिता। सम० १५२। सुमित्रःशान्ति-जिनप्रथमभिक्षादाता। आव० १४७। मल्लिनाथसहप्रव्रजकः तृतीयो राजकुमारः। ज्ञाता० १५०| शान्तिनाथजिनप्रथम-भिक्षादाता। सम०१५१ पञ्चमजिनपूर्वभवनाम। सम० १५१। सुमित्तविजए- सुमित्रविजयः-सगरचक्रीपिता। आव० १६३ सुमित्तु-सुमित्रः-मुनिसुव्रतपिता। आव० १६१। सुमुख-अभिष्टवक्ता पुरुषः। स्था० ४३। सुमुह- यादवविशेषः। ज्ञाता०२१३। अन्तकृद्दशानां तृतीय-वर्गस्य नवममध्ययनम्। अन्त०३ अन्तकृद्दशायामणगारः। अन्त०१४। सुमुखः यदोरपत्त्यः । प्रश्न०७३। सुमुखः-हस्तिनागपुरे गाथापतिः। विपा० ९११ सुमेघा-उर्ध्वलोकवास्तव्या दिक्कुमारी। आव० १२२ सुमेहा- सुमेघा तृतीया दिक्कुमारीमहत्तरिका। जम्बू. ૨૮૮૫. सुयंगा- श्रुतं-श्रुतज्ञानं अङ्ग-कारणं यस्याः सा श्रुताङ्गाः, अहिंसाया नवमं नाम। प्रश्न. ९९। सुय-श्रुतं-विशिष्टमत्यंशरूपः। स्था० ३४८ श्रुतं-दवादशा ङ्गम्। स्था० ५२। श्रूयते तदिति श्रुतं-शब्द एव स च । भाव-श्रुत कारणम्। स्था० ४६। श्रुतं-ग्रंथः। स्था० ४४५। श्रूयत इति श्रुतं शब्द एव, भावश्रुतकारणत्वात्, श्रूयतेऽनेनेति श्रुतं, तदावरणक्षयोपशमः, श्रूयतेऽस्मादिति श्रुतं, तदावरण-क्षयोपशमः, श्रूयतेऽस्मिन्निति वा क्षयोपशमः, शृणोतीति वाऽऽत्मैव तदुपयोगानन्यत्वात्। आव०७ श्रुतं-दवितीया परिज्ञा। व्यव० ३९१ अ। श्रवणं-श्रुतं अभिलाषप्लावितार्थग्रहणस्वरूप उपलब्धिविशेषः। अनुयो० २। शुकः-कीरः। प्रश्न०८ श्रुतंप्रतिविशिष्टार्थप्रतिपादनफलं वाग्योगमात्रं, भगवता निसृष्टमात्मीयश्रवणकोटरप्रविष्टं क्षायोपशमिकभावपरिणामाविर्भावकारणं श्रुतम्। दशवै. १३६। श्रूयत इति श्रुतं-शब्द एव, भावश्रुतकारत्वात्, कारणे कार्योपचाराद, श्रूयते वा अनेनास्मदस्मिन्वेति श्रुतं, तदावरणकर्मक्षयोपशमः, आत्मैव वा श्रुतोपयोगपरिणामा-नन्यत्त्वात् शृणोतीति श्रुतम्। स्था० ३४७। सूत्र्यन्ते सूच्यन्ते वाऽथां अनेनेति सूत्रम्। स्था० ५२ श्रुतं-द्वादशाङ्गीरूपम-हत्प्रवचनम्। भग०६। स्मृतं-प्रतिपादितं अनुचिन्तितं वा। भग०६५। स्मृतंअनुध्यातम्। भग० १००| स्मृतमिव स्मृतं स्पष्टप्रतिभासभावात्। भग० ३१६। श्रुतं-आकर्णितम्। भग० १००| श्रुतं-वाच्यवाचकभावपुरस्सरीकारेण शब्दसंस्पृष्टार्थग्रहणहेतुरूपलब्धिविशेषः, एवमाकारं वस्तु घटशब्द-वाच्यं जलधारणाद्यर्थक्रियासमर्थमित्यादिरूपतया प्रधानीकृतः समानपरिणामः, शब्दार्थपर्यालोचनानुसारी इन्द्रियम-नोनिमित्तोऽवगमविशेष इत्यर्थः। प्रज्ञा. ५२६। श्रुतं-आक-र्णितं, अवधारितम्। उत्त० ८०| श्रुतंसामायिकादिबिन्दु-सारान्तं शास्त्रम्। आव०६०४। श्रुतंकषायोपशमहेतुः श्रुतान्तर्गतोपदेशः। उत्त० ५०६। श्रूयते तदिति श्रुतं-शब्द-मात्रम्। उत्त० ५५६। श्रुतं-आकर्णितंअवगतं अवधारितम्। आचा० १११ श्रुतं-आकर्णितम्। उत्त० २८४। सूत्र्यन्ते सूच्यन्ते वाऽर्था अनेनेति सूत्रम्। स्था० ५२॥ सुयकरणं- श्रुतकरणं व्याकरणादिपरिज्ञानरूपोऽवस्थाविशेषोऽपरकलापरिज्ञानरूपश्च, उत्तरकरणे दवितीयः। सूत्र ५ सुयकेवली- श्रुतकेवली, सुयकेवली-पण्णवणं पडुच्च केवलीवद्भवति कथमुच्यते चउव्विहे जाणणे य गहणे य तुल्ले रागदोसे अणंतकायस्स वज्जणया एकाणि दाराणि अण्णे य पयत्थे जहा केवली पण्णवेइ तहा सअधरोऽवि। निशी. १३९ अ। सुयक्खंध- श्रुतस्कन्धः-अध्ययनसमुदायलक्षणः। सम० १०८1 सुयक्खायधम्म-सष्ठ दाख्यातो धर्मोऽस्येति स्याख्यातधर्मा, संसारभीरुत्वादयथारोपितभारवाहीत्यर्थः। आचा० २४४। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [128] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सुयहाण- श्रुतस्थानं-आचार्योऽहमित्यादिकम्। पिण्ड. ३५१ ९७१ श्रुतस्थान-गण्यादिः। पिण्ड. ९८१ सुरक्ता-वापीनाम। जम्बू० ३७११ सुयधम्म- श्रुतधर्मः-श्रुतस्वभावः, बोधस्वभावत्वात् सुरगणनरिंदमहिय-सुरगणनरेन्द्रमहितःश्रुतबो-धश्च। आव० ८७ श्रुतधर्मः-चारित्रधर्मः, श्रुतं- देवसमूहनृपपूजितः। आव० ७८८।। द्वादशाङ्गं तस्य धर्मः श्रुतधर्मः। दशवै० २३। श्रुतमेव- । | सुरगोव-सुरगोपः-इन्द्रगोपाभिधानो रक्तवर्णः कीटः। आचारादिकं दुर्गतिप्रपत्तज्जीवधारणात्। धर्मः- ज्ञाता० १६० श्रुतधर्मः। स्था० ५१५२ श्रुतमेव धर्मः श्रुतधर्मः- सुरङ्गः- भूमिगृहम्। उत्त० ३७८ नन्दी. १६७| स्वाध्यायः। स्था० १५४ सुरह-सुराष्ट्रजनपदः। ज्ञाता० २०| निशी. ३०४ आ। सुयनिस्सिए- श्रुतं-कर्मतापानं निश्रितं-आश्रितम्, श्रुतं । सुरत-मैथुनम्। ओघ० १०७।। वा निश्रितमनेनेति श्रुतनिश्रितम्, यत्पूर्वमेव सुरतानुबन्धि- मनःपरिचारणं-सुरतानुबन्धिः परस्परं श्रुतकृतोपकारास्ये-दानीं पुनस्तदनपेक्षमेवानुप्रवर्तते सभ्या-सभ्यमनःसङ्कल्पकरणरूपम्। प्रज्ञा० ५५२। तदवग्रहादिलक्षणं श्रुतनि-श्रितम्। स्था० ५१। सुरत्तकणवीर- सुरक्तकणवीरं कुसुमविशेषः। प्रश्न० ५९। सुयपय- श्रुतपदाभिधेयं-आचारादिशास्त्रम्। अनुयो० ३२१ सुरदत्त-उत्कृष्टमालापहृते गृहपतिः। प्रश्न. १०९| सुयपिच्छ- शुकपिच्छं शुकस्य पतत्रम्। प्रज्ञा० ३६०| सुरप्पिए- यक्षायतनम्। ज्ञाता०९९०। सुरप्रियःसुयपेट- त्रीन्द्रियविशेषः। प्रज्ञा० ४२। यक्षायतन-विशेषः। अन्त० । सुरप्रियनामयक्षायतनम् सुयबेंट-त्रीन्द्रियजन्विशेषः। जीवा० ३२१ |आव०६२ सुयभत्ती- श्रुतभक्तिः -श्रुतबहुमानः, सुरप्पिय-नन्दनवनोद्याने यक्षः। निर० ३९। विपक्षितकर्मबन्धकारणम्, एकोनविंशतितमस्थानकम् सुरभि-सुरभिः-शतयुः। बृह. १४३ आ। | आव० ११९| श्रुतभक्तियुक्तता-प्रवचनप्रभावना सुरभिउवल-सुरभ्युपलः-गन्धपाषाणः। पिण्ड० ९। श्रुतभक्तिः -प्रवचनप्रभावना तया च निर्वति-तवान सुरभिगंधनाम- यदुदयाज्जन्तुशरीरेषु सुरभिगन्ध श्रुतबमानेन। ज्ञाता० १२२॥ उपजायते तत्सुरभिगन्धनाम। प्रज्ञा० ४७३। सुयभावभासा- श्रुतभावभाषा, भाषाभेदः। दशवै० २०८। | सुरभिगंधकासाइया-सुरभिगन्धकषायद्रव्यपरिकर्मिता सुयमुहगुज्झदरागसरिस- शकमखस्य गुजार्धस्य च लघु-शारिका सुरभिगन्धकाषायिकी। जीवा० २५३। रागेण-सदृशो रागः। ज्ञाता० २३१| सुरभिदाण- सुरभिदानं-सुगन्धिमद्जलम्। ज्ञाता० १६०/ सुयवेय-तृणविशेषः। प्रज्ञा० ३३॥ सुरभिपुर- श्रीमहावीरविहारक्षेत्रम्। आव० १९७१ सुयसागर- ऐरवते आगामिन्यां नवम तीर्थकृत्। सम. | सुरयरिक्का- सुरतविरतः मुक्तमैथुनः। चतु०। १५४ सुरवर-सुरवरः-सत्योदाहरणे शौर्यपुरे यक्षविशेषः। आव० सुयान- सुगति-सुज्ञानं वा। सम० १८१ ७०५ सुयाल-सुकालः। भग० १९९। सुरहि-सुरभिः शतग्रुः। आचा० ३४८१ सुयी- पञ्चदशमजिनस्य प्रथमा शिष्या। सम० १५२। सुरहितोवलए-गन्धारोहकः। ओघ० १३० सुरंगा-सुरङ्गा। आव० १६०, ६७७। सुरहिपलंब-सुरभिः शतग्रिप्रलम्बः। आचा० ३४८१ सुर-सुष्ठु राजते सः सुरः-देवः। उपा० २६। सुरा-हिमवद्वर्षधरे नवमकूटम्। स्था० ७१। सुरापिष्टापिट्ठकम्पादिद-व्यसंजोगओ। दशवै० ८८ ज्ञाता० २०९। दिनिष्पन्नाः । दशवै. १८८५ सुरइय-सुरचितः सुष्ठुकृतः सुरतिदो वा सुखकरः। प्रश्न. तन्दुलधवादिवल्लीनिष्पन्ना। विपा. ४९। ७०| अचलपुरीयः कौटुम्बिकः। मरण | काष्ठपिष्टनिष्पन्नः। उपा०४९। सुरक्खिय- सुष्ठु-प्राहरिकपुरुषादिव्यापारणद्वारेण सुरादेव- वाराणस्यां गृहपतिः। स्था. ५०९। महावीरस्य रक्षितः-पालितो दस्युभूषिकादिभ्यः। सुरक्षितः। उत्तः । चतुर्थश्राद्धः। उपा० ३४। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [129] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सुरादेवी- सुरादेवी पश्चिमरुचकवास्तव्या दिक्कुमारी | दिक्कुमारिमहत्तरिका। स्था० १९८१ सुरूपाआव० १२२। पाश्चात्यरुचकवास्तव्या द्वितीया तृतीयकुलकरपत्नी। आव० ११२। धर्मकथायां दिक्कुमारीमहत्त-रिका। जम्ब० ३९१। शिखरिणिवर्षधरे चतुर्थवर्गेऽध्ययनम्। ज्ञाता० २५२। धर्मकथायां चतुर्थो कूटः। स्था०७२। निरयावल्यां पच्चमवर्गेऽध्ययनम्। ज्ञाता०२५२ चतुर्थवर्गेऽष्टममध्ययनम्। निर० ३७ सुरेंददत्ते-सुरेन्द्रदत्तः-सम्भवजिनप्रथमभिक्षादाता। सुरादेवीकूड-सुरादेवीकूटम्। जम्बू. २९६। सुरादेवीकूटं- आव०१४७ सुरादेवीदिक्कुमारीकूटम्। जम्बू. ३८१| सुलभबोहिय-सुलभबोधिकः बोधिः-जिनधर्मः। प्राप्तिः सुरासुरिया- भोजने अयं च सूरोऽयं च सूरो भुक्तां च सा सुलभा यस्य स सुलभबोधिकः। स्था०६० यथेष्ट-मित्येवं या परिवेषणक्रिया सा सूरासूरिका। सुललिअ-सुललितं-स्वरघोलनाप्रकारेण सुष्ठ-अतिशयेन ज्ञाता०२५३। ललतीव यत्, यदिवा यत् श्रोत्रेन्द्रियस्य सुरिंदगोवग- सुरेन्द्रगोपकः-वर्षासु रक्तवर्णः शब्दस्पर्शनमतीव सूक्ष्ममुत्पादयति सुकुमारमिव च क्षुद्रजन्तुविशेषः। जम्बू० २१२। प्रतिभासते तत्। जम्बू०४०। सुरिंददत्त- तृतीयतीर्थकृत्प्रथमभिक्षादाता। सम० १५१। | सुललिय-स्वरघोलनाप्रकारेण सुष्ठु-अतिशयेन ललतीव सुरेन्द्रदत्तः-इन्द्रदत्तराजस्यामात्यदुहितसम्भूतः। । यत् सुकुमालं तत् सुललितम्। अनुयो० १३२। कुमारः। उत्त० १४९। सुरेन्द्रदत्तः सुलस-कालसौकरिसुतः अभयकुमारस्य सखा। सूत्र० तितिक्षोदाहरणेऽमात्यपुत्रीजातः इन्द्रदत्तराजसुतः। १७८। सुलसद्रहः। जम्बू० ३०८, ३५५५ ओघ० ७०२ सुलसदह-देवकुरौ चतुर्थो ह्रदः। स्था० ३२६। सुरियाभ- सूरियाभः-ज्ञातायां त्रयोदशमेऽध्ययनेऽतिदेशः। सुलसा-दशमतीर्थकृत्प्रथमा शिष्या। सम० १५२। आगाज्ञाता० १८०। ज्ञातायां षोडशमेऽध्ययने अतिदेशः। मिन्यां षोडशतीर्थकृत्पूर्वभवनाम। सम० १५४। स्मृतिविज्ञाता० २१०। ज्ञातायां त्रयोदशममध्ययने अतिदेशः। शेषः। आव. १५८ भद्दिलपुरे नागगाथापतेर्भार्या। अन्त० ज्ञाता० १७८1 नाट्यविधावतिदेशः। निर०२९। ४। सुलसा-अमूढदृष्टित्वोदाहरणे श्राविका। दशवै.१०२ सुरुआ- मध्यमरुचकवास्तव्या तृतीया दिक्कुमारिका। अम्बडपरिव्राजकसमृद्धिरुपलभ्यापिन संमोहं गता जम्बू० ३९१। श्राविका। प्रज्ञा०६१। सुलसा। निशी. १५। सुलसासुरुचि- सुरूची रुढिगम्या आभरणविशेषो वा। प्रश्न० ७०। शिक्षायोगदृष्टान्ते राजगृहे प्रसेनजित्सत्करथिकपत्नी सुरूप-आधानुमोदनायां श्रीनिलयपुरे राजपत्न्युपभोक्ता श्राविका। आव०६७६| वणिक्। पिण्ड०४९। सुलसुलायइ-झटति। तन्दु सुरूपविदयुन्मती-किन्नरीविशेषः। प्रश्न. ९० | सुलोचना- मानपिण्डोदाहरणे कौटुम्बिकगृहिणी। पिण्ड. सुरूपा-भूतानन्दस्य तृतीयाऽग्रमहिषी। भग० ५०४। १३४१ सुरूपा- मध्यरुचकवास्तव्या दिक्कुमारीप्रधाना। आव० | सुवग्गू-सुवल्गू-ईशानेन्द्रलोकपालस्य वरुणस्य १२३ विमानम्। भग० २०३। सुवल्गूर्विजयः। जम्बू. ३५७। सुरुव- यशस्मत्कुलकरभार्या। स्था० ३९८ भूतेन्द्रः। स्था० | स्था० ८० ८५ सुरूपः। ज्ञाता०११। सरूपः-भूतेन्द्रः। जीवा. १७४१ | सवच्छ-सवत्सः-दक्षिणात्यक्रन्दितव्यन्तराणामिन्द्रः। सरूपः-दक्षिणनिकायेदवितीयो व्यन्तरेन्द्रः। भग प्रज्ञा० ९८। कंद्रेन्द्रः। स्था० ८५। सवत्सः विजयः। जम्बू. १५८ ३५२ सुरुवा-सुरूपा भूतानदस्य तृतीयाऽग्रमहिषी। भग० ५०४॥ | सुवच्छा-सुवत्सा-अधोलोकवास्तव्या दिक्कुमारी। आव० सुरूपस्य तृतीयाऽग्रमहिषी। स्था० २०४। दिक्कुमारी। | १२१। सुवत्सा पञ्चमी दिक्कुमारी महत्तरिका। जम्बू. महत्तरिका। स्था० ३६१। तृतीया | ३८८१ स्था० ८०| सुवत्सा-विमलकञ्चनकूटे देवी। जम्बू. मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [130] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] ३५३। सुवन्नपाग- कलाविशेषः। ज्ञाता० ३८॥ सुवज्जं-त्रयोदशमसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। | सुवन्नभूमी- सागरस्थानम्। बृह. ३९ अ। सम०२५ | सुवन्नवासा-सुवर्णवर्षः। भग० १९९| सुवण्ण-सद्वर्णः ज्योतिष्कः। भग० १३५ सुवर्ण-पृथिवी- | सुवन्नवुट्टी-सुवर्णवृष्टिः। भग. १९९| भेदः। आचा० २९। प्रवालांकुरसन्निभं। निशी० १२५आ। | सुवन्नसिप्पी-सुवर्णशुक्तिका-सुवर्णमयी शुक्तिका। सुवर्णवर्णकृमिसूत्रभवं वस्त्रम्। बृह० २०१ अ। प्रज्ञा० ३६३ षोडशकर्ममाषकनिष्पन्नः सुवर्णः। अनुयो० १५५ सुवन्नागर-स्वर्णाकरः। भग० १९९। सुवर्णः-सद्वर्णः ज्योतिष्क इति, सुवर्णकुमारो वा। सुवप्प-सुवप्रविजयः। जम्बू० ३१७। औप. १००। ज्ञाता०४९। स्वर्ण-शोभनं वर्ण सुवर्ण-चत्त्वारि मधुरतृणफलान्येकः-श्वेत सर्षपः विशिष्टवर्णिकम्। उत्त. ३१६ स्वर्णाः षोडशः ते एकं धान्यमाषफलं वे ते एका गुजा पञ्च शोभनवर्णोपेतत्वाज्ज्योतिस्का यक्षराक्षस-किन्नराः। ता गुञ्जाः एक कर्म-माषकः, षोडशकर्ममाषका एक सम०६२। सुवर्णः। जम्बू० २२६॥ सुवण्णकारा- तृतीया श्रेणिः। जम्बू. १९३। सुवर्णकूल- ह्रदविशेषः। स्था० ७५ सुवण्णकूलाकूड- सुवर्णकूलानदीकूटम्। जम्बू० ३८१। सुवर्णकूला-शिखरीवर्षधरे सप्तमकूटम्। स्था०७२। सुवण्णखलगं- सुवर्णखलं-ग्रामविशेषः। आव० २००। सुवर्ण-कुला। स्था० ७५१ सुवण्णखोडीअ-सुवर्णखोरकः। आव० ४२११ सुवर्णगुलिका-उदायननृपस्य प्रभावतीदेवीसत्का सुवण्णजुहिया-सुवर्णयूथिका। प्रज्ञा० ३६१। दत्ताभिधाना दासी। प्रश्न० ८९। सुवण्णजूहियाकुसुम-सुवर्णयूथिकाकुसुमम्। जीवा० सुवर्णचरितादि-आच्छादनम्। उत्त०६५०| १९१| सुवर्णछल्ली-त्वग्विशेषः। जीवा० १३६) सुवण्णपास-सोपणैयपार्श्वः-गरुडसमीपः। उत्त०४११।। सुवर्णपण-नाणकविशेषः। नन्दी. १५६ सुवण्णभूमी-सुवर्णभूमिः। उत्त० १२७। आव० १४८५ । सुवर्णभूमी-यत्रजलमार्गेण गम्यते तत्। सूत्र० १९६| सुवण्णवालुगा-सुवर्णवालुका-नदीविशेषः। आव० १९५५ । | सुवर्णकरः- यस्मिन्निरन्तरं महामूषासु सुवर्णदलं सुवण्णसद्दाल-सुवर्णशब्दालं सकिंकणीकं वस्त्रम्। जीवा० | प्रक्षिप्य सुवर्णमुत्पाट्यते सः। जीवा० १२३।। ४०४। सुवर्णशब्दालं नूपुरादिनिर्घोषयुक्तः। जीवा० ४०४। । | सुवाय- पञ्चसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० १०| सुवण्णा- सुवर्णाः-गरुडकुमाराः। जम्बू० २०१। सुवासव-सुवासवः-वासवदत्तराजकुमारः। विपा० ९५। सुवण्णागर- सुवर्णाकरः। ज्ञाता० २२८१ सुवासवः-विपाकदशानां द्वितीयश्रुतस्कन्धे सुवति- नस्यति। निशी० १६अ। चतुर्थममध्य-यनम्। विपा० ८१ सुवन्न- सुवर्णवर्णसूत्रम्। ३३८। सुवर्णम्। प्रज्ञा० २७ सुविणंत-स्वप्नान्तातः, विभागः अवसानः। भग०७१२। सुवन्नकुमारा-सुवर्णकुमाराः स्वप्न-स्वापक्रियानुगतार्थः विकल्पः। भग० ७१०। स्ववैश्रमणस्याज्ञोपपातवचनानिर्दे-शवतिनो देवाः। भग. प्नम्। आव०४२९। स्वप्नः-स्वप्नप्रतिपादको ग्रन्थः। १९९। भुवनपतिभेदविशेषः। प्रज्ञा०६९। सूत्र. २१८। सामान्यफलवान्। भग० ५४३। सुवन्नकुमारीओ-सुवन्नकुमार्यः सुविणपाढग-स्वप्नपाठकः। आव० ३४३। वैश्रमणस्याज्ञोपपातवचन-निर्देशवर्तिन्यो देव्यः। भग. सुविणा-स्वप्नात् पुष्पचूलाया इव या स्वप्ने वा या १९९। प्रतिपद्यते सा स्वप्ना। स्था०४७३। सुवन्नकोडी-सुवर्णकोटिकः-सुवर्णपुरुषः। आव० ४५२। | सुविणीअप्पा-सुविनीतात्मा-जन्मान्तरकृतविनयःसुवन्नजुत्ति-कालविशेषः। ज्ञाता० ३८१ निरति-चारधर्माराधकः। दशवै. २४९। सुवन्नदार- सिद्धायतने चतर्थं दवारम्। स्था० २३० सुविधिस्वामी-तीर्थव्यवच्छेदसमयवान्। प्रज्ञा. १९| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [131] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text]] सुविनीयसंसाए-सुष्ठ-अतिशयेन विनीतः-अपनीतः- सुव्वए-शोभनो निरतिचारतया सम्यग्भावानुगततया च प्रसा-दितगुरुणैव शास्त्रपरमार्थसमर्पणेन संशयो- व्रतं-शीलं परिपालनात्मकस्येति सुव्रतम्। उत्त. २५१| दोलायमानमान-सात्मकोऽस्येति विनीतसंशयः, ऐरवते आगामिन्यां तीर्थकृत्। सम० १५४१ सुविनीता वा संसत्-परि-षदस्येति विनीतसंस्तकः सुव्वता-आर्यां। निर० ३० विनीतस्य हि स्वयमतिशयवि-नीतैव परिषद्भवति। सुव्वत्त-सुव्रत-सुव्यक्तम्। उत्त० ११३। उत्त० ६६ सुव्वय-सुव्रतं-अणुव्रतम्। प्रश्न. १३६। पद्मप्रभोः प्रथमसुविभत्त-सुविभक्तः। सूर्य २९। सुविभक्तः शिष्यः। सम० १५२। सुव्रतः। जम्बू०५३५। एकाशीतिसुविच्छित्तिकः। जम्बू० २५४ ममहाग्रहः। स्था०७९| सुव्रतः-सव्रतः। सुविभत्तिओ-सुविभक्तिकः-सुविच्छित्तिकः। जीवा. शोभनचित्तवृत्त-वितरणे वा। ओघ० १०७। सुव्रतः१८ समाधिज्ञाने शिशुनाग-श्रेष्ठिपुत्रः। आव० ७०७। सुव्रतःसुविर-स्वप्तारं-स्वप्नशीलम्। बृह. २४८ आ। सुविरः- धृतसत्पुरुषव्रतः। उत्त० २८१। दोषवान् साधुः। ओघ० ९८१ सुव्वया-धर्मनाथमाता। सम० १५११ आर्याविशेषः। सुविसाय-विंशतिसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० ज्ञाता० १०७ आर्याविशेषः। ज्ञाता० २०९। आर्याविशेषः। ૨૮, ज्ञाता०२२६। आर्या। निर० ३४। सुव्रता-धर्मजिनमाता। सुविसुद्ध-सुविशुद्धः-निर्मलः। ज्ञाता०६३। आव० १६०। सुव्रता। आव० ७९३| सुव्रताःसुविहि-सुविधिः-योगसङ्ग्रहे एकोनविंशतितमो योगः।। शोभनानुव्रतधा-रकाः। बृह० २। आव०६६४। शोभनो विधिरस्येति सुविधिः, नवमजिनः, सुसंकय- सुसंस्कृतः-परमसंस्कारमुपनीतः। जीवा०। यस्मिन गर्भगते सर्वविधिष्वेव विशेषतः कुशला सुसंजत्त-सुसंयुक्तः-सावधानः। आव० ७१६। जननीति विधिः। आव०५०३।। सुसंतुट्ठ-सुसन्तुष्टः-येन वा केन वा सन्तोषगामी। दशवै. विहिअ-सुविहितं-सामायिकपञ्चमपर्यायः। आव. २३१॥ ४७४। सुसंपरिग्गहिय-सुसम्परिगृहीतः-सुष्ठु-अतिशयेन सुविहिअकोढग-सुविधिकोष्ठकं सुसूत्रणा सम्यग्-मनागप्यचलनेन परिगृहीतः। जीवा० ३६१। पूर्वकरचितोपरितन-भागविशेषः। जम्बू. १०७ | सुसंभंत-सुसम्भ्रातः-अत्याकुलः। उत्त० ४७४। सुविधिकोष्ठकम्। जीवा० २६९। सुसंवरं- सुगुप्तम्। ओघ० १३९। सुविहिता- साधवः। निशी० १५३ आ। सुसंहया-सुसंहता-सुश्लिष्य। जीवा० २७०/ सुविहिय-सुष्ठु विहितं-अनुष्ठितं यस्य सः सुविहितः। | सुसंहियं-सुसम्भृतम्। आव० ४०११ सम० १२७। सुविहितः साधुः। ओघ० ४। सुविहितः- | सुसज्ज-सुष्ठुप्रगुणम्। ज्ञाता० २२१। साधुः। आव० ५२०| शोभनं विहितं अनुष्ठानं यस्य स । | सुसण्णाग-अलसो। निशी. १६३ सुविहितः-साधुः। आव० ६१९। सुविहितः सुसमण-सुशामनः-सष्ठ-अतिशयेन शमनं शान्तभावो शोभनानुष्ठानः। ओघ० १५६। सुविहितः-शोभनं विहितं- यस्य स। जम्बू. १३१| अनुष्ठानं यस्येति साधुः। ओघ० ४। सुविहितं शोभनं । सुसमदुसम-कालविशेषः। आव० ५३९। विहितं-सम्यग्दर्शनाद्यनुष्ठानम्। आचा० ३४। सुसमदुसमा- सुषमदुःषमःसुविही- छद्दारुआलिंदो। निशी. १९२ अ। अङ्गणम- सागरोपमकोटाकोटीद्वयप्रमाणः कालः। भग० २७५ ण्डपिका। बृह० २१२। सुषमष्षमा-अवसर्पिण्यां तृतीयारकः। आव० १२० सुवीर-षट्सागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० १२॥ | सुसमदुस्समा- सुषमदुष्षमः-दुष्टाः समा अस्यामिति सुवुट्ठि-सुवृष्टिः-धान्यादिनिष्पत्तिहेतुः। भग० १९९) दुष्षमा, सुषमा चासौ दुष्षमा च सुषमदुष्षमा, सुव्रत-लोभपिण्डदृष्टान्ते साधुः। एड. १३९ | सुषमानुभावबहुलस्य दुष्षमानुभावः। जम्बू० ८९। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [132] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] सुसमदुष्षमातृतीयारकः । स्था० ७७ | सुसमसूसमा- सुषमा चासौ सुषमा च सुषमासुषमा द्वयोः समानर्थयोः प्रकृष्ठार्थवाचकत्वादत्यन्त सुषमा, एकान्तसुख-रूपोऽस्या एव प्रथमारक इति । जम्बू० ८९ । सुषमसुषमः- सागरोपमकोटाकोटीचतुष्टयप्रमाणः । कालः । भग० २७५। सुषमसुषमा अत्यन्तसुखस्वरूपः प्रथमारकः। स्था० २७। सुषमसुषमा-प्रथमारकः । स्था० आगम- सागर- कोषः ( भाग : - ५) ७७ सुसमा - सुषमा द्वितीयारकः । स्था० ७७। सुष्ठु - शोभनाः समाः-वर्षाणि यस्यां सा सुषमा । जम्बू० ८९ | सुसमाकाल- सुषमाकालः- द्वितीयारकः । जम्बू० ८९| सुसमारपुर- सुसुमापुरम् । भग० १७१ । सुसमाहिए - सुसमाहितः शुद्धभावः । दशवै० २२८ सुसमाहिय- सुषमाहितः-सुगुप्तः। आव० ६५३। सुसमाहितः - ज्ञानादिषु यत्नपरः । दशवै० ११९ | सुसमाहितः- उद्युक्तः । दशवै० २०० | दर्शनादिषु सुष्ठुसम्यगाहितः सुसमाहितः । आव० ५१६ । सुसमाहिया - नाणे दंसणे चरित्ते य सुट्टु आहिया सुसमाहिया । दशवै० ५२ | सुसर - दशसागरोपमस्थितिकं देवविमानम् । सम० १७ । सुसहाव- सुखभावः-शोभनस्वरूपः शुद्धभावो वा । प्रश्न० १५८ सुसागय- सुस्वागतं अतिशयेन स्वागतम् । भग० ११६ | सुसागर - एकसागरोपमस्थितिकं देवविमानम् । सम० २ सुसाण - श्मशानम् । उत्त० ३०१ | शबानी शयनं अस्मिन्निति श्मशानं पितृवनम्। उत्त० १०८। मयसयणं । निशी० ७० अ श्मशानम्। ज्ञाता० ८० | श्मशानम्। आचा॰ ३०७ । श्मशानं प्रेतभूमिः । उत्त ६६५। शबानां शयनं श्मशानं पितृवनम्। आचा० २७० साहि- श्मशान गृहं पितृवनगृहम् । भग० २००| श्मशा-नगृहं कम्मंताणि शून्यगारं विविक्तम्। आचा० ३१६ | सुसाणसामंत - श्मशानसामन्तं - शबस्थानसमीपम् । स्था० ४७६ । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] ३५| सुसाहुवाढी- सुष्ठु साधु-शोभनं हितं मितं प्रियं वदितुं शीलम-स्येत्यसौ सुसाधुवादी, क्षीरमध्वाश्रववादीत्यर्थः। सूत्र० २३७| सुसियकसाए - शोषितकषायः । गच्छा० । सुसिर - सुषिरं - काहलादि । जीवा० २४७ | एकोनविंशतितमसागरोपमस्थितिकं देवविमानम् । सम० ३७। शुषिरं वंशादि। जीवा॰ २६६। शुषिरः । सूर्य० २८६। सुसिरंआउज्झं । निशी० १ अ सुसिलिट्ठ - सुश्लिष्टः- सुघनः-सुस्थितः। जम्बू० ११०| सुश्लिष्टः-संबद्धः। जीवा॰ २२६। सुश्लिष्टःसुश्लेषावयवः मसृणः। जम्बू० ४०३ | सुश्लिष्टः संगतः । जीवा॰ २७१। सुश्लिष्टः-मांसलः। जीवा० २७०। सुसिलिट्ठा - सुश्लिष्टा अविसर्वरा । ज्ञाता० १६ । सुसीमा - वच्छविजयराजधानीनाम। जम्बू० ३५२ सुसीमाः । अन्तः १८ | सुसिमा । स्था० ८० अन्तकृद्दशानां पञ्चमवर्गस्य पञ्चममध्ययनम् । अन्त० १५। षष्ठतीर्थकृन्माता । सम० १५१। पद्मप्रभमाता। आव० १६० | सुसील - सुशीलः । आव० ७९३ । भू-सुष्ठु - शोभनं शीलं समाधानं चरित्रं वा भूतः - प्राप्त सुशीलभूतः । उत्त० ३७३ ॥ सुसील सग्गी- सुशीलसंसर्गी, आयतनपर्यायः। ओघ० ၃၃၃ सुसुई - सुश्रुतिः सुशुचिः- सम्यक् श्रुतं ग्रन्थः सत्सिद्धान्तो वा। औप० ४८। सुसज्ज - नवसागरोपमस्थितिकं देवविमानम् । सम० १५१ | सुसुणाय- शिशुनागः-समाधिज्ञाते सुदर्शनपुरे श्रेष्ठी । आव० ७०७ | सुसुमा - सुसुमा-परिणामिक्यां धनदत्तपुत्री । आव० ४३० | सुसुमार - शिशुमारपुर- संवेगोदाहरणे धन्धुमारराजधानी । आव० ७०९। शिशुमारः-जलचरतिर्यञ्चः। प्रज्ञा० ४३ सुसूर- पञ्चसागरोपमस्थितिकं देवविमानम् । सम० १० सुसेण- सुषेणः । जम्बू० २१८ | सुषेणः- महाचन्द्रराजस्यामात्यः । विपा० ६५ सुसामाण- सप्तदशसागरोपमस्थितिकं देवविमानम् । सम० ३३ | सुसाल - अष्टादशसागरोपमस्थितिकं देवविमानम् । सम० सुस्थितः - लवणसमुद्राधिपतिर्देवः । प्रज्ञा० ११४ | [133] “आगम-सागर-कोषः " [५] Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] सुस्समण - शोभनाः श्रमणाः यस्मिन् स सुश्रमणः । आव ० ५१९| आगम-सागर-कोषः (भाग:-५) सुस्सरणिग्घोसा - सुस्वरनिर्घोषा - सूर्याणां घण्टा । जम्बू० ४०९ | सुसरा - सुस्वरा- उदधिकुमाराणां घण्टा । जम्बू० ४०७ | सुस्वरा-चन्द्राणां घण्टा। जम्बू० ४०९। गीतरतेस्तृतीयाSग्रमहिषी । स्था० २०४ | सुस्वरघोषः सुष्ठु यत्स्वंस्वकीयं अनन्तरोक्तं वर्णं शृङ्खलादिकं तेन राजते इति सुस्वरः । जम्बू ० ५३ | धर्मकथायां पञ्चमवर्गेऽध्ययनम् । ज्ञाता० २५२। गीतरतेः-तृतीयाऽग्रमहिषी । भग० ५०५| सुस्सवणा- सुष्ठु श्रवणं- शब्दोपलम्भो येषां ते सुश्रवणाः । जम्बू० ११३ | सुस्सूस- शुश्रूषस्व-श्रवणेच्छां विधेहि । आचा० २३९ | सुस्सूसई- सुश्रूषति-यथाविषयमवबुध्यते । दशवै० २५६ । शुश्रूषते - विनययुक्तो गुरुवदनारविन्दाद्विनिर्गच्छवचनं श्रोतुमिच्छति। नन्दी० २५०| विनययुक्तो गुरुमुखात् श्रोतुमिच्छति शुश्रूषति। आव॰ २६। सुस्सूसण- शुश्रुसणं- अदूरासन्नतया सेवनम् । दशवै० २४१। सुश्रूषणं ण पक्खओ ण पुरओ इत्त्यादि विधिना गुरुवचन-श्रवणेच्छा पर्युपासनमिति। उत्त० १७| शुश्रूषणं पर्युपास-नम्। उत्त० ५७८| सुस्सूसणाविणए- शुश्रूषणा-सेवा सैव विनयः शुश्रूषणाविनयः । भग० ९२२ सुस्सूसमाण- शुश्रूषणाः-धर्मं श्रोतुमिच्छा न गुर्वादेः पर्युपास्तिं कुर्वन्। आचा० २५६। शुश्रूषन्-श्रोतुमिच्छन्। दशवै॰ २५२| भगवद्वचनानि श्रोतुमिच्छन् शुश्रूषमाणः । सूर्य० ६। सुस्सूसा- शुश्रूषा-पूजा। दशवै० २४९। गुरोरादेशं प्रतिश्रोतुमिच्छा शुश्रूषा गुर्वादेर्वैयावृत्यम्। सूत्र॰ १८५। शुश्रूषातदादेशंप्रति श्रोतुमिच्छा पर्युपासना वा । उत्त० ६०९। सुहंसुहं- सुखायेति-ऋतुभाज्यमानसुखः। ज्ञाता० ३३। सुखंसुखं-सुखपरम्परावाप्तिः । उत्त० ५८१। सुहं- सुखं-सुखहेतुत्वात्, उपशमश्रेण्यामुपशामकं प्रत्यपूर्व-करणानि वृत्तिबादरसूक्ष्मसंपरायरूपा गुणत्रयावस्था। सूत्र॰ १९७। सुखं तद्भवसम्बन्धिः । जम्बू० ३९८। सुखं-विशिष्टाह्लादरूपम्। प्रश्र्न० १११ | मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] सुखं-शर्म। भग० ११५। सुखं । निशी० ९आ। अणबाहं । निशी० ७७ अ । भवे निरुपद्रवता । राज० २६| प्रधानः । राज० ७। शुभः-स्व-स्वकर्मकुशलः। राज० ३। सुखंयथेप्सितवि-षयावाप्ता वाह्लादः । उत्त० २८४ । सुखं शर्म क्षेमं च । जीवा० २४२| सुखं- आह्लादनुभवरूपं क्षणम्। दशकै० ३९| शुभः मङ्गलभूतः । जम्बू० ३०| सुखं-श्रवणकालोद्भवमानन्दम्। सम० ६२। सुखविशिष्टालादरूपम्। आव ० ४४६ । सुखं - आनन्दरूपम् । भग० ६७रा सुहड- सुहृतं- शाकपत्रादेस्तिक्तत्वादि घृतादि वा सूपविलेपि-कादीनाम् । उत्त० ६१| सुहणामा - सुभनामा-पञ्चमीतिथी। सूर्य० १४८। शुभनामा-पञ्चमीतिथी । जम्बू० ४९१। सुहत्थि-स्थूलभद्रशिष्यः, विशिष्टगोत्रः सुहस्ती । नन्दी० ४९। सुहत्थी - शुभार्थी भव्यान् प्रति सुहस्ती वा पुरुषवरगन्धहस्ती। भग० १२७ | सुहदुक्ख - सुखदुःखा- सुकृतदुष्कृतम्। उत्त० ३८२ सुहफास - सुखस्पर्श वा शुभस्पर्शम्। सूर्य॰ २६३। सुखस्पर्शः शुभस्पर्शः वा । प्रज्ञा० ९९| शुभस्पर्शम् । जीवा० १९९| सुहमेहति - सुखं-ऐकान्तिकात्यन्तिकमुक्तिसुखात्मकम्, ‘एधति' इत्यनेकार्थत्वद्धातूनां प्राप्नोति शुभं पुण्यमेधतेअन्तर्भावितण्यर्थत्वात् वृद्धि नयति। उत्त० ३१३ | सुहम्म- वद्धमाणसामिस्स सिस्सो । निशी० २४३ अ सुधर्मः- मृगग्रामनगरे चन्दनपादपोद्याने यक्षविशेषः । विपा॰ ३५। सुधर्मः-वणिग्ग्रामे दूवीपलाशचैत्ये यक्षविशेषः । विपा० ४५। सुधर्मः पञ्चमगणधरः । आव ० २४०। द्वादशमतीर्थकृ-त्प्रथमशिष्यः। सम॰ १५२। धर्मे नाम समे, सुधर्मा शब्दार्थः सुष्ठु शोभनो धर्मोदेवानां माणवकस्तम्भवर्तिजिनसक्थ्याशातनाभीरुकत्वेन देवाङ्गनाभोगविरतिपरिणामरूवो यस्यां सा तथा, वस्तुतस्तु सुष्ठु-शोभनो धर्मो राजधर्मः समन्तुनिर्मन्तुनिग्रहानुग्रहस्वरूपो यस्यां सा। जम्बू॰ ३२ सुम्मसामि - गणहरो । निशी० ३७ अ । [134] “आगम-सागर-कोषः " [५] Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] आ। ४७ सुहम्मा-सुधर्मकल्पे-सभा। ज्ञाता० १३५| कृष्णस्य | सुहावह-सीतानद्याः दक्षिणे वक्षस्कारः। ज्ञाता० १२१| सभा। ज्ञाता० २०८५ सौधर्मकल्पे सभा। ज्ञाता० १७८। वक्ष-स्कारः। जम्बू० ३५७। सीतोदानद्याः सुधर्मा। राज०९। इशाने कृष्णावतंसके सभा। ज्ञाता० पञ्चमवक्षस्कारः। स्था० ३२६) २५३। सौधर्मकल्पे सभा। ज्ञाता० २५७) सुहि-सुहृद्-मित्रम्। ज्ञाता०८८1 सुहृद्। उत्त० ४७३। सुहरिए- सुहृत-मित्रमेव सकलकालमव्यभिचारि सुहिरण्णया-सुहिरण्यका-वनस्पतिविशेषः। राज० ३३। हितोपदेश-दायि च। जीवा. २८११ सुहिरण्यिका-वनस्पतिविशेषः। जम्बू० ३४। सुहलेसा-सुखलेश्याः । सूर्य २८१। सुहिरन्नियाकुसुम-सुहिरण्यिकाकुसुमंसुहल्लियं- मुखगतम्। भक्त०। सुहिरण्यिकावनस्प-तिविशेषः तस्याः कुसुमम्। प्रज्ञा० सुहविमोयतर-सुखविमोच्यतरकः-सुखं विमोच्यते- ३६११ त्यज्यत यः स सुखविमाच्यतरकः, अत्यन्त सुखेनैव | सुही-स्हृत्-सज्जनो हितैषी। स्था० २४५। निशी० १९४ विमञ्चति यो देहिनं स सुखविमोच्यतरकः। स्था०४७। सुहविहार-सुखविहारः-अवस्थानशयनादिरूपः। जीवा० सुहोइ-सुहृद्-मित्रमेव सकलकालमव्यभिचारि २६९। हितोपदेशदायि च। जम्बू० १२३॥ सुहवेयतर- सुखापेयः-सुखापनेयः सुखापेयतरः। स्था० । सुहुम- सूक्ष्मः-लोभकिट्टिकारूपः। स्था० ३२४। सूक्ष्माणि लक्ष्णत्वादल्पधारतया च सूक्ष्मः। स्था० ४३०। सूक्ष्मःसुहवेयतरय-सुखवैद्यतरकः मन्दः-वस्तुचलनासमर्थः। स्था० ३८५। किट्टीकरणतः मोहजनितग्रहापेक्षयाऽकृच्छ्रानु-भवनीयतरः। स्था०४७। सूक्ष्मः। उत्त०५६८। सूक्ष्मनामकर्मोदयात् सूक्ष्मः। सुहसंगतायंति-सुखसङ्गत्यागे। महाप० । आव० २९| वालग्राणां सूक्ष्मखण्डकरणात् सूक्ष्मम्। सुहसाइ-सुखशायि अनुयो० १८१। सूक्ष्मः-प्रायश्चेतोविकारकारित्वेनान्तरः। मनोविघाताभावान्निराकुलतर्याऽऽस्त-इति। उत्त. सूत्र० ८४। सूक्ष्मः -चक्षुरादीन्द्रियपथमतिक्रान्तः। प्रज्ञा० ५८६ ३०३। सूक्ष्मः-अतीन्द्रियः। प्रज्ञा० ४७४। सूक्ष्म-लक्ष्णः। सुहसाए- सुखशायः-सुखेन शयनं, यदि वा सुखाशातः- जीवा. २३४। सूक्ष्म-सुक्ष्मकायिकम्। दशवै०१७। भरते सुखस्य शातनम्। उत्त० ५८६। आगामिन्यामत्स-पीण्यां षष्ठः कुलकरः। स्था० ३९८१ सुहसायग-सुखास्वादकः-अभिष्वङ्गेण सम० १५३। सूक्ष्मः -सारः। जीवा० २४४। सूक्ष्मप्राप्तसुखभौक्ता। दशवै १६०| ध्यानविशेषम्। आव० ७२२। सूक्ष्म-मृदुलघुस्पर्शम्, सुहसाया-सुख-वैषयिकं शातयति अच्छमिति। प्रज्ञा० ९१। सूक्ष्ममेव तगमनस्पृहानिवारणे-नापनयतीति सुखशातस्तस्य वाऽतिचारमालोचयति यः स। स्था०४८४। सूक्ष्मं - भावः सुखशातता। उत्त० १८६ अल्पम्। दशवै. १४५। सूक्ष्मम्। बृह. २६२आ। सूक्ष्मम्। सुहसीलजण-सुखशीलजनः-पार्श्वस्थजनः। आव०५३९) भग० १८४। सूक्ष्ममेवातिचारजातमालोचयति पासत्थादी। निशी० १६०आ। आलोचनायां षष्ठदोषः। भग० ९१९। सूक्ष्म-स्नेह सूक्ष्मसुहसीलय-सुखशीलता। मरण | पुष्पसूक्ष्मादिकमष्टविधम्। दशवै. २२९। सुहसोलवियन्ना-सुहे सीलं-व्यक्तं येषां ते, मोक्खसुहे सूक्ष्मसम्परायः-भूतग्रामस्य दशमं गुणस्थानम्। सीलं जं तंमि विगतो आया जेसिं ते। निशी. ८०आ। लोभाणून वेदयन् सूक्ष्मो भण्यते। आव० ६५०| सुहा-सुखा-शुभा। भग. १४३ सुहुमकाइअ-सूक्ष्मकायिकम्। दशवै. १०३ सुहाए- सुखाय शर्मणे। भग० ४५९। सूक्ष्मकायिकम्। दशवै० ४३। सुहाकम्मत-सुधाकर्मान्ता-यत्र सुधापरिकर्म क्रियते। सुहमकाय-सूक्ष्मकाय हस्तादिकं वस्तुम् वस्त्रम्। भग० आचा० ३६६। ७०१॥ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [135] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सुहमकिरिए-निर्वाणगमनकाले केवलिनो । सूचिः । आव० ६५११ निरुद्धमनोवाग्यो-गस्यार्द्धनिरुद्धकाययोगस्यैतद। अतः- | सुइअ-सूचित-व्यञ्जनादियुक्तम्। दशवै० १८१। सूतासूक्ष्मा क्रिया कायिकी उच्छवासादिका यस्मिंस्तत्तथा। अभिनवप्रसूता। दशवै० १६६) स्था० १९११ सूइओ-सूचितः-तिरस्कृतः। बृह. २२ अ। सुहमकिरिए अप्पडिवाइ-सूक्ष्मा क्रिया यत्र सुइमुह-यत्र प्रदेशे सूचीफलकं भित्त्वा मध्ये प्रविशति निरुद्धवाङ्मनोयो-गत्वे सत्यर्द्धनिरुद्धकाययोगत्वात् तत्प्र-त्यासन्नो देशः सूचीमुखम्। जीवा० १८२| निशी. ततः सूक्ष्मक्रियम्, अप्रति-पाति-अप्रतिपतनशीलं १८ आ। प्रवर्धमानपरिणामत्वात्, एतच्च निर्वाणगमनकाले सूइयं-दध्यादिना भक्तमार्टीकृतम्। आचा० ३१५। केवलिन एव स्यादिति। औप० ४४१ सूइयानेवत्था-प्रसूतिनेपत्थ्या । आव० २१३। सुहुमकिरियं-सूक्ष्मक्रिया। आव० २२७। सूई- सूचिः-एकप्रादेशिकी श्रेणिः। प्रज्ञा० २७५। सूचीसुहमणिगोए- सूक्ष्मनिगोदः-प्रत्येकमनन्तानां लोहमयीवस्त्रसीवनिका। पिण्ड०१७सूचिः-फलकद्वयजीवानामाधा-रभूता शरीररूपाः। जीवा० ४१४। सम्बन्धविघटनाभावहेतुपादुकास्थानीया सुहुमनाम- सूक्ष्मनाम-बहूनां समुदाये चक्षुषाऽग्रहणं नानामणिमया। जीवा० १८०, १९८ आव० ७९८१ भवति तत्सूक्ष्मनाम। प्रज्ञा० ४७४। फलकसम्बन्धविघ-टनाभावहेतुपादुकास्थानीया सुहुमवणस्सइ-सूक्ष्मवनस्पतिः-निगोदा एव। जीवा० तेषामपरि इति तात्पर्यायार्थः। जम्बू. २५१ ४१४। सूईअंगुल-दैर्येणाङ्गुलायता सुहमसंपराय-संपर्येति एभिः संसारमिति सम्परायः- बाहल्यतस्त्वेकप्रादेशिकीनभः-प्रदेशश्रेणिः कषायः सूक्ष्माः लोभांशविशेषत्वात्, सम्पराया यत्र तत् | सुच्च्यङ्गुलम्। अन्यो० १५८१ सूक्ष्मसंप-रायम्। आव०७१। सूक्ष्मो लोभांशावशेषः सूईओ-सूचयःसंपरायः- कषा-योदयो यत्र तत्सूक्ष्मसंपरायम्। प्रज्ञा० फलकद्वयस्थिरसम्बन्धकारिपादुकास्था-नीया। जम्बू. ६८। सूक्ष्मः-असङ्-ख्यातकिट्टिकावेदनतः सम्परायः- २३॥ कषायः स च लोभकषा-यररूपः उपशमकस्य क्षपकस्य | सूईतल-सूचीतलं-उध्वमुखशूचीकम्। प्रश्न० २०॥ वा यस्य स सूक्ष्मसम्परायः। स्था० ५३। सूक्ष्मः- | सूईपुडंतर- सूचीपुटान्तरं-वे सूच्यौ सूचीपुटं तेषामन्तरम् लोभकिट्टिकारूपाः सम्परायाः-कषाया यत्र तत् । जीवा० १८२। द्वौ सूच्यो सूचीपुटं तेषामन्तरम्। जम्बू. सूक्ष्मसम्परायम्। स्था० ३२४। २६) सुहुमा- सूक्ष्मा सूईफलए- सूचीभिः-सम्बन्धिता ये फलकप्रदेशास्तेऽप्युअत्यन्तदुःखावबोधसूक्ष्मव्यवहितार्थपरिच्छे-दसमर्थाः। | पचारात् सूचीफलकः, सूचीनामध उपरि च वर्तमानः। आव० ४१४। सूक्ष्मा-पतला। जम्बू. ५२७। सूक्ष्मा- जम्बू० २५१ कुशाग्रीया। आचा० ३८८५ सुईफलय-सूचीभिः सम्बन्धितो यो फलकप्रदेशः सोऽप्युसुहमुत्तरआयामा- सूक्ष्मोत्तरायामा-गान्धारस्वरस्य पचारात् सूचीफलकः। जीवा० १८२। षष्ठी मूर्च्छना। जीवा० १९३। सूईमुह- सूचीमुखः-द्वीन्द्रियजन्तुविशेषः। जीवा० ३१। सुहोइय- सुखोचितं-सुभाचितम्। उत्त० ४७२।। यत्र प्रदेशे सूचीफलकं भित्त्वा मध्ये प्रविशति सुहाचिओ-सुखोचितः-राजपुत्रादिः। पिण्ड० १७३। तत्प्रत्यासन्नो देशः सूचीमुखम्। जम्बू. २५) महोदए- शुभोदकः, तीर्थोदकः, सुखोदकः-नात्य॒ष्णाना- | सूईवह-सूचीव्यूहः-सैन्यविन्यासविशेषः। प्रश्न० ४७ तिशातः। जम्बू. १८९। सूएमो-सूचयामः-लक्षयामः। पिण्ड० १२३। सुहोरासी-सुखराशिः सुखसङ्घातः। आव० ४४६। सूकरोत्कीर्ण- एतादृशो भप्रदेशः। ओघ०५४। सुइ-ताडपत्रसूच्यादिखुपको वस्त्रसीवनी वा। बृह० २५३ | सूक्ष्मक्रियमप्रतिपाति-ध्यानविशेषः। प्रज्ञा० ६०८१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [136] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम- सागर- कोषः ( भाग : - ५) सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिध्यान- त्रिभागोनप्रदेशसङ्कोचकम् । सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्त्यनुगम- सूत्रावयवानां साक्षेपपरिहारमर्थ-कथनम्। आचा० ३। प्रज्ञा० १०९ | सूक्ष्मक्रियाऽनिवृत्तिध्यान- शुक्लध्यानतृतीयः पादः । आव० ४४१ | सूक्ष्मक्रियानिवृत्तिः– प्रधानशुक्लध्यानभेदः, सयोगकेवली - ध्याता इति योगः । आव० ६०३ | सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपम - क्षेत्रपल्योपमे भेदविशेषः । स्था० ९१ । सूक्ष्ममत्स्य- मत्स्यविशेषः । प्रश्न० ९ | सूक्ष्ममुद्धारपल्योपम - उद्धारपल्योपमे भेदविशेषः । स्था० ९१| सूक्ष्मसंपराय- लोभाशमात्रावशेषतया सूक्ष्मः संपरायो यत्र तत् । अनुयो० २२२ सूचा - परं दोषेण सूचयति स्पष्टमेव दोषं भाषतीत्यर्थः। निशी० २७७ आ । स्वव्यपदेशः । बृह० १२८ अ । सूचीकलाप - तैजसकायिकानां संस्थानम् । प्रज्ञा० ४११ सूचीकलाव - सूचीकलापः । जीवा० १०७ । सूचीकुसग्गसंवर- अयं चौघिकोपकरणापेक्षः, तथा शूच्याः कुशाग्राणां च शरीरोपघातकत्वाद्यत्संवरणंसङ्गोपनं स शुचीकुशाग्रसंवरः । स्था० ४७३। सूच्याजीवी - तुन्नाकः । प्रज्ञा० ५८ । सूण- शूनः- लघुप्रकृतिः । सूत्र० १८० | सूणा- घातस्थानम्। निर० ११। चुल्लन्यादयः । गच्छा० | सूणीय - शूनत्वं श्र्वयथुर्वातपित्तश्लेष्मसन्निपातरक्ताभिघात-जोऽयं रोगः । आचा० २३३ | सूत - सूतः । आव० ८१९ | सूदः । आव० ३६६ । सूती - शूचिः- भावशौचरूपा, अहिंसायाः षट्पञ्चाशत्तमं नाम । प्रश्न ० ९९| निशी० १७२अ । सूत्तकप्पिओ – आवश्यकादिं कृत्वा यावदाचारः तावत्सर्व्वोऽ-पिसूत्रकल्पिकः । बृह० ६२आ। सूत्र- दृष्टिवादांशः। उत्त० ५६५ । आगमः । आव० ६०४ | सूत्रकमुच्ची - भूषणविधिविशेषः । जीवा० २६८ | सूत्रयति- अभ्युपगच्छति । अनुयो० १८ गमयति । आव० २८४ | सूत्रवलनक- वर्त्तम्। जीवा० २७० | सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्ति- निर्युक्त्यनुगमे तृतीयो भेदः । स्था० ६। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] सूत्रस्य उद्देशनाचार्यः- आचार्यस्य तृतीयो भेदः । स्था० २९९ | सूत्रानुगम- अनुगमे द्वितीयो भेदः । स्था० ६ । अनुगमे भेदः । जम्बू०९। सूत्रालापक- सूत्रपदः । स्था० ६ । सूत्रालापकनिष्पन्न- निक्षेपे तृतीयो भेदः । आव० ५८ | सूप - सूपः- मुद्गादिविकारः । प्रन० १५३ | सूपः । उत्तः ६१। सूपपुरुषः- सूपकारः पुरुषः । जीवा० २६८ ॥ सूप्प - सूर्पः । आचा० ३४५| सूय- सूदम् । आव० २१७ सूतः - ब्राह्मणस्त्रीक्षत्रियाभ्यां जातः। आचा॰ ८। अष्टादशव्यञ्जनभेदे प्रथमः । सूर्य० २९३ | सूयक- सूचकः- पिशुनः । प्रश्न० ३० | सूयगड- स्वपरसमयसूचनं कृतमनेनेति सूत्रकृतः। सूत्र० २। सूत्रकृत्-निर्युक्त्यां पञ्चम आगमः । आव० ६१| सूयगपारायणं- संहिता । व्यव० २५६ । सूयगा- सूचकाः-सामन्तराज्येषु गत्त्वा अन्तपुरपालकैः मैत्री-कृत्वा यत्तत्र रहस्यं तत्सर्वं जानन्ति । व्यव० १७० आ। सूयय- सूचकः- राजपुरुषविशेषः । बृह० ७३ आ । सूयर - सूकरः- गर्त्तासूकरः । उत्त० ४५। सूयरजाइयं- सूकरजातिकं, चतुष्पदजातिविशेषः । आचा० ३४०| सूयलि- म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५| सूया- सूचाः-पचनभङ्गिविशेषः। पिण्ड॰ १२८| सूचाव्याजः । स्था० ३०४ । परगतासूया । निशी० २७८अ । य अप्पणो परस्पर फुडमेव दोसं भासति एसा । निशी० २७८ अ। श्रुवः-घृतादिप्रक्षेपिका दर्व्यः । उत्त० ३७२ सूयीमुह - सूचीमुखः पक्षिविशेषः । प्र० ८ सूर- सूरः-शूरमन्यः सुभटः । सूत्र० ८०| सूर्यः भूषणविधिविशेषः । जीवा० २६९। सूर्यः- ज्योतिष्कभेदविशेषः । प्रज्ञा० ६९। सूरो-वक्षस्कारपर्वतः। जम्बू० ३५७| सूरः-कुन्थुनाथपिता। आव० १६१। अष्टादशमतीर्थकृत्पिता। सम १५१। सप्तमचक्रवर्तैः पिता, षष्ठमचक्री । सम० १५२ । [137] “आगम- सागर- कोषः " [ ५ ] Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] पञ्चसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० १०| शूरः- पञ्चसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम०१० निर्भयः। व्यव० २३० । सूरप्पभा-सूर्यस्य प्रथमाऽग्रमहिषी। स्था० २०४। सूर्य-द्वीपविशेषः। समुद्रविशेषश्च। जीवा० ३६९। सूर्यप्रभा-सूर्यस्य ज्योतिषिन्द्रस्य प्रथमाऽग्रमहिषी। निर्भयः-स च कुतश्चिदपि न भयमुपगच्छति। व्यव० जीवा० ३८५। धर्मकथायां सप्तमवर्गेऽध्ययनम्। ज्ञाता० २८३ आ। शूरः-पराक्रमवान् योधो वा। उत्त० ९१। शूरः- २५२। जोतिषचक्रे तृतीयाऽग्रमहिषी। भग० ५०५। अत्यन्तसाहस-धनः। प्रश्न. १३३। शूरः-चारभटः। सूरप्रभसूर श्रीयोः पुत्री। ज्ञाता०२५२ प्रश्न. १६। शूरः-चौरचारभटादिभिरनभिभवनीयः। ब्रह. | सूरप्पमाणभोई-सूरप्रमाणभोजी-सूर्योदयादस्तमयं ३१० अ। सोम-स्याज्ञोपपातवचननिर्देशवी देवः। भग० | यावदश-नपानाद्यभ्यवहारी। सम० ३७ १९५१ शूरः-चारभटः। उत्त. ३४९। विमानविशेषः। | सूरप्पमाणभोती- यः सूर्योदयमात्रादारब्धो यावत् ज्ञाता० २५२निरयावल्यां तृतीयवर्गे नास्तमेति तावत् भुनक्ति सूर्यप्रमाणभोजी, द्वितीयममध्ययनम्। निरया० २११ २९। सूरो-विक्रमी। एकोनविंशतितममसमाधि-स्थानम्। आव० ६५३। ज्ञाता० ३३६। सूरः-द्रहनाम। जम्बू० ३५५। सूरः-हृदनाम। सूरप्पह- एकादशमतीर्थकृत् शीबिका। सम० १५१| जम्बू० ३०८१ सूरप्रमाणभोजित्वं-उदयादस्तमयं यावद् भोक्तृत्वम्, सूरकंत-सूर्यकान्तः-खरबादरपृथिवीकायः। प्रज्ञा० २७ | एकोन-विंशतितममसमाधिस्थानम्। प्रश्न. १४४। पञ्चसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० १०॥ सूरमंडल-सूरमण्डलः-आदित्यविमानवृत्तः। सम० २६। सूरकान्तः-मणिभेदः। उत्त०६८९। सूरकान्तः- सूरमल्लि-सूरुल्लि-वनस्पतिविशेषः। राज० ८० पृथिवीभेदः। आचा० २९। सूरमालिआ-सूर्यमालिका-दीनाराद्याकृतिमणिकमाला। सूरकंतमणिणिस्सए- सूर्यकान्तमणिनिसृतः जम्बू० १०६। सूर्यखरकिरण-सम्पर्के सूर्यकान्तमणेर्यः समजायते सूरलेस-पञ्चसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० तत्बादरतेजस्कायः। प्रज्ञा. २९ सूरकूड-पञ्चसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० सुरवण्ण-पञ्चसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम. १० सूरज्झय- पञ्चसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम. सुरसिंग-पञ्चसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम. १०| १० सूरण-कन्दः। दशवै. १६७। कन्दविशेषः। आचा० ३० | सरसिट्ठ-पञ्चसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० सुरणए-सुरणकं-कन्दविशेषः। उत्त०६९११ १०| सूरणकंद-अनन्तकायभेदः। भग० ३००। सूरणकन्दः- सुरसिरी- सुरप्रभगाथापतेभार्या। ज्ञाता० २५२ वनस्पतिविशेषः। जीवा० २७। सूरणकन्दः सप्तमचक्र-वर्तेः स्त्रीरत्नम्। सम०१५२। साधारणबादर-वनस्पतिविशेषः। प्रज्ञा० ३४॥ सुरसेण-सुरसेनः-जनपदविशेषः। प्रज्ञा०५५। ऐरवते सूरदह- देवकरौ तृतीयो महाह्रदः। स्था० ३२६। आगामिन्यां तीर्थकृत्। सम० १५४। सूरदेव-भरते आगामिन्यां द्वितीयतीर्थकृत्। सम० १५३| | सूरहग- सूरदकः-शुरदकः कलहादिकुर्वतां शिक्षां कर्तुं सूरपव्वत-सीतोदानयौ द्वितीयो वक्षस्कारः। स्था. समर्थः। बृह. २९३ ।। सूराइय- सूरादिकः-सूरकारणः। सूर्य० २९२। सूरप्पडिही- सूर्यप्रतिधिः-सूर्यप्रतिधानं सूर्यनिवेश इति। सूराभ-अष्टसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम०१४ सूर्य० ९५ षष्ठमलोकान्तिकविमानः। स्था० ४३२। सूर्याभं-षष्ठमसुरप्पभ-सूर्यविमाने सिंहासनम्। ज्ञाता०२५२ अरक्षुरी- लोकान्तिकविमानम्। भग० २७१। नगर्यां गाथापतिः। ज्ञाता० २५२। सूरामि-सृजामि-त्यजामि। दशवै. १४४। १०| १० ३२६। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [138] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] सूरावत्त- पञ्चसागरोपमस्थितिकं देवविमानम् । सम० १०| आगम- सागर - कोषः ( भाग :- ५) सूरिआवत्त - सूर्यरुपलक्षणमेतत्तत्र चन्द्रादयश्च प्रदक्षिणामावर्त-न्ति यस्य स सूर्यावर्तः- मेरुनाम । जम्बू० ३७५| सूरिआवरण- सूर्यैरुपलक्षणमेतत् चन्द्रग्रहनक्षत्रादिभिश्चस-मन्ताद् भ्रमणशीलैराव्रियते सम वेष्ट्यते स्मेति सूर्यावरणः- मेरुनाम । जम्बू० ३७५ | सूरि- सूर्यर्तुः । सूर्य० २०९ | सूरिय- सूर्यशब्दार्थस्तथाहि सूरेभ्यः क्षमातपोदानसङ्ग्रामादि-वीरेभ्यो हितः सूरेषु वा साधुः सूर्यः । भग० ६५६। सूरियवराग - सूर्योपरागः सूर्यग्रहणम् । जीवा० २८३ | सूरियकंत- शिवराजर्ष्यधिकारे अतिदेशः । भग० ५१४ | प्रदे-शिसूर्यकान्तयोः कुमारः । राज० ११५| सूरियकंता- सूर्यकान्ता प्रदेशिनो राज्ञी | राज० ११५| सूरियगताइं - सूर्येण गतानि-चीर्णानि स्वचीर्णानि । सूर्य २१| सूरियपण्णत्ती- सूर्यप्रज्ञप्तिः-निर्युक्त्यां नवमसूत्रम्। आव० ६१| सूरियपन्नत्ती - सूर्यचर्यायाः प्रज्ञपनं यस्यां ग्रन्थपद्धतौ सा सूर्यप्रज्ञप्तिः । नन्दी० २०५१ सूरियपरिवेस– सूर्यपरिवेषः सूर्यस्य परितो वलयाकारपरि-णतिरूपः । जीवा० २८३ | सूरियमहाभद्द- सूर्यमहाभद्रः सूर्ये द्वीपेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९ । सूरियमहावर- सूर्यमहावरः- सूर्यसमुद्रे सूर्यवरे समुद्रे चाऽपरा-र्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० २६९ | ૭૮૧ सूरियभद्द- सूर्यभद्रः सूर्ये द्वीपे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः। जीवा० सूरिल्लि - सूरिल्लिः- वनस्पतिविशेषः । जीवा० २०० | सूरिल्लिः –वनस्पतिविशेषः । जम्बू० ४५। ३६९| सूरियमत- सूर्येण पूर्वं निष्क्रमणकाले अतीकृतम्। सूर्य० सूरुत्तरवडिंसग - पञ्चसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। २३| सम० १० | सूरोदय - सूर्योदयः- चन्द्राननापूर्यां चन्द्रावतंसराज्ञ उद्यानम्। पिण्ड० ७६ । सूरोवराए- सूरोपरागः- सूर्यविमानस्योपरागोराहु विमानतेज-सोपरञ्जनं ग्रहणम्। स्था॰ ४७६। सूरोवराग - सूर्यग्रहणम् । भग० १९६| सूर्यकान्त- मणिविशेषः । जीवा० २३| सूर्यमासः- सार्धत्रिंशदहोरात्रः । सूर्य० १० । सूर्यागमनप्रविभक्ति - सप्तमनाट्यभेदः । जम्बू० ४१६ । सूर्याभदेव - येन वर्द्धमानस्वामित सूरियवर- सूर्यवरः-द्वीपविशेषः समुद्रविशेषश्र्च। जीवा ० ३६९। सूर्यवरः-सूर्ये समुद्रे सूर्यवरे समुद्रे च पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः। जीवा० ३६९ | सूरियवरभद्द - सूर्यवरभद्रः- सूर्यवरभद्रः- सूर्यवरे द्वीपे पूर्वार्द्धा-धिपतिर्देवः । जीवा० ३६९ | मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] सूरियवरमहाभद्द - सूर्यवरमहाभद्रः सूर्यवरे द्वीपेऽपरार्द्धापति-र्देवः। जीवा० ३६९ | सूरियवरावभास - सूर्यवरावभासः-द्वीपविशेषः समुद्र विशेषश्च । जीवा० ३६९ | सूरियवरावभासभद्द- सूर्यवरावभासभद्रः- सूर्यवरावभासे द्वीपे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९ । सूरियवरावभासमहाभद्द - सूर्यवरावभासमहाभद्रःसूर्यवराव-भासे द्वीपेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९| सूरियवरावभासमहावर- सूर्यवरावभासमहावरः सूर्यराव भासे समुद्रेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९| सूरियवरावभासवर- सूर्यवरावभासवरः-सूर्यवरावभासे समुद्रे पूर्वार्द्धाऽधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९ | सूरियाभ- भगवत्यां जमाल्यधिकारे सूरियाभातिदेशः। भग॰ ४७३। निरयावल्यां तृतीयवर्गेऽतिदेशः । निर० २१ | सूरियाभवेव- राजप्रश्नीये निर्दिष्टा सूरियाभदेववक्तव्यता । भग० १६२ | सूरियाभविमाणं - सूरियामविमानम् । भग० १९५| सूरियावत्त- सूर्य उपलक्षणमेतत् चन्द्रग्रहनक्षत्रतारकाच प्रदक्षिणमावर्त्तन्ते यस्य स सूर्यावर्त्तः। सूर्य॰ ७८। सूरियावरण- सूर्येरुपलक्षणमेतत् चन्द्रग्रहनक्षत्रतारकाभिश्च समन्ततः परिभ्रमणशीलैराव्रियते स्म वेष्ट्यते सूर्यावरणः । सूर्य० [139] “आगम-सागर-कोषः " [५] Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] दवात्रिंशन्नाट्यविधयो भाविताः। जीवा. २४६। १४५। तस्य। दशवै० १५६। असौ-परिप्रश्नार्थः। भग. सूर्यावसिप्रविभक्तिः - पञ्चमनाट्ये भेदः। जम्बू. ४१६। बहुवचनार्थः ते। जम्बू. ३७) तत्। भग०१४। सल-शूलं-शस्त्रविशेषः। आव०६५१। शूलम्। जम्बू. तस्य। आव० ४३८ अथ-वाक्योपन्या-सार्थः परिप्रश्नार्थो २०६। शूलं-एकशूलम्। जम्बू० २६६। शूलम्। जीवा० वा। भग०१४। तस्य। अनुयो० २५६। सोऽथशब्दार्थो वा। ११७। शूलम्। आव० ५८५। शूलं-एकशूलम्। औप०७१। उत्त० २८४। तच्छब्दार्थे। आचा० ३८१ निशी. १४८ अ। शूलम्। आव० ५१३। सेशब्दोऽथशब्दार्थः। प्रज्ञा० ८। तस्यै। आव० ४२० सूलग्ग-शूलाग्रम्। जीवा. १०६| सेशब्दो मागधदेशीप्रसिद्धो निपातः तत्रशब्दार्थे, अथवा सूलपाणो- शूलपाणिः-यक्षविशेषः। आव. १९०| अयशब्दार्थे, स च वाक्योपन्यासार्थः। प्रज्ञा०७ सेशब्दोशूलपाणिः। जीवा० ३९१ ऽथार्थः। स्था०४९५। एषाम्। भग० १७४। तस्य। भग० सूलाइतयं- शूलिकाभिन्नम्। ज्ञाता० १६३ ९३। अथशब्दार्थे प्रश्नार्थश्च। प्रज्ञा०६०१। सुलाइत्त-सूलायमानः। ज्ञाता०१५९। प्रतिवचनवाचि-नोऽथशब्दार्थस्यार्थे। उत्त. १२६। ससूलाइय-शूलाप्रोतः। ज्ञाता० १५७। शूलायितः-आचरित- सावशेषकुशलकर्मा तेषाम्। उत्त. १८७। अथः। प्रज्ञा० शूलारूपः। ज्ञाता० १५७। शूलायामतिशयेन गत शूलाति- २४६। मगधदेशप्रसिद्धो निपातोऽथशब्दार्थे, अथ शब्दश्च गम्। राज० १३४१ प्रक्रियाद्यर्थाभिधायी “अथ सूलाइयग-शूलाचितकः-शूलिकाप्रोतः। औप० ८७ प्रक्रियाप्रश्नान्तर्यमङ्गलोपन्यासूलिय-शूलकः-कीलकविशेषः। प्रश्न० ८ सप्रतिवचनसमुच्ययेष"। जीवा०४। सेशब्दः मागधदेशीसूलिया- शूलिका-वध्यप्रोतनकाष्ठम्। प्रश्न.1 प्रसिद्धो निपातस्तच्छब्दार्थः। आव० ८२२तस्यारम्भासूव-सूपम्। ओघ० २१५। सूपः-पत्रशाकः। सूत्र. ११७) सोर्यः। आचा० १३०| तस्य। आव० १२८ से तस्यतदीसूपः-राद्धमुगदाल्यादिः। पिण्ड १६८१ यस्य। ज्ञाता०१०२ सूवकारा-श्रेणिविशेषः। जम्बू० १९३ सेअंस-श्रेयांस-पञ्चमो लोकोत्तरमासः। जम्बू० ४९० सूवपुरिस-सूपपुरुषः-सूपकारः। जम्बू. १०५ सेअ-स्वेदः। आव०८४५ सूवियग-पायसो। दशवै० ७५) सेअमाला- श्वेतमाला-द्रुमजातिविशेषः। जम्बू० ९८१ सूवोदण-सूप ओदनश्च सूपोदनः। ओघ० २१५ | सेअवड- श्वेतपटः-श्वेताम्बरः साधुः। दशवै० ४७। सूसमदुसमा-तृतीयारकः। स्था० ७६| सेअवि- श्वेतवी-भारदवाजब्राह्मणोत्पत्तिनगरी। आव० सूसरनाम- यदुदयवशात् जीवस्य स्वरः श्रोतृणां प्रीतिहेतु- | १७२।। रूपजायते तत् सुस्वरनाम। प्रज्ञा० ४७४। सेइंगाला- चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः। जीवा० ३२॥ सूसरपरिवादिणि-सूसरपरिवादिनी-वीणाविशेषः। प्रश्न | सेइआ- वे प्रमृति सेतिका। मगधदेशप्रसिद्धो १५९| मानविशेषः। जम्बू० २४४। सूसुमा-रागतो चिलातिपुत्रेण वर्धिता। व्यव० १२ अ। सेइया-वे प्रसृती सेविका। ज्ञाता० ११९। सेतिका। आव. सेंधणा- ग्रहणम्। निशी. ९८ अ। ६९२२ सेंधव- सिंधवलोणपव्वए लोणं। दशवै० ५१। सेउ-सेतूः-तदभिज्ञानभूतः पाली तन्मार्गो वा। स्था० सेंवली-सिंगा। दशवै. ८१।। २९४। अरहट्टजलेन सिच्यते तत्शेत्ः। बृह. ५० । सेतसे-त्वाम्। आचा०४४। स-कश्चित्-अथार्थो वा वाक्यो- मार्गमपङ्गतानां निस्तरणोपायः। स्था० ४६२। कद्दमपक्षेपे। स्था० २४७। तत्शब्दार्थे। आचा० २३४ असौ। बहुलं पाणीयं। निशी. १९२ अ। सेतुः-मार्गः। औप० २। भग० ५४२। निद्देसे। दशवै० ६५ ११८३। असौ। आव. सेदुः-कुल्याजलसेकक्षेत्रम्। औप० २। सेत्ः पालि-बन्धः। २१४। तत्। प्रज्ञा० ५९१। सेशब्दोऽथशब्दार्थः। दशवै. औप०८सेतः-मार्गः, आलवालपाली वा। जीवा. १८९। १४१। सेशब्दः मागधदेशीप्रसिद्धः अथशब्दार्थः। दशवै. र्गः आलवालपाली वा। जम्बू. ३० 1:-मा मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [140] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] :- अहट्टादिना सिंच्यमानं यन्निष्पद्यते तत्सेतु क्षेत्रम् बृह• १३८ आ । सेतुः मार्गः आलवालपालिर्वा । राज० ७ | आगम - सागर - कोषः ( भाग : - ५ ) सेउसीमा सेतुसीमा राज० स सेए- सैज :- सकम्पः । भग० २३५ | सेकः । आचा० ४१ । ज्वरविसूचिकादीनां स्वेदः आचा० ५०] श्रेयान्द्वितीय-मुहूर्त्तनाम | जम्बू- ४९१| कुन्डेद्रः । स्था० ८५| श्र्वेतः-दाक्षिणात्यकोहण्डव्यन्तराणामिन्द्रः । प्रज्ञा० ९८ सेओ सीयन्ते अवबध्यन्ते यस्मिन्नसौ कर्दमः सेयः । सूत्र० २७२ *वेतो नाम राजा राज० ९ सेकः। उत्तः १९३। खद्धम् । ओघ १२१ पकः पनको वा सजलो यत्र निमज्ज्यते स सेकः स्था० ३२८० सेकाल- एष्यत्कालः । प्रज्ञा० ५०३ | सेचनक- हल्लविहल्लयोर्गन्धहस्ती भग० ३९६| सेचनपथ - नीकादि। आचा० ४११ । सेज्जत- प्रातिवेश्मिकागृहम् । व्यव० २५७ आ । सेज्जंभव- शय्यम्भवः- दशवैकालिकसूत्ररचयिता । दशवै १९९| निशी० २४३ अ । सेज्जंस श्रेयांसः शास्त्रीयपञ्चममासनाम सूर्य. १५३1 श्रेयांसः एकादशो जिनः सम० ८ श्रेयांसः सोमप्रभपुत्रः बाहुबलिपौत्रः। आव० १४५| सेज्जा- शय्या-त्यग्वर्तनम् । ज्ञाता० २०५ | शयनीयस्थानं शेरतेऽस्यामिति शय्या | आव० २६६ । शय्या सर्वाङ्गीणां फलकादिरूपा । स्था० ३१२| शेरते यस्यं साधवः सा शय्या। स्था॰ ४६८। शय्या वसतिः । आव० ७८१ । शय्या - बृहत् संस्तारको भगः १३६ शय्या वसतिः । दशवै० २८१। शय्या-संस्तारको वसतिर्वा । दशवै० १५६ । शय्यासंस्तारकः चम्पकादिपट्टः, एकादशमपरीषहः । आव ० ६५६। शय्या-सर्वाङ्गिकी। आव० ७२७। शय्या वसतिः, यत्र वा प्रसारितपादैः सुप्यते सा शय्या प्रश्न. १२० शय्या - नैषेधिकीरूपा। आव० २६६ । शव्या-यत्र प्रसारितपादैः सुप्यते। औप० ४१ । उवसग्गादिमट्टकोट्टगादिसन्ना । दशवै० ८५। शय्यावसतिः शयनं वा यत्र प्रसारितपादैः सुप्यते ज्ञाता० १०७। शय्या आचारप्रकल्पे द्वितीयश्रुत-स्कन्धस्य द्वितीयममध्ययनम् । प्रश्नः १४५ शय्या संस्तारकः मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] चम्पकादिपट्टश्च । आव० ६५७। शय्या । ज्ञाता० ६० | शव्या. आस्तरणम् ओघ० ५६। सव्वंग्गिया। निशी. १६० आ । सेज्जातरपिंड शय्यातरपिण्डः अशनादिर्वस्त्रादिशूच्यादि । स्था० ४६८० सेज्जायर - शेरते यस्यां साधवः सा शय्या तया तरत भव-सागर इति शय्यातरो वसतिदाता स्था० ४६८० सेज्जावाली - शय्यापालिका । आव० ३६६ । सेज्जासंथार- शय्यासंस्तारो शय्या वसति, सुस्यतां यत् स्थानं शयनयोग्यावकाशलक्षणा शय्यां संस्तारकः । बृह० २८७ आ । सेज्जासंधारण शय्या शयनं तदर्थ संस्तारकभूमयः अथवा शय्यायां वसतौ संस्तारकः शय्यासंस्तारकः । ज्ञाता० ६२ ॥ सेज्जासंथारग- शय्या-सर्वाङ्गीणां फलकादिरूपा संस्तारको लघुतरोऽथवा शय्या शयनं तदर्थः संस्तारका शय्या - संस्तारकः । स्था० ३१२ | सेज्जि- आचाराङ्गस्यैकादशममध्ययनम् । उत्त० ६९६| सेटिका - द्रव्यविशेषः । आचा० २ सम० १३८ \ प्रज्ञा० ८६ | सेडि- श्रेष्ठी. श्रीदेवताऽध्यासितसौवर्णपट्टविभूषितोत्तमाङ्गः । भग० ४६४ श्रेष्ठी श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्टभूषितोत्तमाङ्गः पुरज्येष्ठो वणिक्। स्था० ४६३१ श्रेष्ठीश्रीदेवताऽ-ध्यासितसौवर्णपट्टविभूषितोत्तमाङ्गः पुरज्येष्ठो वणिग्विशेषः श्रेष्ठी । अनुयो० २३। श्रेष्ठी श्रीदेवताध्यासितः । बृह. १४५ आ श्रेष्ठी. श्रीदेवताऽध्यासितसौवर्णपट्टविभूषितोत्तमाङ्गः । भग० ३१९] श्रेष्ठी श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्टालकृतशिरःपुरज्येष्ठो वणिग्विशेषः । जम्बू० १२२ सेट्ठिय [141] - श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्टविभूषितशिरोवेष्टनोपेत पौरजननायकः । भग० १०१ | सेट्ठियाकुलं— श्रेष्ठिकुलम् । आव० ५३६ । सेड्डी- वणिग्गामे महत्तरो दशवे. १५७| जस्स रण्णा अणुण्णातं सो निशी० २०९ अ अट्ठारसण्हपगतीणं जो महत्तरो । निशी० २०९ अ । श्रेष्ठी - श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्टत्वभूषितोत्तमाङ्गः । औप० १४ श्रेष्ठी "आगम- सागर-कोषः " (५) Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] श्रीदेव-ताध्यासितसौवर्णपट्टविभूषितोत्तमाङ्गः १७३ पुरज्येष्ठो वणिग्विशेषः। जीवा० २८०। श्रेष्ठी- | सेढीअंगुल- श्रेण्यङ्गुलम्। अनुयो० १७३। श्रीदेवतालकृतशिरोवेष्टनकवान् वणिग् नायकः। सेण-सप्तमबलदेवपूर्वभवनाम। सम० १५३| प्रश्न. ९६। श्रीदेवताध्यासितशिरोवेष्टनभूषितोत्त- तेवियराया-धिता। निशी० २५९ अ। श्येनः। आव. माङ्गः-श्रेष्ठी। बृह. ८५ अ। श्रेष्ठी ३५१| पक्खो। निशी० १३३ आ। राजबिम्बविरहितं तुष्टनरपतिप्रदत्तश्री सैन्यम्। बृह. २७३ आ। देवाध्यासितसौवर्णपट्टविभूषितोत्तमाङ्गो सेणग-सेनकः-शिक्षायोगदृष्टान्ते नगरचिंताकारी नागरिकजनश्रेष्ठः। व्यव० ४६ आ। जितशत्रुराजस्थामात्यपुत्रः। आव० ६७८। सेट्ठीदोसा-णियमारक्खिओ। निशी. १६५अ। सेणयए- गुल्मविशेषः। प्रज्ञा० ३२ सेडंगुली- श्वेताङ्गलिः। निशी. १०१ अ। सेणा- सेना-कल्पवंशप्रसूतशकटालस्य पञ्चमी पुत्री। सेडिया-सेटिका-खटिका। आचा० ३४२ वनस्पतिकाय- आव०६९३। सेना-योगसङ्ग्रहे शिक्षादृष्टान्ते विशेषः। भग० ८०२२ श्रेणिकभगिनी। आव०६७२। सेना-चातुरङ्गबलसमूहः। सेडी- लोमपक्षिविशेषः। प्रज्ञा०४९। उत्त०६०५। सेना-महती सन्ततिः। उत्त० ३६६। सेनासेडीवड-लोमपक्षिविशेषः। जीवा० ४१। संभवनाथमाता। आव० १६० सेडुग- कर्पासः। बृह० ११६अ। सेणावइ-सेनापतिः-चतुरन्तस्वामी राज्ञानुज्ञातः। आव. सेडुगतिल-निश्चेतकतिलः। बृह. ११६ आ। ६६३। सेनापतिः-गणराजा। आव०५१६। सेनापतिःसेडुगवतंत-सेटुकवृत्तान्तम्। आव०६८१। नृपतिनिरूपितचतुरङ्गसैन्यनायकः। भग० ३१९) सेढि-श्रेणिः-आकाशप्रदेशपक्तिः । उत्त० ५९७। श्रेणि:- सेनापतिः -यदायत्ता नृपेण चतुरङ्गसेना कृत भवति। तथाविधबिन्दुजातादेः पङ्क्तिः । जम्बू० ३१| जम्बू. १२२ सेडिआ- श्वेतिका-शुक्लमृत्तिका। दशवै० १७० सेणावच्च-सेनापत्यम्। जम्बू०६३। सेढिगणिओवाओ- एयस्स ठवणारोवणसंवहेस्स सेणावति-सेनापतिः-नृपतिनिरूपितो संवग्गफला-णयणिमित्तं आयरिएहिं इमो सहमो, हस्त्यश्वरथपदातिस-मुदायलक्षणाया सेनायाः प्रभुः। सेढिगणिउवाओ उद्दिट्ठो। निशी. १०८ आ। स्था० ४६३। सेनापतिः-सकलानीकनायकः। प्रश्न.७९| सेढितवो- श्रेणितपः-पङ्क्त्य पलक्षित तपः। उत्त०६०० सेनापतिः-हस्त्यश्वरथ-पदातिसमदायलक्षणा या सेना सेढिद्ग- श्रेणिविकं-उपशमश्रेणिक्षपकश्रेणिलक्षणम्। तस्याः प्रभः। जीवा. २८० सेनापतिः-सैन्यनायकः। बृह. १३९ आ। प्रश्न. ९६| सेढिसय-ऋज्वायतश्रेणिप्रधानं शतं श्रेणीशतम। भग० । सेणावती-सेनापतिः-सैन्यनायकः। स्था० ३९९। ९६४ सेनापतिः-नृपतिनिरूपितचतुरङ्गसैन्यनायकः। प्रज्ञा० सेढी- श्रेणिः-उत्तरोत्तरगुणपरम्परास्वरूपा। उत्त० ५८० ३२७ श्रेणिः-उत्तरोत्तरगणपरम्परास्वरूपा। उत्त०५८०) सेणावतीरयण-सेनापतिः-सैन्यनायकः, चक्रवर्तेः श्रेणिः-प्रदेशपक्तिः । स्था०४०७। श्रेणिः पञ्चेन्द्रिय-प्रथमरत्नः। स्था० ३९८१ क्षेत्रप्रदेशपङ्क्तिः । आव०१४। श्रेणिः-पङ्क्तिमात्रं सेणाहिव-सेनाधिपः। आव० ७३८१ आकाशप्रदेशपङ्क्तिः । भग० ८६५। श्रेणिः सेणि- श्रेणयः। जम्बू. १९३। कुम्भकाराद्या अष्टादशश्रेतथाविधबिन्दुजातादेः पक्तिः । जीवा० १८९। णयः। जम्बू० २६४। भग० ३१५ प्रमाणाङ्गुलेन यद्योजनं तेन योजनेना। अनुयो० १५६। | सेणिओ- राजगृहे राजा। ज्ञाता० ११। राजगृहे नरपतिः। सख्येययोजनकोटाकोट्यः, ज्ञाता० १७८। राजगृहे नृपतिः। उपा० ४८। श्रेणिकःसंवर्तितसमचतुरस्रोकृतलको-स्यैका श्रेणिः। अनुयो० | राजगृहे नरपतिः। अन्त० १८ राजगृहे नरपतिः। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [142] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] अनुत्त० १०। राजगृहे राजा। अनुत्त० ७। राजगृहे राजा। | । औप० ५५| ज्ञाता० २४७ श्रेणिकः-राजगृहनगराधिपतिः। अन्त० | सोणिसूत्तग- श्रोणिकसूत्रकं-कटिसूत्रकम्। जम्बू. १०६) १८ रायगिहे राया। निशी० ७ आ। श्रेणिकः-शुद्धिविषये | सोणी- श्रोणिः-बाहल्यं पिण्डः। जम्बू. २३८ श्रोणिः-कटी। वस्त्रदृष्टान्ते राजगृहेराजा। आव० ५६२। श्रेणिकः- प्रश्न० ८३। श्रोणिः-कटेरग्रभागः। जीवा. २७५। श्रोणिःउपबृंह-णोदाहरणे रायगिहे राजा। दशवै० १०२ कटेरग्रभागः। जम्बू. ११४। भावोपायोदाहरणे राजा। दशवै० ४१। श्रेणिकः-राजगृहे सोणीसुत्तय-श्रोणिसूत्रकं-भूषणविधिविशेषः। जीवा. नगरे राजा। विषयकोपे उदाहरणम्। आव० ९५। २६९। श्रेणिकः-गुरोविनयकरणदृष्टान्ते राजा। दशवै० १०४। सोतणता- शोचनता-दीनता। स्था० १८९। श्रेणिकः-द्रव्यव्युत्सर्गोदाहरणे राजा आव० ४८७। सोतांसि-श्रोतांसि-इन्द्रियाणि। प्रश्न. १०५। श्रेणिकः-औत्पत्तिकीबुद्धिदृष्टान्ते मुद्रारत्ने सोतामणी- चतुर्थीविद्युत्कुमारीमहत्तरिका। स्था० ३६११ प्रसेनजित्सुतः। आव० ४१७। राजगृहनगरे राया। बृह. चतुर्थी विद्यत्कुमारी महत्तरिका। स्था० १९८१ ३१ । सोतिदिय- श्रोत्रेन्द्रियं-पञ्चममिन्द्रियम्। प्रज्ञा० २९३। सेणिओराया- एकस्थम्भप्रासादकारकः। व्यव० १७अ। सोत्तबंधण- श्रोताबन्धनं-जलप्रवेशवारणम्। प्रश्न १४ राजगृहे राजा। व्यव० १९ अ। सोत्तिए- सूत्रं पण्यमस्येति सोत्रिकः। अन्यो. १४९। सेणिय-श्रेणिकः-गुरोविनयकरणदृष्टान्ते राजा। दशवै. सोत्तिओ-सौत्रिकः। आव०४१८१ १०४१ श्रेणिकः-संवरोदाहरणे राजगृहनगरे पृच्छकः। | सोत्तिय- हरितविशेषः। प्रज्ञा० ३३। श्रुतिस्मृति आव० ७१३। भरतै आगामिन्यां क्रियावर्जितो श्रोत्रिकः। निशी. ९७ आ। प्रथमतीर्थकृत्पूर्वभवनाम। सम० १५४। कोणिकपिता। द्वीन्द्रियजन्तुविशेषः। प्रज्ञा०४१। निर०४॥ द्वीन्द्रियजन्तुविशेषः। जीवा० ३१| सोगसण्णा- शोकसंज्ञा-विप्रलापवैमनस्यरूपा। आचा. सोत्तियवई-शौक्तिकावती-आर्यक्षेत्रे चेदिजनपदे नगरम १२॥ । प्रज्ञा० ५५ सोगिल- शोफवत्। विपा०७४। सोत्तिया-सुत्ते भवा वस्त्रकंबल्यादि। निशी० १२११ सोचविय- शोचं-तृतीयं महाव्रतम्। स्था० ४६५। सोत्थिअ-स्वस्तिकः। जम्बू० ५३५। स्वस्तिकः-अष्टमसोच्चा-आकर्ण्य। भग० ८९। श्रुत्वा-आकर्ण्य। जीवा. ङ्गले सप्तमम्। जम्बू०४१९। सोत्थिए- षष्ठीतममहाग्रहः। स्था० ७९। सोज्झ-शुद्धिः प्रक्षेपश्च। उत्त० ५३७। सोत्थिकूड-विमानविशेषः। जीवा० १३७ सोढं-णिस्संदिद्धं। निशी० ३१२ अ। सोत्थिय-स्वस्तिकः-दक्षिणेन हस्तेन वामं बाहशीर्ष सोणंद-त्रिकाष्ठिका। मूशलम्। औप० २०। त्रिकाष्ठिका वामेन दक्षिणं एष दवयोरपि कल्पविकयोर्हदये यो मूशलम्। प्रश्न० ८०| सौनन्दं-आयुधम्। जम्बू. १११। विन्यासविशेषः। स स्वस्तिकाकार इति कृत्वा स्वस्तिक सोणिए-समुर्छिममनुष्योत्पत्तिस्थानम्। प्रज्ञा० ५० उच्यते। बृह. २३७ आ। स्वस्तिकः। जम्बू० २०९। सोणिताणुसारी- शोणितानुसारि। स्था० ३७५/ सोत्थियकंत- विमानविशेषः। जीवा. १३७। सोणिय- शोणितं-रक्तम्। प्रश्न. ८ शोणितं सोत्थियज्झय-विमानविशेषः। जीवा. १३७ नवविकृतिमध्ये एकः। आव०८५४| शोणितं-आर्तवं सोत्थियपभ-विमानविशेषः। जीवा. १३७ सामान्येन वा रुधिरम्। ज्ञाता० १४७। शौनिकः- सोत्थियलेस-विमानविशेषः। जीवा. १३७। श्र्वद्वितीयोः लुब्धकः। बृह. ८२॥ सोत्थियवन्न-विमानविशेषः। जीवा० १३७। सोणिसुत्तग- श्रेणिसूत्रकं-बालकानां वर्मादिदवरकरूपं सोत्थियावत्त-विमानविशेषः। जीवा० १३७। कटी-सूत्रम्। ज्ञाता० २३०| श्रोणिसूत्रकं-सौवर्णकटीसूत्रम् | सोत्थिसिगार-विमानविशेषः। जीवा० १३७ २४३ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [143] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] सोत्युत्तरवहिंसग विमानविशेषः । जीवा० १३७| सोदरिया सौदर्याः समानकुक्षिभवा भ्रातरः । उत्त० ४०६। सोदामणी धरणेन्द्रनागकुमारेन्द्रस्य चतुर्थोऽयमहिषी । भग० ५०४१ सौदामिनी-विदियुचकवास्तव्या चतुर्थी दिक्कु मारी। जम्बू. ३९१ सोदास- आधाकर्मण अभोज्यतायां उग्रतेजसो ज्येष्ठभ्राता। पिण्ड॰ ७१ | सौदासः - जिह्वेन्द्रियदृष्टान्ते मांसप्रियो राजा । आव० ४०१ । सोदासः - स्वर्गे कायोत्सर्गफलमिति दृष्टान्ते राजा । आव० ७९९ | सोधिकप्पो सोधिः प्रायश्चित्त तं द्रव्यादिपुरुषभेदेन कल्पते यः स सोधिकल्पः | निशी० १४६ आ सोधिय गुणयोगात् शोभितः, शुद्धिकारी शोधिदः, सुहृदासर्वप्राणिमित्रम् प्रश्न. १५७ सोधीकर चौहसपुवीहिं णिबद्धं तं जो गणपरिवीत्तत्थे धरेति सोवि सोधीकरो, चोद्दसपुव्वेहिं णिज्झहिओ एस पक्कप्पो णिबद्धो तदारी सोधिकारीत्यर्थः निशी० १४६ आ आगम- सागर - कोषः ( भाग : - ५ ) सोद्धरित सावशेषम्। उत्त० ५३९१ सोपचार- ग्रामभणितिरहितम्। अनुयो० २६२रा सोपार यत्र अनमलपराजितः। व्यव. ३५७1 सोपारए - सोपारकः- पत्तनविशेषः मल्लवल्लभसिहगिरिराजधानी । आव० ६६४ | सोपारय- सोपारकं-शिल्पसिद्धविषयदृष्टान्ते नगरं, यत्र सर्व शिल्पकुशलो रथकारः आव. ४०९। सोपारकंसमुद्रतटे सिंहगिरिराजधानी उत्त० १९२१ सोपारकंनगरविशेषः । आव० ३०४१ सोपारकं शिल्पसिद्धदृष्टान्ते नगरम्। आव० ४१० | सोपारकं योगसंग्रहे आलोचनादृष्टान्ते समुद्रतीरे नगरम् । आव० ६६५ सोप्पारग- पंचकुटुंबियनगरं । निशी० ५ आ । सोबहिफोडो- सोबधिस्फोटः । आव० २०७ सोभण- शोभनः निर्दोषगुणपोषः । जम्बू० २३७॥ सोभा - शोभा-तत्कालोचितपरभागलक्षणा । उत्त० ४८३ । सोभावियं शोभितम् आव० १९८८ सीभेति- शोभयति-पारणकदिने गुरुदत्तशेषभोजनकरणात् शोधयति वाअतिचारपङ्कक्षालकः । ज्ञाता० ७३३ सोमंगलग वीन्द्रियविशेषः । प्रजा० ४१| - मुनि दीपरत्नसागरजी रचित वीन्द्रियजन्तुविशेषः । जीवा० ३१| सोमंगला वीन्द्रियजीवविशेषः । उत्त• ६९५ | सोम- सौम्यः अरौद्राकार:- निरोगः । भग० ५७८ सौम्यंअरौद्रम्। ज्ञाता० २१३। चम्पायां ब्राह्मणः । ज्ञाता० १९६| सोमः अविषमगात्रः । ज्ञाता० ६ सौम्यःअरौद्राकारो नीरोगो वा । ज्ञाता० ६६ । सोमःपूर्वदिक्पालः । जम्बू० ७५| सश्रीकः । जम्बू० ११३ | एकादशममहाग्रहः । स्था० ७८ । चमरेन्द्रस्य प्रथमो लोकपालः । स्था० १९७ सोमः द्वादशममहाग्रहः । जम्बू• ५३४५ तृतीयबलदेववासुदेवपिता सम० १५२| सोमः पुरुषोत्तमवासुदेवपिता आव० १६३ | सौम्यःअदारुणः नीरजो वा प्रश्न ७०] दृष्टिसुभगम्। जीवा० २६९॥ सश्रीकम् जीवा० २७३ | सुभगम्। जीवा० २०७१ सभ्यः सर्वजननयनमनोरमणीयः । आचा० ३१ सौम्यंउपशान्तम् जाता० १३ | सौम्यः अरौद्राकारः । सूर्य० २९२ [Type text] सोमकाइय सोमस्य काय:- निकायः यस्यास्तीति स सोम-कायिकः-सोमपरिवारभूतः । भग० १९६| सोमचंद ऐरवते सप्तमतीर्थकृत्। सम० १५३॥ सोमजमवरुणवेसमणकाइया जम्बू. ७रा सोमजसा - सोमयशाः शौचोदाहरणे [144] सोमयमवरुणवैश्रमणकायिकाः-आभियोगिकदेवाः । यज्ञयशस्तापसस्नुषा। आव० ७०५ सोमण - स्वप्नोनिद्रावशविकल्पः । स्था० ३८० | सोमणस - मध्यमहेट्ठिमगैयेवकविमानप्रस्तटनाम। स्था० ४५३ | सौमनसः यानविमानकारको देवः । जम्बू. ४०५% सौमनसः पर्वतविशेषः । प्रज्ञा० १६१। सौमनसः - शास्त्रिनवमदिवसः | सूर्य० १४७। सौमनसः अष्टमदिवसनाम । जम्बू• ४९० सैमनसो वक्षस्कारः । जम्बू• ३५३ सुमनसामयमावास इति सौमनसः। जम्बू० ३५४| सौमनसकूट- सौमनसवक्षस्कारकूटनाम्। जम्बू. ३५७1 सौमनसः-रुचकसमुद्रेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६८ सौमनसः । स्था० ७१ | सौमनसं सुमनसां देवानामिदं वनम् । जम्बू. ३६३] सौमनस्यं धर्मजिनस्य प्रथमपारणकस्थानम् । आव० १४६ | सौमनसः । औप० ५२ | सोमणसवण- सौमनसवनं, सुमनसां देवानामिदं *आगम - सागर- कोषः " (५) Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सौमनसं देवोपभोग्यभूमिकासनादिमत्त्वम्। जम्बू रिण्याः विशेषणमिदम् अनन्तरविषये ३५९। स्था०८० प्रत्युपद्रवाकरणात्। ओघ०१७) सोमणसा-सौमनसा-पञ्चमरात्रिनाम। जम्बू० ४९१। | सोमया-कुच्छगोत्रे सप्तमो भेदः। स्था० ३९०| स्था० ८०। सौमनसा-शास्त्रीयपञ्चमीरात्री। सूर्य. १४७ | सोमलेस-अनुपतापकारिपरिणामः। स्था० ४६५ सौमनसा-दक्षिणपूर्वव्यतिकरपर्वतस्य दक्षिणस्यां सोमलेस्स-अनुपतापहेतुमनःपरिणामः सोमलेश्यः। शक्रदेवे-न्द्रस्य शिवाऽभिधानमहिण्या राजधानी। जीवा० | औप० ३६। ३६५। सौमनस्य हेतुत्वात् सौमनस्या, न हि तां पश्यतः | सोमविजयवाचक-वाचकविशेषः। जम्बू. ५४५) कस्यापि मनोदुष्टं भवति। जम्बू. ३३६। सौमनस्य सोमसिरी-सोमश्री-दवारवत्यां सोमिलब्राह्मणभार्या। हेतुत्वात्। सौमनस्या, जम्ब्वाः सुदर्शनायाः दशमं नाम। | अन्त०९। जीवा० २९९। शक्रेन्द्राग्रमहिषीणां राजधानी। स्था० २३१| | सोमा- शक्रदेवेन्द्रस्य चतुर्थ्यग्रमहिषी। स्था० २०४। सोमणस्सिय-समनसो भावः सौमनस्यम्। जीवा. २४३। सप्तमी दिशा। भग०४९३। सोममहाराज्ञोः सोमदत्त-सोमदत्तः-शतानीकराजस्य पुरोहितः। विपा. चतुर्थ्याग्रमहिषी। भग० ५०५। सौम्याः कायकुचेष्टा ६८। अष्टमजिनप्रथमभिक्षादाता। सम० १५१। अभावात्। जम्बू० ३१४। सप्तमतीर्थकृत् प्रथमा शिष्या। सोमदत्तः-चन्द्र-प्रभजिनप्रथमभिक्षादाता। आव० १४७ सम० १५२। सोमिलात्मजा। अन्त०९। सिन्धुदत्तस्ता सोमदत्तः-कौशाम्ब्यां यज्ञदत्तस्य ज्येष्ठसुतः। उत्त. ब्रह्मदत्तराज्ञी। उत्त० ३७९। उत्पलभगिनी। आव० ११५१ चम्पायां ब्राह्मणः। ज्ञाता० १९६। २०२। सौम्या-दिग्दाहायुत्पातव-र्जिता। ज्ञाता० १२४। सोमदत्ताई-नयूढाः सागरे मृताः। मरण सोमिलब्राह्मणपत्नी। अन्त०९। विभेलसन्निवेसे सोमदासी-सोमदासीनामा श्राविका। आव० १९८१ दारिया। निर० ३३। सोमदेवः- यज्ञवाटकाधिपतिः प्रोहितः। उत्त० ३६५) सोमाकार-सौम्याकारं-शान्ताकृतिः। ज्ञाता० १३। सोमदेवो-ब्राह्मणविशेषः। निशी० २९ आ। सोमदेवः- सोमालंगी-सुकुमालाङ्गी। भक्त। पद्म-प्रभजिनप्रथमभिक्षादाता। आव० १४७) सोमित्ता-सौमित्री-शौचोदाहरणे यज्ञयशस्तापसभार्या। षष्ठमजिनप्रथमभि-क्षादाता। सम० १५१। सोमदेवः- आव०७०५ आर्यरक्षितपिता। आव. २९६। सोमदेवः सोमिदासी- जिणदासपत्नी श्राविका। आव० १९८१ आर्यरक्षितपिता। उत्त० ९६। सोमदेवः-कौशाम्ब्यां सोमिल-सोमिलः-द्वारवत्त्यां ब्राह्मणविशेषः। अन्त० यज्ञदत्तलघुसुतः। उत्त० १११। ९। वनिकग्रामे ब्राह्मणः। भग०७५८। वाणारस्यां सोमदेवय-सोमदेवता-सोमसामानिकादिः। भग० १९६।। ब्राह्मणः। निर० २३। सोमिलः-गजसुकुमालमारको सोमदेवयकाइय-सोमदेवताकायिकः-सोमदेवता-सोमसा- ब्राह्मणः। व्यव. १८८ आ। उज्जेणीनगरी, तत्थ मानिकादयस्तासां कायो यस्यास्ति सः सोमिलो नाम बंमणो। बृह. १९० आ। बंभणो। निशी सोमदेवताकायिकः-सोमसामानिकादिदेवपरिवारभूतः। २९ आ। मध्य-मानगर्यां ब्राह्मणः। आव० २२९। भग. १९६ सोमिलः-भयादायर्भेदे दृष्टान्तः। आव २७२। सोमप्पभे-असुरकुमारस्योत्पातपर्वतः। स्था० ४८२। सोमिलविजः- भयाद् प्राणत्यागे दृष्टान्तः। अन्यो. सोम-प्रभः-बाहुबलिपुत्रः श्रेयांसपिता। आव० १४५) १३७ सोमभूई- सोमभूतिः-प्रद्वेषविषये येन गजसुकुमालो सोमिलुद्देसए- भगवत्यामष्टादशशतके दशमोद्देशकः। व्यपरो-पितः। आव०४०४। सोमभूतिः भग० ९२४, ९२ सोमदत्तसोमदेवयोराचार्यः। उत्त० १११| सोम्म-सौम्यं-चान्द्रमसापरनाम मृगशिरो देवता। जम्बू० सोमभूतो- चम्पायां ब्राह्मणः। ज्ञाता० १९६। ४९९। सोममुहो- सौम्यमुखी-सौम्यं मुखं यस्याः सा, अशिवका- | सोम्मा- सौम्या-उत्तरदिक्। आव० २१५१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [145] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] १६० सोयंधिए-सौगन्धिककाण्डं-अष्टमं सौगन्धकानां प्रधानमणिः। उत्त० ४९० काण्डम्। जीवा० ८९ सोयावण- शोकापनः-दैन्यप्रापणः। भग. १८४॥ सोय-शोकम्। आचा. १९४| विषयाभिष्वङ्गः- सोयावरण- द्रव्येन्द्रियावरणः। भग० ६३। संसारश्रोतः। आचा० १६४। शौचं-द्रव्यतो निर्लेपता सोरिअनयर- सौरिकनगरं-नेमिनाथजन्मभूमिः। आव. भावतोऽनवद्यसमा-चारः। औप० ३३। शौचंसर्वोपाधिशुचित्वं निर्वाच्यव्रत-धारणम्। आचा० २५६। | सोरट्ठ-सौराष्ट्र:-गुरुनिग्रहविषये सौराष्ट्रश्रावकः। आव. पापोपादानम्। आचा० १९४। शौचं-द्रव्यतो निर्लेपता। ८१३। सुराष्ट्रः जनपदविशेषः। प्रज्ञा० ५६। सौराष्ट्रः। ज्ञाता०७ शौचं-संयम प्रति निरुपलेपता। आव०६४६। दशवै० ३५ श्रोत्रं-श्रोत्रेन्द्रियविषयः क्षयोपशमः। प्रज्ञा० ४६० शौचं- सोरहिआ-सौराष्ट्रिका-त्वरिका। दशवै० १७० द्रव्यतो निर्लेपता भावतो-ऽनवयसमाचारता। राज. सोरहिया-सौराष्ट्रिका-तवरिका। आचा० ३४२॥ ११९| वरमट्टिया। निशी० २१८ आ। चरिया जीए सवण्णकारा सोयणं- शोचनं-अश्रुपरिपूर्णनयनय दैन्यम्। आव० ५८७। उप्पक-रेति सवण्णस्स पिंडं। दशवै. ७८ सोयणया-दीनता। भग. ९२६। जोणी। दशवै० १५ सोरहसड्ढग- सौराष्ट्रश्रावकः। आव० ८१८ सोयमाण- शोचत्सु मनसा खिद्यमानः। ज्ञाता० १५७।। सोरिय-सौरिकं-आर्यक्षेत्रकुशावर्त्तजनपदे नगरम्। प्रज्ञा० सोयमाणी-धरणस्याग्रमहिषी। ज्ञाता० २५१। ५५) शौरिकनगरे शौरिकदत्तो नाम मत्स्यबन्धकपुत्रः। सोयमूलय-परिव्राजकधर्मः। ज्ञाता० १०५। स्था० ५०८। शौर्यः-शौर्यपुरस्य शौर्यवतंसकोद्याने यक्षः। सोयरिओ-शौकरिकः। आव०४०१॥ विषा०७९। शौर्यपुरे-सत्योदाहरणे नगरम्। आव०७०५) सोयरिय-शौकरिकः-सूकरैश्चरति-मृगयां करोतीती सोरियदत्त-शौर्यदत्तः-समुद्रदत्तमत्स्यबन्धसुतः। सौक-रिकः। स्था० २३८॥ शौकरिकः। यः शूकरैर्मृगयां । विपा० ७९। शोरिकदत्तः मत्स्यबन्धपुत्रः करोति सः। प्रश्न० १३सौदर्यः-भ्रातृभगिन्यादिः। सूत्र० | दुःखविपाकानामष्टमम-ध्ययनम्। विपा० ३५ १३। शौकरिकः-स्वपचश्चाण्डालः खट्टिक इति। सूत्र. शौर्यदत्तः-शौर्यपुराधिपतिः। विपा.७९ ३२१। शौकरिकः। पिण्ड० ९८। शौकरिकः-शूकरेण | सोरियपुर- सौर्यपुरं-वसुदेवराजधानी। उत्त० ४८९। सन्निहितेन शूकरवधार्थं चरति, शूकरान् वा घ्नन्तीति शौर्यपरं -शौर्यदत्तराजधानी। विपा० ७९। शौकरिकः। अनयो० १३०| निशी० २१४ आ। सोरियवडेंसग-शौर्यावतंसकं-शौर्यपरे उदयानम्। विपा. सोयविण्णाण- श्रोतविज्ञानं-श्रोत्रेन्द्रियोपयोगः। प्रज्ञा. ७९| ४६० सोल-तुरगचिन्तकः। बृह० ३११ अ। सोयविन्नाणावरण-भावेन्द्रियावरणः। भग०६३। सोलसग-सूत्रकृताङ्गस्य षोडशममध्ययनम्। सम० ३१| सोयविय-शौचम्। सूत्र० ३०१| श्रेणिकः-प्रसेनजित्पत्रः-प्रधानदर्शनवतोऽपि चारित्रेण सोयस-श्रेयान् कल्याणकारित्वात्। व्यव० ३९८ अ। विनाऽधरगतिप्राप्तिः। आव. ५३२ श्रेणिकःसोया- श्रोतांसि-काश्रवद्वाराणि तानि च सवरोदाहरणे राजगृहनरेशः। आव०७१३। श्रेणिकः। प्रतिभवाभ्यासा-विषयानुबन्धादीनि गृह्यन्ते, तत्र भक्त। उर्दध्वं श्रोतांसि-वेमानिका-ङ्गनाभिलाषेच्छा सेणियराय- श्रेणिकराजःवैमानिकसुखनिदानं वा। आचा० २२९। श्रोता। आव० चरणकरणेऽशक्तानामालम्बनम्। आव०५३१| २३७। श्रोता-गर्भाशयश्छिद्रलक्षणं यस्याः सा। स्था. सेणी- श्रेणीः। आव. २०३। श्रेणिकः। भक्त। ३९३ सेण्टित-सेण्टनं-सेण्टितं तत्सेण्टितं-अनक्षरश्रुतविशेषः। सोयामणी- सौदामिनी-विदिग्रुचकवास्तव्या आव. २५। उत्कृष्टबालक्रीडापनम्। आव० १३०| विदयुत्कुमारी-स्वामिनी। आव. १२२१ सौदामिनी- सेण्हय-वनस्पतिकायविशेषः। भग०८०३। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [146] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सेत- श्रेयान्-द्वितीयमुहूर्तः। सूर्य. १४६। सेयणगंधहत्थि- हस्तिविशेषः। ज्ञाता० २५१ नाट्याधिपतिर्देवः। स्था०४०। श्रेयान्-अतिप्रशस्यः | सेयणगपिट्ठ-सेचनकपृष्ठं श्येनपृष्ठम्। सूर्य०७१। श्वेतो वा। स्था० ४६३। सेयणगसंठिया-श्येनकसंस्थान-श्येनकसंस्थिता। सूर्य. सेतणओ-सेचनकः-नयां तन्तुकेन गृहीतो गन्धहस्ती। | ७१। आव० ३५५ सेयपुर-श्वेनपुरं, सुविधेः प्रथमपारणकस्थानम्। आव. सेतबंधुजीव-श्वेतबन्धजीवः। प्रज्ञा० ३६१| १४६। सेतिका- वनस्पतिफलविशेषः। प्रज्ञा०६०२ सेयबंधुजोए-श्वेतबन्ध जीवः। जीवा० १९१| सेतु-सेतुः-मार्गविशेषः पालिर्वा। प्रश्न०८ सेयबिय- श्वेताम्बी। आव. २२११ सेतुञ्ज-पाण्डवानां सिद्धगमनगिरिः। ज्ञाता० २२६। सेयभद्द- श्वेतभद्रः-कौशाम्ब्यां चन्द्रोत्तरणोदयाने समुख-कुमारसिद्धिगमनस्थानम्। अन्त०१४। यक्षविशेषः। विपा०६८० सेदसप्पा-दर्वीकर अहिभेदविशेषः। प्रज्ञा० ४६। सेयवग-लोमपक्षिविशेषः। जीवा०४१। सेदक- ब्राह्मणविशेषः। व्यव. १९१ अ। सेयविया-श्वेतविका-श्वेताम्बिका। राज० ११४१ सेधितं- निष्पादितम्। ज्ञाता०६१। श्वेतविका नगरी यस्यामव्यक्तकदृष्टिः समुत्पन्ना। सेब्भगो-समोसियगो। निशी० २११ आ। आव. ३१५ श्वेता-म्बिका-केकयजनपदा? आर्यक्षेत्रम्। सेयंकर-अष्टषष्ठीतममहागृहः। स्था०७९। श्रेयस्करः। प्रज्ञा०५५। श्वेताम्बी-यत्र तृतीयो निह्नव उत्पन्नः। जम्बू. ५३५ उत्त० १६० श्वेताम्बी-नगरी। आव० १९७। सेयंबिया- श्वेताम्बिका श्वेताम्बिका-अव्यक्तनिह्नवोत्पत्तिस्थानम्। आव० चण्डकौशिकाश्रमनिकटवर्तिनगरी। आव० १९६। ३१२ सेयंस- चतुर्थबलदेववासुदेवस्य धर्माचार्यः। सम० १५३। । सेयसप्प- श्वेतसर्पः-उरःपरिसर्पविशेषः। जीवा० ३९। सेयंसो-पड्कः। ज्ञाता०६८ सेया- शक्रदेवेन्द्रस्य तृतीयाऽग्रमहिषी। भग. ५०५ सेय- श्रेयः पुण्यमात्महितं वा। आचा० १६९। स्वेदः- सेयाइ- श्वेतता-प्रकाशः। सूर्य०६। प्रस्वेदः। प्रश्न. १३७। स्वेदः प्रस्वेदः। जीवा. २७७। सेयाल- एष्यत्कालः। भग० २२। एष्यत्कालः-चतुर्थसमश्रेयः-उपशमश्रेणिमस्तकावस्था, यादि। उत्त०५९६। उपशान्तसर्वमोहावस्थेति। सूत्र. १९७। श्रेयः-कल्याणम्। | सेयावंग-स्वेदापन्नो-जातस्वेदः श्वेतापाङ्गो वा। ज्ञाता. भग. ११६ श्वेतम्। जीवा० ३६०| स्वेदः-स्यन्दः। प्रश्न. | ९५ १६२ श्रेयः-पथ्यं हितम्। दशवै०१३७स्वेदः-प्रस्वेदः। | सेयासोए- श्वेताशोकः। प्रज्ञा० ३६१। भग. ३७ प्रस्वेदः। निशी. १९० आ। अत्यन्तशुक्ला।। | सेयासोय- श्वेताशोक-कनकपुरनगरे उद्यानम्। विपा. ज्ञाता०१५ सेयकंठ-महासेनाधिपतिः। स्था० ३०२ सेरिआगुम्मा- सेरिकागुल्माः। जम्बू. ९८१ सेयकणवीर-श्वेतकणवीरम्। जीवा. १९१| सेरिका- रथ्या। उत्त० ६०५ श्वेतकणवीरम्। प्रज्ञा० ३६१। सेरित्तु-वीर्य क्षिप्त्वा-व्युत्सृज्य। आव० ६८५१ सेयकाल-आगामी तृतीयसमयः। सूत्र० १३७। सेरियागुम्म-वृक्षविशेषः। जीवा० १४५ एष्यत्कालः। भग० १८५। एष्यत्कालः। भग० ९२८। सेरुयालवण-वृक्षविशेषवनम्। जीवा० १४५) एष्यत्कालः। आव०६१५ सेल-शैलः-पाषाणः लक्ष्णरूपः। स्था० २३५ शैलःसेयचंदण- श्वेतचन्दन-श्रीखण्डम्। प्रश्न. १६२। शिखरहीनपर्वतः। प्रज्ञा० ७११ पव्वतो। निशी. ७० अ। सेयण-सप्तध्यान्यकादिभिः स्वेदनम्। ज्ञाता० १८१। शैलः-पर्वतः। आव. ५६८1 मण्डपर्वतः। भग. २३८1 सेयणओ-सेचनकः एतदभिधानो गन्धहस्ती। उत्त० ५३। | पाषाणः। ओघ० १२७। ९५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [147] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] सेलए– षष्ठाङ्गस्य पञ्चमं ज्ञातम् । उत्त० ६१४ | ज्ञातायां पञ्च-ममध्ययनम्। आव० ६५३ | ज्ञातायां पञ्चममध्ययनम् । सम० ३६ शैलकपुरे राजा ज्ञाता० १०४, १६३ । सेलकार - शिल्पविशेषः । अनुयो० १४९१ सेलकुड्ड शैलभित्तिः । मरण० । सेल - शैलको राजर्षिः, ज्ञातायां पञ्चममध्ययनम् । ज्ञाता० ९। ज्ञातायामेकोनविंशतितमेऽध्ययनेऽतिदेशः । ज्ञाता० २४२॥ सेलगपुर - शैलकराजनगरम्। ज्ञाता० १०४। सेलगिह शैलगृहं पर्वतमुत्कीर्य यत्कृतम्। स्था० २९४ शैलगृहं पर्वतमुत्कीर्य कृतं गृहम् । भग० २००१ सेलतता वत्सगोत्रे भेदः । स्था० ३९० | आगम- सागर - कोषः (भाग:-५) सेलपाल धरणस्य तृतीयो लोकपालः स्था० १९७ । सेलमालगाएकोस्कद्वीपे वृक्षविशेषः । जीवा० १४५ सेलवालए अन्ययूथिकः । भग- ३२३१ सेलसुत्थिय शैलसुस्थितम्। जीवा० २६९ | सेला मुण्डपर्वताः । अनुयो० १७११ - सेलु शेलुः श्लेष्मातकः वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३१ वनस्पतिकायविशेषः । भग-८०३1 सेलू - श्लेष्मातकः शेलु वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३१। सेलेस शैलेशः सर्वसंवरूपचरणप्रभुस्तस्येयमवस्था शैलेशो वा मेरुः । भग० ९५| सेलेसिंद- शैलेशेन्द्रः, उरः परिसर्पविशेषः । जीवा० ३९ | सेलेसि- शैलेशी- मेरुवत् स्थैर्यावस्था । भग० ९५१ शैलशस्येव मेरोरिव या स्थिरता सा शैलेशी स्था० १९२३ शैलेशी । स्था० १९१ | शैलेशी । स्था० ५० | सेलेसी शिलाभिर्निवृत्तः शिलानां वाऽयमिति शैलःपर्वतः तेषामीशः प्रभुः शैलेश: मेरुः, तस्येवेयं स्थिरतासाम्याद-वस्था शैलेशी, अशैलेशः सन्नभूततद्भावाच्छैलेशवदाचरतीति वा अवस्था । सर्वसंवरः शीलं तस्येशः शीलेशः तस्येयं योगनिरोधावस्था वा आव० ४४१ । सेलेसीभाव शैलेशीभावं शिलानामिमे शैलाः पर्वतास्तेषामीशः शैलेशो मेरुः स इव शैलेशो-मुनिर्निरुद्धयोगतथा त्यन्यस्यैर्येण तस्येयमवस्था-शैलेशी तस्या भावः अशैलेशस्य भावः शैलेशीभवनं शैलेशीभावः । उत्त - मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] ५९३| सेलोदाइ अन्ययूथिकः भगः १२३ सेलोदायी- मड्डुक श्रावकाधिकारे अन्ययूथिकः । भग० ७५० 1 सेलोवडाण शैलोपस्थापनं पाषाणमण्डपः । आचा० ३६६ । सेलोवडावणगिह शैलोपस्थानगृहं पाषाणमण्डपः । स्था० २९४| सेल्ल वालमयं झुसिरं निशी० १०६ अ शस्त्रविशेषः ॥ ज्ञाता० २०५| सेल्लग शल्यक:- भुजपरिसर्पविशेषः, यच्चकर्मतेलकैरङ्गरक्षा विधीयते । प्रश्न० ८ सेल्लार तुन्नाकविशेषः प्रज्ञा० ५६१ सेवए सेवेतः उपभुञ्जीतः । उत्त० २९५ सेवण आसेवनं मैथुनक्रिया, संप्राप्तकामस्य द्वादशमभेदः। दशवै० १९४ | सेवणा- सेवना- पर्युपास्तिः । प्रज्ञा० ६० । सेवणाधिकार सेवनानां चौर्यादिप्रतिसेवनानां अधिकार:नियोगः सेवनाधिकारः, अब्रह्मणः पञ्चमं नाम प्रश्न. ६६| सेना- भजना समर्थना च । आव० ३३९ | सेवय- सेवकः चारभट्टः । बृह० २७३ आ सेवा - वृत्यर्थिना राजदीनामवलगनम् । प्रश्र्न० ९७ नित्यपरिशीलना सम० १५०) हास्यमोहादिभिः परिभोगोऽनाचार-भाण्डसेवा । उत्त० ७११ | सेवाल - अनन्तजीववनस्पतिभेदः । आचा० ५९| सेवालः । प्रज्ञा- ४०। गुल्मविशेषः प्रज्ञा- ३२] जलरुहविशेषः । प्रज्ञा० 331 शेवालः पुरुषसिंहवासुदेवपूर्वभवः आव. १६३॥ जलोपरि मलरूपम्। आचा. ३०) शैवालः । उत्तः ३२१। साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा० ३४१ सेवालगुम्मा सेवालगुल्माः । जम्बू० ९८० सेवालभक्खिण- तापसविशेषः । निर० २५| सेवाली - शेवाल :- अष्टमं अष्टमेन यः सेवालः स्वयं ग्लानः-भूतः-तमाहारयति स तृतीयां मेखलां विलग्नः स तापस- विशेषः । आव० २८७ सेवालोदाइ अन्ययूथिकः । भग० ३२३ सेविअ सेवितं आचरितम् । दशकै० २०१ सेस शेषं मत्यादिचतुर्दर्शनादि स्था० २१३३ शेषः- पुरुषो [148] *आगम- सागर-कोषः " [५] Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] पयोगिनः परिजिज्ञासितात्तुरगादेरादन्यो प्राप्तः। बृह. ८६ आ। पव्वइउ काभो। निशी. १६१ आ। हेषितादिरर्थः-शेषः। अनुयो० २१३।। सेहः-अभिनवप्रव्रजितः। ओघ०१३९। सेसदविया- गृहोपयुक्तशेषद्रव्येण कृता शेषद्रव्या, सेहकुल- शैक्षकुलं-अभिनवप्रपन्नधर्मस्य कुलम्। व्यव० नालन्दाबा-हिरिकायामुदकशाला। सूत्र० ४०९। १७८ अ। सेसमई-सप्तमवासुदेवमाता। सम० १५२। शेषमती-दत्त- | सेहग- शैक्षकः। आव० २६३ वासुदेवमाता। आव० १६२१ सेहणिप्फेडिया-शिष्यनिष्फेटिका, अपहृतः। स्था० १६५ सेसव-तुरगादेरादन्यो हेषितादिरर्थः शेषः, स सेहत्ति-सेहणिप्फेडियाए। निशी०४५आ। गमिकत्वेन यस्यास्ति तच्छेषवदनुमानम्। कार्येण- सेहनिप्फेडिया-शिष्यानिष्फेटिका। आव० ३०२। कार्यदवारेणोत्पन्नं शेष-वदनुमानम्। अनुयो० २१३। सेहर-शेखरः-शिखा। पिण्ड०७२। शेषः-तुरगादन्यहेषिताद्यर्थवान्। अनुयो० २१३॥ सेहा- भुजपरिसर्पविशेषः। प्रज्ञा० ४६। लोमपक्षीविशेषः। सेसवई-महावीरविभोर्नप्तरे प्रथमं नाम। आचा०४२२१ प्रज्ञा०४९। शेषवती-दक्षिणरुचकवास्तव्या षष्ठी सेहावए-सेधयति-निष्पादयति। ज्ञाता० ३८1 दिक्कुमारीमहत्तरिका। जम्बू० ३९१। सेहाविओ-सेधावितः। आव०७९३। सेसा- शेषा-पुष्पसमुदायलक्षणा। आव० २९६। सेहावियं-सेहिणं-शिक्षितम्। भग. १२२। सेधितं-निष्पासेसावसेसं-शेषावशेष-उद्धरितस्याप्युद्धरितम्। उत्त. दितम्। ज्ञाता०६० ३६० सेहिओ-सेधितः। आव०७९३। सेसिंद-दर्वीकराहिभेदविशेषः। प्रज्ञा० ४६। सैन्धव- लवणवस्त्रपुरुषवाजिशब्दवाच्यः। प्रज्ञा० २५९। सेसिअ-शेष कृतं शेषितं-स्थित्यादिभिः प्रभृतं सत् लवणः घोटको वा। आव० ३७६। सैन्धवम्। आचा० ३४३। स्थिति सोंड-शोण्डः-मद्यपः। बृह. १६५आ। सिधूम्। आचा० सङ्ख्यानुभावापेक्षयैवानाभोगसद्दर्शनशानचरणायुपाय ३३० तः शेषं-अल्पं कृतमितिभावः। आव. सोंडमगरा-मकरविशेषः। प्रज्ञा०४४| शण्डमगरः-मगरसेहंबं-सैन्धाम्लं-सन्धानेनाम्लीकतमालिकादि। प्रश्नः । | विशेषः। जीवा० ३६॥ १६३ सोंडा- शुण्डा। आव०६८२ सेह- "षिधू संराद्धाविति" सेध्यते-निष्पादयते यः स सेधः | सोंडिता-सूण्डिकाः-पिटकाकाराणि शिक्षा वाऽधीत इति शैक्षः। स्था० १३० शैक्षः-अभिनव- | सरापिष्टस्वेदभाजनानि कवेल्ल्यः । स्था० ४१९| प्रव्रजितः। प्रश्न. १२६। अगीयत्थो, अभिणवदिक्खिओ। | सोंडिया-जा सुरा विस्सगेही। दशवै. ८८ निशी० ८६ अ। शैक्षः-अज्ञः। बृह. १५८ अ। सेहः- सोडियालिंग-अग्नेराश्रयविशेषः। जीवा० १२३ शैक्षकः। ओघ. १८३। शैक्षः-अभिनवप्रव्रजितः। पिण्ड. सोंडीर-शोण्डीर-चारभटः। प्रश्न. १५८। हस्तीव शूरः १५ शैक्षः-अल्पपर्यायः। सम० ५९। शैक्षकः कषायादिरिपून प्रति। स्था० ४६४। शोंडीरो यथा शौर्यतया अभिनवप्रव्रजितः। ओघ. १९९। शैक्षः। ओघ० २० शूर एव रणकरणेन वशीकृतः, पुत्रतया प्रतिपद्यते यथा शैक्षः। आव० ५७७ सेहो। प्रश्न. ३७ महेन्द्रसिंहः। स्था० ५१६। शिक्षकोऽभिनवप्रव्रजितः। स्था० २९९। शैक्षः। आचा० सोडिरयं-शौण्डीर्य-शौर्यम्। आव०४३२१ ३२४। सेहः-तीक्ष्णश-लाकाकुलशरीरो सोअ-शौच-अमायमनुष्ठानम्। उत्त० ३८४। स्रोतः-धरः भजपरिसर्पविशेषः। प्रश्न अभिनवप्रव्र-जितः। प्रवेशरन्ध्रम्। जम्बू० १७१ औप. ४३। अगीतार्थः। निशी० ५१ अ। सोअणवत्तिआ-स्वप्नप्रत्ययं-स्वप्ननिमित्तम। आव. अभिणवपव्वतितो। निशी०६२। अभिणवपव्वइतो। १७४। निशी० १४आ। अगीतार्थः- आचार्यपदादिसमृद्धिम- | सोइय- शोचितं-मानसो विकारः। अनुयो० १३९। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [149] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सोउं-सुप्त्वा । बृह. २११ आ। सोल्लग-भडित्रीकृतम्। उत्त० ४६१। सोउज्जोय-सोद्द्योतं सोल्लिंति-ओदनमिव राध्यान्ति, खण्डशो वा कुर्वन्ति। बहिर्व्यवस्थितवस्तुस्तोमप्रकाशकरम्। जीवा० १६१| विपा० ५८१ सोए- श्रोतः-पयः प्रवाहः। आव० ५२८१ सोल्लिय-पक्वम्। विपा०४९। कसमविशेषः। औप. सोक्कलि-वनस्पतिकायविशेषः। भग० ८०३। ११५ सोक्खीर-शुष्कः। निशी० ६१ अ। सोवक्कस-सहोपक्रमेण-अपवर्तनाकरणाख्येन वर्तत सोगंधिए-सौगन्धिकः-मणिभेदः। उत्त०६८९। इति सोपक्रमः। उत्त० २३७। सोगन्धिकः -मणिविशेषः। जीवा. २३। सौगन्धिकः- सोवच्चल-सेंधवलोणपव्वयस्स अंतरंतरेस लोणखाणी। मणिविशेषः। प्रज्ञा. २७ दशवै. ५११ सोगंधिय-सौगन्धिकं-कल्हारम्। जीवा. १७७ जम्बू । सोवणियंतिय-स्वभिश्चरति शौवनिकः २६। सौगन्धिकः। प्रज्ञा० ३७। रत्नपृथिव्याः-खरकाण्डा- अन्तोऽस्यास्तीत्य-न्तिकोऽनो वा चरत्यान्तिकः भिधानप्रथमकाण्डस्यान्तरकाण्डभूते अष्टमः पर्यन्तवासीत्यर्थः, शौवनि-कान्तिकःसौगन्धिकाभि-धानरत्नमयः। सौगन्धिककाण्डः। सम० क्रूरसारमेयपरिग्रहः, प्रत्यन्तनिवासी च प्रत्य९२१ सौगन्धिकं-कल्हारम्। राज०७८। ज्ञाता०९६) न्तनिवासिभिर्वा स्वभिश्चरतीति। सूत्र. ३२२॥ सौगन्धिकः। ज्ञाता० ३११ सोवणिय- शौवनिकः-सारमेयपापर्द्धिः। सूत्र. ३२१। सोगंधिया-सौगन्धिकानगरी-अप्रतिहतराजधानी। विपा० सोवण्णिओ-सोवर्णिकः। आव० ३५६। ९५ सुर्दशनश्रेष्ठिनगरम्। ज्ञाता० १०४। सोवत्थिअ-सौवस्तिकः। जम्बू. ५३५ सोगंधो-सुभं सागारियस्स गंध मण्णतीति सेगंधी। सोवत्थिअकूड- सौवस्तिककूडंनिशी. ३३आ। विद्युत्प्रभवक्षस्कारकूटनाम। जम्बू. ३५५। सोग-शोकः-आक्रन्धादिचिह्नः। सम० १२७। शोकं- | सोवत्थिए- एकषष्ठीतममहाग्रहः। स्था० ७९। दैन्यम्। स्था० ५०५। शोकः-इष्टवियोगात् मानसं दुःखम् | सोवत्थिय-सौवस्तिकः-लक्षणविशेषः। जीवा० १८९। । उत्त. २६१। शोकः-मनसो दुःखविशेषः। आव० ७८८1 दृष्टिवादे सूत्रभेदे एकादशमभेदः। सम० १२८। त्रीन्द्रियशोकः-दैन्यम्। आव०६११। शोकः-दैन्यम्। भग० १८० | जन्तुविशेषः। जीवा० ३२ त्रीन्द्रियविशेषः। प्रज्ञा०४२ शोकः -चित्तखेदः। ज्ञाता० ३१। शोकः-प्रकर्षावस्थं सोवत्थी- श्वतीत्याह चरति वा सौवस्तिकः, दैन्यम्। प्रश्न० ६२ माङ्गलिकाभिधायी मागधादिरन्या। स्था० २१४। सोगकम्म- शोककर्म-यदुदयेन शोकरहितस्यापि सोवयणपवेसकाल- शयनप्रवेशकालः। आव० ३९४१ जीवस्याक्र-न्दनादि शोको जायते तच्छोककर्म। स्था० । सोवयार-सोपचारं-अग्राम्याभिधानम्, सूत्रे षष्ठो गुणः। ४६९। आव० ३७६। सोपचारसोगमोहणिज्जं- शोकमोहनीयम्। प्रज्ञा० ४६९। अनिष्ठुराविरुद्धालज्जनीयार्थवाचकं सानु-प्रासं वा। सोलसम- षोडशः। पिण्ड० १२११ सोपचारम्। अनुयो० १३३। सौपचार-अनिष्ठुराविरुसोलसिं- षोडशी-षोडशपरणम्। उत्त० ३१६| द्धालज्जनीयाभिधानं सोत्प्रासं वा। स्था० ३९७ सोलसिआ- षोडशिका-षोडशपलप्रमाणा। अनुयो० १५२ | सोवरिफौट-सोपधिस्फोटः। आव. २०७१ सोलसिया-घटकस्य-रसमानविशेषस्य षोडशभागपात्रो सोवाग-यौ शुनः पचति तन्त्रीश्च विक्रिणाति सःस्वपचः मानविशेषः। भग० ३१३ चण्डालः। व्यव० २३१ अ| श्वपाकः-चाण्डालः। उत्त० सोलोय-सावलोकं-सोयोतम्। ज्ञाता० २३० ३५७ सोलोयरिद्वगा-सावलोकं-सोदयोतं यद्रिष्ठकं सोवाण-सोपानं-इष्टिकामयमवतरणम्। पिण्ड० ११० रत्नविशेषस्तदवदये वर्णसाधर्म्यात् ते। ज्ञाता०२३० । सोवाणपंतो-सोपानपङक्तिः । जीवा२६९। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [150] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सोवान-सौपानः-उन्नतारोहणमार्गविशेषः। सम.११११ दिप्रदानशेषभोजनासेवनेन शोभितम्। आव० ८५१। सौहसोवीर-सौवीर-आरनालम्। आचा० ३४६। सौवीरः-देश- दम्। आव० १९८१ शोभनं-चन्दनमालाचतुष्कपूरणादिना विशेषः। उत्त०४४८। सौवीरः-जनपदविशेषः। भग० शोभाकरणम्। प्रश्न. १२७। शोधकः। उत्त० २८८1 ६२० आचाम्लम्। स्था०४१९| शोभितं -अन्येषामपि तचितानां दानात् सोवीरत-सौवीरकं-काञ्चिकम्। स्था० १४७ अतिचारवर्जनाद्वा शोधितं वा निरतिचारं कृतम्। प्रश्न. सोवीरा- मध्यमग्रामस्य षष्ठी मूर्च्छना। स्था० ३९३। ११३ सोव्वए- श्रोतव्यः। बृह. १९ । श्रोतव्या। बृह. २८०आ। | सोहिया- शोभितासोस-शोषः-क्षयरोगः। जम्बू. १२७। शोषः। भग० १९७। | नानाविधगुच्छगुल्ममण्डलपकशोभिताः। राज०७। शोषः-गवेषणाद्यायासः। व्यव० २५०।। शोभिता-तत्समाप्तौ गुर्वादिप्रदानशेषभोजनासेव-नेन सोहइत्ता- शोधयित्वा-गुरुवदन्भाषणादिभिः शुद्ध शोधिता वा-अतिचारवर्जनेन तदालोचनेन वा। स्था० विधाय। उत्त. १७२शोधयित्वा ३८८। सुहृद्। आव० २६२ उत्तरोत्तरशुद्धिप्रापणेन। उत्त० ५७२। शोधयित्वा-शुद्धं सोही- शुद्धिहेतुत्वेन शोद्धिः, सुहृद् वा मित्रम्। भग० १३६। विधाय। उत्त० ५७ शुद्धिः-कषायकालुष्यापगमः। उत्त० १८५। शुद्धिः। ओघ. सोहग्ग-सौभाग्यं-जनादेयत्वम्। प्रश्न. १६१। सौभाग्यं- २२५। शोधनं शुद्धिः-विमलीकरणम्, सर्वजनस्पृहणीयतारूपम्। उत्त० ५८० प्रतिक्रमणस्याष्टमनाम षड़भेदभिन्नं प्रतिक्रमणमेव। सोहणागं-शोधनकम्। सूर्य. ११३। आव० ५५२ सोहणगदुर्ग-कर्णदन्तशोधनके। बृह. २५३ अ। सोहेइ-शोभयति-शोधयति वा। उपा०१५ शोभयति सोहम्म-कल्पः। ज्ञाता० २३४। कल्पविशेषः। ज्ञाता० शोधयति वा। भग० १२४। २५३। कल्पविशेषः। ज्ञाता० १७८1 सौधर्मः-दत्तवासुदे- सोहेउं- शोधयित्वा-विविच्य। ओघ. १७३। शोधयित्वावागमनकल्पः। आव० १६३। सौधर्मः-देवलोकवि-शेषः। | कृत्वा। ओघ० ८८1 शोधयित्वा-प्रत्युपेक्ष्य। ओघ० १५४। आव० ११५ सोधर्मावतंसकाभिधविमानविशेषो- सोहेति-शोधयति। आव. २२४। पलक्षितो देवलोकविशेषः। अनुयो० ९२। सुधर्मानाम सोहेपाण-प्रतिपादयन्। ज्ञाता० १८० शक्रस्य सभाऽस्मिन्नस्तीति सौधर्मः। उत्त० ७०२। | सौगत- बेन्नातटपुरे श्वेतपटक्षुल्लकपृच्छकः। नन्दी. सोहम्मवडिंसए-सौधर्मदेवलोकस्यावतंसकशेखरकः स १५२ इव प्रधानत्वात् सौधर्मावतंसकम्। सम० २६। सौदास-जिह्वानष्टः। भक्त। महाविमानवि-शेषः। भग. १९४१ सौधर्म-सामान्येनाज्ञाग्राह्येऽर्थे दृष्टान्तः। आव० ८६२। सोहम्मवडिंसग-दवीसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सौधर्मकल्प-यत्र शक्रेन्द्रः। ज्ञाता० १२७। सम०८1 सौधर्मादिकल्पगतवक्तव्यतागोचरा-कल्पिकाः। नन्दी. सोहम्मा-सौधर्माः-कल्पोपन्नवैमानिकभेदविशेषः। प्रज्ञा० दावराषः प्रज्ञा० । २०७| सौधर्मावतंसक-विमानविशेषः। दशवै. २७० सोहा- शोभा-पुलकादिरूपा। ज्ञाता० ३५) सौमनस- वक्षस्कारपर्वतः। स्था०६८। मेरुसम्बन्धीवनसोहिकर- शुद्धिकरं-अनन्तानुबन्धिक्षयप्रक्रमेण विशेषः। प्रश्न. १३५ क्षायिकसम्य-क्त्वापादनम्। आचा० २६९। शुद्धिकरं- सौमनसा-वापीनाम। जम्ब० ३७० अपनयनकर्तृ। उत्त० ३४३ सौरभेय-बलीवर्दः। नन्दी० १५४| सोहिठाण- शोधिस्थानं-आयतनपर्यायः। ओघ० २२२ । सौरभ्यवर्तिभूत- गन्धवतिभूतः। जीवा० २०६। सोहिय-सोधितः-शोभावान्, शोधितो वा निराकृतातिचारो | सौवीराजन-अजनविशेषः। प्रज्ञा. २७१ वा। भग० १२२। शोधितः-अपनीतः। जीवा० ३५५। गुर्वा- | स्कन्दक-मुनिसुव्रतस्वामिनोंऽतेवासी। व्यव० ४३२ अ। ६९| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [151] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] स्कन्दकाचार्य-कर्कशत्वे दृष्टान्तः। भग० ३०५ पालकेन | साध्वादेशकारः। जम्बू. १०। हत आचार्यः। सूत्र० २६९। स्थापनिका- | पिण्ड० १५०| स्थापनिका। नन्दी. १५७ स्कन्दशिष्यगण-मार्यमाणे दृष्टान्तः। सूत्र० ६२ स्थापिता-आरोपणायां भेदः। व्यव० १२४ आ। स्कन्दाः- भूतभेद विशेषः। प्रज्ञा०७० स्थाप्यः-पञ्चाद्वक्षे इत्यर्थः। व्यव० ३३ आ। स्कन्ध-शरीरेऽवयवविशेषः। आव० ८१९। स्थाप्यते-मुच्यते। ओघ० ११९| स्कन्धशालिनः-महोरगभेदविशेषः। प्रज्ञा० ७० स्थाल-भाजनविधिविशेषः। जीवा० २६६। स्कन्धावार-कटकः। व्यव० १९८ आ। स्थितकल्पिक-साधभेदविशेषः। भग०४। स्खलित-प्रतिहतः। उत्त०६८४| स्थितास्थितकल्पः-आचेलक्यादिनवविधकल्पः। आव० स्तम्भनता- वातादिना। आचा० २५५) ७९ स्तुभायिका- वनस्पतिजीवविशेषः। आचा० ५७ स्थितास्थितकल्पिकः- साधभेदविशेषः। भग०४। स्तौति- प्रशंसति-बहुमन्यते। आव० ५८७ स्थितिपद-प्रज्ञापनायां पदविशेषः। जीवा. १४० स्त्रीकला-चतुःषष्टिरूपप्रतिपादिकाः कलाः। जम्बू. १३९। प्रज्ञापना-यामष्टादशमकायस्थितिपदम्। जीवा. १४१| स्त्र्यादिलक्षणं- शब्दव्यवहारानुगतं वेदानुगतं च। प्रज्ञा० स्थिरसंहननता- तपःप्रभृतिषु शक्तियुक्तता, રક| शरीरसम्पत्षु चतुर्थो भेदः। उत्त० ३९। स्थगनं-संरक्षणम्। ओघ० २१३। स्थुड-स्कन्धः। राज०९। स्कन्धः। स्था० ५२१। स्कन्धः। स्थण्डिलसंनिवेशः- । दशवै. १८३ प्रज्ञा० ३१| स्थपतिः-शिल्पी। उत्त०४१८० स्थूलभद्र-रथिकगणिकायां दृष्टान्तः। नन्दी० १६२। स्थलपत्तन-यथा मथा। आचा० २८५) स्थूलमारुक्क-प्रथमं क्षुद्रष्ठम्। प्रश्न. १६१ स्थविरोपघातित्व- षष्ठमसमाधिस्थानम्। प्रश्न० १४४।। स्थूलारुष्क-प्रथमक्षुद्रष्टम्। आचा० २३५) स्थाणु-स्तम्भः। स्था० २१९। स्नान-स्नानम्। जीवा० १९१| स्थान-विशेषः वसतिः, स्थानशब्दो भेदार्थः पदम्, सादि- | स्नानादिक-सुगन्धिद्रव्येणाघृष्णः प्रघृष्टो वा। आचा० पर्यवसितादिरूपः, स्थानशब्दः क्रियावचनः। स्था० ३। ३९६| लौकिकं आलीढादिपञ्चस्थानानि। उत्त० २०४। | स्नायक-भार्यादेशकरः, अन्वर्थपुरुषविशेषः। पिण्ड. स्थानभङ्गः- यथा प्रियधर्मनामैकः, नोदृढधर्मेत्यादि। १३५१ आव०५१६ स्नायु-शिराजालम्। जीवा० ४०१। स्थानसप्तैकक- आचाराङ्गे द्वितीयश्रुतस्कंधे प्रथमः। | स्निग्धः-स्पर्शविशेषः। प्रज्ञा० ४७३। स्निग्धः-संयोगे स्था० ३८७ सति संयोगिनां बन्धकरणम्। स्था० २६। स्थानीयं-ठवइज्जंठवइत्ता पन्नेन हि नाचरणीयं स्नेह-सामान्यतत्स्वपत्यादिगोचरः। आव. २७२। तत्स्थानी-यम्। व्यव० ११४ अ। स्नेहरागः-अप्रशस्तपरिणामविशेष:स्थापक-पक्षं स्थापितवानिति स्थापकः। स्था० २६१। विषयादिनिमित्तविक-लोऽविनीतेष्वप्यपत्यादिष यो स्थापत्यापुत्र-स्थिरीकरणे दृष्टान्तः। व्यव० १४१ आ। भवति। आव० ३८७। स्थापत्यापुत्रः। व्यव० १९९ । स्थापत्यापुत्रः-बोधने स्पर्द्धक-नामावधिज्ञानप्रभाया उदाहरणम्। व्यव० २०० अ। गवाक्षजालादिदवारविनिर्गत प्रदीपप्रभाया इव स्थापनकं- सुप्रतिष्ठिकम्। भग. ५२४ प्रतिनियतो विच्छेदविशेषः। प्रज्ञा० ५३७। स्थापना- पर्यायः। स्था०४| स्पर्द्धकपति-उपाध्यायादिकम्। व्यव. २८४ अ। स्थापनानमस्कारः-नमस्कारकरणप्रवृत्तस्य स्पर्द्धकावधिः-अवधिविशेषः। प्रज्ञा० ५४२ संकोचितकर-चरणस्य काष्ठपुस्तचित्रादिगतः | स्पर्शनीय-अनुसरणीयः। स्था० ९२॥ २९६ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [152] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] ५८७ स्पर्शयन्तं- रञ्जयन्तम्। आव० ४१६) स्वरूपसत्ता- पारम्पर्यप्रसिद्धिः। आव० ५३३। स्पृशति-संधट्टयति। आव०६१३॥ स्वल्पः-स्तोकः। आव० ५६८१ स्पृष्टं- बद्धम्। स्था०४३३। समूहगता यः स्वल्पकुटीरकः-खुड्डलकः। ओघ० ४४। सूचिसम्बन्धवत् स्पृष्टकर्मबन्धः। आव० २०६। स्वविषयं-स्वोचिताहारयोग्यम्। प्रज्ञा० ५०३। स्पृष्टमात्रं- जीवप्रदेशैः शुष्ककुड्यापिततचूर्णमुष्टिवत्। स्वस्तिकः- नाट्यविशेषः। जम्बू. ४२४। स्वस्तिकः। स्था० ४१३ निशी० २५५ । स्वस्तिकः-शुभनाम। भग० २८२ स्पृहणं- तच्छ्रद्धालुतयाऽऽत्मन आविष्करणम्। उत्त. स्वस्तिकः-सन्निवेशविशेषः। जम्बू० २०९। स्वस्तिकश्रीवत्सनन्दावर्त्तवर्द्धमानकभद्रासनकलशम स्फीतीभूत-आनन्दितम्। जीवा० २४३। त्स्यदर्पण रूपाष्टमङ्गलाकाराभिनयात्मकः- प्रथमो स्फुटं- सद्भूतदोषोच्चारणम्। व्यव० ५६ आ। नाट्यविधिः। जीवा० २४६। स्फोट- वेदनाविशेषः। उत्त० १२०० स्वाति-वृत्तवैताढ्यवास्तव्यो देवः। स्था०७१| स्फोटितं- कम्पितम्। नन्दी०४१। स्वीकरणं- ग्रहणम्। उत्त०७१११ स्मरण- जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तादुत्कर्षतोऽसङ्ख्येयकालात् स्वैरिणी- दुश्चारिणी। नन्दी० १५५) परतो यत् स्मरणं सा धारणा। नन्दी. १७७। स्वोपज्ञशब्दानुशासनविवरणस्मृति- प्रागुपलब्धमित्यादिरूपं सा स्मृतिः। नन्दी० १६८१ आचार्यमलयगिरिकृतव्याकरणम्। प्रज्ञा० २५१। स्मृतिः-पूर्वानुभूतालम्बनः प्रत्ययविशेषः। नन्दी. १८७। -x-x-x-xधारणाभेदः। दशवै० १२५ स्मृतिकालः-स्मर्यन्ते यत्र भिक्षाकालः सः स्मतिकालः- | हं-आकारलोपदर्शनादहम्। ज्ञाता० १८६) भिक्षाकालः। दशवै०१८३ हंत- हन्तः-सम्प्रेषणे। सूत्र० २७४। स्यन्दनं-भ्रामरीषड्भ्रामरीपरिवादनीनां स्यन्दनम्। हंता- हन्ता-सम्प्रेषणप्रत्यवधारणविपादार्थे। प्रज्ञा० ४३७। राज०५२ ३२७। वाक्यारम्भे कोमलामन्त्रणे वा। जम्बू. १२२ स्वं-कर्म। आचा०४३०| कोमलामन्त्रणार्थः। भग०१६। एवमेव तदितिस्वधीतं-सुष्ठ-कालविनयाद्याचाराधनाधीतं, अभ्युगम-वचनः इति वृद्धाः। भग०१६) गुरुसकाशात् सूत्रतः पठितं स्वधीतम्। स्था० १७३। कोमलामन्त्रणः। ज्ञाता०६१। हन्ता-विनाशकः। ज्ञाता० स्वपक्ष-संयतवर्गः। आचा० ३२६। ५५हन्ता-सम्प्रेषण-प्रत्यवधारणविवादेषु। प्रज्ञा० २४७ स्वभावः-स्वात्मीयो भावः-स्वभावः स्वशीलम्। व्यव. | हंता अत्थि- सद्भूतोऽयमर्थः। भग० ११७ १२१आ। हंद-कोमलामन्त्रणं वचनम्। स्था० ३८० आमन्त्रणे। स्वभावः-धर्मः। स्था० ३७५ ज्ञाता०११३। आमन्त्रणे| निशी० २१३ आ। स्वभावः- निसर्गः। आव० ६०४। स्वभावः-स्वो भावः। हंदह- हन्दह-गृहणीत। आचा० ३५५ स्वभावः- तस्यैवात्मीया सत्ता। नन्दी०४० स्वभावः-यः | हंदि-आमंत्रणे-प्रत्यक्षभावदर्शने वा। निशी ७३ अ। स्वो भावः स्वभावः आत्मीयो भावः। नन्दी० २२४। हन्दि इति सत्यै, तेन यथाशयं वदामीत्यर्थः, अथवा स्वभाववादी-अस्ति स्वभावः स्वतो नित्य इति वादी। हंदीति सम्बोधनं शृण्वन्तु भवन्तः। जम्बू० २०१। हन्दीआव० ८१६। स्वभाववादी। स्था० २६८१ सम० ११० उपप्रदर्शने। दशवै०६४१ स्वयम्पचः-तापसः। दशवै० २६० हंदी-उपप्रदर्शने। दशवै० ३३ स्वयम्बद्धः-साधभेदविशेषः। भग०४॥ स्वयम्बद्धः-स्वयं- | हंस- लोमपक्षीविशेषः। प्रज्ञा०४९। हंसःआत्मना बुद्धः-तत्त्वं ज्ञानवान् स्वयम्बद्धः। स्था० ३३॥ परिव्राजकविशेषः। औप०९१। हंसः-लोमपक्षिविशेषः। स्वरूपभष्टतेजा-ध्यामतेजा। भग०६८४| जीवा० ४१। हंसः-रजकः। सूत्र. ११९। हंसःपतङ्गश्चतुरिन्द्रियो जीवविशेषः। अनुयो० ३४| हंस मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [153] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] श्वेतपक्षः। प्रश्न अण्डजखेचरपक्षी। भग० ३०३ | हक्कारिय-आहुतः। ओघ० १९८१ तेणगो। निशी० २२८ आ। हक्कारेइ-हक्कारं करोति। जीवा. २४८। हंसगब्भ-हंसगर्भकाण्डं-नरके षष्ठं हंसगर्भाणां विशिष्टो हक्कोरेति-आक्रोश्यति। आव० ३८४। भूभागः। जीवा० ८९। हंसगर्भः-रत्नविशेषः। जीवा० ३५९। हक्खुत्तं-अभिक्षिप्तम्। आव० १४५ हंसगर्भः-रत्नविशेषः। ज्ञाता० ३१। हंसगर्भः हगइ-हदति। आव० ३६८ रत्नविशेषः। जीवा. २३। हंसगर्भः। प्रज्ञा० २७। हंसगर्भ:- हट्ठ- हृष्ट-विस्मितम्। भग० ११९। दृढीभूतः। ओघ०४२। मणिभेदः। उत्त०६८९। हृष्टः-विस्मितः नीरोगः। भग० ६९१। हृष्टःहंसगब्भतूली-हंसगर्भतूली। जीवा. १९२। हंसगर्भतूली। विस्मयमापन्नः। जीवा. २४३। हृष्टः-नीरोगः। ओघ. जम्बू० ३६। १२६। हृष्टः-तुष्टः। अनुयो० १७९। हृष्टःहंसतुली-मनोज्ञस्पर्शे दृष्टान्तः। प्रज्ञा०६२। बहिःपुलकादिकम्। उत्त०४४१। दृष्टः-नीरुजः। आव. हंसतेल्ल-औषधसंभारभुतहंसपक्वम्। बृह. ११६अ। ८४३। हृष्टः-पुष्टधातुः। जम्ब० ९० अगिलाणो। निशी. निशी. १९५। ८२आ। निरोगो। निशी० २१२ आ। णिरोगो। निशी. हंसपाक-हसेन-औषधसंभारभूतेन यत्तैलं पच्यते। बृह. २२४ आ। २०९ । हहतुट्ठ- अत्यर्थं तुष्टं हृष्टं वा विस्मितं तुष्टं च तोषवत्। हंसरुत- मृदुस्पर्शे दृष्टान्तः। उत्त० ६७७। भग० ३१७। हृष्टतुष्टः-अतीवतुष्टः। जीवा० २४३। मृदुस्पर्शपरिणते दृष्टान्तः। प्रज्ञा० १० हट्ठा- शोकाभावेन हृष्टा इव हृष्टाः। स्था० २४७ आतङ्कहंसलक्खण-विशेषवस्त्रः। आचा० ४३३। विशेषवस्त्रः। रहिता। बृह. २०७। भग० ४७३। हंसस्वरूपं-शुक्लं हंसचिह्नम्। भग० ४७६। हठ-वनस्पतिविशेषः। उत्त०४९५१ विशेष-वस्त्रम्। आचा० ४२४१ हड- हडः-वातप्रेरितः। दशवै० ९७। हंसवण्ण-हंसवर्णः। ज्ञाता०२३१| हडकारग-हठेन करोति यः स हठकारकः। प्रश्न०४६) हंसस्सर-हंसस्येव मधुरः स्वरो यस्य स हंसस्वरः। हडप्प- हडप्पो-द्रम्मादिभाजनं ताम्बूलार्थं पूगफलादिजीवा. २०७। भाजनं वा। भग०४९९| निशी. २७७ अ। हंसस्सरा-हंसस्वरा-स्वर्णकमाराणां घण्टा। जम्बू०४०७। | हडप्फ-आभरणकरण्डकः। ज्ञाता०५७। हडप्फः-द्रम्मादिहंसावली-हंसावलिः-हंसपङ्क्तिः । जीवा० १९१| | भाजनं ताम्बूलार्थे पूगफलादिभाजनं वा। जम्बू० २६४। हंसासणा-येषां आसनानामधोभागे हंसा व्यवस्थिताः। | हडाहड-अत्यर्थम्। ज्ञाता० १९९। अत्यर्थम्। ज्ञाता० १९९। जम्बू०४५ अत्यर्थम्। विपा० ३६ हंसोवल्लीली- हंसोली। आव० ८१६) हडि-हडिः खोटकः। औप०८७। ह-खेदे। बृह० १२३ आ। हडिबंधण-हडीबन्धनं-खोटकक्षेपः। प्रश्न. १६४| हओ-हतः यष्ट्यादिभिस्ताडितः। उत्त० ११४| चपेटा- हडि-काष्ठविशेषः। प्रश्न ५६ दिना हतः। बृह. ११४ अ। हढ- वनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा० ११४१ जलरुहविशेषः। हओवहए-नानाव्याधिरुद्भावक्षतशरीरत्वाद्धतः प्रज्ञा० ३३। हढः-अनन्तजीववनस्पतिभेदः। आचा० ५९। समस्तलोक-परिभूतत्वाद्पहतः। हतोपहतः। आचा० साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा० ३४। हढः१२०० जलजवनस्पतिविशेषः। प्रज्ञा०४० हकुवी- वनस्पतिविशेषः। अनुत्त० ५। हणंति-घ्नन्ति। आव०६५० हक्कविऊण-हक्कारयित्त्वा। आव०६७५ हण-म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० ५५ हनं-स्वरूपपरित्यागः। हक्कार-ह' इति अधिक्षेपार्थस्तस्य करणं हक्कारः। स्था० उत्त०४७०| हनः। ज्ञाता०२३८ ३९९। हणरोमग- म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० ५५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [154] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] हणाइ-हन्ति। उत्त० ४७८। हत्थब्भास- हस्ताभ्यासः। आव० ४२५१ हणिहणिं-अहनि अहनि-प्रतिदिनं सर्वव्यापि। प्रश्न. हत्थमद्दिय-हस्तेन मर्दितं-मलितम्। भग०६८४| १५५ हत्थमालग-हस्तमालकम्। जम्बू. १०६) हणिहणि-अहन्यहनि-प्रतिदिनम्। प्रश्न० १२४ हत्थमालय- हस्तमालकः-अङ्गेणेत्रिका। औप० ५५) हणुगा- हनुः। आव०६८९| हस्त-मालकं-भूषणविधिविशेषः। जीवा० २६९। हणुदाणि-तत इदानीम्। बृह. ३आ। तत इदानीम्। बृह. | हत्थलघुत्तण-हस्तलघुत्त्वं-तृतीयाधर्मद्वारस्य १०५ आ। पाठान्तरेणैका-दशमनाम। प्रश्न०४३। हणुय- हनुकम्। जीवा० २७२। चिबुकम्। अनुत्त०५१ हत्थलत्तणं- परधनहरणकत्सितो हस्तो यस्यास्ति स हणुया- हनुः। आचा० २८३। चिबुकः। अनुत्त० ५। हस्त-लस्तद्भावो हस्तलत्त्वं, हणुयाजंतमाई- हनुयन्त्रादि। आव० ४०५। तृतीयाधर्मदवारस्यैकादशमं नाम। प्रश्न०४३। हणू- हनु-चिबुकम्। प्रश्न० ८१ हत्थसंठित-हस्तसंस्थितः। सूर्य. १३० हणे- हन्ति। ओघ. १४९। हत्थाताल-हस्तेनाऽऽताडनं-हस्तातालः। स्था० १६२ हण्डिका- पात्रविशेषः। ओघ. १६११ हत्थाभरण-हस्ताभरणं-अङ्गुलीयकादीनि। स्था० ४२११ हण्णू-मार्यमाणः। सूत्र० ६२१ हत्थामोस-हस्तामर्शः। आव० ४२७। हत्थंदुय-हस्तान्दुकं-लोहादिमयं हस्तयन्त्रणम्। प्रश्न | हत्थालंब-हस्तालम्ब इव हस्तालम्बः। स्था० १६४| ५६) हस्तालम्बः-अशिवायुपशमायाभिचारुकमन्त्रादिः। हत्थ- हस्तम्। आचा० ३४२। हस्तः-प्रधानावयवः। सम० । बृह. ८६अ। ११६। हसन्ति-तेनावृत्य मुखं घ्नन्ति वा घात्यमनेनेति | हत्थिंदु-हस्तान्दुः-करविषयकाष्ठमयबन्धनम्। पिण्ड. हस्वः। उत्त० २४३। गदो। निशी० ५८ अ। हस्तः १५७ चतुर्विंशत्यगुलमानः। अनुयो० १५४| हत्यिकन्नदिव-अन्तरद्वीपः। स्था० २२६। हस्तनक्षत्रविशेषः। सूर्य. १३०। हस्तः। स्था० ७७। शीघ्रम् | हत्थिखंधवरगत-वरहस्तिस्कन्धगतः। आव० ३४१। । औप०६२। गणोकः। निशी. ३८ अ। हत्थिगडगडाइय-हस्तिगडगडापितम्। जीवा. २५७। हस्थकप्प- हस्तिकल्प-धृतिमतिविषये नगरम्। आव० । हत्थिच्चगा-हस्तयोग्यानि आभरणानि। पिण्ड० १२४। ७०९। हस्तकल्पं-क्रोधपिण्डदृष्टान्तोदाहरणे नगरम्। । हत्थिजाम- हस्तियामः-राजगृहे वनखण्डविशेषः। सूत्र पिण्ड १३३। नगरविशेषः। ज्ञाता०२२६। निशी. १००। ४०९। हत्थकम्म-हस्तकम-प्रथमशबलः, हस्तक्रिया परस्परं | हत्थिणउण-हस्तिनापुरं-ऋषभस्य प्रथमपारणकस्थानम् हस्तव्यापारप्रधानः कलहः। सूत्र. १८१। हस्तकम- । आव० १४६। हस्तेन शुक्रपगलनिर्घातनक्रिया। स्था० १६३। हत्थिणपुर- हस्तिनापुरं-कृष्णवासुदेवनिदानभूमिः। आव० हस्तकर्महस्त-मैथूनम्। आव० ६५५। १६३॥ हस्तिनागपुरं-नगरविशेषः। अनुत्त० ८। हस्तिहत्थकिच्च- हस्तकृत्यं-हस्तकरणम्। भग० १९१| नागपुरं-ब्रह्मदत्तनिदानभूमिः। उत्त० ३७३। हत्थग- मुहपोत्तियां। दशवै० ८२। हस्तकं-मुखवस्त्रिका- असुत्तरोपपा-तिक्यां पञ्चमवर्गे नगरम्। अनुत्त०८। रूपम्। दशवै० १७८१ रयहरणं। निशी० ५८ अ। १-हस्तिनापुर सनत्कुमार स्शान्ति स्कुन्थ्वर, ४. हत्थगा-हस्तकाः-समूहाः। जम्बू० ४४९। सुभूमराजधानी-91 आव० १६१। हस्तिनापुरं-नगरविशेषः हत्थच्छिन्नयं-हस्तच्छेदनम्। सूत्र० ३२८१ ब्रह्मदत्तभ्रमणनगरम्। उत्त० ३७९। हत्थउड-हस्तप्टः। आव० ६३३। हत्थिणाउर- हस्तिनापुरं-राजाभियोगविषये नगरम्। हत्थताल-हस्तेन ताडनं हस्ततालः। बृह. ८६अ। आव० ८११। हस्तिनापुरं-सुमुखगाथापतिनगरम्। विपा० हत्थपुड- हस्तपुटं-वाद्यविशेषः। जम्बू. १०१। | ९१। हस्तिनागपुरं-सुनन्दराजधानी। विपा० ४८१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [155] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text) कुरुजनपदे नगरम् जाता० १४२ | नगरविशेषः । ज्ञाता० २५३ | नगर- विशेषः । ज्ञाता० २०८ हस्तिनापुरनगरविशेषः । आव० ३५८१ हस्तिनागपुरअनन्तवीर्यनगरम् । आव० ३९२२ कार्तिकश्रेष्ठीवास्तव्या नगरी। भग० ७३७] गंगदत्तवास्तव्या नगरी। भग० ७०७| यत्र सहस्रामवनोद्यानम्। भग० ५१४| हत्थिणागपुर- बलराजराजधानि । भग० ५३५ हत्यितावस हस्तिनं मारयित्वा बहुकालं भोजनतो यापयन्तीति । भग० ५१९| यो हस्तिनं मारयित्वा तेनैव बहुकाल भोजनतो यापयति हस्तितापसः औप. ९०१ हस्तिनं मार-यित्वा तेनैव बहुकालं भोजनतो यापयति। निर० 241 हत्थिपिप्पलीए - हस्तिपिप्पल्या-गजपिप्पल्या । उत्तः ६५३ | हत्थिपूयणा गण्डीपदश्चतुष्पदविशेषः। जीवा० ३८ हत्थिभुइ— हस्तिभूतिः-क्षुत्परिषहवोढा क्षुल्लकः। उत्तः ८५| हत्थिम- हस्तिमृतः मृतहस्तिदेहः । जीवा० १०६ । हत्थिमित- हस्तिमित्रः उज्जयिन्यां गाथापतिः । उत्त० आगम - सागर - कोषः ( भाग : - ५ ) ८५० | हत्थिमुह- हस्तिमुखः अन्तरद्वीपविशेषः । जीवा. १४४) हस्तिमुखनामा अन्तरद्वीपः । प्रज्ञा० ५० हत्थमुहदीव - अन्तरद्वीपः । स्था० २२६ । हत्थिमॅठ- हस्तिमेण्ठः । आव 3401 हत्थिरयण- चक्रवतैः पञ्चमपञ्चेन्द्रियरत्नम् । स्था० ३९८ हत्थिवाउए हस्तिव्यावृतो महामात्रः । औप० ६३ ॥ हत्यिसीस नगरविशेषः । ज्ञाता० २२७| हस्तिशीर्षः ग्रामविशेषः । आव० २१८१ हस्तिशीर्षनगरं यत्र दमदन्तराजा । आव० ३६५ | - हत्थिसीसनयर - नगरविशेषः । ज्ञाता० २०८ हत्यिसुंडिया- हस्तिशुण्डिका-एकं पादमुत्पाट्योपवेशनं सा। बृह० २०० अ । हत्थिसांडगा हस्तिसांडिका स्था० २९९१ हत्थिसौडा - त्रीन्द्रियविशेषः। प्रज्ञा० ४२ त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः। जीवा उस हत्थी - गण्डीपदविशेषः प्रज्ञा० ४५| हस्ती गण्डीपदचतु मुनि दीपरत्नसागरजी रचित ष्पदः । जीवा० ३८ \ हत्थीपूयणया- गण्डीपदविशेषः । प्रज्ञा० ४५१ हत्थीसीस हस्तिशीर्षनगरं अदीनशत्रुराजधानी । विपा० ८९| हत्युत्तरा हस्तोत्तरा उत्तरफाल्गुनीसुधर्मस्वामिजन्मनक्षत्रम् आव २५५ हत्थुस्सेह - हस्तोच्छ्रयः । आव० ५२४ | हवज्ञ- भार्यादेशकरः-अन्वर्थः पुरुषविशेषः । पिण्ड० १३५| हदुसरक्खो - विष्ठासरजस्कः | आव० ६३२ | निशी० १८६ अ। - इष्टः वनसि परितोषवान्। बृह० २४७ आ । हक - शरीरावयवः । आचा० ३८ | हनुमत् महाविद्याधरराजः प्रश्न. ८९| हन्त कोमलामन्त्रणे अभ्युपगमद्द्योतने वा अनुयो [Type text] १६१ | हम्म हम्य धनवतां गृहम् । सूर्य • ६९। हर्म्य शिखररहितं धनवतां भवनम् । जीवा० २७९ | हम्मतल भूमितलं तरं वा हम्मतलं निशी ८४ अ हम्मति- हन्यते हनिष्यति । उत्त० ४९९। हन्यते। ओघ० १५९| - हम्ममाण - हन्यमानः । आव० ८११ | हम्मिअ- हम्यै शिखररहितं धनवतां भवनम् । जम्बू• १२१| हम्मिए- धार्मिकः- धर्मेण चरति व्यवहरति वा धार्मिकः । विपा० ४८ हम्मितल हर्म्यातलं भूमिगृहम् आचा० २६२१ हम्मियतलसंठिया हर्म्यतलसंस्थिता हर्म्यं धनवतां गृहं तस्य तल- उपरितनो भागस्तत्र संस्थित-संस्थानं यस्याः सा। सूर्य०६९। हम्महामि - घानिषम् । आव० ३५४ | हय- हतं खण्डितम्। जम्बू० २४२ प्रहारदानतः हतः । भग० ३१९। हतः दूषितः । बृह० १८५ आ । हतःनिन्दावाचकः । बृह० १९८ आ हतः ताडितः । उत्त० [156] ३६८1 हयइच्छित हृदयेप्सितं मनोवाञ्छितम् । ज्ञाता० ३१ | हयकंठ- हयकण्ठः हयकण्ठप्रमाणः । जम्बूफल हयकण्ठः हथकण्ठप्रमाणरत्नविशेषः । जीवा० २१४, - "आगम- सागर-कोषः " (५) Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] २३४। हय-कण्ठप्रमाणरत्नविशेषः । राज० ७७ | हयकण्ण- हयकर्णः-अन्तरद्वीपविशेषः । जीवा० १४४ | हयकन्नदीव - अन्तरद्वीपविशेषः । स्था० २२६ | हयकन्ना- हयकर्णनामा अन्तरद्वीपः । प्रज्ञा० ५०| हयकर्ण दवीपवास्तव्यामनुष्याः स्था० २२६ हयच्छाया - अश्र्वसत्का छाया । प्रज्ञा० ३२७ | हयजोही - कलाविशेषः । ज्ञाता० ३८ | हयतेय - हततेजः । भग० ६८३ | आगम-सागर- कोषः ( भाग : - ५) हयपोंडरीय- हृदपुण्डरीकः-पक्षिविशेषः। प्रश्र्न० ८\ हयमहिय - हतमथितः - अत्यर्थं हतः । ज्ञाता० २२१ | हययनिव्वुइयरे हृदयनिर्वृत्तिकरं मनःस्वास्थ्यकरम् । ज्ञाता० १२ | हयलक्खण- कलाविशेषः । ज्ञाता० ३८| हयलाला - अश्र्वलाला। ज्ञाता० २५| हयलालापेलवाइरेग- हयलाला अश्र्वलाला तस्या अपि पेल-वमतिरेकेण-हयलालापेलवातिरेकं, अतिविशिष्टमृदुत्वलघु-त्त्वगुणोपेतम् । जीवा० २५३॥ हयविहया - हतविहता । आव० ९८ । हयवीही- हथवीथी अन्यत्र नागवीथी। स्था० ४६९ | हयसंघाड- हयसड्घाट:- हययुग्मम्। जीवा. १८९। हवसत्तु हतशत्रुः, मुद्गलैशपुरनृपतिः । उत्तः १२१ हयहियओ हतहृदयः आव• २९३ ॥ हया - हताः - ताडिताः । उत्त० ३६८ | हयाणीय- चम्पियगुडिएहिं हतेहिं बलदरिसणा हयाणीयं निशी० ७१ आ हयानीक सप्तनामनीकानां प्रथमः जीवा. २१७१ हरड़ हरति गृहणाति । पिण्ड० १३१ । हरति-उद्दालयति । बृह० ८१ आ । हरए - हृदः - नदः । भग० ८३ | हरणं- उदरान्तरसङ्क्रामणम्। स्था० १२३1 हरणविप्पणास - हरणेन मोषणेन विप्रणाशः परद्रव्यस्य हर-णविप्रणासः, तृतीयाधर्मद्वारस्य चतुर्थदशमं नाम । प्रश्न० ४३ | हरतणु- हरतनुः- भुवमुद्भिद्य तृणाग्रादिषु भवति । दशवै. १५३| - [Type text] हरतणुया साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा. ३४| हरतणू सलिलबिन्दवः ओघ० ११७ हरतनुः वर्षाशरत्कालयोर्हरिताङ्कुरमस्तकस्थितो जलबिन्दुः । भूमिस्नेहसम्प- कद्भूतः । आचा० ४०| हरतनुः यो भुवमुद्भिद्य गोधूमाङ्कुर -तृणाग्रादिषु बद्धो बिन्दुः । जीवा० २५| हरतणुए हरतनुर्यो भुवमुद्बुदद्य गोधूमाङ्कुरतॄणाग्रादिषु बद्धो विन्दुरुपजायते तत् । प्रज्ञा० २८१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित हरतनु- स्नेहसूक्ष्मम् । दशवै० २२९| प्रातः सस्नेहपृथिव्युद्भव-स्तृणाग्रजलबिन्दुः। उत्त० ६९१। हरति- आत्मवशं नयति । जीवा० १८१ । हरदीदग - हृदोदकम् । आव० ६२० | हरहरा अतीव भिक्षाप्रस्ताव आव• २७४१ हराहि- गृहाण । भग० ४८२ । हरि- विद्युत्कुमारेन्द्रः । स्था- ८४ पुरुषविशेषः । स्था० ५२४। हरिः-पिङ्गो वर्णः। स्था० ५०२ | हरिशब्देन सूर्यचन्द्रः । जम्बू० ३०६ | महाहिमवत् कूटम् । स्था० ७२॥ निषधवर्षधरे कूटम् । स्था०७श हरिसलिलताऽपरमपर्याया महानदी । जम्बू• ३०८] हरि:एकोनचत्वारिंशत्तममहाग्रहः । जम्बू० १३५ हरि:विद्युत्कुमारेन्द्रः आव• २२१| - हरिअसुहुम हरितसूक्ष्मं तच्चात्यन्ताभिनवोद्भिन्नं पृथिवीस-मानवर्णमेव । दशवै० ३३० | हरिए - हरितं दूर्वादि । दशवै० १५५ | हरितः । जम्बू० ३०८ | हरितस्तु-शुकपिच्छवत् हरितालाभः । जम्बू• २८ हरिएस- हरिकेशः-उत्तराध्ययनेषु द्वादशममध्ययनम् । उत्तः ९ ओघ० २२३ हरिकेशः- चाण्डालः । उत्त० ३०२१ हरिकेश - अपरनाम बलः । उत्तः ३५७ | हरिकेश चाण्डा लविशेषः । प्रश्न १३॥ हरिकेश मातङ्गजातीयः आभचोरकः पुरुषः । दशवै० ४२॥ हरिकेशः चाण्डालः । आव० ७१८ हरिएसा- हरिकेशाः-ब्रह्मदत्तस्याष्टाग्रमहिषीणो मध्ये प्रथमा। उत्त० ३७९ | निशी० ४३ आ । हरिएसिज्जं उत्तराध्ययनेषु द्वादशममध्ययनम् । सम ६४| हरिकंत- हरिकान्तः- विदयुत्कुमारीणामधिपतिः । प्रज्ञा० ९४ हरिकाः । जीवा० १७०१ हरिकान्तः चतुर्थी दक्षिणनिका-येन्द्रः। भग० १५७| [157] "आगम- सागर-कोषः " (५) Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] हरिकंतदीव-हरिकान्तद्वीपः। जम्बू. ३०२ वस्तुलप्रभृतिः। जीवा. २६। हरितं-दूर्वादि। जम्बू. १७४। हरिकंतप्पवायकुंड- हरिकान्ताप्रपातकुण्डः-यत्र हरितको-औषधिविशेषः। आव० ३९० हरीकान्ता-महानदेः प्रपातः। जम्बू. ३०२। हरितग-वनस्पतिकायविशेषः। भग०८०२ हरिकंतप्पवायदह- हरिकान्तामहानदौ वनस्पतिविशेषः। भग० ८० हरितविशेषः। प्रज्ञा० ३३ हरिकान्ताप्रपातहदः। स्था० ७५) हरितकं-नीलकम्। भग० १००० हरिकंता- हरिकान्ता महानदी। जम्बू. ३०२। हरिकान्ता- | हरितगरेरिज्जमाणे- हरितकाश्च ते नीलका महानदी। जम्बू० ३०५ रेरिज्जमानाश्च हरितकरेरीज्यमाना। भग० ३००। हरिकन्न- हरिकर्णः-अन्तरदवीपः। प्रज्ञा. ५० | हरितपणीय-हरितं-तत्र शाकादि बाहल्येन भक्ष्यते। हरिकांत-इन्द्रविशेषः। स्था० २०५। ओघ०६३ हरिकान्ता- महानदीविशेषः। स्था०७४। महाहिमवति हरितभद्राः- यक्षभेदविशेषः। प्रज्ञा०७० कूटम्। स्था० ७२ हरिवत्थो-सव्वे चेव वणस्सइ कोमलो हरितवत्थो। हरिकुंड- हरिकुण्डः-कुण्डविशेषः। जम्बू. ३०८1 स्था०७४। निशी० १४२ । हरिकुलपहु-कृष्णः। भक्त०। हरितसुहुम- हरितसूक्ष्महरिकुट-विद्युत्प्रभाभिधाने गजदन्तीकारपर्वते कूटम्। अत्यन्ताभिनवोद्भिन्नपृथिवीसमानवर्णं हरितमेवेति। सम० १०५। हरिनाम्नो स्था० ४३० दक्षिणश्रेण्यधिपविद्युत्कुमारेन्द्रस्य कूटं-हरिकूटम्, हरिताल-क्षारमृत्तिका। आचा० ३४२ विद्युत्प्रभवक्षस्कारकूटनाम। जम्बू० ३५५) हरितालिया-हरितालिका-पृथिवीकाररूपा प्रतीता। जीवा. हरिकेशबल-सहायलब्धिकः। बृह. १५६ अ। अस्त- १९११ मितोदिते दृष्टान्तः। स्था० २३७ हरितालियागुलिया-हरितालिकालिकाहरिचंदण-हरिचन्दनः-अन्तकृद्दशानां हरितालिकाखार-निर्वतिता टिका। जीवा० १९१। षष्ठमवर्गस्याष्टम-मध्ययनम्। अन्त०१८ हरितालियाभेय-हरितालिकाभेदः-हरितालिकाछेदः। हरिचन्दनः। अन्त०२३। जीवा० १९११ हरिडए- हरीतकः-कोकणदेशप्रसिद्धः कषायबहुलः वृक्ष- | हरिदिव-हरिद्वीपः। जम्बू० ३०८१ विशेषः। प्रज्ञा० ३१ हरिद्दा- हरिद्रा। जीवा० १९१। हरिणमिय-हरिणश्चासौ मगश्च हरिणमगः। उत्त. हरिद्दागुलिया-हरिद्रालिका-हरिद्रासारनिर्वतिता ६३४॥ गुलिका। जीवा० १९१। हरिणेगमेसि-विदयाराजः। आव०४११, १७९। हरेः- हरिद्दाभेओ-हरिद्राभेदः-हरिद्राच्छेदः। जीवा. १९१| इन्द्रस्य निगम-आदेशं इच्छतीति हरिनैगमेषी। जम्ब० | हरिनैगमेषि-भगवन्महावीरगर्भसंक्रामको देवः। सम० ३९७ १०६| हरिणेगमेसि-सुलसाया इष्टदेवः। अन्त०७ हरिप्पवायद्दह- हृदविशेषः। स्था०७५ पदानिकाधि-पतिः। स्था० ३०२सधोषाघण्टावादकः। हरिबेर- ह्रीवेरः-बालकः। उत्त० १४२। ज्ञाता० १२७। हरिनैगमेषी-महावीरगर्भपरावर्तको हरिमंथा- कालचणया। दशवै० ९२ इन्द्रसम्बन्धीदेवः। भग० १२८१ हरिमन्थ-हरिमन्थः-कृष्णचणकः। दशवै० १९३। हरित-महानदी। स्था०७४। हरितं-दूर्वादि। भग० ३०६। तं | हरिमेल-हरिमेलकः-वनस्पतिविशेषः। भग० ४८०| चेव अंकुरभिण्णं हरितं। निशी० ८३ अ। वास्तु-लादि, हरिमेलओ-हरिमेलकः-वनस्पतिविशेषः। जम्बू. ५३० सामान्यतस्तरूवनस्पतिः। बृह. १६३ अ० हरितं- हरिमेला-हरिमेला-वनस्पतिविशेषः। जम्बू. २६५ दुर्वादिवनस्पतिः। प्रश्न. १२७ हरितः-तन्दुलीक- वनस्पतिविशेषः। औप०७० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [158] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] हरिय- पिङ्गीभूतम्। भग० ६५१ । ज्ञाता० ११६ । हरितंतन्दुलेयकादि। उत्त॰ ६९२ । हरितं व्रीहिकादि । पिण्ड० १९| उद्भिन्नं बीजं । बृह० १६६ आ । हरितं शाकादि । ओघ० ६३ । हरितं मधुरतृणकटुभाण्डादि । ज्ञाता० ४९| हरितकः-ह्रस्वतृणम्। ज्ञाता० २५| हरि-तण्डुलीयकवस्तुलप्रभृतम्। प्रज्ञा० ३० । वत्थुलादि। निशी० १४२अ । हरितः-नीलः। जीवा॰ १८८। हरितं नीलतरपत्रम् । औप० आगम- सागर- कोषः ( भाग : - ५) ७ हरियकंड- पिङ्गीभूतजालम्। भग० ६५१। हरियक्कमण - हरिताक्रमणं सकलवनस्पतेः पादेन पीडनम् । आव० ५७३। हरियग- हरितकं - जीरकादि । स्था० ११८। हरितकं जीरकादि। भग॰ ३२६। हरितकम् । सूर्य० २९३ | हरितकंजीरकादिहरितम् । प्रश्र्न० १६३ | हरियगरेरिज्जमाणे - हरितक इतिकृत्त्वा 'रेरिज्जमाणेत्ति' आतिसयेन राजमानः । भग० ६६४ | हरियपण्णी- हरितपत्री-शाकादिहरिताबाहुल्येन भक्ष्यते। व्यव० ७३ | हरियपत्तीए– बाहुल्येन हरितपत्रशाकम्। बृह॰ २३१आ। हरियभोयण- प्रतिषेधभोजनम् । स्था० ४६० | भग० ४६७ | हरियभोयणा - हरितभोजना- हरितानि भोजने यस्यां सा । आव० ५७६। हरियाल– हरितालः-पृथिवीभेदः । आचा० २९| हरितालः । प्रज्ञा॰ २७। हरितालः धातुविशेषः । प्रज्ञा० ३६१ । हरितालः -धातुविशेषः। उत्त० ६५३। हरितालः। उत्त॰ ६८९। हरियालगुलिया - हरितालमयीगुटिका। प्रज्ञा० ३६१| हरियालभेय - हरितालभेदः- हरितालस्य द्वैधीभावः । प्रज्ञा० ३६१| हरियालया- हरितालिका-पृथिवीविकाररूपा । जम्बू० ३४| हरियालसमुग्गय- हरितालसमुद्गकम् । जीवा० २३४| हरियालिया– हरितालिका दूर्वा । भग० ५४२ | हरितालिकादूर्वा । अनुयो० २४ हरियाहडि- पूर्वं हृतं पश्चादाहृतं अनीतं वस्त्रं हताहतम्, हृताहृता हरिताहृतिका हृत्वा हरितेषु प्रक्षिप्ता। बृह॰ ११७ | हरियाहडिया - स्तेनानीतप्रतीच्छा हृताहृतिका । व्यव ३४५ आ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] हरिरेणु– हरिद्रेणु-नीलवर्णपांसुः। ज्ञाता० २३०। हरिवंश - उच्चैर्गोत्रविशेषः । सूत्र० २३६ । हरिवंस - हरिवंश :- अरिष्ठनेमिवंशस्थानीयः । आचा० ३२०| हरिवंशः- कुलविशेषः । आव ० १७९ । हरिवर्ष- रुक्मिशिखरिणोरन्तराले क्षेत्रम् । स्था० ६८ । निषधे कूटम्। स्था० ७२ हरिवस्स - हरिवर्षः । जम्बू० ३०२ | हरिवास- हरिवर्षः-अकर्मभूमिविशेषः । प्रज्ञा० ५०| हरिवासकूड— हरिवर्षकूटं निषधे कूटम्। जम्बू॰ ३०८| हरिवाहण - हरिवाहनः - नन्दीश्वरे द्वीपेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६५ | हरिस- रूढिगम्यम्। औप० ५५। रोग विशेषः । भग० १९७| हरिसय- हर्षकं-भूषणविधिविशेषः । जीवा० २६९ । हर्षकम् । जम्बू० १०६ | हरिसवसविसप्पमाणहियए - हरिवंशविषर्पद्ह्रदयःहर्षवशेन विसर्पद् विस्तारं व्रजद् हृदयं यस्य स । भग० ११९| हरिसह - हरिषहः उत्तरनिकाये चतुर्थो इन्द्रः । भग०१५७ हरिस्सहः-प्रियपृच्छकः। आव० २२१| हरिसागओ - सञ्जातहर्षः । आव० २६९ | हरिसेण- दशमचक्रवर्ती। सम० १५२| हरिसेणः-दशमचक्रवर्ती। आव० १५९ | हरिस्सह- लोकपालविशेषः । स्था० २०५ | विद्युत्कुमारेन्द्रः। स्था० ८४। हरिस्सहःविद्युत्कुमाराणामधिपतिः। प्रज्ञा० ९४। हरिस्सहकुड– हरिसहकुटः-माल्यववक्षस्कारे कूटः। सम० १०५| उत्तरश्रेणिपतिविद्युत्कुमारेन्द्रस्य कूट हरिस्सहकूटम्। जम्बू० २३८ | हरिस्सहकूटं माल्यवन्ते कूटम्। जम्बू० ३३९| हरी- एकोनचत्त्वारिंशत्तममहाग्रहः । स्था० ७९| भग० ७००| सद्यग्रामस्य मूर्च्छना । स्था० ३९३ । हरिःहरित्सलिला - महानदीः । जम्बू० ३०५ | हरीमण - हीमना:- ह्रीः- लज्जा - संयमो मूलोत्तरगुणभेदभिन्न- स्तत्र मनो यस्याऽसौ, ह्रीमनः योऽनाचारं कुर्वन्नाचार्यादिभ्यो लज्जते स । सूत्र० २३४ | हरे - हंहो । आव० ६२७| हरेणुअ- हरेणुकः प्रियङ्गु । उत्त० १४२ [159] “आगम-सागर-कोषः " [५] Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] हर्षपुरीय- गच्छविशेषः। अन्यो० २७११ हसन-अट्टहसादि। उत्त०७१० हल-हलः-भूमिकर्षकशस्त्रविशेषः। आव० ८२९। भग. | हसहसायइ-भृशं दीप्यते। बृह. २०१ अ। १८२। लाङ्गलम्। प्रश्न. २१। हलम्। जीवा० ११७। हलः- | हसहसेइ-देदीप्यते। बृह० ३१५ प्रतीतम्, अधोनिबद्धतिर्यक्तीक्ष्णलोहपट्टिकम्। अन्यो। | हसहसेऊण- जाज्वलित्वा। बृह० २५९ अ। ४८ हले-नानादेशापेक्षया हसहसेति-प्रज्वलति। बृह. २७ आ। गौरवकत्सादिगर्भमामन्त्रणवचनम्। दशवै २१६। हसिय-हसितं-सप्रमोदं कपोलसूचितं हसनम्। सूर्य. हलबंभ- हलकर्षः। उत्त० ११९। २९४। हसितं-हासः। प्रश्न. १३७। हसितं-हसनं हलहरकोसेज्ज-हलधरकौशेयं-बलदेववस्त्रम्। ज्ञाता०६। | कपोलविकासि प्रेमसंदर्शि च। जम्बू० ११६। हसितंहलहरवसण-हलधरवसनं-बलदेववस्त्रम् नीलत्वात्। हसनं-कपोलवि-कासि प्रेमसंदर्शि च। जीवा. २७६) प्रज्ञा०३६० हसियसद्द-हसितशब्दः-कलहादिकम्। उत्त०४२५१ हलिद्दरुक्ख- वनस्पतिकायविशेषः। भग०८०४। हस्त-शरीरावयवः। आचा०३८ हलिद्दा-हरिद्रा-इहपिण्डहरिद्रा। प्रज्ञा० ३६१। हरिद्रा- हस्तकम- प्रथमशबलः। प्रश्न. १४४। कन्दविशेषः। उत्त०६९। हरिद्रा-हारिद्रवर्णपरिणता।। हस्तितापस-हस्तिनं व्यापादयात्मनो वृत्ति प्रज्ञा० १० हरिद्रा-पिण्डहरिद्रा। उत्त०६५३। कल्पयन्तीति हस्तितापसः। सूत्र०४०४१ हलिहुग- हरिद्राकः-ग्रामविशेषः। आव २०५१ हस्तिदन्तक-भूलकम्। जम्बू० २४४। हलिमच्छा-मत्स्यविशेषः। प्रज्ञा०४४। हस्तिनागपुर-कुरुजनपदे नगरम्। ज्ञाता० १२५१ हलियंड- बंभणिया अंडयं। दशवै० १२११ पाण्डुराज-धानी। प्रश्न० ८७ हलीमुह- हलीमुखम्। जम्बू० २१२। हस्तिमित्र-धनशर्मपिता। मरण। हलीसागत-मत्स्यविशेषः। प्रज्ञा०४४। हस्तिशिक्षा- लौकिकगुणचरणे उदाहरणम्। आचा० ९। हलीसागर-मत्स्यविशेषः। जीवा० ३६। हस्तिसुण्डिका- यत्र तु पुताभ्यामुपविष्टः। सन् एकं हलोहलिअंडं-सरडीअंडग। दशवै० १२१| पादमुत्पा-ट्यास्ते सा हस्तिसुण्डिका। स्था० २९९। हल्ल-हल्लः-चम्पायां कूणिकराज्ञो अनुजः। भग० ३१६) | हस्त-महाकायेन्द्रः। स्था० ८५ गोवालिकातृणसमानाकारः कीटकः। भग० ६८४। हल्लः- | हस्सगइपरिणाम- ह्रस्वगतिपरिणामःअनुत्तरोपपातिकदशानां दवितीयवर्गस्य दीर्घगतिपरिणामाद्वि-परीतः। प्रज्ञा० २८९। षष्ठममध्ययनम्। अनुत्त०२। हल्लः हस्सट्ठिय-हासार्थिकः हासा । प्रश्न. ३० शिक्षायोगदृष्टान्ते श्रेणिकचेल्लणास्तः। आव०६७९। हस्सरती-महाकायेन्द्रः। स्था० ८५ हविपिंड-घृतपिण्डः। मरण। हाउं- हापयित्वा-वंचयित्वा। बृह. १२ आ। हविप्रचुर-अतिस्निग्धः। आव० ५६८ हाकट्ठ-विलापम्। निशी० १५५ आ। हव्व-शीघ्रम्। ज्ञाता० २२१। शीघ्रम्। जीवा. २८२। शीघ्रम् | हाडहडं-तक्कालं। निशी. ९५आ। देशीपदं तत्कालम्। । उत्त० १७७। कदाचित्। जम्बू. १२२। शीघ्रम्। जीवा० व्यव० ५६अ। ३९९। शीघ्रम्। भग० ७८1 शीघ्रम्। स्था० ११७। शीघ्रम्। । हाडहडा- यत् लघुगरमासादिकमापन्नस्तत् सद्य एव बृह० ३५आ। हव्यं-शीघ्रम्। अनयो०१६२१ यस्या दीयते सा हाडहडा। स्था० ३२६। निशी. १३९। हव्ववाह-हुतभुक्। आचा० १९७ हाणि-घ्राणं-पोथः। जम्बू० २३७। हव्वाए-आरात् तीराय। आचा० ११३। एहिकस्खभाजः। हाणी- होनिः-क्षुधा बाधनम्। ओघ. १२७। हानि-हिलना। सूत्र० १९०। अक्तिटवर्ती। सूत्र० २७३। ओघ०१६ हसण-हसनं-स्वाभाविकहास्यम्। आव०६३४। महं हादेज्ज-मारेज्ज। निशी० २८० अ। विप्फालिय सविकारकहक्कहं हसणं। निशी० ६१| हायतो- | ज्ञाता० १७११ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [160] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text) हायणि- हायनी - जन्तोः षष्ठी दशा । दशवै० ८ हायणी- हापयति पुरुषमिन्द्रियेष्विति इंद्रियाणि मनाक् स्वार्थग्रहणापटूनि करोति हापयति हायणि स्था० ५१९ | दशदसायां षष्ठी निशी २८ आ आगम- सागर - कोषः ( भाग : - ५ ) हार भागः । भग० ५३५ हार:- अष्टादशसरिकः । ज्ञाता० १९ हारः । आव० १२४ । हारः अष्टादशसरिकः । जीवा० १८१। हारः-अष्टादशसरिकः । औप० ५५। द्वीपविशेषः । जीवा॰ ३६८। हारः-भूषणविधिविशेषः । जीवा० २६८ हारः-मुक्ताकलापः। उत्त० ६५३ | तन्नामाद्वीपः समुद्रोऽपि च। प्रज्ञा- ३०७] अष्टादशसरिकः । भग. ४७७ हारः- अष्टादशसरिकः । जम्बू० १०५ हारण धारणं-अङ्गीकरणम्। आचा. ५९१ हारद्धहार हारार्धहारः आव० १२४ हारपुडपाय - लोहपात्रम्। आचा० ४०० हारपुडय- हारपुटकं मुक्ताशुक्तिपुटम्। ऑप. ९३॥ हारप्पभा– हारप्रभा-अपरिणीता दुहिता, चक्षुरिन्द्रियान्तर्दृष्टान्ते धनसार्थवाहपुत्री आव० ३९९ ॥ हारभद्द हारभद्रः हारद्वीपे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः जीवा ३६८ हारमहाअद्द हारमहाभद्रः हारे द्वीपेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६० हारमहावर हारे समुद्रेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः जीवा• ३६८ हारवर- हारवर द्वीपविशेषः समुद्रविशेषश्च जीवा० ३६८। हारवरः-हारवरे समुद्रे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा ० ३६८ | हारसमुद्रे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६८० हारवरभद्द हारवरद्वीपे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा. ३६८ हारवरमहाभद्द हारवरे द्वीपेऽपरार्द्धपतिर्देवः । जीवा० ३६८ हारवरमहावर- हारवरे समुद्रेऽपराद्वापतिर्देवः जीवा० ३६८| हारवरावभास- हारवरावभासः द्वीपविशेषः । समुद्रविशेषश्च जीवा• ३६८ हारवरावभासभद्द- हारवरावभासे द्वीपे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा• ३६८ हारवरावभासमहाभद्द हारवरावभासे द्वीपेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः ॥ जीवा• ३६८ हारवरावभासमहावर हारवरावभासे मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] समुद्रेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः। जीवा० ३६८ । हारवरावभासवर- हारवरावभासे समुद्रे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः ॥ जीवा० ३६८ हारवा - म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । हारवित- आहारितम् आव० १०३ | हारा - मृतवाहकाः । व्यव० २६७ अ । हारित - जिवेन्द्रियप्रीतिकारकमित्यर्थः। निशी० १२४ आ । पराजितः । भग० ३१७ | हारिता- कोच्छगोत्रे भेदः । स्था० ३९० । हारिता - हारयित्वा नाशयित्वा । उत्त० २७८ हारी-मन आह्लादकारी आचा० २४२ | हारोद- हारोदः समुद्रविशेषः जीवा• ३६८ हारोस म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५| हालहला - त्रीन्द्रियविशेषः । प्रज्ञा० ४२ | हालाहल विसजातिभेओ दसवें १३२२ त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः । जीवा० ३२ हालाहला– सावस्त्यां कुम्भकारी । भग० ६५९ । गोशालाका धिकारे कुम्भकारी। भग. ६७५ हालिद्दगुलिया- हरिद्रागुटिका-हरिद्रानिवर्त्तिता गुटिका । प्रज्ञा० ३६१ | हालिद्दपत्त - चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः । जीवा० ३२१ चतुरि न्द्रियविशेषः । प्रज्ञा० ४२ | हालिदभेद हरिद्राभेद: हरिद्राया द्वैधीभावः । प्रज्ञा० ६१। हालिद्दा - साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा० ३४ ॥ हाव- हावः-मुखविकारः। ज्ञाता० १४४। हावः मुखविकारः । प्रज्ञा० १४० | हाविज्जामि हापयामि आव० ३५८१ हासंकुहए— हास्यकुहकः-हास्यकारिकुहकयुक्तः भिक्षुविशेषः दशकै २६९। हास- विज्झणमालीणो अग्गमहिषी । निशी. ३४५१ अ हासः-दक्षिणात्यमहाक्रन्दितव्यन्तराणामिन्द्रः । प्रज्ञा० ९८। हासः-कपोलविकासादिः । उत्त० ६२६ | हासो विस्मयादिषु वक्रविकोशात्मकः। उत्त॰ २६१। हासोमुखविकाशात्मकः । उत्त• ४६४१ हास:प्रहसनिकाभिधानो रसविशेषः प्रश्नः १३९१ हास्यःविकृतासम्बन्धपरवचनवेषालङ्कारादिहास्यापदार्थप्रभवो मनःप्रकर्षादिचेष्टात्मको रसः अनुयो० "आगम- सागर-कोषः " (५) [161] Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] १३५ हर्षः-प्रमोदः। ज्ञाता० १३१। हासः। आचा. १५९| | हिंसप्पयाण-हिंसाप्रदानं-आयुधादिप्रदानम्। आव० ८३० हासः -हास्यते हास्यम्। दशवै०७८ हास्यमिश्रितं मृषा। | हिंसविहिंसा- हिंस्याः-जीवास्तेषां विहिंसा-विघातः हिंस्यस्था० ४८९ विहिंसा, हिंसनशीलो हिंस्रः-प्रमत्तस्तत्कृताविशेषवती हासइत्ता-हासकान् परिहासकारी। प्रश्न १२११ हिंसा -हिंसाविहिंसा, प्राणवधस्य त्रीयः पर्यायः। प्रश्न हासणकर-हासनकरो-वेषवचनादिना स्वपरहासोत्पादकः। स्था० २७५ हिंसा-प्राणवधः। प्रश्न०४हिंसायै क्रिया, हासणिस्सिया-हास्यनिसृता-यत्केलिवशतोऽनृतभाषणम् क्रियायास्तृतीयो भेदः। आव०६४८। प्रमत्तयोगात् । प्रज्ञा० २५६। प्राणव्यपरोपणं हिंसा। दशवै० २४१ हासनिस्सेया- हास्यनिसृतो-मृषाभाषाभेदः। दशवै० २०९। । हिंसागं-सौकरिकादिगृहम्। ओघ. १५६। हासरई- हास्यरतिः हिंसाणबंधि- हिंसा-सत्त्वानां वधबन्धनादिभिः प्रकारेः औदिच्यमहाक्रन्दितव्यन्तराणामिन्द्रः। प्रज्ञा० ९८१ पीडा-मनुबध्नाति सततप्रवृत्तं करोतीत्येवंशीलं हासा-पञ्चशैले देवी। नि० ४२आ। उत्तररुचक वास्त- यत्प्रणिधानं हिंसा-नबन्धो वा यात्रास्ति तत् व्यादिक्कुमारी। आव०१२२२ उत्तररुचकवास्तव्या हिंसानुबन्धिः । स्था० १८९। पञ्चमा दिक्कुमारी महत्तरिका। जम्बू० ३९१। हासात् | हिंसादंड-हिंसादण्डः-हिंसामाश्रित्य हिंसितवान् हिनस्ति क्रीडातः। व्यव० ३५७ आ। हिंसिष्यति वा अयं वैरिकादिौमित्येवं प्रणिधानेन हासुस्सलिओ-हसितमुखः-हासेन युक्तः। बृह. ८५अ। दण्डो-विनाशनं हिंसादण्डः। सम० २७४ हाहा-गन्धर्वभेदविशेषः। प्रज्ञा०७०| हिंसादण्ड- हिंसिष्यतीत्यादि यत् दण्डः, तृतीयं हाहाभूए- हाहाभूतः-हाहा इत्येतस्य शब्दस्य क्रियास्था-नम्। प्रश्न. १४३| दुःखार्तलोकेन करण हाहोच्यते, तद्भूतः प्राप्तो यः काल | हिंसादि- हिंस्रमत्स्यादि। आव० ८२३। स हाहाभूतः। जम्बू. १६७ हाहा इत्येतस्य शब्दस्य हिंसाफल-साम्परायिक-संसारजननं-दुःखजननम्। ओघ. दुःखार्तलोकेन करणं हाहोच्यते, तद्भूतः प्राप्तो यः कालः २२० स हाहाभूतः। भग० ३०५। हिअ-हितं-अभ्युदयः। नन्दी०१६५ हितं-अभ्युदयः। हिंगुरुक्ख- वलयविशेषः। प्रज्ञा० ३३॥ आव० ४२ हितं-परिणामसन्दरम्। दशवै० २२३। हिंगुलए-हिङ्गुलकः। प्रज्ञा० २७। हिगुलकः-पृथिवीभेदः। | हिअकरो-हितकरः-परिणामपथ्यकरः, प्रशस्तभावकरः। आचा० २९। हिगुलकः। उत्त०६८९। आव.४९९। हिंगुलयसमुग्गय-हिङ्गुलसमुद्गकम्। जीवा० २३४॥ हिअट्ठम-अधिकं-वादकाले यत्परप्रत्यायनं प्रत्यतिरिक्तं हिंगुलुय-हिमुलकः। उत्त० ६५३। दृष्टान्तनिगमादि तद्दोषः। अष्टमदोषः। स्था० ४९२२ हिंगुशिव- मालाकारकृतः। स्था० २५७। हिए- ह्रीकः-लज्जालुः। ओघ० २१६) हिंगुसिव- हिगुशिवः-वाणव्यंतरविशेषः। दशवै० ४४। हिएसए- हितैषकः-मुक्तिगवेषकः। उत्त० ६५७। हिंगोल- करुडागादियं। निशी. २२ आ। मृतकभक्तं हिओ- हितोपदेशेन सम्यग् प्ररूपणया वा हितः। जीवा. यक्षादियत्राभोजनं वा। आचा० ३३४। २५५ हिंडतो-हिण्डमानः। आव० ८५८१ हिगुलक-लोहितवर्णपरिणतः। प्रज्ञा० १० हिंस-हिंस्यत इति हिंस्यः-जीवः, हिंसनशीलो हिंस्रः- क्षारमृत्तिका। आचा० ३४२। प्रमत्तः। प्रश्न. ६। हिनस्तीत्येवंशीलो हिंस्रः-स्वभावतः | हिच्चा-हित्त्वा-गत्वा। आचा० २४० हित्त्वा-गत्वा। एव प्राणव्यपरोपणकृत्। उक्त० २७४। आचा० १९२ हिंसइ-हिनस्ति-व्यापादयति। दशवै. १५६। हिज्ज-ह्यः। आव० ३०११ हिंसग- हिंसकं-परपीडाकारि। दशवै. १८७) | हिट्ठाहुतो- अधस्तात्। उत्त० १०३ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [162] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम- सागर- कोषः ( भाग : - ५) [Type text] हिट्ठिल्ल माणुसुत्तरे संजू - गोशालकशतकेऽधिकारः । भग० ६७४ | हित- सुखम् । व्यव० ३९८ । अपीडाकरं । दशवै० ११५ | यथावद्विकल्पेनाप्तः। उत्त० ५१८ । हितय- हृदयं हृदयमांसम् । प्रश्न० ८। हिताकुर - कुहणविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । हिदय- हृदयम् । आव० ३१७ | हिम- हिमं-स्त्यानोदकम्। जीवा० २५ | हिमं - शिशिरसमये शीतपुद्गलसम्पर्काज्जलमेव कठिनीभूतम्। आचा० ४०| नरके वेदना | जीवा० ११९ | हिमं स्त्यानोदकम्। दशवै० १५३| हिमए- शिशिरादौ वातेरिता हिमकणाः । सूत्र० ३२८ | हिमंस्त्यानोदकम्। प्रज्ञा० २८ हिमकुंड - हिमकुण्डं-नारके वेदना। जीवा० ११९। हिमकुंडपुंज - हिमकुण्डपुञ्ज - नारके वेदना । जीवा० ११९ । हिमगसंफासा- हिमसंस्पर्शाः शीतस्पर्शवेदना | आचा० ३०९ | हिमपक्वं शीतपक्वम् । विपा० ८० हिमपडल - हिमपटलं नारके वेदना । जीवा० ११९ | हिमपडलपुंज - हिमपटलपुञ्ज - नारके वेदना । जीवा० ११९| हिमपुंजं - हिमपुञ्ज-नारके वेदना। जीवा० ११९। हिमवंतं- हिमवान्-पर्वतविशेषः । आव० ३९१। हिमवान्गिरिविशेषः । अद्भुतकार्यकारिवनस्पतिविशेषाणामुत्पत्ति-स्थानम्। प्रश्न॰ १३५। अन्तकृद्दशानां द्वितीयवर्गस्य चतुर्थमध्ययनम् । अन्त० ३। हिमवान् पर्वतविशेषः । प्रश्न० १३२| हिमवंतकूड— हिमवत्कूटम् । आव० ४३४ | हिमवत्- वर्षधरपर्वतविशेषः । प्रज्ञा० ७३ । हिमवद्-वर्षधर विशेषः । ज्ञाता० १२८ । पर्वत- विशेषः । उत्त० १६६ । हिमवान्-अन्तकृद्दशानां द्वितीयवर्गस्य चतुर्थममध्ययनम्। अन्त० ३। पर्वतविशेषः। नन्दी॰ २२८ हिमसीयल- हिमशीतलः- कृष्णपुद्गलप्रकारः । सूर्य० २८७ हिय- हितं परमार्थतो मुक्तिवाप्तिस्तत्करणं वा सम्यग् दर्शन-ज्ञानचारित्राख्यम् । सूत्र० १९७ । हितं मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] परिणामसुंदरम्। व्यव॰ १९ अ । हितः एकान्तपथ्यः। उत्त० २९१| हितः-पथ्यः । उत्त० २९० | हितःयथाभिलाषितविषयावाप्त्या-भ्युदयः । उत्त० २९१ | हियं-हृतम्। ओघ॰ १७२ | हितः- आयाति-पथ्यः। उत्त ४१६। हितः- आत्यन्तिकद्रक्षाप्रकर्षे प्ररूपणेनानुकूलवर्ती। सम० ३। हितं- आपापाभावः । भग॰ ६७२। हितं-अभ्युदयः । नन्दी० १६५ । हितं - अभ्युदयम् । सम० ६२ हितंअनर्थप्रतिघातार्थप्राप्तिरूपम् । सम० ११६ । हितं पथ्यम् । प्रश्न० १३० | हितं -जन्मान्तरकल्या णवहम्। जम्बू. ३९८ । हितं पथ्यम्। भग० ११५ हितं-जन्मान्तरेऽपि कल्याणवहं तथाविधकुशलम्। राज० २६। हृतःप्रदेशान्तरे स्थापितः । ज्ञाता० २१५ | हितः - मोक्षः । उत्तः ६२१| हियउंडए - हृदयमांसपिण्डः । विपा० ६८ । हियउड्डावण– हृदयोड्डापनं-चित्ताकर्षणहेतुः । ज्ञाता० १८७। हियकामए - सुखनिबन्धनं वस्तुवाञ्छति यः स भग १६९| हियणुपेही— हितं पथ्यं अनुप्रेक्षते-पर्यालोचयतीत्येवंशीलो हितानुप्रेक्षी। उत्त० ३८६ | हियते - आक्षिप्यते । व्यव० २११अ । हियनिस्सेसा— हितः-पथ्यो भावाऽऽरोग्यहेतुत्वात्। निःश्रेयसो - मोक्षः हितनिःश्रेयसः । निश्शेषं समस्तं हितं सम्यग्ज्ञाना-दिनिश्शेशहितम् । उत्त० २९० | हियमियभोई - हितमितभोजी-पथ्यस्तोकभोजी । आव ० ७६५ | हियय- हृदयं पारमार्थिकाभिप्रायः । सूर्य० २९६ । सम्यगभिप्रायम् । व्यव० २५७। हिययगमणीआ - हृदयङ्गमा । सम० ६२ ॥ हिययरक्खग- हृदयरक्षकः- हृदयस्य त्रायका । ज्ञाता० १६५| हिययसूल - रोगविशेषः । भग० १९७ हिययुड्डावण– हृदयोड्डापनं-शून्यचित्तताकारकम्। विपा० ५४| हियसुहनिस्सेककामये- हितसुखनिःशेषकामः हितं यत् सुखं-अदुःखानुबन्धमित्यर्थः, तन्निःशेषाणां वाञ्छति [163] “आगम-सागर-कोषः " [५] Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] यः स। भग० १६९। हिरिबर-हिरिबरं-वालकः। ज्ञाता० २३२१ हियहिययो- हृदहृदयः आयत्तः। आव०६८७। | हिरिबेरपुड-हीबेरपुटः-वालपुटः। जम्बू० ३५१ हिया-हिता पथ्यान्नवत्। भग० ४५६। हिता-इहपरलोका- | हिरिम-जे सलज्जया स्वभावेनैव सलज्जा। निशी. ९ राधकत्वेन मुक्तिपापिका। प्रज्ञा० २४७ हिता-परिणाम- | अ। ह्रीः-लज्जा सा विदयतेऽस्य ह्रीमान। उत्त० ३४७। सुन्दरता। जीवा० १४२। हीमान् लज्जावान्। उत्त०६३५ हियासए-हिताशयः-परोपकारचेता। उत्त०६५७ हिरिमण-सत्त्वः-ह्रिया-हसिष्यन्ति मामुत्तमकुलजातं हिरण्ण-हिरण्यं-दीनारादिद्रव्यजातम्। आशा० ३६३। जनाः इति लज्जया मनस्येव न काये हिरण्यं -घटितस्वर्णं स्वर्णम्। उत्त. ३१६। हिरण्य- रोमहर्षकम्पादिभयलिङ्गोप-दर्शनात् सत्त्वं यस्य स शब्देन सुवर्णं रूप्यमपि च। जम्बू० ३८१। हिरण्यं- हीमनः। स्था० २५११ रूपकादि। दशवै. १९३। हिरण्यं-अघटितं सुवर्णम्। हिरिमणसत्त- ह्रियाऽपि मनस्येव सत्त्वं यस्य न देहं जीवा० २८० हिरण्य-सुवर्णम्। उत्त. १८८1 हिरण्यं- शीतादिश् कम्पादिविकारभावात् स ह्रीमनः सत्त्वः। रूप्यम्। जम्बू०४१४। हिरण्यं-अघटितरूपम्। आव० स्था० ३४२ १८१। हिरण्य-धर्मलाभा-दिकं वा। सूत्र० २९२। हिरण्यं- | हिरिमिक- यक्षः अपरनामा दैवतम्। व्यव० २४७ अ। रूप्यमघटितसुवर्णं वा। जम्बू. १२२। रूपका। निशी. हिरिमेक्क-हिमैकः-अस्वाध्याय विषये १४४ आ। अघडियरूवं। निशी० ८२अ। मातङ्गानामाडम्बरा-भिधानयक्षस्य अपरनाम। आव० हिरण्णजुत्ति-कलाविशेषः। ज्ञाता० ३८1 ७४३ हिरण्णवए-हैरण्यवतः-अकर्मभूमिः। प्रज्ञा० ५०| हिरिलि-हिरिलिः-वनस्पतिविशेषः। जीवा०२७ हिरण्णविही-हिरण्यविधिः-हिरण्यरूपो मङ्गलप्रकारः। हिरोली- कन्दविशेषः। उत्त०६९११ जीवा० २४६। अनन्तकायवनस्पतिः। भग० ३००। हिरण्णागर-हिरण्याकरः। ज्ञाता०२२८१ हिरण्याकार:- हिरिवत्तिय-हीप्रत्ययं-लज्जानिमित्तम्। भग०८६) यस्मिन्निरन्तरं महाभूषाष् हिरण्यदलं प्रक्षिप्य हिरिसत्त-ह्रिया-लज्जया सत्त्वं-परिसहादिसहने हिरण्युमत्पा-ट्यते स। जीवा० १२३। रणाङ्गणे वा अवष्टम्भो यस्य सो ह्रीसत्त्वः। स्था. हिरण्यनाम-अरिष्टनगराधिपतिः। राममात्लः। प्रश्न. ८८ रुधिरराजपत्रः। प्रश्न. ९० हिरिसिरि-परिवज्जिए। भग. १७२। हिरण्यवत्- वर्षधरः। स्था० ६८४ हिरो-हारिणो-मनआह्लादकारिणो ह्रीरूपाः-याचनाऽचेलाहिरन्न-हिरण्यं-रजतमघटितं घटितं वा अनेक प्रकार दयः। आचा० २४१। ह्रीरूपाः-याचनाऽचेलादयः। आचा० द्रम्मादि। आव० ८२६। ज्ञाता०४९। २४२। किंपुरिसेन्द्रस्य तृतीयाऽग्रमहिषी। स्था० २०४। हिरन्नपागं- कलाविशेषः। ज्ञाता०२८१ सत्पुरिसेन्द्रस्य तृतीयाऽग्रमहिषी। भग० ५०४। ज्ञातायां हिरन्नपेड हिरन्नपेल- हिरण्यस्य मञ्जूषा। भग० ६२८१ पञ्चमवर्गेऽध्ययनम्। ज्ञाता० २५२ हिरन्नवास-हिरण्यं-रूप्यं घरि मित्यन्ये महापद्मद्रहवास्तव्या देवी। जम्बू० ३०१। ह्री:वर्षोऽल्पतर-हिरण्यवर्षः। भग० १९९।। उत्तररुचकवास्तव्या दिक्क़-मारी। धाव० १२२ हिरन्नवुट्ठो-हिरण्य-रूप्यं घटितसुवर्णमित्यन्ते, वृष्टिः- | हिल्लीया- त्रीन्द्रियविशेषः। प्रज्ञा० ४२। महति वृष्टिः -हिरण्यवृष्टिः । भग० १९९| हिल्लीरी-मत्स्यबन्धविशेषः। विपा० ८११ हिरि-हीः-उत्तररूचकवास्तव्याऽष्टमी दिक्कमारी हिविप्पडं-विस्तरम्। निशी. १५३ आ। महत्तरिका। जम्बू. ३९१। ह्री-लज्जा संयमो वा। स्था. ही- प्रशान्तभावातिशयद्योत्तकः। अनुयो० १४० १३८ ह्री-निरयावल्यां चतुर्थवर्गे द्वितीयममध्ययनम्। | कन्दार्पाति-शयद्योतकं वचः। अनुयो० १३९। नन्दी. निर० ३७ २५१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [164] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] - हीनः - असमग्रः । ज्ञाता० १३९। हीनः । ज्ञाता० १९२ ॥ हीणगहण - हीनग्रहणं विषमग्रहणम् । व्यव० ८६ आ । हीणपुण्णचाउदसी हीना असमया पुण्या पवित्रा चतुर्दशी। ज्ञाता० १३९| हीणपेसण हीनप्रेषण:- हीनगुर्वाजापरः। दश० २५१| हाइरित्तदंसण- हीनातिरिक्तदर्शनम् । आव० ६१२ | हीयमाण अवधिज्ञाने चतुर्थो भेदः स्था० ३७० हीर-हीर :- विषमच्छेदमुद्दन्तुरं वा । प्रज्ञा० ३६ । लघुकुत्सितं तृणम् । जीवा० २८२ | हीरोणाम असी । निशी १४९ आ हीरइ - हीयते- अपनीयते। दशवै० २२५ रज्यति । आव ० आगम- सागर - कोषः (भाग:-५) ६७४ | हीरक वज्रः । प्रज्ञा० २७| वज्रम्। जम्बू० ४१४ गुरुत्वे दृष्टान्तः। उत्त॰ ६७७ । हीरकः वज्रमणिः । उत्त० ६८९ । हीरमाण- हीयमाणं- हीयमानम्। आचा० ३३७ | हीयमाणः । सूर्य- ६७ हीरविजयः- आचार्यप्रवरः । जम्बू० ५४३ | सूरिवर-जम्बुद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्तिकारकाणामाचार्यः । जम्बू. १। हीर- हरिः । जम्बू० १०७ | हीलंति जात्यादयुद्घाटनतः हीलयति ज्ञाता० १४४ हीलणा- एक्कं वारं दुव्वणियस्स भवइ । फरूसं भणियस्स वा भवह। दशवै० १४०। हीलनं जात्याद्युद्घाटनतःकुत्सा | भग० २२७| अनभ्युथानादि। अन्त० १८० हीलनाजात्यु-द्घाटनम् प्रश्न. १०९ । जन्मकर्ममर्मोद्घट्टनम्। औप० १०३ | हीलणिज्जे- हीलनीयः । ज्ञाता० ९४ । हीलनं सुवया असूयया वा सकृदुष्टाभिधानं हीलनम् । दशवे. २५४ हीलना- प्रवचनहानिः ओघ० १६२ | हीलिअवयण- हीलितं सासूयवचनम् । स्था० ३७०| हीलिए - हीलितः कदर्थितः । आचा० ४३० | हीलिय- हीलितं-सासूयं गणिन् । वाचक। ज्येष्ठार्येत्यादि । स्था० ३७०१ हीलितं यत् गणिन् किं भवता वन्दितेनेत्यादि, हीलयित्वा वन्देते, कृतिकर्म्मणि एकविंशतितमो-दोषः आव० ५४४ हीलियव्व- हीलितव्यं अवज्ञाकार्या प्रश्न. १६० हीलिया- हीलिता आव० २२५| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] हीति- जात्यायुद्घाटनतः कुत्सति । भग० १६६ । हीलेह - हीयलयेत्-अवधूतं पश्यत । उत्त० ३६५ | जात्याद्यु-द्घाटनं कुरु । भग० २१९ । हुड- हुण्ड- षष्ठं संस्थानम्, यत्र सर्वेऽप्यवयवाः प्रमाणलक्षण-परिभूष्टास्तत् हुण्डसंस्थानम् । जीवा० ४रा हुण्डं-निम्नो-न्तम् ओघ २११ विषमस्थिति क्वचिन्निम्नं क्वचिदुन्नतम्। बृह० २४४ आ समचउरंस जं ण भवति तं । निशी० १२५ आ । हुण्डंसर्वत्रासंस्थितं सस्वानम्, षष्ठं संस्थानम् । आव० ३३७ | यत्र सर्वेऽप्यवयवाः प्रायो लक्षण विसंवादिन् एव भवन्ति तत् संस्थानं हुण्डम् | अनुयो० १०३ | हुण्डं-यत्र हस्तपादाद्यवयवः बहु प्रायः प्रमाणा विसंवादिनश्च । सम० १५० | यत्र सर्वेऽप्यवयवाः प्रमाणलक्षणपगिभृष्टास्तत् हुण्डं षण्ठं संस्थानम्। जीवा० ४२॥ क्वचिन्निम्नं क्वचिदुन्नतं यत्तत्। ओघ० २११। हुण्डं-सर्वत्रासंस्थितं संस्थानम्। प्रश्र्न॰ १६। सर्वत्रासंस्थितं, यस्य हि प्रायेणैकोप्यवयवः शरीरलक्षणोक्तप्रमाणेन न संवदति तत् सर्वत्रासंस्थितं हुंडमिति । स्था० ३५८1 हुंडठाण-यत्र सर्वेऽप्यवयवाः प्रमाणलक्षणपरिभृष्टास्तद्- हुण्डसंस्थानम् । प्रज्ञा० ४१२ | हुण्डसंस्थानम् । प्रज्ञा० ४७॥ हुडिओ- हुण्डिकः परलोकनमस्कारफलदृष्टान्ते मथुरायां चौरविशेषः। आव० ४५४। हुण्डिकः-अर्थाधिकारणोदाहरणे मथुरायां चौरविशेषः। आव० ४५२ हुंवउट्ठ– कुण्डिकाश्रमणः। भग॰ ५१९। कुण्डिकाश्रमणः। ऑप. ९० | हुण्डिकाश्रमण। निर० २५ हु-हु- निश्चितम् । व्यव• ३२ आ समर्थनम् । आव १०८१ निपातः । एवकारार्थः आव० १६७। ह शब्दः हेत्वर्थे। बृह० १२० आ । हुः बहुल्यसूचकः । उत्त० ३३७ हुः- हेतौ आचा० २५१॥ हुच्चा - भूत्वा । सूत्र० ३६७। [165] हुडसंठिय- सर्वत्रासंस्थितम् । भग०७२ हुडुअंग- चतुरशीत्या लक्षैरवयैः हुडूकाङ्गं । अनुयो. १००/ हुडुक्का– महाप्रमाणो मर्द्दलः। जीवा० २४५। हुडुक्का। औप. ६३१ हुत्तं- अभिमुखम्। प्रश्न. ६२ | निशी० १४० आ *आगम - सागर- कोषः " (५) Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] ३४॥ |واه و हुत्थिभागा-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा० | हे- निपातो वाक्यालंकारे। प्रश्न० ३१| हेउ-यत्रोपन्यासोपनये पर्यन्योगस्य यवह-हतवहः-वैश्वानरः। जीवा० १६४। हेतुरुत्तरतयाभिधीयते स हेतुरिती। स्था० २६०| हेतुःहुयवहरत्था- हुतवहरथ्या। उत्त० ३१४। उत्त० ३५५) अनुमानोत्थापकं लिङ्मुपचा-रादनुमानमेव वा। स्था० हयासण-हताशनः वाणव्यन्तरविशेषः। आव० २९५ ४९१। हेतु-उपादानकारणम्। उत्त० २६८। हेतुःहताशनः-आचारोदाहरणे पाटलिपुत्रे ब्राह्मणः। आव. अन्यथाऽनुपपत्तिलक्षणः। स्था० २६१। हेत्: अन्वयव्यतिरेकलक्षणः। अनुयो० २६२। हेतुःहरत्थ- बहिः। आचा. २०११ साध्यसद्भावभावतदभावाभावलक्षणः। हिनोतिहुरत्था- हरवत्था-बहिः। आचा० २३०। अन्यत्र। आचा० गमयतीति हेतुः। स्था० ४९३। हेतुः२७१। अन्यथाऽनुपपत्तिरूपो युक्ति-मार्गः। दशवै० १२५। हेतुःहुरब्भ- उरभ्रः-मेषः। प्रश्न० ७। हरब्भा-वायविशेषः। अध्यवसानादिर्मरणकारणं तद्यो-गान्मरणमपि हेतुः। उपा०२११ भग० २३९। हेतुः-उपपत्तिः । प्रज्ञा० ५३२। हेतुःहुलायिकी- वीरल्लसकुनिः। बृह० २०५आ। साध्यधर्मान्वयव्यतिरेकलक्षणः। आव० ६२ हेतूंहलितं- शीघ्रम्। प्रश्न. १४। विवक्षितार्थगमकम्। प्रज्ञा० ५९। हिनोति-गमयति हुलियं- शीघ्रम्। औप० ५४। शीघ्रम्। प्रश्न ५० जिज्ञासितधर्मविशिष्टानर्थान इति हेतुः-कारको हसो-पोतलउयो जो वाहिमो। दशवै० ११० व्यञ्जकश्च। आव० ५९७। हेत्ः-परार्थ स्वार्थप्रतिपादकं हुहुए- चतुरशीत्या लक्ष्यैहहुकाङ्गः हुहुकम्। अनुयो० वचः। आव०४२७ १४०१ अन्वयव्यतिरेकलक्षणहेतुगम्यत्वाद्धेतः। भग०११६) हुहुए- कालविशेषः। भग० ८८८1 अनुमानप्रतिपादकं वचो हेतुः। नन्दी. १६५। पायच्छित्तं हुहुकंग- हूहूकाङ्ग-चतुरशीतिशतसहस्राणि। जीवा० ३४५ | वहंतस्स पायच्छित्तमावण्णस्स जाव मणालोइयं ताव। हुहुग-ह्हुकं- चतुरशीतिहूंहुकाङ्गशतसहस्राणि। जीवा. निशी० ३०५आ। हेतुः-पञ्चावयववाक्यरूपः। उत्त० ३४५ ३०८ हेतः-अन्वयव्यतिरेकलक्षणः। उत्त. ३०८ हेतः। हू-हः- वाक्यालंकारे। उत्त०४०६| आव० ७९३। हेतुः-अन्यथानुपपत्तिलक्षणः। दशवै० ८८1 हण-हणः- चिलातदेशवासी म्लेच्छः। प्रश्न. १४१ | हेउकारणचोइओ-हिनोति-गमयति विवक्षितमर्थमिति हूयवह-अग्निना यो जनित इति हृदयस्थम्। ज्ञाता०६३ | हेतुः, स च पञ्चावयवरूपः कारणं चहहः- गन्धर्वभेदविशेषः। प्रज्ञा० ७०० अन्यथाऽनपपत्तिमात्र ताभ्यां चोदितः-प्रेरितः हुहुए- कालमानविशेषः। भग० २७५ भग० २१० हेतुकारणचोदितः। उत्त० ३०८५ हूहूयंग- कालविशेषः। भग० ८८८। कालविशेषः। सूर्य. ९१। | हेऊजुत्त- हेतुयुक्तं-अर्थगमकारणयुक्तम्। स्था० ३९७। हूहूय- कालविशेषः। सूर्य. ९१। स्था० ८६। गीतनिबद्धार्थं गमकहेतुयुक्ततया दृब्धं हेतुयुक्तम्। हहयमाण-हहयमान-अतिशयेन जाज्वल्यमानम। जीवा. अनुयो० १३३। अन्वयव्यतिरेकलक्षणहेतुयुक्तम्। आव० १२४। ३७६| हृदय- शरीरावयवः। आचा० ३८१ हेउजुत्ती-हेतुयुक्तिः-पक्षधर्मान्वयव्यतिरेकलक्षणा। हदयग्राहि- हृदयग्राहित्वं-श्रोतृमनोहरता, वचनस्य त्रयोद- | आचा. २६) शमगुणः। सम० ६३। हेतुवाद-त्रिविधसज्ञायां प्रथमा। सम० १८१ हृदयङ्गमः- किन्नरभेदविशेषः। प्रज्ञा० ७०। हेउदोस- हिनोति-गमयतीति हेतः साध्यसद्भावभावतद हृष्ट-तुष्ट। आव०७५९। भावाभावलक्षणः तेषां दोषः स्वलक्षणकारणहेतदोषः। हेट्ठा-अधस्ताद् भुवम्। ओघ० १७५ स्था०४९ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [166] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] ११७ हेउनिजुत्तं- हेतुनियुक्तं-ज्ञोपपत्तिकम्। गद्यगुणः।। | हेमंता- हेमन्ती-शीतकालभावी। सूर्य. २१९। दशवै०८८ हेम- हेमसंनिभो हेमकूडकुमारो। निशी० ३१ आ। हेउप्पभव- हेतुप्रभवः-हेतुजन्मा। दशवै० १२० | हेमकुंड- हेमकुण्डम्। आव० ८२७। हेमपुरनगरे राया। हेऊ-यत्रोपन्यासोपनये पर्यनुयोगस्य निशी० ३१ आ। हेतुरुतरतयाऽभिधीयते स हेतुः। स्था० २५४। हेतुः। हेमगा- हिम-तुहिनं तदेव हिमकं तस्यैते हैमका ज्ञाता० ११०| हेतुः-साध्यविनाभूतत्वलक्षणः। प्रश्न हिमपातरूपा। स्था० २८७। हेमचन्द्रसूरिः-अनुयोगद्वारव्याख्याकारकः हेउवन्नास- हेतूपन्यासः, उपन्यासस्य चतुर्थो भेदः। आचार्यविशेषः। अनुयो० २७१। दशवै. ५५ हेमजाल-सच्छिद्रः सुवर्णालङ्कारविशेषः। औप० ५५ हेज्जं-हार्य-आवर्जनीयम्। पिण्ड १३२ सुवर्णमयदामसमूहः। राज०६४। हेममयदामसमूहम्। हेज्जा- हार्या-गुह्याः। बृह० २५६ अ। जीवा० १९२। हेमजालं-सच्छिद्रसुवर्णालङ्कारविशेषः। हेतु- गुझपदेसो। निशी. २६७ आ। जम्बू. १०५। सर्वात्मना हेममयः लम्बमानः दासमूहः। हेहा- आर्धा नापिता। बृह. ३११ अ। जीवा० १८११ भूषणविधिविशेषः। जीवा. २६८1 हेहावणि-अधोऽवनिः-महाराष्ट्रः। पिण्ड० १६७। हेमपुर-हेमकूडरायरायहाणी। निशी. ३१ अ। हेहात्ती-अधस्तात्-अर्वाङ्मुखी। आव० ६७५ हेमव- हिमवान्-अष्टमशास्त्रीयमासनाम। जम्बू०४९० हेडिं-अधस्तात्। स्था० ४३२१ हेमवान्-शास्त्रीयाष्टममासनाम। सूर्य०१५३ हेहिल्ल-अधस्तात्तन्नः। अन्यो० १७७ हेमवए- हैमवतं-नामवर्षम्। जम्बू. २९९। हेम-नित्ययोगि हेहिल्ला-अधस्तनी। आव०६४७९ प्रशस्यं वाऽस्यास्तीति हेमवत् हेमवदेतम्। जम्बू० ३०१| हेडग- वनस्पतिकायविशेषः। भग०८०३। हेमवत- हैमवतं-हिमवन्महाहिमवतोर्मध्ये क्षेत्रम्। स्था० हेडिय- हेडितं-बाधितं अधोनिमितम्। उत्त० ३६१। ६८ हैमवतः-अकर्मभूमिविशेषः। प्रज्ञा० ५०| हेडी-हेठकः- बाधकः ऋक्संस्थानीयो मन्त्रः। सूत्र. १६९। | हेमवन्न- हेमवर्णः-निषधजाम्बूनदागर्भः। सूत्र० १४७ हेतु-हेतुः- कृतकृत्त्वादिलक्षणहेतृत्त्वर्थप्रतिपादकं पदम। हेमवय- हैमवतं-हिमवत्पर्वतभामि। जीवा. १९२। हेमवतंस्था० ३९२ हेतुः हिमपगिरिजातम्। भग० ३२२१ इहान्यथाऽनुपपन्नत्वलक्षणहेतुजन्यत्वानुमानमेव वा | हेमवयकूड- हैमवतवर्षेशसूरकूरम्। जम्बू० २९६ कार्ये कारणोपचारत्वाद् हेतः। स्था० २६२। हेमसंभवा- हेमकूडभारीया। निशी० ३१ अ। हेतुनिउण-सकारणं। दशवै. ३५॥ हेरंग- हेरगम। विपा० ८० हेतुवात-हिनोति-गमयति जिज्ञासितमर्थमिति हेतुः- | हेरण्यवयकूड- हैरपण्यवत्कूट-हैरण्यवत्क्षेत्राधिपदेवकूटे अनुमा-नोत्थापकं लिङ्गमुपचारादनुमानमेव वा मणिकाञ्चनकूटम्। जम्बू० ३८०। तद्वादो हेतुवादः। स्था०४९१] हैरण्यवतक्षेत्रसूरकूटम्। जम्बू० ३८१। हेतुसत्थ-अक्खपादादि। निशी. ३० आ। न्यायशा-स्त्रम्। | हेरण्णिओ- सुवर्णकारः। आव० ४२७। निशी० ३३ आ। हेरिक-हेरिक-गुप्तचरः। पिण्ड० ४९। हेमंत-हेमन्तः-शीतकालः। भग. २११। हेमन्तः-शीतका- हेरिय- हेरिकः-परराष्ट्रस्वरूपगवेषकः। बृह. ८२आ। लमासः। जम्बू. १५०। हेमन्तः-शिशिरः। ओघ० २१२।। हेरुताल- वृक्षविशेषः। जम्बू. ९७। हेमन्तो-माघादि। भग० ४६२। हेमन्तः-शीतकालः। सूर्य हेरुयालवणं- वृक्षविशेषः। जीवा. १४५। ९१। हेमन्तः-पोषमाघो। ज्ञाता०६३। शीतकालः। ज्ञाता० | हेरुयलिति-विकोपयति। ज्ञात०१४४१ ६५। शीतकालमासः। ज्ञाता० १२४१ पोषमाघो। ज्ञाता० हेलियमच्छ- मत्स्यविशेषः। जीवा०६६। १६० हेमन्तः-चतुर्थी सूर्य. २०९। हेवक- अभ्यासः। स्था० २८५४ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [167] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] हेवाक-स्वभावः। आव० २७६। तत्तद्देशप्रसिद्धो नैष्यवाचकोऽयं शब्दः। दशवै. २१५ हेसासण-हंसासनं-यस्यासनस्याधोभागे हंसो नानादेशापेक्षया आमन्त्रणवचनम्। ज्ञाता० १६५। होलःव्यवस्थितः। स। जीवा० २००६ नानादेशपेक्षया गौरवकुत्सादिगर्भमान्त्रणवनचम्। हेसिअ-हेषितः- हेसारवरुपः। जम्बू० १४४। दशवै० २१६। हेसितं- अश्वशब्दः। आव० ३४३। ही- महाहिमवति पञ्चमकूटम्। स्था०७२। हेहंभूतो- गुणदोषपरिज्ञानविकलोऽशठभावः। व्यव० ३८१ | महापद्मवास्तव्या देवता। स्था० ७३ हेहयकुलं- हैहयकुलम्। आव० ६७६। हलसन-कम्पनम्। पिण्ड० १०९। हैमवत- भोगभूमिविशेषः। प्रश्न. ९६। हिमतदवर्षधरे -x-x-x-xदशम-कूटम्। स्था० ७१। ईति पञ्चमो भाग: समाप्त: हैमवत्- महाहिमवति तृतीयकूटम्। स्था०७२। हैरण्यक- कर्मबुद्धो दृष्टान्तः। नन्दी. १६४। हैरण्यवत्- शिखरिवर्षधरे तृतीयकूटम्। स्था०७२। रुक्मिवर्षधरे सप्तमकूटम्। स्था०७२। हैरिकः- चारिकः। प्रश्न. ३० हो- भोः। आव० ४०९। होइ- भवति-संजायते। दशवै० ३९। होअव्वयं-भावितव्यं-वर्तितव्यम। दशवै. २२७। होक्कारंत- हुकारयति। आव० २७२। होक्खामि-भव्यामि-मोक्ष्यामि-पालयिष्यामि। उत्त. २४४१ होज्ज- भवेत्। व्यव० ४६५ अ। होज्जा- भवन्ति। अवगाहना। अनुयो०६१| होडहड- किंचित् ज्ञास्ये। व्यव० १२४ आ। होडिओ-नाविकः। आव. २२३। होढ- गाढमलीकम्। बृह. २२१ आ। निशी० १२ होढा- देशीपदम्-दत्तम्। व्यव० १३४ आ। होत्तिअ- वृणविशेषः। प्रज्ञा० ३३॥ अग्निहोत्रिकः। औप० ९० अग्निहोत्रिकः। निर० २५४ होप्पेह- गले धृत्त्वा प्रेरयथ। बृह. २१५ अ। होम-होमः- अग्निहवनम्। अनुयो० २९। अग्निकारिका। प्रश्न. ५११ होरंभा- रूढिगम्या- ढक्काविशेषः। भग० २१७। होरम्भामहाढक्का। जम्बू० ३०६। होरम्भा-महाढक्का। जीवा. ર૬ધા. होरम्भा- महाढक्का। राज०४९। होरंभा-महाढक्का महानिस्वाना। जम्बू० १०१। होल- देशान्तरेऽवज्ञासंसूचकः। आचा० ३८८ होलः मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [168] "आगम-सागर-कोषः" [५] Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनन्द-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागरगूरुभ्यो नमः आगम-सागर-कोष: 5 [मूल शब्दसंकलनकर्ताः- पूज्य आगमोद्धारक आचार्यश्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराज (प्राकृत-संस्कृत-शब्द एवं तेषाम् ससंदर्भ-व्याख्या सह) कोष-रचयिता मुनिश्रीदीपरत्नसागरजी महाराज [M.com._M.Ed._Ph.D. श्रुतमहर्षि]