Book Title: Agam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Author(s): Ramnibhushan Bhattacharya
Publisher: Parshwanath Jain Library Jaipur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Batia Series No 6 दशवैकालिकसूत्र वाङ्गाला पद्यानुवाद गार्ग्य श्री. रमणीभूषण भट्टाचार्य शास्त्रि - विधारत्नकाव्य-व्याकरण-सांख्यतीर्थ-प्रणीत । 'मलिनस्य यथात्यन्तं जलं वस्त्रस्य शोधनम् ।” अन्तःकरणरत्नस्य 'तथा शास्त्रं विदुर्बुधाः ॥ Dasha Baikalika Sutra (Translated into Bengali Poetry) By R. B. Bhatta Cafe » Kabya-yakaran-Sankhya Bidyaratna Seth Chandmall Batia, trustee Parswanath Jain Library (Jaipur City) ' Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'मुद्रक : मदनकुमार मेहता रेफिल आर्ट प्रेस (प्रादर्श-साहित्य-संघ द्वारा संचालित ३१, बड़तल्ला न्द्रीट कलकत्ता। ०००.. सेठ चांदमल बांठिया ट्रष्टर ट्रष्टि अधिकारी पार्श्वनाथ जैन लाइब्रेरी ' . जयपुर Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कथारम्भं - "उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् । आत्मैव ह्यात्मनो वन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ।।" वंगदेशे दार्शनिक-साहित्येर शिवारथाय जैनदर्शनेर आलोचना अप्रासंगिक नहे एइरूप धारणार वशवी हइया आमि "दश वैकालिक सूत्र" वाला पद्य अनुवाद करिते' प्रवृत्त हइ। वालाभापाय अनभिज्ञ पाठकवृन्देर पक्ष इहा समधिक उपयोगी ना हइलेओ वालार सूक्ष्मदर्शी पण्डितगण ये इहाद्वारा जैनदर्शनेर तात्पर्य्य हृदयङ्गम करिते पारिवेन एविपये वोध हय काहार मतद्वध नाइ। जैन आगम-शास्त्र समूह प्राकृतभापाय (अर्द्ध मागधीभापाय ) रचित हइलेओ उहा संस्कृत, हिन्दी, गुजराटी एवं इंराजी भापाय अनूदित हइयाछे। वर्तमाने भारतीय कर्तृ पक्ष हिन्दीभापाके राष्ट्रभापारूपे निर्धारित करियाछेन वलिया एइग्रन्थ वंगवासिगणेर जन्य वाला अक्षरे एवं अपरेर जन्य देवनागरी अक्षरे मुद्रित हइयाछे।, जैनधर्म अति प्राचीन। यीशुखीप्टेर आविर्भावेर ६८० शत वन्सर पूब्वे गौतम बुद्ध जन्मग्रहण करेन। श्रीवर्द्धमान महावीर बुद्धर समसामयिक छिन। तीर्थंकर श्री महावीरेर आविर्भावर पूर्व Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२] पूज्यपाद ऋषभादि त्रयोविशंति तीर्थंकर आध्यात्मिकतार समुज्वलालोके भारतभूमिके परमशान्तिर पथे सञ्चालित कराइया एक अभिनव युगेर प्राधान्य सर्व्वत्र प्रचार करेन । जैनगण साधारणतः दुइभागे विभक्त । श्वेताम्वर ओ दिगम्वर । श्वेताम्वरगण तिनभागे विभक्त :- यथा; मूर्तिपूजक, स्थानकवासी एवं तेरापन्थी । कर्म्मयोग, ज्ञानयोग एवं भक्तियोग मोक्षलाभेर परम सहायक इहा वहूशास्त्रे उल्लिखित आहे | जैनाचार्यगण उक्त त्रिविधयोगेर प्राधान्य उपलब्धि करिया एवं उक्त त्रिवेणीर पूतधाराय सिञ्चित हइया मोक्षार्णवेर अनन्त शान्तिर सुशीतल प्रवाहे निजदेह - मनप्राण अर्पण करिया छिलेन । जैनदर्शने उक्त त्रिविध योगेर प्राधान्यइ विद्यमान आछे । ज्ञानमार्गेर प्राधान्य वर्णनाकाले जैनाचार्यगण वलियाछेन " ज्ञानदर्शन चारित्राणि मोक्षमार्गाः” ज्ञान दर्शन ओ चारित्र मोक्षमार्गगमनेर एकमात्र पथ । जैनदर्शने जैन तीर्थंकरगण गुरुदेवर स्तुति विहित आछे, उहाइ भक्तियोग | साधुदेर सन्यास ओ तपस्या एवं श्रावकर तपस्याओ नियम पालनइ कर्म्मयोग | अतएव वलिते हइवे ये जैन दर्शने उक्त त्रिविधयोगेर समावेश रहियाछे । शुभाशुभ कर्म्मवद्धन हइते स्वकीय आत्माके मुक्त कराइया उहार विशुद्धि सम्पादन मोक्षप्राप्तिर एकमात्र उपाय इहाइ जैन- दार्शनिकगणैर अभिमत । जैनशास्त्रे उल्लिखित आहे : "दग्घेवीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नाकुरः । कर्म्मवीजे तथादग्धे न रोहति भवाङ्कुरः ॥” ये प्रकार शस्यवीज दग्धीभूत हइले उहार अङ्कुरोद्गम हयना सेइरुप याहार चर्नवीज दग्धीभूत हइयाछे ताहार मायाच्छन्न संसारे जन्मलाभ करिते Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३] हय ना। कर्मवन्धन हइते मुक्तीच्छ : साधक अहिंसा संयम एवं तपस्यार प्रभावे आत्मार मालिन्य दूर करिया आत्मध्याने रत थाकिवेन इहाइ जैनतीर्थकरगणेर उपदेश । श्रीमद्भगवद्गीताय ऐरुप उक्त हइयाछे यथा : यस्त्वात्मरति रेवस्या दात्म तृस्च मानवः । आत्मन्येवच सन्तुष्ट स्तस्य कार्य नविद्यते ।।" . ये मानव आत्मविपये प्रीत, आत्मपरितृप्त एवं आत्मातेइ सन्तुष्ट हन, ताहार कोन कत्र्तव्य कार्य नाइ (गीता इय अध्याय १७ श्लोक ) । उहाद्वारा प्रमाणित हय ये आत्मदर्शन मुक्तिर सर्वोत्कृष्ट उपाय । जनसाधुगण कर्मवन्धन हइते मुक्त हइया सांसारिक समस्त भोगवासना त्याग करिते- सर्वदाइ यत्नशील। गीतार चतुर्थाध्ययनेर २० ओ २१ श्लोक पडिलेइ जैनधर्मेर प्रकृतस्वरुप उपलब्धि हइवे । "त्यक्त्वा कर्मफलासंगं नित्यतृप्तो निराश्रयः । कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोतिसः ।। २७ निराशी यंतचितात्मा स्क्तसर्च परिग्रहः । शरीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विपम् ॥ २१ साघुगण कर्मओ तत्फले आसक्ति परित्याग करेन; ताहारा नित्यतृप्त अर्थात् आत्मानुभूतिते परितृप्त सुतरां अप्राप्त-विपयलाभे अथवा प्राप्तविपयेर परिरक्षणे प्रयत्नरहित हइया ध्यानादि कर्त्तव्य कर्मे प्रवृत्त हइलेओ ताहारा किछुइ करेन ना; ताहादेर कृतकर्म काभाव प्राप्त हय। २० श्लोक । यिनि निष्काम हइया अन्तःकरण ओ देहके संयत करिया सर्वप्रकार परिग्रह (भोग्यवस्तु) त्याग करियाछेन, तिनि केवल शरीर रक्षार निमित्त कर्तृत्वाभिनिवेशरहितभावे कर्मानुष्ठान Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४ ] करिलेओ संसार वन्धन प्राप्त हुन ना ( २१ श्लोक ) जैनदर्शने पूर्वोक्त उपदेशगुलिर तात्पर्य यथायथरूपे सन्निवेशित हया । इहाद्वाराइ प्रतिपन्न हय, ये जैनदर्शनेर मोक्षोपायपद्धति शास्त्र सम्मतओ मानव मात्रेर उपयोगी । आईत प्रवर श्रीहरिभद्र सूरि विरचित जैन दर्शन समुचय नामक जनतीर्थङ्करेर येरूप लक्षण उदाहृत हइयाछे ताहा सकलेरड प्रणिधानयोग्य एवं उद्दाद्वाराइ जैनगण कोन पथेर पथिक ताहा स्पष्टरूपे प्रतिभात हय । जिनेन्द्रो देवता तत्र रागद्वे पविवर्जितः । हतमोह-महामल्लः केवल - ज्ञानदर्शनः ॥ सुरा - सुरेन्द्र-संपूज्यः सद्भुतार्थे पदेशकः । कृत्स्न कर्म्म क्षयं कृत्वा संप्राप्तः परमं पदम् ॥ उक्त श्लोव.द्वयेर तान्पद्वारा प्रमाणित हुय ये जिनगण रागद्वे पहीन अर्थात् ताहारा सांसारिक स्नेहरागात्मक राग एवं निग्रहात्मक प जय करियाछेन । उक्त रागद्वेप उभयइ मुक्तिर प्रतिरोधक | जिनगण हिंसादि मोहशून्य एवं ज्ञानदर्शन चारित्र द्वारा सदसन निर्णय करिते समर्थ । जैनशास्त्रे शुभाशुभकर्म्म प्रवृत्ति बन्धनेर हेतु वलिलेओ आत्मार ऊद्वर्व क्रान्तिर पथे अहिंसा संचन तपस्यादि आध्यात्मिक कर्मेर प्रवृति धर्म्म बलिया अभिहित हझ्याछे । इहाद्वारा स्पष्टइ प्रतीयमान हथ ये, ये कम्मर अनुष्ठानफले जीवेर नरदेवतादिरूपे अवतीर्ण हइया पापपुण्य जनित फलभोग करिते हय, तादृश कर्मकेइ बन्धनस्वरूप वलियाडेन । तादृश कन्मेर क्षये आध्यात्मिकतार प्रभाव अनुभूत हय। आध्यात्मिक कर्म्मत्यागेर कथा जैनशास्त्र नाइ । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५ ] आध्यात्मिक कर्म्म ओ ज्ञान एह उभयेर अनुष्ठान अत्यावस्यक । अन्यृथा 1 निर्वाण-लाभ सदूर पराहत । योग वाशिष्ट रामायणेओ ऐरुप लिखित आछे; यथा :-- “उभाभ्यामेव पक्षाभ्यां यथा खे पक्षिणां गतिः । तथा ज्ञान कर्म्मभ्यां जायते परमं पदम् ।। पक्षिगण पक्षद्वय द्वारा आकाश मार्गे उठिते पारे । एकटि पक्ष ना थाले उहादेर उड़िवार चेटा वृथा हय । तद्रूप मानुपेर मुक्तिमार्गे उठिवार दुइटी पथ; आध्यात्मिककर्म्म ओ ज्ञान; उहादेर एकटिर अभावे मानुप निर्वाणलाभे समर्थ नहे । जैनदर्शने कर्म्मलाग वा क्षयर ये कथा उल्लिखित हइयाळे उड़ाद्वारा आध्यात्मिक कर्म्मत्याग बुझाय ना । भोगेर परिपोषक ये कर्म्मद्वारा जीवर जन्म मरण दुख पाइते हय, सेइ कर्म्मके क्षय करिते जैन तीर्थङ्करगण भूयोभूयः उपदेश प्रदान करियायेन । आध्यात्मिककर्म्म कर्म्म नहे उहा धर्म्म। एजन्यइ अहिंसा संयम तपस्या प्रभृति आध्यात्मिक कार्य्यगुलिके जैनाचार्यगण धर्म्म नामे अभिह्नित करियाल्छेन । हिन्दु दर्शनेओ ऐरुप उक्त हइयाछे : यावन्नक्षीयते कर्म शुभाशुभमेव वा । तावन्न जायते मोक्षो नॄणां कल्पशतै रपि ॥ यथा लौह मयैः पाशैः पाशैः स्वर्णमयैरपि । तावद्वद्धो भवेज्जीवः कर्मभिश्च शुभाशुभैः ॥ शुभाशुभ कर्म क्ष्य ना हइले शतकल्पेओ मानुपेर मुक्ति हय ना । येरूप मानव लौह शृङ्खल द्वारा वद्ध हय सेइरूप स्वर्णशृङ्खल, द्वाराओ द्व हय । जीवगणओ सेइरूप पापपुण्य कर्न्सद्वारा वृद्ध हया थाके । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६] श्रीमदभगवद्गीताओ अध्यात्मिक कर्म व्यतीत अन्यान्य कर्मफे वन्धनेर हेतु बलिया उल्लिखित हइयाछे। यथा :-- "यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मवन्धनः। तदर्थं कर्म कौन्तेय ; मुक्तसङ्गः समाचर ॥ परमेश्वरेर आराधना व्यतीत अन्यान्य कर्मेर अनुष्ठान संसार वन्धनेर हेतु-भूत हय अतएव हे पाय ! तुमि निष्काम हइया भगवानेर प्रीतिर निमित्त विहितकमर अनुष्ठान कर। पूवोक्त श्लोके आध्यात्मिक कम व्यतीत अन्यान्य कर्मद्वारा जीव वद्ध हय इहाइ प्रमाणित हय । जैनसिद्धान्त दोपिकार प्रणेता पूज्यपाद आचार्य श्रीमत् तुलसी रामजी महाराज धर्मेर व्याख्या निम्न प्रकार करियाछन । ____ "आत्मशुद्धिसाधनं धर्मः ।" आत्मशुद्धिर साधनइ धर्म। तत्पर धर्मके तिनि दुइभागे विभक्त करियाछन : ___" संवरो निर्जरा।" सम्बर संयम ओ निर्जरातपः एइ दुइटिके धर्म वलियाछेन । एमनकि क्षान्ति मुक्ति सरलता ब्रह्मचर्य प्रभृतिकेओ धर्माङ्ग वलिया निर्देश करियाछेन । अतएव जैनाचार्यगण आध्यात्मिक कम्मके कखनओ वन्धन हेतुभूत कर्म वलिया स्वीकार करेन नाइ इहा स्पष्टरुपे अनुमित हय । शास्त्रोक्त विधि पालन करिते हइले शास्त्रोक्त वाफ्यगुलिर वहिरावरण भेद करिया उहार गृहाथं हृदयङ्गम करिते चेष्टा करिते हय । वक्तार प्रकृत उद्देश्य कि ताहा प्रणिधान सहकारे बुझिया कर्तव्य स्थिर करिते हइवे । सेइजन्य शात्रकार वलियाछेन : Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५] केवलं श्लोकमाश्चित्य विचारं नैव कारयेत् । युस्तिहीन विचारेतु धर्महानिः प्रजायते ।। केवलमात्र श्लोकेर पदगुलिर अर्थ समन्वय करिया व्याख्या करिलेइ प्रकृत तात्पर्य निर्णय हय ना। वक्तार प्रकृत उद्देश्य कि ताहा सविशेष चिन्ता करिया स्थिर करिते हय । युक्तिहीन विचार द्वारा धमहानि हय । सेइजन्यइ आईत श्रीहरिभद्र सूरि श्रीमहावीरेर । युक्ति ओ तानपर्य ज्ञानेर प्रशंसा करियाछेन : "अस्ति व्यक्तव्यता कदचित्तेनेदं न विचार्यते। निर्दोषं काञ्चन च तस्यात् परीक्षाया विभेतिकिम् ।। पक्षपातो न मेवीरे न द्वपः कपिलादिपु । युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रह ।।" तिनि शास्त्रेर विभिन्न मतगुलिर ग्राह्याग्राह्य विपयगुलिर तात्पर्य बुझिवार जन्य सर्वान्तःकरणे यत्नवान् छिलेन; परे आत्मसाधनार पथके सादरे ग्रहण करिया अपरेर भ्रातधारणा विदूरित करियाछिलेन । ताहार निकट ये जैनदर्शन अति आदरेर सामग्रीरुपे परिगृहीत हइयाछिल एविपये काहारओ किछुमात्र सन्देह नाइ। आत्मार मालिन्य दूरी करणइ जैनगणेर मोक्षमार्ग गमनेर प्रधान उपाय। सेइ जन्यइ ताहारा आत्मार उद्धर्व गमने गुणस्थानेर विचार करिया उहार उत्कर्पतार तारतम्य देखाइयाछेन । गुणस्थान मोक्षप्रासाद गमनेर सोपानस्वरुप। संयमादि व्यतीत मोक्षमार्ग अग्रसर हओया अत्यन्त कठिन । श्रीमर भगवद्गीतार पष्ठाध्यायेर ३६ श्लोके लिखित आछे: "असंयतात्मना योग दुष्प्राप इति मेमतिः ।" Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४] अंसचतात्मार पंक्षे योगे सिद्धिलीभं करी अत्यन्तै कष्टसाध्य । आत्मदर्शनइ जीवेर उद्धर्व क्रान्तिर एकमात्रं पथ। अहिंसा दि उहार साधन । सदसत् विचारइ अज्ञानान्धकार दूर करिवार सर्वोत्कृष्ट उपाय एई अमोघ तत्वगुलि जैन साधुगण सर्वत्र प्रचार करिया चिलेन । श्रुतितेओ आर्छ : "आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्योमन्तव्यो निदिध्यासितव्यः ।" । मुमुक्षु साधु आत्माके दर्शन करिवेन यहेतु मुक्ति-कामीर पक्षे आत्मदर्शनइ अभीष्टलाभर उपायरवरुप । आत्मदर्शन कि प्रकारे सम्भव हहवे एइरुप प्रश्न उत्थापित हइले पलिते हवे ये आत्मदर्शन करते हइले आत्मार श्रवण, मननओ निदिध्यासन अत्यावश्यक । जैनाचार्यगण पूर्वोक्त श्रुतिर तात्पर्य साधनावले अनुभव करिया एवं आत्मदर्शनइ धर्मर मूलभित्तिरवरूप हृदयगम करिया आत्मग्लानिसूचक वेदादिगृहोत-हिंसात्मक नियम पद्धतिगुलिके परित्याग करेन एवं विशुद्ध आत्मार विमलप्रभाय देदीप्यमान हइया संसाराणवेर विनतरङ्गर घातप्रतिघात विदूरित करिते वद्धपरिकर हन । जैनाचार्यगण आध्यात्मिकताय विशिष्टस्थान अधिकार करिया अहिंसाधर्मर जाज्वल्यमान प्रमाण प्रदर्शन करियालिलेन । उहादेर न्याय अनुष्ठित आध्यात्मिकर्मानुष्ठानेर कठोरता आर कोथायओ परिलक्षित हय ना । आत्मचेतना-समुत्सुक साधुरा पञ्चमहाव्रत त्रिविधकरण योग पालन करिया सच्चिदानन्द आत्मार विमलप्रभा अनुभव करेन । जैनगण मुक्त आत्मा भिन्न स्वतन्त्र ईश्वरेर अस्तित्व स्वीकार करेन ना किन्तु आत्माकेइ परमेश्वर वलिया स्वीकार करियाछेन । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [] प्रामाण्यस्वरूप एस्थले जैनसिद्धान्तदीपिकार पञ्चम प्रकाशेर ४० सूत्र उद्धत करितेछ। "अपुनरावृत्तयोऽनन्ता मुक्ताः ॥ ४० ॥ सिद्धः वुद्धः मुक्तः परमात्मा परमेश्वर ईश्वर इत्यादय एकार्थाः । आत्माके जैनाचार्यगण वुद्ध मुक्त परमात्मा परमेश्वर ईश्वर प्रभृति नामे अभिहित करियाछन । अतएव इहाद्वारा प्रमाणित हय ये जैनगण आत्माकेइ ईश्वर वलिया स्वीकार करियाछन । आत्माके याहारा ईश्वरस्वरूप मानेन ताहारा निरीश्वरवादी किरूपे हइलेन इहाइ आमार सुधीगणेर निकट जिज्ञास्य । आत्मवादके निरीश्वरवाद वलिले वैदान्तिकेर आत्मवादओ दोपावह हइया उठे। जनगणेर शास्त्र आगम वा सिद्धान्त नामे परिचित। निम्ने उहार भाग विभाग प्रदर्शित हइल । सिद्धान्त (आगम ) मोट ४५टि । अंङ्ग (१२) उपाङ्ग (१२) प्रकीर्ण (१०) छेदसूत्र (६) मूलसूत्र (४) नन्दी(१) अङ्ग-आचारोङ्ग, सूत्रवृत्ताङ्ग, स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग, भगवती विवाह. पन्नति वा व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, . . अन्तकृत्दशा, अनुत्तर उपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाक सूत्र। (११) 'उपाङ्ग-ओपपातिक, रायप्रसेनीय, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, जम्बुद्वीप प्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, नीरयावलिया, कल्पावतंसिका पुष्पिका' पुष्पिचूलिका, वह्निदशा । (१२) । गूलसूत्र-दश वैकालिक सूत्र, उत्तराध्यनसूत्र नन्दी, अनुयोगद्वार । (४) छेद सूत्र-व्यवहार, बृहत्कल्प, निशीथ, दशाश्रूतरकन्ध (४) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवकाशसूत्र - ( १ ) दृष्टिबाद नामीय द्वादशाङ्ग अप्राप्य । ४४ टि सूत्रेर मध्ये कृतकगुलिसूत्र यथायथ ओ सम्पूर्ण ना पाओयाय एवं अङ्गसूत्रगुलिर सहित स्थानेस्थाने उहादूर भेद परिलक्षित हओयाय जैनगणेर कतक सम्प्रदाय ३२ टि सूत्र प्रामाणिक वलिया ग्रहण करेन । ताहादेर भेद एइरूप : - अङ्ग ( ११ ), उपाङ्ग ( १२ ), मूलसूत्र (४), छेदसूत्र (४), आवश्यकसूत्र (१) (मोट ३२ टि सूत्र ) 1 उपरिलिखित-मतान्तर परिलक्षित हइलेओ दशवेकालिक सूत्रके सकलेइ मूलसूत्र र अन्तर्गत बलिया स्वीकार करियाछन । मात्र 1 दशवैकालिक सूत्र जैन सम्प्रदायेर एकटि अमूल्य धर्मग्रन्थ । इहा मूलसूत्र र अंश विशेष । आत्मार मूल्गुण प्रधानतः चारिटि यथा: -- ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तपस्या । ये शास्त्र उक्त मूलगुण समूह पोपण करे उहाकेइ मूलसूत्र चलें । दश वैकालिक सूत्र दशदि अध्ययन एवं दुइटि चूलिका आछे । दशवैकालिक सूत्र सर्ग - ' विरतिरुपचारित्र धर्मेर पूर्ण विवरण पाओया याय । दशवेकालिक सूत्र प्रणेता जैनाचार्य श्रीशय्यम्भव भट्ट वीर सम्वत् ३६ साले राजगृह जन्मप्रहण करेन । तीहार पूर्ववर्तिगुरु -- स्थानीय आचार्य र नाम निन्मे लिखित हइल | तीर्थङ्कर श्रीवर्द्धमान महावोर । श्री सुधर्मा स्वामी । श्री जम्बु स्वामी । 1 श्रीप्रभव खामी । 1 श्रीराग्यम्भव स्वामी तशिष्य. 17 "3 [ १० ] 33 : Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११] श्री शय्यम्भव स्वामी कर्तृक दश वैकालिकसूत्र वीरसम्वत् ७२ साले रचित हय । वोर सम्बत् ६८ साले उक्त ग्रन्थकार निर्माण प्राप्त हन । ___ दश वैकालिक सूत्ररे प्रणयने मनकमुनिइ प्रधानकारणरूपे प्रख्यात हइयाछेन। यखन श्रीशय्यम्भव भट्ट जैनदीक्षा ग्रहण करेन, संइ समये ताहार धर्मपत्नी गर्भवती छिलेन । एकदा ज्ञातिवर्ग उक्त धर्मपत्नीके जिज्ञासा करेन- "आपनार गर्ने किछु आछे कि? तदुत्तरे तिनि वलेन "मनगम् अर्थात् अल्प किछु आछ। कियत्काल परे यथाकाले शय्यम्भव पत्नी एकटि सुसन्तान प्रसव करेन । मातार प्रत्युत्तरकाले "मनगम्” शब्द उच्चारित हइयाछिल वलिया पुत्ररे नाम मनक राखा हय। मनक दैनन्दिन शशिकलार मत वर्द्धित हइया अष्टम वर्षे उपनीत हन । एकदिन मनक स्वीय जननीके जिज्ञासा करेन "मातः ! "आमार पिता के ? तिनि वर्तमाने कोथाय आछन ? मनक-जननी पुत्रेर निकट पितार प्रव्रज्यार समस्त घटनावली यथायथरूपे वर्णना करेन । मनक मातमुखे पितार संन्यास ग्रहणवृत्तान्त श्रवण करिया तांहार दर्शने समुत्सुक हन एवं शुभदिवसे मातार चरणवन्दना करिया तोहार आदेशे पितृदर्शने आलय हइते वहिर्गत हन। आचार्य-प्रवर श्री शय्यम्भव स्वामी तत्काले चम्पा नगरीते विहार करितेचिलेन। मनक कोन प्रकारे चम्पानगरीते उपनीत . हइया पितार दर्शन लाभ करेन एवं पूर्वजन्मकृत-शुभसंस्कारवशतः भक्तिर सहित पितार चरणवन्दना करेन । मनकेर भक्तिर आधिक्य निरीक्षण करिया श्रशय्यम्भव स्वमी मनकेर परिचय जिज्ञासा करेन । वालकेर परिचये श्रीशय्यम्भव स्वामी वुझिते पारिलेन ये मनक ताहारइ पुत्र। मनक पितार निकट कियन्काल अवस्थान करिया पिता हइते जैनदीक्षा ग्रहन करेण । श्नीशय्यम्भव स्वामी तपरया वले मनकेर आयुः Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२] . छय मास मात्र अवशिष्ट आछे इहा बुझिते पारिया स्वल्पकाले ज्ञानबृद्धि एवं मुक्ति कामनाय एइ ग्रन्थ दशटि अपराह्न वेलाय (विकाले) लिखिया शेप करेन। रचनाकालेर वैशिष्ट्य रक्षार निमित्त एइ ग्रन्थ "दशवकालिक सूत्र” नामे अभिहित हय। एइ ग्रन्थे जैन भिक्षुकगणेर धर्मरोतिनीति विशदरूपे वर्णित हइयाछे। अहिंसा, संयम, तपस्या, भोगवासना-निवृत्तिर उपाय, अनाचीर्णदोप, पट् कायिक जीव, पञ्चमहाव्रत, भिक्षाविधि, भापार विचार, आहार विधि, गुरुसेवा, विनय, खाद्याखाच विचार, रात्रि भोजन त्याग प्रभृति विपय इहाते दृष्टान्तसहकारे सरल ओ.प्राञ्जल भापाय लिपिवद्ध करा हझ्याछे। एइ ग्रन्थ प्राकृत भापाय गद्य ओ पद्य लिखित हइया।। उक्त ग्रन्थखानि चङ्गभापाय पद्यानुवाद करिया प्रकाश कराइते धर्मप्राण उदारहृदय जयपुर निवासी शेठ श्रीचाँदमल वाठिया महोदय कृतसङ्कल्प हन एवं पद्यानुवादेर भार आसार उपर न्यस्त करेन । आमि उक्त ग्रन्थेर विवृत्तिगुलि यथारीति वालापद्य लिखिया उहार संशोधनार्थे विक्रमसम्बत् २००७साले कार्तिक मासे चातुर्मास्य उद्यापन काले हांसीस्थित जैन श्वेताम्बर तेरापन्थि-सम्प्रदायेर पूज्यपाद आचार्य श्रीतुलसीरामजी स्वामीर शरणापन्न हइ। ताहार कृपाय एवं परामर्शानुसारे वङ्गभापाय अभिज्ञ श्रीमद् दुलीचाँद स्वामीर निकट याइया प्रथम ओ द्वितीय अध्ययनेर सन्दिग्ध अंशगुलिर संशोधन करि । तत्पर विकानोरेर अन्तर्गत प्रसिद्ध सहर “सहरसहरे” उपनीत हइया काव्यविशारद वैयाकरण श्रीमत् मोहनलाल स्वामीर साहाय्ये ग्रन्थेर प्राय अधिकांश सन्दिग्ध अंशगुलि संशोधन करिया लइ । आमार परमात्मीय सहोदर प्रतिम श्रीजैन श्वेताम्बर तेरापन्थि-महासभार सुयोग्य सभापति श्रीछोगमलजी चोपड़ा वि, एल, महोदय Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . [१३] • आमाके सर्वविषये सर्वान्तःकरणे साहाय्य करेन । सर्दारसहर वास्तव्य श्रीमद गाधिया ताहार निज वाड़ीते आत्मीयभावे आमाके राखिया एवं आमार अभाव अनुयोग यथासाध्य दूर करिया निर्विघ्ने पद्यानुवाद करिवार सुयोग प्रदान करेन । एइ ग्रन्थेर ऐतिह्य उद्धत करिवार समय स्वधर्म्मपरायण सभापति महाशयेर योग्यपुत्र श्रीगोपीचाँद चोपड़ा बि, एल, महाशय सर्वान्त करणे आमार साहाय्य करेन । पण्डित प्रवर स्वनामधन्य चिकित्सक आशुकवि श्रीरघुनन्दन शास्त्री चुरूवास्तव्य श्रीघनश्याम शास्त्री एवं लाड्नु निवासी श्रीपान्नालाल भंशाली आमार यथेष्ट साहाय्य करेन । याहा देर साहाय्ये एइ ग्रन्थखानिर पद्यानुवादे कृतकार्य हइयाकि, ताहादिगके आमि आमार आन्तरिक धन्यवाद प्रदान करितेछि । उहादुर साहाय्य व्यतीत आमार एइ दुरूह कार्य सम्भवपर हइत ना । उहादेर सस्नेह दृष्टिपाते आमार विदेशवासओ सुखप्रद हइया छिल । हिंसा निवृत्तिर उपायस्वरूप एइ प्रन्थखानि पड़िया यदि काहार प्राणे अहिंसा साधने ओ संयमे विन्दुमात्रओ प्रेरणा जन्मे ताहा ess आमार परिश्रम सार्थक ज्ञान करिव । विनीतअन्थकार । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवन्धेर नाम १ | भूमिका २ । प्रथम अध्ययन . ३ । द्वितीय अध्ययन ४ । तृतीय अध्ययन ५। चतुर्थ अध्ययन ६। पश्चम अध्ययन ७. । यष्ठ अध्ययन ८ । सप्तम अध्ययन है। अष्टम अध्ययन १० | नवम अध्ययन ११ । दशम अध्ययन १२ । प्रथम चूलिका १३ । १४ । द्वितीय चूलिका परिशिष्ट सूचीपत्र | :: ... 2.4 : ' : ... : ... :: ... ... ... ... ... 008 0.0 पृष्ठाङ्क - -6 ६- ११. १२–१६ १७-२४ २५–४८. ४६-८४. ८५- १०० १०१ – ११५. ११६ - १३० १३१–१५३. १५४–१६१ - १६२ – १७० १७१ - १७७ १७८ - १८४ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश वैकालिकसूत्र। . अशुद्धि-संशोधन अशुद्ध पृष्ठाङ्क पंक्ति ... ... शुद्ध सच जीवहत्या वर्जन जीवविरोधना स्त्री ... १६ सब ... जोवहत्या ... वजन ज़ोवविरोधना स्त्रो विषेष ... विणयोर धर्मत्मागे ... द्युतक्रिया ... चरिटि ... करािणा ... विम्वा .... भावाशक्ति . शुद्द ... कम्मक्षय ... वाचाइया. विशेष विनयीर धर्मत्यागे धू तक्रिया ... चारिटि करिना .... किम्वा भावासक्ति शुद्ध ... कर्मक्षय वांचाइया . ... " mor 03 or ur १४May ... Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · पंक्ति M ... . ७५ [ १६ अशुद्ध . शुद्ध पृष्ठांक साभीष्ट ... स्वाभीष्ट वजन ... वर्जन .... . ५० चलिते चलिते वलिते वलिते शान्ति .... शास्ति मुक्ष्मकीट ... सूक्ष्मकीट कदम मय . कर्दममय योहाते ... याहाते · · अपरिणता अपरिणता वा पूर्णरुप ..... पूर्वरुप व्याधिहीण व्याधिहीन पृविकाय पृथ्वीकाय दन्डेर .... दन्तेर . तुल ... तोर्थङ्कर ... तीर्थङ्कर . आसक्तिई आसक्तिइ सततः .... सतत ... .६१ आहत ... आहृत ... ६५ साध ... साधु ... ११० ऊर्ध्व ... उर्ध्वं . ... ११४. सवाक्यरे . स्ववाक्येर .. .... ११४. इहाते ... हइते . ... ... १२७ याअनुमोदिनो पापानुमोदिनी.. .... सज्योति सज्योति .. ... y 88 3.५ ५ ५ तेल ... - १५ ... १३... ... . :१. .... . . .... १२ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७]: अशुद्ध पृष्ठ • पंक्ति १३३ शुद्ध कछप ... कच्छप .... १२४ वयक्रम ... क्यःक्रम : १२७ दुख ... दुःख दुखमय ... दुःखमयः १३८ भत्सनादि ... भत्सनादि ... १३६ १४० . कण्टकऔ ... · कण्टकओ १४५ . अप्रिय याहा ... याहा अप्रिय .... मभ्ये ... मध्ये १४६ षदे ... पदे ... १४७ शुसाधु ... सुसाधु ... १५० . सनाधिर समाधिर आक्राशा .... आक्रोश विलतेछि ... वलितेछि ... १६१ भोगपारे ... भोगपरे ___... १५७ पृष्ठ .... पंक्ति . कथारम्भ । अशुद्ध शुद्धि तीर्थकरगण गुरुदेवेर तीर्थंकर-गुरुदेवेर तृप्तस्च तृप्तश्च प्रवृक्ति ... प्रवृत्ति ... अत्यावस्यक ... अत्यावश्यक .... तरच ... ४ ... १९ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मङ्गलाचरण । चिदानन्दमय प्रभु व्याप्त चराचर। शुद्ध-बुद्ध-यतिलब्ध ज्ञानेर गोचर ॥ सर्वधीवृत्तिर साक्षी नित्य निर्विकार । अजर अमर आत्मा नमि कोटिवार ।। जैनधर्म-प्रवर्शक अहिंस - साधक, यांहादेरं कृपावले प्रवुद्ध श्रावक, अपभादि पूज्य त्रयोविंशति-संख्यक, नमि आमि भक्तिभरे विश्वेर रक्षक। जीव मुक्ति हेतु यिनि. कृच्छुव्रतधारी! साधु श्रेष्ठ महावीरे नमस्कार करि।। शान्त शुद्ध जितेन्द्रिय प्रवीण आगमे। सभक्ति साञ्जलि नमि श्रीतुलसी रामे ॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका | दश-वैकालिक-सूत्र सिद्ध- पूर्ण- ज्ञान । साधुरा पूजिछे याहा करिया धेयान || सव्वविरतिरूप चारित्र धर्मेर । विकाशक एइ ग्रन्थ सकल लोकेर || सन्तोष लभिवे वहा पड़ि साधु जन । दूर हवे पाप ताप करिले श्रवण ॥ आचार्य तुलसी पदे करि नमस्कार । शुन पूण्य कथा एवे हये शुद्धाचार || दश वंकालिक नाम अति सुशोभन । केमने हइल तार शुन विवरण ॥ शय्यम्भव नामे मुनि आचाय्ये सुजन । मेनसारतत्त्वे रचि दश अध्ययन ॥ विकाले प्रत्थेर शेष करेण वलिया । - वैकालिक नाम हय पृथिवी व्यापिया ॥ मनक नामेते मुनि पुत्र छिल तार । छय मास आयुः छिल अवशिष्ट आर ॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र । ताहार ज्ञानेर तरे ग्रन्थ सङ्कलन । करेण साधकवर करिया चिन्तन ।। प्रथमाध्ययने आछे धरम प्रकृत । अहिंसा संयम तपः जैनेन्द्र कथित ।। श्रमणेर वृत्ति आर भ्रमर तुलना। माधुकरी वृत्ति तथा हयेछे योजना ॥१ द्वितीयाध्ययने आछे वासना जड़ित । मानव केमने पाले कृच्छ्र साधुव्रत । भोगीर भोगेते मति त्यागीर वर्जन । सुविस्तृतभावे साधु करहे श्रवण ।। मनेर चाञ्चल्यरोधे आछे द्विप्रकार। वहिरङ्ग अन्तरङ्ग विधि धर्माचार ।। राजीमती उपदेशे मुनि रथनेमि । केमने हलेन चिर सतत संयमी ।। रथनेमि तुल्य कार यदि वा कखन । भोगेर निवृत्ति हय सफल जीवन ॥२ तृतीयाध्ययने आछे दोषेर वारता। संयमेते स्थिरचित्त-मुनिर व्यर्थता ।। औदेशिक आदि वहुं अन.चीर्ण दोष । तेयागि किरूपे. मुनि लभिवे सन्तोष ॥३ अध्ययन चतुर्थते 'हयेछे. प्रचार । गुरू शिष्य प्रश्नोत्तर प्रारम्भे याहार ।। पंड् जीव वर्णनं आछे पञ्च महाव्रत। रात्रिर भोजन त्याग हयेछे वर्णित ।। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक सूत्र | पृथ्वी जल तेज: वायु वनस्पत्ति आर । नस नामे छय जीव आछे नानाकार ॥ जोवहत्या महापाप हयेछे लिखित | कि उपाये रक्षा पाय जीव शत शत ॥ सुगति दुर्गति साधु केन भुज भवे । केमने मुकति पाय तपस्या प्रभावे ॥४ अध्ययन पश्चमेर नाम पिण्डैपणा । उद्दशद्वयेते उहा हयेछे योजना | भिक्षुकेर भिक्षाविधि वर्षाकाले स्थिति । विश्रान्ति चिन्तन आर भोजनेर रीति ।। प्रथम उद्देशे उहा भाछे सुविस्तार | याहा द्वारा साधुदेर हवे उपकार || द्वितीय उद्देश कथा वलिव एखन । मनोयोग सहकारे करिवे धर्मकाय जीवगण करिते कि उपाये लभे साधु पानीय भोजन ॥ भिक्षार ग्रहणकाले किरूपे थाकिवे । किरूपे आहा साधु ग्रहण करिवे ॥ क्रोध पूजा कि प्रकारे करिवे वर्जन । कि कि खाद्य करिवेना भिक्षार्थी ग्रहण || भिक्षाला कालाकाले किरूप विचार । आचार्य भिक्षार्थी हले किहवे भिक्षार || इत्यादि विषय आछे वर्णित इहाते । चेष्टित हइवे उहा पालन करिते ॥ ५ श्रवण || रक्षण | By Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक सूत्र | षण्ठ अध्ययने आछे अनेक विषय | वर्णित हइवे उहा जैनतत्त्वमय ॥ प्रश्नोत्तर गुरुशिष्ये साघुर आचार | दोष स्थान अष्टादश हयेछे प्रचार ॥ अहिंसा ख्यापन आर दोषादि वर्णन । परिग्रह व्याख्या त्याज्य रात्रिर भोजन ॥ . वर्णित हयेछे आर जोत्रविरोधना । चारिटि अभोज्य वस्तु हयेछे योजना | आहां ग्रहण रीति वर्जन विधान । पश्चात् आर पुरः कर्म्म दोपेर व्याख्यान | स्नानादि वर्जन आर निर्जरा ग्रहण | सिद्धिलाभकथा इथे हयेछे वर्णन ॥ ६ अध्ययन सप्तमेते भाषार विचार | चारि संख्या परिमित उहार प्रकार || उहा हते दुइ ग्राह्य दुइ त्यजनीय | सत्य विनयादि ग्राह्य त्याज्य करिवे । प्राणि भेदे भाषा भेद किरूपे वृक्षादिके कि प्रकार भाषाते कहिवे || स्त्री पुरुष कथनेर कि प्रकार रीति । सावध भाषार त्याग श्रद्धार प्रकृति ॥ खरिद विक्रये भाषा किरूपे कहिवे । असाधुर सह कथा केन ना बलिवे || युद्ध कार जय लाभ कखन घटिल | सुभिक्ष दुर्भिक्ष अद्य कोथा वा हइल | = दूपणीय ॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वकालिक सूत्र। पूर्वोक्त प्रश्नेर त्याग आगमविहित । शुद्ध भाषा आर फल हयेछे वर्णित ॥७ अध्ययन अष्टमेते निम्नोक्त विषय । जैनेन्द्र महर्षि द्वारा लिपिवद्ध हय ।। आनारादि अभिनेर कर्तव्य साधन । जीवभेद, पड्जीवेर हिंसादि त्यजन ॥ सूक्ष्म आट जीव प्रति हिंसा त्याग विधि । प्रतिलेखनेर फल कि वा निरवधि ॥ उबारादि विसर्जन भिक्षार्थीर कथा। लाभालाभ चर्चा त्याग भोजनाप्रियता ।। परिपहसाफल निशा खाद्यत्याग। दान्त भावे विषयेते राखिया विराग। साधु करे आत्मोत्कर्ष किरूपे गोपन । श्रुतलाभे गावोध करिवे वर्जन ॥ पाप काळ कृत हले करिवे ना आर। स्वपापेर मन्द फल करिवे प्रचार॥ आचार उपदेश विनये पालिवे। आयूर अल्पता ज्ञाने किरूपे चलिवे ।। क्रोधादि कपाय चारित्यागेर आदेश। वृथा कथा अपृष्ठेर निषेध विषेप ।। अप्रीतिजनक फिम्या क्रोधेर कारण । वाक्य राशि प्रयोगेर रहेछे वर्जन ॥ नाक्षत्रिक गणनादि भावि भाग्यवाणी। नारीर संसर्ग भवे कत करे हानि ।। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-र्वकालिक सूत्र | • वचन | साधुगणपालनेर आदेश संयमेर फल व्याख्यां आछे अगणन ॥८ अध्ययन नवमेते आहे बहु नीति । चतुर्विध उद्देशेर रहेछे विवृति || क्रोध आर विनयेर विषय वर्णन | गुरु प्रति श्रद्धाभावे शिप्येर पतन ॥ नागेर उपमा द्वारा याहा विचारित | मुमुक्षु मुनिर का हयेछे वर्णित || गुरु सेवा विनयीर किवा हय फल | तुलना इन्द्ररे सह गुरूर केवल ॥ कथित | वर्णित ।। उपमा सुधांशु सह गणीर गुरुर सन्तोष फल हयेळे धर्मेर उपमा आछे वृक्षेर कपटता महादोष हयेछे विनयोर भावि फल अविनये दोष । शारीरिक मानसिक जन्मे असन्तोष || आचार आज्ञा मानि किरूपे साधक । उन्नति चरम स्थाने उठिछे सेवक ॥ शिल्पादि निषेध विधि नम्रतार गुण । क्षमार किरूप शक्ति हयेछे वर्णन || गुरु सेवा भिक्षा लाभ इन्द्रियेर जय । अप्रिय भाषण त्याग वर्णित विषय ॥ रागद्वे षकषायेर त्यागेर सुफल । निन्दा त्यागे सकलेर जन्मे धर्म्म बल ॥ . सहित । कथित ॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक सूत्र | माननीय शिष्य सह कन्यार उपमा | बर्णित हयेछे अति संयमगरिमा !! पालने । पाँचटि समिति आर त्रिगुप्ति कषायेर परित्याग परम यतने !! पूज्य हय साधुवर भुवने सतत । वर्णित ॥ गुरुर शुश्रूषाफल हयेछे चतुर्थ उद्देशे आछे विनय समाधि । तीर्थङ्कर महावीर रचित सुविधि ॥ श्रुत तपः समाधिर प्रभाव विस्तार । ज्ञान योग एकाग्रता विविध आचार || गुरुर शुश्रूषा विधि समाधिर बल । वर्णित हयेछे सत्य जैन नीति फल ॥६ अध्ययन दशमेते हयेछे बर्णित । भाव साघुबर संज्ञा अति सुविस्तृत ॥१० प्रथम चूलिका धरे रतिवाक्य नाम । साघुरा पड़िया हवे सिद्ध मनस्काम ॥ प्रथम चूलिका मध्ये आछे सुउपाय | किरूपे संयम सदा स्थिर राखा याय ॥ दुःखेते उद्विग्न साधु स्वकर्त्तव्य च्युत । संयम त्यजिते शीघ्र यखन उद्यत ॥ अष्टादश स्थान तदा करिया मनन । संयमेते युक्त हन किरूपे तखन ॥ धर्मात्मागे किवा फल पाय साधुजन । उपमार प्रदर्शने सन्तापित हन ॥ 9 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र | चारित्रत्यागेते ताप पर्यायेते रति । धर्मभ्रष्ट भुल साधु किरुप दुर्गति ॥ संयमे सहिले कष्ट किवा फलोदय । वर्णित हयेछे हेथा अति सुखमय ॥ चूलिका विविक्त चर्या द्वितीयस्थानीया । उहार परम तत्त्व शुन मनदिया ॥ उपदेश । चूलिकार द्वितीयेते आछे किरूपे संसारमार्गे हवे ना प्रवेश || प्रतिस्रोतः कारी केवा भिक्षुर विहार । एकच जागरणे आत्म समाचार | प्रतिबुद्धजीवी केवा आर उपदेश । कथित हयेछे स्पष्ट इथे समावेश ॥२ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र। प्रथम अध्ययन। विपन्न आत्माके यिनि करेण धारण । श्रेष्ठ हितकारी यिनि सदा सक्षिण | धर्मा नामे तिनि हन विख्यात धराय । अहिंसा संयम तपः धर्म बला याय ॥ जीवहिंसा महापाप सळशास्त्रमते। प्राणीर हननत्याग अहिंसा जगते ।। इन्द्रिय सकल हयं पापेर आलय । पापद्वाररुद्धकारी संयम निश्चय ॥ बहुजन्मे जीव करि कर्म अष्टविध । शोक ताप दुःख देन्य भुजे नानाविध ॥ याहा द्वारा अष्ट कर्म हय सन्तापित । पृथ्वीमाझे ताहा शुद्ध तपः नामे ख्यात ।। . चाह ओ आन्तर तपः हय द्विप्रकार। अनशन आदि वाह्य ध्यानादि आन्तर ।। धरमे आसक्त रय याहार पराण । वाहाके प्रणाम करे देवता प्रधान ॥१ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश - वैकालिक - सूत्र प्रथम अध्ययन । देहेते आश्रित धर्म्म देह खाद्यपर । किरूप आहार्य्यरत साधक प्रवर ॥ वक्ष्यमाण उपमार मम्मर्थ बुझिवे । साधक, भोजनविधि वुझिया चलिवे, ॥ मंधुर कुसुम रस बहुविटपीर । भ्रमर येमति पिवे क्षुधार्त्त सुधीर ॥ पीड़न करेणा कभु पुष्पमध्यभाग । आत्मार तर्पणहेतु शुधु अनुराग ॥२ वाह्य धन कनकादि मिथ्यात्वादि रूप । आभ्यन्तर-ग्रन्थ- शून्य शान्तिर स्वरूप । श्रमण तपस्यारत घाइलोकवासी । अति शुद्ध आहार्येर हन : अभिलाषी ।। पुष्पोपरि बसि : करे मधु अण्वेषण । सदोष मुक्त हये भ्रमर येमन ! गृहस्थेर दत्तखाद्य तथा दोषहीन । खुजिते तत्परः हून सांधक प्रवीण 11३ पूर्वोक्त आहाय्यकथा शुनि शिष्य भाषे । करिव ना कारो नाश जीविकार आशे । पुष्पेर उपरे थाकि मधु करि पान १ - द्विरेफ करेणा पुष्प कखनउ म्लान ! 'सेइरूप साधुगण प्रतिज्ञा करिया । · भिक्षा याचे दोषशून्य गृहेते याइया ||४ मूलतत्व कथा साधु इन अवगतः। : सर्वेन्द्रिय वशवर्ती राखेन संततः || . · Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र प्रथम अध्ययन । मधुकर यथा भ्रमे भेदबुद्धिहीन । जाति कुल भेद तार तथा हय क्षोण ॥ स्थावरादि स जीवहिते यत्नवान् । तुच्छाहारे परितृप्त हन महाप्राण ।।५ तीर्थकर महापुज्य साधक याहारा । दियाछेन उपदेश हितार्थे ताहारा ।। स्मरि सेइ उपदेश त्यजि स्वकल्पना। चलितेछि पूर्वरूप करिओ धारणा ।। ॥ इति दुम पुष्पिकाध्ययन समाप्त ।। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र। द्वितीय अध्ययन । पारेणाको निवारिते वासना याहारा। सतत अपार दुःख पाइवे ताहारा॥ अनित्य वासनारूप अरिर अधीन । हये दुःख पान साधु संयमविहीन ।। राज्यरक्षा ना करिले येमन राजार । दुःख दैन्य शोक ताप आसे वारंवार ॥१ त्यागी भोगी भिन्नपथे भवे करे बास । भोगी भोगे करितेछे सतत प्रयास ॥ चीनांशुक वख आदि नारी अलङ्कार। धूप पुष्प गन्ध द्रव्य पर्यङ्क आधार ।। भोगीर पूर्वोक्त द्रव्य भोगेर साधन । त्यजिया वासनायुत साधु त्यागी नन ॥२ सुरस सुन्दर प्रिय भोग्य राशि राशि । त्याग करे चिर साधु तेयाग प्रयासी॥ साधुकाछे प्रिय खाय कभु वो आसिले । ग्रहणे विमुख हन ताइ त्यागी वळे ॥३ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र द्वितीय अध्ययन । आत्मपरसमदृष्टि . साधक सुजन । केमने विपथे यान वलिव एखन ॥ भोग्यतरेभ्रान्त चित्त विस्मरि साधन । संयमेर वहिर्देशे करिछे गमन ।। असंयमे वहु दुःख हय आविर्भाव । आत्मध्याने नाशे साधु मनेर प्रभाव ।। सेइ स्त्री आमार नय आमि नइ स्त्रीर। भ्रमपूर्ण उभयेर सम्बन्ध गभीर ।। अनित्य वियय त्यागी मोहज बुझिया। भोग राग दूर करे ध्यानस्थ हइया ॥४ मनेर निग्रहे पूर्वे याहा अन्तरङ्ग । वलियाछि एवे पलि शुधु बहिरङ्ग ॥ मुनिवर कर तपः शुभ आतापना । सौकुमाऱ्या त्यागकर आत्मार यातना ।। संयम हइते उहा भ्रष्ट करे नरे। सेइ हेतु साधुगण हेय वले तारे ।। वासना दुरन्त रिपु दुःखेर आंधार । तेयागिले यावे दुःख असीम अपार ॥ कामेर आश्रय द्वष आर राग मोह । अपनीत कर सव अति भयावह ।। । दृढ़ भावे पू कथा स्मरिया चलिवे । संसारे थाकिया दिव्य आनन्द लभिवे ॥५ बड़इ चञ्चल मन स्थिर राखा दाय। संयम संश्लिष्ट देह छाडिवारे चाय ।। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र द्वितीय अध्ययन । दृष्टान्तु नेहारि साधु हवं स्थिरमति । बांधवे चञ्चल मन प्रकाशि शकति ॥ धूमकेतु दीप्तानले करिले प्रवेश. । प्राणिमात्र पाय दुःख असह्य अशेष || आगमे रहेछे तार दृष्टान्त अतुल । चुमिचा चलिंबे साधु संहाय विपुल !! अगन्धन सर्प राज़ी पुड़िते अनले । तबु नाहि तोले विष शतमन्त्र वले ॥ सेइ रूप साधु यम करिया ग्रहण | मृत्युपणे पाले उहा त्यंजेना कखन ॥६ यशस्कामिन हे क्षत्रिय धिक्कार तोमाके । जीवन संयत नहे विधिर विपाके ॥ भोगरूप विष पिव जोविकार लागि । उत्क्रान्त गरल पाने हओ अनुरागी ॥ धारण अपेक्षा हेन मलिन जीवन ! तोमार संसारे एइ प्रशस्य मरण | राजकन्या राजीमती' कुलाभिमानिनी । परकाशि कुलख्याति वलेन भामिनी ॥ भोगराज उग्रसेन आमारि जनक । धनमाने सुशासने प्रजार पालक !! यदुवंश - नरपति समुद्र विजय । तहार आपनि पुत्र अत्युच्च हृदयः ॥ १ परिशिष्टे राजोमतीर उपाख्यान लिपिवद्ध आहे । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'दश-वैकालिक-सूत्र द्वितीय अध्ययन । एहेन प्रधान कुले कलङ्करोपण। गन्धन सर मत अति अशोभन । ताइ वलि स्थिर चित्त ह'येस क्षण । करूण मुनिर काम्य संयम पालन ॥८ चञ्चल मनेर- गति समीरण प्राय । सेइ हेतु जीव भ्रमे यथाय तथाय ॥ चित्तरे- चाञ्चल्य दूर करे ना ये जनः। बहु दोफे दोपी सेइ शास्नेर वचन।। सुन्दर ललना भवे आछे अगणन । तादेर लागिया घटे कत - अघटन ।। नेहारि ललना यदि काममत्त-मन-। हय कामावेगे तव चित्तरे स्पन्दन । पवन 'प्रवाहे । हडः तरुर. मतन । संयम :हइते : हचे आत्मार पतन ।। ताइ बलि रथनेमि संयमेते. व्रती। संयम सोपाने चित्त स्थिर कर अति ।। ना राखिले चित्त स्थिर प्रमादे पड़िवे; संसारसागरे पड़ि हाबुडुबु खावे नाह • राजार कुमारी सेइ नामे राजीमती। जनमिया :राजकुले अतिधर्ममति ।। , संयमादि. शिक्षा करि पवित्रहृदया। प्रचारे संयम धर्म विहारे याइया ।। संसारेर मोह हेरि करिया क्रन्दन । जीवेर मुक्तिर वार्ता यथा तथा कन। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ दम-वेकालिक-सूत्र द्वितीय अध्ययन । रथनेमि नामे ख्यात क्षेत्रिय नन्दन | राजीमतीमुखे शुनि संयम वचन ॥ विपथे चलिले करी अंकुश आघाते । यथा आने सुचालक निज हितपथे ॥ रथनेमि निजकर्मे करे अनुताप । राजीमती वाक्यवाणे घुचे याय पाप || चारित्रय धर्मेते न अतिस्थिरमति । चिरअनुरक्त हन संयमेर प्रति ॥१० विषय वासना हते दूरे थाका दाय । समस्त विपद् आने वासना धराय ॥ नरश्रेष्ठ रथनेमि विख्यात जगते । बनेते ॥ राजीमती उपदेश पाइया भोगज वासना मोह दुर्वार नेहारि । संयमो हलेन तिनि भमता पासरि ॥ एहेन दृष्टान्त हेरि पण्डित सुजन । विषय वासना त्यजि भोगमुक्त हन ॥११ तीथेङ्कर महापूज्य साधक याहारा । दियाछेन उपदेश हितार्थे ताहारा ॥ हमरि सेइ उपदेश त्यति स्वकल्पना । वलितेछि पूर्णरुप करिओ धारणा ॥ इति द्वितीय श्रामण्यपूविकाध्ययन समाप्त | Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र । तृतीय अध्ययन | आगम कथित, सदास्थित, संयमेते । आभ्यन्तर किम्बा वाह्य मुक्त प्रन्थहते ॥ स्वपर-रक्षक यारा, तार कथित । अनाचीर्ण दोष करा ना हय उचित ॥१ अनाचीर्ण दोष अति धर्म्मविगर्हित | बुझि उहा हते साधु हइवे वज्जित ॥ आहारेर काल सदा विचार करिया । उल्लिखित चारि द्रव्य त्यजिवे स्मरिया || साधुर उद्देश्ये याहा प्रस्तुत हइवे । अथवा साधुर लागि किनिया लइवे ॥ एइ दुइ द्रव्य सदा बर्जन करिवे । आमन्त्रणे कोथा नाहि साधुरा याइवे ॥ कोथा हते आनि कोन द्रव्य ना लइवे । स्नान आर रात्रिकाले भोजन छाड़िवे ॥ पुष्पमाल्य गन्धद्रव्य कर्पूरादि आर । उत्तापे व्यजन त्याग करिवे पाखार ॥२ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ दशकालिक सूत्र | तृतीय अध्ययन | साधुगणपरित्याज्य प्रचुर त्रिषय | त्व जिते करिये पण छाड़िया संशय ॥ घृद गुड़ आदि द्रव्य करिया सञ्चय । राखिवेना निशाकाले साधु महोदय ॥ ना करिवे गृहस्थेर पात्रेते आहार । दोषावह उहा बुझि यति शुद्धाचार ॥ राजभोग्य प्रियखाद्य कवन ग्रहण | करिवेना भ्रमक्रमे विज्ञ साधु जन ॥ इच्छामे कृतखाद्य साधु ना लइवे । सुखार्थी देह ना कभु मर्छन करिवे ॥ प्रक्षालन ना करिवे दन्त साधुजन । अंगुलिर सहयोगे भ्रमेओ कखन ॥ ना करिवे कोन प्रश्न गृहस्थ नेहारि । "कि प्रकार आछ तुमि " मुखे व्यक्त करि ॥ ना हेरिवे मूर्ति निज आदर्श कखन । मुक्ति हेतु करि साधु सन्न्यासग्रहण ॥३ जुया खेलि नर सदा लभे परितोष । बलि अधुना ताइ अष्टापद दोप || गृहस्थेर शिक्षादान कभु अष्टापदे । ना करित्रे मुक्त साधु पड़िया प्रसादे ॥ पाशार साहाय्ये कभु द्यूतक्रिया करि । ना लइवे अर्थ साधु नीति परिहरि ॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वयोग में धारण छत्रेर साधु बञ्जन करिवे। निज परकीय स्वार्थ येहेतु बाड़िवे ॥ व्याधिप्रतिकारे कभु तपारतजन । करिवेना चिकित्सार आश्रय ग्रहण ।। संयमेते समाहत सुशील सुजन । कभु ना पड़िवे जुता यति तपोधन ।। अग्निर आरम्भ दोष वर्जन करिवे । पालिया पूर्वोक्त नीति साधु सिद्ध हवे ॥४. वलिव विस्तारि आर साधुदेर नीति । पालिवे सतत साध अति शुद्ध मति ।। ये करे वसति दान साधुरे कखन । तार दत्त आहार्या ना करिवे ग्रहण ।। अतिक्षुद्र खट्टामध्ये पर्याङ्क कखन । वसिवेना करिवेना साधुरा शयन ।। नेहारि साधुरा गृही व्याकुल काजेते । ना यावे तादेर गृहे विना कारणेते ।। गृहमध्ये कभु किम्बा गृहसन्निधाने । वसिवेना साधुजन विहीन कारणे ॥ करिवेना कभु साधु शरीरघर्षण । मयला करिते दूर सयले कखन ।।५ अन्नादिर सम्पादने सेवा करिवेना । गृहस्थेर कोनकाले तपारतमना । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वकालिक-मूत्र । तृतीय अध्ययन। 360 निज गुरु वा धर्मेर करिवे पूजन । ना लइवे श्रावकेर विनीत भजने ॥ जाति कुल कम्मै आदि करिया ख्यापन । करिवेना साधुजन भिक्षार ग्रहण ॥ उष्ण जल सांधुगण पानार्थे लडवे । सचित्त शीतल जल वर्जन करिवे॥ पिपासा वा क्षुधार्स हइया कखन । ना करिवे पूर्व भुक्त द्रव्येर स्मरण ।। क्षुधाते रोगते साधु आक्रान्त यखन । ना लइवे श्रावकेर कखन शरण ii६ .अनाचीर्ण दोष सदा परोक्षा करिया। लंइवे सतत खाद्य अवस्था बुझिया। संजीव मूलक आंदा इक्षुखण्ड आर । करिवना भ्रमक्रमे साधुरा आहार ।। सट्टीमूल काँचाफल वीज साधुगण । करिवना वर्चकन्द जीवित ग्रहण ।। ग्रहणं करिले उहां साधुरा कखन । अंनाचोर्णदीपे हवे प.पेते मगन ७ निम्नस्थितं कथा साधु स्मरिया सतत । लवणैर व्यवहार हवे अवगत ।। आंछे एवं धराधामे विविध लवण । चिकित्सक रोग नाशे करेण ग्रहणं ॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र । तृतीय अध्ययन । साधुरा करिले त्याग कथित लवण | अनाचीर्ण दोषमुक्त हवे स क्षण । सञ्चल सैन्धव याहा पनतेते जात । रुमाख्य सम्बरि कृष्णा समुद्रसम्भूत ॥ पांशुक्षार याहा हय अपर भूमिते। कृषक संग्रहि राखे आपन सचित्त लवणं साधु कभु ना लइवे । अनाचीर्ण दोष हते मुकति पाइवे ॥८ अनाचीर्ण दोप जैनशास्त्रे उल्लिलित । आंछे वहु महाव्रती साधुर वर्जित ।। धूपादिप्रदान वस्त्रे अंथवा शरीरे। कभु ना करिवे साधुजन अकातरे॥ औपधसेवन - द्वारा निपिद्ध वमन । वस्तिकर्म विरेचनं. करिवे वर्जन ॥ नेोते काजल कभु ना पड़े सुजन । सौन्दर्यावृद्धिर तरे साधुरी कखन ॥ ना करिवे दन्तकाष्ठे साधुरा दांतन । ना करिवे तैलद्वारा अङ्गर मन । देहेर सौन्दर्योर लागि कभु अलङ्कार। नां पड़िवे साधुजन भूषण धरार ॥8 पूर्ण उल्लिखित संव अयोग्य आचार। अनुष्ठान योग्य नहे विदित सवार ।। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ दश - वैकालिक सूत्र | तृतीय अध्ययन | संयमे सतत युक्त निर्गन्थ सुर्याति । महावीर महाप्राण सदा शुद्ध मति ॥ अप्रतिवद्ध - विहार पवन - सदृश । करेन सतत भवे तपः परवश ||१० पांचटि आस्रवे अतितत्त्वज्ञ सतत । त्रिगुप्तिते सुसंयत पटकाये संयत ॥ जितेन्द्रिय रूजुमति निर्गन्थं याहारा । अनाचीर्ण दोपमुक्त हयेन ताहारा ॥ मिथ्यात्व अव्रत आर प्रमाद कपाय | इहाई अशुभयोग आसव निश्चय ॥ पञ्चास्रवत्यागे सदा वद्धपरिकर । हइवेन साधुजन स्वाध्याय तत्पर ॥ मनोगुप्ति वाक्यगुप्ति कायगुप्ति आर । त्रिविध विषये नित्य संयम याहार ॥ सर्व्वप्राणि हिंसा त्यजि हइया संयमी । त्यजेन पूर्वोक्त दोप हये मुक्तिकामी ॥ ११ ग्रीष्मे सहे सूर्य्यताप ध्यानस्थ हइया । शीते शंत्य भुञ्ज साधु वसन त्यजिया ॥ वर्षाकाले साधुगण देह सुसंयत । करिया ना भ्रमे कोथा आत्मध्याने रत ॥१२ साधुगण कोन का हन अग्रसर । वलिब अधुना ताहा शुन हितकर ॥ י Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-कालिक-सूत्र। २३ तृतीय अध्ययन। करम निर्जरा लागि कप्टेर उदय । परीषह नामे ताहा ख्यात विश्वमय ॥ तजन्य पिपासा क्षुधा रिपु भयङ्कर । सन्दा हयेन साधु दमने तत्पर ।। त्यजिया विचित्र मोह ध्वंसेर कारण । साधुरा तपस्या ध्याने थाके अनुक्षण । दुर्दान्त इन्द्रियगण करे दुःखदान । जय करि साधु करे दुःख अवसान ॥ शारीरिक मानसिक दुखेर विनाशे। येन तत्पर साधु संयमेर आशे॥१३ त्यजिया दुष्कर दोप अनाचीणे आदि । आतापन आदि दुःख सहि निरवधि ।। साधुरा करेन काले त्रिदिवे गमन । करमेर अवशेप थाकार कारण । अष्टविध कर्म याहा प्रकृत वन्धन । मुक्त हये मोक्षपथे करेन गमन ।।१४ देवलोक पुण्यमय अति मनोहर । भुञ्ज साधु पुण्यफले सुखेर आकर ।। कर्मक्षये उहा छाडि मनुष्य लोकेते। आ'से सवे क्षुण्णमने मन देय हिते। संयमतपस्या वले पौबिक करम । क्षय करे साधंगण लभि दमशम ॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक सूत्र तृतीय अध्ययन। स्व परेर त्राण हेतु करेण यतन । आत्ममुक्ति करि साधु योगे सिद्ध हन ॥१५ तीर्थक्कर महापूज्य साधक याहारा। दियाछेन उपदेश हितार्थे ताहारा ।। स्मरि सेइ उपदेश त्यजि स्वकल्पना। वलितेछि पूळरूप करिमो धारणा।। ॥ इति क्षुल्लिकाचाराच्ययन समाप्त ।। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-बैकालिक-सूत्र। चतुर्थ अध्ययन । सुधा नामक गुरु बलेन एकदा । जम्बुशिष्ये कथा एक परमशुभदा॥ हे आयुष्मन् आमाहते करह श्रवण । जैनेन्द्रकथित एक सुसत्य वचन ।। षड्जीवनिकानामे एक अध्ययन । केवल ज्ञानेर वले करि आलोचन ।। बलेछेन तीर्थङ्कर सिद्ध महावीर। काश्यपंगोत्रीय यिनि स्वभावसुधीर ।। परे उहा युक्ति द्वारा अति स्पष्टरुपे । दियाछेन बुझाइया तिनिई संक्षेपे । धरमप्रज्ञप्ति हय सर्जशास्त्रसार । पाठकरा हितकर एक्षणे आमार.।। जिज्ञासे गुरुर काछे जम्बु सुविनीत । ज्ञानलाभे समुत्सुक हइया प्रणत्त ।। षड्जीवनिकाध्ययन-नियम राशिते । धरमप्रज्ञप्ति आछे कोन नियमेते॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ दश-कालिक-सूत्र | चतुर्थ अध्ययन | घरमप्रज्ञप्तिपाठ मम हितकर | अतएव मोरे उहा वलुन सत्वर ॥ गुरु कन प्रिय शिष्य शुन मन दिया । लिव सकल कथा एवं विस्तारिया | केवल ज्ञानेर वले काश्यप श्रमण | महावीर तीर्थंकर सत्यपरायण ॥ षड्जीवनिकानाम बुझि अध्ययन | प्रकृत धरम तत्त्व करि निरूपण | वुझाइया देन सर्वे मार्जितभाषाय । धरमप्रज्ञप्ति पाठे ताइ चित्त धाय ॥ शुन शिष्य बलि सेइ जीवर प्रकार । छय रुपे जीव भवे करिछे विहार ॥ पृथ्वीका अपस्काय केह तेजस्काय । वायुवनस्पतिकाय केह त्रसकाय ॥१ आतपादि द्वारा पृथ्वी आहता निर्जीव । तदन्य पृथिवी हय सतत सजीव || अनेक जीवेर वास पृथ्वीर भितरे । भिन्न भिन्न आत्मा थाके जोवर शरीरे ॥ शीतातपे जल हय कखन निर्जीव । तङ्गिन्न सलिल हय. सतत सजीव ॥ अनेक जीवेर वास जलेर भितरे । . भिन्न भिन्न आत्मा थाके जीवेर शरीरे ॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश- वैकालिक सूत्र | चतुर्थ अध्ययन | माटी जल निर्वापित निर्जीव अनल | तद्भिन्न अनल हय सजीव प्रवल ॥ अनेक जोवेर वास अनलभितरे । भिन्न भिन्न थाके आत्मा जीवेर शरीरे ॥ जीव शून्य वायु दृष्ट हइवे कखन | सजीव लक्षित हवे कभु समीरण । अनेक जीवेर बास वायुर भितरे । रहेछे अनेक आत्मा जीवेर शरीरे ॥ वनस्पति जीवहीन वह्नि आदि योगे । तद्भिन्न उहारा हय सजीव भूभागे ॥ अनेक जोवेर बास उहार भितरे । अनेक रहेछे आत्मा जीवेर शरीरे ॥ वनस्पति आछे विश्वे अनेकप्रकार | बलिव उहार भेद करिया विचार ॥ अग्रबीज मूलवीज केह पर्णबीज । बीजरुहा संमूच्छिमा केह स्कंदवीज || तृणलता सकलेइ वनस्पति - काय । सवीज सचित्त वलि प्रख्यात धराय ॥ बहुवीज भिन्नसत्त्वा इहारा सकल | अनल प्रभृति द्वारा निर्जीव केवल ||२ बहुविध स प्राणी आछे एजगते । केहजन्मे अण्ड हते केह पोत हते ॥ २७ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र। चतुर्थ अध्ययन । जरायु हइते जन्म काहार वा हय । रस हते केह स्वेदे काहार उदय ।। संमूछने जन्मे केह भूमि भेद करि । शय्यादिते उपपात रूप केह धरि ।। बसेर विविध रूप प्रकृत लक्षण । बलिब एक्षणे उहा करहे श्रवण ॥ येजीव आसिते पारे प्राणीर सम्मुखे। . पिछने आसिते पारे देखिया स्वचीखे ॥ देहेर करिते पारे सङ्कोच विकाश । कथा वलि येवा करे भावर प्रकाश ॥ फिरिते पारे ये जीव एदिके ओदिके। दुःखेते विभोर ह्य भय यार थाके ।। बुझे येवा सकलेर गमनागमन । सजीव तारा हय चुझिवे सुजन ।। इहादेर मध्ये आछे कीट-पतङ्गादि। द्वीन्द्रिय केह वा आछे केह त्रीन्द्रियादि । चरिटि इन्द्रियधारी पञ्चेन्द्रिय केह । पूर्वोक्त नामेते तारा धरे निज देह ।। .तिर्याक नारक देव मनुष्य प्रभव । सकलेइ सुन चाय लालसासम्भव ॥ उल्लिखित पुरवेर . जीव पष्ठविध । सनामे..ख्यात हय जानिवे विबुध ।३ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-कालिक-सूत्र । चतुर्थ अध्ययन। संघटन परितापनादि दण्ड भवे । दिवेना स्वयं साधु पृथ्वी आदि जीवे ।। करावे ना काहा द्वारा दण्डेर विधान । ना करिवे दन्डकार्यो अनुमतिदान ।। पूळ विधि यथारीति बुझि साधुजन । निम्नरूपे अङ्गीकार करिवे पालन ।। "आजीवन करिवना दण्डेर विधान । कायमनोवाक्ये जीव दुःखेर निदान ।। अपरेर द्वारा जोवे दण्ड नाहि दिव। अनुमतिक्रमे दण्डे नाहि उत्साहिव ।। प्राक्तन सावद्ययोग हइते निश्चित । शिष्य बले गुरो! आमि हलाम निवृत ।। अतीत दण्डेर कर्ता आत्मारे आपन । निन्दि गर्हि पाप हते करि विमोचन ॥४ वर्णित एक्षणे हवे महाव्रत पूत । साधुपरिज्ञेय इहा आगमलिखित ।। शिष्यवले गुरो! पूज्य ! हय महावत । प्राणिहिंसादूरकारी जगते पूजित ।। पुजनीय गुरो! आमि सकल प्रकारे । जीवहिंसा त्यजितेछि थाकि एसंसारे ।। ७स स्थावरादि प्राणी साधु ना नाशिवे । काहा द्वारा प्राणिनाश नाहि कराइवे ।। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र । चतुर्थ अध्ययन। प्राणिनाशे यत्नशीले ना दिवे प्रश्रय । सतत प्राणीर प्रति हइवे सदय ।। त्रिविध करण योगे थाकि आजीवन । ' कायमनोवाख्ये थाकि आमि अभाजन ।। 'करिणा वा कराइणा देई ना सम्मति । जीवहिंसा महापाप भावि दिवाराति ॥ जीवहिंसाकारी, आमि, आत्माके एखन । निन्दि गर्हि पापहते करि विमोचन ।। एसेछि प्रथम निते श्रेष्ठ महाव्रत । हिंसावृत्ति हते मुक्त हयेछि कथित ।। आज हते हवे मोर हिंसार निवृत्ति । हृदये आसिवे मोर अहिंसा प्रवृत्ति ॥१ मृषावाद - विनिवृत्तिरूप - महाव्रत । द्वितीय स्थानीय इहा आगम कथित ॥ मम पूज्य हे भगवन् ! दोषेर आकर । छाड़ितेछि मृषावाद सकल प्रकार ।। करिवेना साधु क्रोधे लोभे हास्ये भये। मृषावाद दोषावह ये कोन समये ॥ वलाइते पर द्वारा मिथ्यार भाषण।। भ्रमेओ कभुना साधु करिवे यतन ।। त्रिविधकरणयोगे आमि आजीवन । कायमनोवाक्ये कभु आमि अभाजन || . Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ . दश-वैकालिक-सूत्र। चतुर्थ अध्ययन। करिणा वा कराइणा देइ ना सम्मति । मृषावाद महापाप भावि दिवाराति ।। प्राक्तन सावध योग हइते निवृत । हइतेछि हे भगवन् ! आमि मर्माहत ॥ मृषावादकारी आमि आत्माके एखन । निन्दि गर्हि पाप हते करि विमोचन ॥ एसे छि द्वितीय निते श्रेष्ठ महाव्रत । मृषावाद हते मुक्त हयेछि कथित ॥२ शिष्य घले गुरो ! आमि त्याग शिक्षा चाइ तृतीय लइते चाइ महाव्रत ताइ । अदत्तादानेर तरे अति पापाचार । त्यजितेछि उहा आमि निम्नोक्त प्रकार ।। ग्रामे वा नगरे वने. करिया गमन । अदत्तपदार्थ साधु लवे ना कखन । पदार्थ अनेक आछे अल्प अगणन। अचेतन सचेतन विचित्रगठन ।। छोट वड़ लइवेना अदत्त कखन । करावेना परद्वारा अदत्त ग्रहण ॥ अनुमति नाहि दिवे अदत्तग्राहीके । अदत्त ग्रहणे दोष कहे सालोके ।। त्रिविधकरणयोगे थाकि आजीवन । कायमनोवाक्ये कभु आमि अभाजन ।। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक सूत्र चतुर्थ अध्ययन। करिण वा कराइणा देइना सम्मति । अदत्तग्रहण पाप भावि दिवा राति ।। कृत वा कारित थाहा वा अनुमोदित । पापहेतु हइतेछि प्रतिक्रमरत ॥ अदत्तादानेर दोपे आत्माके एखन । निन्दि गर्हि पापहते करि विमोचन ।। एसेछि तृतीय निते श्रेष्ट महाव्रत । दोष हते मुक्त आमि हयेछि कथित ॥३ मैथुन विरतिरूप आगम कथित । चतुर्थ स्थानीय गुरो! एइ महाव्रत ॥ हे गुरो ! मैथुन हय अति पापाचार । त्यजितेछि आमि एवे सकलप्रकार ।। देवता - मानुष-पशु - समन्धी मैथुन । करिवे ना साधु कभु जीवने कखन ॥ करावेना कार द्वारा सम्मति दिवेना। मैथन अत्यन्त पाप करि विवेचना ।। त्रिविधकरणयोगे थाकि आजीवन । कायमनोवाक्ये कभु आमि अभाजन ।। करािणा वा कराइणा देइना सम्मति । मैथुन सर्जथा जने करे अधोगति ।। हे गुरो! करिया थाकि यदि उक्त पाप । प्रतिक्रम करितेछि करि मनस्ताप ॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश - कालिक-सूत्र | चतुर्थ अध्ययन | 1 मैथुनजनितदोषे आत्मा के एखन । निन्दि गर्हि पापहते करि विमोचन || एसेहि चतुर्थ निते गुरो ! महाव्रत । उक्त दोष आमाहते हयेछे विगत ॥४ परिग्रहत्यागरूप आगम कथित | पञ्चम स्थानीय गुरो ! एइ महानत ॥ परिग्रह हय गुरो ! अति पापाचार | छाड़ितेछि आमि एवे सकलप्रकार ॥ परिग्रह अल्प बहु अणु स्थूल हय । चित्त अचित्त किम्बा ये कोन समय ॥ लइवेना उहा निजे जीवने कखन । करावेना नर द्वारा उहार ग्रहण ॥ अनुमति नाहि दिवे परिग्राहि - जने । परिग्रह महापाप आगमविधाने ॥ त्रिविधकरणयांगे थाकि आजीवन । कायमनोवाक्ये कभु आमि अभाजन || करिणा वा कराइणा देइना सम्मति । परिग्रह येइ हेतु करे अधोगति ॥ हे गुरो ! करिया था कि यदि उक्त पाप । करितेछि प्रतिक्रम करि मनस्ताप || परिग्रह - दोषयुक्त - आत्मारे एखन । निन्दि गर्हि पापहते करि विमोचन ॥ ३३ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ दश-वैकालिक-सूत्र | चतुर्थ अध्ययन | एसेछि पञ्चम निते श्रेष्ठ महानत । परिग्रहदोषमुक्त हयेछि कथित ॥ ५ रात्रि भोजनत्याग साधुशुद्धाचार । षष्ठ महाव्रत वलि हयेछे प्रचार ॥ रात्रि भोजन हय अति पापाचार । त्यजितेछि गुरो ! आमि सकलप्रकार ॥ स्वाद्य खाद्य पानाहार रात्रिते सुमति । करिवेना करावेना दिवेना सम्मति ॥ त्रिविधकरणयोगे थाकि आजीवन | कायमनोवाक्ये कभु आमि अभाजन || करिणा वा कराइणा देइना सम्मति । जीव नाश करि जोव पाय अधोगति ॥ हे गुरो ! करिया थाकि यदि उक्त पाप । करितेछि प्रतिक्रम करि मनस्ताप ॥ रात्रि भोजनदुष्ट आत्माके एखन । निन्दि गर्हि पापहते करि विमोचन ॥ एसेहि लइते षष्ट श्रेष्ठ महाव्रत । दोष हते मुक्त आमि हयेछि कथित ॥ ६ आत्मार हितेरतरे पञ्च महाव्रत । रात्रि भोजन त्याग षष्ठ उल्लिखित || ग्रहण करिया एवे आमि अभाजन | आगम-विधान - मते करिव भ्रमणं ॥ · • Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र | चतुर्थ अध्ययन | मात्र युक्त भिक्षु भिक्षुकी वा भवे । सप्तदश - संयमेते युक्त सर्व्वभावे ॥ द्वादशविधाने यारा तपस्यानिरत । प्रतिहत प्रत्याख्यात पापकर्म्म शत || दिवसेर आगमने किम्बा रात्रिकाले । एकाकी जाग्रत सुप्त सभागत हुले । पृथ्वी भित्ति शिला लोष्ट्र वस्त्र वा शरीर । धूलिद्वारा समाच्छन्न निरखि सुधीर ॥ हस्त पाद काष्ठ किम्बा कालिख अंगुली । शलाका शलाकात हस्तद्वारा भुलि ॥ लिखिवेना घाटिवेना भेदिवेना तारा । ऐरूप करावेना कभु अन्य द्वारा ॥ कर्म्मरत काहाकेओ दिवेना सम्मति । पालिचे पूर्वोक्त प्रथा जैनधर्म्यमति ॥ त्रिविध करणयोगे थाकि आजीवन | कायमनोवाक्ये कभु आमि अभाजन ॥ करिणा वा कराइणा देइना सम्मति । जीवनाश करि जीव पाय अधोगति || हे गुरो ! करिया थाकि यदि उक्त पाप । करितेछि प्रतिक्रम करि मनस्ताप ॥ पूर्वोक्त-दोपेते युक्त आत्माके एखन । निन्दि गर्हि पापहते करि विमोचन ॥१ ३५ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र । चतुर्थ अध्ययन। संयत साधक भिक्षु भिक्षुकी वा भवे! सप्तदश संयमेते युक्त सर्जाभावे ॥ द्वादशविधाने यारा तपस्या - निरत । प्रतिहत प्रत्याख्यात पापकर्म शत।। दिवसेर आगमने किम्बा रात्रिकाले। एकाकी जाग्रत सुप्त सभागत हले। जलेर जीवेर हिंसा कभु करिवेना। थाकिवे अहिंसापथे करि विवेचना ।। तुपार वरफजल कूपस्थित जल। शिशिर कूयाशा हिम वर्षार सलिल ।। जलसिक्त देह वस्त्र कभुना स्पर्शिवे । वारंवार स्पर्श करि नाहि निडाइवे ।। झाडिवेना मारिवेना कदापि आछाड़। शुकावेना वारंवार शुकावेना आर॥ मानिया चलिवे साधु पूरव पद्धति । करिवेना करावेना दिवेना सम्मति ।। त्रिवधकरणयोगे थाकि आजीवन । कायमनोवाक्ये कभु आमि अभाजन ।। करिणा वा कराइना देइना सम्मति । जीवनाश हेतु लोक पाय अधोगति ।। हे गुरो ! करिया थाकि यदि उक्त पाप । करितेचि प्रतिक्रम. करि मनस्ताप ।। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ दश-वैकालिक-सूत्र। चतुर्थ अध्ययन। पूर्वोक्त दोपेते युक्त आत्माके एखन । निन्दि गर्हि पापहते करि विमोचन ॥२ महाव्रतयुक्त भिक्षु भिक्षुकीवा भवे ! सप्तदशसंयमेते युक्त सनभावे ।। द्वादशविधाने यारा तपस्यानिरत । प्रतिहत प्रत्याख्यात पापकर्म शत। दिवसेर आगमने किम्वा रात्रिकाले। एकाकी जाग्रत सुप्त सभागत हले। अङ्गार अनल उल्का भष्माचि उल्लुक । ऊर्ध्व-मार्ग क्षेपिवेना विशुद्ध पाचक ।। घाटिवेना ज्वालावेना निवावे ना यति । अन्य द्वारा कभु उहा करावेना प्रती।। तारशकरमे हेरि कारे अग्रसर । सम्मति दिवेना कभु साधक प्रवर ॥ त्रिविधकरणयोगे थाकि आजीवन । कायमनोवाक्ये कभु आमि अभाजन ।। करिणा वा कराइणा देइना सम्मति । याहाद्वारा पाय लोक अति अधोगति ।। हे गुरो करिया थाकि यदि उक्त पाप । करितेछि प्रतिक्रम करि मनस्ताप ।। पूर्वोक्त दोपते युक्त आत्माके एखन । निन्दि गर्हि पापहते करि विमोचन ॥३ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक सूत्र चतुर्थ अध्ययन। महाप्रतयुक्तं भिक्षु भिक्षुकी वा भवे । सप्तदशसंयमेते युक्त सनभावे ॥ द्वादश विधाने यारा तपस्यानिरत। प्रतिहत प्रत्याख्यात पापकर्म शत॥ दिवसेर आगमने किम्बा रात्रिकाले। एकाको जाग्रत सुप्त सभागत हले ।। चामर व्यजन किम्बा तालवृन्त-योगे। तालपत्र भन्नपन शाखार प्रयोगे। भग्नशाखा मयूरेर पाखा सहकारे । अथवा मयूर पाखा समन्वित करे। वस्त्र वा वस्त्रेर अंश करि संचालन । अथवा प्रयोगकरि सहस्त वदन ॥ निजदेह विम्वा वाह्य द्रव्य समुदय । याहाते सजीव प्राणो सदा वद्ध हय ।। करिवेना उहादेरे फुत्कार व्यजन । करावेना अन्य द्वारा उहा सम्पादन ।। ताशकरमे हेरि कारे अग्रसर । सम्मति दिवेना कभु साधकप्रवर ।। त्रिविधकरण-योगे थाकि आजीवन । कायमनोवाक्ये कभु आमि अभाजन ।। करिणा वा कराइणा देइना सम्मति । याहा द्वारा पाय लोक अति अधोगति ।। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९ १ दश-वैकालिक-सूत्र । चतुर्थ अध्ययन । हे गुरो ! करिया थाकि यदि उक्त पाप। करितेछि प्रतिक्रम करि मनस्ताप । पृन्वोक्त दोषते युक्त आत्माके एखन । निन्दि गर्हि पापहते करि विमोचन ॥४ महाव्रत युक्त भिक्षु भिक्षुकी वा भवे । सप्तदश - संयमेते युक्त स भावे ।। द्वादश - विधाने यारा तपस्यानिरत । प्रतिहत प्रत्याख्यात पापकर्म शत ॥ दिससेर आगमने किम्बा रात्रिकाले । एकाकी जाग्रत सुप्त सभागत हले। करिवे ना हिंसा कभु वनस्पतिकाये। वीओर उपरे, वीजस्थित द्रव्य चये ॥ अंकुरस्थ द्रव्य किम्चा अंकुर कथित । क्षुद्रवृक्ष कोन द्रव्य उहार आश्रित ।। दूर्वादि हरित किम्बा द्रव्य तदाश्रित । छिन्न वृक्ष फल-फुल शाखा समन्वित॥ सजीव उहारा किम्वा द्रव्य तदाश्रित । अण्डादि काष्ठादि किम्बा कीटादिसंयुत ।। इहादेर उपरेते करिये - सुजन । गमन दाँडान वसा स था वजन ।। चालावेना स्थापिवेना दिवेना सम्मति । मानिया चलिवे साधु धरम पद्धति ।। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० दश-वैकालिक-सूत्र। चतुर्थ अध्ययन। त्रिविधकरणयोगे थाकि आजीवन । कायमनोवाक्ये कभु आमि अभाजन || करिणा वा कराइणा देइना सम्मति । याहा द्वारा पाय लोक अति अधोगति ।। हे गुरो करिया थाकि यदि उक्त पाप । करितेछि प्रतिक्रम करि मनस्ताप ।। पूर्वोक्त दोपेते युक्त आत्माके एखन । निन्दि गर्हि पापहते करि विमोचन ।।५ महाव्रतयुक्त भिक्षु भिक्षुकी वा भवे । सप्तदश-संयमेते युक्त सनभावे ।। द्वादशविधाने यारा तपस्यानिरत प्रतिहत प्रत्याख्यात पापकर्म शत ।। दिवसेर आगमने किम्वा रात्रिकाले। एकाकी जाग्रत सुप्त सभागत हले॥ सकाय - जीवहिंसा कभु ना करिवे। जीवहिंसा महापाप साधुरा बुझिवे ॥ सकाय जीवगण बहु नाम धरे। वर्णिव उहार नाम एवे सुविस्तारे।। कीट कुन्थु पिपीलिका-पतङ्ग वा थाके । हस्ते पादे जंघा-बाहु-उदर-मस्तके ।। वस्त्र भाटा गुच्छे पीटे उन्दुक दण्डके । पादप्रोच्छने कम्वले पाने संस्तारके। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्रं । चतुर्थ अध्ययन । अन्योपैकरणे यदि उहारा वां थाँके। यदि उहां साधुगण निज नेत्रे देखे ॥ निरखियो उहादेरें एकंत्र करिवे। निरापद स्थाने साधु लइया याइवे ।। सुविधाजनकस्थाने यतने राखिवे । असह्य संघर्ण दुःख कभु नाहि दिवें ॥६ अध्ययन चतुर्थेते आछे बहु कथा । जीवेरै प्रकार भेद कविताये गथी। जीवाजीब-स्वरूपादि उहाते विचारि । उपदेश धर्मफलं चारित्रं प्रचारि।। दियोछेने ग्रन्थंकर्ती साधुरे चेतनी। उल्लेखि विशेषरूपे जीवेर वेदना । असंयत चंले जीव सावधान नयं। पापेते तत्पर संदा अति दुःखमय ।। त्रसं-स्थावरादि जीवे हिंसे संक्षण | चंद्ध हय पापकर्मे जीव अगणन।। परिणामे दुःख पाय अशेष प्रकार । नरकेर. पथे याय विस्मरि विचार ॥१ दौड़ाइया अयतने नर नाशे शत। स-स्थावरादि जीव पापकार्ये रत।। पापकायें बंद्ध हय जीव करि भ्रम । परिणामे अतिदुःख.पाय नराधम २ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र । चतुर्थ अध्ययन। वसि अयतने जीव स्थावरादि शत । नाश करे दुराचार नराधम यत ।। पापे वद्ध हये सदा दुःख भयङ्कर । परिणामे पाय सदा पापासक्त नर ॥३ अयतने दिवारात्रि करिया शयन । नाशे बसस्थावरादि जीव नरगण ।। पापवद्ध हये भवे विवेकविहीन । परिणामे पाय दुःख पापेते मलिन ॥४ हंसकाक जम्बुकादि खाय ये प्रकार। से प्रकारे खेये खाद्य विविध प्रकार ॥ चञ्चलप्रकृति नर उहादेर मत । नाशे स्थावरादि जीव जगते सतत ।। पापवद्ध नर सदा विवेक - विहीन । परिणामे भुञ्ज क्लेश पापी पुण्यहीनः॥५ याहारा कखन साधु भाषार प्रयोग। करे नाइ दुराचार करि धन भोग ।। याहा ताहा सदा बले बुद्धिहीनं नर । उसस्थावरादि जीव नाशिछे विस्तर ॥ परिणामे. पापवद्ध हये . सर्व्वक्षण । अति दु.ख पाय सदा भवे नरगण ।।६ बद्ध हये हिंसा. आदि पापे सर्वक्षण । कि रूपे धर्मेर काज करे नरगण १ ॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वकालिक-सूत्र। चतुर्थ अध्ययन । चलिते थाकिते पाप अवश्य करिवे। वसिते शुइते पाप भक्षणे हइवे ॥ शरीरेर सञ्चालन करिवे उहाते। स्थगित किरुपे हिंसा हवे नरइते॥७ हिंसा भिन्न जीवगण कोन कार्य करे। हिंसा पापे वद्ध नर अवनीमाझारे। भ्रमणे शयने नर किम्बा अवस्थाने । भक्षणे करिछे पाप केवा कत जाने । प्रतिकार किवा नर जानेना धराय । साधुमुखे कभु सेइ तत्त्व जाना याय ॥ कष्टप्रद भिक्षुव्रत साधुरा लइया। चलिवे अहिंस साधु सतर्क हइया ।। इतस्ततः हस्त पद कभु ना फेलिवे । संयमे तत्पर हये साधु दौडाइवे ॥८ ये साधु प्राणीके सब देखे समज्ञाने । हिंसा आदि आस्रवेर तत्पर दमने ॥ जितेन्द्रिय थाके सदा तपस्या लइया। आगमोक्त विधिपाले सतर्क हइया ॥ पृथ्वी आदि जीव हेरि आपन समान । सुख दुःखे हय भागी प्रशस्तपराण ॥ सेइ भवे त्यजि पाप करे विचरण । हइवेना तार पाप-कम्मर - बन्धन 18 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૪ दश-वैकालिक-सूत्र | चतुर्थ अध्ययन | पालन करिले दया. साधु सिद्ध हय । सुज्ञानेर प्रयोजन तवे केन रय ? ॥ एइरूप शङ्का सदा साधुर हाइवे । जीवदया का ज्ञान सफल बुद्धिवे ॥ एइरूंपे बुके साधु विचार करिया । पवित्र उपाय कन सन्तोष लभिया । प्रथमेते ज्ञानलाभ साधुरा करिवे । जीवरक्षा हेतु परे दया प्रकाशिवे ॥ अन्धतुल्य हले तर किरूपे चलिवे । पाप पुण्य केमने वा विचार करिवे ? ||१० ज्ञानलाभे कि उपाय शास्त्रकारमते । वर्णिव एक्षणे तार तत्त्व प्रकाशिते ॥ कल्याणं स्वरुप दया पवित्र परम | उहाके बुकिते पारे पड़िया आगम ॥ असंयम अतिपाप दुःखेर कारण । पापेर चरम फल नरकगसन || संयम ओ असंयम वहे भिन्न फल । हितकर पथे याय साधुरा केवल ॥ स्वकीय हितेर तरे संयमे थाकिया । भुजे साधु चिरसुख प्रफुल्ल हइया ॥ ११ पृथ्वीका आदि जीव ना जाने येजन | हिरण्यादि अजीव ये बुना कखन ॥ i Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वकालिक-सूत्र। चतुर्थ अध्ययन । ताहाके रक्षिते पारे किरुपे.सेज़न । केमनेवा से करिवे संयमे यतन ||१२ जीवाजीव-ज्ञाने यवे तत्त्वज्ञान लभे। संयम बुझिते पारे साधु सनभावे ||१३ ज्ञानेते करिया कभ, धरि मनोवल। साधुरा लभिछे ताइ क्रियाय सुफल । जीवाजीव-तत्त्वे यचे अभिज्ञ हुइवे । नरकादि जीवगति बुझिते पारिवे ।।४ कर्मेर विचित्र गति जीव प्राप्त हय । नरकादि वहुविध अति दुःखमय ॥ जानि साधु कर्मफल जीवेर सतत । पापपुण्य वृन्ध मोक्ष बुझे समाहित ॥५ पापपुण्य वन्ध मोक्षे लभि शुद्ध ज्ञान । माया मुक्त हन साधु स्थिर करे प्राण ॥ एजगते देवतार किम्बा मानुपेर। दुःखफल बुझे योगी सकल भोगेर ॥१६ देवतार मानवेर सारशून्य भोग । बुझिवे यखन साधु लभि आत्मयोग। घृणाभावे देखिवेक विचित्र विपय । थाकिवेना क्रोध मान आदि विषमय ।। आभ्यन्तर वाह्य द्रव्य आदि भोगचय । ___ उहार संयोग साधु छाडिवे निश्चय ॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक सूत्र चतुर्थ अध्ययन। संसारे संयोग आछे विविध प्रकार। वाह्य आर आभ्यन्तर अलीक असार ।। मस्तक - मुण्डन साधु बाह्यतः करिवे । भावाशक्ति दूर करि स्वगृह त्यजिवे ॥१८ द्रव्यभाव मुण्डनेते हये शुद्द मति । गृहत्याग करि याय मुक्ति-कामी यति ॥ हिंसा आदि-रिपु बल नाशि साधु धाय । धम्मपथे सम्बरादि पालिया धराय ।।११ उतकृष्ट सम्वर धम्म लभिया साधक । मिथ्याष्टि-प्राप्त कर्म, रजः अनर्थक ॥ आत्माते संलग्न याहा चेदना दायक। आत्मा हते सुविछन्न करे साधु लोक।। दृढ़ रूपे आत्ममूक्ति कर्म वजः हते। करि सुख भूजे साध विशुद्ध जगते ॥२० मिथ्या कम्मरजः दूरे त्यजिया साधक । त्यजे मोह आवरण, शमादि नाशक ।। दिव्य-ज्ञान लभे साधु, ज्ञेय विषयेर। अनन्त अशेष दृश्य वस्तु समूहेर ॥२१ साधुर हृदये यवे पूर्ण ज्ञानोदय । सम्पूर्ण दर्शन शक्ति साधु प्राप्त हय ।। जिन साधु हन जेता रागेर द्वषेर । केवली विज्ञानी हन बुझि तत्व ढेर ।। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र । चतुर्थ अध्ययन। चतुर्दश-रज्जू-मित लोक सुविस्तार । अलोक अनन्त साधु जानेन अपार ॥२२ लोक अलोकेर जानि तत्त्व साधुजन । काय मनो देह वृत्ति करेन दमन ॥ अचल-पर्वत-मत दृढ़ - वद्ध - मन । सस्थिर अवस्था एक साधु प्राप्त हन ।।२३ निरोधिया चित्त साधु योगेर प्रभावे । अचल-पवंत-मत स्थिरचित्त यवे॥ सर्वविध कम्मे क्षय करि तपोबले । कर्म रजः हते सदा चिर मुक्त हले॥ महान् पुरुष रूपे धरार भूषण । निर्वाणेर शुभपथे करेन गमन ॥२४ कम्मक्षय करि साधु कर्म मुक्त हन । आत्मार सिद्धिर पथे करेन गमन ।। त्रिलोक उपरे थाकि योगी योगरत । लभे सिद्धि चिरन्तन नूसुर-बन्दित ||२५ अक्षर सुखेर आशा करे येई जन ! भावि सुख लाभे यार लालायित मन।। अतिक्रमि शुभवेला करेन शयन । शरीर शोभाय जले अङ्ग प्रक्षालन ।। असाधु वलिया भवे कीर्तित येजन । सगति जानिओ तार ना हवे कखन ॥२६ . Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ देश-वैकालिक-सूत्र 1 चतुर्थ अध्ययन । क्षुधा वा पिपासा सदा जय फेरि अति । क्षमा संयमेते चार वेद्ध मंति गति ॥ तपस्वी सरल तिनि लभेन सुगति । पालिया सर्व्वदा शास्त्र पूतरीति नीति ॥२७ वृद्ध काले काहरिओ ना थाके शकति । त्यंनिया संयम क्षमा लेभेन दुर्गति ॥ ईदृश वार्द्धक्यं काले येजन संयत । ब्रह्मचर्य - संयमेते तपस्यायं रत ॥ चले यान तिनि क्षित्र अमरेर धामे । मृत्युकाले उक्त आहे प्रसिद्ध आगमे ॥२८ लभिया चारित्र धम्मँ दुर्लभ जगते । समदृष्टि पात करि साधक जीवेते ॥ कभु ना करिवे हिंसा प्रमादेर वशे । ध्वंस शील जीव छये पापेर परशे ॥२६ तीर्थङ्कर महापूज्य साधक याहारा । दियाछेन उपदेश हितार्थे ताहारा ॥ स्मरि सेई उपदेश त्यजि स्वकल्पना । वलितेछि पूर्वरूप करिओ धारणा ॥ इति षड् जीवनिका नामाध्ययनं समाप्त | Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र। अथ पंचम अध्ययन प्रथम उद्देश । अध्ययन पञ्चमेर नाम पिन्डैषणा। उहार सम्यक् व्याख्या करिव अधुना। थाकेना शरीर सुस्थ भोजन-व्यतीत । भोजन नियम मुनि पालिवे नियत ।। आहार्य-ग्रहणे आछे वहुविध-नीति । पालन करिवे साधु उहा यथारीति ।। धर्मकाय आहारेर विधान मानिये । आहार्य-विषय सदा विचार करिवे॥ भिक्षार समये मुनि ये अनाकुल। गमन करिवे पथे ना हवे व्याकुलं । स्थिरचित्तहये सदा पिण्ड शब्दादिते। विधिमत अनुष्ठान करि निज हिते ॥ आहार्य पानीय द्रव्ये परिपाटी-रूपे। करिवेक गवेषणा मुनि मुक्त पापे ॥१ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० दश-वैकालिक सूत्र | अथ पंचम अध्ययन प्रथम उद्देश । भिक्षार समय हले साधुरा केमने । याइवेन शुद्धाचार-गृहस्थ - भवने ॥ वर्णिव अधुना सेइ प्रकृत विधान । पालि याहा साधुगण हवे फुल्लप्राण ॥ गमन करिवे साधु पथे अति धीरे । उद्वेग - रहित हये मुख्य - भिक्षा-तरे ॥ ग्रामे वा नगरे भिक्षा करिते ग्रहण | शान्त हये स्थिर चित्त करिबे गमन ॥२ गमन-समये साधु शरीर प्रमाण । निरखिवे अग्रवन्त गमनेर स्थान ॥ पृथ्वीकाय अपस्काय वनस्पतिकाय | गमनसमये प्राणी बहु देखा याय || वाचाइया उहादेर प्राण मूल्यवान् । चलिवे साभीष्ट - पथे शास्त्रेर विधान ||३ ऊर्ध्व काष्ठ गर्त्त आदि उच्चनीचस्थान । कर्दम संयुक्त पथ करिव वजन ॥ पाषाण वा काष्ठ युक्त पथे साधुगण । ना या इवे, अन्यपथे करिवे गमन ॥ ना थाकिले अन्यपथ सेपथे चलिवे | जीवरक्षा करि साधु सतर्फे यावे ॥४ पूरव कथित स्थाने पतित हइया । पाद प्रस्खलने किम्बा वेदना - पाइया || Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र । अथ पंचम अध्ययन प्रथम उद्देश । स्थितत्रस-स्थावरादि प्राणिगण प्रति । साधुरा करिवे हिंसा अति रुष्टमति ॥५ संयत सुसमादित साधक सजन । ना करिवे उक्त पथे कदापि गमन ।। ना पाइले भिन्न पथ उपायविहीन । यावे सन्तपणे पथे साधक प्रवीण ॥६ धूलिमय पादय हले साधुगण । कि कि द्रव्य त्यजि सदा करेन गमन ।। बलिव उहार कथा अति विस्तारित । पालिया चलिवे साधु व्रते समाहित ।। अङ्गारक क्षारराशि किम्बा तुषचय । गोमये राखिले पद धूलि-राशिमय ।। धूलिमध्ये रहियाछे यत जीवगण । अवश्य मरिवे स्पर्श बुझि तपोधन ।। धूलियुक्त पद द्वारा साधु अहर्निश । करिवेना अतिक्रम पूर्वोक्त जिनिष ॥७ वर्षार वर्पण हेरि विज्ञ साधुजन। नेहारि धराय कभु तुषार पतन ॥ धूमाछन्न चारिदिक् अन्धकारे घेरा। महावाते कोपे जीव हये दिशाहारा । असंख्य पतङ्ग पात, साधु निरखिया। कोथा ना याइवे शुध भिक्षार लागिया ॥८ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र । अथ पंचम अध्ययन प्रथम उद्देश । निषेध गमने कोथा साधुर एक्षणे । वर्णना करिव ताहा आगम वचने । याइवे ना कभु साधु वेश्यागृह पाशे। कलुषित सेइ स्थान पापेर परशे॥ अष्टाङ्गमैथुनत्याग, ब्रह्मचर्या नाम । याहार आश्रये साधु हन सिद्धकाम ॥ वेश्याद्वारे उपजिवे चित्तरे विकार । परिणामे त्यजिवेक साधु शुद्धाचार ॥ जितेन्द्रिय साधू हन ब्रह्मचारत । ध्यान-जप-परायण थाकेन सतत ।। सेइ हेतु साधुजन वेश्यागृह-पाशे। याइवेना कोन काले कार्य-व्यपदेशे || वेश्यागृहे साधुजन करिले गमन । पुनः पुनः संसर्गते हइवे पतन ।। पोड़ा विराधना हय साधर निश्चय। द्रव्य-चारित्रे जन्मे अत्यन्त संशय ॥१० मोक्षार्थी एकान्तवासी संयत साधक । वेश्यागृह जानि सदा दुर्गति-कारक ॥ वर्जन करिवे उहा वहु दूर हते। ना याइवे कदापिओ वेश्यार गृहेते ॥११ नव प्रसविनी-गाभी कुक्कुर वलदः । वालकेर क्रीड़ास्थान घोटक द्विरद.॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र। अथ पंचम अध्ययन प्रथम उद्देश। रणभूमि भयङ्कर कलहेर स्थान । त्यजिवेन दूरहते साधू महाप्राण ॥१२ जात्यादिर अभिमान साधु ना करिवे। त्यजि हास्य परिहास गम्भीर थाकिवे॥ क्रोधादि दुरन्त रिपु जानि साधुलोक। तेयागिवे सदा याहा आने दुःखशोक ।। स्पर्शादि इन्द्रिय दोष करिया दंसन । तपस्याय रत हन साधु महाजन ॥