Book Title: Adhyatmik Gyan Vikas Kosh
Author(s): Rushabhratnavijay
Publisher: Rushabhratnavijay
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यी जुमतिडावाय उस श्री सुमतिनाथाय नमः श्री प्रेम-भुवनभानु जयघोष-जितेन्द्र-गुणरत्नमूरिसदगुरुभ्यो नमः (180) श्री नाकोडा पार्श्वनाथ जैन श्वेताम्बर तीर्थ नाकोड़ा (मेवानगर) i's Religious World - मुनि श्री ऋषभरत्नविजयजी म.सा. फोटोग्राफी 3डी-2डी पिक्चर डिजाईनर जैनिझमओनलाईन के श्री हितेशभाई शाह (मरोली) श्री आध्यात्मिक ज्ञान विकास कोश विक्रम संवत् 2073 सम्पर्क सूत्र 8 99779-63694 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जीवन शैली सिद्धांत महोदधि पूज्य आचार्य श्री प्रेमसूरीश्वरजी म.सा. युवा शिविर प्रणेता, पूज्य आचार्य श्री भुवनभानुसूरीश्वरजी म.सा. मेवाड़ देशोद्धारक पूज्य आचार्य श्री जितेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. हिल्य कमा सौंदर्य গুধার্থ ক্ষুদী सिद्धांत दिवाकर, पूज्य गच्छाधिपति श्री जयघोषसूरीश्वरजी म.सा. दीक्षा दानेश्वरी, पूज्य आचार्य श्री गुणरत्नसूरीश्वरजी म.सा. जैन शासन रत्न पूज्य अनुयोगाचार्य, श्री वीरत्नविजयजी म.सा. प्रेरणा स्रोत तपस्वीरत्न पूज्य पंन्यास प्रवर - श्री पद्मभूषणविजयजी म.सा. गुरू कृपा पात्र पूज्य पंन्यास प्रवर श्री निपुणरत्नविजयजी म.सा. पेज नं. विवरण जैन दर्शन अनुसार दया पेज नं. विवरण फ्रंट पेज जैन जीवन शैली धर्म की महत्ता हेतु 10 श्रेष्ठ उपमा दान-शील धर्म तप-भाव धर्म मैत्री भावना प्रमोद भावना करुणा भावना 09 माध्यस्थ भावना अनुक्रमणिका पेज नं. विवरण अनित्य, अशरण, संसार एकत्व, अशुचि, अन्यत्व आश्रव, संवर, निर्जरा लोक स्वभाव, बोधि, धर्मदुर्लभ 10,11,12,13 नं. पेज भावना के है इन्द्रियाँ 22 अभक्ष्य 32 अनन्तकाय 17 धर्म कहाँ- पाप कहाँ ? पर्वो को मनाए अपूर्व रूप से पर्वो को मनाए अपूर्व रूप से उत्तर खोजती एक प्रश्नावली क्या हम भूल सकते है ? क्या हम भूल सकते है ? 14 15 16 24 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मधर्म की महत्ता हेतु 10 श्रेष्ठ उपमा ॥ कल्पवृक्ष चिंतामणी निधान-भंडार भोजनादि देनेवाले कल्पवृक्ष पृथ्वी पर प्राप्त चिंतामणी जिसके हस्त में.... दुनिया की पूरी जिसके पास निधान उसे लीलालहेर किंतु होते है। युगलिक मानवी इन वृक्षों से ही संपत्ति उसके हाथ में है क्योंकि वह उस मणि से यह निधान शाश्वत नहीं है। जबकि धर्म ऐसा अपना जीवन यापन करते है किंतु धर्मरूपी इच्छित प्राप्त कर सकता है किंतु धर्म चिंतामणी निधान है जिसकी कृपा से सदा के लिए कल्पवृक्ष तो धरती के ही नही स्वर्ग के और का असर तोपरलोक तक, रत्न की मर्यादा इस आनंदतथायहनिधान चिरस्थायी है। आगे बढ़कर मुक्ति सुख को भी देता है अतः भवतक जबकिधर्म तोभवोभव तक। धर्मकल्पवृक्ष अपूर्व है। अपूर्व बांधव अपूर्व मित्र जो मुसीबतों में काम आता है वह बांधव जबकि हमेशा सहभागी बनने हेतु तत्पर एक मात्र धर्म है। आपत्ति का निवारण तथा संपत्ति के द्वार खुले रखता ही वह संसारी मित्र है किंतु वह मित्र समस्त सुखों को नही दे सकता जबकि धर्म! सब कुछ देता है। परमगुरू रथ गुरू का काम अज्ञान दूर करना और ज्ञान देना है गुरू इस भव तक ज्ञान देते है जबकि धर्म आनेवाले भव में भी प्रत्येकबुद्ध - स्वयंबुद्ध बनाकर ज्ञान देता है। मार्ग पर व्यवस्थित ले जाने का काम रथ का होता है वह एक गांव से दुसरे गांव ले जाता है जबकि धर्म तो सदगति और मोक्ष मेभीले जाता है यहरथरास्ते मेंटता या बिगड़ता नहीं है। रास्ते में संबल दो-तीन दिन तक काम आता है जिन्दगीभर काम नहीं आता है जबकि धर्म संबल भवोभव तक काम आता है। तथा वह खराब नही होता है ओरदोषों को दूरकरनेवालाहै। संबल दुनियां के रत्नों को चोर चोरी कर सकते सार्थवाह! एक गांव से दूसरे गांव जाते रास्ते में है राजा आदि का अधिकार भी उस पर आते जंगल-नदी-समुद्र-पहाड़ों की कुशलता होता है जबकि यह धर्म रूपी रत्न का पूर्वक पार करवाता है फिर भी राजा-पशु आदि संचय चोरीनहीहोता, नष्ट नही होता तथा का भय तो होता ही है किंतु धर्म सार्थवाह केबल कोई अधिकारभीनहीजमाता। सेतोइहलोक-परलोकके भय दूरहोजाते है। रत्नसंचय सार्थवाह Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. दान 2. शील धर्म दिया जाता है वह-दान दान अनेक प्रकार से शास्त्रों में दर्शाया है। मुख्य पाँच प्रकार से दान धर्म विभाजित किया गया है। जिन्समें - 1.अभयदान, 2. सुपात्रदान, 3.अनुकम्पादान, 4.