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जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालजी-महाराजविरचितयाऽऽचारचिन्तामणि-व्याख्यया समलङ्कतं
हिन्दीगुर्जरभाषालहितस्
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आचाराङसूत्रम्।
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(द्वितीयो भागः, अध्य० २-४)
[प्रथमः श्रुतस्कन्धः]
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. नियोजक :संस्कृत-प्राकृतज्ञ-जैनागमनिष्णात-प्रियव्याख्यानि--
पण्डितमुनिश्री कन्हैयालालजी-महाराजः
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प्रकाशिका :श्री अ. भा. श्वे. स्था. जैनशास्त्रोद्धारेसमितिः
राजकोट (सौराष्ट्र)
मूल्य रु. ७-०-०
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મળેનું ઠેકાણું શ્રી અ. ભા જે સ્થાનક્વાસી જિન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ શીન લેજ પાસે, રાજકેટ
પ્રથમ આવૃત્તિ પ્રત ૧૦૦૦
વીર સંવત : ૨૪૮૩ | વિક્રમ સંવત : ૨૦૧૩ ઈસ્વી સન : ૧૯૫૭
મુક : મણિલાલ છગનલાલ શાહ ધી નવપ્રભાત પ્રિન્ટીંગ પ્રેસ ઘીકાંટા રેડ : અમદાવાદ
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શ્રી-વર્ધમાન-શ્રમણ-સંઘના આચાર્યશ્રી
પૂજય આત્મારામજી મહારાજશ્રીએ
આ પે લ
સમ્મતિ પત્ર
ઉપરાંત
પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ-રચિત
બીજા સૂત્રોની ટીકા માટે તેઓશ્રીના મંતવ્ય
તે મ જ
અન્ય મહાત્માઓ, મહાસતીજીએ, અદ્યતન-પદ્ધતિવાળા કોલેજના પ્રોફેસર
તે મ જ
શાસ્ત્ર શ્રાવકોના અભિપ્રાય
છે. ગ્રીનલેજ પાસે છે.
ગડીયા કુવાડ રાજકોટ : સૌરાષ્ટ્ર
શ્રી. અખિલ ભારત છે. સ્થા. જૈન
શાસ્ત્રોદાર સમિતિ
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जैनागमवेत्ता जैनधर्मदिवाकर उपाध्याय श्री १००८ श्री आत्मारामजी महाराज तथा न्याय व्याकरण के ज्ञाता परम पण्डित मुनिश्री १००८ श्री हेमचन्द्रजी महाराज, इन दोनों महात्माओंका दिया हुआ श्री उपासकदशाङ्ग सूत्रका प्रमाणपत्र निम्न प्रकार है
सम्मइवत्तं सिरि-वीरनिव्वाण-संवच्छर २४५८ आसोई
पुण्णमासी १५ सुक्कवारो लुहियाणाओ। मए मुणिहेमचंदेण य पंडियरयणमुणिसिरि-घासीलालविणिम्मिया सिरिउवासगमुत्तस्स अगारधम्मसंजीवणीनामिया वित्ती पंडियमूलचंदवासाओ अज्जोवंतं मुया, समीईणं, इयं वित्ती जहाणामं तहा गुणेवि धारेइ, सच्चं, अगाराणं तु इमा जीवण ( संजमजीवण ) दाई एव अस्थि । वित्तिकत्तुणा मूलमुत्तस्स भावो उज्जुसेलीओ फुडीकओ, अह्य उवासयस्स सामण्णविसेसधम्मो, णयसियवायवाओ, कम्मपुरिसठ्ठयाओ समणोवासयस्स धम्मदढत्ता य, इचाइविसया अस्सि फुडरीइओ चणिया, जेण कत्तुणो पडिहाए मुठ्ठप्पयारेण परिचओ होइ, तह इइहासदिडिओवि सिरिसमणस्स भगवओ महावीरस्स समए वट्टमाण-भरहवासस्स य कत्तुणा विसयप्पयारेण चित्तं चित्तितं, पुणो सक्वपाढीणं, बट्टमाणकाले हिन्दीणामियाए भासाए भासोणं य परमोवयारो बडो, इमेण कत्तुणो अरिहत्ता दीसइ, कत्तणो एयं कज्ज परमप्पसंसणिज्जमत्थि । पत्तेयजणस्स मज्अत्यभावाओ अस्स मुत्तस्स अवलोयणमईव लाहप्पयं, अविउ सावयस्स तु (उ) इमं सत्थं सबस्समेव अस्थि, अओ कत्तुणो अणेगकोडीसो धनवाओ अस्थि, जेहिं अचंतपरिस्समेण जइजणतोवरि असीमोचयारो कडो, अन्य सावयस्स वारस नियमा उ पत्तेयजणस्स पढणिज्जा अत्थि, जेसिं पहावओ वा गहणाओ आया निव्याणाहिगारी भवइ, तहा भवियच्चयावाओ पुरिमवारपरकमवाओ य अवम्यमेव दंसणिज्जो, किंवहुणा इमीसे वित्तीए पत्तेयविसयम्स फुडसद्देटिं वण्णणं कयं, जड अन्नावि एवं अम्हाणं पसुत्तप्पाए समाजे विज्जं भवेज्जा तया नागम्म चरित्तम्स नहा संघस्स य खिप्यं उदयो भविस्सई, एवं हं मन्ने।।
भवईओउवज्झाय-जइणमुणि-आयाराम,-पंचनईओ,
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सम्मतिपत्र ( भाषान्तर)
श्रीवीरनिर्वाण सं० २४५८ आसोज
शुक्ला (पूर्णिमा) शुक्रवार लुधियाना मैंने और पंडितमुनि हेमचन्द्रजीने पण्डितरत्न मुनि श्रीघासीलालजीकी रची हुई उपासकदशांग सूत्रकी गृहस्थधर्मसंजीवनी नामक टीका पंडित मूलचन्द्रजी व्याससे आद्योपान्त सुनी है। यह वृत्ति यथानामतथागुणवाली-अच्छी बनी है। सच यह गृहस्थोंके तो जीवनदात्रीसंयमरूप जीवनको देनेवाली ही है। टीकाकारने मूलसूत्र के भावको सरल रीतिसे वर्णन किया है, तथा श्रावकका सामान्य धर्म क्या है ? और विशेष धर्म क्या है ? इसका खुलासा इस टीकामें अच्छे ढंगसे बतलाया है। स्यावादका स्वरूप कर्म-पुरुषार्थ-बाद और श्रावकको धर्मके अन्दर दृढता किस प्रकार रखना, इत्यादि विषयोंका निरूपण इसमें भलीभांति किया है। इससे टीकाकारकी प्रतिभा खूब झलकती है। ऐतिहासिक दृष्टिसे श्रमण भगवान महावीर के समय जैनधर्म किस जाहोजलाली पर था ? और वर्तमान समय जैनधर्म किस स्थिलिमें पहुंचा है ? इस विषयका तो ठीक चित्र ही चित्रित कर दिया है। फिर संस्कृत जाननेवालों को तथा हिन्दीभाषाके जाननेवालों को भी पूरा लाभ होगा, क्यों कि टीका संस्कृत है उसकी सरल हिन्दी कर दी गई है। इसके पढ़ने से कर्ताकी योग्यताका पता लगता है कि वृत्तिकारने समझानेका कैसा अच्छा प्रयत्न किया है। टीकाकार का यह कार्य परम प्रशंसनीय है। इस सूत्रको मध्यस्थ भावले पढनेवालोंको परम लाभकी प्राप्ति होगी। क्या कहें श्रावकों (गृहस्थों) का तो यह सूत्र सर्वस्व ही है, अतः टीकाकार को कोटिशः धन्यवाद दिया जाता है, जिन्होंने अत्यन्त परिश्रमले जैन-जनताके ऊपर असीम उपकार किया है । इसमें श्रावकके बारह नियम प्रत्येक पुरुपके पढने योग्य हैं, जिनके प्रभावसे अथवा यथायोग्य ग्रहण करनेसे आत्मा मोक्षका अधिकारी होता है। तथा भवितव्यतावाद और पुरुपकार
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पराक्रमवाद हरएकको अवश्य देखना चाहिये। कहां तक कहें इस टीकामें प्रत्येक विषय सम्यक् प्रकारसे बताये गये हैं। हमारी सुप्तप्राय (सोई हुईसी) समाजमें अगर आप जैसे योग्य विद्वान फिर भी कोई होंगे तो ज्ञान चारित्र तथा श्रीसंघका शीघ उदय होगा, ऐसा मैं मानता हूं
आपका उपाध्याय जैनमुनि आत्माराम पंजाबी.
__इसी प्रकार लाहोरमें विराजते हुए पण्डितवर्य विद्वान् मुनिश्री १००८
श्री भागचन्दजी महाराज तथा पं. मुनिश्री त्रिलोकचन्दजी
महाराजके दिये हुए, श्री उपासकदशाङ्ग सूत्रके
प्रमाणपत्रका हिन्दी सारांश निम्न प्रकार हैश्री श्री स्वामी घासीलालजी महाराज कृत श्री उपासकदशाङ्ग सूत्रकी संस्कृत टीका व भापाका अवलोकन किया, यह टीका अतिरमणीय व मनोरञ्जक है, इसे आपने पडे परिश्रम व पुरुषार्थ से तैयार किया है सो आप धन्यवादके पात्र हैं। आप जैसे व्यक्तियोंकी समाजमें पूर्ण आवश्यकता है । आपकी इस लेखिनीसे समाजके विद्वान् माधुवर्ग पढ कर पूर्ण लाभ उठावेंगे, टीकाके पढनेसे हमको अत्यानन्द हुवा, और मनमें ऐसे विचार उत्पन्न हुए कि हमारी समाजमें भी ऐसे २ सुयोग्य रत्न उत्पन्न होने लगे-यह एक हमारे लिये बडे गौरवकी यात है।
वि. सं. १९८९ मा. आश्विन कृष्णा १३ वार भौम लाहोर.
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श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्रकी 'अनगारधर्माऽमृतवर्षिणी' टीका पर जैनदिवाकर साहित्यरत्न जैनागमरत्नाकर परमपूज्य श्रद्धेय जैनाचार्य श्री आत्मारामजी महाराजका सम्मतिपत्र
लुधियाना, ता. ४-८-५१ मैंने आचार्यश्री घासीलालजी म. द्वारा निर्मित 'अनगार-धर्मामृत-वर्षिणी' टीकावाले श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्रका मुनि श्री रत्नचन्द्रजीसे आद्योपान्त श्रवण किया।
यह निःसन्देह कहना पडता है कि यह टीका आचार्यश्री घासीलालजी म. ने वडे परिश्रम से लिखी है । इसमें प्रत्येक शब्दका प्रामाणिक अर्थ और कठिन स्थलों पर सार-पूर्ण विवेचन आदि कई एक विशेषतायें है। मूल स्थलों को सरल बनाने में काफी प्रयत्न किया गया है, इससे साधारण तथा असाधारण सभी संस्कृतज्ञ पाठकों को लाभ होगा ऐसा मेरा विचार है।
मैं स्वाध्यायप्रेमी सज्जनों से यह आशा करूंगा कि ये वृत्तिकारके परिश्रम को सफल बना कर शास्त्रमें दी गई अनमोल शिक्षायों से अपने जीवन को शिक्षित करते हुए परमसाध्य मोक्षको प्राप्त करेंगे। श्रीमान्जी जयवीर
आपकी सेवामें पोष्ट द्वारा पुस्तक भेज रहे हैं और इस पर आचार्यश्रीजी की जो सम्मति है वह इस पत्रके साथ भेज रहे हैं पहुंचने पर समाचार देवें।
श्री आचार्यश्री आत्मारामजी म. ठाने ६ सुखशान्तिसे विराजते हैं। पूज्य श्री घासीलालजी म. सा. ठाने ४ की हमारी ओरसे वन्दना अर्ज कर सुखशाता पूछे।
पूज्य श्री घासीलालजी म. जी का लिखा हुआ (विपाकमूत्र) महाराजश्रीजी देखना चाहते हैं इसलिये १ कापी आप भेजने की कृपा करें, फिर आप को वापिस भेज देवेंगे। आपके पास नहीं हो तो जहां से मिले वहां से १ कापी जरूर भिजवाने का कष्ट करें, उत्तर जल्द देनेकी कृपा करें। योग्य सेवा लिखते रहें। लुधियाना ता. ४-८-५१
निवेदक प्यारेलाल जैन
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जैनागमवारिधि-जैनधर्मदिवाकर-उपाध्याय-पण्डित-मुनि श्री आत्मारामजी महाराज (पंजाब)का आचाराङ्गसूत्रकी
आचारचिन्तामणि टीका पर
सम्मति-पत्र । मैने पूज्य आचार्यचर्य श्री घासीलालजी ( महाराज) की बनाई हुई श्रीमद् आचाराङ्ग सनके प्रथम अध्ययन की आचारचिन्तामणि टीका सम्पूर्ण उपयोगपूर्वक सुनी।
यह टीका-न्याय सिद्धान्त से युक्त, व्याकरण के नियम से निबद्ध है। तथा इलमें प्रसङ्ग २ पर क्रम से अन्य सिद्धान्त का संग्रह भी उचित रूप से सालस होताहै। ___टीकाकारने अन्य सभी विषय सम्यक् प्रकार से स्पष्ट किये हैं, तथा प्रौढ विषयों का विशेषरूप से संस्कृत भाषा में स्पष्टतापूर्वक प्रतिपादन अधिक मनोरंजक है, एतदर्थ आचार्य महोदय धन्यवाद के पात्र हैं।
में आगा करता हूं कि-जिज्ञासु महोदय इसका भली-भांति पठन द्वारा जैनागल - सिद्वान्तरूप अमृत पी-पी कर मन को हर्पित करेंगे, और इसके मनन से दक्ष जन चार अनुयोगों का स्वरूपज्ञान पायेंगे। तथा आचार्यर्थ इसीप्रकार दूसरे भी जैनागमों के विशद विवेचन द्वारा श्वेताम्बर-स्थानकवासी समाज पर महान उपकार कर यशस्वी बनेंगे। वि. सं. २००२
जैनमुनि-उपाध्याय आत्माराम मगसर मुदि १
लुधियाना पंजाव शुभमस्तु
बीकानेग्चाला समाजभूषण शात्रज मेदानजी शेठिआनो अभिप्राय
आप शास्त्रका कार्य कर रहे हैं यह बडा उपकारका कार्य है। इससे जनजनता को काफी लाभ पहुंचेगा। । ना. २८-३-५६ना पत्रमांधी )
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॥ श्रीः॥ जैनागमवारिधि-जैनधर्मदिवाकर-जैनाचार्य-पूज्य-श्री आत्मारामजीमहाराजानां पञ्चनद-( पंजाव )स्थानामनुत्तरोफ्यातिकमूत्राणा
मर्थबोधिनीनामटीकायामिदम्
सम्मतिपत्रम् .
आचार्यवर्यैः श्री घासीलालमुनिभिः सङ्कलिता अनुत्तरोपपातिकसूत्राणामर्थवोधिनीनाम्नी संस्कृतत्तिरुपयोगपूर्वकं सकलाऽपि स्वशिष्यमुखेनाऽश्रावि मया, इयं हि वृत्तिर्मुनिवरस्य वैदुष्यं प्रकटयति । श्रीमद्भिर्मुनिभिः सूत्राणामर्थान् स्पष्टयितुं यः प्रयत्नो व्यधायि तदर्थमनेकशो धन्यवादानहन्ति ते । यथा चेयं वृत्तिः सरला सुबोधिनी च तथा सारवत्यपि । अस्याः स्वाध्यायेन निर्वाणपदमभीप्सुभिनिर्वाणपदमनुसरद्भिर्ज्ञान-दर्शन-चारित्रेषु प्रयतमानैर्मुनिभिःश्रावकैश्च ज्ञानदर्शन-चारित्राणि सम्यक् सम्प्राप्याऽन्येऽप्यात्मानस्तत्र प्रवर्तयिष्यन्ते ।
आशासे श्रीमदाशुकविर्मनिवरो गीर्वाणवाणीजुषां विदुषां मनस्तोपाय जैनागमसूत्राणां साराववोधाय च अन्येषामपि जैनागमानामित्थं सरलाः सुस्पष्टाश्च वृत्तीविधाय तांस्तान् मूत्रग्रन्थान् देवगिरा सुस्पष्टयिष्यति ।
अन्ते च "मुनिवरस्य परिश्रमं सफलयितुं सरलां सुबोधिनी चेमां सूत्रवृत्तिं स्वाध्यायेन सनाथयिष्यन्त्यवश्यं सुयोग्या हंसनिभाः पाठकाः।" इत्याशास्ते
विक्रमान्द २००२ श्रावणकृष्णा प्रतिपदा
लुधियाना.
उपाध्याय आत्मारामो जैनमुनिः।
)
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(श्री दशवैकालिकमत्रका सम्मतिपत्र) ॥श्री वीरगौतमाय नमः॥
सम्मतिपत्रम्. मए पंडियमुणि-हेमचंदेण य पंडिय-सूलचन्दवासवारा पत्ता पंडिय-रयण-मुणि-घासीलालेण विरझ्या सकय-हिंदी-भाषाहि जुत्ता सिरि-दसवेयालिय-नाम-सुत्तस्स आयारमणिमंजूसा वित्ती अवलोइया, इमा मणोहरा अस्थि, एत्थ सद्दाणं अइसयजुत्तो अत्थो पण्णिओ विउजणाणं पाययजणाण य परमोचयारिया इमा वित्ती दीसह ! आयारविसए वित्तीकत्तारेण अइसयपुव्वं उल्लेहो कडो, तहा अहिंमाए सरूवं जे जहा-तहा न जाणंति तेसिं इमाए वित्तीए परमलाहो भविस्सह, कत्तुणा पत्तेयविसयाणं फुडस्वेण वण्णणं कडं, तहा मुणिणो अरिहत्ता इमाए वित्तीए अवलोयणाओ अइसयजुत्ता सिज्झइ ! सकयछाया सुत्तपयाणं पथच्छेओ य सुबोहदायगो अस्थि, परसेयजिण्णासुणो इमा वित्ती दवा । अम्हाणं समाजे एरिसविज्ज-मुणिरयणाणं सम्भावो समाजस्स अहोभग्गं अत्थि, किं? उत्तविज्जमुणिरयणाणं कारणाओ जो अम्हाणं समाजो सुत्तप्पाओ, अम्हकेरं साहिञ्चं च लुत्तप्पायं अत्थि तेसिं पुणोवि उदओ भविस्सइ जस्म कारणाओ भवियप्पा मोक्खस्स जोग्गो भवित्ता पुणो निव्याणं पाविहिइ अओहं आयारमणि-मंजूसाए कत्तुणो पुणो पुणो धन्नवायं देमि-॥ वि. सं. १९९० फाल्गुन- ) इइ
शुक्लत्रयोदशी-मङ्गले उबज्झाय-जहण-मुणी, आयारामो (अलवर स्टेट)
(पंचनईओ) ऐसेही :
मध्यभारत सैलाना-निवासी श्रीमान् रतनलालजी डोसी श्रमणोपासक जैन लिखते हैं कि:
श्रीमान् की की हुई टीकावाला उपासकदशांग सेवक के दृष्टिगत हुवा, सेवक अभी उसका मनन कर रहा है यह ग्रन्थ सर्वाङ्गसुन्दर एवम् उच्चकोटि का उपकारक है।
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निरयावलिका का सम्मतिपत्र.
आगमवारिधि - सर्वतन्त्र स्वतन्त्र - जैनाचार्य - पूज्यश्री आत्मारामजी महाराजकी तरफ का आया हुवा सम्मतिपत्र
लुधियाना. ता. ११ नवम्बर ४८
श्रीयुत गुलाबचन्दजी पानाचन्दजी । सादर जयजिनेन्द्र ||
पत्र आपका मिला ! निरयावलिका विषय पूज्यश्रीजीका स्वास्थ्य ठीक न होने से उनके शिष्य पं. श्री हेमचन्द्रजी महाराजने सम्मतिपत्र लिख दिया है आपको भेज रहे हैं । कृपया एक कोपी निश्यावलिकाकी और भेज दीजिये और कोई योग्य सेवा कार्य लिखते रहें ! भवदीय गुजरमल - बळवंतराय जैन
॥ सम्मतिः ॥
( लेखक : - जैनमुनि पं. श्री हेमचन्द्रजी महाराज )
सुन्दरबोधिनीटीकया समलंकृतं हिन्दी - गुर्जर भाषानुवादसहित च श्रीनिरयावलिकासूत्रं मेधाविनामल्पमेधसां चोपकारकं भविष्यतीति सुदृढं मेऽभिमतम्, संस्कृतटीकेयं सरला सुबोधा सुललिता चात एव अन्वर्थनाम्नी चाप्यस्ति । सुविशदत्वात् सुगमत्वात् प्रत्येक दुर्बोधपदव्याख्यायुतत्वाच टीकैषा संस्कृतसाधारणज्ञानवतामप्युपयोगिनी भाविनीत्यभिप्रेमि । हिन्दी - गुर्जर भाषानुवादावपि एतद्भाषाविज्ञानां महीयसे लाभाय भवतामिति सम्यक् संभावयामि ।
जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजानां परिश्रमोऽयं प्रशंसनीयो धन्यवादाहश्चि ते मुनिसत्तमाः । एवमेव श्रीसमीरमलजी - श्री कन्हैयालालजी मुनिवरेण्ययोर्नियोजनकार्यमपि श्लाध्यं, तावपि च मुनिवरौ धन्यवादाह स्तः ।
सुन्दर प्रस्तावनाविषयानुक्रमादिना समलंकृते सूत्ररत्नेऽस्मिन् यदि शब्दकोषोऽपि दत्तः स्यात्तर्हि वरतरं स्यात् । यतोऽस्यावश्यकतां सर्वेऽप्यन्वेषकविद्वांसोऽनुभवन्ति ।
पाठकाः सूत्रस्यास्याध्ययनाध्यापनेन लेखक नियोजक महोदयानां परिश्रमं सफलयिष्यन्तीत्याशास्महे । इति ।
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श्री उपासकदशाङ्ग मंत्र परत्वे जैन समाजना अग्रगण्य जैनधर्मभूषण महान् विद्वान् संतोए तेमज विद्वान श्रावकोए सम्मतिओ समी
छे तेमना नामो नीचे प्रमाणे छे.
(१) लुधियाना-संवत् १९८९, आश्विन पूर्णिमा का पत्र, श्रुतज्ञान के __ भंडार आगमरत्नाकर जैनधर्मदिवाकर श्री १००७ श्री उपाध्याय श्री
आत्मारामजी महाराज, तथा न्यायव्याकरणवेत्ता श्री १००७ तच्छिष्य
श्री मुनि हेमचन्दजी महाराज. (२) लाहौर-वि० सं० १९८९ आश्विन बदि १३ का पत्र, पण्डित रत्न श्री
१००८ श्री भागचंदजी महाराज तथा तच्छिप्य पण्डिरत्न श्री १००७
श्री त्रिलोकचंदजी महाराज. (३) खिचन-से ता. ९-११-३६ का पत्र, क्रियापात्र स्थविर श्री १००८
श्री भारतरत्न श्री समरथमलजी महाराज. (४) वालाचोर-ता. १४-११-३६ का पत्र, परम प्रसिद्ध भारतरत्न श्री
१००८ श्री शतावधानी श्री रतनचंदजी महाराज. (५) बम्बई-ता. १६-११-३६ का पत्र, प्रसिद्ध कवीन्द्र श्री १००८ श्री
कवि नानचंद्रजी महाराज. (६) आगरा-ता. १८-१२-३६, जगत् वल्लभ श्री १००८ जैनदिवाकर
श्री चौथमलजी महाराज, गुणवन्त गणीजी श्री १००७ श्री साहित्यप्रेमी
श्री प्यारचन्दजी महाराज. (७) हैद्राबाद-( दक्षिण ) ता. २५-११-३६ का पत्र, स्थिवरपदभूषित
भाग्यवान पुरुष श्री ताराचंदजी महाराज तथा प्रसिद्ध वक्ता श्री १००७
श्री सोभागमलजी महाराज. (८) जयपुर-ता. २७-११-३६ का पत्र, संप्रदाय के गौरववर्धक शांत
म्वभावी श्री १००८ श्री पूज्य श्री खुवचन्दजी महाराज. (९) अम्बाला-ता. २९-११-३६ का पत्र, परमप्रतापी पंजावकेशरी श्री
१००८ श्री पृज्य श्री रामजी महाराज.
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(१०) सेलाना-ता. २९-११-३६ का पत्र, शास्त्रों के ज्ञाता श्रीमान्
रतनलालजी डोसी. (११) खीचन-ता. ९-११-३६ का पत्र, पंडितरत्न न्यायतीर्थ सुश्रावक
श्रीयुत् माधवलालजी.
ता० २५-११-३६ सादर जय जिनेन्द्र ___आपका भेजा हुवा उपासकदशांग सूत्र तथा पत्र मिला यहां विराजित प्रवर्तक वयोवृद्ध श्री १००८ श्री ताराचंदजी महाराज पण्डित श्री किशनलालजी महाराज आदि ठाणा १४ सुख शांती में विराजमान हैं
आपके वहां विराजित जैनशास्त्राचार्य पूज्यपाद श्री १००८ श्री घालीलालजी महाराज आदि ठाणा नव से हमारी बन्दना अर्ज कर सुख शांति पूछे आपने उपासकदशांग सूत्र के विषय में यहां विराजित मुनिवरों की सम्मती मंगाई उसके विषय में वक्ता श्री सोभागमलजी महाराजने फरमाया है कि वर्तमान में स्थानकवासी समाज में अनेकानेक विद्वान मुनि महाराज मौजूद हैं मगर जैनशास्त्र की वृत्ति रचने का साहस जैसा घासीलालजी महाराज ने किया है वैसा अन्यने किया हो ऐसा नजर नहीं आता दूसरा यह शास्त्र अत्यन्त उपयोगी तो यों हैं संस्कृत प्राकृत हिन्दी और गुजराती भाषा होने से चारों भाषा वाले एक ही पुस्तक से लाभ उठा सकते हैं जैन समाज में ऐसे विद्वानोंका गौरव बढे यही शुभ कामना है आशा है कि स्थानकवासी संघ विद्वानों की कद्र करना सीखेगा। योग्य लिखें शेष शुभ
भवदीय जमनालाल रामलाल कीमती
आगरा से:
श्री जैनदिवाकर प्रसिद्धवक्ता जगबल्लभ मुनि श्री चोथमलजी महाराज व पंडितरत्न सुव्याख्यानि गणीजी श्री प्यारचन्दजी महाराजने इस पुस्तकको अतीव पसन्द की है।
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श्रीमान् न्यायतीर्ध पण्डित
माधवलालजी खचिन से लिखते हैं किउन पंडितरत्न महाभाग्यवंत पुरुषों के सामने उनकी अगाधतत्त्वगवेपणा के विषय में मैं नगण्य क्या सम्मति दे सकता हूं।
परन्तु:
मेरे दो मित्रों ने जिन्हों ने इसको कुछ पढा है बहुत सराहना की वास्तव में ऐसे उत्तम व सबके समझने योग्य ग्रन्थों की बहुत आवश्यकता है और इस समाज का तो ऐसे ग्रन्थ ही गौरव बढा सकते हैं-ये दोनों ग्रन्थ वास्तव में अनुपम हैं ऐसे ग्रन्धरत्नों के सुप्रकागसे यह समाज अमावास्या के घोर अन्धकार में दीपावली का अनुभव करती हुई महावीर के अमूल्य वचनों का पान करती हुई अपनी उन्नति में अग्रसर होती रहेगी।
ता. २९-११-३६
अम्बाला (पंजाब) पत्र आपका मिला श्री श्री १००८ पंजावकेसरी पूज्य श्री काशीरामजी महाराज की सेवा में पढ़ कर सुना दिया। आपकी भेजी हुई उपासकदशान सत्र तथा गृहिधर्मकल्पतरू की एक २ प्रति भी प्राप्त हुई। दोनों पुस्तकें अति उपयोगी तथा अत्यधिक परिश्रम से लिखी हुई हैं।
से ग्रन्धरत्नों के प्रकाशित करवानेकी बड़ी आवश्यकता है । इन पुस्तकों से जैन तथा अजैन सबका उपकार हो सकता है । आपका यह पुरुषार्थ सराहनीय है।
आपका शशिभूषण शास्त्री अध्यापक जैन हाई स्कूल
अम्बाला शहर
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शान्तस्वभावी वैराग्यमूर्ति तत्ववारिधि, धैर्यवान श्री जैनाचार्य पूज्यवर श्री श्री १००८ श्री खूबचन्दजी महाराज साहेबने मूत्र श्री उपासकदशाङ्गजी को देखा | आपने फरमाया कि पण्डित मुनि घासीलालजी महाराज ने उपासकदशाङ्ग सूत्रको टीका लिखने में बडा ही परिश्रम किया है । इस समय इस प्रकार प्रत्येक सूत्रों की संशोधनपूर्वक सरल ढोका और शुद्ध हिन्दी अनुवाद होने से भगवान निर्ग्रन्थों के प्रवचनों के अपूर्व रस का लाभ मिल सकता है ।
बालाचोर से भारतरत्न शतावधानी पंडित मुनि श्री १००८ श्री रतनचन्दजी महाराज फरमाते हैं कि :
उत्तरोत्तर जोतां मूल मूत्रनी संस्कृत टीकाओ रचवामां टीकाकारे स्तुत्य प्रयास कर्यो छे, जे स्थानकवासी समाज माटे मगरूरी लेवा जेवुं के, वली करांचीना श्री संत्रे सारा कागळमां अने सारा टाईपमां पुस्तक छपावी प्रगट कर्तुं छे जे प्रकारनी साहित्य सेवा बजावी छे.
एक
बम्बई शहेर में विराजमान कवि मुनि श्री नानचन्दजी महाराजने फरमाया है कि पुस्तक सुन्दर है प्रयास अच्छा है ।
खीचन से स्थविर क्रियापात्र मुनि श्री रतनचन्दजी महाराज और पंडित रत्न मुनिश्री समर्थमलजी महाराज श्री फराते हैं कि - विद्वान महात्मा पुरुषोंका प्रयत्न सराहनीय है, जैनागम श्रीमद् उपासकदशाङ्गमुत्र की टीका, एवं उसकी सरल सुबोधनी शुद्ध हिन्दी भाषा बड़ी ही सुन्दरता से लिखी है ।
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श्री वीतरागाय नमः॥
श्री श्री श्री १००८ जैनधर्म दिवाकर जैनागमरत्नाकर श्रीमज्जैनाचार्य श्री पूज्य घासीलालजी महाराज चरणवन्दन स्वीकार हो।
अपरश्च समाचार यह है कि आपके भेजे हुए ९ शास्त्र मास्टर शोभालालजी के द्वारा प्राप्त हुए, एतदर्थ धन्यवाद ! आपश्रीजीने तो ऐसा कार्य किया है जो कि हजारों वर्षों से किसी भी स्थानकवासी जैनाचार्य ने नहीं किया।
आपने स्थानकवासीजैनसमाज के ऊपर जो उपकार किया है वह कदापि भुलाया नहीं जा सकला और नहीं भुलाया जा सकेगा।
हम तीनों मुनि भगवान महावीर से अथवा शासनदेव से प्रार्थना करते हैं कि आपकी इस वज्रमयी लेग्वनी को उत्तरोत्तर शक्ति प्रदान करें ना कि आप जैन समाज के ऊपर और भी उपकार करते रहें और आप चिरञ्जीव हों।
हम हैं आप के मुनि तीन मुनि सत्येन्द्रदेव-मुनि लखपतराय-मुनि पद्मसेन
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इतवारी बाजार नागपुर ता. १९-१२-५६
प्रखर विद्वान जैनाचार्य मुनिराज श्री घासीलालजी महाराजद्वारा जो आगमोद्धार हुआ और हो रहा है सचमुच महाराजश्री का यह स्तुत्य कार्य है। हमने प्रचारकजी के द्वारा नौ सूत्रों का सेट देखा और कइ मार्मिक स्थलोंको पढा, पढ़ कर विद्वान मुनिराजश्री की शुद्ध श्रद्धा तथा लेखनीके प्रति हार्दिक प्रसन्नता फूट पड़ी।
वास्तव में मुनिराज श्री जैन समाज पर ही नहीं इतर समाज पर भी महा उपकार कर रहे हैं। ज्ञान किसी एक समाज का नहीं होता वह सभी समाज की अनमोल निधि है जिसे कठिन परिश्रम से तैयार कर जनता के सम्मुख रक्खा जा रहा है जिसका एक एक सेट हर शहर गांव और घर घर में होना आवश्यक है।
साहित्यरत्न मोहनमुनि सोहनमुनि जैन
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શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રનુ સમ્મતિ પત્ર
શ્રમણ સઘના મહાન આચાય આગમ વારિધિ સ તન્ત્ર સ્વતંત્ર જૈનાચાય પૂજ્યશ્રી આત્મારામજી મહારાજે આપેલા સમ્મતિપત્રને ગુજરાતી અનુવાદ,
મેં તથા પંડિત મુનિ હેમચંદ્રજીએ પ'ડિત મુલચંદ વ્યાસ ( નાનાર્ મારવાઙવાહા ) દ્વારા મળેલી પતિ રત્ન શ્રી ઘાસીલાલજી મુનિ વિરચિત સત્કૃત અને હિન્દી ભાષા સહિત શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રની આચારમણિમ જાષા ટીકાનુ અવલોકન કર્યું આ ટીકા સુદર બની છે. તેમાં પ્રત્યેક શબ્દનો અર્થ સારી રીતે વિશેષભાવ લઈને સમજાવવામાં આવેલ છે
તેથી વિદ્વાનેા અને સાધારણ બુદ્ધિવાળા માટે પરમ ઉપકાર કરવાળી છે ટીકાકારે મુનિના આચાર વિષયના સારા ઉલ્લેખ કરેલ છે. જે આધુનિકમતાવલખી અહિંસાના સ્વરૂપને નથી જાણતા, યામાં પાપ સમજે છે તેમને માટે અહિંસા શું વસ્તુ છે. તેનુ સારી રીતે પ્રતિપાદન કરેલ છે. વૃત્તિકારે સૂત્રના પ્રત્યેક વિષયને સારી રીતે સમજાવેલ છે આ વૃત્તિના અવલેાકનથી વૃત્તિકારની અતિશય યેાગ્યતા સિદ્ધ થાય છે
આ વૃત્તિમા એક ખીજી વિશેષતા એ છે કે મૂલસૂત્રની સ ંસ્કૃત છાયા હેવાથી સૂત્ર, સૂત્રનાં પદ અને પદચ્છેદ સુખેાધદાયક અનેલ છે
પ્રત્યેક જીજ્ઞાસુએ આ ટીકાનુ અવલાકન અવશ્ય કરવું જોઇએ. વધારે શું કહેવુ અમારી સમાજમા આવા પ્રકારના વિદ્વાન મુનિ રત્નનુ હોવું એ સમાજનુ અહેાભાગ્ય છે. આવા વિદ્વાન મુનિરત્નેાના કારણે સુપ્તપ્રાય—સુતેલા સમાજ અને લુપ્તપ્રાય એટલે લેપ પામેલુ સાહિત્ય એ બન્નેને ફ્રીથી ઉદ્ભય થશે. અમ। વૃત્તિકારને વારવાર ધન્યવાદ આપીએ છીએ,
વિક્રમ સવંત ૧૯૯૦ ફાલ્ગુન શુકલ તેરસ મગળવાર ( અલવર સ્ટેટ)
કંઈ
ઉવજઝાય જઈ સુણી આયારામાં પંચનઈ એ
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શ્રમણ સંઘના પ્રચારમંત્રી પંજાબકેશરી રાહારાજ શ્રી પ્રેમચંદજી મહારાજ જેઓશ્રી રાજકોટમાં પધારેલા હતા ત્યારે તેઓના તરફથી શાસ્ત્રોને માટે મળેલ અભિપ્રાય.
શાસ્ત્રોદ્ધારસમિતિ તરફથી પૂજ્યપાદ શાસ્ત્રવારિધિ પંડિતરાજ સ્વામીશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ દ્વારા શાસ્ત્રોદ્ધારનું જે કાર્ય થઈ રહ્યું તે કાર્ય જૈન સમાજ તેમાં ખાસ કરીને સ્થાનકવાસી જૈન સમાજને માટે મૂળભૂત મૌલિક સંસ્કૃતિની જડને મજબુત કરવાવાળું છે.
એટલા ખાતર આ કાર્ય અતિ પ્રશંસનીય છે માટે દરેક વ્યક્તિએ તેમાં યથાશક્તિ ભેગ દેવાની ખાસ આવશ્યકતા છે અને તેથી એ ભગીરથ કાર્ય જલ્દીથી જલ્દી સંપૂર્ણપણે પાર પાડી શકાય અને જનતા શ્રુતજ્ઞાનને લાભ મેળવી શકે.
દરીયાપુરી સંપ્રદાયના પૂજ્ય આચાર્યશ્રી ઈશ્વરલાલજી મહારાજ સાહેબના
સૂત્ર સંબંધે વિચારો.
નમામિ વીર ગિરિસારધીરે પૂજ્યપાદ જ્ઞાનિપ્રવરશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ તથા પંડિતશ્રી કનૈયાલાલજી મહારાજ આદિ થાણું છની સેવામાં–
અમદાવાદ શાહપુર ઉપાશ્રયથી મુનિ દયાનંદજીના ૧૦૮ પ્રણિપાત.
આપ સર્વે થાણુઓ સુખ સમાધિમાં હશે નિરંતર ધર્મધ્યાન ધર્મરાધનમાં લીન હશે.
સૂત્ર પ્રકાશન કાર્ય ત્વરિત થાય એવી ભાવના છે દશવૈકાલિક તથા આચારાંગ એક એક ભાગ અહીં છે ટીકા ખૂબ સુંદર, સરળ અને પંડિતજનેને સુપ્રિય થઈ પડે તેવી છે. સાથે સાથે ટીકા વિનાના મુળ અને અર્થ સાથે પ્રકાશન થાય તે શ્રાવકગણ તેને વિશેષ લાભ લઈ શકે અત્રે પૂજ્ય આચાર્ય ગુરૂદેવને આંખે મેતી ઉતરાવ્યું છે અને સારું છે એજ. આસો સુદ ૧૦, મંગળવાર તા. ૨૫-૧૦-૫૫
પુનઃ પુનઃ શાતા ઈચ્છ, દયા મુનિના પ્રણિપાત.
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દરીયાપુરી સંપ્રદાયના પંડિત રત્ન ભાઇચંદજી મહારાજને અભિપ્રાય
રાણપુર તા. ૧૯-૧૨-૧૯૫૫ પૂજ્યપાદ જ્ઞાનિપ્રવર પંડિત રત્ન પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ આદિ મુનિવરની સેવામાં, આપ સર્વ સુખસમાધીમાં હશે.
સૂત્રપ્રકાશનનું કામ સુદર થઈ રહ્યું છે તે જાણું અત્યંત આનંદ. આપના પ્રકાશિત થયેલાં કેટલાક સૂત્રે જોયાં. સુદર અને સરલ સિદ્ધાંતના ન્યાયને પુષ્ટિ કરતી ટીકા પડિતરત્નને સુપ્રિય થઈ પડે તેવી છે. સૂત્રપ્રકાશનનું કામ ત્વરિત પૂર્ણ થાય અને ભવિ આત્માઓને આત્મકલ્યાણ કરવામાં સાધનભૂત થાય એજ અભ્યર્થના.
લી. પંડિતરત્ન બાળબ્રહ્મચારી પૂ૦ શ્રી ભાઈચંદ મહારાજની
આજ્ઞાનુસાર શાન્તિમુનીના પાયવંદન સ્વીકારશે.
તા. ૧૧-૫-૫૬
વીરમગામ ગચ્છાધિપતિ પૂજ્ય મહારાજ શ્રી જ્ઞાનચ દ્રજી મહારાજના સંપ્રદાયના આત્માર્થી, ક્રિયાપાત્ર, પંડિતરત્ન, મુનિશ્રી સમરથમલજી મહારાજને અભિપ્રાય.
ખીચનથી આવેલ તા ૧૨-૨-૧૬ના પત્રથી ઉદ્ધત
પૂજ્ય આચાર્ય ઘાસીલાલજી મહારાજના હસ્તક જે સૂત્રોનું લખાણ સુંદર અને સરળ ભાષામાં થાય છે. તે સાહિત્ય, પંડિત મુનિશ્રી સમરથમલજી મહારાજ, સમય છે મળવાને કારણે સંપૂર્ણ જોઈ શકયા નથી. છતાં જેટલું સાહિત્ય જોયું છે, તે બહુ જ સારું અને મનન સાથે લખાયેલું છે, તે લખાણ શાસ્ત્ર-આજ્ઞાને અનુરૂપ લાગે છે આ સાહિત્ય દરેક શ્રદ્ધાળુ જેને વાંચવા ગ્ય છે. આમાં સ્થાનકવાસી સમાજની શ્રદ્ધા, પ્રરૂપણું અને ફરસણાની દઢતા શાસ્ત્રાનુકૂળ છે. આચાર્યશ્રી અપૂર્વ પરિશ્રમ લઈ સમાજ ઉપર મહાન ઉપકાર કરે છે.
લી. કીશનલાલ પૃથ્વીરાજ માલુ
મુ. ખીચન.
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લીબડી સપ્રદાયના સદાનદી મુનિશ્રી છેટાલાલજી મહારાજને અભિપ્રાય
શ્રી વીતરાગદેવે જ્ઞાનપ્રચારને તીર્થંકર-નામ-ગોત્ર માંધવાનું નિમિત્ત કહેલ છે. જ્ઞાનપ્રચાર કરનાર, કરવામાં સહાય કરનાર, અને તેને અનુમોદન આપનાર જ્ઞાનાવરણીય કર્મીને ક્ષય કરી કેવળ જ્ઞાનને પ્રાપ્ત કરી પરમ પદનાં અધિકારી અને છે. શાસ્ત્રજ્ઞ, પરમ શાન્ત અને અપ્રમાદી પુજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ તે અવિશ્રાન્તપણે જ્ઞાનની ઉપાસના અને તેની પ્રભાવના અનેક વિકટ પ્રસ ંગામાં પણ કરી રહ્યા છે. તે માટે તેઓશ્રી અનેકાઃ ધન્યવાદના અધિકારી છે. વંદનીય છે, તેમની જ્ઞાનપ્રભાવનાની ધગશ ઘણા પ્રમાદિને અનુકરણીય છે. જેમ પૂજયશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ પાતે જ્ઞાનપ્રચાર માટે અવિશ્રાન્ત પ્રયત્ન કરે છે. તેમજશાસ્ત્ર દ્ધારસમિતિના કાર્યવાહકો પણ એમાં સહાય કરીને જે પવિત્ર સેવા કરી રહેલ છે. તે પણ ખરેખર ધન્યવાદના પૂર્ણ અધિકારી છે.
એ સમિતિના કાર્યકરોને મારી એક સુચના છે કેઃ—
શાસ્ત્રોદ્ધારક પ્રવર પંડિત અપ્રમાદી સત ઘાસીલાલજી મહારાજ જે શાસ્ત્રોદ્વારનું કામ કરી રહેલ છે. તેમાં સહાય કરવા માટે-પડિત વિગેરેના માટે જે ખર્ચો થઈ રહેલ છે. તેને પહેાંચી વળવા માટે સારૂં સરખું ફંડ જોઈએ, એના માટે મારી એ સુચના છે કેઃ-શાસ્ત્રોદ્ધારસમિતિના મુખ્ય કાર્ય વાહકજો બની શકે તે પ્રમુખ પાતે અને ખીન્ન એ ત્રણ જણાએ ગુજરાત, સૌરાષ્ટ્ર, અને કચ્છમાં પ્રવાસ કરી મેમ્બરા બનાવે અને આર્થિક સહાય મેળવે,
જો કે અત્યારની પરિસ્થિતિ વિષમ છે. વ્યાપારીઓ, ધાદારીઓને પેાતાના વ્યવહાર સાચવવા પણ મુશ્કેલ અન્યા છે. છતાં જે સંભાવિત ગૃહસ્થા પ્રવાસે નીકળે તેા જરૂર કાર્ય સફળ કરે એવી મને શ્રદ્ધા છે.
આર્થિક અનુકુળતા થવાથી શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ પણ વધુ સરલતાથી થઇ શકે. પૂજ્યશ્રી હાસીલાલજી મહારાજ જ્યાં સુધી આ તરફ વિચરે છે ત્યાં સુધીમા એમની જ્ઞાનશક્તિના જેટલેા લાભ લેવાય તટલા લઈ લેવા, કદાચ સૌરાષ્ટ્રમાં વધુ વખત રહેવાથી તેમને હવે બહાર વિહરવાની ઈચ્છા થતી હોય તા શાન્તિભાઈ શે જેવાએ વિનંતી કરી અમદાવાદ પધારવા, અને ત્યા અનુકુળતા મુજખ બે-ત્રણ વર્ષની સ્થિરતા કરાવીને તેમની પાસે શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ પૂર્ણ કરાવી લેવું જોઈ એ.
થોડા વખતમાં નમોધપુરમાં શાસ્ત્રોદ્ધારકીટી મળવાની છે, તે વખત ઉપરની સૂચના વિચારાય તે ઠીક.
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કર
ફરી શાસ્ત્રોદ્ધારક પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજને એમની આ સેવા અને પરમ કલ્યાણકારક પ્રવૃત્તિને માટે વારવાર અભિનંદન છે. શાસનનાયક દેવ તેમના શરીરાદિને સશક્ત અને દીર્ઘાયુ રાખી સમાજ ધર્મની વધુ વધુ સેવા કરી શકે. અસ્તુ ચાતુર્માસ સ્થળ, લીંબડી
સાં. ૨૦૧૦ શ્રાવણ વદ ૧૩ ગુરૂ.
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શ્રી વમાન સંપ્રદાયના પૂજ્ય શ્રી પુનમચંદ્રજી મહારાજના અભિપ્રાય
લી
સદાન'ની જૈનમુનિ છેટાલાલજી
શારિવેશારદ પૂજય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજશ્રીએ જૈન આગમા ઉપર જે સંસ્કૃત ટીકા વગેરે રચેલ છે તે માટે તેઓશ્રી ધન્યવાદને પાત્ર છે તેમણે આગમો ઉપરની સ્વતંત્ર ટીકા રચીને સ્થાનકવાસી જૈન સમાજનુ ગોરવ વધાર્યું છે, આગમ ઉપરની તેમની સસ્કૃતટીકા ભાષા અને ભાવની ષ્ટિએ ઘણી જ સુદર છે. સંસ્કૃતરચના મા તેમજ અલ'કાર વગેરે ગુણોથી યુક્ત છે. વિદ્યાનાએ તેમજ જૈન સમાજના આચાર્યાં, ઉપાધ્યાય વગેરે એ શાસ્રો ઉપર રચેલી આ સસ્કૃતરચનાની કદર કરવી જોઈએ અને દરેક પ્રકારના સહકાર આપવે જોઈ એ.
તા ૨૨-૪-૫૬ રવિવાર મહાવીર જયતિ
આવા મહાન કાર્યમા પૉંડિતરત્ન પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ જે પ્રયત્ન કરી રહ્યા છે તે અલૌકિક છે. તેમનુ આગમ ઉપરની સંસ્કૃત ટીકા વગેરે રચવાનું ભગીરથકાર્ય શીઘ્ર સફળ થાય એ જ શુભેચ્છા સાથે,
અમદાવાદ
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મુનિ પૂર્ણ ચંદ્રજી
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ખંભાત સંપ્રદાયના મહાસતી શારદાબાઇ સ્વામીના અભિપ્રાય
લખતર તા. ૨૫૪-૫૬
શ્રીમાન શેડ શાંતીલાલભાઈ મગળદાસભાઇ પ્રમુખ સાહેબ અખિલ ભારત ક્વે સ્થા॰ જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ
મુા. અમદાવાદ
અમે અત્રે દેવગુરૂની કૃપાએ સુખરૂપ છીએ.વિ. મા આપની સમિતિદ્વારા પુ. આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસીલાલજી મહાગજ સાહેબ જે સૂત્રેાનુ કાર્ય કરે છે તે પૈકીના સુત્રોમાંથી ઉપાનકદશાંગત્ર, આચારાગસૂત્ર, અનુત્તરોષાતિકત્ર
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દશવૈકાલિકસૂત્ર વિગેરે સૂત્રે જેમાં તે સૂત્રે સંસ્કૃત હિન્દી અને ગુજરાતી ભાષાઓમાં હોવાને કારણે વિદ્વાન અને સામાન્ય જનેને ઘણું જ લાભદાયિક છે. તે વાંચન ઘણું જ સુંદર અને મનરંજન છે. આ કાર્યમાં પૂજ્ય આચાર્યશ્રી જે અઘાત પુરૂષાથે કાર્ય કરે છે તે માટે વારંવાર ધન્યવાદને પાત્ર છે. આ સૂત્રોથી સમાજને ઘણું લાભનું કારણ છે.
હંસ સમાન બુદ્ધિવાળા આત્માઓ સ્વપરના ભેદથી નિખાલસ ભાવનાએ અવલોકન કરશે તે આ સાહિત્ય સ્થાનકવાસી સમાજ માટે અપૂર્વ અને ગૌરવ લેવા જેવું છે. માટે દરેક ભવ્ય આત્માઓને સૂચન કરું છું કે આ સૂત્રે પોતપિતાના ઘરમાં વસાવાની સુંદર તકને ચુકશે નહિ. કારણ આવા શુદ્ધ પવિત્ર અને સ્વપરંપરાને પુષ્ટીરૂપ સૂત્રે મળવાં બહુ મુશ્કેલ છે. આ કાર્યને આપશ્રી તથા સમિતિના અન્ય કાર્યકરે જે શ્રમ લઈ રહ્યા છે તેમાં મહાન નિજાનું કારણ જવામાં આવે છે તે બદલ ધન્યવાદ. એ જ
લી. શારદાબાઈ સ્વામી
ખંભાત સંપ્રદાય.
બરવાળા સંપ્રદાયના વિદુષી મહાસતીજી સેંઘીબાઈ
સ્વામીને અભિપ્રાય
ધંધુકા તા. ૨૭–૧–૫૬ શ્રીમાન શેઠ શાન્તીલાલ મંગળદાસભાઈ પ્રમુખ અ. ભ૦ ૦ સ્થા. જૈનશાસ્ત્ર ઉદ્ધાર સમિતિ મુ. રાજકોટ
અત્રે બીરાજતા ગુરુ ગુના ભંડાર મહાસતીજી વિદુષી સેંઘીબાઈ સ્વામી તથા હીરાબાઈ સ્વામી આદિઠાણું બને સુખશાતામાં બીરાજે છે, આપને સુચન છે કે અપ્રમત્ત અવસ્થામાં રહી નિવૃત્તિ ભાવને મેળવી ધર્મધ્યાન કરશે એજ આશા છે.
વિશેષમાં અમને પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજના રચેલાં સૂત્રો ભાઈ પિપટ ધનજીભાઈ તરફથી ભેટ તરીકે મળેલાં તે સૂત્રો તમામ આઘોપાત વાંચ્યાં મનન કર્યા અને વિચાર્યા છે તે સૂત્રો સ્થાનકવાસી સમાજને અને વીતરાગમાગને ખુબ જ ઉન્નત બનાવનાર છે. તેમાં આપણી શ્રદ્ધા એટલી ન્યાયરૂપથી ભરેલી છે તે આપણે સમાજ માટે ગૌરવ લેવા જેવું છે. હંસ સમાન
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આત્માએ જ્ઞાનઝરણાએથી આત્મરૂપ વાડીને વિકસિત કરશે. ધન્ય છે આપને અને સમિતિના કાર્યકરોને જે સમાજ ઉત્થાન માટે કાઇની પણ પરવા કર્યાં વગર જ્ઞાનનુ દાન ભવ્ય આત્માને આપવા નિમિત્તરૂપ થઈ રહ્યા છે. આવા સમ વિદ્વાન પાસેથી સંપૂર્ણ કાર્ય પુરૂં કરાવશે। તેવી આશા છે.
એજ લિ. ખરવાળા સંપ્રદાયના વિદુષી મહાસતીજી મેઘીબાઈ સ્વામી
ના ફરમાનથી લી ખેાડીદાસ ગણેશળાઇ—ધ ધુકા સ્થાનકવાસી જૈન સ ઘના પ્રમુખ
*
અદ્યતન પતિને અપનાવનાર વડોદરા કોલેજના એક વિદ્વાન પ્રોફેસરના અભિપ્રાય
સ્થાનકવાસી સ પ્રદાયના મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ જૈનશાસ્ત્રોના સસ્કૃત ટીકાખન્દ્ર, ગુજરાતીમાં અને હિન્દીમા ભાષાતરા કરવાના ઘણા વિકટ કાર્યોંમાં બ્યાસ થયેલા છે. શાસ્ત્રો પૈકી જે શાસ્ત્રો પ્રસિદ્ધ થયાં છેતે હું જોઈ શકયા છુ, મુનિશ્રી પેાતે સંસ્કૃત, અર્ધમાગધી હિંદી ભાષાઓના નિષ્ણાત છે, એ એમના ટુંક પરિચય કરતા સહજ જણાઈ આવે છે. શાસ્ત્રોનું સ પાદન કરવામા તેમને પેાતાના, શિષ્ય વના અને વિશેષમા ત્રણ પ'ડિતાના સહયાર મન્યેા છે, તે જોઈ મને આનંદ થયે। સ્થાનકવાસી સ પ્રદાયના અગ્રેસરોએ પડિતાના સહકાર મેળવી આપી, મુનિશ્રીના કાર્યને સરળ અને શિષ્ટ બનાવ્યુ છે. સ્થાનકવાસી સમાજમાં વિદ્વત્તા ઘણી ઓછી છે, તે દિગમ્બર મૂર્તિપૂજક શ્વેતાંબર વગેરે જૈનદર્શનના પ્રતિનિધિઓના ઘણા સમયથી પરિચયમા આવતાં હું વિરાધના ભય વગર,કહી શકુ. પૂર્વ મહારાજના આ પ્રયાસ સ્થાનકવાસી સ પ્રદાયમા પ્રથમ છે એવી મારી માન્યતા છે. સંસ્કૃત સ્પષ્ટીકરણા સારાં આપવામાં આવ્યા છે, ભાષા શુદ્ધ છે એમ ચાક્કસ કહી શકું , ગુજરાતી ભાષાતરે પણ શુદ્ધ અને સરળ થયેલાં છે મને વિશ્વાસ છે કે મારાજશ્રીના આ સ્તુત્ય પ્રયાસને જૈનસમાજ ઉત્તેજન આપશે અને શાસ્ત્રોના ભાતને વાચનાલયમા અને કુટુએમા વસાવી શકાય તે પ્રમાણે વ્યવસ્થા કરશે. પ્રનાપગ, વડેદરા તા. ૨૭-૨-૧૯૫
કામદાર કેશવલાલ હિંમતરામ એમ. એ.
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' મુંબઈની બે કલેજેના પ્રોફેસરોને અભિપ્રાય
મુંબઈ તા. ૩૧-૩-૫૬ શ્રીમાન શેઠ શાંતીલાલ મંગળદાસ પ્રમુખ શ્રી અખિલ ભારત , સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ, રાજકેટ.
પૂજ્યાચાર્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજે તૈયાર કરેલાં આચારાંગ દશવૈકાલિક, આવશ્યક, ઉપાસકદશાંગ વગેરે સૂત્રે અમે જોયાં. આ સૂત્રે ઉપર સંસ્કૃતમાં ટીકા આપવામાં આવી છે અને સાથે સાથે હિંદી અને ગુજરાતી ભાષાંતરો પણ આપવામાં આવ્યાં છે. સંસ્કૃતટીકા અને ગુજરાતી તથા હિંદી ભાષાંતરે જોતાં આચાર્યશ્રીના આ ત્રણે ભાષા પરના એકસરખા અસાધારણ પ્રભુત્વની સચોટ અને સુરેખ છાપ પડે છે. આ સૂત્ર ગ્રંથમાં પાને પાને પ્રગટ થતી આચાર્યશ્રીની અપ્રતિમ વિદ્વત્તા સુગ્ધ કરી દે તેવી છે. ગુજરાતી તથા હીંદીમાં થયેલાં ભાષાંતરમાં ભાષાની શુદ્ધિ અને સરળતા નોંધપાત્ર છે, એથી વિદ્વજન અને સાધારણ માણસ ઉભયને સંતોષ આપે એવી એમની લેખિનીની પ્રતીતિ થાય છે. ૩૨ સૂત્રોમાંથી હજુ ૧૩ સૂત્રો પ્રગટ થયાં છે. બીજા સૂત્રો લખાઈને તૈયાર થઈ ગયાં છે. આ બધાં જ સૂત્રો જ્યારે એમને હાથે તૈયાર થઈને પ્રગટ થશે ત્યારે જેનસૂત્ર–સાહિત્યમાં અમૂલ્ય સંપત્તિરૂપ ગણાશે એમાં સંશય નથી. આચાર્યશ્રી આ મહાન કાર્યને જૈન સમાજને વિશેષતઃ સ્થાનકવાસી સમાજને સંપૂર્ણ સહકાર સાંપડી રહેશે એવી અમે આશા રાખીએ છીએ.
પ્રો. રમણલાલ ચીમનલાલ શાહ
સેંટ ઝેવિયર્સ કેલેજ, મુંબઈ - પ્રો. તારા રમણલાલ શાહ
સોફીયા કોલેજ, મુંબઈ
રાજકોટની ધમેન્દ્રસિંહજી કેલેજના પ્રોફેસર સાહેબને અભિપ્રાય
જયમહાલ જાગનાથ પ્લેટ
રાજકોટ, તા. ૧૮-૪-૫૬ પૂજ્યાચાર્ય પં. મુનિ શ્રી ઘાસીલાજી મહારાજ આજે જૈનસમાજ માટે એક એવા કાર્યમાં વ્યાપ્ત થએલા છે કે જે સમાજ માટે બહુ ઉપયોગી થઈ પડશે. મુનિશ્રીએ તૈયાર કરેલાં આચારાંગ, દશવૈકાલિક, શ્રી વિપાકશુત વિ મેં જોયાં.
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આ સૂત્રો જોતાં પહેલી જ નજરે મહારાજશ્રીના સસ્કૃત, અ`માગધી, હિન્દી તથા ગુજરાતી ભાષાએ ઉપરના અસાધારણ કાણુ જણાઇ આવે છે. એક પણ ભાષા મહારાજશ્રીથી અાણી નથી આપણે જાણીએ છીએ કે એ સૂત્રો ઉચ્ચ અને પ્રથમ કોટિનાં તેની વસ્તુ ગંભીર, વ્યાપક અને જીવનને તલસ્પશી છે, આટલા ગહન અને સમાહ્ય સૂત્રોનુ ભાષાંતર પૂ ઘાસીલાલજી મહારાજ જેવા ઉચ્ચ કોટિના મુનિરાજને હાથે થાય છે તે આપણાં અહાભાગ્ય છે ય ત્રવાદ અને ભૌતિકવાદના આ જમાનામાં જ્યારે ધમ ભાવના ઓસરતી જાય છે એવે વખતે આવા તત્ત્વજ્ઞાન આધ્યાત્મિકતાથી ભરેલાં સૂત્રોનું સરળ ભાષામાં ભાષાંતર દરેક જીજ્ઞાસુ, મુમુક્ષુ અને સાધકને માદક થઈ પડે તેમ છે. જૈન અને જૈનેતર, વિદ્વાન અને સાધારણ માણસ સાધુ અને શ્રાવક દરેકને સમજણ પડે તેવી સ્પષ્ટ, સરળ અને શુદ્ધ ભાષામાં સૂત્રો લખવામા આવ્યાં છે. મહારાજશ્રીને જ્યારે જોઈ એ ત્યારે તેમના આ કાર્યોંમાં સકળાયેલા જોઈએ છીએ એ ઉપરથી મુનિશ્રીના પરિશ્રમ અને ધગશની કલ્પના કરી શકાય તેમ છે તેમનુ જીવન સૂત્રોમાં વણાઇ ગયુ છે,
મુનિશ્રી આ અસાધારણ કાર્ય માં પોતાના શિષ્યાના તથા પંડિતોના સહકાર મળ્યું છે. મને આશા છે કે જો દરેક મુમુક્ષુ આ પુસ્તકોને પોતાના ઘરમાં વસાવશે અને પેાતાના જીવનને સાચા સુખને માર્ગે વાળશે તા મહારાજશ્રીએ ઉઠાવેલો શ્રમ સપૂર્ણ પણે સફળ થશે.
પ્રો રસિકલાલ કસ્તુરચંદ ગાંધી એમ. એ. એલ એલ. મી.
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ધર્મેન્દ્રસિંહજી કેાલેજ રાજકાટ ( સૌરાષ્ટ્ર )
મુંબઇ અને ઘાટકોપરમાં મળેલી સભાએ ભિનાસર કેન્ફરન્સ તથા સાધુ સમેલનમાં મોકલાવેલ ઠરાવ
હાલ જે વખતે શ્રી. શ્વેતામર સ્થાનકવાસી જૈન સ ધ માટે આગમ સશેધન અને સ્વતંત્ર ટીકાવાળા શાસ્ત્રોદ્ધારની અતિ આવશ્યક્તા છે અને જે મહાનુભાવેએ આ વાત દીર્ઘદૃષ્ટિથી પહેલી પેાતાના મગજમા લઈ તે પાર પાડવા મહેનત લઈ રહ્યા છે તેવા મુનિ મહારાજ પડિતરત્ન શ્રી ઘાઞીલાલજી મહારાજ કે રેઓને સાદડી અધિવેશમાં સર્વાનુમતે સાહિત્ય મંત્રી નીમ્યા છે તેઓશ્રીની દેખરેખ નીચે અભા છે. સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ જે એક મેાટી વગવાળી કમિટી છે. તેની નાફતે કામ થઈ રહ્યુ છે, જેને પ્રધાનાચાર્યશ્રી તથા પ્રચાર મ ત્રીશ્રી
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ના અનેક અનુભવી મહાનુભાવોએ પિતાની પસંદગીની મહોર છાપ આ અને છેલ્લામાં છેલ્લા વડોદરા યુનિવર્સીટીના પ્રોફેસર કેશવલાલ કામદાર એ. પિતાનું વિસ્તરે પ્રમાણપત્ર આપ્યું છે તે શાસ્ત્રોદ્ધાર કમિટીના કામ સંમેલન તથા કેન્ફરન્સ હાર્દિક અભિનંદન આપે છે. અને તેમના કામને
વ્યા અને જે જે જરૂર પડે–પંડિતની અને નાણાંની-પાતાની પાસેના ફંડ અને જાહેર જનતા પાસેથી મદદ મળે તેવી ઈચ્છા ધરાવે છે.
આ શાસો અને ટીકાઓને જ્યારે આટલી બધી પ્રશંસાપૂર્વક પ મળી છે ત્યારે તે કામને મદદ કરવાની આ કોન્ફરન્સ પોતાની ફરજ મા અને જે કઈ ગુટી હોય તે પં. શ્રી ઘસીલાલજી મહારાજની નિ જઈ, બતાવીને સુધારવા પ્રયત્ન કરે. આ કામને ટલે ચઢાવવા જેવું પણ કામ સત્તા ઉપરના અધિકારીઓના વાણી કે વર્તનથી ન થાય તે પ્રમુખ સાહેબને ભલામણ કરે છે.
(સ્થા. જૈન પત્ર તા. ૮-૫
સ્વતંત્ર વિચારક અને નિડર લેખક “જૈન સિદ્ધાંત ના તંત્રી
શેઠ નગીનદાસ ગીરધરલાલને અભિપ્રાય શ્રી સ્થાનકવાસી શાસ્ત્રકાર સમિતિ સ્થાપીને પૂ. ઘાસીલાલજી રાજને સૌરાષ્ટ્રમાં બોલાવી તેની પર બત્રીસે સુત્રો તૈયાર કરવાની હિટ ચાલતી હતી ત્યારે તે હિલચાલ કરનાર શાસ્ત્ર છેઠ શ્રી દામોદરદાસભાઈ મારે પત્રવ્યવહાર ચાલે ત્યારે શેઠ શ્રી દામોદરદાસ માઈ તેમના એક મને લખેલું કે–
આપ સૂત્રોના મૂળ પાડ નાગી શુદ્ધ કરી જ તૈયાર કરી શકે તેવા સ્થાનકવાથી સંપ્રદાયમાં મુ ઘારીવાલજી મ. સિલાય મને કે વિશ્વ વિદ્યાન દેવામાં આવતા નથી લાંબી તપાસને તે એ રિ
લાલજીને પસંદ કરે છે.' કહી ઘરસ પાને વિન ડ ર ા ના તે વિ "; . તે અને તેનો પ થી કિ - - ઝાન : -- . વિન ડીની દ. ભાઈ જ
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નવાઇ નથી. અને પૂ. શ્રી ઘાસીલાલજીના બનાવેલાં સૂત્રેા જોતાં સૌ કોઈ ને ખાત્રી થાય તેમ છે કે દામેાદરદાસભાઈએ તેમજ સ્થાનકવાસી સમાજે જેવી આશા શ્રી ઘાસીલાલજી મ. પાસેથી રાખેલી તે ખરાખર ફળીભૂત થયેલ છે.
શ્રી વમાન શ્રમણસ ઘના આચાર્ય શ્રી આત્મારામજી મહારાજે શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજના સૂત્રેા માટે ખાસ પ્રશંસા કરી અનુમતિ આપેલ છે તે ઉપરથી જ શ્રી ઘાસીલાલજી મ. ના સૂત્રની ઉપયેાગિતાની ખાત્રી થશે.
આ સૂત્રેા વિદ્યાર્થીને, અભ્યાસીને તેમજ સામાન્ય વાંચકને સર્વાંને એક સરખી રીતે ઉપયાગી થઈ પડે છે. વિદ્યાર્થીને તેમજ અભ્યાસીને ‘મૂળ તથ સસ્કૃત ટીકા વિશેષ કરીને ઉપયાગી થાય તેમ છે. ત્યારે સામાન્ય હિંદી વાંચક હિંદી અનુવાદ અને ગુજરાતી વાંચકને ગુજરાતી અનુવાદથી આખું સૂત્ર સર ળતાથી સમજાય જાય છે.
( કેટલાકના એવા ભ્રમ છે કે સૂત્રો વાંચવાનુ કામ આપણુ કામ થહિ, સૂત્રે આપણને સમજાય નહિ. આ ભ્રમ તદૃન ખોટો છે. ખીજા કોઈપણ શાસ્રીર પુસ્તક કરતાં આ સૂત્રેા સામાન્ય વાચકને પણ ઘણી સરળતાથી સમજાઇ જાય છે સામાન્ય માણસ પણ સમજી શકે તેટલા માટે જ ભગવાન મહાવીરે તે વખતન લોક ભાષામાં (અધ માગધી ભાષામાં ) સૂત્રો મનાવેલાં છે. એટલે સૂત્રેા વાચવ તેમજ સમજવામાં ઘણા સરળ છે,
માટે કાઈ પણ વાચકને એના ભ્રમ હોય તે તે કાઢી નાંખવો અ ધર્મનું તેમજ ધર્મના સિદ્ધાતાનુ સાચુ જ્ઞાન મેળવવા માટે સૂત્રેા વાંચવા ચૂકવું નહિ. એટલું જ નહિ પણ જરૂરથી પહેલાં સૂત્રો જ વાંચવા.
સ્થાનકવાસીએમાં આ શ્રી સ્થા॰ જૈન શાસ્રોદ્ધાર સમિતિએ જે કાર કર્યું છે અને કરી રહી છે તેવુ કાઈ પણ સસ્થાએ આજ સુધી કર્યું નથી સ્થા॰ જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના છેલ્લા રિપોર્ટ પ્રમાણે ખીજા છ સૂત્રો લખા ચેલ પડ્યા છે, એ સૂત્રો-અનુયોગદ્વાર અને ઠાણાગ સૂત્રો-લખાય છે તે પ ઘેાડા વખતમાં તૈયાર થઈ જશે. તે પછી ખાકીના સૂત્રો હાથ ધરવામાં આવશે તૈયાર સૂત્રો જલ્દી છપાઇ જાય એમ ઈચ્છીએ છીએ અને સ્થા. મધુએ સમિતિને ઉત્તેજન અને સહાયતા આપીને તેમના સૂત્રો ઘરમા વસાવે એ ઇચ્છીએ છીએ · જૈન સિદ્ધાન્ત” પત્ર મે ૧૯૫
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શ્રુત ભક્તિ
( પૂ॰ આચાર્ય શ્રી ઇશ્વરલાલજી મ॰ સા॰ ની આજ્ઞા અનુસાર લખનાર ) ૬. સ. ના જૈન મુનિ શ્રી દયાનંદજી મહારાજ
તા ૨૩-૬-૫૬ શાહપુર, અમદાવાદ આજે લગભગ ૨૦ વર્ષથી શ્રદ્ધેય પરમપૂજ્ય, જ્ઞાનદિવાકર ૫૦ મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મ૦ ચરમ તીર્થંકર ભગવાન મહાવીરના અનુત્તર, અનુપમ ન્યાય યુક્ત, પૂર્વાપર અવિરોધ, સ્વપર કલ્યાણકારક, ચરમ શીતળ વાણીના દ્યોતક એવા શ્રી જિનાગમ પર પ્રકાશ પાડે છે, તેઓશ્રી પ્રાચીન, પૌર્વોત્ય સંસ્કૃતાદિ અનેક ભાષાના પ્રખર પંડિત છે અને જિનવાણીના પ્રકાશ સંસ્કૃત, ગુજરાતી અને હિંદીમાં મૂળ શખ્ખા, ટીકા, વિસ્તૃત વિવરણ સાથે પ્રકાશમાં લાવે છે એ જૈન સમાજ માટે અતિ ગૌરવ અને આનદના વિષય છે.
ભ॰ મહાવીર અત્યારે આપણી પાસે વિદ્યમાન નથી, પરંતુ તેમની વાણી રૂપે અક્ષરદેહ ગણધર મહારાજોએ શ્રુત પરંપરાએ સાચવી રાખ્યા શ્રુતપર પરાથી સચવાતું જ્ઞાન જ્યારે વિસ્તૃત થવાના સમય ઉપસ્થિત થવા લાગ્યા ત્યારે શ્રી દેવદ્રિગણિ ક્ષમાશ્રમણે વલ્ભીપુર-વળામાં તે આગમાને પુસ્તક રૂપે આરૂઢ કર્યાં. આજે આ સિદ્ધાંતા આપણી પાસે છે. તે અ માગધી પાલી ભાષામાં છે. અત્યારે આ ભાષા ભગવાનની, દેવાની તથા જનગણની ધ ભાષા છે. તેને આપણા શ્રમણેા અને શ્રમણીએ તથા મુમુક્ષુ શ્રાવક શ્રાવિકાએ મુખપાઠ કરે છે; પરન્તુ તેના અર્થ અને ભાવ ઘણા ઘેાડા સમજે છે.
જિનાગમ એ આપણાં શ્રદ્ધેય પવિત્ર ધર્મસૂત્રો છે. એ આપણી આખા છે. તેના અભ્યાસ કરવો એ આપણી સૌની જૈન માત્રની ફરજ છે. તેને સત્ય સ્વરૂપે સમજાવવા માટે આપણા સદ્ભાગ્યે જ્ઞાનદિવાકર શ્રી ધાીલાલજી મહારાજે સત્ સંકલ્પ કર્યાં છે અને તે લિખિત સૂત્રોને પ્રગટાવી શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિદ્વારા જ્ઞાન પરબ વહેતી કરી છે. આવા અનુપમ કા મા સકળ જૈનોના સહકાર અવશ્ય હા ઘરે અને તેને ધારેમાં વધારે પ્રચાર થાય તે માટે પ્રયત્ન કરવા ઘટે.
ભ॰ મહાવીરને ગણધર ગૌતમ પૂછે છે કે હે ભગવાન, સૂત્રની આરાધના કરવાથી શું ફળ પ્રાપ્ત થાય છે ? ભગવાન તેને પ્રતિ ઉત્તર આપે છે કે શ્રુતની આરાધનાથી જીવોના અજ્ઞાનના નાશ થાય છે. અને તેએ સંસારના કલેશેાથી નિવૃત્તિ મેળવે છે. અને સ'સાર કલેશાથી નિવૃત્તિ અને અજ્ઞાનને નાશ થતાં મેાક્ષ ફળની પ્રાપ્તિ થાય છે.
આવા જ્ઞાન કાર્યમાં મૂર્તિપૂજક જૈનો, દિગ ંબરા અને અન્ય ધર્મીએ હન્તી અને લાખો રૂપીયા ખર્ચે છે. હિંદુ ધર્મમાં પવિત્ર મનાતા ગ્રંથ ગીતાના સેંકડો નહિ પણ હજાર ટીકા ગ્રંથો દુનિયાની લગભગ સર્વ ભાષાઆમાં પ્રગટ થયા છે. ઈસાઇ ધર્માંના પ્રચારકે તેમના પવિત્ર ધર્મગ્રન્થ ખાઈબલના પ્રચારાર્થે તેનું જગતની સ
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ભાષાઓમાં ભાષાંતર કરી, તેને પડતર કરતાં પણ ઘણી ઓછી કિંમતે વેચી ધર્મસૂત્રોને પ્રચાર કરે છે. મુસ્લિમ લોકો પણ તેમના પવિત્ર મનાતા ગ્રંથ કુરાનનું અનેક ભાષાઓમાં ભાષાંતર કરી સમાજમાં પ્રચાર કરે છે. આપણે પસા પર મોહ ઉતારી ભગવાનના સિદ્ધાંતને પ્રચાર કરવા માટે તન, મન, ધન સમર્પણ કરવાં જોઈએ અને સૂત્ર પ્રકાશનના કાર્યને વધુ ને વધુ વેગ મળે તે માટે સક્રિય પ્રયત્નો કરવા જોઈએ આવા પવિત્ર કાર્યમાં સાપ્રદાયિક મતભેદ સૌએ ભૂલી જવા જોઈએ અને શુદ્ધ આશયથી થતા શુદ્ધ કાર્યને અપનાવી લેવું જોઈએ. સમિતિના નિયમનુસાર રૂ. ૨૫૧ ભરી સમીતીના સભ્ય બનવું જોઈએ ધાર્મિક અનેક ખાતાંઓના મુકાબલે સૂત્ર પ્રકાશનનુ– જ્ઞાન પ્રચારનું આ ખાતું સર્વશ્રેષ્ઠ ગણાવું જોઈએ.
આ કાર્યને વેગ આપવાની સાથે સાથે એ આગમ–ભગવાનની એ મહાવાણીનું પાન કરવા પણ આપણે હરહંમેશ તત્પર રહેવું જોઈએ જેથી પરમ શાંતિ અને જીવનસિદ્ધિ મેળવી શકાય.
(સ્થા. જૈન તા ૫-૭-૫૬)
શ્રી. અ. ભા સ્થા જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના પ્રમુખશ્રી વગેરે. રાણપુર
પરમ પવિત્ર સૌરાષ્ટ્રની પુણ્ય ભૂમિ પર જ્યારથી શાંત-શાસ્ત્રવિશારદ અપ્રમાદિ પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજનાં પુનિત પગલાં થયા છે ત્યારથી ઘણું લાંબા કાળથી લાગુ પડેલ જ્ઞાનાવરણીય કર્મનાં પડળ ઉતારવાને શુભ પ્રયાસ થઈ રહ્યો છે અને જે પ્રવચનની પ્રભાવના તેઓશ્રી કરી રહ્યા છે તે અનંત ઉપકારક કાર્યમાં તમે જે અપૂર્વ સહાય આપી રહ્યા છે તે માટે તમે સર્વને ધન્ય છે અને એ શુભ પ્રવૃત્તિના શુભ પરિણામને જનતા લાભ લે છે, અને તે સમજાય છે કે સાધુજી છઠે ગુણસ્થાનકે હોય છે. પણ પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ તે બહુધા સાતમે અપ્રમત્ત ગુણસ્થાનકે જ રહે છે એવા અપ્રમત્ત માત્ર પાંચ-સાત સાધુઓ જે સ્થાનકવાસી જૈન સમાજમાં હોય તે સમાજનું શ્રેય થતા જરાએ વાર ન લાગે સમાજકાશમા સ્થા. જૈન સ પ્રદાયને દિવ્ય પ્રભાકર જળહળી નીકળે. પ ણ વો દિન..
શ્રી શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિને મારી એક નમ્ર સુચના છે કે-પૂજ્યશ્રીની વૃદ્ધા વસ્થા છે, અને કાર્યપ્રણાલિકા યુવાનોને શરમાવે તેવી છે. તેમને ગામોગામ વિહાર કરવા અને શાસેદ્ધારનું કાર્ય કરવુ તેમાં ઘણી શારીરિક-માનસિક અને વ્યવહારિક મુશ્કેલી વેઠવી પડે છે, તો કોઈ એગ્ય સ્થળ કે જ્યારે શ્રાવકે ભક્તિ વાળા હોય વાડાનાં રાગને વિષથી અલિપ્ત હોય એવા કેઈ સ્થળે શાસ્ત્રોદ્ધારનું કાર્ય પૂર્ણ થાય ત્યા સુધી સ્થિરતા કરી શકે એના માટે પ્રબંધ કર જોઈએ. બીજી કઈ એવા સ્થળની અનુકુળતા ન મળે તે છેવટ અમદાવાદમાં ચગ્ય સ્થળે રહેવાની સગવડતા કરી અપાય તો વધુ સારું. મહારી આ સુચના પર ધ્યાન આપવા ક યાદ આપુ છુ ફરીવાર પૂજ્ય આચાર્યશ્રીને અને તેમના સતકાર્યના સહાયકોને મારા અભિનદન પાઠવુ છુ તે સ્વીકારશોજી. લી. સદાનંદી જૈનમુનિ છોટાલાલજી
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રૂા. ૧૦,૦૦૦ આપનાર આધ સુરીશ્રી,
સમિતિના પ્રમુખ દાનવીર શેઠશ્રી,
શેઠ શાંતિ લા લ મ ગ ળ દા સ ભાઈ
અ મ વી ૬
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સમિતિના પ્રમુખ અને આઘ મુરબ્બીશ્રી શેઠ શાંતિલાલ
મંગળદાસને ટુંક પરિચય
શ્રી શાન્તિલાલ મંગળદાસને જન્મ ઈ. સ. ૧૯૦૧ નાં ઓગસ્ટની ત્રીજી તારીખે તેમનાં સાળ ચોરવડેદરામાં થયો હતે.
વિદ્યાર્થી અવસ્થામાં જ એમનામાં રહેલી તીવ્ર બુદ્ધિ જુદી તરી આવતી હતી. ઈ. સ. ૧૯૧૯ માં અમદાવાદ કેન્દ્રમાંથી મેટ્રીક પાસ થનાર પ્રથમ દસ વિદ્યાથીઓમાંના તેઓ એક હતાં. ત્યારબાદ ઈ. સ. ૧૯૨૩માં અર્થશાસ્ત્રને વિષય લઈ તેઓ B. A. થયા. એ જમાનામાં બહુ ડાં ધનિક કુટુંબ ઉચ્ચ અભ્યાસમાં રસ લેતા હતા
ગ્રેજયુએટ થયા બાદ તુરતજ એમના ઉપર ધંધાની જવાબદારી આવી પડી. યુવાન વય, તિવ્ર બુદ્ધિ, વિશાળ વાંચન અને મનને તેમને નવી જ દૃષ્ટિ આપી હતી અને તેમની સમક્ષ આવતા ઉદ્યોગના અનેક વિકટ સવાલને તેમણે બહુ કુશળતાથી ઉકેલવા માંડ્યા. ૧૯૪૫ માં એ અમદાવાદ મિલ માલિક મંડળના પ્રમુખ બન્યા. હિંદની તેમજ ખાસ કરીને ગુજરાત-સૌરાષ્ટ્રનાં વેપારનાં પ્રાણ પ્રશ્નોનાં તળપદા અભ્યાસે મિલમાલિક મંડળના પ્રમુખ તરીકેની કામગીરીને વધુ દીપાવી.
૧૯૪૮ થી હિંદી વેપારી મહામંડળના તેઓ સભ્ય છે અને ૧૯૫૪–૫૫ અને ૧૫૫-૫૬ના વર્ષ માટેના દેશના આ સૌથી મોટા વેપારી મહામંડળના તેઓ અનુક્રમે ઉપપ્રમુખ અને પ્રમુખ હતા આજે તે ગુજરાત-સૌરાષ્ટ્રને ખૂબ જ ઉપયોગી નિવડેલી તેમની અસાધારણ શક્તિઓને દેશવ્યાપી ક્ષેત્ર મળ્યું છે.
૧૭૮-૩લ્માં ઈન્ટરનેશનલ લેબર ઓર્ગેનિઝેશન (J. L. ૦.)માં ભાગ લેવા ગયેલ ભારતીય પ્રતિનિધિમંડળના તેઓ સરકાર તરફથી નિયુક્ત થયેલ સલાહકાર હતા. ૧૯૪૬ માં અને ૧૯૪૮માં બુલ્સ અને જીનીવા મુકામે ભરાયેલ , L. 7. માં તેઓએ માલિકેના પ્રતિનિધિ તરીકે અગત્યને ભાગ લીધે હતે.
સામાન્ય નિયમ છે કે શ્રી અને સરસ્વતીને બહ સંબંધ હોતું નથી. શ્રી શાંતિલાલ અને તેમનું કુટુંબ આમાં અપવાદરૂપ છે. ધનપતિ હોવા છતાં એ સાહિત્ય અને સંસ્કારિતાના પૂજક છે. એમની વિનમ્રતા અને સાદાઈ હજુએ
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એ જાળવી રહ્યા છે અનેક શિક્ષણ સંસ્થાઓ માટે આજે પણ એ પિતાની અનેકવિધ પ્રવૃત્તિઓમાંથી સમય બચાવી લે છે, એજ તેમનાં વિદ્યાપ્રેમને સચોટ પુરાવો છે. ઉદ્યોગ તે તેમને વારસામાં જ મળે છે અને એ વારસાને તેમણે શોભાવ્યું છે.
એમની દષ્ટિ આજનાં પ્રશ્નોને વૈજ્ઞાનિક રીતે છણવાની તે છે જ પણ આવતી કાલને પણ તેઓ એ જ વિજ્ઞાનિક અને વ્યવહારિક દૃષ્ટિથી નિહાળતાં હોય છે અને એટલે જ તો એમના સંચાલન તળે ચાલતી ચાર મિલે કાપડ ઉદ્યોગમાં સુંદર પ્રતિષ્ઠા જમાવી શકેલ છે. આ ઉપરાંત જુદી જુદી વ્યાપારી પ્રવૃત્તિઓ કરતી ઘણું કપનીઓમાં તેઓ ડીરેકટર તરીકે રહી ચગ્ય માર્ગદર્શન અને દેરવણી આપી રહ્યા છે. સૌરાષ્ટ્ર ફાઇનેન્સીયલ કેરપરેશનનાં તેઓ ડિરેકટર છે સૌરાષ્ટ્ર મિલ માલિક મંડળમાં તે તેઓ તેમની સ્થાપના થઈ ત્યારથી ઉડો રસ દાખવે છે. હજુ હમણાં સુધી સતત પાંચ પાંચ વર્ષ સુધી તેનાં પ્રમુખપદે રહી તેમણે સૌરાષ્ટ્રના આ ઉદ્યોગની કરેલી સેવાઓ ખરેખર અભિનદનને યોગ્ય છે. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિનાં તેઓ પ્રમુખ છે અને તેની પ્રવૃત્તિમાં ઘણા ઉત્સાહથી હંમેશાં મદદ કરી રહ્યા છે. આ ઉપરાંત અનેક જૈન ને જૈનેતર સામાજીક સંસ્થાઓને તેઓ સેવાઓ આપી રહ્યા છે.
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૩૩ " આઘ મુરબીશ્રી ભાણવડનિવાસી શેઠ હરખચંદ કાલીદાસ
વારીયાનું જીવનચરિત્ર
આ સંસ્થાને રૂ. ૬૦૦૦) છ હજાર જેવી રકમનું વાતવાતમાં દાન આપનાર સ્વ. શ્રીમાન્ હરખચંદ કાલીદાસ વારીયા ભાણવડનિવાસીનું ટુંક જીવનચરિત્ર અત્રે આપવા પ્રયાસ કરીએ છીએ. સૂત્રમાં તેઓશ્રીને ફેટે આપવા માટે તેઓશ્રીની હયાતીમાં વાત થયેલ, પરંતુ તેઓ આ જાતની જાહેરાતથી વિરૂદ્ધ હતા. તેમના અવસાન બાદ તેમના સુપુત્રો આગળ પણ ફટાની માગણી કરી પરંતુ તેઓએ પણ તેમના પૂ. પિતાજીના પગલે ચાલી ફેટ આપવામાં નારાજી બતાવી. એટલે તેઓશ્રીનું ટુંક જીવન આપીએ છીએ. આશા છે કે આવા ઉદાર અને વિચારશીલ મહાનુભાવના જીવનમાંથી વાચકને ઘણું મળી રહેશે.
જન્મસ્થાનઘડેચી (ઓખામંડળ) તા. ૨૫-૧૧-૧૮૮૫ પિતાનું નામ–વારીયા કાલીદાસ મેઘજીભાઈ માતાનું નામ–કેસરબાઈ અભ્યાસ–ભાણવડ અને પોરબંદરમાં રહી ફકત ગુજરાતી જરૂરત પૂરતું ભણ્યા પરદેશગમન—માત્ર બાર વર્ષની વયે તેમના કાકા નથુભાઈ મેઘજીને ત્યાં
જેલા ખાતે અનુભવ મેળવવા રહ્યા દરમ્યાન જેલા (બી. સેમાલીલેન્ડ) જીબુટી (ફેન્ચ સોમાલીલેન્ડ) એડન અને ઈથીએપીઆ તરફ
પણ અનુભવ મેળવ્યા. પ્રથમ ભાગીદારી–બુલહારમાં શ્રી. કાલીદાસ વેલજીના ભાગમાં ભળ્યા પરંતુ
સંવત ૧૯૯૭માં તે દુકાન વીટી લીધી અને લગ્ન માટે સ્વદેશ આવ્યા.
લગ્ન--સંવત ૧૯૬૭ માં તેમનાં લગ્ન બાજુના ગામ ગુંદા મુકામે ખૂબ જ
પ્રતિષ્ઠિત કુટુંબ મહેતા સુંદરજી પ્રેમજીના જ્યેષ્ઠ પુત્ર ભોવાન સુંદરજીનાં
સુપુત્રી મણીબેન સાથે થયાં. પરિવાર–અત્યારે તેમના પાંચે પુત્ર શ્રી લાલચંદભાઈ જયચંદ્રભાઈ, નગિન
દાસભાઈ, વૃજલાલભાઈ અને વલ્લભદાસભાઈ એ પાંચે ભાઈઓ તેઓશ્રીને બહોળા વ્યવહાર અને વ્યાપાર બરાબર સુગ્ય રીતે સંભાળી રહ્યા છે.
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ભાગીદારી–લગ્ન પછી સં. ૧૯૬૮ માં પાછા પરદેશગમન થયું. શરૂમાં
વસનજી નથુભાઈ કુ ના નામથી પેઢી ચાલતી હતી તેમાં તેઓ ભાગમાં ભળ્યા. તેમાં શ્રી વારીયા નથુભાઈ મેઘજી, શ્રી વારીયા નથુભાઈ મુળજી, શ્રી વારીયા હરખચંદ કાલીદાસ, ફેફરીયા દેવજી જીવાભાઈ તથા શા. વસનજી હીરજીભાઈ એમ પાંચ ભાગીદાર હતા તે પેઢી સ વત ૧૯૭૨ મા જુદી થઈ અને શ્રી વસનજી હીરજી કે જે સ્વબળે આગળ વધ્યા હતા તેમણે પોતાની પેઢી વસનજી હીરજીના નામથી જુદી કરી અને શા. નથુભાઈ મુળજીના નામથી પેઢી ખોલવામાં વારીયા નથુભાઈ મુળજી જેટલે જ હીસ્સે હરખચંદભાઈને હતો.
ઉપરની પેઢી––ઉપરોકત નામથી એટલે કે શા. નથુભાઈ મુળજીના નામથી
જે પેઢી શરૂ થઈ તેના પ્રાણસમાં શ્રીયુત હરખચ દભાઈ તેમના જીવનના અંત સુધી રહ્યા હતા. અત્યારે પણ તે નામને શ્રી નથુભાઈ મુળજી તેમજ શ્રી હરખચંદ કાલીદાસના વારસો ઝળહળાવી રહ્યા છે. દર દૂરના દેશાવરમાં એકધારું લગભગ ૪૫ વર્ષ થયાં કામકાજ ચાલે છે તેના સચાલનની દર શ્રી હરખચ દભાઈના હાથમાં અત સુધી રહી હતી અને તેઓશ્રીના અવસાન પછી પણ તેમના દેરેલા ચીલા ઉપર પેઢીને વ્યવહાર સરળ રીતે અત્યારે પણ ચાલે છે અત્યારના સુકાનીઓએ પોતાના પૂર્વજ શ્રી નથુભાઈ તથા શ્રી હરખચંદભાઈને અકિત કરેલ માગે પોતાની સફર ચાલુ રાખી છે અને તે સદાયે અવિચળ રહે તેવું આશિર્વચન કેઈ પણ હિન્દી ઉચાર્યા વિના રહી શકે નહીં તેવી તેની ઉત્તમ છાપ ત્યાં પડી છે અને તે નર્યું સત્ય જ છે.
હિન્દની શાન–વર્ષો થયાં એકધારું “બીઝનેસ ” ચાલતું હોવા છતાં એક
શાહ સેદાગરની જેમ નથુભાઈ મુળજીની પેઢી ઉત્તરોત્તર કુલતી ફાલતી રહી છે વ્યાપારી આંટ અને ઈજજતને એ નાદર નમુને આજે પણ એ જ ધીર ગભીરપણે પિતાનું કાર્ય ધપાવ્યે જાય છે. એકધારી લગભગ અડધી સદી થયાં ચાલતી આ પેઢીને રજ માત્ર ડાઘ લાગ્યું નથી તે તે સૌ કોઈ જાણે છે અને શાહ નથુભાઈ મુળજીની પુરાણ પેઢી માટે આજે પ્રત્યેક હિન્દી અભિમાન લઈ શકે છે. તેમાં શ્રી નથુભાઈ વારીયાનું ધર્મપ્રધાનપણુ અને શ્રી. હરખચંદભાઈનું દુર દેશીપણું. કાર્યપ્રણાલીની ઉત્તમતા અને એકનિષ્ઠા મુખ્ય ગણાય.
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વાંચન અને મનન—ઉપરની વાતે તે તેમના વ્યાપારી જીવનની સફ
ળતા અને એક નાનામાં નાની વ્યક્તિ આગળ કઈ રીતે વધી શકે છે તેને આછે ખ્યાલ આપવા પૂરતી થઈ ત્યારે તેની બીજી એક ખાસ બાજુ છે અતિ સામાન્ય અભ્યાસ પરંતુ સ્વાનુભવે મેળવેલ જ્ઞાનસિદ્ધિ. જે કાળમાં અણખેડાયેલા દેશમાં આવવા જવાનાં સાધન પણ ન હતાં, એડન સુધીની મુસાફરી પછી જેલા બરબરા જવામાં નાના વહાણોથી સફર થતી, જીબુટીથી ઈથોપિયા જવામાં દીરદવા પછી (બગલ) ખચ્ચરે ઉપર અને પગપાળા મુસાફરી થતી. દેશે બધા ખુબ જ જંગલી અવસ્થામાં હતા તેવા યુગમાં હિમ્મત હાર્યા વિના આંગળીને વેઢે ગણાય તેટલા હિન્દી વ્યાપારમાં આગળ વધ્યા હતા તે યુગમાં શ્રી હરખચંદભાઈ હતા. ખુબ જ અંધકારમાંથી પ્રકાશ મેળવવાને હતે. અત્યારે ઈથોપિયાના પાટનગર આડીસ અબાબા જવા માટે Air રસ્તે ૧૦ થી ૧૨ કલાકમાં પહોંચાય છે ત્યારે તે જમાનામાં આગબોટ, વહાણ ખડખડપાંચમ જેવી રેલ્વે અને તે પછી ખચ્ચરે ઉપર અને થોડુંક પગપાળા અગર તો ગધેડા ઉપર પણ સફર કરવી પડતી. જુને જમાને હતું એટલે હિન્દુ તરિકેનો ધર્મ જાળવવામાં પણ લેકે ચુસ્ત હતા, કેઈનું અડેલું ખવાય નહીં રસોઈ તૈયાર હોય પણ એક સેમાલી કે આરબ અગર ઈથેપિયનનો હાથ અડકી જાય એટલે ખાવાનું તેને આપી દઈ કડાકા કરવા પડે અગર તે પલાળેલા ચણા કે મકાઈ ખાઈને ગુજારે કરવું પડે તેવા જમાનામાં શ્રી હરખચંદભાઈએ ખુબ જ ધંધાકિય સફળતા મેળવી હતી તે સામાન્ય વાત તો નથી જ, અને પિતે ખુબ જ ઓછું ભણ્યા હોવા છતાં ભણુતર કરતાં ગણતર તેઓમાં ઘણુ હતુ. સાહિત્ય અને તે પણ ધાર્મિક અને ગુજરાતી શિષ્ટ સાહિત્યનું વાંચન મનન એટલું બધુ તેઓએ કરેલું કે પિતાને અભ્યાસ બહુ જ ઓછો છે એમ તેઓ ખુલાસો કરે ત્યારે જ ખબર પડે, અજાણ્યા માણસને તે તેમનું અગ્રેજી જ્ઞાન પણ સારું હશે તેમ લાગતું. વ્યાપારી તાર લખવા ઓછા શબ્દોમાં ઘણું સમજાવી દેવું ઉપરાંત અંગ્રેજી પત્ર વ્યવહારના બહારથી આવતા પત્રો આંટીઘૂંટી સહિત હોય તો પણ યથેચ્છ રીતે સમજી લેવામાં તેઓ એટલા બધા પારંગત થઈ ગયેલા કે જોનારને તેમની શક્તિ ઉપર માન થઈ જતું. અને તેઓ નિખાલસ ભાવથી જ્યારે કહેતા કે હું તે માત્ર ગુજરાતી ચાર પાંચ ચોપડી ભણ્યો છું એમ વાત થતી ત્યારે તે માન અનેકગણું વધી જતું.
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અભ્યાસી ધાર્મિક ઉડામાં ઉંડું જ્ઞાન તેમણે વાંચનથી મેળવેલું. દેશ
પરદેશની વાત થતી હોય ત્યારે તેમના આગળ પ્રખર અભ્યાસીઓ પણ ઝાંખા પડતા, વર્તમાન પત્રોને શેખ તેમને અજોડ હતે દેશ પરદેશના નાણાકિય વહેવારે અને હુંડિયામણની વાત સાંભળીએ
ત્યારે તેમના જ્ઞાનના અગાધપણુની સાંભળનારને અતિ ઉત્તમ છાપ પડતી. ધાર્મિક-ધાર્મિક અભ્યાસ તેમને એટલે બધે બહોળો હતા કે તેમના
આગળથી રોજ અવનવું જાણવા મળતું દરેક ધર્મને અભ્યાસ તેમણે જીજ્ઞાસાવૃત્તિથી કર્યો હતે. ધમેં તેઓ ચુસ્ત સ્થાનકવાસી તાંબરી જૈન હતા છતાં ધમધતાને તેમનામાં અશ પણ ન હતું. મારું એટલું સારું એમ નહી પણ સારું એટલું મારું એમ માનતા તેથી કદાહીપણ તેમનામાં જનમ્યુ જ ન હતું જૈન ધર્મના દરેક ફિરકા ઉપર તેમને માન હતું. શ્વેતાંબર મદિરમાર્ગિ ભાઈઓના વરઘડાઓમાં તેઓ આન દ અને ઉત્સાહથી જતાં, પ્રસંગ આવે ભાઈચારો નભાવવા વ્યવહારૂપણને ઉપયોગ કરી દેરાસરમાં ઘી બોલવાને પ્રસંગ આવે ત્યારે પણ તેઓ ઉત્સાહથી બોલતા. વરઘોડામાં પિતાના ઘરની પુત્રવધુઓને કળશ લેવડાવતા તેમને અનેરો આનદ મળતે, જેન ધર્મના દરેક પર કાઓની એકતાના તેઓ પ્રખર ચાહક હતા છેલ્લે છેલ્લે સૌરાષ્ટ્રમાં જૈન
શ્વેતામ્બર તરાપથી સાધુઓ આવતા અને એમને સૌરાષ્ટ્રના જૈનો અને જૈન સાધુઓ તેરાપથી સાધુને સ્થાન અને આહારપણું ન આપવાં તે પ્રયાસ જેર શેરથી કરતા તે બાબતને પિતે ગાડપણ માનતા અને પોતાના ઘેર તેરાપંથી સાધુઓને માનથી ગોચરી આપતા સમાજથી જરાપણું ડરતા નહી. “વિચારભેદ તે દરેક જગ્યાએ બુદ્ધિવાદી લેકે મા હેય મુખને વિચારભેદ શાને ?' આમ તેઓ કહેતા પર તુ એવા વિચારભેદને લઈને સાધુનું અને તે પણ પરદેશી સાધુઓનું અપમાન કરવું તેમાં માનવતા
ક્યાં રહી ? જૈનત્વ ક્યાં રહ્યું છે તેમ તેઓએ જામનગરમાં એક વખત કહેલું તે મને બરાબર યાદ છે.
પ્રેમાળ–અસત્ય અગર તે જુઠ દગો આચરનાર તરફ તેમને
ઘણો જ રેપ હતું એટલે ઉગ્રતાથી આવા લેકની ખબર લઈ નાખતા છતા તેનું દિલ દુભાવ્યું તે ઠીક ન કર્યું તેમ માની તે જ વ્યકિત સાથે પ્રેમ અને મમત્વથી વાત કરતા બીજાનું સારું જોઈ તેઓ ખરેખર રાચતા તેમની આંખમાં પ્રેમનું અમૃત ભારે
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'રૂ૭
ભાર ભર્યું હતું. પોતાને ત્યાં નેકરી કરી ગએલ મુનિમ કે કોઈ પણ વ્યક્તિ કમાણી કરીને ખુબ જ આગળ આવે, સારા અને સંસ્કારી થાય વ્યવહારમાં સવાયા થાય તેને ત્યાં લગ્ન પ્રસંગ હોય અગર તે સારામાં સારાં મકાને તેણે કર્યા હોય તેવા પ્રસંગે જવાનું થાય ત્યારે તેમના આનંદને અવધી થઈ જતો. તે વખતે તેઓની આંખનું અમૃત જેમણે નજરોનજર જોયું હશે તે તેમને જીવનભર નહીં ભૂલે. આવી એક મહાન વિભૂતિના જીવનને ટુંક સાર જ આપી શકાય.
સાગપાંગ જીવન તે કયાંથી લખાય ? કાળ–જનમ્યું તે જવાનું જ તે કુદરતને ક્રમ છે તેને આધીન તે સારા
નરસા દરેકને થવું જ પડે. સંવત ૨૦૦૭માં તેઓશ્રી ૬૮ વર્ષનું આયુષ્ય ભેગવી ક્ષણભંગુર દેહને છેડી ગયેલા. પરંતુ તેમની સુવાસ સદાય પ્રસરતી જ રહેવાની. ભાણવડ જેવડા નાનકડા ગામમાં અને આસપાસના ગામમાં જ્યાં જ્યાં તેઓ ગએલા અગર તે તેમનું કાર્યક્ષેત્ર હતું ત્યાં
ત્યાં તેમના અવસાનથી સન્નાટો છાઈ ગયેલું. એમનું મૃત્યુ વીશ વર્ષના કતરને શક હોય તે શક સર્વત્ર આપતું ગયેલું. નામ ઠામના લેભ વિના કરેલાં તેમનાં ગુપ્ત દાને એટલાં બધાં હતાં કે તેમના જવાથી નાના મોટા દરેકને એકસરખી ખેટ લાગતી હતી. છતાં તેઓ જીવતર જીવી ગયા. આવું ધન્ય જીવન અને ધન્ય મૃત્યુ જેઈને આધ્યાન રૌદ્રધ્યાન ધરવું તે કરતાં તેમના જેવા થવાના પ્રયત્નો કરવા. અને તેમના અમર આત્માની શાન્તિ માટે પ્રાર્થના કર્યા સિવાય બીજો માર્ગ જ કયાં છે? શાન્તિ! શાન્તિ! ! શાન્તિ!! !
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આધ મુરબ્બીશ્રી કે ઠારી હરગોવીંદભાઈ જે ચંદને
ટુંક પરિચય
પુ. શ્રી ૧૦૦૮ ઘાસીલાલજી મહારાજ રાજકેટ પધારતા પ્રાત મરણીય સ્તવનાવલી રાજકોટના રહીશ શુદ્ધ શ્રાવક વૃતધારી જેચદ અજરામર કેઠા રીના સુપુત્ર હરગોવિંદ કાકા તરફથી ૨૦૦૩ મા છપાવવામાં આવી અને તે હિંદભરમાં જાહેર મૂકી તેને ઉપગ હાલ સર્વ જૈન જૈનેતર કરી રહેલ છે. કાકા રાજકોટમાં જ નહિ પણ સૌરાષ્ટ્ર, કચ્છ, ગુજરાત, મુંબઈ, દિલ્હી સુધી એક અજોડ ઉત્સાહી પુરૂષ છે. એમને પ્રજા અને રાજા ઉપર ઘણો જ સારે પ્રભાવ છે વેસ્ટર્ન ઈન્ડીયા સ્ટેટ એજન્સી અને ગુજરાત સ્ટેટસ મહીકાંઠા, સાબરકાઠા બનાસકાંઠામાં રેસીડેન્સીમાં પણ કાકા પ્રત્યે ઘણો જ સારો ભાવ છે. તેઓને ધર્મ પ્રત્યે ઘણી જ સારી ધગશ હાઈ અંગત ખર્ચે પોતાના ઘર આંગણે ધર્મ ધ્યાન માટે પોષધશાળા બધાવી છે તેમજ આજી નદીને કિનારે વિશાળ વ્યાખ્યાન ભવન હોલ બે માળને પાચ હજાર માણસો વ્યાખ્યાન સાભળી શકે તે બધાવેલ છે. ઉદાર દિલના સખી માણસ છે. કોઈ પણ ગરીબ ગુન્હાહીત માણસ દાદ માગવા આવે તે તરત જ બનતા ઉપાયે તેમને મદદ આપવા ચોવીસ કલાક તૈયાર રહે છે કાકાનું કુટુંબ પણ ઘણુજ ધર્મીષ્ટ છે તેમનાં ધર્મપત્નિ શ્રીમતી અખંડ સૌભાગ્યવતી રૂક્ષ્મણીબેન વહેવારદક્ષ પ્રેમાળુ અને પૂર્ણ ધર્માત્મા છે સાધુ, સાધ્વી પ્રત્યે તથા દરેક કુટુંબ સજજન સ્નેહી અને સ્વધમઓ મહેમાને સાથે ઘણું જ સારે ઉચિત વહેવાર રાખવામા પૂર્ણ નિષ્પન્ન છે. નિત્ય પોતાની ધર્મ પરાયણતા પ્રત્યે જ વફાદાર રહે છે.
પૂ૦ ઘાસીલાલજી મહારાજ આદી થાણા છ (સમીરમુનિ, કનૈયાલાલ મુનિ દેવમનિ, તપસ્વી માગીલાલ, મદનલાલજી) મેવાડથી દામનગરના રહીસ દામેદરભાઈના આગ્રહથી પાલનપુર નહી રોકાતાં તેમણે વિહાર શરૂ કર્યો, અને મેરખી
કામે તપસ્વી મદનલાલજી અને માંગીલાલજીની ૭૧ ઉપવાસની તપશ્ચર્યા ચાતુમાસમાં થયેલી જે પ્રસ ગે રાજકેટથી હરગેવિંદકાકા કુટુંબ સહિત ગોકળ અષ્ટમીને દીવસે દર્શનાર્થે આવ્યા અને રાજકોટ પધારવાની વિન તી કરી. અને નવેમ્બર ૧૯૪૬ મા ઘાસલાલજી મહારાજ રાજકેટ પધાર્યા કાકાના વ્યાખ્યાન ભુવનમાં બીરાત્યા બંને તપસ્વીજીએ માસખમણની તપશ્ચર્યા કરી સ્થાનિક રાજકેટ સકલ સવે ઘણોજ ભક્તિભાવ બતાવ્યું અને તાગઢ ખેડાના રહીશ જવારલાલજી ઉ ચાદમલજી ભડારીની ૨૦૦૨ તા. ર૭-૧-૪૭ના રોજ દીક્ષા વસતપંચમીને
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દીવસે હોવાથી સંઘમાં વધારે ઉત્સાહ આનંદ આવ્યે મહાસુદિ એકમથી પાંચમ સુધી ૬ વરઘોડાઓ જુદે જુદે ઠેકાણેથી ચઢ્યા. મહા સુદી ૪ ના દિવસે કાકાને ઘેરથી દીક્ષા ઉત્સવને વરઘોડે રાજકેટ ઠાકોર સાહેબ પ્રદ્યુમનસિંહજી અને કુ. શ્રી બનેસિંહજીની સંપૂર્ણ મદદથી રાજેશ્રીના ઠાઠને પણ વટાવી જાય તે રીતે સરકારી અને સ્ટેટ બેન્ડ પોલીસ ઘેડેસ્વાર ગાડીડા મટે તથા હજારે જૈન જૈનેતર માનવમેદની સાથે આખા શહેર સદરના રસ્તા પર ફર્યો હતે. પાંચમના દિવસે તપગચ્છના ચાંદીના રથમાં દીક્ષાર્થીને બેસાડી ૪ ચાર બેલ જોડેલ રથને કાકા પોતે સારથી બની હાંકતા હતા. બંને દીવસે સોના રૂપાનાં ફુલ તથા પૈસા દિક્ષીત ઉડાવી રહેલ હતા. ઠેકાણે ઠેકાણે પોલીસો ગોઠવવામાં આવી હતી. આ સરઘસ શહેર સદરમાં ફરી જુબીલી બાગમાં આવ્યું અને દસ હજાર માણસોની હાજરીમાં પૂ. શ્રી ઘાસીલાલજીની જેનશ્રાય નીચે દીક્ષા આપવામાં આવી તે પ્રસ ગે શાંતિ જળવાયેલી. આ પ્રસંગે બંને દીવસોએ ફેટાઓ તથા જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિની કમિટિના ટાઓ લેવામાં આવ્યા. અને ૩૦–૧-૪૭ના દીવસે શાસ્ત્રોદ્ધારની મિટીંગ મળી જેમાં કાકા તરફથી સૂત્રને માટે રૂપીઆ પાંચ હજારની ભેટ મળી તે ઉપરાંત પ્રસંગોપાત સૂત્ર માટે જુદી ભેટ રેકડી રકમની આપવામાં આવી છે તેમજ જીવદયાના પ્રખર હિમાયતી પૂ. ૧૦૦૮ જેઠમલજી મ૦ ની નેશ્રાય નીચે તન મન ધનથી જીવદયાનું કાર્ય કરે છે અને જીવદયાનું પત્ર પિતાને ખર્ચો છપાવી પ્રસિદ્ધ કરી હિંદભરમાં તેમજ યુરોપ અમેરીકા આફ્રીકામાં મોકલે છે. હાલ પોતે સેવાભાવી કાર્યની પ્રવૃત્તિ કાયમ કર્યા કરે છે.
રાજકેટની ફલેર મીલના ઓનરરી પ્રમુખ : જૈન બેડીંગના ઓનરરી કાર્યકર્તા તથા જીવદયા મંડળના મંત્રી અને S. P. C. A. ના મંત્રી, રાજકોટ શહેરી મંડળના સેક્રેટરી તરીકે ઓનરરી સેવા કરી દરેકને પોતાની સેવાને સાથ આપવામાં તન મન ધનથી કેઈની પણ સેવા કરવામાં કાયમ તત્પર રહે છે.
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આધ મુરબ્બીશ્રી મહેમ ધારશીભાઈ જીવનભાઈને
ટુંક પરિચય મરહુમ ધારશીભાઈ જીવનભાઈ શાહ, જેને એઈલ જીનપ્રેસ સાથે આ સૈકાની શરૂઆતથી સંબંધ, પુના સાતે ડીવીઝનના જુદા જુદા સ્થળોના જુનામાં જુના અને અગ્રગણ્ય એજન્ટ તરીકે જાણીતા છે તેને જન્મ કાઠીયાવાડમાં પીપળીયા ગામમાં થયેલ, માત્ર પ્રાથમીક કેળવણ લઈ ૧૧ વર્ષની નાની ઉંમરે આગળ વધવાની ધગશ સાથે, માત્ર ખીસામાં ૨ રૂ. જેટલી નજીવી રકમ સાથે વતન છોડ્યું મુંબઈ આવી મનજી નથુભાઈની પેઢીમાં ઓફીસ બેય તરીકે કરી લીધી, ત્યાં ઉત્તરોત્તર દરેક કામમાં ખંત રાખી સતેષ આપતાં તેમને પુના મોકલવામાં આવ્યા. પુનાથી કરમાલા આવી ખભા ઉપર તેલ ઉપાડી ફેરી પણ કરી અને ત્યાંના સબ એજન્ટને એકદમ પ્રમાણીકપણે સખત કામ બતાવી, કરમાલા ગામમાં તેલની સબડીલરશીપ પ્રાપ્ત કરી ધીરે ધીરે તે જ પ્રમાણે મહેનત ચાલુ રાખતાં ૧૯૩૧માં જ્યારે બર્માશેલ અને એસ. વી એ સી. વચ્ચે ભાવની હરીફાઈ ઉપડી ત્યારે પિતાની સતત સેવા બતાવી બમશેલ પાસેથી ઘડીયાલ બક્ષીસ મેળવી અને તે લાઈનના તમામ કાર્યવાહકેની ચાહના પ્રાપ્ત કરી.
ધીરે ધીરે પોતાની ખંતથી તેવી જ એજન્સીઓ લીપ્ટન કુાં, સીમેન્ટ કુ, આઈ. સી આઈ વગેરેની પણ મેળવી પોતાના વ્યાપારની સારી જમાવટ કરી.
સોલાપુર ડીસ્ટ્રીકટમાં સારા આબરૂદાર શહેરી તરિકે વગ તેમજ ચાહના મેળવી અને લોકસેવા પણ સાથે સાથે ચાલુ રાખી કરમાલા યુવના પ્રેસીડન્ટ થયા સોલાપુર ડીસ્ટ્રીકટમાં દેશહિતના અનેક કામમાં તન, મન, ધનથી સારી સેવા બજાવી.
તેનું ખાનગી જીવન પણ બહુ સાદુ હોવાથી બધા તેને ચાહતા અને ધંધામાં સારો લાભ મળ્યો અને તે જ પ્રમાણે સેવાના તથા ધર્માદાના અનેક કાર્યોમાં સારી રકમે વાપરી.
પોતાના કુટુંબના વડા તરીકે પણ કુટુંબીજને, સગાં, સંબધીઓને દરેક રીતે માર્ગદર્શન આપી જુદા જુદા ધંધા તેમજ એજન્સીઓ વિગેરે મેળવી સ્થિરતા પ્રાપ્ત કરવામાં ઘણે પરિશ્રમ લીધે.
યાત્રિક ખેતીની પ્રગતીના કાર્યસર વિલાયત જઈ આવ્યા, અમેરીકા જવા પણ ધારણા હતી ત્યાં લંડનમાં ૧૪–૭–૪૯ના રોજ હુદય બંધ પડી જતાં સ્વર્ગવાસ કર્યો. તેમની પાછળ બહોળું કુટુંબ, ઘણાં સગાં તેમજ સ્નેહીઓ મૂકી ગએલ છે. જેઓ સર્વને પિતાની મીઠી યાદગીરી મુકી જીવનનું સાર્થક કરી ગએલ છે.
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રૂા. ૫૦૦૧] આપનાર આદ્ય સુખ્ખીશ્રી,
શું કિ વો
( સ્વ. ) શે હૈં ધ્રા ર સી ભાઈ જી વ ણુ ભા ઈ સા લા પુ ૨.
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1
॥ आचाराङ्गसूत्रके २, ३, ४ अध्ययनों की विषयानुक्रमणिका ॥ ( द्वितीय अध्ययन - प्रथम उद्देश )
विषय
१ मथमाध्ययन के साथ द्वितीय अध्ययनका सम्बन्धकथन, द्वितीय अध्ययन के छहों उद्देशों के विषयों का संक्षिप्त वर्णन |
पृष्ठाङ्क
१४ सप्तम सूत्रका अवतरण और सप्तम सूत्र ।
१५ असंयत पुरुष उपभोगके लिये धनसंग्रह करता है और उपभोग के समय उसे कासश्वासादि रोग हो जाते हैं, उस समय उसके माता पिता और पुत्र कोई भी रक्षक नहीं होते हैं।
१-३
४-५
२ द्वितीय अध्ययन के प्रथम सूत्रका अवतरण और प्रथम सूत्र । ३ शब्दादि कामगुण ही मूलस्थान अर्थात् मोहनीयादि के आश्रय हैं,
उन शब्दादि -- कामगुणों से युक्त प्राणी परितापयुक्त बना रहता है, और उसकी उस परिस्थितिमें जो भावना रहती है उसका वर्णन | ४ द्वितीय सूत्रका अवतरण और द्वितीय सूत्र ।
५ शब्दादिकामगुणमोहित पाणी वृद्धावस्थामें मूढताको माप्त करता है - इसका वर्णन ।
३०-५६
६ तृतीय सूत्रका अवतरण और तृतीय सूत्र ।
५७
७ वृद्धावस्था में उस मनुष्य की जो दशा होती है - उसका वर्णन । ५८-७२
८ चतुर्थ सूत्रका अवतरण और चतुर्थ सूत्र ।
७२-७३
९ मनुष्य की वृद्धावस्थामें जो दुर्दशा होती है उसे विचार कर संयमपालन में मुहूर्तमात्र भी प्रसाद न करे ।
१० पञ्चम सूत्र का अवतरण और पञ्चम सूत्र ।
११ प्रमादी पुरुषों के कार्य का वर्णन |
१२ छठे सूत्रका अवतरण और छठा सूत्र ।
१३ माता पिता या पुत्र कोई भी इहलोक - सम्बन्धी और परलोकसम्बन्धी दुःखों से बचाने में समर्थ नहीं हैं ।
६-२८
२९
७४-८६
८७
८८-९५
९६
९६-९७
९८
९९-१००
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४२
विषय
१६ आठवे सूत्रका अवतरण और आठवां सूत्र |
१७ वृद्धावस्थामें कोई रक्षक नहीं होता और बाल्यावस्था भी पराधीन होने के कारण दुःखमय ही है - ऐसा विचार कर युवावस्था को ही संयमपालन का योग्य अवसर समझना चाहिये ।
"
७ 'अनगार' कौन कहलाते हैं ।
॥ अथ द्वितीयोदेशः ॥
१ प्रथम उद्देश के साथ द्वितीय उद्देश का सम्बन्धप्रतिपादन ।
२ प्रथम सूत्रका अवतरण और प्रथम सूत्र ।
३ संसारकी असारता को जाननेवाला मुनि संयमविषयक अरतिको दूर कर क्षणमात्रमें मुक्त हो जाता है ।
४ द्वितीय सूत्रका अवतरण और द्वितीय सूत्र ।
५ जिनाना से बहिर्भूत साधु मुक्तिभागी नहीं होता ।
६ तृतीय सूत्रका अवतरण और तृतीय सूत्र ।
पृष्ठाङ्कः
१८ नवम सूत्रका अवतरण और नवम सूत्र ।
१९ वार्द्धक्य और रोगों से जब तक श्रोत्रादि इन्द्रियों के परिज्ञान नष्ट नहीं हुए हैं, तभी तक चारित्रानुष्ठानमें प्रवृत्त हो जाना चाहिये । १२३ - १२७ ॥ इति प्रथमोद्देशः ॥
**
१००
१०१-१२२
१२२
*
१२८
१२९-१३०
१३१-१३७
१३८
१३९-१४४
१५५
१४६-१५४
१५४
८ चतुर्थ सूत्रका अवतरण और चतुर्थ सूत्र ।
९ विषयासक्तिवश परितप्त होकर धन की स्पृहासे दण्डसमारम्भ करनेवाला मनुष्य का वर्णन |
१५५-१५९
१० पञ्चम सूत्रका अवतरण और पञ्चम सूत्र |
१५९
११ संयमी को दण्ड समारम्भ नहीं करना चाहिये | उद्देश समाप्ति | १६०-१६२
॥ इति द्वितीयोद्देशः ॥
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१६४
१८६
॥ अथ तृतीयोदेशः ।। विषय
पृष्ठा १ द्वितीय उद्देश के साथ तृतीय उद्देश का सम्बन्धप्रतिपादन। १६३ २ प्रथम सूत्रका अवतरण और प्रथम सूत्र । ३ पण्डित को उच्च कुलकी प्राप्ति से हर्ष नहीं करना चाहिये और
न नीच कुलकी प्राप्तिसे क्रोध ही करना चाहिये। १६५-१७० ४ द्वितीय सूत्रका अवतरण और द्वितीय मूत्र ।
१७१ ५ किसी भी प्राणीका अहित नहीं करना चाहिये । प्राणियों के ___ अहित करनेवालों की दुरवस्था का वर्णन ।
१७२--१८६ ६ तृतीय सूत्रका अवतरण और तृतीय मूत्र । ७ उच्चकुलाभिमानी मनुष्य प्राणियों का अहित करके जन्मान्तर में कोई अन्धता आदि फल पाकर सकलजननिन्दित होता हुआ,
और कोई खेत-घर-धनधान्य-स्त्री आदि परिग्रहमें आसक्त हो तप आदिकी निन्दा करता हुआ विपरीत बुद्धिवाला हो जाता है।
१८७-१९४ ८ चतुर्थ सूत्रका अवतरण और चतुर्थ भूत्र ।
१९४ ९ संयमियों के कर्तव्य का निरूपण ।
१९५-२०६ १० पञ्चम सत्रका अवतरण और पञ्चम सूत्र ।
२०७ १९ असंयमियों के जीवन स्वरूपका वर्णन ।
२०७-२१४ १२ छठे सूत्रका अवतरण और छठा सूत्र ।
२१४-२१५ १३ असंयमीका अन्यायोपार्जित धन नष्ट हो जाता है, और कुटुम्ब
की चिन्ता से व्याकुल वह असंयमी कार्याकार्य को नहीं जानता हुआ विपरीतबुद्धियुक्त हो जाता है।
२१५-२२१ १४ सातवें सूत्रका अवतरण और सातवा सूत्र । १५ 'सुखको चाहनेवाला मूढमति असंयमी मनुष्य दुःखही भोगता
है ' इस बातको भगवान महावीर स्वामीने स्वयं प्ररूपित किया है - इस प्रकार सुधर्मा स्वामी का कथन ।
२२२-२२६ १६ आठवें सत्रका अवतरण और आठवा मृत्र।
२२७
0
-
८
c
२२१
:
5
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विषय
१७ पश्यक - तीर्थकर गणधर आदि नरकादि गतिके भागी नहीं
होते हैं, बाल- अज्ञानी जीव तो नरक आदि गति के भागी ही निरन्तर होते रहते हैं—इसका प्रतिपादन और उद्देश- समाप्ति । २२७-२३५
॥ इति तृतीयोदेशः ॥
॥ अथ चतुर्थोद्देशः ||
१ तृतीय उद्देश के साथ चतुर्थ उद्देशका सम्बन्धप्रतिपादन | २ प्रथम सूत्रका अवतरण और प्रथम सूत्र ।
३ वृद्धावस्था में ही श्वासकासादि रोग होते हों, ऐसी बात नहीं ! ये तो युवावस्था में भी होते हैं । उस रोगावस्था में उस प्राणी का रक्षक कोई सगा -सम्बन्धी नहीं होता है, और न वही प्राणी उस रोगावस्था से आक्रान्त अपने सगे-सम्बन्धीका रक्षक हो सकता है ।
४ द्वितीय सूत्रका अवतरण और द्वितीय सूत्र ।
५ भोगसाधन धनकी विनाशशीलताका वर्णन |
?
पृष्ठाङ्क
२३६
२३७-२३८
६ तृतीय सूत्रका अवतरण और तृतीय सूत्र ।
७ भोगसाधन धन विनश्वर है; अतः भोगकी स्पृहा और भोगके विचार का भी परित्याग कर देना चाहिये ।
८ चौथे सूत्रका अवतरण और चौथा मूत्र ।
९' कामभोग का आसेवन महा भयस्थान है ' ऐसा जानकर अनगार क्या करे ? इसका उपदेश तथा उद्देश- समाप्ति ।
॥ इति चतुर्थोद्देशः ॥
२३८-२४०
२४१ २४१-२४२
२४२-२४३
२४३-२५५
२५६
२५६-२६१
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टाक
२७३
॥ अथ पञ्चमोद्देशः। विषय १ चतुर्थ उद्देशके साथ पञ्चम उद्देशका सम्बन्धप्रतिपादना २६२-२६४ २ प्रथम मूत्रका अवतरण और प्रथम सूत्र ।
___२६४ ३ गृहस्थ कर्मसमारम्भ जिन हेतुओं से करते हैं, उन हेतुओं का प्रतिपादन ।
२६५-२६८ ४ द्वितीय मूत्रका अवतरण और द्वितीय सूत्र ।
२६९ ५ भविष्य में उपभोग के लिये पदार्थों के संग्रहमें
प्रवृत्त गृहस्थों के बीच संयमाराधनमें तत्पर अनगार को किस प्रकार रहना चाहिये।
२६९-२७२ ६ तृतीय सूत्र का अवतरण और तृतीय भूत्र । ७ साधुको क्रयण, क्रापण और उसके अनुमोदन से रहित होना चाहिये।
२७३-२७५ ८ चतुर्थ स्त्रका अवतरण और चतुर्थ मूत्र ।
२७६ ९ हननकोटित्रिक और क्रयणकोटिनिकसे रहित साधुका वर्णन । २७६-२८३ १० पञ्चम सूत्रका अवतरण और पञ्चम सूत्र ।
२८३ ११ साधुको एषणीय आहारके सदृश एषणीय वस्त्रपात्रादि भी गृहस्थसे ही याचना चाहिये।
२८४ १२ षष्ठ सूत्रका अवतरण और षष्ठ सूत्र ।
२८५ १३ 'मुनिको मात्राज्ञ होना चाहिये ' इसका वर्णन । २८५-२९१ १४ सप्तम सूत्रका अवतरण और सप्तम मूत्र ।
२९१ १५ श्रुतचारित्र रूप इस मार्गको आयौँने प्रवेदित किया है। इस मार्ग पर
स्थित हो कर जिस प्रकार कर्म से उपलिप्त न हो वैसा करना चाहिये।
__२९१-२९२ १६ अष्टम सूत्रका अवतरण और अष्टम मूत्र।
२९२ १७ हिरण्य-सुवर्णादि तथा शब्दादि काम दुरुल्लङ्घ्य हैं । इन कामों
को चाहनेवाले पुरुपकी जो दशा होती है उसका वर्णन। २९३-२९९ १८ नवम सूत्रका अवतरण और नवम मूत्र ।
२९९
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विषय
पृष्ठाङ्क
१९ ज्ञाननेत्रयुक्त मुनिका वर्णन ।
२९९-३०७ २० दशम भूत्रका अवतरण और दशम मूत्र ।
३०७ २१ साधुको कामभोगागासे युक्त नहीं होना चाहिये; क्यों कि
कामभोगाशासे युक्त साधु बहुमायी हो कर लोभ और वैर वढानेवाला होता है। वह अपनेको अमर समझता है, इष्ट-विनाश
आदि कारण से वह उच्च स्वर से रुदन करता है। ३०८-३१३ २२ ग्यारहवां मूत्रका अवतरण और ग्यारहवां मूत्र ।
३१३ २३ वाल-अज्ञानी परतैर्थिक कामभोगस्पृहाकी चिकित्सा कामभोग
सेवनही कहते हैं। इसलिये वे हननादिक क्रियासे युक्त होते हैं। परन्तु अनगार ऐसे नहीं होते हैं । उद्देश-समाप्ति । ३१४-३१८
॥ इति पञ्चमोद्देशः ॥
॥ अथ षष्टोद्देशः॥ १ पञ्चम उद्देशके साथ षष्ठ उद्देशका सम्बन्धप्रतिपादन । २ प्रथम मत्रका अवतरण और प्रथम मूत्र। ३ पड्जीवनिकाय के उपघातका उपदेश नहीं देनेवाले अनगार कभी भी पापाचरण नहीं करते।
३२०-३२१ ४ द्वितीय मुत्र का अवतरण और द्वितीय सत्र ।
३२१ ५ जो छ जीवनिकायों या छ व्रतों में से किसी एक की विराधना
करता है वह छही की विराधना करता है। सुखार्थी वह वाचाल होता है, और अपने दुःखसे मूढ हो वह सुख के बदले दुःख ही पाता है। वह अपने विप्रमादसे अपने व्रतों को विपरीत प्रकार से करता है, अथवा वह अपने संसारको बढाता है, या एकेन्द्रियादिरूप अवस्था को प्राप्त करता है। इसलिये चाहिये कि प्राणियों को जिनसे दुःख हो ऐसे दुःखजनक कर्मों का आचरण नहीं करे । इस प्रकार के कर्मों के अनाचरण से कर्मोपशान्ति होती है।
३२२-३३१
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४७
विषय
६ तृतीय सूत्रका अवतरण और तृतीय सूत्र ।
७ ममत्वबुद्धि से रहित हो मनुष्य रत्नत्रययुक्त अनगार होता है । ३३२-३३४
८ चतुर्थ सूत्रका अवतरण और चतुर्थ मत्र ।
३३४
१ मेधावी मुनि ममत्वबुद्धिको छोड़कर, लोकस्वरूप को जानकर आहारादिमूर्च्छारूप संज्ञा से रहित हो संयमानुष्ठान में पराक्रम करे ।
पृष्ठाङ्क
३३४-३३६
३३६
१५ दुर्वसु मुनि भगवानकी आज्ञाका विराधक हो कर तुच्छता एवं ग्लानिको प्राप्त करता है, और भगवान्की आज्ञाका आराधक सुत्र मुनि तुच्छता एवं ग्लानि को नहीं पाते हैं और तीर्थङ्कर गणधर आदि से प्रशंसित होते हैं । यह सुवसु मुनि लोकसंयोग से रहित हो मुक्तिगामी होते हैं ।
३३२
१० पञ्चम सूत्रका अवतरण और पञ्चम मंत्र |
११ कर्मविदारण करनेमें समर्थ, पुत्रकलत्रादिको त्यागनेवाले वीर चारित्रविषयक अरति और शब्दादिविषयक रतिको दूर कर देते हैं; क्योंकि वे अनासक्त होते हैं; अत एव वे शब्दादिविषयों में रागयुक्त नहीं होते ।
१२ छठे मूत्रका अवतरण और छठा सूत्र ।
१३ सुनि इष्टानिष्ट शब्दादि विषयों में रागद्वेप न करता हुआ असंयमजीवन सम्बन्धी प्रमोदको दूर करे, मौन ग्रहणकर कर्मक्षपण करे । सम्यक्त्वदर्शी वीर मुनि प्रान्त और रूक्ष अन्न सेवन करते हैं । प्रान्त - रूक्ष अन्न सेवन करनेवाले मुनि कर्मका विनाश कर ओघन्तर, तीर्ण और मुक्त होते हैं। ऐसे ही मुनि विरत कहलाते है । ३३८ - ३४३
१४ सातवें सूत्रका अवतरण और सातवां सूत्र |
३४३
१६ आठवें सूत्रका अवतरण और आठवी सूत्र | १७ शारीरिक-मानसिक दुःखजनक कर्मों का जहां जिस प्रकार से बन्ध होता है, मोक्ष होता है, और विपाक होता है । उन सबों
३३७
३३८
३४३-३४७
३४७
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४८
विषय
पृष्ठाङ्क का तीर्थङ्कर गणधर आदिने प्ररूपण किया है । कुशल मुनि बन्ध और मोक्षके उपायों को सर्वदा समझाते हैं। उन वन्ध और मोक्षके उपायों को जान कर भव्य आस्रवद्वारों से दूर रहे । जो मुनि अन्य दर्शनों में श्रदान नहीं रखते हैं-जो मुनि अनन्यदर्शी होते है-वे अनन्याराम होते है और जो अनन्याराम होते हैं वे अनन्यदर्शी होते हैं। कुशल मुनिका उपदेश पुण्यात्मा
और तुच्छात्मा दोनों के लिये बराबर होता है। एसे मुनिका
उपदेश द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके अनुसार ही होता है। ३४८-३५४ १८ नवम मूत्र का अवतरण और नवम सूत्र ।
३५५ १९ धर्मोपदेशक श्रोताकी परीक्षा करके धर्मोपदेश करे। ऐसा धर्मों
पदेशक ही प्रशंसित होता है । यह मुनि अष्टविधर्मपाशसे बद्ध जीवों को छुडाता है, सभी दिशाओं में सर्वपरिज्ञाचारी होता है और हिंसादि स्थानों से लिप्त नहीं होता है। कर्मों के नाश करने में कुशल, बन्धप्रमोक्षान्वेषी-पत्नत्रय का अन्वेषणशीलवह मुनि न बद्ध है न मुक्त है।
३५६-३६३ २० दशम सत्रका अवतरण और दशम सत्र ।
३६४ २१ तीर्थङ्कर, सामान्य केवली और रत्नत्रययुक्त साधुओं ने जैसा
आचरण किया है वैसा ही आचरण दूसरे साधु करें, तीर्थङ्करादिकोंने जिस आचरणको प्रतिपिद्ध माना है उस आचरण से दूर रहें।
३६४-३६६ २२ ग्यारहवें मंत्र का अवतरण और ग्यारहवां मत्र ।।
३६७ २३ पश्यक-तीर्थङ्कर गणधरादिक नरकादिगतिके भागी नहीं होते,
वाल-अज्ञानी तो निरन्तर होते रहते हैं। उद्देशसमाप्ति । द्वितीयाध्ययनसमाप्ति ।
३६७ २४ द्वितीय अध्ययन की टीकाका उपसंहार।
३६८ ।। इति द्वितीयाध्ययनम् ।।
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३८४
॥ अथ तृतीयाध्ययनम् ।
॥ अथ प्रथमोदेशः ॥ विषय १ द्वितीयाध्ययन के साथ तृतीय अध्ययनका सम्बन्धप्रतिपादन, चारों उद्देशों के विषयों का संक्षिप्त वर्णन ।
३६९-३७० २ प्रथम सूत्रका अवतरण और प्रथम सत्र ।
३७१ ३ अमुनि सर्वदा सोते रहते हैं, और मुनि सर्वदा जागते रहते हैं। ३७१-३८० ४ द्वितीय सूत्रका अवतरण और द्वितीय मूत्र । ५ दुःखजनक प्राणातिपातादि कर्म अहितके लिये होते हैं; इसलिये __ प्राणातिपातादि कर्मों से विरत रहना चाहिये । ३८०-३८४ ६ तृतीय मूत्रका अवतरण और तृतीय सूत्र । ७ जो शब्दादि विषयों में रागद्वेषरहित है-ऐसा ही प्राणी आत्म
वान् , ज्ञानवान् , व्रतवान , धर्मवान् और ब्रह्मवान् होता है । ऐसा ही प्राणी पजीवनिकायस्वरूप लोकके परिज्ञानसे युक्त होता है । वही मुनि कहलाता है । वही धर्मवित् और ऋजु है,
एवं वही आवर्त और स्रोतके संबन्धको जानता है। ३८५-३८८ ८ चतुर्थ मूत्रका अवतरण और चतुर्थ मूत्र ।। ९ आवर्त और स्रोतके सम्बन्धके जाननेवाला मुनि बाह्य और
आभ्यन्तर ग्रन्थिसे रहित, अनुकूल और प्रतिकूल परीपहों को सहन करनेवाले, संयम विपयक अरति और शब्दादि विषयक रति की उपेक्षा करनेवाले होते हैं, और वे परिपहों की परुपता को पीडाकारक नहीं समझते हैं। वे सर्वदा श्रुतचारित्ररूप धर्म में जागरूक रहते हैं, दूसरों का अपकार नहीं करना चाहते हैं । वे वीर अर्थात् कर्मविदारण करने में समर्थ होते हैं।
इस प्रकारके मुनि दुःश्व के कारणभूत काँसे मुक्त हो जाते हैं ।३८९-३९१ १० पाँचवें सूत्रका अवतरण और पाचवा मूत्र।
३९२ ११ जरा और मृत्युके वशमें पड़ा हुआ मनुष्य सर्वदा मृह बना
रहता है, इसलिये वह श्रुतचारित्र धर्म को नहीं जानता है। ३९२
३८९
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P
विषय
१२ छठे सूत्रका अवतरण और छठा सूत्र । १३ आत्मकल्याणार्थी मनुष्य आतुर
प्राणियों को देखकर, अप्रमत्त
हो, संयमाराधनमें तत्पर रहे - इस प्रकार संयमाराधनमें तत्पर रहने के लिये शिष्यको आज्ञा देना ।
१९ जो शब्दादि विषयों में होनेवाला सावध कर्म के ज्ञाता हैं वे निरवद्य क्रियारूप संयम में होनेवाले दुःखों के सहन की उपयोगिता को भी जाननेवाले हैं, और जो निरवद्यक्रियारूप संयममें दुःखों के सहन की उपयोगिता को जाननेवाले हैं वे शब्दादिविषयों में होनेवाले सावद्य कर्म के भी ज्ञाता हैं । २० दशम सूत्रका अवतरण और दशम सूत्र ।
२१ कर्मरहित मुनिको नारकादि व्यवहार नहीं होता है; क्यों कि उपाधिका जनक कर्म है ।
२२ ग्यारहवें सृत्रका अवतरण और ग्यारहवां सूत्र ।
पृष्ठाङ्क
३९२
१४ सप्तम सूत्र ।
१५ ' यह संसारपरिभ्रमणरूप दुःख सावधक्रियाके अनुष्ठान से होता है, ऐसा जानकर आत्मकल्याणके लिये अभ्युद्यत रहो ' इस प्रकार शिष्यके प्रति कथन । मायी और प्रमादी वारंवार नरकादियातना को प्राप्त करता है । जो पुरुष शब्दादिविषयों में रागद्वेषरहित होता है, माया एवं प्रमाद से दूर रहता है, वारंवार मरणजनित दुःखके आने की आशंका से भयभीत रहता है; वह श्रुतचारित्र धर्ममें जागरूक हो मरण से छूट जाता है। ३९४-३९५ १६ अष्टम सूत्र ।
३९५
१७ संसारी जीवोंके दुःखों के जाननेवाले, कामभोगजनित प्रमादौ से रहित, पाप कर्मों से निवृत्त वीर पुरुष आत्माके उद्धार करनेमें समर्थ होते हैं ।
१८ नवम सूत्रका अवतरण और नवम सूत्र ।
३९३
३९४
२३ कर्मको संसारका कारण जानकर कर्मके कारण प्राणातिपातादि का त्याग करे |
३९६
३९६
३९७-३९९
३९९
३९९-४०१
४०२
४०२-४०३
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४०३
विषय
पृष्ठाङ्क २४ बारहवा सूत्र । २५ मुनि कर्मस्वरूपका पर्यालोचन कर सर्वज्ञ-जिन सम्बन्धी उपदेश,
या संयमको स्वीकार कर रागद्वेषसे रहित हो वीतराग हो
जाते हैं। २६ तेरहवां सूत्र । २७ कर्मके कारण रागद्वेषका ज्ञानपूर्वक परित्याग कर, संसारी लोगों
को विषयकषायों से व्यामोहित जान कर, तथा विषयाभिलापरूप लोकसंज्ञाका वमन कर मतिमान् मुनि संयमाराधनमें तत्पर रहे, संयम ग्रहण कर पश्चात्ताप न करे । उद्देशसमाप्ति । ४०४-४०५
॥ इति प्रथमोद्देशः ॥
३
॥ अथ द्वितीयोद्देशः॥ १ प्रथम उद्देश के साथ द्वितीय उद्देश का सम्बन्धप्रतिपादन, और द्वितीय उद्देशका प्रथम मूत्र ।
४०६ २ प्राणियों के जन्मद्धिका विचार करो; सभी प्राणियों को मुखप्रिय होता है और दुःख अप्रिय होता है - इस वस्तु को समझो। इस प्रकार विचार करनेवाला प्राणी अतिविध हो कर -'निर्वाणपद या वहां तक पहुंचानेवाले सम्यग्दर्शन आदि परम हैं' ऐसा जान कर परमार्थदर्शी बनकर सावध कर्म नहीं करता।
४०६-४०९ ३ द्वितीय मूत्र ।
४१० ४ इस मनुष्यलोकमें बन्धन के कारणभूत मनुष्यों के साथ के
सम्बन्धों को छोड़ो । आरम्भजीवी मनुष्य ऐहिक-पारलौकिक दुःखोंको भोगनेवाले होते हैं । कामभोगों में अभिलाषा रखनेवाले जीव अष्टविध कर्मों का संचय करते रहते हैं और काम
भोगादिजन्य कर्मरजसे संश्लिष्ट हो वारंवार गर्भगामी होते हैं। ४१०-४११ ५ तृतीय सूत्र ।
४११
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५२
विषय
६ अज्ञ मनुष्य मनोविनोद के निमित्त प्राणियों का संहार कर आनंद मानता है | बालों - अज्ञों का संग व्यर्थ है । उनके संग से तो द्वेषी ही वृद्धि होती है ।
४११-४१२
४१३
७ चतुर्थ सूत्रका अवतरण और चतुर्थ सूत्र ।
८ बालों के संगसे द्वेप ही वढता हैं; इस हेतु अतिविद्य - सम्यज्ञानवान् प्राणी परम की, अर्थात् - सिद्धिगति नामक स्थान की अथवा सर्वविरतिरूप चारित्र की सत्ता को जान कर, नरकनिगोदादिके विविध दुःखोंके ज्ञान से युक्त हो, पापानुबन्धी कर्म नहीं करता है, न दूसरों से कराता है, न करनेवाले का अनुमोदन ही करता है । वह धीर मुनि, अग्र और मूलका विवेक कर के, कर्मों का छेदन कर निष्कर्मदर्शी हो जाता है ।
९ पञ्चम सूत्रका अवतरण और पञ्चम सूत्र ।
१० यह निष्कर्मदर्शी मरण से मुक्त हो जाता है, केवली होकर दूसरों को भी मुक्त करता है । इहलोकादि भय को देखनेवाला यही मुनि कहलाता है | मुनि परमदर्शी, विविक्तजीवी और उपशान्त आदि हो कर, पण्डितमरणकी आकाङ्क्षा करता हुआ संयमाराधनमें तत्पर रहे ।
पृष्ठाङ्क
४१३–४१५
४१६
४१६-४१८
४१८
११ छठा सूत्र ।
१२ पापकर्म बहुत प्रकारके कहे गये हैं, उनको दूर करनेके लिये संयम में धृति धरो । संयमपरायण मेधावी मुनि समस्त पाप कर्मोंका क्षपण करता है ।
४१८-४१९
४१९-४२०
१३ सातवाँ सूत्रका अवतरण और सातवा सूत्र |
१४ अनेक विषयों में आसक्तचित्त संसारी पुरुषों की इच्छाकी पूर्ति नहीं होती। ऐसे पुरुष अन्यवधादिरूप पापकर्मों में ही निरत रहते हैं ।
४२०-४२४
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४२६
४२७
विषय
पृष्ठाङ्क १५ आठवा सूत्र ।
४२४ १६ इन अन्यवधादिकों का सेवन करके भरतादि-जैसे कोई २
इन्हें निस्सार समझ कर संयमाराधन में तत्पर हुए हैं। इसलिये
इनको निस्सार समझ कर ज्ञानी इनका सेवन नहीं करे। ४२४-४२५ १७ नवम सूत्रका अवतरण और नवम मूत्र ।
४२५ १८ देव भी जन्ममरणशील होते हैं; इसलिये उनके सुख को भी
नश्वर समझ कर श्रुतचारित्रधर्मका सेवन करो। १९ दशम मूत्र ।
४२७ २० श्रुतचारित्र धर्म के आराधनमें तत्पर मुनि किसी की हिंसा न करे,
न दूसरों से हिंसा करावे और न हिंसा करनेवाले की अनु
मोदना ही करे। २१ ग्यारहवा सूत्र का अवतरण और ग्यारहवा सूत्र ।
४२७ २२ स्त्रियों में अनासक्त, सम्यग्ज्ञानदर्शन चारित्रके आराधन में तत्पर
तथा पाप के कारणभूत कौँ से निवृत्त मुनि वैषयिक सुख की जुगुप्सा करे।
४२७-४२८ २३ बारहवा सूत्र।
४२९ २४ क्रोधादि का नाश करे, लोभ का फल नरक समझे, प्राणियों की
हिंसा से निवृत्त रहे, मोक्ष की अभिलाषा से कर्मों के कारणों को दूर करे।
४२९-४३० २५ तेरहवा सूत्र।
४३१ २६ इस संसारमें समय की प्रतीक्षा न करते हुए तत्काल ही
बाह्याभ्यन्तर ग्रन्थिको जान कर परित्याग करे; स्रोत को जान कर संयमाचरण करे, इस दुर्लभ नरदेहको पाकर किसी की भी हिंसा न करे। उद्देशसमाप्ति ।।
४३१-४३३ ॥ इति द्वितीयोदेशः॥
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पृष्ठाङ्क
॥ अथ तृतीयोद्देशः ।। विषय १ द्वितीयोदेशके साथ तृतीयोद्देशका सम्बन्धप्रतिपादन, और प्रथम मूत्र ।
४३४ २ सन्धिको जान कर लोकके क्षायोपशमिक भावलोक के विषयमें प्रमाद करना उचित नहीं है । अथवा-सन्धि को जान कर लोक
को-षड्जीवनिकायरूप लोक को-दुःख देना ठीक नहीं है। ४३५ ३ द्वितीय सूत्रका अवतरण और द्वितीय मूत्र ।
४३५ ४ अपने को जैसे सुख प्रिय है और दुःख अभिय, उसी प्रकार
सभी प्राणियों को है। इसलिये किसी भी प्राणी की न स्वयं घात करे, न दूसरों से घात करावे, न घात करनेवाले की अनुमोदना ही करे।
४३५-४३६ ५ तृतीय सूत्र का अवतरण और तृतीय सूत्र ।
४३७ ६ मुनित्व किसे प्राप्त होता है।
४३७-४४० ७ चतुर्थ मूत्रका अवतरण और चतुर्थ मूत्र ।
४४०-४४१ ८ ज्ञानी पुरुष चारित्र में कभी भी प्रमाद न करे, जिनप्रवचनोक्त ___ आहारमात्रा से शरीर-यापन करे ।
४४१-४४२ ९ पञ्चम मूत्रका अवतरण और पञ्चम मूत्र ।
४४३ १० मुनि उत्तम, मध्यम एवं अधम इन सभी रूपों में वैराग्ययुक्त होवे। ४४४ ११ छठे सूत्रका अवतरण और छठा सूत्र ।
४४५ १२ जो मुनि जीवों की गति और आगति को जान कर रागद्वेषसे
रहित हो जाता है, वह समस्त जीवलोकमें छेदन, भेदन, दहन
और हनन-जन्य दुःखों से रहित हो जाता है। ४४५-४४७ १३ सातवे मूत्रका अवतरण और सातवां मूत्र १४ मिथ्यादृष्टि जीव भूतकाल और भविष्यत्काल सम्बन्धी अवस्थाओं
को नहीं जानते है। उन्हें यह नहीं ज्ञात होता कि इसका भूतकाल कैसा था और भविष्यत्काल कैसा होगा ?, कोई २ मिथ्यादृष्टि तो ऐसा कहते हैं कि जैसा इस जीव का अतीतकाल था वैसा ही भविष्यकाल होगा।
४४८
४४८
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४५५
विषय
पृष्ठाङ्क १५ आठवें सूत्रका अवतरण और आठवां सूत्र
४४९ १६ तत्त्वज्ञानी जीव अतीतकालिक और भविष्यत्कालिक पदार्थों का
चिन्तन नहीं करते, वे तो वर्तमानकाल के ऊपर ही सावधानता से दृष्टि रखते हैं । इसलिये मुनि विशुद्धाचारी या अतीतानागत कालके संकल्प से रहित हो कर, निरतिचार संयमकी आराधना कर पूर्वोपार्जित सकल कमौका क्षपण करे।
४५०-४५१ १७ नवम सूत्र का अवतरण और नवम सूत्र ।
४५१-४५२ १८ अरति और आनन्दकी असारता का विचार कर, उनके विषय
में विचलित न होता हुआ ध्यान मार्ग में विचरण करे, तथा सभी प्रकार के हास्यों का परित्याग कर आलीनगुप्त होते हुए संयमानुष्ठान में तत्पर रहे।
४५२-४५५ १९ दशम सूत्रका अवतरण और दशम सूत्र । २० पुरुष अपना मित्र अपने ही है। बाहरमें मित्र खोजना व्यर्थ है। ४५५-४५७ २१ ग्यारहवें सूत्रका अवतरण और ग्यारहवां सूत्र । ४५७-४५८ २२ जो पुरुष कर्मों के दूर करनेकी इच्छावाला है वह कर्मों को
दूर करनेवाला है और जो कर्मों को दूर करनेवाला है वह कौं के दूर करने की इच्छावाला है।
४५८-४५९ २३ बारहवें सूत्रका अवतरण और बारहवां सूत्र ।
४५९-४६० २४ अपनी आत्माको बाह्य पदार्थों से निवृत्त कर, उसे ज्ञानदर्शन
चारित्र से युक्त कर पुरुष दुःखसे मुक्त हो जाता है। ४६०-४६१ २५ तेरहवां सूत्र । २६ सत्यको-अर्थात्-गुरु की साक्षिता से गृहीत श्रुतचारित्र धर्म
सम्बन्धी ग्रहणी और आसेवनी शिक्षा को, अथवा आगमको विस्मृत न करते हुए तदनुसार आचरण करो । सत्यका अनुसरण करनेवाला मेधावी संसार समुद्रका पारगामी होता है और ज्ञानादियुक्त होने से श्रुतचारित्र धर्मको ग्रहण कर वह मुनि मोक्षपददर्शी होता है।
४६२
४६१
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विषय
पृष्ठाङ्क २७ चौदहवें सूत्रका अवतरण और चौदहवां मूत्र ।
४६३ २८ रागद्वेष का वशवर्ती जीव क्षणभङ्गुर जीवनके परिवन्दन, मानन
और पूजनके लिये प्राणातिपात आदि असत्कर्मों में प्रवृत्ति करते हैं। इस प्रकार वे परिवन्दन, मानन और पूजनके विषय में प्रमादशील हो जाते हैं, प्रमादी हो जन्म जरा मरणरूप दुःखार्णव में अपने को डुबो देते हैं, अथवा-इस प्रकार वे उन परिवन्दनादिकों में आनन्द मानते हैं; परंतु वे परिवन्दनादिक उनके हितके लिये नहीं होते।
४६३-४६४ २९ पन्द्रहवें सूत्रका अवतरण और पन्द्रहवां सूत्र।
४६४-४६५ ३० ज्ञानचारित्रयुक्त मुनि दुःखमात्रासे स्पृष्ट होकर भी व्याकुल
नहीं होता । हे शिष्य ! तुम पूर्वोक्त अर्थ अथवा वक्ष्यमाण अर्थ को अच्छी तरह समझो। रागद्वेषरहित मुनि लोकालोक प्रपञ्च से मुक्त हो जाता है। उद्देशसमाप्ति ।
४६५-४६६ ।। इति तृतीयोद्देशः ॥
॥ अथ चतुर्थोदेशः ॥ १ तृतीय उद्देश के साथ चतुर्थ उद्देशका सम्बन्ध प्रतिपादन और प्रथम मूत्र ।
४६७-४३८ २ शुभाध्यवसायपूर्वक संयमके आराधनमें तत्पर मुनि क्रोध, मान . माया और लोभको दूर करनेवाला होता है; यह वात तीर्थङ्करोंने कही है। तीर्थदरों के उपदेशका अनुसरण करनेवाला साधु आदान का-अष्टादश पापस्थानों का, अथवा कपायों का - वमन करनेवाला और स्वकृत कर्मों का नाश करनेवाला होता है। ४६८-४७२ ३ द्वितीय मूत्रका अवतरण और द्वितीय सूत्र ।
४७२-४७३ ४ जो एक को जानता है वह सबको जानता है, जो सवको जानता
है वह एकको जानता है। ५ तृतीय मृत्रका अवतरण और तृतीय मूत्र ।
४७५
४७४-४७५
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५७
।
विषय ६ प्रमादी को सबसे भय रहता है और अप्रमादीको किसी से भी नहीं !४७५-४७७ ७ चतुर्थ सूत्रका अवतरण और चतुर्थ सूत्र।
४७७-४७८ ८ जो एकका उपशम करता है वह बहुतका उपशम करता है,
जो बहुतका उपशम करता है वह एकका उपशम करता है। ४७८-४७९ ९ पांचवें सूत्रका अवतरण और पांचवां सूत्र ।
४७९ १० धीर मुनि-षड्जीवनिकायलोकके दुःखकारण कौंको जानकर,
पुत्रकलत्रादि तथा हिरण्यसुवर्णादिकी ममता छोड़कर चारित्रको ग्रहण करते हैं और परसे पर जाते हैं, ऐसे मुनि अपने जीवन की अभिलाषा नहीं रखते हैं।
४८०-४८५ ११ छठे सूत्रका अवतरण और छठा सत्र ।
४८५ १२ एकका विवेचन करते हुए दूसरोंका भी विवेचन करता है,
दूसरोंका विवेचन करते हुए एकका भी विवेचन करता है। ४८६-४८७ १३ सातवें सूत्रका अवतरण और सातवां मूत्र ।
४८७ १४ मोक्षाभिलाषरूप श्रद्धावाला, जैनागमके अनुसार आचरण करता
हुआ, मेधावी अप्रमत्त संयमी क्षपकश्रेणीको प्राप्त करता है। ४८७-४८८ १५ आठवें सूत्रका अवतरण और आठवां सूत्र।
४८८ १६ पड्जीवनिकायके स्वरूपको जिनोक्त प्रकारसे जानकर, जिससे
षड़जीवनिकाय लोकको किसी प्रकारका भय न हो उस प्रकार से संयमाराधन करे।
४८८-४८९ १७ नवम सूत्रका अवतरण और नवम सूत्र ।
४८९ १८ शस्त्र परसे पर है और अशस्त्र परसे पर नहीं है।
४८९-४९१ १९ दशम सूत्रका अवतरण और दशम सूत्र ।
४९१ २० भावशस्त्र परसे पर होता है, अर्थात्-ज़ो क्रोधदर्शी होता है
वह क्रमशः तिर्यग्दर्शी-निगोदभवसम्बन्धी दुःखोंको देखनेवाला होता है।
४९२-४९४ २१ ग्यारहवें सत्रका अवतरण और ग्यारहवां सूत्र ।
४९४
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विषय
पृष्ठाङ्क २२ पूर्वोक्त मेधावी मुनिको चाहिये कि क्रोधसे लेकर मोह तकके
भावशस्त्रों का परित्याग कर क्रोधादिकके फलभूत गर्भदुःखादिसे लेकर निगोददुःखपर्यन्त सभी दुःखोंको दूर करे-यह वात भगवान् तीर्थङ्करने कही है।
४९४-४९५ २३ वारहवें मूत्रका अवतरण और वारहवां सूत्र ।
४९५ २४ क्रोधादिको दूर करनेवाला अपने पूर्वोपार्जित कौका क्षपण ___करनेवाला होता है।
४९६ २५ तेरहवे सूत्रका अवतरण और तेरहवां सूत्र।
४९६ २६ पश्यकको, अर्थात्-केवलोको उपाधि, अर्थात् द्रव्योपाधि भावो
पाधि, अथवा-कर्मजनित नरकादिभव होता है क्या?; पश्यकको उपाधि नहीं है । उद्देशसमाप्ति।
४९६-४९९ ।। इति तृतीयाध्ययनम् ॥
।। अथ चतुर्थाध्ययनम् ॥
॥ अथ प्रथमोद्देशः ॥ १ तृतीय अध्ययनके साथ चतुर्थ अध्ययनका सम्बन्धप्रतिपादन।। ५०० २ प्रसङ्गतः सम्यक्त्वका निरूपण । ३ सम्यक्त्व शब्दकी सिद्धि, सम्यक्त्वका लक्षण, सम्यक्त्वके लक्षणके विपयमें वादियों की विपतिपत्तिका निरसन ।
५००-५११ ४ सम्यक्त्वका द्वैविध्य और दशविधत्वका सविस्तर विवरण। ५१२-५२८ ५ सम्यक्त्वकी स्थिति।
५२९ ६ सम्यक्त्वके प्रादुर्भावकी व्यवस्था ।
५२९-५३० ७ सम्यक्त्वका अन्तरकाल। ८ सम्यक्त्वका फल ।
५३१-५५९ ९ सम्यक्त्वप्राप्तिका क्रम ।
५५९-५७२
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५७६
विषय
पृष्ठांङ्क १० सम्यक्त्वमोहनीयका स्वरूप ।
५७३-५७५ ११ मिश्रमोहनीय । १२ मिथ्यात्वमोहनीय ।
५७६-५८४ १३ प्रथम सूत्रका अवतरण और प्रथम सूत्र ।
५८५ १४ सभी तीर्थङ्करोंद्वारा प्रतिपादित सम्यक्त्वका निरूपण । ५८५-५८८ १५ द्वितीय मूत्रका अवतरण और द्वितीय मूत्र ।
५८९ १६ यह सर्वप्राणातिपातविरमणादिरूप धर्म-शुद्ध, नित्य और
शाश्वत है । इस धर्मको भगवान्ने षड्जीवनिकायरूप लोकको दुःख-दावानलके अन्दर जलते हुए देखकर प्ररूपित किया है। भगवान्ने इस धर्मका प्ररूपण उत्थित अनुत्थित आदि सवोंके लिये किया है।
५८९-५९३ १७ तृतीय सूत्रका अवतरण और तृतीय सूत्र ।
५९३ १८ भगवान्का वचन सत्य ही है, भगवान्ने वस्तुका स्वरूप जिस
प्रकार प्रतिपादन किया है वह वस्तु वैसी ही है-इस प्रकारके श्रद्धानलक्षण सम्यक्त्वका प्रतिपादन केवल आर्हतागममें ही कहा गया है। अन्यत्र नहीं !
५९३-५९४ १९ चतुर्थ सूत्रका अवतरण और चतुर्थ सूत्र ।
५९५ २० उस सम्यक्त्वको प्राप्त कर, धर्मको उपदेश-आदि उपायद्वारा जान
कर सम्यक्त्वको प्रशम-संवेगादिद्वारा प्रकाशित करे, सम्यक्त्वका परित्याग न करे।
५९५-५९६ २१ पञ्चम सूत्रका अवतरण और पञ्चम सूत्र ।
५९७ २२ ऐहिक और पारलौकिक इष्ट-अनिष्ट शब्दादि विषयों में वैराग्य रखे।
५९७ २३ छठा मूत्र।
५९८ २४ लोकैपणा न करे।
५९८-५९९ २५ सातवें सूत्रका अवतरण और सातवां मूत्र । २६ जिसको लोकैषणा नहीं है उसको सावध-व्यापारमें प्रवृत्ति कहांसे
५९९
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विषय
पृष्ठाङ्क हो! अथवा-जिसको यह सम्यक्त्यपरिणति नहीं है उसको साव
द्यानुष्ठानसे रहित करनेवाली विवेकयुक्त परिणति कहांसे हो ! ५९९-६०० २७ आठवें सूत्रका अवतरण और आठवां सूत्र ।।
६०० २८ इस सम्यक्त्वको जो मैंने कहा है उसे तीर्थङ्करोंने देखा है,
गणधरोंने सुना है, लघुकर्मा भव्यजीवोंने माना है। ज्ञानावरणीय के क्षयोपशमसे भव्यजीवोंने जाना है ।
६००-६०१ २९ नवम सूत्रका अवतरण और नवम मूत्र । ३० जिनवचनमें श्रद्धारूप सम्यक्त्वके अभावसे मातापिता आदिके
साथ सांसारिक संवन्ध रखता हुआ, मृत्युद्वारा उनसे वियुक्त होता हुआ, या शब्दादि विषयों में आसक्ति करता हुआ मनुष्य एकेन्द्रियादिक भवों में भटकता रहता है।
६०१ ३१ दशम भूत्रका अवतरण और दशम सूत्र । ३२ दिन-रात मोक्षप्राप्ति के लिये उद्योगयुक्त और सर्वदा उत्तरोत्तर
प्रवर्द्धमान हेयोपादेयविवेकपरिणामसे युक्त होते हुए तुम प्रमत्तों को-असंयतोंको आहत धर्मसे बहिर्भूत समझो; और पञ्चविध प्रमादोंसे रहित हो मोक्षप्राप्ति के लिये अविच्छिन्न प्रयत्न करो, अथवा-अष्टविध कर्मशत्रुओंको जीतने के लिये ,पराक्रम करो। उद्देशसमाप्ति ।
६०२-६०४ ॥ इति प्रथमोद्देशः ॥
६०२
॥ अथ द्वितीयोद्देशः॥ १ प्रथम उद्देशके साथ द्वितीय उद्देशका संवन्ध-प्रतिपादन; प्रथम
मूत्रका अवतरण और प्रथम सूत्र । २ जो आस्रव-कर्मवन्धके कारण हैं वे परिस्रव-कर्मनिर्जराके कारण
हो जाते हैं, और जो परिस्रव-कर्मनिर्जराके कारण हैं वे आस्रव
६०५
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६१५
विषय
पृष्ठाङ्क कर्मबन्धके कारण हो जाते हैं । जो अनास्रव-कर्मनिर्जराकारक व्रतविशेष हैं वे अपरिस्रव-कर्मबन्धके कारण हो जाते हैं, जो अपरिस्रव-कर्मबन्धके कारण हैं वे अनास्रव-कर्मनिर्जराकारक व्रतविशेष हो जाते हैं।
६०६-६१५ ३ द्वितीय सूत्र। ४ 'जो आस्रव हैं वे परिस्रव हैं जो परिस्रव हैं वे आस्रव हैं, जो
अनास्रव हैं वे अपरिस्रव हैं जो अपरिस्रव हैं वे अनास्रव हैं'-इन पदोंको जानता हुआ ऐसा कौन मुनि है जो पड्जीवनिकायको बंधते हुए और मुक्त होते हुए जिनागमानुसार जान कर, तथा सभी तीर्थङ्करोद्वारा भिन्न-भिन्नरूपसे प्रतिबोधित बन्धकारण
और निर्जराकारणको जानकर धर्माचरणमें प्रवृत्त न हो ! ६१५-६१६ ५ तृतीय सूत्रका अवतरण और तृतीय सूत्र । ६ प्रवचनज्ञानसे युक्त मुनि, हेयोपादेयको तथा यथोपदिष्ट धर्म
को जाननेवाले संसारियों के लिये उपदेश देते हैं। ज्ञानीका उपदेश सुनकर, आर्त अथवा प्रमत्त भी प्रबुद्ध हो जाते है । मैंने जो कुछ कहा है और मैं जो कुछ कहता हूँ वह सत्य ही हैं। मैंने यह सब भगवान्से सुनकर ही कहा है । मोक्षाभिलाषीको इसमें
सम्यक्त्व-श्रद्धान रखना चाहिये । ७ चतुर्थ सूत्रका अवतरण और चतुर्थ सूत्र ।
६२०-६२१ ८ संसारी जीव मृत्युसे नहीं बच सकते । वे धर्मसे बहिर्भूत होनेके कारण इच्छाके अधीन रहते हैं, अति-असंयमी होते हैं, काल-मृत्युसे गृहीत होते हैं, अथवा-आगामी वर्षमें या उसके बाद के वर्षों में धर्माचरण करने के संकल्प करते रहते हैं, और धान्यादि संग्रह करनेमें ही लगे रहते हैं। ऐसे संसारी जीव
अनन्तवार एकेन्द्रियादिक भवोंमें जन्म लेते रहते हैं। ६२१-६२४ ९ पञ्चम सूत्रका अवतरण और पञ्चम सूत्र ।
६२४ • इस लोकमें कितनेक जीवोंको वारंवार उत्पन्न होने के कारण
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विषय
पृष्ठाङ्क उनसे परिचय हो जाता है, नरकादि स्थानों में उत्पन्न हुए वे
जीव नरकादि सम्बन्धी दुःखों का अनुभव करते हैं। ६२४-६२५ ११ छठे सूत्रका अवतरण और छठा सूत्र।
६२५ १२ क्रूरकर्म करनेवाला जीव बहुतकाल तक नरकमें रहता है और
क्रूरकर्म नहीं करनेवाला जीव कभी भी नरकमें नहीं जाता है। ६२६ १३ सातवा भूत्रका अवतरण और सातवा मूत्र ।।
६२७ १४ चतुर्दशपूर्वधारी और केवलज्ञानीके कथनमें थोड़ासा भी अन्तर नहीं होता!
६२७-६२८ १५ अष्टम मूत्रका अवतरण और अष्टम मूत्र ।
६२८ १६ इस मनुष्यलोकमें कितनेक श्रमण ब्राह्मण- सभी प्राणी, सभी
भूत, सभी जीव और सभी सत्त्व हनन करनेयोग्य हैं, हनन करने के लिये आज्ञा देनेयोग्य हैं, हनन करने के लिये ग्रहण करने योग्य हैं और विषशस्त्रादिद्वारा मारने योग्य हैं। इसमें कोई दोष नहीं हैं'
इस प्रकार कहते हैं। यह सब अनायवचन ही है। ६२८-६३१ १७ नवम सूत्रका अवतरण और नवम मूत्र ।
६३२ १८ सभी प्राणी, सभी भूत-आदि हनन करनेके योग्य हैं, इत्यादि
जो कोई श्रमण-ब्राह्मण कहते हैं, उनका यह कथन अनार्यवचन है। इस प्रकार आयौँका कथन है।
६३२-६३३ १९ दशम सूत्रका अवतरण और दशम सूत्र । २० 'सभी प्राणी, सभी भूत आदि हनन करनेयोग्य नहीं हैं-इत्यादि
कथन आर्योंका है'--इस प्रकार स्वसिद्धान्तप्रतिपादन। ६३५-६३६ २१ ग्यारहवें मूत्रका अवतरण और ग्यारहवां सूत्र । २२ दुःख जैसे अपने लिये अप्रिय है उसी प्रकार वह सभी प्राणी,
भूत-आदिके लिये भी अप्रिय है । अतः किसीको दुःख नहीं देना चाहिये । उद्देशसमाप्ति ।
६३६-६३८ ॥ इति द्वितीयोद्देशः।।
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पृष्ठाङ्क
विषय
॥ अथ तृतीयोदेशः ॥ . . . . १ द्वितीय उद्देशके साथ तृतीय उद्देशका सम्बन्धप्रतिपादन, प्रथम
सूत्रका अवतरण और प्रथम सूत्र । २ धर्मसे बहिर्भूत लोगोंकी उपेक्षा करो, ऐसे लोगोंकी उपेक्षा करनेवाला मनुष्य ही विद्वान् है।
६३९-६४० ३ द्वितीय सूत्रका अवतरण और द्वितीय सूत्र ।
६४१ ४ विद्वान् मनुष्य मनोवाक्कायके सावधव्यापाररूप दण्ड के त्यागी होते हैं, अष्टविध कर्मों के त्यागी होते हैं, उनके शरीर शोभा संस्कार आदिसे रहित होते हैं, अतएव वे सरल होते हैं एवं आरम्भजनित दुःखोंके अभिज्ञ होते हैं । विद्वानके इस स्वरूपको सम्यक्त्वदर्शी-केवलीने कहा है।
६४१-६४६ ५ तृतीय सूत्र का अवतरण और तृतीय सूत्र ।
६४६-६४७ ६ सम्यक्त्वदर्शी मुनि-सर्वज्ञ, यथावस्थित अर्थको प्रतिबोधित करनेवाले तथा अष्टविध कौंको दूर करनेमें कुशल होते हुए सभी प्रकारसे कौंको जानकर ज्ञ और प्रत्याख्यानरूप दो प्रकारकी परिज्ञाको कहते हैं।
६४७-६४८ ७ चतुर्थ सूत्रका अवतरण और चतुर्थ सूत्र । ८ इस मनुष्यलोकमें आहेत आगमका श्रवण, मनन और समाराधन करनेवाला, हेयोपादेयके विवेकमें निपुण, रागद्वेषरहित मनुष्य आत्माको स्वजन-धन-शरीरादिसे भिन्न समझकर शरीरमें आस्था न रखे।
६४९-६५४ ९ पञ्चम सूत्र ।
६५४ १० तपस्या-आदिके द्वारा शरीरका शोषण करे, शरीरको जीर्ण वना दे। ६५४ ११ छठे सूत्रका अवतरण और छठा सूत्र । १२ जैसे अग्नि जीर्णकाष्ठोंको भस्म कर डालती है उसी प्रकार आत्मा
के शुभ परिणाम सम्यग्दर्शनादिमें सावधान और शब्दादि
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६४
विषय
विषयों में रागरहित मनुष्य ज्ञानावरणीयादि अष्टविध कर्मोंको
भस्म कर डालता है ।
१३ सातवें सूत्रका अवतरण और सातवां सूत्र |
१४ मुनि इस मनुष्यलोकको परिमित आयुवाला जानकर प्रशम गुणी वृद्धि करके क्रोधादि कषायोंका त्याग करे |
१५ आठवां सूत्र |
१६ हे मुनि ! क्रोधादिवश त्रिकरण- त्रियोग से प्राणातिपात करने से जो प्राणियोंको दुःख होता है, या क्रोधादि से प्रज्वलित मनवाले जीवको जो मानसिक दुःख होता है उसको समझो, और क्रोधजनित कर्मविपाकसे भविष्यत्कालमें जो दुःख होता है उसे भी समझो। ऐसे क्रोधी व्यक्ति भविष्यत्कालमें नरक निगोदादिभवसंबन्धी दुःखोंको भोगते हैं । दुःखागमके भय से कांपते हुए जीवको तुम यादृष्टिसे देखो ।
पृष्ठाङ्क
१७ नवम सूत्रका अवतरण और नवम सूत्र । १८ जो भगवान तीर्थङ्करके उपदेशमें श्रद्धायुक्त हैं, और उनके उपदेश को धारण करनेके कारण क्रोधादिकषायरूप अग्नि के प्रशान्त हो जाने से शीतीभूत हो गये हैं, अतएव जो पापकर्मोंके विषय में निदानरहित हैं, वे ही मोक्षसुखके भागी कहे गये हैं । १९ दशम सूत्रका अवतरण और दशम सूत्र । २० हे शिष्य ! जिसलिये क्रोधादिकपासे युक्त जीव अनन्त दुःख पाता है, इसलिये तुम आर्हतागम परिशीलन-जनित सम्यग्ज्ञान से युक्त अतिविद्वान् होकर क्रोधादिकपायजनित सन्तापसे अपनेको बचाओ | उद्देशसमाप्ति ।
॥ इति तृतीयोद्देशः ||
६५५
६५६
६५६
६५७
६५७-६६१ ६६१
६६१-६६४
६६४
६६४-६६५
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- ष्ठाङ्क
--maina
६६६
॥ अथ चतुर्थो देशः॥ विषय . १ तृतीय उद्देशके साथ चतुर्थ उद्देशका सम्बन्धप्रतिपादन, प्रथम
सूत्रका अवतरण और प्रथम सूत्र । २ मातापिता आदिके सम्बन्धको या असंयमको छोड़कर और
संयमको प्राप्तकर, शरीरको प्रथम प्रव्रज्याकालमें साधारण तपसे, बादमें प्रकृष्ट तपसे, और अन्तमें पण्डित मरणद्वारा शरीरत्यागकी इच्छासे युक्त हो मासार्द्धमास क्षपणादि तपोंसे पीडित-कृश करे ।६६६-६६७ ३ द्वितीय सूत्रका अवतरण और द्वितीय सूत्र।
६६८ ४ उपशमका आश्रयण करके कर्मविदारणमें समर्थ, संयमाराधनमें
खेदरहित, जीवनपर्यन्त संयमाराधनमें तत्पर और समिति एवं सम्यग्ज्ञानादि गुणोंसे युक्त हो कर मुनि सर्वदा संयमाराधनमें प्रयत्नयुक्त रहे । ५ तृतीय सूत्रका अवतरण और तृतीय सूत्र ।
६६८-६६९ ६ मोक्षगामी वीरोंका यह संयमरूप मार्ग कठिनतापूर्वक सेवनीय है।
६६९ ७ चतुर्थ सूत्रका अवतरण और चतुर्थ सूत्र।
६६९ ८ अन्तप्रान्त आहारादिसे और अनशनादिसे अपने शरीरके मांस
शोणितको मुखाओ। इस स्वशरीरशोषक मोक्षार्थी पुरुषको तीर्थङ्करोंने कमविदारण करनेमें समर्थ और श्रद्धेयवचन कहा है।
और जो ब्रह्मचर्य महाव्रतमें तत्पर होकर कर्मोपचयका क्षपण करता है वह भी श्रद्धेयवचन है।
६६९-६७० ९ पञ्चम सूत्रका अवतरण और पञ्चम सूत्र ।
साधु विषयोंसे अपनी इन्द्रियोंको हटा कर भी ब्रह्मचर्यमें स्थित हो कर भी और श्रद्धेयवचन हो कर भी यदि शब्दादि विषयभोगोंमें आसक्त होता है तो वह वाल अपने कर्मबन्धको काटने में समर्थ नहीं होता! वह बाल मातापिता आदिके सम्बन्धको या असंयम सम्बन्धको नहीं छोड़ पाता!आत्महितको
६७०
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विषय
पृष्ठाङ्क नहीं जाननेवाला उस बालको भगवान् तीर्थङ्करके उपदेशरूप
प्रवचनका अथवा सम्यक्त्वका लाभ नहीं होता! ६७०-६७५ ११ छठे सूत्रका अवतरण और छठा सूत्र।
६७५ १२ जिसको पूर्वकालमें सम्यक्त्व नहीं मिला है और भविष्यकालमें
भी जिसे सम्यक्त्व नहीं मिलनेवाला है उसे वर्तमानमें सम्यक्त्व कहांसे मिले ?
६७५-६७७ १३ सातवें सूत्रका अवतरण और सातवां मूत्र ।
६७७ १४ जो भोगविलाससे रहित होता है वही जीवाजीवादि पदार्थीका
सम्यग्ज्ञाता तत्त्वज्ञ आरम्भसे उपरत होता है। यह आरम्भसे उपरमण होना ही सम्यक्त्व है। इस आरम्भोपरमणसे जीव घोर दुःखजनक कर्मवन्धको, वधको और दुस्सह शारीरिक परितापको नहीं पाता है । अथवा जिस आरम्भसे जीव घोर दुःखजनक कर्मवन्ध और वधको तथा दुस्सह शारीरिक मानसिक परिताप को पाता है।
६७७-६८० १५ आठवे सूत्रका अवतरण आठवां सूत्र ।
६८० १६ हिरण्यरजत मातापिता आदिका सम्बन्धरूप अथवा प्राणातिपात
रूप वाह्य आस्रवको और विपयाभिलापरूप आन्तर स्रोतको रोक कर इस लोकमें मनुष्योंके वीच मोक्षाभिलापी हो सावधव्यापारका परित्याग करे । अथवा इस लोकमें मनुष्योंके वीच बाह्य स्रोतको छिन्न कर निष्कर्मदर्शी हो जावे ।
६८०-६८२ १७ नवम मूत्रका अवतरण और नवम मूत्र ।
६८२ १८ ज्ञानावरणीयादिक कम अवश्यमेव स्व-स्वफलजनक होते हैं-ऐसा
जानकर आहेतागमजनित सम्यग्ज्ञानवान् मुनि कर्मवन्धके कारण सावध व्यापारको छोड़ता है।
६८२-६८३ १९ दशम सूत्रका अवतरण और दशम मूत्र ।
६८३ २० हे शिष्य ! जो कोई कर्मविदारण करनेमें उत्साहयुक्त, समिति
युक्त, स्वहितमें उद्योगयुक्त अथवा-सम्यग्ज्ञानादियुक्त, सर्वदा
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विषय
पृष्ठाङ्क संयमाराधनमें सावधान, हेयोपादेयके ऊपर सर्वदा दृष्टि रखनेवाले, अव्यावाध आनन्दस्वरूप मोक्षके अभिलापी और कपायों से निवृत्त होते हुए यथावस्थित लोककी-कर्मलोक अथवा विपयलोककी उपेक्षा करते हुए थे, वे चाहे पूर्व-आदि कसी भी
दिशामें रहे हुए हों; सत्य मार्ग में ही स्थित थे। ६८४-६८७ २१ ग्यारहवें सूत्रका अवतरण और ग्यारहवां मूत्र ।
६८७ ___२२ वीर-समित-आदि विशेषणोंसे युक्त उन महापुरुपोंके ज्ञानका
वर्णन हम आगे करेंगे । क्या उनको उपाधि है ? पश्यकको उपाधि नहीं होती है। उद्देशसमाप्ति ।
६८७-६८८ २३ चतुर्थ उद्देशकी टीकाका उपसंहार ।
६८९-६९० ॥ इति चतुर्थो देशः ॥
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ة
م
॥ अथ शुद्धिपत्रम् ॥ अशुद्धम्
शुद्धम् निखिलजीवभेदेन
निखिलजीवभेदज्ञेन - धनुभवकर्तृत्वश्च ।
- धनुभावनकर्तृत्वञ्च । परिचितः पिता पितृव्यादिः। परिचित. । अथवा पूर्व
संस्तुतः पितापितृव्यादिः। मूच्छी
१४
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मूर्छा
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अहोरागाद्याविष्टचेता -पुञ्जमित्यर्थः । पकरति घटं टमिव वाद्धके फलंबुयारं -कारणेवयः 'पायलीकाठ ' इति भाषा।
ه ه
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ه
अह'रागाद्याविष्टचेताः -पुञ्ज इत्यर्थः। पकरंति घटं पटमिव वार्द्धक्ये कलंबुयारं -कारेणेव यः ('पायलीकाठ'-इति भाषाप्रसिद्धवत् ।) -दिन्द्रियत्वस्वीकारे सद्धि दुःखशतभवति उत्त्रासयिताऽ-नर्थकरी उत्त्रासयिता
م م
ه ه ه
-दिन्द्रियस्वीकारे सद्धि दुखशतभयति उत्त्रासकोऽ
नर्थकरी उत्त्रासकः सद्धि
ه س
सद्धि
م س
एहिक-दरति भवति नठ्ठप्रदातुकाम
ऐहिक-दरतिर्भवति नट्ठप्रदातुकामः
ه م م م م
.
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अशुद्धम्
शब्दादि
संन्तोषादिना
-समुठ्ठाई
नाही
- विठ्ठ -
कायै -
बिरूपरूपैः
पर्यालोच्
- ਹਫ
जम्बस्वामिन
बुद्धा
परिरक्षेदित्यर्थः ।
स्वसमानार्थमात्मबलादिदण्डसमारम्भ
उच्चैगोत्रे
जानीहि . सातम् परिसंवेदयते - चौभौ परिसंवेदयते
सूत्रे उपैतीत्यत्र कवचन -
मार्षत्वात् ।
येन यत्र तस्मिन् =
सधि
क्षीणमातया
छन्दध
छन्दः
शुद्धम्
शब्दादि
सन्तोषादिना
समुट्टाई
-गट्टी
- विदु
कायै
वचनविपरिणामेन
च यथायोग्यमन्वयः ।
येन यत्र वा
तस्मिन् स्थाने =
ि
पृष्ठम्
१४३
१५२
क्षीयमाणतया
छन्दं च
छन्द
१५४
१५४
१५४
विरूपरूपैः
पर्यालोच्य
- दण्डं
जम्बूस्वामिनं -
बुद्ध्वा परिरक्षेरित्यर्थः ।
स्वसम्मानार्थमात्म
बलादिद्वारा दण्डसमारम्भो १६४
उच्च
१६५
जानीहि प्रत्युपेक्ष्य सातम् १७१
संपरिवेदयते
१७१
चोभौ
१७८
सम्परिवेदयते
१८१
सूत्रे उपैतीत्यस्याssवृत्त्या
१४४
१५७
१५७
१५९
१६०
१६१
१६१
१९४
२२३
२२६
२३८
२४१
२४३
२४३
पंक्ति:
20
४
१
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७
८
८
१६
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४
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१०
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७
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१
१
१
२
२
२
2
२
१६
८
१७
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७०
पंक्तिः
अंशुद्धम् तात्पर्यम् । “ बहुं परघरे
शुद्धम्
पृष्ठम् तात्पर्यम् । तथा-'गृहस्थो मे मह्यम् अनशनादिकं न ददाति' इति हेतोः वीरो न न कुप्येत्न्न कोपं कुर्यात् । "बहुं परघरे- . २६० , आदानाकोपनम् , २६१ पाथेयं
२६८ सर्वामगन्धम् सर्वम् अशु-२७१ अदिस्समाणे अदिस्समाणे
२७३ अदिश्यमानः 'अदिश्यमान इति अदिश्यमानः
२७३ द्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया २७८ रनेषणीयमपि
२७३
sa sus n o 9 vo 2 o
२७३
२७३
-आदानाकोपनम् , प्राथेय सर्वामगन्धम् अशुआदिस्समाणे आदिस्समाणे आदिश्यमानः 'आदिश्यमान' इति । आदिश्यमानः द्रव्यक्षेत्रकालभावपेक्षया -रनेपणीयमयि लधु मायेत स्निह्यात् -मवष्वष्केत् मायेत माद्येत स्निह्यात् अवष्वकेत् कुशलो ना
२८३
२८५
मायेत्
२८५
२८५
२८५
૨૮૬
२८७
२८८
स्निह्येत् -मवष्वष्केत मायेत् मायेत् स्निह्येत् अवष्वष्केतकुसलो प्रातत् 'त'-दित्यादि।
vou or an ans ouvo
२८८
२९१
३२३ ३३४
.
'त'-मित्यादि।
३२
००
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________________
अशुद्धम्
तँ
सहइ
सहइ
अच्चइ
पमुचइ वर्त्तयेत्
यस्य दुर्वसुः
वर्तमानः
अणोद्धातन
घटते =
वयवं
दुःखा
विदित्वा
मतिमान् =
रागद्वेषरहित इत्यर्थः, न छिद्यते
पुव्वे
एतनुदर्शी
स्पृष्टो सन् सम्यक्त्
ज्ञनावरणीया
काष्टहारादय
तिर्थकरे
तत्परतो
-कतव्य
पुद्गल परिणा
वालग्नाना
भवे देवे दित्यर्थः
७१
शुद्धम्
तत्
सह
सहई
अच्चेइ
पवुच्चइ
वर्त्तकः
यस्य स दुर्वसुः
वर्त्तकः
अद्धान
घटते,
वेयवं
पृष्ठम्
३३४
३३६
३३६
३४३
३४३
३४३
३४३
३४४
वालग्लाना
भवेदेवेत्यर्थः ।
३५६
३६४
३८४
३८९
४०५
४०५
दुक्खा
विदित्वा
|मतिमान् मेधावी= रागद्वेषरहित इत्यर्थः,
सर्वलोके=समस्तजीवलोके न छिद्यते ४४६
पुत्रं
४४८
एतदनुदर्शी
स्पृष्टः सन्
सम्यक्त्वं
ज्ञानावरणीया
काष्ठहाराय -
तीर्थकरे
तत्पुरतो
- कर्त्तव्य
पुलपरि
४५०
४६५
५४४
५६१
५९२
५९४
५९६
५९७
५९७
६०९
६१६
पंक्ति:
१०
७
७
६
७
४
५
१०
६
८
४
१
८
2
४
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७२
अशुद्धम्
पृष्ठम्
पंक्तिः
शुद्धम् रसायनक्रियां, कर्मसु दोसो
६२१
६२६३
६२८
सर्वे
६३५
६३६
६४१
रसायनं क्रियां, कर्मषु दोषो सर्वे सत्त्वानां धर्मविदः -कालवस्थाअत एव भवेदित्यर्थः। श्रुत दुखेन निकम्मदंसी निष्कान्तः कर्मबन्धकरणात्
६४१ ६४५
सत्त्वानाम् धर्मविद इति -कालावस्थाइति-अत एव भवेत्यर्थः । श्रुतम् दुःखेन निक्कम्मदंसी निष्क्रान्तः
कर्मबन्धकारणात ॥ इति शुद्धिपत्रम्॥
umor is a woar o s o suv
६५४
६६९ ६८० ६८० ६८२
પ્રકાશક: શ્રી અખિલ ભારત વેતામ્બર સ્થાનકવાસી જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ
તરફથી શેઠ મગનલાલ છગનલાલ માનદ્દમંત્રી મુ. રાજકેટ (સૌરાષ્ટ્ર) મુદ્રક : મણીલાલ છગનલાલ શાહ, નવપ્રભાત પ્રી. પ્રેસ ઘીકાંટા-અમદાવાદ
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।अथाचाराङ्गसूत्रस्य द्वितीयमध्ययनम्।। . . गतं प्रथमाध्ययनं, सम्पति द्वितीयमारभ्यते । अस्यायमभिसम्बन्ध पूर्वाध्ययने में पृथिव्यादिपट्कायस्वरूपं ज्ञात्वा तदारम्भनिवृत्तो मुनिर्भवतीति दर्शितं, पट्कायारम्भनिटत्तिश्च शब्दादिविपयविजयमन्तरेण न भवतीति लोकविजयाध्ययनमारभ्यते । अस्मिन् पडुद्देशकाः सन्ति, तत्र-स्वजनेऽभिष्वङ्गो मुनिना न कार्य इति स्वजनाभिधः प्रथमः १ । “अहढत्वं संयमिना संयमे न विधेयम्" इत्यदृढत्वाख्यो
।श्रीआचारङ्ग सूत्रका द्वितीय अध्ययन । प्रथम अध्ययन समाप्त हो चुका, अब द्वितीय अध्ययन प्रारंभ होता है । अध्ययन का संबंध इस प्रकार से समझना चाहिये कि प्रथम अध्ययन में "पृथिव्यादि पटकाय के जीवों के आरंभ से रहित सुनि होना है” जो यह बात कही गई है सो छकाय के आरंभ की निवृत्ति, जब नक शब्दादिविषयों पर विजय प्राप्त न की जावेगी तब तक नहीं हो सकती है। इसी अभिप्राय से यह लोकविजय नामका द्वितीय अध्ययन प्रारंभ किया गया है। इसमें छह उद्देश हैं-प्रथम उद्देश में गणधर भगवान इस बातका वर्णन करेंगे कि संयमी मुनिको माता पिता आदि जो अपने इष्टजन हैं उनमें आसक्ति-ममत्वभाव नहीं रग्वना चाहिये १। द्वितीय उद्देशकमें-उसे संयम में अरतिपरिणाम को दूर कर दृढताधारण करनी चाहिये कभी भी अदृढ़ता न आने पावे इसका ख्याल रखना
શ્રી આચારાંગ સૂત્રનું બીજુ અધ્યયન પહેલું અધ્યયન પુરું થયું, હવે બીજા અધ્યયનને પ્રારંભ થાય છે. અધ્યચનને સંબંધ એ પ્રકારે સમજવો જોઈએ કે પ્રથમ અધ્યયનમાં “પૃથિવ્યાદિ પકાયના જીના આરંભથી રહિત મુનિ હોય છે. આ વાત જે કહેવામાં આવી છે તે છ કાચના આરંભની નિવૃત્તિ. ત્યાં સુધી શબ્દાદિ વિવાથી વિજય પ્રાપ્ત નહિ થાય ત્યા સુધી લઈ શકતી નથી. આ અભિપ્રાયથી આ “લોકવિજય નામના બીજ અધ્યયનને પ્રારંભ થાય છે. તેમાં છ ઉદે છે. પ્રથમ ઉદેશમાં ગાધર ભગવાન તે વાતનું વર્ણન કરે છે કે સંચર્મી સુની માતા પિતા એદિ જે પિતાને દજન છે તેમાં આસક્તિ-સમભાવ નહિ રાખવો જોઈએ. ૬. બીજ ઉદામાં
, મધમાં નિયરિણામને દૂર કરી દટના પાર કરી જે. કોઈ વખત ५५. :- नयन -43 m २ . श्री देशमा--
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आचागङ्गसूत्रे द्वितीयः २। “मुनिना मानो न कार्यों, निःसारता चार्थसारस्य चिन्तनीये" ति मानाथसाराख्यस्तृतीयः ३ । 'भोगेषु विरतिः सदा सर्वथा विधेया मुनिने'-ति ‘भोगेषु' नामकश्चतुर्थः ४ । सर्वसावद्यानुष्ठानत्यागिना मुनिना संयमयात्रानिर्वाहाथै स्वार्थारम्भ: प्रवृत्तलोकनिश्रया विहरणीयमिति 'लोकनिश्रया' नामधेयकः पञ्चमः ५ । एवं विहरता मुनिना पूर्वापर-मातापितृश्वश्रूश्वशुरादिपरिचितापरिचितसंयोगे ममता न विधेयेति 'लोकममत्वा'-ख्यः षष्ठ उद्देशः ६।। चाहिये २। तृतीय उद्देशक में-मुनिको मान न करना चाहिये; एवं धनादिक परपदार्थों में सदा असारता की भावना रखनी चाहिये ३। चतुर्थ उद्देशकमें विषयमोगों से सर्वथा (मन, वचन, कायसे) विरति भाव रखना चाहिये ४ । पाँचवें उद्देशक में सर्वसावद्यकर्मों के अनुष्ठान से रहित उस संयमी को अपने संयमयात्रा के निर्वाह के लिये अपने आरम्भादिकार्य में प्रवृत्त-गृहस्थलोगों के सहारे ही विहार करना चाहिये ५। छठवें उद्देशक में लोगों के सहारे विहार करनेवाले उस संयमी को अपने परिचित, अपरिचित तथा माता-पिता सास-ससुर आदि से मिलने की उत्कंठा भी नहीं करनी चाहिये ६।
भावार्थ:-इस द्वितीय अध्ययन के प्रारंभ करने का स्पष्टीकरण करते हुए टीकाकार कहते हैं कि प्रथम अध्ययन में यह बात निर्दिष्ट की गई है कि मुनियों को पृथिवीकायिक, अपकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक एवं वनस्पतिकायिक जीवों का यथार्थ स्वरूप जानकर उनके आरंभ का सदा परित्याग कर देना चाहिये, कारण कि जब तक वह મુનિને માન ન કરવું જોઈએ, તેમજ ધનાદિક પરપદાર્થોમા સદા અસારતાની ભાવના रामवीन ये 3. व्याथा देशमा-विषयलागाथी सर्वथा (भन-पयन-याथी) વિરતિભાવ રાખવું જોઈએ કે પાચમાં ઉદ્દેશકમા–સર્વસાવદ્યકર્મોના અનુષ્ઠાનથી રહિત તે સંયમીએ પિતાના સંયમયાત્રાના નિર્વાહ માટે પિતાના આરંભકાર્યમાં પ્રવૃત્ત ગૃહસ્થ લેના સહારાથી વિહાર કર જોઈએ છે. છ ઉદ્દેશકમાં– લેના સહારે વિહાર કરનાર તે સંચમીને પિતાના પરિચિત અને અપરિચિત માતા-પિતા સાસુ-સસરા આદિથી મળવાની ઉત્કંઠા પણ ન રાખવી જોઈએ ૬. | ભાવાર્થ. આ બીજા અધ્યયનને પ્રારંભ કરીને સ્પષ્ટીકરણ કરતાં ટીકાકાર કહે છે કે પ્રથમ અધ્યયનમાં એ વાત કહેવામાં આવે છે કે મુનિએ પૃથિવીકાયિક, અષ્કાયિક, તેજસ્કાચિક, વાયુકાયિક અને વનસ્પતિકાયિક જીવનું યથાર્થ સ્વરૂપ જાણીને તેના આભને સદા પરિત્યાગ કરી દેવું જોઈએ. કારણ કે
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अध्य० २ उ. १
३
पृथिवीकायिकादिक एकेन्द्रिय जीवों के आरंभ से रहित नहीं होगा तब तक वह यथार्थ संयमी नहीं हो सकता, अतः इनके आरंभ का त्याग करना उसका आवश्यक कर्तव्य है । यह कर्तव्य उसका तभी निर्दोष रूपसे निभ सकता है जब कि वह इन्द्रियजयी होगा, अन्यथा इन्द्रियों के शब्दादिक विषय में लुब्ध होनेसे वह इस गुण से शून्य ही रहेगा, इसी विषय को विशेषरूप से खुलासा करने के अभिप्राय से इस अध्ययन को छह उदेशों में विभक्त किया है । प्रथम उद्देश में यह स्पष्ट किया गया है कि संयमी मुनि के लिये अपने मातापितादिक खजनों में आसक्ति भाव नहीं रखना चाहिये । द्वितीय उद्देशमें-गृहीत संयममें कभी भी अरुचिभाव नहीं करे प्रत्युत संयमभाव में दृढ़ता आती रहे ऐसा ही उसका प्रयत्न होना चाहिये । तृतीय उद्देशमें - मुनि को " मैं बड़ा तपस्वी हॅू - साधु हूँ - विद्वान् हूँ- मैं बडे कुलका हूँ" इत्यादि बड़प्पन का अहंकार न करना चाहिये; तथा सांसारिक समस्त पदार्थों के - धनादिक के यथार्थ स्वरूप का चिन्तवन करते रहना चाहिये, इस अभ्यास से उसके हृदय में उनकी असारता का पूर्ण रूपसे भान होता रहेगा जिससे उसका मन उस तरफ कभी भी लोलुप नहीं हो सकेगा । चतुर्थ उद्देश में - विषयभोगों के वास्तविक स्वरूप का विचार करने से उसके हृदय में उनके प्रति सदा જ્યાં સુધી તે પૃથિવીકાયાદિક એકેન્દ્રિય જીવેાના આરભથી રહિત નહિ થશે ત્યાં સુધી તે યથાર્થ સચી ખની શકતા નથી. માટે તેના આરંભના ત્યાગ કરવા તેનું આવશ્યક કર્તવ્ય છે. આ કંબ્ય તેનું ત્યારે નિર્દોષ રૂપથી મનાશે જ્યારે તે ઈન્દ્રિયજયી થશે. અન્યથા ઈન્દ્રિયાના શબ્દાદિક વિષયમાં લુબ્ધ થવાથી તે આ ગુણથી શૂન્ય જ ગણાશે. આ વિષયના વિશેષ ખુલાસા કરવા આ અધ્યયનને છ ઉદ્દેશોમાં વિભક્ત કરેલ છે. (૧) પ્રથમ ઉદ્દેશમાં એ સ્પષ્ટ કર્યુ છે કે સચી મુનિએ પેાતાના માતા-પિતાર્દિક સ્વજનામાં આસક્તિભાવ રાખવે ન જોઈ એ. (૨) ખીજા ઉદ્દેશમાં–લીધેલાં સંયમમાં ક પણ અરૂચિભાવ ન કરે પણ સંયમભાવમાં દૃઢતા આવતી રહે એવા પ્રયત્ન હોવો જોઈ એ. (૩) ત્રીજા ઉદ્દેશમાં મુનિએ “હું માટેા તપસ્વી છું. સાધુ છું, વિદ્વાન્ છું, મોટા કુળના છું” ઈત્યાદિ મેટાપણાના અહંકાર ન કરવા જોઈ એ, તથા સાંસારિક સમસ્ત પદાર્થોનું તથા ધનાદિકના યથાર્થ સ્વરૂપનું ચિન્તવન કરતા રહેવું જોઈએ, આ અભ્યાસથી તેના હૃદયમાં તેની અસારતાનુ પૂર્ણ રૂપથી ભાન થતું રહેશે જેથી તેનુ મન તે તરફ કદી પણ લાલુપ થશે નહિ, (૪) ચાથા ઉદ્દેશમાં—વિષયભાગાના વાસ્તવિક સ્વરૂપ વિચાર કરવાથી
८८
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आचारागसूत्रे । तत्र निखिलजीवभेदेन सकलोपाधिरहितेनोत्तमगुणरञ्जितेन स्वीकृतपञ्चमहाव्रतेन पटकायसंयमोपस्थितमतिना मुनिना स्वजनादिषु नाभिष्वङ्गो विधेय इति प्रदर्शयति सूत्रकारः-"जे गुणे" इत्यादि.
मन, वचन और काय से विरति परिणाम ही जगता रहेगा। पंचम उद्देशमें-समस्त प्रकार के सावध कार्यों से परे रहनेवाले उस संयमी को अपने स्वीकृत संयमयात्रानिर्वाह के लिये, जो अपने निमित्त बनाये हुए आहारपानी आदि में प्रवृत्त है उनकी नेश्रायमें विहार करना चाहिये। छठवें उद्देश में-लोक के नेत्राय से विहार करते हुए भी उसके मनमें अपने परिचित अपरिचित परिजनों से मिलने के लिये उत्सुक परिणाम नहीं होना चाहिये, इन्हीं सब बातों का इन छह उद्देशों में विशेषरूप से खुलासा किया जावेगा।
इसमें सर्वप्रथम प्रथम उद्देशका प्रारंभ करने के लिये सूत्रकार-जीवों के भेदज्ञानसे समन्वित, सकल उपाधि से रहित, उत्तमोत्तमशुणविशिष्ट, पंचमहाव्रताराधक, छहकाय के जीवों की रक्षा करने में दत्तावधान, संयमी मुनिको अपने आप्तजन मातापितादिक में ममताभाव नहीं रखना चाहिये। इसका विवेचन करते हैं-'जे गुणे से सूलहाणे' इत्यादि।
તેના હૃદયમાં તેના પ્રતિ સદા મન-વચન અને કાયાથી વિરતિપરિણામ જ જાગતે રહેશે. (૫) પાંચમાં ઉદેશમાં–સમસ્ત પ્રકારના સાવદ્ય કાર્યોથી દૂર રહેનાર તે સંયમીએ પિતાના સ્વીકૃત સયમયાત્રા–નિર્વાહ માટે જે પિતાના નિમિત્તે બનાવેલા આહારવાણું આદિમાં પ્રવૃત્ત છે તેની નેશ્રામાં વિહાર કર જોઈએ. (૬) છ ઉદ્દેશમાં લેકની નેશ્રાયે વિહાર કરવા છતા મનમાં પિતાના પરિચિત અને અપરિચિત પરિજનેથી મળવાને ઉત્સુકતા રાખે નહિ. આ બધી વાતને આ છ ઉદ્દેશમાં– વિશેષ રૂપથી ખુલાસા કરવામાં આવશે.
