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पूज्यश्री जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण विरचितं
जीतकल्पसूत्रम् ।
स्वोपज्ञभाष्येण भूषितम् ।
संशोधकः
प्रथमावृत्ति
वीर संवत् २४६४.
पूज्यपादप्रवर्त्तकश्री कान्तिविजय शिष्यपूज्यवर श्री चतुरविजयान्तिषद् मुनिपुण्यविजयः
વજ્રીલ નગીનદાસ
म. સવત ૧૯૯૮. ફાગણ
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प्रकाशितमिदम्"
अहम्मदाबादषास्तव्य - श्रेष्ठिवर-श्रीदोलतचन्द्रात्मज - श्रीप्रेमचन्द्रमोदीश्रेयोनिमित्तं तत्स्नेहि- पारेख
उत्तमचन्द्रात्मज - बी. ए. एल्. एल्. बी. इत्युपाधिधारि-रा. ब. श्रीगीरधरलालसमर्पितद्रव्यसाहाय्येन ।
भेजा
५००
विक्रम संवत् १९९४
श्री महापौर व आराधना कन्द्रः कोबा
सा. क्र.
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प्रकाशकःभाईश्री बबलचंद्र केशवलाल मोदी
हाजापटेलनी पोळ, अमदावाद.
धी डायमंड ज्युबिली प्रिन्टींग प्रेसमां परीख देवीदास छगनलाले छाप्यु. सलापोस रोड-अमदाबाद:
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स्मरणाञ्जलि.
धर्मात्मा श्रीयुत वकील केशवलाल प्रेमचंद मोदीनी प्रेमभरी प्रेरणाने परिणामे प्रस्तुत ग्रन्थनुं सम्पादन में तेमना तरफथी स्वीकार्य हतुं । आजे अत्यंत दीलगीरीनी बात छे के प्रस्तुत ग्रंथ अवलोकषा पहेलां तेओ आ दुनिआमांथी अवश्य थया छे । ante केशवलाल भाई ए बोजा वकीलोनी जेम असीलो साथै कूट गडमथल करी जाणनार वकील न हता पण प्रामाणिकपणे वर्त्तनार आदर्श वकील होषा उपरांत, तेओ धर्मात्मा, अपूर्व साहित्यप्रेमी अने साहित्यसेवक हता । भारतीय तेम ज पाश्चात्य साहित्यरसिक विद्वानोना तेओ मार्गदर्शक अने सहायक मित्र हता । पोताना जीवनमां तेमणे जैन साहित्यनी तेम ज जैन धर्मनी अनेक रीते सेवा बजावी छे । तेमना अभावथी जैन समा जने एक विरल साहित्य सेवीनी खोट पडी छे । हुं सद्गत वकील महाशयना आत्माने शान्ति इच्छी विरमुं छं ।
मुनि पुण्यविजय.
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हस्तलिखित प्रति प्रस्तुत ग्रन्थना संशोधनमाटे पूज्यपाद प्रवर्त्तक श्री १००८ श्री कान्तिविजयजी महाराजना वडोदराना हस्तलिखित जैन ज्ञानभंडारनी नवी लखापल मात्र एक ज प्रतिनो आधार लेवामां आव्यो छे । आ प्रतिने, लींबडीना जैन ज्ञानभंडारनी कोई बिद्वाने सुधारेल प्राचीन प्रतिना आधारे में सुधारी हती । आ उपरांत प्रस्तुत ग्रंथने सुधारवा माटे आवश्यक निर्युक्ति, पिण्डनिर्युक्ति, ओघ नियुक्ति, व्यवहारभाष्य, बृहत्कल्पभाष्य, पंचकल्पभाष्य वगेरे ग्रन्थोनो पण उपयोग करवामां आव्यो छे अने जेम बने तेम प्रस्तुत ग्रन्थने शुद्ध करवा माटे प्रयत्न करवामां आव्यो छे ।
॥ अर्हेम् ॥
प्रस्तावना
Comprasics
प्रस्तुत ग्रन्थनी हस्तलिखित प्रतिमां अमे बे खास विशेषताओ जोई छे । एक परसवर्णविषयक अर्थात् अब्भङ्गिय देन्तो होन्ति अणहिया सेन्ते हि आ प्रमाणे घणे ठेकाणे प्राचीन समयथी करेला परसवर्णो छे । अने बोजी विशेषता -- ज्यां ज्यां प्रस्तुत ग्रन्थनी जे जे सूत्रगाथानुं भाष्य समाप्त थाय छे त्यां ते ते गाथाना अंकने ताडपत्रीय प्रतोमां आवता पत्रांकदर्शक अक्षरांको द्वारा दर्शाववामां आव्यो छे । उपरोक्त परसवर्ण अने गाथादर्शक अक्षरांको आखा ग्रन्थमां करवामां आव्या हशे परंतु लेखकादिनी अज्ञानताने लोधे केटलेक ठेकाणे आ वस्तु कायम रही छे अने केटलेक ठेकाणे एमां परिवर्तन पण थयुं छे । अमे, आ बन्नेय वस्तुओं अमारा पासेनी प्रतिमां जे प्रमाणे मळी छे ते रोते कायम ज राखी छे । आथी अमे पटलुं ज जणाववा इच्छीए छोए के आ ग्रंथमां परसवर्ण वगेरे जे छे ते अमे हस्तलिखित प्रतिने आधारे ज करेला छे ।
जीतकल्पभाष्य - प्रस्तुत भाष्यग्रंथ प कल्पभाष्य, व्यवहारभाष्य, पंचकल्पभाष्य, पिण्डनिर्युक्ति वगेरे ग्रन्थोमी गाथाना
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संग्रहरूप ग्रन्थ छे । कारण के आ ग्रन्थमां पवी ढगलाबंध गाथाओ छे जेने उपरोक्त ग्रन्थोमांनी गाथाओ साथे अक्षरशः सरखावी शकाय ।
ग्रन्थकार- आ पुस्तकमां जीतकल्पसूत्र अने तेना भाष्यनो समावेश करवामां आव्यो छे । जीतकल्पसूचना प्रणेता भगवानू जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण छे ए निर्विवाद हकीकत छे । आ संबंधमां तेम ज भगवान् जिनभद्रगणिना समय निर्णय विषे विद्वद्वर्य श्रीमान् जिनविजयजीए पोते संपादन करेल चूर्णि सहित जीतकल्पसूत्रनी प्रस्तावनामां सविस्तर आलोचना करी छे । एटले आ विषयना जिज्ञासुओने ते प्रस्तावना जोवा भलामण छे । अहीं मारे मात्र एटलुं ज कहेवानुं छे के जीतकल्पभाष्यना कर्त्ता कोण छे ? । प्रस्तुत भाष्यमां कोई पण ठेकाणे भाष्यकारे पोताना नामनो उल्लेख कर्यो नथी, नथी चूर्णिकारे प्रस्तुत भाष्यनो पोताना ग्रन्थमां क्यांय उल्लेख कर्यो, तेम तेषो बीजो कोई एवो स्पष्ट उल्लेख पण मळतो नथी जेना आधारे भाष्यकारना नामनो चोक्कस निर्णय करी शकाय । तेम छतां प्रस्तुत जीतकल्पभाष्यनी
-
तिसमयहारादीणं, गाहाणऽट्ठण्ह वी सरूवं तु ।
बित्थरयो वण्णेज्जा, जह डेट्ठाऽऽवस्सए भणियं ॥ ६१॥ आ गाथामांना " जह हैट्ठाऽऽवस्लप भणियं ए पाठ तरफ ध्यान आपतां आपणने सहेजे एम थाय छे के -अहीं " स्सए भणियं " पटलो ज पाठ बस छतां भाष्यकारे वधारानो
जह आव
66
33
।
हेट्ठा शब्द शामाटे मूक्यो ? पूरणार्थक शब्द नथी के आपणे खरु जोतां ग्रन्थकारो
66
हेट्ठा
66
66
अनुक्रमे पूर्व " अने " अग्रे " अर्थमां ज वापरे छे । दा. त. " हेट्ठा भणियं " अर्थात् पूर्वं भणितम्; " उवरिं वोच्छं " अर्थात् अग्रे वक्ष्ये । आ उपरथी ए फलित थाय छे के-" प्रस्तुत जीतकल्प " ग्रंथना भाष्यकारे " तिसमयहार " अर्थात् जावइया तिसमया - " ( आव० निर्युक्ति गाथा ३० ) इत्यादि आठ गाथाओनुं स्वरूप पूर्वे आवश्यकमां विस्तारथी वर्णव्युं छे " आवइया तिसमया० आदि गाथाओं
। आध
श्यक निर्युक्त्तयन्तर्गत
66
"
हेट्ठा शब्द ए कोई पाद
चलावी लईए ।
ए बे शब्दोने
در
तेम मानीने " अने " उबरिं '
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33
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भाध्यग्रंथ द्वारा विस्तृत व्याख्यान करनार भगवान् जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण सिधाय बीजं कोई ज नथी। एटले मारी ए दृढ मान्यता छ के-प्रस्तुत जीतकल्पभाष्यना प्रणेता भगवान् श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण छ ।
भाष्यकार तरीके बे आचार्यों जाणीता छे । एक भगवान् श्रीसंघदासगणि क्षमाश्रमण अने बीना पूज्य श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण । कल्पबृहद्भाष्य वगेरेना प्रणेता कोण छे ? ए निर्णीत नथी, पण ए आ बे करतां कोई त्रीजाज आचार्य छे एम अमे मानीए छीए । अस्तु, ए गमे ते हो, तो पण पूज्य श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रणनी महाभाष्यकार तरीकेनी ख्याति होई प्रस्तुत भाष्यमां तेमना पूर्व थई गएल भगवान् श्रीसंघदासगणि कृत भाष्यग्रन्थादिनी गाथाओ होवामां कोई पण प्रकारनो विरोध नथी।
विषय-प्रस्तुत ग्रन्थमां जैन निन्थ-निर्ग्रन्थीओना जुदा जुदा अपराधस्थानविषयक प्रायश्चित्तोर्नु जोतव्यवहारने आश्री निरूपण करवामां आव्युं छे । जे विषयानुक्रमणिका जोवाथी स्पष्ट रोते जाणी शकाशे ।
अंतमा हुँ एटलं ज इच्छु छु के प्रस्तुत ग्रन्थना संशोधनमां सावधानी राखवा छतां स्खलनाओ रहेवा पामी होय तेने विद्वानी क्षमापूर्वक सुधारीने वांचे।
निवेदक
पुण्यविजय ।
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विषयानुक्रमणिका
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विषय.
भाष्यगाथा. सूत्र गाथा १ मंगल अभिधेयादि 'प्रवचन' शब्दनो निरुक्तार्थ 'प्रायश्चित्त' शब्दनो निरुक्तार्थ आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा अने जीत व्यवहार ७-८
आगमव्यवहार 'आगम' व्यवहारना भेद-प्रभेदो अने प्रत्यक्ष आगम परोक्ष आगम
९-१० प्रत्यक्ष-परोक्ष आगमनुं स्वरूप 'अक्ष' शब्दनी व्युत्पत्ति
१२-१३ 'अक्ष'ना अर्थ संबंधे अन्य मतनो निर्देश अने प्रतिषेध
१४-२२ 'नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष आगम'नी त्रिविधता:
२३-२४ अवधि मनःपर्याय-केवल अवधिज्ञान
२५-७३ अवधिज्ञाननी प्रकृतिओ
२५-३१ भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान गुणप्रत्ययिक अवधिज्ञान 'अवधि' नुं स्वरूप
३५-३६ 'अवधिज्ञान 'ना छ भेदो आनुगामिक अवधि अनानुगामिक अवधि
४७-४९ वर्धमानक अवधि
५०-६१ हीयमानक अवधि प्रतिपाती अवधि
६३-६४ अप्रतिपाती अवधि
६५-६७ द्रव्यावधि क्षेत्रावधि
४
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३८-४६
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عی
कालावधि
७०-७१ भावावधि
७२-७३ मनःपयव ज्ञान
७४-८९ मनपर्यव ज्ञानना बे भेदः ऋजुमति-विमलमति द्रव्यमनःपर्यव
७५ क्षेत्रमनःपर्यष
७६-८१ कालमनःपर्यव
८२-८३ भावमनःपर्यव
८४-८५ 'मनःपर्यव ज्ञान 'नो विषय
८६-८८ ऋजुमति-विपुलमति केवलज्ञान केवलज्ञान- स्वरूप
९०-१०४ केवलज्ञानिमां मति वगेरे ज्ञाननो अभाव आदि १०५-९ परोक्षागमव्यवहारी
११०-१६ "प्रायश्चित्त' नी न्यूनता-अधिकता संबंधी पृच्छा अने उत्तर
११७-२४ प्रायश्चित्तदानयोग्य
१२५-३१ आलोचनाश्रवणनो क्रम
१३२.४८ प्रायश्चित्त देनारनी योग्यता अयोग्यता
__ संबंधी विचार प्रायश्चित्तनां अढार स्थानो
१४९-५४ प्रायश्चित्तनां बत्रीश स्थानो
१५५-६० आठ संपदा
१६१-६२ चार प्रकारनी आचारसंपदा चार प्रकारनी श्रुतसंपदा
१६७-७० चार प्रकारनी शरीरसंपदा
१७१-७४ चार प्रकारनी वचनसंपदा
१७५-७८ चार प्रकारनी वाचनासंपदा
१७९-८४ चार प्रकारनी मतिसंपदा
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चार प्रकारनी प्रयोगमतिसंपदा चार प्रकारनी संग्रहपरिज्ञासंपदा प्रायश्चित्तनां छत्रीश स्थानो चार विनयनी प्रतिपत्तिओ चार प्रकारे आचारविनय चार प्रकारे श्रुतविनय चार प्रकारे विक्षेपणविनय चार प्रकारे दोषनिर्घातविनय आगमव्यवहारी
' आलोचना' ना दश गुणो प्रायश्चित्त आपनार योग्य ज्ञानिओना अभाव थये प्रायश्चित्त केम संभवे ? एवो शिष्यनो प्रश्न अने आचार्यनो उत्तर दश प्रकारे प्रायश्चित्त
प्रायश्चित्त देवानो विभाग प्रायश्चित्तना करनाराओनुं अस्तित्व सापेक्षपणे प्रायश्चित्त देवामां लाभ अने निरपेक्षपणे प्रायश्चित्त देवामां अलाभ चारित्रना अस्तित्वनी सिद्धि निर्यापकोनो अव्यवच्छेइ
भक्तपरिज्ञानो विधि निर्व्याघात अने सव्याघात एवी सपराक्रमभक्तपरिज्ञानुं स्वरूप
द्वारगाथाओ
गणनिस्सरणद्वार
श्रितिद्वार
संलेखनाद्वार
अगीतद्वार असं विग्नद्वार एकद्वार
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१९२-९७
१९८-२०६
२०७-११ १९
१९
१९
२०
૨૦
२१
२१
૨૨
२१२-१३
२१४-२२
२२३-२५
२२६-३३
२३४-४१
२४२-५४
२४५
२५५-६२
२६३-७३
२७४
२७५-९०
२९१-९९
३००-११
३१२-१८
३१९-२१
३२२-५११
३२७
३२७-३१
३३२-३७
३३८ ४०
३४१-५५
३५६-६९
३७०-७७ ३७८-८०
१७
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२३
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२४
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२६
२७
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२८
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२९
२९
३०
३०
३१
३२ ३३
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GEEKAN
आयोगद्वार
३८१-८६ अन्यद्वार
३८७-८८ अनापृच्छाद्वार
३८९-९१ परीक्षाद्वार
३९२-४०७ आलोचनाद्वार
४०८-२३ स्थान-बसतिद्वा
४२४-३२ निर्यापकद्वार द्रव्यदापनाद्वार
४३८-४७ हानिद्वार
४४८-५० अपरितान्तद्वार
४५१-५२ निर्जराद्वार
४५३-५७ संस्तारकहार
४५८-६० उद्वर्तनाद्वार स्मारणाद्वार
४६४-७५ कवचधार
४७६-९० चिह्नकरणद्वार
४९१-९२ यतनाद्वार
४९३-१७ निर्व्याघात अने सव्याघात एवी
अपराक्रमभक्तपरिज्ञानुं स्वरूप ४९८-५११ इंगिनीमरण
५१२-१५ पादपोपगमन
५१६-५९ श्रुतव्यवहार आज्ञाव्यवहार
५६५-६५४ अपरिणत, अतिपरिणत अने परिणत . शिष्यानी परीक्षा अथवा तेमनु स्वरूप ५६५-८८ दर्पना दश प्रकार
५८९-९९ कल्पना चोवीश भेद
६००-१६ दर्प कल्प आदि पदोना भांगाओ
६१७-५४ धारणाव्यवहार
६५५-७४
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५९
जीतव्यवहार
६७५-९४ सावध अने असावध जीतव्यवहार
६८७-९४ व्यवहारना स्वरूपनो उपसंहार
६९५-७०५ सूत्र गाथा २-३ प्रायश्चित्तनुं माहात्म्य
७०६-१७
सूत्र गाथा ४ प्रायश्चित्तना दश भेदो आलोचना
७१८ प्रतिक्रमण
७१९ मिश्र-आलोचना अने प्रतिक्रमण बन्ने ७२०-२१ विवेक
૭૨૨ व्युत्सर्ग
७२३ तप छेद
७२५ मूल
७२६ अनवस्थाप्य
७२७-२८ पासंचिक
७२९-३० सूत्र गाथा ५-८ आलोचनाप्रायश्चित्तने योग्य अपराधस्थानो ७३१-८३ 'छद्म 'नो अर्थ
७३५ सूत्र गाथा ९-१२ प्रतिक्रमणप्रायश्चित्तने योग्य अपराधस्थानो गुमिओन स्वरूप
७८४-८६ मनोगुप्ति विशे जिनदासन उदाहरण ७८७-९० वचनगुप्ति विशे कोई साधुनुं उदाहरण ७९१-९६ कायगुप्ति विशे कोई साधुनुं उदाहरण ७९७-९९ कायगुप्ति विशे बीजं उदाहरण
८००-३ समितिओनुं स्वरूप
८०४-१७ ईर्यासमिति विशे अहम्नकन उदाहरण ८१८-१९ भाषासमिति विशे कोई साधुनुं उदाहरण ८२०-२५
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७६
एषणासमिति विशे वसुदेवना जीव नंदिवर्धननुं उदाहरण
८२६-४७ आदाननिक्षेपणासमिति अने तेना विशे उदाहरण
८४८.५३ पारिष्ठापनिकासमिति अने तेना
विशे धर्मरुचिर्नु उदाहरण गुरुनी आशातनानुं स्वरूप
८६१-७१ गुरु अने शिष्यनां वचनो
८६९-७१ गुरुना विनयना भंगर्नु स्वरूप
८७२-७७ प्रकारान्तरे विनयभंगना सात प्रकारो इच्छाधकरणनी व्याख्या
८७९-८१ लघुस्वमृषापादनु स्वरूप
८८२-९०५ प्रतिकमणप्रायश्चित्तने योग्य अपराधस्थानसूचक अविधि कास ज़म्भा क्षुत धात असंक्लिष्टकर्म कन्दर्प हास्य धिकथा कषाय विषयानुषंग स्खलना सहसा अनाभोग आभोग स्नेह भय शोक बाकुशिक आदि पदोनी व्याख्या ९०६-३२
सूत्र गाथा १३-१५ आलोचना अने प्रतिक्रमण ए बन्ने
प्रायश्चित्तने योग्य अपराधस्थानो संभ्रम भय आपत् अनात्मवशता दुश्चिन्तित आदि पदोनी व्याख्या
सूत्र गाथा १६-१७ विवेक प्रायश्चित्तने योग्य अपराधस्थानो पिंड उपधि शय्या कृतयोगी कालातीत
अध्यातीत शठ अशठ उगत अनुगत कारणगृहीत आदि पदोनी व्याख्या ९५५ ७१
सूत्रगाथा १८-२२ व्युत्सर्ग प्रायश्चित्तने योग्य अपराधस्थानो
७८
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गमन आगमन विहार श्रुत साथस्वप्न नावा
नदीसन्तार अर्हत आदिपदोनी व्याख्या ९७२ ९० * उच्छास 'नुं प्रमाण वगेरे
९९१-९७ सूत्र गाथा २३-७९ तपःप्रायश्चित्तने योग्य अपराधस्थानो
सूत्रगाथा २३-३४ 'ज्ञान' ना आठ अतिचारो
९९८-१०३० 'दर्शन' ना आठ अतिचारी
१०३१-६८ छ व्रतरूप चारित्रना अतिचारो
१०६९-८६
सूत्र गाथा ३५ चारित्रोद्मनु स्वरूप
१०८७-९४ उद्मना सोल दोषो आधाकर्मनो विचार संयमश्रेणि
१९०६-१० औद्देशिकनो विचार
११९५-१२०२ पूतिकर्मनो विचार
१२०३-१५ मिश्रजातनो विचार
१२१६-१८ स्थापना दोषनो विचार
१२१९-२३ प्राभृतिका दोषनो विचार
१२२४-३७ प्रादुकरण दोषनो पिचार
१२३८-४० क्रीत दोषनो विचार
१२४१-४४ प्रामित्य दोषनी विचार
१२४५-४६ परावर्तित दोषनो विचार
१२४७-४८ अभ्याहृत दोषनो विचार
१२४९-५५ उद्भिन्न दोषनो विचार
१२५६ ६८ मालाहत दोषनो विचार
१२६९-७३ आच्छेद्य दोषनो विचार
१२७४ अनिस्पृष्ट दोषनो विचार
१२७५-८२ अध्यवपूरक दोषनो विचार
१२८३-८६ कोटि शब्दनो अर्थ अने तेनुं स्वरूप १२८७-१३१२
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१०५
१०७ १०७ १०८ १०८ १०८ १०८
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११०
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उत्पादनानुं स्वरूप
१३१३-१८ उत्पादनाना निक्षेपो
१३१४ उत्पादनाना सोल दोषा
१३१९-२० धात्रीदोष
१३२१-२४ धात्रीना (धावमाताना) पांच प्रकार
१३२२ दूतीदोष
१३२५-४० निमित्तदोष
१३४१-४९ आजीवदोष
१३५०-६१ वनीपकदोष
१३६२-८३ चिकित्सापिण्ड
१३८४-९२ क्रोध वगेरे दोषो क्रोधपिंड विशे क्षपकन उदाहरण मानपिंड विशे क्षुल्लकनुं उदाहरण
१३९६-९७ मायापिंड विशे आषाढभूतिर्नु उदाहरण १३९८-१४११ लोभपिंड विशे 'सिंहकेसर' नामना मोदकने इच्छनार क्षपकनुं उदाहरण १४१२-२० संस्तवदोष
१४२१-३६ विधा अने मन्त्रदोष
१४३७ विधा अने मंत्रनो तफावत
१४३८ विद्या विशे भिक्षुपासकन-बौद्ध उपासकनुं उदाहरण
१४३२-४४ मन्त्र विशे पादलिप्त अने मुरुडराजनुं उदाहरण
१४४५-४७ चूर्णदोष, योगदोष अने मूलकम दोष
१४४८ चूर्णदोष बाबत बे क्षुल्लकनुं उदाहरण १४४९-५७ योगदोष
१४५८-६० योगविशे ब्रह्मद्वैपिक तापसोनुं उदाहरण १४६१-६७ मूलकर्म
१४६८-७२ ग्रहणैषणानुं स्वरूप
१४७३-७५ ग्रहणेषणाना दश प्रकार
१४७६ शंकित दोष
१४७७-९०
१२१ १२२
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१२३
१२३
१२३ १२४
१२४
१२५
१२६
१२६
१२६
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शैका विषयक चतुर्भङ्गी
१४७८ १२६ म्रक्षित दोष
१४९१-१५११ ૧૨૭ निक्षिप्त दोष
१५१२-४५ १२९ पिहित दोष
१५४६-५७ संहृत दोष
१५५८-६७ १३२ दायक दोष
१५६८-८२ उन्मिश्र दोष
१५८३-८६ अपरिणत दोष
१५८७-९३ लिप्त दोष
१५९४-९९ १३५ छर्दित दोष
१६००-४ ग्रासैषणानुं स्वरूप
१६०५-२० १३६ संयोजना दोष
१६११-२१ १३६ प्रमाण दोष
१६२२-४२ अंगार दोष
१६४३-४८ १३९ धूम दोष कारण दोष
१६५६-७० उपसंहारादि
१६७१-७९ सूत्र गाथा ३६-४४ पिण्ड विशुद्धि विषयक अतिचारोने आश्री प्रायश्चित्त
१६८०-१७१९ १४२ सूत्र गाथा ४५-५९ तपःप्रायश्चित्तने योग्य धावल डेपन संघर्ष गमन क्रीडा उत्कृष्ट गीत सेण्टिका जीवरूतादि पदोनुं स्वरूप
१७२०-२४ १४६ तपःप्रायश्चित्तने योग्य जघन्य मध्यम उत्कृष्ट उपधिने आश्री विच्युत विस्मृत अप्रेक्षित
अनिवेदन आदि पदोनुं स्वरूप १७२५-४१ १४७ तपःप्रायश्चित्तने योग्य कालातीतकरण
अध्यातीतकरण तत्परिभोग पानासंवरण भूमित्रिकाप्रेक्षण आदि पदो १७४२-५२ १४८
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૧૬
तपःप्रायश्चित्तने योग्य कायोत्सर्गभंग कार्यो
त्सर्गअकरण वेगवन्दनादि रात्रिव्यु: त्सर्गादि दिवसशयनादि पदो
१७५३-६० तपःप्रायश्चित्तने योग्य चिरकषाय आसव
लशुनादि तर्णादिबन्धनादि पुस्तकपश्चकतृणपञ्चक-दूष्यपश्चकाप्रतिलेखनादि स्थापनाकुलप्रवेशादि पदो
१७६१-७७ १५० तपःप्रायश्चित्तने योग्य दर्प पञ्चेन्द्रियव्य
परोपण संक्लिष्टकर्म दीर्धाधकल्प ग्लानकल्प आदि पदो
१७७८-८७ १५२ तपःप्रायश्चित्तने योग्य छेदादि अश्रद्धानादि पदो
१७८८-९४ १५३ सूत्र गाथा ६०-७९ सामान्य अने विशेषपणे आपत्ति अने
दानविषयक तपनो द्रव्य क्षेत्र काल भाव पुरुष प्रतिसेवना आदिने आश्री विभाग
१७९५-२२७९ १५४
सूत्र गाथा ६०-६३ तपप्रायश्चित्तने आश्री सामान्य अने विशेष आपत्ति अने दान- स्वरूप १७९५-१८११ १५४
सूत्र गाथा ६४-६५ द्रव्यन स्वरूप अने तेने आश्री तपोदाननो विचार |
१८१२-१९ १५६
सूत्र गाथा ६६ क्षेत्रनुं स्वरूप अने तेने आश्री तपोदाननो विचार
१८२०-२३ १५६
सूत्र गाथा ६७ कालतुं स्वरूप अने तेने आश्री तपोदाननुं विस्तृत वर्णन
१८२४-१९३३ १५७
१८२०-२३
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भावनुं स्वरूप अने तेने आश्री तपोदाननुं स्वरूप
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सूत्र गाथा ६८
सूत्र गाथा ६९-७३
पुरुषना प्रकारो अने तेने आश्री तपोदाननुं स्वरूप
सूत्र गाथा ६९ गीतार्थ, अगीतार्थ, सहनशील, असहनशील, शठ, अशठ, परिणामी, अपरिणामी, अतिपरिणामी पुरुषोनुं स्वरूप सूत्र गाथा ७०
धृतिसंहननोपेत अने हीन, आत्मतर, परतर, उभयतर, नोभयतर अने अन्यतर पुरुषो
सूत्र गाथा ७१
कल्पस्थित अने अकल्पस्थित आदि पुरुषोनुं वर्णन
स्थितशब्दना एकार्थिको
छ प्रकारनी कल्पस्थिति
शय्यातरकल्पनु स्वरूप राजपिण्डकल्पनुं स्वरूप
कृतिकर्मकल्पनुं स्वरूप
व्रतकल्पनुं स्वरूप पुरुष ज्येष्टकल्पनुं स्वरूप प्रतिक्रमणकल्पनुं स्वरूप
दशप्रकारनो कल्प अने तेनो अवस्थित अनवस्थित तरीकेनो विभाग
आचेलक्यकल्पनुं स्वरूप औद्दे शिक कल्पनुं स्वरूप
१९३८-२२६२
For Private
१९३४-३७
Personal Use Only
१९३८-५७
१९६५-२१९५
१९६५-६६ १९६७
१९५८-६४
१६६
२०२२-४८
२०४९-५५
१६६
१६६
१६८
१६९
१६९
१६९
१९६८-७४
१६९
१९७५-८९
१६९
१९९०-९१ १७१
१९९२-९५
१७१
१९९६-२०१२
१७१
२०१३-१६
२०१७-२२
१७३
१७३
१७३
१७५
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मासकल्पनुं स्वरूप पर्युषणाकल्पनुं स्वरूप आदि
परिहारकल्पनुं स्वरूप
जिनकल्पनुं स्वरूप
स्थविरकल्पनुं स्वरूप
परिणत, अपरिणत, कृतयोगी, अकृतयोगी, तरमाण, अतरमाण पुरुषोनुं स्वरूपादि
कल्पस्थितादि पुरुषीने आश्री तपोदान विभाग
जीतयन्त्रविधि आदि
૧૮
सूत्र गाथा ७२
सूत्र गाथा ७३
प्रतिसेवनानु स्वरूप अने तेने आश्री तपोदाननो विभाग आदि
सूत्र गाथा ७४-७९
छेदप्रायश्चित्तने योग्य अपराधस्थानो
सूत्र गाथा ८०-८२
मूलप्रायश्चित्तने योग्य अपराधस्थानो
२०५६-९३ २०९४-२१०९
२११०-५६
२१५७-७८
२१७९-८४
अनवस्थाप्यप्रायश्चित्तने योग्य अपराधस्थानो
सूत्र गाथा ८३-८६
हस्ततालनुं स्वरूप हस्तालंबनुं स्वरूप
हस्तादाननुं स्वरूप अने अवसन्नाचार्यं
दृष्टान्त
२१९६-२२६२
सूत्र गाथा ८७-९३
For Private Personal Use Only
२१८५-९२
२१९३-९५
२२६३-७९
२२८०-८७.
२२८८-२३००
२३०१-२४६२ २३७१-८९
२३९०-९२
सूत्र गाथा ९४-१०१
पारांचिकप्रायश्चित्तने योग्य अपराधस्थानो २४६३-२५८५
२३९३-२४१०
१७६
१७९
१८०
१८४
१८६
१८६
१८७
१८८
१९३
१९६
१९६
१९८
२०३
२०५
२०५
२११
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सूत्र गाथा ९४ तीर्थकर प्रवचन श्रुत आचार्य आदिविषयक आशातना पारांचिकनुं स्वरूप
२४६३-७६ २११
सूत्र गाथा ९५ कषायदुष्ट अने विषयदुष्ट पारांचिकन स्वरूप
२४७७-२५२२ २१३
सूत्र गाथा ९६ स्त्यानद्धिप्रमत्तपारांचिक, अन्योन्यकुर्वाणपारांचिकनुं स्वरूप
२५२३-३९ २१६ सूत्र गाथा ९७-१०१ लिंगपारांचिक, क्षेत्रपारांचिक, कालपारांचिक आदिनुं स्वरूप
२२४०-८५
सूत्र गाथा १०२ अनवस्थाप्य अने पारांचिकनो सद्भाव भद्रबाहु सुधी
२५८६-८७ २२२
सूत्र गाथा १०३ जीतकल्पनो उपसंहार
२५८८-२६०६ जीतशब्दनो अर्थ
२५८८-८९ રરરૂ कल्पशब्दनो अर्थ
२५९०-९३ २२३ जीतकल्पशास्त्रना अध्ययनना अधिकारी २५९४-२६०६ ।। રરરૂ
२२३
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॥ ॐ नमो जिनाय ॥ आचार्यश्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणविरचितं
जीतकल्पसूत्रम्। स्वोपज्ञभाष्येण भूषितम् ।
सुत्तं-कयपवयणप्पणामो, बुच्छं पच्छित्त-दाणसंखेवं ।
जीयव्यवहारगयं, जीवस्स विसोहणं परमं ॥१॥ पवयण दुवालसंग, सामाइयभाइ बिंदुसारंतं ।
प्रवचनम् अहव चउबिह संघो, जत्थेव पइट्ठियं नाणं ॥१॥ अहवा पगयपसत्थं, पहाणवयणं व पवयणं तेण । अहव पवत्तयतीई, नाणाई पक्यण तेणं ॥२॥ जीवाइपयत्था वा, उवदंसिज्जति जत्थ संपुण्णा। सो उवएसो पवयण, तम्मि करेत्ता णमोकारं ॥३॥ वोच्छं वक्खामि त्ती, पच्छित्तं दसह एय उवरितु । प्रायश्चित्तम् वण्णेहामि सवित्थर, किं भणियं होति पच्छित्तं ? ॥४॥ पावं छिंदति जम्हा, पायच्छित्तं ति भण्णते तेणं । प्रायश्चित्तस्य
निरुक्तम् पायेण वा वि चित्तं, सोहयई तेण पच्छित्तं ॥५॥ पणगादी आवत्ती, णिविगइअमादि एत्थ दाणं तु । संखेव समासो त्ति व, ओहो त्ति व होंति एगट्ठा ॥६॥
१ दुवालसंग-द्वादशाङ्ग आचाराङ्गादि दृष्टिवादान्तम् । सामायिकसूत्रं “करेमि भंते !” इत्यादिकम् । बिन्दुसार इति चतुर्दशं पूर्वम् ।। २ पगयपसत्थं प्रकृते प्रशस्तम् ।।
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स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[गाथा आगमादिव्य- किं अस्थी अण्णे वी, ववहारा जेण जीतगहणं तु ? | वहारपञ्चकम् भण्णति चउरऽस्थऽण्णे, आगममादी इमे सुणसु ॥७॥
पंचविहो ववहारो, दुग्गइ-भवमूरएहि पण्णत्तो।
आगम सुय आणा धारणा य जीए य पंचमए ॥८॥ आगमव्यव
आगमओ क्वहारो, सुणह जहा धीरपुरिसपण्णत्तो। हारमेदप्रभेदाः
पञ्चक्खो य परोक्खो, सो विह दुविहो मुणेयवो ॥९॥ पञ्चक्खो वि य दुविहो, इंदियजो चेव नोयइंदियजो ।
इंदियपञ्चक्खो वि य, पंचसु विसएमु णायव्वो ॥१०॥ प्रत्यक्षपरोक्षयोर्लक्षणम्
जीवो अक्खो तं पति, जं वट्टइ तं तु होति पञ्चक्खं ।
परओ पुण अक्खस्सा, बट्टतं होइ पारोक्ख ॥११॥ 'अक्षपदस्य
'असु वावण'धाऊओ, अक्खो जीवो उ भण्णए णियमा । निरुक्तम्
जं वावयए भावे, णाणेणं तेण अक्खो त्ति ॥१२॥ 'अस भोयणम्मि' अहवा, सव्वद्दव्वाणि भोगमेतस्स ।
आगच्छंती जम्हा, पालेड़ य तेण अक्खो त्ति ॥१३॥ दर्शनान्तरी- केसिंचि इंदियाई, अक्खाई तदुवलद्धि पञ्चक्ख । यामिमतस्य
तं तु ण जुज्जति जम्हा, अग्गाहगमिदियं विसए ॥१४॥ प्रत्यक्षलक्षण
रूवादीविसयाणं, जीवो खलु इंदिएहि उवलभगो।
जम्हा मतम्मि जीवे, ण इंदिया उवलभे विसयं ॥१५॥ ७ अत्थी सन्ति इत्यर्थः, “ अत्थिस्त्यादिना” (सि० ८-४-१४८ ) इति सूत्रेण सर्वेष्वपि वचनेषु 'अत्थि 'रूपभवनात् । दीर्घत्वं तु"नीया लोवमभूया, य आणिया दीह-बिंदु-दुब्भावा । अत्थं गति तं चिय, जो तेसिं पुत्वमेवाऽऽसि ॥” इति वचनात् । एवमग्रेऽपि “वी, पासती, अक्खस्सा, आगच्छंती, अण्णत्था, सुणसू, वोच्छामी, सुत्तम्मी, कज्जस्सा" इत्यादिषु यत्र दीर्घत्वं "परवाइण, गोणसाइण" इत्यादिषु च यत्र ह्रस्वत्वं दृश्येत तत्रायमेव नियमो ज्ञेयः । चउरऽत्थऽण्णे चत्वारः सन्ति अन्ये इत्यर्थः ॥ ८ दुग्गइ-भवमूरपहिं दुर्गति-संसारभञ्जकैः तीर्थकरैः पूर्वर्षिभिवेत्यर्थः ॥ १५ मत्तम्मि मृते ॥
स्य खण्डनम्
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३
जीतकल्पसूत्रम् । तम्हा विसयाणं खलु, अग्गाहगमिंदियं भवइ सिद्ध । जं इंदिएहि नज्जइ, तं नाणं लिंगियं होइ ॥१६॥ लिंगं चिंध निमित्तं, कारणमेगट्टियाइँ एयाई । जाणाइ इंदिएहिं, जीवो धूमेण अग्गिं व्व ॥१७॥ एवं खु इंदिएहि, जं नजइ लिंगियं तयं नाणं । तम्हा सिद्धं अक्खो, न इंदिया पंच सोयाई ॥१८॥ एत पसंगाभिहितं, जहकण्हुइ इंदियाइँ पञ्चक्खं । अहुणा उ इंदिएहि, णातूणं क्वहरे इणमो ॥१९॥ सोइंदिएण सोउ, तस्स व अण्णस वा वि पडिसेवं । चक्खिदिएण दर्दु, पडिसेविज्जतमणयारं ॥२०॥ धूवादिगंधवासे, मूर्तिगलियादियं व उद्दवियं । कंदाइ व खजंतं, गंधो वि रसो वि तत्थेव ॥२१॥ फासेणऽभनियमादि, फासतो अप्पगासे णाऊणं । इंदियपञ्चक्खेणं, इय णाऊणं ववहरंति ॥२२॥ दारं ॥ णोइंदियपचक्खो, ववहारो सो समासतो तिविहो।
नोइन्द्रियप्रत्य
क्षागमव्यव ओहि मणपज्जवे या, केवलणाणे य पच्चक्खो ॥२३॥ अच्छउ ता ववहारो, ओहीमादीण लक्षणं तिण्हें । संखेवओ उ एयं, अस्मुन्नत्थं इमं वोच्छं ॥२४॥ तत्थोहिणाण पढमं, सामित्ता कम-विमुद्धिओ होइ।
अवधिज्ञानम् तो तं वोच्छ बहुविहं, केत्तिय भैया भवे तस्स ? ॥२५॥
. १६ नज्जइ ज्ञायते ॥ १७ चिंध इति लुप्तविभक्त्यन्तं पदम् । अन्थेऽस्मिन् स्थानस्थानेषु एताशि लुप्तविभक्त्यन्तानि पदानि समेष्यन्ति ।। १९ जहकण्हुइ यथाकथञ्चित् ।। २१ मूर्तिगलिया पिपीलिका । अधुनातनआकृते यथा 'य'कारः श्रुत्यर्थमुपन्यस्यते तथा प्राचीनप्राकृते 'तंकार: श्रुत्यर्थमुपायुज्यत इति ज्ञेयम् ।। २४ ओहीमादीण अवध्यादीनाम् । अत्र नकार आगमिकः, न तु लाक्षणिकः। अग्रेऽप्येवमेव बोध्यम् ।।
त्रैविध्यम्
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स्य प्रकृतयः
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा अवधिज्ञान- संखादीआओ खलु ओहीनाणस्स सचपयडीओ।
काई भवपच्चइया, खोवसमिया य कायो वि ॥२६॥ किह संखातीयाओ, पगडी ओहिस्स ? भण्णए जम्हा । अंगुलअसंखभागा, आरम्भ पएसवडीए ॥१७॥ उक्कोसेणमसंखा, जा लोगा होति खेत्तमाणेणं । काले वाऽऽवलियाए, असंखभागाउ आरब्भ ॥२८॥ समउत्तरवडीए, उक्कोसेणं असंख जाव भवे ।
ओसप्पिणि-उस्सप्पिणिसमयपमाणा भवे पगडी ॥२९॥ इय होंति असंखाओ, ओहिण्णाणस्स सव्वपगडीओ। संखातीतग्गहणा, ण केवलं होंतिऽसंखेज्जा ॥३०॥ ता होंति अणंताओ. पोग्गलकायत्थिकायमाहकिच्च ।
संखातीतं ति ततो, असंख अणता य गहिया हु ॥३१॥ भवप्रत्ययि
सो पुण ओही दुविहो, भवपच्चइयो खओवसमिओ य । कोऽवधिः
देवाण णारयाण य, णियमा भवपच्चयो ओही ॥३२॥ उप्पज्जमाणओ खलु, भवपच्चइओहि जत्तियो विसओ।
सव्वं तं ओभासति, ण उ वडी व हाणी यु ॥३३॥ गुणप्रत्ययि- गुणपच्चइयो ओही, गब्भजमणु-तिरिय-ऽसंखमाऊणं । कोऽवधिः
कम्माण खयोवसमे, तयवरणिज्जाण उप्पज्जे ॥३४॥ अवधेः अवही मज्जायत्थो, परिमितदव्वं तु जाणते जेणं । स्वरूपम्:
मुत्तिमदव्वे विसयो, ण खलु अरूवीसु दव्येसु ॥३५॥ अच्चतमणुवलद्धा, ओहीणाणस्स होति पच्चक्खा ।
ओहीणाणपरिणया, दव्वा असमत्थपज्जाया ॥३६॥ अवधेः षड् तं पुण ओहीणाणं, समासतो छविहं इमं होइ ।
अणुगामि अणणुगामी, वईत य हायमाणं च ॥३७॥
पडिवाति अपडिवाती, छविहमेवं तु होति विनेयं । नुगामिऽवधिः अणुगामिओ उ दुविहो, अंतगतो चेव मज्झगतो ॥३८॥
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१]
जीतकल्पसूत्रम् ।
अंतगत वि यतिविहो, पुरतो तह मग्गतो य पासगओ । पुरतो पुण अंतगर्त, इमं तु वोच्छं समासेणं ॥ ३९॥ जह कोई तु मणुस्सो, उक्कं चुटुलिं व दीव मणि वाssदी । काउं पुरओ गच्छई, पणुल्लयंतो व्व जह पुरिसो ॥४०॥ मगतो अंतगतो ऊ, तह चैव य णवरि भगतो काउं । अणुक माणु गच्छति, अंतगतो मग्गतो एस ॥४१॥ पासतंतगतो ऊ, चुडुलादि तहेव जावं तु मणि तु । परिक माणो गच्छति, अंतगतं एत तिह भणितं ॥ ४२ ॥ जो से किं मज्झगतो ?, तं जह पुरिसो कोइ चुडुलिमादीणि । कार्तुं सिरम्मि गच्छति, मज्झगतो एस ओही उ ॥ ४३ ॥ मज्झतं यस्य, ओहिणाणस्स को पइविसेसो ? |
पुरतो अंतगएणं, जोयण संखेज्ज संखा वा ॥ ४४ ॥ पुरतो जाणति पासति, एस विसेसो उ मज्झअंतगओ । एवं तु मग्गतो ई, पासगतो चैव बोधव्वो ||४५ ॥ अणुगामिओ उ ओही, एमेसो वणितो समासेणं । एत्तो उ अणणुगामी, ओहिण्णाणं इमाऽऽहंसु ॥ ४६ ॥ जह णाम कोइ पुरिसो, एग महं अगणिठाण काउं जे । तस्सेव य पेरंते, परिघोलणहिंडमाणो तु ॥४७॥ तं चैव अगणिठाणं, तत्थगतो पासति ण अण्णत्थ । एवं जत्थुष्पज्जइ, तत्थ ठितो जाण पासइ वि ॥४८॥ ण वि जाणइ अण्णत्था, संखमसंखे उ जोयणे जो उ । ओही तु अणणुगामी, समासतो एसमक्खांतो ॥ ४९ ॥
असा
पत्थfe सुहवद्धमाणचारिते ।
उवरुवरिं सुज्झते, समंततो वहुए ओही ||५० ॥
6
अननुगाभिकोऽवधिः
४५ ई पादपूरणे। ई जेर णि रूथ मो णं इत्यादीनि अव्ययानि ४६ इमाऽऽहंसु इदं आह ||
प्राकृते पादपूरणे प्रयुज्यन्ते ॥
For Private Personal Use Only
वर्धमान कोsaधिः
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स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा तत्थ जहण्णादी तू, जाच उ उकोस ओहिणाणं तु । वइते परिणामे, गाहाहि इमं तु वोच्छामि ॥५१॥ जावतिया तिसमयाहारगस्स मुहुमस्स पणगजीवस्स । ओगाहणा जहण्णा, ओहीखेत्तं जहण्णं तु ॥५२॥ सव्वबहुअगणिजीवा, णिरंतरं जत्तियं भरेजसु । खेत्तं सव्वदिसागं, परमोहीखेत णिहिहो ॥५३॥ अंगुलमावलियाणं, भागमसंखेज दोसु संखेजा। अंगुलमावलियंतो, आवलिया अंगुलपुहत्तं ॥५४॥ हत्थम्मि मुहुर्ततो, दिवसंतो गाउयम्मि बोद्धव्यो । जोयण दिवसपुहत्त, पक्वतो पण्णवीसाए ॥१६॥ भरहम्मि अद्धमासो, जंबुद्दीवे य साहिओ मासो । वासं तु मणुयलोए, वासपुहत्तं च रुयगम्मि ॥५६॥ संखेन्जम्मि उ काले, दीव-समुद्दा उ होंति संखेज्जा । कालम्मि असंखेज्जे, दीव-समुद्दा वि भइयव्वा ॥५७॥ काले चउण्ह वुडो, कालो भइयव्यो खेत्तवुडीए। बुडीऍ दव-पज्जव, भजितव्वा खेत्त-काला उ ॥५०॥ मुहुमो य होति कालो, तत्तो सुहुमयरय हवति खेतं । अंगुलसेढीमेत्ते, ओसप्पिणीओ असंखेज्जा ॥१९॥ तिसमयहारादीणं, गाहाणऽढण्ह वी सरूवं तु । वित्थरयो वण्णेज्जा, जह हेट्ठाऽऽवस्सए भाणियं ॥६०॥ एवं तु वडमाणो, ओही उ समासओ समक्खाओ । एत्तो परिहायंतं, ओहीणाणं इमं होति ॥६१॥ अज्झवसाठाणेहिं, अपसत्थेहि वड्डमाणचारित्ते ।
संकिस्समाणचित्ते, समंततो हायते ओही ॥२॥ ६२ अज्झवसाठाणेहिं अध्यवसायस्थानः । 'अज्झवसा' इत्यत्र यकारलोपेऽवशिष्टो "अंकारः 'सा'मध्ये प्रविष्टः ॥
हीयमानकोऽवधिः
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अवधिः
तश्चावधिः
जीतकल्पसूत्रम् । पडिवयमाणो ओही, अंगुलभागं तु [संख]संखं वा ।
प्रतिपाती अंगुलमेव पुहत्तं, हत्थ धणू जोअणे तह य ॥६३॥
अवधिः जोयणसयं सहस्सं संखमसंखा व जाव लोगं तु । पासित्ताण पडेजा, ओहीणाणेद पडिवाती ॥६४॥ से कि अपडिवाति, ओहिण्णाणं तु ? जो अलोगस्स।
अप्रतिपाती आगासपएसं तू एगमवी पासती जाव ॥६॥ असंखेज्जाइँ अलो', पमाणमेत्ताइँ लोगखंडाई। जाणइ पासति य तहा, खेत्तोही एसमक्खातो॥६६॥ एसो अप्पडिवादी, ओही तु समासओ समक्खातो । सव्वं पेतं चउहा, दव्वादि समासतो वोच्छं ॥६॥
द्रव्यतः क्षेत्ररूबीदव्वे विसतो, दवोही खेत्ततो इमाऽऽहंसु । अंगुलअसंखभागं, उकोसेणं इमं वोच्छं ॥६॥ असंखेज्जाइँ अलोगे, पमाणमेत्ताइँ लोगखंडाई। जाणइ पासति य तहा, खेत्तोही एसमक्खातो ॥१९॥
कालतोऽवधिः कालतो ओहिण्णाणी, असंखभागं तु आवलीए उ । सव्वजहणं जाणति, पासति या सो उणियमेणं ॥७॥ उस्सप्पिणि-ओसप्पिणिकालमतीतं अणागतं चैव । उक्कोसेण वि जाणति, पासइ या एस कालोही ॥७॥ भावतो ओहिण्णाणी, अणंतभावे अणंतभागं च ।
भावतोऽवधिः जाणति पासति य तहा, भावोही एसमक्खातो ॥७२॥
ओही भवपञ्चतियो, खयोवसमियो य वण्णिओ दुविहो । तस्स उ बहू विगप्पा, दव्वे खेत्ते य कालादी ॥७३॥ तं मणपज्जवणाणं, दुविहं तु समासतो समक्खातं । मनःपर्यव.