उचितदान, 5. कीर्तिदान अनुकंपा सुपात्रदान कीर्तिदान उचितदान यश कीर्ति हेतु अवसर, प्रसंग उचित जो दिया जाता जो राजा महाराजाहै वह उचित दान । वस्तुपाल श्रेष्ठी आदि के द्वारा तेजपाल आदिने अनेकबार। दिया जाता है वह प्रसंग पाकर अजैनों कीर्तिदान । जैसे को भी जैन राजाभोज .. शासन की दीन प्रभावना हेतु पंच दान दिया था। महाखतधारी दूध्खी-अनाथ आदि को देखकर साधु-साध्वीजी दयाभाव पूर्वक जो भगवंतों को जो निर्दोष दिया जाता है वह अनुकंपा आहार दिया जाता है वह दान । (प्रभु वीर ने सुपादान है। गुरू हमें सही रास्ता (मार्ग) ब्राह्मण को अर्थ दिखानेवाले है ऐसे उपकारी सद्गुरू भगवंतों को। वस्त्र दान दिया दिया जाने वाला सुपात्रदान मोक्ष हेतु होता है। था।) जैसे अभयदान जैसे संगम, जगडूशाह चन्दना ... भय से दुखी जीवों को भयमुक्त सेठ करना । प्राणों की रक्षा करना अभयदान है। जीव के प्राणों को नष्ट करना हिंसा है। अभय देनेवाला सबकुछ देता है। प्राण लेनेवाला सबकुछ हरण करता है । 'आत्मवत् सर्व भूतेषु' जैसे हमें प्राण प्रिय है वैसे सभी जीवों को भी प्राण प्रिय है तथा सुख की तमन्नावाले हैं। जैसे रानी ने चोर को अभयदान दिया। अभयदान तथा सुपात्रदान से मोक्ष गति की प्राप्ति होती है। शेष तीन दान संसार संबंधित सुख-यश-कीर्ति आदि दिलानेवाले है। शील धर्म महाव्रत - अणुव्रत आदि का पालन करना शीलधर्म है। व्रत रक्षा हेतु - शील रक्षा हेतु मृत्यु भी श्रेष्ठ है, वीरता है किंतु उसका भंग हमे कतई नहीं करना चाहिए। जैसे सुदर्शन आदि ...।। Locusto m acoccordGOOOOOOOOOOOOOOOOOODUTTARAKHANDOODHARTOONSIDHATHIDEVIODURATIDEODAY SOCIDDISODDOORDAROGROOTORADUADITOOGHDOOOGLUSTAUGUSA Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 बाह्य तप 3. तपधर्म 4.भावधर्म 6अभ्यंतर तप अनशन शक्ति अनुसार उपवास आदि तप करना । चार प्रकार के अशन-पान-खादिमस्वादिम चीजों का त्याग। प्रायश्चित जीव के द्वारा हुये पापों को योग्य, गीतार्थ गुरू भगवंत के पास जाकर प्रगट करना और उसका प्रायश्चित लेना। उणोदरी अपने भोजन के प्रमाण से कुछ न्यून वापरना। अर्थात 4 रोटी की बजाय 3 वापरनी। विनय गुणादिसे उच्च कक्षा में रहे हुए देव गुरू आदि का विनय करना। वृत्तिसंक्षेप खाने के द्रव्यों में संक्षेप करना । अर्थात् 20 या 25 इत्यादि द्रव्यों से ज्यादा नहीं वापरना। वैयावच्च गुणवंतों की, तपस्वीयों की सेवा करना। भाव धर्म रस त्याग दुध-दही-घी-तेल-गुड़पकवान रूप विगईयों में किसी भी विगई का त्याग करना या संपूर्ण त्याग करना। स्वाध्याय जीव-अजीव आदि नवतत्वों की बातें जिसमें आती हो ऐसी पुस्तकों का स्वाध्याय चिंतन मनन करना। GNEE काय क्लेश शरीर को पैदल तीर्थयात्रा केश ढुंचन इत्यादि धर्मक्रिया द्वारा क्लेश होता है वह काय क्लेश रूप तप है ... कर्मों की निर्जरा होती है। चार प्रकार के धर्म में चौथा भाव धर्म सर्वोत्कृष्ट बताया है। दान-शील तथा तप, बिना भाव के किये हुए वास्तविक फल देने में असमर्थ है अत: जिन प्रणित सारे अनुष्ठान भाव पूर्वक करना चाहिए। जैसे पेथड़शा प्रभु पूजा में मस्त बन गये। ध्यान परभ उपास्य देव आदि तत्व का आलंबन लेकर ध्यान करना, जाप करना। संलीनता बिना कारण के अंग - उपांगों को हिलाना नहीं । एक जगह संलीनता पूर्वक नियम अनुसार टिककर के बैठना। कायोत्सर्ग मन-वचन-काया से स्थिर होना । प्रवृत्ति का त्याग करके कायोत्सर्ग में हिलना - चलना नहीं। CMAGICORIEnternatreenालमत्तार MOCOCCUCCOUEG Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जमेन्त्री भावना तीर्थ कर परमात्मा की मैत्री भावना उच्च पराकाष्ठा की होती है, मेघ कुमार ने पूर्व के हाथी के भव में ढाई दिन तक पाँव ऊँचा जगत के तमाम जीवों को तारने की भावना से युक्त होते हैं। रखकर एक छोटे से खरगोश को जान के जोखम से बचाया था। धर्म ध्यान को पुष्ट करने हेतु चार प्रकार की भावनाएं है, जिसमें सभी जीवों के प्रति मैत्री भाव रखना किसी को भी शत्रु नही मानना तथा अवसर आने पर कहर शत्र पर भी उपकार करना यह प्रथम मैत्री भावना है। हम किसी को जीवन देनहीं सकते तो किसी काजीवन लेने का अधिकार भी हमें नहीं है। पूर्व में अनन्त काल तक अनन्त जीवों के साथ हमने अनन्त समय निगोद में बिताया है तो अब छोटी सी जिंदगी में शत्रूभाव क्यों धारण करें ? हमारे संबंध उपयोगिता के नहीं अपितु आत्मीयता के होने चाहिए। शांत-प्रशांत साधक आत्मा के प्रभाव से वैरी पशु-पंखी भी शांतिनाथ अपने वैरभाव भूल जाते भगवान ने है। जैसे बलभद्र पूर्व के मेघरथमूनि-जंगली राजा के भव पशु। में शिकारी पंखी से कबूतर की रक्षा हेतु अपना पूरा शरीर न्यौछावर कर दिया था। LPORN w wsagro wouTURDURanguaTOSTEDOTOCTOTTOUCOURSCITOURISONGAROO Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GreeGE म प्रमोदभावना ॥ गुणीजनों को देखकर प्रसन्नता का एहसास करना। शीलयुक्त तपस्वी, दानी आदि गुणों से युक्त व्यक्ति को देखकर अनुमोदना करनी। हमारे से उपर, आगे बढ़े हुए गुणीजन को देखकर आनंद विभोर होना चाहिये। ईर्ष्या तथा निंदा करने से गुण चले जाते है। अवगुण प्रगट होते है। जीवन में अच्छा सुनना, अच्छा देखना और अच्छा बोलना चाहिए गुणवान व्यक्ति तथा दानी तपस्वी आदि मिलने पर विचारना कि मुझे भी ऐसी शक्ति कब मिले ? प्रमोद भावना युक्त सामने वाले व्यक्ति के गुणों को देखेगा। खराब सुनना बंद करें। खराब देखना बंद करें। खराब बोलना बंद करें। कृष्ण गुणानुरागी थे अतः मरे हुए सुअर की दुर्गध से परेशान लोगों के बीच में भी सुअर के उजवल दाँतों की तारिफ करी । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ piceOpeople 卐 करुणा भावनाम उपसर्गकर्ता पर भी प्रभु की करूणा आँखा से अश्रु के बूंद .... इसका क्या होगा? रोग ग्रस्त बिमार जीवों को देख कर उसके दु:खों को दूर करने हेतु प्रयास करना यह द्रव्य करूणा जर-जोरू-जमीन के पीछे पागल बने जीवों का क्या होगा? उपदेश देकर सही मार्ग पर लाना यह भाव करूणा दुसरे जीवों के दुःखों को देखकर उसे दूर करने हेतु प्रयासरत बनना / मरणांत कष्ट रोग शोक आदि से ग्रस्त जीवों को उन दुःखों से मुक्त करना द्रव्य करूणा तथा धर्म रहित अधर्म में निरंतर लगे हुए जीवों को देखकर उनकों धर्म की राह पर लाने का प्रयास करना यह भाव करूणा है। जिससे उन जीवों को भावी में प्रगट होनेवाले दुःखों से तथा दुर्गात से छुटकारा मिलता है। AAVAIL. श्री नेमिनाथ भगवान ने पशुओं की भावना सुनकर रथ मोड़ दिया | राजीमती के साथ शादी किये बिना ही गिरनार तीर्थ पर दीक्षा ले ली। कुमारपाल महाराजा के पाँव पर मकोड़ा चिपक गया उसे निकालते वक्त उसका दुःख देखकर चमड़ी सहित मकोड़े को निकाल दिया। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगरी ने वानर को उपदेश दिया तो वानर ने उसका ही घर-माला तोड़ दिया। LOGO ॐ माध्यस्थ भावना प्रतिवीर प्रभु का माध्यस्थ भाव । दोष- पाप युक्त जीवन जीनेवाले को समझाने के बावजूद भी न माने तो उनकी उपेक्षा करना। सुधारने के बावजूद भी न सुधरे तो उनकी उपेक्षा करना । लेट-गो करना अन्यथा वह हठीला बन जाता है। आपको उसके प्रति दुर्भाव होगा अतः माध्यस्थ भाव रखना । dos MINE प्रभु वीर ने जमाई जमाली को समझाया फिर भी नहीं माना तो प्रभु माध्यस्थ भाव रखा । धरणेन्द्र द्वारा की जाती उपासना तो दुसरी और कमठ द्वारा किए जाते उपसर्ग में भी धारण करनेवाले राग-द्वेष मुक्त श्री पार्श्वनाथ प्रभु । 'तुल्य भाव तिहार Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनित्य आज कल कायम टिकनेवाला नहीं है सम्बन्ध सम्पत्ति शाश्चत नहीं है तो हम स्वास्थ्य शरीर | राग देष क्यों करें ? राजा भिखारी आरीसा भवन में भरत महाराजा के अंगूली से अँगूठी गिरी ००.०० शरीर की शोभा बाहा पदार्थों में है। जो शोभा एक दिन अवश्य नष्ट होनेवाली है। अनित्य भावना भाते केवलज्ञान हुआ। स्वास्थ्य बिमारी जवानी बुढ़ापा सुख से फूलना, दुःख से मुझोना मत ००० पुष्पित पुष्य (फूल) शाम को मुझति देश्ये सुख दुःख सुख भी क्षणिक तो दुःख भी क्षणिक है। हमें दुनिया में हमेशा के लिए बचा नहीं सकते अशरण 12 भावना (अनुप्रेक्षा) दूःखसे संसार में कोई सच्चा शरण देनेवाला नहीं है। यूं सोच अनाथिमुनि ने दीक्षा ली साथ में श्रेणिकराजा को भी बोध दिया। सांसारिक तमाम वस्तु जीवों को शरण देने में समर्थ नहीं डॉक्टर-दवाई-सैनिक बचाते है है,इबाहुआदूसरे को कैसे उबार सकता है। टेम्पररी सुख प्रदान करते है स्वयं नष्ट होता हो वह परायें को आश्चत कैसे कर। कितु परमानेन्ट सुख तो सकता है? देव-गुरू-धर्म की शरण से प्राप्त होता है। सच्चा शरण एकमात्र देव-गुरू तथा धर्म का है। रोग से दुश्मनों से संसार SAT संसार में रही हुई असारता देव-मनुष्ट-तिर्यंचनरकगतिकूप संसार में जीव कर्मवश परिभ्रमण करता है। विष से ग्रस्त व्यक्ति को कडुआ नीम भी मधुर लगता है। वैसे मोहविक से ग्रस्त जीवों को दुश्वमय संसार भी सुहाता है अत एव जीव दुःखों से ग्रस्त बनकर संसार । में भटकते है। संसार में लिप्त जीवों को दुःस्वी देखकर तथा धर्म से युक्त जीवों की सद्गति यावत् मुक्ति जानकर एक धर्म ही कर्तव्य है। संसार में सारभूत श्री जिनधर्म ही है। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकत्व जीव आया तब अकेला जायेगा तब भी अकेला आया लेकर खाली हाथ जायेगा लेकर खाली हाथ ॥ यह मेरा मैं इसका मालिक यह सब चीजे है क्षणिक न चलेगी साथ तेरे यहाँ से आया तब लाया था कहाँ से ? नमि राजर्षि को बिमारी में बोध हुआ ..! जहाँ अनेक है वहाँ कलेश है - आवाज है।। जहाँ एक है वहाँ सुख है - शान्ति है। तेरा साथी कोन है ? रेल गंदे शरीर में हम क्यों बंधे है ? शरीर अशुचि एवं अपवित्रता का भंडार है । आज जिसे हम बार-बार संवारते है वह शरीर क्षीण होने के स्वभाववाला है अशुचि से भरा हुआ है, मेक-अप करने के बाद भी कुछ समय के पश्चात् इसमें से बदबू आती है ऐसे शरीर पर हमें मोह क्यों करना ? गौरी चमड़ी के नीचे गंदगी दबी हुई है। चमड़ी छिद्र, नाककान-आँख-मुँह-गुदा आदि से मल श्लेष्म पसीना आदि निकलता रहता है। शरीर अशुचि एवं मल का भंडार है अशुचि कर्मों से लिप्त जीव शरीर प्राप्त करते है। शरीर के कारण विविध प्रकार की वेदना यातना भुगतनी पड़ती है किंतु आत्मा देह से भिन्न है यह विचारधारा हमें दुःख में दीन नहीं बनायेगी तो सुख में लीन नहीं बनने देगी। "मैं शरीर से भिन्न हूँ तो शरीर मेरे से भिन्न है।" अन्यत्व 0000000000000000000000000000000000000000000000dacodc0000000000000000000000dsunloinandanowanlonotvN ARAAAAAAAAAAAAAAAAAEOSसालसाला Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्रव संवर संसार में स्थित प्राणीयों को निरंतर अविरति-मिथ्यात्व-प्रमादकषाय तथा योग के कारण कर्म का आश्रव होता है। यह आश्रव । जीव को दुःख देने वाला है प्रभु द्वारा उपदिष्ट विरति-नियमपच्चकवाण के द्वारा आते हुए इन कर्मों को हम रोक सकते। | पूण्य - पाप दोनों परमार्थ से आत्मा को । अहितकर है। संवर कर्मों को रोकने का उपाय है। सामायिक प्रतिक्रमण इत्यादि। क्रिया के द्वारा जीव पर आते हुए कर्मों को रोक सकते है। नाव में छिद्र के द्वारा पानी का आगमन होता है वहीं छिद्र को ढकने से संवरित करने से आता हुआ पानी रूक जाता है। सम्यग दर्शन-ज्ञान-चास्त्रि द्वारा मिथ्यात्व आदि आश्रव द्वाररूकते है। निर्जरा निर्जरा यानि कर्मों को साफ करना । नाव में धूंसे हुए प्रविष्ट पानी को उलचना । तप के द्वारा बंधे हुए कर्मों को साफ किया जाता है। तप एक अद्वितीय शस्त्र है जो निकाचित तो अनिकाचित कर्मों को भी काटता है। यह तप बारह भेद से विभिन्न बताया गया है। अर्जुनमाली यक्ष के प्रविष्ट हो जाने के पश्चात् प्रतिदिन जो पंचेन्द्रिय मनुष्यों का घात करनेवाला घोर पापी था। प्रभू उपदेश से प्रतिबुद्ध होकर संयम का स्वीकार किया। तप - तपकर कर्मों का सफाया किया ... और मुक्ति सु स्व को प्राप्त कर गया। | HAMROHOROB0000000शिवम Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NADU लोक स्वभाव विश्च 14 राजलोकमय है, दुनिया से बहार अलोक है, विश्व में उर्वलोक - मध्यलोक तथा अधोलोक आया हुआ है। दुनिया का आकार कैसा? तुम खड़े रहो, दो पैर चौड़े करो और दोनों हाथों को कमर पर टिका दो। संपूर्ण जगत का चिंतन करना । विश्च छः द्रव्यों के समूह से अवस्थित है। देव-नारकमनुष्य तथा पशुजहाँ रहे हुए है। लोक की विचारधारा हमारे मन को एकाग्र बनाती है। विश्व का चिंतन हमें बोध प्रदान करता है सम्यक बोध से शोध होती है, शोध से शुद्धि होती है। लोक को किसी ने बनाया नहीं है, किसी ने टिका के रखा नहीं है तो न कोई इसका नाश कर सकता है। अनादि अनन्तकाल से है और रहेगा। जैसे शिवराजर्षि को विभंग ज्ञान से विपरित ज्ञान हा था प्रभु ने सही तत्त्व दिखाया। बोधि दुर्लभ प्रभु ऋषभ ने सभी पुत्रों को समझाया कि यह धर्मरत्न की प्राप्ति बड़ी मुश्किल से होती है। धन-राज्य से कभी तृप्ति नहीं होती ... इस रत्नत्रयी को ही स्वीकार करने हेतु उद्यम करना चाहिये। अन्य देवी देवता को छोड़कर वीतराग प्रभु पर श्रद्धा रत्नत्रयीकी प्राप्तिदर्लभ संसार में विविध गतियों में, चौरासी लाख योनियों के अंदर भटकते जीव को सद्धर्मरत्नों की प्राप्ति दुर्लभ है। सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यग् चारित्र की प्राप्ति अनंत पुण्य राशि एकत्रित होने पर होती है। मिथ्या दृष्टि मंद कषाय से नवग्रैवेयक तक | जाते है कितु यथार्थ स्वानुभव करके 'समझा नहीं अत: बोधि प्राप्ति दुर्लभ है।। धर्म दुर्लभ धर्म दुर्गति में गिरते प्राणी को जो बचा लेता है तो साथ में सद्गति में स्थापित करता है।। धर्म इस जगत में उत्कृष्ट मंगल है, धर्म हमारे लिए कल्याणकारी है धर्म सभी जीवों का परम हितकारी है धर्म वृक्ष जीव धर्म की शरण से मोक्ष सुख को प्राप्त करता है। धर्म के प्रभाव से सूख की प्राप्ति तथा