એમાં સર્વપ્રથમ–પ્રથમ ઉદ્દેશને પ્રારંભ કરવાને માટે સૂત્રકાર-જીના ભેદજ્ઞાનથી સમન્વિત સકળ ઉપાધિથી રહિત, ઉત્તમોત્તમગુણવિશિષ્ટ, પંચમહાવ્રતારાધક, છ કાયના જીવોની રક્ષા કરવામા દત્તાવધાન સયમી મુનિને પોતાના આસજન–માતાપિતાદિકમા મમતાભાવ નહિ રાખવો જોઈએ. તેનું વિવેચન કરે છે - जे गुणे से मूलहाणे' इत्यादि ।
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अध्य० २. उ. १
मूलम्-जे गुणे से मूलट्ठाणे, जे मूलट्ठाणे से गुणे इति से गुणट्ठी महया परियावेणं पुणो पुणो वसे पमत्ते, तंजहामाया मे पिया मे भइणी मे भज्जा मे पुत्ता मे धूआ मे पहुसा मे सहि-सयण-संगंथ-संथुआ मे विवित्तुवगरणपरिवणभोयणच्छायणं मे, इच्चत्थं गढिए लोए वसे पमत्ते अहो य राओ य परितप्पमाणे कालाकालसमुट्ठाई संजोगट्ठी अट्ठालोभी आलुपे सहसाकारे विणिविट्ठचित्ते एत्थ सत्थे पुणो पुणो।
छाया-यो गुणः स मूलस्थानं, यन्मूलस्थानं तद्गुणः, इति स गुणार्थी महता परितापेन पुनः पुनः वसति प्रमत्तः, तद्यथा-माता ये पिता मे भगिनी मे भार्या मे पुत्रा में दुहिता मे स्नुषा मे सखिस्वजनसंग्रन्थसंस्तुता मे, विविक्तोपकरणपरिवर्तनभोजनाच्छादनं मे, इत्यर्थ गद्धो लोको वसति प्रमत्तः अहश्च रात्रिं च परितप्यमानः कालाकालसमुत्थायी संयोगार्थी अर्थालोभी आलुम्पः सहसाकारः विनिविष्टचित्तः अत्र शस्त्रे पुनः पुनः ॥१॥
शब्दार्थ-जो मुनि छहकाय के जीवों के स्वरूप को भली-भाँति जानकर कृत कारित अनुमोदित एवं मन, वचन, कायसे उनके आरंभ का त्याग कर देता है वह अपने कर्तव्यमार्ग का ज्ञाता कहा जाता है
और वही गुणस्थान एवं सूलस्थान के ज्ञानपूर्वक कषायादिरूप लोक पर विजय प्राप्त करनेवाला होता है। अथवा-अपनी बुद्धि से या दूसरे किसी के कथन से अथवा तीर्थंकरों के उपदेश से या किसी आचार्य के समीप सुनकर यह जान लेता है कि जो गुण है वहीं झूलस्थान है। जो भूल है वही शुणस्थान है। इसलिये वह गुणार्थी अपरिमित दुःखसे
શબ્દાર્થ–જે નિ છ કાયના જીના સ્વરૂપને ભલી ભાતી જાણીને કૃતકારિત અનુદિત અને મન, વચન કાયાથી તેના આરંભને ત્યાગ કરે છે તે પોતાના કર્તવ્ય માર્ગને જ્ઞાતા કહેવાય છે, અને તે ગુણસ્થાન તેમજ મૂળ સ્થાનના જ્ઞાનપૂર્વક કષાયાદિરૂપ લેકપર વિજય પ્રાપ્ત કરનાર થાય છે. અથવા – પિતાની બુદ્ધિથી અગર બીજા કેઈના કથનથી અથવા તીર્થંકરેના ઉપદેશથી અથવા આચાર્યને સમીપે સાંભળીને એ જાણી લે છે કે જે ગુણ છે તે મૂળસ્થાન છે, જે મૂળ છે તે ગુણસ્થાન છે. માટે તે ગુણાથ—અપરિમિત દુખથી રાગ
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आचाराङ्गसूत्रे रागद्वेषरूपप्रमत्तदशासंपन्न होता है। इस प्रकार वह गुणार्थी वारंवार विषयमें आसक्त होता हुआ यह मानता है कि-यह मेरी माता है, यह मेरा पुत्र है, यह मेरी पुत्री है, यह मेरी बहू है, ये मेरे मित्र हैं। ये मेरे मातामह आदि हैं, ये मेरे संबंधी जनों के संबंधीजन है, ये मेरे परिचित बन्धु हैं, ये मेरे सुन्दर उपकरण हैं, यह मेरा विनिमय-एक वस्तुको बेंचकर उसके प्राप्त सूल्य से खरीदा हुआ पदार्थ है, ये मेरे खाने के पदार्थ हैं, ये मेरे पहिरने के कपड़े हैं। इस प्रकार यह जीव इन पूर्वोक्त पदार्थों में ही प्रमादी बना हुआ है। और इनके लिये ही रात-दिन शारीरिक, मानसिक एवं वाचनिक अनेक कष्टों को झेलता हुआ काल-अकालके विचार से रहित होकर मनमाना कार्य करता रहता है। कारण कि यह संयोग का अभिलाषी है। इसलिये सब प्रकारसे धनका अभिलाषी बना हुआ है। अनुचित मार्ग से भी धन के संग्रह करने में जरा भी संकोच नहीं करता है । लोभरूपी महासर्प से ग्रसित हो कर्तव्य और अकर्तव्य के ज्ञान से रहित हो कर जिस किसी भी रीतिसे जो धनका संग्रह करता है उसका नाम आलम्प है-यह जीव प्रसादी बनकर इसी प्रकार से धन के संग्रह करने में लवलीन होता रहता है। इस तरह यह
શ્રેષરૂપપ્રમત્તદશાસંપન્ન થાય છે આ પ્રકારે તે ગુણથી વારંવાર વિષયમાં આસક્ત થઈને માને છે કે–આ મારી માતા છે. આ મારો પુત્ર છે, આ મારી પુત્રી છે, આ મારી વહે છે, આ મારો મિત્ર છે, આ મારા માતામહ આદિ છે. આ મારા સબંધીજનેના સંબંધીજન છે, આ મારા પરિચિત બંધુ છે, આ મારા સુંદર ઉપકરણ છે, આ માટે વિનિમય–એક વસ્તુને વેચીને તેની કિમતથી ખરીદેલી વસ્તુ-છે, આ મારે ખાવાનો પદાર્થ છે, આ મારો પહેરવાના કપડા છે. આ પ્રકારે આ જીવ આવા પૂર્વોક્ત પદાર્થોમાં જ પ્રમાદી બનેલું છે, અને તેના માટે જ રાતદિન, શારીરિક, માનસિક અને વાચનિક અનેક કષ્ટોને ઉઠાવતો કાળ અકાળના વિચારથી રહિત થઈને મનમાન્ય કાર્ય કરવા લાગે છે, કારણ કે તે સંગને અભિલાષી છે. તેથી બધા પ્રકારથી ધનનો અભિલાષી બની રહે છે. આ અનુચિત માર્ગથી પણ ધનને સંગ્રહ કરવામાં જરા પણ સંકોચ કરતો નથી. લભરૂપી મહાસથી ગ્રસિત હોઈને કર્તવ્ય અકર્તવ્યના જ્ઞાનથી રહિત થઈને કેઈ પણ રીતે જે ધનને સંગ્રહ કરે છે તેનું નામ સ્કુઇ છે. આ જીવ પ્રમાદી બનીને આ પ્રકારથી ધનને સંગ્રહ કરવામા ર પચ્ચે રહે છે, આ
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अध्य० २. उ. १
टीका-अस्याध्ययनस्य अनन्तरपरम्परसूत्रैरित्थं सम्बन्धः-अनन्तरसूत्रसम्बन्धो यथा-पटकायस्वरूपं सम्यग्ज्ञाला त्रिकरणत्रियोगेन तदारम्भं परित्यजति स मुनिः परिज्ञातकर्मा भवति, स एव च गुणमूलस्थानज्ञानपूर्वकं कषायादिलोकविजयी भवति । परम्परसूत्रसम्बन्धो यथा-स्वबुद्धया परव्याकरणेन तीर्थङ्करोपदेशादन्येषां अपने हित और अहित का कुछ भी विचार न कर सहसाकर्मकारी हो जाता है इस प्रकार यह शब्दादिविषयों में आसक्तचित्त हो उनके रक्षणके साधनोंको संग्रह करनेके लिये अपने हित और अहित के विवेक से विकल बन रात-दिन छहकायके जीवोंके उपमर्दन करनेमें ही बारम्बार प्रवृत्ति करता रहता है।
टीकार्थः-इस अध्ययन का अनन्तर और परम्पर सूत्रोंसे संबंध है-उसमें अनन्तर सूत्रोंका संबंध इस प्रकार है-जो मुनि छहकाय के जीवों का खरूप अच्छी तरह जानकर कृत कारित और अनुमोदित एवं मन, वचन और कायसे उनके आरंभ का त्याग कर देता है वहीं अपने कर्तव्य को निर्दोष रीतिसे पालता है, और वही अपने तपसंयम में पूर्णरूप से निष्णात बन जाता है। ऐसा वह संयमी जन गुणस्थान और मूलस्थान को जानता हुआ कषायादिकरूप लोक पर विजय प्राप्त करने वाला हो जाता है। परम्पर सूत्रोंसे इस अध्ययन का संबंध इस प्रकार है-वह संयमी जन अपनी बुद्धि से या दूसरों के कथन से अथवा तीर्थकर રીતે પિતાના હિત અને અહિતને જરા પણ વિચાર ન કરતાં સહસા કર્મકારી થઈ જાય છે. તેવી જ રીતે તે શબ્દાદિ વિષયમાં આસક્ત ચિત્ત કરીને તેના રક્ષણ માટે રક્ષણના સાધનને સંગ્રહ કરવામાં પોતાના હિતાહિતને વિચાર કર્યા વગર વ્યાકુળ રાતદિવસ છકાયના જીનું ઉપમર્દન (ઘાત) કરવામાં જ વારંવાર પ્રવૃત્તિ કરે છે.
ટીકાથ:–આ અધ્યયનને અનન્તર અને પરસ્પર સૂત્રોથી સંબંધ છે. તેમાં અનન્તર સૂત્રેના સંબંધ આ પ્રકાર છે –
જે મુનિ છકાયના જીનું સ્વરૂપ સારી રીતે જાણીને કૃત કારિત અને અનુમોદિત તેમજ મન, વચન, કાયાથી તેના આરંભનો ત્યાગ કરે છે, તે પોતાના કર્તવ્યને નિર્દોષ રીતિથી પાળે છે, અને તે પિતાના તપસંયમમાં પૂર્ણરૂપથી નિષ્ણાત બને છે. એવો તે સંયમીજન ગુણસ્થાન અને મૂળસ્થાનને જાણકાર કષાયાદિકરૂપ લોકપર વિજય પ્રાપ્ત કરવાવાળા હોય છે. પરસ્પર સૂત્રોમાં આ અધ્યયનનો સંબંધ આ પ્રકાર છે–તે સંયમીજને પિતાની બુદ્ધિથી અગર બીજાના કથનથી અથવા તીર્થંકર પ્રભુના ઉપદેશથી અથવા બીજા કોઈ આચાર્યની પાસેથી
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आचाराङ्गसूत्रे
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वा केषाञ्चिदाचार्यादीनां समीपे गला जानीयात् । किं तदित्याह ' जे गुणे ' इत्यादि । यो गुणः । गुण्यते = आवर्त्यते - चतुर्गतिषु गमनागमनादिरूपेण परिणम्यते आत्माऽनेनेति गुणः ।
प्रभु के उपदेश से या अन्य किसी आचार्य के समीप सुनकर यह जान ता है कि जो गुण है वही मूलस्थान है इत्यादि । चार गतियों- नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति और देवगति में गमन और आगमन रूप से आत्मा जिसके द्वारा भ्रमण करता है उसका नाम गुण है । इस गुण शब्दका वाच्यार्थ - शब्दादिक विषय होता है। यह प्रत्येक इन्द्रियका अपना-अपना स्वतंत्र गुण है ।
जो मुनि छहकाय के जीवों के स्वरूप को अपने आप या किसी के उपदेश से जानकर छकाय के आरंभ से विरत होता है वह मुनि अपने अंगीकृत संयम का निर्दोष रीति से पालन करने वाला होनेसे कुशल माना जाता है । छकाय के आरंभ से निवृत्ति तब तक संभव नहीं हो सकती कि जब तक वह पंचेन्द्रियों के विषयों में चाहे वे मनोज्ञ हों चाहे अमनोज्ञ - रागद्वेष करने का त्याग नहीं करे, अतः यह निश्चित है कि छहकाय के आरंभ का त्याग, पंचेन्द्रियों के विषयों में रागद्वेष के त्याग करने से ही होता है। इनके विषयों में लोलुपी उनके आरंभ का
સાભળી એવું જાણે છે કે ‘ જે ગુણુ છે તે મૂળસ્થાન છે’ ઈત્યાદિ. ચાર ગતિ નરકગતિ, તિર્યંચગતિ, મનુષ્યગતિ અને દેવગતિમા ગમન અને આગમનરૂપથી આત્મા જે દ્વારા ભ્રમણ કરે છે તેનુ નામ ગુણ છે. આ ગુણુ શબ્દના વાચ્ચા ( મુખ્ય અર્થ ) શબ્દાદિક વિષય થાય છે તે પ્રત્યેક ઇન્દ્રિયને પોતપાતાના સ્વતંત્ર ગુણ છે.
જે મુનિ છ કાયના જીવાના સ્વરૂપને પેાતાની જાતે, અગર ખીજાના ઉપદેશથી ાણીને છ કાયના આરંભથી વિરત થાય છે, તે મુનિ પોતાના અંગીકૃત સંયમનું નિર્દોષ રીતિથી પાલન કરનાર હેાવાથી કુશળ માનવામાં આવે છે. ત્યા સુધી પાંચ ઈન્દ્રિયાના વિષયે જે મનાર કે અમનન હોય તેમાં રાગ દ્વેષ રાખે ત્યા સુધી છ કાયના આરભથી નિવૃત્તિ થતી નથી, તેથી તે નિશ્ચિત છે કે~ટકાયના આરંભના ત્યાગ પાંચ ઇન્દ્રિયેાના વિષયેામાં રાગ દ્વેષના ત્યાગ કરવાથી જ થાય છે, તેના વિષયેામાં મગ્ન રહેનાર તેના આરંભના ત્યાગ કરી શકતા નથી.
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अध्य० २. उ. १
यहा गुण्यते = विशिष्यते निश्चयनयेन शुद्धस्वरूपोऽप्यात्मा नरामरतिर्यगादिभेदेन भिद्यते येनेति गुणः - शब्दादिरूपः कामगुणः । स एव मूलस्थानम् ।
मूलस्थानपदस्य व्युत्पत्तिभेदेन बहवोऽर्था भवन्ति । यथा - मूल - मोहनीयं त्याग नहीं कर सकता - " न यारंभो विणा वहा- न चारम्भो विना वधात् " इस वाक्य के अनुसार बिना हिंसा के आरंभ नहीं होता - जहाँ हिंसा है वहाँ सर्व प्रकार से संयम का आराधन नहीं है । अतः निर्दोष संयम को पालने के लिये छहकाय के जीवों के आरंभ करनेका त्याग अवश्य २ करना पड़ता है |
गुण शब्दका अर्थ - शब्दादिक विषय हैं, क्योंकि इन्हींके सेवन से यह आत्मा चतुर्गतिरूप संसार में भटकता फिरता है । आना-जाना यही तो एक बड़ा भारी गमनागमन का चक्कर इस जीव के पीछे पड़ा हुआ है । कभी नरकमें जाकर रोता है तो कभी मानवपर्याय की प्राप्ति से विषयभोगों में अपने जन्म को निष्फल कर देता है, कभी स्वर्गमें जाकर वहाँ की दिव्य ऋद्धि आदि पाकर इठलाता गर्विष्ठ होता है, तो कभी पशुप में जाकर बिलखता है ।
66
यही बात - यो 55 गुणः इन शब्दों से सूत्रकारने प्रकट की है । मूलस्थान शब्द का अर्थ प्रकट करने के लिये टीकाकार कहते हैं कि मूलस्थान शब्द के व्युत्पत्ति के भेद से अनेक अर्थ होते हैं, जैसे- "मूलं
6c
'न यारंभी विणा वहा
55
न चारम्भो विना वधात् '
""
આ વાકચ અનુસાર હિસા વિના આરંભ થતા નથી. જ્યાં હિંસા છે ત્યાં સર્વ પ્રકારથી સંચમનું આરાધન નથી, માટે નિર્દેષ સયમ પાળવામાં છકાય જીવાનો આરંભ કરવાના ત્યાગ અવશ્ય ર કરવા પડે છે.
ગુણ શબ્દના અ——શદાદિક વિષય છે, કારણ કે તેના સેવનથી આ આત્મા ચતુતિરૂપ સંસારમાં ભટકતા ફરે છે. જાવું-આવવું એ તે એક ભારી ગમનાગમનનું ચક્કર આ જીવના પાછળ પડ્યુ છે. કોઈ વખત નરકમાં જઈ રાવે છે તે ચારેક માનવપર્યાયની પ્રાપ્તિથી વિષયભાગામાં પેાતાના જન્મને નિષ્ફળ કરે છે. ચારેક સ્વર્ગમાં જઈ ત્યાંની દિવ્યઋદ્ધિ આદિ જોઈ ને ગર્વિષ્ઠ થાય છે. કારેક પશુપર્યાયમાં જઈ રાવે છે.
भावात - " यो गुणः આ શબ્દોથી સૂત્રકારે પ્રકટ કરી છે. મૂળસ્થાન શબ્દના અર્થ પ્રકટ કરવાને ટીકાકાર કહે છે કે—મૂળસ્થાન શબ્દના વ્યુત્પત્તિના लेहथी भने अर्थ थाय छे प्रेम - " मूलं संसारस्तस्य स्थानमाश्रय. कारणम् "
२
"
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आचाराङ्गसूत्रे
तस्य स्थानमाश्रयः । अथवा संसारस्य मूलभूतत्वान्मूलभित्र मूलं कारणं ज्ञानावरणादिरूपमष्टविधं कर्म, तस्य स्थानमाधारः । यद्वा मूलमिति नरामरनारकतिर्यग्लक्षणस्य संसारस्य कारणं कषायास्तेषां स्थानमाश्रयो मूलस्थानम्, यतो मनोज्ञामनोज्ञशब्दादिप्राप्तौ कषायाणामुदयो भवति तेन संसार इति ।
यद्वा 'मूल' - मिति प्रधानं, 'स्थान' - मिति कारणं, मूलं च तत्स्थानं चेति मूलस्थानं, शब्दादिक एव कामगुणः, कषाया वा प्रधानं कारणं संसारस्य भवती
त्याशयः ।
संसारस्तस्य स्थानमाश्रयः कारणम् " अर्थात- मूल नाम संसार का है स्थान नाम कारण का है - संसार के जो कारण हैं उनका नाम मूलस्थान है । वे शब्दादिक विषय अथवा कषाय हैं । अथवा-मूल-सोहनीय का जो स्थान- आश्रय है उसका नाम मूलस्थान है । अथवा-संसारका मूल स्वरूप होने से मूलके जैसा जो है, वह मूल है- ज्ञानावरणादिक आठ प्रकार के पौगलिक कर्मो का नाम मूल है और उसका जो आधार है उसका नाम मूलस्थान है । अथवा-सूल नाम - मनुष्यगति, देवगति, तिर्यञ्चगति और नरकगतिरूप संसार के कारणभूत कषायोंका भी है, उनके अधार का नाम मूलस्थान है, वे शब्दादिक विषय हैं, क्योंकि मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्दादिक विषयोंकी प्राप्ति होने पर कषायोंका उदय होता है और इसीसे जीवको संसार की प्राप्ति होती है ।
प्रधान कारणको भी मूलस्थान कहते हैं, संसार के प्रधान कारण शब्दादिक विषय अथवा कषाय हैं ।
અર્થાત્ મૂળ નામ સ સારનુ છે સ્થાન નામ કારણનુ છે સ`સારનુ જે કારણ તેનુ નામ મૂળસ્થાન છે. તે શબ્દાદિક વિષય અથવા કષાય છે, અથવા મૂળમાહનીયનુ જે સ્થાન—આશ્રય છે તેનું નામ મૂળસ્થાન છે, અથવા સંસાર મૂળ સ્વરૂપ હોવાથી મૂળના જેવું છે, તે મૂળ છે. જ્ઞાનાવરણાદિક આઠ પ્રકારના પૌદ્ગલિક કર્મોનું નામ મૂળ છે, અને તેના જે આધાર છે તેનુ નામ મૂળસ્થાન છે. અથવા મૂળ નામ, મનુષ્યગતિ, દેવગતિ, તિર્યંચગતિ અને નારકગતિરૂપ સ સારના કારણભૂત કષાયો પણ છે, તેના આધારનુ નામ મૂળસ્થાન છે, તે શબ્દાદિક વિષય છે કારણ કે મનેાજ્ઞ અને અમનેાન શબ્દાદિક વિષયેાની પ્રાપ્તિ થવાથી કષાયેાના ઉદ્ભય થાય છે, અને તેથી જીવને સંસારની પ્રાપ્તિ થાય છે
પ્રધાન કારણને પણુ મૂળસ્થાન કહે છે. સસારનુ પ્રધાન કારણે શબ્દાદિક વિષય અથવા કષાય છે,
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अध्य० २ उ. १
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गुण-मूल-स्थानयोः परस्परमपेक्षा वर्तते यथा-यो गुणः स मूलस्थानं, यन्मूलस्थानं तद् गुण इति तदुपाचानां विपयकपायादीनामण्डपक्षिवद् अनादिः कार्यकारणभावो यथा - पक्षितोऽण्डम्, अण्डाच्च पक्षी संजायते । एवमेव मूलस्थानाद्गुणो, गुणाच्च मूलस्थानमिति ।
अत्र च सप्तम्यन्तपाठमाश्रित्यैवं योजना – यो गुणे गुणेषु वा वर्तते स मूलस्थाने मूलस्थानेषु वा वर्तते, यथात्मा शब्दादिके कामगुणे वर्तते स एव संसारमूले कपायादिस्थाने वर्तते इति, एवं दर्शितरीत्या गुणमूलस्थानानां कार्यकारण
गुण और मूलस्थान, इनकी परस्पर में अपेक्षा है, इस बातको प्रकट करने के लिये "यो गुणः स सूलस्थानं, यन्सूलस्थानं तद् गुणः" यह वाक्य भगवान् ने कहा है । जिस प्रकार पक्षी से अण्डा पैदा होता है और अण्डासे पक्षी पैदा होता है उसी प्रकार बलस्थान से गुण और गुणसे मूलस्थान होता है । इनका यह परस्पर कार्य कारणभाव अनादि कालका है । पंचेन्द्रिय के विषयोंसे जीवको कषायभाव और कषायभावसे पंचेन्द्रियोंके विषयका ग्रहण होता है । " जे गुणे से मूलद्वाणे " इस वाक्यमें " जे " की छाया ff 33 यः मानकर " गुणे " को सप्तमी विभक्तिका एकवचन मानकर इस प्रकार से भी अर्थ किया जा सकता है कि जो गुणमें स्थित है वह मूल स्थानमें स्थित है । अर्थात् जो आत्मा शब्दादिक पांच इन्द्रियोंके विषय में लवलीन है वही आत्मा संसार के मूल कारण कषायादि स्थानमें लवलीन है । इस प्रकार इस पद्धति से गुण और मूल स्थानोंका परस्परमें सूत्रकारने कार्य-कारणभाव प्रकट किया है । " इति " शब्द ગુણ અને મૂળસ્થાન, એની પરસ્પરમાં અપેક્ષા છે, આ વાતને પ્રગટ કરવાને भाटे “यो गुणः स मूलस्थानं यन्मूलस्थानं तद् गुणः આ વાકય ભગવાને કહ્યું છે-જે પ્રકારે પક્ષીથી ઇંડુ પેદા થાય છે અને ઈંડાથી પક્ષી પેદા થાય છે તે પ્રકાર મૂળસ્થાનથી ગુણ અને ગુણથી મૂળસ્થાન થાય છે. તેને પરસ્પર કાર્યકારણ ભાવ અનાદિ કાળના છે. પાંચ ઇન્દ્રિયાના વિષયાથી જીવને કષાયભાવ અને पायलावधी पांच न्द्रियोनो विषय अहए थाय छे. " जे गुणे से सूलट्टाणे " ना पाइयमां " जे "नी छाया य" मानीने " गुणे "ने अभी विलतिनु એકવચન માનીને આ પ્રકારે પણ અર્થ થાય છે કે જે ગુણનાં સ્થિત છે તે મૂળસ્થાનમાં સ્થિત છે. અર્થાત્ જે આત્મા દ્રાદિક પાંચ ઇન્દ્રિયેાના વિષયમાં રાયેલો છે તે આત્મા સંસારનું મૂળ કારણ કપાયાદિ ાનમાં રચેલ છે. આ પ્રકારે આવી પદ્ધતિથી જીણુ અને મૂળધાનના પરસ્પરમાં સૂત્રકારે કાર્ય કારણ
33
".
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आचारागसूत्रे भावो वर्णितः । “यो गुणः स मूलस्थानं, यन्मूलस्थान तद् गुणः "-इत्यनेन किमायातमित्याह-"इति स गुणार्थी" इति ।
इतिहेतो, यतो हि संसारस्थाः सर्वेऽपि प्राणिनो गुणार्थिनः सन्ति, अनादिकालत आत्मनो मोहावेशेनावेष्टितखात् , अतः स गुणार्थी कपायादिमूलस्थाने वर्तते । गुणस्य शब्दादिगुणस्य अर्थः प्रयोजनं यस्य स गुणार्थी । यहा-गुणे-शब्दादौ अर्थोऽनुरागो यस्य स गुणार्थी । सर्वो हि प्राणिगणः प्रायशः कामगुणार्थी भवति । शब्दादिगुणगणस्यालाभे तं मुहुरिच्छति, सम्प्राप्तस्य नाशे च शोकाविष्टो भवति । महता अपरिमितेन परितापेन मानसिककायिकवाचिकेन दुःखेन प्रमत्तः, प्रमादोऽत्र रागद्वेषरूपस्तद्वान् प्राणी विषयेषु रागाधिक्येन प्रवर्तते, इष्टविषयाप्राप्तावनिप्टोपगमे हेत्वर्थ में है-उसका अभिप्राय यह है-संसार के समस्त प्राणी गुणार्थी हैं, क्योंकि ये अनादिकाल से ही मोह के आवेश से युक्त हैं, इसलिये गुणार्थी आत्मा-कषायादि सूलस्थान में स्थित ही है, शब्दादिक पांचइन्द्रियों का विषय जिसका प्रयोजन है वह, अथवा शब्दादिक विषयों में जिसे अनुराग है वह गुणार्थी है। प्रायः सांसारिक समस्त प्राणी शब्दादिक विषयों का प्रार्थी होता है उनके नहीं मिलने पर उन्हें प्राप्त करनेकी वह वार २ चेष्टा करता रहता है । मिलने पर वे नष्ट न होजावें-इस प्रकार का वह प्रयत्न भी करता रहता है। यदि प्राप्त हुए वे नष्ट हो जाते हैं तो उनके अभाव में अत्यंत शोकाकुल वह मानसिक वाचिक और कायिक कष्टों को झेलता है । सत्य है, प्रमत्त-रागद्वेषाविष्ट आत्मा विषयों में रागकी अधिकता से ही तो प्रवृत्ति करता है। तथा इष्ट वस्तुके नहीं प्राप्त होने पर अथवा प्रतिकूल वस्तु के मिलने पर उस विषयसे द्वेष करता लाप अट यो छ " इति" ७६ हेत्वर्थमा छ. तेना पनिप्राय ग -सा२॥ સમસ્ત પ્રાણું ગુણથી છે, કારણ કે તે અનાદિકાળથી મેહના આવેશથી યુક્ત છે માટે ગુણાર્થી આત્મા કષાયાદિ મૂળસ્થાનમાં સ્થિત જ છે, શબ્દાદિક પાંચ ઈન્દ્રિએને વિષય જેનું પ્રયોજન છે તે, અથવા શબ્દાદિક વિષયમાં જેને અનુરાગ છે તે ગુણાથી છે સાસરિક સમસ્ત પ્રાણુ શબ્દાદિક વિષયના પ્રાર્થ થાય છે, તેના અભાવમાં તેની પ્રાપ્તિ માટે વારંવાર ચેષ્ટા કરતા જ રહે છે. મળવાથી ફરી તેને નાશ ન થાય તેને પ્રયત્ન કરતા રહે છે. કદાચ પ્રાપ્ત થયેલાઓનો નાશ થાય તે તેના અભાવમાં તે અત્યંત શેકાકુળ બને છે, અને માનસિક વાચિક અને કાયિક કષ્ટોને ભોગવે છે સત્ય છે, પ્રમત્ત રાગદ્વેષાવિષ્ટ આત્મા વિષયોમાં રાગની અધિકતાથી જ પ્રવૃત્તિ કરે છે, તથા ઈટ વસ્તુ પ્રાપ્ત નહિ થવાથી અથવા પ્રતિકૂળ
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अध्य० २. उ. १ च तं विपयं द्वेष्टि । एवंविधः संस्तत्र पुनः पुनः वारं वारं वसति-विपयासक्त्या तिष्ठति, मूच्छितो भवतीत्यर्थः । रागद्वेपौ हि यत्र यत्र प्रायशो भवतस्तत्तद्दर्शयति । तद्यथा-"माता मे पिता मे" इत्यादि। ___इयं मे माता, अयं मे पिता' एवंरूपो मातरि पितरि च रागस्तु संसारेऽनादिकालतो मोहनीयसद्भावाद् वाल्यावस्थायां लालनपालनादिकारकखाच्चोपजायते । रागाविष्टचेता हि चिन्तयति-कथं मयि जीवति सति मे माता-पितरौ क्षुत्पिपासादिकं दुःखमनुभवतः इति, इत्थं विचिन्त्य बहुप्राणिसंहारजनितपापवान् कृषिवाणिज्यसेवादिरूपां वृत्तिं स्त्रीकरोति । समुद्रमपि दुरुल्लङ्घ गोष्पदं मन्यानो द्वीपाद्वीपान्तरं परिभ्रमति । अकार्यशतमपि करोति । अहो कीदृशं रागस्य साम्राज्यम् ?। है। इस प्रकार वह उन विषयों में आसक्ति-परिणाम से ही प्रवृत्ति करता रहता है। संसारी जीवों के राग और द्वेष के विषयभूत पदार्थों को सूत्रकार स्पष्ट करते हुए कहते हैं-"माता मे” इत्यादि। यह मेरीमाता है, यह मेरा पिता है, इस प्रकार का उनमें इस जीव को जो राग होता है उसका प्रधान कारण मोह है, वह मोह इस संसार में अनादिकाल से इस जीव के साथ लगा हुआ है । तथा दूसरा कारण बाल्यावस्था में उन्होंने इसका पालन पोषण किया है। रागाविष्ट यह जीव सदा यही विचारता रहता है कि मेरे जीते-जी मेरे माता-पिता कभी भी भूख प्यास आदि से जनित दुःखोंका अनुभव न करें। इस ख्यालसे वह कृषि, वाणिज्य आदि अनेक आरंभों को करता है, जिससे हिंसादिजन्य अनेक पापोंका संचय करता रहता है, दुमल्लंध्य समुद्रको भी पारकर एक द्वीपसे दूसरे हीपों में जाकर વસ્તુ મળવાથી તે વિષયમાં દ્વેષ કરે છે. આ પ્રકારે તે આવા વિષયમાં આસક્તિપરિણામથી પ્રવૃત્તિ કરે છે. સંસારી જીવોના રાગ અને દ્વેષના વિષયભૂત પદાર્થોને सूत्र१२ २५५ ४२ छ भने ४ छ-"माता मे" त्याहि. या मादी माता छ, આ મારા પિતા છે. આ પ્રકારે જીવને જે રોગ થાય છે તેનું પ્રધાન કારણ મેહ છે. આ મેહ આ સંસારમાં અનાદિ કાળથી જીવની સાથે લાગેલે છે. તથા બીજું કારણ બાલ્યાવસ્થામાં તેણે તેનું પાલન કર્યું છે. રાગાવિષ્ટ આ જીવ હમેશાં એ જ વિચારતે રહે છે કે મારા માતા પિતા મારા જીવતાં કેઈ વખત પણ ભૂખ તરસથી દુઃખી ન થાય. આવા ખ્યાલથી તે કૃષિ, વાણિજ્ય, આદિ અનેક આરંભ કરે છે જેનાથી હિંસાદિજન્ય અનેક પાપનો સંચય કરે છે. દુરઉંઘ સમુદ્રને ઓળંગીને એક દ્વીપથી બીજા દ્વીપમાં જઈ વ્યાપાર ધંધા નિમિત્તે
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आचारागसूत्रे "भगिनी मे भार्या मे पुत्रा मे दुहिता मे स्नुषा मे" । इति ।
भगिनी स्वसा, सा मे=मम, अस्यां रागकारणं तु समानमातापितृजत्वम् । भार्यायां रागस्तु यावज्जीवं स्वानुकूल्येन वर्तनशीलत्वात् । पुत्रे च रागकारणं सेवादिकार्यप्रवर्तकत्वम् । स्नुषा-पुत्रवधूः तस्याञ्च रागकारणं सकलगृहकार्यसम्पादकत्वम्, पुत्राद्युत्पादनद्वारा पौत्रादिसुखाद्यनुभवकर्तृवञ्च । चेतसि च मूढो विचिन्तयति-कदा मे पुत्रो भविता, कदा मदीयमङ्कमलङ्करिष्यति । जाते पुत्रे च कथमयं विद्याधनादिकं प्राप्स्यति । पत्नी कदा मां सुखिता आनन्दयिष्यति । कदा मे दुहिता दौहित्रं जनयिष्यति, श्वशुरकुले धनादिकं प्राप्स्यति न वेति। तदर्थ चानेकव्यापार धंधा के निमित्त भ्रमण करता है। पैसा कमाने के लिये अनेक अकार्य भी कर डालता है। देखो रागका साम्राज्य कैसाआश्चर्यकारी है। ___ यह मेरी बहिन, इस प्रकार उसमें रागका कारण एक माता-पितासे उत्पन्न होना है । स्त्रीने रागका हेतु यह है कि-जीवन भर तक वह अपने अनुकूल प्रवृत्ति करती है । पुत्र में राग होनेका कारण यह है कि वह रातदिन सेवादि कार्यमें तल्लीनता रखता है। पुत्री में सी-यह अपनेसे पैदा हुई यही रागका कारण है। सम्पूर्ण घरके भारको संभालने तथा पुत्रादिकों को उत्पन्न करने द्वारा पौत्रादिसुखका अनुभव करानेसे पुत्रवधू में राग होता है। पुत्र-कलत्रादि में महामूढ़ बनकर यह जीव विचारता है-मेरे पुत्र कब होगा, कब मेरी गोदी को वह सुशोभित करेगा, कैले वह विद्याध्ययन एवं धनादिक प्राप्त करेगा, मेरी स्त्री कब मुझे स्वयं सुख चैन भोगती हुई आनंदित करेगी। मेरी पुत्री कब दोहिते को जन्म देगी, वह अपने श्वशुरगृह में ભ્રમણ કરે છે પૈસા કમાવા માટે અનેક અકાર્ય પણ કરે છે જુવો રાગનું સામ્રાજ્ય કેવું આશ્ચર્યકારી છે ?
આ મારી બહેન છે, એ પ્રકારના રોગનું કારણ એક માતા-પિતાથી ઉત્પન્ન થવુ તે સ્ત્રીમા રાગનું કારણ, જીવનભર તે પિતાના અનુકૂળ પ્રવૃત્તિ કરે છે પુત્રમાં રાગનું કારણ તે રાતદિવસ સેવાદિ કાર્યમાં તલ્લીનતા રાખે છે પુત્રીમાં પણ રાગનુ કારણ પિતાથી પેદા થઈ છે માટે સંપૂર્ણ ઘરને ભાર સંભાળવામાં તથા પુત્રાદિની ઉત્પત્તિ દ્વારા પૌત્રાદિસુખને અનુભવ કરાવવાથી પુત્રવધુમાં રાગ પેદા થાય છે પુત્રકલત્રાદિમાં મહામૂઢ બનીને આ જીવ વિચારે છે કે-મારે પુત્ર
ક્યારે થશે, ક્યારે મારી ગાદીમાં તે બેસીને મને સુશોભિત કરશે, કેવી રીતે તે વિદ્યાધ્યયન તેમજ ધનાદિક પ્રાપ્ત કરશે મારી સ્ત્રી જ્યારે તેણી સુખચેન ભગવતી મને આનંદિત કરશે. ક્યારે મારી પુત્રી દેહિતને જન્મ આપશે, તેણીના
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अध्य० २. उ. १ सावधानुष्ठानपरायणो भवति । असौ ममकारमहाग्रहगृहीतस्वान्तो नितान्तं परितपति । रागान्धो हि रागग्राहग्रहिलः परमरमणीयमपि सम्यग्ज्ञानादिकं व्यर्थमेवेति निश्चिन्यानो मोहशव्याशयानो भार्यापुत्रभगिनीगृहक्षेत्राराममरमणीयमपि रमणीयं मन्यते ।
तथा 'सखि-स्वजन-संग्रन्थ-संस्तुता मे' इति । सखा च स्वजनश्च संग्रन्थश्च संस्तुतश्चेति इतरेतरयोगद्वन्द्वसमासः। सखा-मित्रं, स्वजनो-मातामहादिः, संग्रन्थः= स्वजनस्यापि सम्बन्धी यथा-मातामहश्यालकादिः । संस्तुतो मुहुमुहुदर्शनसम्मेलनाधनकी अधिकारिणी होगी या नहीं। इस प्रकार यह बलत्वरूपी महाग्रह-पिशाचादि द्वारा युक्त होकर रातदिन उनकी चिन्तामें ही अपने भीतर ही भीतर जलता रहता है, टीक है रागसे अंधा हुआप्राणी असुन्दर भी परपदार्थों को सुन्दर माने नथा उपादेय-सुन्दर पदार्थों को हेयअसुन्दर माने, इसमें कौनसी अचरजकी बात है। संसारमें सम्यग्ज्ञानादिक इस जीवके उपादेय धर्म हैं-उन्हें यह रागरूपी ग्रह से ग्रस्त होकर अशोभनीय मानता है, तथा जो स्त्री, पुत्र, भगिनी, घर-क्षेत्र आदि अशोभनीय परपदार्थ हेथ हैं, उन्हें मोहरूपी प्रबल मदिराके नशे से आकुलिनयुद्धि होता हुआ रमणीय-उपादेय मान रहा है । तथा "सखि-स्वजन-संग्रन्थ-संस्तुता मे"सखा-मित्र, स्वजन-मातामहादि, संग्रन्थ-स्वजन के संबंधीजन, संस्तुत-बारम्बार देखने से मेल मिलाप से जिनके साथ परिचय हुआ है वे, अथना-पूर्व में परिचित पिता काका वगैरह, पश्चात्-परिचित ससुर साले वगैरह, ये मित्र स्वजन ધશુરગૃહમાં ધનની અધિકારિણી થશે કે નહિ ? આ પ્રકાર તે મમત્વરૂપી મહાગ્રહ –પિશાચાદિ દ્વારા યુક્ત બનીને રાતદિન તેની જ ચિંતામાં પોતાના ભીતરની અંદર જ જળ રહે છે. ઠીક છે, રાગથી અંધ બનેલ પ્રાણ અસુદર પણ પરપદાર્થોને સુંદર માને તથા ઉપાદેય-સુદર પદાર્થોને હેય – અસુદર માને, આમા કોઈ અચરજની વાત નથી. સંસારમાં સમ્યજ્ઞાનાદિક આ જીવને ઉપાદેય ધર્મ છે. તેને રાગરૂપી ગ્રહથી અશભનીક માને છે. તથા જે સી, પુત્ર, ભગિની, ઘર, ક્ષેત્ર આદિ અશોભનીય પરપદાર્થ હોય છે, તેને મેહુરૂપી પ્રબળ સદિશના નશાથી આકુળિ शुद्धिय माय-उपाय माने छे तथा “ सखि-स्वजन संग्रन्थ-संस्तुता मे" અખા-મિત્ર. સ્વજન-માતા મહાદિ, સંગ્રન્ધ–સ્વજનના સંબંધીજન, સંસ્કૃતવારંવાર દેખવાથી, મેળભેળાપથી જેની સાથે પરિચય વ તે. અથવા પૂર્વમાં પરિચિત પિતા. કાકા વિગેરે. પાછળથી પરિચિત ના રાળા વિગેરે. આ
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आचारागसूत्रे दिना परिचितः पिता पितृव्यादिः । पश्चात्संस्तुतः श्वशुरश्यालकादिः । इति चेमे मे सर्वे सर्वदा सुखिनो भवेयुरिति चिन्तयन् रागग्रस्तो भवति । ___ 'विविक्तोपकरणपरिवर्तनभोजनाच्छादनं मे' विविक्तं सुन्दरं मनोहरं प्रभूतं वा उपकरणं गृहारामादिकं हस्त्यश्वस्थासनपल्यङ्कादिकं च, परिवर्तनं विनिमयः हस्त्यश्वादे-महाघसमये विक्रयणम् , तन्मूल्येनैव सुलभसमये चानेकेषां क्रयणम् । मयैवैकेन हस्तिनाऽनेके हस्त्यादयः सम्पादिताः-इत्यादिलक्षणं परिवर्तनम् । कचित् संग्रन्थ संस्तुत मेरे हैं और इनके लिये भी यह "ये सदा सुखी होवें" इस प्रकार विचार करता हुआ राग से ग्रस्त होता है। अपने संबंधीजन को तथा संबंधीजन के संबंधीजन को सुखी होने की कल्पना करना संयमी जन के लिये राग होनेसे बंध का ही कारण शास्त्रकारों ने प्रकट किया है। इस प्रकार का राग मोहकी पर्याय होने से संयमी जन के लिये स्वानुभूति में बाधक होता है, अतः इससे निवृत्ति ही सर्वश्रेष्ठ है।
'विवित्तवगरण'-इत्यादि-मनोहर अथवा प्रचुर उपकरणरूप घर, बगीचा, हस्ती, अश्व, रथ, आसन, पलंग वगैरह वस्तुएँ विविक्त उपकरण कहलाते हैं। परिवर्तन शब्द का अर्थ विनिमय है, तेजी के समय हस्ति वगैरह पदार्थों का वेचना तथा मंदी के समय उसी पैसे से अनेक हस्त्यादिक पदार्थों का खरीदना यह विनिमय है। कहीं" विचित्र” यह पाठान्तर भी है-जिसका अर्थ होता है कि घर में शोभा के लिये अनेक મિત્ર, સ્વજન, સંગ્રન્થ, સંસ્તુત મારા છે. તેને માટે પણ તે “તેઓ સદા સુખી રહે” આ પ્રકારને વિચાર કરીને રાગથી ગ્રસ્ત થાય છે. પિતાના સંબંધીજનના તથા સંબધીના સંબંધી તેના સુખની કલ્પના કરવી સંયમીજનને માટે રાગરૂપ હોવાથી બંધનું જ કારણ શાસ્ત્રકારે પ્રકટ કર્યું છે. આ પ્રકારને રાગ મેહની પર્યાય હોવાથી સંચમીજનને માટે સ્વાનુભૂતિમાં બાધક થાય છે માટે તેમાં નિવૃત્તિ જ સર્વશ્રેષ્ઠ છે
વિવિતેપકરણ–ઈત્યાદિ-મનહર અથવા પ્રચુર ઉપકરણરૂપ ઘર, બગીચા હતી, અશ્વ, ર૧, આસન, પલંગ વિગેરે વસ્તુઓને વિવિક્ત ઉપકરણ કહે છે.
પરિવર્તન શબ્દનો અર્થ વિનિમય છે. તેજીના સમયમાં હસ્તિ વિગર પદાર્થોનું વેવવું અને મંદિરના સમયમાં તે પાવી હસ્તિ આદિ પદાર્થોનું ખરીદવું તે વિનિમય છે. કેઈ ઠેકાણે “વિચિત્ર” આવું પાઠાન્તર પણ છે જેને અર્થ
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अध्य० २. उ. १
'विचित्रे ' - ति पाठः । तत्र विचित्रमुपकरणं गृहादौ शोभार्थं बहुशिल्पिविनिर्मितं नानाविधं नयनमनोहारि वस्तुजातं मयैव सम्पादितम् ।
भोजनं=मोदकादिकं, मयैवेदृशं भोज्यं भुक्तम्। आच्छादनं वखम् = एकेन्द्रियनिष्पन्नं कार्पासादिक, विकलेन्द्रियनिष्पन्नं चीनांशुकादिकं पञ्चेन्द्रियनिष्पन्नं रत्नकम्बलादिकम्, एतत्सर्व कदाचिदपि मा विनाशमाप्नुयात् । यत्र यत्र विषये रागस्तकारीगरों द्वारा निर्मित नेत्र और मन को लुभानेवाली अनेक प्रकार की वस्तुओं का संग्रह करना । प्रमत्त-दशा-सम्पन्न प्राणी ऐसा गर्व करता है कि मैंने ही इस घर में एक हाथी की जगह अनेक हाथियों का संग्रह किया है, तथा पहिले इस घर में शोभा के लिये कोई सुन्दर वस्तु नहीं थी वह मैंने ही अब इन तमाम नेत्र और मन को लुभानेवाली वस्तुओं को एकत्रित किया है।
मोदकादिक भक्ष्य पदार्थ भोजन है । आच्छादन नाम वस्त्र का है । एकेन्द्रिय से frorea कार्पास (सूती) आदिक, विकलेन्द्रियों से पैदा हुआ चीनांशुक (रेशमी ) वगैरह, तथा पंचेन्द्रियों से बनाया गया रत्नकम्बलादिक पदार्थ मेरे कभी नष्ट न हो जावें । इस प्रकार के विचारों से वह मोही जीव सदा संतप्त रहा करता है । प्रतिकूल भोजन मिलने पर पहिले सुन्दर खाये गये भोजन की याद कर व्याकुल-चित्त हो जाता है, सोचता है- मैंने पहिले ऐसा भोजन कभी नहीं किया, सुन्दर २ मोदकादिक भक्ष्य पदार्थों का ही सेवन किया है । यह सब इस प्रकार की એ થાય છે કે ઘરમાં શેશભાને માટે કારીગરોદ્વારા આંખ અને મનને લેાભાવવાવાળી અનેક પ્રકારની વસ્તુઓના સંગ્રહ કરવા.
પ્રમત્તદશાસમ્પન્ન પ્રાણી એવા ગવ કરે છે કે-મે આ ઘરમાં એક હાથીની જગ્યા અનેક હાથિઓના સંગ્રહ કર્યો છે, તથા પહેલાં આ ઘરમાં શાભા માટે કાઈ સુંદર વસ્તુ ન હતી પણ મેં જ હમણાં આ તમામ નેત્ર તથા મનને લેાભાવવાળી વસ્તુઓ ભેગી કરી છે.
મેદકાઢિક ભક્ષ્ય પદ્દા ભાજન છે. આચ્છાદન નામ વસ્ત્રનુ છે. એકેન્દ્રિયથી નિષ્પન્ન સૂતરાઉ આર્દિક, વિલકેન્દ્રિયાથી પેદા થયેલાં રેશમી વિગેરે, તથા પંચેન્દ્રિયાથી બનાવેલાં મારાં રત્નક ખલાકિ પદાર્થોના નાશ ન થઈ જાય, આવા પ્રકારના વિચારાથી તે મોહી જીવ સદા સંતપ્ત રહે છે. પ્રતિકૂળ ભાજનના મળવાથી પહેલાં સુદર ખાધેલાં ભાજનની યાદ કરીને વ્યાકુળચિત્ત થાય છે. અને વિચારે છે કેમેં પહેલાં આવું ભાજન કોઈ વખત ખાધું નથી. સુંદર મેદકાદિક ભક્ષ્ય પદાર્થો જ
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आवारागसूत्रे स्यैवेष्टखात्तस्यालाभे द्वेष उपजायते, अतो यस्मिन् रागस्तस्मिन्नेव द्वेषो भवति-इति स्वभावसिद्धम् । इत्यथै गृद्धो लोक इत्येवमर्थमेतेषामर्थ मातापितपुत्रभादिष्वेव रागादिकारणेषु यावज्जीवति तावत्ममत्तो 'ममेमे, एपां चाह'मित्यनिशं रागादिमान अज्ञानमोहितचित्तो वसति-तिष्ठति तत्र मूर्छा प्राप्नोतीविचारधारा का प्रधान कारण पदार्थों में अतिगय उसकी गृद्धता ही है। क्योंकि इससे ही उसे जिस २ विषय में राग होता है वही उसे इष्ट प्रतीत होता है । अनिष्ट प्राप्त होने पर या इच्छित पदार्थ न मिलने पर उसकी आत्मा में उससे देष की भावना जागृत होती है। इस प्रकार इन रागादिकों के कारणभूत इन माता पिता स्त्री आदिक पदार्थों में गृद्ध बना हुआ यह जीवलोक जब तक जीता है तब तक प्रमत्त-दशायुक्त ही बना रहता है । 'ये पदार्थ मेरे हैं-मैं इनका हूँ' इस प्रकार की कल्पना से रातदिन रागादिक भावों से लिप्त बनकर अज्ञान से आच्छादित हो उन्हीं पदार्थों में आसक्त होता रहता है। 'ममकार' यह जीवों का एक प्रबल शत्रु है । बकरे की तरह “ मैं-मैं" इस प्रकार के शब्द को करता हुआ यह जीव अन्त में कसाई के तुल्य इस भयंकर काल के द्वारा ग्रसित हो जाया करता है । समकार को प्रबल शत्रु इस लिये बतलाया गया है कि जिस प्रकार अपने बलिष्ठ शत्रु के समक्ष जीव विवेकशून्य वन वावला जैसा हो जाता है, ठीक इसी प्रकार इस ममकार के समक्ष भी जीव अपने हित और अहित के भान से रहित हो उन्मत्त ખાધેલાં છે. આ બધા પ્રકારની વિચારધારાનું મુખ્ય કારણ પદાર્થોમાં તેની અતિશય વૃદ્ધતા જ છે કારણ કે આથી તેને જે જે વિષયમાં રાગ થાય છે તેથી તે ઈષ્ટ પ્રતીત થાય છે અનિષ્ટ પ્રાપ્ત થવાથી અથવા ઈચ્છિત પદાર્થ ન મળવાથી તેના આત્મામાં તેથી દ્વેષની ભાવના જાગ્રત થાય છે. આ પ્રકાર આવા રાગાદિકના કારણભૂત માતા-પિતા સ્ત્રી આદિક પદાર્થોમાં ગૃદ્ધ બનીને જ્યા સુધી આ જીવલેક જીવે છે ત્યાં સુધી અમદશાયુક્ત રહે છે. આ પદાર્થ મારે છે, હું તેનો છું આવા પ્રકારની કલ્પનાથી રાત દિવસ રાગાદિક ભાવોથી લિપ્ત બનીને અજ્ઞાનથી આચ્છાદિત જ્ઞાનવાળા હોઈ તેવા પદાર્થોમાં આસક્ત હોય છે મમકાર એ જીવને એક પ્રબળ શત્રુ છે. બકરાની માફક “મ–મ” આ પ્રકારના શબ્દ બોલતા બોલતાં આ જીવ અંતમાં કસાઈતુલ્ય ભયંકર કાળદ્વારા ગ્રસિત બને છે. મમકારને પ્રબળ શત્રની ઉપમા તે માટે આપી છે કે જેમ પિતાના બલિષ્ઠ શત્રુ સમક્ષ જીવ વિવેકશૂન્ય બની બાવળ (ગડ) બને છે, ઠીક તે પ્રકાર આ મમકારની સમક્ષ પણ જીવ પિતાના હિતાહિતના ભાનથી રહિત થઈ ઉન્મત્ત જેવું બને છે. તે વખતે
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अध्य० २ -उ. १ त्यर्थः। ममकारो हि प्राणिनो महान्छत्रुः, ममशब्दं कुर्वाणो हि करालकालव्यालकवलितो भवति प्राणिगणः । यथा चोक्तम् ।
अशनं मे वसनं मे, जाया मे बन्धुवर्गों मे। इति मे-मे-कुर्वाणं, कालको हन्ति पुरुषाजम्॥
पुत्रा मे भ्राता में स्वजना मे गृहकलत्रवर्गो मे ।
इति कृत-मे-मे-शब्द, पशुमिव मृत्युर्जनं हरति ॥ पुत्रकलत्रपरिग्रहममत्वदोषैनरो व्रजति नाशम् ।
कृमिक इव कोशकारः, परिग्रहादुःखमामोति ॥ जैसा बन जाता है। उसे उस समय इस बात का भी ध्यान नहीं होता कि मेरा स्वरूप क्या है और इन परपदार्थों का स्वरूप क्या है? कसाई का बकरा जिस प्रकार "मैं-मैं करता हआ कसाई के द्वारा अंत में मौत के घाट उतार दिया जाता है उसी प्रकार "मैं-मैं" करनेवाला यह जीव भी अन्त में एक न एक दिन- इस दुष्ट भयंकर काल के द्वारा मारा जाता है। कहा भी है
अशनं मे वसनं मे, जाया मे बन्धुवर्गो मे । इति 'मे-मे '-कुर्वाणं, कालवृको हन्ति पुरुषाजम् ॥१॥ पुत्रा मे भ्राता मे, स्वजना मे गृह-कलत्र-वर्गो मे इति कृत-'मे-मे'-शब्द, पशुभिव मृत्युर्जनं हरति ॥२॥ पुत्र-कलत्र-परिग्रह-ममत्वदोषैनरो ब्रजति नाशम् ,
कृमिक इव कोशकारः, परिग्रहादुःखमाप्नोति ॥३॥” इति। इनका अर्थ ऊपर आ चुका है। તેને એ પણ ધ્યાન નથી હોતું કે મારું સ્વરૂપ શું છે અને આ પરપદાર્થોનું સ્વરૂપ શું છે? કસાઈનો બકરે જેમ “મૈ–સૈ” કરતા કસાઈ દ્વારા અંતમાં મોતને તાબે થાય છે તે પ્રકારે “મેં-મૈ” કરવાવાળા આ જીવ પણ અંતમાં એક દિવસ આ દુષ્ટ ભયંકર કાળદ્વારા મરે છે. કહ્યું પણ છે—
अशनं भे वसनं मे, जाया मे बन्धुवर्गो मे । इति 'मे-मे-कुर्वाणं, कालवृको हन्ति पुरुषाजम् ॥ १॥ पुत्रा मे भ्राता मे, स्वजना मे गृहकलत्रवर्गो मे । इति कृत-मे-से-शब्द, पशुमिव मृत्युर्जनं हरति ॥२॥ पुत्रकलत्रपरिग्रहममत्वदोषैर्नरो व्रजति नाशम् ।।
कृमिक इव कोशकारः, परिग्रहाद् दुःखमाप्नोति ॥ ३ ॥ इति ।। આને અર્થ ઉપર આવેલ છે,
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आचारागसूत्रे ___इति ममकात्याहगृहीतविग्रहेण पुरुषेण सततं चिन्त्यते । शब्दादिविषयासक्तो नरो मातापित्राद्यर्थ धननिवहोपार्जनपरो दुःखमेवानुभवति । सदैव परितप्यमानो भ्रमतीत्याह-"अहश्च रात्रिञ्च परितप्यमानः"अहो-दिनं रात्रिं, चशब्दात्पक्षमास
इन्द्रियों के शब्दादिक विषयों में गृद्ध पुरुष इन माता पिता आदि को सुखी करने के लिये धनादि कमाने के अभिप्राय से सदा दुःख का ही अनुभव करता है और रातदिन संक्लिष्टपरिणामी हो उसके संग्रह की चिन्ता में इतस्ततः घूमता है, एवं शारीरिक और कायिक अनेक कष्टों का सामना करता है।
"अहश्च रानि च " यहाँ पर "च" शब्द से पक्ष-मास-ऋतु-वर्ष आदि का ग्रहण होता है। विचारता रहता है कि कब ऐसा अवसर मिले कि जब मैं बाहर जाऊँ और कय विक्रय की वस्तुओं को खरीद बेच कर उनसे खूब लाभ उठाऊँ। कौनसी ऐसी जगह है जहाँ इस वस्तु की अधिक खपत होनेसे विक्री तेजी से होती है। कौनसी चीज खरीदने में इस समय अधिक फायदा होगा?, तथा कौनसी वस्तुका संग्रह करने से भविष्य में अधिक लाल होगा?, इत्यादि बातों की ही उसके हृदय में सदा उथल-पुथल मची रहती है। यहाँ तक कि सोते समय में अथवा सोते हुए उसे इसी वात के स्वम आते हैं और कभी २ वह इन्हीं विचारों को लेकर बड़बड़ाने भी लगता है। उसे निद्रा भी ठीक २ नहीं आती। बिचारा
પાચ ઈન્દ્રિયેના શબ્દાદિક વિષયમા ગુથાયેલો પુરૂષ માતા-પિતા આદિને સુખી કરવાના હેતુથી ધન કમાવામાં જ હમેશા દુખનો અનુભવ કરે છે અને રાત - દિવસ વ્યાકુળ બની તેના સંગ્રહની ચિતામાં અહીં-તહીં ઘૂમ્યા કરે છે, અને શારીરિક માનસિક અને કાયિક અનેક કષ્ટોનો સામનો કરે છે
"अहश्च रात्रि च" मा आये " च " शथी पक्ष, भास, *तु, वर्ष माहितु પ્રહણ થાય છે. વિચારતે રહે છે કે ક્યારે એ વખત મળે જ્યારે હું બહાર જાઉ અને કયવિક્રયની વસ્તુઓને ખરીદી વેચી તેનાથી ખૂબ લાભ ઉઠાવું એવી
ક્યા જગ્યા છે ત્યા અમુક વસ્તુઓ સસ્તી મળતી હોય તથા એવી ક્યા જગ્યા છે ત્યા આ વસ્તુઓ અધિક ખપત હોવાથી તેજીથી વેચાઈ જાય આ વખતે કઈ ચીજ ખરીદવાથી ફાયદો થશે. તથા કઈ વસ્તુને સંગ્રહ કરવાથી ભવિષ્યમાં અધિક લાભ થશે. ઈત્યાદિ વાતની તેને હૃદયમાં સદા ઉથલપાથલ મચી રહે છે એટલે સુધી કે મુવા વખતે તથા સુતા સુતાં તેને આ વિષયનાં સ્વપ્ન આવે છે અને કઈ વખત તે આવા વિચારથી બડબડવા પણ લાગે છે. તેને નિદ્રા પણ ઠીક
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अध्य० २. उ. १ तुवादिकं ग्राह्यम् । प्रवृत्तसावद्यानुष्ठानः परि सर्वतः, तप्यमानः शारीरिकमानसिकवाचिकदुःखेन क्लिश्यमानः अन्तर्दाहदग्धो भवतीति यावत् ।
कदा से विदेशगमनं ? कदा कुत्र भाण्डनयने ये लाभो भविता ? कीदृशश्च क्रयविक्रयावसरः ? इत्यनिशं तप्यमानः। पुनः कथम्भूतः ? कालाकालसमुत्थायी, काला कार्यकरणावसरः, अकालस्तद्विपरीतः, सम्-सर्वथा उत्थातुं शीलं यस्येति स समुत्थायी, कालाकालयोः समुत्थायी कालाकालसमुत्थायी । यथैवावसरे करोति तथैवानसरेऽपि करोतीत्यर्थः । यद्वा यथाऽनवसरे न करोति तथैवावसरेऽपि न करोति । मातापितृपुत्रभाांद्यर्थनिखिलकार्यव्यासक्तान्यमनस्कतया प्रग्रहिल इव कालाकालज्ञानकलाविकलो भवति । रात दिन इन्हीं विचारों में मग्न बनकर संतप्त होता रहता है । काल और अकाल का वह कुछ भी विचार नहीं करता, उसके जैसा ही अवसर वैसा ही अनवसर, उसके लिये अवसर और अनवसर में कोई भेद नहीं। वह तो अपनी इच्छानुसार अनर्गल प्रवृत्ति किया करता है। अथवा जिस प्रकार भूताद्याविष्ट प्राणी भले बुरे की परीक्षा नहीं कर सकता है, वह तो मनमाना ही काम करता है, उसी प्रकार मातापिता आदि सांसारिक पदार्थों में ही आसक्त मन वाला प्राणी अन्य आत्महितकारी कार्यो से उपेक्षितवृत्तिवाला बन काल-अकाल की ज्ञानकलासे सदा विकल ही बना रहता है । अवसर न होने पर जिस प्रकार कार्य नहीं करना उसी प्रकार अक्सर में भी कार्य नहीं करता, जमी कार्य करने की इच्छा जागृत हुई चाहे समय हो चाहे असमय हो कार्य करने लग जाता है। जैसे कोई अरिमर्दन नाम का राजा जो शत्रुओं को नष्ट करने में शक्तिशाली था આવતી નથી. બિચારા રાતદિન આવા જ વિચારમાં મગ્ન બની સંતપ્ત થાય છે. કાળ અકાળને તે જરા પણ વિચાર કરતા નથી. તેને જે અવસર તે જ અવસર. તેને માટે અવસર અને અનવસરમાં કઈ ભેદ નથી, તે તે પોતાની ઈચ્છાનુસાર અનર્ગળ પ્રવૃત્તિ કરે છે. અથવા જેમ ભૂતાધાવિષ્ટ-(ભૂતના વળગાડ. વાળા) ભલા–બૂરાનો વિચાર નથી કરી શકતા તે તે મનમાન્ય કામ કરે છે. તે પ્રકારે માતા-પિતા આદિ સાંસારિક પદાર્થોમાં જ આસક્ત મનવાળાં પ્રાણી અન્ય માનહિતકારી કાર્યોથી ઉપેક્ષિત વૃત્તિવાળા બની કાળ–અકાળની જ્ઞાનકળાથી હમેશાં વિકળ જ બને છે. અવસર નહિ હોવાથી જેમ કાર્ય નથી કરતા તેમ અવસરમાં પા! કઈ નથી કરતા પણ ત્યાં ઈછા થઈ કે રામચ-અરમય જોયાં વિના કામ કરવા લાગે છે. જેમ અરિમર્દન નામને રાજા સમયને જાણકાર નહિ
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अध्य० २. उ. १
यदि मनुष्यो दीर्घायुरजरामरो वा भवेत्तदा युक्तो माता-पित्रादिष्वभिष्वङ्गस्तस्य, किन्तु नैवमस्ति। मनुष्यशिरसि च मृत्युरनिशं भ्रमति । जराजीर्णस्य कर्तव्याकर्तव्यशून्यस्य प्राणिनो वार्धके मातापित्रादिष्वभिष्वङ्गेऽपि तदर्थप्रयासाक्षमत्वेन मूढता जायत इति दर्शयति-"अप्पं च " इत्यादि।
मूलम्-अप्पं च खलु आउयं इहमेगेसिं माणवाणं, तं जहा सोयपरिणाणेहि परिहायमाणेहि, चक्खुपरिणाणेहिं परिहायमाणहि, घाणपरिणाणेहिं परिहायमाणेहि, रसणपरिणाणेहिं परिहायमाणेहि, फासपरिणाणहि परिहायमाणेहिं, अभिक्कंतं च खल्लु वयं संपेहाय तओ से एगया मूढभावं जणयइ (सू.२)
यदि मनुष्य दीर्घायु होता अथवा अजर अमर होता तो मातापितादिक में इसका ममत्व करना भी युक्तियुक्त था, किन्तु ऐसा तो है नहीं क्योंकि निरन्तर ही इसके मस्तक पर मृत्यु घूमती रहती है।
और जरा से समयानुसार यह जीर्णकाय भी होता रहता है। इस परिस्थिति में मृत्यु और जरा के वश में पड़े हुए इसके हृदय में सदा आकुल-व्याकुल परिणामों की परिणति जागृत होती रहती है तब उसमें ही रातदिन मन हुआ यह जब स्वयं अपने कर्तव्याकर्तव्य के बोध से ही विकल रहता है लब यह अपने सगे-सम्बन्धी मातापितादिक का अभिष्वंग-संबंध होने पर भी अपनी तरफ से उनके लिये थोड़ा सा भी प्रयास-उद्यम नहीं कर सकता है, जब प्रयास नहीं कर सकता है तब वह किंकर्तव्यमूढ़ बन जाता है। इसी बातको सूत्रकार प्रकट करते हैं:-'अप्पं च खलु आउयं' इत्यादि ।
કદાચ મનુષ્ય દીર્ધાયુ હેત અથવા અજર અમર હેત તે માતાપિતાદિકમાં તનું મમત્વ કરવું યુક્તિયુક્ત હતું પણ એવું તે છે નહિ, કારણકે નિરંતર તેના માથા ઉપર મત ભમે છે, અને ઘડપણથી સમયાનુસાર તે જીર્ણકાય પણ થાય છે. આવી પરિસ્થિતિમાં મૃત્યુ અને જરાની વશમાં પડેલે તેના હૃદયમાં હમેશાં આકુળ-વ્યાકુળ પરિણામની પરિણતિ જાગ્રત રહે છે તેમાં જ રાતદિવસ મગ્ન થએલે તે પિતે પિતાના કર્તવ્યા–કર્તવ્યના બધથી જ વિકળ રહે છે ત્યારે તે પિતાના સગા સંબંધી માતા પિતાદિકના અભિન્કંગ-સંબંધ હોવા છતાં પણ પિતાની તરફથી તેમને માટે છેડે પણ પ્રયાસ કરી શકતો નથી –જ્યારે પ્રયાસ કરી શકતા નથી ત્યારે તે કિંકર્તવ્યમૂઢ બની જાય છે. પૂર્વોકત વાતને જ સૂત્રકાર अट ४२ छ-' अप्पं च खलु आउयं' इत्यादि
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अभ्य० २.१
भावक्षणस्तु द्विविधः-कर्मभावक्षणो, नोकर्मभावक्षणश्च । कर्मभावक्षणश्च कर्मणामुपशम-क्षयोपशम-क्षया-न्यतमप्राप्तिरूपः । तत्रोपशमचारित्रक्षण उपशमशेण्यां २ दुष्षमा, ३ दुषम-सुषमा, ४ सुषमदुष्षमा, ५ सुषमा, ६ सुषमसुषमा, ये हैं। इसी प्रकार अवसर्पिणी के भी-(१) सुषमसुषमा, (२) सुषमा, (३) सुषमदुष्षमा, (४) दुष्षमसुषमा, (५) दुष्पमा, (६) दुष्पमदुषमा, ये ६ भेद हैं। जिसकाल में जीवों के ज्ञानादि शुभभावों की वृद्धि तथा आयुष्य अवगाहना आदि की और वर्ण गन्ध रस स्पर्श के पर्यायों की वृद्धि होती है वह उत्सर्पिणी है, और जिस काल में जीवों के ज्ञानादि शुभभावों का हास, तथा आयुष्य अवगाहना आदि का और वर्णगन्ध रस स्पर्श की पर्यायों का हाल होता है वह अवसर्पिणी है। इनमें अवसर्पिणी के सुषमदुष्षमा तीसरे काल में, दुष्पलतुषमा-चतुर्थकाल में और दुष्षमा-पंचमकाल में, तथा उत्सर्पिणी के दुष्पमसुषमा-तीसरे काल में और सुषमदुष्षमानामक चतुर्थकाल में सर्वविरतिरूप सामायिक की प्राप्ति जीव को होती है। यह कथन नवीन धर्मप्राप्ति की अपेक्षा से कहा है। पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षाले संहरणावस्था में लोकत्रय में समस्तकालों में सर्वविरतिरूप सामायिक की उपलब्धि जीव को हो सकती है।
भावक्षण दो प्रकार का है १ कर्मभावक्षण और २ नोकर्मभावक्षण। ૬ ભેદ–૧ દુષમદુષમા, ૨ દુષમા, ૩ દુષમસુષમા, ૪ સુષમદુષમા, ૫ સુષમા, ૬ સુષમસુષમા, એ છે. આ પ્રકારે અવસર્પિણીના પણ (૧) સુષમગુપમા, (२) सुषमा (3) सुषमयमा, (४) दुषमसुषमा, ५ दुषमा, हुपमहुषमा, આ છ ભેદ છે. જે કાળમાં જેને જ્ઞાનાદિ શુભ ભાવની વૃદ્ધિ તથા આયુષ્ય અવગાહના આદિની અને વર્ણ ગંધ રસ સ્પર્શના પર્યાની વૃદ્ધિ થાય છે તે ઉત્સપિણ છે, અને જે કાળમાં જેને જ્ઞાનાદિ શુભ ભાવોને હાસ તથા આયુષ્ય અવગાહના આદિને અને વર્ણ બંધ રસ સ્પર્શની પર્યાયને હાલ થાય છે તે અવસરણી છે. તેમાં અવસર્પિણીના સુષમદુષમા–ત્રીજા કાળમાં દુષમસુષમાથા કાળમાં અને દુષમા-પંચમ કાળમાં, તથા ઉત્સપિણીના દુષમસુષમા–ત્રીજા કાળમાં અને સુષમદષમા નામક ચેથા કાળમાં સર્વવિરતિરૂપ સામાયિકની પ્રાપ્તિ જીવને થાય છે. આ કથન નવીને ધર્મપ્રાપ્તિની અપેક્ષાથી કહ્યું છે. પૂર્વ પ્રતિપન્નની અપેક્ષાથી સંહરણાવસ્થામાં લકત્રયમાં સમસ્ત કાળોમાં સર્વવિરતિરૂપ સામાચિકની ઉપલબ્ધિ- જીવને થાય છે. ' ' , વિક્ષણ બે પ્રકારના છે. ૧ કર્મભાવક્ષણ અને ૨ કર્મભાવક્ષણ, ચા
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आवारागसूत्र चारित्रलोहनीय कर्मका-क्षय, क्षयोपशम और उपशम-रूप अवस्थाओं में से किसी भी अवस्थारूप होना-सो कर्मभावक्षण है। उसमें उपशमश्रेणी में चारित्रमोहनीय कर्म की २१ प्रकृतियों के उपशम होने पर अन्तमुहूर्तपरिसित जो उपशमचारित्र होता है वह उपशमचारित्र का क्षण है। चारित्रमोहनीय कर्मकी २१ प्रकृतियों के सर्वथा क्षय होने पर अन्तमुहूर्तपरिमित जो छद्मस्थ और यथाख्यात चारित्रकी प्राप्ति होती है तत्स्वरूप क्षायिकचारित्र का क्षण है। क्षयोपशमचारित्रक्षण चारित्र मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से होता है । उसका काल उत्कृष्ट देश ऊन एक करोड पूर्वका है। ___ कर्मभावक्षण का मतलब है-चारित्र के आवारक-(रोकनेवाला) चारित्रमोहनीय कर्मके क्षय, क्षयोपशम, और उपशम की प्राप्तिका अवसर । उसमें चारित्रमोहनीय कर्म की अप्रत्याख्यानावरणादि २१ प्रकृतियों के उपशमले जो चारित्र प्राप्त होता है उसका नाम उपशमचारित्र है । यह उपशषश्रेणि में होता है, इसका काल अन्तर्मुहूर्त है। अप्रत्याख्यानावरणादि २१ प्रकृतियों के सर्वथा क्षय से जीव को जो चारित्र प्राप्त होता है उसका नाम क्षायिकचारित्र है। उपशमश्रेणी में उपशमचारित्र और क्षपकश्रेणी में क्षाधिकचारित्र होता है । उपशमમહનીય કર્મને-ક્ષય, ઉપશમ અને ઉશમ-રૂપ અવસ્થાઓમાં કઈ પણ અવસ્થારૂપ થવું, તે કર્મભાવક્ષણ છે, તેમાં ઉપશમશ્રેણીમાં ચારિત્રમેહનીય કર્મની ૨૧ પ્રકૃતિઓને ઉપશમ થવાથી અન્તર્મુહૂર્ત પરિમિત જે ઉપશમચારિત્ર થાય છે તે ઉપશમચારિત્રને ક્ષણ છે. ચારિત્રમોહનીય કર્મની ૨૧ પ્રકૃતિને સર્વથા ક્ષય થવાથી અન્તર્મુહૂર્તપરિમિત જે છસ્થ અને યથાખ્યાત ચારિત્રની પ્રાપ્તિ થાય છે તસ્વરૂપ ક્ષાયિકારિત્રનું ક્ષણ છે, ક્ષયે પશમચારિત્ર ક્ષણનું ચારિત્રમોહનીય કર્મના યોપશમથી થાય છે, તેને કાળ ઉત્કૃષ્ટ દેશઉન એક કોડ પૂર્વને છે.
કર્મભાવક્ષણને મતલબ છે ચારિત્રને આવારક (કવાવાળા) ચારિત્રમેહનીય કર્મને ક્ષય, પિશમ અને ઉપશમેની પ્રાપ્તિનો અવસર, તેમાં ચારિત્રમેહનીય કર્મની અપ્રત્યાખ્યાનાદિ ૨૧ પ્રકૃતિઓનું ઉપશમ જે ચારિત્રથી પ્રાપ્ત થાય છે તેનું નામ ઉપશમચારિત્ર છે. આ ઉપશમણિમાં થાય છે. તેને કાળ અન્તર્મુહૂર્ત છે. અપ્રત્યાખ્યાનાદિ ૨૧ પ્રકૃતિના સર્વથા ક્ષયથી જીવને જે ચારિત્ર પ્રાપ્ત થાય છે તેનું નામ ક્ષાયિકચારિત્ર છે. ઉપશમણિમાં ઉપશમચારિત્ર અને ક્ષપક શ્રેણિમાં શાચિકચારિત્ર થાય છે. ઉપશમથેણિના સ્થાન ૮–૯–૧૦ અને ૧૧માં
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अध्य० २. उ. १
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चारित्रमोहनीयोपशमे सत्यन्तर्मुहूर्त परिमितः, चारित्रमोहनीयक्षये चान्तर्मुहूर्तपरिमितश्छद्मस्थयथाख्यातचारित्रप्राप्तिरूपः । क्षयोपशमचारित्रक्षणः कर्मणः क्षयोपशमेन भवति, स चोत्कृष्टतो देशोनपूर्वकोटिवर्षपरिमितो विज्ञेयः ।
नोकर्मभावक्षणच - आलस्यमोहावर्णवादस्तम्भादेरभावे सति सम्यक्त्वादिसामायिकोपलब्धिरूपः । आलस्य मोहाद्युपहतः संसारोच्छेदनसमर्थे मनुष्यभवं प्राप्यापि न बोध्यादिकं लभत इति तात्पर्यम् । केचित्तु - नोकर्मभावक्षणं 'रिक्तक्षण ' इत्यभिदधति ।
श्रेणी के स्थान ८ व ९ व १० वां और ११ वां गुणस्थान हैं । १२ वें गुणस्थान तक जीव को छद्मस्थावस्था रहती है । यथाख्यातचारित्र ११ वें १२ वें १३ वें और १४ वें गुणस्थान में होता है । छद्मस्थावस्था के चारित्र ht छद्मस्थचारित्र और संपूर्ण मोहनीय कर्म के क्षय अथवा उपशम से आत्मा के शुद्ध स्वरूप में स्थिर होने को यथाख्यात चारित्र कहते हैं । अनंतानुबंधी आदि १२ कषायों का उदयभावी क्षय तथा उन्हींके निषेकों का सदवस्थारूप उपशम और संज्वलन तथा नोकषाय का यथासंभव उदय होने पर जो चारित्र होता है उसे क्षायोपशमिक चारित्र कहते हैं । इसका दूसरा नाम सरागसंयम भी है ।
नोकर्मभावक्षण- आलस्य, मोह, अवर्णवादादिक के अभाव होने पर जो सम्यक्त्वादिरूप सामायिक की प्राप्ति हुआ करती है वह नोकर्मभावक्षण है, क्यों कि आलस्य और मोहादिक से उपहत हुआ प्राणी संसार का निर्मूल उच्छेदन करने में समर्थ मनुष्य भवको प्राप्त करके ગુણસ્થાન છે. ક્ષપકશ્રેણિનું સ્થાન ૮-૯-૧૦ અને ૧૨મું ગુણસ્થાન છે. ૧૨ મા ગુણસ્થાન સુધી જીવને છદ્મસ્થાવસ્થા રહે છે. યથાખ્યાતચારિત્ર ૧૧ -૧૨-૧૩ અને ૧૪ માં ગુણસ્થાનમાં થાય છે. છદ્મસ્થાવસ્થાના ચારિત્રનું' છદ્મસ્થ ચારિત્ર અને સ`પૂર્ણ મેાહનીય કર્માંના ક્ષય અથવા ઉપશમથી આત્માના શુદ્ધ સ્વરૂપમાં સ્થિર હાવું તેને યથાખ્યાતચારિત્ર કહે છે. અનંતાનુખ ધી આદિ ૧૨ કાયાના ઉદયભાવી ક્ષય તથા તેના નિષેકના સદવસ્થારૂપ ઉપશમ. અને સંજવલન તથા નાકષાયનુ યથાસંભવ ઉત્ક્રય હોવા પર જે ચારિત્ર થાય છે તેને ક્ષાચેાપશમિકચારિત્ર કહે છે. તેનું બીજુ નામ સરાગસંયમ પણ છે.
થવાપર
નાક ભાવક્ષણ આળસ, મોહ, અવર્ણવાદાદિકના અભાવ જે સમ્યક્ત્વાદિરૂપ સામાયિકની પ્રાપ્તિ થયા કરે છે તે નાકમ ભાવક્ષણ છે, કારણ કે આળસ અને માહાદિકથી ઉપહત થયેલ પ્રાણી સંસારનો નિર્મૂળ ઉચ્છેદન
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आचाराङ्गसूत्रे
अत्रायं प्रकरणार्थः संक्षिप्तः - द्रव्यक्षणो जङ्गमत्वादिविशिष्टमानवभवरूपः । क्षेत्रक्षण आर्यक्षेत्ररूपः । कालक्षणो धर्मानुष्ठानसमयः । भावक्षणः क्षयोपशमादिरूपो विज्ञेयः । अतो हे पण्डित ! एतादृशं चतुर्विधं धर्माचरणायातिदुर्लभं क्षणमत्रगम्य संयमानुपालनतत्परोऽवश्यं भवेति भावः ॥ स्० ८ ॥
इत्थमतिदुरापक्षणमवाप्य यावच्च श्रोत्रादीनां शक्तयो न परिहीनास्तावदात्मार्थ प्रयासो विधेय इति दर्शयति - ' जावे - 'त्यादि ।
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मूलम् — जाव सोयपरिण्णाणा अपरिहीणा, नेत्तपरिण्णाणा अपरिहीणा, फरिसपरिण्णाणा अपरिहीणा, इच्चे एहिं विरूवरूवेहिं पण्णाणेहिं अपरिहीणेहिं आयहं सम्मं समणुवासिज्जासि-त्ति बेसि ॥ सू० ९ ॥
भी बोधि आदि को प्राप्त नहीं कर सकता है। नोकर्मभावक्षण को कोई २ आचार्य रिक्तक्षण भी कहते हैं ।
इस प्रकरण को संक्षिप्त करते हुए टीकाकार कहते हैं - पर्यायविशिष्ट मानव भवस्वरूप (१) द्रव्यक्षण है, आर्यक्षेत्ररूप (२) क्षेत्रक्षण, धर्मानुष्ठान का समय - (३) कालक्षण और क्षयोपशमादिरूप (४) भावक्षण है, इसलिये हे परमार्थज्ञ ! मेधावी ! इस प्रकार के इस चतुर्विध क्षण को धर्माचरण करने के लिये अत्यन्त दुर्लभ मान कर संयम के पालन करने में अवश्य २ मन को लगाओ, नहीं तो समय के हाथसे निकल जाने पर अन्त में पश्चात्ताप के सिवाय और कुछ हाथ न आयेगा, इस लिये प्राप्त हुए इस चतुर्विध क्षण को संयमाराधन से सफलित करो || सू० ८|| કરવામા સમ મનુષ્યભવને પ્રાપ્ત કરીને પણ એધિ આદિને પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી નાક ભાવક્ષણને કાઈ કાઇ આચાર્ય ક્તિક્ષણ પણ કહે છે આ પ્રકરણને સક્ષિપ્ત કરતા ટીકાકાર કહે છે ત્રસપર્યંચવિશિષ્ટ માનવ– लवस्व३५ (१) द्रव्यक्षण छे, आार्यक्षेत्र३५ (२) क्षेत्रक्षण, धर्मानुष्ठाननो समय (3) ङासक्षषु अने क्षयोपशभाढिय (४) भावक्षण छे, भाटे हे परमार्थज्ञ | મેધાવી! આ પ્રકારના ચતુર્વિધ ક્ષણને ધર્માચરણ કરવા માટે અત્યંત દુર્લભ માનીને મચમપાલન કરવામાં લગાવે નહિ તે સમય નીકળી જવા પછી તમા પશ્ચાત્તાપ સિવાય કાઈ પણ હાથ આવશે નહિ, માટે આ પ્રાપ્ત થયેલ ચતુર્વિધ ક્ષણને સ’ચમારાધનથી સફલિત કરો ૫ સ્૦ ૮૫
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छाया - यावच्छ्रोत्रपरिज्ञानानि अपरिहीनानि, नेत्रपरिज्ञानानि अपरिहीनानि, प्राणपरिज्ञानानि अपरिहीनानि, जिह्वापरिज्ञानानि अपरिहीनानि, स्पर्शपरिज्ञानानि अपरिहीनानि इत्येतैर्विरूपरूपैः प्रज्ञानैरपरिहीनैरात्मार्थं समनुवासयेत्, इति ब्रवीमि ॥ सू० ९ ॥
टीका- 'याव - 'दित्यादि । यावज्जरया रोगेण च श्रोत्रस्य परिज्ञानानि अपरिहीनानि न नश्यमानानि तावदात्मार्थं समनुवासयेदिति सम्बन्धः । एवं यावच्छन्दः सर्वत्र योज्यः । एवमन्येषामपि नेत्रादीनां परिज्ञानानि यावन्न श्रीयमाणानि सन्ति तावच्छ्रेयो विचिन्तनीयमिति तात्पर्यम् ।
इस प्रकार अत्यंत कठिनता से प्राप्त करने योग्य इस क्षण को पाकर के जब तक श्रोत्रादिक प्रत्येक इन्द्रिय की अपने २ विषय को जानने की शक्ति कमजोर नहीं पड़ती है तब तक आत्मकल्याण के लिये प्रयास करते रहना चाहिये, यह बात सूत्रकार कहते हैं - ' जाव सोपरिorter ' इत्यादि ।
जब तक वृद्धावस्था या किसी रोग से तेरा कर्ण - इन्द्रियजन्य ज्ञान अपने विषय को ग्रहण करने की शक्ति से विकल नहीं हुआ है, नेत्र- इन्द्रियजन्य ज्ञान जब तक अपने विषय ग्रहण करने की सामर्थ्य से रहित नहीं हुआ है, घाण - इन्द्रियजन्य ज्ञान जब तक अपने ज्ञेय को जानने की शक्ति से क्षीण नहीं हुआ है, जिह्वा इन्द्रियजन्य ज्ञान जब तक अपने पदार्थ को ग्रहण करने की सामर्थ्य से रहित नहीं हुआ है, स्पर्शन- इन्द्रियजन्य ज्ञान जबतक कर्कश - कठोरादि अपने विषय को ग्रहण करने की शक्ति से हीन नहीं हुआ
આ પ્રકાર અત્યંત કઠિનતાથી પ્રાપ્ત કરવાયાગ્ય આ ક્ષણને મેળવીને જ્યાં સુધી શ્રોત્રાદિક પ્રત્યેક ઇન્દ્રિયની પોતપોતાનાં વિષયને જાણવાની શક્તિ કમજોર થતી નથી ત્યાં સુધી આત્મકલ્યાણ માટે પ્રયાસ કરતા રહેવા જોઇએ, એ वात सूत्रार उडे छे:--
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जाव सोयपरिण्णाणा ' हत्याहि नयां सुधी वृद्धावस्था मगर अध રાગથી તારૂં કઇન્દ્રિયજન્ય જ્ઞાન પોતાના વિષયને ગ્રહણ કરવાની શક્તિથી વિકલ નથી થયુ, નેત્ર–ઇન્દ્રિયજન્ય જ્ઞાન જ્યાંસુધી પોતાના વિષય ગ્રહણ કરવાનાં સામર્થ્યથી રહિત નથી થયુ, ઘ્રાણુ-ઈન્દ્રિયજન્ય જ્ઞાન જ્યાંસુધી પોતાના જ્ઞેયને જાણવાની શક્તિથી ક્ષીણુ નથી થયુ, જિજ્ઞા−ઈન્દ્રિયજન્ય જ્ઞાન જ્યાં સુધી પોતાના પદાર્થને ગ્રહણ કરવાના સામર્થ્યથી રહિત નથી થયું, સ્પર્શીન—ઇન્દ્રિયજન્ય જ્ઞાન જ્યાં સુધી કશ કઠેારાદિ પોતાના વિષયને ગ્રહણ કરવાની શક્તિથી હીન
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आधाराङ्गसूत्रे है तब तक अर्थात् इन्द्रियों के ज्ञान की विद्यमानता में ही हे भव्य प्राणी! तू अपना कल्याण-अर्थात् ज्ञानदर्शनचारित्र-आराधन रूप निज प्रयोजन को सिद्ध करले। यह निश्चित है-वृद्धावस्था आने पर, या किसी भयंकर रोग के होने पर-इन्द्रियों की शक्तियां या स्वयं इन्द्रियां ही क्षीण हो जाती हैं। जिस समय चेचक निकला करती है कई व्यक्तियों की आंखें फूट जाती हैं, कान भी बहिरे हो जाते हैं । लकवा की बीमारी में स्पर्शन इन्द्रिय शून्य हो जाती है, वचन वर्गणा ठीक नहीं निकलती, चलते समय पैर कहीं रखते हैं पड़ते हैं कहीं। कहा भी है
"गात्रं संकुचितं गतिविगलिता भ्रष्टा च दन्तावलिः, दृष्टिनश्यति वर्धते बधिरता बक्त्रं च लालायते । वाक्यं नाद्रियते च बान्धवजनो भार्या न शुश्रूषते,
हा ! कष्टं पुरुषस्य जीर्णवयसः पुत्रोऽप्यमित्रायते” ॥१॥ "दृष्टि घटी पलटी तनकी छवि, बंक भई गति लंक नई है, रूष रही परनी घरनी, अतिरंक भयो परयंक लई है । कांपत नार (नाड) बहै मुख लार, महामति संगति छार गई है,
अंग उपंग पुराने परे, तिसना उर और नवीन भई है" ॥१॥ નથી થયુ ત્યા સુધી અર્થાત ઇન્દ્રિયેના જ્ઞાનની વિદ્યમાનતામાં જ હે ભવ્ય પ્રાણી ! તું પિતાનું કલ્યાણ અર્થાત્ જ્ઞાનદર્શન ચારિત્ર આરાધનરૂપ નિજ પ્રજનને સિદ્ધ કરી લે એ નિશ્ચિત છે વૃદ્ધાવસ્થા આવવાથી અગર કઈ ભયંકર રોગ થવાથી ઈન્દ્રિયની શક્તિઓ અગર સ્વયં ઇન્દ્રિયે જ ક્ષીણ થાય છે. જે વખતે શીતલા નીકળે છે તે વખતે કઈ વ્યક્તિઓની આંખે ફૂટી જાય છે, કાન પણ બહેરા થઈ જાય છે, લકવાની બીમારીમાં સ્પર્શન ઈન્દ્રિય શૂન્ય બની જાય છે, વચન –વાણી પણ ઠીક નીકળતી નથી, ચાલતી વખતે પગ ક્યાંય રાખે છે અને પગ પડે છે ક્યાય કહ્યું પણ છે –
"गात्रं संकुचितं गतिविगलिता भ्रष्टा च दन्तावलि-, ईष्टिर्नश्यति वर्धते बधिरता वां च लालायते । वाक्यं नाद्रियते च बान्धवजनो भार्या न शुश्रूषते, हा ! करें पुरुषस्य जीर्णवयस. पुत्रोऽप्यमित्रायते" ||१|| " दृष्टि घटी पलटी तनकी छवि वंक भई गति लंक नई है, रूप रही परनी घरनी अति रंक भयो परयंक लई है। कांपत नार (नाड) वहै मुख लार महामति संगति छार गई है, अंग उपंग पुराने परे तिसना उर और नवीन भई है" ॥१॥
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अभ्य० २. उ. १
" व्याघीव तिष्ठति जरा परितर्जयन्ती, रोगाश्च शत्रव इव प्रहरन्ति देहम् । आयुः परिस्रवति भिन्नघटादिवाम्भो, लोकस्तथाप्यहितमाचरतीति चित्रम्" ॥१॥ यह वृद्धावस्था अर्धमृतक जैसी है । इस अवस्था में बुद्धि प्रायः नष्ट हो जाती है, कूबड निकल आती है, दांत गिर पड़ते हैं, बाल सफेद हो जाते हैं, बल भी कम हो जाता है, आँखों से कम सूझने लगता है, कानों से शब्द सुनाई नहीं पड़ते, हाथ पैर ढीले और चलते फिरने से लाचार हो जाते हैं, कफ और श्वासका जोर बढ़ता है, वैरियों की तरह समस्त रोग इस अवस्था में अपना बदला लेनेके लिये ही मानों इकदम टूट पड़ते हैं, तृष्णा की प्रबलता इस अवस्था में हो जाती है, प्रत्येक इन्द्रिय विषय ग्रहण करने की शक्ति से शून्य हो जाती है । जिस तरह कबूतर पर बाज झपटने की ताकमें रहता है, अथवा बिल्ली चूहे पकड़ने की ताक लगाए बैठी रहती है, ठीक इसी तरह मौत भी इस अवस्था में प्राण पखेरु को पकड़ने के लिये तैयार रहती है । उसी प्रकार इस अवस्था में जवानी का बल छिप जाया करता है । मयूरों की ध्वनि सुनने से जैसे
" व्याघ्रीव तिष्ठति जरा परितर्जयन्ती, रोगाश्व शत्रव इव प्रहरन्ति देहम् । आयु. परिस्रवति भिन्नघटादिवाम्भो, लोकस्तथाप्यहितमाचरतीति चित्रम् " ॥१॥
વ
આ વૃદ્ધાવસ્થા અમૃતક જેવી છે, આ અવસ્થામા બુદ્ધિ નષ્ટપ્રાય થાય છે, ખલ પણ ઓછુ થાય છે, વાંકાપણુ આવે છે, દાત પડી જાય છે, ખાલ સફેદ થાય છે, આંખાથી ઓછું દેખાય છે, કાનેથી શબ્દ સંભળાતા નથી, હાથ પગ ઢીલા અને ચાલવા ફરવાથી લાચાર અને છે, કફ્ અને શ્વાસનું જોર વધે છે, વૈરીઓની માફક સમસ્ત રોગ આ અવસ્થામાં અદલો લેવા માટે જાણે એકદમ તુટી પડે છે, તૃષ્ણાની પ્રખલતા આ અવસ્થામાં થાય છે, પ્રત્યેક ઇન્દ્રિય વિષય ગ્રહણ કરવાની શક્તિથી શૂન્ય થાય છે. જેવી રીતે કભુતર પર ખાજ ઝડપ મારવાની તક શોધે છે, અથવા ખિલાડી ઉંદર પકડવાની તાક લગાવી બેસે છે, તેવી રીતે માત પણ આ અવસ્થામાં પ્રાણપ ંખેરૂને પકડવા તૈયાર રહે છે. જે પ્રકારે વાદળાની અંદર સૂર્યના પ્રકાશ ઢંકાઈ જાય છે તે પ્રકારે આ અવસ્થામાં જુવાનીનું બળ છુપાઈ જાય છે. મારની ધ્વનિ સાંભળવાથી જેમ ચંદનવૃક્ષોમાં
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आचारागसूत्रे ___ इत्येतैः पूर्वोक्तैर्विरूपरूपैः-इष्टानिष्टस्वभावतया नानाप्रकारैः प्रज्ञानैः प्रकृष्टज्ञानरपरिहीनः अपरिक्षीणैः सद्भिः आत्मार्थम् आत्मनोऽर्थ आत्मार्थः, स च ज्ञानदर्शन-चारित्ररूपस्तम् ।
यद्वा-आत्मनेऽर्थों हितं प्रयोजनमिति यावत् , तच्चारित्रानुष्ठानम् , तम् ,
समनुवासयेत् भावयेत् , रञ्जयेदिति वा, यथोक्तानुष्ठानेनात्मानं समनुपालयेदिति भावः।
इति-पूर्वोक्तं ब्रवीमि सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामिनमाह-यद्भगवतः सकाशात् श्रुतं तदेवाहं सूत्रात्मना कथयामि॥ मू० ९ ॥ इति ॥
इति द्वितीयाध्ययनस्य प्रथमोद्देशः सव्याख्य समाप्त. ॥ १ ॥ चन्दनवृक्षों में लपटे हुए भुजंगों के बन्धन ढीले पड़ जाते हैं वैसे ही खांसी के खुल्ल, खुल्ल शब्द से इस अवस्था में अस्थियों की संधियां शिथिल हो जाया करती हैं । यह जरा एक भयंकर व्याघ्री की तरह सामने आकर निर्भय रूप से खड़ी हो जाती है, उस समय शत्रुओं की तरह रोग इस पर प्रहार करने से नहीं चूकते, फूटे घड़े में से पानी की तरह आयु निकलती चली जाती है तो भी आश्चर्य की बात है कि प्राणी अपने आत्म कल्याण की तरफ ध्यान नहीं देता ?।
इसलिए जब तक वृद्धावस्था या किसी रोगले तेरी शारीरिक शक्ति क्षीण नहीं हुई है और प्रत्येक इन्द्रिया जब तक सशक्त बनी हुई है तब तक सूत्रकार कहते हैं कि-"आत्मार्थ समनुवासयेत्” आत्माके लिये हितकारी सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र की प्राप्ति से अपने आपको भावित करो। લટકેલા સાપના બંધન ઢીલા પડે છે તેમ ખાસીના ખુલ્લ–બુલ શબ્દથી આ અવસ્થામાં હાડકાઓની સંધેિ શિથિલ બની જાય છે.
આ વૃદ્ધાવસ્થા એક ભયંકર વ્યાધિની માફક સામે આવીને નિર્ભય રૂપથી ખડી થઈ જાય છે, તે વખતે શત્રુઓની માફક રેગ પણ પ્રહાર કરવામાં ચુકતા નથી, કુટેલા ઘડામાંથી પાણીની માફક આયુ નિકળવા માંડે છે, તે પણ આશ્ચર્યની વાત છે કે પ્રાણી પોતાના આત્મકલ્યાણની તરફ ધ્યાન દેતા નથી માટે
જ્યા સુધી વૃદ્ધાવસ્થા અગર કે રેગથી તારી શારીરિક શક્તિ ક્ષીણ નથી થઈ અને પ્રત્યેક ઇન્દ્રિય જ્યા સુધી સશક્ત બનેલી છે ત્યા સુધી સૂત્રકાર
छे-" आत्मार्थ समनुवासयेत् " मात्मा माटे हितारी सभ्यर्शन સમ્યજ્ઞાન અને સમ્યફારિત્રની પ્રાપ્તિથી પિતાને ભાવિત કરે.
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अध्य० २. उ. १
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यहां आत्मा के लिये हितकारी सम्यक्चारित्र का प्रधानतया ग्रहण होता है । क्यों कि यथाख्यातचारित्रके बिना केवलज्ञान तथा केवलदर्शन नहीं हो सकते । चौदहवें गुणस्थानमें यथाख्यात चारित्र की पूर्णता होते ही यह आत्मा अ इ उ ऋ लृ " इन पांच हस्व अक्षरों के उच्चारण काल तक वहां रहकर मुक्तिमें जा विराजता है । इस अपेक्षा से चारित्र की यहां पर प्रधानता कही है। सम्यग्दर्शन की पूर्णता चतुर्थ गुणस्थानमें, सम्यग्ज्ञानकी पूर्णता तेरहवें गुणस्थान में और सम्यक् चारित्र की पूर्णता चौदहवें गुणस्थान में शारूकारों ने बतलाई है |
इस पूर्वोक्त अर्थ को सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं कि - हे जम्बू ! मैंने जैसा भगवान से सुना है वैसा ही तुझे कहता हूँ ॥ सू० ९ ॥ ॥ यह द्वितीय अध्ययन का प्रथम उद्देश समाप्त हुआ । २-१ ॥
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કારણ
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અહીં આત્મા માટે હિતકારી સમ્યકૂચારિત્રનું પ્રધાનતયા ગ્રહણ થાય છે, ચથાખ્યાતચારિત્ર વિના કેવળજ્ઞાન તથા કેવળદર્શીન નથી થતું. ચૌદમા ગુણસ્થાનમાં થાખ્યાતચારિત્રની પૂર્ણતા થતાં જ આ આત્મા अ इ उ ऋ ल આ પાંચ હસ્વ અક્ષરોનું ઉચ્ચારણુ કાલ તક ત્યાં રહીને મુક્તિમાં બિરાજે છે. આ અપેક્ષાથી ચારિત્રની આ ઠેકાણે પ્રધાનતા કહી છે. સમ્યગ્દર્શનની પૂર્ણતા ચેાથા ગુણસ્થાનમાં, સભ્યજ્ઞાનની પૂર્ણતા તેરમા ગુણસ્થાનમાં, અને ચારિત્રની પૂર્ણતા ચૌદમા ગુણસ્થાનમાં શાસ્ત્રકારોએ મતાવી છે.
આ પૂર્વોક્ત અર્થને સુધર્માસ્વામી જમ્મૂસ્વામીથી કહે છે કે હે જમ્મૂ! મેં જેવી રીતે ભગવાન પાસેથી સાંભળ્યુ છે તેવું જ તમને કહું છું. ॥ સૂ॰ ૯ ॥ ા ખીજા અધ્યયનના પહેલા ઉદ્દેશ સમાસ ૫૨–૧ u
४९ Rs
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आवारागसूत्रे ॥ आचाराङ्ग सूत्रे द्वितीयाध्ययनस्य द्वितीयोदेशः ॥
उक्तः प्रथमोद्देशः, साम्पतं द्वितीयो व्याख्यायते, तत्रायं सम्बन्धः-प्रथमे विषयकपाय माता पित्रादि लोकविजयेन संयमिनो मोक्षकारणचारित्रस्य प्राप्तिः, किञ्च लोकविजयेन यावद्रोगजरादयो नायातास्तावदात्मार्थ संयमो विधेय इत्यपि प्रतिपादितम् ।
॥ आचाराङ्ग सूत्रके दूसरे अध्ययनका दूसरा उद्देश ।
प्रथम उद्देश का वर्णन हो चुका, अब द्वितीय उद्देश का वर्णन करते हैं-इस के वर्णन करने का अभिप्राय यह है कि-प्रथम उद्देश में जो यह बात बतलाई गई है कि-"विषय कषाय और माता पिता आदि जो लोक हैं उन पर विजय प्राप्त करने से, अर्थात् कषायों को जीतने और माता पिता आदि के स्नेह निवारण से संयमी को मोक्ष के कारणभूत चारित्रकी प्राप्ति होती है।तथा लोक पर विजय करलेने से जब तक रोगादिक अथवा जरावस्था वगैरह जो संयम को धारण करने में प्रतिबंधक हैं, वे इस शरीर को आकर नहीं घेरते हैं इसके पहिले आत्मकल्याण के लिये संयम का आराधन करलेना चाहिये"॥
આચારાંગ સૂત્રના બીજા અધ્યયનનો બીજો ઉદ્દેશ પહેલાં ઉદ્દેશનું વર્ણન સમાપ્ત થયું. હવે બીજા ઉદ્દેશનુ વર્ણન કરે છે. તેનું વર્ણન કરવાને અભિપ્રાય એ છે કે મહેલા ઉદ્દેશમાં જે વાત બતાવવામાં આવી છે કે “વિષયકષાય અને માતાપિતા આદિ જે લેક છે તે ઉપર વિર્ય પ્રાપ્ત કરવાથી અર્થાત્ કષાયને જીતવાથી અને માતાપિતા આદિનો સ્નેહ નિવારણથી સંચમીને મોક્ષના કારણભૂત ચારિત્રની પ્રાપ્તિ થાય છે. અને લોક ઉપર વિજય કરવાથી ત્યાં સુધી રેગાદિક અને જરાવસ્થા વિગેરે જે સંયમને ધારણ કરવામાં પ્રતિબંધક છે. તે આ શરીરને આવીને ઘેરતા નથી. તેનાં પહેલાં આત્મકલ્યાણ માટે સંચમનું આરાધન કરી લેવું જોઈએ.
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आचाराङ्गसूत्रे
छाया - अल्पं च खलु आयुष्कामहैकेषां मानवानाम् । तद्यथा - श्रोत्रपरिज्ञानैः परिहीयमानैः, चक्षुः परिज्ञानैः परिहीयमानैः, घ्राणपरिज्ञानैः परिहीयमानैः, रसनपरिज्ञानैः परिहीयमानैः, स्पर्शपरिज्ञानैः परिहीयमानैः, अभिक्रान्तं च खलु वयः सम्प्रेक्ष्य ततः स एकदा मूढभावं जनयति ॥ २ ॥
टीका - अल्पं = स्तोकं, 'च' शब्देन दीर्घायुष्कपरिग्रहः । खलु शब्दोऽवधारणे, 'आयु: पूर्व कृतकर्मभोगार्थमैति= समागच्छतीत्यायुः । यद्वैति = समागच्छति-स्वकृतकर्मप्राप्तनरकादिगतिस्थितजन्तोः प्रतिबन्धकतामित्यायुः भवस्थितिहेतुः कर्म पुद्गल'पुञ्जमित्यर्थः । आयुर्हि सुखदुःखाधारं देहस्थितं जीवं तत्तद्गतौ धरति । उक्तञ्च - " दुक्खं न देइ आऊ, न विय सुहं देइ चउसुवि गईसु । दुक्खसुहाणाधारं, धरइ देहद्वियं जीवं ॥ १ ॥ "
'छाया - दुःखं न ददात्यायुर्नापि च सुखं ददाति चतसृष्वपि गतिषु । दुःखसुखानामाधारं, धरति देहस्थितं जीवम् ।। इति ।
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इस संसार में कितनेक मनुष्यों की आयु अल्प है, पूर्ण आयु- को भोगते हुए भी जब यह प्राणी वृद्धावस्था संपन्न होता है तब इसकी
- इन्द्रिय अपने विषय के ग्रहण करने में असमर्थ हो जाती है, चक्षुइन्द्रिय रूप के देखने में क्षीण शक्तिवाली हो जाती है, घ्राण-इन्द्रिय सुगंधदुर्गन्ध के बोध करने से विमुख हो जाती है, रसना - इन्द्रिय ५ प्रकार के रसास्वादनरूप अपने कार्य से शिथिल बन जाती है और स्पर्शन-इन्द्रिय भी ८ प्रकार के स्पर्श को बतलाने में अक्षम हो जाती है । इस प्रकार 'प्रत्येक इन्द्रियाँ जब इस अवस्था में अपने २ कर्तव्य से विमुख हो जाती हैं, तब यह प्राणी उस अवस्था में कर्तव्याकर्तव्य के ज्ञान से 'शून्य हो जाता है ।
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આ સસારમા કેટલાક મનુષ્યોની આયુ એછી છે. પૂર્ણ આયુને ભાગવત છતાં પણ જ્યારે તે પ્રાણી વૃદ્ધાવસ્થાસંપન્ન થાય છે ત્યારે તેની શ્રોત્ર ઇન્દ્રિય પોતાના વિષય ગ્રહણ કરવામાં અસમર્થ બને છે. ચક્ષુઇન્દ્રિય, રૂપ દેખવામાં ક્ષીણશક્તિવાળી થાય છે. પ્રાણઇન્દ્રિય સુગ ધ દુર્ગંધના મેધ કરવામાં વિમુખ થઈ જાય છે. રસના-ઇન્દ્રિય પાંચ પ્રકારના રસાસ્વાદન રૂપ પોતાના કાર્યથી શિથિલ બની જાય છે અને સ્પર્શીન—ઇન્દ્રિય પણ આઠ પ્રકારના સ્પર્શી બતાવવામા અક્ષમ થાય છે. આ પ્રકારે પ્રત્યેક ઇન્દ્રિય જ્યારે આ અવસ્થામાં પેાત–પેતાના કાર્યથી વિમુખ થાય છે ત્યારે આ પ્રાણી આ અવસ્થામા કર્તવ્યાકતવ્યના જ્ઞાનથી શૂન્ય થાય છે.
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अध्य० २ उ. २
१२९ - अत्र च संयमिनः कदाचिन्मोहनीयोदयादज्ञानलोभादिसमुदयादात्मदोषाद्वा संयमे चारतिराविभूता तस्या निरसनं, तथा येऽपि विषयिणोऽल्पमधिकं वा कालं संयममनुपाल्यापि पूर्वोक्तदोषेण मोहोदयात्संयमे शैथिल्यं प्राप्नुवन्ति तेषां संयमे दृढता, विषयेषु चादृढता यथा भवेत्तथाऽऽह ' अरइं' इत्यादि। ____ संयमी को कदाचित् मोह के उदय से याअज्ञान एवं लोभादि किसी कषाय के उदयसे अथवा अपने ही किसी दोष के वश से संयम में जो अरतिभाव उत्पन्न हो जाता है उसको जैसे. भी दूर किया जा सके; तथा जो शब्दादि विषयों में लोलुपी बने हुए हैं और संयम का पालन भी कर रहे हैं वे उस संयम को अल्पकाल तक या अधिक समय तक पालन करके भी पूर्वोक्त दोष से अथवा मोहके उदय से संयम में शिथिल बन जाते हैं वे संयम में शिथिल न बनने पावें अर्थात् संयम में उनकी दृढ़ता ही बनी रहे तथा विषयों की ओर से उनकी आसक्ति घटे-इसी बातका वर्णन इस द्वितीय उद्देश में सूत्रकार करते हैं'अरइं इत्यादि। ____ अथवा-चारित्र को अंगीकार करने के लिये जिनकी इच्छा जागृत तो हो चुकी है परन्तु मोह के उदय से उनके मन में अभी तक अरतिभाव विद्यमान है, एवं जिन्होंने चारित्र को धारण तो कर लिया है परन्तु उसके धारणके बाद लोभादि से किसी २ समय उन्हें उससे अरतिभाव भी पैदा हो जाता है, उस समय उन्हें क्या करना चाहिये? इसीका निरू
સંયમને કદાચિત મોહના ઉદયથી અજ્ઞાન અને લેભાદિ કોઈ કષાયના ઉદયથી અથવા પિતાના કેઈ દેજના વશથી સંયમમાં જે અરતિભાવ ઉત્પન્ન થાય છે, તેને જેમ તેમ પણ દૂર કરવામાં આવે, અને જે શબ્દાદિ વિષયમાં લુપી બનેલાં છે અને સંયમનું પાલન કરે છે તેઓ સંયમનું અ૫ કાળ સુધી અગર અધિક સમય સુધી પાલન કરીને પણ પૂર્વોક્ત દેષથી અથવા મોહના ઉદયથી સંયમમાં જેઓ શિથિલ બની જાય છે તેઓ સંયમમાં શિથિલ બની ન જાય અર્થાત્ સંયમમાં તેઓની દઢતા બની રહે અને વિષયેની તરફથી તેઓની श्यासात घट मा वातनु वा न २ मीन देशमा सूत्रा२,४रे छ:-'अरई' त्याल,
અને ચારિત્રને અંગીકાર કરવા માટે જેની ઈચ્છા જાગૃત બનેલી છે પરંતુ મેહના ઉદયથી તેના મનમાં હજી સુધી અરતિભાવ મોજુદ છે અને જેઓએ ચારિત્રને ધારણ કરી લીધું છે પરંતુ લીધા પછી લોભાદિથી કઈ કઈ સમય તેને તેમાં અરતિભાવ પેદા થાય છે. તે વખતે તેણે શું કરવું જોઈએ તેનું નિરૂપણ
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आचाराङ्गसूत्रे
यद्वा समुत्पद्यमानरुचेरपि मोहोदयादतिर्जायते, कस्यचिच्च चारित्रग्रहणानन्तरं लोभादिना कदाचिदरतिभवति तदा किं कर्तव्यमित्याह - ' अरइ' इत्यादि ।
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मूलम् – अरई आउट्टे से मेहावी खणंसि मुक्के ॥ सू० १ ॥ छाया - अरतिंम् आवर्तेत स मेधावी क्षणे मुक्तः ॥ ०-१ ॥ टीका- ' अरति ' - मित्यादि, सः कृतचारित्रग्रहणो मेधावी परिज्ञातनिःसारसंसारः सन् ' अरतिम् ' रमणं = रतिः संयमे धृतिस्तस्याभावोऽरतिस्तां पञ्चाचारपण करते है- ' अरई ' इत्यादि ।
जिसने संसार की असारता जान ली है और चारित्र को भी अंगीकार कर लिया है वह अरतिभाव को दूर करे तो क्षण भर में मुक्त हो जावे | चारित्र को जिसने अंगीकार कर लिया है उसका यह धर्म है कि वह कितने भी परीषहों और उपसर्गों के उत्पन्न होने पर भी अपने चारित्र धर्मका निर्दोष रीति से पालन करे । परन्तु जब तक कषायों का पूर्णतया विनाश नहीं हो जाता, तब तक जीव से इस प्रकार की प्रवृत्ति नहीं होती है । क्योंकि जिस चारित्रका यहां पर वर्णन किया जा रहा है वह क्षायोपशमिक है, क्षायोपशमिक चारित्र तभी होता है जब चारित्र मोहनीय कर्म के २१ प्रकृतियों में से सर्वघाति प्रकृतियों के कुछ स्पर्द्धकों का - अनन्तानन्त कर्म वर्गणाओं के समुदायका एक स्पर्द्धक होता है उनकाउदयभावी क्षय हो तथा कुछ सर्वघातिस्पर्द्धकों का सदवस्थारूप उपशम हो एवं देशघातिप्रकृतिका उदय हो । इस अवस्था का नाम क्षायोपशम है । या जीन्न उद्देशभा सूत्रार अरे छे - " अरई " इत्याहि.
જેણે સ'સારની અસારતા જાણી છે, અને ચારિત્રને પણ અંગીકાર કરેલ છે તે અતિભાવને દૂર કરે તે ક્ષણભરમાં મુક્ત થઈ જાય. ચારિત્રને જેણે અંગીકાર કરેલ છે તેને એ ધર્મ છે કે કેટલા પણ પરિષહેા અને ઉપસ ઉત્પન્ન થાય તે પણ પોતાના ચારિત્રધર્મનું નિર્દોષ રીતિથી પાલન કરે, પરંતુ જ્યાં સુધી કષાયાના પૂર્ણ વિનાશ નથી થતા ત્યાં સુધી જીવથી તેવા પ્રકારની પ્રવૃત્તિ થતી નથી, કારણ કે જે ચારિત્રનુ આ ઠેકાણે વર્ણન આપવામાં આવ્યુ છે તે ક્ષાયેાપશમિક છે. ક્ષાયેાપશમિક ચારિત્ર ત્યારે જ થાય છે—જ્યારે ચારિત્ર માહનીય કની ૨૧ પ્રકૃતિએથી સ`ઘાતી પ્રકૃતિઓના થોડાં સ્પદ્ધકોના અનન્તાનન્ત કર્મ વણાઓના સમુદાયના એક સ્પદક થાય છે. તેના ઉદ્દયભાવી ક્ષય થાય તથા થાડા સર્વઘાતિ સ્પકોના સદ્યવસ્થારૂપ ઉપશમ થાય અને દેશઘ્રાતિ પ્રકૃતિના ઉદ્દય ાય. આ અવસ્થાનું નામ ક્ષાયેાપશમ છે,
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अध्य० २. उ. २ विषयारुचिं कषायसंसर्गोत्पन्नां माता-पितृ-कलत्र-मित्राद्युत्पादिताम् आवर्तेत=निवतयेत् , विषयाभिष्वङ्गे रतिसत्त्वे संयमे चारतिर्भवति, तथा च कण्डरीकसदृशस्य संयमिनो नरकादिगतिर्जायते, विषये रत्यभावे संयमे रतिरुत्पद्यते, तथा च पुण्डरीकसदृशस्य सद्गतिर्भवति । संयमे रतिं विदधानस्य न किमपि दुःख पराभवति, उक्तञ्च__ इस दशामें देशघाति प्रकृति का तो उदय रहता है। यह चारित्र का बिगाड़ नहीं करती। किन्तु जिनका उपशम हुआ है-वे यदि निमित्त पाकर उदय में आजाती हैं तो वे अवश्य २ चारित्र में जीव को अरतिभाव या उससे भ्रष्ट कर देती हैं। इसी बात को लक्ष्य में रखकर सूत्रकार संयमी जन को कहते हैं कि-'अरति आवतेत' इति संयमधारी मेधावी संयम में अरति को दूर करे। संयम में धृति धारण करना-इस का नाम रति है, रति का अभाव अरति है, पाँच आचारका पालन करना संयम है। इस विषय में संयमी जनको कषायों के संलग से अथवा मातापिता-मित्र-स्त्री आदि के संसर्गसे अरतिभाव पैदा हो सकता है। टीकाकार इस पर अपना अभिप्राय प्रकट करते हुए कहते हैं कि-बात भी ठीक है, क्यों कि विषयों में अभिष्वंग (आसक्ति) रूप रति के सद्भाव होने पर संयममें अरतिभाव जीवों को उत्पन्न हो जाता है, परन्तु मेधावी मुनि संसार की असारता को भली भांति जानता है तो उसका कर्तव्य है कि वह अरतिभाव को दूर करे, नहीं तो कंडरीक की तरह उसे नरक गामी होना पडेगा, और संयम में रति करने से पुण्डरीक की तरह उसे
આ દશામાં દેશઘાતિ પ્રકૃતિને તે ઉદય રહે છે, તે ચાત્રિને બિગાડ કરતી નથી, પરંતુ જેને ઉપશમ થયેલ છે તે કદાચ નિમિત્ત બનીને ઉદયમાં આવી જાય છે તે તે અવશ્ય જ ચારિત્રમાં જીવને અરતિભાવ અગર તેનાથી ભ્રષ્ટ કરે છે. આ વાતને લક્ષમાં રાખીને સૂત્રકાર સંયમી જનને કહે છે કે – 'अरर्ति आवर्तेत' संयमधारी मेधावी सयममा मतिने २ ४२. संयममा ધૃતિ ધારણ કરવી, તેનું નામ રતિ છે. રતિને અભાવ અરતિ છે. પાંચ આચારનું પાલન કરવું સંયમ છે. આ વિષયમાં સંચમી જનને કષાયોના સંસર્ગથી અથવા માતા–પિતા–મિત્ર-સ્ત્રી આદિના સંસર્ગથી અરતિભાવ પેદા થઈ જાય છે ત્યારે ટીકાકાર આ વાત પર પિતાને અભિપ્રાય પ્રગટ કરતાં કહે છે કે-વાત પણ ઠીક છે. કારણ કે વિષયમા આસક્તિરૂપ રતિને સદ્ભાવ થેવાથી સંયમમાં અરતિભાવ જીવને ઉત્પન્ન થાય છે. પરંતુ મેઘાવી મુનિ સંસારની અસારતાને ભલીભાંતિ જાણે છે. તેથી તેનું કર્તવ્ય છે કે તે અરતિભાવને દૂર કરે, નહીં તે કંડરીકની માફક તેને નરકંગા થવું પડશે, અને સંયમમાં રતિ કરવાથી પુંડરીકની માફક તેને
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आचारागसूत्रे " क्षितितलशयनं वा, प्रान्तभैक्षाशनं वा,
सहजपरिभवो वा, दुष्टदुर्भापितं वा । महति फलविशेषे, नित्यमभ्युद्यतानां,
न मनसि न शरीरे, दुःखमुत्पादयन्ति " ॥ १ ॥ " तणसंथारनिसण्णोऽवि मुणिवरो नहरागमयमोहो ।
जं पावइ मुत्तिसुह, तं कत्तो चकवट्टी वि" ॥१॥ छाया-तृणसंस्तारनिपण्णोऽपि मुनिबरो नष्टरागमदमोहः॥
यत्मामोति मुक्तिसुखं तत्कुतश्चक्रवर्त्यपि ॥ १॥ इति, किमधिकेन । सद्गतिका लाभ होगा। जीवों को अरति का कारण दुःख होता है। परन्तु संयम को निर्दीप रीति से पालन करनेवाले को कोई भी दुःख नहीं होता है। यदि किसी प्रकार के कर्मोदय से उसे दुःख भी आ पडे तो वह दुःख उस जीव को संयम में अरतिभाव का कारण नहीं होता है । यही बात नीचे लिखे श्लोकसे प्रकट की है, जैसे
क्षितितलशयनं वा प्रान्तभैक्षाशनं था, __ सहजपरिभवो वा दुष्टदुर्भाषितं वा । महति फलविशेष नित्यमभ्युद्यतानां,
न मनसि न शरीरे दुःखमुत्पादयन्ति ॥१॥ फिर भी-" तणसंथारनिसपणो विमुनिवरो नट्ठरागमयमोहो।
जं पावइ भुत्तिसुहं, तं कत्तो चक्कवट्टी वि॥१॥" સદ્દગતિને લાભ થશે જેને અરતિના કારણે દુખ થાય છે, પરંતુ સંયમને નિર્દોપ રીતિથી પાલન કરવાથી કઈ પણ દુખ થતુ નથી કદાચ કોઈ પ્રકારના કર્મોદયથી તેને દુખ પણ આવી પડે છે તે દુ ખ તે જીવને સયમમાં અરતિ ભાવનું કારણ થતુ નથી, એ વાત નીચે લખેલા શ્લેકથી પ્રગટ કરી છે–
" क्षितितलशयनं वा, प्रान्तभैक्षाशनं वा, . सहजपरिभवो वा, दुष्टदुर्भाषितं वा । महति फलविशेषे, नित्यमभ्युद्यतानां,
न मनसि न शरीरे, दुःखमुत्पादयन्ति" ॥ १ ॥ फिरभी-" तणसंथारनिसण्णो वि मुणिनिवरो नट्ठरागमयमोहो।
जं पावर मुत्तिसुह, तं कत्तो चक्कवट्टी वि" ॥ १॥
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अध्य० २. उ २
मोहनीयक्षयोपशमेनाधिगतचारित्रस्य कदाचित्पुनर्मोहनीयोदयादरतिरुत्पन्ना, तस्याः क्षयार्थमुपदिश्यत-इति तात्पर्यम् । __नन्वनेनारतिमते मेधाविन उपदेशो, यश्च मेधावी स परिज्ञातभवस्वरूप एव भवति, तस्मिंश्चारतिमत्त्वस्यासम्भवाच्छायातपयोरिव सहानवस्थानरूपविरोधसत्त्वान्मेधावित्वारतिमत्त्वयोः कथमेकत्र स्थितिः ? । उक्तश्व
इसका भाव यही है-कि भूमि पर सोना, अन्तप्रान्त भिक्षा का सेवन करना चाहे, कोई तिरस्कार करे, चाहे दुष्ट खोटे २वचन भी कहें, तो भी जिन साधु पुरुषों की प्रवृत्ति उत्तम फल के लाभ करने में सावधान है उनके लिये इन बातों से मन में और शरीर में कोई भी कष्ट नहीं होता है। "तणसंथारनिसण्णो" घासकी शय्या पर बैठे हुए रागमदमोह रहित मुनि निवृत्तिभावसे जिस सुखका अनुभव करता है उस प्रकार के सुख का अनुभव रत्नसिंहासन पर बैठा हुवा चक्रवर्ती भी नहीं कर सकता ॥१॥ __ शंका-चारित्र मोहनीय कर्मके क्षयोपशम से चारित्र की जिसे प्राप्ति हो चुकी है और फिर बाद में चारित्रमोहनीय की किसी एक प्रकृति के उदय से उसमें जिसे अरतिभाव हो गया है ऐसे अरतिभावयुक्त मेधावी के लिये आपका यह उपदेश कि- गृहीत-चारित्र में अरतिभाव को दूर करे" लागू होता है। परन्तु जो मेधावी है वह तो संसार के स्वरूप का जानकार ही होता है, उसमें अरतिपने का सद्भाव तो असंभव ही है । क्यों कि जिला प्रकार छाया और आतप-धूप का एकजगह एक साथ
એને ભાવ એ છે કે–ભૂમિ ઉપર સુવું, અન્ત પ્રાન્ત-ભિક્ષા સેવન કરવી, ભલે કઈ તિરસ્કાર કરે અને દુષ્ટ બેટા બેટા વચન પણ બોલે તે પણ જે સાધુપુરૂષ ઉત્તમ ફળને લાભ કરવામાં સાવધાન છે તેને આવી વાતોથી મનમાં भने शरीरमा ५ अट यतु नथी, “तणसंथारनिलण्णो" घासनी शय्या પર બેઠેલા, રાગ મદ મોહ રહિત મુનિ નિવૃત્તિ ભાવથી જે નિર્લોભતાપ સુખનો અનુભવ કરે છે તે સુખનો અનુભવ રત્નસિંહાસન ઉપર બેઠેલે ચકવતી પણ કરી શકતા નથી. ૧ છે
शङ्का-शरित्रमाईनीय भना क्षयोपशमथी -यारित्रनी ने प्राप्ति थयेसी છે, અને પછી ચારિત્ર મોહનીયની કેઈ એક પ્રકૃતિના ઉદયથી તેમાં જેને અરતિભાવ થયે છે એવા અરતિભાવયુક્ત મેધાવી માટે આપને એ ઉપદેશ–“ગૃહીતચારિત્રમાં અરતિભાવને દૂર કરે” લાગુ થાય છે. પરંતુ જે મેઘાવી છે તે તે સંસારના સ્વરૂપને જાણકાર હોય છે, તેમાં અરતિપણુની સદ્દભાવને તે અસંભવ જ છે, કારણ કે જે પ્રકારે છાયા અને તડકાને એક જગ્યાએ એકી સાથે રહેવું
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आचारागसूत्रे "तज्ज्ञानमेव न भवति, यस्मिन्नुदिते विभाति रागगणः। __ तमसः कुतोऽस्ति शक्तिर्दिनकरकिरणाग्रतः स्थातुम् ॥१॥" इति ।
मोहग्रहग्रहिलोऽज्ञानी संयमेऽरति, विषयाभिप्वङ्गे कामिन्यादौ रति च करोति, मेधावी तु यथा हस्ती लघुदृक्षे घषणं न करोति तथैव तुच्छे कामिन्यादौ रतिं न विदधाति, कथं तर्हि प्रकृते मेधाविनोऽरतिसम्भवो विरोधसत्त्वादिति चेन्न । रहना विरुद्ध है, उसी प्रकार मेधावित्व का और अरतिमत्त्व का भी एक जगह एक साथ रहना विरुद्ध ही है। फिर इन दोनों का एक जगह युगपत् कहना कैसे संभव हो सकता है ? यही यात अन्यत्र भी कही है" तज्ज्ञानमेव न भवति, यस्मिन्नुदिते विभाति रागगणः ।
तमसः कुतोऽस्ति शक्ति,-दिनकरकिरणाग्रतःस्थातुम॥१॥” इति। वह ज्ञान ज्ञान ही नहीं है कि जिस के उदित होने पर रागादिगणका सद्भाव रहे । क्या सूर्य के उदय होने पर भी अंधकार रह सकता है ? कभी नहीं ॥१॥ जो मोह रूपी ग्रहसे उन्मत्त हो रहे हैं-ऐसे अज्ञानी जीव ही संयम में अरति और शब्दादि विषयों में रति किया करते हैं । परन्तु जो मेधावी होते हैं-वे जिस प्रकार हाथी एक छोटे वृक्ष से घर्षण नहीं करता उसी प्रकार संसार के तुच्छ पदार्थों में भी रति नहीं करते । किन्तु उनकी उनमें अरति और संयम में रति रहती है। फिर यहां पर मेधावी को अरति होने का संभव कैसे कहा ? અશક્ય છે તે પ્રકારે મેઘાવિત્વને અરતિભાવને પણ એક જગ્યાએ સાથે રહેવું વિરૂદ્ધ જ છે, પછી એ બન્નેનુ એક જગ્યાએ જોડાણ કહેવું કેવી રીતે સંભવ થઈ શકે, આ વાત બીજી જગ્યાએ પણ બતાવી છે કે –
" तज्ज्ञानमेव न भवति, यस्मिन्नुदिते विभाति रागगण ।
तमस कुतोऽस्ति शक्ति-दिनकरकिरणाग्रत स्थातुम्" ॥ १ ॥ તે જ્ઞાન જ્ઞાન જ નથી કે જેના ઉદય થવાથી રાગાદિગણને સદ્ભાવ રહે, સૂર્ય ઉદય થવાથી શુ અંધકાર રહી શકે છે ? કદિ નહિ ૧ |
જે મોહરૂપી પ્રહથી ઉન્મત્ત થઈ રહેલ છે એવા અજ્ઞાની જીવ જ સયમમાં અરતિ અને શબ્દાદિ વિષમાં રતિ કરે છે પરંતુ જે મેધાવી હોય છે તે જેમ હાથી નાના વૃક્ષથી ઘર્ષણ કરતું નથી તે પ્રકાર સસારના તુચ્છ પદાર્થોમાં રતિ નથી કરતા પણ તેની તેમા અરતિ અને સંયમમાં રતિ જ રહે છે. વળી આ ઠેકાણે મેધાવીને અરતિ હેવાને સંભવ પણ કેમ હોય.
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मध्य० २. उ. २
अनेन च समधिगतचारित्रस्योपदेशं प्रदातुकाम सूत्रकारः। चारित्रं प्रति ज्ञानस्य हेतुतया ज्ञानरूपकारणाभावाचारित्रकार्यासत्वं सर्वसम्मतं, न पुनरत्र ज्ञानारत्योविरोधः सम्भवति, किन्तु रत्यरत्योर्विरोधाचारित्रमोहनीयोदयात्संयमे भवत्येवारतिज्ञानाज्ञानयोरेव विरोधात् , न संयमारतिज्ञानयोविरोध इति प्रकृतेऽपि मेधाविनोऽरतिसत्त्वे विरोधाभावात् । संयमारतिनिवृत्तस्य किं भवतीत्याह 'क्षणे' इति, परमस्तोकः कालः क्षणस्तत्र मुक्तो भवति । ___ उत्तर-चारित्र के प्रति ज्ञान हेतु होता है, ज्ञान रूप कारण के अभाव में चारित्र रूप कार्यका अभाव रहता है, यह सब मानते हैं। यहां पर ज्ञान में और अरति में विरोध का कथन नहीं किया है किन्तु रति और अरति का विरोध होने से चारित्र मोहनीय के उदय से संयम में अरति होती है। ज्ञान और अज्ञान में ही विरोध है संयम में अरति का और ज्ञान का कोई विरोध नहीं है। इसलिये मेधावी होने पर भी संयम में अरति का सद्भाव होता है। इस में किसी प्रकारका विरोध नहीं है।
टीकाकार का यह अभिप्राय है कि जिसने चारित्र-संयम अंगीकार कर लिया है वह यदि ज्ञानी है तो भी उसे चारित्र मोहके उद्य से उसमें अरतिभाव उत्पन्न हो सकता है। क्योंकि चारित्र के प्रति ज्ञान हेतु-कारण है, जहां कारण का अभाव है वहां कार्यका भी अभाव होता है जब ज्ञान रूप कारण का सद्भाव ही नहीं है तब उसके कार्य रूप चारित्र का सद्भाव कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता। इसलिये उसे ज्ञानसंपन्न होनाही चाहिये।
ઉત્તર-ચારિત્રને પ્રતિ જ્ઞાન હેતુ હોય છે. જ્ઞાનરૂપ કારણના અભાવમાં ચારિત્રરૂપ કાર્યને અભાવ રહે છે, એ બધા માને છે. આ ઠેકાણે જ્ઞાનમાં અને અરતિમાં વિરોધનું કથન નથી કર્યું. પણ રતિ અરતિને વિરોધ હોવાથી રિમોહનીયના ઉદયથી સંયમમાં અરતિ થાય છે. જ્ઞાન અને અજ્ઞાનમાં જ વિરાધ છે. સંયમમાં અરતિને અને જ્ઞાનને કઈ વિરોધ નથી માટે મેધાવી હોવા છતાં પણ સંયમમાં અરતિને સદ્ભાવ થાય છે તેથી કઈ પ્રકારને આમાં વિરોધ નથી.
ટીકાકારો એ અભિપ્રાય છે કે જેણે ચારિત્ર-સંયમ અંગીકાર કરેલ છે તે રાના છે તે પણ તેને ચારિત્રમોહના ઉદયથી તેમાં અરતિભાવ ઉત્પન્ન થઈ શકે છે. કેમકે ચારિત્રના પ્રતિ જ્ઞાન હેતુ-કારણ છે, જ્યાં કારાનો અભાવ છે ત્યાં કાય નો પણ અભાવ થાય છે. જ્યાં જ્ઞાનરૂપ કારણને સદ્ભાવ જ નથી ત્યાં
કાર્યરૂપ ચારિત્રને સદ્દભાવ કેવી રીતે હોઈ શકે? બીજે નથી એના માટે તેને જ્ઞાનસંપન્ન થવું જ જોઈએ. તેને અરતિલાલ હ
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आवाराङ्गसूत्रे
उसके अरति भाव उत्पन्न होने में कौन विरोध आता है ? सहानवस्थालक्षणसाथ में नहीं रहने रूप विरोध वहीं पर होता है जो परस्पर में विरोधी होते हैं, जैसे शीत और उष्ण । ये परस्पर में विरोधी हैं इनका एक-साथ एक जगह रहना नहीं हो सकता । प्रकृत में ज्ञान और अज्ञान, रति और अरति ये परस्पर विरोधी दो धर्म हैं इनका भी एक जगह अवस्थान ( रहना) नहीं हो सकता। गृहीत - चारित्र में रति ज्ञानपूर्वक होगी अतः वह ज्ञानावरणीय के क्षयोपशम के साथ चारित्र मोहनीय के क्षयोपराम का कार्य है और अरति ज्ञानावरणीय के क्षयोपशम के साथ चारित्र मोहनीय के उदय का कार्य है । उदय में और क्षयोपशम में बड़ा भारी अन्तर है, एक क्षयोपशम का कार्य है- एक उदय का कार्य है । अतः ये दोनो - रति और अरति - परस्पर विरोधी बातें युगपत् एकत्र नहीं रह सकतीं ।
शंका - रति और अरति ये चारित्र मोहनीय के भेद स्वरूप नोकषाय के कार्य हैं इन्हें क्षयोपशम और उदय जन्य कैसे कहते हैं ?
उत्तर - शंका ठीक है । वहां पर रति और अरति जो नोकषाय के उदय से मानी गई हैं उनसे इनमें भेद है । यहां पर रति शब्द का वाच्यार्थ चारित्र को निर्दोष रूप से पालन करने की भावना और तद
थवाभां यो विरोध भावे छे? सहानवस्थानरूप साथै नहि रहेवा ३५ વિધિ ત્યા જ થાય જે પરસ્પરમાં વિરોધી હેાય છે. જેમ ઠંડી અને ગરમી એ પરસ્પરમાં વિરોધી છે તેનુ એકી સાથે એક જગ્યાએ રહેવુ ખની શકતું નથી. પ્રકૃતમા જ્ઞાન અને અજ્ઞાન, રતિ અને અરતિ, એ પરસ્પર વિરોધી એ ધર્મ છે તેનુ પણ એક જગ્યાએ અવસ્થાન ( રહેવું ) ખની શકતું નથી, લીધેલાં ચારિત્રમાં રતિ જ્ઞાનપૂર્વક જ થશે. માટે તે જ્ઞાનાવરણીયના ક્ષયાપશમ સાથે ચારિત્ર માહનીયના ક્ષાયેાપશમનું કાર્ય છે અને અતિ જ્ઞાનાવરણીયના ક્ષયાપશમ સાથે ચારિત્ર માહનીયના ઉદયનું કાર્ય છે, ઉદ્દયમાં અને ક્ષાપશમમાં ઘણુંા જ અંતર છે, એક ક્ષયેાપશમનું કાય છે એક ઉયનું કાર્ય છે માટે એ બન્ને—રતિ અને અરતિ પરસ્પર વિરોધી વાત યુગપત્ એકત્ર રહી શકતી નથી.
शंका-रति भने भरति मे चारित्रमोहनीयना लेहस्वप नोउषायनु કાર્ય છે તેને લયેાપશમ અને ઉદ્દયજન્ય કેમ કહે છે?
ઉત્તર—શા કીક છે ત્યાં જે રતિ અને અતિ જે કષાયના ઉદયથી માનેલ છે તેનાથી એમાં ભેદ છે. આ ઠેકાણે રતિ શબ્દના વાચ્યા ચારિત્રના નિર્દોષ રૂપથી પાલન કરવાની ભાવના અને તનુકૂલ પ્રવૃત્તિ છે, અને અતિનો
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यद्वा - आपलातीयार्थे सप्तमी, क्षणेन= स्तोककालेन अ इ उ ऋ ऌ - इत्येवं रूपपञ्चह्नस्वाक्षरोच्चारणसमकालेनेति यावत् ; यथाख्यातचारित्रे सम्यग्रतो मुक्तो भवति, संयमस्य सम्यक्परिपालनात्स्वल्पकालेनैव मोक्षभागी भवतीति भावः ॥०१॥ नुकूल प्रवृत्ति है, और अरतिका अर्थ यह है कि लिये हुए संयम के पालन करने में प्रमाद को नहीं हटाना - यहा तहा प्रवृत्ति करना । नोकषाय के उदय से जो रति और अरति होती है वे राग और द्वेष के वाचक हैं । अतः पूर्वोक्त कथन निर्दोष है ।
जिसको संयम में अरति नहीं है उसको क्या होता है ? वह कहते हैं- ' क्षणे ' इति ।
जिसे संयम में अरति नहीं है वह क्षण में मुक्त हो जाता है । अत्यन्त सूक्ष्मकाल को क्षण कहते हैं । क्षण, काल का सबसे छोटा हिस्सा है इससे सूक्ष्म काल का और कोई अंश नहीं है । संयम में वह शक्ति है कि जीव को एक क्षण में मुक्ति प्राप्त करा देता है। ईंधन को जिस प्रकार अग्नि जलाती है उसी प्रकार संयम भी कर्मरूपी ईंधन को भस्म कर इस जीव को एक क्षण में शुद्ध कर देता है ।
अथवा - 'क्षणे मुक्त: ' यहां पर आर्षवाक्य होने से तृतीया के अर्थ में सप्तमी विभक्ति समझनी चाहिये । तथा च ' क्षणेन मुक्तः ' इस प्रकार परिवर्तन होने से एक क्षण के द्वारा मुक्त हो जाता है, यह અર્થ એ છે કે-લીધેલા સંયમનું પાલન કરવામાં પ્રમાદને નહિ છેડતા તે. આડી અવળી પ્રવૃત્તિ કરવી. નાકષાયના ઉદયથી જે રતિ અને અતિ થાય છે તે રાગ અને દ્વેષનુ વાચક છે માટે પૂર્વોક્ત કથન નિર્દોષ છે.
જેને સંયમમાં આરિત નથી તેને શું થાય છે? તે કહે છે—
જેને સંયમમાં અરિત નથી તે ક્ષણમાં મુક્ત થાય છે. અત્યન્ત સૂક્ષ્મ કાળને ક્ષણ કહે છે ક્ષણ કાળના બધાથી નાના હિસ્સા છે માટે સુક્ષ્મ કાળના મીત્તે કાઇ અંશ નથી. સંયમમા તે શક્તિ છે કે જીવને એક ક્ષણમાં મુક્તિ પ્રાપ્ત કરાવી આપે છે. અગ્નિ લાકડાને જે પ્રકારે ખાળે છે તે પ્રકારે નયમ પણ કર્મરૂપી ઇધનને ભસ્મ કરી આ જીવને એક ક્ષણમાં શુદ્ધ કરી નાંખે છે.
અર્થમાં સાતમી વિભક્તિ સમજવી જોઇએ, પરિવર્તન હાવાથી એક ક્ષણથી મુક્ત થઇ
अथवा 'क्षणे मुक्त' मा ठेआये मार्ष वाक्ष्य होवाथी श्रीछ विलतिना અને क्षणेन मुक्त.' या प्रारे જાય છે. એ અર્થ થાય છે, તેનો
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आचाराङ्गसूत्रे ये चारित्रविषयारतिमन्तस्ते चतुर्गतिकसंसारे दुःखसागरमग्राश्चेतस्ततः परिभ्रमन्तीति दर्शयति-'अणाणाए'-इत्यादि।
मूलम्-अणाणाए पुठ्ठावि एगे नियहांत, मंदा मोहेण पाउडा, अपरिग्गहा भविस्सामो समुट्ठाय लद्धे कामे अभिगाहइ, अणाणाए मुणिणो पडिलेहंति, एत्थ मोहे पुणो पुणो सन्ना नो हव्वाए नो पाराए ॥ सू०२॥ ___ छाया—अनाज्ञया स्पृष्टा अप्येके निवर्तन्ते, मन्दा मोहेन पाहताः, अपरिग्रहा भविष्यामः, समुत्थाय लब्धान् कामानभिगाहते, अनाज्ञया मुनयः प्रत्युपेक्षन्ते, अत्र मोहे पुनः पुनः सन्ना नो हव्याय नो पाराय ॥ मू० २॥ ___टीका-'अनाज्ञये '-त्यादि, आज्ञा-ज्ञानाचारादिप्रवृत्तिरूपो जिनादेशः, तद्विपरीता अनाज्ञा, तया स्पृष्टाः परीपहोपसगैश्चलितचेतसः, एकेकण्डरीकप्रभृतयो अर्थ होता है । इस का भाव यह है कि यथाख्यात चारित्र में जब इस जीव की रति-रमण-हो जाती है तब यह 'अ इ उ कल' इन पाँच हस्व अक्षरों के उच्चारण करने में जितना समय लगता है उतने समय मात्र में सिद्ध गति को प्राप्त कर लेता है अर्थात्-संयम को निर्दोष रीति से पालने से थोडे ही काल में यह जीव मुक्तिका लाभ कर लेता है॥सू०॥१॥
जिनकी चारित्र में रति नहीं है वे इस चतुर्गतिरूपसंसार सागर में दुःखों की अनन्त बोझे को झेलते हुए इतस्ततः भ्रमण करते रहते हैं। इस बात को सूत्रकार प्रकट करते हैं
'अणाणाए' इत्यादि । ज्ञानाचारादिकों में प्रवृत्ति करने रूप जो जिनेन्द्र भगवान् का आदेश है उसका नाम आज्ञा है इससे विपरीत ભાવ એ છે કે યથાખ્યાત ચારિત્રમાં જ્યારે આ જીવની રતિ–રમણ થાય છે, त्यारे त 'अ इ उ ऋ ल.' - पांय २५ यक्षराना अय्या२९१ ४२वामा २८मो સમય લાગે છે તેટલા સમય માત્રમાં સિદ્ધગતિને પ્રાપ્ત કરી લે છે અર્થાત્
યમને નિર્દોષ રીતિથી પાળવાથી થોડા જ કાળમાં તે જીવ મુક્તિને લાભ કરી લે છે કે સૂ૦ ૧ છે
જેની ચારિત્રમા રતિ નથી તે આ ચતુર્ગતિરૂપ સંસાર સાગરમાં દુઃખના અનંત બોજને ઉઠાવતા આહીતહીં ભ્રમણ કરે છે, એ વાતને સૂત્રકાર પ્રગટ કરે છે
अणाणार ' त्याहि मानायराभि प्रवृत्ति ४२१३५ २ मिनेन्द्र ભગવાનને આદેશ છે તેનું નામ આજ્ઞા છે, તેનાથી વિપરીત પ્રવૃત્તિ અનાજ્ઞા છે,
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टीकार्थ:-सूत्र में "अप्पं च " यहाँ पर जो "च" शब्द है उससे दीर्घ आयु का भी ग्रहण होता है । " खलु" शब्द अवधारण- निश्चय, अर्थ में आया है । पूर्वकृत कर्म के भोगने के लिये जो जीवों को प्राप्त होता है वह आयु है अथवा जिसके द्वारा जीव एक गति से दूसरी गति को प्राप्त करता है वह आयु है अथवा अपने द्वारा किये गये कर्म के अनुसार प्राप्त नरकादि गति में रहनेवाले जीव को जो अपनी स्थिति तक और दूसरी गति में न जाने देवे वह आयु है । अथवा - अञ्जलि में रहे हुए जल की तरह जो प्रतिक्षण हास को प्राप्त हो वह आयु है । इन तमाम व्युत्पत्तियों द्वारा यही निष्कर्ष निकलता है कि जो कर्मपुद्गलपुञ्ज इस जीव को प्राप्त हुए भव में रोक रखे वह आयु है । क्यों कि सुख दुःख का आधारभूत और देह में रहने वाले जीव को आयु हो उस २ गति में अपने उदयपर्यन्त रोके रहता है । आयु कर्मजीव को चारों ही गतियों में न तो दुःख देता है और न वैषयिक सुख ही देता है । किन्तु जो जीव जिस गति के आयु को बांध कर उस पर्याय का भोग करता है सुख दुःख के आधारभूत उस जीवको वह उस गति में उस विवक्षित पर्याय में रोके रखता है ।
"
टीडअर्थ:-सूत्रभां " अप्पं च या आगे? "च.” शब्द छे तेनाथी दीर्घ आयु अडण थाय छे “खलु” शब्द अवधारण- निश्चय -अर्थमां भाव्या છે. પૂર્વકૃત કર્મ ભોગવવાને જે જીવને પ્રાપ્ત થાય છે તે આયુ છે, અથવા જે દ્વારા જીવ એક ગતિથી બીજી ગતિમાં જાય છે તે આયુ છે, અથવા પેાતાના દ્વારા કરેલા કર્માનુસાર પ્રાપ્ત નરકાદિ ગતિમાં રહેવાવાળા જીવને જે પેાતાની સ્થિતિ સુધી મીજી ગતિમાં ન જવાદે તે આયુ છે, અથવા અલિમાં રહેલાં પાણીની માફક જે પ્રતિક્ષણ ઘટતુ જાય છે તે આયુ છે. આવી તમામ વ્યુત્પત્તિયા દ્વારા એ નિષ્કર્ષ નિકળે છે કે જે કર્મ પુદગલપુંજ આ જીવને પ્રાપ્ત થએલા ભવમાં રોકી રાખે તે આયુ છે, કારણકે સુખ-દુઃખના આધારભૂત અને દેહમાં રહેનાર જીવને આયુ જ તે તે ગતિમાં પેાતાના ઉદયપન્ત રોકી રાખે છે, આયુકત જીવને ચારે ગતિમાં દુઃખ અને વૈષયિક સુખ નથી આપતું પણ જે જીવ જે ગતિની આયુને બાંધીને તે પર્યાયના ભાગ કરે છે. સુખ દુઃખના આધારભૂત તે જીવને તે ગતિમાં વિવક્ષિત પર્યાયમાં રોકી રાખે છે,
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अध्य० २. उ. २
मन्दाः-जडा अनवगतकर्तव्यविवेका इति यावत् , मोहेन-अज्ञानेन मिथ्यात्वमोहनीयेन वा, प्रादृताः सर्वतोऽवगुण्ठिता मोहाश्लिष्टात्मान इति यावत् , 'अपि'शब्दस्य निवर्तन्त इत्यनेन सम्बन्धः, सकलसावधविरति रूपाल्संयमान्निवर्तन्ते, अपिनिश्चयेन, प्राप्तचारित्रोऽपि मोहनीयोदयेन परीपहोपसर्गाविर्भावात्परिधृतसाधुवेपोऽपि भ्रष्टचारित्रो भवतीत्यर्थः। प्रवृत्ति अनाज्ञा है। इस अनाज्ञा से जो स्पृष्ट हैं अर्थात् जो परीषह और उपसर्गों के आने पर चञ्चलचित्त हो जाते हैं-गृहीत चारिन में अरतिभाव रखनेवाले बन जाते हैं वे कंडरीक आदि कत्तयांकर्तव्य-विवेकशून्य मनुष्य अज्ञान अथवा मिथ्यात्व मोहनीय से सर्वथा युक्त होते हुए उस चारित्र से अवश्य भ्रष्ट हो जाते हैं। सूत्र में 'अपि' शब्द निश्चय अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इसका संबंध 'निवर्तन्ते' इस क्रिया के साथ होता है । जिसने सर्वसावद्यनिवृत्तिरूप चारित्रधर्म को प्राप्त कर लिया है-ऐसा व्यक्ति यदि मोह के उदयसे परीषह और उपसर्ग के आने पर अपने चारित्र से विचलित हो जाता है तो उसे चारित्रभ्रष्ट ही समझना चाहिये अर्थात् वह भ्रष्टचारित्री है। ऐसे व्यक्ति अपने को साधु के वेष से सुसजित कर लोगों की दृष्टि में साधुपने का ढोंग रचते हैं। यद्यपि इनके अन्तरंग में उस वेष से जरा सी प्रेम नहीं होता है तो भी बाह्य में वे अपनी प्रवृत्ति इस प्रकार से प्रदर्शित करते हैं-कि जैसे ये सच्चे આ અનાજ્ઞાથી જે સ્પષ્ટ છે અર્થાત્ જે પરિષહ અને ઉપસર્ગોને આવવા પર ચંચલ થઈ જાય છે. લીધેલા ચારિત્રમાં અરતિભાવ રાખવાવાળાં બની જાય છે તે કંડરીક આદિ કર્તવ્યા–કર્તવ્ય વિવેકશૂન્ય મનુષ્ય અજ્ઞાન અથવા મિથ્યાત્વ મોહનીયથી સર્વથા યુક્ત હોવાથી તે ચારિત્રથી અવશ્ય ભ્રષ્ટ થઈ જાય છે.
सूत्रमा ‘अपि ' २०६ निश्चय अर्थमा प्रयुत यो छ तेन च 'निवर्तन्ते ' माया साथे थाय छे, रेशे सर्वसावधनिवृत्ति३५ यात्रि ધર્મને પ્રાપ્ત કરી લીધા છે તે માણસ કદાચ મેહને ઉદયથી પરિવહુ અને ઉપસર્ગ આવવાથી પિતાના ચારિત્રથી વિચલિત થાય છે તે તેને ચારિત્ર બ્રણ જ સમજવો જોઈએ. અર્થાત્ તે ભ્રષ્ટચારિત્રી છે. એવી વ્યક્તિ પિતાને અધુના વેપથી સુસજિત કરી લોકોની દષ્ટિમાં સાધુપણાનો ઢગ રચે છે, જો કે તેના અંતરંગમાં તે વેવથી જરા પણ પ્રેમ હોતો નથી તે પણ બાધમ ને પેતાની પ્રવૃત્તિ આ પ્રકારથી પ્રદર્શિત કરે છે કે તે સાચે નિદ્રા છે. વાતને
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आवाराङ्गसूत्रे
असाधवोऽपि स्वात्मानं साधुं मन्यमानाः किं कुर्वन्तीत्याह - ' अपरिग्रहा ' - इति अपरिग्रहाः परि- सर्वतो मूर्च्छाभावेन गृह्यत इति परिग्रहः, अविद्यमानः परिग्रहो येषामित्यपरिग्रहाः = निर्ग्रन्था वयं भविष्याम इति दण्डिशाक्यादयोऽवसन्नपार्श्वस्थादयो वा समुत्थाय = साधुवेषं चारित्रं च गृहीत्वा ततो लब्धान् = प्राप्तान् कामान्= शब्दादिविषयान् अभिगाहन्ते संश्रयन्ते । अत्र मूले आर्पखादेकवचनम् । अत्र 'अपरिग्रहा' इति पञ्चममहाव्रतोपादानादवशिष्टानि चखारि महाव्रतान्यपि विज्ञेयानि, अपरिग्रहे सर्वेषामन्तर्भावात् ।
Ŕ૪૦
निर्ग्रन्थ हैं । इसी बात का खुलाशा 'अपरिग्रहाः ' इस पद से सूत्रकारने किया है । जो मूर्छाभाव से ग्रहण किया जाता है उसका नाम परिग्रह है । यह परिग्रह जिनके विद्यमान नहीं है-वे अपरिग्रह है । दण्डी शाक्यादिक अथवा अवसन्न पासत्थादिक 'हम निर्ग्रन्थ हैं अथवा आगे चलकर निर्ग्रन्थ हो जायेंगे' इस अभिप्राय से साधुवेष को और चारित्र को ग्रहण कर उसकी आड से अपनी वैषयिक वासना की तृप्ति करते हैं । इनकी इस प्रकार की बाह्य प्रवृत्ति देखकर लोग धार्मिक भावना से उनकी हर एक प्रकार से सेवा करते हैं, जिस वस्तु की उन्हें आवश्यकता होती है उसकी पूर्ति करते रहते हैं । इस साधुपने के बहाने से उन्हें जो कुछ भी मिलता है सिर्फ वे उससे अपनी वैषयिक वासना की ही पूर्ति करते रहते हैं वास्तविक सर्वसावद्य विरति रूप चारित्र का आचरण उनसे दूर ही रहता है । इसी बात की पुष्टि 'समुत्थाय लब्धात् कामान् अभिगाहन्ते ' इस पङ्क्ति से सूत्रकार ने की है । सर्वसावद्य - विरतिरूप चारित्र को प्राप्त
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सासो 'अपरिग्रहा. ' आ पहथी सूत्रारे यो छे ? भूर्छालावधी अणुरे છે તેનુ નામ પરિગ્રહ છે આ પરિગ્રહ જેને વિદ્યમાન નથી તે અપરિગ્રહ છે ન'ડી શાકયાકિ અને અવસન્ન પાસસ્થાકિ ‘ અમે નિગ્રન્થ છીએ ’ · અથવા આગળ ચાલીને નિગ્રન્થ થઈ જશું ' આ અભિપ્રાયથી સાધુવેષ અને ચારિત્રને ગ્રહણ કરી તેની આડથી પાતાની વૈયિક વાસનાની તૃપ્તિ કરી લે છે. તેની આ પ્રકારે માહ્ય પ્રવૃત્તિ દેખીને લેાક ધાર્મિક ભાવનાથી તેની દરેક પ્રકારથી સેવા કરે છે. જે વસ્તુની તેને આવશ્યકતા હાય તેની પૂર્તિ કરતા રહે છે, આ સાધુપણાના બહાનાથી જે કઈ પણ મળે છે ફક્ત તેનાથી પેાતાની વૈયિક વાસનાની જ પૂર્તિ કરે છે વાસ્તવિક સર્વસાવદ્યવિરતિરૂપ ચારિત્રનું આચરણ તેનાથી દૂર જ રહે छे. या वातनी पुष्टि 'समुत्थाय लब्धान् कामान् अभिगाहन्ते આ પંક્તિથી રે કહ્યુ` છે. સર્વાંસાવદ્યવિરતિરૂપ ચારિત્રને પ્રાપ્ત કરવાને માટે ખાદ્ય અને
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अध्य० २. उ. २ करने के लिये बाध और आभ्यन्तर कारणों की जरूरत होती है। बाह्य कारण से इतना काम नहीं बनता जितना अन्तरंग से। चारित्र को अंगीकार करने में यद्यपि उपादान कारण आत्मा है परन्तु इन दो बाला आभ्यन्तर कारणों से उपादान में वह शक्ति आजाती है कि जिससे उसे अपने लिये हुए संयम में रति एवं संसार-शरीर और भोगों में अरति स्वतः आजाती है। प्रकृत में यहाँ चारित्रमोहनीय का उपशमादिक अन्तरंग कारण है और पंचेन्द्रियों के विषयों से सर्वथा चिरतिभाव की जागृति बाह्य कारण है। जैसे अग्नि और धूम की (परस्पर अनियति) विषम व्याप्ति है उस प्रकार सम्यक् चारित्र के साथ अन्तरंग कारण चारित्र मोहनीय के उपशम की विषम व्याप्ति नहीं है-अर्थात् परस्पर समनियत हैं, जहां पर चारित्रमोहनीय का उपशमादि है वहां पर नियम से सम्यक् चारित्र है और जहां पर सम्यक् चारित्र है वहां पर नियम से चारित्र मोहनीय का उपशमादि है। इस प्रकार सम्यक चारित्र और चारित्र मोहनीय के उपशमादिकों की समव्याप्ति (परस्पर लियति) है। परन्तु अन्तरंग में चारित्र मोहनीय के उपशमादिक के अभाव में जो बाथ में सर्व-सावद्यविरति रूप चारित्र की सत्ता मालूम पड़ती है-वह
આભ્યન્તર કારણોની જરૂરત હોય છે. બાહા કારણોથી આટલું કામ નથી બનતું જેટલું અત્તરંગથી. ચારિત્રના અંગીકાર કરવામાં યદ્યપિ ઉપાદાન કારણ આત્મા છે પરંતુ આ બે–બાહ્ય, આભ્યન્તર-કારણથી ઉપાદાનમાં તે શક્તિ આવી જાય છે કે જેનાથી તેને પિતાને માટે સંયમમાં રતિ અને સંસાર શરીર અને ભેગમાં અરતિ આપમેળે આવે છે. પ્રકૃતિમાં અહીંઆ ચારિત્રહનીયને ઉપશમાદિક અંતરંગ કારણ છે, અને પાંચે ઈન્દ્રિયના વિષયોથી સર્વથા વિરતિભાવની જાગૃતિ બાહ્ય કારણ છે, જેમાં અગ્નિ અને ધૂમની (પરસ્પર અનિયતિ) વિષમ વ્યાપ્તિ છે તે પ્રકારે સમ્યકૂચારિત્રની સાથે અંતરંગ કારણે ચારિત્રમોહનીયના ઉપમની વિષમ વ્યાપ્તિ નથી. અર્થાત પરસ્પર સમનિયત છે. જ્યાં ચારિત્રમેહનીયન ઉપશમાદિ છે ત્યાં નિયમથી સમ્યકૂચારિત્ર છે. અને જ્યાં સમ્યકૂચરિત્ર છે ત્યાં નિયમથી ચારિત્રમેહનીયને ઉપશમાદિ છે. આ પ્રકારે સચ્ચારિત્ર અને ચારિત્રમોહનીયના ઉપશમાદિકોની સમ વ્યાપ્તિ (પરસ્પર નિયતિ છે) પરંતુ અન્તરંગમાં ચારિત્ર મેહનીયના ઉપશમાદિકના અભાવમાં જે બાહ્યમાં સર્વસાવદ્ય વિરતિરૂપ ચારિત્રની સત્તા માલમ પડે છે તે કેવળ એક ઢગ છે. તે ઢગ ઉલ્ટ
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आचाराङ्गसूत्रे केवल एक ढोंग है। वह ढोंग उल्टा जीव को कर्मबन्ध का कारण होता है। ऐसे व्यक्ति चारित्र का ढोंग रच कर उसकी आड में अपने विषयकषायों की ही पुष्टि किया करते हैं । यद्यपि सूत्र में 'अपरिग्रह' इस शब्द से केवल पांचवें महाव्रत का ही ग्रहण बतलाया है परन्तु अवशिष्ट चार महाव्रतोंका भी इसी एक पद से ग्रहण हो जाता है।
इसी प्रकार जो वास्तविक रूप से अपरिग्रही नहीं हैं किन्तु परिग्रहत्याग का ढोंग रचते हैं, उसीसे यह भी समझ लेना चाहिये कि जो वास्तविक रूपसे अहिंसादिमहाव्रतधारी नहीं हैं, किन्तु अहिंसामहाव्रती आदि होने का ढोंग करते हैं, वे केवल लोकों की प्रतारणा करने के लिए ही अपनी ऐसी प्रवृत्ति करते हैं। द्रव्यलिङ्गी साधुओं की प्रवृत्ति इसी ढंग की ही होती है। इनके आत्मा में उस समकितज्योति का बिलकुल ही प्रकाश नहीं होता है कि जिसके सद्भाव से महावतों में सम्यक्पना आता है। इनके उपर के महावत हैं। जिस प्रकार नट अनेक वेषों को धारण करता हुआ भी अन्तरग में उन २ वेषोंके परिणामों से सर्वथा शून्य रहता है उसी प्रकार ये द्रव्यलिङ्गी भी बाह्य में महाव्रती होनेका केवल एक ढोंग ही किया करते हैं उससे उनकी आत्म। જીવને કર્મબંધનું કારણ થાય છે, એવી વ્યક્તિ ચારિત્રને ઢોંગ રચીને તેની माम पोताना विषय पायोनी पुष्टि ४२ छ, यद्यपि सूत्रमा 'अपरिग्रह' આ શબ્દથી કેવળ પાચમા મહાવ્રતનું જ ગ્રહણ બતાવ્યું છે પરંતુ અવશિષ્ટ ચાર મહાવ્રતનું પણ એમ એક પદથી ગ્રહણ થાય છે.
આ પ્રકારે જે વાસ્તવિક રૂપથી અપરિગ્રહી નથી પણ પરિગ્રહત્યાગને ઢગ રચે છે. તેનાથી એ પણ સમજી લેવું જોઈએ કે જે વાસ્તવિક રૂપથી અહિંસાદિ મહાવ્રતધારી નથી પણ અહિંસા-મહાવ્રતી આદિ હોવાને ટૅગ કરે છે તેઓ કેવળ લેકેની પ્રસારણ કરવા માટે જ પિતાની એવી પ્રવૃત્તિ કરે છે. વ્યલિંગી સાધુઓની પ્રવૃત્તિ આ ઢબની હોય છે. તેના આત્મામા સમકિત
તિને બિલકુલ જ પ્રકાશ નથી હોતો કે જેના સદુભાવથી મહાવતેમાં સમ્યકુપણુ આવે. તેના ઉપરના મહાવતે છે જે પ્રકારે નટ અનેક વેષને ધારણ કરે છે પણ અંતરંગમા તે તે તેના પરિણામેથી સર્વથા શૂન્ય રહે છે, તે પ્રકારે એ દ્રવ્યલિંગી પણ બાહ્યથી મહાવતી હોવાને કેવળ એક ઢગ જ કરે છે, જેનાથી તેને આત્મા બિલકુલ રજિત થતું નથી, ભલે તેની પ્રવૃત્તિથી બાહ્ય જન અજિત થાય, પરંતુ તેને આત્મા સ્વતઃ તદનુકૂળ પ્રવૃત્તિથી શૂન્ય હોવાથી બિલકુલ
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अध्य० २. उ. २
१४३ तदित्थं द्रव्यलिङ्गिनो नटा इव ते हिंसामृषाऽदत्तादानादिना लोकान् वञ्चयन्ति। ते पुनस्तल्लाभाय प्रवृत्ता भवन्तीत्याह-'अनाज्ञये'-ति। ___ अनाज्ञया भगवदाज्ञाबहिर्भूतया स्वच्छन्दमत्या मुनयः मुनिवेषधारिणः, शब्दादिकामोपाये प्रत्युपेक्षन्ते प्रवर्तन्ते कामभोगविनिविष्टचित्ता भवन्तीत्यर्थः । अत्र अस्मिन् कामभोगासक्तिरूपे मोहे, द्रव्यमोहे-मद्यादौ, भावमोहे संसारेऽज्ञाने बिलकुल ही रंजित नहीं होती है। भले ही इनकी प्रवृत्ति से बाह्य जन रंजित नहीं होती है, भले ही इनकी प्रवृत्ति से बाहाजन रंजित हो जावें, परन्तु इनका आत्मा स्वतः तदनुकूल-प्रवृत्ति से शुन्य होने से बिलकुल भी रंजित नहीं हो पाता है; हिंसा, झूठ, चोरी आदि आत्रवों में ही इनका अन्तरङ्ग लालसायुक्त बना रहता है। इसीले ये लोकों को ठगते रहते हैं । ऐसी प्रवृत्ति इनकी क्यों होती है? इस का कारण बताते हुए सूत्रकार कहते हैं कि-'अनाज्ञया मुनयः प्रत्युपेक्षन्ते' महात्रतों को धारण करने का ढोंग ये लोग इसी लिये करते हैं कि ये भगवदाज्ञा से बहिर्भूत हैं । भगवान की आज्ञा-ग्रहण किये हुए महावतों को अन्तरङ्ग की सची लगन के साथ पालने की है। पांच आत्रवों का नवकोटि से त्याग किये विना उनका शुद्ध पालन नहीं हो सकता है। जो इस प्रकार की आज्ञा से बहिर्भूत हैं और “जो हम कहते हैं वह सत्य एवं शुद्ध है" इस प्रकार की स्वच्छन्द्र प्रवृत्तिशाली हैं वे मुनि वेषधारी साधु शब्दादिक पांच इन्द्रियों के विषयों में प्रवृत्त रहते हैं। “ अत्र मोहे पुनः पुनः संज्ञा नो हव्याय नो पाराय" मोह दो प्रकार का है-एक द्रव्यमोह પણ રંજિત થતો નથી. હિસા, જઠ, ચેરી, આદિ આશ્રમાં જ તેની અંતરંગ લાલસા બની રહે છે જેથી તે લેકેને ઠગતા રહે છે. એવી પ્રવૃત્તિ તેની કેમ થાય છે તેનું કારણ બતાવતાં સૂત્રકાર કહે છે કે –
__'अनाशया मुनयः प्रत्युपेक्षन्ते ' मानताने धा२६४ ४२वाना in ते ४ એ માટે કરે છે કે–તેઓ ભગવદુઆજ્ઞાથી બહિર્ભત છે. ભગવાનની આજ્ઞા બહણ કરેલા મહાવતેને અંતરંગની સાચી લાગણીથી પાળવાની છે. પાંચ આશ્રવિના નવ કેટિથી ત્યાગ કર્યા વિના તેનું પાલન થતું નથી. જે આ પ્રકારની આજ્ઞાથી બહિર્ભત છે અને “જે અમે કહીએ છીએ તે સત્ય અને શુદ્ધ છે” આ પ્રકારની સ્વછંદ પ્રવૃત્તિશાલી છે તે સુનિવેષધારી સાધુ શબ્દાદિક પાંચ घान्द्रयान विषयोमा प्रवृत्त रहेछ. 'अत्र मोहे पुन पुन. सन्ना नो हव्याय नो पाराय' મેહ બે પ્રકારનો છે–એક દ્રવ્યમેહ અને બીજો ભાવમોહ, મદ્યાદિક દ્રવ્યહ
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आचारागसूत्रे
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च पुनः पुनः अत्यन्तं मुहुर्वा सन्नाः विषयाभिलाषिणो मूढा निमग्नाः सन्तो नो हव्याय, हव्यं गार्हस्थ्यं प्रकामकामभोगित्वं तस्मै, पारः संयमस्तस्मै तदर्थं न भवति, नैतल्लोकाय न परलोकाय च, न ते गृहस्था नापि मुनयो, यथा मध्येनदिनिमग्नास्ते न कथमपि पारं गन्तुं शक्नुवन्ति, अपि तु निमज्जन्त्येव, तथैव ते भवन्तीत्यर्थः, ये परिधृतसाधुवेवाः कामोपायेषु सज्जन्ते ते न गृहस्था नापि मुनयो वा भवितुमर्हन्तीति तात्पर्यम् । अदृढचित्तानां मुनिवेषधारिणां पूर्व हिरण्य-सुवर्ण-धन-धान्य-गृह-गृहिणी --पुत्र-मित्रादेः परित्यक्ततया न गृहस्थत्वं, चारित्रस्य सम्यगपरिपालनेन वान्ताभिलाषितया नाप्यनगारखमुपपद्यत इति भावः ॥ सू० २॥
और दूसरा भावमोह । मद्यादिक द्रव्यमोह है, संसार एवं अज्ञान भावमोह है । कामभोगों में आसक्तिका नाम मोह है। इन भोगों की आसक्तिमें जीव की प्रवृत्ति अज्ञान से होती है। कामभोगों की प्रवृत्ति को उत्तेजना सद्यादिक के सेवन से जीवों को मिलती है। इसलिये उन्हें द्रव्यमोह कहा है। विषयाभिलाषी मूढ जीव इस मोह में अत्यन्त अथवा वारंवार प्रवृत्ति करते हुए न तो यथेच्छ कामभोगादि भोग सकते है
और न संयम ही पाल सकते हैं। जैसे नदी की मझधार में निमग्न हुआ प्राणी न इस पारका रहता है और न उस पार का रहता है, उसी प्रकार ऐसे प्राणी न इस लोक के रहते है और न उस लोक के ही रहते हैंन वे सच्चे गृहस्थ ही बन पाते हैं और न सच्चे मुनि ही। नदी की मझधार में निमग्न प्राणी जिस प्रकार मझधार में ही डूब जाता है, उसी तरह से ये प्राणी भी साधुवेष छोड़कर विषयों में लवलीन बन बीच છે, સસાર અને અજ્ઞાન ભાવહ છે. કામગોમાં આસક્તિ તેનું નામ મેહ છે, તે ભેગની આશક્તિમાં જીવની પ્રવૃત્તિ અજ્ઞાનથી થાય છે. કામગોની પ્રવૃત્તિને ઉત્તેજના મદ્યાદિકના સેવનથી જીવેને મળે છે, માટે તેને દ્રવ્યમેહ કહ્યો છે, વિષયાભિલાષી મૂઢ જીવ આ મેહમાં અત્યંત અને વારંવાર પ્રવૃત્તિ કરવા છતાં પણ નથી યથેચ્છ કામોગાદિ ભેગવી શકતા, અને નથી સંયમનું પાલન કરી શકતા જેમ નદીની મઝધારમાં નિમગ્ન થયેલ પ્રાણી નથી આ પાર જઈ શકતું કે નથી તે પાર જઈ શકતું. એ પ્રકારે આવા પ્રાણું,નથી આ લેકના રહેતા અગર નથી પરલેકના રહેતા નથી તેઓ સાચા ગૃહસ્થી બની શકતા, અને નહિ સાચા મુનિ નદીની મઝધારમા નિમગ્ન પ્રાણી જેમ મઝધારમાં જ ડુબી જાય છે તે પ્રકારે આ પ્રાણી પણ સાધુવેષ છોડીને વિષમાં લવલીન
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अध्य० २. उ. २
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ये
रतिं शब्दादिविषये चारतिं विदधानास्ते कीदृशा भवन्तीति दर्शयति' विमुत्ता' इत्यादि ।
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मूलम् - विमुत्ता हु ते जणा जे जणा पारगामिणो, लोभमलोभेन दुर्गुछमाणे लदे कामे नाभिगाहइ, विणावि लोभं निक्खस्स एस अकम्मे जाणइ पासइ, पडिलेहाए नावकखइ, एस अणगारि-त्ति पच्चइ ॥ सू० ३ ॥
छाया- -विमुक्ता हु ते जना ये जनाः पारगामिनः, लोभमलोभेन जुगुप्समानो लब्धान् कामान्नाभिगाहते, विनापि लोभं निष्क्रम्य एषः अकर्मा जानाति पश्यति प्रत्युपेक्ष्य नावकाङ्क्षति एषः अनगार इति प्रोच्यते ।। ० ३ ॥
टीका- 'विमुक्ता' इत्यादि, 'पारगामिनः ' पारो मुक्तिस्तद्धेतुर्ज्ञानदर्शनचारित्राण्यपि पारः कार्यकारणयोरभेदात्, तेन पारं मोक्षं तद्धेतुश्च ज्ञानादिकं गन्तुंमाप्तुं ही में लटकते रहते हैं, न वे साधु ही हैं और न गृहस्थ ही । संयम पालन करने में जिनके चित्त में दृढ़ता तो है नहीं, परन्तु मुनि का वेष धारण कर लिया है, हिरण्य - सुवर्ण, धन-धान्य, गृह - गृहिणी पुत्र - मित्रादिक का मुनव्रत धारण करने के पहिले त्याग भी कर दिया है अतः गार्हस्थिक जीवन के लिये उपयोगी वस्तु का उनके पास सद्भाव न होने से न उनमें गृहस्थता है, और चारित्र का सम्यक् रीति से पालन नहीं करने की वजह से मुनिपना ही है | सू० ॥ २ ॥
जो संयम में रति एवं शब्दादि विषयों में अरति करते हैं, वे कैसे होते हैं ? इस बात का खुलाशा करते हैं
(
विमुत्ता हु ते जणा' इत्यादि । कार्यकारण में अभेद-विवक्षा होने से બની વચમાં જ લટકતા રહે છે. નથી તે સાધુ છે અગર નથી તે ગૃહસ્થી. સંયમ પાળવામાં જેના ચિત્તમાં દ્રઢતા છે જ નહિ, પરંતુ મુનિનો વેષ ધારણ पुरी सीधा छे. डिश्एय-सुवर्णं धन-धान्य, गृड - गृहिणी पुत्र- भित्राहिनो भुनिव्रत ધારણુ કરવા પહેલાં જ ત્યાગ કરેલ છે માટે ગૃહસ્થી જીવન માટે ઉપયોગી વસ્તુનો સદ્ભાવ ન હેાવાથી નથી તેનામાં ગૃહસ્થીપણું અને આ ચારિત્રને સમ્યક્ રીતિથી પાલન નહિ કરવાથી મુનિપણું પણ નથી u સૂ૦૨ u
જે સંયમમાં રતિ અને શબ્દાદિ વિષયામાં અતિ કરે છે તે કેવા હાય छे? तेनो खुलासा १३ छे.
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विमुत्ता हु ते जणा' त्याहि--अर्य अरमां अलेहविवक्षा होवाथी यार
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आचारागसूत्रे शीलं येषां ते पारगामिनो ये जना मुमुक्षवस्ते विमुक्ता विविधभावनया द्रव्यतो वित्तपरिवारसंसर्गेण, भावतो विषयकषायादितः प्रतिसमयं मुच्यमाना मोक्ष्यमाणा वा विमुक्ताः हु-निश्चयेन भवन्तीति सम्बन्धः। विमुक्ताः कुतस्ते भवन्तीत्याह'लोम'-मिति ‘लोभः' लोभमोहनीयोदयेन परवस्तुग्रहणेच्छा, तम् अलोभेन= पार शब्द का अर्थ मुक्ति तथा-मुक्ति के कारणभूत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है। इस पार को प्राप्त करने का जिनका स्वभाव है वे पारगामी कहे जाते हैं। जो मुमुक्षु हैं वे अनेक प्रकार की सांसारिक भावनाओं से रहित होते हैं । 'विमुक्त' इस पद में 'वि' उपसर्ग और 'मुक्त' ऐसे दो शब्द हैं। 'वि' का अर्थ अनेक प्रकार की भावना है । 'मुक्त' शब्द का अर्थ द्रव्य और भाव से रहित होना है 'हु' शब्द का अर्थ निश्चय है। अर्थात् जिनको मुक्ति प्राप्त करने की इच्छा होती है ऐसे प्राणी नियमतः द्रव्य से-धनादिक एवं परिवार के संसर्ग से तथा भावसे-विषयकषायादिकों से प्रतिसमय रहित होते हैं।
लोभमोहनीय के उदय से परवस्तु के ग्रहण करने की इच्छा का नाम लोभ है। इससे विपरीत अलोम है। 'जुगुप्समान' शब्द का अर्थ जीतने वाला, या निग्रह करने वाला है। विमुक्त होने में यह हेतुगर्भित विशेषण है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि वे विमुक्त इसलिये हैं कि उन्होंने लोभ को संतोष से निगृहीत कर दिया है। શબ્દનો અર્થ મુક્તિ અને મુક્તિના કારણભૂત સમ્યગ્દર્શન, સમ્યજ્ઞાન અને સમ્ય ચારિત્ર છે આ પારને પ્રાપ્ત કરવાને જેને સ્વભાવ છે તે પારગામી કહેવાય છે.
જે મુમુક્ષુ છે તે અનેક પ્રકારની સાંસારિક ભાવનાઓથી રહિત હોય છે. विमुक्त' मा ५४मा ‘वि 'नो अर्थ मने प्रारनी भावना छ. 'मुक्त' शहन। અર્થ દ્રવ્ય અને ભાવથી રહિત થવું “દુ શબ્દને અર્થ નિશ્ચય છે. અર્થાત્ જેને મુક્તિ પ્રાપ્ત કરવાની ઈચ્છા થાય છે એ પ્રાણી નિયમત દ્રવ્યથી–ધનાદિક અને પરિવારના સંસર્ગથી, તથા ભાવથી–વિષયકષાયાદિકોથી પ્રતિસમય રહિત થાય છે.
લોભમેહનીયના ઉદયથી પરવસ્તુને ગ્રહણ કરવાની ઈચ્છા તેનું નામ લોભ छ तथा विपरीत सोम छ. 'जुगुप्समान' शन्नो अर्थ छतावासा मने નિગ્રહ કરવાવાળા છે. વિમુક્ત હવામાં તે હેતગર્ભિત વિશેષણ છે તેથી એ નિષ્કર્ષ નીકળે છે કે તે વિમુક્ત એટલા માટે છે કે તેઓએ લોભને સંતોષથી નિગૃહીત अरे छे
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तद्विरुद्धेन सन्तोषेण जुगुप्समानः = निन्दन्, सूत्रेऽस्मिन् पूर्वं बहुवचनप्रसङ्गेऽत्रा - ग्रेऽपि सर्वत्रैकवचनं तु जात्येकत्वविवक्षया समर्थनीयम् । लोभो हि संसारगर्तपातने प्रथमो गण्यते । लोभस्तु जीवस्य विमोहनमाकुलीकरणमिति यावत्, लुब्धो
सूत्र में पहिले बहुवचन का प्रयोग किया है, बाद में जो सर्वत्र एक वचन का प्रयोग हुआ है वह जाति की अपेक्षा से समझना चाहिये ।
परवस्तु को अपनाने की इच्छा लोभमोहनीय के उदय से जीवों को होती है । लोभ दो प्रकार का है - एक बादरलोभ, दूसरा सूक्ष्मलोभ । बादरलोभ का सद्भाव आगम में ९वें गुणस्थान तक, तथा सूक्ष्मलोभ का सद्भाव १०वें गुणस्थान तक प्रकट किया है । इसलिये जबतक आगे २ के गुणस्थानों की प्राप्ति नहीं हुई है तब तक ऐसे जीवों को लोभ का उदय रहता ही है, अतः जब लोभ का उदय है तो उसका कार्य भी वहां होना चाहिये ? इस शंका का निराकरण करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि- 'लोभम् अलोभेन जुगुप्समानः ' वे जीव लोभकषाय को संतोष से जीतते हैं । मुमुक्षु जीव परवस्तु के लाभ से आकृष्ट एवं अलाभ से असंतुष्ट नहीं होते ।
लोभ का निराकरण करते हुए टीकाकार कहते हैं कि-जीवों को संसाररूपी गड्ढे में गिराने का सर्वप्रथम कारण लोभ माना गया है जो जीवों को आकुलितपरिणामी बना देता है। लुब्धक रात-दिन व्याकुल ही
સૂત્રમાં પહેલાં બહુવચનના પ્રયોગ કરેલ છે બાદમાં જે સત્ર એક વચનનો પ્રયોગ થયેલ છે તે જાતિની અપેક્ષાથી સમજવુ જોઈ એ.
પરવસ્તુને અપનાવવાની ઇચ્છા લાભમોહનીયના ઉદ્દયથી થાય છે. લાભ मे अारना छे. खेड माहरसोल, जीने सूक्ष्मसाल.
બાદરલાભના સદ્ભાવ આગમમાં મા ગુણસ્થાન સુધી, તથા સૂક્ષ્મલાભના સદ્ભાવ ૧૦માં ગુણસ્થાન સુધી પ્રગટ કરેલ છે, માટે જ્યાંસુધી આગળ આગળના ગુણસ્થાનોની પ્રાપ્તિ નથી થઇ ત્યાં સુધી એવા જીવાને લાભના ઉદ્દય રહે જ છે, માટે જ્યારે લોભના ઉય છે તે તેનું કાર્ય પણ ત્યાં હોવુ જોઈએ ? આ शंअनुं निराम्रणु ४श्ता सूत्रअर उहे छे -' लोभम् अलोभेन जुगुप्समानः તે જીવ લાભકષાયને સતાષથી જીતે છે. મુમુક્ષુ જીવ પરવસ્તુના લાભથી આકૃષ્ટ અને અલાભથી અસંતુષ્ટ થતાં નથી.
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લાભનું' નિરાકરણ કરતાથકા ટીકાકાર કહે છે કે–જીવાને સસારરૂપી ખાડામાં પડવાનું' સર્વ પ્રથમ કારણ લાભ જ છે. લાભ જીવાને આકુલિતપરિણામી બનાવી
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आचारागसूत्रे हि रात्रिन्दिवं समाकुल एवावतिष्ठते, 'कदा कुतः कथं कुत्र धनादिकं लप्स्ये' इत्याशाग्रस्तो दुर्लच पर्वतमपि लिलयिषति, अपारपारावारमपितितीति, दुर्गमगिरिकुन्जेषु वंभ्रमीति, निजवान्धवनिकरमपि मिमारयिषति, दुर्गममपि जिगमिपति, बहु भारं वावहीति, दुःसहां क्षुधमपि सोडुमिच्छति, पापं चिकीर्षति, कुलशीलजातिधैर्याणि च परिजिहासति, किमधिकेन ? अज्ञानान्धकाराहतायां लोभरात्रौ प्राणातिपातादिदोपतस्करैरात्मधनं लुण्ठयति, चित्तमहारण्ये मोहान्धकारे लोभपिशाचं नर्त्तयति। लोभाकुलितचेता हि जले जीर्णपत्रमिव, वायौ लघुतृणमिव, गगने शरन्मेघ इवेतस्ततः संसारे परिभ्रमति । लोभिनो जनस्य सकलोऽपि गुणो दोषायते । लुब्धो हि सर्वापदास्पदं भवति, उक्तञ्चबना रहता है। वह 'किस समय कहां से कैसे धनादिक का अर्जन करूँगा' इस आशा से प्रेरित हो दुर्लघ्य पर्वतादिकों को भी पार करने की इच्छा रखता है, अपार समुद्र को भी तैरने की भावना रखता है, दुर्गम-पहाड़ी झाड़ियों में भी भ्रमण करने की कामना करता है, अपने बांधवों को भी मारने का मनोरथ करता रहता है, जहां कोई नहीं जा सकता ऐसे भयंकर स्थान में भी जाने की चाहना करता है, बहुत भारी बोझ को भी होता है, दुःसह क्षुधा को भी सहन कर लेता है, पाप करने के लिये भी उतारू हो जाता है, अपने कुल, शील, जाति और धैर्य को मौका पड़ने पर छोड़ने के लिये कटिबद्ध हो जाता है। अधिक क्या कहा जाय? अज्ञान रूपी अन्धकार से अच्छादित इस लोभरूपी महारात्रि में यह जीव आत्मधन को प्राणातिपातादिकपापरूपी चोरों से सदा चुराता रहता है। દે છે. લુબ્ધક ગત દિવસ વ્યાકુળ જ બની રહે છે, “કયા વખતે ક્યારે કેવી રીતે ધનાદિકનુ અર્જન કરૂ” આવી આશાથી પ્રેરિત થઈ ઓળંગી ન શકાય તેવા પર્વતોને પણ પાર કરવાની ઈચ્છા કરે છે, અપાર સમુદ્રને તરવાની પણ ભાવના રાખે છે, દુર્ગમ–પહાડી ઝાડીઓમાં પણ ભ્રમણ કરવાની ઈચ્છા રાખે છે, પિતાના ભાઈઓને પણ મારવાના મનોરથ સેવે છે, જ્યા કેઈ જઈ શકતું નથી તેવા ભયંકર સ્થાનમાં જવાની પણ હિંમત કરે છે, ઘણા ભારે બોજા પણ ઉઠાવે છે, દુસહ ભૂખને પણ સહન કરી લે છે, પાપ કરવાને માટે પણ તૈયાર થઈ જાય છે, પિતાનું કુળ, શીલ, જાતિ અને ધૈર્યને પણ વખત મળતા છોડવાને તૈયાર થઈ જાય છે. અધિક કેટલું કહેવું – અજ્ઞાનરૂપી અંધકારથી આચ્છાદિત આ ભરૂપી મહારાત્રિમાં આ જીવ આત્મજનને પ્રાણાતિપાતાદિકપાપરૂપી ચેરેથી
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आचारागसूत्रे ___ पुरुषस्यायुर्विशुदिव क्षणभङ्गुरं, तैलरहितो दीपो यथा स्वल्पेनैव कालेन नाशमेति तथाऽऽयुरपि तत्तद्भवसम्बन्धिभोग्यकाभावे स्वल्पेनैव कालेन समाप्तिमुपगच्छति । आयुर्हि जलतरङ्गमिव, जलस्थितेन्दुप्रतिविम्वमिव, विधुदिव धर्तुमशक्यं भवतीत्यायुपोऽल्पत्वं मानवानामित्यभिप्रायमेव मनसि निधाय दर्शयति-"इह एकेषां मानवानामल्पमायुष्कम् । अत्रकेपामिति कथनेन संयमरहितानां सावधानुष्ठानेन दीर्घमप्यायुरल्पमिव भवति, तथैव संयमिनां च स्वल्पमप्यायुनिरवद्यानुष्ठानेन दीर्घा
जिस प्रकार तैलसे रहित दीपक थोडे ही समय में वुझ जाता है उसी प्रकार आयुकर्म भी तत्तद्भवसम्बन्धी कर्म पुगलों के अभावसे थोडेसे ही कालमें समाप्त हो जाता है। जिस प्रकार जलकी तरङ्ग और पानीमें प्रतिविम्बित चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब, अथवा बिजली लाख प्रयत्न करने पर भी नहीं स्थिर किये या ठहरायी जा सकती हैं उसी प्रकार तत्तद्भवसम्बन्धी आयुकी समाप्ति होने पर उसे एक क्षण भी फिर नहीं बढाया या ठहराया जा सकता। इसी अभिप्राय को चित्तमें धारण कर सूत्रकारने-"इह एकेषां मानवानाम् अल्पम् आयुष्कम्" यह कहा है। अब इसी बातको स्पष्ट करते हैं
यहां पर कितनेक मनुष्यों का जो आयु अल्प कहा गया है उससे यह समझना चाहिये कि जो मनुष्य रात-दिन सावद्यकार्यों के अनुछानमें ही लवलीन हो रहे हैं-संयमभावसे रहित हैं उन मनुष्यों का दीर्घकालिक आयुकर्म भी उस अनुष्ठानसे अल्प जैसा हो जाता है, तथा संयमी जीवों का अल्प भी आयुकर्म निरवद्य अनुष्ठानसे दीर्घ जैसा हो
T જેવી રીતે તેલ વગરનો દી થડાજ સમયમાં બુઝાઈ જાય છે તે પ્રકારે આયુકમ પણ તભવસબ ધી કર્મપુદ્ગલેના અભાવથી થોડા જ કાળમાં સમાપ્ત થાય છે જેમાં પાણીનું મેજી, અને ચદ્રમાને પાણીમાં પડતો પ્રતિબિમ્સ, અથવા વિજળી લાખ પ્રયત્ન કરવા છતા પણ સ્થિર કરાતી નથી તેવી રીત તત્ત૬ભવસંબંધી આયુની સમાપ્તિ થવાથી તે એક પણ ક્ષણ રેકી અગર વધારી शतुं नथी. २१ मलिप्राय शित्तमा धारण ४ सूत्ररे " इह एकेपां मानवानाम् अल्पम् आयुष्कम् " म अधुं छे. वे २ वातने स्पष्ट ४२ छ
આ જગ્યાએ કેટલાક મનુષ્યની જે આયુ અલ્પ કહેવામાં આવી છે તેથી એમ સમજવાનું છે કે જે મનુષ્ય રાતદિન સાવદ્ય કાર્યોના અનુષ્ઠાનમાં જ રચેલા રહે છે, સંયમભાવથી રહિત છે તેવા મનુષ્યના દીર્ઘકાલિક આયુકર્મ પણ આ અનુષ્ઠાનથી ટુંકા જેવા થઈ જાય છે, તથા સંયમી જીના ટુકા પણ આયુક*
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अभ्य० २. उ. २ " लोभेन बुद्धिश्चलति, लोभो जनयते तृपाम् ।
तृपा? दुःखमामोति, परत्रेह च मानवः ॥१॥" इति । अत्र लोभमलोभेन जुगुप्समानः, इति कथनात् प्रधानान्त्यपरित्यागप्रदर्शनेन 'प्राधान्येन व्यपदेशाः' इति नियमात् क्रोधादीनामपि हेयता प्रदर्शिता । अन्यआपि प्रोक्तम्मोहरूपी अंधकार से युक्त लोभी जीव चित्तरूपी गहन जंगल में लोभरूपी पिशाच को सदा नचाता रहता है। जिस तरह जल में जीर्णपत्र इतस्ततः चक्कर काटा करता है, वायु के झोकों में लघुतण जिस प्रकार उडता रहता है, आकाश में शरत्कालीन मेघमाला जैसे यहां से वहां. वहां से यहां घूमा करती है, उसी प्रकार लोभाकुलितचित्तवाला प्राणी भी संसार में यहां वहां भमता रहता है। लोभी जन के समस्त गुण दोष रूप में ही परिणत हो जाते हैं। जैसे कहा है__ "लोभेन बुद्धिश्चलति, लोभो जनयते तृषाम् ।
__ तृषार्तो दुःखमाप्नोति, परत्रेह च मानवः" ॥१॥
लोभ से बुद्धि चलित हो जाती है, लोभ तुष्णा को पैदा करता है, तृष्णा से पीडित प्राणी इस लोक में और परलोक में दुःखों को पाता है ॥१॥ सूत्र में लोभकषाय को संतोष से निग्रह करने का जो कथन किया गया है वह एक उपलक्षण है, इससे क्रोध, मान, माया का भी હમેશાં લુટાવ રહે છે. મેહરૂપી અંધકારથી યુકત લેભી જીવ ચિત્તરૂપી ગહન જગલમાં લોભરૂપી પિસાચને હમેશાં નચાવતે રહે છે. જેવી રીતે પાણીમાં જીર્ણપાડા અહીંતહીં ચકકર ફર્યા કરે છે, વાયુની લહરેમાં લઘુ તૃણ જેમ ઉડતા રહે છે, આકાશમાં શરતકાલીન મેઘમાલા અહીંથી તહીં અને તહીંથી અહીં જેમ ઘુમ્યા કરે છે તે પ્રકારે લેભાકુલિત ચિત્તવાળા પ્રાણ પણ સંસારમાં આંહી તહીં ભમ્યા કરે છે, લોભી જનના સમસ્ત ગુણ દોષરૂપમાં જ પરિણન याय . म युछे
"लोमेन बुद्धिश्चलति, लोभो जनयते तृपाम् तपातों दुखमाप्नोति, परह च मानवः" ॥ १ ॥
ભથી બુદ્ધિ ચલિત થાય છે. લોભ તૃષ્ણને પેદા કરે છે. તૃપાથી પીડિત પ્રાણુ આ લોકમાં અને પરલોકમાં દુઃખને પામે છે તે ૧ છે
સૂત્રમાં લોભષાયને સંતોષથી નિગ્રહ કરવાનું જે કથન કરવામાં આવ્યું છે તે એક ઉપલક્ષણ છે. તેથી ક્રોધ, માન, માયાનો પણ પિતપોતાનાં પ્રતિપક્ષી
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" त्रिविधं नरकस्येदं, द्वारं नाशनमात्मनः । कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्रयं त्यजेत् " ॥ १ ॥ ' लोभं सन्तोषेण जये ' - दित्याशयेन लोभमलोभेनेत्युक्तम्, लोभादीन् केन केन जयेदित्याह दशवैकालिके—“ उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे ।
मायमज्जवभावेण, लोहं संतोसओ जिणे " ॥ गाथा ३८ ॥
आवाराङ्गसूत्रे
अपने २ प्रतिपक्षी भावों से निग्रह करना समझ लेना चाहिये । क्योंकि लोभ की तरह मुमुक्षुओं के लिये वे क्रोध आदि भी हेय हैं। चार कषायों में अन्तिम कषाय लोभ है । उसके त्याग के उपदेश से क्रोधादि का त्याग करना स्वतः सिद्ध हो जाता है । कहा भी है
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त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः । कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥ इस श्लोक से अन्यत्र भी काम, क्रोध एवं लोभ को नरक का द्वार एवं अपने नाश का कारण बतलाया है ।
शंका - लोभ को जिस तरह से संतोष से जीता जाता है उसी प्रकार क्रोधादिकषायों को जीतने के लिये किन २ भावों की जरूरत
होती है ?
उत्तर - दशवैकालिक सूत्र में इन कषायों को जीतने के लिये इन भावों को प्रकट किया है
ભાવાથી નિગ્રહ કરવાનું સમજી લેવુ જોઈ એ. કારણ કે લોભની માફ્ક મુમુક્ષુએને માટે ક્રોધ માન આદિ પણ હેય છે. ચાર કષાયામાં અતિમ ષાય લોભ છે. તેના ત્યાગના ઉપદેશથી ક્રોધાદિકનો ત્યાગ કરવા સ્વત. સિદ્ધ થઈ જાય છે, उधु पशु छे
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त्रिविधं नरकस्येदं, द्वारं नाशनमात्मनः ।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥ १ ॥
આ શ્લોકથી અન્યત્ર પણ કામ ક્રોધ અને લોભને નરકનું દ્વાર અને પાતાના નાશનુ કારણ બતાવ્યુ છે,
શકા—લોભને જેમ સતાપથી જીતાય છે તેમ ક્રોધાદ્રિ કષાયાને જીતવા કયા કયા ભાવાની જરૂરત હાય છે ?
ઉત્તર—દશવૈકાલિક સૂત્રમા આ કષાયાને જીતવા માટે એ ભાવાને
પ્રગટ કર્યાં છે
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अध्य० २. उ. २
छाया - उपशमेन हन्यात्क्रोध, मानं मार्दवेन जयेत् मायामार्जवभावेन, लोभं सन्तोषतो जयेत् ॥
इति क्रोधादीनां चतुर्णां त्यागोपायः प्रदर्शितः, असन्तोषरोगस्य लोभपरित्याग एवौषधमिति, उक्तञ्च -
" यथाऽऽहारपरित्यागो, ज्वरितस्यौषधं मतम् 1 लोभस्यैवं परित्याग, - स्त्वसन्तोषस्य भेषजम् " ॥ १ ॥
" उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे । मायमज्जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे ॥” उपशम से क्रोध को, मार्दव- नम्रभाव से मानको, आर्जव माया को और संतोष से लोभ को जीतना चाहिये । असन्तोषरूपी रोग का औषध लोभपरित्याग है । कहा भी है
भाव से
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'यथाऽऽहारपरित्यागो - ज्वरितस्यौषधं मतम् । लोभस्यैवं परित्याग, स्त्व सन्तोषस्य भेषजम् ॥ १ ॥ जैसे रोगी के ज्वर को नष्ट करने के लिए आहार का परित्याग दवा का काम करता है उसी तरह से असन्तोष को नष्ट करने के लिए लोभ का परिहार भी उत्तम ओषधि का काम देता है । इस कथन से यह सिद्धान्त भलीभांति पुष्ट हो जाता है कि जो लोभादिकों को उनके प्रतिपक्षी संतोषादिकों के द्वारा नष्ट कर देते हैं वे ही वास्तव में पारगामी हैं । ऐसे व्यक्ति प्राप्त हुए कामभोगों में नहीं फसते । इसी बात की पुष्टि " लव्धान् कामान्
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" उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे ।
मायमज्जवभावेण, लोभं संतोषओ जिणे " ॥
ઉપશમથી ક્રોધને, માવ—નમ્ર ભાવથી માનને, આ વભાવથી માયાને અને સંતાષથી લોભને જીતાય છે. અસાષરૂપી રાગનુ ઓષધ લાભપરિત્યાગ छेउछे
"
“ यथाऽऽहारपरित्यागो - ज्वरितस्यौषधं मतम् ।
लोभस्यैवं परित्याग, - स्त्वसन्तोषस्य भेषजम् " ॥ १ ॥
જેમ રાગીના જ્વરને નષ્ટ કરવા માટે આહારનો પરિત્યાગ દવાનુ કામ કરે છે તે પ્રકારે અસતાને નષ્ટ કરવા માટે લોભનો પરિહાર પણ ઉત્તમ ઔષધીનું કામ આપે છે. આ કથનથી એ સિદ્ધાન્ત ભલીભાંતિ પુષ્ટ થાય છે કે—જે લોભાક્રિકોને તેના પ્રતિપક્ષી સતાષાદિકાના મારફત નષ્ટ કરે છે તે જ વાસ્તવમાં પારગામી છે. એવી વ્યક્તિ પ્રાપ્ત થયેલ કામાગેઝમાં ફસતી नथी, से वातनी पुष्टि 'लग्धान् कामान् नामिगाइते ' में अयुद्देशथी सूत्रारे
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आवाराङ्गसूत्रे
सर्वथा ये लोभादीन् संन्तोषादिना जयन्ति त एव पारगामिनो भवन्तीति तात्पर्यम् । ततः किमित्याह - लब्धान् = समधिगतान् कामान् = कामभोगान् नाभिगाहते न श्रयते, यो हि परित्यक्तलोभादिस्तं कामादयः कदाचिदपि न पराजयन्त इति भावः ।
कोऽपि केनापि हेतुना परिहीनलोभादिः कृतचारित्रग्रहणो भवति, कदाचित्पुनर्लोभोदयस्तस्य चेतसि स्यात्तस्य देयतामदर्शनाय, यश्च सर्वदैव लोभादिरहितः संयमं गृह्णाति स एवानगार इति प्रतिपादनाय चाह - 'विनापी ' - त्यादि, एषः = लोभमलोभेन निन्दन् लोभं=पूर्वोक्तं विनाऽपि = लोभराहित्येनाऽपि निष्क्रम्य = चारित्रं गृहीत्वा अकर्मा=घातिकर्मचतुष्टयापनयनेन प्राप्तकेवलज्ञानकेवलदर्शनो भरतादिकल्पो भूत्वा जानाति = विशेषेणानुभवति, पश्यति सर्वं वस्तुजातं यथार्थरूपेणावलोकते । नाभिगाहते' इस उपदेश से सूत्रकार ने की है। क्योंकि जिसने लोभादिक का परिहार कर दिया है उसे कामभोगादिक कभी भी परास्त नहीं कर सकते ।
कोई व्यक्ति लोभादिकषायों से हीन है, परन्तु किसी वजह से यदि उसने चारित्र ग्रहण कर लिया है तो उक्त व्यक्ति के चित्त में कदाचित् फिर से भी लोभ का उदय हो जाता है, उसकी उस प्रकार की प्रवृत्ति छोड़ने योग्य है, यह दिखाने के लिये, तथा जो सर्वदा लोभ रहित होकर संयम को धारण करता है वही अनगार- साधु है, इस बात का प्रतिपादन करने के लिये आगे सूत्रांश का अवतरण करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि- जो व्यक्ति इस पूर्वोक्त लोभ के विना-अर्थात् लोभ से रहित होकर चरित्र को ग्रहण करते हैं वे चार घातिया कर्मों को नष्ट कर भरतादि जैसे हो - કરી છે, કારણ કે જેણે લોભાદિકનો પરિહાર કરેલ છે તેને કામભેાગાદિક કદી પણ પરાસ્ત કરી શકતા નથી.
કોઇ વ્યક્તિ લાલાદિ કષાયાથી હીન છે, પરંતુ કાઈ કારણથી કદાચ તેણે ચારિત્ર ગ્રહણ કરેલ છે તેા તે વ્યક્તિના ચિત્તમાં કદાચ ફરીથી પણ લોભનો ઉદ્દય થાય છે તેની તે પ્રકારની પ્રવૃત્તિ છોડવાયેાગ્ય છે. આ દેખાવા માટે, અને જે સદા લોભરહિત થઈ સયમને ધારણ કરે છે તે અણુગાર–સાધુ છે, આ વાતનું પ્રતિપાદન કરવા માટે આગળના સૂત્રનું અવતરણ કરીને સૂત્રકાર કહે છે કે—જે વ્યક્તિ આ પૂર્વોક્ત લોભ વિના અર્થાત્ લોભથી રહિત થઈને ચારિત્રને ગ્રહણ કરે છે તે ચાર ધાતિયા કર્મોને નષ્ટ કરી ભરતાદિ જેવા બનીને કેવળજ્ઞાન
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अध्य० २. उ. २
ननुलोभनाशे कुतः कर्माभावो भवितुमर्हतीति चेन्न । लोभनाशान्मोहनीयनाशः, तस्मिंश्च घातिकर्मक्षयः, तस्मिंश्च केवलज्ञानाधिगमः, तेनं च भवोपग्राहि कर्मक्षयः, इत्येवंरूपपरम्परया लोभापगमेन अकर्मेतिविशेषणसार्थक्यात् ।
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कर केवल ज्ञान और केवल दर्शन को पाकर दुनियां के चर अचर समस्त पदार्थों को स्पष्ट रूप से समस्त गुण और समस्त पर्यायों से युक्त जानते हैं और देखते हैं ।
शंका-लोभ के नाश से कर्मों का अभाव कैसे हो सकता है ? उत्तर - ऐसा नहीं कहना चाहिये; क्योंकि लोभ के क्षय से मोहनीय का क्षय होता है, उसके क्षय होने पर शेष घातिया कर्मों का क्षय होता है, घातिया कर्मों के अभाव होते ही केवल ज्ञान की प्राप्ति हो जाती हैं, केवल ज्ञान की प्राप्ति होने से भवोपग्राही अघातिया कर्मों का क्षय हो जाता है । इस प्रकार परम्परा का सम्बन्ध को लेकर लोभ के विनाश से आत्मा अकर्मा हो जाता है, इस विशेषण की सार्थकता सिद्ध हो जाती है। सर्व प्रथम मोहनीय कर्म का क्षय होता है । समस्त कर्मों में मोहनीय कर्म सेनापति है, जिस प्रकार सेनापति के परास्त होने पर सेना अशक्त हो जाती है उसी प्रकार मोहनीय कर्म के क्षय होते ही कर्मों की सेना भी क्षीण हो जाती है। मोहनीय के क्षय से ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय और अन्तराय का क्षय होता है, उस से केवल ज्ञान की प्राप्ति होती है । અને કેવળદ ન પામીને દુનિયાના ચર-અચર સમસ્ત પદાર્થોને સ્પષ્ટ રૂપથી સમસ્ત ગુણ અને સમસ્ત પાઁચેાથી યુક્ત જાણે છે અને દેખે છે.
શકા-લાભના નાશથી કર્મોનો અભાવ કેવી રીતે થઈ શકે ?
