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आध्यात्मिक भजन संग्रह
संकलन व सम्पादन : सौभाग्यमल जैन
प्रकाशक:
पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट
ए-४, बापूनगर, जयपुर ३०२०१५
AnsanjiJain Bhajan Book puns
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२ हजार
प्रथम संस्करण (१५ सितम्बर, २००६)
हिन्दी दिवस
मूल्य : बीस रुपये
सम्पादकीय 'आध्यात्मिक भजन संग्रह' का प्रकाशन पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट जैसी प्रभावी संस्था से होना अपने आप में गौरव का विषय है।
मझे बचपन से ही आध्यात्मिक भजनों से लगाव था। अक्सर मैं इन भजनों को पढ़ता और फिर मन ही मन गुनगुनाता रहता था। अनेक भजन इस वृद्धावस्था में भी मुझे याद है, और विशिष्ठ दिनों के बाद याद हुये भजनों को मैं दोहराता रहता हूँ।
जिसतरह आचार्य प्रणीत ग्रन्थों की श्रद्धा मेरी दृढ़ है उसी तरह भजनों के सम्बन्ध में भी मेरे हृदय में अत्यन्त दृढ़ श्रद्धा है। आचार्य प्रणीत ग्रन्थों का यह भाव इन महाकवियों ने अपने सुलभ शब्दों में अपने व जनसामान्य के लिए सुलभ बनाया है। इस भजन संग्रह के संपादन के निमित्त से मुझे इन भजनों का पुनः-पुनः अध्ययन करने का मोका मिला। प्रूफ देखने के निमित्त से भी मेरा इन भजनों का स्वाध्याय होता रहा । इसका मुझे सात्विक आनन्द है। अनेक वर्षों से टोडरमल स्मारक ट्रस्ट का मुख्य रीति से डॉ. भारिल्ल साहब का साधार्मिकपने का सम्बन्ध उनके जयपुर के आगमन काल से रहा। मैं तो उनका विद्यार्थी बनकर अनेक विषयों का अध्ययन कर चुका हूँ। ___करीब बीस वर्ष से ब्र. यशपालजी जैन का भी मेरे साथ विशिष्ठ साधार्मिकपने के साथ अपनापन का भी सम्बन्ध बना रहा। इसी कारण से उनके प्रेमपूर्ण आग्रह से भजन संग्रह का सम्पादन का कार्य मैंने किया है।
श्री मोहनलालजी सेठी की भावना भी एक आध्यात्मिक भजन संग्रह टोडरमल स्मारक से प्रकाशित हो, यह भावना थी। उनकी भावना के अनुसार भी मैंने यह प्रयास किया है।
श्री विनयचन्दजी पापड़ीवाल के विचारानुसार कुछ विशिष्ठ भजनों की सी.डी. बनाने का भी भाव है। उस सम्बन्ध में भविष्य ही निर्णय करेगा। मेरी इच्छा के अनुसार यह काम हो गया, इसका मुझे आनन्द है।
-सौभाग्यमल जैन, सी-१०७, सावित्री पथ, बापूनगर, जयपुर
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मुद्रक : प्रिन्ट औ लैण्ड
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बाईस गोदाम, जयपुर
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कविवरों का जीवन परिचय कविवर द्यानतरायजी :- सत्रहवीं शताब्दी के हिन्दी प्रमुख जैन कवियों में कविवर द्यानतराय प्रमुख थे। आपका जन्म वि. सं. १७३३ (सन् १९७६) में आगरा में हुआ। आपके पूर्वज लालपुर से आकर आगरा में निवास करने लगे थे। आपके पितामह का नाम वीरदास था जो अग्रवाल जाति के गोयल गोत्रीय थे। आपके पिता का नाम श्यामदास था। उस समय आगरा में पं. बनारसीदासजी का अच्छा प्रभाव था और परम्परागत आध्यात्मिक शैली प्रभावशील थीं। आपने पण्डित मानसिंहजी द्वारा संचालित धर्मशैली से भरपूर लाभ उठाया। आप पर पण्डित मानसिंहजी के अतिरिक्त पण्डित बिहारीदासजी के उपदेशों का भी प्रभाव था जिसके कारण आपकी जैनधर्म के प्रति अगाध श्रद्धा दृढ़ हुई। आपने अपना सारा जीवन अध्यात्म की सेवा में लगा दिया।
आपकी रचनाओं में पूजा-पाठ, स्तोत्र तथा भजन प्रमुखता से हैं। आपके आध्यात्मिक भजन 'द्यानत विलास' के नाम से संग्रहीत हैं।
आपका निधन वि.सं. १७८५ (सन् १७२८ ई.) में हुआ।
कविवर भूधरदासजी :- आगरा (उ.प्र.) निवासी कविवर भूधरदासजी खण्डेलवाल जाति के प्रकाण्ड विद्वान के साथ-साथ अच्छे प्रवचनकार थे। आप शाहगंज स्थित दिगम्बर जैन मंदिर में नियमित शास्त्र-प्रवचन करते थे। आपका जन्म वि. सं. १७५० (सन् १६९३) एवं निधन सं. १८०६ (सन् १७४९ ई.) में हुआ। __ आपके द्वारा पार्श्वपुराण, जैन शतक एवं भूधर पद संग्रह की रचना की गई है।
पार्श्वपुराण का समापन सं. १७८९ (सन् १७३२) में आगरा में किया गया। इस पुराण में तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ के नौ भवों का सुन्दर चित्रण किया गया है।
जैन शतक में १०७ कवित्त, दोहे, सवैये और छप्पय हैं जो वैराग्यवर्धक रचना हैं।
IV
भूधरदासजी के आध्यात्मिक भजन जीवन में आस्था और विश्वास जागृत करते हैं।
कविवर बुधजनजी :- 'बुधजन' के नाम से प्रसिद्ध कविवर का वास्तविक नाम श्री भदीचन्द्र था। जयपुर निवासी खण्डेलवाल जाति के बजगोत्रज श्री निहालचन्द्रजी के आप तृतीय सुपुत्र थे। आपने विद्याध्ययन टिक्कीवालों का रास्ता निवासी पं. मांगीलालजी के पास किया था। जैनधर्म के प्रति बाल्यकाल से ही आपकी भक्ति थी और श्रावक के षटावश्यकों का यथाशक्ति पालन करते थे। __ आप जयपुर के प्रसिद्ध दीवान अमरचन्द्रजी के मुख्य मुनीम थे, वे आपके कार्य से सदैव सन्तुष्ट रहते थे। दीवानजी की आज्ञा से आपके मार्गदर्शन में ही दो विशाल जिनमन्दिरों का निर्माण हुआ है, जिनमें से एक लालजी सांड के रास्ते में स्थित छोटे दीवानजी का मन्दिर है तथा दूसरा घीवालों के रास्ते का मंदिर आपके नाम से ही भदीचन्द्र का मंदिर विख्यात हुआ है।
आप उच्चकोटि के विद्वान थे। आपकी शास्त्रसभा में अन्य मतावलम्बी भी आते थे, उनकी शंकाओं का समाधान आप बड़ी खूबी के साथ करते थे।
आप उच्चकोटि के कवि भी थे। आपकी कविता का मुख्य विषय भव्य प्राणियों को जैनधर्म के सिद्धान्त सरल भाषा में समझाकर प्रवृत्ति मार्ग से हटाना व निवृत्ति मार्ग में लगाना था। ___ आपके द्वारा रचित चार ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं और वे चारों पद्यमय हैं - १. तत्त्वार्थ बोध २. बुधजन सतसई ३. पंचास्तिकाय ४. बुधजन विलास । इन चारों ग्रन्थों की रचना क्रमशः विक्रम संवत् १८७१, १८७९, १८९१ व १८९२ में
साहित्यिक दृष्टि से आपकी रचनाएँ हिन्दी के वृन्द, रहीम, बिहारी, तुलसी व कबीर आदि प्रसिद्ध कवियों से किसी भी अंश में कम नहीं है।
कविवर दौलतरामजी :- 'छहढाला' जैसी अमर कृति के रचनाकार
पण्डित दौलतरामजी का जन्म वि.सं. १८५५-५६ के मध्य सासनी, जिला- - print हाथरस में हुआ था। उनके पिता का नाम टोडरमलजी था, जो गंगटीवाल
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प्रकाशकीय
गोत्रीय पल्लीवाल जाति के थे। आपने बजाजी का व्यवसाय चुना और अलीगढ़ बस गये।
आपका विवाह अलीगढ़ निवासी चिन्तामणि बजाज की सुपुत्री के साथ हुआ। आपके दो पुत्र हुए, जिनमें बड़े टीकारामजी थे।
दौलतरामजी की दो प्रमुख रचनाएँ हैं - एक तो 'छहढाला' और दूसरी 'दौलत-विलास' । छहढाला ने तो आपको अमरत्व प्रदान किया ही; साथ ही आपने १५० के लगभग आध्यात्मिक पदों की रचना की, जो दौलत-विलास में संग्रहित हैं। सभी पद भावपूर्ण हैं और देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर' की उक्ति को चरितार्थ कर रहे हैं।
'छहढाला' ग्रन्थ का निर्माण वि. सं. १८९१ में हुआ। यह कृति अत्यन्त लोकप्रिय है तथा जन-जन के कंठ का हार बनी हुई है। इस ग्रन्थ में सम्पूर्ण जैनधर्म का मर्म छिपा हुआ है।
वि. सं. १९२३ में मार्ग शीर्ष कृष्णा अमावस्या को पण्डित दौलतरामजी का देहली में स्वर्गवास हो गया।
कविवर भागचन्दजी :- कविवर भागचन्दजी १९वीं शताब्दी के विद्वानों में अग्रणी रहे हैं। आपका जन्म ईसागढ़ जिला-अशोकनगर (म.प्र.) में हुआ। कविवर भागचन्दजी का संस्कृत और हिन्दी भाषा पर समान अधिकार था। दोनों ही भाषा में आपने अपनी काव्य प्रतिभा से सभी को आश्चर्यचकित किया है। आपके जन्म और निधन की सही तिथियों से समाज अभी तक अनभिज्ञ हैं जो खोज का विषय है। अभी तक आपकी छह रचनाएँ जिनका (प्रणयन सम्वत् १९०७ से १९१३ के मध्य हुआ है।) प्राप्त हुई हैं जो निम्न हैं -
(१) महावीराष्टक (२) उपदेशसिद्धान्त रत्नमाला वचनिका (३) प्रमाण परीक्षा वचनिका (४) नेमिनाथ पुराण (५) अमितगति श्रावकाचार वचनिका भाषा (६) ज्ञानसूर्योदय (नाटक) आपके द्वारा रचित ८७ भजन अब तक प्रकाश में आए हैं।
आप प्रतापगढ़ (मालवा), लश्कर (ग्वालियर) तथा जयपुर (राज.) में भी आजीविका के निमित्त आकर रहे हैं। भजनों को पढ़ने से आपकी काव्य प्रतिभा का दिग्दर्शन होता है।
पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, जयपुर के माध्यम से आध्यात्मिक भजन संग्रह का प्रकाशन करते हुए हमें हार्दिक प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है।
भारतीय हिन्दी साहित्य के इतिहास में जैन कवियों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने जैन साहित्य का समुचित मूल्यांकन किया तथा इसे आदिकाल में प्रमुखता दी। डॉ. हरीष ने तो आदिकाल या वीरगाथाकाल का नामकरण ही 'जैनकाल' उचित माना है। डॉ. जयकिशन प्रसाद खण्डेलवाल ने जैन भक्ति काव्य धारा का प्रथम बार निरूपण किया है तथा इसे भक्तिकाल की चार काव्यधाराओं - संत काव्य, सूफी काव्य, कृष्ण भक्ति काव्य और राम भक्ति काव्य के पश्चात् पाँचवी काव्यधारा माना है। राहुल सांस्कृत्यायन जी ने अपभ्रंश को पुरानी हिन्दी मानते हुए महाकवि स्वयंभू को हिन्दी का प्रथम श्रेष्ठ कवि स्वीकार किया है।
१५वीं से १७वीं शताब्दी के काल में प्रचुर मात्रा में जैन साहित्य का निर्माण हुआ। काल विभाजन की दृष्टि से यह भक्तिकाल का समय निरूपित किया गया। इस शताब्दी के प्रमुख कवियों में पं. बनारसीदास, जिनदास एवं पं. भगवतीदास मुख्य रहे हैं। १८वीं शताब्दी के बाद का काल रीति काल की श्रेणी में आता है। इस काल के प्रमुख कवियों में कविवर द्यानतराय, भूधरदास, दौलतराम, बुधजनजी, पं. भागचन्दजी, बुलाकीदास एवं आनन्दघन जैसे कवि प्रमुख हैं।
भक्तिकाल एवं रीतिकाल में प्रमुख जैन कवियों ने हिन्दी को अपना माध्यम बनाकर काव्य रचना की है। आध्यात्मिक भजन संग्रह में इन कवियों की रचनाओं को प्रकाशित किया गया है। सभी कवियों की रचनाएँ एक से बढ़कर एक हैं। विज्ञ पाठक इन रचनाओं को पढ़कर अध्यात्म रस का रसास्वादन करेंगे।
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इस संग्रह के प्रकाशन में श्री सौभाग्यमलजी ने अथक परिश्रम किया है। उनके सम्पादन ने कृति को महत्वपूर्ण बना दिया है, इसके लिए ट्रस्ट उनका हृदय से आभार मानता है। प्राचीन कवियों का साहित्य उपलब्ध कराने में श्री
अनुक्रमणिका विनयचन्दजी पापड़ीवाल का सराहनीय सहयोग रहा है। आकर्षक कलेवर में मुद्रण करने का श्रेय प्रकाशन विभाग के मैनेजर श्री
१. पण्डित द्यानतरायजी कृत भजन ९-५८ अखिल बंसल को जाता है इसके लिए वे बधाई के पात्र हैं। पुस्तक को अल्प
आतम अनुभव कीजै हो... • आतम अनुभवसार हो, अब जिय १३ मूल्य में उपलब्ध कराने का श्रेय दानदातारों को जाता है अतः ट्रस्ट उनको
सार हो प्राणी..... आतम काज सँवारिये, तजि विषय किलोलैं भी धन्यवाद देता है।
आतम जान रे जान रे जान... • आतम जाना, मैं जाना ज्ञानसरूप... १४ आप सभी इस कृति से लाभान्वित हों इसी भावना के साथ -
आतम जानो रे भाई!...... आतम महबूब यार, आतम महबूब... १५ - ब्र. यशपाल जैन, एम.ए.
• आतमरूप अनूपम है, घटमाहिं विराजै हो...
• आपा प्रभू जाना मैं जाना.... प्रकाशन मंत्री, पं. टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, जयपुर
आतमरूप सुहावना, कोई जानै रे भाई । जाके जानत पाइये,
त्रिभुवन ठुकराई....... . आतमज्ञान लखें सुख होइ... कहाँ/क्या?
इस जीवको, यों समझाऊं री!......
ए मेरे मीत! निचीत कहा सोवै...... कर कर आतमहित १. पण्डित द्यानतरायजी कृत भजन ९-५८
रे प्रानी.... • कर रे! कर रे! कर रे!, तू आतम हित कर रे..... २. पण्डित भूधरदासजी कृत भजन ५९-७७
• कर मन! निज-आतम-चिंतौन.......
कारज एक ब्रह्महीसेती.... . घटमें परमातम ध्याइये हो, परम धरम १८ ३. पण्डित बुधजनजी कृत भजन ७८-८७
धनहेत...चेतनजी! तुम जोरत हो धन, सो धन चलत नहीं तुम लार। ४. पण्डित दौलतरामजी कृत भजन ८८-१२९
चेतन! तुम चेतो भाई, तीन जगत के नाथ.. • चेतन प्राणी
चेतिये हो... चेतन! मान ले बात हमारी.... ५. पण्डित भागचन्दजी कृत भजन १३०-१५२
जगतमें सम्यक उत्तम भाई.... जानत क्यों नहिं रे, हे नर ६. श्री सौभाग्यमलजी कृत भजन १५३-१७१
आतमज्ञानी..... • जानो धन्य सो धन्य सो धीर वीरा.... (अजमेर निवासी)
जो तैं आतमहित नहिं कीना..... • तुमको कैसे सुख द्वै मीत!..... २१ ७. विभिन्न कवियों के भजन
१७२-२२३
• तुम चेतन हो....तुम ज्ञानविभव फूली बसन्त, यह मन मधुकर...
देखे सुखी सम्यक्वान.... • देखो भाई! आतमराम विराजै.... २२
. निरविकलप जोति प्रकाश रही...... पायो जी सुख आतम लखकै.. Aananyidaie naye nack pain प्राणी! आतमरूप अनूप है, परतें भिन्न त्रिकाल.... प्राणी! सोऽहं २३
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आध्यात्मिक भजन संग्रह सोऽहं ध्याय हो.....बीतत ये दिन नीके, हमको..... भजो आतमदेव, रे जिय! भजो आतमदेव, लहो... भवि कीजे हो आतमसँभार, राग दोष परिनाम डार... भ्रम्योजी भ्रम्यो, संसार महावन, सुख ..... भाई! अब मैं ऐसा जाना..... भाई कौन कहै घर मेरा..... भाई! ब्रह्मज्ञान नहिं जाना रे.... • भाई! ज्ञान बिना दुख पाया रे भाई! ज्ञानी सोई कहिये...... भैया! सो आतम जानो रे!....... मगन रहु रे! शुद्धातम में मगन रहु रे... मन! मेरे राग भाव निवार.. २८
मैं निज आतम कब ध्याऊँगा...... रे भाई! मोह महा दुखदाता... • लाग रह्यो मन चेतनसों जी.....लागा आतमसों नेहरा.... २९
वे परमादी! तैं आतमराम न जान्यो. • सब जगको प्यारा, चेतनरूप निहारा..... सुन चेतन इक बात.... ३०
सुनो! जैनी लोगो, ज्ञानको पंथ कठिन है..... सो ज्ञाता मेरे मन ३१ माना, जिन निज-निज पर पर जाना • श्रीजिनधर्म सदा जयवन्त.... शुद्ध स्वरूप को वंदना हमारी... हम लागे आतमरामसों..... ३२ हम तो कबहुँ न निज घर आये.... हो भैया मोरे! कहु कैसे सुख होय.. वे कोई निपट अनारी, देख्या आतमराम..... ज्ञाता सोई सच्चा ३३
वे, जिन आतम अच्चा.... ज्ञान सरोवर सोई हो भविजन.... • ज्ञान ज्ञेयमाहि नाहि, ज्ञेय हून ज्ञानमाहि.... ज्ञानी ऐसो ज्ञान विचारै...
ज्ञानी ऐसो ज्ञान विचारै.... • अरहंत सुमर मन बावरे...... ए मान ये मन कीजिये भज प्रभु तज सब बात हो..... चौबीसौं । को वंदना हमारी.... जिनके भजन में मगन रहु रे!..... जिन जपि जिन जपि, जिन जपि जीयरा...... जिन नाम सुमर मन! बावरे! कहा इत उत भटकै....... जिनरायके पाय सदा शरनं..... जिनवरमूरत तेरी, शोभा कहिय ३७ न जाय..... तू ही मेरा साहिब सच्चा सांई..... तेरी भगति बिना
धिक है जीवना..... मानुष जनम सफल भयो आज..... • मैं नूं भावैजी प्रभु चेतना, मैं नूं भावैजी... प्रभु! तुम नैनन-गोचर ३८ himple Mare Ho
पण्डित द्यानतरायजी भजन अनुक्रमणिका
नाही.... प्रभु तुम सुमरन ही में तारे.... प्रभु तेरी महिमा किहि मुख गावै... रे मन! भज भज दीनदयाल..... वीतराग नाम सुमर, वीतराग नाम...... हम आये हैं जिनभूप! तेरे दरसन को..... अब समझ कही..... आरसी देखत मन आर-सी लागी....... काहेको सोचत अति भारी, रे मन!..... कौन काम अब मैंने कीनों, लीनों सुर अवतार हो.... गलतानमता कब आवैगा .... चाहत है सुख पै न गाहत है धर्म जीव..... जीव! तैं मूढ़पना कित पायो...... झूठा सपना यह संसार.... त्यागो त्यागो मिथ्यातम, दूजो नहीं जाकी सम.... तू तो समझ
समझ रे!...... तेरो संजम बिन रे, नरभव निरफल जाय.... • दियँ दान महा सुख पावै..... दुरगति गमन निवारिये, घर आव
सयाने नाह हो.....धिक! धिक! जीवन समकित बिना... नहिं ऐसो जनम बारंबार.... निज जतन करो गुन-रतननिको, पंचेन्द्रीविषय.... परमाथ पंथ
सदा पकरौ.... प्राणी लाल! छांडो मन चपलाई.. . प्राणी लाल! धरम अगाऊ धारौ..... भाई! कहा देख गरवाना रे..
भाई काया तेरी दुखकी ढेरी..... भाई! ज्ञानका राह दुहेला रे.... भाई! ज्ञानका राह सुहेला रे....... मानों मानों जी चेतन यह...... मिथ्या यह संसार है, झूठा यह संसार है रे...... मेरी मेरी करत जनम सब बीता... मेरे मन कब द्वै है बैराग.... • मोहि कब ऐसा दिन आय है ....ये दिन आछे लहे जी लहे जी..
रे जिय! जनम लाहो लेह..... विपति में धर धीर, रे नर! विपति में धर धीर....... समझत क्यों नहिं वानी, अज्ञानी जन..........
संसार में साता नाहीं वे............ . सोग न कीजे बावरे! मरें पीतम लोग..... हम न किसी के कोई
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•
न हमारा, झूठा है जग का ब्योहारा.......
• हमारो कारज कैसें होय....• हमारो कारज ऐसे होय .....
• हमारे ये दिन यों ही गये जी......
• कब हौं मुनिवरको व्रत धरिहौं..... कहत सुगुरु करि सुहित भविकजन !..... • गुरु समान दाता नहिं कोई....
• धनि धनि ते मुनि गिरिवनवासी......
• भाई धनि मुनि ध्यान लगायके खरे हैं.. • यारी कीजै
साधो नाल..... • सोहां दीव (शोभा देवें) साधु तेरी बातड़ियाँ.....
• गौतम स्वामीजी मोहि वानी तनक सुनाई .....
• जिनवानी प्रानी ! जान लै रे.......
• वे प्राणी! सुज्ञानी, जिन जानी जिनवानी.....मैं न जान्यो री ! जीव ऐसी करैगोरे जिय! क्रोध काहे करे.......
• सबसों छिमा छिमा कर जीव !.....
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• करौं आरती वर्द्धमानकी। पावापुर निरवान आन की
• मंगल आरती आतमराम। तनमंदिर मन उत्तम ठान........
• आरति कीजै श्रीमुनिराजकी, अधमउधारन आतमकाजकी.......
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• जियको लोभ महा दुखदाई, जाकी शोभा (?).....• गहु सन्तोष सदा मन रे ! जा सम और नहीं धन रे...• साधो ! छांडो विषय विकारी। जातैं तोहि महा दुखकारी.......
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• वे साधौं जन गाई, कर करुना सुखदाई....• कर्मनिको पेलै, ज्ञान दशामें खेलै.. • खेलौंगी होरी, आये चेतनराय... • चेतन खेलै होरी.... • नगर में होरी हो रही हो.पिया बिन कैसे खेली होरी...... • भली भई यह होरी आई, आये चेतनराय.....• परमगुरु बरसत ज्ञान झरी.....• री ! मेरे घट ज्ञान घनागम छायो...... सुरनरसुखदाई, गिरनार चल
• कहे सीताजी सुनो रामचन्द्र
भाई..... • आरति श्रीजिनराज तिहारी, करमदलन संतन हितकारी....
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पण्डित द्यानतरायजी
कृत भजन
१. आतम अनुभव कीजै हो जनम जरा अरु मरन नाशकै, अनंतकाल लौं जीजै हो ।। आतम. ।। देव धरम गुरु की सरधा करि, कुगुरु आदि तज दीजै हो।
छौं र नव तत्त्व परखकै, चेतन सार गहीजै हो । आतम. ।। १ ।। दरब करम नो करम भिन्न करि, सूक्ष्मदृष्टि धरीजै हो । भाव करमतैं भिन्न जानिके, बुधि विलास न करीजै हो ।। आतम. ।। २ ।। आप आप जानै सो अनुभव, 'द्यानत' शिवका दीजै हो ।
और उपाय वन्यो नहिं वनि है, करै सो दक्ष कहीजै हो ।। आतम. ।। ३ ।।
........
२. आतम अनुभव सार हो, अब जिय सार हो, प्राणी ...... विषय भोगफणिने तोहि काट्यो, मोह लहर चढ़ी भार हो । आतम. ।। १ ।। याको मंत्र ज्ञान है भाई, जप तप लहरिउतार हो ।। आतम. ।। २ ।। जनमजरामृत रोग महा ये, तैं दुख सह्यो अपार हो ।। आतम. ।। ३ ।। 'द्यानत' अनुभव-औषध पीके, अमर होय भव पार हो ।। आतम. ।।४ ।। ३. आतम काज सँवारिये, तजि विषय किलोलैं तुम तो चतुर सुजान हो, क्यों करत अलोलैं ।। आतम. ।। सुख दुख आपद सम्पदा, ये कर्म झकोलैं । तुम तो रूप अनूप हो, चैतन्य अमोलैं ।। आतम. ।। १ ।। तन धनादि अपने कहो, यह नहिं तुम तोलेँ ।
तुम राजा तिहुँ लोकके, ये जात निठोलैं ।। आतम. ।। २ ।। चेत चेत 'द्यानत' अबै, इमि सद्गुरु बोलें।
आतम निज पर - पर लखौ, अरु बात ढकोलैं ।। आतम. ।। ३ ।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
४. आतम जान रे जान रे जान .........
जीवनकी इच्छा करै, कबहुँ न मांगै काल । (प्राणी!) सोई जान्यो जीव है, सुख चाहै दुख टाल ।।आतम. ।।१।। नैन बैनमें कौन है, कौन सुनत है बात । (प्राणी!) देखत क्यों नहिं आपमें, जाकी चेतन जात ।।आतम. ।।२।। बाहिर ढूंदें दूर है, अंतर निपट नजीक । (प्राणी!) ढूंढनवाला कौन है, सोई जानो ठीक ।।आतम. ।।३।। तीन भुवनमें देखिया, आतम सम नहिं कोय। (प्राणी!) 'द्यानत' जे अनुभव करें, तिनकौं शिवसुख होय ।।आतम. ।।४।। ५. आतम जाना, मैं जाना ज्ञानसरूप ......... पुद्गल धर्म अधर्म गगन जम, सब जड़ मैं चिद्रूप ।।आतम. ।।१।। दरब भाव नोकर्म नियारे, न्यारो आप अनूप ।।आतम. ।।२।। 'द्यानत' पर-परनति कब बिनसै, तब सुख विलसै भूप ।।आतम. ।।३।। ६. आतम जानो रे भाई! .........
जैसी उज्जल आरसी रे, तैसी आतम जोत । काया-करमनसों जुदी रे, सबको करै उदोत । आतम. ।।१।। शयन दशा जागृत दशा रे, दोनों विकलपरूप। निरविकलप शुद्धातमा रे, चिदानंद चिद्रूप ।।आतम. ।।२।। तन वचसेती भिन्न कर रे, मनसों निज लौं लाय। आप आप जब अनुभवै रे, तहाँ न मन वच काय ।।आतम.।।३।। छहौं दरब नव तत्त्व” रे, न्यारो आतमराम । 'द्यानत' जे अनुभव करें रे, ते पावै शिवधाम ।।आतम. ।।४।। ७. आतम महबूब यार, आतम महबूब .........
देखा हमने निहार, और कुछ न खूब ।।आतम. ।। पंचिन्द्रीमाहिं रहै, पाचों तें भिन्न । बादल में भानु तेज, नहीं खेद खिन्न ।।आतम. ।।१।।
पण्डित द्यानतरायजी कृत भजन
तनमें है तजै नाहिं, चेतनता सोय । लाल कीच बीच पर्यो, कीचसा न होय ।।आतम. ।।२।। जामें हैं गुन अनन्त, गुनमें है आप । दीवे में जोत जोत में है दीवा व्याप ।।आतम. ।। ३ ।। करमोंके पास वसै, करमोंसे दूर । कमल वारि माहिं लसै, वारि माहिं जूर ।।आतम. ।।४ ।। सुखी दुखी होत नाहिं, सुख दुखकेमाहिं । दरपनमें धूप छाहिं, धाम शीत नाहिं ।।आतम. ।।५।। जगके व्योहाररूप, जगसों निरलेप । अंबरमें गोद धर्यो, व्योमको न चेप।।आतम. ।।६।। भाजनमें नीर भर्यो, थिरमें मुख पेख। 'द्यानत' मन के विकार, टार आप देख । आतम. |७|| ८. आतमरूप अनूपम है, घटमाहिं विराजै हो
जाके सुमरन जापसों, भव भव दुख भाजै हो।।आतम. ।। केवल दरसन ज्ञानमैं, थिरतापद छाजै हो। उपमाको तिहुँ लोकमें, कोऊ वस्तु न राजै हो । आतम. ।।१।। सहै परीषह भार जो, जु महाव्रत साजै हो। ज्ञान बिना शिव ना लहै, बहुकर्म उपाजै हो । आतम. ।।२।। तिहूँ लोक तिहुँ कालमें, नहिं और इलाजै हो। 'द्यानत' ताकों जानिये, निज स्वारथकाजै हो ।।आतम. ।।३।। ९. आपा प्रभु जाना मैं जाना ......... परमेसुर यह मैं इस सेवक, ऐसो भर्म पलाना।।आपा. ।। जो परमेसुर सो मम मूरति, जो मम सो भगवाना। मरमी होय सोइ तो जाने, जानै नाहीं आना ।।आपा. ।।१।।
जाको ध्यान धरत हैं मुनिगन, पावत हैं निरवाना। __ अर्हत सिद्ध सूरि गुरु मुनिपद, आतमरूप बखाना ।।आपा. ।।२ ।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
जो निगोदमें सो मुझमाहीं, सोई है शिव थाना । 'द्यानत' निहचैं रंच फेर नहिं, जानै सो मतिवाना । । आपा ।। ३ ।। १०. आतमरूप सुहावना, कोई जानै रे भाई ।
जाके जानत पाइये, त्रिभुवन ठकुराई. मन इन्द्री न्यारे करौ, मन और विचारौ ।
विषय विकार सबै मिटैं, सहजें सुख धारौ ।। आतम. ।। १ ।। वाहिरतें मन रोककैं, जब अन्तर आया ।
चित्त कमल सुलट्यो तहाँ, चिनमूरति पाया ।। आतम. ।।२ ।। पूरक कुंभक रेचतैं, पहिलैं मन साधा।
ज्ञान पवन मन एकता, भई सिद्ध समाधा || आतम. ।। ३ ।। जिन इहि विध मनवश किया, तिन आतम देखा।
.........
'द्यानत' मौनी व्है रहे, पाई सुखरेखा ।। आतम. ।।४ ।। ११. आतमज्ञान लखें सुख होइ पंचेन्द्री सुख मानत भोंदू, यामें सुखको लेश न कोई ।। आतम. ।। जैसे खाज खुजावत मीठी, पीछेंतें दुखतें दे रोइ । रुधिरपान कर जोक सुखी है, सूँतत बहुदुख पावै सोई ।। आतम. ।। १ ।। फरस- दन्ति रस-मीन गंध-अलि, रूप- शलभ मृग-नाद हिलो ।
एक एक इन्द्रनितैं प्राणी, दुखिया भये गये तन खोइ ।। आतम. ।। २ ।। जैसे कूकर हाड़ चचोरै, त्यों विषयी नर भोगै भोइ ।
'द्यानत' देखो राज त्यागि नृप, वन वसि सहैं परीषह जोइ ।। आतम. ।। ३ ।। १२. इस जीवको, यों समझाऊं री !
अरस अफरस अगंध अरूपी, चेतन चिन्ह बताऊं री । । इस. ।। १ ।। तत तत तत तत, थेईथेई थेई थेई तन नन री री गाऊं री। इस. ।। २ ।। 'द्यानत' सुमत कहै सखियनसों, 'सोहं' सीख सीखाऊं री। इस. ।। ३ ।।
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पण्डित द्यानतरायजी कृत भजन
१३. ए मेरे मीत! निचीत कहा सोवै
फूटी काय सराय पायकै, धरम रतन जिन खोवै ।। ए. ।। १ ।। निकसि निगोद मुकत जैवेको, राहविषै कहा जोवै ।।ए. ।। २ ।। 'द्यानत' गुरु जागुरू पुकारें, खबरदार कि न होवै । । ए. ।। ३ ।। १४. कर कर आतमहित रे प्रानी जिन परिनामनि बंध होत है, सो परनति तज दुखदानी। कर. ।। कौन पुरुष तुम कहाँ रहत हौ, किहिकी संगति रति मानी।
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ये परजाय प्रगट पुद्गलमय, ते तैं क्यों अपनी जानी ।। कर. ।। १ ।। चेतनजोति झलक तुझमाहीं, अनुपम सो तैं विसरानी। जाकी पटतर लगत आन नहिं, दीप रतन शशि सूरानी । । कर. ।।२ ।। आपमें आप लखो अपनो पद, 'द्यानत' करि तन-मन-वानी । परमेश्वरपद आप पाइये, यौं भाषै केवलज्ञानी ।। कर. ।। ३ ।। १५. कर रे! कर रे! कर रे!, तू आतम हित कर रे. काल अनन्त गयो जग भ्रमतैं, भव भवके दुख हर रे ।। कर रे ।। लाख कोटि भव तपस्या करतें, जितो कर्म तेरो जर रे। स्वास उस्वासमाहिं सो नासै, जब अनुभव चित धर रे। कर रे. ।। १ ।। काहे कष्ट सहै बन माहीं, राग दोष परिहर रे ।
काज होय समभाव बिना नहिं, भावौ पचि पचि मर रे । ।कर रे. ।। २ ।। लाख सीखकी सीख एक यह, आतम निज, पर पर रे । कोटि ग्रंथको सार यही है, 'द्यानत' लख भव तर रे ।। कर रे. ।। १ ।। १६. कर मन ! निज आतम-चिंतौन
जिहि बिनु जीव भ्रम्यो जग-जौन । । कर. ।।
आतममगन परम जे साधि, ते ही त्यागत करम उपाधि । कर. ।। १ ।। गहि व्रत शील करत तन शोख, ज्ञान बिना नहिं पावत मोख । कर. ।। २ ।। जिहितैं पद अरहन्त नरेश, राम काम हरि इंद फणेश । कर. ।। ३ ।।
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पण्डित द्यानतरायजी कृत भजन
आध्यात्मिक भजन संग्रह मनवांछित फल जिहितें होय, जिहिकी पटतर अवर न कोय ।।कर. ।।४।। तिहूँ लोक तिहुँकाल-मँझार, वरन्यो आतमअनुभव सार ।।कर. ।।५।। देव धरम गुरु अनुभव ज्ञान, मुकति नीव पहिली सोपान । कर. ।।६।।
सो जानैं छिन व्है शिवराय, 'द्यानत' सोगहि मन वच काय ।।कर. ।।७।। १७. कारज एक ब्रह्महीसेती .........
अंग संग नहिं बहिरभूत सब, धन दारा सामग्री तेती।।कारज. ।। सोल सुरग नव ग्रैविकमें दुख, सुखित सातमें ततका वेती। जा शिवकारन मुनिगन ध्यावै, सो तेरे घट आनँदखेती ।।कारज. ।।१।। दान शील जप तप व्रत पूजा, अफल ज्ञान बिन किरिया केती। पंच दरब तोते नित न्यारे, न्यारी रागदोष विधि जेती । कारज. ।।२।। तू अविनाशी जगपरकासी, 'द्यानत' भासी सुकलावेती।
तजौलाल! मनकेविक्लय सब, अनुभव-मगन सुविद्या एती। कारज. ।।३।। १८ घटमें परमातम ध्याइये हो, परम धरम धनहेत
ममता बुद्धि निवारिये हो, टारिये भरम निकेत।।घटमें. ।। प्रथमहिं अशुचि निहारिये हो, सात धातुमय देह । काल अनन्त सहे दुखजानें, ताको तजो अब नेह ।।घटमें. ।।१।। ज्ञानावरनादिक जमरूपी, निजतै भिन्न निहार । रागादिक परनति लख न्यारी, न्यारो सुबुध विचार ||घटमें. ।।२।। तहाँ शुद्ध आतम निरविकलप, लै करि तिसको ध्यान । अलप कालमें घाति नसत हैं, उपजत केवलज्ञान ||घटमें. ।।३।। चार अघाति नाशि शिव पहुँचे, विलसत सुख जु अनन्त ।
सम्यकदरसनकी यह महिमा, 'द्यानत' लह भव अन्त ।।घटमें. ।।४।। १९. चेतनजी! तुम जोरत हो धन, सो धन चलत नहीं तुम लार .....
जाको आप जान पोषत हो, सो तन जलकै है छार।।चेतन. ।।१।। विषय भोगके सुख मानत हो, ताको फल है दुःख अपार।।चेतन. ।।२।। यह संसार वृक्ष सेमरको, मान कह्यो हौं कहत पुकार।।चेतन. ।।३ ।।
२०. चेतन! तुम चेतो भाई, तीन जगत के नाथ,
ऐसो नरभव पायकैं, काहे विषया लवलाई।।चेतन. ।।१।। नाहीं तुमरी लाइकी, जोवन धन देखत जाई।
कीजे शुभ तप त्यागकै, 'द्यानत' हूजे अकषाई ।।चेतन. ।।२।। २१. चेतन प्राणी चेतिये हो, .......
अहो भवि प्रानी चेतिये हो, छिन छिन छीजत आव।।टेक ।। घड़ी घड़ी घड़ियाल रटत है, कर निज हित अब दाव ।।चेतन. ।। जो छिन विषय भोगमें खोवत, सो छिन भजि जिन नाम। वा नरकादिक दुख पैहै, या सुख अभिराम ।।चेतन. ।।१।। विषय भुजंगमके डसे हो, रुले बहुत संसार। जिन्हें विषय व्यापै नहीं हो, तिनको जीवन सार ।।चेतन. ।।२।। चार गतिनिमें दुर्लभ नर भव, नर बिन मुकति न होय । सो तैं पायो भाग उदय हों, विषयनि-सँग मति खोय ।।चेतन. ।।३।। तन धन लाज कुटुंब के कारन, मूढ़ करत है पाप । इन ठगियों से ठगायकै हो, पावै बहु दुख आप ।।चेतन. ।।४।। जिनको तू अपने कहै हो, सो तो तेरे नाहिं । कै तो तू इनकौं तजै हो, के ये तुझे तज जाहिं ।।चेतन. ।।५।। पलक एककी सुध नहीं हो, सिरपर गाजै काल । तू निचिन्त क्यों बावरे हो, छांडि दे सब भ्रमजाल ।।चेतन. ।।६।। भजि भगवन्त महन्तको हो, जीवन-प्राणअधार ।
जो सुख चाहै आपको हो, 'द्यानत' कहै पुकार ।।चेतन. ।।७।। २२. चेतन! मान ले बात हमारी ..... पुद्गल जीव जीव पुद्गल नहिं, दोनों की विधि न्यारी।।चेतन.॥१॥
चहुँगतिरूप विभाव दशा है, मोखमाहिं अविकारी।।चेतन. ।।२।। mian ___ 'द्यानत' दरवित सिद्ध विराजै, 'सोह' जपि सुखकारी।।चेतन. ।।३।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह २३. जगतमें सम्यक उत्तम भाई .........
सम्यकसहित प्रधान नरकमें, धिक शठ सुरगति पाई।।जगत.।। श्रावक-व्रत मुनिव्रत जे पालैं, जिन आतम लवलाई। तिन” अधिक असंजमचारी, ममता बुधि अधिकाई ।।जगत. ।।१।। पंच-परावर्तन तें कीनें, बहुत बार दुखदाई। लख चौरासी स्वांग धरि नाच्यौ, ज्ञानकला नहिं आई।।जगत. ।।२।। सम्यक बिन तिहुँ जग दुखदाई, जहँ भावै तहँ जाई। 'द्यानत' सम्यक आतम अनुभव, सद्गुरु सीख बताई।।जगत. ।।३।। २४. जानत क्यों नहिं रे, हे नर आतमज्ञानी रागदोष पुद्गलकी संगति, निहचै शुद्धनिशानी।।जानत. ।। जाय नरक पशु नर सुर गतिमें, ये परजाय विरानी। सिद्ध-स्वरूप सदा अविनाशी, जानत विरला प्रानी ।।जानत. ।।१।। कियो न काहू हरै न कोई, गुरु सिख कौन कहानी। जनम-मरन-मल-रहित अमल है, कीच बिना ज्यों पानी ।।जानत.।।२।। सार पदारथ है तिहुँ जगमें, नहिं क्रोधी नहिं मानी। 'द्यानत' सो घटमाहिं विराजै, लख हजै शिवथानी ।।जानत. ।।३।। २५. जानो धन्य सो धन्य सो धीर वीरा .........
मदन सौ सुभट जिन, चटक दे पट कियो।।टेक ।। पाँच-इन्द्रि-कटक झटक सब वश कर्यो, पटक मन भूप कीनो जंजीरा ।।धन्य सो. ।।१।। आस रंचन नहीं पास कंचन नहीं, आप सुख सुखी गुन गन गंभीरा ।।धन्यसो. ।।२।। कहत 'द्यानत' सही, तरन तारन वही, सुमर लै संत भव उदधि तीरा ।।धन्यसो. ।।३।।
पण्डित द्यानतरायजी कृत भजन २६. जो तैं आतमहित नहिं कीना ......... रामा रामा धन धन कीना, नरभव फल नहिं लीना।।जो तें. ।। जप तप करकै लोक रिझाये, प्रभुताके रस भीना । अंतर्गत परिनाम न सोधे, एको गरज सरी ना ।।जो तैं. ।।१।। बैठि सभामें बहु उपदेशे, आप भये परवीना। ममता डोरी तोरी नाहीं, उत्तमरौं भये हीना ।।जो तें. ।।२।। 'द्यानत' मन वच काय लायके, जिन अनुभव चित दीना ।
अनुभव धारा ध्यान विचारा, मंदिर कलश नवीना ।।जो तैं. ।।३।। २७. तुमको कैसे सुख है मीत! .........
जिन विषयनि सँग बहु दुख पायो, तिनहीसों अति प्रीति।।तुमको. ।। उद्यमवान बाग चलनेको, तीरथसों भयभीत । धरम कथा कथनेको मूरख, चतुर मृषा-रस-रीत ।।तुमको. ।।१।। नाट विलोकनमें बहु समझौ, रंच न दरस-प्रतीत । परमागम सुन ऊंघन लागौ, जागौ विकथा गीत ।।तुमको. ।।२।। खान पान सुनके मन हरषै, संजम सुन है ईत । 'द्यानत' तापर चाहत होगे, शिवपद सुखित निचीत ।।तुमको. ।।३।। २८. तुम चेतन हो ....... जिन विषयनि सँग दुख पावै सो, क्यों तज देत न हो।।तुम. ।।१।। नरक निगोद कषाय भ्रमावै, क्यों न सचेतन हो।।तुम. ।।२।। 'द्यानत' आपमें आपको जानो, परसों हेत न हो।।तुम. ।।३ ।। २९. तुम ज्ञानविभव फूली बसन्त, यह मन मधुकर ... दिन बड़े भये बैराग भाव, मिथ्यातम रजनीको घटाव।।तुम. ।।१।।
बहु फूली फैली सुरुचि बेलि, ज्ञाताजन समता संग केलि।।तुम. ।।२।। ___ 'द्यानत' वानी पिक मधुररूप, सुर नर पशु आनंदघन सुरूप।।तुम. ।।३।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
३०. देखे सुखी सम्यकवान ..........
सुख दुखको दुखरूप विचारें, धारें अनुभवज्ञान । । देखे. ।। नरक सातमें के दुख भोगें, इन्द्र लखँ तिन मान । भीख मांगकै उदर भरें, न करें चक्रीको ध्यान । । देखे ।। १ ।। तीर्थंकर पदकों नहिं चावैं, जदपि उदय अप्रमान ।
कुष्ट आदि बहु ब्याधि दहत न, चहत मकरध्वजथान । देखे ।।२ ।। आदि व्याधि निरबाध अनाकुल, चेतनजोति पुमान ।
'द्यानत' मगन सदा तिहिमाहीं, नाहीं खेद निदान | | देखे ।। ३ ।। ३१. देखो भाई! आतमराम विराजै
छहों दरब नव तत्त्व ज्ञेय हैं, आप सुज्ञायक छाजै । देखो. ।। अत सिद्ध सूरि गुरु मुनिवर, पाचौं पद जिहिमाहीं । दरसन ज्ञान चरन तप जिहिमें, पटतर कोऊ नाहीं । । देखो. ।। १ ।। ज्ञान चेतना कहिये जाकी, बाकी पुद्गलकेरी । केवलज्ञान विभूति जासुकै आन विभौ भ्रमचेरी । । देखो. ।। २ ।। एकेन्द्री पंचेन्द्री पुद्गल, जीव अतिन्द्री ज्ञाता । 'द्यानत' ताही शुद्ध दरबको जानपनो सुखदाता | | देखो. ।। ३ ।। ३२. निरविकलप जोति प्रकाश रही ना घट अन्तर ना घट बाहिर, वचननिसौं किनहू न कही । निर. ।। १ ।। जीभ आँख बिन चाखी देखी, हाथनिसौं किनहू न गही । । निर. ।।२।। 'द्यानत' निज-सर- पदम - भ्रमर है, समता जोरें साधु लही । । निर. ।। ३ ।। ३३. पायो जी सुख आतम लवकै
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********.
ब्रह्मा विष्णु महेश्वरको प्रभु, सो हम देख्यो आप हरखकै। पायो. ।। १ ।। देखन जाननि समझनिवाला, जान्यो आपमें आप परखकै। पायो. ।। २ ।। 'द्यानत' सब रस विरस लगें हैं, अनुभौ ज्ञानसुधारस चखकै। पायो. ।। ३ ।। १२)
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पण्डित द्यानतरायजी कृत भजन
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३४. प्राणी! आतमरूप अनूप है, परतें भिन्न त्रिकाल ...... यह सब कर्म उपाधि है, राग दोष भ्रम जाल । । प्राणी ।। कहा भयो काई लगी, आतम दरपनमाहिं । ऊपरली ऊपर रहै, अंतर पैठी नाहिं । । प्राणी ।। १ ।। भूलि जेवरी अहि, मुन्यो, ढूंठ लख्यो नररूप ।
त्यों ही पर निज मानिया, वह जड़ तू चिद्रूप । । प्राणी ।। २ ।। जीव- कनक तन मैलके, भिन्न भिन्न परदेश | माहैं, माहैं संध है, मिलें नहीं लव लेश ।। प्राणी. ।। ३ ।। घन करमनि आच्छादियो, ज्ञानभानपरकाश ।
है ज्योंका त्यों शास्वता, रंचक होय न नाश । । प्राणी ।।४ ।। लाली झलकै फटिकमें, फटिक न लाली होय । परसंगति परभाव है, शुद्धस्वरूप न कोय ।। प्राणी. ।। ५ ।। त्रस थावर नर नारकी, देव आदि बहु भेद । निचे एक स्वरूप हैं, ज्यों पट सहज सफेद ।। प्राणी ।। ६ ।। गुण ज्ञानादि अनन्त हैं, परजय सकति अनन्त । 'द्यानत' अनुभव कीजिये, याको यह सिद्धन्त । । प्राणी ।। ७ ।। ३५. प्राणी! सोऽहं सोऽहं ध्याय हो......... वाती दीप परस दीपक है, बूंद जु उदधि कहाय हो ।
तैसें परमातम ध्यावै सो, परमातम है जाय हो । । प्राणी ।। १ ।। और सकल कारज है थोथो, तोहि महा दुखदाय हो।
'द्यानत' यही ध्यानहित कीजे, हूजे त्रिभुवनराय हो । । प्राणी. ।। २ ।। ३६. बीतत ये दिन नीके, हमको
भिन्न दरब तत्वनितैं धारे, चेतन गुण हैं जीके । । बीतत. ।। १ ।। आप सुभाव आपमैं जान्यो, सोइ धर्म है ठीके । । बीतत. ।। २ ।। 'द्यानत' निज अनुभव रस चाख्यो, पर रस लागत फीके | बीतत. ।। ३ ।।
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पण्डित द्यानतरायजी कृत भजन
आध्यात्मिक भजन संग्रह ३७. भजो आतमदेव, रे जिय! भजो आतमदेव, लहो ....
असंख्यात प्रदेश जाके, ज्ञान दरस अनन्त । सुख अनन्त अनन्त वीरज, शुद्ध सिद्ध महन्त ।।रे जिय. ।।१।। अमल अचलातुल अनाकुल, अमन अवच अदेह । अजर अमर अखय अभय प्रभु, रहित-विकलप नेह ।।रे जिय. ।।२।। क्रोध मद बल लोभ न्यारो, बंध मोख विहीन । राग दोष विमोह नाहीं, चेतना गुणलीन ।।रे जिय. ।।३ ।। वरण रस सुर गंध सपरस, नाहिं जामें होय । लिंग मारगना नहीं, गुणथान नाहीं कोय ।।रे जिय. ।।४।। ज्ञान दर्शन चरनरूपी, भेद सो व्योहार । करम करना क्रिया निहचै, सो अभेद विचार ।।रे जिय. ।।५।। आप जाने आप करके, आपमाहीं आप। यही ब्योरा मिट गया तब, कहा पुन्यरु पाप ।।रे जिय. ।।६।। है कहै है नहीं नाहीं, स्यादवाद प्रमान ।
शुद्ध अनुभव समय ‘द्यानत', करौ अमृतपान ।।रे जिय. ।।७।। ३८. भवि कीजे हो आतमसँभार, राग दोष परिनाम डार ....
कौन पुरुष तुम कौन नाम, कौन ठौर करो कौन काम ।।भवि. ।।१।। समय समय में बंध होय, तू निचिन्त न वारै कोय ।।भवि. ।।२।।
जब ज्ञान पवन मन एक होय, 'द्यानत' सुख अनुभवै सोय ।।भवि. ।।३।। ३९. भ्रम्योजी भ्रम्यो, संसार महावन, सुख सो रमन्त पुद्गल जीव एक करि जान्यो, भेद-ज्ञान न सुहायोजी।।भ्रम्यो. ।। मनवचकाय जीव संहारे, झूठो वचन बनायो जी। चोरी करके हरष बढ़ायो, विषयभोग गरवायो जी ।।भ्रम्यो. ।।१।। नरकमाहिं छेदन भेदन बहु, साधारण वसि आयो जी। गरभ जनम नरभव दुख देखे, देव मरत बिललायो जी।।भ्रम्यो.।।२।।
'द्यानत' अब जिनवचन सुनै मैं, भव मल पाप बहायो जी।
आदिनाथ अरहन्त आदि गुरु, चरनकमल चित लायो जी।।भम्यो. ।।३।। ४०. भाई! अब मैं ऐसा जाना.....
पुद्गल दरब अचेत भिन्न है, मेरा चेतन वाना।।भाई. ।। कल्प अनन्त सहत दुख बीते, दुखकौं सुख कर माना। सुख दुख दोऊ कर्म अवस्था, मैं कर्मन” आना ।।भाई. ।।१।। जहाँ भोर था तहाँ भई निशि, निशिकी ठौर बिहाना। भूल मिटी निजपद पहिचाना, परमानन्द-निधाना ।।भाई. ।।२।। गूंगे का गुड़ खाँय कहैं किमि, यद्यपि स्वाद पिछाना । 'द्यानत' जिन देख्या ते जानें, मेंढक हंस पखाना ।।भाई. ।।३।। ४१. भाई कौन कहै घर मेरा.....
जे जे अपना मान रहे थे, तिन सबने निरवेरा।।भाई. ।। प्रात समय नृप मन्दिर ऊपर, नाना शोभा देखी। पहर चढ़े दिन काल चालतें, ताकी धूल न पेखी ।।भाई. ।।१।। राज कलश अभिषेक लच्छमा, पहर चढ़ें दिन पाई। भई दुपहर चिता तिस चलती, मीतों ठोक जलाई।।भाई. ।।२।। पहर तीसरे नाचैं गावै, दान बहुत जन दीजे । सांझ भई सब रोवन लागे, हा-हाकार करीजे ||भाई. ।।३।। जो प्यारी नारीको चाहै, नारी नरको चाहै। वे नर और किसीको चाहैं, कामानल तन दाहै ।।भाई. ।।४ ।। जो प्रीतम लखि पुत्र निहोरें, सो निज सुतको लोरै। सो सुत निज सुतसों हित जोरै, आवत कहत न ओरें ।।भाई. ।।५।। कोड़ाकोड़ि दरब जो पाया, सागरसीम दुहाई। राज किया मन अब जम आवै, विषकी खिचड़ी खाई।।भाई. ।।६।।
तू नित पोखै वह नित सोखै, तू हारै वह जीते। an ___ 'द्यानत' जु कछु भजन बन आवै, सोई तेरो मीतै ।।भाई. ।।७।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
पण्डित द्यानतरायजी कृत भजन
४२. भाई! ब्रह्मज्ञान नहिं जाना रे......
सब संसार दुःख सागरमें, जामन मरन कराना रे।।भाई. ।। तीन लोकके सब पुद्गल तें, निगल निगल उगलाना रे। छर्दि डारके फिर तू चाखै, उपजै तोहि न ग्लाना रे ।।भाई. ।।१।। आठ प्रदेश बिन तिहुँ जगमें, रहा न कोई ठिकाना रे। उपजा मरा जहाँ तू नाहीं, सो जानै भगवाना रे ।।भाई. ।।२।। भव भवके नख केस नालका, कीजे जो इक ठाना रे। होंय अधिक ते गिरी सुमेरुतें, भाखा वेद पुराना रे ।।भाई. ।।३।। जननी थन-पय जनम जनम को, जो तैं कीना पाना रे। सो तो अधिक सकल सागरतें, अजहूँ नाहिं अघाना रे।।भाई. ।।४।। तोहि मरण जे माता रोई, आँसू जल सगलाना रे । अधिक होय सब सागरसेती, अजहूँ त्रास न आना रे।।भाई. ।।५।। गरभ जनम दुख बाल बृद्ध दुख, वार अनन्त सहाना रे। दरवलिंग धरि जे तन त्यागे, तिनको नाहिं प्रमाना रे।।भाई. ।।६।। बिन समभाव सहे दुख एते, अजहूँ चेत अयाना रे।
ज्ञान-सुधारस पी लहि 'द्यानत', अजर अमरपद थाना रे।।भाई.।।७।। ४३. भाई! ज्ञान बिना दुख पाया रे........
भव दशआठ उस्वास स्वास में, साधारन लपटाया रे।।भाई. ।। काल अनन्त यहाँ तोहि बीते, जब भई मंद कषाया रे। तब तू तिस निगोद सिंधूत, थावर होय निसारा रे ।।भाई. ।।१।। क्रम क्रम निकस भयो विकलत्रय, सो दुख जात न गाया रे। भूख प्यास परवश सहि पशुगति, वार अनेक विकाया रे।।भाई. ।।२।। नरकमाहिं छेदन भेदन बहु, पुतरी अगन जलाया रे। सीत तपत दुरगंध रोग दुख, जानैं श्रीजिनराया रे ||भाई. ॥३।।
भ्रमत भ्रमत संसार महावन, कबहूँ देव कहाया रे। लखि परविभौ सह्यौ दुख भारी, मरन समय बिललाया रे।।भाई. ।।४।। पाप नरक पशु पुन्य सुरग वसि, काल अनन्त गमाया रे। पाप पुन्य जब भये बराबर, तब कहुँ नरभव पाया रे ।।भाई. ।।५।। नीच भयो फिर गरभ खयो फिर, जनमत काल सताया रे। तरुणपनै तू धरम न चेते, तन-धन-सुत लौ लाया रे ।।भाई. ।।६।। दरवलिंग धरि धरि बहुमरि तू, फिरि फिरि जग भ्रमि आया रे। 'द्यानत' सरधाजुत गहि मुनिव्रत, अमर होय तजि काया रे।।भाई. ।।७।। ४४. भाई! ज्ञानी सोई कहिये......
करम उदय सुख दुख भोगते, राग विरोध न लहिये।।भाई. ।। कोऊ ज्ञान क्रिया कोऊ, शिवमारग बतलावै । नय निहचै विवहार साधिकै दोऊ चित्त रिझावै ।।भाई. ।।१।। कोई कहै जीव छिनभंगुर, कोई नित्य बखानै । परजय दरवित नय परमानै, दोऊ समता आनै ।।भाई. ।।२।। कोई कहै उदय है सोई, कोई उद्यम बोलै । 'द्यानत' स्यादवाद सुतुलामें, दोनों वस्तु तोलै ।भाई. ।।३।। ४५. भैया! सो आतम जानो रे!...... जाकै बसौं बसत है रे, पाँचों इन्द्री गाँव । जास बिना छिन एकमें रे, गाँव न नाँव न ठाँव ।।भैया. ।।१।। आप चलै अरु ले चलै रे, पीछे सौ मन भार । ता बिन गज हल ना सके रे, तन खींचै संसार । भैया, ।।२।। जाको जारै मारतें रे, जरै मरै नहिं कोय । जो देखै सब लोककों रे, लोक न देखै सोय ।।भैया. ।।३ ।। घटघटव्यापी देखिये रे, कुंथू गज सम रूप। जानै मानै अनुभवै रे, 'द्यानत' सो चिद्रूप ।।भैया. ।।४ ।।
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४६. मगन रहु रे! शुद्धातममें मगन रहु रागदोष परकी उतपात, निहचै शुद्ध चेतनाजात ।। मगन. ।। १ ।। विधि निषेधको खेद निवारि, आप आपमें आप निहारि । मगन. ।।२ ।। बंध मोक्ष विकलप करि दूर, आनँदकन्द चिदातम सूर ।। मगन. ।। ३ ।। दरसन ज्ञान चरन समुदाय, 'द्यानत' ये ही मोक्ष उपाय । । मगन. ।।४ ।। ४७. मन! मेरे राग भाव निवार.......