ज्ञानम् उज्जुमती विमलमती, दव्वादि चउविहेकेकं ॥७॥
६४ आहीणाणेद अवधिज्ञानमिदम् ॥ ६७ सव्वं पेतं सर्वमप्येतत् ।।
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स्वोपज्ञभाष्ययुत
[ गाथा द्रव्यतो मनः- दवओ उज्जुमती तू , अणंतपएसे अणतखंधा ऊ । पर्यवम्
जाणइ पासति ते चिय, वितिमिरसुद्धे तु विउलमती ॥७॥
खेत्ततो उज्जुमती तू, हेलोगे जाव रयणपुढवीए । क्षेत्रतो मन:पर्यवम्
जाणइ पासति उवरिम रोहिल्ले खुड्डपयरे तु ॥७६॥ एते चिय अब्भहिते, विउलतराए उ मुणइ पासति य । मुद्धवितिमिरतराए, विउलमती उज्जुमतिणो उ॥७७॥ उज्जुमती उद्रे ऊ, जोतिसियाणं तु जाव सव्वुवरि । जाणइ पासइ ते चिय, वितिमिरसुद्धे तु विउलमती ॥७८|| तिरितं उज्जुमती तू, उदहिदुए तह य दीव अद्धहिए । पंचिंदियजीवाणं, सण्णीपज्जत्तयाणं तु ॥७९॥ भावे मणोगिहगए, सव्वे जाणइ मणिजमाणे तु । ते चेव य विमलयरे, वितिमिरसुद्ध तु विउलमती ॥८॥ णवर विसेसो तु इमो, अडाइयअंगुलेहि खेत्तं तु । तिरिउडमहे अहितं, वितिमिरसुद्धं तु विउलमती ॥८॥
कालतो उज्जुमती तू, जहण्ण उक्कोसए वि पलियस्स । कालतो मनःपर्यवम्
भागमसंखेज्जइमं, अतीत एस्से व कालदुए ॥४२॥ जाणइ पासइ ते तू, मणिज्जमाणे उ सण्णिजीवाणं ।
ते चैव य विउलमती, वितिमिरसुद्धे तु जाणइ यु ॥८॥ भावतो मन:
भावतो उज्जुमती ऊ, अणंतभावे उ मुणति पासति य । सव्वेसिं भावाणं, ते णवरमणंतभागे उ ॥८४॥ ते सव्वे विउलमती, विसुद्धतर वितिमिरे तु भावतया ।
जाणति पासति य तहा, मणपज्जवणाण चउमेयं ॥८५॥ मनःपर्यवस्य
तं मणपज्जवणाणं, जेण विजाणाति सण्णिजीवाणं । विषयः दहुँ मणिज्जमाणे, मणदब्बे माणसं भावं ॥८६॥
जाणति पिहुजणो वि हु, फुडमागारेहि माणसं भावं । एसुवमा तस्स भवे, मणदव्वपगासिए अत्थे ॥४७॥
पर्यवम्
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ऋजुमतिः विपुलमति
केवलज्ञानम्
जीतकल्पसूत्रम् । मणपज्जवणाणं पुण, जणमणपरिचिंतितत्थपागडणं । माणुसखेत्तणिबद्धं, गुणपञ्चतितं चरित्तवतो ॥८॥ उज्जुमती विउलमती, जे वटुंती सुतंगवी धीरा । मणपज्जवणाणत्थे, जाणमु ववहारसोहिकरे ॥८९॥ पंकसलिले पसाओ, जह होति कमेण तह इमो जीवो । आवरणे झिज्जते, विमुज्झति केवलं जाव ॥९॥ केवल संभिण्णं तू, लोगमलोगं तु पासती णियमा । तं णत्थि ज ण पासति, भूतं भव्वं भविसं च ॥११॥ सव्वेहि जियपदेसेहि, जुगवं जाणति पासई । दसणेण य णाणेणं, पईवो अब्भमस्स वा ॥१२॥ अंबरे व कतो संतो, तं सव्वं तु पगासती । एवं तु उवणतो होति, संभिण्णं तु जं वयं ॥९॥ तं च लोगमलोगं च, सव्वतो पुव्वमादिसु । सव्वं सव्वे तु जे भावा, दव्यतो खेत्त-कालतो ॥१४॥ भावतो चेव जे भावा, णत्थि जे तु ण पासती । अभावा णत्थि ताए तु, जाणती पासती वि य ॥२५॥ अह सव्वदव्वपरिणामभावविण्णत्तिकारणमणते । सासयमव्वाबाहं, एगविहं केवलण्णाणं ॥१६॥ सव्वं णेयं चतुहा, एतस्स परूवणट्टयाए तु । गाहामुत्तं वुत्तं, अहं त्ति जं. वणितं हेहा ॥१७॥ भिण्णग्गहणं खलु कालतो तु सो घेप्पती तु एते सि । दव्वादीण चउण्डं, परिणामो पज्जया जाणे ॥९८॥ जीवाण अजीवाण य, उप्पाय-व्वय-धुवत्तपज्जाया । परपच्चएण तिण्हं, धम्मादीयाण परिणामो ।।९९॥
८८ गाथेयमावश्यकनियुक्तौ ७६ तमा ॥ ९६ गाथेयमावश्यकनियुक्तौ ७७ तमा ॥
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स्वीपज्ञभाष्ययुतं
[गाथ गति-ठिति-अवगाहेहि, संजोग-वियोगओ य सो होइ । ओदइयादीयाण, परिणामो होइ भावाणं ॥१०॥ एतेसि चिय दव्वादियाण कालो तु होति परिणामो। कालं पति पतिमुहुमादिएसु वण्णादिपरिणामो ॥१०॥ दव्वादीपरिणाम, सव्वं जाणाति केवली अखिलं । किं भवती परिणामो ?, एयस्स उ कारणं इणमो ॥१०२॥ बीससपयोगे अब्भातियाण खंधाण वीससुप्पायो । पण्णरसहा पयोगो, तिविहे कालम्मि परिणामो ॥१०३॥ जो केवली मणूसो, ण सो तु बाहं करेऽण्णसत्ताणं ।
णियमेण अणाबाह, पावइ मोक्खं खविय सेसं ॥१०४॥ केवलिनि
जं छउमत्थियणाणं, केवलिणो ण खलु विज्जए तं तु । मत्यादि
जम्हा खयोवसमिए, वट्टते छाउमत्था उ ॥१०॥ भावे केवलणाणं, वट्टति णियमेण खाइए णिचं । ण उ अक्खीणे मीसे, खाइयभावस्स उप्पत्ती ॥१०६॥ तम्हा एगविहं खलु, केवलगाणं तु होति उववणं । जेणाऽऽह केवलम्मि, छपुणाऽणामोहता (?) तेसिं ॥१०॥ आदिगरा धम्माण, चरित्त-वरणाण-दसणसमग्गा । सबत्तगणाणेणं, ववहारं क्वहरंति जिणा ।।१०८।। पञ्चक्खव्यवहारी, इंदिय-णोइंदिएमु वक्खातो।
आगमजो ववहारी, पारोक्खं तू इमं वोच्छं ॥१०९॥ परोक्षागम. पञ्चक्खागमसरिसो, होति परोक्खो वि आगमो जस्स । व्यवहारी चंदमुहीव तु सो वि हु, आगमववहारवं होति ॥११०॥
१०४ करेऽण्णसत्ताण करोत्यन्यसत्त्वानाम् ॥ १०८ गाथेयं व्य० उ० १० भा० गा० २०६ ॥ ११० इत आरभ्य पञ्चदश गाथाः व्य९ उ०१०भा० गा०२०७-२२१॥
ज्ञानानामभावः
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१]
जीतकल्पसूत्रम् । जातं आगमियं ति य, एगहें जस्स सो परायत्तो। सो पारोक्खो वुचति, तस्स पदेसा इमे होति ॥१११।। पारोक्ख ववहारं, आगमतो सुतधरा क्वहरंति । चोदस-दसपुव्वधरा, णवपुब्बि य गंधहत्थी य ॥११२॥ किह आगमववहारी ?, जम्हा जीवादयो णव पयत्था । उवलद्धा तेहिं तू, सव्वेहिं णयवियप्पेहि ॥११३॥ जह केवली वियाणति, दव्वं खेत्तं च काल भावं च । तह चउलक्खणमेतं, सुतणाणी वी वियाणाति ॥११४॥ पणगं मासविवडिं, मासिगहाणी य पणगहाणी य । एगाहे पंचाहं, पंचाहे चेव एगाहं ॥११५॥ राग-दोसविवडिं, हाणिं वा णातु देति पञ्चक्खी। चोदसपुबादी वि हु, तह गाउं देंति हीणऽहियं ॥११६॥ चोअगपुच्छा पञ्चक्रवणाणिणो थेवे वि कह बहुं देंति ?।
प्रायश्चित्त
न्यूनाधिक्ये भण्णति सुणम् एत्थं, दिढतं वाणिएण इमं ॥११७॥
चोदकस्य जं जह मोल्लं रयणं, तं जाणति रयणवाणियो णिउणो।।
आचार्यस्योथोवं तु महल्लस्स वि, कासति अप्पस्स वि बहुं तु ॥११८॥ तरं च अहवा वि कायमणिणो सुमहल्लस्सावि कागिणी मोल्लं । वइरस्स तु अप्पस्स वि, मोल्लं होती सतसहस्सं ॥११९॥ इय मासाण बहूण वि, राग-द्दोसऽप्पयाए थोवं तु । राग-दोसोवचया, पणगे वि जिणा बहुं देति ॥१२०॥ पञ्चक्खी पञ्चक्ख, पासति पडिसेवगस्स सो भावं । किह जाणति पारोक्खी ?, णातमिणं तत्थ धमएणं ॥१२१॥ णालीधमएण जिणा, उपसंघारं करेंति पारोक्खे । जह सो कालं जाणति, सुएण सोहि तहा सो तु ॥१२२॥ ११८ कालति कस्यचित् ॥ १२२ उवसंघारं उपसंहारं तुलनामित्यर्थः॥
पृच्छा
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स्वोपज्ञभाध्ययुतं
[ गाथा जेणं जीवा-उजीवा, उवलद्धा सव्वभावपरिणामा। तो पुव्वधरा सोहिं, कुव्वंति सुओवदेसेणं ॥१२३॥ तं पुण केण कतं तू, सुतणाणं जेण जीवमादीया।
णज्जति सव्वभावा ?, केवलणाणीण तं तु कतं ॥१२४॥ प्रायश्चित्त
संते वि आगमम्मी, जाहे आलोतियं तु तेण भवे । दानयोग्यः
सम्मं णाऽऽलोएती, पडिवजति सारियो जइया ॥१२॥ तो तस्स उ पच्छित्त, जेण विसुज्झति तगं पयच्छंति । आगमववहारी छविहो वि पलिउंचिऍ ण देति ॥१२६॥ आलोतिय-पडिकते, होती आलोयणा तु णियमेणं । अणालोइयम्मि भयणा, किह पुण भयणा भवति तस्स?॥१२७॥ आलोयणापरिणतो, अंतर कालं करे अभिमुहो वा । अहवा वी आयरिओ, एमेव य होति संपत्तो ॥१२८॥ आराहओ तु तह वी, जं सम्मालोयणापरिणतो तु । णाराहेति अपरिणयो, एवं भयणा भवति एसा ॥१२९॥ अवराहं वियाणंति, तस्स सोहिं व जद्दवी। तहाऽवाऽऽलोयणा वुत्ता, आलोअंते बहू गुणा ॥१३०॥
दव्वेहि पज्जवेहि य, कम खेत्ते काल-भावपरिसुद्धं । लोचना
आलोयणं सुणित्ता, तो ववहारं पउज्जंति ॥१३॥ दव्वे सच्चित्तादी, पन्जव दवा बहू विगप्पेहिं । पुवाणुपुचिमादी, कमओ एवं तु आलोए ॥१३२॥ अद्धाण जणवए वा, खेत्ते काले सुभिक्ख दुभिक्खे । भावे हट्ट गिलाणे, सेविय जह तं तहाऽऽलोए ॥१३॥
अहवा सहसऽण्णाणा, भीएण व पेल्लिएण व परेहि । १२५ सारियो स्मारितः ।।१२७ गाथेयं व्य० उ० १० भा० गा० २२४॥
१३० गाथाद्विकं व्य० उ०१० भा० गा०२२६-२२७ । नदवी यद्यपि । सहावाऽऽलोयणा तथाऽप्यालोचना ॥
विणक्रमः
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१]
जीतकल्पसूत्रम् |
वसणेण पमाएण व मूढेण व राग-दोसेहिं ॥१३४॥ पुव्वं अपासिणं, छूढे पायम्मि जं पुणो पासे । ण य तरति णियत्तेजं, पायं सहसाकरणमेयं ॥ १३५ ॥ अण्णतरपमाएणं, असंपत्तस्सऽणोवउत्तस्स । इरियासु भूतत्थे, अवतो एतदण्णाणं ॥ १३६ ॥ भीओ पलायमाणो, अभियोगभएन वा वि जं कुज्जा । पडतो व अपडितो वा, पेल्लिज्जा पेलिओ पाणे ॥ १३७॥ गीतादि होति वसणं, पंचविहो खलु भवे पमादो उ । मिच्छत्तभावणा तू, मोहो तह राग-दोसा ऊ ॥ १३८ ॥ एतेसिं ठाणाणं, अण्णयरे कारणे समुप्पण्णे । तो आरामवीमंस, करेंति अत्ता- तदुभएणं ॥ १३९॥ जदि आगमो य आलोयणा य दोण्णि विसमं तु निवयंति । एसा खलु वीमंसा, जो असहू जेण वा मुज्झे ॥ १४० ॥ नाणमाईणि अण्णाणि, जेण अत्थे उ सो भवे । राग-दोसप्पहीणे वा, जे व इट्ठा विसोहिए ॥ १४१ ॥ सुत्तं अत्थे उभयं, आलोयण आगमो इती उभयं । जं तदुभयं ति वृत्तं, तत्थेसा होति परिभासा ॥ १४२॥ पडिसेवणातियारे, जदि णाऽऽउति जहकमं सव्वे । ण हुदेन्ती पच्छित्तं, आगमववहारिणो तस्स || १४३ || पडिसेवणातियारे, जदि आउ जहकमं सव्वे | देति तओ पच्छित्तं, आगमववहारिणो तस्स ॥ १४४ ॥ कहि सव्वं जो बुत्तो, जाणमाणो वि गृहति ।
१३४ इत आरभ्य गाथादशकं व्य० उ० १० भा० गा० २२८-२३७॥ १३५ तरति शक्नोति ॥ १३८ “पंचविहो पमादो - कसाय- विगहा- वियडइन्दिय - निदा पमाया इति जीतकल्पचूर्णौ पत्र २९ ॥ १४१ मादीणि अत्ताणि जेण अत्तो उ सो भवे ।" इति व्य० भाष्ये, मेव पाठः साधुः ॥
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१३
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ग्यत्वविचार
स्वोपज्ञभाष्ययुत
गाथा ण तस्स देंति पच्छित्त, बेन्ति अण्णत्थ सोहय ॥१४५॥ ण संभरति जो दोसे, सब्भावा ण य मायया । पचक्खी साहए ते उ, माइणो उ ण साहई ॥१४६॥ जति आगमो य आलोयणा य दोहि वि समं ण णिवइयाई। ण हु देति उ पच्छित्तं, आगमववहारिणो तस्स ॥१४७॥ जति आगमो य आलोयणा य दोहि वि समं णिवइताई।
दिति ततो पच्छित्तं, आगमववहारिणो तस्स ॥१४८॥ प्रायश्चित्त- को पुण पायच्छित्ते, दायव्वे अणरिहो व अरिहो वा ?। हातुर्योग्या
भण्णइ इणमो सुणसू, अरिहो जो वा अणरिहो उ ॥१४९॥ अट्ठारसहिं ठाणेहिं, जो होति परिणिटिओ। नऽलमत्थो तारिसो होति, ववहारं ववहरित्तए ॥१५०॥ अट्ठारसहि ठाणेहिं, जो होति सुपरिहितो । अलमत्थो तारिसो होति, ववहारं क्वहरित्तए ॥१५१॥ अट्ठारसहिं ठाणेहिं, जो होइ अपतिहितो। नऽलमत्थो तारिसो होति, ववहारं ववहरित्तए ॥१५२॥ अट्ठारसहिं ठाणेहिं, जो होति सुपतिहितो। अलमत्थो तारिसो होइ, ववहारं ववहरित्तए ॥१५३॥
क्यछक्क कायछकं, अकप्पो गिहिभायणं । स्थानानि
पलियंक गोयर णिसिज्ज ण्हाणे भूसा अट्ठार ठाणेते ॥१५४॥ परिणिट्ठियो परिणाया, पतिहितो जो ठिओ उ तेसु हवे । अविद् सोहि ण याणति, अठितो पुण अण्णहा कुज्जा ॥१५॥ बत्तीसाए तु ठाणेहिं, जो होइ परिणिहितो । णऽलमत्थो तारिसो होइ, क्वहारं ववहरित्तए ॥१५६॥
बत्तीसाए तु ठाणेहिं, जो होति परिणिहितो । १४५ गाथाचतुष्क व्य० उ० १० भा० गा० २३८-२४१ ॥ १५० इत आरभ्य सप्तविंशतिर्गाथा व्य० उ० १० भा० गा० २४२-२६८ ।।
अष्टादश
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सम्पदः
जीतकल्पसूत्रम् अलमत्थो तारिसो होति, ववहारं ववहरित्तए ॥१५७॥ बत्तीसाए उ ठाणेहि, जो होति अपइहितो। णऽलमत्थो तारिसो होति, ववहारं ववह रित्तए ॥१५८|| बत्तीसाए तु ठाणेहिं, जो होति सुपतिहितो। अलमत्थो तारिसो होति, ववहारं ववह रित्तए ॥१५९।। अट्ठविहा गणिसंपय, एकेका चउविहा उ बोद्धव्वा । द्वात्रिंशत् एसा खलु बत्तीसा, ते खलु ठाणा इमे होंति ॥१६०॥
स्थानानि आयार सुय सरीरे, वयणे वायण मती पतोगमती । एतेसु संपया खल, अमिया संगहपरिण्णा ॥१६॥
अष्टै सम्पदः एसा अट्टविहा खलु, एकेकाए चउन्विहो भेदो। इणमो उ समासेणं, वोच्छामी आणुपुबीए ॥१६२॥ आयारसंपयाए, संजमधुवजोगजुत्तया पढमा।
चतुर्धाऽऽचारवितिय असंपग्गहिया, अणिययवित्ती भवे ततिया ॥१६॥ तत्तो य वुड्सीले, आयारे संपया चउद्धेसा। चरणमिह संजमो तू, तहियं णिचं तु उवउत्तो ॥१६४॥ आयरिओ अ बहुस्सुय-तवस्सि-जच्चाइएहि व मदेहिं । जो होति अणुस्सित्तो, सो तु असंपग्गहीउ ति ॥१६॥ अणिययचारी अणियतवित्ती अगिहो य होति जो अणिसो। णिहुयसहाव अचंचल, णायव्यो वुड्सीलो त्ति ॥१६६।। बहुमुत परिजितमुत्ते, विचित्तमुत्ते य होति बोद्धव्वे । घोसविसुद्धिकरे या, चउहा सुतसंपदा होति ॥१६७॥ चतुष्कम् बहुसुत जुगप्पहाणे, अभंतर बाहिरं च बहु जाणे । होति चसद्दग्गहणा, चारित्तं पी सुबहुयं तु ॥१६॥ सगणामं व परिजितं, उकम-कमयो बहूहि व कमेहि । ससमय-परसमएहि, उस्सग्ग-ऽवचातयो वि वितू ॥१६॥ १६९ उस्सग्ग-ऽववातयो वि वितू उत्सर्गा-ऽपवादयोरपि विद्वान् ।
श्रुतसम्प
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च्चतुष्कम्
बचनसम्पचतुष्कम्
स्वोपज्ञभाध्ययुतं
गाथा घोसा उदात्तमादी, तेहि विसुद्धं तु घोसपरिसुद्धं ।
एसा सुतोवसंपय, दारं, सरीरसंपयमतो वोच्छं ॥१७०॥ शरीरसम्प
आरोह-परीणाहो, तह य अणोत्तप्पया सरीरस्स | परिपुष्णिदियमाऽऽइय, संघतणथिरे य बोद्धवो ॥१७॥ आरोहो दिग्यत्तं, विक्खंभो होति तित्तियो चेव । आरोह-परिणाहो, य संपया एस णादव्वा ॥१७२॥ तपु लज्जाए धातू, अलजणिज्जो अहीणसव्वंगो। होति अणोत्तप्पो खल, दारं, अविकलइंदी तु परिपुण्णो।१७३१ पढमादीसंघयणो, बलियसरीरो थिरो मुणेयव्यो। एसा सरीरसंपय, दारं, एत्तो वयणम्मि वोच्छामि ॥१७॥ आएज्ज महुरवयणे, अणिसियवयणे तहा असंदिद्धे । आदिज्ज गज्झवको, दारं, अत्थवगाढं भवे महुरं ॥१७॥ अहवा अफरुसवयणो, खीरासवलद्धिमादिजुत्तो वा । अहवा सूसर-सूहग-गंभीरजुओ महुरवक्को ॥१७६॥ पिस्सिओ कोहादीहि, राग-द्दोसेहि वा विजं वयइ । होति अणिस्सियवयणो, जो वयती एयवइरितं ॥१७७॥ अव्वत्तं अफुडतं, अत्थबहुत्ता व होति संदिदं । विवरीयमसंदिद्धं, क्यणेसा संपदा चतुहा ॥१७८॥ वायणभेदा चतुरो, विधिउद्दिसणा समुद्दिसणओ य । परिणिध्वविया वाए, णिज्जवणा चेव अत्थस्स ॥१७९॥ तेणेव गुणेणं तू, वाएयव्वा परिक्खितुं सीसा। उहिसई विजिणेउं, जं जस्स तु जोग्ग तं तस्स ॥१८॥ अपरीणामगमादी, वियाणितुमभायणे ण वाएति ।
जह आममट्टियघडे, अंबे व ण छुब्भए खीरं ॥१८॥ १७२ णादवा ज्ञातव्या ॥ १७८ इत आरभ्यैकोनविशतिर्गाथा व्य. उ०१० भा० गा० २६९-२८७॥
वाचनासम्पचतुष्कम्
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जीतकल्पसूत्रम् ।
जदि छुम्भई विणस्सति, णस्सति वा एवमपरिणामादी | गोहिस्से छेदसुतं, दारं, समुद्दिसे याऽवि तं चैव ॥ १८२ ॥ परिणिविया वाए, जत्तियमेत्तं तु तरति तु वेत्तुं । जाहगदितेणं, परिजिऍ ताहऽण्णु उद्दिसति ॥ १८३॥ णिज्जवयो अत्थस्सा, जो उवजाणेति अत्थो सुत्तस्स ।
विहिति इ, अत्थं पि कहेति जं भणितं ॥ १८४ ॥ मसंपय चउभेदा, उग्गह ईहा अवाय धारणया । उग्गहमति छन्भेता, तत्थ इमे होंति छत्रमेया ॥ १८५ ॥ खिष्प बहु बहुवि वा, ध्रुव णिस्सित तह य होयऽसंदिद्धं । ओगिण्हति एवीहा, अवायमिति धारणा चैव ॥ १८६॥ परवाइण सिस्सेण व, उच्चारितमेत्तमेव ओगिरहे । तं खिष्पं बहुगं पुण, पंच व छ व सत्त गंथसता ॥ १८७ ॥ बहुविहगपयारं, जह लिहति पहारए गणेश विय । अक्खा कति इ, सद्दसमूह वणेगविहं ॥ १८८ ॥ ण वि विस्सर धुवं तं, अनिस्सियं जं ण पोत्थए लिहितं । अणुभासिय ा गेण्डति, निस्संकित होअसंदिद्धं ॥ १८९ ॥ उहिस्स तु ईहा, ईहिऍ पच्छा अगंतर अवायो ।
अवगते पच्छा धारण, तीय विसेसो इमो णवरं ॥ १९०॥ बहु बहुविह पोराणं, दुद्धर णितयं तहेव असंदिद्धं । पोराण पुरा व जितें, दुद्धर णय-भंगगुविलत्ता ॥ १९९॥ एत्तो उपभोगमती, चउचित्रहा होति आणुपुत्रीए । आय पुरिसं च खेत्तं वत्युं वि पजए वातं ॥ १९२॥
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मतिसम्पचतुष्कम्
१८३ जागदितेणं जाहक स्तिर्यग्विशेषः, तद्दष्टान्त यथा - " पातुं थोवं थोवं, खोरं पासाणि जाहओ लिइइ । एमेत्र जितं काउं, पुच्छति सतिमं न खेदेति ॥ १॥ ' आवश्यक हारिभद्री टीका ताण्णु तदाऽन्यत् ॥ १८७ परवाइण परवादिना ॥
19
पत्र १०३ ।
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प्रयोगमति: सम्पदः चतुष्कम्
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[गाथा
स्वोपज्ञभाष्ययुतं जाणति पयोग भिसजो, वाही जेणाऽऽउरस्स छिज्जति उ इय वाओ व कहा घा, णियसत्ती गाउ कातव्या ॥१९३॥ पुरिसं उवासगाई, अहवा वी जाणगाइयं पुरिसं । पुव्वं तु गमेऊणं, ताहे वाओ पउत्तव्यो ॥१९४॥ खेत्तं मालवमाई, अहवा वी साहुभावियं जं तु । णाऊण तहा विहिणा, वाओ हु तहिं पउत्तव्यो ॥१९॥ वत्थु पुण परवाई, बहुआगमिओ न वा वि नाऊणं । राया व रायमत्तो, दारुण-भहस्सभावो वा ॥१९६॥
एसा उ पओगमई, एत्तो वोच्छामि संगहपरिणं । चतुधी संग्रह- सा वि य चउव्विगप्पा, तीय विभागो इमो होइ ॥१९७॥ परिज्ञासंपत्
बहुजणजोग्गं पेहे, खेत्तं तह पीढफलहमोगिण्हे । वासामु एते दोण्णि वि, काले य समाणए काले ॥१९८।। पूए अहागुरुं पि य, चउत्थ एसा उ संगहपरिण्णा । एत्तो एकेकीय य, इमा विभासा मुणेयच्या ॥१९९॥ वासे बहुजणजोगं, वित्थिणं जं तु गच्छयायोग्गं । पडिलेह बाल-दुब्बल-गिलाण-मादेसमादीणं ॥२००॥ खेत्त असइ अगहित्ता, ताहे गच्छंति ते उ अण्णत्थ । पीढप्फलगरगहणे, ण उ मइलती णिसिज्जादी ॥२०॥ वासासु विसेसेणं, अण्णं कालं तु गमय अण्णस्थ । पाणा सीयल-कुंथादिआ य तो गहण वासासु ॥२०२॥ जं जम्मि होति काले, कायव्वं तं समाणए तम्मि । सज्झाय पेह उवही, उपायण भिक्खमादी तु ।।२०।। अहगुरु जेणं पहाविओ तु जस्स व अहीत पासम्मि ।
अहवा अहागुरू खलु, हवंति रातिणियतरया उ ॥२०॥ १९३ णियसत्ती गाउ कातव्वा निजशक्तिं ज्ञात्वा कर्तव्या ॥ १९६ रायमत्तो राजामात्यः ।। १९८ इतोऽष्टचत्वारिंशद्वाथाः व्य० उ०१० गा० २८८-३३२॥ २०४ रातिणियतरया रात्मिकतराः व्रतपर्यायव्येष्ठतरा: ॥
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जीतकल्पसूत्रम् । तेसिं अन्भुटाणं, डण्डग्गह तह य होति आयारे । उवहीवहणं विस्सामणं च संपूयणा एसा ॥२०॥ एसा खलु बत्तीसा, जाणाति जो पतिहितो एत्थं । ववहारे अलमत्थो, अहवा वि भवे इमेहिं तु ॥२०६॥ छत्तीसाए तु ठाणेहिं, जो होयऽपरिणिटिओ। णालमत्थो तारिसो होति, क्वहारं ववहरित्तए ॥२०७॥ छत्तीसाए उ ठाणेहिं, जो होति अपतिहिता ॥ णऽलमत्थो तारिसो होति, ववहारं ववहरित्तए ॥२०॥ छत्तीसाए उठाणेहिं, जो होइ परिणिहितो। अलमत्थो तारिसो होति, क्वहारं ववहरित्तए ॥२०॥ छत्तीसाए उ ठाणेहिं, जो होइ सुपइटिओ। अलमत्थो तारिसो होति, ववहारं ववहरित्तए ॥२१०॥ जा होती बत्तीसा, तम्मी छोण विणयपडिवत्ती। चतुभेदं तो होती, छत्तीसा एस ठाणाणं ॥२१॥ बत्तीस वण्णिय चिय, वोच्छं चउभेय विणतपडिवत्ति। आयरियंतेवासी, जह विणएत्ता भवे णिरिणो ॥२१२।। आयारे सुत विणए, विक्खिवणे चेव होति बोधवो। दोसस्स य णिग्घाओ, विणए चउहेस पडिवत्ती ॥२१॥ आयारे विणयो खलु, चउबिहो होति आणुपुवीए । संजमसामायारी, तवे य गणिविहरणा चेव ॥२१४॥ एगल्लविहारे या, सामायारी य एस चउहा तु । एतेसिं तु विभाग, वोच्छामि अहाणुपुवीए ॥२१॥ संयममायरइ सतं, परं च गाहेइ संजमं णियमा। सीयंतथिरीकरणं, उज्जतचरणं च उबवूहे ॥२१॥ सो सत्तरसो पुढवातियाण घट्ट-परियावणो-दवणं । परिहरियवं णियमा, संजमयो एस बोद्धयो॥२१७॥
षट्त्रिंशत् स्थानानि
विनय प्रतिपत्तयः
चतुर्धाssचारविनयः
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स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा
पक्वे य पोसहेसुं, कारेति तवं सतं करेति विय । भिक्खायरियाय तहा, णियुंजति परं सयं वा वि । ॥२१८॥ सव्वम्मि वारसविहे, णिउजति परं सतं च उज्जमति । गणसामायारीए, गणं विसीरंतु चोएति ॥ २१९ ॥ पडिलेहण - पक्खोडण - बाल - गिलाणाइवेयवच्चेसुं । सीदंतं गोहती, सतं च जुत्तो तु एए ॥ २२० ॥ एगल्लविहारादी, पडिमा पडिवज्जए संतं वण्णं । पडिवज्जावे एवं, अप्पाण परं च विणएति ॥ २२१॥ आयारविणय एसो, जहकमं वण्णिओ समासेणं । एत्तो ऊ सुतविणयं, जहाणुपुवि पवक्खामि ॥२२२॥ सुतं अत्यं च तहा, हितकर णिस्सेसयं च वाएइ । एसो चहि खल, सुतविणता होति णायव्वो ॥२२३॥ सुत्तं गाहेति जुत्तो, दारं, अत्थं च सुणावर पयत्तेणं । जं जस्स होति जोगं, परिणामगमादितं तु हियं ॥ २२४ ॥ णिस्सेसमपरिसेस, जाव समत्तं तु ताव वाएति । एसो सुतविणयो खलु, वोच्छं विक्खेवणाविणयं ||२२५ || विक्षेपणविनयः अद्दिहं दिट्ठे खलु, दिट्ठ साहम्मियत्तविणणं ।
चतुर्धा
धम्म ठावे धम्मे, तस्सेव हितट्ट अब्भु ॥२२६॥ विष्णाणाभावम्मि वि, 'खिव पेरणे' विक्खिवित्तु परसमया । ससमते णमभिच्छुभे, अदिट्ठधम्मं तु दिट्ठ वा ॥ २२७॥ धम्मसहावो सम्मद्दंसण जं जेण पुच्चि ण उ लद्धं । सो होयsayoवो, तं गाहे दिव्वमिव ॥ २२८ ॥ जह भायरं व प्रियरं व मिच्छदिट्ठि पि गाहे सम्मत्तं । दिपु सावग, साहम्मि करेइ पव्वावे ॥ २२९॥ चुतमो धम्मो, चरितधम्माओ दंसणाओ वा । तं ठावेति तहिं चिय, पुणो वि धम्मे जहुद्दिट्ठे ॥ २३० ॥
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२०
चतुर्धा श्रुतविनयः
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ज तकल्पसूत्रम् । तस्स ती तस्से व उ, चरित्तधम्मस्स वुड़िहेतुं तु । वारेतऽणेसणादी, ण य गिण्हे सयं हितहाए ॥२३१॥ जं इह-परलोए या, हितं सुहं तं खमं मुणेतव्यं । णिस्सेयस मोक्खो तु, अणुगामऽणुगच्छए जं तु ॥२३२॥ विक्खेवणविणएसो, जहक्कम वण्णितो समासेणं । एत्तो तु पवक्वामी, विणयं दोसाण णिग्याते ॥२३३॥ चतुर्धा दोष
निर्यातविनय:: दोसा कसायमाई, बंधो अहवा वि अट्ठपयडीओ। णिययं व णिच्छियं वा, घाय विणासो य एगहा २३४॥ रुहस्स कोहविणयण, दुट्ठस्स य दोसविणयणं जं तु । कंखिय कंखुच्छेए, आयप्पणिहाण चउहेसा ॥२३॥ सीयघरम्मि व डाहं, वंजुलरुक्खो व जह व उरगविसं । रुहस्स तहा कोहं, पविणेती उवसमेति त्ति ॥२३६।। दुट्ठो कसाय-विसयाइएहि माणपयभावदुट्टो व्य । तस्स पविणेइ दोसं, णासयए धंसए व त्ति ॥२३७॥ पंखा उ भत्त-पाणे, परसमए अहव कंख एमाई। तस्स पविणेइ कखं, संखडि अण्णं व देसेणं ॥२३॥ चरगाइमाइएस्सु तु, अहिंसमक्खो व्व अत्थि जा कंखा । तं हेउ-कारणेहि, विणयउ जह होइ णिकंखो ॥२३९॥ जो एएसु ण वट्टइ, कोहे दोसे तहेव कंखाए । सो होति सुप्पणिहिओ, सोभणपरिणामजुतो वा ॥२४॥ छत्तीसेयाणि ठाणाणि, भणिताणि अणुपुब्बसो । जो कुसलो एते हिं, सो ववहारी समक्खातो ॥२४१॥ अहहि अट्ठारसहि य, दसहि य ठाणेहिं जे अपारोक्खा । आलोयणदोसेहिं, छहि य अपारोक्ख विष्णेया ॥२४२।।
२३३ विक्खेवणविणएसो विक्षेपणविनय एषः ॥ २३४ अट्ठपयडीओ अष्टकर्मप्रकृतिजः ।
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गुणा:
स्वोपज्ञमाध्ययुतं
[गाथा आलोयणागुणेहि, छहिं य ठाणेहि जे अपारोक्खा । पंचहि य णियंठेहि, पंचहि य चरित्तमंतेहिं ॥२४३।। अट्ठायारवमादी, वयछक्कादी हवंति यऽहरसं । दसविहपायच्छिते, आलोयणमादिए चेव ॥२४४॥
आलोयणदोसेहिं, आकंपणमादिएहि दसहिं तु । इश आलोचना छहि काएहि वएहि व, दसहिं चाऽऽलोयणगुणेहि ॥२४॥
इमेहि-आयार विणयगुण कप्पदीवणा अत्तसोहि उजुभावो । अजव महव लाघव, तुट्टी पल्हायकरणं च ।२४६।। मिच्छत्ततवाऽऽयारे, पढमं आलोयणा तहि पढम । विणयो विणासणं ति य, मायाए विणयणगुणेसो ॥२४७॥ चारित्त कप्पो णियमा, णिरतियारित विगडिये सो य । दीविय पभासिउ ति य, पगासितो चेव एगहा ॥२४८॥ अतियारपंकपंकंकितो य आया विसोहिओ होति । आलोइए य आया, उजुभावे ठाविओ होइ ।।२४९।। अज्जवभाव अज्जव, सयं चियाऽऽलोइए कओ होइ । मद्दवभावेणं पुण, अमाणि होऊण आलोए ॥२५०॥ अतियारगुरुभएणं, अकंतालोतिए लहू होति । सुद्धो हं ती य तुट्ठी, दारं, अतियारुण्हो य पल्हाणो ।।२५१॥ आलोयणागुणेसू, जे ऊ एवं हवतऽपारोक्खा । छहाणयपडिएहिं, छहि चेव यं जे अपारोक्खा ॥२५२॥ संखादीया ठाणा, छहि ठाणेहि पडियाण ठाणाणं । जे संजया सरागा, एगे ठाणे विगयरागा ॥२५३।। एआऽऽगमववहारी, पण्णत्ता राग-दोसणीहूया ।
आणाएँ जिणिदाणं, जे ववहारं ववहरंति ॥२५४॥ २४६ गाथेयं व्य० उ० १० गा०४७३॥ २५३ इतो द्वाविंशतिर्गाथाः व्य. उ०१. गा० ३३३-३५२ ॥
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वचनम्
नीतकल्पसूत्रम्। इय भणिए चोएती, ते वोच्छिण्णा हु संपदं इहई । तेस य वोच्छिण्णेस, णस्थि विसुद्धी चरित्तस्स ॥२५॥
प्रायश्चित्ताचोद्दसपुत्वधराणं, वोच्छेद्रो केवलीण वोच्छेदे ।
भावविषयं
चोदकस्य केसिंचि य आदेसो, पायच्छित्तं पि वोच्छिण्णं ॥२५६।। जं जत्तिएण सुज्झति, पावं तस्स तह देंति पच्छित्तं । जिण-चोदसपुव्वधरा, तबिवरीता जहिच्छाए॥२५७॥ पारगमपारगं वा, जाणते जस्स जं च करणिज्ज। देति तहा पचक्खी, घुणक्खरसमो तु पारोक्खी॥२५८॥ जा य ऊणाहिए वुत्ता, सुत्ते मग्गविराहणा । ण सुज्झे तीइ देतो उ, असुद्धो कं च सोहए २५९।। देंता वि ण दीसंती, मास-चउम्मासियाओ सोहीओ। कुणमाणा विय सोहि, ण पासिमोजो व सिं देजा।।२६०॥ सोहीए य अभावे, देंताण करेंतगाण य अभावे । वहति संपतिकाले, तित्थं सम्मत्त-णाणेहिं ॥२६१॥ णिज्जवगा यण संती, महपुरिसाणं तु तेसि वोच्छेते । तम्हा संपयकाले, णत्थि विसुद्धी सुविहियाणं ॥२६२॥ एवं तु चोतियम्मी, आयरिओ भणति ण ह तुमे णातं । आचार्यस्य
प्रतिवचः पच्छित्तं कहितं तू , किं धरती किं च वोच्छिण्ण ? ॥२६३॥ अत्थं पडुच्च सुत्ते, अणागतं तं तु किंचि आमसति । अत्थो वि को वि सुत्तं, अणागतं चेव आमसति ।।२६४॥ सव्वं चिय पच्छित्तं, पञ्चक्खाणस्स ततियवत्थुम्मि । तत्तो चिय णिज्जूढं, कप्प पकप्पो य ववहारो ॥२६५॥ ताणि धरती अन्ज वि, तेसु धरतेसु कह तुम भणसि । वोच्छिण्णं पच्छित्तं ?, तत्थ इमा तू परूवणया ॥२६॥
२६४. आमसति आमृषति-विचारयति ।। २६५ पकप्पो निशीथ सूत्रम् ॥
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स्वोपज्ञभाष्ययुत
[गाथा सपदपरूवण अणुसजणा य दस चोदसऽ दुप्पसहे । अस्थि ण दीसति धणिएण विणा तित्थं च णिज्जवए।२६७। पण्णवगस्स तु सपदं, पच्छित्तं चोयगस्स तमणि । तं संपयं पि विज्जति, जहा तहा मे णिसामेहिं ॥२६८॥ भुजति चकी भोए, पासाए सिप्पिरयणणिभ्मविए । तं दढ़ रायीणं, अण्णेसिच्छा समुप्पण्णा ॥२६९॥ अम्हे कारावेमो, पासाए एरिसे त्ति इति तेहिं । चित्तकरा पेसविया, णिउणं लिहिऊण आणेह ॥२७०॥ पासाद स्सयणे मणहारितं तेहिं चित्तकारेहिं । लीलविहणं णवरिं, आगारो होति सो चेव ॥२७॥ जह रूपादिविसेसा, परिहीणा होति पागतजणस्स । ण य ते ण होंति गेहा, मुंजंति य तेसु ते भोगे ॥२७२॥ एमेव य पारोक्खी , तदाऽणुरुवं तु सो व्व ववहरति । किं पुण ववहरितव्वं, पायच्छित्तं इमं दसहा ॥२७॥
आलोयण पडिकमणे, मीस विवेगे तहा वियोसग्गे । प्रायश्चित्तम्
तव छेद मूल अणवठ्ठया य पारंचिए चेव ॥२७४॥ प्रायश्चित्त एतुवरि भणिहिती, सवित्थरेणं तु आणुपुबीए । विभागः
एयं पुण जह धरती, जं जत्था तं चिमाऽऽहंसु ॥२७५।। दसहा अणुसज्जती, जा चोद्दसपुन्धि पढमसंघाणे । तेणाऽऽरेणऽहविहं, तिथंतिम जाव दुप्पसहो ॥२७६॥ तम्मि कालगए तित्थं चरित्तं च वोच्छिज्जिहीति ॥ दोसु तु वोच्छिण्णेसू, चोद्दसपुयाऽऽतिमे य संघयणे ।
तव(तो)पारंच-ऽणवट्ठा, णव-दस पच्छित्तवोच्छिण्णा॥२७७॥ २७३ पागतजणस्स प्राकृतजनस्य ।। २७५ पतुरि एतद उपरिअग्रे। जत्था तं चिमाऽऽहंसु यत्र तत् चेदमाह ॥ २७६ गाथेयं व्य. उ० १० गा० ३५३॥
दशधा
दानस्य
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जीतकल्पसूत्रम्। सेस अहहऽणुसज्जति, जा तित्थं णव दसे य लिंगादी । चोदे तं पि ण दीसदि, एवमणतं गुरू भणति ॥२७॥ दोसु तु वोच्छिण्णेस, अट्ठविहं देंतया करेंता य । ण य केयी दीसंती, एवमणंतस्स चतुगुरुगा ॥२७९॥ दोसु तु वोच्छिण्णेसू, अट्ठविहं दतया करता य । पचक्खं दीसंती, जहा तहा मे णिसामेहिं ॥२८॥ पंच णियंठा भणिया, पुलाग बउसा कुसील निग्गंठा । तह य सिणाओ तेसिं, पच्छित्त जहकम वोच्छं ॥२८॥ आलोयण पडिकमणे, मीस विवेगे तहा विओसग्गे । ततो य तवे छेदे, पच्छित्त पुलागे छऽप्पेते ॥२८२॥ बगुस-पडिसेवगाणं, पायच्छित्ता हवंति सव्वे वि। थेराण भवे कप्पे, जिणकप्पे अहहा होति ॥२८३॥ आलोयणा विवेगो वा, णियंठस्स दुवे भवे । विवेगो य सिणायस्स, एमेया पडिवत्तीओ ॥२८॥ पंचेव संजया खलु, णायसुएण कहिता जिणवरेणं । सामाइसंजयादी, पच्छित्तं तेसि वुच्छामि ॥२८॥ सामाइसंजताणं, पच्छित्ता छेय-मूलरहियऽह । थेराण जिणाणं पुण, तवगंतं छविहं होति ॥२८६॥ छेदोपहावणिए, पायच्छित्ता हवंति सव्वे वि । थेराण जिणाणं पुण, मूलंतं अट्टहा होति ॥२८७॥ परिहारविसुद्धीए, मूलंता अट्ट होंति पच्छित्ता । थेराण जिणाणं पुण, छविहमेतं चिय तवंतं ॥२८॥ आलोयणा विवेगे य, ततियं तु ण विज्जइ सुहमम्मि संपराए, अहक्खाए तहेव य ॥२८९॥
२७९ इतस्त्रयोदश गाथाः व्य० उ० १० गा० ३५४-३६६ ॥ २८२ छ पेते षडप्येतानि ।।
नियनि -382005 .
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प्रायश्चित्तविधा
स्वोपज्ञभाष्ययुत
[ गाथा बउस-पडिसेवया खलु, इत्तिरि-छेदा य संजता दोषिण । जा तित्थं अणुसज्जंति, अत्थि हु तेणं तु पच्छित्तं ॥२९०
जदि अस्थि ण दीसंती, केइ करेंता उ भण्णती सुणम् । तृणामस्तित्वम्
दीसंतु उवापूर्ण, कुव्वंता तस्थिमं जातं ॥२९१॥ जह धणियो साक्खो , हिरवेक्वो चेव होइ [दुविहो] तु । धारणा संतविभवो, असंतविभवो य सो दुविहो ।।२९२॥ संतविभवो तु जाहेव मग्गितो ताहे देति तं सव्वं । जो पुण असंतविभवो, तस्स विसेसो इमो होति ॥२९॥ णिरनेखो तिष्णि चयती, अत्ताण धणं च तह य धारणयं । सावेक्खो पुण रक्खति, अप्पाण धणं च धारणगं ॥२९॥ जो तू असंतविभवो, दब्भं घेत्तण पडइ पाडेण । सो अपाण धणं पि य, धारणगं वेव णासें ति ॥२९॥ जो पुण सहती कालं, सो अत्थं लहति रक्खति य तं च । ण किलिस्सइ य सतं पी एव उवाओ तु सव्वत्थ ॥२९६ जो तु धरैज्ज अवडं, असंतविभवो सतं ।। कुणमाणो य कम्मं तु, णिव्विसे करिसावणं ॥२९७॥ अणमप्पेण कालेणं, सो तगं तु विमोयए । दिडतेसो भणितो, अत्थोवणयो इमो तस्स ।।२९८॥ संतविभवेहि तुल्ला, धिति-संघयणेहि जे उ संपण्णा ।
ते आवण्णा सव्वं, वहति णिरणुग्गहं धीरा ॥२९९॥ सापेक्ष-निर- संघयण-धितीहीणा, असंतविभवेहि होति तुल्लो तु । पेक्षतया प्रायश्चित्तदाने ला.
णिरवेक्खो जदि तेसिं, देति तयो ते ण सुझंति ॥३०॥ भाऽलाभी
ते तेण परिचत्ता, लिंगविवेगं तु काउ वचंति ।
तित्थुच्छेदो एवं, अप्पा वि य चत्ता इणमो उ ॥३०१॥ २९३ इत आरभ्य नव गाथाः व्य० उ० १० भा० गा० ३६७-३७५ ॥
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जीतकल्पसूत्रम् । ते उद्येत्तु पलाणा, पच्छा एकाणियो तयो होति । ताहे किं तु करेतू ?, एवं अप्पा परिचत्तो ॥३०२॥ साविक्खो पत्रयणम्मी, अणवत्थपसंगवारणाकुसलो। चारित्तरक्खणहा, अव्वोच्छित्तीय तु विमुज्झे ॥३०३ ।। कल्लाणगमावण्णे, अतरते जहकमेण काउंजे। दस कारेति चतुत्थे, तब्बिउणाऽऽयंबिलतवे य ॥३०४ एकासण पुरिमड़ा, णिबिगती चेव विगुणविगुणाओ। पत्तेयाऽसहुदाणं, कारेंति व सण्णिगासंति ॥३०॥ चउ-तिग-दुगकल्लाणा, एगं कल्लाणगं च कारिति । जं जो उ तरति तं तस्स देंति असहुस्स झोसेंति ॥३०६॥ एवं सदयं दिजति, जेणं सो संजमे थिरो होति । ण य सव्वहा ण दिजइ, अणवत्थपसंगदोसाओ॥३०७॥ तिलहारगदिद्वंतो, पसंगदोसेण जह वह पत्तो। जणणी यथणच्छेयं, पत्ता अणिवारयन्ती तु ॥३०॥ णिभत्थणाइ बितियाएँ वारिओ जीविआदिआभागी । णेव य थणछेदादी, पत्ता जणणी य अवराह ॥३०॥ इय अणिवारियदोसा, संसारं दुक्खसागरमुचेति । विणियत्तपसंगा पुण, करेंति संसारवोच्छेदं ॥३१०॥ एवं धरती सोही, देन्त करता वि एवं दीसंति । दार । ज पि य दंसण-णाणेहि भाति तिथं ति तं सुणतु ॥३१॥ एवं ते भणतेण, सैणियमादी वि थाविया समणा । समणस्स उ मुत्तम्मी, पत्थी णरएसु उपवातो ।।३१२॥
३०२ पलाणा पलायिताः । एकाणियो एकाकी ॥ ३०३ इत आरभ्यैकादश गाथा व्य० उ० १०भा० गा० ३७६-३८६ ।।
३०८ तिलहारगदिट्टतो तिलहारकदृष्टान्तः गुरुतत्त्वविनिश्चयवृत्ती उ०१ गाथा २०० मध्ये, व्या उ० १० भा० गाथा ३८० टीकायां घ. द्रष्टव्यः ॥
चरणस्य अस्तिता
-des
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निर्यापकाना - मव्यवच्छेदः
भक्तपरिज्ञाविधिः
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा
जै पिय हु एकवीसं, वाससहस्साइँ होइती तित्थं । मिच्छा सिद्धी वा, सव्वगतीसुं पि होज्जाहि ||३१३ || अण्णं च इमो दोसो, पच्छित्ताभावतो तु पावइ हु । जहन विचिति चरणं, तत्थ इमं गाहमासु ॥ ३९४॥ पायच्छित्ते असंतम्मि, चरितं पण चिट्ठति । चरितम् असंतमि, तित्थे णो सचरितया ॥३१५॥ अचरितयाए तित्थे, णेव्वाणं पि ण गच्छती । dostofम्म असंतfम्म सव्वा दिक्खा णिरत्थिया ॥ ११६ ॥ ण विणा तित्थं नियंहिं, नियंठा व अतित्थगा । छक्कायसंजमो जाव, ताव दुण्हाऽणुसज्जणा ॥३१७॥ सव्वन्नूहि परूविय, छकाय महन्त्रया य समितीओ । सच्चैव य पण्णवणा, संपयकालम्मि साहूणं ॥ ३१८॥ तं णो वच्चइ तित्थं, दंसण - णाणेहि एव सिद्धं तु । णिज्जवगा वोच्छिण्णा, जंपि य भणियं तु तं ण तहा ॥ ३१९॥ सुणजह णिज्जवगत्थी, दीसंति जहा य णिज्जविज्जंता । इह दुविहा णिज्जवगा, अत्ताण परे य बोधव्वा ॥ ३२० ॥ पाओग इंगिणि, दुविहा खलु होंति आयणिज्जवगा । णिज्जवणा य परेण व, भत्तपरिण्णाऍ बोद्धव्वा ॥ ३२९ ॥ पाओवगमे इंगिणि, दोण्णि वि चिद्वैतु ताव मरणाई | भतपरिणाऍ विहिं, वाच्छामि अहाणुपुवीए ॥ ३२२ ॥ पावज्जादी कार्ड, यव्वं ताव जाव वोच्छित्ती । पंच तुलेतूण य सो, भत्तपरिण्णं परिणयो य ॥ ३२३॥ सपरमे य अपरक्कमेय वाघाय आणुपुत्री य । सुत्तत्थजाणपणं, समाहिमरणं तु काव्र्व्वं ॥ ३२४ ॥
३१५ इतो द्वादश गोथाः व्य० उ० १० भा० गा० ३८७-३९८ ॥
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१]
जीतकल्पसूत्रम् ।
भिक्ख - वियारसमत्था, जो अण्णगणं तु गंतु चाएति । एस सपरक्कमो खलु, तव्विवरीओ भवे इयरो || ३२५ || Pahari d दुविह, णिव्वाघायें तहेव वाघायें | वाघाती व यदुविहो, कालाधरो व्व इयरो व्व ॥ ३२६ ॥ सपरक्कमं तु तहियं, णिव्वाघायं तव वाघातं । वोच्छामि समासेणं, उप्पं अपरक्कम दुविहं ॥ ३२७॥ तं पुण अणुगंतव्धं, दारेहि इमेहि आणुपुवीए । गणणिसरणाइएहिं तेसि विभागं तु वोच्छामि ॥ ३२८ ॥ गणणिसिरणा परगणा, सिति संलेहा अगीयसंविग्गे । एगाssभोगण अण्णे, अगपुच्छ परिच्छ आलोए ॥ ३२९ ॥ ठाण वसही पसत्थे णिज्जवगा दव्वदायणा चरिमे । हाणि परितत णिज्जर, संथारुव्वत्तणादीनि ॥ ३३० ॥ सारेऊण य कवयं, णिव्वाधारण चिंधकरणं च । वाघाए जयणा या, भत्तपरिण्णाय कायव्या ॥ ३३९॥ गणणिसिरणम्मि उ विही, जो कप्पे वणितो उ सत्तविहो । गणनिःसरण - सो चैव णिरवसेसो, भत्तपरिणाऍ इहई पि ॥ ३३२ ॥ णिसिरित्तु गणं वीरो, गंतूणय परगणं तु सो ताहे । कुणति दढव्वसायो, भत्तपरिण्णं परिणयो य ॥ ३३३॥ किं कारण अवक्रमणं, थेराण इहं तवोकिलंताणं ? | अन्भुज्जयम्मि मरणे, कालुणिया झाणवाघातो ॥ ३३४॥ सगणे आणाहाणी, अप्पत्तिय होति एवमादीहिं । परगणे गुरुकुलवासो, अपत्तियवज्जितो होति ॥ ३३५॥ उवगरणगणणिमित्तं तु बुग्गहो दिस्स वा वि गणभेदो । बालादी थेराण व, उचियाकरणम्मि वाघातो ॥ ३३६ ॥
द्वारम्
३२८ इतः पञ्च गाथाः ५० उ० १० भा० गा० ३९९ ४०३ ॥ ३३४ इतः षडू, गाथा: व्य० उ० १० भा० गा० ४-४-४०९ ॥
२९
निव्याघाताया
सव्याघाताया
श्च सपराक्रमः भक्तपरिज्ञायाः
स्वरूपम्
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श्रितिद्वारम्
स्वोपज्ञभाष्ययुत
[ गाथा सिणेहो पेलवी होती, णिग्गए उभयस्स वि। आहच्च वा वि वाघाए, णो स होइ विउन्मभो ॥३३७॥ दवसिती भावसिती, दवसिती होइ दारुणिस्सेणी । भावसिति संजमो जा, तीय वि भंगा इमे होति ॥३३८॥ संजमठाणाणं कंडगाण लेसाठितीविसेसाण । उवरिल्ला परक्कमणं, भावसिती केवलं जाव ॥३३९॥ भावसिती अहिगारो, विसुद्धभावेण तत्थ ठातव्यं । ण हु उगमणकज्जे, हेहिल्लपदं पसंसंति ॥३४०॥
सिति त्ति दारं॥ संलेखना
संलेहणा उ तिविहा, जहण्ण मज्झा तहेव उक्कोसा। द्वारम्
छम्मासा वरिसं वा, बारस वरिसा जहाकमसा ॥३४१॥ चितु जहण्ण मज्झा, उक्कोसं तत्थ ताव वोच्छामि । जं संलिहिंऊण मुणी, साहती अप्पणा अहं ॥३४२॥ चत्तारि विचित्ताई, विगतीणिज्जूहियाइँ चत्तारि । दीसु चउत्थाऽऽयाम, अविगिह विगिह कोडेक्कं ॥३४३॥ संवच्छराइँ चउरो, तवं विचित्तं चउत्थमादीयं । काऊण सव्वगुणित, पारेती उम्गमविसुद्धं ॥३४४॥ पुणरवि चउरण्णा तूं, विचित्त काऊग विंगतिवज्ज तु । पारेति सो महप्पा, णिद्वं पणियं च वज्जेइ ॥३४५॥ अण्णा दीणि समाओ, चउत्थ काऊग पारे आयाम । कंजीएणं तु तयो, अग्णेकस में दुहा काउं । ३४६॥ तत्थेकं छम्मासं, चतुत्थ छ8 च काउ पारेति ।
आयामेणं णियमा, बितिए छम्मासिऍ विगिहें ॥३४७।। ३४२ इतौ नव गाथाः व्य० उ० १० भा० गा० ४११-४१८ ॥ ३४४ सव्वगुणित सर्वगुणिक प्रतिबन्धरहितम्, यथेष्टमिति यावत् ।
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जीतकल्पसूत्रम् । अहम दसम दुवालस, काउं पारे तमेव आयामं । अण्णेकहायणं तू, कोडीसहितं तु काऊणं ॥३४८।। आयाम-चउत्थादी, काऊण अपारिए पुणो अण्णं । जं कुणयाऽऽयामाद्री, तं भण्णति कोडिसहितं तु ॥३४९॥ आयंबिल उसिणोएण पार हावतो आणुपुबीए । जह दीव-तेल्ल-बत्तीखो समं तह सरीरायुं ॥३५०॥ बारसमम्मि य वरिसे, जे मासा उवरिमा उ चत्तारि। पारणए तैसि तू, एकतरतं इमं धारे ॥३५१॥ तेल्लस्स उगडूसं, ग्रीसर्ट जाव खेलसंवुत्तो। तो णिसिरे खेलमत्ते, किं कारण ? गल्लधरणं तु ॥३५२॥ लुक्खत्ता मुहर्जतं, मा हु खुहेज त्ति तैण धारेइ । माऽह णमाकारस्सा, अपचलो सो हु होजाहि ॥३५३॥ उक्कोसिया तु एसा, संलेहा मज्झिमा जहण्णा य । संवच्छर छम्मासा, एमेव य मास-पक्खेहि ॥३५४॥ एत्तो एगतरेणं, संलेहेणं खवेत्तु अप्पाणं । कुज्जा भत्तपरिणं, इंगिणि पाओवगमणं च ॥३५५॥ अग्गीयसगासम्मी, भत्तपरिणं तु जो करेजाहि ।
अगीत
द्वारम् चउगुरुगा तस्स भवे, किं कारण ? जेणिमे दोसा ॥३५६॥ णासेइ अगीयत्थो, चउरंग सबलोगसारंग । णहम्मि य चउरंगे, ण हु सुलभ होति चउरंग ॥३५७॥ किं पुण तं चउरंग, जं दुल्लहं पुणो होति ? । माणुस्सं धम्मसुती, सद्धा तह संजमे विरियं ॥३५८॥ किह णासेति अगीतो, पढम-बितिएहि अद्दिो सो उ । ओभासे कालिमाए, तो निद्धम्मो त्ति छड्डेज्जा ॥३५९॥
३५३ इतोऽष्टाविंशतिर्गाथाः व्य० उ० १० भा० गा० ४२०-४४७ ॥
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३२
असंविग्न
द्वारम्
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा
अंतो वा बाहिं वा, दिया व रातो व सो विचित्तो तु । अवसट्टो, पडिगमणादीणि कुज्जाहि ॥ ३६०॥ मरिऊण अट्टज्झाणा, गच्छेज्ज व तिरिय वणसुरेसुं वा । संभरणय रं, पडिणीयत्तं करेज्जाहि ॥ ३६१ ॥ अहवा वि सव्वरी, मोयं देज्जाहि जायमाणस्स । सो डंडियादि होज्जा, रुट्ठो साहे णिवाईणं ॥ ३६२ || कुज्जा कुलादिपत्थारं, सो वा रुट्ठो तु गच्छे मिच्छतं । तप्पच्चयं तु दी हैं, भमेज्ज संसारकंतारं ॥ ३६३॥ सो दिट्ठो य विर्गिचितो, संविग्गेहिं तु अण्णसाहूहिं । आसासियमणुसो, मरणज्जढ पुणो वि पडिवण्णो ॥ ३६४ ॥ एए अण्णे य बहू, तहियं दोसा सपच्चवाया य ।
एहि कारणेहि, अग्गीये ण कष्पति परिण्णा || ३६५ ॥ तम्हा पंच व छस्सत वा वि जोयणसते समहिए वा । गीयत्थपायमूलं, परिमग्गेज्जा अपरिततो ॥ ३६६ ॥ एक्कं व दो व तन्निव, उक्कासं बारसेव वासाई । गीयत्थपायमूलं, परिमग्गेज्जा अपरितंतो ॥ ३६७॥ गीतत्थदुल्लभं खलु, पडुच्च कालं तु मग्गणा एसा । ते खलु गवेसमाणे, खेत्ते काले य परिमाणं ॥ ३६८॥ तेण य गीयत्थेणं, पवयणगहियत्यसव्वसारेण । णिज्जवएण समाही, कायव्वा उत्तिमम्मि ॥ ३६९ ॥ अगीय ति दारं ॥
एवमसंविग्गे वी, पडिवज्जंतस्स होंति चउगुरुगा । किं कारणं तु ? तहियं, जम्हा दोसा हवंति इमे ॥ ३७० ॥ णासेति असंविग्गो, चउरंग सव्वलोयसारंगं ।
मि यचउरंगे, ण हु सुलहं होति चउरंग ॥ ३७१ ॥
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१]
जोसकल्पसूत्रम् । आहाकम्मिय पाणय, पुप्फा सीया य बहुजणे णायं । सेज्जा संथारो वि य, उवही विय होति अविसुद्धो॥३७२॥ एते अण्णे य तहि, बहवे दोसा सपञ्चवाया य । एतेण कारणेणं, असंविग्गे ण कम्पति परिण्णा ॥३७३॥ तम्हा पंच व छ स्सत्त वा वि जोयणसते समहिए वा। संविग्गपादमूलं, परिमग्गेज्जा अपरितंतो ॥३७४॥ एक व दो व तिणि व, उकोसं बारसेव वासाई । संविग्गपादमूलं, परिमग्गेज्जा अपरितंतो ॥३७५।। संविग्गदुल्लहं खलु, कालं तु पडुच्च मग्गणा एसा । ते खलु गवेसमाणे, खेत्ते काले य परिमाणं ॥३७६॥ तेण य संविग्गेणं, पक्यणगहियत्थसव्वसारेणं । णिज्जवगेण समाही, कातव्या उत्तिमहम्मि ॥३७७।।
संविग्गेति दारं । एगम्मि उणिज्जवए, विराहणा होति कजहाणी य । सो सेहा वि य चत्ता, पावयणं चैव उड्डाहो ॥३७८॥ तस्सहगतोभासण, सेहादिअदाणे सो य परिचत्तो । दातुं व अदाउँ वा, हवंति सेहा वि णिद्धम्मा ॥३७९॥ कूवइ अदिज्जमाणे, मारेति बल त्ति पवयणं चत्तं । सेहा य ज पडिगया, जणे अवयं पयासंति ॥३८०॥ दार।। सयमेवाऽऽभोएतुं, अतिसेसि णिमित्तियो व आयरिओ। देवयणिवेयणेण व, जह णगरे कंचणपुरम्मि ॥३८॥ कंचणपुर गुरुसण्णा, देवयरुयणा य पुच्छ कहणा य । पारणग खीर रुहिरं, आमंतण संघणासणया ||३८२॥ अहवा वि सो व परतो, पारग मिच्छत्त पारए गुरुगा । असती खेमसुभिक्खे, णिव्याघाते ण पडिवत्ती ॥३८३॥
३८२ गाथेयं व्य० १० गा० ४५२ ॥
एकद्वारम
आभोगद्वारम्
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अनापृच्छाद्वारम्.
स्वोपज्ञभाज्ययुतं
[ गाथा सतं व चिरावासो, वासावासे तवस्सिणं । तेणं तस्स विसेसेणं, वासासु पडिवजणं ॥३८४॥ असिवोमादीएमु तु, पडिवजते इमे भवे दोसा। संजम-आयविराहण, आणाईया य दोसा उ ॥३८५॥ असिवादीहि वहता, तं उवगरणं व संजता चत्ता ।
उवहिं विणा य छड्डणे, चत्तो सो पवयणं चेव ॥३८६॥ दारं।। अन्यद्वारम् एगो संथारगतो, वितियो संलेहे ततिय पडिसेहो।
अपहुचंतऽसमाही, तस्स व तेसिं व असमाही ॥३८७॥ हविज्ज जदि वाघातो, बितियं तत्थ ठावए । चिलिमिलिं अन्तरे काउं, बहि वंदावए जणं ॥३८॥दार। अणपुच्छाएँ गणस्सा, पडिच्छए तं जती गुरू गुरुगा। चत्तारि तु विण्णेया, गच्छमणिच्छंते जं पावे ॥३८९॥ पाणगादीणि जोग्गाणि, जाणि तस्स समाहिए। अलंभे तस्स जाणाही, परिकेसो य जायणे ॥३९०॥ असंथरं अजोग्गो वा, जोगवाही व जइ भवे ।
एसणादिपरिकेसो, जा य तस्स विराहणा ॥३९॥ दारं ॥ परीक्षाद्वारम्
अपरिच्छणम्मि गुरुगा, दोण्ह वि अण्णोण्णगं जहाकमसो। होति विराहण दुविहा, एको एको व जं पावे ॥३९२॥ तम्हा परिच्छणा खलु, दव्वे भावे य होति दोण्हं पि। तहियं तु जो परिच्छति, दधपरिच्छाएँ ते इणमो ॥३९३॥ मादणपयकढियादी, दवे आणेह मे त्ति तो उदिते । यदि उवहसति ते तू, अहो इमो विगयगेहि त्ति ॥३९४॥ किह मोच्छिइ त्ति भत्तं ?, तेसेवं दधयो परिच्छा उ ।
भावे कसाइजंती, तेसि सगासे ण पडिवज्जे ॥३९५॥ ३८५ इतो गाथाद्वादशकं व्य० १० गा० ४४९-४६०॥ ३९५ मोच्छिा मोक्ष्यति। तेसेवं तेषामेवम् ।
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१]
जीतकल्पसूत्रम् ।
अह पुण विरूवरूवे, आणीऍ दुर्गुछए भणतऽण्णं । आमोति ववसिए, पडिवज्जति तेसि सो पासे ॥ ३९६ ॥ एवंभासी ते तू, परिच्छर दव-भावयो विहिणा | ते वियतं तु परिच्छे, दुविहपरिच्छाएँ इणमो तु ॥ ३९७॥ कलमोयणो य पयसा, अण्णं व सभावअणुमतं तस्स । उवणीयं जो कुछ, दवपरिच्छाऍ सो सुद्धो ॥ ३९८ ॥ भावे पुर्ण पुच्छिज्जइ, किं संलेहो कतो त्ति ण कयो त्ति ? | इति उदिए सो ताहे, तूर्ण अंगुलिं दाए ॥ ३९९ ॥
पेच्छ ता मे एयं किं कतो ण कतो त्ति एव उदितमि । भणति गुरू तो ण तयो, एयं चिय ते ण संलीढं ॥४००॥ ण हु ते दव्वसंलेहं, पुच्छे पासामि ते किसं ।
".
कीस ते अंगुली भग्गा ?, भावं संलिहमाऽऽउर ! ||४०१ ॥ भावो च्चिय एत्थं तू संलिहियव्वो सदा पयत्तेणं । तेणाss साहे, दितोऽमच्च - कोंकण ||४०२॥ रण्णा कोंकणगाऽमच्चा, दो वि णिव्विसया कता । दोद्धिए कंजियँ छो, कोंकणी तक्खणा गतो ॥ ४०३ ॥ भण्डीओ बल्लए काए, अमच्चो जा भरेइ तु ।
,
ताव पुण्णं तु पंचाहं णलिए णिहणं गतो ॥ ४०४ || एवं जेहिं संलीढो, भावो ते तू साहगा । असलीढेण साहेन्ति, अमची इव ते खलु ॥४०५॥ इंद्रियाणि कसाए य, गारवे य किसे कुण ।
ण चेयं ते पसंसामो, किसं साहु ! सरीरगं ॥ ४०६ ||
३९८ व्य० १० गा० ४६१ ।। ३९९ हंतृणं उत्प्लुत्य । दाय दर्शयेत् ॥ ४०३ गाथाद्विकं व्य० १० गा० ४६४-६५ ॥
४०१ व्य० १० गा० ४६३ ||
४०६ व्य० १० गा०
४६६ ॥
३५
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स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[गाथा एवं परिच्छिऊणं, जदि सुद्धो ताहे तं पडिच्छति । दारं ॥ आलोचना
ताहे य अत्तसोहि, करेति विहिणा इमेणं तु ॥४०७॥ द्वारम् आयरियपादमूल, गंतूर्ण सति परिक्कमे ताहे ।
सव्वेण अत्तसोही, परसक्खीयं तु कायव्वा ॥४०८॥ जह सुकुसलो वि वेजो, अण्णस्स कहेति अपणो वाही । वेज्जस्स य सो सोतुं, तो परिकम्मं समारभइ ॥४०९॥ जाणतेग वि एवं, पायच्छित्तविहमप्पणा णिउणं । तह वि य पागडतरयं, आलोएतवयं होति ॥४१०॥ छत्तीसगुणसमण्णागएण तेण वि अवस्स कायव्वा । आलोयण निंदण गरहणा य ण पुणो य बितियं ति ॥४११॥ किं कारणमालोयण, एवषयत्तेण होति दायव्या ?। भण्णइ सुणसू इणमो, आलोयंतस्स जे उ गुणा ॥४१२॥ आयार विणयगुण कप्पदीवणा अत्तसोहि उजुभावो । अज्जव मद्दव लाघव, तुट्ठी पल्हायजणणं च ॥४१३॥ पावज्जादी आलोयणा तु तिण्हं चतुक्किय विसोही । जह अप्पणो तह परे, कायना उत्तिमहम्मि ॥४१४॥ तिण्हं ती णाणादी, दव्यादि चउक्कगं मुणेयव्वं । जो अतियारो तेस, कयो आलोएति तं सव्वं ॥४१५॥ णाणे वितहपरूवण, जं वा आसेवितं तदहाए । चेयणमचेयणं बा, दव्वे खेत्तादिसु इमं तु ॥४१६॥ णाणणिमित्तं अद्धाणमेति ओमे व अच्छति तदहा । णाणं च आगमेस्सइ, कुणती परिकम्मण देहे ॥४१७॥ पडिसेवति विगईओ, मेहादब्वे व एसती पियति ।
वायंतस्स व किरिया, कया तु पणगादिहाणीए ॥४१८॥ ४०८. गाथाचतुष्कं व्य० १० गा० ४६७-७० ॥ ४१० पागडतरयं प्रकटतरं-स्पष्टम् ।। ४१३ गाथास्त्रयोविंशतिः व्य० १० गा० ४७३-९४ ॥
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१]
नीतकल्पसूत्रम् ।
एमेव सम्म वि, सद्दहणा णवरि तत्थ णाणतं । सण- इत्थदोसे, वयंति चरणे सिया सेवा ||४१९॥ अहवा तिगसालवेण दव्वमादी चउक्कमाहच । आसेवियं निरालंबओ व आलोयए तं तु ॥४२० ॥ पडि सेवणातियारा, जदि वीसरिया कहिंचि होज्जाहि । तेसु कह वहिय, सल्लुद्धरणम्मि समणेणं ? ॥ ४२१ ॥ जे. मे जाणंति जिणा, अवराहे जेसु जेसु ठाणेसु । ते आलोएडं, उवद्वितो सव्वभावेणं ॥ ४२२॥ एवं आलोतो, विसुद्धभावपरिणामसंजुत्ती | आराहओ तह वि सो, गारवपलिउंचणारहितो ||४२३|| दारं ॥ ठाणं पुण केरिसयं, होति पसत्थं तु तस्स जं जोगं ? | भण्णति जत्थण होज्जा, झाणस्स उ तस्स वाघाओ ||४२४|| गंधव्व-नट्ट - जड्डु -ऽस्स- चक्क जंत ऽग्गिकम्म- पुरुसे य । न्तिक्क-रग- देवड- डोम्बिल- पाडहिय-रायपहे ॥ ४२५ || चोरग- कोहरा कल्लाल - करकए पुप्फ-दगसमीवे य । आराम हे aियडे, जागघरे पुव्वभणिए य ॥४२६॥ परम वितिए कप्पे, उद्देसेस उवस्सया जे तु | विहिते यणिसिद्धा, तव्विवरी भवे सिज्जा ॥ ४२७|| उज्जाणे तरुमूले, सुण्णघर अणिसह हरिय मग्गे यः । एवं ण टायर, होज्ज समाहीय वाघाओ || ४२.८॥ इंदियपडिसंचारो, मणसंखोभकरणं जहिं णत्थि । चास्सालाई दुवे, अणुण्णवेऊण ठायंति || ४२९ ॥
૩૭
४२१ सलुबरणम्मि शल्योद्धरणे अपराधालोचनायामित्यर्थः ॥ ४२३ पलिउंचणा प्रतिकुञ्च्यतेऽन्यथासेवितं अन्यथा कथ्यते यया सा प्रतिकुञ्चना | व्यवहारपीठिका गाथा १५० पत्रं ५० ॥
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स्थान- वसतिद्वारम्
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स्वोपज्ञभाज्ययुत
[ गाथा पाणगजोग्गाहारे, ठवेंति से तत्थ जत्थ ण उर्वन्ति । अप्परिणया व सो वा, अप्पच्चय-गहिरक्वट्ठा ॥४३०॥ भुत्तभोगी पुरा जो तु, गीयत्थो वि य भावितो। संतेसाऽऽहारधम्मेसु, सो वि खिप्पं तु खुब्भती ॥४३१॥ पडिलोम अणुलोमा वा. विसया जत्थ दूरतो।
आवित्ता तत्थ से णिचं, कहणा जाणगस्स वि ॥४३२॥दारं ॥ निर्यापकद्वारम्
पासत्थोसण्णकुसीलठाणपरिवज्जिया उणिज्जवगा। पियधम्मऽवज्जभीरू, गुणसंपण्णा अपरितंता ॥४३३॥ जो जारिसतो कालो, भरहेरवएसु होति वासेसु । ते तारिसया तइया, अडयालीसा तु णिज्जवगा ॥४३४।। उव्वत्त दार संथार कहग वादी य अगदारम्मि । भत्ते पाण वियारे, कहग दिसा जे समत्था य॥४३५॥ दुवालससु एतेसु, एक्कक्के चउरों भवे । दिसि चउसु पुज्ने एक्कक्के, अडयालीसं भवंती तु ॥४३६॥ एवं खलु उक्कोसा, परिहायंती हवंति दो च्चेव । दागीय किं णिमित्तं ?, अमुण्णकरणं जहण्णेणं ॥४३७॥दारं। तस्स य चरिमाहारो, इट्टो दायबो तण्हछेयहा । सव्वस्स चरिमकाले, अतीव तण्हा समुज्जलइ ॥४३८॥ णव विगइ सत्त ओदण, अट्ठारस वंजणुच्चपाणं च । अणुपुषिविहारीणं, समाहिकामाण उवहरइ ॥४३९॥ काल-सभावाणुमतो, पुब्बझुसिओ सुओवइट्ठो वा । झोसिज्जति सो वि तहा, जयणाय चउबिहाहारो ॥४४०॥ तहाछेदम्मि कते, ण तस्स तहितं पवत्तए भावों ।
अहव कहिचुप्पज्जति, तहवि णियत्तेइ एवं तु ॥४४१॥ ४३१ संतेसाऽऽहारधम्मेसु सत्सु आहारधर्मेषु ॥ ४३७ गाथाषटकं ध्य० १० गा० ४९५-५००॥ ४४१ कहिचुप्पज्जति कथञ्चिदुत्पद्यते ॥
द्रव्यदापनाद्वारम्
.