ઉત્તર—એમ કહેવું ન જોઇએ, કારણ કે લાભના ક્ષયથી મેહનીયનો ક્ષય થાય છે. તેનો ક્ષય થવા પછી શેષ ઘાતિયા કર્મોનો ક્ષય થાય છે, ઘાતિયા કર્માંનો અભાવ થતાં જ કેવળજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ થાય છે, કેવળજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ થવાથી ભવોપગ્રાહી અધાતિ કર્મોનો ક્ષય થાય છે. આ પકાર પરપરા સંબંધને લઈને લોભના વિનાશથી આત્મા અકમાં બને છે. આ વિશેષણની સાકતા સિદ્ધ થઈ જાય છે. સર્વ પ્રથમ મોહનીય કર્મોનો ક્ષય થાય છે, સમસ્ત કર્મોમાં માહનીય ક સેનૉપતિ છે. જેમ સેનાપતિ પરાસ્ત થવાથી સેના અશક્ત અને છે તે પ્રકારે મોહનીય કર્મોનો ક્ષય થતાં જ કાઁની સેના પણ ક્ષીણ થઈ જાય છે. માહનીચના ક્ષયથી જ્ઞાનાવરણીય દર્શનાવરણીય અને અંતરાયનો ક્ષય થાય છે, તેનાથી કેવળજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ થાય છે,
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आचाराङ्गसूत्रे कर्मनाशानन्तरं किं कुरुते ? इति दर्शयति-'प्रत्युपेक्ष्ये'-ति, प्रत्युपेक्ष्य लोभी निखिलानर्थकरो भवति, 'लोहो सबविणासणो' इतिवचनात् , तं पर्यालोच्य नावकाङ्क्षति-किमपि नेच्छति, यश्चैवंभूतः स एषोऽनगारः यथाख्यातचारित्रवान् मुनिः प्रोच्यते तत्त्वदर्शिभिरिति शेषः ॥ मू० ३॥
यस्तु सत्त्वोपघातिनी क्रियां विदधानः सकर्मा पापमोक्षकामनयाऽऽशंसया वा यद्यत्करोति तत्तदर्शयति-'अहो य' इत्यादि।
मूलम्-अहो य राओपरितप्पमाणे कालाकालसमुठाई संजोगठी अठ्ठालोभी आलंपे सहसकारे विणिविचित्ते एत्थ सत्थे पुणो पुणो, से आयबले, से नाइबले, से मित्तबले, से पिच्चबले, से देवबले,सेरायबले,से चोरबले,सेअतिहिबले, से किविणबले,से समणबले, इच्चेएहिं विरूवरूवेहिं कज्जेहिं दंडसमायाणं संपेहाए भया कजइ, पावमुक्खुत्ति मन्नमाणे, अदुवा आसंसाए॥सू०४॥ ___ छाया—अहश्च रात्रिञ्च परितप्यमानः कालाकालसमुत्थायी संयोगार्थी अर्थालोभी आलम्पः सहसाकारः विनिविष्टचित्तः, अत्र शस्त्रे पुनः पुनः, तदात्मवलं, तज्ज्ञातिवलम् , तन्मित्रवलम् , तत्मेत्यवलम् , तद्देववलम् , तद्राजवलम् , तच्चोरवलम् , तदतिथिवलम् , तत्कृपणवलम् तत् श्रमणवलम् , इत्येतविरूपरूपैः कायदण्डसमादानं सम्प्रेक्ष्य भयात् क्रियते पापमोक्ष इति मन्यमानः अथवा आशंसायै ।। भू० ४ ।।
'लोहो सव्वविणासणो' लोभ समस्त अनर्थों की जड है, इस प्रकार पोलोचन करके वह संयमी किसी भी सांसारिक पदार्थों की इच्छा नहीं करता है । इस प्रकार जिसकी प्रवृत्ति है वही सचा अनगार है-अर्थात् वही तत्त्वदर्शियों द्वारा यथाख्यात-चारित्र-समन्वित मुनि कहा जाता है । सू० ३॥ ___ जो प्राणियों को कष्ट देने वाली या उनके प्राणों को नाश करने वाली क्रियाओं को करता है वह सकर्मा है । वह पापों को दूर करने की
लोहो सव्वविणासणो' टोल समस्त अननी १४ छ. से प्रारे પર્યાયલોચન કરીને તે સયમી કઈ પણ સાંસારિક પદની ઈચ્છા કરતા નથી. એ પ્રકારે જેની પ્રવૃત્તિ છે તે જ સાચો અણગાર છે. અર્થાત તે જ તત્વદશિદ્વારા ચથાપખ્યાતચારિત્રસમન્વિત મુનિ કહેવામાં આવે છે. એ સૂ ૩ છે
જે પ્રાણિઓને કષ્ટ દેવાવાળી અને તેના પ્રાણોનો નાશ કરવાવાળી ક્રિયાઓ કરે છે તે સકર્મા છે. તે પાપને દૂર કરવાની ભાવનાથી અને આશંસા–અલભ્ય
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अध्य० २. उ.२
___टीका-'अहथे' त्यादि, 'अहो य राओ' इत्यारभ्य 'एत्थ सत्थे पुणो पुणो' इत्यन्तस्य व्याख्या प्रथमोदेशे प्रोक्तेति तत एव विज्ञेया। विषयासक्तो रात्रिन्दिवं परितप्तो धनार्थी सत्वोपमर्दने प्रवृत्तो भवतीत्यर्थः, अपि च पुनः किं करोतीत्याह'तत् आत्मवल '-मित्यादि, आत्मनो जीवस्य बलं सामर्थ्यम् आत्मवलं मेऽवश्यं स्यादितीच्छया वहूपायैः स्वतुष्टयर्थं सत्त्वोपघातं करोति, किञ्च-स्वमांसपरिवर्धनाय मांसादिकमप्यश्नाति, तदर्थं पञ्चेन्द्रियादीनपि हन्ति । तत्स्वजनवलं तन्मित्रवलं च मे भविष्यति, येन समापतन्तीमपि विपदं सुखेन तरिष्यामि। प्रेत्यबलं-परलोकबलं कामना से, अथवा आशंसा-अलभ्य वस्तु की लाभ की इच्छा से जो जो क्रियायें करता है उन्हें इस सूत्र में प्रकट करते हुए सूत्रकार कहते हैं
'अहो य राओ' इत्यादि । 'अहो य राओ' यहां से लेकर 'एत्थ सत्थे पुणो पुणो' यहां तक के पदों का व्याख्यान प्रथम उद्देश में लिखा जा चुका है वहीं से जान लेना चाहिये । विषयों में आसक्त धन का इच्छुक प्राणी रात-दिन संतप्तचित्त हो जीवों के उपमर्दन करने में प्रवृत्ति करता रहता है । तथा मुझे आत्मबल प्राप्त हो इस ख्याल से वह अपने सन्तोष के लिये प्राणियों के प्राणों का उपघात करता है। अपना मांस बढ़ाने के लिए मांस खाता है और उसके लिये वह पंचेन्द्रियादिक प्राणियों की हिंसा करता है-'जो मांस मुझे प्राप्त हुआ, जिसे मैं शिकार करके लाया हूं उसे मैं ही अकेला खाऊँ, अपने सगे सम्बन्धियों में तथा मित्रों में भी उसका वितरण करूँ, क्योंकि परस्पर के इस प्रकार के आदान વસ્તુના લાભની ઈચ્છાથી જે જે ક્રિયાઓ કરે છે તેને આ સૂત્રમાં પ્રગટ કરતાં સૂત્રકાર કહે છે –
'अहो य राओ' त्याहि. 'अहो य राओ' मडीयाथी सन 'एत्थ सत्ये पुणो पुणो' मही सुधीना पहोर्नु व्यायान प्रथम उद्देशमा मापवामां मावेस छ ત્યાંથી જાણી લેવું જોઈએ. વિષમાં આસક્ત ધનને ઈચ્છુક પ્રાણી રાત દિવસ સંતસચિત્ત બની જીવોના ઉપમદન કરવામાં પ્રવૃત્તિ કરતા રહે છે. અને “મને આત્મબળ પ્રાપ્ત થાય” એવા ખ્યાલથી તે પિતાના સંતોષ માટે પ્રાણિયેના પ્રાણને ઉપઘાત કરે છે. પિતાનું માંસ વધારવા માટે માંસ ખાય છે અને તેને માટે તે પંચેન્દ્રિયાદિક પ્રાણિઓની હિંસા કરે છે જે માંસ મને પ્રાપ્ત થયું છે, જેને હું શિકાર કરીને લાવ્યો છું તેને હું એક જ ખાઉં. પિતાના સગાસંબંધિઓમાં તથા મિત્રોમાં પણ તેનું વિતરણ કરું, કારણ કે પરસ્પરના આવા પ્રકારના આદાન
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आचारागसूत्रे मे, इत्याशया मेषादिकं हिनस्ति । देववलं मे स्यादित्याशया पचनपाचनादौ प्रवर्तते । राजवलं स्यादितीच्छया राजसेवा क्रियते । चौरवलं चौरभागो भविष्यतीति चौरसमीपे तिष्ठति । अतिथिवलम् , “अतिथिः" न विद्यते तिथिरागमनस्य यस्य सोऽतिथिः, अतिथिसेवया मे वलमिति स्पृहया तं सेवते, तदर्थ सत्त्वोप्रदान से मुझे उनका बल प्राप्त होगा, जिससे कभी मेरे ऊपर यदि कोई आपत्ति आ जायगी तो वे उसमें मुझे मददगार बनेंगे, उनकी प्राप्त सहायता से अथवा सहानुभूति से मैं उस आपत्ति से विना किसी कष्ट के सुरक्षित हो जाऊँगा।'देवों का बल मुझे प्राप्त होगा' इस विचार से वह नैवेद्य आदि के लिये पचन-पाचनादिक आरंभ करता है । 'राजा की कृपा मुझ पर बनी रहे' इस भावना से वह उनकी झूठी खुशामद करता है, सेवा करता है, उसकी प्रत्येक भली बुरी बातों में हां में हां मिलाता है, 'खुशामद में ही आमद है' इस तुच्छ कामना से वह हर एक प्रकार से अपने को कष्ट में डालकर भी उनकी प्रत्येक बात को शिर-माथे-का मुकुट बनाने में भी संकोच नहीं करता। 'मैं यदि चोरों की मदद करूँगा, या उन्हें मदद पहुँचाऊंगा या उनका सहवास करूंगा तो मुझे उनसे लूट के द्रव्य में से हिस्सा भी मिलता रहेगा' इस चाहना से वह चोरों का भी बल प्राप्त करता है। जिसके आने की कोई निश्चित तिथि नहीं है उसका नाम अतिथि है, ऐसे अतिथियों की वह सिर्फ 'इनका आशीપ્રદાનથી મને તેઓનું બળ પ્રાપ્ત થશે, કદાચ મારા ઉપર કેઈ આપત્તિ આવે તે તેઓ મને મદદગાર બનશે, તેમની સહાયતાથી અને સહાનુભૂતિથી હું આવેલી આપત્તિથી કોઈ પણ જાતના કષ્ટ વગર સુરક્ષિત થઈ જઈશ” “દેવેનું બળ મને પ્રાપ્ત થશે. તેથી તે નિવેદ્ય આદિ માટે પચન–પાશનાદિક આરંભ કરે છે. “રાજાની કૃપા મારા ઉપર બની રહે તે ભાવનાથી તે તેની જુઠી ખુશામત કરે છે, સેવા કરે છે, તેની પ્રત્યેક સારી નઠારી વાતોમાં હા મા હા મિલાવે છે.
ખુશામતમાં જ આમદ છે” આવી તુચ્છ કામનાથી તે દરેક પ્રકારથી પિતાને કષ્ટમાં નાખીને પણ તેની પ્રત્યેક વાતને શિરો મુગટ બનાવવામાં સંકોચ કરતા નથી. “હું જે ચેરેને મદદ કરીશ અને તેમને મદદ પહોંચાડીશ અગર તેમને સહવાસ કરીશ તે મને તેમની લુંટના દ્રવ્યમાંથી હિસ્સ–(ભાગ) મળતો રહેશે” આ ભાવનાથી તે ચારેનું પણ બળ પ્રાપ્ત કરે છે. જેની આવવાની કઈ | નિશ્ચિત તિથિ નથી તેનું નામ અતિથિ છે. એવા અતિથિની તે ફક્ત “તેમના
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अध्य० २ उ. २
१५७ पमर्दनं करोति । कृपणवलं स्यादित्यभिलाषेण तं परिचरति । 'श्रमणवलं ' श्रमणः - शाक्यादिस्तस्य बलं स्यादिति वाच्छया तदर्थ पचनादिसावधक्रियामाचरति । अत्रानेकेषां बलप्रदर्शनं यं यं चेतसि स्वाभिमतसाधकतया पश्यति तं तं सम्यगुपचरतीति द्योतनाय बोध्यम् । इत्येतैः-पूर्वोक्तः, विरूपरूपैः बहुविधैः कार्यः दण्डसमादानं, दण्ड्यन्ते हन्यन्ते सत्त्वानि येन स दण्डस्तस्य सर्वत आदानं ग्रहणं दण्डसमादानम् 'अहमिदं नाकरिष्यं तदात्मबलादिकं मे नाभविष्य'-दिति सम्प्रेक्ष्य पर्यालोच्च भयात्-आत्मवलायलाभभयात् सत्योपघातः क्रियते, अनेकानर्थकरं वादरूप बल मुझे मिले' इस विचार से सेवा करता है, उनके निमित्त प्राणियों की हिंसा भी करता है। कृपण की सेवा भी उनके बल को प्राप्त करने की इच्छा से वह करता है । ' शाक्यादि श्रमणों का सहारा मुझे मिले' इस अभिप्राय से वह उनके लिये पचन-पाचनादि करता है। सूत्र में जो इस प्रकार से अनेकों के बल का कथन किया गया है उसका भाव यही है कि वह जिसे अपने इष्ट अर्थ का साधक समझता है उनका बल प्राप्त करने के लिये उनकी भले प्रकार परिचर्या करता है। जिससे प्राणी की हिंसा होती है उसका नाम दण्ड है, इसका वह अनेक प्रकार के कार्यों से सर्वतः आदान-ग्रहण करता है। व्यर्थ के पापारंभ कार्यों में प्रवृत्त होकर वह प्राणियों के प्राणों का अपहरण कर पाप का भारी बोझ अपने माथे रखता है। 'यदि मैं इस काम को नहीं करूंगा तो मुझे पूर्वोक्त आत्मबलादिकों का लाभ नहीं होगा' इस बात का विचार कर उनके આશિર્વાદરૂપ બળ મને મળે એ વિચારથી સેવા કરે છે. તેમના નિમિત્તે પ્રાણિઓની હિંસા પણ કરે છે. કૃપણની સેવા પણ તેનું બળ પ્રાપ્ત કરવાની ઈચ્છાથી કરે છે. “શાયાદિ શ્રમણનો સાથ મને મળે તે માટે તે તેમને માટે પચન–પાચનાદિ કરે છે. સૂત્રમાં જે આ પ્રકારથી અનેક બળનું કથન કરેલ છે તેનો ભાવ એ છે કે તે જેને પિતાના ઈષ્ટ અર્થનો સાધક સમજે છે તેનું બળ પ્રાપ્ત કરવા માટે તેની ભલી પ્રકાર પરિચર્યા કરે છે. જેનાથી પ્રાણીની હિંસા થાય છે તેનું નામ દંડ છે. તેને તે અનેક પ્રકારના કાર્યોથી સર્વતઃ આદાન-ગ્રહણ કરે છે. વ્યર્થના પાપારંભ કાર્યોમાં પ્રવૃત્ત થઈને તે પ્રાણીઓના પ્રાણનું અપહરણ કરી પાપને ભારી બોજ પિતાના માથે રાખે છે. “કદાચ આ કામને નહિ કરું તે મને પૂર્વોક્ત આત્મબલાદિનો લાભ થશે નહિ.” આ વાતનો વિચાર કરી તેના અલાભના ભયથી પ્રાણિઓની હિંસાદિક ક્રિયાઓને–અનેક અનર્થકારી સાવધ વ્યાપારને તે કરે છે. એ આત્મબલાદિક જે આ જીવને આ લોકમાં દંડ
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आवारागसूत्रे सावधव्यापारं करोतीति तात्पर्यम्। एतान्यात्मवलादीनि चैहिकदण्डग्रहणकारणानि। न केवलं तदर्थमेवानथं करोति किन्तु पारलौकिकार्थमपि परमार्थानभिज्ञो दण्डग्रहणं करोतीत्याह- पापमोक्ष' इति, पापमोक्षः-पातयति नरकनिगोदादाविति पापं, तस्मान्मोक्षो मे भविष्यतीति मन्यमानः चेतसि चिन्तयन् , ____ अत्र 'इति'-शब्दो हेतौ, यस्मान्मे पापमोक्षो भवितेति मन्यमानः, इति सम्बन्धः। असौ नानाविधहवनीयद्रव्यैर्जुहोति । तथा पितृतर्पणार्थं दर्भ-तिल-जलादिना समारम्भं करोति च । एवंविधसावग्रव्यापारैर्नानाविधदुर्गतिदायकमनेकजन्मदुर्मोचमधिकमधमेवार्ज़यति। अलाभ के भय से प्राणियों की हिंसादिक क्रियाओं को-अनेक अनर्थकारी सावध व्यापारों को वह करता है। ये आत्मबलादिक जो इस जीव को इस लोक में दण्ड ग्रहण के कारण हैं, केवल उनके निमित्त ही अनर्थों को यह नहीं करता है, किन्तु पारलौकिक कार्यों के लिये भी परमार्थ से अनभिज्ञ बना हुआ यह दण्ड का पात्र बनता है । इसी अभिप्राय को 'पापमोक्षः' इस पद से सूत्रकार प्रकट करते हैं-नरक निगोदादि गतियों को जीव जिसके द्वारा प्राप्त करते हैं उसका नाम पाप है। 'पाप से मेरी मुक्ति हो जायगी, अर्थात् मैं पापरहित हो जाऊँगा' इस धारणा से ओतप्रोत होकर वह नानाविध हवनीय द्रव्य से हवन करता है, अनेक अनर्थविधायक सावद्य कार्यों के करने से दण्ड-प्राणानिपातादि-का अधिकारी होता है, इन कार्यों से पापमुक्त न होकर उल्टे नरकनिगोदादि गतियों में उस जीव का पतन होता है। सूत्र में 'इति' यह शब्द हेतु-अर्थ का बोधक है, जिसका भाव यह है-वह यह समગ્રહણનું કારણ છે, કેવળ તેના નિમિત્ત જ અનર્થોને તે નથી કરતે પણ પારલૌકિક કાર્યો માટે પણ પરમાર્થથી અનભિજ્ઞ બનીને આ દંડનું પાત્ર બને છે. मा अलिप्रायने 'पापमोक्षः' मा ५४थी सूत्रा२ प्रगट ४२ छ-न२४ निगाह ગતિઓને જીવ જેના દ્વારા પ્રાપ્ત કરે છે તેનું નામ પાપ છે. “પાપથી મારી મુક્તિ થઈ જશે, અર્થાત હું પાપરહિત થઈ જઈશ” એ ધારણાથી ઓતપ્રેત થઈને તે નાનાવિધ હવનીય દ્રવ્યથી હવન કરે છે અનેક અનર્થવિધાયક સાવદ્ય કાર્યોને કરવાથી દડ-પ્રાણાતિપાતાદિ–નો અધિકારી થાય છે આવા કાર્યોથી પાપમુક્ત બનતે नयी ५५ न२४ निगाहादि गतियोमा ते वनु पतन थाय छे. सूत्रमा ' इति'
શબ્દ હેતુ અર્થને બોધક છે, જેનો ભાવ એ છે કે તે એમ સમજે છે કે
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अध्य. २. उ. १ युरिव वर्तते, दीर्घकालिकजन्ममरणोच्छेदेनायुषः साफल्यात् । इह-संसारे एकेषां
कतिपयानां मानवानामायुरल्पं भवतीत्यन्वयः । आयुषोऽल्पत्वञ्च क्षुल्लकमवापेक्षयाऽन्तर्मुहूर्तमानं जघन्यम् । च शब्दादधिकं चोत्तरोत्तरसमयादिवृद्धया युगलिकमा श्रित्य पल्योपमत्रयपरिमितं भवति । पल्योपमत्रयायुरपि संयमकालाभावादधिकमप्यल्पमेव ।
अन्तर्मुहूर्तादारभ्य देशोनपूर्वकोटिपरिमितायुपि संयमायुष्कस्याल्पत्वात्तदप्यल्पमेव भवति । जाता है। दीर्घकालिक जन्म-मरण के विनाश से ही तो आयु की सफलता है।
"अल्पं च खलु आयुष्कम् इह एकेषां मानवानाम् ॥ यहां पर "इह एकेषां मानवानाम् आयुः अल्पं भवति" इस प्रकार अन्वय लगाना चाहिए। आयुकी अल्पता क्षुल्लक-सबसे छोट-भवकी अपेक्षासे प्रकट की गई है, क्योंकि मनुष्य और तिर्यञ्चों के आयुकर्मकी स्थिति शास्त्र में दो प्रकारसे वर्णित है-(१) जघन्य और' (२) उत्कृष्ट । जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्तकी है, और उत्कृष्ट उत्तरोत्तर' एकसमयादि की वृद्धिसे लगा कर तीन पल्य की है। यह युगलियों की अपेक्षासे है। भोगभूमि में जीवको संयम की प्राप्ति होनेका अवसर ही नहीं है, इस लिये तीन पल्य परिमित दीर्घ आयु भी अल्प जैसा ही है, अर्थात् उससे जीवका निज कोई भी परमार्थ नहीं सधता, केवल मोगादिकों के उपभोगसे ही वह निष्फल हो जाता है। संयमाराधन से ही काल के નિરવદ્ય અનુષ્ઠાનથી દીર્ઘ જેવા થાય છે. દીર્ધકાલિક જન્મ-મરણના વિનાશથી જ આયુની સફળતા છે.
" अल्पं च खलु आयुष्कम् इह एकेपां मानवानाम्" मडी “ इह एकेषां मानवानाम् आयुः अल्पं भवति"
આ પ્રકારે અન્વય લગાડે જોઈએ. આયુની અલ્પતા ક્ષુલ્લક–બધાથી નાના-ભવની અપેક્ષાથી પ્રકટ કરેલ છે કારણકે મનુષ્ય અને તિર્યંચના આયુभनी स्थिति शास्त्रमा में प्रारे पर्णित छ. (१) धन्य मने. (२) कृष्ट. જધન્ય સ્થિતિ અન્તર્મુહર્તની છે અને ઉત્કૃષ્ટ ઉત્તરોતર એક સમયાદિની વૃદ્ધિથી લગાવી ત્રણ પલ્યની છે, આ યુગલિયાની અપેક્ષાથી છે. ભેગભૂમિમાં જીવને સંયમની પ્રાપ્તિ થવાને અવસર નથી, માટે ત્રણ પલ્યની પરિમિત દીર્ઘ આયુ પણ અલ્પ જેવી છે. અર્થાત્ તેથી જીવને નિજ કઈ પણ પરમાર્થ સધાત નથી, કેવળ ભેગાદિકેના ઉપભેગથી જ તે નિષ્ફળ થાય છે. સંચમારાધનથી જ
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अथवा 'आशंसायै' आशंसा चालभ्यलाभस्पृहा तस्यै तदर्थं दण्डं समारभते । ममैतत् परुत्परारि परलोके वा भविष्यतीत्याशया दण्डं समाददातीति तात्पर्यम्।।५.४॥
एवं कटुकविपाकं दण्डसमादानं सम्यगवबुध्य यत्कर्तव्यं तदाह-'तं परिणाय' इत्यादि। ___ मूलम्-तं परिणाय मेहावी नेव सयं एएहिं कज्जेहिं दंडं लमारंभिज्जा, नेव अन्नं एएहिंकज्जेहिं दंडं समारंभिज्जाविजा, एएहिं कज्जेहिं दंडं समारंभंते वि अन्ने न समणुजाणिज्जा, एस लग्गे आरिएहिं पवेइए, जहेत्थ कुसले नोवलिंपिज्जासित्तिबोम। सू०५॥ __ छाया-तत्परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयमेतैः कार्यदण्डं समारभेत, नैवान्यम् एतैः कार्यदण्डं समारम्भयेत् , एतैः कार्यदण्ड समारभमाणानप्यन्यान्न समनुजानीयात, एष माग आयैः प्रवेदितः, यथाऽत्र कुशलो नोपलिम्पेः, इति ब्रवीमि ॥ मू०५॥ झता है कि-'पापों से मेरी मुक्ति हो जायगी-मैं निष्कलंक बन स्वर्गादि लाभ कर लूंगा'-ऐसा मानकर वह पारलौकिक कार्य करने के लिये भी छहकाय का आरंभ करता है । इस प्रकार के सावध व्यापारों से नानाविध दुर्गतियों को देने वाले तथा अनेक जन्म जन्मान्तरों में भी जो न नष्ट हो सके ऐसे पाप का ही वह अर्जन करता है। 'आशंसायै' इस पद से यह बात सत्रकार सूचित करते हैं कि-वह अलभ्यवस्तु को पाने की इच्छा से भी दण्ड का समारंभ करता है "यह वस्तु मेरे पास नहीं है, आत्मबलादि कार्यों के करने से वह मुझे आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों मिल जावेगी, यदि यहां न भी मिलेगी तो पारलोक में मिल जालेगी" इस भाव से दण्ड का समादान (छहकाय का आरंभ) करता है ॥ सू० ४॥ પાપથી મારી મુક્તિ થઈ જશે, હું નિષ્કલંક બની સ્વર્ગાદિ લાભ કરી લઈશ” એવું માનીને તે પારલોકિક કાર્યો કરવા માટે છે કાયનો આરંભ કરે છે. આ પ્રકારના સાવદ્ય વ્યાપાથી નાનાવિધ દુર્ગતિઓને દેવાવાળા અને અનેક જન્મ જન્માન્તરેમાં પણ જેનો નાશ ન થાય તેવો પાપનો ભાર જ તે વહે છે. 'आशंसायै ' २ ५४थी मात सूत्रा२ सूचित ४२छे-ते मसल्य १श्तुने પામવાની ઈચ્છાથી પણ દંડનો સમારંભ કરે છે, “આ વસ્તુ મારી પાસે નથી પણ આત્મબલાદિ કાર્યો કરવાથી તે મને આજ નહિ તે કાલ, કાલ નહિ તે પરમ દિવસ મળી જશે, કદાચ અહીં નહિ મળે તે પરલેકમાં મળશે આ लावथा ६नु समाहान (७ अयनो मास) ४२ छ. ॥ सू० ४॥
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आचाराङ्गसूत्रे
'त' - दित्यादि, मेधावी = संयमरतिमान् विदितसंसारस्वभावः, तत् = पूर्वोक्तसङ्ग्राहकं शस्त्रपरिज्ञाकथितम् अप्रशस्तगुणमूलस्थानं विषयकपायादिकं चात्मवलादण्डसमादानादिकं च परिज्ञाय - ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा मेधावी स्वयम् = आत्मना एतैः=आत्मबलादानादिकैः कायैः दण्डं प्राणिहिंसां नैव समारभेत - दण्डग्रहणारम्भं न कुर्यात्, प्रत्याख्यान परिज्ञया परिहरेदित्यर्थः, अन्यमपि एतैः कार्यैर्दण्डं न समारम्भयेदित्यन्वयः, तथा समारभमाणानप्यन्यान् न समनुजानीयात् = नानुमोदयेत्, सुधर्मा स्वामी स्वामिनं प्राह - एष मार्गः मृग्यतेऽन्विष्यते मोक्षपदमनेनेति मार्ग := रत्नत्रयस्वरूपः,
इस प्रकार कटुक विपाक वाले दण्ड के आदान को अच्छी तरह जानकर क्या करना चाहिये ? सो कहते हैं
' तं परिण्णाय' इत्यादि । संयम में जिसे प्रेम है, संसार का स्वभाव भी जिसने भली प्रकार जान लिया है ऐसा मेधावी मुनि शस्त्रपरिज्ञा में प्रतिपादित अप्रशस्त गुण एवं मूलस्थानस्वरूप विषयकषायादिकों को तथा आत्मबलादिलाभ के लिये दण्डसमादान (आरम्भ समारम्भ) को ज्ञपरिज्ञा से जानकर स्वयं आत्मबल को प्राप्त करने के खोटे अभिप्राय से आचरित इन पूर्वोक्त कार्यों से प्राणातिपात आदि दण्ड का समारम्भ नहीं करे | क्योंकि इन कार्यों के करने वाले प्राणी को पापारंभ के सिवाय अन्य किसी भी प्रशस्त फल का लाभ नहीं होता है । इस बात को जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से उनका त्याग कर देवे । इतना ही नहीं किन्तु दूसरे से भी इन पूर्वोक्त कार्यों से वह दण्ड का આદ્યાનને સારી રીતે જાણીને શું
આવા પ્રકાર કડવા વિપાકવાળા દંડના કરવું જોઈએ તે કહે છે
'तं परिणाय ' त्याहि संयममां ने प्रेम छे, संसारनो स्वभाव ભલી પ્રકારે જાણી લીધેા છે એવા મેધાવી મુનિ શસ્ત્રપરિજ્ઞામાં પ્રતિપાદિત અપ્રશસ્ત ગુણુ અને મૂળસ્થાનસ્વરૂપ વિષયકષાયાક્રિકને તથા આત્મખલાિ લાભ માટે ઈંડસમાદાન ( આર ભ–સમારંભ ) ને સપરિવાથી જાણીને સ્વયં આત્મબળ પ્રાપ્ત કરવાના ખાટા અભિપ્રાયથી આચરિત એ પૂર્વોક્ત કાર્યાંથી પ્રાણાતિપાત આદિ દંડનો સમાર ભ કરવા નહિ, કારણ કે આ કાર્યાના કરનાર પ્રાણીને પાપારભ સિવાય ખીન્ને કોઈ પ્રશસ્ત ફળનો લાભ થતા નથી. એ વાતને જાણીને પ્રત્યાખ્યાનપરિનાથી તેનો ત્યાગ કરે, એટલું જ નહિ પણ ખીજાથી પણ તે પૂર્વોક્ત કાર્યોથી તે દડનો સમારંભ ન કરાવે, અને આ પ્રકારથી દડનો સમારંભ
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" आयः" आरादहिगता हेयधर्मेभ्यो ये ते आर्याः तीर्थङ्कर-गणधरादयः, तैः प्रवेदिता द्वादशविधपरिषदि प्रकर्षणोक्तः । तद् बुद्धा किं कार्यमित्याह
"यथाऽत्र कुशलो नोपलिम्पे"-रिति, हे शिष्य ! यथान्येन प्रकारेणात्मा कर्मणोपलिप्तो न भवेत्तथा कुशला चतुर आत्मार्थी त्वमत्र-दण्डसमारम्भे नोपलिस्पेःनं संश्लिष्येः, सर्वथा सर्वसमारम्भादात्मानं परिरक्षेदित्यर्थः । कमलपत्रं यथा जलेन स्पृष्टं न भवति तथैव दण्डसमादानेनात्मा यथा स्पृष्टो न भवेत्तथा कुरुष्वेति तात्पर्यम् । इति ब्रवीमीत्यस्यार्थस्तूक्त एव ।। मू० ५॥
॥इति द्वितीयाध्ययनस्य द्वितीय उद्देशः समाप्तः ॥२-२॥ समारम्भ न करावे, तथा इस प्रकार से दण्ड का समारंभ करने वालों की अनुमोदना भी न करे, अर्थात् दण्ड समारंभ का सर्वथा त्याग करे । । इस प्रकार श्रीसुधर्मा स्वमी जम्बू स्वामी को कहते हैं कि-यही रत्नत्रयरूप मोक्ष का मार्ग है, मोक्ष का अन्वेषण जिससे किया जाता है यही मार्ग शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ है । इस मार्ग का निरूपण आर्य-तीर्थकर एवं गणधरादिकों ने बारह प्रकार की परिषद में किया है। विषय-कषायादिक जो आत्मा का पतन करने वाले हैं-उनसे जो शीघ्रातिशीघ्न विरक्त होते हैं वे आर्य हैं, और वे तीर्थकर गणधरादि देव हैं, क्योंकि ये स्वयं उनसे विरक्त होकर दूसरों को भी उनसे विरक्त होने का उपदेश देते हैं। ये आत्मकल्याणकारी मोक्ष मार्ग के अनुपम पथिक होते हैं, और दूसरों को भी इस मार्ग के पथिक बनने के लिये उपायों का प्रतिपादन करते हैं । इस पंचम काल में जो मोक्षमार्ग की प्ररूपणा मुनि કરવાવાળાની અનુમોદના પણ ન કરે, અર્થાત કરવા, કરાવવા, અને અનુમેદવારૂપ, એ દંડસમારંભનો સર્વથા ત્યાગ કરે.
આ પ્રકાર શ્રીસુધર્માસ્વામી જ બૂસ્વામીને કહે છે કે-તે રત્નત્રયરૂપ મેક્ષનો માર્ગ છે, મોક્ષનું અન્વેષણ જેનાથી થાય છે તે માર્ગ શબ્દની વ્યુત્પત્યર્થ છે. આ માર્ગનું નિરૂપણ આર્ય-તિર્થકર અને ગણધરાદિકોએ બાર પ્રકારની પરિષદમાં કર્યું છે. વિષયકષાયાદિક જે આત્માનું પતન કરવાવાળા છે તેનાથી જે જલદી વિરક્ત થાય છે તે આર્ય છે, અને તે તીર્થકર ગણધરાદિ દેવ છે. કારણ કે તેઓ સ્વયં તેનાથી વિરક્ત બની બીજાઓને તેનાથી વિરક્ત થવાને ઉપદેશ આપે છે. તેઓ આત્મકલ્યાણકારી મોક્ષમાર્ગના અનુપમ પથિક હોય છે, અને બીજાઓને પણ તે માર્ગના પથિક બનવા માટે ઉપાયનું પ્રતિપાદન કરે છે. આ પાંચમા કાળમાં જે મોક્ષમાર્ગની પ્રરૂપણ મુનિ અને આચાર્યોદ્વારા થાય છે તેનું
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आवारागसूत्रे एवं आचार्यों द्वारा होती है उसका मूलस्रोत तीर्थकरादि ही है। ऐसा समझकर कुशल आत्मार्थी का कर्तव्य है कि वह अपनी आत्मा को इस दण्डसमारंभ द्वारा आने वाले कर्मों से लिप्त न बनावे । ऐसा उपदेश करते हुए सूत्रकार कहते हैं-"यथाऽत्र कुशलो नोपलिम्पेः" हे भव्य जीव ! तूं पूर्वोक्त कथन से यह भली प्रकार जान चुका है कि इन आत्मवलादिक कार्यों से दण्डसमादान होता है, और इससे कर्मबन्ध के सिवाय आत्मा को कोई लाभ नहीं होता है, अतः तूं इस बात का विचार कर, आत्मर्थी बन, और जिस प्रकार से तेरी आत्मा कर्मों से लिप्त न घनें इस तरह की प्रवृत्ति से इन समारंभों से सर्वथा अपनी रक्षा कर। जैसे जल में रहता हुआ कमल जल से लिप्त नहीं होता है उसी प्रकार दण्डसमादान से आत्मा लिप्त न बने ऐसा कर । ' इति ब्रवीमि' इसका अर्थ पहिले किया जा चुका है ॥ सू० ५॥
॥द्वितीय अध्ययन का द्वितीय उद्देश समाप्त ॥२-२॥ મૂળસોત તીર્થકરાદિ જ છે એવું સમજીને કુશળ આત્માથીનું કર્તવ્ય છે. કે–તે પિતાના આત્માને આ દડસમારંભદ્વારા આવવાવાળા કર્મોથી લિપ્ત ન બનાવે, એ ઉપદેશ કરતા સૂત્રકાર કહે છે –
“यथाऽत्र कुशलो नोपलिम्पे. " भव्य । तुं पूर्वरित ४थनथी ये ભલી પ્રકારે જાણી ચુક્યો છે કે આ આત્મબલાદિક કાર્યોથી દંડસમાદાન થાય છે, અને તેનાથી કર્મબ ધ સિવાય આત્માને કોઈ લાભ થતું નથી, માટે તું એ બાતનો વિચાર કરી આત્માર્થી બન, અને જે પ્રકારથી તારો આત્મા કર્મોથી લિસ ન બને એવા પ્રકારની પ્રવૃત્તિથી તેવા સમારંભેથી સર્વથા પિતાની રક્ષા કર. જેમ પાણીમાં રહેલા કમળ પાણીથી લિપ્ત નથી થતાં તે પ્રકારે દંડસમાદાનથી मात्मा सिस न मने ते ४२. ' इति ब्रवीमि' मानो मथ पडसा ४२वामा मावत छ. ॥ सू० ५॥
બીજા અધ્યયનનો બીજો ઉદ્દેશ સમાપ્ત. ૨-૨.
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॥ आचारागसूत्रे द्वितीयाध्ययनस्य तृतीयोदेशः॥ कथितो द्वितीयोदेशोऽधुना तृतीयस्य व्याख्या प्रारभ्यते । द्वितीये संयमे रतिविषये चारतिः कर्तव्येति प्रोक्तम् । अत्र च तत्सर्व कषायनिरसनेनैव स्यात् , तन्निरसनं च मानपरित्यागं धनासारतापरिचिन्तनं विना नैव सम्पद्यते, अत उच्चैगौत्रोत्पत्त्यभिमानादिकं मुनिना परित्याज्यमिति प्रतिपादयति । ___अत्रानन्तरसूत्रसम्बन्धः-'जहेत्थ कुसले नोवलिपेज्जासि' इति, हे शिष्य ! उच्चै!त्राभिमानादौ त्वं यथा नोपलिप्तो भवेरिति ।।
॥ आचारागसूत्र के दूसरे अध्ययन का तृतीय उद्देश ॥
द्वितीय उद्देश का कथन हो चुका, अब तृतीय उद्देश का कथन प्रारंभ होता है। द्वितीय उद्देश में "संयमी को संयम में रति और विषयादिकों में अरति करना चाहिये" यह बात कही गई है। इस उद्देश में यह प्रतिपादन किया जायगा कि गृहीत (ग्रहण किये हुए संयम में रति और विषयादिकों में अरति संयमी जनको तब ही हो सकती है कि जब वह कषायों को दूर करे । कषायों का परित्यागजब तक मान का त्याग न कर दिया जायेगा, तथा जब तक धन की असारता का विचार न होगा, तब तक नहीं हो सकता। इसलिये संयमी मुनि को उच्चगोत्र में उत्पन्न होने के अभिमान आदि का सर्वथा परित्याग कर देना चाहिये।
यहां पर "जहेत्थ कुसले नोवलिंपेज्जासि" इस अनन्तर सूत्र के साथ सम्बन्ध है । जिसका भाव यह है कि हे शिष्य ! तूं उच्च-गोत्र में
શ્રી આચારાંગસૂત્રના બીજા અધ્યયનને ત્રીજો ઉદ્દેશ
બીજા ઉદ્દેશનું કથન સમાપ્ત થયું, હવે ત્રીજા ઉદ્દેશનો પ્રારંભ થાય છે. બીજા ઉદ્દેશમાં સંયમીએ સંયમમાં રતિ અને વિષયાદિકમાં અરતિ કરવી જોઈએ, એ વાત કહેવામાં આવી છે. આ ઉદેશમાં એનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવશે કે ગૃહીત (ગ્રહણ કરેલાં) સંયમમાં રતિ અને વિષયાદિકમાં અરતિ સંયમીજનને ત્યારે જ થાય છે કે જ્યારે કષા દૂર કરવામાં આવે. કષાયને પરિત્યાગ, જ્યાં સુધી માનો ત્યાગ અને ધનની અસારતાનો વિચાર નહિ કરવામાં આવે ત્યાં સુધી તે બની શકતું નથી. માટે સંયમી મુનિએ “મારી ઉત્પત્તિ ઉંચ ગોત્રમાં થયેલી છે” તેવાં અભિમાનને સર્વથા ત્યાગ કર જોઈએ.
2 \ “जहेत्थ कुशले नोवलिंपेज्जासि" 20 पनन्तर सूत्रनी સાથે સંબંધ છે, એનો ભાવ એ છે કે-હે શિષ્ય! તું ઉંચ ગેત્રમાં ઉત્પત્તિના
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आचाराङ्गसूत्रे
परम्परसूत्रसम्बन्धस्तु -' से आयवले ' इत्यादिना, स्वसमानार्थमात्मवलादिदण्डसमारम्भौ न त्वया कर्तव्य इति ।
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उच्चगोत्रोत्पत्त्या मानं, नीचगोत्रोत्पत्त्या चापमानं ज्ञात्वा हर्ष-क्रोधौ त्वया न विधेयौ, यतस्तौ मानापमानौ बहुषु जन्मसु प्राप्तपूर्वाविति दर्शयति- “ से असई " इत्यादि ।
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मूलम् -से असई उच्चागोए, असई नीआगोए, नो हीणे, नो अइरित्ते, नोऽपीहए, इयपरिसंखाय को गोयावाई, को माणावाई, कंसि वा एगे गिज्झे, तम्हा पंडिए नो हरिसे नो कुज्झे ॥ सू० १ ॥
छाया - सोऽसकृदुच्चैर्गोत्रे ऽसकृन्नीचैर्गोत्रे न होनो नातिरिक्तः, नो ईहेतापि, इति परिसंख्याय को गोत्रवादी को मानवादी, कस्मिन् वैकस्मिन् गृध्येत्, तस्मात्पण्डितो न हृष्येत् न क्रुध्येत् ॥ ० १ ॥
उत्पत्ति के अभिमानादिकों में जिस तरह से न फॅसे इस प्रकार से अपनी प्रवृत्ति कर |
'से आयबले ' इत्यादि परम्परासूत्र के साथ भी संबंध है, जिससे शिष्य को संबोधन करते हुए आचार्य इस बात का उपदेश देते हैं कि अपने मान के लिये आत्मबल आदि द्वारा तुझे दण्डसमारंभ नहीं करना चाहिये ।
नीचे के सूत्र का अवतरण करने के लिये सूत्रकार शिष्य से कहते हैं कि - हे शिष्य ! उच्चगोत्र में उत्पत्ति से मान और नीच गोत्र में जन्म लेने से अपमान का विचार कर हर्ष और क्रोध करना तुझे योग्य नहीं , क्योंकि कर्म के प्रभाव से तूने पूर्व के अनेक भवों में इन्हें प्राप्त किया । यही बात प्रकट की जाती है-" से असहं " इत्यादि ।
અભિમાનાદિમાં જેવી રીતે ન સે તૈવી પ્રવૃત્તિ પેાતાની કર
C
त्या पर पशसूत्र साथै पशु संबंध छे मेथी शिष्यने સખાધન કરતા આચાર્ય એ વાતનો ઉપદેશ આપે છે કે પેાતાના માન માટે આત્મખલ આદિ દ્વારા તારે ઈંડસમારભ ન કરવા જોઈએ
નીચેના સૂત્રનુ અવતરણ કરવા માટે સૂત્રકાર શિષ્યને કહે છે કે-હે શિષ્ય ! ઉચ્ચ ગેત્રમા ઉત્પત્તિથી માન, અને નીચ ગોત્રમા જન્મ લેવાથી અપ માનનો વિચાર કરી હર્ષ અને ક્રોધ કરવા તને ચેગ્ય નથી. કારણ કે કર્મના પ્રભાવથી તે પૂર્વના અનેક ભવામાં તે પ્રાપ્ત કર્યાં છે એ વાત પ્રગટ वामां आवे छे-' से असई ' इत्यादि.
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मध्य० २ उ ३
टीका-'स' इत्यादि। साणी, असकृत् बहुवारम् उच्चैगोत्रे लोकमान्य उग्रकुलादो समुत्पन्न इति शेपः, तथा असकृत् नीचोंत्रे काष्ठहारादिकुले चोत्पन्नः, अत्र गोत्रपदस्य कुलपरत्वं विज्ञेयम् । तयोरुभयोर्गोत्रयोरनुभाववन्धाध्यवसायस्थानकण्डकानि समानान्येव सन्तीत्याह-'न हीन' इति, हीनो-न्यूनो न भवति, एवमतिरिक्ता अधिकोऽपि न भवति। उच्चनीचगोत्रयोः समसंख्यकान्येवानुवन्धाध्यवसायस्थानकण्डकानि वर्तन्त इत्याशयः।
जीवात्मा का जन्म-मरण जब तक उसे मुक्ति की प्राप्ति नहीं हुई है नव तक होता रहता है। कभी यह नीच गोत्र के उदय से लोकनिंदित कुल में जन्म लेना है तो कभी उच्च गोत्र के उद्य से लोकपूजित अल में। यह उच्च-नीच गोत्र में जन्म की प्राप्ति होना कर्म का कार्य है। इसमें किसी की इच्छा काम नहीं करती। अतः उच्च गोत्र में जन्म लेने से हर्षित होना और नीच गोत्र में जन्म लेने से दुःखित होना आत्मा के लिये योग्य नहीं । कारण कि पर्यायों में उलट-फेर होता ही रहता है; क्योंकि संसारी जीव कर्मों से युक्त हैं। अतः जो नीच गोत्र में उत्पन्न होने से अपना अपमान समझता है उसके लिये सूत्रकार कहते है कि-वह तूं अनेक बार लोकमान्य उनकुल भोगकुल आदि में उत्पन्न हो चुका है । तथा जो उच्चकुल में जन्म लेने से अपना मान-बड़प्पन समझता है उसके प्रति सूत्रकार कहते हैं कि-आई तूं भी नीचकुन्द जो काष्ठहार आदि का वंश है, उसमें अनेक बार जन्म ले चुका है। गोत्र
જીવાત્માના જન્મ મરણ જ્યાં સુધી તેને મુક્તિની પ્રાપ્તિ નથી થઈ ત્યાં સુધી થતાં રહે છે, કઈ વખત તે નીચ ગોત્રના ઉદયથી લેકનિંદિત કુળમાં જન્મ લે છે તો કોઈ વખત ઉંચ ગોત્રના ઉદયથી લેપૂજિત કુળમા. આ ઉંચ નીગ ગેત્રમાં જન્મની પ્રાપ્તિ થવી તે કર્મનું કાર્ય છે. તેમાં કેઈની ઇચ્છા કામ કરતી નથી. માટે ઉંચ ગેત્રમાં જન્મ લેવાથી હર્ષિત થવું, અને નીચ ગોત્રમાં જન્મ લેવાધી દુઃખી થવું આત્માને માટે તે એગ્ય નથી, કારણ કે પર્યમાં લિટફેર થયા જ કરે છે. સંસારી જીવ કર્મોથી યુક્ત છે, માટે જે નીચ ગાત્રા ઉત્પન્ન હોવાથી પોતાનું અપમાન સમજે છે તેને માટે સૂત્રકાર કહે છે કેઅનેકવાર લોકમાન્ય ઉકળ ભેગકુળ આદિમાં ઉત્પન્ન થઈ કે છે, તથા જે ઉ કુળમાં જન્મ લેવાથી પોતાનું માન–મોટાપણું સમજે છે તેના પ્રત્યે મૂત્ર કાર કહે છે કે–ભાઈ તું પણ નીચ કુળ જે કડીઆર અદિન વંદા છે તે અનેકવાર જન્મ લઈ ચુકેલ છે. ગોત્ર શબ્દનો અર્થ કુળ છે. અને
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आचारागसूत्रे (कण्डकमिति कमाश उच्यते) तस्मात् न ईहेतापि-जाति-कुल-बल-रूपादिमदस्थानेष्वन्यतमं नो इच्छेदपि, मनसाऽप्युच्चकुलाघभिमानं न चेष्टेतेति तात्पर्यम् । ततः किमायातमित्याह-' इतीति, इति-पूर्वोक्तप्रकारमनन्तवारं प्राप्तपूर्वोच्चनीचकुलादिकं समानकर्मीशत्वं च परिसंख्याय-बुद्धवा, 'गोत्रवादी' गोत्रं वदितुं शीलं यस्येति स गोत्रवादी-गोत्राभिमानी 'ममैवैतादृशं परमसम्माननीय सुन्दरं गोत्र, कस्याप्यन्यस्य तादृशं नास्ति' इति को भवेत्, किश्च "मानवादी" मान-स्वगुणो. कीर्तनमभिमानं वदितुं शीलं यस्येति स मानवादी स्वोत्कर्षवादी को भवेत् ? न कोऽपि भवेदित्यर्थः । अपि च-कस्मिन् वा एकस्मिन् प्रकृष्टगोत्राशब्द का अर्थ कुल है। उच्च गोत्र में उत्पन्न होने से न तो आत्मा अधिक बड़ा हो जाता है और न नीच गोत्र में जन्म लेने से हीन ही। क्योंकि दोनों गोत्रों के बन्धाध्यवसायस्थान के कण्डक एक सरीखे हैं। उनकी संख्या समान है। (कर्म के अंश का नाम कण्डक है)। इसलिये "नो ईहेत" जीव का कर्तव्य है कि वह जातिमद, कुलमद, बलमद
और रूप वगैरह के मद करने की कभी मनसे भी चेष्टा तक न करे। इस प्रकार जब यह जीव उच्च-नीच गोत्र को अनेक वार पूर्व जन्मों में प्राप्त कर चुका है, और इनके बंध के भी जब समान कर्म के अंश हैं तो ऐसा कौन प्राणी होगा जो इस परिस्थिति को जान बूझकर भी गोत्रवादीगोत्राभिमानी होगा कि-"मेरा ही ऐसा परलमाननीय सुन्दर गोत्र है किसी अन्य का ऐसा नहीं है" इस प्रकार कहने का स्वभाववाला-साहस करने वाला होगा, तथा अपने उत्कर्ष को दूसरों के प्रति प्रकट करने की ઉત્પન્ન હોવાથી નથી આત્મા અધિક મોટો થઈ જતે અને નથી નીચ ગેત્રમાં ઉત્પન્ન થવાથી નીચે થઈ જતું. કારણ કે બને નેત્રોના બળ્યાધ્યવસાય સ્થાનના કંડકો એકસરખા છે. તેઓની સંખ્યા સમાન છે. (કર્મના અંશનું નામ કંડક छ.) भाटे “नो ईहेत" पर्नु तव्य छ - तिमह, मह, मम मने રૂપ વિગેરેનો રદ કરવાની કદિ પણ મનથી ચેષ્ટા પણ ન કરે. આ પ્રકારે જ્યારે આ જીવ ઊંચનીર શેત્રને અનેક વાર પૂર્વ જન્મમાં પ્રાપ્ત કરી ચુકેલ છે, અને તેના બે ધને પણ જ્યારે સમાન કર્મને અંશ છે તે એવો કયે પ્રાણ હશે જે આ પરિસ્થિતિને જાણી જોઈને પણ ગેત્રવાદી–ત્રાભિમાની થશે કે“મારૂં જ એવું પરમ માનનીય સુદર ગાત્ર છે બીજા કેઈનું તેવું ગોત્ર નથી” આ પ્રકારે કહેવાના સ્વભાવ વાળા–સાહસ કરવાવાળા હશે, અને ઉત્કર્ષને જાઓના પ્રતિ પ્રગટ કરવાની ભાવનાવાળા હશે ? માટે જ્યારે એ નિશ્ચિત છે
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अध्य० २. उ. ३
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भावनाशाली होगा ? । इसलिये जब यह निश्चित है कि उच्च गोत्र में अथवा नीच गोत्र में अनेक वार जन्म-मरण यह जीव कर चुका है तो फिर "मेरा जन्म उच्चकुल में हो" इस प्रकार वहां पर उत्पन्न होने के लिये अभिलाषी भी कौन होगा ? । अतः जो हेयोपादेय के विवेक से युक्त हैं, ऐसे पण्डित - भव्यात्मा जीव उच्चकुल में उत्पन्न होने से न तो हर्ष करें और न नीचकुल में जन्म लेने से विषाद ही करें । इस बात का विद्वान् को कभी अहंकार नहीं करना चाहिये कि मैं उच्चकुलका हॅू, तथा इसका कभी विषाद भी नहीं करना चाहिये कि मैं नीचकुल का हूं। क्योंकि इस संसार का प्रवाह अनादिकाल से इसी प्रकार से चल रहा है, आगे भी ऐसा ही चलता रहेगा कि - जो आज उच्चकुल का है कल वही नीचकुल का बन जाता है, तथा दूसरे स्वर्ग के देव जिनके उच्चगोत्र का उदय है aorane एकेन्द्रिय पृथिवी पानी वनस्पति जीवों में जन्म लेकर नीच गोत्र के उदय वाले बन जाते हैं । तब उच्च गोत्र और नीच गोत्र ये सदा एक जीव में स्थिर रहने वाले धर्म तो हैं नहीं; फिर इस विषय में हर्ष विषाद करना निष्कारण है । जब अनेक जन्मों में इस जीव को प्रकृष्ट कुलों की एवं अपकृष्टकुलों की अनेक बार प्राप्ति हो चुकी है तब हर्ष और विषाद करने से आत्मा को कौन सा लाभ हो सकता है ? | यदि ये કે ઉંચ ગાત્રમાં અને નીચ ગેત્રમાં અનેકવાર જન્મ મરણ આ જીવે કરેલ છે તો પછી “મારો જન્મ ઉંચ કુળમાં જ હોય” આ પ્રકાર ત્યાં ઉત્પન્ન થવા માટે કેણુ અભિલાષી હશે? માટે જે હેયાપાદેયના વિવેકથી યુક્ત છે એવા પડિત-ભવ્યાત્મા જીન ઉંચ કુળમાં ઉત્પન્ન થવાથી ન તા હ કરે, અને નીચ કુળમાં જન્મ લેવાથી ન વિષાદ કરે. આ વાતનેા વિદ્વાને કોઈ વખત અહંકાર કરવા ન જોઈ એ કે–હું ઉંચ કુળનો છેં. અને તેનો પણ વિષાદ નહિ કરવા જોઇએ કેહું નીચ કુળનો છું, કારણ કે આ સંસારનો આ પ્રવાહ અનાદિ કાળથી આ પ્રકારે ચાલી રહ્યો છે, આગળ પણ એવા જ ચાલશે. જે આજ ઉંચ કુળના છે કાલ તેજ નીચ કુળના બની જાય છે. બીજા સ્વર્ગના દેવ જેનો ઉચ ગેાત્રના ઉદય છે તે ચવીને એકેન્દ્રિય–પૃથિવી—પાણી વનસ્પતિ જીવોમાં જન્મ લઈ નીચ ગોત્રના ઉદયવાળા મની જાય છે, તે પછી ઉંચ ગોત્ર અને નીચ ગોત્ર એ સદા એક જીવમાં સ્થિર રહેવાવાળો ધર્મ તે છે જ નહિ, પછી આ વિષયમાં હર્ષીવિષાદ કરવા નિષ્કારણુ છે. અનેક જન્મમાં આ જીવને પ્રકૃષ્ટ કુલાની અને અકૃષ્ટ કુલોની અનેકવાર પ્રાપ્તિ થયેલી છે પછી હર્ષ અને શાક કરવાથી આત્માને કયા લાભ મળી શકે
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आचारागसूत्रे दिकेऽनेकधा प्राप्तपूर्वे न गृध्येत् नाभिलष्येत् उच्चकुलोत्पन्नोऽहमित्युत्कर्ष नेच्छेदित्यर्थः । ततः किमित्याह-' तस्मा'-दिति, यस्मादनादिभवे परिभ्रमता वहूनि प्रकृष्टानि कुलानि प्राप्तानि, तथाऽपकृष्टानि च लब्धानि, तस्माद्धेतोः पण्डितः= परमार्थज्ञो ज्ञातहेयोपादेयो न हृष्येत्, 'ममैवेदृशं कुल'-मिति न मोदेत, न क्रुध्येत्= 'मम कथमधमतरे कुले जन्माभू'-दिति स्वात्मने न कुप्येत्, न विषादमपि कुर्यात् । अनेकजनिषु प्रकृष्टानि कुलानि प्राप्तानीति कथं हर्षसम्भवः?, नीचकुलानि बहुशः समधिगतानीति वृथैव क्रोधः। अभूतपूर्वयोः सुखदुःखयोरेव सतोहर्ष-क्रोधसम्भवादिति तात्पर्यम् ।
उक्तञ्चअभूतपूर्व कुल जीवों के प्राप्त हुए होते तो उनकी प्राप्ति में हर्ष विषाद करना उचित माना जाता, परन्तु ऐसा तो है नहीं। अतः ऐसा विचार कर ज्ञानी को इस विषय में हर्ष विषाद नहीं करना चाहिये, किन्तु सदा ऐसा ख्याल करते रहता चाहिये कि
इस संसार में अनादिकाल से नाना योनियों में भ्रमण करने वाले इस आत्मा ने अनेक वार सर्व सुख दुःख के स्थानभूत उच्च नीच गोत्रों को प्राप्त किया है, फिर इनकी प्राप्ति में तुझे आश्चर्य ही कौन सा है । अनन्त जन्मजन्मान्तरों में इस जीवने अनेक सुखों को प्राप्त किया है, तथा-अपमान से, स्थान आदि के च्युत होने से बधबंधन एवं धन के नाश से अनेक रोगों को तथा अनेक प्रकार के दुःखों को झेला है।
कहा भी हैછે. કદાચ તે અભૂતપૂર્વ કુળ જીવને પ્રાપ્ત થયેલ હોય તે તેની પ્રાપ્તિમાં હર્ષ વિષાદ કરે ઉચિત મનાત, પરંતુ તેવું તે છે નહિ, માટે એ વિચાર કરી જ્ઞાનીએ આ વિષયમાં હર્ષ વિષાદ નહિ કર જોઈએ. પણ સદા હમેશાં એ ખ્યાલ રાખવો જોઈએ કે–
આ સંસારમાં અનાદિ કાળથી અનેકનિમાં ભ્રમણ કરવાવાળા આ આત્માને અનેકવાર સર્વ સુખદુખના સ્થાનભૂત ઉંચ નીચ ગોત્રોને પ્રાપ્ત કરેલ છે. પછી તેની પ્રાપ્તિમાં તને આશ્ચર્ય શું છે. અનન્ત જન્મ જન્માન્તમાં આ જીવે અનેક પ્રકારના સુખને પ્રાપ્ત કર્યા છે. અને અપમાનથી, સ્થાન આદિના ચુત હોવાથી, વધ બંધન અને ધનના નાશથી અનેક રોગોને તથા અનેક પ્રકારના हु.भाने सडन या छे.
यु ५५ छ
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आचारागसूत्रे __ यद्वा त्रिपल्योपमपरिमितमप्यायुरल्पमेव, यतोऽन्तर्मुहूर्त विहाय शेषसर्वस्याप्यायुषोऽपवर्तनशीलत्वात्, प्रतिक्षणमायुपः क्षीयमाणत्वाच्च । अपवर्तनं नाम दीर्घस्थितिकालिककर्मपरमाणूनपगमय्य तेषां इस्वस्थितिकालिकतासम्पादनम् । आयुश्च सोपक्रम-निरुपक्रमभेदेन द्विविधम् , उक्तञ्च भगवता भगवत्याम्
___“जीवाणभंते ! किं सोवकमाउया निरुवकमाउया ? गोयमा ! जीवा सोवकमाउयावि णिरुवकमाउयावि" इति ( भगवती. श. २० उ. १०) ।
छाया-जीवाः खलु भदन्त ! किं सोपक्रमायुष्का निरुपक्रमायुष्काः? गौतम! जीवाः सोपक्रमायुष्का अपि निरुपक्रमायुष्का अपि ॥ इति ॥ एक क्षण तक की सफलता मानी गई है। उसी प्रकार अन्तर्मुहर्तसे लगा कर देशोनपूर्वकोटि-देश ऊन एक करोड पूर्व-परिमित आयु प्राप्त होने पर भी उसमें संयम कालका अभाव होने से वह भी अल्प ही है। ___ अथवा-अन्तर्मुहूर्त्तकाल परिमित आयुको छोड कर शेष समस्त आय अपवर्तनशील होने से और क्षण २ में आयुका क्षय होने से त्रिपल्योपम परिमित-तीन पल्योपम का-आयु भी अल्प ही है।
दीर्घकालिक आयुकर्म के परमाणुओं को खींच कर थोडी स्थितिवाले आयुकर्म के परमाणुओं में स्थापित करने का नाम अपवर्तन है।
सोपक्रम और निरुपक्रम के भेद से आयु दो प्रकार का है । भगवती सूत्र में भगवानने यही बात कही है
“जीवाणं भंते ! किं सोवकमाउया निरुवकमाउया?, गोयमा! जीवा सोवकमाउया विणिरुवकमाउया वि" इति। (भ.श. २० उ.१०) કાળની એક ક્ષણ સુધીની સફળતા મનાય છે, તે પ્રકાર અન્તર્મહત્તથી લગાવી દેશનપૂર્વ કેટિ–દેશ ઉન એક કોડ પૂર્વ-પરિમિત આયુ પ્રાપ્ત થવાથી પણ તેમાં ચમકાળને અભાવ હોવાથી તે પણ અ૫જ છે, અથવા અન્તમૂહર્તાકાળપરિ મિત આયુને છોડીને શેષ સમસ્ત આયુ અપવર્તનશીલ હોવાથી અને ક્ષણક્ષણમાં આયુને ક્ષય હોવાથી વિદ્યોત્તમપરિમિત ત્રણ પલ્યોપમ આયુ પણ અલ્પજ છે
દીર્ઘકાલિક આયુકમના પરમાણુઓને ખેંચીને થોડી સ્થિતિવાળા આયુકર્મના પરમાગુઓમાં સ્થાપિત કરવાનું નામ શgવર્જન છે
સોપકમ અને નિરૂપકમના ભેદથી આયુ બે પ્રકારની છે ભગવતી સૂત્રમાં ભગવાને આ વાત કહી છે– . "जीवा णं भंते ! कि सोवकमाउया निरुवकमाउया ?, गोयमा। जीवा सोचकमाउया वि णिरुवकमाउया वि"
इति ( भ. श २० उ. १०).
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अध्य० २. उ. ३
"सर्वसुखान्यपि बहुशः, प्राप्तान्यटता मयाऽत्र संसारे।
उच्चैःस्थानानि तथा, तेन न मे विस्मयस्तेषु " ॥१॥ तथा-"अवमानात्परिभ्रंशाद्वधबन्धधनक्षयात् ।।
__ प्राप्ता रोगाश्च शोकाश्च जात्यन्तरशतेष्वपि " ॥१॥ इति । किमधिकेन वर्तमानेपि जन्मनि नानाविधा अवस्था अनुभूयन्ते, अतआत्मार्थिभिर्हर्षक्रोधौ न कार्यावित्याशयः। अत्र गोत्रपदमुपलक्षणं, तेन जात्यादीनां सर्वेषां मदो न विधेय इति प्रकरणार्थः ।
“सर्वसुखान्यपि बहुशः, प्राप्तान्यटता मयान संसारे।
उच्चैः स्थानानि तथा, तेन न मे विस्मयस्तेषु” ॥१॥ तथा-" अवमानात्परिभ्रंशावधबन्धधनक्षयात् ।
प्राप्ता रोगाश्च शोकाश्च, जालन्तरशतेष्वपि" ॥१॥ इति । अधिक क्या कहा जाय ? जब वर्तमान पर्याय में ही इस जीव की अनेक अवस्थाएँ होती देखी जाती हैं तो जन्म-जन्मान्तरों में इसकी अनेक अवस्थाएँ हुई हों, अनेक वार उच्च नीच कुलों में जन्म हुआ हो तो इसमें आश्चर्य की बात ही कौनसी है । ऐसा दृढ़ विश्वास कर आत्मार्थी के लिये इन अवस्थाओं में कभी भी हर्ष और विषाद के लिये स्थान नहीं होना चाहिये।
सूत्र में गोत्र पद उपलक्षण है इससे आठ मदों का-(१) जातिमद (२) कुलमद, (३) बलमद, (४) रूपमद, (५) लाभमद, (६) तपमद,
" सर्वसुखान्यपि बहुशः, प्राप्तान्यऽटता मयाऽत्र संसारे ।
उच्चैःस्थानानि तथा, तेन न मे विस्मयस्तेषु " ॥ १ ॥ तथा-"अवमानात्परिभंशाद्वघबन्धधनक्षयात् ।
प्राप्ता रोगाश्च शोकाश्च, जात्यन्तरशतेष्वपि " ॥ २ ॥ इति
અધિક શું કહેવામાં આવે. જ્યારે વર્તમાન પર્યાયમાં જ આ જીવની અનેક અવસ્થાઓ થાય છે તે નજરે દેખાય છે તે જન્મ જન્માંતરોમાં તેની અનેક અવસ્થાઓ થાય, અનેક વાર ઉંચ નીચ ગેત્રમાં જન્મો થાય છે એમાં આશ્ચર્યની વાત કઈ છે. એ દૃઢ વિશ્વાસ કરી આત્માર્થીને માટે આ અવસ્થા એમાં કઈ વખત પણ હર્ષ અને શેકનું સ્થાન હોવું ન જોઈએ.
सूत्रमा मात्र५४ Sक्ष छ भोट 8 महोन-(१) तिम, (२) ण भ६, (3) मणम, (४) ३५४, (५) सालभ, (६) त५मद, (७) सूत्रमह, २२
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आचारागसूत्रे दिकेऽनेकधा प्राप्तपूर्वे न गृध्येत् नाभिलष्येत् उच्चकुलोत्पन्नोऽहमित्युत्कर्ष नेच्छेदित्यर्थः। ततः किमित्याह-' तस्मा'-दिति, यस्मादनादिभवे परिभ्रमता वहूनि प्रकृष्टानि कुलानि प्राप्तानि, तथाऽपकृष्टानि च लब्धानि, तस्माद्धेतोः पण्डितः= परमार्थज्ञो ज्ञातहेयोपादेयो न हृष्येत्, 'ममैवेदृशं कुल'-मिति न मोदेत, न क्रुध्येत्= 'मम कथमधमतरे कुले जन्माभू'-दिति स्वात्मने न कुप्येत्, न विषादमपि कुर्यात् । अनेकजनिषु प्रकृष्टानि कुलानिप्राप्तानीति कथं हर्षसम्भवः?, नीचकुलानि बहुशः समधिगतानीति थैव क्रोधः । अभूतपूर्वयोः सुखदुःखयोरेव सतोहर्ष-क्रोधसम्भवादिति तात्पर्यम् ।
उक्तश्चअभूतपूर्व कुल जीवों के प्राप्त हुए होते तो उनकी प्राप्ति में हर्ष विषाद करना उचित माना जाता, परन्तु ऐसा तो है नहीं। अतः ऐसा विचार कर ज्ञानी को इस विषय में हर्ष विषाद नहीं करना चाहिये; किन्तु सदा ऐसा ख्याल करते रहता चाहिये कि
इस संसार में अनादिकाल से नाना योनियों में भ्रमण करने वाले इस आत्मा ने अनेक वार सर्व सुख दुःख के स्थानभूत उच्च नीच गोत्रों को प्राप्त किया है, फिर इनकी प्राप्ति में तुझे आश्चर्य ही कौन सा है । अनन्त जन्मजन्मान्तरों में इस जीवने अनेक सुखों को प्राप्त किया है, तथा-अपमान से, स्थान आदि के च्युत होने से बधबंधन एवं धन के नाश से अनेक रोगों को तथा अनेक प्रकार के दुःखों को झेला है। __कहा भी हैછે. કદાચ તે અભૂતપૂર્વ કુળ જીવને પ્રાપ્ત થયેલ હોય તે તેની પ્રાપ્તિમાં હર્ષ વિષાદ કરવો ઉચિત મનાત, પરંતુ તેવું તે છે નહિ, માટે એવો વિચાર કરી જ્ઞાનીએ આ વિષયમાં હર્ષ વિષાદ નહિ કરવો જોઈએ. પણ સદા હંમેશાં એવી ખ્યાલ રાખવો જોઈએ કે–
આ સંસારમાં અનાદિ કાળથી અનેકનિયામાં ભ્રમણ કરવાવાળા આ આત્માન અનેકવાર સર્વ સુખદુખના સ્થાનભૂત ઉંચ નીચ ગોત્રોને પ્રાપ્ત કરેલ છે. પછી તેની પ્રાપ્તિમાં તને આશ્ચર્ય શું છે. અનન્ત જન્મ જન્માતમાં આ જ અનેક પ્રકારના સુખને પ્રાપ્ત કર્યા છે. અને અપમાનથી, સ્થાન આદિના હોવાથી, વધ બંધન અને ધનના નાશથી અનેક રોગોને તથા અનેક પ્રકાર हु.माने सडन या .
કહ્યું પણ છે—
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अध्य० २. उ. ३
'सर्वसुखान्यपि बहुशः, प्राप्तान्यटता मयाऽत्र संसारे । उच्चैः स्थानानि तथा, तेन न मे विस्मयस्तेषु " ॥१॥ तथा - " अवमानात्परिभ्रंशाद्वधवन्धधनक्षयात् ।
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प्राप्ता रोगाश्च शोकाच जात्यन्तरशतेष्वपि " ॥१॥ इति । किमधिकेन वर्तमानेऽपि जन्मनि नानाविधा अवस्था अनुभूयन्ते, अतआत्मार्थिभिर्हक्रोध न कार्यावित्याशयः । अत्र गोत्रपदमुपलक्षणं, तेन जात्यादीनां सर्वेषां मदो न विधेय इति प्रकरणार्थः ।
"(
'सर्वसुखान्यपि बहुशः, प्राप्तान्यटता मयाऽत्र संसारे । उच्चैः स्थानानि तथा, तेन न मे विस्मयस्तेषु " ॥ १ ॥ तथा- " अवमानात्परिभ्रंशाद्वधबन्धधनक्षयात् ।
""
प्राप्ता रोगाश्च शोकाच, जात्यन्तरशतेष्वपि " ॥ १ ॥ इति । अधिक क्या कहा जाय ? जब वर्तमान पर्याय में ही इस जीव की अनेक अवस्थाएँ होती देखी जाती हैं तो जन्म-जन्मान्तरों में इसकी अनेक अवस्थाएँ हुई हों, अनेक वार उच्च नीच कुलों में जन्म हुआ हो तो इसमें आश्चर्य की बात ही कौनसी है । ऐसा दृढ़ विश्वास कर आमार्थी के लिये इन अवस्थाओं में कभी भी हर्ष और विषाद के लिये स्थान नहीं होना चाहिये ।
सूत्र में गोत्र पद उपलक्षण है इससे आठ मदों का - (१) जातिमद (२) कुलमद, (३) बलमद, (४) रूपमद, (५) लाभमद, (६) तपमद,
सर्वसुखान्यपि बहुशः, प्राप्तान्यऽटता मयाऽत्र संसारे । उच्च स्थानानि तथा तेन न मे विस्मयस्तेषु
॥ १ ॥
तथा - " अवमानात्परिभ्रंशाद्वघवन्धधनक्षयात् ।
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"
प्राप्ता रोगाश्च शोकाश्च, जात्यन्तरशतेष्वपि " ॥ २ ॥ इति
અધિક શું કહેવામાં આવે. જ્યારે વમાન પર્યાયમાં જ આ જીવની અનેક અવસ્થાએ થાય છે તે નજરે દેખાય છે તે. જન્મ જન્માંતરામાં તેની અનેક અવસ્થાએ થાય, અનેક વાર ઉંચ નીચ ગેાત્રમાં જન્મો થાય છે એમાં આશ્ચર્યની વાત કઈ છે. એવા દૃઢ વિશ્વાસ કરી આત્માર્થીને માટે આ અવસ્થા એમાં કાઈ વખત પણ હર્ષ અને શાકનુ સ્થાન હાવું ન જોઈ એ.
સૂત્રમાં ગોત્રપદ્મ ઉપલક્ષણ છે માટે આઠ મદોનું –(૧) જાતિમદ, (૨) કુળ भहु, (3) अणभद्द, (४) ३५भह, (4) सालभछ, (६) तयभह, (७) सूत्रभह,
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आचाराङ्गसूत्रे मानादिनिरसनेन कषायव्युदासस्तेन च संयमे दृढता विषये चादृढता, तया च सम्यग्ज्ञानाद्यधिगमस्तेन च मोक्ष इति क्रमेण सर्वथा मानापमानादौ हर्षक्रोधौ त्याज्याविति भावः। ___ यथा देशदेशान्तरं भ्रमन् पथिकः कचित् सुखं कचिद् दुःख लभते, कचिद् ग्रामे कचिदरण्ये वसति, कचित्समभूमिषु क्वचिच्च विषमभूमिषु शेते, क्वचित्स्वच्छजलं क्वचिद् दूपितजलं च पिवति, न च सुखदुःखे गणयति लक्ष्यगम्यदेशप्राप्तिकामः, तथैव प्रकृतेऽपि उच्चगोत्रादिमाप्तौ न हर्ष-शोको मुक्तिप्राप्तुकामेन संयमिना कार्याविति वर्तुलकार्थः ॥ मू० १॥ (७) सूत्रमद, (८) ऐश्वर्यमद का ग्रहण हो जाता है । मद भी अहंकार ही है, अतः इनका परित्याग कर देना चाहिये; क्योंकि जाति वगैरह से हीन होने पर भी आत्मा काल लब्धि आदि के प्राप्त होने पर धर्म का अधिकारी बन जाता है। धर्मप्राप्ति में जाति वगैरह बाधक नहीं होते हैं।
जिस प्रकार देश-देशान्तर में भ्रमण करने वाले प्राणी को कभी किसी स्थान पर सुख, कभी किसी जगह दुःख मिलता है। कभी वह ग्राम में वस जाता है कभी उसे वन में भी वसने का अवसर आता है, कभी प्रशस्त भूमि पर वह सो जाता है कभी कंटकाकीर्ण भूमि में ही पड़ रहता है, कभी मीठा खच्छ जल उसे पीने को मिलता है कभी खारा मलिन जल भी वह पी लेता है, तो भी इस विषय में वह सुख और दुःख नहीं मानता। उसे अपने लक्ष्य स्थान पर पहुंचने के लिये यह सब करना पड़ता है। उसी प्रकार प्रकृत में भी मुक्ति को चाहने वाले संयमी मुनि के (૮) ઐશ્વર્યમદનું ગ્રહણ થાય છે. મદ પણ અહકાર જ છે માટે તેનો પણ પરિત્યાગ કરી દેવે જોઈએ, કારણ કે જાતિ વિગેરેનું હીનપણું હેવા છતાં પણ આત્મા કાલ લબ્ધિ આદિના પ્રાપ્ત થવાથી ધર્મનો અધિકારી બની જાય છે, ધર્મપ્રાપ્તિમાં જાતિ વિગેરે બાધક થતા નથી
જેવી રીતે દેશદેશાન્તરમાં ભ્રમણ કરવાવાળા પ્રાણીને કઈ વખત કેઈ સ્થાનપર સુખ, કેઈવખત કોઈ જગ્યાએ દુઃખ મળે છે. કેઈ વખત ગામમાં વસે છે કેઈ વખત વગડામાં પણ રહેવાનો પ્રસંગ આવે છે કોઈ વખત પ્રશસ્ત ભૂમિ પર તે સુઈ જાય છે કેાઈ વખત કાંટાવાળી ભૂમિમાં પણ પડયું રહેવું પડે છે. કોઈ વખત મીઠું સ્વચ્છ પાણી પીવા મળે છે કઈ વખત ખારૂં મલિન પાણી પણ પીવા મળે છે તે પણ આ બધા વિષયમાં તે સુખ અગર દુઃખ સ ) નથી. તેને પિતાના લક્ષ્ય સ્થાને પહોંચવા માટે આ બધું કરવું પડે છે તે
તમાં પણ મુક્તિને ચાહવાવાળા સંચમમુનિ માટે ઉંચ નીચ ગોત્રની
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अध्य० २. उ. ३
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प्राणिनां सातं प्रियं भवतीति विचार्य्यं केषाञ्चिदपि प्राणिनामहितं न कर्त्तव्यम्। तदहिताचरणस्य यत्फलं भवति तद्दर्शयति - 'भूएहिं ' इत्यादि ।
मूलम् - भूएहिं जाण पडिलेह सायं, समिए एयाणुपस्सी, तं जहा - अंधत्तं बहिरत्तं मूयत्तं काणत्तं कुंटत्तं खुज्जत्तं वडभत्तं सामत्तं सबलत्तं, सह पमाएणं अणेगरूवाओ जोणीओ संधायइ, विरूवरूवे फासे संपरिवेयइ ॥ सू० २ ॥
छाया - भूतेषु जानीहि सातम् समित एतदनुदर्शी, तद्यथा - अन्धत्वं बधिरत्वं मूकत्वं काणत्वं कुब्जत्वं वडभत्वं श्यामत्वं शबलत्वं सह प्रमादेन अनेकरूपा योनी: सन्दधाति विरूपरूपान् स्पर्शान परिसंवेदयते ॥ ० २ ॥
लिये उच्च नीच गोत्र की प्राप्ति में भी हर्ष विषाद करना उचित नहीं है । इस प्रकार के विचार से मान आदि का जब आत्मा से अभाव हो जाता है तब कषाय का अभाव स्वतः सिद्ध होने से संयमी को संयम - भाव में दृढ़ता, और विषयादिकों में अदृढ़ता आ जाती है, इससे सम्यज्ञानादिक सद्गुणों की प्राप्ति होने से संयमी मुनि को मुक्ति का लाभ कालान्तर में या उसी भव में होजाता है । इस पूर्वोक्त कथन से संयमी मुनि को इस बात का भी सदा विचार करते रहना चाहिये कि मान और अपमान के कारण-कलापों की उपस्थिति होने पर मुझे हर्ष और विषाद नहीं करना चाहिये ॥ सू० १ ॥
सांसारिक प्राणियों को सातावेदनीय के उदय से सुख एवं सुखकारक सामग्री, तथा असातावेदनीय के उदय से दुःख एवं दुःखकारक પ્રાપ્તિમાં પણ હર્ષ શેક કરવા ઉચિત નથી. આ પ્રકારના વિચારથી માન આદિના જ્યારે આત્માથી અભાવ થઈ જાય છે ત્યારે કષાયનો અભાવ સ્વતઃ સિદ્ધ હૈાવાથી સચીને સંચમ ભાવમાં દૃઢતા અને વિષયાક્રિકોમાં અદૃઢતા આવી જાય છે. માટે સમ્યજ્ઞાનાદિક સદ્ગુણાની પ્રાપ્તિ હોવાથી સંયમી મુનિને મુક્તિના લાભ કાલાતરમાં અગર આ ભવમાં થાય છે.
આ પૂર્વોક્ત કથનથી સંયમી મુનિએ આ વાતનો પણ સદા વિચાર રાખવા જોઈએ કે–માન અને અપમાનના કારણકલાપોની ઉપસ્થિતિ હેાવાથી હ અને વિષાદ કરવું મારૂં કર્તવ્ય નથી. ૫ સૂ॰ ૧ u
સાંસારિક પ્રાણિયાને સાતાવેનીયના ઉદ્દયથી સુખ અને સુખકારક સામગ્રી, અને અસાતાવેદનીયના ઉદયથી દુઃખ અને દુઃખકારક
સામગ્રી પ્રાપ્ત થાય છે,
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आचाराङ्गसूत्रे
टीका- ' भूतेषु ' इति । अत्र मूले 'भूएहिं ' इति तृतीयान्तपाठः सप्तम्यर्थे, भूतेषु =भवन्ति, भविष्यन्ति, अभूवन् च सत्तारूपेणेति भूतानि=प्राणिनस्तेषु सातं= मुखं तद्विरुद्धं चासातं = दुःखं प्रत्युपेक्ष्य = मूक्ष्मधिया विचार्य जानीहि = बुध्यस्व । उपयोगलक्षणो जीवः कालत्रयेऽपि सत्तां दधाति, अतः प्राणिनस्त्रैकालिकसत्ताप्रति - पादनायात्र भूतशब्दोपादानं कृतमिति बोध्यम् ।
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सामग्री प्राप्त होती है, ऐसा विचार कर किसी भी प्राणी का जरा भी अहित नहीं करना चाहिये । अहित आचरण का जो फल होता है सो कहते हैं
C
'भूएहिं जाण' इत्यादि । प्रत्येक जीवात्मा चाहे वह दरिद्री हो, चाहे भिक्षुक हो; चाहे धनी हो; चाहे गुणी हो; कोई भी क्यों न हो; यही चाहता है कि हमको शांतिलाभ हो, सुख प्राप्त हो । चाहे आस्तिक हो या नास्तिक; सबका एक यही लक्ष्य है । इससे प्रतिकूल कोई भी नहीं मिलेगा । एक भिक्षुक जो दर दर का भिखारी बनकर अपने उदर का निर्वाह करता है उससे भी यदि प्रश्न किया जाय तो वह भी यही कहेगा कि, क्या करूँ, मुझे ज्ञाता - सुख नहीं है । अतः इस प्रकार के उसके कथन से यह बात सत्य साबित होती है कि वह भी शाता - सुख पाने का अभिलाषी है । किड़ी को भी कोई छूता है तो वह भय के मारे भागती है । वृक्ष के नीचे किसीने अग्नि जलाई हो तो, वह उसके आताप से मुरझा जाता है । लजवंती एक जात की वनस्पति होती है जो छूते ही संकुचित એવા વિચાર કરી કાઇ પણ પ્રણિત્તુ જરા પણ અહિત નહિ કરવું જોઈએ. અહિત આચરણનું જે ફળ હાય છે તે કહે છે
'भूपहिं जाण' इत्याहि प्रत्ये! लवात्मा लसे ते हरिद्री होय मगर लिक्षु હાય, ભલે ધની હોય ચાહે જીણી હાય ભલે કાઇ પણ પ્રકારના હોય પણ 'अभीने શાંતિને લાભ થાઓ, સુખ થાએ' ભલે નાસ્તિક હાય કે આસ્તિક પણ બધાનુ... આ એક જ લક્ષ્ય છે. એનાથી પ્રતિકૂળ કાઈ પણ કારણ મળશે નહિ. એક ભિક્ષુક જે ઘરઘરના ભિખારી બનીને પેાતાના પેટના નિર્વાહ કરે છે તેનાથી પણ એ પ્રશ્ન કરવામા આવે તો તે પણ એ જ કહેશે કે શુ કરૂ મને શાતા—સુખ નથી, માટે આ પ્રકારના તેના કથનથી એ વાત સત્ય સામિત થાય છે કે તે પણ શાતા-સુખ મેળવવાના અભિલાષી છે. કિડીને પણ કોઇ અડે છે તો તે પણ
દૂર ભાગે છે. વૃક્ષની નીચે કાઇએ અગ્નિ સળગાવી હાય તા તે તેના થી સુકાઈ જાય છે. લજવતી એક જાતની વનસ્પતિ હોય છે જે અડકવાથી
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आचारागसूत्रे शान्ति प्रदान करने की योग्यता नहीं है । यह तो हमारी कल्पना है, जो हमने इनमें सुखशान्ति मान रखी है । जिन जड़ स्थूल वस्तुओं में सुख की कल्पना करके साधारण मनुष्य भी जी-तोड परिश्रम कर रहे हैं, उनकी प्राप्ति होने पर भी उन्हें सुख नहीं मिलता, क्योंकि उनमें सुख प्रदान करने की शक्ति है नहीं। इसी से आज सारा संसार, चाहे वैभवसम्पन्न हो; चाहे दरिद्रावस्थापन्न हो; दुःखी ही है। यह दुःख तबतक नहीं मिट सकता जब तक सुख के वास्तविक स्वरूप का पता न लगा लिया जायगा, अथवा उसके स्थान का पूर्ण ज्ञान न हो जावेगा।
वास्तविक सुख क्या है ? इसका एक मात्र उत्तर है-निराकुलता। क्योंकि संसार में जब कभी इच्छाओं के शांत होने पर यत्-किञ्चित् सुख की अनुभूति होती है तब इससे इस बात का अनुमान भी लगाया जा सकता है कि कोई ऐसी भी अवस्था है कि जहां पर इसका पूर्णरूप से विकाश है । वह निराकुलता के सिवाय और कोई दूसरी अवस्था नहीं है। इस निराकुलता का पूर्णभोक्ता परमात्मा है। इसी का अभिलाषी प्रत्येक संसारी जीव है । इसी अभिप्राय को हृदय में रखकर सूत्रकार कहते हैं कि “भूतेषु जानीहि प्रत्युपेक्ष्य सातम्' हे भव्य ! प्रत्येक जीवों में व्यक्त और अव्यक्तरूप से शातारूप जो सुख है उसकी अभिलाषा યેગ્યતા નથી, એ તે અમારી કલ્પના છે, જે અમે તેમાં સુખ શાન્તિ માની રાખેલ છે. જે જડ અને ચૂળ વસ્તુઓમાં સુખની કલ્પના કરીને સાધારણ મનુષ્ય પણ જીવતેડ પરિશ્રમ કરે છે. તેને પ્રાપ્તિ થવા છતા પણ તેને સુખ મળતું નથી કારણ કે તેમાં સુખ પ્રદાન કરવાની શક્તિ છે જ નહિ. એટલા માટે આજ સારે સંસાર ભલે વિભવ સંપન્ન હોય અગર દરિદ્રાવસ્થાપન્ન હય, દુખી જ છે. એ દુખ ત્યાં સુધી મટી શકતું નથી જ્યાં સુધી સુખનું વાસ્તવિક સ્વરૂપ હાથ ન લાગે, અગર તેના સ્થાનનું પૂર્ણ જ્ઞાન ન થાય
વાસ્તવિક સુખ શું છે? તેને એક માત્ર ઉત્તર છે–નિરાકુળતા. કારણ કે સંસારમાં જ્યારે કઈ વખત ઈચ્છાઓના શાંત થવાથી જરાક સુખની અનુભૂતિ થાય છે ત્યારે તેથી એ વાતને અનુમાન કરવામાં આવે છે કે-કઈ એવી પણ અવસ્થા છે કે જે ઠેકાણે તેને પૂર્ણ રૂપથી વિકાશ છે, તે નિરાકુળતા સિવાય બીજી કઈ અવસ્થા નથી. આ નિરાકુળતાને પૂર્ણ ભક્તા પરમાત્મા છે. તેને અભિલાષી પ્રત્યેક સંસારી જીવ છે. આ અભિપ્રાયને હૃદયમાં રાખીને સૂત્રકાર
छे-"भूतेपु जानीहि प्रत्युपेक्ष्य सातम्" हे लव्य । प्रत्येमा व्यरत અને અવ્યક્ત રૂપથી શાતારૂપ જે સુખ છે, તેની અભિલાષા છુપાયેલી છે, તે
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छुपी हुई है, इस बात का तूं अपनी सूक्ष्म बुद्धि से विचार कर। इस सूत्र के अवतरण में जो सातावेदनीयजन्य सुख के अभिलाषी प्रत्येक जीव को बतलाया गया है वह इसी निराकुलतारूप सुख का परम्पराकारण होने से ही प्रकट किया गया है। क्योंकि यह निश्चित सिद्धान्त है जो सातावेदनीय कर्म के उदय से सांसारिक वैभवजन्य सुख प्राप्त होगा वह क्षणिक - विनश्वर होगा, तथा उसका उदय दुःखों से अन्तरिम - छुपा हुवा होगा । इसलिये ऐसे सुख से आत्मा साक्षात् निराकुलतारूप परि
ति का सदा भोक्ता नहीं बन सकता। हां ! सांसारिक सुख की सामग्री यदि जीवों के पास है, और यदि उनके चित्त में हेयोपादेय का विवेक जागृत है तो वे उसके द्वारा कुछ अंशों में सांसारिक कार्यों से निराकुल बनकर शुभ धार्मिक क्रियाओं का आराधन भलीभांति कर सकते हैं। इस अवस्था में उनके शुभभावों की क्रमशः जागृति होती है, और वह उन्हें परम्परारूप से आत्मकल्याणकारी मार्ग का अधिकारी बना देती है । जो भवाभिनंदी है अथवा जिस किसी प्रकार से अपना स्वार्थ साधन करने में ही मस्त है, 'अपने सुख में ही सबका सुख समाया हुआ है'. जो इस दुर्भावना का वशवर्ती है, "सातवेदनीय के उदय से जिस प्रकार
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વાતને તું તારી પોતાની સૂક્ષ્મ બુદ્ધિથી વિચાર કર. આ સૂત્રના અવતરણમાં જે સાતાવેદનીયજન્ય સુખના અભિલાષી પ્રત્યેક જીવને ખતાવવામાં આવ્યા છે, તે આ નિરાકુલતારૂપ સુખના પર પરાકારણ હાવાથી પ્રકટ કર્યાં છે, કારણ કે એ નિશ્ચિત સિદ્ધાંત છે—જે સાતાવેઢનીય કર્મના ઉદ્દયથી સાંસારિક વૈભવજન્ય સુખ પ્રાપ્ત થશે તે ક્ષણિક વિનશ્વર હશે, અને તેને ઉડ્ડય દુઃખથી અન્તરિમ છુપાયેલા હશે માટે એવા સુખથી આત્મા સાક્ષાત્ નિરાકુલતારૂપ પરિણતિનો સદા ભક્તા ખની શકતા નથી. હાં, સાંસારિક સુખની સામગ્રી કદાચ જીવાની પાસે છે, અને કદાચ તેના ચિત્તમાં હૅચેાપાદેયને વિવેક જાગ્રત છે તેા તે તેના દ્વારા ઘેાડા અંશોમાં સાંસારિક કાર્યાંથી નિરાકુળ બનીને શુભ ધાર્મિક ક્રિયાઓનું આરાધન ભલીભાંતિ કરી શકે છે. આ અવસ્થામાં તેના શુમ ભાવાની ક્રમશઃ જાગૃતિ થાય છે, અને તે તેને પર પરાથી આત્મકલ્યાણકારી માર્ગોના અધિકારી બનાવી દે છે, જે ભવાભિની છે અથવા જેકોઈ પ્રકારથી પેાતાના સ્વાર્થ સાધવામાં જ મસ્ત છે પેાતાના સુખમાં જ ખધાના સુખ સમાચેલા છે ' જે આવી દુર્ભાવનાને વશવતી છે, “સાતાવેદનીયના ઉદયથી જેવા પ્રકારે
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आचारागसूत्रे समितः पञ्चसमितिभिः समितः सन् एतदनुदर्शी-एतत्सुखं दुःखं वा वक्ष्यमाणं वाऽन्धत्वादिकं द्रष्टुं-विलोकितुं शीलं यस्य स एतदनुदर्शी-माणिशुभाशुभावलोकी त्वं जातिकुलादिमदजनितकटुकर्मविपाकमन्धत्वादिकं ज्ञात्वा भूतेषु सातं जानीहि, इति सम्बन्धः । तदेव दर्शयति-'तद्यथे'-त्यादिना । हम सांसारिक वैभव के भोक्ता बनें हैं, वैसे ही दीन दुःखी जीव असातावेदनीय के उदय से दुःख दरिद्रावस्था के भोक्ता बने हैं, फिर हमें इनके दुःख को दूर करने की और इन्हें सुख पहुंचाने की क्या आवश्यकता है ? क्योंकि हम किसी के कर्मोदय कोतो मेट सकते नहीं हैं।" इत्यादि दुर्भावनाओं से जिनका अन्तःकरण दूषित है-वे 'प्रत्येक संसारी जीव सुखाभिलाषी है' इस बात को नहीं समझ सकते। इसे समझने के लिये सूक्ष्म-सद्ज्ञानरूपी बुद्धि, एवं संयम जीवन की आवश्यकता है। इसीका खुलाशा करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि-'समिए एयाणुपस्सी समितः एतदनुदर्शी। जो समितियों के पालन करने में सावधान है, जिसकी चित्तवृत्ति जीवों को दुःखित देखकर द्रवित हो जाती है, जो जीवों की रक्षा करने में सदा सावधान रहते हैं, जिनकी प्रत्येक क्रिया यतनापूर्वक होती है, ऐसे समितिपालक संयमी मुनि ही 'एतदनुदर्शी' इस बात का अनुभव कर सकते हैं। पांच समितियों के आराधन करने का उद्देश्य जीवों की एकमात्र रक्षा करना है, इसमें स्व और पर दोनों की रक्षा आजाती है । ईर्यासमिति में लवलीन साधु-झूसराप्रमाण दृष्टि से અમે સાંસારિક વિભવનાં ભોક્તા બન્યા છીએ તેવી જ રીતે એ દીન દુખી જીવ અસાતાદનીયના ઉદયથી દુઃખ દરિદ્રાવસ્થાના ભક્તા બન્યા છે. પછી અમને તેના દુઃખાને દૂર કરવાની અને તેમને સુખ પહોંચાડવાની શું આવશ્યકતા છે? કારણ કે અમે કેઈને કર્મોદયને મિટાવી શકતા નથી ” ઈત્યાદિ દુર્ભાવનાઓથી જેનું અંતઃકરણ દૂષિત છે તે “પ્રત્યેક સંસારી જીવ સુખાભિલાષી છે એ વાતને સમજી શકતા નથી. તેને સમજવાને માટે સૂક્ષ્મ સજ્ઞાનરૂપી બુદ્ધિ અને સંયમ જીવનની આવ श्यता छ, तना भुतासो ४२di सूत्र छ -' समिए एयाणुपस्सी' समित. पतदनुदर्शी, २ समितियाना पासन ४२वामा सावधान छ, नायित्तवृत्ति वानी રક્ષા કરવામાં સદા સાવધાન રહે છે, જેની પ્રત્યેક કિયા ચતનાપૂર્વક થાય છે, એવા समितियाण संयमा भुमि 'एतदनुदर्शी' से पातन मनुलव ४३ श छे. પાંચ સમિતિઓનું આરાધન કરવાને ઉદ્દેશ્ય છની એક માત્ર રક્ષા કરવાની છે. તેમાં સ્ત્ર અને પર બનેની રક્ષા આવી જાય છે. ઈસમિતિમાં વિલીન સાધુ
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मध्य० २. उ. ३ मार्ग को देखकर चलता हुवा मुनि सदा इस बात का पका ध्यान रखता है कि कहीं कोई छोटा मोटा जीव मेरे पैर के नीचे आकर प्राणों से वियुक्त न हो जाय । इसमें पर के प्राणों का रक्षण के साथ २ अपने अहिंसारूप महाव्रत का संरक्षण अच्छी तरह से होता रहता है।१। भाषासमिति में प्रवृत्त साधु सदा हित-मित-वचन बोलेगा, दूसरे जीवों को जिस वचन से कष्ट पैदा हो, इस प्रकार के सावद्य व कठोर वचन नहीं बोलता है । इस समिति से सत्य महाव्रत की रक्षा होती है।२। एषणासमिति में प्रवृत्त संयमी मुनि सिर्फ संयम यात्रा का निर्वाह के लिये भ्रमरभिक्षा द्वारा शुद्ध-निर्दोष प्रासुक आहार ग्रहण करता है।३।
आदाननिक्षेपण-समिति में मुनि अपने संयम के उपकरणों की उभय -दोनों काल प्रतिलेखनाकर उनके लेने और रखने में यतना करता है।४। प्रतिष्ठापना-समिति में मुनि जीवरहित स्थान में मल-मूत्रादिक परिठवता है।५। इन समितियों में प्रवृत्ति करने वाले संयमी मुनि 'सब ही जीव सुख चाहते हैं। ऐसा अनुभव करते हैं । जो वर्तमान में सत्तारूप से रहते हैं, भविष्यत् काल में भी जो सत्तारूप से रहेंगे, एवं भूतकाल में जो सत्तारूप से रहे हैं वे भूत हैं। सूत्रकार ने जीव प्राणी आदि शब्दों का प्रयोग न कर उसकी त्रैकालिक सत्ता प्रतिपादन करने के लिये “भूत" બુસરપ્રમાણ દૃષ્ટિથી માર્ગને દેખીને ચાલતાં સદા આ વાતને ખ્યાલ રાખે છે કે કેઈ નાના મોટા જીવ મારા પગ નીચે આવી પ્રાણથી વિમુક્ત ન થઈ જાય. તેમાં બીજાના પ્રાણોના રક્ષણની સાથે સાથે પોતાના અહિંસારૂપ મહાવ્રતનું સંરક્ષણ સારી રીતે થાય છે (૧). ભાષા સમિતિમાં પ્રવૃત્ત સાધુ સદા હિત–મિત વચન બેલશે, બીજા જીને જે વચનથી કષ્ટ પેદા થાય તે પ્રકારના સાવધ કઠેર વચન બોલતા નથી, આ સમિતિથી સત્યમહાવ્રતની રક્ષા થાય છે (૨). એષણસમિતિમાં પ્રવૃત્ત સંયમી મુનિ ફક્ત સંયમયાત્રાના નિર્વાહ માટે ભ્રમરભિક્ષા દ્વારા શુદ્ધ નિર્દોષ પ્રાસુક આહાર ગ્રહણ કરે છે. (૩). આદાનનિક્ષેપણ સમિતિમાં મુનિ પિતાના સંચમના ઉપકરણોની ઉભય-બને કાળ પ્રતિલેખના કરી તેના લેવામાં અને રાખવામાં ચતના કરે (૪). પ્રતિષ્ઠાપનાસમિતિમાં મુનિ જીવરહિત સ્થાનમાં મળ મૂત્રાદિક પરિઠવે (૫). આ સમિતિઓમાં પ્રવૃત્તિ કરવાવાળા સંચમી મુનિ “બધા જ સુખ ચાહે છે” એ અનુભવ કરે છે. જે વર્તમાનમાં સત્તા રૂપથી રહે છે, ભવિષ્ય કાળમાં પણ જે સત્તારૂપથી રહેશે અને ભૂતકાળમાં જે સત્તા રૂપથી રહેલા છે તે ભૂત છે. સૂત્રકારે જીવ પ્રાણી આદિ શબ્દના પ્રાગ ન કરી तेनी सि सत्ता प्रतिपादन ४२१। भाटे “भूत" ये शमन सूत्रमा प्रयोग
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अध्य० २. उ. १
सोपक्रमायुर्नाम अप्राप्तकालस्यायुषो निर्जरणम् । तद्भिन्नं निरुपक्रमायुः। यदा जीवः स्वायुषस्तृतीयभागे तृतीयभागतृतीयभागे वा जघन्यत एकेन द्वाभ्यां वोत्कृष्टतः सप्तभिरष्टभिर्वाऽऽकर्षैरथवाऽन्तर्मुहर्तप्रमाणस्वरूपेऽन्तकाले स्वात्मप्रदेशनाडिकान्तवर्तिन आयुष्कर्मवर्गणापुद्गलान्प्रयत्नविशेषेणायुष्कतया रचयति तदा निरुपक्रमायुभवति, तद्भिन्नं सोपक्रमायुः । आकर्षश्च तथाविधेन प्रयत्नेन कर्मपुद्गलोपादानम् । ___ ननु कथमेकेन द्वाभ्यां त्रिभिः सप्तभिरष्टभिर्वाऽऽकरायुर्वप्नातीति चेदाह
हे भदन्त ! जीव सोपक्रम-आयुवाले होते हैं या निरुपक्रम-आयुवाले ? हे गौतम ! जीव दोनों प्रकार के आयुवाले होते हैं सोपक्रमआयुवाले भी होते हैं और निरुपक्रमआयुवाले भी।
जीवको जितना अपने भवके आयुका बंध हुआ है उतने का उद्यानुसार भोग हुए विना ही किसी निमित्त के वश पहिले ही क्षय होनेका नाम सोपक्रम आयु है । इससे विपरीत निरुपक्रम आयु है।
जिस समय जीव अपनी आयु के तृतीय भागमें अथवा तृतीय भाग के भी तृतीय भागमें कमसे कम एक या दो आकर्षों से ज्यादा से ज्यादा सात या आठ आकर्षों से अथवा अन्तसमय के अन्तर्मुहूर्त-प्रमाणकालमें अपनी आत्माके प्रदेशों की नाडिका के भीतर रहे हुए आयुकर्मकी वर्गणा के पुद्गलस्कन्धोंको प्रयत्नविशेष से आयुपने परिणमाता है उस समय निरुपक्रम आयु का बन्ध होता है। इससे विपरीत सोपक्रम आयु का बन्ध होता है। उस प्रकार के प्रयत्न से कर्मपुद्गलों का ग्रहण करना आकर्ष है।
_હે ભદન્ત! જીવ સોપક્રમ આયુવાળાં હોય છે કે નિરૂપકમ આયુવાળાં? હે ગૌતમ! જીવ અને પ્રકારની આયુવાળા થાય છે. સેપક્રમ આયુવાળાં પણ થાય છે અને નિરૂપકમ આયુવાળાં પણ થાય છે.
જીવને જેટલે પિતાના ભવની આયુને બંધ થશે છે તેટલાને ઉદયાનુસાર ભેગા થયા વગર કોઈ નિમિત્તથી પહેલાં જ ક્ષય હેવાનું નામ સેપકમ આયુ છે, તેનાથી વિપરીત નિરૂપકમ આપ્યું છે. જે વખતે જીવ પિતાની આયુના તૃતીય ભાગમાં અથવા તૃતીય ભાગના પણ તૃતીય ભાગમાં ઓછામાં ઓછા એક અગર બે આકથી વધારેમાં વધારે સાત અગર આઠ આકર્ષોથી અથવા અત સમયના અન્તર્મુહૂર્ત પ્રમાણુ કાળમાં પિતાના આત્માના પ્રદેશની નાડિની અંદર રહેલા આયુકર્મની વર્ગણાના પુદ્ગલસ્કોને પ્રયત્નવિશેષથી આયુપણે પરિણામે છે, તે સમય નિરૂપકમ આયુનો બંધ કરે છે. તેનાથી વિપરીત સોપકમ આયુ બાંધે છે. આ પ્રકારના પ્રયત્નથી કર્મ પુદ્ગલેનું ગ્રહણ કરવું આકર્ષ છે.
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आधाराशस्त्रे अन्धवम् उपहतनेत्रत्वं द्रव्यतो भावतोऽपि भवति, तथैकेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिया द्रव्यभावान्धाः। चतुरिन्द्रियो मिथ्याष्टिपञ्चेन्द्रियश्चौभौ भावान्धौ, द्रव्यभावभेदभिन्नमन्धत्वं नियमतो दुःखजनकं भवति । एवं वधिरत्वं-कर्णापाटवं, द्रव्यतो वधिरः श्रवणशक्तिरहितः, भाववधिरो जिनवचनश्रवणविकलः। मूकत्वं वचनविकलत्वं द्रव्यतः, भावतो मूको मिथ्यावाद्यभिनिवेशेन स्वदोषापहवाय जिनवचनाप्रतिपादकः । इस शब्द का सूत्र में प्रयोग किया है । उपयोगलक्षणवाला जीव तीनों काल में भी सत्ता से रहित नहीं होता है, इसलिये प्राणी की त्रैकालिक सत्ता प्रतिपादन करने के लिये सत्रकारने इस सूत्र में भूत"शब्द का प्रयोग किया है । अतः जब संसार का प्रत्येक प्राणी सुखाभिलाषी है, तव उसके साथ अत्याचार-अनर्थ कर उन्हें दुःखित करनेवाला प्राणी स्वयं अपने को दुःखित करने की चेष्टा करता है। जाति और कुलादिक के अभिमान से उन्मत्त बनकर जो दूसरों को हीन समझता है, तथा'तूंअंधा है, तूं बहिरा है, तूं मूगा है' इत्यादि प्रकार के कर्कश शब्दों द्वारा जो दूसरों का तिरस्कार करता है वह अपनी कषायपरिणति से आत्मा को मलिन करता हुआ तनुपार्जित कर्म के कटुक विपाक को अवश्य भोगता है। इसी बात का दिग्दर्शन कराते हुए सूत्रकार कहते हैं कि-"अन्धत्वं मूकत्वं" इत्यादि । देखने की शक्ति की अभिव्यक्ति से रहित होना इसका नाम अन्धत्व है, यह अंधापना द्रव्य और भाव के भेद से २ प्रकारका है। एकेन्द्रिय, जीव दोइन्द्रियजीव और तीनइन्द्रिय जीवों में दोनों प्रकार से अंधता है। पौगलिक द्रव्यइन्द्रियरूप चक्षु-इन्द्रिय की विकलता द्रव्य-अन्धता है, કરેલ છે. ઉપગ લક્ષણવાળા જીવ ત્રણે કાળમાં પણ સત્તાથી રહિત થતા નથી, માટે પ્રાણીની સૈકાલિક સત્તા પ્રતિપાદન કરવા માટે સૂત્રકારે આ સૂત્રમાં સૂત શબ્દને પ્રવેગ કર્યો છે માટે જ્યારે સંસારના દરેક પ્રાણી સુખાભિલાષી છે ત્યારે તેની સાથે અત્યાચાર–અનર્થ કરી તેને દુખ દેવાવાળા પ્રાણી સ્વયં પિતાની જાતને જ દુખિત કરવાની ચેષ્ટા કરે છે. જાતિ અને કુળાદિકના અભિમાનથી ઉન્મત્ત બનીને જે બીજાને હીન સમજે છે, અને “તું આધળો છે, તું બહેરે છે, તે મુંગો છે ઈત્યાદિ પ્રકારનાં કર્કશ શબ્દો દ્વારા જે બીજાને તિરસ્કાર કરે છે તે પોતાની કષાય પરિણતિથી આત્માને મલિન કરે છે. તદુપરાજીત કર્મના કટુક વિપાકને અવશ્ય ભગવે છે. આ વાતનો हिनशक्तi सूत्र डे छे-" अन्धत्व भूकत्वं" त्याहि. भवानी शतिनी અભિવ્યક્તિથી રહિત થવું તેનું નામ અંધત્વ છે. તે અંધાપણું દ્રવ્ય અને ભાવના દથી બે પ્રકાર છે. એકેન્દ્રિય જીવ, બેન્દ્રિય જીવ અને ત્રણ ઈન્દ્રિય જીવમાં પ્રકારથી અંધતા છે. પોદ્દગલિક દ્રવ્ય-ઈન્દ્રિયરૂપ ચક્ષુ-ઈન્દ્રિયની વિકલતા
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अध्य० २. उ. ३
किञ्च - काणत्वम् = एकाक्षत्वं द्रव्यतः, भावतः काणत्वं - निश्चयव्यवहारयोर्ज्ञानक्रिययोर्वैकपक्षग्राहित्वम् । कुण्टत्वं कुटिलहस्तत्वादिकं द्रव्यतः, भावतः कुण्टत्वं प्रतिलेखनादिक्रियाराधने वक्रत्वम् । कुब्जत्वं वक्रशरीरत्वं द्रव्यतः, भावतः कुटिलक्रियत्वम् । वडभस्वं= वक्रपृष्टत्वादिकं द्रव्यतः, भावतः परमर्मप्रकाशकत्वम् । श्यामस्वं=कालिमा द्रव्यतः, भावतो मलिनाचारस्त्रम्, शवलत्वम् = श्वेतकुष्ठत्वादिकं द्रव्यतः, भावतः शबलदोषवत्त्वम् । अत्रान्धत्वादिकमुपलक्षणं पत्रादेर्वोध्यम् ।
और भावइन्द्रिय की विकलता भाव-अन्धता है । चतुरिन्द्रिय और मिथ्यादृष्टि पंचेन्द्रिय जीव भावान्ध हैं, क्योंकि बाह्य में द्रव्येन्द्रियरूप चक्षुरिन्द्रिय होने पर भी ये पदार्थ के यथार्थ स्वरूपावलोकन से रहित होते हैं। दोनों प्रकार से अन्धता होनी, यह प्राणी के लिये नियम से दुःखोत्पादक होती है । इसी प्रकार बधिरत्व, मूकत्व, काणत्व आदि भी द्रव्य और भाव के भेद से दो दो प्रकार के होते हैं। उनमें अपने विषय को ग्रहण करने की शक्ति से श्रवणेन्द्रिय की विकलता का नाम बधिरता है। सुनने की शक्ति से रहित होना यह द्रव्य-बधिरता, और जिनेन्द्र वचनों को सुनने में प्रेम तथा अनादर भाव का होना, या उनके वचनों को श्रवण करने की विकलता होनी यह भाव -बधिरता है । वचन बोलने की शक्ति की अभिव्यक्ति से रहित होना इसका नाम मूकत्व है। प्राकृत संस्कृतादिरूप अपनी २ मातृभाषा में बोलने की हीनता का नाम द्रव्य-मूकता, एवं मिथ्यात्वादिक के अभिनिवेश के वश से अपने दोषों को छुपाने के लिये દ્રવ્યંધતા છે. અને ભાવ-ઈન્દ્રિયની વિકલતા ભાવઅંધતા છે. ચાર ઇંદ્રિયવાળા અને મિથ્યાસૃષ્ટિ પંચેન્દ્રિય જીવ ભાવાન્ધ છે, કારણ કે બાહ્યમાં દ્રવ્યેન્દ્રિય રૂપ ચક્ષુરિન્દ્રિય થવાથી પણ તે પદાર્થાંનુ યથાર્થ સ્વરૂપાવલાકનથી રહિત હોય છે. અન્ને પ્રકારથી અધતા થવી તે પ્રાણી માટે નિયમથી દુઃખાત્પાદક થાય છે. આ પ્રકાર બહેરાપણુ, મુંગાપણુ, આંધલાપણું આદિ પણ દ્રવ્ય અને ભાવના ભેઢથી બે પ્રકારે હેાય છે. તેમાં પેાતાના વિષયને ગ્રહણ કરવાની શક્તિથી શ્રવણેન્દ્રિયની વિકલતાનુ નામ અધિરતા છે. સાંભળવાની શક્તિથી રહિત થવું તેદ્રવ્ય—મહેરાપણુ, અને જીનેન્દ્રવચન સાંભળવામાં પ્રેમ અને અનાદર ભાવ હાવા, અગર તેમના વચના સાંભળવાની વિકલતા થવી તે ભાવ-મધિરતા છે. વચન મેાલવાની શક્તિની અભિવ્યક્તિથી રહિત થવું તેનું નામ મૂકત્વ છે. પ્રાકૃતસંસ્કૃતાદિરૂપ પોતપોતાની માતૃભાષામાં ખાલવાની હીનતાનુ નામ દ્રવ્યમૂકતા, અને મિથ્યાત્વાદિકના અભિનિવેશનાવશથી પેાતાના દાષાને છુપાવા માટે જિનવચનાનું પ્રતિપાદન નહિ
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आवाराणसूत्रे जिनवचनों का प्रतिपादन नहीं करना इसका नाम भाव-भूकत्व है। एक आंख का होना यह द्रव्य से काणत्व है, और निश्चय एवं व्यवहार नय में से, अथवा ज्ञान और चारित्र में से किसी एक का एकान्तरूप से पक्ष ग्रहण करना भाव से काणत्व है। हाथ पांव आदि अंग उपांगों की वक्रता द्रव्य-कुंटत्व, और प्रतिलेखनादि क्रियाओं के करने में अनादर या छल-कपट करना यह भाव-कुंटत्व है। सामान्यतया शरीर का टेढापन अथवा शरीर में कूबड वगैरह का निकलना यह द्रव्य से कुजत्व है। कुटिलक्रियापने का नाम भाव से कुब्जत्व है। पृष्ठ भाग वगैरह का वक्र होना यह द्रव्य से वडभत्व है, दूसरों के गुप्त कार्यों एवं अनेक रहस्यों का प्रकाशन करना यह भाव से वडभत्व है। शरीर में कृष्णता का होना यह द्रव्य से श्यामता-मलिनता, तथा हीन आचरणी होना यह भाव से श्यामता है। शरीर में सफेद कुष्ट वगैरह का होना द्रव्य से शबलता, तथा दोषविशिष्टता भाव से शबलत्व है। सूत्र में अन्धत्वादि पद उपलक्षण रूप है, इससे पशुपने आदि का भी ग्रहण कर लेना चाहिये। इन सब बातों को दिखाने का अभिप्राय यही है कि प्राणी किसी भी मद् के आवेश में आकर दूसरों के प्रति ऐसे कषायविशिष्ट बनकर अपशब्दों या दूसरों के मर्मस्थल को भेदने वाले कठोर शब्दों का प्रयोग न करे। કરવું તેનું નામ ભાવમૂકત્વ છે. એક આખનું હોવું તે દ્રવ્યથી કાણુત્વ છે, અને નિશ્ચય અને વ્યવહાર નયમાંથી અથવા જ્ઞાન અને ચારિત્રમાંથી કઈ એકનું એકન્તરૂપે પક્ષ ગ્રહણ કરે તે ભાવથી કાણત્વ છે. હાથ–પગ આદિ અંગ ઉપાંગોની વકતા દ્રવ્યકુખ્યત્વ અને પ્રતિલેખનાદિ ક્રિયાઓ કરવામાં અનાદર અગર છલકપટ કરવું એ ભાવકુટત્વ છે. સામાન્ય રીતે શરીરનું વાકાપણું અને શરીરમાં કે વિગેરેનું નિકળવું તે દ્રવ્યથી કુમ્ભત્વ છે. કુટિલકિયાપણાનું નામ ભાવથી કુન્જત્વ છે. પૃષ્ઠભાગ વિગેરેનું વક થવું તે દ્રવ્યથી વડભત્વ છે. બીજાના ગુપ્ત કાર્યો અને અનેક રહસ્યોનું પ્રકાશન કરવું તે ભાવથી વડભત્વ છે. શરીરમાં કાળાશ થવી તે દ્રવ્યથી શ્યામતા-મલિનતા, અને હીન આચરણ થવું તે ભાવથી સામતા છે. શરીરમાં સફેદ કેઢ નીકળવે તે દ્રવ્યથી શખેલતા અને શબલ
વિશિષ્ટતા ભાવથી શબલતા છે. સૂત્રમાં અન્યત્વાદિ પદ ઉપલક્ષણરૂપ છે. તેથી લંગડાપણું આદિનું પણ ગ્રહણ કરી લેવું જોઈએ. આ બધી વાતને દેખાડવાને અભિપ્રાય એ છે કે–પ્રાણી કઈ પણ મદના આવેશમાં આવીને બીજાઓના પ્રતિ એવા કષાયવિશિષ્ટ બની અપશબ્દને અગર બીજાના મર્મસ્થળને ભેદવા
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मध्य० २. उ. ३ ___ दुःखं च कोऽपि नेच्छति परन्तु कर्मवशात्मायशः सर्वेऽपि सावधक्रियावन्तो नितान्तदुःखिता भवन्तीति भावः ।।
अपिच-'सहे 'ति, प्रमादेन अनवधानेन सह-साई समितिविकलोऽनवधानवान् अनेकरूपाः संतृत-विकृत-रूपा योनीः सन्दधाति-सन्धत्ते, चतुरशीतिलक्षयोनिसम्बन्धाविच्छेदेनात्मना सह संघट्टनं करोति । तासु च योनिषु विरूपरूपान् बहुविधान् स्पर्शान-दुःखानि परिसंवेदयते-जानाति, नानाविधयोनिघूत्पन्नो जीवो बहुविधां नरकनिगोदादियातनां समनुभूय नितान्तं खिन्नो भवतीति तात्पर्यम् । क्यों कि इस प्रकार के वचनों से एक तो बोलनेवालों के लिए भावहिंसा का दोष लगता है और दूसरों के चित्त में शोक आदिका उत्पादक होने से द्रव्यहिंसा का भी दोष आता है। इस हिंसा से अनेक अशुभ कर्मों का बंध होता है। आत्मप्रशंसा एवं पर की निंदा करना, तथा अपने दुर्गुणों को सद्गुण का रूप देकर गर्वोन्मत्त बन उन्हें प्रकाशित करना,
और दूसरों के सद्गुणों में भी दूषण लगाना या उन्हें दुर्गुणरूप में प्रकट करना इससे नीच गोत्र का बन्ध होता है, इससे जीव अनेक कुयोनियों में जन्म धारण कर हीनआचरणी आदि होता है। किसी धर्मात्मा के ज्ञान एवं दर्शन के विषय में प्रशंसा का नहीं सुहाना, किसी कारण से अपने ज्ञान का छुपाना, मात्सर्य भाव का रखना, किसी के ज्ञान अथवा दर्शन में विघ्न करना, इनसे ज्ञानावरण, नथा दर्शनावरण कर्म का जीव बंध करता है । इसका फल जीवों के ज्ञान एवं दर्शन गुणों का घात होना है। વાળા કઠેર શબ્દોને પ્રયોગ ન કરે, કારણ કે આ પ્રકારે વચનથી એક તે બેલવાવાળાને ભાવહિંસાનો દેષ લાગે છે, અને બીજાના ચિત્તમાં શેક આદિના ઉત્પાદક થવાથી વ્યહિંસાને પણ દોષ લાગે છે. આ હિંસાથી અનેક અશુભ કર્મોને બંધ થાય છે. આત્મપ્રશંસા અને પારકાની નિંદા કરવી અને પોતાના દુર્ગણોને સદ્દગુણનું રૂપ આપીને ગર્વોન્મત્ત બની તેને પ્રકાશિત કરવું, અને બીજાના સદ્ગુણોમાં પણ ફૂષણ લગાડવું અગર તેને દુર્ગણ રૂપમાં પ્રગટ કરવું તેનાથી નીર ગોત્રને બંધ થાય છે, તેનાથી જીવ અનેક કુનિઓમાં જન્મ ધારણ કરી હનાચરણ આદિ થાય છે. કેઈ ધર્માત્માનાં જ્ઞાન અને દર્શન વિષયમાં થતી પ્રશંસાને સહન નહિ કરવી, કઈ કારણથી પોતાના જ્ઞાનને છુપાવવું, માત્સર્ય ભાવ રખ, કેઈના જ્ઞાન અને દર્શનમાં વિન કરવું, તેનાથી જીવ જ્ઞાનાવરણુ, અને દર્શનાવરણ કર્મને બંધ કરે છે. તેનું ફળ જીવોને જ્ઞાન અને દર્શન ગુણનાં
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आधारागसूत्रे निज और पर के विषय में दुःख, शोक आदि करने कराने से असातवेदनीय कर्म का बन्ध होता है, जिसका फल जीव को कभी भी साता नहीं मिलना है । संसार के समस्त प्राणी और व्रती-अणुव्रती या महाव्रती जीवों की सेवा करना, निज और पर के उपकार के लिये योग्य वस्तु का दान देना, सरागसंयम का पालन करना, क्रोधादिकषायों की शान्ति होनी और लोभ का त्याग करना आदि कार्यों से जीव के सात वेदनीय कर्म का बंध होता है इसकी वजह से जीवों को सदा सुखकारी वस्तुओं का समागमरूप सांसारिक सुखों की प्राप्ति होती है । केवली का अवर्णवाद, श्रुतका अवर्णवाद, तथा संघ आदि का अवर्णवाद करना, इससे दर्शनमोहनीय कर्म का बंध होता है, जिसका फल समकित गुण की प्राप्ति जीव को नहीं होती। कषाय के उदय से परिणामों में तीव्रता रहना, इससे चारित्र मोहनीय का बन्ध होता है, जिसका फल जीव कभी भी चारित्र धर्म को अंगीकार नहीं कर सकता । योगों की कुटिलता का होना तथा शास्त्रप्रतिपादित मार्ग से अन्यथा प्रवृत्ति करना, इससे अशुभ नाम कर्म का बंध होता है। इससे जीव एकेन्द्रियादि अनेक कुयोनियों में जन्म धारण करता है। कभी चक्षुविकल होता है, कभी આઘાતરૂપ થાય છે. બીજાના અને પિતાના વિષયમાં દુખ શેકાદિ કરવાકરાવવાથી અસાતવેદનીય કર્મને બંધ થાય છે. જેનાથી જીવને કઈ વખત પણ સાતા મળતી નથી. સંસારના સમસ્ત પ્રાણ અને ગ્રતી–અણુવ્રતી કે મહાવતી જીની સેવા કરવી, પિતાના અને પારકાના ઉપકાર માટે એગ્ય વસ્તુનું દાન દેવું, સરાગ યમનું પાલન કરવું, કોધાદિ કષાયેની શાંતિ થવી, અને લોભને ત્યાગ કરવો આદિ કાર્યોથી જીવને સાતવેદનીય કર્મને બંધ થાય છે, તેનાથી જીવોને સદા સુખકારી વસ્તુઓના સમાગમરૂપ સાસારિક સુખોની પ્રાપ્તિ થાય છે. કેવળીને અવર્ણવાદ, શ્રતને અવર્ણવાદ, અને સંઘ આદિને અવર્ણવાદ કરે, એનાથી દર્શનમોહનીય કર્મને બધ થાય છે જેનાથી સમકિત ગુણની પ્રાપ્તિ જીવને થતી નથી. કપાયના ઉદયથી પરિણામોમાં તીવ્રતા રહેવી, તેનાથી ચારિત્રમોહનીયને બંધ થાય છે જેનુ ફળ જીવ કેઈ વખત પણ ચારિત્રધર્મને અંગીકાર કરી શકતા નથી
ગામા કુટિલતા હોવી, અને શાસ્ત્રપ્રતિપાદિત માર્ગથી અન્યથા પ્રવૃત્તિ કરવી તેનાથી અશુભ નામકર્મ બંધ થાય છે, તેનાથી જીવ એક ઈન્દ્રિય આદિ અનેક મુનિમાં જન્મ ધારણ કરે છે. કેઈ વખત ચક્ષુવિકલ થાય છે,
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अध्य० २. उ. ३
मूंगा बनता है, कभी कुब्जक और कभी बहिरा होता है। सूत्र में जो अन्धत्व, बधिरत्व, मूकत्व, काणत्व आदि अनेक शारीरिक दोष प्रकट किये गये हैं वे सब इसी अशुभनामकर्म के उपार्जन से जीवों को प्राप्त होते हैं । जिस प्रकार चित्रकार किसी चित्र का कभी हाथ टेडा बना देता है, कभी एक आंख बना देता है, कभी उसे छोटा या कभी बड़ा अपनी इच्छानुसार जिसे जैसा बनाना चाहे बना देता है, इसी प्रकार यह नामकर्म भी इस जीव को कभी अन्धा, कभी बहिरा आदि बना दिया करता है । योगों की वक्रता नहीं होनी, एवं विसंवाद - अन्यथा प्रवृत्तिका अभाव होना, इससे शुभनामकर्म का उपार्जन होता है, जिस का फल प्रत्येक अंग की पूर्णता एवं सौष्ठव-सुन्दरता आदि की प्राप्ति होना है । उत्तम योनियों में जन्म तथा मुक्तिप्राप्ति लायक बज्रऋषभनाराच संहननादि शुभ संहननों की एवम् समचतुरस्रादि शुभ संस्थानों की प्राप्ति जीव को इसी के उदय से होती है। तीर्थंकर जैसी प्रकृति इसी शुभनामकर्म का भेद है ।
यद्यपि प्रति समय आयुकर्म को छोड़ शेष सात कर्मों का बन्ध हुआ करता है तथापि पूर्वोक्त इन भावों द्वारा जो ज्ञानावरणादि विशेष २ कर्मों का बन्ध होना प्रकट किया है सो स्थितिबन्ध और अनुभागવખતે મુંગા થાય છે, વળી કુબ્જ અને બહેરા પણ થાય છે. સૂત્રમાં જે અધત્વ, અધિરત્વ, મૂકત્વ, કાણુત્વ આદિ અનેક શારીરિક દોષ પ્રગટ કરેલાં છે તે બધા આ અશુભનામકર્મીના ઉપાર્જનથી જીવને પ્રાપ્ત થાય છે. જેમ ચિત્રકાર કેઇ ચિત્રમાં હાથ આડા બતાવે છે, એક આંખ ખતાવે છે, કઈ છેટુ કાઇ માટું પાતાની ઈચ્છાનુસાર જેને જેમ મનાવવા માગે તેમ મનાવે છે. તે પ્રકારે આ નામક પણ આ જીવને કોઇ વખત આંધળા, બહેરા આદિ મનાવે છે. ચાગેાની વક્રતા ન થવી અને વિસ વાદ અન્યથા પ્રવૃત્તિ—ના અભાવ થવા એથી શુભનામકનું ઉપાર્જન થાય છે, જેનું ફળ પ્રત્યેક અંગની પૂર્ણતા અને સૌષ્ઠવ – સુંદરતા આદિની પ્રાપ્તિ થાય છે. ઉત્તમ ચેાનિયામાં જન્મ અને મુક્તિપ્રાપ્તિલાયક વરૂષભનારાચ સહનનાદિ શુભ સંહનનાની અને સમચતુરસાદિ શુભ સંસ્થાનાની પ્રાપ્તિ જીવને આના ઉડ્ડયથી થાય છે. તીર્થંકર જેવી પ્રકૃતિ તે શુભનામકર્મીનો ભેદ છે.
હજુ પ્રતિસમય આયુકને છેડી સાત શેષ કર્માંના બંધ થયા કરે છે, તથાપિ પૂર્વોક્ત આ ભાવેાદ્વારા જે જ્ઞાનાવરણાદિ વિશેષ વિશેષ કર્મોના બંધ થવા પ્રકટ ફરેલ છે તે સ્થિતિમધ અને અનુભાગમધની અપેક્ષા સમજવી જોઇએ,
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आचाराङ्गसूत्रे
वन्ध की अपेक्षा समझना चाहिये । अर्थात् उस समय प्रकृति और प्रदेशबन्ध तो सब कर्मों का हुआ करता है, किन्तु स्थिति और अनुभागबन्ध ज्ञानावरणादि विशेष २ कर्मों का अधिक होगा । अन्धा होना, बहिरा होना, काणा इत्यादि होना, तथा इन्द्रियादिकों की पूर्णता होने पर भी शारीरिक शांति के लाभ से वञ्चित रहना, दुःखोत्पादक सामग्री की प्राप्ति होना, इष्टानिष्ट संयोगवियोगजन्य कष्टों को झेलना आदि art at a भी सांसारिक प्राणी नहीं चाहता है, परन्तु कर्मों के द्वारा परतन्त्र हुए प्रत्येक सांसारिक जीवों को अपने २ योग एवम् harat द्वारा उपार्जित किये कर्मों का फल अवश्य २ भोगना पडता है, इस में जीव की इच्छा काम नहीं करती । कर्माधीन बन यह प्राणी प्रायः सावय क्रियाओं के करने में ही दत्तावधान रहा करता है, जिसके कारण रात दिन दुःखी का दुःखी ही रहा करता है ।
प्रश्न - कर्मों के फलों को भोगते हुए भी आगे के लिये कर्मों का बन्ध नहीं हो ऐसा भी कोई उपाय है ? उत्तर - है |
प्रश्न - क्या है ? उत्तर - समताभाव । कर्मों के फलों का अनुभव न करने वाला प्राणी यदि उनके फलों को भोगते समय हर्ष विषाद एवम् आर्त
અર્થાત્ તે વખત પ્રકૃતિ અને પ્રદેશમધ તે બધા કર્મોના થયા કરે છે પણ સ્થિતિ અને અનુભાગબંધ જ્ઞાનાવરણાદિ વિશેષ વિશેષ કર્મોના અધિક થશે. અંધ થવુ, મહેરા થવું, કાણા થવું ઇત્યાદિ તથા ઇન્દ્રિયાક્રિકોની પૂર્ણતા હોવાથી પશુ શારીરિક શાંતિના લાભથી વંચિત રહેવુ', દુઃખેાત્માઢક સામગ્રીની પ્રાપ્તિ થવી, ઇષ્ટાનિષ્ટ સચેાગવિયેાગજન્ય કષ્ટોને સહન કરવા કાઇ પણ સાંસારિક પ્રાણી ચાહતો નથી, પરંતુ કમૅદ્વારા પરત ંત્ર થયેલ દરેક સાંસારિક જીવને પોતપાતાના ચેગ અને કષાયેદ્વારા ઉપાર્જિત કરેલા કર્મોના ફળ અવશ્ય અવશ્ય ભાગવવા પડે છે, તેમાં જીવની ઇચ્છા કામ કરતી નથી, કોઁધીન ખની તે પ્રાણી પ્રાયઃ સાવદ્ય ક્રિયાએ કરવામાં જ દત્તાવધાન રહ્યા કરે છે, જેના કારણે રાત દિન દુ:ખીના ૬.ખી જ રહ્યા કરે છે.
પ્રશ્ન—કર્માંના ફળને ભાગવતાં છતાં પણ આગળ માટે કમૅના અંધ ન થાય એવા કાઈ ઉપાય છે ? ઉત્તર—છે.
પ્રશ્ન—શું છે ? ઉત્તર—સમતાભાવ, કર્મોના ફળાના અનુભવ ન કરવાવાળા પ્રાણી દાચ તેના ફળોને ભાગવતી વખત હું વિષાદ આદિ અને આ રૌદ્રરૂપ પરિણામેથી
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अध्य. २. उ. ३ रौद्ररूप परिणमों से युक्त नहीं होना है, और अपने उपार्जित कर्मों का फल भोगेविना छुटकारा नहीं है अतः इनका फल अवश्य भोगना ही पड़ेगा-- चाहे किसी भी परिस्थिति में जीव क्यों न हो। जिस प्रकार अपने उपाजित पुण्य का फल भोगते हुए विषादपरिणति आत्मा में नहीं होती उसी प्रकार अपने उपार्जित पाप कर्म के फल को भोगते हुए भी मुझे विषादपरिणति नहीं होनी चाहिये, इत्यादि शुभाध्यवसाय से प्रेरित होकर समताभाव से शुभाशुभ कर्मों के फल को जो प्राणी भोगता है उसके लिये नवीन कर्मों का बन्ध नहीं होता। नवीन कर्मों का बन्ध कराने वाली कषायपरिणति ही है। हर्ष और विषाद ये कषायपरिणतिरूप ही है । समताभाव इस कषायपरिणति से रहित अवस्था है।
प्रश्न-इस समताभाव की प्राप्ति जीव को कैसे होती है ? उत्तर-समकित की प्राप्ति से।
समकितशाली जीव घर में-संसार में रहता हुआ भी अपनी वृत्ति कमलपत्र के, अथवा तप्तलोहपादन्यास (तपे हुए लोहे पर पैर रखने) के समान रखता है इससे वह समभावी होता है। યુકત બનતા નથી અને પિતાના ઉપાર્જિત કર્મોના ફળ ભેગવ્યા વિના છુટકે નથી માટે તેનું ફળ અવશ્ય જોગવવું જ પડશે ભલે કોઈ પણ પરિસ્થિતિમાં જીવ કેમ ન હોય, જેવી રીતે પિતાના ઉપાર્જિત પુણ્યનું ફળ ભેગવતી વખતે વિષાદ પરિણતિ આત્મામાં થતી નથી તે પ્રકારે પિતાના ઉપાર્જિત પાપ કર્મના ફળને ભેગવતાં પણ મને વિષાદ પરિણતિ થવી ન જોઈએ. ઈત્યાદિ શુભાષ્યવસાયથી પ્રેરિત થઈ સમતાભાવથી શુભાશુભ કર્મના ફળને જે પ્રાણી ભેગવે છે તેને માટે નવીન કર્મોનો બંધ થતો નથી. નવીન કર્મોના બંધ કરાવવાવાળી કષાયપરિણતિ જ છે, હર્ષ અને વિષાદ એ કષાયપરિણતિરૂપ જ છે. સમતાભાવ આ કષાયપરિણતિથી રહિત અવસ્થા છે.
પ્રશ્ન—આ સમતાભાવની પ્રાપ્તિ જીવને કેવી રીતે થાય છે? उत्तर-समतिनी प्रातिथी.
સમકિતશાળી જીવ ઘરમાં–સંસારમાં રહેવા છતાં પણ પિતાની વૃત્તિ કમલપત્ર અથવા તસલેહપાદન્યાસ (તપેલા લેઢા ઉપર પગ રાખવા) સમાન રાખે છે માટે તે સમભાવી છે.
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आचाराङ्गसूत्रे
इदमत्र हृदयम् - यः स्वोत्कर्ष समासाद्य जात्यादिमदसम्पन्नोऽन्यं प्रति 'अन्धस्त्व' - मित्यादिकं परुषं ब्रवीति, मनसा तस्याप्रियमाचरति च, स जन्मान्तरे स्वयमैव नीचगोत्वादिकमन्धत्वादिकं फलं लभत इति भयान्मनोवाक्काययोगैः कस्याtयप्रियमात्महितार्थी नाचरेदिति बोध्यम् । म० २ ॥
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उत्कृष्टकुलोत्पत्तिगर्वोन्मत्तचित्तोऽधमकुलतया दीनोऽन्धत्वादिकमुपलभमानो वा कर्तव्याकर्तव्यानभिज्ञः कर्मविपाकमविज्ञाय तत्रैवोच्चकुलादिके विपर्यासं गच्छतीति दर्शयति- ' से अबुज्झमाणे ' इत्यादि ।
मूलम् - से अबुज्झमाणे हओवहए जाइमरणं अणुपरियहमाणे, जीवियं पुढो पयं इहमेगेसिं माणवाणं खित्तवत्थुममायमाणाणं, आरतं विरतं मणि कुंडलं सह हिरण्णेण इत्थियाओ परिगिज्झ तत्थेव रत्ता, न इत्थ तवो वा दमो वा नियमो वा दिस्सइ, संपुण्णं बाले जीविकामे लालप्पमाणे मूढे विपरिआस मुवेइ ॥ सू० ३ ॥
छाया - सः, अबुध्यमानो हतोपहतो जातिमरणमनुपरिवर्तमानः, जीवितं पृथक् प्रियम् इहैकेषां मानवानां क्षेत्रवास्तुममायमानानाम्, आरक्तं विरक्तं मर्णि कुण्डलं सह हिरण्येन स्त्रीः परिगृह्य तत्रैव रक्ताः, नात्र तपो वा दमो वा नियमो वा दृश्यते, सम्पूर्ण वालो जीवितुकामो लालप्यमानो मूढो विपर्यासमुपैति ॥ सू० ३ ॥
इस सूत्र का सारांश यही है कि "जो मनुष्य अपने उत्कर्ष को प्राप्त कर जात्यादिमदावेश में आकर दूसरों के प्रति " तूं अन्धा है" इत्यादि कठोर भाषा का प्रयोग करता है, मनसे भी उसका अप्रिय करने का विचार करता है वह दूसरे जन्म में स्वयं ही नीच गोत्रादिक अथवा अन्धत्वादिक फल का भोक्ता बनता है, अतः ऐसा विचार कर आत्मार्थी जन कभी भी मन वचन और कायरूप योगों से किसी का भी अप्रिय-अनिष्ट न करे ॥ सू० २ ॥
આ સૂત્રના સારાંશ એ છે કે · જે મનુષ્ય પેાતાના ઉત્ખને પ્રાપ્ત કરી જાત્યાદિમદાવેશમાં આવીને બીજા પ્રતિ “ તું આંધળા છે” ઇત્યાદિ કઠોર ભાષાના પ્રયાગ કરે છે, મનથી પણ તેનુ અપ્રિય કરવાના વિચાર કરે છે તે બીજા જન્મમાં સ્વયં જ નીચ ગાત્રાદિક અથવા અન્યત્યાદિક ફળને લેાક્તા અને છે, માટે એવો વિચાર કરી આત્મા જન કોઈ વખત પણ મન વચન અને કાયાથી કોઇનુ • अप्रिय-अनिष्ट नहि उरे. ॥ सू० २ ॥
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अध्य० २. उ. ३
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टोका 'स' इत्यादि । सः उच्चकुलोत्पन्नः, अन्धत्वादिकमनुभवन, अयुध्यमानः पूर्वकृत कर्मफलमजानानः, हतोपहतः अन्धत्वादिनानारोगग्रस्तत्वेन क्षतकायत्वाद् हतः, सकलजन निन्द्यत्वेनोपहतः;
उच्चकुल में जन्म लेने के गर्व से संयमी मुनि अधमकुल में उत्पन्न होकर दीन अथवा अन्धत्वादिक फल का भोक्ता बन कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य से विकल होता हुआ कर्म के फल को नहीं जानकर उसी उच्च गोत्रादिक में विपर्यास- विपरीत भाव को प्राप्त करता है, इसी का वर्णन करते हैं- " से अवुज्झमाणे " इत्यादि ।
सूत्रकार ने इस सूत्र के पहिले यह बात अच्छी तरह से खुलाशा कर प्रकट कर दी है कि- " जो संयमी मुनि उच्चगोत्र में जन्म लेने के अभिमान से उन्मत्त बन दूसरों का तिरस्कार करता है, अथवा मन से भी उनका अहित विचारता है वह इस कर्म के कटुक फल का जन्मान्तर में या इसी भव में भोक्ता बनता है" इसी बात को फिर से दृढ़ करने के अभिप्राय से दोहराते हुए सूत्रकार कहते हैं कि वह संयमी मुनि जो उच्चकुल में उत्पन्न हुआ है और अपने अहंकारजन्य अन्धत्वादिक फलविशेष का भोक्ता बना हुआ है, तथा " जो अन्धत्वादिक फल मुझे मिला है वह मेरे ही द्वारा उपार्जित कर्म का कटुक फल है" इस बोध से जो अनभिज्ञ है, तथा जो हतोपहत बना हुआ है-अर्थात् अन्धत्वादिक
ઉંચ કુળમાં જન્મ લેવાના ગવથી સંયમી મુનિ અધમ કુળમાં ઉત્પન્ન થઈ ને દીન અન્ત્યાદિક ફળના ભાક્તા ખની કર્તવ્ય અને અકર્તવ્યના ભાનથી વિકલ થઇને તેમજ કના ફળને નહિ જાણીને તે જ ઉંચ ગોત્રાદિકમાં વિપર્યાંસ– विपरीत लावने आप्त उरे छे. तेनुं वर्णन छे-" से अबुज्झमाणे " छत्याहि.
સૂત્રકારે આ સૂત્રના પહેલાં આ વાત સારી રીતે ખુલાસા કરીને પ્રગટ કરી છે, કે “જે સંયમી મુનિ ચ ગોત્રમાં જન્મ લેવાના અભિમાનથી ઉન્મત્ત મની ખીજાઓને તિરસ્કાર કરે છે અથવા મનથી પણ તેનું અહિત કરવા વિચારે છે તે આ કર્માંના કટુક ના જન્માન્તરમાં અગર આ ભવમાં ભોક્તા બને છે, આ વાતને ફરીથી દૃઢ કરવાના અભિપ્રાયથી સૂત્રકાર કહે છે કે તે સચી મુનિ જે ઉચ કુળમાં ઉત્પન્ન થયેલ છે, અને પોતાના અહંકારજન્ય અન્ત્યાદિક ફળ વિશેષના ભાક્તા થયેલ છે, તથા “ જે અન્ધાદિક ફળ મને મળ્યુ છે તે મારા જ દ્વારા ઉપાર્જિત કર્મનુ કટુક ફળ છે” એ આધથી જે અનભિજ્ઞ છે, તથા જે હતાપહત બનેલ છે, અર્થાત્ અન્યત્યાદિક અને નાના રાગોથી જેનું શરીર ક્ષત
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आचाराङ्गसूत्रे यदाजीवस्तीत्रेणायुर्वन्धाध्यवसायेन जातिनामनिधत्तायुर्वध्नाति तदैकेनैवाकर्षण वध्नाति । मन्देन द्वाभ्यामाकर्पाभ्यां, मन्दतरेण त्रिभिराकर्षैः, मन्दतमेन चाध्यवसायेन चतुर्भिः पञ्चभिः षड्भिः सप्तभिरुस्कृष्टेनाष्टाभिर्वाऽऽकर्पोतिनामनिधत्तायुबध्नाति ।
एवं गतिस्थित्यवगाहनामदेशानुभावनामनिधत्तायुष्काण्यपि जीवो वध्नाति । निधत्तं हि आयुषा सह जातिगत्यादीनां नियमत एकरूपेण बन्धनमिति । उक्तञ्च
जीवा भंते ! जाइनामनिधत्ताउयं कइहिं आगरिसेहिं पकरंति ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्केण दोहिं वा तिहिं वा उकोसेणं अहिं " इति ॥
छाया-जीवाः खलु भदन्त ! जातिनामनिधत्तायुष्कं कतिभिराकर्षैःपकुर्वन्ति ? गौतम ! जघन्येन एकेन द्वाभ्यां वा त्रिभिर्वा उत्कर्षेणाष्टभिः । इति ।
शङ्का-यह जीव कैसे एक आकर्षसे अथवा दो आकर्षोंसे एवं तीन अथवा सात आठ आकर्षोंसे आयु बांधता है ?
उत्तर-जिस समय जीव आयु बांधने के तीन अध्यवसाय से जातिनामनिधत्त आयु का बंध करता है उस समय एक आकर्ष से ही उसका बन्ध करता है, मन्द अध्यवसाय से दो आकर्षों से, मन्दतर अध्यवसाय से तीन आकर्षों से, सन्दतम अध्यवसाय से पांच छह और सात और ज्यादा से ज्यादा आठ आकर्षों से जातिनामनिधत्त आयुका बंध किया करता है। इसी तरह से गति-स्थिति-अवगाहना-प्रदेशअनुभाव-नामनिधत्त आयुओं का भी यह जीव बन्ध करता है। आयुबंध के साथ अन्य जाति गति आनुपूर्वी आदि का नियम से जो बंध होता है उसका नाम निधत्त है, कहा भी है
આ જીવ કેવી રીતે એક આકર્ષથી અથવા બે આકર્ષોથી તેમજ ત્રણ અથવા સાત આઠ આકર્ષોથી આયુ બાધે છે ?
જે વખતે જીવ આયુ બાંધવાના તીવ્ર અધ્યવસાયથી જાતિનામનિધન આયુને બંધ કરે છે, તે વખતે એક આકર્ષથી જ તેને બંધ કરે છે, મંદ અવ્યવસાયથી બે આકથી, મદતર અધ્યવસાયથી ત્રણ આકર્ષોથી, મન્દતમ અધ્યક સાયથી પાચ, છ, સાત અને વધારેમાં વધારે આઠ આકર્ષોથી જાતિનામનિધન આયુને બધ કરે છે. આવી રીતે ગતિ–સ્થિતિ–અવગાહના–પ્રદેશ–અનુભાવના નધત્ત આયુઓને પણ એ જીવ બધ કરે છે આયુબ ધની સાથે અન્ય “ અતિ આનુપૂર્વ આદિને નિયમથી જે બંધ થાય છે તેનું નામ નિધન છે. કહ્યું છે કે
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चराग सूत्रे
यद्वा-उच्चगोत्रादिसमुद्भवगर्वात्कर्तव्यच्युतत्वेनापवादवान् जगज्जनानादरवचनदण्डेन पटह इव हतः, श्रुतचारित्रलक्षणधर्मरहितत्वेनोपहतः, एवं 'जातिमरणं' जातिश्च मरणं च जातिमरणम् अनुपरिवर्तमानः = पारावारतरलतरतरङ्गवत् पुनजन्म पुनर्भरणं चेति संसारसागरे परिभ्रमन् भूयो भूयो जन्ममरणमुपलभमानोऽनित्यत्वेऽपि नित्यत्वमनुभवन् विपर्यासमुपैतीति सम्बन्धः ।
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एवम् नाना रोगों से जिसका शरीर क्षत जीर्ण शीर्ण हो रहा है, तथा सकलजन जिसकी निंदा करते हैं, अथवा उच्चगोत्रादिक में जन्म प्राप्त करने के गर्व से जो कर्तव्यच्युत हो रहा है, "मेरा क्या कर्तव्य है" इस बात को ही जो नहीं समझता है, यद्वातद्वा प्रवृत्ति करने से लोगों के अनेक अपवादों का जो पात्र बना हुआ है, तथा जिस प्रकार दण्डे से ढोल पीटा जाता है उसी प्रकार जगत के जीवों के अनादरकारी वचन - रूपी दण्डों की चोट से जो आहत - ताडित है, एवम् जो वास्तविक अपने श्रुतचारित्ररूप धर्म की आराधना से वंचित है, जिस प्रकार समुद्र की तरल तरंगें समुद्र से उठती हैं और समुद्र में ही विलीन होती रहती हैं, उसी प्रकार जो इस संसाररूपी अथाह सागर में बारंबार जन्म मरण के गोते खाता रहता है, अहितकारी पदार्थों को हितकारी एवम् अनित्य परपदार्थों को नित्य मानकर जो उनके ही अपनाने में लगा हुआ है, ऐसा प्राणी विपरीतकल्पनावाला ही माना गया है, और वह अपनी इस कल्पना की वजह से ही रातदिन दुःखी होता रहता है ।
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જીર્ણ શીણુ થઈ રહ્યુ છે, તથા સકલજન જેની નિંદા કરે છે, અને ઉંચ ગોત્રાદિકમા જન્મ પ્રાપ્ત કરવાના ગર્વથી જે કચ્યુત થઈ રહેલ છે, “ મારૂં શુ કર્તવ્ય છે” એ વાતને પણ પોતે સમજતા નથી, આડી અવળી પ્રવૃત્તિ કરવાથી લેાકેાના અનેક અપવાદોને જે પાત્ર બનેલ છે, તથા જે પ્રકાર ઈંડાથી ઢોલ પીટવામાં આવે છે તે પ્રકાર જગતના જીવોના અનાદરકારી વચનરૂપી દડોની ચાટથી જે આહત-તાડિત છે, અને વાસ્તવિક પોતાના શ્રુતચારિત્રરૂપ ધર્મની આરાધનાથી 'ચિત છે. જે પ્રકારે સમુદ્રની તરલ તરગો સમુદ્રથી ઉઠે છે અને સમુદ્રમાં જ વિલીન થાય છે તે પ્રકાર જે આ સસારરૂપી અથાગ સાગરમાં વાર વાર જન્મ મરણના ગોથા ખાતા રહે છે. અહિતકારી પદાર્થોને હિતકારી અને અને અનિત્ય પદાર્થોને નિત્ય માનીને જે તેને અપનાવવામા લાગેલ છે. એવા ણી વિપરીત કલ્પનાવાળા જ માનેલ છે, અને તે પોતાની આવી કલ્પનાના જોરે રાતદિવસ દુઃખી થાય છે
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अभ्य० २. उ. ३
किञ्च-इह संसारे 'क्षेत्रवास्तु ' क्षेत्र धान्याद्युत्पत्तिस्थलं, वास्तु-प्रासादादिकं सर्व ममेत्येवमाचरन्तो ममायमानास्तेषां क्षेत्रवास्तुप्रभृतिषु ममत्वं कुर्वताम् एकेपाम्= केपाश्चिद्विपर्यस्तमतीनां मानवानाम् , उपलक्षणात् प्राणिनां जीवितम्-असंयमजीवितम् पृथक्-विभिन्नरूपेण स्वस्वापेक्षया प्रियम्-इष्टम् , भवतीति शेषः ।
जो संयमी क्षेत्र-धान्यादिक का उत्पत्ति स्थान; वास्तु-महल मकान आदि बाह्य पदार्थों में ममत्वशाली बने हुए हैं, वे वास्तविक संयमी नहीं हैं, क्योंकि जीवों में बाह्यपदार्थों से ममत्व हटे विना संयमभाव ही नहीं उत्पन्न हो सकता है। जिस प्रकार ऊँट पर नींद लेने वाले व्यक्ति का प्रायः अधःपतन होता है उसी प्रकार जो संयम का ढोंग रचकर बाह्यपदार्थों में ही मृञ्छित हो रहे हैं उनका भी अधःपतन उससे अवश्य होता है। संयम शब्द का अर्थ तो यही है कि-इन्द्रियों एवम् चित्त की वृत्ति जो बाह्यपदार्थों में आसक्त बनी हुई है उसका निरोध हो जाना, परन्तु जिनकी ममता बाह्य-पर-वस्तुओं में जागृत है कैसे माना जा सकता है कि उनके सत्य संयमभाव है, अतः ऐसे प्राणी संयमभाव से बहुत दूर ही रहा करते हैं, इन्हें अपना असंयम जीवन चाहे ये जिस किसी भी अवस्था में रहें प्रिय होता है, क्योंकि शुरू से इनका अभ्यास ही ऐसा पड़ा हुआ है, अर्थात् संयम जीवन व्यतीत करने लिये चित्तवृत्ति एवम् इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने की बड़ी भारी जरूरत होती है, इस प्रकार का उपदेश इन्हें नहीं मिला है, क्योंकि इनका जीवन तो बकरे
જે સંચમી શ્રેત્ર-ધાન્યાદિકનું ઉત્પત્તિ સ્થાન, વાસ્તુ-મહેલ, મકાન, આદિ બાહ્ય પદાર્થોમાં સમત્વશાળી બનેલાં તેઓ વાસ્તવિક સંચમી નથી, કારણ કે જેમાં બાહા પદાર્થોથી મમત્વ દૂર થયા વિના સંચમભાવ જ ઉત્પન્ન થતું નથી. જે પ્રકારે ઊંટ ઉપર ઉંઘ લેવાવાળી વ્યક્તિને પ્રાયઃ અધઃપતન થાય છે તે પ્રકારે જે સંયમને હેંગ રચીને બાહ્ય પદાર્થોમાં જ મૂછિત થાય છે તેનું પણ અધપતન તેનાથી અવશ્ય થાય છે. સંચમ શબ્દનો અર્થ તે એ છે કે-ઈન્ટિ અને ચિત્તની વૃત્તિ જે બાહ્ય પદાર્થોમા આસક્ત બની છે તેને નિરાધ થઈ . પરંતુ જેની મમતા બાહ્ય પરવસ્તુઓમાં જાગ્રત છે, કેવી રીતે માનવામાં આવે કે તેને અન્ય સંચમભાવ છે, માટે એ પ્રાણી યમભાવથી જીવન ગમે તે સ્થિતિમાં રહે તેને તે પ્રિય લાગે છે. કારણ કે શરૂઆતથી તેને અભ્યાસ તેવો થયેલ છે. અધત રચમ જીવન વ્યતીત કરવા માટે ચિત્તવૃત્તિ અને દરિયે ઉપર વિજય પ્રાપ્ત કરવાની મોટી જરૂરત હોય છે, આ પ્રકારના ઉપદેશ તેને મળેલ નથી, કારણ કે તેનું જીવન તે બકરાની માફક “મમકરતા કરતાં
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आचाराङ्गसूत्रे
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अन्यच्च-आरक्तम्= रुचिररागरञ्जितम्, विरक्तम् = विविधरागरञ्जितं पटादिकम् ' मणिम् ' मणिः=पद्मरागादिस्तं, कुण्डलम् = मसिद्धम् उपलक्षणमेतत्कटककेयूरादीनाम्, हिरण्येन= सुवर्णेन सह स्त्रीः परिगृह्य = स्वायत्तीकृत्य तत्रैव क्षेत्रवास्तुविविधवस्त्रमणिकुण्डल कामिन्यादौ रक्ताः गृध्नवो मूढमतयो विपर्यासमुपयन्ति वदन्ति चअत्र संसारे तपो वा = अनशनादिस्वरूपम्, दमो वा = इन्द्रियनोइन्द्रियोपशमरूपः, नियमो वा=अहिंसाव्रतं न दृश्यते न फलवदतुभूयते तपोदमनियमवतां जनानां कायक्लेश एवान्यन्न किमपि फलम्, अपि च दृष्टस्य सुखादेर्हानिः, अदृष्टसुखस्य कल्पनं महदनुचितं, भवान्तरे चैतत्फलं भावीति ग्रहग्रहिलस्य प्रलाप एवेति वदन्
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की तरह "मैं मै " करता हुआ परपदार्थों में आसक्तिसंपन्न हो रहा है । अचित्तपरिग्रहरूप भडकीले रंग बिरंगे कपड़ों के, पद्मरागादिक मणियों के, कटक केयूर कुण्डल आदि के, सुवर्ण आदि धातुओं के, एवं स्त्री आदि सचित परिग्रह के अपनाने, एवम् उनके रक्षणादि करने में ही इनकी जीवनयात्रा समाप्त हो जाती है, अर्थात् सचित्त और अचित्त परिग्रह के संग्रह एवम् रक्षण करने में ही ऐसे जीव गृद्ध बने रहते हैं, और संयमजीवन को दोष देते हुए कहते हैं कि - " इस संसार में अनशनादिक तप, इन्द्रिय और मन को वश में करने रूप दम, अहिंसाव्रतादिरूप नियम कुछ भी कार्यकारी नहीं है । क्योंकि इनका आचरण करने वाले व्यक्तियों को कायक्लेश के सिवाय और किसी भी फल की प्राप्ति नहीं होती है, ऐसा भला संसार में कौन समझदार होगा जो प्रत्यक्ष अनुभूत सुखादिकों की कामना से प्रेरित होकर इनका परित्याग
પદાર્થોમાં આસક્તિસ’પન્ન હોય છે અચિત્ત પ્રરિગ્રહરૂપ જાતજાતના રંગબેરંગી उथडाना, पद्मरागाहिङ भशिमोना, उट, डेयूर, हुडा माहिना, सुवर्ण आदि धातुએના, અને સ્ત્રી આદિ સચિત્ત પરિગ્રહના અપનાવવામા અને તેના રક્ષણાદિ કરવામાં જ તેની જીવનયાત્રા સમાપ્ત થઇ જાય છે, અર્થાત્ સચિત્ત અને અચિત્ત પરિગ્રહને સ અહ અને રક્ષણ કરવામા જ એવા વૃદ્ધ બની રહે છે, અને સંયમ જીવનને દોષ દેતાં દેતા કહે છે કે “આ સસારમા અનશનાકિ તપ, ઇન્દ્રિય અને મનને વશ કરવારૂપ દમ, અહિંસાવ્રતાદિરૂપ નિયમ કોઈપણ કાર્ય કારી નથી, કારણ કે તેનુ આચરણ કરવાવાળા વ્યક્તિઓને કાયકલેશ સિવાય ખીજા કોઇ પ્રકારનુ' ફળ મળતું થી. એવે ભલેા ' સંસારમા કાણુ સમજદાર હશે જે પ્રત્યક્ષ અનુભૂત સુખા તેને છેડીને અષ્ટ સુખાદિકોની કામનાથી પ્રેરિત બનીને તેને પરિત્યાગ કરશે?
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अध्य० २. उ. ३
बालः = परिग्रहकटुकफलानभिज्ञः सम्पूर्ण यथासमयमा प्तकामिन्याद्यासक्तिपूर्वकं यथा स्यात्तथा जीवितुकामः असंयमेन दीर्घकालजीवनार्थी लालप्यमानः = कामभोगतीत्राभिलाषेण व्यर्थं मलपन् मूढः = विवेकविकलः पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टः, विपर्यासम्=वैपरीत्यम् मिथ्यात्वमित्यर्थस्तद्यथा-तत्त्वेतत्त्वबुद्धिम्, अतत्वे तत्त्वबुद्धिम्, कुदेव - कुगुरु-कुधर्मेषु सुदेव - मुगुरु- सुधर्मबुद्धिम्, इष्टेष्वनिष्टबुद्धिम्, अनिष्टेष्वष्टबुद्धिम्, इत्थम् विपर्ययम् उपैति=प्राप्नोति । उक्तञ्च
करेगा ?, यह तो एक इस प्रकार की कल्पना है कि जिस प्रकार कोई व्यक्ति अपने घर में झरते हुए अमृत को छोड़कर किसी के बहकावे में आकर " पर्वत में अमृत झरता है" इस ख्याल से उसकी चाहना में उसे छोड़ वहां दौड़ा जाता है । जो हमारी इन्द्रियों के गोचर है वही वास्तविक है, इसके परे स्वर्ग नरकादि कुछ भी नहीं है, प्रत्यक्ष इन्द्रियों के सुख सिवाय परोक्ष स्वर्गादिक सुख है, यह सिर्फ एक श्रद्धा की ही वस्तु है वास्तविक कुछ नहीं है । तथा " तपश्चर्या का फल इस भव में न मिले तो न सही परभव में तो मिलेगा ही " इस प्रकार की कल्पना भी ग्रहगृहीत पुरुष के प्रलाप जैसी ही है । जैसे भूतादि के आवेश से युक्त प्राणी का प्रलाप निरर्थक होता है उसी प्रकार " इस भव में तप संयमरूप कष्ट को झेलकर प्राणी परलोकसंबंधी सुख समृद्धि को प्राप्त करता है" यह कहना भी निरर्थक है । इस प्रकार की विपरीत मान्यता उन अज्ञानी पुरुषों की है जो परिग्रह के फल से अनभिज्ञ हैं । रातदिन परिग्रह के बटोरने एवम् उसकी वृद्धि करने में दत्तावधान प्राणी की दृष्टि में संयम जीवन जैसे सुन्दर सिद्धांत
એ તે એક આ પ્રકારની કલ્પના છે કે-જે પ્રકારે કાઈ વ્યક્તિ પાતાના ઘરમાં ઝરતાં અમૃતને છેડીને કેાઈના ભરમાવવાથી “ પ`તમાં અમૃત ઝરે છે ” તેવા ખ્યાલથી તેની ચાહનામાં તેને છેડીને ત્યાં દોડી જાય છે. જે અમારી ઈન્દ્રિયાને ગોચર છે તે વાસ્તવિક છે. તેના સિવાય સ્વર્ગ નરકાદિ કઈં પણ નથી, પ્રત્યક્ષ ઇન્દ્રિચાના સુખ સિવાય પરોક્ષ સ્વર્ગાદિક સુખ છે તે ફક્ત એક શ્રદ્ધાની વસ્તુ છે— વાસ્તવિક કંઇ પણ નથી. અને “ તપશ્ચર્યાનું ફળ આ ભવમાં નહિ મળે તે નહિ પરભવમાં તે મળશે જ. આવા પ્રકારની કલ્પના પણ ગ્રહગૃહીત પુરૂષના પ્રલાપ જેવી જ છે. જેમ ભૂતાદિકના આવેશથી યુક્ત પ્રાણીનો પ્રલાપ નિક અને છે તે પ્રકારે “આ ભવમાં તપસયમરૂપ કષ્ટને ભોગવી પ્રાણી પરલેક સબંધી સુખ સમૃદ્ધિન પ્રાપ્ત કરે છે” એમ કહેવું પણ નિરર્થક છે. આવી વિપરીત માન્યતા તેવા અજ્ઞાની પુરૂષની છે જે પરિગ્રહના કટુક મૂળથી અનભિન્ન છે, રાત દિન પરિગ્રહના વધારવામાં દત્તાવધાન પ્રાણીની દૃષ્ટિમાં સચમ
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आवारागसूत्रे का कोई महत्व न हो तो इसमें आश्चर्य करने की कोई बात नहीं है, कारण कि कहावत है-जो नृत्य करने में सिद्धहस्त नहीं है, वह आंगन को टेड़ा कहता है। परिग्रहादि के बोझ से प्राणी की तमाम शक्तियाँ इतस्ततः विखर जाती हैं अतः वे विखरी हुई शक्तियां "संयमित जीवन विखरी हुई शक्तियां को केन्द्रित करने वाला है। इस प्रकार कैसे महत्त्व दे सकती हैं. परन्तु यह मानना अवश्य पड़ेगा कि-जिस प्रकार सूर्य की किरणें जब किसी विशेष काच में केन्द्रित करली जाती हैं तो उनसे सहसा अग्नि प्रज्वलित हो उठती है, उसी प्रकार असंयम अवस्था में जो आत्मिक शक्तियां इधर उधर विषय कषायों में फंसकर अस्तव्यस्त हो रही थीं-जब वे संयमित जीवन से केन्द्रित करली जाती हैं तो इनसे भी एक ऐसा प्रवाह निकलता है जो प्राणी के जीवन में अपूर्व परिवर्तन कर देता है। लगाम जिस प्रकार स्वछंद घोड़े को, अंकुश मदोन्मत्तगजराज को वश में कर देता है, उसी प्रकार संयम भी जीवन को योग्य मार्ग पर पहुंचा देता है। यही एक ऐसा मार्ग है जो असंयम जीवन से प्राणी की रक्षा करता है। अतः ऐसे सुन्दर और हितावह मार्ग का सच्चे भावों से जो आराधन नहीं करते हैं वे प्राणी कैसे इससे उत्पन्न होने वाले लाभ को पा सकते हैं ?। मानाजा सकता है कि-संयम जीवन को
જીવન જેવા સુંદર સિદ્ધાંતને કોઈ મહત્વ ન હોય તે તેમાં આશ્ચર્ય થાય તેવી કઈ વાત નથી, કારણ કે કહેવત છે-જે નૃત્ય કરવામાં સિદ્ધહસ્ત નથી તે આંગણુને વાકું કહે છે પરિગ્રહાદિના બેજથી પ્રાણીની તમામ શક્તિઓ આડી અવળી વિખરાઈ જાય છે માટે તે વિખરાયેલી શક્તિઓ “સંયમિત જીવન જે વિખરાઈ ગયેલી શકિતઓને કેન્દ્રિત કરવાવાળું છેઆ પ્રકારે તે કેવી રીતે મહત્વ દઈ શકે. પરંતુ તે અવશ્ય માનવું પડશે કે જે પ્રકાર સૂર્યની કિરણો જ્યારે કઈ વિશેષ કાચમાં કેન્દ્રિત કરવામાં આવે છે તે તેનાથી સહેજે અગ્નિ પ્રજવલિત થાય છે, તેવા પ્રકારે અસંયમ અવસ્થામાં જે આત્મિક શક્તિઓ આડી અવળી વિષય કષામાં ફસીને અસ્તવ્યસ્ત થઈ રહી હતી, જ્યારે તે સંયમિત જીવનથી કેન્દ્રિત કરવામાં આવે છે તે તેનાથી પણ એક એવું પ્રવાહ નીકળે છે જે પ્રાણીના જીવનમાં અપૂર્વે પરિવર્તન કરે છે. લગામ જેવી રીતે સ્વચ્છેદ ઘોડાને, અંકુશ મદેન્મત્ત ગજરાજને વશમાં કરે છે તે પ્રકારે સંયમ પણ જીવનને માર્ગ ઉપર પહોંચાડે છે. તે એક જ માર્ગ છે જે અસંયમ જીવનથી પ્રાણીની રક્ષા કરે છે, માટે આવા સુંદર અને હિતાવહ માર્ગને સાચા ભાવોથી જે આરાધન કરતા નથી તે પ્રાણુ કેવી રીતે તેનાથી ઉત્પન્ન થતાં લાભને મેળવી શકે?
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अध्य
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"दाराः परिभवकारा, बन्धुजनो बन्धनं विषं विपयाः।
कोऽयं जनस्य मोहो, ये रिपवस्तेषु सुहृदाशा" ॥ १ ॥ इति । पूर्णरूप से व्यतीत करने के लिये, नथा उसके रक्षण के लिये कषायों पर विजय प्राप्त करने की सर्व प्रथम बड़ी भारी जरूरत है। परिग्रह को अपनाना यह लोभकषाय के उदय में ही होता है। असंयमी जीव असंयम अवस्था में रहते हुए ही अपना जीवन व्यतीत करते हैं, तथा यह चाहते हैं कि "मैंने जो यह परिग्रहादिक संगृहीत किया है उसके भोगने के लिये मैं अधिक से अधिक जीऊ" असंयमी जीव परपदार्थों के उपभोग करने में ही अधिक आसक्तिसंपन्न होते हैं-इन्हें जितनी इन परपदार्थों को भोगने की तीव्र अभिलाषा रहती है उससे शतांश भी आत्मकल्याणमय संयमिजीवन की तर्फ इनकी रुचि नहीं होती । जन्मान्तर से मिथ्यात्व का संसर्ग चला आता है । जैनकुल में उत्पन्न होने पर भी उनके इस मिथ्यात्व का नाश नहीं होता। ऐसे ही जीव अनादिमिथ्यादृष्टि कहलाते हैं । जो वर्तमान भव में कुगुरु कुदेव और कुधर्म की संगति में पड़कर अपने में अतत्त्वरुचि को स्थान देते हैं वे मिथ्यादृष्टि जीव हैं। ये जीव इष्ट पदार्थों को अनिष्टकारी, तथा अनिष्ट पदार्थों को इष्टकारी माना करते हैं । वे यह नहीं विचारते हैं किમાનવામાં આવે છે કે સંયમ જીવનને પૂર્ણ રૂપથી વ્યતીત કરવા માટે તથા તેના રક્ષણ માટે કષા પર વિજય પ્રાપ્ત કરવાની સર્વ પ્રથમ જરૂરત છે. પરિગ્રહને અપનાવ તે લાભકષાયના ઉદયમાં જ થાય છે. અસંચમી જીવ અસંયમ અવસ્થામાં રહીને પોતાનું જીવન વ્યતીત કરે છે, તથા એ ચાહે છે કે “ મેં જે આ પરિગ્રહાદિક સંગ્રહ કર્યો છે તેને ભોગવવાને માટે હું વધારેમાં વધારે જવું ” અસંયમી જીવ પરપદાર્થોને ઉપયોગ કરવામાં જ અધિક આસતિસંપન્ન હોય છે. તેને જેટલી પરપદાર્થો ભોગવવાની તીવ્ર અભિલાષા રહે છે તેનાથી તેમાં ભાગની આત્મકલ્યાણમય સંચમ જીવનની તરફ તેની રૂચી થતી નથી. જન્માક્તરથી મિથ્યાત્વનો સંસર્ગ ચાલ્યો આવે છે. જૈન કુળમાં ઉત્પન્ન થવા છતાં પણ તેના આ મિથ્યાત્વને નાશ ને નથી. એવા જીવ અનાદિમિથ્યાણિ કહેવાય છે. જે વર્તમાન ભવમાં કુગુરૂ કુદેવ અને કુધર્મની સંગતિમાં પડીને પિતાનામાં અતત્ત્વચિને સ્થાન આપે છે તે મિથ્યાત્વર્ણિ જીવ છે. તે જીવ ઈટ પદાર્થોને અનિષ્ટકારી તથા અનિષ્ટ પદાર્થોને હકારી માને છે. તે એવું વિચારતા નથી કે–
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आचाराङ्गसूत्रे
सर्वथा विपर्यस्तोऽनेकभवेषु परिभ्रमन् भ्रान्तः संयमात्मघातमेव करोतीति तात्पर्यम् । सूत्रे उपैतीत्यत्रैकवचनमात्वात् ॥ मृ० ३ ॥
ये पुनरविपर्यस्ताः संयमिनस्तेषां कर्तव्यमुपदिशति - ' इणमेव ' इत्यादि । मूलम् - इणमेव नावखंति, जे जणा धुवचारिणो । जाइमरणं परिन्नाय, चरेऽसंकमणे दढे || नत्थि कालस्सऽणागमो ॥ सू०४ ॥ छाया - इदमेव नावकाङ्क्षन्ति, ये जना ध्रुवचारिणः । जातिमरणं परिज्ञाय, चरेदशङ्कमना दृढः || नास्ति कालस्याऽनागमः || मू० ४ ॥
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'दाराः परिभवकारा, -बन्धुजनो बन्धनं विषं विषयाः । कोऽयं जनस्य मोहो, ये रिपवस्तेषु सुहृदाशा " ॥ १ ॥ ये जो स्त्री आदिक पदार्थ हैं वे मेरा तिरस्कार करने वाले हैं । बन्धु जन एक बन्धन हैं । विषयादिक विष हैं। ऐसा क्या इस प्राणी का मोह है जो अपने शत्रुओं को भी मित्र समझ रहा है। इस प्रकार यह प्राणी विपरीतबुद्धिवाला बनकर अनेक भवों में परिभ्रमण कर हेयोपादेय के विवेक से रहित होकर संयमरूप अपनी आत्मा का घात करता रहता है । आत्मा का स्वभाव संयमस्वरूप है, इसको पालन नहीं करना, अथवा आत्मा को संयमी नहीं बनाना आत्मा की घात करना है । सू० ३ ॥ जो सच्चे चारित्र से युक्त हैं वे इस असंयमिजीवन को पसन्द नहीं करते हैं, यह बात इस सूत्र में प्रदर्शित करते हैं- " इणमेव नावकंखंति' इत्यादि ।
((
दारा परिभवकारा, बन्धुजनो बन्धनं विषं विषया । कोऽयं जनस्य मोहो, ये रिपवस्तेषु सुहृदाशा ॥ १ ॥
આ જે સ્ત્રી આદિક પદ્મા છે તે મારે તિરસ્કાર કરવાવાળા છે ખંધુજન એક ખંધન છે. વિષયાદિક વિષ છે. એવે કયા આ પ્રાણીના માહ છે જે પેાતાના શત્રુઓને પણ મિત્ર સમજે છે આ પ્રકારે આ પ્રાણી વિપરીત બુદ્ધિવાલે ખનીને અનેક ભવામાં પરિભ્રમણ કરી હેયાપાદેયના વિવેકથી રહિત થઈને સચમરૂપ પોતાના આત્માને ઘાત કરતા રહે છે. આત્માના સ્વભાવ સયમસ્વરૂપ છે તેનું પાલન નહિ કરવુ અથવા આત્માને સંચી નહિ મનાવવા તે આત્માની ઘાત કરવા ખરાખર છે ! સૂ૦ ૩૫
જે સાચા ચારિત્રથી યુક્ત છે તે આવા અસંયમિજીવનને પસંઢ કરતા भावात आसूत्रमा प्रहर्शित रे छे -" इणमेव नावकखंति' इत्यादि.
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अध्य० २. उ. ३
१९५ 'इद'-मित्यादि । " ध्रुवचारिणः" ध्रुवतिचजति आत्मतः पृथग्भवति कर्मचयो येन तद् ध्रुवंचारित्रं, तच्चरितुं शीलं येपां ते ध्रुवचारिणः ।
यद्वा-ध्रुवो मोलस्तद्धेतुत्वात्तपोज्ञानक्रियादिकं कार्यकारणयोरभेदात्, तच्चरणशीला ध्रुवचारिणः। ये जना ध्रुवचारिणः, ते इदमेव असंयमजीवितं पूर्वभुक्तभोगादिकं वा नावकाङ्क्षन्ति-नेच्छन्ति । 'जातिमरणं ' जातिश्च मरणं च जातिमरणं, जातिमरणं यत्र स जातिमरणः संसारस्तं वा ज्ञ-परिजया ज्ञात्वा 'अशङ्कितमनाः' अशङ्कितं मनो यस्य सोऽशङ्कितमनाः तपोदमनियमवैफल्याशङ्काशून्यो जिनवचनश्रद्धावान् , अत एव दृढ विश्रोतसिकारहितः, परीपहोपसगैर्निष्पकम्पो वा चरेत्-विहरेत् ।
ध्रुव शब्द का अर्थ चारित्र है, क्योंकि-" ध्रुवति-व्रजति आत्मनः पृथग्भवति कर्मचयो येन तत् ध्रुवम् " कर्मसह जिसके द्वारा आत्मा से पृथक् होता है वह ध्रुव है, वह चारित्रस्वरूप आत्मा का निजधर्म है।
भावार्थचारित्र आराधन के बारा आत्मा ज्यों ज्यों अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभ योगों का निग्रह करता जाता है, लो त्यों इस आत्मा में अपूर्व अपूर्व उज्ज्वलता की जागृति होती जाती है। इस उज्ज्वलता की जागृति में आत्मा संघर और निर्जरा के द्वारा समस्त कर्मों का नाश कर देता है, अर्थात् समस्त कर्म आत्मा से पृथक् हो जाते हैं । तप श्रुत और व्रतों का पालन करने वाला आत्मा ही ध्यानरूप रथ पर आरूढ़ होकर संवर और निर्जरा के सुन्दर मैदान में आकर अपने अन्तिम मोक्ष पुरुषार्थ को प्राप्त कर लेता है। सुवर्ण जैसे जैसे अग्नि मेंतपाया जाता है वैसे वैसे वह विलकुल निर्मल होता जाता है, उसी प्रकार कर्मों के अनादि संबंध से आवृत यह आत्मा भी मलिनदशासंपन्न है, उसकी इस
ध्रुव न! मथ यारित्र छ, ४।२९५ " ध्रुवति व्रजति आत्मनः पृथग्भवति कर्मचयो येन तत् ध्रुवम् ” भसमूड रे द्वारा सामाथी २५ थाय छ त ધ્રુવ છે, તે ચારિત્રસ્વરૂપ આત્માને નિજધર્મ છે.
ભાવાર્થ–ચારિત્ર આરાધનદ્વારા આત્મા જેમ જેમ અવિરતિ, પ્રમાદ, કપાય અને અશુભ ભેગોને નિગ્રહ કરતા રહે છે તેમ તેમ આ આત્મામાં અપૂર્વ અપૂર્વ ઉજવલતાની જાગ્રતિ થાય છે. આ ઉજવલતાની જાગ્રતિમા આત્મા સવર અને નિરાદ્વારા સમસ્ત કર્મોનો નાશ કરે છે, અને સમસ્ત કર્મ આત્માથી પૃથક્ થઈ જાય છે. તપ કૃત અને વ્રતના પાલન કરવાવાળા આત્મા જ ધ્યાનરૂપ રથ પર આરૂઢ થઈ સંવર અને નિજરના સુદર મેદાનમાં આવીને પોતાના અંતિમ મોટા પુરૂષાર્થને પ્રાપ્ત કરી લે છે. સુવર્ણને અગ્નિમાં જેમ જેમ વધારે તપાવવામાં આવે તેમ તેમ તે વધારે નિર્મળ બને છે. તે પ્રકારે કર્મોને અનાદિ કાંબધથી
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आचारागसूत्रे मलिनता को दूर करने में चारित्र की अराधना अग्नि का काम देती है। कर्मों का संबंध आत्मा के साथ आज का नहीं है किन्तु यह नो अनादिकाल का है, यह बात कई बार लिखी जा चुकी है। ये कर्मपुद्गल अचेतन होने से स्वयं आत्मा के पास नहीं जाते किन्तु अनादिकाल से बद्धरूप इस आत्मा के योगरूप परिणाम में ऐसी आकर्षक शक्ति है कि जिसके द्वारा वे कर्मरूप पुद्गल खींचे जाते हैं-अर्थात् आत्मा जब कषायों के द्वारा अत्यन्त संतप्त हो जाता है तब योग द्वारा कर्मपुद्गलों को-तपा हुआ लोहा जिस तरह पानी को चारों ओर से खींचता है ठीक उसी तरह खींचता है, और वे खाये हुए भोजन के इस रुधिरादिरूप की तरह अपने ही आप भिन्न-भिन्न रूप से परिणत हो जाते हैं। कर्मपुद्गल नवीन-नवीन नयार नहीं होते, कारण कि "सतो न विनाशः असतश्च उत्पत्तिर्न" सत् का विनाश और असत् की उत्पत्ति नहीं होती। आत्मा कषायों से जब संतप्त हो जाता है तब मन, वचन और कायरूप योगों के द्वारा जिन कार्मण वर्गणाओं को खींचता है उन्हीं की कर्मसंज्ञा हो जाती है।
प्रश्न-आपने अभी तो यह कहा है कि-आत्मा कर्मों के साथ अनादिकाल से बंध रहा है, और अब आप कहते हैं कि-जिन कार्मण આવૃત આ આત્મા પણ મલિનદશા પન્ન છે, તેની આ મલિનતાને દૂર કરવામાં ચરિત્રની આરાધના અગ્નિનું કામ આપે છે. કર્મોને સ બ ધ આત્માની સાથે આજને નથી પણ અનાદિ કાળને છે, એ વાત ઘણી વખત લખાઈ ચુકી છે. આ કર્મ પુદ્ગલ અચેતન હોવાથી પિતે આત્માની પાસે નથી જતા પણ અનાદિ કાળથી બદ્ધરૂપ આ આત્માને ગરૂપ પરિણામમાં એવી આકર્ષક શક્તિ છે કે જેના દ્વારા તે કર્મરૂપ પુદ્ગલ ખેચાઈ જાય છેઅર્થાત્ આત્મા જ્યારે કષાદ્વારા અત્યન્ત સતત થાય છે ત્યારે ગદ્વાર કર્મ પુદ્ગલેને–તપેલું લેતું જેવી રીતે પાણીને ચારે બાજુથી ખેંચે છે. ઠીક તે પ્રમાણે ખેચે છે. અને તે ખવાયેલાં ભજનનું આ રૂધિરાદિ રૂપની માફક પોતાની મેળે જ ભિન્ન ભિન્ન રૂપથી પરિણત થાય છે કર્મ પુદ્ગલ નવીન નવીન તૈિયાર થતા નથી. કારણ કે "सतो न विनाश. असतश्च उत्पत्तिर्न " सत्नी विनाश मने असत्नी उत्पत्ति થતી નથી આત્મા કપાયેથી ત્યારે સતત થાય છે ત્યારે મન, વચન અને કાયા
રૂપ ગોઠારા જે કામણ વર્ગણુઓને ખેચે છે તેની કર્મસજ્ઞા થઈ જાય છે. * પ્રશ્ન—આપે હમણા તો એ કહ્યું કે આત્મા કર્મોની સાથે અનાદિ કાળથી
ધી રહ્યો છે, અને હવે આપ કહો છે કે જે કાર્મણ વર્ગણુઓને ખેચે છે
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अध्य० २ उ. ३ वर्गणाओं को खींचता है उन्हीं की कर्मसंज्ञा हो जाती है। इससे तो
आत्मा और कर्म का संबंध सादि सिद्ध होता है। ___ उत्तर-अभिप्राय को समझे विना ही यह प्रश्न किया गया है। कहने का तात्पर्य यही है कि-यह जीवात्मा अनादि से ही कर्मबन्ध सहित है । इसके साथ कोई नियमित समय से कर्मबंध नहीं हुआ। ऐसा नहीं था कि जीव अलग-न्यारा था और कर्म न्यारे थे, पीछे से इन दोनों का संयोग हुआ हो। किन्तु जिस प्रकार मेरुगिरि आदि अकृत्रिम स्कन्धों में अनंत पुद्गलपरमाणु अनादि से ही वन्धरूप हो रहे हैं, और उनमें पुराने पुद्गलपरमाणु भिन्न होते रहते हैं, और नवीन आकर मिलते हैं। इसी प्रकार इस संसार में एक जीवद्रव्य और अनन्त कर्मरूप पुद्गलपरमाणुओं का परस्पर में अनादिकाल से संवन्ध है । इनमें से कई कर्मपरमाणु भिन्न होते रहते हैं और कई कर्मपरमाणु मिलते रहते हैं। इस प्रकार इन कर्मपरमाणुओं में परस्पर मिलना बिछुड़ना होता रहता है।
प्रश्न-पुद्गलपरमाणु तो रागादिक के निमित्त को पाकर कर्मरूप हुआ करते हैं, फिर वे अनादि से कर्मरूप अवस्था वाले कैसे माने जा सकते, कारण कि कार्मण वर्गणा, जिससे कर्मपर्याय उत्पन्न होती है वह स्वयं पुद्गल द्रव्य है ? । તેની કર્મસંજ્ઞા થાય છે તેથી તે આત્મા અને કમને સંબંધ સાદિ સિદ્ધ થાય છે.
ઉત્તર–અભિપ્રાયને સમજ્યા વિના જ પ્રશ્ન કર્યો છે. કહેવાને તાત્પર્ય એ છે કે-આ જીવાત્મા અનાદિથી જ કર્મબંધસહિત છે. તેની સાથે કેઈ નિયમિત સમયથી કર્મબંધ થયેલ નથી. એવું ન હતું કે જીવ અલગ-જુદો હતા અને કર્મ પણ જુદા હતાં, પાછળથી એ બન્નેને સંગ થયે હોય, પણ જેવી રીતે મેરગિરિ આદિ અકૃત્રિમ સ્કમાં અનત પુદ્ગલપરમાણુ અનાદિથી જ બંધરૂપ થઈ રહેલ છે, અને તેમા પુરાણું પુદ્ગલપરમાણુ ભિન્ન થતાં રહે છે અને નવા આવીને મળે છે. આ પ્રકાર આ સંસારમાં એક જવદ્રવ્ય અને અનત કમરૂપ પગલપરમાણુઓના પરસ્પરમાં અનાદિ કાળથી સંબંધ છે, તેમાંથી કે કર્મ પરમાણુ ભિન્ન થતાં રહે છે અને કોઈ પુદ્ગલપરમાણુ મળતાં રહે છે. આ પ્રકાર આ કર્મ પરમાણુઓમાં પરસ્પર મળવું, છુટા થવું વિગેરે તું જ રહે છે.
પ્રશ્ન–પુગલપરમાણ તે રાગાદિકના નિમિત્તને લઈને કમંરૂપ થયા કરે છે, પછી તે અનાદિધી કર્મરૂપ અવસ્થાવાળા કેવી રીતે માનવામાં આવે કાર કે કામગવા જેનાથી કર્મપર્યાય ઉપન્ન થાય છે તે સ્વયં પુદ્ગલ દ્રવ્ય છે?
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अध्य० २ उ. १
सोपक्रमायुश्चोपक्रमकारणैर्दण्डकशाशस्त्ररज्जुवद्भिजलपतनविषव्यालशीतोष्णारतिभयक्षुत्पिपासाव्याधिमूत्रपुरीपनिरोधातिभोजनाजीर्णभोजनघर्षणश्वासप्रतिरोधनपीडनरूपैरकाले यस्यायुषो नाशस्तत् ।। उक्तञ्च-दण्ड-कस-सत्थ-रज्जू, अग्गी-उदग-पडणं विसं वाला।
सी-उण्हं अरइ भयं, खुहा पियासा य वाही य ॥१॥ मुत्तपुरीसनिरोहे, जिण्णाजिण्णे य भोयणं बहुसो ।
सण-घोलण-पीलण, आउस्स उवकमा एए ॥२॥ छाया-दण्डः कशा शस्त्रं रज्जुरग्निरुदकं पतनं विषं व्यालाः ।
शीतमुष्णमरतिभयं क्षुत्पिपासा च व्याधिश्च ॥१॥ मूत्रपुरीपनिरोधो जीर्णेऽजीणे च भोजनं बहुशः ।
घर्षणं घोलनं पीडनमायुष उपक्रमा एते ॥ २ ॥ इति । "जीवा णं भंते ! जाइनामनिधत्ताउयं कतिहिं आगरिसेहिं पकरंति ? गोयमा ! जहन्नेणं दोहिं वा तिहिं वा उक्कोसेणं अट्ठहिं।” इति।
इस सूत्र का अर्थ पूर्वोक्तरूप से ही है।
सोपक्रम आयु वह है जिसका-उपक्रम के कारणभूत दण्ड, चावुक, शस्त्र, रज्जु, अग्नि, जल, विष, सर्प, शीत, उष्ण, अरति, भय, क्षुधा, तृष्णा, व्याधि, मूत्र-पुरीष-लघुनीत बडीनीत-का निरोध, अतिभोजन, अजीर्ण भोजन, डोरी आदि बांधकर घसीटना, श्वास का निरोध और यंत्र आदि में पीडना आदि से अकाल में ही अन्त हो जाय, कहा भी है
"दंड-कस-सत्थ-रज्जू-अग्गी-उद्ग-पडणं-विसं-वाला ।
सी-उण्हं-अरइ-भयं, खुहा पिवासा य वाही य ॥ १॥ __“जीवा णं भंते ! जाइनामनिधत्ताउयं कतिहिं आगरिसेहिं पकरति ? गोयमा! जहन्नेणं दोहिं वा तिहि वा उक्कोसेणं अहिं।" इति।
આ સૂત્રને અર્થ પૂર્વોક્ત રૂપથી જ છે.
સોપકમ આયુ તે છે જેના ઉપક્રમના કારણભૂત દંડ, ચાબુક, શસ્ત્ર, રજી, 24A, ४१, विष, सी, २d, SY, २मति, भय, क्षुधा, तृषा, व्याधि, भूत्रપુરીષ,-લઘુનીત–બડીનીત ને નિધિ, અતિભેજન, અજીર્ણ ભેજન, દેરી આદિ બાંધીને ઘસડવું, શ્વાસને નિષેધ અને યંત્ર આદિથી પીડવું, આદીથી અકાजभा १ मत थाय. ४युं छ:" दंड-कस-सत्थ-रज्जू , अग्गी उदग पडणं विसं वाला। सी-उण्हं अरइ भयं, खुहा पिवासा य वाही य ॥१॥
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आचारागसूत्रे ___ उत्तर-निमित्त की संभावना तो नवीन कार्य की उत्पत्ति में ही कार्यकारी मानी जाती है । अनादि अवस्था में निमित्त की कल्पना करना उसकी अनादिता पर बट्टा लगाना है। जहां पर निमित्त है वहां अनादिता नहीं, और जहां अनादिता है वहां पर निमित्त नहीं । निमित्त का सम्बन्ध सादिता के साथ हुआ करता है। जैसे नवीन पुद्गलपरमाणु का दो गुण अधिक बंध स्निग्ध और रूक्ष के द्वारा होता है। यहां पर नवीन पुदल परमाणुओं के बंध के सम्बन्ध में स्निग्ध और रूक्षरूप निमित्त की कल्पना करनी पड़ती है, परन्तु मेरुगिरिआदि अकृत्रिम स्कन्धों में अनादि पुद्गलपरमाणु के बंध के सम्बन्ध में निमित्त की कल्पना करना कोई महत्व नहीं रखता। ठीक इसी प्रकार नवीन पुद्गलपरमाणुओं का कर्मरूप होना रागादिकनिमित्ताधीन है, परन्तु जिन पुद्गलपरमाणुओं की अनादिकाल से ही कर्मरूप अवस्था हो रही है, उसमें निमित्त की कल्पना करना कोई भी प्रयोजन की पुष्टि नहीं करता। शास्त्र में इसी बात का समाधान यों लिखा है
"नैवम् , अनादिप्रसिद्धद्रव्यकर्मसम्बन्धस्य तत्र हेतुत्वेनोपादानात्" कोई वादी प्रश्न करता है कि जब रागादिक भावकर्म का कारण द्रव्यकर्म
ઉત્તર–નિમિત્તની સભાવના તે નવીન કાર્યની ઉત્પત્તિમાં જ કાર્યકારી માનવામાં આવે છે, અનાદિ અવસ્થામાં નિમિત્તની કલ્પના કરવી તે તેની અનાદિતા ઉપર બટ્ટો લગાડવા બરાબર છે જે ઠેકાણે નિમિત્ત છે ત્યા અનાદિતા નહીં. અને જ્યા અનાદિતા છે ત્યા નિમિત્ત નહિ. નિમિત્તને સ બંધ સાદિતાની સાથે થયા કરે છે. જેમ નવીન પુદ્ગલપરમાણુના બે ગુણ અધિક બંધ સ્નિગ્ધ અને રૂક્ષ દ્વારા થાય છે. આ ઠેકાણે નવીન પુગલ પરમાણુઓના બંધના સંબંધમાં સ્નિગ્ધ અને રક્ષરૂપ નિમિત્તની કલ્પના કરવી પડે છે, પરંતુ મેરૂગિરિ આદિ અકૃત્રિમ સ્થમાં અનાદિ ગુગલ પરમાણુના બંધના સંબંધમાં નિમિત્તની કલ્પના કરવી તે કઈ મહત્વ રાખતું નથી. ઠીક તે પ્રકાર નવીન પુદ્ગલપરમાણુઓનુ કર્મરૂપ હોવુ રાગાદિક નિમિત્તાધીન છે, પરંતુ જે પુદ્ગલપરમાશુઓની અનાદિ કાળથી જ કર્મરૂપ અવસ્થા થઈ રહેલ છે, તેમાં નિમિત્તની કલ્પના કરવી કે ઈ પણ પ્રજનની પુષ્ટિ નથી કરતી. શાસ્ત્રમાં આ વાતનું સમાધાન આમ લખેલ છે –
“ नैवम्, अनादिप्रसिद्धद्रव्यकर्मसम्बन्धस्य तत्र हेतुत्वे नोपादानात् " કઈ વાદી પ્રશ્ન કરે છે કે-જ્યારે રાગાદિક ભાવકર્મનું કારણે વ્યકર્મે છે,
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१९९ है, और द्रव्यकर्म का कारण रागादिक भावकर्म है तो ऐसी परिस्थिति में इतरेतराश्रय दोष आकर उपस्थित होता है। इस दोष में किसीकी भी स्वतन्त्र सत्ता की सिद्धि नहीं होती है । तब आचार्य कहते हैं-ऐसा मत कहो, कारण कि अनादि से ही द्रव्यकर्म का सम्बन्ध स्वयं सिद्ध है,
और इसी की वजह से जीव में रागादिक आवों की उत्पत्ति होती है। अनुभव से भी यही बात प्रतीतकोटि में आती है कि-यदि रागादिक भाव जीव के विना किसी निमित्त के स्वीकार किये जायें तो वे जीव के निजस्वभाव हो जाने से विभाव भाव कैसे माने जा सकेंगे ?। ऐसी परिस्थिति में जीव का निजभाव रागादिक भी मानना होगा। परन्तु ऐसी मान्यता शास्त्र से वहिर्भूत है।
प्रश्न-कर्म और आत्मा का आप अनादि सम्बन्ध कहते हैं परन्तु यह बात ठीक नहीं बैठती, कारण कि इन दोनों का जो सम्बन्ध है वह संयोगसम्बन्ध ही है, तादात्म्यसम्बन्ध नहीं। पहिले दृध और पानी की तरह ये दोनों स्वतन्त्र हों और फिर परस्पर मिलें तब इनका सम्बन्ध मानना ठीक हो सकता है। ____उत्तर-जैसे जल और दूध का सुवर्ण और किटिक का तुष और कण का, तिल और तेल का सम्बन्ध जनादि का माना जाता है, उसी દિવ્યકર્મનું કારણ રાગાદિક ભાવકમ છે તે આવી પરિસ્થિતિમાં ઇતરેતરાશ્રય દેવ આવીને ઉપસ્થિત થાય છે. આ દોષમાં કેઈની પણ સ્વતંત્ર સત્તાની સિદ્ધિ થતી નથી. ત્યારે આચાર્ય કહે છે–એવું ન કહે, કારણ કે અનાદિથી દ્રવ્યકમને સંબંધ સ્વયંસિદ્ધ છે. અને એ જ કારણથી જીવમાં રાગાદિક ભાવની ઉત્પત્તિ થાય છે. અનુભવથી પણ એ વાત પ્રતિતીકેટિમાં આવે છે, કે-કદાચ
ગાદિક ભાવ જીવને વિના કોઈ નિમિત્તે સ્વીકાર કરવામાં આવે. તો તે જીવના નિજ ભાવ થઈ જવાથી વિભાવ ભાવ કેવી રીતે માની શકાશે? આવી પરિસ્થિતિમાં જીવને નિજભાવ રાગાદિક પણ માનવે પડશે, પરંતુ એવી માન્યતા શાયથી બહિર્ભત છે. - પ્રશ્ન–કમ અને આત્માને આપ અનાદિ સંબંધ કહો છો પરંતુ એ વાત ઠીક બેસતી નથી, કારણ કે બન્નેને જે સંબંધ છે તે સંયોગસંબંધ જ છે. તાદાભ્યસંબધ નહિ, પહેલા દૂધ અને પાણીની માફક બને સ્વતંત્ર હોય અને પછી પરસ્પર મળે ત્યારે સંબંધ માનવો તે ઠીક લાગે છે.
ઉત્તર–જેવી રીતે પાણી અને દૂધ, સુવર્ણ અને કિટિક, રેખા અને (ફારી, તલ અને તેલને સંબધ અનાદિનો માનવામા આવે છે, તે પ્રકારે તેને
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आचारागसूत्रे प्रकार इनका भी सम्बन्ध अनादि का ही है। नवीन इनका सम्बन्ध नहीं हुआ है । इनका परस्पर में संयोगसम्बन्ध ही है, ऐसा जो कहा जाता है वह आगामी काल में इनकी भिन्नता को देखकर ही। अनादि से मिले हुए होने पर भी ये जुदे-जुदे हो जाते हैं, इससे अनुमान होता है कि ये पहिले से भी जुदे हैं । परस्पर संयोगसंबंधविशिष्ट होने पर
भी ये दोनों पदार्थ स्वस्वरूपापेक्षया भिन्न भिन्न ही है। यदि भिन्न न हों तो फिर मुक्ति इन के पृथक् होने से जो जीवात्मा को प्राप्त होती है, वह कैसे हो सकेगी। अतः जीव और कर्म का संबंध अनादि का ही है सादि नहीं।
प्रश्न-कर्म जब पुद्गलपिंडरूप हैं, तब वे घटपटादिक की तरह इन्द्रियगम्य क्यों नहीं होते।
उत्तर-स्थूल-स्थूल १, स्थूल २, स्थूल-सूक्ष्म ३, सूक्ष्म-स्थूल ४, सूक्ष्म ५, और सूक्ष्म-सूक्ष्म ६, इस प्रकार सिद्धान्तकारों ने पुद्गल को इन छह विभागों में विभक्त किया है। इनमें कागज, लकड़ी, कलम, दावात आदि स्थूलस्थूल पुद्गल हैं, इनमें कठोर वस्तुओं का समावेश है । स्थूल-स्थूल वस्तुएँ आपस में छिन्न भिन्न होने पर अपने आप फिर मिल नहीं सकती १। પણ સંબંધ અનાદિ કાળને છે. નવીન તેને સંબંધ થયું નથી. તેને પરસ્પરમાં સંગસ બંધ જ છે એવું જે કહેવામાં આવે છે તે આગામી કાળમાં તેની ભિન્નતાને દેખીને જ કહેવામાં આવે છે. અનાદિથી તેઓ મળેલ છે છતાં તે જુદા જુદા થઈ જાય છે, તેથી અનુમાન થાય છે કે પહેલાંથી જ જુદા છે. પરસ્પર સગાસંબંધવિશિષ્ટ હેવા છતાં પણ એ બને પદાર્થ સ્વસ્વરૂપાપેક્ષયા ભિન્ન જ રહેલ છે. જે જુદા નહિ હોત તે પછી મુક્તિ તેના પૃથક્ થવાથી જે જીવાત્માને પ્રાપ્ત થાય છે તે કેવી રીતે થઈ શકે, માટે જીવ અને કર્મને સંબંધ અનાદિ छे साहि नहि.
પ્રશ્ન–કમ જ્યારે પુદ્ગલપિંડરૂપ છે, ત્યારે તે ઘટપટાદિકની માફક ઇન્દ્રિ યગમ્ય કેમ નથી થતાં
उत्तर-स्यूदा-स्थूदा १, स्थूस २, स्थूदा-सूक्ष्म 3, सूक्ष्म-स्थू ४, सूक्ष्म ५, અને સૂમ-સૂક્ષ્મ ૬, આ પ્રકારે સિદ્ધાતકાએ પુદ્ગલેને છ વિભાગોમાં વિભક્ત કરેલ છે. તેમાં કાગળ, લાકડી, કલમ, ખડીઓ આદિસ્થલ–સ્થલ પુદ્ગલ છે, તેમાં કઠોર વસ્તુઓને સમાવેશ છે, સ્કૂલ-સ્કૂલ વસ્તુઓ અંદરોઅંદર છિન્નભિન્ન થવાથી પિતાની મેળે ફરી મળી શકતી નથી ૧, સ્કૂલ-વહેવાવાળી ચીજો, જેમ
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स्थूल - बहने वाली चीजें, जैसे पानी दूध घृत वगैरह २ | स्थूलसूक्ष्मजो देखने में मोटी हों, परन्तु हाथों से पकडी न जा सकें, जैसे प्रकाश धूप और छाया आदि ३ । सूक्ष्म स्थूल - जो देखने में न आवें ऐसी सूक्ष्म हों, परन्तु भारी कार्य कर सकें, जैसे हवा शब्द इत्यादि ४ । सूक्ष्म-जो पुलपिंड इतने सूक्ष्म हैं कि वे किसी भी इन्द्रिय से ग्रहण न हो सकें, जैसे कार्मणवर्गणाएँ ५ । सूक्ष्म सूक्ष्म-दो परमाणुओं का स्कंध या एक परमाणु ६ । इन छह भेदों में कर्मपुद्गलपिंड सूक्ष्म है, अतः वह इन्द्रियगम्य नहीं हो सकता ।
प्रश्न -- कर्म की सत्ता तब कैसे जानी जाती है ?
उत्तर - उसके कार्य से ।
प्रश्न-इन कर्मों का कार्य क्या है ?
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उत्तर - आत्मा के ज्ञानादिक गुणों का घात करना, केवलज्ञान की ज्ञानावरण, अनन्त दर्शन की दर्शनावरण, अन्याबाध की वेदनीय, क्षायिक सम्यक्त्व की मोहनीय, अवगाहनत्व का आयु, सूक्ष्मत्व गुण का नाम, अगुरुलघु गुण का गोत्र और अनन्तवीर्य का अन्तराय घात करता है । तथा एक जीव सुखी है और एक जीव दुःखी है, एक विद्वान् है एक पाणी, दूध, धी विगेरे २, स्थूल सूक्ष्म - वामां भोटी होय छे परंतु हाथोथी पडी शाती नथी, प्रेम प्रकाश, धूप, छाया आदि 3, सूक्ष्म-स्थूल - हेणवामां ન આવે એવી સૂક્ષ્મ હેાય પણ ભારી કામ કરી શકે, જેમ હવા, શબ્દ ઇત્યાદિ ૪, સૂક્ષ્મ-જે પુદ્ગલપિડ એટલા સૂક્ષ્મ છે કે તે કોઈપણ ઈન્દ્રિયથી ગ્રહણ થઈ ન શકે, જેમ કાણુવણા ૫, સૂક્ષ્મ-સૂક્ષ્મ-એ પરમાણુઓના સ્કંધ અને એક પરમાણુ ૬, આ છ ભેદોમાં કર્મ પુદ્ગલપિડ સૂક્ષ્મ છે, માટે તે ઇન્દ્રિયગમ્ય થઇ શકતા નથી.
પ્રશ્નકર્મીની સત્તા ત્યારે કેવી રીતે જાણી શકાય?
उत्तर- तेना अर्थथी.
પ્રશ્ન—તે કર્માનુ કાર્ય શું છે ?