अनुकूलताएं मिलती है। संसार में जितना। भी सुख मिल रहा है वह पूर्व भव में किया हुआ धर्म का प्रभाव समझना चाहिए। ___एक बार गँवाने पर पुनः मिलना दुर्लभ है। ROMANOOOOOOOOOOO Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Piee 30000000000000000000000 COOPE पांच इन्द्रिया हाथी हाथिनी को देख कर आकर्षित होता है। उसे पाने के लिए भागता है बीच में खड्डा आने से गिरता है और महावत के बंधन को प्राप्त करता है । रसनेन्द्रिय में आसक्त मछली आटे की गोली को खाने के लालच में अंदर रहे कांटे में बिंधती है और मृत्यु को प्राप्त करती है । सुंघने में आसक्त बना भंवरा कमल में सूर्यास्त के पश्चात् बंद हो जाता है और हाथी उस कमल को उखाड़ कर नष्ट करता है । दिपक की ज्योत को देखकर तीतली उसे पाने हेतु निकट पहुँचती है और दिपक की ज्योत में स्वाहा हो जाती है। शिकारी द्वारा सुनाये गये मधुर वाद्य यंत्रो के कर्ण प्रिय नाद को सुनकर हिरण बंधन को प्राप्त करते है । एक-एक इन्द्रिय में आसक्त बंधन और मृत्यु को प्राप्त करते हैं तो पाँचों इन्द्रियों में आसक्त है उनका क्या होगा ? Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ இவரு இருவரும் 卐 बावीस अभक्ष्य ॥ शहद मक्खन मांस मदिरा बर्फ ओले जहर मिट्टी गिला अचार रात्रि भोजन द्विदल चलित रस बहुबीज बैंगन तुच्छ फल अनजान फल बड़ के टेटे पीपल केटेटे उंबरा के टेटे काले उंबरे के टेटे प्लक्ष की टेटी अनन्तकाय 22 अभक्ष्य के अंतर्गत 4 महा विगई शहद-मक्खन-मांस-मदिरा, 4 तुच्छ चिजें बर्फ-ओले-जहर-मिट्टी, 4 संयोजित अभक्ष्य-गिला अचार (कड़ी धूप मे सुखाया नहीं हो एसे कच्चे आम आदि के टुकड़े का अचार)-रात्रि भोजन-द्विदल (कच्चे दूध-दही-छास के साथ में दलहन मिलने से जीव उत्पत्ति होती है) चलित रस (बासी भोजन-स्वाद जिसका । बिगड़ गया हो ऐसी मिठाईयां पकवान आदि)4 फल बहुबीज-बेंगन-तुच्छ फल (सीताफल, बैर आदि जिसमे खाना कम और फैकना ज्यादा हो)-अनजान फल, 5 प्रकार के बड़ वृक्ष के फल ? (इनके फलों में अनेक उड़ते त्रस जीव पाये जाते है।) अनन्तकाय (जिसमें अनन्त जीव है जैसे जमीकंद-काई आदि)। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत्तीस अनन्तकाय हरी हल्दी हरा अदरक सूरण कंद शतावरी की बेल लहसुन गाजर गुवारपाठा थुअर गरमर मुली के पांचों अंग भूमि कंद वज कंद हरा कचुरा विराली की लता मशरूम कोमल ईमली बांस करेला लुणी आलू-रतालू-पिंडालू वत्थुला की भाजी लोढक किसलय खिरसुआ कंद थेग लुण वृक्ष की छाल हरी मोथ गिलोय खिलोड़ा कंद सुअर वल्ली अंकुरित धान अमृत वेल पाक भाजी प्याज। अनन्तकायनात अन्यभी.... पालक की भाजी। खाद्य पदार्थ पर होती फफूंद। आलू की चिप्स इत्यादि का भी त्याग करना ।। उगती हुई सभी वनस्पति पूर्व में अनंतकाय होती है। वर्षा आदि का पानी पड़ा रह जाने से उन्स जगह हो जाती काई। लडू आदि भी तोड़कर - देखकर वापरना चाहिए अन्यथा अंदर फफूंद की संभावना है। । पर्व, तोड़ने पर समान भाग, पत्तों में दूध इत्यादि अनन्तकाय के लक्षण दिखाये है।। AADINCINGAANEL alocOCOCOCOCCTIONARTACCIDCOOOOOOOOOOOGOALCUTTOOOOOOOOOOOOOOLIOCIOLOGICC COCODAICOM ICCIOLOROCCOLLuccoulouTICS DOCOCCOOCOLICODARA Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु पूजा करना CROSS धर्म कहाँ और पाप कहाँ ? पहचानों टीवी, सिनेमा देखना पतंग उड़ाना X दुःखी की सेवा X X होली खेलना सुपात्र दान फटाके फोड़ तीर्थ यात्रा करना X क्षमा करना X LG गुरू आदर, वन्दन स्वीमिंग करना लड़ाई करना Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 जैन दर्शनानुसार卐 सही जानिये.... समजिये.... MADHAN 01 जैसे वानर को पूंछ और विकृत मुन्न है वैसे हनुमान के पूंछ और विकृत मुस्ख नहीं था। 02 जैसे राम को एक मस्तक वैसे रावण को भी एक मस्तकथा। 03 जैसे बाल नारंगी की तरह गोल है वैसे पृथ्वी थाली की तरह गोल है। 04 जैसे भव्य जीवों में मोक्ष में जाने की योग्यता है वैसे अभव्य जीवों में मोक्ष में जाने की अयोग्यता है। 05 प्रभु वीर ने जिस तरह से चंडकौशिक को प्रतिबोधित किया था | मुनिसुव्रतस्वामी ने उसी तरह से अश्व को प्रतिबोधित किया। 06 जैसे तीर्थंकर की माता 14 स्वप्न देखती है वैसे ही चक्रवर्ती की माता 14 स्वप्न देखती है। 07 जैसे धर्म करनेवाले देवलोक में वैसे पाप करने वाले नरक में | जाते है। 08 जैसे नरक सात है वैसे देवलोक बारह है। 09 शत्रुजयगिरि के कंकर-कंकर से अनंत आत्माएँ मोक्ष में गई है वैसे इस अवसर्पिणी काल में 20 करोड़ मुनि के साथ 5 पाण्डव भी मोक्ष में गये है। 