आध्यात्मिक भजन संग्रह
राग चिक्कतें लगत है, कर्मधूलि अपार । मन. ।। राग आस्रव मूल है, वैराग्य संवर धार ।
जिन न जान्यो भेद यह, वह गयो नरभव हार । । मन. ।। १ ।। दान पूजा शील जप तप, भाव विविध प्रकार ।
राग विन शिव सुख करत हैं, रागतैं संसार । मन. ॥ २ ॥ वीतराग कहा कियो, यह बात प्रगट निहार ।
सोइ कर सुख हेत 'द्यानत', शुद्ध अनुभव सार । मन. ।। ३ ।। ४८. मैं निज आतम कब ध्याऊंगा.......
रागादिक परिनाम त्यागकै, समतासौं लौ लाऊंगा ।। मन वच काय जोग थिर करकै, ज्ञान समाधि लगाऊंगा। कब हौं क्षिपकश्रेणि चढ़ि ध्याऊं, चारित मोह नशाऊंगा ।। १ ।। चारों करम घातिया क्षय करि, परमातम पद पाऊंगा। ज्ञान दरश सुख बल भंडारा, चार अघाति बहाऊंगा || २ || परम निरंजन सिद्ध शुद्धपद, परमानंद कहाऊंगा । 'द्यानत' यह सम्पति जब पाऊं, बहुरि न जगमें आऊंगा || ३ || ४९. रे भाई! मोह महा दुखदाता
वस्तु विरानी अपनी मानैं, विनसत होत असाता ।। रे भाई. ।। जास मास जिस दिन छिन विरियाँ, जाको होसी घाता । ताको राख सकै न कोई, सुर नर नाग विख्याता ।। रे भाई. ॥ १ ॥
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पण्डित द्यानतरायजी कृत भजन
सब जग मरत जात नित प्रति नहि, राग बिना बिललाता। बालक मरैं करै दुख धाय न, रुदन करै बहु माता ।।रे भाई. ।। २ ।। मूसे हनैं बिलाव दुखी नहिं, मुरग हनैं रिस खाता । 'द्यानत' मोह-मूल ममताको, नाश करै सो ज्ञाता ।। रे भाई. ।। ३ ।। ५०. लाग रह्यो मन चेतनसों जी.......
सेवक सेव सेव सेवक मिल, सेवा कौन करै पनसों जी ।। १ ।। ज्ञान सुधा पी वम्यो विषय विष, क्यों कर लागि सके तनसौं जी ॥ २ ॥ 'द्यानत' आप- आप निरविकलप, कारज कवन भवन निवसों जी ।। ३ ।। ५१. लागा आतमसों नेहरा........
चेतन देव ध्यान विधि पूजा, जाना यह तन देहरा । । लागा. ।। १ ।। मैं ही एक और नहिं दूजो, तीन लोकको सेहरा । । लागा. ।। २ ।। 'द्यानत' साहब सेवक एकै, बरसै आनँद मेहरा । । लागा. ।। ३ ॥ ५२. लागा आतमरामसों नेहरा
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२९
ज्ञानसहित मरना भला रे, छूट जाय संसार ।
धिक्क ! परौ यह जीवना रे, मरना बारंबार । । लागा. ।। १ ।। साहिब साहिब मुंह कहते, जानें नाहीं कोई ।
जो साहिबकी जाति पिछानैं, साहिब कहिये सोई । । लागा. ।। २ ।। जो जो देखौ नैनोंसेती, सो सो विनसै जाई । देखनहारा मैं अविनाशी, परमानन्द सुभाई ।। लागा. ।। ३ ।। जाकी चाह करें सब प्रानी, सो पायो घटमाहीं । 'द्यानत' चिन्तामनिके आये, चाह रही कछु नाहीं । । लागा. ।।४ ।। ५३. वे परमादी! तैं आतमराम न जान्यो....... जाको वेद पुरान बखानै, जानें हैं स्यादवादी । । वे ।। १ ।। इंद फनिंद करें जिस पूजा, सो तुझमें अविषादी । ।वे . ।।२ ।। 'द्यानत' साधु सकल जिंह ध्यावैं, पावैं समता - स्वादी । ।वे. ।। ३ ।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
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५४. सब जगको प्यारा, चेतनरूप निहारा
दरव भाव नो करम न मेरे, पुद्गल दरव पसारा । । सब. ।। चार कषाय चार गति संज्ञा, बंध चार परकारा ।
पंच वरन रस पंच देह अरु, पंच भेद संसारा ।। सब ।। १ ।। छहों दरब छह काल छहलेश्या, छहमत भेदतैं पारा ।
परिग्रह मारगना गुन- थानक, जीवथानसों न्यारा । । सब. ।। २ ।। दरसन ज्ञान चरन गुनमण्डित, ज्ञायक चिह्न हमारा ।
सोऽहं सोऽहं और सु औरे, 'द्यानत' निहचै धारा । । सब. ।। ३ ।। ५५. सुन चेतन इक बात.......
सुन चेतन इक बात हमारी, तीन भुवनके राजा । रंक भये बिललात फिरत हो, विषयनि सुखके काजा ।। १ ।। चेतन तुम तो चतुर सयाने, कहाँ गई चतुराई । रंचक विषयनिके सुखकारण, अविचल ऋद्धि गमाई ।। २ ।। विषयनि सेवत सुख नहिं राई, दुख है मेरु समाना । कौन सयानप कीनी भौंदू, विषयनिसों लपटाना ।। ३ ।। इस जगमें थिर रहना नाहीं, तैं रहना क्यों माना । सूझत नाहिं कि भांग खाइ है, दीसै परगट जाना ।। ४ ।। तुमको काल अनन्त गये हैं, दुख सहते जगमाहीं । विषय कषाय महारिपु तेरे, अजहूँ चेतत नाहीं ॥। ५ ।। ख्याति लाभ पूजाके काजैं, बाहिज भेष बनाया । परमतत्त्व का भेद न जाना, वादि अनादि गँवाया || ६ || अति दुर्लभ तैं नर भव लहकैं, कारज कौन समारा । रामा रामा धन धन साँटें, धर्म अमोलक हारा ।।७।। घट घट साईं मैंनू दीसै, मूरख मरम न पावे । अपनी नाभि सुवास लखे विन, ज्यों मृग चहुँ दिशि धावै ॥ ८ ॥
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(१६)
पण्डित द्यानतरायजी कृत भजन
घट घटसाई घटसा नाईं, घटसों घटमें न्यारो । घूंघटका पट खोल निहारो, जो निजरूप निहारो ।।९ ।। ये दश माझ सुनैं जो गावै, निरमल मनसा करके । 'द्यानत' सो शिवसम्पति पावै, भवदधि पार उतरके ।। १० ।। ५६. सुनो! जैनी लोगो, ज्ञानको पंथ कठिन है सब जग चाहत है विषयनिको, ज्ञानविषै अनबन है ।। सुनो. ।। राज काज जग घोर तपत है जूझ मरैं जहा रन है ।
सो तो राज हेय करि जानें, जो कौड़ी गाँठ न है । । सुनो. ।। १ ।। वचन बात तनकसी ताको, सह न सकै जग जन है ।
सिर पर आन चलावैं आरे, दोष न करना मन है । । सुनो. ।। २ ।। ऊपरकी सब थोथी बातें, भावकी बातें कम है । 'द्यानत' शुद्ध भाव है जाके, सो त्रिभुवनमें धन है । सुनो. ।। ३ ।। ५७. सो ज्ञाता मेरे मन माना, जिन निज निज पर पर जाना छहौँ दरबतैं भिन्न जानकै, नव तत्वनितैं आना । ताकौं देखें ताकौं जाने, ताहीके रसमें साना ।। १ ।। कर्म शुभाशुभ जो आवत हैं, सो तो पर पहिचाना । तीन भवन को राज न चाहै, यद्यपि गांठ दरब बहु ना ।। २ ।। अखय अनन्ती सम्पति विलसै, भव-तन-भोग-मगन ना। 'द्यानत' ता ऊपर बलिहारी, सोई 'जीवन मुकत' भना || ३ || ५८. श्रीजिनधर्म सदा जयवन्त ......
तीन लोक तिहुँ कालनिमाहीं, जाको नाहीं आदि न अन्त।। श्री ।। सुगुन छियालिस दोष निवारें, तारन तरन देव अरहंत ।
गुरु निरग्रंथ धरम करुनामय, उपजैं त्रेसठ पुरुष महंत ।। श्री ।। १ ।। रतनत्रय दशलच्छन सोलह-कारन साध श्रावक सन्त ।
छहौं दरब नव तत्त्व सरधकै, सुरंग मुकति के सुख विलसन्त । । श्री . ।। २ ।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह नरक निगोद भ्रम्यो बहु प्रानी, जान्यो नाहिं धरम-विरतंत। 'द्यानत' भेदज्ञान सरधातें, पायो दरव अनादि अनन्त ।।श्री. ।।३।। ५९. शुद्ध स्वरूपको वंदना हमारी...... एक रूप वसुरूप विराजै, सुगुन अनन्त रूप अविकारी।।शुद्ध. ।।१।। अमल अचल अविकलप अजलपी, परमानंद चेतनाधारी ।।शुद्ध. ।।२।। 'द्यानत' द्वैतभाव तज हजै, भाव अद्वैत सदा सुखकारी।।शुद्ध. ।।३।। ६०. हम लागे आतमरामसों ...... विनाशीक पुद्गलकी छाया, कौन रमै धन मानसों।।हम. ।। समता सुख घटमें परगास्यो, कौन काज है कामसों। दुविधा-भाव जलांजुलि दीनौं, मेल भयो निज स्वामसों ।।हम. ।।१।। भेदज्ञान करि निज परि देख्यौ, कौन विलोकै चामसौं। उरै परैकी बात न भावै, लो लाई गुणग्रामसौं ।।हम. ।।२।। विकलप भाव रंक सब भाजे, झरि चेतन अभिरामसों। 'द्यानत' आतम अनुभव करिकै, छूटे भव दुखधामसों।।हम. ।।३।। ६१. हम तो कबहुँ न निज घर आये ...... पर घर फिरत बहुत दिन बीते, नाम अनेक धराये।।हम तो. ।। परपद निजपद मानि मगन है, पर परनति लपटाये । शुद्ध बुद्ध सुखकंद मनोहर, आतम गुण नहिं गाये।।हम तो.।।१।। नर पशु देव नरक निज मान्यो, परजयबुद्ध लहाये। अमल अखंड अतुल अविनाशी, चेतन भाव न भाये।।हम तो. ।।२।। हित अनहित कछु समझ्यो नाहीं, मृगजलबुध ज्यों धाये। 'द्यानत' अब निज-निज, पर-पर है, सद्गुरु वैन सुनाये ।।हम तो.।।३।। ६२. हो भैया मोरे! कह कैसे सुख होय .....
लीन कषाय अधीन विषयके, धरम करै नहिं कोय।।हो भैया. ।। पाप उदय लखि रोवत भोंदू!, पाप तजै नहिं सोय। स्वान-वान ज्यों पाहन सूंघे, सिंह हनै रिपु जोय ।।हो भैया. ॥१।।
पण्डित द्यानतरायजी कृत भजन
धरम करत सुख दुख अघसेती, जानत हैं सब लोय। कर दीपक लै कूप परत है, दुख पैहै भव दोय ।।हो भैया. ।।२।। कुगुरु कुदेव कुधर्म लुभायो, देव धरम गुरु खोय। उलट चाल तजि अब सुलटै जो, 'द्यानत' तिरै जग-तोय ।।हो भैया. ।।३।। ६३. वे कोई निपट अनारी, देख्या आतमराम
जिनसों मिलना फेरि बिछुरना, तिनसों कैसी यारी। जिन कामोंमें दुख पावै है, तिनसों प्रीति करारी ।।वे. ।।१।। बाहिर चतुर मूढ़ता घरमें, लाज सबै परिहारी। ठगसों नेह वैर साधुनिसों, ये बातें विसतारी ।।वे. ।।२।। सिंह दाढ़ भीतर सुख माने, अक्कल सबै बिसारी। जा तरु आग लगी चारौं दिश, वैठि रह्यो तिहँ डारी ।।वे. ।।३।। हाड़ मांस लोहकी थैली, तामें चेतनधारी।
'द्यानत' तीनलोकको ठाकुर, क्यों हो रह्यो भिखारी ।।वे. ।।४।। ६४. ज्ञाता सोई सच्चा वे, जिन आतम अच्चा....
ज्ञान ध्यान में सावधान है, विषय भोगमें कच्चा वे।।ज्ञाता. ।।१।। मिथ्या कथन सुननिको बहरा, जैन वैनमें मच्चा वे।।ज्ञाता. ।।२।। मूढनिसेती मुख नहिं बोले, प्रभुके आगे नच्चा वे।।ज्ञाता. ।।३।। 'द्यानत' धरमीको यों चाहै, गाय चहै ज्यों बच्चा वे।।ज्ञाता. ।।४।। ६५. ज्ञान सरोवर सोई हो भविजन ......
भूमि छिमा करुना मरजादा, सम-रस जल जहँ होई।।भविजन. ।। परनति लहर हरख जलचर बहु, नय-पंकति परकारी। सम्यक कमल अष्टदल गुण हैं, सुमन भँवर अधिकारी ।।भविजन. ।।१।। संजम शील आदि पल्लव हैं, कमला सुमति निवासी। सुजस सुवास कमल परिचयतें, परसत भ्रम तप नासी । भविजन. ।।२।।
भव-मल जात न्हात भविजनका, होत परम सुख साता। pan
'द्यानत' यह सर और न जानैं, जानैं बिरला ज्ञाता ।।भविजन. ।।३।।
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६६. ज्ञान ज्ञेयमाहिं नाहिं, ज्ञेय हू न ज्ञानमाहिं ज्ञान ज्ञेय आन आन, ज्यों मुकर घट है । । ज्ञान. ।। ज्ञान रहै ज्ञानीमाहिं, ज्ञान बिना ज्ञानी नाहिं, दोऊ एकमेक ऐसे, जैसे श्वेत पट है । । ज्ञान. ।। १ ।। ध्रुव उतपाद नास, परजाय नैन भास, दरवित एक भेद, भावको न ठट है । । ज्ञान. ।। २ ।। 'द्यानत' दरब परजाय विकलप जाय,
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तब सुख पाय जब, आप आप रट है । । ज्ञान. ।। ३ ।। ६७. ज्ञानी ऐसो ज्ञान विचारै
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राज सम्पदा भोग भोगवै, बंदीखाना धारै । । ज्ञानी ।। धन जोवन परिवार आपतैं, ओछी ओर निहारै ।
दानशील तप भाव आपतैं, ऊंचेमाहिं चितारै । । ज्ञानी ।। १ ।। दुख आये धीरज धर मनमें, सुखवैराग सँभारै ।
आतम दोष देखि नित झूरै, गुन लखि गरब बिडारै । । ज्ञानी ।। २ ।। आप बड़ाई परकी निन्दा, मुखतैं नाहिं उचारै ।
आप दोष परगुन मुख भाषै मनतैं शल्य निवारै । । ज्ञानी ।। ३ ।। परमारथ विधि तीन जोगसौं, हिरदै हरष विथारै ।
और काम न करै जु करै तो, जोग एक दो हारै । । ज्ञानी ।।४ ।। गई वस्तुको सोचै नाहीं, आगमचिन्ता जारै ।
वर्तमान वर्ते विवेकसौं, ममता बुद्धि विसारै । । ज्ञानी ।।५ ।। बालपने विद्या अभ्यासै, जोवन तप विस्तारै । वृद्धपने सन्यास लेयके, आतम काज सँभारै ।।ज्ञानी ।। ६ ।। छहों दरब नव तत्त्वमाहिंतें, चेतन सार निकारै ।
'द्यानत' मगन सदा तिसमाहीं, आप तरै पर तारै । । ज्ञानी ।।७।।
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पण्डित द्यानतरायजी कृत भजन
६८. ज्ञानी ऐसो ज्ञान विचारै
नारि नपुंसक नर पद काया, आप अकाय निहारै । । ज्ञानी ।। बामन वैश्य शुद्र औ क्षत्री, चारों भग लिँग लागे ।
भग विनाशी भोग विनाशी, हम अविनाशी जागे । । ज्ञानी ॥ १ ॥ पंडित मूरख पोथिनिमाहीं, पोथी नैनन सूझै ।
नैन जोति रवि चन्द उदयतें, तेऊ अस्तत बूझै । । ज्ञानी ।। २ ।। कायर सूर लड़नमें गिनिये, लड़त जीव दुख पावै।
सब हममें हम हैं सबमाहीं, मेरे कौन सतावै । । ज्ञानी ।। ३ ।। कौन बजावे अरु को गावै, नाचै कौन नचावै ।
सुपने सा जग ख्याल मँडा है, मेरे मन यों आवै । । ज्ञानी ।।४ ।। एक कमाऊ एक निखट्ट, दोनों दरब पसारा ।
३५
आवै सुख जावै दुख पावै, मैं सुख दुखसों न्यारा । ज्ञानी ।। ५ ।। एक कुटुम्बी एक फकीरा, दोनों घर वन चाहैं ।
घर भी काको वन भी काको, ममता-दाहनि दाहैं । ज्ञानी ।। ६ ।। सोवत जागत व्रत अरु खातैं, गर्व निगर्व निहारै । 'द्यानत' ब्रह्म मगन निशि वासर, करम-उपाधि बिडारै ॥ ज्ञानी ।। ७ ।। ६९. अरहंत सुमर मन बावरे .......
ख्याति लाभ पूजा तजि भाई, अन्तर प्रभु लौ लाव रे ।। अरहंत. ।। नरभव पाय अकारथ खोवै, विषय भोग जु बढ़ाव रे ।
प्राण गये पछितैहै मनवा, छिन छिन छीजै आव रे ।। अरहंत. ।। १ ।। जुवती तन धन सुतमित परिजन, गज तुरंग रथ चाव रे।
यह संसार सुपनकी माया, आँख मीचि दिखराव रे ।। अरहंत. ।। २ ।। ध्याव ध्याव रे अब है दावरे, नाहीं मंगल गाव रे।
'द्यानत' बहुत कहाँ लौं कहिये, फेर न कछू उपाव रे ।। अरहंत. ।। ३ ।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
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७०. ए मान ये मन कीजिये भज प्रभु तज सब बात हो........ मुख दरसत सुख बरसत प्रानी, विघन विमुख है जात हो । ए मन. ।। १ ।। सार निहार यही शुभ गतिमें, छह मत मानै ख्यात हो । ए मन. ।। २ ।। 'द्यानत' जानत स्वामि नाम धन, जस गावैं उठि प्रात हो । । ए मन. ।। ३ ।। ७१. चौबीसौं को वंदना हमारी
भवदुखनाशक, सुखपरकाशक, विघनविनाशक मंगलकारी ॥ १ ॥ ती लोक तिहुँकालनिमाहीं, इन सम और नहीं उपगारी ।। २ ।। पंच कल्यानक महिमा लखकै, अद्भुत हरष लहैं नरनारी ॥ ३ ॥ 'द्यानत' इनकी कौन चलावै, बिंब देख भये सम्यकधारी ॥ ४ ॥ ७२. जिन के भजन में मगन रहु रे ! जो छिन खोवै बातनिमांहिं, सो छिन भजन करें अघ जाहिं । । १ ।। भजन भला कहतैं क्या होय, जाप जपैं सुख पावै सोय ।। २ ।। बुद्धि न चहिये तन दुख नाहिं, द्रव्य न लागै भजनकेमाहिं ।। ३ ।। षट दरसनमें नाम प्रधान, 'द्यानत' जपैं बड़े धनमान ॥ ४ ॥ ७३. जिन जपि जिन जपि, जिन जपि जीयरा
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प्रीति करि आवै सुख, भीति करि जावै दुख, नित ध्यावै सनमुख, ईति न आवे नीयरा ॥ जिन. ।। १ । मंगल प्रवाह होय, विघनका दाह धोय,
जस जागै तिहुँ लोय, शांत होय हीयरा ।। जिन. ।। २ ।। 'द्यानत' कहाँ लौं कहै, इन्द्र चन्द्र सेवा बहै, भव दुख पावकको, भक्ति नीर सीयरा ।। जिन ॥३ ॥
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७४. जिन नाम सुमर मन! बावरे ! कहा इत उत भटकै ........
विषय प्रगट विष- बेल हैं, इनमें जिन अटकै। जिन नाम. ।। दुर्लभ नरभव पायकै, नगसों मत पटकै ।
फिर पीछे पछतायगो, औसर जब सटकै । जिन नाम. ।। १ ।।
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पण्डित द्यानतरायजी कृत भजन
एक घरी है सफल जो, प्रभु-गुन-रस गटकै ।
कोटि वरष जीयो वृथा, जो थोथा फटकै । । जिन नाम. ।। २ ।। 'द्यानत' उत्तम भजन है, लीजै मन रटकै ।
भव भवके पातक सबै, जै हैं तो कटकै । । जिन नाम ।। ३ ।। ७५. जिनरायके पाय सदा शरनं
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भव जल पतित निकारन कारन, अन्तरपापतिमिर हरनं । । जिन ।। १ ।। परसी भूमि भई तीरथ सो, देव- मुकुट -मनि- छवि धरनं । । जिन. ।। २ ।। 'द्यानत' प्रभु-पद-रज कब पावै, लागत भागत है मरनं । । जिन ।। ३ ।। ७६. जिनवरमूरत तेरी, शोभा कहिय न जाय रोम रोम लखि हरष होत है, आनँद उर न समाय ॥ । जिन ।। १ । शांतरूप शिवराह बतावै, आसन ध्यान उपाय । । जिन. ।। २ ।। इंद फनिंद नरिंद विभौ सब, दीसत है दुखदाय । । जिन. ।। ३ ।। 'द्यानत' पूजै ध्यावै गावै, मन वच काय लगाय । । जिन ।। ४ ।। ७७. तू ही मेरा साहिब सच्चा सांई काल अनन्त रुल्यो जगमाहीं, आपद बहुविधि पाईं। । तू ही. ।। १ ।। तुम राजा हम परजा तेरे, कीजिये न्याव न काईं । । तू ही . ।। २ ।। 'द्यानत' तेरा करमनि घेरा, लेहु छुड़ाय गुसाईं । । तू ही. ।। ३ ।। ७८. तेरी भगति बिना धिक है जीवना जैसे बेगारी दरजीको, पर घर कपड़ोंका सीवना । । तेरी ।। १ ।। मुकुट बिना अम्बर सब पहिरे, जैसे भोजनमें घीव ना । । तेरी ।। २ ।। 'द्यानत' 'भूप बिना सब सेना, जैसे मंदिरकी नींव ना । । तेरी. । । ३ । । ७९. मानुष जनम सफल भयो आज
सीस सफल भयो ईश नमत ही, श्रवन सफल जिनवचन समाज ।। मानुष. ।। भाल सफल जु दयाल तिलक, नैन सफल देखे जिनराज ।
जीभ सफल जिनवानि गानतें, हाथ सफल करि पूजन आज । मानुष. ।। १ ।।
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पण्डित द्यानतरायजी कृत भजन
आध्यात्मिक भजन संग्रह पाँय सफल जिन भौन गौनतें, काय सफल नाचें बल गाज। वित्त सफल जो प्रभुकौं लागै, चित्त सफल प्रभुध्यान इलाज ।।मानुष. ।।२।। चिन्तामणि चिंतित-वर-दाईं, कलपवृक्ष कलपन” काज।
देत अचिंत अकल्प महासुख, 'द्यानत' भक्ति गरीबनिबाज ।।मानुष. ।।३।। ८०. मैं नूं भावैजी प्रभु चेतना, मैं नूं भावै जी ...... गुण रतनत्रय आदि विराजै, निज गुण काहू देत ना।।मैं . ।।१।। सिद्ध विशुद्ध सदा अविनाशी, परगुण कबहूं लेत ना।।मैं नूं.।।२।। 'द्यानत' जो ध्याऊं सो पाऊं, पुद्गलसों कछु हेत ना ।।मैं . ।।३।। ८१. प्रभु! तुम नैनन-गोचर नाहीं ...... मो मन ध्यावै भगति बढ़ावै, रीझ न कछु मनमाहीं।।प्रभु. ।।१।। जनम-जरा-मृत-रोग-वैद्य हो, कहा करें कहां जाहीं।।प्रभु.।।२।। 'द्यानत' भव-दुख-आग-माहितै, राख चरण-तरु-छाहीं।।प्रभु.।।३।। ८२. प्रभु तुम सुमरन ही में तारे ...... सूअर सिंह नौल वानरने, कहौ कौन व्रत धारे ।।प्रभु. ।। सांप जाप करि सुरपद पायो, स्वान श्याल भय जारे । भेक वोक गज अमर कहाये, दुरगति भाव विदारे ।।प्रभु.।।१।। भील चोर मातंग जु गनिका, बहुतनिके दुख टारे । चक्री भरत कहा तप कीनौ, लोकालोक निहारे ।।प्रभु. ।।२।। उत्तम मध्यम भेद न कीन्हों, आये शरन उबारे । 'द्यानत' राग दोष बिन स्वामी, पाये भाग हमारे ।।प्रभु. ।।३।। ८३. प्रभु तेरी महिमा किहि मुख गावैं ......
गरभ छमास अगाउ कनक नग सुरपति नगर बनावै ।।प्रभु. ।। क्षीर उदधि जल मेरु सिंहासन, मल मल इन्द्र न्हुलावें। दीक्षा समय पालकी बैठो, इन्द्र कहार कहावै ।।प्रभु. ।।१।।
समोसरन रिध ज्ञान महातम, किहिविधि सरब बतावै।
आपन जातबात कहा शिव, बात सुनैं भवि जावै ।।प्रभु. ।।२।। पंच कल्यानक थानक स्वामी, जे तुम मन वच ध्यावें।
'द्यानत' तिनकी कौन कथा है, हम देखें सुख पावै ।।प्रभु. ।।।। ८४. रे मन! भज भज दीनदयाल ......
जाके नाम लेत इक छिनमैं, कटें कोट अघजाल ।।रे मन. ।। परमब्रह्म परमेश्वर स्वामी, देखें होत निहाल । सुमरन करत परम सुख पावत, सेवत भाजै काल ।।रे मन. ।।१।। इंद फनिंद चक्कधर गावै, जाको नाम रसाल । जाको नाम ज्ञान परगासै, नाशै मिथ्याजाल ।।रे मन. ।।२।। जाके नाम समान नहीं कछु, ऊरध मध्य पताल ।
सोई नाम जपो नित 'द्यानत', छांडि विषय विकराल ।।रे मन. ।।३।। ८५. वीतराग नाम सुमर, वीतराग नाम ......
भजन बिना किये यार, होगा बदनाम।।वीतराग. ।। जाको करै धूमधाम, सो तो धूमधाम | पातशाह होय चुके, सर्यो कौन काम ।।वीतराग. ।।१।। बातें परवीन करै, काम करै खाम । काल सिंह आवत है, पकर एक ठाम ।।वीतराग. ।।२।। आठ जाम लागि रह्यौ, चाम निरख दाम । 'द्यानत' कबहूँ न भूल, साहिब अभिराम ।।वीतराग. ।।३।। ८६. हम आये हैं जिनभूप! तेरे दरसन को निकसे घर आरतिकूप, तुम पद परसनको।।हम. ।।१।।
वैननिसों सुगुन निरूप, चाहैं दरसनकों।।हम.।।२।। in 'द्यानत' ध्यावै मन रूप, आनंद बरसन को ।।हम.।।३।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
८७. अब समझ कही ......
कौन कौन आपद विषयनितें, नरक निगोद सही।।अब.।।१।। एक एक इन्द्री दुखदानी, पांचौं दुखत नहीं।।हम.।।२।।
'द्यानत' संजम कारजकारी, धरौ तरौ सब ही ।।हम.।।३।। ८८. आरसी देखत मन आर-सी लागी ...... सेत बाल यह दूत कालको, जोवन मृग जरा बाघिनिखागी।।आरसी. ।।१।। चक्री भरत भावना भाई, चौदह रतन नवों निधि त्यागी।।आरसी.।।२।। 'द्यानत' दीक्षा लेत महरत, केवलज्ञान कला घट जागी।।आरसी.।।३।। ८९. काहेको सोचत अति भारी, रे मन! ...... पूरब करमनकी थित बाँधी, सो तो टरत न टारी।।काहे. ।। सब दरवनिकी तीन कालकी, विधि न्यारीकी न्यारी। केवलज्ञानविर्षे प्रतिभासी, सो सो है है सारी ।।काहे. ।।१।। सोच किये बहु बंध बढ़त है, उपजत है दुख ख्वारी। चिंता चिता समान बखानी, बुद्धि करत है कारी । काहे. ।।२।। रोग सोग उपजत चिंतातें, कहौ कौन गुनवारी। 'द्यानत' अनुभव करि शिव पहुँचे, जिन चिंता सब जारी । काहे. ।।३।। ९०. कौन काम अब मैंने कीनों, लीनों सुर अवतार हो .. गृह तजि गहे महाव्रत शिवहित, विफल फल्यो आचार हो।।कौन. ।।१।। संयम शील ध्यान तप क्षय भयो, अव्रत विषय दुखकार हो।।कौन.।।२।। 'द्यानत' कब यह थिति पूरी द्वै, लहों मुक्तपद सार हो।।कौन.।।३।। ९१. गलतानमता कब आवैगा ......
राग-दोष परणति मिट जै है, तब जियरा सुख पावैगा।।गलता. ।। मैं ही ज्ञाता ज्ञान ज्ञेय मैं, तीनों भेद मिटावैगा। करता किरिया करम भेद मिटि, एक दरव लौं लावैगा ।।गलता.॥१॥
पण्डित द्यानतरायजी कृत भजन निह. अमल मलिन व्योहारी, दोनों पक्ष नसावैगा। भेद गुण गुणीको नहिं है है, गुरु शिख कौन कहावैगा ।।गलता. ।।२।। 'द्यानत' साधक साधि एक करि, दुविधा दूर बहावैगा।
वचनभेद कहवत सब मिटकै, ज्यों का त्यों ठहरावैगा ।।गलता. ।।३।। ९२. चाहत है सुख पै न गाहत है धर्म जीव ......
सुखको दिवैया हित भैया नाहिं छतियाँ।।चाहत. ।। दुखते डरै है पै भरै है अघसेती घट, दुखको करैया भय दैया दिन रतियाँ ।।चाहत. ।।१।। बोयो है बबूल मूल खायो चाहै अंब भूल, दाह ज्वर नासनिको सोवै सेज ततियां ।।चाहत. ।।२।। 'द्यानत' है सुख राई दुख मेरुकी कमाई,
देखो राई चेतनकी चतुराई बतियां ।।चाहत. ।।३।। ९३. जीव! तैं मूढ़पना कित पायो .......
सब जग स्वारथको चाहत है, स्वारथ तोहि न भायो।।जीव. ।। अशुचि अचेत दुष्ट तनमाही, कहा जान विरमायो। परम अतिन्द्री निजसुख हरिकै, विषय रोग लपटायो।।जीव. ।।१।। चेतन नाम भयो जड़ काहे, अपनो नाम गमायो। तीन लोकको राज छांडिके, भीख मांग न लजायो।।जीव. ।।२।। मूढ़पना मिथ्या जब छूटे, तब तू संत कहायो। 'द्यानत' सुख अनन्त शिव विलसो, यों सद्गुरु बतलायो।।जीव. ।।३।। ९४. झूठा सपना यह संसार ...... दीसत है विनसत नहिं बार ।।झूठा. ।। मेरा घर सव सिरदार, रह न सके पल एक मँझार।।झूठा. ।।१।।
मेरे धन सम्पति अति सार, छांडि चलै लागै न अबार।।झूठा.।।२।। praise to a इन्द्री विषै विषैफल धार, मीठे लौँ अन्त खयकार ।।झूठा. ।।३।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
मेरो देह काम उनहार, सो तन भयो छिनक में छार ।।झूठा. ।।४ ।। जननी तात भ्रात सुत नार, स्वारथ बिना करत हैं ख्वार ।।झूठा. ।।५।। भाई शत्रु होंहिं अनिवार, शत्रु भये भाई बहु प्यार ।।झूठा. ।।६।। 'द्यानत' सुमरन भजन अधार, आग लगैं कछु लेहु निकार ।।झूठा.।।७।। ९५. त्यागो त्यागो मिथ्यातम, दूजो नहीं जाकी सम ......
त्यागो त्यागो मिथ्यातम, दूजो नहीं जाकी सम, तोह दुख दाता तिहूँ, लोक तिहूँ काल ।।त्यागो. ।। चेतन अमलरूप, तीन लोक ताको भूप, सो तो डार्यो भवकूप, दे नहिं निकाल ।।त्यागो. ।।१।। एकसौ चालीस आठ, प्रकृतिमें यह गाँठ, जाके त्या पावै शिव, गहैं भव जाल ।।त्यागो. ।।२।। 'द्यानत' यही जतन, सुनो तुम भविजन,
भजो जिनराज तातें, भाज जै है हाल ।।त्यागो. ।।३।। ९६. तू तो समझ समझ रे! ...... निशिदिन विषय भोग लपटाना, धरम वचन न सुहाई।।तू तो. ।। कर मनका लै आसन माझ्यो, वाहिज लोक रिझाई। कहा भयो बक-ध्यान धरेतें, जो मन थिर न रहाई।।तू तो.।।१।। मास मास उपवास किये तैं, काया बहुत सुखाई। क्रोध मान छल लोभ न जीत्या, कारज कौन सराई।।तू तो. ।।२।। मन वच काय जोग थिर करकैं, त्यागो विषयकषाई। 'द्यानत' सुरग मोख सुखदाई, सद्गुरु सीख बताई।।तू तो. ।।३।। ९७. तेरो संजम बिन रे, नरभव निरफल जाय ...... बरष मास दिन पहर महूरत, कीजे मन वच काय।।तेरो. ।।१।। सुरग नरक पशु गतिमें नाहीं, कर आलस छिटकाय।।तेरो.।।२।। 'द्यानत' जा बिन कबहुँ न सीझैं, राजबिर्षे जिनराय।।तेरो.।।३।।
पण्डित द्यानतरायजी कृत भजन ९७. दिौं दान महा सुख पावै ......
कूप नीर सम घर धन जानौं, क. ब. अकरें सड़ जावै।।१।। मिथ्याती पशु दानभावफल, भोग-भूमि सुरवास बसावै।।२।।
'द्यानत' गास अरध चौथाई, मन-वांछित विधि कब बनि आवै।।३।। ९८. दुरगति गमन निवारिये, घर आव सयाने नाह हो ......
पर घर फिरत बहुत दिन बीते, सहित विविध दुखदाह हो।।१।। निकसि निगोद पहुँचवो शिवपुर, बीच बसैं क्या लाह हो।।२।। 'द्यानत' रतनत्रय मारग चल, जिहिं मग चलत हैं साह हो।।३।। ९९. धिक! धिक! जीवन समकित बिना ...... दान शील तप व्रत श्रुतपूजा, आतम हेत न एक गिना ।।धिक.।। ज्यों बिनु कन्त कामिनी शोभा, अंबुज बिनु सरवर ज्यों सुना। जैसे बिना एकड़े बिन्दी, त्यों समकित बिन सरब गुना । |धिक. ।।१।। जैसे भूप बिना सब सेना, नीव बिना मन्दिर चुनना। जैसे चन्द बिहूनी रजनी, इन्हें आदि जानो निपुना । ।धिक. ।।२।। देव जिनेन्द्र, साधु गुरू, करुना, धर्मराग व्योहार भना। निहचै देव धरम गुरु आतम, ‘द्यानत' गहि मन वचन तना।।धिक. ।।३।। १००. नहिं ऐसो जनम बारंबार ......
कठिन कठिन लह्यो मनुष भव, विषय भजि मति हार । निहिं. ।। पाय चिन्तामन रतन शठ, छिपत उदधिमझार। अंध हाथ बटेर आई, तजत ताहि गँवार ।।नहिं. ।।१।। कबहुँ नरक तिरयंच कबहूँ, कबहूँ सुरगबिहार। जगतमहिं चिरकाल भ्रमियो, दुर्लभ नर अवतार ।।नहिं. ।।२।। पाय अमृत पाँय धोवै, कहत सुगुरु पुकार । तजो विषय कषाय 'द्यानत', ज्यों लहो भवपार ।।नहिं. ।।३।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
पण्डित द्यानतरायजी कृत भजन
909. निज जतन करो गुन-रतननिको, पंचेन्द्रीविषय सत्य कोट खाई करुनामय, वाग विराग छिमा भुवि भर।।निज. ।।१।। जीव भूप तन नगर बसै है, तहँ कुतवाल धरमको कर।।निज.।।२।। 'द्यानत' जब भंडार न जावै, तब सुख पावै साहु अमर।।निज.।।३।। १०२. परमाथ पंथ सदा पकरौ ........ कै अरचा परमेश्वरजीकी, कै चरचा गुन चित्त धरौ।।परमारथ. ।।१।। जप तप संजम दान छिमा करि, परधन परतिय देख डरौ।।परमारथ.।।२।। 'द्यानत' ज्ञान यही है चोखा, ध्यानसुधामृत पान करौ।।परमारथ.।।३।। १०३. प्राणी लाल! छांडो मन चपलाई ......
देखो तन्दुलमच्छ जु मन , लहै नरक दुखदाई ।।प्राणी. ।। धारै मौन दया जिनपूजा, काया बहुत तपाई। मनको शल्य गयो नहिं जब लों, करनी सकल गँवाई।।प्राणी. ।।१।। बाहूबलि मुनि ज्ञान न उपज्यो, मनकी खुटक न जाई। सुनतें मान तज्यो मनको तब, केवलजोति जगाई ।।प्राणी. ।।२।। प्रसनचंद रिषि नरक जु जाते, मन फेरत शिव पाई। तन” वचन वचन" मनको, पाप कह्यो अधिकाई ।।प्राणी. ।।३।। देंहिं दान गहि शील फिरें बन, परनिन्दा न सुहाई। वेद प. निरग्रंथ रहैं जिय, ध्यान बिना न बड़ाई ।।प्राणी. ।।४।। त्याग फरस रस गंध वरण सुर, मन इनसों लौ लाई। घर ही कोस पचास भ्रमत ज्यों, तेलीको वृष भाई ।।प्राणी. ।।५।। मन कारण है सब कारजको, विकलप बंध बढ़ाई। निरविकलप मन मोक्ष करत है, सूधी बात बताई।।प्राणी. ।।६।। 'द्यानत' जे निज मन वश करि हैं, तिनको शिवसुख थाई। बार बार कहुँ चेत सवेरो, फिर पाछै पछताई ।।प्राणी. ।।७।।
१०४. प्राणी लाल! धरम अगाऊ धारौ
जबलौं धन जोवन हैं तेरे, दान शील न बिसारौ ।।प्राणी. ।। जबलौं कर पद दिढ़ हैं तेरे, पूजा तीरथ सारौ। जीभ नैन जबलौं हैं नीके, प्रभु गुन गाय निहारौ ।।प्राणी. ।।१।। आसन श्रवन सबल हैं तोलौं, ध्यान शब्द सुनि धारौ। जरा न आवै गद न सतावै, संजम पर उपकारौ ।।प्राणी. ।।२।। देह शिथिल मति विकल न तौलौं, तप गहि तत्त्व विचारौ।
अन्तसमाधि-पोत चढ़ि अपनो, 'द्यानत' आतम तारौ।।प्राणी. ।।६।। १०५. भाई! कहा देख गरवाना रे......
गहि अनन्त भव तैं दुख पायो, सो नहिं जात बखाना रे।।भाई. ।। माता रुधिर पिताके वीरज, ता” तू उपजाना रे । गरभ वास नवमास सहे दुख, तल सिर पाँव उचाना रे।।भाई.।।१।। मात अहार चिगल मुख निगल्यो, सो तू असन गहाना रे। जंती तार सुनार निकालै, सो दुख जनम सहाना रे ।।भाई. ।।२।। आठ पहर तन मलि मलि धोयो, पोष्यो रैन बिहाना रे। सो शरीर तेरे संग चल्यो नहिं, छिनमें खाक समाना रे।।भाई. ।।३।। जनमत नारी, बाढ़त भोजन, समरथ दरब नसाना रे। सो सुत तू अपनो कर जाने, अन्त जलावै प्राना रे।।भाई. ।।४।। देखत चित्त मिलाप हरै धन, मैथुन प्राण पलाना रे। सो नारी तेरी है कैसे, मूवें प्रेत प्रमाना रे ।।भाई. ।।५।। पाँच चोर तेरे अन्दर पैठे, ते ठाना मित्राना रे । खाय पीय धन ज्ञान लूटके, दोष तेरे सिर ठाना रे ।।भाई. ।।६।। देव धरम गुरु रतन अमोलक, कर अन्तर सरधाना रे। 'द्यानत' ब्रह्मज्ञान अनुभव करि, जो चाहै कल्याना रे।।भाई. ।।७।।
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पण्डित द्यानतरायजी कृत भजन
आध्यात्मिक भजन संग्रह १०६. भाई काया तेरी दुखकी ढेरी ......
भाई काया तेरी दुखकी ढेरी, बिखरत सोच कहा है। तेरे पास सासतौ तेरो, ज्ञानशरीर महा है।।भाई ।। ज्यों जल अति शीतल है काचौ, भाजन दाह दहा है। त्यों ज्ञानी सुखशान्त कालका, दुख समभाव सहा है।।भाई. ।।१।। बोदे उतरें नये पहिरतें, कौंने खेद गहा है। जप तप फल परलोक लहैं जे, मरकै वीर कहा है।।भाई. ।।२।। 'द्यानत' अन्तसमाधि चहैं मुनि, भागौं दाव लहा है।
बहु तज मरण जनम दुख पावक, सुमरन धार बहा है।।भाई. ।।३।। १०७. भाई! ज्ञानका राह दुहेला रे ......
मैं ही भगत बड़ा तपधारी, ममता गृह झकझेला रे ||भाई. ।। मैं कविता सब कवि सिरऊपर, बानी पुदगलमेला रे। मैं सब दानी मांगै सिर द्यौ, मिथ्याभाव सकेला रे ||भाई. ।।१।। मृतक देह बस फिर तन आऊं, मार जिवाऊं छेला रे। आप जलाऊं फेर दिखाऊं, क्रोध लोभतें खेला रे ।।भाई. ।।२।। वचन सिद्ध भाषै सोई है, प्रभुता वेलन वेला रे । 'द्यानत' चंचल चित पारा थिर, करै सुगुरुका चेला रे।।भाई.।।३।। १०८. भाई! ज्ञानका राह सुहेला रे .......
दरब न चहिये देह न दहिये, जोग भोग न नवेला रे।।भाई. ।। लड़ना नाहीं मरना नाहीं, करना बेला तेला रे । पढ़ना नाहीं गढ़ना नाहीं, नाच न गावन मेला रे ।।भाई. ।।१।। न्हानां नाहीं खाना नाहीं, नाहिं कमाना धेला रे। चलना नाहीं जलना नाहीं, गलना नाहीं देला रे ।।भाई. ।।२।। जो चित चाहे सो नित दाहै, चाह दूर करि खेला रे। 'द्यानत' यामें कौन कठिनता, वे परवाह अकेला रे।।भाई. ।।३।।
१०९. मानों मानों जी चेतन यह ......
मानों मानों जी चेतन यह, विषै भोग छोड देहु, विषै की समान कोऊ, नाहीं विष आन।।टेक ।। तात मात पुत्र नार, नदी नाव ज्यों निहार, जोवन गुमान जानों, चपला समान ।।मानों. ।।१।। हाथी रथ प्यादे बाज, इनसों न तेरो काज, सुपने समान देख, कहा गरबान ।।मानों. ।।२।। ये तो देहके मिलापी, तू तो देहसों अव्यापी,
ज्ञान दृष्टि धर देखि, चेतिये सुजान ।।मानों. ।।३।। ११०. मिथ्या यह संसार है, झूठा यह संसार है रे...... जो देही षट्रससों पोषै, सो नहिं संग चलै रे।
औरनिको तोहि कौन भरोसो, नाहक मोह करै रे, भाई।।मिथ्या.।।१।। सुखकी बातें बूझै नाहीं, दुखको सुक्ख लखै रे। मूढ़ोंमाहीं मातों डोलै, साधौं पास डरै रे, भाई ।।मिथ्या. ।।२।। झूठ कमाता झूठी खाता, झूठी जाप जपै रे । सच्चा सांई सूझै नांहीं, क्यों करि पार लगैरे, भाई।।मिथ्या. ।।३।। जमसों डरता फूला फिरता, करता मैं मैं मैं रे। 'द्यानत' स्याना सोही जाना, जो प्रभु ध्यान धरै रे भाई।।मिथ्या.।।४।। 999. मेरी मेरी करत जनम सब बीता ...... परजय-रत स्वस्वरूप न जान्यो, ममता ठगनी ठग लीता।।मेरी.॥१।। इंद्री-सुख लखि सुख विसरानौ, पांचों नायक वश नहिं कीता।।मेरी.।।२।। 'द्यानत' समता-रसके रागी, विषयनि त्यागी है जग जीता। मेरी.।।३।। ११२. मेरे मन कब है है बैराग ...... राज समाज अकाज विचारौं, छारौं विषय कारे नाग।।मेरे. ।।१।। मन्दिर वास उदास होयकैं, जाय बसौं बन बाग।।मेरे. ।।२।। कब यह आसा कांसा फूटै, लोभ भाव जाय भाग।।मेरे.।।३।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह आप समान सबै जिय जानौं, राग दोषकों त्याग।।मेरे.।।४ ।। 'द्यानत' यह विधि जब बनि आवै, सोई घड़ी बड़भाग ।।मेरे. ।।५।। ११३. मोहि कब ऐसा दिन आय है
सकल विभाव अभाव होहिंगे, विकलपता मिट जाय है।।मोहि. ।। यह परमातम यह मम आतम, भेद-बुद्धि न रहाय है।
ओरनिकी का बात चलावै, भेद-विज्ञान पलाय है।।मोहि. ।।१।। जानें आप आपमें आपा, सो व्यवहार विलाय है। नय-परमान-निक्षेपन-माहीं, एक न औसर पाय है।।मोहि. ।।२।। दरसन ज्ञान चरनके विकलप, कहो कहाँ ठहराय है। 'द्यानत' चेतन चेतन है है, पुदगल पुदगल थाय है।।मोहि. ।।३।। ११४. ये दिन आछे लहे जी लहे जी ......
देव धरम गुरूकी सरधा करि, मोह मिथ्यात दहे जी दहे जी।।ये.।।१।। प्रभु पूजे सुने आगमको, सतसंगति माहिं रहे जी रहे जी।।ये. ।।२।। 'द्यानत' अनुभव ज्ञानकला कछु, संजम भाव गहे जी गहे जी।।ये.।।३।। ११५. रे जिय! जनम लाहो लेह ......
चरन ते जिन भवन पहुँचें, दान दें कर जेह।।रे जिय. ।। उर सोई जामैं दया है, अरु रुधिरको गेह। जीभ सो जिन नाम गावै, सांचसौं करै नेह। रे जिय.।।१।।
आंख ते जिनराज देखें, और आँखें खेह। श्रवन ते जिनवचन सुनि शुभ, तप तपै सो देह ।।रे जिय.।।२।। सफल तन इह भांति है है, और भांति न केह।
है सुखी मन राम ध्यावो, कहैं सदगुरु येहारे जिय. ।।३।। ११६. विपतिमें धर धीर, रे नर! विपतिमें धर धीर
सम्पदा ज्यों आपदा रे!, विनश जै है वीर।।रे नर. ।।१।। धूप छाया घटत बढ़े ज्यों, त्योंहि सुख दुख पीर। रे मन.।।२।। दोष ‘द्यानत' देय किसको, तोरि करम-जंजीर। रे मन.।।३।।
पण्डित द्यानतरायजी कृत भजन ११७. समझत क्यों नहिं वानी, अज्ञानी जन ...... स्यादवाद-अंकित सुखदायक, भाषी केवलज्ञानी ।।समझत. ।। जास लखें निरमल पद पावै, कुमति कुगतिकी हानी। उदय भया जिहिमें परगासी, तिहि जानी सरधानी ।।समझत.।।१।। जामें देव धरम गुरु वरनें, तीनौं मुकति निसानी। निश्चय देव धरम गुरु आतम, जानत विरला प्रानी । समझत. ।।२।। या जगमांहि तुझे तारनको, कारन नाव बखानी। 'द्यानत' सो गहिये निहचैसों, हूजे ज्यों शिवथानी ।।समझत. ।।३।। ११८. संसारमें साता नाहीं वे ...... छिनमें जीना छिनमें मरना, धन हरना छिनमाहीं वे।।संसार. ।।१।। छिनमें भोगी छिनमें रोगी, छिनमें छय-दुख पाहीं वे।।संसार.।।२।। 'द्यानत' लखके मुनि होवें जे, ते पावै सुख ठाहीं वे।।संसार.।।३।। ११९. सोग न कीजे बावरे! मरें पीतम लोग .... जगत जीव जलबुदबुदा, नदी नाव सँजोग।।सोग. ।। आदि अन्तको संग नहिं, यह मिलन वियोग। कई बार सबसों भयो, सम्बन्ध मनोग ।।सोग. ।।१।। कोट वरष लौं रोइये, न मिलै वह जोग। देखें जानैं सब सुनैं, यह तन जमभोग ।।सोग. ।।२।। हरिहर ब्रह्मासे खये, तू किनमें टोग। 'द्यानत' भज भगवन्त जो, विनसै यह रोग ।।सोग. ।।३।। १२०. हम न किसीके कोई न हमारा, झूठा है जगका ब्योहारा ...... तनसम्बन्धी सब परिवारा, सो तन हमने जाना न्यारा ।।हम. ।। पुन्य उदय सुखका बढ़वारा, पाप उदय दुख होत अपारा। पाप पुन्य दोऊ संसारा, मैं सब देखन जानन हारा ।।१।। मैं तिहुँ जग तिहुँ काल अकेला, पर संजोग भया बहु मेला। थिति पूरी करि खिर खिर जाहीं, मेरे हर्ष शोक कछु नाहीं।।२।।
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पण्डित द्यानतरायजी कृत भजन
आध्यात्मिक भजन संग्रह राग भावतें सज्जन मानें, दोष भावतें दुर्जन जानैं ।
राग दोष दोऊ मम नाहीं, ‘द्यानत' मैं चेतनपदमाहीं ।।३ ।। १२१. हमारो कारज कैसें होय ......
कारण पंच मुकति मारगके, जिनमें के हैं दोय ।।हमारो. ।। हीन संहनन लघु आयूषा, अल्प मनीषा जोय । कच्चे भाव न सच्चे साथी, सब जग देख्यो टोय ।।हमारो. ।।१।। इन्द्री पंच सुविषयनि दौरें, मानैं कह्या न कोय। साधारन चिरकाल वस्यो मैं, धरम बिना फिर सोय ।।हमारो. ।।२।। चिन्ता बड़ी न कछु बनि आवै, अब सब चिन्ता खोय। 'द्यानत' एक शुद्ध निजपद लखि, आपमें आप समोय ।।हमारो. ।।३।। १२२. हमारो कारज ऐसे होय ......
आतम आतम पर पर जानें, तीनौं संशय खोय ।।हमारो. ।। अंत समाधिमरन करि तन तजि, होय शक्र सुरलोय । विविध भोग उपभोग भोगवै, धरमतनों फल सोय ।।हमारो. ।।१।। पूरी आयु विदेह भूप है, राज सम्पदा भोय । कारण पंच लहै गहै दुद्धर, पंच महाव्रत जोय ।।हमारो. ।।२।। तीन जोग थिर सहै परीसह, आठ करम मल धोय। 'द्यानत' सुख अनन्त शिव विलसै, जनमैं मरै न कोय ।।हमारो. ।।३।। १२३. हमारे ये दिन यों ही गये जी ......
कर न लियो कछु जप तप जी, कछु जप तप, बहु पाप बिसाहे नये जी ।।हमारे. ।।१।। तन धन ही निज मान रहे, निज मान रहे, कबहूँ न उदास भये जी ।।हमारे. ।।२।। 'द्यानत' जे करि हैं करुना, करि हैं करुना, तेइ जीव लेखेमें लये जी ।।हमारे. ।।३।।
१२४. कब हौं मुनिवरको व्रत धरिहौं ........
सकल परिग्रह तिन सम तजिकै, देहसों नेह न करिहौं। कब.।।१।। कब बावीस परीषह सहिकै, राग दोष परिहरिहौं।।कब.।।२।। 'द्यानत' ध्यान-यान कब चढ़िकै, भवदधि पार उतरिहौं। कब.।।३।। १२५. कहत सुगुरु करि सुहित भविकजन! ...... पुदगल अधरम धरम गगन जम, सब जड़ मम नहिं यह सुमरहु मन ।। नर पशु नरक अमर पर पद लखि, दरब करम तन करम पृथक भन । तुम पद अमल अचल विकलप बिन, अजर अमर शिव अभय अखयगन ।।१।। त्रिभुवनपतिपद तुम पटतर नहिं, तुम पद अतुल न तुल रविशशिगन । वचन कहन मन गहन शकति नहिं, सुरत गमन निज जिन गम परनम।।२।। इह विधि बंधत खुलत इह विधि जिय, इन विक्लपमहिं, शिवपद सधत न। निरविकलप अनुभव मन सिधि करि, करम सघन वनदहन दहन-कन ।।३।। १२६. गुरु समान दाता नहिं कोई ......
भानु-प्रकाश न नाशत जाको, सो अँधियारा डारै खोई।।गुरु. ।। मेघसमान सबनपै बरसै, कछु इच्छा जाके नहिं होई। नरक पशुगति आग मांहिते, सुरग मुक्त सुख थापै सोई।।गुरु. ।।१।। तीन लोक मन्दिरमें जानौ, दीपक सम परकाशक-लोई। दीपतलै अँधियार भर्यो है, अन्तर बहिर विमल है जोई।।गुरु. ।।२।। तारन तरन जिहाज सुगुरु हैं, सब कुटुम्ब डोबै जगतोई।
'द्यानत' निशिदिन निरमल मनमें, राखोगुरु-पद-पंकज दोई।।गुरु. ।।३।। १२७. धनि धनि ते मुनि गिरिवनवासी ......
मार मार जगजार जारते, द्वादश व्रत तप अभ्यासी ।।धनि. ।।
कौड़ी लाल पास नहिं जाके, जिन छेदी आसापासी। ___ आतम-आतम, पर-पर जानें, द्वादश तीन प्रकृति नासी ।।धनि. ।।१।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह जा दुख देख दुखी सब जग द्वै, सो दुख लख सुख द्वै तासी। जाकों सब जग सुख मानत है, सो सुख जान्यो दुखरासी।।धनि. ।।२।। बाहिज भेष कहत अंतर गुण, सत्य मधुर हित मित भासी।
"द्यानत" ते शिवपंथ पथिक हैं, पांव परत पातक जासी ।।धनि. ।।३।। १२८. भाई धनि मुनि ध्यान-लगायके खरे हैं मूसल भारसी धार पर है बिजुली कड़कत सोर करै है।।भाई. ।।१।। रात अँध्यारी लोक डरे हैं, साधुजी आपनि करम हरे हैं।।भाई.।।२।। झंझा पवन चहँदिशि बाजै, बादर घूम घूम अति गाऊँ।।भाई. ।।३।। ड्स मसक, बहु दुख उपराजै, 'द्यानत' लाग रहे निज काजै। भाई.।।४।। १२९. यारी कीजै साधो नाल ......
आपद मेटै सम्पद भैंटे, बेपरवाह कमाल।।यारी. ।।१।। परदुख दुखी सुखी निज सुखसों, तन छीने मन लाल।।यारी.।।२।। राह लगावै ज्ञान जगावै, 'द्यानत' दीनदयाल।।यारी.।।३।। १३०. सोहां दीव (शोभा देवें) साधु तेरी बातड़ियां ...... दोष मिटावें हरष बढ़ावै, रोग सोग भय घातड़ियां।।सोहां. ।।१।। जग दुखदाता तुमही साता, धनि ध्यावै उठि प्रातड़ियां।।सोहां.।।२।। 'द्यानत' जे नरनारी गावै, पावै सुख दिन रातड़ियां।।सोहां.।।३।। १३१. गौतम स्वामीजी मोहि वानी तनक सुनाई ...... जैसी वानी तुमने जानी, तैसी मोहि बताई।।गौतम. ।।१।। जा वानी” श्रेणिक समझ्यो, क्षायक समकित पाई।।गौतम.।।२।। 'द्यानत' भूप अनेक तरे हैं, वानी सफल सुहाई।।गौतम.।।३ ।। १३२. जिनवानी प्रानी! जान लै रे ...... छहों दरब परजाय गुन सरब, मन नीके सरधान लै रे।।जिनवानी. ।।१।। देव धरम गुरु निहचै धर उर, पूजा दान प्रमान लै रे।।जिनवानी.।।२।। 'द्यानत' जान्यो जैन बखान्यो, ॐ अक्षर मन आन लैरे। जिनवानी.।।३।।
पण्डित द्यानतरायजी कृत भजन १३३. वे प्राणी! सुज्ञानी, जिन जानी जिनवानी ...... चन्द सूर हू दूर करें नहिं, अन्तरतमकी हानी।।वे. ।।१।। पक्ष सकल नय भक्ष करत है, स्यादवादमें सानी।।वे.।।२।। 'द्यानत' तीनभवन-मन्दिरमें, दीवट एक बखानी।।वे.।।३।। १३४. मैं न जान्यो री! जीव ऐसी करैगो ...... मोसौं विरति कुमतिसों रति कै, भवदुख भूरि भरैगो।।मैं. ।।१।। स्वारथ भूलि भूलि परमारथ, विषयारथमें परैगो।।मैं.।।२।। 'द्यानत' जब समतासों राचै, तब सब काज सरैगो।।मैं.।।३।। १३५. रे जिय! क्रोध काहे करै......