ઉત્તરઆત્માના જ્ઞાનાદિ ગુણોના ઘાત કરવા કેવળજ્ઞાનના જ્ઞાનાવરણુ, અનન્તાનના દર્શનાવરણ, અવ્યાબાધના વેદનીય, જ્ઞાયિક સમ્યક્ત્વના માહનીય, અવગાહ તત્ત્વના આયુ, સૂક્ષ્મત્વ ગુણના નામ, અનુલઘુગુણના ગોત્ર અને અનંત વીના અન્તરાય ઘાત કરે છે. તેથી એક જીવ સુખી છે અને એક જીવ દુ:ખી છે, એક વિદ્વાન છે એક ભૂખ છે, એક સમલ છે એક કમજોર છે, એક રાત
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आचाराङ्गसूत्रे मूर्ख है, एक सवल है एक कमजोर है, एक रातदिन सुख चैन में मस्त वना रहता है एक दर दर का भिखारी बना हुआ है, यह सब किस का कार्य है ? कहना पड़ेगा कर्म का। यह ज्ञानावरणादिकर्मरूप पर्याय कार्मणवर्गणाओं की हुई है। कार्मणवर्गणा पुद्गल द्रव्य है, जो जीव के रागादिक भावों के निमित्तवश ज्ञानावरणादि पर्यायरूप परिणत हो जाता है, जिस प्रकार मृतिका में निमित्ताधान घटपर्याय हुआ करती है। इस प्रकार की पर्याय उन कार्मणवर्गणाओं में अनादिकालीन हैनवीन नहीं है, और यह जीवात्मा भी उन कर्मपायों से अनादिकाल से ही परतन्त्र हो रहा है। इसकी इस परतन्त्रतारूप बंधदशा का कोई निश्चित समय नहीं है, अतः अनादिकाल से यह कमी के जाल में फंसा है, ऐसा कहा जाता है। अनादिता और अनंतता एवं सादिता का संबंध है सिर्फ अनंतता का ही नहीं।
चारित्राराधन करने से आत्मा के कर्मों का नाश होता है, इसका अभिप्राय यही है कि-आत्मा के कर्मपर्यायों का नाश हो जाता है, क्यों कि कर्मद्रव्य का कभी भी नाश नहीं होता । कर्मपर्याय का ही नाश होता है। जिस कार्मण द्रव्य में पहिले कषायादिक के निमित्त से कर्मरूप पर्याय દિવસ સુખચેનમાં મસ્ત બન્યા રહે છે, એક ઘરઘરને ભિખારી બનેલ છે. આ બધા કેના કાર્યો છે? કહેવું પડશે કે કર્મના આ જ્ઞાનાવરણદિકર્મરૂપ પર્યાય કાર્મણ વર્ગણાઓની થયેલી છે કામણવર્ગ તે પુગલદ્રવ્ય છે જે જીવના રાગાદિક ભાવોના નિમિત્તવશ જ્ઞાનાવરણાદિપર્યાયરૂપ પરિણત થાય છે. જે પ્રકારે મૃત્તિવામાં નિમિત્તાધાન ઘટપર્યાય થાય છે તે પ્રકારની પર્યાય તે કાર્પણ વર્ગણુઓમાં અનાદિ કાલીન છે, નવીન છે નહિ. અને આ જીવાત્મા પણ તે કર્મપર્યાયેથી અનાદિ કાળથી જ પરતંત્ર થઈ રહેલ છે. તેની આ પરતંત્રતારૂપ બધદશાને કેઈ નિશ્ચિત સમય નથી, માટે અનાદિ કાળથી આ કર્મોની જાળમાં ફસેલ છે એવું કહેવામાં આવે છે. અનાદિતા અને અન તતા એવ સાદિતાને સંબંધ છે ફક્ત અનંતતાને જ નહિ
ચારિત્રારાધન કરવાથી આત્માનાકને નાશ થાય છે. તેને અભિપ્રાય એ છે કે આત્માના કર્મપર્યાને નાશ થાય છે, કારણ કે કર્મદ્રિવ્યને કઈ વખત નાશ થતું નથી, કર્મપર્યાને જ નાશ થાય છે કામણ દ્રવ્યમાં પહેલા કક્ષા
યાદિકના નિમિત્તથી કમરૂપ પર્યાય બની હતી, તે નિમિત્ત દૂર થવાથી તે દ્રવ્ય | મરૂપ પર્યાયથી સ્થિત થાય છે, કામણુવર્ગણારૂપ દ્રવ્ય સામાન્ય છે, તેમાં
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होती थीं, उस निमित्त के हट जाने पर वही द्रव्य अकर्मरूप पर्याय से स्थित हो जाता है । कार्मणवर्गणारूप द्रव्य सामान्य है, उस में ज्ञानावरणादिरूप कर्मप्रकार नहीं है । जब वह कर्मरूप बनता है, तब उसमें ज्ञानावरणादि प्रकार होते हैं । ज्ञानावरणादि कर्मप्रकार की स्थिति जब पूर्ण हो जाती है, अथवा तप संयम के द्वारा जब उसका विनाश किया जाता है तब वह आत्मा से पृथक् हो जाता है, इस का भाव यही है कि वह कार्मण द्रव्य उन२ पर्यायों से रहित होकर अपने मूल स्वभाव से वहां स्थित रहता है, द्रव्य का कभी भी विनाश नहीं होता । सुवर्ण अथवा मणि से जिस प्रकार उनके मल की निवृत्ति होती है, उसी प्रकार आत्मा से भी कर्मपर्याय की निवृत्ति होती है । ऐसा होने पर जीव की आत्यन्तिक शुद्धि हो जाती है । सकलकर्मपर्याय के विनाश होने पर मूल द्रव्य का विनाश नही होता है । जिस प्रकार घटपर्याय के विनाश होने पर मृत्तिका अघट पर्याय से स्थित रहती है, इसी प्रकार सकलपर्याय के विनाश होने पर भी कर्मद्रव्य अकर्मपर्याय से आक्रान्त हो जाता है, द्रव्य अनन्त पर्यायवाला है । जिस प्रकार कार्मण द्रव्य की पर्याय कर्म है उसी प्रकार अकर्म भी उसकी एक पर्याय है । विवक्षित जीव की अपेक्षा से ही उसमें कर्म और अकर्म पर्याय रहती है । संसारी
જ્ઞાનાવરણાદિરૂપ કર્મ પ્રકાર નથી. જ્યારે તે ક રૂપ અને છે ત્યારે તેમાં જ્ઞાનાવરણાદિ પ્રકાર થાય છે. જ્ઞાનાવરણાદિ કર્મ પ્રકારની સ્થિતિ જ્યારે પૂર્ણ થાય છે, અથવા તપ સંયમ દ્વારા જ્યારે તેને વિનાશ કરવામાં આવે છે ત્યારે તે આત્માથી પૃથક્ થાય છે, તેના ભાવ એ છે કે તે કાÖણુ દ્રવ્ય તે તે ર્માંચેથી રહિત થઈ ને પેાતાના મૂલ સ્વભાવમાં ત્યાં સ્થિત રહે છે. દ્રવ્યના ફોઇ વખત પણ વિનાશ થતા નથી. સુવર્ણ અથવા મણિથી જે પ્રકારે તેના મલની નિવૃત્તિ થાય છે તે પ્રકારે આત્માથી પણુક પર્યાયની નિવૃત્તિ થાય છે. એવું અનવાથી જીવની આત્યન્તિક શુદ્ધિ થાય છે. સકલ કમ પર્યાયના વિનાશ થવાથી મૂલ દ્રવ્યના વિનાશ થતા નથી. જે પ્રકારે ઘટપર્યાયના વિનાશ થવાથી કૃતિકા અઘટપર્યાયથી સ્થિત રહે છે તે પ્રકારે સકલ પર્યાયના વિનાશ થવાથી ક દ્રવ્ય કર્મ પર્યાયથી આકાન્ત થાય છે. દ્રવ્ય અનન્ત પર્યાયવાલા છે.
જે પ્રકારે કાણું દ્રવ્યની પર્યાય કર્મ છે તે પ્રકારે અકમ પર્યાય પણ તેની એક પર્યાય છે. વિવક્ષિત જીવની અપેક્ષાથી જ તેમાં કર્મ અને અકર્મપર્યાય
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आचाराङ्गसूत्रे
जीवों में इस वर्गणा का कर्मरूप पर्याय से परिणमन है, और शुद्ध आत्मद्रव्य की अपेक्षा अकर्मपर्यायरूपसे ।
जिस प्रकार सुवर्ण से उसके किटकादिरूप मैल का संबंध पुटपा कादि द्वारा दूर होता हुआ देखा जाता है उसी प्रकार आत्मा में अनादिकाल से संबंधित इन कर्मोंका वियोग भी तप संयम रूप साधन द्वारा दूर हो जाता है । इस मैल के पृथक होने पर शुद्ध सुवर्ण की तरह यह आत्मा भी शुद्ध होकर अपनी असली स्वरूप को पाता है ।
संयमी मुनि के लिये उपदेश देते हैं-' इणमेव ' इत्यादि । कर्मों को आत्मा से पृथगू करनेवाले चारित्र की जो आराधना करते हैं वे ध्रुवचारी कहलाते हैं । अथवा ध्रुव नाम मोक्ष का है। कार्य और कारण में अभेद संबंध होने से मोक्ष के कारणभूत सम्यग्दर्शन, तप, ज्ञान और क्रिया आदि भी ध्रुव हैं । इनको भी पालन करने के स्वभाववाले ध्रुवचारी हैं । जो मुनि ध्रुवचारी हैं वे असंयम जीवन की, अथवा पूर्व में भोगे हुए विषयादिक भोगों की कभी भी इच्छा नहीं करते हैं । ज्ञ-परिज्ञा से संसारका स्वरूप अथवा इस बात को जान कर कि - 'असंयम जीवन व्यतीत करने से जीव को इस संसार में बारंबार जन्म और मरण के चक्कर में રહે છે. સંસારી જીવામાં આ વણાના કમઁરૂપ પર્યાયથી પરિણમન છે, અને શુદ્ધ આત્મદ્રવ્યની અપેક્ષા અકમ પર્યાય રૂપથી
જેવી રીતે સુવર્ણથી તેના ટ્ટિકાદરૂપ મેલના સ ખ ધ પુટપાકાદિદ્વારા દૂર થતો દેખવામા આવે છે તેવી રીતે આત્મામા અનાદિ કાળથી સ બધિત આ કર્મોના વિયાગ પણુ તસંયમરૂપ સાધનદ્વારા દૂર થાય છે આ મેલના પૃથક્ ચવાથી શુદ્ધ સુવર્ણની માફક આ આત્મા પણ શુદ્ધ મની પાતાના અસલ સ્વરૂપને મેળવે છે
सभी मुनि भाटे उपदेश आये छे- 'इणमेव ' इत्याहि भने मात्भाश्री પૃથભૂત કરવાવાળા ચારિત્રની જે આરાધના કરે છે તે ધ્રુવચારી કહેવાય છે. અને ધ્રુવ નામ મોક્ષનુ છે કા` અને કારણમા અભેદ્ય સંબંધ હોવાથી મેાક્ષના કારણુભૂત સમ્યગ્દર્શન તપ જ્ઞાન અને ક્રિયા આદિ પણ ધ્રુવ છે તેનુ પણ પાલન કરવાવાળા સ્વભાવી ધ્રુવચારી છે જે મુનિ ધ્રુવચારી છે તે અસંયમ જીવનની અથવા પૂર્વાંમા ભાગવેલા વિષયાદિક ભાગોની કઢી પણ ઇચ્છા કરતા નથી. જ્ઞ પરિજ્ઞાથી સંસારનુ સ્વરૂપ અથવા તે વાતને ાણીને પણ અચમ જીવન વ્યતીત રવાથી જીવને આ સારમા વાર વાર જન્મ અને મરણના ચક્કરમા પડવું પડે છે.
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यद्वा – ' सङ्क्रमणे' इतिच्छाया, तत्र सङ्क्रम्यते = प्राप्यते मोक्षोऽनेनेति सङ्क्रमणं = ज्ञानादित्रिकं, तत्रैव चरेत् = तत्परो भवेत्, आत्महितार्थिभिः संयमे दृढै - पड़ना पड़ता है, इस लिये तप, संयम और नियमों का पालन सर्व श्रेयस्कर है, इनका पालन कभी भी विफल नहीं हो सकता' इस प्रकार जिसका मन उनके पालन करने में अडोल और अंकप है, मन की लगन से जो तप संयम आदि के पालन करने में दत्तावधान है, तथा जिस के हृदयमें जिनेन्द्रवचनों के प्रति दृढ़ आस्था है, जो ये अच्छी तरह से समझता है कि- 'भगवान् वीतराग प्रभु का बनाया हुआ यह मार्ग है किसी छद्मस्थ का नहीं, संयम की आराधना से कर्मों की निर्जरा होती है, मुझे इसका परिपालन सम्यक् रीति से ही करना चाहिये अन्यथा अनन्त संसार का पथिक बनना पड़ेगा, यदि मुझे अपने गृहीत मार्ग से च्युत करने के लिये परीषह और उपसर्ग भी आडे आवें तो मुझे उनकी भी कुछ पर्वाह नहीं है, मैं अकंप बन उनका भी सामना करने के लिये तैयार हूँ' इस प्रकार अशंकितमन और दृढ़प्रतिज्ञ होकर अपने गृहीत मार्गको संयमी आराधना करे ।
अतः
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सूत्र में "संकमणे" इस शब्द की छाया टीकाकार ने एक तो 'अशंकमनाः " यह की है जिसका अर्थ 'निःशंकितमन हो कर तप संयम का पालन करे' यह होता है । दूसरी 'संक्रमणे " की छाया માટે તપ–સ`ચમ અને નિયમોનુ પાલન સર્વ શ્રેયસ્કર છે. તેનું પાલન કેઈ વખત પણ વિળ થતુ નથી.આ પ્રકારથી જેનું મન તેના પાળવામાં મક્કમ અને અકંપ છે, મનની લગનથી જે તપ સંયમ આદિના પાલન કરવામા દત્તાવધાન છે, તથા જેના હૃદયમાં જિનેન્દ્રવચન પ્રતિ દૃઢ આસ્થા છે, જે સારી રીતે જાણે છે કે ભગવાન વીતરાગ પ્રભુના બનાવેલા આ માર્ગ છે, કોઈ છદ્મસ્થના નથી, સંયમની આરાધનાથી કર્મોની નિરા થાય છે, માટે મારે તેનું પરિપાલન સમ્યક્ રીતિથી જ કરવું જોઈએ, અન્યથા અનત સ'સારનો પથિક બનવા પડશે, જે મારે પોતાના ગૃહીત માર્ગથી વ્યુત કરવા માટે પરીષહું અને ઉપસર્ગ પણ આડા આવે તો મને તેની પણ કાઈ પરવાહ નથી. હું એકપ મની તેને પણ સામનો કરવા તૈયાર છું, તેવા પ્રકારે અતિમન અને દૃઢપ્રતિજ્ઞ બનીને પોતાના ગૃહીત માની સયમી આરાધના કરે.
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सूत्रभा" संकमणे या शहनी टीअारे मे तो " अशकमना. છાયા કરી છે જેનો અર્થ નિઃશકિતમન થઈ, તપ સયમનુ પાલન કરે' તેમ થાય છે.
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आचारागसूत्रे भर्भाव्यम्। वार्धक्ये परुत्परारि वा धर्म करिष्यामीति चेतसि न चिन्तयेदित्यर्थः, यतः 'कालस्य' काल मृत्युस्तस्य, अनागमः अप्राप्ति स्ति-न वर्तते, यतः कोऽपि क्षणो न तादृग् यस्मिन्मृत्योरागमनसम्भवो नास्ति, तस्मादहिंसादिषु सावधानेन क्षणलवमुहूर्तादिसमयेष्वप्रतिवन्धविहारिणाऽऽत्मौपम्येन भवितव्यमिति तात्पर्यम्॥०४॥ "संक्रमणे" ऐसी भी होती है। जिसके द्वारा मुक्ति की प्राप्ति जीवको होती है उसका नाम संक्रमण है । वह सम्यग्दर्शनादिक रत्नत्रय है। इनके द्वारा ही जीव मुक्ति का लाभ करता है, अतः सावधान मन होकर इनके परिपालन करने में संयमी मुनि को तत्पर रहना चाहिये, यह सूत्रकार का आदेश वचन है। 'पर परार जब समय आवेगा तब धर्माचरण करूँगा, अभी समय नहीं है' इस प्रकार का धर्माचरण के लिये बहाना नहीं करना चाहिये। ऐसा बहाना आत्महितार्थी के लिये उचित नहीं है। पहले कहा गया है कि-" नास्ति कालस्यानागमः" ऐसा कोई भी समय नहीं है कि जिसमें मृत्युके आने की संभावना न हो, अतः यह समझ कर कि-"काल पीछे लगा हुवा है, कब यहां से जाना पड़ेगा" धर्माचरण के लिये प्रमादी न बने । जो भी जितना भी समय मिले-धर्म की आराधना करता रहे । संयमी मुनि अपने गृहीत अहिंसादिवतों में सावधान होकर एक क्षण एक लव एक मुहूर्त भी प्रतिबन्धविहारी न बने, अर्थात् अप्रतिबन्धविहारी होकर विचरे ॥ स० ४॥ જેના દ્વારા જીવને મુક્તિની પ્રાપ્તિ થાય છે તેનું નામ સકમણ છે તે સમ્યગ્દર્શનાદિક રત્નત્રય છે. તેના દ્વારા જ જીવ મુક્તિને લાભ કરે છે માટે સાવધાન મન રાખીને તેનું પરિપાલન કરવામાં સ યમીમુનીએ તત્પર રહેવું જોઈએ, એ સૂત્રકારનું આદેશ વચન છે. આવતી કે તેની આગલની શાલ જ્યારે સમય આવશે ત્યારે ધર્મ કરીશ, હમણ સમય નથી. આવા પ્રકારનુ ધર્માચરણ માટે બહાનું કરવું જોઈએ નહિ એવું બહાનું આત્મહિતાર્થી માટે ઉચિત નથી પહેલાં કહેવામા આવેલ
- नास्ति कालस्यानागम" मेवाड समय नथी मा मृत्युन આવવાની સંભાવના ન હોય, માટે એવું સમજીને કે “કાળ પછવાડે જ લાગે છે, ક્યારે અહીંથી જાવુ પડશે” ધર્માચરણ માટે પ્રમાદી ન બને એટલે પણ વખત મળે તેટલે વખત ધર્મની આરાધના કરતા જ રહે
- સયમી મુનિ પોતાના ગૃહીત અહિંસાદિ વ્રતમાં સાવધાન બનીને એક + ગ એક લવ એક મુહૂર્ત પણ પ્રતિબન્ધવિહારી ન બને, અર્થાત્ અપ્રતિબન્ધ- રી બનીને વિચારે છે સૂ૦ ૪ છે
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अध्य० २ उ. ३
૨૦૭ ___ उक्तं संयमिजीवनस्वरूपम् , अथासंयमिजीवनस्वरूपमाह-सव्वे पाणा' इत्यादि। भूलम्-सव्वे पाणा पियाउया सुहसाया दुक्खपडिकूला आप्पियवहा पियजीवणा जीविउकामा सव्वेसि जीवियं पियं, तं परिगिज्झ दुपयं चउप्पयं अभिमुंजियाणं संसिंचियाणं तिविहेण जाऽवि से तत्थ मत्ता भवइ अप्पा वा बहुया वा से तत्थ गडिए चिट्टइ भोयणाए ॥ सू० ५॥ ___छाया-सर्व प्राणाः प्रियायुषः सुखास्वादाः दुःखप्रतिकूला अप्रियवधाः प्रियजीवना जीवितुकामाः सर्वेषां जीवितं प्रियम्, तत्परिगृह्य द्विपदं चतुष्पदमभियुज्य खलु संसिच्य खलु त्रिविधेन याऽपि तस्य तत्र मात्रा भवत्यल्पा वा बहुका वा स तत्र गृद्धस्तिष्ठति भोजनाय ॥ मू० ५ ॥
टीका-' सर्वे' इत्यादि, सर्व-निखिलाः, माणाः पाणिनः संसारिणः, प्रियायुषः प्रियजीविता भवन्ति, यो जीवो यत्रोच्चनीचयोनौ जन्म गृह्णाति तत्रैव रमते जीवितुमिच्छति च विषकृमिन्यायेन उक्तञ्च" अमेज्झमझे कीडस्स, सुरिंदस्स सुरालए।
समाणा जीवियाकंखा, तेर्सि मच्चुभयं समं ॥” इति । छाया-" अमेध्यमध्ये कीटस्य, सुरेन्द्रस्य सुरालये ।
समाना जीविताकाङ्क्षा, तयोर्मृत्युभयं समम् ॥" संयमजीवन का स्वरूप प्रकट किया, अब असंयमजीवन का स्वरूप प्रकट करते हैं-'सव्वे पाणा पियाउया' इत्यादि।
समस्त संसारी जीवों को जीवन प्रिय है, कोई भी जीव ऐसा नहीं है, जिसे अपने जीवन से ममता न हो, विष्ठा का कीडा भी अधिक से अधिक जीने की इच्छा रखता है। जो जीव जिस पर्याय में वर्तमान है उसे वही पर्याय प्रिय है। विष्ठा के कीडे की ममता को देखिये-वह यदि उस स्थान से अलग किया जाता है तो वह वहां से अलग होकर આ સંયમ જીવનનું સ્વરૂપ પ્રકટ કર્યું, હવે અસંયમ જીવનનું સ્વરૂપ પ્રગટ કરે --' सव्वे पाणा पियाउया' ऽत्याहि.
સમસ્ત સંસારી જીવન જીવન પ્રિય છે, કોઈ પણ જીવ એ નથી જેને પોતાના જીવનથી મમતા ન હોય. વિષ્ટાને કીડ પણ વધારેમાં વધારે જીવવાની ઈચ્છા રાખે છે. જે જીવ જે પર્યાયમાં વર્તમાન છે તેને તે જ પર્યાય પ્રિય છે. વિણાના કીડાની મમતાને જાઓ તે કદાચ તે સ્થાનથી અલગ કરવામાં આવે તે
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ચૂંટ
आचाराङ्गसूत्रे
एतेन संयमरहितमानवानां स्वल्पमेवायुस्तत्र शतशो विघ्नसमूहाः । तथा हि मनुजानामायुः प्रायशः शतवर्षपरिमितं भवति । तदर्द्ध रात्रिषु गतम्, अवशिष्टार्द्धे च बालस्वे वृद्धत्वे च न श्रुतचारित्रधर्माचरणकर्तृत्वं जीवस्य भवति । कियदवशिष्टमायुनाविधरोगशोकवियोगादिभिरेवाक्रान्तं भवति, कस्मात्तर्हि सौख्यं प्राणिनां भवेत् ।
मुन्त-पुरीसनिरोहे, जिष्णाजिष्णे य भोयणे बहुसो । सण घोलण पीलण, आउस्स उवक्कमा एए ॥ २ ॥ अर्थ पहले आचुका है ।
अतः संयमरहित जीवों का दीर्घकालिक आयु भी अल्प जैसा ही है, इसमें भी हजारों विघ्न आते रहते हैं । विचारिये तो
इस पञ्चम काल में ज्यादा से ज्यादा सौ वर्ष का आयु है । इस सौ वर्ष के आयु का हिसाब लगाया जाय तो पता लगेगा कि आधा आयु तो सोते २ व्यतीत हो जाता है बाकी जो आधा बचता है उसमें बालअवस्था वृद्धावस्था आती है । इन अवस्थाओं में जीव किसी भी प्रकार से धर्मादिक शुभ कार्यों का आचरण नहीं कर सकता । अनेक प्रकार के रोग शोक और वियोगादिजन्य दु:ख इसके अवशिष्ट जीवन को सदा त्रस्त किये रहते हैं । यौवन अवस्था में स्त्री का प्रेम इसे आराम नहीं लेने देता । इस पर यह छन्द है
" बालपने में ज्ञान न लह्यो, तरुण समय तरुणीरत रह्यो । अर्धमृतक सम बूढापनो, कैसे रूप लखे अपनो ॥ १ ॥
मुत्त-पुरीस-निरोहे, जिण्णाजिण्णे य भोयणे बहुसो ।
॥ २ ॥
धंसण घोलण पीलण आउस्स उवक्कमा एए અથ પહેલા આવેલ છે.
માટે સંયમરહિત જીવાની દીર્ઘકાલિક આયુ પણ અલ્પ જેવી જ છે, તેમા પણ હેારા વિઘ્ના આવે છે વિચારીએ તો આ પાચમા કાળમા વધારેમાં વધારે સો વષઁની આયુ છે. આ સા વષઁની આયુના હિસાબ કરીએ તે માલુમ પડશે કે અડધી આપ્યું તે સુવામા જ જાય છે બાકીની અડધી આયુ છે તેમાં આલઅવરથા અને વૃદ્ધાવસ્થાના સમાવેશ છે આ અવસ્થાઓમા જીવ કાઈ પણ પ્રકારે ધર્માદિક શુભ કાર્યોનું આચરણ કરી શકતા નથી. અનેક પ્રકારના રોગશેક અને વિયેાગાદ્વિજન્ય દુઃખ તેના અવશિષ્ટ જીવનને સદા ત્રસ્ત કરતા છે. યૌવન અવસ્થામા સ્ત્રીના પ્રેમ તેને આરામ લેવા દેતા નથી, આ छंद छे.
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૨૦૮
माचाराङ्गसूत्रे भी वहीं पर फिर से प्रविष्ट हो जाता है । वह अपने स्थान को जरा भी नहीं छोड़ना चाहता । इसका कारण सिर्फ एक यही है कि-उसे उसी अवस्था में रह कर अपना जीवन व्यतीत करना इष्ट है। विशाल वैभव के भोक्ता को जिस प्रकार जीने की इच्छा रहा करती है, तथा जिस प्रकार उसे अपना जीवन सबसे अधिक प्रिय है उसी प्रकार समस्त संसारी जीवों की यही हालत है-चाहे वे संज्ञी हों चाहे असंज्ञी । कोई भी प्राणी ऐसा नहीं मिलेगा-जिसे अपने जीवन में अधिकसे अधिक ममता न हो । एक भिखारी को जितना अपने जीवन से मोह है उतना ही मोह चक्रवर्ती को भी अपने जीवन से है। कोई अपना अनिष्ट नहीं चाहता । इस बात की पुष्टि करते हुए टीकाकार कहते हैं-"यो जीवो यत्रोचनीचयोनौ जन्म गृहाति तत्रैव रमते-जीवितुमिच्छति च विष कृमिन्यायेन " जो जीव जिस ऊँच नीच योनिमें जन्म धारण करता है उसे वही योनि प्रिय बन जाती है-वहीं पर वह आनंदमानता है । जैसे विषके कीडे को विषमें ही मजा आता है बात भी सत्य है कहाभी है
" अमेज्झमझे कीडस्स, सुरिंदस्स सुरालए।
समाणा जीवियाकंखा, तेसिं मच्चुभयं समं” ॥१॥ પણ તે ત્યાંથી અલગ થઈને પણ ત્યાં જ ફરીથી પ્રવિણ થાય છે, તે પિતાના
સ્થાનને જરા પણ છોડવા ચાહતે નથી તેનું કારણ ફક્ત એક એ જ છે કે તેની તે અવસ્થામાં રહીને પિતાનું જીવન વ્યતીત કરવું ઈષ્ટ છે વિશાળ વિભવના ભક્તાને જે પ્રકારે જીવવાની ઈચ્છા રહ્યા કરે છે તથા જે પ્રકારે તેને પિતાનું જીવન બધાથી અધિક પ્રિય છે, તે પ્રકારે સમસ્ત સંસારી જીની તે જ હાલત છે, ભલે તે સંશી હોય કે અસંશી. કેઈ પણ પ્રાણી એ નહિ મળે જેને પિતાના જીવનમાં અધિકથી અધિક મમતા ન હોય. એક ભિખારીને એટલે પિતાનો જીવ વહાલે છે તેટલે જીવનનો મોહ ચકવતીને પણ હોય છે. કઈ પિતાનું અનિષ્ટ ચાહતું નથી આ વાતની પુષ્ટિ કરતાં ટીકાકાર કહે છે કે– "यो जीवो यत्रोच्चनीचयोनौ जन्म गृह्णाति तत्रैव रमते जीवितुमिच्छति चविषकृमिन्यायेन " २०१२ नीय योनिमा म धा२५ ४२ छेतेनी ते यान પ્રિય બની જાય છે, ત્યાં જ તે આનંદ માને છે, જેમ વિષના કીડાને વિષમાં જ . भन आवे छे, पात पण सत्य छे. यु पार छ
___“ अमेज्झमझे कीडस्स, सुरिंदस्स सुरालए ।
समाणा जीवियाकंना, तेसि मञ्चुभयं समं " ॥१॥ .
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अध्य० २. उ ३
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भुवनत्रयाधिपत्यप्राप्त्यपेक्षयापि स्वायुष्कस्येष्टतरत्वात् , अपि च सुखास्वादाः-सुखाभिलाषिणः, अमृतपानादपि स्वसुखानुभवस्य श्रेष्ठत्वात् , दुश्वप्रतिकूला: दुःखानभिलाषुकाः, विषभक्षणादपि दुःखं प्रत्यधिकद्वेषवत्त्वात् , किञ्च-अमियवधाः-अप्रिया अनिष्टः-वधो मरणं येषां ते तथा । प्रियजीवनाः प्रियं जीवन येषां ते तथा, अनिशं तदर्थ प्रवृत्तत्वात् , अत एव जीवितुकामाः जीवितुं कामःस्पृहा येषां ते जीवितुकामाः, वर्षशतायुष्कस्यान्तिमावस्थायामपि जीवितेच्छया नानाविधमणिमन्त्रयन्त्रौषधाद्यर्थं प्रवृत्तिदर्शनात् । _ विष्ठा के कीडेकी और स्वर्ग के अपार वैभव के भोक्ता इन्द्रकी भी जीने की इच्छा और मरणका भय समान है, कोई नहीं चाहता कि हमें करालकाल के गालका कवल (ग्रास ) बनना पड़े। क्यों कि तीन लोक के अधिपति बनने की अपेक्षा अपना जीवन अधिक प्रिय है।
लोक में अमृत का पान करना सबसे अधिक सुखकारी समझा जाता है, परन्तु लोक इससे भी अधिक सुख अपने सुखी होने में मानते हैं । अपने को सुखी बनाने के लिये लोग हर एक प्रकार के साधनों को जुटाने में कसर नहीं करते । किसी से भी यदि यह प्रश्न किया जाय कि-तुम अपने जीवन में क्या चाहते हो ? तो शीघ्र ही वहां से यही उत्तर मिलेगा कि हम अपने जीवन में शांति और सुख को चाहते हैं । “दुःखप्रतिकूला:” जगत में कोई भी प्राणी दुःखको नहीं चाहता है, प्रत्येक प्राणी दुःखको प्रतिकूल मानता है, विष भक्षण कर लेगा किन्तु दुःख
વિણાના કીડાની અને સ્વર્ગના અપાર વૈભવના ભક્તા ઇન્દ્રની બન્નેની જીવવાની ઈચ્છા અને મરણનું ભય અને સમાન છે, કોઈ ચાહતું નથી કે હું કાલકાલના ગાલ ગ્રાસ બનું, કારણ કે ત્રણ લેકના અધિપતિ બનવાની અપેક્ષા પિતાનું જીવન અધિક પ્રિય છે.
લેકમાં અમૃતનું પાન કરવું તેને બધાથી અધિક સુખકારી માનવામાં આવે છે, પરંતુ લેક તેનાથી પણ અધિક સુખ પિતાને સુખી હોવામાં માને છે. પિતાને સુખી બનાવવા માટે લેક દરેક પ્રકારનાં સાધનોને અજમાવવામાં કસર કરતાં નથી. કેઈથી એ પ્રશ્ન કરવામાં આવે કે–તમે તમારા જીવનમાં શું ચાહો
છે, તે ત્યાંથી તરત જ એ ઉત્તર મળશે કે–અમે અમારા જીવનમાં શાંતિ ___ भने सुमने याठिये छोय. “ दुःखप्रतिकूला " प्रत्ये: प्राणी हुमने यातुं નથી, પ્રત્યેક પ્રાણી દુઃખને પ્રતિકૂળ માને છે, ઝેરનું પાન કરી લેશે પણ દુખ २७
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आचारागसूत्रे भोगना नहीं चाहता। "अप्रियवधाः प्रियजीवनाः" संसार में जीवों को मरण अप्रिय होता है और जीवन प्रिय होता है। जीवों को अपना जीवन सर्व प्रकार से प्रिय है। चाहे जिस किसी भी उपाय से ये अपने जीवनके संरक्षण करनेमें ही भावनाशील रहते हैं। उस समय न्याय या अन्याय, धर्म या अधर्म आदि की इन्हें थोड़ी सी भी चिन्ता नहीं होती। इसका भी कारण यह है कि ये " जीवितुकामाः” हैं। शत वर्ष की आयुवाले को भी अन्तिम क्षणतक जीवन की इच्छा बनी ही रहती है। चाहे धनी हो या निधन हो, राजा हो या रंक हो, विद्वान् हो या सूर्ख हो, दीर्घायुष्क हो या अल्पायुष्क हो कोई भी क्यों न हो कोई यह नहीं चाहता कि मेरी मृत्यु हो जाय, अर्थात् मैं मरजाऊँ। सब ही अधिक से अधिक जीने के अभिलाषी रहा करते हैं। थोड़ा सा भी शारीरिक कष्ट आने पर "कहीं मैं मर न जाऊँ" इस ख्याल से अनेक प्रकार के मणि सन्त्र यन्त्र और औषधि वगैरह के उपचार में यथाशक्ति प्रयत्न करने में लग जाते हैं। ___ यह पूर्वोक्त कथन असंयमी जीवों की अपेक्षा से ही किया गया समझना चाहिये, क्यों कि उन्हें ही अपने प्राण वगैरह प्रिय होते हैं। वेही अपनी जीवनयात्रा के निर्वाह के लिये या तहा प्रवृत्ति किया सोमव याता नथी. “ अप्रियवधा प्रियजीवनाः" ससारमा वान भ२५ અપ્રિય લાગે છે. જેને પિતાનું જીવન બધા પ્રકારે પ્રિય છે, ભલે કઈ પણ કઈ ઉપાયથી પિતાના જીવનનું સંરક્ષણ કરવામાં જ ભાવનાશીલ રહે છે. તે સમય ન્યાય અન્યાય ધર્મ અધર્મ આદિની તેને જરા પણ ચિંતા થતી નથી, तेनु ५५ १२ए। ये छे “ जीवितुकामा " छ, सो वर्षनी आयुष्यवाणाने पर અન્તિમ ક્ષણ સુધી જીવનની ઈચ્છા બની રહે છે, ભલે તવંગર હોય અગર નિર્ધન હોય, રાજા હોય કે રંક હોય, વિદ્વાન હોય, કે મૂર્ખ હોય, દીર્ધાયુષ્ક હોય કે અપાયુષ્ક હોય કઈ પણ કેમ ન હોય પણ કઈ એ નથી ચાહતા કે મારું મન થાય, અર્થાત્ હું મરી જાઉ, બધા જ અધિકથી અધિક જીવવાના અભિલાષી રહ્યા કરે છે ઘેડુક શારીરિક કષ્ટ આવવાથી “કદાચ હું મરી ન જાઉં” એવા
ખ્યાલથી અનેક પ્રકારના મણિ મન્ચ યત્ન અને ઓષધિ વિગેરેના ઉપચારમાં યથાશક્તિ પ્રયત્ન કરવામાં લાગી જાય છે
આ પૂર્વોક્ત કથન અસંયમી જીવની અપેક્ષાથી જ કરેલ સમજવાનું છે, કે તેને જ પિતાનો પ્રાણ વિગેરે પ્રિય હોય છે, તે જ પિતાના જીવનનિર્વાહ માટે યઢા તદ્દા પ્રવૃત્તિ કરે છે, હું ખોથી ગભરાય છે, અને સદા
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अध्य०२. उ.३ __ यतः सर्वेषां प्राणिनां गुरुकर्मणां जीवितम् असंयमजीवितं प्रियम् इष्टं भवति, न तु लघुकर्मणाम् , ततः किमित्याह-'त'-दित्यादि, तत्तस्मात्कारणाद् द्विपद-दासीदासकर्मकरादि, चतुष्पदं हस्तिहयगोमहिष्यादि परिगृह्य-स्वायत्तीकृत्य ततस्तदेव द्विपदं चतुष्पदम् उपलक्षणादन्यदपि हिरण्य-सुवर्ण-धन-धान्यादिकं त्रिविधेन करणभूतेन योगत्रिक-करणत्रिकेण, अथवाऽऽत्सना परेणोभयेन, चेतनाचेतनमिश्ररूपेण वा अभियुज्य, अभि-आभिमुख्येन युक्त्वा बन्धरोधादिला तत्तत्कल्पितसंज्ञया कशादिप्रहारेण वाहयित्वा तेषु तेषु कर्मसु नियुज्य शिक्षयित्वेत्यर्थः। अपि च-तदेव संसिच्य क्रयविक्रयादिव्यवहारेणाभिवर्य, अनापि 'त्रिविधेने ' त्यस्य करते हैं । दुःखों से वे घबडाले हैं। और सदा सांसारिक सुखोंके अभिलाषी रहते हैं। संयमी जीवों में ये सब प्रवृत्तियां घटित नहीं होती। यद्यपि उन्हें भी अपने प्राण प्रिय होते हैं परन्तु जब लंपस में कोई घोर परीषह उपलर्ग आकर उपस्थित हो जाते हैं तब वे अपने संगत की रक्षा के लिये अपने प्राणों की भी परवाह नहीं करते हैं। असंयमी जीवों को ही अपना असंयम जीवन प्रिय होता है, कारण कि ये गुरुकी हैं। लघुकर्मी संयमी जीवों को ऐसा जीवन प्रिय नहीं होता। इनकी विचारधारा सदा आत्मकल्याणकारी मार्ग की ओर ही झुकती रहती है। असंयमजीवी रात दिन परिग्रह-दालीदास, नौकर चाकर, हाथीघोड़ा, गायभैंस, हिरण्यवर्ण, आदि के बढ़ाने की ओर ही अधिकाधिक लालायित होते रहते हैं। ये वेतन अचेतन तथा मिन रूप परिग्रह की जितनी भी मात्रा प्राप्त करते हैं-चाहे वह थोड़ी हो या अधिक होउली સાંસારિક સુખના અભિલાષી રહે છે. સંયમી જેમાં આ બધી પ્રવૃત્તિઓ ઘટિત થતી નથી. જો કે તેને પણ પિતાનો પ્રાણ પ્રિય હોય છે પરંતુ જ્યારે સંચમમાં કઈ ઘોર પરિષહ ઉપસર્ગ આવીને ઉપસ્થિત થાય છે ત્યારે તે પિતાના સંયમની રક્ષા માટે પિતાના પ્રાણની પણ પરવાહ કરતા નથી.
અસંયમી જીવેને પોતાનું અસંયમ જીવન પ્રિય હોય છે, કારણ કે તે ગુરૂકર્મી છે. લઘુકમી સ યમી જીવોને એવું જીવન પ્રિય નથી હતું, તેની વિચારધારા સદા આત્મકલ્યાણકારી માર્ગની તરફ જ લાગેલ રહે છે. અસંયમજીવી રાતદિન પરિગ્રહ-દાસીદાસ, નોકરચાકર, હાથીડા, ગાયભેંસ, હિરણ્યસુવર્ણ આદિને વધારવામા અધિકમાં અધિક મગ્ન રહે છે. તે ચેતન, અચેતન તથા મિશ્રરૂપ પરિગ્રહની જેટલી પણ માત્રા પ્રાપ્ત કરે છે–ચાહે ભલે ડી હોય કે
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आंचारागसूत्रे सम्बन्धः, तस्य अर्थारम्भिणः. तत्र दासीदासहस्तियादिपरिग्रहे. या यावत्परिमाणा मात्रा-परिग्रहांशः, सा अल्पावा-स्तोका अचिरकालभोगक्षमा वा, बहुकावादीर्घकालभोगक्षमा वा. यद्वा प्रमाणतो मूल्यतो वाऽल्पा बहुका, अल्पत्व-बहुत्वे चापेक्षिके, अतः सर्वस्याऽप्यल्पत्व-बहुत्वयोः सम्भवात् , अल्पा बहुका वाऽर्थादिमात्रा यस्य, नत्र अर्थादौ असंयमजीवी गृद्धः मूञ्छितः, कृताकृतलब्धालब्धाद्याशापाशैग्रंथितः सन् भोजनाय भविष्यदुपभोगाय तद्धनं स्वायत्तीकृत्य तिष्ठति-तत्रैवासक्तो भवति, न ततो मनसाऽप्युपरमत इत्यर्थः. आरम्भपरिग्रहासक्तः केवलिपज्ञप्तं धर्म न शृणोति, धर्मश्रवणमन्तरेण न सम्यग्दर्शनम् . तदभावे सम्यग्ज्ञानाभावः, तदभावे मिथ्यात्वाभिवृद्धिस्तथा च संसारपरिभ्रमणं प्राणिनां भवतीति परिग्रहगृद्धो नात्महितैषी भवतीति वर्तुलकार्थः ।। मू० ५ ॥ में अपनी आवश्यकता की पूर्ति न समझ कर उसके बढाने में ही मग्न बने रहते हैं । परिग्रह में अल्पता और बहुता यहां पर दो तरह से प्रकट की गई है-एक काल की अपेक्षासे और दूसरी मूल्य या प्रमाण की अपेक्षा से । थोड़ेसमय तक, अथवा अधिक समय तक परिग्रह का जीवों के भोग
और उपभोग करने के काम में जो आना वह काल की अपेक्षा से परिग्रह में अल्पता या बहुता है, या जिनका मूल्य कम ज्यादा हो अथवा प्रमाण से जिनमें कमती बढ़तीपना हो यह मूल्य या प्रमाण की अपेक्षा से उन में अल्पता तथा बहुता है, क्यों कि अल्पत्व, बहुत्व, ये दोनों सापेक्ष है।
चार नौकर चाकरों एवं चार चतुष्पदादि कों की अपेक्षा दो नौकर चाकरों एवं दो चतुष्पदादिकों में प्रमाण की अपेक्षा से, उनके अधिक समय तक रहने की अपेक्षा से थोड़े समय तक रहनेवालों में काल की अपेक्षा से, વધારે હોય તેમાં તે પિતાની આવશ્યક્તાની પ્રતિ ન સમજીને તેના વધારવામાં જ મગ્ન બની રહે છે. પરિગ્રહમાં અભ્યતા અને બહુતા આ ઠેકાણે બે પ્રકારે પ્રગટ કરેલ છે. એક કાળની અપેક્ષાથી અને બીજી મૂલ્ય અને પ્રમાણુની અપેક્ષાથી થોડા સમય સુધી અથવા અધિક સમય સુધી પરિગ્રહનું એને ભોગ અને ઉપગ કરવાના કામમાં જે આવવું તે કાળની અપેક્ષાથી પરિગ્રહમ અભ્યતા અને બહુતા છે, અને જેનું મૂલ્ય ઓછુ અધિકુ હોય, અથવા પ્રમાણથી જેમાં વધઘટ પણ હોય એ મૂલ્ય અગર પ્રમાણુની અપેક્ષાથી તેમા અલ્પતા અને બહુતા છે, કારણ કે અલ્પ, બહુત્વ. એ બને સાપેક્ષ છે
ચાર નોકર ચાકરે અને ચાર ચતુષ્પદાદિકોની અપેક્ષા બે નોકર ચાકરે અને પદાદિકોમા પ્રમાણની અપેક્ષાથી, તેના અધિક સમય સુધી રહેવાની અપેક્ષાથી
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अध्य० २. उ.३
२१३ तथा उनके अधिक मूल्य की अपेक्षा कम मूल्यवालों में मूल्यकी अपेक्षा से अल्पत्व है । इस से विपरीत बहुत्व समझ लेना चाहिये।
असंयमी जीव चाहे परिग्रह की मात्रा उसके पास अल्प हो या अधिक हो फिर भी उसे उससे संतोष नहीं होता, वह उस अपने परिग्रह को क्रय विक्रय आदि उपायों द्वारा बढ़ाने की चेष्टा में ही रहता है। चतुष्पदादि जिस समय ठीक २ रास्ते पर नहीं चलते या किसी का नुकसान करते हैं, तब वह उन्हें मारता है, खाने पीनेको भी ठीक २ समय पर नहीं देता, उनके प्रति अशिष्ट शब्दों का प्रयोग करता है, और रस्सी आदि से बांधकर भी उनको छूटा या एकस्थान पर रखता है, उनकी गर्मी शर्दी की बाधा का भी ध्यान नहीं रखता, ये इतना बोझ ले जा सकते हैं या नहीं ? इसकी भी उसे चिन्ता नहीं होती। वह भविष्यत्काल में उपभोग करने के ख्याल से द्रव्य की सदा रक्षा करता रहता है, और उसमें वह इतना आसक्तिशाली बन जाता है कि मन से भी वह इसे नहीं छोड़ना चाहता। सच बात है-जो आरम्भ और परिग्रह के पुष्ट करने में ही आसक्तचित्त हैं वे केवलिप्रणीत धर्म से सदा विमुख रहते हैं । आरंभ और परिग्रह के सद्भाव में जीवों की प्रवृत्ति सर्वथा सावद्य रहती है। થડા સમયના રહેવાવાળામાં કાળની અપેક્ષાથી, તથા તેના અધિક મૂલ્યની અપેક્ષા છેડા મૂલ્યવાળામાં મૂલ્યની અપેક્ષાથી અલ્પત્વ છે. એનાથી વિપરીત બહત્વ સમજી લેવું જોઈએ.
અસંયમી જીવ ચાહે પરિગ્રહની માત્રા તેની પાસે ભલે થોડીક હોય અગર વધારે હોય તે પણ તેનાથી સંતોષ થતું નથી. તે પોતાના પરિગ્રહને કય વિકય આદિ ઉપાયે દ્વારા વધારવાની ચેષ્ટામાં જ રહે છે. ચતુષ્પદાદિ જે વખતે ઠીક ઠીક રસ્તા ઉપર નથી ચાલતાં અગર કેઈનું નુકસાન કરે છે ત્યારે તે તેને મારે છે, ખાવા પીવાનું પણ ઠીક ઠીક સમય ઉપર દેતા નથી, તેના પ્રતિ અશિષ્ટ શબ્દનો પ્રયોગ કરે છે, અને રસ્સી આદિથી બાંધીને પણ તેને છુટો અગર એક સ્થાન પર રાખે છે, તેની ગમી સદીની બાધાનું પણ ધ્યાન નથી રાખતા, એ આટલે જ ખેંચી શકશે કે નહિ તેની પણ તેને ચિંતા થતી નથી. તે ભવિખ્યકાળમાં ઉપભોગ કરવાના ખ્યાલથી દ્રવ્યની સદા રક્ષા કરે છે, અને તેમાં તે એટલે આસક્તિશાળી બને છે કે મનથી પણ તે તેને છોડવા ચાહતે નથી. સાચી વાત છે – જે આરંભ અને પરિગ્રહ પુષ્ટ કરવામાં જ આસક્તચિત્ત છે તે કેવલિપ્રણીત ધર્મથી સદા વિમુખ રહે છે. આરંભ અને પરિગ્રહના સદૂભાવમાં જીની પ્રવૃત્તિ સર્વથા સાવધ રહે છે.
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आचाराङ्गसूत्रे
योऽसंयमजीवी गृद्धोऽनर्थकरमर्थमुपार्जयन्नर्थपरिरक्षणं करोति किन्तु तस्य तद्धनमनेकप्रकारेण नश्यतीति दर्शयति- ' तओ से ' इत्यादि ।
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aaraणीत धर्म में सर्वथा सावद्य प्रवृत्ति करने का निषेध है । इस बात को तब ही समझा जा सकता है कि जब वीतरागप्रणीत धर्म को सुनने जानने और उसके मनन करने का अवसर मिले, परन्तु जब वे सिद्धान्त को सुनते ही नहीं है तब इस सिद्धान्त को जान भी कैसे सकते हैं । अतः जहां पर इस प्रकार की प्रवृत्ति चालू है, जिन्हें अपने कर्तत्र्य का भान ही नहीं है, और जो जान बूझ कर भी खड्डे में पड़ रहे है, वे केवल धर्म के सिद्धान्त को अभी तक समझे ही नहीं हैं । जिन सिद्धान्त के समझे बिना समकित जैसी सुन्दर वस्तु कभी भी उनके हाथमें नहीं आसकती । इसके अभाव में सम्यग्ज्ञान का अभाव और उसके अभाव से मिथ्यात्व की वृद्धि, उसकी वृद्धि से संसार में परिभ्रमण ऐसे जीवों का अनिवार्य है, अतः जो आत्महित की कामना करनेवाले हैं उनका यह धर्म है कि वे परिग्रह में गृद्ध न बनें। तभी संसारसागर से उनका आत्मोद्धार हो सकता है ॥ सू० ५ ॥
जो असंयमजीवी है और परिग्रह में ही
आसक्तपरिणतिवाला
बना हुआ है वह अनेक अनर्थोका उत्पादक द्रव्य के संग्रह करने में ही लवलीन रहता है । वह यद्यपि कमाये हुए अपने इस द्रव्य की हर एक
વીતરાગપ્રણીત ધર્મીમા સર્વથા સાવદ્ય પ્રવૃત્તિ કરવાના નિષેધ છે. એ વાતને ત્યારે જ સમજી શકાય છે કે જ્યારે વીતરાગપ્રણીત ધર્મને સાભળવા જાણવા અને તેનુ મનન કરવામા અવસર મળે, પરંતુ જ્યારે તે સિદ્ધાંતને સાભળતા જ નથી ત્યારે તે સિદ્ધાંતને જાણી પણ કૅવી રીતે શકે, માટે જે ઠેકાણે આ પ્રકારની પ્રવૃત્તિ ચાલુ છે, જેને પોતાના કર્તવ્યનું પણ ભાન નથી અને જે જાણી જોઇને પણ ખાડામા પડે છે તે કેવલિપ્રણીત ધર્મના સિદ્ધાંતને હજુ સુધી સમજ્યા જ નથી જે સિદ્ધાતને સમજ્યા વિના સમકિત જેવી સુદર વસ્તુ કેઈ વખત પણ તેના હાથમા આવી રાકતી નથી. તેના અભાવમા સભ્યજ્ઞાનના અભાવ, અને તેના અભાવથી મિથ્યાત્વની વૃદ્ધિ, તેની વૃદ્ધિથી મ'સારમાં પરિભ્રમણ એવા જીવાને અનિવાર્ય છે અત. જે આત્મહિતની કામના કરવાવાળા છે, તેનો એ ધર્મ છે કે તે પરિગ્રહમા ગૃદ્ધ ન અને ત્યારે જ મંસારમાગરથી તેનો આત્મદ્ધાર થાય છે ! સૂ॰ પા
જે અસયમજીવી છે અને પરિગ્રહમા જ આસક્તપરિણતિવાળા ખનેલ છે તે • અનર્થોના ઉત્પાદક દ્રવ્યના સંગ્રહ કરવામા જ તલ્લીન રહે છે. તે જો કે પેાતાના
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अध्य० २ उ ३
मूलम् - तओ से एगया विविहं परिसिहं संभूयं महोवगरणं भवइ, तंपि से एगया दायाया वा विभयंति, अदत्तहारो वा से अवहरइ, रायाणो वा से विलुंपति, नस्लइ वासे, विनस्लइ वा से, अगारदाहेण वा से उज्झइ, इय से परस्सऽट्ठाए कूराई कम्माई बाले कुमाणे तेण दुक्खेण संमूढे विप्परिआसमुवेइ ॥ सू०६ ॥
छाया - ततस्तस्यैकदा विविधं परिशिष्टं सम्भूतं सहोपकरणं भवति, तदपि तस्यैकदा दायादा वा विभजन्ते, अदत्तहारो वा तस्यापहरति, राजानो वा तस्य विलुम्पन्ति, नश्यति वा तस्य, विनश्यति वा तस्य, अगारदाहेन वा तद्दह्यते, इति स परस्यार्थाय क्रूराणि कर्माणि वालः प्रकुर्वाणस्तेन दुःखेन सम्मूढो विपर्यासमुपैति ॥ सू० ६ ॥
टीका – 'तत' इत्यादि, ततः संगृहीतधनात्, सग्रहकालाद्वा, एकदा = एकस्मिन् काले न सर्वदा कदाचिदिवा वा रात्रौ वा । यद्वा लाभान्तरायकर्मक्षयोपशमे चेत्यर्थः, तस्य = अर्थसङ्ग्रहशीलस्य विविधम् = अनेकप्रकारम् परिशिष्टम् उपभोगोर्वरितम् सम्भूतं सम्=सम्यग्रक्षणाय भूतं सञ्चितं, संवृतं वा भूम्यादिनिखाप्रकार से रक्षा करता है तो भी उसका वह द्रव्य अनेक प्रकार से नष्ट हो ही जाता है, इस बात को प्रकट करते हुए सूत्रकार कहते हैं- 'तओ से गया' इत्यादि ।
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लाभान्तराय कर्म के क्षयोपशम से ही जीवों को द्रव्यादिकका लाभ होता है, यह शास्त्रसंमत सिद्धान्त है । इसके अभाव में अनेक प्रकार के किये गये प्रयत्न भी द्रव्यलाभ कराने में कारण नहीं होते हैं । इस लाभान्तराय कर्म के उदय में संगृहीत द्रव्य भी नष्ट हो जाता है । इस की स्थिति रहना भी इसी कर्म के क्षयोपशमाधीन है। जब इसका उदय કમાએલાં દ્રવ્યની દરેક પ્રકારે રક્ષા કરે છે, તેા પણ તેનુ દ્રવ્ય અનેક પ્રકારથી नष्ट थई ४ लय छे, या वातने प्रगट १२तां सूत्रअर हे छे—'तओ से 'हत्याहि
લાભાન્તરાય કર્મના ક્ષયાપશમથી જ જીવાને દ્રવ્યાક્રિક લાભ થાય છે, તે શાસ્ત્રસંમત સિદ્ધાંત છે, તેના અભાવમાં અનેક પ્રકારના કરેલા પ્રયત્ન પણ દ્રવ્ય લાભ કરાવવામાં કારણ નથી થતાં. આ લાભાન્તરાય કના ઉયમાં સંગૃહીત દ્રવ્ય પણ નષ્ટ થાય છે, તેની સ્થિતિ રહેવી પણ તે કર્મીને ક્ષચેાપશમાધીન છે,
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आचारागसूत्रे तमित्यर्थः, महोपकरणं-द्विपदचतुष्पदादिसमूहो भवति । तस्य स धनसमूहोऽप्युपभोगाय न भवतीत्याह-'तदपी'-ति, एकदा दुर्भाग्योदये, यद्वा कदाचित 'दायादाः ' दायं-विभाज्यद्रव्यमाददति-गृह्णन्तीति दायादा सगोत्राः, तस्य धनार्जनकष्टमनुभवतो जनस्य तदपि द्वीपान्तरगमन-दुरारोहपर्वतारोहण-खन्यादिखनन-राजसेवा-कृषिवाणिज्यादिरूपसावधव्यापारैः स्वपरसन्तापकरैरुपभोगाय समुपार्जितसञ्चितविवद्धितं धनम् विभजन्ते-स्वस्वभागग्रहणाय विभागं कुर्वन्ति, पृथक्कुर्वन्तीत्यर्थः, अथवा अदत्तहारः, अदत्तमेव हरतीत्यदत्तहारश्चौरो वा तस्य धनमपहरति-चोरयति । रहता है तब अनेक प्रकार के द्रव्यनाश होने के उपाय भी जीवों को स्वयमेव प्राप्त होते रहते हैं । उस समय वुद्धि में भी कुछ ऐसी विपरीतता आजाती है जिससे द्रव्य के व्यय होने के उपाय भी अच्छे और उपादेय प्रतीत होने लगते हैं । संसार में कौन यह चाहता है कि मेरा यह द्रव्यादिक नष्ट विनष्ट हो जाय ? परन्तु सब कुछ विचारते हुए भी या उसकी रक्षा के उपाय करते हुए भी जो जीव राजा से रंक हो जाते हैं वे इसी बात के प्रवल प्रमाण हैं।
इस कर्म के क्षयोपशम होने पर जिस प्रकार जीवोंको द्रव्य के आने के अनेक उपाय एवं द्वार प्राप्त होते हैं उसी प्रकार इसके उदय में उसके विनाश के अनेक द्वार भी उन्हें मिल जाते हैं, यही बात सूत्रकार इस सूत्र में प्रकट कर रहे हैं__ उस अर्थसंग्रहशील व्यक्ति के पास लाभान्तराय कर्म केक्षयोपशम
જ્યારે તેને ઉદય રહે છે ત્યારે અનેક પ્રકારના દ્રવ્યનાશ હોવાના ઉપાયે પણ જીને સ્વયમેવ પ્રાપ્ત થાય છે. તે સમયે બુદ્ધિમા પણ કઈ એવી વિપરીતતા આવી જાય છે જેનાથી દ્રવ્યને વ્યય હોવાના ઉપાય પણ સારા અને ઉપાદેય પ્રતીત થવા લાગે છે. સંસારમાં કેણ એ ચાહે છે કે મારું આ દ્રવ્યાદિક નષ્ટ વિનષ્ટ થાય, પરંતુ ચારે બાજુથી વિચારતાં પણ તેની રક્ષાના ઉપાયે કરવા છતાં પણ જે જીવ રાજાથી રંક થાય છે તે આ વાતનું પ્રબલ પ્રમાણ છે.
આ કર્મના ક્ષપશમ થવાથી જે પ્રકારે જીને દ્રવ્ય આવવાના અનેક ઉપાય અને દ્વાર પ્રાપ્ત થાય છે તે પ્રકારે તેના ઉદયમાં તેના વિનાશના અનેક કાર પણ તેને મળી રહે છે, એ વાત સૂત્રકાર આ સૂત્રમાં પ્રગટ કરે છે–
તે અર્થસંગ્રહશીલ વ્યક્તિની પાસે લાભાન્તરાય કર્મને ક્ષોપશમ થવાથી
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अभ्य० २. उ. ३ होने पर अनेक प्रकार का भोग उपभोग से बाकी बचा होने के कारण धनादि का संग्रह हो जाता है "धनको धन कमाता है" इस लोकोक्ति के अनुसार उसके संगृहीत द्रव्य से फिर अनेक उपायों द्वारा उसे द्रव्यादिककी प्राप्ति होने लगती है। भोग और उपभोग की आवश्यकताएँ भी जैसा जैसा लाभ होता है वैसे २ बढ़ती जाती है, और उनकी पूर्ति करने में भी द्रव्यादिक का व्यय होने लगता है। भोगविलास की सामग्री जुटाने में तथा मौज मजा करने में लाभानुसार द्रव्य का व्यय होता है। आवश्यकता की पूर्ति से अथवा लेन-देन के व्यवहार से अवशिष्ट द्रव्य को लोग, या तो किसी बैंक में जमा करा देते हैं, या जमीन में उसे गाड़ कर रख देते हैं । जमीन में न गाड़े लो उसे तिजोरियों में भर कर भी एक जगह रखदेते हैं। उन्हें ऐले अपने सगोत्रियों का समागम मिलता है जो इन्हें रात दिन दुःखी किया करते हैं । अविभक्त कुटुम्ब होनेसे किसी बातको लेकर परस्पर में जब कुछ अनबनसी हो जाती है तब आपस में अलगर होने की परिस्थिति आती है। जबविभक्त होते हैं तब वे समस्त धनको बटवा लेते हैं । सगोत्रियों का समागम धनी व्यक्तियों को कदाचित् अनुकूल प्रवृत्ति करनेवाला भी मिल जावे और वे धन को अर्जन करने में कष्ट का अनुभव करनेवाले उस व्यक्ति के उस द्रव्य को અનેક પ્રકારના ભેગ અને ઉપભેગથી બાકી બચવાને કારણે ધનાદિનો સંગ્રહ થાય છે. “ધનથી ધન પ્રાપ્ત થાય છે ” આ લેકેતિને અનુસાર તેના સંગૃહીત દ્રવ્યથી પછી અનેક ઉપા દ્વારા તેને દ્રવ્યાદિકની પ્રાપ્તિ થવા લાગે છે. ભેગ અને ઉપગની આવશ્યક્તાઓ પણ જેમ જેમ લાભ થાય છે તેમ તેમ વધતી જાય છે. અને તેની પૂર્તિ કરવામાં પણ દ્રવ્યાદિકને વ્યય થવા લાગે છે. ભેગવિલાસની સામગ્રી મેળવવામાં તથા મેજમજા કરવામાં લાભાનુસાર દ્રવ્યને વ્યય થાય છે. આવશ્યક્તાની પૂર્તિથી અથવા લેણદેણના વ્યવહારથી અવશિષ્ટ દ્રવ્યને લેક અગર કઈ બેંકમાં જમા કરાવે છે અગર જમીનમાં તેને દાટીને રાખે છે. જમીનમાં ન દાટે તે તેને તિજોરીઓમાં ભરીને પણ એક જગ્યાએ રાખે છે. તેને એવા પિતાના સગોવિઓને સમાગમ મળે છે જે તેને રાતદિવસ દુઃખી કરે છે. અવિભક્ત કુટુંબ હોવાથી કઈ વાતને લઈને પરસ્પરમાં જ્યારે કાંઈક અણ બનાવ થાય છે ત્યારે આપસ આપસમાં અલગ અલગ થવાની તૈયારી બને છે. જ્યારે વિભક્ત થાય છે ત્યારે તે સમસ્ત ધનને વહેંચી લે છે. સગોત્રિયોને સમાગમ ધની વ્યક્તિઓને કદાચિત અનુકૂળ પ્રવૃત્તિ કરવાવાળા પણ મળી આવે,
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अध्य० २. उ. १
एतादृशस्वल्पायुषः कृते च शिरसि परिभ्राम्यदनेकमहाविपत्तिकलापः संयोगाधर्थी विवेकविकलो मानवोऽनिशमितस्ततः परिभ्रमति । स्वल्पेनैव कालेनायुषः क्षयोऽवश्यं भावीत्यही मौढयं प्राणिनो यदर्थं सततं परितप्यमानो धावतीति भावः।
यह हालत है इस जीव की; फिर कहो इसे सुख कैसे प्राप्त हो सकता है ? फिर भी इतनी छोटी सी आयु को लेकर यह अनेक प्रकार की शिर पर घूमनेवाली आपत्तिविपत्तियों का कुछ भी ख्याल न कर रात-दिन पर पदार्थों के अपनाने में ही मस्त हो रहा है, और अपने कर्तव्य का कुछ भी ख्याल कहीं कर रहा है । अन्त में आयु के समाप्ति होने पर मृत्युशय्या पर विलाप करते हुए इस जीव का कोई भी रक्षक नहीं होगा। वे सब कुटुम्बी-जिनके लिये यह रात-दिन परिश्रम करके अपने खून का पानी कर रहा था-इससे जुदे हो जायेंगे और इसे फाल्गुन मास को होली की तरह चिता में जला देंगे।
इस प्रकार आयु की अल्पता को देखता हुआ यह जो नहीं चेत रहा है यही एक इसकी बड़ी भारी मूर्खता है । जो इससे जुदे हो जाने वाले हैं उन्हीं के लिये यह रात-दिन महा परिश्रम करने में लगा हुआ है । इसकी इस महा अज्ञानता पर ज्ञानियों को बड़ा भारी आश्चर्य होता है। यहां तक-"अप्पं खलु आउयं इहमेगेसिं माणवाणं" इस वाक्य का अर्थ हुआ है।
" बालपनमें ज्ञान न लह्यो, तरुण समय तरुणीरत रह्यो । ____ अर्धमृतकसम बूढापनो, कैसे रूप लखे अपनो ॥ १ ॥
આવી હાલત છે આ જીવની. હવે કહો તેને સુખ કેવી રીતે પ્રાપ્ત થાય? આટલી થેડી આયુ હોવા છતાં તે અનેક પ્રકારની શિર પર ઘૂમવાવાળી આપત્તિ વિપત્તિઓને પણ જરા ખ્યાલ ન કરતાં રાત-દિન પર પદાર્થોને અપનાવવામાં જ મ રહે છે, અને પિતાના કર્તવ્યને જરા પણ ખ્યાલ કરતું નથી. અંતમાં આયુની સમાપ્તિ થવાથી મૃત્યુશય્યા પર વિલાપ કરે છે આ જીવને કઈ પણ રક્ષક થશે નહિ. આ બધા કુટુંબીજને માટે પિતાના લેહીનું પાણી કરતો હતો તેનાથી જુદો થઈ જશે અને તેને ફાગણ માસની હોળી માફક ચિતામાં સળગાવી દેશે.
આ પ્રકારે આયુની અલ્પતાને દેખીને પણ ચેતતો નથી, એજ એક, જીવની મૂર્ખતા છે. જેનાથી જુદું થવાનું છે તેવાઓના માટે રાત-દિન પરિશ્રમ ઉઠાવે છે. આ તેની અજ્ઞાનતા ઉપર જ્ઞાનીઓને મોટું આશ્ચર્ય થાય છે. અહીં સુધી" अप्पं खलु आउयं इहमेगेसिं माणवाणं " २॥ वायन। म यो छ,
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आधाराङ्गसूत्रे
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जो बड़ी कठिनता से उसने दीपान्तरगमन से, दुरारोह पर्वतों के उल्लंघनसे, खानि में पड़े हुए उसके खोदने से, राजा की सेवा से, और अपने एवं पर को सन्ताप करनेवाले कृषि-वाणिज्यादि रूप सावध व्यापारों से पैदा किया है सञ्चित किया है और व्याज आदि द्वारा जिस को वृद्धि की है भले ही विभाजित न करें; परन्तु चोरों से द्रव्य की रक्षा करना एक मुश्किल कार्य है । धनी व्यक्तियों के अनेक मित्र और शत्रु हो जाते हैं । जिनका उससे काम निकलता रहता है वे उसके मित्र, और जिनका उससे काम नहीं निकलता वे उसके शत्रु हो जाते हैं । जो मित्र होते हैं वे भी कालान्तर में शत्रु, और जो शत्रु होते हैं वे भी कालान्तर में मित्र बनते हुए देखे जाते हैं। अतः जो पहिले मित्र बन कर शत्रु बन जाते हैं वे सब इसका भेद भाव जान कर चोरों को गुप्त रीति से सब प्रकार की इसकी प्रवृत्ति से परिचित करा देते हैं और अन्त में इसे लुटवा देते हैं । क्षण भर में यह अमीर से गरीब बन जाता है । यदि पुण्योदय से चोरों को भी इसके द्रव्यको चुराने का साहस न जाग्रत हो और वे इसके ऊपर धाड़ न भी पाडे तो भी अधर्मी राजा की नजर से द्रव्यकी रक्षा करना मुश्किल ही है ।
અને તે ધનને ઉપાન કરવામા કષ્ટનો અનુભવ કરવાવાળા તે વ્યક્તિએ તે દ્રવ્યને જે ઘણી મુશ્કેલીથી દિરયાપારથી, મહાન પ°તાના ઉલ્લંઘનથી, ખાણમાં પડેલાને તેના ખાઢવાથી, રાજાની સેવાથી અને પેાતાને તેમજ બીજાને સંતાપ કરવાવાળી ખેતી-વાણિજ્યાદ્રિરૂપ સાવદ્ય વ્યાપારોથી પેદા કરેલ છે, સંચિત કરેલ છે, અને વ્યાજ આદિ દ્વારા જેની વૃદ્ધિ કરેલ છે, ભલે તે વિભાજીત ન કરે, પરંતુ ચેારાથી દ્રવ્યની રક્ષા કરવી એક મુશ્કેલ કાર્યં છે. પૈસાદાર વ્યકિતએના અનેક મિત્રો અને શત્રુએ થાય છે જેનાથી જેનુ કામ થાય છે તે મિત્ર, અને જેનાથી જે કામ બનતું નથી તે શત્રુ બની જાય છે, જે મિત્ર હોય છે તે પણ કાલાન્તરમા શત્રુ, અને જે શત્રુ હોય છે તે પણ કાલાન્તરમાં મિત્ર અને છે તેમ દેખવામા આવે છે માટે જે પહેલા મિત્ર બનીને શત્રુ ખને છે તે અધા તેના ભેદભાવ જણીને ચારાને ગુપ્ત રીતિથી સર્વ પ્રકારની તેની પ્રવૃત્તિથી પરિ ચિત કરી આપે છે, અને અન્તમા તેને લુટાવે છે ક્ષણભરમા તે અમીરથી ગરીમ ખની ાય છે. કદાચ પુણ્યાયથી ચારે તરફથી તેનુ દ્રવ્ય ચેારાવાનુ કદાચ સાહસ ન અને, અને તેઓ તેની તરફ ધાડ પણ ન પાડે તે પશુ અધર્મી રાજાની નજરથી દ્રવ્યની રક્ષા થવી મુશ્કેલ છે.
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अध्य० २. उ.३
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अथवा राजानः नृपारतस्य धनं विलुम्पन्ति-विलुण्टन्ति अभियोगद्वारेण बलालात्तद्धनं गृह्णन्तीत्यर्थः । अथवा तस्यार्थगृद्धस्य धनं स्वयमेव नश्यति, वाणिज्यादौ बहुमूल्येन क्रयणादल्पेन विक्रयणादित्यर्थः । 'विनश्यति' राजकोशे 'वैङ्क' पदवाच्ये संस्थापितं, भूभ्यादौ वा निखातं तस्य राज्ञः परिवर्तनेनापगतात् , भूमौ यत्र निखातं दीर्घकालेन ततोऽपगमाद्वा विनश्यति स्वयमेव नष्टं भवतीत्यर्थः । ___ राजा की जब लोलुप दृष्टि इसके धन पर पड़ती है तब वह जबर्दस्ती कोई ऐसा अभियोग लगा देता है कि जिससे उस विचारे का वह धन देवते२ लुटवा लिया जाता है। ___यदि धार्मिक राजाके राज्य में वसने का धनीको सौभाग्य मिलता है और उसकी वजह से उसके धनकी हर एक प्रकार से रक्षा भी होती रहती है तो भी अधिक संग्रह की लालसा से या उसकी वृद्धि की तीव्र भावनासे जब धनी उसे किसी व्यापार में लगा देता है तो तेजी मंदी के समय क्रय विक्रय करने से अचानक जब व्यापार में घाटा आजाता है तब वह कमाया हुआ द्रव्य सहसा हाथ से निकल जाता है, और वह धनी व्यक्ति फिर हाथ मलते ही रह जाता है। व्यापार में यदि पुण्य कर्म के उदय से अच्छा लाभ भी हो जाता है, तो लोग उसे बैंकों में जमा कर देते हैं या उसे जमीन वगैरह में गाड़ देते हैं। वहां उसकी सुरक्षा होती हो तो भी जब राज्य का परिवर्तन होता है तब वैके भी प्रायः लुट जाती हैं, अथवा जब वह उस भूमि से बहुत समय के बाद गाडे
રાજાની જ્યારે લુપ દષ્ટિ તેના ધન ઉપર પડે છે ત્યારે તે જબરાઈથી કેઈ એ અભિગ લગાવે છે કે જેનાથી તે બિચારાનું તે ધન દેખતા દેખતામાં લુંટાવી લઈ જાય છે. આ કદાચ ધાર્મિક રાજાના રાજ્યમાં વસવાનો ઘનીને સૌભાગ્ય મળે છે, અને તેના તરફથી તેના ધનની દરેક પ્રકારે રક્ષા પણ થાય છે તે પણ અધિક સંપ્રહની લાલસાથી અગર તેની વૃદ્ધિની તીવ્ર ભાવનાથી ત્યારે પૈસાદાર તે ધનને કઈ વ્યાપારમાં લગાવી દે છે તે તેજી મંદીના સમયમાં કય વિકય કરવાથી અચાનક જ્યારે વ્યાપારમાં નુકસાન આવે છે ત્યારે તે કમાએલું ધન સહસા હાથથી ગુમાવી દે છે, અને પછી તે પૈસાદાર વ્યક્તિ હાથ ઘસતો થઈ જાય છે, વ્યાપારમાં કદાચ પુણ્ય કર્મના ઉદયથી સારે લાભ પણ મળે છે તો લોક તેને બેંકોમાં જમા કરાવી દે છે, અગર તેને જમીન વિગેરેમાં દાટી દે છે. તે જગોએ તેની સુરક્ષા અને તે પણ જ્યારે રાજ્યનું પરિવર્તન થાય છે ત્યારે બે કોને પણ લુટવામાં આવે છે, અથવા જ્યારે તે ભૂમિથી બહુ સમય બાદ દાટેલા સ્થાનથી સ્થાનાન્તરિત
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सूत्रे
कथत्सुिरक्षितमपि तद्धनं कांस्यद्रव्यसुवर्णरजतादिकम् अगारदाहेन= दान दाते, इत्यादिकारणैरुपार्जितस्याप्यर्थस्य बहुविधो नाशो भवति, अन्तरायकर्मप्राबल्येनोपार्जयितुरूपभोगाय नैव भवतीत्यर्थः । उक्तञ्च—
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" चत्वारो धनदायादा, धर्माग्निनृपतस्कराः ॥
तत्र ज्येष्ठापमानेन, त्रयः कुप्यन्ति सोदराः " ॥ १ ॥ इति । हुए स्थान से स्थानान्तरित हो जाता है तब उसका मिलना भी मुश्किल हो जाता है । इस तरह से भी उसका विनाश होते देर नहीं लगती ।
कथंचित् कांसा, द्रव्य, सुवर्ण, रजतादि रूप वह धन घर में सुरक्षित भी रहे तो भी अचानक घरमें आग लगजाने से उसका भी विनाश हो जाता है । उस समय वहुमूल्य वस्तुएँ ग्वाकमें मिल जाती हैं । आग को बुझाने के लिये आये हुए लोगों के हाथ भी उस समय जो भी वस्तु लगती है वे उसे उठाकर ले जाते हैं। इस प्रकार इन पूर्वोक्त कारणों से उपार्जित द्रव्य का अन्तराय कर्म के प्रबल उदयमें अनेक रीति से विनाश होते देर नहीं लगती । नीतिकार भी यही बात कहते हैंचत्वारो धनदायदा, धर्मानिनृपतस्कराः ।
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तत्र ज्येष्ठापमानेन, त्रयः कुप्यन्ति सोदराः ॥ १ ॥ धन के हिस्सेदार चार हैं । १ धर्म, २ अग्नि, ३ राजा, और ४ चोर । जिस धनका सदुपयोग धर्म में नहीं होता है उस धनका अग्नि, राजा और चोरों के द्वारा विनाश और अपहरण होता है ॥ १ ॥
થાય છે ત્યારે તેનુ મળવુ પણ મુશ્કેલ ખની જાય છે આવી રીતે પણ તેને વિનાશ હોવામા વાર લાગતી નથી
કોઈ પણ પ્રકારે કાસા, દ્રવ્ય, સુવર્ણ, રજતાદિ રૂપ તે ધન ઘરમાં સુરક્ષિત રહે તે પણ અચાનક ઘરમાં આગ લાગવાથી તેને પણ વિનાશ થઈ જાય છે. તવા વખતે બહુમૂલ્ય વસ્તુએ ખાક થાય છે આગને ઓલવવા આવેલા લેાકેાના હાથમા પણ તે વખતે જે વસ્તુ પડે છે તે પણ ઉઠાવી લઈ જાય છે. આ પ્રકારે આ ક્તિ કારણોથી ઉપાર્જીત દ્રવ્યનો અન્તરાય કના પ્રબલ ઉદ્દયમા અનેક રીતિથી વિનાશ થવામા વાર લાગતી નથી નીતિકાર પણ એ વાત કહે છે " चत्वारो धनदायदाः, धर्माग्निनृपतस्करा. ।
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तत्र ज्येष्ठापमानेन त्रय कुप्यन्ति सोदरा ॥ १ ॥ ધનના હિસ્સેદાર ચાર છે. ૧ ધર્મ, ૨ અગ્નિ, ૩ રાજા અને ૪ ચાર. જે ધનના સયાગ ધર્મમાં નથી થતા તે ધનના અગ્નિ, રાજા અને ચેરા દ્વારા વિનાશ અને અપહરણ થાય છે. ॥ ૧॥
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वहुप्रकारैः स धनसञ्चयकारी परस्यार्थीय-अन्यार्थम् , दायादाद्यर्थमेव, कूराणि-शिरश्छेद-गलकर्तनादीनि कर्माणि दुराचरणानि बाला कर्तव्यशून्यचेताः प्रकुर्वाण प्रकर्षेण विदधानः सन् , तेन कटुकर्मविपाकोदयेन दुःखेन संमूढः परिहृतमतिः रागद्वेषाभिभूततया कार्याकार्यमजानन् विपर्यासम् वैपरीत्यं मिथ्यात्वम् उपैति प्राप्नोति, अर्थार्थमनर्थकारी भवतीति तात्पर्यम् ॥ मू० ६॥
मूढाः सुखेप्सवो दुःखमवाप्नुवन्तीति न मया स्वबुद्धयोच्यते, इति सुधर्मा स्वामी कथयति-मुणिणा' इत्यादि।
मूलम्-मुणिणा हु एवं पवेइयं, अणोहंतरा एए, नो य ओहं तरित्तए, अतीरंगमा एए नो य तीरं गमित्तए, अपारंगमा एए, नो य पारं गमित्तए, आयाणिज्जं च आयाय तंमि ठाणे न चिट्टइ वितहं पप्पऽखेयन्नेतंमिठाणमि चिट्टइ ॥सू०७॥ ___ छाया-मुनिना हु एतत्पवेदितम् , अनोघन्तरा एते न चौघं तर्तुम् , अतीरंगमा एते, न च तीरं गन्तुम् , अपारंगमा एते, न च पारं गन्तुम् , आदानीयं चादाय तस्मिन् स्थाने न तिष्ठति, वितथं प्राप्याखेदज्ञस्तस्मिन् स्थाने तिष्ठति ।।सू० ७॥
जिस धनका अन्तिम यह परिणाम होता है उस धनको संचित करनेवाले अज्ञान में पड़े हुए हैं "परस्यार्थाय" सिर्फ दायाद वगैरह दूसरों के उपयोग के लिये ही उसके संग्रहार्थ भयंकर से भयंकर गलकर्तन, शिरश्छेदन जैसे निंदित दुराचारों को करता हुआ तजन्य कटुक कर्मके विपाकजनित दुःख से संतप्तचित्त बन कर्तव्याकर्तव्य के विवेक से रहित होकर मिथ्यात्वभावरूप विपर्यासपने को प्राप्त होता है अर्थात् वह धनके लिये अनेक अनर्थ करता है । सू० ६॥ ..बाल अज्ञानी सुख की चाहना करते हैं परन्तु उन्हें दुःख की ही प्राप्ति होती है, इस विषय में श्रीसुधर्मा स्वामी अपनी निजी कल्पना कानिषेध
જે ધનને અન્તિમ આ પરિણામ થાય છે તે ધનને સંચિત કરવાવાળા मज्ञानमा ५सा .“ परस्यार्थाय" त हाया। विगेरे ullant Guan भाट જ તેના સંહાર્થ ભયંકરથી ભયંકર ગલકર્તન, શિરચ્છેદન જેવા નિંદિત દુરાચારીને કરીને તજજન્ય કટક કર્મના વિપાકજનિત દુઃખથી સંતકચિત્ત બની કર્તવ્યાકર્તવ્યના વિવેકથી રહિત બની મિથ્યાત્વભાવરૂપ વિપર્યાસપણાને પ્રાપ્ત थाय , अर्थात् त धन माटे सने २५ ४२ । सू० ६॥ - બાલ અજ્ઞાની સુખની ચાહના કરે છે પરંતુ તેને દુખની જ પ્રાપ્તિ થાય છે. આ વિષયમાં શ્રી સુધર્માસ્વામી પિતાની નિજી કલ્પનાને નિષેધ કરીને કહે છે
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રરર
आचारागसूत्रे ____टीका-'मुनिने'-त्यादि । ' मुनिना' संसारस्य त्रिकालावस्थां मनुते यः स मुनिः घातिकर्मचतुष्टयक्षयसमुद्भूतान्मस्वरूपस्तीर्थकरगणधरादिः, तेन, हु-निश्चयेन एतत्-पूर्वोक्तं वक्ष्यमाणं वा, तत्र पूर्वोक्तं परिग्रहासक्तिननितसंसारपरिभ्रमणस्वरूपम् , असकृदुच्चैात्रोत्पत्त्यादिकं च प्र-प्रकर्षण वेदितं द्वादशपर्पदि प्ररूपितम् भिन्नभिन्नस्वरूपेण कथितमित्यर्थः। वक्ष्यमाणं प्रवेदितमाह-'अनोधन्तरा' इत्यादि, करते हुए कहते हैं-'मुणिणा' इलादि । ___“मुनि” यह शब्द 'मन्' धातु से निष्पन्न हुआ है। 'मन्' धातु का अर्थ जानना है । जो संसारी की त्रिकालसंबंधी समस्त गुण-पर्याय रूप अवस्थाओं को जानता है उसका नाम मुनि है, घातिया कर्मों के क्षय होने से जिन्हों को केवलज्ञान स्वरूप आत्मा के निजप की प्राप्ति हो चुकी है ऐसे तीर्थकर, गणधरादि देव यहां 'मुनि' शब्द से लिये गये हैं। अपनी निजी कल्पना का परिहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि-पूर्वोक्त परिग्रहमें अत्यासक्तिवश जीव संसार में ही परिभ्रमण करता है, तथा "असकृदुच्चैोत्रे असकृन्नीचैर्गोत्रे" इत्यादि सूत्रों (इसी उद्देश के प्रथमादि सूत्रों) में जो कहा गया है यह समस्त विषय, अथवा जो भी कुछ आगे कहा जावेगा वह सब मैने अपनी निजवुद्धि से कल्पित कर नहीं कहा है, किन्तु तीर्थकरादिक देवों ने अपनी परिषद् में पृथक् पृथक् रूप से ऐसाही कहा है। उनकी परंपरा से जिस प्रकार यह विषय चला 'मुणिणा' त्या
" मुनि” ॥ शम 'मन्' धातुथी निप्पन थयो छ ‘मन्यातुनो अर्थ જાણવું થાય છે જે સસારીની ત્રિકાલસ બધી સમસ્ત ગુણપર્યાયરૂપ અવસ્થાઓને જાણે છે તેનું નામ મુનિ છે ઘાતિયા કમને ક્ષય હોવાથી જેને કેવળ જ્ઞાનસ્વરૂપ આત્માના નિજરૂપની પ્રાપ્તિ થયેલ છે એવા તીર્થંકર ગણુધરાદિ દેવ આ ઠેકાણે મુનિ–શબ્દથી લેવામાં આવેલ છે પોતાની નિજી કલ્પનાને પરિહાર કરીને સૂત્રકાર કહે છે કે–પૂર્વોક્ત પરિગ્રહમાં અત્યાતિવશ જીવ સંસારમાજ परिश्रम ४३ तथा “ असदुच्चोंत्रे असकृमीचैाँ।" त्या सूत्र ( આ ઉદેશના પ્રમાદિ સુત્રો)ના જે કહેવામા આવેલ છે તે સમસ્ત વિષય, અને જે આગળ કહેવામાં આવશે તે બધા મે પિતાની નિજ બુદ્ધિથી કલ્પના કરી કહેલ નથી, પણ તીર્થકરાદિક દેવેએ પાતપિતાની પશ્ચિદમાં પૃથ ઘ રૂપથી એમ જ કહેલ છે, તેની પર પરાથી જે પ્રકારે આ વિષય ચાલ્યો
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अध्य २. उ. ३
२२३ अनोघन्तराः ओघो द्रव्यभावभेदेन द्विविधः-द्रव्योघो नदीपूरादिकः, भावौघोऽष्टविधं कर्म संसारो वा येन यत्र दुःखिनो भवति प्राणी, तमोघं तरन्तीत्योधन्तराः, न ओघन्तरा अनोघन्तरा-मिथ्यादर्शिनः कुतीथिकादयः पावस्थादयो वा, ज्ञानक्रियामवहणविकलाः, ओवतरणव्यग्रमनसोऽपि तरणोपायविवेकाभावान्न तर्तुप्रभवन्ति तदेवाहआ रहा है उसी के अनुसार मैंने भी यह प्रतिपादित किया है अतः मूल में यह सर्वज्ञोक्त होने से अप्रमाणभूत नहीं माना जा सकता।
वक्ष्यमाण विषय में सूत्रकार कहते हैं-'अनोघन्तरा' इत्यादि, 'अनोघन्तर' शब्दका अर्थ मिथ्यादृष्टि जीव है । जो ओधन्तर नहीं हैं, वे अनोघन्तर हैं । द्रव्य और भाव के भेद से ओघ दो प्रकार का है, नदी का पूर वगैरह द्रव्य-ओध है, अष्टप्रकार कर्म अथवा संसार, भाव-ओघ है। जिसके द्वारा प्राणी जहां पर दुःखित होता है उस का नाम ओघ है, उस ओघ को जो तर जाते हैं-पार कर जाते हैं, वे ओघन्तर कहे जाते हैं। इनसे जो विपरीत हैं, वे अनोधन्तर-मिथ्यादृष्टि कुतीर्थिक या पासत्यादिक जीव हैं, क्यों कि मिथ्यादृष्टि जीव भाव-ओघ को पार नहीं करते हैं । भाव-ओघ को पार करने के लिये ज्ञान और क्रिया रूपी प्रवहण (नौका) की जरूरत होती है। जिस प्रकार मनुष्य विना नौका के समुद्र के पार नहीं जा सकता उसी प्रकार इस संसार या अष्टविध कर्म रूपी समुद्रका पार करना भी विना ज्ञान और क्रिया के सर्वथा असंभव આવે છે તે અનુસાર મેં પણ આ પ્રતિપાદન કર્યું છે માટે મૂળમાં આ સર્વ શોકત હોવાથી અપ્રમાણભૂત માની શકાતું નથી.
पक्ष्यमाएर विषयमा सूत्रा२ ४ थे-'अनोघंतरा' त्याहि. अनोघन्तर શબ્દનો અર્થ મિથ્યાદ િજીવ છે. જે ઘન્તર નથી તે અને ઘન્તર છે. દિવ્ય અને ભાવના ભેદથી એઘ બે પ્રકારે છે. નદીનુ પૂર વિગેરે દ્રવ્ય
ઓઘ છે. અષ્ટપ્રકાર કર્મ અથવા સ સાર ભાવઘ છે. જેના દ્વારા પ્રાણી જે જગ્યાએ દુખી થાય છે તેનું નામ ઓઘ છે તે ઘ જે તરી જાય છે– પાર કરે છે તે ઓદ્યન્તર કહેવાય છે. તેનાથી જે વિપરીત છે તે અનન્તરમિથ્યાષ્ટિ કુતીર્થિક અગર પાસાદિક જીવ છે, કારણ કે મિથ્યાષ્ટિ જીવ ભાવ
ઘને પાર કરતા નથી. ભાવ ઓઘને પાર કરવા માટે જ્ઞાન અને ક્રિયારૂપી પ્રવહણ (નૌકા) ની જરૂરત પડે છે. જેવી રીતે મનુષ્ય જહાજ વિના સમુદ્ર પાર કરી શકતા નથી તે પ્રકારે આ સંસાર અને અષ્ટવિધર્મરૂપી સમુદ્રને પાર કરવા તે જ્ઞાન અને કિયા વગર સર્વથા અસંભવ છે. સમ્યજ્ઞાન અને
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आधाराने न चौधमिति, ओघं तत् न च समर्था भवन्तीत्यर्थः स्पष्टः । किं च एते 'अतीरंगमा' तीरं न गच्छन्तीत्यतीरंगमाः, एते वीतरागप्रणीतरत्नत्रयसमाराधनाभावात् तीरं गन्तुं समर्था न भवन्तीत्यर्थः, अपिच-'अपारंगमाः'पारस्तटस्तं गच्छन्तीति पारंगमाः, न पारंगमा अपारंगमाः, सम्यगुपदेशाभावात्पारगमनमनसोऽपि उत्मत्रप्ररूपणात्, है। सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र विकल जीवों को ही मिथ्यादृष्टि कहा गया है। सम्यक्ज्ञान के अभाव से सम्यग्दर्शन का अभाव भी स्वतःसिद्ध है, अतः उसे यहां प्रथक् रूपसे नहीं कहा।
मिथ्याइष्टि जीव यद्यपि ओघ को पार करने के लिये लालायितमन रहते हैं परन्तु उनके पास पार करनेका उपायस्वरूप विवेकका अभाव होने से वे उसे पार नहीं कर सकते । यही बात "न चौधं तत्" इस पद से सत्रकार प्रकट करते हैं। संसाररूप समुद्र से पार होने के लिये सर्व प्रथम समकित की जरूरत पड़ती है। शास्त्र में समकित को खेवटिया की उपमा दी गई है। जिस प्रकार विना खेवटिया के नौकाजीवों को जलाशय से पार नहीं उतार सकती, उसी प्रकार इस संसाररूप समुद्र से जीव विना समकित को पाये कभी भी पार नहीं उतर सकता। समकित के विषय में पीछे विवेचन किया जा चुका है।
मिथ्यादृष्टि जीव संसाररूपी समुद्र के तीर को और पार को पानेके लिये असमर्थ इसलिये हैं कि-ये “अतीरंगम" और "अपारंगम" हैं। સમ્યફચારિત્ર વિકલ જીવો ને મિથ્યાષ્ટિ જીવ કહેલ છે સમ્યફજ્ઞાનના અભાવથી સમ્યગ્દર્શનનો અભાવ પણ સ્વત સિદ્ધ છે માટે તેને આ ઠેકાણે પૃથ રૂપથી કહેલ નથી " મિથ્યાષ્ટિ જીવ યદ્યપિ ઓઘને પાર કરવા માટે લાલાયિત મન રાખે છે પરંતુ તેની પાસે પાર કરવાના ઉપાયસ્વરૂપ વિવેકનો અભાવ હોવાથી પાર કરી शता नथी ते पात " न चौघं तत्" पहथी सूत्रसर अराट ४२ छे ससार રૂપ સમુદ્રને પાર કરવા માટે સર્વ પ્રથમ સમકિતની જરૂર પડે છે શાસ્ત્રમાં સમકિતને છેવટીયાની ઉપમા આપેલ છે જે પ્રકારે ખેવટિયા વગર નૌકા જીવોને જલાશયથી પાર નહિ ઉતારી શકે, તે પ્રકારે આ સંસારરૂપ સમુદ્રથી જીવ વિના સમકિત મેળવ્યું કેઈ વખત પાર ઉતરી શકતા નથી સમતિના વિષયમાં પાછળ વિવેચન કરવામા આવેલ છે.
મિથ્યાષ્ટિ જીવ અસારરૂપી સમુદ્રના તીરનો પાર કરવાને માટે અસમર્થ ? भाटे छे ते “अतीरंगम" भने " अपारंगम "छे पीतगणीत २त्न
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अभ्य० २. उ ३ तत्रैव प्रवृत्तत्वात् , उन्मार्गप्रचारकत्वाच्च पारं गन्तुं प्रभवो न भवन्तीत्यर्थः। अतीरंगमाः' 'अपारंगमाः' इत्युभयत्रापि नमो भवन्ती'-त्यत्र भवनक्रियायामन्वये आपत्यादरामर्थसमासो वोध्यः। ते तीरं तितीर्पवोऽपि पारं पिपारयिपवोऽपि स्वाभिमतशास्त्रप्रवृत्तयो नैव तीरं गच्छन्ति, नापि पारं प्राप्नुवन्ति । लोके तीरपारयोरेकार्थत्वेऽपि अत्र तीरपदेन मोहनीयक्षयः, पारपदेन घातिकर्मक्षयो गृह्यत इति विशेषान पौनरुक्त्यम् । ओघं तितीर्पयोऽपि कुतो न तीरपारगामिनो भवन्तीत्याह-'आदानीय'वीतरागप्रणीत रत्नत्रय की आराधना का इनमें अभाव होने से ये अतीरंगम' और सम्यक् उपदेश की प्राति का अभाव होने से पार प्राप्त करने के लिये अभिलाषी होते हुए भी ये उत्सूत्र के प्ररूपक और उन्मार्ग के प्रचारक होने की वजह ले 'अपारंगम' हैं। लोक में तीर और पार शब्द का एक ही वाच्यार्थ होता है फिर भी सूत्र में जो इन दो शब्दोंका प्रयोग किया है, उससे यह बात ज्ञात होती है कि-तीर शब्द से घाती कर्मों का क्षय और पार शब्द से अघातिया काँका अभाव अर्थ होता है। ___"आदानीयं चादाय तस्मिन् स्थाने न तिष्ठति" आदानीय शब्द का अर्थ मुक्ति जिससे प्राप्त की जाती है ऐसा चारित्र है । मिथ्यादृष्टि जीव परिग्रह में मूञ्छित होने से अपनी कल्पनानुसार चारित्र का आराधन करते हैं । मुक्ति तो सम्यक्चारित्र के आराधन से प्राप्त होती है। जिसमें सावध प्रवृत्तिका लेश नहीं है उसका नाम सम्यक्चारित्र है। जैसे२ जीव गुणस्थानों की प्राप्ति करता जाता है वैसे २ गृहीतचारित्रमें उज्ज्वलता
यनी २॥२॥धनानु तमा ममा पाथी त · अतीरंगम' मने सभ्य उपदेशनी પ્રાપ્તિને અભાવ હોવાથી પાર પ્રાપ્ત કરવા માટે અભિલાષી હોવા છતાં તે ઉત્સુजना प्र३५४ अने. जन्मान प्रया२४ डावाथी ‘अपारंगम' छे. सोम ती२ અને પાર શબ્દનો એક જ વાચ્યાર્થ થાય છે તે પણ સૂત્રમાં જે બે શબ્દોનો પ્રયોગ કર્યો છે. તેનાથી એ વાત જ્ઞાત થાય છે કે-તીર શબ્દથી ઘાતિયા કર્મોને ક્ષય અને પાર શદથી અઘાતિયા કર્મોને અભાવ અર્થ થાય છે. ____ " आदानीयं चादाय तस्मिन् स्थाने न तिष्ठति ” ।
આદાનીય શબ્દનો અર્થ મુક્તિ જેનાથી પ્રાપ્ત થાય છે એવું ચારિત્ર છે. મિથ્યાષ્ટિ જીવ પરિગ્રહમાં મછિત હોવાથી પોતાની કલ્પનાનુસાર ચારિત્રનું આરાધન કરે છે, મુક્તિ તે સમ્યકૂચારિત્રના આરાધનથી પ્રાપ્ત થાય છે. જેમાં સાવદ્ય પ્રવૃત્તિને લેશ પણ નથી તેનું નામ સમ્યકૂચારિત્ર છે. જેમ જેમ જીવ ગુણસ્થાનની પ્રાપ્તિ કરતો જાય છે તેમ તેમ ગૃહીત ચારિત્રમાં ઉજજવલતા આવતી જાય છે,
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आचाराङ्गसूत्रे
मित्यादि, स तीरपारजिगमिषुः आदानीयम् = आदीयते = प्राप्यते मोक्षोऽनेनेत्यादानीयं = चारित्रं, तदादाय = समाराधनज्ञान विषयीकृत्य तस्मिन् = चारित्रस्थाने न तिष्ठति परिग्रहमूच्छितत्वात्,
यद्वा - आदानीयं = दासीदासहस्त्यश्वरथधनधान्यसुवर्णादिकं, तद् आदाय = गृहीत्वा तत्र विमुह्य, अथवा मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकपाययोगैरादानीयं = कर्म गृहीत्वा रत्नत्रयात्मके मोक्षमार्गे न तिष्ठति = आत्मानं न स्थापयति । न स केवलं सर्वज्ञो - पदेशस्थाने तिष्ठति, प्रत्युत विपरीताचारमाचरतीत्याह - ' वितथ ' - मिति, अखेदज्ञः =परपीडानभिज्ञः, वितथं = मिथ्यात्वमोहनीयं प्राप्य = लब्ध्वा तत्रैव स्थाने = परिग्रहादिमूर्च्छायां तिष्ठति, तत्रैव जीवनं यापयतीत्यर्थः । शब्दादिकामगुणासङ्गसङ्गी पजीवनिकायसमारम्भवान् परिग्रहमूच्छितो ज्ञानावरणीयादिचिकणकर्माणि - मुपार्जयन्नजस्रं नरकनिगोदादिव्यपदेशं लभत इत्याशयः ॥ सू० ७ ॥ आती जाती है । मिथ्यादृष्टि जीव समकित के अभाव में प्रथम गुणस्थानवर्ती होता है अतः वह समकितसहित चारित्र का आराधन नहीं कर सकता, इसलिये तीर और पारके लाभ से सदा वंचित रहा करता है ।
अथवा - आदानीय शब्द का अर्थ-दासी, दास, हस्ति, अश्व, रथ, धन, धान्य और सुवर्णादिक परिग्रह भी है । मिथ्यादृष्टि जीव इसी परिग्रह में अत्यन्त आसक्त रहता है इस लिये वह रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग में कभी भी स्थिति का लाभ नही कर सकता । आदानीय शब्द का अर्थ कर्म भी है, इस कर्म को वह मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमाद और योगों द्वारा ग्रहण करता है । कर्मके सद्भाव में जीव शुद्ध आत्मस्वरूपरूप मुक्ति की प्राप्ति से दूर ही रहता है । इस विषय में पहिले लिखा जा चुका है। जब મિથ્યાષ્ટિ જીવ સમકિતના અભાવમા પ્રથમગુણસ્થાનવતી થાય છે, માટે તે સમકિતસહિત ચારિત્રનુ આરાધન કરી શકતા નથી, માટે તીર અને પારના લાભથી વચિત રહે છે
अथवा-माहानीय शब्दनो अर्थ – दासी, दास, हस्ति, अश्व, रथ, धन, ધાન્ય અને સુવર્ણાદિક પરિગ્રહ પણ છે, મિથ્યાષ્ટિ જીવ આ પરિગ્રહમાં અત્યન્ત આસક્ત રહે છે, જેથી તે રત્નત્રયાત્મક માક્ષમાર્ગીમા કોઈ વખત પણ સ્થિતિના લાભ કરી શકતા નથી આદાનીય શબ્દના અર્થ કર્મ પણ છે આ કર્મને તે મિથ્યાત્વ, અવિરતિ, કષાય, પ્રમાદ અને ચોગાદ્વારા ગ્રહણ કરે છે, કર્મના સદ્ભાવમાં • જ રહે છે, આ વિષયમા પહેલા લખવામા આવેલું છે. જ્યાં સુધી મુતિના જીવ શુદ્ધ આત્મસ્વરૂપરૂપ મુક્તિની પ્રાપ્તિથી
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अध्य० २. उ. ३ यो नरकादिव्यपदेशभागू न भवति, यश्च भवति तं दर्शयति-' उदेसो' इत्यादि।
मूलम्-उद्देसो पासगस्स नत्थि, बाले पुण निहे कामसमगुन्ने असमियदुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव आवह अणुपरियइत्ति बेमि ॥ सू० ८॥
छाया-उद्देशः पश्यकस्य नास्ति, बालः पुनः स्निहः कामसमनुज्ञोऽशमितदुःखो दुःखी दुःखानामेवाऽऽवतमनुपरिवर्तते । इति ब्रवीमि ॥ मू० ८॥
टीका-' उद्देश' इत्यादि, पश्यतीति पश्यः, पश्य एव पश्यकः परिज्ञातसकलहेयोपादेयस्तीर्थङ्करगणधरादिरतस्य विदितवेदितव्यस्य, उदिश्यते' इत्युदेशः नरकादिव्यपदेशो नारकादिपर्यायव्यवहार इति यावत् , अत्र व्यपदेशार्थकोदेशशब्दकथनेन नामकर्मणः सकलाप्युत्तरप्रकृतिाद्या । नास्ति नैव वर्तते तस्य सर्वज्ञत्वात् , न तस्य व्यपदेशापेक्षा, तस्मिन्नेव भवे तस्य मोक्षप्राप्तेः। तक मुक्ति के कारणों की प्राप्ति नहीं होती तब तक मुक्ति नहीं मिल सकती है । मुक्तिका कारण रत्नत्रय है। जब तक जीव को इन तीनों की पूर्णता प्राप्त नहीं होती तब तक मुक्ति का मागे उसके हाथ में नहीं आता। मिथ्यादृष्टि जीव जव इस मार्ग की प्राप्ति से ही रहित है तब वह मुक्ति का लाभ भी कैसे कर सकता है ? यही सर्वज्ञ का उपदेश है। इस सर्वज्ञ के उपदेश की ओर उस की जरा भी रुचि जाग्रत नहीं होती है, यही मिथ्यात्व का जोर है। इस जोर से वह अपनी मनमानी प्रवृत्ति करने में लगा रहता है, और इसी की वजह से वह परिग्रह में मूच्छित होता रहता है। परिग्रह के संग्रह करने में 'जीवों का विघात मेरे द्वारा होता है' इसकी ओर उसका लक्ष्य ही नहीं जाता, और अपना समस्त जीवन अविरत अवस्था में ही व्यतीत कर देता है। કારણેની પ્રાપ્તિ થતી નથી ત્યાં સુધી મુક્તિ મળી શકતી નથી. મુક્તિનું કારણ રત્નત્રય છે. જ્યાં સુધી જીવને આ ત્રણેની પૂર્ણતા પ્રાપ્ત થતી નથી ત્યાં સુધી મુક્તિનો માર્ગ તેના હાથમાં આવતું નથી. મિથ્યાદષ્ટિ જીવ જ્યારે આ માર્ગની પ્રવૃત્તિથી જ રહિત છે તે પછી તે મુક્તિને લાભ પણ કેવી રીતે મેળવી શકે એ જ સર્વજ્ઞને ઉપદેશ છે. આ સર્વજ્ઞને ઉપદેશ તરફ તેની જરા પણ રૂચિ જાત નથી થતી તે જ મિથ્યાત્વનું જોર છે. તે જોરથી તે પોતાની મનમાની પ્રવૃત્તિ કરવામાં લાગ્યું રહે છે, અને તેના પ્રભાવે તે પરિગ્રહમાં પણ મૂછિત થતી રહે છે. પરિગ્રહને સંગ્રહ કરવામાં “જીને વિઘાત મારા દ્વારા થાય છે? ત તરફ તેનું લક્ષ્ય પણ જતું નથી, અને પિતાનું સમસ્ત જીવન અવિરત અવસ્થામાં જ વ્યતીત કરે છે.
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आचाराङ्गसूत्रे
दण्डकशादिरूपोपक्रमाभावेऽपि पुनस्ते वार्द्धककालव्यालकवलिता मानवा मरणादपि गुरुतरां दुर्दशामनुभवन्ति । सकलानि चेन्द्रियाणि जराभिभूततया शिथिलतां गतानि, तरुणायमानया च तृष्णया व्याकुला मूढा भवन्तीति दर्शयति–“ तद्यथे "-ति । वार्द्धक्ये सर्वेषामिन्द्रियाणां स्वकार्यकरणाक्षमता जायते तदा " श्रोत्रपरिज्ञानैः परिहीयमानैः” शृणोति भाषावर्गणापरिणतान् पुद्गलानिति श्रोत्रम् । तथ द्रव्यभावभेदेन द्विविधम् । तत्र कदम्वपुष्पसदृशं द्रव्यात्मकं, भावरूपं हि भाषाद्रव्यग्रह्णलब्ध्युषयोगस्वभावात्मकम् ।
४०
की दण्ड कशा आदिरूप उपक्रम के अभाव से यदि आयु पूर्णता भी जीव को प्राप्त हुई तो यह जीव वृद्धावस्था में मरणान्तिक कष्टों को भोगता है, यही बात आगे के वाक्यों से स्पष्ट की जाती है । जब यह वृद्धावस्थासंपन्न होता है उस समय इसका श्रोत्रेन्द्रियजन्य ज्ञान बिलकुल अल्प हो जाता है, अर्थात् जिस प्रकार इसकी श्रोत्रेन्द्रिय तरुणावस्था में काम देती थी उस प्रकार से इस अवस्था में नहीं देती । इस समय जबकि प्रत्येक इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती हैं तब एक चीज इसकी तरुण होती रहती है वह है इसकी तृष्णा - " तृष्णा
च तरुणा
33
1
" शृणोति भाषावर्गणापरिणतपुद्गलान् इति श्रोत्रम्" भाषावर्गणा के रूप में परिणत पुद्गलों को जो सुनता है उसका नाम श्रोत्र है । वह श्रोत्र द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का है । जिसका आकार कदम्ब पुष्प के समान है वह द्रव्य श्रोत्र है, जिसके द्वारा भाषावर्गणा
દંડ કશા આદિ રૂપ ઉપક્રમના અભાવથી કદાચ આયુની પૂર્ણતા પણ જીવની પુરી થઈ તે આ જીવ વૃદ્ધાવસ્થામાં મરણાન્તિક કષ્ટોને ભાગવે છે આ વાત આગળના વાકયોથી સ્પષ્ટ છે.
જ્યારે તે વૃદ્ધાવસ્થાસ’પન્ન થાય છે ત્યારે તેનું શ્રોત્રેન્દ્રિયજ્ઞાન બિલકુલ અપ થઈ જાય છે અર્થાત્ જે પ્રકારે તેની શ્રોત્રેન્દ્રિય તરૂણાવસ્થામાં કામ દેતી હતી તે પ્રકારે વૃદ્ધાવસ્થામા દેતી નથી. આ સમયે દરેક ઈન્દ્રિય શિથિલ થઈ જાય हे त्यारे शेड ४ थीन तेनी तथा रहे छे, ते इस्त तृष्णा. “तृष्णा च तरुणायते । ” शृणोत भाषावर्गणापरिणतपुद्गलान् इति श्रोत्रम्
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"
ભાષાવાના રૂપમાં પરિણત પુદ્ગલાને જે સુણે છે ( સાંભળે છે) ં નામ શ્રોત છે. તે શ્રોત્ર દ્રવ્ય અને ભાવથી એ પ્રકારે છે. જેના આકાર અપુષ્પ સમાન છે, તે દ્રવ્ય શ્રોત્ર છે, જે
દ્વારા ભાષાવાના રૂપમા
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चारागसूत्रे
इस सूत्र का सारांश यही है कि मिथ्यादृष्टि जीव सांसारिक विषय भोगों में आसक्त बन कर परिग्रह का संग्रह करता रहता है। इस प्रवृत्ति में उसके द्वारा षट्काय के जीवों का विघात भी होता है परन्तु उसकी वह प्रवृत्ति संयमयुक्त न होनेसे ज्ञानावरण आदि चिकण कम के तीव्र अनुभागबंध में और तीव्र स्थितिबंध में प्रधान कारण बनती है, अतः वह मुक्तिसुख के लाभ से वंचित रहता है, इतना ही नहीं प्रत्युत चतुर्गति रूप संसार में नरकनिगोदादि के कष्टों का ही भोक्ता बनता है | सू०७ ॥
नरकनिगोदादि कष्टों का भोक्ता कौन होता है और कौन नहीं होता है ? इसी विषय को फिर से इस सूत्र में अन्वयव्यतिरेकमुख से प्रतिपादन करते हैं- " उद्देशो पासगस्स नत्थि " इत्यादि ।
देखनेवाले का नाम पश्य है, स्वार्थ में 'क' प्रत्यय होने से पश्यक शब्द बन जाता है । पश्य शब्द का जो अर्थ है वही पश्यक का है ।
प्रश्न - संसार के संज्ञी और असंज्ञी चतुरिन्द्रियादि जितने भी जीव हैं वे सब देखनेवाले हैं अतः ये भी पश्यक हो जायेंगे, परन्तु इस सूत्र में इन परकों का तो ग्रहण किया ही नहीं गया है, क्यों कि " उद्देशः पश्यकस्य नास्ति " इस कथन से उनमें उद्देश का अभाव नहीं है, वहां पर तो यह मनुष्यजातीय है, यह चतुरिन्द्रिय जातीय है, इत्यादि व्यवहार
આ સૂત્રને સારાશ એ છે કે-મિથ્યાર્દષ્ટિ જીવ સાંસારિક વિષયભાગોમાં આસક્ત બની પરિગ્રહના સગ્રહ કરતા રહે છે આ પ્રવૃત્તિમાં તે દ્વારા ષટ્કાય જીવાના ઘાત પણ થાય છે, પર તુ તેની તે પ્રવૃત્તિ સયમયુક્ત ન હેાવાથી જ્ઞાનાવરણ આદિ ચિકણા કર્મોના તીવ્ર અનુભાગમ ધમા પ્રધાન કારણ બને છે, માટે તે મુક્તિસુખના લાભથી વચિત રહે છે, આટલુ જ નહિ પ્રત્યુત ચતુર્ગતિરૂપ ઞ સારમા નનિગે ાતિના કષ્ટોનો પણ ભાક્તા અને છે ! સૂ૦ ૭
નરનિગોદાદિ કષ્ટાના ભાકતા કેણુ અને છે ? અને કાણુ બનતો નથી ? તે વિષયને ફરીથી આ સૂત્રમાં અન્વયવ્યતિરેકમુખથી પ્રતિપાદન કરે છે" उद्देशो पासगस्स नत्थि " इत्यादि
દેખવાવાળાનુ નામ પક્ષ્ય છે. સ્વામી ક્રૂ' પ્રત્યય હાવાથી શ્યક શબ્દ અને છે, પશ્ય શબ્દના જે અર્થ છે તેજ પૂણ્યકના છે
પ્રશ્ન—સ સારના સની અને અસની ચતુરિન્દ્રિયાદિ જેટલા પણ જીવ છે તે બધા દેખવાવાળા છે માટે તે પણ પશ્યક થઈ જશે. પરંતુ આ સૂત્રમાં पश्यन! तो अणु उवामा आवेस नथी, अरण में " उद्देश पश्यकस्य नास्ति” ધનથી તેમા ઉદ્દેશને અભાવ નથી, તે જગ્યાએ તે એ મનુષ્યજાતીય છે,
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_રર
अध्यं० २. उ. ३ होता ही है । उद्देश शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ-" उद्दिश्यते इति उद्देशः, नरकादिव्यपदेशो, नरकादिव्यवहार इति यावत्" यह नारकी है, अर्थात् यह नरकपर्यायविशिष्ट जीव है, इत्यादि व्यवहार को ही उद्देश कहा है। इस उद्देश का अभाव पूर्वोक्त संसारी जीवों में नहीं आता है, अतः "उद्देशः पश्यकस्य नास्ति" यह कैसे कहा गया है ।
उत्तर-यहां पर पहिले यह जो कहा गया है कि-मिथ्यादृष्टि जीव परिग्रह में आसक्त बन कर षटकाय के जीवों के उपमर्दन करनेवाला होने से ज्ञानावरणादिक कर्मोंका बंध कर नरकनिगोदादि गतियों के अनन्त दुःखों का भोक्ता बनता है, परन्तु जो परिग्रह में आसक्त नहीं हैं वे षट्काय के जीवों के रक्षक होने से कर्मों के बंध करनेवाले नहीं होते, और क्रमशः केवलज्ञान को पाकर मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं, ऐसे जीव ही यहां पश्यक शब्द से ग्रहण किये हैं। वे साक्षात् तीर्थकर गणधरादि देव हैं। जब तक वे मुक्ति नहीं प्राप्त कर लेते तब तक नाम कर्म की कुछ प्रकृतियों का सद्भाव होने से उनमें भी मनुष्यपर्याय विशिष्ट आदि का व्यवहार होता ही है, परन्तु भविष्य में उस प्रकार का व्यवहार उनमें सर्वथा नहीं होनेवाला है, इस अविष्यत्प्रज्ञापननय की એ ચતુરિન્દ્રિયજાતીય છે, ઈત્યાદિ વ્યવહાર થાય જ છે ઉદ્દેશ શબ્દની વ્યુત્પત્યર્થ " उद्दिश्यते इति उद्देश-नरकादिव्यपदेशो, नरकादिव्यवहार इति यावत् " આ નારકી છે અર્થાત્ એ નરક પર્યાયવિશિષ્ટ જીવ છે, ઈત્યાદિ વ્યવહારને જ ઉદ્દેશ કહ્યું છે. આ ઉદેશને અભાવ પૂર્વોક્ત સંસારી જીવોમાં આવતો નથી, માટે “ उद्देशः पश्यकस्य नास्ति” ये भ वामां यावत छ ?
ઉત્તર–આ જગ્યાએ પહેલાં એ કહેવામાં આવેલ છે કે મિથ્યાષ્ટિ જીવ પરિગ્રહમાં આસક્ત બની શકાય જીના ઉપમર્દન કરવાવાળા હોવાથી જ્ઞાનાવરણાદિક કાનો બંધ કરી નરકનિગોદાદિ ગતિયોના અનંત દુ ખેના ભોક્તા બને છે, પરંતુ જે પરિગ્રહમાં આસક્ત નથી તે ષય જીવોના રક્ષક હોવાથી કર્મોના બંધ કરવાવાળા નથી બનતા, અને ક્રમશઃ કેવળજ્ઞાનને મેળવી મુકિતને પ્રાપ્ત કરી લે છે. એવા જીવ જ અહીં પશ્યક શબ્દથી ગ્રહણ કરેલ છે. તે સાક્ષાત્ તિર્થકર ગણધરાદિ દેવ છે. જ્યાં સુધી તે મુક્તિ પ્રાપ્ત નથી કરી લેતા ત્યાં સુધી નામકર્મની છેડી પ્રકૃતિનો સદભાવ હોવાથી તેમાં પણ મનુષ્યપર્યાયવિશિષ્ટ આદિને વ્યવહાર થાય છે, પરંતુ ભવિષ્યમાં તે પ્રકારને વ્યવહાર તેમાં સર્વથા નહિ બનવાવાળો છે. આ ભવિખ્યત્પ્રજ્ઞાપનનયની અપેક્ષાથી
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आचारागसूत्रे अपेक्षा से यहां पर भी “पश्यकस्य उद्देशो नास्ति" पश्यक को उद्देश नहीं है, यह कथन सुसंगत समझना चाहिये।
प्रश्न-कैसे जाना जाता है कि-उनमें आगे चलकर समस्त अवशिष्ट नामकर्म की प्रकृतियां सर्वथा क्षय हो जानेवाली है? प्रत्यक्ष से तो यह बात ज्ञात हो नहीं सकती, क्यों कि प्रत्यक्ष तो वर्तमानसंबंधी पदार्थ को ही ग्रहण करता है। उस प्रकार की पर्यायसंबंधी वर्तमान तो है नहीं । अनुमान भी इस विषय को नहीं जान सकता, क्यों कि तदविनाभावी कोई भी ऐसा हेतु नहीं है जो इस बात का अनुमापक हो, जिसके विना जो न हो उसको अविनाभावी कहते हैं। __उत्तर-यह तो हम भी मानते हैं कि-चक्षुरादिइन्द्रियजन्य ज्ञान रूप प्रत्यक्ष (सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष) इस प्रकार की अवस्थाको नहीं जान सकता, परन्तु अनुमानप्रमाण से इस बात की सिद्धि होती है कि-अवशिष्ट नामकर्म की प्रकृतियों का वहां पर सर्वथा क्षय होगा। यह कैसे कहा कि तददिनाभावी हेतु वहां पर नहीं है। "तस्य सर्वज्ञत्वात्" अर्थात् “वे सर्वज्ञ हैं" यही तदविनाभावी हेतु है। जिस प्रकार धूम वह्नि का अविनाभावी हेतु है उसी प्रकार घातिया कर्मों के अभाव से उत्पन्न ते ज्या ५५ " पश्य कस्य उद्देशो नास्ति' ५श्यने उद्देश नथी, ये ४थन સુસ ગત સમજવું જોઈએ
પ્રશ્ન—કેવી રીતે જાણવામાં આવે કે તેમાં આગળ સમસ્ત અવશિષ્ટ નામકર્મની પ્રકૃતિ સર્વથા ક્ષય થઈ જવાવાળી છે? પ્રત્યક્ષથી તે એ વાત જ્ઞાત થઈ શકતી નથી, કારણ કે પ્રત્યક્ષ તો વર્તમાનસ બધી પદાર્થને જ ગ્રહણ કરે છે તેવા પ્રકારની પર્યાયસ બ ધી વર્તમાન તો છે નહિ અનુમાનથી પણ આ વિષયને જાણી શકાતો નથી, કારણ કે તદવિનાભાવી કઈ પણ એ હેતુ નથી જે આ વાતનો અનુમાપક હોય જેના વિના જ ન હોય તેને અવિનાભાવી કહે છે
ઉત્તર–એ તે અમે પણ માનીએ છીએ કે–ચક્ષુરાદિઈન્દ્રિયજન્ય જ્ઞાનરૂપ પ્રત્યક્ષ (સાવ્યવહારિક પ્રત્યક્ષ) આ પ્રકારની અવસ્થાને જાણી શકતા નથી, પરંતુ અનુમાન પ્રમાણથી આ વાતની સિદ્ધિ થાય છે કે-અવશિષ્ટ નામકર્મની પ્રકૃતિએને ત્યા સર્વથા ક્ષય થશે એમ કેમ કહેવાય કે તદવિનાભાવી હતુ ત્યાં
“तस्य सर्वज्ञत्वात् ' अर्थात् “ते सर्व छ” मेरी तहविनालावी ‘, જેવી રીતે ધુમાડો આગને અવિનાભાવી હેતુ છે, તેવી રીતે
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०२. उ. ३
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र्वज्ञ अवस्था भी शेष नामकर्म की प्रकृतियों का भविष्य में वहां विलयरूप साध्य की सिद्धि कराने में अविनाभावी हेतु है अतः इस अविनाव हेतु से वहां पर साध्यकी सिद्धि होने में कोई भी बाधा नहीं आती ।
प्रश्न - अपने साध्य को सिद्ध करने में हेतु की सिद्धि प्रधान मानी ती है । जिस साध्य का हेतु सिद्ध नहीं होता वह अपने साध्यकी सिद्धि हीं कर सकता । साध्य असिद्ध होता है, हेतु तो सिद्ध होना चाहिये । उत्तर - हेतु सिद्ध ही है- असिद्ध नहीं, भूत भविष्यत् और वर्तमान
समस्त द्रव्य और उनकी अनन्तानन्तपर्यायों को हस्तामलकवत् कालावच्छेदेन ( एक कालमें) जाननेवाला होने से तीर्थंकरादि प्रभु र्वज्ञ हैं । ज्ञानावरण आदि चार घातिया कर्मों के सर्वथा विनष्ट होने से Pela art atara अवस्था में केवलज्ञानरूपी सूर्य को प्राप्त कर लिया | इस प्रशस्ततम और असाधारण ज्ञान के द्वारा ही ये विश्व के समस्त दार्थसार्थको जानते रहते हैं । इनका ज्ञान समस्त पदार्थों का ज्ञाता है, ह बात अनुमान प्रमाण से सिद्ध होती है, क्यों कि जब छद्मस्थ जीवों 'ज्ञानगुण में जानने की हीनाधिकता पाई जाती है तो उससे यह बात પ્રાતિયા કર્માંના અભાવથી ઉત્પન્ન સર્વાંગ અવસ્થા પણ શેષ નામકની પ્રકૃતિષાના ભવિષ્યમાં ત્યાં વિલયહેાવારૂપ સાધ્યની સિદ્ધિ કરાવવામાંઅવિનાભાવી ડેતુ છે માટે આ અવિનાભાવી હેતુથી ત્યાં સાધ્યની સિદ્ધિ થવામાં કોઈ અડત્રણ આવતી નથી
પ્રશ્નપેાતાના સાધ્યને સિદ્ધ કરવામાં હેતુની સિદ્ધિ પ્રધાન માનવામાં આવે છે. જે સાધ્યનો હેતુ સિદ્ધ થતો નથી ને પોતાના સાધ્યની સિદ્ધિ કરી શકતો નથી. સાધ્યુ અસિદ્ધ થાય છે, હેતુ તો સિદ્ધ થવા જોઈએ.
ઉત્તર—હેતુ સિદ્ધ જ છે. અસિદ્ધ નહિ. ભૂત ભવિષ્યતા અને વમાન કાલીન સમસ્ત દ્રવ્ય અને તેની અનન્તાનન્ત પર્યંચાને હસ્તામલકવત્ एककालावच्छेदेन (मेड अणसां) भगवावाजा होवाथी तीर्थ राहि अलु सर्वज्ञ છે. જ્ઞાનાવરણ આદિ ચાર ઘાતિયા કર્મોનો સર્વથા વિનષ્ટ થવાથી તેને પાતાની જીવનમુક્ત અવસ્થામાં કેવળજ્ઞાનરૂપી સૂર્યને પ્રાપ્ત કરેલ છે. આ પ્રશસ્તતમ અને અસાધારણુ જ્ઞાનદ્વારા વિશ્વના સમસ્ત પદાર્થને જાણુતા રહે છે. તેનુ જ્ઞાન સમસ્ત પદાર્થોનું જ્ઞાતા છે. એ વાત અનુમાન પ્રમાણથી સિદ્ધ થાય છે. કારણ કેજ્યારે છદ્મસ્થ જીવાને જ્ઞાનગુણમાં જાણવાની હીનાધિકતા મેળવી શકાય છે તો તેનાથી
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अध्य० २. उ. १
परि-सर्वतो घटपटादिशब्दविषयकाणि ज्ञानानि-परिज्ञानानि श्रोत्रेण परिज्ञानानि श्रोत्रपरिज्ञानि, तैः श्रोत्रपरिज्ञानः, वार्धक्येन परिहीयमानः क्षीयमाणेरेकदात्मनो मूढतां जनयति, इत्युत्तरेण सम्बन्धः । वार्धक्ये च श्रोत्रेन्द्रियस्य शिथिलतामुपगतस्य क्षीयमाणस्वशक्तिकस्य शब्दादिविषयग्रहणे चाक्षमता संजायते, येन च बधिरो भवति, घटं टमिव शृणोति न शृणोति वेति तात्पर्यम् । एवं रोगेणापि श्रोत्रपरिज्ञानानि क्षीयमाणानि भवन्तीति बोध्यम् । एवं सर्वत्र योज्यम् । के रूप में परिणत पुद्गलस्कन्धों का ग्रहण किया जाता है वह भावोत्र है। इसके भी दो भेद हैं-(१) लब्धि, और (२) उपयोग । भाषा के रूप में परिणत पुगलस्कन्धों को जाननेरूप जो क्षयोपशम है उसका नाम लब्धि है, अर्थात् शब्दों के जानने की शक्ति का नाम लब्धि है, और उन शब्दों के जाननेरूप आत्मा का जो व्यापार-प्रयत्नविशेष है उसका नाम उपयोग है। परिज्ञान शब्द का अर्थ है-सर्व प्रकार से अथवा सब तरफ से घट पट आदि शब्दों का विषय करने वाला ज्ञान । वृद्धावस्था में श्रोत्रजन्य ज्ञान क्षीणप्राय हो जाता है कोई कहता कुछ है वृद्ध सुनता कुछ है, अतः इस अवस्था में इस प्रकार की हालत आत्मा में मूढता को उत्पन्न करती है । " एकदा आत्मनो मूढतां जनयति" इस उत्तर पदका सम्बन्ध प्रत्येक के साथ लगा लेना चाहिये, अर्थात्-“वाईक्ये परिहीयमानैःश्रोत्रपरिज्ञानः अभिक्रान्तं वयः समीक्ष्य मूढभावं जनयति, परिहीयमानैः चक्षुर्ज्ञानैः अभिक्रान्तं वयः समीक्ष्य मृढभावं जनयति,” इत्यादि। પરિણત પુદ્ગલ સ્કન્ધને ગ્રહણ કરે છે તે ભાવશ્રોત્ર છે. તેના પણ બે ભેદ छे--(१) साल, अने. (२) उपयो1. भाषाना ३५मा परिणत हसन्धान જાણવારૂપ ક્ષપશમ છે તેનું નામ લબ્ધિ છે, અર્થાત્ શબ્દોની શક્તિનું જાણવું તેનું નામ લબ્ધિ, અને તે શબ્દને જાણવારૂપ આત્માને જે વ્યાપારયત્નવિશેષ છે તેનું નામ ઉપયોગ. પરિજ્ઞાન શબ્દનો અર્થ, સર્વ પ્રકારથી અથવા સર્વ તરફથી ઘટ પટ આદિ શબ્દને વિષય કરવાવાળું જ્ઞાન. વૃદ્ધાવસ્થામાં શ્રોત્રજન્ય જ્ઞાન ક્ષીણપ્રાય થાય છે. કોઈ કહે છે કાંઈ અને વૃદ્ધ માણસ સાંભળે છે બીજું, તેથી આ અવસ્થામાં આ પ્રકારની હાલત આત્મામાં મૂઢતાને ઉત્પન્ન કરે છે.
"एकदा आत्मनो मूढतां जनयति" २५ उत्तरपहन संघ प्रत्येनी साथे वो नये, अर्थात् “ वादके परिहीयमानः श्रोत्रपरिज्ञान अभिक्रान्तं वयः समीक्ष्य मूढभावं जनयति, परिहीयमानै चक्षु नः अभिकान्त वयः समीक्ष्य मूढभावं जनयति" इत्यादि,
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४२
आचारागसूत्रे ___चक्षुःपरिज्ञानैः-चक्षुपा ममरसंस्थानेन परिज्ञानानि-शुक्लनीलादिरूपविषयकाणि चक्षुःपरिज्ञानानि, तैः, परिहीयमानः नश्यमानैः। घ्राणपरिज्ञानैः-घ्राणेन ___प्राणी वृद्धावस्था में बहिरा हो जाता है, क्योंकि उस समय इसकी श्रोनेन्द्रिय शिथिल हो जाती है जिससे अपने विषय को स्पष्टरूप से नहीं जानती, अर्थात् इस समय प्रत्येक इन्द्रिय शब्दादिकविषयों को ग्रहण करने में क्षीणशक्ति-( नाकाबिल) हो जाती है, अतः वह उन्हें ग्रहण करने में असमर्थ होती है, इसीकारण से बहिरा व्यक्ति घट (घडा) शब्द कहे जाने पर उसे पट (वस्त्र) शब्द जैसा सुनता है, अथवा धीरे बोलने पर नहीं भी सुनता है। जिस प्रकार वृद्धावस्था के कारण सब इन्द्रिया शिथिल हो जाती हैं उसी प्रकार रोगादिक कारणों से भी उनमें शिथिलता आजाती है, यह स्वयं समझ लेना चाहिये, और इसका सम्बन्ध भी प्रत्येक इन्द्रिय की परिहीनता के साथ जोड लेना चाहिये । अर्थात्-जिस प्रकार श्रोत्रेन्द्रिय में स्वविषयग्रहणरूप व्यापार के प्रति परिहीनता का कारण रोगादिक से उत्पन्न शिथिलता है उसी प्रकार प्रत्येक इन्द्रिय में भी अपने-अपने विषय को ग्रहण करने रूप व्यापार की परिहीनता में रोगादिक कारण है।
चक्षु-इन्द्रिय का आकार मसूर की दाल के तुल्य है, इसका विषय शुक्ल, नील आदि वर्ण है, इस अवस्था में अथवा रोगादिक कारणों से
પ્રાણી વૃદ્ધાવસ્થામાં બહેરે થાય છે, કારણકે તે વખતે તેની શ્રોવેન્દ્રિય શિથિલ થાય છે, જે પોતાના વિષયને સ્પષ્ટ રૂપથી નથી જાણતી, અર્થાત્ આ વખતે દરેક ઈન્દ્રિય શબ્દાદિક વિષયને ગ્રહણ કરવામાં શક્તિહીન થાય છે અને તેને ગ્રહણ કરવામાં અસમર્થ બને છે આ કારણે બહેરે માણસ ધડાને વસ્ત્ર શબ્દના રૂપમાં સાંભળે છે અને હળવેથી બોલવા આવે તે સાંભળતા નથી જેમ વૃદ્ધાવસ્થાના કારણે સઘળી ઇન્દ્રિય શિથિલ બને છે તે પ્રકારે રોગાદિક કારણોથી પણ તેમાં શિથિલતા આવે છે તે પિતાની મેળે જાણવું જોઈએ, અને તેને સંબંધ પણ દરેક ઈન્દ્રિયની પરિહીનતા સાથે જોડે જોઈએ, અર્થાત જેમ શ્રોત્રેન્દ્રિયમાં સ્વવિષય ગ્રહણ કરવા રૂપ વ્યાપાર પ્રતિ પરિહીનતાનું કારણ રેગાદિકથી ઉત્પન્ન થતી શિથિલતા છે તેમ પ્રત્યેક ઈન્દ્રિયને પોતપોતાના વિષયને ગ્રહણ કરવા રૂપ વ્યાપ્યારની પરિહીનતામા રેગાદિક કારણ છે.
ચક્ષુ ઇન્દ્રિયનો આકાર મસૂરની દાળ જેવું છે. તેને વિષય શુકલ, નીલ વર્ણ છે. આ અવસ્થામાં અથવા રોગાદિક કારણોથી ચક્ષુ ઇન્દ્રિય જ્યારે
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अध्य० २. उ. १ अतिमुक्तककुसुमाकारेण परिज्ञानानि-गन्धविषयकाणि, तैः, परिहीयमानः परित्यज्यमानैः। रसनपरिज्ञानैः-रसनेन क्षुरप्राकारेण परिज्ञानानि-मधुरतिक्तादिरसविषयकाणि ज्ञानानि, तैः, परिहीयमानः क्षीयमाणैः। स्पर्शपरिज्ञानैः-स्पर्शन-स्पर्शनेन्द्रियेण नानाविधाकारेण परिज्ञानानि-शीतोष्णस्पर्शादिविषयकाणि ज्ञानानि, तैः, परिहीयमानः विलीयमानः । इति सकलानामपीन्द्रियाणां वार्धक्येन रोगोदयेन च स्वस्वविषयग्राहकशक्तयः परिक्षीणा भवन्तीति भावः। अभिक्रान्तं च खलु वयः सम्प्रेक्ष्य स एकदा मूढभावं जनयतीत्युत्तरेणान्वयः । श्रोत्रचक्षुर्घाणरसनस्पर्शनानाचक्षुइन्द्रिय जब शुक्ल-नीलादिरूप अपने विषय को ग्रहण करने वाले ज्ञान से रिक्त हो जाती है; घ्राण-इन्द्रिय-जिसका आकार अतिमुक्तक पुष्प के समान है, वह जब इस अवस्था में अथवा रोगादिक कारणों से अपने गन्धग्रहण करने वाले ज्ञान से शून्य हो जाती है, रसना-इन्द्रियजिसका आकार खुरपा के सदृश है, और जो मधुर, तिक्त आदि रसों को विषय करती है वह भी जब इस अवस्थामें अथवा रोगादि कारणों से अपने विषयको ग्रहण करनेवाले ज्ञानमें असमर्थ हो जाती है। स्पर्शनइन्द्रिय-जिसका आकार नियत नहीं है किन्तु अनेक प्रकारके आकार को धारण करनेवाली है, और जिसका विषय आठ प्रकार का शीत-उष्ण आदि स्पर्श है वह जब इस अवस्थामें अथवा रोगादिक कारणोंसे शिथिल हो जाती है तब इस आत्मामें मूढता उत्पन्न होती है यह अनुभवसिद्ध बात है । मूढता उत्पन्न होनेका कारण यही है कि इस हालतमें प्रत्येक इन्द्रिय अपने २ विषयको ग्रहण करने के बोधसे विकल हो जाती શુકલનીલાદિ રૂપ પિતાના વિષયને પ્રહણના જ્ઞાનથી રિત થાય છે, ઘણઈન્દ્રિય જેને આકાર અતિમુક્તક પુષ્પ સમાન છે. તે જ્યારે આ અવસ્થામાં અથવા રેગાદિક કારણથી પિતાને ગન્ધ ગ્રહણ કરવાના જ્ઞાનથી શૂન્ય થાય છે, રસના-ઈન્દ્રિય જેનો આકાર તાવેથા જે છે અને જે મધુર, તિક્ત આદિ રસેને વિષય કરે છે તે પણ આવી અવસ્થામાં અથવા રોગાદિ કારણેથી પિતાના વિષયને ગ્રહણ કરવાના જ્ઞાનમાં અસમર્થ થાય છે, સ્પર્શન-ઈન્દ્રિય જેને આકાર નિયત નથી પરંતુ અનેક પ્રકારના આકારને ધારણ કરે છે અને જેના વિષય આઠ પ્રકારના શીત–ઉણ આદિ સ્પર્શ છે તે પણ આ અવસ્થામાં અથવા રેગાદિક કારણોથી શિથિલ થાય છે ત્યારે આત્મામાં મૂઢતા ઉત્પન્ન થાય છે તે અનુભવસિદ્ધ વાત છે. મૂઢતા ઉત્પન્ન રવાનું કારણ એ છે કે આવી હાલતમાં દરેક બધી
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आचाराङ्गसूत्रे
मिन्द्रियाणामाकाराः क्रमेण कदम्बपुष्प-ममुरधान्यातिमुक्तककुसुम-क्षुरप्र-नानाविधाकारा भवन्ति । उक्तञ्च
पुप्फ कलंबुयारं, धन्नमसराइमुत्तचन्दो य ॥
होई खुरप्प, नाणा-किई य सोइंदियाईणं ॥१॥ छाया-पुष्पं कदम्बाकारं धान्यममरातिमुक्तचन्द्रश्च ।
भवति क्षुरमा नानाकृतिश्च श्रोत्रेन्द्रियादीनाम् ॥ इति । इन्द्रो जीवस्तस्य चिह्नमिन्द्रियम् , तेनैव जीवज्ञानसम्भवात् । तच्च द्रव्यभावभेदेन द्विविधम् । द्रव्येन्द्रियं द्रव्यमयम् , तच्च निवृत्त्युपकरणभेदाद्विविधम् । निर्माणनामकर्माङ्गोपाङ्गनामकर्मभ्यां निर्वर्तितं निर्वृत्तीन्द्रियम् , तच्च वाह्याभ्यन्तरभेदाहै । इन्द्रियों का जो यह आकार प्रकट किया है वह शास्त्रकारोंने इस प्रकार बतलाया है
" पुप्फ कलंवुयारं, धन्नमसूराइमुत्तचंदो य।
होई खुरप्प, नाणाकिई य सोइंदियाईणं ॥१॥" इन्द्रिय शब्द का अर्थ यह है कि-'इन्द्र' नाम जीव का है, उसका जो चिह्न है वह इन्द्रिय है, अर्थात् जिसके द्वारा जीव पहिचाना जावे उसका नाम इन्द्रिय है। यह पांच प्रकार की है। इनमें प्रत्येक इन्द्रिय के दो-दो भेद हैं-(१) द्रव्येन्द्रिय, (२) भावेन्द्रिय। पुद्गलद्रव्यों की जो इन्द्रियाकार रचना है उसका नाम द्रव्येन्द्रिय है। यह द्रव्येन्द्रिय, निवृत्ति
और उपकरण के भेदसे दो प्रकार की है। इस द्रव्येन्द्रिय की रचना निर्माणनामकर्म और अङ्गोपाङ्ग नामकर्म के द्वारा होती है। इस निवृत्तीन्द्रिय के-बाह्यनिर्वृत्ति और आभ्यन्तर-निर्वृत्ति, इस प्रकार से दो भेद् ઈન્દ્રિયે પિતપોતાના વિષયને ગ્રહણ કરવાના બધથી વિકલ થાય છે. ઈન્દ્રિયેના જે આકારે બતાવ્યા છે તે શાસ્ત્રકારોએ આ પ્રકારે બતાવ્યા છે—
"पुप्फ फलंबुयार, धन्नमसूराइमुत्तचंदो य ।।
होई खुरप्प-नाणाकिईय सोइंदियाईणं ॥१॥" ઇન્દ્રિય શબ્દનો અર્થ એ છે કે –“ઈન્દ્ર” નામ જીવનું છે, તેનું જે ચિહ્ન છે તે ઇન્દ્રિય છે, અર્થાત્ જે દ્વારા જીવની પિછાણ થાય તેનું નામ ઈન્દ્રિય છે ते पाय मारनी . तेमा ४२४४न्द्रियन मे-2 से छे. (१) द्रव्येन्द्रिय, (२) ભાવેન્દ્રિય પુદ્ગલ દ્રવ્યની જે ઈન્દ્રિયાકાર રચના છે તેનું નામ દ્રવ્યેન્દ્રિય છે. તે દ્રન્દ્રિય, નિવૃત્તિ અને ઉપકરણના ભેદથી બે પ્રકારે છે. દ્રવ્યેન્દ્રિયની રચના મ-નામકર્મ અને અંગોપાગ-નામકર્મ દ્વારા થાય છે. આ નિર્વસ્તીન્દ્રિય, નિત્તિ અને આત્યંતર નિત્તિ, આ પ્રકારથી બે ભેદ રૂપ છે. ઉધાગુંલના
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अध्य० २ उ १ द्विविधम् । उत्सेधाङ्गुलासंख्येयभागप्रमितानां स्वच्छतराणामात्मप्रदेशानां प्रतिनियतचक्षुरादीन्द्रियसंस्थानेनावस्थिता या वृत्तिः सा आभ्यन्तरा निवृत्तिरुच्यते, खड्गधारास्थानीयेति यावत् , आत्मप्रदेशेषु पुद्गलविपाकिना निर्माणाख्येन कर्मणा रथादिवस्तुसम्पादकरथकारेणेवयः प्रतिनियतसंस्थानस्तत्तदिन्द्रियाभिधेयः कर्णशष्कुल्यादिनियंते सा वाह्या निवृत्तिः खड्गसदृशी । तत्र वाह्या पर्पटिकादिरूपा, सा च विचित्रा प्रतिनियतरूपतयोपदेष्टुं न शक्यते, तथा हि-कस्यचिदक्षि स्थूलं, कस्यहैं । उत्सेधाङ्गुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण अलन्त निर्मल आत्मप्रदेशों की चक्षुरादि इन्द्रियों के प्रतिनियत आकार से अवस्थित जो वृत्ति है उसका नाम आभ्यन्तर निवृत्ति है। इसकी उपमा तलवार की धारासे दी गई है। उन आत्मप्रदेशोंमें पुद्गलविपाकी निर्माणनामकर्म के द्वारा जो कर्णशष्कुली आदि रूपसे उस-उस इन्द्रियों के आकारों की रचना की जाती है उसका नाम बाह्यनिनि है। जैसे बढई रथादिक वस्तुओं के प्रतिनियत आकारों को बनाता है उसी प्रकार यह निर्माण-नामकर्म, जो पुद्गलविपाकी प्रकृति है, उन इन्द्रियाकाररूपपरिणत आत्मप्रदेशों में पुद्गलद्रव्योंकी प्रतिनियत इन्द्रियाकाररूप से रचना करता है। इसकी उपमा तलबारसे दी गई है। बाह्य निवृत्तिका प्रतिनियत कोई आकार नहीं है, वह अनेक प्रकार की है, जैसे आंखों में पर्पटिकादिरूपरचना। यह चक्षु-इन्द्रिय की बाह्य निर्वृत्ति है, परन्तु यह सर्वत्र इसी प्रकार की होती है, यह नियमित नहीं, क्योंकि किसी की ऑग्ख मोटी होती है અસંખ્યામાં ભાગ પ્રમાણ અત્યન્ત નિર્મળ આત્મપ્રદેશની રક્ષાદિ ઈન્દ્રિયના પ્રતિનિયત આકારથી અવસ્થિત જે વૃત્તિ છે તેનું નામ આભ્યન્તર નિર્વત્તિ છે, તેની ઉપમા તલવારની ધાર જેમ છે. તે આત્મપ્રદેશમાં પુદ્ગલવિપાકી નિર્માણ ના કર્મ દ્વારા જે કર્ણ શક્લી આદિ રૂપે તે તે ઇન્દ્રિયના આકારોની રચના કરી છે તેનું નામ બાહ્યનિર્વત્તિ છે જે ગુથાર રથાદિક વસ્તુઓના પ્રતિનિયત આકારને બનાવે છે તે પ્રકારે આ નિર્માણ નામકર્મ જે પુગલવિપાકી પ્રકૃતિ છે, તે ઇન્દ્રિયાકાર રૂપ પરિણા આત્મપ્રદેશમાં પુગલ દ્રવ્યની પ્રતિનિયત ઇન્દ્રિયાકાર રૂપ રચના કરે છે. તેની ઉપમા તલવારથી આપી છે. બાહ્ય નિત્તિને પ્રતિનિયત કે આકાર નથી. તે અનેક પ્રકારના છે. જેમ આખોમા પત્રિકાદિ રૂપ રચના, તે ચાઈન્દ્રિયની બાહ્ય નિવૃતિ છે, પરંતુ આમ સર્વત્ર છે, તેમ નિયમિત નહિ. કેઈની આખ મોટી હોય છે, કેઈની નાની. આક્યન્તર
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आचाराङ्गसूत्रे
चिच्च ह्रस्वमित्याद्यनेकप्रकारा । आभ्यन्तरा तु निर्वृत्तिः सर्वेषां समाना भवति । चतुर्णामेवेन्द्रियाणां वाह्याभ्यन्तरभेदो भवति, न स्पर्शनेन्द्रियस्येति बोध्यम् । उपक्रियत इत्युपकरणम्, उपकरणेन्द्रियश्च खड्गस्थानीयवाह्यनिर्वृत्तेः खड्गधारासदृशस्वच्छतरपुद्गलसमूहरूपाऽभ्यन्तरनिर्वृत्तेश्च शक्तिविशेषः । अनुपघातानुग्रहाभ्यां निर्वृत्तीन्द्रियस्योपकारित्वेनोपकरणम् । तदपि वाह्याभ्यन्तरनिर्वृत्युपकारकत्वेन द्विविधम् । निर्वृच्युपकरणरूपमुभयमेतत्पुलपरिणामात्मकमपि सदिन्द्रियशब्दव्यवहारं लभते । और किसीकी छोटी । आभ्यन्तर निर्वृत्ति समस्त इन्द्रियों की एकसी होती है । निर्वृति- इन्द्रिय के जो बाह्य और आभ्यन्तर भेद किये हैं वे स्पर्शनइन्द्रिय को छोडकर शेष चार इन्द्रियों के ही हैं, ऐसा समझ लेना चाहिये।
द्रव्येन्द्रिय का जो दूसरा भेद उपकरण है उसका अर्थ ' निर्वृत्ति का जो उपकार करे' यह है । यह खड्ग-तलवार - स्थानीय बाह्यनिर्वृत्ति तथा उसकी धारास्थानीय स्वच्छतरपुद्गलसमूहरूप आभ्यन्तर निर्वृत्ति की एक विशेष शक्ति है - जो अनुपघात और अनुग्रह से निर्वृत्ति-इन्द्रिय की उपकारिका मानी गई है ।
यह उपकरण द्रव्येन्द्रिय भी आभ्यन्तर और बाह्य निर्वृत्ति का उपकारक होने की वजहसे दो प्रकार की है - (१) आभ्यन्तर - उपकरण और (२) बाह्य - उपकरण । आभ्यन्तर निवृत्ति का जो उपकार करे वह आभ्यन्तर - उपकरण और बाह्य निर्वृत्तिका जो उपकार करे वह बाह्य-उपकरण है। निर्वृत्तिरूप और उपकरणरूप द्रव्येन्द्रिय यद्यपि पुद्गल परिणामाનિવૃત્તિ સમસ્ત ઇન્દ્રિયાની એક સરખી છે. નિવૃત્તિ ઇન્દ્રિયના જે ખાદ્ય અને આભ્યન્તર ભેદ છે તે સ્પન ઈન્દ્રિયને છોડીને શેષ ચાર ઇન્દ્રિયાના છે તેમ સમજવાનુ છે
દ્રવ્યેન્દ્રિયના બીજો ભેદ ઉપકરણ છે, એને અં· નિવૃત્તિના જે ઉપકાર કરે' એ છે આ તલવારસ્થાનીય બાહ્ય નિવૃત્તિનો તથા તેની ધારાસ્થાનીય સ્વચ્છતરપુગલસમૂહરૂપ આભ્યન્તર નિવૃત્તિની એક વિશેષ શક્તિ છે જે અનુપઘાત અને અનુગ્રહથી નિવૃત્તિ ઇન્દ્રિયની ઉપકારિકા માની છે
આ ઉપકરણ દ્રવ્યેન્દ્રિય પણ આભ્યન્તર અને બાહ્ય નિવૃત્તિનું ઉપકારક હાવાથી એ પ્રકારનુ (१) माल्यन्तर उपरणु, भने बाह्य उपहरणु, माल्य तर નિવૃત્તિના જે ઉપકાર કરે તે આભ્યન્તર ઉપકરણ છે અને ખાદ્યનિવૃત્તિને જે ઉપકાર કરે તે બાહ્ય ઉપકરણ છે. નિવૃત્તિ રૂપ અને ઉપકરણ રૂપ દ્રવ્યેન્દ્રિય
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अध्य० २. उ. १ तच्च भावेन्द्रियसहयोगं प्राप्यैवात्मनः साहाय्यं करोति प्रस्थकाष्ठवत् 'पायलीकाठ' इति भाषा । आत्मपरिणतिरूपं भावेन्द्रियमपि लब्ध्युपयोगभेदाद्विविधम् , तत्र तत्तदिन्द्रियावारककर्मणां क्षयोपशमो लब्धिः। इन्द्रियाणां स्वस्वविषयेषु परिच्छेद्यव्यापार उपयोगः । अत्र लब्धौ वर्तमानायां सत्यां निवृत्त्युपकरणोपयोगानां त्रयाणामप्यपेक्षा । निवृत्तौ वर्तमानायां सत्यामुपकरणोपयोगयोरपेक्षा । सत्युपकरणे चोपयोत्मक है तो भी उसका जो इन्द्रिय शब्दसे व्यवहार किया गया है उसका मतलब यही है कि यह आत्माको पदार्थज्ञानमें सहायक है, क्योंकि विना द्रव्येन्द्रिय के आत्मा को पदार्थज्ञान नहीं हो सकता । यही कारण है कि विग्रहगति में भावेन्द्रियके होने पर भी द्रव्येन्द्रिय के अभावमें जीवको बाह्य पदार्थज्ञान नहीं होता। द्रव्येन्द्रिय यद्यपि आत्माको पदार्थज्ञान करानेमें सहायक है तो भी वह भावेन्द्रिय के सहयोग के विना
आत्माको पदार्थबोधमें सहायक नहीं हो सकता। __आत्मपरिणतिरूप भावेन्द्रिय भी लब्धि और उपयोगके भेद से दो प्रकार की है। उन-उन इन्द्रियों को आवरण करनेवाले कर्मीका जो क्षयोपशम है उसका नाम लब्धि है। एवं इन्द्रियोंका अपने २ विषयों के जानने रूप जो व्यापार है उसका नाम उपयोग है। आत्मामें लन्धि-- जानने की योग्यता-होनेपर भी उसे निवृत्ति, उपकरण एवं उपयोग की अपेक्षा रहती है । लब्धि के होते हुए भी इनके विना आत्माको पदार्थયદ્યપિ ગુગલ પરિણામાત્મક છે તે પણ તેને જે ઈન્દ્રિય શબ્દથી વ્યવહાર કરેલ છે તેનું કારણ એ છે કે તે આત્માને પદાર્થ જ્ઞાનમાં સહાયક છે, કારણકે દ્રવ્ય ઈન્દ્રિય વિના આત્માને પદાર્થ જ્ઞાન થતું નથી, એજ કારણ છે કે વિરહગતિમાં ભાવેન્દ્રિય થવાથી પણ દ્રવ્યેન્દ્રિય ના અભાવમાં જીવને બાહ્ય પદાર્થજ્ઞાન થતું નથી.
બેન્દ્રિય યદ્યપિ આત્માને પદાર્થજ્ઞાન કરાવવામાં સહાયક છે, તે પણ તે ભાવેન્દ્રિયના સહગ વિના પદાર્થધમાં આત્માને સહાયક થઈ શકતું નથી.
આત્મપરિણતિરૂપ ભાવેન્દ્રિય પણ લબ્ધિ અને ઉપગના ભેદથી બે પ્રકારે છે તે તે ઈન્દ્રિયોના આવરણ કરનાર કર્મોના જે ક્ષયોપશમ છે તેનું નામ લબ્ધિ છે. ઈન્દ્રિયના પિત–પિતાના વિષયને જાણવા રૂપ જે વ્યાપાર છે તેનું નામ ઉપગ છે.
આત્મામાં લબ્ધિ-જાણવાની યોગ્યતા–હેવા છતાં તેને નિવૃત્તિ, ઉપર, અને ઉપયોગની અપેક્ષા રહે છે. લધિના હોવા છતાં પણ તેના વિના આત્માને પદાર્થ
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आचाराङ्गसूत्रे
गस्यापेक्षेति विज्ञेयम् । अत्रायं विशेष: श्रोत्रं द्वादशयोजनागतं शब्दं गृह्णाति, चक्षुरपि सातिरेकैकविंशतिलक्षयोजनस्थितं रूपं गृह्णाति, अन्यानि त्रीणीन्द्रियाणि नवयोजनागत स्वस्व विषयग्राहकाणि भवन्ति । जघन्यतस्तु चक्षुरङ्गलसंख्येयभागमितदेशवर्तिरूपं गृह्णाति । अन्यानि चत्वारीन्द्रियाणि चाकुलासंख्येय भागममितदेशस्थितं स्वस्वविषयं गृहन्तीति भावः । तत्र श्रोत्रादीनां चतुर्णा प्राप्यकारित्वं, शब्दादिपुद्गलानां कर्णादिसंयोगेनैव निर्णयात् । चक्षुपञ्चाप्राप्यकारित्वं रूपस्य संयोगं विना दूत एव नियादिति विशेषः ।
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बोध नहीं होता है । इसी प्रकार निर्वृत्ति के होने पर भी उसे उपकरण और उपयोग की अपेक्षा रहा करती है, और उपकरण के सद्भावमें उपयोग की । श्रोत्र - इन्द्रिय बारह योजन से आये हुए शब्द को ग्रहण करती है । चक्षु-इन्द्रिय कुछ अधिक २१ इक्कीस लाख योजन स्थित रूप को जानती है। बाकी की तीन इन्द्रियाँ नव योजन से आये हुए अपने २ विषय को ग्रहण करनेवाली होती हैं । यह उत्कृष्ट की अपेक्षा इन्द्रियों का विषय बतलाया है । जघन्य की अपेक्षा चक्षु - इन्द्रिय अगुल के संख्यातवें भाग में स्थित रूपको ग्रहण करती है। बाकी की चार इन्द्रियाँ अङ्गुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण देशमें रहे हुए अपने २ विषय को जाननेवाली हैं ।
स्पर्शन, रसन, घ्राण और श्रोत्र, ये चार इन्द्रियाँ अपने २ पौगलिक विषयों को छू (स्पर्श) कर ही जानती हैं इस लिये ये प्राप्यकारी हैं। એધ થતા નથી, એ પ્રકારે નિવૃત્તિ થવા છતાં પણ તેને ઉપકરણ અને ઉપયોગની અપેક્ષા રહે છે, અને ઉપકરણના સદ્ભાવમાં ઉપયોગની રહે છે.
શ્રોત્ર ઇન્દ્રિય ખાર ચેાજનથી આવેલા શબ્દને ગ્રહણ કરે છે, ચક્ષુઇન્દ્રિય કાઈક અધિક એકવીસ લાખ ચેાજનથી રૂપ જાણે છે બાકીની ત્રણ ઇંદ્રિયા નવ ચેાજનથી આવેલા પોત-પોતાનાં વિષયને ગ્રહણ કરી શકે છે. આ ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષા ઇન્દ્રિયાન વિષય મતાન્યેા છે. જઘન્યની અપેક્ષા ચક્ષુઇન્દ્રિય અ’શુળના સ ખ્યાતમાં ભાગમા સ્થિત રૂપને ગ્રહણ કરે છે. બાકીની ચાર ઇન્દ્રિયા અંગુલના અસખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણ દેશમા રહેલા પોત-પોતાના વિષયને જાણે છે
સ્પર્શન, રસન, પ્રાણ અને શ્રોત્ર, આ ચાર ઇન્દ્રિયા પાત-પાતાનાં પૌદ્ગલિક વિષયાના સ્પર્શી કરી જાણે છે માટે એ પ્રાપ્યકારી છે ચક્ષુઇન્દ્રિય પાતાના વિષયને સ્પર્શી કર્યાં વિના જાણી લે છે માટે તે અપ્રાપ્યકારી છે, અર્થાત્ આ
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ફર
- आचाराङ्गसूत्रे
यथा कश्चिदरिमर्दननामा नराधिपो विपक्षपक्षदलनदक्षोऽप्यवसरानभिज्ञो नगरी सिंहादिश्वापदाकुलितामवलोक्यापि बहुषु प्राणिगणेषु नाशमुपगतेषु पञ्चाच रक्षार्थ प्राकारं कारितवान् तथैव कालाकालसमुत्थायी चावसरानवसरानभिज्ञो भवतीति भावः । यस्तु सम्यक् कालोत्थायी स च कालपरिज्ञानार्थं सततं सावधानो यथावसरं सकलां क्रियां विदधाति । किन्तु यथा जन्मादेरकालो नास्ति तथा धर्मेऽपि नाकाल:, “धम्मो हि वुहेहिं परिसेवियन्वो " इति वचनात् । यो हि रागवान् स कालाकालसमुत्थायी किमर्थमित्याह “संयोगार्थी " संयुज्यते, संयोजनं वा संयोगः, सोऽर्थः - प्रयोजनं यस्यास्तीति संयोगार्थी । संयोगः शब्दादिविषयः, मातापित्रादिभिश्व संयोगस्तदर्थी - तत्प्रयोजनवान् ।
"
परन्तु अनवसरज्ञ होने से उसने अपनी प्रजाकी रक्षा उस समय जब कि उसे सिंहादि नष्ट-भ्रष्ट कर रहे थे; नहीं की, पश्चात् जब लोग हर तरह से बर्बाद हो चुके तब उस समय जोकि उनकी रक्षा का अवसर नहीं था उसने रक्षा के लिये नगर का कोट बनवा दिया । जिस प्रकार वह राजा कालाकालसमुत्थायी होने से विवेकी नहीं माना जा सकता, उसी प्रकार जो प्राणी कालाकालसमुत्थायी होता है वह भी अवसर और अनवसर का यथार्थ ज्ञाता नहीं होता, जो कार्य के उचित काल में कार्य करने के स्वभाववाला होता है वह निरन्तर अवसर के अनुसार ही सावधान होकर उसी समय में समस्त क्रियाओं को करता है । रागवान प्राणी कालाकालसमुत्थायी क्यों होता है ? इसके लिये सूत्रकार कहते हैं- " संयोगार्थी " इत्यादि । वह संयोगार्थी है। संयोग ही जिसका प्रयोजन है वह संयोगार्थी है शब्दादिक विषयों के साथ,
હોવાથી જ્યારે સિંહાદિ હિંસક પ્રાણી પ્રજાનો નાશ કરી રહ્યા હતાં ત્યારે પ્રજાની રક્ષા કરી નહિ પણ જ્યારે પ્રજાની ખરબાદી થઈ ગઈ ત્યારે જો કે અવસર નહિ હોવા છતાં પ્રજાની રક્ષા માટે કાટ ખનાન્યેા. તે જે પ્રકારે તે રાજા કાળાકાળસમુત્થાયી હોવાથી વિવેકી મનાતા નથી તે પ્રકારે જે પ્રાણી કાળાકાળસમુત્થાયી છે તે પણ સમય અસમયના જ્ઞાતા નથી, જે કાના ઉચિત કાળમાં કાર્યો કરવાના સ્વભાવવાળા હોય છે તે નિરંતર અવસર અનુસાર જ સાવધાન થઇ તે સમયમાં સમસ્ત ક્રિયા કરે છે. રાગવાળા પ્રાણી કાળાકાળસમુત્થાયી કેમ બને છે ? तेने भाटे सूत्रअर उडे -" संयोगार्थी " त्याहि ते सयोगार्थी छे संयोग न જેનું પ્રયાજન છે તે સચેાગા છે. શબ્દાદિક વિષચેામા તેમ જ માતાપિતાદિકની
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मध्य० २. उ. १
नन्विन्द्रियाण्येव वस्तु निर्णेतुं प्रभवन्तु किमधिकेनातिरिक्तात्मस्वीकारेणेति चेन्न, तत्तदिन्द्रियनाशेऽपि तत्तदिन्द्रियपूर्वानुभूतार्थस्मरणस्यान्यथानुपपत्त्याऽतिरितस्यात्मनोऽवश्यं सिद्धेः । आत्मनो विज्ञानोत्पत्तौ श्रोत्रादीनि प्रकृष्टोपकारकाणि भवन्ति, तेन करणरूपकारकतया तृतीया विभक्तिः सिद्धयति, ततोऽनेन श्रोत्रेण मया शब्दः श्रुतः, अनेन च मन्दतरः शब्दः श्रुतः, इत्यादयः प्रयोगाः सङ्गच्छन्ते । चक्षु-इन्द्रिय अपने विषय को विना छूए (स्पर्श किये) ही जान लेती है अतः वह अप्राप्यकारी है, अर्थात् यह इन्द्रिय अपने साथ अपने विषय का संयोग हुए विना दूरसे ही अपने रूप-विषय का प्रकाशक है।
शङ्का-इन्द्रियों को ही अपने २ विषयरूप ज्ञेय का निर्णय करनेवाली मानलेनी चाहिये, उनसे अतिरिक्त आत्माके माननेकी क्या आवश्यता है।
उत्तर-यह बात कहना ठीक नहीं है, कारण कि-जब इन्द्रियाँ नष्ट हो जाती हैं तब उनके द्वारा पूर्वानुभूत पदार्थका स्मरण होता है। यदि इन्द्रियाँ ही पदार्थ की ज्ञाता मानी जायें तो फिर जो उनके विनाश होने पर अनुभूत पदार्थ की स्मृति होती है वह नहीं होनी चाहिये अतः अन्यथानुपपत्ति (जिसके नहीं होने पर नहीं होना) रूप अनुमान से इन्द्रियोंके अतिरिक्त आत्माके अस्तित्वकी सिद्धि होती है।
शङ्का-यदि इन्द्रियों से भिन्न आत्माके अस्तित्व की स्वीकृति मानी जावेगी तो फिर "चक्षुषा दृश्यते, श्रोत्रेण श्रूयते' इत्यादि जो व्यवहार होता है वह नहीं होना चाहिये। ઈન્દ્રિય પિતાની સાથે પોતાના વિષયને સંગ થયા વિના દૂરથી જ પિતાના રૂપ વિષયને પ્રકાશક છે.
શંકા–ઇન્દ્રિયને જ પિત–પિતાના વિષયરૂપ યને નિર્ણય કરનાર માનવી જોઈએ એથી અતિરિક્ત આત્માને માનવાની શું આવશ્યકતા છે?
ઉત્તર–આમ કહેવું વ્યાજબી નથી. કારણકે જ્યારે ઈન્દ્રિયે નષ્ટ થાય છે ત્યારે તેના દ્વારા પૂર્વાનુભૂત પદાર્થનું સ્મરણ થાય છે. કદાચ ઈન્દ્રિયોનેજ પદાર્થની જ્ઞાતા માનવામાં આવે તે પછી જે તેના વિનાશ પછી અનુભૂત પદાર્થની સ્મૃતિ થાય છે તે થવી જોઈએ નહિ. માટે અન્યથાનુપપત્તિ (જેના નહિ હેવાથી નથી થતું) રૂપ અનુમાનથી ઈન્દ્રિયેથી અતિરિક્ત આત્માના અસ્તિત્વની સિદ્ધિ થાય છે. શંકા–કદાચ ઈન્દ્રિયોથી ભિન્ન આત્માના અસ્તિત્વની સ્વીકૃતિ માનવામાં આવે
तो पछी “ चक्षुषा दृश्यते, श्रोत्रेण श्रूयते" त्याहिर व्यवहार थाय છે તે થવું જોઈએ નહિ.
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आचारागसूत्रे नन्वेवं करणत्वादिन्द्रियस्वीकारे तु वाक्पाणिपादपायूपस्थानामपि करणत्वादिन्द्रियत्वमन्यत्र स्वीकृतमिहापि कुतो नाभिहितमिति चेन्न, आत्मनो विज्ञानोत्पत्तौ तेषां प्रकृष्टोपकारकत्वाभावादिन्द्रियत्वस्यासिद्धेः, सामान्यतः करणत्वादिन्द्रियत्वस्वीकारे तु स्वस्वव्यापारवत उदरादेरपि करणत्वादिन्द्रियत्वापत्तेश्च । ___ उत्तर-शङ्का ठीक है परन्तु विचारने पर स्वतः ही इस शङ्काका समाधान हो जाता है, क्योंकि इन्द्रियाँ आत्माके ज्ञानकी उत्पत्ति में प्रकृष्ट साधक हैं इस कारण वहा पर " चक्षुषा दृश्यते, श्रोत्रेण श्रूयते" इत्यादि में करण रूप कारक पने तृतीया विभक्ति का प्रयोग होता है। जभी ये आत्माके विज्ञानकी उत्पत्तिो प्रकृष्ट उपकारक हैं तभी तो 'मैने इस प्रोत्र इन्द्रियले मन्द शब्द सुना और इस श्रोत्र इन्द्रियसे मन्दतर शब्द सुना-इलादि प्रयोग ठीक बैठ जाते हैं।
शङ्का-आत्माके विज्ञान रूप कार्यकी उत्पत्ति में अत्यन्त साधक होनेसे स्पर्शनादिकों को यदि आप इन्द्रिय रूपसे स्वीकार करते हैं तो फिर वाक्, पाणि, पाद, पायु (गुदा), और उपस्थ (जननेन्द्रिय), इन को भी इन्द्रियरूपसे आपको स्वीकार करना चाहिये, क्योंकि ये भी आत्माके अपने २ अनुरूप कार्यमें प्रकृष्ट साधक होते हैं इसीलिये सांख्य सिद्धान्तमें इन्हें इन्द्रियरूपसे स्वीकार किया है फिर आपने इन्हें इन्द्रियरूपसे यहां पर क्यों स्वीकार नहीं किया ?। ઉત્તર–શકા ઠીક છે, પરંતુ વિચારવાથી આપમેળે જ તે શકાનું સમાધાન થાય
છે કારણકે ઈન્દ્રિય આત્માને જ્ઞાનની ઉત્પત્તિમાં પ્રકૃણ સાધકે છે. આ पारणे त्या " चक्षुपा दृश्यते, श्रोत्रेण श्रुयते" त्याहिशुत्व ३५ १२४५ ત્રીજી વિભક્તિને પ્રયોગ થાય છે, માટે ત્યારે આત્માને વિજ્ઞાનની ઉત્પત્તિમાં પ્રકૃણ ઉપકારક છે તેથી જ મે આ શ્રોત્ર ઈન્દ્રિયથી મન્દ શબ્દ સાંભળ્યો અને
આ શ્રોત્ર ઈન્દ્રિયથી મન્દર શબ્દ સાભ ઈત્યાદિ પ્રાગ ઠીક બેસે છે. શકા–આત્માના વિજ્ઞાન રૂપ કાર્યની ઉત્પત્તિમાં અત્યન્ત સાધિકહેવાથી સ્પર્શ
નાદિકેને કદાચ આપ ઇન્દ્રિય રૂપે સ્વીકાર કરે છે તે પછી વાક્ પાણિ, પાદ, પાયુ (ગુદા) અને જનનેન્દ્રિય આ સઘળાંને ઈન્દ્રિય રૂપે આપે સ્વીકારવા જોઈએ કારણ કે આ બધા આત્માને પિત–પિતાનાં અનુરૂપ કાર્યથી પ્રકૃણ સાધક થાય છે માટે સાંખ્ય સિદ્ધાતમાં તેઓને ઈન્દ્રિય રૂપે સ્વીકાયો છે તે પછી આપે ઇન્દ્રિય રૂપે આ ઠેકાણે કેમ સ્વીકાર ન કર્યો ?
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अध्य० २. उं. १
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ननु श्रोत्रेणैव रूपादीनामपि कथं न प्रत्यक्षमिति चेन्न, इन्द्रियाणां भिन्न-भिन्नविषयकत्वेन तत्तदिन्द्रियेण स्वस्वविषयकातिरिक्तज्ञानासम्भवात् ।
उत्तर - यह कहना ठीक नहीं है, यहां पर तो आत्माके लिये जो विज्ञानकी उत्पत्तिमें अत्यन्त उपकारक हैं वे इन्द्रियाँ हैं और वे स्पर्शन आदि हैं, वाक् पाणि वगैरह सांख्यादि सिद्धान्तकी मानी हुई इन्द्रियाँ आत्माको विज्ञानकी उत्पत्ति में श्रोत्र आदि की तरह प्रकृष्ट उपकारक नहीं हैं अतः उन वाक् आदि में इन्द्रियत्वका व्यपदेश ही सिद्ध नहीं होता । सामान्य रीति से जो यह बात मान ली जावे कि जो करण होते हैं वे इन्द्रियां होती हैं अतःकरण होनेसे वाक् पाणि वगैरह में भी इन्द्रि - यत्व स्वीकार करलेना चाहिये, तो फिर इस प्रकारसे आत्माके लिये अपने २ व्यापार में निरत उदरादिक - पेट वगैर- को भी करण होने से इन्द्रियं मानना पडेगा, तब इन्द्रियों की जो सांख्यादि सिद्धान्तकारोंने ११ यह संख्या नियत की है वह सिद्ध नहीं होगी, इससे भी अधिक इन्द्रियां इस प्रकार सिद्ध होती हैं ।
शङ्का -- श्रोत्र इन्द्रियसे ही रूपादिक अन्य इन्द्रियों के विषयों का प्रत्यक्ष क्यों नहीं होता ?
उत्तर --- यह कहना ठीक नहीं, कारण कि प्रत्येक इन्द्रिय का अपना २ ઉત્તર—આમ કહેવું ઠીક નથી. અહીંતા આત્માને જે વિજ્ઞાનની ઉત્પત્તિમાં અત્યન્ત ઉપકારક છે તે ઇન્દ્રિયા છે અને તે સ્પર્શીનઆદિ છે. વાક્ (वाशी) पाणि (हाथ), विगेरे सांध्यादि सिद्धांतनी मानेसी इन्द्रियों આત્માને વિજ્ઞાનની ઉત્પત્તિમાં શ્રોત્ર આદિની માફક પ્રકૃષ્ટ ઉપકારક નથી માટે તે વાક્ આદિમાં ઇન્દ્રિયત્વના વ્યપદેશ જ સિદ્ધ થતા નથી. સામાન્ય રીતિથી જે આ વાત માની લેવા આવે કે જે કરણ થાય છે તે ઇંદ્રિયા હાય છે માટે કરણ થવાથી વાડ્, પાણિ વિગેરેમાં પણ ઇન્દ્રિયત્વને સ્વીકાર કરવા જોઈ એ તો પછી આ પ્રકારે આત્માને માટે પાત-પાતાના વ્યાપારમાં સાંમાન્ય રુપે કરણ થવાવાળાં ઉત્તરાદિક-પેટ વિગેરેનું પણ ઇન્દ્રિયપણું માનવું પડે ત્યારે ઇંદ્રિયેાની જે સાંખ્ય સિદ્ધાન્તકારોએ અગીયાર સંખ્યા નક્કી કરેલ છે તે સિદ્ધ થતી નથી, તેથી પણ અધિક ઇન્દ્રિયા આવી રીતે सिद्ध थाय छे.
શકા—શ્રોત્ર ઇન્દ્રિયથી જ રૂપાર્દિક અન્યઇન્દ્રિયાના વિષયેાની પ્રત્યક્ષ કેમ થતાં નથી? ઉત્તર-આમ કહેવું ઠીક નથી. કારણકે પ્રત્યેક ઇન્દ્રિયને પોત–પેાતાના વિષય
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आचाराङ्गसूत्रे
नन्वेवं तर्हि रसप्रतीतिकाले शीतोष्णकर्कशकठोरादिस्पर्शज्ञानमपि कथं भवतीति चेदाह - स्पर्शनेन्द्रियस्य सर्वव्यापित्वेन रसनेन्द्रियमदेशेऽपि नस्य सत्त्वेन रसप्रतीतिकालेऽपि स्पर्शज्ञानस्य सुलभत्वात् ।
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ननु श्रोत्रादिवन्मनसः कुतो नेन्द्रियत्वमिति चेदाह - विषय नियत है अतः वह दूसरे विषयकी ग्राहक शास्त्रकार भी तो यही कहते हैं कि इन्द्रियाँ भिन्न लिये वे अपने२ विषयके सिवाय अन्य इन्द्रियोंके नहीं होती है।
नहीं हो सकती । विषयवाली है इस विषयकी बोधक
शङ्का - यदि यही बात स्वीकार की जावे तो फिर रसना इन्द्रिय से रसके ज्ञानके समय में शीन, उष्ण, कर्कश, कठोरादिक स्पर्शका जो ज्ञान होता है वह कैसे होगा ?
उत्तर - स्पर्शन इन्द्रिय सर्व व्यापक है इसलिये रसना इन्द्रियके प्रदेशमें भी उसकी सत्ता होने से रस प्रतीतिके समय में भी स्पर्शके ज्ञानकी सुलभता होती है ।
शङ्का - जिस प्रकार श्रोत्रादिकों में इन्द्रियत्वका व्यपदेश होता है उसी प्रकार सनमें भी इन्द्रियत्वका व्यपदेश क्यों नहीं होता है ? |
उत्तर - त्रादिक इन्द्रियाँ अपने२ विषयको ग्रहण करनेमें जिस प्रकार स्वतन्त्र हैं उस प्रकार मन नहीं है, क्योंकि वह उन इन्द्रियोंका
નિયત છે તેથી તે ખીજા વિષયની ગ્રાહક અનતી નથી. શાસ્ત્રકાર પણ એમ કહે છે કે ઇન્દ્રિયા ભિન્ન ભિન્ન વિષયવાળી છે માટે તે
પાત—પેાતાના વિષય સિવાય અન્ય ઇન્દ્રિયાના વિષયની ખેાધક થતી નથી. શકા—માના, આ વાત સ્વીકારવામા આવે તે પછી રસના ઇન્દ્રિયથી રસના જ્ઞાનના સમયમા શીત, ઉષ્ણુ, કશ, કઠાદિક સ્પતુ જે જ્ઞાન થાય છે તે કેમ થાય છે ?
ઉત્તર——સ્પન ઇન્દ્રિય સર્વવ્યાપક છે, માટે
તેની સત્તા હેાવાથી રસપ્રતીતિના સુલભતા થાય છે.
રસના ઇન્દ્રિયના પ્રદેશમાં પણ સમયમાં પણ સ્પર્શેના જ્ઞાનની
શકા—જે પ્રકારે શ્રોત્રાદિકામા ઇન્દ્રિયના વ્યપદેશ થાય છે તેમ મનમાં પહુ ઇન્દ્રિયત્વને વ્યપદેશ કેમ થતુ નથી ?
ઉત્તર——શ્રોત્રાદિક ઇન્દ્રિયો પોત-પોતાના વિષયા ગ્રહણ કરવામા જે પ્રકારે સ્વતંત્ર છે તે પ્રકારે મન નથી. કારણકે તે તે ઇન્દ્રિયાનુ ઉપકારક માત્ર
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अध्य० २ उ. १
श्रोत्रादीनि च शब्दादिविषयग्रहणे स्वतन्त्राणि सन्ति, मनस्तु तेषामुपकारिमात्रं, स्वतन्त्रतया तस्य पदार्थनिर्णायकत्वाभावात् । यतस्तत्तदिन्द्रियनिर्णीतपदार्थ एव तस्य प्रवृत्तिर्भवति नातस्तस्येन्द्रियत्वं भवितुमर्हति । एकस्मिंश समय एकेनेन्द्रियेणैक एवोपयोगो भवति, एकसमये उपयोगद्वयासम्भवात् ।
नन्वेवं तर्हि पर्पट ( 'पापड' इति भाषामसिद्धपदार्थ ) भक्षणकाले पञ्चभिरिन्द्रियैः सर्वं ज्ञानं भवति यथा श्रोत्रेण शब्दं शृणोति, चक्षुषा रूपं पश्यति, घ्राणेन उपकारक मात्र है । यह विना इन्द्रियोंसे जाने पदार्थ का स्वतन्त्र रूपसे निर्णायक नहीं होता है, क्योंकि भिन्न भिन्न इन्द्रियों से निर्णीत पदार्थ में ही उसकी प्रवृत्ति होती है इसलिये उसमें स्वतन्त्र रूपसे इन्द्रियपना नहीं है । एक समय में एक इन्द्रियसे एक ही उपयोग होता है- एक समयमें दो उपयोग नहीं होते ।
शङ्का - यदि एक समयमें दो उपयोग नहीं होते हैं तो फिर जिस समय पापड़ खाया जाता है उस समय जो पञ्चेन्द्रिय-जन्य उसका ज्ञान होता है वह नहीं होना चाहिये ?, देखिये - खाते समय पापडकी चर-चर आवाज होती है अतः इस शब्द का श्रोत्रेन्द्रियसे प्रत्यक्ष होता है, उस समय चक्षु - इन्द्रिय उसके रूपकी बोधिका होती है । घ्राण-इन्द्रिय उसके गन्धकी, रसना - इन्द्रिय उसके रसकी और स्पर्शन-इन्द्रिय उसके afar aair आदि स्पर्श को बोधिका होती है । ये प्रत्येक इन्द्रियसे एक ही समयमें उसर विषयके भिन्नर बोध होते हैं, सो क्यों होते हैं ? ।
છે, તે ઇન્દ્રિયાથી જાણ્યા વગર પદાર્થના સ્વતંત્ર રૂપે નિર્ણાયક થતુ નથી, કારણકે જુદી જુદી ઇન્દ્રિયાથી નિીત પદાર્થમાં જ તેની પ્રવૃત્તિ છે, માટે તેમાં સ્વતંત્ર રૂપે ઇન્દ્રિયપણું નથી. એક સમયમાં એક ઇન્દ્રિયથી એક જ ઉપયાગ થાય છે. એક સમયમાં બે ઉપયાગ થતા નથી. શકા—કદાચ એક સમયમાં બે ઉપયોગ થતા નથી તેા પછી જે વખતે પાપડ ખાવામાં આવે છે તે સમયે જે પંચેન્દ્રિયજન્ય તેનું જ્ઞાન છે તે ન હોવું જોઈ એ ? દેખા, ખાતી વખતે પાપડના ચરચર અવાજ થાય છે અને તે શબ્દ શ્રોત્રેન્દ્રિયથી પ્રત્યક્ષ છે તે વખતે ચક્ષુઇન્દ્રિય તેના રૂપની બેધક થાય છે, ત્રાણુઇન્દ્રિય તેના ગ'ધની, રસના ઇન્દ્રિય તેના રસની, અને સ્પર્શન ઇન્દ્રિય તેના કર્કશ કઠણ આ િસ્પર્શોની ખેાધક થાય છે તે પ્રત્યેક ઇન્દ્રિયથી એક જ સમયમાં તે તે વિષયના ભિન્ન ભિન્ન મેધ થાય છે તા શા માટે થાય છે?
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आचारागसूत्रे गन्धं जिघ्रति, रसनेन रसमास्वादयति, स्पर्शनेन कर्कशकठोरादिकं स्पृशति, इति कथमेकस्मिन् समये शब्दादिविषयकज्ञानं संजायते ? इति चेन्न, समयभेदेऽपि कमलपत्रशतवेधनवत्सूक्ष्मतया तस्य ज्ञातुमशक्यत्वात् ।
एप चोपयोगक्रमः-आत्मा मनसा युज्यते, मनश्चेन्द्रियेण, इन्द्रियाणि च विषयसंयुक्तानि भूत्वा तत्तद्विषयग्राहकाणि भवन्ति, अतो मनसोऽन्तःकरणत्वं सर्वानुगामित्वञ्चोपपद्यते ॥ ___ उत्तर-इन पांच इन्द्रियों से होने वाले ज्ञानोंमें भी समयका भेद अवश्य है परन्तु यह समयका भेद अति सूक्ष्म होनेसे जाना नहीं जाता है। जिस प्रकार कमलके सैंकडों पत्ते तीर के ऊपर रखकर वेधने से वे 'एक साथ ही विंध गये' ऐसा बोध होता है परन्तु वे एक साथ नहीं विंधे, एक साथ विंधनेका उनमें भ्रम ही होता है, क्रम-क्रमसे ही वे विंधते हैं परन्तु उनके विंधनेका समय अति सूक्ष्म होनेसे उसमें क्रमिकताका बोध नहीं होता। उपयोगका क्रम इस प्रकार है-आत्मा मनसे संबंधित होता है, मन इन्द्रियों से, इन्द्रियाँ पदार्थों से संबंधित होकर अपने२ विषयकी ग्राहक होती हैं। इसीलिये मनका, 'अन्तःकरण' यह संज्ञा सार्थक है, क्योंकि यह अन्तरङ्ग करण है और इन्द्रियाँ बहिरंग करण हैं। प्रत्येक इन्द्रियके साथ इसका क्रम२ से ही गमनरूप सम्बन्ध है इसलिये यह सर्वानुगामी है।
ઉત્તર–આ પાચ ઇન્દ્રિયથી થવાવાળા જ્ઞાનમાં પણ સમયને ભેદ અતિ સૂક્ષ્મ
હવાથી જાણી શકાતું નથી. જેમ કમલના સેકડે પત્તા વિધવાથી તે
એક સાથે જ વિંધાઈ ગયા” એ બોધ થાય છે, પરંતુ તેઓ એકી સાથ વિંધાએલ નથી, એકી સાથ વિંધાવાને તેમાં ખાલી ભ્રમ જ છે. કેમ કમથી જ તે વિધાય છે, પરંતુ તેના વિધાવાને સમય અતિ સૂક્ષ્મ હોવાથી તેમા મિકતાને બંધ થતું નથી ઉપયોગનો ક્રમ આ પ્રકારે – છે. આત્મા મનથી સંબંધિત છે, મન ઈન્દ્રિયોથી ઇન્દ્રિય પદાર્થોથો સબ ધિત થઈ પોત-પોતાના વિષયની ગ્રાહક થાય છે માટે મનની “અતઃકરણ” એ સંજ્ઞા સાર્થક છે, કારણકે તે અત્તર ગ કરણ છે અને ઇન્દ્રિયે બહિરગ કરણ છેપ્રત્યેક ઈન્દ્રિયની સાથે તેને કમ-કમથી જ ગમન રૂપ સબંધ છે માટે તે સર્વાનુગામી છે.
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अध्य० २. उ. १
इन्द्रियविषयको विचारो गतः, साम्प्रतं प्रकृतार्थमनुसरामः। दृद्धावस्थायां रोगोदये च सर्वेषामिन्द्रियाणां स्वस्वसामर्थ्यहीनतामवलोक्य स पाणी मौढ्यमापद्यते, इति दर्शयति-' अभिक्रान्तं च खलु वयः सम्प्रेक्ष्य स एकदा मूढभावं जनयति' इति । प्राणिनां कालकता बाल्ययौवनादिरूपा शरीरावस्था वयस्तत् अभिक्रान्तम्-अतिक्रान्तम् , यद्वा अभि-जरामृत्यू अभिमुखीकृत्य क्रान्तंभाप्तं, तिस्रो हि मानवानामवस्था भवन्ति, तासु च बाल्य-यौवनद्वयमतीतं विलोक्य सकलेन्द्रियसामर्थ्यस्य क्षीणतां मृत्युकालसामीप्यञ्च समालोच्य ततः तदनन्तरं स प्राणी, एकदा-वृद्धाव
यहां तक इन्द्रिय सम्बन्धी विचार किया, अब प्रकृत अर्थका प्रतिपादन करते हैं
वृद्धावस्था में अथवा किसी के रोगादि कारण जब यह प्राणी समस्त इन्द्रियोंको अपने२ विषयोंके ग्रहण करने में शक्तिविकल देखता है, तब यह कर्त्तव्यमूढ बन जाता है, इस बातका वर्णन करते हैं-"अभिवंतं च खलु वयं" इत्यादि।
प्राणियोंकी कालकृत जो बाल्य-यौवनादि रूप अवस्था होती है उसका नाम वय है, उसको अभिक्रान्त-अभि-जरा और मृत्युके संमुख क्रान्त प्राप्त देखकर यह प्राणी एकदा वृद्धावस्था अथवा रोगोयमें मूढभाव-कर्त्तव्याकत्तव्यके विवेककी शून्यताको प्राप्त होता है।
प्राणियोंकी तीन प्रकार की अवस्थाएँ हैं-एक बाल्यावस्था, दूसरी यौवनावस्था, और तीसरी वृद्धावस्था । इनमें बाल्य और तरुण अव- આટલે સુધી ઈન્દ્રિયસંબંધી વિચાર કર્યો, હવે પ્રકૃત અર્થનું પ્રતિપાદન
વૃદ્ધાવસ્થામાં અથવા કોઈ રોગાદિક કારણે જ્યારે પ્રાણી સમસ્ત ઈન્દ્રિયોને પોતપોતાના વિષયોને ગ્રહણ કરવામાં શક્તિવિકલ દેખે છે ત્યારે તે કર્તવ્યમૂઢ मने छ. २मा पातनुं १[न ४२ छ. " अभिकंतं च खलु वयं " त्या ।
પ્રાણિની કાલકૃત જે બાલ્ય-યૌવનાદિરૂપ અવસ્થા છે તેનું નામ વય છે. તેનું અભિકન્ન–અભિ=જરા અને મૃત્યુના સંમુખ કાન્ત=પ્રાપ્ત દેખીને પ્રાણ એકદા–વૃદ્ધાવસ્થા અથવા રેગોદયમાં કર્તવ્યા–કર્તવ્યના વિવેકની શૂન્યતાને પ્રાપ્ત થાય છે.
પ્રાણીઓની ત્રણ પ્રકારની અવસ્થા છે. એક બાલ્યાવસ્થા, બીજી યૌવનાવસ્થા અને ત્રીજી વૃદ્ધાવસ્થા, તેમાં બાલ્ય અને તરૂણ અવસ્થાને વ્યતીત દેખીને
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_ आचाराङ्गसूत्रे स्थायां रोगोदये चात्मनो मूढतां कर्तव्याकर्तव्यविचारशून्यतां जनयति-अज्ञानभावं प्राप्नोतीत्यर्थः । प्रतिसमयं श्रोत्र-चक्षु-णि-रसन-स्पर्शन-विज्ञानैः सकलैरेकैकशो वा, देशतः सर्वतो वा नश्यमानैः करणरूपैः कर्तव्यमूढो भवति ।
यद्वा-'सोयपरिणाणेहि, परिहीयमाणेहिं' इत्यादौ प्रथमार्थे तृतीयाऽऽर्षत्वात्तदा तानि परिज्ञानानि क्षीयमाणानि कर्तृरूपाणि मूढतां जनयन्तीत्यर्थो भवति । स्थाको व्यतीत देखकर वृद्धावस्था को सकल इन्द्रियोंकी शक्तिसे रिक्त, एवं मृत्युकाल के समीप आई हुई देख कर उस कालमें यह प्राणी मूढ भावको प्राप्त होता रहता है-'मेरा कर्त्तव्य क्या है और अकर्तव्य क्या है ' इस बातका उस समय विचार ही जाता रहता है । उस समय श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्शन, ये समरत इन्द्रियाँ अपने२ विषयक ज्ञानसे क्रम२ करके अथवा एकही साथ, या कुछ-कुछ अंशमें रिक्त हो जाती हैं फिर इसे कर्त्तव्य और अकर्त्तव्यका भान भी कैसे हो सकता है, क्योंकि कर्तव्य और अकर्तव्य का भान इन्द्रियों द्वारा ही ग्रहण किये हुए विषयों में मानसिक विचारधारा से होता है । जब वे इन्द्रियाँ अपने२ विषयके बोधसे विकल बनजाती हैं तब उनके विषयों में जो मानसिक विचारधारा बंधती थी वह कैसे बंध सकेगी ? अतः यह उस समय इस प्रकार के बोधसे रहित होकर एक तरह का उन्मत्त जैसा कत्तव्यमूढ हो जाता है। ___ अथवा-आर्षवाक्य होने से-"सोयपरिणाणेहिं परिहीयमाणेहिँ" વૃદ્ધાવસ્થાને સકળ ઈન્દ્રિયની શક્તિથી રિક્ત અને મૃત્યકાળ નજીક આવેલી દેખીને આ કાળમાં પ્રાણી મૂઢ ભાવને પ્રાપ્ત થાય છે. “મારૂં કર્તવ્ય શું છે અને એકર્તવ્ય શું છે” એ વાતને તે સમયે તે વિચાર જ વિસરાય જાય છે, તે વખતે શ્રોત્ર, ચક્ષુ, શાણ, રસના અને સ્પર્શન, આ બધી ઈન્દ્રિયે પોતપોતાના વિષયના જ્ઞાનથી કેમે કમે અથવા એકી સાથે, અથવા થોડા થોડા અશમાં રિક્ત થાય છે. પછી તેને કર્તવ્ય અને અકર્તવ્યનું ભાન કેવી રીતે રહે, કારણ કે કર્તવ્ય અકવ્યનું ભાન ઈન્દ્રિયો દ્વારા જ ગ્રહણ કરેલાં વિષયોમાં માનસિક વિચારધારાથી થાય છે, જ્યારે આ ઈન્દ્રિય પોતપોતાના વિષયના બધથી વિકલ બને છે ત્યારે તેના વિષયમાં જે માનસિક વિચારધારા બંધાતી હતી તે '
રીતે બંધાઈ શકે ? માટે તે વખતે તે આ પ્રકારના બેધથી રહિત થઈને એક .. પ્રકારને ઉન્મત્ત અને કર્તવ્યમૂઢ થાય છે. /
अथवा-माप वाध्य होपाथी-सोयपरिणाणेहि परिहीयमाणेहि" छत्यादि
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D
अध्य० २. उ. १ वृद्धो हि सन्ततं चिन्तानुतप्तः प्रणष्टेन्द्रियसामर्थ्य क्षुत्पिपासातुरस्तरुणायमानतृष्णाभिभूतः कल्याणसरणिविच्युतो भवतीति तात्पर्य्यम् ॥ २ ॥
वृद्धावस्थायां कीदृशी दशा जायते ? इत्याह- जेहिं वा सद्धिं ' इत्यादि।
मूलम्-जेहिं वा सद्धिं संवसइ तेऽवि णं एगया नियगा पुटिव परिवयंति, सोऽवि ते नियए पच्छा परिवएजा, नालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमंपि तेसिं नालं ताणाए वा सरणाए वा, से न हासाए, न किड्डाए, न रईए, न विभूसाए ॥३॥ ____ छाया—यैर्वा सादै संवसति तेऽपि खलु एकदा निजकाः पूर्व परिवदन्ति, सोऽपि तान् निजकान् पश्चात्परिवदति, नालं ते तव त्राणाय वा शरणाय वा, त्वमपि तेषां नालं त्राणाय वा शरणाय वा, स न हासाय, न क्रीडायै, न रतये, न विभूषायै ॥३॥ इत्यादि वाक्यों में प्रथमा विभक्ति के स्थानमें तृतीया विभक्ति का प्रयोग किया है। अतः प्रथमा विभक्ति का आश्रय लेकर उसका अर्थ इस प्रकार होगा-नष्ट होनेवाले वे श्रोत्रादिक-परिज्ञान, उस समय-वृद्धावस्था या रोगोयमें इस जीवको कर्त्तव्यमूढ बना देते हैं, क्योंकि वृद्ध उस समय निरन्तर चिन्तासे जलता रहता है, उसके प्रत्येक इन्द्रिय की शक्ति नष्ट हो जाती है, वह क्षुधा तृषासे पीडित रहता है, उसके तृष्णा की वृद्धि होती रहती है, ऐसी हालतमें उसे आत्मकल्याण की बात ही नहीं सुहाती, अतः वह कल्याणमार्गसे बहुत ही दूर रहता है, अर्थात् वह आत्मकल्याण नहीं कर सकता ॥२॥ વાક્યોમાં પ્રથમ વિભક્તિના સ્થાનમાં ત્રીજી વિભક્તિને પ્રયોગ કરેલ છે, માટે પ્રથમ વિભક્તિને આશ્રય લઈ તેનો અર્થ આ પ્રકાર થશે–નષ્ટ થનારા તે શ્રોત્રાદિક–પરિજ્ઞાન તે વખત–વૃદ્ધાવસ્થા અગર રોગોદયમાં જીવને કર્તવ્યમૂઢ બનાવે છે, કારણ કે વૃદ્ધ તે વખતે નિરંતર ચિન્તાથી બળતું રહે છે. તેની પ્રત્યેક ઈન્દ્રિયની શક્તિ નષ્ટ થાય છે, તે સુધા તૃષાથી પીડિત રહે છે. તેના તૃષ્ણાની વૃદ્ધિ થતી જ રહે છે. આવી હાલતમાં તેને આત્મકલ્યાણની વાત જ સારી લાગતી નથી માટે તે કલ્યાણ માર્ગથી ઘણો દૂર રહે છે, અર્થાત તે આત્મકલ્યાણ કરી શકતો નથી, ૨
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आचारागसूत्रे ___टीका-"यैर्वा सार्द्ध संवसति" इति, वा-शब्दोऽर्थान्तरसूचकः तेन यैः सह न संवसति ते परिवदन्तीति किमाश्चर्य, परं यैर्वा साई संवसति तेऽपि निन्दन्तीत्यर्थः । यैर्वा पुत्रभानुभायर्यादिभिः साई-सह संवसति-सानुरागं निवसति यान् यौवनावस्थायां सर्वथा धनोपार्जनादिना परमादरेणोपकृत्य पुपोषेत्यर्थः । तेऽपि
वृद्धावस्थामें इस जीचकी कैसी दशा हो जाती है इसके लिये कहते है-"जेहिं वा सद्धि” इत्यादि ।
मूलार्थ-जिनके साथ यह रहता है वे आत्मीय जन भी वृद्धावस्थामें अथवा रोगादिके समयमें इसका तिरस्कार करने लग जाते हैं। यह भी उन आत्मीय जनोंकी उस हालतमें निन्दा करने लग जाता है इसलिये हे आत्मन् ! वे परिचित बन्धु तेरी रक्षा करनेके लिये, तुझे शरण देनेके लिये समर्थ नहीं हैं, और न तू भी उन अपने परिचित बन्धुओंकी रक्षा करनेके लिये, उन्हें शरण प्रदान करनेके लिये समर्थ है। उस अवस्थामें वह वृद्ध न हास्यके योग्य होता है न क्रीडाके लायक रहता है, न रतिमें समर्थ होता है और न विभूषाके लायक रहता है ॥३॥ ___ "यैर्वा साध संवसति" यहां जो वा शब्द है वह अर्थान्तर का सूचक है, इससे यह बात प्रकट होती है कि यह जिनके साथ नहीं रहता है वे यदि इसका तिरस्कार या इसकी निन्दा करते हैं तो कोई अचरज की बात नहीं है, परन्तु आश्चर्य तो इस बातका है कि चिरपालित जिन
વૃદ્ધાવસ્થામાં આ જીવની કેવી દશા થઈ જાય છે તેના માટે કહે છે:"जेहिं वा सद्धि " त्यादि.
મૂલાઈજેની સાથે તે રહે છે તે આત્મીયજન પણ વૃદ્ધાવસ્થામાં અથવા ગાદિક સમયમાં તેને તિરસ્કાર કરવા લાગી જાય છે. તે પણ તે આત્મીયજનની તેવી હાલતમાં નિદા કરવા લાગી જાય છે માટે હે આત્મન ! તે પરિચિત બંધુ તારી રક્ષા કરવા માટે, તને શરણ દેવામાં સમર્થ નથી, અને તે પણ પોતાના પરિ ચિત બંધુઓની રક્ષા કરવામાં તેમજ શરણ દેવામાં સમર્થ નથી. તે અવસ્થામાં તે વૃદ્ધ હાસ્યને ચગ્ય હોતો નથી, તેમજ કીડાને લાયક પણ રહેતું નથી, અને રતિમાં પણ સમર્થ થતું નથી, તેમ જ વિભૂષાને લાયક પણ રહેતો નથી. ___“यैर्वा साधं संवसति" मा आए रे वा छे ते अथान्तरनु सूत्र છે તેથી એ વાત પ્રગટ થાય છે કે જેની સાથે નહિ રહેતા તે કદાચ તેના તિરસ્કાર અગર તેની નિંદા કરે તે કઈ અચરજની વાત નથી, પરંતુ આશ્ચર્ય છે એ વાતનું છે કે ચિરપાલિત જે પુત્ર ભાઈ અને સ્ત્રી સાથે તે ઘણા અs
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२२
अध्य० २. उ. १
यद्वा हस्त्यश्वरथकलत्रमित्रद्विपदचतुष्पदादिरूपः संयोगस्तत्प्रयोजनवान्। यतः संयोगार्थी अतएव कालाकालसमुत्थायी, इति हेतुगर्भ विशेषणम् । संयोगव्यग्रतयैवानवगतकालाकालव्यवस्थ इति यावत् । अतएव अर्थालोभी-अर्थों धनं कुप्यमकुप्यं चेति, तत्र सुवर्णादिभिन्नं रत्नादि कुप्यम् , सुवर्णरजतादिरूपमकुष्यं चेति भेदः । आ समन्तात् सर्वत इति यावत्, लोभो लालसा विद्यते यस्य स आलोभी अर्थस्यालोभी अर्थालोभी, अत्रापि कालाकालसमुत्थायीति विशेषणम् । यस्माद्धनाभिलाषी तस्मात्कालाकालसमुत्थायी, अनितिकालाकालनियमः, यो हि धनं कामयते अथवा मातापितादिक के साथ जो संबंध है। उसी का नाम संयोग है। अथवा-हस्ति, अश्व, रथ, स्त्री, मित्र, द्विपद, चतुष्पदादि रूप परिग्रह के साथ संबंध भी संयोग है। तत्प्रयोजनवान् प्राणी संयोगार्थी कहलाता है । यह संयोगार्थी है इसीलिये कालाकालसमुत्थायी है। कालाकालसमुत्थायी होने में संयोगार्थित्व यह हेतु है। संयोग में व्यग्रता ही कालाकाल की अव्यवस्था का कारण होती है। "अर्थालोभी-सव प्रकार से अर्थ का अभिलाषी जो होता है-वह अर्थालोभी है। कुप्य
और अकुप्य के भेद से धन दो प्रकार का बतलाया गया है। रत्नादिक कुप्य है। सुवर्ण-रजतरूप द्रव्य अकुप्य है। अर्थ-आ-लोभी-इस प्रकार इस वाक्य में पदच्छेद करने से यह अर्थ निष्पन्न होता है कि जो आ-सर्व प्रकार से अर्थलोभी है। यहाँ पर भी 'कालाकालसमुत्थायी' इस विशेषण की योजना कर लेनी चाहिये । इससे यह फलितार्थ होता है कि यह धनाभिलाषी है इसीलिये कालाकालसमुत्थायी है, काल और साथै २ सम छ तेनु नाम सयाछ, अथवा स्ति, 24व, २थ, स्त्री, भित्र, द्विपक्ष, ચતુષ્પદાદિ રૂપ પરિગ્રહની સાથે સંબંધ પણ સંગ છે. એવા પ્રજનવાળું પ્રાણી સંગાથી કહેવાય છે. તે સંગાથી છે માટે કાળાકાળસમુત્કારી છે. કાળાકાળસમુસ્થાયી હોવામાં સંગાથવ હેતુ છે, સંગમાં વ્યગ્રતા જ કાળકાળની અવ્યવસ્થાનું २९४ थाय छे. " अर्थालोभी " या प्रारं मन मलिताषी थाय छे. ते मथ:લોભી છે. મુખ્ય અને અધ્યના ભેદથી ધન બે પ્રકારનું બતાવ્યું છે. રત્નાદિક કુખ્ય छे, सुवर्ण-२०४०३५ द्रव्य प्य छे. 'मथ-मा-होली' मा २ मा वाध्यमां પદ છેદ કરવાથી એ અર્થ નિષ્પન્ન થાય છે કે જે આ સર્વ પ્રકારથી અર્થ–મુખ્ય અને અકુષ્યરૂપ દ્રવ્યને લેભી–અભિલાષી–છે તે અર્થલોભી છે. આ ઠેકાણે પણ કાળાકાળમુત્થાયી” આ વિશેષણની યોજના કરવી જોઈએ તેથી એ ફલિતાર્થ થાય છે કે ધનાભિલાષી છે માટે કાળકાળમુત્યાયી છે. કાળ અને અકાળના
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अध्य० २. उ. खलु एकदा निजकाः पूर्व परिवदन्तीति, ते चिरपरिपालिता अपि स्त्रीपुत्रभृत्यादयः खलु-निश्चयेन एकदा-वृद्धावस्थायां रोगोदथे च निजका आत्मीयाः परिवदन्ति= तिरस्कुर्वन्तीत्यर्थः । तं पूर्वोपकारिणं वृद्धं सम्पति शत्रुमिव मन्यन्त इति भावः । "अयं वाचालः परुषवाग न म्रियते, नापि मौनं तिष्ठति, नापि स्थानान्तरं गच्छति, पुत्र भाई और भार्या के साथ यह बड़े अनुरागसे रहता है, और जिनका इसने अपनी जवानी अवस्थाकै समय सर्व प्रकारसे धनादिक के अर्जन द्वारा बड़े आदरके साथ संरक्षण किया है, पालन-पोषण किया है ऐसे वे आत्मीय जन भी अपने इस उपकारी जनका इस वृद्धावस्थामें, अथवा इसके रोगाकान्त हो जाने पर तिरस्कार करने लगते हैं, वे इसके प्रति इस प्रकारसे व्यवहार करते हैं जैसे कोई अपने शत्रुके साथ व्यवहार करता है। नौकर चाकर भी इसकी एक भी बात नहीं सुनना चाहते है, अथवा सुनकर भी वे उसकी बातका कोई महत्व ही नहीं समझते। घरवाले उस समय यही कहते हैं कि इसकी इस अवस्था बुद्धि मारी गई है, 'साठ वर्षमें मनुष्यकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। यह बात सत्य है, इसे बोलने तकका भी अब तमीज नहीं है-रात दिन बड़बडाता ही रहता है, हर एकसे यदा-तहा कठोर वचन बोल दिया करता है, क्या करें, इसे मौत भी नहीं आती है, इससे हजारों बार कह दिया है कि ज्यादा मत बोला करो, चुप रहा करो, परन्तु यह नहीं मानता, रातदिन यहीं पर अड़ा बैठा रहता है, इससे इतना भी नहीं बनता कि રાગથી રહે છે અને જેનો તેણે પોતાની જુવાન અવસ્થાને સમયે સર્વ પ્રકારથી ધનાદિક કમાઈને આદરથી રક્ષણ કર્યું છે. એવા તે આત્મીય જન પણ પોતાના આવા ઉપકારી માણસને આ વૃદ્ધાવસ્થામાં અથવા રોગા-કાન્ત થવાથી તેને તિરસ્કાર કરવા લાગી જાય છે. તે તેના પ્રતિ એવા પ્રકારથી વ્યવહાર કરે છે કે જાણે પોતાના શત્રુની સાથે વ્યવહાર કરતા હોય. નોકર-ચાકર પણ તેની કઈ વાત સાંભળતા નથી, અથવા સાંભળે છે તેની વાતને કઈ મહત્વ સમજતા નથી. ઘરવાળા આ સમયમાં એ કહે છે કે–એની આ અવસ્થાએ બુદ્ધિ મારી ગઈ છે. “સાઠ વર્ષે મનુષ્યની બુદ્ધિ ભ્રષ્ટ થાય છે. આ વાત સત્ય છે, જેને બોલવાનો પણ ઢંગ નથી, રાત-દિવસ બડબડ કર્યા કરે છે. દરેકથી જેમ-તેમ ખરાબ ખરાબ શબ્દ બોલી નાંખે છે. શું કરવું એને મેત પણ આવતી નથી. એને હજાર વાર કહ્યું કે ઝાઝ બેલે નહિ, ચુપ રહ્યા કરે, પરંતુ એ માનત જ નથી, રાત-દિન આ ઠેકાણે અટ્ટો લગાવી બેસી જ રહે છે, એનાથી
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आचारीङ्गसूत्रे खदादिकमपि न परित्यजति इत्येवं नानाविधकठोरवाक्यैस्तर्जन्यादिना तर्जयन् "किमनेन वराकेणे"-त्येवं सततं तं धिक्कुर्वन्ति । अन्येषां का वार्ता किन्तु स्वयमपि स्वात्मानं नाद्रियते, तथा हि-उत्थातुकामोऽपि नोत्थातुं शक्नोति, श्रोतुं द्रष्टुं घ्रातुमास्वादयितुं स्पष्टुमिच्छति, परन्तु तत्तदिन्द्रियसामर्थ्यस्य परिक्षीणतया न शृणोति शब्दं, न पश्यति रूपं, न जिघ्रति गन्धं, नापि रसमास्वादयति, न चैव कर्कशकयहांसे दूसरी जगह भी जाकर बैठ जावे, जब देखो तब खाट पर ही पड़ा रहता है, यों तो इसके कोई मतलब ही नहीं है, क्योंकि कमा कर तो हम ही लाते हैं । इस प्रकार के अनेक कठोर वचनोंसे अथवा तर्जनी ऊंगली दिखा२ कर इसका अनादर करते हैं, उसे सदाधिकारा करते हैं।
इस अवस्थामें दूसरोंकी क्या बात कहना, अर्थात् दूसरे व्यक्ति अथवा अपने सगे संबन्धी लोग इस वृद्ध की सेवा चाकरी आदर सत्कार न करे तो कोई अचरज की बात नहीं, परन्तु यह स्वयं अपने शरीर सम्बन्धी कार्य करनेमें भी असमर्थ हो जाता है-यह उठना चाहता है तो भी उठ नहीं सकता, सुननेकी, देखनेकी, सूंघनेकी और चखनेकी तथा छनेकी इच्छा करता है तो भी अपनी उन२ पदार्थोको विषय कर नेवाली इन्द्रियोंकी शक्ति क्षीण होनेसे न शब्द को सुन सकता है, न रूपको देख सकता है, न गन्धको संघ सकता है, न रसको चख सकता है और न कर्कश कठोर आदि स्पर्शको पहचान सकता है। એટલું પણ નથી બનતું કે અહીંયાથી ઉઠી બીજી જગ્યાએ જઈ બેસે. જ્યારે દેખે ત્યારે ખાટ પર જ પડી રહે છે. આમ તે એને કઈ મતલબ જ નથી, કારણ કે કમાઈ કમાઈને તે અમે લાવીએ છીએ. આવા પ્રકારના અનેક કઠેર વચનથી અથવા અગુઠો બતાવી બતાવીને તેને અનાદર કરતા જ રહે છે અને તેને ધિકાર્યા જ કરે છે.