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१]
जीतकल्पसूत्रम् ।
किंव तं णोवभुतं मे, परिणामासुयिं सुर्य ? | दिसारो सुहं झाइ, चोयणेसेव सीययो ॥ ४४२ ॥ चरिमं च एस भुंजति, सद्भाजणणं च होति उभए वि । संजय - गिहियाणं वा, तो देंति इमीय तु विहीय || ४४३ || तिविहं तु वोसिरिहीइ, सो ता उक्कोसगाइँ दव्वाई । मग्गेत्ता जयणाए, चरिमाहारं पदंसेंति || ४४४ ॥ पासित ताणि कोयी, तीरप्पत्तस्स किं ममेतेहिं ? 1. aroraणुपत्तो, संवेगपरायणो होति ||४४५ ॥ सव्वं भोच्चा कोई, धिद्धीकारं इमेण किं मे ? त्ति । वेरगमणुपपत्तो, संवेगपरायणो होति ॥४४६ ॥ सव्वं भोच्चा कोई, मणुण्णरसपरिणतो हवेज्जाहि । तं चैवणुबंधतो, देस सव्वं च रोहीया ॥ ४४७॥ दारं ॥ farutsargबंधे, आहारऽणुबंधणाऍ वोच्छेदो । परिहायमाणदव्वे, गुणवडि समाहि अणुकंपा ||४४८|| afarपरीणामं ता, हावेति दिणे दिणे तुजा तिण्णि । बिन्ति णलति दुलभे, सुलभम्मि वि होतिमा जयणा ||४४९ ॥ आहारे ताव छिंदाहि, गेहिं तो णं चस्ससि । जं भुक्तं ण हु पुव्वं ते, तीरपत्तो तमिच्छसि ॥ ४५० ॥ दारं || वर्हति अपरितंता, दिया व रायो व सव्वपरिकम्मं । पडियरगा मुणिवरगा, कम्मरयं णिज्जरेमाणा ॥४५१ ॥ जो जत्थ होति कुसलो, सो तु ण हावेइ तं सइ बलम्मा उज्जुत्ता सति जोगे, तस्स वि दीवेति तं स || ४५२ ॥ दारं ||
३९
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हानिद्वारम्
४४२ झाइ चोयणे सेव सीययो ध्यायति चोदना एषैव सीदतः ॥ ४४४ गाथाद्विकं व्य० १० गा० ५०१-२ ॥ ४४५ मते हिं मम एतैः ॥ ४४७ इतः ४७२ गाथान्ता गाथा व्य० १० गा० ५०३-२८ ॥ ४४९ होतिमा भवति इयम् ॥
अपरितान्तद्वारम्
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२०
संस्तारद्वारम्
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा निर्जराद्वारम् देहविओगो खिप्पं, व होज अहवा वि कालकरणेणं ।
दोहं पि णिज्जरा वट्टमाणो गच्छो उ एयट्ठा ।।४५३॥ कम्ममसंखेज्जभवं, खवेइ अणुसमयमय आउत्तो। अण्णयरश्मि वि जोगे, सज्झायम्मी विसेसेणं ॥४५४॥ कम्ममसंखेज्जभवं, खवेइ अणुसमयमेव आउत्तो। अण्णयरम्म वि जोगे, काउस्सग्गे विसेसेणं ॥४५५॥ कम्ममसंखेज्जभवं, खवेइ अणुसमयमेव आउत्तो । अण्णयरम्मि वि जोगे, वेयावच्चे विसेसेणं ॥४५६।। कम्ममसंखेज्जभवं, सवेति अणुसमयमेव आउत्तो । अण्णयरम्म वि जोगे, विसेसतो उत्तिमट्टम्मि॥४५७॥ दार।। संथारो उत्तिमढे, भूमि-सिला-फलगमादि णायव्या। संथारपट्टमादी, दुगचीराऊ बहू वा वि ॥४५८॥ तह वि असंथरमाणे, कुसमादी तिणि अज्झुसिरतणाति । तेसऽसति असंथरणे, ब होज्ज सुसिरा वि तो पच्छा॥४५९॥ तह वि असंथर कोतव, पावारग णवय तूलि भूमीए ।
एमेव अणहियासे, संथारगमादि पल्लंके ।।४६०॥ दारं ।। उद्वर्तनाद्वारम पडिलेहण संथारं, पाणग उव्वत्तणादि णिग्गमणं ।
सयमेव करेति सहू, असहुस्स करेंति अण्णे उ ॥४६१॥ कायोवचितो बलवं, णिक्खमण पवेसणं च सो कुणति । तह वि य अविसहमाणं, संथारगतं तु संधारे : ४६२॥ संथारो तस्स मउतो, समाहिहेउ तु होति कायव्वो।
तह वि य अविसहमाणे, समाहिहेउं उदाहरणं ॥४६॥दारं॥ स्मारणाद्वारम् धीरपुरिसपण्णत्ते, सप्पुरिसणिसेविए परमरम्मे ।
धण्णा सिलातलतले, णिरावयक्खा णिवज्जति ॥४६४॥ ४५८ उत्तिमढे उत्तमार्थे चरिमाराधनावसरे ॥ ४६३ मउतो मृदुकः ॥
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१]
जीतकल्पसूत्रम् ।
जदि ताव सावया कुलगिरिकंदर विसमकडग दुग्गेसु । सार्हेति उत्तम, धितिधणियसहायगा धीरा ||४६५ ॥ किं पुण अणगारसहायगेण अण्णोष्ण संगहवलेणं । परलोतिए ण सक्का, साहेउं अप्पणो अहं ? ॥४६६ ॥ जिणवयणमप्पमेयं, णिउणं कण्णा हुईं सुतेणं । सक्का हु साहुमज्झे, संसारमहोदहिं तरितुं ||४६७॥ सव्वै सव्वद्धाए, सव्वण्णू सव्वकम्मभूमीसु । सव्वगुरु सव्वमहिया, सव्वे मेरुम्मि अहिसित्ता ||४६८ || सव्वाहि विलद्धीहिं, सव्वे वि परीस हे पराइत्ता । सव्वे वियतित्थगरा, पायोवगमेण सिद्धि गया ॥ ४६९ ॥ अवसेसा अणगारा, तीय-पडुप्पण्ण-ऽणागया सव्वे | केई पायोवगया, पच्चक्खाणिगिणी केयी ॥ ४७० ॥ सव्वाओ अज्जाओ, सव्वे वि य पढमसंघयणवज्जा । सव् य देसविरया, पच्चक्खाणेण तु मरंति || ४७१ ॥ सव्वमुपभवाओ, जीवियसाराओं सव्वजणयायो । आहाराओ रतणं, ण विज्जए उत्तिमं अण्णं ॥ ४७२ ॥ सेलेसि सिद्ध विग्गह, केवलिओघायए य मोत्तूर्णं । स सव्वावस्थं, आहारे होंति आयत्ता ||४७३ ॥ तं तारिस रयणं, सारं जं सव्वलोगरयणाणं । सव्वं परिचरत्ता, पाओवगया पविहरति ॥४७४ || एवं पाओगमं, पिडिकम्मं जिणेहि पण्णत्तं । जं सोऊण परिण्णी, ववसायपरिकमं कुणति ॥४७५ ॥ दारं ॥ कोयिं परीसहि, वाउलिओ वेयणडिओ वा वि । ओभासेज्ज कयाई, पढमं वितियं च आसज्ज ॥४७६ ॥
7
४६९ पराइत्ता पराजित्य ।। ४७४ इतः ४८७ गाथान्ता गाथा २५० १० गा० ५३० - ४३ ॥ ४७६ वेयणट्टिओ वेदनार्तः ॥
६
कवचद्वारम्
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攀簸
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
गीयत्थमगीयत्थं, सारेउ तह विवोहणं कार्ड | तो पडिवोह छट्ठे, पढमे पाए सिया बितिए ||४७७ || हन्दि दु परीसहचमू, जोतवा मणेण कारण । तो मरणसयाले, कवयम्भूओ तु आहारो || ४७८ ॥ णा संगामदुर्ग, महसिल-रहमुसलवण्णणा तेसिं । असुर-सुरिन्दावरणं, चेडग एगो गह सरस्स || ४७९ ॥ महसिलकंटे तहियँ, बहुते कूणिओ तु रहिएणं । रुक्खगवलग्गेणं, पहतो पटुम्मि कणएणं ॥ ४८० ॥ उफिडितुं सो कणओ, कवयावरणम्मि तो ततो पडितो । सो तस्स कोणिएणं, छिण्णं सोर्स खुरप्पेणं ॥४८१ ॥ दितस्सोवणओ, कवयत्थाणी इह तहाऽऽहारो । सत्तू परीसहा खलु, आराहण रज्जथाणीया ||४८२ ॥ जह वाऽऽउंटियपाए, पायं काऊण हत्थिणो पुरिसो । आरुहति तह परिण्णी, आहारेणं तु झाणवरं ||४८३ ॥ उवगरणेहि विहूणो, जह वा पुरिसो ण साहए कज्जं । एवाssहारपरिण्णी, दिता तत्थिमे होंति ॥ ४८४|| लव पवए जोहे, संगामे पत्थिए इय | आतुरे सिक्खए चैव, दिद्वैत समाहिकामेतो ॥४८५ ॥ दत्तेणं णावाए, आउह तहोवाहणोसहेहिं च । raगरणेहिं च विणा जहसंखमसाहगा सव्वे ॥ ४८६ ॥ vaissहारेण विणा, समाहिकामो ण साहऍ समाहि । तम्हा समाहिउँ, दायव्वो तस्स आहारो ॥४८७॥
[ गाथा
४७९-४८१ एतद्वाथागतश्चेटक-कोणिकसम्बन्धः महाशिला रथमुशलवर्णनाच भगवती सूत्र सप्तमशत कन व मोद्देशकादवसेया । पत्र ३१५ ॥ ४८६ दत्तेण दात्रेण ॥
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१]
जीतकल्पसूत्रम् । घिति-संघयणविजुत्तो, असमत्थो परीसहेऽहियासेउं । फिट्टति चंदगविज्झा, तेण विणा कवयभूएणं ॥४८८॥ सरीरमुज्झिय जेण, को संगो तस्स भोयणे । समाहिसंधणाहेउँ, दिज्जए सो सि अंतिए ॥४८९।। मुद्धं एसित्तु ठार्वति, हाणिओ वा दिणे दिणे । पुव्वुत्ताए उ जयणाए, तं तु गोवेन्ति अण्णहिं ॥४९॥दा।। णिव्याघाएणेवं, कालगयविगिचणा विहीपुव्वं ।
चिह्नकरणकातव्य चिंधकरणं, अचिंधकरणे भवे गुरुगा ॥४९॥
द्वारम् उवगरण सरीरम्मि य, अचिंधकरणम्मि मंडिओ तहियें । मग्गणगवेसणाए, गामाणं घायणं कुणति ॥४९२॥ दारं ॥ ण पगासेज्ज लहुत्तं, परीसहुदएण होज्ज वाघाओ।
यतनाद्वारम् उप्पण्णे वाघाए, जो गीयत्थाण तु उवाओ ॥४९३॥ को गीयाण उवाओ ?, संलेहग उडविज्जए अण्णो। उच्छहए जो वऽण्णो, इयरे उ गिलाणपरिकम्मं ॥४९४॥ वसभो वा ठाविज्जति, अण्णस्सऽसतीअ तम्मि संथारे । कालगतो ति य काउं, संझाकालम्मि णीणति ॥४९॥ एव तू णायम्मी, डंडियमादीहि होति जयणेसा। सत गमण पेसणं वा, खिसण चउरो अणुग्घाता ॥४९६॥ सपरकमे य भणियं, णिव्याघाई तहेव वाघाये । णिव्याघाइम इयरं, एत्तो अपरकम वोच्छं ॥४९७॥ नियाघातअपरकमो बलहीणो, अण्णगण ण जाति कुणइ गच्छम्मि।
सव्याघातासपरकमो व्व सेस, णिव्याघाती गती एसो ॥४९८॥ वाघाति आणुपुब्धी, रोगाऽऽयंकेहि णवरि अभिभूओ। स्वरूपम बालमरणं पि य सिया, मरेज्ज उ इमेहि हेऊहिं ॥४९९॥
४८८ चंदगविज्झा चन्द्रकवेधः पुत्तलिकाक्षिचन्द्रकस्य वेधः ॥ ४८९ इतः ४९७ गाथान्ता गाथा व्य० १० गा० ५४४-५२ ॥ ४९९ इतः ५०५ गाथान्ता गाथा व्या १० गा० ५५३-५९॥
पराक्रमभक्तपरिज्ञाया
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स्वोपज्ञभाष्ययुत
[ गाथा वाल-अच्छभल्ल-विसगय-विसूयिगाऽऽयंक सण्णिकोसलए । ऊसास गद्ध रज्जू, ओमा-ऽसिव-ऽहियाय-संबद्ध ॥५००। वालेण गोणसाइण, खइओ होज्जाहि सडिउमारद्धो। कण्णोडणासिगादी, विभंगिया अच्छभल्लेण ॥५०१॥ लद्धो व विसेणं तू, विसूयिया वा से उहिता होज्जा । आयको वा कोयी, खयमादी उहिओ होज्जा ॥५०२।। तिण्णि तु वारा किरिया, तस्स कया ण वि य उवसमो जातो। जह ओमे कोसलेणं, सण्णीणं पंच उ सयाई ॥५०॥ सण्णीणं रुद्धाई, अहयं भत्तं तु तुब्भ दाहामि । लाभतरं च णाउं, लुद्धणं विक्कियं धणं ॥५०४॥ तो जाऊ वित्तिछेद, ऊसासणिरोहमादिणि कताणि । अणहीयासेन्तेहिं, खुहवेदण ओमे साहूहि ॥१०॥ एवं ता कोसलए, अण्णम्मि वि ओमो होज्ज एमेव । सहसा छिण्णद्धाणे, असिवग्गहिया व कुज्जाहि ॥५०६॥ अभिघाओ वा विज्जू, गिरिभित्ती कोणगादि वा होज्जा। संबद्ध हत्थ-पादादयो व वादेण होज्जाहि ॥५०७।। एतेहि कारणेहि, वाघाइम सरण होति णायच्वं । परिकम्ममकाऊणं, पञ्चक्खाई ततो भत्तं ॥५०८॥ अह पुण जदि होज्जाही, पंडियमरणं तु काउ असमत्थो । ऊसास गद्धपढे, रज्जुग्गहणं व कुजाहि ॥५०९॥ अणुपुग्विविहारेणं, उस्सग्गणिवाइयाण जा सोही। विहरंतएण सोही, भणिता आयारलोवा या ॥१०॥ एसा पञ्चक्खाणे, आय परे भणिय णिज्जवाण विही।
इंगिणि-पायोवगमे, वोच्छामी आयणिजवणं ॥११॥ ५०७ गाथाद्विकं व्य० १० गा० ५६०-६१ ॥ ५१० व्य० १० गा० ५६२ ॥
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जीतकल्पसूत्रम् । पवज्जादी काउं, णेतव्वं जाव होयऽवोच्छित्ती ।
इङ्गिनीमरणम् पंच तुलेतूण य सो, इंगिणिमरणं ववसिओ यु ॥५१२॥ आय-परपरिकम्म, भत्तपरिणाएँ दो अणुण्णाता । परिवज्जिया य इंगिणि, चउबिहाहारविरती य ॥५१३॥ ठाण णिसीय तुयट्टण, इत्तिरियाई जहासमाहीए। सयमेव य सो कुणती, उपसग्ग परीसहऽहियासे ॥५१४॥ संघयण-धितीजुत्तो, णव-दसपुव्वा सुतेण अंगा वा। इंगिणिमरणं णियमा, पडिवज्जइ एरिसो साहू ॥५१५।। पव्वज्जादी काउं, णेयव्वं जाव होयऽवोच्छित्ती ।
पादपोपपंच तुलेतूण य सो, पायोवगमं परिणतो य ॥१६॥
गमनम् तं दुविहं णायव्वं, णीहारिं चेव तह अणीहारिं । बहिता गामादीणं, गिरिकंदरमादि णीहारिं ॥५१७॥ वइयादिसु जं अंतो, उठेउमणा य ठाय अणीहारिं । कम्हा पादवगमणं ?, जं उवमा पादवेणेत्थं ॥५१८॥ सम विसमम्मि व पडिओ, अच्छति जह पादवो व णिकंपो। णिञ्चल णिप्पडिकम्मो, णिक्खिवती जं जहिं अंग ॥१९॥ तं ठित होति तह च्चिय, णवरं चलणं परप्पयोगातो। वायादीहि तरुस्स व, पडिणीयादीहि तह तस्स ॥२०॥ तसपाण-बीयरहिते, विच्छिण्णवियार थंडिल विसुद्धे। णिद्दोसा णिहोसे, उति अब्भुज्जयं मरणं ॥५२१॥ पुषभवियवरेणं, देवो साहरइ कोति पाताले। मा सो चरिमसरीरो, ण वेदणं किंचि पाविहिती ॥५२२॥ उप्पण्णे उवसग्गे, दिव्वे माणुस्सए तिरिक्खे य । सव्वे पराजिणित्ता, पायोवगया पविहरंति ॥२३॥
५१२ गाथाचतुष्कं व्य० १० गा० ५६३-६६ ॥ ५१८ वइया नजिका गोकुलम् ।। ५२१ गाथात्रिकं व्य० १० गा० ५६८-७०॥ ५२२ साहरई कोति संहरति कोऽपि ।
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स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[गाथा देव-णर दुगतिगऽस्से, केयी पक्खेवगं सिया कुज्जा । वोसट्ठ-चत्तदेहो, अहाउयं कोइ पालिज्जा ॥५२४॥ अणुलोमा पडिलोम, दुगं तु उभयसहिया तिगं होति । अहवा चित्तमचित्तं, दुगं तिगी मीसग समग्गं ॥२५॥ पुढवि-दग-अगणि-मारुय-वणस्सति-तसेसु कोइ साहरइ । वोसह-चत्तदेहा, अहाउयं कोइ पालेज्जा ॥२६॥ धिति-बलजुत्तेहि तहि, उवसग्गा जह सढा उ धीरेहिं । णिदरिसणा केइ तहिं, वोच्छामि इमे समासेणं ॥२७॥ मुणिसुव्ययंतेवासी, खंदगमणगार कुंभकारकडं । देवी पुरंदरजसा, डंडगि पालक मरुगे य ॥२८॥ पंचसया जतेणं, रुटेण पुरोहिएण मलिया उ । रोग-द्दोसतुलग्गं, समकरणं चिंतयंतेहिं ॥२९॥ जतेहि करकएहि व, सत्थेहि व सावएहि विविहिं। देहे विद्धंसन्ते, ण य ते शाणातो फिर्टेति ॥५३०॥ पडिणीययाएँ कोई, अग्गि सि पदेज्ज असुभपरिणामो । पादोवगते संते, जह चाणकस्स वा करिसे ॥५३१॥ पडिणीययाएँ कोई, चम्मं से खीलएहि विहणित्ता । महु-घयमक्खियदेहं, पिवीलियाणं तु दिज्जाहिं ॥५३२ जह सो चिलायपुत्तो, वोसह-णिसह-चत्तदेहाओ।
सोणियगंधेण पिवीलियाहि जह चालणि वकतो॥५३३॥ ५२४ गाथात्रिक व्य० १० गा० ५७४-७६ ।। ५२७ सढा सीढाः ।। ५२८-३० स्कन्दकदृष्टान्त उत्तराध्ययनसूत्रे द्वितीयाध्यययन नियुक्ती १११-११३ गाथासु तट्टीकायां च वर्तते । पत्र ११४ ॥५२८ गाथावादशक व्य- १.० गा० ५८९-६०० ॥ ५३३ चिलातिपुत्रोदाहरणमावश्यकचूर्णीतोऽवसेयम् गाथा ८७२ पत्र ४९७ ॥
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१]
जोतकल्पसूत्रम् । मोगल्लसेलसिहरे, जह सो कालासवेसिओ भगवं । खइओ विउबिऊणं, देवेण सियालरूवेणं ॥५३४।। जह से वंसिपदेसी, बोसह-णिसह-चत्तदेहाओ। बंसीपत्तेहि विणिग्गएहि आगासमुज्झित्तो ॥५३५॥ जहऽवंतीसुकुमालो, वोसह-णिसह-चत्तदेहाओ। धीरो सपेल्लियाए, सिवाएँ खइओ तिरत्तेणं ॥५३६।। जह ते गोहाणे, वोसह-णिसट्ट-चत्तदेहागा। उदगेणुवुब्भमाणा, वियरम्मी संकरे लग्गा ॥५३७॥ जह सा बत्तीसघडा, वासट्ट-णिसह-चत्तदेहागा । धीराधारण उ दीविएण डिलयम्मि ओलइया ।।५३८॥ बावीस आणुपुव्वी, तिरिक्ख मणुया व भंसणत्थाए । विसयाणुकंपरक्खण, करेज्ज देवा व मणुया वा ॥५३९॥ जह णाम असी कोसी, अण्णो कोसी असी वि खलु अण्णो। इय मे अण्णो देहो, अण्णो जीवो त्ति मण्णंति ॥५४०॥ एगंतणिज्जरा से, दुविहा आराहणा धुवा तस्स । अंतकिरियं च साहू, करेज्ज देवोववत्तिं वा ॥५४१।। एवं विति-बलजुत्तो, अहियासेति पडिलोम उपसग्गे । एत्तो पुण अणुलोमे, जह सहती ते तहा वोच्छं ॥५४२।। सकारं सम्माणं, हाणादीयाणि तत्थ कुज्जाहि। वोसट्ट-चत्तदेहो, अहाउयं कोइ पालेज्जा ॥५४३॥ पुचभवियपेमेणं, देवो देवकुरु-उत्तरकुरासु । कोई हु साहरेज्जा, सव्वमुहा जत्थ अणुभावा ॥५४४।।
५३४ कालासवेसिकोदन्तं उत्तराध्ययनसूत्रद्वितीयाध्ययन नियुक्ति११५ गाथातस्तवृत्तितश्चावसेयम् पत्र १२० ॥ ५३६ अवन्तीसुकुमालवृत्तान्त आवश्यकचून द्वितीयभाग पत्र १५७ गाथा १३८० चूर्णितोऽवधेयः ।। ५४० व्य० १० गा० ५७१॥ ५४१ व्य० १० गा० ५७७ ॥ ५४३ गाथैकादशकं व्य० १० गा० ५७८-५८८।।
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ચૂંટ
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा
पुव्वभवियपेमेणं, देवो साहरति णागभवणम्मि । जहियं इट्ठा कंता, बसुहा होंति अणुभावा ॥५४५ ॥ बत्तीस लक्खणधरो, पायोवगयो य पागडसरीरो । पुरिसव्वेणि कण्णा, रायविदिण्णा तु गिण्हेज्जा || ५४६ || मज्जण गंधं पुष्फोवकार - परियारणं च कुज्जाहिं । सावर रायण्णा, इमेहि जुत्ता गुणगणेहिं ॥५४७ || णवयंगसोयबोहिय, अट्ठारसरतिविसेसकुसला तु । चोयट्ठी महिलगुणा, णिउणा य बिसत्तरिकलाहिं ॥ ५४८|| दो सोय - णेत्तमादिग, णवंगसोया हवन्ति एतेसु । देसीभास अठारस, रतीविसेसा उ उगुवीसं ॥ ५४९ ॥ कोल्लगे व बीसइविहं तु एमादिहि तु गुणेहिं । जुत्ताए व जोव्वण-विलास-लायण्णकलियाए || ५५० ॥ चकण्णम्मि रहस्से, राहणं रायदिष्णपसराए । तिमि मगरेहि व उदही, ण खोभितो जो मणो मुणिणो ॥५५९॥
जाहे पराइया सा, ण समत्था सीलखंडणं कार्ड । ऊण सेलसिहरं, तो सिलमुवरिं मुयति तस्स ॥ ५५२ || एतणिज्जरा से, दुविहा आराहणा धुवा तस्स । अतकिरिया व साहू, करेज्ज देवोववत्तिं वा ॥ ५५३ ॥ एमादीहिँ बहुविहं, दुविहं तिविहेहि ते महाभागा । वोरेहि उवसग्गेहि, चालिज्जता वि णिद्दयया ॥५५४ || पुवा वर- दाहिण- उत्तरे हि वाहिँ आवयं हि । जह ण वि कंपइ मेरू, तह ते झाणाओ न चलिंति ॥ ५५५ ॥ पढमम्मि य संघयणे, वट्टता सेलकुड्डुसामाणा । तेसि पि य वोच्छेदो, चउदसपुव्वीण वोच्छेदे ५५६॥
५५५ गाथाद्विकं व्य० १० गा० ५७२-७३ ॥
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१]
जीतकल्पसूत्रम् |
एयं पाओari, frrपडिकम्मं जिणेहि पण्णत्तं । तित्थयर - गणहरेहि य, साहूहि य सेवियमुदारं ॥५५७॥ एवं जहाणुरूवा, संपतिकालम्मि अस्थि जह सोही । विज्जति य सोहिकरा, तं सव्येयं समवखायं ॥ ५५८ ॥ एसाssगमववहारो, जहोवएस जहकर्म कहिओ । एतो सुतववहारं, सुण वच्छ ! जहाणुपुवीए ॥ ५५९ ॥ णिज्जूढं चोहसपुव्विएण जं भद्दबाहुणा सुत्तं । पंचविहो ववहारो, दुवाल संगस्स णवणीयं ॥ ५६०॥ जो सुतमहिज्जति बहु, सुत्तत्थं च णिउणं ण याणांति । कप्पे ववहारम्मिय, ण सो पमाणं सुयधराणं ॥ ५६१ ॥ जो सुतमहिज्जति बहु, सुत्तत्थं च णिउणं वियाणाति । कप्पे ववहारम्मिय, सेा उ पमाणं सुतधराणं ॥ ५६२ ॥ कप्परस य णिज्जुतिं ववहारस्सेव परमणिउणस्स । जो अत्थओ न जाणति, सो ववहारी णऽणुण्णातो ॥५६३॥ कप्परस य णिज्जुत्तिं ववहारस्सेव परमणिउणस्स । जो अत्थतो विजाणति, वबहारी सो अणुण्णातो ||५६४|| एसो सुतववहारो, जहtवएसं जहकर्म कहितो | आणाए ववहार, सुण वच्छ ! जहकमं वोच्छं ॥ ५६५॥ समणस्स उत्तिमट्टे, सल्लुद्धरणकरणे अभिमुहस्स । दूरत्था जत्थ भवे, छत्तीसगुणा उ आयरिया ॥५६६ ॥ अपरक्कमो मि जातो, गंतुं जे कारणं तु उप्पण्णं । अट्ठारसमण्णयरे, वसणगते इच्छिमो आणं ॥५६७ || अपरकमो तवस्सी, गंतुं ण चतेइ सोहिकरमूलं । सीसं पेसेति तर्हि, जहिच्छ साहिं तुमसमीवे ॥ ५६८ ||
૨
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श्रुतव्यवहारः
५५८ सव्वेयं सर्वमेतत् ।। ५५९ इत: ५८९ गाथान्ता गाथा: व्य ० १० गा० ६०२-३४ ५६८ चतेइ शक्नोति । जहिच्छ सोहिं तुमसमीवे यथा इच्छामि शोधिं युष्मत्समीपे ॥
आज्ञाव्यवहारः
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स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[गाथा सो वि अपरकमगती, सीसं पेसेति धारणाकुसलं ।
णातु तहि जो जोग्गो, इमेण विहिणा परिच्छित्ता ॥५६९॥ अपरिणत-अ- अपरकमो य सीस, आणापरिणामगं परिच्छेज्जा । तिपरिणत-परि रुक्खे व बीयकाए, सुत्ते वाऽमोहणाऽऽधारिं ॥५७०॥ णतानां शिष्याणां परीक्षणम्
दडु महल्ल महीरुह, भणितो रुक्खे विलग्गितुं डेवे । अपरिणतो बेति तयो, णो वट्टति रुक्खे आरोढुं ॥५७१॥ किं वा मारेतबो, अहतं ? तो बेह डेव रुक्खातो। अतिपरिणामो भणती, इय होतू अम्ह वेसिच्छा ॥५७२॥ बेति गुरू अह तं तू , अपरिगय अत्थे अ भाससे एवं । किं व मए तं भणितो, आरुह रुक्खे तु सच्चित्ते? ॥५७३॥ तव-णियम-णाणरुक्ख, आरुहिउँ भवमहण्णवावतं । संसारागडमूलं, डेवेहि मए तुम भणितो ॥५७४॥ जो पुण परिणामो खलु, 'आरुह'भणितो तु सो विचिंतेति। णिच्छति पावमेते, जीवाणं थावराणं पि ॥५७५॥ किं पुण पंचिंदीणं ?, तं भवियश्वेत्थ कारणेणं तु । आरुहणववसियं तू, वारेति गुरूऽहवा थंभे ॥५७६॥ एवाऽऽणध बीयाई, भणिते पडिसेह अपरिणामो तु । अतिपरिणामो पोट्टल, बंधुणं आगतो तत्थ ॥५७७॥ पञ्चाह गुरू ते तू , जहोदियाऽऽणेह अंबिलीबीये । ण विरोहसमत्थाईं, सञ्चित्ताई विभणियाई ॥५७८॥ परिणामगो हु तत्थ वि, भणती आणेमि केरिसाइंतु ।
कित्तियमित्ताई वा ?, विरोहमविरोहजोग्गाई ? ॥५७९॥ ५७० आणापरिणामगं आज्ञापरिणामिनं अवश्यमाज्ञाधारिणमित्यर्थः । वाऽमोहगाऽऽधारिं वाऽमोहनाऽऽधारिणम् ॥ ५७१ डेवे प्रतिक्षिप-पत इत्यर्थः ॥ ५७२ अम्ह वेसिच्छा अस्माकमप्येषा इच्छा ।। ५७६ भषियब्वेत्थ भवितव्यमत्र॥ ५७७ एषाऽऽणध एवमानयत ।।
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जीतकल्पसूत्रम् । सो वि गुरूहि भणिआ, ण ताव कज्ज पुणो भणीहामी । हसिओ व मए वाऽसी, वीमंसत्थं व भणितो सि ॥५८०॥ पदमक्खरमुद्देस, संधी सुत्तऽत्य तदुभयं पुट्ठो। अक्खर-वंजणसुद्धं, कहेति सव्वं जहाभणितं ॥६८१॥ एवं परिच्छिऊणं, जोगं णाऊण पेसवे तं तु । चाहि तस्सगासं, सोहिं सोऊण आगच्छ ॥५८२॥ अह सो गतो उ तहिये, तस्स सगासम्मि सो करे सोहि । दुग-तिग-चऊविसुद्धं, तिविहे काले विगडभावो ।।५८३॥ दुविहं तु दप्प कप्पे, तिविहं णाणाइणं तु अट्टाए । दव्वे खेत्ते काले, भावे य चउविहं एयं ॥५८४॥ तिविहं अतीयकाले, पच्चुप्पण्णे व सेवियं जं तु । सेविसं वा एस्से, पागडभावो विगडभावो ॥ ५८५।। किं पुण आलोएती ?, अतियार सो इमो य अतियारो। वतछक्कादीओ खल, णातव्यो आणुपुबीए ॥५८६॥ वयछक्क कायछकं, अकप्पो गिहिमायणं । पलियंक णिसेज्जा य, सिणाणं सोहवज्जणं ॥५८७॥ तं पुण होजाऽऽसेविय, दप्पेणं अहव होज कप्पेण । दप्पेण दसविहं तू , इणमो वोच्छं समासेणं ॥५८८॥ दप्प अकप्प णिरालंब चियत्ते अप्पसत्थ वीसत्थे । अपरिच्छ अकडजोगी, अणाणुतावी य णीसंको ॥५८९॥ वायाम-वग्गणादी, णिकारण धावणं तु दप्पो उ । दारं॥ कायापरिणतगहणं, अकप्पो जं वा अगीतेणं ॥५९०॥ दारं॥ संसारखड्डपडितो, णाणादवलंबितुं समुत्तरइ । मोक्खतडं जह पुरिसो, वल्लिवियाणेण विसमाओ ॥५९१॥ णाणादीपरिवड्डी, ण भविस्सति मे असेवयो वितियं । तेसिं पसंधणह च, सालंबणिसेवणा होति ॥५९२॥
दर्पत्य दश
भेदाः
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स्वोपज्ञमाध्ययुतं
[ गाथा जा पुण णिकारणयो, अपसस्थालंबणा य सेवा उ । अमुएण वि आयरियं, को दोसो वा णिरालंब ॥५९३॥दार।। जं सेवितं तु वितियं, गेलण्णादीअसंथरंतेणं । हट्टो वि पुणो तं चिय, चियत्तकिच्चो णिसेवंतो॥५९४||दा।। बल-वण्ण-रूवहेतुं, फासुयभोई वि होति अपसत्थो । किं पुण जो अविसुद्धं, णिसेवए वण्णमादट्ठा ? ॥५९वादार सेवंतो तु अकिञ्च, लोए लोउत्तरम्मि य विरुद्धं । परपक्ख सपक्खे वा, वीसत्थासेवणमलज्जे ॥५९६॥ दार।। अपरिच्छितुमाय-बए, णिसेवमाणो उ होइ अपरिच्छो दार।। तिगुणं जोगमकाउं, वितियासेवी अकडजोगी ॥५९७||दार।। वितियपदे जो तु परं, तावेत्ता णाणुतप्पती पच्छा। सो होति अणणुतावी, किं पुण दप्पेण सेवित्ता?॥५९८॥दार।। करण-भएसु तु संका, करणे कुव्वं ण संकइ कयाइ ।
इहलोयस्स ण भायइ, परलोए वा भया एसा ॥५९९।।दा।। कल्पस्य चतु
एसा दप्पियसेवा, दसभेय समासतो समक्खाया। दारं॥ विशतिर्भदाः एत्तो कप्पियसेवे, चउवीसविहा इमाऽऽहंसु ॥६००॥
दंसण-णाण-चरित्ते, तव-पवयण-समिति-गुत्तिहेउं वा । साहम्मियवच्छल्लेण वा वि कुलयो गणस्सेव ॥६०१॥ संघस्साऽऽयरियस्स य, असहुस्स गिलाण-बाल-बुस्स । उदयऽग्गि चोर सावय, भय कंताराऽऽवती वसणे ॥६०२॥ दसणपभावगाणं, सत्थाणऽढाए सेवए जं तु । णाणे सुत्त-ऽत्थाणं, असंथरासेवणे सुद्धो ॥६०३॥ चरणे एसणदोसा, इत्थीदोसा य जत्थ खेत्तम्मि ।
तत्तो विणिक्खमंतो, जं सेवाऽसंथरे सुद्धो ॥६०४॥ ६०१ गाथानिक व्य० उ० १० गा० ६३६-३७ ॥
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१]
जीतकल्पसूत्रम् ।
हादि तर्व का, कए विगिट्ठे वि लागतरणाती । अभिवायणा प्रवयणे, विन्हुस्स विउन्त्रणा चैव ॥ ६०५ || इरियं ण सोहइस्स, चक्खुनिमित्तकिरिया उ रीयाए । वित्तादि बीय तइया, अहवा वि इमं तु तइयाए ||६०६ || अद्धाणकपणेसी, अण्णं वऽसिवादिकारणेहिं तु । संकियमाई गिoहे, जयणाए तत्थ सुद्धो तु ॥३०७॥ आयाणे चलहत्थो, पमज्जमाणेहिं अण्णहिं जाइ । अहवाfव तस्स अट्ठा, ओसह किंची करेज्जाहि ॥ ६०८ || पचमिऍ का भूमादिबंधमाणे उ आरभे किंचि । विगडादि मणअगुत्ते, वइ-काए खित्त दित्तादी || ६०९ ॥ बच्छल्ले असिहमुंडो, णित्थारिओ जह तु अज्जवइरेहिं । कुल - गण - संघे अभिचारुगादि रायाइणं कुज्जा ॥ ६१० ॥ आयरिय- असहु - अतरा, बाले बुढ्ढे य जेण तु समाही । तंजायितूण देन्ती, पणगादीहिं तु जयणाए ||६११॥ विदिक्खियादि असहू, बालो वइरो व्व दिक्खितो कज्जे । बुट्टो वी कज्जम्मी, जह दिक्खितो रक्खियज्जेहिं ॥ ६१२॥ उदय-ऽग्गि-चोर - सावय भएस थंभणि पलाण रुक्खे वा । कतारे पलंबादी, दव्वादी आवई चउहा ॥ ६१३ ॥
६०५ लागतरणाती लाजातरणादि, तीर्यत इवाऽस्यामतिस्वच्छतया इत्यधिकरणेऽनटि तरणम्, लाजा भ्रष्टा व्रीहयस्तैर्निर्वृत्तं तरणं लाजातरणम्, उपचारात् पेयाऽभिधीयते । गुरुतत्त्वविनिश्चयवृत्तौ उ० २. गोथा २०-२१ पत्र ५९ । विष्णुकुमार विकुर्वणाविषयकं कथानकं वसुदेवहिण्डि प्रथमखण्ड १२८ पत्रादवसेयम् ॥ ६१० आर्यवज्र सम्बन्धः आवश्यकचूर्णी प्रथमखण्ड पत्र ३९६ मध्यादवसातव्यः ॥ ६११ जायितूण याचित्वा ॥ ६१२ वज्रदीक्षासम्बन्ध आवश्यकचूर्णी प्रथमखण्डपत्र ३९१ मध्यादवलोकनीयः । आर्यरक्षितवृद्ध पितृदीक्षा सम्बन्धः आवश्यकचूर्णी ४०६ पत्राद् ज्ञातव्यः ।।
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स्वीपज्ञभाष्ययुतं
गाथा कोई तु वियडवसणी, गोज्जादी वा वि होज्ज णिक्खतो। जयणाएँ वियडगहणं, गाएज्ज व गीतवसणी उ ॥६१४॥ एयअण्णयरागाढेस दंसणे णाण चरण सालंबो । पडिसेविउं कयादी, होति पसत्थो पसत्थेसु ॥६१५॥ एसा कप्पियसेवा, चउवीसविहा समासतो कहिता । अहुणा उ चारणा तू, इणमो वोच्छ समासेणं ॥६१६॥ ठावेत्तु दप्प कप्पे, हेहा दप्पस्स ढस पदे ठावे । कप्पाहो चउवीसइ, तेसिमह अट्ठारस पदा उ ॥६१७॥ पढमस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवितं होज्जा । पढमे छक्के अभितरं तु पढम भवे हाणं ॥६१८॥ पढमस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवितं होज्जा । पढमे छक्के अभितरं तु इय जाव णिसिभत्तं ॥६१९।। पढमस्सः य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवियं होज्जा । बितिए छक्के अभितरं तु पढमं भवे हाणं ॥२०॥ पढमस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवितं होज्जा । बितिए छक्के अभितरं तु इय जाव तसकायं ॥६२१॥ पढमस्स य कज्जस्सा, पढमेण पएण सेवियं होज्जा। तइए छक्के अभितरं तु पढमं भवे हाणं ॥६२२॥ पढमस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवियं होज्जा। ततिए छक्के अभितरं तु इय जाव तु विभूसा ॥६२३॥ पढममसुंचतेणं, बितियादीए तु जाव दसमं तु । पढमच्छक्काईसु उ, पुणो पुणो चारणिज्जाई ॥६२४॥ दप्पियसेवाए तू, दप्पेणं चारियाणि अट्ठरस ।
दस अट्ठारसगुणिता, आसीयसतं तु गाहाणं ॥६२५॥ ६१५ गाथेय व्य० उ०१० गा० ६३८ ॥ ६१७ गाथायुगलं व्य० उ० १० गा० १३१-४० ॥ ३२० गाथाचतुष्कं व्य० उ० १० गा० ६४३-४६।।
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जीतकल्पसूत्रम् । एवं बीतिज्जस्स वि, कज्जस्सा गाह होंति छ चेव । सव्वाओ गाहाओ, चत्तारि सता तु बत्तीसा ॥२६॥ बितियस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवियं होज्जा । पढमे छक्के अभितरं तु पदमं भवे हाणं ॥६२७॥ एवं बितियस्सा वि हु, कज्जस्सा एय चेव गाहाओ। बितिअगअभिलावेणं, सव्वाओ भाणियवाओ ॥२८॥ पढमं ठाणं दप्पो, दप्पो चिय तस्स वी भवे पढमं । पढम छक्क वयाई, पाणतिवाओ तहिं पढमं ॥६२९॥ एवं तु मुसावायो, अदत्त मेहुण परिग्गहे चेव । बितिछक्के पुढवादी, ततिछक्के होयऽकप्पादी ॥६३०॥ एवं दप्पपयम्मी, दप्पेणं चारिया उ अट्टरस । एवमकप्पादीसु कि, एक्केक्के होंतिमट्ठरस ॥६३१॥ बितियं कज्ज कप्पो, पढमपदं तत्थ दंसणणिमित्तं । पढमं छक्क वयाई, तत्थ वि पढमं तु पाणवहो ॥६३२॥ दसण अणुम्सुयन्तो, पुव्वकमेणं तु चारणीयाई । अहारस ठाणाई, एवं णाणादिएक्केक्के ॥६३३॥ चउवीस अट्ठारसगा, एवं एते हवंति कप्पम्मि । दस होति अकप्पम्मी, सवसमासेण मुण संखं ॥६३४॥ दप्पेणाऽसीयसतं, गाहाणं कप्पे होति नत्तारि । बत्तीसाऽऽयातेते, छस्सय हॉती तु बारस य ।।६३५।। सोतूण तस्स पडिसेवणं तु आलोयणं कमविहिं तु । आगम पुरिसज्जायं, परियाग बलं च खेत्तं च ॥६३६॥ अह सेा गतों सदेसं, संतस्साऽऽलोइयल्लयं सव्वं । आयरियाण कहेती, परियाग बलं च खेत्तं च ॥६३७॥
६३२ गाथात्रिक व्य० उ० १० गा० ६५६-५८ ॥ ६३६ गाथेयं व्यः उ० १० गा० ६५९ ।।
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स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[गाथा सो ववहारविहिण्णू, अणुसज्जित्ता सुतोवदेसेणं । सीसस्स देइ आणं, तस्स इमं देह पच्छित्तं ॥६३८॥ पढमस्स य कज्जस्सा, दसविहमालोयणं णिसामित्ता । णक्खत्ते पीला भे, सुक्के पणगं तवं कुणह ॥६३९॥ पढमस्स य कज्जस्सा, दसविहमालोयणं णिसामित्ता। णक्खत्ते पीला भे, मुक्के दसमं तवं कुणह ॥६४०॥ पढमस्स य कज्जस्सा, दसविहमालोयणं णिसामेत्ता । णक्खत्ते पीला भे, सुके पक्वं तवं कुणह ॥६४१॥ पढमस्स य कज्जस्सा, दसविहमालोयणं णिसामित्ता। णक्खत्ते पीला भे, मुक्के वीसं तवं कुणह ॥६४२॥ पढमस्स य कज्जस्सा, दसविहमालोयणं णिसामित्ता। णक्खत्ते पीला भे, पणुवीसतवं कुणह सुक्के ॥६४३॥ एवं ता उवधाए, अणुघाए एत चेव गाहाओ । णवरं तू अभिलावो, किण्हे पणगादि वत्तव्यो ॥६४४॥ पढमस्स य कज्जस्सा, दसविहमालोयणं णिसामेत्ता । णक्खत्ते पीला थे, चाउम्मासं तवं कुणह सुक्के ॥६४५॥ पढमस्स य कज्जस्सा, दसविहमालोयणं णिसामेत्ता । णक्खत्ते पीला मे, चाउम्मासं कुणह किण्हे ॥६४६॥ पढमस्स य कज्जस्सा, दसविहमालोयण णिसामेत्ता । णक्खत्ते पीला भे, छम्मासतवं कुणह सुक्के ॥६४७॥ पढमस्स य कज्जस्सा, दसविहमालोयणं णिसामेत्ता। णक्खत्ते पीला भे, छम्मासतवं कुणह किण्हे ॥६४८॥ छिदंतु वत भाणं, गच्छंतु तवस्स साहुणो मूलं ।
अव्वावारा गच्छे, अब्बितिया वा परिहरंतु ॥६४९।। ६३८ गाथेयं व्य० उ० १० गा० ६६१॥ ६४४ इतो गाथाषट्कं व्य० उ०१० गा० ६६३-६९ ॥
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जीतकल्पसूत्रम् ।
धारणाव्यवहारः
पणगादिभाणछेद, साहूमूले भवे पुणकरणं । पुव्वमवहाय सव्वं, पंचाऽऽभवणाउ उवरिं तु ॥६५०॥ लिंगादीजोगत्थे, जहण्ण उक्कोसओ व बोधयो । उक्कोस जहण्णो वा, विहरउ सो अब्बितीओ उ॥६५२॥ वितियस्स य कज्जस्सा, तहियं चउवीसगं वियाणित्ता । णवकारेणाउत्ता, हवन्तु एवं भणेज्जासि ॥६५२॥ एवं गंतूण तहिं, जहोवएसेण देहि पच्छित्तं । आणावए वहारो, भणिएसो धीरपुरिसेहिं ॥६५३॥ एसाऽऽणाववहारो, जहोवएसं जहक भणितो। धारणववहारं पुण, सुण वच्छ ! जहक्कम वोच्छं ॥६५४॥ उद्धारणा विहारण, संधारण संपहारणा चेव । धारणववहारस्स उ, णामा एगहिता एते ॥६५५।। पाबल्लेण उवेच्च व, उद्धियपयधारणा उ उद्धारो। विविहेहि पगारेहि, धारेयऽत्थं विधारो तु ॥ ६५६॥ सं एगीभावम्मी, 'धी धरणे' ताणि एव भावेणं । धारेयऽत्थपयाणि तु, तम्हा संधारणा होति ॥६५७॥ जम्हा संपहारेड, ववहारं पशुंजती। तम्हा कारणे तेण, णातव्वा संपहारणा ॥६५८॥ धारणववहारेसो, परंजियव्यो तु केरिसे पुरिसे ?। भण्णइ गुणसंपण्णे, जारिसए तं सुणेह त्ति ॥६५९।। पवयणजसंसि पुरिसे, अणुग्गहविसारए तवस्सिम्मि । सुस्सुय बहुस्सुयम्मि य, विवकपरियागबुद्धिम्मि ॥६६०॥ एतेमु धीरपुरिसा, पुरिसज्जाएसु किंचि खलिएसु । रहिए विहारइत्ता, जहारिहं देन्ति पच्छित्तं ॥१६॥
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स्थोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा रहिए णाम असन्ते, आतिल्लम्मि ववहारतियगम्मि । ताहे विहारइत्ता, वीमसेतूण जं भणियं ॥६६२॥ पुरिसस्स उ अवराह, विधारइत्ताण जस्स जे भणितं । तं देन्ती पच्छित्तं, केणं देन्ती उ ? तं सुणसु ॥६६३॥ जो धारिओ सुतत्थो, अणुओगविहीय धीरपुरिसेहिं । अल्लीणपलीणेहि, जतणाजुत्तेहि दंतेहिं ॥६६॥ अल्लीणा णाणादिसु, पइ पइलीणा उ होन्ति तु पलीणा। कोहादी वा पलयं, जेसि गया ते पलीणा तु ॥६६॥ जतणाजुत्तो पयत्तवं, दंतो जो उवरतो तु पावेहिं । अहवा दन्तो इंदियदमेण नोइंदिएणं च ॥६६६॥ एरिसया जे पुरिसा, अत्थधरा ते भवंति जोग्गा उ । धारणववहारन्नू, ववहरिउं धारणाकुसला ॥६६७॥ अहवा जेणं ईयाऽऽदिहा, सोही परस्स कीरंती। तारिसयं चेव पुणो, उप्पण्णं कारणं तस्स ॥६६८॥ सो तम्मि चेव दवे, खित्ते काले य कारणे पुरिसे । तारिसयं अकरेन्तो, ण हु सो आराहओ होति ॥६६९।। सो तम्मि चेव दव्वे, खित्ते काले य कारणे पुरिसे । तारिसयं चिय भूतो, कुव्वंतो राहओ होति ॥६७०॥ अहवा वि इमे अण्णे, धारणववहारजोग्गयमुवेति । धारणववहारेणं, जे ववहारं ववहरंति ॥६७१॥ वेयावञ्चकरो वा, सीसो वा देसहिंडओ वा वि । दुम्मेहत्ता ण तरइ, अवधारेउं बहू जो तु ॥६७२।। जस्स उ उद्धरिऊणं, अत्थपयाई तु देंति आयरिया । जेहिं करेहि कज्ज, आहारेन्तो तु सो देसं ॥६७३॥
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१७
जीतव्यवहारः
जीतकल्पसूत्रम् । धारणववहारो खलु, जहक्कम वण्णितो समासेणं । जीतेणं ववहारं, सुण वच्छ ! जहकमं वोच्छं ॥६७४॥ वत्तणुवत्तपवत्तो, बहुसो आसेवितो महाणेणं । एसो उ जीतकप्पो, पंचमयो होति ववहारो ॥६७५॥ वत्तो णाम एकसि, अणुवत्तो जो पुणो वितियवारे । ततियवारपवत्तो, परिग्गिहीओ महाणेणं ॥६७६॥ बहुसो बहुस्सुएहिं, जो वत्तो ण य णिवारितो होति । वत्तणुपवत्तमाणं, जीएण कतं हवति एयं ॥६७७॥ जो आगमे य सुत्ते, य सुण्णतो आण-धारणाए य । सो ववहार जीएणं, कुणती वत्ताणुवत्तेणं ॥६७८॥ असुतो असुयत्थकतो, जह असुयस्स असुएण ववहारो । अमुअत्थविय तह कओ, असुतो असुरण ववहारो ॥६७९॥ तं चैवऽणुकज्जतो, ववहारविहिं पयुंजति जहुत्तं । जीतेण एस भणितो, ववहारो धीरपुरिसेहिं ॥६८०॥ धीरपुरिसपण्णत्तो, पंचमयो आगमो विदुपसत्थो। पियधम्मऽवज्जभीरूपुरिसज्जाताणुचिण्णो य ॥६८१॥ सो जह कालादीणं, अपडिकंतस्स णिबिगइयं तु । मुहणंतफिडिय पाणग, असंवरे एवमादीम् ॥६८२॥ एगिन्दिऽणन्तवज्जे, घट्टण तावेऽणगाढ गाढे य । णिविगतियमादीयं, जा आयामन्तमुद्दवणे ॥६८३।। विगलिंदऽणतघट्टण, परियावऽणगाढ गाढ उद्दवणे । पुरिमादिकमेण उ, तव्वं जाव खमणं तु ॥६८४॥ पंचिंदि घट्ट तावणऽणगाढ गाढे तहेव उद्दवणे । एगासणमायाम, खमणं तह पंचकल्लाणं ॥६८५॥
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सावद्यासावद्ये
जीते
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[गाथा एमादीओ एसो, णायव्वो होति जीयववहारो । अणवज्जविसोहिकरो, संविग्गणगारचिण्णो त्ति ॥६८६॥ जं जीतं सावज्ज, ण तेण जीएण होति ववहारो। जं जीयमसावज्जं, तेण उ जीएण ववहारो ॥६८७॥ केरिस सावज्ज तू ?, केरिसयं वा भवे असावज ? । केरिसयस्स व दिजति, सावज वा वि ? इयरं वा ? ॥६८८॥ खार घडि हरमाला, पोटेण व रिंगणं तु सावज्ज । दसविह पायच्छित्तं, होइ असावज जीयं तु ॥६८९॥
ओसण्णे बहुदोसे, गिद्धधसे पवयणे य णिरवेक्खे । एयारिसम्मि पुरिसे, दिज्जति सावज जीयं तु ॥६९०॥ संविग्गे पियधम्मे, य अप्पमत्ते यऽवज्जभीरुम्मि । कम्ही पमायखलिए, देयमसावज जीयं तु ॥६९१॥ जं जीयमसोहिकरं, ण तेण जीएण होति ववहारो। जं जीयं सोहिकरं, तेण उ जीएण ववहारो ॥६९२।। जं जीयमसोहिकरं, पासत्थ-पमत्तसंजयाचिण्णं । जइ वि महाणाचिण्णं, ण तेण जीएण क्वहारो ॥६९३॥ जंजीयं सोहिकरं, संविग्गपरायणेण दंतेण । एक्केण वि आइण्णं, तेण उ जीएण क्वहारो ॥६९४॥ एवं जहोवइहस्स धीर-विदुदेसित-प्पसत्थस्स । णिस्संदो ववहारस्स एस कहितो समासेणं ॥६९५।। को वित्थरेण वोत्तण समत्थो णिरवसेसए अत्थे । ववहारो जस्स ठिता, जीहाण मुहे सतसहस्सं ? ॥६९६॥ किं पुण गुणोवदेसो, ववहारस्स तु विदुप्पसत्थस्स । एवं में परिकहियं, दुवालसंगस्स णवणीयं ॥६९७॥
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२ ]
जीतकल्पसूत्रम् ।
ववहारे पंचसु वी, विज्जते केण तू ववहरेज्जा ? | आगमववहारेणं, तस्स अभावा सुतेणं तु ॥ ६९८|| सुतवहार अभावे, ववहारं ववहरेज्ज आणाए । जेण सो उ सुतस्सा, अणुसरिसो एगदेसेणं ॥ ६९९ ॥ आणाऍ अभावाओ, ववहारं ववहरेज्ज धरणाए । जेणेसा वि सुयस्सा, वहइ तू एग सम्मि ||७०० | धारणऽणंतर जीयं, एत्थं पुण जीयकप्पे पगयं तु । जेणेसो सावेक्खो, अणुसज्जइ जाव तिथं ति ॥७०१ ॥ अण्णं च--- दव्वं खेत्तं कालं भावं पुरिस पडिसेवणाओ य । farm संघणं वा, आवेक्खति जीयकप्पो उ ॥ ७०२ ॥ एस पसंगाभिहितो, चोयगवयणाआ अहुण जीवस्स । वोच्छामि सोहणं तू, परमं सुसमाहितो एहि ॥७०३॥ 'जीवति पाणधारणे, ' पाणा पुण आउमादि णिद्दिट्ठा । अहवा जीवइ जीविस्सई य जिवं ति होइ जिओ ॥७०४ ॥ sts विसोहणा सोहण, जह तू वत्थस्स तोयमादीहिं । तह कम्ममलक्खउरल्लियस्स जीवस्स पच्छित्तं ॥७०५ ॥
सोधनं ॥
एवं पुणपच्छित्तं परम पहाणं ति होति एगहुँ । कस्सेयं परमं ? ती, जीवस्स उ होइ पच्छित्तं ॥७०६ ॥ संवर - विणिज्जराओ, मोक्खस्स पहो तवो पहो तासिं । प्रायश्चित्तस्य तवसो य पहाणंगं, पच्छित्तं जं च णाणस्स ॥२॥
माहात्म्यम्
संवर घट्टण पिणं, एगट्ठे सो य संवरो दुविहो । देसे सव्वे य तहा, एमेव य णिज्जरा दुबिहा ॥ ७०७ ||
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स्वीपज्ञभाष्ययुत
[गाथा संवरियासवदारो, णवकम्मोवजणं ण कुव्वइ उ । पुवज्जितस्स खवणं, विणिज्जरा सा उ णायव्वा ॥७०८॥ सेलेसिं पडिवण्णे, दुचरिमसमयम्मि वट्टमाणे य । तहि सव्वसंवरा णिज्जरा य अवसेस देसम्मि ॥७०९॥ संवर-विणिज्जराओ, उभयमवी मोक्खकारणं होति । मोक्खपहो हेतू कारणं ति एते उ एगट्ठा ॥७१०॥ एतेसिं दोण्ह वि तू , तवो पहो हेउ कारणं होति । एतस्स वि पच्छित्तं, पहाणमंग मुणेतव्वं ॥७११॥ जेण तवो बारसहा, पच्छित्ते णिवतती तु दसभेदे । तेण पहाणं अंगं, तवस्स तू होति पच्छित्तं ॥७१२॥ गाहापच्छद्धेणं, तस्स वि जं भणिय जं च णाणस्स । णंतर ततिगाहाए, सारं तू तं चिमं आह ॥७१३॥ सारो चरणं तस्सा, णिव्वाणं चरणसाहणत्थं च। पच्छिन्तं तेण तयं, णेयं मोक्खत्थिणाऽवस्सं॥३॥ सामाइयमादीयं, मुतणाणं बिंदुसारपज्जन्तं । तस्स वि सारो चरणं, चरणस्स वि होति व्याणं ॥७१४॥ व्याणस्स अणंतर, चरणं चरणा अणंतरं गाणं । णाणविसुद्धीए पुण, चारित्तविसुद्धया होति ॥७१५॥ चारित्तविसुद्धीए, णेव्वाणफलं तु पावती अचिरा । सा पुण चरित्तसुद्धी, पच्छित्ताहीण णातव्वा ॥७१६॥ जम्हा एतेऽत्थ गुणा, पच्छित्ते वणिया तु सुत्तम्मि ।
तम्हा खलु णायव्वं, दसहा मोक्खस्थिणा जहिमं ॥७१७॥ प्रायश्चित्तस्य तं दसविहमालोयण-पडिकमणो-भय-विवेग-वोसग्गा।
तव-छेद-मूल-अणवट्ठया य पारंचियं चेव ॥४॥
भेदाः
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प्रतिक्रमणम्
व्युत्सर्गः
जीतकल्पसूत्रम् । आलोयणअरिहं ती, आ मज्जाआऽऽलोयणा गुरुसमासे। आलोचना जं पाव विगडिएणं, सुज्झति पच्छित्त पढमेयं ॥७१८॥ मिच्छादुक्कडमेत्तेण, चेव जं सुज्झती तु पावं तु । ण य विगडिज्जति गुरुणो, पडिकमणरिहं हवति एयं ॥७१९॥ जह तु अणाभोगेणं, खेलादी णिसिरितं तु होजाहिं। तदुभयम् हिंसाइए य दोसे, ण य आवण्णो तु किंचिदवि ।।७२०।। जं पाव मेवितूणं, गुरुणो विगडिज्जती उ सम्मं तु । गुरुसंदिह पडिक्कम, तदुभयमेतं मुणेतव्वं ॥७२१॥ जं किंचि दव्व गहितं, अहिकमप्पं च अहव उणं तु ।। विवेकः विहिणा तु विगिचन्ते, पच्छित्त विवेगरिहेदं ।।७२२॥ जंकायचेट्टमेत्तेण णिरोहेणं तु सुज्झती पावं । जह दुस्सिमिणादीयं, पच्छित्तेयं वियोसग्गं ॥७२३॥ णिव्वीतियमादीओ, छम्मासंतो उ जस्थ दिज्जइ तु । एय तवारिह भणितं, इदाणि छेदारिहं वोच्छ ।।७२४॥ जेण पडिसेविएणं, दूसिज्जइ जस्स पुव्वपरियाओ। तत्तियमेतं छिज्जइ, सेसगपरियायरक्खट्टा ।।७२५॥ जम्मि पडिसेवियम्मी, सव्वं छेत्तूण पुवपरियायं । पुणरवि महव्वयाई, आरोविज्जति मूलरिहे ॥७२६॥ जम्मि पडिसेवियम्मी, अणवठ्ठो कंचि काल कीरइ तु।। मूलवएसुं पंचसु, चिण्णतवो पच्छ होतूणं ॥७२७॥ तद्दोसोवरयस्स उ, महव्वयारुवण कीरती तस्स । अणवठ्ठप्पो एसो, एत्तो पारंचियं वोच्छं ॥७२८॥ अंचु गती-पूजणयो, पारंचइ गच्छती तु पारं तु | तवमादीणं कमसो, सो लिंगादीहि चतुधा तु ॥७२९॥ पाराश्चिकम्
तपः
मूलम्
अनवस्थाप्यम्
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स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[गाथा आलोयणमादीणं, दसण्ह वी एस होति पिंडत्थो ।
सट्ठाणे सहाणे, विभागतो इणमो वोच्छामि ॥७३०॥ आलोचना- करणिज्जा जे जोगा, तेसुवयुत्तस्स णिरतियारस्स। प्रायश्चित्तम्
छउमत्थस्स विसोही, जइणो आलोयणा भणिया॥५ के पुण करणिज्जा ? जे, तित्थंकर-गणहरोवइट्टा उ । सुत्ताणुसारओ तू, संजम-दुक्खक्खया होऊ ।।७३१॥ जेत्तिय जे णिहिट्टा, जुजि जोगे कातमादिआ तिण्णि । जं जीवे झुंजयती, पेरयती वा ततो जोगा ॥७३२॥ संखेवयो उ एते, मुहपुत्तियमादि जाव उस्सग्गो। दियरायोसमायारी, जा जहियं वुत्त सुत्तम्मि ॥७३३॥ ते तु जया उवउत्तो, असवत्त करेइ णिरतियारा य । तद आलोयणमेत्तेण चेव सुद्धी तु छदुमस्स ॥७३४॥ छउमं कम्म भण्णइ, णाणावरणं च दंसणावरणं । मोहणिय अंतरायं, चउन्विहं होति णायचं ॥७३५॥ जे तु जया करणिज्जे, उवयुत्तो करेति णिरतियारो य । णणु तत्थ का व सुद्धी ?, का व असुद्धी उ ? चोएति ॥ गुरुराह तत्थ चेट्ठा, जा किरिया सुहुम आसवेमुं वा । अहव पमाया सुहुमा, अतियार ण जाणती छतुमो ॥७३७॥ ते अइयारा सुहुमा, आलोइयमेत्तया विसुझंति । सा आलोयण चोयग !, करणिज्जा तीसु जोगेसु ॥७३८॥ को कारयो ? जती तू , जइ साहु पयत्तियो विणिहिट्ठो। पंचम गाह समत्ता, गाहं छठें इमं वोच्छं ॥७३९॥ आहाराईगहणे, तह बहियाणिग्गमेसु णेगेसु । उच्चार-विहारावणि चेइय-जइवंदणादीसुं॥६॥
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५-६ ]
जीतकल्पसूत्रम् |
आहारों जेसि आदी, सो चउहा होइमो उ आहारो । भत्तं पार्थं खाइम, सादिम होती चउत्थं तु ॥ ७४०|| आदिग्गहणेणं पुण, सेज्जा - संथार - वत्थ - पायट्टा । पाउँछणअट्ठा वा, ओहो वहुवरगट्ठा वा ॥ ७४१ ।। अहव गिलाणस्लट्ठा, आयरिए बाल बुद्ध खमए वा । दुब्बल सेहे व महोदरे व आदेसअट्टा वा || ७४२ ॥ एतेसिं पाउग्गं, आहारो अहव होज्ज सेज्जादी । ओसह मेसज्जाणिय, एमादी होज्ज अट्ठो उ || ७४३ || एतेसिं अट्ठाए, गुरु पुच्छित्ता गुरुणऽणुण्णाओ । सुत्ताणुसारओ तू, उवयुक्तो विहीय घेत्तूर्णं ॥ ७४४ ॥ आलोएती गुरुणो, जं जह गहियं तु भत्तमादीयं । सुत्ताणुसारतो तू, आलोयणमेत्तयो मुद्धो || ७४५ ॥ सीसाsse जई एवं, विहिगहणं होति एवमुद्धं तु । तो गहणमेव सव्वे, आहारादीण मा कुणउ ॥ ७४६ || चोअग ! जदि एवं तु, संजमजोगा उ होंति संपुण्णा । आहारमाइयाणं, को नाम परिग्गहं कुज्जा ? ||७४७॥ अण्णं च इमो दोसो, अग्गहणा पावती महंतो उ । आयारियादी चत्ता, णाणादीर्ण च वोच्छेदो ॥ ७४८ ॥ तम्हा अवस्स गहणं, आहारादीण होति विहिणा उ । आहारा गहणे, एगो पादो समत्तेसो || ७४९ ॥ णिग्गम गुरुमूलाओ, सेज्जाओ वा हवेज्ज णिग्गमणं । ते य अणेगा णिग्गम, कुलादिया इणमु वोच्छामि ॥७५० ॥ कुल गण संघे चेइय, तदव्वविणासणे दुविहभेदे | एतेसि निवारणया, गुरुमूल करेज्ज णिग्गमणं ॥ ७५१ ॥ संथारादीण अहवा, अपिगणत्था उ पाडिहारीणं ।
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स्वोपशभाष्ययुतं
[गाथा निगमो गुरुमूलाओ, वसहीओ वा करेजाहि ॥७५२॥ गाहापच्छद्रेणं, जं भणितुच्चार अवणिसद्दो तु । अवणी भूमी भण्णति, तेण उ उच्चारभूमी उ ॥७५३॥ सज्झाय विहारो तु, अवणीसहिओ विहारभूमी उ । चेइयवंदणहेड, गच्छे आसण्ण दूरं वा ॥७५४॥ आयरिया तु अपुव्वा, अहवा साहू अतीव संविग्गा । वंदण-संसयोउं, गच्छे आसन्न दूरं वा ॥७५५॥
आदीगहणेणं पुण, सड़ा सण्णाय अहव ओसण्णा । दसणगाहण निक्खमणं च ओसण्णउच्छहणा ॥७५६॥ एतेहि व कज्जेहिं, गुरुमूला णिग्गमो उ साहूणं । गाहा छह समत्ता, अहुणा पुण सत्तमं वोच्छं ॥७५७॥ जंचऽण्णं करणिज्जं,जतिणो हत्थसयबाहिरायरियं । अवियडियम्मि असुद्धो,आलोएंतो तयं सुद्धो॥७॥ जं चऽण्णमवुत्तं ती, करणिज्जं तं इमं तु खेतादी। हत्थसया आरेणं, परयो व इमं पवक्खामि ॥७५८॥ खित्तपडिलेह थंडिल, णिक्खमणं अहव होज सेहस्स । संलेहणं व कोई, आयरियादी व कुज्जा तु ॥७५९।। हत्थसयाओ परेणं, जं आयरियं तु होज खेत्तादी । समितिविमुद्धिणिमित्तं, अवस्स आलोयणं कुज्जा ॥७६०॥ जं पुण हत्थसयाओ, अंतो आसेवियं हवेज्जाहिं । ते विगडिज्जइ किंची, अहव ण विगडिज्जती किंचि ॥७६१॥ जहपासवण-खेल-सिंघाणगादिउवयुत्ते पत्थि आलोया। आलोएइ पमत्तोऽणालोइऍ होतऽमुद्धोतु ॥७६२।।
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७-८ ]
जीतकल्पसूत्रम् ।
सत्तम गाह समत्ता, एत्तो वच्छामि अट्टमं गाई । कारण निगमे जत्थ उ, स परगणाओ व आगमणं ॥७६३॥ कारणविणिग्गयस्स य, सगणाओ परगणागतस्स विय। उवसंपया विहारे, आलोयणमणइयारस्स ॥ ॥
दुविहो उ णिग्गमो खलु, कारण निक्कारणो व गच्छाओ । afeवादी कारणओ, णिकारण चक्क थ्रुभादी ||७६४ || असिवे ओमोरिए, रायहुट्ठ भए व गेलणे । अहवा व उत्तम समाहिकामो तु गच्छेज्जा ॥७६५ ॥ आयरियपेसणादी, विणिग्गमो गच्छयो व होज्जाहि । कारण णिग्गमो एसो, णिकारणयो इमं वोच्छं ||७६६|| चक्के धूभे पडिमा जम्मण णिक्खमण जाण णिव्वाणे । महिम समोसरणे वा, सण्णायग-वइयमादिसु वा ॥ ७६७ ॥ असमत्तकप्पियाणं, णिकारण णिग्गमा भवे एते । एते श्चिय कारणयो, जयणाजुत्तस्स गीतस्स ॥ ७६८ ॥ कारणविणिग्गएणं, णिरतीयाराण वी अवस्सं तु । आलोयण दातव्वा, समितिविसुद्धीणिमित्तं तु ॥ ७६९ || सां आलोयण दुविहा, ओहेण विभागतो य णायन्त्रा । ओहो संखेवो ऊ, विभागो पुण वित्थ भणिओ || ७७० || ओहो तत्थ इमो खलु, अब्भंतरअद्धमासआयस्स । पडिकंतस्स य इरियं, साहुसमुद्दिसणवेला तु ||७७१ ॥ रिईयारो य जती, भत्तट्ठी वि य हवेज्ज जदि सो तु । ओहेण तत्थ आलोइतूण तो मंडलिं पविसे ||७७२৷ अप्पा मूलगुणेसुं, विराहणा अप्प उत्तरगुणे | अपं पासत्थाइसु, दाणगहणं तु आहेसा ॥ ७७३ ॥
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स्वीपज्ञभाष्ययुत
[ गाथा अण्णाय उ वेलाए, विभागआलोयणा तु दायब्वा । समितिविसुद्धिणिमित्तं, एमेव य पक्खपरयो वि ॥७७४॥ एवं ता कारणिए, असिवादीणिग्गयस्स सगणाओ। अतियारविरहियस्स वि, आलोयणमेत्तयो मुद्धी ॥७७५॥ जे बहियाऽऽगत साहू, ते दुविहा होन्ति तू मुणेतन्वा । समणुण्णऽमणुण्णा बा, समणुण्णा सगच्छतो चेव ॥७७६॥ परगणे जे अमणुण्णा, ते दुविहा होति तू मुणेयव्वा । संविग्गमसंविग्गा, पासत्थादी असंविग्गा ॥७७७।। परगणसंविग्गाओ, जो साहू आगतो उ अण्णगणं । तेण अवस्साऽऽलोयण, विभागतो होति दायव्या ७७८॥ उपसंपद पंचविहा, सुत मुह दुक्खे य खेत मग्गे य। विणयोवसंपया वि य, पंचमिया होति नायव्या ॥७७९॥ पंचविहाए नियमा, एगविहाए व जत्थ उवसंपे । निरतीयारेण वि या, विभागतोऽवस्स दातव्या ॥७८०।। विहरेन्ति एगसंभोइया उ फड्डावती उ गीयत्था । तत्थण्णत्थ व खेत्ते, समणुण्णा एस गच्छम्मि ॥७८१॥ एगाह पणग पक्खे, चउमासे वि जत्थ वि मिलंति । तत्थ विभागालोयण, अवरोप्पर तेहि दायब्वा ॥७८२।। आलोयणारिहं ति इ, पढमं दारमेयं समक्खातं । दारं ।
पडिकमणारिहमेत्तो, बितियं दार इमं वोच्छं ॥७८३।। प्रतिक्रमण- गुत्ती-समितिपमत्तो, गुरुणो आसायणा विणयभंगे। प्रायश्चित्तम्
इच्छाईणमकरणे, लहुस मुसादिण्णमुच्छासु ॥९॥ पुरक्खणम्मि (१) गुत्ती, ताणि मणादीणि होन्ति तिण्णेक । तेहि कहिचि पमार्य, साहु करेज्जा इमं तं च १७८४॥
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९]
जीतकल्पसूत्रम् । दुञ्चितिय दुब्भासिय, दुच्चे हिय एसऽगुत्तिया होति । भणमादीणं कमसो, एस पमाओ उ साहुस्स ॥७८५।। गुत्तो होइ कह ण्णू, मणमादीहिं तु साहुणा निच्च । तत्थोदाहरणे तू, जिणदासादी इमे वोच्छं ॥७८६॥ मणगुत्तीए तहियं, जिणदासो सावओ उ सेट्ठिसुतो।
मनोगुप्ती
जिनदासोसो सवराइपडिमं, पडिवण्णो जाणसालाए ।।७८७।
दाहरणम् भज्जुब्भामिग पल्लंक घेत्त खीलजुयमागया तत्थ । तस्सेव पायगुवरिं, मंचगपादं ठवेऊणं ।।७८८॥ अणयारमायरंती, पादो विद्धो य मंचखीलेणं । तो तं महंति वियणं, अहियासेती तहिं सम्मं ।।७८९॥ मणदुक्कडमुप्पण्णं, ण तस्स झाणम्मि णिञ्चलमइस्स । दह्रण तोय विलियं, इय मणगुत्ती करेतवा ॥७९०॥ वइगुत्तीए साहू, सण्णायगपल्लि गच्छए दहूँ ।
वचनगुप्तौ चोरग्गह सेणावइ, विमोइतो भणिउ मा साह ७९१॥ कस्यचित्
साधोरुदाचलिया य जण्णजत्ता, सण्णायग मिलिय अंतरा चैव ।। माइ-पिति-भातिमादी, सो वि णियत्तो समं तेहिं । ७९२॥ तेणेहि गहित मुसिया, दिट्ठो तो बिन्त सो इमो समणो। अम्हे हिं गहिय मुक्को, तो बेती अम्मया तस्स ॥७९३।। तुम्हेहि गहिय मुक्को ?, आम आणेह बेति तच्छुरियं । जा छिदामि थणं ति इ, किं ? ती सेणावती भणइ ॥७९४॥ दुज्जायजम्म एसो, दिड अम्हं तहा वि ण वि सिह । कह पुत्तो ? ती आमं, कह ण वि सिटुं ? ति धम्मकहा ।।७९५॥ आउट्टो उपसंतो, मुक्को मज्झं पि तं सि माय त्ति । सव्वं समप्पियं ती, वइगुत्ती एव कातया ॥७९६॥