10 जैसे शत्रुजयगिरि शाश्वत है वैसे मेरू गिरिभी शाश्वत है। 11 जैसे धन्नाशा ने राणकपुर तीर्थ में जिन मन्दिर का निमणि करवाया वैसे भरत चक्रवर्ती ने अष्टापद पर जिन मन्दिर का निर्माण करवाया है। 12 जम्बूदीप में सूर्य और चन्द्र 2-2 है। मेरुपर्वत 0000000000000OOD Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म का मूल है - दया जहाँ प्रेम वहाँ त्याग होगा ही। त्याग न होता हो 66जीवों का सत्कार तथा तो प्रेम दंभ है लेकिन इससे बढ़कर पापों का धिक्कार यह है श्रद्धा मेरा जैसा स्वरूप है येसा ही सबका है जैन धर्म का मौलिक विचार है। यह भाव ही दयाभाव को जागृत स्वता है। जैन धर्म सागर है, अन्य धर्म नदी है समुद्र में नदी समाविष्ट है, नदी में समुद्र नहीं ११ वीतराग परमात्माने आंशिक दया नहीं संपूर्णतया जीवों के प्रति दयाभाव दिखाया है। पार्श्वकुमार को पता चला कि नगर के बाहर संन्यासी चारों ओर काष्ठ की चिता जलाकर बीच में पंचामि तप कर रहा है। तो वहाँ जाकर कहाँ कि-जिन धर्म में क्या नहीं वह धर्म, धर्म नहीं है। जलते काष्ठ से जागनागिन को बाहर निकलवाया। सर्पयुगल पर क्या करके न वकार महामंत्र सुनाया। जिसके प्रभाव से मस्कर धरणेन्द्र-पद्मावती के रूप में प्रगट हुए। घड़ी का एक छोटा स्थू निकल गया कि घड़ी बंद। हमारी जीवन शेर पानी घड़ी भी ऐसा ही है 1 जीव का धिक्कार में प्रतिबिंबित अपने जैसे आराधना घड़ी बंद, 1 जीव अन्य शेर को देखक मारने हेतु का सत्कार आराधना तत्पर हुआ और वह स्वयं ही मर गया। अन्य घड़ी शुरू। जीवों को मारना अर्थात् स्वयं को ही दंडीत करना..०। क्योंकि उसका फल कभी न कभी हमें ही भुगतना है। जैसा बोओगे वैसा पाओगे। BIOHDBHO0000000000HRANDROIRADHANRAJENDAR AWARRIBE 20000GGCSCRIODG00000 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमोदसण दीपावली पर्व प्रभु वीर का निर्वाण दिन, पावापुरी तीर्थ में अंतीम 16 प्रहर 48 घंटे की देशना देकर भव्य जीवों को आगामी भावी के भावों को दिखाया। प्रभुवीर के अत्यन्त ही निकट के श्री गौतमस्वामी को उस समय देवशर्मा को प्रतिबोध हेतु भेजा, जहाँ पर देवशर्मा को शाश्वती प्रभु की आज्ञा से प्रतिबोध किया। उस समय वीर निवणि के समाचार मिलते ही नवपद गौतम स्वामी विलाप करने लगे आखिर में भान हुआ प्रभु वीतरागी है, आयंबिल की मैं रागी था...। राग दूर हुआ और उनकों भी केवलज्ञान हुआ। अनंत ओली एक वर्ष में दो लब्धिनिधान श्री गौतमस्वामी का रास नूतन वर्ष पर सुनते बार आती हैं इसकी है। नव स्मरण का पाठ करके शुभ संकल्प करना चाहिए। आराधना आसोज सुदी दीपावली एवं नूतनवर्ष से प्रारंभ की जाती है। यह पर्व शाश्वत है। भरत क्षेत्र तो साथ में महाविदेह Elə(Uoli क्षेत्रों में भी इसकी आराधना की सिद्धचक्र यंत्र यंत्राधिराज है नवकार मंत्र मंत्राधिराज है ॥ भगवान महावीर निर्वाण कल्याणक। शत्रुजय तीर्थ तीर्थाधिराज है तो पर्युषण पर्व पर्वाधिराज है इस महापर्व में साधर्मिकों का मेला सा लगता है, दान-शील-तप तथा भाव धर्म की साधना इन दिनों में अधिक की जाती है। जीवदया साधर्मिक भक्ति तथा क्षमापना जैसे कर्तव्यों का पालन इन दिनों में किया जाता है। कल्पसूत्र शास्त्र का गुरू मुख से श्रवण किया जाता है। क्षमा पर्व जाती है। करीबन 11 लाख वर्ष पूर्व में श्री श्रीपाल अक्षय तृतीया और मयणा सुन्दरी ने इसकी आराधना करी थी। आधि-व्याधि तथा उपाधि-हर्ता यह सिद्धचक्र का अपूर्व इस अवसर्पिणी काल में अज्ञान अंधकार को दूर करने वाले प्रभाव है। सर्व प्रथम राजा,प्रथम साधु, प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव भगवान । दीक्षा नवपद के पश्चात प्रभु रोज भिक्षा हेतु निकलते है किंतु दान धर्म (सुपात्र दान) से अनजान लोग भिक्षा में हीरा-मोती-माणेक-जवेरात-स्त्री आदि देते थे जबकि इन चीजों का खप प्रभ को नहीं था ....400 दिन के उपवास हो गये श्री श्रेयांसकमार को प्रभ के दर्शन से जातिस्मरण ज्ञान हुआ। ज्ञान से प्रभु आहार हेतु भ्रमण कर रहे है यह जानकर ताजे भेट आए हुए निषि 108 इक्षुरस के घड़ों से पारणा करवाया। उसी स्मृति में आज वर्षांतप किया जाता है उसका पारणा प्रभु ने आज के मंगलकारी दिन आखातीज को हस्तिनापुर में किया था। हम भी यह तप करें। उहा tal182 EMAIRATIO NATIO AIROICODCOMICCOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOCOLLECTION Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐इन पर्वो को मनाये अपूर्व रूप से चरम शासनपति प्रभु जैन ध्वज वंदन महावीर स्वामी ने संसार का त्याग करके । तर्ज : वंदे मातरम् चारित्र जीवन का स्वीकार किया दीक्षा लेने प्रत्येक पर्यों में शासन गीत का सूर हो के बाद लेटना नहीं, बोलना नहीं, बैठना । प्रत्येक व्यक्ति के मुहँ पर शासन का नूर हो नहीं, त्रिसूत्री साधना का शुभारंभ हुआ, साढ़े। महावीर की संतान है, हम महावीर के अनुयायी है। बारह साल की सुदीर्घ भीष्म तपश्चर्या के पश्चात सारे जग में वीर प्रभु का, शासन जय जयकार है । वैशाख सुदी दशमी को प्रभु ने केवलज्ञान पाया। जैनम् जयति शासनम् ।। 