આ અવસ્થામાં બીજાની શુ વાત કહેવી – અર્થાત્ બીજી વ્યક્તિ અને પોતાના સગાં સબંધી લેક આ વૃદ્ધની સેવા ચાકરી આદર સત્કાર ન કરે તે કોઈ અચરજની વાત નહિ પરંતુ તે પોતે પોતાના શરીર સંબંધી કાર્ય કરવામાં પણ અસમર્થ બને છે. તે ઉઠવા ચાહે છે તે પણ ઉઠી શકતો નથી, સાંભળવાની દેખવાની સુઘવાની અને ચાખવાની તથા સ્પર્શની ઈચ્છા કરે છે તો પણ પોતાની તે તે પદાર્થોથી વિષય કરવાવાળી ઈન્દ્રિયની શક્તિ ક્ષીણ હોવાથી ન તો શબ્દને ભળી શકતા, ન તો રૂપને દેખી શકતા, નથી ગંધને પારખી શકતો, નથી ને ચાખી શકતા અને કઠોર તેમજ કર્કશ સ્પર્શને પીછાણી શકતો નથી.
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अध्य० २. उ. १ ठोरादिकं स्पृशति । इति नानाविधां दुर्दशामनुभूय नवद्वारेभ्यो विनिःसृतं कर्णमलादिकं घृणास्पदं वस्तु दर्श दर्शमत्यर्थ क्लान्तमना भवति ततः 'कथमेतादृशस्य मम मरणं नायाती-'त्यनिशं खट्वारूढः कासश्वासादिरोगाभिभूतः कफायतशय्यावसनादिको मुहुरुपतप्तो भवतीति निजशरीरं स्वस्मै सर्वथा न रोचते। उक्तञ्च
ऐसी अनेक प्रकारकी दुर्दशाको भोगता हुआ यह वृद्ध सदा चित्तमें सन्तप्त होता रहता है । तथा शरीर के नव द्वारोंसे सदा निकलनेवाले कानके मेल तथा खेंखार आदि अपवित्र वस्तुओंको देख-देख कर नित्य ग्लानि करता रहता है परन्तु कर कुछ नहीं सकता, यह तो यही विचारता है कि मेरी मृत्यु कब आवे, ताकि इस दुःखसे छुटकारा मिल जावे, परन्तु इसके इस विचारसे कुछ होना जाना नहीं है, यह तो विचारा अपनी खटिया पर पडा-पडा ही कफ खाँसीश्वास आदि रोगोंसे दुःखित होता रहता है, कफ आदि मलोंको यह बाहर फेंकनेकी इच्छा करता है तो भी शारीरिक अशक्ति की वजहसे वे कपडों पर ही गिर जाते हैं, बाहरमें मलत्यागकी भावना होनेपर भी उठनेकी अशक्ति की वजह से खटिया पर ही टही पेशाब हो जाती है, यह उसमें ही लथ-पथ हो कर पड़ा रहता है और दुःखी भी होता है, परन्तु कर-धर कुछ नहीं सकता। ऐसी परिस्थिति में इसे स्वयं भी अपना शरीर रुचिकर प्रतीत नहीं होता। कहा भी है
એવી અનેક પ્રકારની દુર્દશાને ભેગવતાં તે વૃદ્ધ સદા ચિત્તમાં સંતપ્ત રહ્યા કરે છે, તથા શરીરના નવ દ્વારોથી સદા નીકળતાં કાનને મેલ તથા ખૂંખાર આદિ અપવિત્ર વસ્તુઓને દેખીને નિત્ય ગ્લાનિ ભગવ્યાં કરે છે. પરંતુ કાંઈ પણ કરી શકતા નથી. એ તો એ જ વિચારે છે કે મારી મૃત્યુ ક્યારે આવે જેથી આ દુખથી છુટકારો મળી જાય, પરંતુ તેના આ વિચારથી કાંઈ બની શકતું નથી. એ તો બિચારો ખાટલા ઉપર પડ્યો પડ્યો કફ-ખાંસી શ્વાસ આદિ રોગોથી દુઃખી થતો રહે છે. કફ આદિ મળોને તે બાહેર ફેંકવાની ઈચ્છા કરે છે તો પણ શારીરિક અશક્તિથી તે તેના કપડા ઉપર જ પડી જાય છે. બાહર મલ ત્યાગની ભાવના હોવા છતાં પણ ઉઠવાની અશક્તિથી ખાટલા ઉપર જ ઝાડો પિશાબ થઈ જાય છે તે તેમાં જ લથ–પથ પડ્યો રહે છે, અને દુઃખી પણ થાય છે, પરંતુ કાંઈ પણ કરી શકતો નથી. આવી પરિસ્થિતિમાં તેને પોતાને પણ પોતાનું શરીર રૂચિકર પ્રતીત થતું નથી. કહ્યું છે–
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आचाराङ्गसूत्रे शिरः श्वेतं दन्तावलिरपि गता स्नायुनिचयः,
प्रयातः शैथिल्यं पललमपि नैरस्यवलितम् ॥ स्वयं स्वं संनिन्दन् लगुडशरणो मन्दकरणो,
मनोभावाभिज्ञा किमु जरसि कान्ता न हसति? ॥१॥ शरीरं सङ्कोचं व्रजति चरणौ मन्दगतिको
मुखं लालापन्नं नयनमपि नालोकितुमलम् ॥ न वाक्यं मन्यन्ते परिजनगणाः स्त्री न भजते
___ जरायां हा ! कष्टं तनुजनुरपि द्वेष्टि जनकम् ॥ २॥ सकलपरिवारो वृद्धावस्थायां जुगुप्सते तद्विषये कथानकमत्र, तथा हि" शिरः श्वेतं दन्तावलिरपि गता स्नायुनिचयः,
प्रयातः शैथिल्यं पललमपि नैरस्थवलितम् । स्वयं स्वं संनिन्दन लगुडशरणो मन्दकरणो,
मनोभावाभिज्ञा किमु जरसि कान्ता न हसति ? ॥१॥ शरीरं सङ्कोचं व्रजति चरणौ मन्दगतिको,
मुखं लालापन्नं नयनमपि नालोकितुमलम् । न वाक्यं मन्यन्ते परिजनगणाः स्त्री न भजते, जरायां हा ! कष्टं, तनुजनुरपि देष्टि जनकम् ॥२॥ इति ।
अर्थ स्पष्ट है। वृद्धावस्था में उसके समस्त अपने जन इससे घृणा करने लगजाते है, इस विषयमें एक कथा लिखी जाती है"शिर' श्वेतं दन्तावलिरपि गता स्नायुनिचय,
प्रयातः शैथिल्यं पललमपि नैरस्यवलितम् । स्वयं स्वं संनिन्दन लगुडशरणो मन्दकरणो, ___ मनोभावाभिज्ञा किमु जरसि कान्ता न हसति ? ॥ १ ॥ शरीरं सङ्कोचं व्रजति चरणौ मन्दगतिको,
मुख लालापन्नं नयनमपि नालोकितुमलम् ।। न वाक्यं मन्यन्ते परिजनगणा स्त्री न भजते, ___ जरायां हा । कष्टं तनुजनुरपि द्वेष्टि जनकम्' ॥२॥ इति । અર્થ ખુલે છે.
વૃદ્ધાવસ્થામાં તેના સમસ્ત પોતાના જન જેનાથી ઘણા કરવા લાગી જાય . આ વિષયમાં એક કથા આપવામાં આવી છે.–
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अध्य० २ उ. १
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आसीद्राजगृहे नगरे गुणगणविभूषितः संसारसारसुचारुसौन्दर्यालङ्क तो निखिलगजवाजिरथवसन विभवोपार्जको 'देवदास '--नामा कश्चिच्छ्रेष्टी । स च यौवने भाग्यातिरेकेण दशकोटिमितसुवर्णमुद्रां वाणिज्यकर्म्मणा समय सकलस्त्री- पुत्रादिपरिपोषकञ्चन्द्र इवाहादकस्तेषां बभूव । तस्य चत्वारः पुत्रा आसन् । स एकदा वार्ड के रत्नादिकं सकलधनं विभज्य पुत्रेभ्यः समयं निश्चिन्तोऽभूत्स्वयम् । पुत्रा अपि निज - निजपत्नी: पितृशुश्रूपार्थं समादिश्य स्वस्वकार्यसमासक्ता अभूवन् । गतेषु
राजगृह नामके प्रसिद्ध नगरमें देवदास नामक एक सेट रहता था जो अनेक गुणों से अलङ्कृत था । जिसका शरीर संसार में सारबुद्धिको उत्पन्न करानेवाले सुन्दर सौन्दर्यसे सुशोभित था। जिसका घर हाथी aisi और रथोंसे सदा भरा हुवा था । सुन्दर २ कीमती वस्त्रोंकी जिसके यहां पर कमी नहीं थी । सम्पत्ति जिसकी दासी थी । किसी समय उसने यौवन अवस्थामें शुभ कर्मके उदयसे व्यापार के जरिये दस करोड सुवर्ण मुद्राओंका उपार्जन किया। वह स्त्री-पुत्रादिक परिजनोंके लिये चन्द्रमाकी तरह आनन्द उत्पन्न करता था । उसके चार पुत्र थे । उसने एक समय अपनी वृद्धावस्थामें अपनी धनसम्पत्ति अपने समस्त पुत्रों को बाँट दी और उनकी तर्फसे स्वयं निश्चिन्त हो गया। वे पुत्र भी अपनी २ स्त्रियोंको " तुम हमारे पिताकी अच्छी तरहसे सेवा करना ऐसा आदेश देकर अपने २ काम में लग गये। कुछ दिनोंके बाद बड़े पुत्र की स्त्री अपने ससुर की सेवा करने में आलस्य करने लगी । पुत्र
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રાજગૃહ નામના પ્રસિદ્ધ નગરમાં દેવદાસ નામનો એક શેઠ રહેતો હતો, જે અનેક ગુણાથી અલ'કૃત હતો. જેનુ શરીર સંસારમાં સાર બુદ્ધિને ઉત્પન્ન કરવાવાળા સુંદર સૌન્દર્યથી સુશોભિત હતુ, જેના ઘરે સુંદર કીંમતી વસ્ત્રોની કમીના ન હતી. જેનુ ઘર હંમેશા હાથી-ઘેાડા અને રથાથી ભરેલું રહેતું હતુ. સંપત્તિ જેની દાસી હતી. એક વખત તેણે ચૌવન અવસ્થામાં શુભ કર્મીના ઉદયથી વ્યાપારથી દસ કરોડ સુવર્ણ મુદ્રા કમાયેા. તે સ્ત્રી પુત્રાદિક પરિજના માટે ચંદ્રમાની માફક આનંદ ઉત્પન્ન કરતો હતો. તેને ચાર પુત્ર હતા. તેણે એક વખત પોતાની વૃદ્ધાવસ્થામાં પોતાની ધનસંપત્તિ પોતાના સમસ્ત પુત્રામાં વહેંચી આપી, અને તેમના તરફથી ખિલકુલ નિશ્ચિંત થઈ ગયા. તે પુત્ર પણ પોતપોતાની સ્ત્રીઓને “તમે અમારા પિતાની સારી રીતે સેવા કરજો ” એવો આદેશ આપીને પોતપોતાના કામે લાગી ગયા. ઘેાડા સમય પછી મોટા પુત્રની સ્ત્રી પોતાના સસરાની સેવા કરવામાં આળસ કરવા લાગી. પુત્ર જે વખત ઘેર આવે અને
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आचाराङ्गसूत्रे च कतिपयेषु दिवसेषु सा ज्येष्ठपुत्रवधूस्तस्य शुश्रूषायां सालसा बभूव । यदा पुत्रो गृहमागत्य पितरं कुशलं शुश्रूषादि च पृच्छति तथा स्थविरः कथयति-नेयं स्नुपा मां शुश्रूपते । सा तु पत्या निर्भत्सिता स्वामिनमाह-भवतां न ममोपरि विश्वासोऽस्ति ततश्चान्या एव शुश्रूषन्ताम् । ततश्चान्या स्नुषा तदीयसेवाकमणि नियुज्यमानाऽपि तथैव कृतमन्दादरा पुनः स्वपतिभत्सिता सेवाधर्माद्विरता बभूव । एवमन्या स्नुपा दुहिता पौत्री पौत्रो भृत्यवर्गश्च क्रमेण सेवात उपरता आसन् । ततश्च सततमनुतप्तो गुरुतरखेदखिन्नो ग्रहगृहीत इव दुखशतमनुभवति । ततः सर्वैः परित्यक्त एकपदमपि जिस समय घर आकर अपने पितासे कुशल समाचार तथा सेवा करने की बात पूछता तो वह वृद्ध कहता कि भाई क्या कहूँ यह बहू तो मेरी जरा भी टहल नहीं करती है । इस बातको सुन कर जब उसका. पति उससे नाराज होता तो वह अपने पतिसे कहती कि यदि आपका मेरे ऊपर विश्वास नहीं है तो आप अपने पिता की सेवा दूसरी बहूसे करा क्यों नहीं लेते ?। इस प्रकार उसके कहने पर जब उसने पिता की सेवा के लिये दूसरी बहू को नियुक्त किया तो वह भी पहिली वहू जैसी ही उसकी सेवामें मन्द आदरवाली होने लगी तब उसके भी पतिने उसको कुरा भला कहा तो वह भी उसकी सेवा करने से विमुख हो गयी । इसी प्रकार अन्य और भी बहुएँ तथा पुत्री, पौत्री एवं नौकर चाकर भी उसकी सेवा करने से क्रम २ से विमुख बन गये। जब यह अपनी हालत उस वृद्धने देखी तो उसके चित्तमें बहुत ही ज्यादा सन्ताप हुआ और वह अत्यन्त खेदखिन्न हो पागल जैसा बन कर अनेक प्रकारके कप्ठोंका પિતાને કુશલ સમાચાર તથા સેવા કરવાની વાત પૂછે ત્યારે તે વૃદ્ધ કહેતો કે ભાઈ શું કહું ? આ વહુ તો મારી જરા પણ ખાતર બરદાસ કરતી નથી. આવી વાત સાંભળીને જ્યારે તેને પતિ તેણીથી નારાજ થાય છે ત્યારે તેણે પોતાના પતિને કહે છે કે તમને મારા ઉપર વિશ્વાસ નથી તો પછી તમારા પિતાજીની સેવા બીજી વસ્તુથી કેમ કરાવતાં નથી? આવા પ્રકારના તેણીના કહેવા પરથી
ત્યારે તેણે પિતાની સેવા માટે બીજી વહને નિયુક્ત કરી તો તે પણ પહેલી વહની માફક તેની સેવામાં મન્દ મન્દ આદરવાલી થવા લાગી. ત્યારે તેનો પતિ પણ ત્યારે તેને ભલું બુરું કહેતો તો તે પણ તેની સેવા કરવાથી વિમુખ બની જતી. આ પ્રકારે બીજી વસ્તુઓ તથા પુત્ર, પૌત્રી અને નેકર ચાકર પણ તેની સેવા કરવામાં ક્રમે-કમે વિમુખ બની ગયાં. ત્યારે આ પોતાની હાલત તે વૃદ્ધ ખી તે તેના ચિત્તમાં ઘણું જ સતાપ પેદા થશે અને તે અત્યંત ખેખિત
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अध्य० २. उ. १
गन्तुमक्षमस्तुणकुब्जीकरणेऽप्यसमर्थः शय्यासविधे कृतमूत्रपुरीषोऽतिमलिनवसनो विगलितदशन: कुक्कुर पिण्डमिवाहर्निशं भोजनं लभमानो वृद्धश्चेतसि व्यचिन्तयत् - अहं यौवने धनार्जनपरायणः कुटुम्बपोषणपरः कदापि कल्याणमार्ग नाराधितवान् किमधुना करोमि कोsपि मां न गणयति, ते पूर्वमुपलालिताचिरपालिताः पुत्रादिपरिवारा आत्मसाधनविकलितं कृतकलकलं मामुपहसन्तीत्येवं भृशं विलपति, पश्चात्ता
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अनुभव करने लगा, सब घरवालों ने उसे छोड दिया। वह बिलकुल कमजोर हो गया । एक पैर भी चलनेकी उसमें शक्ति नहीं रही । वह अपनी खाटके पास ही मल-मूत्र का त्याग करने लगा । वस्त्र भी उसके अत्यन्त मलिन रहने लगे। उसके दॉत पहिलेसे ही गिर चुके थे । घरवालों में से भी किसीका उसके प्रति जरा भी स्नेह नहीं रहा। भोजन भी उसे अनादरपूर्वक दिया जाने लगा । इस अपनी हालत को देख कर वह विचार करने लगा कि - हाय ! मै यौवन अवस्थामें धन कमाने में ही अपना समय व्यतीत किया, कुटुम्बके भरण-पोषण करने में ही चित्तको लगाया, कल्याण मार्गकी तर्फ सदा उदासीन रहा, उसकी थोडीसी भी आराधना नहीं की, अब इस अवस्थामें मैं क्या कर सकता हूँ । इतना सब कुछ करने पर भी तो ये लोग मेरी तर्फ जरा भी ध्यान नहीं देते। जिनका मैने पहिले अच्छी तरह से लालन-पालन किया, और जिनके साथ मेरा घनिष्ठ प्रेम रहा है । संसारमें जिन्हें आत्मीय
અની ગાંડાની માફક બની અનેક પ્રકારના કષ્ટોના અનુભવ કરવા લાગ્યા. બધા ઘરવાળાએ તેને છોડી દીધા. તે ખીલકુલ કમન્ત્ર થઈ ગયા. એક ડગલું પણ ચાલવાની તેનામાં શક્તિ ન રહી. તે પોતાના ખાટલાની પાસે જ ઝાડા પેશાબના ત્યાગ કરવા લાગ્યા. તેના વસ્ત્રો પણ મેલા રહેવા લાગ્યા. તેના દાંતે પહેલાથી જ પડી ગયા હતા. ઘરવાળામાંથી કઈ નો પણ તેના પ્રતિ જરા જેટલેા પણ પ્રેમ ના રહ્યો. ભોજન પણ તેને અનાદરપૂર્વક આપવામાં આવતું હતું. આ પોતાની હાલતને દેખીને તે વિચાર કરવા લાગ્યા કે હાય ! મે યૌવન અવસ્થામાં ધન કમાવામાં જ પોતાના સમય વ્યતીત કર્યાં. કુટુંબનું ભરણ પોષણ કરવામાં જ ચિત્તને લગાવ્યું. કલ્યાણમાની તરફ સદા ઉદાસી રહ્યો, તેનું થોડું પણ આરાધન ન કર્યું. હવે આવી અવસ્થામાં હું શું કરી શકું ? આટલું આટલું કરવા છતાં પણ આ લેાકેા મારા તરફ પણ જોતા નથી, જેનુ મેં પહેલાં સારી રીતે લાલનપાલન અને જેની સાથે મારો ઘનિષ્ટ પ્રેમ રહ્યો છે, સંસારમાં જેને
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आवाराणसूत्रे पानुतप्तः 'कथं शीघ्रं न निये' इति वारं-वारं वदन् विपीदति च । वृद्धावस्थायां कृपिवाणिज्यगजवाजिरथादिविषया जिज्ञासा जागर्ति, प्रत्यहं पृच्छति पुत्रादिकं, परं पुत्रेण · तिष्ठ तिष्ठ जाल्म ! काक इचारुन्तुदां गिरं किं मुधा प्रलपसि ? किं ते ज्ञातेन ? किमत्र तव प्रयोजनम् ? मौनं कृत्वा यन्मिलति चाशनवसनादिकं तद् गृहाण' इत्यादिनानाविधपरुषवाग्भिभूयोभूयस्तजितो भत्सितश्च भवति । कहते हैं वे ही मेरी उपेक्षा कर रहे हैं तो अब और कौन ऐसा है जो आत्मसाधनासे रहित मुझ अभागे की ओर ध्यान देगा ? ये सब लोग मुझे देख २ कर हँसते हैं, हाय ! अब मैं क्या करूँ ? इत्यादि रूप से वह विलाप करने लगा, और पश्चात्तापकी अग्निमें जलता हुवा “मैं शीघ्र क्यों नहीं भर जाता हूँ” इस प्रकार वारंवार विचारने लगा और दुःखी होने लगा। __जब जब वह इस अवस्थामें कृषि, वाणिज्य, हाथी, घोडा और रथ आदि के विषयमें अपने पुत्रों से पूछता तो वे इससे कहते कि-अरे! बड़-बड़ क्यों करते हो ? चुप-चाप क्यों नहीं बैठे रहते हो? तुमको इनसे अब क्या मतलब है ? व्यर्थ ही कौए के समान हमको नहीं सुहानेवाली वाणी क्यों बोलते हो ?, क्या हो रहा है, क्या नहीं हो रहा है ?; इसके जाननेकी तुम्हें क्या जरूरत है ?, इस प्रकार के जानने से भी तुम्हारा कौनसा स्वार्थ सिद्ध होता है ?, तुम तो चुप ही रहा करो, और जो कुछ भी खाने-पीने को मिल जाता है उसीमें सन्तोष रक्खो। इत्यादि આત્મીય કહે છે તે જ મારી ઉપેક્ષા કરી રહ્યાં છે. તો હવે એ કોણ છે જે આત્મસાધનાથી રહિત મારા જેવા અભાગીની તરફ ધ્યાન આપે ? આ બધા લેકે મને દેખીને હસે છે. હાય ! હવે શું કરૂ ” ઈત્યાદિ રૂપથી તે વિલાપ કરવા લાગ્યું અને પશ્ચાત્તાપની અગ્નિમાં જલીને “ હું જલદી કેમ મરતો નથી ” આ પ્રકારે વારંવાર વિચારવા લાગે અને દુખી થવા લાગે.
જ્યારે જ્યારે તે આ અવસ્થામાં ખેતી, વ્યાપાર, હાથી, ઘોડા અને રથ આદિ વિષયમાં પોતાના પુત્રેથી પૂછતો તો તેઓ કહેતા કે–“અરે! બડબડ શુ કર્યા કરે છે? ચુપચાપ કેમ બેસતા નથી ? તમારે તેનાથી શું મતલબ છે “ ખાલી કાગડા સમાન અમારે નહિ સાભળવા જેવી વાણીને સભળાવે છે. શું થઈ રહ્યું છે? શું નથી થઈ રહ્યું ?” એ બધું જાણવાની તમારે શું જરૂર છે ? આ પ્રકારનું જાણવાથી પણ તમારે કે સ્વાર્થ સિદ્ધ થવાનો છે ? તમે તો ચુપ રહ્યા કરો અને જે કાંઈ પણ ખાવા પીવાનું મળે છે તેમાં સંતોષ રાખો” ઈત્યા
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अध्य. २. उ. १
वृद्धावस्थायां बहुप्रलपनशीलो निजपरिवारकृताननादरान् यस्मै कस्मैचिदपि पातिवेशिकाय कथयतीति दर्शयति- सोऽपि तान् निजकान् पश्चात्परिवदति' इति, सम्वृद्धोऽपि तान-पुत्र-कलत्र-भृत्यादीन् निजकान्-आत्मीयान् , पश्चात् वृद्धावस्थायां, परिवदति-परिभवति, पूर्व यान पुत्रादीन् पोषयितुं धनोपार्जनासक्तः 'स्त्री पुत्रादिभरणमेव श्रेयः' इति मत्वा विहितनिखिलानर्थनिवहो व्यग्रविग्रहः कल्याणमार्गअनेक प्रकार के कठोर वचनोंसे बारंबार वे उसका तिरस्कार करते हुए उस वृद्ध सेठको दुःखित करते थे।
वृद्धावस्थामें एक तो मनुष्यको स्वभावतः पहिले की अपेक्षा अधिक वाचालता आजाती है अतः अपने सगे संबंधियों द्वारा जो कुछ भी अनादरसूचक व्यवहार उसके साथ होता है वह जब तक अपने पडोसियोंसे न कह दे तब तक उसे शान्ति भी नहीं मिलती, अब इसी बातको सूत्रकार सूचित करते हैं-" सोऽपि तान् निजकान् पश्चात् परिवदति” वह वृद्ध उन अपने पुत्र कलत्र और नौकर चाकर आदि अपने आत्मीय जनों की इस प्रकार से निन्दा करने लगता है कि जिनके पालनपोषण करने में मैने जरा भी कसर नहीं की, जिनकी सेवामें रात दिन एक कर दिया, यह समझ कर कि स्त्री पुत्रादिकों का पालन-पोषण करना ही सर्वोत्तम कार्य है । मैंने धन उपार्जन करनेमें भी कुछ कसर नहीं रखी, संसार भर के सब अनर्थ किये और आकुलव्याकुल चित्त बन असावधानीपूर्वक अपनी प्रवृत्ति चालू रखी, और अभी तक भी मैं અનેક પ્રકારનાં કઠેર વચનેથી વારંવાર તેઓ તેને તિરસ્કાર કરીને તે વૃદ્ધ શેઠને દુઃખી કરતા હતા.
વૃદ્ધાવસ્થામાં એક તો મનુષ્યને સ્વભાવતઃ પહેલાની અપેક્ષા અધિક વાચાલતા આવે છે માટે પોતાના સગા સંબંધીઓ દ્વારા જે કાંઈ પણ અનાદરસૂચક વ્યવહાર તેની સાથે થાય છે, તે જ્યાં સુધી પોતાના પાડોશીઓને તે ન કહે ત્યાં સુધી તેને શાંતિ થતી નથી. હવે આ વાતને સૂત્રકાર સૂચિત કરે છે– ___ "सोऽपि तान् निजकान् पश्चात् परिवदति"
તે વૃદ્ધ તે પિતાના પુત્ર કલત્ર અને નોકર આદિ પોતાના આત્મીયજનોની આ પ્રકારે નિંદા કરવા લાગે છે કે-જેનું પાલન પોષણ કરવામાં મેં જરા પણ કસર નહિ રાખી, જેની સેવામાં રાત દિવસ એક જ માન્ય, એવું સમજીને કે સ્ત્રી પુત્રાદિકોનું પાલન પોષણ કરવું એ સર્વોત્તમ કાર્ય છે. મેં ધન ઉપાર્જન કરવામાં કાંઈ કસર રાખી નહિ. સંસારભરના સર્વ અનર્થ ર્યો, અને આકુળ
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आचारागसूत्रे भ्रष्टो जातोऽहं, त एव साम्प्रतं ममाशनवसनादिकार्येऽपि विमनसो भवन्तीति महत्कष्टम् , किमधिकेन मद्वचनमपि तेषां विपायते, इत्येवंविधवाक्यैनिजपरिवारान् वृद्धो धिक्करोतीति भावः । अतो हे आत्मन् ! ' नालं ते तव त्राणाय वा शरणाय वेति' 'त्राणाय वा' दौर्वल्यपीडादिरूपापदुद्धरणाय, शरणाय वानिर्भयावस्थानाय वा न अलं-समर्थाः। अत्र वा-शब्दोऽर्थान्तरद्योतकस्तेन कदाचिजिनके कारण कल्याणमार्गसे दूर रहा वेही अव सेरे खाने-पीने पहिनने के इन्तजाम करने में भी मन नहीं लगा रहे हैं, यह कितने कष्ट की बात है? अरे ! अधिक क्या कहा जाय उन लोगोंको तो अब मेरा बोलना भी विष जैसा मालूम पडता है। इस प्रकार के वचनोंसे वह वृद्ध उन आत्मीय जनों की निन्दा करता है और उन्हें धिक्कारता है, इसलिये सूत्रकार कहते है कि
" नालं ते तव त्राणाय वा शरणाय वा” इति ।
हे आत्मन् ! जिन पर पदार्थोंका तूने अपनी रक्षाके ख्याल से पालन पोषण किया है वे कोई तेरी इस वृद्धावस्थाजन्य दुर्बलतासे अथवा उस समयमें होनेवाले अनेक कष्टरूप आपत्तियों से तेरा उद्धार नहीं कर सकते हैं और न तुझे शरण देने के लिये ही समर्थ हो सकते हैं। इस वाक्यमें जो " वा” शब्द आया है वह इस बातका सूचक है कि यदि पूर्व पुण्यके उदयसे कोई ऐसे आत्मीय जन मिले हों जो मातापिताके
વ્યાકુળ ચિત્ત રાખી અસાવધાનીપૂર્વક પોતાની પ્રવૃત્તિ ચાલુ રાખી, અને હજુ સુધી પણ મેં જેના કારણે કલ્યાણ માર્ગથી દૂર રહ્યો તે આજ મારા ખાવામાં -પીવામાં પહેરવામાં સગવડ કરી આપવા જરા પણ મન લગાડતા નથી, તે કેટલા દુઃખની વાત છે ? અરે ! અધિક શું કહેવું, તે લોકોને તો હવે મારું બેસવું પણ ઝેર જેવું લાગે છે. આ પ્રકારના વચનોથી તે વૃદ્ધ તે આત્મીય જનની નિંદા કરે છે અને તેને ધિક્કારે છે તેને માટે સૂત્રકાર કહે છે કે
"नाल ते तव त्राणाय वा शरणाय वा" इति
હે આત્મન ! જે પરપદાર્થોનું તે પોતાની રક્ષા માટે પાલન પોષણ કર્યું છે તે કઈ તારી આ વૃદ્ધાવસ્થાજન્ય દુર્બળતાથી અથવા આ સમયમાં થનાર અનેક કદરૂ૫ આપત્તિઓથી તારો ઉદ્ધાર કરી શકતા નથી, અને તને શરણ દેવામાં પણ સમર્થ નથી. આ વાક્યમાં જે “વા” શબ્દ આવ્યો છે તે આ વાતની - ચક છે કે કદાચ પૂર્વ પુણ્યના ઉદયથી કેઈ આવા આત્મીય જન મળ્યાં હોય * માતા-પિતાની વૃદ્ધાસ્થામાં ભક્તિ કરતા હોય, તેમની દરેક પ્રકારની જ
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आचारागसूत्रे सोऽवसरादिकं न किमपि जानाति । अनवसरमपि शोभमानावसरमेव मन्यमानो यस्मात्कस्माद् येन केन प्रकारेणार्थ वाञ्छति । अर्थलब्धो हि सततमर्थोपार्जनव्यासक्तमानसः प्रादृषि मुशलधाराझझरिते काले दुरधिगतजलस्थलमुपथविपथायां पदमपि गन्तुमक्षमायां क्षमायां वाणिज्यार्थ नावाऽपारपारावारमपि तितीर्घद्वीपाद्द्वीपान्तरे गमनागमनादिकं करोति, सर्वत्र धनलोभ एव कारणम् । धनार्थी प्राणमपि अकाल के नियम का ज्ञाता नहीं है । जो धनका अभिलाषी होता है वह समय की प्रतीक्षा नहीं किया करता है। धनार्जन करने का अवसर नहीं होने पर भी यह "धन कमाने का सुन्दर अवसर ही है" ऐसा मान कर जिस किसी भी रीति से धन की अभिलाषा किया करता है। जो द्रव्य का लुब्धक होता है वह निरन्तर द्रव्य के उपार्जन करने में आसक्तचित्त बन कर वर्षाकाल में भूसलधार पानी बरसने पर भी रात्रि के समय ही उस भूमि में कि जिसमें जल स्थल सलमार्ग और विषममागे की कुछ भी खबर नहीं पड़ती और जहाँ एक कदम भी चलना बड़ा मुश्किल होता है ऐसी भूमि में भी व्यापार के लिये गाड़ी आदि किसी साधन द्वारा एक नगर से दूसरे नगर में, और नौका से अपार समुद्र को भी पार कर एक हीप से दूसरे द्वीप में आता जाता रहता है। प्राणों को भी संकट में डाल धनाभिलाषी धन कमाने के लिये दुर्गम प्रदेशो में जाकर धन का उपार्जन करता है, उसमें सिर्फ धन का लोभ ही कारण है । द्रव्यलोलुपी अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी इधर उधर द्रव्य નિયમને જ્ઞાતા નથી, જે ધનને અભિલાષી છે તે સમયની પ્રતીક્ષા કરતો નથી, ધન ઉપાર્જન કરવાનો અવસર નહિ હોવા છતાં ધન કમાવાને સુંદર અવસર છે” એમ માની કઈ પણ પ્રકારે ધનની અભિલાષા કર્યા કરે છે. જે દ્રવ્યને લુબ્ધક હોય છે તે નિરંતર દ્રવ્ય ઉપાર્જન કરવામાં આસકત બની વર્ષાકાળમાં મૂસળધાર પાણી વરસતે હોય છતાં રાત્રિ સમય તે ભૂમિમાં કે જ્યાં જળ સ્થળ સમમાર્ગ અને વિષમમાર્ગની કાંઈ પણ ખબર પડતી નથી અને જ્યાં એક ડગલું પણ ભરવું મુશ્કેલ થઈ પડે છે તેવી ભૂમિમાં પણ વ્યાપાર કરવા ગાડા આદિ કેઈ સાધન દ્વારા એક ગામથી બીજા ગામમાં અને નૌકાથી અપાર સમુદ્રને પણ પાર કરી એક દીપથી બીજા દ્વિીપમાં આવે જાય છે, પ્રાણને પણ જોખમમાં મૂકીને
ભિલાષી ધન કમાવા દુર્ગમ પ્રદેશમાં જઈ ધનનું ઉપાર્જન કરે છે તેમાં ફક્ત નિને લેભ જ કારણ છે. દ્રવ્યલેલુપી પિતાના પ્રાણના ભેગે પણ અહીંન્તઉં!
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अध्य० २. उ. १ त्पूर्वपुण्योदयेन वृद्धावस्थायां पुत्रादयोऽतिभक्तास्तवापमानं नैव कुर्वन्ति तथापि ते वृद्धावस्थाजनितदुःखपरिमोचका न भवितुमर्हन्तीति तात्पर्यमवगम्यते । ____ अथ यदि पुत्रकलत्रादयः सेवापरा दुःखभारभरमन्नाः सन्तीत्यालोच्य तेषां दुःखोद्धाराय तब चेतसि चिन्ता स्यादपि तथापि तदुद्धारः कतुमशक्य इति दर्शयति'त्वमपि तेपां नालं त्राणाय वा शरणाय वे'-ति, वं वृद्धो न तेषां दुर्दशापदुद्धारकोनापि तदाश्रयो भवितुमर्हसि सामर्थ्याभावादिति भावः । वृद्धावस्था में भी अलिभक्त हों, उनकी हर तरहसे सेवा चाकरी करनेमें कोई कर-कसर न रखते हों, उनका जरा भी तिरस्कार नहीं करते हों तो भी इस वृद्धावस्थामें होनेवाले जो अनेक कष्ट हैं चाहें वे शारीरिक हों चाहें मानसिक हों, चाहें वाचिक हों उनसे वे उनका उद्धार नहीं कर सकते। . वृद्धावस्थामें यदि वह वृद्ध चाहे कि मैं अपने सेवक पुन कलनादिकों का जो रात दिन मेरी सेवा करने में ही लगे रहते हैं, और जो विचारे दुःखों से पीडित हो रहे हैं मैं उन्हें कष्टसे निर्मुक्त कर+' तो इस प्रकारका भी उसका विचार करना व्यर्थ ही है, इसी बातको प्रकट करते हुए सूत्रकार कहते हैं-"त्वमपि तेषां नालं त्राणाय वा शरणाय घा” इति । भाई ! वृद्धावस्थामें तुझे इस प्रकारकी चिन्ता करना ठीक नहीं है, कारण कि तुम स्वयं अशक्त हो तब तुम उन दुर्दशामें फंसे हुए अपने पुत्र कलत्रादिकों के उद्धारक कैसे हो सकते हो और कैसे उनके ચાકરી કરવામાં કેઈપણ પ્રકારની કસર રાખતા ન હોય, તેને જરા પણ તિરસ્કાર કરતા નથી તો પણ આ વૃદ્ધાવસ્થામાં થનાર જે કષ્ટો છે ભલે તે શારીરિક હોય કે માનસિક હોય, અગર વાચિક હોય, તેનાથી તેઓ તેમને ઉદ્ધાર કરી શકતા નથી.
વૃદ્ધાવસ્થામાં કદાચ તે વૃદ્ધ ચાહે કે-“હું મારા સેવક પુત્ર કલત્રાદિકો, જે રાત દિવસ મારી સેવા કરવામાં જ લાગ્યા રહે છે અને જે બિચારા દુખેથી પીડિત થઈ રહ્યા છે, હું તેમને કષ્ટથી નિર્મુક્ત કરી દઉ” તો તેને આ પ્રકારને પણ વિચાર વ્યર્થ જ છે. આ વાતને પ્રગટ કરવા સૂત્રકાર કહે છે –
" त्वमपि तेषां नालं त्राणाय वा शरणाय वा" इति
ભાઈ! વૃદ્ધાવસ્થામાં તારે આ પ્રકારની ચિંતા કરવી ઠીક નથી, કારણ કે તે પોતે અશક્ત છે ત્યારે તું આવી દુર્દશામાં ફસેલાં પોતાનાં પુત્ર કલત્રાદિકોને
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आचाराङ्गसूत्रे त्राण-शरणपदयोरर्थस्तूक्त एव । अत्रापि वा-शब्देन तव पुत्र-कलत्रादयो यदि दुःखमन्नास्त्वत्सेवापरा अपि स्युस्तथापि न तेषां त्वं रक्षको भवितुं शक्नोषि, इत्येवं गम्यते । स्वकायिककार्यकरणेऽप्यसमर्थस्त्वं कथं महायाससाध्यं तेषां भरणपोषणादिकार्य कर्तुमध्यवस्यसीति भावः।
स तस्यामवस्थायां स्वयं हासयोग्यो नान्यं जनमुपहसितुं प्रभवतीति दर्शयति-- 'स न हासाये-'ति, सम्वृद्धो हासाय निन्दिताचारमुपहसितुं न योग्यो भवति । आश्रयप्रदाता हो सकते हो, तुम तो स्वयं इस समय रक्षा करने योग्य एवं आश्रय पाने योग्य हो रहे हो ।
इस सूत्र में भी जो 'वा' शब्द आया है उससे यह बोध होता है कि-तेरे पुत्र कलत्रादिक यदि दुःखमग्न है और तेरी सेवामें भी तत्पर हैं तो भी तूं उनका रक्षक नहीं हो सकता, क्योंकि जब तूं स्वयं अपना शारीरिक कार्य करने तकमें भी असमर्थ हो रहा है तो फिर कैसे महाकष्टसाध्य उनके भरण-पोषण आदि कार्य करनेके लिये विचार कर सकता है।
वृद्ध अपनी अवस्थामें स्वयं हँसीका पात्र है वह दूसरोंकी हंसी कैसे कर सकता है ? इसका वर्णन करते हैं-"स न हासाय" जो स्वयं ही हॅली-मजाक का पान होता है वह दूसरोंकी हँसी भी कैसे कर सकता है अतः कोई यदि निन्दित आचारवाला है तो वह उसकी हँसी करनेके योग्य ही नहीं है। ઉદ્ધારક કેવી રીતે બની શકે છે, અને કેવી રીતે તેને આશ્રય આપી શકાય. તમે પોતે આ સમયે રક્ષા કરાવવા ગ્ય અને આશ્રય લેવા યોગ્ય છે. ____सूत्रमा परे 'वा' श४ मा०ये। छ तेनाथी से माध थाय छ તારા પુત્ર કલત્રાદિક કદાચ દુખમગ્ન છે અને તારી સેવામાં પણ તત્પર છે તો પણ તું તેમને રક્ષક બની શકતો નથી કારણ કે જ્યારે તું સ્વય પોતાના શારીરિક કાર્ય કરવામાં અસમર્થ છે તો પછી કેવી રીતે મહાકષ્ટસાધ્ય તેનુ ભરણ પોષણ આદિ કાર્ય કરવા વિચાર પણ કરી શકે.
વૃદ્ધ પોતાની અવસ્થામાં સ્વય હાસીને પાત્ર છે, તે બીજાની હાસી કેવી शत ४३ श? तेनु वएन ४२ छ -“ स न हासाय" स्वय सी भ ने । પાત્ર છે તે બીજાઓની હાંસી કેવી રીતે કરી શકે, માટે કઈ કદાચ નિંદિત આચારવાળા છે તે તેઓ તેની હાંસી કરવાને એ જ નથી.
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अध्य० २. उ. १
७१ यः स्वयमुपहासपात्रं स कथमन्यमुपहसेदिति तात्पर्यम् । वृद्धावस्थायां पुरुषः क्रीडाकरणाक्षमो भवति, यदा कामचेष्टाभिभूतो भवति तदा स प्राणपणेनापि युवति कामयते परं सा निजानन्दाक्षमं तं विदित्वाऽवहेलयतीति दर्शयति-'न क्रीडायै न रतये' इति, क्रीडा अक्षादिना खेलनं, लङ्घनप्रधावनास्फोटनादिकं वा, तस्यै न स प्रभवति । रतिर्नाम वनिताविषयक आलिङ्गनादिनानारूपः क्षणिकसुखविशेषस्तस्यै न समर्थों भवतीत्यर्थः। वृद्धावस्थायां युवतिं वशीकर्तु न पारयति प्रत्युत 'न लज्जतेऽयं पलितकेशोऽचारुवेशो मम हृदयेशो बुभूषुर्दुहिततुल्यामपि मामभिकामयते' इत्यादिवाक्यैस्तं सा भर्सयति ।
युवति लब्धुकामो धृतभूषणोऽपि न शोभत इति दर्शयति-'न विभूषायै' इति, विभूषा-कटककुण्डलकेयूराद्यलङ्काररूपा, तस्यै स न योग्यो भवति, वृद्धस्य विभूपा न शोभत इति भावः।
"न क्रीडायै न रतये” इस सूत्र में यह प्रकट किया है कि वृद्धावस्थामें पुरुष क्रीडा करने में असमर्थ हो जाता है तथा वह विषयसेवनके भी योग्य नहीं रहता है।
यहां क्रीडा का अर्थ अक्षादिकों-पासों-से लेखना, लांघना, दौडना तथा व्यायाम करना, इत्यादि है । यह क्रीडा वृद्ध कैसे कर सकता है ? क्यों कि वह वृद्धावस्था में बिलकुल असक्त हो जाता है। रति का अर्थ है आलिंगनादिक । इसका भी उपभोक्ता वह नहीं हो सकता कारण कि वृद्धावस्थामें प्रत्येक इन्द्रिय शिथिल हो जाती है । अर्थात् शोभाके लिये धारण किये गये अलंकार भी इसे कभी शोभा प्रदान नहीं कर सकते। कडे, कुण्डल, केयूर-भुजबन्ध आदि अलंकार उसकी शोभा के अभिवर्द्धक न होकर प्रत्युत उसके लिये हास्य के कारण ही बनते हैं। कहा भी है
"न क्रीडायें न रतये " ॥ सूत्रमाणे प्रगट ४२ वृद्धावस्थामा पु३५ કીડા કરવાને અસમર્થ બની જાય છે તથા તે વિષયસેવન માટે પણ યોગ્ય રહેતો નથી.
આ ઠેકાણે કીડાને અર્થ અક્ષાદિકો–પાસાઓથી ખેલવું, ઠેકવું, કૂદવું, દોડવું તથા વ્યાયામ કરે, ઈત્યાદિ છે. આ કીડા વૃદ્ધ કેવી રીતે કરી શકે, કારણ કે તે વૃદ્ધાવસ્થામાં બિલકુલ અશક્ત થઈ જાય છે. રતિને અર્થ છે આલિંગનાદિક તેના પણ ઉપભોક્તા તે બની શકતા નથી, કારણ કે વૃદ્ધાવસ્થામાં પ્રત્યેક ઈન્દ્રિયો શિથિલ બને છે. અર્થાત્ શભા માટે પણ ધારણ કરેલાં અલંકાર પણ તેને શોભા આપી શકતાં નથી. કડા, કુંડલ, કેયૂર-ભુજબંધ આદિ અલંકાર તેની શોભામાં વૃદ્ધિ કરતા નથી પણ તેના માટે હાસ્યનું કારણ બને છે. કહ્યું છે કે –
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आचाराङ्गसूत्रे
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न भूषणं भाति न हास्यमस्य, न विभ्रमो नैत्र जना अधीनाः । प्रवर्त्तते तत्र यदा तु वृद्धो, विडम्बनां याति परां तदा सः" ॥१॥ इति एवं च वृद्धावस्थायां निजतनयवनितादितिरस्कृतस्य जराजर्जरितदेहस्य क्रीडारतिविभूपादिकं न किमपि शोभत इति सूत्राशयः ॥ ३ ॥
उक्तमप्रशस्तमूलस्थानं, संप्रति प्रशस्तमूलस्थानमाह - यद्वा-यतस्ते पुत्रकलत्रादयो नालं मे त्राणाय वा शरणाय वा भवितुमर्हन्तीति विचार्य धीरः क्षणमपि न ममादं कुर्यादिति दर्शयति-' इच्चेवं ' इत्यादि ।
७२
उक्तश्च
-
" न भूषणं भाति न हास्यमस्य, न विभ्रमो नैव जना अधीनाः । प्रवर्तते तत्र यदा तु वृद्धो, विडम्बनां याति परां तदा सः ॥ १॥” इति । इस प्रकार इसको न भूषण शोभा देते हैं-न इसकी हॅसी ही इसकी सुन्दरता बढ़ा सकती है, न विभ्रम-विलास ही यह कर सकता है, इसके अपने पास में रहे हुए जन भी कहने में नहीं रहते । अगर वह ऊपर की बातों में प्रवृत्ति करे तो वह इस वृद्धावस्था में बिडम्बना पाता हुवा अपने पुत्र - स्त्री आदि से तिरस्कार को ही पाता है, तथा जरासे जर्जरित काय बने हुए इसके लिये क्रीडा-रति-विभूषादिक कुछ भी शोभा नहीं देते ॥ ३॥
अप्रशस्त मूलस्थानों का वर्णन हो चुका, अब प्रशस्त मूलस्थानों का वर्णन किया जाता है, अथवा वे पुत्र कलत्रादिक मेरी रक्षा के लिये या मुझे शरण प्रदान करने के लिये समर्थ नहीं हो सकते हैं, ऐसा विचार
""
न भूषण भाति न हास्यमस्य, न विभ्रमो नैव जना अधीनाः । प्रवर्तते तत्र यदा तु वृद्धो, विडम्वनां याति परां तदा सः ॥ १ ॥ इति ।
આ પ્રકારે તેને ભૂષણ શાભા દેતા નથી તેની હાંસી પણ તેની સુદરતા વધારી શકતી નથી તે વિલાસ પણ કરી શકતો નથી. તેની પાસે રહેતા માણસા પણ તેના કહેવામાં રહેતા નથી, અગર તે ઉપર કહેલી વાતોમાં પ્રવૃત્તિ કરે તો તે આ વૃદ્ધાવસ્થામાં વિડખના પામીને પોતાના પુત્ર શ્રી આદિથી તિરસ્કાર જ પામે છે તથા ઘડપણથી જર્જરિત શરીર અનેલુ હોઈ તેના માટે ક્રીડા, રિત, વિભૂષાદિક કોઈ પણ શોભા માટે ચેાગ્ય નથી
અપ્રશસ્ત મૂલસ્થાનોનું વર્ણન થઈ ચુકયું. હવે પ્રશસ્ત મૂલસ્થાનાનુ વર્ણન કરે છે-અથવા તે પુત્ર કલાર્દિક મારી રક્ષા માટે અગર મને શરણ પ્રદાન કરવા માટે સમ ખની શકતા નથી, એવા વિચાર કરી ધીર વીર પુરૂષનું
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अध्य०-२. उ. १
७३
मूलभू-इच्चेवं समुठिए अहोविहाराए, अंतरं च खल्लु इमं संपेहाए धीरे मुहत्तमवि णो पमायए वओ अञ्चति जोव्वणं वा ॥ सू० ४ ॥
छाया-इत्येवं समुत्थितः अहोविहाराय अन्तरं च खल्लु इमं संप्रेक्ष्य धीरो मुहूर्तमपि नो प्रमादयेत् , वयोऽत्येति यौवनं वा ॥ सू० ४॥ कर धीर वीर पुरुष का कर्तव्य है कि वह एक क्षण भी प्रमाद न करेइसी बातकी पुष्टि करते हुए सूत्रकार कहते हैं___"इच्चेव समुट्टिए' इत्यादि-यौवन अवस्था में पुत्र-मित्रादिकों में आसक्त बना हुआ यह प्राणी सावद्य व्यापार में लवलीन रहता है और जब वृद्धावस्था आती है तब वह उन सकल कार्यों के वेदने में असमर्थ हो जाता है, ऐसा विचार कर संयम पालन करने के लिये उद्युक्त हुआ संयमी मुनि संयम को पालन करने के इस अवसर का अच्छी तरह विचार कर एक मुहर्त भी प्रमाद न करे, क्यों कि आयु और यौवन दोनों बीत रहे हैं।
सूत्र में "इत्येवं" यह शब्द पूर्वोक्त कथन की पुष्टि करता है, अर्थात्जब यह बात प्रमाणित हो चुकी कि यौवन अवस्था में पुत्र मित्र कलत्रादिकों में आसक्त बना हुआ प्राणी सावद्यकार्यों के करने में लवलीन होता है परन्तु वही प्राणी जब वृद्धावस्था आती है तब उन समस्त कार्यों के करने में अपने को सर्वथा असमर्थ पाता है, जब यह हालत है કર્તવ્ય છે કે તે એક ક્ષણ પણ પ્રમાદ ન કરે. આ વાતની પુષ્ટિ કરવા સૂત્રકાર કહે છે કે –
"इच्चेव समुट्टिए " इत्यादि, यौवन अवस्थामा पुत्र-भित्राहि मां भासत બનીને આ પ્રાણું સાવદ્ય વ્યાપારમાં લવલીન રહે છે અને જ્યારે વૃદ્ધાવસ્થા આવે છે ત્યારે તે એ બધા કાર્યોને કરવામાં અશક્ત બની જાય છે, એવો વિચાર કરી સંયમ પાલન કરવા માટે ઉઘુક્ત થઈને સંયમ મુનિ સંયમનું પાલન કરવાને આ અવસરને સારી રીતે વિચાર કરી એક ક્ષણને પણ પ્રમાદ ન કરે, કારણ કે આયુષ્ય અને યૌવન અને વીતી જાય છે.
सूत्रमा “ इत्येव" मा ५६ पूर्वात ४थननी पुष्टि ४२ छ. अर्थात् न्यारे આ વાત પ્રમાણભૂત બની ચૂકી છે કે યૌવન અવસ્થામાં પુત્ર મિત્ર કલત્રાદિકોમાં આસક્ત બનેલ પ્રાણ સાવદ્ય વ્યાપાર કરવામાં વિલીન થાય છે. પરંતુ તે પ્રાણી જ્યારે વૃદ્ધાવસ્થા આવે છે ત્યારે આ બધા કાર્યો કરવામાં પોતાને સર્વથા અસ१०
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आचाराङ्गास्त्रे टीका--'इत्येवम्' इतिशब्दः पूर्वप्रदर्शितवस्तुमचकस्तेन यौवने पुत्रकलासक्तः सावद्यानुष्ठानरतः स एव वृद्धावस्थायां सकलकार्यालमो भवतीत्यर्थः । एवं यथोपदर्शितेन प्रकारेण 'समुत्थितः अहोविहाराये 'ति ।
अहो इत्याश्चर्यजनको विहारो-विहरणं यस्मिन् सः अहोविहारः संयमानुपालनं, तस्मै तदर्थं समुत्थितः सम्यगुयुक्तः सन् मुहूर्तमपि न प्रमादयेदित्यनेन सम्बन्धः। तो वह इस प्रकार की परिस्थिति को दूर करने के लिये यह सर्वोत्तम प्रयत्न करे कि वह संयम में अपने को लगा दे, कारण कि संयम का अनुष्ठान करना ही इस रोगका इलाज है, इसके पालन-सेवन किये विना यह भवर का रोग दूर नहीं हो सकता-संयमाराधन मनुष्यगति के सिवाय अन्य और किसी भी गति में हो नहीं सकता-इसलिये सूत्रकार प्रकट करते हैं कि इस संयमरूपी ओषधि का पान भी वही कर सकता है जो धीर हो-परीषह और उपसर्ग के आने पर भी जो अपने कर्तव्यपथ से च्युत नहीं होता हो, उसका नाम सिद्धान्त की परिभाषा में धीर है । इसी बात की पुष्टि-“अहोविहाराय" इस पदसे तथा "धीरे” इस पद से सूत्रकारने की है। अहोविहार शब्द का अर्थसंयम है, कारण कि इसमें विचरण करनेवाला प्राणी देह में ममत्ववुद्धि रखनेवालों के लिये आश्चर्य पैदा करनेवाला होता है, उस की अनेक प्रकार की तपश्चर्या एवं कायक्लेशादिक बाह्य तपको देख कर संसारी यहिरात्मा जीव आश्चर्यचकित हो जाते हैं, वे विचारते हैं-धन्य है इस મર્થ માને છે. ત્યારે આવી હાલત છે તો તે આ પ્રકારની પરિસ્થિતિને દૂર કરવા માટે સર્વોત્તમ પ્રયત્ન કરે કે સંયમમાં પોતાને લગાવી દે, કારણ કે સંચમનું અનુષ્ઠાન કરવું તે જ આ રોગને ઉપાય છે. તેનું પાલન–સેવન કયા વગર આ ભવભવને રોગ મટતે નથી સંચમારાધન, મનુષ્યગતિ સિવાય અન્ય કોઈ ગતિમાં થઈ શકતું નથી તેથી સૂત્રકાર પ્રગટ કરે છે કે આ સમરૂપ ઓષધિનું પાન તે કરી શકે છે જે ધીરે છે અને પરીષહ ઉપસર્ગ આવવા છતા પણ જે પિતાના કર્તવ્યથી દૂર થતાં નથી. તેનું નામ સિદ્ધાંતની પરિભાષામાં બૅરિ छ मा पातना पुष्टि-" अहोविहाराए" मा पहथी तथा “ धीरे” २मा पहथा સૂત્રકારે કરેલ છે. અહેવિહાર શબ્દનો અર્થ સંયમ છે, કારણ કે તેમાં વિચર કરવાવાળાં પ્રાણ દેહમાં મમત્વબુદ્ધિ રાખવાવાળાઓને માટે આશ્ચર્ય પેદી 3* વાળા હોય છે તેની અનેક પ્રકારની તપશ્ચર્યા અને કાયક્લેશાદિક બાહી તથા દેખીને સારી બહિરાત્મા જીવ આશ્ચર્યચકિત થાય છે. તે વિચારે છે–ધન્ય છે
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अध्य० २. उ.१ संयमी जन को, इस प्रकार की तपश्चर्या को-जिससे शरीर पर भी ममता नहीं रहती है, अतः इस प्रकार का संयमाराधन "पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनं" इस महारोग का अचूक महौषध है। उसकी प्राप्ति के लिये हे प्राणी ! तूं एक मुहूर्त की भी देरी मत कर, मत सोच इस बातको कि-"अभी तो खाने पीने के दिन है-ऐशआराम भोगने का यह समय है, बाद जब वृद्धावस्था आवेगी। तब संयमाराधन करलूंगा” कारण कि कौन कह सकता है कि वृद्धावस्था आवेगी । वृद्धावस्था आने के पहिले ही यदि तूं इस पर्याय से पर्यायान्तरित हो गया तो फिर तेरी यह कल्पना कोरी ही रह जावेगी । तथा वृद्धावस्था में जब कि प्रत्येक इन्द्रिय शिथिल हो जाती है, शरीर भी अशक्त बन जाता है, करने की भावना होने पर भी जिसमें कुछ भी करते धरते नहीं बनता तो इस संयम का आराधन हो भी कैसे सकता है । यदि पहिले से संयमाराधन की शक्ति आत्मामें आई हुई हो तो वृद्धावस्था में संथमाराधन पूर्वसंस्कार के वश से हो भी जाय, परन्तु इस प्रकार की योग्यता तो तूने अभीतक प्राप्त ही नहीं की, यह योग्यता जब प्रत्येक इन्द्रिय बलवान थी, शरीर भी सशक्त था, द्रव्य, क्षेत्र, काल और તે સંયમીજનને, આ પ્રકારની તપશ્ચર્યાને, જેથી શરીરમાં પણ મમતા રહેતી નથી. भाटे २ प्रहार संयमाराधन “पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयन" २॥ भडासानु ४३२ महा मोषध छ, तेनी प्राप्ति भाटे है પ્રાણી, તું એક ક્ષણ પણ ઢીલ ન કર. એ વાતનો વિચાર પણ ન કર કે–“હમણાં તે ખાવા પીવાના દિવસો છે-એશઆરામ ભેગવવાને સમય છે, જ્યારે વળી વૃદ્ધાવસ્થા આવશે ત્યારે સંયમારાધન કરી લઈશ.” કારણ કે કોણ કહી શકે છે કે વૃદ્ધાવસ્થા આવશે. વૃદ્ધાવસ્થા આવ્યા પહેલાં જ કદાચ તું આ પર્યાયથી પર્યાયા
ન્તરિત થઈ ગયો તો પછી તારી આ કલ્પના નકામી જ રહી જવાની. અને વૃદ્ધાવસ્થામાં જ્યારે પ્રત્યેક ઈન્દ્રિય શિથિલ થાય છે, શરીર પણ અસક્ત બને છે, કરવાની ભાવના હોવા છતાં પણ કાઈ પણ કરી શકતું નથી તે પછી આ સંયમનું આરાધન કેવી રીતે બની શકે. કદાચ પહેલાથી સંયમારાધનની શક્તિ આત્મામાં આવી ગઈ હતી તે વૃદ્ધાવસ્થામાં સયમારાધન પૂર્વ સંસ્કારને વસથી થઈ પણ જાય પરંતુ આ પ્રકારની યેગ્યતા તો તને હજુ સુધી પ્રાપ્ત જ નથી થઈ. આ યોગ્યતા ત્યારે પ્રત્યેક ઈન્દ્રિય બળવાન હતી, શરીર પણ સશક્ત હતું, વ્ય–ત્ર-કાળ-ભાવ રૂપ સામગ્રી અનુકૂળ હતી, તે અવસ્થામાં આવી શકતું.
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आचाराङ्गसूत्रे भाव रूप सामग्री अनुकूल थी उस अवस्था में आती, परन्तु वह अवस्था तो तूने मित्र पुत्र कलत्रादिकों में आसक्ति के वशवी होकर गमा दी
और सावद्यानुष्ठानों के करने से अपनी आत्मपरिणति को कलुषित कर दिया, तब भला, कहो तो सही, सहसा यह कार्य तुझ से अब कैसे बन सकेगा ? । इस पर सूत्रकार कहते हैं कि-हे भव्य प्राणी ! तू "मुहुत्तमवि नो पमायए” एक मुहूर्त मी प्रमाद मत कर, और मन वचन एवं काय से, तथा कृत कारित और अनुमोदना से, अर्थात् नव कोटि से इस संयम का आराधन कर, कनक कामिनी आदि पदार्थ जिन्हें तू भ्रमके वश से अभी तक अपने मानता आया है, और जिनके पाने में तथा पालन पोषण करने में तूने अपने हित और अहित का भी विवेक लुप्त कर दिया है, भला! उनके स्वरूप का विचार कर और देख कि इनके संयोग से तेरी आत्मा में कहां तक शान्ति जागृत होती है ? यदि ये वास्तविक शांति प्रदान करने में असमर्थ हैं तो तू इनका नवकोटि से परित्याग कर दे, इस परित्याग से तेरी आत्मा में वह अपूर्व संस्कार जागृत होगा जो तेरी इन दीनदशा का अन्त करनेवाला हो जायगा, इन पदार्थोंका भोग अथवा संग्रह खाज को खुजलाने के समान है-जिस प्रकार खाजको खुजलानेवाला व्यक्ति પરંતુ તે અવસ્થા તો તે પુત્ર મિત્ર કલત્રાદિકોમાં આસક્તિને વશવત્તી બની ગુમાવી અને સાવધાનુષ્ઠાન કરવાથી પિતાની આત્મપરિણતિને કલુષિત કરી, ત્યારે ભલા કહો તો ખરા, સહસા આ કાર્ય તારાથી હવે કેવી રીતે બની શકશે?, २५५२ सूत्रसार हे छ - भव्य प्राए | तु " मुहुत्तमवि नो पमायए" એક ક્ષણને પણ પ્રમાદ ન કર અને મન વચન અને કાયાથી તથા કૃત, કારિત અને અનુમોદનાથી અર્થાત્ નવ કેટિથી આ સ યમનું આરાધન કર, કનક કામિની આદિ પદાર્થ જેને તુ ભ્રમવશ હજુ સુધી પોતાના માનતો આવ્યો છે અને જેને મેળવવામાં અને પાલન પોષણ કરવામાં તે પોતાના હિત અહિતને પણ વિવેક લુપ્ત કરી નાખેલ છે. ભલા ! તેના સ્વરૂપનો વિચાર કરે અને દેખ કે તેના સંગથી તારા આત્મામાં ક્યાં સુધી શાતિ જાગ્રત થાય છે. કદાચ તે વાસ્તવિક શાતિ પ્રદાન કરવામાં અસમર્થ છે તો તે તેને નવકેટિથી પરિત્યાગ કરી દે. આ પરિત્યાગથી તારા આત્મામાં અપૂર્વ સંસ્કાર જાગ્રત થશે તે આ તારી દીનદશાને આત કરી દેશે, આ પદાર્થોનો ભોગ અથવા સગ્રહ ખુજલીને ખણવા બરાબર છે જે પ્રકારે ખુજલીને બણવાવાળો વ્યક્તિ, તે વખતે ખણવાથી આનંદ આવે તેમ માને છે. અને કહ્યું પણ છે
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अध्य०२ उ.१ खुजलाते समय आनंद में गोते लगाने लगता है और कहा भी है
“जो नहीं मजा देखा हलवा पुरी खाने में, सो मजा देखा एक खाज के खजुवाने में" ___ ज्यों ही उस खुजलाने रूप कार्य को बंद कर देता है तो उसको जो जलनरूप वेदना होती है वह वहीं जानता है, इसी प्रकार इन विषयों का सेवन भी है, ऐसा विचार कर मन, वचन आदि रूप नव कोटि से इनका त्याग कर। इसी बातकी पुष्टि " अहो विहाराए” इस पद में लगा हुआ “अहो" यह पद करता है यह तो निश्चित है कि आत्मा में पूर्व संस्कार जितना कार्य करते हैं उतना वर्तमान संस्कार नहीं । बच्चा जब माता के पेट से उत्पन्न होता है तो उसकी स्तन्यपानप्रवृत्ति में पूर्व संस्कार ही सर्व प्रथम काम करता है। हम यह भी प्रलक्ष अनुभव करते हैं कि कुंभकार अपने घटरूप कार्य को निष्पन्न करने के लिये चाक में जबर्दस्त नमी पैदा करता है, यह जबर्दस्त भ्रमी सिर्फ वर्तमान में ही उसने उसमें उत्पन्न नहीं की है, किन्तु एक के बाद एक जो वह उसमें भ्रमी किया करता है-बारंबार उसे दंड से घुमाता है उससे ही यह उत्पन्न हुई है, इसी नमीरूप संस्कार के द्वारा उसने घटरूप अपने कार्य को निष्पन्न किया है, इसी प्रकार आत्मा भी पूर्व पूर्व पर-पदार्थों के भोगने आदि रूप वासना-संस्कार से सांसारिक परपदार्थों को भोगने " जो नहीं मजा देखा हलवा पुरी खानेमें, सो मजा देखा एक खाजके खजुवानेमें"
જ્યારે તે ખણવારૂપ કાર્યને બંધ કરવામાં આવે અને પછી તેની જે જલનરૂપ વેદના થાય છે તે તેજ જાણે છે. તે પ્રકારે આ વિષયોનું સેવન પણ છે. તે વિચાર કરી મન વચન આદિ રૂપ નવ કેટિથી તેને ત્યાગ કરીદે. આ पातनी पुष्टि “अहो विहाराए" 20 पहमा मागेअहो" मे यह ४२ छे. એ તો નિશ્ચિત છે કે આત્મામાં પૂર્વસંસ્કાર જેટલું કાર્ય કરે છે તેટલું વર્તન માન સંસ્કાર નહિ. બચ્ચું જ્યારે માતાના પેટથી ઉત્પન્ન થાય છે તો તેની સ્તન્યપાન–પ્રવૃત્તિમાં પૂર્વસંસ્કાર જ સર્વ પ્રથમ કામ કરે છે. અમે એ પણ પ્રત્યક્ષ અનુભવ કરીએ છીએ કે કુંભાર પોતાના ઘટરૂપ કાર્યને નિષ્પન્ન કરવા માટે ચાકમાં જબર્દસ્ત ભ્રમી પેદા કરે છે, આ જબરજસ્ત ભ્રમી ફક્ત વર્તમાનમાં જ તેને તેમાં ઉત્પન્ન કરેલ નથી પણ એકની પછી એક જે તે તેમાં ભ્રમી કર્યા કરે છે વારંવાર લાકડીથી ઘુમાવ્યા કરે છે તેથી જ તે ઉત્પન્ન થયેલ છે, આ ભ્રમરૂપ સંસ્કાર દ્વારા તેણે ઘેટરૂપ પોતાના કાર્યને નિષ્પન્ન કર્યું છે, તે પ્રકારે આત્મા પણ પૂર્વ પૂર્વ પરપદાર્થોના ભેગવવા આદિરૂપ વાસના-સંસ્કારથી સાંસારિક
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इट
आचाराङ्गसूत्रे
अथवा अपनाने की ओर झुकता है । इन संस्कारों को सर्वथा प्रक्षीण करने की शक्ति यदि कहीं है तो वह सिर्फ एक संयम में ही है, इस संयम का आराधन नव कोटि से ही होना चाहिये, ऊपर की दिखावटीसे नहीं । " अहो विहाराए " इस पदमें जो " अहो " यह शब्द है वह आश्चर्य वाचक है, पूर्वोक्त प्रकार से एक तो इस पदकी सार्थकता प्रकट की है, दूसरे इस प्रकार से भी इस पद्की सार्थकता टीकाकार प्रकट करते हुए कहते हैं कि - यह भी एक आश्चर्य की बात है कि जब यह आत्मा सांसारिक वासनाओं से वासित था । उस समय किसी को अपना मित्र, किसी को अपना शत्रु मानकर रातदिन राग और द्वेष के फंदे में आपाद-शिख एडी से चोटी तक जकड़ा हुआ था, इष्टानिष्ट पदार्थों की कल्पना से रातदिन आत रौद्र ध्यान करने में मस्त रहता था, परन्तु ज्यों ही संयम की बागडोर इसके हाथ में आती है यह उस प्रकार की कल्पना से सर्वथा रहित हो जाता है, कारण कि पदार्थों में इष्ट की कल्पना इन्द्रियों के अनुकूल पदार्थों में ही होती है, प्रतिकूल पदार्थों में अनिष्ट की कल्पना । पर जब संयम की बागडोर इसे प्राप्त हो जाती है तब क्या तो अनुकूल क्या प्रतिकूल सब एक हो जाते हैं - एक जैसे ही मालूम पड़ते हैं । પરપદાર્થોને ભોગવવા તથા અપનાવવાની તરફ જ ઝુકે છે. આ સંસ્કારોને સ થા પ્રક્ષીણ કરવાની શક્તિ કદ્દારા કઇ જગ્યાએ હાય તો તે ફક્ત સંયમમા જ છે આ સંચયમનુ આરાધન નવકેટથી હાવુ જોઈ એ, ઉપર ઉપરના દેખાવ પુરતું ન હાવુ જોઇએ
"f
"
अहो विहाराए या पहला
अहो " मे शहछे ते माश्चर्यનાચક છે, પૂર્વોક્ત પ્રકારથી એક તો આ પદની સાકતા પ્રગટ કરી છે બીજી આ પ્રકારથી પણ આ પન્નુની સાર્થકતા ટીકાકાર પ્રગટ કરીને કહે છે કે-એ પણ એક આશ્ચર્યની વાત છે કે જ્યારે આ આત્મા સાસારિક વાસનાઓથી વાસિત હતા ત વખતે કોઈ ને પાતાને મિત્ર, કાઇને પોતાના શત્રુ માનીને રાત દિવસ ગગ અને દ્વેષથી પુરેપુરા પગથી માથા સુધી સાએલા હતો, અર્થાત્ જકડાએલા હુતા, ઇષ્ટ અનિષ્ટ પદાર્થોની કલ્પનાથી રાતદિવસ આ રોદ્ર ધ્યાન કરવામા મસ્ત રહેતા હતા પરંતુ જ્યા સયમની લગામ તના હાથમા આવે છે ત્યા તે એવા પ્રકારની કલ્પનાથી સધા રહિત થાય છે કારણ કે પદાર્થોમા ઇષ્ટની કલ્પના ઈન્દ્રિચાના અનુકૂળ પદાર્થોમાં જ થાય છે પ્રતિકૂળ પદાર્થોમા અનિષ્ટની કલ્પના પરંતુ
કરે સચસની દારી તેને પ્રાપ્ત થાય છે ત્યારે અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ ખધુ એક
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अध्य० २. उ. १ तृणवन्मन्यमानो मुहुर्धमति । उपार्जिताक्षरक्षणाय रात्रावपि चौरादिभयान निद्रामनुभवति । मम्मणश्रेष्ठिबदुःखी भवति । तथा चोक्तम्
'उत्खनति खनति निदधाति, रात्रौ न स्वपिति दिवापि च सशङ्कः।
लिम्पति स्थगयति सततं, लाञ्छितप्रतिलाञ्छितं करोति ॥१॥ को कमाने के ही ख्याल से घूमता है तथा उपार्जित द्रव्य के रक्षण के लिये रात्रिमें भी चौरादिक के भय से यथेच्छ निद्रा नहीं लेता। मम्मण सेठ की तरह दाख काही अनुभव करता है। कहा भी है:
"उत्खनति खनति निद्धाति, रात्रौ न स्वपिति दिवापि च सशङ्कः । लिम्पति स्थगयति सततं, लाञ्छितप्रतिलाञ्छितं करोति ॥१॥ भुव न तावनियापारो जिसितुं नापि चाय भक्ष्यामि । नापि च वत्स्यामि गृहे, कर्तव्यमिदं बह्वय ॥२॥ जनयन्त्यर्जने दुःखं, तापयन्ति विपत्तिषु ।
मोहयन्ति च संपत्ती, कथमर्थाः सुखावहाः " ॥३॥ __ अर्थ:-धनलोभी पुरुष जमीन में गडे हुए अपने धनको कभी बाहर निकालता है कभी फिर जमीन में गाड़ता है कभी पेटी आदि में रखता है । वह चोर आदि के भय से रातको सोता नहीं और दिन में भी शंका करता रहता है कि 'मेरे धन को कोई चुरा ल ले जाय।' वह धन को डाट कर ऊपर से लापता है, तथा उस लीपे हुए पर उस धन को દ્રવ્ય કમાવાના ખ્યાલથી રખડતે ફરે છે, તથા કમાયેલા દ્રવ્યનું રક્ષણ કરવા રાત્રિના સમયમાં ચૌરાદિકના ભયથી સુખથી નિદ્રા પણ લેતા નથી. મમ્મણ શેઠ માફક हुमना मनुसय ४२ छ. घुछे :-- " उत्खनति खनति निदधाति, रात्रौ न स्वपिति दिवापि च शङ्कः। लिम्पति स्थगयति सततं, लाञ्छित-प्रतिलाञ्छितं करोति ॥१॥ भुक्ष्व न तावन्निापारो जिमितुं नापि चाद्य मङ्क्ष्यामि । नापि च वत्स्यामि गृहे, कर्तव्यमिदं बह्वद्य ॥ २॥ जनयन्त्यर्जने दुःखं, तापयन्ति विपत्तिषु। मोहयन्ति च सम्पत्तौ, कथमर्थाः सुखावहाः" ॥ ३॥
અર્થ –ધનલોભી પુરૂષ જમીનમાં દાટેલું પોતાનું ધન કેઈ વખત બહાર કાઢે છે, કઈ વખત જમીનમાં દાટે છે, ક્યારેક પિટી આદિમાં રાખે છે, વળી રાત્રે ચેર આદિના ભયથી સુતે નથી અને દિવસે પણ શંકા કરે છે કે-“મારું ધન કેઈ ચેરી ન જાય” વળી ધનને દાટીને ઉપરથી લીંપે છે. તથા તે લીંપેલી
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अध्य० २. उ. १ आश्चर्यकारित्वश्चात्र त्रिकरणत्रियोगैः कनककामिन्यादिसकलवस्तुपरित्यागित्वेन । यद्वा सकलपाणिगणेषु मित्रभावेन । अथवाऽन्तर्मुहतान्तर्गताऽष्टसमयमात्रसंस्पृष्टत्वेऽप्यनन्तकर्मनिर्जरकत्वेन बोध्यम्। लगाम ही तो घोडे को बैठने वाले के अधीनस्थ करती है, इन्द्रियारूपी घोडे भी इसी संयम की बागडोर-लगाम से आत्मा के अधीन बन जाते है, तब “समो निंदापसंसासुतहा माणावमाणओ" अर्थात् वह निन्दा
और प्रशंसाको तथा मान और अपमानको समान समझता है। यह कहने की ही बात नहीं है-अनुभव सिद्ध विषय है। क्या संयमियों के समक्ष परस्पर विरोधी जीव भैत्रीभाव धारण कर बैठे हुए नहीं सुने हैं ?, संयम वह अंजन है कि जिसके लगते ही आंतर चक्षुओंकी यह कल्पना कि “यह मित्र है, यह शत्रु है" बिलकुल नष्ट हो जाती है। यह संयमी जीव यद्यपि बाह्य जगत में विचरण करता है तो भी बाह्य जगत में वह जल में कमल की तरह अलिप्त ही रहता है, अतः शत्रु, मित्र, इष्ट, अनिष्ट आदि समस्त कल्पनाओं को प्रमत्वजन्य बुद्धि का विकार मानकर वह उनसे इकदम परे हो जाता है। इसी अभिप्राय को लेकर टीकाकार ने “यदा सकलप्राणिगणेषु मैत्रीभावेन" इस पद से इसका खुलासा किया है। समताभाव संयमका सर्वप्रथम गुण है । जिस જ થઈ જાય છે–એક જ જેવું માલુમ પડે છે. લગામ જ તો ઘોડાને બેસનારના અધીનમાં કરે છે. ઈન્દ્રિયે રૂપી ઘડા પણ આ સંયમરૂપ લગામથી આત્માને माधान २६ २९ छ. त्यारे “ समो निंदापससासु तहा माणावमाणओ" अर्थात् તે નિંદા અને પ્રશંસાને તથા માન અને અપમાનને સમાન સમજે છે એ કહેવાની જરૂર રહેતી નથી, કારણ કે આ અનુભવસિદ્ધ વિષય છે. શું સંયમીઓના સમક્ષ પરસ્પર વિરોધી જીવ મૈત્રીભાવ ધારણ કરીને બેઠેલાં નથી સાંભળ્યાં?, સંયમ તે અંજન છે કે જેનાથી આંતરચક્ષુઓની એ કલ્પના કે “આ મિત્ર છે, આ શત્રુ છે” બિલકુલ નષ્ટ થઈ જાય છે. તે સંચમી જીવ હજુ સુધી બાહ્ય જગતમાં વિચરણ કરે છે તે પણ તે બાહ્ય જગતમાં તે જલમાં કમલની માફક અલિપ્ત જ રહે છે, માટે શત્રુ, મિત્ર, ઈષ્ટ, અનિષ્ટ, એ બધી કલ્પનાઓ મમત્વજન્ય બુદ્ધિને વિકાર માનીને તે તેનાથી એકદમ દૂર થઈ જાય છે. આ અભિપ્રાયને લઈને ટીકાકારે “यद्वा सकलपाणिगणेषु मैत्रीभावेन" ये पहथी तना मुहासो ४२ छे. સમતાભાવ સંયમને સર્વપ્રથમ ગુણ છે. જેમ સૂર્યના ઉદયથી અંધકારને નાશ
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आवारागसूत्रे प्रकार सूर्य के उदित होने पर अंधकार का अभाव हो जाता है उसी प्रकार संयमरूपी सूर्य के उदित होते ही आत्मा से विषमता की कल्पनारूप अंधकार विलीन हो जाता है। __इस प्रकार से भी 'अहो विहाराए" इस सूत्रमें 'अहो' पद की सार्थकता टीकाकार प्रकट करते हैं-“अन्तर्मुहूर्तान्तर्गताष्टसमयमात्रसंस्पृष्टत्वेऽपि अनन्तकर्मनिर्जरकत्वेन" ४८ मिनट के समयको एक मुहूर्त कहते हैं, इस मुहूर्त के भीतर के समयको अन्तर्मुहूर्त कहते हैं । यह असंख्यात समयों का एक काल है। समय, व्यवहारकाल का सब से सूक्ष्मातिसूक्ष्म हिस्सा है। काल दो प्रकार का है १-निश्चयकाल, २-व्यवहारकाल । समय, घडी, घंटा, पल, मुहूर्त, वर्ष आदि सब व्यवहार काल है। वर्तना जिसका लक्षण है वह निश्चयकाल है, क्यों कि शास्त्रमें 'वट्टणालक्खणो कालो' कहा है।
सद्भावों से यदि अष्टसमयमात्र भी संयम का आराधन कर लिया जावे तो वह अनन्त कर्मों की निर्जरा का कारण माना गया है। हम देखते हैं-अग्नि की थोड़ी सी भी चिनगारी जब रुई के पुंजपर पड़ जाती है तो वह उसे भस्म कर देती है। इसी प्रकार अष्टसमयमात्र થાય છે તે પ્રકારે સયમરૂપી સૂર્યના ઉદયથી આત્માથી વિષમતાની કલ્પનારૂપ અધકારને નાશ થાય છે. ____॥ प्रारथी ५ “ अहो विहाराए" मा सूत्रमा 'अहो' पहनी सार्थsal N२ प्रगट ४२ छ-" अन्तर्मुहूर्तान्तर्गताष्टसमयमात्रसंस्पृष्टत्वेऽपि अनन्तकर्मनिर्जरकत्वेन" ४८ भीनीटना समयने मे मुडूत ४ छ. २॥ મુહૂર્તના ભીતરના સમયને અન્તર્મુહૂર્ત કહે છે. તે અસંખ્યાત સમયે એક કાળ છે, સમય, વ્યવહાર કાળને બધાથી સૂક્ષમાતિસૂક્ષ્મ હિસ્સો છે. કાલ બે प्रा२ना छे. १ निश्चयास, २ व्यपा२४८, समय, घडी, घटा, सभुत, વર્ષ આદિ બધે વ્યવહારકાલ છે, વર્તવું જેનું લક્ષણ છે તે નિશ્ચયકાળ છે, કારણ 3 शास्त्रमा ' वट्टणालक्खणो कालो' उस छ
સભાથી કદાચ અષ્ટ સમય માત્ર પણ સંયમનું આરાધન કરી લેવામાં આવે તો તે અન ત કર્મોની નિર્જરાનુ કારણ માનેલ છે. અમે દેખીએ છીએ અગ્નિની ઘડી પણ ચિનગારી જ્યારે રૂના ઢગલા ઉપર પડી જાય છે તે બધુ ૩ બાળી નાખે છે, તે પ્રકારે અષ્ટ સમય માત્ર પણ સંયમનું સેવન જીવેના અનન્ત કર્મોના નિર્જરાનુ કારણ બને છે તેમાં કઈ અચરજની વાત છે?
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अध्य० २. उ. १.
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किं कृत्वा संयमानुपालनतत्परा भवेदित्याह - ' अन्तरं च खलु इमं सम्प्रेक्ष्य' इमं=तपःसंयमकरणरूपम् अन्तरम् = अवसरम्, च= समुच्चये, खलु निश्चयेन सम्प्रेक्ष्य =सम्यग्दृष्ट्वा अनन्तकालदुर्ल ममानुपजन्मार्यक्षेत्रशोभनकुलोत्पत्तिबोधिलाभसर्वविरतिप्राप्तिरूपावसरोऽनादौ संसारे जीवेन लब्ध इत्यनुभूय “ धीरो मुहूर्तमपि नो प्रमादयेत् " धीरः = परीप होपसर्गसहने दृढः संयमी नो प्रमादयेत् = प्रमादं न कुर्यात् । भी संयम का सेवन जीवों के अनन्तकर्मों की निर्जरा का कारण हो तो इस में कौनसी अचरज की बात है ? |
अज्ञानी जीव करोड़ो भवों से भी जितने कर्मों की निर्जरा नहीं कर सकता है उतने कर्मों की निर्जरा तीन गुप्ति के धारक -संयमी महात्मा उच्छ्वास मात्र में कर देता है, यह सब महिमा संयम की ही है इसी लिये संयम भाव अचरजकारी है । इसलिये मनुष्य जन्म को सफल बनाने के लिये यह आवश्यक कर्तव्य है कि संयम का आराधन किया जावे | यह दृढ़ विश्वास रखना चाहिये कि - संयमप्राप्ति की योग्यता मनुष्यजन्म में ही है, इसमें भी यदि अनार्य क्षेत्र में जन्म हुवा वहां अनार्यों की संगति मिली तो जिस प्रकार कड़वी तुंबड़ी के संग से दूध की हालत होती है ठीक यही हालत इस आत्मा की भी हो जाती है । रातदिन दुर्विचारों का उनकी संगति में पड़ने से तांता लगा रहता है, धर्म कर्मका उस अवस्था में भान नहीं रहता - बेहोशी का नशा ही सवार रहता है, मेरा शुभ कर्तव्य क्या है ? हेय क्या है ? उपादेय क्या है ? भक्ष्य क्या है ? अभक्ष्य क्या है ? इत्यादि समस्त वानों का विचार उससे दूर रहता है ।
અજ્ઞાની જીવ કરોડો ભવેાથી પણ જેટલા કર્મોની નિર્જરા નથી કરી શકતા તેટલા કર્મોની નિરા ત્રણ ગુપ્તિના ધારક સચી મહાત્મા ામમાત્રમાં કરી લે છે, આ બધા મહિમા મધ્યમા જ છે. માટે સંયમભાવ અચરજકારી છે, માટે મનુષ્યજન્મને સફળ બનાવવા માટે એ આવશ્યક કર્તવ્ય છે કે સય. મનુ આરાધન કરવામાં આવે. એ દૃઢ વિશ્વાસ રાખવા જોઈ એ કેસયમ પ્રાપ્તિની ચેાગ્યતા મનુષ્યજન્મમાં જ છે તેમાં પણ કદાચ અનાર્ય ક્ષેત્રમાં જન્મ થયા ત્યાં અનાર્યાંની સંગતિ મળી તો જે પ્રકારે કડવી તુંબડીના સંગથી દૂધની હાલત થાય છે કીક તે જ હાલત આ આત્માની પણ થાય છે, રાતદિવસ દુર્વિ ચારાનુ તેની ગતિમાં પડવાથી તાંતો લાગ્યા રહે છે, ધર્મકર્મનું આ અવ સ્થામાં ભાન નહિ રહેતું હાવાથી બેહેાગીના નશા રહ્યા કરે છે. મારૂં શુભ કર્તવ્ય शुं छे ? ऐय शुछे ? उपाय शुं छे ? लक्ष्य शुछे ? लक्ष्य शुठे ? हत्यादि समस्त
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आचाराङ्गसूत्रे जब इस प्रकार की परिस्थिति अनार्यों के संग से उपस्थित होती है तब वहां पर संयम जैसी शुद्ध प्रवृत्ति की प्राप्ति कैसे हो सकती है? किन्तु नहीं। यदि आर्यक्षेत्र में जन्म हुवा तो भी दुष्कुल में जन्म मिला तो वहां उसकी प्राप्ति नहीं हो सकती; कारण कि वहां पर इतनी योग्यता ही नहीं कि जिससे संयमभावको धारण करने की भावना जागृत हो, हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह जैसे पांच आस्रवों काही विशेपतर वहां संग्रह होता रहता है जिससे उस मनुष्यजन्म का पाना न पाने के ही तुल्य हो जाता है। मनुष्य पर्याय भी मिली, आर्य क्षेत्र मिला
और उत्तम कुलमें जन्म मिला, परन्तु जो मूल में ही की हुई तो उस जन्म से भी क्या लाभ हो सकता है ? अतः वह जन्म तभी सफल हो सकता है जो बोधि की प्राप्ति हो । यदि बोधि की प्राप्ति ही न हुई तो सर्वविरति कहां से होगी। सर्वविरति-साधुका चारित्र ही श्रेय की प्राप्तिका प्रधान कारण कहा गया है इसलिये इन तमाम बातों की प्राप्ति की उत्तरोत्तर दुर्लभता जानकर धीर पुरुष को चाहिये कि वह अपने जन्म को सफल करने के लिये संयमाराधन के प्रति मुहूर्त मात्र भी प्रमाद नहीं करे। इसी बात का टीकाकारने-" अनन्तकालदुर्लभमानु
વાતો વિચાર તેનાથી દૂર રહે છે જ્યારે આ પ્રકારની પરિસ્થિતિ રહે છે ત્યારે આ ઠેકાણે સંયમ જેવી શુદ્ધ પ્રવૃત્તિની પ્રાપ્તિ કેવી રીતે થઈ શકે ? બલકે નહિ જ. કદાચ આ ક્ષેત્રમાં જન્મ થયે તો પણ દુષ્કુલમાં જન્મ થયો તો ત્યાં પણ તેની પ્રાપ્તિ થઈ શકતી નથી, કારણ કે તે જગ્યાએ એટલી ગ્યતા જ નથી કે જેનાથી સંયમભાવને ધારણ કરવાની ભાવના જાગ્રત થાય હિંસા, જુડ, ચેરી, કુશીલ અને પરિગ્રહ જેવા પાંચ આરોનું જ વિશેષતર ત્યા સંગ્રહ થયા કરે છે તેથી તે મનુષ્યજન્મ મળે ના મળ્યા બરાબર જ થઈ જાય છે. મનુષ્યપર્યાય પણ મળી આર્યક્ષેત્ર મળ્યું. ઉત્તમ કુળમાં જન્મ પણ મળ્યું પરંતુ મૂળમાં જ કમીના બની છે તે જન્મથી જ કર્યો લાભ મળી શકે છે માટે તે જમે ત્યારે સફળ બની શકે છે જ્યારે તેનાથી બેધિની પ્રાપ્તિ થાય કદાચ બોધિની પ્રાપ્તિ જ ન થઈ તો સર્વવિરતિ ક્યાથી થશે સર્વવિરતિ-સાધુનું ચારિત્ર જ શ્રેયની પ્રાપ્તિનું પ્રધાન કારણ કહેવામાં આવ્યું છે, માટે આ તમામ વાતોની પ્રાપ્તિની ઉત્તઉત્તર દુર્લભતા જાણીને ધીર પુરૂષને જોઈએ કે પિતાના જન્મને સફળ કરવા સંયમારાધન પ્રતિ મુહૂર્ત માત્ર પણ પ્રમાદ ન કરે. આ વાતને ટીકાકારે
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अध्य० २. उ. १ षजन्मा-ऽऽर्यक्षेत्र-शोभनकुलोत्पत्ति-बोधिलाभ- सर्वविरतिप्राप्तिरूपावसरोऽनादौ संसारे जीवेन लब्धः, इत्यनुभूय धीरो मुहूर्तमपि नो प्रमादयेत्” इन पक्तियोंसे खुलाशा किया है । अर्थात् दुर्लभ मनुष्यजन्म, आर्यक्षेत्र, उच्चकुल में जन्म, बोधिका लाभ, सर्वविरतिरूप चारित्र की प्राप्तिरूप अवसर जीवने अनन्तकालसे प्राप्त किया है, ऐसा विचार कर धीर वीर संयमीजन मुहूर्त मात्र भी संयमाराधन करने में प्रमादशील न बनें । मनुष्यजन्म का पाना बहुत ही दुर्लभ है। इसकी दुर्लभता शास्त्रकारोंने दश १० दृष्टान्तों से शास्त्र में प्रकट की है। प्रथम तो मनुष्यजन्म की प्राप्ति होना दुर्लभ है, उसमें भी आर्यक्षेत्र में जन्म मिलना यह और भी महादुर्लभ है, आर्यक्षेत्र में भी उच्चकुल में जन्म पाना यह
और भी दुर्लभ है, इस में भी बोधिका लाभ होना और कठिनतर है, इसमें भी सर्वविरतिरूप चारित्र का आराधन करना और भी दुर्लभतम है, अतः इस अनादि संसार में यदि इस पूर्ण साधनसामग्रीकी प्राप्ति तेरे हाथ आई है तो हे प्राणी ! तू संयमभाव से एक मुहूर्त भी प्रमादी मत बन, धीर वीर होकर इसका-कितने ही उपसर्ग आयें कितने ही चाहे परीषहों का ढेर तेरे मार्ग में आडा पड़ा हो तो भी आराधन " अनन्तकालदुर्लभमानुषजन्माऽऽर्यक्षेत्रशोभनकुलोत्पत्तिबोधिलाभसर्वविरतिप्राप्तिरूपावसरोऽनादौ संसारे जीवेन लब्धः, इत्यनुभूय धीरो मुहूर्तमपि नो प्रमादयेत्' આ પંક્તિઓથી ખુલાસો કરેલ છે, અર્થાત્ દુર્લભ મનુષ્યજન્મ, આર્યક્ષેત્ર, ઉંચકુળમાં જન્મ, બેધિને લાભ, સર્વવિરતિરૂપ ચારિત્રની પ્રાપ્તિરૂપ અવસર જીવે અનંતકાળથી પ્રાપ્ત કરેલ છે. એ વિચાર કરી ધીર વીર સંયમી જન મુહૂર્ત માત્ર પણ સંયમારાધન કરવામાં પ્રમાદશીલ ન બને. મનુષ્યજન્મનું મળવું ઘણું જ દુર્લભ છે, તેની દુર્લભતા શાસ્ત્રકારોએ ૧૦ દૃષ્ટાન્તોથી શાસ્ત્રમાં પ્રગટ કરી છે. પ્રથમ તે મનુષ્યજન્મની પ્રાપ્તિ થવી દુર્લભ છે, તેમાં પણ આર્યક્ષેત્રમાં જન્મ મળવો એ મહાદુર્લભ છે, આર્યક્ષેત્રમાં પણ ઉંચા કુળમાં જન્મ થે એ પણ દુર્લભ છે, તેમાં પણ બોધિને લાભ થવે ઘણું જ કઠિનતર છે. તેમાં પણ સર્વવિરતિરૂપ ચારિત્રનું આરાધન કરવું તે દુર્લભતમ છે. માટે આ અનાદિ સંસારમાં કદાચ આ પૂર્ણ સાધન સામગ્રીની પ્રાપ્તિ તારે હાથે આવી છે તો તે પ્રાણી! તું સંયમભાવથી એક મુહૂર્ત પણ પ્રમાદી બનીશ નહિ. ધીર વીર થઈ તેમાં કેટલાએ ઉપસર્ગ આવે અને ગમે તેટલા પરિષહોના ઢગલા તારા માર્ગમાં આડા આવે તો પણ સંયમનું આરાધન કર. જેથી પ્રાપ્ત થયેલે આવો અવસર તારા
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आचाराङ्गसूत्रे
छद्मस्थोपयोगो मुहूर्तमात्रमवतिष्ठते, तेनात्र मुहूर्तमिति कथितम् ; शास्त्रसम्मतं तु समयमात्रमपीत्यर्थः “ समयं गोयम मा पमायए " इति वचनात् ।
पूर्वपुण्योदयेन मानवजन्म लब्धवान, तत्रापि संसारासारतासमालोचनेन विरतो भूत्वा क्षणमपि प्रमादी न भवेदित्यत्र हेतुमुपदर्शयति- “ अस्येति वयो यौवन वा " इति, वयः = कौमारयौवनादि अत्येति = अतिगच्छति व्यतीतं भवतीत्यर्थः, यौवनं वा व्यतिगच्छति, वयोमध्येऽपि यौवनस्य सत्त्वात्पुनरुपादानं तस्यैव प्राधान्यं नान्यस्येति ज्ञापनाय, धर्मार्थकामादिसाधनानां तदधीनत्यात्, मेघच्छायासन्ध्यारागवद् यौवनं स्पल्पकालस्थायीति मत्वा यथा व्यर्थं तन्न व्यतीयात्तथा संयमिना चामादिना कार्यमिति भावः ॥ सू० ४ ॥
कर, ताकि प्राप्त हुआ यह अवसर तेरे हाथ से न निकलने पावे । परीपह और उपसर्ग के आने पर भी जो संयम पथ से विचलित न हो उसका ही नाम धीर है। सच्चा धीर वीर वही है - जो इस पवित्र संयम का आराधन कर अपने जन्मको सफल बनाता है ।
यहां पर जो 'एक मुहूर्त भी प्रमाद न करे' ऐसा कहा है वह छद्मस्थ जीवों के उपयोग की अपेक्षा कथन समझना चाहिये, क्यों कि छद्मस्थों का उपयोग एक मुहूर्त तक ही स्थिर रहता है- फिर उपयोगान्तर हो जाता है। शास्त्रीय सिद्धान्त तो इस बात का प्रतिपादन करता है कि एक समय भी प्रमाद मत करो - " समयं गोयम ! मा पमायए " - हे गौतम एक समय भी प्रसादी मत बन ।
इसलिये सूत्रकार इस बात का विचार कर संबोधन करते हुए कहते हैं कि हे प्राणि! किसी विशिष्ट पूर्वपुण्योदय से ही तुझे इस दुर्लभतम હાથથી ચાલ્યા ન જાય. પરીષહુ અને ઉપસગ આવવા છતા જે સયમમાગ થી વિચલિત ન થાય તેનુ નામ જ ધીર છે. સાચા ધીર વીર તે છે જે આ પવિત્ર સંયમનું આરાધન કરી પોતાના જન્મને સફળ મનાવે છે,
આ ઠેકાણે જે ‘ એક મુષ્કૃત પણ પ્રમાદ ન કરે' એવુ કહ્યુ છે તે છદ્મસ્ય જીવાના ઉપયોગની અપેક્ષા કથન સમજવુ જોઈ એ. કારણ કે છદ્મસ્થાના ઉપચોગ એક મુહૂત સુધી જ સ્થિર રહે છે પછી ઉપયાગાન્તર થઈ જાય છે. શાસ્ત્રીય સિદ્ધાન્ત તો આ વાતનુ પ્રતિપ્રાઇન કરે છે કે એક સમય પણ પ્રમાદ नरे “ समयं गोयम ! मा पमायए " हे गौतम! मेड समय पशु प्रभाही न मन. આના માટે સૂત્રકાર આ વાતના વિચાર કરી સ ખોધન કરી કહે છે કે-હે પ્રાણી ! કોઈ વિશિષ્ટ પૂર્વ પુણ્યાતયથી જ તને આ દુર્લભતમ મનુષ્યભવની પ્રાપ્તિ થઈ
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अध्य० २. उ १ मनुष्यभव की प्राप्ति हुई है तो उसे सफल बनाने के लिये तू संसार की असारता का विचार कर, ताकि तेरा मन सांसारिक पदार्थों में लुब्ध न बने । संसार की असारता का विचार ही तो सांसारिक पदार्थों में तुच्छता की भावना जागृत करता है । जिन पदार्थों के लिये यह रात दिन एक कर डालता है, उन पदार्थों का जब स्वरूप विचार करता है तो नियमतः इसके चित्तमें उनसे विरक्तिभाव जागृत होता है, दृष्टिका भेद ही तो विरक्तिभाव है । जिन पदार्थों के परिणमन में यह अपना परिणमन मानता था, तथा प्राप्ति न होने पर आकुलित हो उठता था, उन्हीं पदार्थों में असारता या तुच्छता की भावना जागृत होने पर उनसे इसकी दृष्टि बदल जाती है और 'भोगों के निमित्त से आत्मा में कर्म का बन्ध होता है ऐसा समझ कर उनसे उदासीन वृत्ति धारण कर लेता है, तब जिस प्रकार एक घास के तिनखे में साधारण मनुष्यको भी न राग होता है और न देष होता है, ठीक इसी प्रकार की प्रवृत्ति, परपदार्थों में दृष्टिभेद होने से इसकी हो जाती है, तब यह प्रत्येक पदार्थ के परिणमन में ज्ञाता-भ्रष्टा-स्वरूप ही रहता है, आकुलित या मोही नहीं बनता। यही परिस्थिति इसे संयमभाव में दृढ़ रूपसे स्थिर रखती है अतः यह एक क्षण भी प्रमादी नहीं बनता, इसी बात का खुलाशा-"अत्येति वयो यौवनं च” इस वाक्य से सूत्रછે તો તેને સફળ બનાવવા માટે તું સંસારની અસારતાને વિચાર કર, જેથી તારું મન સાંસારિક પદાર્થોમાં લુખ્ય ન બને. સંસારની અસારતાને વિચાર જ તો સાંસારિક પદાર્થોમાં તુચ્છતાની ભાવના જાગ્રત કરે છે, જે પદાર્થો માટે તે રાત દિવસ એક કરી નાખે છે, જ્યારે તે પદાર્થોનું સ્વરૂપ વિચાર કરે છે તો નિયમતઃ તેના ચિત્તમાં તેનાથી વિરક્તિભાવ જાગ્રત થાય છે. દષ્ટિને ભેદ તે જ વિરક્તિભાવ છે. જે પદાર્થોના પરિણમનમાં તે પિતાનું પરિણમન માનતો હતો તથા પ્રાપ્તિ ન થવાથી આકુલિત બનતું હતું, તે પદાર્થોમાં અસારતા અગર તુચ્છતાની ભાવના જાગ્રત થવાથી તેનાથી તેની દષ્ટિ બદલી જાય છે, અને “ભોગોના નિમિત્તથી આત્મામાં કર્મને બંધ થાય છે એવું સમજીને તેનાથી ઉદાસીનવૃત્તિ ધારણ કરી લે છે, ત્યારે જે પ્રકારે એક ઘાસના તણખલા માટે સાધારણ મનુષ્યને પણ રોગ થતો નથી તેમ દ્વેષ થતો નથી, ઠીક તે પ્રકારની પ્રવૃત્તિ, પર પદાર્થોમાં દષ્ટિભેદ થવાથી તેની થઈ જાય છે. ત્યારે તે પ્રત્યેક પદાર્થના પરિણમનમાં જ્ઞાતા-દ્રષ્ટા સ્વરૂપ જ રહે છે, આકુલિત અગર મહી બનતું નથી. આ પરિરિથતિ આ સમભાવમાં દઢ રૂપથી સ્થિર રાખે છે, માટે તે એક ક્ષણ પણ પ્રમાદી બનતું નથી. આ વાતને
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आचाराङ्गसूत्रे
कारने किया है । प्रमादी नहीं बनने में यह हेतुरूपसे कथन किया है । कौमार यौवनादि अवस्थाओं का नाम वय है, सूत्रकार कहते हैं किदेखो हे भव्य जीव ! परपदार्थों में रागी द्वेषी या मोही होते२ कौमार यौवनादि कई पूर्व भवों की अवस्थाएँ व्यतीत हो चुकी हैं, परन्तु तूने अपना कुछ भी सुधार नहीं किया, अतः यह वर्तमान समय जो तुझे मिला है इसे सफल करने की कोशिश कर, इस भवकी भी ये बालयौवनादि अवस्थाएँ व्यतीत हो जानेवाली हैं- स्थिर रहनेवाली नहीं हैं, इस लिए अब तो इनसे अपना कुछ कल्याण करले । माना कि -बाल अवस्था में अल्पज्ञान होने से आत्मा कल्याणमार्ग के पथ पर अग्रसर न हो सके तो भी यौवन अवस्था में तो हो सकता है, परन्तु तू तो उसे भी व्यर्थ खो बैठता है, क्योंकि सब अवस्थाओं में यौवन अवस्था की ही मुख्यता है, इस अवस्था में ही यह प्राणी सब कुछ करता रहता है, धर्म, अर्थ और कामादि साधन सब इसी अवस्था में प्राप्त किये जाते हैं, इसी ख्याल से ' वय ' इसमें उसका समावेश होनेपर भी " यौवन " इस पद का पृथक् रूपसे ग्रहण किया है, अतः वह यौवन अवस्था व्यर्थ व्यतीत न हो इस प्रकार से संयमी पुरुष को वह अवस्था अप्रमाददशासमन्वित होकर
सासो – “ अत्येति वयो यौवनं च ” मा वाडयथी सूत्रअरे उरेस छे. प्रभाही નહિ બનવામા આ હેતુરૂપથી કથન કરેલ છે. કૌમાર યૌવનાદિ અવસ્થાઓનુ નામ વય છે. સૂત્રકાર કહે છે કે-દેખા હૈ ભવ્ય જીવ ! પરપદાર્થોમા રાગી દ્વેષી અગર માહી થતાં કૌમાર–યૌવનાદિ અનેક પૂર્વભવાની અવસ્થાએ વ્યતીત થયેલ છે. પરંતુ તે પોતાના કાંઇ પણ સુધાર કર્યો નહિ, માટે આ વ`માન સમય જે તને મળેલ છે તેને સફળ કરવાની કેશિશ કર આ ભવની પણ એ માલ યૌવનાદિ અવસ્થાએ વ્યતીત થઈ જવાની છે—સ્થિર રહેવાવાળી નથી, માટે હવે તેા તેનાથી પોતાનુ કલ્યાણ કરી લ્યેા. માનીલ્યા કે-માલ અવસ્થામાં અલ્પજ્ઞાન હેાવાથી આત્મા કલ્યાણ માર્ગોમાં અગ્રેસર ન ખની શકે તો પણ યૌવન અવસ્થામાં તો ખની શકે છે, પરંતુ તુ તો તેને પણ વ્યર્થ ખાઇ બેસે છે, કારણ કે બધી અવસ્થા એમાં યૌવન અવસ્થાની જ મુખ્યતા છે. આ અવસ્થામા જ પ્રાણી કાંઈક પણ કરી શકે છે. ધર્મ, અર્થ અને કામાદ્રિ સાધન બધુ... આ અવસ્થામાં પ્રાપ્ત થાય छे, मे भ्यासथी 'वय' तेमां तेन समावेश होवा छतां यशु " यौवन” मा પદનુ પૃથક્ રૂપથી ગ્રહણ કરેલ છે માટે તે ચોવન અવસ્થા વ્યર્થ વ્યતીત ન ચાય એ પ્રકારથી સયમી પુરૂષે અવસ્થા અપ્રમાદદશાસમન્વિત બની
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अध्य० २ उ. १
'संयमानुपालनं श्रेयः' इति यो न जानाति पुत्रकलत्रासक्तः संसारासारसरणिमनुवर्तमानोऽनाराधितकल्याणमार्गोऽसंयमजीविताभिनिवेशवान् घातकारिणीं क्रियां करोतीति दर्शयति- “ जीविए " - इत्यादि ।
प्राणी बहुशः सच्वो
मूलम् - जीविए इह जे पसत्ता से हंता छेत्ता भेत्ता लुपिता विलुपिता उदविता उत्तासइता अकडं करिस्सामित्ति मण्णमाणे ॥ सू० ५ ॥
छाया - जीवित इह ये प्रमत्ताः स हन्ता छेत्ता भेत्ता लुम्पयिता विलुम्पयिता अपद्रावयिता उत्रासको कृतं करिष्यामीति मन्यमानः | सू० ५ ॥
सफल बना लेनी चाहिये, क्योंकि यह अवस्था सदा स्थायी नहीं है, संध्याराग और छायाकी तरह स्वल्पकाल में ही देखते २ नष्ट होजानेवाली है, अतः इसकी सफलता करने में ही बुद्धिमानी है ॥ सू० ४ ॥ जो व्यक्ति इस बात को नहीं समझता है कि- 'संयम का पालन करना हितावह है' वह पुत्र कलत्रादि पदार्थों में आसक्तचित्त होकर इस असार संसार में ही भ्रमण करता रहता है, कल्याणमार्ग का आराधन नहीं करने के कारण असंयम जीवन में ही वह अपना समय व्यतीत करता है, और संयम जीवन धारण करने की बात कहे जाने पर वह अपने दुरभिनिवेश के वशवर्ती हो उस तर्फ जरा भी ध्यान नहीं देता, तथा ऐसे २ कार्य करता रहता है कि जिनके करने में अनेक त्रस जीवों का घात होता है इसी बातको सूत्रकार प्रकट करते हैं
સફ્ળ મનાવી લેવી જોઇએ, કારણ કે આ અવસ્થા સદા સ્થાયી નથી, સધ્યાના રાગ અને મેઘછાયા ની માફક સ્વલ્પકાળમાં જ દેખતાં-દેખતાં નષ્ટ થવાવાળી છે, માટે તેની સફળતા કરવામાં જ બુદ્ધિમાની છે. ૫ સૂ૪ ॥
જે વ્યક્તિ, ‘સંયમનું પાલન કરવું તે હિતાવહ છે’ તેમ સમજતો નથી તે પુત્રકત્રાદિ પદાર્થોમાં આસક્તચિત્ત થઇ આ અસાર સંસારમાં જ ભ્રમણ કરતો રહે છે, કલ્યાણુ માનું આરાધન નહિ કરવાના કારણે અસંયમ જીવનમાં તે પેાતાના સમય વ્યતીત કરે છે, અને સંયમ જીવન ધારણ કરવાની વાત કહેવા ઉપર તે દુરભિનિવેશવશવી હાઈ તેના તરફ જરા પણ ધ્યાન આપતો નથી. તથા એવુ કાર્ય કરતો રહે છે કે જે કરવામાં અનેક ત્રસ જીવાના ઘાત થાય છે તે વાતને સૂત્રકાર પ્રગટ કરે છે—
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आचाराङ्गसूत्रे
टीका – “ जीवित इह ये प्रमत्ताः " इति, इहास्मिन् जीविते प्रत्यहं चयोऽतिक्रमेऽप्यसंयमजीविते, प्रमत्ताः = विषयकपाये प्रमादवन्तो भवन्तीति सम्बन्धः, प्रमत्तो हि षड्जीवनिकायोपमर्दने प्रवृत्तोऽनेकार्थकरी विविधां विरुद्धां सावद्यां क्रियां विदधातीत्याह - " सहन्ता " इति सः शब्दादिविषयगृद्धः प्रमादी हन्ता = पृथिव्य - तेजोवायुवनस्पतित्रसानां प्राणिनां नाशकः 'छेत्ता' वनस्पतिप्रभृतीनां, कर्णनासिकादीनां च ' भेत्ता' पृथिव्यादिनिकायानां, 'लुम्पयिता' ग्रन्थिभेदनादिना, 'विलुम्पयिता ' ग्रामघातादिकर्मणा, 'अपद्रावयिता ' विषशस्त्रादिप्रयोगेण मारकः, 'उन्नासकः 'लोष्टप्रक्षेपादिनोद्वेजको लोकानां भवतीति सर्वत्र योज्यम् ।
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'जीविए इह जे ' इत्यादि । इस जीवन में जो प्रमादी बना हुआ है। वह 'यह कार्य मेरे पूर्वजोंने नहीं किया है, इसे मैं करूँगा' ऐसा समझकर बस स्थावर जीवों का घातक होता है, उनका छेदन करनेवाला होता है, उनका भेदन करनेवाला होता है, उनका लुम्पन करनेवाला होता है, विलुम्पन करनेवाला होता है, अपद्रावक होता है, उत्त्रासक होता है ।
जीवन उनका ही सफल है जो इस अल्पजीवन में भी संयम द्वारा अपना आत्महित कर लेते हैं । धन्य है उन महात्माओं को जो विपुल विभूति के भोक्ता होकर भी उसे जीर्ण तृण के समान छोड़ देते हैं, और आत्मकल्याण के मार्ग में अग्रसर हो जाते हैं, चक्रवर्तियों या तीर्थकरों के पास किस वस्तुकी कमी थी, जिनका वैभव अतुल्य था, छह खंडकी विभूतिके जो भोक्ता थे, देवता तथा इन्द्र जिनकी सेवा में सदा
'जीविए इह जे' इत्याहि मा भवनभां ने प्रभाही भने छे ते 'मा કાર્ય મારા પૂર્વજોએ કરેલ નથી એ હું કરીશ' એવું સમજીને ત્રમ સ્થાવર જીવાના ઘાતક થાય છે, તેનું છેદન કરવાવાળા થાય છે, તેનુ લેન કરવાવાળા થાય છે, તેનુ લુમ્પન કરવાવાળા થાય છે, વિદ્યુમ્પક થાય છે, અપદ્રાવક થાય છે, ઉત્રાસક થાય છે.
જીવન તેનું જ સફળ છે જે આ અલ્પ જીવનમા પણ સંયમદ્વારા પોતાનુ આત્મહિત કરી લે છે. ધન્ય છે તે મહાત્માઓને જે વિપુલ વિભૂતિના ભાક્તા બનીને પણ તેને જીતૃણુની સમાન છેડી દે છે, અને આત્મકલ્યાણના માર્ગમાં અગ્રેસર થાય ચક્રવર્તિ અગર તીર્થંકરોની પાસે કઇ વસ્તુની ખેાટ હતી, જેના વૈભવ અતુલ્ય હતો. છ ખડની વિભૂતિના જે ભેાક્તા હતા. દેવતા અને ઇંદ્ર જેની સેવામા સદા ઉપસ્થિત રહેતા હતા, એક ક્ષણ માત્ર પણ જેણે સાંસા
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आचाराङ्गसूत्रे शुक्ष्व न तावन्निापारों, जिमितुं नापि चाद्य मझ्यामि । नापि च वत्स्यामि गृहे, कर्तव्यमिदं ववध ॥ २ ॥ अपि चजनयन्त्यर्जने दुःखं, तापयन्ति विपत्तिषु।। मोहयन्ति च सम्पत्ती, कथमाः सुखावहाः ? ॥३॥
पुनरप्यालोमिनोऽनुचितकरणे प्रवृत्तिं दर्शयति-"आलुम्पः" इति, आ= समन्ताल्लुम्पतीत्यालुस्पो लुण्टाको हठाद्धनापहारकः, स च लोभमहाशीविषदष्टो विस्मृतकर्तव्याकर्तव्यो धनमेवार्जनीय-मिति मन्यमानः कटुककटुकतरविपाकजनक पहिचानने के लिए पुनः पुनः मुद्रा-निशान करता रहता है ॥१॥ वह न पूरा खाता है न अच्छा खाने के लिये प्रवृत्त होता है तथा बोलता है कि-मैं आज ल स्नान करूँगा और न घर पर ही रह सकूँगा, क्योंकि आज मुझे बहुत काम करना है ॥२॥ यह धन उपार्जनकाल में दुःख उत्पन्न करनेवाला है, उसके नष्ट होने पर वह परमदुःख का कारण होता है, बढ़ जाने पर वह मोहकषाय को बढ़ाता है तो फिर कहो कि धन सुखका कारण कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता। अर्थ अनर्थ का ही सूल है किन्तु सुख का नहीं ॥३॥
अर्थलोभी और भी अयोग्यकार्य में प्रवृत्ति करता है इसे प्रकट करते हैं-आलम्प:-'आ-समन्तात् लुम्पति-इति आलुम्पः लुण्टाका हठाद्धनापहारकः' जो जबर्दस्ती से दूसरों का धन लूटे-उसे आलुम्प कहते हैं । लूट यह इसलिये मचाता है कि यह लोभरूपी महासर्प से डसा हुआ रहता है। अतः इसे अपने कर्तव्याकर्तव्य का कुछ भी भान જગ્યા ઉપર તે ધનની પિછાણ માટે નિશાની પણ કરે છે ૧. તે પુરું ખાતે પણ નથી તેમજ સારું ખાવાને પ્રવૃત્ત થતું નથી. અને બોલે છે કે હું આજે સ્નાન કરવાનું નથી તેમજ ઘેર પણ રહેવાને નથી, કારણકે આજે મારે ઘણું કામ છે (૨) આ ધન, ઉપાર્જનકાળમાં દુઃખ ઉત્પન્ન કરવાવાળ છે અને તેની નાશ થવાથી વધારે દુખનું કારણ થાય છે. વધી જતાં ઉપર તે મેહકષાયને વધારે કરે છે તે હવે કહે ! ધન સુખનું કારણ કેવી રીતે થાય ? અર્થાત્ થઈ શકતું નથી અર્થ અનર્થનું જ મૂળ છે વણ સુખનુ નહિ + ૩ છે
અર્થાભી વળી અગ્ય કાર્યમાં પણ પ્રવૃત્તિ કરે છે તે પ્રકટ કરે છે - - ५ 'आ-समन्तात् लुम्पति-इति आलुम्प-लुण्टाक. हठाद्धनापहारका જબરાઈથી બીજાનુ ધન લુંટે–તેને આલુમ્પ કહે છે લુટ તે એવી મચાવે જાણે ભરૂપી મહાપથી ડસાયેલું હોય, અને તે વખતે ફર્તવ્યા
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अध्य० २. उ. १
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अत्र मूले पूर्व ' प्रमत्ताः' इति बहुवचनप्रसङ्गे हन्तेत्यादौ सर्व त्रैकवचनं तु जात्येवविवक्षया विज्ञेयम् । अनेकानर्थकर क्रियाप्रदर्शनं च संसाराभिष्वङ्गपरः कालाकालसमुत्थायी सततं परहननादिरूपां नानाविधां क्रियां करोतीत्यर्थबोधनायेति तात्पर्यम् ।
उपस्थित रहते थे । एक क्षण मात्र भी जिन्हें सांसारिक कष्ट का अनुभव नहीं होता था, वे भी इस संयम जीवन की प्राप्ति के लिये उसे तृणवत् त्याग कर आत्मकल्याण के मार्ग में अग्रगामी हुए ।
यह जानी हुई बात है कि सब भरत चक्रवर्ती जैसे नहीं हैं । जहाँ आरंभ और परिग्रह का निवास है, वहां शान्तिमय जीवन नहीं, निराकुलतामय आत्मपरिणति नहीं, यत्राचारपूर्वक प्रवृत्ति नहीं, इन्द्रियसंयम अथवा प्राणिसंयम जैसी सुन्दर वस्तुके वहां पर दर्शन नहीं । रातदिन आधि-व्याधि और उपाधि के भार से दबा हुआ यह प्राणी आत्मशांचे निर्मल स्रोत से वञ्चित ही रहा करता है - सिर्फ झूठी कल्पना से ही अपने को सुखी और शांति का उपभोक्ता मानता रहता है। जहां जितना अधिक आरंभ होगा वहां उतना ही अधिक जीवों का उपमर्दन होगा। आरंभ परिग्रह के सद्भाव में यतनापूर्वक प्रवृत्ति ही नहीं हो सकती । अयतनापूर्वक प्रवृत्तिका नाम ही प्रमत्त दशा है । इस प्रमत्त दशाकी निवृत्ति, सर्वविरतिरूप संयम के अनुष्ठान विना नहीं हो सकती !, क्यों कि संयम के अनुष्ठान में बस और स्थावर રિક કષ્ટના અનુભવ કરેલ નથી. તે પણ આ સંયમ જીવનની પ્રાપ્તિ માટે તેને તૃણવત્ ત્યાગ કરી આત્મકલ્યાણના માર્ગમાં અગ્રગામી થયા.
એ જાણેલી હકીકત છે. બધા ભરત ચક્રવતી જેવા નથી. જ્યાં આરંભ અને પરિગ્રહના નિવાસ છે કે ત્યાં શાંતિમય જીવન નહિ. નિરાકુલતામય આત્મપરિણતિ નહિ યત્નાચારપૂર્વક પ્રવૃત્તિ નહિ, ઈન્દ્રિયસંયમ અથવા પ્રાણિસચમ જેવી સુદર વસ્તુનુ' જ્યાં 'દર્શન નથી. રાત-દિવસ આધિ-વ્યાધિ અને ઉપાધિના ભારથી દબાએલા આ પ્રાણી આત્મિક શાંતિના સાચા નિર્મળ સ્રોતથી દૂર જ રહ્યા કરે છે. ફક્ત જુઠી કલ્પનાથી જ પેાતાને સુખી અને શાંતિને ઉપભોક્તા માનતો રહે છે. જ્યાં જેટલા અધિક આરંભ થશે ત્યાં તેટલું જ અધિક છવાનું ઉપમ ન થશે. આરંભ પરિગ્રહના સદ્ભાવમાં ચતનાપૂર્વક પ્રવૃત્તિ જ બની શકતી નથી, અયતનાપૂર્ણાંક પ્રવૃત્તિનું નામ જ પ્રમત્તદશા છે. આ પ્રમત્તદશાની નિવૃત્તિ --સવિરતિરૂપ સંચમના અનુષ્ઠાન વિના ખની શકતી નથી, કારણ કે સંયમના અનુ
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आचारागसूत्रे जीवोंके उपमर्दन का त्याग नवकोटिसे हो जाता है।
इस संयमाराधन के लिये यह नहीं कहा जा सकता है कि-अभी समय नहीं है, समय आने पर संयमका आराधन कर लेंगे। वे तो एक घहाना लेकर संयमाराधन से विमुख हो रहे हैं, उनकी यह आत्माकी कमजोरी है, जब तक यह कमजोरी नहीं हटाई जावेगी, तब तक असंयम जीवन से छुटकारा भी नहीं मिल सकता है । संयमाराधन के सम्मुख होने के लिये आत्मकमजोरी को जानने की और जान कर उसे दूर करने की सख्न आवश्यकता है। हम जानते हैं कि हमारे घरमें सांप घुसा बैठा है परन्तु जब तक उसे हम नहीं निकाल देते तब तक हमारा जानना हमारे लिये किस मतलब का। ___जीवन अल्प है। स्त्री पुनादिकों की प्राप्ति इस जीवको अनन्त वार हो चुकी है। संयोग और वियोग, ये दो ही नाटक संसार के पर्दे पर होते रहते हैं। हमारे साथ जो जन्मे थे वे चले गये, हम भी कभी न कभी चले जावेंगे, परन्तु सर्वविरति-संयमाराधन का अवसर इस जीव को हाथ नहीं आया। यदि आया होता तो-जो हमारा भव भवमें संसार में चक्कर लग रहा है-वह कभी का बंद हो जाता, अतः जब जीवन ઉડાનમાં ત્રસ અને સ્થાવર જીના ઉપમર્દનને ત્યાગ નવ કેટિથી થઈ જાય છે
આ સંયમારાધન માટે એમ કહેવામાં નથી આવતુ કે હમણું સમય નથી પણ સમય આવશે ત્યારે સંયમનું આરાધન કરી લેશું. એ તો એક બહાનું માત્ર છે. જે સમયનું બહાનુ લઈ સંધમારાધનથી વિમુખ થઈ જાય છે તે તેના આત્માની કમજોરી છે ત્યાં સુધી એ કમજોરી દૂર કરવામાં નહિ આવે ત્યાં સુધી અસ યમ જીવનથી છુટકારે પણ મળી શકતો નથી
સંયમારાધનસન્મુખ દેવા માટે આત્મકમજોરી જાણવાની અને જાણીને તેને દૂર કરવાની સખ્ત આવશ્યકતા છેઅમે જાણીએ છીએ કે અમારા ઘરમાં સાપ ઘુસેલે છે પરંતુ જ્યા સુધી અમે તેને નહિ બહાર નિકાલીએ ત્યા સુધી અમારૂં જાણપણું નકામું છે.
- જીવન અલ્પ છે. સ્ત્રી પુત્રાદિકોની પ્રાપ્તિ આ જીવને અનંતવાર થયેલ છે. સંગ અને વિયેગ, એ બે સંસારના પર્દાપર નાટક થતાં જ રહે છે. અમારી સાથે જે જન્મ્યા હતા તે ચાલી ગયાં, અમે પણ ક્યારેક ચાલ્યા જઈશું, પરંતુ સર્વવિરતિ–સંચમારાધનને અવસર આ જીવને હાથ નહિ આવ્યું. કદાચ આ હોત તો જે અમારા ભવભવના સંસારમાં ચક્કર લાગી રહ્યા છે તે ક્યારના
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अध्य० २. उ.१ क्षणभंगुर है तो उसके द्वारा संयमकी जितनी भी आराधना हो सके शुद्ध मन, वचन और काय से कर लेनी चाहिये, इसी में बुद्धिमानी है। शुद्ध आराधित थोड़ा भी संयम अनन्त कर्मों की निर्जरा का कारण माना गया है। जिस प्रकार संतस लोहेका गोला पानीको चारों ओर से खींचता है, उसी तरह असंयम जीवन भी विषयकषायों के द्वारा चारों ओर से कार्मणवर्गणाओंको खींचकर उन्हें कर्मरूप से परिणत कर उनसे लिप्त होता रहता है । असंयमी कार्मणवर्गणाओं को खेंच उन्हें कर्मरूप में क्यों परिणमाता है ? इसका उत्तर देते हुए सूत्रकार कहते हैं
'जीविए इह जे पमत्ता से हंता' इत्यादि।
निरन्तर आयुष व्यतीत हो रही है-अंजलि में रखे हुए जल की तरह क्षण २ में आयुकर्म की स्थिति घट रही है-फिर भीप्राणी अलंयमजीवनवाला ही बना हुआ है, विषय और कषायों में लवलीन हो रहा है, रातदिन विकथा और कषाय एवं पांचइन्द्रियों के विषय सेवन करने में ही जुटा हुआ है। प्रमादी व्यक्ति सकषाय योगवाला होता है-सकषाय योगवाला होने से ही उसकी प्रवृत्ति षड्जीवनिकाय के उपमर्दन करने में होती रहती है। उसे इस बातका जरा भी विचार नहीं आता कि मेरी પણ બંધ થઈ જાત. માટે જ્યારે જીવન ક્ષણભંગુર છે તે તે દ્વારા સંયમની જેટલી પણ આરાધના થઈ શકે તેટલી શુદ્ધ મન-વચન-કાયાથી કરી લેવી જોઈએ. તેમાં જ બુદ્ધિમાની છે. શુદ્ધ આરાધિત ડે પણ સંયમ અનંત કર્મોની નિર્જરાનું કારણ મનાય છે. જે પ્રકારે સંતપ્ત લેઢાને ગોળે ચારે બાજુથી પાણીને ખેંચે છે, તે પ્રકારે અસંયમ જીવન પણ વિષય કષા દ્વારા ચારે તરફથી કામણ વર્ગણાઓને ખેંચીને તેને કર્મરૂપ પરિણમન કરી તેનાથી લિપ્ત થઈ જાય છે. અસંયમી કામણુ વગણએને ખેંચી તેને કર્મરૂપ શા માટે પરિણુમાવે छ ? तेन उत्तर भारत सूत्र२ ४९ छ-'जीविए इह ने पमत्ता से हता' त्या४.
નિરંતર આયુષ્ય વ્યતીત થઈ રહ્યું છે, અંજળીમાં રાખેલા પાણી માફક ક્ષણ ક્ષણમાં આયુકર્મની સ્થિતિ ઘટી રહી છે તે પણ પ્રાણી અસંયમ જીવનવાળા જ બની રહે છે. વિષય અને કષામાં જ લવલીન થઈ રહે છે. રાતદિન વિકથા અને કષાય અને પાંચ ઈન્દ્રિયેના વિષય સેવન કરવામાં જ મચ્યા રહે છે. પ્રમાદી વ્યક્તિ સકષાય ગવાલા થાય છે. સકષાય વેગવાલા હોવાથી જ તેની પ્રવૃત્તિ પડજીવનિકાયનું ઉપમન કરવામાં જ બની રહે છે. તેને આ વાતને જરા પણ વિચાર આવતું નથી કે
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आवाराङ्गसूत्रे इस प्रवृत्ति से त्रस अथवा स्थावर जीवोंका घात हो रहा है। अनेक अनर्थकारी सावध क्रियाओं को वह करते हुए नहीं हिचकता है । इस लिये वह प्रमादी व्यक्ति शब्दादि विषयों में गृद्ध बनकर उन-त्रस स्थावर जीवोंका हनन करनेवाला होता है । जहां अयतनापूर्वक प्रवृत्ति है वहां प्रमत्तयोग होने से हिंसा होती ही है, इसलिये प्रसादी व्यक्ति 'हंता' कहा जाता है ।जो रातदिन अपनी प्रवृत्ति को कुत्सित करनेवाली क्रियाओं के सेवन से लगाता रहता है वह एक प्रकार से उस नर्फ से इतना विवेकशून्य हो जाता है कि फिर उसे उस काल से जरा भी घृणा या संकोच नहीं होता, दया जैसी वस्तु उसके हृदय में देखने को ही नहीं मिलती। जिस प्रकार ठक २ शब्द होते रहने पर भी ठरे का कबूतर निर्भय होकर अपने स्थान पर बैठा रहता है अर्थात् उस जगह उसे बैठने में जरा भी लंकोच नहीं होता है, उसी प्रकार जो बार बार हिंसा-झूठ-आदि पांच आस्रवों के सेवन करने में तत्पर रहते हैं वे इतने दयारहित और उस कार्य के करने में इतने विवेकशून्य बन जाते हैं कि उन कामों को करते हुए जरा भी नहीं लजाते, या उनके किये बिना उन्हें चैन नहीं पड़ता। यदि वे पाहर में उस तरह की प्रवृत्ति न भी करेंतो भी उनकी मानसिक प्रवृत्ति મારી આ પ્રવૃત્તિથી ત્રસ અને સ્થાવર અને ઘાત થઈ રહ્યો છે અનેક અનર્થકારી પાપમય ક્રિયાઓને કરતા જરા પણ થડકતો નથી. માટે તે પ્રમાદી વ્યક્તિ શબ્દાદિ વિષમાં બનીને આ ત્રણ સ્થાવર એને ઘાત કરવાવાળા અને છે, જ્યાં અયતનાપૂર્વક પ્રવૃત્તિ છે ત્યા પ્રમત્ત એગ હેવાથી હિંસા થયા કરે છે, भारे प्रमाही व्यर्शित 'हंता उपाय छे. रे शतहिक्स पोतानी प्रवृत्तिने इत्सित કરવાવાળી કિયાઓના સેવનમા લગાડતે રહે છે. તે એક પ્રકારે એક તરફથી એ વિવેકશન્ય થઈ જાય છે કે તેને તે કામથી જરા પણ ઘણા અગર સંકોચ થતું નથી. દયા જેવી વસ્તુ તેના હૃદયમાં દેખવામાં આવતી નથી જે પ્રકારે ઠક ઠક શબ્દ થવા છતાં પણ કંસારાની જગ્યા પાસેનું કબુતર નિર્ભય બની પિતાના સ્થાન પર જ બેસી જ રહે છે અર્થાત્ તે જગ્યા ઉપર બેસવામાં તેને જરા પણ સંકોચ થતું નથી, તે પ્રકારે જે વારંવાર હિંસા, જુડ, આદિ પાચ આક્ષોનું સેવન કરવામાં તત્પર રહે છે તે એટલા યારહિત અને તે કાર્ય કરવામાં વિવેકન્ય બની જાય છે કે તેવા કર્મો કરવામાં તે જરા પણ લાજ મર્યાદા રાખતે નથી. અગર તેવા કામ કર્યા વિના તેને ચેન પડતું નથી કદાચ તે બહારમાં તેવા પ્રકારની પ્રવૃત્તિ ન કરે તે પણ માનસિક પ્રવૃત્તિ તેની સુતા ઉઠતાં બેસતાં
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अध्य० २ उं. १ सोते उठते बैठते उस तरफ सचेत बनी रहती है। शास्त्रकारों ने हिंसा के मुख्य दो भेद किये हैं-१ द्रव्यहिंसा और २ भावहिंसा। प्राणियों के अपने२ योग्य प्राणों का वियोग करना द्रव्याहिंसा, लथा भावअन्तःकरणकी कलुषित वृत्ति करना भावहिंसा है। पर्याप्तावस्था में एकेन्द्रिय जीवों के ४ प्राण होते हैं, हीन्द्रिय जीवों के ६, तेन्द्रिय जीवोंके ७, चतुरिन्द्रिय जीवों के ८, असंज्ञि पंचेन्द्रिय जीवों के ? और संज्ञि पंचेन्द्रिय जीवों के १० । एकेन्द्रिय जीव सूक्ष्म और बादर के भेद से दो प्रकार के होते हैं । सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव जो इस लोक में लर्वत्र व्याप्त हैं उनका किसी भी निमित्त ले घात नहीं होता है, बादर एकेन्द्रिय जीवोंका ही घात होता है। अतः प्रमादी व्यक्ति अपनी प्रवृत्ति से पृथिवीकायिक, अपकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक एवं वनस्पतिकाधिक एकेन्द्रिय जीवों का तथा दीन्द्रियादिक बला जीनों का घातक माना गया है। रागादिक भावों का उद्रेक प्रत्येक अवस्था में रहता है, इनके बिना कोई भी प्राणी जीवों के घात करने में प्रवृत्त नहीं होता, अतः इनकी उनेकता ही भावहिंसा है। अथवा रागादिकों की उत्पत्ति स्वयं भावहिंसा है, अतः प्रमादी व्यक्ति बाहरमें हिंसादिक कार्यों में प्रवृत्त न भी हो तो भी वह તે તરફ જ સચેત બની રહે છે. શાસ્ત્રકારોએ હિંસાના મુખ્ય બે ભેદ કહ્યાં છે. ૧ દ્રવ્યહિંસા, અને ૨ ભાવહિંસા. પ્રાણીઓના પિતપતાના યેગ્ય પ્રાણોનો વિયેગ કરવું તે દ્રવ્યહિંસા, તથા ભાવ-અંતઃકરણની કલુષિત વૃત્તિ કરવી તે ભાવહિંસા છે. પયાવસ્થામાં એકેન્દ્રિય જીને ૪ પ્રાણ હોય છે, બેઈન્દ્રિય અને ૬, તેન્દ્રિય જીને ૭, રેન્દ્રિય જીવોને ૮, અસંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય જીવોને ૯ અને સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય છેને ૧૦.
એકેન્દ્રિય જીવ સૂક્ષ્મ અને બાદરના ભેદથી બે પ્રકારના હોય છે, સૂક્ષ્મ એકેન્દ્રિય જીવ જે આ લેકમાં સર્વત્ર વ્યાપ્ત છે, તેને કઈ પણ નિમિત્તથી ઘાત થતું નથી. બાદર એકેન્દ્રિય જીતે ઘાત થાય છે, માટે પ્રમાદી વ્યક્તિ પિતાની પ્રવૃત્તિથી પૃથિવીકાયિક, અષ્કાયિક, તેજસ્કાયિક, વાયુકાયિક અને વનસ્પતિકાયિક એકેન્દ્રિય જીવોને તથા બેઈન્દ્રિય આદિ ત્રસ જીવેને ઘાતક માનેલ છે. રાગાદિક ભાવોને ઉદ્રક પ્રત્યેક અવસ્થામાં રહે છે. તેના વિના કેઈ પણ પ્રાણી જીવેને ઘાત કરવામાં પ્રવૃત્ત નથી થતું. માટે તેની ઉકતા જ ભાવહિંસા છે. અને રાગાદિકોની ઉત્પત્તિ સ્વયં ભાવહિંસા છે માટે પ્રમાદી વ્યક્તિ બહારમાં હિંસાદિક કાર્યોમાં પ્રવૃત્ત ન હોય તે પણ તે પ્રમત્ત હેવાથી હિંસક માનવામાં
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आचारागसूत्रे किमर्थं चैतान् व्यापारान् विदधातीत्याह-'अकृतं करिष्यामीति मन्यमानः' इति, यदन्यैः पूर्वैः सद्भिर्न कृतं-नानुष्ठितं तत्सर्वं करिष्यामि-विधास्यामि, इति मन्यमाना=स्वीकुर्वाणः सन् हननादिकर्मकर्ता भवति । पुत्रकलत्रासक्तोऽप्राप्तविविधविभवोऽनर्थकरं कर्म करिप्यामीति निश्चित्य हननादौ प्रवर्तते । प्रमत्त होने से हिंसक माना जाता है। इसीलिये प्रमादी को शास्त्रकारों ने हिंसक कहा है। प्रमादी जिस प्रकार पांचइन्द्रियों के विषय में लोलुपी बन कर उस स्थावरों का घात करता है उसी प्रकार वह उनका छेदन भेदन भी करता है। फिर वह लम्पयिता-किसी की गांठ काटना, खिसा कतरना आदि कार्य करता है, विलुम्पयिता-ग्रामघातादि कार्य करता है, अपद्रावयिता-विष शस्त्रादि के प्रयोग से किलीको मारता है, उन्नासयिता-कंकर पत्थर फेंकर किसीको डराता है। अनेक अनर्थों को करनेवाली हनन-छेदन-भेदन आदि क्रियाओं का जो यहां पर प्रदर्शन किया है उसका अभिप्राय सिर्फ इतना ही है कि जो संसार में ही फंसा है वह कालाकाल के ज्ञान से रहित होकर पर जीवों के विषय में अनेक अनर्थीको पैदाकरनेवाली अनेकप्रकार की घातादिक क्रियाओं को निरन्तर करता रहता है । शंका-अनर्थकारी क्रियाओं को यह प्राणी क्यों करता है ?
उत्तर-" अकृतं करिष्यामीति मन्यमानः" अर्थात्-"जो पहिले अन्य पूर्वजों ने कार्य नहीं किये है वे सब मैं करूँगा' इस अभिप्राय के वशवर्ती होकर ही यह प्राणी उन अनर्थोत्पादक क्रियाओं के करने में આવે છે. માટે પ્રમાદને શાસ્ત્રકારોએ હિંસક કહ્યો છે, પ્રમાદી જે પ્રકારે પાંચ ઇન્દ્રિયના વિષયમાં લુપી બનીને ત્રાસ સ્થાવરેને ઘાત કરે છે તે પ્રકારે તે તેનું છેદન ભેદન પણ કરે છે, પછી તે લુમ્પયિતા–કેઈની ગાઠ કાપવી, ખિસ કાતરવું, આદિ કાર્ય કરે છે. વિલુપ્પયિતા–ગ્રામઘાતાદિ કાર્ય કરે છે. અપદ્રાવયિતા –વિષ શસ્ત્રાદિકોના પ્રયોગથી કેઈને મારે છે. ઉત્રાસયિતા-કંકર પત્થર ફેંકીને કેઈને ડરાવે છે, અનેક અનર્થોને કરવાવાળી, હણવું, છેદવું, ભેદવું, આદિ કિયાઓનું જે આ ઠેકાણે પ્રદર્શન કર્યું છે, તેને અભિપ્રાય ફક્ત એટલો જ છે કે જે સંસારમાં જ ફસેલા છે તે કાલાકાલના જ્ઞાનથી રહિત બની પર છે વિષે અનેક અનર્થોને પેદા કરવાવાળી અનેક પ્રકારની ઘાતાદિક ક્રિયાઓને નિરતર કરતા રહે છે. શકા–અનર્થકારી ક્રિયાઓને આ પ્રાણી કેમ કરે છે? उत्तर-" अकृतं करिण्यामीति मन्यमानः" ।
અતિ “જે પહેલાના અન્ય પૂર્વજોએ કાર્ય નથી કર્યું તે બધું હું કરીશ.” આવા અભિપ્રાયને વશવર્તી બનીને તે પ્રાણી તેવા અનર્થોત્પાદક ક્રિયાઓને કર
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अन्य० २. उ. १
यद्वा-यदन्यैः कैरप्याश्चर्यगृहोद्यानादिकं पूर्व न कृतं तत्सर्वं करिष्यामीति मन्यमानः प्रयतत इति तात्पर्यम् । सततं व्यग्रो भूत्वा नानाविधशस्त्रोपघातमहत्तो भवतीति भावः ।। मू० ५॥ प्रवृत्त होता है। यह संसारमें फंसा है-स्त्रीपुत्रादिकों में शृद्ध बना हुआ है। उनके निर्वाह के लिये सर्वप्रथम द्रव्यकी इसे जबरत होती है परन्तु निर्वाह लायक साधनोंको करते हुए भी मनमाना द्रव्य इसे प्राप्त नहीं होता है, इसलिये उसकी प्राप्ति के लिये यह न्याय अन्याय मार्गका विचार न कर येन केन प्रकारेण द्रव्य के संग्रहके लिये हमलादि क्रियाओं में प्रवृत्ति करता है। ___ अथवा--" अकृतं करिष्याभि" इसका यह भी अर्थ होता है कि
'जो मकान वगैरह, अथवा बगीचा वगैरह हमारे पूर्वजोंने नहीं करवाये ___ उन्हें अब मैं करवाऊंगा' ऐसा सोच कर जब वह उनकी तैयारी कराने
में प्रयत्नशील होता है उस समय जिस स्थान पर इसे बगीचा वगैरह की तैयारी करानी है उस स्थान की वह सफाई कराने में प्रवृत्त होता है। यदि उस स्थान पर कोई झाडी वगैरह खड़ी होती है तो यह उसे कटवाता है, अथवा जो शक्य होता है तो उसे स्वयं भी काटता है। इस प्रकार यह प्रमादी व्यक्ति स्त्रीपुत्रादिकों में शृद्ध बनकर अकृत के करने में लग जाता है, अतः इस स्थिति में वह षड्जीवनिकाय का घातक होता है । सू० ५॥ વામાં પ્રવૃત્ત થાય છે. તે સંસારમાં ફસેલા છે. સ્ત્રી–પુત્રાદિકમાં ગૃદ્ધ બનેલા છે. તેના નિર્વાહ માટે સર્વ પ્રથમ દ્રવ્યની તેને જરૂરત પડે છે, પરંતુ નિર્વાહલાયક સાધનાને કરતાં છતાં પણ મનમાન્યું દિવ્ય તેને પ્રાપ્ત થતું નથી માટે તેની પ્રાપ્તિ માટે તે ન્યાય અન્યાય માર્ગનો પણ વિચાર ન કરીને યેન કેન પ્રકારેણ દ્રવ્યના સંગ્રહ માટે હણવાદિ ક્રિયાઓમાં પ્રવૃત્તિ કરે છે.
__ -" अकृतं करिष्यामि " योनी थे. ५ २५ थाय छे 3-महान વિગેરે અથવા બગીચા વિગેરે અમારા પૂર્વજોએ નહિ બનાવ્યા તે હું બનાવીશ” એ વિચાર કરીને જ્યારે તે તેની તૈયારી કરાવવામાં પ્રયત્નશીલ થાય છે તે વખતે જે સ્થાન પર તેને બગીચા વિગેરેની તૈયારી કરાવવાની છે તે સ્થાનની તે સફાઈ કરાવવમાં પ્રવૃત્ત થાય છે. કદાચ તેવા સ્થાન પર કોઈ ઝાડી વિગેરે આડુ ખડું હોય તે તેને તે કપાવી નાખે છે, અથવા જે શક્ય હોય છે તેને પોતે કાપે છે. આ પ્રકાર આ પ્રમાદી વ્યક્તિ સ્ત્રી પુત્રાદિકોમાં ગૃદ્ધ બની અકૃત કરવામાં લાગી જાય છે માટે આ સ્થિતિમાં તે ષડ્રજવનિકાયને ઘાતક થાય છે કે સૂ૦ પ !
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आचारागसूत्रे एवं हननादि प्रकारानुचितव्यापारकरणोचतो द्वीपान्तरगमनेऽपि समग्रकार्यसाधनभूतप्रभूतधनालाभाद्विषण्णचेताः किं करोतीति दर्शयति-"जेहिं वे"-त्यादि। ___मूलम-जेहिं वा सद्धिं संवसइ ते वा णं एगया नियगा ते पुव्वि पोसेंति, सो वा ते नियगे पच्छा पोसिज्जा, नालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमं पि तेसिं नालं ताणाए वा सरणाए वा ॥ सू०६॥ ___छाया—यैर्वा साई संवसति, ते वा खलु एकदा निजकास्तं पूर्व पोषयन्ति, स वा तान् निजकान् पश्चात्पोपयति नालं ते तव त्राणाय वा शरणाय वा, त्वमपि तेषां नालं त्राणाय वा शरणाय वा ।। मू० ६॥ ___टीका-'यति' यैः मातापित्रादिभिः साई संवसति-प्रेम्णा निवसति ते खलु= निश्चयेन, एकदा बाल्ये वयसि निजका स्वकीयाः मातापित्रादयः, तं-पुत्रादिकं पूर्वबाल्यावस्थायां पोपयन्ति, वा-शब्दोऽप्यर्थे स वा-सोऽपि तान्-मातापित्रादीन् , निजकान् आत्मीयान् , पश्चात्-द्धावस्थायां धनादिना पोषयति किन्तु ते मातापित्रादयः तव नालं त्राणाय वा शरणाय वा, त्वमपि तेषां नालं त्राणाय वा शरणाय वा, ऐहिक-पारत्रिक-दुःखोदयेषु न कोऽपि पोष्यः पोषको वा कस्यापि त्राण शरणभूतो भवतीति भावः ॥ सू० ६ ॥
इस तरह हननादि प्रकारवाले अनुचित व्यापारों के करने में उद्यत यह प्राणी धन कमाने की इच्छा से अन्य दूसरे द्वीपों में भी जाता है, परन्तु यदि वहां पर भी समग्र कार्यका साधनभूत प्रभूत धन अर्थात् यथेच्छ धनका लाभ जब इसे नहीं होता है तब यह अतिशयखेदखिन्न होता है और इस परिस्थिति में यह क्या करता है सो प्रकट करते हैं'जेहिं वा सद्धिं संवसइ' इत्यादि । अर्थ स्पष्ट है।
આવી રીતે હણવાના પ્રકારવાળા અનુચિત વ્યાપાર કરવામાં પ્રયત્નશીલ તે પ્રાણુ ધન કમાવાની ઈચ્છાથી બીજા અન્ય દ્વીપમાં પણ જાય છે, પરંતુ કદાચ ત્યાં પણ સમગ્ર કાર્યનુ સાધનભૂત પ્રભૂત ધન અર્થાત્ યથેચ્છ ધનને લાભ જ્યારે ત્યા પણ મળતું નથી તે તે ઘણે ખિન્ન થઈ જાય છે, અને આ પરિસ્થિતિમા ते शुं ४२ छ ते ५४८ ४२वामा मावे छ:-'जेहिं वा सद्धि संवसर' त्यादि म मुसो छ.
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अध्य० २. उ. १
विशेषार्थ-जिन मातापिता आदिकों के साथ यह रहता है वे इसकी पाल्य अवस्था में सर्वप्रथम सेचा-चाकरी करते हैं, इसकी सहायता करते हैं, इसका पालन पोषण करते हैं। वह भी जब युवावस्था आदि से समृद्ध हो जाता है तब इन अपने मातापिता आदि की वृद्धावस्था में धन आदि से सहायता, सेवा, या इनका पालन पोषण करता है। इस प्रकार पारस्परिक पोष्यपोषक भाव होने पर भी यह उनकी रक्षा के लिये, अथवा उनको शरण देने के लिये समर्थ नहीं होता है, वे भी इसकी रक्षाके लिये, अथवा इसके शरण देने के लिये समर्थ नहीं होते हैं।
संसार की यह रीति है-प्रत्येक प्राणी अपने २ कुटुम्बियों की-स्त्री पुत्रादिकों की मोहाधीन हो हरतरह से सेवा शुश्रूषा संरक्षण पालन पोषण किया करता है। यह वृत्ति सिर्फ मनुष्यों में ही नहीं है, पशु-पक्षियों तक में भी इसी प्रकार की पाई जाती है। वे भी इष्ट के संयोग में हर्षाते हैं और उनके वियोग में दुःखी होते हैं। जैसे चिडिया घोसले में रहती है और बच्चाबच्ची देती है, जब बाहर से खाना लेकर आती है तब उसके छोटे २ बच्चे उसे देखते ही चै-चैं कर बाहर निकलते हैं और उसके आस पास अदक २ कर उसकी ओर अपनी २ चंचु खोलकर
વિશેષાર્થ–જે માતાપિતા આદિની સાથે તે રહે છે તે તેની બાલ્ય અવસ્થામાં સર્વ પ્રથમ સેવા ચાકરી કરે છે તેની સહાયતા કરે છે, તેનું પાલણ– પોષણ કરે છે, તે પણ જ્યારે યુવાવસ્થા આદિથી સમૃદ્ધ થઈ જાય છે ત્યારે તે પોતાના માતાપિતા આદિની વૃદ્ધાવસ્થામાં ધન આદિથી સહાયતા, સેવા, અને તેમનું પાલન-પોષણ કરે છે. આ પ્રકારે પારસ્પરિક પોષ્ય-પિષક ભાવ હવા છતાં પણ તે તેમની રક્ષા માટે કે શરણ દેવામાં સમર્થ થતું નથી, તેમજ તેઓ પણ તેની રક્ષા અને શરણ દેવામાં અસમર્થ બને છે
સંસારની એ રીતિ છે કે પ્રત્યેક પ્રાણી પિતપોતાના કુટુંબીઓની સ્ત્રીપુત્રાદિકોની મહાધીન થઈ દરેક પ્રકારથી સેવા, સુશ્રષા, સંરક્ષણ પાલન પોષણ કર્યા કરે છે. આવી વૃત્તિ ફક્ત મનુષ્યમાં જ છે તેમ નહિ પણ પશુપક્ષીઓમાં પણ છે તેમ દેખવામાં આવે છે. તેઓ પણ ઈષ્ટ સોગમા હર્ષ પામે છે અને તેના વિયેગમાં દુઃખી થાય છે. જેમ ચકલીઓ માળામાં રહે છે અને બચ્ચાં બચ્ચી દે છે, અને જ્યારે બહારથી ખાવાનું લઈ આવે છે ત્યારે તેના નાના નાનાં બચ્ચાં તેને દેખતાં જ ચૅર્સે કરી બહાર નીકળે છે અને તેની આસપાસ કુદવા માંડે છે અને તેની તરફ પિતાપિતાની ચાંચ ખોલીને બેસી જાય છે. તે પોતાની ચાંચથી
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आचाराङ्गसूत्रे
यथा स्वजनादिर्न तव त्राणाय प्रभवति तथैव कष्टसम्पादितं सुरक्षितं धनमपि न त्राणायेति दर्शयति- " उवाइये " - त्यादि ।
मूलम् - उवाइयसेसेण वा संनिहिसंनिचओ किज्जइ इहमेगेसिं असंजयाण भोयणाए, तओ से एगया रोगसमुप्पाया समुप्पज्जंति, जेहिं वा सद्धिं संवसइ ते वा णं एगया नियगा तं पुधिं परिहरति, सो वा ते नियगे पच्छा परिहरिजा, नालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमंपि तेसिं नालं ताणाए वा सरणाए वा ॥ सू० ७ ॥
छाया - उपादितशेषेण वा सन्निधिसंनिचयः क्रियते, इहैकेषामसंयतानां भोजनाय, ततस्तस्यैकदा रोगसमुत्पादाः समुत्पद्यन्ते यैर्वा सार्द्धं संवसति ते वा खलु एकदा निजकास्तं पूर्व परिहरन्ति, स वा तान् निजकान् पश्चात्परिहरति, नालं ते तव त्राणाय वा शरणाय वा, त्वमपि तेषां नालं त्राणाय वा शरणाय वा ॥ म्० ७ ॥ बैठ जाते हैं । वह अपनी चंचु से इनकी चंचु में कुछ खाना घर देती है, वे खा जाते हैं, बड़े खुश होते हैं ।
जय पशुपक्षियों की यह परिस्थिति है तो फिर मनुष्य जो समझदार प्राणी माना गया है उसकी अपने इष्ट बंधु जनों के पुत्रादिकों के पालन पोषण करने की वृत्ति सबसे बढ़ कर हो इसमें कोई आश्चर्य जैसी बात नहीं, किन्तु इहलोक परलोक सम्बन्धी दुःखों का उदय होने पर न वे तेरे त्राण और शरण होते हैं और न तूं उनके लिये त्राण और शरण हो सकता है | सू० ६ ॥
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તેની ચાચમા કાઇક ખાવાનુ ધરે છે તે તેઓ ખાઈ જાય છે, અને ઘણા ખુશ થાય છે
જ્યારે પશુ પક્ષિઓની આ પરિસ્થિતિ તો પછી મનુષ્ય તો સમજદાર વ્યક્તિ માનવામા આવે છે તેને પેાતાના ઇષ્ટ મધુ જનોને, પુત્રાદિકોને પાળવામા વૃત્તિ ખધાથી વધારે હોઇ શકે તેમા કાઈ આશ્ચર્યની વાત નથી પરંતુ આલાક પલાક સમધી દુખાના ઉચ્ચ થવાથી નથી तु તેમના ત્રાણ અને શરણુ દેવામા સમ થતા, અને નથી તેએ તને ત્રાણુ અને શરણુ દેવામાં સમર્થ થતા ! મૃદા
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अध्य० २. उ. १ निर्लान्छन-गलकर्तन-गृहदाहादिकं क्रूरकर्म करोति 'धनमेव सारं' मन्यमानो हि सततं 'तल्लाभाय मोहाविष्टो भ्रमति । स चार्थलाभाय किं करोतीत्याह-" सहसाकार " इति
आपत्वाकर्तरि घञ् । सहसा करोतीति सहसाकारः। स्वहिताहितमविचार्य कर्मकारी । यथा मृगादिः क्षेत्रे जालादिकं विलोक्यापि तमवज्ञाय धान्यादिभक्षणलोभेन स्ववधमप्यविचार्य जाले बद्धो भवति ब्रियते च पश्चात्तेनैव निमित्तेन । तथैव लोभाकुलितचेता धनलाभपरायणः स्त्रपरप्राणघातकरमपि कर्म करोति। अर्थलाभाय नहीं रहता, उस समय एक यही उसका लक्ष्य रहता है कि किसी भी तरह से द्रव्य एकत्रित करना चाहिये । इस ख्याल से वह भयंकर से भी भयंकर भविष्यत्कालीन कटुक विपाक की परवाह न करके लोकनिंदित निर्लाञ्छन, दूसरों का गला घोंटना, दूसरों का घर-बार फूंकना
आदि क्रूर कर्म कर डालता है। 'संसार में सार वस्तु एक द्रव्य ही है " ऐसा मान कर निरंतर उसके लाभ के लिये मोहाधीन हो घूमता रहता है। और इसके लाभ के लिये वह "सहसाकार" हिताहित के विवेक से विकल हो अयोग्य कर्म करने के लिये तत्पर हो जाता है। जैसे मृगादि पशु क्षेत्र में विस्तीर्ण जाल को देख कर भी उसकी कुछ भी परवाह न कर धान्यादिक खाने के लोभ से अपने वध (मृत्यु) की भी उपेक्षा कर जाल में फंस जाते हैं और उसी में फंसे २ मर जाते हैं। उसी प्रकार लोभ से आकुलितमति होकर धन के लाभ के लिये तत्पर हुआ जीव
भी स्व और पर के प्राणों को घात करने वाले क्रूर कर्मों को किया करता “है। द्रव्य के लाभ के लिये प्रयत्नशील बना हुआ यह प्राणी जिस प्रकार કર્તવ્યનું કાંઈ પણ ભાન નહિ રાખતાં ફક્ત એક જ લક્ષ્ય રાખે છે કે કોઈ પણ પ્રકારે દ્રવ્ય એકત્રિત કરી લઉ. આવા ખ્યાલથી તે ભયંકરમાં ભયંકર ભવિષ્યકાલીન કટુક વિપાકની પરવાહ પણ ન કરતાં લોકનિંદિત–નિર્લોકન, બીજાનું ગળું દબાવવું, બીજાનું ઘર બાળવું, આદિ ક્રૂર કર્મ કરે છે “સંસારમાં સાર વસ્તુ એક દ્રવ્ય જ છે” એવું માનીને નિરંતર તેની પ્રાપ્તિ માટે મહાધીન - થઈ ફરતે રહે છે. દ્રવ્યપ્રાપ્તિ માટે તે “સહસાકારઃ” હિતાહિતના વિવેકથી વિકળ થઈ અયોગ્ય કર્મ કરવા તત્પર થાય છે. જેના મૃગાદિ પશુ ક્ષેત્રમાં વિસ્તીર્ણ જાળને દેખીને પણ તેની પરવાહ નહિ કરતા ધાન્યાદિક ખાવાના લોભથી પિતાના મૃત્યુની પણ ઉપેક્ષા કરી જાળમાં ફસે છે અને તેની અંદર ફસીને તેમાં જ મરે છે. તે પ્રકારે લેભથી આકુલિતમતિને બનીને ધનના લાભ માટે તત્પર થયેલ જીવ પણ પિતાના અને બીજાના પ્રાણીને વાત કરવામાં ક્રૂર કર્મોને કરે છે; દ્રવ્યના લાભ માટે પ્રયત્નશીલ બની તે પ્રાણી જેમ ધન કમાવાના
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अध्य० २. उ. १
टीका-' उपादिते-'त्यादि इह-संसारे एकेपां-कतिपयानाम् , असंयतानां= गृहस्थानां सन्निधिसंनिचयः सन्निधेविद्यमानधनस्य संनिचयः एकत्रीकरणं, यद्वासंनिचयो बाहुल्यम् , उपभोग्यधनसमूह इति यावत् , उपादितशेषेण उपादितस्य= उपभुक्तस्य शेषेण अवशिष्टभागेन भोजनाय भोजनमुपभोगस्तस्मै तदर्थ क्रियते । यद्वा-असंयताना-मित्यत्रार्षत्वात्तृतीयाथै षष्ठी, तेन चोपादितशेषेण सङ्ग्रहलिप्सुभिः कैरप्यसंयतैनानाविधसावधक्रियोपार्जितमनर्थजनकं धनं सम्पाद्य भविष्यकाले कुटुम्बपोषणाय स्वोपभोगाय वा क्रियत इत्यर्थः । संसारमूच्छितो गृहस्थो भविष्यकाले उपभोगार्थ धनसंचयं करोतीति भावः । किन्तु सोऽपि धनसंचयो न तस्योपभोगायेत्याह- ततः' इत्यादिना, ततो धनसंचयानन्तरमुपभोगकाल इति यावत् , तस्योपभोक्तुरेकदा द्रव्यक्षेत्रकालभावनिमित्तप्रकटवेदनीयकर्मोदये 'रोगसमुत्पादाः' रोगाणां-कासश्वासराजयक्ष्मकुष्ठाशंआदीनां समुत्पादाः यादुर्भावाः ___ १ उपपूर्वकात् 'अद्' धातोः स्वार्थेणिचिक्तः ।
जिस प्रकार स्वजन वगैरह इस जीवके रक्षक नहीं हो सकते हैं उसी प्रकार कष्टसंपादित सुरक्षित धन भी इसका रक्षक नहीं होता है इसी बात को सूत्रकार कहते हैं
'उवाइयसेसेण वा' इत्यादि । इस संसार में कितनेक असंयत संसारी जीव अपने उपभोग के लिये नाना प्रकार की सावध क्रियाओं द्वारा अनर्थकारी धनका उपार्जन कर खाने पीने से अवशिष्ट धनका संचय करते हैं और उसका उपभोग करते समय इच्छानुकूल आहार विहार करते हैं, परन्तु जब असाता का उदय आता है तब उनके शरीर में कास-श्वास आदि अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं। इस अवस्था में इसके नेत्र और नासिका से पानी गिरने लगता है, कुष्ठ , જે પ્રકારે સ્વજન વિગેરે આ જીવના રક્ષક નથી બની શકતા તે પ્રકારે કષ્ટસંપાદિત સુરક્ષિત ધન પણ તેનું રક્ષક બનતું નથી. આ વાતને સૂત્રકાર કહે છે
'उवाइयसेसेण वा' इत्यादि-२॥ संसारमा टसा मसयत संसारी જીવ પોતાના ઉપભોગ માટે નાના પ્રકારની સાવદ્ય ક્રિયાઓ દ્વારા અનર્થકારી ધનનું ઉપાર્જન કરી ખાવા-પીવાથી અવશિષ્ટ ધન સંચય કરે છે, અને તેને ઉપભોગ કરી તે સમય ઈચ્છાનુકૂળ આહાર વિહાર કરે છે, પરંતુ જ્યારે અશાતાને ઉદય આવે છે ત્યારે તેના શરીરમાં કાસ શ્વાસ આદિ અનેક પ્રકારના રોગ ઉત્પન્ન થાય છે. આ અવસ્થામાં તેના નેત્ર અને નાસિકાથી પાછું નીકળવા લાગે છે,
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आचाराङ्गसूत्रे समुत्पद्यन्ते जायन्ते, धनोपभोगे मानवानां स्वेच्छाहारक्रीडादिना झटिति धातुवैपम्योदयान्नानाविधरोगा भवन्तीति भावः ।
ततः किं भवतीत्याह-'यैर्वा सार्द्ध-मित्यादि । यैः-पुत्रकलत्रादिभिः साई संवसति त एव निजकाः आत्मीया एकदा-रोगाभिभवे पूर्वप्रथमं परस्पररोगसंसर्गभयात् तं गलन्नेत्रनासिकं विशीर्णपाणिपादं रोगिणं परिहरन्ति । कदाचित् सवा सोऽपि पश्चात् तान् निजकान् आत्मीयान् पुत्रकलत्रादीन् परिहरति, किन्तु यदि कथञ्चित्ते शुश्रूषणपरा अपि न तव रक्षकाः, नापि तेपां त्वं रक्षकः, एहिक-पारत्रिकदुःखविमोचनाय परस्परं समर्था न भवन्तीति भावः ॥ म० ७॥
यावद्वार्धक्यादिकं नायातं तावदेव श्रुतचारित्रादिलक्षणे धर्मे यत्नः कर्तव्य इति दर्शयति-' एवं जाणित्तु' इत्यादि। ___मूलम्-एवं जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं,अणभिकंतं च खल्लु वयं संपेहाए, खणं जाणाहि पंडिया ! ॥ सू०८॥
छाया-एवं ज्ञात्वा दुःखं प्रत्येकं सातम् , अनभिक्रान्तं च खलु वयः सम्प्रेक्ष्य क्षणं जानीहि पण्डित ! ॥ मू० ८॥ आदि रोग के कारण हाथ पैर गलने लगते हैं, उस समय इसके अपने कुटुम्बी-पुत्र कलत्रादिक-भी 'हमको भी रोग न लग जाय' इस भय से इसे छोड़ देते हैं । अथवा किसी समय यह भी किसी कारणवश उन्हें छोड़ देता है। यदि परस्पर कोई किसीको न भी छोडे तो भी ऐहिक
और पारत्रिक दुःखों से कोई किसी की रक्षा नहीं कर सकता है। सू०७॥ ___जब तक वृद्धावस्था वगैरह नहीं आई है तब तक श्रुतचारित्ररूप धर्म सेवन करने में प्रयत्न करते रहना चाहिये । इसी बातको सूत्रकार प्रदर्शित करते हैंકુષ્ઠ આદિ રોગના કારણે હાથ પગ ગળવા લાગે છે, તે વખતે તેના પિતાના કુટુંબી-પત્રકલત્રાદિક પણ “અમને પણ રોગ ન લાગી જાય” આ ભયથી તેને છોડી દે છે અથવા કેઈ વખત તે પણ કેઈ કારણવશ તેઓને છોડી દે છે. કદાચ પરસ્પર કઈ કેઈને ન પણ છેડે તો પણ ઐહિક અને પારિત્રિક દુખોથી કેઈકેઈની રહ્યા કરી શકતા નથી ! સૂ૦ ૭ છે
ત્યા સુધી વૃદ્ધાવસ્થા વિગેરે નથી આવી ત્યા સુધી શ્રુતચારિત્રરૂપ ધર્મ • सेवन २१२॥ प्रयत्न उरतो रडेवो नये, २. पातने सूत्रधार हशित रे छे.
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अध्य. २ उ १
टीका-हे पण्डित! हे परमार्थज्ञ-मेधाविन् ! एवं="केऽपि स्वजनादयस्त्राणाय वा शरणाय वा न भवन्ति " इति पूर्वोक्तप्रकारेण प्रत्येक प्रत्येकपाणिनः सर्वेषां पाणिनामित्यर्थः, दुःखं, तथा सात-सुखं च ज्ञात्वा स्वकृतशुभाशुभकमविपाकानुभवोऽवश्यं भवती'-तिबुद्धवा अनभिक्रान्तम्-अव्यतीतं वयः शरीरस्य कालकृतावस्था संप्रेक्ष्य परिवाददोपवतो वाक्यस्य, पोपणदोपवतो वाल्यस्य, परिहारदोपवतो रोगस्य च दूरवर्तित्वं यत्रास्ति तादृशं वयः समालोच्य, क्षणम् अवसरं जानीहि= बुध्यस्व हे पण्डित ! इति सम्बन्धः।
____ एवं जाणित्तु' इत्यादि। हे मेधावी:-हे सर्वविरतिसम्पन्न ! हे परमार्थ के जाननेवाले मुनि ! कोई भी स्वजनादिक एक दूसरे को त्राण और शरण के लिए समर्थ नहीं हो सकता है। इसप्रकार पूर्वोक्त रीति से प्रत्येक प्राणी के सुख दुःख को जानकर-अर्थात् अपने किये हुए पुण्यपाप का फल अवश्य भोगना पड़ता है, ऐसा समझकर तथा अवस्था को भी अनभिकान्त देख कर, तथा जब तक रोगादि का उद्य नहीं हुवा हैसब इन्द्रियां अपनी २ शक्ति में समर्थ हैं और स्वजनादिकों ने नहीं छोड़ा है अर्थात् जबतक स्वजनादि आदर करते हैं तबतक ही आत्मा का श्रेय साध लेना चाहिये, ऐसी अवस्था को अर्थात् परिवाद-दोषयुक्त वृद्धावस्था, पोषण-दोषवाली बाल्यावस्था और परिहार-दोषवाली रोगावस्था को सोचकर तं संयमाराधन के अवसरको भली-भांति जान।
‘एवं जाणितु' त्याह- मेधावी!- सावितिसपन! परमार्थना જાણકાર સુનિ! કોઈ પણ સ્વજનાદિક એક બીજાને ત્રાણ અને શરણ માટે સમર્થ બનતા નથી. આ પ્રકારે પૂર્વોક્ત રીતિથી પ્રત્યેક પ્રાણુના સુખ દુઃખને જાણીને અર્થાત્ “પિતાના કરેલા પાપ પુન્યના ફળ અવશ્ય જોગવવા પડે છે એવું સમજીને તથા અવસ્થાને પણ અનભિકાન્ત દેખીને, તથા જ્યાં સુધી રેગાદિકને ઉદય થયે નથી, બધી ઈન્દ્રિયો પોતપોતાની શક્તિમાં સમર્થ છે, અને સ્વજનાદિએ છેડેલ નથી, અર્થાત જ્યાં સુધી સ્વજનાદિ આદર કરે છે ત્યાં સુધી આત્માનું શ્રેય સાધી લેવું જોઈએ. એવી અવસ્થાને અર્થાત્ પરિવાદદેષયુક્ત વૃદ્ધાવસ્થા, પોષણદેશવાળી બાલ્યાવસ્થા અને પરિહારદેવવાળી ગાવસ્થાને સચીને તું સંયમારાધના અવસરને ભવિભાંતિ જાણુ.
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आचारागसूत्रे ___ चाहे सुखी हो चाहे दुःखी हो-प्रत्येक मनुष्य को अपने कृत-किये हुए शुभाशुभ कर्म के फल का भोग अवश्य भोगना पड़ता है। यह निश्चित सिद्धान्त है कि विना फल दिये कर्म कभी भी नष्ट नहीं होते।
आत्मा को जो पौवालिक वर्गणाऍ परतन्त्र करती हैं, उनका नाम ही कर्म है। इस लोक में कजल की कुप्पी की तरह सर्वत्र कार्मणवर्गणाएँ भरी हुई हैं-ये पौगलिक हैं । आत्मा के क्रोधादि कषायों के निमित्त से उनमें स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध रूप फल देने की शक्ति आती है। कर्मबन्ध की शास्त्रकारोंने ४ प्रकार की अवस्थाएँ बतलाई हैं। १ प्रकृतिबन्ध, २ स्थितिबन्ध, ३ अनुभागबन्ध और ४ प्रदेशबन्ध ज्ञानावरणीयादिक अष्टविध कर्मों में आत्मा के उन २ गुणों के घात करने की जो शक्ति है उस का नाम प्रकृतिबन्ध है। प्रकृति नाम स्वभाव का है। जिस प्रकार नीमका स्वभाव कड़वा होता है उसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म का स्वभाव आत्मा के ज्ञान गुण को घात करने का होना है, दर्शनावरणीय कर्म का स्वभाव आत्मा के दर्शनगुण को घात करने का है, वेदनीय कर्मका स्वभाव आत्मा को सुख और दुःख देनेका है, मोहनीय कर्मका स्वभाव, आत्माके स्वभाव को परपदार्थों में गृद्ध बनाने का है,
ભલે સુખી હોય યા દુખી પ્રત્યેક મનુષ્યને પોતાના કૃત-કરેલા શુભાશુભ કર્મના ફળને ભેગવવું પડે છે એ નિશ્ચિત સિદ્ધાન્ત છે કે ફળ આપ્યા વિના કર્મ કઈ વખત નાશ થતા નથી
આત્માને શૈર્ગલિક વર્ગણ પરતત્ર કરે છે તેનું નામ જ કર્મ છે આ લોકમાં કાજળની શીશી માફક સર્વત્ર કાર્મણ વર્ગણાઓ ભરેલી છે એ પગલિક છે. આત્માના કોધાદિ કષાયોના નિમિત્તથી તેમા સ્થિતિબધ અને અનુભાગ
ધરૂપ ફળ દેવાની શક્તિ આવે છે કમબ ઘની શાસ્ત્રકારોએ ૪ પ્રકારની અવસ્થાઓ બતાવેલી છે. ૧ પ્રકૃતિન ઘ, ૨ સ્થિતિન ધ, ૩ અનુભાગમાં ધ, અને ૪ પ્રદેશ છે. જ્ઞાનાવરણીયાદિક અવિધ કર્મોમાં આત્માના તે તે ગુણની ઘાત કરવાની જે શક્તિ છે તેનું નામ પ્રકૃતિબંધ છે પ્રકૃતિ નામ સ્વભાવનું છે. જેમ લીબડાને સ્વભાવ કડે હોય છે તે પ્રકાર જ્ઞાનાવણીય કર્મને સ્વભાવ આત્માના જ્ઞાનગુણને ઘાત કરવાનું હોય છે દર્શનાવરણીય કર્મને સ્વભાવ આત્માના દર્શનગુણને ઘાત કરવાને છે વેદનીય કર્મને સ્વભાવ આત્માને સુખ અને દુખ આપવાનો છે. મનીય કર્મને સ્વભાવ આત્માના સ્વભાવને પરપદાર્થોમાં
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अध्य० २. उ. १ आयु कर्मका स्वभाव नियत समय तक जीवको उस २ पर्यायमें रोक रखने का है, नाम कर्मका स्वभाव चित्रकार की तरह शरीरादिकों को अनेक रूपमें परिणमाने का है, गोत्रका स्वभाव ऊँच नीच कुलमें पैदा कराने का तथा अन्तराय कर्म का स्वभाव आत्मा के वीर्य के घात करने का है। प्रदेशबन्ध वह है-जिसकी वजह से दूध और पानी की तरह आत्मा और कर्म के अनन्तानन्त प्रदेशों का एकीभाव जैसा संबंध हो जाता है । यह दोनों प्रकार का बंध, मन वचन काय के योगों से होता है। स्थितिबंध-कर्मों में आत्मा के साथ रहने की भर्यादा को कहते हैं। फल देने की शक्ति की हीनाधिकता को अनुभागबंध कहते हैं। ये स्थितिबंध
और अनुभागबंध कषायों से होते हैं । कमौका आत्माके साथ बंध होता है, इसका यह मतलब नहीं है कि आत्मा कर्म हो जाता है, अथवा कर्म आत्मा रूप हो जाते हैं। प्रत्येक द्रव्यमें एक अगुरु-लघु नामकी शक्ति रहा करती है, जिसकी वजह से एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप नहीं हो सकता। इस शक्ति के सद्भाव से प्रत्येक द्रव्य अपनेस्वरूप में सदा कायम बना रहता है। हर एक द्रव्य में इन छह गुणों का कि जिनको सामान्य गुण कहते हैं सदा निवास रहता है। (१) अस्तित्व-इस गुण के निमित्त से द्रव्य મૃદ્ધ બનાવવાનું છે. આયુકર્મને સ્વભાવ નિયત સમય સુધી જીવને તે તે પર્યાયમાં રેકી રાખવાનું છે. નામકર્મને સ્વભાવ ચિત્રકારની માફક શરીરાદિકોને અનેક રૂપમાં પરિણમાવવાનું છે. ગોત્રને સ્વભાવ ઉંચ નીચ કુળમાં પેદા કરાવવાનો અને અન્તરાય કર્મને સ્વભાવ આત્માના વીર્યને ઘાત કરવાનું છે. પ્રદેશબંધ તે જ છે, જેની મારફત દૂધ અને પાણી માફક આત્મા અને કર્મને અનન્તાનન્ત પ્રદેશને એકીભાવ જે સંબંધ થઈ જાય છે. એ બંને પ્રકારના બંધ મન વચન કાયાના યોગોથી થાય છે. સ્થિતિબંધ-કર્મોમાં આત્માની સાથે રહેવાની મર્યાદાને કહે છે, કુળ દેવાની શક્તિની હીનાધિકતાને અનુભાગબંધ કહે છે. એ સ્થિતિબંધ અને અનુભાગબંધ કષાયથી થાય છે. કર્મોને આત્મા સાથે બંધ થાય છે, તેને એ મતલબ નથી કે આત્મા કર્મ બની જાય છે, અથવા કર્મ આત્મારૂપ બની જાય છે. પ્રત્યેક દ્રવ્યમાં એક અગુરુલઘુ નામની શક્તિ રહ્યા કરે છે, જેની મારફત એક દ્રવ્ય બીજા દ્રવ્યરૂપ બની શકતું નથી. આ શકિતના સંભાવથી પ્રત્યેક દ્રવ્ય પોતાના સ્વરૂપમાં સદા કાયમ બની રહે છે. દરેક દ્રવ્યમાં આ છ ગુણે કે જેને સામાન્ય ગુણ કહે છે તે સદા નિવાસ કરી રહેલા છે. १ अस्तित्व ---मा गुगुना निमित्तथी द्रव्यन अ६ मत नाश नयी यता.
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आचाराङ्गसूत्रे का कभी नाश नहीं होता, (२) वस्तुत्व-इस गुण के निमित्त से द्रव्य क्षण २ में कुछ न कुछ काम किया ही करता है। (३) द्रव्यत्व-इस गुण के निमित्त से द्रव्य में एकसी व भिन्न प्रकार की अवस्थाएँ बदला करती हैं, (४) अगुरुलघुत्व-इसके निमित्त से द्रव्य सदा अपनी मर्यादा में ही रहता है-कोई भी इसका गुण दूसरे गुणरूप नहीं हो सकता, कोई दूसरा गुण भी उसमें बाहर से आकर नहीं मिल सकता, (५) प्रदेशवत्व-इस गुण के निमित्त से द्रव्यका कोई न कोई आकार अवश्य होता है, (६) प्रमेयत्व-इस गुण के निमित्त से द्रव्य किसी न किसी ज्ञानका विषय होता रहता है। ___ आत्मा और पुद्गल में एक ऐसी वैभाविक शक्ति है कि जिससे ये दोनों अनादिकाल से अन्योन्यसंपृक्त होने के कारण स्वभाव से अन्यथा होने रूप विभाव अवस्था में पड़े हुए हैं। इनकी यह विभाव अवस्था अनादिकाल की है-आज नई पैदा नहीं हुई है, इसी से जीव में पुद्गल के निमित्त से विभाव-अन्यथाभाव रूप परिणमन और विभावदशासंपन्न जीव के निमित्त से पुद्गल में विभाव-(कर्म)-रूप परिणमन हुआ करता है । इनका यह परिणमन अनादिकालका है-आजका नहीं। २ वस्तुत्व-२॥ शुशुना निमित्तथी द्रव्य क्षण-क्षमा ने ४is म ४ा रेछे 3 द्रव्यत्व-या शुशुना निभित्तथी द्रव्यमा से मने भिन्न प्रारी अवस्थामा पक्ष्यां रे छे ४ अगुरुलघुत्व-मेन निभित्तथी द्रव्य सहा पोतानी भर्याहामा २९ છે, કઈ પણ તેને ગુણ બીજા ગુણરૂપ બની શકતું નથી, અને બીજે ગુણ પણ तभी माथी आवी भणी शो नथी ५ प्रदेशवत्व-सा गुना निभित्तथी द्रव्यन ने 30 २१२ २३१श्य थाय छे ६ प्रमेयत्व-२मा गुगुना निमित्तथी દ્રવ્ય કેઈ ને કોઈ જ્ઞાન વિષય થઈ રહે છે
આત્મા અને પુગલમાં એક એવી વૈભાવિક શક્તિ છે કે જેનાથી એ બને અનાદિ કાળથી અન્ય સયુક્ત હેવાને કારણે સ્વભાવથી અન્યથા હેવારૂપ વિભાવ અવસ્થામાં પડેલ છે, તેની આ વિભાવ અવસ્થા અનાદિ કાળની છે. આજ નવી પિદા થયેલ નથી.
એનાથી જીવમા પુદ્ગલના નિમિત્તથી વિભાવ-અન્યથા ભાવરૂપ પરિણમન અને વિભાવદશા પન્ન જીવના નિમિત્તથી પુગલમા વિભાવ-(કર્મ)–રૂપ પરિ મન થયા કરે છે. તેનું આ પરિણમન અનાદિ કાળનુ છે. આજનું નહિ.
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मध्य २. उ.१
प्रश्न-यदि आत्मा पहले शुद्ध था ऐसा मान लिया जाये तो क्या हानि है ?
उत्तर--बड़ी भारी हानि है । इस प्रकार की मान्यता में कर्म के संबंध के पहिले आत्मा शुद्ध ठहरेगा, और फिर उसको कर्मका संबंध मानने से सिद्धात्माओं को भी कर्म का संबंध मानना पड़ेगा। ऐसा तो है नहीं-शुद्ध में अशुद्धता आ सकती नहीं । सिद्ध अवस्था शुद्ध अवस्था है । अशुद्ध से शुद्ध होता है, इसीलिये वन्ध से ही मोक्ष कहा गया है।
प्रश्न-कर्म के फल देने की कोई विशेष विधि है ?
उत्तर-हां, है। जब कर्म बंधते हैं तव उनके पकने के लिये कुछ काल चाहिये, बांधे हुए कर्म उसी समय उदयमें नहीं आने लगते। इनका हिसाव तो खेतमें पड़े हुए बीज की तरह है। जिस प्रकार खेत में बोया गया बीज कुछ काल के बाद ही पकता है ठीक इसी प्रकार बांधे हुए कर्म को पकने में भी समय लगता है। इस समयका नाम अवाधाकाल है। इस आवाधाकाल का यह हिसाव है कि-एक कोड़ाकोड़ी सागर की स्थितिवाले कर्म में उसका अबाधाकाल १०० वर्ष का पड़ता है, सत्तर ७० कोडाकोडी सागर की स्थितिवाले मोहकर्म में ७००० वर्षका
પ્રશ્ન-કદાચ આત્મા પહેલાં શુદ્ધ હતું તેમ માની લેવામાં આવે તે શું हुत छ?
ઉત્તર—ઘણી ભારી હાનિ છે. આ પ્રકારની માન્યતામાં કર્મના સંબંધના પહેલા આત્માને શુદ્ધ માનવું પડશે. અને પછી તેને કર્મને સંબંધ માનવાથી સિદ્ધાત્માઓને પણ કર્મનો સંબંધ માનવો પડશે. એવું તે છે નહિ. શુદ્ધમાં અશુદ્ધતા આવી શકતી નથી. સિદ્ધ અવસ્થા શુદ્ધ અવસ્થા છે અશુદ્ધથી શુદ્ધ છે. માટે બંધથી જ મોક્ષ કહેવાય છે.
પ્રશ્ન-કર્મના ફળ દેવાની બીજી કઈ વિશેષ વિધિ છે ?
ઉત્તર–હા. છે. જ્યારે કર્મ બંધાય છે ત્યારે તેને પાકવા માટે થોડો વખત જોઈએ, બાંધેલા કર્મ તે વખત ઉદયમાં આવવા લાગતા નથી તેને હિસાબ તે ખેતરમાં પડેલા બી માફક છે. જે પ્રકારે ખેતરમાં વાવેલા બી ઘોડા વખત પછી પાકે છે તે પ્રકારે બાંધેલા કર્મને પાકવામાં પણ થોડો વખત લાગે છે. તે સમયનું નામ અબાધાકાલ છે. આ અબાધાકાલનો એ હિસાબ છે કે એક કડાકોડી સાગરની સ્થિતિવાળા કર્મમાં તેની અબાધા ૧૦૦ વર્ષની પડે છે ૭૦ કેડીકેડ સાગરની સ્થિતિવાલા મોહકર્મમાં ૭૦૦૦ વર્ષને અબાધાકાળ
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आचारागसूत्रे अवाधाकाल पड़ता है। इस हिसाबसे करोड़ सागर की स्थितियाले कर्मका अबाधाकाल अन्तर्मुहूर्त मात्र ही पडेगा, इससे यह बात जानी जाती है कि-जितने कम स्थिति के कर्म बंधेंगे, वे जल्दी फल देने को तैयार हो जावेंगे, और यही वजह है कि इसी भवमें बांधे हुए कर्म जीव को इसी भवमें उदय आ जाते हैं।।
प्रश्न-बांधे हुए कर्मका वैसा ही फल मिलता है ? या उस में कुछ परिवर्तन भी हो सकता है ।।
उत्तर-जीवों के परिणामों के निमित्त से फलोपभोग में परिवर्तन भी हो जाता है। उस परिवर्तन को-उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण, और उदीरणा कहते हैं । बांधे हुए कर्मों की स्थिति या उनके अनुभाग में जीवों के भावों के निमित्त से जो वृद्धि हो जाती है उसे उत्कर्षण कहते हैं। पहिले बांधे हुए कर्मों की स्थिति व अनुभाग में जीवों के भावों के निमित्त से जो घटती होती है उसे अपकर्षण कहते हैं। जीवों के भावों के निमित्त से पाप का पुण्य में या पुण्य का पाप में जो परिवर्तन-बदलना होता है उसका नाम संक्रमण है। किन्हीं कर्मों को किसी निमित्त के वश अपनी ठीक स्थिति के पहिले उदय में लाकर खपा देनेका नाम उदीरणा है । પડે છે આ હિસાબથી કરેડ સાગરની સ્થિતિવાળા કર્મને અબાધાકાળ અન્તમુહર્ત માત્ર જ પડે છે. આથી તે વાત જણાય છે કે જેટલે શેડી સ્થિતિનો કર્મ બંધાશે તેટલે જલદી ફળ દેવાને તૈયાર થઈ જશે, અને એજ કાણુથી આ ભવમાં બાધેલા કર્મ જીવને આ ભવમાં ઉદય આવે છે
પ્રશ્ન-બાધેલા કમનું તેવું જ ફળ મળે છે અગર તેમાં કોઈ પરિવર્તન पार थाय छे ?
ઉત્તર–જીવોના પરિણામોના નિમિત્તથી ફલોપભોગમા પરિવર્તન પણ થઈ જાય છે, આ પરિવર્તનને–ઉત્કર્ષણ, અપકર્ષણ, સકમણ, અને ઉદીરણું કહે છે બાંધેલા કર્મોની સ્થિતિ અગર તેના અનુભાગમા જીના ભાવોના નિમિત્તથી જે વૃદ્ધિ થાય છે તેને ઉત્કર્ષણ કહે છે પહેલા બાધેલા કર્મોની સ્થિતિ અને અનુભાગમા જીના ભાવેના નિમિત્તથી જે ઘટતી થાય તેને અપકર્ષણ કહે છે. જીવોના ભાવેના નિમિત્તથી પાપને પુણ્યમાં, અને પુણ્યને પાપમાં જે પરિવર્તન થાય છે, તેનું નામ સંકમણ છે. કેઈ કર્મને કેઈ નિમિત્તના કારણથી પોતાની ડીક સ્થિતિના પહેલાં ઉદયમાં લાવીને જે ખપાવી નાખે છે તેનું નામ ઉદીરણ છે
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अध्य २ उ. १
१०७ __ इन कर्मों की उत्तर प्रकृतियां कितनी हैं ? और उनका क्या स्वरूप है ? तथा देशघाति और सर्वघाति, पुण्यरूप और पापरूप प्रकृतियां कितनी और कौन २ हैं ? तथा देशघाति प्रकृतियां में सर्वघाति स्पर्द्धक कितने हैं ? इत्यादि समस्त बातोंका विचार शास्त्रों में अच्छी तरह किया गया है। इस प्रकार कर्मों का संक्षेप में स्वरूप समझ कर यह प्रकट किया है कि इसी कर्म के निमित्त से आत्मा इस संसार में भटकता
और अनेक दुःखों को सहन करता रहता है। कर्म आत्मा को संसार में भमाता है। आत्मा भी स्वयं इनका निमित्त पाकर संसार में ममता रहता है। कर्मों से दुःखी होनेवाले जीव ही संसारी हैं। वे सदा इस संसार में इसी की वजह से भ्रमण किया करते हैं। इस के इस परिभ्रमण को देख कर ज्ञानीजन इसे संबोधन करते हुए कहते हैं कि" आघातं मरणेन जन्म जरया विद्युच्चलं यौवनं,
सन्तोषो धनलिप्सया शमसुखं भोगाशया देहिनाम् । लोकैर्मत्सरिभिर्गुणा वनभुवो व्यालेनृपा दुर्जनै,रस्थैर्येण विभूतिरप्यपहृता ग्रस्तं न कि केन वा ? ॥१॥
આ કર્મોની ઉત્તર પ્રવૃતિઓ કેટલી છે અને તેનું શું સ્વરૂપ છે? તથા દેશઘાતિ અને સર્વઘાતિ પુણ્યરૂપ અને પાપરૂપ પ્રકૃતિએ કેટલી અને કઈ કઈ છે? તથા દેશઘાતિ પ્રકૃતિઓમાં સર્વઘાતિસ્પદ્ધક કેટલાં છે. ? ઈત્યાદિ સમસ્ત વાતોનો વિચાર શાસ્ત્રોમાં સારી રીતે કરવામાં આવેલ છે. આ પ્રકારે કર્મોને સંક્ષેપમાં સ્વરૂપ સમજીને એવું પ્રગટ કરેલ છે કે આ કર્મના નિમિત્તથી આત્મા આ સંસારમાં ભટકતે અને અનેક દુઃખને સહન કરતે રહે છે. કર્મ આત્માને સંસારમાં ભમાવે છે. આત્મા પણ સ્વયં તેને નિમિત્ત બનીને સંસારમાં ભમતે રહે છે. કર્મોથી દુઃખી થવાવાળા જીવ સંસારી છે. તે સદા આ સંસારમાં એજ કારણથી ભ્રમણ કર્યા કરે છે. તેના આ પરિભ્રમણને દેખીને જ્ઞાની અને તેને સંબોધન કરીને કહે છે કે –
"आघ्रात मरणेन जन्म जरया विद्युञ्चलं यौवन, सन्तोषो धलिप्सया शमसुखं भोगाशया देहिनाम् । लोकमत्सरिभिर्गुणा वनभुवो व्यालेनूपा दुर्जनै,रस्थैर्येण विभूतिरप्यपहृता अस्तं न कि केन वा?" ॥१॥
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आचारागसूत्रे - - हे संसार के जीवों ! कहो दुनिया में ऐसी कौनसी वस्तु है जो निर्भय हो । देखो-मृत्यु ने जन्मको, बुढ़ापे ने विजली के समान चंचल युवावस्था को, धन की तृष्णा ने संतोष को, भोगों की आशाने मानसिक शांति को, मत्सर-भाववाले दुर्जनों ने गुणों को, सर्प और हिंसकों ने जंगली जानवरों को, दुष्टों ने राजाओं को और अस्थिरता ने ऐश्वर्य को भयभीत कर रखा है। एक को एकका भय लगा हुआ है। एकसे एक ग्रसित है, फिर इसमें शांति की भावना रखना मानों कूप के किनारे पर बैठ कर निर्भयताके साथ ऊंघना जैसा है। इसी लिये तो ज्ञानी पद पद पर संबोधित कर कहते रहते हैं कि-अरे भव्य !
"नत्वं चिन्तय सततं चित्ते, परिहर चिन्तां नश्वरवित्ते"
सदा तूं सारासार का विचार करता रह । क्यों नाशवान धनादिक की चिन्ता से व्यर्थ ही अपने को व्याकुल किया करता है ?, क्या तुझे पता नहीं कि जिस प्रकार मांसके ऊपर गीध मंडराया-घूमा करते हैं उसी प्रकार तुझे खाने के लिये यह काल तेरेशिर पर मंडरा-घूम-रहा है। लोगों को तू मरते हुए नित्य देखता है, प्रत्येक दिवस वृद्धों को असह्य कष्ट की यातनाओं से पीडिन निहारता है और संसार को भी
છે સંસારી છે ! કહો દુનીયામાં એવી કઈ વસ્તુ છે કે જે નિર્ભય છે. દેખે મૃત્યુને જન્મને, ઘડપણને વિજળી સમાન ચંચળ યુવાવસ્થાને, ધનની તૃષ્ણને
સતેષને, ભેગની આશાને માનસિક શાંતિને, મત્સરભાવવાળા દુજનેને ગુણેને, સર્પો અને હિંસકને જગલી જનાવરેને, દુષ્મને રાજાઓને, અને અસ્થિરતાને ઐશ્વર્યને મહાભય છે. એકને એકને ભય લાગે છે. એકથી એક ગ્રસિત છે, પછી તેમાં શાંતિની ભાવના રાખવી કુવાના કિનારા ઉપર બેસીને નિર્ભયતાની સાથે ઉંઘ લેવા બરાબર છે. માટે તે જ્ઞાની પદે પદે સંબોધિત કરી કરીને કહેતા રહે છે કે અરે ભવ્ય!