हरणम्
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कायगुप्तौ कस्यचित् साधोराह
रणम्
काय गुप्त
द्वितीयमु
दाहरणम्
समितीनां स्वरूपम्
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
काइगगुत्ताहरणं, अद्धाणपवण्णगो जहा साहू |
आवासियfम्म सत्थे, ण लभति तहि थंडिलं किंचि ॥७९७ ॥ लद्धं च णेण किह वी, एगो पाओ जहिं पट्ठाइ | तहियं ठिएगपादो, सव्वं राई तहा थद्धो ॥७९८ ॥ णय ठवितो तेणाथंडिलम्मि होतव्यमेव गुत्तेणं । सुम भए वि अहवा, साहू ण भिंदे गई एगो ॥७९९ ॥ सक पसंसा अस्सहाण देवागमो विउव्वणया । मंडुक्कलि मुहुम बहू, जतणा सो संकमे सणियं ॥ ८०० ॥ हत्थी विविओ या, आगच्छति मग्गतो गुलगुलेंतो । णय कुणत गतीभेदं गएण हत्थेण उच्छूढो ||८०१ ॥ बेड़ पडतो मिच्छामिदुक्कडं जिय विराहियं मे त्ति । ण वि अप्पाणे चिंता, देवो तुट्ठो णमंसति य ॥ ८०२ ॥ गुत्तीदारं भणियं, अगुत्तगुत्ती विहू पसंगेण । समिईदारं वोच्छं, समितिं समतिं वि माताओ || ८०३॥ Turfatरया हु समिती, सामण्णे परिणयस्स वा गमणं । सम्ममयति त्ति समिति, सा पंचह इरियमादीया ॥ ८०४ ॥ कह समिती पमाद, साहु करेज्जा तु ? भण्णए सुणसु । उहो कहरतो, वच्च साहू पमाएसो ||८०१५ ||
[ गाथा
सावज्ज भास भासति, गारस्थिय ढढ्ढर व्त्र भासेज्जा । मादी तु माओ, भासाए होति णातन्त्रो ||८०६ ॥ हिंडतो गोयरम्मि, संकितमादीसु जो तु नाऽऽयुत्तो । भिक्खाऍ गहणकाले, एसण एसो पमाओ तु ॥ ८०७ || आदाण- भंडणिक्खेवणम्मि जो होइ एत्थणाउत्तो । एसो होति पमायो, एत्थ पमायम्मि छ भंगा || ८०८ ||
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९]
जीतकल्पसूत्रम् । गहणं आदाणं ती, होति णिसद्दी तहाहियथम्मि । खिव पेरणे व भणितो, अहिउक्खेवो तु णिक्खेवो ।।८०९॥ ण वि पेहे ण पमज्जे, ण वि पेहे पमज्जती तु बितिभंगो । पेहे ण पमज्ज ततिओ, पेह पमज्जे चउत्थो तु ॥८१०॥ जो सो चउत्थ भंगो, पेहेति पमज्जती य तस्स पुणो । भंगा भवंति चउरो, दुपेहदुपमज्जणे पढमो ॥८११॥ बितियो दुपेहसुपमज्जणम्मि तइओ सुपेहदुपमज्जे । सुपडिल्लेहियसुपमज्जियम्मि भंगो चउत्थेसो ॥८१२॥ आदिमभंगा तिणि इ, अपेहअपमज्जणे य पढमादी । तिण्णि दुपेहादी वि य, छ भंगा होति एते उ ॥८१३॥ उच्चारे पासवणे, खेले सिंघाणमादियाणं च । परिठवणे एत्थं पि हु, पमाइणो होन्ति छ भंगा ।।८१४॥ परिठवणुच्चारादी, उच्चरती तेण होति उच्चारो ।। पस्सवइ ति य तेणं, पासवणं भण्णए काई ॥८१५॥ अहवुच्चरई काइय, पायं सवई य पासवणसण्णा । खेललणाओ खेलो, णासिगलाणाओ सिंघाणो ॥८१६॥ एस पमाओ भणितो, पंचसु समिईसु इरियमादीसु । अहुण पसंगेणं चिय, वोच्छामि इ अप्पमायं तु ॥८१७॥ जुगमेत्तंतरदिट्ठी, पदं पदं नसति चक्खुपूयं च । अव्वक्खित्तायुत्तो, अरहण्णगो एत्थुदाहरणं ॥८१८॥ अह अरहण्णगसाहू, समितीअ समीय गड्ड डेवन्तो । छलिओ पादो छिण्णो, अण्णाए संधिओ यावि ॥८१९॥ भासासमितो साहू, भिक्खट्ठा णगररोहए कोयी । णिग्गंतु बाहिकडए, हिंडंतो केणयी पुट्ठो ॥८२०॥ केवइय आस हत्थी ?, धणणिचयो दारु-धण्णमादीणि । णिविण्णमणिविण्णं, णगरं तो बेइमं समितो ॥८२१॥
ईर्यासमितावर्हन्नकः
भाष समिती कश्चित् साधु
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एषणासमिती वसुदेवजीवो नन्दिवर्धनः
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[गाथा बेइ ण याणामो ती, सज्झाय-ज्झाण-जोगवक्खिता। हिंडंता ण वि पिच्छह, ण वि सुणहा किह हु ? तो बेति ।।८२२॥ बहुं सुणेति कण्णे हिं, बहुं अच्छीहिं पेच्छति । ण य दिदं सुयं सव्वं, भिक्खु अक्खाउमरहति ॥८२३॥ अहव य भासति कज्जे, हिरवज्जमकारणे ण भासति य । विकह-विसोत्तियपरिवज्जितो जती भासणासमितो ॥८२४|| बायालमेसणाओ, भौयणदोसे य जो विसोहेति । सो एसणाए समिओ, दिटुंतो इत्थ वसुदेवो ॥८२५॥ वसुदेव अण्णजम्मे, आहरणं एसणाए समिएणं । मगहा गंदिग्गामे, गोयम धेज्जाइ वक्कायरो ॥८२६॥ तस्स य वारुणि भज्जा, गब्भो तीए कयाइ संभूओ। घेज्जाइ मतो छम्मासि गब्भ धेज्जाअणि ज्जाए ॥८२७॥ मातुलसंवडण कम्मकरण वेयारणा अ लोएणं । पत्थि तुह एत्थ किंचि इ, तो बेती माउलो तं च ॥८२८॥ मा सुण लोयस्स तुमं, धूयाओ तिणि तासि जेट्टयरी । दाहामि करे कम्मं, पकयो पत्ते य वीवाहे ॥८२९॥ सा णेच्छई विसण्णो, माउलओ भणति अण्ण दाहामि । सा वि तहेव य णेच्छइ, तइयं ती णेच्छइ य सा चि ॥८३०॥ णिविण्ण नंदिवद्धण, आयरियाणं सगासे णेकरवतो। जाओ छटुक्खमओ, गिण्हइ य अभिग्गहमिमं तु । ८३१॥ बाल-गिलाणादीणं, वेयावच्चं मए तु कायव्वं । तं कुणइ तिब्बसद्धो, खायजसो सक्क गुणकित्ती ॥८३२॥ अस्सद्दहाण देवस्स आगमो कुणइ दो समणरूवे । अतिसारगहियमेगो, अडवीय ठियो गओ बितिओ ॥८३३॥ बेति य गिलाणो पडितो, वेयावचं तु सद्दहे जो उ। सो सिग्धं उद्धेतू, युतं च तं नंदिसेणेणं ।।८३४॥
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जीतकल्पसूत्रम् । छट्टोववासपारणगमाणितो कवल घेत्तुकामेण । तं सुत मोत्तुं रभसुटिओ य भण केण कज्ज ? ति ॥८३५॥ पाणगदव्वं च तहिं, ज णत्थी तेण बेति कज्जं ति । णिग्गय आहिंडंते, अणेसणं कुणति ण य पेल्ले ॥८३६॥ इत एकवार बितियं, च हिंडिओ लद्ध तइयवाराए । अणुकंपा तूरंतो, गयो य तो तस्सगासं तु ॥८३७॥ खर-फरुस-णिरेहि, अक्कोसइ सो गिलाणतो रुट्ठो। दे मंदभग ! घुकिय, तूससि तं णाममेत्तेगं ॥८३८॥ साहुवयारि त्ति तुम, णाम अहं तु उद्दिसिउ आयो । एयाएँ अवत्थाए, तं अच्छसि भत्तलोहिल्लो ।।८३९।। अमयमिव मण्णमाणो, तं फरुसगिरं तु सो ससंभंतो। चलणगतो खामेती, धुवति य तं समललित्तं तु ॥८४०|| उद्धेह क्यामो ती, तह काहामो जहा उ अचिरेणं । होहिह णिरुया तुब्भे, बेती ण तरामि गंतु जे ॥८४१॥ आरुभहा पट्टीए, आरूढो ताहे तो पयारं तु । परमासुइ दुग्गंध, मुंचति सो तस्स पट्टीए ॥८४२॥ फरुसं बेति दुमुण्डिय !, वेगविधाओ कतो ति दुक्खविओ। इय बहुविहमक्कोसति, पदे पदे सो वि भगवं तु ॥८४३॥ ण गणेती फरुसगिरं, न वि अ हु दुव्विसहमसुइगंधं च । चंदणमिव मण्णतो, मिच्छामी दुक्कडं भणति ॥८४४॥ चिन्तेइ किं करेमी, कह णु समाही हवेज साहुस्स ? । इय बहुविहप्पगारं, ण वि तिण्णो जाहे खोभेउं ॥८४५॥ ताहे अभित्थुणित्ता, गतो तयो आगयो य इयरो वि। आलोएइ गुरूहि य, धण्णो त्ति तयो समणुसहो ॥८४६॥ जह तेणं ण वि पेल्लिय, एसण इय एव साहुणा णिचं । जइअव्वं एमेसा, एसणसमिती समक्खाया ।।८४७॥
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स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा
पुव्वि चक्खु परिक्खिय, पमज्जिउँ जो टवेति गिण्हइ वा । आयाणभंड निक्रखेवणाऍ सो होइ इह समितो || ८४८ ॥ एत्थ व ते चि भंगा, कायव्वा जाव होति अंतिमतो । सुप्पडिले हिय-सुपमज्जियं च भंगो चउत्थो उ ||८४९ ॥ एसो गज्झो एत्थं, तम्सुक्युतो स होति खलु समितो | आहरण गुरुण भणितो, साहू बच्चामो गामं ति ॥ ८५० ॥ ओगाहिए पडिग्गs, ताहे ठिया कारणेण केणावि । तत्थेगो पेहेडं, णिक्खिवती विइओ पुण आह ||८५१ ॥ पेहिमेतं किं पेहणा, पुणो ? होज्ज एत्थ किं सप्पो ? | सणिहितदेवयाए, विउन्नितो तत्थ तो सप्पो ||८५२ ॥ उघाडिए य दिट्ठो, आउट्टो बेति मिच्छकारं च । समिताsसमिता एते, उक्कोस- जहण्णया होन्ति ॥ ८५३ ॥ पारिष्ठापनिका उच्चारं पासवर्ण, खेलादि व अण्णपाणमहियं वा । सुविवेइए पदेसे, णिसिरंतो होइ इह समिओ ॥८५४ ॥ इत्थ वि ते चिय भंगा, तहेव समियो तु अंतिमे होति । आहरणं धम्मरुती, परिठावणसमितिमुज्जुत्तो ॥ ८५५ ॥ काइयसमाहि परिठावणे य गहितो अभिग्गहो तेणं । सक्क पर्ससा अस्सद्दहाण देवागम विउव्वे ॥ ८५६ ॥ सुबहू पिपीलियाओ, बाहाडा यावि काइयऽसमाही | अण्णो य काइयाए, उवद्वितो बेयऽहं असहू ||८५७॥ अयं तु काइयाडो, बेइ परिद्वय समाहि मा अच्छ । णिग्गय णिसिरे जहि जहि, पिवीलियाऊ सरे तत्थ ||८५८ ॥ अह साहु किलाभिज्जइ, ताहे पीतो य धरितो देवेण । मामा य मिसिद्धो ती मा पिय देवो य आउट्टो ||८५९ ॥ वंदित्त गतो देवो, समितीस एव होति जतितव्वं । एत पसंगाभिहितं, आसातण इणमु वोच्छामि ॥८६०||
७४
आदाननिक्षेपणा
समितिः
तत्रोदाहरणं च
समितिः तत्रार्थे
धरुचे
राहरणम्
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९]
जीतकल्पसूत्रम् |
गुरुवो आयरिया तू, णाणादीओ उ होइ आयारो । आयरण परूवणया, वह सो तेसिमाssसाणा ॥ ८६१ ॥ तीय विभासा इणमो, आसातण दुपद वयणमेव त्ति । आयाय सातयाणा, आयस्स उ साडणा जा उ ॥ ८६२॥ सा होती आसातण, आओ लाभो हि आगमो यावि । णाणादीनं साया, सायण सो विणासो ति ॥ ८६३|| आतस्स साडणं ती, यकारलोवम्मि होइ आसयणा । आयरियाणं इणमो, आसयणा होइमेहिं तु ॥ ८६४॥ डहरो अकुलीणो त्ति य, दुम्मेहो दमग मंदबुद्धि ति । अवि अप्पलाभलद्धी, सीसो परिभवइ आयरियं ॥ ८६५ || real faat एवं, उवएस परस्स देन्ति एवं तु । दसविह वैयावच्चं, कायव्व सयं ण कुव्वंति || ८६६॥ अव तिहा आसायण, भण- वइ - कारण मणपदोसादी । वायाए आसायण, अंतरभासादि कुव्विज्जा ॥ ८६७|| काणं संघट्टण, जमलित पुरतो व वच्चती पंथे । अहवा आसायणमो, तुसिणीमादी सुणेयव्वा ||८६८ || आलत्ते वाहते, वावारिय पुच्छिए सिट्ठे या । गुरुवयणा पंचेते, सीसस्स तु छा इमेक्क्के ||८६९ ॥ तुसिणीए हुंकारे, किं ? ति व किं चडगरं करेसि ? ति । कि व्बुि ण देसी ?, केवइयं वा विरडसि ? ति ॥ ८७० ॥ एवं छा आलते, तुसिणीमादी उ होंति जातव्वा । वाहितादि य छ चिय, एक्केकपयम्भि बोद्धव्या ॥ ८७१ ॥ गुरुसायण भणिया, एत्तो वोच्छामि विनयभंग तु । णेगविह अभुटाणे, अभिग्गहे आसणे चेव ||८७२ ||
सदा सकारणा य सम्माणणा य कितिकम् । अंजलिपगह अणुगती य ठितपज्जुवा सणता ||८७३ ॥
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आशातना
गुरु-शिष्ययोवचनानि
विनयस्य
भङ्गः
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७८
सप्तधा विनयभङ्गः
स्वीपज्ञभाष्ययुतं
[गाथा जते पडिसंसाहण, आसणमादीहि होति सकारो। सम्माणो उवहीए, जोग्गं जं जस्स तं कुन्जा ॥८७४|| कप्पो संथारो वा, जहि चेट्ठो अच्छई तु आयरिओ। णायागमस्स कालं, पडिले हिय घेत्तु तं अच्छे ॥८७५।। कितिकम्मं वंदणयं, हत्थुस्सेहो णिडालदेसम्मि । अंजलिपग्गहमेतं, सेसा उ पया हु कंठोत्ता ॥८७६।। एमादी विणयं तू, जो ण वि कुणती उ सूरिमादीणं । विणयम्भंगो एसो, सत्तविहो अहव णाणादी ॥८७७॥ णाणे दंसण चरणे, मण वइ कायोचयार सत्तविहो । एतेसु अवटुंते, समासओ एस भंगो तु ॥८७८॥ विणयब्भंगो एसो, ओहेण समासओ समक्खायो । इच्छादी दसहा तू, अकरणेणमो तू वोच्छामि ॥८७९॥ इच्छा-मिच्छा-तहकारो, आवसिया य णिसीहिया । आपुच्छणा य पडिपुच्छा, छंदणा य निमंतणा ॥८८०॥ उवसंपया य काले, इच्छादिअकरणया उ दसहेसा । लहुसमुसावादि त्ती, एत्तो उ समासतो वोच्छं ॥८८१॥ पयलाउले मरुए, पञ्चक्खाणे य गमणपरियाए । समुद्देससंखडीओ, खुड्डयपरिहारियमुहीओ ॥८८२॥ अवस गमणं दिसासू, एगकुले चेव एगदव्वे य । एमादी तु पदेहि, मुसं तु लहुसं वए साहू ॥८८३॥ पयलासि किं दिवा ?ण पयलामि लहु बितिय णिण्हवे गुरुतो। अण्णद्दाविय णिण्हावे, बहुगा गुरुगा बहुतराणं ।।८८४॥ णिण्हवणे णिण्हवणे, पच्छित्तं वडुई ऊ जा सपयं । बहु-गुरुमासो सुहुमो, लहुमादी बायरो होति ॥८८५॥ कि वचसि वासंते ?, ण गच्छे णणु वासबिंदवो एते ।दारं । भुंजति णीह मरुया, कहं ? ति णणु सच्चगेहेसु !।८८६॥
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७७
जीतकल्पसूत्रम् । मुंजसु पञ्चक्खाणं, महं ति तक्खण प जियो पुट्ठो । किं व ण मे पंचविहा, पञ्चक्खाता अविरतीओ ? ॥८८७॥ वचसि ? णाई वच्चे, तक्खण वच्चंत पुच्छिओ भणति । सिद्धंतं ण वि जाणह, णणु गम्मति गम्ममाणं तु ?॥८८८॥ दस एयस्स य मज्झ थ, पुच्छितो परियाग बेइ तु छलेण । मज्झ णव त्ति य बंदि', भणाइ बेपंचगा दस उ ॥८८९ दार।। वट्टइ तु समुद्देसो, किं अच्छह कत्थ एस गयणमि । दारं । चट्टन्ति संखडीओ, घरेसु णणु याउखंडणया ॥८९०॥ दारं॥ खुड्डगजणणी उ मुया, परुण्णो जियइ त्ति एव भणियंमि । माइत्ता सव्वजिया, भविसु ते णे समायाते ॥८९१॥ दारं । ओसण्णे दट्टणं, दिहा परिहारिय त्ति लहुकहणे । कत्थुजाणे गुरुओ, अदिह दिट्टे य लहुगुरुगा ॥८९२।। छल्लहुगा उ नियत्ते, आलोएंतम्मि छग्गुरू होन्ति । परिहरमाणा विकह, अप्परिहारी भवे छेदो ॥८९३॥ खाणुगमाई मूलं, सव्वे तुब्भेगो हे ति अणवठ्ठो । सव्वे उ बाहिरा पवयणस्स तुब्भे त्ति पारंची॥८९४॥ भण क्य दिहणियट्टे, आलोयामंति बोडगमुहीउ । किमणुस्सा सव्वेगो, सव्वे बाहिं पक्यणस्स ॥८९५॥ मासो लहुओ गुरुओ, चउरो मासा हवंति लहुगुरुगा। छम्मासा लहुगुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च ॥८९६॥ दारं । गच्छसि ण ताव गच्छं, तक्खण वच्चंत पुच्छितो भणइ । वेला ताव ण जायइ, परलोगं वा वि मोक्खं वा ॥८९७॥ कतरि दिसिं गमिस्सास ?, पुव्वं अवरं गतो भणति पुट्ठो । किं वा ण होति पुन्वा, इमा दिसा अवरगामस्स ? ||८९८॥ अहमेगकुलं गच्छं, वच्चह बहुकुलपवेसणे पुट्ठो। भणति कहं दोणि कुले, एगसरीरेण पविसिस्सं ॥८९९॥
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७८
स्वोपज्ञभाष्ययुत
[ गाथा बच्चह एगं दव्वं, धेच्छं गगह पुच्छिओ भणति । गहणं तु लक्खणं पोग्गलाण णण्णेसि तेणेग ।।९००॥ दार॥ पयलादी तु पदा खल, एमेते वणिया समासेणं । लहुगुरुया जाव मुसं, लहुसगमेयं मुणेतव्वं ॥९०१॥ दारं ॥ तण डगल छार मल्लग, उग्गहमणणुण्णवेत्तु जो गिण्हे । लहुसग अदत्तमेयं अहवा रुक्खादिसू लहुसं ॥९०२॥ मुहणंत पायकेसरि, पत्तवणं च गोच्छओ चेव । लहुसपरिग्गहमेसो, मुच्छ करंतस्स साहुस्स ॥९०३।। अहवा वि इमो अण्णो, सेज्जातर-गोण-साण-कागादी। धारण कप्पट्ठस्स व, रक्ख-ममत्तादि कुज्जा तु ॥९०४॥ वितियवय-ततिय-पंचमलहुस्सगा एते होंति णातव्या । गाहेसा तु समत्ता, णवमा दसमं अतो वोच्छं ॥९०५।। अविहीय कासजंभियखुयवायाऽसंकिलिकंमेसु ।
कंदप्पहासविकहाकसायविसयाणुसंगेसु॥१०॥ अविधिः अविही हत्थमदातुं, अहवा मुहणतयं अदातूणं ।
जंभाइए वि एवं, खुइए वी एव वत्तव्वं ॥९०६॥ कास-जम्मा- खु त्ति कतं तं खुइतं, छीयं वा होति इह उ खुइतं तु । दीनों व्या- वायणिसग्गो दुविहो, उड़े य अहे य णायव्यो ॥९०७॥
उड् उड्डोयादी, वायणिसग्गो अहे मुणेतव्यो । मुहणतय हत्थं वा, उड्डोए तत्थ जयणाए ॥९०८॥ पुयकट्टणा उ हेढे वायणिसग्गस्स होइ जयणेसा । इयवयिरित्तो जो खल, अविहीए सो णिसग्गो तु॥९०९।। छेयण-भेयणमादी, असंकिलिट्ट य होइ कंमं तु । कंदप्पो वायाए, कारण व होति णातव्यो ॥९१०॥
ख्यानम्
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सहसाना
१०-१२ ]
जीतकल्पसूत्रम् । हासं तु हासमेव तु, विकहा पुण इत्थिमाइया चउहा । कोहादी उ कसाया, विसया सद्दाइया णेया ॥११॥ जा तेसिं तु पसज्जण. सहसाऽणाभोगयो व साहूणं । सा होति विसयसंगो, अविहीगाहा समत्ता उ ||९१२॥ खलितस्स यसवत्थ वि, हिंसमणावज्जओजयन्तस्स। सहसाऽणाभोगेण व, मिच्छकारो पडिकमणं ॥११॥ खलणा दुविहा भणिया, सहसाऽणाभोगतो व होज्जाहि। स्खलना सा कत्थ पुणो दुविहा, सव्वत्थ इमं पवक्खामि ॥९१३॥ सव्ववएमुं गुत्तिमु, समिती णाणादिएम व हवेज्जा । सव्वत्थ वि एतेसुं, खलणेसा होति णायव्वा ॥९१४॥ सहसाऽणाभोगेण च, हिंसमणावजओ जयन्तस्स । सहसाऽणाभोगाणं, को णु विसेसो ? ति चोएइ ।।९१५॥ भोगी आउत्तो वि य होतुं, कारेन्तो वि ण याणतीयारं । जह हं करेमि एयं, कए य नाऽयं अणाभोगो ।।९१६॥ आउत्त पुचभासा, पडिसेवण सहस एव जा तु भवे । ण य तरति णियत्तेङ, सहसकारो भवे एसो।।९१७॥ सहसाऽणाभोगा ऊ, सव्वत्थ उ वणिया समासेणं । एस विसोहिहाण, मिच्छक्कारो पडिकमणं ॥९१८॥
॥ गाहा सम्मत्ता ॥ आभोगेण वि तणुएसु णेहभयसोगबाउसादीसु । कंदप्पसोगविगहादिएसु णेयं पडिकमणं ॥१२॥
आभोगे जाणतो, तणुओ थोवे तु होति णातव्यो । आभगः तं पुण करेज कप्पट-सेज्जतर-सण्णिमाइसु वा ।।९१९।। एमादीहाऊ, जं कय कप्पटगादि आभोगा।
स्नेहः तस्स त पायच्छित्तं. मिच्छक्कारो पडिक्कमणं ॥९२०॥
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भयम्
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा तणुओ णेहो भणितो, भइ सत्तविहं इमं तु वोच्छामि । इह परलोगाऽऽयाणे, अकम्ह आजीवियऽसिलोए ॥९२१॥ मरणभयं सत्तमय, एतेसि समासतो विभागो इमो । मणुओ मणुयस्सेव तु, देवो देवस्स तिरि तिरिए ॥९२२॥ बीभेइ सजाईए, इहलोगभए य होति बोद्धव्वं । परलोगभयं विसरिस, जह मणुओ बीभे तिरिदेवे ॥९२३॥ धणमायाण भण्णति, तब्भय चोरादियाण जं बीमे । तस्सेव य रक्खहा, वइ-पागाराइ जे कुणति ॥९२४।। अणिमित्त अकम्हभयं, ण वि किंची पासती तह वि बीभे । अडवीए रातीय व, आजीवभयं जहा अहणो ॥९२५।। दुकालो आएसो, कह जीवीहं ति एस चिंतेति । मरणभयं सिद्धं चिय, मरणमिति महब्भयं जह तु ॥९२६॥ असिलोगो त्ति इ अयसो, जइ एव करिस्स होहिई अयसो। असिलोगभयं एयं, वेयणमय होइ सीयादी ॥९२७॥ सत्तविहं भयमेयं, एएसु यु वट्टियं तु जं तणुए । तस्स विसोहिहाणं, मिच्छक्कारो पडिकमणं ॥९२८॥ सोगं आभोएण वि, चिन्तादि करते विप्पयोगम्मि । तस्स तु पायच्छित्तं, मिच्छक्कारो पडिक्कमणं ।।९२९॥ आभोगमणाभोगे, संखुडमस्संवुडे य अहसुहुमे । पंचविहो बाउसिओ, सुहुभाभोगेण पगयेत्थं ॥९३०॥ कंदप्पादी तु पदा, पुव्युत्तकमा तु दसमगाहाए । एव जहुद्दिढेसू, तणुए सोही पडिकमणं ॥९३१॥ बितिय द्दार समत्त; पडिक्कमणारिहमहुण ततियं तु । तदुभयदारं वोच्छ, तत्थ इमा होइ गाहा तु ॥९३२॥
शोकः
बाकुशिकः
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आपत्
१३ ]
जीतकल्पसूत्रम् । संभमभयातुरावतिसहसाणाभोगऽणप्पवसओ वा । तदुभूयार्ह
। प्रायश्चित्तम् सव्ववयातीयारे, तदुभयमासंकिते चेव ॥१३॥ संभमोऽणेगविहो खलु, हत्थी अगणी व उदगमादीओ। सम्भ्रमभयौ भय दसुग मिलक्खू वा, मालवतेणाइओ बहुहा ॥९३३॥ पढमवितीयातिएहि, परीसरहाऽऽतुरो तु बहुदा तु । आवइ चउहा इणमो, समासतोऽहं पवक्खामि ॥९३४॥ दव्वावति खेत्तावइ, कालावइ भावआवई चेव । दव्यावती तु दव्वं, जं दुलभं होति साहुस्स ॥९३५॥ वित्थिण्णमडम्बादी, खेत्तावति एस होइ णातव्वा । कालावती तु ओमे, भावे तु गुरू-गिलाणादी ।।९३६॥ सहसाऽणाभोगा तू, पुव्वुत्ता अहुण वोच्छऽणप्पवसो । णप्पवसो उ परवसो, सो होति इमेहि कज्जेहिं ॥९३७॥ अनात्मवशः वाइय पित्तिय सिंभिय, अहवा वी होज्ज सण्णिवाएणं । एतेहि अणप्पवसो, अहवा होज्जा इमेहिं तु ॥९३८॥ जक्खाइट्ठसरीरो, मोहणिए अहव होज्ज कम्मुदए । एतेहि अणप्पवसो, होज्जाही कारणेहिं तु ॥९३९॥ एव जहुद्दिढेसुं, संभममादीसु कारणेसुं तु।। सव्वव्ययायियारं, णासं तु करेजऽणप्पवसो ॥९४०॥ पुढवि जल अगणि मारुय, वणस्सती कुज्ज रुक्खरहणं वा । बिय तिय चउरो पंचिंदियं व साहू विराहेजा ॥९४१॥ एव मुसावादादी, अणपज्जो आयरेज्ज साहू तु । पिंडविसोहादीणि व, सेवेज्ज व उत्तरगुणाणि ॥९४२॥ एमादी आवण्णे, अतियारविसोहि तदुभयं होति । तदुभय गुरुमालोइय, मिच्छामी दुकडं बेति ॥९४३॥
आसंकिऍ तदुभय, मूलगुणे उत्तरे य णातव्वं । परिछिदितु ण वि सक्के, कतमकयं एस आसंका ॥९४४॥
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स्वोपज्ञभाष्ययुतं
गाथा दुञ्चितिय दुब्भासिय, दुच्चेट्ठिय एवमादियं बहुहा। उवउत्तो वि ण याणति, जं देवसियातियाराति ॥१४॥ 'दु त्ति दुगुंछा' धातू, संजमउवरोहि कुच्छियं होति । तं मणसा जइ चिंतिय, दुचिंतिय एव णातव्वं ॥९४५।। एवं तू दुब्भासिय, दुचेट्टिय एवमेव णातव्वं । दुप्पडिलेहियमादी, आदीसहेण बोद्धव्वं ॥९४६॥ एमादियं तु बहुसो, अणेगसो होइ हू मुणेतव्वं । उवउत्तो वि ण जाणति, ण वि संभरती उ जं भणियं ॥९४७॥ आदिग्गहणेणं पुण, राइय पक्खिय तहेव चउमासे । संवच्छरिए य तहा, अतियारा होति बोद्धव्या ।।९४८॥ सव्वेसु य बितियपए, दंसणणाणचरणावराहेसु । आउत्तस्स तदुभयं, सहसकाराइणा चेव ॥१५॥ पढम उस्सग्गपदं, अववादपयं तु बितिययं होति । सम्बग्गहणेणं पुण, सव्व अवराहा मुणेयव्वा ॥९४९॥ दंसण णाण चरित्ते, जे अवराहा तु होन्ति गीतत्थे । कारणजयणाजुत्ते, एव जयंतस्स जे उ भवे ॥९५०॥ जह तिक्खउदगवेगे, विसमम्मि व विज्जलम्मि वचंतो। कुणमाणो वि पयत्तं, अवसो जह पावए पडणं ॥९५१॥ तह समणसुविहियाणं, सव्वपयत्तेण वी जयंताणं । कम्मोदयपच्चइया, विराहणा कस्सइ हवेज्जा ॥९५२॥ प(पु?)रिसज्जतणाजुत्ते, तस्स विसोहीय तदुभयं होति । सहसा वि होइ तदुभय, आवण्णे दंसणाईसु ॥९५३॥ तदुभयदार समत्तं, विवेगदारं अयो पवक्खामि । कस्स पुण विवेगो ऊ, तत्थ इमा होति गाहा तु ॥९५४॥
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पिण्ड:
शध्या
१४-१७ ]
जीतकल्पसूत्रम् । पिंडावहिसेज्जादी, गहियं कडजोगिणोवयुत्तेणं । पच्छा णायमसुद्धं, सुद्धो विहिणा विगिचंता॥१६॥ 'पिडि संघाए' धातू, पिंडो संघाओ भण्णए तम्हा । सो इह सञ्चित्ताई, णवणवभेदो पुणेक्केको ॥९५५॥ पुढवी आउकाए, तेऊ वाऊ वणस्सती चेव ।। बेइंदिय तेइंदिय, चउरो पंचिंदिया चेव ॥९५६॥ एक्केको पुण तिविहो, पुढवीमादी सचित्तमादीओ। सत्तावीसपभेदो, पिंडेस समासतो होति ॥९५७॥
ओहिय ओवग्गहिओ, उवही दुविहो समासतो होति । उपधिः होइ विभागेणं पुण, जह भणिओ ओहजुत्तीए ॥९५८॥ भण्णति सिज्जा वसही, आदीसहेण होति डगलादी । ओसहभेसज्जाणि य, आदीसहेण लहियाणि ॥९५९॥ कडजोगी गीयत्थो, जं वुत्तं होति जो उ गहियत्थो । पिंडेसण-पाणेसण-वत्थेसण-सेज्जमादीणं ॥९६०॥ अहवा छेदसुयादीमुत्तत्थाहिज्जित्तो तु गीयत्थो । गहितुं तेणुवयुत्तेण णात पच्छा असुद्धं तु ॥ ९६१॥ केण असुद्धं ? भण्णति, उग्गमउप्पायणेसणादीहिं । अहवा वि संकियादी, सो सुज्झति विहिविगिचंतो ॥९६२।। कालद्धाणाऽतिच्छियमणुग्गयत्थमियगहियमसढो उ। कारणगहिउव्वरिए, भत्तादिविगिचणे सुद्धो ॥१७॥ पढमाएँ पोरिसीए, पडिगाहेत्ताण असणपाणादी । जो तइयमइकामे, कालातीतं इमं होति ॥९६३।।
कालातीतम् अद्धोयणा परेणं, आणिय:णीयं व असणपाणादी।
अध्वातीतम् एयऽद्धाणातीतं, सो सढ असढो वइक्कामो ॥९६४॥
कृतयोगी
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शठाशठौ
अनुद्गतास्तमने
कारणगृहीतम्
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा विगहा-किड्डादीहि, होति सढो एस होति असढो तु । गेलण्णवावडत्ता, होज्ज व सागारिया तत्थ ।।९६५॥ थंडिल्लअभावा वा, तेणाहिभयं व तत्थ होज्जाहि । एमादीकज्जेहिं, असढो तू होइ णायव्यो ॥९६६॥ एमादी असढो जं, विही विगिचंतो होति सुद्धोउ । अणुदित अत्थमिओ वा, गहियं असहेणिमं वोच्छं ॥९६७॥ गिरि-राहु-मेह-महिया-पंसु-रयावरिओ होज्ज वा सक्यिा। उग्गयबुद्धी साहू, एमेव य होयऽणथमिए ॥९६८॥ पच्छा णायमणुग्गय, अहव अत्थमिओ एस इण्हि तु । एयण्णायंमि सढो, सुद्धो तु विही विगिचंतो । ९६९॥ आयरिए य गिलाणे, पाहुणए खमग बाल वुड़े य । एतेसऽट्ठा गहितं, तं होती कारणग्गहियं ॥९७०।। विहिपरिभुत्तुवरियं, विही विगिंचन्त होति सुद्धं तु । एयं विवेगदारं, एत्तो वोच्छामि वोसग्गं ॥९७१॥ गमणागमणविहारे, सुयंमि सावज्जसुविणयादिसु य । णावाणदिसंतारे, पायच्छित्तं वियोसग्गो ॥१८॥ वसही गुरुमूला वा, गमणं अण्णत्थ पुणरवागमणं । एयं गमणागमणं, विहार सज्झायभूमी तु ॥९७२।। तो सज्झायणिमित्तं, गमणं अन्नत्थ होज साहुस्स । गमणागमणविहारं, णातव्वं होति एतं तु ॥९७३॥ समितिविमुद्धिणिमित्तं, एत्थं पच्छित्त होति उस्सग्गो । होति सुतं सुतणाण, उद्देसगमादि णातव्वं ॥९७४।। पट्टवणुद्दिसणे या, समुदिसणे तह य होतऽणुण्णाए । कालपडिक्कमणम्मि य, मुयस्स एत्थं तु उस्सग्गो ॥९७५॥ पाणतिवायादीयो, सावज्जो सुमिणतो तु णातव्यो । आदिग्गहणेणं पुण, अणवज्जपसत्थएK पि ॥९७६॥
व्युत्सर्गप्रायश्चित्तम्
गमनागमनविहारा:
श्रुतम्
सावधस्वप्नम्
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न्तारः
१८-१९ ]
जीतकल्पसूत्रम् । चस्सद्दग्गहणाओ, दुस्सउणा दुण्णिमित्त गहिया उ । पढमवयादीएमु य, सव्वेसु विसोहि उस्सग्गो ॥९७७॥ णावा चउव्विहा तू, समुद्दणाविक तिण्णि उ णदीए । नाबा नदीस. उज्जाणी ओयाणी, तिरिच्छगामी भवे तइया ॥९७८॥ जंघद्धा संघट्टो, णामीलेबोवरिं तु लेवुवरि । बाहोडुपाइओ खलु, णदिसंतारेवमादीओ ॥९७९॥ णावादीहि पएहिं, जाव तु उडुपादिसंतरंतो तु । सव्वत्थ तु पच्छित्तं, जतणाजुत्तस्स उस्सग्गो ।।९८०॥ भत्ते पाणे सयणासणे य, अरहंतसमणसेज्जासु । उच्चारे पासवणे, पणवीसं होन्ति उस्सासा ॥१९।। भत्तं पाणं [सय]गं, सयणं सेज्जा उ होति णातव्या । 'आस उवेसण' धातू , उवेसणं आसणं होति ॥९८१॥ 'अरह पूयाए' धातू, पूयामरिहंति तेण अरिहंता। अर्हन् अरिहंति बंदण णमंसणं च तम्हा तु अरिहंता ॥९८२॥ कोहाई उ अरी ऊ, अहव रयं कम्म होइ अहविहं । अरिणो व रयं हता, तम्हा उ हवंति अरिहंता ॥९८३॥ सयणं सेज पडिस्सय-भत्तादी जाव होति सेज्जा ऊ । हत्थसयाउ परेणं, गमणागमणम्मि सव्वत्थ ॥९८४॥ समितिविसुद्धिणिमित्तं, जयणाजुत्तस्स होति उस्सग्गो । पणुवीस उस्सासा, उच्चारमयो तु वोच्छामि ॥९८५|| उच्चरती उच्चार, परसवती तेण होति पस्सवणं । सण्णा काइय कमसो, अहव इमो होइ सहत्थो ॥९८६॥ उच्चरति काइयं तू , जम्हा तेणं तु होति उच्चारो। पायं सवती जम्हा, तम्हा तू होति पासवणं ॥९८७॥ परिठविएसेएमुं, हत्थसया आरतो व परतो वा । सोही काउस्सग्गो, पणुवीसं होति ऊसासा ॥९८८
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८६
उच्छ्वासस्य मानम्
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
गाथा
हत्थसतवाहिरातो, गमणागमणाइएस पणुवीसं । पाणिवहादिसुमिणए, सतमट्ठसतं चत्थमि ॥ २० ॥ गाहद्ध पढम कंठ, पाणवहे सुमिणदंसणे रातो । कतकारियादिए, विसोहि ऊसास सतमेगं ॥ ९८९ ॥ एवं मुसावादादिसु, उस्सग्गो जाव होति णिसिभत्तं । सतमुस्सासाण भवे, अट्ठसतं पुण चउत्थम्मि ॥ ९९० ॥ देसिय राय पक्खिय, चाउम्मासे तहेव वरिसे य । सतमद्धं तिण्णि सता, पंच सतऽट्ठत्तर सहस्सं ॥ २१ ॥
देसियमादिपदाणं, कमसो ऊसासमाणमेयं तु ।
ते पुण कह विष्णेया, उसासा ? तमिह वोच्छामि ॥९९९ ॥ लोयसुज्जोयगरा, चउरो एगं सतं मुणयन्त्रं । पंचासा दोहि भवे, तिणि सया होंति बारसहिं ॥ ९२२ ॥ पंच सया वीसाए, अट्ठसहस्सं च होति चत्ताए । देसियमा सग्गे, होई एयं तु परिमाणं ॥ ९९३ ॥ अहवा - पणुवीस अद्धतेरस, सिलोग पण्णत्तरिं च बोधव्त्रा । सतमेगं पणवीस, दो वावण्णा य वरिसेणं ॥ ९९४॥ उद्देस समुद्देसे, सत्तावीसं तहेवऽणुण्णाए । अट्ठेव य ऊसासा, पट्ठवण - पडिकमणमादी ||२२|| उद्देस्य अज्झयणे, सुतखंधे चैव होति अंगे य । उद्दिसणादिपयाणं, सत्तावीसं तु उस्सासा ॥ ९९५ ॥ पवणपडिकमणे, अट्ठस्सासा उ होति उस्सग्गो । आदिग्रहणं पुण, पट्टवयंते वि अणुओगं ॥९९६ ॥ कालपडिकमणे विय, अवसउणे चैव होति सव्वत्थ । उस्सासा अट्ठ भवे, काउस्सग्गो मुणेतच्चो ॥९९७॥
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८७
अष्ट
ज्ञानातिचाराः
२०-२३ ]
जीतकल्पसूत्रम् । उद्देसय अज्झयणे, सुतरखधंगेसु कमसो पमादिस्स। कालाइक्कमणादिसु, णाणायाराइयारेसु ॥२३॥ णाणायारो दुविहो, ओहेण विभागयो य णातव्यो । उद्देसय अज्झयणे, सुयखधंगे विभागो तु ॥९९८॥ उद्देसादिचउण्ह वि, अतियारो अट्टहा मुणेतव्यो । पत्तेयं पत्तेयं, कालादि इहं पवयणम्मि ॥९९९॥ काले विणए बहुमाणे उवहाणे तहा अणिण्हवणे । वंजण अत्थ तदुभए, अट्टविहो णाणमायारो ॥१०००॥ जो तु करेति अकाले, सज्झायं कुणइ वा असज्झाए । सज्झाए वा ण कुणति, कालतियारो भवे एस ॥१००१॥ जच्चादिमदुम्मत्तो, थद्धो विणयं ण कुव्वति गुरूणं । हीलयइ व जो तु गुरुं, विणयइयारो भवे एस ॥१००२॥ सुतणाणम्मि गुरुम्मि व, भत्ती बहुमाण जो तु ण करेति । भत्ती होयुवयारो, बहुमाणो गोरवसिणेहो ॥१००३॥ बहुमाणे अइयारो, एमेसो वण्णिओ समासेणं । उवहाणं होति तवो, आयंबिलमादिओ सो य ॥१००४॥ जो ते ण कुणति साहू, अहवा वि ण सद्दहेयमुवहाणं । सो उवहाणतियारो, णेण्हवणेत्तो पवक्खामि ॥१००५॥ णिण्हवणं अवलवणं, अमुगसगासे अहं णऽहिज्जामि । अण्ण जुगप्पहाणं, आयरियं सो उ उद्दिसति ॥१००६॥ णिण्हवणे अतियारो, एमेसो वण्णितो समासेणं ! वंजणमादिपदाणं, अतियारमतो पवक्खामि ॥१००७॥ भणितं वंजणमक्खर, तण्णिफणं सुतं मुणेतव्वं । पागतणिबद्धमेयं, सक्कयमादी करेजाहिं ॥१००८॥ धम्मो मंगलमुक्कटं, दया संवर णिज्जरा । तस्सेव य अत्थस्सा, अण्णाणि य वंजणाणि करे ॥१००९॥
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स्वोपज्ञभाध्ययुत
[ गाथा अहवा मत्ता बिंदू, अण्णभिहाणेण बाधितं अत्थं । वंजिज्जति जेण अत्थो, वंजणमिति भण्णते सुत्तं ॥१०१०॥ वंजणभेदेण इहं, अत्थविणासो हवेज्ज तु कयाई । अत्थविणासा चरणं, चरणविणासे अमोक्खो तु ॥१०११॥ मोक्खाभावातो पुण, पयत्तदिक्खा णिरत्थिया होति । जम्हा एते दोसा, तम्हा सुत्तं ण भिंदिज्जा ।।१०१२॥ वंजणभेदो भणिओ, अत्थे भेदं अतो पक्क्खामि । अत्थं तु वियप्पंती, तेहिं चिय वंजणेहऽण्णं ।।१०१३॥ आयारे सुत्तमिणं, आवंती पंचमम्मि अज्झयणे । आवंती केवंती, लोगसी विपरिमुसंति त्ति ॥१०१४॥ अट्ठाएँ अणहाए, एतेसु विप्परामुसंती तु । एयं सुत्तं आरिस, अस्थ विकप्पेतिमं अण्णं ॥१०१५॥ आवंती होति देसो, तत्थ तु अरहट्टकूवजा केया। सा पडिया हे? तू , तं लोगो विष्परामुसइ ॥१०१६॥ अत्थविसंवाएवं, तदुभयदारं इमं पवक्खामि । जत्थ तु सुत्तत्था खलु, दो वि विणसंति तं च इमं ॥१०१७॥ धम्मो मंगलमुकत्थो, अहिंसा पव्वतमत्थए । देवा वि तस्स णस्संति, जस्स धम्मे सया मती ॥१०१८॥ अहाकरेसु रंधंति, कढेसु रहकारी उ। रण्णो भत्तम्मि णो जत्थ, गद्दभो जत्थ दीसति ॥१०१९॥ एसो तदुभयभेदो, दोणि वि णासंति एत्थ सुत्तत्था । एवं तु ण कातवं, दोसा ते चेव पुवुत्ता ॥१०२०॥ णाणायारो एसो, अट्ठविगप्पो जिणेहिं पण्णत्तो । उद्देसगमादीणं, पच्छित्तुदितं इमं कमसो ॥१०२१॥ णिव्विगतिय पुरिमड़ेगमत्त आयंबिलं चऽणागाढे। पुरिमादी खमणतं, आगाढे एवमत्थे वि ॥२४॥
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२४-२६ ]
जीतकल्पसूत्रम् । उद्देसे णिविगति, पुरिमई सोहि होति अज्झयणे । मुतखं| एगमत्तं, अंगम्मि य होति आयामं ॥१०२२॥ एवं ताऽणागाहे, आगाढ जोगम्मि होति पुरिमादी । अंतम्मि होति खमणं, एमेव य होति अत्थे वि . १०२३।। सामण्णं पुण सुत्ते, मतमायामं चउत्थमत्थम्मि । अप्पत्तीपत्तावत्तवायणुद्देसणादीसु ॥२५॥ ओहो सामण्ण तू . सव्यम्मी चेव होति सुत्तम्मि । अविसे सिय सुत्तत्थे, आयाम चउत्थ कमसो तु ।।१०२४॥ अप्पत्तो दुविहो तू, सुतेण अत्थेण चेव बोद्धव्यो । पुव्विल्ल सुत्त अत्थे, बितिय अपत्तो मुणेतच्चो ।।१०२५॥
__ अप्पत्ते त्ति गतम् ।। तिन्तिणिआदि अपत्तो, अव्वत्तो वए सुए त णातव्यो । वायंतस्स तु एते, चउगुरुया उद्दिसादिसु य॥१०२६॥ पत्तमवाएंतस्स वि, उद्दिसणादीसु चेव य पदेसु । चउगुरुया बोद्धव्या, अववाए कारणा सुद्धो : १०२७॥ कालाऽविसज्जणादिसु,मंडलिवसुहापमज्जणादिसु या णिबीतियं अकरणे, अक्खणिसेज्जा अभत्तट्ठो ॥२६॥ कालाविसज्जणाती, ण पडिकं तु जमिह कालस्स । तिविहा य होति मण्डली, वमुहा भूमी मुणेनव्या ॥१०२८॥ भोयण मुत्ते अत्थे, तिविहेसा मंडली मुणेयवा । काल विसज्जणे मंडलिभूमीअपमज्जणे विगती ॥१०२९।। सुत्ते वा अत्थे वा, ण करि णिसेज्जं च अक्ख ण रएति । चस्सद्देणं बंदण, उस्सग्ग ण कुव्वति चउत्थं ॥१०३०॥
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स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा आगाढाऽणागाढम्मि सबभंगे य देसभंगे य । जोगे छट्ठ चउत्थं, चउत्थमायंबिलं कमसा ॥२७॥ जोगो तु होति दुविहो, आगाढो चेव तह अणागाढो। दुविहे वि होति भंगो, सव्वे देसे य णातव्वो ॥१०३१॥ सबभंगे छटुं, होति चउत्थं तु देसे आगाढे । णागाढे तु चउत्थं, सव्वे देसे य आयामं ॥१०३२॥ कह भंगो सव्वम्मी, कह वा देसम्मि एव चोएति । भण्णति फुडविगडाहिं, गाहाहिं इमं पवक्खामि ॥१०३३॥ विगति अणहा भुंजति, न कुणइ आयंबिलं ण सद्दहति । एसो उ सव्वभंगो, देसे भंगो इमो होति ॥१०३४॥ काउस्सग्गमकाउं, भुंजइ भोत्तूण वा कुणति पच्छा। संदिसह त्ति व भणती, एवं देसे भये भंगो ॥१०३५॥ णाणाचारो भणिओ, अट्टविहो एस तू समासेणं । अहुणा अट्टविहो चिय, आयारो देसणे होति ॥१०३६॥ णिस्संकित णिकंखित, णिवितिगिच्छा अमुढदिट्ठी य । उववूह थिरीकरणे, वच्छल्ल पभावणे अट्ठ ॥१०३७॥ दसणयारो अट्टहा, एमेसो होइ तू समासेणं । एतेसि विवक्खो ऊ, अइयारो होति सो य इमो ॥१०३८॥ संसयकरणं संका, कंखा अण्णोण्णदंसणग्गाहो । वितिगिच्छा अप्पणो ऊ, सोग्गति होज्जा ण वा वित्ति॥१०३९॥ अहवा वि दुगुंछा ऊ, विउ त्ति साहू हवंति णातव्वा । ते उ दुगुंछति णिचं, मंडलि मोए य जल्लादी ॥१०४०॥
गविहा इड्डीओ, पूर्व परतित्थियाण दहूण । सोतणं वा जस्स उ, मइमोहो होति मूढेसा ॥१०४१॥ उववूह होति दुविहा, पसत्थ अपसत्थिया य णातव्वा । साहूणं तु पसत्था, चरगादीणऽपसत्था तु ॥१०४२॥
अष्टधा दर्शनाचारः
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२७-२८ ]
जीतकल्पसूत्रम् । दसणणाणचरित्ते, तवसंजमविणयवेयवच्चादी। अब्भुज्जयस्स उच्छाहवद्धणं होति तु पसत्था ॥१०४३॥ अपसत्था उववूहा, अण्णाणे अविरतीय मिच्छत्ते । चरगादी पट्टते, उबवूहति दुविह एस गता ॥१०४४॥ थिरकरणा वि य दुविहा, पसत्थ इयरा य होति णातव्या । साहूण पसत्था तू, णाणादीएहि सीयंति ॥१०४५।। बहुदोसे माणुस्से, मा सीद थिरीकरेति एवं तु । एस पसत्था भणिया, अपसत्थेत्तो पवक्खामि ॥१०४६॥ मिच्छादिट्ठीए तू, चरगादी थिरिकरेंत अपसत्था । पासत्थादी अहवा, थिरीकरेन्तम्मि अपसत्था ॥१०४७॥ वच्छल्ला वि य दुविहा, पसत्थ इयरा य होति णातव्या । आयरियादि पसत्था, पासत्थादीण इयरा तु ॥१०४८॥ आयरिय गिलाणे या, पाहुणए असहु-बाल-वुड़ादी। आहारोवहिमादीण, समाहिकरणं पसत्थं तु ॥१०४९॥ पासत्थोसण्णाणं, कुसील-संसत्त-णीयवासीणं । अहव गिहत्थादीणं, एमादी अप्पसत्था तु ॥१०५०।। दुविहा पहावणा वि य, पसत्थ इयरा य होति णायचा । तित्थगरादि पसत्था, मिच्छत्तऽण्णाणे अपसत्था ॥१०५१॥ तित्थयर पवयणे वा, णाणादीणं च तिणि वी लोए । मग्गं णेबाणस्स उ, पभावयते पसत्थेसा ॥१०५२॥ मिच्छत्तऽण्णाणादी, पभावयतेस होति अपसत्था । एसो देसणयारो, पच्छित्तं तेसि वोच्छामि ॥१०५३॥ संकादिएसु देसे, खमणं मिच्छोववृहणादिसु य। पुरिमादी खमणतं, भिक्खुप्पभितीण य चतुण्हं॥२८॥
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स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[गाथा संकादी अट्ठ पदा, देसे सव्वे य होंति णायव्वा । संकादीण चउण्हं, देसे खमणं तु णायचं ॥१०५४॥ उवहादिचउण्ह वि, अपसत्थे देसे होयभत्तहूँ । सम्मि होति मूलं. एवं संकाइएK पि ॥१०५५।। एवं ता ओहेणं, अविसेसो होति एस पच्छित्ते । पुरिसविभागेणऽहुणा, देसे सोही इमा होति ॥१०५६॥ संकादो अहम वी, देसे भिक्खुस्स होति पुरिमडं । वसभे एक्कासणय, आयाम होति उवज्झाए ॥१०५७।। आयरिय अभत्तहो, एस विभागेण होइ सोही तु । अहुणा उवचूहादीण, अकरणे सोही इमा जयिणो ॥१०५८॥ एवं चिय पत्तेयं, उववहादीण अकरणे जतीणं । आयानंतं णिव्वीतिआदि पासत्थससु ॥२९॥ एवं चिय पुरिम अणंतरुद्दिपुरिसभेएणं ।। पिह पिह जति ण करेती, उववूह पसत्थ साहूणं ॥१०५९॥ एव थिरीकरणं तू, वच्छल्ल पभावणा पसत्थेसु । पवयण-जइमादीणं, अकरिते तत्थिमा सोही ॥१०६०॥ भिक्खुस्स तु पुरिमई, वसभा भत्तेक होति सोही तु । अभिसेगे आयाम, आयरिए होयऽभत्तह ॥१०६१॥ गाहापच्छद्धस्साऽणन्तरगाहाऍ होति संबंधो । एयस्स वियत्तपए, संबंधो तं चिमं वोच्छं ॥१०६२॥ परिवारादिणिमित्तं, ममत्तपरिपालणादि वच्छल्ले । साहम्मिउ ति संजमहेउं वा सव्वहिं सुद्धो ॥३०॥ पासत्थोसण्णाणं कुसील-संसत्त णीयवासीणं । जो कुणति ममत्तादी परिवारणिमित्तहेतुं च ॥१०६३॥
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२९-३२ ]
जीतकल्पसूत्रम् |
तस्स इमं पच्छित्तं निव्वीयादी तु अंते आयामं । भिक्खूमादीयाणं, चउन्ह वी होति जहकमसो ॥ १०६४ || आदिगणेणं पुण, सहा सण्णायगा व सेज्जनरा | दाताऽऽहारादी, तेण ममत्तादि कुज्जा तु ॥ १०६५।। अह पुण साहम्मि ती, संजमहेउं च उज्जमिस्सति वा । कुलगण संघगिलाणे, तपिस्सति एत्रबुद्धी तु || १०६६ । एव ममत्त करेंते, परिवालण अहव तस्स वच्छलं । दढआलंबणचित्तो, सुज्झति सव्वत्थ साहू तु १०६७॥ एसो अट्ठविप्पो, अतियारो दंसणे समक्खातो । चारित्ते अतियारं, इणमो उ समासतो वोच्छं १०६८ ॥ एगिंदियाण घट्टणमगाढ गाढपरितावणोद्दवणे | णिव्वीयं पुरिमडुं, आसण मायामगं कमसो ||३१|| एगिदिय पुढवादी, जा पत्तेया वणस्सती होति । एते सिं पंचह वि, पिह पिह संघट्टणे विगती ॥ १०६९॥ परियावियणागाढे, पुरिमहूं गाढे होति भत्तेक्कं । उद्दवणे आयामं, एत्तो अनंताईणं वोच्छं ॥ १०७० ॥ ३१ ॥ पुरिमादी खमणंतं, अनंतविगलिंदियाण पत्तेयं । पंचिदियम्मि एक्कासणादि कल्लाणगमहे गं ||३२|| साहारणवणकाए, बिय तिय चउरिदिए य विगलम्मि | एतेसि च पी, पिह पिह संघट्टणे पुरिमं ॥ १०७१ ॥ परिभवित अणागाढे, भत्तेक्कं गाढे होति आयामं । उद्दवणेsभत्तङ्कं पंचिदिविसोहिमं वोच्छ । २०७२ || पंचेदियसंघट्टे, एका सणयं तु होति गातव्यं । अणगाढे आयामं, परिताविऍ गाढे भत्तई ॥ १०७३॥
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स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा
उद्दवणे कल्लाणं, एवं चिय होति तत्थ णायव्वं । पढमवर सोहेसा, पमायसहियस्स णायव्वा ॥ १०७४ ||३२||
मोसाद मेहुणवज्जिसु दव्वादिवत्थुभिण्णेसु । ही मज्झुकोसे, आसणआयामखमणाई ॥ ३३ ॥ मोसाऽदत्तादाणं, परिग्गहो चैव होति णातव्वो । एते मोसादिवया, मेहुणवज्जा मुणेतव्वा ॥ १०७५ ॥ तत्थ मुसं चउभेदं, दव्वे खेत्ते य काल भावे य । तत्थ तिहा दव्वसुसं, जहण्ण मज्झे तहुको सं ॥ १०७६॥ एवं खेत्तमुपी, कालमुसा तह य होति भावसुसं । eti aati, सभेदभिणं मुणेतव्वं ॥ १०७७॥ एवमदत्तपरिग्गह, दव्वादी चउह होन्ति णायव्वा । tter मज्युकोसा, तिविहं पत्तेय पत्तेयं ॥ १०७८ ॥ मोसम्म चन्भेदे, दव्वादी हीण मज्झ उक्कोसे । दव्वादीण कमसो, इमं तु सोहिं पवक्खामि ॥। १०७९ ॥
सेतु जहणे, भत्तेक्कं मज्झे होति आयामं । उकोसेसु चउत्थं, एवं खेत्तादिसुं पि || १०८०॥ एवमदत्तपरिग्गह, दव्वादीसुं तु एस चैव गमो । हीणे मज्युकोसे, आसण- आयाम-खमणाईं ॥१०८१ ॥ एक मुसावायादिसु सोही भणिया समासतो एसा । एत्तो तु राइभत्ते, सोहिं वोच्छं समासेणं ॥। १०८२॥३३॥ लेवाडयपरिवासे, अभत्तट्ठो सुक्कसण्णिहीए य । इतराय छट्टभत्तं, अट्टमगं सेस णिसिभत्ते ॥ ३४॥ लेवाडय कंठोत्तं, सुंठिबहेडादि अगयमादी वा । परिवासेले एसि, सोही साहुस्स भत्तट्ठ || १०८३॥
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३५ ]
जीतकल्पसूत्रम्
इतरा य गिल्लसणिहि, गुलघततेल्लादिया मुणेतव्वा । परिवासते तेसि, सोही छटुं तु साहुस्स || १०८४||
सिभ सेस तिवि, दियगहियं राओभुत्त पढमं तु । Tere दिवत्तं, गहर्भुजणमुभययो रातो ॥१०८५ || तिविवं णिभित्तं, सोही एत्थं तु अट्टमं होति । तिविहम्मि विपत्तेयं, एय समत्तं तु णिसिभत्तं ।। १०८६ ।। ३४ ।। उदसियचरिमतिए, कम्मे पासंडस घरमी से य । बादरपाहुडियाए, सपच्चवायाहडे लोभे ||३५||
अच्छउ ता गाहत्थो, एतेसिं उग्गमादिअट्ठण्हं । लक्खण आवत्ती दाणमेव वोच्छं सवित्थरतो ॥ ९०८७॥ सोलस उगमदोसा, सोलस उप्पायणाऍ दोसा उ । दस एसणाऍ दोसा, संजोयणमादि पंचेव || १०८८ ॥ सो उग्गमो चतुद्धा, णामादी तत्थ दव्विमो होति । जोतिसतणोसहीणं, मेहरिणकरेवमादीणं ॥ १०८९ ॥ अहवा व लड्डुगादी, भावे तिविग्गमो मुणेतच्वो । दंसण णाण चरिते, चरित्तग्गमेण एत्थं अहीगारो ॥ १०९०॥ कि कारणं चरिते, अहिगारो एत्थ होति भणितो तु ? | चोदग ! सुण चारिते, जे तु गुणा ते तु होन्ति इमे ॥ १०९१ ॥ दंसणणाणपभव, चरणं मुद्धे तु तम्मि तरसुद्धी । चरणेण कम्मसुद्धी, उगमसुद्धी चरणसुद्धी ॥ १०९२ ॥ पिंडोवहिसेज्जासू, जेण असुद्धासु चरण ण विमुज्झे । पिंडोव हिसेज्जासु सुद्धा चरणसुद्धी उ || १०९३॥ तो चरणसुद्धिहेतुं, पिंडस्स उ उग्गमेण अहिगारो । तस्स पुण उग्गमस्सा, सोलस दारा इमे होन्ति ॥ १०९४ ॥ आहाकम्मुद्देसिय, पूतीकम्मे य मीसजाये य । टवणा पाहुडियाए, पायोयर कीत पामिचे ॥ १०९५ ॥
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षोडश उद्गमदोषाः
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आधाकर्म
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[गाथा परियट्टिए अभिहडे उब्भिण्णे मालोहडे इय।। अच्छेज्जे अणिसहे, अज्झोयरए य सोलसमे ॥१०९६॥ एते सोलस दारा, उद्दिमियाणि विवरणं वोच्छ । एतेसि पढम आहा, तस्स इमे होति णव दारा ।।१०९७|| आहाकम्मियणामा, एगट्ठा कस्स वा वि किं वा वि । परपक्खें य सपक्खे, चउरो गहणे त आणादी ॥१०९८॥ तत्थ इमे णामा खलु, आहाकम्मस्स होन्ति चत्तारि । आह-अहेकम्मे या, अहयम्मे अत्तकम्मे य ॥१०९९॥ ओरालसरीराणं, उद्दवणऽइवायणं तु जस्सट्टा । मणमाहित्ता कुव्वति, आहाकम्मं तयं बेन्ति ॥११००॥ ओरालग्गहणेणं, तिरिक्खमणुयाऽहवा मुहुमवजा। उद्दवणं उत्तासण, अतिवातविवज्जिया पीला ॥११०१॥ काय-वइ-मणा तिणि उ, अहवा देहायु-इंदिय-प्पाणा। सामिन अवायाणे, होइऽतिवाओ उ करणम्मि ॥११०२॥ हिययम्मि समाहेउँ, एगमणेगे व गाहगे जो तु। वहणं करेति दाता, कायाण तमाहकम्मं तु ॥११०३॥ जस्सहा तं तु कतं, तं जो भुंजति सतं तु कायवहं । अणुमण्णइ आहेइ य, स कम्मबन्धं तमायाए ॥११०४।। अवि य हु विवाहमङ्गे, भणितं भुजतो आहकम्मं तु । पसिढिलबन्धादीया, पगडीओ करेति धणियादी। ११०५॥
आहेति गतम् ॥ संजमठाणाणं कंडगाण लेस्साठितीविसेसाणं । भावं अहे करेती, तम्हा तु भवे अहेकम्मं ॥११०६॥ सं एगीभावम्मि, जम उवरम एगीभावउवरमणं । सम्म जमो वा संजमो, मण-चइ-कायाण जमणं तु ॥११०७॥
संयमश्रेणिः
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२७
जीतकल्पसूत्रम् । चिहइ संजमो जहिय, त होइ हु संजमस्स ठाणं तु । तं पुण चरित्तपज्जव, होन्ति अणंतेकठाणं तु ॥११०८॥ संजमठाणमसंखा, उ कंडगं कंडगा असंखा उ। हवति उ लेसाठाणं, ते तु असंखेज जवमझं ॥११०९।। तत्तो परिहायंता, लेसा कंडा य संजमट्ठाणा । एरिसयाणमसंखा, लोगा उ हवंति ठाणाणं ॥१११०॥ एसा संजमसेढी, तत्थ विसुद्धीसु ठाणमादीसु । वटुतुक्कोसाऊसुरठितिजोगेसु होतूणं ॥११११॥ तं भुंजमहेकम्म, हेढिल्लेऽहिडवेति अप्पाणं । मुत्ते उदियमहे तू , करपकरचिणोवचिणमादी (?)॥१११२॥ बंधति अहेभवाउं, पकरेति अहोमुहाइँ कम्माई । घणकरणं तिव्वेण उ, भावेण चयो उवचयो तु ॥१११३ । तेसिं गुरूण उदएण अप्पयं दुग्गतीऍ पवडतं । ण चएति विहारेउं, अहकम्म भण्णए तम्हा ॥१११४॥
अहेकम्मे त्ति गतम् ॥ अट्ठाऍ अणट्टाए, छक्कायपमहणं तु जो कुणति । अणियाए य णियाए, बेन्ति तु दव्याऽऽयहम्म ती॥१११५॥ जाणंतमजाणतो, वहेति णिदिसिय ओहओ वा वि । जाणगमजाणए या, भणिता णिय अणिय होतेसा ॥१११६॥ दव्वायहम्ममेयं, भावाया तिण्णि णाणमाईणि । परपाणपाडणरयो, भावायं अप्पणो हणति ॥१११७॥ णिच्छयणयस्स चरणा-ऽऽयविधाये णाण-दसणवहो वि। ववहारस्स उ चरणे, हयम्मि भयणा उ सेसाणं ॥१११८॥ आयाहम्मग एयं, एत्तो वोच्छामि अत्तकम्मं तु! जो परकम्म अत्तीकरेति तं अत्तकम्मं तु ॥१११९॥
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स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा
आहाकम्मपरिणयो, फासूयमवि संकिलिट्ठपरिणामो । आतियमाणो बज्झति तं जाणसु अत्तकम्मं तु ॥ ११२० ॥ परकम्ममत्तकम्मीकरेति तं जो उ गिण्डिजं मुंजे । चोति परक्किरिया, कहण्णु अण्णत्थ संकमति ? ॥ ११२१ ॥ भण्णइ परप्पउत्तं, जह विसमइयं तु मारगं होति । तह परकडे व बंधो, परिणामवसेण जीयस्स ॥ ११२२॥ बेती परकडभोयिण, तो तुम्भ वि एवं होति बंधो उ । जह अण्णत्थ पत्ते, कूडे जो पडति सो बज्झे ॥ ११२३ ॥ गुरुराह जो पमत्तो, जो य अदक्खो स बज्झए तत्थ । अपमत्तो ण वि बज्झति, तहेव दक्खे य जो होति ॥११२४॥ इय जो यु अप्पमत्तो, मणवायाकायजोगकरणे हि । सोतु बज्झति नियमा, बज्झति इयरो परकडे वि ॥ ११२५ ॥ कामं सयं न कुव्वति, जाणतो पुण तहावि सरगाही । बट्टेति तप्पसंगं, अगिण्हमाणो उ वारेति ॥११२६॥ तम् उपरकमि वि, अत्तीकरणं तु होयsसुद्धेहिं । मणमादीहि कहें पुण, अत्तिकरे ? भण्णति इमेहिं ॥ ११२७॥ पडिसेवण पडिमुणणा, संवासऽणुमोयणा चउन्हें पि । एएहि पगारेहिं, अतिकरे तत्थिमे णाया ॥ ११२८॥ पडि सेवणाऍ तेणा, पडिमुणणाए य रायपुत्तो तु । संवासम्मिय पल्ली, अणुमोयणे रायदुट्ठो उ ।। ११२९ ।। आहाकम्मियणामा, एते चउरो समासतो भणिया । एमट्ठिताणि अहुणा, वोच्छामि समासतो चैव ॥। ११३०॥ एग एगवंजण, एगहूं णाणवंजणं चेव । जाट एगवंजण, णाणट्टा णाणवंजणया ॥ ११३१ ॥ जह खीरं खीरं चिय, एगहूं एगवंजणं दिट्ठ | एग णाणवंजण, दुद्ध पयो वालु खीरं च ॥ ११३२ ॥
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जीतकल्पसूत्रम् । णाणहमेगवंजण, गोमहिसअजाइयाण खीरं ति । णाण णाणवंजण, घडपडकडसगडरहमादी ॥११३३॥ एवमिहमाहकम्म, आहाकम्मं ति पढमओ भंगो । आहा अहेकम्मादी, बितिओ सकिन्द इव भंगो ॥११३४॥ ततितो भंगो तू आतकम्ममहकम्म पणगमादी य । आहाकम्म पडुच्चा, णियमा सुण्णो चउत्थो उ ॥११३५॥ इंदत्थं जह सद्दा, पुरंदरादी तु णातिवत्तंति । अह-आह-अत्तकम्मा, तहा अहे णातिवत्तंति ॥११३६॥ आहाकम्मेण अहे, करेंति जं हणति पाणभूयाई । जं तं आतियमाणो, परकम्मं अत्तणो कुणइ ॥११३७।। एगट्टितदारमिणं, अहुणा कस्स कडमाहकम्म भवे ? । भण्णति साहम्मिकडं, सो बारसहा इमो होति ॥११३८॥ णामं ठवणा दविए, खेत्ते काले य पवयणे लिंगे। दसण णाण चरित्ते, अभिग्गहे भावणाहिं च ॥११३९॥ णामेणं साहम्मी, जाव उ कालेण सव्व बोधव्या । पवयण लिंगेणं वा, साहम्मिय एत्थ चउभंगो ॥११४०॥ पवयणमणुम्मुयंते, दंसणमादी उ भावणा जाव । सव्वत्थ तु चउभंगा, जोएयव्वा जहाकमसो ॥११४१॥ एवं लिंगणं पी, तह दसणमादिएहि चउभंगा। भइएमु उवरिमेस, हेछिल्लपयं तु छड्डेजा ॥११४२।। एवं वुद्धीए तू, सव्वे वि जहकमेण जोएज्जा । चउभंग जाव चरिमो, अभिग्गहे भावणाहिं च ॥११४।। पत्तेयबुद्धि णिण्हय, उवासए केवली य आसज्ज । खइयाइए य भावे, पडुच्च भंगे तु जोएज्जा ॥११४४॥ जत्थ तु ततिओ भंगो, ण तत्थ कप्पति तु सेसए भयणा। तित्थगरिणिण्हओवासगादि कप्पे ण सेसाणं ॥११४५॥
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स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[गाथा कस्स त्ति जहुद्दिई, एरिस साहम्मियाण ण वि कप्पे । किं ती आहाकम्मं, असणाईयं इमं तं च ॥११४६॥ सालीमाई अगडे, फले य सुंठी य साइमं होति । तस्स कडणिट्ठियम्मि, सुद्धासुद्धे य चत्तारि ॥११४७॥ भंगा। कोहवरालगगामे, वसही रमणिज्ज भिक्ख सज्झाए । खेत्तपडिलेह संजय, सावयपुच्छुज्जुए कहणा ॥११४८॥ जुज्जति गणस्स खेत्त, णवर गुरूणं ति णत्थि पायोग्गं । सालि त्ति कए रुप्पण, परिभायण णियगगेहेसु ॥११४९॥ वोलेंता ते व अण्णे वा, जाव तु किमियं ? ति कहिय सब्भावे । वज्जेन्ति एव गाए, अहवा अण्णं वयंती तु ॥११५०॥ एसऽसणे कम्मं तू , हवेज कह पाणगे हवेजाहि ? । तह वि य साहु ण ठन्ती, सावगपुच्छा दगं लोणं ॥११५१॥ अह ताव सावयो तू , खणेज महुरोदगं तहिं अगडं । अच्छति य ढकिएणं, जावाऽऽगय साहुणो तत्थ ॥११५२॥ एत्थ वि तहेव जाणण, वज्जण तह चेव होति णातव्वा । एवं खाइम सातिम, णेयव्य जहक्कमेणं तु ११५३।। ककडिग अंबगा वा, दाडिम दक्खा व बीयपूरा वा । एमाइ खाइमं तू, साइम तह तिगडआदीयं ॥११५४॥ किं आहायम्मं ती, एतं तं वणियं समासेणं । परपक्ख सपक्खे त्ती, अहुणा दारं अणुप्पत्तं ॥११५५॥ परपक्खो तु गिहत्थो, समणा समणी य होइ तु सपक्खो । एत्थ कडनिट्ठिएहिं, चउभंगो होइ तं वोच्छं ॥११५६॥ तस्स कड तस्स निट्ठिय, तस्स कडऽण्णस्स निट्टियं चेव । अण्णकड तस्स निट्ठिय, अण्ण कडं निहियऽण्णस्स ॥११५७॥ वाविता लूया मलिया, कंडित एगच्छड कडा जे तु । तिच्छड निहिय होन्ती, ते रद्धा दुगुणमहकम्मं ॥११५८॥