1|| समवसरण की रचना हुई प्रथम देशना में किसी को सब जीवों की रक्षा करना, महावीर का आदेश है। विरति का परिणाम जागृत नहीं हुआ अत: प्रथम दया हमारा धर्म है, क्षमा हमारा कर्म है । देशना निष्फल मानी गई किंतु दुसरे ही दिन । सारे जग में वीर प्रभु का .... ।। 2।। इन्द्रभूति आदि कुल ग्यारह गणधर उनके शिष्यों रोहणिया जैसा चोर लुटेरा, उसको प्रभु ने तारा था, सहित 4400 को संयम देकर एक साथ पूर्ति कर दी ... अर्जुनमाली था घोर पापी, उसको भी उगारा था । वैशाख सुदी 11 के दिन शासन की स्थापना हुई... । क्रोधी विषधर चण्डकौशिक को, प्रभु ने ही सुधारा था । प्रभु ने मोक्षमार्ग का प्रवर्तन किया, इस दिन हम भी भव्य आओ झण्डा जिनशासन का, फहराने की बारी है। रूपये सभी मिलकर शासन स्थापना दिन मनाये।। सारे जग में वीर प्रभु का .... ।। 3|| मिटा देंगे हम हस्ती उनकी, जो हमसे टकरायेगा । अहिंसा की टक्कर में देखों, हिंसा नाम मिट जाएगा। गली-गली और गाँव-गाँव में, बच्चा-बच्चा गाएगा। वैशाख सुदी 11 वीर प्रभु का शासन पाकर, मुक्ति सुख को पाएगा । शासन स्थापना दिन सारे जग में वीर प्रभु का ००० ।। 4|| ना समझो तुम कायर हमको, हम शेरों के भी शेर है। न्यौछावर कर देंगे तन-मन, वीरों के भी वीर है। प्राण फना हो जावे चाहे, मरने को वडवीर है। जिनशासन का झण्डा ऊँचा, लहराओ तैयारी है || सारे जग में वीर प्रभु का ०००० ।। 5।। आज से करीबन 2600 वर्ष पूर्व प्रभुवीर का जन्म क्षत्रिय कुण्ड नगर में हुआ... मध्य रात्रि में अज्ञान के अंधकार को मिटाने दिव्य प्रकाश पुंज का जन्म हुआ। प्रभू ने जन्म लिया तब देवी-देवता-इन्द्र-नरेन्द्र सभी आनंदीत हुए और मेरू पर ले जाकर देवों ने जन्माभिषेक किया। हम भी सभी जीवों को सुख देने वाले इस कल्याणक पर्व को ० प्रभुवीर की भव्य अंगरचना-झाकियों से युक्त विराट रथयात्रा, पंज अनुकंपा दान आदि से शासन प्रभावनायुक्त मनाकर वीरशासन की वृद्धि एवं प्रभावना करें। का जन्म कल्याणक Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खोजती अग्नि पवित्र मानी गई है उसे फूंककर बुझाना जन्मदिन पर दिया (मोमबत्ती) बुझाना हमारी परंपरा नहीं है। हमारी परंपरा नहीं है मन्दिर में भी अखंड दिपक को प्रगट स्वने हेतु व्यवस्था करते है। केक काटना हमारी संस्कृति नहीं हमारी संस्कृति जोड़ने की है। नवरात्रि घर का पुत्र मरने पर कहते है दिपक-चिराग बुझ का विचित्र चित्र गया। जन्मदिन पर दिया बुझाकर, केक काटकर हम पूर्व काल में सिर्फ बहनों के द्वारा अपशूकन क्यों करें? देवी के फोटूया प्रतिमा के सामने शिस्तपूर्वक धार्मिक आयोजन, तीर्थयात्रा, दानादि संकल्प शालिन वस्रों में गरबे-रास खेले जाते थे। से हमें जन्मदिन सफल करना है। किंतु आज पूर्णरूप से जिसमें विकृति छा या....फिर? गयी है ऐसी नवरात्रि से हमें बचना है, सोंचे! उदट वस्रों में युवक-युवतियाँ रात्रि में साथ में नाचते है जो बिलकुल अनुचित हैं। विलासी वातावरण, विजातिय का संग और अभद्रउट वेष ऐसे वातावरण में आप अपने संतानों को भेज रहे हो तो सोचिए पवित्रता अपने संतान टिका पाएंगे नवरात्रि लवरात्रि बनकर कहीं हमें भवयात्री न बना 31 दिसम्बर पाप का अंबर-दुर्गति में नंबर जावे? 14 जनवरी-मकर संक्रान्ति थर्टी फस्ट के रूप में अभी-अभी नया भारत देश में प्रचलित बच्चे से लगाकर बड़े तक छत हुआ यह दिन अंग्रेजों का त्यौहार है हमारा नहीं। प्रचूर पर चढ़कर पतंग उड़ाने का पापलीला जिसमें बढ़ रही हो ऐसे दिन हम क्यों मनाये आनन्द लूटते है कि यह डी.