१३ प्रयोजन बोधे किम्बा लाभेर आशाय । चलिवेना द्रत पदे साधरा कोथाय ॥ चलिते चलिते कथा काहार काछेते। अथवा काहार काछे हासिते हासिते॥ याइवे ना साधुवर तपस्या निरत । राखिवेना भेदज्ञान साधु हितव्रत ।। एजन प्रसाद वासी कुटीरे ए थाके । एजन ब्राह्मण जाति शूद्र वा अमुके ।। उहार सुमिष्ट स्वर कर्कश उहार । परम सुघ्राणं एइ पुष्प मनोहर ।। एरूप विचारि साधु कोथा ना चलिवे । विधिहीन हले साधु विपदे पड़िवे ।।१४ यखन भिक्षार लागि वाहिरे याइवे । साधुज़न वक्ष्यमाण वस्तु ना हेरिवे ॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र। अथ पंचम अध्ययन प्रथम उद्देश । जानाला वा चित्रपट, गृहभित्ति, द्वार। तस्कर-विहितसिंद, जलेर आगार ।। शङ्का स्थान बुझि उहा वर्जन करिवे। भ्रमक्रमे भिक्षाकाले कभु ना हेरिवे ।।१५ राज्येर उन्नति तरे अति बढ़ मन । कोतयाल शेठ आर नरपतिगण ।। किरूप काहार शान्ति, कि दण्ड उहार । एइ कार्यों करा यावे, किरूप विचार ।। मन्त्रणा करिया स्थिर करे येइ स्थाने। लोकेर अज्ञात सारे अत्यन्त गोपने ॥ क्लेशकर सेइ स्थान करिवे वर्जन । दूरहते हिततरे विज्ञ साधु जन ॥१६ अभोज्य सूतक युक्त गृहेते गमन । करिवेना कभु साधु भिक्षार कारण । आसिओ ना मोर गृहे इहा ये वलिवे। साधुजन तार गृहे कभु ना याइवे॥ यथा गेले मने जन्मे अप्रीतिर भाव । यावे ना सेखाने साधु सरलस्वभाव।। . यथा गेले हय प्रीत मानव-सकल.। भिक्षार्थे याइवे तथा मने राखि बल ॥१७ गृह द्वार ढाका आछे चिक पर्दा द्वारा। विनाशे उठावेना कखन. साधुरा !! Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-कालिक सूत्र | अथ पंचम अध्ययन प्रथम उद्देश । श्रावकेर रुद्ध द्वार साधुरा भवने । आज्ञा पेये खुलिवेना विशेष कारणे ॥१८ मलमूत्र त्याग करि पुनः भिक्षाकाले । मल ओ मूत्रेर वेग साघुर हइले । करिवेना उहादेर वेगेर धारण । ना हवे द्वितीय वारे नियम लखन || आज्ञाक्रमे गृहस्थेर जीव शून्य स्थान । खुजिया लइवे साधु पाने परित्राण ॥१६ यावे ना भिक्षार लागि किरूप गृहेते । वर्णिव अधुना ताहा जैनशास्त्र - मते ॥ ये घरे दरजा नीचा घोर अन्धकार | मृक्ष्मकीट दृप्ट कभु ना हय काहार ॥ ये ये स्थाने नेत्रशक्ति नष्ट हुये याय । प्रवेश साधुर नय उचित तथाय ॥२० याइवे किरूप गृहे कोथा ना याइवे । कोन गृह हते साधु फिरिया आसिवे ॥ वर्णिव एक्षणे सेइ नियम प्रधान । शुनिले साधुरा हवे प्रफुलपराण ॥ गृहे वा गृहेर द्वारे विक्षिप्त था किले । सजीव कुसुम वीज आर्द्रा मूमि-तले ॥ लेपनेर जले द्वार गियाछे. भिजिया । याइवे ना तथा साधु भिक्षार लागिया ॥ २१ • ५५" Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र । अथ पंचम अध्ययन प्रथम उद्देश । क्षुद्र वृष मेष आर कुकुर वालक । गृह द्वारे यदि थाके प्रवेशवांधक ।। हटाइया पद द्वारा करि उल्लंघन । करेना प्रवेश गृहे साधुरा कखन ।।२२ दोषहीन गृहे साधु भिक्षार्थी याइयो । करिवे किरूप कार्य कहिव वर्णिया। हेरिया स्त्रीजन कभु श्रावकेर घरे। करिवेना स्थिरष्टि स्त्रीचक्षु उपरे॥ उहा द्वारा अपरेर मनेर वेदना। कदापि जन्मिते पारे करिवे धारणा॥ . नाना रोग द्वारा कभु साधु कष्ट पाय। पूर्वोक्त कारणे साधु नारीना ताकाय ।। दानकारि-स्थित स्थान नयने हेरिवे। अति दुरे कभु साधु दृष्टि ना करिवे।। चक्षु विस्तारित करि देखिवेना धन । गृह परिच्छद आदि साधुरा कखन ।। ना पाइले साधु भिक्षा फिरिवे तखन। करिवे ना दीन वाक्य कभु उच्चारण ॥२३ अवस्थार तारतम्य सम्यक् जानिया। भिक्षा योग्य स्थान कोथा देखिवे बुझिया ॥ . उत्तम मध्यम किम्बा के हय अधम । भिक्षा दाने शक्ति कार आछे कि रकम ।। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश वंकालिक सूत्र | अथ पंचम अध्ययन प्रथम उद्देश । विचारि पूर्वोक्त तत्त्व लये अनुमति । भिक्षार निर्दिष्ट स्थाने यान सिद्ध-यति ॥ २४ दाँड़ाइवे कोनस्थाने सुविज्ञ साधक । वर्णिव एक्षणे ताहा मङ्गलकारक ॥ परिमित स्थान हेरि साधु दांड़ाइवे । स्नान-स्थान पायखाना कभु ना हेरिवे ॥२५ जितेन्द्रिय साधु सदा करिव वर्जन । वक्ष्यमाण स्थानगुलि हमरि प्रवचन || भूमिमाग याहा हय जीव पूर्ण सदा । जलपूर्ण पथ नाला यथा करे कांदा ॥ हरित वर्णेर यथा थाके वनस्पति । सजीब वृक्षेर वीज यथा करे स्थिति ||२६ गृहद्वारे उपस्थित भिक्षार कारण । यदि देखे कोन भिक्षु, साधु तपोधन ॥ आनिले साधुर लागि पानीय आहार | उहा हते लइवेना अप्राह्य सवार ॥ लइवार योग्य याहा ग्रहण करिवे । वर्जनीय वस्तु साधु सामहे त्यजिवे ॥२७ गृहिणी कखन भिक्षा अनिवार काले । भिक्षा हते किछु यदि क्षिपे भूमितले ॥ घटिले एमन कर्म्म गृहस्थेर वाड़ी । चलिवे तखन साधु दात्रीके नेहारि ॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र। अथ पंचम अध्ययन प्रथम उद्देशः। अयोग्य तोमार भिक्षा लइवत्ता आज। : करिवना कभु आमि धर्महीन काज ॥२८ प्राणी वीज वनस्पति हरित-वरण.! पाद:- द्वारा ये गृहिणी करेन मद्देन ॥ साधुर भिक्षार लागि जीवर.संहार । करिते प्रयासी नित्य छाडि शुद्धाचार । असंयमी सेइ यदि भिक्षा दिने आसे। .. कभुना लइवे भिक्षा याहा धर्म नाशे ॥RE जोवयुक्त पात्र मध्ये आहार्य ये राखे। तुच्छ वोध करि सदा षड्जीवे देखे.॥ निक्षेपे अदेय वस्तु प्राणीर उपरे। सञ्चालित करे येवा सजीव पुष्पेरे।। जीवयुक्त जलदाने हय अग्रसर 1. लवेना ताहार भिक्षा साधकप्रवर ॥३० सजीव सलिले दात्री यदि करे स्नान ।। सञ्चालित करि जल नाशे जीव प्राण ॥ आत्ममुख आकर्षण करे लय जल। आहायेर सह देय भिक्षुके केवल.!! ना करिने कभु साध से भिक्षा ग्रहणा! . . अभिप्रेत नहे भिक्षा. बलिवे तखन ॥३१ भिक्षाकाले यदि करे गृही. प्रक्षालन। जोवयुक्त जले हस्त हाता वा भाजन !! Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक सूत्र | 1 अथ पंचम अध्ययन प्रथम उद्देश । i हस्तादि अर्पित भिक्षा दूषित वुझिने । अभिप्रेत नहे भिक्षा साधकं वलिवे ॥३२ विन्दु विन्दु जल क्षरे यार हस्त हते । सजीव सलिल रय याहार करेते ॥ धूलि वा कदमभय करतल यार' । इस्तमध्ये यार था हिङ्ग पांशुक्षार ॥ हरिताल मनःशिला किम्बा रसाञ्जन । इस्तेते रहेछे यार समुद्र - लवण ॥ सेइ हस्ते भिक्षा दिले कभुं ना लइवे । अभिप्रेत नहे भिक्षा बलिया चलिवे ॥३३ धातु, पीत, श्वेत माटी फिटकारी आर आम ओ तण्डुल, पिष्ट, थाके करे यार ॥ हरितादि द्रव्य, शाक, भ्रष्ट द्रव्यं चय । " मसल्या - जड़ित हस्त, यदि दृष्ट हय ॥ व्यञ्जन समूहे युक्त, अलिप्त वा यार । करतल, दृष्ट हयं कालेते भिक्षार ॥ सेइ हस्ते भिक्षा दिले लवेना कखन । अभिप्रेत हे भिक्षा व लिंवे तखन ॥३४ अन्नादि - अलिप्त हस्ते हाता वा भाजने । भिक्षा देन श्रावकेरा नित्य साधुगणे ॥ भिक्षा दान परे जले, करे प्रक्षालन । यदि हस्त हातां, भ्रमे अथवा 'भाजन || i. · ५९ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , दश-वैकालिक-सूत्र। अथ पंचम अध्ययन प्रथम उद्देश । ताहार निकट हते आहार्य ग्रहण । कभु ना करिवे जैन साधु विचक्षण ॥३५ जीवशून्य द्रव्य द्वारा, यदि लिप्त हय । आजन वाहस्त हाता, भिक्षार समय ।। उहाँदेर द्वारा गृही भिक्षा यदि देय। यदि ताहे अन्य कोन दोष नाहि रय ॥ सेइ भिक्षा साधुगण सादरे लइवे । सादा भिक्षार रीति साधुरा स्मरिवे ॥३६ एक सङ्गे दुइ व्यक्ति भोजने तत्पर । हेनकाले कोन साधु यदि अग्रसर । भिक्षार प्रार्थना करि दांडाय सम्मुखे। एक जन भिक्षादाने शुधु इच्छा राखे । ना लइवे सेइ भिक्षा.कमु साधुजन। द्वितीय व्यक्तिर भाव वुमिवे तखन ॥३७ एक सङ्गे दुइ व्यक्ति भोजने वसिया। भिक्षादाने इच्छा करे भिक्षुक देखिया॥ यदि अन्य कोन दोष ना थाके तखन। सेइ भिक्षा साधु जन करिवे ग्रहण-1॥३८ अपरेर संगृहीत, लये गर्भवती। मिठाई मिष्टान्न द्रव्य पानीय प्रभृति ।। भोजनेः प्रवृत्त. यदि मनेर हरपे। :. आकण्ठ,पुरिया खाय सन्तानेर आशे॥ . Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक सूत्र | अथ पंचम अध्ययन प्रथम उद्देश । सेइ भक्ष्य द्रव्य हते आनि कोनजन । किछु मात्र देय यदि साधुरे कखन ॥ सेइ भिक्षा ना करिवे साधुरा ग्रहण | खाद्य-शेप दिले शुधु लवे साधुजन ॥३६ दोड़ाइया यदि कोन पूर्णगर्भा नारी । भिक्षादान - काले वसे नियम विस्मरि ।। अथवा आसीना पू दाँड़ाइया परे । आतिथ्य आश्रम धर्म्म पालिवार तरे ॥ पानीय मिष्टान्न द्रव्य याहा तार आछे । समुत्सुक हये दाने, याय साधु काछे । अयोग्य तादृश भिक्षा कभु ना लइवे । अभिप्रेत नहे भिक्षा, साधक बलिवे ||४०|४१ बालक बालिका यदि स्तन्यपान रता । परम सुखेते थाके कोड़े विराजिता ॥ माता किम्बा अन्य नारी स्तन्य दुग्ध दाने । सन्ताने पालिछे स्नेहे वसि फुल्ल मने ॥ नेहारि सहसा एक भिक्षुक सुजन । छाड़िया अपत्य यदि करेन गमन ॥ भिक्षा दिते साधु जने पानीय भोजन । स्तन्यहारा शिशु किन्तु आरभे क्रन्दन ॥ निरखि शिशुर दुःख कभु साधु जन । नारि नारी हते से भिक्षा ग्रहण || ६१ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वकालिक-सूत्र । अथ पंचम अध्ययन प्रथम उद्देश । वलिवे तोमार भिक्षा अग्राह्य आमार । भलिया गियाछ तमि यति व्रताचार ||४२४२ दोषयुक्त पानाहार बहुविध आछे । शङ्कार' कारण उहा साधुदेर काछे ।। उद्गमादि दोषयुक्त किम्बा दोषहीन'। शङ्कार कारण याहा, बुझना प्रवीण ॥ ना लइवे सेइ भिक्षा गृहस्थ भवने। बलिवे शङ्कित भिक्षा 'लइव केसनें। अभिप्रेत नहे भिक्षा वलि साधु जन। शङ्का स्थान परित्यजि करिवे गमनं ॥४४ सचित्त जलीयं कुम्भ शिला काष्ठासन ।। मृत्तिका चिक्कण वरतु-आवृत भांजन।। तार मध्ये साधुतरे यदि खाद्य राखे। लवेना से भिक्षा साधु नेहारि स्वचोखे । ढाका भिक्षा-पात्र खुलि भिक्षार समये ।" भिक्षा दिते चाय केह तत्त्व ना बुझिये। बलिवे अयोग्य भिक्षा विधि-वहिर्भूत । लइवना इहा-मोर नहे अभिप्रेत ॥४॥४६ आहाळ, पानीय गृही खाध, स्वाध, आदि । प्रस्तुत करिया राखे दान हेतु यदि . जाने यदि साधु इहाँ निज-बुद्धिवले। गृहस्थेर मुखे किम्बा उचारितहले॥ . . Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र | अथ पंचम अध्ययन प्रथम उद्देश । सेइ भिक्षा द्रव्य, साधु लवेना कखन । अभिप्रेत नहे भिक्षा बलिवे तखन || ४७|४८ एइ रूप, यदि गृही पुण्येर लागिया । । स्वाद्य, खाद्य, पानाहार, प्रस्तुत करिया || साधुगणे दिते. चाय हये हृष्ट मन, । लइवेना सेइ. भिक्षा साधुरा कखन ॥ अभिप्रेत नहे भिक्षा बलिया तखन । द्वार छाड़ि चले यावे जैन साधुगुण ॥४६॥५० कृपणेर जन्य खाद्य, स्वाद्य, वा पानीय | प्रस्तुत हयेछे गृहे, ताहादेर प्रिय ।। जाने यदि, साधु इहा, निज बुद्धिवले. । गृहस्थ काहार, मुखे श्रुत या हुइले || इष्ट नहे एइ भिक्षा. वलि साधुजन । द्वार छाड़ि अन्यस्थले करिवे गमन ॥५१/५२ कोन गृही खाद्य, खाद्य, पानीय अशन | राखे यदि कराइते साधर भोजन ॥ स्वयं जानिया साधु, मुखे वा काहार, शुने यदि उक्त कथा, विरुद्ध आचार ॥ दोषयुक्त पानाहार, कभु ना लइवे । अभिप्रेत नहे भिक्षा दातारे वलिवे ॥५३॥५४ दुधि भात मिलाइया ये खाद्य हवे. | 1. क्रय करि ये ये खाद्य गृहस्थ आनिवे ॥ ६३ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૪ दश - कालिक-सूत्र | अथ पंचम अध्ययन प्रथम उद्देश । अयोग्य आहार याहा आधा-कर्म-दोपे । स्व ग्राम हइते याहा आहृत वा आसे ॥ साघुर उद्देश्ये यदि कभु पाककाले । रन्धनं पात्रेते पुनः आर द्रव्य दिले || 'हइवेक भ्रमक्रमे ये खाद्य प्रस्तुत । श्रावकेर गृहे याहा विधान वर्जित ॥ निजेर साधुर जन्य एकत्र मिश्रित । खाद्य याहा कोन गृहे हइवे प्रस्तुत ॥ ना करिवे कभु साधु से खाद्य ग्रहण । दोषयुक्त पानाहार करिवे वर्जन ॥५५ भिक्षार ग्रहणे कभु, शङ्कार उदये । जिज्ञासा करिवे साधु संयत हृदये ॥ कि प्रकार समुद्भव काहा द्वारा कृत । काहार उद्देश्ये इहा हयेछे रक्षित || जानिया प्रकृत तत्त्व संयत सुजन । निःशङ्क आहार शुद्ध करिवे ग्रहण ॥५६ पानाहार खाद्य स्वाद्ये यदि भ्रमवशे । सजीव कुसुम वीज वनस्पति मिशे ॥ कल्पित नहे ए भिक्षा वलि तपोधन । चले यावे अन्य स्थाने भिक्षारकारण || ५७/५८ अशन पानीय खाद्य, वाद्य वा राखिले । जलोपरि पिच्छल वा काइयुक्त जले ॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र | अथ पंचम अध्ययन प्रथम उद्देश | लइवेना सेइ द्रव्य कभु साधुजन । कल्पित आहा नहे बलिये तखन ||५६ ६० पानाशन खाद्य स्वाद्य अग्निर उपरे । रक्षित पूरवे आछे गृहस्थ - आगारे ॥ उक्त अग्नि स्पर्श करि यदि भ्रमक्रमे । आहा पानीय देय सरल साधुके ॥ ना लइवे उहा कभु विज्ञ साधुजन । अकल्पित खाद्य त्याज्य बलिये तखन ||६१६२ चुल्ली मध्ये देय यदि पाचक हइया । अग्निर निर्माण भये काष्ठ वाड़ाइया ॥ खाद्य र जलीय अंश शोपण भयेते । वाहिर करिते थाके, काष्ट आँखा हते ॥ यदि वा सहसा हय अभिरनिर्वाण । भयेते चुल्लीते काष्ठ करे वा प्रदान || अग्नितापे पात्रजल उथलिया पड़े । उहा हते किछु जल राखे अन्याधारे ॥ ये पात्रे व्यञ्जन छिल ताहा आनि पुनः । राखे यदि अन्य पात्रे गृहस्थ कखन ॥ पूर्वोक्त विधानेकृत पानीय भोजन । ना लइवे विज्ञ साधु भ्रमेओ कखन ॥ आंखार उपरे खाद्य राखिया यतने । भिक्षा दिते उहा ह' ते यदि किछु आने ॥ ६५ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वकालिक-सूत्र । । अथ पंचम अध्ययन प्रथम उद्देश । खाद्य-जल-वृद्धि-भये अग्निर उत्तापे । उहाते किश्चित् जल यदि वा निक्षेपे ।। करिवेना कभु साधु से खाद्य - ग्रहण । अभिप्रेत नहे भिक्षा वलिवे तखन ।।६३२६४ वर्षाकाले पारापारे कोन स्थाने यदि । लम्बा काष्ठ, वड़ शिला, जमा इष्टकादि । देखे साधु कम्पमान, गमन - समये । साधु तथा याइवेना जीवहिंसा-भये ।। ये पथ प्रकाशशून्य अन्तःसार-हीन । जितेन्द्रिय याइवेना सेपथे कखन ॥६श६६ निर्गमन सिडि पीठ चोकी वा खाटिया । कीलक कखन दात्री उक्रेते तुलिया ।। हादि उपरे उठि साधुर कारण । आहा- पानीय यदि करे आनयन ।। अति दुरे आरोहण करि सिडि. योगे। हयेन पतित यदि भूमि निम्न-भागे। हस्त पाद भन्न हये हिंसे पृथ्वी जीवे । पृथिवो आश्रित किम्बा अन्य जीवे भवे । एत वड़ दोप साधु जानिले कखन॥ उच्चाहृत भिक्षा कभु ना करे ग्रहण ॥६७६८ सूरण प्रभृति कन्द कटुपत्र शाक। विदारिका आदि मूल, कांचा वा आद्रक ।। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र । अथ पंचम अध्ययन प्रथम उद्देश | कल्पित ||७१/७२ कांचा घीया शाक, तालफल आदि । प्रलम्ब तुलसी, आम साधु सत्यवादी ॥ अनिष्टकारक जानि करिवे वर्ज्जुन । सर्व्वेन्द्रिय- समाहित साधु तपोधन ॥७० आपणेर कुलचूर्ण तिलपापड़ी आर । छातु, द्रवगुड़, पिठा मोदक काहार ॥ दोकाने विक्रीयमाण धूलिपूर्ण यदि । स्थापित रहेछ याहा दीर्घकालावधि ॥ ना लइवे कभु साधु जिनिप कथित । afed दात्री के नहे आहा प्रन्थियुक्त सीताफल बहु काँटायुत । अनिमिष, फल विल्व अस्थिक कथित || तेन्दुरुकी फल किम्बा बल्लादिर फल । इक्षुखण्ड ना लइवे साधु सत्यवल ॥ पूर्वोक्त फलेर केन निषेध वचन । निम्ने तार हेतु वाद हवे प्रकटन || फलादिते खाद्य थाके अति अल्पसार । अवशिष्ठ फेलि करे जीवेर संहार ॥ पूर्वोक्त आहार्य्यं कभु साधु ना लइवे । अभिप्रेत हे भिक्षा दात्रीके वलिवे ॥७३ ७४ वर्णादि संयुत जल किम्बा तद्रहित । गुड़-घट - धौतजल सुस्वाद - वर्जित ॥ ६७ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र । अथ पंचम अध्ययन प्रथम उद्देश । . पिष्टक तण्डुल वारि अधुना वा धौत । पानीय ताश साधु करिवे बजित ||७५ चिर धौत शङ्काशून्य, ये तण्डूल-जल। स्वबुद्धि-प्रत्यक्ष-ज्ञात, श्रुत वा विमल ॥ सादोप-शून्थ याहा साधुरा बुझिवे । सेइ जल अतियले ग्रहण करिवे ।। ७६ जोवशून्य, परिणत यद्यपि उदक । करिवे ग्रहण उहा निर्भय साधक ।। यदि शङ्का थाके तारते लइवे आस्वाद । विनिश्चये दूर हवे साधुर प्रमाद ॥७७ निश्चय - करण विधि जलेर एखन। एइ स्थले स्पष्ट रूपे हइवे वर्णन ॥ येये साधु गृहि-गृहे विनय - सहित । वलिवे निम्नोक्त कथा आगम-विहित॥ दिन जल मोरे किछु हस्तेर उपर। कल्पित मानस शङ्का घुचाइते मोर ।। योग्य यदि वुझि उहा आस्वाद करिया । ग्रहण करिव उहा स्वभय त्यजिया ।। कटु वा दुर्गन्ध युक्त उदक असार । तृष्णादूरे हइवे ना समर्थ आमार ।।७८ कद वा दुर्गन्धयुक्त, यदि केह जल। तृषित भिक्षुर काछे आने मन्द-फल ।। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र । अथ पंचम अध्ययन प्रथम उद्देश । तृष्णार निवृत्ति याहा करिवारे नारे। वलिवे ईश जल दिओना आमारे । दात्री हते हेन जल ना करि ग्रहण । अभिप्रेत नहे इहा बलिवे तखन ॥७६ तन्मनस्क अन्यभावे थाकि साधुजन । भ्रमे यदि उक्त जल करेण ग्रहण ।। ना करिवे पान उहा तृपा- हइया। करावेना समर्पण अन्यके भुलिया ।।८० एकान्न निर्जीव स्थान करि निरीक्षण । निक्षेपिवे त्याज्य जल, करिया यतन ।। . निजेर वसतिस्थाने करि आगमन । प्रतिक्रम करिवेक सिद्ध तपोधन ।।८१ प्रामान्तरे भिक्षा लभि साधक संयत । पिपासादि द्वारा हले अति अभिभूत ।। भोजनेर इच्छा यदि मने हय तार । साधर बसति सेथा ना थाके आवार।। भित्तिमूल मठादि वा जिया लइवे । धूलि आर बीजादिर वर्जन करिवे ॥८२ प्राज्ञ साधु भूस्वामीर आदेश लइया। ईर्ष्या प्रतिक्रम करि मुखे वस्त्र दिया | यथारीति हस्तादिर करिया मार्जन। करिवे संयत हये आहार ग्रहण ||८३ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० दश-वंकालिक-सूत्र | अथ पंचम अध्ययन प्रथम उद्देश | भक्षण समये हय यदि खाद्यचच । कण्टक-कङ्कर- अस्थि-तृण-काष्ठमय ॥ अखाद्य अपर वस्तु खाद्य थाके यदि । किरूपे उहार त्याग करिवेन सुधी ॥८४ हस्त द्वारा त्याज्य द्रव्य ऊर्ध्वे उठाइया । निक्षेप करेना साधु नियम भुलिया ॥ थुथु फेलि त्याज्य वस्तु ना करे वर्ज्जन । हस्त-योगे कोन स्थाने राखे साधुजन ॥८५ श्रावक - आये साधु जीवशून्य स्थाने । त्यक्तद्रव्य माटि द्वारा ढाकिया यतने ॥ ईर्ष्या पथिकेर सूत्रे ज्ञानी साधुजन । करेण तथाय वसि सुप्रतिक्रमण ॥८६ आहार्य्य पात्र रेसह वासम्थाने आति । यदि साधु खाइवारे हन अभिलाषी ।। आहारेर स्थान यत्न परीक्षा करिवे । मत्यएणवंदामीति गुरूके वलिवे ॥ सविनय प्रदेशिया गुरुर सदन । ईर्ष्यापथिकेर सूत्र करिवे पठन ॥ पाठ करि पूर्ण मन्त्र साधु अकपट । करिवेक काय्र्योत्सर्ग गुरुर निकट ||८७१८८ कायोत्सर्ग भिक्षुकेर वटिव एखन । याहाते भिक्षुर दोष हइवे खण्डन || Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र। अथ पंचम अध्ययन प्रथम उद्देश। पानाहारे यातायाते अतिचार दोप। वुझिया देखिवे साधु लभिया सन्तोष ॥ उद्वेग - रहित - साधु सरल - हृदय । स्थिर चित्त गुरु काछ कहे समुदय ।। भिक्षार ग्रहणे साधु येरूप करेछे। उहाते किरूप दोप साधुर घटेछ ।। इत्यादि विषय साधु गुरुके वलिवे। गुरु सने आलोचना साधुरा करिवे ॥८६॥६० अज्ञाने वा विस्मरणे सम्बन्धे भिक्षार । पूर्वे कर्म परकर्म ना करि विचार ।। दोपयुक्त हले साधु स्मरि निज भ्रम । आलोचिया करिवेक शुभ प्रतिक्रम। कार्योत्सर्गे वसि साधु करिव चिन्तन । वक्ष्यमाण कथा साधु करि उच्चारण ॥६१ सम्यगदर्शन ज्ञान ओ चारित्र-साधने । स्थित - साधुदेर देह-धारण-कारणे ॥ मोक्षेर साधन जन्य अहो जिनगण। करेन अपापावृत्ति नित्य प्रदर्शन ॥९२ नमो अरिहंताणं मन्ने करिया प्रणति । लोगास उज्जो अगरे मन्त्रोर संस्तुति ।। चतुर्विश - परिमित सयले पड़िवे । स्वाध्याय करिया साध विश्राम लभिवे ॥३ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ दश-वैकालिक-सूत्र | अथ पंचम अध्ययन प्रथम उद्देश । निर्जरादि- लुब्ध साधु विश्राम करिया । निम्नोक्त करिवे चिन्ता स्वहित लागिया || "अनुग्रह प्रकाशिया आमार उपर । यदि कोन साधुवर तपस्या - तत्पर ।। लइतेन किछु खाद्य आहार्य्य हइते । पारिताम भवार्णव आमि उत्तरिते ॥ ६४ भोजनेर काले साधु स्नेह-प्रीत-प्राण | करिवेक यथाक्रमे साधुके आह्वान || भोजनेच्छुक के थाकिले सेखाने । तत्पर हइवे साधु एकत्र भोजने ॥६५ निमन्त्रणे साधु खाद्य नाहि लय यदि । रागादि रहित हये त्यजि मक्षिकादि ॥ नीचे खाद्य ना फेलिया हरत मुख द्वारा । प्रकाश - प्रधान-पान खाइवे साधुरा ॥६६ शास्त्रोक्त विधाने प्राप्त मोक्षेर साधक । अपरेर जन्य कृत देहेर धारक ॥। तिक्त कटु अम्लयुक्त अथवा मधुर । कषाय लवणयुत भिक्षान्न साधुर ॥ समभावे पूत - मने साधक लइवे । मधु- घृत- समतुल्य भाविया खाइवे ॥६७ अरस विरस किम्बा व्यञ्जन संयुत । तद्रहित अकथने कथने अर्पित ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-कालिक-सूत्र । अथ पंचम अध्ययन प्रथम उद्देश। आर्द्र शुष्क कुलचूर्ण आर सिद्ध माप । अल्पमात्र विविदत्त, शुद्ध यवमास ।। निन्दिवेना अवहेलि उक्त खाद्य चये। अनिदानजीवी साधु संयत थाकिये ।। खटिका चटिकादि विना याहा प्राप्त । संयोजन आदि दोष हते याहा मुक्त ।। सेइ रूप खाद्य साधु बुझिया लइवे । विशुद्ध आहार्य साधु सादरेभुञ्जिवे ||६८188 स्वार्थहीन भिक्षादाता निःस्वार्थ भिक्षुक ।' जगते दुर्लभ अति उभये भाबुक ।। निःस्वार्थ ये भिक्षा देय निःस्वार्थे ये लय । परकाले शुभगति दोहे प्राप्त हय ॥१०० तीर्थकर महापूज्य साधक याहारा। दियाछन उपदेश हितार्थे ताहारा॥ स्मरि सेइ उपदेश त्यजि स्व-कल्पना । वलितेछि पूर्वरूप करि ओ धारणा ॥ इति पंचम पिण्डपणाध्यनेर प्रथमोद्देशावचूणि समाप्त । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र | अथ पंचम अध्ययन द्वितीयोद्दश । ; तर्जनीर द्वारा पात्र निःशेषं मुलिया । तर्जनी- संलग्नं खाद्य आस्वाद लंइया || दुर्गन्ध सुगन्ध ह'क ना कंरि विचार | पूर्वोक्त विधिते प्राप्त निर्दोष आहार | संयत साधक उहा भोजन करिवे । उहा हते कदापिओ किछु ना त्यजिवे ॥१ स्वाध्याय भूमिते किंवा आवासे आसिया । स्वाध्याय आवासे किम्बी गंमन करिया || निकटस्थ मठादिते अत्यल्प आहार । करि यदि प्राणरक्षा ना हय काहार ॥ ताहा हले कि करिवे साधु महाशय । वर्णित हइवे तार विधान -निचय ॥२ आहारेर पुनर्वार हले प्रयोजन । कि करिवे साधुवर कहिंव एखन ॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ दश-वैकालिक-सूत्र। अथ पंचम अध्ययन द्वितीयोद्देश । प्रथमोक्त विधि किम्बा वक्तव्य विषये। करिवेक गवेपणा समाहित हये ॥३ भिक्षाकाले साधुगण भिक्षाय याइवे । भिक्षाशेपें यथास्थाने फिरिया आसिवे ।। स्वाध्याय भिक्षादि कार्य निर्दिष्ट समये । करिवेक साधुजन संयत - हृदये ।।४ अकाले श्रावक गृहे भिक्षार लागिया । याइतेछे एक साधु देखिते पाइया ।। बोलतेछे अन्य साधु ताहाके, विनये । याओ तुमि भिक्षा लाभे केन असमये ।। विचार करना तुमि निज कालाकाल । योहाते शास्त्रर दृष्टि रहेछे विशाल । करितेछ इहा द्वारा आत्मार पीड़न । प्रामादिर निन्दा-कथा वलि साक्षण ।।५ पूर्व उक्त दोष साधु अकाल भ्रमणे। वुझिया केमने चले वलिव एखने ॥ भिक्षाकाले भिक्षातरे साधरा याइवे। . यथाशक्तिं पुरुपार्थ प्रयोग करिवे॥ . अलाभे भिक्षार साधु चिन्ता ना करिवे। आराधना करि कष्ट यतने सहिवे ॥६ भक्षण - कारणे पथे अनेक प्रकार। । शोभना-शोभन प्राणी हेरि शुद्धाचार ।। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वकालिक-सूत्र। अथ पंचम अध्ययन द्वितीयादेश । . याइवे ना कभु साधु सम्मुखे हार। ना दिया उहारे कष्ट करिवे विहार । ७ गृहस्थ भवने गत भिक्षार्थी कखन। वलिवेना धर्मकथा लवेना आसन ।।८ अर्गल परिखा. द्वार कपाट धरिया। थाकिवेना दौड़ाइया भिक्षार्थे आसिया 18 दरिद्र कृपण नर, विप्र वा श्रमण । भिक्षार्थे श्रावक गृहे करें आगमन ।। भिक्षार्थी साधक येये गृहस्थर द्वारे। . देखे यदि सेइ सब श्रमणादि नरे। अतिक्रमि . उल्लङ्घने साधक सुजन । करिवेना गृहमध्ये प्रवेश कखन । दृष्टिपात करि द्वारे भिक्षुकं उपरे । दौडाइया थाकिवेना गृहस्थ आगारे ।। यथागेले भिक्षुकेर. हय : भदर्शन। दाँडाइवे एकधारे पूत साधजन ।।१०।११ उल्लङ्घि अपर भिक्षु सम्मुखे वा गेले। भिक्षुक, दातार काछे साधु दाँडाइले । लाभे विघ्न उभयेर उपस्थित हय । दान क्लेश पाय गृही अप्रीत -हृदय ।। प्रवचन - लघुतार हय आविर्भाव । याहा द्वारा नष्ट हय साधुर प्रभाव । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश- वैकालिक - सूत्र | अथ पंचम अध्ययन द्वितीयद्दश । सेइ हेतु मुनिवर भिक्षार समये । दाइवे एकधारे संयत हइये ॥ १२ भिक्षाय निषेध दान भिक्षुक पाइया । निवर्तित हइयाछे साधुरां हेरिया || आहार पानीय द्रव्य साग्रहे लइवे । संयत साधक परे चलिया याइवे ॥१३ कमल कुमुद किम्बा फल मल्लिकादि । सजीव आनिया दात्री छिन्न करे यदि ॥ तादृश आहार्य आर पानीय गृहीर । अकल्पित साधुदेर आगम विधिर ॥ सेइ हेतु उहा दिले साधु ना लइवे । अभिप्रेत नहे भिक्षा विनये वलिवे ||१४|१५ मल्लिका उत्पल पद्म पुष्प अगणन | सजीव मद्दन करि गृहिणी कखन ॥ आहा पानीय द्रव्य प्रस्तुत करिया । भिक्षा दिते आसे कभु सुनीति भुलिया ॥ वलिवे अग्र हा भिक्षा' नहे अभिप्रेत । लइते ना पारे साधु विधान वर्जित ।।१६।१७ उत्पलेर कन्द शालु कन्द- पलाशेर । उत्पल 'नालिका इक्षुदण्ड वा पद्मरे ॥ कन्द रम्य मृणालिका सचित्त पल्लव | सर्प नालिका fear वृक्ष तृणोद्भव ॥ ७७ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ दश-वैकालिक-सूत्र। . . अथ पंचम अध्ययन द्वितीयोद्देश। . अपरिणता हय यदि अरूणक । प्रवाल वा वनस्पति हरितवर्णक ।। कुमुद वा पळवल्लि चर्जन करिवे । भिक्षा ना लइया साधु चलिया याइवे ॥१८ १६ असिद्ध वंश-वरेला श्रीपर्णी वदर। वजन करिव साधु यतिव्रतधर ।।२० कांचा निम्ब ना खाइवे तिलेर पापड़ी। संयत सज्जन साधु नियम विस्मरि ॥२१ शीतल सचित्तोदक पिष्टक. तन्डुल। तिलेर पिष्टक कांचा सरिषाखइल ।। पूर्वोक्त पदार्थ साध वजन करिवः। आहारेर विधि साधु मानिया चलिवे ॥२२ कपित्य वा विजोरेका फल वा मूलक । मूलक कन्देर फली, अपक्व, साधक ॥ अशस्त्रपरिणत वा, कभु ना खाईवे । भ्रमेतेउ मने मने कभु ना चाहिवे ॥२३ विभीतक फल, किम्बा फल प्रियालेर। यवादिर चूर्ण, किम्बा चूर्ण वदरेर ॥ . भिक्षा द्वारा लब्ध, हले साधु, सत्यपण । अंसिद्ध वा सचेतन करिवे वजन ॥२४ मुनि उच्च नीच कुले याइवे संयत। . . सामूहिक शुद्ध भिक्षा, पाइते सतत 1.. . . . Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'दश-वैकालिक-सूत्र। ७९ अथ पंचम अध्ययन द्वितीयोदशं । याइवेना उच्चकुले नीच कुल त्यजि। उच्च नीच कुले यावे, मुनि भिक्षाभोजी ॥२५ दीनता विहोनमुर्ति करिया धारण । करेण जोविकावृत्ति मुनि अन्वेपण ।। कभु ना हयेन तिनि दुःखदैन्यमय । योग्याहार ना मिलिले प्रशान्त हृदय ॥ लोभहीन आहारेर भावि परिणति । शुद्धाहार अन्वेपणे निरत सुयति ॥३६ आहाळवाहुल्य थाके तदि श्रावकेर । गृहमध्ये वहुविध खाद्य स्वाध ढेर | ना देय आहाळ कृत गृहस्थ कृपण । मुनिके मनेर भ्रमे यदि वा कसन । करिवे ना इथे राग साधु महामति । खाद्य दान गृहस्थेर येहेतु स्वकृति ।। गृहस्थर देय भिक्षा ना करि विचार । लइवे आहार्य करि क्रोध परिहार ॥२७ ना, देय प्रत्यक्षदर्शी गृहवासी यदि । शय्यासन वस्त्राहार किम्बा पानीयादि । भ्रमक्रमे नीति भुलि, उंहार कारण । करिवेना क्रोध मुनि यति तपोधन ।।२८ भिक्षार्थी साधकवर कार गृहे गेले । स्त्री-पुरुष युवा वृद्ध वन्दना करिले ।। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र । अथ पंचम अध्ययन प्रथम उद्देश । ना चाहिये भिक्षा कभु विशिष्ट साधक । चाहिले हइवे दोष विपरिनामक ।। याचना करिले यदि भिक्षा नाहि देय । वलिवे ना कटु वाक्य कदापि कोथाय २६ ना हइवे ऋद्ध साधु वन्दना अभाव। करिवेना, अहङ्कार, राजादिर स्तवे ।। भगवदाज्ञा साधु ये करे पालन । अखण्ड साधुतायुक्त ताहार जीवन ।।३० सरस आहा- याहा मदर्थे आनोत । देखाइले उहा स्वयं आचार्य पूजित ।। लइवेन भावि उहा करिया गोपन । राखे कोन साधु यदि करिते भक्षण ॥३१ आत्मार्थे कल्मषकारी, लुब्ध सेइजन । करे पाप बहुविध करिते भोजन ॥ ना जन्मे आहृत खाद्य सन्तोष याहार । ना हय धैरज त्यागे, मुकति ताहारं ॥३२ आहार्य पानीय लभि विविध प्रकार । पथे खेये घृतयुक्त उत्तम आहार ।। विरस विवर्ण खाद्य आनयन करें। गुरुर निकटे कोन साधु अकातरे ॥३३ पूर्णरूप कार्य करि साधु अकातरे। वक्ष्यमाण चिन्ता साधु पुषिछे अन्तरे।। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : दश वकालिक सूत्र | अथ पंचम अध्ययन द्वितीयोद्द ेश | 'एई रूप कार्य्यं साधु करे कि कारण । ताहार प्रकृत ं तत्त्व करित्र वर्णन || करुण धारणा मोर प्रति साधुगण । मोक्षार्थी हइया एई संयमी सुजन ॥ लाभालाभ प्रीतं करि असारं सेवन | साधारण खाद्य हय सन्तोष प्रवण ॥३४ सम्मान सुरुयाति, साधु पूजार कारणे । माया शल्य आदि पाप करेन जीवने ||३५ केवल्यादि साक्षियुक्त साधक प्रवर । आत्मार संयम रक्षा करिते तत्परं ॥ ना पिवेन सुरा किंम्बा माद्य रसचयं । मेरकादि विगर्हित द्रव्य समूदय ॥३६ अधार्मिक चौर साधु मद्य पान करे । भावे यदि मोर कर्म्म अज्ञात संसारे ॥ ऐहिक वा पारत्रिक दोषदर्शी तार । समुद्धार आमा हते शुनं संविस्तार ||३७ मद्य - पायी साधुदेर आसक्ति ओ प्रीति । मद्य वार्ड, हयं परे स्वपर अख्याति ॥ मद्यभावे अशान्तिर वृद्धि हय अति । असाधुता निरन्तर वाड़े, अधोगति ॥ ३८ मद्यपायी सुदुर्मति स्वीय कर्म्मभीत । चौरेर संदृश हंय उद्विग्न सतत ॥ ८1 ง Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ दश - वैकालिक - सूत्र | अथ पंचम अध्ययन द्वितीयोदश । क्लिष्टसत्व, हईयाओ, मरण - कालेते । संवरेर आराधना करना भ्रमते ॥ ३६ तथाविध मद्यपायी ना पूजे कखन । भक्तिभरे करोड़ आचार्य श्रमण || दृष्ट शील तारे जानि गृहबासिगण । निन्दाकरे निरन्तर ताके आजीवन ॥ ४० दुर्गुण धारण करे मद्यपायी जन । अनायासे करे शुभ-सद्गुण बर्जन ॥ क्लिष्टसत्व इहया ओ मरण कालेते । संबरेर आराधना करेना भ्रमते ॥ ४१ मेधावी तपस्या करे त्यजे स्निग्ध रस । मदिरा - प्रमाद - शून्य साधु अनलस || आमि हई सुतापस एईरूप भावि । कदापि उत्कर्ष बोध करेना मेधावी ॥ ४२ याहा इय, ज्ञानशालि - साधुरपुजित । करम निर्जरारूप, तत्व - समन्वित ॥ मोक्षरे कारक, सेई, गुणेर आधार । संयम, कीर्त्तिव, आमि अति शुद्धाचार ॥ धार्मिक, सुजन प्राज्ञ, यति तपोधन । आमाहते उहा एवे करुन श्रवण ॥४३. धरि गुण अप्रमादि, साधु महाजन । करेन मरण-काले दुर्गुण : वर्जन ॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३ दश-वैकालिक-सूत्र। अथ पंचम अध्ययन द्वितीयोदश। संवर-धरम साधु करेन पूजन । निज-हित-प्रदशुभ मुक्तिर-कारण ।। ४४ साधु यारा गुणवान् आचार्य प्रबरे। पूजा करे तारा भक्ति-श्रद्धासहकारे । सेवाकरे गृहस्थेरा परम यतने । संयमी साधुके दृढ-भक्तियुक्त मने ॥ ४५ जप, तपः, व्रत, रुप,भाव वा आचार। प्रभृति-गुणते हीन यार व्यवहार ।। कपटता करि साधु निजे गुणवान् । अपर निकटे सदा देखाईते चान ॥ देवतार मध्ये तार अतिनीच स्थान । लब्ध हवे काले ईहा आगमविधान ॥४६ देव-भाव-प्राप्त साधु पापि-देवरूपे । लभेन जनम परे कपटता पापे । बुझिते अक्षम तवु कि कारणे आमि । पाईतेछि हेन फल निम्नपथगामि ।। ४७ देव लोक ह'ते साधु भ्रष्ट भवे हन । छागभापा बले नित्य बोबार मतन ।। तिर्यग ओ नारकी योनि काले प्राप्त हय। जैन धर्म प्राप्ति तार दर्लभ निश्चय ॥४८ वलेछन महाबीर साधक प्रवर । ऊपदेशच्छले ताई आगम बिस्तर ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ दश-वेकालिक-सूत्र | अथ पंचम अध्ययन द्वितीयोद्दश । अणुमात्र, निरखिया, नित्य- साधुजन । मिथ्याछल कपटता करेन वर्जन ॥ ४६ आहार शुद्धिर तत्त्व उत्तम जानिया । संयत-साधक-ह'ते शिक्षित हईया ॥ उत्तम संयमी साधु गुणशुद्धाचार । जितेन्द्रिय हसे सदा करिवे विहार ॥५० तीर्थङ्कर महापुज्य साधक याहारा । दियाछेन उपदेश हितार्थे ताहारा ॥ स्मरि सेई उपदेश त्यजि- स्वकल्पना । वलितेछि पूर्व्वरुप करिओ धारणाः ।। इति पंचम पिण्डेषणाध्ययनेर द्वितीयो द्देशावचूर्णि समाप्त | Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र। अथ षष्ठ अध्ययन। ज्ञान ओ दर्शने युक्त, तपस्या संयमे । आसक्त, विशिष्ट श्रुतधर, धराधामे ।। साधुर तरण-योग्य-उद्याने, संस्थित । धर्मोपदेश प्रदाने नियत प्रवृत्त ।। ईदृश, आचार्य वरे करयोड़े कन । राजवृन्द, राजामात्य क्षत्रिय ब्राह्मणअधुत्ता प्रभो जनेन्द्र , पूज्य आपनार। धमक्रिया कलापादि, चले कि प्रकार ? श२। राजादि क क पृष्ट, साधु जितेन्द्रिय । आचार्य प्रवर, अति प्रशान्त-हृदय ।। शास्त्र-ज्ञाने विचक्षण, जीवहितेरत । सर्वदाई आसेवन-सुखेते संयुत ॥ स्थिरचित्त, संयमेते स्त, तपोधन । पुण्यसयी धर्म-कथा करेन वर्णन ॥ ३ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र। अथ षष्ठ अध्ययन। चारित्र्य धर्मे वा मोक्षे कामना संयुत । वाह्य-आभ्यन्तर-ग्रन्थि रहित, सतत ।। साधुदेर एवे शुन क्रिया-कलापादि। भीम दुराश्रय, सेई अन्त हते आदि ॥४ दष्कर, संयम धर्म, उहार आचार । पाईवेना, प्रवचने, कखन काहार ।। 'संयम-भजनकारी, मुमुक्षु, सुजन । याहारा रहेछे विश्वे, तादेर कारण । एखाने आचार धर्म येरूप वर्णन । जिन मतभिन्न शास्त्रे पावेना कखन ।। ५ द्रव्यभावे समासक्त हये संसारेर । व्याधि-हीण रोगयुक्त वालक वृद्धरे।। देश विराधना-त्यागे अखण्ड, सतत । सर्च विराधना त्यागे अति अस्फुटित ।। ये ये गुण राशि हय कर्तव्य धारणे । शुन मन दिया ताहा बलिव एक्षणे ॥६ वक्ष्यमाण अष्टादश स्थानेर आश्रय । करिया वालकेराओ अपराधी हय ।। प्रमादवशतः यदि एक दोष 'रय । निर्गन्थ धरम हते साधु भ्रष्ट हय ॥ ७ दोषेर निदान, सेई अष्टादशस्थान । वर्णण करिब एबे शुन पुण्यवान् ।। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वकालिक-सूत्र। अथ षष्ठ अध्ययन। जीवेर विरोधी हय द्वादशस्थस्थान । छय व्रत, छय काया, दोपरे निदान (१२) अकल्पनीय पिण्डर कभु आहरण, (१३) गृहस्थ-भाजन हते खाद्य रे ग्रहण, (१४) पालक शयन, किम्बा आसन ग्रहण, (१५) अकारणे गृहि-गृहे, समुपवेशन, (१६) (१७) जलेते प्रमादे स्नान,शोभाय निरत, (१८) अष्टादश-स्थान एवे हल उल्लिखित ॥ ८ साधक श्री वर्द्धमान, प्रथम स्थानीय । वलेछन अहिंसाके सूक्ष्मरूपे ज्ञय॥ आधा-कर्मा-परिभोग कृतादि रहित । अहिंसाई सूक्ष्मा वलि हयेछे कथित ।। सर्वभूत-विषयेते संयम-पालन । अहिंसा व्रतेर ह्य प्रधान लक्षण ।।६ ज्ञाता-ज्ञात, पृथ्विकाय-आदि यत प्राणी। त्रस आर स्थावरादि ना करिवे हानि ॥ निजे वा परेर द्वारा हत्या ना करावे । यथारीति जीवकुले यतने पालिवे ॥१० बाँचिते सकल जीव अभिलाप करे। मरिते कभु ना चाय, विश्वचराचरे॥ साधुगण जीवभाव करि निरीक्षण | प्राणि-बधयोग्य कार्य करेन वजन ।। ११ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ दश-वैकालिकै-सूत्र । अथ षष्ठ अध्ययन 1 निर्जर परेर जन्य क्रोधभययुक्त । । बलिवेनां मिथ्या कथां हिंसके संयत ॥ अपरेर द्वारा कंभु अनृत भाषण | वला वेना साधुगण भ्रमेओ कखन ॥ १२ एजगते सर्व्व साधु कर्तृ के निन्दित । सर्वत्र सकले जाने भाषण अनृत ॥ अनृतं भांपणे हेय विश्वासेर नांश । साधु छाड़िबेक, मिथ्या कथन प्रयास ॥ १३ संचेतन याहा हय अचित्तं, अथवा । यांहा किम्वा मूल्यमापे अत्यल्पवहुवा ॥ दण्डे शोधने ताहा लंईवेना यति । विनादेशे कखनओ अति शुद्धमति ॥ पुर्वोक्त, अदत्त वस्तु, यति तपोधन । दोपकर, अपवित्र, वुझिया तखन ॥ निजे स्वीय प्रयोजने ना करे ग्रहण | ग्रहण कराते परे ना करे यतन ॥ परैरं ग्रहणे कभु ना देन प्ररेणा ग्रहणेर अनुमति काहार थाकेनां ॥ १५ दुर्गतिर हेतुभूत, ब्रह्मचर्य्यनाश | दुराश्रय, प्रमोद वा, पापेर विकाश ॥ ना करेन भ्रमक्रमे विस्मरि सुनीति । चारित्रातिचारे भीत, तपोरतं यति ॥ १६ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दवा वकालिक सूत्र। अथ षष्ठ अध्ययन। मैथुन- संसर्ग हय, पापेर कारण । महादोष उहा द्वारा हय प्रवर्द्धन ॥ निर्गन्थ बुझिया सदा अधर्म मैयुन । सर्वभावे, यथारीति, करेन वजन ॥१७ महावीर वाक्ये रत, साधु महोदय । रात्रिते राखेना काछे निम्नद्रव्यचयं ।। तुल, घृत, द्रवगुड़, सामुद्र लवण । याहा हय अचेतन किम्बा सचेतन ॥२८ तीर्थकर, गणधर, ब्रहाचर्य-रंत । मनेते धारणा, हेन करेन सतत ।। सञ्चयेर लोभ-हेतु करे ये सञ्चय । गृहस्थ वलिया तारे सर्वलोके कय ।। प्रत्रजित साधुवर ना करे सञ्चय । त्यागधर्म रत साधु लोभमुक्त हय ॥१६ संयम लज्जार्थ, साधु पादेर पुञ्जन । वस्त्र, पात्र, कम्बलादि करेन' धारण ।। सतत संयत-चित्त, प्राज्ञमुनिगण । मूछादि-रहित हाये भोगे रत हन ।।२० वस्त्रादिर व्यवहार, साधुरा करिवे। परिग्रह नहे उहा निश्चय जानिये ।। । कारणवशतः उहा व्यवहृत हय । आसक्तिई परिग्रह, नाहिक संशय ॥२१ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-र्वकालिक-सूत्र। अथ षष्ठ अध्ययन । योग्य क्षेत्र, योग्यकाले, आगम-विधाने। वस्त्रादि-सहित युक्त, हन सावधाने ।। जीविका-निवाह-कल्पे तत्पर हइया। परिग्रह लन साधु ममता सजिया ।। धम्म-कार्ये रत, साधु ज्ञाततत्त्वसार । करेना ममतावुद्धि देहेते ताहार ॥२२ अहो कि विस्मयकर, साधुर विधान । श्रवणे उल्लासे मग्न सवार पराण ॥ दोपरे अभाव, गुण-वृद्विहेतु, आर। चित्तस्थिरकारी तपः-कम्मर प्रचार।। करेछेन, तीथंकरगण एधराय । साधुदेर धर्म, भावि-शुभ कामनाय ।। अनुकूल वृत्ति हय संयम-रक्षण । द्रव्यभावे एकवार आहार्यग्रहण ।। नित्यतपःकर्म उहा वले साधुजन । इहाते संशय कारो हयना कखन ।।२३ त्रस ओ स्थावर प्राणी अति सूक्ष्म देह । रात्रिते भोजने व्यस्त घुरे अहरह ।। दिवाते साधक जीव देखिबारे पाय । सावधाने चले ताई, जीवेर रक्षाय ॥ ना हेरिया उहादेर रात्रिते भोजन । केमने करिवे साधु. करि विचरण ॥२४ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र । अथ षष्ठ अध्ययन। सवीज, जलार्द्र, खाद्य आर सूक्ष्म प्राणी। भूमिते पतित यारा, साधक सुज्ञानी। पारे वर दिबसेते बजन करिते। रात्रिकाले किरुपेते पारिबे चलिते ।।२५ महावीर उच्चारित, हिंसारुप पाप । आत्मबिरोधना आदि अतिमनस्ताप ॥ निरीक्षण करि साधु रात्रिर भोजन । भ्रमक्रमे कदापिओ ना करे ग्रहण ॥२६ . त्रिविध करण योगे, संयत साधुरा । तपःसमाहित-कायमनोवाक्य द्वारा ।। करेनाको हिंसा कभु पृथ्वी जीवगणे। तत्पर थाकेन सदा जीवेर रक्षणे ॥२७ पृथ्वीकाय-जीवगण-हिंसक मानव । तदाश्रित-बहुविध-दृश्यादृश्य सब। बस-स्थाबरादि-जीवदिगके सततः। हिंसाकरे पापमति, जगते नियत ॥२८ दुर्गति बर्द्धक, अति हिंसा दोप घोर । आचरि किरुप फल हइवे साधुर । बुझि तार परिणाम, साधु आजीबन । पृथ्वीकाय-जीवे हिंसा करिवे वजन ॥२६ त्रिविध करण योगे संयत साधुरा । तपः समाहितकायमनो बाक्य द्वारा॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ दश-कालिक-सूत्र | अथ षष्ठ अध्ययन । हिंसा ना करिवे कभु जलकायगणे । तत्पर थाकिवे सदा जीवेर रक्षणे ||३० जलकाय - जीवगण — हिंसुक मानव । तदाश्रित --बहुविध - दृश्यादृश्यसव ॥ त्रस स्थावरादि जीवदिगके सतत । हिंसा करे पापमति जगते नियत ॥३१ दुर्गति वर्द्धक अति हिंसा दोष घोर । आचरि किरुप फल हइवे साधुर ॥ बुझि तार परिणाम साधु आजीवन । जलकाय जीवे हिंसा करिवे वर्जन ||३२ चारिदिके तीक्ष्णधार अस्त्र ये प्रकार । हस्तेते ग्रहणे कष्ट हय दुर्निवार ॥ सेईरुपे पापकर अग्निप्रज्वालन । करिते चाहना साधु धर्मपरायण ॥३३ पश्चिम उत्तर पूर्व्व ऊर्ध्वाधः दक्षिण । सर्व्वदिके, अग्निकरे दाह्य रे दहन ॥ ३४ प्राणीर आघात हेतु, अग्नि दुराशय । एaिये काहारओ नाहिक संशय ॥ आली हेतु, शीतनाशे, अग्नि प्रज्वालन । करिवेना कोन काले साधुरा कखन ॥३५ दुर्गतिवर्द्धक, अति हिंसा - दोष घोर । आचरि किरुप फल हइवे साधुर । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IT HAI अथ बुझि तार परिणाम साधु आजीबन । अग्नि प्रज्वालन-क्रिया करिबे वर्जन ||३६ तालवृन्त आदि द्वारा शरीरे व्यजन । बहु- पाप-दोषयुक्त, बहिर मतन ॥ बुझिया विशेषरूपे साधक सुजन । कभु ना करेन भ्रमे बायुर सेबन ॥ ३७ वृक्षशाखा हेलाइया, तालवृन्ते, पत्रे । व्यजन करेना साधु अभिप्राय मात्रे ॥ अपर जनेर सुखे साधुरा कखन । ना करेन धर्म्मत कहाके व्यजन ||३८ पाद प्रक्षालनकर गामछा, कम्बल । बस्त्र, पत्र, हय याहा साधुर सम्बल || 'उहा द्वारा व्यजनादि करेना कखन । राखेन यतने उहा शुधु तपोधन ॥४६ दुर्गति वर्द्धक अति हिंसा दोप घोर । आचरि किरुप फल हइवे साधुर ॥ 'बुझि तार परिणाम साधु आजीवन । 'वायु- सञ्चालनक्रिया करिवे बर्जन ॥४० त्रिविधकरण योगे संयत साधुरा । तपः समाहित, कायमनो बाक्यं द्वारा ॥ हिंसा ना करवे ' वनस्पति काये । करि उहारे रक्षा' मनप्राण दिये ॥४१ ९३ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वकालिक सूत्र। •** अर्थ षष्ठ अध्ययन। बणस्पतिकायगण-हिंसुक मानव । तद्राश्रित बहुविध दृश्यादृश्यसव ।। बहुविध त्रस-जीबदिगके सतत । हिंसा करे पापमति जगते सतत ॥४२ दुर्गति बर्द्धक, अति हिंसा दोष घोर । आचरि किरूप फल हइवे साधुर ।। बुझिम तार परिणाम साधु आजीवन । बनस्पति काये हिंसा करिवे वजन ।।४३ त्रिविध-करण-योगे संयत साधुरा । तपः समाहित-कायमनो वाक्य द्वारा॥ हिंसा ना करिबे कभु भ्रमे त्रस-काये । करिवे उहारे रक्षा मनप्राण दिये ॥४४ त्रस-काय जीवगण हिंसुक-मानव । तद्राश्रित बहुबिध घश्यादृश्य सब ।। वहुविध त्रसकाय दिगके सतत । हिंसा करे पापमति जगते नियत ।।४५ दुर्गति बर्द्धक, अति हिंसा दोष घोर । आचरि किरुप फल हइबे साधुर। बुझि तार परिणाम साधु आजीवन नस काय जीब हिंसा करिबे बजन । ४६ चारि प्रकारेर खाद्य, अभक्ष्य यतिर । बिरुद्ध सतत उहा आगम. विधिर ।। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र। अथ षष्ठ अध्ययन। तेयागिया पाप खाद्य सदा मुनिगण। संयम-धरम-पुण्य करिवे पालन ॥४७ ना लइवे वस्त्र, पात्र, खाद्य किंवास्थान । अकल्पित उक्त याहा कभु मतिमान् ॥ कल्पनीय याहा भवे साधुरा लइवे । योग्यायोग्य सवस्थले वुझिया देखिवे ।४८ नित्य आमन्त्रित पिण्ड, क्रीत वा आहत । श्रावक श्राविका द्वारा साधु जन्य कृत॥ एमन आहार्य करे ये अनुमोदन । स्थावरादि वधे तिनि द्रव्य साधु हन ।।४६ निमन्त्रित उद्देशिक क्रीत पानाहार । ग्रहणेर योग्य नहे करिया विचार ॥ महासत्त्व, धर्मजीवी, संयम-प्रधान । ना करि ग्रहण उहा करेन वजन ॥५० कांसार बाटी वा थाला, पात्रे वा मृण्मय । पानाहारे, सदाचार भ्रष्ट, साधु हय ॥५१ पोक्त भोजन पाने, करिया आहार। शीतल सचित्त जले करि परिष्कार ।। प्रक्षालन माजनेते वारिकाय हाय। . जीवन त्यजिछे कत संख्या करा दाय ।। गृहीर पात्रेते ताइ भोजने निरतजनेर, संयमहानि दृष्ट हय कतः॥५२ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ : -मालिक-सूत्र । अथ षष्ठ अध्ययन। आहार करिले पात्रे गृहीर कखन । परे गृही प्रक्षालने नाशे जीवगण.।। पुरः कर्म आहारेर प्रारम्भे सतत । पात्र.प्रक्षालने गृही नाशे जीव शत ।। एहेन दूषित कर्म घृणित . सवार। गृहि पाने साधुलोक करेना आहार ।।५३ आसन, पर्य्यक कुर्सी, गृहरथ-कल्पित । सिंहासन किम्वा मञ्च अति सुशोभित ॥ उल्लिखित द्रव्योपरि साधुरा कखनं । वसिवेना शुईवेना करिवे वर्जन ॥५४ तीथकर वाणी यारा पालने तत्पर । निर्गन्थ संयमी सदा सज्जन प्रबर।। आसन्दी पालक गदी वेतेर आसने। कभु ना वसिवे तारा सुखेर कारणे ॥५५ आसन्दी पर्यकं आदि आसन प्रचय । प्रकाश-रहित हय, जीवेर आश्रय ॥ उत्पीड़न घटे सदा बसिले आसने । क्षद्र क्षुद्र जीवदेर भवे सर्वक्षणे॥ बुमि मुनि दोष हेतु सिद्ध तपोधन । आसन्दी पालक आदि करेन वजन ॥५६ गृहस्थेर गृहे यदि वसे शुद्धाचार। मिथ्यात्व-अर्जने तार हय अनाचार ॥५७ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र | षष्ठ अध्ययनं । बसिले गृहस्थ - घरे कत अनाचार, । साधु भाग्येते घटे वर्णिव एवार ॥ वसुन एखाने एई आज्ञा भंग करि, ब्रह्मचर्यं सदाचार नाशे ब्रह्मचारी, निषिद्ध प्राणीर वध हेतु साधुजन । संयम हारान शुभ सदा सर्व्वक्षण | प्रतिकूल वार्तालापे क्रोध उपजय । गृहस्थेर घरे वसा कभु भाल नय ॥ ५८ इन्द्रियादि निरीक्षणे गृहस्थ भवने । काम भावे नाश पाय ब्रह्मचर्य्य मने ॥ उत्फुल्ल लोचन नारी करि दरशन । वहुभय, पतनेर, हय सर्व्वक्षण ॥ कुभाव वर्द्धनकारी स्थान अशोभन । दूर हते साधुवर करिवे वर्जन ॥५६ अभिभूत, जरा द्वारा वृद्ध साधुगण । व्याधि द्वारा समाक्रान्त तपः परायण ॥ पूर्वोक्त त्रिविधभावे हये समन्वित । afसवेन गृहिगृहे शास्त्रेर कल्पित || भिक्षाटने असमर्थ साधु शक्तिहीन । बसेन भिक्षार्थी लभि गृहस्थ भवन ||६० नीरोग रोगी वा साधु अभिलाषी स्थाने । हइबे आचारभ्रष्ट आचार विहने ॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ दश - कालिक सूत्र | षष्ठ अध्ययन | जलकाय जीव आदि-हिंसार कारण । संयमेर नाशे हय साधुर पतन ॥ ६१ सुपिर ओ पोली भूमि - स्थित नदी जले | द्वीन्द्रियादि सूक्ष्मजीव यथातथा चले ॥ स्नानकाले बहुजन जल आलोड़ने । चालित काहारे करे डूवाय काहारे ॥६२ जीवेर रक्षार हेतु व्रतपरायण । वर्जन करेन साधु स्नान आजीवन ॥ · शीतल उत्तप्त जले ना करिया स्नान । दारुण अस्नान व्रत करेन रक्षण ||६३ चन्दनादि कल्क लोघ्र कुंकुम केसर । नानाविध गन्धयुक्त द्रव्य वा अपर ॥ ना करि लेपन देहे ना करि मार्ज्जुन । साधु करे आमरण स्नानेर वर्जन ॥ ६४ केशेर मुण्डन सह मनेर मुण्डन । करि चिरतरे ये . वा. करे विहरण | दीर्घ केश नखयुक्त, विरत. मैथुने । एहेन साधुर शोभा कोन प्रयोजने. १. ६५ शारीरिक शोभा बृद्धि करिवार तरे । • दारुण अशुभ भिक्षु. करम आचरे ॥ पूर्वोक्त करम फले, बन्धनेर तरे । पवित. हते. भव दुस्तर सागरे ॥ ६६ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र। षष्ठ अध्ययन। तादृश भीपण कर्म-हेतुभूत हय । शरीरर शोभावृद्धि सकल समय । शारीरिक शोभा द्वारा यतिर अशेप । चित्र मालिन्य दोप हय समावेश ।। स्वकीय वा अपरेर रक्षक सुजन विभूपासेवाय, कभु नाहि रत हन ।। तीर्थकर पूर्वरूप धारणा करिया। दियाछन उपदेश प्रसन्न हइया ॥६७ संयम ओ सरलता-गुण विभूपित । . यथार्थ-तत्त्वते ज्ञानी साधक पूजित ।। अशान्त-आत्माके शान्त पवित्र करिया । निरमल भावनाय आसक्त थाकिया । पुराकृत पापचय करेन विनाश । नव पापा ने थाके नाहि अमिलाप ॥६८ प्रवल, मानव रिपु, क्रोध, दुर्निदार । वशीकृत, सुविजित हयेछे याहार ।। वन्ध हेतु, मोहकर-ममता असार । तेयागिया सदा यारा करेन विहार ।। धनधान्य आदि कत आछे नानाकारे। परिग्रह आभ्यन्तर वाह्य चराचरे।। विरत सतत यारा परिग्रह होते। आत्मार वन्धनमुक्त सतत करिते। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܘܘܸܐ दश-वकालिक-सूत्र । षष्ठ अध्ययन। इहलोक सुखप्रद - कुविद्या विहीन । परलोक हितकरी विद्याय प्रवीण ॥ षट्काय जीवेर सदा रक्षक याहारा । शारदीय चन्द तुल्य राजेन ताहारा॥ ताहादेर कर्मफल हय अवसान । सिद्धि मार्गे चले यान लमि देवयान ॥६६ तीर्थकर महापूज्य साधक याहारा । दियाछेन उपदेश हितार्थे ताहारा ।। स्मरि सेइ,उपदेश त्यजि स्वकल्पनां । बलितेछि पूर्व रूप करिओ धारणा ।। इति षण्ठ धर्मार्थकामाध्ययन समाप्त । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-चैकालिक-सूत्र । सप्तम अध्ययन । शब्दावधारणे आछे भाषा चतुर्विध । स्वरूप - निर्णये रत हवेन विबुध ।। सत्य-व्यवहारिकेर शुद्ध ये प्रयोग! उहातेइ करिवेन चित्तेर नियोग ।। असत्य, सर्व प्रकारे मिथ्या सत्ययुत। बलिवेना भापा द्वय नीति वहिर्भूत ।।१ भाषा याहा सत्य किन्तु, पीड़ाप्रदायिनी। अव्यक्तव्य याहा भवे अश्लीलरूपिणी ।। सत्य मिथ्यायुक्त भापा, पल्लीते कथित । मिया याहा शास्त्रमते हय अभिहित ॥ तीर्थङ्कर मते याहा व्यवहत नय। सेइ भाषा वलिवेना प्राज्ञ महोदय ॥२ ये भाषा मिश्रित नहे सत्य ओ मिथ्याय । पापहीन, सत्य याहा कोमल धराय ।। प्रशस्त सुमिष्ट सेइ भाषा चमत्कार। .. असन्दिग्ध वलिवेन साधक उदार ॥३ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ दश-वैकालिक सूत्र | सप्तम अध्ययन | ककश वा पापपूर्ण सदा - कालव्यापी । मोक्ष - प्रतिकूल याहा सत्य ओ यद्यपि ॥ एहेन भाषाय उक्ति नीति. वहिर्भूत । कभु ना करिव धीर जैन - धर्मरत ॥४ आसितेछे एइ नारी गाहिछे सङ्गीत । तथामूर्त्ति भाषा रूपे हयेछे वर्णित ॥ तथामूर्त्ति भाषा किम्वा नहे तथ्यमय । वाक्य ये वा वले सेइ पापयुक्त हय ।। मिथ्या वाक्यं वला सदा अभ्यास याहार । तार कथा सुधी माझे कि बलिव आर ॥५ तथामूर्त्ति भांपा हय किन्तु सत्ययुत । पापेर कारण हय तथ्य - विरहित ॥ प्रान्त उहार निम्ने वर्णिव एक्षणे । मम्मार्थ बुझिने तार साधु निज ज्ञाने ॥ "संसारेर वहुविध विघ्नेर कारणे । याइव आगामी कल्य वलित्र सेवाने ॥ अवश्य हवे. कृत कार्य्यं टि आमार । कल्य वा करिव आमि समाप्ति इहार ॥ एंs साधु सेवारत धर्मपरायण 1 करिवे अवश्य सेवा आमार एखन" ॥६ भविष्यते शङ्कायुक्त, ये भाषा कथने । किम्वा भीतिप्रदा याहा, भूत वर्त्तमाने ॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र। १०३ सप्तम अध्ययन। तेयागिया सेइ भापा धीर साधुवर। वलिवेन शुद्ध भाषा साधनातत्पर ।।५ अज्ञात त्रिकाले अर्थ आछे ये भापार । विचारिया ज्ञात नहे किम्वा तत्त्व तार ।। "निश्चित एरूप उहा" प्रकाशि गौरवे । अङ्गीकार करि उहा कभु ना बलिवे ।।