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३५ ]
जीतकल्पसूत्रम् । कडनिट्ठियाण लक्खणमिणमो तु समासतो मुणेतव्वं । फासुकडं रद्धं वा, णिट्ठियमितरं कडं होति ॥११५९॥ समणट्ट वावियादी, जा दुछडा एय होति तस्स कडं । तस्स? तिछडरद्धं, णिहितमेसो पढमभंगो ॥११६०॥ समण जाव दुछडा, वरि य तुरियऽण कारणुप्पण्ण । तेसऽ तिछडरद्धा, बितिभंगो एस णातव्यो ॥११६१।। जा दुछडा अत्तट्ठा, णवरि य साहू तु पाहुणा आया । तेसऽट्ट कया तिछडा, ततिभंगो एस णातव्यो ॥११६२॥ आयट्ठा जा दुछडा, आयट्ठा चेव तिछडरद्धा य । एस चउत्थो भंगो, कतरे कप्पे ण कप्पइ वा ? ॥११६३॥ पढमततिए ण कप्पे, बितियचउत्था उ दोणि वी कप्पे । एमेव पाणगे वी, खातिम तह साइमे चैव ॥११६४॥ साहुणिमित्ता रद्धं, जाव ण फासुं कडं तु ताव कडं । फासुकड णिट्ठियं तू, चाउलधुवणादि पाणम्मि ॥११६५॥ फलमादि छिण्णछोडिय, फासुकडं णिहित मुणेतव्वं । एमेव साइमे वी, अल्लगमादी मुणेतव्वा ।।११६६॥ सव्वस्थ तु चतुभंगो, जोएअव्वो जहक्कम होति । एत्थं तू परिहरणा, विहि अविही सव्व बोद्धव्वा ॥११६७॥ छायं पि विवज्जेन्ती, केयी फलहेतुगादिवुत्तस्स । तं तु ण जुज्जति जम्हा, फलं पि कप्पं बितियभंगे ।। ११६८॥ परपञ्चइया छाया, ण वि सा रुक्खो व्य वड़िता कत्ता । णच्छाए य दुमे, कप्पइ एवं भणंतस्स ॥११६९॥ वडति हायति छाया, तच्छिक पूइयं पिव ण कप्पे । ण य आहाय सुविहिए, णिव्यत्तयती रवीछाया ॥११७०॥ अघणघणचारिगगणे, छाया णट्ठा दिया पुणो होति । कप्पति णिरायवे णाम, आयवे तं विवज्जंतु ॥११७१॥
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स्वापज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा तम्हा ण एस दोसो, तु संभवे कम्मलक्खणविहूणो। तं पि य हु अतिघिणिल्ला, वज्जेमाणा अदोसिल्ला ॥११७२॥ परपक्ख सपक्खे त्ती, एमेयं वणियं समासेणं । चउरो त्ति दारमहुणा, वोच्छामि समासतो चेव ॥११७३॥ चउरो अतिक्कमे वतिकमे य अतियार तह अणायारा । आहाकम्मे एते, चउरो वि जहक्कम जोए ॥११७४।। तस्स पुण संभवो ऊ, आहाफम्मस्स कह उ होज्जाहि ? । णिदरिसणं जह भरए, सट्टा दटूण मरुपूर्व ॥११७५।। महसडादीएमुं, तेसु वि सद्धा ततो समुप्पण्णा । अम्हे वि य साहूणं, करेमि भत्तं तु सविसेसं ॥११७६॥ सालीघयगुलगोरस, नवेसु वल्लीफलेसु जाएम् । दाणा अभिगमसडी, आहाकम्मे निमंतणया ॥११७७॥ आमंतियपडिमुणणा, सव्वासु सुभो अतिक्कमो होति । पदभेयाइ वतिक्कमो, गहिए होई अईयारो ॥११७८॥ मुहळूहे अणायारो, केयी गिलियम्मि बेन्ति अणायारं । किं कारण ? छुढे वी, पुणरावत्ती कयाइ भवे ॥११७९॥ तो खेलमल्लयम्मी, णिग्गलइ ण एव पत्तोऽणायारं । गलियम्मि अणायारो, तस्स णियत्ती तओ णस्थि ॥११८०॥ सेसेहि णियत्तेज्जा, एग दुग तिगे व एत्थ दिट्ठतो । जह तिहि आगास ठितो, पदेहि विणियत्तिओ हत्थी॥११८१॥ चउरो गहणे एवं, अतिकमादी तु वणिया एते । आणादी चउरो वि य, दारं एत्तो पवक्खामि ॥११८२॥ आणं सव्वजिणाणं, गेण्हतो तं अतिक्कमति लुद्धो। आणं च अतिक्कमंतो, कस्साऽऽएसा कुणति सेस ? ॥११८३॥
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३५ ]
जीतकल्पसूत्रम् ।
एगेण कयमकज्जं, करेति तप्पच्चया पुणो अण्णो । सायाबहुलपरंपर, वोच्छेओ संजमतवाणं ॥ ११८४॥ जो जहवायं ण कुणति, मिच्छादिट्ठी तओ हु को अण्णो ? | बट्टेति यमिच्छत्तं परस्स संकं जणेमाणो ॥ ११८५ ॥
दुविहा विराहणा खल, संजमतो चैव तह य आयाए । आकम्मरगणे, तत्थ इमा संजमे होति ॥११८६॥
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वट्टेति तप्प संगं, गेही य परस्स अप्पणो चैव ।
सजियं पि भिण्णदाढोण मुयति णिर्द्धधसो पच्छा ।। ११८७ ।। खद्धे गिद्धे य रुया, सुत्ते हाणी तिगिच्छणे काया । पडियरगाण यहाणी, कुणति किलेसं च किस्संतो ॥११८८ ॥ पारण पकिच्चेण य, आहाकम्मं तु भारियं होति । एसा आतविराहणया, तम्हा तू तं ण भोत्तव्वं ॥ ११८९ ॥ पडिदारगाहा सम्मत्ता ॥ अब्भोज्जे गमणादी, पुच्छा दव्व काल देस भावे य । एव जयंते छलणा, दिट्ठता तत्थिमे दोणि ॥ ११९० ।। जह वतादि अभोज्जं, जाव य चंदो य सूरउदयं च । उज्जाणा दोणि भवे, सवित्थरं सव्व बोद्धव्वं ॥ ११९१ ॥ जह ते दंसणकखी, अपूरितिच्छा विणासिया रण्णा । दिट्ठे वितरे मुक्का, एमेव इहं समोआरो ॥ ११९२॥ आहाकम्मं भुंजति, ण पडिक्कमए य तस्स ठाणस्स । एमेव अडति बोडो, लुकणिलुको जह कवोडो ॥ ११९३ ॥ आहाकम्मद्दारं, एवमिणं मे समासतो कहितं । आवत्ती दाणं वा, विसोहिमेते सिमें वोच्छं ॥११९४ ॥ आहाकम्मे चतुगुरु, आवत्ती दाण होय भत्तङ्कं । उद्देसि पि दुविहं, ओहे य विभागओ चेव ॥ ११९५॥
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१०३
औद्देशिकम्
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स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[गाथा ओहे मासलहुं तू , आवत्ती दाण होति पुरिमई । होन्ति विभागुद्देसे, मूलवत्थू इमे तिण्णि ।११९६॥ उद्देसकडे कम्मे, एक्केक चउन्विहो भवे भेदो । कह होति चउब्भेदो ?, इमाहि गाहाहि वोच्छामि ।।११९७॥ उद्देसियं समुद्देसियं च आदेसियं समाएसं । एमेव कडे चउरो, कम्मम्मि वि होंति चत्तारि ॥११९८॥ जावंतिगमुद्देसो, पासंडीणं भवे समुद्देसो। समणाणं आएसो, णिग्गंथाणं समाएसो ॥११९९॥ उद्देसियम्मि लहुओ, पत्तयं होति चतुसु ठाणेसु । एमेव कडे गुरुओ, कम्मादिम लहुग तिसु गुरुगा॥१२००!! थी (?) लहुमासा गुरुगा, चउगुरुगा तिणि तू मुणेतव्वा । तबकालेहि विसिट्ठा, दाणं तु अतो पवक्खामि ॥१२०१॥ लहुमासे पुरिमडूं, गुरुमासे होति एगभत्तं तु । चउलहुए आयाम, चउगुरुए होयऽभत्त ॥१२०२॥
उद्देसिए त्ति गयं । पूतीकम्मं दुविह, दव्वे भावे य होइ णायव्वं । दव्वम्मि छगणधम्मी, भावे दुविहं इमं होति ॥१२०३॥ मुहुमं व बादरं वा, दुविहेयं होति हू मुणेतव्वं । बादर पुणरवि दुविहं, उवगरणे भत्त-पाणे य ॥१२०४॥ इंधण गंधे धूमे, सुहुमेयं एत्थ णत्थि पूइत्तं । चुल्लुक्खलियादीणं, उवगरणे पूतियं होति ॥१२०५॥ एवं मासलहुं तू , आवत्ती दाण होति पुरिमडूं। डोए लोणे हिंगू, संकामण भत्तपूतीयं ॥१२०६॥ एत्थं मासगुरुं तू , आवत्ती दाणमेगभत्तं तु । उवगरण भत्तपाणे, पूतिस्स उ लक्षणं वोच्छं ॥१२०७॥
पूतिकर्म
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३५ ]
जीतकल्पसूत्रम् । सिझंतस्मुवगारं, सिद्धस्स करेति वा वि जं दव्वं । तं उवगरणं भण्णति, चुल्लुक्खलिदविडोयादी ॥१२०८॥ संघट्टकया चुल्ली, उक्खलि डोए तहेय दव्वी य । सो होति आहकम्मी, पूतीकम्म इमं होति ॥१२०९।। संघियचिक्खल्लेणं, सयचुल्लीखंडियाइ संठवणं । एमेव उक्खलीय वि, फड्डगमादी तु जं लोए ॥१२१०॥ एवं सतडोतीए, दवीए वा वि संघदारूणं। अग्गिलियं जदि लाए, गंडफलं वा वि एगतरं ॥१२११॥ उवगरणपूति भणितं, एत्तो वोच्छामि भत्तपूर्ति तु । डाए लोणे हिंगू, संकामण फोडणं धूमे ॥१२१२॥ अत्तटिय आयाणे, डागं लोणं व कम्म हिंगुं वा। तं भत्तपाणपूर्ति, फोडणमण्णं व जं छुभइ ॥१२१३॥ संकामे कम्म, तेणेव य भायणेण संकामे । जं सुटं तं पूर्ति, अहवा रद्धं तहिं होज्जा ॥१२१४॥ अंगारभूइ थाली, वेसण हेहामुहीए जं धूमे । संघट्टकडे तम्मि उ, अत्तट्ट करेन्ते पूतीयं ॥१२१५।।
पूति त्ति गयं ॥ मीसज्जायं तिविहं, जावंतिगमीस बितिय पासंडे ।
मिश्रजातम् साहूमीसं ततियं, पच्छित्तं तेसि वोच्छामि ॥१२१६॥ पढमे चउलहुया तू , बिति ततिते चउगुरू मुणेतव्या । तवकालेहि विसिट्टा, चउगुरुगा होन्ति णायव्वा ॥१२१७॥ चउलहुए आयाम, चउगुरुए होति तु च उत्थं तु । मीसज्जातं भणितं, ठवणाभत्तं अतो वोच्छं ॥१२१८।। उवणाभत्तं दुविहं, इत्तरठवियं तहेव चिरठवियं । इत्तरठविए पणगं, चिरठविए होति मासलहुं ॥१२१९॥
स्थापना
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१०६
प्राकृतिका
स्वोपज्ञभाध्ययुतं
[गाथा पणगे णिविगई तू , लहुमासे दाण होति पुरिमई। इत्तर चिरठविए या, समासतो लक्खणं वोच्छ ॥१२२०॥ संघाडग हिंडते, परिवाडिठिएसु तु गेहेसु । एक्को दोसुक्योग, करेति भिक्खाएँ गेहेमु ॥१२२१॥ बितिओ साणादीणं, देयुवओगं परे तहेक्कम्मि । तेण परेण चउत्थे, उक्खित्ता इत्तरहविया ॥१२२२॥ चतुथघरा तु परेणं, चिरठविया जाव पुवकोडी उ । एयं ठवियाऽभिहितं, एत्तो वोच्छामि पाहुडियं ॥१२२३॥ सा पाहुडिया दुविहा, मुहुमा तह बादरा य बोद्धव्वा । औसक्कण उस्सक्के, एक्केका सा भवे दुविहा ॥१२२४॥ मुहुमाए लहुपणगं, आवत्ती दाण होति णिविगतिं । चउगुरुग बायराए, आवत्ती दाणऽभत्तहँ ।।१२२५॥ एत्थं सुहुमा तु इमा, जह काइ अगारि कन्तमाणी उ। भणिया तु चेडरूवेण देहि अम्मो ! मह भत्तं ॥१२२६॥ भणितोहितो त्ति होही, जाया ! कन्तामि ता इमं पेलं । जइ तं सुणेति साहू, ण गच्छए तत्थ आरंभो ॥१२२७॥ अस्सुट्ठिया भणंती, तुज्झ मि देमि त्ति किंति परिहरति । किह दाणि ण उहिस्से ?, साहुपभावेण लब्भामो ॥१२२८॥ एवं णाऊण ततो, परिहरती एस होति ओसका। उस्सकण कन्तंती, भणिता चेडेण दे भत्तं ॥१२२९।। कन्तामि भणति पेलं, तो ते दाहामि पुत्त ! मा रोव । सा य समत्ता पेलू, देही एत्ताहे सो भणति ॥१२३०॥ मा ताव झंख पुत्तय !, परिवाडीए इहेहिही साहू । एयट्टमुहिता ते, दाहं सोउ विवज्जेति ॥१२३२॥ अंगुलिए चालेउं, कट्टति कप्पट्टतो घरं जत्तो। किन्ति ? कहिए ण वचति,पाहुडिया एअ सुहुमा उ ॥१२३२॥
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३५ ]
जीतकल्पसूत्रम् । बायरपाहुडिया वि य, ओसक्कऽहिसक्कणे य दुविहा उ । कप्पट्ठगसंघाडय, ओसरणेणं च णिद्देसो ॥१२३३॥ जह पुत्तविवाहदिणो, ओसरणातिच्छिए सुणिय सड्रो। ओसक्के ओसरणं, संखडिपाहेणदव्वट्ठी ॥१२३४॥ अप्पत्तम्मी ठवियं, ओसरणे होहिइ चि उस्सक्के । संपागडमितरं वा, करेति उज्जूमणुज्जू वा ॥१२३५॥ मंगलहेतुं पुण्णट्टया व ओसक्के तं च उस्सक्के । किं कारणं ? ति पुट्ठो, सिट्टे ताहे विवज्जेन्ति ॥१२३६॥ पाहुडिभत्तं भुजति, ण पडिक्कमए य तस्स ठाणस्स। एमेव अडति बोडो लुक्कणिलुक्को जह कमेडो ॥१२३७॥ पाहुडिया भणितेसा, एत्तो पायोवगरण वोच्छामि ।
प्रादुष्करणम् पादू पयासणम्मी, अपगासपगासणं जं तु ॥१२३८॥ पायोकरणं दुविहं, पागडयरणं पगासकरणं च । पागडे मासलहुं तू, पगासकरणे उ चतुलहुगा ॥१२३९॥ लहुमासे पुरिमडूं, चतुलहुए दाण होति आयामं । पायोकरणं भणियं, कोतकडमयो तु वोच्छामि ॥१२४०॥ क्रीतकृतम् कीतकडं पि य दुविहं, दव्वे भावे य दुविहमेक्कक्के । आयपरकीयमेवं, पच्छितं तेसि वोच्छामि ॥१२४१।। दव्वाय-परक्कीए, दुविहे वि चउलहू मुणेयव्वं । दाणं आयामं तू , भावम्मि अतो परं वोच्छं ।।१२४२॥ मावे तु आयकीयं, चउलहुगा एत्थ वी मुणेयव्वा । दाणं आयामं तू , भावे परकीय वोच्छामि ।।१२४३॥ मासलहुमिहावत्ती, दाणं पुण एत्थ होति पुरिमड़ । कीयकडेयं भणियं, पामिञ्चमतो उ वोच्छामि ।।१२४४॥
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१०८ प्रामित्यम्
परावर्तितम्
अभ्याहृतम्
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा पामिच्छ पि य दुविहं, लोइय लोउत्तरं समासेणं । लोइऍ चतुलहुगा तू , आवत्ती दाणमायाम ॥१२४५।। लोउत्तरे मासलहुं, दाणं पुण एत्थ होति पुरिमडूं । पामिच्चेयं भणियं, परियट्टियमिणमो वोच्छामि ॥१२४६।। परियट्टियं पि दुविह, लोइय लोउत्तरं समासेणं । लोइऍ चउलहुगा तू , आवत्ती दाणमायामं ॥१२४७॥ लोउत्तरे मासल हुं, आवत्ती दाण होति पुरिमड़ें। परियट्टिय भणिएयं, अभिहडदारं अयो वोच्छं ॥१२४८॥ तं होति दुहाऽभिहडे, आतिण्णं चेव तह अणाइण्णं । आइण्ण णोणिसीहं, होति णिसीहं च दुविहं तु ॥१२४९॥ छण्ण णिसीहं भण्णति, पगडं पुण होति णोणिसीह ति । एक्केकं परगामे, सग्गामे चेव बोद्धव्वं ॥१२५०॥ सग्गामाहड दुविई, आइण्णं चेव होयऽणाइण्णं । अणइण्णे मासलहुँ, दाणेत्थं होति पुरिमई ॥१२५१॥ परगामाहड दुविहं, सदेस परदेसओ व णायव्वं । एक्कैकं पुण दुविहं, जलेण तह थलपहेणं च ॥१२५२।। सप्पच्चवाय णिप्पञ्चवाय पुण होति दुविहमेक्केकं । संजमआयविराहण, सपञ्चवायम्मि जोएज्जा ॥१२५३॥ परदेसआइडम्मी, सपञ्चवायम्भि होन्ति चउगुरुगा। णिप्पच्चवाऍ लहुगा, दाणं एतेसि वोच्छामि ॥१२५४॥ चउगुरुगे अभत्तहँ, दाणमिहं होति तू मुणेयव्वं । चउलहुए आयामं, एमेव य होति सद्देसे ॥१२५५॥ उभिण्ण होति तिविह, पिहितुभिण्णं कवाडउभिण्णं । जं तं पिहितुभिण्णं. तं दुविहं फासुगमफासु ॥१२५६॥ फासुग छगणेणं तू, ददरएणं च एत्थ मासलहुँ। तहियं पवहणदोसा, दाणं पुण एत्थ पुरिमडूं ॥१२५७॥
उद्धिनम्
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३५ ]
जीतकल्पसूत्रम् । अप्फासुपुढविमादी, सञ्चित्तेणं तु जं भवे लित्तं । तहियं उब्भिज्जते, कायाण विराहणा इणमो॥१२५८॥ सच्चित्तपुढविलितं, लेलु सिलं वा वि दाउमोलित्तं । सञ्चित्तपुढविलेवो, चिरं पि उदगं अचिरलित्ते ॥१२५९॥ चिरलितपुढविकायो, तिम्मेतुं लिप्पमाणे आउवहो । जउमुद्दतावणम्मी, तेऊ वाऊ वि तत्थेव ॥१२६०॥ पणगबियाइ वणस्सति, तस कुंथुपिपीलिएवमादीहिं। पते ऊ लिप्पंते, इमे तु दोसा तु उल्लित्ते ॥१२६१॥ परस्स तं देति सए व गेहे, तेल्लं व लोणं व घयं गुलं वा । उग्घाडितं तं तु करेयऽवस्सं, स विकयं तेण किणाति वरुणं
॥१२६२॥ दाणकयविक्कयादी, अहिगरणं होति अजयभावस्स । णिवडंति जे य तहियं, जीवा मूइयंगमूसादी ॥१२६३॥ जेहेव कुंभादिसु पुव्वलित्ते, उब्भिज्जमाणम्मि वि कायघाओ। ओलिप्पमाणे वि तहेव घाओ, उभिण्णमेयं पिहियं पि वुत्तं
॥१२६४॥ आवत्ति दाणमेत्थं, ओहेणं चउलहू मुणेयव्वा । दाणं आयामं तू, विभागओ कायणिप्फणं ॥१२६५॥ एमेव कवाडम्मि वि, कायवहो होइ ऊ मुणेयन्त्रो । उपिहिय पिहिज्जते, सविसेसा जंतमाईसु ॥१२६६॥ घरकोइलसंचारा, आवत्तण पेढियाए हिवरि । णिन्ते ठिते य अन्तो, डिभादीपेल्लणे दोसा ॥१२६७॥ पत्थ वि चउलहुगा तू, ओहेणं दाणमेस्थमायामं । होति विभागेणं पुण, पुढवादीकायणिफण्णं ॥१२६८॥ उभिण्णेयं भणियं, अहुणा मालोहडं पवक्खामि । तं तिविहं उड़महे, तिरियं मालोइडं चेव ॥१२६९।।
मालाहृतम्
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११०
आच्छेद्यम
अनिसृष्टम्
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
उडदुभूमादीयं, अह उडिकोट्याइयं होति । तिरि अद्धमालगादी, इत्थपसाराउ जं गिरहे ।। १२७० ॥ सव्र्व्वपि यतं दुविहं, जहण्ण उक्कोसयं च बोद्धव्वं । अग्गपएहि जहणं, तव्विवरीयं ति उक्कोसं ॥ १२७१ ॥ मालोहड उक्कोसे, आवत्ती चउलहू मुणेतव्वा । दाणं आयामं तू, जहण्णमालोहडमियाणि ॥ १२७२ ॥ एत्थ तु मासलहुं तू, आवत्ती दाण होति पुरिम |
इय मालोहड भणितं, अच्छेज्जं अहुण वोच्छामि ॥१२७३॥ तिविहं पुण अच्छेज्जं, पभू य सामी य तेणए चैव । एक्क्के चतुहुगा, दाणं पुण एत्थमायामं ॥ १२७४॥ अणिसि पि य तिविहं, साहारण चोल्लए य जड्डे य । fafe विय अणिसट्टे, चउलहुगा दाणमायामं ॥ १२७५ ॥ ॥ साहारणमणिस, दाइयमादीण जं तु होज्जाहि । खीरे आपण संखडि, दिहंतो गोट्टिभत्तेणं ॥ १२७६ ॥ सो चोलगो वि दुविहो, छिण्णम छिण्णो समासतो होति । परिछिण्णं चिय दिज्जति, एसो छिण्णो मुणेतच्चो ॥१२७७ ॥ अच्छिण्णपरिमाणो, सो वि णिसट्टो तहेव अणिसट्ठी । णीसट्टो तेसिं चिय, णेतूण समपितो जो तु ॥ १२७८ ॥ आणेति त्तसे, जं गहियं एय होति अणिसङ्कं । छिण्णम्मि चोल्लगम्मी, कप्पति घेत्तुं णिसद्धेयं ॥ ११७९ ॥ अणिमण्णायं, कप्पति घेत्तुं तहेव अहिं । चोल्लग अणिसद्धेयं, जङ्घणिसहं अतो वोच्छं ॥ १२८० ॥ रायकुलातो भत्तं णीयं जड्डुस्स तं ण कप्पति तु । णिवपिंड मंतराया, अदिण्णगहणादिदोसा य ॥ १२८१ ॥
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[ गाथा
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अध्यवपूरकम्
३५ ]
जीतकल्पसूत्रम् । जड्डो व पतोसगतो, परिपाडे वसहिमादि भंजिजा। डोबस्स संतिओ वि हु, अद्दिट्टो कप्पति घेत्तुं ॥१२८२॥ अणिसह भणियमेयं, एत्तो अज्झोयरं पवक्खामि । अहियं उदरं अज्झोयरो तु जे सगिहमेगम्मि ॥१२८३।। अहिगं तु तंदुलादी, छुब्भति अज्झोयरो उ सो तिविहो । जावंतिय पासंडे, साहू अज्झोयरे चेव ॥१२८४॥ जावंतियम्मि लहुतो, आवत्ती दाणमेत्थ पुरिमई। पासंडी साहूण य, मासगुरू दाण भत्तेक्कं ॥१२८५।। एसो अज्झोयरयो, सोलस वी उग्गमस्स दोसेते । णव कोडीउ भवंतिह, किं भणियं होति कोडि ? त्ति॥१२८६॥ कोडिज्जते जम्हा, बहवो दोसा उ सहियए गच्छं। 'कोटि कोडि त्ति तेण भण्णति, णव कोडीओ इमा ताओ ॥१२८७॥ शब्दस्यार्थः हणण हणावण अणुमोदणं च पयणं पयावणऽणुमोया। कोटयः किणण किणावण अणुभोयणं च कोडीउ णव एया ॥१२८८॥ णव चेव अट्ठारसगं, सत्तावीसा तहेव चउपण्णा । णउती दो चेव सया, तु सत्तरा होन्ति कोडीणं ॥१२८९॥ ता चेव य णव कोडी, रागद्दोसेहिं गुणिय अट्ठरस । अण्णाण मिच्छ अविरति,तिहि गुणिए सत्तवीसा तु ॥१२९०॥ पुढवादीछसु संजय, छहि गुणिया होति एस चतुपण्णा । खेतीमादीदसहि उ, गुणिया णउती तु बोद्धव्वा ॥१२९१॥ णउती तिहि गुणिया तू , दसणणाणेहि तह चरित्तेणं । सत दोन्नि होन्ति सयरा, कोडीणं एस वित्थारो ॥१२९२।। संखेवेण दुहा ऊ, उग्गमकोडी विसोहिकोडी य । उग्गमकोडी छविह, विसोहिकोडी अणेगविहा ।।१२९३।।
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ર
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा
हणणतियं पयणतियं, उग्गमकोडी तु छव्विहा एसा । real fa इमा छवि, उग्गमकोडी मुणेयव्वा ॥ १२९४ ॥ आहाकम्मुद्देसिय, चरिमतियं पूर्ति मीसजायं च । बादरपाहुडिया विय, अज्झोयर य चरिमदुगे || १२९५ ॥ एसा विसोहिकोडी, छव्विहभेया समासतोऽभिहिता । एत्तो छद्धा सुद्धं, वोच्छामो आणुपुच्चीए ॥१२९६॥ उगमकोडी अवयव, लेवालेवे य अकयकप्पे या । कंजिय आयामे चातुलोय संसदृपूती य ॥ १२९७ ॥ सुक्केण वि जं छिक्के, असुइण तं धोव्वए जहा लोओ । इय सुक्केण वि छिक्के, घोवइ कम्मेण भाणं तु ॥१२९८ ॥ लेवालेवे त्ति जं वृत्तं, जं पि दव्चमलेवर्ड । तं पण कप्पेति, तक्कादी किमु लेवर्ड ? ॥१२९९ ॥ कंजियमादीगहणं, कम्हा तु कतं तु ? भण्णती सुणसु । साहुस्स उ आहेतुं, जं कीरइ आहकम्मं तं ॥१३००॥ इय नाउमाह कोयी, साहुणिमित्ता य ओयणो उ कतो । ण उ कँजियमादीणिं, तो वज्जो ओयणो एगो ।। १३०१ ।। उ कंज़ियमादीणि, तो तग्गहणे कते तमेवं तु ।
जदि वि ण दिट्ठा आहा, ओदणमट्टा तह वि वज्जे ॥१३०२ ॥ सेसा विसोहिकोडी, वितगमादी तु जइ वडणाभोगा । गहिता हवेज्ज छुद्धा, अण्णम्मी भत्तपाणच्मि ॥१३०३॥ ताहे तु जहासत्ति, विगिंचितव्वं तमण्णपाणं तु । दव्वादिकमेणं तू, इमेण वोच्छं समासेणं ॥१३०४॥ दव्वे तं चिय दव्वं, खेत्ते पदेसेसु जेसु तं पडियं । काले अकालहीणं, जावऽण्णा भिक्ख णडक्कमति ।। १३०५ ॥ भावे अरत्तदुट्टो, असढो जं पासती तगं छड्डे ।
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जीतकल्पसूत्रम् ।
अणलखियमीसदव्वे, सव्वविवेगोऽवयवे सुद्धो ॥१३०६॥ अह पुण ण संथरेजा, ताहे परिठावणा तु तम्मत्तं । इत्थं चउभंगो तू, सुक्खोल्लणिवाययो इणमो ॥१३०७॥ सुक्खे सुक्खं पडियं, सुक्खे उल्लं तु उल्ले सुक्खं तु । उल्ले उल्लं च तहा, एस चउत्थो भवे भंगो ॥१३०८ मुक्खे सुक्खं पडियं, पढमगभंगो विगिंचति मुहं तु । बितियम्मि दवं छोडं, गालेति दवं करं दाउं ॥१३०९॥ ततियम्मि करं छोढुं, उल्लिपइ ओदणादि जं तरति । चरिमे सव्वविवेगो, दुलभदवे वा वि तम्मत्तं ॥१३१०॥ एव विगिचित्तऽसढो, जेसु पदेसुं तु सुज्झए साहू । मायावी ण वि सुज्झे, तम्हा असढेण होयव्यं ॥१३११॥ एवं गवेसणाए, उग्गमदारं समासतो भणितं । उप्पायणमहुणा तू, समासओ हं पवक्खामि ॥१६१२॥ सोलस उग्गमदोसे, गिहिणो उ समुट्ठिए वियाणाहि । उप्पायणाएँ दोसे, साहूतु समुट्टिए जाण ॥१३१३॥ णामं ठवणा दविए, भावे उप्पायणा मुणेयव्वा । दव्वे सचित्तादिविहाण, चित्ते दुपयादि तिविह इमा ॥१३१४॥" आयामुयमादीहि, वालचिय-तुरंगबीयमादीसु । मुय-आस-दुमादीणं, उप्पायणया तु सञ्चित्ता ।।१३१५॥ कणग-रययाइयाणं, जहेधातुविहिता तु अञ्चित्ता । मीसा उ सभंडाणं, दुपया तुप्पायणा दब्वे ॥१३१६॥ भावे पसत्थ इयरा, कोहादुप्पायणा तु अपसत्था । कोहादिजुया धायादिणं च णाणादि तु पसत्था ॥१३१७॥ अपसत्थियभावुप्पायणाएँ एत्थं तु होति अहिगारो। सा सोलसहा तु इमा, धायादीया मुणेयव्या ॥१३१८॥
उत्पादनाया निक्षेपाः
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स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[गाथा षोडश उत्पा- धाती दूती णिमित्ते, आजीव वणीमए तिगिच्छा य । दनादोषाः
कोहे माणे माया, लोभे य हवंति दस एते ॥१३१९॥ पुचि-पच्छासंथव, विज्जा मंते य चुण्ण जोए य ।
उप्पायणाएँ दोसा, सोलसमे मूलकम्मे य ॥१३२०॥ धात्रीदोषः धारयति धीयए वा, धयंति वा तमिति तेण धाती तु ।
जहविभवं आसि पुरा, खीराई पंच धातीओ ॥१३२१॥ पञ्च धात्र्यः खीरे य मज्जणे मंडणे य कीलावणंकघाती य ।
घाइत्तं कुणमाणो, एगयरं धातिपिंडो तु ॥१३२२॥ तं दुविहं धातित्तं, करणे कारावणे य बोद्धव्वं । तं पुण दारगमादी, पडुच्च धाति व्व कुज्जाहि ॥१३२३॥ पंचविह धातिपिंडे, आवत्ती चउलहू मुणेयव्वा ।
दाणं आयामं तू, दूतीपिंडं अतो वोच्छ ॥१३२४॥ दूतीदोषः सग्गाम परग्गामे, दुविहा दूती तु होति णायव्वा ।
एक्केका वि य दुविहा, पागड छण्णा य णायव्वा ॥१३२५॥ पागड णिस्संको चिय, अप्पाहेन्तो व भणति इयरो वा । सेज्जातरखंतिया तू , धूया वा अण्णगामम्मि ॥१३२६॥ भिक्खादी वच्चंतो, अप्पाहणि णेति खंतियाईणं । सा ते अमुगं माया, सो व पिया पागडं भणति ॥१३२७॥ छण्णा पुणाइ दुविहा, दूती एत्थं तु होति णायव्वा । लोउत्तरे तत्थेगा, बितिया पुण उभयपक्खे वि ॥१३२८॥ लोउत्तर संघाडग, संकेतो सावछण्णवयणेहिं । कह पुण छण्णं ? सेज्जायरीय अप्पाहिओ गंतुं ॥१३२९॥ संघाडयपञ्चयहा, बेती दूति त्ति अम्ह ण वि कप्पे । अविकोतिया सुया ते, जा बेइ इमं भणसु खेती ॥१३३०॥ सा वि य भणती होतू, वारिजिहिती अयाणिया सा उ ।
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३५ ]
जीतकल्पसूत्रम् । लोउत्तरछण्णेसा, उभयच्छण्णं अतो वोच्छं ॥१३३१॥ जामाइतित्थजत्तागतस्स उवादिपोकडेण कतं । सो आगतो त्ति धूया, उभयच्छण्णं इमं भणति ॥१३३२॥ एव भणेज्जहि खंती, तं किर तह चैव चिंतियं जं तु । जह ण वि संघाडो से, अण्णो व वियाणति कोति ॥१३३३॥ उभयच्छण्णा एसा, सग्गामे अभिहिता भवे दूती । एमेव परग्गामे, दुह दृती कह पुण करेजा ? ॥१३३४॥ गामाण दोण्ह वेर, सेज्जायरिधूय तत्थ परगामे । सामत्थं गामस्स य, जह एवं हणिमो परगामं ॥१३३५॥ खंतो तु तत्थ पच्छा, भिक्खायरियाएँ तो तु सेज्जतरी । अप्पाहेती खंत, मम धूय भणेजसू एवं ॥१३३६।। जह गामो पडिउकामो, सा उ भणेजासु मा कुण पमायं । तीय कहियं तु तस्सा, तेण वि गामस्स तं कहियं ॥१३३७॥ ते य ठिय एगपासे, इतरे पडिता कतं तहिं जुद्धं । सेज्जातरिपति-पुत्ता, जामाता चेव वहिओ उ ॥१३३८॥ बेति जणो केगेयं, कहियं ? ति बेति सेन्जयरी । जामाति-पुत्त-पतिमारएण खतेण मे सिह ॥१३३९॥ जम्हा एते दोसा, दूतित्तं खूण कप्पती तम्हा । दूतीपिंडे चउलहु, आवत्ती दाणमायामं ॥१३४०॥ णियमा तिकालविसयम्मि णिमित्ते छविहे भवे दोसा।। सज्जं तु वट्टमाणो, आतुभए तत्थिमं जातं ॥१३४१॥ आकंपिया णिमित्तेण भोइणी केणती तु लिंगीणं। भोइयचिरगयपुच्छा, केवतिकालेण एजाहि ? ॥१३४२॥ कल्लं चिय एति त्ती, इयरी पडिभणति पचयो को उ ? । तुह गुज्झदेस तिलओ, सुविणाती पञ्चए कहए ॥१३४३॥
निमित्तदोषः
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स्वोपज्ञभाष्ययुत
[ गाथा तीय कयं आउत्तं, पेसविओ परिजणो य पञ्चोणी। इतरो वि अविदिओ चिय, पविसिस्सं भोइओ चिन्ते ॥१३४४॥ घरवित्तता मित्तं, दिह्रो उपणिग्गओ य परिवग्गो । कह तुम्मे णायं ? ती, पेसविआ भोतिणीए तु ॥१३४५॥ पुट्ठाय आदिअत्तेणं, तीय य सिटुं सलाहमाणीए । समणे तीय भविस्सं, जाणइ तिलओ य णे सहो ॥१३४६॥ कोवो वलवागभं, च पुच्छितो पंचपुण्डमाइंसु । फालण दिहो जदि णेव तो तुई अवितह कतेवं ॥१३४७॥ तम्हा ण वागरेज्जा, णिमित्तपिंडेस वण्णिओ तु मए । तीतणिमित्ते चउलहु, आवत्ती दाणमायामं ॥१३४८॥ पडुपण्णऽणागए या, चउगुरुगा दाण होयऽभत्तहूँ ।
आजीवपिण्डमेत्तो, समासओ हे पवक्खामि ॥१३४९॥ आजीवदोषः जाती कुल गण कम्मे, सिप्पे आजीवणा उ पंचविहा ।
सूयाए असूयाए, व कहेइ अप्पाणमेकेके ।।१३५०॥ जाती कुल गण कम्मे, सिप्पे आजीवणा तु पंचविहा । एकेके चतुलहुगा, आवत्ती दाणमायामं ॥१३५१।। जाती माहणमादी, मातिसमुत्था व होति बोधव्वा । तहियं स्याए तू, जाणावेमेहि अप्पाणं ।।१३५२॥ होमाइवितहकहणे, णज्जति जह सोत्तियस्स पुत्तो ति । वसितो वेस गुरुकुले, आयरियगुणे व सूएति ॥१३५३॥ सम्ममसम्मा किरिया, अणेण ऊणाहिया व विवरीया । समिहा-मंता-ऽऽहुति-ठाण-जाय-काले य घोसादी ॥१३५४॥ बेति फुडं चिय सुकयं, असोहणं वा वि ते कतमितं ति । तहितं भद्दगपंता, दोसा इणमो भवंती तु ॥१३५५॥ भद्दो अम्ह सपक्खो, एस ती भिक्खु देजहेयस्स ।
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३५ ]
जीतकल्पसूत्रम् ।
पंतो ओभामेती, मुहमंगलि कुणति भिक्खट्ठा || १३५६॥ उगाईयं तु कुलं, पितुवंसादि व्व तत्थ वि तहेव | मलसरस्स तमादिण, जाएई मंडलपवेसे ||१३५७॥ देउलदरिसण-भासाउवणयणे मण्डवाइ सुरति । जंतुप्पीलणमादि तु, कम्यं तुष्णादियं सिप्पं ॥ १३५८ ॥ अहवा जं सिक्खिज्जर, आयरिवदेसतो तयं सिप्पं ।
कीरतीस तू, तं कम्मे तेसु सव्वेसु || १३५९ ॥ कत्तरिपयोयणट्टा, वत्थू बहुवित्थेरसु तह चैव । कम्मे य सिप्पे य, सम्ममसम्मेसु सृतिअतरा ॥ १३६० ॥ सव्वे भद्दपंता, णियमा दोसा हवंति विष्णेया । आजीवगपिंडेसो, तो तु वणीमगं वोच्छं ॥ १३६१ ॥
किं भणियं वणी ? त्ति, भण्णति वणि जायणम्मि धातू तु । बनीपकदोषः वणिगोपायप्पाणं, वणिमो ती भण्णए तम्हा ॥ १३६२ ॥
ते पंचहा वणीमग, जायणवित्ती तु होन्ति बोद्धव्वा । समणा माहण किवणे, अतिही साणा य पंचमया ॥ १३६३॥ समणे माहण किवणे, अतिही साणे य जाण पंचसु वि । पत्तेयं चउलहुगा, आवत्ती दाणमायामं ॥ १३६४ ॥ मयमादिवच्छंगं पिव, वणेति आहारमादिलोभेणं । अपाण समण माहण - किमिणाऽतिहि साणभत्ते || १३६५ || friथ सक तावस, गेरुय आजीव पंचहा समणा । तेसि परिसणाए, लोभेण वणेड़ को अप्पं १ ।। १३६६ ॥ तच्चणियादि दहुँ, भुंजते दातु पीति अणुकूलं । साहु तुमे चिप्प ! कर्य, दाउँ जं देसि एतेसिं ॥ १३६७॥
2
जति चित्तकम्मट्टिय व कारुणय दाणरुइणो वा । अवि कामगद्दभैसु वि, ण वि णासइ किं पुण जतीसु ? ॥ १३६८ ॥
૨૨૭
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११८
स्वोपज्ञभाष्ययुत
[ गाथा
मिच्छत्तथिरीकरणं, उग्गमदोसा व ते पुण करेज्जा । चटुकारsदिण्णदाणा, पच्चत्थिग मा पुणो एंतु ॥ १३६९ ॥ एमेव माहणेसु वि, दिज्जतं दिस्स बेति अणुकूलं । दोहं भणियं दाणं, समणाणं माहणाणं च ॥१३७० ॥ लोगाणुग्गहकारि, भूमीदेवेसु बहुफलं दाणं । अवि णाम बंभबंधु, किं पुण छकम्मणिरएस १ ॥ १३७१ ॥ किमणा उ कुट्ठि-कर-पाय- अच्छिमादीसु जुंगिया जे तु । द तेसि देतं, तस्स अणुकूलं इमं भणति ॥ १३७२ ॥ किमणेसु दुब्बलेसु य, अबंधवा ऽऽयंक- जुंगियंगेसु ।
याहज्जे लोए, दाणपडायं हरति देन्तो ।। १३७३ ॥ ते चि एत्थ वि दोसा, कोई पुण देति दाणमतिहीणं । तत्थ वि अणुप्पयं तू, दाणपतिस्सा इमं भणति ॥१३७४॥ पाएण देति लोगो, उवगारी परिचिए व झुसिए वा । जो पुण अद्धाखिणं, अतिहिं पूएति तं दाणं ॥१३७५ ॥ कोइ पुण साणभत्तो, भत्तं साणादियाण दिज्जतं । तस्स यपियंति भासति, तुममेगो जाणसी दाउँ ॥ १३७६ ॥ अवि णाम होज्ज सुलभो, गोणादीणं तणादि आहारो । छिच्छिकार हयाणं, ण य सुलभो होति सुणयाणं ॥ १३७७ || केलासभवणा एते, आगया गुज्झगा महिं । चरंति जक्वरूवेण, पूयापूय हियाहिय ॥ १३७८॥
पूयंति पूयणिज्जा, पूयाऍ हियाय आगया इहईं । लोगस्स हिता एते, पूइय अहवा हिया होन्ति ॥ १३७९ ॥ अहवा वि पूयपूया, हिताहिता पूतिता हिता होन्ति । अपूतिता य अहिता, तम्हा खलु पूयणिज्जेते ॥ १३८०॥ एमादी अणुकूले, भणिते सव्वेसि माहणाईणं ।
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चिकित्सा
३५ ] जीतकल्पसूत्रम् ।
११९ दाता चिंतेति ततो, मज्झत्थो एस समणो त्ति ॥१३८१॥ एतेण मज्झ भावो, विद्धो लोए पणामहज्जम्मि। एकेके पुव्वुत्ता, भद्दग-पंताइया दोसा ॥१३८२॥ दाणं ण होति अफलं, पत्तमपत्ते य सण्णिउर्जतं । इय विभणिए वि दोसा, पसंसिमो किं पुण अपत्ते ? ॥१३८३॥ वणिमगपिंडो भणितो, एत्तो वोच्छं तिगिच्छपिडं तु । सा दुविहा तु तिगिच्छा, सुहुमा तह बायरा चेव ॥१३८४॥ पिण्डः मुहुमाए मासलहुं, आवत्ती दाण होति पुरिमहूं । बादरतेगिच्छाए, चउलहुगा दाणमायामं ॥१३८५॥ भिक्खादिगतं संतं, पुच्छति रोगी तु ओसह किंचि । भणई किमहं वेज्जो ?, पढमतिगिच्छा भवे एसा ॥१३८६॥ वेज्जो त्ति पुच्छियव्यो, अत्थावत्तीइ सूतियं एयं । अबुहाण बोहणं वा, अयाणमाणाण कतमेतं ॥१३८७|| बेति व एरिस दुक्ख, अमुएणं ओसहेण पउणं मे । सहसुप्पइयं च रुयं, वारेमो अट्ठमादीहिं ॥१३८८।। एसा बितिय तिगिच्छा, दो वेयाओ तु सुहुमतेगिच्छं । बादरतेगिच्छं पुण, सतमेव करेति वेज्जतं ॥१३८९॥ संसोहण संसमणं, णिदाणपरिवज्जणं च जे जत्थ । आगंतुधातुखोभे, व आमए कुणति किरियं तु ॥१३९०॥ अस्संजयते गिच्छे, कीरते तह य सुहुमकदणम्मि । तहियं तु अणेगविहा, दोसा इणमो पसज्जंति ॥१३९१॥ अस्संजमजोगाणं, पसंजणं कायघाओ अयगोलो। दुब्बलवग्धाहरणं, अच्चुदए गिण्हणुड्डाहो ॥१३९२॥ जम्हा एते दोसा, तम्हा कायव्विया ण हु तिगिच्छा ।दारी।
क्रोधादयो भणितो तिगिच्छिपिंडो, एत्तो कोहादि वोच्छामि ।।१३९३॥ दोषाः
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मायायामा
१२० स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[गाथा कोहादीणं कमसो, आहरणा होन्तिमे समासेणं ।
हत्थप्पं गिरिफुल्लिय, रायगिहं चैव चंपा य ॥१३९४॥ क्रोधे क्षपकः णगरम्मि हत्थकप्पे, करडुगभत्ते उ खमओ दिटुंतो।
कोसलदेसे गिरिफुल्लिगामे वणकोट्टकारम्मि ॥१३९५॥ साहूण समुल्लावे, को णु हु अज्जं पए तु साहूणं । आणेज इट्टगातो ?, खुड्डाऽऽह तहिं अहं आणे ॥१३९६॥ घत-गुलसंजुत्ता वि य, जह आणिय इट्टगातु खुड्डेणं । सेडंगुलिमादीहिं, णाएहि एत्थ भत्तहँ ॥१३९७॥
रायगिहे धम्मरुयो, असाढभूती तु खुड्डओ तस्स । षाढभूतिः रायणडगेहपविसण, संभोइय मोदए लंभो ॥१३९८॥
आयरिय उवज्झाए, संघाडय अप्पयस्स अट्ठाए । भुज्जो भुज्जो पविसति, काण-कुणी-खुजरूवेहिं ॥१३९९॥ उवरितलत्यो य णडो, पासति चिंतेति बुद्धिमं सुट्ट। होज्ज णडो सारिक्खो, उवाययो एस घेत्तव्यो ॥१४००॥ चिंतिय उवायमेयं, वाहरिया देमि मोदए बहवे । भणिओ य तओ एज्जसु, दिणे दिणे जाहे कज्जं तु ॥१४०१॥ धूयदुगं संदिसती, हास-खेड्ड-परिहास-संफासे । एतेण समं कुव्वह, जह भज्जति एस अचिरेणं ॥१४०२॥ जदि णामं गिण्हेज्जा, तो बेज्जह मुयसु एय पव्वज्ज । ताहि तहक्कय खुभितो, रयहरणं लिंग मुयसु त्ति ॥१४०३॥ गुरु सिट्ठ मोत्तुमातो, दिण्णा बीयाय भणिय णेणं च । एमुत्तमपगतीओ, जत्तेणं उपयरेज्जाह ॥१४०४॥ रायगिहे य कयायी, णिम्महिलं णाडगं णडाऽगच्छी। ताव विरहम्मि मत्ता, उवरिगिहे दो वि पासुत्ता ॥१४०५।। वाघाएण पविट्ठो, दिट्ट विचेला विरागमावण्णो । आयरियगुरुसमीवं, पढ़ित दिट्ठो णडेणं च ॥१४०६॥
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३५] जीतकल्पसूत्रम् ।
१२१ इंगितणाए धूयाखरंट पेसियय जीवणं देहि । देमि त्ति रहपालं, गाडग गचीय कुसुमपुरे ॥१४०७॥ कडगादिअत्थदाणं, बहुपडितं तत्थ(नच)गम्मि णचंते । भरहो य वणादीया, भरहिड्डी तत्थ य णिबद्धा ॥१४०८॥ इक्खागवंस भरहो, आयंसघरे य केवलालोओ। हत्थे गहिओ मा कुण, किं भरहो णियत्तो ? पच्चाह ॥१४०९॥ ण हुतं पऽक्वउ एवं, वेलंबो होति जति णियत्तामि । पंच सता तेण समं, पव्वइता णाडए डहणं ॥१४१०॥ एमादि मायपिंडो, ण कप्पती णवरि कारणे कप्पे । गेलण्ण-खमग-पाहुण-थेरादट्टेवमादीसु ॥१४११॥ मायापिंडो भणितो (दार), एत्तो वोच्छामि लोहपिंडं तु । सो कोहपिंडमादिसु, सव्वत्थडणुपाति अहव इमो ॥१४१२॥ लोमे सिंहकेस लभंतं पि ण गिण्हति, अण्णं अमुगं ति अज्ज घेच्छामि । भदरसं ति व काउं, गिण्हति खद्धं सिणिद्धादी ॥१४१३॥ तत्थोदाहरणमिणं, चंपाएँ छणम्मि को वि खमतो तु । गेण्हति अभिग्गहं तू , सीहेसरमोदए घेच्छ ॥१४१४॥ भिक्ख पविट्ठो य तयो, पडिसेहे अण्ण लब्भमाणं पि । सीहेसरमलहतो, संकिस्सति भावतो अह सो ॥१४१५|| सीहेसरगतचित्तो, विसरिसचित्तो य धम्मलामो त्ति । बेई सीहेसरए, सूरत्थमिए वि हिंडइ तु ॥१४१६।। सडऽडरत्त केसरभायणभरणं च पुच्छ पुरिमड्ढे। उवओग चन्दजोयण, साहु त्ति विगिचणे णाणं ॥१४१७॥ कोहादीणं कमसो, एमेते वणिया उ आहरणा। एतेसि चिय कमसो, आवत्ती दाण वोच्छामि ॥१४१८॥ कोहे माणे चतुलहु, आवत्ती दाण होइ आयामं । मायाए मासगुरू, आवत्ती दाण भनेकं ॥१४१९॥
रकः क्षपक:
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१२२ स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[गाथा लोभे चउगुरुगा तू, आवत्ती दाण होयऽभत्तह्र । दारं । संस्तवदोषः संथुणण संथवो तू, थुणणा वंदणगमेगडें ॥१४२०॥
दुविहो य संथवो खलु, संबंधी बयणसंथवो चेव । एक्केको पुण दुविहो, पुचि पच्छा य णायव्वो ॥१४२१॥ संबंधे पुव्व दुविहो, इत्थी पुरिसे य होति णायव्यो । एमेव य पच्छा वी, आवत्ती दाण वोच्छामि ॥१४२२॥ इत्थीए चतुगुरुगा, पुरिसेस चतुलहू मुणेतव्वा । चउगुरुए तु चउत्थं, चउलहुए दाणमायामं ॥१४२३॥ वयणे वि पुव्व दुविहो, इत्थी पुरिसे य होति णायव्वो। एमेव य पच्छा वी, आवत्ती दाण वोच्छामि ॥१४२४॥ इत्थीए मासगुरुं, आवत्ती दाण होति भत्तेकं । पुरिसे मासलहुं तू, आवत्ती दाण पुरिमई ॥१४२५॥ संबंधे पुव्वसंथवो, माय-पियादी तु होति णायव्यो । सासुय-ससुरातीओ, संबंधीसंथवो पच्छा ।।१४२६॥ आयवयं च परवयं, गाउं संबंधती तयणुरूवं । मम माता एरिसिया, ससा व धूया व णत्तादी ॥१४२७॥ अद्धी दिट्टीपण्हय, पुच्छा कहणं ममेरिसी जणणी। थणखेवो संबंधो, विहवामुण्हाय दाणं च ॥१४२८॥ एमेव य पुरिसेसु वि, पियमातादीहिं होति संबंधो । एमेव पच्छसंथव, अद्धिति दिहादि पुच्छादी ॥१४२९॥ पच्छासंथवदोसा, सामुय विहवादिधूयदाणं च । भज्जा मम एरिसिया, सज्जं घातो व भंगो वा ॥१४३०॥ संबंधे संथवेसो, एत्तो वोच्छामि संथवं वयणे । पुचि पच्छा व तहा, संथुणणे कुणति दाताए ॥१४३१॥ गुणसंथवेण पुव्वं, संतासंतेण जो थुणेज्जाहि । दातारमदिण्णम्मि, सो क्यणे संथवो पुचि ॥१४३२॥
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जीतकल्पसूत्रम् । सो एसो जस्स गुणा, पयरंति अवारिया दसदिसासु । इहरा कहासु मुव्वति, पञ्चक्खं अज दिहो त्ति ॥१४३३॥ गुणसंथवेस पच्छा, संतासंतेण जो थुणेज्जाहि । दातारं दिण्णम्मी, सो पच्छासंथवो वयणे ॥१४३४॥ विमलीकय णे चक्खू, जहत्थतो वियरिया गुणा तुझं । आसि पुरा णे संका, इदाणि णीसंकियं जायं ॥१४३५॥ तत्थ वि भद्दग-पंता, दोसा तह चेव होंति णायव्या । भणिएस संथवो तू , (दारं) विज्जा-मंते अतो वोच्छं ॥१४३६॥ विजा-मंते चतुलहु, आवत्ती दाण होति आयाम ।
विद्या-मन्त्रविजा-मंतविसेसं, उल्लिंगेऽहं समासेणं ॥१४३७॥
दोषी विजा-मुंतविसेसो, विजित्थी पुरिसो होति मंतो तु ।
विद्या-मन्त्रयों
विशेषः अहव ससाहण विज्जा, मंतो पुण पढियसिद्धो तु ॥१४३०॥ विज्जाए उ णिदरिसणं, जह कोई भिच्छुवासयो पत्तो। विद्यायां भिक्षसाहूण पिडियाणं, अह उल्लावो इमो तत्थ ॥१४३९॥ इय पंतभिच्छुवासो, साहूण ण देति तत्थ भणएको। जइ इच्छह विज्जाए, घय-गुल-वत्थाणि दावेमि ॥१४४०॥ पेच्छामो त्ति य भणिए, गंतुं विज्जाभिमंतिओ बेति । किं देमि ? ती घत-गुल-वत्थाणिं दिण्ण साहरणं ॥१४४१॥ अण्णेहि य सो भणिओ, किह ते दिण्णं ति भत्त-पाणादी ? । तो बेति तगो रुटो, केण हितं ? केण मुट्ठो मि ? ॥१४४२॥ पडिविज्ज थंभणादी, सो वा अण्णो व से करेज्जाहि । पावाजीवी मायी, कम्मणकारी य गहणादी ॥१४४३॥ मंतम्मि उदाहरणं, पाडलिपुत्ते मुरुंडराइस्स । उप्पण्ण सीसवेदण, पालित्तयकहण ओमज्जे ॥१४४४॥
मन्त्रे पादलिप्तजह जह पदेसिणी जाणुयम्मि पालित्तयो भमाडेत्ति । मुरुण्डराजौ
पासकः
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ફરક स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[गाथा तह तह सीसे वियणा, पणस्सति मुरुंडरायस्स ॥१४४५॥ मंतेणं अभिमंतिय, तह चेव दवाव दिज्ज कोयिं तु । तत्थ वि ते चिय दोसा, पडिमंतादी इमे होन्ति ॥१४४६॥ पडिमंतथंभणादी, सो वा अण्णो व से करेज्जाहिं ।
पावाजीवी मायी, कम्मणकारी य गहणादी ॥१४४७॥ चूर्ण-योग-मूल- विज्जा-मंताभिहिया,(दार) अहुणा वोच्छामि चुण्ण-जोगादी। कर्मदोषाः
वसिकरणादी चुण्णा, अन्तद्धाणंजणादीया ॥१४४८॥
चुण्णे जोगे चउलहु, आवत्ती दाणमेत्थ आयामं । क्षुल्लकद्वयम् णिदरिसणं दुण्डं पी, उल्लिङ्गेऽहं समासेणं ॥१४४९।।
दिढतो चुण्ण-जोगे, जह कुसुमपुरम्मि केति आयरिया । जंघाबलपरिहीणा, ओमे सीसस्स तु रहम्मि ॥१४५०॥ कहयंति चुण्ण-जोगा, अंतद्धाणादि तत्थ दो खुड्डा । पच्छण्णठिय णिसामे, अवधारे अंजणं एक्कं ॥१४५१॥ वीसज्जिया वि साहू, गुरूहि देसंत खुड्डग णियत्ता । आयरिएहि य भणिता, दुदु कयं जं णियत्ता में ॥१४५२॥ भिक्खे परिहायंते, थेराणं ओमे तेसि देताणं । किं ओम गुरूणं तू , कुव्वामो ? खुड्ड सामत्थे ॥१४५३॥ कुणिमो अंतद्धाणं, दव्वे मेलेत्तु अभियंजणया । सह भोज्ज चंदगुत्ते, ओमोदरियाएँ दोब्बल्लं ॥१४५४॥ चाणक पुच्छ इट्टालचुण्ण दारपिहणं तु धूमो य । दर्दू कुच्छ पसंसा, थेरसमीवे उवालंभो ।।१४५५॥ एवं वसिकरणादिसु, चुण्णेसु वसीकरेत्तु जो तु परं। उपाएती पिर्ड, सो होती चुण्णपिण्डो तु ॥१४५६॥ जे विज्ज-मन्तदोसा, ते चिय वसिकरणमादिचुण्णेहिं । एगमणेगपयोसं, कुज्जा पत्थारयो वा वि ॥१४५७॥
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तापसाः
३५]
जीतकल्पसूत्रम्। भणिएस चुण्णपिण्डो, (दारं) अहुणा वुच्छामि जोगपिंडं तु । तहियं जोग अणेगा, इणमो तू संपवक्खामि ॥१४५८॥ योगः सूभग-दोभग्गकरा, जोगा आहारिमा य इयरे य । आघंस धृववासो, पायपलेवायिणो इतरे ॥१४५९॥ तत्थाहरणं इणमो, अणहारिमपादलेवजोगम्मि । आभीरगविसयम्मी, जह कत सुण तावसे हिं तु ॥१४६०॥
योगे ब्रह्म
द्वैपिकाः णदि कण्ह बेण्ण दीवे, पंच सया तावसाण णिवसंति । पव्वदिवसेसु कुलवइ, पालेवे लिंप पाए तु ॥१४६१॥ पाउगदुरूढ सलिलुप्परेण उत्तरिउ एति णगरं ति । आउट्ट लोग पूया, पञ्चक्खा तेते देव त्ति ॥१४६२॥ जण सावगाण खिसण, तहियं तू वइरसामिमाउलया। आयरियअज्जसमिता, तेसिं च णिवेदियं तेहिं ॥१४६३॥ तेहि भणिया य बच्चह, ते मातिहाणि पायलेवेणं । णतिमुत्तरंति सगिहे, णेउसिणोएण धोबह णं ॥१४६४॥ तेहि य सगिहे णेउं, पाय बला धोयऽणिच्छमाणाणं । किं जाणति लोगो ? त्ती, दिण्णं विणएण बहुफलयं ॥१४६५॥ पडिलाभिय वचंता, णिबुड्ड णदिकूल मिलिय समिया य । विम्हिय पंच सता तावसाण पव्वज्ज साहा य ॥१४६६॥ एमादीजोगेहि, आउद्यावेत्तु एसती पिण्डं । सो ण वि कप्पे (दारं) एत्तो, वोच्छामी मूलकम्मं तु॥१४६७॥ दुविहं तु मूलकम्मं, गब्भादाणे तहेव परिसाडे । दुविहे वि मूलकम्मे, पच्छित्तं होति मूलं तु ॥१४६८॥ आदाणे अहिगरणं, पडिबंधो छोभगादिदोसा य । पाणवह साडणम्मि, छोभग पडिणीय उड्डाहो ॥१४६९॥ इय मूलकम्मेणं, पिंडो उप्पादिओ ण कप्पति तु । उप्पातणेस भणिया, गवेसणा चेव य समत्ता ॥१४७०॥दा।
मूलकर्म
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१२६ स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[गाथा एवं तु गविट्ठस्सा, उग्गमउप्पायणाविसुद्धस्स । गहणविसोहिविसुद्धस्स होति गहणं तु पिंडस्स ॥१४७१॥
उग्गमदोस गिहीतो, उप्पायण होइ समणउत्थाणा । ग्रहणैषणा गहणेसणाए दोसे, आयपरसमुट्ठिए वोच्छं ॥१४७२॥
दोण्णि वि समणसमुत्था, संकित तह भावतोऽपरिणयं च । सेसा अट्ट वि णियमा, गिहिणो तु समुट्टिए जाण ॥१४७३॥ सा गहणेसण चतुहा, णामं ठवणा य दव्वे भावे य । दव्वे वाणरजूह, सव्वं वत्तव्य वित्थरयो ॥१४७४॥ दव्वम्मि एस भणिता, भावे गहणेसणं तु वोच्छामि ।
दसहि पदेहि सुद्धं, संकितमादी इमेहिं तु ॥१४७५॥ ग्रहणैषणा संकित मक्खित णिक्खित, पिहित साहरण दायगुम्मीसे । दशधा अपरिणय लित्त छड्डिय, एसणदोसा दस हवंति ॥१४७६॥
संकाए चउभंगो, पढमो गहणे य भोयणे चेव । शकितदोषः बितिओ गहणे ण भोयणे, ततिओ पुण संकितो भोगे॥१४७७॥ शङ्काचतुर्भङ्गी णीसंकिओ तु चरिमे, किह पुण संका हवेज्ज ? जह कोई ।
भिक्ख पविट्ठो लद्धम्भि, हिमभिक्खं विगिचेति ॥१४७८॥ किण्णु हु खद्धा भिक्खा, लद्धा ? ण य तरति पुच्छिउँ तहियं । हिरिमं इति संकाए, अँजति इह संकितो चेव ॥१४७९॥ बीएण गहिय संकिय, विगडन्तऽन्ने य णवरि संघाडे । पगयं पहेणगं वा, सोउं णिस्संकिओ भुंजे ॥१४८०॥ णीसंकगाहि तइओ, विगडेन्तो णिसम्ममण्णसंघाडं । संका पुणाइ जारिस, लद्ध मए अमुगगेहम्मि ॥१४८१॥ महती भिक्खा तारिस, एतेहि वि लद्ध किण्ण होज्जाहि ? । णीसंकि काऊणं, भुंजति तं संकिओ चेव ॥१४८२॥ पढमो दोमु वि लग्गो, बितिओ पुण गहणे भोयणे तइती।
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३५]
जीतकल्पसूत्रम् । जं संकितमावण्णो, पणुचीसा चरिमए सुद्धो ॥१४८३॥ छउमत्थो सुतणाणी, गवसती उज्जुयं पयत्तेणं । आवण्णो पणुवीसं, सुतणाणपमाणतो सुद्धो ॥१४८४|| साहू सुतोवयुत्तो, सुतणाणी जइ वि गिण्हइ असुद्धं । तं केवली वि भुंजति, अपमाण सुयं भवे इहरा ॥१४८५।। मुत्तस्स अप्पमाणे, चरणाभावो ततो य मोक्खस्स । मोक्खाभावाओ चिय, पयत्तदिक्खा णिरत्था य ॥१४८६॥ सोलस उग्गमदोसा, णव एसणदोस संकमेतूण । पणुवीसेए दोसा, संकियमासंकिओ वोच्छं ॥१४८७॥ जइ संका दोसकरी, एवं सुद्धं पि होति तु असुद्धं । णीसंकमेसियं ति व, अणेसणिज्ज पि णिद्दोसं ॥१४८८।। भण्णति संकियभावो, अविसुद्धो अपडितकतरपक्खे । एसि पि कुणयऽणेसि, अणेसिमेसिं विसुद्धो तु ॥१४८९॥ णिस्संक काउ तम्हा, भोत्तव्वं संकियं भणितमेयं दारं। मक्खितमिदाणि वोच्छं, मखित जं होति संसत्तं ॥१४९०॥ दुविहं च मक्खितं खलु, सचित्तं चैव होइ अचित्तं ।। सच्चित्तं तत्थ तिहा, पुढवी आऊ य वणकाए ॥१४९१॥ पुढवीससरक्खेणं, हत्थे मत्ते व सुक्खे पणगं तु । आवत्ती दाणं पुण, णिव्वितियं होति दातव्वं ॥१४९२॥ कद्दममक्खियमीसे, लहुगो णिम्मीसे होन्ति लहुगा तु । लहुमासे पुरिमडूं, चतुलहुए होति आयामं ॥१४९३॥ ससणि दउल्ले या, पुर-पच्छाकम्म मक्खियं चतुहा । उक्कुट्ट-पिट्ठ-कुक्कुसमक्खितमेवादि वणकाये ॥१४९४॥ ससणिद्ध हत्थमत्ते, पणगं आवत्ति दाण णिव्विगई । उदउल्ले मासलहुँ, आवत्ती दाण पुरिमडूं ॥१४९५॥
म्रक्षितदोषः
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१२८
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
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पुरकम्म पच्छकम्मे, आवत्ती चतुलहू मुणेतव्वा । दाणं आयामं तू, वणकाय अतो तु वोच्छामि || १४९६॥ Tag - पि-मक्खिय, परित्तहत्थे य मत्त सच्चित्ते । मासलहू आवती, दाणं पुण होति पुरिमहूं || १४९७॥ एते चैव उ मक्खिऍ, हत्थे मत्ते य होन्तऽणन्तेसु । आवत्ती मासगुरुं, दाणं पुण होति भत्तेक्कं ॥१४९८॥ छिंदती एव सागं, छिंदती एव जं रसोलित्तं । उक्कम क्खितेतं, परितऽणतेण वा होज्जा ॥१४९९॥ सेसेहि तु काहिं, तीहि वि तेऊ - समीरण- तसेहिं । सच्चित्तमसणव, मक्खित्त ण विवज्जए किंचि ॥१५०० ॥ सच्चित्तमक्खियम्मि उ हत्थे मत्ते य होति चउभंगो । पढमम्मि दो वि मक्खिय, हत्थो वितियम्मि ण वि मत्तो ॥ १५०१ ॥ ततिए मत्तो मक्खितो, ण वि हत्थो चरिमए ण एको वि । आदितिए पडिसेहो, चरिमो भंगो अणुण्णातो ॥ १५०२ ॥ अच्चित्तमक्खित दुहा, गरहितदव्वेण वा वि इतरेणं । गरहित होति दुहा तू, लोगे तह उभययो वा वि ।। १५०३॥ मंस - वस - सोणिया - Ssसव-लसुणादी गरहिएस लोगम्मि । मुत्तपुरीसादीहिं, गरहियमेयं भवे उभए || १५०४॥ दुविहे तु गरहिए तू, आवत्ती चलहू मुणेतव्वा । दाण आयामं तू, अगरहितेत्तो पवक्खामि || १५०५ ।। अगरहिय कूरकुसणं, गोरस - घत - तेल्लमादीहिं जं तु । संसत्तमससतं, दुवि पि य होति णायव्वं ॥ १५०६॥ अच्चित्तमक्खियम्मी, चउसु वि भंगेसु होति भयणा तु । अगरहिएण तु गहणं, पडिसेहो गरहिए होति ॥ १५०७ ॥ संसज्जिमेहिं वज्जं, अगरहिएहिं पि गोरसदवेहिं । मधु-घत तेल - गुलेहि य, मा मच्छि- पिवीलियाघाओ ॥ १५०८ ॥
[ गाथा
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३५]
निक्षिप्तदोषः
जीतकल्पसूत्रम्। गोरससंसत्ते या, घत-तेल्ल-गुलादि-कीडिसंसत्ते। चतुलहुगा आवत्ती, दाणं पुण होति आयामं ॥१५०९॥ लोइयगरहित मज्जा-मंस-वसादीहिं मक्खियं जं तु । नवरं पुराण भाविअ, देसिं व पडुच्च गहणं तु ॥१५१०॥ दोहिं पि गरहिएहि, मुत्तुचाराइ होइ अग्गहणं । मक्खित भणितं एयं, एत्तो वोच्छामि णिक्वित्तं ॥१५११॥ णिक्खित्तं ठवियं ति य, एगर्दै ठाणमग्गणा एत्थं । त तिविह होति ठाणं, सच्चित्तं मीस अच्चित्तं ॥१५१२॥ एत्थं चतुभंग भवे, सच्चित्तादी अणेगह इमो तु । सच्चित्तं सचित्ते, सचित्त मीसे वऽचित्ते वा ॥१५१३॥ मीसं वा ससचित्ते, मीसं मीसे व होति णिक्खित्तं । चित्तेणं मीसेण य, एवेको होति चउभंगो ॥१५१४॥ अहुणा चित्ताचित्ते, चित्तं चित्तम्मि होति णिक्खेवो । चित्तं वा अच्चित्ते, अचित्त चित्तोभयमचित्तो ॥१५१५॥ अहुणा मीसं मीसे, मीसमचित्ते अचित्त मीसम्मि । अच्चित्तं अञ्चित्ते, ततिएसो होति चतुभंगो॥१५१६॥ चतुर्भगेसेतेसुं, संजोगाऽणेगहा मुणेयव्या। पुढवादिएमु छस्सु वि, काएमु सठाण परठाणे ॥१५१७॥ सच्चित्तपुढविकाए, सच्चित्तो चेव पुढवि णिक्वित्तो। सच्चित्ते अचित्तो, अच्चित्ते वा वि सच्चित्तो ।।१५१८॥ अच्चित्ते अच्चित्तो, सट्टाणे एस होति चउभंगो। परठाणे पंचऽण्णे, आऊमादीसिमे होन्ति ॥१५१९॥ सञ्चित्तपुढविकाओ, सच्चित्ताउम्मि होति णिक्खित्तो । सच्चित्तो अच्चित्ते, अच्चित्तो चैव सच्चित्ते ॥१५२०॥ अच्चित्तो अच्चित्ते, एवं सेसेसु तेउमादीसुं । संजोगा तव्वा, पंचसु परठाणे चउभंगो ॥१५२१॥
१७
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स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा एमेव आउ-तेऊ-वाउ-वणस्सति-तसाण चतुभंगा । एकेके विण्णेया, छ च्चतुभंगाण संजोगा ॥१५२२॥ चित्ते सच्चित्तेणं, ते छत्तीसं हवंति संजोगा। अच्चित्तमीसएण वि एवतिया चेव संजोगा ॥१५२३॥ मीसे अच्चित्तण चि, एवतिय च्चिय हवंति संजोगा। तिणि वि छत्तीसा तू , मिलिया अद्भुत्तरसयं तु ॥१५२४॥ अहवण सचित्तमीसा, य एगयो एगयो य अच्चित्तो। एत्थं चतुभंगो तू, तत्थाऽऽदितिए कहा णस्थि ॥१५२५॥ जं पुण अचित्तदव्वं, णिक्खिप्पति चेयणेसु कायेसु । तहिं मग्गणा तु इणमो, अणंतर परंपरा होति ॥१५२६॥ चित्तपुढविइ अणंतर, ओगाहिमगाइ होति णिक्खित्तं । होती परंपरं पुण, पिहडगयं जं तु पुढविठियं ॥१५२७॥ उदगमणंतर णवणीयमादि पारंपरं तु णावादी। ते उ अणंतर पारंपरे य दुयगा इमे सत्त ॥१५२८॥ विज्झायमुम्मुरिंगालमेव अप्पत्तपत्तसमजाले । वोलीणे सत्त दुगा, एते तु अणंतर परे य ॥१५२९॥ विज्झाउ त्ति ण दीसति, अग्गी दीसति य इंधणे छूढे । छारुम्मीसा पिंगल, अगणिकणा मुम्मुरो होति ॥१५३०॥ णिज्जाला हिलिहलया, इंगाला ते भवे मुणेतव्वा । होति चउत्थो भंगो, ते जालाऽपत्तपिहडं तु ॥१५३१॥ पंचम पत्ता पिहुडं, छम्मि य होति कण्णसमजाला । सत्तमए समतीया, अणंतरा होति सत्तमु वी ॥१५३२॥ पारंपर पिहुडादिसु, अगणीघट्टादि तत्थ दोसा तु । भयणा तु जंतचुल्लिसु, इणमो तु तहिं मुणेयचा ॥१५३३॥ पासोलित्त कडाहे, परिसाडी णत्थि त पि य विसालं । सो वि य अचिरच्छूढो, उच्छुरसो गाइउसिणो य ॥१५३४॥