जे. साउण्ड पार्टी में मौज-मस्ती, उत्तेजित आनंद कई पक्षीयों के जीवन करनेवाला पूरा वातावरण तथा मध्यरात्रि में जीने का आनन्द लूट लेता है। सबकुछ करने की दी जाती 1 मिनिट की छूट काँच से तीक्ष्ण बनी डोरी-धागा ... यह हमारी पवित्रता को लूट रहा है मूक पक्षीयों के उड़ान मार्ग में ... सोचिए ? अपन यह दिन अप्रेल फूल अवरोध सर्जता है... पंख-गले आदि मना सकते है क्या ? थी प्रभु महावीर ने कट जाते है, पांव में पंजे में धागा फँसने पर। अठारह पापस्थानक बताये है । नीचे गिर जाते है जहाँ मूक जीवों की कुते आदि जिसमें दूसरा पापस्थानक है मृषावाद । प्राणी द्वारा जान चली जाती है। इन पैसों से। अर्थात् झूठ बोलना। इस दिन मजाक में झूठ। अगर जीवदया की जावे तो ? बोला जाता है फिर भी वह असत्य भाषण सोचे! होने से पाप है। कभी कभार आघात जनक वचन भारभूत बन जाते है। दो देवों में आकर। स्नेह परिक्षा हेतु लक्ष्मण को राम के मरने के। समाचार दिये और भातृप्रेम से लक्ष्मण की वही आयु पूर्ण हो गई। अत: महाअनर्थकारी असत्य वचन का त्याग कर सत्यहितकारी-प्रिय वचन बोलना चाहिए। क्यों ००० ! अप्रेल फूल नहीं करोंगे ना ? एक प्रश्नावली COY NPRAPE APRIL Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन दर्शन प्रतिदिन सुबह-शाम जिनदर्शन करना मधुर स्वरों से प्रार्थना करनी चाहिए भगवान परमोपकारी-हितकारी तो सुखकारी प्रभु [के दर्शन से दुःखों का नाश होता है। प्रतिक्रमण घर एवं शरीर स्वच्छ न करें तो गंदगी से भर जाता है। वैसे आत्मा पर प्रतिदिन लगता कर्म का कचरा रोज प्रतिक्रमण करके साफ करना चाहिए अन्यथा आत्मा मलिन हो जाती है। दिन के पाप मिटाने शाम का तो रात के पापों की शुद्धि हेतु सुबह का प्रतिक्रमण करना चाहिये । जिन पूजा रोज खेलते है, न्हाते है, पेटपूजा करते है प्रभु पूजा? प्रतिदिन स्वच्छ नये अच्छे कपड़े पहनकर पूजा करनी चाहिए पूजा करने से इच्छित प्राप्ति तो मोक्ष सुख भी मिलता है। क्या हम भूल सकते है ? पाठशाला गमन शरीर मजबूत बनाने जीमखाना- व्यायामशाला हम जाते हैं किंतु आत्मा को पुष्ट करने सद्ज्ञान की प्राप्ति हेतु प्रतिदिन पाठशाला जाना चाहिए। जहाँ हमें विनय- विवेक तथा अच्छे संस्कार प्राप्त होते हैं । गुरूओं का विनय करना चाहिए। सामायिक समता पूर्वक 48 मिनिट तक की जाती यह क्रिया है। ऊनी बेटके पर धूली हुई धोती या कपड़े पहनकर चरवला-मुहपत्ति लेकर शांतिपूर्वक करना चाहिए। विकथा - कषाय तथा हंसनादौड़ना-खाना-पीना त्याग करना चाहिए। एक सामायिक से 925925925 पल्योपम का दिव्य सुख प्राप्त होता है। एक पल्योपम = असंख्य वर्ष प्रवचन श्रवण हमें नित्य शुद्ध मुख से विनय पूर्वक जिनवाणी का श्रवण करना चाहिए। उपदेश श्रवण से उन्मार्ग का उन्मूलन तथा सन्मार्ग की प्राप्ति होती है। तृप्त मन को शान्ति तथा जीवन में वैराग्य जागृत होता है। जिनवचन श्रवण से जीवन वन उपवन बनता है। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरू वंदन गरम पानी माता पिता के चरण स्पर्श पाँच महाव्रतधारी साधु-साध्वीजी भगवंतों के चरणों में हमें वन्दना करनी चाहिए। जिससे पापों की निकंदना होती है। श्री कृष्ण महाराजा ने 18000 साधूओं को भाव श्रद्धा पूर्वक बदन किए जिसके प्रभाव से 7वीं नरक के योग्य कर्मों को 4 नरक तोड़कर 3री नरक योग्य हो गये। पानी छानकर फिर उसे उबालना चाहिए। पानी को चाय की तरह 3 उबाले लाकर गरम करना चाहिए। आजकल डॉक्टर भी गरम पानी पीने हेतु कहते है जबकि परमपिता प्रभु ने बताया कि उबले पानी में अमूक घंटे तक नये जीव पैदा नहीं होते है ऐसा पानी ठण्डा करके हमें (अनुकुलतानुसार) वापरना चाहिए। वेस्ट यूज नहीं करना कम से कम उपयोग करते निर्वाह करना चाहिए। प्रतिदिन प्रात: उठकर माँ-बाप के चरणों में गिरकर चरण स्पर्श करके आशीर्वाद लेना चाहिए उनकी कृपा से हमें कार्यों में सफलता मिलती है। तीर्थकर प्रभूवीर भी माँ-बाप का विनय-औचित्य करते थे। तो हम क्यों नहीं? क्या हम भुलसकते है? तीर्थ यात्रा रात्रि चिंतन प्राप्ति स्थान श्री जैaamai શવા શાય તીથી पोस्ट - मेवानगर -344025 स्टेशन - बालोतरा, जिला-बाड़मेर (राज.) मोबा. : 02988-240005 मुद्रक हील स्टेशन पिकनिक पॉइन्ट, एसएलवर्ल्ड इत्यादि मौज-मस्ती के स्थान हमारे लिए अशुभ कर्म बंध का कारण बनता है तो कल्याणक भूमि की स्पर्शना प्राचीन जैन तीर्थों की यात्रा हमारे अशुभ कर्मों का क्षय करती है सम्यग्दर्शन की प्राप्ति तथा उसे निर्मल बनाती है। 'सोने के पूर्व चार (अरिहंत-सिद्ध-साधु तथा धर्म) का शरण स्वीकार करना। रात्रि में काल कर जाऊँ तो आगार, उपधि-देह को छोड़ता हूँ। अर्थात् उससे अब मुझे कोई निस्बत नहीं है। मुर्छा का त्याग करके. बाई करवट, पश्चिम में। सिर तथा दक्षिण में पाँव न करते हुए प्रातः / जल्दी उठने के प्रण के साथ सोना प्रात: उठकर मैं कहाँ से आया हूँ कहाँ जाने वाला हूँ ? मुझे क्या करना शेष है ? इत्यादि धर्मचिंतन करना सोते सात भय दूर करने ) तथा उठते आठ (कर्मनाश हेतु) नवकार गिनना। मनोवलोद 182, कस्तुरबा नगर, मेन रोड़ रतलाम - 457 001 (म. प्र.) फोन : 089895-26699 093291-70999 Email:: manojlodha9@gmail.com DOODURGGup OLGOODOOGICCRIOCONDIAN E MAINonfine