देखकै अविवेकि प्रानी, क्यों विवेक न धरै ।।रे जिय. ।। जिसे जैसी उदय आवै, सो क्रिया आचरै। सहज तू अपनो बिगारै, जाय दुर्गति परै ।।रे जिय. ।।१।। होय संगति-गुन सबनिकों, सरव जग उच्चरै। तुम भले कर भले सबको, बुरे लखि मति जरै।।रे जिय. ।।२।। वैद्य परविष हर सकत नहिं, आप भखि को मरै। बहु कषाय निगोद-वासा, छिमा ‘द्यानत' तरै ।।रे जिय. ।।३।। १३६. सबसों छिमा छिमा कर जीव! ......
मन वच तनसों वैर भाव तज, भज समता जु सदीव ।।सबसों. ।। तपतरु उपशम जल चिर सींच्यो, तापस शिवफल हेत। क्रोध अगनि छिनमाहिं, जरावै, पावै नरक-निकेत ।।सबसौं. ।।१।। सब गुनसहित गहत रिस मनमें, गुन औगुन है जात। जैसैं प्रानदान भोजन ढ, सविष भये तन घात ।।सबसौं. ।।२।। आप समान जान घट घटमें, धर्ममूल यह वीर। 'द्यानत' भवदुखदाह बुझावै, ज्ञान सरोवर नीर ।।सबसौं. ।।३।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
१३७. जियको लोभ महा दुखदाई, जाकी शोभा ( ? ) ...... लोभ करै मूरख संसारी, छांडै पण्डित शिव अधिकारी । । जियको. ।। तजि घरवास फिरै वनमाहीं, कनक कामिनी छांडै नाहीं । लोक रिझावनको व्रत लीना, व्रत न होय ठगई सा कीना । । १ ।। लोभवशात जीव हत डारै, झूठ बोल चोरी चित धारै । नारि है परिग्रह विसतारै, पाँच पाप कर नरक सिधारै ।। २ ।। जोगी जती गृही वनवासी, बैरागी दरवेश सन्यासी । अजस खान जसकी नहिं रेखा, 'द्यानत' जिनकै लोभ विशेखा ॥ ३ ॥ १३८. गहु सन्तोष सदा मन रे! जा सम और नहीं धन रे........ आसा कांसा भरा न कबहूं, भर देखा बहुजन रे ।
धन संख्यात अनन्ती तिसना, यह बानक किमि बन रे । । गहु . ।। १ ।। जे धन ध्यावैं ते नहिं पावैं, छांडै लगत चरन रे ।। यह ठगहारी साधुनि डारी, छरद अहारी निधन रे ।। गहु ।। २ ।। तरुकी छाया नरकी माया, घटै बढ़े छन छन रे । 'द्यानत' अविनाशी धन लागें, जागें त्यागें ते धन रे । गहु . ।। ३ ।। १३९. साधो! छांडो विषय विकारी । जातैं तोहि महा दुखकारी जो जैनधर्म को ध्यावै, सो आतमीक सुख पावै । । साधो ।। गज फरस विषै दुख पाया, रस मीन गंध अलि गाया। लखि दीप शलभ हित कीना, मृग नाद सुनत जिय दीना । साधो. ।। १ ।। ये एक एक दुखदाई, तू पंच रमत है भाई ।
यह कौंनें, सीख बताई, तुमरे मन कैसें आई । । साधो . ।। २ ।। इनमाहिं लोभ अधिकाई, यह लोभ कुगतिको भाई ।
सो कुगतिमाहिं दुख भारी, तू त्याग विषय मतिधारी । | साधो || ३ || ये सेवत सुखसे लागें, फिर अन्त प्राणको त्यागें । तातैं ये विषफल कहिये, तिनको कैसे कर गहिये । । साधो ॥ ४ ॥
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(२८)
पण्डित द्यानतरायजी कृत भजन
तबलौं विषया रस भावै, जबलौं अनुभव नहिं आवै ।
जिन अमृत पान ना कीना, तिन और रसन चित दीना । । साधो . ।। ५ ।। अब बहुत कहां लौं कहिए, कारज कहि चुप है रहिये ।
ये लाख बातकी एक, मत गहो विषयकी टेक । ।साधो . ।। ६ ।। जो तजै विषयकी आसा, 'द्यानत' पावै शिववासा । यह सतगुरु सीख बताई, काहू बिरले जिय आई । । साधो. ॥७॥ १४०. वे साधौं जन गाई, कर करुना सुखदाई. निरधन रोगी प्रान देत नहिं, लहि तिहुँ जग ठकुराई । । वे ।। १ ।। क्रोड़ रास कन मेरु हेम दे, इक जीवध अधिकाई ॥ । वे ।।२ ।। 'द्यानत' तीन लोक दुख पावक, मेघझरी बतलाई । । वे . ।। ३ ।। १४१. कर्मनिको पेलै, ज्ञान दशामें खेलै
सुख दुख आवै खेद न पावै, समता रससों ठेलै । । कर्म. ।। १ ।। सुदर गुन परजाय समझके, पर-परिनाम धकेलै । । कर्म. ।। २ ।। आनंदकंद चिदानंद साहब, 'द्यानत' अंतर झेलै । । कर्म. ।। ३ ।। १४२. खेलौंगी होरी, आये चेतनराय ...... दरसन वसन ज्ञान रँग भीने, चरन गुलाल लगाय । । खेलौं ।। १ ।। आनँद अतर सुनय पिचकारी, अनहद बीन बजाय । । खेलौं ।। २ ।। रीझौं आप रिझावौं पियको, प्रीतम लौं गुन गाय ।।खेलौं ।। ३ ।। 'द्यान' सुमति सुखी लखि सुखिया, सखी भई बहु भाय । ।खेलौं ।।४ ।। १४३. चेतन खेलै होरी
सत्ता भूमि छिमा वसन्तमें, समता प्रानप्रिया सँग गोरी । । चेतन. ।। मनको माट प्रेमको पानी, तामें करुना केसर घोरी । ज्ञान ध्यान पिचकारी भरि भरि, आपमें छोरै होरा होरी ।। १ ।। गुरुके वचन मृदंग बजत हैं, नय दोनों डफ ताल टकोरी । संजम अतर विमल व्रत चोवा, भाव गुलाल भरै भर झोरी । । २ ।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
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धरम मिठाई तप बहु मेवा, समरस आनँद अमल कटोरी । 'द्यानत' सुमति कहै सखियनसों, चिरजीवो यह जुगजुग जोरी || ३ || १४४. नगर में होरी हो रही हो मेरो पिय चेतन घर नाहीं, यह दुख सुन है को । । नगर. ।। १ ।। सोति कुमति राच रह्यो है, किहि विध लाऊं सो । । नगर. ।। २ ।। 'द्यानत' सुमति कहै जिन स्वामी, तुम कछु शिक्षा दो । नगर. ।। ३ ।। १४५. पिया बिन कैसे खेलौं होरी
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आतमराम पिया नहिं आये, मोकों होरी कोरी । । पिया. ।। १ ।। एक बार प्रीतम हम खेलें, उपशम केसर घोरी । । पिया. ।। २ ।। 'द्यानत' वह समयो कब पाऊं, सुमति कहै कर जोरी । । पिया. ।। ३ ।। १४६. भली भई यह होरी आई, आये चेतनराय काल बहुत प्रीतम बिन बीते, अब खेलौं मन लाय । भली. ।। १ ।। सम्यक रंग गुलाल बरतमें, राग विराग सुहाय । । भली. ।। २ ।। 'द्यानत' सुमति महा सुख पायो, सो वरन्यो नहिं जाय । । भली. ।। ३ ।। १४७. परमगुरु बरसत ज्ञान झरी
हरषि हरषि बहु गरजि गरजिकै, मिथ्यातपन हरी ।। परमगुरु. ।। सरधा भूमि सुहावनि लागै, संशय बेल हरी।
भविजन मनसरवर भरि उमड़े, समुझि पवन सियरी । । परमगुरु . ।। १ ।। स्यादवाद नय बिजली चमकै, पर मत - शिखर परी ।
चातक मोर साधु श्रावकके, हृदय सुभक्ति भरी ।। परमगुरु ।। २ ।। जप तप परमानन्द बढ्यो है, सुसमय नींव धरी ।
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'द्यानत' पावन पावस आयो, थिरता शुद्ध करी । । परमगुरु. ।। ३ ।। १४८. री ! मेरे घट ज्ञान घनागम छायो शुद्ध भाव बादल मिल आये, सूरज मोह छिपायो । री. ।। अनहद घोर घोर गरजत है, भ्रम आताप मिटायो । समता चपला चमकनि लागी, अनुभौ सुख झर लायो। री . ।। १ ।।
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पण्डित द्यानतरायजी कृत भजन
सत्ता भूमि बीज समकितको, शिवपद खेत उपायो ।
उद्धत भाव सरोवर दीसै, मोर सुमन हरषायो । । री. ।। २ ।। भव-प्रदेशतैं बहु दिन पीछें, चेतन पिय घर आयो। 'द्यानत' सुमति कहै सखियनसों, यह पावस मोहि भायो । री. ।। ३ ।। १४९. कहे सीताजी सुनो रामचन्द्र ......
कहै सीताजी सुनो रामचन्द्र, संसार महादुखवृक्षकन्द ।। कहै. ।। पंचेन्द्री भोग भुजंग जानि, यह देह अपावन रोगखानि ।। १ ।। यह राज रजमयी पापमूल, परिग्रह आरंभ में छिन न भूल ॥ २ ॥ आपद सम्पद घर बंधु गेह, सुत संकल फाँसी नारि नेह || ३ || जिय रुल्यो निगोद अनन्त काल, बिनु जानें ऊरध मधि पाताल ॥ ४ ॥ तुम जानत करत न आप काज, अरु मोहि निषेधो क्यों न लाज ॥ ५ ॥ तब केश उपरि सबै खिमाय, दीक्षा धरि कीन्हों तप सुभाय ।। ६ ।। 'द्यानत' ठारै दिन ले सन्यास, भयो इन्द्र सोलहैं सुरग बास ॥ ७ ॥ १५०. सुरनरसुखदाई, गिरनारि चलौ भाई बाल जती नेमीश्वर स्वामी, जहँ शिवरिद्धि कमाई । । सुर. ।। १ ।। कोड़ बहत्तर सात शतक मुनि, तहँ पंचमगति पाई । । सुर. ।। २ ।। तीरथ महा महाफलदाता, 'द्यानत' सीख बताई । । सुर. ।। ३ ।। १५१. आरति श्रीजिनराज तिहारी, करमदलन संतन हितकारी सुरनरअसुर करत तुम सेवा । तुमही सब देवनके देवा ।। १ ।। पंचमहाव्रत दुद्धर धारे। रागरोष परिणाम विदारे ।। २ ।। भवभय भीत शरन जे आये । ते परमारथ पंथ लगाये || ३ || जो तुम नाथ जपै मन माहीं । जनम मरन भय ताको नाहीं ॥ ४ ॥ समवसरन संपूरन शोभा । जीते क्रोध मान छल लोभा ।। ५ ।। तुम गुण हम कैसे करि गावैं। गणधर कहत पार नहिं पावैं ।। ६ ।। करुणासागर करुणा कीजे । 'द्यानत' सेवक को सुख दीजे ॥ ७ ॥
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
अनुक्रमणिका
१५२. करौं आरती वर्द्धमानकी। पावापुर निरवान थान की राग-बिना सब जग जन तारे। द्वेष बिना सब करम विदारे।।१।। शील-धुरंधर शिव-तियभोगी। मनवचकायन कहिये योगी ।।२।। रतनत्रय निधि परिग्रह-हारी। ज्ञानसुधाभोजनव्रतधारी ।।३ ।। लोक-अलोक व्याप निजमाही। सुखमय इंद्रिय सुखदुख नाहीं ।।४।। पंचकल्याणकपूज्य विरागी। विमलदिगंबर अंबर-त्यागी।।५ ।। गुनमनि-भूषन भूषित स्वामी। जगतउदास जगंतरस्वामी ।।६।। कहै कहां लौं तुम सब जानौ। 'द्यानत' की अभिलाष प्रमानौं ।।७।। १५३. मंगल आरती आतमराम | तनमंदिर मन उत्तम ठान...... समरस जलचंदन आनंद। तंदुल तत्त्वस्वरूप अमंद।।१।। समयसारफूलन की माल । अनुभव-सुख नेवज भरि थाल ।।२।। दीपकज्ञान ध्यानकी धूप। निरमलभाव महाफलरूप ।।३ ।। सुगुण भविकजन इकरँगलीन । निहचै नवधा भक्ति प्रवीन ।।४ ।। धुनि उतसाह सु अनहद गान । परम समाधिनिरत परधान ।।५।। बाहिज आतमभाव बहावै। अंतर है परमातम ध्यावै ।।६ ।। साहब सेवकभेद मिटाय । ‘द्यानत' एकमेक हो जाय ।।७।। १५४. आरति कीजै श्रीमुनिराजकी, अधमउधारन आतमकाजकी... जा लक्ष्मी के सब अभिलाखी। सो साधन करदम वत नाखी।।१।। सब जग जीत लियो जिन नारी। सो साधन नागनिवत छारी ।।२।। विषयन सब जगजिय वश कीने। ते साधन विषवत तज दीने ।।३।। भुविको राज चहत सब प्रानी। जीरन तृणवत त्यागत ध्यानी ।।४।। शत्रु मित्र दुखसुख सम मानै । लाभ अलाभ बराबर जानै ।।५।। छहोंकाय पीहरव्रत धारें। सबको आप समान निहारें ।।६।। इह आरती पढ़े जो गावै। ‘द्यानत' सुरगमुकति सुख पावै ।।७।।
२. पण्डित भूधरदासजी कृत भजन
५९-७७ • लगी लो नाभिनंदनसों • भगवन्त भजन क्यों भूला रे • जग में जीवन थोरा, रे अज्ञानी जागि • मेरे मन सूवा, जिनपद ६२
पींजरे वसि, यार लाव न बार रे . अरे! हाँ चेतो रे भाई जपि माला जिनवर नामकी. थाँकी कथनी म्हानै भवि देखि छबी भगवान की • जिनराज चरन मन मति बिसरै जिनराज ना विसारो, मति जन्म वादि हारो पुलकन्त नयन चकोर पक्षी...... नैननि को वान परी, दरसन की ६५ प्रभु गुन गाय रै, यह औसर फेर न पाय रे
सुन ज्ञानी प्राणी, श्री गुरु सीख सयानी • वे मुनिवर कब मिलि है उपगारी • सो गुरुदेव हमारा है साधो ६७
अब पूरी कर नींदड़ी, सुन जिया रे! चिरकाल...... भलो चेत्यो वीर नर तू, भलो चेत्यो वीर देखो भाई! आतमदेव बिराजै अन्तर उज्जवल करना रे भाई! • अब मेरे समकित सावन आयो सुनि ठगनी माया, तैं सब जग ठग खाया अज्ञानी पाप धतूरा न बोय • ऐसी समझके सिर धूल चित्त! चेतनकी यह विरियां रे . गरव नहिं कीजै रे, ऐ नर निपट गंवार • बीरा! थारी बान बुरी परी रे, बरज्यो मानत नाहिं
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६०
•
मन हंस! हमारी लै शिक्षा हितकारी !
• सो मत सांचो है मन मेरे
• मन मूरख पंथी, उस मारग मति जाय रे
•
सब विधि करन उतावला, सुमरनकौं सीरा
• आयो रे बुढ़ापो मानी, सुधबुध
• चरखा चलता नाहीं (रे) चरखा हुआ पुराना (वे)
• काया गागरि, जोझरी, तुम देखो चतुर विचार हो
• गाफिल हुवा कहाँ तू डोले, दिन जाते तेरे भरती में
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• जगत जन जूवा हारि चले
• जग में श्रद्धानी जीव जीवन मुकत हैंगे
• वे कोई अजब तमासा देख्या बीच जहान वे, जोर तमासा
सुपनेका-सा • सुनि सुजान ! पाँचों रिपु वश करि
• अहो दोऊ रंग भरे खेलत होरी
• होरी खेलौंगी, घर आये चिदानंद कन्त
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७३
७४
७५
७६
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(३१)
| पण्डित भूधरदासजी
कृत भजन
9. लगी लो नाभिनंदनसों ।
(राग सोरठ)
लगी लो नाभिनंदन सों। जपत जेम चकोर चकई, चन्द भरता को ।। जाउ तन-धन जाउ जोवन, प्रान जाउ न क्यों । एक प्रभु की भक्ति मेरे, रहो ज्यों की त्यों ।। १ ।। और देव अनेक सेवे, कछु न पायो हौं । ज्ञान खोयो गाँठिको, धन करत कुवनिज ज्यों ।। २ ।। पुत्र - मित्र कलत्र ये सब, सगे अपनी गों। नरक कूप उद्धरन श्रीजिन, समझ 'भूधर' यों । । ३ ॥ २. भगवन्त भजन क्यों भूला रे (राग सोरठ) भगवन्त भजन क्यों भूला रे ।। टेक ॥।
यह संसार रैन का सुपना, तन धन वारि बबूला रे ।। इस जीवन का कौन भरोसा, पावक में तृण-पूलारे । कल कुदार लिये सिर ठाड़ा, क्या समझे मन फूला रे ।। १ ।। स्वारथ साधै पाँच पाँव तू, परमारथ को लूला रे । कहु कैसे सुख पैहै प्राणी, काम करै दुखमूला रे ।। २ ।। मोह पिशाच छल्यो मति मारै, निज कर कंध वसूला रे । भज श्रीराजमतीवर 'भूधर', दो दुरमति सिर धूला रे ॥ ३ ॥
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
६२
३. जग में जीवन थोरा, रे अज्ञानी जागि
(राग ख्याल)
जग में जीवन थोरा, रे अज्ञानी जागि । । टेक ॥ जनम ताड़ तरुतैं पड़े, फल संसारी जीव ।
मौत महीमैं आय हैं, और न ठौर सदीव ॥ १ ॥ । जगमें ।। गिर - सिर दिवला जोइया, चहुंदिशि बाजै पौन ।
बलत अचंभा मानिया, बुझत अचंभा कौन || २ || जगमें . ।। जो छिन जाय सो आयुमैं, निशि दिन दूकै काल । बाँधि सकै तो है भला, पानी पहिली पाल ।। ३ । । जगमें ।। मनुष देह दुर्लभ्य है, मति चूकै यह दाव । भूधर राजुल कंतकी, शरण सिताबी आव ॥१४ ॥ । जगमें. ।। ४. मेरे मन सूवा, जिनपद पींजरे वसि, यार लाव न बार रे (राग सोरठ)
मेरे मन सूवा, जिनपद पिंजरे वसि, यार लाव न बार रे । । टेक ॥। संसार सेमलवृक्ष सेवत, गयो काल अपार रे । विषय फल तिस तोड़ि चाखे, कहा देख्यौ सार रे ।। १ ।। तू क्यों निचिन्तो सदा तोकों, तकत काल मंजार रे । दाबै अचानक आन तब तुझे, कौन लेय उबार रे ।। २ ।। तू फंस्यो कर्म कुफन्द भाई, छूटै कौन प्रकार रे । तैं मोह-पंछी - वधक-विद्या, लखी नाहिं गंवार रे ।। ३ ।। है अौं एक उपाय 'भूधर', छूटै जो नर धार रे । रटि नाम राजुल - रमन को, पशुबंध छोड़न हार रे ।।४ ।। ५. अरे ! हाँ चेतो रे भाई
(राग ख्याल)
अरे! हाँ चेतो रे भाई ।।
मानुष देह लही दुलही, सुघरी उघरी सतसंगति पाई ।। १ ।।
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पण्डित भूधरदासजी कृत भजन
६३
जे करनी वरनी करनी नहिं, ते समझी करनी समझाई ।। २ ।। यों शुभ थान जग्यो उर ज्ञान, विषै विषपान तृषा न बुझाई || ३ || पारस पाय सुधारस ‘भूधर’, भीखके मांहि सु लाज न आई ।।४ ।। ६. जपि माला जिनवर नामकी
(राग सारङ्ग)
जप माला जिनवर नाम की।
भजन सुधारससों नहिं धोई, सो रसना किस काम की ।। जपि ।। सुमरन सार और सब मिथ्या, पटतर धूंवा नाम की। विषम कमान समान विषय सुख, काय कोथली चाम की ।। १ ।। जपि ।। जैसे चित्र-नाग के मांथै, थिर मूरति चित्राम की ।
चित आरूढ़ करो प्रभु ऐसे, खोय गुंडी परिनाम की ।। २ । ।जपि . ।। कर्म बैर अहनिशि छल जोवैं, सुधि न परत पल जाम की। 'भूधर' कैसे बनत विसारैं, रटना पूरन राम की ।। ३ । । जपि ।। ७. थांकी कथनी म्हानै
(राग ख्याल) थांकी कथनी म्हानै प्यारी लगे जी, प्यारी लगै म्हारी भूल भगै जी ।। तुम हित हांक बिना हो श्रीगुरु, सूतो जियरो कांई जगै जी ।। मोहनिधूलि मेलि म्हारे मांथै, तीन रतन म्हारा मोह ठगै जी । तुम पद ढोकत सीस झरी रज, अब ठगको कर नाहिं वगै जी ।। १ ।। टूट्यो चिर मिथ्यात महाज्वर, भागां मिल गया वैद्य मगै जी । अन्तर अरुचि मिटी मम आतम, अब अपने निजदर्व पगै जी ॥ २ ॥ भव वन भ्रमत बढ़ी तिसना तिस, क्योंहि बुझै नहिं हियरा दगै जी । 'भूधर गुरु उपदेशामृतरस, शान्तमई आनंद उमगै जी ।। ३ ।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
८. भवि देखि छबी भगवान की
(राग सारङ्ग) भवि देखि छबी भगवान की ।।टेक।। सुन्दर सहज सोम आनन्दमय, दाता परम कल्यानकी । भवि. ।। नासादृष्टि मुदित मुखवारिज, सीमा सब उपमान की। अंग अडोल अचल आसन दिढ़, वही दशा निज ध्यान की।।१।।भवि.।। इस जोगासन जोगरीतिसौं, सिद्धि भई शिवथानकी। ऐसें प्रगट दिखावै मारग, मुद्रा धात पखान की ।।२।।भवि. ।। जिस देखें देखन अभिलाषा, रहत न रंचक आनकी। तृपत होत ‘भूधर' जो अब ये, अंजुलि अमृतपान की।।३।।भवि. ।। ९. जिनराज चरन मन मति बिसरै
(राग नट) जिनराज चरन मन मति बिसरै ।।टेक ।। को जानैं किहिंवार कालकी, धार अचानक आनि परे ।। देखत दुख भजि जाहिं दशौं दिश पूजन पातकपुंज गिरे। इस संसार क्षारसागरसौं, और न कोई पार करै ।।१।। इक चित ध्यावत वांछित पावत, आवत मंगल विघन टरै। मोहनि धूलि परी माँथे चिर, सिर नावत ततकाल झरै ।।२।। तबलौं भजन संवार सयानें, जबलौं कफ नहिं कंठ अरै।
अगनि प्रवेश भयो घर भूधर', खोदत कूप न काज सरै।।३।। १०. जिनराज ना विसारो, मति जन्म वादि हारो
(राग पंचम) जिनराज ना विसारो, मति जन्म वादि हारो। नर भौ आसान नाहिं, देखो सोच समझ वारो।।जिनराज ।। सुत मात तात तरुनी, इनसौं ममत निवारो। सबहीं सगे गरजके, दुखसीर नहिं निहारो ।।१।।जिनराज ।।
पण्डित भूधरदासजी कृत भजन जे खायं लाभ सब मिलि, दुर्गति में तुम सिधारो। नट का कुटंब जैसा यह खेल यों विचारो ।।२।।जिनराज ।। नाहक पराये काजै, आपा नरक में पारो । 'भूधर' न भूल जगमैं, जाहिर दगा है यारो ||३||जिनराज ।। ११. पुलकन्त नयन चकोर पक्षी ........
(हरिगीतिका) पुलकन्त नयन चकोर पक्षी, हँसत उर इन्दीवरो। दुर्बुद्धि चकवी बिलख बिछुरी, निविड़ मिथ्यातम हरो ।। आनन्द अम्बुज उमगि उछर्यो, अखिल आतम निरदले । जिनवदन पूरनचन्द्र निरखत, सकल मनवांछित फले ।।१।। मुझ आज आतम भयो पावन, आज विघ्न विनाशियो। संसार सागर नीर निवट्यो, अखिल तत्त्व प्रकाशियो ।। अब भई कमला किंकरी मुझ, उभय भव निर्मल ठये। दुःख जरो दुर्गति वास निवरो, आज नव मंगल भये ।।२ ।। मनहरन मूरति हेरि प्रभुकी, कौन उपमा लाइये । मम सकल तनके रोम हुलसे, हर्ष और न पाइये ।। कल्याणकाल प्रतक्ष प्रभुको, लखें जो सुर नर घने । तिस समय की आनन्द महिमा, कहत क्यों मुखसों बने ।।३।। भर नयन निरखे नाथ तुमको, और बांछा ना रही। मन ठठ मनोरथ भये पूरन, रंक मानो निधि लही ।। अब होय, भव-भव भक्ति तुम्हरी, कृपा ऐसी कीजिये । कर जोर ‘भूधरदास' बिनवै, यही वर मोहि दीजिये ।।४ ।। १२. नैननि को वान परी, दरसन की
(राग ख्याल) नैननि को वान परी, दरसन की ।।टेक।। -- जिन मुखचन्द चकोर चित मुझ, ऐसी प्रीति करी ।नैन. ।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
और अदेवन के चितवनको अब चित चाह टरी। ज्यों सब धूलि दबै दिशि दिशिकी, लागत मेघझरी ।।१ । नैन. ।। छबि समाय रही लोचनमें, विसरत नाहिं घरी। 'भूधर' कह यह टेव रहो थिर, जनम जनम हमरी ।। २ ।।नैन. ।। १३. प्रभु गुन गाय है, यह औसर फेर न पाय रे
(राग ख्याल) प्रभु गुन गाय रै, यह औसर फेर न पाय रे ।।टेक ।। मानुष भव जोग दुहेला, दुर्लभ सतसंगति मेला । सब बात भली बन आई, अरहन्त भजौ रे भाई ।।१।।प्रभु. ।। पहले चित-चीर संभारो कामादिक मैल उतारो। फिर प्रीति फिटकरी दीजे, तब सुमरन रंग रंगीजे ।।२।।प्रभु. ।। धन जोर भरा जो कूवा, परिवार बढ़े क्या हूवा । हाथी चढ़ि क्या कर लीया, प्रभु नाम बिना धिक जीया ।।३।।प्रभु. ।। यह शिक्षा है व्यवहारी, निहचै की साधनहारी। 'भूधर' पैडी पग धरिये, तब चढ़ने को चित करिये ।।४ ।।प्रभु. ।। १४. सुन ज्ञानी प्राणी, श्री गुरु सीख सयानी
(राग सोरठ) सुन ज्ञानी प्राणी, श्री गुरु सीख सयानी ।।टेक।। नरभव पाय विषय मति सेवो, ये दुरगति अगवानी ।।सुन. ।। यह भव कुल यह तेरी महिमा, फिर समझी जिनवानी। इस अवसर में यह चपलाई, कौन समझ उर आनी ।।१।।सुन. ।। चंदन काठ-कनक के भाजन, भरि गंगा का पानी। तिल खलि रांधत मंदमती जो, तुझ क्या रीस बिरानी ।।२।।सुन. ।। 'भूधर' जो कथनी सो करनी, यह बुद्धि है सुखदानी। ज्यों मशालची आप न देखै, सो मति करै कहानी ।।३।।सुन.।।
पण्डित भूधरदासजी कृत भजन १५. वे मुनिवर कब मिलि है उपगारी
(राग मलार) वे मुनिवर कब मिलि है उपगारी ।।टेक।। साधु दिगम्बर नगन निरम्बर, संवर भूषणधारी ।।वे मुनि. ।। कंचन-काच बराबर जिनकैं, ज्यौं रिपु त्यौं हितकारी। महल-मसान मरन अरु जीवन, सम गरिमा अरु गारी।।१।।वे मुनि.।। सम्यग्ज्ञान प्रधान पवन बल, तप पावक परजारी। सेवत जीव सुवर्ण सदा जै, काय-कारिमा टारी ।।२।।वे मुनि. ।। जोरि जुगल कर 'भूधर' बिनवै, तिन पद ढोक हमारी। भाग उदय दरसन जब पाऊँ, ता दिनकी बलिहारी ।।३ ।।वे मुनि. ।। १६. सो गुरुदेव हमारा है साधो
(राग सोरठ) सो गुरुदेव हमारा है साधो ।।टेक ।। जोग-अगनि मैं जो थिर राखें, यह चित्त चंचल पारा है।। करन-कुरंग खरे मदमाते, जप-तप खेत उजारा है। संजम-डोर-जोर वश कीने, ऐसा ज्ञान-विचारा है।।१।।सो गुरु.।। जा लक्ष्मीको सब जग चाहै, दास हुआ जग सारा है। सो प्रभु के चरनन की चेरी, देखो अचरज भारा है।।२।।सो गुरु.।। लोभ-सरप के कहर जहर की, लहरि गई दुःख टारा है। 'भूधर' ता रिषि का शिष्य हजे, तब कछु होय सुधारा है।।३।।सो गुरु.।। १७. अब पूरी कर नींदड़ी, सुन जिया रे! चिरकाल ....
अब पूरी कर नींदड़ी, सुन जिया रे! चिरकाल तू सोया। माया मैली रातमें, केता काल विगोया ।।अब. ।।
धर्म न भूल अयान रे! विषयों वश वाला। - सार सुधारस छोड़के, पीवै जहर पियाला ।।१।।अब. ।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह मानुष भवकी पैठ में जग विणजी आया । चतुर कमाई कर चले, मूढ़ौं मूल गुमाया ।।२।।अब. ।। तिसना तज तप जिन किया, तिन बहु हित जोया। भोग मगन शठ जे रहे, तिन सरवस खोया ।।३ ।।अब. ।। काम विथा पीड़ित जिया, भोगहि भले जानैं । खाज खुजावत अंगमें, रोगी सुख मानें ।।४ ।।अब. ।। राग उरगनी जोरतें, जग डसिया भाई! सब जिय गाफिल हो रहे, मोह लहर चढ़ाई ।।५ ।।अब. ।। गुरु उपगारी गारुडी, दुख देख निवाएँ । हित उपदेश सुमंत्रसों, पढ़ि जहर उतारै ।।६ ।।अब. ।। गुरु माता गुरु ही पिता, गुरु सज्जन भाई। 'भूधर' या संसारमें, गुरु शरनसहाई ।।७।।अब. ।। १८. भलो चेत्यो वीर नर तू, भलो चेत्यो वीर
(राग सोरठ) भलो चेत्यो वीर नर तू, भलो चेत्यो वीर ।।टेक ।। समुझि प्रभुके शरण आयो, मिल्यो ज्ञान वजीर ।।भलो. ।। जगतमें यह जनम हीरा, फिर कहाँ थो धीर । भलीवार विचार छाड्यो, कुमति कामिनी सीर ।।१।।भलो. ।। धन्य धन्य दयाल श्रीगुरु सुमरि गुणगंभीर। नरक परतें राखि लीनों, बहुत कीनी भीर ।।२।।भलो. ।। भक्ति नौका लही भागनि, कितक भवदधि नीर। ढील अब क्यों करत 'भूधर', पहुँच पैली तीर ।।३ ।।भलो. ।। १९. देखो भाई! आतमदेव बिराजै
(राग गौरी) देखो भाई! आतमदेव बिराजै ।।टेक ।। इसही हूठ हाथ देवलमैं, केवलरूपी राजै ।।
पण्डित भूधरदासजी कृत भजन
अमल उजास जोतिमय जाकी, मुद्रा मंजुल छाजै। मुनिजनपूज अचल अविनाशी, गुण बरनत बुधि लाजै ।।१।।देखो. ।। परसंजोग समल प्रतिभासत, निज गुण मूल न त्याजै। जैसे फटिक पखान हेतसों, श्याम अरुन दुति साजै ।।२।।देखो. ।। 'सोऽहं' पद समतासो ध्यावत, घटहीमैं प्रभु पाजै । 'भूधर' निकट निवास जासुको, गुरु बिन भरम न भाजै।।३।।देखो. ।। २०. अन्तर उज्जल करना रे भाई!
(राग सोरठ) अन्तर उज्जल करना रे भाई! ।।टेक ।। कपट कृपान तजै नहिं तबलौ, करनी काज न सरना ।। जप-तप-तीरथ-यज्ञ-व्रतादिक आगम अर्थ उचरना रे। विषय-कषाय कीच नहिं धोयो, यों ही पचि पचि मरना रे।।१।।अन्तर. ।। बाहिर भेष क्रिया उर शुचिसों, कीये पार उतरना रे । नाहीं है सब लोक-रंजना, ऐसे वेदन वरना रे ।।२।।अन्तर. ।। कामादिक मनसौं मन मैला, भजन किये क्या तिरना रे। 'भूधर' नील वसन पर कैसैं, केसर रंग उछरना रे।।३।।अन्तर. ।। २१. अब मेरे समकित सावन आयो
(राग मलार) अब मेरे समकित सावन आयो ।।टेक ।। बीति कुरीति मिथ्या मति ग्रीषम, पावस सहज सुहायो ।। अनुभव दामिनि दमकन लागी, सुरति घटा घन छायो। बोलै विमल विवेक पपीहा, सुमति सुहागिनि भायो।।१।।अब मेरे. ।। गुरुधुनि गरज सुनत सुख उपजै, मोर सुमन विहसायो। साधक भाव अंकूर उठे बहु, जित तित हरष सवायो।।२।।अब मेरे. ।। भूल धूल कहिं भूल न सूझत, समरस जल झर लायो। 'भूधर' को निक्सै अब बाहिर, निज निरचू घर पायो।।३।।अब मेरे. ।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
पण्डित भूधरदासजी कृत भजन
२२. सुनि ठगनी माया, तैं सब जग ठग खाया
(राग सोरठ) सुनि ठगनी माया, नैं सब जग ठग खाया ।।टेक ।। टुक विश्वास किया जिन तेरा, सो मूरख पछताया ।। आपा तनक दिखाय बीज ज्यों, मूढमती ललचाया। करि मद अंध धर्म हर लीनौं, अन्त नरक पहुँचाया ।।१।।सुनि. ।। केते कंत किये तैं कुलटा, तो भी मन न अघाया। किसही सौं नहिं प्रीति निबाही; वह तजि और लुभाया ।।२।।सुनि. ।। 'भूधर' छलत फिरै यह सबकों, भौंदू करि जग पाया। जो इस ठगनी को ठग बैठे, मैं तिनको सिर नाया ।।३ ।।सुनि. ।। २३. अज्ञानी पाप धतूरा न बोय
(राग सोरठ) अज्ञानी पाप धतूरा न बोय ।।टेक ।। फल चाखन की बार भरै दृग, मरि है मूरख रोय ।। किंचित् विषयनि सुख के कारण, दुर्लभ देह न खोय । ऐसा अवसर फिर न मिलैगा, इस नींदड़ी न सोय ।।१।।अज्ञानी. ।। इस विरियां मैं धर्म-कल्प-तरु, सींचत स्याने लोय । तू विष बोवन लागत तो सम, और अभागा कोय ।।२।।अज्ञानी. ।। जो जग में दुखदायक बेरस, इसही के फल सोय । यों मन 'भूधर' जानिकै भाई, फिर क्यों भोंदू होय ।।३ ।।अज्ञानी. ।। २४. ऐसी समझके सिर धूल ऐसी समझके सिर धूल ।।टेक।। धरम उपजन हेत हिंसा, आचरै अघमूल ।। छके मत-मद पान पीके रहे मनमें फूल ।
आम चाखन चहैं भोंदू, बोय पेड़ बबूल ।।१ ।।ऐसी. ।। १. बीज-बिजली
देव रागी लालची गुरु, सेय सुखहित भूल । धर्म नगकी परख नाहीं, भ्रम हिंडोले झूल ।।२।।ऐसी. ।। लाभ कारन रतन विणजै, परखको नहिं सूल। करत इहि विधि वणिज ‘भूधर', विनस जै है मूल ।।३ ।।ऐसी. ।। २५. चित्त! चेतनकी यह विरियां रे
(राग सोरठ) चित्त! चेतनकी यह विरियां रे ।।टेक ।। उत्तम जनम सुतन तरूनापौ, सुकृत बेल फल फरियां रे ।। लहि सत-संगतिसौं सब समझी, करनी खोटी खरियां रे। सुहित संभाल शिथिलता तजिदै, जाहैं बेली झरियां रे।।१।।चित. ।। दल बल चहल महल रूपेका, अर कंचनकी कलियां रे। ऐसी विभव बढ़ी कै बढ़ि है, तेरी गरज क्या सरियां रे ।।२।।चित. ।। खोय न वीर विषय खल सा, ये क्रोड की घरियां रे। तोरि न तनक तगा हित 'भूधर' मुकताफलकी लरियां रे।।३।।चित.।। २६. गरव नहिं कीजै रे, ऐ नर निपट गंवार
(राग ख्याल) गरव नहिं कीजै रे, ऐ नर निपट गंवार ।।टेक ।। झूठी काया झूठी माया, छाया ज्यों लखि लीजै रे।।१।।गरव. ।। कै छिन सांझ सुहागरु जोबन, कै दिन जगमें जीजै रे।।२।।गरव. ।। बेगा चेत विलम्ब तजो नर, बंध बढ़े थिति छीजै रे।।३ । गरव. ।। 'भूधर' पलपल हो है भारी, ज्यों ज्यों कमरी भीजै रे।।३।।गरव. ।। २७. बीरा! थारी बान बुरी परी रे, बरज्यो मानत नाहिं
(राग सोरठ) बीरा! थारी बान बुरी परी रे, बरज्यो मानत नाहिं ।।टेक।। विषय-विनोद महा बुरे रे, दुख दाता सरवंग ।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह तू हटसौं ऐसै रमै रे, दीवे पड़त पतंग ।।१।।बीरा. ।। ये सुख हैं दिन दोयकै रे, फिर दुःख की सन्तान । करै कुहाड़ी लेइकै रे, मति मारै पग जान ।।२।।बीरा. ।। तनक न संकट सहि सकै रे! छिनमें होय अधीर । नरक विपति बहु दोहली रे, कैसे भरि है वीर ।।३ ।।बीरा. ।। भव सुपना हो जायेगा रे, करनी रहेगी निदान । 'भूधर' फिर पछतायगा रे, अबही समझि अजान ।।४ ।।बीरा. ।। २८. मन हंस! हमारी लै शिक्षा हितकारी!
(राग काफी) मन हंस! हमारी लै शिक्षा हितकारी! श्रीभगवान चरन पिंजरे वसि, तजि विषयनि की यारी ।। कुमति कागलीसौं मति राचो, ना वह जात तिहारी। कीजै प्रीत सुमति हंसीसौं, बुध हंसन की प्यारी ।।१।।मन. ।। काहेको सेवत भव झीलर, दुखजलपूरित खारी। निज बल पंख पसारि उड़ो किन, हो शिव सरवर चारी ।।२।।मन. ।। गुरुके वचन विमल मोती चुन, क्यों निज वान विसारी।
है है सुखी सीख सुधि राखें, 'भूधर' भूलैं ख्वारी ।।३ ।।मन. ।। २९. सो मत सांचो है मन मेरे
(राग धनासरी) सो मत सांचो है मन मेरे।। जो अनादि सर्वज्ञप्ररूपित, रागादिक बिन जे रे ।। पुरुष प्रमान प्रमान वचन तिस, कल्पित जान अने रे। राग दोष दूषित तिन बायक, सांचे हैं हित तेरे ।।१ ।।सो मत. ।। देव अदोष धर्म हिंसा बिन, लोभ बिना गुरु वे रे। आदि अन्त अविरोधी आगम, चार रतन जहँ ये रे।।२।।सो मत.।।
पण्डित भूधरदासजी कृत भजन जगत भर्यो पाखंड परख बिन, खाइ खता बहुतेरे। 'भूधर' करि निज सुबुद्धि कसौटी, धर्म कनक कसि ले रे।।३।।सो मत. ।। ३०. मन मूरख पंथी, उस मारग मति जाय रे
(राग ख्याल) मन मूरख पंथी, उस मारग मति जाय रे ।।टेक ।। कामिनि तन कांतार जहाँ है, कुच परवत दुखदाय रे ।। काम किरात बसै तिह थानक, सरवस लेत छिनाय रे। खाय खता कीचक से बैठे, अरु रावनसे राय रे ।।१।।मन. ।। और अनेक लुटे इस पैंडे, वरनें कौन बढ़ाय रे । वरजत हों वरज्यौ रह भाई, जानि दगा मति खाय रे ।।२।।मन. ।। सुगुरु दयाल दया करि ‘भूधर', सीख कहत समझाय रे। आगै जो भावै करि सोई, दीनी बात जताय रे ।।३।।मन. ।। ३१. सब विधि करन उतावला, सुमरनकौं सीरा
(राग काफी) सब विधि करन उतावला, सुमरनकौं सीरा ।।टेक ।। सुख चाहै संसार में, यों होय न नीरा ।। जैसे कर्म कमावे है, सो ही फल वीरा! आम न लागै आकके, नग होय न हीरा ।।१।।सब विधि. ।। जैसा विषयनिकों चहै न रहै छिन धीरा । त्यों 'भूधर' प्रभुकों जपै, पहुँचे भव तीरा ।।२ ।।सब विधि. ।। ३२. आयो रे बुढ़ापो मानी, सुधि बुधि बिसरानी
(राग बंगला) आयो रे बुढ़ापो मानी, सुधि बुधि बिसरानी ।।टेक ।। श्रवन की शक्ति घटी, चाल चालै अटपटी, देह लटी, भूख घटी, लोचन झरत पानी ।।१।।आया रे. ।।
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दांतनकी पंक्ति टूटी, हाड़नकी संधि छूटी, कायाकी नगरि लूटी, जात नहिं पहिचानी ।।२।।आया रे. ।। बालोंने वरन फेरा, रोगों ने शरीर घेरा, पुत्रहू न आवे नेरा, औरोंकी कहा कहानी ।।३ ।।आया रे. ।। 'भूधर' समुझि अब, स्वहित करैगो कब, यह गति है है जब, तब पिछते हैं प्राणी ।।४ ।।आया रे. ।। २३. चरखा चलता नाहीं (२) चरखा हुआ पुराना (वे)
(राग आसावरी) चरखा चलता नाहीं (२) चरखा हुआ पुराना (वे) ।। पग खूटे दो हालन लागे, उर मदरा खखराना। छीदी हुई पांखड़ी पांसू, फिरै नहीं मनमाना ।।१।। रसना तकली ने बल खाया, सो अब कैसै खूटे। शब्द-सूत सूधा नहिं निकसे, घड़ी-घड़ी पल-पल टूटै।।२।। आयु मालका नहीं भरोसा, अंग चलाचल सारे । रोज इलाज मरम्मत चाहे, वैद्य बढ़ई हारे ।।३ ।। नया चरखला रंगा-चंगा, सबका चित्त चुरावै । पलटा वरन गये गुन अगले, अब देखें नहिं भावै ।।४ ।। मोटा मही कातकर भाई!, कर अपना सुरझेरा। अंत आग में ईंधन होगा, 'भूधर' समझ सवेरा ।।५।। ३४. काया गागरि, जोझरी, तुम देखो चतुर विचार हो
(राग श्रीगौरी) काया गागरि, जोझरी, तुम देखो चतुर विचार हो ।।टेक ।। जैसे कुल्हिया कांचकी, जाके विनसत नाहीं वार हो ।। मांसमयी माटी लई अरु, सानी रुधिर लगाय हो । कीन्हीं करम कुम्हारने, जासों काहूकी न वसाय हो।।१।।काया.॥
पण्डित भूधरदासजी कृत भजन
और कथा याकी सुनौं, यामैं अध उरध दश ठेह हो। जीव सलिल तहाँ थंभ रह्यौ भाई, अद्भुत अचरज येह हो।।२।।काया. ।। यासौं ममत निवारकैं, नित रहिये प्रभु अनुकूल हो। 'भूधर' ऐसे ख्याल का भाई, पलक भरोसा भूल हो।।३।।काया. ।। ३५. गाफिल हुवा कहाँ तू डोले, दिन जाते तेरे भरती में
(राग भैरवी) गाफिल हुवा कहाँ तू डोले, दिन जाते तेरे भरती में ।। चोकस करत रहत है नाही, ज्यों अंजुलि जल झरती में। तैसे तेरी आयु घटत है, बचै न बिरिया मरती में ।।१।। कंठ दबै तब नाहिं बनेगो, काज बनाले सरती में । फिर पछताये कुछ नहिं होवै, कूप खुदै नहीं जरती में ।।२।। मानुष भव तेरा श्रावक कुल, यह कठिन मिला इस धरती में। 'भूधर' भवदधि चढ़ नर उतरो, समकित नवका तरती में।।३।। ३६. जगत जन जूवा हारि चले
(राग विहाग) जगत जन जूवा हारि चले ।।टेक ।। काम कुटिल संग बाजी मांडी, उन करि कपट छले ।।जगत. ।। चार कषायमयी जहँ चौपरि, पासे जोग रले । इस सरवस उत कामिनी कौड़ी, इह विधि झटक चले।।१।।जगत.।। कूर खिलार विचार न कीन्हों, है है ख्वार भले । बिना विवेक मनोरथ काके, 'भूधर' सफल फले ।।२।।जगत.।। ३७. जगमें श्रद्धानी जीव जीवन मुकत हैंगे
(राग बङ्गाला) जगमें श्रद्धानी जीव जीवन मुकत हैंगे ।।टेक।। देव गुरु सांचे मार्ने, सांचो धर्म हिये आने । ग्रन्थ ते ही सांचे जानैं, जे जिन उकत हैंगे ।।१।।जगमें. ।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह जीवनकी दया पालैं, झूठ तजि चोरी टालें। परनारी भालैं नैंन जिनके लुकत हैंगे ।।२ ।।जगमें. ।। जिय में सन्तोष धारें, हियें समता विचारें । आगैंको न बंध पाएँ, पाईं सौं चुकत हैंगे ।।३ ।।जगमें. ।। बाहिज क्रिया आराधैं, अन्दर सरूप साधैं । 'भूधर' ते मुक्त लाधैं, कहूँ न रुकत हैंगे ।।४ ।।जगमें. ।। ३८. वे कोई अजब तमासा, देख्या बीच जहान वे,
जोर तमासा सुपनेका-सा । वे कोई अजब तमासा, देख्या बीच जहान वे, जोर तमासा सुपनेका-सा एकौंके घर मंगल गावें, पूरी मनकी आसा । एक वियोग भरे बहु रोवै, भरि भरि नैन निरासा ।।१।।वे कोई.।। तेज तुरंगनिपै चढ़ि चलते, पहिरै मलमल खासा। रंक भये नागे अति डोलैं, ना कोइ देय दिलासा ।।२।।वे कोई. ।। तरकैं राज तखत पर बैठा, था खुश वक्त खुलासा । ठीक दुपहरी मुद्दत आई, जंगल कीना वासा ।।३।।वे कोई. ।। तन धन अथिर निहायत जगमें, पानी माहिं पतासा। 'भूधर' इनका गरब क जे, धिक तिनका जनमासा ।।४ ।।वे कोई. ।। ३९. सुनि सुजान! पांचों रिपु वश करि,
(राग कल्याण) सुनि सुजान! पांचों रिपु वश करि, सुहित करन असमर्थ अवश करि । जैसे जड़ खखार का कीड़ा, सुहित सम्हाल सबै नहिं फंस करि ।। पांचन को मुखिया मन चंचल, पहले ताहि पकर, रस कस करि । समझ देखि नायक के जीतै, जै है भाजि सहज सब लशकरि ।।१।। इंद्रियलीन जनम सब खोयो, बाकी चल्यो जात है खस करि । 'भूधर' सीख मान सतगुरुकी, इनसों प्रीति तोरि अब वश करि ।।२।। hampional
पण्डित भूधरदासजी कृत भजन ४०. अहो दोऊ रंग भरे खेलत होरी
(राग सोरठ) अहो दोऊ रंग भरे खेलत होरी । अलख अमूरति की जोरी ।।अहो. ।। इतमैं आतम राम रंगीले, उतमैं सुबुद्धि किसोरी। या कै ज्ञान सखा संग सुन्दर, वाकै संग समता गोरी ।।१।।अहो. ।। सुचि मन सलिल दया रस केसरि, उदै कलश में घोरी। सुधी समझि सरल पिचकारी, सखिय प्यारी भरि भरि छोरी ।।२।।अहो. ।। सत गुरु सीख तान धुरपद की, गावत होरा होरी। पूरब बंध अबीर उड़ावत, दान गुलाल भर झोरी ।। ३ ।।अहो. ।। 'भूधर' आजि बड़े भागिन, सुमति सुहागिन मोरी। सो ही नारि सुलक्षिनी जगमैं, जासौं पतिनै रति जोरी ।।४।।अहो. ।। ४१. होरी खेलौंगी, घर आये चिदानंद कन्त
(राग धमाल सारंग) होरी खेलौंगी, घर आये चिदानंद कन्त ।।टेक ।। शिशिर मिथ्यात गयो आई अब, कालकी लब्धि बसन्त ।।होरी. ।। पिय सँग खेलनको हम सखियो! तरसी काल अनन्त । भाग फिरे अब फाग रचानों, आयो बिरहको अन्त ।।१।।होरी. ।। सरधा गागरमें रुचिरूपी, केसर घोरि तुरन्त । आनंद नीर उमंग पिचकारी, छोड़ो नीकी भन्त ।।२ ।।होरी. ।। आज वियोग कुमति सौतनिकै, मेरे हरष महन्त । 'भूधर' धनि यह दिन दुर्लभ अति, सुमति सखी विहसन्त ।।३।।होरी. ।।
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अनुक्रमणिका
३. पण्डित बुधजनजी कृत भजन
• और ठौर क्यों हेरत प्यारा, तेरे हि घट में जानन हारा
• काल अचानक ही ले जायगा • तन देख्या अथिर घिनावना
• तेरो करि लै काज वक्त फिरना • भजन बिन यौं ही जनम गमायो अरे हाँ रे तैं तो सुधरी बहुत बिगारी
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• मैंने देखा आतमराम • अब अघ करत लजाय रे भाई
. तोकौं सुख नहिं होगा लोभीड़ा !
• नरभव पाय फेरि दुख भरना • आगे कहा करसी भैया
• बाबा मैं न काहूका
•
धर्म बिन कोई नहीं अपना • निजपुर में आज मची होरी
• मेरा साँई तौ मोमैं नाहीं न्यारा • उत्तम नरभव पायकै
• जिनबानी के सुनैस मिथ्यात मिटै
• मति भोगन राचौ जी
• सम्यग्ज्ञान बिना, तेरो जनम अकारथ जाय
• भोगारां लोभीड़ा, नरभव खोयौ रे अज्ञान
• बन्यौ म्हारै या घरीमैं रंग
• कींपर करो जी गुमान • अब घर आये चेतनराय
• हमकौं कछू भय ना रे
म्हे तौ थांका चरणां लागां
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(४०)
पण्डित बुधजनजी कृत भजन
१. और ठौर क्यों हेरत प्यारा, तेरे हि घटमें जाननहारा (राग तिताला)
और ठौर क्यों हेरत प्यारा, तेरे हि घटमें जाननहारा ।। और. । । टेक ।। चलन हलन थल वास एकता, जात्यान्तरतै न्यारा न्यारा ।। १ ।। और. ।। मोह उदय रागी द्वेषी है, क्रोधादिक का सरजनहारा । भ्रमत फिरत चारौं गति भीतर, जनम मरन भोगत-दुख भारा ।। २ ।। और. ।। गुरु उपदेश लखै पद आपा, तबहिं विभाव करै परिहारा । एकाकी बुधजन निश्चल, पावै शिवपुर सुखद अपारा।। ३ ।। और ।। २. काल अचानक ही ले जाया
(राग तिताला) काल अचानक ही ले जायगा,
गाफिल होकर रहना क्या रे ।। काल. । । टेक ।।
छिन हूँ तोकूं नाहिं बचावै, तौ सुभटनका रखना क्या रे ।। १ ।। काल. ।। रंच स्वाद करिनके काजै, नरकनमें दुख भरना क्या रे । कुलजन पथिकनि के हितकाजै, जगत जाल में परना क्या रे ।। २ ।। काल. ।। इंद्रादिक कोउ नाहिं बचैया, और लोकका शरना क्या रे। निश्चय हुआ जगतमें मरना, कष्ट परै तब डरना क्या रे ।। ३ । ।काल. ।। अपना ध्यान करत खिर जावै, तौ करमनिका हरना क्या रे।
अब हित कर आरत तजि बुधजन, जन्म जन्ममें जरना क्यारे ।।४ ॥ काल. ।। ३. तन देव्या अथिर घिनावना
(राग सारंग)
तन देख्या अथिर घिनावना । । तन ।। टेक ॥
बाहर चाम चमक दिखलावै, माहीं मैल अपावना ।
बालक जवान बुढ़ापा मरना, रोगशोक उपजावना । । १ । । तन ।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह अलख अमूरति नित्य निरंजन, एकरूप निज जानना । वरन फरस रस गंध न जाकै, पुन्य पाप विन मानना ।।२ ।।तन. ।। करि विवेक उर धारि परीक्षा, भेद-विज्ञान विचारना। 'बुधजन' तन” ममत मेटना, चिदानंद पद धारना ।।३।।तन. ।। ४. तेरो करि लै काज वक्त फिरना
(राग सारंग लूहरी) तेरो करि लै काज बक्त फिरना ।।तेरी. ।।टेक ।। नरभव तेरे वश चालत है, फिर परभव परवश परना ।।१।।तेरो. ।। आन अचानक कंठ दबैंगे, तब तोकौं नाही शरना। या विलम न ल्याय बावरै, अब ही कर जो है करना ।।२।।तेरो. ।। सब जीवनकी दया धार उर, दान सुपात्रनि कर धरना। जिनवर पूजि शास्त्रसुनि नित प्रति, बुधजन संवर आचरना ।।३।।तेरो. ।। ५. भजन बिन यौँ ही जनम गमायो
(राग सारंग पूरबी) भजन बिन यों ही जनम गमायो ।।भजन. ।।टेक।। पानी पहिल्यां पाल न बांधी, फिर पी, पछतायो।।१।।भजन. ।। रामा-मोह भये दिन खोवत, आशा पाश बंधायो। जप तप संजम दान न दीनौं, मानुष जनम हरायो।।२।।भजन. ।। देह शीश जब कांपन लागी, दसन चला चल थायो। लागी आगि भुजावन कारन, चाहत कूप खुदायो ।।३ ।।भजन. ।। काल अनादि गुमायो भ्रमतां, कबहुँ न थिर चित ल्यायो। हरी विषय सुख भरम भुलानो, मृग तिसना-वश धायो।।४।।भजन. ।। ६. अरे हाँ रे तैं तो सुधरी बहुत बिगारी
(राग गौड़ी ताल) अरे हाँ रे तो सुधरी बहुत बिगारी ।।अरे. ।।टेक ।। ये गति मुक्ति महलकी पौरी, पाय रहत क्यौं पिछारी।।१।।अरे. ।।
पण्डित बुधजनजी कृत भजन
परकौं जानि मानि अपनो पद, तजि ममता दुखकारी। श्रावक कुल भवदधि तट आयो, बूड़त क्यौरे अनारी ।।२ ।।अरे. ।। अबहूँ चेत गयो कुछ नाहीं, राखि आपनी बारी ।
शक्ति समान त्याग तप करिये, तब बुधजन सिरदारी ।।३।।अरे. ।। ७. मैंने देखा आतमराम
(राग काफी कनड़ी) मैंने देखा आतमरामा ।।मैंने. ।।टेक।। रूप फरस रस गंधर्ते न्यारा, दरस-ज्ञान-गुनधामा । नित्य निरंजन जाकै नाहीं, क्रोध लोभ मद कामा ।।१।।मैंने. ।। भूख प्यास सुख दुख नहिं जाकै, नाहिं बन पुर गामा। नहिं साहिब नहिं चाकर भाई, नहीं तात नहिं मामा ।।२।।मैंने. ।। भूलि अनादि थकी जग भटकत, लै पुद्गल का जामा। 'बुधजन' संगति जिनगुरुकी तैं, मैं पाया मुझ ठामा ।।३।।मैंने. ।। ८. अब अघ करत लजाय रे भाई
(राग काफी कनड़ी - ताल पसतो) अब अघ करत लजाय रे भाई ।।अब. ।।टेक ।। श्रावक घर उत्तम कुल आयो, भैंटे श्री जिनराय ।।१।।अब. ।। धन वनिता आभूषन परिग्रह, त्याग करौ दुखदाय । जो अपना तू तजि न सकै पर, सेयां नरकन जाय ।।२।।अब. ।। विषय काज क्यौं जनम गुमावै, नरभव कब मिलि जाय।
हस्ती चढ़ि ईंधन ढोवे, बुधजन कौन वसाय ।।३ ।।अब. ।। ९. तोकौं सुख नहिं होगा लोभीड़ा!