"तत्त्वं चिन्तय सततं चित्ते, परिहर चिन्ता नश्वरवित्ते ।
સદા તુ સારાસારને વિચાર કરતે રહે, કારણ કે નાશ થનારા ધનાદિકની ચિન્તાથી વ્યર્થ પિતાની જાતને વ્યાકુલ બનાવીશ નહિ શું તને ખબર નથી કે જેવી રીતે માંસ ઉપર ગીધ અવારનવાર ઘૂમ્યા કરે છે તે પ્રકારે તને ખાવા માટે કાલ તારે શિર ઉપર ઘૂમી રહ્યો છે. કેને મરતા તુ નિત્ય જુવે છે. પ્રત્યેક દિવસ વૃદ્ધોને અસહ્ય કદની યાતનાઓથી પીડિત ભાળે છે, અને સંસારીઓને ૫, તરેહ તરેડના ભયથી ઘેરાએલા અને નાના પ્રકારના સંકટને સહન કરતા
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आचारागसूत्रे प्रयतमानो हि यथोपायान् पश्यति तथा नापायान् । अर्थातुरो हि न स्वजनादिकमपि गणयति तमपि वञ्चयति। पुनरर्थालोभी कीदृशो भवतीत्याह-"विनिविष्टचित्तः" इति, वि-विविधं निविष्टस् अनेकधा स्थितं धनार्जने चित्तं यस्य स विनिविष्टचित्तः। ___यद्वा-मातापित्राथमिसम्बन्धे विनिविष्टं चित्तमन्तःकरणं यस्य स विनिविष्टचित्तः, सततं तस्य चित्ते धनलाभाभिनिवेश उपजायत इति भावः । एवंभूतः किं करोतीत्याह-"अत्र शस्त्रे पुनः पुनः" इति । अत्र=अस्मिन् मातापितृभ्रातभगिनी-भार्या-पुत्र-दुहित-स्नुषा-मित्र-पितृव्य-श्वशुर-हस्त्य-श्वादिके, गन्दादिकामगुणे वा विनिविष्टचित्तः शस्त्रे पड्जीवनिकायोपमर्दनलक्षणे पुनः पुनः प्रवर्तते । रागाधाविष्टचेतासंयोगार्थी अर्थालोभी आलुम्पः सहसाकारस्तत्र विनिविष्टचित्तः पड्जीवनिकायस्यारस्मे वारं वारं प्रवर्तत इति सूत्राशयः॥१॥ धन कमाने के उपायों की ओर देखता है उस प्रकार से कष्टों की तरफ नहीं देखता, अर्थात् प्राणी अपने निज जन की भी इजत नहीं करता, प्रत्युत उन्हें भी ठगने की फिराक में रहता है। क्योंकि वह "विनिविष्टचित्तः" अनेक प्रकार से धन के उपार्जन करने में आसक्तचित्तवाला होता है । इस प्रकार वह " अन शस्त्रे पुनः पुनः" साता, पिता, भाई, बहिन, स्त्री, पुत्र, पुत्री, वहू, मित्र, काका, ससुर और हस्ति आदि पदार्थों में अथवा शब्दादिकविषयों में विनिविष्टचित्त-तल्लीन बनकर षड्जीवनिकाय के उपमर्दनरूप शस्त्रमें बारंबार प्रवृत्ति करता रहता है। इस सूत्र का फलितार्थ यह हुआ कि रागादिकों में तल्लीनचित्तवाला संयोगार्थी, अर्थालोभी, आलुम्प सहसाकारी प्राणी, उन २ पदार्थों मे तत्पर होकर षड्जीवनिकाय के आरंभ मे वारंवार प्रवृत्ति करता है ॥१॥ ઉપાય તરફ જ દેખે છે તે પ્રમાણે કો તરફ દેખતે નથી અર્થાત્ પ્રાણ પિતાના નિજ જનની પણ ઈજત કરતું નથી, ઉલ્ટે તેને પણ લુટવાની ફિકર કરે છે,
१२ ते " विनिविष्टवित्त " मने प्राथी धन पान ४२वामा मासxtचित्तवा थाय छे. - आरे त अन्न शले पुन पुन." माता, पिता, माध, मलिन, स्त्री, पुत्र. पुत्री, प, मित्र, 31, सस। मने हस्ति 2018 પદાર્થોમાં અથવા શબ્દાદિકવિષયોમાં વિનિવિષ્ટ ચિત્ત-તલ્લીન બનીને જીવનિકાયના ઉપમનરૂપ શસ્ત્રમાં વારંવાર પ્રવૃત્તિ કરે છે આ સૂત્રને ફલિતાર્થ એ થાય છે કે રાગાદિકેમ તલ્લીનચિત્તવાળા સગાથી, અર્થાલાભી, આલુખ્ય હસાકારી પ્રાણ તેવા પદાર્થોમાં તત્પર બનીને જીવનિકાયના આર ભમાં રંવાર પ્રવૃત્તિ કરે છે. ૧
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अध्य० २. उ. १ तरह २ के भयों से घिरा हुआ एवं नाना प्रकार के संकटों को झेलता हुआ तूं स्वयं अपनी आंखों से देखता है, फिर भी तूं विषय रूप चारे के लोभ से ममता के कांटे में फंस कर अपना नाश कर रहा है। मछली
और बन्दर की तरह बन्धन में फँलता हुआ भी वहां से नहीं निकलना चाहता। क्या तुझे नहीं मालूम कि तेरी भी एक दिन यही दशा होनेवाली है, अतः यही अवसर कल्याण करने का है। कहा भी है
" यावत्स्वस्थमिदं कलेवरगृहं यावच्च दूरे जरा, यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः । आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान् , प्रोद्दीप्ते भवने तु कूपखननं प्रत्युचलः कीदृशः ?" ॥१॥ है भव्य ! जब तक तेरा यह शरीर ठीक हालत में है, इसमें कोई भी रोग ने निवास नहीं किया है, जब तक बुढ़ापा दूर है, जब तक इन्द्रियों की शक्ति बनी हुई है, जब तक आयुके दिन बांकी हैं, तब तक तूं आत्मकल्याण करने की चेष्टा अच्छी तरह करता रह। घर जलने पर कूप खोदने से क्या लाभ ? ॥१॥
इन पूर्वोक्त बातों को ध्यान में रखते हुए सूनकार कहते हैं-' एवं जाणितु' इत्यादि । 'हे पण्डित !' इस शब्द के अर्थ का टीकाकारતું સ્વયં પિતાની આંખેથી દેખે છે, છતાં તે વિષયના લેભથી મમતાના કાંટામાં ફસી પિતાને નાશ કરી રહ્યો છે. માછલી અને વાંદરાની માફક તું બંધનમાં ફસેલે પણ ત્યાંથી બહાર નીકળવા ચાહતે નથી. શું તને ખબર નથી કે તારી પણ એક દિવસ આ દશા થવાની છે. માટે એજ અવસર કલ્યાણ કરવાનો છે. કહ્યું પણ છે –
" यावत्स्वस्थमिद कलेवरगृहं यावच्च दूरे जरा, यावच्वेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता पावत्क्षयो नायुषः । आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान् , प्रोद्दीप्ते भवने च कूपखननं प्रत्युद्यमः कीदृशः?" ॥१॥
હે ભવ્ય! જ્યાં સુધી આ તારૂં સરીર સારી હાલતમાં છે, તેમાં કઈ પણ રોગ નિવાસ નથી કર્યો, જ્યાં સુધી ઘડપણ દૂર છે, જ્યાં સુધી ઈન્દ્રિયની શકિત બની રહી છે, જ્યાં સુધી આયુના દિવસે બાકી છે, ત્યાં સુધી તું આત્મકલ્યાણ કરવાની ચેષ્ટા સારી રીતે કરતે રહે. ઘર બળવા લાગે ત્યારે કુ દવાને શું અર્થ? મે ૧૫
२. पूर्वरित वातोने ध्यानमा राजीन. सूत्र॥२ ४ छ-" एवं जाणितु” ઈત્યાદિ. “હે પંડિત !” આ શબ્દના અર્થનું ટીકાકાર-હે મેધાવી!, હેસર્વવિરતિસંપન્ન
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आचारागसूत्रे हे मेधावी! हे सर्वविरतिसंपन्न ! हे परमार्थज्ञ! इन तीन पदों से विवेचन करते हैं। सार और असारतत्व का विवेचन करनेवाली बुद्धि का नाम मेधा-प्रज्ञा है। इसके बलपर ही प्राणी 'उपादेय क्या वस्तु है ? हेय क्या है ?' इस बात का विचार कर सकता है। इस पवित्र विचारधारा से उसकी आत्मामें भेदविज्ञान जागृत होता है। इससे वह यह भली भांति जान लेता है कि " एगो हं नस्थि मे कोई" "मैं स्वतंत्र एक हूं, मेरा इस संसार में कोई नहीं है । इन पर-पदार्थों का केवल मेरे साथ संयोग संबंध हैं, तादात्म्य संबंधवाले ज्ञानादिगुण मेरी आत्मा के साथ सदा रहनेवाले है। इन संयोगी पदार्थों का नियम से वियोग होगा, जिनका तादात्म्य संबंध है वे नो इस आत्मा से निकाल में भी दूर नहीं हो सकते । जो अपना निज गुण है वही हमें उपादेय है, वाकी हेय हैं" इस प्रकार की विशुद्ध भावना से उसकी आत्मा में उन पदार्थों से वैराग्यवृत्ति उत्पन्न होती है, इस वैराग्यवृत्ति से आत्मा में कोई अपूर्व वीर्योल्लास पैदा होता है, इसकी वजह से आत्मा से अनंतानुबंधी चोकड़ी का और दर्शनमोहनीय की प्रकृतियों का क्षय, क्षयोपशम या उपशम होता है। इसी परिस्थिति में इसे उपशम क्षयोपशम या क्षायिक समकित पैदा हो जाता है। अभी आत्मा में चारित्रमोहनीय कर्म की सत्ता मौजूद है, હે પરમાર્થ !, આ ત્રણ પદોથી વિવેચન કરે છે–સાર અને અસાર તત્વનું વિવેચન કરવાવાળી બુદ્ધિનું નામ મેધા–પ્રજ્ઞા છે. તેના બળ ઉપર હે પ્રાણી “ઉપાદેય શું વસ્તુ છે. હેય શું છે આ વાતને વિચાર કરી શકે છે. આવી પવિત્ર વિચારધારાથી તેના આત્મામાં ભેદવિજ્ઞાન જાગ્રત થાય છે, તેથી ते मा सारी रीते ती छ -“ एगो ह नत्थि मे कोई” “हु मे । છ મારું આ સંસારમાં કેઈ નથી. આ પર પદાર્થોને કેવલ મારા આત્માની સાથે સ એગ સંબંધ છે. તાદામ્ય સબ ધવાળા જ્ઞાનાદિગુણ મારી આત્માની સાથે સદા રહેવાવાળા છે. આ સંગી પદાર્થોનું નિયમથી વિયોગ થશે, જેને તાદામ્ય સબંધ છે તેઓ તે આ આત્માથી ત્રિકાળમાં પણ દૂર થઈ શકતા નથી. જે પિતાને નિજગુણ છે તે અમને ઉપાદેય છે, બાકી હેય છે” આવા પ્રકારની વિશુદ્ધ ભાવનાથી તેના આત્મામાં તે પદાર્થોથી વૈરાગ્યવૃત્તિ ઉત્પન્ન થાય છે તે વૈરાગ્ય વૃત્તિથી આત્મામા કેઈ અપૂર્વ વિલાસ પેદા થાય છે તેની મારફતે આત્માથી અનંતાનુબ ધી ચેકડીને અને દર્શનમોહનીયની પ્રકૃતિને ક્ષય, ક્ષયોપશમ, અગર ઉપશમ થાય છે. આવી પરિસ્થિતિમાં તેને ઉપશમ, ક્ષોપશમ, અને ક્ષાયિક સમકિત પેદા થાય છે. હજુ આત્મામાં ચારિત્રમેહનીય કર્મની સત્તા મેજુદ છે,
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अध्य० २. उ. १ इससे इसे देशविरति या सर्वविरति की प्राप्ति नहीं हुई है, परन्तु समकित की प्राप्ति होने के बाद ज्यों ही यह आगे बढनेका प्रयास करता है त्यों ही इसको या तो देशविरति होती है या सर्वविरति । देशविरति से मुक्ति नहीं, अतः जब यह अपने पुरुषार्थ की दिशाको आगे बढ़ाता है तब सर्वविरति के लाभ से यह अपने को पवित्र करता है और वास्तविक तप संयम का आराधक बन जाता है, अतएव परमार्थज्ञ-परम-उत्कृष्ट जो अर्थ
आत्मा का स्वरूप, उसका ज्ञ-ज्ञाता हो जाता है । देशविरति में आत्मा प्राणातिपातादिक पांच आत्रवोंका एक देशसे लागी होता है और सर्व विरतिमें उनका सर्व प्रकार से त्याग हो जाता है। वहां समस्त जीवों पर समताभावरहता है। आत्माका निजस्वरूप जो ज्ञाता-द्रष्टापना है वह इस नपसंयमकी अवस्था में प्रकट हो जाता है।
सूत्रमें-"दुक्खं पत्तेयं सायं" जो पद है वह इस बातकी पुष्टि करता है-यह दुःख और सुख, पाप और पुण्य से होते हैं, अतः "संसार के समस्त प्राणियों को रोगादिक वेदना आदि के समय अपने द्वारा किये गये कर्मका विपाक अवश्य भोगना पड़ता है" ऐसा समझकर हे भव्य ! जब तक अपने शरीरमें रोगादिकों का उदय नहीं होता, और जब तक सचेष्टता बनी हुई है, तथा जब तक स्वजन संबंधी अपने से તેનાથી તેને દેશવિરતિ અને સર્વવિરતિ પણ પ્રાપ્ત થયેલ નથી પરંતુ સમક્તિની પ્રાપ્તિ થયા બાદ જ્યારે તે આગળ વધવાનો પ્રયાસ કરે છે ત્યારે તેને દેશવિરતિ થાય છે, અથવા સર્વવિરતિ. દેશવિરતિથી મુક્તિ નહિ માટે ત્યારે એ પોતાના પુરૂપાઈની દિશાને આગળ વધારે છે, ત્યારે સર્વવિરતિના લાભથી ને પિતાને પવિત્ર કરે છે, અને વાસ્તવિક તપ સંયમને આરાધક બની જાય છે, એટલે પરમાર્થ –પરમ=ઉત્કૃષ્ટ જે અર્થ =આત્માનું સ્વરૂપ તેને જ્ઞાતા થાય છે. દેશવિરતિમાં આત્મા પ્રાણાતિ પાતાદિક પાંચ આશ્રવન એક દેશથી ત્યાગી થાય છે અને સર્વવિરતિમા તેને અર્વ પ્રકારથી ત્યાગ થઈ જાય છે. ત્યાં સમસ્ત જીવા ઉપર સમતાભાવ રહે છે. આત્માનું નિજ સ્વરૂપ જે જ્ઞાતા-દ્રષ્ટાપન છે તે આ તપ સંયમની અવસ્થામા પ્રગટ થઈ જાય છે
सूत्रमा " दुक्खं पत्तेयं सायं" २ ५४ छ ते म! वातनी पुष्टि ४२४-- તે દુઃખ અને સુખ પાપ અને પુણ્યથી થાય છે, માટે સંસારના નાસ્ત પ્રાણી
ને રેગાદિક વેદના આદિના સમયે પોતાનાથી કરેલા કર્મને વિપક અવશ્ય ભગવે પડે છે.” એવું સમજીને હે ભવ્ય ! ત્યાં સુધી પોતાના શરમ દિકના ઉદય નથી થતો. અને જ્યાં સુધી સપ્ટતા બનેલ છે. અને ત્યાં ધી
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आचारागसूत्रे विरक्त नहीं होते तब तक आत्मकल्याण करने में अग्रसर हो जा, और इस संयमाराधनरूप पवित्र कार्यको न छोड़ । क्यों कि
"हाथ पांवमें जब तक बल है, आंखों में है तेज प्रकाश, श्रवणशक्ति है, बुद्धि उपस्थित, रोगादिक का हुआ न त्रास। धर्म आचरण करले प्राणी, धरकर मन में उत्तप्न साज, को जाने कल रहा न कल तो, क्यों जाने देते हो आज ॥१॥"
___" अनभिक्रान्तं च वयः सम्प्रेक्ष्य" समय समय आयु घटती है,क्षण क्षण कायाक्षीण होती है। जिस प्रकार मिट्टीका ढेला भीजते ही गल जाता है, उसी तरह देखते २ यह शरीर गल जाता है, इसलिये तूं अपने आत्म-कल्याण की तरफ प्रवृत्ति कर । क्यों कि वय के व्यतीत होने पर परिवाद, पोषण और परिहार आदिक दोष उत्पन्न हो जाते हैं । इस लिये उस हालत में संयमका पालन अशक्य होता है। इस लिये सूत्रकार कहते हैं कि-जब तक संयम धारण करने योग्य अवस्था व्यतीत नहीं हुई है तब तकधर्माचरण रूप अवसर को हाथसे मत जाने दो, अर्थात् यही अवस्था है जिसमें प्राणी धर्माचरण कर सकता है। सूत्र में 'च' शब्द अर्थान्तर का बोधक है इस से यह સ્વજન સબંધી પિતાનાથી વિરક્ત નથી થતાં ત્યાં સુધી આત્મકલ્યાણ કરવામાં અગ્રેસર બની જાય અને આ સમાધન રૂપ પવિત્ર કાર્યને ન છોડ, કારણ કે
" हाथ पांवमें जब तक बल है, आखोमें है तेजप्रकाश,
श्रवणशक्ति है, बुद्धि उपस्थित, रोगादिकका हुआ न त्राल । धर्म आचरण कर ले प्राणी, धरकर मनमें उत्तम साज,
को जाने कल रहा न कल तो क्यों जाने देते हो आज ॥१॥" " अनभिक्रान्तं च वयः सम्प्रेक्ष्य "
સમય સમય આયુ ઘટે છે, ક્ષણે ક્ષણે કાયા ક્ષીણ થાય છે. જેમાં માટીનું ઢેકુ પાણી લાગતા જ ગળી જાય છે તેમ દેખતાં દેખતાંમાં આ શરીર ગળી જાય છે, માટે તું પોતાના આત્મકલ્યાણ તરફ પ્રવૃત્તિ કર. કારણ કે વયના વ્યતીત થવાથી પરિવાદ, પિષણ અને પરિહાર આદિક દોષ ઉત્પન્ન થાય છે, તેથી તેવી હાલતમાં સંયમનું પાલન થવું અશક્ય છે, માટે સૂત્રકાર કહે છે કે
ત્યાં સુધી સંયમ ધારણ કરવાની યેગ્ય અવસ્થા વ્યતીત થઈ નથી ત્યાં સુધી ધર્માચરણરૂપ અવસરને હાથથી જવા દ્યો નહિ. અર્થાત્ આજ અવસ્થા છે જેમાં ધર્માચરણ પ્રાણી કરી શકે છે. સૂત્રમાં “a” શબ્દ અખ્તરને બેધક છે
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भन्य० २. उ. १
यद्वा-अवसीदतो विनेयस्योत्साहवर्धनपरमिदं वाक्यम्-हे पण्डित ! सम्प्रति त्वमनतिक्रान्तवया असि, अथ च परिवादादिदोपत्रयरहितोऽसि तारदेव संयमाय यतस्वेत्यर्थः, अत्रेदृशक्षणाभिज्ञत्वेन पण्डित ! इति सम्बोधनं सङ्गच्छते । प्रतीत होता है कि पूर्वोक्त परिवादादि ३ दोषों में से किसी एक भी दोष से जो अस्पृष्ट-रहित है और अवस्था भी धर्माचरण करने की जिलकी निकल गई है, परन्तु यदि वह दृढसंहनन वाला है तो भी प्रव्रज्या-भागवती दीक्षा के योग्य है । जिस प्रकार भगवान के माता पिताने-देवानन्दा और ऋषभदत्तने अपनी वृद्धावस्था दीक्षा धारण की थी। ___ अथवा-"अनभिक्रान्तं च खलु वयः संप्रेक्ष्य क्षणं जानीहि पण्डित!" यह वाक्य संयम में सीदाते हुए शिष्यजनों में जो निरुत्साहित हो रहे हैं उनका उत्साह बढ़ाने के लिये कहा गया है। उनका उत्साह बढ़ाते हुए वे कह रहे हैं कि-हे पण्डित ! इस समय तुम प्रत्रज्या ग्रहण करने की अवस्था वाले हो, तथा परिवादादिक दोषत्रय रहित भी हो, लो तुम जव तक इस अवस्था में हो तब तक संयम ग्रहण के लिये प्रयत्नशील रहो । इसी अभिप्राय से सूत्रकार ने 'पण्डित!' इस संबोधन से उन्हें संबोधित किया है, कारण कि शिध्यजन स्वयं इस प्रकार की अपनी अवस्था को समझ रहे हैं, अतः यह संवोधन उनके लिये संगत बैठता है। તેથી એ પ્રતીત થાય છે કે-પૂર્વોક્ત પરિવાદાદિ ત્રણ દોષોમાંથી કોઈ એક પણ દોષથી જે અસ્પૃદ–રહિત છે અને અવસ્થા પણ ધર્માચરણ કરવાની જેની વીતી ગઈ છે. પરંતુ કદાચ તે દઢ સંહનનવાલા છે તો પણ પ્રવજ્યા-ભાગવતી દીક્ષાને
ગ્ય છે. જેમ ભગવાનના માતાપિતાએ દેવાનંદા અને ષમદત્ત પિતાની વૃદ્ધા વસ્થામાં દીક્ષા ધારણ કરી હતી.
_____ अथवा---" अनभिक्रान्तं च खलु वय संप्रेक्ष्य क्षण जानीहि पण्डित !" આ વાક્ય, સંયમમાં કષ્ટ પામતાં શિષ્યને માં જે નિરૂત્સાહિત બનેલ છે, તેને ઉત્સાહ વધારવા માટે કહેવામાં આવેલ છે. તેને ઉત્સાહ વધારીને તેઓ કહે છે કે-હે પંડિત ! આ વખતે તમે પ્રવજ્યા ગ્રહણ કરવાની અવસ્થાવાળા છો, તથા પરિવાદાદિક દોષત્રય વગર પણ છો જેથી તમે ત્યાં સુધી આ અવસ્થામાં છો ત્યાં સુધી સંયમ ગ્રહણ કરવા માટે પ્રયત્નશીલ રહે, આ અભિપ્રાયથી સૂત્રકારે પંડિત આ સંબંધનથી તેને સંબોધિત કરેલ છે. કારણ કે-શિષ્યજન સ્વયં આ પ્રકારની પિતાની અવસ્થાને સમજી શકે છે માટે આ સંબોધન તેને માટે સંગત બેસે છે.
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आचाराङ्गसूत्रे ____ अथवा-हे अनभिक्रान्तयौवन ! शिष्य ! क्षणं द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावभेदेन चतुविधं जानीहि । तत्र द्रव्यक्षणश्च स्थावरजङ्गमयोर्जङ्गमत्वं, तत्रापि द्वीन्द्रियादिपरिहारेण पञ्चेन्द्रियत्वं, तत्रापि सञ्जित्वं, तत्रापि मनुष्यत्वं, तेष्वपि विशिष्टजातिशोभनकुलोत्पत्तिदीर्घायुष्ट्वनैरुज्यादिकमुपलभ्य चारित्रप्राप्तिरूपोऽवसरो लब्धः यतो देवनारकभवे सम्यक्त्वं ज्ञानावबोधरूपश्रुतसामायिकोपलब्धिश्च भवति, तिर्यक्षु कस्यचिद्देशविरतिरुपजायते, सर्वविरतिरूपं चारित्रं मनुष्यजन्मन्येव लभते, स एव द्रव्यक्षणः। सामायिकश्चतुर्विधः सम्यक्त्व-श्रुत-देशविरति-सर्वविरतिरूपो वोध्यः। ____ अथवा-शिष्य के लिये सूत्रकार फिर कहते हैं कि-हे अनभिक्रान्तयौवन शिष्य ! द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेदसे क्षण (अवसर) चार प्रकार का है। ___ (१) सर्वविरतिरूप अवस्था जीव को जिस क्षण में प्राप्त होती है उसका नाम द्रव्यक्षण है, क्यों कि यह जीव अव्यवहार राशिसे व्यवहार राशि में आता है वहां पर पृथिवीकायिक आदि एकेन्द्रिय जीवों में जन्म ग्रहण करता है। फिर वह कर्म स्थितिको भोगता हुआ क्रम से डीन्द्रियादिक जीवों में उत्पन्न होता है। इस प्रकार स्थावर और जसपर्याय में । जसपर्याय की प्राप्ति द्रव्यक्षण है। इसमें भी डीन्द्रियादिक पर्यायों के सिवाय पंचेन्द्रियपर्याय की प्राप्ति; इसमें भी संज़िपन की प्राप्ति; उसमें भी मनुष्यपर्याय की प्राप्ति; वहां भी विशिष्ट जाति-उच्चकुल में जन्म, दीर्घायु का पाना, निरोग शरीर की प्राप्ति होना, इस में भी चारित्र की प्राप्ति
અથવા શિષ્ય માટે સૂત્રકાર ફરીવાર કહે છે કે-હે અનભિકાન્તચીવન શિષ્ય! દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ અને ભાવ ના ભેદથી ક્ષણ (અવસર) ચાર પ્રકાર છે
- (૧) સર્વવિરતિરૂપ અવસ્થા જીવને જે ક્ષણે પ્રાપ્ત થાય છે તેનું નામ દ્રવ્ય ક્ષણ છે કારણ કે-આ જીવ અવ્યવહાર રાશિથી વ્યવહાર રાશિમાં આવે છે ત્યા પૃથિવીકાચિક આદિ એકેન્દ્રિય જેમા જન્મ ગ્રહણ કરે છે, પછી તે કર્મસ્થિતિને ભોગવતા કમથી બેઈન્દ્રિય જેમા ઉત્પન્ન થાય છે, આ પ્રકાર
સ્થાવર અને ત્રસ પર્યાયની પ્રાપ્તિ દ્રવ્યaણ છે. તેમાં પણ બેઈન્દ્રિયાદિક પર્યાયો સિવાય પચેન્દ્રિય પર્યાયની પ્રાપ્તિ, તેમાં પણ સંજ્ઞીપણાની પ્રાપ્તિ. તેમાં પણ મનુ
પર્યાયની પ્રાપ્તિ, ત્યા પણ વિશિષ્ટ જાતિ–ઉચ કુળમાં જન્મ, દીર્ધાયુ મેળવવું, નિગ શરીર પ્રાપ્ત થવું, તેમાં પણ ચારિત્રની પ્રાપ્તિ ઘવી, ઈત્યાદિ. એ બધું વ્ય
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अन्य० २. उ. १ होना; इत्यादि, ये मव द्रव्यक्षण हैं। ये सब बातें तुझे प्राप्त हुई हैं, क्यों किदेवगति और नरकगति में तत्त्वद्वानरूप सम्यक्त्वमामायिक, और तत्त्वाववोधरूप श्रुतसामायिक की उपलब्धि जीवको प्राप्त होती है, तिर्यञ्चगति में किसी २ जीव को देशविरति का लाभ होता है, सर्वविरनि रूप चारित्र की प्राप्ति तो इस जीवको मनुष्यजन्म में ही होती है। इसी लिये यहां पर वही द्रव्यक्षण है। सामायिक ४ प्रकार का है-१ सम्यक्त्व२ श्रुत, ३ देशविरति और ४ सर्वविरति । __यहां पर व्यक्षण का विचार किया है, सर्वविरतिरूप चारित्र की उत्पत्ति अथवा प्राप्ति की मुख्यता से मनुष्य पर्याय को ही प्रधानतया द्रव्यक्षण कहा है, क्यों कि सर्वविरतिरूप चारित्र के सिवाय आत्मा दूसरी किसी अवस्था से कर्मोंका क्षय कर मोक्ष प्राप्त नहीं करता। मोक्षप्राप्त करना यह इस की स्वाभाविक अवस्था है । जिस प्रकार तुंबड़ी के ऊपर मिट्टीका लेप लगाने से वह पानी के नीचे बैठ जाती है, ठीक उसी प्रकार यह जीव भी कर्ममल से लिप्त होने के कारण संसाररूप समुद्र के अन्दर बैठ जाता है। जैसे उस तुंबड़ीका लेप ज्यों२ पानी से गल कर हटना जाता है त्यों २ वह तुंबड़ी पानी के ऊपर आती जाती है, बिलकुल निर्लेप होने ક્ષણ છે. આ બધી વાતે તને પ્રાપ્ત થયેલ છે, કારણ કે દેવગતિ અને નરકગતિમાં તત્ત્વશ્રદ્ધાનરૂપ સમ્યકત્વસામાયિક અને તત્ત્વાવબોધરૂપ શ્રુતસામાયિકની ઉપલધિ જીવને પ્રાપ્ત થાય છે. તિર્યંચગતિમાં કઈ કઈ જીવને દેશવિરતિને લાભ થાય છે. સર્વવિરતિરૂપ ચારિત્રની પ્રાપ્તિ તે આ જીવને મનુષ્ય જન્મમાં જ થાય છે માટે આ ઠેકાણે તેજ પ્રત્યક્ષણ છે. સામાયિક ચાર પ્રકારનું છે. ૧ સભ્યત્વ, ૨ શ્રુત, ૩ દેશવિરતિ અને ૪ સર્વવિરતિ.
અહીં દ્રવ્યક્ષાનો વિચાર કર્યો છે. સર્વવિરતિરૂપ ચારિત્રની ઉત્પત્તિ અથવા પ્રાપ્તિની મુખ્યતાથી મનુષ્યપર્યાયને જ પ્રધાનતયા દ્રવ્ય કહ્યું છે, કારણુ કે સર્વ વિરતિરૂપ ચાસ્ત્રિ સિવાય આત્મા બીજી કઈ અવસ્થાથી કમેને ક્ષય કરી મોક્ષ પ્રાપ્ત કરતા નથી. પ્રાપ્ત કરે તે તેની સ્વાભાવિક અવસ્થા છે. જેમ તુંબડી ઉપર માટીને લેપ લગાડવાથી તે પાણીની નીચે બેસી જાય છે, ઠીક તે પ્રકારે આ જીવ પણ કર્મલથી લિસ હોવાના કારણે સંસારરૂપ સુકાની અંદર બેરી ય છે. જેમ જેમ જેવો તે તુંબડી ઉપર માટીનો લેપ પાણીથી વાળીને કહી જય છે તેમ તેમ તે તુંબડી પાણી ઉપર આવે જાય છે. બિલકુલ નિu ઘવાથી તે
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आचारागसूत्रे पर वह पानी के ऊपर नैरने लगती है, ठीक इसी प्रकार ज्यों २ कर्ममलका लेप इस जीवात्मा से छूटता जाता हैत्यों २ यह भी अपनी शुद्ध अवस्था को प्राप्त करता जाता है, एक दिन यह भी आता है जब यह कर्ममल के लेप से सर्वथा निर्लेप हो जाता है । सर्वथा निर्लेप होना ही इसकी शुद्ध अवस्था की प्राप्ति है। यह कमों को नाश करने की दशा, सर्वविरतिरूप चारित्र की प्राप्ति से ही जीव को प्राप्त होती है, एकेन्द्रियादिक पर्यायों में इसकी प्राप्ति जीव को नहीं होती. क्यों कि सर्वविरतिरूप चारित्र की प्राप्नि विना ज्ञान के विकाश के नहीं हो सकती, ज्ञान का विकाश मनुष्य
याय के सिवाय अन्यत्र नहीं होता। इसीलिये प्रधानतया इसीको ही द्रव्यक्षण कहा है। ज्ञानके विकाश का अभिप्राय पांच आस्त्रों की निवृत्ति से है। ज्ञानले पांच आस्रवों की सर्वथा निवृत्ति हो वही ज्ञान का विकाश है। यद्यपि देवपर्याय में भवप्रत्यय अवधि होता है नथापि वहां पर जो सर्वविरतिरूप चारित्र की योग्यता नहीं है उसका खास कारण यही है। उस ज्ञान से वहां पर पांच आस्रवों की निवृत्ति नहीं हो सकती। इसी प्रकार नरक में भी पांच आस्रवों की निवृत्ति के अभाव से देशविरति और सर्वविरति की प्राप्ति नहीं हो सकती।
પાણી ઉપર તરવા લાગે છે. તે પ્રકારે જેમ જેમ કર્મમલને લેપ આ જીવાત્માથી છુટી જાય છે તેમ તેમ તે પણ પિતાની શુદ્ધ અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરતો રહે છે એક દિવસ એવો પણ આવે છે કે તે કર્મમલના લેપથી સર્વથા નિર્લેપ થઈ જાય છે. સર્વધા નિલેપ ઘવુ તે તેની શુદ્ધ અવસ્થાની પ્રાપ્તિ છે. આ કર્મોનો નાશ કરવાની દશા, સર્વવિરતિરૂપ ચારિત્રની પ્રાપ્તિથી જ જીવને પ્રાપ્ત થાય છે. એકેન્દ્રિયાદિક પર્યામાં તેની પ્રાપ્તિ જીવને થતી નથી. કારણ કે સર્વવિરતિરૂપ ચારિત્રની પ્રાપ્તિ જ્ઞાનના વિકાસ સિવાય થતી નથી. જ્ઞાનને વિકાસ મનુષ્ય પર્યાય સિવાય અન્યત્ર નથી તે, માટે પ્રધાનતયા તેને જ દ્રવ્યક્ષણ કહેલ છે. જ્ઞાનના વિકાસને અભિપ્રાય પાંચ આની નિવૃત્તિથી છે. જ્ઞાનથી પાંચ આશ્રવોની સર્વથા નિવૃત્તિ થાય તે જ્ઞાનને વિકાસ છે. હજુ દેવપર્યાયમાં ભવપ્રત્યયય અવધિ હોય છે તથાપિ તે જગ્યાએ જે સર્વવિરતિય ચારિત્રની યેચતા નથી તેનું ખાસ કારણ એ છે કે તે જ્ઞાનથી ત્યાં પાચ આની નિવૃત્તિ થતી નથી. એ પ્રકારે નરકમાં પણ પાંચ આની નિવૃત્તિના અભાવથી દેશવિરતિ અને સર્વવિરતિની પ્રાપ્તિ થઈ શકતી નથી.
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अभ्य० २. उ. १
११७ क्षेत्रक्षणस्तु यस्मिन् क्षेत्रे सर्वविरतिस्वरूपचारित्रोपलब्धिर्जायते, तथा हिअधोलोकग्रामसंवलिततिर्यग्लोक एव, तत्रापि समयक्षेत्र एव, तत्रापि पञ्चदशकर्मभूमिष्वेव, तास्वपि भरतक्षेत्रापेक्षया सार्द्धपञ्चविंशतिदेशेष्वेव चारित्रावाप्तिर्भवति । स ' चार्य क्षेत्ररूपोऽवसरो दुर्लभः। यतोऽन्यक्षेत्रेषु सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोरेवोपलब्धिः, कस्यचिद्देशविरतिसम्भवः, किन्तु न सर्वविरतिप्राप्तिर्भवति। .. _ इदमुक्तं भवति-क्षेत्रम् ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्लोकरूपम् । तत्रो लोके देशविरतिसर्वविरतिरूपसामायिकयोः क्षणो नास्ति, अवशिष्टयोः क्षणोऽस्ति । अधोलोके
जिस क्षेत्र में सर्वविरतिरूप चारिन की प्राप्ति इस जीव को होती है उसका नाम क्षेत्रक्षण है। अधोलोक-ग्राम-संबलिल अर्थात् सलिलावतीविजययुक्त तिर्यग्लोक में ही, यहां पर भी समयक्षेत्र में ही, वहां भी पन्द्रह कर्मभूमियों में ही, वहां पर भी भरतक्षेत्र की अपेक्षा से २६॥ देशों में ही इस जीव को चारित्र की प्राप्ति होती है। यह क्षेत्र रूप अवसर भी दुर्लभ है, क्यों कि अन्यक्षेत्रों में सम्यस्त्वसामायिक और श्रुतसामायिक, इन दो की उपलब्धि, तथा किन्हीं २ को देशविरति रूप चारित्रकी उपलब्धि की संभावना है, परन्तु वहां पर जीवों को सर्वविरति का लाभ नहीं होता है। ___अर्चलोक, अधोलोक, और तिर्यग्लोक, इस प्रकार क्षेत्र प्रकार का है। इनमें ऊर्ध्वलोक में देशविरति और सर्वविरति रूप सामायिक धारण करने का अवसर ही नहीं है। लम्यक्त्वसामायिक और शुनसामायिक इन दो की जीव को वहां प्राप्ति हो सकती है। अबोलोक में भी अधो
જે ક્ષેત્રમાં સર્વવિરતિરૂપ ચારિત્રની પ્રાપ્તિ આ જીવને થાય છે તેનું નામ ક્ષેત્રક્ષણ છે. અધોલકઝામસંવલિત અર્થાત્ સલિલાવતીવિજયયુક્ત તિર્યશ્લોકમાં, ત્યાં પણ સમયક્ષેત્રમાં જ, ત્યાં પણ પંદર કર્મભૂમિમાં જ, ત્યાં પણ ભરતક્ષેત્રની અપેક્ષાથી સાઢાપચીસ (રપ) દેશમાં આ જીવને ચારિત્રની પ્રાપ્તિ થાય છે. તે ક્ષેત્રરૂપ અવસર પણ દુર્લભ છે. કારણ કે અન્ય ક્ષેત્રોમાં સમ્યક્ત્વસામાયિક અને શ્રુતસામાયિક, આ બન્નેની ઉપલબ્ધિ, તથા કેઈ કોઈને દેશવિરતિરૂપ ચારિત્રની ઉપલબ્ધિની સંભાવના છે, પરંતુ તે જગ્યાએ જીવોને સર્વવિરતિનો લાભ તે નથી.
ઉર્વલોક, અલોક અને તિર્યશ્લોક, આ પ્રકારે ક્ષેત્ર ત્રણ પ્રકારના છે. તેમાં ઉદ્ભૂલાકમાં દેશવિરતિ અને સર્વવિરતિરૂપ સામાયિક ધારણ કરવાને અવર જ નથી. સભ્યત્વસામાયિક અને સામાયિક, આ બેની જીવને ત્યાં પ્રાપ્તિ થઈ
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आधारागसूत्रे ऽधोलोकग्रामं (सलिलावतीविजयं) वर्जयित्वोवलोकवद्विज्ञेयम् , अधोलोकग्रामेषु च चतुर्णा सामायिकानां क्षणोऽस्ति । तिर्यग्लोके मनुष्यक्षेत्रावहिः सर्वविरतिं विहाय त्रयाणां सामायिकानां क्षणोऽस्ति, तेन मनुष्यक्षेत्र एव चतुर्विधसामायिकमाप्तिरिति वोध्यम् । ___ कालक्षणः-कालरूपोऽवसरः, स हि अवसर्पिण्यां मुषमदुष्पमा-दुष्पमसुषमादुष्पमा-रूपेषु तृतीय-चतुर्थ-पञ्चमात्मकेषु त्रिष्वरकेषु, उत्सर्पिण्या दुष्पमसुषमासुपमदुष्पमारूपयोस्तृतीय-चतुर्थारकयोश्च सर्वविरतिरूपसामायिकोपलब्धिरुपजायते । एतच्च नूतनधर्मप्राप्तिमपेक्ष्य कथितम् । पूर्वप्रतिपन्नापेक्षया संहरणावस्थायां लोकत्रये सर्वारकेषु सर्वविरतिसामायिकोपलब्धिर्जायते।। लोकग्राम (सलिलावतीविजय) को छोड़कर ऊर्ध्वलोक की तरह ही समझना चाहिये। अर्थात् अधोलोक में-अधोलोकग्राम-सलिलावती विजय में चारों ही सामायिक को प्राप्त करने का अवसर है, परन्तु बाकी जगह सम्यक्त्व और श्रुत, इन दो सामायिकों की प्राप्ति का ही अवसर है। तिर्यग्लोक में मनुष्यक्षेत्र से बाहिर सर्वविरतिरूप सामायिक के अतिरिक्त वाकी तीन सामायिकों की उपलब्धि का अवसर जीव को प्राप्त होता है, परन्तु चारोंप्रकार के सामायिक की प्राप्ति तो जीव को मनुष्यक्षेत्र-ढाईद्वीप में ही होती है।
जिसकाल में सर्वविरतिरूप चारित्र की प्राप्ति इस जीव को होती है उसका नाम कालक्षण है । काल दो प्रकारका है-उत्सर्पिणीकाल और अवसर्पिणीकाल । इसमें उत्सर्पिणीकाल ६ प्रकार का, और अवसर्पिणीकाल भी ६ प्रकारका है। उत्सर्पिणी के ६ भेद-१ दुष्षमदुषमा, શકે છે. અધેલકમાં પણ અલેકગ્રામ (સલિલાવતીવિજ્ય) ને છેડીને ઉર્ધ્વલેકની માફક જ સમજવું જોઈએ, અર્થાત્ અલકમા–એલેકઝામ-સલિલાવતી વિજયમાં ચારે સામાયિકને પ્રાપ્ત કરી લેવાનો અવસર છે, પરંતુ બીજી જગ્યાએ સમ્યક્ત્વ અને શ્રત એ બે સામાયિકોને પ્રાપ્ત કરવાનેજ અવસર છે, તિર્યલોકમાં મનુષ્યક્ષેત્રથી બહાર સર્વવિરતિરૂષ સામાયિકના અતિરિક્ત બાકીના ત્રણ સામાયિકોની ઉપલબ્ધિને અવસર છવને પ્રાપ્ત થાય છે, પરંતુ ચારે પ્રકારની સામાચિકની પ્રાપ્તિ તે જીવને મનુષ્યક્ષેત્ર-અઢીદ્વીપમાં જ થાય છે
જે કાળમાં સર્વવિરતિરૂપ ચારિત્રની પ્રાપ્તિ આ જીવને થાય છે તેનું નામ કાલક્ષણ છે કાલ બે પ્રકારે છે-ઉત્સર્પિણીકાલ અને અવસર્પિણીકાલ, આમાં ઉત્સર્પિણીકાલ છ પ્રકારે, અને અવસર્પિણીકાલ પણ છ પ્રકારે છે, ઉત્સર્પિણીના
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. भाषाराणसूत्रे अनुपरिवर्तते-घटीयन्त्रन्यायेन मुहुर्मुहुः पर्यटति, यथा जलावर्ते पतितस्तुणादिस्तदावतमेवानुधावति पराधीनतया नोन्मज्जति च, तथैव विषयैकतानचित्तो वीतरागोपदेशपराङ्मुखो गुरुकर्मा जीवः संसारसागरस्य दुःखावर्तनिमग्नः सन् न कदाप्युद्धतो भवतीति बालस्य संसारपरिभ्रमणं विज्ञाय तत्कारणपरिग्रहविषयादिषु गृद्धोमा भूदिति शिष्यं प्रत्युपदेश इति तात्पर्यम् । इति ब्रवीमीत्यस्यार्थस्तूक्त एव ॥ मू०८ ॥
॥ इति द्वितीयाध्ययनस्य तृतीयोद्देशः समाप्तः ॥२-३॥ जिस प्रकार रहट घूमता रहता है उसी प्रकार जो नाना प्रकार के ऐहलौकिक एवं पारलौकिक दुःखोंको भोगते हुए इस संसारचक्रमें परिभ्रमण कर रहे हैं।
ऐसे बालजीव कि जिनका मन विषयों में लवलीन होरहा है, वीतराग प्रभु के उपदेश से जो सर्वथा पराङ्मुख हो रहे हैं, गुरुकर्मी हैं, पानी के आवर्त में पड़े हुए तृणकी तरह इस संसारसागर के दुःखरूपी आवर्त में निमग्न बन कभी भी वहांसे छुटकारा नहीं पा सकते हैं। जिस तरह पानी के आवर्त में पड़े हुए तृण की दशा होती है उसी प्रकार की इनकी भी दशा होती है। जैसे वह तृण उससे बाहर नहीं निकलने पाता प्रत्युत उसमें इधर-उधर चक्कर काटा करता है-कभी उसमें डूबता है और कभी उसी में ऊपर तैर आता है, ठीक इसी प्रकार से इन बालजीवोंका भी इस चतुर्गतिरूप संसारचक्रमें परिभ्रमण होता रहता है। ऐसा समझ कर संयमी मुनिका कर्तव्य है कि वह संसारपरिभ्रमण का જે પ્રકાર રેટ ઘુમતે રહે છે તે પ્રકારે જે નાનાપ્રકારનાં ઐહલૌકિક અને પારલૌકિક દુખોને ભેગવતા આ સંસારચકમાં પરિભ્રમણ કરે છે.
આવા બાલ છે કે જેના મન વિયેમાં લવલીન રહે છે, વીતરાગ પ્રભુના ઉપદેશથી જે સર્વથા પરામુખ રહે છે, ગુરૂકર્મી છે. પાણીમાં પડેલા તૃણ માફક આ સંસારસાગરના દુખરૂપી આવર્તમાં નિમગ્ન બની કઈ વખત પણ ત્યાંથી છુટકારો મેળવી શકતા નથી જેવી રીતે પાણુના આવર્તમાં પડેલા તૃણની દશા થાય છે તે પ્રકારે તેની પણ દશા થાય છે. જેવી રીતે તે તણખલુ તેનાથી બહાર નીકળી શકતું નથી પણ તેમાં ચક્કર લગાવ્યા કરે છે–કેઈ વખત તેમાં ડુબે છે તે કઈ વખત ઉપર તરી આવે છે, ઠીક તે પ્રકારે આ બાલ જીવોના પણ ચાર ગતિરૂપ સ સાર ચકમાં પરિભ્રમણ થયા કરે છે એવું સમજીને સંયમી મુનિનું કર્તવ્ય છે કે તે સંસારપરિભ્રમણનુ કારણ જે વિષય અને પરિગ્રહાદિક
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अध्य० २. उ. ३
=स्पृहा-मदनरूपान् सम्सम्यक् , अनु-अनुकूलं जानातीति कामसमनुज्ञः कामगुणानुमोदकः, अत एव अशमितदुःखः-अशमितम्-अक्षीणं दुःखम् अलब्धलाभाय लब्धपरिरक्षणाय च व्यग्रतया निरन्तरचिन्तनरूपं यस्य सोऽशमितदुःखा=विषयकषायासक्तत्वेन नितान्तक्लान्तस्वान्तः, अत एव दुःखी शारीरिक-मानसिक-पीडापीडितः, दुःखानाम्-ऐहिक-पारत्रिक-नानाविधानामेव, आवर्त संसारचक्रम्___ "बाले पुण णिहे" इत्यादि । “सुयं मे आउसं तेणं' यहां से लेकर "तंमि ठाणमि चिट्ठइ" यहां तक का पूर्वोक्तस्वरूपवाला उपदेश तथा "बाले पुण णिहे" यहां से लेकर "आणाए आराहिया वि भवइ” यहां तक वक्ष्यमाण-आगे कहा जानेवाला-उपदेश सर्वज्ञ की अपेक्षा से नहीं कहा गया है । क्यों कि वे कृतकृत्य हैं, उन्हें किसी भी वस्तुसे प्रयोजन नहीं रहा है, केवलज्ञान की प्राप्ति होनेसे वे समस्त पदार्थों को हस्तामलकवत् साक्षात् जानते हैं, अतः यह उपदेश बालजीवों की अपेक्षा से है। बाल जीव वे हैं जो परिग्रह में आसक्त हैं, ज्ञानक्रिया से विकल हैं, विषयानुरागी हैं, कामगुणोंके अनुमोदक हैं, अलब्ध को प्राप्त करने के लिये तथा लब्ध की रक्षा करने के लिये जो व्यग्रचित होने से सदा चिंताशील बने रहते हैं, विषयकषायों में आसक्त होने की वजह से जिनका अन्तःकरण अत्यन्त दुःखित होता रहता है। इस लिये जोरातदिन शारीरिक एवं मानसिक कष्टोंका अनुभव किया करते हैं तथा
___ वाले पुण णिहे ' त्यादि. 'सुयं मे आउसं तेणं 'मही थी या 'तंमिठाणंमिचिठ्ठइ ” सुधीनपूर्वोतस्व३५पाणी उपदेश, तथा “बाले पुण णिहे " डीथी दान “आणाए आराहिया वि भवइ " मडा. सुधी वक्ष्यमा-माण वामां આવનાર-ઉપદેશ આ સર્વજ્ઞની અપેક્ષાથી કહેવામાં આવેલ નથી, કારણ કે તે કૃતકૃત્ય છે, તેને કઈ પણ વસ્તુથી પ્રયોજન રહ્યું નથી. કેવળજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ હોવાથી તે સમસ્ત પદાર્થોને હસ્તામલકવત્ સાક્ષાત જાણે છે માટે આ ઉપદેશ બાલ જેની અપેક્ષાથી છે. બાલ જીવ તે છે જે પરિગ્રહમાં આસક્ત છે, જ્ઞાનકિયાથી વિકલ છે, વિષયાનુરાગી છે, કામગુણોના અનુમોદક છે, અલબ્ધને પ્રાપ્ત કરવા, લબ્ધની રક્ષા કરવા માટે જે વ્યગ્રચિત્ત હોવાથી સદા ચિંતાશીલ બની રહે છે, વિષયકષાયમાં આસક્ત હોવાથી જેનુ અંતકરણ અત્યંત દુઃખિત થતું રહે છે. માટે જે રાત દિન શારીરિક અને માનસિક કષ્ટને અનુભવ કર્યા કરે છે, તથા
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॥ आचाराङ्गसूत्रे द्वितीयाध्ययनस्य चतुर्थोद्देशः ॥ तत्र पूर्वस्मिन्नुद्देशे 'उच्चैर्गोत्रोत्पत्त्यभिमानादिर्न कार्यः' इति प्रतिपादितम् , अत्र च 'भोगेष्वभिष्वङ्गो न कार्यः, तत्र रोगस्यावश्यं सद्भावा'-दिति दर्शयिष्यते ।
अत्रानन्तरसूत्रसम्बन्धः-'दुक्खी दुक्खाणमेव आवट्ट अणुपरिवटइ' इति, तानि च दुःखानि रोगकारणानि भवन्त्यतो रोगानेव दर्शयति ।
॥ आचारागसूत्र के दूसरे अध्ययन का चौथा उद्देश ॥ - तृतीय उद्देश का कथन हो चुका; अब चतुर्थ उद्देश का कथन प्रारंभ होता है। तृतीय उद्देश में संयमी मुनि को अपने संयम की रक्षा के लिए उच्च गोत्रमें उत्पत्ति होने का अभिमान आदि नहीं करना चाहिये यह भली भाँति समझा दिया गया है। इस चतुर्थ उद्देश में यह समझाया जायगा कि भोगों में संयमी मुनि के लिये अपने संयम की रक्षा करने के लिये अभिष्वंग-रागपरिणति-नहीं करना चाहिये। क्यों कि “भोग बुरे भवरोग बढ़ावै बैरी हैं जग जी के" इस वाक्यके अनुसार एक तो वे भवरोग बढाते हैं, दूसरे उनके सेवन से अनेक शारीरिक रोग भी उत्पन्न हो जाते हैं।
इस प्रकरण का “दुक्खी दुक्खाणमेव आवह अणुपरियइ” इस तृतीय उद्देश के अन्तिम सूत्र से संबंध है, इसलिये सूत्रकार उन्हीं रोगों का यहां पर वर्णन करेंगे, क्यों कि दुःख रोग के कारण हुआ करते हैं।
આચારાંગસૂત્રના બીજા અધ્યયનને ચોથો ઉદ્દેશ.
ત્રીજા ઉદ્દેશનું કથન સમાપ્ત થયુ હવે ચેથા ઉદ્દેશો પ્રારંભ થાય છે. ત્રીજા ઉ દેશમાં સંયમી મુનિએ પિતાના સંયમની રક્ષા માટે ઉંચ ગોત્રમાં ઉત્પત્તિ થવાને કારણે અભિમાન આદિ નહિ કરવું જોઈએ, એ સારી રીતે સમજાવી દેવામાં આવેલ છે. આ ચતુર્થ ઉદેશમા એ સમજાવવામાં આવશે કે–ભેગોમાં સંયમી મુનિએ પિતાના સંયમની રક્ષા માટે અભિધ્વંગ-રાગપરિણતિ નહિ કરવી જોઈએ, ४॥२ “भोग बुरे भवरोग बढावे वैरी है जगजी के" मा १४५ मनुसार એક તે તે ભવગ વધારે છે, બીજુ તેના સેવનથી અનેક શારીરિક રોગ પણ ઉત્પન્ન થાય છે ___ ४२४ना “ दुक्खी दुक्खाणमेव आवटें अणुपरियट्टर" 2m alon ઉદ્દેશના અંતિમ સૂત્રથી સબ ધ છે માટે સૂત્રકાર તે રેગેના આ ઠેકાણે વર્ણન કરશે, કારણ કે રેગોના કારણથી દુખ થયા કરે છે
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अध्य० २. उ. ३ कारण जो विषय और परिग्रहादिक हैं उनमें गृद्ध न बने । इस प्रकार से सत्रकार का शिष्य के प्रति यह उपदेश है। 'ब्रवीमि' इस पद का पहिले के प्रकरणों में अर्थ कहा जा चुका है ॥ सू० ८ ॥
॥ दूसरे अध्ययनका तृतीय उद्देश संपूर्ण ॥
છે તેમાં વૃદ્ધ ન બને. આ પ્રકારે સૂત્રકારનો શિષ્ય પ્રતિ આ ઉપદેશ છે. इति ब्रवीमि मा पहनी पडसा प्रणमा अर्थ ४२वाम मावेस छे.
॥ भी अध्ययननी श्री देश सपूर्ण २-3 ॥
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आचारसूत्रे मूलम्-' तओ से एगया रोगसमुप्पाया समुप्पज्जति जेहिं सद्धिं संवसइ ते वा णं एगया नियया पुच्विं परिवयंति, सो वा ते नियगे पच्छा परिवइजा, नालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमंपि तेसिं नालं ताणाए वा सरणाए वा, जाणितु दुक्खं पत्तेयं सायं, भोगामेव अनुसोयंति,इहमेगेसिं माणवाणं ॥सू०१॥
छाया-ततस्तस्यैकदा रोगसमुत्पादाः समुत्पद्यन्ते यैर्वा सार्दै संवसति ते वा खलु एकदा निजकाः पूर्व परिवदन्ति, स वा तान् निजकान् पश्चात्परिवदति, नालं ते तव त्राणाय वा शरणाय वा, त्वमपि तेषां नालं त्राणाय वा शरणाय वा, ज्ञात्वा दुःखं प्रत्येकं सातं भोगानेवानुशोचति, इहैकेषां मानवानाम् ॥ ० १॥
टीका-'तत' इत्यादि । इदं मूत्रं प्रथमोद्देशे वृद्धावस्थाप्रसङ्गे प्रोक्तम् , इह च यौवनेऽपि भोगासक्त्या नानारोगाः समुत्पद्यन्त इति दर्शयति नातः पुनरुक्तिः।
रोगा यथा—(१)श्वास(२)कास(३)ज्वर(४)दाह(५)कुक्षिशूल(६)भगन्दरा(७)ऽशौ(८)-ऽजीरक(९)दृष्टिशूल(१०)मूर्धशूला(११)-ऽरुचि(१२)नेत्रवेदना(१३)कर्णवेदना(१४)कण्ठवेदनो(१५)दर वेदना(१६)कुष्ठाख्याः पोडश विज्ञेयाः। ___ सर्वेऽपि जीवाः स्वकृतकर्मफलभोगिन इति विभाव्य विवेकी भुक्तपूर्वान् भोगान्नानुस्मरेत् , प्राप्तान सेवेत, अलब्धान्नाभिवाञ्छेदिति भावः।
यौवन अवस्था में जीवों की भोगादिकों में अधिक आसक्ति बढ़ती है, उससे इस अवस्था में भी अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं । इस लिये रोगों के नाम कहते हैं-१ श्वास-२ कास खांसी ३ ज्वर ४ दाह ५ कुक्षिशुल ६ भगन्दर ७ अर्श-बवासीर ८ अजीरक ९ दृष्टिशूल १० मूर्धशूल ११ अरुचि १२ नेत्रवेदना १३ कर्णवेदना १४ कष्टपीडा १५ उदरपीडा और १६ कुष्ट । ये १६ रागों के नाम हैं।
યોવન અવસ્થામાં જેની ગાદિકોમાં અધિક આસક્તિ વધે છે, તેથી તે અવસ્થામાં પણ અનેક પ્રકારના રોગ ઉત્પન્ન થાય છે, માટે રોગના નામ કહે छे-१ श्वास, २ ४ास-मासी, 3 ताप, ४ वाड, ५ क्षिशूटस, ६ -४२, 19 मश-१२स, ८ मारिशस, १० भूध शूट, ११ म३थि, १२ नेत्रवेना,
૩ કાનની વેદના, ૧૪ કડપીડા, ૧૫ ઉદરપીડા, અને ૧૬ કેહ, એ રેગના સેલ નામ છે.
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अध्य० २. उ. ३
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"
कामभोगसेवनादासक्तिः, तया चार्तरौद्रध्यानं, ततश्च कर्मरजः समुपार्जनम्, तेन चात्ममालिन्यं भवति, ततो ज्ञानादिगुणप्रणाशः, तेनोन्मार्गप्रवृत्तिः तथा चैहिकपारत्रिकदुःखानि जायन्ते दुःखानि च रोगादिना भवन्ति, तत्र दुःखहेतून रोगानुपदर्शयति-— ' तओ से ' इत्यादि ।
कामभोगों के सेवन से जीव की उसमें आसक्ति बढ़ती है। आसक्ति से आते और रौद्रध्यान उत्पन्न होते रहते हैं । उन ध्यानों से जीव अशुभकर्मपरमाणुओं का बंध करता है । उससे आत्मा में मलिनता आती है । मलिनता के संबंध से ज्ञानादिक गुणोंका आवरण होने से जीवों की उन्मार्ग में प्रवृत्ति होती है । उस प्रकार की प्रवृत्ति से जीव इहलोक और परलोक-संबंधी अनंत यातनाओं को भोगता है । इस प्रकार परंपरासंबंध से कामभोगसेवन तथा उस विषय की आसक्ति जीवको अनेक अनन्त कष्टों को देनेवाली होती है। परलोकसंबंधी दुःख जीवों को अशुभ कर्मोदय से प्राप्त होता है। वहां पर भी अनेक प्रकार के शारीरिक तथा मानसिक दु:ख इस जीव को झेलने पड़ते हैं ।
इस लोकसंबंधी दुःखों की भी यही परिस्थिति है, फिर भी व्यवहारी जीवों की दृष्टिमें दुःखादिक रोगाधीन होते हैं; इस अभिप्राय से सूत्रकार उन दुःखों के कारणभूत रोगों का वर्णन करते हुए कहते हैं-" तओ से " इत्यादि ।
કામભાગાના સેવનથી જીવની તેમાં આસક્તિ વધે છે. આસક્તિથી આત્ત અને રૌદ્ર ધ્યાન ઉત્પન્ન થાય છે. તે ધ્યાનોથી જીવ અશુભ કર્મ પરમાણુઓને બંધ કરે છે, તેથી આત્મામાં મલિનતા આવે છે. મલિનતાના સંબંધથી જ્ઞાનાદિક ગુણોનુ આવરણ હોવાથી જીવાની ઉત્સામાં પ્રવૃત્તિ થાય છે. આ પ્રકારની પ્રવૃત્તિથી જીવ આલેાક અને પરલાક સ ંબંધી યાતનાઓને ભાગવે છે. આ પ્રકાર પરંપરાસ મધથી કામભાગસેવન, તથા તે વિષયની આસક્તિ જીવને અનેક અનંત કષ્ટોને દેવાવાળી હોય છે. પરલોકસમંધી દુ.ખ જીવોને અશુભ કર્મોયથી પ્રાપ્ત થાય છે. ત્યાં પણ અનેક પ્રકારના શારીરિક તથા માનસિક દુઃખ આ જીવને ભાગવવા પડે છે.
આલાકસબંધી દુ:ખાની પણ એ જ પરિસ્થિતિ છે તો પણ વ્યવહારી જીવાની દૃષ્ટિમાં દુ:ખાદિક રાગાધીન થાય છે. આ અભિપ્રાયથી સૂત્રકાર આ दुःभोना अरणलूत रोगोना वर्शन उरतां हे छे–“ तओ से " छत्याहि.
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ર૪૦
आधारागसूत्रे है तब यह विचारता है कि जब मैं निरोग हो जाऊँगा तब नियम से निरन्तर इन विषयादिकों का मनमाफिक सेवन करूंगा। यदि मुझे नीरोगताप्रास करने में अपना सर्वस्व भी अर्पण कर देना पडे तो भी कोई चिन्ता की बात नहीं। जीवन रहेगा तो फिर धन हो जायगा। धन है भी किस लिये? यदि सांसारिक मौज मजान देखी तो इस द्रव्य की प्राप्ति से लाभ ही क्या हुआ? इत्यादि अनेक प्रकार के संकल्प-विकल्पों से अशान्तचित्त बन निरन्तर संतप्त होता रहता है। इस प्रकार की संतप्तता का कारण सिर्फ इस जीव की विषयसंबंधी आसक्ति ही है। वे संयमी मुनि धन्य हैं जो विषयादिक सेवन के कटुकविपाक को जानकर इससे सर्वदा अपनी रक्षा करते रहते हैं । परन्तु जो इसके कटुक विपाक से अनभिज्ञ बने हुए हैं ऐसे कितनेक ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती जैसे मनुष्य ही इस विषयजाल में फंस कर अपना इहलोक और परलोक दोनों का विगाड़ कर नाना प्रकार के कष्टों का अनुभव करनेवाले होते हैं। इसलिये विषयों को दोनों भवों में कष्टकारक जान कर संयमीमुनि को भोगासक्ति से सर्वदा अपनी रक्षा करने में सावधान रहना चाहिये । यही इस सूत्र का आशय है। सू०१॥ જાઈશ ત્યારે નિયમથી નિરતર આ વિષયાદિકોનું મનમાફક સેવન કરીશ. કદાચ મને નિરોગતા પ્રાપ્ત કરવામાં પોતાનું સર્વસ્વ પણ અર્પણ કરી દેવું પડે તો કોઈ ચિંતા નહિ, જીવન રહેશે તો પછી ફરીથી ધન થાશે. ધન કેના માટે છે જે સંસારિક મોજમજા ન કરી તો આ દ્રવ્યની પ્રાપ્તિથી લાભ પણ શે ” ઈત્યાદિ અનેક પ્રકારના સંકલ્પ વિકલ્પોથી અશાંતચિત્ત બની નિરંતર સંતપ્ત રહ્યા કરે છે, આ પ્રકારની સંતતાનું કારણ ફક્ત આ જીવની વિષય સંબંધી આસક્તિ જ છે
તે સંયમી મુનિ ધન્ય છે જે વિષયાદિકસેવનના કટુક વિપાકને જાણીને તેનાથી સર્વદા પોતાની રક્ષા કરે છે, પરંતુ જે તેના કટુક વિપાકથી અનભિન્ન બનેલા છે એવા કેટલાક બ્રહ્મદત્ત ચકવર્તી જેવા મનુષ્ય જ આ વિષય જાળમાં ફસીને પોતાને આલોક અને પરલોક બન્નેને બગાડીને નાના પ્રકારના કષ્ટોને અનુભવ કરવાવાળાં થાય છે વિષને બને ભામાં કષ્ટકારક જાણુને સંયમી મુનિએ ભોગાસક્તિથી સર્વદા પ્રોતાની રક્ષા કરવામાં સાવધાન રહેવું જોઈએ, એ જ આ સૂત્રને આશય છે સૂઇ ૧
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मध्य०-२...३
गृद्धस्तु भोगस्यैवानुचिन्तनं करोतीत्याह-'भोगानेवे'-ति, भोगानेव-शब्दादिविषयानेव अनुशोचति-सततं परिचिन्तयति । सूत्रे बहुवचनमार्फत्वात् । यद्यहं सर्वस्वव्ययसाध्यभैषज्यादिना नीरोगः स्यां तदाऽवश्यमजस्रं भोगान् भुञ्जीय, नानाविधानि सुखान्यनुभवेयमित्यादिनानाविधपरिचिन्तनादशान्तस्वान्तः सन्ततमनुतप्तो भवतीति तात्पर्यम् । एवंविधभोगानुचिन्तनं किं सर्वेषां भवति ? नेत्याह'इहैकेषा'-मित्यादि, इह-संसारे एकेषाम् अपरिज्ञातविषयकटुविपाकानां कतिपयानां मानवानाम् ,ब्रह्मदत्तसदृशानां भवति । इहामुत्र दुःखकारणत्वाद् भौगासक्तिः परिहरणीयेति मूत्राशयः ॥९० १॥
इस अवस्थामें जिनके साथ यह रहता है वे पुत्रकलत्रादिक पहले इसका अनादर करते हैं और तिरस्कारजनक वचन बोलते हैं, फिर यह भी उनका अनादर करता हुआ अपशब्द बोलता है, परन्तु हे जीव! नहीं तो वे तेरे बाण और शरण के लिये समर्थ हो सकते हैं और न तूं भी उन को त्राण और शरण देनेके लिए समर्थ हो सकता है। समस्त संसारी जीव अपने२ किये हुए कर्म के अनुसार सुखदुःखादिक फल के भोगनेवाले होते हैं। ऐसा विचार कर विवेकी संयमी मुनि पूर्व में भोगे हुए उन भोगों की स्मृति न करे, तथा प्राप्त हुए उन भोगों का सेवन न करे और अलब्ध भोगों को भोगने की इच्छा तक भी न करे।
जो विषयादिकों में गृद्ध होता है वह उनका ही निरन्तर बारंबार चिन्तवन-स्मरण करता रहता है। ऐसा जीव जब विषयादिकों के सेवन करने में किसी रोगादिक के पराधीन बन अपने को असमर्थ पाता
આ અવસ્થામાં જેની સાથે તે રહે છે તે પુત્ર કલાત્રિક પહેલાં તેને અનાદર કરે છે અને તિરસ્કારજનક વચન બોલે છે, પછી તે પણ તેને અનાદર કરીને અપશબ્દ બોલે છે, પરંતુ હે જીવ! તે તારા તારણહાર નથી અને શરણ દેવામાં પણ સમર્થ નથી, અને તે પણ તેને તારણહાર નથી અને શરણ દેવામાં પણ સમર્થ નથી. સમસ્ત સંસારી જીવ પોતપોતાના કરેલા કર્મ અનુસાર સુખદુઃખાદિક ફળના ભોગવવાવાળા હોય છે. એ વિચાર કરી વિવેકી સંયમી મુનિ પૂર્વમાં ભગવેલાં તે ભોગોની સ્મૃતિ પણ ન કરે, તથા પ્રાપ્ત થયેલા ભેગોનું પણ સેવન ન કરે અને અલબ્ધ ભોગોને ભોગવવાની ઈચ્છા સુદ્ધાં પણ ન કરે.
જે વિષયાદિકમાં ગૃદ્ધ થાય છે તે તેનું જ નિરંતર ચિંતવન સ્મરણ કરતા રહે છે. એવા જીવ જ્યારે વિષયાદિકનું સેવન કરવામાં કોઈ રોગાદિકથી પરાધીન બને અને અસમર્થ બની જાય ત્યારે તે વિચારે છે કે-“જ્યારે નિરોગી બની
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आचाराङ्गसूत्रे एवं 'भोगे रोगः' इति प्रोक्तम् । अथ च भोगसाधनं धनमपि नश्वरं ततः कि विधेयमिति दर्शयति-'आस् च ' इत्यादि। सद्भाव में जीव सांसारिक मौज-मजा भोगने में अपनी शक्तिअनुसार कसर नहीं रखते; किन्तु भोग सदा दुखदायी होते हैं । कहा भी है
भोग वुरे भव रोग बढ़ावें, बैरी हैं जग जी के। वेरस हीय विपाक समय अति, सेवत लागै नीके ॥ वज्र अगनि विष से विषधर से, ये अधिके दुखदाई । धर्मरतन के चोर चपल अति, दुर्गतिपंथसहाई ॥ मोह-उदय यह जीव अज्ञानी, भोग भले कर जाने । ज्यों कोई जन खाय धतूरा, सो सब कंचन मानै ॥ ज्यों ज्यों भोग लॅजोग मनोहर, मनवांछित जन पावै ।
तृष्णा नागिन त्यों त्यों डकै, लहर जहर की आवै ॥ उन भोगों की आशा से बाल अज्ञानी जीव प्राणातिपातादिक अनेक प्रकार के क्रूर कर्मों को करता हुआ विपरीतपने को प्राप्त होता है, अर्थात् मोक्षमार्ग से विमुख हो जाता है ॥ सू० २॥
इस प्रकार जब भोग में रोग है और भोग का साधनभूतधन विनश्वर है तब क्या करना चाहिये? इसका प्रत्युत्तर देते हुए सूत्रकार कहते हैं-"आसं च" इत्यादि।
જીવ સાંસારિક મોજ-મજા ભોગવવામાં પોતાની શક્તિ અનુસાર કસર રાખતા નથી પણ ભોગ સદા દુખદાયી થાય છે કહ્યું પણ છે–
" भोग बुरे भव रोग वढावे, वैरी है जगजीके । वेरस होय विपाक समय अति, सेवत लागें नीके ॥ वज्र अगनि विपसे विषधर से, ये अधिके दुखदाई । धर्मरतनके चोर चपल अति, दुर्गतिपथसहाई ॥ मोह उदय यह जीव अज्ञानी, भोग भले कर जाने । ज्यों कोई जन खाय धतूरा, सो सव कंचन माने ॥ ज्यों ज्यों भोग संजोग मनोहर, मनवांछित जन पावै । तृष्णा नागिन त्यों त्यों डंक, लहर जहर की आवै ॥"
આવા ભેગોની આશાથી બાલ અજ્ઞાની જીવ પ્રાણાતિપાતાદિક અનેક પ્રકારનાં કૂર કર્મો કરીને વિપરીતપણાને પ્રાપ્ત થાય છે, અર્થાત્ મોક્ષમાર્ગથી વિમુખ થાય છે. છે સૂટ ૨ !
આ પ્રકારે જ્યારે ભોગમાં રોગ છે. અને ભોગના સાધનભૂત ધન વિનશ્વર છે. त्यारे शं ४२jनध्य ? नो प्रत्युत्तर मापता सूत्रा२ ४३ 2-"आसं च" त्यादि.
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अध्य० २. उ४
२४१ भोगसाधनस्य धनस्य विनशनशीलतां दर्शयति-'तिविहेण' इत्यादि।
मूलम्-तिविहेण जाऽवि से तत्थ मत्ता भवइ अप्पा वा बहुया वा, से तत्थ गढिए चिट्ठइ भोयणाए, तओ से एगया विपरिसिहं संभूयं महोवगरणं भवइ, तं पि से एगया दायाया विभयंति, अदत्तहारो वा से अवहरइ, रायाणो वा से विलंपंति, णस्सइ वा से, विणस्सइ वा से अगारदाहेण वा से डज्झइ, इय से परस्स अट्ठाए कूराणि कम्माणि बाले पकुवमाणे तेण दुक्खेण विप्परियासमुवेइ ॥ सू० २॥ ____ छाया--त्रिविधेन याऽपि तस्य तत्र मात्रा भवति-अल्पा वा बहुका वा, स तत्र गृद्धस्तिष्ठति भोजनाय, ततस्तस्यैकदा विपरिशिष्टं सम्भूतं महोपकरणं भवति तदपि तस्यैकदा दायादा विभजन्ते, अदत्तहारो वा तस्य हरति, राजानो वा तस्य विलुम्पन्ति, नश्यति वा तस्य, विनश्यति वा तस्य, अगारदाहेन वा दह्यते तद्, इति स परस्यार्थाय क्रूराणि कर्माणि बालः प्रकुर्वाणस्तेन दुःखेन मूढो विपर्यासमुपैति ॥ मू० २॥
टीका-'त्रिविधेने'-त्यादि, एतस्य व्याख्या तु तृतीयोदेशे प्रोक्ता। प्राय धनस्य निस्सारता प्रदर्शिता, अत्र तु भोगसाधनस्य धनस्य क्षीणमाणतया तदभावादपि न भोगो भवितुमर्हतीति दर्शितम् ॥ सू० २॥
भोग के साधनभूत धनकी विनश्वरता दिखलाते हुए खूनकार कहते हैं-"तिविहेण जावि" इत्यादि । . इस सत्र की व्याख्या तृतीय उद्देश में अच्छी तरह से की जा चुकी है। वहां पर सामान्यतया धनकी असारता प्रकट की है, यहां पर भोग और उपभोग में काम आनेवाले साधनभूत धन की असारता बतलाई गई है। कारण कि सांसारिक भोग और उपभोग का कारण धन होता है। इसके
ભોગોના સાધનભૂત ધનની વિનશ્વરતા દેખાડતાં સૂત્રકાર કહે છે– "तिविहेण जावि" त्यादि.
આ સૂત્રની વ્યાખ્યા ત્રીજા ઉદેશમાં સારી રીતે આપવામાં આવેલ છે. તે જગ્યાએ સામાન્યતયા ધનની અસારતા પ્રગટ કરેલ છે. આ ઠેકાણે ભોગ અને ઉપભોગમાં કામ આવવાવાળા સાધનભૂત ધનની અસારતા બતાવવામાં આવેલ છે, કારણ કે સાંસારિક ભોગ અને ઉપભોગનું કારણ ધન જ છે. તેના સદ્ભાવમાં
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२४४
आचारागसूत्रे के भोगने की चाहना के वशवर्ती बना रहता है वह दंभका सेवन करनेवाला है। वे शब्दादिविषयों को न भी भोगते हों तो भी उनकी परिणति तन्दुलमत्स्य के समान उस ओर लालसावाली होने से संयम का नाश करनेवाली मानी गई है। संयम को मूल से नाश करनेवाला शल्य है। मायाशल्य के सद्भाव से ही अत्रत भी ऋत जैसे मालूम पड़ते हैं। अतः सूत्रकार कहते हैं कि-हे शिष्य ! तूं इस शल्य को दूर कर, व्यर्थ क्यों इसके फंदे में पड़कर अपने को दुःखी बना रहा है। दूसरे चाहे कुछ भी करते हों यह तुझे नहीं देखना है, तूं अपनी ही ओर देख " तारुं रे संभाल तने बीजानी शी पड़ी" तूं क्या कर रहा है ? इसी लिये सूत्रकार " त्वमेव” इस पद पर जोर देकर शिष्य से कह रहे हैं।
अथवा-शल्य शब्दका अर्थ-अष्टविध कर्म भी है, यह पहिले बतलाया जा चुका है कि-"तपसा निर्जरा च" तप, संयम पालन करने से संबर तो होता ही है परन्तु संचित कर्मो की निर्जरा भी होती है। चारिवाराधन के द्वारा आत्मा ज्यों २ अविरति, प्रमाद, कषाय, और अशुभ योगों का निग्रह करता जाता है त्यों २ इस आत्मा में अपूर्व२ उज्ज्वलता की जागृति होती जाती है। इस उज्ज्वलता की जागृति में आत्मा संवर और निजेरा के द्वारा कर्माका क्रमशः नाश करता हुआ आगे२ के गुणવવાની ચાહનાને વશવતી બની રહે છે, તે શબ્દાદિ વિષયને ભલે નહિ ભોગવતા હોય તો પણ તેની પરિણતિ તંદુલમસ્યસમાન તે તરફ લાલસાવાળી હોવાથી સંયમનો નાશ કરવાવાળી માનવામાં આવે છે સ યમને મૂળથી નાશ કરવાવાળા શલ્ય છે. માયાશલ્યના સદ્ભાવથી અવ્રત પણ વ્રત જેવા માલમ પડે છે માટે સૂત્રકાર કહે છે કે-હે શિષ્ય તું આ શલ્યને દૂર કર, વ્યર્થ શા માટે તેના ફંદામાં પડીને પોતાને દુખી બનાવે છે. બીજા ભલે કોઈ પણ કાર્ય કરતા હોય એ તારે જોવાનું નથી, તુ ફક્ત તારી જ તરફ દેખ, “તું તારું રે સંભાળ, તને माननी शी. ५डी.?" तुंशु ४री रह्यो छे? ते भाटे सूत्रा२ “त्वमेव " ! પદ ઉપર જોર દઈને શિષ્યને કહે છે.
અથવા શલ્ય શબ્દનો અર્થ અષ્ટવિધ કર્મ પણ છે, એ પહેલાં બતાपवाभा यावेत छे -" तपसा निर्जरा च" त५, सयम पाटान ४२वाथी सवर તે થાય જ છે, પરંતુ સંચિત કર્મોની નિર્જરા પણ થાય છે. ચારિત્રારાધન દ્વારા આત્મા જેમ જેમ અવિરતિ, પ્રમાદ, કષાય, અને અશુભ ગને નિગ્રહ કરતો જાય છે તેમ તેમ આ આત્મામાં અપૂર્વ ઉજવલતાની જાગ્રતિ થતી જાય છે. આ ઉત્પલતાની જાતિમાં આત્મા સ વાર અને નિર્જરા દ્વારા કર્મોને કમશઃ નાશ કરીને આગળ આગળના ગુણસ્થાનોમાં ચઢતો જાય છે. એક સમય એવો
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अध्य० २. उ. ४
२४३ मूलम्-आसंच छंदं च विगिंच धीरे, तुमं चेव तं सल्लमाहट्ट, जेण सिया तेण नो सिया, इणसेव नावबुज्झति जे जणा मोहपाउडा, थलोभपवहिए ते भो वयंति एयाइं आयतणाई, सो दुक्खाए मोहाए माराए नरगाए नरगतिरिक्खाए सययं मूढे धम्म नाभिजाणइ उदाहु वीरे,अप्पमाओ महामोहे, अलं कुसलस्स पमाणं संति मरणं संपेहाए भिदुरधम्म संपेहाए नालं पास अलं ते एएहि ॥ सू० ३॥
छाया-आशां च छन्दश्च वेविश्व धीर ! त्वमेव तत् शल्यमाहृत्य येन स्यात् तेन नो स्यात् , इदमेव नावबुध्यन्ते ये जना मोहपाहताः, स्त्रीलोकप्रव्यथितः, ते भो वदन्ति, एतान्यायतनानि, तत् (तेपां) दुःखाय मोहाय माराय नरकाय नरकात्, तिरश्चे, सततं मूढो धर्म नाभिजानाति, उदाह वीरः, अप्रमादो महामोहे अलं कुशलत्य प्रमादेन शान्तिमरणं संप्रेक्ष्य भिदुरधर्म संप्रेक्ष्य नालं पश्यालं ते एतैः।।मू०३॥
टीका-'आशां चेत्यादि । हे धीर! धिया चारित्राराधनरूपया मत्या राजत इति धीरस्तत्संवोधने हे धीर ! =हे संयमिन् ! यद्वा-धियं बुद्धिम् ईरयति-प्रेत्यति परीषहोपसर्गविजयाथ यः स धीरस्तत्संबोधने हे धीर! हे संयमिन ! अथवा हे परीपहोपसर्गरक्षोभ्य ! आशा शब्दादिविषयस्पृहां, छन्दः-भोगस्याभिप्रायं च वेविक्ष्य-पृथक्कुरु-परित्यजेत्यर्थः । हे शिष्य ! त्वमेव
चारित्र को आराधन करनेवाली बुद्धि से जो शोभित होता है अथवा परीषह और उपसर्ग को जीतने के लिये जो बुद्धि को प्रेरित करता है यहां उसका नाम धीर है। संबोधन करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि-हे धीर ! हे संयमी ! अथवा परीषह और उपसर्ग को जीतनेवाले शिष्य ! तुम शब्दादि विषय की इच्छा और भोग की चाहना को अपने से पृथक करो-छोड़ो, कारण कि प्रती का लक्षण"निःशल्यो व्रती" शल्यरहित होना बतलाया है। संयम को लेकर भी जो शब्दादिविषयों
ચારિત્રનું આરાધન કરવાવાળી બુદ્ધિથી જે શોભિત થાય છે, અથવા પરિ પહ અને ઉપસર્ગને જીતવા માટે જે બુદ્ધિને પ્રેરિત કરે છે આ ઠેકાણે તેનું નામ ધીર છે. સંબોધન કરીને સૂત્રકાર કહે છે કે-હે ધીર! હે સંયમી! અથવા પરિષહ અને ઉપસર્ગને જીતવાવાળા શિષ્ય! તમે શબ્દાદિ વિષયની ઇચ્છા અને ભેગની या नामोन तभाशयी १२ शे-छोडी, १२५ 3-तीन पक्ष "नि:शल्यो व्रती" શલ્યરહિત થવું બતાવેલ છે. સંયમને લઈને પણ જે શબ્દાદિ વિષયને ભોગ
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आचारागसूत्रे नान्यः, शल्य-मायादिरूपम् अष्टविधं कर्म वा आहृत्य परिगृह्य स्वात्मनि दुःखमुत्पादयसि । यतो येनार्थादिना भोगप्राप्तिः स्यात् तेनैव कदाचिन्नो स्यात् , अन्तरायकर्मपरिणामस्याघटितघटनाघटकत्वात् । अन्तरायकर्मवैचित्र्यमिदं मोहमायता न जानन्तीत्याह- इदमेवे '-ति, 'मोहप्रावृताः' मोहेन-अज्ञानेन पाहताः सम्यगवगुण्ठिताः, अज्ञानतमसाऽऽच्छादिता इत्यर्थः, ये जनाः तीर्थङ्करगणधराज्ञाविराधकाः इदमेवम्भोगसाधनमप्यभोगसाधनं भवतीति कारणवैचित्र्यमेव नावबुध्यन्ते न जानन्ति । भोगान्तरायोदयादज्ञानान्धा विपरीतमतयो हेतुवैचित्र्यं न भन्यन्ते । दृश्यते हि लोके भोगाय समवहितोऽपि कारणकलापोऽन्तरायोदयादनथोंय भवति । की ओट में बैठ कर भोगादिक की चाहना से तूने अन्य प्राणियों को रिझाकर किसी दूसरे बहाने से भोगादिक सामग्री को जुटाने में साधनभूत द्रव्यादिक का संग्रह भी करलिया तो तुझे यह कैसे विश्वास है कि इस द्रव्यादिक से मुझे उस मनोनुकूल सामग्री का लाभ अवश्य हो ही जायगा । विपरीत भी हो सकता है, कारण कि अघटित घटना को घटाने में पटु अन्तराय कर्म का उदय अभी तेरे बना हुआ है, उसका जब तक नाश नहीं होता तब तक भणी मनोऽनुकूल भोगादिकों को भोगने में सर्वथा असमर्थ रहता है, यही बात “जेण सिया तेण णो सिया" इन पदों से व्यक्त की है। जिस द्रव्यादिक साधन से भोगप्राप्ति होती है अन्तराय के उदय होने पर उसी से भी संभव है कि न भी हो । यह सब अन्तराय कर्म की ही विचित्रता है, परन्तु जिन की आत्मा मोह के उदय से आच्छादित हो रही है, तथा तीर्थकर एवं गणधरादिकों की आज्ञा के विराधक हैं वे अन्तराय की इस विचित्रता को नहीं जानते। ચાહનાથી હું અન્ય પ્રાણીઓને રીઝાવી કોઈ બીજા બહાનાથી ભોગાદિક સામગ્રી મેળવવામાં સાધનભૂત દ્રવ્યાદિકને સંગ્રહ પણ કરી લે તો પણ તને એ વિશ્વાસ કેમ છે કે–આ કવ્યાદિકથી મને તે મને નુકૂળ સામગ્રીને લાભ અવશ્ય થઈ જ જશે? વિપરીત પણ બની શકે છે, કારણ કે અઘટિત ઘટનાને ઘટાડવામાં પટુ અખતરાય કર્મનો ઉદય હજુ પણ તારે વિદ્યમાન છે તેને જ્યાં સુધી નાશ થશે નહિ ત્યાં સુધી પ્રાણું મનોનુકૂળ ભોગાદિકોને ભોગવવામાં સર્વથા અસમર્થ २९ छ मा पात “जेण सिया तेण णो सिया " 20 पोथी व्यरत ४री छे. જે દ્રવ્યાદિક સાધનથી ભોગપ્રાપ્તિ થાય છે, અંતરાયને ઉદય થતાં તેનાથી પણ સંભવ છે કે કદાચ ન પણ બને, આ બધી અખતરાય કમની જ વિચિત્રતા છે, પરંતુ ટની આત્મા મોહના ઉદયથી આચ્છાદિત થઈ રહી છે, તથા જે તીર્થંકર અને ગણધરાદિકની આજ્ઞાના વિરાધક છે તે અન્તરાયની આ વિચિત્રતાને જાણતા નથી.
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अध्य० २. उ. કે
રહે
स्थानों में चढ़ता चला जाता है। एक समय ऐसा भी आता है कि जिसमें इस की आत्यंतिक शुद्धि हो जाती है। इस प्रकार कर्मोच्छेद में चारित्र को सर्वप्रथम स्थान प्राप्त हुआ है । अतः हे शिष्य ! निर्दोष चारित्राराधन कर और इन कर्मों पर क्रमशः अथवा युगपत् विजय प्राप्त कर | विषय भोगों की चाह से ऐसे सुन्दरतम चारित्र को बिगाडने के लिये क्यों व्यर्थ में चेष्टा करता है ? क्यों इसे नष्ट भ्रष्ट करता है ? ऐसा करने से उल्टे अनन्त संसार वर्धन करनेवाले इन कर्मोका बंधन दृढ़ ही होगा, जो तुझे भवर में दुःखदाता होगा। अपने को दुःखी करने में तेरा ही अपराध है, इसमें और कोई निमित्त नहीं । इसी बात की पुष्टि " अष्ट विधं कर्म वा आहृत्य - परिगृस्य स्वात्मनि दुःखमुत्पादयसि " टीकाकारने इस पंक्ति की है । यह दृढ़ विश्वास रख - जिस भोगादिक की चाहना में पड़कर तूं संयम जैसे अमूल्य रत्न को कलंकित करने में संकोच नहीं करता है | क्या उन भोगादिकों को भोगने की तेरी यह भावना सफल हो जायगी ? | मान लिया संयमरत्न को बेंच कर तूंने भोगादिक वस्तुओंको खरीद भी लिया, परन्तु यदि तेरे प्रबल अन्तराय - भोगान्तराय का उदय है तो प्राप्त हुए उन भोगादिकों को तू नहीं भोग सकता । अथवा संयम પણ આવે છે કે જેમાં તેની આત્યંતિક શુદ્ધિ થઇ જાય છે. આ પ્રકારે કર્મોછેદમાં ચારિત્રને સર્વપ્રથમ સ્થાન પ્રાપ્ત થયેલ છે. માટે હે શિષ્ય ! નિર્દોષ ચારિત્રારાધન કર, અને એ કર્મો ઉપર ક્રમશ. અથવા યુગપત્ વિજય પ્રાપ્ત કર. વિષય ભાગોની ચાહનાથી એવા સુંદરતમ ચારિત્રને બગાડવા શા માટે વ્ય ચેષ્ટા કરે છે? શા માટે તેને નષ્ટ ભ્રષ્ટ કરે છે? આવું કરવાથી ઉલ્ટા અનંત સંસારને વધારવાવાળા તે કર્માંના ખધન દૃઢ જ થશે, જે તને ભવભવમાં દુઃખ દાતા થશે, પોતાને દુ:ખી કરવામાં તારાજ અપરાધ છે, તેમા કેાઈ ખીજું નિમિત્ત નથી. આ વાતની પુષ્ટિ “ अष्टविधं कर्म वा आहृत्य परिगृह्य स्वात्मनि दुःखमुत्पादयसि " टीअारे या पंस्तिथी छुछे थे दृढ विश्वास राम ने लोगाદિકની ચાહનામાં પડીને તુ' સંયમ જેવા અમુલ્ય રત્નને કલકિત કરવામાં સંકોચ કરતા નથી. શું તે ભાગાદિકોને ભોગવવાની તારી એ ભાવના સફળ થશે? માની લ્યે કે–આ સંયમરત્નને વેચીને તે ભોગાદિક વસ્તુને ખરીદી લીધી, પરંતુ કદાચ તારા પ્રમળ અંતરાય-ભોગાન્તરાયનો ઉદય હોય તો પ્રાપ્ત થયેલ તે લાગાદિકોને તું ભોગવી શકતો નથી, અથવા સ'યમની ઓટમાં બેસીને ભોગાઢિકની
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आचाराङ्गसूत्रे
"
मोहनीये कामप्राधान्येन स्त्रियाः प्राधान्यमिति दर्शयति- 'स्त्री' ति, खीलोकैः = कामिनीजनैः प्रव्यथितः = प्रकर्षेण व्यथितः = अधीनीकृतः भोगाशापाशबद्धः सावधानुष्ठायी जनः । ते वन्यानपि मुहुरुपदेशादिना ससाराधोगर्ते पातयन्तीत्याह - ' ते भो' इत्यादि । ते वनितावशवर्तिनो वदन्ति कथयन्ति 'भो' इति संबोधने हे जनाः ! एतानि = कामिन्यादीन्येव आयतनानि = भोगाधिष्ठानानि सुखकारणानीत्यर्थः । कामिन्यो हि कमनीयसुखकारणीभूताः सकलजगतो ललामरूपा निखिल - लोकामन्दानन्दसन्दोहदायिन्यो भवन्ति, किं भोगस्ताभिर्विना ?, इत्यादि ब्रुवन्ति । परन्तु बीच ही में अशुभोदय से किसी एक सीढ़ी पर से उसका पैर फिसल गया और वह वहां से नीचे गिर कर मर गया। इस दृष्टान्त से यही फलितार्थ निकलता है कि जो सामग्री भोग के निमित्त होती है वही भोगान्तराय के उदय से कालान्तर में अनर्थ के लिये जीवों को हो जाती है । परन्तु कर्म की बलवत्ता ही कुछ ऐसी है, जो इस जीव को बाहिरी वस्तुओं में उन्मत्त बना रही है ।
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इसी मोहनीय के उदयमें भोगों की आशारूपपाश से बंधे हुए जीवों में काम की प्रधानता होने से वे स्त्रियों के द्वारा व्यथित किये जाते हैं, अधीन किये जाते हैं । शास्त्रकार कहते हैं कि ऐसे जीव इतो भ्रष्टस्ततो भ्रष्टः " हो तो कोई अचरज की बात नहीं है, परन्तु ये स्वयं बिगड़कर दूसरों को भी बिगाड़ने की बातें करते हैं, यही एक बड़ा आश्चर्य है । ये दूसरों से यही कहते हैं कि - " अरे भाई ! इन स्त्री आदि पदार्थों के सेवन करने में ही संसार का सर्व सुख પગથીયા ઉપરથી તેને પગ લપસી ગયા; અને તે ત્યાંથી નીચે પડીને મરી ગયા. આ દાખલાથી એવુ તાત્પર્ય નીકળે છે કે જે સામગ્રી ભાગને નિમિત્ત હોય છે તે ભોગાન્તરાયના ઉદયથી કાલાન્તરમાં જીવને અનર્થરૂપ પણ ખની જાય છે. પરંતુ કર્મીની ખલવત્તા જ કોઇ એવી છે કે, જે આ જીવને બહારની વસ્તુઓમાં ઉન્મત્ત બનાવે છે
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આ મોહનીયના ઉદ્દયમાં ભાગાની આશારૂપ પાશથી મધાયેલા જીવામાં કામની પ્રધાનતા હોવાથી તે સ્ત્રિયેાદ્વારા વ્યથિત કર્યે જાય છે. અધીન કયે જાય छे शास्त्रर उडे छेउ-येवो व इतो भ्रष्टस्ततो भ्रष्ट थाय तो अर्ध मयરની વાત નથી પરંતુ તે પોતે મગડીને ખીન્તને પણ બગાડવાની વાતો કરે છે એ પણ એક મેાટુ આશ્ચર્ય છે તે ખીજાઓને એમ કહે છે કે“ અરે ભાઈ આ સી આદિ પદાર્થોનુ સેવન કરવામા જ સસારનું સર્વ સુખ સમાએલું છે
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अध्य० २. उ. ४
यथा स्वभोगार्थं विपुल विभवसम्पादितं सकलजनाथर्यकारिकारुकलाकलापनिर्मायितं सकलेन्द्रियसुखावलम्वि - गगनचुम्बि-प्रासादमवलोकितुमुपरितनभागमुपगतो भवनशोभावलोकन निमग्न भवनाधिपतिरारोहमार्गेणावतरन् कर्मवैचित्र्यात्पादस्खलनेन ततो निपत्य मृतिमवाप । अहो ! पश्यन्तु महामोहमहिमानम् ।
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सच बात है भोगान्तराय के उदय से जो अज्ञान से अन्ध हो रहे हैं, एवं जिनकी मति विपरीत बनी हुई है वे इस अन्तराय की विचित्रता को कि जो पदार्थ भोगसामग्री का साधन है वही कालान्तर में अन्तरायादि निमित्त को पाकर उसका साधन नहीं होता है- नहीं माना करते हैं, परन्तु उनकी मान्यता या अमान्यता से कुछ भी नही हो सकता है। हम व्यवहार में यह बात प्रत्यक्ष देखते हैं कि- भोग के लिये एकत्रित किये गये कारणकलाप - साधन अन्तराय के उदय से अनर्थकारी हो जाते हैं ।
जैसे किसी धनिक व्यक्तिने अपने उपभोग करने के लिये पूर्ण उपभोग की सामग्रीसमन्वित एक सर्वसुन्दर गगनतलचुम्बी प्रासाद बहुत चतुर कारीगरों द्वारा बनवाना प्रारंभ किया । धीरे २ वह बनकर पूर्ण तैयार हो गया। मकानमालिक उसकी शोभा का निरीक्षण करने लिये वहां गया । सब से ऊंचे खण्ड पर चढ़ कर उसने उसकी शोभा का सर्वाङ्गनिरीक्षण किया । पूर्ण शोभा से युक्त उसे देखकर वह आनन्द मन भी हुआ। कुछ देर बाद वह वहांसे वापिस लोटकर नीचे आने लगा, સાચી વાત છે કે ભોગાન્તરાયના ઉયથી જે અજ્ઞાનથી અધ થઈ રહેલ છે, અને જેની મતિ વિપરીત બનેલ છે તે આ અંતરાયની વિચિત્રતાને કે-જે પદાથ ભાગ સામગ્રીનુ સાધન છે તે કાલાન્તરમાં અંતરાયાદિક નિમિત્તને મેળવી તેનું સાધન ખનતું નથી—માનતા પણ નથી, પરંતુ તેની માન્યતા અગર અમાન્યતાથી કાંઈ પણ ખની શકતુ નથી. અમે વ્યવહારમાં આ વાત પ્રત્યક્ષ દેખીએ છીએ કે-ભાગ માટે એકત્રિત કરવામાં આવેલ કારણકલાપ–સાધન અંતરાયના ઉદ્મયથી અનથકારી અની જાય છે.
જેવી રીતે કોઇ ધનિક વ્યક્તિએ પોતાના ઉપભાગને માટે પૂર્ણ ઉપભાગની સામગ્રીસમન્વિત એક સસુંદર ગગનચુખી મહેલ ઘણા ચતુર કારીગરો દ્વારા બનાવવાના પ્રારંભ કર્યાં. ધીરે ધીરે તે ખનીને પૂર્ણ તૈયાર બની ગયા. મકાનમાલિક તેની શોભાનું નિરીક્ષણ કરવા ત્યાં ગયા. સૌથી ઉંચા ખંડ ઉપર ચડીને તેણે તેની શોભાનું સર્વાંગ નિરીક્ષણ કર્યું. પૂર્ણ શૈાભાથી યુક્ત તેને દેખીને તે આનંદમગ્ન પણ થયા, થાડા વખત પછી તે ફરીને નીચે આવવા લાગ્યા. પરંતુ વચમાં જ અશુભ ઉદયથી કોઇ
ત્યાંથી પાછો એક સીડીના
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आचारागसूत्रे " प्रथमे जायते चिन्ता, द्वितीये द्रष्टुमिच्छति ।
तृतीये दीघनिःश्वासश्चतुर्थे ज्वरमादिशेत् ॥१॥ पञ्चमे दह्यते गात्रं, षष्ठे भक्तं न रोचते । सप्तमे च भवेकम्प, उन्मादश्चाष्टमे तथा ॥२॥ नवमे माणसन्देहो, दशमे जीवितं त्यजेत् ।
कामिनां मदनोद्वेगा, जायन्ते दश ते ह्यमी" ॥३॥ इति ॥ अत एवोक्तं 'माराये'-ति । किञ्च-मृत्वा नरकाय दशविधक्षेत्रयातनास्थानाय, तथा च-'नरकतिरश्चे' अत्र 'नरक' इति लुप्तपञ्चमी, तेन नरकानिर्गत्य यदि स जन्म लभते तर्हि प्रायस्तियग्योनिष्वेवेत्यर्थः । अन्तिम दशा में पहुंचानेवाली हैं। काम की दश अवस्थाएँ बतलाई हैं, उनमें मरण ये काम की अन्तिम अवस्था है। कहा भी है
"प्रथमे जायते चिन्ता द्वितीये द्रष्टुमिच्छति । तृतीये दीर्घनिःश्वासश्चतुर्थ ज्वरमादिशेत् ॥ १॥ पञ्चमे दयते गात्रं, षष्ठे भक्तं न रोचते। सप्तमे च भवेत्कम्पः, उन्मादश्चाष्टमे तथा ॥२॥ नवमे प्राणसन्देहो, दशमे जीवितं त्यजेत् ।
कामिना मदनोरेगा जायन्ते दश ते ह्यमी"॥३॥ अर्थ स्पष्ट है। स्त्रियों के संगम से जीव अनेक असाध्य रोगोंका घर बन कर आर्त रौद्र ध्यान की वजह से मर कर नरक में जा पड़ता है । वहां पर दश प्रकार की क्षेत्रीय यातना को भोगता है। नरक इन यातनाओं के કામની દશ અવસ્થાઓ બતાવેલ છે તેમાં મરણ એ કામની અન્તિમ અવસ્થા છે કહ્યું પણ છે–
"प्रथमे जायते चिन्ता द्वितीये द्रष्टुमिच्छति । तृतीये दीर्घनिःश्वासश्चतुर्थे ज्वरमादिशेत् ॥ १॥ पञ्चमे दह्यते गात्रं, पण्ठे भक्तं न रोचते ।। सप्तमे च भवेत्कम्प, उन्मादश्चाष्टमे तथा ॥ २ ॥ नवमे प्राणसन्देहो, दशमे जीवितं त्यजेत् ।।
कामिना मदनोद्वेगा, जायन्ते दश ते ह्यमी" ॥ ३ ॥ અર્થ સ્પષ્ટ છે શ્વિનો સંગમ જીવોને નરકનુ દુખ આપે છે, અને અંતમાં તેનાથી જીવ અનેક અસાધ્ય રોગોનું ઘર બનીને આરૌદ્ર ધ્યાનથી મરીને નરકમાં જાય છે. તે ઠેકાણે દશ પ્રકારની ક્ષેત્રીય યાતનાઓ ભેગવે છે. નરક આ યાતનાઓના
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अभ्य० २. उ. ४ किन्तु नैवं, प्रत्युत दुःखाद्यर्थमेवेत्याह-' तदि'-त्यादि, तेषां तत्-कामिनीवशवर्तन तासां सुखायतनकथनं चोभयमेव दुःखाय-ऐहिकपारत्रिकाऽकल्याणाय भवति । एवं सर्वत्र चतुर्थ्यन्ते योज्यम् । अपि च मोहाय-अज्ञानाय। किं चन्माराय= मरणं मारस्तस्मै चरमकामदशार्थम्, कामस्य दशविधा अवस्थाः समुत्पद्यन्ते, तासु दशमावस्था मरणाख्या भवति । उक्तञ्चसमाया है, ये ही सुख के कारण हैं"। मोहाभिभूत जीवों की दृष्टि में स्त्री ही उत्तम से उत्तम आनंद प्रदान करनेवाली वस्तु प्रतिभासित होती है। जगत के अनेक सुन्दर पदार्थों से भी वह अधिक सुन्दर उन्हें मालूम देती है । इसके विना संसार का मजा भी उनकी दृष्टि में फीका रहता है, परन्तु इस प्रकार की उनकी मान्यता केवल एक मोह का ही विलास है। जिस प्रकार अशुचि पदार्थ का सेवन करनेवाला वराह अपने को सुखी मानता है उसी प्रकार "नारीजघनरन्ध्रस्थविण्मूत्रमयचर्मणा" नारीके जघन के छिद्रस्थ चमड़े के सेवन से अज्ञानी मनुष्य भी अपने को सुखी मानता रहता है, परन्तु ज्ञानियों की दृष्टि में इस प्रकार के जीवों का व्यवहार गर्हित एवं निन्दित है। इसी बात को खुलाशा करते हुए कहते हैं कि-"तत् तेषां दुःखाय मोहाय” इत्यादि। स्त्रियों के अधीन रहना और उन्हें सुख का स्थान समझना ये दोनों बातें मानव जगत को इस लोक और परलोक में अकल्याणप्रद हैं, अज्ञान को देनेवाली हैं और काम की તે જ સુખનું કારણ છે” મોહવશ જીવોની દષ્ટિમાં સ્ત્રી જ ઉત્તમમાં ઉત્તમ આનંદ આપવાવાળી વસ્તુ પ્રતિભાસિત થાય છે. જગતના અનેક સુંદર પદાર્થોથી પણ તે અધિક સુંદર તેને માલૂમ પડે છે. તેના વિના સંસારની મજા પણ તેની દષ્ટિમાં ફીકી રહે છે, પરંતુ આ પ્રકારને તેને કેવળ એક મોહન જ વિલાસ છે. જે પ્રકારે અશુચિ પદાર્થનું સેવન કરવાવાળા भू प्राणी पाताने सुभी भाने छे ते मारे “नारीजघनरन्ध्रस्थविण्मूत्रमयचर्मणा” नारी नन छिद्रस्थ यामनु सेवन ४२पाथी मज्ञानी मनुष्य પણ પિતાને સુખી માનતું રહે છે, પરંતુ જ્ઞાનની દ્રષ્ટિમાં આ પ્રકારના જીવને વ્યવહાર ગહિંત અને નિન્દ્રિત છે. આ વાતનો ખુલાસો કરીને કહે છે કે – तत् तेषां दुःखाय मोहाय त्याह. लियोना २माधान रहे, मने तेने सुमनु સ્થાન સમજવું, એ બને તે માનવજગતને આલોક અને પરલોકમાં અકલ્યાણપ્રદ છે. અજ્ઞાનને દેવાવાળી છે. અને કામની અન્તિમ દશાને પહોંચાડવાવાળી છે.
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आधारास्त्रे न प्रमादोऽप्रमादः, स विधेयः, न तत्र प्रमादप्रमत्तेन भाव्यम् । अन्यदप्याह-'अल'मित्यादि, 'कुशलस्य' कुशान्-भावकुशान् अप्टविधकर्माणि लुनाति-छिनत्तीति कुशला कमविदारणपरस्तस्य प्रमादेन-मद्य-विषय-कपाय-निद्रा-विकथारूपेण अलं-व्यर्थ, तत्र कुशले प्रमादस्यासम्भवात् । किं कृत्वा प्रमादं न करोतीत्याह'शान्ती'-त्यादि, शान्तिमरणं, शमनं शान्तिः सकलकर्मनाशः, अत एव शान्तिः= रूप महामोह में आसक्ति नहीं करनी चाहिये । प्रमाद से संसार और अप्रमाद से मुक्ति का लाभ होता है । सूत्र में शान्ति और मरण इन शब्दों का वाच्य अर्थ क्रमशः अव्याबाधसुखलक्षण मोक्ष और चतुगतिरूप संसार है, क्यों कि "शमनं शान्तिः" शमन का नाम शांति है, वह समस्त कर्मों का अभावस्वरूप अवस्था है । इसका दूसरा नाम अव्याबाधसुखलक्षण मोक्ष भी है। बारंबार चतुर्गतियों में प्राणी जहां पर मरते रहते हैं उस का नाम मरण-संसार है। भावकुशरूप अष्टविध कर्मोंका जो छेदन करता है वह कुशल है, क्यों कि-"कुशान् लुनातीति कुशलः" । अष्ट प्रकार के कर्मों को विदारण करनेवाले का नाम कुशल है। "अलं कुशलस्य प्रमादेन" अर्थात् कुशल के लिये प्रमाद होता ही नहीं है। मद्य विषय कषाय निद्रा और विकथा के भेदसे प्रमाद पांच प्रकारका होता है । जो कर्मों को नाश करने में प्रयत्नशाली हो रहे हैं, वे कभी प्रमत्तदशासंपन्न नहीं होते हैं । कारण कि वे जानते हैं किप्रमाद से संसार में परिभ्रमण तथा अप्रमाद से शांति-अव्याबाधसुखઅને નપુણવેઃ રૂપ મહામહિમા આસક્તિ કરવી જોઈએ નહિ પ્રમાદથી સંસાર અને અપ્રમાદથી મુક્તિને લાભ થાય છે. સૂત્રમાં શાંતિ અને મરણ આ શબ્દને વાચ્ય અર્થ કમશ અવ્યાબાધસુખલક્ષણ મોક્ષ અને ચતુર્ગતિરૂપ સંસાર છે
२५५ “शमनं शान्ति " शमननु नाम शांति छ ते समस्त भनी मला સ્વરૂપ અવસ્થા છે. તેનું બીજુ નામ અવ્યાબાધસુખલક્ષણ મેક્ષ પણ છે. વારંવાર ચતુર્ગતિમાં પ્રાણી જ્યાં મરતા રહે છે તેનું નામ મરણ–સંસાર છે ભાવકુશ રૂપ मटविध धनु छेदन ४२ छे. ते सुशी छे ४१२६१ “ कुशान् लुनातीति कुशल. " ALB प्रा२ना भानु विहारण ४२वापान नाम शण छ. " अलं कुशलस्य प्रमादेन" अर्थात् सुशणने माटे अमाह यतो नथी.. भविषय કષાય નિદ્રા અને વિકથાના ભેદથી પ્રમાદ પાંચ પ્રકાર હોય છે, જે કર્મોને નાશ કરવામાં પ્રયત્નશાળી હોય છે તે કોઈ વખત પ્રમત્તરશાસંપન્ન બનતાં નથી. કારણ કે તેઓ જાણે છે કેપ્રમાદથી સંસારમાં પરિભ્રમણ અને અપ્રમાદથી શાંતિ
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अध्य० २. उ. ४
एवम्भूतः स्वात्महितं न जानातीत्याह- सतत'-मित्यादि। सततं नित्यं, मृदा दर्शनमोहचारित्रमोहकर्मणा युक्तः धर्म-निनोक्तं श्रुतचारित्रलक्षणं न जानाति । एतत्सर्वं न मया स्वमत्या प्रोक्तं किन्तु-'उदाहे'-ति, वीरः परिज्ञातसकलहेयो पादेयस्तीर्थङ्करादिः, उत्ावल्येन आह-ऋथितवान् । अत्रापैत्वाद् भूते लट् । किमित्याह-'अप्रमाद' इति, महामोहे-स्त्रीपुंनपुंसकवेदरूपे अप्रमादाप्रमाद आसक्तिः प्रधान स्थान हैं। वहां से निकल कर जीव प्रायः तिर्यच योनि में ही जन्म धारण करता है। “ नरक-तिरिक्खा " अर्थात नरक से निकल कर जीव जब जन्म धारण करता है तो वह प्रायः तिर्यंच योनि में ही उत्पन्न होता है, यह अर्थ इस पद से प्रतीत होता है।
जिनकी आत्मा नित्य चारित्रमोहनीय के उदय से मलिन बनी है वे जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्रतिपादित इस श्रुतचारित्र रूप धर्म को नहीं जानते हैं। इस प्रकार का कथन श्री अन्तिम तीर्थकर महावीर स्वामीका है, जिन्होंने जगत के समस्त हेयोपादेय तत्त्वों को अच्छी तरह जान लिया है। इस कथन में सूत्रकार महावीर स्वामी की प्ररूपणा प्रकट करने से तथा अपनी कल्पना का निषेध करने से उसमें प्रमाणता प्रकट करते हुए कहते हैं-"एतत्सर्व न मया स्वमत्या प्रोक्तं किन्तु उदाह वीरः" । यह समस्त पूर्वोक्त कथन तथा जो कुछ आगे कहा जाता है वह सब मैंने नहीं किया है, किन्तु वीर भगवान ने कहा है। भगवान का उपदेश है कि जीवों को "अप्पमाओ महामोहे " स्त्रीवेद, पुम्पवेद और नपुंसक वेद પ્રધાન સ્થાન છે. ત્યાંથી નીકળીને જીવ બાય તિર્યંચ નિમાં જ જન્મ ધારણ કરે थे." नरकतिरक्खाए " २४नाथी नीvil 04 त्यामधार ४२ त्या તે તિર્યંચ નિયામાં જ ઉત્પન્ન થાય છે એ પૂર્વોક્ત અર્થ આ પદથી પ્રતીત થાય છે.
જેને આત્મા કાયમ ચારિત્ર મહનીયના ઉદયથી મલિન બનેલ છે તે જીનેન્દ્ર ભગવાન દ્વારા પ્રતિપાદિત આ કુતચારિત્રરૂપ ધર્મને જાણતા નથી. આ પ્રકારનું કથન શ્રી અંતિમ તીર્થંકર મહાવીર સ્વામીનું છે જેણે જગતના પાદેય તને સારી રીતે જાણી લીધા છે. આ કથનમા સૂત્રકાર મહાવીર સ્વામીની પ્રરૂપણા પ્રગટ કરવાથી, તથા પોતાની કલપનાનો નિષેધ કરવાથી તેના માતા પ્રગટ કરતાં કહે छ. " एतत्सर्वं न मया स्वमत्या प्रोक्तं किन्तु उदाबीरः मत पूति કવન અને જે આગળ કહેવામાં આવશે તે બધા જે કરેલ નથી પણ વીર બાવાને २.लापानना ३५० वोने " अप्यमानी महामोहे 'स्त्रीवेद, पुरुषवेद
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आचाराङ्गसूत्रे प्रमादो न विधेय इति सम्बन्धः । भोगास्तु भुक्तपूर्वा अपि न वृप्तिजनकाः, इत्याह'नाल' मिति भोगाः परिभुक्ता अपि स्पृहानिवृत्तये नालन समर्था भवन्ति। उक्तञ्च" नग्गी तिप्पइ कडेहिं, नावगाहिं महोदही।
न जमो सव्वभूएहिं, इत्थीहिं पुरिसो तहा" ॥१॥ में परिभ्रमण करते हुए अनन्त कष्टों को भोगना पडेगा। शरीर का नाश अवश्यंभावी है, तो मैं संयम की विराधना करके इसे अविनश्वर अमर तो कर नहीं सकता! अतः इस विनश्वर वस्तु से जो मुझे परंपरा रूप से अविनश्वर वस्तुकी प्राप्ति हो जाती है तो यह सब से बड़ा भारी लाभ मुझे मिलता है; फिर क्यों प्रमादी बन कर इस शरीर के मोह में पड़ अपने संयम की विराधना करूँ ?। दोनों हालत में शरीर का नाश स्वयं सिद्ध है; फिर भी एक हालत अनंत आनंदप्रद और दूसरी हालत अनंत कष्टप्रद है, ऐसा विचार कर संयमी को कभी भी प्रमाद नहीं करना चाहिये । इसी लिये सूत्रकार ने “भिदुरधर्म संप्रेक्ष्य " इस वाक्य के द्वारा संयमी जनको शिक्षा दी है । तथा आगे भी शिक्षा देते हुए वे प्रकट कर रहे हैं कि जिन पंचेन्द्रियों के भोग तुमने पहिले भोग लिये हैं वे भी तुम्हारी इच्छा की शांति करने के लिये समर्थशाली नहीं हैं, कहा भी है" नग्गी तिप्पइ कठेहिं, नावगाहिं महोदही।
न जमो सवभूपहि, इत्थीहिं पुरिसो तहा" ॥१॥ કષ્ટોને ભેગવવા પડશે, શરીરને નાશ અવશ્યભાવી છે, તે હું સંયમની વિરાધના કરીને તેને અવિનશ્વર અમર તે કરી શક્ત નથી, માટે આ વિનશ્વર વસ્તુથી જે મને પરંપરારૂપથી અવિનશ્વર વસ્તુની પ્રાપ્તિ થાય છે તે આ બધાથી માટે લાભ મને મળે છે તે પછી શા માટે પ્રમાદી બનીને આ શરીરના મોહમા પડી પોતાના સયમની વિરાધના કરૂ, બને હાલતમાં શરીરને નાશ સ્વય સિદ્ધ છે તો પણ એક હાલત અનત આન દપ્રદ અને બીજી હાલત અનત કષ્ટપદ છે. એ વિચાર કરી સંયમીએ કોઈ વખત પણ પ્રમાદ નહિ કરે જોઈએ, માટે सारे “भिदुरधर्म संप्रेक्ष्य " म पाया। सयमी सनने शिक्षा मापी છે. તથા આગળ પણ શિક્ષા આપતા તે પ્રગટ કરે છે કે-જે પાંચ ઈદ્રિના ભેગ તમે પહેલા ભેગવી લીધા છે તે પણ તમારી ઈચ્છાની શાતિ કરવા માટે સમર્થશાળી નથી, કહ્યું પણ છે–
'नग्गी तिप्पड कहहिं, नावगाहि महोदही । न जमो सम्वभूपर्हि, इत्थीहिं पुरिसो तहा" ॥ १ ॥
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भावारागसूत्रे भोगामिषगृद्धानां भोगस्याधिगमेऽनधिगमेऽपि महादुःखमेवेत्युपदिशति'एयं पस्स' इत्यादि।
मूलम्-एयं पस्स मुणी, महब्भयं नाइवाइज कंचणं, एस वीरे पसंसिए, जे न निविज्जइ आयाणाए न मे देइ न कुप्पिज्जा, थोवं लद्धं न खिसए, पडिसहिओ परिणमिज्जा, एयं मोणं समणुवासिज्जासि-त्तिबेमि ॥ सू० ४ ॥ ___ छाया—एतत्पश्य मुने ! महद्भयं नातिपातयेत् कञ्चन एप वीरः प्रशंसितः यो न निविद्येत आदानाय न मे ददाति न कुप्येत्, स्तोकं लब्ध्वा न निन्देत् , प्रतिषिद्धः परिणमेत् , एतन्मौनं समनुवासयेः, ।। इति ब्रवीति ॥ मू० ४ ॥
टीका-'एत'-दित्यादि । हे मुने ! हे अनगार ! एतत्-कामभोगासेवन, महद्भयं=भयजनकतया महादुःखरूपम् , मरणकारणत्वेन दुःखे महत्वम् , पश्यसर्वथा दुःखजनक जानीहि । उक्तञ्चठीक नहीं; कारण कि-न मालूम कालका ग्रास हो कब जाना पडे। मृत्यु का जबर्दस्त भय प्रमादी प्रत्येक प्राणी को लगा ही रहता है। काल बाजे बजाता तो आता नहीं है कि जिससे उससे सचेत हो जाय । यह तो विना विचार करनेवाले प्रत्येक जीवात्मा को अपने पंजे में फँसा लेता है। अतः संसारदशा भयवाली है और यहां पर निर्भयदशा रूप सुख का अंश मात्र भी प्रास होना सर्वथा असंभव है। अतः अव्या. वाध सुख ही वास्तविक सुख है। इसकी प्राप्ति संयमाराधन से ही जीवों को होती है। ऐसा विचार कर संयमी मुनि को संयमभाव में कभी भी प्रमत्तदशायुक्त नहीं होना चाहिये ॥स०३॥ ખબર નથી કે કાળને પ્રાસ બની ક્યારે જવું પડે. આ પ્રકારે મૃત્યુને ભય પ્રમાદી પ્રત્યેક પ્રાણીને લાગેલે જ રહે છે. કાળ વાજુ વગાડતે તે આવતે જ નથી કે જેનાથી પ્રાણી ચેતી જાય, એ તો વિચાર નહિ કરવાવાળા પ્રત્યેક જીવાત્માને પિતાના પજામાં ફસાવે છે. માટે સ સારદશા ભયવાળી છે, અને આ ઠેકાણે નિર્ભયદશારૂપ સુખને અશમાત્ર પણ પ્રાપ્ત થ સર્વથા અસ ભવ છે. માટે અવ્યાબાધ સુખ જ વાસ્તવિક સુખ છે તેની પ્રાપ્તિ સંયમારાધનથી જ જને થાય છે એ વિચાર કરી સયમી મુનીએ સમભાવમાં કોઈ વખત પણ પ્રમત્તદશાયુક્ત થવું જોઈએ નહિ. એ સૂત્ર ૩
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अध्य० २. उ.४
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छाया-नाग्निस्तृप्यति काष्ठै:- पगाभिमहोदधिः ।
न यमः सर्वभूतैश्च, स्त्रीभिः पुरुषस्तथा ॥१॥ इति तत्सर्वं पश्य बुध्यस्व, दृशेर्ज्ञानसामान्यार्थकत्वात् , अतो हे मेधाविन् ! तेतव सदुपदेशजिघृक्षोः एभिः प्रमादमयैर्दुःखजनकैर्विषयोपभोगैः अलं व्यर्थम् , एभिरात्मकल्याण साध्यं नास्तीत्यर्थः।। __ यद्वा-एतैविषयोपभोगैरव्यावाधसुखम् , अलम्=पर्याप्तं विशिष्टतरमित्यर्थः, अतर्कितोपनतमरणे संसारे सुखलवस्याऽसम्भवादव्यावाधमुखमेव मुर्खामति तात्पर्यम् ॥ मू० ३॥ ___जिस प्रकार अग्नि काष्ठों से, समुद्र नदियों से, काल प्राणियों की मृत्यु से तृप्त नहीं होता है, उसी प्रकार मनुष्य भी स्त्रीसंभोग से कभी भी तृप्त नहीं होता है । इसलिये हे मेधावी शिष्य! तुम भी यह अपने मन में दृढ़ धारणा कर लो कि प्रमाद-भय-दुःखजनक इन विषयभोगों से कभी भी आत्मकल्याण साध्य नहीं हो सकता, अतः इन की चाह की दाह में क्यों अपने संयमरूपी पवित्र धर्म की आहुति करने के लिये संकल्प विकल्प करते हो । यह तुमसे इमलिये कहा जाता है कि तुम सदुपदेश को ग्रहण करने की इच्छा रखते हो।
अथवायह समझो कि इस वैषयिक सुख की अपेक्षा अन्यायाधसुख विशिष्टतर है। कारण कि संसारदशा भयवाली है, इसमें निर्भय अवस्था तो हो ही नहीं सकती। यदि थोड़ी देर के लिये यह असंभव भी संभवित कल्पित कर लिया जाय कि-"यहां प्राणी भयरहित है" तो भी
જે પ્રકારે અગ્નિ કાષ્ઠોથી, સમુદ્ર નદિઓથી, કાળ પ્રાણિઓની મૃત્યુથી તૃપ્ત થતો નથી, તે પ્રકારે મનુષ્ય પણ સ્ત્રી સ ભોગથી કઈ વખત પણ તૃપ્ત થતું નથી. માટે હે મેધાવી શિષ્ય! તમે પણ એ, પોતાના મનમાં દ્રઢ કરી લે કે પ્રમાદ-ભય-દુ:ખજનક આ વિષયભેગોથી કઈ વખત પણ આત્મકલ્યાણ સાધ્ય થઈ શકતું નથી, માટે તેની ચાહનાની રાહમાં શા માટે પિતાના સંયમરૂપી પવિત્ર ધર્મની આહુતિ કરવા સંકલ્પ વિકલ્પ કરે છે. આ તમને એટલા માટે કહેવામાં આવે છે કે તમે સદુપદેશને ગ્રહણ કરવાની ઈચ્છા રાખનાર છે.
અથવા એ સમજે કે આ વેપાયિક સુખની અપે અવ્યાબાધ સુખ વિશિ. ટતર છે, કારણ કે સંસારદશા ભયવાળી છે. તેમાં નિર્ભય અવસ્થા તે ઘીજ શકતી નથી. કદાચ થોડા વખત માટે આ અસંભવ પણ સંભવિત માની समे " माही ! नयडित छे" तो ५९ ही नड, २९ ३
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आचारागसूत्रे यद्वा यत्कामभोगासक्त आस्रवद्वारैहिँसादिषु प्रवर्तते तस्येह परत्र च महद्भय भवतीति पश्य । इह लोके पुरुषवधकाऽलीकवादिचोरपारदारिकाणां मारदण्डनजिह्वाच्छेदनबन्धधातादिकं च पश्य, परलोके नरकादिषूपपातं पश्येति तात्पर्यम् । एवं तर्हि किं विधेयम् ? इत्याह-नातिपातये'-दित्यादि। मुनिः कञ्चनकमपि प्राणिनं नातिपातयेत्-न प्राणैर्व्यपरोपयेत् ; उपलक्षणं मृषावादाद्यास्रवाणामेतत् ।
कामभोग से अधिक संसार में और कोई वेदना उष्णतर नहीं है, क्यों कि इस व्याधि का रोगी शीतलचंद्रकिरणों से भी अत्यंत संतप्त हो जाता है। ___अथवा-कामभोगसेवन इस जीव को इस लोक में और परलोक में महाभयकारी होता है। क्यों कि कामभोग में आसक्त प्राणी हिंसादिक पापों में प्रवृत्ति करता रहता है । हिंसादिकों में प्रवृत्ति होने से जीव अशुभ कर्मों को बांधता है, और इसके फल को वह नरकादि योनियों में भोगता है। जो प्राणी हिंसक, झूठा, चौर और परदारलंपट होते हैं उन्हें इसी लोक में फांसी, राजदण्ड, जिह्वाछेदन, बंध और घातादिक अनेक कष्ट भोगने पड़ते हैं, तथा परलोक में नरकादि गतियों में उनको जन्म धारण करना पड़ता है। ऐसा समझ कर हे मुने! तुम इस ओर अपनी मानसिक परिणति को लालसावाली मत करो, किन्तु सदा इस प्रकार की प्रवृत्ति करो कि जिससे किसी भी जीव की विराधना न हो। सूत्र में "नातिपातयेत्" यह पद झूठ, चोरी आदि आस्रवों का उपलक्षक है,
કામભોગથી અધિક આ સંસારમાં બીજી કઈવેદના ઉષ્ણતર નથી, કારણકે, આ વ્યાધિના રેગી શીતલ ચંદ્રકિરણોથી પણ અત્યંત સંતપ્ત થાય છે.
અથવા કામભોગસેવન આ જીવને આલોકમાં અને પરલોકમા મહા ભયકારી થાય છે. કારણ કે કામભોગમાં આસક્ત પ્રાણી હિંસાદિક પાપમાં પ્રવૃત્તિ કરતા રહે છે. હિંસાદિકોમાં પ્રવૃત્તિ હોવાથી જીવ અશુભ કર્મો બાંધે છે, અને તેના ફળને તે નરકાદિ નિઓમાં ભોગવે છે. જે પ્રાણી, હિંસક, જુઠે, ચેર અને પરસ્ત્રીલંપટ હોય છે તેને આ લોકમાં ફસી, રાજદંડ, જીભ છેદન, બંધ અને ઘાતાદિક અનેક કષ્ટો ભોગવવા પડે છે, તથા પરલોકમાં નરકાદિ ગતિમાં તેને જન્મ ધારણ કરવું પડે છે એવું સમજીને હે મુનિ ! તમે આ તરફ પોતાની માનસિક પરિણતિને લાલસાવાળી બનાવો નહિ, પણ સદા એવી પ્રવૃત્તિ કરે કે
नायी ओ४ ५ अपनी विराधना न थाय सूत्रमा “ नातिपातयेत् " मा ५६ જુઠ, ચોરી આદિ આવ્યવોનું ઉપલક્ષક છે, અર્થાત્ સંયમી જીવોને પોતાની પ્રવૃત્તિ
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अध्य० २. उ. ४
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" एत्तो व उण्हतरिया, अण्णा का वेयणा गणिज्जंति ।
जं कामवाहिगहिओ, उज्झइ किर चंदकिरणेहिं" ॥१॥ इति । छाया—एतस्मादुष्णतरा अन्याः का वेदना गण्यन्ते ।
यकामव्याधिगृहीतो, दह्यते किल चन्द्रकिरणैः ॥ १॥ भोग रूपी मांस में गृद्ध बने प्राणियों को भोगों की प्राप्ति होने पर अथवा नहीं होने पर बड़ा भारी दुःख ही होता है। इस बात का सूत्रकार उपदेश देते हुए कहते हैं-" एवं पस्स मुणी" इत्यादि।
हे मुने ! कामभोग-विपयसेवन को तुम बहुत भारी भयस्वरूप-अर्थात् मरणरूप भय का कारण होने से महादुःखरूप ही मानो। भावार्थ-कामभोग का सेवन सदा भय एवं दुःखदायी माना गया है। विषयसेवन से जीवों को अनेक दुःख होने का सदा भय बना रहता है । तथा अनेक प्रकार के दुःख उन्हें भोगने भी पड़ते हैं । महाकष्टों को भोगते२ जीव जब अत्यन्त दुःखी हो जाते हैं, तब वे आत्मघात तक कर लिया करते हैं। इसलिये विषयसेवन सदा महादुःखदायी ही है, ऐसा समझ कर कभी भी अनगार को उस तरफ लालसापरिणति नहीं करनी चाहिये । कहा भी है
" एत्तो व उपहतरिया, अण्णा का वेयणा गणिज्जति । जं कामवाहिगहिओ, डज्झइ किर चंदकिरणेहिं ॥” इति ॥
ભોગરૂપી માંસમાં ગૃદ્ધ બનેલ પ્રાણિઓને ભેગોની પ્રાપ્તિ થવાથી અથવા નહિ મળવાથી ઘણું ભારી દુખ જ થાય છે. આ વાતને સૂત્રકાર ઉપદેરા माधी अहे थे-"एयं पस्स मुणी" त्यादि
હે મુનિ! કામગ-વિષયસેવનને તમે ઘણો ભયસ્વરૂપ અર્થાત્ મરણરૂપ ભયનું કારણ હોવાથી મહાદુઃખરૂપ જ માને.
ભાવાર્થ—કામગનું સેવન સદા ભય અને દુઃખદાયી જ માનવામાં આવે છે. વિષયસેવનથી જીવોને અનેક દુખ થવાનો સદા ભય રહ્યા કરે છે, તથા અનેક પ્રકારના દુ ખ તેને ભેગવવા પણ પડે છે, મહાકષ્ટ ભેગવી જોગવી જીવ જ્યારે અત્યંત દુઃખી થાય છે ત્યારે તે આત્મઘાત પણ કરે છે માટે વિષયસેવન સદા મહાદુઃખદાયી જ છે, એવું સમજીને કઈ વખત પણ અણગારે તે તરફ લાલસા પરિણતિ નહિ રાખવી જોઈએ કહ્યું છે—
"एत्तो च उण्हतरिया, अण्णा का वेयणा गणिज्जति । जं कामवाहिगहिमओ, डझइ किर चंदकिरणेहिं ।। इति ।
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आचारागसूत्रे परिगृहीतया दुर्लभलाभया प्रव्रज्यया' इत्येवं 'दंढणाऽनगारवन्न स्वयमवमन्येतेति तात्पर्यम् । " बहुं परघरे अत्थि, विविहं खाइमसाइमं, ण तत्थ पंडिओ कुप्पे, इच्छा दिज परो ण वा"॥ इत्यादि भगवद्धचनात् ।
अपि च-लाभालाभसमभावः सन् स्तोकम् अल्पं भैक्षं लब्ध्वा याप्य दातारम् अन्नादिकञ्च न निन्देत न जुगुप्सेत, किन्त्वेवं चिन्तयेत् , ममैवान्तरायोदयमावल्यमेतत् । किञ्च-प्रतिषिद्धः निषिद्धः सन् परिणमत्-निवर्तेत किञ्चिदपि दौमनस्यं न कुर्यात्, तं गृहस्थं परुषवाग्मिन तिरस्कुर्यात् , तंतनाटादिशब्दं न कुर्यादित्यर्थः । के कि जिसमें लाभ दुर्लभ है अंगीकार करने से मुझे लाभ ही क्या हुआ" इस प्रकार ढंढण अनगार की तरह स्वयं अपने ग्रहण किये हुए चारित्र की उपेक्षा न करे। यह भी स्वप्न में विचार न करे कि-"देखो तो सही, इन गृहस्थों के यहां अशन पान खाद्य स्वाद्य आदि विविध वस्तुएँ मौजूद हैं परन्तु ये कितने अविनयी, अश्रद्धालु एवं लोभी हैं जो इनमें से मुझे कुछ भी नहीं देते हैं। चाहे कुछ मिले या न मिले, अथवा थोड़ामिले, साधु का यही परम कर्तव्य है कि वह इन अवस्थाओं में समभावशाली रहे । दाता की अथवा उसके दिये हुए अन्नादि की कभी भी निंदा न करे। अल्पलाभ होने पर यही एक मात्र विचार करे कि मेरा ही यह अन्तराय का प्रवल उदय है, जो यथेच्छ लाभ नहीं हो रहा है, अथवा नहीं हुआ है। आहारादिक के निमित्त परघरप्रवेश करते समय यदि वहां पर आहारादिक की याचना करने पर उस के लिये कोई निषेध भी करे तो उस समय मन में कोई जात का दुर्भाव न आने देवे, और न उस गृहस्थ का "तूं अधर्मात्मा है " इत्यादि कठोर शब्दों से तिरस्कार ही करे। જેમાં લાભ દુર્લભ છે, અંગીકાર કરવાથી મને લાભ શુ થયે” આ પ્રકારે ઢંઢણ અણગાર માફક સ્વયં પોતાના ગ્રહણ કરેલાં ચારિત્રની ઉપેક્ષા કરે નહિ. એવું પણ સ્વપ્નથી વિચાર ન કરે કે-“જુઓ તે ગૃહસ્થોને ત્યાં અશન પાન ખાદ્ય સ્વાદ્ય આદિ વિવિધ વસ્તુઓ મૌજુદ છે પરંતુ એ બધા કેટલા અવિનયી અ8દ્વાળુ અને લેભી છે જે તેમાથી મને કાંઈ પણ દેતા નથી.”ભલે મળે, ભલે ન મળે, ભલે જરાક મળે, સાધુનુ એ પરમ કર્તવ્ય છે કે તે બંને અવસ્થામાં સમભાવી 5. દાતાની અથવા તેનાથી અપાયેલા અન્નાદિની કઈ વખત પણ નિંદા ન કરે.
લાભ થવાથી એ એક જ માત્ર વિચાર કરે છે–મારે આ અંતરાયનો પ્રબલ ઉદય કે જેથી મને યથેચ્છ ભાભ થતો નથી, અથવા થય નથી, આહારાદિક નિમિત્તે ઘર પ્રવેશ કરતી વખતે કદાચ આહારિકની યાચના કરવાથી કે તેને માટે નિષેધ
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अध्य० २. उ. ४
२५९
परित्यक्तभोगाभिलाषस्य षट्कायपरिपालकस्य गुणाधिगमो भवतीत्याह - 'एप' इत्यादि । एषः कामभोगरपृहाभिप्राय विवेचनचतुर एक एव प्रमादपञ्चकरहितः, वीरः = कर्म रिपोर्नाशनाद्वीर इव वीरः, प्रशंसितः = तीर्थकरगणधरादिभिरभिनन्दितः । वीरस्वभावमाह - 'यो ने ' -त्यादि । यो वीरः, 'आदानाय ' आदीयते = अधिगम्यते निखिलकर्मक्षयसञ्जातसर्वविपयज्ञानं येन तदादानं = चारित्रानुष्ठानं, तस्मै न निर्विद्येत =न खिद्येत - ' अन्ये लभन्तेऽशनवसनादिकं वराकोऽहं न लभे किमेतया अर्थात्-संयमी जीवों को अपनी प्रवृत्ति इस प्रकार की करनी चाहिये कि जिससे उन्हें हिंसा, झूठ, चोरी आदि आस्रवों का बंध नहीं हो । जो संयमी मुनि इस प्रकार की शुभप्रवृत्तिवाला तथा कामभोग की इच्छा से रहित होता है, तथा पांच प्रमाद के वशवर्ती नहीं होता है वह वीर है और प्रशंसा का पात्र है। ऐसे मुनि की प्रशंसा तीर्थकर गणधरादि देव भी किया करते हैं । प्रशंसा पाने का कारण यह है कि वह सदा अपनी इस प्रकार की प्रवृत्ति से क्रमश: भविष्य में कर्मशत्रुओं पर विजय प्राप्त करनेवाला हो जावेगा । धन्य हैं वे जो चारित्र अंगीकार करके किसी भी निमित्त के उपस्थित होने पर उस चारित्र से विरक्तिभाव पैदा नहीं करते। यहां " आदान " शब्द का अर्थ चारित्र का अनुष्ठान है, क्योंकि इस से ही सकल कर्मों के क्षय से उद्भूत सर्वपदार्थविषयक बोध-केवलज्ञान जीवों को प्राप्त होता है । " अशनवसनादिक दूसरों को तो प्राप्त हो रहे हैं मैं ऐसा अभागा हूं जो मुझे कोई पूछता भी नहीं है, इस चारित्र એવા પ્રકારની કરવી જોઈ એ કે જેનાથી તેને હિંસા જુઠ ચારી આદિ આશ્રવાના મધ ન થાય.
જે સયમી મુનિ આ પ્રકારની શુભ પ્રવૃત્તિવાળા તથા કામભોગની ઈચ્છાથી રહિત હોય છે તથા પાંચ પ્રમાદને તાબે થતા નથી તે વીર છે. અને પ્રશ ંસાપાત્ર છે. એવા મુનિની પ્રશંસા તીર્થકરગણુધરાદિ દેવ પણ કરે છે. પ્રશંસા મળવાનુ કારણ એ છે કે—તે સદા પેાતાની આ પ્રકારની પ્રવૃત્તિથી ક્રમશઃ વિષ્યમાં કશત્રુઓ પર વિજય પ્રાપ્ત કરવાવાળા થઈ જશે. ધન્ય છે તેઓને જે ચારિત્ર અંગીકાર કરીને પછી કોઈ પણ કારણ ઉપસ્થિત થવા છતાં પણ તે ચારિत्रथी विरस्तिलाव पेढा उरता नथी. खाडीं " आदान " शम्हनो अर्थ चारित्रनु અનુષ્ઠાન છે, કારણ કે તેનાથી જ સકલ કર્મોના ક્ષયથી ઉદ્ભૂત સર્વ પદ્મા વિષયક બોધ કેવળજ્ઞાન જીવાને પ્રાપ્ત થાય છે. “ અશનવસનાદિક બીજાને તા પ્રાપ્ત થતાં જ રહે છે અભાગી હું છું જે મને કોઇ પૂછતું પણ નથી. આ ચારિત્રને
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आचाराङ्गसूत्रे ॥ आचारागसूत्रे द्वितीयाध्ययनस्य पञ्चमोद्देशः ॥ अभिहितश्चतुर्थोद्देशोऽधुना पञ्चमस्य व्याख्या प्रारभ्यते । पूर्व भोगाभिष्वङ्गं विहाय लोकनिश्रया शरीररक्षणार्थ विचरणीयमित्युक्तम् । अत्रापि तदेव प्रतिपादयिष्यते । तथा च विपयकषायकरालज्वालाजटिलसंसारदावानलबस्तो वालकुरङ्ग इव पलायमानो निर्वाधिशान्तिप्राप्तये परिहतभोगस्पृहो गृहीतपञ्चमहावतो निरवद्यानुष्ठानपरः कायनिर्वहणाथै लोकनिश्रया विहरति, आश्रयरहितस्य देहसाधनाऽसम्भवात् , देहस्यासद्भावे धर्मोऽपि भवितुं नार्हति । देहसद्भावश्च निश्रया भवति । निश्रा हि पञ्चधा, उक्तञ्च
॥ आचरांगसूत्रके दूसरे अध्ययनका पांचवाँ उद्देश ।
चतुर्थ उद्देश की व्याख्या समाप्त हो चुकी, अब यहां पंचम उद्देश की व्याख्या प्रारम्भ होती है । पहिले जो यह कहा गया है कि-भोगों से चित्तवृत्ति को हटाकर शरीररक्षा के लिये संयमी को लोक की नेसराय से विचरना चाहिये; यही विषय यहां पर स्पष्ट किया जायगा । मृग के बच्चे की तरह जो संयमीजन इस संसाररूपी दावानल से-कि जो विषय-कषायरूपी भयंकर ज्वाला से व्याप्त है-त्रस्त होकर निरावाध शांति लाभ के लिये इतस्ततः दौड़ा फिरता है, जिसने भोगों की इच्छा का परित्याग कर दिया है, पञ्चमहाव्रतों का जो आराधक है, और निर्दोष अनुष्ठान के आचरण करने में जो सर्वथा सावधान है वह अपने शरीरनिर्वाह के लिये लोक-निश्रा (नेसराय) से विचरता है; क्योंकि विना आश्रय के देह
આચારાંગ સૂત્રના બીજા અધ્યયનને પાંચમો ઉદ્દેશ. ચોથા ઉદ્દેશની વ્યાખ્યા સમાપ્ત થઈ. હવે પાચમા ઉદ્દેશની વ્યાખ્યા શરૂ થાય છે. પહેલા જે એમ કહેવામાં આવેલ છે કે–ભોગોથી ચિત્તવૃત્તિને હટાવી શરીરરક્ષા માટે સંયમીએ લેકની નસરાયથી વિચરવું જોઈએ આ જ વિષય આ ઠેકાણે સ્પષ્ટ કરવામાં આવશે.
મૃગના બચ્ચા માફક જે સંયમી જન આ સંસારરૂપી દાવાનલથી કે જે વિષયકષાયરૂપી ભયકર જ્વાલાથી વ્યાપ્ત છે, ત્રાસીને નિરાબાધ શાંતિ લાભ માટે અહીં તહીં ફર્યા કરે છે. જેણે ભોગોની ઈચ્છાને પરિત્યાગ કર્યો છે પચમહાવ્રતના જે આરાધક છે, અને નિર્દોષ અનુષ્ઠાનનું આચરણ કરવામાં જે સર્વથા સાવધાન તે પિતાના શરીરના નિર્વાહ માટે લોક–નિશ્રા (નેસરાય)થી વિચરે છે. કારણ આશ્રય વિના દેહની સાધના બની શકતી નથી. દેહની સાધના વિના ધર્મનું
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अध्य० २..
२६१
उपसंहरन्नाह-एत'-दित्यादि । एतत् प्रव्रज्यानिर्वेदरूपम्-आदानाकोपनम्, अल्पानिन्दनम्, प्रतिषिद्धनिवर्तनं मौनं-मुनेरिदं मौनम्-अनगाराचरणं ज्ञानाचारादिकमित्यर्थः, हे शिष्य ! 'समनुवासयेः' सम्-सम्यक्प्रकारेण पूजा-सत्कार-गौरवनिदानराहित्येन अनुवासयेः-अनुपालयेरित्यर्थः, गणधरादिसेवितं निरतिचारं चारित्रं परिपालयेरिति तात्पर्यम् ॥ इति ब्रवीमीत्यस्यार्थस्तूक्त एव ।। मू० ४ ॥
॥ इति द्वितीयाध्ययनस्य चतुर्थों देशः समाप्तः ॥ २-४ ॥
__ अन्त में उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं-ये जो पूर्वोक्त साधु का आचार प्रकट किया है कि वह अपने ग्रहण किये हुए चारित्र के प्रति उपेक्षाभाव न रखे, अल्पलाभ में भी संतुष्ट रहे, निषेध करने पर परघर से शांतिपूर्वक वापिस हो जावे। अतः हे शिष्य ! तुम अच्छी तरह से अर्थात् पूजा, सत्कार, गौरव और निदान की भावना से रहित होकर गणधरादिसेवित इस निरतिचार चारित्र का पालन करो। " इति ब्रवीमि" इन पदों का अर्थ पहिले स्पष्ट कर दिया गया है । सू० ४ ॥
॥ इति द्वितीय अध्ययन का चौथा उद्देश समात ॥२-४ ॥
પણ કરે છે તે વખતે મનમાં કઈ પણ જાતને દુર્ભાવ લાવે નહિ, તેમજ તે ગૃહસ્થને “તું અધર્માત્મા છે” ઈત્યાદિ ખરાબ શબ્દોથી તિરસ્કાર પણ ન કરે.
અંતમાં ઉપસંહાર કરતાં સૂત્રકાર કહે છે–આ જે પૂર્વોક્ત સાધુને આચાર પ્રગટ કરેલ છે કે–તે પિતાનાં ગ્રહણ કરેલ ચારિત્ર પ્રતિ ઉપેક્ષાભાવ રાખે નહિ. અલ્પ લાભમાં પણ સંતુષ્ટ રહે. નિષેધ કરવાથી ઘરથી શાંતિપૂર્વક પાછા ફરી જાય. માટે હે શિષ્ય! તમે સારી રીતે અર્થાત્ પૂજા, સત્કાર, ગૌરવ અને નિદાનની ભાવનાથી રહિત થઈને તીર્થકર ગણધરાદિકથી સેવિત નિરતિચાર ચારિત્રનું पालन ४२." इति ब्रवीमि" ! पहोन। म पडदा स्पष्ट ४२ छ ॥ सू०४॥
ઈતિ બીજા અધ્યયનને ચોથે ઉદ્દેશ સમાપ્ત . ૨-૪
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२६४
आधारागसूत्रे ___ अत्रानन्तरसूत्रसम्बन्धो यथा-'एयं मोणं समणुवासिज्जासि' इति । तत्र निरतिचारचारित्रपालनं तु लोकनिश्रया भवतीति कथितम् , अत्रापि मुनिना सम्यगाहारशुद्धिर्विचिन्तनीयेति दर्शयिष्यते ।।
गृहपतयो हि स्वीयपुत्रदुहित्राद्यर्थ शससमारम्भं कुर्वन्तीति दर्शयति-'जमिणं' इत्यादि।
__ मूलम्-'जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं लोगस्स कम्मसमारम्भा कज्जति तं जहा-अप्पणो से पुत्ताणं धूयाणं सुण्हाणं नाईणं धाईणं राईणं दासाणं दासीणं कम्मकराणं कम्मकरीणं आएसाए पुढोपहेणाए सामासाए पायरासाए संनिहिसंनिचओ कज्जइ, इहमेगोस माणवाणं भोयणाए ॥ सू० १॥ । अशनादिक प्रतिदिन तैयार करते हैं। संयमी मुनि संयमजीवन की रक्षा के लिये अपनी आवश्यकतानुसार गृहस्थ के यहां से आहार आदि लेकर संयमयात्रा का निर्वाह करते हैं।। ___यहां पर "एवं मोणं समणुवासिज्जासि" इस अनन्तर सूत्र के साथ संबंध है-वहां 'निरचितार चारित्र का पालन लोक-निश्रासे होता है' यह कहा है। इसमें भी 'संयमी मुनि को आहार की शुद्धि का अच्छी तर ले ध्यान रखना चाहिये यह बात आगे चलकर प्रकट की जायगी।
गृहस्थ अपने पुत्र-पुत्री आदि के निमित्त शस्त्र-षट्कायसमारंभरूप सावध व्यापारों एवं भोजनादि साधनों के आरम्भों को किया करते हैं, यही बात सूत्रकार कहते हैं-" जमिणं" इत्यादि। ગૃહસ્થ પોતાના પરિવારના પોષણ માટે અનાદિક પ્રતિદિન તૈયાર કરે છે. સંચમી મુનિ સંયમજીવનની રક્ષા માટે પિતાની આવશ્યકતાનુસાર ગૃહસ્થને ત્યાંથી આહાર આદિ લાવીને સંયમયાત્રાને નિવાહ કરે છે.
आयो “एयं मोणं समणुवासिज्जासि" से मनन्तरसूत्र साथै સંબધ છે. ત્યાં નિરતિચાર ચારિત્રનું પાલન કનિશ્રાથી થાય છે એમ કહેલ છે. તેમાં પણ સંચમી મુનિએ આહારની શુદ્ધિને સારી રીતે ધ્યાન રાખવે જોઈએ. એ વાત આગળ ઉપર પ્રગટ કરવામાં આવશે.
ગૃહરથ પોતાના પુત્ર પુત્રી આદિ નિમિત્તે શસ્ત્ર-ષકાય સમારંભરૂપ સાવઘવ્યાપાર અને ભોજનાદિ સાધનને આરંભ કર્યા કરે છે તેજ બાત સૂત્રકાર
2-" अमिणं" ४त्यादि.
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अध्या
२. उ. ५
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" धम्मं णं चरमाणस्स पंच निस्साठाणा पण्णत्ता; तं जहा-छकाया, गणो, राया, गाहावई, सरीरं॥
(स्थानाङ्ग स्थान ५। उ०३।) छाया-धर्म खलु चरतः पञ्च निश्रास्थानानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-पटकायाः, गणो, राजा, गाथापतिः, शरीरम् , इति ।
यद्यपि देहस्य साधनानि-वसतिवस्त्रपात्राशनशयनासनादीनि सन्ति, तथापि तेषु प्रत्यहमाहारस्याऽऽवश्यकतया तस्य प्राधान्यं, स च गृहपतेः सकाशाद्वेषयि. तव्यो भवति । स हि गृहस्थो निजपरिवारपोपणार्थमन्नादिकं समुत्पादयत्येव, ततः संयमजीवनरक्षणाय वृत्तिरेष्टव्या भवतीति । की साधना नहीं हो सकती, देह की साधना के विना धर्म का आराधन नहीं हो सकता; अतः धर्म की आराधना करने के लिये देह की साधना,
और देह की साधना के लिये लोक की नेसराय संयमी को आवश्यकीय है। नेसराय पांच प्रकार की है ? कहा भी है
" धम्मं णं चरमाणस्स पंच निस्साहाणा पण्णत्ता;
तंजहा-छकाया, गणो, राया, गाहावई, सरीरं" अर्थात् धर्माराधन करनेवाले संयमीजन के पांच निश्रा-स्थान हैं-षट्काय, गण, राजा, गाथापति और शरीर। यद्यपि देह की साधना के साधनवसति, वस्त्र, पात्र, भोजन, शयन और आसनादिक हैं तो भी उन सबमें आहार की ही मुख्यता है । संयमीजन तीन करण तीनयोग पूर्वक सावद्य व्यापार से रहित होते हैं, अतः उस आहार की गवेषणा गृहस्थों के यहां करनी चाहिये, क्योंकि वे गृहस्थ अपने परिवार के पोषण के लिये આરાધન બની શકતું નથી. અને ધર્મની આરાધના કરવા માટે દેહની સાધના, અને દેહની સાધના માટે લોકની નેસરાય સંયમીને આવશ્યક જ છે. નેસરાય પાંચ પ્રકારની છે. કહ્યું પણ છે– ____ "धम्म ण चरमाणस्स पंच निस्साहाणा पण्णत्ता, तं जहा-छक्काया, गणो, राया, गाहावई, सरीरं"
અર્થાત ધર્મારાધન કરવાવાળા સંયમી જનો માટે પાંચ નિશ્રા–સ્થાન છે. घटाय, गण, २०, यापति मने शरी२. हाय हेडनी साधनाना साधन-वसति, વસ્ત્ર, પાત્ર, ભજન, શયન અને આસનાદિક છે તે પણ એ સઘળામાં આહારની મુખ્યતા છે. સંયમીજન સાવદ્ય વ્યાપારથી ત્રણ કરણ અને ત્રણ વેગથી રહિત હોય છે. માટે તેવા આહારની ગવેષણ ગૃહસ્થોને ત્યાં કરવી જોઈએ, કારણ કે
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आचारागसूत्रे अथवा 'लोगस्से'-ति तृतीयाथै षष्ठी, लोकेन कर्मसमारम्भाः क्रियन्त इति।
अत्रेदं तत्त्वम् , 'तं जहा' इति मूलपाठेन लोकायेति चतुर्येवं साधीयसीयदथं समारम्भस्तं पूर्व सामान्यतो लोकपदेनोपदय विशेषतो दर्शयितुं 'तं जहा' इत्यस्य प्रतिपादनम् ।
यदि च तृतीयार्थेऽपि षष्ठी, साऽपि सामान्यतः समारम्भा लोकेन क्रियन्त इत्युपदर्य किमर्थमिति जिज्ञासायां 'तंजहा' इत्यपि कथञ्चित्समाधानं भवितुमर्हति। ___ यदर्थ पाककृषिवाणिज्यादिसावधव्यापारमारभन्ते तान् दर्शयति-तद्यथेति' तस्य समारम्भशीलस्य आत्मने स्वशरीरार्थम् , आत्मशब्दोऽत्र शरीरवाचकः, स्वार्थ स्वयमेव समारभत इत्यर्थः। माता-पिता सासू-ससुर आदि के लिये, स्वजनों के लिये, धायमाता के लिये, राजा के लिये दासी दास नौकर चाकर और पाहुनों के लिये, पृथक्प्रहेणक के लिये, अर्थात् कन्याविवाह के उत्सव का भोजन, प्रस्थान के समय रास्ते में सुबह-शाम खाने के लिये साथ में दिये जाने वाला भोजन, तथा कांसा परोसा आदि पृथकप्रहेणक कहलाता है, उसके लिये पचनपाचनादिरूप अनेक सावध व्यापार करते हैं।
भावार्थ-सूत्रकार यहां पर यह बात स्पष्ट कर रहे हैं कि-गृहस्थ लोग अपने तथा अपने सगे संबंधियों एवं बाल-बच्चों वगैरह के लिये भोजन वगैरह आरम्भों को नितप्रति करते रहते हैं। सर्वविरति मुनि के शरीर की यात्रा का निर्वाह उनके यहां से मात्रानुसार प्राप्त भोजन से अच्छी तरह हो सकता है, इसलिये मुनि को सावध व्यापार करने की आवश्यઆદિ માટે, સ્વજને માટે, ધાવમાતા માટે, રાજા માટે, દાસ-દાસ નેકર-ચાકર માટે, મહેમાને માટે, પૃથક પ્રહણકને માટે, અર્થાત્ કન્યાવિવાહના ઉત્સવનું ભોજન, મુસાફરી સમય રસ્તામાં સવારસાંજ ખાવા માટે સાથે આપવામાં આવતું ભોજન, અને કાંસા પિરસણું આદિ પૃથકપ્રહેણુક કહેવાય છે, તેને માટે પચનપાચનદિરૂપ અનેક સાવદ્ય વ્યાપાર કરે છે
ભાવાર્થ–સૂત્રકાર આ ઠેકાણે એ વાત સ્પષ્ટ કરે છે કે-ગૃહસ્થ લેક પિતાના તથા પિતાના સગાસંબધિઓ અને છોકરાં-છયા વિગેરે માટે ભોજન વિગેરે આરંભે હરહમેશ કરતાં જ રહે છે. સર્વવિરતિ મુનિના શરીરની યાત્રાને નિર્વાહ તેને ત્યાંથી માત્રાનુસાર પ્રાપ્ત ભોજનથી સારી રીતે થઈ શકે છે, માટે સુનિને ..વધ વ્યાપાર કરવાની આવશ્યક્તા જ નથી, સાવદ્ય વ્યાપારેથી હિંસા થવાના
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अध्य०२. उ. ५
२६५ ' छाया-यदिदं विरूपरूपैः शस्त्रैर्लोकाय कर्मसमारम्भाः क्रियन्ते, तद्यथाआत्मने तस्य पुत्रेभ्यो दुहितभ्यः स्नुषाभ्यो ज्ञातिभ्यो धात्रीभ्यो राजभ्यो दासेभ्यो दासीभ्यः कर्मकरेभ्यः कर्मकरीभ्य आदेशाय पृथक्प्रहेणकाय श्यामाशाय प्रातराशाय सनिधिसंनिचयं क्रियते, इहैकेपां मानवानां भोजनाय ॥ मू० १॥ ___ टीका-'यदिद'-मित्यादि । यद् इदम्-सुखदुःखप्राप्तिपरिहाररूपं प्रयोजनमुद्दिश्य विरूपरूपैः बहुप्रकारैः शस्त्रैः पटकायसमारम्भरूपैः लोकाय-असंयतलोकायस्वशरीरपुत्रकलत्रादिरूपाय कर्मसमारम्भाः पट्कायोपमर्दनरूपाः पचनपाचनादिसावघव्यापाराः क्रियन्ते, यद्वा कर्मणोऽष्टप्रकारकस्य समारम्भाः-उपार्जनोपायाः क्रियन्ते।
सुखप्राप्ति और दुःखपरिहार के प्रयोजन से गृहस्थीजन जपने शरीर पुत्रकलत्रारूप लोक के लिये अनेक प्रकार के षटकायसमारंभरूप पचनपाचनादि सावध व्यापार करते हैं, उनका दिग्दर्शन कराते हुए सूत्रकार कहते हैं___ गृहस्थ जीवन भोजन-कृषि-वाणिज्य आदि सावध व्यापार के विना चलता नहीं है । इसमें इस तरह के अनेक प्रकार का आरम्भ जीवों को करना ही पड़ता है। जहां आरंभ-समारंभ है वहां जीवों की हिंसा अवश्यंभावी है । हिंसा से आस्रव होता है, और इससे जीवों का संसार बंधन से छुटकारा होना बड़ा कठिन होता है। इसीलिये आत्मा को सावधनिवृत्तिरूप चारित्र आराधन करने की आवश्यकता है।
गृहस्थ लोक अपने लिये तथा पुत्रों के लिये पुत्रियों के लिये पुत्रवधुओं के लिये, जातिभाईयों, सगे संबंधियों एवं कुटुम्बियों के लिये,
સુખપ્રાપ્તિ અને દુખપરિહારના પ્રયજનથી ગૃહસ્થી જન પિતાનું શરીર પુત્ર કલત્રાદિરૂપ લેક માટે અનેક પ્રકારના કાયસમારંભરૂપ પચનપાચનાદિ સાવદ્ય વ્યાપાર કરે છે તેનું દિગ્દર્શન કરાવીને સૂત્રકાર કહે છે –
ગૃહસ્થ જીવન ભજનકૃષિ-વાણિજ્ય આદિ સાવધ વ્યાપાર વિના ચાલતું જ નથી. તેમાં આવા પ્રકારનાં અનેક પ્રકારે આરંભ જીને કરવાં જ પડે છે. જ્યાં આરંભ–સમારંભ છે ત્યાં જેની હિંસા અવશ્યભાવી છે. હિંસાથી આશ્રવ થાય છે, અને તેનાથી જીવેને સ સારબંધનથી છુટકારે થે ઘણું કઠિન થઈ પડે છે, માટે આત્માને સાવઘનિવૃત્તિરૂપ ચારિત્ર આરાધના કરવાની આવશ્યકતા છે.
ગૃહસ્થલોક પિતાના માટે તથા પુત્ર માટે, પુત્રિ માટે, પુત્રવધુ માટે, onldमाध्यो, सi-समधियो मने मियो भाटे, माता-पिता, सासु-सस ।
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आचारास्त्रे यद्वा कन्यापरिणयोत्सवे कन्यापितगृहे विभिन्नरूपेण यद्भोज्यं स पृथभहेणकः । अथवा प्रस्थानसमये जामातृभ्यो विभिन्नरूपेण दीयमानं प्राथेयं पृथक्प्रहेणकपदेन कथ्यते, तस्मै । 'श्यामाशाय' श्यामायां राज्याम्, अशनमाशः-श्यामाशस्तस्मै । 'प्रातराशाय' प्रातः प्रातःकाले आशो भोजनं प्रातराशस्तस्मै कर्मसमारम्भाः क्रियन्ते । तमेव विशिनष्टि-'सन्निधिसनिचयम्' इत्यादि, सन्निधानं सन्निधिः अल्पकालस्थायिद्रव्याणां संग्रहकरणम् , दधि-भक्त-कृशर-व्यञ्जनादीनां स्थापनम् ।
अपि च-'संनिचयः' सम्यग् निचयनं सङ्गहणं सनिचयः चिरस्थायिनां घृततैल-गुडादिद्रव्यागां सङ्ग्रहः, सनिधिश्व संनिचयश्च सनिधि-सन्निचयम् , तत् क्रियते। मूत्रे पुंस्त्वमाषत्वात् । यद्वा-सन्निधेः अशनवशनादेः सन्निचयः सङ्ग्रहः क्रियते । किमर्थं सङ्ग्रहः क्रियते ? इत्याह-'इहे'-ति । इह-संसारे एकेषां
कतिपयानां मानवानां सम्बन्धिजनानां भोजनाय भविष्यदुपभोगाय, विरूपरूपैः शस्त्रैः कर्मसमारम्भाः क्रियन्त इति ।
लोकाः पुत्राद्यर्थ कर्माणि समारभन्त एव, तेभ्यः संयमयात्रां निवौंडे मात्रयाऽन्नादिकमादाय मुनिना वर्तितव्यमिति सूत्रतात्पर्यम् । म्० १॥ इस प्रकार की जिज्ञासा होने पर उसका समाधान सूत्रकार ने "तं जहा" पद से किया है।
"सन्निधिसंनिचय" यहां दो पद हैं-१ सन्निधि' और दूसरा '२ संनिचय । दही, भात, कृशर-खीचडी, व्यञ्जन-शाक आदि 'सन्निधि' पदसे ग्रहण किये गये हैं। घृत, तेल, गुड आदि पदार्थ 'संनिचय' पद से गृहीत हुए हैं। अथवा सन्निधि-अशन वशन आदि का संनिचयसंग्रह करना वह सन्निधिसंनिचय है। कितनेक गृहस्थ अपने व संबंधिजनों के निमित्त भविष्यत्काल में उपभोग के अभिप्राय से धान्यादि अनेक पदार्थों का संग्रह कर लिया करते हैं। इस संग्रह में થાય છે” તે શા માટે કરવામાં આવે છે, આ પ્રકારની જીજ્ઞાસા થવાથી તેનું समाधान सूत्ररे "तंजहा" ५४थी युछे.
" सन्निधिसंनिचय " माडी मे ५६ छ. १ 'सन्निधि' मने. या २. संनिचय' ही, मात, भायडी, माहि 'सन्निधि' ५६थी सेवामा मावेद छ. घी, तेस, गो माह पहा 'सनिचय' ५४था सेवामां आवे छे. मथवा 'सनिधि' मशन पसन माहिना 'सनिचय' सड ४२वो ते सन्निधिसनिचय છે. કેટલાક ગૃહસ્થ પિતાને અને સબંધીજનને નિમિત્તે ભવિષ્ય કાળમા ઉપભોગને અભિપ્રાયથી ધાન્યાદિ અનેક પઢાર્થોને સંગ્રહ કરે છે. આ સંગ્રહમાં
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अध्य० २. उ.५
२६९ भविष्यदुपभोगाय सन्निधि-सन्निचयप्रवृत्ते लोके संयमिना किं विधेयमित्याह'समुट्ठिए' इत्यादि।
मूलम्-समुट्टिए अणगारे आरिए आरियपन्ने आरियदंसी । अयं संधि-त्ति अदक्खू , से नाईए नाईयावए न समणुजाणए
सव्वामगंधं परिन्नाय निरामगंधो परिव्वए ॥ सू० २॥ ___छाया-समुत्थितोऽनगार आर्य आर्यप्रज्ञ आर्यदर्शी अयं सन्धिरिति अद्राक्षीत् , स नाददीत नादापयेत् न समनुजानीयात् , सर्वामगन्धं परिज्ञाय निरामगन्धः परिव्रजेत् ।। मू० २ ॥
टीका-समुत्थित' इत्यादि। समुत्थितः सम् समीचीनं चारित्राचरणे उत्थितः समुत्थितः-संयमाराधनसमुद्यत इत्यर्थः, अनगारः अविद्यमानमगारं __ गृहं यस्य सोऽनगारो द्रव्यभावगृहरहितः, आर्य:-आराद् दूरं गतो हेयधर्मेभ्यो यः
अनेक प्रकार से सावद्य व्यापार में प्रवृत्ति होने की वजह से त्रस एवं स्थावर जीवों की हिंसा होती ही है । सू० १॥ ___ आगामी समय के लिये अपने-अपने योग्य उपभोगादि साधनसमूह के संग्रह करने में तत्पर रहे हुए जनसमुदाय के बीच में संयमी मुनि को क्या करना चाहिये ? इसके प्रत्युत्तर में मत्रकार कहते हैं'समुट्ठिए' इत्यादि। ___ जो निर्मल चारित्र के आचरण में उत्थित है, अर्थात् निर्दोष चारित्र के आराधन करने में जो अच्छी तरह से प्रयत्नशील है उसका नाम समुत्थित है। जिसके घर नहीं है उसका नाम अनगार है। अगार के दो અનેક પ્રકારથી સાવદ્ય વ્યાપારમાં પ્રવૃત્તિ થાય છે જેથી તેમાં ત્રસ અને સ્થાવર
ની હિંસા થાય છે. સૂત્ર ૧
આગામી સમય માટે પિતાપિતાના એગ્ય ઉપભોગાદિ સાધન સમૂહનો સંગ્રહ કરવામાં તત્પર રહેલા જનસમુદાયની વચમાં સંયમી મુનિએ શું કરવું જોઈએ, तेना प्रत्युत्तरमा सूत्रा२ छ-'समुहिए' त्याहि.
જે નિર્મળ ચારિત્રના આચરણમાં ઉસ્થિત છે અર્થાત્ નિર્દોષ ચારિત્રના આરાધન કરવામાં જે સારી રીતે પ્રયત્નશીલ છે તેનું નામ સમુસ્થિત છે. જેને અગારઘર નથી તેનું નામ અનગાર છે. અગારના બે પ્રકાર છે. એક દ્રવ્ય-અગાર અને બીજે
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आचाराङ्गसूत्रे स आर्यः श्रुतचारित्ररूपधर्माराधनयोग्यः । यद्वा-विषय-कषाय-काष्ठच्छेदकत्वेनाऽऽरासादृश्यादारा रत्नत्रयं, तां याति प्राप्नोति यः स आर्यः सर्वथा सकलकल्मपराशिकलपितत्तिरहित इत्यर्थः। 'आर्यप्रज्ञः' आर्या श्रेष्ठा प्रज्ञा–मतियस्य स आर्यप्रज्ञः हेयोपादेयविवेकवान् । एवमार्यदर्शी-आर्य-युक्तियुक्तं द्रष्टुं शील यस्येत्यायदर्शी-आरम्भजन्यकटुविपाकदी। य एवम्भूतः पुनः 'अयं सन्धि'-रिति अयं प्रत्यक्षोपलभ्यमानः सन्धिः-पारगमनाधःपतनयोमध्ये सन्धिरिव सन्धिःआर्यक्षेत्र-सुकुलोत्पत्ती-न्द्रियनिवृत्ति-श्रद्धा-संवेग-रत्नत्रयप्राप्तिलक्षणं सन्धिस्थानम्, इति-इत्येवम् अद्राक्षीत-अज्ञासीत् । यद्वा-अयं प्रत्यक्षनिर्दिष्टः सन्धिः-प्रतिलेखनप्रकार हैं। एक द्रव्य-अगार और दूसरा भाव-अगार। अनगार इन दोनों प्रकार के अगारों से रहित होता है । जो हेय धर्मों से सदा दूर रहता है उसका नाम आये है। आय-श्रुतचारित्ररूप धर्म के आराधन करने योग्य होता है, अथवा विषयकषायरूप काष्ठ का छेदक होने से आराकरोंत के सदृश रत्नत्रयरूप धर्म को जो प्राप्त करता है वह आर्य है, अर्थात् जिसकी सकल कल्मष-पापराशि से कलुषित परिणति नहीं है उसका नाम आर्य है । उत्तम जिसकी मति है, हेय और उपादेय के विवेक से जिसका अन्तःकरण युक्त है उसका नाम आर्यप्रज्ञ है। युक्तियुक्त देखने का जिसका स्वभाव है 'आरम्भजन्य पापों का विपाक भयंकर कष्टप्रद होता है। इस बात को भलीभाँति से जानता समझता है वह आर्यदर्शी है । संसार से पार होना एवं उसमें अधःपतन होना, इन दोनों के बीच में सन्धि के समान आर्यक्षेत्र, सुकुल में जन्म, इन्द्रियादिकों की पूर्णता श्रद्धा, संवेग और रत्नत्रय की प्राप्तिरूप संधिस्थान है । जो प्रत्यक्ष ભાવ-અગાર. અનગાર આ બંને પ્રકારના અગાથી રહિત હોય છે. જે હેય ધર્મોથી સદા દૂર રહે છે તેનું નામ આર્ય છે. આર્ય-શ્રતચારિત્રરૂપ ધર્મનું આરાધન કરવા યોગ્ય હોય છે અથવા વિષયકષાયરૂપ કાષ્ઠના છેદક હોવાથી આરાકરવતના સદશ રત્નત્રયરૂપ ધર્મને જે પ્રાપ્ત કરે છે તે આર્ય છે. અર્થાત્ જેની સકલક્ષ્મષ-પાપરાશિ થી કલુષિત પરિણતિ નથી તેનું નામ આર્ય છે. ઉત્તમ જેની મતિ છે. હેય અને ઉપાદેયના વિવેકથી જેનું અંત કરણ યુક્ત છે તેનું નામ આર્યપ્રજ્ઞ છે. યુક્તિયુક્ત દેખવું એ જેને સ્વભાવ છે “આર ભજન્ય પાપને વિપાક ભયકર કષ્ટપદ થાય છે. આ વાતને જે ભલીભાંતિથી જાણે છે, તેમજ મજે છે તે આર્યદર્શ છે, સંસારથી પાર થવું અને તેમાં અધ પતન થવું, એ
નેની વચમાં સન્ધિસમાન આર્યક્ષેત્ર, સારા કુળમા જન્મ, ઇન્દ્રિયની પૂર્ણતા, શ્રદ્ધા, સવેગ અને રત્નત્રયની પ્રાપ્તિરૂપ સંધિસ્થાન છે. જે આ પ્રત્યક્ષ
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अध्य० २. उ. ५
भविष्यदुपभोगाय सन्निधि - सन्निचयप्रवृत्ते लोके संयमिना किं विधेयमित्याह' समुट्ठिए' इत्यादि ।
मूलम् - समुट्ठिए अणगारे आरिए आरियपन्ने आरियदंसी अयं संधि-त्ति अदक्खू, से नाईए नाईयावए न समणुजाणए सव्वामगंधं परिन्नाय निरामगंधो परिव्वए ॥ सू० २ ॥
छाया - समुत्थितोऽनगार आर्य आर्यप्रज्ञ आर्यदर्शी अयं सन्धिरिति अद्राक्षीत्, स नाददीत नादापयेत् न समनुजानीयात् सर्वामगन्धं परिज्ञाय निरामगन्धः परिव्रजेत् ।। ०२ ।।
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टीका--' समुस्थित ' इत्यादि । समुत्थितः =सम् = समीचीनं चारित्राचरणे उत्थितः = समुत्थितः - संयमाराधनसमुद्यत इत्यर्थः, अनगारः = अविद्यमानमगारं गृहं यस्य सोऽनगारो द्रव्यभावगृहरहितः, आर्यः = आराद् दूरं गतो हेयधर्मेभ्यो यः अनेक प्रकार से सावध व्यापार में प्रवृत्ति होने की वजह से बस एवं स्थावर जीवों की हिंसा होती ही है | सू० १ ॥
आगामी समय के लिये अपने-अपने योग्य उपभोगादि साधनसमूह के संग्रह करने में तत्पर रहे हुए जनसमुदाय के बीच में संयमी मुनि को क्या करना चाहिये ? इसके प्रत्युत्तर में सूत्रकार कहते हैं'समुट्ठिए' इत्यादि ।
जो निर्मल चारित्र के आचरण में उत्थित है, अर्थात् निर्दोष चारित्र के आराधन करने में जो अच्छी तरह से प्रयत्नशील है उसका नाम समुत्थित है। जिसके घर नहीं है उसका नाम अनगार है । अगार के दो અનેક પ્રકારથી સાવદ્ય વ્યાપારમાં પ્રવૃત્તિ થાય છે જેથી તેમાં ત્રસ અને સ્થાવર જીવાની હિંસા થાય છે. ॥ સૂ૦ ૧૫
આગામી સમય માટે પોતપાતાના યોગ્ય ઉપભોગાદિ સાધન સમૂહનો સંગ્રહ કરવામાં તત્પર રહેલા જનસમુદાયની વચમાં સંયમી મુનિએ શું કરવું જોઈ એ, तेना अत्युत्तरमा सूत्रार उडे छे–'समुट्ठिए' त्याहि.
જે નિ`ળ ચારિત્રના આચરણમાં ઉત્થિત છે અર્થાત્ નિર્દોષ ચારિત્રના આરાધન કરવામાં જે સારી રીતે પ્રયત્નશીલ છે તેનુ નામ સમ્રુત્થિત છે, જેને અગારઘર નથી તેનું નામ અનગાર છે. અગારના એ પ્રકાર છે, એક દ્રવ્ય-અગાર અને બીજે
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भाचारागसूत्रे दाहारं परिज्ञाय-ज्ञ-परिज्ञया ज्ञात्वा निरामगन्धः, आमगन्धादशुद्धाहारान्निर्गतो यः स निरामगन्धः-उद्गमोल्पादनेषणागतद्विचत्वारिंशतोषदूषिताहाराग्राहकः सन् 'परिव्रजेत्'-परि-समन्ताद् व्रजेत्-विहरेत् रत्नत्रयसमाराधनतत्परो भवेदिति भावः । तीर्थङ्करनिर्दिष्टे समुचितावसरे प्रतिलेखन-प्रतिक्रमणादिक्रियां कुर्वन्ननगार आयदेशोत्तमकुलादिकं मोक्षकारणं प्राप्य संसारपारावारमुत्तीर्य च सन्धिस्थानीय तत्तीरे वर्तमानो निखिलकर्मक्षयं कृत्वा ततो निष्क्रमितुकामोऽस्मीत्येवं परिज्ञावान् 'अधःकर्मादिदोपदूषिताहारो विषभक्षणमिवात्मगुणघातकः' इति सम्यगालोच्य तादृशमाहारं त्रिकरणत्रियोगैः परित्यज्य परिशुद्धमाहारादिकं भिक्षमाणो विहरेदिति समुदितार्थः ॥ मू० २॥ दसरों को करावे, तथा करने वाले किसी अन्य की अनुमोदना भी न करे। “सर्वामगन्धं परिज्ञाय निरामगन्धः परिव्रजेत्” इसका अर्थ है अशुद्धआहार, अर्थात् ज-परिज्ञाद्वारा इस प्रकार के आहार को अशुद्ध जानकर 'निरामगन्धः'-अशुद्ध आहार से भिन्न शुद्ध आहार को कि जो उगम (१६) उत्पादन (१६) एषणा (१०) संबंधी बयालीस (४२) दोषों से रहित होता है ग्रहण करे । यदि इस प्रकार के आहार का लाभ संयमी को नहीं होता है तो वह इस दृषित आहार को छोड़कर अपने रत्नत्रय की आराधना में तत्पर रहे । तीर्थकर प्रभुने प्रतिलेखनादि क्रियाओं का जो समय निश्चित कर दिया है उस समय में उन२ क्रियाओं को करने वाला, तथा आर्य क्षेत्र का लाभ, उत्तम कुल में जन्म, रत्नत्रय की प्राप्ति आदि मोक्ष के कारणभूत संधिस्थानों को जिसने पाया है ऐसा अनगार १२वावा भी उनी मनुभोजन। ५ न रे " सर्वामगन्ध परिज्ञाय निरा मगन्धः परिव्रजेत् " याने पर्थ छे मशुद्ध माडा२ अर्थात् -
पवास ॥ २ना मारने मशुद्ध तीन निरामगन्ध. अशुद्ध माथी लिन्न શુદ્ધ આહારને કે જે ઉદ્દગમ (૧૬) ઉત્પાદન (૧૬) એષણ (૧૦) સબ ધીર બેતાલીસ દેથી રહિત હોય છે તેને ગ્રહણ કરે છે કદાચ આ પ્રકારના આહા
ને લાભ સંયમીને ન થાય તો તે આવા દુષિત આહારને છોડીને પોતાના રત્નત્રયની આરાધનામાં તત્પર રહે.
તીર્થકર પ્રભુએ પ્રતિલેખનાદિ ક્રિયાઓને જે સમય નિશ્ચિત કરી આપે છે તે સમયમાં તે તે ક્રિયાઓને કરવાવાળા, તથા આર્યક્ષેત્રને લાભ, ઉત્તમ કુળમાં જન્મ રત્નત્રયની પ્રાપ્તિ આદિ મોક્ષના કારણભૂત સધિસ્થાનોને જેણે
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अश्य० २. उ.५
२७१ प्रतिक्रमणादिक्रियाया यः समुचितः काल इति योऽज्ञासीदित्यर्थः । एवंभूतः सः अनगारो नाददीत अकल्पनीयमाहारादिकं न गृह्णीयात् , शास्त्रे तस्य प्रतिषिद्धत्वात, षड्जीवनिकायारम्भदोषस्य मुनिना पूर्व परित्यक्तत्वाच, नाऽऽदापयेत् नान्यं ग्राहयेत् , न समनुजानीयात् नापीतरं साधुं गृह्णन्तमनुमोदयेत् । यद्वा-नाऽद्यान्नाऽऽदयेदितिच्छाया, स मुनिरिङ्गालधूमादिपञ्चविधदोषदृषितमाहारं नाद्यात्-नानीयात् , नादयेत् नान्यं भोजयेत् अदन्तमन्यं न समनुजानीयात्।।
अपि च कि कुर्यादित्याह-'सर्वामगन्ध'-मित्यादि । सर्वामगन्धम् , आमं च गन्धश्चानयोः समाहारद्वन्द्वे आमगन्धं, सर्व च तदामगन्धमिति सर्वामगन्धम् अशुप्रतिभासित बात को अच्छी तरह से जानता है, अथवा प्रतिलेखन, प्रतिक्रमणादि क्रियाओं के उचित अवसर का जो ज्ञाता है, यह बात "अयं सन्धिरिति अद्राक्षीत्" इस पद से प्रदर्शित की गई है। इस प्रकार का जो अनगार है वह अकल्पनीय आहारादिक को न स्वयं ग्रहण करता है, क्योंकि सदोष आहार का ग्रहण करना अनगार के लिये शास्त्र में निषिद्ध बतलाया गया है, इसका कारण-षट्काय के जीवों का आरम्भ अनगार ने पहिले से ही छोड़ दिया है, वह सदोष आहार स्वयं न ग्रहण करता है, न दूसरों से ग्रहण करवाता है, और न इस प्रकार के आहार को ग्रहण करने वाले अन्य किसी की अनुमोदना भी करता है।
अथवा “से नाईए नाईयावए” इन पदों की संस्कृत छाया “स न अद्यात् न आदयेत्” यह भी है, इसका अर्थ इस प्रकार है-इङ्गाल धम आदि पांच प्रकार के दोषों से दूषित आहार को न स्वयं करे और न પ્રતિભાસિત વાતને સારી રીતે જાણે છે, અથવા પ્રતિલેખન, પ્રતિક્રમણાદિ ક્રિયાगाना अथित अक्सरनो २ हा छ, ये पात “ अय सन्धिरिति अद्राक्षीत् " આ પદથી પ્રદર્શિત કરવામાં આવેલ છે. આ પ્રકારના જે અણગાર છે તે અક૫નીય આહારદિકને સ્વયં ગ્રહણ કરતા નથી, કારણ કે સદોષ આહારનું ગ્રહણ કરવું અણગાર માટે શાસ્ત્રમાં નિષિદ્ધ બતાવેલ છે. તેનું કારણ ષકાયના જીવોને આરંભ અણગારે પહેલાંથી જ છડી આપેલ છે. તે સંદેષ આહાર પોતે ગ્રહણ નથી કરતા. બીજાથી ગ્રહણ નથી કરાવતા, અને આ પ્રકારના આહાર ગ્રહણ કરવાવાળા અન્ય કેઈની અનુમોદના પણ નથી કરતા
__42वा “से नाईए नाईयावए " २मा पहोना संस्कृत छाया " न अद्यात् न आदयेत् " से ५१ छ. योनी मथ 20 प्ररे छे. ४ास, धूम माहि पांय પ્રકારના દોષોથી દૂષિત આહારને ન સ્વયં કરે અને બીજાથી કરાવે નહિ, તથા
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आचारागसूत्रे यद्वा-'अदृश्यमानः' इतिच्छाया, क्रय-विक्रययोः अदृश्यमानः-द्रव्याधभावाक्रयविक्रयव्यवहारेऽदृश्यमानोऽकिञ्चनः सः अनगारः आहारादिकं न क्रीणीयात् नान्यं क्रापयेत् , क्रीणन्तमन्यं न समनुजानीयात् नानुमोदयेत् । एतेन हननादिनवकोटिपरिशुद्धमाहारादिकं परिगृह्याङ्गारधूमादिदोषरहितं मुनिर्भुञ्जीतेति निगूढार्थः। अत्र क्रूयपदेनोद्गमदोपाणां ग्रहणं, तेन चोत्पादनैषणादोषाः संगृहीता इति सूत्रतात्पर्यम् ।। मू०३॥ है । जो क्रय-विक्रयरूप व्यापार को करता है वह व्यवहार में वेचनेखरीदने वाला कहा जाता है। मुनि, जो सर्वसावध क्रियाओं के त्यागी हो चुके हैं वे, क्रय-विक्रय रूप सावध व्यापार को नहीं कर सकते हैं। इस लिये सूत्रकार यहां इस बात का प्रदर्शन करते हुए कहते हैं कि-अनगार शुद्ध आहार के न मिलने पर आहारादिक अन्य से न खरीदे, और मिले हुए को अन्य किसी को न बेचे । क्योंकि इस प्रकार के व्यवहार करने से उसमें क्रय विक्रय का दोष लागू होता है, जो सिद्धान्तदृष्टि से मुनि के आचार से सर्वथा निषिद्ध है। अथवा “ अदिस्समाणे” इस पद की संस्कृत छाया “ अदृश्यमानः" यह भी होती है। इसका भाव यह है कि-अनगार अपने पास किसी भी प्रकार का द्रव्यादिक तो रखते ही नहीं हैं, क्योंकि वे सकल परिग्रह के त्यागी होते हैं, सचित्त अचित्त
आदि समस्त परिग्रह के छोड़ने से ही उनमें अपरिग्रहता आती है। इसीको सूत्रकार यहां पर प्रकट करते हुए कहते हैं कि जब मुनिके पास | વિકય રૂપ વ્યાપાર કરે છે તે વ્યવહારમાં વેચવાખરીદવાવાળા કહેવાય છે. મુનિ
જે સર્વ સાવદ્ય કિયાઓના ત્યાગી બનેલ છે તે કય-વિકયરૂપ સાવદ્ય વ્યાપારને કરી શકતા નથી, માટે સૂત્રકાર આ ઠેકાણે આ વાતનું પ્રદર્શન કરીને કહે છે કેઅણગાર શુદ્ધ આહાર ન મળવાને કારણે આહારાદિક બીજાથી ખરીદાવી શકે નહિ, અને મળેલ હોય તે એનાથી બીજાને વેચી શકાય નહિ કારણ કે આ પ્રકારનો વ્યવહાર કરવાથી તેમાં કય-
વિને દોષ લાગુ પડે છે, જે સિદ્ધાન્તदृष्टिथी मुनिना माल्यारथी सवथा निषिद्ध छे. अथवा “ अदिस्समाणे " मा पनी सस्त छाया " अदृश्यमान" से ५१ थाय छे तेन ला ये छ કે—અણગાર પિતાની પાસે કઈપણ પ્રકારનુ દ્રવ્યાદિક તે રાખતા જ નથી, કારણ કે તે સકળ પરિગ્રહના ત્યાગી હોય છે. સચિત્ત અચિત્ત આદિ સમસ્ત પરિગ્રહના દેડવાથી જ તેનામાં અપરિગ્રહતા આવે છે માટે સૂત્રકાર આ ઠેકાણે પ્રગટ રતાં કહે છે કે-જ્યારે તેની પાસે લેણદેણને વ્યવહાર કરવામાં સહાયક બાહ્ય
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अध्य० २. उ. ५
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निरामगन्ध इति निषेधे आमपदेन हननकोटित्रिकं, गन्धपदेन पचनकोटित्रिकं च प्रतिषिध्य क्रयणकोटित्रिकं निषेधयितुमुपदर्शयति- 'आदिस्तमाणे ' इत्यादि । मूलम् - आदिस्समाणे कयविक्कयसु से न किणेन किणावए किर्णतं न समणुजाणए ॥ सू० ३ ॥
छाया - आदिश्यमानः क्रयविक्रययोः स न क्रीणीयात्, न क्रापयेत्, क्रीणन्तं न समनुजानीयात् ॥ सू० ३ ॥
टीका- ' आदिश्यमान ' इति । क्रयविक्रययोः क्रयश्च विक्रयश्चानयोरितरेतरयोगद्वन्द्वे क्रयविक्रयौ, तयोः - आदिश्यमानः = व्यपदेशमलभमानः - ' अयं क्रयविक्रयकर्ते ' - ति व्यपदेशभागू न भवतीत्यर्थः ।।
7.
'सकल कर्म को नाश कर मैं इस संसारसमुद्र से पार होने की दृढ़ भावना वाला हूँ' इस प्रकार के संसारसमुद्र के पार जाने के अभिप्राय से जो समन्वित हो रहा है वह अनगार आधाकर्मादि दोप से दूषित आहार को विषभक्षण की तरह आत्मगुण का घातक जानकर तीन करण और तीन योग से उसका परित्याग ही कर देवे, और शुद्ध निर्दोष आहार की प्राप्ति से अपने शरीर की यात्रा का निर्वाह करता हुआ संयममार्ग में विचरे ॥ सू० २ ॥
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' निरामगन्ध' इस निषेध में 'आम' पद से हननकोटिनिक तथा 'गन्ध' पद से पचनकोटिनिक का प्रतिषेध करके क्रयणकोटित्रिक का निषेध करने के लिये सूत्रकार कहते हैं-' आदिस्समाणे ' इत्यादि । क्रय शब्द का अर्थ खरीदना और विक्रय शब्द का अर्थ बेचना મેળવ્યા છે એવા અણુગાર સકલ કર્મના નાશ કરી હું' આ સંસારસમુદ્રથી પાર થવાની દ્રઢ ભાવનાવાળા છુ આ પ્રકારે જે સ'સાર સમુદ્રથી પાર જવાના અભિપ્રાયથી જે સમન્વિત થયેલ છે તે અણુગાર આધાકર્માદિ દોષથી દૂષિત આહારને વિષભક્ષણની માફ્ક આત્મગુણુના ઘાતક જાણીને ત્રણ કરણ અને ત્રણ ચેગથી તેના પરિત્યાગ કરે, અને શુદ્ધ નિર્દોષ આહારની પ્રાપ્તિથી પોતાના શરીરની યાત્રાના નિર્વાહ કરીને સંયમ માર્ગોમાં વિચરે ॥ સૂ૦ ૨૫
"
निरामगन्ध मा निषेधभां आम पढथी इननोटिचिङ तथा गंध- पढथी પચનકેટ ત્રિકને પ્રતિષેધ કરીને કયણકોટિત્રિકનો નિષેધ કરવાને માટે सूत्र हे छे–'अदिस्समाणे ' इत्याहि
ક્રય શબ્દના અર્થ ખરીદવું, અને વિક્રય શબ્દના અં વેચવુ, જે કય.
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आचारागसूत्रे पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टोऽनगारः कीदृशो भवतीत्याह-' से भिक्खू ' इत्यादि।
मूलम्-से भिक्खू कालन्ने बलन्ने मायन्ने खेयन्ने खणयन्ने विणयन्ने ससमयन्ने परसमयन्ने भावन्ने परिग्गहं अममायमाणे कालाणुहाई अपडिपणे दुहओ छेत्ता नियाइ॥ सू०४॥ ___ छाया—स भिक्षुः कालज्ञो वलज्ञो मात्राज्ञः खेदज्ञः क्षणकज्ञो विनयज्ञः स्वसमयज्ञः परसमयज्ञो भावज्ञः परिग्रहमममायमानः कालानुष्ठायी, अप्रतिज्ञः, द्विधातश्छि
वा नियाति ॥ मू० ४॥ ___टीका-'सभिक्षु'-रित्यादि। सः-पूर्वोक्तः समुत्थितेत्यादिमुनिगुणगणयुक्तो भिक्षुः चारित्रवान् कालज्ञः-काल-प्रतिलेखनादिसमयं जानातीति कालज्ञः । ___अथवा कालं-भिक्षाकालं जानातीति कालज्ञः, अकाले भैक्षाचरणेनात्मनः क्लेशाधिगमो ग्रामनिन्दा च जायते, ततश्च भगवदाज्ञाविराधकत्वेन खेदप्रकटनेन च चारित्रमालिन्यं भवत्यतोऽनुचितकाले भैक्षादिकं नाचरणीयमित्याद्यभिज्ञ इत्यर्थः । यद्वा कालं-सुभिक्षं दुर्भिक्षं दिनप्रमाणं रात्रिप्रमाण वा जानातीति कालज्ञः। पद से उद्गम दोषों का ग्रहण होता है, उससे उत्पादन और एषणा दोषों का भी ग्रहण हो जाता है । सू० ३॥
इन पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त अनगार कैसा होता है ? इसका खुलाशा करते हुए सूत्रकार कहते हैं-'से भिक्खू' इलादि।
वह चारित्रवान् अनगार कि जिसका वर्णन 'समुहिए' इस द्वितीय सूत्र में किया जा चुका है वह; कालज्ञ-प्रतिलेखनादि क्रियाओं के अवसर का ज्ञाता होता है। अथवा कालज्ञ'-शब्द काअर्थ-काल का जानने वाला-ऐसा है। इससे यह बात सूत्रकार प्रकट करते हैं कि-साधु को भिक्षाचरण के काल में ही भिक्षा के लिये गमन करना चाहिये; क्योंकि अकाल में उसके निमित्त દોષોનું ગ્રહણ થાય છે તેનાથી ઉત્પાદન અને એષણાદિ દોષને પણ ગ્રહણ २६ तय छे. (सू 3)
એવા પૂર્વોક્ત વિશેષણોથી યુકત અણગાર કેવા હોય છે? તેને ખુલાસો ४२ता सूत्रा२ ४९ छे'से भिक्खू' त्यादि.
ते यारित्रवान भए॥२ ले वन समुहिए' २॥ गीत सूत्रमा ४२वामां आवे छे ते 'कालज्ञ'-'प्रतिमाहियामाना अक्सरना ज्ञात' होय छे, अथवा 'कालज्ञ' शम्नो मथ ' आणना शुवावा' डाय छे. मेथी २॥ वात સૂત્રકાર પ્રગટ કરે છે કે-સાધુઓ ભિક્ષાચરણના કાલમાં જ ભિક્ષા માટે જવું જોઈએ,
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___ अध्य० २. उ. ५ लेन-देन के व्यवहार करने में सहायक बाह्य द्रव्यादिक सामग्री नहीं है तो वह उस प्रकार के व्यवहार करने में सर्वथा अकिश्चित्कर है। तब शुद्ध निर्दोष आहार के न मिलने पर वह उस प्रकार की आहारादिक सामग्री को न तो स्वयं खरीदता है, और न दूसरों से खरीद करवाता है, और खरीद करते हुए अन्य को न भला जानता है, अतः नवकोटिविशुद्ध आहार की ही उसे गवेषणा करनी चाहिये, और उसके प्रास होने पर मात्रानुसार उसे ग्रहण कर अपने संयम की रक्षा करने में ही सावधान रहना चाहिये। इसी को प्रकट करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि__ वह अनगार द्रव्यादिक के अभाव से क्रय विक्रय के व्यवहार में अकिञ्चन है, इसलिये आहारादिक को न स्वयं खरीदे और न दूसरों से उसे खरीदवावे, तथा इसे खरीदने वाले अन्य किसी की अनुमोदना भी न करे । इससे इस बात की पुष्टि की है कि-अनगार मन वचन काया से कृत, कारित एवं अनुमोदना द्वारा हननादि तीन, पचनादि तीन क्रयणादि तीन, एवं नवकोटि से विशुद्ध आहारादिक प्राप्त कर शरीर की पुष्टि के अभिप्राय से नहीं, किन्तु संयम की रक्षा के अभिप्राय से ही अंगारधूमादिदोषरहित हो उसका सेवन करे। सूत्र में कहे हुए क्रय विक्रय
દ્રવ્યાદિક સામગ્રી નથી તો તે એ પ્રકારને વ્યવહાર કરવામાં સર્વથા અકિંચિત્કર છે, માટે શુદ્ધ નિર્દોષ આહારના ન મળવાથી તે એવા પ્રકારની આહારાદિક સામગ્રીને પિતે નથી ખરીદી શકતા, અને બીજાથી ખરીદાવી પણ શકતા નથી, અને ખરીદ કરવાવાળા બીજાને ભલે પણ જાણતા નથી, માટે નવોટિવિશુદ્ધ આહારની જ તેણે ગષણ કરવી જોઈએ, અને તેના પ્રાપ્ત થવાથી માત્રાનુસાર તેને ગ્રહણ કરીને પિતાની સ યમની રક્ષા કરવામાં જ સાવધાન રહેવું જોઈએ.” તેને પ્રગટ કરીને સૂત્રકાર કહે છે કે –
તે અણગાર દ્રવ્યાદિના અભાવથી કય-વિક્રયના વ્યવહારમાં અકિંચન છે, માટે આહારાદિકને પોતે ન ખરીદે અને બીજાથી ખરીદાવે નહિ, તથા તે ખરીદવાવાળા બીજા કોઈની અનુમોદના પણ ન કરે. આથી આ વાતની પુષ્ટિ કરી છે કે–અણગાર મન, વચન કાયાથી કૃત કારિત અગર અનુદના દ્વારા હનનાદિ ત્રણ, પચનાદિ ત્રણ, કેયણાદિ ત્રણ, એમ નવ કેટિથી વિશુદ્ધ આહારાદિક પ્રાપ્ત કરી શરીરની પુષ્ટિના અભિપ્રાયથી નહિ પણ સંયમની રક્ષાના અભિપ્રાયથી અંગારધુમાદિ દોષરહિત થઈને તેનું સેવન કરે. સૂત્રમાં કહેલા કય વિકય પદથી ઉદ્ગમ
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ઉંટ
आचारागसूत्रे यो जानाति स खेदज्ञः, यद्वा-खेदं षड्जीवनिकायदुःखं जानातीति खेदज्ञः। यद्वा- क्षेत्रज्ञ' इति-च्छाया, क्षेत्रमुत्तमकुलादिरूपं जानाति यः स क्षेत्रज्ञः । यद्वा-भैक्षादिलाभक्षेत्रपरिज्ञातेत्यर्थः । 'क्षणकज्ञः' क्षण एव क्षणकः प्रतिलेखनभैक्षादिकर्तव्यकालस्तं जानातीति क्षणकज्ञः नमस्कारपौरुष्यादिदशविधपत्याख्यानावसरज्ञः। 'विनयज्ञः' विनयं द्रव्यक्षेत्रकालभावपेक्षया गुरुसमीपे यथोक्तपतिपत्तिलक्षणं जानाति यः स विनयज्ञः। यद्वा-विनयज्ञः अभ्युत्थानाधभिवन्दनाञ्जलिकरणादिविज्ञाता । यद्वा-गुरुसमीपे गर्व न कुर्यान्न दीनो भवेत् , न मिथोकायिक जीवों के दुःखों का जो ज्ञाता है उसका नाम खेदज्ञ है । अथवा"खेयन्ने” इसकी संस्कृत छाया “क्षेत्रज्ञः” यह भी होती है, जो उत्तम कुलादिकरूप क्षेत्र का ज्ञाता, अथवा भिक्षादिक लाभ के क्षेत्र को जो जानता है वह क्षेत्रज्ञ है।
प्रतिलेखन एवं भिक्षा करने योग्य काल का नाम क्षण है, इसको जो जानने वाला है उसका नाम क्षणज्ञ है। नमस्कार, पौरुष्यादि दश प्रकार के प्रत्याख्यान के अवसर को जानना यह इसका फलितार्थ है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से गुरु का आदर सत्कार करना जो जानता है उसका नाम विनयज्ञ है । गुरु जिस समय अपनी तरफ आवें या खड़े हों उस समय खड़े हो जाना, नमस्कार करना, हाथ जोडना आदि भी विनय है, इस प्रकार के व्यवहार को जानने वाला भी विनयज्ञ कहलाता है। अथवा-गुरु महाराज के समीप अहंकार न करना, दीनता जाहिर नहीं करनी, न उनकी गुप्त बात किसी को कहनी, इत्यादिरूप भी
वाना हु.मोना र ज्ञाता छे तेनु नाम ज्ञ छ अथवा “ खेयन्ने" तनी संत छाया 'क्षेत्रज्ञ ' ये ५ थाय छे ? उत्तम सा५ि क्षेत्रनो ज्ञाता, અથવા ભિક્ષાદિક લાભના ક્ષેત્રને જે જાણકાર છે તે ક્ષેત્રજ્ઞ છે
પ્રતિલેખન અને ભિક્ષા કરવાયોગ્ય કાલનું નામ ક્ષણ છે, તેના જે જાણકાર છે તેનું નામ ક્ષણ છે. નમસ્કાર પૌરૂષ્યાદિ દશ પ્રકારના પ્રત્યાખ્યાનના અવસરને જાણો તે તેનું ફલિતાર્થ છે દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ અને ભાવની અપેક્ષાથી ગુરૂને આદર સત્કાર કરે છે જાણે છે તેનું નામ વિનયજ્ઞ છે, ગુરૂ જે વખતે પોતાની તરફ આવે અગર ઉભા હોય તે વખતે ઉભા થવુ, નમસ્કાર કરે, હાથ જોડવા આદિ પણ વિનય છે. આ પ્રકારના વ્યવહારને જાણવાવાળા પણ વિનયજ્ઞ કહેવાય છે અથવા ગુરુ મહારાજની સમીપ અહંકાર ન કરે, દીનતા જાહેર ન કરવી, તેની કઈ ગુપ્ત વાત બીજાને ન કહેવી, ઇત્યાદિરૂપ પણ વિનય છે. જે આ પ્રકારના
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अध्य० २. उ. ५
૨૦૦
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'वलज्ञः ' बलं= स्वशक्तिं परशक्ति वा यो जानाति स वलज्ञः स्व- परवलाभिज्ञः, मात्राज्ञः ' मात्रां जानाति यः स मात्राज्ञः यावत्प्रमाणाहारादिग्रहणेन गृहस्थो न पुनरारम्भे प्रवर्तते । यद्वा — स्वसंयमयात्रा निर्वाहो यावताऽऽहारेण भवति, तावन्मात्राज्ञानकुशलइत्यर्थः । ‘ खेदज्ञः ' खेदम् = अभ्यासं, संसारपरिभ्रमणजन्यं श्रमं वा किया गया गमन एक तो अपने लिये क्लेशकारक होता है, दूसरे इस प्रकार की प्रवृत्ति से गाम में उस साधु की निंदा भी होती है। इसलिये आहार लेने के लिये जो मार्ग शास्त्रानुसार विहित है उससे विपरीत प्रवृत्ति करने वाले संयमी - साधु के चारित्र में भगवान् की आज्ञा का विराधक होने की वजह से, और अपने में खेद उत्पन्न करने के निमित्त से मलिनता आती है, इसलिये अकाल में भिक्षावृत्ति नहीं करनी चाहिये । 'कालज्ञ' शब्द का अर्थ यह भी होता है - जो सुभिक्ष-दुर्भिक्ष, दिनप्रमाण एवं रात्रि के प्रमाण को जानता है ।
अपनी शक्ति एवं परकी शक्ति को जो जानता है वह बलज्ञ है । जितने प्रमाण का आहार लेने से गृहस्थ फिर दुबारा आरम्भ न करे, अथवा जितने आहार के ग्रहण से अपनी संयमयात्रा का निर्वाह हो सकता है, उतनी ही मात्रा में आहार लेना चाहिये । इस प्रकार की विधि में जो कुशल होता है उसका नाम मात्राज्ञ है ।
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अभ्यास, अथवा संसार में परिभ्रमण से उत्पन्न हुए क्लेश या षट्કારણ કે અકાળે તે નિમિત્ત થએલું ગમન એક તો પેાતાને માટે ક્લેશકારક થાય છે, ખીજુ... આવા પ્રકારની પ્રવૃત્તિથી ગામમાં તે સાધુની નિંદા પણ થાય છે. માટે આહાર લેવા માટે જે માર્ગ શાસ્ત્રાનુસાર વિહિત છે તેનાથી વિપરીત પ્રવૃત્તિ કરવાવાળા સંયમી સાધુના ચારિત્રમાં ભગવાનની આજ્ઞાના વિરાધક હોવાના મતલખથી, અને પાતાનામાં ખેદ્ય ઉત્પન્ન કરવાના નિમિત્તથી મલિનતા આવે છે માટે અકાળમાં ભિક્ષાવૃત્તિ કરવી જોઈએ નહિ.
કાળજ્ઞ શબ્દનો અર્થ એ પણ થાય છે—જે સુભિક્ષ—દુભિક્ષ દિનપ્રમાણ અને રાત્રિના પ્રમાણને જાણે છે.
પેાતાની તેમજ ખીજાની શક્તિને જે જાણે છે તે મલન છે, જેટલા પ્રમાણુમાં આહાર લેવાથી ગૃહસ્થ ફરીથી ખીજી વાર આરભ ન કરે, અથવા જેટલા આહારના ગ્રહણથી પેાતાની સયમયાત્રાના નિર્વાહ થાય છે એટલી જ માત્રામાં આહાર લેવો જોઇએ. આ પ્રકારની વિધિમાં જે કુશળ છે તેનુ નામ માત્રા છે.
અભ્યાસ અથવા સંસારમાં પરિભ્રમણથી ઉત્પન્ન થતાં કલેશ, અગર ષટ્કાયિક
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आचारागसूत्रे परसमयनिरसनवीतरागसमयस्थापनचतुर इति यावत् । 'भावज्ञः 'भावमन्त:करणाशयं स्वीयं परकीयं वा यो जानाति स भावज्ञा-स्वपराशयवेत्ता, एवं परिग्रह' परिगृह्यते यः स परिग्रहः, यावदाहारवस्त्रपात्रादिग्रहणेन संयममात्रा निर्वहति, ततोऽधिकस्यैषणीयस्यापि मूर्छाभावेन ग्रहणं परिग्रहस्तम् अममायमाना अममीकुर्वन् , तं मनसाऽप्यनाददान इत्यर्थः।।
किञ्च-कालानुष्ठायी शास्त्रविहितकाले कर्तव्यकरणशीलः । पूर्व 'कालज्ञः' इति कालं जानातीति ज्ञपरिज्ञया प्रोक्तम्, अत्र चावसरेऽनुष्ठानविधायीति आसेवन ____अर्थ स्पष्ट है। इस प्रकार का साधु परसिद्धान्त का निरसन और स्वसिद्धान्त का संस्थापन करने में बड़ा चतुर रहता है। अपने और पर के मानसिक अभिप्राय के ज्ञाता का नाम भावज्ञ है। जितने आहार, वस्त्र, और पात्रादिकों से संयमयात्रा निभ सकती है उससे अधिक का मूोभाव से ग्रहण करना परिग्रह है। इस परिग्रह का जो सर्वथा त्यागी होता है-मन से भी उसे ग्रहण करने की चाहना नहीं करता है वह परिग्रह की ममता नहीं करने वाला कहलाता है। जिस प्रतिलेखनादि क्रिया के करने का जो समय शास्त्र में नियत किया गया है उसी के अनुसार अपने आवश्यक कार्यों का करने वाला साधु कालानुष्ठायी कहलाता है। कालज्ञ में और कालानुष्ठायी में यही भेद है कि-कालज्ञ तोभिक्षादि आचरण के समय का ज्ञाता होता है, और कालानुष्ठायी उस २ काल में अपने कर्तव्य कर्मों का करने वाला होता है। ज्ञ-परिज्ञा की अपेक्षा कालज्ञ
" स्नानं मददर्पकरं, कामाझं प्रथमं स्मृतम्।।
तस्मात्कामं परित्यज्य, नैव स्नान्ति दमे रताः" ॥१॥ અર્થ સ્પષ્ટ છે આ પ્રકારને સાધુ પરસિદ્ધાન્તનું નિરસન અને સ્વસિદ્ધાંતનુ સ સ્થાપન કરવામાં ઘણું ચતુર રહે છે પિતાના અને બીજાના માનસિક અભિપ્રાયના જ્ઞાતાનું નામ ભાવક્ષ છે એટલે આહાર, વસ્ત્ર અને પાત્રાદિકોથી સંયમયાત્રા નભી શકે છે તેનાથી અધિક મૂચ્છભાવથી ગ્રહણ કરવું તે પરિગ્રહ છે. આ પરિગ્રહના જે સર્વથા ત્યાગી હોય છે, મનથી પણ તે ગ્રહણ કરવાની ચાહના નથી કરતા તે પરિગ્રહની મમતા નહિ કરવાવાળા કહેયાય છે. જે પ્રતિલેખનાદિ ક્રિયા કરવાનો સમય શાસ્ત્રમાં નિયત કરેલ છે તે અનુસાર પોતાના આવશ્યક કાર્યોને કરવાવાળા સાધુ કલાનુષ્ઠાથી કહેવાય છે. કાલરૂમાં અને કાલાનુષ્ઠાયીમાં એ ભેદ છે કે—કાલજ્ઞ તે ભિક્ષાદિ આચરણના સમયના જ્ઞાતા હોય છે, અને કાલાનુછાયી તે તે કાલમા પિતાના કર્તવ્ય કર્મોના કરવાવાળા હોય છે પરિજ્ઞાની અપેક્ષા
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अध्य० २. उ. ५
२७९ रहस्यादि ब्रुवीतेत्यादिरूपो विनयस्तदभिज्ञ इत्यर्थः। 'स्वसमयज्ञः ' स्व-निज समय सिद्धान्तं जानाति यः स स्वसभयज्ञः, एवं परसमयज्ञः-अन्यदीयसिद्धान्तज्ञाननिपुणः, 'स्वसिद्धान्ते तत्परता परसिद्धान्ते चोपेक्षा कार्या'इत्याद्यभिज्ञः, यथा परसमये स्नानादेवश्यकतव्यत्वेन प्रतिपादितेऽपि स्वसमये तस्य मददपंकरत्वेन मुनिना तत्परित्याज्यमेवेति यो वेत्तीत्यर्थः । उक्तञ्च__स्नानं मददपकरं, कामाङ्गं प्रथमं स्मृतम् ।
तस्मात्कामं परित्यज्य, नैव स्नान्ति दमे रताः । १ । इति विनय है। जो इस प्रकार के विनय का ज्ञाता होता है उसका नाम भी विनयज्ञ है । अपने सिद्धान्त और पर के सिद्धान्त के ज्ञाता को स्वसमयज्ञ एवं परसमयज्ञ कहते हैं । जो स्वसिद्धान्त का ज्ञाता होगा उसके हृदय में परसिद्धान्त के प्रति उपेक्षाभाव रहेगा-द्वेष उत्पन्न नहीं होगा। स्वसिद्धान्त के बोध से युक्त साधु के हृदय में परसिद्धान्तप्रतिपादित तत्त्वों के प्रति न राग होगा और न द्वेष ही-उनके प्रति उसकी सदा माध्यस्थ्य भावना ही रहेगी। समकिती के लिये परसिद्धान्त के तत्त्वों का बोध ही अपने सिद्धान्त में प्रतिपादित तत्वों के स्वरूप के प्रति अधिक श्रद्धा का कारण बनता है। अन्य सिद्धान्तकारों ने साधु अवस्था में भी स्नान वगैरह करना कर्तव्य बतलाया है, तब जैनसिद्धान्त में इसे उस अवस्था में मद' और दर्पकारी माना गया है, इसलिये ही साधु इस प्रवृत्ति से सदा दूर रहते हैं। कहा भी है
"स्नानं मददपकरं, कामाङ्गं प्रथमं स्मृतम् ।
तस्मात्कामं परित्यज्य, नैव स्नान्ति दमे रताः॥१॥" વિનયના જ્ઞાતા હોય છે તેનું નામ પણ વિનયજ્ઞ છે. પિતાના સિદ્ધાંતને અને બીજાના સિદ્ધાંતને જે જ્ઞાતા છે તેને સ્વસમયજ્ઞ અને પરસમયજ્ઞ કહે છે. જે સ્વસિદ્ધાન્તના જ્ઞાતા હશે તેના હૃદયમાં પરસિદ્ધાંત પ્રતિ ઉપેક્ષાભાવ રહેશે–ષ ઉત્પન્ન થશે નહિ સ્વસિદ્ધાન્તના બોધથી યુક્ત સાધુના હૃદયમાં પર સિદ્ધાન્તપ્રતિપાદિત તને પ્રતિ રાગ અને દ્વેષ થતો નથી. તેના પ્રતિ તેની સદા મધ્યસ્થ ભાવના જ રહેશે, સમકિતી માટે પરસિદ્ધાન્તના તને બેધ પિતાના સિદ્ધાંતમાં પ્રતિપ્ર દિત તત્ત્વના સ્વરૂપ પ્રતિ અધિક શ્રદ્ધાનું કારણ બને છે. અન્ય સિદ્ધાતકાએ સાધુ અવસ્થામાં પણ સ્નાન વિગેરે કરવું, કર્તવ્ય બતાવ્યું છે, ત્યારે જૈનસિદ્ધાન્તમાં તેને તે અવસ્થામાં મદ અને દર્પકારી માનેલ છે. માટે સાધુ આવી પ્રવૃત્તિથી સદા દૂર રહે છે. કહ્યું પણ છે—
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आचाराङ्गसूत्रे प्रतिज्ञा मुनिना न कार्येति तात्पर्यम् । यद्वा-भैक्षाचरणादौ 'ममैवाहारादिकं स्या'दित्यादिप्रतिज्ञा न साधीयसी। अथवा-यथा स्याद्वादसिद्धान्ते ' ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः' इत्यस्ति तत्र एकतरेणैव तदधिगम इत्यादिप्रतिज्ञा न विधेयेत्यर्थः, पञ्चमहाव्रतातिरिक्त कस्मिंश्चिदपि विषये प्रतिज्ञा न कर्तव्या मुनिना। यदिवा अप्रतिज्ञः अनिदानः मायाशल्यादिरहित इत्यर्थः । ईदृशोऽनगारः किं कृत्वा विहरतीत्याह-'द्विधातः' इत्यादि, द्विधातः उभौ रागद्वेषावित्यर्थः छित्त्वा व्यपनीय नियाति-नि-निश्चयेन याति मोक्षमार्ग प्रामोति, पूर्वगुणसम्पन्नोऽपि रागवान् द्वेषवांश्च न मोक्षं लभत इति भावः ।। भिक्षा के समय में 'मुझे ही आहारादिक मिले ' ऐसी प्रतिज्ञा नहीं करनी चाहिये, क्यों कि मुनि के लिये इस प्रकार की प्रतिज्ञा करना उचित नहीं है। ज्ञान और क्रिया इन दोनों से मुक्ति का लाभ स्यावादसिद्धान्त में प्रतिपादित किया गया है, परन्तु इस प्रकार की प्रतिज्ञा करना कि'सिर्फ ज्ञानमात्र से या क्रियामात्र से ही मुक्ति होती है' उचित नहीं है। मुनियों को पंचमहाव्रतों के आराधन करने के सिवाय अन्य किसी भी विषय में प्रतिज्ञा नहीं करनी चाहिये । ___अथवा" अप्रतिज्ञः" इस शब्द का अर्थ-'मायादि तीन शल्यों रहित' होता है ।अनगारों का सर्व संयम शल्यत्रय से रहित होकर ही निर्मल हो सकता है । इन पूर्वोक्तविशेषणविशिष्ट अनगार ही राग और द्वेषों का उन्मूलन कर "नियाति" निश्चय से मोक्ष के मार्ग को प्राप्त करता है। रागद्वेष के उन्मूलन के अभाव में इन पूर्वोक्तगुणसम्पन्न भी अनगार “ अप्रतिज्ञ " ये विशेष सापेट छ. अथवा-लक्षासमयमा भने આહારદિક મળે એવી પ્રતિજ્ઞા કરવી જોઈએ નહિ, કારણ કે મુનિ માટે આવા પ્રકારની પ્રતિજ્ઞા કરવી ઉચિત નથી. જ્ઞાન અને ક્રિયા આ બનનેથી મુક્તિને લાભ સ્યાદ્વાદસિદ્ધાતમાં પ્રતિપાદિત કરેલ છે, પરંતુ એવા પ્રકારની પ્રતિજ્ઞા કરવી કે “ફક્ત જ્ઞાનમાત્રથી અગર ક્રિયામાત્રથી જ મુક્તિ થાય છે” તે ઉચિત નથી. મુનિયેએ પચ મહાવ્રતોનું આરાધન કરવા સિવાય બીજા કોઈ પણ વિષયમાં પ્રતિજ્ઞા નહિ કરવી જોઈએ.