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जीतकल्पसूत्रम् । गहणमघट्टिय कण्णे, घट्टित छारादिपडण अग्गिवहो । उसिणोदगस्स गुलरसपरिणामिय गहणणच्चुसिणे ॥१५३५।। दुविह विराहण उसिणे, छड्डण हाणी य भाणभेदो य । अच्चुसिणातो ण घेप्पति, जंतोलित्तेस जयणा तु ॥१५३६॥ वाउक्खित्ताणतर, पप्पडिगादी तु होति णायव्या। वस्थि दतिपूरिओवरि, पतिट्ठिय परंपरं होति ॥१५३७॥ हरियादि अणंतर पूरियाइ पारंपरे पिहुडमादी। गोणादिपिट्ठ पूवाढणंतरे भरगकुतिगितरं ।।१५३८॥ सव्वं ण कप्पएयं, णिक्खित्त समासतो समक्खातं । पुढवादीणं एत्तो, आवत्ती दाण वोच्छामि ॥१५३९॥ पुढवादी जाव तसे, अणंतवणकाय मोत्तु णिक्खित्ते । संति अणंतर लहुगा, परंपरे होति मासलहुं ॥१५४०॥ चतुलहुए आयाम, मासलहू दाण होति पुरिमई। एवं सच्चित्तम्मि, भणियं मीसे अतो वोच्छं ।।१५४१॥ एतेसु चेव पुढवादिएमु मीसे अगंतरे लहुओ। होति परंपरे पणगं, दाणं एत्तो तु वोच्छामि ॥१५४२॥ लहुमासे पुरिमडूं, पणगे पुण दाण होति णिविगति । वणकायमणतेमुं, आवत्ती दाण वोच्छामि ॥१५४३॥ वणकायअणतेमुं, णिक्खित्त अणंतरे तु चतुगुरुगा। होति परंपरि गुरुओ, दाणं तु अतो तु वोच्छामि ॥१५४४॥ चतुगुरुए तु चउत्थं, गुरुमासे दाणमेगभत्तं तु । आवत्ती दाणं पि य, पिहियम्मि अतो उ वोच्छामि ॥१५४५॥ पिहियाणंताऽणंतर, परंपरे चेव होति गुरुपणगं ।
पिहितदोषः लहुपणगं तु परित्ते, दोसु वि दाणं तु णिधिगती ॥१५४६॥ आवत्ती दाणे वा, पुढवादीणिक्खिवंत भणियं तु । एत्तो समासयो च्चिय, पिहितद्दारं पवक्खामि ॥१५४७॥
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स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा
सच्चित्तादिसु अच्चित्तपिहिय चतुभंग तह य संजोगा । जह भणिया णिक्खित्ते, तह चैव य होन्ति पिहिते वि ।। १५४८ || संचित मीस एको, एकं तोऽचित्त एत्थ चउभंगो । आदिदुवे पडिसेहो, ततिए भंगम्मि मरगणया ।। १५४९ ॥ अच्चित्त सचित्तेणं, अतिरं सतिरं च जं भवे पिहितं । पुढवादिसु छस्सु वि, लोहादी अतिर पुढवीए । १५५० ॥ पच्छिय - पिडादिऽतिरं, ओगाहिमगादिऽणंतरं होति । वद्धणियादि परंपर, अगणिकाए इमं होति ॥ १५५१ ॥ अतिरं अंगाराई, तहियं पुण संतरो सरावादी । तत्येव अतर वायू, परंपरो वत्थिणा पिहिते || १५५२ ॥ अरं फलादिपिहियं, वणम्मि इतरं तु पच्छि-पिहुडादी | कच्छवसंचारादी, अतिरतिरं पच्छियादीहिं ॥ १५५३।। तइए भंगे मग्गण, भणिएस चउत्थभंगभयणा तु । अच्चित्त अच्चित्तेणं, पिहिए का भयण ? सुणसु इमा ॥ १५५४ ॥ चतुभंगो पिहिएणं, गुरुयं गुरुएण लहुअ (गुरुअ ) लहुएणं । लहुयं गुरुएण तहा, लहुयं लहुएण चरिमो तहिं गज्झो । १६६६ पुढवादीणं कमसो, आवत्ती दाण जह तु णिक्खिते । आयविरहण गुरुयं, ति कातु णवरं तु चउगुरुया || १५५६ ।। एत्थ उ दाण चतुत्थं, एतो वोच्छामि साहरणदारं । साहरणं उकिरणं, विरेयणं चेव एगई || १५५७॥ संहतदोषः मत्तेण जेण दाहिति, तत्थ अदेज्जं तु होज्ज जं दव्वं । तं साहरितुं अण्णहिं, मत्तेणं देइ साहरणा || १५५८il सा पुण छसु जातव्वा, सचित्तमीसा तहेव अच्चित्ता । एत्थ वि जह णिक्खित्ते, भंगा संजोग तह चैव ।। १५५९ ।। सच्चित्तमीस आदिल्लएसु दुसु णत्थि मग्गण विवेगो । ततियम्मि मग्गणा तू, छसु भोमादीस साहरणे ॥ १५६०॥
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जीतकल्पसूत्रम् । चरिमे भंगे भयणा, जं दुहमच्चित्त का तहिं भयणा । भण्णइ सुणसू तहियं, चउभंगो होति इणमो तू ॥१५६१।। सुक्के सुकं पढमं, सुक्के उल्लं तु बितियओ भंगो। उल्ले सुक्खं तइओ, उल्ले उल्लं चउत्थो तु ॥१५६२॥ एक्कक्के चउभंगो, सुक्कादीएसु चउसु भंगेसु । थोवे थोवं थोवे, बहुयं बहु थोव बहु बहुगं ॥१५६३।। जत्थ तु थोवे थोवं, सुक्खे उल्लं च छुभति तं गझं । जति तं तु समक्खितुं, थोवाहारं दलइ मत्तं (अन्नं) ॥१५६४॥ सेसेस तीसु पी, दाता भंगेसु होति णातव्यो । थोव बहुं बहुग थोवो, बहु बहुगो चेव इगमो तु ॥१५६५॥ उक्खेवे णिक्खेवे, महल्लभाणम्मि लुद्ध वह डाहो । छक्कायवहो य तहा, अचियत्तं चैव वोच्छेदो ॥१५६६॥ थोवे थोवं छूढे, सुक्खे उल्लं तु उल्ले मुक्खं तु । बहुगं तु अणाइण्णं, कडदोसो सो त्ति कातूणं ॥१५६७। साहरणेयं भणियं, आवत्ती दाण जह तु णिक्खित्ते । दायगदारं अहुणा, समासओ हं पवक्खामि ॥१५६८॥ बाले वुड़े मत्ते, उम्मत्ते वेविए य जरिए य । अंधेल्लए पगलिए, आरूढे पाउयाहिं च ॥१५६९॥ हत्थंदु-णियलबद्धे, विवज्जिए चेव हत्थ-पाएहिं । तेरासि मुव्विणी बालवच्छ मुंजति घुमुलेंती ॥१५७०॥ भज्जेन्ती य दलेन्तो, कंडेन्ती चेव तह य पीसेन्ती । पिज्जंती रुंचंती, कत्र्ततो पगडमाणी (पमद्दमाणी) य॥१५७१॥ छक्कायवग्नहत्था, समणहा णिक्खिवित्तु ते चेव । ते वागाहेन्ती, संघीताऽऽरभंती य ॥१५७२।। संसत्तेण तु दब्वेण लित्तहत्था य लित्तमत्ता य ।
दायकदोषः
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स्वोपज्ञभाष्ययुत
[गाया ओयत्तेन्ती साहारणं च देन्ती य चोरिययं ॥१५७३॥ पाहुडियं च ठवेन्ती, सपञ्चवाया परं च उद्दिस्स ।। आभोग अणाभोगेण दलंती वज्जणिज्जा उ ॥१५७४॥ एतेसि दायगाणं, गहणं केसिंचि होति भइयव्वं । केसिंची अग्गहणं, तप्पडिवक्खे भवे गहणं ॥१५७५॥ एते दायगदोसा, एतेहिं दिजमाण ण वि कप्पे । जे तु अकारणे गेण्हे, पच्छित्तं तेसि वोच्छामि ॥१५७६॥ बाले बुड़े मत्ते, उम्मत्ते वेविए य जरिए य । एतेसिं मासलहुं, आवत्ती दाण पुरिमई ॥१५७७॥ अंधेल्ल-पगलियादी, जाव तु दारं तु बालवच्छ त्ति । पत्तेयं चतुगुरुगा, दाणं पुण होयऽभत्तटुं ॥१५७८।। भुंजण-घुसुलेन्तीए, आवत्तो चतुलहू मुणेयव्वा । दाणं आयामं ती, भज्जणमादी अतो वोच्छं ॥१५७९॥ भज्जन्ती य दलेती, जाव तु छक्कायवग्गहत्थ त्ति । समणहा ते चेव तु, णिक्खिव आगाह घट्टन्ती ॥१५८०॥ एत्थ तु विसरिसदाणं, पच्छित्तं होति कायणिप्फण्णं । सेसेसुं दारेसुं, चतुलहुगा दाणमायामं ॥१५८१॥
एते दायग भणिता, एत्तो उम्मीसयं पवक्रवामि । उन्मिश्रदोषः तं तिह सचित्त मोसग, अच्चित्तेणं च उम्मीसं ॥१५८२॥
जह चेव य संजोगो, कायाणं हेट्टओ तु साहरणे । तह चेव य उम्मीसे, होति विभागो णिरवसेसो ॥१५८३।। चोएति को विसेसो, साहरणुम्मीसयाण दोण्हं पि ? भण्णति साहरणं तू, भिक्खट्टा भत्तयं रेये ॥१५८४॥ उम्मीसं पुण दायव्वयं च दो वेते मीसितुं देज्जा । बीय हरियाइएहिं, जह ओदण कुसणमादीणि ॥१५८५॥ तं पि य सुक्खे सुक्खं, भंगा चत्तारि जह तु साहरणे ।
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१३५]
जीतकल्पसूत्रम् । अप्पबहुए वि चउरो, तहेव चाइण्णऽणाइण्णं ॥१५८६॥ उम्मीस भणियमेयं, एत्तो वोच्छामि परिणयं दुविहं । अपरिणतदोषः दव्वे भावे य तहा, दव्वे पुढवादि छक्कं तु ॥१५८७॥ जीक्तम्मि अविगते, अपरिणयं परिणयं गते जीवे । दिस॒तो दुद्ध दही, इय अपरिणयं परिणयं चेव ॥१५८८॥ दव्वे अपरिणयम्मी, पच्छित्तं होति कायणिप्फणं । भावे अपरिणतं पुण, एत्तो वोच्छं समासेणं ॥१५८९॥ सज्झिल्लगादिणं तू, अहवा अण्णेहिं होति सामण्णं । तत्थेगस्स परिणतो, भावो देमि त्ति साहुस्स ॥१५९०॥ सेसाण ण वि परिणयो, अपरिणयं भावतो भवे एयं । अहवा वि दाणमण्णं, अपरिणयं भावतो होति ॥१५९१॥ संघाडग हिंडतो, एगस्स गणम्मि परिणयं एसी बितिएण तु परिणमती, तं पि अघेत्तव्य मा कलहो ॥१५९२॥ पढमिल्लुग भावम्मी, अप्परिणयगेण्हणे तु लहुमासो। तस्सावत्ती भवति, दाणं पुण होति पुरिमई ॥१५९३॥ भणित अपरिणयमेयं, एत्तो वोच्छामि लित्तदारं तु । लिप्तदोषः लित्तम्मि जत्थ लेवो, लब्भति कुसणाभिदव्वस्स ॥१५९४॥ तं खलु ण गेण्हियव्वं, मा तहियं होज पच्छकम्मं तु । तम्हा उ अलेवकडं, णिप्पावादी गहेतव्वं ॥१५९५।। इति उदिते चोएई, जदि पच्छाकम्मदोस एवं तु। . तो ण वि भोत्तव्वं चिय, जावज्जीवाए भणति गुरू ॥१५९६।। को कल्लाणं नेच्छति, आवस्सगजोग जदि ण हायति । तो अच्छतु मा भुंजतु, अह ण तरे तत्थ भंगऽट्ठा ॥१५९७॥ संसट्ठहत्थ-मत्ते, सव्वम्मी सावसेस भंगऽहा । गहणं तु सावसेसे, सेसयभंगेसु भयणा यु ॥१५९८॥
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१३६
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[गाथा संसत्तहत्थ-मत्ते, लित्ते लहुगा तु दाणमायामं । अवसेस लि....उ, दाणं पुण होति पुरिमई ॥१५९९।।
लितं ति गतं एयं, एत्तो वोच्छामि छड्डियं अहुणा । छर्दितदोषः
तं पि तिह छड्डियं तू , सचित्त मीसं च अच्चित्तं ॥१६००।। छड्डिऍ चउलहुगा तू , आवत्ती दाण होति आयाम । अहव सचित्तादीणं, आवत्ती कायणिप्फणं ॥१६०१॥ सच्चित्त मीसए या, चउभंगो छड्डणम्मि इत्थ भवे । चउभंगे पडिसेहो, गहणे आणादिणो दोसा ॥१६०२॥ उसिणस्स छड्डणे देन्तओ व डझेज कायडाहो वा । सीयपडणम्मि काया, पडिए महुबिंदुआहरणं ।।१६०३॥ छड्डिय भणियं एयं, गहणेसण एस परिसमत्ता तु । गहितस्स अतो विहिणा, घासेसण पत्तमहुणा उ ॥१६०४।। सा चतुहा णामादी, सव्वं वण्णेत्तु एत्थ दारम्मि । एतस्सेवोवणयं, वोच्छामि इमं समासेणं ॥१६०५॥ मच्छत्थाणी साहू, मंसत्थाणी य भत्तपाणं तु । रागादीण समुदयो, मच्छियथाणी मुणेतव्वो ॥१६०६॥ जह ण छलिओ तु मच्छो, उवायगहणेण एव साहू वि। अप्पाणमप्पण चिय, अणुसासे झुंजमाणो उ ॥१६०७॥ बायालीसेसणसंकडम्मि गेण्हंतो जीव ! ण सि छलितो । एहि जह ण छलिजसि, भुंजतो राग-दोसेहिं ॥१६०८॥ घासेसणा तु भावे, होति पसत्था य अप्पसत्था य। अपसत्था पंचविहा, तविवरीता पसत्था तु ॥१६०९॥ संजोइय अइबहुयं, संगाल सधूमयं अणट्टाए ।
पंचविह अप्पसत्था, तविवरीता पसत्था तु ॥१६१०॥ योजनादोष. संजोयणेत्थ दुविहा, दव्वे भावे य दव्वे बहियंतो ।
भिक्खं चिय हिण्डता, संजोए बाहिरेसा तु ॥१६११॥
ग्रासैषणा
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जीतकल्पसूत्रम् । खीर-दहि-कट्टरादिण, लंभे गुड-सालि-कूर-घतमादी। जातित्ता संजोए, हिण्डतंतो अतो वोच्छं ॥१६१२॥ अंतो तिह पादम्मी, लंबण वयणे य होइ बोद्धव्वं । जं जं रसोचकारि, संजोययए तु तं पाए ॥१६१३॥ वालुक-वडग-वाइंगणादि संजोए लंबणेण समं । वयणम्मि छोटु लंबण, तो सालणगं छुभे पच्छा ॥१६१४॥ दव्वम्मि एस संजोयणा तु संजोएँ जं तु दवाई। रसहेउ तेहिं पुण, संजोयण होति भावम्मि ॥१६१५॥ संजोएन्तो दव्वे, राग-द्दोसेहिं अप्पगं जोए। राग-दोसणिमित्तं, संजोययए तु तो कम्मं ।।१६१६।। कम्मे हितो य भवं, संजोययए भवातु दुक्खेणं । संजोययए अप्पं, एसा संजोयणा भावे ॥१६१७॥ रसहेउं पडिकुट्ठो, संजोयो कप्पए गिलाणहा । जस्स व अभत्तछंदो, सुहोइओ अभावितो जो य ॥१६१८॥ अहव ण जाई दव्वं, पत्ते य घयादिगा वि मेलंति । सत्तुगमादीहि समं, भा होतु विर्गिचणीयंति ॥१६१९।। अंतो बहि चउगुरुगा, बितियाएसेण बाहि चउलहुगा । चउगुरुगेऽभत्तह, चउलहुगे होति आयामं ॥१६२०॥ संजोयण भणिएसा, अहुण पमाणं भणामि आहारे । जावतियं भोत्तव्यं, साहू हिं जावणहाए ॥१६२१॥ बत्तीस किर कवला, आहारो कुच्छिपूरओ भणिओ। पुरिसस्स महिलियाए, अट्ठावीसं भवे कवला ॥१६२२॥ चउवीस पंडगस्सा, ते ण गहित जेण पुरिस-इत्थीणं । पव्वज ण पंडस्स उ, तम्हा ते ण गहिता एत्थं ॥१६२३॥ एत्तो किणावि हीणं, अद्धं अद्धद्धगं च आहारं । साहुस्स बेन्ति धीरा, जायामायं च ओमं च ॥१६२४॥
प्रमाणदोषः
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१३८
स्वोपज्ञभाष्ययुत
[ गाथा पकामं च णिकामं च, जो पणियं भत्त-पाणमाहारे । अतिवहुयं अतिबहुसो, पमाणदोसो मुणेयव्वो ॥१६२५॥ बत्तीसाउ परेणं, पकाम णिचं तमेव तु णिकामं । जं पुण गलंतणेहं, पणीतमिति तं बुहा बैंति ॥१६२६॥ अतिबहुयं अतिबहुसो, अतिप्पमाणेण भोयणं भुत्तं । हादेज व वामेज क, मारेज व तं अजीरंतं ॥१६२७॥ णियगाहारादीयं, अइबहुयं अइबहुसो तिण्णि वारा उ । तिण्ह परेण तु जं तु, तं चेव अतिप्पमाणं तु ॥१६२८॥ अहवा अतिप्पमाणो, आतुरभूतो तु मुंजए जंतु। तं होति अतिपमाणं, हादणदोसा उ पुव्वुत्ता ॥१६२९॥ जम्हा एते दोसा, अतिरित्ते तेण होति चतुलहुगा । आवत्ती दाणं पुण, आयामं होति णायव्वं ॥१६३०॥ दोसा अतिप्पमाणे, तम्हा भोत्तव्य होति केरिसयं ? | भण्णति सुणसू जारिस, भोत्तव्वं होति साहू हिं ॥१६३१॥ हियाहारा मियाहारा, अप्पाहारा य जे णरा। ण ते विज्जा चिगिच्छंति, अप्पाणं ते चिगिच्छगा ॥१६३२॥ हितमहितं होति दुहा, इह परलोगे य होति चउभंगो। इहलोग हितं ण परे, किंचि परे णेय इहलोए ॥१६३३॥ किंचि हितमुभयलोए, णोभयलोए चतुत्थी भंगो। पढमगभंगो तहिये, जे दव्वा होन्ति अविरुद्धा ॥१६३४॥ जह खीर-दहि-गुलादी, अणेसणिज्जा व रत्तदुढे वा। भुंजते होति हियं, इहई ण पुणाइ परलोए ॥१६३५॥ अमणुण्णेसणसुद्धं, परलोगहितं ण होति इहलोगे । पत्थं एसणसुद्धं, उभयहियं होति णातव्वं ॥१६३६।। अहितोभयलोगम्मी, अपत्थदव्वं अणेसणिज्जं च ।
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अङ्गारदोषः
जीतकल्पसूत्रम् । अहवा वि रत्तदुट्ठो, मुंजति एत्तो मियं वोच्छं ॥१६३७॥ अद्धमसणस्स सव्वंजणस्स कुज्जा दक्स्स दो भाए । वायुपवियारणहा, छब्भागं ऊणगं कुज्जा ॥१६३८॥ सीयो उसिणो साहारणो य कालो तिहा मुणेयव्यो। एएसुं तीसुं पी, आहारे होतिमा मत्ता ॥१६३९॥ एगो दवस्स भागो, अवहितो भोयणस्स दो भागा। व९ति व हायंति व, दो दो भागा तु एक्केक्के ॥१६४०॥ एत्थ तु ततियचतुत्था, दोणि वि अणवहिता भवे भागा । पंचम छट्ठो पढमो, बितिओ य अवहिता भागा ॥१६४१॥ एयं तु मियं भणियं, एत्तो वी हीणगं भवे अप्पं । एय पमाणाऽभिहितं, संगालादी अतो वोच्छं ॥१६४२॥ संगाले चउगुरुगा, आवत्ती दाण होयऽभत्तहूँ । चउलहुगा तु सधूमे, आवत्ती दाणमायामं ॥१६४३॥ णिकारण भुंजन्ते, एत्थ वि लहुगा तु दाणमायाम । बितियादेसे लहुओ, आवत्ती दाण पुरिमडूं ॥१६४४॥ ण वि भुंजइ कारणतो, एत्थ वि लहुगा उ दाणमायामं । सेंगालादिण कमसो, सरूवमिणमो पवक्खामि ॥१६४५।। जह इंगाला जलिया, डहति.जं तत्थ इंधणं पडियं । इह चिय रागिंगाला, डहंति चरणिधणं णियमा ॥१६४६॥ रागेण सइंगालं, जे आहारेइ मुच्छिओ साहू । सुट्ठ सुसंभित णिद्धं, सुपक सुरसं अहो सुरहिं ॥१६४७॥ रागग्गीपज्जलिओ, मुंजतो फासुय पि आहारं। णिहडिंगालणिभं, करेति चरणिधणं खिप्पं ॥१६४८।। भणितं संगालेयं, अहुणा वोच्छं सधमगं पगते । केवलवियणं तं तू, धूमायंतं तहा छगणं ॥१६४९॥
धूमदोषः
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स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[गाथा जह वा वि चित्तकम्म, धूमेणोरत्तयं ण सोभइ छ । तह धूमदोसरतं, चरणं पि ण सोभए मइलं ॥१६५०॥ दोसेण सधूमं तू , जं आहारेति साहु जिंदंतो। विरसमलोणं कुहितं, रोरो भोक्खेति णं एयं ॥१६५१॥ दोसग्गी वि जलंतो, अप्पत्तियधूमधूमियं चरणं । अंगारमेत्तसरिसं, जा ण भवति णिड्डहति ताव ॥१६५२॥ रागेण सइंगालं, दोसेण सधृमगं मुणेयव्वं । राग-द्दोससहगतं, तम्हा तु ण होति भोत्तव्वं ॥१६५३॥ आहारंति तवस्सी, विगतिगाल च विगयधूमं च । झाण-ऽज्झयणणिमित्तं, एसुवएसो पवयणस्स ॥१६५४॥
भणितं सधूममेयं, एत्तो वोच्छामि कारणहारं । कारणदोषः तं पुण पडिक्कमंतो, चरिमुस्सग्गे विचिन्तेति ॥१६५५ ।
भोत्तव्य कारणम्मी, किं अस्थि अहव नत्थि जइ अत्थी। तो भुजेज्जा साहू, के पुण ते कारणा ? सुणसु ॥१६५६॥ छहि कारणे हि साहू, आहारंतो उ आयरति धम्म । छहिं चेव कारणेहिं, णिज्जूहंतो यु आयरति ॥१६५७॥ वेयण वेयावच्चे, इरियट्ठाए य संजमहाए । तह पाणवत्तियाए, छद्रं पुण धम्मचिन्ताए ॥१६५८॥ पत्थि छुहाएँ सरिसिया, वियणा भुंजेज तप्पसमणहा । छादो वेयावच्चं, ण तरति काउं अयो भुंजे ॥१६५९।। इरियं च ण सोहेती, खुहितो भमलीय पेच्छ अन्धारं । थामो वा परिहायइ, पेहादी संजमं ण तरे ॥१६६०॥ आयु-सरीर-प्पाणादि छबिहे पाण ण तरती मोत्तुं । तद्धारणट्टतेणं, झुंजेज्जा पाणवत्तीयं ॥१६६१॥ धम्मज्झाणं ण तरति, चिन्तेउं पुव्वरत्तकालम्मि । अहवा वी पंचविहं, ण तरति सज्झाय काउं जे ॥१६६२॥
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३५ ]
जीतकल्पसूत्रम् । एतेहिं कारणेहिं, छहिं आहारेति संजतो णियमा । छहिं चेव कारणेहि, णाहारेती इमेहिं तु ॥१६६३॥ आतंके उवसग्गे, तितिक्खया बंभचेरगुत्तीए । पाणिदया-तवहेऊ, सरीरवोच्छेयणढाए ॥१६६४॥ आयंको जरमादी, तम्मुप्पण्णे ण मुंजे भणितं च । सहसुप्पइया वाही, वारेज्जा अट्ठमादी हिं ॥१६६५॥ राया सण्णायादी, उवसग्गो तम्मि वी ण भुजेज्जा । सहणहा तु तितिक्खा, बाहिज्जते तु विसएहिं ॥१६६६॥ भणितं च जिणिदेहि, अवि आहारं जती हु वोच्छिदे । लोगे वि भणिय विसया, विणिवत्तंते अणाहारे ॥१६६७।। तो बंभरक्खणट्ठा, ण वि मुंजेज्जा हि एवमाहारं । पाणदय वास महिया, पाउसकाले व ण वि मुंजे ॥१६६८॥ तवहेतु चउत्थादी, जाव तु छम्मासिओ तबो होति । छठें णिच्छिण्णभरो, छड्डेतुमणो सरीरं तु ॥१६६९॥ असमत्थो संजमस्स उ, कतकिञ्चोवक्खरं व तो देहं । छड्डमि त्ति न मुंजइ, सव्वह वोच्छेय आहारं ॥१६७०॥ घासेसणा सम्मत्ता ॥ मूलाहसोलस उग्गमदोसा, सोलस उप्पादणाएँ दोसा तु । दस एसणाएँ दोसा, संजोयणमादि पंचेव ॥१६७१।। सीयालीसं एते, सव्वे वी पिडिता भवे दोसा । जेहिं अविसुद्ध पिंडे, चरणुवघातो जतीण भवे ॥१६७२॥ एतद्दोस विमुक्को, भणिताऽऽहारो जिणेहिं साहूणं । धम्मावस्सगजोगा, जेण ण हायंति तं कुज्जा ॥१६७३॥ उग्गममादीणं तू , कारणपज्जन्तपत्थडो एस। लक्खण आवत्ती दाणमेव कमसो समक्खायं ॥१६७४॥
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स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा पिंडपत्थारो । अहुणा गाहत्थोगाथाया अर्थ: अहुणा गाहाणं तू , वोच्छामी अक्खरस्थमिणमो तू ।
उद्देस कम्म मोत्तुं, चरमतियं होति सेसं तु ॥१६७५।। पासंडाणं पढम, बितियं समणाण ततिय साधणं । चरिमतियं एवं तू, कम्मं ती आहकम्मं तु ॥१६७६।। पासंड मीसजाए, साहूमीसे य सघरमीसे य । बायरपाहुडिया तू , विवाह उस्सक ओसका ॥१६७७।। आहड सपञ्चवाय, विराहणा जत्थ होति आयाए । लोभेण जो उ एसति, सो होतो लोभपिंडो तु ॥१६७८॥ सव्वेसु वि एतेसु, उद्देसिगमादिलोभपज्जते । पत्तेयं पत्तेयं, सोही एत्थं तु भत्तटुं ॥१६७९॥३५॥ अतिरंअणंतणिक्खित्त-पिहिय-साहरिय-मीसियादीसुं। संजोग सइंगाले, दुविह णिमित्ते य खमणं तु॥३६॥ अतिर णिरंतर भण्णति, अणंतकायो तु होति वणकायो । पूवलिमादी किंची, णिक्खित्तं होति एत्थं तु ॥१६८०॥ पिहितं अणंतकाए, साहरियमणंतमीसियं वा वि । आदिग्गहणेणं पुण, अपरिणएऽणतकाए वि ॥१६८॥३६॥ कम्मुदेसिय-मीसे, धायादि-पगासणादिएसुं च । पुर-पच्छकम्म-कुच्छिय-संसत्तालित्तकरमत्ते ॥३७॥ जावंतिकम्म पढमे, जावंतियमीसजायमादिल्ले । पंचविह धातिपिंडे, खीरादी अंकपज्जन्ते ॥१६८२॥ आदिग्गणेणं पुण, दूतीपिंडे णिमित्ततीए य । आजीव वणिमपिंडो, बादरतेगिच्छणाहिं च ॥१६८।। कोहे माणे य तहा, संबंधी वयणसंथवे थीम् । विज्जा मंते चुण्णे, जोगे एमेते आदिपदा ॥१६८४॥
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१४३
३६-३९ ]
जीतकल्पसूत्रम् । पादोकरण पगासे, दव्वे कीए य आयपरकीए । भावे तु आयकीते, लोइयपामिचिएमुं च ॥१६८५॥ लोइयपरियट्टे वी, परगामे आहडम्मि णिरवाते । पिहिउब्भिण्णसचित्ते, तह य कवाडे य गायव्वे ॥१६८६॥ मालोहडमुक्कोसे, अच्छेज्जे तह य होति अणिसट्टे । एमेते तु पगासणमादिपदा होति णायव्वा ।।१६८७।। पुरकम्म पच्छकम्मे, कुच्छियदव्वेण मक्खियं जं तु । संसत्तदव्वलित्ते, हत्थे मत्ते व णातव्वं ॥१६८८॥ एतेसु जहुदिहो, कम्मादिसु लित्तपज्जवसिएसु । पत्तेयं पत्तेयं, सोही एत्थं तु आयामं ॥१६८९॥३७॥ अतिरं परित्तणिक्खित्त-पिहिय-साहरिय-मीसियादीसु। अइमाण-धूम-कारणविवज्जए विहियमायामं ॥३॥ अतिर णिरंतर भणितं, परित्तकाए उ होति णिक्खित्तं । परितेण य जं निहितं, साहरियं वा परित्तणं ॥१६९०॥ मीस परित्तेणं चिय, आदिग्गहणा परित्तलित्ते वि । परितेसु छड्डियम्मि वि, आदिग्गहणा तु एमेते ॥१६९१॥ अइमाण सधूमे या, आहारे कारणे विवच्चासो । कारणविवज्जओ तू , केरिसओ होतिमं वोच्छं ॥१६९२॥ आहारेति अकज्जे, ण समुद्दिसे एव कारणे जो तु । एस विवज्जो भणितो, सव्वत्थ वि सोहि आयामं ।।१६९३॥३८॥
अज्झोयर-कड-पूतिय-मायाणते परंपरगए य । मीसाणंताणंतरगतादिए चेगमासणगं॥३९॥ पासंडऽज्झोयरओ, साहूअज्झोयरो य णायव्यो। होति कडो चउहा तू, जावंतियमादि विन्नेयो ॥१६९४॥
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१४४
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
आहारे पूतियम्मी, मायापिंडे य होति णायच्वे । सच्चित्तणंतकाए, परंपरे जं तु णिक्खित्ते || १६९५ ॥ मीसाणतअंतरणिक्खित्ते चेव होति णायव्वे | आदिग्रहणे पिहिते, साहरिए मीसए चेव ।। १६९६॥ गहिताणंतपरंपरमीसऽतिरं पिहियमादि बोद्धव्वं । एव जहुद्दिट्ठेस्, सव्वत्थ वि सोहि भत्ते || १६९७॥३९॥ ओह-विभागद्दे सोवकरण- पूती अ-ठविय - पागडिए । लोउत्तर- परियट्टिय पमिच्च - परभावकी ए य ॥ ४०॥ ओहुद्देसविभागे, उद्देस चव्विहेतु जातव्वो । उवगरणपूतिए या, चिरठविए पागडे चैव ।। १६९८ ।। लोउत्तरपामिच्चे, परियट्टिय उत्तरे य णायव्वे ॥ परभावकीय मंखादिसु सव्वे उद्दिट्टो || १६९९॥ पत्तेयं पत्तेयं, सोही एत्थं तु होति पुरिम हूँ । सग्गामाहडमादी, पत्ते एयं पवक्खामि || १७०० ॥ ४० ॥ सग्गामाइड - दद्दर - जहण्णमा लोहडोतरे पढमे । सुहुमतिगिच्छा-संथवतिग-मक्खिय-दायगोवहए ॥४१॥
[ गाथा
सग्गामाहडदद्दर, उभिण्णे अहव गट्टिसहिए तु । मालोहडे जहणे, उयरो अज्झोयरो होति ॥ १७०१ ॥ पढमो जावंत झोय तु एसो य हो मुणेतव्वो । मुहुमतिमिच्छा संथव, वयणे तू होति णायव्वो || १७०२ || कद्दममक्खिय पुढवी - आऊ - उदउल्लमक्खिए जं तु । वणकायपरित्तेणं, उकुठे मक्खियतिगेणं ॥ १७०३॥ दायगउवहय एत्तो, दायम बालादियsप्पभू जे य । एतेसेत्थ हिगारो, ते य इमे होंति बालादी ॥ १७०४॥
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४०-४३ ]
जीतकल्पसूत्रम् । बाले वुड़े मत्ते, उम्मत्ते वेविए य जरिए य । एते देंति तु जंतू, तं होती दायगोवहयं ॥१७०५॥ एतेमु जहुद्दिढेसाऽऽहडमादीसु. जरिययन्ते । पत्तेयं पत्तेयं, सोही एत्थं तु पुरिमई॥१७०६॥४१॥ पत्तेयपरंपरठविय-पिहिय-मीसे अणंतरादीसु। पुरिमझू संकाए, जं संकइ तं समावज्जे ॥४२॥ वणकायपरित्तेणं, सच्चित्तपरंपरं तु णिक्खित्ते । तेणेव य पिहियं तू , परंपरं होति विण्णेयं ॥१७०७॥ एमेव य साहरिए, सच्चित्तपरंपरे परित्तम्मि । मीसपरित्त अणंतर, णिक्खित्ते होति णायव्वं ॥१७०८॥ आदिग्गहणेणं तू , पिहिए उ अणंतरे तु मीसम्मि । एमेव य साहरणे, मीसेसु अणंतरे होति ॥१७०९॥ सव्वेसु जहुद्दिढेसु सोहि पुरिमड़मेत्थ पत्तेयं । संकाए जं संकति, तस्सेव य होति पच्छित्तं ॥१७१०॥४२॥ इत्तरठविए सुहुमे, ससणिद्ध सरक्ख मक्खिए चेव । मीसपरंपरठवियादिएसु बितिएसुवा विगती॥४३॥ इत्तरठवणा भत्तो, पाहुडिया सुहुम तह य ससणिद्धे । आयू मक्खियमेयं, ससरक्वं पुढविए होति ॥१७११॥ पुढवी आउकाए, तेऊ वाऊ परित्तवणकाए । बेइंदिय तेइंदिय, चउरो पंचिंदिएमुं च ॥१७१२॥ एतेसुं पुढवादिसु, मीसे उ परंपरे उ णिक्खित्ते । पत्तेयं पत्तेय, लहुपणगं दाण णिव्विगती ॥१७१३॥ वणकायअणंतमीसे, णिक्खित्ते परंपरं तु सोहीमा । गुरुपणगं आवत्ती, दाणं पुण होति णिविगति ॥१७१४॥
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स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा बितियाणंताऽणंतरणिक्खित्ते गुरुगषणग आवत्ती। दाणं णिविगती ऊ, परंपरे होति एमेव ॥१७१५॥ बितियपरित्ताणंतरणिक्खित्ते लहुगपणगमावत्ती। दाणं णिविगयं तू , परंपरे होति एमेव ॥१७१६॥४३॥ सहसाऽणाभोगेण व, जेसु पडिकमणमाहियं तेसु । आभोगओविबहुसो,अतिप्पमाणे वणिव्विगती॥४४ सहसा-अणाभोगा तू, पुव्वुत्ता जेसु जेसु ठाणेसु । सव्वेसु वि तेसु भवे, पडिक्कमण पुव्वविहियं तु ॥१७१७॥ तेसु त्ति कारणेसुं, आभोगे इत्थ जाणमाणो उ । बहुसो होति पुणो पुणो, अतिप्पमाणे वि एमेव ॥१७१८॥ सव्वत्थ तु णिविगई, सोही आभोगतो मुणेतव्वा । बहुसो वि सोहि एसा, अतिप्पमाणे वि णातव्या ॥१७१९॥४४ धावण-डेवण-संघरिस-गमण-किड्डा-कुहावणादीसु। उक्कुट्ठि-गीत-छेलिय-जीवरुयादीसुय चउत्थं ॥४५॥ धावण गतिमतिरित्ता, वाडित्ति व डेवणं तु...ड्डवणं । संघरिसो जमलिओ तू , को सिग्घगति त्ति वचति तु ॥१७२०॥ किड्डा होयऽहावय, चउरंगा जूयमादि णायव्वा ।। वट्टादि इंदजालं, खेड्डा उ कुहावणा एसा ॥१७२१॥ आदिग्गहणेणं तू , समासओ पहेलिया कुहेडादी। उक्कुट्ठी पुकारो, गीतं पुण होइ कंठं तु ॥१७२२।। छेलिय सेण्टा भण्णति, संगारो कीरती तु सासण्णा । जीवरुअ मयूरादी, कोइलमादी व णातव्वं ॥१७२३॥ धावणमादिपदेखें, सव्वेसु अहकमेण विण्णेयं ।। पत्तेयं पत्ते, सोही साहुस्सऽभत्तई ॥१७२४॥४५||
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जघन्य उपधिः
मध्यम उपधिः
उत्कृष्ट उपधिः
४४-४७ ]
जीतकल्पसूत्रम् । तिविहोवहिणो विच्चुतविस्सरितापेहिताणिवेदणएं। णिवितियं पुरिमेकासणाइ सल्लम्मि चायामं ॥४६॥ तिविहो तु होति उवही, जहण्णओ मज्झिमो य उक्कोसो । चतुविह छविह चतुभेदयो य कमसो मुणेयव्वो ॥१७२५॥ मुहपोत्ति पायकेसरि, पत्तठ्ठवणं तु गोच्छओ चेव । एसो जहण्णओ तू , मज्झिमगमतो पवक्खामि ॥१७२६॥ पडलय रयतरणं वा, पत्ताबंधोय चोलपट्टो य।। मत्तय स्यहरणं वा, मज्झिमओ एस णातब्बो ॥१७२७॥ पच्छादतिग पडिग्गह, एसो उकोसओ चतुब्भेओ। ओहोवही उ एसो, तिविहो तु समासतो होति ॥१७२८॥ ओवग्गहिओ तिविहो, जहण्ण मज्झो तहेव उक्कोसो । सव्वो वण्णेयव्वो, जह भणिओ कप्पअज्झयणे ॥१७२९॥ विच्चुत पडियं भण्णति, पुणरवि लद्धे जहण्णमादीसु । सोही पमायमूला, णिव्वियमादी य इणमो उ ॥१७३०॥ णिव्विगति जहण्णम्मि, मज्झिमए सोहि होति पुरिमई। एक्कासणमुक्कोसे, सबम्मि य होति आयामं ॥१७३१॥ तिविहोवहि विस्सरिए, ण वि पडिलेहेइ तत्थ सोहि इमा। णिचितितं पुरिमेक्कासणं तु सव्वम्मि चाऽऽयामं ॥१७३२॥ तिविहोवहि विस्सरिए, आयरियादीण जो तु ण णिवेदे। सोही णिवितियादी, आयामंता मुणेयव्वा ॥१७३३॥४६॥ हारियधोतुग्गमियाणिवेदणादिण्णभोगदाणेसु । आसणमायामचतुत्थयाइं सवम्मि छ8 तु॥४७॥ जहण्णोवहि हारेतो, सोही इक्कासणं तु दातव्वं । मज्झिमए आयाम, उक्कोसे होयऽभत्तहँ ॥१७३४॥
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૪૮
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
3
सोहि हारेती, सोही छट्टै तु होति णायव्वं । एतो धोए वोच्छं, सोही उ जहण्णमादीणं ॥ १७३५ ॥ धोऍ जहण्णेक्कासण, मज्झिमए सोहि होति आयामं । उक्कोसेsभत्त, धोए सव्वम्मि छहं तु ॥ १७३६॥ तिविवहिमुग्गमितुं, आयरियाणं तु जो णणिव्वेदे | आसण मायामचतुत्थयाई सव्वम्मि छहं तु || १७३७॥
[ गाथा
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वही जहण्णमादी, गुरूहि अविदिष्ण जो तु परिभुंजे । सोहिकाणमादी, छता होति सव्वम्मि ॥ १७३८ ॥ अणणुण्णाय गुरूहिं, उवहि जहण्णादि देति अण्णस्स । सोहिक्कासणमादी छतो होति जीएणं ॥ १७३९ ॥ ४७ ॥ मुहणतय हरणे, फिडिए णिव्विगतियं चउत्थं तु । नासिय हारविए वा, जीएण चउत्थछट्ठाई ॥४८॥ मुहत फिडिय उग्गह, सोही णिव्विगतियं तु दाइव्वं । स्यहरणे तु चत्थं, फिडिए सोहेस लद्धम्मि || १७४० ॥ मुहणत पमादेणं, हारविए णासिए व भत्त । रयहरणे छ तू, सोहेस पमादिणो जीए || १७४१ ॥४८॥ कालऽद्धाणादीए, णिव्विगती खमणमेव परिभोगे । अविहिविगिंचणियाए, भत्तादीणं तु पुरिम ॥ ४९ ॥
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विका दिपमाण, कालादीयं करेन्ते भत्तादी | सोही णिब्बिगती तू, परिभोगे होय भत्तङ्कं ॥ १७४२॥ एवद्धाणातीए, अप्परिभोगे वि सोहि णिव्विगतिं । परिभोगेऽभत्तट्टो, अविहीय विगिचणे पुरिमं ॥ १७४३ ॥ ४९ ॥ पाणस्सा संवरणे, भूमितिगापेहणे य णिव्विगती । सवस्सासंवरणे, अगहणभंगे य पुरिमडूं ॥ ५० ॥
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४८-५२ ]
जीतकल्पसूत्रम् ।
पाणस्सा संवरणे, सोही साहुस्स होति णिव्विगतिं । भूमीतिगं इमं तू, वोच्छामि समासतो इणमो ॥ १७४४ ॥ उच्चारभूमि पढमा, वितिया पुण होति पासवणभूमी । तया उ कालभूमी, सोहेत्थ अपेहणे विगति ॥ १७४५ ॥ असणादी चतुभेदो, सच्वो वि य एत्थ होति आहारो । तस्स असंवरणम्मी, सोही साहुस्स पुरिम ॥ १७४६॥ अहव णमुकारादी, पच्चखाणं ण गेव्हए सव्वं । गहितं वा जो भजति, सोही सव्वत्थ पुरिम ॥ १७४७॥५०॥ एयं चिय सामण्णं, तव पडिमा - ऽभिग्गहादियाणं पि । णिव्वितियादी पक्खिय- पुरिसादिविभागतो णेयं । । ५१ एयं चि पुरिम, सामण्ण विसेसियं मुणेयब्वं । तव पडिम अभिग्गहे या, अगहणभंगे इमं वोच्छं || १७४८ || तवो बारसहा होति, पडिमा तू एगरातिया । दव्वाती तु अभिग्गह, अगहणभंगे तु पुरिमङ्कं ।। १७४९ ॥ गाहापच्छद्धस्स तु, इमा विभासा तु, होति जातव्वा । खुड्डादी पंच वि, णिव्वगतिं अन्त भत्तट्टो || १७५०।। एयं पक्खिए । चाउम्मासिय खुड्डग, भिक्खू थेरो उवज्झ आयरिए । पुरिमडू एगभत्तं, आयाम चउत्थ छता ।। १७५१ ॥ चाउम्मासिए । पतिदिणपच्चक्खाणं, जहसत्ति अगेण्हणे तु मन्भहियं ।
खुड्डादी पंचह वि, एक्कासणमट्टमं अंतो ॥ १७५२|| संवच्छरिए । फिडिए सतमुस्सारिय भंगे वेगादि वंदनादीसु । णिविगतिय- पुरिमेगासणादि सव्वेसु चायामं ॥ ५२ ॥
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१४९
भूमित्रिकम्
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स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा फिडितुस्सग्गे एके, पमाइणो सोहि होति णिव्विगति । दोहिं पुरिमड़ भवे, तिहि फिडिए सोहि भत्तेकं ॥१७५३॥ सव्वे काउस्सग्गे, फिडिए जुयओ पडिकमे जो तु । सोही पच्छाऽऽयाम, उस्सारते इमं वोच्छं ।।१७५४॥ सतमुस्सारे एक, काउस्सगं ति एत्थ णिविगति । दोसु तु पुरिम भवे, एक्कासणयं भवे तीहिं ॥१७५५।। सव्वे सतमुस्सारे, आयंबिल एत्थ होति सोही तु । भग्गे वि य एस चिय, सोही तह वंदणमदेन्ति ॥१७५६॥५२॥ अकएसु तु पुरिमा-ऽऽसणमायामं सव्वसो चउत्थं तु । पुवमपेहितथंडिल, णिसिवोसिरणे दियासुवणे ॥५३ ण करेंतस्सुस्सग्गं, सोही एत्थं तु होइ पुरिमई । दोहि य एकासणय, तिहिं अकरणे सोहि आयाम ॥१७५७॥ सव्वं चिय आवसयं, अकरेन्ते सोहि होयऽभत्तहो । काउस्सग्गे तह वंदणस्स सोही तहा[s] करणे ॥१७५८॥ गाहापच्छद्रेण तु, पुव्वं तु अपेहिए उ थंडिल्ले । णिसिवोसिरणे सोही, साहुस्स भवे अभत्तहँ ॥१७५९॥ दियसुवणे णिकारणे, सोही साहुस्स होयऽभत्तह्र । कोहं परिवसमाणे, ककोल्लादीमतो वोच्छं ॥१७६०॥५३॥ कोहे बहुदेवसिए, आसव-कक्कोलगादिएसुं च । लसुणादी पुरिमडूं, तण्णादीबंधमुयणे य ॥५४॥ पक्खियमतिकामन्तो, बहुदेवसिओ त्ति एस कोहो तु । अहवा बहुदेवसिए, चाउम्मासादिरित्ते तु ॥१७६१॥ एयं बहुदेवसियं, एत्थ उ सोही तु होइ भत्तहूँ । आसको वियर्ड भण्णति, तमाइयंते अभत्तहँ ॥१७६२॥
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५३-५६ ]
जीतकल्पसूत्रम्। ककोलयसेवंते, सोही साहुस्स होयऽभत्तह्र । पूयफल-जाई फल-लवंग-तंबोलमादिसु य ॥१७६३॥ आदिग्गहणे णेतो, पत्तेयं एत्थ सोहऽभत्तहँ । लसुणादिन्ते पुरिमं, आदिग्गहणा पलंडुम्मि ॥१७६४॥ तण्णगबंधणमुयणा, सोही एत्थं तु होति पुरिमडूं। आदिग्गहणेणं पुण, हंस-मयूरादिएमुं पि ॥१७६५॥ ५४॥ अझुसिरतणेसु निविगतियं तुसेसपणएसुपुरिमड्डूं। अप्पडिलेहियपणए, एगासण तसवहेजं च ॥५५॥ अज्झुसिरं तु कुसादी, परिभोगा कारणे तु णिविगति । सेसपणगं तु पंचह, सपंचभेयं पुणेकेकं ॥१७६६॥ पोत्थय-तणपणगं वा, दूसे पणगं च दुप्पडिल्लेहे । अप्पडिलेहियदूसे, पंचमयं चम्मपणगं च ॥१७६७॥ गंडी कच्छवि मुट्ठी, छिचाडि संपुडयपोत्थए चैव । साली बीली कोदव, रालग रण्णे तणाई च ॥१७६८॥ अप्पडिलेहियदूसे, तूली उवहाणए य णायव्वे । गंडवहाणाऽऽलिंगणि, मसूरए चेव पोत्तणए ॥१७६९॥ पल्हवि कोयवि पावार णवयए तह य दाढियाली य । दुप्पडिलेहियदूसे, एयं बितियं भवे पणगं ॥१७७०॥ गो-महिस-अया-एलग-मिगचम्मं पंचमं मुणेयध्वं । अहवा वि चम्मपणगं, एयं बितियं तु विष्णेयं ॥१७७१॥ तलिगा खल्लग वज्झे, कोसग कत्ती य पंचमं पणगं । एते पंच उ पणगा, सयं च भेया समक्खाता ॥१७७२॥ ५५॥ ठवणमणापुच्छाए, णिविसणे विरियगृहणाए य। जीएणेकासणयं, सेसगमायाम खवणं तु ॥५६||
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स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा ठवणकुल-दाणसड़ादियाइ ताई तु गुरुमणापुच्छा। पविसइ णिव्विसणा तू, पडिगाहे जंतु भत्तादी ।।१७७३॥ विरियं सामत्थं वा, परक्कमो चेव होइ एगट्ठा । गृहण गोवण णूमण, पलियंचणमेव एगढें ॥१७७४।। एरिसमायासहिए, जीएणं देज एगभत्तं तु । सुयववहारे अण्णह, सेसं मायं अयो वोच्छं ॥१७७५॥ भद्दगं भद्दगं भोच्चा, विवण्णं विरसमाहरे । आयरियाण सगासे, जसोत्थी एव चिंतए ॥१७७६॥ लहवित्ती महाभागो, एस साहू जितिदिओ। रसचागं करेइ त्ती, अंतपंतेहिं लाढए ॥१७७७॥५६॥ दप्पेणं पंचिंदियवोरमणे संकिलिट्ठकम्मे य । दीहद्धाणासेविय-गिलाणकप्पावसाणेसु ॥५०॥ दप्पो वग्गण-धावण-डेवणमादी तु होति णायव्यो । पंचिंदियवोरमणं, उद्दवण विराहणेगढें ॥१७७८॥ कम्मं तु संकिलिटुं, करकम्यं कुणति अंगादाणे उ । दीहेणऽद्धाणेण, कम्म पलंबादि बहु सेवे ॥१७७९।। गेलण्णम्मि तु दीहे, आहाकम्मादि सण्णिहीमादी। बहुअतियारणिसेवी, सोहि एत्थं तु अवसाणे ॥१७८०॥ एयम्मि जहुद्दिढे, वोरमणादी गिलाणपज्जते । पत्तेयं पत्तेयं, सोही तु पंचकल्लाणं ॥१७८१॥५७॥ सव्वोवहिकप्पम्मि य, पुरिमत्तापेहणे य चरिमाए। चाउम्मासे वरिसे, य सोहणं पंचकल्लाणं ॥५८॥ पाउसकाले सव्वोवहिम्मि जयणा वि कप्पिए सोही। पुरिमत्ताएँ पमाया, चरिमाएँ अपेहिते चेव ॥१७८२॥ उघही धोयवसाणे, पुरिभत्ताहणाऍ चरिभाए ।
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५७-५९ ]
जीतकल्पसूत्रम् । पत्तेयं पत्तेयं, सोहेल्थं पंचकल्लाणं ॥१७८३॥ चाउम्मासिय वरिसे, णिरतियारे यऽवस्स दायव्वं । आलोइयम्मि सोही, णियमेणं पंचकल्लाणं ॥१७८४॥ किं कारणमिह सोही, णिरतियारे वि दिज्जए एवं ?। चोयग ! मुहुमअतियारे,कए विण वि जाणति कयाति।।१७८५॥ अहव ण संभरती तू , जह पायोसीय अडरत्तीए । वेरत्तिय पाभाइय, अग्गहणा काल अतियारं ॥१७८६॥ मुत्तत्थपोरिसीअकरणम्मि दुप्पेह दुप्पमज्जासु । एतेण कारणेणं, सोही तू पंचकल्लाणं ॥१७८७.१५८॥ छेदादिमसदहयो, मिउणो परियायगव्वियस्स विय। छेदातीए वि तवो, जीएण गणाहिवइणो य॥५९॥ विपुलं तवमकरेंतो, किह सुज्झति छेदमूलमेत्तणं ? । गुरुआणामेत्तेणं, असद्दहते तवो देयो ॥१७८८।। मतुओ वि छेद मूले, व दिज्जमाणम्मि होति परितुह्रो । इहरा वि वंदणिज्जो, तिक्खुत्तो तस्स देह तवं ॥१७८९॥ दुविहो य गविओ खल्लु, चिरपरियाओ तहेव तवबलिओ। छेदम्मि दिजमाणे, परियादी गविओ होति ॥१७९०॥ केत्तियमेत्तं छिदिह ?, तह वि य ई तुब्भ होमि राइणिओ। एसो उ गविओ खलु, चिरपरियादी मुणेयव्वो ॥१७९१॥ तवबलिओ देह तवं, अहं समत्थो त्ति गविओ होति । तम्हा तद्दोसहरं, विवरीयं तेसि दातव्वं ॥१७९२॥ गणअहिवति आयरियो, तस्स वि छेदादि होति पत्तस्स । अप्परिणयसेहादिसु, मा होज्जा हीलणिज्जो त्ति ॥१७९३॥ धीवलसंघयणं वा, णातुं कालं च तिविह गिम्हादी। तम्हा तद्दोसहरं, तबारिहं दिज्जए तस्स ॥१७९.४॥५९|०॥
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स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[गाथा जं जं ण भणियमिहतिं, तस्सावत्तीय दाणसखेवे। भिण्णादिया य वोच्छं, छम्मासन्ता य जीएण।।६०॥ जं जंति होति विच्छा, ण वि भणियमिहं ति जीतववहारे । पच्छित्तविसोही तू, तस्सावत्ती पणगमादी ॥१७९५॥ दाणं णिव्वितिगादी से य विसेसेणमेत्थ भणिहामि । संखेवो तु समासो, किह ण वि जीएण भणितमिहं?॥१७९६॥ कम्ही वा भणियं ? ती. गुरुराह णिसीह कप्प ववहारे । सुत्तत्थयो य भणियं, आणादि सवित्थरेणं तू ॥१७९७॥ पणगादी छम्मासावसाण आवत्तिविरयणाओ य । णेगविहा भणिता उ, णिसिहादिसु वित्थरेणं तु ॥१७९८॥ इह पुण जीएणं तू, णिवणावत्तिदाणसंखेवं । भिण्णादी छम्मासा, णेदाणजिएणिमं वोच्छं ॥१७९९॥६०॥ भिण्णो अविसिट्टोच्चिय,मासोचउरोय छच्चलहगुरुगा। णिव्वितियादी अट्ठमभत्तन्तं दाणमतसिं ॥६१॥ पणुवीस दिणा भिण्णो, अविसिट्ठो एस गुरु लहू वा वि । अविसेसिओ विसिट्ठो, एसो तू होति णायव्वो ॥१८००॥ मासो लहुओ गुरुओ, चतुरो मासा य होन्ति लहुगुरुया। छम्मास्सा लहुगुरुगा, दाणं एतेसि वोच्छामि ॥१८०१॥ पणगं दस पण्णरसं, वीसा पणुवीस जाव णिव्विगती । लहुमासे पुरिमई, गुरुमासे दाण भत्तिकं ॥१८०२।। चउलहुए आयाम, चउगुरुए होति दाण भत्तहूँ । छल्लहूए छठें तू, छग्गुरुए दाणमट्ठमयं ।।१८०३॥ णिव्विगतिगमादीय, अट्ठमभत्तन्तमेय दाणं ति ! भिण्णादीणं कमसो, छम्मासंताऽवसाणाण ।।१८०४॥६॥२॥
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६०-६४ ]
जीतकल्पसूत्रम् । इय सव्वावत्तीओ, तवसो जाउं अहकम समए । जीएण दिज णिव्वीतिगाति दाणं जहाभिहितं ॥६२ इय एतेण कमेणं, एवपगारेण अहव इतिसद्दो । सव्वा आवत्ती पणगादिया तु छम्मासपज्जन्ता ॥१८०५॥ णिवीइगमाईओ, अट्ठमपज्जतो होइ सव्वतवो । जीएण दिज दाणं, णिवीतिगमादिगं कमसो ॥१८०६॥ जहभिहितं जह भणिय, तह तह देजाहिऽभिहितमेयं ति । सामण्णेणं एयं, समासतो होति णातव्वं ॥१८०७॥६२॥०॥ एयं पुण सव्वं चिय, पायं सामण्णयो विणिदिटुं। दाणं विभागतो पुण, दव्वादिविसेसियं जाण ॥३॥ एवं ति जहुद्दि, पुणसद्दो विसेसणे तु णातव्यो । सव्वं पाच्छित्तं, दाणं पाएण बाहुल्ला ॥१८०८॥ सामण्णं अविसेसित, णिद्दिडं विसेसितं विणिदिड । दाणं णिन्वितिगादी, विभागतो देज वित्थरतो ॥१८०९॥ दव्वादीया पडिसेवणा तु लतिया तु आदिसद्देणं । होति विसेसेणाऽवेक्खितूण दिज्जाहि जणं पि ॥१८१०॥ अहवा वि समतिरित्तं, दाणं णाऊण देज जीएणं । अहवा वि तत्तियं चिय, दिज्जाहि सुयोवदेसेणं ॥१८११॥६॥०॥ दव्वं खेत्तं कालं, भावं पुरिस पडिसेवणाओय। णातुमितं चिय दिज्जा, तम्मत्तं हीणमाहितं व ॥६॥ आहारादी दव्वं, खितं लुक्खादि काल गिम्हादी। हिट्ठादी भावं तू, पुरिसं गीयादि जाणित्ता ॥१८१२॥ आउट्टिगमादीया, पडिसेवण होति. तू मुणेतव्वा । णाऊण जाणितूणं, इति मि त्ति जए त जीएणं ॥१८१३।।
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१४६
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा देजाही तम्मित्तं, हीणं अहितं व णातु दव्वाती । हीणे दव्वादीए, हीणं देज्जाऽहिए अहियं ॥१८१४॥६४|| एसो तु अक्खरत्थो, दव्बादीणं तु वनितो कमसो । पुणरवि दव्वादीणं, विभागतो सूरिमाइंसु ॥१८१५॥ आहारादी दव्वं, बलियं सुलभं च णाउमहियं पि। देज्जाहि दुब्बलं दुल्लभं च णाऊण हीणं पि ॥६५॥ आहारी जेसिमादी, दवाणं ताइँ होति दव्वाई। आहारादीयाई, बलियाई जम्मि देसम्मि ॥१८१६॥ जह अणूवदेस सालीकूरो सभावेण होति बलिओ तु । सुलभो य सो तु णिचं, सेसा बटुंति एमेव ॥१८१७॥ एयं णाऊण तहि, जं भणितं दाण जीतववहारे । तं देज समभहियं, जहिं पुण वणवल्लकलमादी ॥१८१८॥ कंजियरुक्खाहारो, दुब्बल दुलभो य एव णाऊणं । देज्ज सेत्थहीणं (?) जीतव्यवहारभणिया उ ॥१८१९॥६५॥ लुक्खं सीतल साहारणं च खेत्तमहितं पि सीयम्मि। लुक्खम्मि य हीणयरं, एवं काले वि तिविहम्मि॥६६॥ लुक्वं तु णेहरहितं, जे खेत्तं वायपित्तलं वा वि।। सीयं बलियं भण्णति, अहवा अणूवं भवे सीतं ॥१८२०॥ साहारणं समं तू , जंण वि णिद्धं ण चेव लुक्खं पि । एवं तिविहं खेत्तं, दाणं एतेसि वोच्छामि ॥१८२१॥ इय एव जीतदाणं, णिद्धे खित्तेऽहियं पि देजाहिं । साहारणे तम्मत्तं, लुक्खे खेत्त तु हीणयरं ॥१८२२॥६६॥ लुक्खादी तिह खेतं, एवेयं वणितं समासेणं । अहुणा तु तिविह कालं, गिम्हादि समासतो वोच्छं।।१८२३॥
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६५-६७ ]
जीतकल्पसूत्रम् ।
गिम्ह - सिसिर - वासासू, देज्जऽट्टम - दसम - बारसंताई । णातुं विहिणा णवविहसुतववहारोवदेसेणं ॥ ६७॥ गिम्हासु चतुत्थं देज्जा, छटुं च हिमागमे ।
वासासु अट्टमं दिज्जा, तत्रो एस जहण्णओ ॥ १८२४॥ गिम्हासु छहं देज्जा, अट्टमं च हिमागमे ।
वासासु दस देज्जा, एस मज्झिमओ तवो ॥। १८२५ ।। गिम्हासु अट्टमं देज्जा, दसमं च हिमागमे । वासा दुवालसमं, एस उक्कोसतो तवो ॥१८२६॥ जहासंखेणेसो, गिम्हादितवो समासतो होति ।
पुण कह दिज्जा ?, नवविहसुत्तोवरसेणं ॥ १८२७॥ सुतववहारेणऽहवा, णवभेदवियप्प मुहुम जाणित्ता ।
जाहि तिहिकाले, ववहारो सो इमो णवहा || १८२८ ।। अहलहुसग लहुसयरो, लहुसो त्ती होति लहुसपक्खमि । अहलहुओ लहुयतरो, लहुओ ती लहुयपक्खम्मि || १८२९ || गुरुयो गुरुयतराओ, अहगुरुओ एस होति गुरुपक्खे | ववववहारेसो, आवत्ती तेसि वोच्छामि ॥ १८३०॥
पण दस पण्णरसं वा, तिविहेसो होति लहुसपक्खमि । वीसा य पण्णवीसा, तीसा वि य लहुगपक्खमि ॥ १८३१ ॥ गुरुमासो चतुमासो, छम्मासो चेव होति गुरुपक्खे | नवविह आवत्तेसा, णवविहदाणं अतो वोच्छं || १८३२ ॥ निव्विगतिं पुरिम, एक्कासणयं च लहुसपक्खम्मि | आयंबिल भरा, छ वा होति लहुपक्खे ॥ ९८३३ ॥ अट्टम दसम दुवालस, गुरुपक्खे एय होति दाणं तु । आवत्ती तवो एसो, समासतो णवहमक्खातो ॥ १८३४ ||
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१५७
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स्वोपज्ञभाध्ययुतं
गाथा णवविहववहारेसो, लहुसादि समासतो समक्खातो । पुणरवि ओहेण विभागयो य गुरुमादि वोच्छामि ॥१८३५॥ गुरुओ गुरुगतरातो, अहागुरूयो व होति ववहारो। लहुओ लहुततरातो, अहालहू चेव ववहारो ॥१८३६॥ लहुसो लहुसतराओ, अहालहू सो य होति ववहारो। एएसि पच्छित्तं, वोच्छामि अहाणुपुबीए ॥१८३७॥ गुरुओ य होति मासो, गुरुयतराओ य होति चतुमासो। अहगुरुओ छम्मासो, गुरुपक्खे एस पडिवत्ती ॥१८३८॥ तीसा य पण्णवीसा, वीसा वि य होति लहुयपक्खम्मि । पण्णरस दस य पंच य, लहुसगपक्खम्मि पडिवत्ती ॥१८३९॥ गुरुयं च अट्टमं खलु, गुरुयतरायं च होति दसमं तु । अहगुरुयं बारसमं, गुरुपक्खे एस पडिवत्ती ॥१८४०॥ छटुं च चउत्थ वा, आयंबिल एगठाण पुरिमई । णिव्वितियं दायव्वं, अहलहुसे अहव सुद्धो वा ॥१८४१॥ ववहारो आरोवण, सोही पच्छित्तमेयमेगडें । थोवो तु अहालहुसो, पट्टवणा होति दाणं तु ॥१८४२।।
ओहेण एस भणिओ, एत्तो वोच्छं पुणो विभागेणं । तिग णव सत्तावीसग, एक्कासीती य भेदेणं ॥१८४३॥ गुरुपक्खो लहुपक्खो, लहुसगपक्खो य तिविह एस भवे । एकेको पुणो तिविहो, उक्कोसादी इमं वोच्छं ॥१८४४॥ गुरुपक्खे उक्कोसा, मज्झ जहण्णो य एव लहुए वि । एमेव लहुसए वी, उक्कोसो मज्झिम जहण्णो ॥१८४६॥ गुरुपक्खे छम्मासो, पणमासो चैव होति उक्कोसो। मज्झिम तू तेमासो, दुमास गुरुमासिय जहण्णो ॥१८४६।।
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१६९
६७ ]
जीतकल्पसूत्रम् । लहुमास भिण्णमासो, वीसा वि य तिविहमेय लहुपक्खे । पण्णरस दसग पंचग, लहुसुक्कोसादि तिविहेसो ॥१८४७॥ आवत्तितवो एसो, णवभेदो वण्णितो समासेणं । अहुणा उ सत्तवीसो, दाणतवो तस्सिमो होति ॥१८४८॥ गुरु-लहु-लहुसगपक्खे, एकेक्को णवविहो मुणेतव्यो । उक्कोसुक्कोसो या, उक्कोसगमज्झिम जहण्णो ॥१८४९॥ मज्झिमउक्कोसो या, मज्झिममज्झो तहा जहण्णो य। होति जहण्णुक्कोसो, जहण्णमज्झो दुहजहण्णो ॥१८५०॥ गुरुपक्खोउक्कोसुक्कोसो या, उक्कोसगमज्झिमो जहण्णो य । मज्झिमउक्कोसो तू , मज्झिममज्झो जहण्णो य ॥१८५१॥ होति जहण्णुक्कोसो, जहण्णमझो जहण्णगजहण्णो । णवविहववहारेसो, लहुपक्खे होति णातव्वो ॥१८५२।। उक्कोसुक्कोसो तू, उक्कोसगमज्झिमो जहण्णो य । मज्झिमउक्कोसो तू , मज्झिममज्झो जहण्णो य ॥१८५३॥ होति जहण्णुक्कोसो, जहण्णमझो जहण्णगजहण्णो । णवविहववहारेसो, लहुसगपक्खे मुतब्बो ॥१८५४॥ बारसम दसम अट्ठम, छप्पणमासेसु तिविह दाणेदं । चउतेमासे दसमऽट, छउक्कोसगाति तिहा॥१८५६॥ एमेवुक्कोसादी, दुमास गुरुमासिए तिहा दाणं ! अट्ठम छट्ठ चउत्थं, णवविहमेयं तु गुरुपक्खो ॥१८५६।। दसमं अट्ठम छटुं, लहुमासुक्कोसगादि तिह दाणं । अट्ठम छट्ट चउत्थं, उक्कोसादेय तिह भिण्णे ॥१८५७॥ छह चउत्थाऽऽयामं, उक्कोसादेय दाण वीसाए । लहुपक्खम्मी गवगो, बीओ एसो मुणेयन्वो ॥१८५८॥ अहम छह चउत्थं, एवुक्कोसादिद्राण पण्णरसे।
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१६०
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा
छट्ट चउत्थाssयामं, दससू तिविहेत दाण भवे ।। १८५९ ।। खमणाssयामेक्कासण, तिविहोक्कोसादि दाण पणगेयं । लहुसेस ततियणवगो, सत्तावीसेस वासामु || १८६०॥ सिसिरे दसमादी पुण, चारणभेदेण सत्तवीसे य । ठायति पुरिमडूम्मी, अड्डोक्कंती य तह चैव ॥ १८६१ ॥ अट्टममादी गिम्हे, चारणभेदेण सत्तवीसेण । तह चेत्र अड्ढोक्कंती, ठायति णिव्वीतिए णवरिं ।। १८६२॥ अहुणा उचारणा तु, उक्कोसुक्कोसगादि गुरुगादी | वासासू सिसिरे या, गिम्हे य समासतो वोच्छं || १८६३ ॥ अहगुरुए वासासू, उक्कोसुक्कोसए य बारसमं । उक्कोसमज्झ दसमें, उक्कोसजण्णमट्टमगं ॥ १८६४ || अहगुरुए सिसिरेसुं, उक्कोसुक्कोसए य दसमं तु । उक्कोसमज्झिम अट्ठम, उक्कोसजहण्णए छट्टै ।। १८६५ । । अहगुरुए गिम्हासुं, उक्कोसुक्कोसमट्ठम दिज्जा । उक्कोसमज्झ छईं, उक्कोसजहण्णए चउत्थं ॥ १८६६ ॥ अहागुरुपक्खे
गुरुयतरा वासासुं मज्झिमउकोसए य दसमं तु । मज्झिममझे अट्टम, मज्झजद्दण्णेण छट्टै तु || १८६७ ।। गुरुततरा सिसिरेसुं मज्झिमक्कोसमट्टमं देज्जा । मज्झिमज्झे छहूं, मज्झजहणे चउत्थं तु ॥ १८६८ || गुरुततरा गिम्हेसुं, मज्झिमक्कोसे देज्ज छटुं तु । मज्झिमम चत्थं, मज्झजहण्णेण छद्धं तु ॥ १८६९ ॥ गुरुततरासि आयामं । गुरुअतरपक्खेगुरुए वास जहणे, उक्कोसे अट्टमं तु देज्जाहि । छ जहण्णमझे, होइ चउत्थं दुहजहणे || १८७०||
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१६१
६७ ]
जीतकल्पसूत्रम् । गुरु सिसिरेऽत्थ जहण्णे, उक्कोसं देज छट्ठभत्तं तु । जहण्णयमज्झे चउत्थं, दुहयो जहण्णेण आयामं ॥१८७१॥ गुरुए गिम्ह जहण्णे, उक्कोसा देज्ज तू चउत्थं तु । जहण्णयमज्झाऽऽयाम, एक्कासणयं दुहजहण्णे ॥१८७२॥
गुरुपक्खे ॥ लहुए वासारत्ते, उक्कोसुक्कोसगम्मि दसमं तु । उक्कोसमज्झिमऽहम, उक्कोसजहण्णए छटुं ॥१८७३॥ लहुए उक्कोसुक्कोसतम्मि सिसिरश्मि अट्टमं दिज्जा । उक्कोसमज्झ छटुं, उक्कोसजहण्णएँ चउत्थं ॥१८७४॥ लहुपक्खे उक्कोसे, गिम्हम्मी देज्ज छट्ठभत्तं तु । मज्झिमगं तु चउत्थं, उक्कोसजहण्णमायामं ॥१८७५॥
लहुयपक्खे ॥ लहुयतरे वासासुं, मज्झिमउक्कोसमट्टमं दिज्जा । मज्झिममज्झे छटुं, मज्झजहण्णेणऽभत्त? ॥१८७६॥ लहुयतरा सिसिरेसुं, मज्झिमउकोस देज्ज छटुं तु । मज्झिममज्झ चउत्थं, मज्झजहण्णेणमायामं ॥१८७७॥ लहुयतरा गिम्हेसुं, मज्झिमउकोस देजऽभत्तहँ । मज्झिममज्झायाम, मज्झजहण्णेण भत्तेकं ॥१८७८॥
लहुअतरपक्खे ॥ अहलहुया वासामुं, जहण्णउक्कोस छटु देज्जाहि । मज्झिमगम्मि चउत्थं, जहण्णगजहण्णमायामं ॥१८७९।। अहलहुयग सिसिरेमुं, जहण्णउक्कोस देज्जऽभत्तटुं । मज्झिमगे आयामं, जहण्णगजहण्णे भत्तेकं ॥१८८०॥ अहलहुगे गिम्हामुं, जहण्णगुक्कोस देज्ज आयाम । एक्कासणगं मझे, पुरिमई दुहजहण्णम्मि ॥१८८१॥
अहालहुयपक्खे ॥
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१६२
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[गाथा लहुसग वासामुक्कोसगम्मि उक्कोसमट्टमं देजा। उक्कोसमज्झ छटुं, उक्कोसजहण्णए चउत्थं ॥१८८२॥ लहुसग सिसिरासुक्कोसगं तु उक्कोस छह देज्जाहि । मज्झिमगं तु चउत्थं, उक्कोसजहण्णमायामं ॥१८८३॥ लहुसग मिम्हामुक्कोसगम्मि उक्कोस देज्जऽभत्तहँ । मज्झिमगं आयाम, उक्कोसजहण्ण भत्तेकं ॥१८८४॥
लहुसपक्खे ॥ लहुसतरा वासासुं, मझुक्कोसेण छहभत्तं तु । मज्झिममज्झ चउत्थं, मज्झजहण्णेण आयामं ॥१८८५॥ लहुसतरा सिसिरासु, मज्झुक्कोसेण देज्जऽभत्तटुं । मज्झिममज्झाऽऽयामं, मज्झजहण्णेण भत्तेकं ॥१८८६॥ लहुसतरा गिम्हेसुं, मझुक्कोसेण देज आयामं । मज्झिममझेकासण, मज्झजहण्णेण पुरिमडूं ॥१८८७॥