(राग काफी कनड़ी) तोकौं सुख नहिं होगा लोभीड़ा! क्यौं भूल्या रे परभावनमें ।।तोकौं. ।।टेक ।। किसी भाँति कहूँका धन आवै, डोलत है इन दावनमें।।१।।तोकौं ।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
ब्याह करूँ सुत जस जग गावै, लग्यौ रहे या भावनमें ॥ २ ॥ तोकौं ।। दरव परिनमत अपनी गौंत तू क्यों रहत उपायनमें ।। ३ । । तोकौं ।। सुख तो है संतोष करनमें, नाहीं चाह बढ़ावनमें ॥ ४ ॥ । तोकौं सुख है बुधजनकी संगति, कै सुख शिवपद पावनमें। । ५ । । तोकौं ।। १०. नरभव पाय फेरि दुख भरना
।
(राग बिलावल धीमा तेतालो)
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।
नरभव पाय फेरि दुख भरना, ऐसा काज न करना हो । नरभव. । । टेक ।। नाहक ममत ठानि पुद्गलसौं, करम जाल क्यौं परना हो । १ । ।नरभव. ।। यह तो जड़ तू ज्ञान अरूपी, तिल तुष ज्यौं गुरु वरना हो राग दोष तजि भजि समताकौं, कर्म साथके हरना हो । । २ । । नरभव. ।। यो भव पाय विषय-सुख सेना, गज चढ़ि ईंधन ढोना हो । 'बुध' समुझि से जिनवर पद, ज्यौं भवसागर तरना हो ।। ३ । ।नरभव. ।। ११. आगें कहा करसी भैया
(राग आसावरी जलद तेतालो)
आ कहा करसी भैया, आजासी जब काल रे ।। आगें. । । टेक ॥। यहां तौ तैनें पोल मचाई, वहाँ तौ होय सम्हाल रे ।। १ ।। आरौं. ।। झूठ कपट करि जीव सताये, हर्या पराया माल रे । सम्पति सेती धाप्या नाहीं, तकी विरानी बाल रे ।। २ ।। आगें. ।। सदा भोग में मगन रह्या तू, लख्या नहीं निज हाल रे। सुमरन दान किया नहिं भाई, हो जासी पैमाल रे ।। ३ ।। आगें. ।। जोन में जुवती संग भूल्या, भूल्या जब था बाल रे । अब हुँ धारो बुधजन समता, सदा रहहु खुश हाल रे ॥४ ॥ । आरौं. ।। १२. बाबा मैं न काहूका
बाबा! मैं न काहूका, कोई नहीं मेरा रे ।। बाबा. । ।टेक
।।
सुर नर नारक तिरयक गति मैं, मोकों करमन घेरा रे ।। १ । ।बाबा. ।।
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(४२)
पण्डित बुधजनजी कृत भजन
मात पिता सुत तिय कुल परिजन, मोह गहल उरझेरा रे।
।
तन धन बसन भवन जड़ न्यारे, हूँ चिन्मूरत न्यारा रे ।। २ । । बाबा . ।। मुझ विभाव जड़ कर्म रचत हैं, करमन हमको फेरा रे विभाव चक्र तजि धारि सुभावा अब आनन्दघन हेरा रे ।। ३ । । बाबा. ।। खरच खेद नहीं अनुभव करते, निरखि चिदानन्द तेरा रे जप तप व्रत श्रुत सार यही है, बुधजन कर न अबेरा रे ।।४ । । बाबा. ।। १३. धर्म बिन कोई नहीं अपना
।
धर्म बिन कोई नहीं अपना,
सब सम्पत्ति धन थिर नहिं जगमें, जिसा रैन सपना ।। धर्म. । । टेक ॥। आगे किया सो पाया भाई, याही है निरना ।
अब जो करैगा सो पावैगा, तातैं धर्म करना ।। १ ।। धर्म ।। ऐसे सब संसार कहत है, धर्म कियें तिरना । परपीड़ा बिसनादिक सेवैं, नरकविषै परना ।। २ ।। धर्म. ।। नृपके घर सारी सामग्री, ताकैं ज्वर तपना ।
अरु दारिद्रीकैं हू ज्वर है, पाप उदय थपना ।। ३ । । धर्म. ।। नाती तो स्वारथ के साथी, तोहि विपत भरना ।
वन गिरि सरिता अगनि युद्धमैं, धर्महिका सरना ।।४ । । धर्म. ।। चित बुधजन सन्तोष धारना, पर चिन्ता हरना । विपति पड़े तो समता रखना, परमातम जपना ।।५ ।। धर्म. ।। १४. निजपुर में आज मची होरी (तथा) निजपुर में आज मची होरी ।। निज. ॥ टेक ॥।
उमँगि चिदानंदजी इत आये, उत आई सुमतीगोरी । । १ । । निज. ।। लोकलाज कुलकानि गमाई, ज्ञान गुलाल भरी झोरी ॥ २ ॥ निज. ।। समकित केसर रंग बनायो । चारित की पिचुकी छोरी ।। ३ । । निज. ।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह गावत अजपा गान मनोहर, अनहद झरसौं बरस्यो री ।।४।।निज. ।।
देखन आये बुधजन भीगे, निरख्यौ ख्याल अनोखो री ।।५।।निज. ।। १५. मेरा सांई तौ मोमैं नाहीं न्यारा
(राग-खंमाच) मेरा सांई तौ मोमैं नाहीं न्यारा, जानें सो जाननहारा ।।मेरा. ।।टेक ।। पहले खेद सह्यौ बिन जानैं। अब सुख अपरम्पारा ।।१।।मेरा. ।। अनंत-चतुष्टय-धारक ज्ञायक, गुन परजै द्रव सारा। जैसा राजत गंधकुटीमें, तैसा मुझमें म्हारा ।।२।।मेरा. ।। हित अनहित मम पर विकलपते, करम बंध भये भारा। ताहि उदय गति गति सुख दुखमैं, भाव किये दुःखकारा ।।३ । मेरा. ।। काल लब्धि जिन आगम सेती, संशयभरम विदारा।
बुधजन जान करावन करता, हौं ही एक हमारा ।।४ ।।मेरा. ।। १६. उत्तम नरभव पायकै
(राग-कनड़ी) उत्तम नरभव पायकै, मति भूलै रे रामा ।।मति भू. ।।टेक।। कीट पशूका तन जब पाया, तब तू रह्या निकामा। अब नरदेही पाय सयाने, क्यों न भजै प्रभुनामा ।।१।।मति भू. ।। सुरपति याकी चाह करत उर, कब पाऊँ नरजामा। ऐसा रतन पायकै भाई, क्यौं खोवत विनकामा ।।२।।मति भू. ।। धन जोबन तन सुन्दर पाया, मगन भया लखि भामा। काल अचानक झटक खायगा, परे रहेंगे ठामा ।।३ ।।मति भू. ।। अपने स्वामीके पदपंकज, करो हिये बिसरामा। मैंटि कपट भ्रम अपना बुधजन, ज्यौं पावौ शिवधामा ।।४।।मति भू. ।। १७. जिनबानी के सुनैसौं मिथ्यात मिटै
जिनबानीके सुनैसौं मिथ्यात मिटै। मिथ्यात मिटै समकित प्रगटै ।।जिनबानी. ।।टेक ।।
पण्डित बुधजनजी कृत भजन
जैसैं प्रात होत रवि ऊगत, रैन तिमिर सब तुरत फटै।।१।।जिनबानी. ।। अनादि कालकी भूलि मिटावै, अपनी निधि घट घटमैं उघटे। त्याग विभाव सुभाव सुधार, अनुभव करतां करम कटै।।२।।जिनबानी. ।।
और काम तजि सेवो याकौं, या बिन नाहिं अज्ञान घटै। बुधजन याभव परभव माहीं, बाकी हुंडी तुरत पटे।।३ ।।जिनबानी. ।। १८. मति भोगन राचौ जी
(राग-सोरठ) मति भोगन राचौ जी, भव भव मैं दुख देत घना ।।मति. ।।टेक ।। इनके कारन गति गति मांहीं नाहक नाचौ जी। झूठे सुखके काज धरममैं पाडौ खाँचौजी ।।१।।मति. ।। पूरवकर्म उदय सुख आयां, राजौ माचौ जी। पाप उदय पीड़ा भोगनमैं, क्यौं मन काचौ जी ।।२।।मति. ।। सुख अनन्तके धारक तुम ही, पर क्यों जांचौं जी।
बुधजन गुरुका वचन हिया में, जानौ सांचौ जी ।।३ ।।मति. ।। १९. सम्यग्ज्ञान बिना, तेरो जनम अकारथ जाय सम्यग्ज्ञान बिना, तेरो जनम अकारथ जाय ।।सम्यग्ज्ञान. ।।टेक।। अपने सुखमैं मगन रहत नहिं परकी लेत बलाय । सीख सुगुरु की एक न मानें भव भवमैं दुख पाय ।।१।।सम्य. ।। ज्यौं कपि आप काठ लीलाकरि, प्रान तजै बिललाय । ज्यौं निज मुखकरि जाल मकरिया, आप मरै उलझाय ।।२।।सम्य. ।। कठिन कमायो सब धन ज्वारी, छिनमैं देत गमाय । जैसे रतन पायके भोंदू, विलखे आप गमाय ।।३ ।।सम्य. ।। देव शास्त्र गुरुको निहचैकरि, मिथ्यामत मति ध्याय । सुरपति बाँछा राखत याकी, ऐसी नर परजाय ।।४ ।।सम्य. ।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
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२०. भोगांरा लोभीड़ा, नरभव खोयौ रे अजान (राग - सोरठ)
भोगांरा लोभीड़ा, नरभव खोयौ रे अजान ।। भोगांरा. । । टेक ॥। धर्मकाजको कारन थौ यौ, सो भूल्यौ तू बान । हिंसा अनृत परतिय चोरी, सेवत निजकरि जान ।। १ । । भोगांरा. ।। इन्द्रीसुखमैं मगन हुवौ तू, परकौँ आतम मान ।
बन्ध नवीन पड़ै छै यातैं, होवत मौटी हान ।। २ । । भोगांरा. ।। गया न कछु जो चेतौ बुधजन, पावौ अविचल थान । तन है जड़ तू दृष्टा ज्ञाता, कर लै यौं सरधान ।। ३ । । भोगांरा. ।। २१. बन्यौ म्हांरै या घरीमैं रंग
बन्यौ म्हारै या घरीमैं रंग ।। बन्यौ । टेक ॥।
तत्वारथकी चरचा पाई, साधरमी कौ संग || १ || बन्यौ ।। श्री जिनचरन बसे उर माहीं, हरष भयौ सब अंग । ऐसी विधि भव भवमैं मिलिज्यौ, धर्मप्रसाद अभंग ॥ २ ॥ बन्यौ । २२. कीपर करो जी गुमान (राग - सोरठ)
परकरोजी गुमान थे तो कै दिनका मिजमान ।। कींपर. । । टेक ।। आये कहांतैं कहाँ जावोगे, ये उर राखौं ज्ञान ।। १ ।। कींपर. ।। नारायण बलभद्र चक्रवर्ति नाना रिद्धिनिधान । अपनी-अपनी बारी भुगतिर, पहुँचे परभव थान ।। २ ।। कींपर. ।। झूठ बोलि माया चारीतैं, मति पीड़ो पर प्रान तन धन दे अपने वश बुधजन, करि उपगार जहान ।। ३ । ।कींपर. ।। २३. अब घर आये चेतनराय
।
अब घर आये चेतनराय, सजनी खेलौंगी मैं होरी ।। अब ॥ टेक ॥। आरस सोच कानि कुल हारी धरि धीरज बरजोरी । । १ । । सजनी ॥
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पण्डित बुधजनजी कृत भजन
बुरी कुमति बात न बूझे, चितवत है मोओरी ।
वा गुरुजनक बलि बलि जाऊँ, दूरि करी मति भोरी ।। २ । । सजनी. ।। निज सुभाव जल हौज भराऊँ, घोरूँ निजरङ्ग रोरी । निजल्यौं ल्याय शुद्ध पिचकारी, छिरकन निज मति दोरी । । ३ । । सजनी. ।। गाय रिझाय आप वश करिकै, जावन द्यौं नहि पोरी । बुधजन रचि मचि रहूँ निरंतर, शक्ति अपूरब मोरी ||४ | सजनी. ।। २४. हम कछू भय ना रे (राग - सोरठ) हमक कछू भय ना रे, जान लियौ संसार ।। हमकौं । टेक ॥। जो निगोदमें सो ही मुझमें, सो ही मोक्ष मँझार । निश्चय भेद कछू भी नाहीं भेद गिनैं संसार ।। १ ।। हमकौं ।। परवश है आपा विसारिके, राग दोषकौं धार ।
जीवत मरत अनादि कालतें, यौंही है उरझार ।।२ ।। हमकौं ।। जाकरि जैसैं जाहि समयमें, जो होवत जा द्वार ।
सो बनि है टरि है कछु नाहीं, करि लीनौं निरधार ।। ३ । । हमकौं. ।। अग्नि जरावै पानी बोवै, बिछुरत मिलत अपार । सो पुद्गल रूपीमैं बुधजन, सबको जाननहार ।। ३ । । हमकौं ।। २५. म्हे तो थांका चरणां लागां
(राग - कालिंगड़ो परज धीमो तेतालो)
म्हेतौ थांका चरणां लागां, आन भाव की परणति त्यागां । । म्हे. । । टेक ।। और देव सेया दुख पाया, थे पाया छौ अब बड़भागां ।। १ ।। म्हे. ।। एक अरज म्हांकी सुण जगपति, मोह नींदसौं अबकै जागां ।
निज सुभाव थिरता बुधि दीजे, और कछु म्हे नाहीं मांगा ।। २ ।। म्हे. ।।
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अनुक्रमणिका
४. पण्डित दौलतरामजी कृत भजन
• अरिरजरहस हनन प्रभु अरहन हे जिन तेरो सुजस उजागर • हे जिन तेरे मैं शरणे आया • मैं आयौ, जिन शरन तिहारी • जाऊँ कहाँ तज शरन तिहारे
• हे जिन मेरी, ऐसी बुधि कीजै • आज मैं परम पदारथ पायौ • जिनवर आनन - भान निहारत • त्रिभुवन आनन्दकारी जिन छवि • निरखत जिनचन्द्र वदन निरखत सुख पायौ जिन मुखचन्द
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• मैं हरख्यौ निरख्यौ मुख तेरो • दीठा भागनतैं जिनपाला • शिवमग दरसावन रावरो दरस
• जिन छवि तेरी यह प्यारी लागै म्हाने जिन छवि थारी
• जिन छवि लखत यह बुधि भयी • ध्यानकृपान पानि गहि नासी
•
भविन - सरोरूहसूर भूरिगुनपूरित अरहंता • प्रभु थारी आज महिमा जानी और अबै न कुदेव सुहावै
•
• उरग सुरंग नरईश शीस जिस आतपत्र त्रिधरे
•
सुधि लीज्यौ जी म्हारी, मोहि भवदुखदुखिया जानके
·
जय जय जग भरम- तिमिर
• थारा तो वैना में सरधान घणो छै
जिनवैन सुनत, मोरी भूल भगी
जबतें आनंदजननि दृष्टि परी माई
• सुन जिन वैन श्रवन सुख पायौ
• और सबै जगद्वन्द मिटावो • जिनवानी जान सुजान रे
·
नित पीज्यौ धीधारी, जिनवानि • धन धन साधर्मीजन मिलनकी घरी
• अब मोहि जानि परी ऐसा मोही क्यों न अधोगति जावै
• ऐसा योगी क्यों न अभयपद पावैकबधौं मिलै मोहि श्रीगुरु मुनिवर
·
गुरु कहत सीख इमि बार - बार • जिन रागद्वेषत्यागा वह सतगुरु हमारा धनि मुनि जिनकी लगी लौ शिवओरनै धनि मुनि जिन यह, भाव पिछाना • धनि मुनि निज आतमहित कीना
•
• देखो जी आदीश्वर स्वामी कैसा ध्यान लगाया है! • जय श्री ऋषभ
जिनंदा! नाश तौ करो स्वामी मेरे दुखदंदा भज ऋषिपति ऋषभे
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पण्डित दौलतरामजी कृत भजन अनुक्रमणिका
• मेरी सुध लीजै रिषभस्वाम! • जगदानंदन जिन अभिनंदन
•
पद्मसद्म पद्मापद पद्मा • चन्द्रानन जिन चन्द्रनाथ के
• भाखूँ हित तेरा, सुनि हो मन मेरा • आतम रूप अनूपम अद्भुत चिन्मूरत दृग्धारी की मोहे • आप भ्रमविनाश आप
·
• चेतन यह बुधि कौन सयानी • चेतन कौन अनीति गही रे • चेतन तैं यौं ही भ्रम ठान्यो
• चेतन अब धरि सहजसमाधि • चिदरायगुन सुनो मुनो • चित चिंतक चिदेश कब • राचि रह्यो परमाहिं तू अपनो मेरे कब है वा दिन की सुघरी ज्ञानी ऐसी होली मचाई
•
• मेरो मन ऐसी खेलत होरी • जिया तुम चालो अपने देश
•
मत कीज्यौ जी यारी • मत कीज्यौ जी यारी
• मत राचो धीधारी • हे मन तेरी को कुटेव यह
•
मानत क्यों नहिं रे • जानत क्यौं नहिं रे
•
छांडि दे या बुधि भोरी • छांडत क्यौं नहिं रे
•
लखो जी या जिय भोरे की बातें • सुनो जिया ये सतगुरु की बातें
• मोही जीव भरम तमतैं नहिं ज्ञानी जीव निवार भरमतम
•
• अपनी सुधि भूल आप, आप दुख उपाय
•
जीव तू अनादिहीतें भूल्यौ शिवगैलवा
शिवपुर की डगर समरससौं भरी तोहि समझायो सौ सौ बार न मानत यह जिय निपट अनारी
• हे नर, भ्रमनींद क्यों न छांडत दुखदाई • अरे जिया, जग धोखे की टाटी • हम तो कबहूँ न हित उपजाये
• हम तो कबहुँ न निजगुन भाये • हम तो कबहुँ न निजघर आ हे हितवांछक प्रानी रे • विषयोंदा मद भानै, ऐसा है कोई वे
· कुमति कुनारि नहीं है भली रे
•
• तू काहेको करत रति तनमें
घड़ि-घड़ि पल-पल छिन छिन निशदिन जम आन अचानक दावैगा निपट अयाना, तैं आपा नहीं जाना मनवचतन करि शुद्ध भजो जिन
• निजहितकारज करना भाई!
मोहिड़ा रे जिय! • सौ सौ बार हटक नहिं मानी
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पण्डित दौलतरामजी कृत भजन
पण्डित दौलतरामजी
कृत भजन
१. अरिरजरहस हनन प्रभु अरहन
अरिरजरहस हनन प्रभु अरहन, जैवंतो जगमें । देव अदेव सेव कर जाकी, धरहिं मौलि पगमें ।।१।।अरिरज. ।। जो तन अष्टोत्तरसहसा लक्खन लखि कलिल शमें। जो वच दीपशिखा मुनि विचरें शिवमारगमें ।।२।।अरिरज. ।। जास पासतें शोकहरन गुन, प्रगट भयो नगमें । व्यालमराल कुरंगसिंघको, जातिविरोध गमें ।।३ ।।अरिरज. ।। जा जस-गगन उलंघन कोऊ, क्षम न मुनी खगमें । 'दौल' नाम तसु सुरतरु है या, भव मरुथल मगमें ।।३।।अरिरज. ।। २. हे जिन तेरो सुजस उजागर हे जिन तेरो सुजस उजागर, गावत हैं मुनिजन ज्ञानी ।।टेक. ।। दुर्जय मोह महाभट जाने, निजवश कीने जगप्रानी। सो तुम ध्यानकृपान पानिगहि, ततछिन ताकी थिति भानी।।१।। सुप्त अनादि अविद्या निद्रा, जिन जन निजसुधि विसरानी। है सचेत तिन निजनिधि पाई, श्रवन सुनी जब तुम वानी ।।२।। मंगलमय तू जगमें उत्तम, तुही शरन शिवमगदानी । तुवपद-सेवा परम औषधि, जन्मजरामृतगदहानी ।।३।। तुमरे पंच कल्यानकमाहीं, त्रिभुवन मोददशा ठानी। विष्णु विदम्बर, जिष्णु, दिगम्बर, बुध, शिव कह ध्यावत ध्यानी।।४।। सर्व दर्वगुनपरजयपरनति, तुम सुबोध में नहिं छानी। ताते 'दौल' दास उर आशा, प्रगट करो निजरससानी ।।५।।
३. हे जिन तेरे मैं शरणै आया हे जिन तेरे मैं शरणै आया। तुम हो परमदयाल जगतगुरु, मैं भव भव दुःख पाया ।।हे जिन. ।। मोह महा दुठ घेर रह्यौ मोहि, भवकानन भटकाया। नित निज ज्ञानचरननिधि विसर्यो, तन धनकर अपनाया।।१।।हे जिन. ।। निजानंदअनुभवपियूष तज, विषय हलाहल खाया। मेरी भूल मूल दुखदाई, निमित मोहविधि थाया।।२।।हे जिन. ।। सो दुठ होत शिथिल तुमरे ढिग, और न हेतु लखाया। शिवस्वरूप शिवमगदर्शक तुम, सुयश मुनीगन गाया।।३।।हे जिन. ।। तुम हो सहज निमित जगहितके, मो उर निश्चय भाया। भिन्न होहूँ विधितै सो कीजे, 'दौल' तुम्हें सिर नाया।।४।।हे. जिन.।। ४. मैं आयौ, जिन शरन तिहारी
मैं आयौ, जिन शरन तिहारी। मैं चिरदुखी विभावभावतें, स्वाभाविक निधि आप विसारी ।।मैं ।। रूप निहार धार तुम गुन सुन, वैन होत भवि शिव मगचारी। यौं मम कारज के कारन तुम, तुमरी सेव एक उर धारी ॥१॥ मिल्यौ अनन्त जन्मतै अवसर, अब विनऊँ हे भवसर तारी।
परम इष्ट अनिष्ट कल्पना, 'दौल' कहै झट मेट हमारी ।।२।। ५. जाऊँ कहाँ तज शरन तिहारे जाऊँकहाँ तज शरन तिहारे।।टेक।। चूक अनादितनी या हमरी, माफ करो करुणा गुन धारे।।१।। डूबत हों भवसागरमें अब, तुम बिन को मुह वार निकारे।।२।। तुम सम देव अवर नहिं कोई, तातै हम यह हाथ पसारे ।।३।। मो-सम अधम अनेक उधारे, वरनत हैं श्रुत शास्त्र अपारे।।४।। 'दौलत' को भवपार करो अब, आयो है शरनागत थारे ।।५।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह ६. हे जिन मेरी, ऐसी बुधि कीजै हे जिन मेरी, ऐसी बुधि कीजै। टेक।। रागद्वेष दावानलतें बचि, समतारसमें भीजै।।१।। परकों त्याग अपनपो निजमें, लाग न कबहूँ छीजै।।२।। कर्म कर्मफलमाहि न राचै, ज्ञानसुधारस पीजै।। ३ ।। मुझ कारज के तुम कारन वर, अरज 'दौल' की लीजै।।४।। ७. आज मैं परम पदारथ पायौ
आज मैं परम पदारथ पायौ, प्रभुचरनन चित लायौ।।टेक।। अशुभ गये शुभ प्रगट भये हैं, सहज कल्पतरु छायौ।।१।। ज्ञानशक्ति तप ऐसी जाकी, चेतनपद दरसायो।।२ ।। अष्टकर्म रिपु जोधा जीते, शिव अंकूर जमायौ।।३ ।। दौलत राम निरख निज प्रभो को उरु आनन्द न समायो ।।४।। ८. जिनवर-आनन-भान निहारत जिनवर-आनन-भान निहारत, भ्रमतम घान नसाया है ।।टेक. ।। वचन-किरन-प्रसरनौं भविजन, मनसरोज सरसाया है। भवदुखकारन सुखविसतारन, कुपथ सुपथ दरसाया है ।।१।। विनसाई कज जलसरसाई, निशिचर समर दुराया है। तस्कर प्रबल कषाय पलाये, जिन धनबोध चुराया है।।२।। लखियत उड्ग न कुभाव कहूँ अब, मोह उलूक लजाया है। हँस कोक को शोक नश्यो निज, परनतिचकवी पाया है।।३ ।। कर्मबंध-कजकोप बंधे चिर, भवि-अलि मुंचन पाया है। 'दौल' उजास निजातम अनुभव, उर जग अन्तर छाया है।।४।। ९. त्रिभुवनआनन्दकारी जि न छवि त्रिभुवनआनन्दकारी जिन छवि, थारी नैननिहारी ।।टेक. ।। ज्ञान अपूरब उदय भयो अब, या दिनकी बलिहारी। मो उर मोद बड़ो जु नाथ सो, कथा न जात उचारी ।।१।।
पण्डित दौलतरामजी कृत भजन
सुन घनघोर मोरमुद ओर न, ज्यों निधि पाय भिखारी। जाहि लखत झट झरत मोह रज, होय सो भवि अविकारी ।।२।। जाकी सुंदरता सु पुरन्दर-शोभ लजावन हारी। निज अनुभूति सुधाछवि पुलकित, वदन मदन अरिहारी ।।३।। शूल दुकूल न बाला माला, मुनि मन मोद प्रसारी । अरुन न नैन न सैन भ्रमै न न, बंक न लंक सम्हारी ।।४।। ताते विधि विभाव क्रोधादि न, लखियत हे जगतारी। पूजत पातक पुंज पलावत, ध्यावत शिवविस्तारी ।।५।। कामधेनु सुरतरु चिंतामनि, इकभव सुखकरतारी। तुम छवि लखत मोदतें जो सुर, सो तुमपद दातारी ।।६।। महिमा कहत न लहत पार सुर, गुरुहूकी बुधि हारी।
और कहै किम ‘दौल' चहै इम, देहु दशा तुमधारी ।।७।। १०. निरखत जिनचन्द्र-वदन निरखत जिनचन्द्र-वदन, स्वपदसुरुचि आई ।।टेक. ।। प्रगटी निज आनकी, पिछान ज्ञान भानकी। कला उदोत होत काम, जामिनी पलाई ।।१।। शाश्वत आनन्द स्वाद, पायो विनस्यो विषाद । आनमें अनिष्ट इष्ट, कल्पना नसाई ।।२।। साधी निज साधकी, समाधि मोह व्याधिकी। उपाधिको विराधिकैं, आराधना सुहाई ।।३ ।। धन दिन छिन आज सुगुनि, चिंतें जिनराज अबै ।
सुधरे सब काज 'दौल', अचल ऋद्धि पाई ।।४ ।। ११. निरखत सुख पायौ जिन मुखचन्द निरखत सुख पायौ जिन मुखचन्द ।।टेक.।। मोह महातम नाश भयौ है, उर अम्बुज प्रफुलायौ। ताप नस्यौ बढि उदधि अनन्द।।१।।निरखत. ।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
चकवी कुमति बिछुर अति विलखे, आतमसुधा स्रवायौ। शिथिल भए सब विधिगन फन्द।।२ ।।निरखत. ।। विकट भवोदधिको तट निकट्यौ, अघतरुमूल नसायौ। 'दौल' लह्यौ अब सुपद स्वछन्द।।३ ।।निरखत. ।। १२. मैं हरख्यौ निरख्यौ मुख तेरो मैं हरख्यौ निरख्यौ मुख तेरो।। नासान्यस्त नयन 5 हलय न, वयन निवारन मोह अंधेरो ।।टेक. ।। परमें कर मैं निजबुधि अब लों, भवसरमें दुख सह्यौ घनेरो। सो दुख भानन स्वपर पिछानन, तुमबिन आन न कारन हेरो।।१।। चाह भई शिवराह लाहकी, गयौ उछाह असंजम केरो। 'दौलत' हितविराग चित आन्यौ, जान्यौ रूप ज्ञानदृग मेरो ।।२।। १३. दीठा भागनतें जिनपाला दीठा भागनतें जिनपाला मोहनाशनेवाला ।।टेक. ।। सुभग निशंक रागविन यातें, बसन न आयुधवाला ।।१।। जास ज्ञानमें युगपत भासत, सकल पदारथ माला ।।२।। निजमें लीन हीन इच्छा पर, हितमितवचन रसाला ।।३।। लखि जाकी छवि आतमनिधि निज, पावत होत निहाला ।।४।। 'दौल' जासगुन चिंतत रत है, निकट विकट भवनाला।।५।। १४. शिवमग दरसावन रावरो दरस शिवमग दरसावन रावरो दरस ।।टेक. ।। परमपद-चाह-दाह-गद-नाशन, तुम बच भेषज-पान सरस ।।१।। गुणचितवत निज अनुभव प्रगटै, विघटै विधिठा दुविध तरस ।।२।। 'दौल' अवाची संपति सांची, पाय रहै थिर राच सरस ।।३।।
पण्डित दौलतरामजी कृत भजन १५. जिन छवि तेरी यह जिन छवि तेरी यह, धन जगतारन ।।टेक ।। मूल न फूल दुकूल त्रिशूल न, शमदमकारन भ्रमतमवारन ।।जिन. ।। जाकी प्रभुताकी महिमा , सुरनधीशिता लागत सार न । अवलोकत भविथोक मोख मग, चरत चरत निजनिधि उरधारन ।।१।। जजत भजत अघ तौ को अचरज? समकित पावन भावनकारन । तासु सेव फल एव चहत नित, 'दौलत' जाके सुगुन उचारन ।।२।। १६. प्यारी लागै म्हाने जिन छवि थारी प्यारी लागै म्हाने जिन छवि थारी ।।टेक ।। परम निराकुलपद दरसावत, वर विरागताकारी। पट भूषन बिन पै सुन्दरता, सुरनरमुनिमनहारी ।।१।। जाहि विलोकत भवि निज निधि लहि, चिरविभावता टारी। निरनिमेषः देख सचीपती, सुरता सफल विचारी ।।२।। महिमा अकथ होत लख ताकी, पशु सम समकितधारी। 'दौलत' रहो ताहि निरखनकी, भव भव टेव हमारी ।।३।। १७. जिन छवि लखत यह बुधि भयी जिन छवि लखत यह बुधि भयी ।।टेक.।। मैं न देह चिदंकमय तन, जड़ फरसरसमयी ।।जिन. ।। अशुभशुभफल कर्म दुखसुख, पृथकता सब गयी। रागदोषविभावचालित, ज्ञानता थिर थयी।।१।।जिन. ।। परिग्रह न आकुलता दहन, विनशि शमता लयी। 'दौल' पूरवअलभ आनंद, लह्यौ भवथिति जयी।।२।।जिन. ।। १८. ध्यानकृपान पानि गहि नासी ध्यानकृपान पानि गहि नासि, त्रेसठ प्रकृति अरी। शेष पचासी लाग रही है, ज्यौं जेवरी जरी ।।ध्यान. ।।
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पण्डित दौलतरामजी कृत भजन
आध्यात्मिक भजन संग्रह दुठ अनंग मातंग भंगकर, है प्रबलंगहरी । जा पदभक्ति भक्तजनदुख-दावानल मेघझरी।।१।।ध्यान. ।। नवल धवल पल सोहै कलमें, क्षुधतृषव्याधि टरी। हलत न पलक अलक नख बढ़त न गति नभमाहि करी।।२।।ध्यान. ।। जा विन शरन मरन जर धरधर, महा असात भरी। 'दौल' तास पद दास होत है, वास मुक्तिनगरी।।३ ।।ध्यान. ।। १९. भविन-सरोरुहसूर भूरिगुनपूरित अरहता
भविन-सरोरूहसूर भूरिगुनपूरित अरहता। दुरित दोष मोष पथघोषक, करन कर्मअन्ता ।।भविन. ।। दर्शबोधौं युगपतलखि जाने जु भावऽनन्ता। विगताकुल जुतसुख अनन्त अन्त शक्तिवन्ता।।१।।भविन. ।। जा तनजोत उदोतथकी रवि, शशिदुति लाजंता । तेजथोक अवलोक लगत है, फोक सचीकन्ता।।२।।भविन. ।। जास अनूप रूपको निरखत, हरखत हैं सन्ता। जाकी धुनि सुनि मुनि निजगुनमुन, पर-गर उगलता।।३ ।।भविन. ।। 'दौल' तौल विन जस तस वरनत, सुरगुरु अकुलंता। नामाक्षर सुन कान स्वानसे, रांक नाक गंता।।४ । भविन. ।। २०. प्रभु थारी आज महिमा जानी प्रभु थारी आज महिमा जानी ।।टेक. ।। अबलौं मोह महामद पिय मैं, तुमरी सुधि विसरानी। भाग जगे तुम शांति छवी लखि, जड़ता नींद बिलानी।।१।।प्रभु. ।। जगविजयी दुखदाय रागरुष, तुम तिनकी थिति भानी। शांतिसुधा सागर गुन आगर, परमविराग विज्ञानी।।२।।प्रभु. ।। समवसरन अतिशय कमलाजुत, पै निर्ग्रन्थ निदानी। क्रोधबिना दुठ मोहविदारक, त्रिभुवनपूज्य अमानी।।३ ।।प्रभु. ।।
एकस्वरूप सकलज्ञेयाकृत, जग-उदास जग-ज्ञानी। शत्रुमित्र सबमें तुम सम हो, जो दुखसुख फल यानी।।४ ।।प्रभु. ।। परम ब्रह्मचारी है प्यारी, तुम हेरी शिवरानी। लै कृतकृत्य तदपि तुम शिवमग, उपदेशक अगवानी।।५ । ।प्रभु. ।। भई कृपा तुमरी तुममेंतें, भक्ति सु मुक्ति निशानी।
है दयाल अब देहु 'दौल' को, जो तुमने कृति ठानी।।६ ।।प्रभु. ।। २१. और अबै न कुदेव सुहावै
और अबै न कुदेव सुहावै, जिन थाके चरनन रति जोरी ।।टेक ।। कामकोहवश गहैं अशन असि, अंक निशंक धरै तिय गोरी।
औरनके किम भाव सुधारें, आप कुभाव-भारधर-धोरी ।।१।। तुम विनमोह अकोहछोहविन, छके शांत रस पीय कटोरी। तुम तज सेय अमेय भरी जो, जानत हो विपदा सब मोरी ।।२।। तुम तज तिनै भजै शठ जो सो दाख न चाखत खात निमोरी। हे जगतार उधार 'दौलको', निकट विकट भवजलधि हिलोरी ।।३।। २२. उरग-सुरग-नरईश शीस जिस, आतपत्र त्रिधरे
उरग-सुरग-नरईश शीस जिस, आतपत्र त्रिधरे । कुंदकुसुमसम चमर अमरगन, ढारत मोदभरे ।।उरग.।। तरु अशोक जाको अवलोकत, शोकथोक उजरे । पारजात संतानकादिके, बरसत सुमन वरे।।१।।उरग. ।। सुमणिविचित्र पीठअंबुजपर, राजत जिन सुथिरे । वर्णविगत जाकी धुनिको सुनि, भवि भवसिंधुतरे।।२ ।।उरग. ।। साढ़े बारह कोड़ जातिके, बाजत तूर्य खरे । भामंडलकी दुतिअखंडने, रविशशि मंद करे।।३।।उरग. ।। ज्ञान अनंत अनंत दर्श बल, शर्म अनंत भरे । करुणामृतपूरित पद जाके, 'दौलत' हृदय धरे।।४ ।।उरग. ।।
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पण्डित दौलतरामजी कृत भजन
आध्यात्मिक भजन संग्रह २३. सुधि लीज्यौ जी म्हारी, मोहि भवदुखदुखिया जानके
सुधि लीज्यौ जी म्हारी, मोहि भवदुखदुखिया जानके ।।टेक. ।। तीनलोकस्वामी नामी तुम, त्रिभुवन के दुःखहारी। गनधरादि तुम शरन लई लख, लीनी सरन तिहारी।।१।।सुधि. ।। जो विधि अरि करी हमरी गति, सो तुम जानत सारी। याद किये दुख होत हिये ज्यौं, लागत कोट कटारी।।२।।सुधि. ।। लब्धि-अपर्यापत निगोद में, एक उसासमंझारी। जनममरन नवदुगुन विथाकी, कथा न जात उचारी।।३ ।।सुधि. ।। भू जल ज्वलन पवन प्रतेक तरु, विकलत्रय तनधारी। पंचेंद्री पशु नारक नर सुर, विपति भरी भयकारी।।४ ।।सुधि. ।। मोह महारिपु नेक न सुखमय, हो न दई सुधि थारी। सो दुठ मंद भयौ भागनतें, पाये तुम जगतारी।।५।।सुधि. ।। यद्यपि विरागि तदपि तुम शिवमग, सहज प्रगट करतारी। ज्यौं रविकिरन सहजमगदर्शक, यह निमित्त अनिवारी।।६।।सुधि ।। नाग छाग गज बाघ भील दुठ, तारे अधम उधारी।
सीस नवाय पुकारत अबके, 'दौल' अधमकी बारी।।७।।सुधि ।। २४. जय जय जग-भरम-तिमिर जय जय जग-भरम-तिमिर हरन जिन धुनि ।।टेक. ।। या बिन समुझे, अजौं न, सौंज निज मुनी। यह लखि हम निजपर अविवेकता लुनी।।१।।जय जय. ।। जाको गनराज अंग, पूर्वमय चुनी। सोई कही है कुन्दकुन्द, प्रमुख बहु मुनी।।२ ।।जय. जय. ।। जे चर जड भये पीय, मोह बारुनी। तत्त्व पाय चेते जिन, थिर सुचित सुनी।।३ ।।जय. जय. ।। कर्ममल पखारनेहि, विमल सुरधुनी। तज विलंब अब करो, 'दौल' उर पुनी।।४ ।।जय. जय. ।। ..
२५. थारा तो वैना में सरधान घणो छै
थारा तो वैना में सरधान घणो छै, म्हारे छवि निरखत हिय सरसावै। तुमधुनिघन परचहन-दहनहर, वर समता-रस-झर वरसावै ।।थारा. ।। रूपनिहारत ही बुधि है सो, निजपरचिह्न जुदे दरसावै। मैं चिदंक अकलंक अमल थिर, इन्द्रियसुखदुख जड़फरसावै।।१।। ज्ञान विराग सुगुनतुम तिनकी, प्रापति हित सुरपति तरसावै। मुनि बड़भाग लीन तिनमें नित, 'दौल' धवल उपयोग रसावै।।२।। २६. जिनवैन सुनत, मोरी भूल भगी जिनवैन सुनत, मोरी भूल भगी ।।टेक. ।। कर्मस्वभाव भाव चेतनको, भिन्न पिछानन सुमति जगी ।।जिन. ।। निज अनुभूति सहज ज्ञायकता, सो चिर रुष तुष मैल-पगी। स्यादवाद-धुनि-निर्मल-जलतें, विमल भई समभाव लगी।।१।।जिन. ।। संशयमोहभरमता विघटी, प्रगटी आतमसोंज सगी। 'दौल' अपूरब मंगल पायो, शिवसुख लेन होंस उमगी।।२।।जिन. ।। २७. सुन जिन वैन श्रवन सुख पायौ
सुन जिन वैन, श्रवन सुख पायौ ।।टेक. ।। नस्यौ तत्त्व दुर अभिनिवेश तम, स्याद उजास कहायौ ।
चिर विसर्यो लह्यौ आतम रैन ।।१।।सुन. ।। दह्यौ अनादि असंजम दवतै, लहि व्रत सुधा सिरायौ ।
धीर धरी मन जीतन मन ।।२ ।।सुन. ।। भये विभाव अभाव सकल अब, सकल रूप चित लायौ ।
दास लह्यौ अब अविचल जैन ।।३।।सुन. ।। २८. जब” आनंदजननि दृष्टि परी माई
जबतें आनंदजननि दृष्टि परी माई। तबतें संशय विमोह भरमता विलाई ।।जबतें. ।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
१००
जड़स्वरूप ।
दुखदाई || १ || बतैं ।
ज्ञानताई । । २ । ।जबतें. ।। विधिझारन इमि
।
मैं हूँ चितचिह्न, भिन्न परतें, पर दोउनकी एकतासु, जानी रागादिक बंधहेत, बंधन बहु विपति देत । संवर हित जान तासु, हेत सब सुखमय शिव है तसु, कारन तत्त्व की विचारन जिन - वानि विषयचाह ज्वालतैं, दह्यो सुधांबुस्यात्पदांकगाह तें या विन जगजाल में न शरन तीनकाल में । सम्हाल चित भजो सदीव, 'दौल' यह सुहाई ।। ५ ।। जबतें. ।। २९. और सबै जगद्वन्द मिटावो
सुधिकराई । । ३ । । जबतें. ।। अनंतकालतैं । आई । । ४ । । जबतें. ।।
प्रशांति
और सबै जगद्वन्द मिटावो, लो लावो जिन आगम-ओरी ॥ टेक ॥। है असार जगद्वन्द बन्धकर, यह कछु गरज न सारत तोरी । कमला चपला, यौवन सुरधनु, स्वजन पथिकजन क्यों रति जोरी ॥ १ ॥ विषय कषाय दुखद दोनों ये, इनतैं तोर नेहकी डोरी । परद्रव्यनको तू अपनावत, क्यों न तजै ऐसी बुधि भोरी ।। २ ।। बीत जाय सागरथिति सुरकी, नरपरजायतनी अति थोरी । अवसर पाय 'दौलत' अब चूको, फिर न मिलै मणि सागर बोरी || ३ || ३०. जिनवानी जान सुजान रे
जिनवानी जान सुजान रे ।। टेक ॥।
लाग रही चिरतें विभावता, ताको कर अवसान रे । । जिनवानी. ।। द्रव्य क्षेत्र अरु काल भावकी, कथनीको पहिचान रे ।
जाहि पिछाने स्वपरभेद सब, जाने परत निदान रे । । १ । । जिनवानी. ।। पूरब जिन जानी तिनहीने, भानी संसृतिवान रे अब जानै अरु जानेंगे जे, ते पावैं शिवथान रे || २ || जिनवानी ॥
।
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(५१)
पण्डित दौलतरामजी कृत भजन
कह 'तुषमाष' सुनी शिवभूती, पायो केवलज्ञान रे ।
यौ लखि 'दौलत' सतत करो भवि, जिनवचनामृतपान रे ।। ३ । । जिनवानी. ।। ३१. नित पीज्यौ धीधारी, जिनवानि
नित पीज्यौ धीधारी, जिनवानि सुधासम जानके । । टेक. ।। वीरमुखारविंदतें प्रगटी, जन्मजरागद टारी ।
१०१
गौतमादिगुरु-उरघट व्यापी, परम सुरुचि करतारी । । १ । । नित. ।। सलिल समान कलिलमल गंजन बुधमन रंजनहारी ।
भंजन विभ्रमधूलि प्रभंजन, मिथ्याजलदनिवारी । । २ । । नित. ।। कल्यानक तरु उपवनधरिनी, तरनी भवजलतारी । बंधविदारन पैनी छैनी, मुक्ति नसैनी सारी । । ३ । । नित. ।। स्वपरस्वरूप प्रकाशनको यह, भानु कला अविकारी |
मुनिमन - कुमुदिनि-मोदन - शशिभा, शम-सुख सुमनसुबारी ।। ४ । । नित. ।। जाको सेवत बेवत निजपद, नशत अविद्या सारी ।
तीन लोकपति पूजत जाको, जान त्रिजग हितकारी । । ५ । । नित. ।। कोटि जीभसौं महिमा जाकी, कहि न सके पविधारी ।
'दौल' अल्पमति केम कहै यह, अधम उधारनहारी । । ६ । । नित. ।। ३२. धन धन साधर्मीजन मिलनकी घरी
धन धन साधर्मीजन मिलनकी घरी,
बरसत भ्रमताप हरन ज्ञानघनझरी ।। टेक. ।।
जाके विन पाये भवविपति अति भरी ।
निज परहित अहित की कछू न सुधि परी ।। १ ।। धन. ।। जाके परभाव चित्त सुथिरता करी ।
संशय भ्रम मोहकी कु वासना टरी ।। २ । । धन. ।। मिथ्या गुरुदेवसेव टेव वीतरागदेव सुगुरुसेव
परिहरी ।
उरघरी || ३ || धन. ।।
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पण्डित दौलतरामजी कृत भजन
१०२
आध्यात्मिक भजन संग्रह चारों अनुयोग सुहितदेश दिठपरी । शिवमगके लाह की सुचाह विस्तरी।।४।।धन. ।। सम्यक् तरु धरनि येह करन करिहरी । भवजलको तरनि समर-भुजंग विषजरी।।५।।धन. ।। पूरवभव या प्रसाद रमनि शिव वरी। सेवो अब 'दौल' याहि बात यह खरी।।६।।धन. ।। २३. अब मोहि जानि परी
अब मोहि जानि परी, भवोदधि तारनको है जैन ।।टेक.।। मोह तिमिर तैं सदा कालके, छाय रहे मेरे नैन । ताके नाशन हेत लियो, मैं अंजन जैन सु ऐन।।१।।अब. ।। मिथ्यामती भेषको लेकर, भाषत हैं जो वैन । सो वे बैन असार लखे मैं, ज्यों पानी के फैन।।२।।अब. ।। मिथ्यामती वेल जग फैली, सो दुख फलकी दैन। सतगुरु भक्तिकुठार हाथ लै, छेद लियो अति चैन।।३।।अब. ।। जा बिन जीव सदैव कालतें, विधि वश सुखन लहै न।
अशरन-शरन अभय 'दौलत' अब, भजो रैन दिन जैन।।४।।अब.।। २४. ऐसा मोही क्यों न अधोगति जावै
ऐसा मोही क्यों न अधोगति जावै, जाको जिनवानी न सुहावै ।।टेक. ।। वीतरागसे देव छोड़कर, भैरव यक्ष मनावै । कल्पलता दयालुता तजि, हिंसा इन्द्रायनि वावै।।१।।ऐसा. ।। रुचै न गुरु निर्ग्रन्थ भेष बहु, - परिग्रही गुरु भावै। परधन परतियको अभिलाषे, अशन अशोधित खावै।।२।।ऐसा.।। परकी विभव देख है सोगी, परदुख हरख लहावै। धर्म हेतु इक दाम न खरचै, उपवन लक्ष बहावै।।३ ।।ऐसा. ।। ज्यों गृह में संचै बहु अघ त्यों, वनहू में उपजावै। अम्बर त्याग कहाय दिगम्बर, बाघम्बर तन छावै।।४।।ऐसा. ||
आरम्भ तज शठ यंत्र मंत्र करि, जनपै पूज्य मनावै। धाम वाम तज दासी राखै, बाहिर मढ़ी बनावै।।५।।ऐसा. ।। नाम धराय जती तपसी मन, विषयनिमें ललचावै। 'दौलत' सो अनन्त भव भटकै, ओरनको भटकावै।।६।।ऐसा.।। ३५. ऐसा योगी क्यों न अभयपद पावै
ऐसा योगी क्यों न अभयपद पावै, सो फेर न भवमें आवै ।।टेक. ।। संशय विभ्रम मोह-विवर्जित, स्वपर स्वरूप लखावै। लख परमातम चेतनको पुनि, कर्मकलंक मिटावै।।१।।ऐसा. ।। भवतनभोगविरक्त होय तन, नग्न सुभेष बनावै । मोहविकार निवार निजातम-अनुभव में चित लावै।।२।।ऐसा. ।। त्रस-थावर-वध त्याग सदा, परमाद दशा छिटकावै। रागादिकवश झूठ न भाखै, तृणहु न अदत गहावै।।३ ।।ऐसा. ।। बाहिर नारि त्यागि अंतर, चिद्ब्रह्म सुलीन रहावै। परमाकिंचन धर्मसार सो, द्विविध प्रसंग बहावै।।४ ।।ऐसा. ।। पंच समिति त्रय गुप्ति पाल, व्यवहार-चरनमग धावै। निश्चय सकल कषाय रहित है, शुद्धातम थिर थावै।।५।।ऐसा. ।। कुंकुम पंक दास रिपु तृण मणि, व्याल माल सम भावै। आरत रौद्र कुध्यान विडारे, धर्मशुकलको ध्यावै।।६।।ऐसा. ।। जाके सुखसमाज की महिमा, कहत इन्द्र अकुलावै। 'दौल' तासपद होय दास सो, अविचलऋद्धि लहावै।।७।।ऐसा.।। २६. कबधौं मिलै मोहि श्रीगुरु मुनिवर
कबधौं मिलै मोहि श्रीगुरु मुनिवर, करि हैं भवोदधि पारा हो ।।टेक. ।। भोगउदास जोग जिन लीनों, छाँडि परिग्रहभारा हो। इन्द्रिय दमन वमन मद कीनो, विषय कषाय निवारा हो।।१।।कबधौं. ।। कंचन काँच बराबर जिनके, निंदक बंदक सारा हो। दुर्धर तप तपि सम्यक निज घर, मनवचतनकर धारा हो।।२।।कबधौं. ।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
ग्रीषम गिरि हिम सरिता तीरे, पावस तरुतल ठारा हो ।
करुणाभीन चीन त्रसथावर, ईर्यापंथ समारा हो । । ३ । । कबधौं . ।। मार मार व्रत धार शील दृढ़, मोह महामल टारा हो।
मास छमास उपास वास वन, प्रासुक करत अहारा हो । । ४ । ।कबधौं. ।। आरत रौद्रलेश नहिं जिनके, धर्म शुक्ल चित धारा हो। ध्यानारूढ़ गूढ़ निज आतम, शुधउपयोग विचारा हो । । ५ । । कबधौं . ।। आप तरहिं औरनको तारहिं भवजलसिंधु अपारा हो ।
'दौलत' ऐसे जैन - जतिनको, नितप्रति धोक हमारा हो । । ६ । । कबधौं. ।। ३७. गुरु कहत सीख इमि बार बार
।। टेक. ।।
१
।। गुरु. ।।
गुरु कहत सीख इमि बार बार, विषसम विषयनको टार टार इन सेवत अनादि दुख पायो, जनम मरन बहु धार धार ।। कर्माश्रित बाधा - जुत फाँसी, बन्ध बढ़ावन द्वंदकार ।। २ येन इन्द्रिके तृप्तिहेतु जिमि, तिस न बुझावत क्षारवार ।। ३ इनमें सुख कलपना अबुधके, बुधजन मानत दुख प्रचार ।।४ इन तजि ज्ञानपियूष चख्यौ तिन, 'दौल' लही भववार पार ।।५ । ।गुरु. ।।
।
। गुरु. ।।
। । गुरु. ।।
।। गुरु. ।।
३८. जिन रागद्वेषत्यागा वह सतगुरु हमारा
जिन रागद्वेषत्यागा वह सतगुरु हमारा । । टेक ।।
तज राजरिद्ध तृणवत निज काज सँभारा ।। जिन राग. ।। रहता है वह वनखंड में, धरि ध्यान कुठारा। जिन मोह महा तरुको, जड़मूल उखारा ।। १ ।। जिन राग. ।। सर्वांग तज परिग्रह, दिगअंबर धारा । अनंतज्ञानगुन समुद्र, चारित्र भँडारा || २ || जिन राग ।। शुक्लाग्नि को प्रजाल के, वसु कानन जारा । ऐसे गुरु को 'दौल' है, नमोऽस्तु हमारा । ।
३ । ।जिन राग ।।
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पण्डित दौलतरामजी कृत भजन
३९. धनि मुनि जिनकी लगी लौ शिवओरनै धनि मुनि जिनकी लगी लौ शिवओरनै ।। सम्यग्दर्शनज्ञानचरननिधि, धरत हरत भ्रमचोरनै । धनि ।। यथाजातमुद्राजुत सुन्दर, सदन विजन गिरिकोरनै । तृन- कंचन अरि-स्वजन गिनत सम, निंदन और निहोरनै । । १ । धनि ।। भवसुख चाह सकल तजि वल सजि, करत द्विविध तप घोरनै ।
परम विरागभाव पवितैं नित, चूरत करम कठोरनै ।। २ ।। धनि ।। छीन शरीर न हीन चिदानन, मोहत मोहझकोरनै ।
जग - तप-हर भवि कुमुद निशाकर, मोदन 'दौल' चकोरनै ।। ३ ।। धनि ।। ४०. धनि मुनि जिन यह, भाव पिछाना
धनि मुनि जिन यह, भाव पिछाना ।।
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तनव्यय वांछित प्रापति मानी, पुण्य उदय दुख जाना । धनि ।। एक विहारी सकल ईश्वरता, त्याग महोत्सव माना । सब सुखको परिहार सार सुख, जानि रागरुष भाना । । १ । । धनि ।। चित्स्वभावको चिंत्य प्रान निज, विमल ज्ञानदृगसाना ।
'दौल' कौन सुख जान लह्यौ तिन, करो शांतिरसपाना । । २ । ।धनि. ।। ४१. धनि मुनि निज आतमहित कीना
धनि मुनि निज आतमहित कीना ।
भव प्रसार तप अशुचि विषय विष, जान महाव्रत लीना । । धनि ।। एकविहारी परिग्रह छारी, परीसह सहत अरीना । पूरव तन तपसाधन मान न लाज गनी परवीना ।। १ ।। धनि ।। शून्य सदन गिर गहन गुफामें, पदमासन आसीना । परभावनतैं भिन्न आपपद, ध्यावत मोहविहीना ।। २ ।। धनि ।। स्वपरभेद जिनकी बुधि निजमें, पागी वाहि लगीना । 'दौल' तास पद वारिज रजसे, किस अघ करे न छीना । । ३ । धनि ।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह ४२. देखो जी आदीश्वर स्वामी कैसा ध्यान लगाया है! देखो जी आदीश्वर स्वामी कैसा ध्यान लगाया है। कर ऊपरि कर सुभग विराजै, आसन थिर ठहराया है। टेक ।। जगत-विभूति भूतिसम तजकर, निजानन्द पद ध्याया है। सुरभित श्वासा, आशा वासा, नासादृष्टि सुहाया है ।।१।। कंचन वरन चलै मन रंच न, सुरगिर ज्यों थिर थाया है। जास पास अहि मोर मृगी हरि, जातिविरोध नसाया है।।२।। शुध उपयोग हुताशन में जिन, वसुविधि समिध जलाया है। श्यामलि अलकावलि शिर सोहै, मानों धुआँ उड़ाया है।।३।। जीवन-मरन अलाभ-लाभ जिन, तृन-मनिको सम भाया है।