मया “ अप्रतिशः " २॥ शन! अर्थ 'भाया शक्ष्याथी २लित' થાય છે. અણગારેને સર્વ સંચમ શલ્યવયથી રહિત બનીને જ નિર્મળ થઈ શકે છે. આ પૂર્વોક્તવિશેષણવિશિષ્ટ અણગાર જ રાગ અને દ્વેષનું ઉમૂલન કરી " नियाति" निश्वयथी भाक्षना भागने प्रात ४२ छे. रामदेषना भूरानना
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अध्य० २. उ. ५ परिज्ञया प्रतिपादितम् । 'अपि चाप्रतिज्ञः' अविद्यमाना प्रतिज्ञा यस्य सोऽप्रतिज्ञः प्रतिज्ञा च कषायप्रावल्येन भवति । यथा क्रोधाविर्भावान्नास्तिकमतानुयायिना पालकब्राह्मणेन स्कन्दकाचार्यस्य पञ्चशतशिष्यान् तैलयन्त्रे निष्पीड्यमानानवलोक्य स्कन्दकऋषिणा सकलराजधान्या विनाशप्रतिज्ञा कृता। मानोदयावाहुबलिना 'यज्ज्येठोऽहं पूर्व प्रजितानष्टनवतिसंख्यकान् कनीयसः स्वभ्रातृन् न बन्दे ' इति प्रतिज्ञा व्यधायि । मायोदयान्मल्लीस्वामिजीवेन पूर्वभवेऽन्यमुनीन् प्रतार्य प्रत्याख्यानपतिज्ञाऽकारि। लोभोदयात्सुभूमचक्रवर्तिना सप्तमखण्डसाधनप्रतिज्ञा विहिता। एवमादि
और आसेवन-परिज्ञा की अपेक्षा कालानुष्ठायी समझना चाहिये । “अप्रतिज्ञः" जिसके प्रतिज्ञा विद्यमान नहीं है उसका नाम अप्रतिज्ञ है। प्रतिज्ञा, कषाय की प्रबलता से होती है, जैसे क्रोध के आवेश से नास्तिकमतानुयायी पालक ब्राह्मण ने स्कन्दकाचार्य के पांच सौशिष्यों को तैल के यन्त्र में पेल दिया था। इस बात को देखकर स्कन्दकऋषि ने समस्त राजधानी को नष्ट करने की प्रतिज्ञा की थी। मानकषाय के उदय से बाहुबली महाराज ने दीक्षित अपने से छोटे (९९) निन्यानवे भाइयों को इस ख्याल से वन्दन नहीं किया था कि 'मैं इनसे बड़ा हूं-और ये मुझ से छोटे हैं। मायाकपाय के उदय से भल्ली स्वामी के जीवने पूर्वभव में अन्य मुनियों के साथ माया करके प्रत्याख्यान की प्रतिज्ञा की थी। लोभकषाय के उदय से सुभूमचक्रवर्ती ने ससम खंड को साधने की प्रतिज्ञा की, इत्यादि । इस प्रकार की कवायोदयजनित प्रतिज्ञा मुनियों को नहीं करनी चाहिये, इसीलिये यहां 'अप्रतिज्ञः' यह विशेषण दिया है। अथवा કાલજ્ઞ અને આસેવન–પરિજ્ઞાની અપેક્ષા કાલાનુષ્ઠાથી સમજવું જોઈએ. " अप्रतिज्ञानी प्रतिज्ञा विद्यमान नथी तेनु नाम मप्रतिज्ञ छ. प्रतिज्ञा, કષાયની પ્રબળતાથી થાય છે. જેમ કોધના આવેશથી નાસ્તિકમતાનુયાયી પાલક બ્રાહ્મણ સ્કંદકાચાર્યના પાંચસે શિષ્યોને તેલના યંત્રમાં પિલ્યા હતા, તે વાતને દેખીને સ્કન્દરૂષિએ સમસ્ત રાજધાનીને નષ્ટ કરવાની પ્રતિજ્ઞા કરી હતી. માનકષાયના ઉદયથી બાહુબલિ મહારાજે દીક્ષિત પિતાનાથી નાના (૯૯) નવાણું ભાઈઓને તેવા ખ્યાલથી વંદન ન કર્યું કે “હું તેમનાથી મટે છું અને એ મારાથી નાના છે.” માયાકષાયના ઉદયથી મલ્લી સ્વામીના જીવે પૂર્વ ભવમાં અન્ય મુનિ સાથે માયા કરીને પ્રત્યાખ્યાન પ્રતિજ્ઞા કરી હતી. લેભકષાયના ઉદયથી સુભૂમચકવતીએ સાત ખંડ સાધવાની પ્રતિજ્ઞા કરી, ઈત્યાદિ. આવા પ્રકારની કષાયોદયજનિત પ્રતિજ્ઞા મુનિઓએ કરવી જોઈએ નહિ, માટે અહીંઆ
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आचारागसूत्रे ___टीका—'वस्त्र'-मित्यादि । मुनिर्यथाऽऽहारं याचयेत् गृहस्थेभ्यस्तथैव एतेषु चैव
गृहपतिष्वेव वस्त्रं बसनं पतद्ग्रहं पात्रं वस्त्रग्रहणेन वस्त्रैपणा पतद्ग्रहग्रहणेन च पात्रैपणा च सङ्ग्रहीता, कम्बलं-रल्लकादिकम् , एतेनोवस्त्रग्रहणम् , पादपोञ्छनं रजोपहरणम् , अवग्रहम् अवगृह्यते यः सोऽवग्रहो वसतेराज्ञा, शक्रेन्द्रराजगृहस्थशय्यातरसाधर्मिकभेदेनावग्रहः पञ्चधा, एतेनावग्रहप्रतिज्ञाः सर्वाः सङ्ग्रहीताः, तमवग्रहम् , अपि च कटासनं कटश्च-संरतारश्च आसनं च-पीठफलकादिकं चानयोः समाहारद्वन्द्वस्तत्कटासनम् , आस्यतेऽनेत्यासनं शय्या वा, संस्तारः सार्द्धहस्तद्वयप्रमाणः, शय्या च शरीरप्रमाणा, एतत्सर्व याचयेत्=गवेपयेत् , एपणीयं वस्त्रादिकं याचयेत् नानेपणीयम्, इति ॥ सू० ५॥
संयमी मुनि के विशेष आचार को पुनरपि प्रदर्शित करते हुए सूत्रकार कहते हैं-'वत्थं' इत्यादि। ___ अनगार जिस प्रकार गृहस्थों से आहार की याचना करता है उसी प्रकार उनसे वस्त्र, पात्र, कंबल, रजोहरण, रहने के लिये वसति-स्थान की और कटासन की भी याचना करे। सूत्र में वस्त्र के ग्रहण से वस्त्रैषणा और पात्र के ग्रहण से पात्रैषणा का ग्रहण किया गया है। कंबल से ऊनी कंबल जानना चाहिये, रेशमी आदि कम्बल नहीं। अवग्रह शब्द का अर्थ-वसति-स्थान में ठहरने की आज्ञा । अवग्रह, शक्रेन्द्र, राजा, गृहस्थ, शय्यातर, और साधर्मिक के भेद से ५ प्रकार का है। अवग्रह (आज्ञा) शब्द से अवग्रहसम्बन्धी समस्त प्रतिज्ञाओं का ग्रहण हुआ है। कट से संस्तारक एवं आसन से पीठफलकादि जानना चाहिये। आसन से अपने शरीरप्रमाण शय्या, तथा संस्तार से (२॥) ढाई हाथका
સંયમી મુનિના વિશેષ આચારને પુનરપિ પ્રદર્શિત કરતાં સૂત્રકાર કહે છે'वत्थं त्यादि
અણગાર જેવી રીતે ગૃહસ્થોથી આહારની યાચના કરે છે તે પ્રકારે તેનાથી વસ્ત્ર, પાત્ર, કંબલ, રજોહરણ, રહેવાને મકાનની અને કટાસનની પણ યાચના કરે. સૂત્રમાં વસ્ત્રના પ્રહણથી વઐષણ અને પાત્રના પ્રહણથી પાત્રપણાનું પ્રહણ કહેવાય છે કબલથી ઉનની કબલ જાણવી જોઈએ, રેશમી આદિ કંબલ નહિ. અવગ્રહ શબ્દનો અર્થ–વસતિ-સ્થાનમાં રહેવાની આજ્ઞા અવગ્રહ-શક્તિ, રાજ, ગૃહસ્થ, શય્યાતર, અને સાધર્મિઓના ભેદથી ૫ પ્રકારના છે. અવગ્રહ (આજ્ઞા) શબ્દથી અવહસ બધી સમસ્ત પ્રતિજ્ઞાઓનું ગ્રહણ છે. કટથી સંતારક અને આસનથી પીઠ-ફલકાદિ જાણવું જોઈએ. આસનથી પિતાના શરીર પ્રમાણ શય્યા, તથા સસ્તારથી અઢી હાથનું બિછાનું-બિસ્તર સમજે
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अध्य० २ उ. ५
२८३ ननु शास्त्रे नानाविधाभिग्रहरूपा प्रतिज्ञाऽभिहिताऽत्र तु 'मुनिरप्रतिज्ञो भवे'दिति कथितं तत्कथम् ? इत्यत्राह-द्विधेति, अत्र पक्षे द्विधेतिच्छाया, द्विधाद्विप्रकारेण रागेण द्वेषेण च प्रतिज्ञां छित्त्वा अकृत्वा नियाति-नियतं याति-संयमे विहरति, रागद्वेषवशेन मुनिरनेवणीयमयि गृह्णाति भुङ्क्ते चेति रागद्वेषवती प्रतिज्ञा मुनिना न विधेयेति भावः ॥ मू०४॥
आचारविशेष पुनरपि दर्शयति-' वत्थं ' इत्यादि।
मूलम्-वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं उग्गहं च कडासणं एएसु चेव जाएज्जा ॥ सू० ५॥ ___ छाया-वस्त्रं पतद्ग्रहं कम्बलं पादपोञ्छनमवग्रहं च कटासनमेतेषु चैव याचयेत् ।। सू० ५॥ मुक्ति के लाभ से वंचित माना गया है।
प्रश्न-शास्त्र में अनेक प्रकार की अभिग्रहरूप प्रतिज्ञाओं का कथन किया गया है, फिर यहां पर "मुनिरप्रतिज्ञो भवेत् " मुनि को प्रतिज्ञासंपन्न नहीं होना चाहिये, यह कैसे कहा गया है । ___ उत्तर-राग और द्वेष से जो प्रतिज्ञा की जाती है वह संयमी मुनि के लिये उचित नहीं है। तभी वह अपने संयम मार्ग में विचर सकता है । रोग और द्वेष के वश होकर की गई प्रतिज्ञा से मुनि अनेषणीय भी आहारादिक को ग्रहण कर लेता है, इसलिये रागद्वेषवाली प्रतिज्ञाओं के करने का निषेध किया गया है। यह भाव "दुहओ छेत्ता नियाइ” इन पदों से प्रकट होता है अतः इस प्रकार की प्रतिज्ञा मुनिजनों को नहीं करनी चाहिये ॥ सू० ४॥ અભાવમાં આ પૂર્વોક્તગુણસંપન્ન પણ અણગાર મુક્તિના લાભથી વંચિત માનેલ છે.
પ્રશ્ન–શાસ્ત્રમાં અનેક પ્રકારની અભિગ્રહરૂપ પ્રતિજ્ઞાનું કથન કરેલ છે, quी म. ४0 “ मुनिरप्रतिज्ञो भवेत् " भुनिये प्रतिज्ञापन्न नडि मन જોઈએ, એ કેમ કહેવામાં આવેલ છે?
ઉત્તર–રાગ અને દ્વેષથી જે પ્રતિજ્ઞા કરવામાં આવે છે, સંયમી મુનિએ તેવી પ્રતિજ્ઞા નહિ કરવી જોઈએ. તે જ તે પિતાના સંયમ માર્ગમાં વિચારી શકે છે. રાગ અને દ્વેષથી કરેલી પ્રતિજ્ઞાથી મુનિ અનેષણય પણ આહારદિક ગ્રહણ કરી લે છે. માટે રાગ દ્વેષવાળી પ્રતિજ્ઞાઓ કરવાનો નિષેધ કરેલ છે. આ ભાવ " दुहओ छेत्ता नियाइ " से पहोथी प्रगट थाय छे. भाटे मावा प्रारनी प्रतिज्ञा મુનિજનોએ નહિ કરવી જોઈએ. છે સૂટ છે
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आचाराङ्गसूत्रे गृहपतिन पुनरारम्भे प्रवर्तत, यावता चात्मनः संयमयात्रानि हो भवति, यथा च परिष्ठापनीयं न भवेत् तावती मात्रा, तां जानीयात् बुध्येत मात्रातोऽधिकग्रहणे संयतमर्यादास्खलनात् । एतत्सर्वं 'जमिणं विरूवरूवेहिं' इत्युद्देशस्यादिममूत्रमारभ्यैतात्पर्यन्तं न मया स्वबुद्धया प्रोक्तमिति दर्शयति-तद्यथेत्यादि । तद्यथा-इदम्उद्देशारम्भतोऽव्यवहितमूत्रपर्यन्तमभिव्याप्य यदभिहितं तत्सर्वं भगवता प्रवेदितम् = उक्तम् । एतेन पूर्वोक्तमूत्रादभिहितार्थेऽवश्यकर्तव्यता प्रदर्शिता, अन्यथा भगवदाज्ञा विराधकत्वमापतेति संमचितम् । अपि चानगारः किं कुर्यादिति दर्शयति-'लाभ इती-ति, लाभा अशनवसनादेर्ममैवाधिगम इति चेतसि परिचिन्त्य न मायेत-न मोदेत नाभिमानं कुर्यादित्यर्थः । निर्वाह हो सके, अर्थात् जो संयमयात्रा के निर्वाह करने में किसी तरह से बाधक न बन सके। लेते समय यह ध्यान अवश्य रखना चाहिये, ऐसा न हो कि-अधिक लेने पर परिष्ठापन करना पड़े। इतना ध्यान रखना ही मात्रा है। इस मात्रा की मर्यादा का उल्लंघन करने से यथावत्संयम का निर्वाह नहीं हो सकता।
श्रीसुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं कि-यह सब कुछ जो इस उद्देश के प्रथम सूत्र से लगा कर यहां तक कहा गया है वह मैंने अपनी निज कल्पना से नहीं कहा है, किन्तु वीतराग प्रभु ने यह सब प्रकट किया है । इसलिये जो कुछ यहां तक कहा गया है संयमी मुनि का कर्तव्य है कि उस पर पूर्ण ध्यान रखे, और उसका अपने संयम को निर्मल बनाने के लिये अवश्य पालन करे, नहीं तो भगवान् की आज्ञा का विराधक बनना पड़ेगा। કરવામાં કઈ પણ પ્રકારે બાધક ન બની શકે. લેતી વખતે એ ધ્યાન અવશ્ય રાખવું જોઈએ, એવું ન બને કે અધિક લેવાથી પરિઠાપન કરવું પડે આટલું ધ્યાન રાખવું તે માત્રા છે. આ માત્રાની મર્યાદાનું ઉલ્લંઘન કરવાથી બરાબર સંયમને નિર્વાહ બની શકતો નથી.
શ્રી સુધર્માસ્વામી જખ્ખસ્વામીને કહે છે કે –આ બધું જે એ ઉદેશના પ્રથમ સૂત્રથી લઈને અહીં સુધી કહ્યું છે તે મેં મારી પિતાની કલ્પનાથી કહેલ નથી. પણ વીતરાગ પ્રભુએ જ આ બધું પ્રગટ કરેલ છે. માટે જે કઈ અહીંઆ સુધી કહ્યું છે તે ઉપર સંયમી મુનિનુ કર્તવ્ય છે કે તેના ઉપર પુરેપુરું ધ્યાન આપે, અને તેનું પોતાના સાયમને નિર્મળ બનાવવા માટે અવશ્ય પાલન કરે. નહિ તે ભગવાનની આજ્ઞાના વિરાધક બનવું પડશે
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अध्य० २. उ. ३
२८५ . मुनिर्मात्रयैवाहारादिकं गृह्णीयात्, लाभालाभादौ च मध्यस्थतामवलम्बेतेति दर्शयति- लद्धे' इत्यादि।
मूलम्-लद्धे आहारे अणगारो मायं जाणिज्जा से जहेयं भगवया पवेइयं लाभुत्ति न मजिज्जा, अलाभुत्ति न सोइजा वहुंपि लद्धं न निहे परिग्गहाओ अप्पाणं अवसकिज्जा अन्नहाण पासए परिहरिज्जा ॥ सू०६॥ ___ छाया-लब्धे आहारेऽनगारो मात्रां जानीयात् , तद्यथेदं भगवता प्रवेदितम् , लाभ इति न मायेत, अलाभ इति न शोचेत् , बदपि लब्ध्वा न स्निह्यात् , परिग्रहादात्मानमवप्वप्केत् , अन्यथानपश्यकः परिहरेत् ॥ मू० ६॥
टीका—'लब्धे' इत्यादि। अनगारः-मुनिः, लब्धे-सम्प्राप्ते आहारे उपलक्षणादन्यस्मिन्नपि वस्त्रपात्रशय्यासंस्तारकादावधिगते सति ' मात्रा ' यावद्ग्रहणेन विछौना-विस्तर समझना चाहिये । अनगार इन समस्त एपणीय वस्तुओं की ही गृहस्थों से याचना करे, अनेपणीयों की नहीं ॥ सू० ५॥
अनगार मात्राप्रमाण ही आहारादिकों को लेवे। उनके लाभ और अलाभ में मध्यस्थ भाव रखे, इस बात को सूत्रकार कहते हैं-'लद्धे आहारे' इत्यादि।
इस सूत्र में 'आहार' यह शब्द उपलक्षण है, इससे बन्द्र, पात्र, शय्या, संस्तारक आदि का भी ग्रहण हो जाता है। आहार एवं वस्त्रादिक वस्तुओं को गृहस्थ के पास उतनी ही मात्रा में बोरना चाहिये कि जिससे वौराने वाले गृहस्थ को दुवारा आरंभ नहीं करना पड़े। तथा इतनी ही लेनी चाहिये कि जिनके लेने से अपनी संयमयात्रा का જોઈએ. અણગાર આ સમસ્ત એષણય વસ્તુઓની ગૃહસ્થોથી યાચના કરે, અનેવીની નહિ. એ સૂ૦ ૫ છે
અણગાર માત્રાપ્રમાણથી આહારાદિ લે, તેના લાભ–અલાભમાં મધ્ય ला राणे, २५! वातने सूत्र२ -लद्धे आहारे त्यादि.
सूत्रमा २' श६ ५सक्षए छ. तनाथी परव, पात्र, शय्या, સસ્તારક આદિનું વડુ થાય છે. આહાર અને વસ્ત્રાદિક વસ્તુઓને ગ્રાહકોને પાસેથી એટલી માત્રામાં લેવી જોઈએ કે જેનાથી દેવાવાળા ગૃહુને ફરીથી બીજી વાર આરંભ કર ન પડે, તથા એટલી જ માત્રા લેવી જોઈએ કે જે લેવાથી પિતાની યાત્રાનું પાલન થઈ શકે, અર્થાત્ જે સંચનયાત્રાને નિષ્ઠ
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आवाराङ्गसूत्रे किं च पिकेनापि कारणेन पुष्कलं लब्ध्वा प्राप्य न स्निह्यात्=अन्नादी गृहपतौ वा स्नेहं न कुर्यात्, अपि च परिग्रहात्संयमयात्रानिर्वाहमात्रातो मूर्च्छाभावेनैपणीयस्याप्यधिकस्यानादानात् आत्मानम् अवष्वष्केत - अपगमयेत्, तत आत्मानं निवर्तयेदित्यर्थः ।
ननु संयमयात्रा निर्वाहार्थमावश्यक वस्त्र पात्रादीनामपि ग्रहणं परिग्रहपदेन वक्तु
आहारादिक वस्तुएँ मिले तो भी ठीक, न मिले तो भी ठीक, मुझे तो दोनों अवस्थाओं में समता है । लाभ में प्राणों का रक्षण और अलाभ में तप की वृद्धि होगी । ऐसा विचार करना चाहिये ।
किसी कारणवश यदि आहारादिक सामग्री किसी एक ही जगह से अधिक मिल जाये तो अन्नादिक सामग्री पर तथा देने वाले दातागृहस्थ पर रागभाव न करे - मध्यस्थ भाव रक्खे । इस प्रकार की प्रवृत्ति नहीं रखने से संयमी मुनि में दीनता, तथा सिंहवृत्ति के अभाव होने का प्रसंग आजाता है । संयमयात्रा का निर्वाहमात्रावाली आहारादिक सामग्री के अतिरिक्त अन्य सामग्री से अपने को दूर रखे, कारण कि एपणीय होने पर भी मूर्छाभाव से अधिक ग्रहण करने से उस में परिग्रह का दोष आता है, अतः इस प्रकार की प्रवृत्तिरूप परिग्रह से सदा अपनी रक्षा करता रहे।
प्रश्न - संयमयात्रा के निर्वाह के लिये जो आप आवश्यक वस्त्र पात्रादिकों का ग्रहण करना संयमी मुनि के लिये कह रहे हो सो यह આહારાદિક વસ્તુ મળે તેા પણ ઠીક છે, ન મળે તેા પણ ઠીક છે, એમ મને તો અને અવસ્થાઓમાં સમતા છે લાભમાં પ્રાણુનુ રક્ષણ અને અલાભમાં તપની વૃદ્ધિ થશે એવા વિચાર કરવા જોઈ એ
કોઈ કારણવશ કદાચ આહારાકિ સામગ્રી કેાઇ એક જગ્યાથી અધિક મળી જાય તે અન્નાદિક સામગ્રીપર તથા દેવાવાળા દાતા ગૃહસ્થ પર રાગભાવ ન કરેમધ્યસ્થભાવ રાખે આ પ્રકારની પ્રવૃત્તિ નહિ રાખવાથી સયમી મુનિમાં દીનતા, તથા સિંહવૃત્તિના અભાવ હોવાના પ્રસગ આવી જાય છે. સયમયાત્રાના નિર્વાહ માત્રાવાળી આહારાક્રિક સામગ્રીથી અતિરિક્ત અન્ય સામગ્રીથી પેાતાને દૂર રાખે, કારણ કે એષણીય હેાવા છતાં પણ મૂર્છાભાવથી અધિક ગ્રહણ કરવાથી તેમાં પરિગ્રહના દોષ આવી જાય છે, માટે આ પ્રકારની પ્રવૃત્તિરૂપ પરિગ્રહથી સદા પેાતાની રક્ષા કરતા રહે
પ્રશ્ન—સ યમયાત્રાના નિર્વાહ માટે જે આપ આવશ્યક વસ્ર પાત્રાદિકોનુ ગ્રહણ કરવું સંયમી મુનિ માટે કહી રહ્યા છે. તેા તે કહેવુ વ્યાજખી નથી,
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अध्य० २. उ. ४
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अथवा 'लाभे' इति च्छाया, लाभे सति वखाहारादेरधिगमे च न माद्येत । एवमलाभे वस्त्रपात्रादेरप्राप्तौ ' धिग् हतभाग्यं मां यदन्यैर्लभ्यते अन्तरायोदयान्मया न लभ्यते ' इति = एवं न शोचेत् शोकं न विदध्यात्, लाभालाभयोर्मध्यस्थभावमवलम्वेतेत्यर्थः । उक्तञ्च –
" लाभो वरमला भोsपि, मुनिरुभयस्मिन्दधाति माध्यस्थ्यम् । लाभे प्राणपरिस्थितिरथचालाभे तपोवृद्धिः " ॥ १ ॥ इति ।
ऐसा कभी भी भाव न रखे कि - अशनादि - आहारवस्त्रादिक का लाभ मुझे ही होता है अन्य को नहीं । क्यों कि इस प्रकार की भावना से आत्मा में एक प्रकार का अहंकार उत्पन्न होता है जो संयम जीवन में सफेद वस्त्र में धब्बे की तरह बाधक होता है, अतः इस प्रकार का अहंकार कभी नहीं करना चाहिये । अथवा “लाभ इति न माद्येत " इसका अभिप्राय यह भी होता है कि आहार वस्त्रादिक का लाभ होने पर संयमी को हर्षित नहीं होना चाहिये, और अलाभ होने पर उसे
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मुझ हतभागी - अभागे को धिक्कार है, दूसरों को तो सब कुछ मिलता है मुझे अन्तराय के उदय से कुछ भी नहीं मिलता " इस प्रकार का शोक भी नहीं करना चाहिये, क्योंकि संयमजीवन की शोभा लाभ और अलाभ में मध्यस्थ भाव रखने से ही है । कहा भी है
" लाभो वरमला भोsपि, मुनिरुभयस्मिन् दधाति माध्यस्थ्यम् । लाभे प्राणपरिस्थिति रथ चालाभे तपोवृद्धिः ॥ १ ॥ " इति ॥
એવા ભાવ કાઈ વખત ન રાખે કે- અશનાઢિ–આહારવસ્ત્રાદિકનો લાભ મને જ થાય છે. બીજાને નહિ.' કારણ કે આ પ્રકારની ભાવનાથી આત્મામાં એક પ્રકારનો અહંકાર ઉત્પન્ન થાય છે જે સંયમ જીવનમાં સફેદ વસ્ત્રમાં ડાઘાની માફક આધક થાય છે. માટે આ પ્રકારના અહંકાર કોઇ વખત કરવા ન જોઇએ. અથવા लाभ इति न माद्येत " मेनो अभिप्राय से पशु थाय छेडे - आहारनो લાભ થવાથી સંયમીએ હર્ષિ`ત નહિ થવું ોઈએ, અને આલાભ થવાથી તેણે
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C+
“ હું હતભાગી—અભાગીને ધિક્કાર છે, બીજાને સઘળુ મળે છે, મને અંતરાયના ઉદયથી કાંઈ પણ મળતું નથી.” આવા પ્રકારનો શોક પણ નહિ કરવા જોઇએ, કારણ કે સંયમજીવનની શેલા લાભ અને મલાભમાં મધ્યસ્થભાવ રાખવામાં छेउछे
" लाभो वरमलाभोऽपि मुनिरुभयस्मिन् दधाति माध्यस्थ्यम् । लाभे प्राणपरिस्थिति-रथ चालामे तपोवृद्धिः ॥ १ ॥ " इति ।
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आचारागसूत्रे ____छाया-अप्यात्मनोऽपि देहे नाचरन्ति ममायितम् । इति । तेषां कर्मनि'जरणार्थं स्वीकारात् , यश्च मूर्च्छया परिगृह्यते तस्य परिग्रहपदेनाभिधेयत्वाच। तत्परिहारे च संयमयात्राया अपि निर्वोढुमशक्यत्वात् ।
किञ्च-अन्यथानपश्यकः-पश्यतीति पश्यः, स एव पश्यकः, अन्यथा अन्यप्रकारेण न पश्यका अन्यथानपश्यकः-धर्मोपवरणापरिग्रहदशी सन् परिग्रहं परिहरेत् । यथा गृहस्थो वस्त्रादिकं शरीरादिसुखसाधनं मन्यते न तथा मुनिः । स चैतधर्मोपकरणं मम धर्मसाधनमेव, न शरीरादिसुखसाधनमिति मन्यमानः परिग्रह
साधुओं को जब अपने निज शरीर में ही मोह ममत्व नहीं होता है, तब शरीर से सर्वथा भिन्न उपकरणादिकों में ममत्वभाव कैसे हो सकता है। मुनि अवस्था में मात्रानुसार ग्रहण किये हुए वस्त्र पात्रादिक संयम के उपकारक होने से कर्मों की निर्जरा के ही साधक होते हैं, इसीलिये वे संयम अवस्था में स्वीकार किये जाते हैं। परिग्रह वहीं पर है कि जहां पर मूर्छाभाव से अपनाना होता है। इन पात्रादिकों का ग्रहण मूर्छाभाव से नहीं किया जाता है, अतः ये परिग्रहरूप नहीं हैं, प्रत्युत इनके अभाव में संयमयात्रा का यथावत् निर्वाह नहीं हो सकता, इसीलिये इनका ग्रहण करना आवश्यक बतलाया गया है। इसी बात की पुष्टि सूत्रकारने "अन्यथानपश्यकः परिहरेत्” इस वाक्य से की है। वस्त्र पात्रादिक धर्मोपकरण हैं, इनके विना संयम का यथावत् निर्वाह नहीं हो सकता, इसलिये इनका रखना आवश्यक है। इस प्रकार उनको परिग्रहरूप नहीं देखता हुआ अनगार इनसे अतिरिक्त धन
સાધુઓને જ્યારે પિતાના શરીર ઉપર જ મોહ અને મમત્વ નથી થતે તે પછી શરીરથી સર્વથા ભિન્ન ઉપકરણદિકોમા મમત્વભાવ કેવી રીતે હેઈ શકે. મુનિ અવસ્થામાં માત્રાનુસાર ગ્રહણ કરેલા વસ્ત્રપાત્રાદિક સંયમના ઉપકારક હોવાથી કર્મોની નિજેરાના જ સાધક બને છે, માટે તે સયમ અવસ્થામાં સ્વીકાર કરવામાં આવે છે પરિગ્રહ તે જગ્યા ઉપર છે કે જ્યાં મૂઈ ભાવથી લેવામાં આવે છે. આ પાત્રાદિકોનું ગ્રહણ મૂછભાવથી કરવામાં આવતું નથી, માટે તે પરિગ્રહરૂપ નથી પ્રત્યુત તેના અભાવમાં સંયમયાત્રાને યથાવત નિર્વાહ થઈ શકતું નથી, માટે તેનું ગ્રહણ કરવું આવશ્યક બતાવ્યું છે. मा पातनी पुष्टि सूत्रारे “ अन्यथानपश्यक. परिहरेत् " ! पायथी ४२ છે. વસ્ત્રપત્રાદિક ધર્મોપકરણ છે, તે વિના સંયમને યથાવત્ નિર્વાહ થઈ શકત નથી, માટે તેનું રાખવું આવશ્યક છે. એ પ્રકારે તેને પરિગ્રહરૂપ નહિ દેખતા
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अध्य० २. उ. ५
२८९
मुचितम्, यतश्चानुकूले वस्तुनि रागः प्रतिकूले द्वेषश्च सज्जायते, एवञ्च रागद्वेषयोरवश्यंभावान्मूर्च्छा, सैपा परिग्रहः 'मुच्छा परिग्गहो बुत्तो' इति वचनात्, तत्सद्भावे च कर्मबन्ध इति कथं संयमोपकरणस्य न परिग्रहत्वमिति चेदुच्यते - धर्मोपकरणे मुनीनां ' ममेद ' - मिति न मोहो भवति । उक्तञ्च
CC अवि अपणोऽवि देहम नायरंति ममाइयं " इति । (दश. अ. ६ गा. २२) ठीक नहीं है, कारण कि यह भी परिग्रह ही है, और परिग्रह का त्याग किये विना सर्वथा संयमाराधकता होती नहीं है । परिग्रहरूपता इनमें इसलिये है कि अनुकूल इनकी प्राप्ति में प्राप्तकर्ता को हर्ष, और प्रतिकूल प्राप्ति में पानेवाले को देव होता है। जहां पर राग और द्वेष है वहां पर मूर्छा है, और मूर्छा का होना ही परिग्रह है । "मुच्छा परिग्गहो वृत्तो" मूर्छा ही परिग्रह है, ऐसा भगवान का कथन है, जहां इसका सद्भाव है वहां कर्मबन्ध अवश्य है, अतः वस्त्रपात्रादिक उपकरण को परिग्रह क्यों नहीं कहा गया है ? |
यह
उत्तर-- सामान्यतया वस्त्रपात्रादिकों में परिग्रहता का हम निषेध नहीं करते हैं, किन्तु जो संयम के उपकारक हैं वे परिग्रहरूप नहीं है । यह एक विशेष विधि है, कारण कि मुनियों को उनमें " मम इदं " " मेरे हैं' इस प्रकार की ममत्वभावरूप मूर्छा नहीं होती है। कहा भी है"अवि अप्पणोवि देहंमि, नायरंति ममाइयं" इति । (दश. अ. ६ गा. २२) કારણ તે પણ પરિગ્રહ જ છે. અને પરિગ્રહના ત્યાગ કર્યા વિના સથા સંચમારાધકતા થતી નથી. પરિગ્રહરૂપતા તેમાં એ માટે છે કે અનુકૂળ તેની પ્રાપ્તિમાં પ્રાપ્તકર્તા ને હર્ષ અને પ્રતિકૂળ પ્રાપ્તિમાં લેનારને દ્વેષ થાય છે, જે જગ્યાએ રાગ અને દ્વેષ છે ત્યાં મૂર્છા છે, અને મૂર્છાનુ` હાવું તે પરિગ્રહ છે. “ मुच्छा परिहो बुत्तो" भूर्छा से परियड छे, मेवु लगवाननु थन छे, न्न्यां तेना સદ્ભાવ છે ત્યાં કાઁખધ અવશ્ય છે, માટે વજ્રપાત્રાદિક કેમ માનેલ નથી ?
ઉપકરણને પરિગ્રહ
ઉત્તર—સામાન્ય રીતે વજ્રપાત્રાદિકામાં પરિમહતાના અમે નિષેધ કરતા નથી, જે સંયમના ઉપકારક છે તે પરિગ્રહરૂપ નથી. એ એક વિશેષ વિધિ છે, अर भुनियाने तेभां " मम इदं " से भाग छे से प्राश्नी भभत्य लावय મૂર્છા થતી નથી. કહ્યુ પણ છે—
'अवि अपणो विदेहमि नायरंति ममाइय "fa (821. 24. 8 31. 22)
"
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आचारागसूत्रे . हे शिष्य ! यथा येन प्रकारेण त्वं कुशलः सन् आर्यक्षेत्रसुकुलजन्मादिकं, संसारार्णवतरि बोधि, सकलकर्मक्षपणसमर्थ चारित्रंच लब्ध्वा अत्र-इह तीर्थङ्करनिर्दिटमार्गेष्टविधकमहेतुभूतेन पापकर्मणा नोपलिम्पये नोपलिप्तो भवेस्तथा कुरुष्व, एतस्मिन्मार्ग स्थित एव मुनिः सम्यग्ज्ञानादिकं लभत इति भावः । इति-शब्दोऽधिकारसमाप्त्यर्थः, स चाहारादिगवेषणारूपः। यन्मया भगवत्समीपे श्रुतं तत्सर्वं त्वां ब्रवीमि वच्मि । इति ॥मू० ७॥
परिग्रहादात्मनिवृत्तिश्च तत्कारणोन्मूलनं विना न सम्भवति, तत्कारणं च शब्दादयः पञ्च कामगुणाः, तेषामुन्मूलनं च दुष्करमिति दर्शयति- कामा' इत्यादि ।
मूलम्-कामा दुरइक्कमा, जीवियं दुप्पडिबूहगं, कामकामी खल्लु अयं पुरिसे, से सोयइ जूरइ तिप्पइ पिट्टइ परितप्पइ।सू०८॥ बारह प्रकार की सभा में प्रकट किया है। उन्होंने कहा है कि जो मनुष्य आर्य क्षेत्र, सुकुल में जन्म; संसाररूपी समुद्र के पार पहुंचने के लिये नौका खरूप बोधि, एवं सकल कर्मों के विनाशक चारित्र को प्राप्तकर तीर्थकरादि प्रदर्शित इस मार्ग का अवलंबन करता है-इसमें प्रवृत्ति करता है वह पापकर्म से-जो अष्ट प्रकार के कर्मों के आस्त्रव का हेतु है-कभी भी उपलिप्त नहीं होता है, इसलिये हे शिष्य ! तुम भी अपनी प्रवृत्ति को इस प्रकार की बनाओ, ताकि तुम भी इस विषय में कुशल बन पापकर्म से उपलिप्त न हो सको । सूत्र में 'इति' शब्द इस अधिकार की समाप्ति का सूचक है, अर्थात् हे शिष्य ! आहारादिक की गवेषणारूप यह अधिकार जैसे मैंने भगवान् के निकट सुना है वैसा ही यहां तुम से प्रकट किया है, मेरी निजी कल्पना इस विपय में कुछ भी नहीं है ।।सू.७॥ પ્રકારની સભામાં પ્રગટ કરેલ છે. તેઓએ કહ્યું છે કે-જે મનુષ્ય આર્યક્ષેત્ર, સુકુળમાં જન્મ. અવ્યાબાધ સુખરૂપી સમુદ્રના પાર સ્વરૂપ બધિ અને સકલ કર્મોના વિનાશક ચારિત્રને પ્રાપ્ત કરી તીર્થંકરાદિપ્રદશિત આ માર્ગનું અવલંબન કરે છે–આમાં પ્રવૃત્તિ કરે છે તે પાપકર્મથી જે આઠ પ્રકારના કર્મોના આસવને હેતુ છે-કેઈ વખત પણ ઉપલિત થતો નથી. માટે હે શિષ્ય ! તમે પણ તમારી પ્રવૃત્તિને એવા પ્રકારની બનાવે કે તમે પણ આ વિષયમાં કુશળ બની પાપ કર્મથી ઉપसित न य श सूत्रमा 'इति' २ मा मधिलारनी समातिनी सूय छ, અર્થાત્ હે શિષ્ય આહારાદિકની ગવેષણરૂપ આ અધિકાર જે મેં ભગવાન પાસેથી સાંભળે છે તે હું તને કહું છું, મારી પિતાની કલ્પના આ વિષયમાં કાંઈ પણ નથી. એ સૂ૦ ૭.
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अध्य० २. उ. ५ परित्यजेत् , न तत्र ममत्वं कुर्यादित्यर्थः। समुचितमात्रयाऽऽहारादिग्राही मुनिर्लाभालाभहर्पविषादवर्जितः परिग्रहाग्रहनिवृत्तो रत्नत्रयसमाराधनतत्परो भवेदिति तात्पर्यम् ॥ मू०६॥
केन दर्शितोऽयं मार्ग इति दर्शयति- एस मग्गे' इत्यादि ।
मूलम्-एस मग्गे आरिएहिं पवेइए जहेत्थ कुशलो नोपलिंपेज्जासि-त्ति वेमि ॥ सू०७॥ - छाया-एप मार्ग आयैः प्रवेदितः यथाऽत्र कुशलो नोपलिम्पयेः। इति ब्रोमि ॥ भू० ७॥ ___टीका-' एप मार्ग' इत्यादि। एपः-पूर्वोक्तरूपः मार्गः श्रुतचारित्रलक्षणः आर्यैः तीर्थङ्करगणधरादिभिः प्रवेदितः-प्र-अकण द्वादशपरिपदि कथितः। धान्यादि को परिग्रह समझकर छोड़ देता है । गृहस्थ जिस प्रकार वस्त्रादिकों को शारीरिक सुखादि का कारण मानकर उन्हें ग्रहण करना है उस प्रकार की भावना से मुनि नहीं। धर्मोपकरण से धर्म का ही साधन होता है-अन्य शरीरसुखादिक का नहीं । ऐसा मानकर ही मुनि ग्रहण करता है, और उनमें ममत्वभाव से रहित होता है । तात्पर्य यह है किअनगार को समुचित मात्रा में आहारादिक ग्रहण करने वाला, लाभ और अलाभ में समभाची; परिग्रह से विरत, और रत्नत्रय की आराधना में निमग्न होना चाहिये ॥ सू० ६॥
इस मार्ग के प्रदर्शक कौन हैं? इस बात को दिखलाते हुए सूत्रकार कहते हैं-'एस मग्गे' इत्यादि।
यह पूर्वोक्त श्रुतचारित्ररूप मार्ग तीर्थंकर गणधरादिक आर्य पुरुषोंने અણગાર તેનાથી અતિરિક્ત ધનધાન્યાદિને પરિગ્રહ સમજીને છોડી દે છે. ગૃહસ્થ જેવી રીતે વસ્ત્રાદિકોને શારી&િ સુખાદિકનું કારણ માનીને તેને ગ્રહણ કરે છે તે પ્રકારની ભાવનાથી મુનિ નહિ. ધર્મોપકરણથી ધર્મનું જ સાધન થાય છે–અન્ય શરીરસુખાદિકનું નહિ. એવું માનીને જ મુનિ તેને ગ્રહણ કરે છે, અને તેમાં મમત્વભાવથી રહિત થાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે-અણગારે સમુચિત માત્રામાં આહારાદિક પ્રહણ કરવાવાળા. લાભ અને લાભમાં સમજાવી, પરિગ્રહથી વિરત, અને રત્નત્રયની આરાધનામાં નિમગ્ન થવું જોઈએ. જે સૂવ દ છે
આ માર્ગનો પ્રદર્શક કોણ છે, આ વાતને બતાવતાં સૂત્રકાર કહે છે – 'एस मग्गे' या
આ પૂર્વોક્ત પુતચારિત્રરૂપ માર્ગ તીક ગણધરાદિક આર્ય પુરૂષોએ બાર
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आचाराङ्गसूत्रे अत एव द्विविधा अपि कामा 'दुरतिक्रमाः' दुः-दुःखेनातिक्रमः-उन्मूलनं-विनाशो येपां ते दुरतिक्रमाः । अथवा-दुःखेनातिक्रम्यन्ते-उन्मूल्यन्ते ये ते दुरतिक्रमाः दुःशक्यप्रतीकारा दुष्परिहरा इति यावत् ।
किं च-जीवितं भवग्रहायुष्कं प्रतिदिनमपचीयमानतया दुष्परिहणीयं-बर्द्धयितुमशक्यं परिजीणच्छिन्नवस्त्रवत्सन्धातुमनहमित्यर्थः ।
यद्वा-जीवितं-संयमजीवितं दुष्परिबृंहणीयं, संयमिनश्चारित्रान्तरायोदयास्कामाभिप्वङ्गे सति संयमजीवितस्य प्रत्यहं क्षीयमाणत्वात् । दिन हास हो रहा है। आयुकर्म का शास्त्रकारों ने अपकर्षण तो बतलाया है किन्तु उत्कर्षण नहीं, इसलिये आयुःकर्म का प्रतिसमय अपचय होने से जीवन भी अपचय की ओर ही बढ रहा है। ऐसा कोई भी कारण नहीं है जो जीवन को स्थिर, अथवा भुज्यमान आयु में एक समय भी वृद्धि कर सके, इसलिये जिस प्रकार बिलकुल जीर्ण फटे हुए वस्त्र का सीना अशक्य होता है उसी प्रकार आयुकर्म की वृद्धि होनी भी अशक्य है। ऐसासमझकर आत्महितैषी के लिये इन विषयादिकों में वाञ्छा नहीं करनी चाहिये । जीवन का जितना अंश इस प्रकार की प्रवृत्ति से सुरक्षित रह सके ऐसा ही प्रयत्न करते रहना चाहिये ।।
अथवा-जीवन शब्द का अर्थ संयमजीवन है। यह दुष्परिबृंहणीय (बढाना मुश्किल) इसलिये बतलाया जा रहा है कि यदि संयमी को चारित्रमोहनीय के उदय से कामगुणों में वाञ्छा उत्पन्न हो जावे तो હાસ થઈ રહ્યો છે, આયુકર્મને શાસ્ત્રકારોએ અપકર્ષણ તે બતાવેલ છે, પણ ઉત્કર્ષણ નહિ, માટે આયુ કર્મ પ્રતિસમય અપચય હોવાથી જીવન પણ અપ ચય ની તરફ જ વધી રહ્યું છે એવું કંઈ પણ કારણ નથી જે જીવનને સ્થિર અથવા ભૂજ્યમાન આયુમાં એક સમય પણ વૃદ્ધિ કરી શકે, માટે જે પ્રકારે બિલકુલ ફાટેલા વસ્ત્રનું શીવવું અશક્ય થાય છે તે પ્રકારે આયુકર્મની વૃદ્ધિ થવી પણ અશક્ય છે એવું સમજીને આત્મહિતૈષી માટે આ વિષયાદિકોમાં વાંચ્છના નહિ કરવી જોઈએ. જીવનને જેટલો પણ અંશ આ પ્રકારની પ્રવૃત્તિથી સુરક્ષિત રહી શકે તે જ પ્રયત્ન કરતા રહેવું જોઈએ
અથવા–જીવિત શબ્દનો અર્થ સંયમ જીવન છે આ દુષ્પરિબંહણય (વધારવું મુશ્કેલ) છે એટલા માટે બતાવવામાં આવેલ છે કે કદાચ સંયમીને ચારિત્ર મેહનીયના ઉદયથી કામગુણેમા વાંછના ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. તેનું તે સ યમ
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अध्य० २ उ. ५
छाया-कामा दुरतिक्रमाः, जीवितं दुष्पतिवृंहणीयं, कामकामी खलु अयं पुरुपः, स शोचति जूयंते तेपते पीड्यते परितप्यते ।। मू० ८॥
टीका-'कामा' इत्यादि । कामाः-इच्छामदनभेदाद्विविधाः। तत्र-इच्छाकामा:हिरण्यादिवाञ्छारूपाः, मदनकामाः शब्दादिरूपाः, पूर्वस्य कारणं मोहनीयभेदौ हास्यरती, परस्य च कारणं मोहनीयभेदवेदोदयः । ततश्चोभयोरपि कामयोः प्रादुर्भावो मोहनीयादेव, एवञ्च कारणसत्त्वे कार्यभूतस्य कामस्योन्मूलनमशक्यम् ।
परिग्रह से निवृत्ति, उसके कारणों का नाश किये विना नहीं हो सकती। उसके कारण शब्दादिक पांच काम गुण हैं । उनका उन्मूलन करना बड़ा कठिन है, इसी बात को प्रदर्शित करते हुए सूत्रकार कहते हैं-"कामा दुरइकमा" इत्यादि।
इच्छा और मदन के भेद से काम दो प्रकार का है। हिरण्यादिक की वान्छारूप इच्छाकाम है । इसका कारण मोहनीय कर्म का भेद हास्य और रति है। शब्दादिक पांच इन्द्रियों के विषय मदनकाम है। इनका भी कारण-मोहनीय कर्म का भेद-वेद-नोकषाय का उदय है । इस प्रकार इन दोनों कामों की उत्पत्ति मोहनीयकर्म के उदय से ही होती है। कारण के सद्भाव में कार्य का सद्भाव अवश्यंभावी है, इसीलिये सूत्र में सूत्रकार ने “दुरतिक्रमाः" इस पद से इनका उन्मूलन दुष्कर बतलाया है। जरतक मोहनीयरूप कारण का उदय है तब तक इनका अभाव हो ही नहीं सकता, अतः इनका प्रतीकार करना दुःशक्य है । जीवन का भी प्रति
પરિગ્રહથી નિવૃત્તિ તેના કારણને નાશ કર્યા વગર બની શકતી નથી. તેનું કારણ શબ્દાદિક પાંચ કામ ગુણ છે. તેનુ ઉમૂલન કરવું ઘણું કઠિન છે આ पातने प्रदर्शित ४२ता सूत्रा२ ४ छ–'कामा दुरइकमा' त्यादि.
ઈચ્છા અને મદનના ભેદથી કામ બે પ્રકારના છે. હિરણ્યાદિકની વાંચ્છારૂપ ઈચ્છાકામ છે, તેનું કારણ મોહનીય કર્મના ભેદ-હાસ્ય અને રતિ છે. શબ્દાદિક પાંચ ઈન્દ્રિયને વિષય મદન કામ છે, તેનું પણ કારણ–મોહનીય કર્મના ભેદ-વેદ–નેકવાયને ઉદય છે. આ પ્રકારે અને કામની ઉત્પત્તિ મોહનીય કર્મના ઉદયથી જ થાય છે, કારણ સભાવમાં કાર્યને સભાવ અવંયભાવી छ, भाटे सूत्रमा सूत्रधारे " दुष्करं" मा ५४थी तेनु उन्भूबन दु४२ मताव्यु છે. ત્યાં સુધી મોહનીયરૂપ કારણને ઉદય છે ત્યાં સુધી તેનો અભાવ થઈ જ શકતે નથી, માટે તેને પ્રતિકાર કરે શકય છે. જીવનને પણ પ્રતિદિન
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आवाराणसूत्रे प्रथमतरमथेदं चिन्तनीयं तवासीद् ,
बहुजनदयितेन प्रेम कृत्वा जनेन ॥ हतहृदय ! निराश ! क्लीव ! संतप्यसे किं,
नहि जड ! गततोये सेतुबन्धाः क्रियन्ते ॥१॥ इति । अपि च तेपते कुलादिमर्यादातः संचलति-निमर्यादो भवतीत्यर्थः। तथा पीड्यते शारीरमानसदुःखैः क्लिश्यते । किं च-परितप्यते-परि-सर्वतो बाह्यमन्तश्च यह बात इस श्लोक से प्रकट की जाती है
"प्रथमतरमथेदं चिन्तनीयं तवासीद् , बहुजनदयितेन प्रेम कृत्वा जनेन । हतहृदय ! निराश! क्लीय ! संतप्यसे किं,
नहि जड ! गततोये सेतुबन्धाः क्रियन्ते" ॥१॥ इति ॥ कामियों की दशा ही कुछ ऐसी विलक्षण होती है कि जिस की वजह से वे अपनी कुल की मर्यादा तक को भी छोड़ देते हैं। शारीरिक एवं मानसिक दुःखों से वे सदा संतप्त रहा करते हैं । रातदिन पश्चात्ताप ही पश्चात्ताप किया करते हैं कि "यदि ऐसा उपाय करते तो यह बात बन जाती, ऐसा उपाय करते तो यह कामना फलीभूत हो जाती, अब क्या करें ?, ऐसा नहीं हुआ" इत्यादि पश्चात्ताप से बाहर भीतर जला करते हैं । मन में पश्चात्ताप करना भीतरी पश्चात्ताप है, और उसे शब्द से प्रकट करना बाह्य पश्चात्ताप है। मनोज्ञ पदार्थों की अप्राप्ति में अथवा पुत्रकलबादि पदार्थों के विनाश में दुःखी होना भी परिताप है । ये जो
प्रथमतरमथेदं चिन्तनीयं तवासीद,वहुजनदयितेन प्रेम कृत्वा जनेन । हतहृदय ! निराश! क्लीव ! संतप्यसे किं,
नहि जड! गततोये सेतुबन्धाः क्रियन्ते" ॥१॥ इति ॥ કામીઓની દશા જ કઈ એવી વિલક્ષણ થાય છે કે જે તે પિતાના કુળની મર્યાદાને પણ છેડી દે છે, શારીરિક અને માનસિક દુખેથી તે સદા સંતપ્ત રહ્યા કરે છે રાતદિન પશ્ચાતાપ જ કર્યા કરે છે કે—“ કદાચ એ ઉપાય કરત તો એ વાત બની જાત, આ ઉપાય કરત તો તેમા મારી કામના ફળીભૂત થાત, હવે શું કરું એવું બન્યું નહિ” ઈત્યાદિ પશ્ચાત્તાપથી બહારથી તેમજ અદરથી બળ્યા કરે છે, મનમાં પશ્ચાત્તાપ કરે અંતરને વાતાપ છે, અને તેને શબ્દથી પ્રગટ કરે તે બાહ્ય પશ્ચાતાપ છે. મનેઝ પદાની અપ્રાપ્તિમાં અથવા પુત્રકલત્રાદિ પદાર્થોના વિનાશમાં દુખી થવું પણ પરિ
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अध्य० २. उ ५
यतः कामा दुरतिक्रमा अत एव अयं पुरुपः खलु-निश्चयेन कामकामी-कामं द्विप्रकारं कमितुं शीलं यस्य स कामकामी कामस्पृहाशीलो भवति, य ईदृशः सा= पूर्वोक्तप्रकारः अपहतमनःसंकल्पः रान् किं करोतीत्याह-शोचतीति । शोचतिइष्टविपयाप्राप्तौ तन्नाशे वा शोकं करोति। अपि च स एव जूर्यते-जूरणां करोतिअन्तदुःखेन शरीरं शोपयतीत्यर्थः, दीनः सन् बहु विलपति, तथाहिउसका वह संयमजीवन बिलकुल ही नष्ट हुआ समझना चाहिये । ऐसा तो हो नहीं सकता कि संयमजीवन बना रहे और कामगुणों की वाञ्छा भी अपना काम करती रहे । इसलिये ऐसी परिस्थिति में संयमजीवन का पालन अशक्य ही है।
जब ये कामगुण दुरतिक्रम हैं तब ही तो प्राणी इनके अधीन बन इनकी ओर स्पृहाशील होकर आकृष्ट होता है। आकृष्ट होने पर भी जब इसका मानसिक संकल्प पूर्ण नहीं होता, अथवा इसकी मनचाही वस्तु इसे नहीं मिलती तब यह प्राणी शोकाकुल होता रहता है। यदि इसे मनचाही वस्तु मिल भी जाती है परन्तु ज्यों ही इसका वियोग हो जाता है तो इसके हृदय में अपार शोक का समुद्र उमडने लगता है। अनभीष्ट संयोग होने पर उसे दूर करने के लिये इसके चित्त में अनेक प्रकार के अशुभ संकल्प उठते रहते हैं । अनिष्ट वस्तु के संयोग में ऐसा ही होता है। प्राणी उस समय अन्तर्नुःख से अपने तक को भी सुखा देता है। कामी पुरुप स्वतः ही दीन बनकर प्रलाप करने लग जाता है। જીવન બિલકુલ જ નષ્ટ થયેલ સમજવું જોઈએ. એવુ તે બની જ શકતું નથી કે સંયમજીવન બની રહે અને કામગુણોની વાંછના પણ પિતાનું કામ કરતી રહે. માટે આવી પરિસ્થિતિમાં સંયમજીવનનું પાલન અશકય જ છે.
જ્યારે એ કામગુણ દુરતિકમ છે ત્યારે જ તો પ્રાણી તેના આધીન બની તેની તરફ પૃહાશીલ બનીને આકૃષ્ટ થાય છે. આકૃષ્ટ થવા છતાં પણ જ્યારે તેને માનસિક સંકલ્પ પૂર્ણ નથી થતો, અથવા તેની મનપસંદ વસ્તુ તેને નથી મળતી ત્યારે તે પ્રાણી શકાકુલ થઈ રહે છે. કદાચ તેને મનપસંદ વસ્તુ મળી પણ જાય પરંતુ ત્યાં તેનો વિયોગ થઈ જાય છે તો તેના હૃદયમાં અપાર શેકનો સમુદ્ર ઉભગવા લાગે છે. અનભીષ્મ સાગ બનવાથી તેને દૂર કરવા
તેના ચિત્તમાં અનેક પ્રકારના અશુભ સંક૯પ વિકલ્પ ઉડતા રહે છે, અનિષ્ટ વસ્તુના સંયોગમાં એવું જ થાય છે. પ્રાણી તે વખતે અંતરદુઃખથી પિતાની જાતને પગ મુકાવી નાંખે છે. કામી પુરૂષ સ્વતઃ દીન બની પ્રલાપ કરવા લાગી જાય છે,
બાન લોકધી પ્રકટ કરવામાં આવે છે.
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आचाराङ्गसूत्रे
नाचरितः ' इति शोकं करोति । अशुभस्य परिणतिमनवधायैव तत्र या प्रवृत्तिर्विहिता सा वार्द्धक्ये दुःखदा भवति । उक्तञ्च
" भवित्रीं भूतानां परिणतिमनालोच्य नियतां, पुरा यद्यत् किञ्चिद्विहितमशुभं यौवनमदात् । पुनः प्रत्यासन्ने महति परलोकैकगमने, तदेवैकं पुंसां व्यथयति जराजीर्णवपुषाम् " ॥ १ ॥ 'जूर्यते ' इत्यादेरर्थस्तु पूर्ववत् । अतो मेधाविना पूर्व कार्यं परिणतिमालोच्यैव करणीयं, येन पश्चात् पश्चात्तापो न भवेत् । उक्तञ्च —
में उपार्जित अशुभ परिणति के ही फलरूप हैं । नीचे के श्लोक में यही वात प्रकट की गई है, जैसे
"भवित्रीं भूतानां परिणतिमनालोच्य नियतां,
पुरा यद्यत् किञ्चिद्विहितमशुभं यौवनमदात् ।
पुनः प्रत्यासन्ने महति परलोकैकगमने,
तदेवैकं पुंसां व्यथयति जराजीर्णवपुषाम् " ॥ १ ॥ इति । वृद्ध अपने को दुःखी देखकर झूरता है, मानसिक एवं शारीरिक अनेक कष्टों का अनुभव करता है । दुःखी होने पर अपनी कुलमर्यादा का भी ध्यान नहीं रखता । इसलिये बुद्धिमान पुरुष का कर्तव्य है कि प्रत्येक कार्य के प्रारम्भ - काल में उसके फलाफल का विचार कर उस कार्य के करने में प्रवृत्ति करे । विना विचारे तथा उसकी सारता एवं असारता की पूरी विचारणा किये बिना कोई भी कार्य नहीं करना चाहिये, नहीं तो पश्चात्ताप के सिवाय और कोई फल हाथ नहीं लगता ફળરૂપ છે. નીચેના બ્લેકમાં એજ વાત પ્રગટ કરવામા આવેલ છે. જેમ—
भवित्रीं भूतानां परिणतिमनालोच्य नियतां,
पुरा यद्यत् किञ्चिद्विहितमशुभं यौवनमदात् ।
पुन प्रत्यासन्ने महति परलोकैकगमने,
तदेवैक पुंसां व्यथयति जराजीर्णवपुषाम् " ॥ १ ॥ इति.
વૃદ્ધ પેાતાને દુ.ખી દેખીને ઝુરે છે, માનસિક અને શારીરિક અનેક કષ્ટોને અનુભવ કરે છે. દુ:ખી થવાથી પેાતાની કુળમર્યાદાના પણ ખ્યાલ રાખતા નથી તેથી બુદ્ધિમાન પુરૂષનુ કર્તવ્ય છે કે પ્રત્યેક કાર્યના પ્રાર ભકાળમાં તેના ફળાફળના વિચાર કરી તે કા મા પ્રવૃત્તિ કરે. વિચાર્યા વગર તથા તેની સારતા અને અસારતાની તપાન કર્યા વિના કાઈ પણ કાર્ય કરવુ જોઈ એ નિહ. નહિ તે પશ્ચાત્તાપ સિવાય
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अध्य० २. उ. ५
___२९७ तप्यते पश्चात्तापसंतप्तो भवति । अथवा-हिताप्राप्तौ पुत्रकलत्रादिनाशे च परितप्यते । निखिलमिदं हि शोचनादिकं विषयासङ्गेन कलुषितान्तःकरणस्य दुःखावस्थाद्योतकम् ।
यदि वा यौवनधनमदमोहाभिभूतः काञ्चनकामिन्यादीन्युपभुज्य वृद्धावस्थायां निकटमरणकाले शोचति-'धिग् मां हतभाग्य, यदवसरे सकलसुखदो धर्मों मया शोचनादिक अवस्थाएं यहां कामी पुरुषों की प्रकट की गई हैं ; वे समस्त ही विषय के सम्बन्ध से कलुषित-अन्तःकरणवाले व्यक्तियों की दुःखावस्था की द्योतक हैं।
अथवा-'शोचति' आदि पदों के अर्थ का समन्वय वृद्धावस्था के साथ भी इस प्रकार से होता है-यौवन और धन के मद से उन्मत्त तथा मोह के नशे से अचेत बना हुआ यह प्राणी कंचन कामिनी का उपभोग करते २ जब वृद्धावस्था का मेहमान होता है और अपना भरणकाल निकट देखता है तब वह शोकाकुल हो विचारता है-मुझ अभागे को धिक्कार है कि मैंने योग्य अवसर के प्राप्त होने पर भी सकल सुखदायी धर्म का अराधन नहीं किया, रात दिन यौवन और धन के मद से उन्मत्त होकर अशुभ का ही संग्रह किया, इसका फल क्या होगा? इस बात का जरा भी विचार नहीं किया; अब वृद्धावस्था आचुकी है, इसमें जिन २ कष्टों का मैं अनुभव कर रहा हूँ ये सब पूर्व તાપ છે. આ જે શોચનાદિક અવસ્થાએ આ ઠેકાણે કામી પુરૂષોની પ્રગટ કરેલ છે તે સમસ્ત વિષયના સંબંધથી કલુષિત અન્ત:કરણવાળી વ્યક્તિઓની દુઃખાવસ્થાની દ્યોતક છે.
___मया-'शोचति ' माह पहोना मथ ने समन्वय वृद्धावस्थामा ५५ આ પ્રકારે થાય છે–ચૌવન અને ધનના મદથી ઉન્મત્ત તથા મોહના નશાથી અચેત બનેલ તે પ્રાણી કંચન કામિનીને ઉપભેગ કરતે કરતે જ્યારે વૃદ્ધાવસ્થાને મહેમાન થાય છે અને પિતાને મરણકાળ નિકટ આવેલે જાણીને શોકાતુર બની વિચારે છે કે “મને અભાગીને ધિક્કાર છે કે મેં યોગ્ય અવસરની પ્રાપ્તિ હોવા છતાં પણ સુખદાયી ધર્મનું આરાધન ન કર્યું. રાતદિન યૌવન અને ધનના મદથી ઉન્મત્ત બની અશુભને જ સંગ્રહ કર્યો, તેનું ફળ શું મળશે? એ વાતને જરા પણ વિચાર ન કર્યો. હવે વૃદ્ધાવસ્થા આવી તેમાં જે જે કષ્ટોને હું અનુભવ કરી રહ્યો છું તે બધા પૂર્વમાં ઉપાર્જિત અશુભ પરિણતિનું જ
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३००
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आचाराङ्गसूत्रे ___ छाया-आयतचक्षुर्लोकविदर्शी लोकस्याधोभाग जानाति, ऊर्ध्व भागं जानाति, तिर्यश्चं भागं जानाति, गृद्धो लोकोऽनुपरिवर्तमानः सन्धि विदित्वा इह मत्यैपु, एप वीरः प्रशंसितो यो बद्धान् परिमोचयति, यथाऽन्तस्तथा वाह्य, यथा वाह्य तथाऽन्तः, अन्तः अन्तः पूतिदेहान्तराणि पृथगपिस्रवन्ति पण्डितः प्रत्युपेक्षेत।९।
टीका-' आयतचक्षुरित्यादि । आयतचक्षुः आयतं-दीर्घ चक्षुः ज्ञानचक्षुर्यस्य स आयतचक्षुः ऐहिकपारत्रिकदुःखदर्शी-'कामा नियमतोऽनर्थवहुला' इत्यवधार्य तान् विहायाऽऽत्मसुखानुभवीत्यर्थः । किंच लोकविदशी, लोकं विषयासड्रेन क्लिश्यमानं जनं वि-विशेषेण कामाभिप्वङ्गेन लोके दुःखाधिक्य, तत्यागेन च प्रशमसुखं भवति' इत्येवंरूपेण द्रष्टुं शीलं यस्य स लोकविदर्शी-लोकदुःखाभिज्ञः,
शोकादिकों को कौन प्राप्त नहीं करता ? इसके लिये सूत्रकार कहते हैं-'आययचक्खू' इत्यादि। । इहलोकसम्बन्धी और परलोकसम्बन्धी दुःखों का ज्ञान जिससे होता है ऐसे ज्ञानचक्षु का ही यहां पर चक्षु-शब्द से ग्रहण किया गया है । उभयलोकसम्बन्धी दुःखों के ज्ञान से ही उस चक्षु में आयतता प्रकट की गई है । इसी आभ्यन्तर चक्षु से यह जाना जाता है कि कामगुण नियम से अनर्थकारी हैं । अतः इनका परित्याग कर आत्मसुख का अनुभवशाली होना चाहिये । इस प्रकार के पवित्र विचार से जो उस सुख का अनुभवी है, तथा जो लोकविदर्शी है-अर्थात् जो इस बात को जानता है कि यह लोक विषयों के सम्बन्ध से ही अधिक दुःखी हो रहा है, यदि प्रशम सुख यहां पर हो सकता है तो उनके सच्चे त्याग से ही हो सकता है। इस प्रकार से जिसके देखने का खभाव है उसका
शनि और प्रात नथी ४२॥ तेन भाटे सूत्रा२ ४९ छ-'आययचक्खू' छत्यादि
આ લેકમ બધી અને પરલોકસંબધી દુખનું જ્ઞાન જેને થાય છે એવા જ્ઞાનચક્ષુને આ ઠેકાણે ચક્ષુ-શબ્દથી ગ્રહણ કરેલ છે અને લોકસંબંધી દુ ખાના જ્ઞાનથી જ તે ચક્ષુમાં આયતતા પ્રગટ કરેલ છે આ આભ્યન્તર ચક્ષુથી એમ જાણવામાં આવે છે કે કામગુણ નિયમથી અનર્થકારી છે, માટે તેને પરિ ત્યાગ કરી આત્મસુખના અનુભવશાળી બનવું જોઈએ. આવા પ્રકારના પવિત્ર વિચારથી જે તેવા સુખના અનુભવી છે, તથા જે લોકવિદર્શ છે અર્થાત જે આ વાતને જાણે છે કે આ લેક વિયેના સંબંધથી જ અધિક દુ ખી બની રહેલ છે કદાચ પ્રશમ સુખ અહીં બની શકતું હોય તે તેના સાચા ત્યાગથી જ બની શકે છે. આવા પ્રકારથી જેને દેખવાને સ્વભાવ છે તેનું નામ લેક
એ
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अध्यं० २. उ. ५
" उचितमनुचितं वा कुर्वता कार्यमादौ परिणतिरवधार्या यत्नतः पण्डितेन । अतिरभसकृतानां कर्मणामाफलाप्ते,भवति हृदयदाही शल्यतुल्यो विपाकः"॥१॥ इति ।
अतः परिग्रहकारणं शब्दादिकामगुणोऽवश्यमुन्मूलनीयो मुनिनेति तात्पर्यम् ॥ मू० ८॥
कः शोकादिकं न प्रामोतीति दर्शयति-'आययचक्खू ' इत्यादि । मूलम्-आययचक्खू लोगविपस्सी लोगस्स अहोभागं जाणइ, उड्ढं भागं जाणइ, तिरियं भागं जाणइ, गढिए लोए अणुपरियमाणे संधि विइत्ता इह मच्चिएहि, एस वीरे पसंसिए जे बढे पडिमोयए, जहा अंतो तहा बाहिं, जहा बाहिं तहा अंतो, अंतो अंतो पूइदेहंतराणि पासइ पुढो वि सवंताई पंडिए पडिलेहए ॥ सू० ९॥ है। नीचे के पद्य में यही बात दिखलाई गई है, जैसे
"उचितमनुचितं वा कुर्वता कार्यमादौ, परिणतिरवधार्या यत्नतः पण्डितेन । अतिरभसकृतानां कर्मणामाफलाप्ते,
भवति हृदयदाही शल्यतुल्यो विपाकः” ॥१॥ इसलिये मुनिजन का कर्तव्य है कि वे जैसे भी हो सके परिग्रह के कारणभूत इन पूर्वोक्त कामगुणों का उन्मूलन करें ॥ सू० ८॥ બીજું કાંઈ પણ ફળ મળતું નથી. નીચેના પદ્યમાં આજ વાત બતાવવામાં આવી
" उचितमनुचितं वा कुर्वता कार्यमादौ, परिणतिरवधार्या यत्नतः पण्डितेन । अतिरभसकृतानां कर्मणामाफलाप्ते,
र्भवति हृदयदाही शल्यतुल्यो विपाकः" ॥१॥ इति । માટે મુનિનું કર્તવ્ય છે કે જ્યાં સુધી બને ત્યાં સુધી પરિગ્રહના કારણભૂત આ પૂર્વોક્ત કામગુણનું ઉમૂલન કરે. સૂ. ૮
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अध्य० २. उ. ५ यद्वा लोकस्य पञ्चास्तिकायरूपस्य वि=विशेषम् ऊर्ध्वाधस्तियंग्गतिसुखदुःखायुःकारणकर्मरूपं द्रष्टुं शीलं यस्य स लोकविदर्शी। तदेवाह-'लोकस्ये' त्यादि। लोकस्य अधोभाग-निम्नभागं भवनपतिनारकादिनिवासस्थानरूपं जानाति-ज्ञानविषयीकरोति, एवम् , ऊर्च भागम्-उपरितनभागं सौधर्मकल्पादिरूपं जानाति, तथा तिर्यञ्च भाग मध्यभागं पशुपक्षि-मनुष्यादिनिवासस्थानरूपं जानाति, लोकविदर्शी येन कर्मविपाकेन यस्मॅिल्लोके यस्य प्राणिनो जन्म भवति तत्सर्व जानातीत्यर्थः। ____ यद्वा-'लोकविदर्शी ' लोकं परिग्रहावर्जनतत्परं गृद्धं विशेषेण द्रष्टुं शीलं यस्य स लोकविदर्शी। तदेव दर्शयति 'गृद्धः' इत्यादि । 'गृद्धः कामभोगमूच्छितो लोकः जनः अनुपरिवर्तमाना=चतुर्गतिषु भूयो भूयो जन्ममरणे प्राप्नुवन् वर्तते' नाम लोकविदर्शी है । अथवा पञ्चास्तिकायरूप इस लोक के उर्ध्वलोक, अधोलोक एवं तिर्यग्लोक के सुख दुःख और आयुबंध के कारणरूप कर्म को जानने का जिसका स्वभाव है वह भी लोकविदर्शी है। लोकविदर्शी भवनपति और नारकी आदि के निवासस्थानभूत अधोभाग को, तथा सौधर्मकल्पादि रूप उवभाग को और पशु, पक्षी, मनुष्यादिका निवासस्थानरूप मध्य लोक को जानता है। कहने का तात्पर्य यह है कि लोकविदर्शी जिस कर्मके विपाक से जिस लोक में जिस जीव का जन्म होता है उस सब विषय को भलीभांति जानता है। ___अथवा परिग्रहादिक के उपार्जन तथा संग्रह करने में तत्पर और कामभोग में मूच्छित ऐसे इस लोक को विशेष रीति से देखने का जिस का स्वभाव है वह भी लोकविदर्शी है। वह यह बात भी जानता है कि जो प्राणी कामभोगों में आसक्त हैं वे चतुर्गतिरूप इस संसार में बारવિદશ છે, અથવા પંચાસ્તિકાયરૂપ આ લેકને, ઉદ્ઘલેક, અલોક અને તિર્યલેકના સુખદુઃખ અને આયુબંધના કારણરૂપ કર્મને જાણવાને જેને સ્વભાવ છે તે પણ લેકવિદશ છે. લેકવિદેશી ભવનપતિ અને નારકી આદિના નિવાસસ્થાનભૂત અધોભાગને, તથા સૌધર્મકલ્પાદિરૂપ ઉદર્વભાગને, અને પશુ, પક્ષિ, મનુષ્યાદિના નિવાસસ્થાનરૂપ મધ્યલકને જાણે છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કેલોકવિદશી જે કર્મના વિપાથી જે લેકમાં જે જીવને જન્મ થાય છે તે બધા વિષયને સારી રીતે જાણે છે.
અથવા પરિગ્રહાદિકનું ઉપાર્જન, તથા સંગ્રહ કરવામાં તત્પર અને કામજોગોમાં મૂચ્છિત એવા આ લેકને વિશેષ-રીતિથી દેખવાને જેને સ્વભાવ છે તે પણ લોકવિદશી છે. તે એ વાત પણ જાણે છે કે-જે પ્રાણી કામગોમાં આસક્ત છે તેનું ચતુર્ગતિરૂપ આ સંસારમાં વારંવાર જન્મ અને મરણ થયા કરે છે.
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अध्य० २ उ. ५
केन प्रकारेण स्वपरात्मानं प्रतिमोचयतीति जिज्ञासायां शरीरामेध्यत्व-निस्सारत्व-प्रदर्शनपुरस्सरं निर्वेद-जननेनेत्याह-'यथाऽन्तः' इत्यादि। यथान्येन प्रकारेण अन्तः शरीरस्याभ्यन्तरे शुक्रशोणितमेदोमज्जावसास्थ्यादिपूर्णतया निःसारताऽस्ति तथैव बहिः शरीरस्य बहिभांगेऽपि श्लेष्मशिवाणमूत्रपुरीषादयो मलाः निःसरन्ति, इति निःसारता द्रष्टव्या । एवं यथा-यादृशा-बहिनवभिारमला निःसरन्ति तथा तादृशास्ते मला अन्तरपि वर्तन्ते । शरीरं हि-अतिजुगुप्सितशुक्रशोणितसंयोगादुत्पनत्वेनातिघृणितमूत्रपुरीपपूत्यादेनिष्यन्दमानतया चान्तवहिरत्यन्तामध्यमेव । छुडाता है ? इस प्रकार की जिज्ञासा का समाधान करने के लिये सूत्रकार कहते हैं कि-'यथान्तस्तथाबाह्य'-मिति । संसार में समस्त अज्ञानी जीवों को जितना मोह अपने शरीर पर होता है उतना किसी पर भी नहीं होता। अपने शरीर की संभाल के लिये प्रत्येक प्राणी अपनी प्रिय से प्रिय वस्तु तक की भी उपेक्षा कर दिया करता है । अतः जिस शरीर पर अज्ञानी का इतना अधिक मोह होता है, ज्ञानी जीव उसी की असारता प्रकट कर उससे मोही जीवों का अनुराग घटाने के लिये कहते हैं किजिस प्रकार यह शरीर भीतर से शुक्र, शोणित, मेद, मजा, वशा और अस्थ्यादि अशुचि पदार्थों से युक्त है-अर्थात् इस शरीर के भीतर इन अपवित्र वस्तुओं का जमघट्ट है उसी प्रकार बाहर में भी यह शरीर श्लेष्म-कफ, मूत्र, पुरीषादि से सदा घृणित बना रहता है। इन अपवित्र पदार्थों को बहाने के लिये जैसे इसमें नवद्वार हैं, उसी तरह भीतर भी हैं। यह अतिजुगुप्सित-घृणित शुक्र और शोणित के संयोग છોડાવે છે ? તે પ્રકારની જીજ્ઞાસાનું સમાધાન કરવા માટે સૂત્રકાર કહે છે કે'यथान्तस्तथा बाह्य'-मिति । संसारमा समस्त मज्ञानी वानरसी मोड પિતાના શરીર ઉપર હોય છે એટલે બીજા ઉપર હેત નથી. પોતાના શરીરની સંભાળ માટે પ્રત્યેક પ્રાણી પોતાની પ્રિયમાં પ્રિય વસ્તુની પણ ઉપેક્ષા કરી દે છે. માટે જે શરીર ઉપર અજ્ઞાનીને આટલે અધિક મેહ હોય છે, જ્ઞાની જીવ તેનીજ અસારતા પ્રગટ કરી તેનાથી મહી જીવને અનુરાગ ઘટાડવા માટે કહે છે કે જે પ્રકારે આ શરીર ભીતરથી શુક, લેહી, મેદ, મજા, વસા અને અસ્થિ આદિ અશુચિ પદાર્થોથી યુક્ત છે, અર્થાત્ આ શરીરની ભીતર એ અપવિત્ર વસ્તુએને જમાવે છે તે પ્રકારે બહાર પણ આ શરીર લેમ-ફ, મૂત્ર, પુરીષાદિથી સદા ઘણિતજ બન્યું રહે છે. આ અપવિત્ર પદાર્થોને બહાર નિકળવા જેમ તેનાં નવ કરે છે તે પ્રકારે ભીતરમાં પણ છે. એ અતિજુગુસિત-વૃણિત
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आचारागसूत्रे तथा 'पुढो वि' पृथगपि-देहाद् वहिरपि 'सवंताई स्रवन्ति=निःसरन्ति-स्यन्दमानानि पूतिदेहान्तराणि-पूत्यन्तराणि-विकृतदुर्गन्धरुधिराणि, देहान्तराणि= श्लेप्मादीनि, कुष्ठरोगिणां मांसादीनि च पश्यति । यद्येवं ततः किं कुर्यात् ? इत्याह-' पण्डितः' इत्यादि । पण्डितः परिज्ञातहेयोपादेयः, प्रत्युपेक्षेत यथावस्थितरूपेण जानीयात् । एतत्सर्वं विदित्वाऽत्यन्ताशुचौ यौवनरूपसम्पन्नेऽपि शरीरे रागं न विदध्यादिति भावः । उक्तञ्च
"मंसहिरुहिरण्हारवणद्धकलमलयमेयमज्जाहि । पुण्णमि चम्मकोसे, दुग्गंधे असुइवीभच्छे ॥१॥ संचारिमजंतगलंतवचमुत्तंतसेअपुग्णमि ।
देहे हुज्जा किं रागकारणं असुइहेउम्मि" ॥ २॥ इति ॥ दुर्गध से घृणिततर हैं। यदि उन भागों के दुर्गध की याद की जावे तो वमन तक भी हो जावे । तथा इस देह में अपने २ स्थान में रही हुई जो जो मांस, रुधिर, मज्जा, शुक्र, वसा-( चरबी) तथा हड्डी वगैरह धातुएँ उपधातुएँ हैं वे सब ही, तथा कुष्ठादि-अवस्था में समस्त ही इन्द्रियां गल जाती हैं। अतः ज्ञानी जन इस क्षणविनश्वर एवं नित्य अशुचि शरीर में ममताशाली नहीं होते हैं। कहा भी है
"मंसहिरुहिरण्हारुवणद्धकलमलयमेयमज्जाहिं, पुण्णंमि चम्मकोसे, दुग्गंधे असुइवीभच्छे ॥१॥ संचारिमजंतगलंतवचमुत्तंतसेअपुण्णंमि,।
देहे हुज्जा किं रागकारणं असुइहेडम्मि" ॥२॥ इति भावार्थ इसका यही है कि यह देह मांसादिक पदार्थों से युक्त છે. કદાચ તે ભાગની દુર્ગન્ધની યાદ કરવામાં આવે તે ઉલટી પણ થાય છે તથા આ દેહમા પિતપોતાના સ્થાનમાં રહેલા જે જે માંસ, રૂધિર, મેદ, મજા, શુક, ચરબી તથા હાડકા વિગેરે ધાતુઓ, ઉપધાતુઓ છે તે બધી, તથા કુકાદિ-અવસ્થામાં સમસ્ત ઇન્દ્રિઓ પણ ગળી જવા માટે છે, તેથી જ્ઞાનીજન આ ક્ષણવિનશ્વર અને નિત્ય અશુચિ શરીરમાં મમતાશાળી થતા નથી. કહ્યું પણ છે–
“मंसहरहिरण्हाल्वणद्धकलमलयमेयमजाहिं ।। पुपणम्मि चम्मकोसे दुगंधे असुइबीभच्छे ॥१॥ संचारिमजंतगलंतवच्चमुत्तंततेमपुष्णमि। देहे दुजा किं रागकारणं अतुइहेउम्मि" ॥२॥ इति, ભાવાર્થ એ છે કે આ દેહ માસાદિક પદાર્થોથી યુક્ત હોવાથી અશુચિ
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अध्य० २. उ. ५
३०५ कृम्यादीनि भवन्ति तथा बहिः शरीरवहिभांगेऽपि पूयपूतिशोणितकृम्यादीनि स्रवन्ति भवन्ति । तदुपरि 'भिनभिनेति' शब्दं कुर्वाणैर्मक्षिकासहस्रैराक्रान्तं स्वशरीरं विज्ञाय स्वयमपि स्वात्मानं जुगुप्सते उद्विजते च। यच्छरीरदौगन्थ्येन सङ्क्रामकरोगभिया च यत्पार्श्वे परिजनोऽपि नोपवेष्टुमुत्सहते ।
'जहा अंतो तहा वाहि' इत्यादिना गूढतयोक्तमेवार्थ प्रकटीकुर्वन्नाह-'अंतो अंतो' इत्यादि।सआयतचक्षुलोकविदी अन्तः अन्तः शरीरस्य मध्ये मध्ये पूतिदेहान्तराणि-पूत्यन्तराणि-पूतिविशेषान् , तथा देहान्तराणि-देहावस्थाविशेषान् मांसरुघिरमेदोमज्जादिरूपाणि पूत्यन्तरदेहान्तराणीत्यर्थः,पश्यति-ज्ञानचक्षुषा विलोकयति, गलने लग जाते हैं, इस रोगी को गलत्कुष्ठी कहते हैं। इसके शरीर के भीतर जैसे मूत्र, पुरीष, खेल-कान का मैल, शिवाण-नाक का मैल, पित्त, शोणित और कृम्यादिक होते हैं वैसे ही शरीर के बाहिरी भागों में भी पीव, शोणित और कीडे वगैरह निकलते रहते हैं, हजारों मक्खियां भी भिन्नभिन् शब्द करती हुई उसके ऊपर मंडराती रहती हैं। ऐसी अपनी दशा देखकर वह स्वयं भी अपने से घृणा करने लग जाता है, और दुःखी भी होता रहता है। उसी समय उसके पास उस रोग के लग जाने के भय से तथा उसकी दुर्गंध से उसके परिजन तक भी बैठने की इच्छा तक भी नहीं करते । अतः इस शरीर की जब यह हालत हो तो फिर उसमें मोह करना ही व्यर्थ है।
ज्ञानी जन तो इस शरीर को सदा अपवित्र जानकर राग करने का स्थान ही नहीं मानते, उनकी दृष्टि में तो इस देह के समस्त भाग ही अति ગળવા લાગે છે, આ રેગીને ગલકુષ્ઠી કહે છે. તેના શરીરની ભીતર જેમ મૂત્ર -पुरीष, मां, आनन। भेस, शिवा-नान! भेस, पित्त, शणित भने २२મીઆ આદિ થાય છે તેવી જ રીતે શરીરના બહારના ભાગમાં પણ પરૂં, શેણિત અને કીડા વિગેરે નીકળતા રહે છે. હજારે માખીઓ પણ બણબણ શબ્દો કરતી તેના ઉપર ફરતી રહે છે. એવી પિતાની દશા દેખીને તે પિતે પિતાની જાતની ઘણા કરવા લાગી જાય છે, અને દુ:ખી પણ બને છે. તે વખતે તે રેગન લાગી જવાના ભયથી તથા તેની દુર્ગધથી તેને પરિજન પણ તેની પાસે બેસવાની ઈચ્છા કરતા નથી. માટે આ શરીરની તેવી સ્થિતિ બનતી હોય તો પછી તે શરીર ઉપર મોહ રાખવે વ્યર્થ છે.
જ્ઞાનીજન તે આ શરીરને સદા અપવિત્ર જાણુને રાગ કરવાનું સ્થાન જ માનતા નથી, તેની દૃષ્ટિમાં તે આ દેહના સમસ્ત ભાગ અતિ દુર્ગધેથી ઘણિતતર જ
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आचारागसूत्रे ____टीका-'अब मतिमन्नि'-त्यादि । अथ कायकामस्वरूपपरिज्ञानानन्तरं मतिमन् हे मेधाविन् ! परिज्ञाय-अशुचि अशुचिसम्भवं क्षणभङ्गुरं च शरीरं कटुविपाकं शब्दादिविपयस्वरूपं च ज्ञ-परिजया ज्ञात्वा प्रत्याख्यान-परिज्ञया परित्यज्य 'च' समुच्चये 'हु'-वाक्यालङ्कारे लालाप्रत्याशी' लाला-प्रक्षरदत्रुटन्मुखसलिलं, तां प्रत्यगितुं पुनरगितुं शीलं यस्य स लालाप्रत्यागी लालाभक्षी मा भव । यथा विवेककलाविकलो वालो मुखनिस्सृतामधःपतन्ती लालां पुनः पुनरास्वादयति तथैव त्वमपि परित्यक्तानां कामभोगानां पुनरभिलापं मा कुरुप्वेति तात्पर्यम् । अपि च तेपु मिथ्यात्वाविरत्यादिसंसारस्रोतस्मु आत्मानं तिरश्चीनं प्रतिकूलगामिनं पतनशीलं मा आपादयेः-मा कुरु, जन्म-मरणप्रवाहे स्वात्मानं मा पातयेत्यर्थः, श्रुतचारित्रलक्षणपरमानन्द स्थापयति भावः।
ज्ञानीजन देह का उक्त स्वरूप जानकर क्या करते हैं ? सो कहते हैं-'से मइम' इत्यादि।
शिष्य का संबोधन करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि-हे मेधावी शिष्य ! तुम शरीर और कामगुण के वर्णित स्वरूप से परिचित हो चुके हो, तथा यह भी जान चुके हो कि यह शरीर स्वयं अशुचि तथा अशुचि-कारणों से पैदा हुआ है; और क्षणभगुर है, ये शब्दादि विपय भी कटुकविपाकवाले हैं, इसलिये इन सब बातों को ज्ञपरिज्ञा से जानकर और प्रत्याख्यान-परिज्ञा से इनका परित्याग कर अब लालाप्रत्याशी-लार चाटने वाला मत बनो । अर्थात् जिस प्रकार विवेकविकल बालक मुखसे नीचे गिरती हुई अपनी लार को वारंवार चाटता है उसी तरह तुम भी परित्यक्त इन कामभोगों को फिर से भोगने की अभिलापा मत करो। नथा मिथ्यात्व, और अविरति आदि
नानी देख्नु तस्य३५ एसीनेशु४२ छे, ते छे ‘से मइमं त्यादि
શિવને સંબોધન કરીને સૂત્રકાર કહે છે કે-હે મેધાવી શિષ્ય ! તમે શરીર અને કામગુણના વર્ણિત સ્વરૂપથી પરિચિત બની ચૂકેલ છે, તથા એ પણ જવી ચૂક્યા છે કે–આ શરીર સ્વયં અશુચિ તથા અશુચિ કારણોથી પેદા થયેલ છે, અને ક્ષણભંગુર છે. એ શબ્દાદિ વિષય પણ કટુકવિપાકવાલા છે, માટે આ સઘળી વાતોને ફૂ–પરિતાથી જાતિને પ્રત્યાખ્યાન–પરિજ્ઞાથી તેનો પરિ
त्या की वे लालामन्याशी-याटना न मनी. अर्थात् नेवी १४८ - બાળક મુખથી નીચે ટપકની પિતાની લાળને વારંવાર ચાટે છે તે માફક તમે પણ
રચન આ કામને ફરીથી જોગવવાની અભિલાષા ન કર તથા મિથ્યાત્વ અને
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अध्यं० २. उ. ५
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छाया-मांसास्थिरुधिरस्नायववनद्धकलमलकमेदोमज्जाभिः ।
पूर्णे चर्मकोशे दुर्गन्धेऽशुचिबीभत्से ॥१॥ संचारिमयन्त्रगलद्वर्यौमूत्रान्त्रस्वेदपूर्णे ॥
देहे भवेकि रागकारणम् अशुचिहेतौ ॥ २॥ इति ॥ सू० ९ ॥ मू० उक्तस्वरूपं शरीरं निवर्ण्य किं करोतीति दर्शयति-से महमं' इत्यादि।
मूलम्-से मइमं परिन्नाय मा य हु लालपच्चासी, मा तेसु तिरिच्छमप्पाणमावायए कासंकसे खलु अयं पुरिसे, बहुमाई कडेण मूढे पुणो तं करेइ लोहं वेरं वड्ढेइ अप्पणो, जमिणं परिकहिजइ इमस्स चेव परिवहणयाए, अमरायइ महासड्ढी अहमेयं तु पेहाए अपरिणाए कंदइ ॥ सू० १०॥
छाया-अथ मतिमन् ! परिज्ञाय मा च हु लालाप्रत्याशी, मा तेषु तिरश्चीनमात्मानमापादयेः, कासंकषः खलु अयं पुरुषः, बहुमायी कृतेन मूढः पुनस्तत्करोति लोभ वैरं च वर्द्धयति आत्मनः, यदिदं परिकथ्यतेऽस्य चैव परिवृंहणाय अमरायते महाश्रद्धी आतमेतं तु प्रेक्ष्यापरिज्ञाय क्रन्दति ॥ मू० १०॥ होने की वजह से अशुचि, दुगंधयुक्त, बीभत्स है । इसमें कोई भी ऐसी चीज नहीं है जो ज्ञानीजन के राग का कारण हो सके, अतः जो हेयोपादेय के ज्ञाता हैं उनका कर्तव्य है कि वे इस शरीर को जैसा इसका स्वभाव है उसी रूप से जानें। इस सबके कहने का तात्पर्य यही है कि यौवन से मदमाते रूप से युक्त भी इस अत्यन्त अपवित्र देह में पूर्वोक्त रीति से कथित इस शरीर का स्वरूप समझकर ज्ञानी-संयमी मुनि को राग नहीं करना चाहिये ॥ सू०॥९॥ દુર્ગન્ધયુક્ત બીભત્સ છે. તેમાં એવી કોઈ પણ ચીજ નથી કે જેને માટે જ્ઞાનીજને રાગનું કારણ માની શકે, માટે જે હે પાદેયના જ્ઞાતા છે તેનું કર્તવ્ય છે કે આ શરીરને જે તેને સ્વભાવ છે તેવા રૂપમાં જ માને. આ સઘળું કહેવાનો મતલબ એ છે કે–વનના મદમાતા રૂપથી યુક્ત પણ આ અત્યન્ત અપવિત્ર દેહમાં પૂર્વોક્ત રીતિથી કથિત આ શરીરનું સ્વરૂપ સમજીને જ્ઞાની સંયમી મુનિએ રાગ નહિ કર જોઈએ છે સૂવ ૯.
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ओचाराङ्गसूत्रे बहुल: नानाविधोपायैः परप्रतारणचतुर इत्यर्थः। शब्दादिविषयासक्तस्य कपायोदयोऽवश्यम्भावी ततो 'वहुमायी'-त्युपलक्षणं क्रोधादीनां त्रयाणां, तेन 'बहुक्रोधी' इत्यादि भवति । अपि च 'कृतेन मूढः कृतेन कर्तव्येन मूढः विकलः, कार्यव्याकुलचित्तत्वेन भोजनादिसमये भोक्तुमप्यशक्नुवन् स पुनस्तन्मायादिकं तथा मुख गच्छति-इति कासंकषः" अर्थात् जिनके द्वारा प्राणी दुःखित होते हैं उनका नाम कास है, और वे शब्दादि विषय हैं, इनकी ओर जो प्रवृत्ति करता है उसका नाम कासंकष है। ___शब्दादिक-विषयों में आसक्त प्राणी मायावहुल होते हैं। अनेक प्रपंच रचकर दूसरों की प्रतारणा (गाई) करने का उनका ध्येय बना रहता है। इस कार्य में ये इतने चतुर होते हैं कि-भोले-भाले प्राणी इन की मायाचारी में बहुत जल्दी फंस जाते हैं। 'बहुमायी पद अन्य क्रोध मान लोभ का उपलक्षक है । इससे शब्दादि-विषयों में फंसे हुए प्राणी बहुक्रोधी, बहुमानी, बहुलोभी होते हैं, ऐसा अर्थ भी इसी एक पद से गृहीत हो जाता है, कारण कि शब्दादिक विषयों में आसक्त प्राणियों के कषाय का उदय अवश्य होता है तथा ऐसे प्राणी कर्तव्य से भी विकल होते हैं अर्थात्-समयानुसार जो कर्म उन्हें करना चाहिये उनको नहीं करते।अन्य कार्यों में व्याकुलचित्त होने से, अधिक क्या कहा जाय ?; उनको खाने तक की भी फुरसत नहीं मिलती। रातदिन उन्हीं मायादिक गच्छति-इति कासंकपः" अर्थात् रे हा प्राणी हुमित याय छ तेनु नाम आस छ भने ते शमादिविषय छ, तनी त२५ रे प्रवृत्ति ४२ छ तेनु नाम कासंकप छे.
શબ્દાદિક વિષયમાં આસક્ત પ્રાણી માયાબહલ હોય છે, અનેક પ્રપંચ રચીને બીજાને ઠગવાને તેને ધ્યેય બની રહે છે તે કાર્યમાં તે એટલે ચતુર હોય છે કે ભેળા પ્રાણી તેની માયાજાળમાં બહુ જલ્દી ફસી જાય છે. બહુમાયીપદ અન્ય કોઇ માન લેભને પણ ઉપલક્ષક છે, તેથી શબ્દાદિ વિષયમાં ફસેલા પ્રાણ બહુકોધી, બહુમાની અને બહેલોભી હોય છે, એ અર્થ પણ તેને એક પદથી ગ્રહિત થઈ જાય છે, કારણ કે શદાદિ વિષયોમાં આસક્ત પ્રાણિને કષાયનો ઉદય અવશ્ય થાય છે, તથા એ આત્મા કર્તવ્યથી પણ વિકલ થાય છે, સમયાનુસાર જે કર્મ તેણે કરવું જોઈએ તેતો કરતો નથી,
અન્ય કાર્યોમાં વ્યાકુળચિત્ત હેવાથી તેને અધિક શું કહેવું , ખાવાપીવાની પણ » સદ મળતી નથી. રાતદિન તેવા માયાદિક કાર્યોમાં જ ફસી રહે છે, લોભ
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न प्रमादवतः शान्तिरिति दर्शयति = ' कासंकप:' इत्यादि । अयं प्रमादी पुरुषः कासंकपः - कस्यते = पीड्यते प्राणी यैस्ते कासाः शब्दादिविपयास्तान् कषति= तदभिमुखं गच्छतीति 'कासंकष : ' शब्दादिविषयलोलुपः । स हि समुदीयमानभोगस्पृहोऽहर्निशं ' कृतवानयुं करिष्ये चेमम्' इत्यादिनानाविधसंकल्पविकल्पवशतः पदे पदे विषीदन्न कदाचिदपि शान्तिमुपलभमान इत्यर्थः । किं च वहुमायी=मायाजो संसार के स्रोत - कारण हैं, उनमें अपनी आत्मा को पतनशील मत बनाओ : कारण कि ऐसा करने से जन्म और भरण के प्रवाह का कभी भी अंत नहीं आ सकेगा । अतः जो इस प्रवाह को रोकने की चाहना हो तो मिथ्यात्व आदि सांसारिक कारणों में अपने को मत फॅसाओ, श्रुतचारित्ररूप परम आनन्द में ही अपने को स्थित करो ।
;
प्रमादी आत्मा को शांति नहीं मिलती है यह मानी हुई बात है; क्योंकि प्रमादी मनुष्य शब्दादि विषयों की ओर झुकता रहता है, उनमें लोलुपी बना रहता है, इसके चित्त में भोगों की इच्छा निरन्तर रहा करती है, "मैंने इसको किया, इसको अब करूँगा " इत्यादि अनेक संकल्प-विकल्पों के तांतों में फँसकर यह कभी भी सच्ची शांति का अनुभव नहीं कर सकता। क्षण-क्षण में विषादी बनता है, कारण कि इसका एक संकल्प पूरा होता है और दूसरे को पूर्ण करने के लिये आकुलव्याकुल हो उठता है । जो शब्दादि विषयों में लोलुप है उसका नाम arine है । "कास्ते पीड्यते प्राणी यैस्ते कासास्तान् कषति=तदभि
અવિરતિ આદિ જે સંસારના સ્રોત–કારણ છે તેમાં પેાતાના આત્માને પતનશીલ બનાવા નહિ. કારણ કે એવું કરવાથી જન્મ અને મરણના પ્રવાહનો કાઈ વખત પણ અંત આવી શકશે નહિ, માટે જો આ પ્રવાહને રોકવાની ચાહના હાય તે મિથ્યાત્વ આદિ સાંસારિક કારણામાં પોતાની જાતને સાવા નહિ. શ્રુતચારિત્રરૂપ પરમ આનંદમાં જ પેાતાને સ્થિર કરો.
પ્રમાદી આત્માને શાંતિ મળતી નથી, એ માનેલી વાત છે, કારણ કે પ્રમાદી મનુષ્ય શબ્દાદિ વિષયાની તરફ ઝુકતા રહે છે, તેમાં લાલુપી બની રહે છે,તેના ચિત્તમાં ભાગેાની ઇચ્છા નિરન્તર રહ્યા કરે છે, “મેં આ મનાવ્યુ, આ વસ્તુને હમણા કરૂં છું અગર કરીશ” ઈત્યાદિ અનેક સંકલ્પ વિકલ્પોના તાંતામાં સીને તે સાચી શાંતિને અનુભવ કારેય પણ કરી શકતા નથી. ક્ષણે ક્ષણે વિષાદી મની રહે છે, કારણ કે તેના એક સંકલ્પ પુરા થાય છે ત્યાં ખીજાને પુરા કરવામાં આકુલ-વ્યાકુલ થઈ જાય છે. જે શબ્દાદિક વિષયામાં લાલુપ છે તેનુ नाभ कासंकष छे, “कास्यते पीड्यते प्राणी यैस्ते कासाः, तान् कषति तदभिमुखं
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आचाराङ्गसूत्रे स्वयं क्लिश्यते च। इदमपरं कथ्यते-'अमरायते' इत्यादि, 'महाश्रद्धी' महती वासौ श्रद्धाऽर्थकामविषया महाश्रद्धा, साऽस्ति यस्य स महाश्रद्धी-भोगेषु तत्साधनेषु चातिश्रद्धावान् सन् अमरायते भोगवाञ्छयाऽर्थोपार्जनपर आत्मानममरमिव मन्यते। एतम्= अमरायमाणम् महाश्रद्धिनम् आतम् शारीरमानसिकपीडापीडितं प्रेक्ष्य विवेकबुद्धया विचार्य, हे शिष्य ! शब्दादिविपये मनो न निधेयमिति भावः । यश्च भोगगृद्धः सुखी मानता रहता है, और अर्थ, काम और विषयों एवं उनके साधनों के जुटाने में ही रात-दिन वह तल्लीन बना रहता है। उसके हृदय में सदा यही दृढ़ विश्वास काम करता रहता है कि-'अर्थ कामादिक एवं उनके साधनों की प्राप्ति से ही जीवन सुखमय होता है, इनके विना जीवन का कोई मूल्य नहीं । शारीरिक साता ही जीवन की साता है, यह विना भोगों के होती नहीं, भोगों का भोगना भी विना अर्थोपार्जन किये बनता नहीं, अतः वे भोगों की वाञ्छा से प्रेरित होकर अर्थोपार्जन करने में तत्पर होते रहते हैं और सब कुछ साधनसंपन्न हो जाने पर अपने आपको अमर मानने लग जाते हैं। इस प्रकार भोग और उनके साधनों में श्रद्धासंपन्न तथा अपने आपको अमर मानने वाले प्राणियों को हे शिप्य ! तुम कभी भी सुखी न समझो। वे तो सदा शारीरिक एवं मानसिक पीडाओं से व्यथित ही रहते हैं । ऐसा जानकर तुम शब्दादिविषयों में अपने मनको कभी भी आसक्तियुक्त न करो। અર્થ, કામ તથા વિષયે અને તેના સાધનોને મેળવવામાં જ રાત દિવસ તલ્લીન બની રહે છે તેના હૃદયમાં સદા એ જ વિશ્વાસ કામ કરતો રહે છે કે “અર્થ કામાદિક અને તેના સાધનોની પ્રાપ્તિથી જ જીવન સુખમય થાય છે તેના વિના જીવનનું કઈ મૂલ્ય નથી શારીરિક શાતા જ જીવનની શાતા છે. એના વિના ભોગે થતા નથી ભેગોનુ ભોગવવુ અર્થ ઉપાર્જન કર્યા વિના થતું નથી, તેથી તે ભગીની વાછનાથી પ્રેરિત થઈને અર્થ ઉપાર્જન કરવામાં તત્પર રહ્યા કરે છે. અને બધાસાધનસ પન્ન બનવાથી પિતે પોતાની જાતને અમર માનવા લાગી જાય છે. આ પ્રકારે ભોગ અને તેના સાધનોમાં શ્રદ્ધાસંપન્ન તથા પોતે પોતાની જાતને અમર માનવાવાળા પ્રાણીને હે શિષ્ય! તમે કોઈ વખત પણ સુખી ન માન. એ તો મા શારીરિક અને માનસિક પીડાઓથી વ્યથિત જ રહે છે. એવું સમજીને તમે શબ્દાદિ વિષયથી પોતાના મનને કઈ વખત પણ આસક્તિ
त न ४२.
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अध्य० २. उ. ५
३११ करोति येन आत्मनो लोभं वैरं च वर्द्धयते । शब्दादिविषयाऽप्राप्तिदुःखपीडितो हि कदाचिच्छब्दादिविषयान् प्राप्नोत्यपि किन्तु परिणतिविरसत्वात्सेविता अपि ते चिरकालदुःखदा एव भवन्ति । उक्तञ्च
"खणमित्तसुक्खा बहुकालदुक्खा" इति । यदर्थमात्मनोऽनन्तसंसारजनकं वैरमुत्पादयति । तदाह- यदिद'-मित्यादि । यद् यस्मात् अस्यैव क्षणभङ्गुरस्य शरीरस्य परिबृंहणाय-परिवर्द्धनाय-पुष्टयर्थं हिंसाधनेकसावधव्यापारान् करोति, कार्यों के करने में ही फंसे रहते हैं, लोभ और वैरभाव को बढाते रहते हैं। लोभ से ही भायाचार करने में जीवों की प्रवृत्ति होती है। भायाचार से वैरभाव की वृद्धि होती है। थोड़ी देर के लिये मान लिया जाय कि शब्दादिविषयों को अप्राप्तिजन्य दुःखों से पीडित हुआ प्राणी कदाचित् उन शब्दादिकविषयों को प्राप्त कर भी ले, तो भी सेवन किये गये वे शब्दादिविषय परिणाम में विरस होने से भविष्यकाल में जीवों को चिरकाल तक दुःखदायी ही होते हैं । “खणमित्तसुक्खा बहुकालदुक्खा"-ये विषय क्षणमात्र सुखरूप भासते हुए भी अनन्त दुःखों के देनेवाले होते हैं। जिनके लिये जीव अनन्त संसार के जनक वैर को उत्पन्न करता है। उसी बात को सूत्रकार "जमिणं” इत्यादि से स्पष्ट करते हुए कहते हैं-संसार में जीवों द्वारा हिंसादिक अनेक सावध व्यापारों के करने में जो प्रवृत्ति की जाती है उसका प्रधान कारण एक निज शरीर की पुष्टि करने का मोह ही है। इस प्रकार के मोह के आधीन बना हुआ जीव स्वयं अपने आपको अनेक कष्टों को झेलता हुआ भी અને વેરભાવને વધારતા રહે છે. લોભથી જ માયાચાર કરવામાં જીની પ્રવૃત્તિ થાય છે, માયાચારથી વેરભાવની વૃદ્ધિ થાય છે. થોડા વખતને માટે માની લ્યો કે શબ્દાદિ-વિષયેની અપ્રાપ્તિજન્ય દુઃખથી પીડિત થયેલ પ્રાણી કદાચ તે શબ્દાદિક–વિષયને પ્રાપ્ત કરી લે તે પણ જોગવવામાં આવેલા તે શબ્દાદિ વિષય પરિણામમાં વિરસ થવાથી ભવિષ્યકાળમાં જીવોને ચિરકાલ સુધી દુઃખદાયી જ थाय छे. भ.-" खणमित्तसुक्खा वहुकालदुक्खा" या विषय क्षणमात्र सुप३५ લાગે છે પણ અનંત દુઃખોના દેવાવાળા હોય છે, જેના માટે જીવ અનંતસંસા२०४४ वैरने. उत्पन्न ४२ छ, २मा पातने सूत्रा२ “ जमिणं"त्या पहाथी સ્પષ્ટ કરીને કહે છે–સંસારમાં જીવ હિંસાદિક અનેક સાવદ્ય વ્યાપાર કરવામાં જે પ્રવૃત્તિ કરે છે તેનું પ્રધાન કારણ એક પોતાના શરીરની પુષ્ટિ કરવાનો મેહ જ છે. આવા પ્રકારના મહને આધીન બનેલા જીવ પોતે પિતાની જાતને અનેક કષ્ટોથી દુઃખી બનાવતાં છતાં પણ સુખી માને છે, અને
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आचारास्त्रे _ टोका-'तदित्यादि । यस्मात्कामा दुःखमूलाः तत्तस्मात्कारणात् यत्पूर्वोक्तं वक्ष्यमाणं वा अहं ब्रवीमि तत्सर्व यथावस्थितं यूयं जानीत-' कामभोगा हेयाः' इति मदीयोपदेशमवश्यं शृणुतेत्यर्थः ।
ननु भवदुपदेशे किं वैलक्षण्यं यदुपदेशं वयं शृणुमः, अन्योपदेशादपि कामनिवृत्तिभवितुमर्हतीति चेदाह-'चैकित्स्य-मित्यादि, पण्डितः पण्डितम्मन्यः केवलं गब्दज्ञानी चैकित्स्य कामचिकित्सामुत्पन्नरोगचिकित्सामिव कामसेवनमेव
हे शिष्य ! काम सदा दुःखों के मूल कारण हैं, इसलिये इस विषय में पहिले जो कुछ कहा गया है, अथवा आगे भी जो कुछ कहा जावेगा वह सब यथार्थ है। इसमें थोड़ा सा भी संदेह के लिये स्थान नहीं है, ऐसा तुम विश्वास रखो। 'कामभोग सदा हेय हैं ' यही हमारा उपदेश है। इस उपदेश की पुष्टि इस प्रकार से कामभोगों में हेयता के प्रदर्शन से भलीभांति हो जाती है। अतः मोक्षाभिलाषीजन को इस उपदेश का श्रवण करना चाहिये । इस प्रकार से शिष्यों के प्रति सूत्रकार का आदेश है।
प्रश्न-इस आपके उपदेश में ही ऐसी क्या विलक्षणता है जिसके लिये यह उपदेश अवश्य सुना जाय, अन्य के उपदेश से भी कामादिक की निवृत्ति हो सकती है ?।
उत्तर-जो सिर्फ शब्दज्ञानी हैं, अपने आपको विद्वान् मानते हैं
હે શિધ્ય! કામ સદા દુખોનું મૂળ કારણ છે. માટે આ વિષયમાં પહેલાં જે કાઈ કહેવામાં આવેલ છે અથવા આગળ પણ કહેવામાં આવશે તે સઘળું યથાર્થ છે. તેમાં જરા પણ સદેહનું સ્થાન નથી. એ તમે વિશ્વાસ રાખો. કામગ સદા હેય-ત્યાજ્ય છે એજ અમારો ઉપદેશ છે. આ ઉપદેશની પુષ્ટિ આ પ્રકારથી કામગોમાં હેયતાના પ્રદર્શનથી ભલી ભતિ થાય છે. માટે પ્રત્યેક મિશ્રાએ આ ઉપદેશનું શ્રવણ કરવું જોઈએ આ પ્રકારથી શિધ્યે પ્રતિ સૂત્રકારને આદેશ છે.
પ્રશ્ન—આ આપના ઉપદેશમાં એવી કઈ વિલક્ષણતા છે જેના માટે આ ઉપદેશ અવશ્ય સાભળ પડે. બીજાના ઉપદેશથી પણ કામાદિકની નિવૃત્તિ થઈ શકે છે?
उत्त- 1 शमशानी छे, पोते पोत ने विद्वान भाने छे की व्यति
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अध्य० २. उ. ५
३१३ सोऽपरिज्ञाय-ज्ञपरिज्ञयाऽनर्थकामं तद्विपाकं चाबुद्ध्वा, प्रत्याख्यानपरिज्ञया च तमपरित्यज्य च क्रन्दति इष्टविषयाप्राप्तौ स्पृहां, तन्नाशे शोकं चानुभूयोच्चै रोदिति । कामभोगासक्तश्चतुर्गतिकसंसारे भ्रामं भ्रामं नरकनिगोदादिष्वनन्तयातनां प्रामोतीति भावः ॥ सू० १०॥
कामकटुविषाकमुपदर्य साम्प्रतमुपसंहरति-' से तं' इत्यादि ।
मूलम्-से तं जाणह जमहं बेमि, तेइच्छं पंडिए पवयमाणे से हंता छेत्ता मेत्ता लुपिता विलंपिता उदविता, अकडं करिस्सामित्ति मन्नमाणे, जस्स विय णं करेइ, अलं बालस्स संगणं,जे वा से कारइ बाले, न एवं अणगारस्स जायइ-त्ति बेमि॥ सू० ११॥
छाया-तत् (तस्मात् ) तज्जानीत यदहं ब्रवीमि, चैकिस्रयं पण्डितः प्रवदन् स हन्ता छेत्ता भेत्ता लुम्पयिता विलुम्पयिता अपद्रावयिता, अकृतं करिष्यामि-इति मन्यमानः, यस्मै अपि च खलु करोति, अलं वालस्य सङ्गेन, यो वा तत्कारयति बालः, न एवमनगारस्य जायते ॥ सू० ११॥ इति ब्रवीमि ।।
“अपरिज्ञाय क्रन्दति"-जो विषय-भोगों में गृद्ध बने हुए हैं वे इन अर्थकामरूप भोगों को और इनके विपाक को ज्ञ-परिज्ञा से नहीं जानकर और प्रत्याख्यान-परिज्ञा से उनका परित्याग नहीं कर, इष्ट विषय की प्राप्ति की इच्छा से और उसके वियोग में शोक से सदा आकुलव्याकुल बने रहते हैं। कामभोगों में आसक्त वे प्राणी चतुर्गतिरूप इस संसार में बारंबार भ्रमण कर नरक-निगोदादि की अनन्त वेदनाओं को पाते रहते हैं । ॥सू० १०॥
काम के कटुक विपाक को स्पष्टकर अब इसका उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं-से तं' इत्यादि।
___ “अपरिज्ञाय क्रन्दति" २ विषय लागीमा द्ध मनसा छ, तया २ અર્થકામ-રૂપ ભેગેને અને તેના વિપાકને જ્ઞ–પરિજ્ઞાથી નહિ જાણીને અને પ્રત્યાખ્યાન–પરિજ્ઞાથી તેને પરિત્યાગ નહિ કરીને ઈષ્ટ વિષયની પ્રાપ્તિની ઈચ્છાથી તેના વિયેગમાં શેકથી સદા આકુળ-વ્યાકુળ બની રહે છે. કામોમાં આસક્ત પ્રાણુ ચતુર્ગતિ–રૂપ આ સંસારમાં વારંવાર ભ્રમણ કરી નરકનિદાદિની અનંત વેદનાઓને ભેગવતા રહે છે. ૧૦
કામના કટક વિપાકને સ્પષ્ટ કરીને હવે તેને ઉપસંહાર કરતાં સૂત્રકાર ४ छ-' से तं' त्याहि
४०
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आचाराङ्गसूत्रे तीर्थकों का उपदेश मिथ्या इसलिये है कि उनके उपदेश से जीवों की सावद्य क्रियाओं में प्रवृत्ति हो जाती है। इसका कारण भी यही है कि वे स्वयं उन सावद्य क्रियाओं से विरक्त नहीं होते हैं, हनन-छेदनभेदन-लुम्पन और विलुम्पनादिक अनेक अकृत्यों में उनकी प्रवृत्ति बनी रहती है । दण्डादिक से ताडन करने का नाम हनन है, इस क्रिया के कर्ता होने से वे हन्ता कहे जाते हैं। खड्गादिक से विदारण करने का नाम छेदन है, भाले वगैरह से भेदने का नाम भेदन, गांठ वगैरह के छेदनादिक करने का नाम लुम्पन और आक्रमणादिक करने का नाम विलुम्पन तथा प्राणातिपात आदि करने का नाम अपद्रावण है ।इन २ क्रियाओं के कर्ती होने से वे छेत्ता, भेत्ता, लुम्पयिता, विलुम्पयिता
और अपद्रावयिता कहे जाते हैं । इन २ क्रियाओं के करने में उनकी प्रवृत्ति इसलिये होती है कि वे यह विचार करते हैं कि काम की यह चिकित्सा पूर्व में किसी ने नहीं की है हम इसे करेंगे । इस प्रकार की मान्यता से प्रेरित होकर वे जिनके लिये उपदेश करते हैं वे और स्वयं उपदेष्टा, ये दोनों पूर्वोक्त हनन और छेदनादिक व्यापारों को करते हैं, इसलिये करने वाले कराने वाले तथा उसका अनुमोदन करने वाले भी अज्ञानी माने गये हैं। अर्थात् ऐसे जीवों का ज्ञान सिर्फ शाब्दिक ही है। પરતીથિઓને ઉપદેશ મિથ્યા તેટલા માટે છે કે તેઓના ઉપદેશથી જેની સાવદ્ય વ્યાપારમાં પ્રવૃત્તિ થઈ જાય છે તેનું કારણ એ છે કે તેઓ પિતે તેવા સાવ વ્યાપારથી વિરક્ત બનેલ નથી હણવુ, છેદવુ, ભેદવું, લુમ્પન, અને વિલમ્પનાદિક અનેક અકૃત્યમાં તેઓની પ્રવૃત્તિ બની રહે છે. દંડાદિકથી તાડન કરવાનું નામ હણવુ છે આ ક્રિયાને કર્તા હોવાથી તે કર્તા હણનાર કહેવાય છે. તલવાર આદિથી વિદારણ કરવાનું નામ છેદન છે, ભાલા વિગેરેથી ભેદવું તેનું નામ ભેદન, ગાંઠ વિગેરેનુ છેદવું તેનું નામ લુખ્ખન અને આક્રમણદિક કરવાનું નામ વિલુપ્પન તથા પ્રાણાતિપાત આદિ કરવાનું નામ અપદ્રાવણ છે આ બધી ક્રિયાએને કર્તા બનવાથી તે છેત્તા, ભેત્તા, લુમ્પયિતા, વિલુપ્પયિતા અને અપદ્રાવયિતા કહેવામાં આવે છે આવી ક્રિયાઓના કરવામાં તેઓની પ્રવૃત્તિ તેટલા માટે થાય છે કે-તે એવો વિચાર કરે છે કે આ કામની ચિકિત્સા પૂર્વમાં કેઈએ કરેલ નથી, અમે તે કરીશું આવા પ્રકારની માન્યતાથી પ્રેરિત થઈને તે જેના માટે ઉપદેશ કરે છે તે અને વય ઉપદેષ્ટા એ બને પૂર્વોક્ત હનન અને વેદનાદિક
વ્યાપાર કરે છે, માટે કરનાર, કરાવનાર તથા તેની અનુમોદના કરનાર પણ * અજ્ઞાની માનવામાં આવે છે અર્થાત્ એવા જીવોનું જ્ઞાન ફક્ત શાબ્દિક જ છે.
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आचाराङ्गसूत्रे अनगारस्य-द्रव्यभावागाररहितस्य परिज्ञातशब्दादिविषयकटुविपाकस्य संयतस्य एवं कामचिकित्सोपदेशदानं तत्कारणं च न जायते=न कल्पते 'इति ब्रवीमि ' इति पूर्ववद् व्याख्येयम् ॥ मू० ॥ सू० ११ ॥ इत्याचाराङ्गसूत्रस्याचारचिन्तामणिटीकायां द्वितीयाध्ययनस्य
पञ्चमोदेशः समाप्तः ॥२-५॥ और न उसके कारण ही बनते हैं। "इति ब्रवीमि" इन पदों की व्याख्या पहिले की जा चुकी है ॥ सू० ११ ॥
॥ आचारांगसूत्रके द्वितीय अध्ययन का
पंचम उद्देश समाप्त ॥२-५॥ तमा तेनु ॥२९ ५४४ पनत नथी. “इति ब्रवीमि " ॥ ५होनी व्याय! પહેલાં આપવામાં આવેલ છે. સૂ૦ ૧૧ છે
આચારાંગસૂત્રના બીજા અધ્યયનને પાંચમો ઉદ્દેશ સમાપ્ત ૨-૫.
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अध्य० २. उ. ५
३१७ भेदनादिसावधव्यापारान् करोति । यो वा तत् हननादिकं कारयति 'या' शब्दात्तदनुमोदकोऽपि, वाला अज्ञानी शब्दज्ञानमात्रावलम्बी भवति, अतो वालस्य एतादृशस्य कर्तुः कारयितुरनुमोदयितुरज्ञानिनः संगेन=संसर्गेण, अलं-व्यर्थम् । अज्ञानिनः संसर्गोऽपि सर्पसंसर्ग इव सर्वथा परिवर्जनीय इति भावः । तस्मात्परतीथिकोपदेशः शब्दादिविषयकपायकलपितत्वेन हननादिसावधक्रियासु प्रवृत्तिजनकतया च हेय एव, न चैतादृशो मदीयोपदेशः वीतरागभगवन्मुखात्साक्षाच्छुतस्यैव परिकथ्यमानस्वादिति तात्पर्यम् । कस्यैवं न भवतीत्याह-'नैव'-मित्यादि। इसलिये जिस प्रकार सर्प का संसर्ग सर्वथा त्याज्य होता है उसी प्रकार ऐसे अज्ञानी जीवों का संसर्ग भी सदा छोड़ने योग्य शास्त्रकारों ने बतलाया है, अतः इसे अवश्य ही छोड़ देना चाहिये । इससे यह भाव निकलता है कि परतीर्थिकों का उपदेश शब्दादिक-विषय-कषायों से कलुषित होने की वजह से, तथा हननादिक सायद्यक्रियाओं में प्रवृत्ति का जनक होने से सदा हेय-त्याज्य है। जिस प्रकार का इनका उपदेश होता है ऐसा उपदेश मेरा नहीं हैं। क्योंकि यह जो उपदेश दिया गया है, वह साक्षात् वीतराग प्रभु के मुख से ही सुना हुवा दिया गया है,मनः कल्पित नहीं। जो द्रव्य एवं भाव दोनों प्रकार के अगार से रहित हैं, तथा शब्दादिक विषयों के कटुक फल से परिचित हैं ऐसे संयमी मुनि कभी भी इस प्रकार से काम की चिकित्सा का उपदेश नहीं देते हैं,
માટે જેવી રીતે સપને સંસર્ગ સર્વથા ત્યાજ્ય હોય છે, તે પ્રકારે આવા અજ્ઞાની જીવોને સંસર્ગ પણ સદા છેડવા ગ્ય શાસ્ત્રકારોએ બતાવેલ છે, માટે તેને અવશ્ય છોડી દેવો જોઈએ. આથી સાર એ નિકળે છે કે પરતીર્થિઓને ઉપદેશ શબ્દાદિક-વિષય-કષાયથી કલુષિત હોવાથી, તથા હણવું આદિ સાવદ્ય વ્યાપારની પ્રવૃત્તિને જનક હોવાથી સદા હેય-ત્યાજ્ય છે. જેવી રીતે તેઓને ઉપદેશ હોય છે, તે પ્રકારે મારે ઉપદેશ નથી. કારણકે આ જે ઉપદેશ આપવામાં આવેલ છે તે સાક્ષાત વીતરાગ પ્રભુના સુખથી સાંભળેલું જે છે તેજ આપવામાં આવેલ છે. મનકલ્પિત નહિ. જે દ્રવ્ય અને ભાવ અને પ્રકારના અગાર-ઘરથી રહિત છે, તથા શબ્દાદિક વિષના કટક ફળથી પરિચિત છે એવા સંયમી મુનિ કેઈ વખત પણ આ પ્રકારથી કામની ચિકિત્સાને ઉપદેશ દેતા નથી,
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आधाराङ्गसूत्रे टीका-'स त-'दित्यादि । यः पड्जीवनिकायोपघातजनक चिकित्सोपदेशं तदाचरणं च न करोति स पूर्वोक्तरूपोऽनगारः, तत्-चिकित्सोपदेशादिकं सम्बुद्धयमानः, सम्सम्यक्प्रकारेण बुध्यमाना=ज्ञ-परिज्ञया ज्ञेयत्वेन, प्रत्याख्यान-परिज्ञया च हेयत्वेन जानानः आदानीयं-रत्नत्रयं समुत्थाय-गृहीत्वा ।।
यद्वा-सः पूर्वोक्तोऽनगारस्तदादानीयं ज्ञानादिकं मोक्षककारणमस्तीत्येवं सम्बुद्धयमानः सम्यग् जानानः समुत्थाय सम्यक्संयमाचरणेनोत्थाय ' सर्वसावद्यव्यापार न करिष्यामी'-ति प्रतिज्ञाय, तं कदापि न कुर्यादित्यादि । यतः सर्वसाव
जो अनगार षटकाय के जीवों का विराधक चिकित्सा के उपदेश को और उसके आचरण को नहीं करता है ऐसा पूर्वोक्त स्वरूपवाला वह अनगार ज्ञ-परिज्ञा से ज्ञेयपने और प्रत्याख्यान परिज्ञा से हेयपने उस चिकित्सोपदेशादिक को अच्छी तरह से जानता हुआ आदानीय-रत्नत्रय को ग्रहण कर प्राणातिपातादिरूप अठारह प्रकार के पापकर्मों को कभी भी न करे, न दूसरों से करावें, करने वाले एवं कराने वाले की अनुमोदना भी न करे। ___ अथवा-सूत्र में आये हुए 'आदानीय' शब्द का अर्थ ज्ञानादिक भी है। जिसका अभिप्राय यह होता है कि-"मोक्ष के प्रधानकारण ज्ञानादिक हैं" इस बात को अच्छी तरह से जानने वाला वह अनगार "मैं समस्त सावध व्यापारों को नहीं करूंगा" इस प्रकार की प्रतिज्ञा करके अच्छी तरह से संयम की आराधना करता हआ उस सावध व्यापार को कभी भी न करे। क्योंकि इस प्रकार की जब वह प्रतिज्ञा
જે નગાર પટકાય જેના વિરાધક ચિકિત્સાને ઉપદેશ, અને તેનું આચરણ નથી કરતા, એવા પૂર્વોક્ત સ્વરૂપવાળા તે અનગાર રૂ–પરિજ્ઞાથી શેયપણુ, અને પ્રત્યાખ્યાન-પરિજ્ઞાથી હેયપણુ, તે ચિકિત્સોપદેશાદિકને સારી રીતે જાણીને આદાનીય-રત્નત્રયને ગ્રહણ કરી પ્રાણાતિપાતાદિ રૂપ અઢાર પ્રકારના પાપ કર્મને કયારેય પણ ન કરે ન બીજાથી કરાવે કરનાર અને કરાવનારની અનુમદના પણ ન કરે
मथवा--सूत्रमा मासा माहानीय' शण्टनी म ज्ञानादि ५५ छे. જેને અભિપ્રાય એ થાય છે કે–મેલના પ્રધાન કારણ જ્ઞાનાદિક છે.” આ વાતને સારી રીતે જાણવાવાળા તે અણગાર “હુ સમસ્ત પાપના વ્યાપાર નહી રીશ” આવા પ્રકારની પ્રતિજ્ઞા કરીને સારી રીતે સંયમની આરાધના કરતા થક ! સાવ વ્યાપાર કેઈ વખત પણ ન કરે કારણકે જ્યારે તે આવા પ્રકારના
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॥ आचारागसूत्रे द्वितीयाध्ययनस्य षष्ठोदेशः॥ अभिहितः पञ्चमोदेशः, साम्प्रतं षष्ठ आरभ्यते । इहानन्तरोद्देशके शरीरपरिरक्षणाय लोकनिश्रया विहरन्नासक्तिरहितोऽनगारो लोके ममत्वं न कुर्यादित्यर्थोऽभिहितः, स एवात्र प्रतिपाद्यते- सेतं' इत्यादि।
पूर्वोदेशस्यान्तिममूत्रे न हु एवं अणगारस्स जायइ 'संयमिन एवं न कल्पते, इति कथितम् , तस्यैव विशदीकरणायाह-' से तं' इत्यादि ।
मूलम् -से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाय तम्हा पावकम्मं नेव कुज्जा न कारवेज्जा ॥ सू० १॥
छाया-स तत् सम्बुद्धयमान आदानीयं समुत्थाय तस्मात्पापकर्म नैव कुर्यात् न कारयेत् ॥ सू० १ ॥
॥ आचारांगसूत्रके दूसरे अध्ययनका छठा उद्देश ॥ द्वितीय अध्ययन का पंचम उद्देश संपूर्ण हुवा; अब यहां उसका छट्ठा उद्देश प्रारंभ किया जाता है। पंचम उद्देश में शरीर की रक्षा करने के लिये आसक्तिरहित होकर लोककी निश्रा से संयममार्ग में विचरना चाहिये, संयमी मुनि को लोक के साथ कभी भी ममत्व नहीं करना चाहिये'-यह बात कही गई है। इसी विषय की पुष्टि इस उद्देश में की जायगी 'सेतं' इत्यादि।
पंचम उद्देश के "न हु एवं अणगारस्स जायइ" इस अन्तिम सूत्र में “संयमी को ऐसा नहीं कल्पता है" जो यह कहा है उसी को विशद करने के लिये कहते हैं-' से तं' इत्यादि ।
આચારાંગસૂત્રને બીજા અધ્યયનને છઠ્ઠો ઉદ્દેશ. બીજા અધ્યયનને પાંચમે ઉદ્દેશ સમાપ્ત . હવે છ ઉદ્દેશો આરંભ થાય છે. પાંચમાં ઉદ્દેશમાં શરીરની રક્ષા કરવા માટે આસક્તિ રહિત બનીને લેકની નિશ્રાથી સંયમીએ સંયમ માર્ગમાં વિચારવું જોઈએ. સંચમી મુનિએ લોકેની સાથે કઈ વખત પણ મમત્વ નહિ કરવું જોઈએ. આ વાત કહેવામાં यावेत छ. ते विषयनी पुष्टि २॥ देशमा ४२वामां मावशे.-'सेतं' त्यादि.
पांयमा उद्देशमा “न हु एवं अणगारस्स जायइ" 20 मतिम सूत्रमा “સંયમીને એવું કલ્પતું નથી. એમ કહેલ છે તેનું વિશદ કરવાને માટે કહે छे-से तं' त्यादि
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आचाराङ्गसूत्रे
टीका – 'स्या' दित्यादि । यः पुरुषः स्यात् = कदाचित् प्रमादवशेन तत्र = प्राणातिपातादिरूपपापकर्मसु एकतरं प्राणातिपातादिरूपं विपरामृशति = समारभते, यच पट्सु मध्ये अन्यतरस्मिन् पृथिवीकायादिके एकस्मिन्नपि समारभते स पट्सु जीवनिकायेषु कल्पते समारभते, यथा कुलालशालाया उदकेन प्लावने एकजीवनिकायारम्भे पड्जीवनिकायारम्भो भवति तथैवात्रैकजीवनिकायविराधनायां पड्जीवनिकाय विराधनाऽवश्यम्भाविनी । उक्तञ्च—
जत्थ जलं तत्थ वर्ण, जत्थ वणं तत्थ निस्सिओ अग्गी । अग्गी वासहगया, तसा य तन्निसिया चेव " ॥१॥ छाया - यत्र जलं तत्र वनं यत्र वनं तत्र निःश्रितोऽग्निः । अग्निर्वायुहगतनसाथ तन्निः श्रिताश्चैव ॥ इति ।
३२२
प्राणातिपातादिक १८ प्रकार के पापस्थानों में से जो किसी एक भी पापस्थान का करनेवाला होता है वह अन्य पापस्थानों का भी करनेवाला | इसी विषय को सूत्रकार प्रकट करते हैं- "सिया तत्थ " इत्यादि । जो पुरुष कदाचित् प्रमाद के वशवर्ती होकर प्राणातिपातादिक पापों में से किसी एक पाप कर्म को करता है, छहकाय के जीवों की विराधना में से किसी एक कायके जीवों की विराधना करता है, वह समस्त पापकर्मों का, एवं छहकाय के जीवों की विराधना का कर्त्ता माना जाता है। जैसे कुंभकार की शाला को जल से सींचने पर एक जीवनिकाय के आरंभ होने पर षड्जीवनिकाय का आरंभ होता है, उसी तरह यहां पर भी एक जीवनकाय की विराधना में षटुकाय के जीवों की विराधना भी अवश्य होती है । कहा भी है
પ્રાણાતિપાતાર્દિક ૧૮ અઢાર પ્રકારના પાપસ્થાનામાંથી જે કોઈ એક પણ પાપસ્થાનના કરનાર હોય છે તે અન્ય પાપસ્થાનોના કરનાર હોય છે. આ વિષયને सूत्रार प्रगट उरे छे -- " सिया तत्थ " इत्यादि
જે પુરૂષ કદાચિત્ પ્રમાદને વશ બની પ્રાણાતિપાતાઢિક પાપોમાંથી કઈ એક પાપકને કરે છે છકાય જીવોની વિરાધનામાંથી કોઈ એક કાયના જીવોની વિરાધના કરે છે, તેને સમસ્ત પાપકર્માને અને છ કાય જીવોની વિરાધનાનો કર્તા માનવામા આવે છે. જેવી રીતે કુ ભારના ઘરને જલથી સીંચવાથી એક જીવ નિકાયને! આરંભ થવાથી પવિનકાયના આરભ થાય છે. તેવી રીતે આ ઠેકાણે પશુ એક જીવ નિકાયની વિરાધનામાં ષટ્કાય જીવોની વિરાધના પણ અવશ્ય धाय छे. उयछे
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अध्य० २. उ.६
३२१ घव्यापाराकरणप्रतिज्ञाकारी तस्मात्कारणात् पापकर्म-पापजनकत्वात्पापरूपमेव कर्म प्राणातिपातादिरूपाष्टादशप्रकारकं नैव कुर्यात्-न कदाचिदपि समाचरेत् , न कारयेत् 'एवे-'त्यस्य निश्चयार्थकत्वात् कुर्वन्तं कारयन्तं वा नानुमोदयेत् ॥ सू० १॥ ___ प्राणातिपातादिष्वेकं पापकर्म कुर्वन्नन्यस्यापि कर्ता भवतीति दर्शयति-'सिया तत्थ' इत्यादि।
मूलम्--सिया तत्थ एगयरं विप्परामुसइ छसु अन्नयरंमि कप्पइ, सुहट्ठी लालप्पमाणे सएण दुक्खेण मूढो विपरियासमुवेइ, सएण विप्पमाएण पुढो वयं पकुव्वइ, जसिमे पाणा पव्वहिया, पडिलेहाए नो निकरणाए एस परिन्ना पवुच्चइ, कम्मोवसंती ॥ सू० २॥
छाया स्यात्तत्रैकतरं विपरामृशति, पट्स्वन्यतरस्मिन् कल्पते, सुखार्थी लालप्यमानः स्वकेन दुःखेन मूढो विपर्यासमुपैति, स्वकेन विप्रमादेन पृथगवतं प्रकुरुते, यस्मिन्निमे प्राणाः प्रव्यथिताः प्रत्युपेक्ष्य नो निकरणाय, एषा परिज्ञा प्रोच्यते कर्मोपशान्तिः ॥ सू० २॥ कर चुका है तब वह कैसे प्राणातिपातादिक अठारह प्रकार के पाप कर्मों को कर सकता है। जब नहीं कर सकता है तब वह उन पापकर्मों को करने वालों की तथा उन्हें कराने वालों की अनुमोदना भी कैसे कर सकता है ? अर्थात् नहीं कर सकता। सूत्र में 'एव' शब्द निश्चय अर्थ में प्रयुक्त है, अतः यह निश्चित है कि अनगार कभी भी न स्वयं १८ अठारह प्रकार के पापस्थानों को करेगा, न करावेगा और न उन करनेकराने वालों की कभी अनुमोदना ही करेगा ॥ सू०१॥ પ્રતિજ્ઞા લીધેલ છે ત્યારે તે પછી પ્રાણાતિપાતાદિક અઢાર પ્રકારનાં પાપકર્મો કેવી રીતે કરી શકે? જો નથી જ કરી શકે તે પછી તેવા પાપ કર્મોના કરનારની તેને કરાવનારની અનુમોદના પણ કેવી રીતે કરી શકે છે અર્થાત્ કરી શકતા નથી. સૂત્રમાં પ્રવ શબ્દ નિશ્ચય અર્થમાં પ્રયુક્ત છે, માટે એ નિશ્ચિત છે કે અણુગાર કઈ વખત પણ ૧૮ અઢાર પ્રકારના પાપસ્થાનેને કરે નહિ, કરાવે નહિ તેમજ તેઓન-કરનારાઓની અને કરાવનારાઓની અનમેદના પણ કરે નહિ. સૂ૦ ૧છે.
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३२४
भचाराङ्गसूत्रे
परिग्रहस्तत्र मैथुनं रात्रिभोजनं च जायत एव । ततश्च षट्स्वन्यतरस्मिन् प्रवृत्तो जनः सर्वेष्वपि प्रवर्तत एव । यद्वा- एकतरम् = एकमपि पापारम्भं य आचरति स सर्वमपि समारम्भं करोत्येव, उन्मार्गप्रवृत्तस्य तस्यैककरणे सर्वत्र प्रवृत्तिसद्भावात् । वाला संयमी मुनि यदि उसी प्रत्याख्यात विषय में प्रवृत्ति करता है तो इस प्रकार की उसकी प्रवृत्ति से एक तो उसके गृहीतव्रत का भंग होता ही है, दूसरा उसका मृषावाद का दोष भी लगता है; क्योंकि उसने अपनी प्रतिज्ञा भंग करनेरूप मृषावाद का सेवन किया । जिस जीव की हिंसा करने में वह प्रवृत्त हो रहा है उस जीवने उसके लिये अपने शरीर को घात करने के निमित्त तो दिया नहीं है, अतः अदत्त का ग्रहीता होने से उसके लिये अदत्तादान का दोष भी लगता है। जितने भी सावद्यकर्म हैं वे अपरिग्राह्य हैं; उन अपरिग्राह्यों को ग्रहण करनेवाला होने से उसे परिग्रह के ग्रहण करने का दोष भी लागू होता है । जहां पर परिग्रह है वहां पर मैथुन एवं रात्रिभोजनजन्य दोष भी लगता ही है । इसलिये छह ६ व्रतों में से अन्य एक भी व्रत की विराधना करने वाला मुनि समस्त व्रतों की विराधना करता है, यह बात भलीभांति सिद्ध हो जाती है । इसी प्रकार छह व्रतों में से एक भी व्रत का निर्दोष रीति से पालन करने वाला मुनि अन्य और भी व्रतों का पालक माना जाता है ।
‘હું હિંસાદિક પાપોને કરીશ નહિ ’ આ પ્રકારની પ્રતિજ્ઞા કરવાવાળા સંચમી મુનિ કદાચ તે પ્રત્યાખ્યાત વિષયમાં પ્રવૃત્તિ કરે છેતો આ પ્રકારની તેની પ્રવૃત્તિથી એક તો તેના લીધેલા વ્રતના ભગ થાય છે બીજી તેને મૃષાવાદના દોષ પણ લાગે છે. કારણ કે તેણે પોતાની પ્રતિજ્ઞા ભગ કરવારૂપ મૃષાવાદનુ સેવન કર્યું . જે જીવની હિંસા કરવામા તે પ્રવૃત્ત થઈ રહ્યા છે, તે જીવા તેના માટે પોતાનુ શરીર ઘાત કરવાને નિમિત્તે તો આપેલ જ નથી. માટે અદ્યત્તને પણ ગ્રહીતા હોવાથી તેને માટે અદત્તાદાનના દોષ પણ લાગે છે. જેટલા પણ સાવદ્ય ક છે તે અપરિગ્રાહ્ય છે. તે અપરિગ્રાહ્યોના ગ્રહણ કરવાવાળા હોવાથી તેને પરિગ્રહને બહુણુ કરવાનો દોષ પણ લાગુ થાય છે જ્યા પરિગ્રહ છે ત્યાં મૈથુન અને રાત્રિ ભોજનજન્ય દોષ પણ લાગે જ છે માટે છ તેમાથી અન્ય એક પણ વ્રતની વિરાધના કરવાવાળા મુનિ સમસ્ત ત્રતોની વિરાધના કરે છે આ વાત ભલીભાતિ દ્ધ થઇ જાય છે. તે પ્રકારે છ વ્રતોમાંથી એક પણ વ્રતને નિર્દોષ રીતિથી ન કરવાવાળા મુનિ અન્ય મીન્ત પણ વ્રતોના પાલક માનવામાં આવે છે.
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अध्य० २. उ. ६
एवं षट्स व्रतेष्वाद्यव्रतविराधनायां षण्णामपि व्रतानां विराधना भवति, तद्यथा --संयमी प्राणातिपाते प्रवृत्तिं कुर्वन् हिंसादिदोषं स्पृशति, तेन प्रतिज्ञाभङ्गजन्यो मृषावादः । उक्तञ्च
" न करेमित्ति भणित्ता, तं चेव निसेवए पुणो सो उ।
पञ्चक्खमुसाबाई, मायानियडीपसंगो य ।” इति । छाया न करोमीति भणिया, तदेव निषेवते स तु ।
प्रत्यक्षमृषावादी, मायानिकृतिप्रसङ्गश्च ॥ कञ्चिज्जीवं नतो घातयतो वा स जीवो नैव स्वशरीरं तस्मै हननाय ना. दात्, अतोऽदत्तादानमपि। सर्व सावधं कर्मापरिग्राह्यं, तस्य ग्रहणात्परिग्रहोऽपि । यत्र
“जत्थ जलं तत्थ वर्ण, जत्थ वणं तत्थ निस्सिओ अग्गी।
अग्गी वाउसहगया, तसा यतन्निस्सिया चेव ॥१॥” इति । "जहां जल है वहां वनस्पति है, जहां वनस्पति है वहां उसके निश्रित अग्नि होती है, जहाँ अग्नि होती है वहां वायुकाय है, जहां वायुकाय है वहां उसकाय नियम से होते हैं ॥१॥" इसी प्रकार छह ६व्रतों में से प्रथम व्रत की विराधना होने पर छही व्रतों की विराधना होती है। संयमी जब प्राणातिपात में प्रवृत्ति करता है उस समय हिंसादिदोषजन्य पाप का भागी होता हुआप्रतिज्ञाभंगजन्य मृषावाद का भागी होता है। कहा भी है
"न करेमित्ति मणित्ता, तं चेव निसेवए पुणो सो उ। पच्चक्खमुसाबाई, मायानियडीपसंगो य ॥१॥” इति । 'मैं हिंसादिक पापों को नहीं करूँगा' इस प्रकार की प्रतिज्ञा करने "जत्थ जलं तत्थ वणं, जत्थ वणं तत्थ निस्सिओ अग्गो । अग्गी वाउसहगया, तसा य तन्निस्सिया चेव" ॥१॥ इति ।
જ્યાં જળ છે ત્યાં વનસ્પતિ છે. જ્યાં વનસ્પતિ છે ત્યાં તેને નિશ્ચિત અગ્નિ હોય છે. જ્યાં અગ્નિ છે ત્યાં વાયુકાય છે, જ્યાં વાઉકાય છે ત્યાં ત્રસકાય નિયમથી થાય છે ૧ ” આ પ્રકાર છે વ્રતોમાંથી પ્રથમ વતની વિરાધના હોવાથી છ વ્રતોની વિરાધના થાય છે. સંયમી જ્યારે પ્રાણાતિપાતમાં પ્રવૃતિ કરે છે તે વખતે હિંસાદિ દોષજન્ય પાપને ભાગી બનતે થકે પ્રતિજ્ઞાભંગજન્ય મૃષાવાદનો मा थाय छे. ४थु पाप छ
" न करेमित्ति भणिता, तं चेव निसेवए पुणो सो उ। पच्चक्खमुसावाई, मायानियडीपसंगो य " ॥ १॥ इति ।
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आचाराङ्गसूत्रे शान्तये वायुकायम् , आहाराद्यर्थ वनस्पतिकायं, काष्ठादिनिःश्रितं त्रसकायं च विराधयन् स्वकेन स्वकृतकमजनितेन पूर्वभवे ज्ञानावरणीयाद्यष्टविधकर्मरूपं दुःखतस्वीजं तथोप्तवान् यथाऽस्मिन् भवे स दुःखतरुः प्ररोहत्येव । तादृशेन दुःखेन शारीरिकमानसिकेन मूढः व्याकुलितः परमार्थमजानन् हिताहितप्राप्तिपरिहारविकलः विपर्यासमुपैति प्राणिपीडनादिकं सावधव्यापारमाचरन् सुखस्य विपरीतं दुःखमेव फलं प्रामोतीत्यर्थः । . ___ यद्वा अल्पसुखदं सावधानुष्ठानमनुतिष्ठन् , सुखस्थानेऽनन्तकालिकं शारीरिकमानसिकदुःखमेव प्रामोतीति भावः। पुनरप्याह-" स्वकेने-'त्यादि । स्वकेन= अथवा खेती आदि की रक्षा करने के लिये अग्नि का सहारा लेता है, इसमें अग्निकायिक एवं उसे प्रज्वलित करने के लिये वनस्पतिकाय तथा उसमें रहे हुए उसकाय जीवों की भी विराधना करता है, गर्मीजन्य संताप के शलन के लिये वायुकाय के जीवों का भी घात करता है । इस प्रकार यह जीव पट्काय के जीवों की विराधना करता हुआतज्जन्य पापकर्मों के उदय से दुःखित बन हिताहित के विवेक से विकल होकर सदा विपर्यास-मिथ्यात्व को प्राप्त करता है। जीव पूर्वभव में जिस प्रकार के तीव्र, मन्द, मध्यमादि परिणामों से ज्ञानावरणीयादि आठ प्रकार के कर्मों को बांधता है उसी प्रकार से उनका फल भी उसी भव में अथवा आगामी भव में भोगता है, यह निश्चित सिद्धान्त है। दुःख भोगना भी इन्हीं कर्मों के उद्याधीन है । जिस प्रकार विनाबीज के वृक्ष नहीं होता है उसी प्रकार विना
જીવોની વિરાધના કરે છે. રસોઈ આદિ બનાવવા માટે અથવા ખેતી આદિની રક્ષા કરવા માટે અગ્નિને આશ્રય લે છે, તેમાં અગ્નિકાયિક અને તેને પ્રજવલિત કરવા માટે વનસ્પતિકાય તથા તેમાં રહેલા ત્રસકાય જીવોની પણ વિરાધના કરે છે. ગર્મજન્ય સંતાપને શમાવવા માટે વાયુકાયના જીવોનો પણ ઘાત કરે છે. આ પ્રકાર આ જીવ પર્યાય જીવોની વિરાધના કરતાં તજન્ય પાપકર્મોના ઉદયથી દુખિત બની હિતાહિતના વિવેકથી વિકલ બનીને સદા વિપર્યાસ-મિથ્યાત્વને પ્રાપ્ત કરે છે જીવ પૂર્વભવમાં જેવા પ્રકારે તીવ્ર, મન્ટ, મધ્યમાદિ પરિણામોથી જ્ઞાનાવર
યાદિ આઠ પ્રકારના કર્મોને બાધે છે તે પ્રકારે તેનું ફળ પણ તે ભવમાં અથવા આગામી ભવમા ભગવે છે, એ નિશ્ચિત સિદ્ધાન્ત છે દુખ ભોગવવુ પણ તેના કર્મોના ' યાધીન છે. જે પ્રકારે બીજ વિના વૃક્ષ થતું નથી તે પ્રકારે અશુભ કર્મોદય વિના
પણ અને પ્રાપ્ત થતું નથી. પરભવના બાંધેલા કર્મ આગામી ભવમાં પણ
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मध्य० २. उ. ६
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किमर्थमयं पापकर्मणि प्रवर्तते ? इत्याह- ' सुखार्थी - 'त्यादि । सुखार्थी = पौनलिकसुखाभिलाषी लालप्यमानः = अत्यर्थं मुहुर्मुहुर्वा लपतीति लालप्यमानः, सुखार्थमुन्ममोहवशेन यद्वा तद्वा मुहुर्मुहुर्बुवन्, नानाप्रकारान् धावनवल्गनादिकान् व्यापारान् विदधत् सुखकारणानि च चेतसि चिन्तयन्, कृष्यादिव्यापारैः पृथिवीकायमुपमर्द्दयन्, तत्सेचनाद्यर्थमकायं, पाकाद्यर्थं तैजसकार्य, ग्रीष्मसन्तापोप
"
अथवा - किसी एक भी पापारम्भ का जो आचरण करता है वह अन्य समस्त पापारम्भों का आचरण करनेवाला होता ही है; क्योंकि जिसकी प्रवृत्ति उन्मार्ग में चालू है वह यदि एक भी पापारम्भ को करता है तो उस एक के करने में अन्य सब पापारम्भ के करने का सद्भाव आ ही जाता है ।
पापकर्म में प्रवृत्ति होने का कारण एक केवल उसकी पौगलिक सुख प्राप्त करने की अभिलाषा ही है । अतः सुखार्थी होने के कारण से ही इसकी प्रवृत्ति पापकार्यों में होती है । जिस प्रकार उन्मत्त प्राणी नशा आवेश से यद्वा-तद्वा बारंबार बोलता है और व्यर्थ में इधर-उधर दौड़ता फिरता है, उसी प्रकार यह भी मोह के आवेश से यहा - तद्वा बारंबार बोलता हुआ अनेक प्रकार की यहां से वहां दौड़-धूप किया करता है, 'मुझे इन कामों के करने से सुख प्राप्त होगा' इस प्रकार की विचारधारा से प्रेरित होकर कृषि आदि अनेक पृथिवीकायिक जीवों के उपमर्दन करने वाले व्यापारों को करता है, उसके सिंचन के लिये अप्काय जीवों की विराधना करता है, रसोई आदि बनाने के लिये
અથવા-કાઈ એક પણ પાપારમ્ભનો જે આચરણ કરે છે તે અન્ય સમસ્ત પાપારમ્ભોનું આચરણ કરવાવાળા હોય જ છે. કારણ કે જેની પ્રવૃત્તિ ઉન્મામાં લાગેલી છે તે કદાચ એક પણ પાપારંભ કરે તો તે એક કરવામાં અન્ય બધા પાપારંભ કરવાનો સદ્ભાવ આવી જ જાય છે.
પાપકમાં પ્રવૃત્તિ હોવાનું કારણ એક કેવળ તેની પૌદ્ગલિક સુખ પ્રાપ્ત કરવાની અભિલાષા જ છે. અતઃ સુખાથી હોવાના કારણથી જ તેની પ્રવૃત્તિ પાપ કાર્યોમાં થાય છે. જેવી રીતે ઉન્મત્ત પ્રાણી નશાના આવેશથી જેમ તેમ વારવાર મેલે છે અને વ્યમાં અહીં તહીં દોડતા કરે છે, તે પ્રકારે તે પણ મોહના આવેશથી જેમ તેમ વારવાર ખોલતાં અનેક પ્રકારની ત્યાંથી અહીં અને અહીંથી ત્યાં દોડધામ કરતા રહે છે. મને એ કામો કરવાથી સુખ પ્રાપ્ત થશે’ આવા પ્રકારની વિચારધારાથી પ્રેરિત થઈને કૃષિ આદિ અનેક પૃથિવીકાયિક જીવાનુ` ઉપમન કરવાવાળા વ્યાપારોને કરે છે, તેના સિંચન માટે અપકાય
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आचाराङ्गसूत्रे
इसी प्रकार जो अपने द्वारा उपार्जित मद्यादि पांच प्रकार के प्रमाद के वशवर्ती होकर जिनोक्त छह प्रकार के व्रतों का पालन छिन्न-भिन्नरूप से करते हैं, अथवा जिन भगवानने इन व्रतों के पालन करने की जो विधि बतलाई है उस विधि-विधान से विपरीत विधि-विधान को लेकर जो व्रतों का आराधन करते हैं, अथवा जिनशासनप्रतिपादित व्रतों से विपरीत व्रतों को जो पालते हैं, वे संसार में परिभ्रमण किया करते हैं । संयमी के लिये छह व्रतों का पालन आवश्यक बतलाया है, वह यदि पांच प्रकार के प्रमाद में पतित होकर अपनी इच्छानुसार प्रथम व्रत का आचरण करे और द्वितीय का आचरण न करे तथा तृतीय का आचरण करे अन्य का नहीं; तो इस प्रकार के व्रताराधन से उसके संसार के बंधन का अन्त नहीं आ सकता । अतः व्रतों के पालन करने की विधि जिस प्रकार शास्त्रों में वर्णित है उसी विधि से व्रतों की आराधना करनी चाहिये। जिन व्रतों का पालन संयमी के लिये बतलाया गया है। उनके सिवाय यदि वह अन्य व्रतों की आराधना करता है तो इस प्रकार की उसकी स्वच्छंदवृत्ति उसके भव का अन्त करने वाली न होकर उल्टी उसके अनन्त संसार की बढ़ाने वाली ही होगी; क्यों कि इस प्रकार की निजमान्यता में वीतराग प्रभु की आज्ञा का भंग होता है । यह
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આ પ્રકારે જે પોતાના દ્વારા ઉપાર્જિત મદ્યાદિ પાચ પ્રકારના પ્રમાદને વશ મનીને જીનોક્ત છ પ્રકારના વ્રતોના પાલનને છિન્નભિન્ન રૂપમાં કરી નાંખે છે. અથવા જિન ભગવાને આ વ્રતોના પાલન માટે જે વિધિ ખતાવી છે તે વિધિવિધાનથી વિપરીત વિધિ-વિધાન લઈને જે વ્રતોનું આરાધન કરે છે, અથવા જિન શાસન પ્રતિપાતિ વ્રતોથી વિપરીત વ્રતોને જે પાળે છે તે સંસારમા પરિભ્રમણ કર્યાં કરે છે સયમી માટે છ વ્રતોનું પાલન આવશ્યક પતાવ્યું છે, તે કદાચ પાચ પ્રકારના પ્રમાદમા પતિત થઈને પોતાની ઇચ્છાનુસાર પ્રથમ વ્રતનું આચરણ કરે અને બીજાનું આચરણ ન કરે, તથા ત્રીજાનુ આચરણ કરે અન્યનું નિહ. તે આ પ્રકારના ત્રતારાયનથી તેના સંસારના બધનના અંત આવી શકતો નથી. માટે વ્રતોના પાલન કરવાની વિધિ જે પ્રકારે શાસ્ત્રોમા વર્ણિત છે તેવી વિધિથી વ્રતોની આરાધના કરવી તેઇએ. જે વ્રતોનુ પાલન સયમી માટે ખતાવ્યુ' છે ”ના સિવાય કદાચ તે અન્યત્રોની આરાધના કરે છે તો આવા પ્રકારની તેની સ્વચ્છ દ્રવ્રુત્તિ તેના ભવનો અંત કરવાવાળી નથી બનતી ઉલ્ટી તેને અનંત સસાર વધારવાળી થશે, કારણ કે આ પ્રકારની તેની માન્યતામાં વીતરાગ પ્રભુની આજ્ઞાના
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अध्य० २. उ. ६
३२७ निजाजितेन विप्रमादेन वि-विविधेन पञ्चप्रकारेण प्रमादेन पृथक जिनोक्तेषु षट्सु व्रतेषु छिन्नभिन्नरूपेण जिनशासनोक्तविपरीतं वा व्रतं भकुरुते ।
इदमत्र तत्त्वम्-वसु व्रतेषु प्रथमस्याचरणे द्वितीयस्यानाचरणं, तृतीयस्य चाचरण-मित्येवं छिन्नभिन्नरूपेण व्रतकरणम् । अशुभ कर्मोदय के दुःख भी जीवों को प्रास नहीं होता। परभव के बांधे हुए कर्म अगामी अव में भी उदय में आते रहते हैं। इसीलिये जीव उन अशुभ कर्मोदयजन्य दुःखों से हिताहित के विवेक से रहित होकर व्यथित होता रहता है। कभी शारीरिक कष्टों का अनुभव करता है तो कभी मानसिक पीडा से दुःखी होता रहता है। वास्तविक वस्तुस्थिति से अजान बनकर "सावध व्यापारों के आचरण से ही मैं सुखी होऊँगा" इस प्रकार की अपनी विपरीत कल्पना से सुख के स्थान में दुःख को ही प्राप्त करता रहता है। अथवा-सावध व्यापारों का करना सदा सुखदायी नहीं होता। अपनी आवश्यकता की पूर्ति होने पर जीवों को उसकी पूर्तिजन्य काल्पनिक अल्पसुख भले ही मिल जावे परन्तु वह सदा स्थायी नहीं। जिस सुख की आशा से इन सावध व्यापारों में जीव प्रवृत्ति किया करते हैं उनसे तो उन्हें उल्टे उस सुख के स्थान में अनन्तकाल तक भोगने योग्य शारीरिक एवं मानसिक दुःख ही प्राप्त होते हैं। ऐसा समझकर संयमी को कभी भी किसी भी प्राणातिपातादिक में प्रवृत्ति नहीं करना चाहिये। ઉદયમાં આવે છે, માટે જીવ એ અશુભ કર્મોદયજન્ય દુખોથી હિતાહિતના વિવેકથી રહિત થઈને વ્યથિત થતા રહે છે. કોઈ વખત શારીરિક કષ્ટોને અનુભવ કરે છે તો કઈ વખત માનસિક પીડાથી દુઃખી થતા રહે છે. વાસ્તવિક વસ્તુસ્થિતિથી અજાણ બનીને “સાવદ્ય વ્યાપારના આચરણથી જ સુખી થઈશ” એવા પ્રકારની પોતાની વિપરીત કલપનાથી સુખના સ્થાને દુઃખને જ પ્રાપ્ત કરે છે. અથવા–સાવદ્ય વ્યાપારનું કરવું સદા સુખદાયી થતું નથી. પોતાની આવશ્યક્તાની પૂતિ થવાથી અને તેની પ્રતિજન્ય કાલ્પનિક અલ્પ સુખ ભલે મળી જાય પરંતુ તે સદા સ્થાયી નહિ. જે સુખની આશાથી આ સાવદ્ય વ્યાપારમાં જીવ પ્રવૃત્તિ કરે છે, તેનાથી તો તેને ઉલટા તે સુખના સ્થાનમાં અનન્ત કાળ સુધી ભોગવવા ગ્ય શારીરિક અને માનસિક દુઃખ જ પ્રાપ્ત થાય છે. એવું સમજીને સંયમીએ કઈ વખતે પણ કોઈ પણ પ્રાણાતિપાતાદિકમાં પ્રવૃત્તિ કરવી જોઈએ નહિ.
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आचारागसूत्रे तत्र जन्तवः क्लिश्यन्त इत्याह-' यस्मि-' नित्यादि। यस्मिन्निजार्जितप्रमादजन्यकटुकर्मके, भवोपग्राहिचतुर्गतिके संसारेऽवस्थाविशेषे वा, इमे-प्रत्यक्षनिर्दिष्टाः प्राणाः माणिनः प्रव्यथिताः बहुविधव्यसनसम्पातेन पीडिता भवन्ति । ततः किं कुर्यादित्याह-' प्रत्युपेक्ष्ये '-त्यादि । तदेतत्सर्वं स्वकृतकर्मविपाकेन विविधप्रमादेन वा प्राणिनां प्रव्यथनं प्रत्युपेक्ष्य-समालोच्य निकरणाय-नितरां क्रियन्ते नानादुःखावस्थावन्तो जन्तवो येन तनिकरणं दुःखोत्पादनं, येन कर्मणा माणिनो दुःखनिवहमनुभवन्ति तत्कर्म निकरणं, तस्मै तदर्थ-कर्म न कुर्यात्, प्राणिपीडाजनकं कर्म सर्वथा दारिद्रय और दौर्भाग्यादिरूप अवस्थाएँ होती हैं । प्रमाद का कारण कर्म है और प्रमाद उसका कार्य है। इन दोनों में अभेद संबंध से यह अर्थ घटित हो जाता है। अर्थात् जीवों की एकेन्द्रियादिक तथा कलल अर्बुदादिप एवं दारिद्रय-दौर्भाग्यादिरूप अवस्थाएँ कर्मकृत मानी जाती हैं। परन्तु जो यहां पर प्रमादकृत उन्हें बतलाया गया है उसका कारण प्रमाद में उसके कारणभूत कर्म का अभेद-संबंध मानकर ही प्रकट किया गया है। इस प्रकार प्रमादजन्य इन अवस्थाविशेषों में, अथवा चतुर्गतिरूप इस संसार में ये समस्त प्राणी अनेक प्रकार के कष्टों के पड़ने से रातदिन पीडित होते रहते हैं। इसलिये जीवों की स्वकृत कर्म के विपाक से अथवा अनेक प्रकार के प्रसाद से दुःखित अवस्थाओं का अच्छी प्रकार विचार कर संयमी मुनि को प्राणिपीडाजनक कार्य सर्वथा छोड़ देना चाहिये । अनेक प्रकार की अवस्थाओं से युक्त प्राणी जिसके द्वारा किये जाते हैं, ऐसे दुःखों को उत्पादन करनेवाले कार्यों से जीव सदा दुःखों की परंपरा का ही अनुभव करते रहते हैं। ऐसे कार्य संयमी मुनि को દ્રવ્ય અને દુર્ભાગ્યાદિરૂપ અવસ્થાઓ થાય છે પ્રમાદનું કારણ કર્મ છે અને પ્રમાદ તેનું કાર્ય છે. આ બન્નેમાં અભેદ સ બ ધથી તે અર્થ ઘટિત થઈ જાય છે અર્થાત્ જીની એકેન્દ્રિયાદિક તથા કલા અબુદાદિરૂપ અવસ્થાઓ કર્મકૃત માનવામાં આવે છે, પરંતુ જે તેને આ જગ્યાએ પ્રમાદકૃત બતાવેલ છે તેનું કારણ પ્રમાદમાં તેને કારણભૂત કર્મને અભેદ–સ બધ માનીને જ પ્રગટ કરવામાં આવેલ છે. આ પ્રકાર પ્રમાજન્ય આ અવસ્થા–વિશેષમાં અથવા ચતુર્ગતિરૂપ આ સંસારમાં એ સમસ્ત પ્રાણ અનેક પ્રકારના કષ્ટો પડવાથી રાતદિન પીડિત થયા કરે છે. માટે જીવોના સ્વકૃત કર્મના વિપાકથી અથવા અનેક પ્રકારના પ્રમાદથી દુખિત અવસ્થાઓને સારી રીતે વિચાર કરી સયમી મુનિએ પ્રાણિ પીડાજનક કાર્ય સર્વથા છોડી દેવું જોઈએ. અનેક પ્રકારની દુખિત અવસ્થાઓથી
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अध्य० २. उ. ६
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यद्वा- ' वयं ' इत्यस्य ' वय - ' मितिच्छाया, तत्र वयन्ति = परिभ्रमन्ति जन्तवः स्वेन कर्मणा यस्मिन् स वयः संसारस्तं प्रकुरुते -संसारे परिभ्रमतीत्यर्थः ।
अथवा 'वयः' इतिच्छाया, कारणस्य - ज्ञानावरणीयादिकर्मणः कार्येण - प्रमादेन सहाभेदात् स्वकेन विप्रमादेन = निजार्जितेनानेकविधेन मद्यादिरूपप्रमादजनकेन कर्मणा वयः=अवस्थाविशेष मे केन्द्रियादिकं पञ्चेन्द्रियेषु कललार्बुदादिरूपं, दारिद्र्यदौर्भाग्याद्यात्मकं च प्रकुरुते ।
भंग ही महान् अनर्थ का और भव की अनन्त परंपरा का बढ़ानेवाला कारण माना गया है ।
अथवा - जो संयमी पांच प्रकार के प्रमादों का आसेवन करता है वह अपने संसार को बढ़ाता है, यह भी "वयं पकुव्वइ" इस पद से प्रकट होता है । " वयं " इसकी छाया " व्रतं " जब होती है तब पूर्वोक्तरूप से उसका अर्थ संगत होता है । परन्तु जब "वयं" इसका अर्थ " वयन्ति - परिभ्रमन्ति जन्तवः स्वेन कर्मणा यस्मिन् स वयः " इस व्यु त्पत्ति के अनुसार किया जावेगा तो उसका अर्थ संसार होगा; क्योंकि प्राणी अपने उपार्जित कर्मों के द्वारा संसार में ही परिभ्रमण करते रहते हैं । अथवा - " वयं " की छाया वयः जब होगी तब इसका यह भी अर्थ होगा कि निजार्जित मद्यादिकरूपप्रमादजनक कर्म से एकेन्द्रियादिकरूप अवस्थाएँ, तथा पंचेन्द्रियों में गर्भ के अन्दर कलल अर्बुदादिरूप, तथा ભંગ થાય છે તે ભંગ જ મહાન અનર્થાંના, અને ભવની અનંત પર પરાને વધારવાના કારણુ રૂપ મને છે.
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અથવા—જે સંયમી પાંચ પ્રકારના પ્રમાદ્યોનું આસેવન કરે છે તે પોતાના संसारने वधारे छे ते यशु " वयं पकुव्वइ " से पहथी अगर थाय छे. “ “वयं " तेनी छाया “ व्रतं ” न्यारे होय छे त्यारे पूर्वोस्त ३५थी तेनो अर्थ संगत थाय छे. परंतु न्यारे “ वयं " तेनो अर्थ " वयन्ति = परिभ्रमन्ति जन्तवः स्वेन कर्मणा यस्मिन् स वयः " भी व्युत्पत्ति अनुसार अश्वामां आवे तो तेना अर्थ સંસાર થશે; કારણ કે પ્રાણી પોતાના ઉપાર્જિત કર્યાં દ્વારા સંસારમાં જ પરિભ્રમણ કરતા રહે છે.
अथवा “ वयं ”नी छाया "वयः " न्यारे यशे त्यारे तेनो मे पशु मर्थ थशे કે પોતાના ઉપાર્જિત મદ્યાક્રિકરૂપ પ્રમાદજનક કાઁથી જીવોની એકેન્દ્રિયાક્રિક રૂપ અવસ્થા, તથા પાંચેન્દ્રિયાના ગર્ભની અંદર કલલ અખું દ્યાદિપ, તથા દારિ
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माचारागसूत्रे शारीरिक-मानसिक-दुःखोत्पादनकारणं ममबबुद्धिरेव, तनिवृत्या मुनिर्भवतीति दर्शयति-'जे ममाइयमई' इत्यादि । मूलम्-जे ममाइयमई जहाइ, से चयइ ममाइयं,
से हु दिट्ठपहे मुणी, जस्त नत्थि ममाइयं ॥ सू०३॥ छाया—यो ममायितमतिं जहाति स त्यजति ममायितम् । स हु दृष्टपथो मुनियस्य नास्ति ममायितम् ॥ सू० ३॥ ___टीका—यो ममायितमति'-मित्यादि । यः परिग्रहजन्यकटुविपाकज्ञो 'ममायितमति' ममेत्येवंरूपो ममायितः परिग्रहस्तस्य मतिर्ममायितमतिस्तां ममायितमतिं जहाति त्यजति, स एव ममायितं द्रव्यतः पुत्रकलत्रहिरण्यसुवर्णैश्वर्या
शारीरिक एवं मानसिक दुःखों की उत्पत्ति का कारण एक ममत्वबुद्धि ही है । उसका जवतक परिहार नहीं किया जावेगा तबतक वास्तविक मुनिपना नहीं आसकता है। इसलिये मुनि होने के लिये उसकी निवृत्ति होना आवश्यक है। इस बात को दिखाते हुए सूत्रकार कहते हैं-'जे ममाइयमई' इत्यादि। ____ जो यह समझता है कि 'परिग्रह का संग्रह महादुःखदायी है, तथा इसका फल भी कटुक ही है वह कभी भी परिग्रह के उपार्जन करने में नहीं फंसता है, तथा जो इस बात को भी भलीभांति जान चुका है कि 'परिग्रह मात्र ही दुःखप्रद एवं परिणाम में अनेक अनर्थों का मूल है' वह तो उस परिग्रह की अभिलाषा तक भी नहीं करता है, चाहे वह द्रव्य से पुत्र, कलत्र, हिरण्य, सुवर्ण, ऐश्वर्यादिरूप परिग्रह हो,
શારીરિક અને માનસિક દુખોની ઉત્પત્તિનું કારણ એક મમત્વ-બુદ્ધિ જ છે. તેને જ્યાં સુધી પરિહાર નહિ કરવામાં આવે ત્યા સુધી વાસ્તવિક મુનિપણું આવી શકતું નથી. માટે મુનિ હોવાથી તેની નિવૃત્તિ આવશ્યક છે. એ વાતને देमाडीन. सूत्रा२ छ-'जे ममाइयमई त्यादि.
જે એમ સમજે છે કે “પરિગ્રહ સંગ્રહ મહા દુખદાયી છે, તથા તેનું ફળ પણ કટુ જ છે” તે કઈ વખત પણ પરિગ્રહને ઉપાર્જન કરવામાં ફસતા નથી, તથા જે આ વાતને ભલીભાતિથી જાણે છે કે “પરિગ્રહમાત્ર દુખપ્રદ અને પરિણામમાં અનેક અનર્થોનું મૂળ છે. તે તે તે પરિગ્રહની અભિલાષા સુદ્ધાં કરતા નથી, ભલે તે દ્રવ્યથી પુત્ર, કલત્ર, હિરણ્ય, સુવર્ણ, ઐશ્વર્યાદિરૂપ પરિગ્રહ
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अध्य० २. उ. ६ वर्जयेदित्यर्थः । ततोऽपि किमित्याह 'एपे'-त्यादि । एपा-पूर्वोक्ता सर्वारम्भनिवृत्तिरूपा परिज्ञा-तत्वविचारणा ज्ञप्रत्याख्यानरूपा ग्रोच्यते-भकर्पण उच्यतेकथ्यते मया। सर्वारम्भपरित्यागे किमित्याह-' कर्मोपशान्ति-'रिति । कर्मोपशान्तिः कर्मणामष्टविधानामुपशान्तिः–उपशमः कर्मक्षयो वा भवतीत्यर्थः ।। मू०२ ॥ सदा छोड़ देना चाहिये । इस प्रकार के कार्यों के परिलाग से आठ कर्मा की उपशान्ति-उपशम अथवा उनका क्षय होता है। इस प्रकार से यहां पर जो संयमी मुनि के लिये सारं भनिवृत्तिरूप ज्ञपरिज्ञा और प्रत्याख्यानपरिज्ञा कही गई है, उसका कारण यही है कि संयमी मुनि अपनी प्रवृत्ति को प्रमाद से सदा सुरक्षित रखे । प्रमाद करने से नवीन कर्मों का बन्ध और उससे फिर प्रमाद इस प्रकार की परस्पर में कार्यकारणभाव की परंपरा चलती है, जिससे संयमी अपने लक्ष्य की सिद्धि से बंचित रहता है। अतः वह अपने लक्ष्य की सिद्धि करने के लिये ग्रहण किये हुए संयममार्ग की ओर उत्तरोत्तर वृद्धि करता हुआ अग्रसर होता रहे। इसी विचारणा से सुधर्मास्वामी कहते हैं कि यह जो सर्वारं भनिवृत्तिरूप परिज्ञा का कथन मैंने किया है उससे संयमी मुनि अपने अष्टविध कर्मों का निराकरण कर अपने लक्ष्य की सिद्धि कर लेता है । सू० २॥ યુક્ત પ્રાણી જે દ્વારા કરવામાં આવે છે, એવા દુઃખોને ઉત્પન્ન કરનાર કાર્યોનું નામ નિકરણ છે. એવા કાર્યોથી જીવ સદા દુઃખની પરંપરાને જ અનુભવ કરે છે. એવું કાર્ય સંયમી મુનિએ સદા છેડી દેવું જોઈએ. આવા પ્રકારના કાર્યના પરિત્યાયાધી આડ ની ઉપશાન્તિ–ઉપશમ અથવા તેને ક્ષય થાય છે. આ પ્રકારે આ જગ્યાએ જે સંયમી મુનિ માટે સમારંભનિવૃત્તિરૂપ –પરિણા અને પ્રત્યાખ્યાન-પરિણા કહેલ છે તેનું કારણ એ છે કે સંયમી મુનિ પિતાની પ્રવૃત્તિને પ્રમાદધી સદા સુરક્ષિત રાખે. પ્રમાદ કરવાથી નવીન કર્મોને બંધ અને તેનાધી પછી પ્રમાદ એ પ્રકારની પરસ્પરમાં કાર્યકાર-ભાવની પર પરા ચાલે છે. જેથી પાંચમી પોતાની લડાની સિદ્ધિથી વંચિત રહે છે. માટે તે પોતાના વશની િ કરવા માટે ડાડા કરેલા સંય-માની તરફ ઉત્તરોત્તર વૃદ્ધિ કરીને
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माचारागसूत्रे ___ शारीरिक-मानसिक-दुःखोत्पादनकारणं ममखबुद्धिरेव, तन्निवृत्त्या मुनिर्भवतीति दर्शयति-'जे ममाइयमई' इत्यादि । मूलम्-जे ममाइयमइं जहाइ, से चयइ ममाइयं,
से हु दिट्ठपहे मुणी, जस्त नत्थि ममाइयं ॥ सू०३॥ छाया—यो ममायितमति जहाति स त्यति ममायितम् । स हु दृष्टपथो मुनियस्य नास्ति ममायितम् ॥ सू० ३॥ ____टीका-'यो ममायितमति'-मित्यादि । यः परिग्रहजन्यकटुविपाकज्ञो 'ममायितमति' ममेत्येवंरूपो ममायितः परिग्रहस्तस्य मतिर्ममायितमतिस्तां ममायितमतिं जहाति त्यजति, स एव ममायितं द्रव्यतः पुत्रकलबहिरण्यसुवर्णैश्वर्या
शारीरिक एवं मानसिक दुःखों की उत्पत्ति का कारण एक ममत्वबुद्धि ही है। उसका जबतक परिहार नहीं किया जावेगा तबतक वास्तविक मुनिपना नहीं आसकता है। इसलिये मुनि होने के लिये उसकी निवृत्ति होना आवश्यक है। इस बात को दिखाते हुए सूत्रकार कहते हैं-'जे ममाइयमई' इत्यादि।
जो यह समझता है कि 'परिग्रह का संग्रह महादुःखदायी है, तथा इसका फल भी कटुक ही है वह कभी भी परिग्रह के उपार्जन करने में नहीं फंसता है, तथा जो इस बात को भी भलीभांति जान चुका है कि 'परिग्रह मात्र ही दुःखप्रद एवं परिणाम में अनेक अनों का मूल है' वह तो उस परिग्रह की अभिलाषा तक भी नहीं करता है, चाहे वह द्रव्य से पुत्र, कलत्र, हिरण्य, सुवर्ण, ऐश्वर्यादिरूप परिग्रह हा,
શારીરિક અને માનસિક દુખોની ઉત્પત્તિનું કારણ એક મમત્વ-બુદ્ધિ જ છે. તેને જ્યાં સુધી પરિવાર નહિ કરવામાં આવે ત્યાં સુધી વાસ્તવિક મુનિપણું આવી શકતું નથી માટે મુનિ હોવાથી તેની નિવૃત્તિ આવશ્યક છે એ વાતને हेमाडीन. सूत्र२ हे छ-'जे ममाइयमई त्यादि.
જે એમ સમજે છે કે “પરિગ્રહનો સંગ્રહ મહા દુ:ખદાયી છે, તથા તેનું ફળ પણ કટુ જ છે” તે કોઈ વખત પણ પરિગ્રહને ઉપાર્જન કરવામાં ફમતા નથી, તથા જે આ વાતને ભલીભાતિથી જાણે છે કે “પરિગ્રહમાત્ર દુખપ્રદ અને પરિણામમાં અનેક અનર્થોનું મૂળ છે તે તે તે પરિગ્રહની અભિલાષા અઢી કરતા નથી, ભલે તે દ્રવ્યથી પુત્ર, કલત્ર, હિરણ્ય, સુવર્ણ, ઐશ્વર્યાદિરૂપ પરિઝર્વ
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मध्य० २. उ. ६
दिरूपं भावतो मूर्च्छारूपमात्मपरिणामं त्यजति = परिहरति- परिग्रहबुद्धिपरित्यागेन परिग्रहः सुत्यजो भवति । यस्य = अनिर्दिष्टनामधेयस्य ममायितं नास्ति स हु स एव ' दृष्टपथः ' दृष्टो रत्नत्रयरूपः पन्थाः = मोक्षमार्गों येन स दृष्टपथः परिज्ञातमोक्षमार्गो मुनिः अनगारो भवति । ममायितमतिपरित्यागेनावश्यं ममायितः परित्यक्तो भवति, तत्परित्यागे च द्रव्यभावरूपो ममायितव्यपदार्थसार्थो हिरण्यादिरूपोऽपि नियतं परिहृतो भवति । एवं पचानुपूर्व्या मैथुनमतिपरित्यागेन मैथुनं सुतरां परित्यक्तं भवति । इत्थं शेषवतेष्वपि योजनीयम् ।
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चाहे भाव से मूच्छरूप हो; इन दोनों प्रकार के परिग्रह का परित्याग करता है। जहां परिग्रहबुद्धि का परित्याग है वहां परिग्रह का परित्याग करना कोई कठिन कार्य नहीं है । यह तो अनायास ही हो जाता है। परिग्रह का अपनाना या वाद्यपदार्थों में परिग्रहरूपता लाना इच्छा के अधीन है। जब उस प्रकार की इच्छा ही नहीं है, तब बाह्यपदार्थों में परिग्रहता ही नहीं आसकती है । जिस व्यक्ति के पास इस प्रकार का परिग्रह नहीं है वही रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग का द्रष्टा मुनि कहा गया है । इसका सारांश यही है कि जिसने परिग्रह की बुद्धि का परित्याग कर दिया है उसके परिग्रह का त्याग अवश्य होता है । इसके परित्याग से भावरूप हिरण्यादि तथा मूर्च्छारूप परिग्रह नियम से दूर हो जाते है । यहां पर परिग्रहमति के त्याग से जो परिग्रह का त्याग करना बतलाया गया है वह पश्चानुपूर्वी को लेकर कहा गया है । इससे यह भी समझ लेना चाहिये कि मैथुनमति के परित्याग से मैथुन का तथा चोरी હોય, ભલે ભાવથી મૂર્છારૂપ હાય, આ બંને પ્રકારના પરિગ્રહને પરિત્યાગ કરે છે, જ્યાં પરિગ્રહ–બુદ્ધિના પરિત્યાગ છે, ત્યાં પરિગ્રહને પરિત્યાગ કરવા કાંઇ કઠિન કાર્ય નથી. એ તો અનાયાસ જખની શકે છે. પરિગ્રહને અપનાવવા અગર બાહ્ય પદાર્થાંમાં પરિગ્રહરૂપતા લાવવી ઈચ્છાને આધીન છે. જ્યારે આવા પ્રકારની ઇચ્છા જ નથી ત્યારે બાહ્ય પદાર્થોમાં પરિગ્રહતા આવી શકતી નથી. જે વ્યક્તિની પાસે આવા પ્રકારના પરિગ્રહ નથી તે જ રત્નત્રયરૂપ મોક્ષ માર્ગના દ્રષ્ટ મુનિ કહેવાય છે.
તેના સારાંશ એ છે કે જેણે પરિગ્રહનીબુદ્ધિને પરિત્યાગ કરેલ છે તેનાથી પરિગ્રહનો ત્યાગ અવશ્ય થાય છે. તેના પરિત્યાગી દ્રવ્ય-ભાવરૂપ હિરણ્યાદિ તથા મૂર્છારૂપ પરિષદ્ધ નિયમથી દૂર થઇ ાય છે. આ ઠેકાણે પરિગ્રઙમતિના ત્યાગથી જે પરિત્ર'નો ત્યાગ કરવા ખતાવેલ છે તે પધ્ધાનુપૂર્વને લઇને કહેલ છે. તેથી એ પણ સમજી લેવું ોઇએ કે મૈથુનમતિના પરિત્યાગથી મધુનના, તથા ચોરી કરવાની
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भाचारागसूत्रे विदित्वा-ज्ञात्वा लोकसंज्ञां लोकस्य-माणिगणस्य संज्ञा आहारादिमूर्छारूपा, तां लोकसंज्ञां वान्ता-उद्गीय परित्यज्येत्यर्थः, स मतिमान् विदितहेयोपादेयः पराक्रमेत-संयमानुष्ठाने पराक्रम कुर्यात् । इति-शब्दोऽधिकारसमाप्त्यर्थकः । ब्रवीमीत्यस्यार्थस्तूक्त एव ।। सू० ४ ॥
संयमाचरणे पराक्रममाणः परिहतममायितोऽनगारः कीदृशो भवतीत्याह'नारई सहइ' इत्यादि। मूलम्-नारइं सहइ वीरे, वीरे न सहइ रई।
जम्हा अविमणे वीरे तम्हा वीरेनरज्जइ॥सू०५॥ छाया-नारतिं सहते वीरो, वीरो न सहते रतिम् ।
यस्मादविमना वीरस्तस्माद्वीरो न रज्यति ॥ सू० ५॥ से इह लोक एवं परलोक सम्बन्धी भय रहता है। तथा विषयभोगादिक भी किपाकफल के समान ऊपर से ही मनोहर मालूम पड़ते हैं परन्तु परिणाम में जीवों के लिये नरक-निगोदादि गतियों के कारण बनते हैं। किंपाकफल का सेवन जिस प्रकार प्राणों का हरण करने वाला होता है उसी प्रकार ये भी भव२ में जीवों को अनन्त यातनाओं के देनेवाले होते हैं। ऐसा समझकर उस कषायलोक का संयमी मुनि सदात्याग कर देवे। ___यहां “इति" शब्द अधिकार की परिसमाप्ति का सूचक है "ब्रवीमि" पद का अर्थ पहिले कहा जा चुका है।॥ सू०४॥
संयम के पालन करने में पराक्रमशाली और परिग्रह का त्यागी अनगार कैसा होता है ? सो कहते हैं-'नारइं सहइ' इत्यादि । પરલોક સંબન્ધી ભય રહે છે તથા વિષય ભોગાદિક પણ કિપાક ફળ સમાન ઉપરથી જ મનોહર માલૂમ પડે છે પરંતુ પરિણામમાં છે માટે નરક નિગોદાદિ ગતિઓનું કારણ બને છે. કિપાક ફળનું સેવન જે પ્રકારે પ્રાણનું હરણ કરે છે. તે પ્રકારે આ પણ ભવભવમાં જીવેને અનંત યાતનાઓ દેનાર બને છે, એવું સમજીને તે કપાયલોકન તથા વિષયલકનો સંયમી મુનિ સદા ત્યાગ કરે.
माडी “ति" श६ मधिनी परिसमातिनो सूय: छे. “ब्रवीमि " પદનો અર્થ પહેલાં કરવામાં આવેલ છે જે સૂo
સંયમનું પાલન કરવામાં પરાકમશાલી અને પરિગ્રહના ત્યાગી અણગાર उवा छाय छे ते 2-"नारई सहइ" त्याहि.
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मध्य० २. उ.६ दिरूपं भावतो मूर्छारूपमात्मपरिणामं त्यजति परिहरति-परिग्रहबुद्धिपरित्यागेन परिग्रहः सुत्यजो भवति । यस्य अनिर्दिष्टनामधेयस्य ममायितं नास्ति स हुस एव 'दृष्टपथः' दृष्टो रत्नत्रयरूपः पन्थाः मोक्षमार्गों येन स दृष्टपथः परिज्ञातमोक्षमार्गो मुनिः अनगारो भवति । ममायितमतिपरित्यागेनावश्यं ममायितः परित्यक्तो भवति, तत्परित्यागे च द्रव्यभावरूपो ममायितव्यपदार्थसार्थों हिरण्यादिरूपोऽपि नियतं परिहतो भवति । एवं पश्चानुपूर्व्या मैथुनमतिपरित्यागेन मैथुनं सुतरां परित्यक्तं भवति । इत्थं शेषत्रतेष्वपि योजनीयम् । चाहे भाव से मूछ रूप हो; इन दोनों प्रकार के परिग्रह का परित्याग करता है । जहां परिग्रहवुद्धि का परित्याग है वहां परिग्रह का परित्याग करना कोई कठिन कार्य नहीं है। यह तो अनायास ही हो जाता है। परिग्रह का अपनाना या बाह्यपदार्थों में परिग्रहरूपता लाना इच्छा के अधीन है। जब उस प्रकार की इच्छा ही नहीं है, तब बाह्यपदार्थों में परिग्रहता ही नहीं आसकती है । जिस व्यक्ति के पास इस प्रकार का परिग्रह नहीं है वही रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग का द्रष्टा मुनि कहा गया है।
इसका सारांश यही है कि जिसने परिग्रह की बुद्धि का परित्याग कर दिया है उसके परिग्रह का त्याग अवश्य होता है । इसके परित्याग से द्रव्यभावरूप हिरण्यादि तथा मूछोरूप परिग्रह नियम से दूर हो जाते है । यहां पर परिग्रहमति के त्याग से जो परिग्रह का त्याग करना बतलाया गया है वह पश्चानुपूर्वी को लेकर कहा गया है। इससे यह भी समझ लेना चाहिये कि मैथुनमति के परित्याग से मैथुन का तथा चोरी હોય, ભલે ભાવથી મૂચ્છરૂપ હય, આ બંને પ્રકારના પરિગ્રહને પરિત્યાગ કરે છે. જ્યાં પરિગ્રહ-બુદ્ધિને પરિત્યાગ છે, ત્યાં પરિગ્રહને પરિત્યાગ કરવે કાંઈ કિઠિન કાર્ય નથી. એ તો અનાયાસ જ બની શકે છે. પરિગ્રહને અપનાવ અગર બાહ્ય પદાથોમાં પરિગ્રહરૂપતા લાવવી ઈચ્છાને આધીન છે. જ્યારે આવા પ્રકારની ઈચ્છા જ નથી ત્યારે બાહ્ય પદાર્થોમાં પરિગ્રહતા આવી શકતી નથી. જે વ્યક્તિની પાસે આવા પ્રકારને પરિગ્રહ નથી તે જ રત્નત્રયરૂપ મોક્ષ માર્ગને દ્રષ્ટા મુનિ કહેવાય છે.
તેને સારાંશ એ છે કે જેણે પરિગ્રહની બુદ્ધિને પરિત્યાગ કરેલ છે તેનાથી પરિગ્રહને ત્યાગ અવશ્ય થાય છે. તેના પરિત્યાગથી દ્રવ્ય-ભાવરૂપ હિરણ્યાદિ તથા મૂચ્છરૂપ પરિગ્રહ નિયમથી દૂર થઈ જાય છે. આ ઠેકાણે પરિગ્રહમતિના ત્યાગથી જે પરિગ્રહને ત્યાગ કરવો બતાવેલ છે તે પશ્ચાતુપૂવીને લઈને કહેલ છે. તેથી એ પણ સમજી લેવું જોઈએ કે મૈથુનમતિના પરિત્યાગથી મિથુનને, તથા ચોરી કરવાની
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आचाराङ्गसूत्रे ततः किमायातमिति दर्शयति- सद्दे' इत्यादि,
मूलम्-सद्दे य फाले अहियासमाणे, निविंद नंदि इह जीवियस्त । मुणी मोणं समायाय, धुणे कम्मसरीरगं । पंतं लूहं च सेवंति, वीरा संमत्तदंसिणो। एस ओहंतरे मुणी तिन्ने मुत्ते विरए वियाहिए-त्तिवोमि ॥ सू० ६॥
छाया-शब्दान् च स्पर्शानधिसहमानो, निर्विन्द नन्दिमिह जीवितस्य, मुनिमौन समादाय धुनीत कमशरीरकं, प्रान्तं रूक्षं च सेवन्ते वीराः सम्यक्त्वदर्शिनः, एप ओघन्तरो मुनिस्तीर्णो मुक्तो विरतो व्याख्यात इति ब्रवीगि ॥ सू०६॥ ____टीका-शब्दा'-नित्यादि, शब्दान् स्पर्शाश्व-इष्टाननिष्टांश्च, आद्यन्तग्रहणादितरेप मध्यवर्तिनां रूपादीनामपि ग्रहणम् । अधिसहमानः सम्यक् सहमानः रागसे दूर हो जाती है, इसी प्रकार इन परिणामों की भी यही स्थिति होती है। इसीलिये संयमी मुनि शब्दादिक कामगुणों में मूर्छाभाव को प्राप्त नहीं होते हैं। सूत्र में सूत्रकार ने वार२ जो 'वीर' शब्द का प्रयोग किया है, उससे यही ध्वनित होता है कि कर्मरूपी शत्रु ऐसे संयमीजनों के द्वारा अवश्य जीतने के योग्य है ॥सू० ५॥ ____इससे क्या सिद्ध होता है ?-इस बातको दिखलाते हैं-" सद्दे य फासे” इत्यादि। । सूत्र में अन्तकी कर्ण-इन्द्रिय के विषय शब्द' का और आदि की स्पर्शन-इन्द्रिय के विषय स्पर्श का निर्देश किया है। इससे मध्यवती इतर इन्द्रियों के विषय-रूपादिकों का भी ग्रहण हो जाता है। शिष्य को संबोधन करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि हे मेधावी शिष्य ! इन्द्रियों के इप्ट और अनिष्ट विपयों में तुम सर्वथा रागद्वेष मत करो । शास्त्र આ પરિણામેની પણ તે સ્થિતિ છે માટે સયમી મુનિ શબ્દાદિક કામગુણેમાં મૂભાવને પ્રાપ્ત થતા નથી. સૂત્રમાં સૂત્રકારે વારવાર જે વીર શબ્દનો પ્રયોગ કર્યો છે તેથી એ નક્કી થાય છે કે કર્મરૂપી શત્ર એવા સયમીજથી અવશ્ય જીતવા યોગ્ય છે સૂપ છે
माथी शुसिद्ध थाय छ ? मे वातने मताव छ -“सह य फासे"त्यादि
સૂત્રમાં અન્તની કઈ ઈન્દ્રિયના વિષય-શબ્દને અને આદિની સ્પર્શન ઈન્દ્રિયના વિષય-સ્પર્શને ગ્રહણ થયેલ છે, આથી મધ્યવર્તી બીજી ઇન્દ્રિયને વિષય-પાદિકેને પણ પ્રહણ થાય છે. શિષ્યને સંબોધન કરીને સૂત્રકાર કહે છે કે હૈ મેધાવી શિષ્ય ! ઇદ્રિના અને અનિષ્ટ વિષયમાં તમે સર્વથા રાગ
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अध्य० २. उ.६
टीका-नारति-'मित्यादि । वीरः कर्मविदारणसमर्थः परिहतपुत्रकलबादिः संयमी कदाचिन्मोहनीयोदयात्समुत्पन्नाम्, अरतिम्-चारित्रविषयामप्रीति न सहते न क्षमते, एवमेव वीरः पूर्वोक्तः रति-विषयानुरागं च न सहते-नक्षमते, धर्मध्यानपरायणो मुनिः समुत्पन्नमात्रामपि रतिमरति च निष्कासयतीत्यर्थः । वीरो यस्मात्कारणात् रत्यरतिपरित्यागात् अविमनाः तत्रानासक्तः, तस्मात् वीरः शब्दादिकामगुणेषु न रज्यति-मूछों न प्राप्नोति । अत्र बीर-शब्दस्य पुनः पुनरुपादानं कमरिपुरवश्यं विजेतव्य इति द्योतनायेति भावः ॥ सू० ५॥ ___ "नारति सहते वीरः” अर्थात् कर्मों के विनाश करने में जो शक्तिसंपन्न है, एवं जिसने पुत्रकलनादि परिग्रह का सर्वथा परिहार कर दिया है ऐसा वीर संयमी मुनि कदाचित् मोहनीय कर्म के उदय से चारित्र में उत्पन्न हुए अरति-परिणाम को कभी भी सहन नहीं कर सकता है, और न विषयों की तरफ खींचने वाली रति को कभी हृदय में स्थान दे सकता है; कारण कि ये दोनों प्रकार के परिणाम संयम एवं धर्मध्यान के विघातक हैं। संयमी का अन्तःकरण सदा धर्मध्यान में मग्न रहता है। कदाचित् कर्म की प्रबलता से इस तरह के परिणाम उसके चित्त में आ भी जाबें तो वह मुनि ऐसे परिणामोंको अपने धर्मध्यान के प्रभाव से शीघ्रातिशीघ्र दूर कर देता है। इन परिणामों के प्रति उस संयमी की आसक्ति नहीं होती। इसीलिये इस प्रकार के रति-अरतिरूप परिणाम, विना किसी रुकावट के उसकी आत्मा से बहुत शीघ्र दर हो जात है। जैसे सूखे घड़े पर आई हुई बाल विना कुछ किये उस घडे ___ नारति सहते वीर: अर्थात् नि सा ४२पामा शक्तिसपनछ भने જેણે પુત્ર કલત્રાદિ પરિગ્રહને સર્વથા ત્યાગ કરેલ છે એવા વીર સંયમ મુનિ કદાચિત્ મેહનીય કર્મના ઉદયથી ચારિત્રમાં ઉત્પન્ન થયેલ અરતિ પરિણામને કઈ વખત પણ સહન કરી શકતા નથી, અને વિષયેની તરફ ખેંચવાવાળી રતિને પણ હૃદયમાં કઈ વખત પણ સ્થાન ન આપે, એટલે આપી શકતા નથી કારણ કે એ બંને પ્રકારના પરિણામ સંયમ અને ધર્મધ્યાનના વિઘાતક છે. સંયમીનું અંતઃકરણ સદી ધર્મધ્યાનમાં જ મગ્ન રહે છે. કદાચ કર્મની પ્રબળતાથી આવા પ્રકારનું પરિણામ તેના હૃદયમાં આવી જાય છે તે મુનિ આવા પરિણામેને પિતાના ધર્મધ્યાનના પ્રભાવથી જરદી દૂર કરી નાંખે છે. આ પરિણામો તરફ તે સંયમીની આ સક્તિ થતી નથી, માટે આ પ્રકારના રતિઅતિરૂપ પરિણામ કેઈ જાતની રૂકાવટ વિના તેના આત્માથી જલદી દૂર થઈ જાય છે. જેવી રીતે સુકા ઘડા ઉપર ઉડીને આવેલી ઘુડ કાંઈ પણ કર્યા વિના તે ઘડાથી દૂર થઈ જાય છે તે પ્રકારે
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आचाराङ्गसूत्रे यद्वा-इह मनुष्यजीविते वा पञ्चविधव्रतातीचाराणां मध्ये व्यतीतं निन्द, संजायमान संवृणु, भविष्यन्तं चातीचारं प्रत्याख्याहीत्याशयः। किमाश्रित्य नन्दि निर्विन्देदित्याह-'युनि-'रित्यादि । मुनिः कर्मविपाकज्ञो यतिः, 'मौन' मुनेरयं मौनः संयमो वाक्संयमो वा उपलक्षणतया काय-मनसोरपि संयमस्तं तो आत्मा को इनसे कोई लाभ नहीं, नहीं हों तो इनके अभाव में
आत्मा को कोई हानि नहीं। आत्मा की जो निज चीज है वह इनके संयोग और वियोग में न अच्छी होती है और न बिगड़ती ही है। ऐसा ख्यालकर वाह्य वस्तु में संयमी को अपना अन्तःकरण आसक्तियुक्त नहीं करना चाहिये।
अथवा-शिष्य को समझाते हुए सूत्रकार कहते हैं कि हे मेधावी! अपने मनुष्य जीवन को सफलित करने के लिये जो संयमजीवन तुमने अंगीकार किया है, उसमें जो ये पांच महावतों की तुम आराधना कर रहे हो सो यह सदा ध्यान रखो कि इनमें जो पहिले अतीचार लग चुके हैं उनकी निंदा करो, वर्तमान में अतीचार न लगने पावें इसकी संभाल रखो, तथा आगामीकाल में लगने वाले अतीचारों का प्रत्याख्यान करो । कर्म के विपाक का ज्ञाता झुनि वाचिक संयम को, उपलक्षण से कायिक और मानसिक संयम को भलीप्रकार ग्रहण कर कार्मण-शरीर से अथवा कर्मजन्य इस औदारिक शरीर से रहित हो जाता है अर्थात् मोक्ष का भोक्ता बन जाता है । હોય તે આત્માને એનાથી કઈ લાભ નહિં. ન હોય તે તેના અભાવમાં આત્માને કેઈ હાનિ નહી. આત્માની જે નિજ ચીજ છે તે તેના સંયોગ અને વિયેગમાં નથી સારી બનતી અને બગડતી પણ નથી એ યાલ કરી બાહ્ય વસ્તુમાં સંયમીએ પિતાનું અતઃકરણ આસક્તિયુક્ત નહિં કરવું જોઈએ
અથવા શિષ્યને સમજાવતા સૂત્રકાર કહે છે કે હે મેધાવી ! પોતાના મનુષ્ય જીવનને સફળ બનાવવા માટે જે સંયમ જીવન તમે અંગીકાર કર્યું છે, તેના જે આ પાંચ મહાવ્રતની તમે આરાધના કરી રહ્યા છે તે એ સદા ધ્યાનમાં રાખો કે તેમાં જે પહેલાં અતિચાર લાગી ચુકેલ છે તેની નિંદા કરે. વર્તમાનમાં અતિચાર ન લાગી જાય તેની સંભાળ રાખો અને આવતા કાળમાં લાગવાવાળા અતિચારનું પ્રત્યાખ્યાન કરો. કર્મના વિપાકના જ્ઞાતા મુનિ વાચિક સચમને ઉપલક્ષણથી કાયિક અને માનસિક સંયમને ભલી પ્રકારે ગ્રહણ કરી કામણશરીરથી અથવા કર્મજન્ય આ દારિક શરીરથી રહિત થઈ જાય છે, અર્થાત્ મેક્ષને ભાગી બની જાય છે.