लहुसतरपक्खे ॥ अहलहुसय वासामुं, जहण्णमुक्कोस देजऽभत्तहँ । मज्झिमग आयाम, भत्तेकं दुहजहण्णेणं ॥१८८८॥ अहलहुसग सिसिरामुं, जहण्णमुक्कोस दिज्ज आयाम । जहण्णगमज्झेकासण, जहण्णजहण्णेण पुरिमर्ड्॥१८८९॥ अहलहुसग गिम्हामुं, जहण्णमुक्कोस देज्ज भत्तेकं । मज्झिमगं पुरिमडूं, दुहयो जहण्णेण णिव्विगति ।।१८९०॥
अहालहुसपक्खे ॥ एतेहिं ठाणेहिं, आवत्तीओ....सदा णियमा । वोढव्या सव्वाओ, असहुस्सेक्केक्कहासणया ॥१८९१॥ जाव ठियं एक्केक, तं पि य हाचिज्ज असहुणो ताहे । दाउं सहाणेवं, परठाणं देज्ज एमेव ।।१८९२॥
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१६३
जीतकल्पसूत्रम् । एवं ठाणे ठाणे, हेहाहुत्तो कमेण हासेत्ता । णेतव्वं जाव ठितं, णियमा णिवीयियं एकं ॥१८९३॥ णवविह ववहारेसो, आवत्तीदाणसहितकालजुतो । बुद्धीओ विष्णेओ, विभागतो एसमक्खातो ॥१८९४॥ अहव तिमो लहुसादी, तिविहादि समास वित्थरे वोच्छं । हीणो मझुक्कोसो, तिविहेसो होति णायव्यो ।।१८९५।। लहुसगपक्खे पणगं, दस पण्णर तिविह एय णातव्वं । वीसा य भिण्णमासो, लहुमासो तिविह लहुपक्खे ॥१८९६॥ गुरुमासो चउमासो, छम्मासो चेव एस गुरुपक्खे । णवविह आवत्तेसा, दाणं णवहा तिमं वोच्छं ॥१८९७॥ णिविगतिय पुरिमर्दू, एक्कासण लहुसए य दाणं ति । आयाम चउत्थं वा, छठें तू लहुगपक्खम्मि ॥१८९८॥ अट्ठम दसम दुवालस, गुरुपक्खे एय होति दाणं तु । णवविहदाणं एसो, अहवाऽऽवत्ती इमा णवहा ॥१८९९।। पण दस पण्णरसं वा, लहुगुरुगा लहुसए तु पक्खम्मि । वीसा य भिण्णमासो, लहु गुरु लहुओ य मासेको ॥१९००॥ गुरुमासो दुण्णि मासा, लहुगुरुगा तिम चउक्क लहुगुरुगा । पंचग छम्मासा या, लहुगुरुगा एस णवहा तु ॥१९०१॥ आवत्तितवो एसो, णवभेदो वण्णितो समासेणं ।। अहुणा तु सत्तवीसो, दाणतवो तस्सिमो होति ॥१९०२॥ लहुसग लहुगुरुपक्खो, एककेक्को णवविहो मुणेतव्यो। दुहयो जहणो जहणगमज्झो य जहण्णगुक्कोसो ॥१९०३॥ मज्झिमजहण्णगं तू , मज्झिममझं तु मज्झिमुक्कोसं । उक्कोसगे जहण्णं, उक्कोसगमज्झ उक्कोसं ॥१९०४॥ लहुसगपक्खे वेयं, णवभेद समासतो समक्खायं । लहुपक्खे वि णवविहं, गुरुपक्खे की मुणेयव्वं ॥१९०५॥
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१६४
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[गाथा वासासु अहालहुसो, दुहयो जहणेण देज्ज भत्तेक्कं । जहण्णगमज्झायाम, जहण्णगुक्कोसए चउत्थं ॥१९०६॥ लहुसतर मज्झिमजहण्णयम्मि वासासु देज्ज आयामं । मज्झिममज्झे चउत्थं, मज्झिमउक्कोसए छठें ॥१९०७॥ लहुसग उक्कोसजहण्णगम्मि वासासु देज्जऽभत्तटुं । उक्कोसमज्झ छठें, उक्कोसुक्कोसमट्टमगं ॥१९०८॥ अहलहुए वासामुं, जहण्णजहण्णे तु देज्ज आयामं । जहण्णगमज्झ चउत्थं, जहण्णउक्कोसए छठें ॥१९०९॥ लहुयतरा वासासुं, मज्झजहण्णम्मि हवयऽभत्तहूँ । मज्झिममज्झे छटुं, मज्झिमउक्कोसमट्ठमगं ॥१९१०॥ लहुए वासामुक्कोसगम्मि जहणे तु देज्ज छटुं तु । उक्कोसमज्झमट्ठम, उक्कोसुक्कोसए दसमं ॥१९११॥ गुरुपक्खे जहण्णम्मि, जहण्ण होती चउत्थभत्तं तु । हीणगमज्झे छटुं, जहण्णउक्कोसमट्ठमगं ॥१९१२॥ गुरुअतरा वासामुं, मज्झजहण्णेण देज्ज छद्रं तु । मज्झिममज्झं अट्टम, मज्झिमउक्कोसए दसमं ॥१९१३॥ अहगुरुए वासामुं, उक्कोसजहण्णमट्ठमं देजा। उक्कोसमझ दसमं, उक्कोसुक्कोस बारसमं ॥१९१४॥ अहलहुसग सिसिरेसुं, जहण्णजहण्णेण होति पुरिमडूं। हीणगमज्झेक्कासण, जहण्णउक्कोस आयामं ॥१९१५॥ लहुसतरा सिसिरेसुं, मज्झजहण्णेण भत्तमेकं तू । मज्झिममज्झाऽऽयामं, मज्झिमउकोसए चउत्थं ॥१९१६॥ लहुसग सिसिरुक्कोसे, जहण्ण एयं तु देज आयामं । मज्झिमगं तु चउत्थं, उक्कोसुकोस छटुं तु ॥१९१७॥ अहलहुयग सिसिरेसुं, दुहाजहण्णेण देज भत्तेक्कं । जहणगमज्झाऽऽयामं, जहण्णमुक्कोसए चउत्थं ।।१९१८॥
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६७ ]
जोतकल्पसूत्रम् । लहुसतरा सिसिरेसुं, मज्झजहण्णेण देज आयामं । मज्झिममज्झ चउत्थं, मज्झिम उक्कोसए छठें ॥१९१९॥ लहुए सिसिरुक्कोसे, होति जहष्णं चतुत्थभत्तं तु । उक्कोसमझ छठें, उक्कोसुक्कोसमहमगं ॥१९२०॥ गुरुए सिसिर जहण्णे, जहण्णएणं तु देज आयाम । जहण्णगमज्झ चउत्थं, जहण्णउक्कोसए छटुं ॥१९२१॥ गुरुयतरा सिसिरेसुं, मज्झजहण्णेण देजऽभत्तहँ । मज्झिममज्झे छटुं, मज्झिमउक्कोसमहमगं ॥१९२२॥ अहगुरुए सिसिरेसुं, उक्कोसजहण्णएण छटुं तु । उक्कोसमज्झिमऽहम, उक्कोसुक्कोसए दसमं ॥१९२३।। अहलहुसग गिम्हासुं, जहण्णजहण्णेण होति णिविगति । हीणगमज्झे पुरिमं, जहण्णउक्कोस भत्तेक्कं ॥१९२४॥ लहुसतरा गिम्हेसुं, मज्झजहण्णेण होति पुरिमई। मज्झिममज्झक्कासण, मज्झिमउक्कोसमायामं ॥१९२५।। लहुसग गिम्हुक्कोसे, जहण्णगे होति भत्तमेकं तु । उक्कोसमझ आयंबिलं तु उक्कोसए चउत्थं ॥१९२६॥ अहलहुयग गिम्हेसुं, पुरिमडूं होति दुहजहण्णेणं । मज्झजहण्णेक्कासण, जहण्णउक्कोसमायामं ॥१९२७।। लहुयतरा गिम्हेसुं, मज्झजहण्णेण भत्तमेक्कं तु । मज्झिममज्झाऽऽयाम, मज्झिमउक्कोसए चउत्थं ॥१९२८॥ लहुयग गिम्हुक्कोसे, जहण्णएणं तु होति आयामं । मज्झिमगं तु चउत्थं, उक्कोसुक्कोसए छटुं ॥१९२९॥ गुरुए गिम्ह जहण्णे, जहण्णयं होति भत्तमेक्कं तु । हीणगमज्झाऽऽयामं, जहण्णउक्कोसए चउत्थं ॥१९३०॥ गुरुअतरा गिम्हेसुं, मज्झजहण्णेण होति आयाम । मज्झिममज्झ चउत्थं, मज्झिमउक्कोसए छटुं ॥१९३१॥
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१६६
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा
अहगुरुए गिम्हासुं, उक्कोसजहण्णए चउत्थं तु । उक्कोसमज्झ छहूं, उक्कोसुक्कोसमहमगं ॥ १९३२ ॥ नवविह ववहारेसो, आवत्ती दाणसहियकालजुओ । बुद्धीए विष्णेयो, विभागतो एसमक्खातो ॥ १९३३ ॥६७॥०॥
गिलाणाभावम्मि देज्ज हट्ठस्स ण तु गिलाणस्स । जावतियं वा विसहति तं देज्ज सहेज्ज वा कालं ॥ ६८ ॥ भावं पहुच अहियं, देज्जाही हट्ट - बलिय- णिरुयस्स । गिलाणस्स तु ऊणतरं, ण व देज्ज सहेज्ज वा कालं ॥। १९३४ ॥ असुभ सुभो वा भावो, लेस्साभेदेण होति णायव्वो । तिव्वो तिव्वतरो वा, तिव्वतमो एव मंदो वि ॥ १९३५ ॥ पण वि सेवियम्मी, चरिमं भाओ उ केइ पार्वति । चरिमाओ वा पणगं, एवमिणं भावणिष्कण्णं ॥ १९३६ ॥ भावेत्ति गतम् ।
पुरिसं पडुच्च अहियं, ऊणं वा दिज्ज अहव तम्मत्तं । ते पुण पुरिसादीया, इमे समासेण णायव्वा || १९३७।६८।। पुरिसा गीतागीता, सहासहा तह सदासदा केति । परिणामाऽपरिणामा, अतिपरिणामा अवत्थूणं ॥ ६९ ॥ केयी पुरिसा गीता, केयि अगीयत्थ होंति जातव्वा । धिति - संघयणादीहि, केइ सहा केइ तू असहा || १९३८ ॥ मायावी होन्ति सढा, असढा पुण उज्जुपण्ण णेतव्वा । परिणामक- परिणामादी इणमो, समासतोऽहं पवक्खामि ॥। १९३९ ।। अपरिणामक परिणामा अपरिणामा, अतिपरिणामा य वत्थु चरिमदुए । अवादीदिता, होति विभागो इमो तेसिं ॥। १९४० ।। जो दव्वखेत्तकयकालभावयो जं जहा जिणक्खायें । तं तह सद्दहमाणं, जाणसु परिणामगं साहुं ॥। १९४१॥
अतिपरिणामकाः
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१६७
६८-६९ ]
जीतकल्पसूत्रम् । जागति दव्य जहट्ठिय, सच्चित्ताचित्त मीसयं चैव । कप्पाकप्पं च तहा, जोगं वा जस्स जं होति ॥१९४२॥ खेत्ते जे कायव्वं, अद्वाणे जयण एव सद्दहति । काले सुभिक्ख-दुभिक्खमादिसू जो जहा कप्पो ॥१९४३।। भावे हद्वगिलाणं, आगाढे जं जहा व कायव्वं । तं सद्दहति करेति य, एसो परिणामओ साहू ॥१९४४।। जो दवखेत्तकयकालभावयो जं जहा जिणक्खायं । तं तह असद्दहंतं, अप्परिणामं वियाणाहि ॥१९४५।। जो दव्वखेत्तकयकालभावयो जं जहा जिणक्खायं । तल्लेसुस्मुत्तमती, अतिपरिणामं वियाणाहि ॥१९४६॥ परिणमति जहत्थेणं, मती तु परिणामगस्स कज्जेसु । बितिए ण तु परिणमती, अहितमती परिणमे तितिए ॥१९४७॥ दोसु तु परिणमति मती, उस्सग्गऽववाययो तु पढमस्स । बितियस्स तु उस्सग्गे, अतिअववाए तु ततियस्स ॥१९४८॥ अंबादीदिटुंतेहिं परिक्खा तेसि होति कायवा। जह कोयि गुरूहि तू, भणितो अंबाणि आणेहि ॥१९४९॥ परिणामगोऽत्थ भणती, किं सच्चित्तेऽचिते व आणेमि ?। भावतो केवइए वा ?, किं टाले (?) भिण्णऽभिण्णे वा ? ॥१९५०॥ बेति गुरू लद्ध चिय, पुणो व वोच्छिम् अहव वीमंसा ! भणिओ सि त्ती एवं, अप्परिणामो इमं बेति ॥१९५१॥ किं ते पित्तपलावो ?, मा बितियं एरिसाई जंपाहि । मा णं परो वि सोच्छिति, अहं पि णेच्छामि एयस्स ॥१९५२॥ अतिपरिणामो भणति, कालो सिं अतिच्छए अहो ताव । किं एच्चिरस्स वुत्तं ?, इत्थऽम्ह वि ण तरिमो भणितुं ॥१९५३॥ घेत्तूण भारमागतो, भणती अण्णे वि किं नु आणेमि। तो दो वि गुरू भणती, उवालभन्तो इमं तहितं ॥१९५४॥
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१६८
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा
णाभिपायं गिण्हसि, असमत्ते चैव भाससि वयणे । सुकं बिललोणकर, तिण्णे अहवा वि दोच्चंगे || १९५५ ॥ एमेव य रुक्खे वी, भंजितु आणेह बेति अपरिणतो । णिफावादी रुक्खे, भणामि ण दुमे अहं हरिए । १९५६ ॥ एमेव य बीयाई, आणेती आणिए गुरू भणति । अंबिल विद्धत्थाणि व, भणामि ण वि रोहणि समत्थे ॥ १९५७ ॥ ॐ ॥ ६९ ॥
तह धितिसंघयणोभयसंपण्णा तदुभएण हीणा य । आयपरोभयणोभयतरगा तह अण्णतरगा य ॥७०॥
fafagore देहे बली, धितिबलिओ देहदुब्बलो कोइ । कोयी दोहि वि बलिओ, दोहिं पी दुब्बलो कोइ || १९५८ ॥ दोहि वि बलिए सव्वं, धितिहीणे जत्थ चिट्ठति धिती से । आसज्ज व देहबलं, देज्जा लहुयं उभयहीणे || १९५९ ॥ अहवा पंच विकप्पा
hat पुरिसा पंचह, आयतरादी इमे उ णायव्त्रा । पढमो आयतरो तू, णो परयो परतरे बितिओ ॥। १९६० ।। उभयतरो तू ततिओ, णोभयह चउत्थओ उ णायव्वो । अण्णयरो परयो तू, पंचमओ होइ गातव्वो ॥१९६१ ॥ आयतर - परतराणं, को णु विसेसो ? ति एत्थ चोदेति । आततरो चउत्थादी, जं दिज्जति तं तु णित्थरति ॥ १९६२ ॥ वेयावच्चकरो तू, गच्छस्स उवग्गहम्मि वट्टति तु । एसो तु होति परतरो, चतुभंगो एव णायव्वो ॥१९६३ ॥ वेयावच्चतराणं, एकं सक्केति दो ण णित्थरति । पंचमगो तू पुरिसो, अण्णतरो एस जातव्वो । १९६४ ॥ ० ॥ ७० ॥
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७०-७१ ]
जीतकल्पसूत्रम् । कप्पट्ठियादयो वि य, चतुरोजे सेतरा समक्खाता। सावेक्खेतरमेयादयो य जे ताण पुरिसाण ॥७१।। कप्पट्टिता परिणता, कडजोगी चेव होन्ति तरमाणा। पडिपक्खेण चि चतुरो, अकप्पट्टियमादि णातव्या ॥१९६५॥ पतिट्ठा ठवणा ठवणी अवस्था संठिती ठिती । अवस्थाणं अवत्था या, एगट्ठा चिट्ठणा ति य ॥१९६६।। सामायिए य छेदे, णिव्विसमाणा तहेव णिव्वि। जिणकप्पे थेरेसु य, छविह कप्पद्विती होति ॥१९६७॥ सो पुण ठिती मज्जायाणासो कप्पो य होति कतिहा उ ?। भण्णति सो दसभेदो, इणमो वोच्छं समासेणं ॥१९६८॥ आचेलक्कुद्देसिय, सेज्जायर रायपिंड कितिकम्मे । वत जेट्ट पडिकमणे, मासं पज्जोसवणकप्पे ॥१९६९॥ कतिहिं ठिता अठिता वा, सामायिककप्पसंठिती णियमा ?। कतिठाणपतिहो वा, छेदोवट्ठाणकप्पो उ ? ॥१९७०।। चतुहि ठिया छहिं अठिया, सामातियसंजया मुणेयव्वा । दससु वि णियमा तु ठिता, छेगोवट्ठा मुणेतव्वा ।।१९७१॥ सेज्जातरपिंडे या, कितिकम्मे चेव चाउजामे य । पुरिसज्जे य तहा, चत्तारि अवट्ठिया कप्पा ॥१९७२॥ आचेलक्कुद्देसिय, रायपिंडे तहा पडिकमणे । मासं पज्जोसवणाकप्पे तऽणवहिता कप्पा ॥१९७३॥ दसठाणठितो कप्पो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । आचेलकादीमुं, तेसिं तु परूवणा इणमो ॥१९७४॥ दुविहा होति अचेला, संताचेला असंतचेला य । तित्थगरऽसंतचेला, संताचेला भवे सेसा ॥१९७५॥ संतेहिं वि चेलेहि, किह पुण समणा अचेलया होन्ति ? ।
आचेलक्यम्
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१७०
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा भण्णति सुणसू चोदग!, जह संतेहिं अचेला उ ॥१९७६॥ सिस्सावेढियपोति, णतिसंतरणम्मि णग्गयं बेन्ति । जुण्णेहिं णग्गिय म्हि, तुरसालिय ! देहि में पोत्ती ॥१९७७।। जुण्णेहिं खंडिएहि य, असव्वतणुपाउएहिं ण य णिचं । संतेहिं वि णिग्गंथा, अचेलगा होति चेलेहिं ॥१९७८॥ एवं दुग्गयपहिया, वञ्चेलया होंति ते भवे बुद्धी । ते खलु असंततीए, धरंति ण तु धम्मसद्धाए ॥१९७९॥ सति लाभम्मि साहू, गेण्हन्तऽसहट्टणाई ताई तु । ताणि वि खण्डियमादी, धरेन्ति तह धम्मबुद्धीए ॥१९८०॥ आचेलुक्को धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्सा । मज्झिमगाण जिणाणं, होति सचेलो अचेलो वा ॥१९८१॥ पडिमाए पाउया वा, णतिकमंते तु मज्झिमा समणा । पुरिमचरिमाण सहणट्टणा तु भिण्णाणिमो मोत्तुं ॥१९८२॥ णिरुवहयलिंगभेदो, णिकारणयो ण कप्पये कातुं । किं पुण तं णिरुवहयं ?, भण्णति अहजायलिंगं तु ॥१९८३॥ जम्मं दुविहं होति, मातृकुच्छिम्मि पढम जं जम्मं । भवसंसारचउक्के, णिप्फिडितो बितिय पव्वज्जं ॥१९८४।। तस्स इमे भेदा खलु, खंधदुवारे य समणे पाउरणे । गकलद्धंसे पट्टे, लिंगदुवे या इमा भयणा ॥१९८५॥ गिकारणयोलहुओ लहुओ लहुगा, तिसु चतुगुरुगा य हौति बोद्धव्या । गिहिलिंग अण्णलिंगे, दोमु वि मूलं तु बोद्धव्वं ॥१९८६॥ कुविन्ज कारणे पुण, भेदं लिंगस्सिमेहि कज्जेहिं । गेलण्ण रोग लोए, सरीरवेयावडियमादी ॥१९८७॥ अहवा इमेहि कारणेहिं
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शय्यातरः
७१ ] जीतकल्पसूत्रम् ।
१७१ आसज्ज खेत्तकप्पं, वासाठाई अभाविए असहू । काले अद्धाणम्मि य, सागरि तेणे य पंगुरणं ॥१९८८॥ असिवे ओमोयरिए, राय हे पवायिदुइ वा । आगाढे अण्णलिंग, कालक्खेवो व गमणं वा ॥१९८९॥
___ अचेल त्ति गतं । संघस्सोह विभागे, समणा समणी य कुल-गणस्सेव । कडमिह ठिए ण कप्पति, अट्ठियकप्पे जमुद्दिस्स ॥१९९०।।
की औद्देशिकम् आयरिए अभिसेगे, भिक्खुम्मि गिलाणगम्मि भयणा उ । तिक्खुत्तऽडविपवेसे, तियपरियट्टे तओ गहणं ॥१९९१॥
उद्देसिय त्ति गतं । तित्थगरपडिकुट्ठो, आणा अण्णाय उग्गमो ण सुज्झे । अविमुत्ति अलाघवया, दुल्लभसेज्जा ठितुच्छेदो ॥१९९२॥ पुरपच्छिमवज्जेहिं, अवि कम्मं जिणवरेहिं लेसेणं । भुत्तं विदेहगेहि य, ण य सागरियस्स पिण्डो तु ॥१९९३॥ दुविहे गेलण्णम्मी, णिमंतणा दव्वदुल्लभे असिवे । ओमोयरिय पयोसे, भए व गहणं अणुण्णातं ।।१९९४॥ तिक्खुत्तो सक्खेत्ते, चउद्दिसिं मग्गिऊण कडजोगी। दव्वस्स य दुल्लभया, सागारियसेवणा दव्वे ॥१९९५॥
सेज्जायरे त्ति गयं । केरिसयो तू राया ?, भेया पिंडस्स के व ? सिं दोसा ?। राजपिण्डः केरिसयम्मि व कज्जे, कप्पति ? काए व जयणाए ? ॥१९९६॥ मुदिए सुद्धऽभिसित्ते, मुदिओ जो होति जोणिसुद्धो तु । अभिसित्तो व परेहि, सयं व भरहो जहा राया ॥१९९७।। पढमगभंगे वज्जो, होतुवमा वा वि जे भणिय दोसा । सेसेसु होयऽपिंडो, जहिं दोसा तं विवज्जेज्जा ॥१९९८॥ असणादीया चउरो, वत्थे पादे य कंबले चैव । पाउंछणए य तहा, अट्टविहो रायपिंडो तु ॥१९९९।।
राजपिण्ड:
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१७२
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा अट्टविह रायपिंडं, अण्णयरायं तु जो पडिग्गाहे । सो आणा अणवत्थ, मिच्छत्त विराहणं पावे ॥२०००॥ दोसा इमे ईसरत लवरमाडंबिएहिं सत्थवाहे हिं । णिन्तेहिं अइन्तेहि य, वाघातो होति साहुस्स ॥२००१॥ ईसर भोइयमादी, तलवरपट्टेण तलवरो होति । वेढणवट्टो सेट्ठी, पच्चंतणिवो उ माडंबी ॥२००२॥ जा णिन्तऽइन्त ता अच्छतो तु सुत्तादि-भिक्खपरिहाणी। इरिया अमंगलं ति य, पण्हाहणणा इहरहा तु ॥२००३॥ लोभे एसणघातो, संका तेणे णपुंस इत्थी य । इच्छंतमणिच्छंते, चातुम्मासा भवे गुरुगा ॥२००४॥ अण्णत्थ एरिसं दुल्लभं ति गेण्हेजऽणेसणिज्ज पि । अण्णेण वि अवहरिए, संकिजति एस तेणो त्ति ॥२००५॥ संका चारिय चोरे, मूलं णिस्संकिए य अणवहो। परदारि अहिमरे वा, णवमं णीसंकिते दसमं ॥२००६॥ अलभंता य वियारं, इत्थिणपुंसा बला वि गिण्हेज्जा। आयरिय कुल गणे वा, संघे वा कुज्ज पत्थारं ।।२००७॥ अण्णे वि अस्थि दोसा, गोम्मियआइण्णरयणमादी य । तण्णीसाए पविसे, तिरिक्खमणुया भवे दुट्टा ॥२००८॥ गोम्मियगहणा हणणा, रण्णो य णिवेइयम्मि जं पावे । आदीणरतणमादी, सत गेण्हेयरो व तण्णीसा ॥२००९॥ चारियचोराभिमरा, कामी व विसति तत्थ तण्णीसा । वारणतरच्छवग्घा, मेच्छा य णरा व घाएज्जा ॥२०१०॥ दुविहे गेलण्णम्मी, णिमंतणा दव्वदुल्लमे असिवे । ओमोयरिय पदोसे, भए व गहणं अणुण्णायं ।।२०११॥ तिक्खुत्तो सक्खेत्ते, चउद्दिसिं मग्गितूण कडजोगी। दव्वस्स य दुल्लभता, जतणाए कप्पती ताहे ॥२०१२॥
रायपिंडे त्ति गतं ।
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७१ ]
जीतकल्पसूत्रम् ।
कितिकम्मं पि यदुविध, अब्भुट्ठाणं तहेव चंदणयं । समणेहि य समणीहि य, जहारिहं होति कायव्वं ॥ २०१३ ॥ सव्वाहि संजईहिं, कितिकम्मं संजताण कातव्वं । पुरिसुत्तरिओ धम्मो, सव्वजिणाणं पि तित्थम्मि || २०१४ ॥ तुच्छत्तणेण गव्वो, जायइ ण य संकते परिभवेणं । अण्णो वि होज्ज दोसो, धियासु मा हुज्जहज्जामु ||२०१५|| अवि य हु पुरिसपणीतो, धम्मो पुरिसो य रक्खितुं सत्तो । लोगविरुद्धं चेयं, तम्हा समणाण कातव्वं ॥२०१६ ॥ किकम्मो त्ति गयं । पंचज्जामो धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । मज्झिमयाण जिणाणं, चातुज्जामो भवे धम्मो ॥२०१७॥ पुरिमाण दुव्विसोज्झो, चरिमाणं दुरणुपालयो कप्पो । मज्झिमयाण जिणाणं, सुविसोज्झो सुरणुपालो य || २०१८ ॥ जडत्तणेण हंदी, आइक्खविभागवणया दुक्खं । सुहसम्मुयताण य, तितिक्ख अणुसासणा दुक्खं ॥२०१९ ॥
पुरिमाणं
मिच्छत्तगोवियाणं, दुब्बियडूमतीण ठाणसीलाणं । आइक्खितु अइदुक्खं, उवणे वा विदुक्खं तु ॥ २०२० ॥ दुक्खेहिं भच्छियाणं, तणुधितिअबलत्तयो य दुतितिक्खं । एमेव दुरणुसासं, माणुकडयाय चरिमाणं || २०२१॥ एते चैव य ठाणा, सपण्णउज्जुत्तणेण मज्झाणं । सुदुउभयवलाण य, विभिस्तभावा भवे सुहमा || २०२२|| वए त्ति गयं ।
पुव्वतरं सामइयं, जस्स कथं जो व तेसु वा ठवितो । एस कितिकम्मट्ठो, ण जाति-सुययो दुपक्खे वि ॥२०२३॥
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१७३
कृतिकर्म
व्रतानि
पुरुषज्येष्ठः
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१७४
स्वोपज्ञभाष्ययुत
[गाथा सा जेसि तुवठ्ठवणा, जेहि य ठाणेहिं पुरिमचरिमाणं । पंचायामे धम्मे, आएसतिगं चिमं सुणसु ॥२०२४॥ दस चेव छच्च चतुरो, एते खलु तिण्णि होन्ति आदेसा। कतरे हवन्ति दस तू ?, भण्णति सुणसू इमे ते तू ॥२०२५॥ ततो पारंचिया वुत्ता, अणवठ्ठप्पा य तिणि तु । दंसणम्मि य वन्तम्मि, चरित्तम्मि य केवले ॥२०२६॥ अहवा चियत्तकिच्चे, जीवकायं समारभे । सहे य दसमे वुत्ते, जस्सोवट्ठावणा भवे ॥२०२७।। एते दस तू वुत्ता, अण्णादेसेण होति छत्तु इमे । तिण्णि वि पारंचेकं, अणवट्टप्पा वि तिण्णेकं ।।२०२८॥ दसणवन्ते तइए, चरित्तवंते भवे चउत्थं तु । पंचम चियत्तकिच्चो, छटो सो होउवट्ठप्पो ॥२०२९॥ एसो बितियाएसो, ततियाएसो इमो मुणेयव्यो । चत्तारि व उवट्टप्पा, कयरे तु ? इमे मुणेतवा ॥२०३०॥ पारंची अणुवट्टा, दंसण चरणे सुते पदिहा तु । दसणचरित्तवंता, तो दोण्णेते भवन्ती तु॥२०३१॥ चियत्तकिच्चो सेहो य, चत्तारेते हवंतुवटुप्पा । एते तिण्णादेसा, उवठवणाए मुणेतव्या ॥२०३२॥ केवलगहणं कसिणं, जति वमती देसणं चरित्तं वा । तो तस्स उवट्ठवणा, देसे वंतम्मि भयणा तु ॥२०३३॥ एमेव य किंचि पदं, सुयं च असुयं च अप्पदोसेणं । अविकोविए कहेन्तो, चोइय आउट्ट सुद्धो तु ॥२०३४॥ सो पुण दसणवंतो, अणभोगेणं त अहव आभोगा । अणभोगेणं तहियं, कोयी सडो तु संवेगा ॥२०३५॥ दहण णिण्हगे तू , एते साहू जहुत्तकारि त्ति ।। णिक्खंतो अणभोगा, दिहो अण्णेहिं साहू हिं ।।२०३६।।
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१७५
७१)
जीतकल्पसूत्रम्। भणिओ य णिण्हगाणं, कीस सगासे तुम सि णिवतो ?। तो बेति ण याणामि, एय विसेसं अहं भंते ! ।।२०३७॥ एवमणाभोगेणं, मिच्छत्तगतो पुणो वि सम्मत्तं । जो पडिवण्णो सो तू, आलोतियणिन्दितो सुद्धो ॥२०३८॥ सो चेव य परियायो, णत्थि उवट्ठावणा पुणो तस्स । तं चिय पच्छित्तं से, जं चिय सम्मं तु पडिवज्जे ॥२०३९॥ जो पुण जाणतो चिय, गतो तु होजाहि णिण्हएसुं तु । पुणरागतो य सम्म, तस्स उवट्ठावणा भणिया ॥२०४०॥ छण्हं जीवनिकायाणं, अणपज्झो तु विराहओ । आलोतियपडिकतो, सुद्धो हवति संजतो ॥२०४१॥ छण्हं जीवणिकायाणं, अपज्झो तू विराधयो । आलोतियपडिकतो, मूलच्छेज्ज तु कारए ॥२०४२॥ खेत्तादिअणप्पज्झो, अणभोगेणं व जो गतो मिच्छं । सो तु अपायच्छित्तो, विराहती तस्स दिन्तो तु ॥२०४३॥ जं जो तु समावण्णो, जं पायोग व्च जस्स वत्थुस्स । तं तस्स तु दायव्वं, असरिसदाणा इमं होति ॥२०४४॥ अप्पच्छित्ते य पच्छित्तं, पच्छित्ते अतिमत्तया। धम्मस्साऽऽसायणा तिव्वा, मग्गस्स य विराहणा ॥२०४५॥ उस्मुत्त ववहरेतो, कम्म बंधति चिक्कणं । संसारं च पबड़े ति, मोहणिज्जं व कुव्वती ॥२०४६॥ उम्मग्गदेसए मग्गदूसए मग्गविषडीवाए । परं मोहेण रंजेन्तो, महामोहं पकुव्वती ॥२०४७॥ एवं तु उवढवितो जो पढमयरं तु अहव सामतिए । ठवितो सो जेट्टयरो, कप्पपकप्पट्टिताणं च ॥२०४४॥
पुरिसजेट्टे त्ति गतं ॥ सपडिकमणो धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । प्रतिक्रमणम्
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१७६
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा मज्झिमगाण जिणाणं, कारणजाए पडिक्कमणं ॥२०४९॥ गमणागमणविहारे, सायं पादो य पुरिमचरिमाणं । णियमेण पडिक्कमणं, अतियारो होउ वा मा वा ॥२०५०॥ अतियारस्स तु असती, णणु होति णिरत्ययं पडिकमणं । भण्णति एवं चोदग!, तत्थ इमं होति णातं तु ॥२०५१॥ जह कोयि डंडिओ तू, रसायणं कारवेति पुत्तस्स । तत्थेगो तेगिच्छी, बेती मज्झं तु एरिसयं ॥२०५२॥ जति दोसे होअगतं, अह दोसो पत्थि तो गयो होति । बितियस्स हरति दोस, ण गुण दोसं व तदभावा ॥२०५३॥ दोसं हेतूण गुणे, करेति गुणमेव दोसरहिए त्ति । तइयसमाहिकरस्स तु, रसायणं डंडियसुतस्स ॥२०५४॥ इय सइ दोसं छिंदति, असती दोसम्मि णिज्जरं कुणति । कुसलतिगिच्छरसायण, उवणीयमिण पडिक्कमणं ॥२०५५॥
पडिकमणे ति गतं । मासकल्पः जिणथेरअहालंदे, परिहारिग अन्ज मासकप्पो तु ।
खेत्ते कालमुवस्सयपिंडग्गहणे य णाणत्तं ॥२०५६॥ एतेसिं पंचण्ह वि, अण्णोण्णस्सा चतुप्पएहिं तु । खेत्तादीहि विसेसो, जह तह वोच्छं समासेण ॥२०५७॥ णत्थि तु खेत्तं जिणकप्पियाण उडुबद्ध मासकालो तु । वासासु चउमासा, वसही अममत्तपरिकम्मा २०५८।। पिंडो तु अलेवकडो, गहणं तू एसणाहुवरिमाहि । तत्थ वि कातुमभिग्गह, पंचण्हं अण्णयरियाए ॥२०५९॥ थेराण अस्थि खेत्तं, तु उग्गहो जाण जोयण सकोसं । णगरे पुण वसहीए, कालो उउबढे मासो तु ॥२०६०॥ उस्सग्गेण य भणितो, अववाएणं तु होज्ज अहिओ वि । एमेव य वासासु चि, चतुमासो होज्ज अहिओ वा ॥२०६१॥
मासकल्पः
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७१
१७७
जोतकल्पसूत्रम् । अममत्त-अपरिकम्मो, उवस्सओ एत्थ भंगया चतुरो । उस्सग्गेणं पढमो, तिण्णि तु अववायओ भंगा ॥२०६२॥ भत्तं लेवकडं वा, अलेवकडं वा वि ते तु गेण्हंति । सत्तहि व एसणाहिं, सावेक्खो गच्छवासो त्ति ॥२०६३॥ अहलंदियाण गच्छे, अप्पडिबद्धाण जह जिणाणं तु । णवरं काले विसेसो, उदुमासो पणग चतुमासो ॥२०६४॥ गच्छे पडिबद्धाणं, अहलंदीणं तु अह पुण विसेसो । जो तेसि उग्गहो खल्लु, सो साऽऽयरियाण आहवति ॥२०६५।। एगवसहीए पणगं, छब्बीहीओ य गाम कुव्वंति । दिवसे दिवसे अण्णं, अडंति वीही तु णियमेणं ॥२०६६॥ परिहारविसुद्धीणं, जहेव जिणकप्पियाण णवरं तु । आयंबिलं तु भत्तं, बोद्धव्यो थेरकप्पो तु ॥२०६७।। अजाण परिग्गहियाण उग्गहो जो तु सो हु आयरिए । कालतो दो दो मासा, उदुबद्धे तासि कप्पो तु ॥२०६८॥ सेसं जह थेराणं, पिंडो य उवस्सयो य तह तासि । सो सम्बो वि य दुविहो, जिणकप्पो थेरकप्पो य ॥२०६९॥ जिणकप्पियऽहालंदी, परिहारविसुद्धियाण जिणकप्पो । थेराण अज्जियाण य, बोद्धव्वो थेरकप्पो तु ॥२०७०।। दुविहो उ मासकप्पो, जिणकप्पो चेव थेरकप्पो य। णिरणुग्गहो जिणाणं, थेराण अणुग्गहपवत्तो ॥२०७१॥ उदुवासकालऽतीए, जिणकप्पीणं तु गुरुगो गुरुगा य । होति दिणम्मि दिणम्मी, थेराणं ते चिय लहू उ ॥२०७२॥ तीसं पदाऽवराहे, पुट्ठो अणुवासियं अणुवसंता । जे नत्थ पदे दोसा, ते तत्थ ततो समावण्णो ॥२०७३॥ पण्णरसुग्गमदोसा, दस एसणदोस एय पणुवीसं । संजोयणाइ पंच य, एते तीसं तु अवराहा ॥२०७४।।
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१७८
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[गाथा एतेहिं दोसेहि, संपत्तीए वि लग्गती णियमा । दिवसे दिवसे सो ऊ, कालातीते वसंतो तु ॥२०७५॥ वासावासपमाण, आयारउदुप्पमाणियं कप्पं । एयं अणुम्मुयतो, जाणसु अणुवासकप्पो तु ॥२०७६।। आयारपकप्पम्मी, जह भणितं तीय संवसंतो वि । होति अणुवासकप्पो, तह संवसमाण दोसो तु ॥२०७७॥ दुविहे विहारकाले, वासावासे तहेव उदुबद्धे । मासातीतेऽणुवही, वासाईते भवे उवही ॥२०७८॥ उब्बद्धिएम अट्ठसु, तीतेसुं वास तत्थ ण वि कप्पे । घेत्तणं उवहिं खलु, वासासु तु तीते कप्पति तु ॥२०७९॥ वासउदुअहालंदे, इत्तरिसाहारणोग्गहपुहत्ते । संकमणट्ठा दव्वे, गच्छे पुप्फावकिण्णा तु ॥२०८०॥ वासामु चउम्मासो, उउबढ़े मासो लंद पंच दिणा । इत्तरिओ रुक्खमुले, वोसमणहा ठियाणं तु ॥२०८१॥ साहारणा उ एते, समगठियाणं बहूण गच्छाणं । एकेण परिग्गहिता, सव्वे वोहत्तिया होन्ति ॥२०८२॥ संकमणऽण्णोण्णस्सा, सगासे जति उ ते अहीयते । सुत्तत्थतदुभयाई, सव्वो अहवा वि पडिपुच्छे ॥२०८३॥ ते पुण मंडलियाए, आवलियाए व तं तु गिण्हेज्जा। मंडलियमहिज्जते, सच्चित्तादी तु जो लाभो ॥२०८४॥ सो तु परंपरएणं, संकमती ताव जाव सहाणं । जहियं पुण आवलिया, तहियं पुण ठाति अंतम्मि ॥२०८५॥ ते पुण जहा तु एक्काये, वसहीए अहव पुप्फकिण्णा तु । अहवा वि तु संकमणे, दवस्सिणमो विही अण्णो ॥२०८६॥ मुत्तत्थतदुभयविसारयाण थोवे अ संभतीभेदे । संकमणट्ठा दव्वे, जोगे कप्पे य आवलिया ॥२०८७॥
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७१ ]
जीतकल्पसूत्रम् |
पुव्वट्टिताण खेत्ते, जति आगच्छेज्ज अण्ण आयरिओ ।
बहुसुय बहुआगमिओ, तस्स सगासम्म जति खेत्ती ॥२०८८ ॥ किंचि अहिज्जेज्जाही, थोवं खेत्तं च तं जइ हवेज्जा । ताहे असंथरता, दोणि वि साहू विवज्जेन्ति ॥२०८९ ॥ अण्णोण्णस्स सगासे, तेसि पि य तत्थऽहिज्जमाणाणं । आभवणा तह चैव य, जह भणियमणंतरे सुत्ते ॥२०९० ॥ एवं णिव्वाघाए, मास चतुम्मासिओ तु थेराणं । कप्पो कारणयो पुण, अणुवासो कारणं जाव ॥२०९१ ॥ एसो तु मासकप्पो, थेरकप्पो य वण्णिओघेणं । अहुणा ठियमटियं तू, थेराणं इणम् वोच्छामि ॥२०९२ ॥ सो थेरकप्पो दुविहो, अतिकप्पो य होति ठितकप्पो । एमेव जिणाणं पी, ठितमठितो होति कप्पो तु ।।२०९३ ।। मासकपेति गतम् । पज्जोसवणाकप्पो, होति ठितो अहिओ य थेराणं । एमेव जिणाणं पी, दुह ठियमटिओ य णातव्वो । २०९४ || चातुम्मासुकोसो, सत्तरि राईदिया जहणेणं । range एगतरे, कारणवच्चासितण्णयरे ॥२०९५॥ थेराण सत्तरी खलु, वासासु ठितो उ दुण्णि मासो तु । वच्चासिओ तु कज्जे, जिणाण नियमट्ट चतुरो वा || २०९६ ॥ दोसासति मज्झिमया, अच्छंती जाव पुञ्चकोडी तु । विहरति यवासावि, अकद्दमे पाणरहिए य ॥२०९७॥ भिण्णं पिवासकं, करेंति तणुयं पि कारणं पप्य । जिणकप्पिया वि एवं एमेव महाविदेहे वि ॥२०९८ || एयं वियम्मि मेरे, अट्ठियकप्पे य जो पमाएति । सो त पास थे, ठाणम्मि तगम्मि वज्जेज्जा ॥२०९९ ॥
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पर्युषणाप
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૮૦
स्वोपज्ञभाष्ययुत
पासत्थसंकिलिहूं, ठाणं जिणवुत्त थेरेहि य । तारिसं तु गवेसंतो, सो विहारे ण सुज्झति ॥२१००॥ पासत्थसकिलि, ठाणं जिणवृत्त थेरेहि य । तारिसं तु विवज्जैतो, सो विहारे तु सुज्झति ॥२१०१ ॥ जो कप्पठितमेयं, सद्दहमाणो करेति सहाणे | सो तारिसं तु गवेसेज्जा, जतो गुणाणं अपरिहाणी ॥ २१०२ ॥ तिमि दसव, ठवणाकप्पे य दुविहमण्णयरे । उत्तरगुणकप्पम्मिय, जो सरिकप्पो स संभोगो ॥२१०३ ॥ ठवणाकप्पो दुविहो, अप्पठवणा य सेहठवणा य । पढमो अकपिणं, आहारादीणि गिव्हावे || २१०४॥ अट्ठारसेव पुरिसे, वीसं इत्थीण दस णपुंसे य । दिक्खेति जो ण एते, सेहवणाए सो कप्पो ॥२१०५|| आहारवहिसेज्जा, उग्गमउप्पायनेसणामुद्धं ।
जो परिगिण्हति णिययं, उत्तरगुणकप्पिओ स खलु ॥ २१०६ ॥ सरिकप्पे सरिछंदे, तुल्लचरिते विसिद्वतरए वा । साहूहिं संथ कुज्जा, पाणीहिं चरितगुतेहिं ॥२१०७॥ सरिक सरिछंदे, तुल्लचरिते विसितरए वा । आइएज भत्तपाणं, सरण लाभेण वा तुस्से ||२१०८॥ इय सामाइयछेदे, जिणथेराणं किती समक्खाता । एतो णिव्विसमाणे, णिबिट्ट यावि वोच्छामि ॥२१०९ ॥ परिहारकल्पः परिहारकप्पं वोच्छामि, परिहरितव्वं जहा विदू ।
[ गाथा
आदी मज्झावसाणे य, आणुपुव्वि जहक्कमं ॥२११०॥ भररवयवासेसु, जदा तित्थगरा भवे । पुरिमा पच्छिमा देव, परिहारी तेसु होन्ति तु ॥ २१११ ॥ मज्झिमाण ण संती तु, तित्थेसुं परिहारिया । ण यात्रिय विदेहेसु, विज्जंतो परिहारिया ॥२११२ ॥
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७१ ]
जीतकल्पसूत्रम् । केवतियकालसंजोगो, गच्छो तू अणुसज्जती । तित्थंकरेसु पुरिमेसु, तहा पच्छिमएमु य ॥२११३॥ पुचसयसहस्साति, पुरिमस्सऽणुसज्जती। जम्हा ण पडिवज्जंति, दोण्ह गच्छा परेण तु ॥२११४॥ देसूणपुव्वकोडीओ, दो सा दोण्ह भवंति तु । दो सा एगूणतीसा तु, तेण ऊणा ततो भवे ॥२११५'। वीसग्गसो य वासाई, चरिमस्सऽणुसज्जए। जाव देसूणगा दोण्णि, सया वासाण होति तु ।।२११६॥ पव्यज्जा अहवासस्स, उवट्ठा णवमम्मि उ । एगूणवीसपरियाए, दिठिवाओ य तस्स तु ॥२११७॥ उद्दिस्सति वरिसेण य, तस्स य सो तु समप्पती । णव वीसा य मेलीणा, ऊणतीसा भवंति तु ॥२११८॥ इति एगणतीसाए, सयमूणं तु पच्छिमे । एसो दोस तु एतेणं, ऊणाई दो सयाणि उ ॥२११९॥ पालतित्ता सयं ऊणं, ठाणं ते तु पच्छिमे । काले देसेन्ति अण्णेसिं, इति ऊणा उबे सता ॥२१२०॥ पडिवज्जति जिणिंदस्स, पायमूलम्मि जे विऊ । ठावयंति उ ते अण्णे, नो तु ठावितठावगा ॥२१२१॥ सव्वे चरित्तमंता य, दंसणे परिणिहिया । णवपुची जहण्णेणं, उक्कोस दसपुब्बिया ॥२१२२॥ पंचविहे ववहारे, कप्पे ते दुविहम्मि य । दसविहे य पच्छित्ते, सव्वे ते परिणिहिता ॥२१२३॥ अत्तणो आउगं सेसं, जाणित्ता ते महामुणी । परक्कम बलं विरियं, पञ्चवाए तहेव य ॥२१२४॥ जति जीतपञ्चवाया, ण होति तेसिं तु अण्णतरा । तो तं पडिवज्जती, वाघाएणं तु तेग वी ॥२१२६॥
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૨૮ર
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[गाथा पडिवज्जते वीसग्गसो कह देसूणा दो सया भवंति ? वीसाए परेण वि एयमग्गं, पव्वज्जा० सिलोगा ३। वाससयाउया मणुस्सा जम्मातो, सेसं तहेव सव्वं ॥ तत्थ जे उसभसामिस्स तित्थे पुव्वसतसहस्सा ते देसूणा दो पुषकोडी भवंति । कहं ? अहवासपरियातो, सिलोगा ३। ते पुवकोडिआउया मणुस्सा जम्माओ ८ पव्वइता,२९वासाए दिठिवाओ व समप्पति, सो उसभसामिकालपडिवण्णो, एसा एगा पुनकोडी देसूणा । एयस्स मूले एवं च अण्णो पडिवजति तस्स वि [एगा पुचकोडी देसूणा । एवं] देसूणाओ दो पुवकोडीओ । एतस्स अण्णा मूले ण पडिवज्जति । उसभसामिस्स आउयं ८४ [ लक्खपुव्वाणि ।] आपुच्छिऊण अरहते, मग्गं देसिंति ते इमं । पमाणाणि य सवाणि, मग्गहे य बहुविहे ॥२१२६॥ उवहीगमणप्पमाणाणि, पुरिसाणं च जाणि । दव्वं खेत्तं च कालं च, भावं अण्णे य पज्जवे ॥२१२७।। संसट्टमाइयाणं, सत्तहँ एसणाण तु ।
आदिल्लाहिं दोहिं तु, अग्गहो गह पंचहि ॥२१२८॥ तत्थ वि अण्णयरीए, एगीए अभिग्गहं तु कातूणं । उवहिणो अग्गहो दोसु, इयरो एगतरीय तु ॥२१२९।। अइरुग्गयम्मि सूरम्मि, कप्पं देसेन्ति ते इमं । आलोइयपडिक्कंता, ठावयंति तयो गणे ॥२१३०॥ सत्तावीसं जहण्णेणं, उक्कोसेणं सहस्ससो। णिग्गंथसूरा भगवंतो, सव्वग्गेण वियाहिया ॥२१३१॥ सयग्गसो य उक्कोसा, जहण्णेण ततो गणा। गणो य णवगो बुत्तो, एमेया पडिवत्तीओ ॥२१३२॥ एग कप्पट्ठियं, कुज्जा, चत्तारि पारिहारिया । अणुपारिहारिया चेव, चतुरो एतेसि दावए ॥२१३३॥
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७१ ]
जीतकल्पसूत्रम् । ण तेसिं जायते विग्धं, जा मासा दस अट्ट य । ण वेयणा ण वाऽऽयंको, ण वायणे उवद्दवा ।।२१३४॥ अट्ठारसमु पुण्णेसुं, होज्जा एते उवद्दया । ऊणिए ऊणिए यावि, गणे मेरा इमा भवे ॥२१३५॥ जत्तिएण गणो ऊणो, तत्तिए तत्थ पक्खिवे । एग दुवे अणेगा वा, एस कप्पे तु ऊणिए ॥२१३६॥ एते अणूणिए कप्पे, उपसंपज्जति जो तहिं । एगे दुवे अणेगे वा, तेसिं कप्पो इमो भवे ॥२१३७॥ अच्छंति ता उदिक्खंता, जाव पुण्णा तु ते णव । पच्छा पडिवज्जंति, जं कप्पं तेसि अंतिए ॥२१३८॥ पमाण कप्पद्वितो तत्थ, ववहारं ववहरित्तए । अणुपरिहारियाणं पि, पमाणं होति सेव तु ॥२१३९॥ आलोयण कप्पठिए, पञ्चक्खाणं तहेव वंदणयं । तं च वहते ते तू, उज्जाणी एव मण्णंति ॥२१४०॥ अणुपरिहारी गोवालगव्यगावीण णिच्चमुज्जुत्ता। परिहारियाण मग्गतो, हिडिती णिचमुज्जुत्ता ॥२१४१।। पडिपुच्छं वायणं चेव, मोत्तणं णत्थि संकहा । आलावो अत्तणिद्देसो, परिहारियस्स कारणे ॥२१४२॥ परिहारियाण उ तवो, वासामुक्कोस मज्झिम जहण्णो। बारसम दसम अट्ठम, दसमऽट्ठम छह सिसिरेसु ॥२१४३॥ अट्ठम छ? चउत्थं, गिम्हे उक्कोस मज्झिम जहण्णो। आयंबिलपारणगं, अभिगहिताएसणाए तु ॥२१४४|| अणुपरिहारीया पुण, णिचं पारिति ते उ आयामे । कप्पट्टिए वि ते चिय, आणिति अभिग्गहीताहिं ॥२१४५॥ परिहारिय पत्तेयं, अणुपरिहारीण तह य कप्पठिए । पंचण्ह वि तेसिं तू, संभोगेको मुणेतन्यो ॥२१४६॥
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१८४
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[गाथा परिहारिएम बूढे, अणुपरिहारी ततो वहती तु । कप्पट्टियो य पच्छा, वहती बूढेसु तेसुं तु ॥२१४७॥ परिहारिया वि छम्मासे, अणुपरिहारिया वि छम्मासे । कप्पद्वितो वि छम्मासे, एते अट्ठारस तु मासा ।।२१४८॥ अणुपरिहारिया चेव, जे य ते परिहारिया । अण्णमण्णेसु ठाणेसु, अविरुद्धा भवंति ते ॥२१४९॥ गतेहिं छहिं मासे हिं, णिविट्ठा भवंति ते । अणुपरिहारिया पच्छा, परिहारं परिहरंति तु ॥२१५०॥ गएहि छहि मासेहि, णिविट्ठा भवंति ते । वहती कप्पट्टितो पच्छा, परिहारं अहाविहिं ॥२१५१॥ एतेसिं जे वहन्ती, णिव्विसमाणा हवंति ते णियमा । जेहिं बूढं पुण ते सिं, हवंति णिबिहकाइया ॥२१५२॥ अट्ठारसहि मासेहि, कप्पो होति समाणितो। मूलढवणा एसा, समासेण वियाहिता ॥२१५३॥ एवं समासिए कप्पे, जे व सिं जिणकप्पिया। तमेव कप्पं ऊणा वि, पालए जावजीवियं ॥२१५४॥ अट्ठारसहिं पुण्णेहि, मासेहि थेरकप्पिया। पुण गच्छ णियच्छति, एसा तेसिं जहाविही ॥२१५५॥ ततिय चउत्था कप्पा, समोअरंते तु बितियकप्पम्मि । पंचमछट्टटितीमुं, हेहिल्लाणं समोयारे ॥२१५६॥ सामाछेदो णिव्विस, णिविट्ठ एते जिणथेरे ओयरंति ॥ अहुणा जिणकप्पठिती, सा पुव्वं मासकप्पसुत्तम्मि । भणिया स चेव इह, णवरमसुण्णत्थ भणति इमं ॥२१५७॥ गच्छम्मि य णिम्माया, धीरा जाहे य मुणितपरमत्था । अग्गह अभिग्गहे या, उति जिणकप्पिगविहारं ॥२१५८।। णवपुव्वि जहण्णेणं, उक्कोसेणं तु दस असंपुण्णा । चोद्दसपुब्बी तित्थं, तेण तु जिणकप्प ण पवज्जे ॥२१५९।।दा।
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७१ ]
जिनकल्पः
जीतकल्पसूत्रम् । वइरोसभसंघयणा, सुत्तस्सऽत्थो तु हाति परमत्थो । संसारसंभवो वा जातो तो मुणियपरमत्थो ॥२१६०॥ दारं । अग्गहो ततियातीया, पडिमाहिं गहण भत्तपाणस्स । दोहिं तु उवरिमाहिं, गेण्हंती वत्थपायाई ॥२१६१।। दारं । दव्वे अभिग्गहा पुण, रतणावलिमाइगाइ बोद्धव्वा । एतेसु विदितभावो, उवेति जिणकप्पियविहारं ॥२१६२॥ दुविहा अतिसेसा वि य, तेसि इमे वणिया समासेणं । बाहिर अभितरगा, तेसि विसेसं पवक्खामि ॥२१६३॥ बाहिरओ सरीरस्सा, अतिसेसो तेसिमो तु बोद्धव्यो । अच्छिद्दपाणिपाया, वइरोसभसंघतण धीरा ॥२१६४॥ वग्गुलिपक्खसरिसयं, पाणितलं तेसि धीरपुरिसाणं । होति खतोवसमेणं, लद्धी तेसिं इमाऽऽहंसु ॥२१६५॥ माएज घडसहस्सं, धारेज व सो तु सागरा सव्वे । जो एरिसलद्धीए, सो पाणिपडिग्गही होति ॥२१६६॥ दारं। अभितर अतिसेसो, इमो उ तेसिं समासयो भणितो । उदही विव अक्खोभा, सूरो इव तेयसा जुत्ता ॥२१६७॥ अव्वावण्णसरीरा, व....गंधा ण होति से सरीरस्स । ख....म वि ण कुच्छ तेसिं,परिकम्मं ण वि य कुव्वंति।।२१६८॥ पाणिपडिग्गहिया तू , एरिसया णियमसो मुणेतव्वा । अतिसेसे बोच्छामि, अण्णे वि विसेसतो तेसिं ॥२१६९॥ दुविहो तेसऽतिसेसो, णाणातिसयो तहेव सारीरो । णाणादिसयो ओही, मणपज्जव तदुभयं चेव ॥२१७०॥ अहवाऽऽभिणिवोहीयं, सुतणाणं चेव णाणअतिसेसो। तिवलीअभिण्णचच्चा, एसो सारीर अतिसेसो ॥२१७१।। रतहरणं मुहपोत्ती, जहण्णमुवगरण पाणिपत्तिस्स । उकोसं कप्पतियं, सव्वो वि य एस पंचविहो ॥२१७२।।
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१८६ स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा पडिगहधारि जहण्णो, णवहा उक्कोस बारसविकप्पो । तेसिं एयाणि चिय, अतिरेगे पायणिज्जोगो ॥२१७३।। रूढणह णियणमुंडी, दुविहो उवही जहण्णओ तेसिं । एसो लिंगो तेसिं, णिव्याघाएण तत्वो ॥२१७४॥ रतहरणं मुहपोत्ती, संखेवेणं तु दुविह उवही तु । वाघात विगतलिंगे, आरेसासु व होति कडिपट्टो ॥२१७५।। सत्त य पडिग्गहम्मी, रतहरणं चेव होति मुहपोत्ती। एसो तु णवविकप्पो, उवही पत्तेयबुद्धाणं ॥२१७६।। एगो तित्थयराणं, णिक्खममाणाण होति उवही तु । तेण पर णिवही तू , जावज्जीवाए तित्थगरा ॥२१७७|| एसा जिणकप्पठिती, ठाणामुण्णत्थया समक्खाता । वित्थरयो पुण गेया, जह भणितं मासकप्पम्मि ॥२१७८॥
णिज्जुत्तीए । स्थविरकल्पः अहुणा थेरथिती तू , सा वि य भणिता तु पुव्वमेव तु ।
दारमसुण्णथमिय, गवरं संखेवतो वोच्छं ॥२१७९॥ संजमकरणुज्जोया, णिप्फायग णाण-दसण-चरित्ते । दीहो य वुड़वासो, वसहीदोसेहि य विमुक्को ॥२१८०॥ दोहो त्ति वुडवासा, थेरा ण तरंति जाहे कातुं जे । अब्भुजयमरणं वा, अहवा अब्भुज्जयविहारं ॥२१८१॥ दीहं च आउगं तू , बूढावासं तयो वसे । उग्गमादीहिं दोसे हिं, विष्पमुक्काए वसहीए ॥२१८२॥ मोत्तुं जिणकप्पठिति, जा मेरा एस वण्णिता हेहा । एसा तु दुपदजुत्ता, होति ठिती थेरकप्पम्मि ॥२१८३॥ दुपदं ती उस्सग्गो, अववाओ चेव होंति दोण्णेते । एतेहिं होति जुत्तो, णियमा खलु थेरकप्पो तु ॥२१८४।। पलंबाओ जाच द्विती, उस्सगऽववाइयं करेमाणो।
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१७
७२ ]
जीतकल्पसूत्रम् । अववाए उस्सग्ग, आसायण दीहसंसारो ॥२१८५॥ अह उस्सग्गेऽववायं, आयरमाणो विराहओ होति । अववाए पुण पत्ते, उस्सग्गणिसेवओ भइओ ॥२१८६।। कह होती भतियव्यो ?, संघयणधितिजुतो समग्गो तु । एरिसतो अववाए, उस्सगणिसेवओ सुद्धो ॥२१८७॥ इयरो उ विराहेई, असमत्थो जेण परिसहे सहितुं । धितिसंघतणेहिं तू , एगतरेणं व सो हीणो ॥२१८८॥ इति सामाइयमादी, छबिह कप्पहिती समक्खाया । दारं । विरियं दारं अहुणा, इणमो वोच्छं समासेणं ॥२१८९॥ परिणत गीतत्था तू , विपक्खभूया अपरिणया होति । कडजोगी कयजोगी, चतुस्थमादीहिं णायव्वा ॥२१९०॥ अकडज्जोग्गा जोग्गवियचतुत्थादीहिं होन्ति णायया । घितिसंघयणादीहिं, तरमाणा होंति णायव्वा ॥२१९१॥ धितिसंघयणेणं तू , एगयरजुया उ होति अतरा उ । अहवा दोहि वि जुत्ता, अतरगपुरिसा मुणेयव्वा ॥२१९२॥ एतेषां कल्पस्थितादीनाम् ॥ ॥७॥ॐ१।। ज जह सत्तो बहुतरगुणो ब्व तस्साहियं पि देज्जाहि हीणतरे हीणयरं, झोसेज्ज व सबहीणस्स ॥७२॥ कप्पट्ठियमातीण, पुरिसाणं जाव उभयहा अतरो। जो जह सत्तो उ भवे, तस्स तहा होति दायव्वं ॥२१९३॥ बहुतरगुणसमगो तू, धितिसंघतणादि जो तु संपण्णो । परिणय कडजोगी वा, अहवा वि हवेज्ज उभयतरो ॥२१९४|| एयगुणसमग्गस्स तु, जीयमया अहियगं पि देज्जाहि । होणस्स तु हीणतरं, मुंज्ज व सबहीणस्स ॥२१९६॥
॥७२॥ २॥
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१८८
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा एत्थपुण बहुतरा भिक्खुणात्तिअकयकरणाणभिगयाय
जंतेण जीतमट्ठमभत्र्ततमविगतिमादीयं ॥७३॥ जीतयन्त्रविधिः एत्थं इमम्मि जीए, बहुतरया भिक्खुणो भवंती तु ।
अकयकरणा उ जे तू , अणभिगया चेव णायव्वा ॥२१९६॥ चस्सद्देण थिराथिर, गहिया तू एत्थ तू समासेणं । जंतयविहीकमेणं, जीयाभिमएण देज्जाहि ॥२१९७॥ कतकरण अकयकरणा, कयकरणा गच्छवासि इयरे य ! अकयकरणा तु णियमा, णायव्वा गच्छवासी तु ॥२१९८॥ ते अभिगत अणभिगता, अणभिगता थिराऽथिरा व होजाहि । कत अभिगत जे सेवे, अणभिगते अत्थिरे इच्छा ॥२१९९॥ अहवा णिरवेक्खियरा, दुविहा पुरिसा समासतो होति । णिरवेक्खो जिणमादी, ते णियमा होति कतकरणा ॥२२००॥ सावेक्खा होति तिहा, आयरिय उवज्झ भिक्खुणो चेव । कतकरणमकतकरणा, आयरिया चेवुवज्झाया ॥२२०१॥ भिक्खू गीयाऽगीया, गीयत्थ थिराऽथिरा य बोद्धव्या । कतकरण अकतकरणा, एकेका होन्ति ते दुविहा ॥२२०२।। अग्गीया वि थिराऽथिर, कयाऽकया चेव होंति एकेका । कतकरण अकतकरणा, केरिसया होंति ? सुणसु इमे ॥२२०३॥ छ?ऽढमाइएहिं, कतकरणा ते तु उभयपरियाए । अभिगत कतकरणत्तं, जं जोग तवारिहा केवी ॥२२०४॥ णिरवेक्खा एगविहा, सावेक्खाणं तु किं णिमित्तेणं । तिविहो भेदो तु कतो, आयरियादी ? इमं सुणसु ॥२२०५॥ भण्णइ जुवरायादी, वत्थुविसेसेण दंडो जह लोए । तह वत्थुविसेसेणं, आयरियादीण आरुवणा ॥२२०६।। आयरिय-उवज्झाया, दोणि वि णियमेण होति गीयत्था । गीयत्थमगीयत्था, भिक्खू पुण होंति णातव्या ॥२२०७॥
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७३ ]
जीतकल्पसूत्रम् |
कारणसकारणं वा, जयणाऽजयणा व णस्थगीयत्थे । एतेण कारणेणं, आयरियादी तिविह भेदो ॥२२०८॥ कज्जाऽकज्ज जयाऽजय, अविजाणतो अगीयो जं सेवे । सो होति तस्स दप्पो, गीते दप्पाजते दोसा ||२२०९ ।। अविसिट्ठा आवत्ती, चरिमं सव्वेसि तेण सावेक्खे | चरिमं चिय कयकरणे, आयरिए अकए अणवट्ठो ॥ २२९० ॥ ॥ कतकरणउवज्झाए, अणवट्टो होति मूलमकयम्मि | भिक्खूगीयथिरम्सी, कतकरणे मूलमेव भवे ॥ २२११॥ अकयथिरम्मी छेदो, अस्थिरकयकरणे होति सो चेव । अस्थिरअकते छग्गुरु, अगीतथिरकरणे ते चैव ॥ २२१२ ।। अग्गीतथिरे अकते, छल्लहुगा होंति तू मुणेतव्या । अग्गी अथिरकयकरण च्छल्लहू चउगुरू अकते ||२२१३ ॥ एसाssसो एक्को, अयमण्णो बितियओ तु आदेसो । चरिमं चिय आवणे, कतकरणगुरुम्मि अणवट्टो ।।२२१४।। अकतकरणम्मि मूलं, मुलमुवज्झाए होति कतकरणे । अकतकरणम्मि छेदो, इय णेयं अकंतीए ॥ २२१५।।
एमेव य अणव, आवणे होंति दोणि आदेसा । fredक्खो ण भणिएत्थं, जं दोण्णि णहोंति तस्सेते ॥ २२१६॥ अहुणा मूलावण्णो, सव्वे मूलं तु होति णिरवेक्खे | मूलं चैव गुरुस्स वि, कतकरणे अकते छेदो तु ||२२१७॥ कतकरणउवज्झाए, छेदे अकतम्सि होन्ति छग्गुरुगा । इय अडोकंतीए, णेयं अयमण्णो आएसो || २२१८ | सावेक्खति व कार्ड, गुरुस्स कडजोगिणो भवे छेदो । अकतकरणम्मि छग्गुरुं, कतकरण उवज्झे छग्गुरुगा ।। २२१९ ॥ अकते छलहुगा तू, इय अड्डोकंतीए तु जातं । अहुणा छग्गुरुगे तू, आढत्तं ठाइ गुरुभिण्णे ॥२२२०॥
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१८९
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१.२०
स्थोपज्ञभाष्ययुतं
[गाथा छल्लहुयाढत्तम्मी, ठायति लहुए तु भिण्णमासम्मि । चतुगुरुआढत्तम्मी, अन्नम्मी ठाइ गुरुवीसे ।।२.२२१॥ चतुलहुए वीसाए, गुरुमासे ठाति पण्णरसहि तु ।
('गुरुमासे ठाति गुरुग पण्णरसे' इति प्रत्यन्तरे) लहुए लहुपण्णरसे, गुरुभिण्णे ठाति गुरुदसहिं २२२२!! लहुभिण्णे दसलहुए, गुरुवीसा अंते ठाति गुरुपणए । लहुवीसा आढत्तं, अंतम्मी ठाति लहुपणए ॥२२२३॥ पण्णरसहि गुरुएहिं, अंतम्मी अट्ठमम्मि ठायति तु । पण्णरसहिं लहुएहि, अंतम्मी ठाति छट्टम्मि ॥२२२४॥ दसगुरुए आढत्तं, अंतम्मी ठायती चतुत्थम्मि । दसलहुए आढत्ते, ठायति तू अंते आयामे ॥२२२५।। गुरुपणए आढत्ते, एकासणयम्मि अंते ठायइ तू । लहुपणए आढत्ते, अंतम्मी ठाति पुरिमड़े ॥२२२६॥ अहमभत्ताऽऽढतं, अंतम्मी ठायई अणिबिगती। जंतविहीपत्थारो, समासतो एसमक्खातो ॥२२२७॥ एयं तु अजयणाए, साविक्खाणं तु होति पच्छित्तं । अह गीयत्थो सेवे, कारण जतणाए तो सुद्धो ॥२२२८॥ एयं तु कारणम्मी, जतणासेविस्स वणियं दाणं । अहवा वि इमं अण्णं, आयरियादी जहाकमसो । २२२९॥ आयरिय उवज्झाए, कतकरणे अकतकरण दुविहा तु । भिक्खुम्मि अभिगते या, अणभिगते चैव दुविहो तु ॥२२३०॥ अभिगते कत अकते या, अणभिगते थिरे तहेव अथिरे य । थिर कतकरणे अकते, अथिरे कतकरणमकए य ॥२२३१॥ एते सव्वेऽवेगं, आवत्ती पंचराइगाऽऽवण्णा । तं पणगं अविसिह, चउत्थमादीहिं विण्णेयं ॥२२३२॥
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७३ )
जीतकल्पसूत्रम् । आतरिए कतकरणे, तं चिय पणगं तु होति दातव्यं । अकतकरणे चउत्थं, कयकरणे उवज्झे तं चेव ॥२२३३॥ अकयम्मी आयामं, भिक्खुम्मी अभिगतम्मि कतकरणे । आयाम दायव्वं, अकयकरणे उ भत्चेकं ।।२२३४॥ भिक्खुम्भी अणभिगते, थिरकयकरणे य एगभत्तं तु । अकयम्मी पुरिमई, अणभिगए अस्थिरे कतम्मि ||२२.३५।। पुरिमडो चिय णियमा, अत्थिरअकयम्मि होति णिविगति । अहवाऽणभिगय अथिरे, इच्छाए तं च अण्णं वा ॥२२३६॥ एमेव य दसराय, सव्वे आवण्णमेगमावति । कतकरणे आयरिए, दसरायं चेव दायव्वं ॥२२३७॥ अकयकरणम्मि पणगं, कतकरणे पणगमेवुवज्झाए । अकतकरणे चउत्थं, एवं तू अडकतोए ॥२२३८॥ ता णेयन्त्र कमेणं, जाव उ अंतम्मि होति पुरिमई इय पण्णरसाऽऽरद्ध, ठायइ एकासणगमते ॥२२३९।। वीसाऽऽरद्धं ठायति, आयामे भिण्ममासऽभत्तट्ट । मासाऽऽरद्धं पणगे, दुमास दसराए ठायइ तु ॥२२४०॥ तेमासे पण्णरसे, चतुमासे ठाति वीसरातम्मि । पणमासे पणुवीसे, छम्मासे मासिए अति ॥२२४२॥ छेदो दोमासीए, मूले तेमासियम्मि ठायति तु । अणवट्ट चतुमासे, पारचिइए तु पणमासे ॥२२४२।। एए भणिता लहुगा, सव्वे वि तवारिहा समासेणं । एमेव य गुरुगा वी, णेयव्वा अडकंतीए ॥२२४३।। एमेव य मीसा वी, अड्डकंतीए होन्ति णेतव्वा । एमेव पंचपचहि, मासादी सातिरेगादी ॥२२४४||
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१९२
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा जा छम्मासा णया, तत्थ वि उग्घाय तह अणुग्घाया। मीसा वि अ णेतव्या, अडोकतोए सव्वत्थ ॥२२४५॥ अहवा वी णिविगती, पुरिमेक्कासण तहेव आयाम । तत्तो चउत्थ पणगं, दस पण्णर वीस पणुवीसा ॥२२४६॥ मासो लहु गुरु चतु छच्च लहु गुरु च्छेद मूल अणवहो। पारंचिए य तत्तो, पणयादीहासण तहेव ॥२२४७॥ लहु गुरुग मीसगा वि य, तहेव एत्थं पि होन्ति णायव्वा । एवं एयं दाणं, बुद्धीए होति विष्णेयं ।।२२४८॥ एमेव य समणीणं, णवरं दुगवज्जितं तु कातव्यं । अणवट्ठो पारंची, एय दुगं पत्थि समणीणं ॥२२४९॥ अहवा पुरिसा दुविहा, समासतो होन्तिमे उ णातव्या । एगविहारी य तहा, गणवद्धविहारिणो चेव ॥२२५०॥ गच्छाहि णिग्गया जे, पडिमापडिवण्णया य जिणकप्पी। जे यावि सयंबुद्धा, इत एगविहारिणो तिविहा ।।२२५१॥ ते णिचमप्पमत्ता, जति आवजे कहंचि कम्मुदया। तक्खणमेव तु तं पट्टवेन्ति णियमा य सक्खीवा ॥२२५२॥ संघयणधितिसमग्गा, सत्ताहिट्ठियमहन्तजोगधरा । सुबहुं पि हु आवण्णा, वहन्ति णिरणुग्गहं सव्वं ॥२२५३॥ आलोयणोवयुत्ता, ते तू आलोयणाए सुझंति । तेसिं जाव तु मूलं, करेन्ति सतमेव सुझंति ॥२२५४॥ अणिगूहियबल-विरिया, जहवादीकारया य ते धीरा । उत्तमसद्धसमण्णागया य सुझंति ते णियमा ॥२२५५॥ गणपडिबद्धा दुविहा, जिणपडिरूवी य होंति थेरा य । जिणपडिरूवी दुविहा, विसुद्धपरिहारऽहालंदी ॥२२५६।। ते णिच्चमप्पमत्ता, जति आवज्जे कहंचि कम्मुदया । तक्खणमेव हु तं पट्टवेन्ति कप्पट्ठियसगासे ॥२२५७॥
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७३-७५]