सुर नर नाग नमहिं पद जाकै, 'दौल' तास जस गाया है।।४।। ४३. जय श्री ऋषभ जिनंदा! नाश तौ करो स्वामी मेरे दुखदंदा
जय श्री ऋषभ जिनंदा! नाश तौ करो स्वामी मेरे दुखदंदा ।।टेक. ।। मातु मरुदेवी प्यारे, पिता नाभिके दुलारे । वंश तो इक्ष्वाक, जैसे नभवीच चंदा।।१।।जय श्री. ।। कनक वरन तन, मोहत भविक जन । रवि शशि कोटि लाजै, लाजै मकरन्दा।।२।।जय श्री. ।। दोष तौ अठारा नासे, गुन छियालीस भासे । अष्ट-कर्म काट स्वामी, भये निरफंदा।।३।।जय श्री. ।। चार ज्ञानधारी गनी, पार नाहिं पावै मुनी। 'दौलत' नमत सुख चाहत अमंदा।।४ ।।जय श्री. ।। ४४. भज ऋषिपति ऋषभेश
भज ऋषिपति ऋषभेश, ताहि नित नमत अमर असुरा। मनमथ मथ दरसावन शिवपथ, वृषरथचक्रघुरा । ।भज. ।। जा प्रभुगर्भ छमासपूर्व सुर, करी सुवर्णधरा । जन्मत सुरगिरधर सुरगणयुत, हरि पय-न्हवन करा।।१।।भज. ।।
पण्डित दौलतरामजी कृत भजन
नटत नृत्यकी विलय देख प्रभु, लहि विराग सु थिरा । तब हि देवऋषि आय नाय शिर, जिनपदपुष्प धरा।।२।।भज. ।। केवल समय जास वच रविने, जगभ्रमतिमिरहरा। सुदृगबोधचारित्र पोतलहि, भवि भवसिंधुतरा।।३ ।।भज. ।। योगसंहार निवार शेषविधि, निवसे वसुम धरा । 'दौलत' जे जाको जस गावे, ते द्वै अज अमरा।।४ ।।भज. ।। ४५. मेरी सुध लीजै रिषभस्वाम! मेरी सुध लीजै रिषभस्वाम! मोहि कीजै शिवपथगाम ।।टेक. ।। मैं अनादि भवभ्रमत दुखी अब, तुम दुख मेटत कृपाधाम । मोहि मोह घेरा कर चेरा, पेरा चहुँगति विदित ठाम।।१।।मेरी. ।। विषयन मन ललचाय हरी मुझ, शुद्धज्ञान-संपति ललाम । अथवा यह जड़ को न दोष मम, दुखसुखता, परनति सुकाम।।२।।मेरी. ।। भाग जगे अब चरन जपे तुम, वच सुनके गहे सुगुनग्राम। परमविराग ज्ञानमय मुनिजन, जपत तुमारी सुगुनदाम।।३।।मेरी. ।। निर्विकार संपति कृति तेरी, छविपर वारों कोटिकाम। भव्यनिके भव हारन कारन, सहज यथा तमहरन घाम।।४ ।।मेरी. ।। तुम गुनमहिमा कथन करनको, गिनत गनी निजबुद्धि खाम। 'दोलतनी' अज्ञान परनती, हे जगत्राता कर विराम।।५।।मेरी. ।। ४६. जगदानंदन जिन अभिनंदन जगदानंदन जिन अभिनंदन, पदअरविंद नमूं मैं तेरे ।।टेक ।। अरुणवरन अघताप हरन वर, वितरन कुशल सु शरन बडेरे। पद्मासदन मदन-मद-भंजन, रंजन मुनिजन मन अलिकेरे।।१।। ये गुन सुन मैं शरनै आयो, मोहि मोह दुख देत घनेरे । ता मदभानन स्वपर पिछानन, तुम विन आन न कारन हेरे।।२।।
तुम पदशरण गही जिनतें ते, जामन-जरा-मरन-निरवेरे । Harian तुम” विमुख भये शठ तिनको, चहुँ गति विपत महाविधि पेरे।।३।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह तुमरे अमित सुगुन ज्ञानादिक, सतत मुदित गनराज उगेरे । लहत न मित मैं पतित कहों किम, किन शशकन गिरिराज उखेरे।।४।। तुम बिन राग दोष दर्पनज्यों, निज निज भाव फलैं तिनकेरे। तुम हो सहज जगत उपकारी, शिवपथ-सारथवाह भलेरे ।।५।। तुम दयाल बेहाल बहुत हम, काल-कराल व्याल-चिर-घेरे। भाल नाय गुणमाल जपों तुम, हे दयाल, दुखटाल सबेरे ।।६।। तुम बहु पतित सुपावन कीने, क्यों न हरो भव संकट मेरे ।
भ्रम-उपाधि हर शम समाधिकर, 'दौल' भये तुमरे अब चेरे।।७।। ४७. पद्मसद्म पद्मापद पद्मा पद्मसद्म पद्मापद पद्मा, मुक्तिसद्म दरशावन है। कलि-मल-गंजन मन अलि रंजन, मुनिजन शरन सुपावन है ।। जाकी जन्मपुरी कुशंबिका, सुर नर-नाग रमावन है। जास जन्मदिनपूरब षटनव, मास रतन बरसावन है।।१।। जा तपथान पपोसागिरि सो, आत्म-ज्ञान थिर थावन है। केवलजोत उदोत भई सो, मिथ्यातिमिर-नशावन है ।।२।। जाको शासन पंचाननसो, कुमति मतंग नशावन है। राग बिना सेवक जन तारक, पै तसु रुषतुष भाव न है ।।३।। जाकी महिमा के वरननसों, सुरगुरु बुद्धि थकावन है। 'दौल' अल्पमति को कहबो जिमि, शशक गिरिंद धकावन है।।४।। ४८. चन्द्रानन जिन चन्द्रनाथ के
चन्द्रानन जिन चन्द्रनाथ के, चरन चतुर-चित ध्यावतु हैं। कर्म-चक्र-चकचूर चिदातम, चिनमूरत पद पावतु हैं ।।टेक।। हाहा-हूहू-नारद-तुंबर, जासु अमल जस गावतु हैं। पद्मा सची शिवा श्यामादिक, करधर बीन बजावतु हैं।।१।।
पण्डित दौलतरामजी कृत भजन बिन इच्छा उपदेश माहिं हित, अहित जगत दरसावतु हैं। जा पदतट सुर नर मुनि घट चिर, विकट विमोह नशावतु हैं।।२।। जाकी चन्द्र बरन तनदुतिसों, कोटिक सूर छिपावतु हैं। आतमजोत उदोतमाहिं सब, ज्ञेय अनंत दिपावतु हैं ।।३।। नित्य-उदय अकलंक अछीन सु, मुनि-उडु-चित्त रमावतु हैं। जाकी ज्ञानचन्द्रिका लोका-लोक माहिं न समावतु हैं ।।४।। साम्यसिंधु-वर्द्धन जगनंदन, को शिर हरिगन नावतु हैं। संशय विभ्रम मोह 'दौल' के, हर जो जगभरमावतु हैं ।।५।। ४९. भारतूं हित तेरा, सुनि हो मन मेरा भाखू हित तेरा, सुनि हो मन मेरा ।।टेक. ।। नरनरकादिक चारौं गति में, भटक्यो तू अधिकानी । परपरणति में प्रीति करी, निज परनति नाहिं पिछानी ।
सहै दुख क्यों न घनेरा ।।१।।भाv.।। कुगुरु कुदेव कुपंथ पंकफंसि, तैं बहु खेद लहायो । शिवसुख दैन जैन जगदीपक, सो तैं कबहुँ न पायो ।
मिट्यो न अज्ञान अंधेरा ।।२।।भाखू.।। दर्शनज्ञानचरण तेरी निधि, सौ विधिठगन ठगी है। पाँचों इंद्रिन के विषयन में, तेरी बुद्धि लगी है।
भया इनका तू चेरा ।।३।।भाखू.।। तू जगजाल विषै बहु उरझ्यो, अब कर ले सुरझेरा । 'दौलत' नेमिचरन पंकज का, हो तू भ्रमर सबेरा ।
नशै ज्यों दुख भवकेरा ।।४ ।।भाखू.।। ५०. आतम रूप अनूपम अद्भुत
आतम रूप अनूपम अद्भुत, याहि लखें भव सिंधु तरो।।टेक ।। अल्पकाल में भरत चक्रधर, निज आतमको ध्याय खरो। केवलज्ञान पाय भवि बोधे, ततछिन पायौ लोकशिरो ।।१।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह या बिन समुझे द्रव्य-लिंगमुनि, उग्र तपनकर भार भरो। नवग्रीवक पर्यन्त जाय चिर, फेर भवार्णव माहिं परो ।।२।। सम्यग्दर्शन ज्ञान चरन तप, येहि जगत में सार नरो। पूरव शिवको गये जाहिं अब, फिर जैहैं, यह नियत करो।।३।। कोटि ग्रन्थको सार यही है, ये ही जिनवानी उचरो। 'दौल' ध्याय अपने आतमको, मुक्तिरमा तब वेग बरो।।४।। ५१. चिन्मूरत दृग्धारी की मोहे चिन्मूरत दृग्धारीकी मोहे, रीति लगत है अटापटी ।।टेक ।। वाहिर नारकिकृत दुख भोगै, अंतर सुखरस गटागटी। रमत अनेक सुरनि संग पै तिस, परनति नित हटाहटी ।।१।। ज्ञानविरागशक्ति ते विधि-फल, भोगत पै विधि घटाघटी। सदननिवासी तदपि उदासी, तातें आस्रव छटाछटी ।।२।। जे भवहेतु अबुधके ते तस, करत बन्धकी झटाझटी। नारक पशु तिय पँढ विकलत्रय, प्रकृतिन की 8 कटाकटी ।।३।। संयम धर न सकै पै संयम, धारन की उर चटाचटी। तासु सुयश गुनकी 'दौलतके' लगी, रहै नित रटारटी ।।४।। ५२. आप भ्रमविनाश आप
आप भ्रमविनाश आप आप जान पायौ। कर्णधृत सुवर्ण जिमि चितार चैन थायौ ।।आप. ।। मेरो मन तनमय, तन मेरो मैं तनको। त्रिकाल यौं कुबोध नश, सुबोधभान जायौ।।१।।आप. ।। यह सुजैनवैन ऐन, चिंतन पुनि पुनि सुनैन । प्रगटो अब भेद निज, निवेदगुन बढ़ायौ।।२।।आप. ।। यौं ही चित अचित मिश्र, ज्ञेय ना अहेय हेय। इंधन धनंजय जैसे, स्वामियोग गायौ।।३ ।।आप. ।।
पण्डित दौलतरामजी कृत भजन
भंवर पोत छुटत झटति, बांछित तट निकटत जिमि । रागरुख हर जिय, शिवतट निकटायौ।।४ ।।आप. ।। विमल सौख्यमय सदीव, मैं हूँ नहिं अजीव । द्योत होत रज्जु में, भुजंग भय भगायौ।।५।।आप. ।। यौं ही जिनचंद सुगुन, चिंतत परमारथ गुन । 'दौल' भाग जागो जब, अल्पपूर्व आयौ।।६।।आप. ।। ५३. चेतन यह बुधि कौन सयानी
चेतन यह बुधि कौन सयानी, कही सुगुरु हित सीख न मानी ।। कठिन काकतालीज्यौं पायौ, नरभव सुकुल श्रवन जिनवानी ।।चेतन. ।। भूमि न होत चाँदनीकी ज्यौ, त्यौं नहिं धनी ज्ञेयको ज्ञानी। वस्तुरूप यौं तू यौँ ही शठ, हटकर पकरत सोंज विरानी।।१।।चेतन. ।। ज्ञानी होय अज्ञान राग-रुषकर निज सहज स्वच्छता हानी। इन्द्रिय जड़ तिन विषय अचेतन, तहाँ अनिष्ट इष्टता ठानी।।२।।चेतन.।। चाहै सुख, दुख ही अवगाहै, अब सुनि विधि जो है सुखदानी। 'दौल' आपकरि आपआपमैं, ध्याय ल्यायलय समरससानी।।३।।आप. ।। ५४. चेतन कौन अनीति गही रे
चेतन कौन अनीति गही रे, न मा सुगुरु कही रे। जिन विषयनवश बहु दुख पायो, तिनसौं प्रीति ठही रे ।।चेतन. ।। चिन्मय है देहादि जड़नसौं, तो मति पागि रही रे । सम्यग्दर्शनज्ञान भाव निज, तिनकौं गहत नहीं रे।।१।।चेतन. ।। जिनवृष पाय विहाय रागरुष, निजहित हेत यही रे । 'दौलत' जिन यह सीख धरी उर, तिन शिव सहज लही रे।।२।।चेतन. ।। ५५. चेतन तैं यौँ ही भ्रम ठान्यो
चेतन तैं यौँ ही भ्रम ठान्यो, ज्यों मृग मृगतृष्णा जल जान्यो। ज्यौं निशितममैं निरख जेवरी, भुजंग मान नर भय उर आन्यो ।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह ज्यौं कुध्यान वश महिष मान निज, फंसि नर उरमाहीं अकुलान्यौ। त्यौं चिर मोह अविद्या पेस्यो, तेरों नैं ही रूप भुलान्यो ।।१।। तोय तेल ज्यौं मेल न तनको, उपज खपज मैं सुखदुख मान्यो। पुनि परभावनको करता है, तैं तिनको निज कर्म पिछान्यो।।२।। नरभव सुथल सुकुल जिनवानी, काललब्धि बल योग मिलान्यो।
'दौल' सहज भज उदासीनता, तोष-रोष दुखकोष जु भान्यो।।३।। ५६. चेतन अब धरि सहजसमाधि
चेतन अब धरि सहजसमाधि, जातें यह विनशैभव ब्याधि ।।चेतन. ।। मोह ठगौरी खायके रे, परको आपा जान । भूल निजातम ऋद्धिको तैं, पाये दुःख महान।।१।।चेतन. ।। सादि अनादि निगोद दोयमें, परयो कर्मवश जाय । श्वासउसासमँझार तहाँ भव, मरन अठारह थाय।।२।।चेतन. ।। कालअनन्त तहाँ यौं वीत्यो, जब भइ मन्द कषाय । भूजल अनिल अनल पुन तरु द्वै, काल असंख्य गमाय।।३।।चेतन. ।। क्रमक्रम निकसि कठिन तैं पाई, शंखादिक परजाय। जल थल खचर होय अघ ठाने, तस वश श्वभ्र लहाय।।४।।चेतन. ।। तित सागरलों बहु दुख पाये, निकस कबहुँ नर थाय । गर्भ जन्मशिशु तरुणवृद्ध दुख, सहे कहे नहिं जाय।।५।।चेतन. ।। कबहूँ किंचित पुण्यपाकतें चउविधि देव कहाय । विषयआश मन त्रास लही तहं, मरन समय विललाय।।६।।चेतन. ।। यौं अपार भवखारवार में, भ्रम्यो अनन्ते काल । 'दौलत' अब निजभाव नाव चढ़ि, लै भवाब्धिकी पाल।।७।।चेतन. ।। ५७. चिदरायगुन सुनो मुनो चिदरायगुन सुनो मुनो प्रशस्त गुरुगिरा। समस्त तज विभाव, हो स्वकीयमें थिरा ।।चिदरायगुन. ।।
पण्डित दौलतरामजी कृत भजन निजभावके लखाव बिन, भवाब्धिमें परा। जामन मरन जरा त्रिदोष, अग्निमें जरा।।१।।चिदरायगुन. ।। फिर सादि औ अनादि दो, निगोदमें परा। तहँ अंकके असंख्यभाग, ज्ञान ऊबरा।।२।।चिदरायगुन. ।। तहाँ भव अन्तरमहर्तके कहे गनेश्वरा। छयासठ सहस त्रिशत छतीस, जन्म धर मरा।।३ ।।चिदरायगुन. ।। यौं वशि अनंतकाल फिर, तहांतै नीसरा । भूजल अनिल अनल प्रतेक, तरुमें तन धरा।।४।।चिदरायगुन. ।। अनुंधरीसु कुंथु कानमच्छ अवतरा । जल थल खचर कुनर नरक, असुर उपज मरा।।५।।चिदरायगुन. ।। अबके सुथल सुकुल सुसंग, बोध लहि खरा । 'दौलत' त्रिरत्न साध लाध, पद अनुत्तरा।।६।।चिदरायगुन. ।। ५८. चित चिंतकै चिदेश कब चित चिंतकै चिदेश कब, अशेष पर वम् । दुखदा अपार विधि दुचार की चमू दमू ।। तजि पुण्यपाप थाप आप, आपमें रमू ।। कब राग-आग शर्म-बाग, दागिनी शमू ।।१।। दृग-ज्ञानभानतें मिथ्या, अज्ञानतम दम् । कब सर्व जीव प्राणिभूत, सत्त्वसौं छम् ।।२ ।। जल मल्ललिप्त कल सुकल, सुबल्ल परिनम् । दलके त्रिशल्ल मल्ल कब, अटल्लपद पम् ।।३ ।। कब ध्याय अज अमरको फिर न, भवविपिन भम् । जिन पूर कौल 'दौल' को यह, हेतु हौं नमू ।।४ ।। ५९. राचि रह्यो परमाहिं तू अपनो राचि रह्यो परमाहिं तू अपनो, रूप न जानै रे ।।टेक ।। अविचल चिनमूरत विनमूरत, सुखी होत तस ठानै रे ।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
तन धन भ्रात तात सुत जननी, तू इनको निज जानै रे । ये पर इनहिं वियोग योग में, यौं ही सुख दुख मानै रे ।। १ ।। चाह न पाये पाये तृष्णा, सेवत ज्ञान जघानै रे । विपतिखेत विधिवंधहेत पै, जान विषय रस खानै रे ।। २ ।। नरभव जिनश्रुतश्रवण पाय अब, कर निज सुहित सयानै रे । 'दौलत' आतम ज्ञान - सुधारस, पीवो सुगुरु बखानै रे || ३ || ६०. मेरे कब है वा दिन की सुघरी
मेरे कब है वा दिन की सुघरी ।। टेक ॥।
तन विन वसन असनविन वनमें, निवसों नासादृष्टिधरी ।। पुण्यपाप परसौं कब विरचों, परचों निजनिधि चिरविसरी । तज उपाधि सजि सहजसमाधी, सहों घाम हिम मेघझरी ॥ १ ॥ कब थिरजोग धरों ऐसो मोहि, उपल जान मृग खाज हरी । ध्यान -कमान तान अनुभव-शर, छेदों किहि दिन मोह अरी ॥ २ ॥ कब तृनकंचन एक गनों अरु, मनिजडितालय शैलदरी । 'दौलत' सत गुरुचरन सेव जो, पुरवो आश यहै हमरी ।। ३ ।। ६१. ज्ञानी ऐसी होली मचाई
ज्ञानी ऐसी होली मचाई। टेक. ।।
राग कियौ विपरीत विपन घर, कुमति कुसौति सुहाई । धार दिगम्बर कीन्ह सु संवर, निज परभेद लखाई । घात विषयनिकी बचाई || १ || सम, तनमें तान उड़ाई । पूरक, रेचक बीन बजाई ।
कुमति सखा भजि ध्यानभेद कुंभक ताल मृदंगसौं
लगन अनुभवसौं लगाई ।। २ ।। कर्मबलीता रूप नाम अरि, वेद सुइन्द्रि गनाई । दे तप अग्नि भस्म करि तिनको, धूल अघाति उड़ाई ।
करि शिव तियकी मिलाई || ३ ||
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(५८)
पण्डित दौलतरामजी कृत भजन
ज्ञानको फाग भागवश आवै, सो गुरु दीनदयाल कृपाकरि,
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लाख करो चतुराई । 'दौलत' तोहि बताई । नहीं चितसे विसराई ॥४ ॥
६२. मेरो मन ऐसी खेलत होरी मेरो मन ऐसी खेलत होरी ।। टेक. ।। मन मिरदंग साज-करि त्यारी, तनको तमूरा बनोरी । सुमति सुरंग सरंगी बजाई, ताल दोउ कर जोरी। राग पांचौं पद कोरी ।। १ । । मेरो ।। समकित रूप नीर भर झारी, करुना केशर घोरी । ज्ञानमई लेकर पिचकारी, दोउ करमाहिं सम्होरी | इन्द्रि पांचौं सखि वोरी ।। २ । ।मेरो ।। चतुर दानको है गुलाल सो, भरि भरि मूठि चलोरी । तप मेवाकी भरी निज झोरी, यशको अबीर उडोरी । रंग जिनधाम मचोरी || ३ || मेरो ।।
'दौल' बाल खेलें अस होरी, भवभव दुःख टलोरी । शरना ले इक श्रीजिनको री, जगमें लाज हो तोरी मिलै फगुआ शिवगोरी ||४ | मेरो ।।
६३. जिया तुम चालो अपने देश जिया तुम चालो अपने देश, शिवपुर थारो शुभ थान । । टेक. ।। लख चौरासी में बहु भटके, लह्यौ न सुखको लेश ।। १ ।। जिया. ।। मिथ्यारूप धरे बहुतेरे, भटके बहुत विदेश ।। २ । । जिया. ।। विषयादिक सेवत दुख पाये, भुगते बहुत कलेश ।। ३ । । जिया. ।। भयो तिरजंच नारकी नर सुर, करि करि नाना भेष || ४ || जिया. ।। अब तो निजमें निज अबलोको जहां न दुःख को लेश ॥ ५ ॥ । जिया. ।। 'दौलतराम' तोड़ जगनाता, सुनो सुगुरु उपदेश || ६ || जिया. ।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
पण्डित दौलतरामजी कृत भजन
६४. मत कीज्यौ जी यारी
मीन मतंग पतंग भंग मृग, इन वश भये दुखारी। मत कीज्यौ जी यारी, घिनगेह देह जड़ जान के ।।टेक. ।।
सेवत ज्यौं किंपाक ललित, परिपाक समय दुखकारी।।५ ।।मत. ।। मात-तात रज-वीरजसौं यह, उपजी मलफुलवारी।
सुरपति नरपति खगपतिहू की, भोग न आस निवारी। अस्थिमाल पल नसाजाल की, लाल लाल जलक्यारी।।१।।मत. ।।
'दौल' त्याग अब भज विराग सुख, ज्यौं पावै शिवनारी।।६।।मत.।। कर्मकुरंगथलीपुतली यह, मूत्र पुरीषभंडारी।
६६. मत राचो धीधारी चर्ममंडी रिपुकर्मघड़ी धन, धर्म चुरावन-हारी।।२।।मत. ।।
मत राचो धीधारी, भव रंभथंभ सम जानके ।।टेक. ।। जे जे पावन वस्तु जगत में, ते इन सर्व बिगारी।
इन्द्रजालको ख्याल मोहठग, विभ्रमपास पसारी। स्वेद मेद कफ क्लेदमयी बहु, मद गद व्यालपिटारी।।३ ।।मत. ।।
चहुँगति विपतिमयी जामें जन, भ्रमत भरत दुख भारी।।१।।मत. ।। जा संयोग रोगभव तौलौं, जा वियोग शिवकारी।
रामा मा, मा वामा, सुत पितु, सुता श्वसा, अवतारी। बुध तासौं न ममत्व करें यह, मूढ़मतिन को प्यारी।।४ ।।मत. ।।
को अचंभ जहाँ आप आपके, पुत्र दशा विसतारी।।२।।मत. ।। जिन पोषी ते भये सदोषी, तिन पाये दुख भारी ।
घोर नरक दुख ओर न छोर न, लेश न सुख विस्तारी। जिन तपठान ध्यानकर शोषी, तिन परनी शिवनारी।।५।।मत. ।।
सुरनर प्रचुर विषयजुर जारे, को सुखिया संसारी।।३।।मत. ।। सुरधनु शरदजलद जलबुदबुद, त्यौं झट विनशनहारी।
मंडल है आखंडल छिन में, नृप कृमि सधन भिखारी। या भिन्न जान निज चेतन, 'दौल' होहु शमधारी।।६।।मत. ।।
जा सुत विरह मरी लै वाघिनी, ता सुत देह विदारी।।४ ।।तन. ।। ६५. मत कीज्यौ जी यारी
शिशु न हिताहितज्ञान तरुण उर, मदनदहन पर जारी। मत कीज्यौ जी यारी, ये भोग भुजंग सम जानके ।।टेक. ।।
वृद्ध भये विकलांगी थाये, कौन दशा सुखकारी।।५ ।।मत. ।। भुजंग डसत इकबार नसत है, ये अनंत मृतुकारी।
यौं असार लख छार भव्य झट, भये मोखमगचारी। तिसना तृषा बढै इन सेयें, ज्यौं पीये जल खारी।।१।।मत. ।।
यातें होउ उदास 'दौल' अब, भज जिनपति जगतारी।।६।।मत. ।। रोग वियोग शोक वनको घन, समता-लताकुठारी ।
६७. हे मन तेरी को कुटेव यह केहरी करी अरी न देत ज्यौं, त्यौं ये 4 दुखभारी।।२।।मत. ।।
हे मन तेरी को कुटेव यह, करनविषय में धावै है ।।टेक ।। इनमें रचे देव तरु थाये, पाये श्वभ्र मुरारी।
इनहीके वश तू अनादित, निजस्वरूप न लखावै है। जे विरचे ते सुरपति अरचे, परचे सुख अधिकारी।।३ ।।मत. ।।
पराधीन छिन छीन समाकुल, दुर्गति विपति चखावै है।।१।। पराधीन छिनमाहिं छीन लै, पापवंधकरतारी ।
फरस विषयके कारन बारन, गरत परत दुख पावै है। इन्हैं गिनें सुख आकमाहिं तिन, आमतनी बुधि धारी।।४।।तन. ।। amrpan रसनाइन्द्रीवश झष जलमें, कंटक कंठ छिदावै है ।।२।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
गन्धलोल पंकज मुद्रित में, अलि निज प्रान खपावै है । नयनविषयवश दीप - शिखा में, अंग पतंग जरावै है || ३ || करन विषयवश हिरन अरनमें, खलकर प्रान लुनावै है । 'दौलत' तज इनको जिनको भज, यह गुरु सीख सुनावै है ॥ ४ ॥ ६८. मानत क्यों नहिं रे
मानत क्यों नहिं रे, हे नर सीख सयानी । । टेक ॥।
भयौ अचेत मोह-मद पीके, अपनी सुधि बिसरानी ।।
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दुखी अनादि कुबोध अब्रततैं, फिर तिनसौं रति ठानी। ज्ञानसुधा निजभाव न चाख्यौं, परपरनति मति सानी ।। १ ।। भव असारता लखै न क्यौं जहँ, नृप है कृमि विट - थानी । सधन निधन नृप दास स्वजन रिपु, दुखिया हरिसे प्रानी ।। २ ।। देह एह गद-गेह नेह इस, हैं बहु विपति निशानी | जड़ मलीन छिनछीन करमकृत-बन्धन शिवसुखहानी || ३ || चाहज्वलन ईंधन - विधि-वन-घन, आकुलता कुलखानी । ज्ञान- सुधा- सर शोषन रवि ये, विषय अमित मृतुदानी ।।४ ।। यौं लखि भव-तन-भोग विरचि करि, निजहित सुन जिनवानी । तज रुषराग ‘दौल' अब अवसर, यह जिनचन्द्र बखानी ।। ५ ।। ६९. जानत क्यौं नहिं रे
जानत क्यौं नहिं रे, हे नर आतमज्ञानी ।। टेक. ।।
रागदोष पुद्गलकी संपति, निहचै शुद्धनिशानी ।। जानत. ।।
जाय नरकपशुनरसुरगतिमें, यह परजाय विरानी ।
सिद्धसरूप सदा अविनाशी, मानत विरले प्रानी । । १ । । जानत. ।।
कियौ न काहू हरै न कोई, गुरु-शिख कौन कहानी | जनम मरन मलरहित विमल है, कीचबिना जिमि पानी ॥ २ ॥ जानत. ॥ jitna bold pot
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पण्डित दौलतरामजी कृत भजन
सार पदारथ है तिहुँ जगमें, नहिं क्रोधी नहिं मानी। 'दौलत' सो घटमाहिं विराजे, लखि हूजे शिवथानी ।। ३ । । जानत. ।। ७०. छांडि दे या बुधि भोरी
छांडि दे या बुधि भोरी, वृथा तनसे रति जोरी । ।टेक. ।। यह पर है न रहे थिर पोषत, सकल कुमल की झोरी । यासौं ममता कर अनादितैं, बंधो कर्मकी डोरी । सह्रै दुःख जलधि हिलोरी ।। १ । ।छांडि. ।। यह जड़ है तू चेतन यौं ही, अपनावत बरजोरी । सम्यक दर्शन ज्ञान चरण निधि, ये हैं संपति तोरी ।
सुखिया भये सदीव जीव 'दौल' सीख यह लीजे
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सदा विलसौ शिवगोरी ।।२ । छांडि. ।। जिन, यासौं ममता तोरी । पीजे, ज्ञानपियूष कटोरी ।
मिटै परचाह कठोरी ।। ३ । । छांडि. ।।
७१. छांडत क्यौं नहिं रे
छांडत क्यौं नहिं रे, हे नर! रीति अयानी ।
बारबार सिख देत सुगुरु यह, तू दे आनाकानी । । छांडत ।। विषय न तजत न भजत बोध व्रत, दुख सुखजाति न जानी ।
शर्म चहै न लहै शठ ज्यौं घृतहेत विलोवत पानी । । १ । । छांडत. ।। तन धन सदन स्वजनजन तुझसौं, ये परजाय विरानी ।
इन परिनमन विनश उपजन सों, तैं दुःख सुख कर मानी ।। २ । । छांडत. ।। इस अज्ञानतैं चिरदुख पाये, तिनकी अकथ कहानी । ताको तज दृग - ज्ञान- चरन भज, निजपरनति शिवदानी । । ३ । ।छांडत. ।। यह दुर्लभ नर-भव सुसंग लहि, तत्त्व लखावत वानी । 'दौल' न कर अब पर में ममता, धर समता सुखदानी ॥ ४ ॥ छांडत. ।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
७२. लखो जी या जिय भोरे की बातें
लखो जी या जिय भोरे की बातें, नित करत अहित हित घातै ।।टेक।। जिन गनधर मुनि देशब्रती समकिती सुखी नित जाते। सो पय ज्ञान न पान करत न, अघात विषयविष खा ।।१।लखो.।। दुखस्वरूप दुखफलद जलदसम, टिकत न छिनक बिलाते। तजत न जगत भजत पतित नित, रचत न फिरत तहांत।।२।लखो.।। देह-गेह-धन-नेह ठान अति, अघ संचत दिनरातें । कुगति विपति फलकी न भीत, निश्चिंत प्रमाददशातें।।३।।लखो.।। कबहुँ न होय आपनो पर, द्रव्यादि पृथक चतुघारौं । पै अपनाय लहत दुख शठ नौ, हतन चलावत लाते।।४।।लखो. ।। शिवगृहद्वार सार नरभव यह, लहि दश दुर्लभतारौं । खोवत ज्यौं मनि काग उड़ावत, रोवत रंकपना ।।५।।लखो. ।। चिदानन्द निद्वंद स्वपद तज, अपद विपद-पद रातें । कहत-सुशिखगुरु गहत नहीं उर, चहत न सुख समतात।।६।।लखो. ।। जैनवैन सुन भवि बहु भव हर, छूटे द्वंद दशातें । तिनकी सुकथा सुनत न मुनत न, आतम-बोध कला ।।७।।लखो. ।। जे जन समुझि ज्ञानदृगचारित, पावन पयवर्षात । तापविमोह हस्यो तिनको जस, 'दौल' त्रिभोन विख्या ।।८लखो. ।। ७३. सुनो जिया ये सतगुरु की बातें
सुनो जिया ये सतगुरु की बातें, हित कहत दयाल दया तैं ।।टेक।। यह तन आन अचेतन है तू, चेतन मिलत न यारौं। तदपि पिछान एक आतमको, तजत न हठ शठ-तात।।१।।सुनो. ।। चहुँगति फिरत भरत ममताको, विषय महाविष खाते। तदपि न तजत न रजत अभागै, दृग व्रत बुद्धिसुधारौं।।२।।सुनो.|| ...
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पण्डित दौलतरामजी कृत भजन
मात तात सुत भ्रात स्वजन तुझ, साथी स्वारथ नाते। तू इन काज साज गृहको सब, ज्ञानादिक मत घातै।।३।।सुनो.।। तन धन भोग संजोग सुपन सम, वार न लगत विलातें। ममत न कर भ्रम तज तू भ्राता, अनुभव-ज्ञान कलात।।४।।सुनो.।। दुर्लभ नर-भव सुथल सुकुल है, जिन उपदेश लहा तैं। 'दौल' तजो मनसौं ममता ज्यों, निवडो द्वंद दशात।।५।।सुनो. ।। ७४. मोही जीव भरम तमतें नहिं मोही जीव भरम तमतें नहिं, वस्तुस्वरूप लखै है जैसैं ।।टेक ।। जे जे जड़ चेतन की परनति, ते अनिवार परिनवै वैसे। वृथा दुःखी शठ कर विकलप यौं, नहिं परिनवें परिन ऐसें ।।१।। अशुचि सरोग समल जड़मूरत, लखत विलात गगनघन जैसैं । सो तन ताहि निहार अपनपो, चहत अबाध रहै थिर कैसैं ।।२।। सुत-पित-बंधु-वियोगयोग यौं, ज्यौं सराय जन निकसै पैसैं। विलखत हरखत शठ अपने लखि, रोवत हँसत मत्तजन जैसैं ।।३।। जिन-रवि-वैन किरन लहि जिन निज, रूप सुभिन्न कियौ पर में सैं।
सो जगमौल 'दौल' को चिर-थित, मोहविलास निकास हुदैसैं ।।४।। ७५. ज्ञानी जीव निवार भरमतम
ज्ञानी जीव निवार भरमतम, वस्तुस्वरूप विचारत ऐसैं ।।टेक ।। सुत तिय बंधु धनादि प्रगट पर, ये मुझते हैं भिन्नप्रदेशैं। इनकी परनति है इन आश्रित, जो इन भाव परनवें वैसे।।१।।ज्ञानी. ।। देह अचेतन चेतन मैं, इन परनति होय एकसी कैसैं । पूरनगलन स्वभाव धरै तन, मैं अज अचल अमल नभ जैसे।।२।।ज्ञानी. ।। पर परिनमन न इष्ट अनिष्ट न, वृथा रागरुष द्वंद भयेसै। नसै ज्ञान निज फँसै बंधमें, मुक्त होय समभाव लयेसैं।।३ । ज्ञानी. ।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह विषयचाहदवदाह नसै नहिं, विन निज सुधा सिंधुमें पैसैं । अब जिनवैन सुने श्रवननतें, मिटे विभाव करूं विधि तैसें।।४ ।।ज्ञानी. ।। ऐसो अवसर कठिन पाय अब, निजहितहेत विलम्ब करेसैं। पछताओ बहु होय सयाने चेतन, 'दौल' छुटो भव भयसै।।५।।ज्ञानी. ।। ७६. अपनी सुधि भूल आप, आप दुख उपायौ
अपनी सुधि भूल आप, आप दुख उपायौ, ज्यौं शुक नभचाल विसरि नलिनी लटकायो।।अपनी. ।। चेतन अविरुद्ध शुद्ध, दरश बोधमय विशुद्ध । तजि जड़-रस-फरस रूप, पुद्गल अपनायौ।।१।।अपनी. ।। इन्द्रियसुख दुख में नित्त, पाग राग रुख में चित्त । दायकभव विपति वृन्द, बन्धको बढ़ायौ।।२।।अपनी. ।। चाह दाह दाहै, त्यागौ न ताहि चाहै। समतासुधा न गाहै जिन, निकट जो बतायौ।।३ ।।अपनी. ।। मानुषभव सुकुल पाय, जिनवर शासन लहाय ।
'दौल' निजस्वभाव भज, अनादि जो न ध्यायौ।।४ ।।अपनी. ।। ७७. जीव तू अनादिही भूल्यौ शिवगैलवा
जीव तू अनादिही भूल्यौ शिवगैलवा ।।टेक ।। मोहमदवार पियौ, स्वपद विसार दियौ, पर अपनाय लियौ। इन्द्रिसुख में रचियौ, भवतै न भियौ, न तजियौ मनमैलवा।।१।।जीव. ।। मिथ्या ज्ञान आचरन धरिकर कुमरन, तीन लोककी धरन। तामें कियो है फिरन पायो न शरन, न लहायौ सुख शैलवा।।२।।जीव. ।। अब नरभव पायौ, सुथल सुकुल आयौ जिन उपदेश भायौ। 'दौल' झट झिटकायौ, परपरनति दुखदायिनी चुरेलवा।।३।।जीव. ।। Anyo
पण्डित दौलतरामजी कृत भजन ७८. शिवपुर की डगर समरससौं भरी शिवपुर की डगर समरससौं भरी, सो विषय विरसरचि चिरविसरी ।।टेक ।। सम्यकदरश बोध-व्रतमय भव, दुखदावानल-मेघझरी ।। ताहि न पाय तपाय देह बहु, जनम मरन करि विपति भरी। काल पाय जिनधुनि सुनि मैं जब, ताहि लहूँ सोई धन्य घरी ।।१।। ते जन धनि या मांहि चरत नित, तिन कीरति सुरपति उचरी। विषयचाह भवराह त्याग अब, 'दौल' हरो रजरहसअरी ।।२।। ७९. तोहि समझायो सौ सौ बार
तोहि समझायो सौ सौ बार, जिया तोहि समझायो। देख सुगुरु की परहित में रति, हितउपदेश सुनायो ।।तोहि. ।। विषयभुजंग सेय दुख पायो, पुनि तिनसौं लपटायो। स्वपद विसार रच्यौ परपदमें, मद रत ज्यौं बोरायो।।१।।तोहि. ।। तन धन स्वजन नहीं हैं तेरे, नाहक नेह लगायो। क्यों न तजै भ्रम चाख समामृत, जो नित संतसुहायो।।२।।तोहि.।। अबहू समझ कठिन यह नरभव, जिन वृष बिना गमायो। ते विलखें मनि डार उदधिमें, 'दौलत' को पछतायो।।३।।तोहि. ।। ८०. न मानत यह जिय निपट अनारी
न मानत यह जिय निपट अनारी, सिख देत सुगुरु हितकारी ।।टेक ।। कुमतिकुनारि संग रति मानत, सुमतिसुनारि बिसारी ।। नर परजाय सुरेश चहैं सो, चख विषविषय विगारी। त्याग अनाकुल ज्ञान चाह, पर-आकुलता विसतारी ।।१।। अपनी भूल आप समतानिधि, भवदुख भरत भिखारी। परद्रव्यन की परनति को शठ, वृथा वनत करतारी ।।२।।
जिस कषाय-दव जरत तहाँ, अभिलाष छटा घृत डारी। . दुखसौं डरै करै दुखकारनतें नित प्रीति करारी ।।३।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह अतिदुर्लभ जिनवैन श्रवनकरि, संशयमोह निवारी। 'दौल' स्वपर-हित-अहित जानके, होवह शिवमग चारी ।।४।। ८१. हे नर, भ्रमनींद क्यों न छांडत दुखदाई
हे नर, भ्रमनींद क्यों न छांडत दुखदाई। सेवत चिरकाल सोंज, आपनी ठगाई।।हे नर. ।। मूरख अघ कर्म कहा, भेदै नहिं मर्म लहा। लागै दुखज्वालकी न, देहकै तताई।।१।।हे नर. ।। जमके रव बाजते, सुभैरव अति गाजते । अनेक प्रान त्यागते, सुनै कहा न भाई।।२।।हे नर. ।। पर को अपनाय आप-रूपको भुलाय हाय । करन विषय दारु जार, चाहदौं बढ़ाई।।३ ।।हे नर. ।। अब सुन जिनवान, राग-द्वेषको जघान । मोक्षरूप निज पिछान 'दौल', भज विरागताई।।४ ।।हे नर. ।। ८२. अरे जिया, जग धोखे की टाटी
झूठा उद्यम लोक करत है, जिसमें निशदिन घाटी ।।टेक. ।। जान बूझके अन्ध बने हैं, आंखन बांधी पाटी ।।१ ।।अरे. ।। निकल जायेंगे प्राण छिनकमें, पड़ी रहेगी माटी ।।२ ।।अरे. ।।
'दौलतराम' समझ मन अपने, दिल की खोल कपाटी ।।३ ।।अरे. ।। ८३. हम तो कबहूँ न हित उपजाये हम तो कबहूँ न हित उपजाये सुकुल-सुदेव-सुगुरु सुसंग हित, कारन पाय गमाये! ||हम तो. ।। ज्यों शिशु नाचत, आप न माचत, लखनहारा बौराये। त्यों श्रुत वाचत आप न राचत, औरनको समुझाये।।१।।हम तो. ।। .
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पण्डित दौलतरामजी कृत भजन
सुजस-लाहकी चाह न तज निज, प्रभुता लखि हरखाये। विषय तजे न रजे निज पदमें, परपद अपद लुभाये।।२।।हम तो.।। पापत्याग जिन-जाप न कीन्हौं, सुमनचाप-तप ताये। चेतन तनको कहत भिन्न पर, देह सनेही थाये।।३ ।।हम तो.।। यह चिर भूल भई हमरी अब कहा होत पछताये । 'दौल' अजौं भवभोग रचौ मत, यौं गुरु वचन सुनाये।।४ ||हम तो.।। ८४. हम तो कबहुँ न निजगुन भाये
हम तो कबहुँ न निजगुन भाये। तन निज मान जान तनदुखसुख में बिलखे हरखाये ।।हम तो. ।। तनको गरन मरन लखि तनको, धरन मान हम जाये। या भ्रम भौंर परे भवजल चिर, चहुँगति विपत लहाये।।१।।हम तो. ।। दरशबोधव्रतसुधा न चाख्यौ, विविध विषय-विष खाये। सुगुरु दयाल सीख दइ पुनि पुनि, सुनि, सुनि उर नहि लाये।।२।।हम तो. ।। बहिरातमता तजी न अन्तर-दृष्टि न है निज ध्याये । धाम-काम-धन-रामाकी नित, आश-हुताश जलाये।।३।।हम तो. ।। अचल अनूप शुद्ध चिद्रूपी, सब सुखमय मुनि गाये । 'दौल' चिदानंद स्वगुन मगन जे, ते जिय सुखिया थाये।।४।।हम तो. ।। ८५. हम तो कबहुँ न निज घर आये
हम तो कबहुँ न निज घर आये। परघर फिरत बहुत दिन बीते, नाम अनेक धराये ।।हम तो. ।। परपद निजपद मानि मगन ट्दै, परपरनति लपटाये। शुद्ध बुद्ध सुख कन्द मनोहर, चेतन भाव न भाये।।१।।हम तो.।। नर पशु देव नरक निज जान्यो, परजय बुद्धि लहाये । अमल अखण्ड अतुल अविनाशी, आतमगुन नहिं गाये।।२।।हम तो. ।।
यह बहु भूल भई हमरी फिर, कहा काज पछताये । an ___'दौल' तजौ अजहूँ विषयनको, सतगुरु वचन सुनाये।।३।।हम तो. ।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह ८६. हे हितवांछक प्रानी रे हे हितवांछक प्रानी रे, कर यह रीति सयानी ।।टेक ।। श्रीजिनचरन चितार धार गुन, परम विराग विज्ञानी ।। हरन भयामय स्वपर दयामय, सरधौ वृष सुखदानी । दुविध उपाधि बाध शिवसाधक, सुगुरु भजौ गुणथानी ।।१।। मोह-तिमिर-हर मिहर भजो श्रुत, स्यात्पद जास निशानी। सप्ततत्त्व नव अर्थ विचारह, जो वरनै जिनवानी ।।२।। निज पर भिन्न पिछान मान पुनि, होहु आप सरधानी। जो इनको विशेष जानन सो, ज्ञायकता मुनि मानी ।।३ ।। फिर व्रत समिति गुपति सजि अरु तजि, प्रवृति शुभास्रवदानी।
शुद्ध स्वरूपाचरन लीन है, 'दौल' वरौ शिवरानी ।।४ ।। ८७. विषयोंदा मद भानै, ऐसा है कोई वे विषयोंदा मद भानै, ऐसा है कोई वे ।।टेक।। विषय दुःख अर दुखफल तिनको, यौं नित चित्त में ठाने ।।१।। अनुपयोग उपयोग स्वरूपी, तन चेतनको मानै ।।२।। वरनादिक रागादि भावतें, भिन्न रूप तिन जानैं ।।३।। स्वपर जान रुषराग हान, निजमें निज परनति सानै ।।४ ।।
अन्तर बाहर को परिग्रह तजि, 'दौल' वसै शिवथानै ।।५।। ८८. कुमति कुनारि नहीं है भली रे
कुमति कुनारि नहीं है भली रे, सुमति नारि सुन्दर गुनवाली ।।टेक ।। वासौं विरचि रचौ नित यासौं, जो पावो शिवधाम गली रे। वह कुबजा दुखदा, यह राधा, बाधा टारन करन रली रे।।१।। वह कारी परसौं रति ठानत, मानत नाहिं न सीख भली रे। यह गोरी चिदगुण सहचारिनि, रमत सदा स्वसमाधि-थली रे।।२।। वा संग कुथल कुयोनि वस्यौ नित, तहाँ महादुखबेल फली रे। या संग रसिक भविनकी निजमें, परिनति दौल' भई न चली रे।।३।।
पण्डित दौलतरामजी कृत भजन ८९. घड़ि-घड़ि पल-पल छिन-छिन निशदिन
घड़ि-घड़ि पल-पल छिन-छिन निशदिन, प्रभुजी का सुमिरन करले रे।। प्रभु सुमिरेतैं पाप कटत हैं, जनममरनदुख हरले रे।।१।।घड़ि।। मनवचकाय लगाय चरन चित, ज्ञान हिये विच धर ले रे।।२।।घड़ि।। 'दौलतराम' धर्मनौका चढ़ि, भवसागर ते तिर ले रे ।।३।।घड़ि।। ९०. जम आन अचानक दावैगा
जम आन अचानक दावैगा ।।टेक।। छिनछिन कटत घटत थित ज्यौं जल, अंजुलिको झर जावैगा। जन्म तालतरूते पर जियफल, कोलग बीच रहावैगा। क्यौं न विचार करै नर आखिर, मरन महीमें आवैगा ।।१।। सोवत मृत जागत जीवत ही, श्वासा जो थिर थावैगा। जैसैं कोऊ छिपै सदासौं, कबहूँ अवशि पलावैगा ।।२।। कहूँ कबहूँ कैसें हु कोऊ, अंतक से न बचावैगा।
सम्यकज्ञान पियूष पिये सौं, 'दौल' अमरपद पावैगा ।।३।। ९१. तू काहेको करत रति तनमें
तू काहेको करत रति तनमें, यह अहितमूल जिम कारासदन ।।टेक ।। चरमपिहित पलरुधिरलिप्त मल, - द्वार सवै छिन छिन में।।१।। आयु-निगड फँसि विपति भरै, सो क्यों न चितारत मनमें ।।२।। सुचरन लाग त्याग अब याको, जो न भ्रमै भववन में ।।३ ।। 'दौल' देहसों नेह देहको, - हेतु कह्यौ ग्रन्थनमें ।।४ ।। ९२. निपट अयाना, तैं आपा नहीं जाना निपट अयाना, तैं आपा नहीं जाना, नाहक भरम भुलाना बे।।टेक ।। पीय अनादि मोहमद मोहयो, परपदमें निज माना बे।। चेतन चिह्न भिन्न जड़तासों ज्ञानदरश रस-साना बे। तनमें छिप्यो लिप्यो न तदपि ज्यों, जलमें कजदल माना बे।।२।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह सकलभाव निज निज परनतिमय, कोई न होय बिराना बे। तू दुखिया परकृत्य मानि ज्यौं, नभताड़न-श्रम ठाना बे ।।३।। अजगनमें हरि भूल अपनपो, भयो दीन हैराना बे। 'दौल' सुगुरु धुनि सुनि निजमें निज, पाय लयो सुखथाना बे।।४।। ९३. निजहितकारज करना भाई! निजहितकारज करना भाई! निजहित कारज करना ।।टेक. ।। जनममरन दुख पावत जातें, सो विधिबंध कतरना। ज्ञानदरस अर राग फरस रस, निजपर चिह्न भ्रमरना । संधिभेद बुधिछैनीते कर, निज गहि पर परिहरना।।१।।निज. ।। परिग्रही अपराधी शंकै, त्यागी अभय विचरना। त्यौं परचाह बंध दुखदायक, त्यागत सबसुख भरना।।२ ।।निज. ।। जो भवभ्रमन न चाहे तो अब, सुगुरुसीख उर धरना। 'दौलत' स्वरस सुधारस चाखो, ज्यौं विनसै भवभरना।।३।।निज. ।। ९४. मनवचतन करि शुद्ध भजो जिन
मनवचतन करि शुद्ध भजो जिन, दाव भला पाया। अवसर मिलै नहिं ऐसा, यौ सतगुरु गाया ।। बस्यो अनादिनिगोद निकसि फिर, थावर देह धरी । काल असंख्य अकाज गमायो, नेक न समुझि परी ।।१।। चिंतामनि दुर्लभ लहिये ज्यौं, त्रस परजाय लही।
लट पिपिल अलि आदि जन्ममें, लयो न ज्ञान कहीं ।।२।। पंचेन्द्रिय पशु भयो कष्टते, तहाँ न बोध लह्यो । स्वपर विवेकरहित बिन संयम, निशदिन भार वह्यो ।। ३ ।। चौपथ चलत रतन लहिये ज्यौं, मनुजदेह पाई। सुकुल जैनवृष सतसंगति यह, अतिदुर्लभ भाई ।।४।।
पण्डित दौलतरामजी कृत भजन
यौं दुर्लभ नरदेह कुधी जे, विषयन संग खोवैं । ते नर मूढ अजान सुधारस, पाय पाँव धोवै ।।५ ।। दुर्लभ नरभव पाय सुधी जे, जैन धर्म सेवें। 'दौलत' ते अनंत अविनाशी, सुख शिवका वेवै ।।६।। ९५. मोहिड़ा रे जिय!
मोहिड़ा रे जिय! हितकारी न सीख सम्हारै । भववन भ्रमत दुखी लखि याको, सुगुरुदयालु उचारै ।।मोहिड़ा. ।। विषय भुजंगमय संग न छोड़त, जो अनन्तभव मारै। ज्ञान विराग पियूष न पीवत, जो भवव्याधि विडारै।।१।।मोहिड़ा. ।। जाके संग दुरै अपने गुन, शिवपद अन्तर पारै। ता तनको अपनाय आप चिन-मूरतको न निहारै।।२ ।।मोहिड़ा. ।। सुत दारा धन काज साज अघ, आपन काज विगारै। करत आपको अहित आपकर, ले कृपान जल दारै।।३।।मोहिड़ा. ।। सही निगोद नरककी वेदन, वे दिन नाहिं चितारै । 'दौल' गई सो गई अबहू नर, धर दृग-चरन सम्हारै।।४ ।।मोहिड़ा. ।। ९६. सौ सौ बार हटक नहिं मानी
सौ सौ बार हटक नहिं मानी, नेक तोहि समझायो रे ।।टेक. ।। देख सुगुरुकी परहित में रति, हित उपदेश सुनायो रे ।। विषयभुजंगसेय दुखपायो, फुनि तिनसों लपटायो रे । स्वपदविसार रच्यो परपदमें, मदरत ज्यों बोरायो रे ।।१।। तन धन स्वजन नहीं है तेरे, नाहक नेह लगायो रे।। क्यों न तजै भ्रम चाख समामृत, जो नित संतसुहायो रे ।।२।। अब हू समझ कठिन यह नरभव, जिनवृष बिना गमायो रे। ते विलखें मणिडार उदधिमें, 'दौलत' को पछतायो रे ।।३।।
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अनुक्रमणिका
५. पण्डित भागचन्दजी कृत भजन
• सन्त निरन्तर चिन्तत ऐसैं • सुमर सदा मन आतमराम
• आतम अनुभव आवै जब निज • आतम अनुभव आवै जब निज
·
ऐसे विमल भाव जब पावै • आकुलरहित होय इमि निशदिन • सफल है धन्य धन्य वा घरी
• प्रानी समकित ही शिवपंथाजीवन के परिनामनिकी यह
• परनति सब जीवनकी • तू स्वरूप जाने बिना दुखी
• सत्ता रंगभूमिमें, नटत ब्रह्म नटराय
· सांची तो गंगा यह वीतरागवानी • महिमा है अगम जिनागमकी
• महिमा जिनमतकी • थांकी तो वानी में हो
• मेघघटासम श्रीजिनवानी
• म्हांकै घट जिनधुनि अब प्रगटी • अहो यह उपदेशमाहीं
• धन्य धन्य है घड़ी आजकी जानके सुज्ञानी जैनवानी की
सरधा लाइये • श्रीगुरु हैं उपगारी ऐसे वीतराग गुनधारी वे • धन धन जैनी साधु अबाधित
• शांति वरन मुनिराई वर लखि • श्रीमुनि राजत समता संग
• ऐसे जैनी मुनिमहाराज • सम आराम विहारी
ऐसे साधु सुगुरु कब मिल हैं • गिरिवनवासी मुनिराज
• जे दिन तुम विवेक बिन खोये
अरे हो अज्ञानी तूने कठिन मनुषभव पायो
तेरे ज्ञानावरन दा परदा
• जीव! तू भ्रमत सदीव अकेला
•
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पण्डित भागचन्दजी कृत भजन अनुक्रमणिका
• चेतन निज भ्रमतैं भ्रमत रहे
• सारौ दिन निरफल खोयबौ करै छै निज कारज काहे न सारै रे
• हरी तेरी मति नर कौनें हरी
•
आवै न भोगनमें तोहि गिलान • मान न कीजिये हो परवीन
• प्रेम अब त्यागहु पुद्गल का • यह मोह उदय दुख पावै
•
करौ रे भाई, तत्त्वारथ सरधान
•
धनि ते प्रानि, जिनके तत्त्वारथ श्रद्धान
• जिन स्वपरहिताहित चीन्हा • यही इक धर्ममूल है मीता !