८ शङ्का यदि हय, भापा कखन वलिते । भव्य वर्तमान काले अथवा अतीते ।। "एरूप हइवे भापा" अङ्गीकार करि । कभु ना वलिवे साधु भावार्थ विरमरि ।।६ भव्य वर्तमान काले अथवा अतीते । त्रिकालेइ शङ्काशून्य ये भापा वलिते॥ "एइल्प एइभापा" निर्भये वलिवे। कोनरूप दोपे साधु लिप्त ना हइवे ॥१० ये भापा आघात देय पञ्चमहाभूते । निष्ठुर अत्यन्त याहा असह्य जगते ॥ यदिओ से भापा नरे, सत्य वलि कय । वलिवेना सेइ भापा साधु महोदय ॥११ कानाके साधक कभु वलिवे ना काना.। छिन्न मुन्के क्लीव नामे कभु वलिवेना ।। व्याधित जनेरे साधु वलिवे ना रोगी। चौर्य कार्ये रत जने वलिवे ना दागी ॥१२ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दग-वकालिक सूत्र। सप्तम अध्ययन । इहा भिन्न अन्य अर्थ भापा व्यवहारे। यदि वा काहार मन महित करे।। आचार ओ भावदोप-तत्त्वज्ञ सुयति । वलिवेना सेइ भाषा अति शुद्धमति ॥१३ मुर्खके हालिक किम्वा जारजके गोल। दुर्भग, कुकुर, नामे अथवा छीनाल ।। डाकिवेना साधु कभु सत्स्त्रतपण। याहाते आधात मने पाय नरगण ॥१४ बलिवे ना साधु कभु अवाच्य वचन । हे आर्थिक हे प्रार्थिक करि सम्बोधन ।। पिषिमा मासिमा, अम्ब दुहितः कखन । पुत्र पौत्री भागिनेयी करि उचारण ॥१५ हले हले अन्ये भड़े वसुले स्वामिनि । हे होले अधधा गोले अथवा गोमिनि ।। साधुजन ना करिवे उक्त सम्बोधन आवासे पथेते सदा नेहारि स्त्रीजन ॥१६ ज्ञ्चारि बीलोक-नाम साधुरा कहिये। देवदत्त धर्मत्रते वलि सम्बोधिवे॥ विस्मरि प्रकृत नाम गोत्र उल्लिखिवे। प्रशस्य काश्यप गोत्रे इत्यादि वलिवे॥ गुण दोष विचारिया वयस जातिर। आधिपत्य धनेश्वर्य वस्तु प्रभृतिर ॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र। सप्तम अध्ययन । धर्मशीले धनवते करि सम्बोधन । आलाप करिवे साधु यति तपोधन ॥१७ डाकिवेना पितादिके बलिया आर्यक । 'प्रपितामहादि के वा कखन प्रार्य्यक ।। पितृव्य मातुल पुत्र पौत्र भागिनेय । बाप सम्बोधन सदा साधु-वर्जनीय ॥१८ हे भो भर्त, अन्य, गोमिन, हल सम्बोधिया । स्वामिन् वसुल, वा होल गोल उच्चारिया।। पुरुपेर सह साधु सत्यपरायण । करिवे ना कोन स्थाने कभु आलापन ॥१६ यथायोग्य देश काल गुणादि बुझिया । नाम वा गोर नाम उल्लेख करिया ॥ साधु स्वीय प्रयोजने आलाप करिवे। एकवार बहुवार दोप नाहि हवे ॥२० दूर देशे अवस्थित पञ्चन्द्रिय प्राणी। स्त्री पुरुष धुमिवारे अक्षम ये मुनि॥ पथे कदा कहिवारे हले प्रयोजन । ए हय अमुक जाति बलिबे तखन ॥२१ पशु, पक्षी, सरीसृप किम्बा नरगण । हेरि मुनि वलिवेना निम्नोक्त वचन ॥ नाशयोग्य एइ प्राणी किम्बा स्थूलकाय । मेदयुक्त एइजीव कालप्राप्त प्राय ॥२२ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दवावकालिका-सूत्र । सप्तम अध्ययन । हेरि स्थुल मनूष्यादि पथे वा भवने । वलिचे साधकवर निम्नोक्त वचने ।। मांसल एजीव: इनि प्रफुल्ल हृदय । इनि हन स्युल देह इनि महाकाय ॥२३ दोहनेर योग्या गाभी एरा दमनीया। रथेर वाहन चोग्य वलद् बलिया। कारकाछे भ्रमक्रमे यखन तखन । आलापन ना करिवे कभु साधुजन ॥२४ धेनुके रसदा नामे साधुरा डाकिये। दसनीय वृपगणे युवक कहिवे॥ नेहारि वलद छोट हस्व नाम दिवे । किम्वा महल्लक नामे वड़के डाकिये। वडवलीवई साघु पथते हेरिया । डाकिने ताहाके निम्न नाम उच्चारिया। रथेरे वाहन योग्य सकल समय । एजीव संवहनीय नाहिक संशय ।।२५ . वलिवेना साधुजन प्रवेशि ञ्चाने । ज्यान इहार नाम काहार सदने ।। पर्वते उठिया साघु इहारा भूधर । वलिवेना कभु भ्रमे साधक प्रवर ।।. नेहारि प्रकाण्ड वृक्ष अति ऊर्ध्वगति! अति बड़े एइ वृक्ष वलिवेना यति ॥२६ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र i सप्तम अध्ययन । प्रासाद तोरण स्तम्भ परिघा अर्गल । अरहट्ट याहा द्वारा तुले कत जल ॥ तरणी प्रभृति सृष्टियोग्य एइ वृक्ष । बलिवेना कखनओ साधक सुदक्ष ||२७ काष्ठासन काष्ठपात्र हाल वा मयिका । वलद् शकट तुम्व घानी वा गण्डिका ॥ ये वृक्षे प्रस्तुत हय तादेरे कखन । वलिवेना नाम कभु साधक सुजन ॥२८ रथादि, पर्यङ्क आदि, कपाट आसन । गृहद्वार येइ वृक्षे हइवे गठन ॥ जीवेर नाशक भाषा सेइ वृक्ष नामे । कभु ना चलिये साधु कखनओ भ्रमे ॥२६ उद्यान पर्व्वत किम्बा वन तरुवर | दर्शन करिया साधु गमन तत्पर ॥ किरूप भापाय प्राज्ञ तादेरे वलिवे । निम्ने ताहा वलितेछि अवश्य शुनिवे ||३० जातिमन्त दीर्घवृन्त सुन्दर दर्शन । महालय शाखायुक्त, एइ तरूगण ॥ प्रशाखा - विशिष्ट हय एइ वृक्षराशि । वलवे साधकवर स्वभाव प्रकाशि ॥३१ पक्क हेरि आम्र फल - आदि, कोनस्थाने । पक्क इहा पाकभक्ष्य वलिवेना जने ॥ . · २०७ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૮ दश-वैका लिक-सूत्र |. सप्तम अध्ययन | काटिवार योग्य इहा पक्क मध्यभाग । कोमलता युक्त इहा हवे दुइभागं ॥ एइरूप कथा साधु कभु ना वलिवे। अहिंसा पालने सदा सतर्क थाकिवे ||३२ असमर्थ आम्र वृक्ष फलेर धारणे । इहारा अनेक फल धरे क्षणे ॥ ग्रहणेर कालयोग्यं फल धरे एरा । सुकोमल फल धरि रहेछे इहारा ॥ पथे साधु पूर्व्वरूप नेहारि पथिके ! पथ परिचय सूत्रे वलिवे ताहाके ॥ ३३ शाल्यादि ओषध पक्क, नील ए शवय । काटन रोपण योग्य धान्यादि निचय । भाजिवार योग्य इहा वालभक्ष्य हय । वलिवेना उक्तरुपे साधु सहृदय || ३४ पथ प्रदर्शन आदि कार्य्ये साधुगण । निम्नरुपे वलिवेक अति विचक्षण ।। प्रादुर्भूत हइयाछे हेया कत धान । निष्पादनप्राय इहा कर प्रणिधान || आरओ रहेछ कत निष्पन्न निर्गत | निर्वात शीर्षक इहा किम्वा विपरीत ।। सात तण्डुल आदिसार एइस्थाने । रहिया वलिवेक पर भाषणे ॥ ३५ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देश - वैकालिक सूत्र | सप्तम अध्ययन । "संखड़ी नामक क्रिया पितृदेव तरे । करिते इच्छुक आमि" वलिवेना कारे ॥ चौरके वधेर योग्य साधु वलिवे ना । दुस्तर सुतर नदी कभु कहिवेना ॥ ३६ संखड़ीके वलिषेक संकीर्णा संखड़ी । चौरके वलिवे साधु प्राण रक्षाकारी ॥ प्रयोजने हये पृष्ट नदीर विषय । afe नदी तीर्थ समतल - मय ॥३७ साधुदेर वर्जनीय धराय सतत । प्रवर्तन निवर्त्तन आदि दोप यत ॥ नेहारि तटिनी कभु साधु तपोधन । वलिवेना नदी पूर्णा भ्रमेओ कवन ॥ सन्तरण योग्या नदी अथवा नदीर | जल पेय, बलिवेना तटस्थ प्राणीर ||३८ वलिये सलिलराशि नेहारि नदीर । जलपूर्णा नदी एइ अगाध गम्भीर ॥ अतिशय वेगशील इहार उदक । विस्तृत रहेछ जल, स्वस्वार्थे साधक ||३६ परेर निमित्त कृत किम्वा क्रियमाण | पापयुत कार्य जानि भावी वर्त्तमान || उहार सम्बन्धे कभु काहारे कखन | 'पापवाक्ये वलिवे ना साधु तपोधन ॥४० १०९ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वश-धकालिक-सूत्र । सप्तम अध्ययन। निम्नरुपे कथाच्छले काहाके कखन। . वलिवेना निम्नरूप सावध वचन ॥ सभादि सुन्दर रूपे सम्पन्न हयछे। पाकादिते भालपाक पाचक करेछे । वनादि सुन्दर भावे हयेछे कर्तित । कृपणेर धन वेश हइयाछे हृत ।।. सुन्दर भावते तारा सेखाने आहवे । प्राणत्याग करियाछे निजेर गौरवे ॥ असावाद्य वाक्य यदि वले साधुगण । हइवेना कोन दोप शास्त्रेर वचन ॥ निम्नरुपे यदि साधु कभु कथा वले। असावध भाषा वलि बुझिवे सकले ।। "साध सेवा भालरुपे हयछे हेथाय। ब्रह्मचर्ये परिपक्क ए साधु धराय ॥ • स्नेहेर वन्धन साधु करेछे छेदन । : उपसर्ग दूरीकृत होछे एखन ।। पण्डितेर हइयाछे अध सुमरण । असावाद्य रूपे गण्य पूर्वोक्त वचन" ।। ४१ निषेधेर अपवाद हइवे एखाने । अभिहित साधुदेर चेतना कारणे ।। रोगिजन्य पक्क याहा, प्रयत्न लइया । .. पफ्क इहा बलिवेना साधुरा वुझिया ॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक सूब १११ सप्तम अध्ययन। कर्तित व्रणादि हेरि प्रयत्न सहित । छिन्न किम्वा शुधु छिन्न हइवे कथित ।। सुन्दरी कन्यका हेरि साधुरा वलिवे । दीक्षिता सुकन्या एइ पालनीया हवे ।। कृत कर्म हेरि साधु वलिवे तखन । कमहेतु एइ कार्य हयछे एमन ।। शरीरे काहार हेरि प्रहार दारूण । प्रगाढ़ प्रहार किम्वा गाढ़ साधु कन ॥४२ अन्तराय आदि दोप-प्रसंग-कारणे । निम्नरुपे वलिवे ना साधुरा कथने । स्वभावतः मनोरम इहा दृष्टिकोणे। बहुमूल्ये क्रीत इहा अतुल भुवने ॥ सर्वत्र सुलभ इहा बहुगुण युत। प्रीतिकर नहे इहा लोकेर वाच्छित ।।४३ "वलिव सकल कथा एखन उहाके । वल सव कथा तुमि एखाने आमाके” । वलिवेना एइरुप येहेतु कखन । करिते पारेना केह स्पष्ट उच्चारण ॥ स्वर व्यञ्जनादि योगे वक्तव्य विपय । धराधामे काहारओ वला साध्य नय ।। सेइजन्य प्राज्ञ कथा वुझिया देखिवे । . मृपावादादि सावध अवश्य त्यजिवे ॥४४ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ . दश वैकालिक-सूत्र। सप्तम अध्ययन । प्रीतिकर नहे किन्तु याहा दोपयुत । ना ह्य कथने उहा साधुर उचित ।। वलिवेना निम्नरुपे साधु तपोधन | स्मरिरेक सदा सत्य आगमवचन ।। "सुविक्रीत वा सुक्रीत क्रय वा अक्रय। एइ पण्य सकलेर एवे ग्रहणीय ।। समान थाकिवे मूल्य किनिले इहार । त्यागकरा सेइ हेतु मङ्गल तोमार ||४५ पण्य वस्तु क्रय काले अथवा विक्रये। इहा कि अल्प वा वहु मूल्य पृष्ट ये॥ वलिवे साधक एइ विपये आमार। वलिवारे कोनकथा नाहि अधिकार ।।४६ प्रज्ञाशील साधु क्रमु असंयत जने। वलिवेना निम्नरूपे कखन भाषणे ॥ "एइ स्थाने कर तुमि समुपवेशन । एइ स्थाने एस, हेया थाकिओ एखन । सञ्चयादि कर हओ निद्रार्थे शायित । ग्रामे याओ उपरेते हओ अवस्थित" ॥४७ विश्वमाझे आछे बहु घृणित असाधु । किन्तु तारा अभिहित हय वलि साधु ।। असाधुके साधुजन साधु ना बलिवे । साधुके सतत यति साधुइ कहिवे ।।४८ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • दश-वैकालिक-सूत्र । सप्तम अध्ययन । | ज्ञान दर्शन सम्पन्न सतत संयमी । तपस्याय रत सदा मोक्षपथगामी ॥ एहेन साधुके सर्व्व-साधक सुजन । साधु वलि डाकिवेन शास्त्रेर वचन ॥४६ देवतार मनुष्येर तिर्य्यक् जातिर । । संग्राम नेहारि साधु संयत सुधीर ॥ बलिवेना अमुकेर हउक विजय । अमुकेर ना हउक संग्रामेते जय ||५० अधिकरणादि दोप - हेतु साधुवर । धर्म्म द्वारा अभिभूत हुये कलेवर || कखनओ बलिवेना निम्नोक्त वचन । दोपेर कारण सब करिया चिन्तन | " मलय मारुत आदि, हइवे वर्पण | शीतोष्ण, कुशलराज्ये, सुभिक्ष एखन ॥ कखन वातादि हवे हवेना कखन । उपसर्ग याहा छिल हयेछे दमन" ॥५१ मिथ्यावाद - लाघवादि दोपेते मातिया । मेघ नभः मानवादि आश्रय करिया || बलिवेना मनुष्यके देव देव कथा | · दोप समाविष्ट ताहा छाड़िवे सर्व्वथा ॥ किरूपे बलिवे मेघ ऊर्ध्वस्थित हेरि । वलितेछि शुन साधु दोष परिहरि ॥ ११३ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ दश-वकालिक-सूत्र। सप्तम अध्ययन। "उन्नत पयोद उहा ऊर्ध्व अवस्थित । मेघराशि एइक्षणे हइवे वर्पित ॥५२ आकाशके अन्तरिक्ष, सुरेर सेवित । वलिवेक धनिजने तारा ऋद्धियुत ।।५३ सावद्या ये भाषा किम्वा या अनुमोदिनी। निश्चय कारिणी याहा परोपघातिनी ।। वलिवेना सेइ भाषा किम्बा हास्यकथा । क्रोध लोभ भये कभु मानव सर्वथा ॥५४ स्ववाक्य-विशुद्धि किम्वा सवाक्येर शुद्धि । बुझिया लइवे साधु विक्राशि स्वबुद्धि । दोपेर आकार याहा सेरूप कखन । सतत संयत मुनि करेन वर्जन ॥ परिमित दोपहीन संयत वचन । वलि हय साधु मध्ये प्रशंसाभाजन ॥५५ दोष गुण विचारज्ञ दुष्ट भाषा त्यागी। पटकाय प्राणीते नित्य संयमानुरागी॥ श्रमण भावेते ह'ये यतनतत्पर । हितमनोहारी वाक्य वले साधुवर । ५६ सुसमाहितेन्द्रिय, ये परीक्षित भाषी। प्रगतं, कपाय चारि, याहार, मनीपी ।। द्रव्याभाव-द्वय-मुक्त, पुर्वपाप त्यागी। इहलोक परलोक पुजे मोक्षरागी ।।५७ . Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक सूत्र | सप्तम अध्ययन | तीर्थकर महापूज्य साधक याहारा । दियाछेन उपदेश हितार्थे ताहारा ॥ स्मरि सेइ उपदेश त्यजि स्वकल्पना । वलितेहि पूर्व्वरूप करिओ धारणा ॥ इति सप्तम वाक्य शुद्धयध्ययन समाप्त | ११५ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र। अथ अष्टम अध्ययन । आचारे प्रकृत निष्ठा लभि साधुजन । भिक्षुर कर्तव्य याहा करिव पालन ।। आपनादिगके आमि उहाइ कहिव । हप्रान्त सहित उहा प्रकाश करिव ।। शिष्यवर्ग गोतमादि वलेन एखन ।। उहा क्रमे आमा हते करूण श्रवण ।। पृथिवी उदक अग्नि वायु वनस्पति । सवीज प्रभृति, बस आछे नानाकृति ।। महर्पि वर्णित उहा आगम कथित । इहा हय वर्द्धमान मुखे उच्चारित ॥२ साधुजन षड्जीवेर हितेर लागिया। अहिंसक हवे, कायमनोवाफ्य दिया ।। अहिंसाय वर्तमान ये साधु प्रवर । संयमी हयेन तिनि तपस्यातत्पर। ३ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-कालिक-सूत्र । अष्टम अध्ययन । त्रिविध करण किम्वा त्रिविधयोगेते । विशुद्ध संयत मुनि तत्पर ध्यानेते ।। मृत्तिका इटेर खण्ड भित्ति शिलातीर। भेदन धर्पण कभु करिवेना धीर । ४ वसिवेना साधुजन सजीव माटीते। अथवा सचित्तधलि-पुर्ण आसनेते ।। भूस्वामीर अभिमत साधक लइवे । यतने मार्जित करि आसने वसिवे ॥५ करिवेना पान साधु सलिल, .संयत । सचित्त उदकहिम-शिला-वृष्टिजात ॥ . त्रिदण्ड उद्वत जल किम्वा उष्णोदक । लइवेन जीवहीन अहिंसा साधक ॥ ६ भिक्षाकाले वृष्टिपाते भिजिले शरीर । वस्त्रादि वा हस्त द्वारा मुलिवेना नीरः।। निरखि स्वकीय देह जलसिक्तमय । करिवेना कभु स्पर्श साधु सहृदय ।। ७ लौह पिण्ड युक्त अग्नि, अगार प्रभृति । काष्ठेर अग्रस्थ वहि अर्चिवा सज्योति ।। करिवेना साधूजन उहा निर्वापण । उत्तजन संवट्टन अथवा कखन।८ तालवृन्त किम्बा पाखा लइया साधुरा । । अथवा पारे पत्रवृक्षशाखा द्वारा।। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ दा-वकालिक सूत्र । अष्टम अध्ययन। व्यजन करे ना साधु आपन शरीरे। वाह्य वा पुद्गले, कभु सुख लाभ तरे 18 कदम्बादि वृक्ष आर दर्भ आदि तृण । काटिवेना छिडिवेना फलादि कखन ।। शस्त्राधात-शून्य वीज साधु तपोधन । ना चाहिवे मने मने भ्रमेअ कखन ।। १० वननिकुञ्ज - मध्ये साधु दूर्वादिते । प्रसारित शाल्यादिर उत्पन्नवीजते । अनन्त शरीर धारि-सचित्त सलिले। वसिवेना काइमध्ये तृणाग्रस्थ जले ॥ ११. वाक्ये कार्ये साधुवर सप्राणिगणे । वर्जन करिवे हिंसा सदा प्रयतने । कमांधीना एइ पृथ्वी सकलेइ कय। भाविले अवश्य हवे वैराग्य उदय ।। १२ नेहारिया वक्ष्यमाण अष्ट सूक्ष्म प्राणी। • सतर्के वसिवे शुवे दाँडाइवे मुनि ।। प्रत्याख्यान परिज्ञा वा ज्ञपरिज्ञा वले। अष्टसूक्ष्मभावगति समस्त बुझिवे ॥ सर्वभूते साधुगण दयाशील हन । इहाते नाहिक कारो संशय कखन ॥१३ दया-परवशे साधु जिज्ञासा करिवे। कि कि हय अष्ट सूक्ष्म प्राणी एइ भवे ॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र । ११९ अष्टम अध्ययन। मेघावी ओ विचक्षण वलिवे तखन । अष्ट सूक्ष्म कि कि प्राणी करिया वर्णन ॥१४ स्नेह सूक्ष्म पुष्पसूक्ष्म, प्राणि-सूक्ष्म त्रय । उत्तिङ्ग पणक सूक्ष्म, वीज सूक्ष्म छय ।। सप्तम हरितसूक्ष्म अष्ट अण्ड हय । उक्त अष्टसूक्ष्म साधु करेन निश्चय ॥१५ अष्टविध सूक्ष्म ज्ञान लमि साधुजन । सर्वभावे सुसम्मत अप्रमत्त मन ॥ सर्वेन्द्रिय समाहित करि तपोधन । काय मनोवास्ये जीव करेन रक्षण ॥१६ शेषौपधि, कालभूमि, शय्या काष्टासन । अथवा उच्चार भूमि तृणमय स्थान ॥ सचित्त अचित्त कि ना परीक्षा करिते। भाल रूपे देखिवेक साधु शुद्ध चिते ॥१७ विष्ठा मूत्र नाकमल देहमल - चय। निर्जीव भूमिते साधु फेलिवे निर्भय ।।१८ पर गृहे प्रवेशिया साधु शुद्धज्ञान । पान वा भोजन हेतु करि अवस्थान ।। गवाक्षादि ताकाइया कभु ना देखिने । प्रयोजने परिमित सुवात्य बलिवे ।। दिवेना आपन मन चिर साधुवर । काहार सुन्दर अति रूपेर ऊपर ।।११ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र। अष्टम अध्ययन करि भालमन्द कथा सतत श्रवण । पहु कार्य विश्वमा हेरि भिक्षु जन ।। विनकारी, दृष्ट श्रुत सेसव विषय । वलिवेना कार काछे संयत-हृदय ।।२० साधकेर श्रुत गोचर विपय । वलिवेना कार काछे साधु महोदय ।। उपधातकारी हय “से चौर इत्यादि। गृहि योग बालक्रीड़ा, गृहरक्षा आदि। उपरोक्त उभयेर करिवे वर्जन । ना करिवं गृहस्थर सम्बन्ध रक्षण ||२१ सर्वगुण युक्त खाद्य इहा चमत्कार। पापयुक्त एइ खाद्य अति कदाहार ।। पृष्ठ वा अपृष्ट हये स्वयं साधक। बलिवेना भालमन्द पापेर जनक ॥२२ साधक लोलुप लाभे उत्तम भोजन । करिवेना, धनिगृहे - भिक्षार्थे गमन ॥ भालमन्द ना भाविया ज्ञात वा अज्ञात । परगृहे याइवेन साधक संयत॥ औद्देशिक क्रीत खाद्य सचित्त आहृत । ' लइवेना साधुवर हइया आहूत ।।२३ . पद्मिनी पत्रेते जल यथा वद्ध नय, पद्मपत्रे स्थित हये सकल समय ; Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देश - वैकालिक सूत्र | • अष्टम अध्ययन । गृहि संगे तथा हय सम्बन्ध अस्थिर । राखे ना साधकवर सम्बन्ध गभीर || अणुमात्र वस्तु कभु उन्नत - हृदय । निजेर हितेर लागि करेना सञ्चय ॥ चराचर संरक्षणे साधक सुजन । जितेन्द्रिय संयमेते प्रतिवद्ध हन ॥२४ विपाक प्रतिपादक, क्रोधेर सतत । - वीतराग वाक्य शुनि साधुरा संयत ॥ रुक्ष्मवृत्ति परितुष्ट अल्पाहारी हवे | कदापिओ कार प्रति क्रोध ना करिवे ॥ २५ श्रुति सुखप्रद शब्दे वेनु वीणादिर | करिवेना प्रेमराग साधक सुधीर ॥ दारुण कर्कश स्पर्श शरीर उपरे । पड़िले सहिवे ताहा साधु अकातरे ॥ २६ क्षुधा वा पिपासा साधु शीतोष्ण अरति विपम कर्कश शय्या नानाविध भीति ॥ अव्यथित फुलमने अवश्य सहिवे । देहे दुःख महाफल स्मरण करिवे ॥ २७ अस्तमित दिवाकरे प्रभात पूरवे । मओ आहार्य वस्तु साधु ना चाहिवे । 'वलिवेना कोन कथा अलाभे भिक्षार । अल्पभाषी अल्पभोजी साधु शुद्धाचार । १२१ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ • दश-वकालिक-सूत्र | अष्टम अध्ययन । स्थिर साधु आहारेते येकोन प्रकार । तृप्ति वोध करिवेक हइया उदार ॥ अल्प लाभे भिक्षास्थले येये साधुजन । निन्दिवेना देय किम्वा दाताके कखन ||२६ करिवेना निन्दा साधु कभु अपरेर । तेयागिवे चिरतरे प्रशंसा निर्जर || शक्तिशाली आमि विज्ञ प्रवीण पण्डित | एइरूप श्रुतज्ञाने हवेना गव्वित ॥ उच्च जाति तीक्ष्णबुद्धि आमि तपोरत । करिवेना एइरूप गर्व्व समाहित ॥३० राग ओ द्वेपेर साधु हये वशीभूत । ज्ञातसारे अज्ञाने वा यदि पाप़रत ॥ मूल ओ उत्तरगुण विराधना ह'ले । घटित्रे अनर्थ बहु अवश्य बुमिले || अधार्मिक पद त्यजि साधक प्रवर । आत्मसंवरणे साधु हइवे तत्पर । ३१ सर्व्वा प्रकटभाव, निर्मल हृदय | जितेन्द्रिय असंसक्त साधु महोदय || सावद्य योगज, करि, घृण्य. अनाचार । . मुरुर निकटे करे प्रकाश उहार ॥ किमात्र उहा हते ना करे गोपनं । कोनरूप अपलाप करे ना कखन ||३२ · Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक सूत्र | अष्टम अध्ययन | करिवेना व्यर्थ श्रेष्ठ आचार्य वचन । विनीत साधक कभु भ्रमेओ कखन || गुरुवाय यथारीति करिया श्रवणं । करिवे वचनकर्मे उहार पालन ||३३ जीवन अनित्य भवे, ज्ञानादि विपय । साधुर सिद्धिर पथ, करिवे निश्चय ॥ शतवर्ष आयु साधु केवल पाइवे । बुझि इहा भोगहते निवृत्त हइवे ||३४ मानसिक वल और दैहिक दृढ़ता। क्षेत्रकाल विचारिया श्रद्धा नीरोगता || आत्माके संयम मार्गे नियुक्त करिवे । साधुर कामना सिद्धि अवश्य घटिवे ||३५ यत दिन व्यापि जरा ना करे पीड़ित । यत कालावधि व्याधि नाहय वर्द्धित || क्षीण शक्ति नाहि हय इन्द्रिय समूह | धर्म्म आचरिव साधु त्यति मायामोह ||३६ क्रोध मान माया लोभ एइ दोप चारि । सर्व्वदाइ मानवर अंति पांपकारी ॥ समाहित आत्महिते पापेर वर्धक । त्यजिवे चारिटि दोप संयत साधक ॥३७ क्रोध प्रीति नाश करे, विनयघ्न मान । 'मित्र हन्त्री माया, लोभ सर्व्व विनाशन ॥ ३८ १२३ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ दश-वैकालिक-सूत्र 1 अष्टम अध्ययन | क्षान्ति द्वारा, क्रोध रिपू विनाश करिवे । मार्दव, प्रकाशि मान, स्ववशे अनिवे ॥ सरलता - भावद्वारा मायाके जितिने । लोभके सन्तोप द्वारा आयते आनिवे ||३६ असंयत क्रोध मान दुर्द्वार जगते । वर्द्धमान माया लोभ आछे सकलेते ॥ चारिटि कपाय नामे उहारा कथित । क्लेशकारी मनुष्येर अधर्म्म जड़ित । पुनर्जन्म-रूपतरु - मूल सिव हाय । कुभाव सलिल द्वारा सतत कपाय ॥ ४० विनयादि गुणयुक्त-साधक सुजते । चिर-सुदीक्षित-साधु तुपिवे पूजने ॥ ना छाड़िवे साधु शील, आठार हाजार । तपोरत साधुजन भूपण धरार ॥ स्वीय अङ्गोपाङ्ग, साधु कछप मतन । सुरक्षित करिवारे करिवे यतन ॥ परम धरम कार्य तपस्या संयम । ताहाते देखावे. साधु अति पराक्रम ॥४१ करेन निद्राके साधु अति अनादर । अट्टहास परिहारे हयेन तत्पर ॥ अनृत भाषण होते हयेन विरत । थाकेन. साधक. सदा स्वाध्यायेते रत ||४२ · · Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वकालिक-सूत्र । १२५ अष्टम अध्ययन । अनलस साधुजन क्षान्ति आदि कत । श्रमण-धरमे सदा थाकेन संयुत ।। श्रामण्य-धर्मेते युक्त हयेन यखन । लभेन तखन साधु श्रेष्ठ ज्ञान धन ।।४३ इहलोक परलोक हितेर जनक । ज्ञानादि लभेन यिनि सुगति कारक ।। यतने सेवेन यिनि अति फुल्लमने । आगम - प्रवीण वृद्ध वहुदर्शी जने। सेइ साधु तपोरत उदार - हृदय । गुरु काछे जिज्ञासेन अर्थ विनिश्चय ।।४४ सुसंयुत करि साधु हस्त पाद काय । परम दुरिन्द्रिय करिया विजय ।। गुरुर आदेश लये संयत साधक । वसिवेन गुरु काछे विनय पूळक ॥४५ वन्दनादि असुविधा हेतु साधुजन । वसिवेना गुरु पार्श्वे पृष्टे वा कखन । गुरूर सम्मुखे साधु. ऊरुर उपर । राखिवे ना अन्य ऊरु साधक प्रवर । ४६ वलिवे.ना, साधु, कथा पृष्ट ना हइले । कहिवेना कोन कथा कथनेर काले । करिवना परोक्षेते दोपेर कीर्तन । वलिवेना सकपद अनृत वचन ।।४७ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वकालिक-सूत्र। अष्टम अध्ययन। अप्रीतिजनक याहा, क्रोधेर कारक । उभयेर विरोधिनी अहित जनक ।। ताश भापाय वला निषिद्ध शास्त्रेर । वलिवेना उक्त भाषा आकर दोपेर ॥४८ छ, अल्प परिमित, सन्देह रहित । स्वरादिते पूर्ण याहा साधु प्रकटित ।। अनुब अनीच स्वरे .याहा उच्चारित । उद्वग रहित, याहा सदा परिचित ।। सेइ रुप भाषा सदा सचेतन मुनि । बलिवेन सविनये मङ्गलदायिनी 1188 स्त्रीलिङ्गादि ज्ञाने पटु आचार धारक । प्रकृति प्रत्यय आदि प्रयोग-कारक ।। यदि करे कथा छले वाक्येर स्खलन । उपहास ना करिये ताहारे कखन ॥५० यात्राकाले शुभाशुभ नक्षत्रर नाम । स्वप्नजात भालमन्द किवा परिणाम ) वशीकरणादि योग मंत्रादि औषध । वलिवेना गृहि पृष्ठ साधक सुवोध ॥५५ प्रस्रवन आदि युक्त शुद्ध वासस्थान । परं हेतु सुनिर्मित प्रकृत · भवन ॥ : पर द्वारा व्यवहृत शय्या आसनादि। स्त्री पशु वर्जित स्थान प्रयोजन यदि।। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश- वैकालिक सूत्र | अष्टम अध्ययन । व्यवहारे नाहि दोष जानिवे सर्वथा । महावीर उक्त इहा आगमेर कथा ॥५२ शय्या आसनादि याहा हय प्रयोजन । जनशून्य स्थाने साधु करिव स्थापन | वलिवेना तथा था कि नारीर विषय । करिवेना गृहस्थर साथै परिचय ॥ साधु सङ्ग े सदा करि साधु- परिचय | निर्दोष आलापे साधु काटावे समय ॥ ५३ कुक्कुट - शिशुर भय विड़ाल हइते | से हेतु भीतं शिशु थाके दिवाराते ॥ ब्रह्मचारी सेइरूप नारीर शरीर । इहाते प्रभीत हन साधक - सुधीर ॥५४ चित्रयुक्त भित्ति किम्बा स्वलंकृता नारी । कभु ना देखिने साधु संयम पासरि ॥ यथा दृष्टि त्यजे जन शीघ्र सूर्य हेरि । दर्शने विरत तथा साधु हेरि नारी ॥५५ हस्थपाद ये नारीर हये कर्त्तित । कर्ण ओ नासिका हते यिनि विवर्जित || शत वपं वयःक्रम अतिवृद्धा नारी । कभु ना हेरि ताके यति ब्रह्मचारी ! युवती नारीर कंथा कि बलिव आरं । दर्शने अनिष्ट हवे जानिवे उहार ॥५६ १२७ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ दश-वैकालिक-सूत्र । अष्टम अध्ययन । नारीर संसर्ग आरं सरस भोजन। . नख केश प्रभृतिर सत्कार साधन । तालपुट - विपतुल्य बुझि साधुजन । पूर्वोक्त कुकर्म मुनि करिव वजन ।।५७ . शिरः नयनादि अङ्ग प्रत्यक्ष विन्यास। मधुर वचने स्त्रीर कटाक्ष विकाश ।। कभुना हेरिवे उहा यति ब्रह्मचारी। बुझि उहा कामं राग प्रवर्द्धनकारी ॥५८ शब्द रूप रस गन्ध-स्पर्श, गुणान्वित । पुद्गल समूह हय अनित्य कथित ।। परिणाम बुझि साधु मनोज्ञ विपये। करिवेना प्रेमराग, समासक्त हये ॥५६ पुद्गलेर परिणाम विविध प्रकार | शब्दादि विपये सदा अवस्थान तार ॥ एक रूप त्यजि पुन अन्य रूप धरे। . पुद्गल अनित्य विश्व सतत विचरे ।। बुझि साधु त्यजि क्रोध लालसा भीषण। विहार करेन करि आत्मार चिन्तन ॥६०. प्रमादा - विरति रूप 'कर्दम हइते । ये श्रद्धा वाहिर करि मानव जगते॥ गृहाबास तेयागियों साधुत्व आचरें। सेइ श्रद्धा हय श्रेष्ठ गुणेर स्वीकारे॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक सूत्र । १२९ अष्टम अध्ययन । सेइ श्रद्धा आर गुण गुरुर सम्मत । पालिवेन साधुवर अति शुद्ध चित ॥६१ अनशन आदि तपः संयम पालन । आगमेर पाठरूप स्वाध्याय करण ।।. पूर्वोक्त विधान साधु करिते पालन । सतत विशुद्ध चित्ते-करेन यतन ।। इन्द्रिय कपाय आदि चतुरङ्ग सेना। अवरोधि देय तारे कतइ यातना ।। तपस्याय अरि जिति वीरेर मतन । साधक करेन सदा स्वपर-रक्षण ॥६ अग्नितापे रजतेर मल दूर हले। विशुद्ध रजत पाय मानव सकले ।। सेइ रूप योगिवर स्वाध्याय निरत । शान्तिप्रिय धर्मावली अतिशुद्धचित ।। तपस्या - निरत हये पूर्व कर्म मल । दूर करि शुद्ध हन वन्धन प्रवल.॥६३ कृष्णमेघ अन्तर्हित ह'ले ये प्रकार। हिमांशु विराजे लभि सुन्दर आकार ।। सेइरूप पूरवर गुणेते संयुत । परीपह आदि दुःख सहने निरत ॥ श्रुत ज्ञानी जितेन्द्रिय ममता-विहीन । दरिद्र साधक-वर आगम प्रवीण || Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० दश-वैकालिक सूत्र | अष्टम अध्ययन । कर्मरूप मेघराशि हले तिरोधान । ज्ञानालोके दीप्त हुन अति पुण्यवान् ॥ ६४ तीर्थङ्कर: महापूज्य साधक याहारा । दियान उपदेश हितार्थे ताहारा ॥ स्मरि सेइ उपदेश त्यजि स्वकल्पना । ' वलितेहि पूर्व्वरूप करिओ धारणा ॥ इति अष्टम आचार प्रणिव्यध्ययन समाप्त | Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र। अथ नवम अध्ययन । प्रथमोद्देश। अम्मिान क्रोध माया प्रमाद वशतः। गुरुर निकटे येये हइया वञ्चित ।। ग्रहणा-विनय-शिक्षा, करि-वारे नारे । दुर्गुणे साधुके सदा अधोगति करे। वंशेर यखन हयं फलेर सञ्चार । येमन तखनि हय विनाश उहार ॥ तेमनि दुर्गुणे हय गुणर संहार। ग्रहणा विनय-शिक्षा-हय ना ताहार ॥१ सत्प्रज्ञा-विहीन, गुरु, मंने करि भ्रमे । अप्राप्त वयस्क गुरु, निर्वाध आगमे॥ एइ रूप भावि यारा गुरु अनादरे । गुरुर दुर्नाम कथा सर्वदा प्रचारे ॥ ताहारा गुरुके करे अति दुःखदान । उहादेर शान्ति लाभे नाहि कोन स्थान ॥२ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ दश-वकालिक-सूत्र। नवम अध्ययन । प्रथम उद्देश। . कम्मर वैचित्र्य हेतु वयोवृद्ध जन । हृदयेते मन्द बुद्धि करेन धारण । आवार जगते हेरि अत्यल्प वयसे । केह धरे तीक्ष्ण बुद्धि श्रुत-ज्ञानवशे॥ सेइ जन्य कारो ह्य अत्ति शुद्धाचार।। दया. दाक्षिण्यादि गुण विराजे काहार ।। करिवेना अनादर साधुरा गुरुरे। येहेतु मनेर दुःख वाढ़े अनादरे ।। अनल येमति भष्म करिछे इन्धन । अनादर भष्म करे गुणके तेमन ॥३ सर्पके ये दुःख देय करि क्षुद्र ज्ञान । क्रोधोन्मत्त भुजङ्गम नाशे तार प्राण ॥ सेइ रूप येइ जन दु.ख करे दान । अत्यल्प वयस्क जीवे भुलिया विधान ॥ दु.ख भोगी जीच तार नाशेर कारण । हइवे निश्चित इहा शास्त्रेर वचन ।। सेइ रूप यारा करे निन्दा अतिशय । अत्यल्प-वयस्क हेरि आचार्ये निर्दय.. मन्दबुद्धि तारा.हये द्वीन्द्रियादि जाति । .. अंसार संसारे भ्रमे दुःख दिवाराति ॥४ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २.५ मन्त्रा नवम अध्ययन ।. प्रथम उद्देश । काहार जीवन नाश हइते अधिक । कि करे भुजग लभि क्रोध समधिक ॥ आचार्यश्री अप्रसन्न हले साधुजन । मिथ्यात्व अज्ञाने हन पापेर भाजन ।। अपमाने येवा देय गुरुके वेदना । मोक्षलाभ तारपक्षे शुधु विडम्वना ॥५ ज्वलन्त आने येवा विचरण करे | जन्माय ये लोक क्रोध अवाध्य सपैरे || जीवितार्थी येवा करे सर्प विप पान । हाराय ताहारा यथा आपन पराण ॥ 'तेमनि गुरुके येवा करे अपमान । अनायासे भने तार करे दु खदान || ताहार हवे ना मोक्ष भवे कोनकाले । विनाश ताहार हवे निश्चय अकाले || ६ मन्त्रवले भुजङ्गम दंशेना कुपित । दाहशक्ति छाड़े वह्नि मन्त्रवलयुत ॥ मारिते पारे ना कभु हलाहल विप । हते पारे पूर्व्वरूप भवे अहर्निश ॥ अवज्ञा गुरुके करि मोक्ष ना पाइवे । कम्मर बन्धने साधु विपदे पड़िवे ॥७ १३३ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ दश वकालिक सूत्र " नवंम अध्ययन | प्रथम उद्देश । गुरुके ये मने करे अवज्ञा भाजन । पाहाड़ फेलिवे सेइ मस्तके आपन || केशरीके जागाइवे ध्वंसेर कारण । तीक्ष्णधारे करिवेक मुष्टि प्रहरण ॥८ यदि ओ फाटिया याय कदापि पाहाड़ । पड़िया मस्तकोपरि जगते काहार ॥ नाहि खाय सिंह, कारें हइया विव्रत । नाहि काटे तीक्ष्ण धार मुष्टिकृंत हात ॥ सम्भव हइते पारे, लइव मानिया । मोक्ष नाइ गुरुजने अवज्ञा करिया ॥६ जानिओ आचार्य्यपाद अप्रसन्न हले । अवज्ञाय हइवे ना मोक्ष कोन काले ॥ अवाध सुखेर तरे अभिकांक्षी यारा । गुरुके प्रसन्न सदा करिवे ताहारा ॥१० घृतादि आहुति - पूत ज्वलन्त आगुन । यथा नमे आजीवन साग्निक ब्राह्मण || सेइ रूप वहु ज्ञाने ज्ञानी साधुजन । आचार्य्यके भक्तिभरे करेन - पूजन ॥११. शिखान धरमशास्त्र - यिनि शुद्धाचार । प्रदर्शिवे सुविनय निकटे ताहार ॥ ▾ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक सूत्र | नवम अध्ययन | प्रथम उद्देश । काय मनोवाक्ये सदा भक्ति थोड़ करे । प्रणत मस्तक करि सेविवे तांहारे ॥ १२ लज्ञा दया संयमे वा ब्रह्मचर्य्य पूत । कर्म्ममल दूरकारी नृकल्याणे रत ॥ मुमुक्षु जीवेर कर्म्म मलापनयने । मोरे देन. उपदेश याहारा भुवने ॥ पूजि आमि हितकारी सेइ गुरुजन । भक्तिर सहित सदा करि शुद्ध मन ॥१३ तपन मरीचिमाली प्रभाते येमति । · सम्पूर्ण भारत करे समुज्ज्वल अति ॥ आगम स्वरूप श्रुत - वुद्धियुक्त हये । . सुर मध्ये इन्द्र यथा तथा विराजिये ।। जीवादि परम तत्त्व करिया प्रकाश । आचार्य करेन पूर्ण शिष्य अभिलाप ॥१४ पवित्र कार्तिकी पौर्णिमासे समुदित । नक्षत्र - तारका - गणे हये परिवृत ॥ विमल-वारिद-मुक्त सुधांशु आकाशे । शोभित येमन हये सुपमा विकाशे ॥ सेइरूप गणी पूज्य सिद्ध - तपःरत । शोभा पान भिक्षुमध्ये हये विराजित ॥१५ १३५ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ दश- चैकालिक-सूत्र | नवम अध्ययन | प्रथम उद्देश । गुणेर आकर या महर्षि सुजन । श्रुत-शील- बुद्धि-युक्त, समाधि मगन । मोक्षेर कारण तारें श्लाध्यं तपोधन । ज्ञानादि लाभेर तरे करिवे पूजन ॥ सन्तोषिवे ताहादेरे प्रकाशि विनय । धर्म्मार्थी शिष्येर इहा कर्त्तव्य निश्चय ॥१६ निद्रादि प्रमाद शून्य मेधावी साधक । शुनि गुरुपूजाफल मोक्षप्रदायक ॥ गुरुर सेवाय सदा थाकेन तत्पर । आराधिया वहु गुण लभेन सत्त्वर ॥ गुरुर कृपाय परे मुकति कारक । सर्व्वश्रेष्ठ सिद्धि लाभ करेन साधक ॥१७ तीर्थकर महापूज्य साधक याहारा । दियाछेन उपदेश हितार्थे ताहारा ॥ स्मरि सेइ उपदेश त्यजि स्वकल्पनां । वलितेछि पूर्वरूप करिओ धारणा ॥ १८ ति नवम विनय समाघि अध्ययनेर प्रथमोद्देशावचूर्णि समाप्त । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र । अथ नवम अध्ययन | द्वितीय उद्देश । · 20 1. वृक्ष मूल. हते हय' स्कन्धेर उदय । शाखार उत्पत्तिं पुन स्कन्ध ह' ते हय ॥ समुद्भव शाखाहते हय प्रशाखार । क्रमे हय पुष्प फल रसेर सभ्चार ॥१ धर्मकल्प - वृक्षमूल, तेमनि विनय । उहार प्रधान रस विमुक्ति निश्चय ॥ साधक विनये लभे शीघ्र यथोचित ! पत्ररूप कीर्त्ति आर पुष्परूप श्रुत ॥२ क्रूद्ध मूर्ख जड़ जीव मृगेर मतन । ना शुने कखन कारो स्वहित वचन ॥ जात्यादिर मानेमंत, कर्कश वचन । अविनयी, असंयमी, माया मत्त मन ॥ नदी स्रोते ते क्षिप्त काष्ठ ये प्रकार । तरकर प्रभावेते घुरे वारंवार ॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૮ दध-कालिक सूत्र । नवमं अध्ययन Ainiston ! द्वितीय उद्देश 5• Me तथा तारा अविनीत - आत्मार प्रभावे । जन्म मृत्यु वीचि मध्ये घुरे, भवार्णवे ॥३ विनये विशेष- रूपे उपदेश पेये । कुपित हयेन यिनि अविनीत हये ॥ स्वर्गीय लक्ष्मीर हेरि गृहे आगमन । दण्ड द्वारा बाधा देन तिनि अभाजन ॥४ राजादि वाहक अश्व गज आदि यत । अविनये भार वहि दुःख पाय कत ॥५ राजादि वाहक अश्व गज आदि यत । विनय गुणेते ख्याति ऋद्धि पाय कत ॥६ अविनीत - आत्मा नारी पुरुष जंगते । जर्जरित हय कभु चावुक आघाते ॥ नाकादि कर्त्तितं हये कदाकार हय ।.. जीवन यापन करे अति दुखमय ॥७ अविनयी कटु वाक्य शुने सदा हाय । सर्व्वदा पीड़ित हय क्षुधा पिपासाय || अति दीन कान्तिहीन पराधीन तारा ।. देखायाय अविनये हय लक्ष्मी छाड़ा ॥८ सुविनीत आत्मा भवे नरनारी चय । सम्पत्ति मुख्याति सुख लभे दृष्ट हय ॥ . Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्ष-वैकालिक सूत्र. नवमं अध्ययन । द्वितीय उद्दश । 75 अमर गुह्यक यक्ष सेवकेर न्याय । हइया अविनीतात्मा अति दुःख पाय ॥१६ अमर गुह्यक यक्ष विनीत याहारा । सम्पत्ति सुख्याति सुख भवे पाय तारा ॥ १ उपाध्याय आचाय्यैर शुश्रूषा तत्पर । ताँदेर आदेश पालि यारा अग्रसर !! शिक्षा वृद्धि ताहादेर हइवे अचिरे !.. जलेर सेचन द्वारा वृक्ष यथा वाड़े ॥१२ इहलोके भोग-लाभ धावित हइया । निजेर परेर हित चिन्तन करिया । असंयत गृहिगण थाकि एधराय । येन तत्पर शिल्प - चित्रादि शिक्षाय ||१३ गर्भेश्वर राजपुत्र आदि मुग्धकाय । नियुक्त हइया सदा शिल्पादि शिक्षाय ।। कषाघात उत्सनादि रज्जूरं वन्दन । परिताप सुदारुण पान सर्व्वक्षण ॥ १४ शिल्प शिक्षा पाइवारे ताहारा गुरुके । वन्धादि कारक जानि पूजे इहलोके ॥ सत्कारे वस्त्रादि द्वारा साञ्जलि प्रणाम. ।, करे फुल्लहये आज्ञा पाले अविराम ॥१५ १३९ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'दश-कालिक-सूत्र । नवम अध्ययन। द्वितीय उद्देश। आगम वा मोक्षरूप अनन्त हितेर। कामनाय, साधु भिक्षु हये अग्रसर । गुरुके करिवें भक्ति मोक्षेर कारण । विनीत' आचार्य वाक्यं करिवे पालन ॥१५ आचार्य शय्यार नीचे स्वशय्या पातिवे। आचार्येर पिछे थाकि सर्वदा चलिवे ॥ वसि नीचे आंचाय्यर आसन स्थापिवे। ननं हये संविनयें चरण वन्दुिवे ।। . वंद्धाञ्जलि हये सदा साधक विनीत। गुरुके पूजिवे हये भक्ति श्रद्धान्वित ॥१७ स्वदेह पात्रादि द्वारा गुरुर शरीरे। पात्रे वा आघात करि बलिवे अचिरे । हे पूज्य आमार दोष क्षम कृपा करि । करिवना एइरूपं विनय विस्मरि ॥१८ · अशिष्ट वलंद करे रथेर वहन । आरीदण्डै वद्ध हये' काष्ठेते येमन ॥ आगम शास्त्रेते अज्ञ कर्त्तव्यविहीन । तथा शिष्य दुवुद्धि परमार्थहीन । आचार्य्यादि अभिहित हये वारंवार। सम्पादन करे कार्य कर्तव्य ताहार ॥१६. Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . दश-वैकालिक-पुष । नवम अध्ययन । द्वियीय उद्देश । गुरूर सेवाय रत शिष्य ,तपोधन । करे सदा गुरु आज्ञा आंग्रहे पालन ।। आकार इङ्गिते जानि गुरुर वासना । शारदादि काल बुझि करिव अर्चना ॥ आहायं लइवे साधु अनुकूल गुण। याहा द्वारा हइवेक पित्त विनाशन ॥२० गुणेर विपत्ति पाय अविनीत बन । वहुंगुण लाभकरे विनीत सुजन ।। विनय ओं अंविनये लभिं तत्त्वज्ञान । ग्रहणासेवन शिक्षा तिनि प्राप्त हन ॥२१ यिनि हन अति क्रोधी हइया दीक्षित । सम्पत्तिर गळकारी परनिन्दारत ।। दुष्कर्म करणे यार अत्यन्त साहस । गुरु आज्ञा अपालने याहार प्रयास ।। विनयेते अनभिज्ञ श्रुतादि वर्जित । गोचरादि लये येवा शास्त्र विधिमत॥ ना देन समता ज्ञाने अन्य साधुजने । ना हय मुकुति तार कदापि भुवने ।।२२ गुरुर आदेश यारा करेन पालन । विदित श्रुतार्थ यारा विनीत वचन ।। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . . सर्वकालिक सूत्र नवम अध्ययन द्वितीय उद्देश महा पराक्रमी साधु धरार भूषण । दुस्तर संसार अब्धि करि उत्तरण ।। नाशिया सकल कर्म पूतकरे धरा । परम कैवल्य लाभ करेन ताहारा ॥२३ तीर्थकर महापूज्य साधक याहारा। दियाछन उपदेश हितार्थे ताहारा ।। स्मरि सेइ उपदेश त्यजि .स्वकल्पना। वलितेछि पूर्वरूप करिओ धारणा ॥२४ इति नवम विनय समाधिअध्ययनेर द्वितीयोद्देशावणिः समाप्त . Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-मूत्र । अथ नवम अध्ययन । अथ तृतीय उद्देश । . . अग्निर रक्षार तरे साग्निक ब्राह्मणः। अति साबधान हय सादा येमन ।। सेइ रूप साधुजन प्रबुद्ध सतत । सयन हयेन गुरु शुश्रूषाय रत । स्वगुरुर दृष्टिमात्रे बुझि अभिप्राय ।.. तार कार्य करि रत गुरुर पूजाय ॥ एतादृश शिष्य भवे सदा पूज्य हय । नाहाकेइ योग्य शिष्य सर्वलोके कय ॥१ उपदिष्ट गुरुवाफ्य यिनि शुनिवारे। अभिलाषी हन सदा ज्ञानलाभ तरे। विनय संयम यिनि करेन ग्रहण । गुरुर अवज्ञा त्यजि तिनि पूज्य हन ॥२ ये साधक दीक्षा-ज्येष्ठ मुनिर सदन । यथायोग्य नम्र भाव करे प्रदर्शन | Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ देश - कालिक सूत्र । अथ नवम अध्ययन | 19 तृतीय उद्देश | अल्प यार वयःक्रम अविज्ञ आगमे । दीक्षा ज्येष्ठ हले तारे सकले प्रणमे || आगमे अधिक विद्या लभि शुद्धाचार । दीक्षा ज्येष्ठ्ये करे येवा नम्र व्यवहार ॥ गुरु- पूजारत यिनि सुसत्य वचन | पालेन गुरुर आज्ञा तिनि पूज्य हन ॥ ३ संयमेर भारवाही देह रक्षातरे । केवल भिक्षात येवा अभिलाष करे । ना राखि कारणे अन्यं सदा अनुराग । भिक्षालब्ध बस्तु करि नित्य समभाग ॥ परिचय नावलिया येवां भिक्षा लयं । विशुद्ध · आहार करें साधु महाशय || भिक्षान्ते कोन चिन्तारं ना हय उदय | अहङ्कार श्लाघाशून्यं हये ये हृदय ॥ तिनिइ धराय धन्य साधक सुजन । सकलेर निकटेइ सदा पूज्य हन ॥४ · , आहार आसन शय्या संस्तारक जल । अनेक यखन आसे साधुर संम्वल ॥ नेहारि प्राचुर्य्य यिनि सामान्य कल्पित । लइवारे अभिलाष करेन सततं ॥ · Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र। नवम अध्ययन। तृतीय उद्देश। राखेन सन्तुष्ट आत्मा कल्पित आहारे । सन्तोष-प्रधान तिनि पूज्य चराचरे ॥५ मानव "पाइव अर्थ" ए रूप आशाय । लौहमय कण्टको सहे ए धराय ॥ किन्तु तीक्ष्ण वाणीरूप आघात भीषण | पारे ना सहिते भवे मानव कखन ॥ निराश ये साधु सहे कर्कश वचन । धराधामे करे तारे सकले पूजन।६ मुहूर्त कालेर तरे हय दुःखमय । कण्टक नरेर देहे कभु लौहमय ॥ अनायासे किन्तु उहा करि उत्तोलन । दुःखदूर करि हय सुखर भाजन ।। विन्तु वाणीरूप कांटा विधिले हृदये। उठाइते हय उहा बहु कष्ट दिये ।। इहलोके परलोके वचन कण्टक । मानवेर अति-वैरि - भावेर वर्द्धक ।। कुगति कारक उहा अति दुर्निवार। भयङ्कर किवा आले मतन उहार ||७. कर्कश वचनांघात यदा कर्णे लागे। उपजे अतीव दुःख निज मने-भागें। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ दश-वकालिक-सूत्र । नवम अध्ययन। तृतीय उद्देश। वाक्य सह्य करा धर्मा वलि मानि संयम-प्रवीर यिनि जितेन्द्रिय मुनि ।। सहेन वचनशर हइया आहत । धराय सर्वत्र तिनि हन सुपूजित ॥८ प्रत्यक्ष कुशलहीना दुःख प्रदायिनी। निश्चयरूपिणी अप्रिया याहा कुवाणी ।। परोक्षे अश्लाघ्य याहा कथित धराय। . त्यजिया साधक उहा सदा पूज्य हय ।।६ अलोलुप शुद्धवृत्ति यिनि अपिशुन । अमायी ओ स्थिरचित्त कुहक विहीन ॥ कभु ना वलेन स्वीय प्रशंसा वचन । यिनि परकाळे कभु, अथवा कखन । परेर अनृत वाक्य वलिया उत्तम । कभु ना कहेन यिनि आमोदे अक्षम ।। संयम - पालनेरत सेइ तपोधन । संसारे मानव मभ्ये सदा पूज्य हन ।।१० विनयादि गुण द्वारा नर साधु हय.। विनयादि हीन येवा असाधु निश्चय॥ अतएव साधो गुण करह ग्रहण । . असाधु ये गुणचय करह वजन ॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र। १४७ १४७ नवम अध्ययन । तृतीय उद्देश । आत्मज्ञाने निज आत्मा जाने येइ जन । रागद्व प-समज्ञान तिनि पूज्य हन ॥११ युवक अथवा वृद्ध सन्यासी श्रावक । नारी वा पुरुष जन किम्वा नपुंसक ।। काहाके करे ना निन्दा किम्वा अपमान । छेड़छेन सदा यिनि राग अभिमान । आगम-विधान - रत शुद्ध तपोधन । तिनिइ धराय सदा अति पूज्य हन ।।१२ शिष्य हते यिनि सदा लभिया सम्मान । करेन शिष्येर हिते. श्रुत ज्ञान दान ।। येमन जननी पिता कन्याके आपन । शिखाइया करि तार योग्यता वर्द्धन ॥ संसारेर सर्व - सुख - वृद्धिर कारण । गृहिणीर पदे यत्न करेन स्थापन ॥ सेइ रूप यिनि शिष्ये आगम शिक्षाय । पारदर्शी कराइया अशेष चेष्टाय ॥ आचार्य्यर श्रेष्ठ पदे वसान अचिरे। उपकारी सेइ गुरु धन्य चराचरे॥ ताश सम्मानपात्र गुरुके येजन । करेन सम्मान अति करिया यतन ॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪૨ दश - वैकालिक - सूत्र | नवमः अध्ययन ।' तृतीय उद्देश । इन्द्रिय करिया जय सेइ साधुजन । सत्य-पथगामी नित्य अति पूज्य हुन ॥१३ सर्व्वलोक पूजनीय गुणेर सागर । गुरुगण ह'ते शुनि विज्ञ साधुवर ॥ सुभाषित मुक्तिप्रद संसार - तारक महाव्रत लन यिनि मुकति कारक ॥ त्रिगुप्ति पालेन यिनि यतने सतत । चारिटि कषाय-मुक्त हुन सत्यव्रत ॥ अशेष गुणते गुणी लव्ध ज्ञानधन । पूजित हयेन सेइ साधु विचक्षण ॥१४ गुरुर सेवाय रत सदा सर्व्वक्षण | । आगम-प्रवीण यिनि सार्थक जीवन ॥ साधुर सत्कारे यिनि दक्ष अतिशय । पुराकृत रज़ोमल यार ध्वंश हय ॥ तेजोमयी अनुपमा सिद्धि-रूपागति । लभेन तिनिइ सिद्ध अपूर्व्वशकति ॥१५ तीर्थङ्कर महापूज्य साधक याहाराः । दियाछेन उपदेश हितार्थे ताहारा ॥ स्मरि सेइ उपदेश व्यजि स्वकल्पना । वलितेछि पूर्व्वरूप करिओ, धारणा ॥ इति नवम विनय समाधि अध्ययनेर तृतीयाद्दशावचूर्णि तमा Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 . दश-वैकालिक-सूत्र अथ नवम अध्ययन । चतुर्थ उद्देशं । सम्बोंधिया जंम्बुशिष्ये सुधर्मा प्रवीण । वलेन आयुष्मन् मोर शून सुंवचन ।। भगवान् श्री महावीर कथित सुवाणी । शुनिले ज्ञानेर वृद्धि हइवे एखनि । विनय समाधि स्थान हय चतुर्विध । अभिज्ञ छिलेन ताते स्थविर विवुध ।। विनय समाधि, श्रुतं, प्रथम द्वितीय। तपः संमांधिर नाम हयेछे तृतीय । चतुर्थ समाधि हय विख्यात आंचार । सकल समाधि मार्गे धायं शुद्धांचार।। उक्त चारि समाधिते विज्ञ सत्यव्रत । जिंतेन्द्रिय हनं आत्मा करि समाहित ॥१ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० दश-वैकालिक सूत्र | नवम अध्ययन | चतुर्थ उद्देश । आदिष्ट शुश्रूषा हय प्रथम स्थानीय । सम्प्रतिपादन उहा कथित द्वितीय ॥ श्रुताराधना आर आत्मोत्कर्ष सम्पादन । तृतीय चतुर्थ वलि कहेन सज्जन ॥ निम्नोद्धृत श्लोके उहा हय उल्लिखित । विनय समाधि फल उहाते कथित ॥ विनय समाधि द्वारा मोक्षार्थी भिक्षुक । हयेन गुरुर आज्ञा शुनिते इच्छुक ॥ उहार मम्र्म्मार्थ साधु बुझिया तखन । श्रुतलाभे यथारीति करि आराधन ॥ विनीत साधु आमि एइरूप ज्ञान । ना करिया साधु छोड़े निज अभिमान ॥२ श्रुत समाधिर भेद चारिटि प्रकार । निम्ने उहा यथारीति हइवे प्रचार ॥ श्रुतवाक्य अध्ययन, एकाग्र चिन्तन । स्वात्मार स्थापन धम्मै परकेओ तेमन ॥ निम्नोद्धृत श्लोके उहा विवृत्त हड़वे । साधुरा उहार तत्त्व वुझिते पारिवे ॥ अध्ययने तत्परेर ज्ञानोदय हय । ने हय सदा स्थित्तरे उदय ॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश - वैकालिक - सूत्र ! नवम अध्ययन | चतुर्थ उद्देश | । आत्मा हय धर्मेस्थित चित्तस्थिरताय । आत्मस्थ धरमे जने स्थापन कराय || श्रुत ज्ञान लाभ करि साधु तपोधन । श्रुत समाधिते सदा अनुरक्त हन ॥३ चतुर्विध भेद हय तपः सनाधिर । शुन मनोयोगे इहा साधक सुधीर ॥ करिवेना तपः इह परलोक तरे । संसार सम्बन्ध सब त्यजिवे अचिरे ॥ कीर्ति वर्णादि श्लाघार्थे तपस्या त्यजिवे । निर्जरा व्यतीत अन्य तपस्या छाड़िवे || श्लोके इहा पुनर्वार हयेछेो वर्णित । शुन उहा सावधाने साधु सत्यव्रत ॥ त्रिविध गुणेर स्थान - तपस्या निरत । हइवेन साधुवर भवे अविरत ॥ निर्जरा लोलुप हये वासना छाड़िवे । पूर्व्व पाप तपोवले विनाश करिवे ।। एइ रूपे तपोरत लभि ज्ञान धन । तपः समाधिते रत हन साधुजन ||४ चतुर्विध आचार | साधु उहा था सुसाध्य सवार ॥ १५१ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र । नवम अध्ययन । चतुर्थ उद्देश। करिवेना उहा इह परलोक तरे। कीर्ति वर्णादि ते सदा ख्याति पाइवारे ।। मूल गुणोत्तरगुण-मय ये आचार। छाडिवे उहारे साधु करिया विचार ॥ जिनं वचनेते रत हइवे साधक । वलिवेना पुनः कथा असूया सूचक । प्रीति पूर्ण थाकिवेक सुत्रादिर योगे। मोक्षार्थी हइवे सदा आचार प्रयोगे॥ करिवे आसन्न मोक्ष, इन्द्रिय दमिवे। . आचार समाधि साधु अवश्य पालिवे ॥५ जानिया समाधि चारि पूर्वोक्त रीतिते। पालन करेन यिनि पापमुक्त हते ॥ . कायमनोवाक्ये संदा विशुद्धहृदय । समाधिते युक्त हन अति पुण्यमय ।। • संयम - वलेते तिनि करेन स्वहित । अपूर्व आत्मज सुख लभेन सतत ॥६ समाधिते सिद्धिलाभ करि साधुजन । जनम मरण हते चिर मुक्त हन ।। नारकादि चतुर्विध संसार कारण । वर्ण संस्थानादि सव करेन वर्जन । ' Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । दश-वैकालिक-सून । १५३ नवम अध्ययन । चतुर्थ उद्देश। स्थायिरूपे सिद्ध हन विचित्र जगते । कांटान समय तिनि अपार सुखेते ।। अवशिष्ट कर्म यार थाके मोहमय । महर्द्धिक देवरूपे तार जन्म हय ।।७ तीर्थङ्कर महापूज्य साधक याहारा । दियाछेन उपदेश हितार्थे ताहारा.॥ स्मरि सेइ उपदेश त्यजि स्वकल्पना । वलिंतेछि पूर्वरूष करिओ धारणा ।।८ इति नवम विनय समाधि अध्ययन समाप्त । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र । अथ दशम अध्ययन । आचार्य आदेशे करि प्रवज्या ग्रहण । करेन प्रफुल्ल यिनि तदाज्ञा पालन ।।: नित्य समाधिते हन एकाग्रहृदय । चित्त हते दूर करि लोभ दुराशयः॥ भुक्त भोग्य ना करेन कखन ग्रहण । एइ भवे साधु बलि तिनि ख्यात. हनं ॥१ ये साधु सचित्त पृथ्वी करेना खनन । ना कराय अन्य द्वारा उहावा कखन' खनने प्रवृत्त जने ना देन सम्मति । त्रिविध करणे यार हय ना प्रवृत्ति ।। शीतोदक येवा साधु ना करेन- पान । ना करान् अन्य द्वारा पान सुमहान् ।। अनुमति नाहि देन पिपासु मानवे । त्रिविध-करण - योगे संयम प्रभावे॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक सूत्र । दशम अध्ययन । खड्गादि निशित अस्त्र रूप भीमानल | ज्वालेना वा ज्वालाय ना कखन प्रवल ॥ करे ना सम्मतिदान अग्नि प्रज्ज्वालने । सदा निवृत्त यिनि त्रिविध करणे ॥ सेइ साधु धराधामे सतत पूजित । भाव साधु नाम धरि हयेन विख्यात ||२ पाँखा द्वारा देह येवा ना करे व्यवन । ना कराय अन्य द्वारा उहा वा कखन ॥ व्यजने तत्पर जने नेहारि कखन । नाहि देन अनुमति यिनि तपोधन । करे ना कराये ना ये दुर्व्यादि छेदन | छेदने सम्मतिदान करे ना कखन ॥ करे ना सजीव खाद्य ये साधु ग्रहण | भाव साधु वलि विश्वे तिनि पूज्य हन ॥ ३ पृथ्वी तृण काष्ठ आदि आये सतत । स स्थावरादि कीट नाश हय कत || औदेशिक आहारेते वुझिया येजन । औदेशिक भोज्य द्रव्य करे ना ग्रहण || अन्नादि स्वयं कभु करे ना पाचन । ना कराय पर द्वारा येवां साधुजन ॥ देन ना सम्मति काके पाके अग्रसर । भाव साधु तिनि पूज्य साधक प्रवर ॥४ · १५५ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इरा-वैकालिक-सूत्र । दशम अध्ययन। श्री महावीर-वचने, बढ़ासक्त मन । पड्जीवे करेन ज्ञान आत्मार मतन ।। पञ्च महानत यिनि मोर कारण । संयत हदया. सदा. करेंन पालन ॥ हिंसा आदि पञ्चानव रोधेन सतत । भावसाधु वलि भवे तिनि हन स्यात ॥५ क्रोध आदि भयङ्कर चारिटि कपाय। त्याग कर साधु येवा प्रथित धराय॥ तीर्थङ्करः उपदेशे संयमेनिश्चलं । हइया ये साधु छिड़े माघार शृङ्खल चतुष्पद स्वर्ण रोप्य त्यजे.तुच्छ भावि । गृहस्थ सम्बन्ध छाड़े ममतानुधावी ।।. भाव भिक्षु वलि तारे भव साजन । ताहारं सुख्याति करे श्लाघ्य तिनि हन ॥६ अतीन्द्रिय विपयेते रहियाछ ज्ञान । सञ्चित कर्मर क्षये याहार धेयान ॥. कर्मवन्धरोधकारी संयमे- निरत। . तपस्या-प्रभावे. यार पाप दूरीकृतः॥ अशुभ: प्रवृत्ति याहा पापेर आवास। . . काय सनोवाक्ये यार हयेछे विनाश ।। . भाव भिक्षु वलि तिनि हयेन पूजित। तांहाके श्रद्धा करे मानव सतत.॥७। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-र्वकालिक सूत्र | दशम अध्ययन आगामी परश्व दिन-तरे कोनस्थाने । ना रान एकरात्रि स्वीय प्रयोजने ॥ अनेक प्रकार यिनि आहा पानीय । खाद्य स्वाद्य बहुविध विविध जातीय ॥ ना राखान नरद्वारा देनना सम्मति । सञ्चय वासना मुक्त हन भाव यति ॥८ प्राप्त हये खाद्य स्वाद्य पानीय अशन ' समान धार्मिक जने की मन्त्र |! ये सायु अर्पेण उहा अनि समादरे ! करेन. भक्षण यिनि कारे ॥ स्वाध्यायेते रत तिमि धरार भूषण । प्रकृति भिक्षुक वलि सुपूजित छन । हय ना मुखेते यार कनु उधारण । कलहेर कथा सदा अशान्ति कारण ॥ सद्वाढ़ कथाय यार नाहि हय क्रोध । करेन इन्द्रिय शक्ति सतत निरोध ॥ काय - मनोवा यिनि संयमेते रत । प्रशान्त-हृदय यिनि आकुल- रहित ॥ अनादर नाहि. या कर्त्तव्य साधने । भाव साधु वलि तिनि ख्यात एभुवने ॥१० दशेन्द्रिय- कण्टकेर आक्रोशा प्रहार । सर्जन सहेन यिनि अति अत्याचार ॥ १५७ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ 'दश-वैकालिक-सूत्रं ॥ दशम अध्ययन । वेतालादि कृत शब्द अट्टहास आर । शुनियाओ सुखं खे समभाव यार ।। तिनिइ प्रकृतसाधु सर्व्वगुणाधार । भाव साधु वलि तिनि पूजित सवार ॥११ श्मशाने प्रतिमा किम्बा दृश्य भयङ्कर । नेहारि ये साधु हन निर्भय अन्तर || साधुवर यिनि हन वहु गुण युत । दिन रात हितकर तपस्याय रत ॥ ना करेन अभिलाप शरीर धारणे । वर्त्तमान ओ भविष्यत् सुखेर कारणे ॥ ईदृश संयत मुनि ममता - विहीन । भाव साधुरुपे ख्यातं हन चिरदिन ||१२ शरीरे ममता करि शरीरेर शोभा । ...यन ये साधुवर अति मनोलोभा ॥ संत महंत किम्बा कर्त्तित भक्षित । हइया सहनशील पृथिवीर मत || करेना कामना येवा साधक प्रवीण । कुतूहल देखाशुना - सम्बन्ध विहीन ॥ भाव साधु वलि तिनि भवे ख्यांत हन । ताहाकेइ लोके करें संभक्ति पूजन ॥१३ साधु धरा था अति अनुरागे । क्लेश राशि जय करे शरीर प्रयोगे ॥ F Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र दशम अध्ययन । जनम सरण रूप - संसार हइते। उद्धार करेन आत्मा तपस्या - वलेते ॥ भयङ्कर बुझि यिनि जनम मरण । साधु सदाचारे थाकि तपस्या मगन ।। भाव साधु वलि भवे तिनि ख्यात हन । ' सर्वलोके करे तारे सभक्ति पूजन ॥१४ हस्त पाद वास्ये यिनि सतत संयत । जितेन्द्रिय साधु यिनि धर्म-ध्याने रत ।। हइयाछे समाहित आत्मा यार भवे । अध्यात्म चर्चाय यिनि लिप्त सर्वभावे आगम सूत्रेर अर्थ यार सुविदित । भाव साधु वलि तिनि जगते विख्यात ॥१५ ये साधु पात्रादि वस्त्र - स्वीयोपकरणे । ममता लालसा त्याग करेन यतने ॥ विना परिचये गृहे भिक्षातरे यान । दीपहीन भिक्षा लाभे सन्तुष्ट पराण ॥ पुलाक ओ निस्पुलाक दोप हाते दूरे।. थाकेन सङ्कल्पवद्ध संयमेर तरे।। खरिद विक्रये किम्वा, सञ्चये विरत । हइया सकल सङ्ग त्यजेन सतत॥' भाव भिक्षु तार नाम सफल जीवन मोक्ष लाभे नित्य तिनि करेन यतन ॥१६ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देश-कालिक-सूत्र । दशम अध्ययन.। अलब्ध वस्तुर याचना-लोभते विरत। . . लामे ओ उहार रसे नाहि यिनि प्रीत ।। भावते विशुद्ध ह'ये गोचरी-प्रवण। संयमविहीन प्राण ना चान कखन ।। स्थिर चित्त, ऋद्धिस्तुति सत्कार पूजन । 'चाहेना ये साधु तिनि भाव भिक्षु हन ॥१७ ये साधु वलेना कसु अमुक कुशील। . क्रोधेर जनक वाक्य अथवा अश्लील ।। पापापुण्य-जन्य - दाह वेदना प्रखर । प्रत्येक आत्मार हय जानि यतिवर।। निज आत्मा सर्वगुणे उत्कृष्ट आमार। अभिमान एताश मने नाहि यार। ताहाकेइ नरगण करेनं पूजन। भाव साधु वलि भवे तिनि ख्यात हनं ॥१८ जातिमत्त रूपमत्त ना हयेन यिनि ।। लाभे ओ श्रुतेर ज्ञाने अप्रमत्त मुनि ॥ . सर्वविधः गर्व त्यजि धर्माध्याने रत। . साव भिक्षु वलि हन तिनि सुपूजित ॥१६ महामुनि श्लान्य यिनि विनय प्रधान । परहिते. उपदेश करेन प्रदान ।। स्थिर थाकि निज धर्मे अपरे उत्साहे। ' . करान सुस्थिर परें. धरमे आग्रहे ।। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्श-वैकालिक-सूत्र । १६१ दशम अध्ययन। कुशील आरम्भ आदि चेप्टा तेयागिया । हास्यकारी कुहकेते युक्त ना हइया ।। प्रवञ्चा लइया यिनि हन समाहत । भाव भिक्षु वलि तिनि हयेन पूजित ।।२० अशुचि अनित्य देहे ममता त्यजिया। राखि हिते निज आत्मा आगम स्मरिया ।। संसारेर वन्ध हेतु जनम मरण । उसयेर हेतु यिनि करेन छेदन ।। सिद्धिगति, तिनि भवें साधु प्राप्त हन । भाव साधु नाम तार सफल जीवन ।।२१ . तीर्थकर महापूज्य साधक याहारा । दियाछेन उपदेश हितार्थे ताहारा ।। नरि सेइ उपदेश त्यजि स्वकल्पना । वलितेछि पूर्वरूप करिओ धारणा ।।२२ इति दगम सभिश्वध्ययन समाप्त । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र | अथ प्रथम चूलिका | भिक्षु भिक्षुगुण युक्त तपोवले हय । दशमाध्ययने उहा उल्लिखित रय ॥ पूर्ण कर्म्म फले साधु यदि दुःख पाय । चूलिका द्वयेते आहे उद्धार उपाय ॥ गुरु महाराज कहे हे शिष्य ! आमार । संयम त्यजिया यदि दुःख हय कार ॥ संयम त्यजिते पुनः करे वा प्रयास । अष्टादश स्थान चित्ते करिवे विकाश ॥ लागाम धरिले अव सुपथेते धाय । अङ्कुश आघाते हस्ती हितपथे याय ॥ पताकार चले नौका चले नानापथे । पताका लइया चले ताइ साथे साथे । सेइ रूप यदि केह अष्टादश स्थान । बुझिया सतत राखे संयमे धेयान ॥ ताहार पतन भवे कभु ना सम्भवे । संसार सागर हते सेइ उद्धारिवे ॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र। प्रथम चूलिका। हे शिष्य ! सकल प्राणी थाकि ए संसारे । दुःखमय समयेते दुःख भोग करे। गृहस्थ आश्रमे वास यदि दु.खतरे। तथाय थाकिते इच्छा केन नर करे ? ॥१ गृहस्थर काम भोग अति तुच्छ हय । अल्पकाल स्थायी उहा अति दुःखमय ॥२ नरगण मायावद्ध हय चिर दिन । अविश्वस्त हये हय सन्तोप विहीन । भोगेर वासना द्वारा सर्वदा विह्वल । एहेन गृहस्थाश्रमे थाकि किवा फल ॥३ संयमेते उद्धगेर हइले सञ्चार । चिन्ति यतने साधु निम्नोक्त प्रकार ।। शारीरिक मानसिक दुःख चिरकाल । थाकिवेना कर्मवन्ध परम जञ्जाल ।। गृहाश्रमे लालसाय किवा हवे फल । संयमेते हड़ थाकि हइवे सफल ॥४ अर्चना सत्कार करे संयमी साधुके । वड़ वड़ महाराज थाकि इह लोके ॥ दीक्षात्यागी साधुजन का- सिद्धितरे । साधारण लोकगणे खोशामोद करे ।। एहेन दुर्दशा हेरि कोन साधु जन । याइते इच्छुक हन गृहस्थ भवन ? ॥५ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वकालिक-सूत्र! , प्रथम चूलिका । .. त्यजि भागवती दीक्षा गृही येवा हय । गृहस्थेर सुखभोगे आसक्त हृदय । वमन करिया पुनः ये करे भोजन । तारमत तिनि हन तुच्छर कारण ॥६ , संयम त्यजिया पुनः गृही हन यिनि ।. दुर्गति लाभेर पथे चलिवेन तिनि ॥६ भार्या पुत्र मित्रामित्र युक्त ए संसारे। धर्मलाभ कोन जन करिते ना पारे। चलिले साधक लये संयम. दुर्लभ । धर्मलाभ तार पक्षे अतीव सुलभ ।।८. ये गृहस्थ असंयमी हय क्षितितले। संसर्गज रोग तारे नाशे अवहेले ॥8 सङ्कल्प विकल्प आदि आतङ्क मनेर । गृहस्थेर सदा हय कारण नाशेर ॥१० जीविका निर्वाहे गृही सतत चिन्तित । 'वाणिज्यादि सदा करे अभाव ताड़ित ॥ कत कष्ट पाय सदा गृहे करि वास। संयमीर विना क्लेशे मोझते प्रयास ॥११ यथा कीट आत्मकोशे वद्ध सदा रय । गृहावास महावन्ध जानिये निश्चय ॥ उपक्लेश चिन्ता न्य संयमि-जीवन, सुखमय संदा हय मोक्षेर साधन ॥१२.. Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ दश-वैकालिक-सूत्र । प्रथम चूलिका । गृहावासे गृही दुःखी पापेर कारणे । संयमी निष्पाप हय अहिंसा पालने ॥१३ चौर पशु आदि यथा काम भोग करे। गृहिगण तथा काम भुञ्ज ए संसारे ॥१४ वहु द्वारा पाप पुण्य अनुष्ठित हय । अनुष्ठाता भुने फल नाहिक संशय ।।१५ कुशाग्ररे जलविदुः यथा क्षण रय । मानव जीवन तथा अनित्य निश्चय ।।१३ करियाछि बहुपाप आमि दुराशय । चारिन मोहनीयादि सकल समय ।। अन्यथा हत ना मोर एत अधोगति । ना हइवे लुब्ध मन गृहाश्रम प्रति ।।१७. . करियाछि पाप पुण्य पूरब जनमे। प्रमाद कपाय आदि वशे पडि क्रमे ॥ मिथ्यात्व ओ अविरति कर्म मोर अति । पराक्रान्त हयेछिल ताहे प दुर्गति ॥ कर्मफल मुस्लि परे यदि तपस्याय । पूरव करम करि एकवारे क्षय ।। ताहा हाले मोक्षमार्ग पाइव निश्चय । । कर्म भोग ना करिले नाहि फलोदयः।। संयमइ श्रेष्ठ इथे नाहिक संशय । अष्टादश स्थान सदा कर परिचय ॥ . Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ दश-वकालिक सूत्र | प्रथम चूलिका | हया एवं मोर मोहेर भञ्जन | गृहाभ्रमे आर मोर किवा प्रयोजन ११८ चारित्र्यादि धर्म्म छाड़े भोगेर कारण । ये अनाय्य त्यागी भोगेवद्ध मन || जानेना से परिणाम भावी नराधम । निव्वोय वालक मत छाड़िया संयम ॥१ संयमेर वहिर्देशे करिया गमन । इन्द्रासन छाड़ि यथा इन्द्ररे पतन ॥ सर्व्वं धर्म्म हते तथा साधु भ्रष्ट हन । अनुतन हन परे मोहेर कारण ॥२ संयमादि साधुका करि साधुजन । सुरेन्द्र नरेन्द्र द्वारा सुपूजित हन ॥ किन्तु साधु धर्म्म हते भ्रष्ट यदि हनं । केह नाहि करे तारे सभक्ति पूजन ॥ स्थानच्युत देव यथा सन्तप्त हृदय । धर्मभ्रष्ट तथा साधु अनुतप्त हय ॥३ संयमी पूजित हच तपस्या निरत । धर्म्म भ्रष्ट साधु कभु ना हय पूजित ॥ राज्य भ्रष्ट राजा यथा अनुतप्त हच । ध ये साधु विषण्ण हृदय ॥४ भ्रष्ट धरत साधु हय सदा माननीय । धर्महीन हवे पुनः घृणार स्थानीय ॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र | प्रथम चूलिका | कुग्रामेते परित्यक्त श्रेष्ठीर मतन । ये साधु अनुतप्त हुन ॥५ असंयमी अतिक्रमि सुन्दर यौवन । वार्द्धस्य अवत्था मन्द यवे प्राप्त हुन ॥ गिलिया बड़शी मनुस्य यथा सहे फ्लेश । तथा वृद्ध लोभे पाय सन्ताप अशेप ॥ ६ असंयमी वृद्ध यवे हयेन पीड़ित । कुक्कुटुम्ब - दोपकर - चिन्ताय निरत ॥ शृहुल वन्धन्युत हस्तीर मतन । अनुतापे दग्ध हन वृद्ध आजीवन ॥७ असंयमी वृद्ध हरे पुत्रदारान्वित | दर्शन ओ मोह आणि कम्मैते व्यापृत ॥ कर्हम पतितपन गजेर मतन ! अनुतापानले दग्ध हुन सर्व्वक्षण ॥८ असंयमी वृद्ध जन चिन्तेन सतत । निम्नोक्त प्रकारे भवे हये सन्तापित || “यदि आमि थाकिताम साधुभावे स्थिर । प्रवज्या ते रति मोर थाकित गभीर || भावितात्मा च ये एइ क्षणे | वसिताम सर्व्वपूज्य आचार्य आसने" | संयमेते रत सदा महपिं पर्य्याय । सुखेर प्रदानकारी त्रिदिवेर न्याय || · १६७ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६९ दश-वैकालिक सूत्र | प्रथम चूलिका । संयत विहीन जन प्रवज्या रहित । दारुण नरक कष्ट पाय अविरत ||१० साधुर आचारे रत महर्षि सकल | देव तुल्य श्रेष्ट सुख भुख अविरल ॥ साधुर आचार भ्रष्ट लोक नराधम । नरक सदृश दुःख पाय सुविपम ॥ , बुकिया पूर्वोक्त फल सदसद्विवेकी । सदाचारे रत हन मोक्षमार्गे थाकि ॥११ यज्ञ शेपे भष्मानल अल्प तेजोयुत । उद्धत - दशन सर्प घोर विप मत ।। धर्मभ्रष्ट दोपकारी तपोलक्ष्मी हीन । नर के अवज्ञा करे स्वभाव मलिन ॥१२ ये जन धरमभ्रष्ट, अधमें चालक । अखण्डनीय चारित्र - खण्डन कारक ॥ इहलोके अधर्मात्मा तारे सवे कय । पराक्रमाभावे तार कीर्त्ति नाश हय ॥ पतित बलिया तारे सामान्य मानव । दुर्नाम करिते थाके अति असम्भव ॥ विशिष्ट लोकेर कथा कि वलिव आर । लाञ्छना पाइते हय अत्यन्त ताहार ||१३ कृप्यादि स्वरूप अति सन्तोष विहीन । संयमविहीन का मन यार लीन ॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्श-वैकालिक-सूत्र । प्रथम चूलिका । अहेलि धर्मपथ भुझे ये विपय । दु.खप्रद विनपथे तार गति हय ।। बहुजन्म धूरि फिरि करिले यतन । जिनधर्म प्राप्ति तार ना हय कखन ॥१४ नरके याइया जन्तु बहुदु.ख पाय । अति फ्लेश यातायात करे तथा हाय ।। पल्य वा सागरोपम बहु काल थाके । कत ये यातना पाय विपम नरके। अरति स्वरूप दु.ख संयमे आमार । हे गुरो सतत हय कि करिव आर ॥१५ संयमे अरति रूप दुख चिर दिन । थाकिचेना ममलाग्ये प्रसुख बिहीन । भोगेर पिपासा वाड़े यौवन समये। वृद्धकाले ह्रास पाय शक्तिहीन हये। वृद्धकाले देह हते ना गेले पिपासा। आयुःशेपे दूर हवे एइ मोर आशा ।।१६ ये जन सर्वदा थाके संयमेते रत। तार आत्मा हय भवे अति दृढ़नत ॥ आसन्न विपदे त्यजे से देह केवल । करेना से परित्याग धरम सम्बल ॥ येमन प्रवल वायु उत्थित हइले । हेलाइते नारे कभु सुमेरु अचले॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० दश - वैकालिक सूत्र | प्रथम चूलिका । तेमनि इन्द्रियगण पापेर निदान । कदापि कांपाते नारे धामिकेर प्राण ॥ सुबुद्धि साधक बुझि अष्टादश स्थान । ज्ञान ओ दर्शनादिते हये ज्ञानवान् ॥ उहार साधनरीति सयत्ने बुझिया । कायमनोवाक्ये सदा संयम राखिया || त्रिगुप्तिते गुप्त हये जैनेन्द्र कथित । शास्त्रोक्त क्रियाय हय तत्पर सतत ॥१८ तीर्थङ्कर महापूज्य साधक याहारा । दियाछेन उपदेश हितार्थे ताहारा ॥ स्मरि सेइ उपदेश त्यति स्वकल्पना । वलितेहि पूरूप करिओ धारणा ॥ १ इति रतिवाक्य चूलिका समाप्त । · Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सा अथ द्वितीय चूलिका। द्वितीय चूलिका कथा केवलिभापित । शुन मन दिया सवे, हइया संयत ।। कुरकण्डक नामक छिल एकजन । जैन धम्म भक्तियुक्त यति तपोधन ।। साध्वीर आदेश, तिनि करि अनशन । इतकाले कर्मफले हारान जीवन ।। मृत्युवार्ता शुनि साध्वी उद्विग्ना रमणी। सीमन्धर गुरुकाछे चलेन तखनि ।। भावेन उद्विग्ना मने किसेर कारण । करिलाम अनशने मुनि विनाशन ? गुरुके बलेन साध्वी आमि अभागिनी। तवादेशे कथा कहि मोक्ष-विधायिनी ।। एक साधु ममवाक्ये करिया विश्वास । हारायेछे प्राण इहा हयेछे प्रकाश ।। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܕ ܕ दश- वैकालिक सूत्र | द्वितीय चूलिका | नाहि दोप इथे मोर गुरो शुद्धाचार | तोमार प्रदत्त ज्ञान करेछि प्रचार ॥ शुनिया पूर्वोक्त कथा पुण्यशीलजन । चारित्र धर्मेते रत हन सर्व्वक्षण ||१ विषय-विकार रूप प्रवाहे पतित । सांसारिक जीव सव हतेछ वाहित ॥ प्रतिकूल: प्रवाहेते पालिया संयम । शुद्धचित्त पुण्यफल लभेन परम ॥ सुयोग संयमे कारो हइले कखन । ना करिवे व्यर्थ उहा. विज्ञ साधुजन ॥ मुभुक्षु साधकवर मोक्षलाभ तरे ।. सतत संयमे स्थिर राखेन - आत्मारे ॥२ अनुकूल विपयादि सुख आछे यत । निम्नगति जलराशि पतनेर मतः ॥ संसारई अनुस्रोत शास्त्रे उक्त हय । प्रतिस्रोत विपरीत जानिवे निश्चय ॥ • इन्द्रियादि जयकारी आस्रव भवोद्धारे प्रतिस्रोत जानिवे भूतले । सकले ॥ विषम | जनम मरण रूप संसार अनुस्रोत वलि उहा हय अनुगम ॥ संसारेर भोग लिसा हइते निस्तार । प्रतिस्रोत रूपे भवे हये -प्रचार ॥३ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र १७३ द्वितीय चूलिका। ज्ञानादि आचारे नित्य पराक्रमयुत । इन्द्रियादि निरोधक संवरे सुस्थित ।। संयम विशुद्धितरे देखिवे साधक । चा गुण ओ नियम पवित्र कारक ।। गृहेर विशुद्धि ज्ञान, अनियत वास । विशुद्ध वस्तुर प्राप्ति निर्जन निवास ।। वसन पात्रादि वस्तु-अल्प संरक्षण । कलह व्यापार हते दूरे आगमन ।। अप्रतिहत विशुद्ध साधुर विहार । पूर्वोक्त कार्येर नाम चर्या शुद्धाचार । गुण हय द्विप्रकार शुन साधु जन । मूल ओ उत्तर गुण संयम निदान । पिण्डेर विशुद्धि आदि आसेवना रूप । शास्त्रते कथित हय नियम स्वरूप ॥४ अनियत पान आर भिक्षा बहुरथाने । विशुद्ध वस्तुर लाभ संस्थिति विजने ॥ वस्त्र पात्र उपधिक, अल्प सरक्षण। कलह व्यापारे हाते दूर आगमन ॥ विहरण गतिस्थिति प्रशस्त मुनिरः । पालिवे सतत उहा करि बुद्धि स्थिर ।।५ जनताय परिपूर्ण कोलाहलयुतः।.. राजार दरवार किम्वा सभा समाहूत ।। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ दश वैकालिक-सूत्र । द्वितीय चूलिका। अथवा यथाय भय आछे लांछनार । स्वपक्ष वा परपक्ष हते अविचार ।। विहार चर्याय साधु पूरवेर स्थान । - तेयागिया अन्यस्थाने करिवे प्रस्थान ।। कथित सकल स्थान सदोप जानिवे। आकीर्ण स्थानेते सदा आघात पाइवे ॥ . अपमान स्थाने लाभ हयना काहार। आधा कर्म आदि दोप घटे वारंवार ॥ त्यजिया पूर्वोक्त दोष आहार्य ग्रहण । करिवेक यथारीति यति तपोधन ॥ हस्त मात्रकादि द्वारा संसृष्ट विधिते । भिक्षा आहरिवे भिक्षु जनशास्त्र-मते॥ निरवद्य आहारते हात लागाइवे । सावध वस्तुते हात कभु ना फेलिवे ॥६ मद्य मांस खाइवेना कभु साधुजन । करिवेना परद्वष भ्रमेओ कखन ।। सरस विकृत घृत आर दुग्धपान । करिवेना साधुजन पापेरं निदान ।। यातायाते किम्बा परिभोगे विकृतिर । कार्योत्सर्गकारी हवे साधु महावीर ।। वाचनादि कार्ये साधु हवे यत्नशील। पालिवे पूर्वोक्त विधि साधक सुशील ॥७ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वकालिक-सूत्र । १७५ . द्वितीय चूलिका। मासादि कल्प समाप्ति हले शुद्धप्राण । करिवना सेइ स्थाने साधु अवस्थान ॥ स्वाध्याय भूमि ओ शय्या भक्तपान एवे । आमाके सादरे तूमि अर्पण करिवे॥ करावेना एइरूप प्रतिज्ञा कखन । गृहस्थके साधुजन रमरि सत्यपण ॥ प्रामे वा श्रावककुले देशे वा नगरे । करिवेना माया कोन वस्तुर उपरे ।।८ गृहस्थर भोजनादि सेवा ना करिवे। वन्दना प्रणति पूजा साधुरा त्यजिवे ।। ये साधु-गणेर सङ्ग ना हय कखन । चारित्रेर हानि कभु जानि सर्वक्षण ।। ताहादेर संगे थाकि साधक सुमति । करिवेक मित्रभावे एकत्र वसति ।। साधु गुणाधिक किम्बा समगुण सखा। विहार कालेते यदि नाहि पाय देखा ॥ ताहले एकाकी त्यजि पापज आचार। अनासक्त हये कामे करिवे विहार ।।१० वर्षाऋतु काले साधु शुधु चारि मास । ऋतुबद्धकाले पुनः एकमास वास ॥ . एकस्थाने करिवेक संयम-प्रधान । आगम कथित इहा उत्कृष्ट प्रमाण ।। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दश-कालिक सूत्र | द्वितीय चूलिका । अतीत नाहले पुनः समय हिगुण । तथाय कभु ना करे साधुरा गमन ॥ चारिमास ऋवद्ध मासेर द्विगुण । समय ना ले गत साधुरा कखन ॥ चातुर्मास्य मासकल्प करिवेना तथा । ठिक पथे चलिषेक सूत्रे आहे यथा ॥ विधि वा निषेध वाक्य सूत्रे उल्लिखित । पालन करिव साधु हये सुविदित ॥१६ रात्रिर प्रथम भागे अथवा अन्तिमे । आत्मा द्वारा आत्मा देखे ये साधु मरमे ॥ ताहार कल्पित आलचिन्तन प्रकार । लिपिवद्ध करितेहि शुन एइवार ॥ यथाशक्ति करियाहि कोन तपोत्रत । अवशिष्ट आहे कोन कर्त्तव्य विहित ॥ आगमोक्त वैयावृत्ति आदि कर्म्म कत । सामध्ये धांकिते जहा हयं नाइ कृत" ॥१२ अपर, कोन कि त्रुटि, देखेन आमार । अल्प वैराग्य किवा हयेछे आत्मार ॥ कोन भ्रम दोषयुत अज्ञानजड़ित । करि नाइ त्याग आमि मायाय मोहित ॥ इत्यादि वाक्वेर अर्थ हये सावधान । आगमोक्त विधिवले बुझि भ्रमज्ञान ॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश- वैकालिक सूत्र | - द्वितीय चूलिका | भविष्यते जन्मावेना वाधा संयमेते । बुझिया चलिये साधु यह पृथिवीते ||१३ नियमित गतिपथे अश्व चालाइते । चालक अश्वके युक्त करे लागामेते ॥ तथा काय मनोवाक्ये संयम - विच्युत । स्वकीय आत्मा हेरि प्रमाद संयुत || - धीर साधु अवरोध, आत्मार विकार । करेन संयत आत्मा हये शुद्धाचार ॥१४ धैर्यशील जितेन्द्रिय ये साधु पुरुष । स्वहितालोचना - मतिरूप योग आसे ॥ काय - मनोवाक्ये सदा ताहाके सकले । संयमेते सावधान साधु श्रेष्ठ वले || पूर्व्वरूप गुणे युक्त सेइ साधुवर । सतत संयमे हुन वद्धपरिकर ॥१५ संयत - इन्द्रिय-युक्त संयमी साधक । स्वपर आत्मार हन सतत रक्षक ॥ परलोक समुत्पन्न अपाय हइते । करेण आत्मार रक्षा तिनि संयमेते । संसारे आवद्ध हय आत्मा अरक्षित । सर्व्वदु:ख मुक्त हय आत्मा सुरक्षित || तीर्थकर महापूज्य साधक याहारा । दियाछेन उपदेश हितार्थे ताहारां ॥ स्मरि सेइ उपदेश त्यजि स्वकल्पना । वलितेछि पूर्व्वरूप करिओ धारणा ॥ विविक्तच नामक द्वितीय चूलिका समाप्त | - १७७ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-वैकालिक-सूत्र। परिशिष्ट। रथनेमि ओ राजीमतीर उपाख्यान उग्रसेन नामे छिल राजा मिथिलाय । धारिणी ताहार राणी विख्यात धराय ।। कंस नामे एक पुत्र, कन्या राजीमती । प्रसव करेन राणी अति बुद्धिमती ।। अत्यन्त सुशीला छिल कन्या राजीमती । सुन्दरी परमा धन्या लक्ष्मीर मूरति ॥ यदुवंशे दशभ्राता छिल शौर्यापुरे। अतुल प्रतापशाली विख्यात समरे ॥ वसुदेव नामे छिल एक सहोदर । सकल कनिष्ट यिनि स्वधर्मतत्पर ।। रोहिणी देवकी छिल दुइ राणी तार। पति-सेवारता सदा अति शुद्धाचार ॥ • रोहिणी - पुत्रेर छिल वलभद्र नाम । केशव देवकीपुत्र छिल अभिराम ।। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश वंकालिक सूत्र | . परिशिष्ट । रथनेमि ओ राजोमतोर उपाख्यान । वसुदेव - ज्येष्ठ भ्राता समुद्रविजय । पालन करेन राज्य उदार हृदय ॥ समुद्रविजय पत्नी शिवा पुण्यवती । प्रसव करेन एक पुत्र सुमूरति ॥ अरिष्टनेमि नामेते तिनि ख्यात हन । कालक्रमे पान तिनि सुन्दर यौवन || राजीमती कन्या सह अरिष्टनेमिर | विवाह प्रस्तावे यान केशव सुधीर ॥ शुनि वार्त्ता विवाहेर राजा उग्रसेन । प्रफुल्ल हइया अति केशवे वलेन ॥ आसिले थाय वर विवाहेर दिने । राजीमती समर्पिव उल्लसित-मने ॥ raft विवाहवार्त्ता प्रचार हइल | माङ्गलिक कार्य्य सबै आरम्भ करिल || शंखेर ध्वनिते काँपे प्रासाद राजार। उध्वनि देय नारी करे गृहाचार ॥ अरिष्टनेमिके देन सुन्दर भूषण । सज्जित करेन तारे वरयात्रि - गण ॥ हाती घोड़ा सैन्य सह शिपिकारोहणे । अग्रसर हुन तिनि विवाह भवने ॥ १७९ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० दश-वकालिक-सूत्र। परिशिष्ट । रथनेमि ओ राजोमतोर उपाख्यान । पथे हेरि बहु दीन पशु पक्षिगण । खोयारे आवद्ध हये करिछे क्रन्दन । नेहारि एहेन दशा सारथिके वर । जिज्ञासे इहार वल कारण विस्तर ।। 'सारथि विनीतभावे क्ले नेमिनाथे। विवाहे एसेछे वहु धनिजन रथे। मांस खाद्य व्यवहृत भोजने हइये। राजसिक प्राणि वधे सन्तोप लभिवे ।। शुनि हिंसावाफ्य नेमि सारथिर मुखे । चिन्तित हलेन अति जनता सम्मुखे ॥ भावेन अरिएनेमि आमार कारण । हइवेक पशु - पक्षि - जीवेर निधन ।। परलोके ना हइवे मङ्गल आमार । अलीक भोगेर तरे जीवेर संहार ॥ त्यजिया कुण्डल आदि भूपण सकल । द्वारिकाय चले यान हइया विह्वल ।। तथा हते रैवतके यान क्षुन्नमन । करेन अरिएनेमि केश - उत्तोलन ॥ प्रवज्या लइया हन ध्यानेते तत्पर । भुलेन संसार-माया साधु योगपर। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१ दश-वैकालिक-सूत्र । परिशिष्ट । रथनेमि ओ राजोमतीर उपाख्यान । वासुदेव हेन काले प्रसन्न वदने। आशीर्वाद देन ताके निम्नोक्त वचने। हइवे अभीष्ट सिद्धि शीव्र आपनार । दर्शन चारित्र ज्ञान आसिवे सुसार॥ निर्लोभता आदि द्वारा हवेन उन्नत। . हइवेन भूभारते सर्वत्र विख्यात । रामभद्र केशवादि यादव सकल। नेमिनाथ - वन्दनार्थ हयेन विल्लल ।। यादव सकल आसे त्वरा द्वारिकाय । अरिएनेमिर ख्याति उच्चस्वरे गाय ।। एदिके राजार कन्या सती राजीमती । दीक्षित अरिएनेमि जानि बुद्धिमती ।। शोके दुःखे अतिशय हये नियमाण । हाय हाय वलि हन विहल - पराण ।। जनक जननी तार निरखिया भाव। अन्यसह विवाहेर करेन प्रस्ताव ।। से प्रस्तावे राजीमती हन अस्वीकृता । धरमेते स्थिर - मति हलेन वनिता ।। विचारि स्वामीर कार्यो त्याग शिक्षादान । धन्या हये त्याग धम्म हन आगुयान । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮૨ दश-वैकालिक सूत्र | परिशिष्ट । रथनेमि ओ राजीमतीर उपाख्यान निज मोहे राजीमती निजके धिक्कारे । त्यागधर्म्म उपजिल ताहार अन्तरे ॥ नेमिनाथ लभेछेन परमार्थ ज्ञान । करेछेन चतुर्विध संघेर स्थापन || शुनि हेन वार्त्ता तार उपजिल मने । नेमिनाथ तुल्य. साधु ना आछे भुवने ॥ नेमिनाथ हते दीक्षा करिते ग्रहण | राजीमती मने मने करेन चिन्तन || सार्थक हइवे मोर तुच्छ ए जीवन । नेमिनाथ हते दीक्षा करिले ग्रहण | भावेन संसारे थाकि आमि कि करिव । दीक्षा लाभे श्रेष्ठ पथे सत्त्वर चलिव ॥ जितेन्द्रिय राजीमती दीक्षिता हइते | वहिर्गत हइलेन आलय हइते ॥ केशव आशिष देन अति फुल्लचिते । उत्तीर्ण हइवे तुमि भवार्णव' ह'ते ॥ राजीमती शीघ्र करि सन्न्यास ग्रहण | करेन पवित्र चित्ते संयम पालन || एकदा श्री नेमिनाथे करिते दर्शन । रैवतक अभिमुखे करेन गमन ॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश-र्वकालिक-सूत्र । परिशिष्ट । रथनेमि ओ राजीमतीर उपाख्यान । मुसुल धाराय पथे वृष्टि आरम्भिल । राजीमती-देहवस्त्र सकलि भिजिल॥ अवशेपे कोनमते एकाकिनी हाय । लयेन आश्रय तिनि भीपण गुहाय ।। जनशून्या गुहा इहा भावि निज करे। शुकाइते निज वस्त्र क्षिपेन वाहिरे॥ अरिष्टनेमिर भ्राता संयम - तत्पर । गुहाते ध्यानस्त छिल भ्रमणेर पर ।। नग्न देहा राजीमती निरखिया तिनि । कामभावे विचलित हलेन अमनि ।। नेहारि ताहाके कांपे भीता राजीमती । लज्जास्थान करे ढाकि वसिलेन सती ।। भयभीता कुमारीके करिया दर्शन | काममत्त रथनेमि वलेन वचन ।। सुरूपे चन्द्र - वदने सुचारु-भापिणी । स्वामित्वे वरण कर मोरे अभागिनी ।। निर्भये उत्तर दाओ भूल पूर्व कथा । दोहे भुजि भोगसुख दूर कर व्यथा ।। मनुष्य जनम हय अतीव दुर्लभ । भोगपारे जैनमार्ग हइवे सुलभ ।। 11111 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ . .. परिशिष्टं। रथनेमि ओ राजीमतीर उपाख्यान । रथनेमि मनोवल :नष्टप्राय, हेरि। वलेन सुमिष्टस्वरे राज़ार कुमारी ॥ . जानिओ जगते .सवे कालेर, कवलें। पड़िवे मरणकाल आगत हइले ।।: धर्माधर्म विचारे ये शकति विहीन । जाति कुल रक्षाकरा ताहार कठिन ॥. वैश्रवण इन्द्र नल हते यदि तुमि । . अनादर करिताम राजीमती आमि ।। । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- _