जीतकल्पसूत्रम् । संघयणधितिसमग्गा, सत्ताहिट्ठियमहंतजोगधरा । सुबहुं पि हु आवण्णा, वहंति णिरणुग्गहं धीरा ॥२२५८॥ अट्ठविहा पट्टवणा, तेसिं आलोयणाति मूलंता । तं पट्टवेत्तु धीरा, सुझंति विसुज्झचारित्ता ॥२२५९॥ थेरा वि विसुद्धतरा, तेसु वि जति केति किंचि आवजे । तक्खणमेव हु तं पट्टवेंति णियमा गुरुसगासे ॥२२६०॥ एत्थ य पढवणं पति, आयरिओ विहिमिणं अजाणतो । लंछेइ य अपाणं, तं पि य सीसं ण सोहेति ॥२२६१॥ पुरिसे त्ति गतं दारं, इमं तु पडिसेवणं पवक्खामि । सा पुण चतुहा सेवणा, आउट्टियमादिमाहंसु ॥२२६२॥
॥, ३॥७३॥ आउट्टियाय दप्पप्पमायकप्पेहि वा णिसेविज्जा । दबं खेत्तं कालं, भावं वाऽऽसेवओ पुरिसो॥७४॥ आउट्टिया उवेच्चा, दप्पो पुण होति वग्गणादीओ । कंदप्पादि पमाओ, अहव कसायादिओ णेओ ॥२२६३॥ इमोकसाय विकहा वियडे, इंदिय णिद्द पमाय पंचविहो । एस पमायो भणितो, कप्पं तु इमं पवक्खामि ॥२२६४॥ गीयत्थो कडजोगी, उवउत्तो जयणजुत्तो सेवेज्जा । गाहापच्छद्धस्स तु, इणमो उ समासतो वोच्छं ॥२२६५॥ दव्वं आहारादी, खेत्तं अद्धाणमादि णातव्वं । कालो ओमादीओ, हट्टगिलाणादि भावो तु ॥२२६६।।
॥Vण्क ॥७॥ जं जीयदाणमुत्तं, एयं पातं पमायसहियस्स । एत्तो चिय ठाणंतरमेगं वज्ज दप्पवयो॥७५||
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१९४
स्वोपभाष्ययुत
[गाथा जं जीतदाण भणियं, णिव्वीतियमादि अट्ठमं अंते । ततियपडिसेवणाए, पमायसहियस्स एयं तु ॥२२६७॥ दप्पपडिसेवणाए, पुरिमडादी तु होति दायव्वं । अंते दसमं दिज्जा, आउट्टीए उ वोच्छामि ॥२२६८॥
V॥७॥ आउट्टियाए ठाणंतरं व सट्ठाणमेव वा दिज्जा। कप्पेण पडिकमणं, तदुभयमहवा विणिद्दिढें ॥७६॥ आउट्टियावराहे, एक्कासणमादि अंते बारसमं । पाणतिपायवराहे, सहाणं होति मूलं तु ॥२२६९॥
आउट्टिय त्ति गतम् ।। कप्पेण उ सेवाए, तह सुद्धो अहव मिच्छकारं तु । अहवा तदुभयमुत्तं, आलोय पडिकमाहि त्ति ।। २२७०॥
कप्पपडिसेवणा गता ॥ ॥७६॥ आलोयणकालम्मि व, संकेस विसोहि भावतो णातुं। हीणं वा अहियं वा, तम्मत्तं वा वि देज्जाहि॥७॥ आलोयणकालम्मि व, गृहति अहवा वि कुञ्चती किश्चि । सो संकिलिट्ठचित्तो, तस्सऽहितं दिज्ज ऊणं वा ॥२२७१॥ जो पुण आलोएन्तो, काले संवेगमुवगतो जो उ। जिंदगगरहादीहिं, विसुद्धचित्तो तु तस्सऽप्पं ।। २२७२।। जो पुण आलोएन्तो, ण वि गृहति ण वि य णिदए जो तु । सो मज्झिमपरिणामो, तस्स उ देजाहि तम्मत्तं ॥२२७३॥
॥yा ॥७७॥ इति द्वादिबहुगुणे, गुरुसेवाए य बहुतरं देज्जा। हीणतरे हीणतर, होणतरे जाव झोसो त्ति ॥७॥
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१९५
७६-८२]
जीतकल्पसूत्रम् । इति एस दव्व खेत्ते, काले भावेसु बहुगुणेस तु । गुरुसेवा तु पहाणा, एतेमुं बहुत दिज्जा ॥२२७४॥ हीणतरे हीणतरं, ति देज दव्यादिमादिहीणेहिं । तह तह हीणं देज्जा, झोसेज व सव्वहीणस्स ॥२२७५॥
॥थूहीं ।। ७८ ॥ झोसिज्जतिसुबहुं पिहु, जीएणऽण्णं तवारिहं वहयो। वेयावच्चकरस्स य, दिज्जति साणुग्गहतरं वा ॥७९॥ झोसण खवणा मुंचण, एगहा तं तु मुच्चए कस्स ? । अण्ण वच्चंतु वहंते, जह पट्टविए उ छम्मासे ॥२२७६॥ पंचदिणेहिं गएहि, पुणरवि जइ सो उ अण्णमावज्ज । तो से तं तहिं छुम्भति, एवं झवणा तु तस्स भवे ॥२२७७॥ वेयावच करेंतो, जति आवजति तु किंचि अण्णतरं । तावतितं से दिज्जति, जं णित्थरती तु सो वोढुं ॥२२७८॥ कालं ठावितु दिक्खे, णित्थिण्णे तं तु काहिती सो तु । एय तवारिह भणितं (दार), अहुणा छेदारिहं वोच्छं ॥२२७९॥
॥थूॐ॥ ७९ ॥ तवगविओ तवस्स य, असमत्थो तवमसदहन्तो य। तवसा त जो ण दम्मति,अतिपरिणाम प्पसंगी य॥८०छेदप्रायश्चित्तम् सुबहुतरगुणब्भंसी, छेदावत्तिसु पसज्जमाणो य । पासत्थादी जो विय, जतीण पडितप्पिओ बहुसो॥८१ उकोसं तवभूमी, समतीओ सावसेसचरणो य। छेदं पणगादीतं, पावति जा धरति परियाओ ॥२॥
दारगाहाओ तिण्णि ॥
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१९६
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा तवबलिओ देह तवं, अहं समन्थो त्ति गबिओ एस । तवअसमत्थ गिलाणो, बालादी अहव असमत्थो ॥२२८०॥ जो उ ण सद्दहति तवं, अहवा वी जो तवेण ण वि दम्मे । अतिपरिणामो जो तू , पुणो पुणो सेवति पसंगी॥२२८१॥ उत्तरगुण बहुगा तू, पिंड विसोहादिगा उणेगविहा । भंसेति विणासेती, पुणो पुणो जो तु ताई तु ॥२२८२॥ छेदावत्तीओ वा, पकरेंति पसज्जती य जो तेसुं। अहुणा पासत्थादी, आदीसहेणिमाईसु ॥ २२८३।। पासत्थोसण्णो वा, कुसील संसत्त अहव णीओ वा। वेयावच्चकराइण, जतीण पडितप्पिओ बहुसो ॥२२८४॥ उकोसा तवभूमी, आदिजिणिदस्स होति वरिसं तु । मज्झिमगाण जिणाणं, अट्ठ उ मासा भवे भूमी ॥२२८५।। चरिमस्स जिणिदस्सा, उक्कोसा भूमि होति छम्मासा। एयं तू उकोसं, समतीओ चरणसेसो य ॥ २२८६।। एव जहुद्दिवाणं, तवगन्धियमादियाण सव्वेसिं । छेदं पणगादीयं, देजा जा धरति परियाओ ॥२२८७॥
छेदारिहं गयं ॥०२ ॥ ८२ ।। मूलप्रायश्चित्तम्
आउट्टियाय पंचिंदियघाते मेहुणे य दप्पेणं । सेसेसुक्कोसाभिक्खसेवणादीसु तीसुं पि ॥३॥ आउहि उवेच्चा तू , पंचिंदि वहेति मिहुण दप्पेणं । सेस वय मुसाऽदिन्नं, परिग्गहो चेव णादब्बो ॥२२८८॥ एतेसुक्कोसाणिं, पडिसेवयऽभिक्खणं तु मिच्छा तु । एतेंसिं सव्वेसिं, मूलं तू होति दातव्वं ॥२२८९॥०३॥८॥ तवगवियादिएसु य, मूलुत्तरदोसवतियरगएसुं। दसणचरित्तवन्ते, चियत्तकिच्चे य सेहे य ॥४॥
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८३-८६ ]
जीतकल्पसूत्रम् । तवगवियमादीया, जावऽइपरिणाम अतिपसंगि त्ति । एत जहुदिहाणं, मूलं तू होति णातव्वं ॥२२९०॥ मूलगुण उत्तरगुणे, बहुविह बहुसो य दूसे भजति वा । वतिकरमेयं होती, एरिसजुत्तस्स मूलं तु ॥२२९१॥ णिच्छयनयस्स चरणायविधाये णाणदंसणवहो वि । ववहारस्स तु चरणे, हयम्मि भयणा तु सेसाणं ॥२२९२॥ चत्तं जेण दरिसणं, चारित्तं वा वि सो तु णातव्यो । चत्तक्किच्चो वेसो, चियत्तकिच्चो मुणेतव्यो ॥२२९३॥ अहवा
संजम सकलं किच्चं, जेणं चत्तं स चत्तकिच्चो तु । सेहो अणुवहविओ, मूलं एतेसि सव्वेसिं ॥२२९४॥
क|८४॥ अच्चंतोसण्णेसु य, परलिंगदुवे य मूलकम्मे य । भिक्खुम्मि य विहिततवे, अणवठ्ठपारंचियं पत्ते।।८५॥ ओसण्णे पव्वाविय, संविग्गेहिं व जप्पभितिं तु ।। ओसण्णयाए विहरिओ, सो भणितऽचंतयोसण्णो ॥२२९५॥ . गिहिलिंग अण्णउत्थिय, परलिंगदुवे य कुणति दप्पेणं । गब्भादाणे साडण, दुविहमिहं मूलकम्मं तु ॥२२९६॥ भिक्खणसीला भिक्खू , विहिततवं उवणयं तु णातव्वं । तवअणवढे उवणय, पारंचितवं च णातव्वं ॥२२९७॥ अतियारसेवणाए, पत्ते एयं तु होति दुविह तवं । एतेसिं सव्वेसिं, दालव्वं होति मूलं तु ॥२२९८॥०॥८५॥ छेदेणापरियाएऽणवट्ठपारंचियावसाणे य । मूलं मुलावत्तिसु, बहुसो य पसज्जणे भणियं ॥८॥
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स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा छिज्जते परियाए, जस्स तु छिण्णो हु णिरवसेसो तु । तवअणवढे बूढे, पारंचितवावसाणेसु ॥२२९९॥ मूलावत्तिसु एमु, पुणो पुणो सज्जए तु जो सगणे । सव्वेसु वि एतेसुं, मूलं तू होति दातव्वं ॥२३००॥
मूलारिहं गतम् ॥ ०ी ॥८६॥ अणवठ्ठप्पो दुविहो, आसायण तह य होति पडिसेवी । आसायणअणवढे, समासयोऽहं इमं वोच्छं ॥२३०१|| तित्थकरं संघ सुर्य, आयरियं गणहरं महिडीयं । एते आसाएन्ते, पच्छित्ते मग्गणा इणमो ॥२३०२॥ पढम बिति देस सव्वे, णवमं सेसेस चउगुरू देसे ।
पडिसेवणअणवढं, अहुणा उ इमं पवक्खामि ॥२३०३॥ अनवस्थाप्य- उक्कोसंबहुसो वा, पउट्ठचित्तो तु तेणियं कुणति।
पहरति जो य सवक्खे,णिरवेक्खो घोरपरिणामो॥ उक्कोसं तु विसिढे, पुणो पुणो एय होति बहुगं तु । कोहादो व अतीव तु, पउद्दचित्तो मुणेतब्बो ॥२३०४॥ पडिसेवणअणवट्ठो, होती तिविहो इमो समासेणं । साहम्मियऽण्णधम्मियतेण्णे तह हत्थताले य ॥२३०५॥ साहम्मितेण्ण दुविहं, सञ्चित्तं तह य होति अच्चित्तं । अचित्तोवहि भत्ते, सचित्त सेहावहारो तु ॥२३०६॥ साहम्मिउवहिहरणं, वावारण झावणा य पत्थवणा । तं पुण सेहमसेहो, हरेज अद्दिट्ट दिह वा ॥२३०७॥ सेहो त्ति अगीयत्थो, जो वा गीतो अणिडिसंपण्णो । उवही पुण वत्थादी, अपरिग्गह एतरो तिविहो ॥२३०८॥ अपरिग्गहितो तहियं, साहम्मी मोत्तु पवसितो जस्स । आहरमाणे सोही, होति इसा खेत्तणिफण्णा ॥२३०९॥
प्रायश्चित्तम्
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८७ ]
जीतकल्पसूत्रम् । अण्णोवस्सयबाहिं, णिवेस वाडे य गाममुज्जाणे । सीमाए जा णेय, सव्वत्थ वि अन्तो बहिया वा ॥२३१०॥ एतेसुं तेण्णे तेमासलहुं आइकाउ जा छेदो। अडोक्कंती णेयं, अद्दिढेसा भवे सोही ॥२३११ मासगुरुगादि दिटे, मूलं सेहस्स एयणिट्ठाई। अभिसेयाऽऽयरियाणं, एक्के ठाणगं बड़े ॥२३१२॥ एवं तुवस्सयाओ, साहम्मीणुवहिमवहरंतस्स । वावारिए इदाणिं, वोच्छं सयमेव गेहन्ते ॥२३१३॥ वावारिया गुरूहिं, बच्चह आणेह तिविहमुवहिं ति। तं लद्धं तत्तो चिय, तुझं मज्झे य अत्तही ॥२३१४॥ लहुओ अत्तटुंते, जति पुण आणेत्तु गुरुण न णिवेदे । तो होती चतुलहुगा, अणवठ्ठप्पो व आदेसा ॥२३१५॥ वावारियतेण्णेयं, अण्णो पुण सावए णिमन्तेन्ते । पडिसिद्धाऽऽयरियेणं, दणं तत्थ गंतूणं ॥२३१६॥ बेती झामिय उवही, अहयं च गुरूहि पेसिओ देह । तो दिण्णो तेहुवही, किह पुण सडेहिं सो णातो ? ॥२३१७॥ सो त घेत्तण गतो, णवरं ते आगता गुरुसगासं । पुच्छंति य ते सड़ा, उवहिं पहुत्तो व ण पहुत्तो ? ॥२३१८॥ केवइयं वा दई ?, तो बिन्ति ण डज्झए हु उवहि त्ति । केण व णीतो उवही ?, इति सोच्चा पत्तिमप्पत्ति ॥२३१९॥ लहुगा अणुग्गहम्मी, गुरुगा अप्पत्तिए मुणेयव्वा । मूलं च तेणसद्दे, वोच्छेयपसजणा सेसे ॥२३२०॥ एवं ताव अडझंते, अह सचं झामितो भवे उवही । पेसविओ य गुरूहि, लद्धे तहिं अंतरा जो तु ॥२३२१॥
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२००
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[गाथा लटे अत्तठूती, चतुलहुगा अह गुरूण ण णिविद । तो चतुगुरुगा तहियं, अणवट्टप्पो व आदेसा ॥२३२२॥
सूत्रादेशात् ॥ एवं झामण हेतुं, अवहारो अह इयाणि पत्थवियं । आयरियादिण केणति, आयरियाणं तु अण्णेसि ॥२३२३॥ उक्कोसो सणिजोगो, पडिग्गहो अन्तरा तहिं लद्धो । अत्तटुंते लहुगा, गुरुगा अदत्तेऽणवहो वा ॥२३२४॥ एवं ता उवहिम्मी, अहुणा भत्तम्मि तेण्ण वोच्छामि । जति पविसे असंदिट्ठो, टवणकुले तो भवे लहुगा ॥२३२५॥ अज्ज अहं संदिट्ठो, पुट्ठोऽपुट्ठो व साहए एवं । पाहुणगिलाणगट्ठा, तं च पलोहनि तो बितियं ।२३२६॥ मायाणिप्फण्णं तू, एवभणंतस्स होति मासगुरू । अहवा आगंतूणं, णालोए तह वि मासगुरुं ॥२३२७) कह पुण हवेज णाय, साहू हिं तह य तेहिं सड़ेहिं । जह खलु पविट्ठो अण्णो, ठवणकुलाई असंदिट्ठो ? ॥२३२८।। गुरुसंघाडम्मि गए, भणंति गुरुजोग्ग णीयमेत्ताहे । णत्थि त्तऽणुग्गहम्मी, लहुगा अप्पत्तिए गुरुगा ॥२३२९।। वोच्छेद गुरुगिलाणे, गुरुगा लहुगा य खमगपाहुणए । गुरुगो य बालवुड़े, सेहे य महोदरे लहुगो ॥२३३०॥ भत्तम्मि भणियमेतं, तेण्णं भणियं च मेयमचित्ते । अहुणा सच्चित्तम्मी, सेहे सेहोय वोच्छामि ॥२३३१॥ तं पुण णिज्जतो वा, अभिहारेन्तो व आसियाडेजा । भिक्खादि पविढे वा, गाम बहि ठवेत्तु णिज्जतो ॥२३३२।। तं पुण सण्णादिगतो. अद्धाणीओ व कोति पासेज्जा । वंदियपुट्ठो कोती, भणे अहं पवतिउकामो ॥२३३३॥ ससहातो असहातो ?, त्ति पुच्छतो भणति ताहे ससहायो। सो कत्थ ? मज्झ कज्जे, छाय पिवासस्स वा अडति ॥२३३४॥
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२०१
८७ ]
जीतकल्पसूत्रम् । तो बेति अण्णपासं, इम मुंजऽणुकंपदाए सुद्धा तु । धम्मं च पुट्ठऽपुट्ठो, कति सुद्धो असढभावो ॥२३३५॥ सढयाए पुण दोसो, भत्तं देंतस्स अहव कहयंते । आ सीआवणहेतुं, सोहि इमेहिं तु ठाणेहिं ॥२३३६॥ भत्ते पण्णवण णिगृहणा य वावार जंपणा चेव । पत्थवण सयंहरणे, सेहे अव्वत्त वत्तेयं ।। २३३७ ॥ गुरुओ चतुलहु चतुगुरु, छल्लहु छग्गुरुग छेदमव्वत्ते । वत्ते भिक्खुणो मूलं, दुग तु अभिसेग आयरिए ।२३३८॥ एवं ता जो णिज्जति, अहिहारेन्तो पुणोति जो जाति । सो वि य तहेव पुट्ठो, भणाइ वच्चामऽमुगमूलं ॥२३३९।। तह चेव भत्तपाणं, पण्णवणा चेव होति एत्थं पि । सेसा णिग्रहणाती, सव्वे वि पया ण संति इहं ॥२३४०॥ एमेव य इत्थीए, णिज्जंतऽभिधारयंति एमेव । वत्तऽव्वत्ताए गमो, दोसा य इमे हरंतस्स ॥२३४१।। आणायऽणंतसंसारियत्त बोहीय दुल्लभत्तं च । साहम्मियतेण्णम्मी, पमत्तछलणाऽहिकरणं च ॥२३४२॥ बितियपयं वोच्छेदे, पुव्वगए कालियाणुओगे य । एतेहिं कारणेहिं, कप्पति सेहाऽवहारो तु ॥२३४३॥ एवं तु सो अवहितो, जाहे जातो सयं तु पावयणी । कारणजाए य जया, होज्जाही अवहितो तेणं ॥२३४४॥ सो त चिय धरति गणं, कालगतो गुरुम्मि तं विहारेन्ते । जावेको णिप्फण्णो, ताहे से अप्पणो इच्छा ॥२३४५॥ अह हरिए णिकारणे, ताहे पुरिमाण चेव सो जाति । अह अब्भुज्जयमरणं, पडिवण्णो गुरुविहारं वा ॥२३४६॥ अण्णम्मि अविज्जते, आयरियपदारुहे तमेव गणं । धारेति जाव अण्णो, णिम्मातो तम्मि गच्छम्मि ॥२३४७॥
२६
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स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा सच्चित्ततेण्णमेयं, साहम्मीणं तु एवमक्खातं । आभवणं दोसा या, परधम्मियतेण्णे वोच्छामि ॥२३४८॥ परधम्मिया वि दुविहा, लिंगपविट्ठा तहा गिहत्था य । तेसिं तिविहं तेण्ण, आहारे उवहि सच्चित्ते ।।२३४९॥ भिक्खूमादीसंखडि, तं लिंग काउ भुंजए लुद्धो । आभोगम्मि उ लहुगा, गुरुगा उद्धंसणे होति ॥२३५०॥ कूरणिमित्तं चेव उ, अजियंता एते एत्थ पव्वइया । अविदिण्णदाणगा खलु पवयणहीला दुरप्पत्ति ॥२३५१॥ गिहवासे वि वरागा, धुवं खु एते अदिकल्लाणा । गलओ णवर ण वलिओ, एतेसिं सत्थुणा चेव ॥२३५२॥ एवं ता आहारे, उवहीतेण्णं पुणो इहं होजा । जह कोदि भिच्छुगादी, उवस्सए मोत्तु उवगरणं ॥२३५३॥ भिक्खादिगतो तं तू , जति गिण्हति चतुलहू भवे तत्थ । गिण्हण कडण ववहार पच्छकड तह य णिव्विसए ॥२३५४॥ गिण्हणे गुरुगा छम्मास कणे छेदो होति ववहारे । पच्छाकडम्मि मुलं, णिविसयोद्दावणे चरिमं ॥२३५५। जम्हा एते दोसा, तम्हा अविदिण्णगं ण घेत्तव्यं । उवहीतेण्णं एयं, एत्तो वोच्छामि सच्चित्ते ॥२३५६॥ खुडं व खुड्डियं वा, तेणेति अवत्त पुच्छितुं गुरुगा । वत्तम्मि पत्थि पुच्छा, खेत्तं थामं च णातूणं २३५७।। लिंगपविट्ठाणेवं, एमेव तिहा अदिण्ण गिहिया" । गहणादीया दोसा, सविसे सतरा भवे तेसु ॥२३५८॥ आहारे पिट्ठादी, विरल्लियं ददु खुड्डिया गेण्हे । गेण्हती दिहा वि य, ता कुसलपरंपरा छुमणा ॥२३५९॥ तहियं होति चतुलहू, अणवठ्ठप्पो व होति आदेसा। एमेव य उवहिम्मि वि, सुत्तही वस्थमादीया ॥२३६०॥
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८७ ]
जीतकल्पसूत्रम् । जीएहिं तु अधिदिण्णं, अप्पत्तवयं पुमं ण दिक्खेन्ति । अपरिग्गहमव्वत्तो, कप्पति तु जढो सदोसे हिं ॥२३६१॥ अपरिग्गह णारी पुण, ण भवति तो सा ण कप्पति अदिण्णा। सा वि य हु काइ कप्पइ, जह पउमा खुड्डमाया वा ॥२३६२॥ बितियपदं पाऽऽहारे, अद्धाणोमाइएसु कज्जेसु । उवही विवित्तमादिसु, आगाहे गहणमविदिण्णे ॥२३६३॥ सघलीस ताव पुव्वं, बला व गेण्हंति तत्थ अदलेन्ते । बलवन्ते दुट्टसुं पुण, छण्णं पी ताहे गिण्हंति ।।२३६४॥ ताहे परलिगीण वि, जाति य पुव्वं अदत्ते छण्णम्मि । गारथीम वि एवं, आगाढे होति गहणं तु ॥२३६५।। आहारे उवहिम्मि य, बितियपदे गहणमेतमक्खायं । एत्तो सचित्तगहणं, वोच्छामि अदिण्ण बितियपए ॥२३६६॥ णाऊण य वोच्छेयं, पुव्वगए कालिआणुओगे य । उवयुज्जिऊण पुव्वं, होर्हिति जुगप्पहाण त्ति ॥२३६७॥ ताहे खुड्डग खुड्डी, हरेज गिहि-अण्णतित्थियाणं वा । साहम्मि-अण्णधम्मिय, एयं तेण्णं समक्खातं ॥२३६८॥ गाहापुव्वद्धस्स तु, इति एसा अभिहिता इह तेण्णा । अहुणा पच्छद्धस्स तु, गाहामुत्तं इमाऽऽहंसु ॥२३६९।। अह एत्तो वोच्छामी, हत्थायालं जहकमेणं तु । कि पुण हत्थायालं ?, भण्णति इणमो णिसामेहिं ॥२३७०॥ हत्थाताले हत्थालंबे, हत्थायाणे य होति बोद्धव्वे । एतेसिं गाणतं, वोच्छामि जहाणुपुब्बीए ॥२३७१।। हत्थेणं जं तालण, हत्थायालं तगं मुणेतव्वं । तहियं हवति अ दण्डो, लोइय लोउत्तरो इणमो ॥२३७२॥ उग्गिण्णम्मि य गुरुओ, डंडो पडियम्मि होति भतणा तू । एवं खु लोइयाणं, लोउत्तरियं अतो वोच्छं ॥२३७३॥
हस्तताल:
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२०४
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा हत्थेण व पाएण व, अणवठ्ठप्पो तु होति उग्गिणे । पडियम्मि होति भयणा, उद्दवणे होति पारंची ॥२३७४॥ वितियपय खुड्ड विणयं, गाहेन्ते अहव बोहिगादीमु । सावयभये व घोरे, देज्जाही हत्थतालं तु ॥२३७५।। विणयग्गाहण खुड्डे, कण्णामोड-खडहा-चवेडादी। सावेक्खो हत्थतालं, दलाइ मम्माणि रक्खंतो ॥२३७६॥ परपरियावणकरणं, चोदेइ असायबंधहेउ त्ति । तं कह तस्साणुण्णा, तुब्मेहिं कया ? इमं सुणसु ॥२३७७॥ काम परपरितावो, असातहेतू जिणेहिं पण्णत्तो। आयपरहियकरो तू, इच्छिज्जइ दुस्सीले स खलु ॥२३७८॥ सिप्पं उणियहा, वाघाते सहति लोइया गुरुणो। ते इहलोगफलाणं, महुरविवागेस उवमा तु ॥२३७९॥ अहवा वि रोगितस्सा, ओसह चाडूहि दिजए पुव्वं । पच्छा ताडेतुं पी, देहहितहाए दिज्जति से ॥२३८०॥ इय भवरोगत्तस्स वि, अणुकूलेणं तु सारणा पुव्वं । पच्छा पडिकूलेण वि, परलोयहियह कायया ॥२३८१॥ इहपरलोगे य फलं, विणीतविणयो अणुत्तरं लभति । संविग्गाइगुणेहिं, इमेहिं जुत्तो महाभागी ॥२३८२॥ संविग्गो मद्दविओ, अमुदी अणुयत्तओ विसेसण्णू । उज्जुत्तमपरितंतो, इच्छियमत्थं लभइ साहू ॥२३८३॥ बोहिभयसावयादिसु, गणस्स गणिणो व अच्चए पत्ते । इच्छंति हत्थयालं, कालाइवरं व सज्ज वा ॥२३८४॥ एरिसए आगाढे, बोहियमादीसु जीयसंदेहे । जं जस्स तु सामत्थं, सो तु ण हावेति एत्थं तु ॥२३८५।। कुणमाणो वि हु कडणं, कयकरणो णेव दोसमभेति । अप्पेण बहुं इच्छति, विसुद्धमालंबणो समणो ॥२३८६॥
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१७]
हस्तालम्बः
जीतकल्पसूत्रम् । आयरियस्स विणासे, गच्छे अहवा वि कुल गणे संघे । पंचिंदियवोरमणं, पि कातु णित्थारण कुज्जा ।।२३८७॥ एवं तु करेन्तेणं, अव्वोच्छित्ती कया उ तित्थम्मि । जति वि सरीरावायो, तह वि य आराहओ सो उ ॥२३८८॥ जो पुण सइ सामत्थे, विज्जातिसती व अहव सारीरे । एरिसए आगाहे, हावेन्तो विराहयो भणितो ॥२३८९।। एयं हत्थायालं, हत्थालंबं इमं मुणेतव्वं । दुक्खेण अभियाणं, जं सत्ताणं परित्ताण ॥२३९० ॥ असिवे पुरोवरोहे, एमादीवइससेसु अभिभूता ॥ संजायपचया खलु, अण्णेसु य एवमादीसु ॥ २३९१ ॥ मरणभएणऽभिभूए, ते णातुं तेहिं वा वि भणिया तु । पडिमं काउं मज्झे, चिट्ठति मंते परिजवेन्तो ॥२३९२॥ एतं हत्थालंब, हत्थायाणं अयो परं वोच्छ । जो अत्थं उप्पाए, णिमित्तमादी इमं णातं ॥२३९३॥ उज्जेणी उस्सण्णं, दो वणिया पुच्छि ऊण आयरि। क्वहारं ववहरंती, तं ताहे तेसि सो साहे ॥२३९४॥ तस्स य भगिणीपुत्तो, भोगहिलासी तु मुंचए लिंगं । तो अणुकंपा भणती, किं काहिसितं विणऽत्थेणं ? ॥२३९५॥ तो वच्च ते वणीए, भणाहि अत्थं पयच्छहा मज्झं । तेणाऽऽगंतुं भणितो, तो तेसिं बेति अह इक्को ॥२३९६॥ कत्तो अत्थो अम्हं ?, कि सउणी रूवए इहं हगती ?। बीओ चंगेरि भरेतु णिग्गतो णतुलयाणं तु ॥२३९७॥ गिण्हमु जावइएहिं, कज्जं तो गहित तेण जावऽहो । वितियम्मि हायणम्मो, किं गिण्हामो ? त्ति ते बेन्ति ॥२३९८॥ भणितो सउणिहयन्तो, तण कई वत्थ रूत कप्पासे । णेहगुलधण्णमादी, अंतो गरस्स ढावेहि ॥२३९९।।
हस्तादानम्
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२०६
(O
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[गाथा बितिओ य तहिं भणिओ, सव्वादाणेण गिण्ह तणकटुं । णगरबहिट्ठा ठावय, गहिए णवरिं च वासासु ॥२४००॥ ठइएमु गेहेसुं, पलिते दई ततो उ तं णगरं । तणकट्ठाणं पुंजो, अइवमहग्यो तु सो जातो ॥२४०१॥ दमियरस्स सव्वं, ताहे सो गंतु भणति आयरियं । उच्छाइओ अहोऽहं, किह व ण णातं समं तुब्भे ? ॥२४०२॥ किं सउणिया णिमित्तं, हयंति अम्हं ? ति भणति णेमित्ती । होति कयाइ तयऽण्णह, रुटुं णातुं तयो खामे ॥ २४०३॥ एमादिणिमित्तेहि, उप्पाएन्तम्मि अत्थयाण भवे । सो एरिसयो पुरिसो, अब्भुटेजा जइ कयाइ ॥२४०४॥ तस्स तु ण उवढवणा, तम्मि खेत्तम्मि जाव संचिक्खे । एस च्चिय अणवट्ठो, जऽणुववणा तहि खेत्ते ॥२४०५।। णेतूण अण्णखेतं, तस्स उवट्ठावणा तु कायव्वा । तहिं णोवट्ठा खेत्ते, किं कारण ? भण्णती सुणसु ॥२४०६।। पुवन्भासा भेसेज्ज, किचि गोरव सिणेह भययो वा । ण सहति परिस्सहं पि य, णाणे कंडु व्व कच्छुल्लो ॥२४०७॥ तेण तु तहितं थाणे, ण हु देन्ती तस्स भावलिंगं तु । देजा व कारणम्मी, असिवोमादीसु तप्पिहिति ॥२४०८।। ण य मुच्चति असहातो तहितं पुट्ठो तु भणति वीसरियं । अहवा वि उत्तिमढे, देजाहो लिंग तत्थेव ॥२४०९।। एवं ता ओसण्णे, गिहत्थे पुण दव्यभावलिंगाई । दोण्णि वि ण वि दिज्जती, दिज्जेज व उत्तिमम्मि ॥२४१०॥ एवं अत्थायाणे, जे पुण सेसा हवंति अणवहा। साहम्मि-अण्णधम्मियते गादी ते उ भयणिज्जा ॥२४११॥ का पुण भयणा एत्थं ?, आहारे उवहितेण अचित्ते । लहुगो लहुगा गुरुगा, अणवट्टप्पो व आदेसा ॥२४१२।।
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८७-८९ ]
जीतकल्पसूत्रम् ।
कह पुण आएसेणं, अणवट्ठो होइमं णिसामेह | अणुवरमंतो कीरति अहवा उस्सण्णदोसो तु ॥ २४१३ ।। अहवा भिक्खू पावति एतेसु पदेसु तिविह च्छित्तं । नवमं पुण बोद्धव्वं, अभिसे सूरिणो दसमं ।। २४१४ ।। तुल्लस्मि वि अवराहे, तुल्लमतुल्लं च दिज्जए दो०दं । पारंचिए वि णवमं, अभिसेगे गुरुस्स पारंची ॥२४१५ ॥ अहवा अभिक्खसेवी, अणुवरमं पात्रती गणी णवमं । पावति मूलमेव तु, अभिक्खपडिसेविनो सेसा ||२४१६|| अत्थादाणे ततितो अणवडो खेत्तओ समक्खातो । गच्छे चैव वसंता, णिज्जू हिज्जेति अवसेसा ॥२४१७॥ अहवा
॥ ग्र ॥ ८७ ॥
अभिसेओ सव्वेसु य, बहुसा पारंचियावरा हेसु । अणवट्टप्पा वत्तिसु, पसज्जमाणो अगासु ॥ ८८॥ अभिगो उवज्झाओ, पुणो पुणो होति बहुससद्दो ऊ । पारंचियावराहे, आवज्जति सव्वसदो तु ॥ २४१८ || अणवट्टप्पावत्ती उ सेवए णेगसो त्ति बहुसो तु । अंतरगाधार सो. अणवट्टप्पो त्ति कीरइ तु ॥ २४१९॥ जुत्तं तावsणवट्ठे, दिज्जति अणवट्टमेव अभिसेगे । पारंचियावरा है, पत्ते किह पावती जवमं ? ॥२४२०॥ भणति जह णवदसमे, आवण्णस्सावि भिक्खुणो मूलं । दिज्जति तहाऽभिसेगे, परं पदं होति णवमं तु ॥ २४२१|| 110 af 116611
कीरति अवटुप्पो, सो लिंगक्खेत्तकालयों तवयो। लिंगेण दव्वभावे, भणियो पव्वावणाऽरिहो || ८९ ||
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२०८
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा अप्पडिविरयोसण्णो, ण भावलिंगारिहोऽणवठ्ठप्पो । जो जेण जत्थ दूसति, पडिसिद्धो तत्थ सो खेत्ते॥१०॥ जत्तियमेतं कालं, तवसा उ जहण्णएण छम्मासा । संवच्छरमुक्कोसं, आसाती जो जिणादीणं ॥११॥ वासं बारस वासा, पडिसेवी कारणे तु सब्बो वि । थोवं थोवतरं वा, वहेज्ज मुच्चेज्ज वा सव्वं ॥९२।। वंदति ण यवंदिज्जति, परिहारतवं सुदुच्चरं चरति । संवासो से कप्पति, णालवणादीणि सेसाणि॥९३॥ परपक्ख सपक्खे वा, ण वि विरयो तेणगादिदोसेहिं । अप्पडि विरयो अहवा, हत्थायालादिसु पएसु ॥२४२२।। ओसन्नमाइया तू . अणुवरया दो सलिंगसहिया ऊ। अणवठ्ठप्पा ते अ, कायव्या भावलिंगेणं ॥२४२३।।खेत्ततो गतं॥ कालतो अणवट्टप्पो, अणउवरतदोसो जत्तियं कालं । सो अणवट्ठो कीरति, जत्तियमेत्तं तयं कालं ॥२४२४॥ काले त्तिा तवअणवट्ठो दुविहो, आसायणयाय हो ति पडिसेवी । एकेको वि य दुविहो, जहण्णओ चेव उक्कोसो ॥२४२५॥ तवअणवट्ठा ऽऽसायण, जहण्ण छम्मास वरिसमुकोस । के पुण आसाएंती ?, जिणमादी जा महिडीयं ॥२४२६॥ पडिसेवी अणवट्ठो, जहण्ण वरिस तु बारसुक्कोसा । किं पुण पडिसेवति तू ?, तेण्णादीया पदा सव्वे ॥२४२७॥ कारणमादिपदा तू , उवरिं वोच्छिम् अहुण परिहारं । वंदणमादी य पदा, समासयो है इमं वोच्छं ॥२४२८॥ परिहरणं परिहारो, आलावणमादि दसहि तु पदेहिं । सेहादिए वि वंदति, सो पुण ण वि वंदणिज्जो तु ॥२४२९॥
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९३ ]
जीतकल्पसूत्रम् । केरिसगुणसंजुत्तो, अणवट्ठो कीरती ? इमं सुणसु । संघतण-विरिय-आगम-सुत्तत्थ-धितीय उववेयो ॥२४३०॥ उवरिमतिगसंघयणो, सव्वगुणो केवलं अजियणिहो । देज्जा से सव्वतवं, अणवढे वा वि पारंची ॥२४३१।। णवदसपुवकतत्थो, सड़ो इव उग्गमधितिकयकरणो । परिणामसमग्गो त्ति य, अणवट्टप्पं से दायव्यं ॥२४३२॥ एवं तु गुणसमग्गो, चरित्तसेटिं तु णट्ट भिण्णं वा । पोराणियगुणसेटिं, णिरवयवं सो तु पूरेति ॥२४३३॥ सो वंदति सेहादि वि, पग्गहिततवो जहा जिणो चेव । विहरति बारस वरिसे, अणवटुप्पो गणे चेव ॥२४३४॥ तस्स य परिहारतवं, पडिवज्जनस्स कीरउस्सग्गो । संघाडठवणभीए, आसस असमत्थकरणं च ॥२४३५॥ किं कारणमुस्सग्गो ?, भण्णति सेहाण जाणणहाए । भयजणणट्ठाय तहा, णिरुवस्सग्गट्टया चेव ॥२४३६।।उस्सगो त्ति कप्पट्टितो अहं ते, अणुपरिहारी य एस गीओ ते । पुव्वं कतपरिहारो, तस्सऽसतिऽण्णो वि दढदेहो ॥२४३७॥.
संघाडो त्ति गतम् । एस तवं पडिवज्जति, ण किंचि आलवति मा ण आलवहा । अत्तचिन्तगस्सा, वाघातो भे ण कायन्वो ॥२४३८॥ ताहे य परिहरिजति, गच्छेणं सो य परिहरति गच्छं । अपरिहरंताऽऽरोवण. दसहिं पएहिं इमेहिं तु ॥२४३९॥ आलावण पडिपुच्छण, परियडुट्ठाण वंदणग मत्ते । पडिलेहण संघाडग, भत्तदाण संभुंजणे चेव ॥२४४०॥ जा संघाडो ताव तु, लहुओ मासो तु होति गच्छस्स । लहुगा य भत्तदाणे, संभुंजणे होन्तऽणुग्घाता ॥२४४१॥ संघाडओ तु जाव उ, गुरुओ मासो दसण्ह तु पयाणं ।
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स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[गाथा भत्तस्स दाण संभुंजणे य परिहारिए गुरुगा ॥२४४२।। कितिकम्मं च पडिच्छति, परिण्ण पडिपुच्छ देति य गुरू से । सो वि य गुरुमुवचिट्ठति, उदन्तमवि पुच्छितो कहते ॥२४४३॥
___ठवणे ति गतं ॥ एवं तू ठवणाए, ठवियाए भयं तु कस्सतुववजे । किह नु भए एक्केणं, णित्थरियव्वेत्तिओ कालो ? ॥२४४४॥ ताहे आसासेती, आयरिओ मा हु एव तं बीभे । अणुपरिहारी एस य, अहवा कप्पट्टिती एसा ॥२४४५ ॥ जं किंचि पाडिपुच्छं, तं सव्व मए समं करेजाहि । हिडिहिसी भिक्खं पि य, अणुपरिहारीण तं सद्धि ॥२४४६॥ एव भणिओ तु संतो, आसासती तं च ताहे णित्थरति । किह पुण होआसासो?, भण्णति इणमो णिसामेहिं ॥२४४७।। जह कोति अगडपडिओ, जति भण्णति एस हा ! मतोवरतो। तो मुंचति अंगाई, पच्छा मरती य सो ताहे ॥२४४८॥ अह पुण भण्णति एवं, मा बीहसु एस आणिया रज्जू । उत्तारिजसि एवं, आसासो से हवति ताहे ॥२४४९॥ एवं णदिवुभंते, राया रुट्ठो व कासती होज्जा । सो वि जति वणट्ठो सि, त्ति भण्णए तो विराएज्जा ॥२४५०॥ अह भण्णति मा बीभे, राया असमिक्खिए अकज्जे वा । ण वि किंचि करेइ त्ती, मोइज्जेहिसि व आससति ॥२४५१॥ एवासासो तस्स वि, होती आसासियस्स संतस्स । इय पडिवण्णो सो ऊ, वहइ हु उग्गं तबोकम्मं ॥२४५२॥
___आसासो ति गतम् ॥ तो उग्गेण तवेण, सो जाहे खामदुब्बलसरीरो। ण तरेज्जुट्टाणादी, काउं ताहे इमं भणति ॥२४५३॥
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९४ ]
जीतकल्पसूत्रम् । उद्वेज णिसीएज्ज, भिक्खं हिंडिज्ज भंडग पह । कुवितपितबंधको विय, तुसिणी संघाडो तो कार ॥२४५४॥ बितियपय अण्णगच्छा, पेसेज्जा वंदणं अयाणतो। गेलण्णे उभयस्स व, कुज्जा करणिज्ज जयणाए ॥२४५५॥ गच्छिल्लया गुरुस्स उ, गुरु अणुपरिहारिए समति । अणुपरिहारी परिहारियस्स देन्तेस जयणा तु ॥२४५६॥ सो वा करेज्ज तेसिं, आगाढ परंपरेण एमेव । गुरुणो एगागिस्स च, अण्णऽसतीए करेज्जाहि ॥२४५७। ताहे णित्थिण्णतवो, कुलादिकज्जे व तपितो जो तु । उक्ठावण तस्स भवे, केयी गिहिवेस कातूणं ॥२४५८।। गिहिवेसमकाऊणं, उवट्ठवेन्ते उ होति चउगुरुगा। आणादिणो य दोसा, पावइ अहवा इमे दोसे ॥२४५९॥ वरणेवत्थं एगे, हाणविवज्जमवरे जुवलमत्तं । परिसामझे धम्म, सुणेज्ज कहणा पुणो दिक्खा ॥२४६०॥ किं तस्स तु गिहिवेसं ?, किं वरणेवत्थ ? किं व जुयलं तु । किं वा परिसामझे, धम्मो से कहिजए तस्स ? ॥२४६१॥
ओभामिओ ण कुव्वति, पुणो वि सो तारिसं अतीयारं । होति भयं सेहाण य, गिहिभूए धम्मया चेव ॥२४६२॥
अणवट्टप्पे त्ति गतम् ॥ १३ ॥१३॥ तित्थगर पवयण सुतं, आयरियं गणहरं महिडीयं । पाराधिक
आसाएन्तो बहुसो, आभिणिवेसेण पारंची ॥९४॥ प्रायश्चित्तम् किह पुण आसाएती ?, अवण्णवायाइ वयइ जे तेसि । केरिसओ तु अवण्णो ?, भण्णइ इणमो णिसामेहि ॥२४६।।
पाराधिका पाहुडियं उवजीवति, जाणतो किं व भुंजए भोग ? । अजुत्तं च इस्थितित्थं, अतिकक्खड देसिया चरिया ॥२४६४॥
आशातना
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ર
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा
अणं व एवमादी, अवि पडिमासु वि तिलोगमहियाणं । जति भणति कीस कीरति, मल्लालंकारमादीयं ? || २४६५ || जो वि पडिविविणयो, तं सव्र्व्वं अवित अकुव्वतो । वंदथुइमादीयं, तित्थगरासायणा एसा ॥ २४६६ ।। तित्थगरे ति गतम् ॥
अकोसतज्जणादिसु, संघमहिक्खिवर संघपडिणीए । ror faar संघा, सियालणंतिकढं कादी || २४६७॥ पवयणेति गतम ||
काया वयाय ते च्चिय, ते चैव पमाय अप्पमाया य । मोक्खाहिगारियाणं, जोतिसविज्जाहि किं व पुणो १ ।। २४६८ ॥ सुतेति गतं ।
||
इरिससात गरुया, परोवदेसुज्जया जहा मंखा । अत्तट्टपोसणरया, आयरिया जह दिया चेव ॥२४६९ ॥ अब्भुज्जयं विहार, देसेन्ति परेसि सतमुदासीणा । उवजीवंति य इडि, णीसंगा मोति य भणति || २४७०॥ आयरिए ति गतम् ।
गणहर एव महिडी, महातवस्सी व वादिमादी वा । तित्थगरपढमसीसा, आदिग्गहणेण गहिता वा ॥ २४७१ ।। सा दुह देसे सव्वे, देसम्मी एगदेसमादीया । जं वयति सव्व देसो, सव्वेसिं वा वि सव्वेसो || २४७२ ॥ तित्थकरं संघ वा, देसेणं वा वि अहव सव्वेणं । आसाएन्ते चरिमं, सेसेसुं चतुगुरू देसे || २४७३ ॥ सच्चे वाssसाएन्तो, पावति पारंचितं तु सो ठाणं । एत्थं पुण सचरित्ती, देसे सव्वे य अचरिती ॥ २४७४॥ तित्थगरपढमसासं, एकं वी सादयंतो पारंची । अत्थस्सेव जिणिदो, पभवो सुत्तस्स सो जेणं ॥ २४७५ ||
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२१३
सञ्चिक
९५ ]
जीतकल्पसूत्रम् । आसायणपारंची, एमेसो वणितो समासेणं । दारं । पडिसेवणपारंची, एत्तो वोच्छं समासेणं ॥२४७६।।
॥ ॥ ९४ ॥ जो य सलिंगे दुट्ठो, कसायविसएहिं रायवहओय। प्रतिसेवनारायग्गमहिसिपडिसेवओ य बहुसो पगासो य॥९५॥ पडिसेवणपारंची, तिविहेसो वण्णिओ तु सुत्तम्मि । दुद्दादीहिं पदेहि, समासओ हं पवक्खामि ॥२४७७॥ दुट्ठो य पमत्तो या, अण्णोण्णासेवणापसत्तो उ । एतेसि विभागं तू , वोच्छामि जहकमेणेव ।।२४७८॥ दुविहो य होति दुट्टो, कसायदुट्ठो य विसयदुट्ठो य । दुविहो कसायदुट्टो, सपक्खपरपक्खचतुभगो ॥२४७९॥ कायदुष्टः सासवणाले मुहणंतए य उलुगच्छि सिहरिणी चेव । एते सपक्खदुट्ठा, एतेसि परूवणा इणमो ॥२४८०॥ सासवणाले लटुं, गुरु छंदिय खइय सव्वितर कोहो । खामण अणुवसमन्ते, गणी ठवेत्तऽण्णहि परिण्णा ॥२४८१।। पुच्छंतमणक्खाए, सोच्चऽण्णयो गंतु कत्थ से सरीरं ? । गुरु पुव्यकहित दाइय, पडियरणं दन्तभंजणया ॥२४८२॥ मुहणंतयमालोयण, आणियमुक्कोस गहित गुरुणा य । कुविएण णिसी गर्नु, गलए लइओ य पामुत्तो ॥२४८३॥ सम्मूढेणियरेण वि, गलए लइओ उ तो मता दो वि । अण्णो पुण सिव्वंतो, अथमिए गुरूहि अह भणितो ॥२४८४॥ अथमियम्मि वि सिव्वसि, उलुगसरिच्छच्छि तो वदे रुसितो। तुह उक्खणामि अच्छी, खामिज्जंतो विण विपसिए।।२४८५॥ तो ठविय गणिं गच्छे, भत्तपरिणं करेति अण्णगणे । जह पढमो णवरि इहं, उलुअच्छोउ त्ति ढोंकेति ॥२४८६॥
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२१४
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[गाथा अवरो वि सिहिरिणीए, छंदिय सन्चाइयं तो उग्गिरणा । तत्थेव तू परिणा, ण गच्छती णवर अण्णत्थ ॥२४८७॥ जम्हा एते दोसा, तम्हा ण वि गेण्हियन्वयं गुरुणा । एगरसेव तु सध्वं, अण्णायायारसीलस्स ॥२४८८॥ गहणम्मि विही इणमो, जति गहिया मत्तगा तु सव्वेहिं । तेसि णिमंतेन्ताणं, अलाहि पज्जन्तमो बैंति ॥२४८९॥ णिब्बन्धे थोवथोवं, सव्वेसि गेण्हए ण एगस्स । सव्वेसि पि ण गेण्हति, बितियाएसेण गहियं पि ॥२४९०॥ गुरुभत्तिमं जो य मणाणुकूलो, सो गिण्हती णिस्समणिस्सयो वा। तस्सेव सो गेण्हति णेतरेसिं, अलब्भमाणम्मि व थोव थोवं ।।
सति लामम्मि व गेहति, इतेरसिं जाणितूण णिबंध । मुंचति य सावसेसं, जाणति उवयारभणियं च ॥२४९२॥ गुरुसंसहव्वरियं, बालादसतीए मण्डलिं जाति । जो अण्णायरमत्तग, गिलाणभुत्तुव्वरितते वि ॥२४९३॥ सेसाणं संसहूं, न छुब्भई मंडलीपडिग्गहए । पत्ते गहितं छुब्भइ, उब्भासण लंभ मोत्तणं ॥२४९४॥ पाहुणगट्ठा व तयं, धरेत्तु अविवाहडं विमिंचंति । इति गहणझुंजणविही, अविहोगहणेण दोसेते ॥२४९५॥ एते सपक्खदुट्टा, परपक्खे उदायिमारगादीया । परपक्खसपक्खम्मि य, पालक्कादी मुणेतव्या ॥२४९६॥ पालको तु पुरोहितो, खंदगपमुहाण जेण पंच सया । पुवि विराहियेणं, जते पीलाविता जतिणो ॥२४९७॥ मुणिसुव्वयतित्थम्मी, वारण परातिओ स पुब्धि तु । खंदगरण्णो ताहे, पावो स पोसमावण्णो ॥२४९८॥
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२१५
९५ ]
जीतकल्पसूत्रम् । परपक्खो परपक्खे, रायादी अभमरा जहा केति । वहपरिणया व वहगा, भणिता चत्तारि दुहेते ॥२४९९॥ एते सि चतुण्डं पी, पच्छित्तमहाविहिं पवक्खामि । जे सासवणालादी, लिंगविवेगो भवे तेसिं ॥२५००॥ जो वि सपक्खो रायादियाण वहपरिणयो व वहगो वा । सो लिंगतो पारंची, जो विय परिवटए तं तु ॥२५०१॥ सण्णी व असणी वा, जो परपक्खे सपक्खे दुट्ठो तु । तस्स णिसिद्धं लिंगं, अइसेसी वा वि से देजा ॥२५०२|| परपक्खो परपक्खे, रायामादीपदुट्ठो जो वि भवे । तस्स सदेसे ण कप्पति, कप्पइ अण्णम्मि उवसंते ॥२५०३।। एसो कसायदुट्ठो (दार), विसयपदुर्ल्ड इदाणि वोच्छामि । विषयदुष्टः तस्स वि सपक्खपरपक्खयो य चतुभंगो तह चैव ॥२५०४॥ संजति कप्पठिए पढमो, सेज्जातरि अण्णतिथिणी बोओ। परपक्खे संजतीए, उभयपरो होति उ चतुत्थो ॥२५०५॥ लिंगेण लिंगिणीए, संपत्ति जति णिगच्छती पावो । णिरयाउगं णिबंधइ, आसायण ओ अबोही य ॥२५०६॥ लिंगेण लिंगिणीए, संपत्तिं जो णिगच्छती पावो । सहजिणाणऽजातो, संघो आसादितो तेणं ॥२५०७॥ पावाणं पाक्यरो, दट्टण ण बट्टए हु साहूणं । जो जिणपुंगवमुई, णमिऊण तमेव धरिसेति ।।२५०८॥ संसारमणवयग्गं, जातिजरामरणवेयणापरं । पावमलपडलछन्ना, भमंति मुद्दाधरिसणेणं ॥२५०९॥ एसो पढमगभंगो, पारंचियमेत्थ होति पच्छित्तं । बितियगभंगम्मि तहा, अणुवरयम्मी भवे चरिमं ॥२५१०॥ जत्थुप्पजति दोसो, कीरति पारंचिओ स तम्हा उ । सो पुण सेवि असेवी, गीयमगीयो व एमेव ॥२५११॥
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स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[गाथा वसहि णिवेसण वाडग, साही तह गाम देस रज्जू य । कुल गण संघे णिज्जूहणाए पारंचिओ होति ॥२५१२॥ उपसंतो वि समाणो, वारिज्जति तेसु तेसु ठाणेसु । हंदि हु पुणो वि दोस, तहाणाऽऽसेवणा कुणति ॥२५१३॥ जेसु विहरति ताओ, वारिज्जति गवर तेसु ठाणेसु । पहमगभंगे ताई, सेसेसु वि ताई ठाणाई ।।२५१४॥ इत्थं पुण अधिगारो, पढमगभंगेण उभयदुट्ठण । उच्चारियसरिसाई, सेसाई विकोवणहाए ॥२५१५॥
पुव्वद्धं गतम् । इति एस अभिहिओ तू , उभयपदुबो य रायवहगो य । रायग्गमहिसिपडिसेवओ उ अहुणा इमो होति ॥२५१६॥ रायस्स महादेवी, अहवा जा जस्स होति इटा तु । सा तस्स होति अग्गा, अग्ग पहाण त्ति एगहा ॥२५१७॥ तं पडिसेवति जो तू , पुणो पुणो होति बहुससद्दो उ । लोगपगासो अहवा, सो पावति चरिमठाणं तु ॥२५१८॥ चस्सहा अण्णाण वि, जा इट्टा सा हु तेसि होअग्गा । जुवरायादीआणं, तेसि पि जहेव राइस्स ॥२५१९॥ इयरमहिलासु चरिमं, ण विज्जती कीस ? एव चोएति । भण्णइ बहुआऽवाया, इतराखं अप्पणो चेव ॥२५२०॥ रायस्स अग्गमहिसीए अप्पणो कुल गणे व संघे वा ।। पत्याराई दोसा, पागतमहिलासु तस्सेव ॥२५२१॥ वतलोवो सरीरे वा, दोसा ण हु कुलगणादिपत्थारो । एतेण कारणेणं, इतरासु ण होति चरिमपदं ॥२५२२॥
दुट्टपारंचिए त्ति गत। प्रमत्तपारा- दुसो पारंची, भणितो अहुणा पमत्त वोच्छामि ।
सो कलुस विकह विकडे, इंदिय णिहा य पंचविहे ॥२५२३॥
श्चिकः
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द्राप्रमत्तपाराञ्चिकः
९५-९६ ]
जीतकल्पसूत्रम् । कोहाति चउह कलुसा, विकहा पुण इस्थिमादिया चउहा । पुव्वब्भासा वियडं, इंदिय सोयादिए पणगं ॥२५२४॥ पोग्गल मोदग फरुसग, दंते वडसालभंजणे चेव ॥ थीणद्धीआहरणा, वोच्छामि विभागमेतेसिं ॥२५२५॥
॥8 नृ॥९५।। थीणद्धिमहादोसा, अण्णोण्णासेवणापसत्तो य। चरिमट्ठाणावत्तिसु, बहसो य पसज्जए जो उ॥९॥ जह उदअम्मि घए वा, थीणम्मि णोवलब्भए किंचि ।
स्त्यानर्द्धिनिइद्धं चित्तं भण्णति, तं थीणं तेण थीणद्धी ॥२५२६॥ पिसितासि पुचमहिय, विविचियं दिस्स तत्थ णिसि गंतु । अण्णं हेतुं खायति, उवस्सतं सेसयं णेति ॥२५२७॥ मोदगभत्तमलढुं, भंतु कवाडे घरस्स णिसि खाइ। भाणं च भरेतूणं, आगओ आवासए वियडे ॥२५२८॥ अवरो वि फरुसमुंडो, मत्तियपिंडे व छिंदिउं सीसे । एगन्ते पविन्धति (य विविंचति प्र०), पासुत्ताणं वियडणा य॥ अवरो विवाडिओ मत्तहत्थिणा पुरकवाड भंतूणं । तस्मुक्खणित्तु दन्ते, वसही बाहिं वियडणा य ॥२५३०॥ उभामग वडसालेण घट्टिओ कोइ पुव्व वणहत्थी । वडसालभंजणाऽऽणण, उस्सग्गाऽऽलोयण पभाए ॥२५३१॥ तस्सोदयकालम्मि, हवती जं केसवस्स अद्धबलं। ण वि देति अणतिसेसी, लिंगं अवि केवली होज्जा ॥२५३२॥ णातम्मि पण्णविजाति, मुय लिंगं णत्थि तुज्झ चारित्तं । देसवय दंसणं वा, गिण्हसु इच्छन्ते रमणिज्जं ॥२५३३।। अह णेच्छति तो संघो, लिंगं हरई ण हरति सि एगो । मा गच्छेज पदोसं, छड्डत्तऽसत्तीए पासुत्तं ॥२५३४॥
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पाराश्चिक:
२१८ स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[गाथा णिद्दपमत्तो एसो, पारंची लिंगतो समक्खातो (दारं)।
कुणमाण अण्णमण्णं, पारंचीयं अतो वोच्छं ॥२५३५॥ अन्यो ऽन्य करणं तु अण्णमण्णे, समणाण ण कप्पती सुविहियाणं ।
किह करण अण्णमण्णे ?, भण्णति इणमो णिसामेहि ॥२५३६ आसयपोसयसेवी, केई पुरिसा दुवेदगा होन्ति । तेसिं लिंगविवेगो, कातव्यो होति णियमेणं ॥२५३७॥
अण्णोण्णसेवणे त्ति गतम् ॥ चरिमं अंतं भण्णति, तं पुण पारंचियं ति णातव्यं । पारंचियावराहे, पुणो पुणो सज्जए जो तु ॥२५३८॥ थीणद्धिमादियाणं, सोहिं वोच्छं पुणो वि सव्वेसिं । लिंगादीणं कमसो, एत्थ इमा होति गाहाओ ॥२५३९॥
॥8॥१६॥ सो कीरति पारंची, लिंगाओ खेत्तकालओ तवतो संपागडपडिसेवी, लिंगाओ थीणगिद्धी य ॥९॥ वसहिणिवेसणवाडरासाहिणिओयपुरदेसरज्जाओ
खेत्ताओ पारंची, कुलगणसंघालयाओ वा ॥९॥ जत्थुप्पण्णो दोसो, उप्पज्जिस्सति व जत्थ णाऊणं। तत्तो तत्तो कीरति, खेत्ताओ खेत्तपारंची ॥१९॥ जत्तियमेत्तं कालं, तवसा पारंचियस्स उ स एव ।
कालो दुविगप्पस्स वि,अणवट्ठप्पस्सजोऽभिहितो१० लिङ क्षेत्रादि- आसातण पडिसेवण, दुह अणवट्ठम्मि जो भवे कालो। पाराश्चिकाः पारंचिए वि सो चैव होति उक्कोसग जहण्णो ॥२५४०॥
पारंचिया उ एते, तिण्णि वि सामण्णयो विणिहिट्ठा । एत्तो जो जारिसतो, विसेसमेतेसि वोच्छामि ॥२५४१॥
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२१९
९७-१०० ]
जीतकल्पसूत्रम् । दुढे य पमत्ते या, अण्णोण्णासेवणापसत्ते य । एतेसिं तिहं पी, विसेसमेत्तो पवक्खामि ॥२५४२॥ तहियं तु विसयदुट्टो, सपक्खपरपक्वतो व जो होज्जा । सो कीरति पारंची, खेत्तेणं तू ण लिंगेणं ॥२५४३॥ अणुवरमंतो कीरति, सेसो णियमेण लिंगपारंची। खेत्तेण य लिंगेण य, पारंची अभिहिता एते ॥२५४४॥ किं एते चिय भैया, पारंचीए उयाहु अण्णे वि ? । भण्णति तवपारंची, अण्णो वि हु केरिसो स खलु ? ॥२५४५॥ इंदियपमायदोसा, जो तू अवराहमुत्तमं पत्तो। सब्भावसमाउट्टो, जइ य गुणा से इमे होंति ॥२५४६॥ वइरोसहसंघतणो, धितीय जो वजकुड्डसामाणो। णवमस्स ततियवत्थु, मुत्तऽत्थेहिं च जोऽहीओ ॥२५४७॥ खुड्डगसीहतवादीहिं भावितो जो य इंदियकसाए । णिग्घेत्तण समत्थो, पवयणसारे अभिगतत्थो ॥२५४८॥ णिज्जूहितस्स अमुभो, तिलतुसमेत्तो वि जस्स ण य भावो। णिज्जूहणाए अरिहो, सेसे णिज्जूहणा णस्थि ॥२५४९॥ एयगुणसंपउत्तो, पावति पारंचियं तु सो ठाणं । एयगुणविप्पमुक्के, तारिसयम्मी भवे मूलं ॥२५५०॥ पारंचियं तु पावति, आसाएन्तो तहेव पडिसेवी । एकेको होति दुहा, जहण्ण उक्कोसओ चेव ।।२५५१।। आसायणो जहण्णो, छम्मासुकोस बारस तु मासा। वासं बारसवासा, पडिसेवी कारणे भतिओ ॥२५५२॥ जति होजा आयरिओ, तो गणणिक्खेवमित्तिरि कातुं । गंतूणं अण्णगणे, दनादिसुभे विगडणा तू ॥२५५३॥
॥सु०॥१०॥
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२२०
स्वोपज्ञभाष्ययुतं
[ गाथा एगागी खेत्तवहि, कुणति तवं सुविपुलं महासत्तो अवलोवणमायरिओ, पतिदिणमेगो कुणति तस्स १० ओलोयणं गवेसणमायरिओ कुणति णिचकालं पि । खेत्तबहिचिट्ठियस्सा, इमेण विहिणा पवक्खामि ॥२५५४॥ उभयम्मि दातूण स पाडिपुच्छं, वोढुं सरीरस्स य वट्टमाणिं। आसासतित्ताण तवोकिलंतं, तमेव गच्छं पुणरेन्ति थेरा॥२५५ असहू सुत्तं दाउं, दो वि अदा व गच्छति पदे वि। संघाडो से भत्तं, पाणं चाऽऽणेति मग्गेणं ॥२५५६।। पारंचितस्स तहियं, तं वहमाणस्स होज्ज गेलण्णं । ताहे से पडिकम्म, तेहिं पयत्तेण कायब्वं ॥२५५७॥ आहरति भत्तपाणं, उव्वत्तणमाइयं पि से कुणति । सतमेव गणाहिवई, वेयावच्चं जहत्थामं ॥२५५८॥ जो उ उवेहं कुज्जा, आयरिओ केणती पमाएणं । आरोवण तस्स भवे, गिलाणसुत्तम्मि जा भणिया ॥२५५९॥ अह पुण ण तरेज गुरू, गंतु गेलण्णमादिहिं तहियं । कालुण्हे दुबलो वा, कुलादिकज्जेण वऽण्णेण ॥२५६०॥ अभिसेयं तो पेसे, अण्णं गीयं व जो तहिं जोग्गो। पुट्ठो व अपुट्टो वा, सो वि य दीवेति तं कज्जं ॥२५६१॥ सो य समत्थो होज्जा, संपाडेतुमिह तस्स कजस्स । खीरादिलद्धिजुत्तो, विज्जादिगअतिसएहिं च ॥२५६२॥ जाणता माहप्पं, सतमेव गुरू वदंति तं जोगं । अस्थि मम एत्थ विसतो, अजाणए ते व सो वेति ॥२५६३॥ अच्छउ महाणुभावो, जहासुहं गुणसयागरो संघो । गुरुय पि इमं कज्ज, में पप्प भविस्सए लहुयं ॥२५६४॥ अभिहाणहेतुकुसलो, बहूसु अणिराइओ विदुसभासु । गंतूण रायभवणं, भणाइमं रायदारिटं ॥२५६५॥
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१०१ ]
जीतकल्पसूत्रम् । पडिहाररूबी ! भण रायरूवी, तमिच्छए संजतरूवि दद। णिवेयतित्ताण सपत्थिवस्स, जहिं णिवो तत्थ तयं पवेसे ॥२५६६।। तं पूयतित्ताण सुहासणत्थं, पुच्छिसु राया गतकोउहल्लो । पण्हे उराले असुए कयाई, स यावि आइक्खति पत्थिवस्स ॥
२५६७ ।। जारिसया सक्कादीण आयरक्खाण तारिसो एसो। तुह राय! दारपालो, तं पि य चक्कीण पडिरूवी ॥२५६८॥ अट्ठारससीलसहस्सधारया होन्ति साहुणो अहयं । तं पति पडिरूवित्तं, अतियारणिसेवणापत्तो ॥२५६९॥ णिज्जूढो मि परीसर !, खेत्ते वि जतीण अच्छित्तुं ण लभे। अतियारस्स विसोहि, पकरेमि पमायमूलस्स ॥२५७०॥ धम्मकहा आतुट्टाण पुच्छणं दीवणा य कजस्स । किं पुण हवेज कजं ?, इमेहिं होजाहि एगतरं ॥२५७१॥ वायपरायणकुविओ, चेतियद्दव्य संजतीगहणे । णिबिसयादि चतुण्ह वि, कजाण हवेज एगतरं ॥२५७२॥ संघो ण लभति कज्जं, लद्धं कज्ज महाणुभावेणं । तुभति विसज्जेमी, सेवियसंघो त्ति पूएति ॥२५७३॥ भणति य राया संघ, तुब्भं कज्जं करेमि अहमेयं । तुब्भे वि कुणह मज्झं, एयस्सेय विसज्जेह ॥२५७४॥ अब्भत्थितो सयं वा, रण्णा संघो विसज्जए तुहो। आदी मज्झऽवसाणे, सो यावि हवेज्ज सोहीए ॥२५७५॥ देस व देसदेस, सव्वं व वहेज अहव मुच्चेजा। छब्भागो से देसो, दसभागो देसदेसो तु ॥२५७६॥ छम्मासपरे बारसमासाणं बारसण्ह य समाणं । एक्के दो दो मासा, चउवीसा होति छन्भागो ॥२५७७॥
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स्वोपज्ञभाष्ययुत
[ गाथा अट्ठारस छत्तीसा, दिवसा छत्तीसमेव वरिसं च । बावत्तरि च दिवसा, दसभागेणं हवेज्जा वा ॥२५७८॥ एयासिं तिण्हं गाहाणं वक्खाआसायणपारंची, जहण्ण छम्मास मासो छब्भागो। छब्भागेणं वरिसे, दो मासा हुंति णातव्या ॥२५७९॥ पडिसेवणपारंची, वरिसे दो मास होन्ति छब्भागे । वरिसाण बारसण्हं, मासा चतुवीस छब्भागे ॥२५८०॥
देसे त्ति गतम् । दसभागेणऽहारस, दिवसा छण्ह हवंति मासाणं । वरिसस्स तु दसभागे, दिवसा छत्तीसई होंति ॥२५८१॥ वरिसाण बारसण्हं, वरिसं वावत्तरिं चऽहोरत्ता। दसभागेण हवंति हु, एसो खलु देसदेसो तु ॥२५८२॥ एवं तस्स तु संघो, तुट्ठो देसं व देसदेसं वा । मुंचेज्ज वहेज्जा वा, अहवा सव्वं व झोसेज्जा ॥२५८३॥ अहव अगीयणिमित्तं, अप्परिणामे य तस्स ववहारं । णवविह पत्थारेत्ता, गेण्हसु एवं लहुसभत्ते ॥२५८४॥ हत्थं तु भमाडेतुं, दरिसेतुं णवविहं पि ववहारं । ताहे भण्णति एवं, सो गेण्हसु लहुसयं एयं ॥२५८५॥
अणवठ्ठप्पो तवसा,तवपारंची य दो वि वोच्छिण्णा। चोदसपुवधरम्मि, धरैति सेसा तु जातित्थं ॥१०२|| पारंचिय अणवट्ठा, तवसा आरेण भद्दबाहूओ। वोच्छिण्णा दो तेसि, सेसा तु धरति जा तित्थं ॥२५८६॥ लिंगेण खेत्त काले, घरेन्ति पारंचियाऽणवठ्ठा जे । लिंगेणं अणुसज्जति, दव्वे भावे य जा तित्थं ॥२५८७॥
॥ मु०२॥ १०२॥
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कल्पशब्दस्यार्थः
१०२-३] जीतकल्पसूत्रम्।
૨૩ इति एस जीतकप्पो, समासतो सुविहिताणुकंपाए। उपसंहारः कहितो देयोऽयं पुण, पत्तेसुपरिच्छियगुणेसु॥१०३॥ इति एस अणंतरतो, उद्दिट्ठो होति जीतकप्पो तु । जीतं आयरणिज्ज, कप्पो पुण छविहो इगमो ॥२५८८॥
जीतशब्दआजीवियधरणाओ, व अहव जीत इमं मुणेयव्वं । स्यार्थः जीतस्स तस्स कप्पो, एत्थं जो जीतकप्पो सो ॥२५८९॥ सामत्थे वण्णणाए य, छेदणे करणे तहा।। ओवम्मे आहिवासे य, कप्पसद्दो तु वण्णितो ॥२५९०॥ छेदणे वनणे चेव, कप्पसद्दो इहं कतो। जीयस्स वण्णणा जीतकप्पो तह छेदणं चेव ॥२५९१॥ एयस्स जीयकप्पस्स समासो इति इहं मुणेतव्यो । संखेवो य समासो. ओहो त्ति व होन्ति एगट्ठा ॥२५९२।। सोभणविही तु जेसि, सोभणविहिता व सुविहिता ते तु । तेसि अणुकंपाए, कहितो देयो य पत्तेसु ॥२५९३॥
जीतकल्पमुत्तेण वि अत्थेण वि, जो पत्तो स खलु जीयकप्पस्स।
स्याध्ययने जोग्गो भणितो इयरो, होति अजोगो त्ति णातव्यो॥२५९४॥ अधिकारी पुणसद्दो तु विसेसणे, किन्नु विसेसेति ? तिन्तिणादीयं । एते तु विसेसेती, विवरीया होन्ति पत्ता तु ॥२५९५॥ अहवासंविग्गऽवज्जभीरू, परिणामो जो य होति गीयत्थो । आयरियवण्णवादी, संगहसीलो अपरितन्तो ॥२५९६॥ मेहावी य बहुसुतो, गुरुअमुयी णिचमप्पमत्तो य । एमादिगुणसमग्गो, जीतस्स स होति पत्तो त्ति ॥२५९७॥ जह ताव छेन्ज णिहसे, अविकोवि सुवण्णयं मुणेतव्वं । तह अविकारी जो खलु, आदी मज्झे य अवसाणे ॥२५९८॥
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________________ રરક स्वोपज्ञभाष्ययुतं जीतकल्पसूत्रम् / एवं देजा सुपरिक्खियस्स णऽनस्स जीतववहारं / अणरिहदेन्ताऽऽरोवण, आणादी जं च पाविहिती // 2599 // पंचमहव्ययभेदो, छक्कायवहो य तेणऽणुण्णाओ। मुहसीलणीयगाणं, कहयति जो पवयणरहस्सं // 2600 // आमे घडे णिहितं, जहा जलं तं घडं विणासेति / इय सिद्धंतरहस्स, अप्पाहारं विणासेति // 2601 // मरेज सह विजाए, काले णं आगए विद / अपत्तं तु ण वाएज्जा, पत्तं च ण विमाणए // 2602 // बितियपए वाएज्जा, अद्धाणादीहि कारणज्जाए। बहुसो तप्पिस्सति वा, वेयावच्चादिणा अम्हं // 2603 // अप्परगंथ महत्थो, इति एसो वण्णिओ समासेणं / पंचमतो ववहारो, नामेणं जीयकप्पो त्ति // 2604 // कप्प-व्यवहाराणं, उदहिसरिच्छाण तह णिसीहस्स / सुतरतणबिन्दुणवणीतभूतसारेस णातब्बो // 2605 // कप्पादीए तिण्णि वि, जो सुत्तत्थेहि माहिती णितुणं / णिगदिस्सति सो एयं, सीसपसोसाण ण हु अण्णो // 2606 // ॥सु०३ // 10 // वसनगानासन जीतकल्पसूत्रं सभाष्यं परिसमाप्तमिति // GH सपत 88. // ससूत्रस्य भाष्यस्य गाथाः 2709 // // ग्रन्थाग्रम्-श्लोकसंख्या 3200 //