● बुधजन पक्षपात तज देखो
•
अरे हो जियरा धर्म में चित्त लगाय रे
• भववनमें, नहीं भूलिये भाई ! • अति संक्लेश विशुद्ध शुद्ध पुनि
जे सहज होरी के खिलारी
•
•
सहज अबाध समाध धाम तहाँ सुन्दर दशलक्षन वृष
• षोडशकारन सुहृदय
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पण्डित भागचन्दजी कृत भजन
पण्डित भागचन्दजी
कृत भजन 9. सन्त निरन्तर चिन्तत ऐसैं
(राग ठमरी) सन्त निरन्तर चिन्तत ऐसैं, आतमरूप अबाधित ज्ञानी ।।टेक।। रोगादिक तो देहाश्रित हैं, इनतें होत न मेरी हानी। दहन दहत ज्यों दहन न तदगत, गगन दहन ताकी विधि ठानी।।१।। वरणादिक विकार पुद्गलके, इनमें नहिं चैतन्य निशानी। यद्यपि एकक्षेत्र-अवगाही, तद्यपि लक्षण भिन्न पिछानी ।।२।। मैं सर्वांगपूर्ण ज्ञायक रस, लवण खिल्लवत लीला ठानी। मिलौ निराकुल स्वाद न यावत, तावत परपरनति हित मानी ।।३।। 'भागचन्द्र' निरद्वन्द निरामय, मूरति निश्चय सिद्धसमानी। नित अकलंक अवंक शंक बिन, निर्मल पंक बिना जिमि पानी ।।४।। २. सुमर सदा मन आतमराम
(राग बिलावल) सुमर सदा मन आतमराम, सुमर सदा मन आतमराम ।।टेक।। स्वजन कुटुंबी जन तू पोषै, तिनको होय सदैव गुलाम । सो तो हैं स्वारथ के साथी, अंतकाल नहिं आवत काम ।।१।। जिमि मरीचिका में मृग भटकै, परत सो जब ग्रीषम अति घाम । तैसे तू भवमाहीं भटकै, धरत न इक छिनहू विसराम ।।२।। करत न ग्लानि अबै भोगन में, धरत न वीतराग परिनाम । फिर किमि नरकमाहिं दुख सहसी, जहाँ सुख लेशन आठौं जाम ।।३।। ता” आकुलता अब तजिकै, थिर द्वै बैठो अपने धाम । 'भागचन्द' वसि ज्ञान नगरमें, तजि रागादिक ठग सब ग्राम ।।४।।
३. आतम अनुभव आवै जब निज
(राग गौरी) आतम अनुभव आवै जब निज, आतम अनुभव आवै।
और कछू न सुहावै, जब निज आतम आतम अनुभव आवै ।।टेक ।। रस नीरस हो जात ततच्छिन, अक्ष विषय नहीं भावै ।।१।। गोष्ठी कथा कुतुहल विघटै, पुद्गलप्रीति नसावै ।।२।। राग-दोष जुग चपल पक्षजुत, मन पक्षी मर जावै ।।३।। ज्ञानानन्द सुधारस, उधमै, घर अंतर न समावे ।।४ ।। 'भागचन्द' ऐसे अनुभव के, हाथ जोरि सिर नावै ।।५।। ४. आतम अनुभव आवै जब निज
(राग गौरी) आतम अनुभव आवै जब निज, आतम अनुभव आवै ।
और कछू न सुहावे जब निज, आतम अनुभव आवै ।।टेक ।। जिनआज्ञाअनुसार प्रथम ही, तत्त्व प्रतीति अनावै । वरनादिक रागादिकतै निज, चिह्न-भिन्न फिर ध्यावै ।।१।। मतिज्ञान फरसादि विषय तजि, आतम सम्मुख धावै । नय प्रमान निक्षेप सकल श्रुत, ज्ञानविकल्प नसावै ।।२।। चिदऽहं शुद्धोऽहं इत्यादिक, आपमाहिं बुध आवै । तन पै बज्रपात गिर” हू, नेकु न चित्त डुलावै ।।३।। स्वसंवेद आनंद बट्टै अति, वचन कह्यो नहिं जावै। देखन जानन चरन तीन विच, इक स्वरूप लखावे ।।४।। चितकर्ता चित कर्मभाव चित, परनति क्रिया कहावै। साधक साध्य ध्यान ध्येयादिक, भेद कछू न दिखावै ।।५।। आत्मप्रदेश अदृष्ट तदपि, रसस्वाद प्रगट दरसावै । ज्यों मिश्री दीसत न अंधको, सपरस मिष्ट चखावै ।।६।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह जिन जीवनके, संसृत पारावार पार निकटावै । 'भागचन्द' ते सार अमोलक, परम रतन वर पावै ।।७।। ५. ऐसे विमल भाव जब पावै
(राग काफी) ऐसे विमल भाव जब पावै, तब हम नरभव सुफल कहावै ।।टेक ।। दरशबोधमय निज आतम लखि, परद्रव्यनिको नहिं अपनावै। मोह-राग-रुष अहित जान तजि, झटित दूर तिनको छुटकावै।।१।। कर्म शुभाशुभबंध उदयमें, हर्ष विषाद चित्त नहिं ल्यावै । निज-हित-हेत विराग ज्ञान लखि, तिनसों अधिक प्रीति उपजावै।।२।। विषय चाह तजि आत्मवीर्य सजि, दुखदायक विधिबंध खिरावै।
'भागचन्द' शिवसुख सब सुखमय, आकुलता बिन लखि चित चावै।।३।। ६. आकुलरहित होय इमि निशदिन
आकुलरहित होय इमि निशदिन, कीजे तत्त्वविचारा हो। को मैं कहा रूप है मेरा, पर है कौन प्रकारा हो ।।टेक ।। को भव-कारण बंध कहा को, आस्रव रोकनहारा हो। खिपत कर्मबंधन काहेसों, थानक कौन हमारा हो ।।१।। इमि अभ्यास किये पावत हैं, परमानंद अपारा हो। 'भागचन्द' यह सार जान करि, कीजै बारंबारा हो ।।२।। ७. सफल है धन्य धन्य वा घरी
(लावनी) सफल है धन्य धन्य वा घरी, जब ऐसी अति निर्मल होसी, परम दशा हमरी ।।टेक ।। धारि दिगंबरदीक्षा सुंदर, त्याग परिग्रह अरी। वनवासी कर-पात्र परीषह, सहि हों धीर धरी ।।१।।
पण्डित भागचन्दजी कृत भजन
दुर्धर तप निर्भर नित तप हों, मोह कुवृक्ष करी। पंचाचारक्रिया आचरहों, सकल सार सुथरी ।।२।। विभ्रमतापहरन झरसी निज, अनुभव मेघझरी। परम शान्त भावनकी तातें, होसी वृद्धि खरी ।।३।। त्रेसठिप्रकृति भंग जब होसी, जुत त्रिभंग सगरी । तब केवलदर्शनविबोध सुख, वीर्यकला पसरी ।।४ ।। लखि हो सकल द्रव्यगुनपर्जय, परनति अति गहरी। 'भागचन्द' जब सहजहि मिल है, अचल मुकति नगरी ।।५।। ८. प्रानी समकित ही शिवपंथा
(राग दीपचन्दी सोरठ) प्रानी समकित ही शिवपंथा। या विन निर्फल सब ग्रंथा ।।टेक।। जा बिन बाह्यक्रिया तप कोटिक, सकल वृथा है रंथा ।।१।। हयजुतरथ भी सारथ विन जिमि, चलत नहीं ऋजु पंथा ।।२।।
'भागचन्द' सरधानी नर भये, शिवलछमीके कंथा ।।३।। ९. जीवनके परिनामनिकी यह
(राग ठुमरी) जीवनके परिनामनिकी यह, अति विचित्रता देखहु ज्ञानी ।।टेक ।। नित्य निगोदमाहितें कढ़िकर, नर परजाय पाय सुखदानी। समकित लहि अंतर्मुहूर्तमें, केवल पाय वरै शिवरानी ।।१।। मुनि एकादश गुणथानक चढ़ि, गिरत तहातै चितभ्रम ठानी। भ्रमत अर्धपुद्गलप्रावर्तन, किंचित् ऊन काल परमानी ।।२।। निज परिनामनिकी सँभालमें, तातै गाफिल मत है प्रानी। बंध मोक्ष परिनामनिहीसों, कहत सदा श्रीजिनवरवानी ।।३।। सकल उपाधिनिमित भावनिसों, भिन्न सु निज परनतिको छानी। ताहिं जानि रुचि ठानि हो हु थिर, भागचन्द' यह सीख सयानी।।४।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
पण्डित भागचन्दजी कृत भजन
१०. परनति सब जीवनकी परनति सब जीवनकी, तीन भाँति वरनी। एक पुण्य एक पाप, एक रागहरनी ।।टेक।। तामे शुभ अशुभ अंध, दोय करें कर्मबंध । वीतराग परनति ही, भवसमुद्रतरनी ।।१।। जावत शुद्धोपयोग, पावत नाहीं मनोग। तावत ही करन जोग, कही पुण्य करनी ।।२।। त्याग शुभ क्रियाकलाप, करो मत कदाच पाप । शुभमें न मगन होय, शुद्धता विसरनी ।।३।। ऊँच ऊँच दशा धारि, चित्त प्रमाद को विडारि। ऊँचली दशातें मति, गिरो अधो धरनी ।।४ ।। 'भागचन्द' या प्रकार, जीव लहै सुख अपार ।
याके निरधार स्याद-वाद की उचरनी ।।५।। 99. तू स्वरूप जाने बिना दुखी
(राग दीपचन्दी धनाश्री) तू स्वरूप जाने बिना दुखी, तेरी शक्ति न हलकी वे ।।टेक ।। रागादिक वर्णादिक रचना, सो है सब पुद्गलकी वे ।।१।। अष्ट गुनातम तेरी मूरति, सो केवलमें झलकी वे ।।२।। जगी अनादि कालिमा तेरे, दुस्त्यज मोहन मलकी वे ।।३।। मोह नसैं भासत है मूरत, पँक नसैं ज्यों जलकी वे।।४।। 'भागचन्द' सो मिलत ज्ञानसों, स्फूर्ति अखंड स्वबल की वे ।।५।। १२. सत्ता रंगभूमिमें, नटत ब्रह्म नटराय
सत्ता रंगभूमिमें, नटत ब्रह्म नटराय ।।टेक ।। रत्नत्रय आभूषणमंडित, शोभा अगम अथाय । सहज सखा निशंकादिक गुन, अतुल समाज बढ़ाय ।।१।।
समता वीन मधुररस बोलै, ध्यान मृदंग बजाय । नदत निर्जरा नाद अनूपम, नूपुर संवर ल्याय ।।२ ।। लय निज-रूप-मगनता-ल्यावत, नृत्य सुज्ञान कराय । समरस गीतालापन पुनि जो, दुर्लभ जगमहँ आय ।।३ ।। 'भागचन्द' आपहि रीझत तहाँ, परम समाधि लगाय ।
तहाँ कृतकृत्य सु होत मोक्षनिधि, अतुल इनामहिं पाय ।।४।। १३. सांची तो गंगा यह वीतरागवानी
(राग चर्चरी) सांची तो गंगा यह वीतरागवानी। अविच्छन्न धारा निज धर्मकी कहानी ।।टेक ।। जामें अति ही विमल अगाध ज्ञानपानी। जहाँ नहीं संशयादि पंककी निशानी ।।१।। सप्तभंग जहँ तरंग उछलत सुखदानी । संतचित मरालवृंद रमैं नित्य ज्ञानी ।।२।। जाके अवगाहनतें शुद्ध होय प्रानी। 'भागचन्द'निहचै घटमाहिं या प्रमानी ।। ३ ।। १४. महिमा है अगम जिनागमकी
(राग ईमन) महिमा है अगम जिनागम की ।।टेक ।। जाहि सुनत जड़ भिन्न पिछानी, हम चिन्मूरति आतम की।। रागादिक दुखकारन जानें, त्याग बुद्धि दीनी भ्रमकी । ज्ञान ज्योति जागी घट अंतर, रुचि बाढ़ी पुनि शमदमकी ।।१।।
कर्म बंध की भई निरजरा, कारण परंपरा क्रम की। ___भागचन्द' शिव लालच लागो, पहुँच नहीं है जहँ जमकी ।।२।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
पण्डित भागचन्दजी कृत भजन
१५. महिमा जिनमतकी
(राग दीपचन्दी) महिमा जिनमत की, कोई वरन सकै बुधिवान ।।टेक।। काल अनंत भ्रमत जिय जा बिन, पावत नहिं निज थान । परमानन्दधाम भये तेही, तिन कीनों सरधान ।।१।। भव मरुथल में ग्रीष्मरितु रवि, तपत जीव अति प्रान । ताको यह अति शीतल सुंदर, धारा सदन समान ।।२।। प्रथम कुमत मनमें हम भूले, कीनी नाहिं पिछान । 'भागचन्द' अब याको सेवत, परम पदारथ जान ।।३ ।। १६. थांकी तो वानी में हो
(राग मल्हार) थांकी तो वानी में हो, निज स्वपरप्रकाशक ज्ञान ।।टेक ।। शीतल होत सुबुद्धिमेदिनी, मिटत भवातपपीर ।।१।। करुनानदी बहै चहुँ दिसितै, भरी सो दोई तीर ।।२।। 'भागचन्द' अनुभव मंदिर को, तजत न संत सुधीर ।। ३ ।। १९. मेघघटासम श्रीजिनवानी
(राग मल्हार) मेघघटासम श्रीजिनवानी ।।टेक।। स्यात्पद चपला चमकत जामें, बरसत ज्ञान सुपानी ।।१।। धरम सस्य जातें बहु बा, शिवआनंदफलदानी ।।२।। मोहन धूल दबी सब याते, क्रोधानल सुबुझानी ।।३।। 'भागचन्द' बुधजन केकीकुल, लखि हरखै चितज्ञानी ।।४।।
२०. म्हांकै घट जिनधुनि अब प्रगटी
(राग सोरठ) म्हांकै घट जिनधुनि अब प्रगटी ।।टेक।। जागृत दशा भई अब मेरी, सुप्त दशा विघटी। जगरचना दीसत अब मोकों, जैसी रँहटघटी ।।१।। विभ्रम तिमिर-हरन निज दृगकी, जैसी अंजनवटी। तातें स्वानुभूति प्रापतितें, परपरनति सब हटी ।।२ ।। ताके बिन जो अवगम चाहै, सो तो शठ कपटी। तातें 'भागचन्द' निशिवासर, इक ताहीको रटी ।।३ ।। २१. अहो यह उपदेशमाहीं
(राग काफी) अहो यह उपदेशमाहीं, खूब चित्त लगावना। होयगा कल्यान तेरा, सुख अनंत बढ़ावना ।।टेक ।। रहित दूषन विश्वभूषन, देव जिनपति ध्यावना । गगनवत निर्मल अचल मुनि, तिनहिं शीस नवावना ।।१।। धर्म अनुकंपा प्रधान, न जीव कोई सतावना। सप्ततत्त्वपरीक्षना करि, हृदय श्रद्धा लावना ।।२।। पुद्गलादिकते पृथक्, चैतन्य ब्रह्म लखावना। या विधि विमल सम्यक्त धरि, शंकादि पंक बहावना ।।३।। रुचें भव्यनको वचन जे, शठनको न सुहावना ।।
चन्द्र लखि जिमि कुमुद विकसै, उपल नहिं विकसावना ।।४ ।। 'भागचन्द' विभाव तजि, अनुभव स्वभावित भावना । या बिन शरन्य न अन्य जगतारण्य में कहुँ पावना ।।५।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
पण्डित भागचन्दजी कृत भजन
२२. धन्य धन्य है घड़ी आजकी
धन्य धन्य है घड़ी आजकी, जिनधुनि श्रवन परी । तत्त्वप्रतीत भई अब मेरे, मिथ्यादृष्टि टरी ।।टेक ।। जड़ते भिन्न लखी चिन्मूरति, चेतन स्वरस भरी। अहंकार ममकार बुद्धि पुनि, परमें सब परिहरी ।।१।। पापपुण्य विधिबंध अवस्था, भासी अतिदुखभरी। वीतराग विज्ञानभावमय, परिनत अति विस्तरी ।।२।। चाह-दाह विनसी वरसी पुनि, समतामेघझरी । बाढ़ी प्रीति निराकुल पदसों, ‘भागचन्द' हमरी ।।३।। २३. जानके सुज्ञानी जैनवानी की सरधा लाइये
(राग दीपचन्दी कानेर) जानके सुज्ञानी, जैनवानी की सरधा लाइये ।।टेक।। जा बिन काल अनंते भ्रमता, सुख न मिलै कहूँ प्रानी ।।१।। स्वपर विवेक अखंड मिलत है जाहीके सरधानी ।।२।। अखिलप्रमानसिद्ध अविरुद्धत, स्यात्पद शुद्ध निशानी ।।३।। 'भागचन्द' सत्यारथ जानी, परमधरम रजधानी ।।४ ।। २४. श्रीगुरु हैं उपगारी ऐसे वीतराग गुनधारी वे
(राग खमाच) श्रीगुरु हैं उपगारी ऐसे वीतराग गुनधारी वे।।टेक ।। स्वानुभूति रमनी सँग क्रीड़े, ज्ञानसंपदा भारी वे ।।१।। ध्यान पिंजरा में जिन रोकौ, चित खग चंचलचारी वे ।।२।। तिनके चरनसरोरुह ध्यावै, 'भागचन्द' अघटारी वे ।।३।। २५. धन धन जैनी साधु अबाधित
धन धन जैनी साधु अबाधित, तत्त्वज्ञानविलासी हो ।।टेक ।। दर्शन-बोधमयी निजमूरति, जिनकों अपनी भासी हो। त्यागी अन्य समस्त वस्तुमें, अहंबुद्धि दुखदा-सी हो ।।१।।
जिन अशुभोपयोग की परनति, सत्तासहित विनाशी हो। होय कदाच शुभोपयोग तो, तहँ भी रहत उदासी हो ।।२।। छेदत जे अनादि दुखदायक, दुविधि बंधकी फाँसी हो। मोह क्षोभ रहित जिन परनति, विमल मयंककला-सी हो।।३।। विषय-चाह-दव-दाह खुजावन, साम्य सुधारस-रासी हो। 'भागचन्द' ज्ञानानंदी पद, साधत सदा हुलासी हो ।।४ ।। २६. शांति वरन मुनिराई वर लखि
(राग जंगला) शांति वरन मुनिराई वर लखि । उत्तर गुनगन सहित मूल-गुन, सुभग बरात सुहाई।।टेक ।। तप रथपै आरूढ़ अनूपम, धरम सुमंगलदाई ।।१।। शिवरमनीको पानिग्रहण करि, ज्ञानानन्द उपाई ।।२।।
'भागचन्द' ऐसे बनरा को, हाथ जोर सिरनाई ।।३।। २७. श्रीमुनि राजत समता संग
श्रीमुनि राजत समता संग । कायोत्सर्ग समायत अंग ।।टेक ।। करतें नहिं कछु कारज तातें, आलम्बित भुज कीन अभंग। गमन काज कछु हू नहिं तातें, गति तजि छाके निज रसरंग ।।१।। लोचन लखिवौ कछु नाहीं, ता” नासा दृग अचलंग। सुनिवे जोग रह्यो कछु नाहीं, तातै प्राप्त इकंत सुचंग ।।२।। तहँ मध्यान्हमाहिं निज ऊपर, आयो उग्र प्रताप पतंग । कैधौं ज्ञान पवनबल प्रज्वलित, ध्यानानलसौं उछलि फुलिंग ।।३।। चित निराकुल अतुल उठत जहँ, परमानन्द पियूषतरंग। भागचन्द' ऐसे श्रीगुरुपद, वंदत मिलत स्वपद उत्तंग ।।४।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
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२८. ऐसे जैनी मुनिमहाराज
ऐसे जैनी मुनिमहाराज, सदा उर मो बसो । । टेक ।।
तिन समस्त परद्रव्यनिमाहीं, अहंबुद्धि तजि दीनी ।
गुन अनन्त ज्ञानादिक मम पुनि, स्वानुभूति लखि लीनी ।। १ ।। जे निजबुद्धिपूर्व रागादिक, सकल विभाव निवारैं । पुनि अबुद्धिपूर्वक नाशनको, अपनें शक्ति सम्हारैं ।। २ ।। कर्म शुभाशुभ बंध उदय में, हर्ष विषाद न राखेँ । सम्यग्दर्शन ज्ञान चरनतप, भावसुधारस चाखँ || ३ || परकी इच्छा तजि निजबल सजि, पूरव कर्म खिरावैं । सकल कर्मतैं भिन्न अवस्था सुखमय लखि चित चावैं ॥ ४ ॥ उदासीन शुद्धोपयोगरत सबके दृष्टा ज्ञाता । बाहिरूप नगन समताकर, 'भागचन्द' सुखदाता ।।५ ।। २९. सम आराम विहारी
(राग परज) सम आराम विहारी, साधुजन सम आराम विहारी । टेक ।। एक कल्पतरु पुष्पन सेती, जजत भक्ति विस्तारी । एक कंठविच सर्प नाखिया, क्रोध दर्पजुत भारी । राखत एक वृत्ति दोउनमैं, सबहीके उपगारी ।। १ ।। सारंगी हरिबाल चुखावै, पुनि मराल मंजारी । व्याघ्रबाल करि सहित नन्दिनी, व्याल नकुल की नारी । तिनकै चरनकमल आश्रयतैं, अरिता सकल निवारी ।। २ ।। अक्षय अतुल प्रमोद विधायक, ताकौ धाम अपारी । कामधरा विव गढ़ी सो चिरतें, आतमनिधि अविकारी । खनत ताहि लैकर करमें जे, तीक्षण बुद्धि कुदारी ।। ३ ।।
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पण्डित भागचन्दजी कृत भजन
निज शुद्धोपयोगरस चाखत, पर ममता न लगारी । निज सरधान ज्ञान चरनात्मक, निश्चय शिवमगचारी । 'भागचन्द' ऐसे श्रीपति प्रति, फिर फिर ढोक हमारी ॥४ ॥ ३०. ऐसे साधु सुगुरु कब मिल हैं।
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ऐसे साधु सुगुरु कब मिल हैं ।। टेक ॥।
आप तरें अरु परको तारैं, निष्प्रेही निरमल हैं ॥ १ ॥ तिलतुषमात्र संग नहिं जाकै, ज्ञान-ध्यान-गुण-बल हैं ।। २ ।। शान्त दिगम्बर मुद्रा जिनकी, मन्दर तुल्य अचल हैं ॥ ३ ॥ 'भागचन्द' तिनको नित चाहै, ज्यों कमलनि को अलि है ॥ ४ ॥ ३१. गिरिवनवासी मुनिराज
(राग सोरठ मल्हार में)
गिरिवनवासी मुनिराज, मन वसिया हमारैं हो। ।टेक ।। कारनविन उपगारी जगके, तारन तरन-जिहाज ।। १ ।। जनम- जरामृत - गद-गंजन को, करत विवेक इलाज || २ || एकाकी जिमि रहत केसरी, निरभय स्वगुन समाज ।। ३ ।। निर्भूषन निर्वसन निराकुल, सजि रत्नत्रय साज ।। ४ ।। ध्यानाध्ययनमाहिं तत्पर नित, 'भागचन्द' शिवकाज ॥। ५ ।। ३२. जे दिन तुम विवेक बिन खोये ( राग सोरठ ) जे दिन तुम विवेक बिन खोये । । टेक ॥।
मोह वारुणी पी अनादितैं, परपदमें चिर सोये । सुखकरंड चितपिंड आपपद, गुन अनंत नहिं जोये ।। १ ।। होय बहिर्मुख ठानि राग रुख, कर्म बीज बहु बोये । तसु फल सुख दुख सामग्री लखि, चितमें हरषे रोये ।। २ ।।
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पण्डित भागचन्दजी कृत भजन
आध्यात्मिक भजन संग्रह धवल ध्यान शुचि सलिलपूरतें, आस्रव मल नहिं धोये । परद्रव्यनि की चाह न रोकी, विविध परिग्रह ढोये ।।३।। अब निज में निज जान नियत तहाँ निज परिनाम समोये। यह शिव मारग समरस सागर ‘भागचन्द' हित तो ये ।।४ ।। २३. अरे हो अज्ञानी तून कठिन मनुषभव पायो
(राग मल्हार) अरे हो अज्ञानी तूने कठिन मनुषभव पायो ।।टेक ।। लोचनरहित मनुषके करमें, ज्यों बटेर खग आयो ।।१।। सो तू खोवत विषयनमाहीं, धरम नहीं चित लायो ।।२।। 'भागचन्द' उपदेश मान अब, जो श्रीगुरु फरमायो ।।३ ।। २४. तेरे ज्ञानावरन दा परदा
(राग दीपचन्दी) तेरे ज्ञानावरन दा परदा, तातें सूझत नहिं भेद स्व-पर-दा ।।टेक ।। ज्ञान बिना भवदुख भोगै तू, पंछी जिमि बिन पर-दा।।१।। देहादिक में आपौ मानत, विभ्रममदवश परदा ।।२।। 'भागचन्द' भव विनसै वासी, होय त्रिलोक उपरदा ।।३।। ३५. जीव! तू भ्रमत सदीव अकेला जीव! तू भ्रमत सदीव अकेला । संग साथी कोई नहिं तेरा ।।टेक ।। अपना सुखदुख आप हि भुगतै, होत कुटुंब न भेला । स्वार्थ भ3 सब बिछुरि जात हैं, विघट जात ज्यों मेला ।।१।। रक्षक कोइ न पूरन है जब, आयु अंत की बेला । फूटत पारि बँधत नहीं जैसें, दुद्धर-जलको ठेला ।।२।। तन धन जीवन विनशि जात ज्यों, इन्द्रजाल का खेला। 'भागचन्द' इमि लख करि भाई, हो सतगुरु का चेला ।।३।।
३६. चेतन निज भ्रमतें भ्रमत रहै
(राग दादरा) चेतन निज भ्रमतें भ्रमत रहै ।।टेक ।। आप अभंग तथापि अंगके, संग महा दुखपुंज वहै । लोहपिंड संगति पावक ज्यों, दुर्धर घन की चोट सहै ।।१।। नामकर्म के उदय प्राप्त कर, नरकादिक परजाय धरै । तामें मान अपनपौ विरथा, जन्म जरा मृत्यु पाय डरै ।।२।। कर्ता होय रागरुष ठानै, परको साक्षी रहत न यहै। व्याप्य सुव्यापक भाव बिना किमि, परको करता होत न यहै।।३।। जब भ्रमनींद त्याग निजमें निज, हित हेत सम्हारत है। वीतराग सर्वज्ञ होत तब, 'भागचन्द' हितसीख कहै ।।४ ।। ३७. सारौ दिन निरफल खोयबौ करै छै
(राग खमाच) सारौ दिन निरफल खोयबौ करै छै। नरभव लहिकर प्रानी बिनज्ञान, सारौ दिन निरफल खोयबौ करै छै । परसंपति लखि निजचितमाहीं, विस्था मूरख रोयबौ करै छै ।।१।। कामानल” जरत सदा ही, सुन्दर कामिनी जोयबौ करै छै ।।२।। जिनमत तीर्थस्थान न ठाने, जलसों पुद्गल धोयबो करै छै ।।३।। 'भागचन्द' इमि धर्म बिना शठ, मोहनींद में सोयबौ करै छै।।४।। २८. निज कारज काहे न सारै रे
(राग दीपचन्दी) निज कारज काहे न सारै रे, भूले प्रानी ।।टेक ।। परिग्रह भार थकी कहा नाहीं, आरत होत तिहारै ।।१।। रोगी नर तेरी वपुको कहा, निस दिन नाहीं जारै रे ।।२।। कूरकृतांत सिंह कहा जगमें, जीवन को न पछारै रे ।।३।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
पण्डित भागचन्दजी कृत भजन
करनविषय विषभोजनवत कहा, अंत विसरता न धारै रे ।।४ ।। 'भागचन्द' भवअंधकूप में धर्म रतन काहे डारै रे ।।५।। २९. हरी तेरी मति नर कौनें हरी हरी तेरी मति नर कौनें हरी । तजि चिन्तामन कांच गहत शठ ।।टेक ।। विषय-कषाय रुचत तोकों नित, जे दुखकरन अरी ।।१।। सांचे मित्र सुहितकर श्रीगुरु, तिनकी सुधि विसरी ।।२।। परपरनतिमें आपो मानत, जो अति विपति भरी ।।३।। 'भागचन्द' जिनराज भजन कहुँ, करत न एक घरी ।।४ ।। ४०. आवै न भोगनमें तोहि गिलान
आवै न भोगनमें तोहि गिलान ।।टेक ।। तीरथनाथ भोग तजि दीने, तिनमन भय आन । तू तिन” कहुँ डरपत नाहीं, दीसत अति बलवान ।।१।। इन्द्रियतृप्ति काज तू भोगै, विषय महा अघखान । सो जैसे घृतधारा डारे, पावकज्वाल बुझान ।।२।। जे सुख तो तीक्षन दुखदाई, ज्यों मधुलिप्त-कृपान । ताते ‘भागचन्द' इनको तजि आत्म स्वरूप पिछान ।।३।। ४१. मान न कीजिये हो परवीन
(राग मल्हार) मान न कीजिये हो परवीन ।।टेक।। जाय पलाय चंचला कमला, तिष्ठै दो दिन तीन । धनजोवन क्षणभंगुर सब ही, होत सुछिन छिन छीन ।।१।। भरत नरेन्द्र खंड-षट-नायक, तेहु भये मद हीन । तेरी बात कहा है भाई, तू तो सहज ही दीन ।।२।। ‘भागचन्द' मार्दव-रससागर, माहिं होहु लवलीन । ताः जगतजाल में फिर कहूँ, जनम न होय नवीन ।।३।।
४२. प्रेम अब त्यागह पुद्गल का प्रेम अब त्यागहु पुद्गलका । अहित मूल यह जाना सुधीजन ।।टेक ।। कृमि-कुल-कलित स्त्रवत नव द्वारन, यह पुतला मलका । काकादिक भखते जु न होता, चाम तना खलका ।।१।। काल-व्याल मुख थित इसका नहिं, है विश्वास पल का। क्षणिक मात्र में विघट जात है, जिमि बुद्बुद जल का ।।२।। 'भागचन्द' क्या सार जानके, तू या सँग ललका।
ता” चित अनुभव कर जो तू, इच्छुक शिवफलका ।।३।। ४३. यह मोह उदय दुख पावै
(राग दीपचन्दी) यह मोह उदय दुख पावै, जगजीव अज्ञानी ।।टेक।। निज चेतनस्वरूप नहिं जानै, परपदार्थ अपनावै । पर परिनमन नहीं निज आश्रित, यह तहँ अति अकुलावै।।१।। इष्ट जानि रागादिक सेवै, ते विधिबंध बढ़ावै। निजहितहेत भाव चित सम्यक् दर्शनादि नहिं ध्यावै ।।२।। इन्द्रियतृप्ति करन के काजै, विषय अनेक मिलावै । ते न मिलैं तब खेद खिन्न है, समसुख हृदय न ल्यावै ।।३।। सकल कर्मछय लक्षण, लक्षित, मोक्षदशा नहिं चावै । 'भागचन्द' ऐसे भ्रमसेती, काल अनंत गमावै ।।४ ।। ४४. करौ रे भाई, तत्त्वारथ सरधान
(राग दीपचन्दी) करौ रे भाई, तत्त्वारथ सरधान । नरभव सुकुल सुक्षेत्र पायके ।।टेक ।। देखन जाननहार आप लखि, देहादिक परमान ।।१।। मोह रागरूष अहित जान तजि, बंधहु विधि दुखदान ।।२।।
निज स्वरूप में मगन होय कर, लगन विषय दो भान ।।३।। ___ भागचन्द' साधक कै साधो, साध्य स्वपद अमलान ।।४।।
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पण्डित भागचन्दजी कृत भजन
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आध्यात्मिक भजन संग्रह ४५. धनि ते प्रानि, जिनके तत्त्वारथ श्रद्धान
(राग दादरा) धनि ते प्रानि, जिनके तत्त्वारथ श्रद्धान ।।टेक ।। रहित सप्त भय तत्त्वारथ में, चित्त न संशय आन । कर्म कर्मफल की नहिं इच्छा, पर में धरत न ग्लानि ।।१।। सकल भाव में मूढदृष्टि तजि, करत साम्यरस पान ।
आतम धर्म बढ़ावै वा, परदोष न उच. वान ।।२।। निज स्वभाव वा, जैनधर्म में, निज पर थिरता दान। रत्नत्रय महिमा प्रगटावै, प्रीति स्वरूप महान ।।३।। ये वसु अंग सहित निर्मल यह, समकित निज गुन जान । 'भागचन्द' शिवमहल चढ़न को, अचल प्रथम सोपान ।।४।। ४६. जिन स्वपरहिताहित चीन्हा
(राग दीपचन्दी जोड़ी) जिन स्वपर हिताहित चीन्हा, जीव तेही हैं साचै जैनी ।।टेक ।। जिन बुधछैनी पैनीतें जड़, रूप निराला कीना। परतें विरच आपमें राचे, सकल विभाव विहीना ।।१।। पुन्य पाप विधि बंध उदय में, प्रमुदित होत न दीना । सम्यकदर्शन ज्ञान चरन निज, भाव सुधारस भीना ।।२।। विषयचाह तजि निज वीरज सजि, करत पूर्वविधि छीना। 'भागचन्द' साधक 8 साधत, साध्य स्वपद स्वाधीना ।।३।। ४७. यही इक धर्ममूल है मीता! यही इक धर्ममूल है मीता! निज समकितसार सहीता ।।टेक ।। समकित सहित नरकपदवासा, खासा बुधजन गीता। तहतें निकसि होय तीर्थंकर, सुरगन जजत सप्रीता ।।१।।
स्वर्गवास हू नीको नाहीं, बिन समकित अविनीता। तहँतें चय एकेन्द्री उपजत, भ्रमत सदा भयभीता ।।२।। खेत बहुत जोते हु बीज बिन, रहत धान्यसों रीता। सिद्धि न लहत कोटि तपहूतें, वृथा कलेश सहीता ।।३।। समकित अतुल अखंड सुधारस, जिन पुरुषन में पीता। 'भागचन्द' ते अजर अमर भये, तिनहीने जग जीता ।।४ ।। ४८. बुधजन पक्षपात तज देखो,
(राग ठुमरी) बुधजन पक्षपात तज देखो, साँचा देव कौन है इनमें ।।टेक।। ब्रह्मा दंड कमंडलधारि, स्वांत भ्रांत वशि सुरनारिन में। मृगछाला माला-मौंजी पुनि, विषयासक्त निवास नलिनमें ।।१।। शंभू खट्वाअंगसहित पुनि, गिरिजा भोगमगन निशदिनमें। हस्त कपाल व्याल भूषन पुनि, रुंडमाल तन भस्म मलिन में।।२।। विष्णु चक्रधर मदन-बानवश, लज्जा तजि रमता गोपिनमें। क्रोधानल ज्वाजल्यमान पुनि, तिनके होत प्रचंड अरिनमें ।।३ ।। श्री अरहंत परम वैरागी, दूषन लेश प्रवेश न जिनमें । 'भागचन्द' इनको स्वरूप यह, अब कहो पूज्यपनो है किनमें ।।४।। ४९. अरे हो जियरा धर्म में चित्त लगाय रे
(राग प्रभाती) अरे हो जियरा धर्म में चित्त लगाय रे ।।टेक ।। विषय विषसम जान भोंदू, वृथा क्यों लुभायरे ।। संग भार विषाद तोकौं, करत क्या नहि भाय रे । रोग-उरग-निवास-वामी, कहा नहिं यह काय रे ।।१।। काल हरिकी गर्जना क्या, तोहि सुन न पराय रे । आपदा भर नित्य तोकौं, कहा नहीं दुःख दायरे ।। २ ।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
यदि तोहि कहा नहीं दुख, नरक के असहाय रे । नदी वैतरनी जहाँ जिय, परै अति बिललाय रे ।।३।। तन धनादिक घनपटल सम, छिनकमांहीं बिलाय रे । 'भागचन्द' सुजान इमि जदु-कुल-तिलक गुन गाय रे ।।४ ।। ५०. भववनमें, नहीं भूलिये भाई।
भववनमें, नहीं भूलिये भाई। कर निज थलकी याद ।।टेक ।। नर परजाय पाय अति सुंदर, त्यागहु सकल प्रमाद । श्रीजिनधर्म सेय शिव पावत, आतम जासु प्रसाद ।।१।। अबके चूकत ठीक न पड़सी, पासी अधिक विषाद । सहसी नरक वेदना पुनि तहाँ, सुनसी कौन फिराद ।।२ ।। 'भागचन्द' श्रीगुरु शिक्षा बिन, भटका काल अनाद ।
तू कर्ता तूही फल भोगत, कौन करै बकवाद ।। ३ ।। ५१. अति संक्लेश विशुद्ध शुद्ध पुनि
अति संक्लेश विशुद्ध शुद्ध पुनि, त्रिविध जीव परिनाम बखाने ।।टेक ।। तीव्र कषाय उदय से भावित, दर्वित हिंसादिक अघ ठाने । सो संक्लेश भावफल नरकादिक गति दुख भोगत असहाने ।।१।। शुभ उपयोग कारनन में जो, रागकषाय मंद उदयाने । सो विशुद्ध तसु फल इंद्रादिक, विभव समाज सकल परमाने ।।२।। परकारन मोहादिकतै च्युत, दरसन ज्ञान चरन रस पाने । सो है शुद्ध भाव तसु फलतें, पहुँचत परमानंद ठिकाने ।।३।। इनमें जुगल बंधके कारन, परद्रव्याश्रित हेयप्रमाने । 'भागचन्द' स्वसमय निज हित लखि, तामैं रम रहिये भ्रम हाने ।।४।। ५२. जे सहज होरी के खिलारी
जे सहज होरी के खिलारी, तिन जीवन की बलिहारी ।।टेक ।। शांतभाव कुंकुम रस चन्दन, भर ममता पिचकारी।
पण्डित भागचन्दजी कृत भजन
उड़त गुलाल निर्जरा संवर, अंबर पहरें भारी ।।१।। सम्यकदर्शनादि सँग लेकै, परम सखा सुखकारी। भींज रहे निज ध्यान रंगमें, सुमति सखी प्रियनारी ।।२।। कर स्नान ज्ञान जलमें पुनि, विमल भये शिवचारी। 'भागचन्द' तिन प्रति नित वंदन, भावसमेत हमारी ।।३ ।। ५३. सहज अबाध समाध धाम तहाँ
सहज अबाध समाध धाम तहाँ, चेतन सुमति खेलें होरी ।।टेक ।। निजगुन चंदनमिश्रित सुरभित, निर्मल कुंकुम रस घोरी। समता पिचकारी अति प्यारी, भर जु चलावत चहुँ ओरी।।१।। शुभ संवर सुअबीर आडंबर, लावत भरभर कर जोरी। उड़त गुलाल निर्जरा निर्भर, दुखदायक भव थिति टोरी ।।२।। परमानन्द मृदंगादिक धुनि, विमल विरागभावधोरी। 'भागचन्द' दृग-ज्ञान-चरनमय, परिनत अनुभव रँग बोरी ।।३।। ५४. सुन्दर दशलक्षन वृष
सुन्दर दशलक्षन वृष, सेय सदा भाई। जासतें ततक्षन जन, होय विश्वराई ।।टेक ।। क्रोध को निरोध शांत, सुधाको नितांत शोध । मानको तजौ भजौ स्वभाव कोमलाई ।।१।। छल बल तजि सदा विमलभाव सरलताई भजि । सर्व जीव चैन दैन, वैन कह सुहाई ।।२।। ज्ञान तीर्थ स्नान दान, ध्यान भान हृदय आन । दया-चरन धारि करन-विषय सब बिहाई ।।३ ।। आलस हरि द्वादश तप, धारि शुद्ध मानस करि । खेहगेह देह जानि, तजौ नेहताई ।।४ ।।
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अनुक्रमणिका
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आध्यात्मिक भजन संग्रह अंतरंग बाह्य संग, त्यागि आत्मरंग पागि। शीलमाल अति विशाल, पहिर शोभनाई ।।५।। यह वृष-सोपान-राज, मोक्षधाम चढ़न काज। शिवसुख निजगुनसमाज, केवली बताई ।।६।। ५५. षोडशकारन सुहृदय
(प्रभाती) षोडशकारन सुहृदय, धारन कर भाई! जिनतें जगतारन जिन, होय विश्वराई ।।टेक ।। निर्मल श्रद्धान ठान, शंकादिक मल जघान । देवादिक विनय सरल-भावतें कराई ।।१।। शील निरतिचार धार, मारको सदैव मार । अंतरंग पूर्ण ज्ञान, रागको विंधाई ।।२।। यथाशक्ति द्वादश तप, तपो शुद्ध मानस कर । आर्त रौद्र ध्यान त्यागि, धर्म शुक्ल ध्याई ।।३।। जथाशक्ति वैयावृत्त, धार अष्टमान टार । भक्ति श्रीजिनेन्द्र की, सदैव चित्त लाई ।।४ ।। आरज आचारज के, वंदि पाद-वारिजकों। भक्ति उपाध्याय की, निधाय सौख्यदाई ।।५।। प्रवचन की भक्ति जतनसेति बुद्धि धरो नित्य । आवश्यक क्रिया में न, हानि कर कदाई ।।६।। धर्म की प्रभावना सु, शर्मकर बढ़ावना सु । जिनप्रणीत सूत्रमाहिं, प्रीति कर अघाई ।।७ ।। ऐसे जो भावत चित, कलुषता बहावत तसु । चरनकमल ध्यावत बुध, ‘भागचन्द' गाई ।।८ ।।
६. श्री सौभाग्यमलजी कृत भजन १५३-१७१ • भावों में सरलता..... • निरखी निरखी मनहर मूरत १५४ मैं हूँ आतमराम
१५५ • मन महल में दो दो भाव जगे. तोरी पल पल निरखें मूरतियाँ १५६ • मत बिसरावो जिनजी.तेरी शीतल-शीतल मूरत लख
तेरे दर्शन से मेरा दिल खिल गया स्वामी तेरा मुखड़ा है मन को लुभाना तेरी शांति छवि पे मैं बलि बलि जाऊँ जहाँ रागद्वेष से रहित निराकुल तेरे दर्शन को मन दौड़ा. लहरायेगा-लहरायेगा झंडा महावीर का १६०
लिया प्रभू अवतार, जय जय कार जय जय कार • काहे पाप करे काहे छल • ध्यान धर ले प्रभू को ध्यान धर ले १६२ . जो आज दिन है वो, कल ना रहेगा, कल ना रहेगा
संसार महा अघसागर में कहा मानले ओ मेरे भैया • आज सी सुहानी सु घड़ी इतनी १६४ धोली हो गई रे काली कामली माथा की थारी पर्वराज पर्युषण आया दस धर्मों की ले माला नित उठ ध्याऊँ, गुण गाऊँ, परम दिगम्बर साधु
१६६ परम दिगम्बर यती, महागुण व्रती, करो निस्तारा • पल पल बीते उमरिया रूप जवानी जाती. • त्रिशला के नन्द तुम्हें वंदना हमारी
१६८ धन्य धन्य आज घड़ी कैसी सुखकार है तोड़ विषियों से मन जोड़ प्रभु से लगन
१६९ प्रभु दर्शन कर जीवन की, भीड़ भगी मेरे कर्मन की • भाया थारी बावली जवानी चाली रे
१७० • तेरी सुन्दर मूरत देख प्रभो
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श्री सौभाग्यमलजी कृत भजन
श्री सौभाग्यमलजी
कृत भजन
9. भावों में सरलता ..............
भावों में सरलता रहती है, जहाँ प्रेम की सरिता बहती है। हम उस धर्म के पालक हैं, जहाँ सत्य अहिंसा रहती है।। जो राग में मूंछे तनते हैं, जड़ भोगों में रीझ मचलते हैं। वे भूलते हैं निज को भाई, जो पाप के सांचे ढलते हैं।। पुचकार उन्हें माँ जिनवाणी, जहाँ ज्ञान कथायें कहती हैं। हम उस. ।।१।। जो पर के प्राण दुखाते हैं, वह आप सताये जाते हैं। अधिकारी वे हैं शिव सुख के, जो आतम ध्यान लगाते हैं।। 'सौभाग्य' सफल कर नर जीवन, यह आयुढलती रहती है।।हम उस.।।१।। २. निरखी निरखी मनहर मूरत निरखी निरखी मनहर मूरत तोरी हो जिनन्दा, खोई खोई आतम निधि निज पाई हो जिनन्दा ।।टेर ।। ना समझी से अबलो मैंने पर को अपना मान के,
पर को अपना मान के। माया की ममता में डोला, तुमको नहीं पिछान के,
तुमको नहीं पिछान के।। अब भूलों पर रोता यह मन, मोरा हो जिनन्दा ।।१।।
भोग रोग का घर है मैंने, आज चराचर देखा है,
आज चराचर देखा है। आतम धन के आगे जग का झूठा सारा लेखा है,
झूठा सारा लेखा है। अपने में घुल मिल जाऊँ, वर पावू जिनन्दा ।।२।। तू भवनाशी मैं भववासी, भव से पार उतरना है,
भव से पार उतरना है। शुद्ध स्वरूपी होकर तुमसा, शिवरमणी को वरना है,
शिवरमणी को वरना है।। ज्ञानज्योति 'सौभाग्य' जगे घट, मोरे हो जिनन्दा ।।३।। ३. मैं हूँ आतमराम मैं हूँ आतमराम, मैं हूँ आतमराम, सहज स्वभावी ज्ञाता दृष्टा चेतन मेरा नाम ।।टेर ।। कुमति कुटिल ने अब तक मुझको निज फंदे में डाला। मोहराज ने दिव्य ज्ञान पर, डाला परदा काला। डुला कुगति अविराम, खोया काल तमाम ।।सहज ।।१।। जिन दर्शन से बोध हुआ है मुझको मेरा आज। पर द्रव्यों से प्रीति बढ़ा निज, कैसे करूँ अकाज । दूर हटो जग काम, रागादिक परिणाम ।।सहज ।।२।। आओ अंतर ज्ञान सितारो, आतम बल प्रगटा दो। पंचम गति “सौभाग्य” मिले प्रिय आवागमन छुड़ादो। पाऊँ सुख ललाम, शिवस्वरूप शिवधाम।।सहज ।।३।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह ४. मन महल में दो दो भाव जगे
मन महल में दो दो भाव जगे, इक स्वभाव है, इक विभाव है। अपने-अपने अधिकार मिले, इक स्वभाव है, इक विभाव है।।टेर।। बहिरंग के भाव तो पर के हैं, अंतर के स्वभाव सो अपने हैं। यही भेद समझले पहले जरा, तू कौन है तेरा कौन यहाँ।
तू कौन है तेरा कौन यहाँ ।।१।। तन तेल फुलेल इतर भी मले, नित नवला भूषण अंग सजे। रस भेद विज्ञान न कंठ धरा नहीं सम्यक् श्रद्धा साज सजे।
नहीं सम्यक् श्रद्धा साज सजे ।।२।। मिथ्यात्व तिमिर के हरने को, अक्षय आतम आलोक जगा। हे वीतराग सर्वज्ञ प्रभो, तब दर्शन मन 'सौभाग्य' पगा।
तब दर्शन मन 'सौभाग्य' पगा।।३।। ५. तोरी पल पल निरखें मूरतियाँ तोरी पल पल निरखें मूरतियाँ,
आतम रस भीनी यह सूरतियाँ ।।टेर ।। घोर मिथ्यात्व रत हो तुम्हें छोड़कर, भोग भोगे हैं जड़ से लगन जोड़कर । चारों गति में भ्रमण, कर कर जामन मरण, लखि अपनी न सच्ची सूरतियाँ ।।१।। तेरे दर्शन से ज्योति जगी ज्ञान की, पथ पकड़ी है हमने स्वकल्याण की। पद तुझसा महान, लगा आतम का ध्यान, पावे 'सौभाग्य' पावन शिव गतियाँ ।।२।।
श्री सौभाग्यमलजी कृत भजन ६. मत बिसरावो जिनजी मत बिसरावो जिनजी, कि अब मैं शरण गहूँ किसकी ।।टेर ।। भूल मनाये अबलो मैंने, देव तुझे बिसरा करके । भोगे भोग अधम तम जग के, मन अति इतरा करके।। यह मुझको अभिमान रहा नित अमर रहूँगा आकर के। तू सच्चा है आशा झूठी, प्रीत करी जिसकी ।।१।। संशय विभ्रम मोह मिटा अब, ज्ञान दीपिका जागी है। अंतर उज्ज्वल हुये मनोरथ, विषय कालिमा भागी है। निजानंद पद पाऊँ तुझसा लगन यही बस लागी। सिद्धासन 'सौभाग्य' मिले फिर चाह करूँ किसकी ।।२।। ७. तेरी शीतल-शीतल मूरत लख तेरी शीतल-शीतल मूरत लख, कहीं भी नजर ना जमें, प्रभू शीतल । सूरत को निहारें पल पल तब, छबि दूजी नजर ना जमें! प्रभू शीतल ।।टेर ।। भव दुःख दाह सही है घोर, कर्म बली पर चला न जोर । तुम मुख चन्द्र निहार मिली अब, परम शान्ति सुख शीतल ढोर निज पर का ज्ञान जगे घट में भव बंधन भीड़ थमें प्रभू शीतल ।।१।। सकल ज्ञेय के ज्ञायक हो, एक तुम्ही जग नायक हो। वीतराग सर्वज्ञ प्रभू तुम, निज स्वरूप शिवदायक हो। 'सौभाग्य' सफल हो नर जीवन, गति पंचम धाम धमे प्रभू शीतल ॥२।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
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८. तेरे दर्शन से मेरा दिल खिल गया तेरे दर्शन से मेरा दिल खिल गया। मुक्ति के महल का सुराज्य मिल गया । आतम के सुज्ञान का सुभान हो गया, भव का विनाशी तत्त्वज्ञान हो गया । । टेर ।। तेरी सच्ची प्रीत की यही है निशानी । भोगों से छूट बने आतम सुध्यानी । कर्मों की जीत का सुसाज मिल गया । । मुक्ति के ।। १ ।। तेरी परतीत हरे व्याधियाँ पुरानी । जामन मरण हर दे
शिवरानी ।
प्रभो सुख शान्ति सुमन आज खिल गया । । मुक्ति के ॥ २ ॥ ज्ञानानन्द अतुल धन राशी । सिद्ध समान वरूँ अविनाशी ।
यही " सौभाग्य” शिवराज मिल गया । । मुक्ति के ।। ३ ।। ९. स्वामी तेरा मुखड़ा है मन को लुभाना
स्वामी तेरा मुखड़ा है मन को लुभाना,
स्वामी तेरा गौरव है मन को डुलाना ।
देखा ना ऐसा सुहाना - २ | स्वामी । । टेर ।।
ये छवि ये तप त्याग जगत का, भाव जगाता आतम बल का । हरता है नरकों का जाना - २ || स्वामी || १ ॥ जो पथ तूने है अपनाया, वो मन मेरे भी अति भाया । पाऊँ मैं तुम पद लुभाना - २ ।। स्वामी ॥ २ ॥ पंचम गति का मैं वर चाहूँ, जीवन का “सौभाग्य” दिपाऊँ । गूँजे हैं अंतर तराना - २ । स्वामी ॥ ३ ॥
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श्री सौभाग्यमलजी कृत भजन
१०. तेरी शांति छवि पे मैं बलि बलि जाऊँ तेरी शांति छवि पे मैं बलि बलि जाऊँ ।
खुले नयन मारग आ दिल मैं बिठाऊँ ।। लेखा ना देखा, धर्म पाप जोड़ा, बना भोग लिप्सा कि चाहों में दौड़ा, सहे दुख जो जो कहा लो सुनाऊँ तेरी शांति... । । तेरी ।। १ ।। तेरा ज्ञान गौरव जो गणधर ने गाया, वही गीत पावन मुझे आज भाया, उसी के सुरों में सुनो मैं सुनाऊँ तेरी शांति छवि . । । तेरी ।। २ ।। जगी आत्म ज्योति सम्यक्त्व तत्त्व की, घटी है घटा शाम मिथ्या विकल की, निजानन्द “सौभाग्य" सेहरा सजाऊँ - २ ।। तेरी ।। ३ ।।
११. जहाँ रागद्वेष से रहित निराकुल जहाँ रागद्वेष से रहित निराकुल, आतम सुख का डेरा | वो विश्व धर्म है मेरा, वो जैन धर्म है मेरा । जहाँ पद-पद पर है परम अहिंसा करती क्षमा बसेरा । वो विश्व धर्म है मेरा, वो जैनधर्म है मेरा | टेर ।। जहाँ गूंजा करते, सत संयम के गीत सुहाने पावन । जहाँ ज्ञान सुधा की बहती निशिदिन धारा पाप नशावन । जहाँ काम क्रोध, ममता, माया का कहीं नहीं है घेरा ।। १ ।। जहाँ समता समदृष्टि प्यारी, सद्भाव शांति के भारी । जहाँ सकल परिग्रह भार शून्य है, मन अदोष अविकारी। जहाँ ज्ञानानंत दरश सुख बल का, रहता सदा सवेरा ।। २ ।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
जहाँ वीतराग विज्ञान कला, निज पर का बोध कराये । जो जन्म मरण से रहित, निरापद मोक्ष महल पधराये । वह जगतपूज्य “सौभाग्य” परमपद, हो आलोकित मेरा || ३ ||
१२. तेरे दर्शन को मन दौड़ा
तेरे दर्शन को मन दौड़ा । । टेर ||
कोटि-कोटि मुँह से जो तेरी महिमा सुनते आया।
इससे भी तू है बढ़ा-चढ़ा है यह दर्शन कर पाया ।। इस पृथ्वी पर बड़ा कठिन है, तुमसा पाना जोड़ा ।। तेरे ।। १ ।। कर पर कर धर नाशा दृष्टि आसन अटल जमाया। परदोष रोष अम्बर आडम्बर रहित तुम्हारी काया । वीतराग विज्ञान कला से, जगबन्धन को तोड़ा || तेरे || २ || पुण्य पाप व्यवहार जगत के हैं सब भव के कारण । शुद्ध चिदानन्द चेतन दर्शन निश्चय पार उतारण ।। निजपद का “सौभाग्य” श्रेष्ठ पा, कैसे जाये छोड़ा || तेरे || ३ || १३. लहरायेगा - लहरायेगा झंडा श्री महावीर का लहरायेगा - लहरायेगा झंडा श्री महावीर का । फहरायेगा - फहरायेगा झंडा श्री महावीर का ।। अखिल विश्व का जो है प्यारा, जैन जाति का चमकित तारा। हम युवकों का पूर्ण सहारा, झंडा श्री महावीर का ।। १ ।। सत्य अहिंसा का है नायक,
दायक ।
शांति सुधारस का है दीनजनों का सदा सहायक, झंडा श्री महावीर का ॥ २ ॥
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श्री सौभाग्यमलजी कृत भजन
साम्यभाव
वाला,
प्रेमक्षीर
बरसाने
वाला ।
जीवमात्र हर्षाने वाला, झंडा श्री महावीर का ।। ३ ।।
भारत का "सौभाग्य” बढ़ाता,
स्वावलंब का पाठ पढ़ाता । वन्दे वीरम् नाद गुंजाता, झंडा श्री महावीर का ॥ ४ ॥
दर्शाने
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१४. लिया प्रभू अवतार, जय जय कार जय जय कार लिया प्रभू अवतार, जय जय कार जय जय कार । त्रिशलानन्द कुमार जय जय कार जय जय कार । टेक ॥। आज खुशी है, आज खुशी है, तुम्हें खुशी है, हमें खुशी है। खुशियाँ अपरम्पार । जयजयकार ।। १ ।।
पुष्प और रत्नों की वर्षा, सुरपति करते हर्षा - २ । बजा दुंदुभी सार । जयजयकार ।। २ ।। उमग - २ नरनारी आते, नृत्य भजन संगीत सुनाते । इन्द्र शचि ले लार । जयजयकार ।। ३ ।।
प्रभू का रूप अनूप सुहाया, निरख निरख छवि हरि ललचाया । कीने नेत्र हजार । जयजयकार ||४ || जन्मोत्सव की शोभा भारी, देखो प्रभू की लगी सवारी । जुड़ रही भीड़ अपार । जयजयकार ।। ५ ।। आओ हम प्रभू गुण गावें, सत्य अहिंसा ध्वज लहरावें । जो जग मंगलकार । जयजयकार || ६ || पुण्य योग 'सौभाग्य' हमारा, सफल हुआ है जीवन सारा । मिले मोक्ष दातार । जयजयकार ॥ ७ ॥
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
१५. काहे पाप करे काहे छल
काहे पाप करे काहे छल, जरा चेत ओ मानव करनी से.... तेरी आयु घटे पल पल ।।टेक ।। तेरा तुझको न बोध विचार है, मानमाया का छाया अपार है। कैसे भोंदू बना है संभल, जरा चेत ओ मानव करनी से...।।१।। तेरा ज्ञाता व दृष्टा स्वभाव है, काहे जड़ से यूं इतना लगाव है। दुनियां ठगनी पे अब ना मचल, जरा चेत ओ मानव करनी से...।।२।। शुद्ध चिद्रूप चेतन स्वरूप तू, मोक्ष लक्ष्मी का 'सौभाग्य' भूप तूं।
बन सकता है यह बल प्रबल, जरा चेत ओ मानव करनी से... ।।३।। १६. ध्यान धर ले प्रभू को ध्यान धर ले ध्यान धर ले प्रभू को ध्यान धर ले,
आ माथे ऊबी मौत भाया ज्ञान करले ।।टेक ।। फूल गुलाबी कोमल काया, या पल में मुरझासी, जोबन जोर जवानी थारी, सन्ध्या सी ढल जासी ।प्रभू. को...।।१।। हाड़ मांस का पींजरा पर, या रूपाली चाम, देख रिझायो बावला, क्यूं जड़ को बण्यो गुलाम ।प्रभू. को... ।।२।। लाम्बो चौड़ो मांड पसारो, कीयां रह्यो है फूल, हाट हवेली काम न आसी, या सोना की झूल प्रभू. को... ।।३।। भाई बन्धु कुटुम्ब कबीलो, है मतलब को सारो,
आपा पर को भेद समझले जद होसी निस्तारो ।प्रभू. को... ।।४।। मोक्ष महल को सांचो मारग, यो छः जरा समझले, उत्तम कुल सौभाग्य' मिल्यो है, आतमराम सुमरलौ ।प्रभू. को... ।।५।। .
श्री सौभाग्यमलजी कृत भजन १७. जो आज दिन है वो, कल ना रहेगा, कल ना रहेगा
जो आज दिन है वो, कल ना रहेगा, कल ना रहेगा, घड़ी ना रहेगी ये पल ना रहेगा। समझ सीख गुरु की वाणी, फिरको कहेगा, फिरको कहेगा, घड़ी ना रहेगी ये पल ना रहेगा ।।टेक।। जग भोगों के पीछे, अनन्तों काल काल बीते हैं। इस आशा तृष्णा के अभी भी सपने रीते हैं। बना मूढ़ कबलों मन पर, चलता रहेगा-२ ।।घड़ी ।।१।। अरे इस माटी के तन पे, वृथा अभिमान है तेरा। पड़ा रह जायगा वैभव, उठेगा छोड़ जब डेरा। नहीं साथ आया न जाते, कोई संग रहेगा-२ ।।घड़ी ।।२।। ज्ञानदृग खोलकर चेतन, भेदविज्ञान घट भर ले। सहज 'सौभाग्य' सुख साधन, मुक्ति रमणी सखा वर ले। यही एक पद है प्रियवर, अमर जो रहेगा-२ ।।घड़ी ।।३।। १८. संसार महा अघसागर में संसार महा अघसागर में, वह मूढ़ महा दुःख भरता है। जड़ नश्वर भोग समझ अपने, जो पर में ममता करता है। बिन ज्ञान जिया तो जीना क्या, बिन ज्ञान जिया तो जीना क्या। पुण्य उदय नर जन्म मिला शुभ, व्यर्थ गमों फल लीना क्या ।।टेक ।। कष्ट पड़ा है जो जो उठाना, लाख चौरासी में गोते खाना । भूल गया तूं किस मस्ती में उस दिन था प्रण कीना क्या ।।१।। बचपन बीता बीती जवानी, सर पर छाई मौत डरानी ।। ये कंचन सी काया खोकर, बांधा है गाँठ नगीना क्या ।।२।।
दिखते जो जग भोग रंगीले, ऊपर मीठे हैं जहरीले । . ___भव भय कारण नर्क निशानी, है तूने चित दीना क्या ।।३ ।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह अंतर आतम अनुभव करले, भेद विज्ञान सुधा घट भरले।
अक्षय पद 'सौभाग्य' मिलेगा, पुनि पुनि मरना जीना क्या ।।४।। १९. कहा मानले ओ मेरे भैया
कहा मानले ओ मेरे भैया, भव भव डुलने में क्या सार है। तू बनजा बने तो परमात्मा, तेरी आत्मा की शक्ति अपार है।। भोग बुरे हैं त्याग सजन ये, विपद करें और नरक धरें। ध्यान ही है एक नाव सजन जो, इधर तिरें और उधर वरें। झूठी प्रीति में तेरी ही हार है, वाणी गणधर की ये हितकार है।।१।। लोभ पाप का बाप सजन क्यों राग करे दुःखभार भरे । ज्ञान कसौटी परख सजन मत छलियों का विश्वास करे ।। ठग आठों की यहाँ भरमार है, इन्हें जीते तो बेड़ा पार है।।२।। नरतन का 'सौभाग्य' सजन ये हाथ लगे ना हाथ लगे। कर आतमरस पान सजन जो जनम भगे और मरण भगे।। मोक्ष महल का ये ही द्वार है, वीतरागी हो बनना सार है।।३।। २०. आज सी सुहानी सु घड़ी इतनी
आज सी सुहानी सु घड़ी इतनी, कल ना मिलेगी ढूँढ़ो चाहे जितनी ।।टेक।। आया कहाँ से है जाना कहाँ, सोचो तुम्हारा ठिकाना कहाँ। लाये थे क्या है कमाया यहाँ, ले जाना तुमको है क्या-२ वहाँ ।।१।। धारे अनेकों है तूने जनम, गिनावें कहाँ लो है आती शरम। नरदेह पाकर अहो पुण्य धन, भोगों में जीवन क्यों करते खतम ।।२।। प्रभू के चरण में लगा लो लगन, वही एक सच्चे हैं तारणतरण। छूटेगा भव दुःख जामन मरण, “सौभाग्य” पावोगे मुक्ति रमण ।।३।।
श्री सौभाग्यमलजी कृत भजन २१.धोली हो गई रे काली कामली माथा की थारी धोली हो गई रे काली कामली माथा की थारी, धोली हो गई रे काली कामली, सुरज्ञानी चेतो, धोली हो गई रे काली कामली ।।टेर ।। वदन गठीलो कंचन काया, लाल बूंद रंग थारो। हुयो अपूरव फेर फार सब, ढांचो बदल्यो सारो ।।१।। नाक कान आँख्या की किरिया सुस्त पड़ गई सारी। काजू और अखरोट चबे नहिं दाँता बिना सुपारी जी ।।२।। हालण लागी नाड़ कमर भी झुक कर बणी कवानी । मुंडो देख आरसी सोचो ढल गई कयां जवानी जी ।।३ ।। न्याय नीति ने तजकर छोड़ी भोग संपदा भाई। बात-बात में झूठ कपट छल, कीनी मायाचारी ।।४ ।। बैठ हताई तास चोपड़ा खेल्यो बुला खिलाय । लड़या पराया भोला भाई फूल्या नहीं समाय ।।५ ।। प्रभू भक्ति में रूचि न लीनी नहीं करूणा चितधारी। वीतराग दर्शन नहीं रूचियो उमर खोदई सारी जी ।।६।। पुन्य योग 'सौभाग्य' मिल्यो है नरकुल उत्तम प्यारो। निजानंद समता रस पील्यो होसी भव निस्तारो ।।७।। २२. पर्वराज पYषण आया दस धर्मों की ले माला पर्वराज पर्दूषण आया दस धर्मों की ले माला मिथ्यातम में दबी आत्मनिधि अब तो चेत परख लाला ।।टेर ।। तू अखंड अविनाशी चेतन ज्ञाता दृष्टा सिद्ध समान । रागद्वेष परपरणति कारण स्व सरूप को कर्यो न भान ।। मोहजाल की भूल भुलैया समझ नरक सी है ज्वाला ।।१।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
परम अहिंसक क्षमा भाव भर, तज दे मिथ्या मान गुमान । कपट कटारी दूर फैंक दे जो चाहे अपनो कल्याण ।। सत्य शौच संयम तप अनुपम है अमृत भर पी प्याला ।।२।। परिग्रह त्याग ब्रह्म में रमजा वीतराग दर्शन गायो । चिंतामणी सू काग उड़ा मत नरकुल उत्तम तू पायो ।। शिवरमणी 'सौभाग्य' दिखा रही तुझ अनश्वर सुखशाला ।।३।। २३. नित उठ ध्याऊं, गुण गाऊं, परम दिगम्बर साधु नित उठ ध्याऊं, गुण गाऊं, परम दिगम्बर साधु । महाव्रतधारी-२, महाव्रतधारी ।।टेक ।। रागद्वेष नहीं लेश जिन्हों के मन में है, मन में हैं। कनककामिनी मोह काम नहीं, तन में है, तन में हैं। परिग्रह रहित निरारंभी, ज्ञानी व ध्यानी तपसी। नमो हितकारी भारी, नमो हितकारी ।।१।। शीतकाल सरिता के तट पर, जो रहते, जो रहते। ग्रीष्मऋतु गिरिराज शिखर चढ़ अघ दहते, अघ दहते। तरूतल रहकर वर्षा में, विचलित ना होते लखभय । बन अंधियारी, यारी बन अंधियारी ।।२।। कंचन काँच मसान महल सम, जिनके है जिनके हैं।
अरि अपमान मान मित्र सम, तिनके है तिनके हैं। समदर्शी समता धारी, नग्न दिगम्बर मुनि हैं। भवजल तारी, तारी भवजल तारी ।।३।। ऐसे परम तपो निधि जहाँ-२, जाते हैं जाते हैं। परम शांति सुख लाभ जीव सब, पाते हैं पाते हैं। भव-भव में 'सौभाग्य' मिले, गुरू पद पूजूं ध्याऊं। वरू शिवनारी नारी शिवनारी ।।४।।
श्री सौभाग्यमलजी कृत भजन २४. परम दिगम्बर यती, महागुण व्रती, करो निस्तारा परम दिगम्बर यती, महागुण व्रती, करो निस्तारा । नहीं तुम बिन कौन हमारा ।।टेक ।।। तुम बीस आठ गुणधारी हो, जग जीवमात्र हितकारी हो। बाईस परीषह जीत धरम रखवारा ।।१।।नहीं तुम. तुम आतमध्यानी ज्ञानी हो, शुचि स्वपर भेद विज्ञानी हो। है रत्नत्रय गुणमंडित हृदय तुम्हारा ।।२।।नहीं तुम. तुम क्षमाशील समता सागर, हो विश्व पूज्य वर रत्नाकर। है हितमित सत उपदेश तुम्हारा प्यारा ।।३।।नहीं तुम. तुम प्रेममूर्ति हो समदर्शी, हो भव्य जीव मन आकर्षी । है निर्विकार निर्दोष स्वरूप तुम्हारा ।।४ ।।नहीं तुम. है यही अवस्था एक सार, जो पहुँचाती है मोक्ष द्वार । 'सौभाग्य' आपसा बाना होय हमारा ।।५ ।।नहीं तुम. २५. पल पल बीते उमरिया रूप जवानी जाती ..... पल पल बीते उमरिया रूप जवानी जाती, प्रभु गुण गाले,
गाले प्रभु गुण गाले ।।टेर ।। पूरब पुण्य उदय से नर तन तुझे मिला, तुझे मिला। उत्तम कुल सागर मैं आ तू कमल खिला, कमल खिला ।। अब क्यों गर्व गुमानी हो धर्म भुलाया अपना, पड़ा पाप पाले पाले।।१।। नश्वर धन यौवन पर इतना मत फूले, मत फूले । पर सम्पत्ति को देख ईर्षा मत झूले, मत झूले ।। निज कर्त्तव्य विचार कर, पर उपकारी होकर पुण्य कमाले, कमाले।।२।। देवादिक भी मनुष जनम को तरस रहे, तरस रहे । मूढ़! विषय भोगों में, सौ सौ बरस रहे, बरस रहे ।। चिंतामणि को पाकर रे कीमत नहीं जानी तूने, गिरा कीच नाले नाले।।३।।
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श्री सौभाग्यमलजी कृत भजन
आध्यात्मिक भजन संग्रह बीती बात बिसार चेत तू, सुरज्ञानी, सुरज्ञानी । लगा प्रभु से ध्यान सफल हो, जिंदगानी, जिंदगानी ।। धन वैभव 'सौभाग्य' बढ़ेआदर हो जग में तेरा,खुलेमोक्ष ताले ताले।।४।। २६. त्रिशला के नन्द तुम्हें वंदना हमारी है
त्रिशला के नन्द तुम्हें वंदना हमारी है ।।टेर ।। दुनिया के जीव सारे तुम को निहार रहे। पल पल पुकार रहे, हितकर चितार रहे ।। कोई कहे वीर प्रभु कोई वर्द्धमान कहे। सनमति पुकार कहे तूं ही उपारी है।।१।।त्रिशला ।। मंगल उपदेश तेरा, कर्मों का काटे घेरा। भव भव का मेटे फेरा, शिवपुर में डाले डेरा ।। आत्म सुबोध करें, रत्नत्रय चित्त धरें ।
शिव तिय 'सौभाग्य' वरें ये ही दिल धारी हैं।।२।।त्रिशला ।। २७. धन्य धन्य आज घड़ी कैसी सुखकार है
धन्य धन्य आज घड़ी कैसी सुखकार है। वीर जिन पधारे देखो रथ हो सवार हैं ।।टेर ।। खुशियां अपार आज हर दिल पे छाई है। दर्शन के हेतु सब जनता अकुलाई है ।। ठोर ठोर देखलो भीड बेशुमार है, वीर जिन पधारे।
देखो रथ हो सवार है ।।१।। भक्ति से नृत्य गान कोई हैं कर रहे। आतम सुबोध कर पापों से डर रहे ।। पल पल पुण्य का भरे भंडार हैं, वीर जिन पधारे।
देखो रथ हो सवार हैं ।।२।। a.mo
जय जय के नाद से गूंजा आकाश है। छूटेंगे पाप सब निश्चय यह आश है।। देखलो सौभाग्य' खुला आज मुक्ति द्वार है, वीर जिन पधारे।
देखो रथ हो सवार है ।।३।। २८. तोड़ विषियों से मन जोड़ प्रभु से लगन तोड़ विषियों से मन जोड़ प्रभु से लगन,
आज अवसर मिला ।।टेर ।। रंग दुनियां के अब तक न समझा है तू। भूल निज को हा! पर मैं यों रीझा है तू । अब तो मुँह खोल चख, स्वाद आतम का लख।
शिव पयोधर मिला।।१।। हाथ आने की फिर ये सु-घड़ियाँ नहीं। प्रीति जड़ से लगाना है अच्छा नहीं ।। देख पुद्गल का घर, नहीं रहता अमर ।
जग चराचर मिला ।।२।। ज्ञान ज्योति हृदय में अब तो जगा। देख 'सौभाग्य' जग में न कोई सगा।। तजदे मिथ्या भरम, तुझे सच्चे धरम का।
है अवसर मिला ।।३।। २९. प्रभु दर्शन कर जीवन की, भीड़ भगी मेरे कर्मन की प्रभु दर्शन कर जीवन की, भीड़ भगी मेरे कर्मन की ।।टेर ।। भव बन भ्रमता हारा था पाया नहीं किनारा था। घड़ी सुखद आई सुवरण की ।।१।।भीड़ भगी ।।
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श्री सौभाग्यमलजी कृत भजन दोष के हरनेवाले, हो तुम मोक्ष के वरनेवाले । मेरा मन भक्ति में लीन हुआ, हाँ, लीन हुआ ।।
इसको तो निभाना देख प्रभो ।।२।। हर श्वांस में तेरी ही लय हो, कर्मों पर सदा विजय भी हो। यह जीवन तुझसा जीवन हो, हाँ जीवन हो ।।
'सौभाग्य' यह ही लिख लेख प्रभो ।।३।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह शान्त छबी मन भाई है, नैनन बीच समाई है। दूर हटू नहीं पल छिन भी ।।२।।भीड़ भगी।। निज पद का सौभाग्य' वरूं, अरु न किसी की चाह करूँ। सफल कामना हो मन की ।।३ ।।भीड़ भगी ।। ३०. भाया थारी बावली जवानी चाली रे। भगवान भजन । कद करसी थारी गरदन हाली रे ।।टेक ।। लाख चोरासी जीवाजून में मुश्किल नरतन पायो । तूं जीवन ने खेल समझकर बिरधा कीयां गमायो ।। आयो मूठी बाँध मुसाफिर जासी हाथा खाली रे ।।१।। झूठ कपट कर जोड़ जोड़ धन कोठा भरी तिजोरी रे । धर्म कमाई करी न दमड़ी कोरी मूंछ मरोड़ी रे ।। है मिथ्या अभिमान आँख की थोथी थारी लाली रे ।।२।। कंचन काया काम न आसी थारा गोती नाती रे । आतमराम अकेलो जासी पड़ी रहेगी माटी रे ।। जन्तर मन्तर धन सम्पत से मोत टले नहीं टाली रे ।।३ ।। आपा पर को भेद समझले खोल हिया की आँख रे । वीतराग जिन दर्शन तजकर अठी उठी मत झाँक रे ।। पद पूजा 'सौभाग्य' करेली शिव रमणी ले थाली रे ।।४ ।। ३१. तेरी सुन्दर मूरत देख प्रभो तेरी सुन्दर मूरत देख प्रभो, मैं जीवन दुख सब भूल गया।
यह पावन प्रतिमा देख प्रभो ।।टेक।। ज्यों काली घटायें आती हैं, त्यों कोयल कूक मचाती है। मेरा रोम रोम त्यों हर्षित है, हाँ हर्षित है।।
यह चन्द्र छवि जिन देख प्रभो ।।१।।
इस देह की अपवित्रता की बात कहाँ तक कहें? इसके संयोग में जो भी वस्तु एक पल भर के लिए ही क्यों न आये, वह भी मलिन हो जाती है, मल-मूत्रमय हो जाती है, दुर्गन्धमय हो जाती है। सब पदार्थों को पवित्र कर देनेवाला जल भी इसका संयोग पाकर अपवित्र हो जाता है। कुएँ के प्रासुक जल और अठपहरे शुद्ध घी में मर्यादित आटे से बना हलुआ भी क्षण भर को पेट में चला जावे और तत्काल वमन हो जावे तो उसे कोई देखना भी पसंद नहीं करता। ऐसी अपवित्र है यह देह और इसमें रहने वाला भगवान आत्मा परम पवित्र पदार्थ है।
आत्मा ही है शरण, पृष्ठ - ४५
sa kabata AntanjaJain Bhajan Back gends
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अनुक्रमणिका
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७. विभिन्न कवियों के भजन
१७२-२१९ • पलकन से मग झारूँ • थांकी शान्ति छवि मन बसगई जी १७५
किस विधि किये करम चकचूर नहिं गोरो नहिं कारो चेतन • इस विधि कीने करम चकचूर १७६
जगत गुरु कब निज आतम ध्याऊँ • मुक्ति की आशा लगी . थारा तो भला की जिया याही ज्ञान
१७८ भजन बिन योंही जनम गमायो• बिदा होने के बाजे बजने लगे
सुनरे गँवार, नितके लबार, तेरे घट • मानोजी चेतनजी मोरी बात . जब निज ज्ञान कला घट आवें चिदानंद भूलि रह्यो सुधिसारी • निज घर नाहिं पिछान्यारे अपना कोई नहीं है रे. चेतन काहे को पछतावता छांड दे अभिमान जियरा छांड दे अभिमान रे नैना क्यों नहिं खोलै यह मजा हमको मिला पुद्गल की यारी में इस नगरी में किस विधि रहना अरे मन बनिया वान न छोड़े • अरे निज बतियाँ क्यों नहीं जानै १८४
हो प्यारा चेतन अब तो सँभारो ज्ञान गुण धारो रे • हो जागो जी चेतन अबतो सवेरो.कहाँ चढ़ रहो मान शिखापैं १८५
थारो मुख चन्द्रमा देखत भ्रम तम भाग्यो कहाँ परदेशी को पतियारो • तनका तनक भरोसा नाहीं चेतन भोरों पर तैं उरझ रह्यो रे आदम जन्म खोया तैं नाहक • ऐसी चोसर जो नर खेलै चरणन चिन्ह चितारि चित्त में चेतनजी तुम जोरत हो धन १८८ चेतन अखियाँ खोलो ना
घड़ी धन आज की येही सरे सब काज • मेटो विथा हमारी प्रभूजी १८९ • मैं तो आऊँ तुम दरशनवा . अरे मन पापनसों नित डरिये १९० • कबै निर्ग्रन्थ स्वरूप धरूँगा
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विभिन्न कवियों की भजन अनुक्रमणिका
भजन सम नहीं काज दूजौ. चेतै छै तो आछी बेल्यां दर्शन को उमावो म्हारे लागि रहयो
उजरो पथ है शिव ओरी को . होजी मद छक मानीजी,थे समझो आतम ज्ञानीजी
कुमता के संग जाय • प्रभु देख मगन भया मेरा मनुवा तौरी सी निधि दे, जिनन्द वा या ऋतु धनि मुनिराई करत तप आयु रही अब थोड़ी कहाँ करै ऐसो नर भव पाय गंवायो • कैसा ध्यान धरा है जोगी . विश्व का कोलाहल कर दूर बनूँ मैं
झूठे झगड़े के झूले पर • चेतन की सत्ता में दुख का क्या काम है
चेतन निधी अपनी है, ज्ञायक निधी अपनी है फँसेगा जो दुनिया में वह ख्वार होगा दुनिया में देखो सैकड़ों आये चले गये
तू क्या उम्र की शाख पर सो रहा है • जब हंस तेरे तनका कहीं उड़के जायेगा
कर सकल विभाव अभाव मिटादो बिकलपता मन की अनारी जिया तुझको यह भी खबर है तुम्हारा चंद मुख निरखे सुपद रुचि मुझको आई है
अरे यह क्या किया नादान तेरी क्या समझपे पड़.... . परदेशिया में कौन चलेगा तेरे लार
हाय इन भोगों ने क्या रंग दिखाया मुझको
बिना सम्यक्त के चेतन जनम बिरथा गँवाता है • आपमें जबतक कि कोई आपको पाता नहीं विषय भोग में तूने अय जिया कैसे जीको अपने लगा दिया
जैसा जो करता है भरता है यहीं देख लिया . अय महावीर जमाने का हितंकर तू है
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
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| विभिन्न कवियों के भजन
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• प्रभो वीतरागी हितंकर तू ही है।
धर्म बिन बावरे तू ने मानव रतन गँवाया
कुन्दकुन्द आचार्य कह गये जो निज आतम ध्यायेगा • सीमंधर मुख से फुलवा खिरे ।
परम पूज्य भगवान आतमा है अनन्त गुण से परिपूर्ण
अरे चेतन समझत नाही, कोलग कहूँ समझाय • दरबार तुम्हारा मनहर है, प्रभु दर्शन कर हरषाये हैं . हे वीर प्रभूजी हम पर • जीव तूं समझ ले आतम पहला
क्यों चढ़ रह्यो मान सिखापै . ऐसे मुनिवर देखें वन में
दरबार तुम्हारे आये हैं • मनहर तेरी मूरतियाँ, मस्त हुआ मन मेरा
प्रभू हम सबका एक • आनंद मंगल आज हमारे नैना मोरे दर्शन कू उमगे जिया तेरी कौन कुबाण परी रे . कबै निरग्रंथ स्वरूप धरूँगा . धन्य धन्य वीतराग वाणी ........
चेतो चेतन निज में आवो .........
शान्ति सुधा बरसाए जिनवाणी • जिनवाणी अमृत रसाल.... शरण कोई नहीं जग में... • चार गति में भ्रमते भ्रमते.....चेतो हे! चेतन राज....
माँ जिनवाणी बसो हृदय में .... जिनवाणी माता-दरशायो तुम भी राह
सुन सुन रे चेतन प्राणी • जय जय माँ जिनवाणी • माता जिनवाणी तेरा • परम उपकारी जिनवाणी
मैं ही सिद्ध परमातमा • परमात्म-भावना • चेतन! तूं तिहु काल अकेला • मुख ओंकार धुनि
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१. पलकन से मग झारूँ
(श्याम कल्याण व इमन कल्याण) पलकन से मग झारूँ ए री हे महा जो मुनि आवे द्वार मेरे ।।टेर ।। कनक रतनमय कर ले झारी चरण कमल को पखालूँ ।।१।। कर पर कर घर अशन कराऊँ, भव भव के अघ टारूँ । जनम कृतारथ जब ही मेरो, 'जग' जिन रूप निहारूँ ।।२।। २. थांकी शान्ति छवि मन बसगई जी थांकी शान्ति छवि मन बसगई जी नहीं रुचे और छवि नैनन में ।।टेर ।। निर्विकार निग्रंथ दिगम्बर देखत कुमति विनशगईजी ।।१।। चिर मिथ्यातम दूर करन को चन्द्रकला सी दरश रहीजी ।।२।। 'मानिक' मन मयूर हरषन को मेघ घटासी दरश रहीजी ।।३।। ३. किस विधि किये करम चकचूर
(जंगला) किस विधि किये करम चकचूर, थांकी उत्तम क्षमा पर
अचंभो म्हाने आवैजी ।।टेर ।। एक तो प्रभु तुम परम दिगम्बर, पास न तिलतुष मात्र हजूर । दूजे जीवदया के सागर, तीजै संतोषी भरपूर ।।१।। चौथे प्रभु तुम हित उपदेशी, तारण तरण जगत मशहूर । कोमल वचन सरल सम वक्ता, निर्लोभी संजम तप शूर ।।२।। कैसे ज्ञानावरण निवारयो, कैसे गेरयो अदर्शन चूर । कैसे मोहमल्ल तुम जीते, कैसे किये च्यारौं घातिया दूर ।।३।। त्याग उपाधि हो तुम साहिब, आकिंचन व्रतधारी मूल । दोष अठारह दूषण तजके, कैसे जीते काम क्रूर ।।४ ।।
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विभिन्न कवियों के भजन
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आध्यात्मिक भजन संग्रह कैसे केवल ज्ञान उपायो, अन्तराय कैसे कियो निर्मूल । सुरनर मुनि सेवै चरण तिहारे, तो भी नहीं प्रभु तुमको गरूर ।।५।। करत दास अरदास 'नैनसुख' ये ही वर दीजे मोहे दान जरूर । जन्म-जन्म पद-पंकज सेऊँ और नहीं कछु चाहूँ हजूर ।।६।। ४. नहिं गोरो नहिं कारो चेतन
(जंगला) नहिं गोरो नहिं कारो चेतन, अपनो रूप निहारो रे ।।टेर ।। दर्शन ज्ञान मई चिन्मूरत, सकल करम ते न्यारो रे ।।१।। जाके बिन पहिचान जगतमें सह्यो महा दुख भारोरे । जाके लखे उदय हो तत्क्षण, केवल ज्ञान उजारो रे ।।२।। कर्म जनित पर्याय पायके कीनों तहाँ पसारो रे। आपा परको रूप न जान्यो, तातै भव उरझारो रे ।।३ ।। अब निजमें निजकू अवलोकू जो हो भव सुलझारो रे । 'जगतराम' सब विधि सुख सागर पद पाऊँ अविकारो रे ।।४।। ५. इस विधि कीने करम चकचूर
(जंगला) इस विधि कीने करम चकचूर-सो विधि बतलाऊँ तेरा। भरम मिटाऊँ बीरा, इस विधि कीने करम चकचूर ।।टेर ।। सुनो संत अहँत पंथ जन, स्वपर दया जिस घट भरपूर । त्याग प्रपंच निरीह करै तप, ते नर जीते कर्म करूर ।।१।। तोड़े क्रोध निठुरता अघ नग, कपट क्रूर सिर डारी घूर । असत अंग कर भंग बतावे, ते नर जीते कर्म करूर ।।२।। लोभ कंदरा के मुख में भर, काठ असंजम लाय जरूर। विषय कुशील कुलाचल पँके, ते नर जीते करम करूर ।।३।।
परम क्षमा मृदुभाव प्रकाशे, सरल वृत्ति निरवांछक पूर। धर संजम तप त्याग जगत सब, ध्यावें सत चित केवलनूर ।।४।। यह शिवपंथ सनातन संतो, सादि अनादि अटल मशहूर । या मारग 'नैनानन्द' हु पायो, इस विधि जीते कर्म करूर ।।५।। ६. जगत गुरु कब निज आतम ध्याऊँ
(दुर्गा) जगत गुरु कब निज आतम ध्याऊँ ।।टेर ।। नग्न दिगम्बर मुद्रा धरके कब निज आतम ध्याऊँ । ऐसी लब्धि होय कब मोकूँ, जो वाँछित पाऊँ ।।१।। कब गृह त्याग होऊँ बनवासी, परम पुरुष लौ लाऊँ । रहूँ अडोल जोड पद्मासन, करम कलंक खिपाऊँ ।।२।। केवल ज्ञान प्रकट कर अपनो, लोकालोक लखाऊँ । जन्म जरा दुख देत जलांजलि हो कब सिद्ध कहाऊँ ।।३।। सुख अनन्त विलसूं तिंह थानक, काल अनन्त गमाऊँ। 'मानसिंह' महिमा निज प्रकटे, बहुरि न भव में आऊँ ।।४ ।। ७. मुक्ति की आशा लगी
(सोरठ) मुक्ति की आशा लगी, निज ब्रह्म को जाना नहीं ।।टेर ।। घर छोड़ के योगी हुआ, अनुभाव को ठाना नहीं। जिन धर्म को अपना सगा, अज्ञान तैं माना नहीं ।।१।। बाहिर मैं तू त्यागी हुआ, बातिन तेरा छाना नहीं । ऐ यार अपनी भूल से, विष बेल फल खाना नहीं ।।२।। संसार को त्यागे बिना, निर्वाण पद पाना नहीं। संतोष बिन अब 'नैनसुख' तुमको मजा आना नहीं ।।३।।
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१७८
८. थारा तो भला की जिया याही ज्ञान
( सोरठ )
थारा तो भला की जिया याही जान ।।टेर ।।
आध्यात्मिक भजन संग्रह
कर श्रद्धान जिनेसुर वाणी, समकित हिरदय आन ।। १ ।। तज कषाय त्याग परिग्रह, कर्म रिपुन को भान । जगतराम शुभ गति पावन को, जग में येही पिछान ।। २ ।। ९. भजन बिन योंही जनम गमायो
( सोरठ )
भजन बिन योंही जनम गमायो । टेर ।।
पानी पहली पाल न बाँधी, फिर पीछे पछतायो ।। १ ।। रामा-मोह भये दिन खोवत, आशा पाश बँधायो । जप तप संजमदान नहीं दीनों मानुष जनम हरायो ।। २ ।। देह शीस जब काँपन लागी, दसन चलाचल थायो । लागी आगि बुझावन कारन चाहत कूप खुदायो || ३ || काल अनादि गुमायो भ्रमतां, कबहुँ न थिर चित लायो । हरी विषय सुख भरम भुलानो, मृग तृष्णा वशि धायो ||४ || १०. बिदा होने के बाजे बजने लगे
( सोरठ ) बिदा होने के बाजे बजने लगे । टेर ।।
तार खबर हिचकी जब आई, कल पुर्जे सब हिलने लगे ॥ १ ॥ चार जने मिल मतो उपायो, काठ की गुडया सजने लगे ॥ २ ॥ घर के बाहर खड़े जो बराती चलोजी चलो सब कहने लगे ॥ ३ ॥ जा जंगल में होली लगाई अपने अपने ठिकाने लगे ||४|| परमेश्वर का भजन करो नर, इस दुनिया में कोई न सगे ।। ५ ।।
marak 3D Kailash Data Antanji Jain Bhajan Book pra
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विभिन्न कवियों के भजन
११. सुनरे गँवार, नितके लबार, तेरे घट ( सोरठ )
सुनरे गँवार, नितके लबार, तेरे घट मँझार परगट दिदार, मत फिरै ख्बार उरझी को सुरझाले ।। र ।। जिमन विकार, अनुभव कूं धार ।
कर बार बार निज विचार,
तू है समयसार अपने ही गुण गाले ।। १ ।।
तूही भव स्वरूप, तुही शिव सरूप, होके ब्रह्म रूप पड़ा नर्ककूप विषयन के तूप सेती मन को हटाले ।। २ ।।
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कहै दास नैन आनंद दैन, सुन जैन वैन जासु होत चैन । तजि मोह सेन, नर भो फल पाले ।। ३ ।।
१२. मानोजी चेतनजी मोरी बात
(राग उझाज जोगीरासा ) मानोजी चेतनजी मोरी बात, छोड़ो छोड़ो कुमति केरो साथ ||टेर ।। कुमती तोय दिढावत कूडी, यातैं जग भरमात ।। १ ।। या संग दुःख सहे भव वन में, ता संग फिर क्यूं जात ।।२ ।। चेतन ज्ञान समझ अपनावो, यातैं शिवपुर जात || ३ || १३. जब निज ज्ञान कला घट आवैं
(राग उझाज जोगीरासा )
जब निज ज्ञान कला घट आवै तब भोग जगत ना सुहावै ।
मैं तन - मय अरु तन है मेरा, फिर यह बात न भावै ।। १ ।। खाज खुजात मधुरसी लागत फिर तन अति दुख पावै । त्यों यह विषय जान विषवत तज काल अनंत भ्रमावै ।। २ ।। सुपने वत सब जग की माया, तामैं नाहिं लुभावै । चैन छांड मन की कुटिलाई ते शीघ्र ही शिव जावै ।। ३ ।।
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१८०
आध्यात्मिक भजन संग्रह १४. चिदानंद भूलि रह्यो सुधिसारी
(राग उझाज जोगीरासा ) चिदानंद भूलि रह्यो सुधिसारी, तू तो करत फिरै म्हारी म्हारी ।।टेर ।। मोह उदय तें सबही तिहारी जनक मात सुत नारी। मोह दूरि कर नेत्र उघारो, इन में कोई न तिहारी ।।१।। झाग समान जीवना जोवन परवत नाला कारी। धनपति रंक समान सबन को जात न लागे वारी ।।२।। जुवां मांस मधु अरु वेश्या, हिंसा चौरी जारी । सप्त व्यसन में रत्त होय के निजकुल कीन्ही कारी ।।३।। पुन्य पाप दोउ लार चलत हैं यह निश्चय उरधारी । धर्म द्रव्य तोय स्वर्ग पठावै पाप नरक में डारी ।।४ ।। आतम रूप निहार भजो जिन धर्म मुक्ति सुखकारी । बुधमहाचंद जानि यह निश्चय, जिनवर नाम सम्हारी ।।५ ।। १५. निज घर नाहिं पिछान्यारे
(राग उझाज जोगीरासा ) निज घर नाहिं पिछान्यारे, मोह उदय होने तैं मिथ्या भर्म भुलानारे ।।टेर ।। तू तो नित्य अनादि अरूपी सिद्ध समानारे । पुद्गल जड़ में राचि भयो तू मूर्ख प्रधानारे ।।१।। तन धन जोबन पुत्र वधू आदिक निज मानारे । यह सब जाय रहन के नांही समझ सयानारे ।।२।। बालपने लड़कन संग जोबन त्रिया जवानारे । वृद्ध भयो सब सुधि गई अब धर्म भुलानारे ।।३ ।। गई गई अब राख रही तू समझ सियानारे । बुद्धमहाचन्द विचारिके निज पद नित्य रमानारे ।।४।।
विभिन्न कवियों के भजन १६. अपना कोई नहीं है रे
(राग ख्याल तमाशा व गजल ) अपना कोई नहीं है रे जगत का झूठा है व्यवहार ।।टेर ।। माता कहै यह पुत्र हमारा, पिता कहै सुत मेरा । भाई कहै यह भुजा हमारी, त्रिया कहै पति मेरा ।।१।। माता न्हाती घर के द्वारे, त्रिया न्हाती खूणै । भाई भतीजा स्वार्थ का सीरी हंस अकेला धूणै ।।२।। ऊँचे महल स्वार्थ दरवाजे, भाँत-भाँत की टाटी। आतम राम अकेलो जासी पड़ी रहेगी माटी ।।३।। घर में तिरया रोवण लागी, जोड़ी बिछड़न लागी। 'चन्द्रकृष्ण' कहै परभव जाता संग चलै नहिं तागी ।।४ ।। १७. चेतन काहे को पछतावता
(राग ख्याल तमाशा व गजल) चेतन काहे को पछतावता, यहाँ कोई नहीं है तेरा ।।टेर ।। हम न किसी के कोई न हमारा, यह जग सारा द्वन्द्व पसारा । पक्षी का सा रैन गुजारा, भोर भये उड़ जावता,
कहीं और जगह कर डेरा ।।१।। इक दिन है तुझ को भी जाना, फिर पीछे उलटा नहिं आना। पड़ा रहै सब माल खजाना, फिर काहे चित्त भ्रमावता,
झूठा घर वार बसेरा ।।२।। जिसको भाई बेटा बताता, वोही तेरी चिता बनाता। खप्पन को भी हर ले जाता बे रहम हो आग लगावता,
शिर फोड़ भस्म कर ढेरा ।।३।। जो रोवै सो लोक दिखैया, या रोवै सुख अपने को भैया। तेरे लिये कछु नाहिं करैया, क्यों न प्रभु गुण गावता,
जासु वेग मिटै भव फेरा ।।४ ।।
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विभिन्न कवियों के भजन
१८२
आध्यात्मिक भजन संग्रह १८. छांड दे अभिमान जियरा छांड दे अभिमान रे
(राग ख्याल तमाशा व गजल) छांड दे अभिमान जियरा छांड दे अभिमानरे ।।टेर ।। कहाँ को तू और कौन तेरे सब ही हैं महमान रे। देख राजा रंक कोऊ थिर नहीं या थानरे ।।१।। जगत देखत तोर चलबो तूभी देखत आनरे । घड़ी पल की खबर नाहीं कहाँ होय विहानरे ।।२।। त्याग क्रोधरु लोभ माया, मोह मदिरा पान रे। राग दोष हि टार अन्तर, दूरकर अज्ञान रे ।।३।। भयो सुर पुर देव कबहू कबहू नरक निदानरे । इक कर्म वश बहु नाच नाचे भइया आप पिछानरे ।।४ ।। १९. नैना क्यों नहिं खोलै
(राग ख्याल तमाशा व गजल) नैना क्यों नहिं खोले, गति गति डोलैरे अज्ञानी।
चेतो क्यों नहिं ज्ञानी, तूतो करता अपनी हानी ।।टेर ।। नरभव पाया, सुथल में जाया, सुकुल में आया। सुना कर जिनवानी, तजदे तू आनाकानी तेरीमति भई बोरानी ।।१।। विषयों से भाग, कषायों को त्याग, शुभ पथ लाग। चली यह जिंदगानी ज्यों अंजुलि झरता पानी,
तू करता है क्यों मनमानी ।।२।। संयम धार काम को मार, अनुभव सार । जग में सब जानी तू बनजा ज्ञानी ध्यानी,
'नानू' उत्तम सीख सयानी ।।३।।
२०. यह मजा हमको मिला पुद्गल की यारी में
(राग बिहाग ) यह मजा हमको मिला पुद्गल की यारी में । केई जन्म मरण किये निगोद ख्बारी में ।। श्वास एक माहिं मरण ठारा बारि मैं, अक्षर के अनन्त भाग सुज्ञान धारी मैं ।।१।। अंगुल असंख भाग माहिं देहधारी मैं। करके निवास चिदानन्द हुआ भिखारी मैं ।।२।। चिद चैन गुण अनन्ते सब कू विसारी मैं ।
गुरु चरण की सहाय हुआ सुगुण धारी मैं ।।३ ।। २१. इस नगरी में किस विधि रहना
(राग सोहनी) इस नगरी में किस विधि रहना,
नित उठ तलब लगाबेरी सहैना ।।टेर ।। एक कुवे पाँचों पणिहारी,
नीर भरै सब न्यारी न्यारी ।।१।। बुर गया कुवा सूख गया पानी,
बिलख रही पाँचों पणिहारी।।२।। बालू की रेत ओसकी टाटी,
__ उड़ गया हंस पड़ी रही माटी ।।३।। सोने का महल रूपे का छाजा,
____ छोड़ चले नगरी का राजा ।।४ ।। 'घासीराम' साँझ का मेला,
उड़ गया हाकिम लुट गया डेरा ।।५।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह २२. अरे मन बनिया वान न छोड़े
(राग सोहनी) अरे मन बनिया बान न छोड़े।।टेर ।। पाँच पाट को जामो पहस्यो ऐंठ्यो ऐंठ्यो ऐंठ्यो डोलै । जन्म जन्म को मारयो कूट्यो तोहु साँच न बोलै ।।१।। घर में थारे कुमति बननिया छिन छिन में चित चौरे । कुटुंब थारो ऐसो हरामी, अमृत में विष घोलै ।।२।। पूरा बाट मांहि सरकावै घटती बाट टटोलै। पासंग में चतुराई राखे पूरा कबहु न तोलै ।।३।। चींथी लिख लिख बही बनाई कूडा लेखा जोडै । कहत बनारस इनसे डरियो कपट गांठि नहिं खोलै ।।४ ।। २३. अरे निज बतियाँ क्यों नहीं जानै
(राग सोहनी) अरे निज बतियाँ क्यों नहीं जानै ।।टेर ।। चेतन रूप अनूप तिहारो, अचल अबाधि अडोलै । जन्म मरण को छेदनहारो, ग्यान अखंड अतोलै ।।१।। कुगुरुन को परसंग पाय के ओलों सोलों डोलै । पर पदार्थ निजरूप मान के मिथ्या करत किलोलै ।।२।। एक समय भी आप लखे तो, पावे रतन अमोलै । मिथ्या दरशन ज्ञान चरण की फेर न मांचत रोलै ।।३।। कर कर मोह शिथिल लखि आतम, स्यादवाद जुत तोले। राम कहै उतपति नाशत है अर थिर थान विरोले ।।४ ।। २४. हो प्यारा चेतन अब तो संभारो ज्ञान गुण धारो रे
(राग परज) हो प्यारा चेतन अब तो संभारो ज्ञान गुण धारो रे ।।टेर ।। या पुद्गल संग बहुत लुभायो, यो नहीं छै तिहारो ।।१।।
विभिन्न कवियों के भजन तू चेतन, ज्ञान गुण रूपी, आपो आप संभारो रे ।।२।। मन, वच, तन, कर माहीं देखो, शुद्ध स्वरूप तिहारो रे ।।३।। २५. हो जागो जी चेतन अबतो सवेरो
(राग परज) हो जागो जी चेतन अबतो सवेरो मोह नींद विसारोजी ।।टेर ।। काल अनन्त बीते अब सोते, अबतो ग्रंथि विदारोजी ।।१।। नर भव पायो, सैनी कहायो, अब गुरु बैन चितारोजी ।।२।। लब्धि देशना मिली भाग्य से, रसपति करण संभारोजी ।।३।। २६. कहाँ चढ़ रहो मान शिखापैं,
(राग कालंगडा) कहाँ चढ़ रहो माने शिखा., जासो सुर चक्री नहीं धापै ।।टेर ।। पुन्य उदय दोय दाम पाय के करतो लापाला । दो अंगुली की लकड़ी लेकर, जंबूद्वीप को नापै ।।१।। रावण से दुरगति में पहुँचे, जासु इन्द्रादिक काँपै । भरत सरीसा मान भंग होय, नवनिधी है घर जाके ।।२।। इस विधि इनका देख तमाशा अब क्यूं नैना ढाँपे ।
वे नर ज्यों उतरे मान शिखर” निश्चय शिवपुर थापैं ।।३ ।। २७. थारो मुख चंद्रमा देखत भ्रम तम भाग्यो
(राग कालंगडा ) थारो मुख चन्द्रमा देखत भ्रम तम भाग्यो, हेजी महाराज ।।टेर ।। पाप ताप मिटि शान्ति भाव होय, चेतन निजरस पाग्यो ।।१।। चित चकोर थिरता अब पाई, आनन्दरस सब लाग्यो ।।२।। नैन छिनक अन्तर नहिं चाहत, शिवमग लालच लाग्यो ।।३।।
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२८. कहाँ परदेशी को पतियारो
( राग कालंगडा )
कहाँ परदेशी को पतियारो ।। टेर ।।
आध्यात्मिक भजन संग्रह
मनमाने तब चले पंथ को, सांझ गिनै न सवारो । सबै कुटुंब छोड़ इतही फुनि, त्याग चले तन धारो ।। १ ।। दूर दिसावर चलत आपही कोऊ न राखन हारो । कोऊ प्रीति करो किन कोटिक, अन्त होयगो न्यारो ।। २ ।। धन सु राचि धर्मसु भूलत मोह मंझारो । इह विधि काल अनंत गमायो, पायो नहीं भव पारो || ३ || साँचे सुखसो विमुख होत है भ्रम मदिरा मतवारो । चेतहु चेत सुनहु रे भैया, आपही आप संभारो ||४ || २९. तनका तनक भरोसा नाहीं
( राग भैरवी )
तनका तनक भरोसा नाहीं किस पर करत गुमाना रे । ।टेर ।। पैंड पैंड पर तक तक मारे, काल की चोट निशाना रे ।। १ ।। देखत देखत विनश जात है, पानी बीच बुदासा रे ।। २ ।। तेरे सिर पर काल खड़ा है जैसे तीर कमाना रे ।। ३ ।। कहत बनारसि सुनि भवि प्राणी यह जियरा योंही जाना रे ॥ ४ ॥ ३०. चेतन भोरों पर तैं उरझ रह्यो रे
( राग भैरवी ) चेतन भोरों पर तैं उरझ रह्यो रे,
छक मद मोह में अयानो भयो डोलै - भोरों पर तैं उरझ रह्योरे । । टेर ।। भव सुख सारे तैने निहारे, थिर ना रहेंगे, प्रगट बिछुरेंगे । तदपि इनही में लिपट रह्योरे ।। १ ।। भ्रम बुद्धिधारी तैने निहारी, अतुल गुणधारी, सुगुन हितकारी, 'थान' इन ही में निवस रह्योरे ।। २ ।।
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विभिन्न कवियों के भजन
३१. आदम जन्म खोया तैं नाहक ( राग भैरवी ) आदम जन्म खोया तैं नाहक खटका रह जायगा । काग उड़ाने को मणि बगा पछतायेगा । । टेर ।। सागर हरदो सहस्त्र में, षोडस जन्म है मानुष के । ताहि तू व्यतीत कर निगोद माहिं जायगा ।। १ ।। आर्य क्षेत्र जन्म पाना, तीन वरण का उपजाना । इन्द्रियावरण क्षयोपसमता यह अवसर न लहायगा ।। २ ।। सुगुरु सीख समझ अब आतम अनुभव करके देख तू । चैन तू शिवथान मांही शीघ्र ही हो जायगा ।। ३ ।। ३२. ऐसी चोसर जो नर खेलै
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( राग भैरवी ) ऐसी चोसर जो नर खेलै सोही चतुर खिलाड़ी ।। र ।।
तीन रतन हिरदा में धारे, च्यार तजो दुखदाई । पंजडी पडी तजो विषयन की, छकडी दया विचारो रे ।। १ ।। पाँच दोय संजम को विचारो, पाँच तीन मद टारो रे । नवधा भक्ति छै तीन संभालो धरम छह-चार विचारो रे ।। २ ।। ग्यारे प्रतिमा को तुम धारो, द्वादसव्रत सिनगारोरे । पोबारा चारित्र संभालो, चोदह गुणस्थानधारोरे || ३ || पंद्रह तो परमाद विडारो सोलाकारण धारोरे । सतरा नेम धरम व्रतपालो, अठारे दोष निवारोरे ।।४ ।। या वानी आनन्द हितकारी, आवागमन निवारोरे । जामन मरण मेटो जगनायक मैं छू शरण तिहारी रे ।। ५ ।।
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विभिन्न कवियों के भजन
आध्यात्मिक भजन संग्रह ३३. चरणन चिन्ह चितारि चित्त में
(राग भैरवी) चरणन चिन्ह चितारि चित्त में वन्दन जिन चोबीस करूँ रे ।।टेर ।। रिषभ, वृषभ गज अजितनाथ के संभव के पद वाज सरूँ। अभिनन्दन कपि, कोक सुमति के पदम पदम प्रभु पायधरूँ।।१।। स्वस्ति सुपारस चन्द चन्द्र के पुष्पदन्त के पद मधरू । सुर तरु शीतल चरण कमल में श्रेयांश गैंडा वन करू ।।२।। भैंसा वास, वराह विमलपद अनन्तनाथ के सेही परूं । धर्मनाथ अंकुश शान्ति हिरन अज कुंथनाथ अरमीन धरूँ।।३।। कलश मल्लि कछ मुनिसुव्रत नमि कमल सतपत्र तरू । नेम शंख फनि पास, वीर हरि, लखि बुधजन आनन्द भरूं ।।४।। २४. चेतनजी तुम जोरत हो धन
(राग भैरवी) चेतनजी तुम जोरत हो धन सो धन चलत नहीं तुम लार ।।टेर ।। जाकू आप जान पोषत हो सो तन जल के द्वैगें छार ।।१।। विषय भोग को सुख मानत हो, ताका फल है दुःख अपार । यह संसार वृक्ष सेमर को मान कह्यो हूँ कहत पुकार ।।२।। ३५. चेतन अखियाँ खोलो ना।
(राग भैरवी) चेतन अखियाँ खोलो ना तेरे पीछे लागे चोर ।।टेर ।। मोहरूपी मद पान कर रे पड़े रहे बेसुद्धि । नैना मींचि सो रहे रे हित की खोई बुद्धि ।।१।। याहि दशा लख तेरी चेतन, लीनो इन्द्रिन घेर । लूटी गठरी ज्ञान की रे, अब क्यों कीनी देर ।।२।।
फाँसी करमन डाल गलेरे नर्कन मांहि दे गेर । पड़े वहाँ दुख भोगने रे कहा करोगे फेर ।।३ ।। जागो चेतन चातुरां तुम दीज्यो निद्रा त्याग । ज्ञान खडग ल्यो हाथ में रे, इन्द्रिय ठग भग जाय ।।४ ।। उत्तम अवसर आ मिल्यो रे छांडो विषयन प्रीति । 'ज्योति' आतम हित करोरे, नहिं जाय अवसर बीति ।।५।। २६. घडी धन आज की येही सरे सब काज
(राग भैरवी) घडी धन आज की येही सरे सब काज मो मन का। गये अघ दूर सब भज के लखा मुख आज जिनवरका ।।टेर ।। विपति नाशी सकल मेरी, भरे भंडार संपति का। सुधा के मेघहु वरषे लखा मुख आज जिनवर का ।।१।। भई परतीति यह मेरे सही हो देव देवन का। टूटी मिथ्यात्व की डोरी, लखा मुख आज जिनवर का ।।२।। विरद ऐसा सुना मैंने जगत के पार करने का। 'नवल' आनन्द हू पायो लखा मुख आदि जिनवरका ।।३।। ३७. मेटो विथा हमारी प्रभूजी
(राग प्रभाती) मेटो विथा हमारी प्रभूजी मेटो विथा हमारी ।।टेर ।। मोह विषमज्वर आन सतायौ देत महा दुःखभारी । यो तो रोग मिटन को नाहीं, औषध बिना तिहारी ।।१।। तुम ही बैद धन्वन्तर कहिये, तुमही मूल पसारी। घट घट की प्रभु आपही जानो क्या जाने वैद्य अनारी ।।२।। तुम हकीम त्रिभुवनपति नायक, पाऊँ टहल तुम्हारी। संकट हरण चरण जिनजी का नैनसुख शर्ण तिहारी ।।३।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह ३८. मैं तो आऊँ तुम दरशनवा
(राग प्रभाती) मैं तो आऊँ तुम दरशनवा, कर्मशत्रु आवै आडो ।।टेर ।। लख चौरासी में भटकावे पकड गहै मोकूँ गाढो । चहूँ दरश तुम दिलसे मैं तो यही मोसे करै राडो ।।१।। नरभव जमा करूँ शुभ क्रिया, लूटत है येही दे के धाडो। जमके दूत सजे यों डोले, ज्यों तोरण आवै लाडो ।।२।। बंध तुडाकर तुमपै आयो, इन शत्रुन को तुम ताडो। शरण गहे को विरद निहारो, शिव द्यो 'रतन' जजै ठाडो ।।३।। ३९. अरे मन पापनसों नित डरिये
(राग आसावरी) अरे मन पापनसों नित डरिये ।।टेर ।। हिंसा झूठ वचन अरु चोरी, परनारी नहीं हरिये । निज परको दुखदायन डायन तृष्णा वेग विसरिये ।।१।। जासों परभव बिगडे वीरा ऐसो काज न करिये । क्यों मधु-बिन्दु विषय के कारण अंधकूप में परिये ।।२।। गुरु उपदेश विमान बैठके यहाँ ते बेग निकरिये । 'नयनानन्द' अचल पद पावे भवसागर सो तिरिये ।।३ ।। ४०. कबै निर्ग्रन्थ स्वरूप धरूँगा
(राग आसावरी) कबै निर्ग्रन्थ स्वरूप धरूँगा, तप करके मुक्ति वरूँगा ।।टेर ।। कब गृहवास आस सब छांडू कब वनमें विचरूँगा। बाह्य अभ्यन्तर त्याग परिग्रह उभय लिंग सुधरूँगा ।।१।। होय एकाकी परम उदासी पंचाचार चरूँगा कब थिर योग करूँ पद्मासन, इन्द्रिय दमन करूँगा ।।२।।
आतमध्यान सजि दिल अपनो, मोह अरी सू लरूँगा। त्याग उपाधि समाधि लगाकर, परिषह सहन करूँगा ।।३।। कब गुणथान श्रेणी पै चढ़के, कर्म कलंक हरूँगा। आनन्दकन्द चिदानन्द साहिब, बिन सुमरे सुमरूँगा ।।४ ।। ऐसी लब्धि जब पाऊँ तब मैं, आपहि आप तरूँगा।
अमोलक सुत हीराचन्द कहत है बहुरि न जग में परूँगा ।।५।। ४१. भजन सम नहीं काज दूजौ
(राग जौनपुरी) भजन सम नहीं काज दूजौ ।।टेक ।। धर्म अंग अनेक यामें एक ही सिरताज । करत जाके, दुरत पातक, जुरत संत समाज ।। भरत पुण्य भण्डार यातें, मिलत सब सुख साज ।।१।। भक्त को यह इष्ट ऐसो ज्यों क्षुधित को नाज । कर्म ईंधन को अगनि सम, भव जलधि को पाज । इन्द्र जाकी करत महिमा, कहो तो कैसी लाज ।।
जगतराम प्रसाद यातें, होत अविचल राज ।।२।। ४२. चेतै छै तो आछी बेल्यां।
(राग सारंग) चेतै छै तो आछी बेल्यां चेतरे ज्ञानीजिया,
मोह अन्धेरी शिवपुर आंतरो ।।टेर ।। या देही को झूठो छै अभिमानरे ज्ञानी जिया,
विनश होवैरे ढेरी राखकी।।१।। तू मत जाने यो मेरो परिवार रे, ज्ञानी जिया,
लैर न आयो नाहीं जावसी ।।२।। लक्ष्मी तो दिन चार रे ज्ञानी जिया,
काज सुधारे क्यों न आपनो ।।३।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
पूरव पुण्य प्रभावरे ज्ञानी जिया, उत्तम श्रावक कुल लियो ॥ ४ ॥
पाये पाये श्री जिनराजरे ज्ञानी जिया, 'जोहरी' चित्त चरणन धरो ॥५ ॥ ४३. दर्शन को उमावो म्हारे लागि रहयो ( राग सारंग ) दर्शन को उमावो म्हारे लागि रह्यो ।। र ।। निशि बासर मेरे ध्यान तिहारो,
चरणन सों चित पाग रह्यो ।। १ ।।
जब तैं मूरति नैना निरखी,
तब तैं पातिक भाग रह्यो || २ ||
जगत राम प्रभु गुण सुमरण तैं,
निज गुण अनुभव जाग रह्यो । ३ ॥ ४४. उजरो पथ है शिव ओरी को (राग सारंग ) उजरो पथ है शिव ओरी को ।। टेर ।।
पंच पाप को त्याग है जामें, संग्रह समता गौरी को ।। १ ।। उन्नति समिति गुप्ति की बढ़ावो, तज असंजम थोरी को ॥ २ ॥ दुलभ मिल्यो तो नहिं पारश ज्यों चिंतामणि जौहरी को || ३ || ४५. होजी मद छक मानीजी, थे समझोआतम ज्ञानीजी (राग सारंग ) होजी मद छकमानीजी, थे समझो आतम ज्ञानीजी,
ज्ञानीजी थे, आछ्योजी नरभव अबके पाइयो । । टेर ।।
लखि चौरासी योनि में जी, (चेतन) थिरता कबहु न पाय । रागद्वेष बैरी लाग्या कोई लीना नाच नचाय ॥ १ ॥
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विभिन्न कवियों के भजन
पाय ।
जीव करम संजोग से जी वरणवरण के जैसे बहुरूप्यावने भिन्न भिन्न स्वांग बनाय ।। २ ।। चहुँ दिशि बाजी खेलताजी बाजी हारचा पाय । अबके दाव भलो लाग्योजी, लीज्योधन अधिकाय ।। ३ ।। आयो मूंठी बाँधके जी जासी हाथ झुलाय । थे पूंजी जो लाईया सो दिन दिन बीती जाय ।। ४ ।। पूरब पुन्य उदय भयोजी, दुरलभ नर भव पाय । जैन धरम पालो सदा, यह अवसर बीता जाय ।। ५ ।। गुरु उपदेश भला दियोजी, सांची श्रद्धा लाय । करम काट निर्भय 'चिमन' कोई निराकार पद पाय ।। ६ ।। ४६. कुमता के संग जाय
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(राग पीलू ) कुता के संग जाय चेतन बरज्यो नहीं मानत मानी । । टेर ।। या कुमता म्हारी जनम की वैरन, मोह लियो जी ज्ञानी रे । याही विषयन संग लिपटानी ॥ १ ॥ चोरासी के दुख भुगताये -तोहू दिल विच आनी रे । है यह दुरगति दुख दानी ॥। २ ।।
पारस सीख सुगुरु की धर कर, तज कुमता दुख दानीरे । याते पावोगे शिवरानी ॥ ३ ॥
४७. प्रभु देख मगन भया मेरा मनुवा (राग पहाडी ) प्रभु देख मगन भया मेरा मनुवा ।। टेर।।
तीनलोक पति आज निहारे नगन दिगंबर जाके तनवा ।। १ ।।
शुभ को उदय होत भयो मेरे अशुभ झरे जैसे सूखे पनवा ।।२ ।। दास भवानी दोऊ कर जोड़े नित गाऊँ तुमरे गुणवा ।। ३ ।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
विभिन्न कवियों के भजन
४८. तौरी सी निधि दे, जिनन्द वा
(राग धनश्री) तौरी सी निधि दे, जिनन्द वा ।।टेर ।। अनन्त ज्ञान सुख वीरज जामें कछु दुःख नाहीं ये ।।१।। अग्नि चौर जलते विनशै नहीं, पर वश कबहुँ न होय ।।२।। 'नयन' देख उर आनन्द उपजे, आकुलता मिट जैहै ।।३ ।। ४९. या ऋतु धनि मुनिराई करत तप
(राग मल्हार सूरदास की) या ऋतु धनि मुनिराई करत तप ।।टेर ।। उमड घुमड घन बरसत अति जहाँ चपला चमक डराई ।।१।। झंझा वायु चलत अति सीरी, तरु टपकत अधिकाई। डंस मशक काटत तन चाटत, सहत परीषह आई ।।२।। तन सुधि बिसरि रहै कछु ऐसी अंतर निजनिधि पाई। जगतराम लख ध्यान साधुको बंदत शीस नमाई ।।३।। ५०. आयु रही अब थोडी कहाँ करै
(राग काफी होरी) आयु रही अब थोड़ी कहा करै मोरी मोरी ।।टेर ।। मात तात परलोक सिधारे, पास रही ना गौरी । सुत मित बाँधव राज संपदा, छिन छिन विनशत सोरी,
फेर नहीं मिलत बहोरी ।।१।। तन पिंजर अब जरजर दीखत, लाल पडे मुख ओरी। रीट गीट कफ मिटते नाहीं, दांत दाढ़ जड छोडी,
सहे दुख दरद घनोरी ।।२।। रोग पिशाच लगे तन भीतर, अग्नि भई मंदोरी। वात पित्त कफ नित घटबढ़ है, यों बहु विपति सहोरी,
कहत नहीं आवै औरी ।।३।।
कर पग कंपत नाड दरद सिर, कमर कूब निकसो री। लकड़ी डिंगत हाथ डोकर के तोभी समझे न घोरी,
याकी मति मोह मरोरी ।।४।। या विधि परख पिछान जोहरी, तनसे ममत तजोरी। आपही आप रमो निज उरमें, आय मिले शिव गौरी।
होय परमानन्द बहोरी ।।५।। ५१. ऐसो नर भव पाय गंवायो,
(राग काफी होरी) ऐसो नर भव पाय गंवायो, हे गंवायो अरे तू. ।।टेर ।। धनकू पाय दान नहिं दीनो, चारित चित नहिं लायो । श्री जिनदेव की सेव न कीनी, मानुष जन्म लजायो,
जगत में आयो न आयो ।।१।। विषय कषाय बढ़ो प्रति दिन दिन, आतम बल सु घटायो । तजि सतसंग भयो तू कुसंगी, मोक्ष कपाट लगायो,
नरक को राज कमायो ।।२।। रजक श्वान सम फिरत निरंकुश, मानत नाहिं मनायो । त्रिभुवनपति होय भयो है भिखारी, यह अचरज मोहि आयो,
कहांते कनक फल खायो ।।३।। कंद मूल मद मांस भखन कू, नित प्रति चित्त लुभायो । श्री जिन बचन सुधा सम तजि कै, नयनानंद पछतायो,
श्री जिन गुण नहीं गायो।।४।। ५२. कैसा ध्यान धरा है जोगी
(राग सिन्दूरिया ) कैसा ध्यान धरा है जोगी ।।टेर ।। नगन रूप दोऊ भुजा झुलाये नाशादृष्टि धरा है जोगी ।।१।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह बाहर तन मलिनसा दीखत अंतरंग उजला है। विषय कषाय त्याग धर धीरज, करमन रंग अडा है ।।२।। क्षुधा तृषादि परीषह विजयी आतम रंग पडा है। 'जगत राम' लख ध्यान साधुको नमूं नमू उचरा है ।।३ ।। ५३. विश्व का कोलाहल कर दूर बनूँ मैं विश्व का कोलाहल कर दूर बनूँ मैं एकाकी एकान्त । चाह हो आत्म का उद्धार बनूँ में शान्त प्रशान्त-सुशान्त ।।१।। जगत सागर में गोते खाय बिगोये मैंने जन्म अनन्त । भावना नहीं हृदय में जगी करूँ कब इन कर्मों का अन्त ।।२।। जगत में बैरी मिले अनेक निभाई अपनी-अपनी टेक । टेक में जीवन दिया बिताय न कीना मैं आत्म विवेक ।।३।। तर्क से खंडन मंडन किया विहंडन किया न पापाचार । चार दिन के जीने के लिये बनाया निज जीवन ही भार ।।४।। भार जब असहनीय हो गया जरापन की जब आई बाढ़। बाढ़ ने बना दिया कंकाल काल, बैठा अब आसन मांढ ।।५।। आत्म अब भी है समय विचार छोड़ सब जग के दुर्व्यवहार । बना निज जीवन शान्ताकार चन्द्र जिससे हो बेडापार ।।६ ।। ५४. झूठे झगड़े के झूले पर
झूठे झगड़े के झूले पर झोटे खा रहा है यार ।।टेक ।। माता बहिना चाची ताई और सकल परिवार । स्वार्थ के साथी हैं तेरे कोई नहीं गम ख्वार ।।१।। लगा लिया दिल से किस किस की उल्फत का आजार । कोई नहीं सहायक होगा तेरा आखिरकार ।।२।। खाम ख्याली छोड़ बावले जाली है संसार । ऐसा मौका फिर न मिलेगा अपना जन्म सुधार ।।३ ।। अब भी सोच समझ मत मूर्ख जीती बाजी हार । रूपराम जायेगा इक दिन खाली हाथ पसार ।।४।।
विभिन्न कवियों के भजन ५५. चेतन की सत्ता में दुख का क्या काम है चेतन की सत्ता में दुख का क्या काम है। परिपूर्ण ज्ञान घन आनन्द धाम है।।१।। मोह राग द्वेष सब पुद्गल परिणाम हैं। ज्ञान दर्श सुख वीर्य चेतन निधान हैं ।।२।। निजको भूल जग में हुआ हैरान है। सम्यक्त्व ग्रहण किये मिले मुक्ति थान है।।३।। ५६. चेतन निधी अपनी है, ज्ञायक निधी अपनी है
चेतन निधी अपनी है, ज्ञायक निधी अपनी है।।टेक।। इसे भूल महा दुख पाये, कर जन्म मरण भरमाये ।
यह भव दुःख हरनी है ।।१।। अब चेत मूढ़ अज्ञानी, परपरणति तज दुःख दानी । भज समता बोधि सुखदानी जो तू चिर बिसरी है ।।२।। ५७. फँसेगा जो दुनिया में वह ख्वार होगा
फँसेगा जो दुनिया में वह ख्वार होगा। रहेगा जुदा जो समझदार होगा ।।टेक ।। समझ देख दुनिया यह है धर्मशाला। यहाँ ठहरना सिर्फ दिन चार होगा ।।१।। नहीं साथ जायेगी दुनिया की दौलत । यहीँ छोड़ जाना यह घरबार होगा ।।२।। तू जिसके लिये रात दिन पाप करता। नहीं साथ तेरे ये परिवार होगा ।।३।। है चलना जरूरी तू सामान कर ले। सफर परलोक का फिर दुश्वार होगा ।।४।। धर्म ही तेरे काम आवेगा शिवराम । नहीं और कोई मददगार होगा ।।५।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह ५८. दुनिया में देखो सैकड़ों आये चले गये दुनिया में देखो सैंकड़ों आये चले गये। सब अपनी करामात दिखाये चले गये ।।टेक।। अर्जुन रहा न भीम न रावण महाबली। इस काल बली से सभी हारे चले गये ।।१।। क्या निर्धनी धनवंत और मूर्ख व गुनवंत । सब अन्त समय हाथ पसारे चले गये ।।२।। सब जंत्र मंत्र रह गये कोई बचा नहीं। इक वह बचे जो कर्म को मारे चले गये ।।३।। सम्यक्त्व धार न्यामत यों दिल में समझ ले। पछतावोगे जो प्राण तुम्हारे चले गये ।।४ ।। ५९. तू क्या उम्र की शाख पर सो रहा है
तू क्या उम्र की शाख पर सो रहा है। खबर भी है तुझको कि क्या हो रहा है।।१।। कतरते हैं चूहे इसे रात दिन दो। कि जिस पर भी तू बेखबर सो रहा है।।२।। न्यामत यह टहनी गिरा चाहती है।
विषय बूंद पर अपनी जां खो रहा है ।।३।। ६०. जब हंस तेरे तनका कहीं उड़के जायेगा
जब हंस तेरे तनका कहीं उड़के जायेगा। अय दिल बता तू किससे नाता रखायगा ।। यह भाई बन्धु जो तुझे करते हैं आज प्यार । जब आन बने कोई नहीं काम आयगा ।। यह याद रख कि सब हैं तेरे जीते जीके यार । आखिर तु अकेला ही मरण दुख उठायगा ।।
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सब मिलके जलादेंगे तुझे जाके आगमें । एक छिनकी छिनमें तेरा पता भी न पायगा ।। कर घात आठ कर्मों का निज शत्रु जानकर । बे नाश किये इनके तू मुक्ती न पायगा ।। अवसर यही है जो तुझे करना है आज कर । फिर क्या करेगा काल जो मुँह बाके आयगा ।। अय न्यामत उठ चेत क्यों मिथ्यातमें पड़ा।
जिन धर्म तेरे हाथ यह मुश्किल से आयगा ।। ६१. कर सकल विभाव अभाव मिटादो बिकलपता मन की कर सकल विभाव अभाव मिटादो बिकलपता मन की ।।टेर ।।
आप लखे आपेमें आपा गत व्योहारन की। तर्क-वितर्क तजो इसकी और भेद विज्ञानन की।। यह परमातम यह मम आतम, बात विभावन की। हरो हरो बुध नय प्रमाण की और निक्षेपन की ।। ज्ञान चरण की बिकलप छोड़ो छोड़ो दर्शन की।
न्यामत पुद्गल हो पुद्गल चेतन शक्ति चेतन की ।। ६२. अनारी जिया तुझको वह भी खबर है
अनारी जिया तुझको यह भी खबर है। किधर तुझको जाना कहाँ तेरा घर है।। मुसाफिर है दो चार दिन का यहाँ पे । न यह तेरा दर है न यह तेरा घर है ।। कहो कौन से राह जाना है तुझको । तेरे साथ में भी कोई राहबर है।। है अफसोस न्यामत तू गाफिल है इतना । न यहाँ की खबर है न वहाँ की खबर है।।
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६३. तुम्हारा चंद मुख निरखे सुपद रुचि मुझको आई है तुम्हारा चंद मुख निरखे सुपद रुचि मुझको आई है। ज्ञान चमका परापर की मुझे पहिचान आई है ।। कला बढ़ती है दिन दिन काम की रजनी बिलाई है। अमृत आनंद शासन ने शोक तृष्णा बुझाई है ।। जो इष्टानिष्ट में मेरी कल्पना थी नशाई है। मैंने निज साध्य को साधा उपाधी सब मिटाई है ।। धन्य दिन आज का न्यामत छबी जिन देख पाई है। सुधर गई आज सब बिगड़ी अचल ऋधि हाथ आई है ।। ६४. अरे यह क्या किया नादान तेरी क्या समझपे पड़.. अरे यह क्या किया नादान तेरी क्या समझपे पड़ गई धूल ।। र ।। आम हेत तैं बाग लगायो बो दिये पेड़ बम्बूल । फल चाखेगा क्या रोवेगा रहा है मन में फूल ।। हाथ सुमरनी बाँह कतरनी निज पद को गया भूल । मिथ्या दर्शन ज्ञान लिया रहा समकित से प्रतिकूल ।। कंचन भाजन कीच उठाया भरी रजाई शूल । न्यामत सौदा ऐसा किया जामें ब्याज रहा नाहीं मूल ।। ६५. परदेशिया में कौन चलेगा तेरे लार परदेशिया में कौन चलेगा तेरे लार ।। टेक ।।
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चलेगी मेरी माता चलेगी मेरी नार । नहीं नहीं रे चेतन जावेंगी दर तक लार । । परदे ।। चलेगा मेरा भाई चलेगा मेरा यार । नहीं नहीं रे चेतन फूँकेंगे अग्नि मँझार । । परदे . ।।
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चलेगी मेरी माता की जाई मेरी लार । नहीं नहीं रे चेतन झूठा है सारा व्यवहार । । परदे. ।। चलेगा मेरा बेटा पिता परिवार।
नहीं नहीं रे चेतन मतलब का सारा संसार ।। परदे . ।। चलेगी मेरी फौज चलेगा दरबार ।
नहीं नहीं रे चेतन जीते जी की है सरकार ।। परदे ।। चलेगा मेरा माल खजाना घरबार । नहीं नहीं रे चेतन पड़ा रहेगा सब कार ।। परदे . ।। चलेगी मेरी काया चलेगा मनसार ।
नहीं नहीं रे न्यामत छोड़ेंगे तोहें मंझधार ।। परदे . ।। ६६. हाय इन भोगों ने क्या रंग दिखाया मुझको हाय इन भोगों ने क्या रंग दिखाया मुझको । बेखबर जगत के धन्दों में फंसाया मुझको ।। मैं तो चेतन हूँ निराकार सभी से न्यारा । दुष्ट भोगों ही ने कर्मों से बँधाया मुझको ।। नींद गफलत से मेरी आँख कभी भी न खुली । भोग इन्द्री और विषयों ने भुलाया मुझको ।। ज्ञान धन मेरा हरा रूप दिखाकर अपना । योनि चौरासी में भटका के रुलाया मुझको ।। अब न सेऊँगा कभी भूल के इन विषयों को । न्यायमत जैन धरम अब तो है पाया मुझको ।।
६७. बिना सम्यक्त के चेतन जनम बिरथा गँवाता है
बिना सम्यक्त के चेतन जनम बिरथा गँवाता है। तुझे समझाएँ क्या मूरख नहीं तू दिल में लाता है ।।
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अथिर है जगत की सम्पत समझले दिल में अब नादां । राव और रंक होने का यूँही अफसोस खाता है ।। ऐशो इशरत में दुख होवे कहीं दुख में महा सुख हो । क्यों अपने में समझता है यह सब पुद्गल का नाता है ।। विनाशी सब तूं अविनाशी इन्हों पे क्या लुभाना है। निराला भेष है तेरा तू क्यों परमें फँसाता है । पिता सुत बन्धु और भाई सहेली संग की नारी । स्वारथ की सभी यारी भरोसा क्या रखाता है ।। अनादि भूल है तेरी स्वरूप अपना नहीं जाना । पड़ा है मोहका परदा नजर तुझको न आता है ।। है दर्शन ज्ञान गुण तेरा इसे भूला है क्यों मूरख । अरे अब तो समझले तू चला संसार जाता है ।। चेतन सबसे न्यारा है भूल से देह धारा है । तू तू है जड़ में न जड़ तुझमें तू क्यों धोखे में आता है ।। जगत में तूने चित लाया कि इन्द्री भोग मन भाया । कभी दिल में नहीं आया तेरा क्या जग से नाता है ।। तेरे में और परमातम में कुछ नहीं भेद अय चेतन । रतन आतम को मूरख कांच बदले क्यों बिकाता है ।। मोह के फंद में फंसकर क्यों अपनी न्यामत खोई । कर्म जंजीर को काटो इसी से मोक्ष पाता है ।। ६८. आपमें जबतक कि कोई आपको पाता नहीं आपमें जबतक कि कोई आपको पाता नहीं । मोक्ष के मंदिर तलक हरगिज कदम जाता नहीं ।।
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विभिन्न कवियों के भजन
वेद या कुरान या पुराण सब पढ़ लीजिये । आपको जाने बिना मुक्ती कभी पाता नहीं ।। भाव करुणा कीजिये यह ही धरम का मूल है। जो सतावे और को सुख वह कभी पाता नहीं ।। हिरन खुशबू के लिये दौड़ा फिरे जंगल के बीच । अपनी नाभि में बसे इसको देख पाता नहीं ।। ज्ञानपे न्यामत तेरे है मोह का परदा पड़ा । इसलिये निज आत्मा तुझको नजर आता नहीं ।।
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६९. विषय भोग में तूने अय जिया कैसे जीको अपने लगा.. विषय भोग में तूने अय जिया कैसे जीको अपने लगा दिया। तेरा ज्ञान सूर्य समान था कैसे बादलों में छुपा दिया ।। तू तो सच्चिदानन्द रूप है तेरा ब्रह्मरूप सरूप है । जड़रूप भोग विलास में तूने अपने को भुला दिया ।। यह भोग शत्रु समान हैं छल कपट में परधान है। तेरे यार बनके तू देखले तुझे चारों गति में रूला दिया ।। कुमता ने अय न्यामत तुझे जगजाल में है फँसा दिया । दामन सुमत सी नारका तेरे कर से इसने छुड़ा दिया ।। ७०. जैसा जो करता है भरता है यहीं देख लिया
जैसा जो करता है भरता है यहीं देख लिया । करम का टाला नहीं टलता है फल देख लिया || बद से बद, नेक से नेकी का समर मिलता है। आज जो जैसा किया वैसा ही कल देख लिया ।। हरके सीता को जो रावण ने कुमत ठानी थी । आप मारा ही गया हरने का फल देख लिया ।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
न्यायमत जो कोई कलपाता है जिया औरों का । याद रक्खो वह भी कल पायेगा कल देख लिया ।। ७१. अय महावीर जमाने में हितंकर तू है
अय महावीर जमाने में हितंकर तू है । सारे दुखियों के लिये एक दयाकर तू है । तू ही है निर्भय करन और तरन तारन भी । तू है निर्दोष सिदाकत का भी रहबर तू है । बेखकन तू है पहाड़ों का करम का बेशक । विश्व लोचन है तू ही ज्ञान का सागर तू है । पाक बाणी है तेरी रमजे सिदाकत से भरी । नय व प्रमाण की तकमील का दफ्तर तू है ।। तुझको नफरत है न रगबत है किसी से हरगिज । सब चराचर को समझता जो बराबर तू है । तू ने पैगाम अहिंसा का सुनाया सबको । बस जमाने में हितोपदेशी सरासर तू है । तू ने गुमराहों का रुख फेरा हकीकत की तरफ | हाँ हकीकत में हकीकत का समन्दर तू है ।। तू निजानन्द में है लीन सरापा स्वामी । मोक्ष की राह का पुर नूर दिवाकर तू है । दिल से न्यामत के जहालत की हो जुलमत काफूर । ज्ञान दर्शन का जहाँ में माहे अनवर तू है । ७२. प्रभो वीतरागी हितंकर तू ही है।
प्रभो वीतरागी हितंकर तू ही है । तू ही कृपासिंधु दयाकर तू ही है । चराचर का हामी तू है सबका स्वामी । परोपकारता का समन्दर तू ही है ।।
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विभिन्न कवियों के भजन
अहिंसा का पेगाम तू ने सुनाया । बिला शक जगत का जिनेश्वर तू ही है ।। न रागी न द्वेषी तुझे सब बराबर । हितेषी जहाँ में सरासर तू ही है । तू है सच्चिदानंद कल्याणरूपी । अवश्य सदगुणों का हाँ सागर तू ही है ।। अपूरब दयामय है वाणी तुम्हारी । मुक्ति जाने वालों का रहबर तू ही है ।। अंधेरा जहालत का तुमने मिटाया । सिदाकत का बेशक दिवाकर तू ही है । धरम का धुरंधर है शिवमग का नेता । तू ही सार है सबसे बेहतर तू ही है ।। लगा दीजे न्यामत को रस्ते पे स्वामी । शरण में हूँ तेरी कि बरतर तू ही है ।।
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७३. धर्म बिन बावरे तू ने मानव रतन गँवाया धर्म बिन बावरे तू ने मानव रतन गंवाया । । टेक ।।
कभी न कीना आत्म निरीक्षण, कभी न निज गुण गाया । पर परिणति से प्रीति बढ़ाकर काल अनन्त बढ़ाया ।। १ ।। यह संसार पुण्य-पापों का पुण्य देख ललचाया । दो हजार सागर के पीछे काम नहीं यह आया ।। २ ।। यह संसार भव समुद्र है वन विषयों हरषाया । ज्ञानी जन तो पार उतर गये मूरख रुदन मचाया || ३ || यह संसार ज्ञेय द्रव्य है आतम ज्ञायक गाया ।
कर्त्ता बुद्धि छोड़ दे चेतन नहीं तो फिर पछताया ।।४ ।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
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अपनाया । समझाया ।। ५ ।।
यह संसार दृष्टि की माया अपना कर केवल दृष्टि सम्यक् कर ले कहान गुरु ७४. कुन्दकुन्द आचार्य कह गये जो निज आतम ध्यायेगा कुन्दकुन्द आचार्य कह गये, जो निज आतम ध्यायेगा ।
पर से ममता छोड़ेगा तो निश्चय भव से तिर जायेगा ।। १ ।। क्रिया काण्ड में धर्म नहीं है, पर से धर्म नहीं होगा । निज स्वभाव में रमें बिना नहीं कुछ भी धर्म नहीं होगा ।। शुद्ध अखण्ड चिदानन्द ज्ञायक, धर्म वस्तु में पावेगा ।। २ ।। निज स्वभाव के साधन से ही, सिद्ध प्रभु बन जावेगा । राग भाव शुभ अशुभ सभी से जग में गोते खावेगा ।। मुक्ति चाहने वाला तो निज में निज गुण प्रकटावेगा ।। ३ ।। जीव मात्र ऐसा चाहते हैं दुःख मिट जावे सुख आवे । करते रहते हैं उपाय जो अपने अपने मन भावे ।। राग-द्वेष पर भाव तजेगा वो सच्चा सुख पावेगा ||४ || पर-पदार्थ नहीं खोटा चोखा, नहीं सुख दुःख देनेवाला । इष्ट अनिष्ट मान्यता से अज्ञानी भटके मतवाला ।। भेदज्ञान निज पर विवेक से शुद्ध चिदानन्द पावेगा ।। ५ ।। ७५. सीमंधर मुख से फुलवा विरे सीमंधर मुख से फुलवा खिरे,
की कुन्दकुन्द गूंथे माल रे, जिनजी की वाणी भली रे ।। १ ।। वाणी प्रभु मने लागे भली,
जिसमें सार समय शिर ताजरे, जिनजी की वाणी भली रे ।। २ ।।
गूँथा पाहुड़ अरु गूँथा पंचास्ति,
गूँथा जो प्रवचनसार रे, जिनजी की वाणी भली रे ।। ३ ।।
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विभिन्न कवियों के भजन
गूँथा नियमसार, गूँथा रयणसार,
गूँथा समय का सार रे, जिनजी की वाणी भली रे ॥४ ॥ स्याद्वाद रूपी सुगंधी भरा जो,
जिनजी का ओंकार नाद रे, जिनजी की वाणी भली रे ।। ५ ।। बन्दू जिनेश्वर बन्दू मैं कुन्द कुन्द,
बन्दू यह ओंकार नाद रे, जिनजी की वाणी भली रे ।। ६ ।। हृदय रहो मेरे भावो रहो,
मेरे ध्यान रहो जिनवाण रे, जिनजी की वाणी भली रे ।।७ ॥ जिनेश्वरदेव की वाणी की गूँज,
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मेरे गूँजती रहो दिन रात रे, जिनजी की वाणी भली रे ॥८ ॥ ७६. परम पूज्य भगवान आतमा है अनन्त गुणसे परिपूर्ण परम पूज्य भगवान आतमा है अनन्त गुण से परिपूर्ण । अन्तर मुखाकार होते ही हो जाते सब कर्म विचूर्ण ||१ || सहजानन्दी चिन्मय चेतन है स्वभाव से नहीं विपन्न ।
शुद्ध सहज चैतन्य विलासी निज वैभव से अति सम्पन्न ।। भेदज्ञान निधी को पाते ही निमिष मात्र में भव्यासन । राग-द्वेष आलाप जाल में जन्म जरा मय मरणासन्न ।। पर्यायों पर दृष्टि तभी तक रहता है वह सदा अपूर्ण ।।२ ।। सम्यग्दर्शन हो जाते ही सम्यग्ज्ञान हृदय होता । सम्यक् चारित्र की तरनी पा कभी नहीं खाता गोता ।। जागृत रहता है स्वभाव में किन्तु विभावों में सोता । मोह राग रुष की कालुषता शुक्ल ध्यान द्वारा धोता ।। प्रगट अनन्त चतुष्टय होता दर्शज्ञान सुख बल आपूर्ण ।। ३ ।। जब तक पर भावों की छलना तब तक तो दुःख ही दुख है। है ।
ग्यारह अंग पूर्व नो पाठी तक को नहीं लेश सुख
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आध्यात्मिक भजन संग्रह आत्मभान बिन जग में भ्रमता हुवा नहीं अंतर्मुख है। व्रत तप संयम सभी व्यर्थ हैं, रहता सदा बहिर्मुख है ।। द्रव्य दृष्टि होते ही होता दुर्निवार भव पर्वत चूर्ण ।।४ ।। ज्ञानांकुर उगते ही निजकी महिमा आती अन्तर में। धूल धूसरित हो जाती है भव की माया पल भर में ।। मुक्ति लक्ष्मी का आमंत्रण अलख जगाता निज घर में । शुद्ध अतीन्द्रिय निजानन्द लहराता है निज सागर में ।। शाश्वत चिदानन्द घन चेतन अनुभव रस पीता है पूर्ण ।।५।। ७७. अरे चेतन समझत नाही, कोलग कहूँ समझाय
अरे चेतन समझत नाहीं, कोलग कहूँ समझाय ।।टेक ।। परकी को अपनी कर मानी; अपनी खबर न पाय। या कारण नित जग में भटके जन्म मरण दुःख पाय ।।१।। अरे. चेतन... जब चेतन निज रूप सम्हाले फिर नहीं पर संग जाय।
आप आपमें रमत जोहरी परमानन्द लहाय ।।२।। अरे. चेतन... ७८. दरबार तुम्हारा मनहर है, प्रभु दर्शन कर हरषाये हैं दरबार तुम्हारा मनहर है, प्रभु दर्शन कर हरषाये हैं।
दरबार तुम्हारे आये हैं । ।टेक ।। भक्ति करेंगे चित्त से तुम्हारी, तृप्ति भी होगी चाह हमारी। भाव रहे नित उत्तम ऐसे घट के पट में लाये हैं ।।१।। जिसने चिंतन किया तुम्हारा, मिला उसे संतोष सहारा । शरणे जो भी आये हैं, निज आतम को लख पाये हैं ।।२।। विनय यह ही प्रभु हमारी, आतम की महके फुलवारी। अनुगामी हो तुम पद पावन, बुद्धि चरण शिर नाये हैं ।।३।।
विभिन्न कवियों के भजन ७९. हे वीर प्रभूजी हम पर हे वीर प्रभूजी हम पर, अनुपम उपकार तुम्हारा । तुमने दिखलाया हमको, शुद्धातम तत्त्व हमारा ।। हम भूले निज वैभव को, जड़-वैभव अपना माना। अब मोह हुआ क्षय मेरा, सुनकर उपदेश तुम्हारा ।। तू जाग रे चेतन प्राणी, कर आतम की अगवानी। जो आतम को लखते हैं उनकी है अमर कहानी ।।टेक ।। है ज्ञान मात्र निज ज्ञायक, जिसमें है ज्ञेय झलकते । यह झलकन भी ज्ञायक है, इसमें नहीं ज्ञेय महकते ।। मैं दर्शन ज्ञान स्वरूपी, मेरी चैतन्य निशानी ।।१।। अब समकित सावन आया, चिन्मय आनन्द बरसता । भीगा है कण कण मेरा, हो गई अखण्ड सरसता ।। समकित की मधु चितवन में, झलकी है मुक्ति निशानी ।।२।। ये शाश्वत भव्य जिनालय, है शान्ति बरसती इनमें । मानो आया सिद्धालय, मेरी बस्ती हो उसमें ।। मैं हूँ शिवपुर का वासी, भव भव की खतम कहानी ।।३।। ८०. जीव तूं समझ ले आतम पहला
जीव तूं समझ ले आतम पहला, कोई मरण समय, नहीं तेरा ।।टेक।। कहाँ से आया कहाँ है जाना, कौन स्वरूप है तेरा? क्या करना था, क्या कर डाला, क्या ये कुटुम्ब कबीला।।१।। आये अकेला जाये अकेला, कोई न संगी तेरा। नंगा आया नंगा जाना, फिर क्या है ये झमेला ।।२।। रेल में आता जाता मानव विघट जात ज्यूं मेला। स्वार्थी भये सब बिछुड़ जायेंगे, अपनी अपनी बेला ।।३।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
पापाचार किया धन संग्रह, भोगत सब घर भेला । पाप के भागी, कोई नहीं है, भोगत दुःख अकेला ।।४ ।। तन धन यौवन विनस जात ज्यू, इन्द्र जाल का खेला । करना हो सो करले आगे, आयु अन्त की बेला ।।५ ।। सम्यक् से कर दूर रागादि रह जा समय अकेला । 'चुन्नी' मिटे अरिहन्त शरण से, जनम मरण का फेरा ।। ६ ।। ८१. क्यों चढ़ रह्यो मान सिखापै
क्यों चढ़ रह्यो मान सिखापै जासो सुरचक्री नहीं धापै ।
क्यों चढ़ रह्यो मान सिखापै ॥ टेक ॥।
पुण्य उदय दोय धाम कर-कर रह्यो लांपालोपै । दो अंगुली की लकड़ी लेकर, जम्बुद्वीप को नापै ।। क्यों चढ़ रह्यो मान सिखापै ।। १ ।।
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रावण सरिसा दुरगति पहुँचा, इन्द्रादिक जासो कांपै । भरत सरिसा का मानखण्ड होय, नवनिधि छी घर जाकै।।
क्यों चढ़ रह्यो मान सिखापै ।। १ ।।
इन विषयन का देख तमासा, अब क्यों नैना ढांकै । 'बैणी' जी मान पहाड़ से उतरया निजपुर में वह थांपै ।। क्यों चढ़ रह्यो मान सिखापै ॥ १ ॥
८२. ऐसे मुनिवर देखें वन में
ऐसे मुनिवर देखें वन में, जाके राग दोष नहिं मन में ।। टेक ॥। ग्रीष्म ऋतु शिखर के ऊपर मगन रहे ध्यानन में ।। १ ।। चातुर्मास तरू तल ठाड़े बून्द सहे छिन २ में ।। २ ।। शीत मास दरिया के किनारे, धीरज धारे तन में ।। ३ ।। ऐसे गुरू को नितप्रति सेऊं देत ढोक चरणन में || ४ ||
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विभिन्न कवियों के भजन
८३. दरबार तुम्हारे आये हैं
दरबार तुम्हारे आये हैं, दरबार तुम्हारा मनहर है।
हम दर्शन कर हर्षाये हैं । । दरबार ||
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भक्ति करेंगे चित्त से तुम्हारी, तृप्ति भी होगी चाह हमारी।
भाव रहे नित उत्तम ऐसे, घट के पट में लाये हैं। । दरबार. ।। १ ।। जिसने चिन्तन किया तुम्हारा, मिला उसे सन्तोष सहारा ।
शरने जो भी आये हैं, निज आतम को लख पाये हैं । । दरबार. ।। २ ।। विनय यही है प्रभु हमारी, आतम की महके फुलवारी । अनुगामी हो तुम पद पावन, 'वृद्धि' चरण शिरनाये हैं। दरबार || ३ || ८४. मनहर तेरी मूरतियाँ, मस्त हुआ मन मेरा मनहर तेरी मूरतियाँ, मस्त हुआ मन मेरा ।
तेरा दर्श पाया, पाया, तेरा दर्श पाया ।। प्यारा प्यारा सिंहासन अति भा रहा, भा रहा ।
उस पर रूप अनूप तिहारा छा रहा, छा रहा ।। पद्मासन अति सोहे रे, नयना उमगे हैं मेरे । चित्त ललचाया पाया ।। तेरा दर्शन पाया ।। १ ।।
तव भक्ति से भव के दुख मिट जाते हैं, जाते हैं । पापी तक भी भव सागर तिर जाते हैं, जाते हैं ।। शिव पद वहीं पाये रे, शरणाऽगत में तेरी ।। जो जीव आया, पाया। । तेरा दर्श पाया. ।। २ ।। सांच कहूं खोई निधि मुझको मिल गई मिल गई । जिसको पाकर मन की कलियाँ खिल गई, खिल गई ।। आशा पूरी होगी रे, आश लगा के वृद्धि, तेरे द्वार आया, पाया ।। तेरा दर्श पाया. ॥ ३ ॥
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
विभिन्न कवियों के भजन
८५. प्रभू हम सबका एक प्रभू हम सबका एक, तू ही है तारणहारा रे। तुमको भूला फिरा वो ही नर, मारा मारा रे ।। बड़ा पुण्य अवसर यह आया, आज प्रभूजी का दरशन पाया। फूला मन यह हुआ सफल मेरा जीवन सारा रे ।।१।। भक्ति में जब चित्त लगाया, कुमति ने मनको बहकाया। काम क्रोध मद लोभ इन्होंने घेरा डारा रे ।। २ ।। अब तो मेरी ओर निहारो, भव समुद्र से नाथ उबारो।
"पंकज' का लो हाथ पकड़ है दूर किनारा रे ।।३ ।। ८६. आनंद मंगल आज हमारे
(भैरवी) आनंद मंगल आज हमारे
आनंद मंगल आजजी ।।टेक।। श्रीजिन चरणकमल परसत ही
विघन गये सब भाजजी ।।१।। सफल भई जब मेरी कामना
सम्यक् हिये विराजजी ।।२।। नैन वचन मन शुद्ध करन को
भेटें श्री जिन राजजी ।।३।। ८७. नैना मोरे दर्शन कू उमगे
(सोरठ) नैना मोरे दर्शन कू उमगे ।।टेक।। परम शांति रस भीनी मूरत हिय मैं हर्ष जगे ।।१।। नमन करत ही अतिसुख उपजै सब दुःख जात भगे ।।२।। नवल पुन्य तैं जोग मिल्यो है चरणन आन लगे ।।३।।
८८. जिया तेरी कौन कुबाण परी रे जिया तेरी कौन कुबाण परी रे सीख मानत नाही खरी रे ।।टेक ।। मोह महामद पी अनादि को परको कहै अपनी रे । सो तेरी कबहुत नाहि है शठ किन तेरी बुद्धि हरीरे ।। परसुभाव अपनी परणति सा होय न एक घड़ी रे । तू चेतन पुद्गल जड़रूपी किन बिध मेल बनी रे ।। अबहुँ समझ गयो न गयो कछुतो निज काज सरी रे । निज परगुण को परख जौहरी जोवे शिव बनड़ी रे ।। ८९. कबै निरग्रंथ स्वरूप धरूंगा कबै निरग्रंथ स्वरूप धरूँगा, तप करके मुक्ति वरूँगा।।टेक ।। कब गृह वास आस सब छार्दू कब वन में विचरूँगा। बाह्याभ्यंतर त्याग परिग्रह, उभय लोक विचरूँगा ।।१।। होय एकाकी परम उदासी, पंचाचार धरूँगा। कब स्थिर योग धरू पदमासन, इन्द्रिय दमन करूँगा ।।२।। आतम ध्यान साजि दिल अपने, मोह अरि से लडूंगा। त्याग उपाधि लगाकर परिषह सहन करूँगा ।।३ ।। कब गुण स्थान श्रेणी पर चढ़ के करम कलंक हरूँगा। आनन्दकंद चिदानन्द साहब, बिन तुमरे सुमरूँगा ।।४ ।। ऐसी लब्धि जबे मैं पाऊँ, आपमें आप तिरूँगा।
अमोलकचन्द सुत हीराचन्द' कहै यह बहुरि जग में ना भ्रमूंगा ।।५।। ९०. धन्य धन्य वीतराग वाणी....
धन्य धन्य वीतराग वाणी, अमर तेरी जग में कहानी चिदानन्द की राजधानी, अमर तेरी जग में कहानी ।।टेक ।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह उत्पाद व्यय और धोव्य स्वरूप, वस्तु बखानी सर्वज्ञ भूप। स्याद्वाद तेरी निशानी, अमर तेरी जग में कहानी ।।१।। नित्य अनित्य अरू एक अनेक, वस्तु कथंचित भेद अभेद । अनेकान्त रूपा बखानी, अमर तेरी जग में कहानी ।।२।। भाव शुभाशुभ बंध स्वरूप, शुद्ध चिदानन्दमय मुक्ति रूप। मारग दिखाती है वाणी, अमर तेरी जग में कहानी ।।३।। चिदानन्द चैतन्य आनन्दधाम, ज्ञान स्वभावी निजातम राम ।
स्वाश्रय से मुक्ति बखानी, अमर तेरी जग में कहानी ।।४ ।। ९१. चेतो चेतन निज में आवो...
चेतो चेतन निज में आवो, अन्तर आत्मा बुला रही है।।टेक ।। जग में अपना कोई नहीं है.. तू तो ज्ञाननन्दमयी है। एक बार अपने में आजा, अपनी खबर क्यों भुलादई है।।१।। तन धन जन ये कुछ नहीं तेरे, मोह में पड़कर कहता है मेरे। जिनवाणी को उर में धर ले, समता में तुझे सुला रही है।।२।। निश्चय से तू सिद्ध प्रभु सम, कर्मोदय से धारे हैं तन । स्याद्वाद के इस झूले में, माँ जिनवाणी झुला रही है।।३ ।। मोह राग और द्वेष को छोड़ो, निज स्वभाव से नाता जोड़ो। ब्रह्मानन्द जल्दी तुम चेतो, मृत्यु पंखा झुला रही है ।।४।। ज्ञायक हो ज्ञायक हो बस तुम.. ज्ञाता दृष्टा बनकर जीवो।
जागो जागो अब तो चेतन, माँ जिनवाणी जगा रही है।।५।। ८२. शान्ति सुधा बरसाए जिनवाणी
शांति सुधा बरसाए जिनवाणी। वस्तु स्वरूप बताए जिनवाणी ।।टेक।। पूर्वापर सब दोष रहित है, वीतराग मय धर्म सहित है।
परमागम कहलाए जिनवाणी ।।१।।
विभिन्न कवियों के भजन मुक्ति वधू के मुख का दरपण, जीवन अपना कर दें अरपण ।
भव समुद्र से तारे जिनवाणी ।।२।। रागद्वेष अंगारों द्वारा, महाक्लेश पाता जग सारा ।
सजल मेघ बरसाए जिनवाणी ।।३।। सात तत्त्व का ज्ञान करावे, अचल विमल निज पद दरसावे।
सुख सागर लहराए जिनवाणी ।।४ ।। ९३. जिनवाणी अमृत रसाल .... जिनवाणी अमृत रसाल, रसिया आवो जी सुणवा ।।टेक ।। छह द्रव्यों का ज्ञान करावे, नव तत्त्वों का रहस्य बतावे। आतम तत्त्व है महान रसिया आवोजी ।।१।। विषय कषाय का नाश करावे, निज आतम से प्रीति बढ़ावे। मिथ्यात्व का होवे नाश रसिया आवोजी ।।२।। अनेकान्तमय धर्म बतावे, स्यावाद शैली कथन में आवे। भवसागर से होवे पार रसिया आवोजी ।।३।। जो जिनवाणी सुन हरषाए, निश्चय ही वह भव्य कहावे। स्वाध्याय तप है महान् रसिया आवोजी ।।४ ।। ९४. शरण कोई नहीं जग में.....
शरण कोई नहीं जग में, शरण बस है जिनागम का । जो चाहो काज आतम का, तो शरणा लो जिनागम का ।।टेक ।। जहाँ निज सत्व की चर्चा, जहाँ सब तत्त्व की बातें। जहाँ शिवलोक की कथनी, तहाँ डर है नहीं यम का ।।१।। इसी से कर्म नसते हैं, इसी से भरम भजते हैं। इसी से ध्यान धरते हैं, विरागी वन में आतम का ।।२।।
भला यह दाव पाया है, जिनागम हाथ आया है। . अभागे दूर क्यों भागो, भला अवसर समागम का ।।३।।
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विभिन्न कवियों के भजन
आध्यात्मिक भजन संग्रह जो करना है सो अब करलो, बुरे कामों से अब डरलो।
कहे 'मुलतान' सुन भाई, भरोसा है न इक पल का ।।४।। ९५. चार गति में भ्रमते भ्रमते ....
चार गति में भ्रमते भ्रमते, नहीं मिला सुख इक क्षण भाई। जिनवाणी ही परम सहाई, देवे मोक्षमार्ग दरशाई........।।टेक।। लख चौरासी भ्रमते-रूलते, काल अनन्ते खोये भाई। परद्रव्यो से प्रीति लगाई, पर ना हुआ जिन कभी हे भाई ।।१।। महाभाग्य इस दुःखकाल में, जिनवाणी की शरणा पाई। जिनवाणी के ज्ञान बिना तो, नहीं मिला निजरूप दिखाई ।।२।। सत्य ज्ञान श्रद्धान बिना तो, जीवन दुखमय रहा ही भाई। जिनवाणी का वचन यथारथ, अब तो श्रद्धा में लो भाई ।।३।। ज्ञान यथारथ निज-पर करके, जीवन में पाओ सुख भाई।।
आतम रूप माहिं ही जम लो, आतम रूप सदा सुख दाई ।।४ ।। ९६. चेतो हे! चेतन राज....
चेतो हे! चेतन राज, चेतन बोले है। जानो अब निज पर काज, वीरा बोले है।। अपने समान सब जीव, दिव्यध्वनि बोले है। नहिं रंच मात्र भी भेद, जिनवर बोले है।।१।। ऊपर से भेद ही जान, गणधर बोले है।
आतम सब निज पहचान, गुरूवर बोले है।।२।। जिनवाणी सच्चा ज्ञान, अमृत घोले है। लख चौरासी दुख हान, प्रभुवर बोले है।।३।। अब कर लो भेद-विज्ञान, हम सब डोले है। भव भ्रमण का हो हान, निज-रस जो ले है।।४।।
सिद्धातम पद ही सार, जिनागम बोले है। निज आतम ही इक सार, वीर प्रभु बोले है।।५।। ९७. माँ जिनवाणी बसो हृदय में .....
माँ जिनवाणी बसो हृदय में, दुख का हो निस्तारा । नित्यबोधनी जिनवर वाणी, वन्दन हो शतवारा ।।टेक ।। वीतरागता गर्भित जिसमें, ऐसी प्रभु की वाणी। जीवन में इसको अपनाएँ, बन जाए सम्यक् ज्ञानी । जनम-जनम तक ना भूलूँगा, यह उपकार तुम्हारा ।।१।। युग युग से ही महादुखी है, जग के सारे प्राणी। मोहरूप मदिरा को पीकर, बने हुए अज्ञानी । ऐसी राह बता दो माता, मिटे मोह अंधियारा ।।२।। द्रव्य और गुणपर्यायों का, ज्ञान आपसे होता। चिदानन्द चैतन्यशक्ति का, भान आपसे होता। मैं अपने में ही रम जाऊँ, यही हो लक्ष्य हमारा ।।३।। भटक भटक कर हार गए अब, तेरी शरण में आए। अनेकांत वाणी को सुनकर, निज स्वरूप को ध्याएँ। जय जय जय माँ सरस्वती, शत शत नमन हमारा।।४ ।। ९८. जिनवाणी माता-दरशायो तुम ही राह जिनवाणी माता, दरशायो तुम ही राह। भ्रमत अनादिकाल से, मिथ्यातम में माहिं । ज्ञानस्वरूपी मैं ही हूँ दरशायो तुम राह ।।१।। अब ना कभी पर्याय में, मम का भ्रम हो जाय । चेतना में ही मैं रमूं, और कछु नहीं भाय ।।२।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
विभिन्न कवियों के भजन
९९. सुन सुन रे चेतन प्राणी
सुन सुन रे चेतन प्राणी - नित ध्यालो जिनवरवाणी दुर्लभ नर भव को पाकर - बन जावो सम्यक्ज्ञानी ।। मानव कुल तुमने पाया, जिनवाणी का शरणा पाया। समझाते गुरूवर ज्ञानी, प्रभु वाणी जग कल्याणी । अब तज दो विषय कषाएँ-छोड़ो सारी नादानी । दुर्लभ नर भव को पाकर बन जावो सम्यक्ज्ञानी ।।१।। यह जीवन है अनमोला, इसको न व्यर्थ खो देना। जीवन में धर्म कमाकर, पर्याय सकल कर लेना। यह नित्य बोधनी वाणी, श्री कुंदकुंद की वाणी। दुर्लभ नर भव को पाकर बन जावो सम्यक् ज्ञानी ।।२।। चलते चलते जीवन की कब जाने शाम हो जाए। ना जाने जलता दीपक, तूफां में कब बुझ जाए। यह अवसर चूक न जाना, प्रभु वाणी भूल न जाना। भोगों में उलझ उलझ कर, जिनधर्म को न बिसराना। सुख का पथ दिखलाती है, माँ सरस्वती जिनवाणी। दुर्लभ नर भव को पाकर बन जाओ सम्यक्ज्ञानी ।।३।। 900. जय जय माँ जिनवाणी जय जय माँ जिनवाणी, निजातम ज्योत जगावे । अनेकांतमय प्रभु की वाणी, मुक्ति मार्ग बताये । भविजन जो श्रद्धा से माने, शांति सुधारस पावे ।
जगत का दुख मिट जावे।।१।। परद्रव्यों से भिन्न निजातम, गुण अनन्त का धारी। वन्दन वीतराग वाणी को, जो सन्मार्ग दिखावे ।
निराकुल सुख उपजावे ।।२।।
१०२. माता जिनवाणी तेरा
माता जिनवाणी तेरा, महा उपकार । जाना माता आज निज वैभव अपार ।। अनेकान्तमयी वाणी स्याद्वाद रूप । षद्रव्य और तत्त्व सात का स्वरूप । आचारज देव दिया दिव्य ध्वनि सार। निज का स्वरूप लखा टूटें भव तार ।। शुद्धातम ज्योति भिन्न अनुभव प्रमाण । ज्ञान की तरंग उठे ज्ञायक महान ।। माता भारती मैं करूँ आपको प्रणाम ।
आपकी कृपा से पाऊँ शीघ्र ध्रुवधाम ।। १०३. परम उपकारी जिनवाणी परम उपकारी जिनवाणी सहज ज्ञायक बताया है। हुआ निर्भार अन्तर में सहज आनन्द छाया है ।।टेक ।। अहो परिपूर्ण ज्ञातारूप प्रभु अक्षय विभवमय हूँ। सहज ही तृप्ति निज में ही, न बाहर कुछ सुहाया है।।१।। उलझ कर दुर्विकल्पों में बीज दुख के रहा बोता। ज्ञान आनन्दमय अमृत धरम मानो पिलाया है ।।२।। नहीं अब लोक की चिन्ता नहीं है उर में भयकिंचित् । ध्येय निष्काम ध्रुव ज्ञायक अहो दृष्टि में आया है ।।३।। मिटी भ्रान्ति मिली शान्ति तत्त्व अनेकान्तमय जाना। सार वीतरागता पाकर शीश सविनय नवाया है ।।४ ।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
९०४. मैं ही सिद्ध परमातमा मैं ही सिद्ध परमातमा, मैं ही आतमराम । मैं ही ज्ञाता ज्ञेय को, चेतन मेरो नाम ।।१।। मोही बाँधत कर्म को, निर्मोही छूट जाय । तातें गाढ़ प्रयत्न से, निर्ममता उपजाय ।।२।। काहे को भटकत फिरे, सिद्ध होने के काज । राग-द्वेष को त्याग दे, भैया सुगम इलाज ।।३।। राग-द्वेष के त्याग बिन, परमातम पद नाहि । कोटि-कोटि जप-तप करो, सबहि अकारथ जाहि ।।४।। लाख बात की बात यह, कोटि ग्रंथ का सार ।
जो सुख चाहे भ्रात तो, आतम-अनुभव करो ।।५।। ९०५. परमात्म-भावना
रागादिक दूषण तजै, वैरागी जिनदेव । मन वच शीस नवायके, कीजे तिनकी सेव ।।१।। जगत मूल यह राग है, मुकति मूल वैराग। मूल दुहुन को यह कह्यो, जाग सके तो जाग ।।२।। कर्मनकी जर राग है, राग जरे जर जाय । प्रकट होत परमातमा, भैया सुगम उपाय ।।३।। काहे को भटकत फिरे, सिद्ध होन के काज । राग-द्वेष को त्याग दे, भैया सुगम इलाज ।।४ ।। राग-द्वेष के त्याग बिन, परमातम-पद नाहिं । कोटि-कोटि जप-तप करो, सबहि अकारथ जाहिं ।।५।। जो परमातम सिद्ध में, सोही या तन माहिं । मोह मैल दृगि लगि रह्यो, तातें सूझे नाहिं ।।६।।
विभिन्न कवियों के भजन
परमातम सो आतमा, और न दूजो कोय। परमातम पद ध्यावतै, यह परमातम होय ।।७।। मैं ही सिद्ध परमातमा, मैं ही आतमराम । मैं ही ज्ञाता ज्ञेय को, चेतन मेरो नाम ।।८।। मैं अनंत सुख को धनी, सुखमय मेरो स्वभाव । अविनाशी आनंदमय, सो हूँ त्रिभुवनराव ।।९।। चेतन कर्म उपाधि तज, राग-द्वेष को संग। जो प्रगटे परमातमा, शिवसुख होय अभंग ।।१०।। सकल देव में देव यह, सकल सिद्ध में सिद्ध । सकल साधु में साधु यह, पेख निजातम-रिद्ध ।।११।। 'भैया' की यह वीनती, चेतन चितह विचार ।
ज्ञान-दर्श-चारित्र में, आपो लेहु निहार ।।१२ ।। ९०६. चेतन ! तूं तिहु काल अकेला
चेतन ! तूं तिहु काल अकेला।। नदी-नाव संजोग मिलै ज्यों, त्यों कुटुंब का मेला ।।धृ. ।। यह संसार असार रूप सब. ज्यों पटपेखन खेला। सुख-संपति शरीर जल-बुबुद, विनशत नाही बेला।।चे. १॥ मोह-मगन आतम-गुन भूलत, परी तोहि गल-जेला। मैं मैं करत चहूँ गति डोलत, बोलत जैसे छेला।।चे. २ ।। कहत 'बनारसि' मिथ्यामत तज, होय सुगुरुका चेला। तास वचन परतीत आन जिय, होइ सहज सुर-झेला ।।चे. ३ ।। ९०७. मुख ओंकार धुनि
मुख ओंकार धुनि सुनि, अर्थ गणधर विचारै । रचि-रचि आगम उपदेसै, भविक जीव संशय निवारै।। सो सत्यारथ शारदा, तासु भक्ति उर आन । छंद भुजंगप्रयागर्मी, अष्टक कहौं बखान ।।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
(भुजंगप्रयाग) जिनादेश ज्ञाता जिनेन्द्रा विख्याता, विशुद्धा प्रबुद्धा नमों लोकमाता।
जिनेन्द्रकथित शास्त्राभ्यास से लाभ
(रत्नकरण्ड श्रावकाचार : अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग भावना) दुराचार-दुनहरा शंकरानी, नमो देवि वागेश्वरी जैनवाणी।।१।।
१. माया, मिथ्यात्व, निदान - इन तीन शल्यों का ज्ञानाभ्यास से नाश होता है। सुधाधर्म संसाधनी धर्मशाला, सुधाताप निर्नाशिनी मेघमाला।
२. ज्ञान के अभ्यास से ही मन स्थिर होता है। महामोह विध्वंसनी मोक्षदानी, नमो देवि वागेश्वरी जैनवाणी ।।२।।
३. अनेक प्रकार के दुःखदायक विकल्प नष्ट हो जाते हैं। अखैवृक्षशाखा व्यतीताभिलाषा, कथा संस्कृता प्राकृता देशभाषा ।
४. शास्त्राभ्यास से ही धर्मध्यान व शुक्लध्यान में अचल होकर बैठा जाता है।
५. ज्ञानाभ्यास से ही जीव व्रत-संयम से चलायमान नहीं होते। चिदानंद-भूपाल की राजधानी, नमो देवि वागेश्वरी जैनवाणी ।।३।।
६. जिनेन्द्र का शासन प्रवर्तता है। अशुभ कर्मों का नाश होता है। समाधानरूपा अनूपा अक्षुद्रा, अनेकान्तधा स्याद्वादाङ्क मुद्रा।
७. जिनधर्म की प्रभावना होती है। त्रिधा सप्तधा द्वादशाङ्गी बखानी, नमो देवि वागेश्वरी जैनवाणी।।४।।
८. कषायों का अभाव हो जाता है। अकोपा अमाना अदंभा अलोभा, श्रुतज्ञानरूपी मतिज्ञानशोभा।
९. ज्ञान के अभ्यास से ही लोगों के हृदय में पूर्व का संचित कर रखा हुआ पापरूप
ऋण नष्ट हो जाता है। महापावनी भावना भव्यमानी, नमो देवि वागेश्वरी जैनवाणी ।।५।।
१०. अज्ञानी जिस कर्म को घोर तप करके कोटि पूर्व वर्षों में खिपाता है, उस कर्म को अतीता अजीता सदा निर्विकारा, विषैवाटिकाखंडिनी खगधारा ।
ज्ञानी अंतर्मुहूर्त में ही खिपा देता है। पुरापापविक्षेप कर्ता कृपाणी, नमो देवि वागेश्वरी जैनवाणी।।६।।
११. ज्ञान के प्रभाव से ही जीव समस्त विषयों की वाञ्छा से रहित होकर संतोष धारण अगाधा अबाधा निरध्रा निराशा, अनन्ता अनादीश्वरी कर्मनाशा।
करते हैं।
१२. शास्त्राभ्यास से ही उत्तम क्षमादि गुण प्रगट होते हैं। निशंका निरंका चिदंका भवानी, नमो देवि वागेश्वरी जैनवाणी।।७।।
१३. भक्ष्य-अभक्ष्य का, योग्य-अयोग्य का, त्यागने-ग्रहण करने योग्य का विचार अशोका मुदेका विवेका विधानी, जगज्जन्तुमित्रा विचित्रावसानी।
होता है। समस्तावलोका निरस्ता निदानी, नमो देवि वागेश्वरी जैनवाणी ।।८।।
१४. ज्ञान बिना परमार्थ और व्यवहार दोनों नष्ट होते हैं।
१५. ज्ञान के समान कोई धन नहीं है और ज्ञानदान समान कोई अन्य दान नहीं है। जे आगम रुचिधरै, जे प्रतीति मन माहिं आनहिं ।
१६. दुःखित जीव को सदा ज्ञान ही शरण अर्थात् आधार है। अवधारहिं गे पुरुष, समर्थ पद अर्थ आनहिं ।।
१७. ज्ञान ही स्वदेश में एवं परदेश में सदा आदर कराने वाला परम धन है। जे हित हेतु 'बनारसी', देहिं धर्म उपदेश ।
१८. ज्ञान धन को कोई चोर चुरा नहीं सकता, लूटने वाला लूट नहीं सकता, खोंसनेवाला ते सब पावहिं परम सुख, तज संसार कलेश ।।
खोंस नहीं सकता। १९. ज्ञान किसी को देने से घटता नहीं है, जो ज्ञान-दान देता है; उसका ज्ञान बढ़ता
जाता है।
२०. ज्ञान से ही सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है। Annunyanade naje Hack paint २१. ज्ञान से ही मोक्ष प्रगट होता है।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह पण्डित दौलतरामजी के भजनों के कठिन शब्दों
भजन नं. १४ के अर्थ
रावरो - आपका, पर पद चाह - पुद्गल सम्बन्धी चाहक, दाह भजन नं.१
गद नासन - दाह रूपी रोग नाश करने के लिये, अवाची - जिसका ___ अरि - मोहनीय कर्म, रज - ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी कर्म, रहस
वर्णन न हो सके। - अन्तराय कर्म, नग में - अशोक वृक्ष, क्षम - समर्थ ।
भजन नं. १८ भजन नं. २
पचासी - अघातिया कर्मों की प्रकृतियाँ, अनंग मातङ्ग - जन्म, जरा, मृतगद - जन्म जरा मरण रूपी रोग।
कामदेवरूपी हस्ती को, प्रबलंग हरि - बलवान सिंह, पल - माँस व
रुधिर, कल में - शरीर में, अलक - केश। भजन नं.३ भव मरू थल मग में - संसार रूपी मारवाड़ देश के मार्ग में, कानन
भजन नं. १९
सरोरूह सूर - भव्य रूपी कमलों को सूर्य, दुरित दोष - दोष - बन, महादुठ - महा दुष्ट । भजन नं.६
रहित, विगताकुल - आकुलता रहित, सची कन्ता - इन्द्र, निज गुण अपन पो - अपना पन।
मुन - अपने गुणों का मनन करके, परगर उगलता - विभाव रूपी विष भजन नं. ९
को उगलने वाले, तौल बिन - अपरिमित, रांक - रंक, नाचीज, नाक पुरन्दर शोभ - इन्द्र की शोभा, शूल - त्रिशूल, दुकूल - वस्त्र,
गंता - स्वर्ग गया। लंक - कमर ।
भजन नं. २१ भजन नं. १२
___अंक - गोद में, अकोह छोह बिन - क्रोध क्षोभ रहित, सेय - नासान्यस्त नयन - नासिका पर लगाई है दृष्टि जिसने, भूहलय -
सेवा, अमेय - अपरिमाण, भवजलधि - भव समुद्र की। भोहें नहीं हिलती हैं, लाह की - लाभ की।
भजन नं. २२ भजन नं.१३
त्रिधरे - तीन धरे, आत पत्र - छत्र, कुंद कुसुम सम - कुंद के फूल जिनपाला - सम्यग्दृष्टि से लगाकर बारहवें गुणस्थान तक जिन
के समान, वर्ण विगत - अनक्षरी, तूर्य - बाजे । संज्ञा है उनका रक्षक, बाला - स्त्री, बैनों में - वचनों में, तुम धुनि घन
भजन नं. २३ - आपकी वाणी रूपी मेघ, परचहन-दहनहर - परपदार्थों की चाह
नव दुगुन - अठारह बार की, भू - पृथ्वी काय, ज्वलन - रूपी अग्नि को बुझाने वाला है, चिदंक - चेतना स्वरूप, इन्द्रिय सुख,
अग्निकाय। दुख - इन्द्रिय सुख दुख जड़ का स्पर्श करते हैं, मेरा नहीं, मुझे सुख .Kapu...
भजन नं. २८ दुःख नहीं होते, धवल - विशुद्ध निर्मल ।
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विधी झारन - निर्जरा, सुधांबु स्यात्पदांक गाह - स्यादवाद रूपी
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आध्यात्मिक भजन संग्रह अमृत में अवगाहन करने से। भजन नं. ३०
आतम सोंज - निज परिणति, भानी - नाश की, संसृतिवान - भ्रमण की आदत। भजन नं. ३२
सुहित देश - हितोपदेश, लाह की - लाभ की, करन करी हरि - इन्द्रिय रूपी हाथियों को सिंह के समान, तरनि - जहाज, समर भुजंगविष जरी - काम रूपी सर्प के लिये विनाशक जड़ी। भजन नं. ३५
भव तन भोग विरक्त - संसार शरीर भोगों से उदासीन, अदत्त - बिना दिया हुवा, प्रसंग - दो प्रकार का परिग्रह। भजन नं. ३६
सारा - एकसे। भजन नं. ३९ __लौ - लगन, ओरनै - तरफ, यथाजात मुद्रायुत - नग्न दिगम्बर, विजन - निर्जन, निहोरनै - प्रार्थना करने वाले को, पविते - वज्र से, भवि कुमुद निशाकर - भव्य रूपी कुमोदनी को चन्द्रमा। भजन नं. ४०
ईश्वरता - ऐश्वर्य, ज्ञान दृग साना - सम्यग्ज्ञान, सम्यक्दर्शन सहित, पद वारिज रजने - चरण रूपी कमलों की धूलि को, किस - किसके, अध - पाप। भजन नं. ४४
ऋषि पति-मुनिनाथ, ऋषभेश-धर्म के ईश आदिनाथ, मनमथकामदेव के मथने वाले, शिवपथ - मोक्षपथ, हरि-इन्द्र, नर्तकी- अप्सरा, देवऋषि - लोकांतिकदेव, बच रवि - बचन रूपी सूर्य, पोत - जहाज,
शेषाविधी - शेष के चार, अघातिया कर्म, वसुमधरा - मोक्ष । भजन नं. ४६
पद्मासदन - लक्ष्मी का घर, मदन मद भंजन - मद का नाश करने के लिये, उगेरे - गाये, पतित - पापी, शशकन - खरगोशों के, सबेरे - शीघ्र, शम समाधिकर - शान्ति समाधि । भजन नं. ४७
“पद्या सद्य - समवशरण लक्ष्मी के, पद्मपद - पद्मप्रभ के चरण, पद्यामुक्ति - मोक्ष लक्ष्मी, पपोसा - पर्वता का नाम है, शासन - उपदेश, पंचानन - सिंह, मातङ्ग - हाथी, रुषतुष - द्वेष राग, सुरगुर बुद्धि - इन्द्र की बुद्धि, शशकन गिरराज उगेरे - जैसे खरगोश सुमेरु को धकेलना चाहे। भजन नं. ४८ __ हाहा हू हू - नारद और तुंबर गंधर्व देवों के भेद है, सुरनर मुनि घट - देव मनुष्य और मुनियों के हृदय का, सूर - सूर्य, ज्ञेयन - पदार्थ, उडू - तारा, साम्यसिन्धु - समतारूपी समुद्र को बढ़ाने वाला, जग नन्दन - जग को आनन्दित करने वाला। भजन नं. ४९
भुजंग भोग सम - सांप के फन के समान, भीम - भयानक, पोरि - पोल, पातक डोरी - पापों की डोरी। भजन नं. ५०
लोक शिरो - सिद्ध शिला, उग्र - घोर, भवार्णव - भव समुद्र, नरो - हे पुरुषो, नियत - निश्चय । भजन नं.५१
अटापटी - अटपटी, हटाहटी - दूरपना, घटा घटी - न्यून पना, षंढ - नपुंसक।
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
काक ताली - काकतालीय न्याय से जैसे ताडवृक्ष से ताडफल का टूटना और काग का उसे आकाश में ही पा लेना कठिन है वैसे। भजन नं. ५५
खपज में - विनाश में, तोष रोष - राग द्वेष, भान्यो - नष्ट किया । भजन नं. ५८
पर पदार्थ, बमू - बमन
आठ, चमूं - फोज,
चिदेश - आत्मा, अशेष- सम्पूर्ण, पर कर दूँ अर्थात् छोड़ दूँ।, विधी कर्म, दुचार आपमें - आत्मा में, रमूं - रमण करूं, शर्म बाग दागनी - कल्याण रूपी बाग को जलाने वाली, शमूं शमन करूं, शान्त करूं, दृग ज्ञान भान - सम्यग्दर्शन और ज्ञानरूपी सूर्य से, प्राणीभूत दश प्राण मई, जल - जड़, कल - शरीर, सुकल सुबल शुक्ल ध्यान के बाल से, त्रिशल्लमल्ल, माया मिथ्या निदान तीन शल्य रूपी पहलवान, अटल पद - मोक्षपद, कौल - प्रतिज्ञा, पूरब अलभ पूर्व में जिसका लाभ
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नहीं हुवा वैसा जान ।
भजन नं. ६०
धाम
हिम मेघ-धूप, शीत वर्षा, उपल
पत्थर, अनुभव शर - अनुभव रूपी बाण, मनि जड़ितालय रत्न जड़ित महल, शैल दरी पर्वत की कंदरा ।
भजन नं. ६५
मृतकारी - मृत्यु के करने वाले, घन-मेघ, समता लता कुठारी समता रूपी बेल को काटने के लिये कुल्हाड़ी, केहरी - सिंह, करी - हाथी, मुरारी - नारायण, विरचे - वैरागी हुये, भ्रंग - भ्रमर, किंपाक -
इन्द्रायण का फल ।
भजन नं. ६६
धोधारी - हे बुद्धि मानो, रंभ थंभ - केले के पत्ते के समान, बामा
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(११६)
- स्त्री, श्वासा - बहिन, मंडल - कुत्ता, आखंडल देव, कृमि - लट, मदन दहन - कामाग्नि ।
भजन नं. ६७
हाथी, गरत -
करन विषय में - इन्द्रियों के विषय में, बारन - गड्डा, झख - मछली, पंकज मुद्रित में बन्द कमल में, करन विषयवश - कान के विषय से, अरन में बन में ।
भजन नं. ६८
कुबोध - मिथ्यात्व, अवृततैं - मिथ्या चारित्र से, कृमि - कीट, विट स्थान - बिष्टा का स्थान हरि से कृष्ण नारायण सरीखे, गदगेह - रोग का घर ।
भजन नं. ७२
अघात - तृप्त होता है, दुःख फलद - दुःख रूप फल देने वाला, जलद सम - बादल, चतुधाते - द्रव्यक्षेत्रादि स्व चतुष्टय से, नभै हतन - आकाश के घात करने को, विपद पत राते - विपति स्थान में लवलीन, मुनत न मनन नहीं करता ।
भजन नं. ७३
रजत - रंजायमान, द्रग ब्रत बुद्धि सुधातें दर्शन ज्ञान चारित्र रूपी अमृत से ।
भजन नं. ७४
अनिवार - जिसका निवारण नहीं हो सकता, परनवे वैसे अपनी इच्छानुसार परिणवे, निकसे निकले, पैसे प्रवेश करे, पूरन गलन - पूर्ण होने और गलन होने रूप स्वभाव बाल पुद्गल होता है। भजन नं. ७७
गैलवा मार्ग, चुरेलवा - चुडेल ।
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भजन नं. ७८
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________________ आध्यात्मिक भजन संग्रह - मांस, आयु निगड फंसि - आयु रूपी बेडियों में। भजन नं. 92 कजदल - कमल पत्र, नभ ताडन - आकाश को पीटने जैसा, अजगन - बकरों में, हरि - सिंह। भजन नं. 93 विधी बंध - कर्म बन्ध, बुद्धि छैनी - बुद्धिरूपी, छैनी से निज और पर का सन्धि भेद करना, परिग्रही - परिग्रह का धारी तथा पर की वस्तु ग्रहण करने वाला। भजन नं. 94 बेवै - जाने, अनुभव करे, दाव - मोका, कुधी - मूर्ख / भजन नं. 95 लेकृपाण जल दारे - तलवार लेकर जल को काटता है। डगर - मार्ग, रज रहसि अरि - चार घातिया कर्म / भजन नं. 79 मदरत - शराबी, समामृत - समतारूपी अमृत, जिन-जिन्होंने, वृष-धर्म। भजन नं. 80 पर - पुद्गल सम्बन्धी, करतारी - कर्ता, करारी - गाढी। भजन नं. 83 __माचत - मग्न होते, श्रुत बांचत - शास्त्र पढ़ते, सुजस लाह कीसुयश के लाभ की, रजे - मग्न हुये, जिनजाप - जिनदेव का जाप सुमनचाप - कामदेव की तपन में तप्त / भजन नं. 84 भाये - मनन किये, जाये - उत्पन्न हुये, आश हुताश - आशा रूपी अग्नि। भजन नं. 86 भयामय - डर और रोग, सरधौ - श्रद्धान करो, वृष - धर्म, मिहर - सूर्य। भजन नं.८७ विषयोंदा - विषयों का, पंजाबी शब्द है, कमला - लक्ष्मी, चपला - बिजली, सुरधनु - इन्द्र धनुष / भजन नं. 88 चिद्गुन सहचारिनी - ज्ञान गुण सहचारनी, भई न चलीरी - फिर चलाय मान न हुई, तिस - प्यास, क्षारवार - खारा पानी। भजन नं. 91 कारा सदन - जेल खाना, चाम पिहित - चमडे से ढकी हुई, पल sa kabata Annanjitain Bhajan Book pains (117)