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अध्य. २. उ६ द्वेषावकुर्वाणः सन् , इह-तियग्लोके जीवितस्य-असंयमजीवितस्य नन्दि-प्रमोदं 'ममेदं धनादि भवति, भविष्यति, अभूच्च' इत्यादिविकल्परूपां मनस्तुष्टिं निर्विन्द= अनाद्रियस्व-अपाकुर्वित्यर्थः, ऐश्वर्यरूपवलादिषु सर्वत्र मनःसंकल्पविकल्पजालं महदनथंकरमिति तात्पर्यम् । का यह उपदेश है कि “ सदेतु य भयपावएसु सोयविसयमुवगएस्तु तुट्टेण वा रुद्रेण वा समणेण सथान होयव्यं " शब्द कर्णप्रिय हों या कर्णकटुक हों, इन्द्रियों के विषय चाहे मनोज्ञ हों, चाहे अमनोज्ञ हों, संयमी को उनमें कभी भी न तुष्ट होना चाहिये और न रुष्ट ही होना चाहिये । संसार में सभी प्रकार की सामग्री है। बुद्धिमान संयमी वही है जो इनमें से किसी में भी न फंसे और सबमें समताभावसंपन्न बन अपने लक्ष्य की सिद्धि में तत्पर रहे। असंयमजीवन की जो यह आत्मपरिणति है कि मेरे पास पहिले इतना धनादि था, अब इतना है, आगे और हो जावेगा,'-इन सब का परित्याग कर दो। ढाई द्वीप में ही संयममार्ग की आराधना करने का सुवर्ण अवसर हाथ आता है। बाकी इसतियंग्लोक में इस संयमभाव की आराधना हो ही नहीं सकती। इसलिये ममत्वरूप संकल्पविकल्पमय मानसिक तुष्टि का परिहार करो, कारण कि इन ऐश्वर्य, रूप और बल आदि में किया गया मानसिक संकल्पविकल्प का जाल आत्मा के लिये महान् अनर्थकर होता है । ये पदार्थ हों द्वेष न ४. शासन उपदेश छ “ सहेसु य भद्दयपावएसु सोयविसयमुवगएसु, तुडेण वा रुटेण व समणेण सया न होयवं" धन्द्रियानो विषय ससे મનેઝ હોય અગર અમનેશ હાય, શબ્દ ભલે કર્ણપ્રિય હોય, અગર કર્ણકટક હાય, સંયમીએ તેમાં કઈ વખત પણ ન આનંદ માનવે જોઈએ કે ન રૂષ્ટ થવું જોઈએ. સંસારમાં બધી સામગ્રી છે. બુદ્ધિમાન સંયમી તે જ છે જે આમાંથી કઈમાં પણ ન ફસે અને બધામાં સમતાભાવસંપન્ન બની પિતાના લક્ષ્યની સિદ્ધિમાં તત્પર રહે. અસંયમ જીવનની જે આ આત્મપરિણતિ છે કે “મારી પાસે પહેલાં આટલું ધન હતું, હવે આટલું છે, આગળ વળી વધારે થઈ જશે આ સધળાને પરિત્યાગ કરી આપો. અઢીદ્વીપમાં જ સંયમમાર્ગની આરાધના કરવાને સુઅવસર હાથ આવે છે બાકી આ તિર્યશ્લેકમાં આ સંયમભાવની આરાધના બની જ શકતી નથી, માટે મમત્વરૂપ સંકલ્પવિકલ્પમય માનસિક તુષ્ટિને પરિહાર કરે, કારણ કે એ ઐશ્વર્ય, રૂપ અને બલ આદિમાં કરેલા માનસિક સંકલ્પ વિકલ્પની જાલ આત્મા માટે મહાન અનર્થકારી છે. એ પદાર્થો
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आचाराङ्गसूत्रे वीराः परीपहोपसर्गसहनसमर्था मुनयः, प्रान्तं द्रव्यतः रवाभाविकरसरहितं शीतलपुराणकुलत्थादिकं स्तोकं वा, रूक्षेन्द्रव्यत आगन्तुकघृतादिरसवर्जितं, भावतः प्रान्तं द्वेपविकलं धूमदोपवर्जितम् , भावतो रुक्षम् रागरहितमगारदोपवर्जितमाहारं च सेवन्ते अश्नन्ति। यश्च प्रान्तरूक्षभोजी स किमाप्नोतीत्याह-' एप' इति, एप परिशुद्धनान्तरूक्षाहारसेवनेन कर्मशरीरं धुन्वानो मुनिः अनगारः, 'ओघन्तरः' दर्शिनः" लिखी है। प्रान्त और रूक्ष, द्रव्य तथा भाव के भेद से दो-दो प्रकार के हैं, उनमें द्रव्यप्रान्त स्वाभाविकरसवर्जित ठंढा पुराना कुलत्थ आदि, तथा प्रमाण में थोडा । भावप्रान्त देवरहित धूमदोषवर्जित। द्रव्यरुक्ष-घृत आदि रसवर्जित, और भावरुक्ष-रागरहित अङ्गारदोपवर्जित आहार । मुनि इस प्रकार का आहार करते हैं। इस प्रकार के माहार को अपने उपयोग में लेनेवाला अनगार कर्मशरीर क्षीण करता हुवा 'ओघन्तरः' संसाररूपी भाव ओघको "कडेमाणे कडे" इस वाक्य के अनुसार पार करने वाला हो जाता है। यद्यपि संसाररूपी समुद्र को अभी उसने पार नहीं किया है परन्तु पार करनेरूप क्रिया अभी उसकी चालू है--पार करने के सन्मुख हो रहा है, भविष्य में उसे पार करेगा फिर भी सूत्र में "तिण्णे-तीर्णः" जो इस भूतकृदन्त का प्रयोग किया गया है वह "क्रियमाणं कृतं" इस वाक्य के अनुसार किया हुआ समझना चाहिये । जैसे किसी कार्य की समाप्ति अभी हुई नहीं है, समाप्ति की ओर वह अग्रसर हो रहा है और भविष्य में पार होगा; परन्तु व्यवहार में ભાવ ભેદથી બે પ્રકારે છે તેમાં દ્રવ્યપ્રાંત-સ્વભાવિક રસવર્જિત ઠડા પુરાણા કુલ– આદિ, તથા પ્રમાણમાં થોડુ ભાવપ્રાન્ત–ષરહિત–દેષરહિત, દ્રવ્યરૂક્ષ–ધી આદિ રસ વર્જિત, અને ભાવરૂક્ષ-રાગરહિત અંગારેષવર્જિત આહાર, મુની આવા પ્રકારને આહાર કરે છે. આવા પ્રકારના આહારને પિતાના ઉપયોગમાં લાવવાવાળા અણગારકર્મशरीरने क्षीए सरीन "ओघन्तर" स सा२३पी माप साधने "कडेमाणे कडे” २ वाध्य અનુસાર પારકરવાવાળા થઈ જાય છે, જે કે સંસારરૂપી સમુદ્રને હજુ તેમણે ઓળગેલ નથી પરંતુ એળ ગવારૂપ કિયા હજુ તેમની ચાલ છે. ઓળંગવા માટે સન્મુખ यता तय थे. लविष्यमा तेनो पा२ ४२ त ५५ सूत्रमा “तिण्णे-तीर्ण." ? सा भूत पृतना उपयोग या छे ते “क्रियमाणं कृतं" ॥ पास्य अनुभार કરેલુ સમજવું જોઈએ. જેમ કેઈ કાર્યની સમાપ્તિ હજુ થયેલ નથી પણ સમામિના માર્ગ ઉપર છે અને ભવિષ્યમાં સમાપ્ત કરશે, પણ વ્યવહારમાં તે “થઈ ગયેલ
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अध्य० २. ऊ. ६ 'समादाय' सम्-सम्यक् आदाय-गृहीखा कर्मशरीरकं कामणशरीरमौदारिक वा धुनीत-परिशातयेदपनयेदित्यर्थः, अथवा-' मुणी' इत्यस्य ' हे सुने !' इतिच्छाया, हे सम्यक्त्वदर्शिन् ! मौनं संयमं समादाय सम्यग् गृहीत्वा कर्मशरीरकं धुनीहि पृथक्कुरु, तत्र ममत्वं न कुष्वेत्यर्थः । यतः कर्मशरीरे मुनेममत्वं न भवति तस्मादेवाह-'प्रान्त-'मित्यादि । सम्यक्त्वदर्शिनः वस्तुतत्त्वपरिज्ञानकुशलाः, यद्वा 'संमत्तदंसिणो' इत्यस्य 'समत्वदर्शिनः' इतिच्छाया, समत्वदर्शिनः रागद्वेषवर्जिताः, ____ अथवा-"मुणी" इस शब्द की छाया 'मुने !' यह भी होती है। जिसका भाव यह है कि हे सम्यक्त्वदर्शी ! तुम संयम को अच्छी तरह ग्रहण कर कर्मशरीर को अपने से पृथक् करो, अर्थात् यह समझो कि यह कर्मशरीर पुद्गल, जड, मूर्तिक है और मैं ज्ञाता द्रष्टा शुद्ध ज्ञानादिमय हूं। इस शरीर के बिगड़ने में मेरा कुछ नहीं बिगड़ता है, मैं इससे भिन्न हूँ। इसलिये इसमें ममत्वबुद्धि करना ही व्यर्थ है। इसके पोषण के लिये जो वस्तुतत्त्वके परिज्ञान में कुशलमति हैं वे अन्त, प्रान्त, एवं ठंढा और रूक्ष आहार से इस कर्मशरीर की उचित संभाल करते हुए अपने संयमभाव की वृद्धि करने में सावधान रहते हैं, ऐसे मुनि ही वीर कहलाते हैं । परीषह और उपसर्ग आने पर भी वे अपने पथ संयममार्ग में रंचमात्र भी विचलित नहीं होते हैं। जहां पर समताभाव का स्रोत बहता है वहां पर आत्मा अत्यन्त बलिष्ठ होती है। इसी बातका ख्यालकर टीकाकारने "सम्मत्तदंसिणो" की दूसरी छाया “समत्व
__ अथवा “ मुणी" 2Avनी छाया “मुने" मे ५ थाय छ, रेन ભાવ એ છે કે હે સમ્યકત્વદશિ ! તમે સંયમને સારી રીતે પ્રહણ કરી કર્મ શરીરને પિતાથી પૃથક્ કરે, અર્થાત્ એમ સમજે કે આ કર્મશરીર પુદ્ગલ, જડ મુતિક છે, અને હું જ્ઞાતા, દ્રષ્ટા, શુદ્ધ જ્ઞાનાદિમય છું. આ શરીરના બગડવામાં મારૂં કાંઈ પણ બગડતું નથી. હું તેનાથી ભિન્ન છું. તેથી તેમાં મમત્વબુદ્ધિ કરવી વ્યર્થ છે. તેના પોષણ માટે જે વસ્તુતત્વના પરિજ્ઞાનમાં કુશળમતિ છે, તે અન્ત પ્રાન્ત, ઠંડા અને રૂક્ષ આહારથી આ કર્મ શરીરની ઉચિત સંભાળ કરતાં કરતાં પિતાના સંયમભાવની વૃદ્ધિ કરવામાં સાવધાન રહે છે. એવા મુનિ જ વીર કહેવાય છે. પરિષહ અને ઉપસર્ગ આવવા છતાં પણ પિતે સંયમમાર્ગમાં રજમાત્ર પણ વિચલીત થતા નથી. જે ઠેકાણે સમતાભાવને પ્રવાહ જ વહે છે त्या मामा अत्यंत मलिष्ट भने छे. या पातन या शन. ॥“ समत्तदसिणो नी भी छाया “ समस्वदर्शिनः" सभी छ. प्रांत मने ३६, द्रव्य तथा
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आचारागसूत्रे मुनिः मोक्षानो रत्नत्रयविराधक इत्यर्थः, कुत इत्थमित्याह-'अनाज्ञयेत्यादि। अनाज्ञया वर्तमानाचीतरागोपदेशविकलः स्वच्छन्दाचारी । ननु वीतरागोपदेशानुसारेण कुतो न वर्तते येन स्वैरित्वं स्यादिति चेन्न, लोकेऽममीकारो, रत्यरत्योर्विरोधः, शब्दादिविपये तटस्थता च, इत्येवंरूपतीक्ष्णासिधाराकल्पसदुपदेशपरिसेवनस्यातिदुष्फरत्वेन स्वच्छन्दचारित्वस्य सुलभत्वात् । यश्चैतादृशः स तुच्छ:=भावतुच्छो ज्ञानादिकलाविकलः सन् ग्लायति-संदेहविषयं पृष्टवन्तं कंचित् स वस्तुतत्त्वस्यापरिज्ञानात्तयह भव्य-कल्याण जिससे दूर है, अथवा जो भव्यभाव से दुष्ट-विपरीत है, वह दुर्वसु है । मुक्ति प्राप्ति के अयोग्य ऐसा रत्नत्रयका विराधक मुनि ही यहां दुर्वसु शब्द का वाच्यार्थ है । वीतराग प्रभु के उपदेश का नाम आज्ञा है। इस आज्ञा से भिन्न अनाज्ञा है। दुवस्सु मुनि वीतराग प्रभु की आज्ञा से विकल होता है अर्थात् स्वेच्छाचारी होता है। स्वेच्छाचारिता इसमें इसलिये आती है कि यह जो प्रभुका उपदेश है कि-" किसी भी पदार्थ में ममत्व नहीं रखना। रति अरति नहीं करना, तथा इन्द्रियों के शब्दादिविषयों में तटस्थ रहना" इसे रुचिकर नहीं होता, कारण कि यह तीक्ष्ण असिधारासदृश उनके सदुपदेश के सेवन को अतिदुष्कर मानता है। इसीलिये वह तुच्छ-भावतुच्छ है, अर्थात्ज्ञानादिक कलासे विकल है । यदि वह सम्यग् ज्ञानसंपन्न होता तो कभी भी वीतराग प्रभु के उपदेश से बाह्यमतिवाला न होता । ज्ञानकला से विकल होकर ही तो वह दुःखित होता है । जब कोई उसकी स्वच्छन्द જે ભવ્ય ભાવથી દુશ-વિપરીત છે તે દુર્વસુ છે. મુક્તિપ્રાપ્તિના માટે અમેગ્ય એવા રત્નત્રયના વિરાધક મુનિ જ આહી દુર્વસુ શબ્દને વાચ્યાર્થ છે. વીતરાગ પ્રભુના ઉપદેશનું નામ આજ્ઞા છે આ આજ્ઞાથી ભિન્ન અનાજ્ઞા છે. દુર્વસુ મુનિ વીતરાગ પ્રભુની આજ્ઞાથી વિકળ બને છે અર્થાત્ સ્વેચ્છાચારી થાય છે સ્વચ્છેદપણુ તેઓમાં આ માટે આવે છે કે એ જે પ્રભુને આદેશ છે કે કોઈપણ પદાર્થમાં મમત્વ રાખવું નહિ, રતિ અરતિ કરવી નહિ, તથા ઈન્દ્રિયેના શબ્દાદિ વિષયમાં તટસ્થ રહેવું. ” આ તેઓને રૂચિકર થતું નથી. કારણ કે આ તીર્ણ તલવારની ધાર સમાન તેના સદુપદેશને માનવું ઘણું કઠીન સમજે છે, તેથી તે તુચ્છ-ભાવતુચ્છ છે, અર્થાત જ્ઞાનાદિક કલાથી વિકળ છે. કદાચ તેઓ સમ્યજ્ઞાનસંપન્ન હોત તે કઢિ પણ વિતરાગ પ્રભુના ઉપદેશથી વિમુખ ન થાત જ્ઞાનકળાથી વિકળ બની તે દુઃખી થાય છે. ત્યારે કંઈ પણ તેની સ્વછંદ પ્રવૃત્તિ દેખી વાસ્તવિક મુનિના
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अध्य० २ उ ६
३४३ ओघंभावौघं संसारं तरतीत्योधन्तरः, 'कडेमाणे कडे' इति वचनात्तीर्णः, मुक्तः= वाह्याभ्यन्तरममत्वरहितो भवति, किञ्च-स एव विरतः विषयकषायसङ्गवर्जितः, व्याख्याता मुनित्वेन प्रसिद्धः। इति ब्रवीमीत्यस्यार्थस्तूक्त एव ॥ सू० ६॥ ____ यश्च पूर्वोक्तविपरीतवर्ती स कीदृशो भवतीत्याह-'दुबसुमुणी' इत्यादि ।
मूलम्-दुव्वसुमुणी अणाणाए तुच्छए गिलाइ वत्तए एस वीरे पसंसिए, अचइ लोगसंजोगं एस नाए पमुच्चइ ॥सू०७॥
छाया-दुर्वसुमुनिरनाज्ञया तुच्छो ग्लायति वर्तयेत् एष वीरः प्रशंसितः अत्येति लोकसंयोगम्, एप न्यायः मोच्यते ॥ मू० ७॥ ___टीका-'दुर्वसुमुनि' रित्यादि, दुर्वसुमुनिः, वसु-द्रव्यं भव्यं कल्याणमिति यावत्, तच्च दुर्-दुष्टं विपरीतं दूरे स्थितं वा यस्य दुर्वसुः, स चासौ मुनिश्च दुर्वसुवह “होचुका" ऐसा कहा जाता है, उसी प्रकार यहां पर भी यही समझकर "तीर्णः" इस पदका प्रयोग किया गया है। जो 'ओघन्तर' होते हैं वे बाह्य और आभ्यन्तर परपदार्थों से ममत्वरहित होते हैं और विषयकषायों के संगसे रहित होकर मुनिरूपसे प्रसिद्ध कोटि में आते हैं। "इति ब्रवीमि" इन पदों का भावार्थ पहिले लिखा जा चुका है। सू०६॥
जो संयमी पूर्वोक्त स्वरूप से विपरीतवर्ती है वह कैसा होता है ? इस विषय को समझाते हैं-'दुव्वसुमुणी' इत्यादि। ___ वह दुर्चसु मुनि है जो वीतराग प्रभु की आज्ञा से रहित होता हुआ स्वच्छन्द आचारविचारवाला होता है। वसु शब्द का अर्थ द्रव्य है, द्रव्य से मतलब धन से नहीं किन्तु अव्य अर्थात् कल्याण से है। छ” ओम ४ामा यावे छ, ते ॥ २॥ आणे पण तेवू सभने “तीर्ण:" આ પદને ઉપયોગ કરવામાં આવેલ છે. જે ઘન્તર બને છે તે બાહ્ય અને આત્યંતરમાં પરપદાર્થોથી મમત્વરહિત બને છે, અને વિષય કષાયોના સંગથી २८डत पनी मुनि३५थी. प्रसिद्ध टिभी यावे . " इति ब्रवीमि" मा पहोने। ભાવાર્થ પહેલાં લખાઈ ચૂકેલ છે. સૂત્ર ૬ છે
જે સંયમી પૂર્વોક્ત સ્વરૂપથી વિપરીતવતી છે, તે કેવા હોય છે? આ विषयन समन्नत सूत्रार छ-'दुव्वसुमुणि' त्यहि
તે દુર્વસુ મુનિ છે કે જે વીતરાગ પ્રભુની આજ્ઞાથી રહિત થઈને સ્વચ્છેદ આચાર વિચારવાળા બને છે. વસુ શબ્દનો અર્થ દ્રવ્ય છે. દ્રવ્યને તાત્પર્ય ધન નહિ પણ ભવ્ય અર્થાત કલ્યાણ છે. આ ભવ્ય-કલ્યાણ જેનાથી દૂર છે. અથવા
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आचाराङ्गसूत्रे नुयायी स रत्नत्रयसमाराधकः सुवसुसुनिर्वस्तुतत्त्वपरिज्ञानान्न कदाचिदपि ग्लायति । एपः-सुवसुमुनिः वीरः संयमानुष्ठानकुशलः प्रशंसितः गणधरादिभिरभिनन्दितः, स एव च लोकसंयोग-लोकेन असंयमिलोकेन सह संयोगः सम्बन्धो ममीकार इति यावत् लोकसंयोगस्तं, यद्वा-लोकसंयोग-लोकैर्वाह्यभूतैर्हिरण्यसुवर्णधनधान्यमातापितृपुत्रकलत्रदुहित्रादिभिराभ्यन्तरै रागद्वेषादिभी रागद्वेपजन्यैरष्टविधकर्मभिर्वा सह संयोग सम्बन्धम् अत्येति-अतिक्राम्यति स मुनिर्ममत्त्वादिभिः परिमुक्तो भवती
ये लक्षण दुर्वसु मुनि के हैं, अव सुवसु मुनि के सम्बन्ध का वर्णन करते हैं__ वे सुवसु मुनि हैं जो वीतराग प्रभु की आज्ञा के आराधक हैं-रत्नत्रयमार्ग के पालने में सावधान हैं। वे वस्तुतत्त्व के वास्तविक ज्ञाता होने से कभी भी अन्यथा प्ररूपणा नहीं करते। प्ररूपणा के अनुसार ही अपनी प्रवृत्ति रखते हैं । जैसा कहते हैं वैसा स्वयं पालन करते हैं, इसलिये इनको किसी भी प्रकार का भय भी नहीं होता; ये वीर होते हैं । गणधरादिक देवोंने ऐसे ही सुवसु मुनियों की प्रशंसा की है। इन्हें वीर इसलिये कहा गया है कि ये निर्दोष संयम के अनुष्ठान करने में कुशल होते हैं । असंयमी लोगों के साथ यदि कदाचित् इनका संयोग हो जाता है तो भी ये अपने मोक्षमार्ग से चलित नहीं होते हैं। अथवा वाह्यपरिग्रह-हिरण्य सुवर्ण धनधान्य माता-पिता पुत्र कलत्र आदि के साथ इनका सम्बन्ध हो जाता है तो ये उस सम्बन्धसे सदा बहिर्भूत
આ લક્ષણ દુર્વસુ મુનિના છે, હવે સુવસે મુનિના સબ ધનું વર્ણન કરે છે –
તે સુવસ મુનિ છે જે વીતરાગ પ્રભુની આજ્ઞાના આરાધક છે. રત્નત્રય માર્ગનું પાલન કરવામાં સાવધાન છે. તે વસ્તુતત્વના વાસ્તવિક જ્ઞાતા હોવાથી જે કઈ વખત અન્યથા પ્રરૂપણ કરતા નથી. પ્રરૂપણ અનુસાર જ પિતાની પ્રવૃત્તિ રાખે છે. જેવુ કહે છે તેવુ સ્વયં પાલન કરે છે, તેથી તેને કઈ પણ પ્રકારનો ભય રહેતો નથી. તે વીર બને છે. ગણધરાદિક દેએ એવા જ સુવસુ મુનિઓની પ્રશંસા કરી છે, તેમને વીર એટલા માટે કહેવામાં આવેલ છે કે તે નિર્દોષ સયમનું અનુષ્ઠાન કરવામાં કુશળ હોય છે અસંયમી લોકોને સંગ કદાચ સંયોગથી બને તે પણ તે પિતાના મોક્ષમાર્ગથી ચલિત થતા નથી, અને બાહ્ય પરિગ્રહહિરણ્ય સુવર્ણ ધન ધાન્ય માતા પિતા પુત્ર કલત્ર આદિની સાથે તેને સંબંધ થાય તે પણ તે તેવા સંબંધમાં સદા તે બહિર્ભીત રહે છે તેમાં તેની મમતા લાગતી નથી. આત્યંતર પરિગ્રહ રાગ દ્વેષ આદિ, અથવા તેનાથી
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अध्य० २. उ. ६ दुत्तरं कर्तुम् असमर्थो भवतीत्यर्थः । यद्वा-ज्ञानवानपि चारित्रशून्यः पूजासत्कारभयाद् मोक्षमार्गनिरूपणावसरे यथावस्थितं बोधयितुं लज्जत इवेत्यर्थः, यश्च तीर्थङ्करांज्ञाप्रवृत्ति देखकर वास्तविक मुनिके आचारविषयक प्रश्न उससे पूछता है तो वह वस्तुतत्व का वास्तविक ज्ञाता न होने से उसके प्रश्नका यथार्थ उत्तर नहीं दे सकता है, या जो कुछ कहता है वह स्वकपोलकल्पित ही कहता है जिसे लोग मानने को तैयार नहीं होते । इस प्रकार वह अपनी मान्यता में बट्टा लगने के अथवा पोल खुलने के डर से सदा दुःखी ही बना रहता है। अथवा-ज्ञानकलासम्पन्न हो तो भी यथार्थ चारित्र से वह शून्य है इसलिये जिस समय वह मोक्ष मार्ग की प्ररूपण करता है उस समय वह उसकी यथार्थ प्ररूपणा करने में लज्जित जैसा होता है, क्योंकि वह समझता है कि मैं स्वयं यथार्थ चारित्रशाली नहीं हूँ, यदि मैं वास्तविक वस्तुस्थिति का परिचय लोगों को करा दूंगा तो लोगों की दृष्टिमें मेरी मान्यता गिर जावेगी, लोग कहेंगे कि-महाराज ! जैसी आप प्ररूपणा करते हैं उस प्रकार की क्रिया आप क्यों नहीं पालते ?। इस प्रकार अपना मान-सम्मान के जाने के भय से वह लोगों को अन्धकार में ही रखता है, परन्तु उसे यह भय सदा लगा रहता है कि कहीं कोई यथार्थ वक्ता आकर वास्तविक वस्तुस्थिति का प्रतिपादन न करदे। આચારવિષયને પ્રશ્ન પૂછે છે તે તે વસ્તુતત્વને વાસ્તવિક જ્ઞાતા ન હોવાથી તેના પ્રશ્નનો ઉત્તર યથાર્થરૂપે આપી શકતો નથી. અગર જે કંઈ પણ જવાબ આપે છે તે તે સ્વકપોલકલ્પિત જ આપે છે, જે માનવાને લેક તૈયાર થતા નથી. આવા પ્રકારથી તે પિતાની માન્યતામાં ડાઘ લાગવાના ભયથી અથવા પિલ ખુલ્લી થવાના ભયથી સદા દુઃખી બની રહે છે, અથવા જ્ઞાનકલાસંપન્ન હોય તે પણ યથાર્થ ચારિત્રથી તે શૂન્ય છે, તેથી જે વખતે મોક્ષમાર્ગની પ્રરૂપણ કરે તે વખતે તે તેની યથાર્થ પ્રરૂપણ કરવામાં લજ્જિત બને છે, કારણ કે તે સમજે છે કે હું સ્વયં યથાર્થચારિત્રશાળી નથી, કદાચ હું વાસ્તવિક વસ્તુસ્થિતિને પરિચય લેકને કરાવી આપીશ તે લોકેની દૃષ્ટિમાં મારી માન્યતા નીચી પડશે, લેક બેલવા માંડશે કે મહારાજ ! જેવી આપ પ્રરૂપણ કરે છે તેવા પ્રકારની ક્રિયા આપ કેમ પાળતા નથી? આવા પ્રકારે પોતાનું માન સન્માન જવાના ભયથી તે લેકેને અંધારામાં જ રાખે છે, પરંતુ તેને સદા તે ભય લાગે જ રહે છે કે કદાચ કઈ યથાર્થરતા આવીને વાસ્તવિક વસ્તુસ્થિતિનું પ્રતિપાદન ન કરી નાખે.
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आंचाराङ्गसूत्रे छाया-यदुःखं प्रवेदितमिह मानवानां तस्य दुःखस्य कुशलाः परिज्ञामुदाहरन्तिइति कर्म परिज्ञाय सर्वशः, योऽनन्यदर्शी सोऽनन्यारामः, योऽनन्यारामः सोऽनन्यदर्शी, यथा पुण्याय कथ्यते तथा तुच्छाय कथ्यते, यथा तुच्छाय कथ्यते तथा पुण्याय कथ्यते, अपि च हन्यादनाद्रियमाणः ॥ मू० ८ ॥ ____टीका-'यदुःख' मित्यादि, यत्-अनिर्दिष्टं दुःख-शारीरिकमानसिकं, दुःखजनकं कर्म वा यथा यत्र येन प्रकारेण कर्म वध्यते मुच्यते वा, यथा च विपाको भवति यथा च न भवति तत्सर्व प्रवेदितं-तीर्थङ्करगणधरैः प्ररूपितम् । इह-अस्मिन् लोके कुशलाः द्रव्यक्षेत्रकालभावपरिज्ञाननिपुणाः स्वसमयपररामयज्ञाः परीपहोपसर्गसहनक्षमाः, कर्ममहासुभटघटाविघटनोपायघटकाः रागद्वेपमहोरगविषमविपशमनविपवैद्याः, कपायानलसन्तापप्रशमनप्रवीणाः, विकटभवाटवीपारगमननिष्णाताः भावकुशलाः, मानवानां तस्य दुःखस्य पूर्वोक्तस्य प्राणातिपाताद्यपार्जितस्य कर्मणो वा परिज्ञाम् कर्मोपार्जनतनिरोधकारणपरिज्ञानम् उदाहरन्ति-उपदिशन्ति-वन्धो
अव फिर भी भगवान के उपदेश को कहते हैं-'जंदुक्खं' इत्यादि। ___ इस चतुर्गतिक रूप संसार में ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है जो किसी न किसी तरह से दुःखी न हो। कोई शारीरिक तो कोई मानसिक दुःख से हर समय दुःखी ही बने रहते हैं । इन दुःखों का प्रदाता जीवों को अपने किये हुए कर्म के सिवाय और कोई नहीं है। यह बात हमें हमारे तीर्थङ्कर गणधरादि महापुरुषों ने अच्छी तरह से शास्त्रों में बतलाई है। साथ में यह भी बतलाया है कि जिन कर्मों से हमें सुखदुःख प्राप्त होता है उन कर्मों को यह जीव किस प्रकार से कैसे बांधता है ?, तथा उन कर्मों के उदय क्षय क्षयोपशमादि कैसे होते हैं ? कैसे नहीं होते हैं ? । उन्हीं के सिद्धान्तानुप्तार आचार्य आदि महर्पिगण भी
पेशथी ५५ लापानन पढे ४९ छ-'जं दुक्खं' त्यादि
આ ચતુર્ગતિરૂપ સ સારમાં એવું કઈ પણ પ્રાણી નથી જે કઈને કોઈ પ્રકારે દુખી ન હોય કેઈ શરીરથી તો કેઈ મનથી દુખી તેવા પ્રકારે સદા દુખી બની રહે છે આ દુ ખ પ્રદાતા જીવોને પિતાના કરેલા કર્મો સિવાય બીજું કઈ પણ નથી આ વાત અમને અમારા તીર્થકરેએ તથા ગણધરાદિકે ઘણી સારી રીતે શાસ્ત્રોમાં બતાવી છે સાથે એ પણ બતાવેલ છે કે જે કર્મોથી અમોને સુખદુખ પ્રાપ્ત થાય છે તેવા કર્મોને આ જીવ કેવા પ્રકારે કેવી રીતે બધે છે ? તથા તેવા કર્મોના ઉદય ક્ષય પશમાદિ કેમ થાય છે? કેવી રીતે થતા નથી? તેના સિદ્ધાન્તાનુસાર આચાર્ય આદિ મહર્ષિગણ પણ–જે દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર,
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अध्य० २. उ. ६ त्यर्थः, किं तेनेत्याह-'एप' इत्यादि, एषः लोकसंयोगातिक्रमो न्यायः सन्मार्गः प्रोच्यते-कथ्यते, यद्वा-'नायः' इतिच्छाया, 'नायः' आत्मानं मोक्षं नयतीति नायः मुमुक्षुरनगारः, आषत्वात्कर्तरि घञ्प्रत्ययः, भगवदाज्ञानुयायी सुवसुमुनिरेव मोक्षं लभत इति तात्पर्यम् ॥ सू० ७॥
साम्प्रतं भगवदुपदेशमेव दर्शयति-'जं दुक्खं' इत्यादि। ___ मूलम्-जं दुक्खं पवेइयं इह माणवाणं तस्सदुक्खस्स कुसला परिन्नमुदाहरंति, इय कम्मं परिन्नाय सव्वसो, जे अणन्नदंसी से अणन्नारामे, जे अणन्नारामे से अणन्नदंसी, जहा पुण्णस्त कत्थइ तहा तुच्छस्स कत्थइ, जहा तुच्छस्स कत्थइ तहा पुण्णस्स कत्थइ, अविय हणे अणाइयमाणे ॥ सू० ८॥ रहते हैं, उनमें इनकी ममता नहीं होती है । आभ्यन्तर परिग्रह-रागद्वेष
आदि या इनसे उत्पन्न आठ कर्मों के साथ के सम्बन्ध को सदा ये नाश करने में उद्यत रहते हैं। ये कोई भी ऐसा कार्य या प्रयत्न नहीं करते कि जिससे रागद्वेषादिक या उनकी परम्परा बढे या इनसे उत्पन्न कर्मों का बन्ध दृढ होता रहे । सदा ये वैसा ही प्रयत्न करते हैं कि जिससे रागदेषादिक का सम्बन्ध छूटे और संचित कमी की निर्जरा एवं आगामी कर्मों का संवर अर्थात् बन्ध का अभाव होता रहे । इस प्रकार का यह इनका लोकसंयोग-मातापितादि का सम्बन्ध-का त्याग ही सन्मार्ग है। अथवा "नाए” की छाया “नाय" भी है। आत्मा को जो मोक्ष प्राप्त कराता है वह नाय है, अर्थात् भगवान की आज्ञानुसार प्रवृत्ति करने वाला, ऐसा सुवस्तु मुनि ही मोक्ष का प्रापक होता है, अन्य नहीं ॥सू०७॥ ઉત્પન્ન થતાં આઠ કર્મોના સંબંધને નાશ કરવામાં સદા તે ઉદ્યમી રહે છે. તે કઈ પણ એવું કાર્ય કે પ્રયત્ન નથી કરતા કે જેનાથી રાગ દ્વેષાદિક અગર તેની પરંપરા વધે, અગર તેનાથી ઉત્પન્ન કર્મોના બંધ દઢ થતાં રહે. સદા તે એવો જ પ્રયત્ન કરે છે કે જેનાથી રાગદ્વેષાદિકને સંબંધ છુટે, અને સંચિત કર્મોની નિર્જરા અને આગામી કર્મોનો સંવર અર્થાત્ બંધને અભાવ થતો રહે. આવા પ્રકારને તેને લોકસંગ–માતા પિતાદિકના સંબંધનો ત્યાગ જ સમાગ छ. २५040 “नाए "नी छाय॥ " नायः" ५४ छे. मात्माने नाथी भाक्ष प्राप्त થાય તે નાય છે, અર્થાત્ ભગવાનની આજ્ઞાનુસાર પ્રવૃત્તિ કરવાવાળા એવા સુવસુ મુનિ જ મોક્ષના પ્રાપક બને છે, અન્ય નહિ | સૂત્ર ૭ છે
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आचारागसूत्रे धर्मोपदेशकः कीदृशो भवतीत्याह-'योऽनन्ये'-त्यादि, यः कश्चित् अनन्यदीअन्यं द्रष्टुं शीलं यस्य सोऽन्यदर्शी, न अन्यदर्शी अनन्यदर्शी-अन्यदर्शनश्रद्धानरहितःभगवदुपदिप्टवस्तुतत्त्वरुचिशीलो भवति स एव अनन्यारामः रत्नत्रयातिरिक्तवस्तुरमणविरतो भवति । मिथ्यादृष्टिशास्त्रस्यानाप्पणीतत्वात्तत्र न रमत इत्याशयः। करनेवाले, तथा उनके मतानुसार चलनेवाले व्यक्तिका यह प्रधान कर्तव्य है कि वह उनके इस प्रकारके दिव्य उपदेशको-कि ज्ञानावरणीयादिक काको यह जीव इस प्रकार बांधता है और तज्जन्य इन दुःखों को नितप्रति भोगता रहता है, इन सभी बातोंको-ज्ञ-परिज्ञासे जानकर और प्रत्याख्यान-परिज्ञासे तीन करण तीन योगोंद्वारा उन सबका त्याग करे, तथा 'फिरसे नवीन कर्मोका आस्रव न हो' इस प्रकारसे अपनी प्रवृत्तिको संभालकर रखे। _ धर्मोपदेशक कैसा होता है ? इस बातका खुलासा करते हुए कहते हैं-'जे अणन्नदंसी' इत्यादि, तीर्थङ्करादिद्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तके सिवाय अन्य सिद्धान्तमें जिसकी उपादेयरूपसे आस्था नहीं होती है उसका नाम अनन्यदर्शी है । अन्य सिद्धान्तको ग्रहण करनेकी जिसकी दृष्टि होती है वह अन्यदर्शी है, इससे विपरीत अनन्यदर्शी है। जो अनन्यदर्शी है वही अनन्याराम है, अर्थात् जिसकी रुचि वीतराग प्रतिपादित तत्त्वोंमें ही एकतानरूपसे तल्लीन है । वह उनसे अतिरिक्त मिथ्यादृष्टियोंके शास्त्रोंमें कभी भी रतिशाली नहीं होता है प्रत्युत उनके
વ્યક્તિનું એ પ્રધાન કર્તવ્ય છે કે તે તેના આવા પ્રકારના દિવ્ય ઉપદેશને કે જ્ઞાનાવરણીયાદિક કર્મોને એ જીવ આ પ્રકારે બાંધે છે અને તજન્ય તેવા દુઃખને નિત્ય ભેગવતા રહે છે આ સઘળી વાતોને--જ્ઞ–પરિજ્ઞાથી જાણુને, અને પ્રત્યાખ્યાનપરિજ્ઞાથી ત્રણ કરણ ત્રણ ગદ્વારા તે સઘળાને ત્યાગ કરે, તથા ફરીથી નવીન કને આશ્રવ ન બને તેવા પ્રકારથી પિતાની પ્રવૃત્તિને સંભાળી રાખે.
पशि वाडीय छ ? मे पातन सुदासा ४२di ४९ छ-'जे अणन्नदंसी' त्यादि
તીર્થંકરાદિદ્વારા પ્રતિપાદિત સિદ્ધાંત સિવાય અન્ય સિદ્ધાંતમાં જેની ઉપાદેય રૂપથી આસ્થા થતી નથી તેનું નામ અનન્યદર્શી છે. બીજા સિદ્ધાંતને ગ્રહણ કરવાની જેની દૃષ્ટિ થાય છે તે અન્યદર્શી છે, તેનાથી વિપરીત અનન્યદર્શ છે. જે અનન્ય છે તે અનન્યારામ છે. અર્થાત્ જેની રૂચી વીતરાગપ્રતિપાદિત તમાં જ એકતાન રૂપથી તલ્લીન છે, તે તેથી અતિરિક્ત મિથ્યાષ્ટિઓના શાસ્ત્રોમાં કદી પણ રતિશાળી થતા નથી, બલકે તેના સિદ્ધાંતોની
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अध्य० २. उ. ६ वन्धहेतुस्तन्मोलो मोक्षहेतुश्च भवतीति सततं कथयन्तीत्यर्थः, अपि च इति यत्पूवोक्तं कर्म-ज्ञानावरणीयादिकं तज्जन्यं यदुःखं तद्, यच्च प्राणिदुःखपरिज्ञातारः कुशला उदाहरन्ति तदपि च सर्वशः सर्वप्रकारेण परिज्ञायज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया योगत्रिककरणत्रिकैः परिहत्य चास्रवद्वारेषु न वर्नेत, यद्वा सर्वशः भेदप्रभेदपूर्वकं परिज्ञाय कथयति, अथवा सर्वशः सर्वस्मात् केवलिनश्चतुर्दशपूर्वविदो वा सकाशात् परिज्ञाय=ज्ञात्वा, यदिवा सर्वशः आक्षेपण्यादिभिश्चतुर्विधाभिः कथाभिः कथयति। जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के परिज्ञान में निपुण होते हैं, स्वसिद्धान्त और परसिद्धान्त के जो वेत्ता होते हैं, परीषह और उपसर्ग के सहने में जो शक्तिशाली होते हैं, कर्मरूपी महासुभटों की घटाको हटाने के उपायों के जुटाने में प्रवीण होते हैं, राग और देवरूपी श्वेत और काले नाग के भयङ्कर विष को शमन करने में जो विषवैद्य के समान हैं, कषायरूपी अग्नि के ज्वालाजन्य सन्ताप को शान्त करने में जो कुशल हैं, और जो भयङ्कर इस संसाररूपी अटवी से पार होने में अद्वितीय निपुण होते हैं वे मनुष्यों के उस पूर्वोक्त दुःखकी, अथवा प्राणातिरातादि
से उपार्जित ज्ञानावरणादिक अष्टविध कर्मों की परिज्ञा को निरन्तर 'प्रकट करते रहते हैं। वे अपने दिव्य उपदेशों द्वारा "कर्म किस तरह बंधते हैं ?, बंध के कौन-कौन से कारण हैं ?, बंध का अभाव कैसे होता है ? और मोक्षके कारण क्या है ?" इन सब बातोंको स्पष्ट कर समझाते हैं। उनके दिव्य उपदेशरूप शास्त्रका धर्मोपदेशकके निकट श्रवण કાળ અને ભાવના પરિજ્ઞાનમાં નિપુણ હોય છે, રવસિદ્ધાંત અને પરસિદ્ધાંતના જે જાણકાર છે પરિષહ અને ઉપસર્ગ સહન કરવામાં જે શક્તિશાળી હોય છે, કર્મરૂપી મહાસુભટોની ઘટાને હઠાવવામાં ઉપાયે જવામાં જે નિપુણ હોય છે, રાગ અને દ્વેષરૂપી ધોળા અને કાળા નાગના ભયંકર વિષનું શમન કરવામાં જે વિષવૈદ્યસમાન છે, કષાયરૂપી અગ્નિની વાલાજન્ય સંતાપને શાંત કરવામાં કુશળ છે અને જે ભયંકર આ સંસારરૂપી અટવીથી પાર થવામાં અદ્વિતીય નિપુણ હોય છે.–મનુષ્યના તે પૂર્વોક્ત દુખોની, અથવા પ્રાણાતિપાતાદિથી ઉપાર્જીત જ્ઞાનાવરણાદિક અષ્ટવિધ કર્મોની પરિસ્સાને નિરંતર પ્રકટ કરતા રહે છે તે પિતાના દિવ્ય ઉપદેશદ્વારા “કર્મ કેવી રીતે બંધાય છે ? બધ શું છે ? બંધના કયા કયા કારણે છે? બંધ કેવી રીતે થાય ? અને મોક્ષનું કારણ શું છે?” આ બધી બાબતો સ્પષ્ટ રીતે સમજાવે છે. તેના દિવ્ય ઉપદેશરૂપ શાસ્ત્રના ધર્મોપદેશક નિકટ શ્રવણ કરવાવાળા તથા તેના મતાનુસાર ચાલનાર
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आचारागसूत्रे एवमुपदेशकस्वरूपमुपदय सर्वेभ्यः समान एव भगवदुपदेश इति दर्शयति-'यथे'त्यादि।
यथान्येन प्रकारेण पुण्याय-पुण्यवते भव्यजीवाय सुरेश्वरचक्रवर्तिमाण्डलिकाय च कथ्यते उपदिश्यते, तथा एवमेव तुच्छाय-धमककाष्ठहारकाय कथ्यते, अवलम्बन करके उपदेश देते हैं। इसी बातको प्रकट करनेके लिये "सब्यसो" पदका सूत्रकारने सूत्र में ग्रहण किया है। जिस विषयमें उपदेशक अकुशल होता है, अथवा जहां पर उसे सन्देह होता है उस विषयको वह स्वयं केवली अथवा श्रुतज्ञानीके पाससे जानकर बादमें उसका प्रतिपादन करता है । जिस समय केवलियोंका यहां पर अस्तित्व था उस समय भी धर्मोपदेशक थे। धर्मोपदेशकोंको जिस विषयमें शंका होती थी वे अपनी शंकाओंका समाधान उनके निकट करते थे, और उस विषयमें पूर्ण निष्णात बनते थे । यद्यपि वर्तमानकालमें इस क्षेत्रमें साक्षात् केवली विद्यमान नहीं हैं फिर भी उनके स्थानापन्न उनका उपदेश शास्त्रोंमें अब भी विद्यमान है। उपदेशक गुरु उन्हीं उपदेशोंका अब भी अपनी प्रवृत्ति तदनुकूल बनाकर प्रचार करते रहते हैं।
वीतराग प्रभुद्वारा प्रतिपादित विषय-चाहे वह दरिद्री हो, धनी हो, इन्द्र हो, चक्रवर्ती हो, माण्डलिक राजा हो, कोई भी क्यों न हो-सबके लिये समानरूपसे है, इसमें किसीभी जातिविशेष या वर्णविशेषका भेद नहीं रक्खा गया है। भगवानका उपदेश पक्षपातसे તેવી કથાનું અવલંબન કરીને ઉપદેશ આપે છે. આ વાતને પ્રગટ કરવા માટે " सब्बसो" पढनु सूत्राचे सूत्रमा ग्रहण ४२८ छ ? विषयमा पहे। અકુશળ હોય છે અથવા જે ઠેકાણે તેને સદેહ થાય છે, તે વિષયને તે સ્વયં કેવળી અથવા શ્રુતજ્ઞાની પાસેથી જાણી લે છે, બાદમાં તેનું પ્રતિપાદન કરે છે. જે વખતે કેવળીઓનું અહીં અસ્તિત્વ હતું તે સમય પણ ધર્મોપદેશક હતા. ધર્મોપદેશકેને જે વિષયમાં શંકા થતી હતી તેઓ પિતાની શંકાઓનું સમાધાન તેમની પાસે કરતા હતા અને તે વિષયમાં પૂર્ણ નિષ્ણાત બનતા હતા. જો કે વર્તમાનકાળમાં આ ક્ષેત્રમાં સાક્ષાત્ કેવળી વિદ્યમાન નથી તે પણ તેના સ્થાનાપન્ન તેમનો ઉપદેશ શાસ્ત્રોમાં હજુ પણ વિદ્યમાન છે, ઉપદેશક ગુરૂ તેઓના ઉપદેશનો હજુ પણ પિતાની પ્રવૃત્તિ તદનુકૂળ બનાવી પ્રચાર કરતા રહે છે.
વીતરાગ પ્રભુદ્વારા પ્રતિપાદિત વિષય-ચાહે કઈ દરિદ્રી હોય, ધનીક હોય, ઇન્દ્ર હોય કે ચક્રવર્તી હોય, માડલિક રાજા હોય, બીજ કઈ પણ હોય-બધાને માટે સમાનરૂપ જ છે. તેમા કેઈ પણ જાતિવિશેષ અગર વણ વિશેષને ભેદ રાખવામાં આવેલ નથી. ભગવાનને ઉપદેશ પક્ષપાતથી રહિત હોય
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अध्य० २. उ. ६ सिद्धान्तका आलोडनकर जब वह उनकी मान्यताओंको तर्कणाकी कसोटी पर कसता है और जब वे अपनी यथार्थतासे शून्य साबित होती हैं तब इसकी दृष्टिमें जिनप्रतिपादित तत्त्वोंकी ओर ही सन्तोष उत्पन्न होता है । वह अपनेको धन्य इसलिये मानता है कि मुझे त्रिलोकीनाथ द्वारा प्रतिपादित धर्मकी शीतल छत्रछाया मिली है। सच्चे मणिकी कीमत काचखण्डके देखनेसे ही होती है। उपदेशक जब तक अपने सिद्धान्तका पूर्ण श्रद्धावाला नहीं होगा तब तक वह दूसरों के लिये अपने सिद्धान्तका रहस्य हृदयंगम नहीं करा सकता । उपदेशक गुरुका कर्तव्य है कि वह पहिले अपने सिद्धान्तका पूर्ण रूपसे ज्ञाता हो, श्रोताओंकी चित्तवृत्तिको परखनेवाला हो, उनकी शंकाओंका युक्ति और आगमके अनुसार समाधान करनेवाला हो, सदाचारी हो, अपने उपदेशमें शंका समाधानके साथ अपने सिद्धान्तका पूर्ण व्यवस्थापक हो। इस प्रकारके उपदेशकका श्रोताओंके ऊपर असर जितना पडता है उतना और किसीका नहीं पड़ता, इसलिये सूत्रकारने उसकी प्रशंसा-अनन्याराम
और अनन्यदर्शी, इन पदोंसे की है। उपदेशक अपने विषयका प्रतिपादन आक्षेपणी विक्षेपणी संवेगिनी और निवेदनी आदि चार प्रकारकी कथाओंमेंसे जिस कथाकी जहां आवश्यकता होती है उसी कथाका આલેચના કરી જ્યારે તે તેમની માન્યતાઓને તર્કણની કસોટી ઉપર કસે છે અને જ્યારે તે પિતાની યથાર્થતાથી શૂન્ય સાબિત થાય છે ત્યારે તેની દૃષ્ટિમાં જિનપ્રતિપાદિત તત્ત્વોની તરફ જ સંતોષ ઉત્પન્ન થાય છે. તે પિતાને ધન્ય તેટલા માટે માને છે કે મને ત્રિલોકીનાથદ્વારા પ્રતિપાદિત ધર્મની શીતળ છત્રછાયા મળી છે. સાચા મણિની કીંમત કાચના ટુકડા દેખવાથી થાય છે. ઉપદેશક જ્યાં સુધી પિતાના સિદ્ધાંતનો પૂર્ણ શ્રદ્ધાવાળે નહિ બને ત્યાં સુધી તે બીજાઓને પિતાના સિદ્ધાંતનું રહસ્ય હૃદયંગમ કરાવી શકતો નથી. ઉપદેશક ગુરૂનું કર્તવ્ય છે કે તે પહેલાં પિતાના સિદ્ધાંતના પૂર્ણ જ્ઞાતા હોય, શ્રોતાઓની ચિત્તવૃત્તિને પારખનાર હોય, તેની શંકાઓનું યુક્તિ અને આગમ અનુસાર સમાધાન કરવાવાળા હોય, સદાચારી હોય, પિતાના ઉપદેશમાં શંકા સમાધાન સાથે પોતાના સિદ્ધાંતને પૂર્ણ વ્યવસ્થાપક હોય. આવા પ્રકારથી ઉપદે. શકની શ્રોતાઓ ઉપર અસર જેટલી પડે છે તેટલી બીજી કશાથી થતી નથી. સૂત્રકારે તેની પ્રશંસા “અનન્યારામ અને અનન્યદર્શી” આ પદેથી કરેલ છે. ઉપદેશક પિતાના વિષયનું પ્રતિપાદન આક્ષેપણી વિક્ષેપણું સંગિની અને નિર્વેદની આદિ ચાર પ્રકારની કથાઓમાંથી જે કથાની જ્યાં આવશ્યકતા હોય છે,
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आचारागसूत्रे दिशेत , अन्यथोपदेशे बद्दपायसम्भवात् , तदेवाह-अपि चेत्यादि, अनाद्रियमाणः= अपमन्यमानो भूपादिः, उपदेशकविहितनिन्दः सन् हन्यादपि सदुपदेशकं नाशयेदपि, 'अपि' सम्भावने, 'च' शब्दादन्यदपि दण्ड-कगाताडनादिकमपि कुर्यात,
__ "दशमनासमश्चक्री, दशचक्रिसमो ध्वजः॥
दशध्वजसमा वेश्या, दशवेश्यासमो नृपः ॥१॥” इति, इत्यादिनिन्दाचिकामरुन्तुदां वाचमभिदधतमुपदेष्टारं प्रति राजा-एष मुनिः सर्वधर्मवाह्यो राजधानभिज्ञो नीतिधर्ममपि न जानाति, मोक्षधर्मस्तावदुरादपेतः' इत्येवं त्रुवन् क्रुध्यमानो यष्टिमुष्टिभिस्ताङयन् ततो निःसारयन् तत्र रुन्धन् वस्त्रादिकं लुग्टयन् चर्मादिच्छेदं कारयन् प्राणानप्यपहरेदतस्तादृशं नोपदिशेदित्याशयः॥९०८॥ विचारे जो उपदेश दिया जायगा उसमें अनेक कष्टोंका उसे सामना करना पडेगा । उपदेशमें यदि किसी भी प्रकारसे राजाकी शानके विरुद्ध कोई शब्द उससे निकल जाता है, अथवा राजधर्मके प्रतिपादनमें कोई ऐसी बात आ जाती है जो उसकी प्रतिष्ठाके विरुद्ध पडती हो, तो इससे राजा अपना अपमान समझकर उस उपदेष्टाका प्राणघात तक कर देता है। यदि ऐसा न भी करे तो वह उसे दण्डविधान करता है, कोडोंसे भी पिटवाता है । इस श्लोकमें राजविरुद्ध बात प्रकट की गई है, जैसे
"दशसनासमश्चक्री, दशचक्रिसमो ध्वजः।
दशध्वजसमा वेश्या, दशवेश्यासमो नृपः ॥ १॥" इस प्रकार राजनिन्दासूचक उपदेश यदि उपदेष्टा राजसभामें बैठ कर करे तो इससे राजाके हृदयमें अपार कष्ट होगा। ऐसे उपदेशसे ઉપદેશનો પ્રવાહ ચલાવે. વગર વિચાર્યું જે ઉપદેશ આપવા માંડશે તો તેમાં તેને અનેક કષ્ટનો સામનો કરવો પડશે ઉપદેશમાં કદાચા કેઈ પણ પ્રકારથી રાજની શાનની વિરૂદ્ધ કેઈ શબ્દ તેનાથી નિકળી જાય, અથવા રાજધર્મ પ્રતિપાદનમાં કઈ એવી વાત આવી જાય છે તેની પ્રતિષ્ઠાની વિરૂદ્ધ પડે છે તે તેનાથી રાજા પિતાનું અપમાન સમજી તેવા ઉપદેશકનો પ્રાણઘાત પણ કરી નાખે છે કદાચ એવું ન પણ કરે તે તેને દડ કરે છે, કેરડાથી માર મારે છે આ લોકમાં રાજવિરૂદ્ધ વાત પ્રગટ કરવામાં આવી છે. જેમ–
' दशसूनासमश्चक्री, दशचक्रिसमो ध्वज ।।
दशध्वजसमा वेश्या, दशवेश्यासमो नृप ॥ १ ॥" આ પ્રકાર રાજનિંદાસૂચક ઉપદેશ કદાચ ઉપદેશક રાજસભામાં બેસીને કરે તેથી રાજાના હૃદયમાં અપાર કષ્ટ થશે. તેવા ઉપદેશથી સુનિ રાજના ફોધને
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अध्य० २. उ. ६
३५३ एवं यथा तुच्छाय कथ्यते तथा पुण्याय कथ्यते । मेघो यथा स्थले जले च समभावेन वर्षति तथैवोपदेष्टाऽपि निरपेक्षमुच्चाववेभ्यः सर्वेभ्योऽनुग्रहबुद्धया समानमेवोपदिशति । अत्रायं विवेकः-उपदेशको हि द्रव्यक्षेत्रकालभावमनुसृत्य 'यथाऽयं नृपादिरभिगृहीतमिथ्यादृष्टिरनभिगृहीतमिथ्यादृष्टिर्वेत्यादि पूर्वमवधायैवोपविहीन होता है । जिस प्रकार मेघकी धारा जलमें और स्थलमें समानरूपसे बरसती है, उसे यह पक्षपात नहीं होता कि मुझे यहां बरसना चाहिये अथवा यहां नहीं बरसना चाहिये, इस प्रकारकी निरपेक्ष वृत्तिसे ही वह एकरूपसे मेघधारा बरसती है । इसी प्रकार भगवानके उपदेशमें भी भेदभावकी वृत्ति नहीं होती कि 'यह पुण्यात्मा है अतः इसके लिये मेरा यह उपदेश है, और यह पापी है इसके लिये मेरा यह उपदेश नहीं है। पुण्यात्मासे लगाकर पापात्मा तक, और धनीसे लगा कर काष्ठहार-लकडहारे तक, तथा राजासे लगा कर रंक तक सबके लिये प्रभुका उपदेश एक रससे सना हुआ होता है फिर भी उपदेशकका कर्तव्य है कि वह उस उपदेशको द्रव्य क्षेत्र काल और भावके अनुसार श्रोताओं तक पहुंचावे । यह उपदेशककी ही कुशलता है । अन्यथा वह उस उपदेशसे अपने स्वयंकी हानि करनेवाला हो जाता है। जैसे राजसभामें बैठ कर धर्मोपदेश देनेवाला उपदेष्टा पहिले इस बातका अपने मनमें निर्णय कर लेवे कि यह राजा अभिगृहीतमिथ्यादृष्टि है या अनभिगृहीत मिथ्यादृष्टि है ? फिर अपने उपदेशका प्रवाह चलावे । विना છે. જેવી રીતે મેઘની ધારા જળમાં અને સ્થળમાં સમાન રૂપથી વરસે છે તેને એવો પક્ષપાત થતો નથી કે મારે આંહી જ વરસવું અને ત્યાં વરસવું નહિ. એવા પ્રકારની નિરપેક્ષ વૃત્તિથી તે એકરૂપથી મેઘધાર વરસે છે. તેવા પ્રકારે ભગવાનના ઉપદેશમાં પણ ભેદભાવની વૃત્તિ હોતી નથી કે “આ પુણ્યાત્મા છે માટે તેના માટે મારો આ ઉપદેશ છે, અને આ પાપી છે માટે તેના માટે મારો આ ઉપદેશ નથી.” પુણ્યાત્માથી લઈને પાપાત્મા સુધી અને ધનવાનથી લઈને કઠીયારા સુધી, રાજાથી રંક સુધી દરેકને માટે પ્રભુનો ઉપદેશ એક રસથી સરખો જ હોય છે, તો પણ ઉપદેશકનું કર્તવ્ય છે કે તે તે ઉપદેશને દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ, ભાવ, અનુસાર શ્રોતા એને સંભળાવે, તે ઉપદેશકની જ કુશળતા છે અન્યથા તે તેવા ઉપદેશથી પિતાની જ હાનિ કરવાવાળા બની જાય છે. જેવી રીતે રાજસભામાં બેસીને ધર્મોપદેશ દેનાર ઉપદેશક પહેલાં એ વાતને પોતાના મનમાં નિર્ણય કરી લે કે આ રાજા અભિગ્રહીતમિથ્યાષ્ટિ છે અગર અનભિગૃહીતમિથ્યાષ્ટિ છે ? પછી પિતાના
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आचारागसूत्रे ___ छाया-अत्रापि जानीहि श्रेय इति नास्ति, कोऽयं पुरुपः कंच नतः, एष वीरः प्रशंसितः, यो बद्धान् परिमोचयति, ऊर्ध्वमस्तिर्यक्षु दिशासु, स सर्वतः सर्वपरिज्ञाचारी, न लिप्यते क्षणपदेन बीरः, स मेधावी यः अणोद्धातनखेदज्ञः, यश्च वन्धप्रमोक्षान्वेपी कुशलः पुनों बद्धो नो मुक्तः ॥ सू० ९॥ ___टीका—'अत्रापी'-त्यादि, अत्र-धर्मकथायां श्रेया कल्याणम् इति अपि निश्चयेन नास्ति-न विद्यते प्रत्युत कर्मबन्धो भवतीति जानीहि-बुध्यस्व समिति शेपः, इहैव तावन्नानिष्टमपि च परत्रापि तत्प्रसज्येतेत्यर्थः।।
जो उपदेष्टा श्रोताओंको समझकर द्रव्य क्षेत्र काल और भावके अनुसार उपदेश करता है वह किसीके भी कोपका अथवा दण्डादिकका पात्र नहीं होता है, यह समझाते हैं..." एत्थंपि जाण” इत्यादि ।
वक्ताको यह एकान्तरूपसे मानना चाहिये कि धर्मकथा करने में निश्चयसे कल्याण ही होता है, परन्तु विना द्रव्य क्षेत्र काल भावका ध्यान रखे धर्मकथा करे तो वह कर्मबन्धका कारण भी हो जाती है । वीतरागभावसे जहां जय-पराजय होनेका कुछ भी ख्याल नहीं है, सिर्फ, ये प्राणी कैसे सद्धर्मका आश्रय करें ? इसी सदभिप्रायसे जो कथा की जाती है, अथवा उपदेश दिया जाता है वही धर्मकथा है । द्रव्य क्षेत्रादिकका विचार किये विना ही जो उपदेश किया जायगा उससे संभवतः उपदेष्टा को अनेक अनर्थोंका सामना भी करना पडेगा, इसलिये धर्मकथाके करने में श्रेयका ध्यान रखना चाहिये, क्योंकि अपनी प्रकृतिके अनुसार जीवों को
જે ઉપદેષ્ટા શ્રોતાઓને સમજીને દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ અને ભાવ અનુસાર ઉપદેશ કરે છે તે કેઈને પણ ધના તેમજ દંડાદિકના પાત્ર થતા નથી તે समन्तवे -" एत्थंपि जाण" त्यहि
વક્તાએ એકાંત રૂપથી માનવું જોઈએ કે ધર્મકથા કરવામાં નિશ્ચય કલ્યાણ જ થાય છે. પરંતુ દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ અને ભાવને યાલ રાખ્યા વિના ધર્મકથા કરે તે કર્મબંધનું કારણ પણ બની જાય છે
વીતરાગ ભાવથી જ્યાં જય પરાજય હોવાને જરા પણ ખ્યાલ નથી, ફક્ત આ પ્રાણી કેવી રીતે સધર્મને આશ્રય કરે ? એવા પ્રકારના સદ્ અભિપ્રાયથી જે કથા કરવામાં આવે છે, અથવા ઉપદેશ આપવામાં આવે છે તે જ ધર્મકથા છે. દ્રવ્યક્ષેત્રાદિકનો વિચાર કર્યા વિના જે ઉપદેશ આપવામાં આવે તે વિના સંદેહ ઉપદેષ્ટાને અનેક અનર્થોને સામને જ કરવો પડે, માટે ધર્મકથા કરવામાં શ્રેયનું ધ્યાન રાખવું જોઈએ. કારણ કે પિતાની પ્રકૃતિ અનુસાર પિતાને જે જે
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अध्य० २. उ. ६
श्रोतारं परीक्ष्योपदेष्टा हिसादिना नोपलिप्तो भवतीति दर्शयति- एत्थं' इत्यादि।
मूलम् -एत्थं पि जाण सेयंति नत्थि, केयं पुरिसे कं च नए, एस वीरे पसंसिए जे बद्धे परिमोयए, उट्ठे अहं तिरियं दिसासु, से सवओ सव्वपरिन्नाचारी, न लिप्पइ छणपएण वीरे, से मेहावी जे अणुग्घायणखेयन्ने, जे य बंधपमुक्खमन्नेसी कुसले पुण नो बद्धे नो मुक्के ॥ सू० ९॥ मुनि राजाका कोपभाजन हो जायगा । राजा यह समझ लेगा कि यह मुनि सर्वधर्मसे बाहा है, राजधर्म क्या है ? इसे भी यह नहीं जानता है । अरे ! जब यह नीतिधर्म तक नहीं जानता है तो मोक्षधर्म की बात ही क्या कहनी ? यह बिलकुल जड-अबुध है । ऐसे व्यक्तियों के अस्तित्वकी क्या आवश्यकता है? इस प्रकार राजा द्वारा उपेक्षित बन यष्टिमुष्टि आदिजन्य अनेक कष्टोंको भोगता हुआ वह मुनि वहांसे निकाल दिया जाता है; अथवा कारागारमें बंद कर दिया जाता है। उसके वस्त्रादिक
भी छीन लिये जाते हैं। शरीरका छेदन कर उसके प्राण तक भी ले लिये जाते हैं । इसलिये उपदेष्टाका यह सर्वप्रथम कर्तव्य है कि वह द्रव्य क्षेत्र काल और भावका अच्छी तरह विचार कर अपने उपदेशका प्रवाह बहावे । ऐसा उपदेश न करे कि जिससे स्वयंको अनेक कष्टोंका या प्राणों के विनाशका सामना करना पडे ॥ सू०८॥ ભોગ બનશે. રાજા એવું સમજી લેશે કે આ મુનિ સર્વ ધર્મથી બાહ્ય છે, રાજધર્મ શું છે? તે પણ આ જાણતો નથી. અરે ! જ્યારે આ નીતિધર્મ સુધી પણ જાણતો નથી તે મેક્ષધર્મની વાત જ શું કરવી? આ બિલકુલ જડ– અબુધ છે, આવી વ્યક્તિઓના અસ્તિત્વની શું આવશ્યક્તા છે ? આવા પ્રકારે રાજા દ્વારા ઉપેક્ષિત બની યષ્ટિ-મુષ્ટિ આદિ જન્ય અનેક કષ્ટોને ભેગવતાં તે મુનિને ત્યાંથી હાંકી કાઢે છે, અગર કારાગારમાં મોકલી દેવામાં આવે છે. તેના વસ્ત્રો પણ આંચકી લેવામાં આવે છે. તેના શરીરનું છેદન કરી તેને પ્રાણ પણ લઈ લેવામાં આવે છે માટે જ ઉપદેષ્ટાનું એ સર્વપ્રથમ કર્તવ્ય છે કે દ્રવ્ય ક્ષેત્ર કાળ અને ભાવને સારી રીતે વિચાર કરી પિતાના ઉપદેશને પ્રવાહ ચલાવે. એવો ઉપદેશ ન આપે કે જેનાથી પિતાને અનેક કને સામને કરવો પડે અને પ્રાણ પણ ગુમાવે છે સૂ. ૮
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आचाराङ्गसूत्रे __ यद्वा-कं-कतरं धर्म साह्वयं बौद्धमन्यं वा नतः अतिपन्नः, उपलक्षणात् , किमयं मिथ्यादृप्टिरुत सम्यग्दृष्टिः केन वाऽऽशयेनाहं पृष्टः?, इत्यादिकमपि समालोच्य धर्ममुपदिशेदित्यर्थः, चशब्दाद्देशकालादीनां समालोचना कर्तव्या। यश्चैवं विचार्योपदिशति, एषः-उपदेष्टा वादिमानमर्दनपूर्वकप्रवचनपरिमण्डनसमर्थः, प्रशंसितः गणधरादिभिः श्लाघितः, यो वद्धान्=अष्टविधपाशनिगडितान् कल्याणप्रद मार्ग नहीं है । यदि ऐसा है तो उपदेश कैसा होना चाहिये ? इसके लिये सूत्रकार कहते हैं कि सर्वप्रथम उपदेष्टा श्रोताओंको भली प्रकार देख कर चित्तमें यह विचार करे कि जो यह मुझसे धर्मको पूछता है, वह पुण्यात्मा है या तुच्छात्मा है? अथवा वक्र है या जड है ? अथवा वक्र-जड दोनों स्वभाववाला है ? किस देवका उपासक है ? किस मतका अनुयायी है-सांख्यमतका या बौद्धधर्मका ? । उपलक्षणसे यह मिथ्यादृष्टि है अथवा सम्यग्दृष्टि है ? यह नी जान लेना चाहिये। यह जो मुझसे धर्मविषयक प्रश्न पूछता है सो किस अभिप्रायसे पूछता है ? इत्यादि समस्त बातोंका विचार कर उपदेशकको धर्मका उपदेश देना चाहिये । साथमें देशकालादिकका भी विचार करना आवश्यक है । जो उपदेशक इस प्रकारकी समस्त बातोंका विचार कर उपदेश करता है वह वादियोंके मानका भर्दन करता हुआ अपने सिद्धान्तकी स्थापना करनेमें समर्थ होता है । इस प्रकार गणधरादिकोंसे प्रशंसित वह उपदेशक आठ प्रकारके कर्मरूपी पाशसे जकडे हुए प्राणियोंको अपने धर्मोपदेशसे નથી હવે આવું છે તે ઉપદેશ કેવો હોવો જોઈએ ? તેને માટે સૂત્રકાર કહે છે કે–સર્વ પ્રથમ ઉપદેષ્ટા શ્રોતાઓને ભલી પ્રકાર દેખીને ચિત્તમાં એ વિચાર કરે કે જે આ મને ધર્મ વિષે પૂછે છે તે પુણ્યાત્મા છે યા છાત્મા છે ? અથવા વક છે યા જડ છે ? અગર વક અને જડ બને સ્વભાવવાળા છે ? કયા દેવના ઉપાસક છે ? કયા મતના અનુયાયી છે–સાંખ્યમતના યા બૌધ ધર્મના ? ઉપલક્ષણથી મિથ્યાષ્ટિ છે યા સમ્યગુષ્ટિ ? એ પણ જાણી લેવું જોઈએ આ જે મને ધર્મવિષયક પ્રશ્ન પૂછે છે તે કયા અભિપ્રાયથી પૂછે છે ? ઈત્યાદિ સર્વ વાતને વિચાર કરી ઉપદેશકોએ ધર્મને ઉપદેશ દેવો જોઈએ સાથમાં દેશકાળાદિકનો પણ વિચાર કરવો આવશ્યક છે જે ઉપદેશક આ પ્રકારની સમસ્ત વાતોને વિચાર કરી ઉપદેશ આપે છે તે વાદિઓના માનનું મર્દન કરીને પોતાના સિદ્ધાતની સ્થાપના કરવામાં સમર્થ થાય છે આ પ્રકારે ગણધરાદિકોથી પ્રશસિત તે ઉપદેશક આઠ પ્રકારના કર્મરૂપી પાશથી જકડાયેલા પ્રાણીઓને પિતાના ધર્મ
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अध्य० २. उ. ६
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यद्वा-अत्रापि यद्यद्विधिजल्पनं हिंसकोऽयं राजेत्यालोच्य पशुवधादिरूप हिंसाधर्ममण्डनात्मकं चार्वाकादिमतस्थापनं च तत्र सर्वत्रापि श्रेयो नास्ति शास्त्रप्रतिषिद्धत्वात् । तर्हि कथमुपदिशेदित्याह - ' कोऽय - मित्यादि, श्रोतारं समीक्ष्योपदेष्टा चेतसि चिन्तयेत् कोऽयं पुरुषः कं चायं धर्म परिपृच्छति, सोऽयं कः किं पुण्यवान् उत तुच्छ ? | यद्वा - अयं वक्रो वा जडो वा वक्रजडो वा पुरुषः, कं च = देवविशेषं नतः = प्रणतः कं देवमुपास्ते वा ? |
जो हितावह - इष्ट होता है वह अन्य जीवोंके लिये भी हितावह होगा, यह नहीं जाना जा सकता । सम्यग्दृष्टि अथवा भव्यपुरुषके लिये जिस उपदेशसे आत्मकल्याण करनेकी ओर सतर्कता जागृत होती है उसी उपदेश से मिथ्यादृष्टि में सतर्कता जागृत न होकर प्रत्युत कलुषता जागृत हो सकती है।
अथवाwww.AXAM
यह राजा हिंसक है " ऐसा विचार कर पशुवधादिरूप हिंसाका मण्डन, तथा चार्वाकादिक नास्तिक मतका स्थापनरूप कथन करना भी उपदेशक के लिये कल्याणप्रद मार्ग नहीं है । इससे अनेक अनर्थों की परम्परा बढ़ती है। तथा इस प्रकारकी मान्यता भी शास्त्रप्रतिषिद्ध है | अतः दूसरोंकी मान्यतानुसार अपनी मान्यताको दबाकर उसकी हां में हां मिला कर जो उपदेशक उपदेश करता है वह कल्याणकारी मार्ग नहीं है । इस समस्त कथन से ये दो बातें फलितार्थ होती हैं- एक तो अवसर देखे विना धर्मकथा करने में एकान्तरूपसे कल्याण नहीं है तथा दूसरों की मान्यतानुसार अपनी मान्यता बनाकर उपदेश देना, यह भी
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હિતાવહ–ઈષ્ટ થાય છે તે તે અન્ય જીવો માટે પણ હિતાવહ થશે તેમ માની શકાતું નથી. સમ્યગ્દષ્ટિ અથવા ભવ્ય પુરૂષષ માટે જે ઉપદેશથી આત્મકલ્યાણ કરવાની તરફ્ સતર્કતા જાગૃત થાય છે તે જ ઉપદેશથી મિથ્યાર્દષ્ટિમાં સતર્કતા જાગૃત થતી નથી ખુલ્ક કલુષતા જાગૃત થાય છે, અથવા રાજા હિંસક છે” એવો વિચાર કરી પશુવધાદિરૂપ હિંસાધનું મંડન તથા ચાર્વાકાદિક નાસ્તિકમતનુ સ્થાપન રૂપ કથન કરવું તે પણ ઉપદેશક માટે કલ્યાણપ્રઢ માર્ગ નથી. તેનાથી અનેક અનર્થોની પરંપરા વધે છે. તથા આ પ્રકારની માન્યતા પણ શાસ્ત્રપ્રતિ ષિદ્ધ છે, માટે ખીજાએની માન્યતાનુસાર પેાતાની માન્યતાઓને દખાવીને તેની હા માં હા મેળવી જે ઉપદેશક ઉપદેશ કરે છે તે કલ્યાણકારી માર્ગ નથી. આ સમસ્ત કથનથી એ બે વાતા સિદ્ધ થાય છે કે એક તા અવસર દેખ્યા વિના ધર્મકથા કરવામાં એકાન્તરૂપથી કલ્યાણ નથી તથા, ખીજાઓની માન્યતાનુસાર પેાતાની માન્યતા બનાવીને ઉપદેશ આપવો એ પણ કલ્યાણકારી માર્ગ
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आचाराङ्गसूत्रे प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरति, अत एव सर्वेति कथनं संगतम् । एवंभूतोऽसौ किमासादयतीत्याह-'न लिप्यत' इत्यादि, वीरः-प्रत्यात्मप्रदेशधर्मप्रभावप्रचारशक्तिसम्पन्नः भणपदेन हिंसास्थानेनात्मसंयमविराधनारूपेण न लिप्यते नोपलिप्तो भवति आक्रोशनोद्ध्वंसनवधादिनाऽऽत्मविराधको ज्ञानादिपञ्चाचारानाचरणेन परिज्ञासे छोड देता है वह उपदेशक भी सर्वपरिज्ञाचारी कहलाता है । इस अपेक्षासे परिज्ञाके साथ 'सर्व' यह विशेषण संगत बैठता है। इस प्रकारका उपदेशक कि जो आत्माके प्रत्येक प्रदेशमें धर्मका प्रचार करने की शक्तिसे सम्पन्न है वह हिंसाके स्थानभूत अपनी आत्माकी विराधना से तथा संयमकी विराधनासे कभी भी उपलिप्त नहीं होता है। तात्पर्य यह कि वह उपदेशक-आक्रोशन, उद्ध्वंसन और वधादिकसे अपनी आत्माकी विराधना करनेवाला नहीं होता है, और न ज्ञानाचार दर्शनाचार और नपआचार आदि पांच प्रकारके आचारोंके अनाचरणसे संयमका ही विराधक होता है, क्यों कि वह इन दोनों प्रकारकी विराधना के कटुक फलको भली प्रकार जानता है। उसे यह पूर्ण रूपसे विश्वास है कि जो इन दोनों प्रकारकी या किसी भी एक प्रकारकी विराधनाका करनेवाला होता है उसे संसारमें ही भ्रमण करना पड़ता है, कारण कि इस प्रकारकी विराधनासे जीव अशुभ कर्मोंका ही बंध करता है और इनका फल चतुर्गतिरूप संसारमें भ्रमण करना है । इस संसारके અવિધિના કથનના દોષોને પ્રત્યાખ્યાન-પરિજ્ઞાથી છોડી આપે છે તે ઉપદેશક पए सपरिज्ञायारी अपाय 2. ॥ अपेक्षाथी परिशा'नी साथे 'सर्व' मा વિશેષણ સગત બેસે છે આ પ્રકારના ઉપદેશક જે આત્માના પ્રત્યેક પ્રદેશમાં ધર્મનો પ્રચાર કરવાની શક્તિથી સંપન્ન છે, તે હિંસાના સ્થાનભૂત પિતાના આત્માની વિરાધનાથી તથા સંયમની વિરાધનાથી કદિ પણ ઉપલિપ્ત થતા નથી. તાત્પર્ય એ છે કે તે ઉપદેશક-આકશન ઉર્ધ્વસન અને વધાદિકથી પિતાના આત્માની વિરાધના કરવાવાળા થતા નથી, તેમજ જ્ઞાનાચાર, દર્શનાચાર અને તપઆચાર આદિ પાંચ પ્રકારના આચારના અનાચરણથી સ યમના વિરાધક બનતા નથી, કારણ કે તે એ બન્ને પ્રકારની વિરાધનાના કટુ ફળને સારી રીતે જાણે છે. તેને પૂર્ણ રીતે વિશ્વાસ છે કે જે આ બન્ને પ્રકારની અગર કોઈ પણ એક પ્રકારની વિરાધનાન કરવાવાળા હોય છે, તેને સંસારમાં જ ભ્રમણ કરવું પડે છે. કારણ કે આ પ્રકારની વિરાધનાથી જીવ અશુભ કર્મો જ બંધ કરે છે અને તેનું ફળ ચતુતિરૂપ સંસારમાં ભ્રમણ થાય છે, “આ સંસારના કારણભૂત કર્મને નાશ
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अध्य० २. उ. ६ पाणिनो धर्मोपदेशेन परिमोचयति-संसारकारागारानिष्काशयति स एव ऊर्ध्वमधस्तियक्षु लोकेषु सर्वतः सर्वासु दिशासु दशसु दिश्वित्यर्थः, सर्वपरिज्ञाचारी-सर्वाचासौ परिज्ञा सर्वपरिज्ञा तया ज्ञप्रत्याख्यानरूपया द्विविधयाऽऽचरितुं शीलं यस्य स सर्वपरिज्ञाचारी-समस्तहेयोपादेयकुशलः। अत्रायं विवेकः-ज्ञपरिज्ञा द्विविधाछामस्थिकी कैवलिकी च, तत्र छामस्थिकी मतिश्रुत्यवधिमनःपर्यवभेदेन चतुर्विधा, कैवलिकी केवलज्ञानरूपैकैव, मूलोत्तरगुणभेदेन प्रत्याख्यानपरिज्ञाऽपि द्विविधा, यद्वा सर्वपरिज्ञाचारी यो विधिकथनगुणान् ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वाऽविधिकथनदोषांश्च संसाररूपी कारागारसे मुक्त कर देता है। ऐसा उपदेशक ही उर्ध्वदिशा अधोदिशा तथा इस तिर्यग्लोकमें और समस्त दिशाओंमें सर्वपरिज्ञाचारी होता है। समस्तपरिज्ञाका नाम सर्वपरिज्ञा है । सर्वपरिज्ञासे जिस का आचरण करनेका स्वभाव है उसका नाम सर्वपरिज्ञाचारी है। परिज्ञा दो प्रकारकी है (१) ज्ञपरिज्ञा और (२) प्रत्याख्यानपरिज्ञा । इन दोनों प्रकारकी परिज्ञासे वह युक्त होता है, अर्थात् समस्त हेय और उपादेयमें वह कुशल हो जाता है। इसका भाव यह है कि-ज्ञपरिज्ञा दो प्रकारकी है-(१) छद्मस्थ-सम्बन्धी और (२) केवलज्ञानी-सम्बन्धी । छद्मस्थ-सम्बन्धी परिज्ञा-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनः पर्यवज्ञानके भेदसे चार प्रकारकी है। केवलज्ञानी-सम्बन्धी परिज्ञा एक केवलज्ञानरूप ही है, उसके भेद नहीं है। प्रत्याख्यानपरिज्ञा भी मूलगुण
और उत्तरगुणके भेदसे दो प्रकारकी है । जो उपदेशक विधि के कथनके गुणों को ज्ञपरिज्ञासे जान कर अविधि के कथनके दोषोंको प्रत्याख्यानઉપદેશથી સંસારરૂપી કારાગારથી મુક્ત કરે છે. તેવા ઉપદેશક જ ઉર્ધ્વદિશા અધોદિશા તથા આ તિર્યશ્લેકમાં અને સમસ્ત દિશાઓમાં સર્વ પરિજ્ઞાચારી થાય છે. સનસ્તપરિજ્ઞાનું નામ સર્વપરિજ્ઞા છે સર્વપરિજ્ઞાથી જેનું આચરણ કરવાને સ્વભાવ છે તેનું નામ સર્વ પરિજ્ઞાચારી છે પરિણા બે પ્રકારની છે. (૧) જ્ઞ–પરિજ્ઞા અને (૨) પ્રત્યાખ્યાન-પરિજ્ઞા, આ બન્ને પ્રકારની પરિજ્ઞાથી તે યુક્ત બને છે. અર્થાત્ સમસ્ત હેય અને ઉપાદેયમાં તે કુશળ બની જાય છે. તેને ભાવ એ છે કે–પરિજ્ઞા બે પ્રકારની છે. (૧) છદ્મસ્થસંબંધી અને (૨) કેવળજ્ઞાની સંબંધી છસ્થસ બંધી પરિજ્ઞા–મતિજ્ઞાન, શ્રુતજ્ઞાન, અવધિજ્ઞાન અને મન ૫ર્યવજ્ઞાનના ભેદથી ચાર પ્રકારની છે. કેવળજ્ઞાનીસંબંધી પરિજ્ઞા એક કેવળજ્ઞાનરૂપ જ છે, તેના ભેદ નથી. પ્રત્યાખ્યાન–પરિજ્ઞા પણ મૂલગુણ અને ઉત્તરગુણના ભેદથી બે પ્રકારની છે. જે ઉપદેશક વિધિના કથનના ગુણોને જ્ઞ–પરિણાથી જાણીને અને
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૨દર
। भावाराङ्गसूत्रे ___ ननु य एव अणोद्धातनखेदज्ञः स एव वन्धप्रमोक्षान्वेषी चेति पौनरुक्त्यं समापतितमिति चेन्न-' अणोद्धातनखेदज्ञः' इत्यनेन मूलोत्तरप्रकृतिभेदविशिष्टस्य योगनिमित्तेन प्राप्तस्य कपायस्थितिमतः कर्मणो बद्धस्पृष्टनिधत्तनिकाचितरूपवध्यमामानावस्थायास्तरीकरणोपायस्य च सम्यग्ज्ञातेत्यस्यार्थस्याभिहितत्वाद् बन्धनमोक्षेत्यादिना च केवलं तद्रीकरणानुष्ठानस्याभिहितखात् ।।
जो रत्नत्रयादिक उपाय हैं उन्हें भी 'बन्धप्रमोक्ष' शब्दसे ग्रहण कर लिया गया है। वन्धप्रमोक्षका अथवा इनके उपायोंका अन्वेषण करनेका जिसका स्वभाव है वह बन्धप्रमोक्षान्वेषी है। जो अणोद्धातनकुशल और बन्धप्रमोक्षान्वेषी है वही मेधावी होता है। __ शङ्का-जो अणोद्धातनमें कुशल है वही तो बन्धप्रमोक्षान्वेषी है । फिर इस प्रकारके कथनसे तो दोनों शब्दोंके अर्थों में परस्परमें समानता आजानेसे पुनरुक्तिदोषका प्रसङ्ग आता है।
उत्तर-यह बात नहीं है-" अणोद्धातनखेदज्ञ" इस शब्दसे "मूल और उत्तरभेद विशिष्ट योगके निमित्तसे गृहीत और कषायसे स्थितियुक्त, ऐसे कमौकी बद्ध, स्पृष्ट, निधत्त और निकाचितरूप बध्यमान अवस्थाओंका और कोको दूर करनेवाले उपायोंका वह सम्यग्ज्ञाता है" यह अर्थ प्रतिपादित किया गया है। 'बन्धप्रमोक्षान्वेषी' इस शब्द से सिर्फ उनको दूर करनेवाले अनुष्ठानका प्रतिपादन किया गया है। તેને પણ બધપ્રમાક્ષ શબ્દથી ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે બંધપ્રક્ષનું, અથવા તેના ઉપાયોનું અન્વેષણ કરવાને જેને સ્વભાવ છે તે બંધપ્રક્ષાવેલી છે. જે અણઘાતનકુશળ અને બંધમમેક્ષાવેલી છે તે જ મેધાવી હોય છે.
શંકા–જે અણઘાતનમાં કુશળ છે તે જ બંધપ્રમશાન્વેષી છે, એ પ્રકારના કથનથી તે બનને શબ્દોના અર્થોમાં પરસ્પરમાં સમાનતા આવવાથી પુનરૂક્તિ દોષને પ્રસંગ આવે છે
उत्तर-ये वात नथी. “ अणोद्धातनखेदज्ञ" ! २७४थी “ भूदा मने ઉત્તરભેદવિશિષ્ટ સેગના નિમિત્તથી ગૃહીત અને કપાયથી સ્થિતિયુક્ત એવા કર્મોની બદ્ધ, પૃષ્ટ, નિધત્ત અને નિકાચિતરૂપ બેધ્યમાન અવસ્થાઓના, અને તેવા કર્મોને દૂર કરવાવાળા ઉપાયના તે સમ્યજ્ઞાતા છે” આ અર્થ પ્રતિપાદિત કરેલ छे तथा 'वन्धप्रमोक्षान्वेपी ' २मा २७४थी ३४त तेने ६२ ४२ना२ अनुष्ठाननु પ્રતિપાદન કરેલ છે.
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.. ३६१
अध्य० २. उ.६ संयमविराधको न भवतीत्यभिप्रायः । अन्यदपि वीरकर्तव्यमाह-'स मेधावी'त्यादि,सामुनिः मेधावी-विदितात्मसंयमविराधनकटुकफलो यः अणोद्धातनखेदज्ञःअणति गच्छति येन प्राणिगणश्चतुर्गतिकसंसारं तदणं-कर्म, तस्य उत्ाबल्येन घातनम् अपनयनम् अणोद्धातनं, तस्य तत्र वा खेदज्ञः निपुणः, यश्च बन्धप्रमोक्षान्वेषी-वन्धस्य प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशरूपस्य प्रमोक्षः प्रकर्षण मोक्षस्तदुपायो वा रत्नत्रयरूपस्तमन्वेष्टुं गवेषयितुं शीलं यस्य स बन्धनमोक्षान्वेषी, योऽणोद्धातनखेदज्ञो यश्च बन्धप्रमोक्षान्वेषी स एव मेधावी भवतीति सम्बन्धः।। कारणभूत कर्मको नाश करनेके लिये ही तो मैंने यह मुनिवेष धारण किया है। इसी अभिप्रायकी पुष्टि सूत्रकार-“अणुग्घायणखेयन्ने" 'अणोद्धातनखेदज्ञः' इस पदसे की है-" अणति-गच्छति येन प्राणिगणश्चतुर्गतिकसंसारे तद् अणं-कर्म, तस्य उत्-प्राबल्येन घातनम् अपनयनं, तस्थ तन्त्र वा खेदज्ञः” इति । अर्थात्-जिसके द्वारा प्राणिसमूह चतुर्गतिरूप इस संसारमें भ्रमण करता है वह अण-कर्म है, उस कर्मके विनाश करने में जो निपुण है वह अणोद्धातनखेदज्ञ है। जो बंधके नाश करनेका अथवा उसके नाश करनेके उपायोंके अन्वेषण करने का स्वभाववाला होता है वह संसारके कारणभूत कर्मके विनाश करने में कुशल होता है।
शास्त्र में बन्धके चार भेद बतलाये गये हैं-(१) प्रकृतिबन्ध, (२) स्थितिबन्ध, (३) अनुभागबन्ध, (४) प्रदेशबन्ध । इनका अत्यन्त अभाव होना वह बन्धप्रमोक्ष है। अथवा इनके अत्यन्त अभाव होने में कारणभूत કરવા માટે જ મેં મુનિપણને વેશ લીધે છે.” આ અભિપ્રાયની પુષ્ટિ સૂત્રકાર “ अणुग्घायणखेयन्ने " अणोद्धातनखेदज्ञः से ५४थी अरेस छ, “अणतिगच्छति येन प्राणिगणश्चतुर्गतिकसंसारे तद् अणं-कर्म, तस्य उत्-प्राबल्येन घातनम् अपनयनं, तस्य तत्र वा खेदज्ञः, इति, अर्थात ना द्वारा प्राणीसमूह ચતુર્ગતિરૂપ આ સંસારમાં ભ્રમણ કરે તે ગા=કર્મ છે. તે કમને વિનાશ કરવામાં જે નિપુણ છે તે જોદ્ધાતનજ્ઞ છે. જે બંધને નાશ કરવાના, અથવા તેને નાશ કરવાના ઉપાચેનું અન્વેષણ કરવાના સ્વભાવવાળા હોય છે તે સંસારના કારણભૂત કર્મને વિનાશ કરવામાં કુશળ હોય છે.
શાસ્ત્રમાં બંધના ચાર ભેદ બતાવેલ છે. (૧) પ્રકૃતિબંધ (૨) સ્થિતિબંધ (3) मनुलाम, मन (४) प्रदेशमध. तेने अत्यंत समाव थवा ते मधप्रमाक्ष છે અથવા તેના અત્યંત અભાવ હોવાના કારણભૂત જે રત્નત્રયાદિક ઉપાય છે
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आचाराङ्गसूत्रे ___ यश्चैतादृशः केवली छद्मस्थो वा स यदनुष्ठितवान् यच्चानुतिष्ठति वा तदन्येनापि साधुनाऽनुष्ठेयमिति दर्शयति-' से जं च ' इत्यादि।
मूलम्-से जं च आरभे जं च नारभे , अणारद्धं च न आरभे छणं छणं परिण्णाय लोकसन्नं च सव्वसो ॥ सू० १०॥ ___ छाया-स यच्चारभते यच्च नारभते, अनारब्धं च नारभेत क्षणं क्षणं परिज्ञाय लोकसंज्ञां च सर्वशः ॥ सू० १० ॥
टीका–स य'-दित्यादि, सतीर्थङ्करः सामान्यकेवली प्राप्तरत्नत्रयो मुनि ज्ञानावरणीयादिकर्मापनयनाय यत्कर्म तपःसंयमविनयादिकं च आरभते विदधाति घटते-पराक्रमते, यतते वा, यच्च तद्विपरीतं संसारहेतुं मिथ्यावाविरत्यादिकं मुक्त इसलिये नहीं है कि इस समय भी उसके उस उस कर्मका सद्भाव है। अज्ञान, अविरति और मिथ्यात्व, इनसे वह मुक्त-रहित है; परन्तु प्रशस्त चारित्र, तप और विनयादिसे मुक्त-रहित नहीं है। सू० ९॥
इस प्रकारके चाहे केवली हों या छद्मस्थ, परन्तु उन्होंने जिसका आचरण किया और जो आचरण कर रहे हैं वह अन्य साधुको भी करना चाहिये, इस बातको कहते हैं-' से जं च' इत्यादि।
तीर्थङ्कर सामान्यकेवली अथवा रत्नत्रयके धारी मुनि, ये से" इस शब्दसे ग्रहण किये गये हैं। इन्होंने इशनावरणीयादिक आठ कर्मों के नाश करनेके लिये जिन तप संयम और विनयादिकोंको अनुष्ठान-पालन किया है, इनके पालन करने में जो पराक्रम दिखलाया है, तथा इनकी आराधना करनेमें जो प्रयत्न किये हैं, और इनसे विपरीत संसार સમયે પણ તેઓને તે તે કર્મને સભાવ છે અજ્ઞાન, અવિરતિ અને મિથ્યાત્વ, તેનાથી તે મુક્ત-રહિત છે પરંતુ પ્રશસ્ત ચારિત્ર, તપ અને વિનયાદિથી મુક્તરહિત નથી. સૂત્ર ૯ છે
આવા પ્રકારના ભલે કેવળી હોય કે છવાસ્થ પરંતુ તેઓએ જેનું આચરણ કર્યું અને જે આચરણ કરે છે તે બીજા સાધુઓએ પણ કરવું જોઈએ. मा वात ४ छ-' से जंच' त्यादि
तीर्थ४२, सामान्यवती अथवा रत्नत्रयधारी मुनि, ये “ से" शथी પ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. તેઓએ જ્ઞાનાવરણીયાદિક આઠ કર્મોને નાશ કરવા માટે જે તપ સયમ અને વિનયાદિનું અનુષ્ઠાન-પાલન કરેલ છે, તેનું પાલન કરવામાં જે પરાક્રમ બતાવેલ છે, તથા તેની આરાધના કરવામાં જે પ્રયત્ન રેલ છે, અને તેનાથી વિપરીત સંસારના કારણભૂત મિથ્યાત્વ તેમજ અવિરતિ
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अध्य० २ उ. ६
३६३ ननु यश्चैतादृशः स केवली छद्मस्थो वा ? मोच्यते-केवलिनोऽणोद्धातेत्यादिविशेषणासम्भवाच्छद्मस्थस्य ग्रहणम् । केवलिनस्तर्हि किं स्यादिति दर्शयति-'कुशल' इत्यादि । कुशलः केवली तीर्थङ्करः सामान्यकेवली वा पुनः न बद्धः घातिकर्मणो नाशात, न मुक्तः भवोपग्राहिकर्मसत्त्वात् । वाह्याभ्यन्तरसावद्यानुष्ठानैश्च मुक्तः, भवोपग्राहिकर्मणः सत्त्वेन बद्धोऽपि ।
यद्वा छद्मस्थ एव कुशलपदेनोच्यते, तेन कुशल प्राप्तरत्नत्रयः, न बद्धः अनन्तानुबन्ध्यादिकपायानलोपशमादिसत्त्वात् , न मुक्तः इदानीमपि तत्कर्मसत्त्वात् , अज्ञानाविरतिमिथ्यात्वैश्व मुक्तः, प्रशस्तैस्तु चारित्रतपोविनयादिभिर्वा न मुक्तः॥सू०९॥
शङ्का-जो ऐसा होता है वह कौन है ? केवली है या छमस्थ ?
उत्तर-केवलीमें : अणोद्धातनखेदज्ञ" इत्यादि विशेषण संभवित नहीं होते हैं, इन दोनों विशेषणोंसे तो केवल छद्मस्थका ही ग्रहण हुआ है। हां “कुशल" इस शब्दसे केवलीका ग्रहण होता है, वे चाहे सामान्यकेवली हों चाहे तीर्थङ्कर हों। वे न तो बद्ध हैं; क्यों कि उनके घाती कर्मोंका अभाव हो चुका है, और न मुक्त ही हैं, कारण कि भवोपग्राही कौका उनके सद्भाव है । यद्यपि बाह्य और आभ्यन्तर सावद्य कर्मोंसे वे मुक्त-रहित हैं तो भी भवोपग्राही कर्मोंकी सत्ता होनेसे वे बद्ध भी हैं। __अथवा-'कुशल' इस पदसे छद्मस्थका ही ग्रहण हुआ है। जिसने रत्नत्रयको प्राप्त कर लिया है वह कुशल है। वह बद्ध नहीं है, क्यों कि इसके अनन्तानुबन्धी आदि कषायरूप अग्निका उपशमादि हो चुका है।
શંકા–જે એવા છે તે કેણ છે? કેવળી છે કે છઘસ્થ ?
उत्तर-जीमा “ अणोद्घातनखेदज्ञः” त्या विशेषणो समावित थत नथी. मा भन्ने विशेषणोथी तो ॥ ७५स्थ अ५ थये। छ. है। “कुशल" આ શબ્દથી કેવળીનું ગ્રહણ થાય છે તે ભલે સામાન્ય કેવળી હોય કે તીર્થંકર હોય. તેઓ બદ્ધ નથી, કારણ કે તેઓને ઘતી કર્મોને અભાવ થયેલ છે, અને મુક્ત પણ નથી. કારણ કે ભપગ્રાહી કર્મોને તેને સદ્ભાવ છે. જો કે બાહ્ય અને આત્યંતર સાવદ્ય કર્મોથી તેઓ મુક્ત-રહિત છે તે પણ ભયગ્રાહી કર્મોની સત્તા હોવાથી તેઓ બદ્ધ પણ છે.
__ अथवा “कुशल' २. ५४थी छमस्थनु २४ घडण थयेछ.गणे रत्नत्रय प्राप्त કરેલ છે તે કુશલ છે. તેઓ બદ્ધ નથી, કારણ કે તેના અનંતાનુબંધી આદિ કષાયરૂપ અગ્નિનું ઉપશમાદિ થઈ ચુકેલ છે. મુક્ત એટલા માટે નથી કે આ
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आचारागसूत्रे तस्य वीप्सायां क्षणं-क्षणं, हिंसाजनकं सकलं कर्मत्यर्थः, परिज्ञाय-ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहत्य च । यद्वा-क्षणः संयमाचारावसरः, तस्य वीप्सायां क्षणःक्षणस्तं परिज्ञाय ज्ञपरिज्ञया विदिखा, आसेवनपरिज्ञया चाऽऽसेव्य विचरेत् । अपि च लोकसंज्ञांच लोकस्य असंयतलोकस्य संज्ञा संज्ञानं शब्दादिविषयासङ्गजन्यसुखस्पृहा परिग्रहादिसंज्ञा वा, तां सर्वशः सर्वप्रकारेण योगत्रिककरणत्रिकेण परिज्ञाय परिहत्य, यद्वा-चशब्दादात्मौपम्येन क्षणनं न विध्यात् “जह मम ण पियं दुक्खं जाणिय एमेव सव्यजीवाणं" इत्यादिवचनात् । सर्वथा प्राणातिपातादौ न प्रवर्तत जिस कर्मके द्वारा हिंसारूप कार्य उत्पन्न होता है उस कर्मका नाम क्षण है । यहाँ पर वीप्सा में 'क्षणं क्षणं' यह द्विरुक्ति है। तात्पर्य इसका यह है कि हिंसात्मक सकलकों को संयमी ज्ञपरिज्ञासे जानकर और प्रत्याख्यानपरिज्ञासे इनका परित्याग कर विचरण करे।
अथवा-संयमके आचरण करनेके प्रत्येक अवसरको भी संयमी ज्ञपरिज्ञाले जानकर और आसेवनपरिज्ञासे इसका सेवन करे।
तथा लोकसंज्ञाका सर्व प्रकारसे परित्याग करे । असंयत लोकोंको शब्दादिक विषयोंके, सम्बन्धसे उत्पन्न सुखकी जो चाहना होती है उसका नाम लोकसंज्ञा है। अथवा परिग्रहादिकसंज्ञाका नाम भी लोकसंज्ञा है। संयमी इस लोकसंज्ञाका सर्व प्रकारसे अर्थात् तीन करण तीन योगसे त्याग करे।
"लोकसञ्ज्ञां च सर्वशः " यहां पर जो "च" आया है उससे यह यात प्रकट की गई है कि संयमी समस्त जीवोंको अपने समान समझ कर कभी भी हिंसादिक कार्यों में प्रवृत्ति न करे, क्योंकि आगमका तभनु नाम मा छ. डी. वा.साथी 'क्षण क्षण' मा वि३ति छ मेटले હિસાજનક સકલ કર્મોને સયમી પરિજ્ઞાથી જાણીને અને પ્રત્યાખ્યાનપરિણાથી તેને પરિત્યાગ કરી વિચરણ કરે.
અથવા સયમનું આચરણ કરવાના પ્રત્યેક અવસરને પણ સંયમી પરિજ્ઞાથી જણી અને આસેવનપરિજ્ઞાથી તેનું સેવન કરે.
- તથા લોકસંજ્ઞાને સર્વ પ્રકારથી પરિત્યાગ કરે, અસયત લેકેને શબ્દાદિક વિષયેના સંબધથી ઉત્પન્ન સુખની જે ચાહના થાય છે તેનું નામ લોકસંજ્ઞા છે અથવા પરિગ્રહાદિકસંજ્ઞાનું નામ પણ લેસ જ્ઞા છે, સંયમી આ લોકસંજ્ઞાને સર્વ પ્રકારથી અર્થાત્ ત્રણ કરણ ત્રણ ભેગથી ત્યાગ કરે
“लोकसंज्ञां च सर्वशः" मा आयो 'च' ४ मावेश छ तेनाथी એ વાત પ્રગટ કરી આપેલ છે કે સંયમી સમસ્ત જીવોને પોતાના સમાન સમજી ઈ વખત પણ હિસાદિક કાર્યોમાં પ્રવૃત્તિ ન કરે, કારણ કે આગમનું વાક્ય
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अध्य० २. उ.६ प्राणातिपातादिरूपाष्टादशपापस्थानानि च नारभते न करोति न घटते न यतते न पराक्रमते वा । तद्विपरीतमाचरतीत्यर्थोऽपि । संयतः पञ्चमहाव्रतपालन विधेयं, संसारकारणं मिथ्यालाविरत्यादिकं च नासेवनीयमित्यभिप्रायः। तदेवाह-'अनारब्ध'मित्यादि, अनारब्धं केवलिभिः प्राप्तरत्नत्रयैश्छद्मस्थैर्वा अनारब्धम् अनाचीण च द्विपञ्चाशत्मकारं नारभेत=न सेवेत, च शब्दाबदारब्धं तत्कुर्यादित्यर्थोऽपि । अनाचरणीयमेवाह-'क्षण'-मित्यादि, क्षणं क्षणं, क्षणनं क्षणः-हिंसनं, कार्यकारणयोरभेदाद् येन कर्मणा कारणभूतेन हिंसा कार्यरूपा समुत्पद्यते तत्कर्म क्षणः, तम् , के कारणभूत मिथ्यात्व एवं अविरति आदि तथा प्राणातिपातादिरूप अठारह (१८) पापस्थानों का जिस प्रकारसे इन्होंने परिलाग किया है, उनके छोडनेमें जो अपनी शक्ति प्रकट की है, और जिस प्रकारका प्रयत्न किया है, तथा इन अविरति आदिकोंसे विपरीत अपनी प्रवृत्ति बनाई है, संयतोंका कर्तव्य है कि वे भी पांच महाव्रतोंका इसी लगनके साथ पालन करें, और संसारके कारण-मिथ्यात्व अविरति आदि-का परित्याग करें, स्वप्नमें भी इनका सेवन न करें। केवलियोंने अथवा रत्नत्रयको प्राप्त हुए छद्मस्थ मुनियोंने जिनका सेवन नहीं किया, अर्थात् (५२) प्रकारके जिन अनाची -अनाचारों-का अनुष्ठान नहीं किया उनका संयति कभी भी सेवन न करे।
सूत्रमें आये हए "च" शब्दसे इस प्रकार अर्थ होता है कि जो उन्होंने पालन किया है वही वह पालन करे। उन्होंने क्या आचरण नहीं किया ? इसको प्रकट करते हैं-'क्षणं क्षणं' इत्यादि। 'क्षण' शब्दका अर्थ हिंसा है। कार्य और कारणमें अभेद सम्बन्धकी विवक्षासे कारणभूत આદિ તથા પ્રાણાતિપાતદિરૂપ અઢાર (૧૮) પાપસ્થાનને જે પ્રકારે તેણે પરિ. ત્યાગ કરેલ છે, તે છોડવામાં જે પિતાની શક્તિ પ્રગટ કરેલ છે, અને જે પ્રકારને પ્રયત્ન કરેલ છે, તથા આ અવિરતિ આદિથી વિપરીત પિતાની પ્રવૃત્તિ બનાવી છે. સંયતેનું કર્તવ્ય છે કે તે પણ પાંચ મહાવ્રતોનું તેવી ભાવનાથી પાલન કરે અને સંસારનાં કારણ મિથ્યાત્વ અવિરતિ આદિનો પરિત્યાગ કરે. સ્વપ્નમાં પણ તેનું સેવન ન કરે કેવળીઓએ, અથવા રત્નત્રયપ્રાપ્ત છદ્મસ્થ મુનિઓએ જેનું સેવન નથી કર્યું અર્થાત્ બાવન પ્રકારના જે અનાચારેનું અનુષ્ઠાન નથી કર્યું તેનું કોઈ પણ સંયતી સેવન ન કરે.
સૂત્રમાં આવેલાં “ર” શબ્દથી એ પ્રકારે અર્થ થાય છે કે જે તેઓએ પાલન કરેલ છે તે જ તે પાલન કરે. તેઓએ શું આચરણ નથી કર્યું? તે પ્રગટ ४२ छ-क्षणं क्षण' त्याहि. 'क्ष' शनी अर्थ हिंसा छे. आय मने १२एमा અભેદસંબંધની વિવક્ષાથી કારણભૂત કર્મ દ્વારા જે હિંસારૂપ કાર્ય ઉત્પન્ન થાય છે
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आचारागसू
उपसंहार:अस्मिन्नध्ययने हि लोकविजये सङ्गो न कार्यो वुधै मात्रादौ च महाव्रतेऽप्यदृढ़ता मानोऽपि हेयस्तथा ॥ वैराग्यं विषये मुनेविहरणं लोकेऽपि निश्राख्यया
पुत्रादौ ममतां त्यजेनिगदितं तूदेशपटकान्विते ॥१॥ इत्याचारागसूत्रस्य लोकविजयाख्यद्वितीयाध्ययनस्य आचारचिन्तामणि
टीकायां पष्ठ उद्देशः समाप्तः ॥२-६॥ इतिश्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मायक-वादिमानमर्दक -श्रीशाहूछत्रपति-कोल्हापुरराजप्रदत्त - 'जैनशास्त्राचार्य'-पदभूपित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलाल-तिविरचितायाम् आचारागसूत्रस्याचारचिन्तामणिटीकायां लोकविजयाख्यं द्वितीयमध्ययनं सम्पूर्णम् ॥२॥
उपसंहारलोकविजय नामक इस प्रकरण, में ये छै उद्देश भरे,
मातादिकमें संग अदृढता, महावतोंमें वुध न करे। मान तजन वैराग्य विषयमें, हो विहार जगनिभासे,
पुत्रादिकसे ममता हरनी छ उद्देश इस निश्रासे ॥ १॥ ॥ इति आवाराङ्गसूत्र के लोकविजय-नामक दूसरे अध्ययनकी आचारचिन्तामणि-टीकाका हिन्दीभाषानुवाद संपूर्ण ॥२॥
- पसार - લકવિજ્ય નામના બીજા અધ્યયનમાં આ છ ઉદેશે બતાવ્યા છે-જ્ઞાનીએ માતા વગેરેને સંગ ત્યજ મહાવ્રતોમાં દઢતા રાખવી અભિમાન ત્યજવું. વિષયોથી વિરકત થવું સસારી એને આશ્રયે વિહરવું. અર્થાત્ પચનપાચનાદિક સાવદ્ય ક્રિયાઓને ટાળતે થકે ગૃહસ્થોએ પોતાને માટે કરેલ નિરવઘ આહાર પાણીથી સયમ-યાત્રાને નિર્વાહ કરે તથા પુત્ર વગેરેની મમતા ત્યજવી એ ઉદેશે તેમાં છે. ૧ આચારાગ સૂત્રના લેકવિય નામના બીજા અધ્યયનના છઠ્ઠા ઉદ્દેશને
गुती मनुवाद सभात २-६. આ આચારાંગસૂત્રના લોકવિજય નામના બીજ અધ્યયનની આચાર
ચિન્તામણિ–ટીકાને ગુજરાતી અનુવાદ સંપૂર્ણ. તારા
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अध्य० २. उ. ६
३६७ संयमाचरणादौ च प्रवर्ततेति सूत्राशयः ॥ मू० १०॥
___ यश्च पूर्वोक्तसकलगुणविशिष्टस्तस्य किं भवतीत्याह-'उदेसो ' इत्यादि । ___ मूलम्-उद्देशो पासगस्स नत्थि,बाले पुणनिहे कामसमणुन्ने असमियदुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव आवर्टअणुपरियइत्तिबेमिासू०११॥
॥ इय बीयज्झयणस्स छट्टो उद्दसो समत्तो ॥ २-६ ॥ __छाया-उदेशः पश्यकस्य नास्ति, वालः पुनः स्निहः कामसमनुज्ञोऽशमितदुःखो दुःखी दुःखानामेवावर्तमनुवर्तते, इति ब्रवीमि ॥ सू० ११ ॥
॥ इति द्वितीयाध्ययनस्य पष्ठ उद्देशः समाप्तः ।। २-६ ॥ ___टीका-उद्देश' इत्यादि । सूत्रमिदं तृतीयोदेशे व्याख्यातमिति । इति ब्रवीमीत्यस्यार्थस्तु प्रथमाध्ययनोक्तदिशाऽवसेयः ॥ सू० ११ ॥ वाक्य है कि-"जह मम ण पियं दुक्खं, जाणिय एमेव सव्वजीवाण" जिस प्रकार दुःख हमें अप्रिय है उसी प्रकार वह समस्त जीवोंको भी अप्रिय है। हिंसादिक कार्यों में जीवोंको दुःख पहुँचता है, ऐसा समझ कर संयमी जन कभी भी प्राणातिपातादिक कार्यों में प्रवृत्ति न करे, और न संयमाचरणसे मुख मोडे, अर्थात् संयम में प्रवृत्तिशाली बने, यही सूत्रका आशय है। सू० १०॥
जो संयमी पूर्वोक्त सकल गुणोंसे युक्त होता है उसके क्या होता है ? इसका खुलासा करते हैं-'उद्देसो पासगहस नत्थि' इत्यादि।
इस सूत्रका व्याख्यान इसी अध्ययन के तीसरे उद्देशमें लिखा जा चुका है। 'इति ब्रवीमि' इसका अर्थ प्रथम उद्देशके अनुसार जान लेना चाहिये ॥ सू० ११॥ ॥ आचाराङ्ग सूत्रके लोकविजयनामक दूसरे अध्ययनके छठे उद्देशका
हिन्दी-भाषानुवाद समाप्त ॥२-६॥ छ “जह मम ण पियं दुक्ख जाणिय एमेव सव्वजीवाणं"२ रे हु:५ અમને અપ્રિય છે તે પ્રકારે તે સમસ્ત જીને પણ અપ્રિય છે. હિંસાદિક કાર્યોમાં જીવને દુઃખ પહોંચે છે. એવું સમજીને સંયમી જન કદિ પણ પ્રાણાતિપાતાદિક કાર્યોમાં પ્રવૃત્તિ ન કરે, અને સંયમાચરણથી દૂર રહે નહિ, અર્થાત્ સંયમમાં પ્રવૃત્તિશાળી બને, એ જ સૂત્રને આશય છે. આ સૂટ ૧૦
જે સંયમી પૂર્વોક્ત સકળ ગુણોથી યુક્ત બને છે. તેને શું થાય છે? તેને भुदास ४२ छ-' उद्देसो पासगस्स नत्थि' इत्यादि.
આ સૂત્રનું વ્યાખ્યાન આ અધ્યયનના ત્રીજા ઉદેશમાં લખાઈ ગયેલ છે. 'इति ब्रवीमि तेनी मर्थ प्रथम उद्देश अनुसार णी सेवो ॥ सू० ११॥
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३७०
आचारागसूत्रे प्रथमोदेशे भावमुप्तानां दोपा जाग्रतां च गुणाः प्रदर्शिताः ॥१॥ द्वितीये भावनिद्रावतां दुःखानुभवः प्रदर्शितः ॥२॥
तृतीये संयमाचरणमन्तरेण केवलं दुःखसहनादेव श्रमणो न भवतीति कथितम् ॥३॥
चतुर्थे तु वान्तवत् कपायास्त्याज्याः, पापकर्मणश्व विरतिः, तथा विदितवेद्यस्य संयमः प्रतिवोधितः, तथा क्षपकश्रेणिप्रविष्टानां च संयमिनां मोक्षो भवतीत्यावेदितम् ॥ ४॥ छोड कर संयमीको सहन करना चाहिये। इस प्रकारके सम्बन्धका प्रतिपादन करनेवाला यह अध्ययन है। इसमें ४ चार उद्देश हैं । उनमें
प्रथम उद्देशमें भावसुप्त संयमियोंके दोष और जगते हुए संयमियोंके गुण दिखलाये गये हैं ।
द्वितीय उद्देशमें-'भावनिद्रावाले संयमियोंको दुःखोंका अनुभव करना पड़ता है। यह बात दिखलाई गई है २।।
तृतीयउद्देशमें-संयमाचरणके विना केवल दुःखोंके सहन करने मात्रसे साधु नहीं होता है' यह विषय प्रतिपादित किया गया है ३।
चतुर्थ उद्देशमें-' वमन-छदित किये हुए अन्नके समान कषाय त्याग करने योग्य हैं, पापकर्म परिहरणीय है, तथा पदार्थोंके स्वरूपको जाननेवाले संयमी मुनिके लिये संयम आराधनीय है, एवं क्षपकश्रेणिमें प्रास हुए साधुजनों को मुक्तिका लाभ अवश्यंभावी है' आदि सब विषय प्रकट किये गये हैं ।। છેડીને સયમીઓએ સહન કરવા જોઈએ. આ પ્રકારના સંબધનું પ્રતિપાદન કરવાવાળું આ અધ્યયન છે. તેમાં ચાર ઉદેશ છે તેમાં–
પ્રથમ ઉદ્દેશમાં ભાવસુપ્ત સંયમીઓના દોષ અને જાગતા સંયમીઓના ગુણ બતાવવામાં આવેલ છે. ૧.
બીજા ઉદેશમાં ભાવનિદ્રાવાળા સયમીઓને દુખનો અનુભવ કરવો પડે छे, मे बात मतापवाभा यावी छे. २.
ત્રીજા ઉદ્દેશમા “સયમાચરણ વિના કેવળ દુખ સહન કરવા માત્રથી કેઇ સાધુ બની શકતો નથી” એ વિષય પ્રતિપાદિત કરવામાં આવેલ છે. ૩.
ચોથા ઉદેશમાં–‘વમન-છર્દિત કરેલા અન્ન સમાન કષાય ત્યાગ કરવા યોગ્ય છે, પાપકર્મ પરિહરણય છે તથા પદાર્થોના સ્વરૂપને જાણવાવાળા સયમી મુનિ માટે સંયમ આરાધનીય છે, તેમજ ક્ષપકશ્રેણિમા પ્રાપ્ત થયેલાં સાધુજનને મુક્તિને લિ અવશ્ય ભાવી છે” આદિ સઘળા વિષય પ્રગટ કરવામાં આવેલ છે. ૪.
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। अथाचाराङ्गसूत्रस्य शीतोष्णीयनामकं तृतीयमध्ययनम् ।
द्वितीयाध्ययनकथनानन्तरं शीतोष्णीयं नाम तृतीयमध्ययनमभिधीयते । अस्य द्वितीयाध्ययनेन सहायमभिसम्बन्धः-शस्त्रपरिज्ञानामकाध्ययननिर्दिष्टविशिटवतभारधारिणो लोकविजयाख्यद्वितीयाध्ययनोक्तसंयममनुतिष्ठतोऽपास्तसमस्तकषायादिलोकस्य परमपदमारुरुक्षोरकस्मात् शीतोष्णाः अनुकूलपतिकूलाः परीपहाः समुत्पद्यन्ते । तेषु स्त्रीपरीषहसत्कारपरीषहावेवानुकूलावन्ये विंशतिसंख्यकाः परीषहाः प्रतिकूलाः । तेषां हर्षविषादपरित्यागपूर्वकं प्रसहनं कर्तव्यमिति सम्बन्धाभिधायकमिदमध्ययनम् । अत्र चत्वार उद्देशाः सन्ति । तत्र
आचाराङ्गसूत्रका शीतोष्णीयनामक तृतीय अध्ययन द्वितीय अध्ययनके बाद अब इस शीतोष्णीय नामक तृतीय अध्ययन प्रारम्भ होता है। द्वितीय अध्ययनके साथ इस अध्ययनका इस प्रकारसे सम्बन्ध है कि शस्त्रपरिज्ञानामक अध्ययनमें जिन विशिष्ट व्रतोंके धारण करनेका विधान किया गया है उन व्रतोंके पालनेवाले, तथा लोकविजय नामक द्वितीय अध्ययन में प्रतिपादित संयमके अनुष्ठान करनेवाले, समस्त कषायलोकके निराकरण करनेवाले और परमपद जो मोक्ष उसमें पहुंचनेकी इच्छावाले ऐसे संयमी मुनि अकस्मात् उत्पन्न शीतउष्ण अर्थात् अनुकूल प्रतिकूल परीषहोंको सहन करते हैं । परीषह २२ बाईस प्रकारके हैं, उनमें स्त्रीपरीषह और सत्कारपरीषह ही अनुकूल हैं, बाकीके २० बीस परीषह प्रतिकूल हैं । इन सब परीषहोंको हर्ष विषाद
આચારાંગ સૂત્રનું શીતોષ્ણયનામનું ત્રીજું અધ્યયન.
બીજા અધ્યયન બાદ હવે શીતણીય નામના ત્રીજા અધ્યયનને પ્રારંભ થાય છે. બીજા અધ્યયનની સાથે આ અધ્યયનને એ પ્રકારે સંબંધ છે કે શસ્ત્રપરિજ્ઞા નામના અધ્યયનમાં જે વિશિષ્ટ વ્રત ધારણ કરવાનું વિધાન કરેલ છે, તે વ્રતના પાળવાવાળા, તથા લેકવિજય નામના બીજા અધ્યયનમાં પ્રતિપાદિત સંયમનું અનુષ્ઠાન કરવાવાળાં, સમસ્ત કષાયેલેકનું નિરાકરણ કરવાવાળાં અને પરમપદ જે મોક્ષ તેમાં પહોંચવાની ઈચ્છાવાળાં એવાં સંયમી મુનિ અકસ્માત્ ઉત્પન્ન શીત–ઉષ્ણ અર્થાત અનુકૂળ પ્રતિકૂલ પરિષહ સહન કરે છે. પરીષહ બાવીસ પ્રકારના છે. તેમાં સ્ત્રીપરીષહ અને સત્કારપરીષહ, એ બે પરીષહ જ અનુકૂળ છે. બાકીના ૨૦ બીસ પરીષહો પ્રતિકૂળ છે. આ સઘળાં પરીષહોને હર્ષ વિષાદ
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आधाराङ्गसूत्रे द्रव्यसुप्तास्तस्करादिना मणिमाणिक्यरत्नाद्यपहारेण यथाऽन्तर्दाहदारिद्रयदौर्भाग्यादिलक्षणपरितापकलापमनुभवन्ति तथा भावसुप्ता अपि प्रमादादिना सम्यरज्ञानदर्शनचारित्राधात्मकरत्नापहारादीघसंसारपरिभ्रमणेन जन्मजरामरणादिलक्षणविविधपरितापकलापमनुभवन्ति ।
मुनयः मोक्षमार्गादविचलन्तो लब्धसम्यग्बोधाः अनगाराः, सदा अनवरतं जाग्रति=मिथ्यात्वादिनिद्रापगमेन इप्टानिष्टप्राप्तिपरिहारार्थ यतनया गमनादि शाली जो हैं वे द्रव्यसे सुप्त हैं। अथवा जिसमें नेत्रोंका प्रचार शिथिल हो जाता है तथा अङ्ग-उपाङ्गों की क्रिया भी जहां शिथिल हो जाती है, ऐसी अस्पष्ट चेतनाकी अवस्थासे जो युक्त हैं वे भी द्रव्यसे सुस हैं, अर्थात् निद्रावस्थावाले प्राणी द्रव्यसुप्त हैं। ये द्रव्यलुप्त जीव जिस प्रकार चोरों वगैरहके द्वारा अणि माणिक्य और रत्नादिक द्रव्यके चुराये जाने से अन्तर्दाह एवं दारिद्रय दौर्भाग्यादिरूप अनेक सन्तापोंका अनुभव करते हैं उसी प्रकार भावसुप्त प्राणी भी प्रमाद आदिके द्वारा सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्ररूप रत्नोंके चुराये जानेसे दीर्घ संसारमें परिभ्रमणजन्य जन्म जरा और मरण आदि रूप अनेक सन्तापोंको भोगते रहते हैं। ___ मुनि सदा जगते हैं । मोक्षगार्गो जो विचलित नहीं होते हैं उनका नाम मुनि है। ये निरन्तर सचेत रहते हैं, अर्थात् मिथ्यात्वादि निद्राके विनाश होनेसे इष्टकी प्राप्ति और अनिष्ट के परिहारके लिये यतनासे (१) द्रव्यथी भने. (२) माथी. निद्राप्रमाणी छे तमा द्रव्यथा सुप्त छ, અથવા જેમાં આંખોને પ્રચાર શિથિલ થઈ જાય છે તથા અગ ઉપાંગોની કિયા પણ ત્યા શિથિલ થઈ જાય છે, એવી અસ્પષ્ટ ચેતનાની અવસ્થાથી જે યુક્ત છે તેઓ પણ દ્રવ્યથી સુપ્ત છે અર્થાત નિદ્રાવસ્થાવાળા પ્રાણી દ્રવ્યસુષ્મ છે. એ દ્રવ્યમુખ જીવ જે પ્રકારે ચેરો વિગેરે દ્વારા મણિ–માણેક-રત્નાદિક દ્રવ્ય આદિને ચોરાઈ જવાથી અતર્દાહ અને દારિદ્રય દુર્ભાગ્યાદિ–રૂપ અનેક સંતાપિને અનુભવ કરે છે તે પ્રકારે ભાવસુપ્ત પ્રાણ પણ પ્રમાદ આદિ દ્વારા સમ્ય
જ્ઞાન સમ્યગ્દર્શન અને સમ્યકૂચરિત્રાદિરૂ૫ રને ચેરાઈ જવાથી દીર્ઘ સંસારમાં પરિભ્રમણુજન્ય જન્મ જર, અને મરણ આદિરૂપ અનેક સ તાપને ભોગવતાં રહે છે.
મુનિ સદા જાગતા રહે છે મોક્ષમાર્ગથી જે વિચલિત થતા નથી, તેનું નામ મુનિ છે. એઓ નિરંતર સચેત રહે છે, અર્થાત્ મિથ્યાત્વાદિ નિદ્રાના વિનાશ થવાથી ઈષ્ટની પ્રાપ્તિ અને અનિષ્ટના પરિહાર માટે યતનાથી ગમનાદિક
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. १
३७१ द्वितीयाध्ययनस्य चरमसूत्रेणास्यवमभिसम्बन्धः-तत्र " दुःखी दुःखानामेवावर्तमनुपरिवर्तते ” इत्युक्तं, तदिहापि “भावसुप्ता दुःखिनो दुःखानामेवावर्तमनुवर्तन्ते " इति प्रतिवोधयितुमाह-'मुत्ता अमुणी' इत्यादि।
मूलम् -सुत्ता अमुणी, सया सुणिणो जागरंति ॥ सू० १॥ छाया-सुप्ता अमुनयः, सदा मुनयो जाग्रति ॥ ५० १॥
टीका-अमुनया गृहस्थाः सुप्ताः-भावतः सुप्ताः मिथ्यात्वाज्ञानमयनिद्राव्यामोहिताः हिंसाद्यास्त्रवद्वारेषु सततं प्रवृत्ताः सन्ति । सुप्ता हि द्विविधा भवन्ति द्रव्यतो भावतश्च । तत्र निद्राप्रमादवन्तो द्रव्यसुप्ताः, यद्वा-शिथिलितनयनप्रचारागोपाङ्गाविस्पष्टचेतनावस्थापनाः द्रव्यमुप्ताः । भावसुप्तास्त्वभिहिता एव।
द्वितीय अध्ययनके अन्तिम सूचके साथ इस अध्ययनका इस प्रकार सम्बन्ध है-उस अध्ययनका अन्तिम सूत्र . . . ' दुक्खी दुक्खाणमेव आवर्ट अणुपरियइ” (दुःखी दुःखानामेवादत्तमनुपरिवर्तते) यह है, इसका भाव यह है कि-दुःखी दुःखोंकी परंपराका ही अनुवर्तन करते हैं । जिस प्रकार यह बात उस अध्ययनमें कही गई है उसी प्रकार यहां पर भी-'जो भावलुप्त दुःखी हैं वे दुःखोंकी ही परम्पराका अनुभव करते हैं ' इस विषयको समझाने के लिये कहते हैं- सुत्ता अनुणी' इत्यादि ।
अमुनि शब्दका अर्थ गृहस्थ है। थे भावसे सुस-सोये हुए हैं। मिथ्यात्व अज्ञानमय निद्राले व्यामोहित मतिघाले होते हुए ये प्राणातिपातादिक जो कोंके आनेके द्वार हैं उनमें निरन्तर प्रवृत्तिशाली हैं। सुप्त दो प्रकारके होते हैं-(१) द्रव्यले और (२) भावसे । निद्राप्रमाद
બીજા અધ્યયના અંતિમ સૂત્રની સાથે આ અધ્યયનને આ પ્રકારે સંબંધ छ, ते २५ध्ययन मतिम सूत्र " .... . . ."दुक्खी दुक्खाणमेव आवढे अणुपरियट्टइ" (" 'दुःखी दुःखानामेवावर्तमनुपरिवर्तते) से छे. तेन! लाच ये छ । દુઃખી દુઃખોની પરંપરાનું જ અનુવર્તન કરે છે, જેવી રીતે આ વાત તે અધ્યયનમાં કહેવામાં આવેલ છે તેવી રીતે આ ઠેકાણે પણ “જે ભાવસુખ દુઃખી છે તેઓ પણ દુઃખની જ પરંપરાને અનુભવ કરે છે. આ વિષયને સમજાવવા માટે કહે छे-'सुत्ता अमुणी' त्यहि
અમુનિ શબ્દને અર્થ ગૃહસ્થ છે. એ ભાવથી સુપ્ત-સુતેલા છે. મિથ્યાત્વ અજ્ઞાનમય નિદ્રાથી વ્યાહિત મતિવાળા હોવા છતાં પ્રાણાતિપાતાદિક જે કર્મોના આવવાના દ્વાર છે તેમાં નિરંતર પ્રવૃત્તિશાળી છે. સુપ્ત બે પ્રકારના હોય છે. –
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आचारसूत्रे चारित्रमोहनीयक्षयोपशमक्षयसमुत्पन्नस्वरूपपरायणाः, कपायोंद्रेकरहिताः समरसकन्दायमानाः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राराधकाः, प्रशस्तयोगसाधकाः, समितिगुप्तिधारकाः, निश्चयव्यवहारप्रचारकाः, आस्रववर्जिताः संवेगादिलक्षणयुक्ताः, यथार्थोपयोगेन द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयेन स्वरूपवेदिनः, कर्मरजोहारकाः, मुखोपरि सदोरकमुखवत्रिकाधारकाः, विंशतिस्थानकसमाराधकाः, देवासुरनरजनितत्रिविधोपसर्गसहनशीलाः, शास्त्रोक्ताचारविचारपरिपालकाः, ज्ञातपरमार्था भवन्ति । त एव सदा = निरन्तरं जाग्रति = प्रबुध्यन्ते - हेयोपादेयविवेकपूर्वकं सकलपरिवहनसहनं प्रकुर्वाणाः संयमानुष्ठानं समाचरन्तीत्यर्थः ।
३७४
"
।
क्षयसे समुत्पन्न निज आत्मस्वरूपमें लवलीन रहते हैं । कषायोंके उद्रेक से रहित होते हैं । समतारूपी रसके कन्द होते हैं। पांच समिति और तीन सिके धारक होते हैं । निश्चय और व्यवहार के प्रचारक होते हैं। आस्रवद्वारोंसे रहित तथा संवेगादिक-लक्षणोंसे युक्त होते हैं। जिस नयका जहां उपयोग होता है वहां उसी नयका उपयोग करनेवाले होते हैं, अर्थात् जहां द्रव्यार्थिक नयकी प्रधानतासे वस्तुतत्वका निर्णय होता हो वहां पर्यायार्थिक नयकी गौणता कर उसी नयसे उसके स्वरूपका निर्णय करते हैं, जहां पर्यायार्थिक नयसे वस्तु के स्वरूपका निर्णय होता हो वहां उस नयसे इतर - द्रव्यार्थिक नयको गौणकर वस्तु के स्वरूप का निर्णय करते हैं; किन्तु अपने आग्रहसे किसी भी वस्तुका एकान्तरूपसे निर्णय या प्रतिपादन नहीं करते हैं । आत्माके ऊपर अनादि कालसे चढी हुई कर्मरूपी धूलिको नाश करनेवाले होते हैं । मुखपर दोरासहित सुखકર્માંના ક્ષયાપશમથી તથા ક્ષયથી સમ્રુત્પન્ન નિજ આત્મસ્વરૂપમાં આનંદિત રહે
છે. કાયાના ઉદ્રેકથી રહિત હોય છે. સમતારૂપી રસના કદ હોય છે. પાંચ સમિતિ અને ત્રણ ગુપ્તિના ધારક હાય છે નિશ્ચય અને વ્યવહારના પ્રચારક હાય છે આશ્રવઢારોથી રહિત અને સવેગાદિક લક્ષણાથી સહિત હાય છે જે નયના જ્યાં ઉપયાગ થાય છે, ત્યાં તે નયના ઉપયાગ કરવાવાળા હોય છે અર્થાત્ જ્યાં દ્રવ્યાર્થિક નયની પ્રધાનતાથી વસ્તુતત્વના નિર્ણય થતા હૈાય ત્યાં પાઁયાર્થિક નયની ગૌણતા કરી તે નયથી તેના સ્વરૂપને નિચ કરે છે જ્યાં પર્યાયાધૈિક નયથી વસ્તુ સ્વરૂપને નિર્ણય થતા હોય ત્યાં તે નયથી ખીન્ત-દ્રવ્યાકિનયને ગૌણ કરી વસ્તુના સ્વરૂપનો નિર્ણય કરે છે, પણ પેાતાના આગડુથી કાઇ પણ વસ્તુના એકાન્તરૂપથી નિય અગર પ્રતિપાદન કરતા નથી. આત્માની . ઉપર અનાદિ કાળથી ચઢેલી કર્મરૂપી ધુળના નાશ કરવાવાળા હેાય છે. મુખ ઉપર
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शीतोष्णोय-अध्य० ३. उ. १
३७३ कुर्वन्तः सम्यग्ज्ञानचारित्रोपार्जने प्रवृत्ताः सन्तीत्यर्थः । यद्यपि क्वचिदाचार्यानुज्ञया प्रथमपौरुष्याम् उत्संगतश्च द्वितीयतृतीयपौरुष्योर्दीर्घसंयमाधारभूतस्य शरीरस्य स्थित्यर्थं निद्रां भजन्ति तथापि मुनयः सदा भावतो जागरूका एव । धर्मापेक्षया सुप्तजाग्रदवस्थे इह परिगृहीते।
मुनयो द्विधा भवन्ति द्रव्यतो भावतश्च । तत्र द्रव्यमुनयस्तावत्-लिङ्गमात्रधारिणः, असंयमपरिणामपरिणताः, अवसन्नपार्श्वस्थादिकाः । एषां नात्राधिकारः, अमुनिकोटौ तेषां समाविष्टत्वात् । अधिकारश्चात्र भावमुनीनाम् । ते च भावमुनयः गमनादिक क्रियाएँ करते हुए भी सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रके उपार्जन करनेमें ही प्रवृत्तिशील रहा करते हैं । यद्यपि कभी २ आचार्य महाराज की आज्ञासे ये रात्रिकी प्रथम पौरुषी में, और उत्सर्ग से द्वितीय तृतीय पौरुषी में दीर्घ संयमके आधारभूत शरीरकी स्थितिके लिये निद्रा लेते हैं तो भी ये सदा भावसे जागरूक-जगते हुए ही रहते हैं। सुस अवस्था और जाग्रत अवस्था का सम्बन्ध यहां धर्मकी अपेक्षासे ग्रहण किया गया है।
मुनि दो प्रकार के होते हैं-(१) द्रव्यसे और (२) भावसे । लिङ्गमात्रको धारण करनेवाले द्रव्यमुनि हैं । इनका परिणाम असंयममें परिणत रहा करता है। अवसन्न पासत्यादिक इसी श्रेणिके हैं। इनका यहां प्रकरण नहीं है, क्यों कि ये द्रव्यलिङ्गी अमुनियोंकी कोटिमें आते हैं। यहां पर भावमुनियोंका प्रकरण चल रहा है अतः उन्हींका यहां पर विचार होगा। वे भावमुनि चारित्रमोहनीय कर्मके क्षयोपशमसे तथा ક્રિયાઓ કરતાં કરતાં પણ સમ્યજ્ઞાન અને સમ્યક્રચારિત્રનું ઉપાર્જન કરવામાં જ પ્રવૃત્તિશીલ રહ્યા કરે છે. જોકે કયારેક આચાર્ય મહારાજની આજ્ઞાથી એ રાત્રિની પ્રથમ પોરસીમાં, અને ઉત્સર્ગથી દ્વિતીય તૃતીય પોરસીમાં દીર્ઘ સંયમના આધારભૂત શરીરની સ્થિતિ માટે નિદ્રા લે છે તે પણ મુનિ સદા ભાવથી જાગરૂક–જાગતાં જ રહે છે. સુપ્ત અવસ્થા અને જાગ્રત અવસ્થાને સંબંધ આંહી ધર્મની અપેક્ષાથી ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે.
मुनि में प्रा२ना डाय छे. (१) द्रव्यथा मने. (२) माथी. सिंग मात्रनेधारण કરવાવાળા દ્રવ્યમુનિ છે. તેનું પરિણામ અસંયમમાં પરિણત રહ્યા કરે છે. અવસન પાસસ્થાદિક તેવી શ્રેણિના છે. તેનું અહીં પ્રકરણ નથી, કારણ કે એ દ્રવ્યલિંગી અમુનિઓની કોટિમાં આવે છે. આ ઠેકાણે ભાવમુનિઓનું પ્રકરણ ચાલી રહ્યું છે. માટે તેઓને આ ઠેકાણે વિચાર થશે. તે ભાવમુનિ ચારિત્રમેહનીય
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आचारागसूत्रे शयनं जागरणं चात्र धर्माराधनमधिकृत्याभिधीयते, अतो द्रव्यभावभेदेन सुप्तानां जाग्रतां च मध्ये कस्य धर्माराधनं भवति कस्य नेति भङ्गचतुष्टयं प्रदश्यते
(१) द्रव्यतः सुप्तः, भावतो जागर्ति । (२) भावतः सुप्तः, द्रव्यतो जागर्ति । (३) द्रव्यतोऽपि जागति, भावतोऽपि जागर्ति । (४) द्रव्यतोऽपि सुप्तः, भावतोऽपि सुप्तः। अत्र प्रथमभङ्गवतो धर्माराधनं भवति १ । द्वितीयस्य न भवति २।
सोना और जागना, ये दोनों बातें धर्मके आराधन करनेकी अपेक्षासे यहां कही गई हैं। इसलिये द्रव्य और भावके भेदसे सोनेवालोंके तथा जागनेवालों के बीचमें कौन धर्मका आराधक होता है, कौन नहीं होता है ? इस बातको चार भंगोंसे दिखलाते हैं
(१) द्रव्यसे सुप्त है पर भावसे जाग्रत है। (२) भावसे सुप्त है पर द्रव्यसे जाग्रत है। (३) द्रव्यसे जाग्रत है और भावसे भी जाग्रत है। (४) द्रव्यसे भी लुप्त है और भावसे भी सुप्त है।
इन चार भंगोंको लेकर जब विचार किया जाता है तो जो द्रव्यसे तो सुप्त है पर भावसे जाग्रत है, ऐसे प्रथम भंगवालेको धर्मका आराधन होता है । द्वितीय भंगवालेको नहीं होता है, कारण कि यह भावसे ही सुप्त है, द्रव्यजागरूकता तो धर्माराधनमें कार्यकारी ही नहीं है।
સુવું અને જાગવું એ બને વાતે ધર્મનું આરાધન કરવાની અપેક્ષાથી અહીં કહેવામાં આવેલ છે, જેથી દ્રવ્ય અને ભાવના ભેદથી સુવાવાળાની તથા જાગવાવાળાની વચમાં ધર્મનું આરાધન કેને થાય છે? અને કેને થતું નથી? આ વાતને ચાર બંગથી ભતાવે છે.
(૧) જે દ્રવ્યથી સુપ્ત છે પણ ભાવથી જાગૃત છે. (૨) જે ભાવથી સુપ્ત છે પણ દ્રવ્યથી જાગૃત છે. (3) २ द्रव्ययी त छ भने माथी ५ त छे. (४) द्रव्यथी ५ सुत छ यने साथी ५ सुत छे.
આ ચાર ભ ગેને લઈને જ્યારે વિચાર કરવામાં આવે છે ત્યારે જે દ્રવ્યથી તે સુસ છે પણ ભાવથી જાગૃત છે, એવા પ્રથમ ભંગવાળાને ધર્મનું આરાધન થાય છે, બીજ ભંગવાળાને નહિ, કારણ કે તે ભાવથી જ સુખ છે. દ્રવ્ય જાગરૂકતા ધર્મારાધનમાં કાર્યકારી નથી.
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. १
३७५ ते हि दर्शनावरणीयकर्मविपाकोदयात् संयमाधारशरीरस्थित्यर्थ निद्रोपगता द्रव्यतः सुप्ता अपि दर्शनमोहनीयरूपमहानिद्रापगमात् सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्राराधकत्वेन सदा जागरूका एव । तत्र जिनकल्पिनो रात्रौ प्रहरमेकं स्थविरकल्पिनस्तूत्सर्गतः प्रहरद्वयं स्वपन्ति । वस्त्रिका-मुंहपत्तीके धारक होते हैं। बीस स्थानोंकी अच्छी तरह आराधना करनेवाले होते हैं । देव, असुर तथा मनुष्य, इन तीनों द्वारा किये गये तीन प्रकारके उपसर्गों को सहनेके स्वभाववाले होते हैं। शास्त्रोंमें जिन २ आचार-विचारोंका पालना बतलाया है उन २ आचार-विचारों को पालनेवाले होते हैं । परमार्थके ज्ञाता होते हैं । ऐसे ये भावमुनि ही सदा जागरूक होते हैं, अर्थात् हेय और उपादेयके विवेकपूर्वक सकल परीषहों को जीतते हुए संयमके आराधनमें सदा दत्तावधान रहते हैं।
यद्यपि ये दर्शनावरणीय कर्मके विपाकोदयसे संयमके आधारभूत शरीरकी स्थितिके लिये निद्रा लेते हैं, इस अपेक्षाले ये द्रव्यसे सुप्त हैं, तो भी दर्शनमोहनीयरूप महानिद्राके विनाशसे उत्पन्न सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रके आराधक होनेसे ये सदा जागरूक ही रहते हैं । जिनकल्पी मुनि रात्रिमें एक प्रहर सोते हैं, क्यों कि इनका इसी प्रकारका कल्प है । स्थविरकल्पी मुनि उत्सर्गसे दो प्रहर सोते हैं। દેરાસહિત મુખવસ્ત્રિકા-મુહપત્તીને ધારક હોય છે. વીસ સ્થાને સારી રીતે આરાધના કરનારા હોય છે. દેવ, અસુર તથા મનુષ્ય એમ ત્રણે દ્વારા કરવામાં આવેલાં ત્રણ પ્રકારના ઉપસર્ગોને સહન કરવાના સ્વભાવવાળા હોય છે. શાસ્ત્રોમાં જે જે આચાર વિચારેનું પાલન કરવાનું બતાવેલ છે તે તે આચાર વિચારોના પાળવાવાળાં હોય છે. પરમાર્થના જ્ઞાતા હોય છે. એવા એ ભાવમુનિ જ સદા જાગરૂક હોય છે, અર્થાત્ હેય અને ઉપાદેયના વિવેકપૂર્વક સફળ પરીષહેને જીતતાં સંયમના આરાધનમાં સદા દત્તાવધાન રહે છે.
જો કે તેઓ દર્શનાવરણીય કર્મના વિપાકના ઉદયથી સંયમના આધારભૂત શરીરની સ્થિતિ માટે નિદ્રા લે છે, આ અપેક્ષાથી એ દ્રવ્યથી સુપ્ત છે તે પણ દર્શન મેહનીયરૂપ મહાનિદ્રાના વિનાશથી ઉત્પન્ન સમ્યગ્દર્શન સમ્યજ્ઞાન અને સમ્યકૂચારિત્રના આરાધક હોવાથી સદા જાગરૂક જ રહે છે. જનકલ્પી મુનિ રાત્રિમાં એક પ્રહર સુવે છે, કારણ કે તેને આ પ્રકારને કહ્યું છે. સ્થવિરકલ્પી મુનિ ઉત્સર્ગથી બે પ્રહર સુવે છે.
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आचारागसूत्रे शयनं जागरणं चात्र धर्माराधनमधिकृत्याभिधीयते, अतो द्रव्यभावभेदेन सुप्तानां जाग्रतां च मध्ये कस्य धर्माराधनं भवति कस्य नेति भङ्गचतुष्टयं प्रदश्यते
(१) द्रव्यतः सुप्तः, भावतो जागर्ति । (२) भावतः सुप्तः, द्रव्यतो जागर्ति । (३) द्रव्यतोऽपि जागति, भावतोऽपि जागर्ति । (४) द्रव्यतोऽपि सुप्तः, भावतोऽपि सुप्तः। अत्र प्रथमभङ्गवतो धर्माराधनं भवति १। द्वितीयस्य न भवति २।
सोना और जागना, ये दोनों बातें धर्मके आराधन करनेकी अपेक्षासे यहां कही गई हैं। इसलिये द्रव्य और भावके भेदसे सोनेवालोंके तथा जागनेवालोंके बीच में कौन धर्मका आराधक होता है, कौन नहीं होता है ? इस बातको चार भंगोंसे दिखलाते हैं
(१) द्रव्यसे सुप्त है पर भावसे जाग्रत है। (२) भावसे सुप्त है पर द्रव्यसे जाग्रत है। (३) द्रव्यसे जाग्रत है और भावसे भी जाग्रत है। (४) द्रव्यसे भी सुप्त है और भावसे भी सुप्त है।
इन चार भंगोंको लेकर जब विचार किया जाता है तो जो द्रव्यसे तो स्तुप्त है पर भावसे जाग्रत है, ऐसे प्रथम भंगवालेको धर्मका आराधन होता है। द्वितीय भंगवालेको नहीं होता है, कारण कि यह भावसे ही सुप्त है, द्रव्यजागरूकता तो धर्माराधनमें कार्यकारी ही नहीं है।
સુવું અને જાગવું એ બંને વાતો ધર્મનું આરાધન કરવાની અપેક્ષાથી અહીં કહેવામાં આવેલ છે, જેથી દ્રવ્ય અને ભાવના ભેદથી સુવાવાળાની તથા જાગવાવાળાની વચમાં ધર્મનું આરાધન કેને થાય છે? અને કેને થતું નથી? આ વાતને ચાર ભાગોથી ભતાવે છે.
(१) रे द्रव्यथी सुस्त छ ५४४ माथी त छे. (૨) જે ભાવથી સુપ્ત છે પણ દ્રવ્યથી જાગૃત છે (3) रे द्रव्यथी मत छ भने साथी ५ त छे. (४) २ द्रव्यथी ५४ सुस्त छ भने माथी पशु सुत छे.
આ ચાર ભાગેને લઈને જ્યારે વિચાર કરવામાં આવે છે ત્યારે જે દ્રવ્યથી તે સુસ છે પણ ભાવથી જાગૃત છે, એવા પ્રથમ ભગવાળાને ધર્મનું આરાધન થાય છે, બીજા ભગવાળાને નહિ, કારણ કે તે ભાવથી જ સુખ છે. દ્રવ્ય જાગરૂકતા ધર્મારાધનમાં કાર્યકારી નથી,
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शीतोष्णीय-अध्य० ३ उ. १
३७७ तृतीयभङ्गवतो द्रव्यतो भावतश्च जाग्रतः सम्यग्ज्ञानादिरूपो धर्मः सुचारुरूपेण सम्पद्यते । मुनिना सदा तृतीयभङ्गवतैव भाव्यमतो भगवता कथितम्-" सुत्ता अमुणी सया मुणिणो जागरंति "-सुप्ता अनुनयः सदा मुनयो जाग्रति-इति । चतुर्थभङ्गवतश्च सर्वथा धर्माराधनं न भवति, तस्य मिथ्यात्वोदयमावल्यात् ४ ।
द्रव्यसुप्तो हि निद्रया भवति । सा च पञ्चविधा (१) निद्रा, (२) निद्रानिद्रा, (३) प्रचला (४) प्रचलामचला (५) स्त्यानद्धिः।
तासु निद्रानिद्रा-मचलापचला-स्त्यानद्धिरूपं निद्रात्रिकं दुरन्तम् । एतत्रिकोदये भवसिद्धिकोऽपि सम्यक्त्वं न लभते । अस्य बन्धो हि मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने
तृतीय भंगवालेको सुचारुरूपसे सम्यग्ज्ञानादिरूप धर्मकी आराधना होती है। कारण कि यह द्रव्यले और भावसे-दोनों प्रकारसे सदा जागरूक है।मुनिको सदा इस तृतीयभंगवालाही होना चाहिये।इसीलिये भगवानने कहा है कि-"सुत्ता अमुणी, सया झुणिणो जागरंति ।" (सुप्ता अमुनयः सदा मुनयो जाग्रति )। चतुर्थ भंगवालेके धर्मका आराधन सर्वथा है ही नहीं; क्यों कि यह द्रव्य और भाव, इन दोनों प्रकारसे सोया हुआ है, अर्थात् इसमें मिथ्यात्वके उदयकी प्रबलता है।
द्रव्यकी अपेक्षासे सुप्तावस्था निद्रासे होती है। वह निद्रा पांच प्रकार की है-(१) निद्रा, (२) निद्रानिद्रा, (३) प्रचला, (४) प्रचलाप्रचला, (५) स्त्यानद्धि।
इनमें निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, और स्त्यानद्धि, ये तीन निद्राएँ जीवोंको बहुत दुःखदायी हैं। इन तीनोंके उदयमें भवसिद्धिक (मुक्तिगामी)
ત્રીજા ભંગવાળને સુચારૂરૂપથી સમ્યજ્ઞાનાદિરૂપ ધર્મની આરાધના થાય છે, કારણ કે તે દ્રવ્યથી અને ભાવથી–અને પ્રકારથી સદા જાગરૂક છે. મુનિએ સદા આ ત્રીજા ભંગવાળા બનવું જોઈએ. માટે ભગવાને કહ્યું છે કે "सुत्ता अमुणी सया मुणिणो जागरंति ।" (सुप्ताः अमुनयःः सदा मुनयो जाग्रति ) ચોથા ભંગવાળાને ધર્મનું આરાધન સર્વથા છે જ નહિ, કારણ કે એ દ્રવ્ય અને ભાવ, એ બન્ને પ્રકારથી પણ સુતેલ છે, અર્થાત્ તેમાં મિથ્યાત્વના ઉદયની प्रमणता छ.
દ્રવ્યની અપેક્ષાથી સુણાવસ્થા નિદ્રાથી થાય છે તે નિદ્રા પાંચ પ્રકારની છે – (१) निद्रा, (२) निद्रानिद्रा, (3) प्रयदा, (४) प्रयदायसा, (५) त्यानद्धि. - તેમાં નિદ્રાનિદ્રા, પ્રચલા પ્રચલા, અને સ્વાદ્ધિ, એ ત્રણ નિદ્રાઓ જીવને ઘણી દુઃખદાયી છે, આ ત્રણના ઉદયમાં ભવસિદ્ધિક (મુક્તિગામી) જીવ પણ
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आचाराङ्गसूत्रे सास्वादनगुणस्थाने चानन्तानुवन्धिकषायवन्धेन सह भवति, क्षयस्तु नवमाऽनिर्वृत्तिवादरगुणस्थानस्य नवसु भागेसु मध्ये प्रथमभागस्थकालस्य कियत्सु संख्येयांशेषु गतेषु सत्सु जायते । निद्रामचलयोरुदयः सामान्यदर्शनावरणीयकर्मोदयाद्भवति । बन्धोपरमोऽपूर्वकरणनामकामगुणस्थानकालस्य संख्येयभागान्ते जायते, तत्पचान्नूतनवन्धाभावात् । क्षयश्च क्षीणमोहाख्यद्वादशगुणस्थानस्य चरमसमयद्वयेऽवशिष्टे सति भवति । एतयोरुदयस्तु उपशान्तक्रोधोपशान्तमोहयोरपि भवतीति निद्राप्रमादस्य दुरन्तत्वं विज्ञेयम् ।
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जीव भी सम्यक्त्वको प्राप्त नहीं कर सकता है । इनका बन्ध मिथ्यादृष्टि नामक प्रथम गुणस्थान में और साखादन नामक द्वितीय गुणस्थान में अनन्तानुवन्धी कषायके बन्धके साथ जीवोंको होता है, और क्षय नवमें अनिवृत्तिवादर गुणस्थानके नौ ९ भागों में से प्रथम भागके कालके जब किननेक संख्यात अंश व्यतीत हो जाते हैं तब होता है ।
faat और aorat उदय सामान्य दर्शनावरणीय कर्मके उदयसे होता है । इनके बन्धका अभाव अपूर्वकरण नामके आठवें गुणस्थानके संख्यातवें भाग के अन्त में होता है । उसके बाद इनके नूतन बन्धका अभाव हो जाता है। इनका क्षय भी क्षीणमोह नामके बारहवें गुणस्थानके अन्तिम दो समयों के अवशिष्ट रहने पर होता है । इन दोनोंका उदय दसवें और ग्यारहवें गुणस्थानक तकके जीवों में भी होता है। इसी लिये निद्राप्रमादक दुरन्तता है, अर्थात् इसका अन्त होना पड़ा कठिन है ।
સમ્યકત્વને પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી. તેને બંધ મિથ્યાષ્ટિ નામના પ્રથમ ગુણ સ્થાનમાં, અને સાસ્વાદન નામના બીજા ગુણસ્થાનમાં અનન્તાનુમ ધી કષાયના અ ધની સાથે જીવાને થાય છે, અને ક્ષય નવમાં અનિવૃત્તિમાઢરગુણસ્થાનના નવ ભાગેામાથી પ્રથમ ભાગના કાળના જ્યારે કેટલાક સખ્યાત અશ વ્યતીત થઈ ાય છે ત્યારે થાય છે.
નિદ્રા અને પ્રચલાના ઉય સામાન્ય દનાવરણીય કર્મીના ઉદ્દયથી થાય છે. તેના બંધના અભાવ અપૂર્વકરણ નામના આઠમા ગુણસ્થાનના સ ખ્યાતમાં ભાગના અંતમા થાય છે. ત્યારમાદ તેને નૂતન ખધના અભાવ થઈ જાય છે. તેને ક્ષય પણ ક્ષીણુમેાહ નામના ખારમા ગુણસ્થાનના અંતિમ એ સમયેાના અવશિષ્ટ રહેવા પર થાય છે. એ બન્નેને ઉદ્દય દેશમા અને અગીયારમા ગુણસ્થાન સુધીના વેમા પશુ થાય છે, માટે નિદ્રાપ્રમાદની દુરન્તતા છે, અર્થાત્ તેને અત થવે! ઘણુ કિન છે,
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तृतीयभङ्गवतो द्रव्यतो भावतश्च जाग्रतः सम्यग्ज्ञानादिरूपो धर्मः सुचारुरूपेण सम्पद्यते । मुनिना सदा तृतीयभङ्गवतैव भाव्यमतो भगवता कथितम् - " मुत्ता अमुणी सया मुणिणो जागरंति " -सुप्ता अमुनयः सदा मुनयो जाग्रति - इति । चतुर्थभङ्गवतश्च सर्वथा धर्माराधनं न भवति, तस्य मिथ्यात्वोदयप्रावल्यात् ४ ।
द्रव्यतो हि निद्रा भवति । सा च पञ्चविधा (१) निद्रा, (२) निद्रानिद्रा, (३) मचला (४) प्रचलाप्रचला (५) स्त्यानर्द्धि: ।
तासु निद्रानिद्रा - प्रचलाप्रचला - स्त्यानर्द्धिरूपं निद्रात्रिकं दुरन्तम् । एतत्रिकोदये भवसिद्धिकोऽपि सम्यक्त्वं न लभते । अस्य बन्धो हि मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने
तृतीय भंगवालेको सुचारुरूपसे सम्यग्ज्ञानादिरूप धर्मकी आराधना होती है; कारण कि यह द्रव्यसे और भावसे- दोनों प्रकार से सदा जागरूक है | मुनिको सदा इस तृतीयभंगवाला ही होना चाहिये । इसीलिये भगवानने कहा है कि - " सुत्ता अभुणी, सया मुणिणो जागरंति । " ( सुप्ता अमुनयः सदा मुनयो जाग्रति ) । चतुर्थ भंगवाले के धर्मका आराधन सर्वथा है ही नहीं; क्यों कि यह द्रव्य और भाव, इन दोनों प्रकार से सोया हुआ अर्थात् इसमें मिथ्यात्वके उदयकी प्रबलता है ।
द्रव्यकी अपेक्षासे सुप्तावस्था निद्रासे होती है। वह निद्रा पांच प्रकार की है - (१) निद्रा, (२) निद्रानिद्रा, (३) प्रचला, (४) प्रचलाप्रचला, (५) स्यानहि ।
इनमें निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, और स्त्यानद्धि, ये तीन निद्राएँ जीवों को बहुत दुःखदायी है। इन तीनों के उदद्यमें भवसिद्धिक (मुक्तिगामी) ત્રીજા ભગવાળાને સુચારૂરૂપથી સભ્યજ્ઞાનારૂિપ ધર્મની આરાધના થાય છે, કારણ કે તે દ્રવ્યથી અને ભાવથી—બન્ને પ્રકારથી સદા જાગરૂક છે. મુનિએ સદા આ ત્રીજા ભગવાળા મનવું જોઈએ. માટે ભગવાને કહ્યુ` છે કે सुत्ता अमुणी सया मुणिणो जागरंति । " ( सुप्ताः अमुनयः सदा मुनयो जाग्रति ) ચેાથા ભગવાળાને ધર્મનુ' આરાધન સર્વથા છે જ નહિ, કારણ કે એ દ્રવ્ય અને ભાવ, એ બન્ને પ્રકારથી પણ સુતેલ છે, અર્થાત્ તેમાં મિથ્યાત્વના ઉદ્મયની प्रणता छे.
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દ્રવ્યની અપેક્ષાથી સુપ્તાવસ્થા નિદ્રાથી થાય છે તે નિદ્રા પાંચ પ્રકારની છે, (१) निद्रा, (२) निद्रानिद्रा, (3) प्रयसा, (४) प्रथसाथसा, (4) स्त्यानद्धिं. તેમાં નિદ્રાનિદ્રા, પ્રચલાપ્રચલા, અને સ્ત્યાદ્ધિ, એ ત્રણ નિદ્રાએ જીવાને ઘણી દુ:ખદાયી છે, આ ત્રણના ઉયમાં ભવસિદ્ધિક (મુક્તિગામી) જીવ પણ
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आचाराङ्गसूत्रे
जागरह नरा णिच्चं जागरमाणस्स वड्ढए बुद्धी । जो सुयइ सो न धण्णो, जो जग्गइ सो सया धन्नो " । इति १ ॥ निद्राप्रमादश्चाज्ञानाद्भवति, तच्च प्राणिनामहितायेति श्रीसुधर्मास्वामी जम्बूस्वामिनमाह - 'लोयंसि जाण, इत्यादि ।
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मूलम् - लोयंसि जाण अहियाय दुक्खं, समयं लोगस्स जाणित्ता इत्थ सत्थोवरए ॥ सू० २ ॥
छाया - लोके जानीहि अहिताय दुःखं, समयं लोकस्य ज्ञात्वा अत्र शस्त्रोपरतः॥२॥ टीका - हे जम्बू : ! लोके = षड्जीवनिकायरूपे जिनशासने वा, दुःखं दुःख'जागरह णरा णिच्चं, जागरमाणस्स वड्ढए बुद्धी ।
जो सुयइ सो न घण्णो, जो जग्गइ सो सया धन्नो ॥१॥” इति । गाथाका अर्थ यह है कि - ' हे अच्यो ! तुम सदा जागते रहो। क्यों कि जागनेवालोंकी बुद्धि बढ़ती है। जो सोता है वह धन्य नहीं है, जो जाता है वह सदा धन्य है ' ॥ १॥
यह पहिले कहा जा चुका है कि सुप्त और जाग्रत अवस्था धर्माराधनकी अपेक्षा से ही समझना चाहिये ॥ सू० १ ॥
निद्राप्रमाद अज्ञानसे होता है, और अज्ञान प्राणियोंका सदा अहितकारी है, ऐसा विचार कर श्री सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामीसे कहते हैं" लोयंसि जाण " इत्यादि ।
हे जम्बू ! षड्जीवनिकायस्वरूप एस लोकमें, अथवा जिनशासन में,
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जागरह णरा णिच्च, जागरमाणस्स वड्ढए बुद्धी |
जो सुयइ सो न धण्णो, जो जग्गइ सो सया धन्नो " ॥ १ ॥ इति । ગાથાને અથ આ છે કે-હે લખ્યું ! તમે સઢા જાગતા રહો, કારણ કે જાગવાવાળાની બુદ્ધિ વધે છે જે સુતેલા છે તે ધન્ય નથી જે જાગતા છે તે
જ સદા ધુન્ય છે
એ પહેલા કહેવામા આવ્યુ' છે કે ગુપ્ત અને જાગૃત અવસ્થા ધર્મારાધનની અપેક્ષાથી જ સમજવી ોઇએ ! સૂ૦૧૫
નિદ્રાપ્રમાદ અજ્ઞાનથી થાય છે, અને અજ્ઞાન પ્રાણિએ માટે સદા અહિતअरी छे. सेवा विचार उरी श्री सुधर्भास्वामी स्वाभीने हे छे–'लोयंस
,
जाण इत्यादि.
હૈ જમ્મૂ ! ષવનિકાયસ્વરૂપ આ લેાકમાં અથવા જીનશાસનમાં દુ.ખ
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शीतोष्णीय-:
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द्रव्यभावसुप्तविषये विवेकदक्षः सुखमनुभवति । यथा पथि तस्करादिभये समुपस्थिते विवेकी स्वात्मनः सापायनिरपायविषयकं विवेकमालम्व्य पलायनादिकां क्रियां कुर्वाणः सुखभाग्भवति । एवं मुनिरपि सम्यग्ज्ञानात्मक विवेकवत्वेन सदा प्रमादादिभयाद् ज्ञानाचारादिसमाराधनावधानरूपां जाग्रदवस्थां बिभ्राणः शिवसुखभाग्भवति । उक्तञ्च—
- अध्य० ३. उ. ५
द्रव्यसुप्त और भावसुप्तके विषयमें विवेकदक्ष प्राणी सुखका अनुभव करता है, अर्थात् जो मुनि इस बात को समझता है कि द्रव्यसुस अवस्था और भावga - अवस्था आत्माके लिये सदा दुःखदायी हैं, इसलिये इन अवस्थाओंका सदा परिहार करना चाहिये, इन अवस्थाओं में वर्तमान प्राणीका कभी भी कल्याण नहीं होता है । इस तरह का विवेक जिस आत्मामें इन दोनों अवस्थाओंके प्रति जाग्रत हो जाता है वह इनसे सदा दूर रहता है । जिस प्रकार मार्ग में चौरादिकोंका भय उपस्थित होनेपर विवेकी व्यक्ति इस बातका विचार करता है कि इस ओर भय है इस ओर भय नहीं है । ऐसा विचार कर निर्भय स्थानकी ओर भागता है और सुखकी सांस लेता है । उसी प्रकार मुनि भी सम्यग्ज्ञानात्मक-विवेकशाली होनेसे सदा प्रमादादिकों के भयसे ज्ञानाचारादिकों की सम्यक् आराधना में अवधानरूप जागरूक अवस्थाको धारण करता हुआ मोक्ष सुखका भागी होता है । कहा भी है
દ્રવ્યસુસ અને ભાવસુસના વિષયમાં વિવેકદક્ષ પ્રાણી સુખના અનુભવ કરે છે, અર્થાત્ મુનિ આ વાતતે સમજે છે કે ‘દ્રવ્યસુપ્ત અવસ્થા અને ભાવસુસ અવસ્થા આત્મા માટે સદા દુખદાયી છે માટે તેવી અવસ્થાના સદા પરિહાર કરવા જોઈએ, તેવી અવસ્થામાં વર્તમાન પ્રાણીનું કદિ પણ કલ્યાણ થતું નથી’ એવા પ્રકારના વિવેક જે આત્મામાં એ અન્તે અવસ્થાએ પ્રતિ જાગૃત થઈ જાય છે તે તેનાથી સદા દૂર રહે છે, જે પ્રકારે મામાં ચાર આદિના ભય ઉપસ્થિત હાવા છતાં વિવેકી વ્યક્તિ એ વાતના વિચાર કરે છે કે, આ માજી ભય છે, આ માજી ભય નથી. પછી નિર્ભય સ્થાનની તરફ ભાગે છે અને સુખના શ્વાસ લે છે, તે પ્રકારે મુનિ પણ સમ્યગજ્ઞાનાત્મક-વિવેકશાળી હાવાથી સદા પ્રમાદા કોના ભયથી જ્ઞાનાચારાદિકોની સમ્યક્ આરાધનામાં અવધાનરૂપ જાગરૂક અવસ્થાને ધારણ કરીને મેક્ષ સુખના ભાગી થાય છે. કહ્યુ' છેઃ—
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आचारागसूत्रे दुःखहेतोरज्ञानरूपाद् द्रव्यभावस्वापानिवर्तनमिति । ततः किं कुर्यादित्याह-लोकस्ये-त्यादि' लोकस्य-प्राणिसवस्य समयम् आचारं ज्ञात्वा दुःखहेतुं विचार्य, लोको हि भोगेच्छया प्राणिपीडनादिजनितं कर्म परिगृह्य नरकेषूत्पद्यते, ततः कथं चिनिष्क्रान्तो धर्मोपार्जनहेतुभूतं मनुष्यजन्मावाप्य पुनरपि तत्तदेव कर्म करोति येन येन पुनरधोऽधः स्थानं व्रजति, न कदाचित्संसारदावानलाद् वहिर्यातीति लोकाचारः। इस जाननेरूप क्रियाका फल अज्ञानरूप द्रव्यनिद्रा और भावनिद्रा से जीवका निवृत्त होना है । जीव जब इनसे निवृत्तिसंपन्न हो जाता है तब वह यह समझने लगता है कि-यह लोक भोगोंकी इच्छासे प्राणिपीडन आदि कृत्य करता है, और इस प्रकारके कृत्य करनेसे वह अशुभ कमौका आस्रव कर बन्धक बनता है। उनके उदयमें इसको नरकादि अनेक कुगतियों में जन्म मरण करना पड़ता है। वहांसे निकलने पर यदि इसको किसी शुभ कर्मके उदयसे मनुष्यभवकी-जिसमें कि इसको धर्मोपार्जन करनेका अवसर मिलता है-प्राप्ति हो जाती है तो भी यह जीव वारंवार उन्हीं कुकृत्योंको करता है, जिनकी वजहसे इसको पुनः नरकादि गतियों में जाना पड़ता है। इस तरहसे इस जीवका कभी भी संसाररूपी दावानलसे बाहर आना नहीं हो सकता है। यही इस लोकका आचार है। इस
आचारको-जिससे कि इसको अनेक अनेक संकटोंका सामना करना पड़ता है-जान कर तुम इस द्रव्यरूप एवं भावरूप शस्त्रसे सदा निवृत्त होओ। કિયાનું ફળ દુઃખનું કારણ જે અજ્ઞાનરૂપ દ્રવ્યનિદ્રા અને ભાવનિદ્રા છે તેનાથી જીવને નિવૃત્ત થયું છે. જીવ જ્યારે તેનાથી નિવૃત્તિ પન્ન થઈ જાય છે ત્યારે તે એવું સમજવા લાગે છે કે આ લોક, ભોગોની ઈચ્છાથી પ્રાણિ–પીડન આદિત્ય કરે છે અને આવા પ્રકારનું કૃત્ય કરવાથી તે અશુભ કર્મોને આસવ કરી બંધક બને છે. તેના ઉદયમાં તેને નરકાદિ અનેક કુગતિઓમા જન્મ મરણ કરવું પડે છે. ત્યાંથી નિકળીને કદાચ કેઈ શુભ કર્મના ઉદયથી મનુષ્યભવની-કે જેમાં તેને ધર્મોપાર્જન કરવાનો અવસર મળે છે–પ્રાપ્તિ થઈ જાય છે તે પણ તે જીવ વારંવાર તેજ કુકૃત્ય કરે છે કે જેનાથી તેને પુન નરકાદિ ગતિઓમાં જવું પડે છે. આવી રીતે આ જીવને કદિ પણ સ સારરૂપી દાવાનળથી બહાર આવવાનું બની શકતું નથી. એ જ આ લોકને આચાર છે આવા આચારને-કે જેનાથી તેને અનેક સંકટને કામ કરવું પડે છે જાણીને તમે આ દ્રવ્યરૂપ તેમજ ભાવરૂપ શસ્ત્રથી સદા નિવૃત્ત થાઓ.
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. १ यति-पीडयतीति दुःखम् , इह दुःखशब्देनाज्ञानं प्राणातिपातादिरूपं कर्म वा गृह्यते दुःखजनकत्वात् , तत् अहिताय=ऐहिकपारत्रिकदुःखाय जायते । तत्रैहिकं दुःखं प्राणातिपातादिसावद्यानुष्ठानप्रवृत्तानां भावसुप्तानां भूपादिकृतं बन्धवधताडनशूलारोपणादिकम् , पारत्रिकञ्च दुखं नरकनिगोदादियातनारूपमिति ऐहिकपारत्रिकदुःखहेतुभूतमज्ञानं कर्म वाऽस्तीति त्वं जानीहि-ज्ञपरिज्ञया बुध्यस्व । एतस्य फलञ्च दुःख-अज्ञान अथवा प्राणातिपातादिरूप कार्य जीवोंके लिये इस लोकमें तथा परलोकमें अहितकारी माने गये हैं। यहां 'दुःख' शब्दका अर्थ"दुःखयति-पीडयतीति दुःखम्" जो जीवोंको पीडा पहुंचावे ऐसा अज्ञान, अथवा हिंसादिक पापकर्म-है । अज्ञान अथवा हिंसादिक, जीवोंको सदा दुःखदायी होते हैं, इस अपेक्षासे अज्ञानादिक दुःखके कारण हैं। फिर भी यहां पर इन्हें जो दुःखरूप कहा गया है वह कारणमें कार्यके उपचारसे कहा गया है। इन प्राणातिपातादिकरूप सावध अनुष्ठानों में प्रवृत्ति करनेवाले भावसुप्त जीवोंको इस लोकमें राजा आदिके द्वारा किये गये बन्ध, वध, ताडन और शलारोपण आदि अनेक कष्ट भोगने पड़ते हैं, तथा परलोकमें नरकनिगोदादिककी यातनाएँ सहनी पड़ती हैं। इसलिये जम्बूस्वामीको उद्देश करके सुधर्मास्वामी कहते हैं
हे जम्बू ! इस लोक और परलोकसम्बन्धी अनेक दुःखोंके कारण प्राणातिपातादिक कर्म तथा अज्ञान हैं, ऐसा तुम ज्ञपरिज्ञासे जानो। =અજ્ઞાન અથવા પ્રાણાતિપાતદિરૂપ કાર્ય આ લેકમાં તથા પલકમાં જીવો માટે माहितरी मानवामा मावेश छ. म ५ शहन! मथ- दुःखयति पीडयतीति दुःखम् " 2 ॐवाने पी31 मापे मे २मज्ञान मने डिसा ५४ छे. અજ્ઞાન અથવા હિંસાદિક કર્મ ને સદા દુઃખદાયી થાય છે. આ અપેક્ષાથી અજ્ઞાનાદિક, દુઃખના કારણ છે તે પણ આ ઠેકાણે તેને જે દુઃખરૂપ કહેવામાં આવેલ છે તે કારણમાં કાર્યના ઉપચારથી કહેવામાં આવેલ છે. આ પ્રાણાતિપાતાદિકરૂપ સાવદ્ય અનુષ્ઠાનમાં પ્રવૃત્તિ કરવાવાળા ભાવસુ ને આ લેકમાં રાજા આદિ દ્વારા કરવામાં આવેલ બંધ વધ તાડન અને શુળી આદિ અનેક કષ્ટને ભોગવવા પડે છે, તથા પરલોકમાં નરકનિગોદાદિકની યાતનાઓ સહન કરવી પડે છે. એથી જખ્ખસ્વામીને ઉદ્દેશ કરીને સુધર્માસ્વામી કહે છે| હે જણૂ! આ લોક અને પરલોક સંબંધી અનેક દુઃખોનું કારણ પ્રાણાતિપાતાદિક કર્મ તથા અજ્ઞાન છે, એવું પરિજ્ઞાથી જાણે. એ જાણવારૂપ
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आचाराङ्गसूत्रे
'यथा मम दुःखादिकं भवति तथैवान्येषामप्येकेन्द्रियादीनां मृत्युभीरूणां सुखेच्छूनां तदुत्पद्यते' इत्यनुभवसिद्धामात्मोपमां ज्ञात्वा अत्र = अस्मिन् षड्जीवनिकायरूपे लोके शस्त्रोपरतो भवेत्यर्थः ॥ सु० २ ॥
पड्जीवनिकायलोके शस्त्रोपरतः सन् यथा मुनित्वं प्राप्नोति तदाहजस्सिमे ' इत्यादि ।
मूलम् - जस्सिमे सदा य रूवा य रसा य गंधा य फासा य अभिसमन्नागया भवंति से आयवं नाणवं वयवं धम्मवं बंभवं पन्नाणेहिं परियाणइ लोयं, मुणीति वुच्चे, धम्मविऊ उज्जू, आवहसोय संगमभिजाइ ॥ सू० ३ ॥
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विचार करो कि जिस प्रकार हमें हिंसादिक कारणोंके उपस्थित होनेपर कष्टका अनुभव होता है उसी प्रकार दूसरे एकेन्द्रियादिक प्राणियोंको - जो सदा मृत्युसे डरते हैं और सुखके अभिलाषी हैं - हिंसादिक कारणों के उपस्थित होने पर दुःख होता है । इस प्रकार अनुभवसिद्ध आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् " इस वाक्यको अपने हृदयपटल पर उतार कर कभी भी किसी भी जीवको कष्ट न पहुंचे ऐसी प्रवृत्ति करो। परके दुःखोंका अपने दुःखोंके साथ मिलान कर सदा ज्ञानीको इस बातका दृढ़ विचार करना चाहिए कि संसार के एकेन्द्रियसे लगा कर पंचेन्द्रिय पर्यन्त समस्त जीव मृत्युसे डरतें हैं और सुखको चाहते हैं, इसलिये षड्जीवनिकायरूप लोकमें अपनी प्रवृत्ति सदा यतनाशाली बनानी चाहिये ॥ सृ० २ ॥
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અમને હિંસાદિક કારણો ઉપસ્થિત થવાથી કષ્ટને અનુભવ થાય છે તે પ્રકારે મીત્ત એકેન્દ્રિયાદિક પ્રાણીએને-કે જે સદા મૃત્યુથી ડરે છે અને સુખના અભિલાષી છે–હિંસાદ્ધિક કારણો ઉપસ્થિત થવાથી દુ.ખ થાય છે, આવા પ્રકારે અનુलवसिद्ध-“ आत्मन प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् " मा वायने पोताना હૃદયમા ઉતારીને કોઇ વખત કાઈ પણ જીવને કષ્ટ ન પહેાચે તેવી પ્રવૃત્તિ કરે. પારકાના દુ.ખાને પેાતાના દુ.ખોની સાથે મેળવી સદા જ્ઞાનીએ એ વાતને દૃઢ નિશ્ચય કરવો તેઇએ કે સ સારના એકેન્દ્રિયથી લઈ પચેન્દ્રિય પર્યન્ત સમસ્ત જીવ મૃત્યુથી ડરે છે અને સુખને ચાહે છે માટે હૂનિકાય રૂપ લોકમાં પોતાની પ્રવૃત્તિ સદા યતનાશાળી મનાવવા જેઈ એ !! સુ॰ ૨ ।।
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. १
૩૮રૂ यद्वा लोकस्य-जिनशासनस्य समयम् आचारं ज्ञानाचारादिरूपं पञ्चविधं ज्ञात्वा मोक्षसुखहेतुभूतं सम्यगवबुध्य, अत्र-षड्जीवनिकाये शस्त्रोपरतः शस्त्रात् द्रव्यभावभेदभिन्नात् उपरत: निवृत्तो भव । धर्मजागरणेन जागृहीत्यर्थः।।
सर्वो हि लोकः शब्दादिविषयभोगेच्छया प्राणातिपातादिकं नानाविधं कर्म करोति, तेन नरकादियातनास्थानेषु घोरतरं दुःखमाप्नोति, अतः षड्जीवनिकाये
शस्त्रोपरतो भवेति भावः। ___अथवा लोकस्येति षष्ठ्याः सप्तम्यर्थे विधानात् लोके आणिसङ्के 'समय' इत्यस्य समतामितिच्छाया तेन समतां स्वकीयदुःखादिना परदुःखादेस्तुल्यतां,
“समय लोगस जाणित्ता इत्थ सत्योबरए" इसका यह भी अर्थ होता है कि-' हे जम्बू ! तुम जिनशासनके ज्ञानाचार आदिरूप पांच प्रकारके आचारको मोक्षसुखका कारण अच्छी तरहसे जानकर षड्जीवनिकायके विषयमें द्रव्य और भावरूप शस्त्रसे निवृत्त होओ, अर्थात्सदा धर्मका आचरण करनेमें सतर्क रहो । भावनिद्रासे युक्त न बनो। सारांश इसका यही है कि-यह समस्त लोक शब्दादिक विषय भोगों की इच्छासे प्राणातिपातादिक अनेक प्रकारके दुष्कार्योंको करता है, उन से नरकादिक जो अनेक यातनाके स्थान हैं उनमें घोरातिघोर दुःखोंको भोगता है। इसलिये हे जम्बू ! षड्जीवनिकायके विषयमें शस्त्रसे सदा अलग रहो । ___ अथवा "लोगस्स" इस षष्ठी विभक्तिके स्थानमें "लोके" इस सप्तमी विभक्तिका पाठ, तथा 'समयं की छाया “ समता" मान कर ऐसा अर्थ हो जाता है कि हे जम्बू ! तुम सदा इस बातका अली प्रकार ____“समय लोगस्स जाणित्ता इत्थ सत्थोबरए " मेनो मे पशु पथ थाय छ કે-હે જબ્બ ! તમે જીનશાસનના જ્ઞાનાચાર આદિરૂપ પાંચ પ્રકારના આચારને મોક્ષસુખનું કારણ સારી રીતે જાણીને ષડજીવનિકાયના વિષયમાં દ્રવ્ય અને ભાવરૂપ શસ્ત્રથી નિવૃત્ત થાઓ. અર્થાત્ સદા ધર્મનું આચરણ કરવામાં સતર્ક રહો. ભાવ નિદ્રાથી યુક્ત ન બને. સારાંશ તે એ છે કે–આ સમસ્ત લોક, શબ્દાદિક વિષય
ગેની ઈચ્છાથી પ્રાણાતિપાતાદિક અનેક પ્રકારના દુષ્કાર્યો કરે છે, તેનાથી નરકાદિક જે અનેક યાતનાના સ્થાન છે તેમાં ઘોરાતિઘોર દુઃખ ભોગવે છે. તે માટે છે જમ્મુ ' ષજીવનિકાયના વિષયમાં શસ્ત્રથી સદા અલગ રહો.
मथq। “ लोगस्स" २॥298 विमतिना स्थानमा “लोके" मा सभी विमतिनी या तथा 'समयं न छाया “ समतां" भानीन येवो मथ थ तय છે કે-હે જબૂ! તમે સદા આ વાતને ભલી પ્રકારે વિચાર કરે કે જે પ્રકારે
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आधाराङ्गसूत्रे अतस्तत्र मनोज्ञामनोज्ञविषयेषु यस्य रागद्वेषौ नोत्पद्यते इत्यर्थः, स आत्मवान् ज्ञानादिगुणसम्पन्नः, यद्वा-आत्महिताचरणप्रवृत्तः, शब्दादिविषयेषु प्रवर्तमानमात्मानं तेभ्यः पृथक्कृत्य तुपाद् धान्यमिव रक्षितेत्यर्थः । ज्ञानवान् हेयोपादेयविवेकवान् , शब्दादिविपये रागद्वेषौ कारणं, रागद्वेषतः कर्मवन्धः, तस्मात् संसारपरिभ्रमणं भवतीत्येवं विज्ञातेत्यर्थः । तथा वेदवान् वेद्यते ज्ञायते जीवाजीवादिस्वरूपमनेनेति वेदः आचारागाद्यागमः, सोऽस्यास्तीति वेदवान्-आचाराद्यागमाधिगन्तेत्यर्थः, तथा-धर्मवान्-दुर्गतौ प्रपतन्तं जीवं धारयति रक्षतीति धर्मः-श्रुतचारित्रलक्षणः में-चाहे ये अनुकूल हों चाहे प्रतिकूल हों-जिस प्राणीको राग और देष नहीं होते हैं वही प्राणी आत्मवान् है, अर्थात् ज्ञानादि गुणोंसे संपन्न है, अथवा आत्महितकारी आचरणमें लवलीन है। जिस प्रकार तुषसे धान्य अलग किया जाता है उसी प्रकार शब्दादि विषयों में प्रवर्तमान अपनी आत्माको उनसे अलग कर वह उसकी रक्षा करनेवाला है । ज्ञानवान है-हेय और उपादेयके विवेकवाला है। इष्ट और अनिष्ट शन्दादिक विषयोंमें प्रवृत्ति और निवृत्तिके कारण राग और द्वेष हैं। राग
और द्वेषसे नवीन कर्मीका बन्ध, और इससे जीवोंका संसारमें परिभ्रमण होता है । वेदवान् है-जीवादिक पदार्थों का स्वरूप जिससे जाना जाता है उसका नाम वेद है, वे आचाराङ्ग आदि आगम हैं, इनका जो जाननेवाला है उसका नाम वेदवान् है। धर्मवान् है-दुर्गतिमें पड़ते हुए जीवों की रक्षा करता है उसका नाम धर्म है, वह धर्म श्रुतचारित्ररूप है, यह ભલે તે અનુકૂળ હોય કે પ્રતિકૂળ હોય, જે પ્રાણીને રાગ અને દ્વેષ થતો નથી. તે પ્રાણી જ આત્મવાન છે અર્થાત જ્ઞાનાદિ ગુણોથી સંપન્ન છે, અથવા આત્મહિતકારી આચરણમાં લવલીન છે જેવી રીતે તુષથી ધાન્ય અલગ કરવામાં આવે છે તેવી રીતે શબ્દાદિક વિષમાં પ્રવર્તમાન પિતાના આત્માને તેનાથી અલગ કરી તે તેની રક્ષા કરવાવાળા છે, જ્ઞાનવાન છે—હેય અને ઉપાદેયના વિવેકવાળા છે-ઈષ્ટ અને અનિષ્ટ શબ્દાદિક વિષમાં પ્રવૃત્તિ અને નિવૃત્તિના કારણ રાગ અને દ્વેષ છે, રાગ અને દ્વેષથી નવીન કર્મોને બંધ અને તેનાથી જીવોનું સંસારમાં પરિભ્રમણ થાય છે. આવા પ્રકારના જ્ઞાનથી તે સંપન્ન છે. વેદવાન છે-જીવાદિક પદાર્થોના સ્વરૂપ જેનાથી જાણી શકે છે તેનું નામ વેદ છે. તે આચારાંગ આદિ આગમ છે. તેના જે જાણનાર છે તેનું નામ દવાનું છે. ધર્મવાન છે-દુર્ગતિમ પડતા જીવોની જે રક્ષા કરે છે તેનું નામ ધર્મ છે. તે ધર્મ શુતચારિત્રરૂપ છે. તે જેની પાસે છે અર્થાત્ જે આ ધર્મને પાલક છે, તેનું
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. १ - छाया–यस्येमे शब्दाश्च रूपाणि च रसाश्च गन्धाश्च स्पर्शाश्वाभिसमन्वागता भवन्ति, स आत्मवान् ज्ञानवान् वेदवान् धर्मवान् ब्रह्मवान् प्रज्ञानैः परिजानाति लोकम् , मुनिरित्युच्यते, धर्मविद् ऋजुः, आवर्तस्रोतःसङ्गमभिजानाति ॥ मू०३॥
टीका-यस्य मुनेः, इमे प्रत्यक्षमनुभूयमानाः, शब्दाः रूपाणि रसा गन्धाः स्पर्शाश्च अनुकूलपतिकूलरूपाः, अभिसमन्वागताः-अभि-आभिमुख्येन, सम्यगूइष्टानिष्टावधारणेन, अनु-शब्दादिस्वरूपावगमात् पश्चात् , आगताः-विज्ञाताः, भवन्ति-शब्दादिविषयाः परमार्थतः संसारकारणतयाऽऽत्मकल्याणाय न भवन्ति,
षड्जीवनिकायरूप इस लोकमें द्रव्य और भावरूप शस्त्रसे उपरत होता हुआ जीव जिस प्रकारसे मुनिपनेको पाता है उसीका प्रतिपादन करते हैं-'जस्सिमे' इत्यादि ।
जिस मुनिके लिये प्रत्यक्ष अनुभूत शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श, ये पौगलिक गुण अनुकूल और प्रतिकूल होते हुए इष्ट और अनिष्टकी कल्पनाके कारण नहीं बनते हैं, अर्थात् वे शब्दादिक विषय पुद्गलके गुण हैं, इनसे मेरी आत्माका काई भी उपकार या अपकार नहीं हो सकता है। इनमें इष्टानिष्टकी कल्पना करनेसे ये मेरे लिये संसारका कारण बनेंगे, क्योंकि ये स्वयं संसारके ही कारण हैं-मुक्तिके नहीं। मुक्तिके कारण वे ही होते हैं जिनसे इस आत्माका कल्याण होता है। इनसे तो मेरी आत्माका कुछ भी कल्याण नहीं हो सकता है, अतः इनमें इष्टानिष्टकी कल्पना कर मैं क्यों अपना बिगाड़ करूँ। इनके स्वरूपको जाननेके बाद इस प्रकारके दृढ़ अध्यवसायसे इन शब्दादिकों
ષડૂજીવનિકાયરૂપ આ લોકમાં દ્રવ્ય અને ભાવરૂપ શસથી ઉપરત બનીને જીવ ? रे भुनियन आस थाय छेतेनुप्रतिपादन ४२ छ:-'जस्सिमे' प्रत्याहि.
જે મુનિના માટે પ્રત્યક્ષ અનુભૂત–શબ્દ, રૂપ, રસ, ગંધ અને સ્પર્શ, એ પોદ્ગલિક ગુણ અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ હોવા છતાં ઈષ્ટ અને અનિષ્ટની કલ્પનાના કારણ બનતા નથી. અર્થાત્ તે શબ્દાદિક વિષય પુદ્ગલને ગુણ છે. તેનાથી મારા આત્માને કેઈ પણ ઉપકાર યા અપકાર બની શકતું નથી. તેમાં ઈટાનિષ્ટની કલ્પના કરવાથી એ મારા માટે સંસારનું કારણ બનશે. કારણ કે એ સ્વયં જ સંસારનું જ કારણ છે, મુક્તિનું નહિ. મુક્તિનું કારણ તે બને છે જેનાથી આ આત્માનું કલ્યાણ થાય છે, આનાથી તે મારા આત્માનું કાંઈ પણ કલ્યાણ બની શકતું નથી. માટે તેમાં ઈટાનિષ્ટની કલ્પના કરીને શા માટે પિતાને બગાડ કરું. તેના સ્વરૂપને જાણ્યા બાદ આ પ્રકારના દઢ અધ્યવસાયથી તે શબ્દાદિકોમાં
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आचाराङ्गसूत्र चारित्रलक्षणस्यावलम्बनादकुटिलः, यद्वा-सरलचित्तः, आवर्तस्रोतःसङ्गम् आवत्तोंभावावर्ती जन्मजरामरणाधिव्याधिव्यसनोपनिपातरूपः संसारः-उक्तञ्च
" रागद्वेपक्शाविद्धं, मिथ्यादर्शनदुस्तरम् ।
जन्मावर्ते जगत् क्षिप्त, प्रमादाद् भ्राम्यते भृशम् " ॥१॥ इति । स्रोतश्चात्र भावस्रोतः-शव्दादिविपयामिलापः, आवतश्च स्रोतवावर्तस्रोतसी, तयोः सङ्गः रागद्वेषकृतः सम्बन्धः, तम् अभिजानाति । संसारस्रोतःसङ्गो रागद्वेषकृतो भवतीति विज्ञाय यस्तं परिहरति, स एवावर्तस्रोतसोः सङ्ग विजानातीत्यर्थः ॥ मू० ३॥ ऋजुः सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप मोक्षके सरल मार्गके अवलम्बनसे ऋजुपरिणामी-अकुटिल, अथवा सरलचित्त है वही इस बातको जान सकता है कि-आवर्त और स्रोतका सम्बन्ध रागद्वेषकृत है। आवर्त दो प्रकारका है-एक द्रव्य-आवर्त और दूसरा भाव-आवर्त, जलप्रवाहमें भेवर उठता है वह द्रव्य-आवत है। जन्म, जरा, मरण, आधि, व्याधि आदि अनेक उपद्रवोंका स्थानरूप संसार भाव-आवर्त है। कहा भी है
“रागद्वेषवशाविद्धं, मिथ्यादर्शनदुस्तरम् ।
जन्मावर्ते जगत् क्षिप्तं, प्रमादाद् भ्राम्यते भृशम् " ॥१॥ इति । अर्थात्-यह जगत् राग और द्वेषसे व्याप्त है, मिथ्या दर्शनसे युक्त होनेके कारण यह दुस्तर है, जन्मरूपी आवर्तमें पड़ा हआ है और प्रमादसे इतस्ततः चारों गतियों में चकर काटता फिरता है ॥१॥ સમ્યગ્દર્શન સમ્યજ્ઞાન અને સમ્યક્રચારિત્રરૂપ મોક્ષના સરલ માર્ગના અવલંબનથી અજુપરિણામી-અકુટિલ અથવા સરલચિત્ત છે તે જ આ વાતને જાણ શકે છે કે–આવર્ત અને સ્ત્રોતને સંબંધ રાગદ્વેષકૃત છે. આવર્ત બે પ્રકારના છે. એક દ્રવ્ય–આવર્ત અને બીજું ભાવ–આવર્ત જળ પ્રવાહમાં જે ભવર પડે छत द्रव्य-मावत छे. म, १२, भ२९], माधि, व्याधि मासिने उपद्रवाना સ્થાનરૂપ સંસાર ભાવ–આવત્ત છે. કહ્યું છે
" रागद्वेपवशाविद्धं, मिथ्यादर्शनदुस्तरम् ।
जन्मावर्ते जगत् क्षितं, प्रमादाद् भ्राम्यते भृशम् " ॥ १ ॥ અર્થાત્ આ જગત રાગ અને દ્વેષથી વ્યાપ્ત છે મિથ્યાદર્શનથી યુક્ત હોવાને કારણે તે દસ્તર છે. જન્મરૂપી આવર્તમાં પડેલ છે અને પ્રમાદથી ચારે ગતિઓમાં પરિભ્રમણ કરે છે કે ૧
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. १
३८७ सोऽस्यास्तीति धर्मवान्। तथा ब्रह्मवान्-ब्रह्ममोक्षसुखं, तदस्यास्तीति ब्रह्मवान्मोक्षसुखाभिज्ञ इत्यर्थः, यद्वा ब्रह्म-अष्टादशविधं ब्रह्मचर्य, तदस्यास्तीति ब्रह्मवान्, यद्वा-ब्रह्म-कामसेवनपरित्यागः तदस्यास्तीति ब्रह्मवान् , इत्थंभूतः संयमी प्रज्ञानः
प्रकर्षण ज्ञायते ज्ञेयं जीवाजीवादि यथावस्थितस्वरूपं यैस्तानि प्रज्ञानानि-मत्यादीनि, तैर्लोक षड्जीवनिकायस्वरूपं परिजानाति । यद्वा लोकं-शब्दादिविषयलोकं परिजानाति-ज्ञपरिज्ञया वन्धकारणत्वेन विज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरतीत्यर्थः। ___यः खल्वात्मवान् ज्ञानवान् वेदवान् धर्मवान् ब्रह्मवान् स एव च मुनिरित्युच्यते । किं च-धर्मवित्-जीवाजीवद्रव्यस्वभावाभिज्ञः, ऋजुः=ऋजुमार्गस्य सम्यग्दर्शनज्ञानजिसके पास है, अर्थात् जो इस धर्मका पालक है उसका नाम धर्मवान् है । ब्रह्मवान् है-ब्रह्म शब्दका अर्थ मोक्षसुख है, वह जिसको है उसका नाम ब्रह्मवान् है अर्थात् मोक्षसुखका ज्ञाता है, अथवा १८ अठारह प्रकारके ब्रह्मचर्यका जो पालक होता है वह भी ब्रह्मवान् है, अथवा जो मैथुनका सर्वथा परित्यागी होता है वह भी ब्रह्मवान् है । इस प्रकारका संयमी अच्छी तरहसे जीवादिक पदार्थों के स्वरूपको प्रकाशित करनेवाले प्रज्ञानों-मत्यादिक ज्ञानों-के द्वारा लोक-षड्जीवनिकाय-के स्वरूपको जानता है। अथवा लोक-शब्दादिकविषयरूप लोकको ज्ञपरिज्ञासे बन्धका कारण जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञासे उनका परिहार-त्याग कर देता है । जो आत्मवान् , ज्ञानवान , वेद्वान् , धर्मवान् और ब्रह्मवान् है वही मुनि कहा जाता है।
किञ्च-जो धर्मवित्-जीव-अजीव द्रव्यके स्वरूपका ज्ञाता है, तथा નામ ધર્મવાનું છે, બ્રહ્મવાનું છે-બ્રહ્મ શબ્દને અર્થ મોક્ષસુખ છે. જે તેને છે તેનું નામ બ્રહ્મવાનું છે. અર્થાત્ મેક્ષસુખને જ્ઞાતા છે, અથવા ૧૮ અઢાર પ્રકારના બ્રહ્માચર્યને પાલક છે તે પણ બ્રહ્મવાનું છે. અથવા જે મિથુનને સર્વથા પરિત્યાગી થાય છે તે પણ બ્રહ્મવાનું છે. આવા પ્રકારને સંયમી સારી રીતે જીવાદિક પદાર્થોના સ્વરૂપને પ્રકાશિત કરવાવાળાં પ્રજ્ઞાન–અત્યાદિક જ્ઞાનોદ્વારા લોક–ષડૂજીવનિકાય–ના સ્વરૂપને જાણે છે, અથવા લોક-શબ્દાદિકવિષયરૂપ લોકને જ્ઞપરિણાથી બંધનું કારણ જાણીને પ્રત્યાખ્યાનપરિજ્ઞાથી તેને પરિહારત્યાગ કરે છે. જે આત્મવાન, જ્ઞાનવાન, દવાન, ધર્મવાનું અને બ્રહ્મવાનું છે તેને જ મુનિ કહેવામાં આવે છે. ___qil-२ धर्मवित्-०५ २५० द्रव्यना स्व३५नो ज्ञाता छ तथा ऋजुः
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आचाराङ्गस्त्रे च कर्मवन्धहेतुत्वादुपेक्षमाण इत्यर्थः। परुषतां-परीपहाणां पारुष्यं कष्टजनकत्वरूपं नो वेत्ति-न तान् पीडाकारित्वेन गृह्णाति, अपि तु कर्मवन्धोच्छेदार्थमुद्यतः संसारादुद्विग्नमनास्तान् साहाय्यकारित्वेनानुमन्यते इत्यर्थः।।
किंच-स जागरः मिथ्यात्वाविरतिप्रमादनिद्रापगमाज्जागौंति जागरः-श्रुतचारित्रधर्माराधने सदा जागरूक इत्यर्थः । वैरोपरतः-वैरं परापकारचिन्तन, तस्मा. दुपरतः, अत एव-वीरः कर्मवैरिविदारणसमर्थों भवति। हे शिष्य ! एवम् इत्यंभूतः श्रुतचारित्रधर्माराधने सदा जागरूकः परापकाराध्यवसायरहितः सन् दुःखात्= दुःखकारणात् कर्मणः प्रमोक्ष्यसे-मुक्तो भविष्यसि ॥ सू० ४॥ की उपेक्षा कर परीषहोंको कष्टजनक नहीं मानता है, किन्तु कर्मवन्ध के विनाश करनेकी ओर उद्यमी वह अनगार उन परीषहोंको उस कर्म विनाशरूप कार्य में अपने सहायक मानता है।
भावार्थ-परिग्रहमें आसक्तिसंपन्न व्यक्ति ही अनुकूल परीषहोंमें अभिलाषी और प्रतिकूल परीषहोंमें उद्वेगी बनता है। जिसके पास परिग्रह ही नहीं है ऐसे संयमी मुनिके लिये क्या प्रतिकूल परीषह क्या अनुकूल परीषह सय एक समान हैं। अनुकूलमें इसकी लालसा नहीं
और प्रतिकूलमें इसको देष नहीं, कारण कि इस सिद्धान्तको भलीभांति जान चुका है कि-संसारके मूल कारण राग और द्वेष हैं। अनुकूलमें अभिलाषा होनी यह रागकी पर्याय है, और प्रतिकूलमें उद्वेग होना द्वेष की पर्याय है, अतः वह दोनों प्रकारके परीषहोंको समभावसे सहन करता है । परीषहो एवं उपसर्गोंसे कदाचित् इसके चित्तमें संयमपरिમાનતા નથી, પણ કર્મબધો વિનાશ કરવાની તરફ ઉદ્યમી તે અણગાર તેવા પરીવહોને તે કર્મવિનાશરૂપ કાર્યમાં પોતાના સહાયક માને છે.
- ભાવાર્થ–પરિગ્રહમાં આસક્તિ પન્ન વ્યક્તિ જ અનુકૂળ પરીષહોમાં અભિલાવી અને પ્રતિકૂળ અરીષહોમાં ઉગી બને છે. જેની પાસે પરિગ્રહ જ નથી એવા સયમી મુનિ માટે શું પ્રતિકૂળ પરીષહ અને શું અનુકૂળ પરીષહ ? સઘળા એકસમાન છે અનુકુળમાં તેની લાલસા નહિ અને પ્રતિકૂળમાં તેને શ્રેષ નહિ, કારણ કે એ આ સિદ્ધાંતને સારી રીતે જાણી ચુકેલ છે કે સંસારનું મૂળ કારણ રાગ અને દેવ છે. અનુકૂળમાં અભિલાષા થવી તે રાગની પર્યાય છે અને પ્રતિકૂળમાં ઉગ છે તે શ્રેષની પર્યાય છે, માટે સંયમી મુનિ તે બન્ને પ્રકારના પરીવ
ને સમભાવથી સહન કરે છે. પરીષહ તેમજ ઉપસર્ગોથી કઈ વખત તેના ચિત્તમાં સંયમપરિણામ તરફ અરતિ અને અસંયમપરિણામ તરફ રતિ થઈ
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. १ ___ आवर्तस्रोतसोः सङ्गमभिजानन् के गुणं प्राप्नोतीत्याह-' सीउसिणच्चाई' इत्यादि।
मूलम्-सीउसिणच्चाई से निग्गन्थे अरइरइसके फरुसयं नो वेएइ, जागर वेरोवरए वीरे, एवं दुःखा पमुक्खसि ॥सू०४॥ __छाया—शीतोष्णत्यागी स निर्ग्रन्थः अरतिरतिसहः परुषतां नो वेत्ति, जागरो
वैरोपरतः, वीर एवं दुःखात् प्रमोक्ष्यसे ॥३॥ __टीका—स निग्रन्था बाह्याभ्यन्तरग्रन्थरहितो निष्परिग्रह इति यावत् , शीतोष्णत्यागी अनुकूलपतिकूलपरिषहं सहमानः, अनुकूलेऽनभिलाषी, प्रतिकूले चानुद्वेगीत्यर्थः । अरतिरतिसहः अरति संयमे, रतिमसंयमे सहमानः-संयमाराधने परीपहोपसर्गतः कदाचिदरतिरुत्पद्यते, कदाचिच्चासंयमे रतिरुत्पद्यते, तामरति रति
स्रोत भी द्रव्य और भावके भेदसे दो प्रकारका है। नदी आदिका प्रवाह द्रव्यस्रोत है। शब्दादिक विषयोंकी अभिलाषा भावस्रोत है। इन दोनोंका सम्बन्ध राग एवं द्वेषसे हुआ है, इस बातको जान कर जो उनके उस सम्बन्धका परिहार-त्याग कर देता है वही आवर्त और स्रोतके संगका परिज्ञाता कहा जाता है ॥ सू० ३॥
जो मुनि इस आवर्त और स्रोतके सम्बन्धको जान लेता है वह किस गुणको प्राप्त करता है ? सो कहते हैं-'सीउसिणच्चाई' इत्यादि।
बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहसे रहित-निष्परिग्रही मुनि अनुकूल और प्रतिकूल परीषहोंको सहन करता हुआ अर्थात्-अनुकूल परीषहमें अभिलाषी और प्रतिकूल परीषहमें उद्वेगी न बनता हुआरति और अरति
સ્રોત પણ દ્રવ્ય અને ભાવના ભેદથી બે પ્રકારનું છે. નદી આદિનો પ્રવાહ દ્રવ્યોત છે. શબ્દાદિક વિષયેની અભિલાષા ભાવસંત છે. એ બંનેને સંબંધ રાગ અને દ્વેષથી થયેલ છે. તે વાતને જાણ જે તેના તે સંબંધને પરિહારત્યાગ કરે છે તે આવર્ત અને સ્ત્રોતના સંગનો પરિજ્ઞાતા કહેવાય છે. સૂ૦ ૩
જે મુનિ આવર્ત અને સ્ત્રોતના સંબંધને જાણી લે છે તે કેવા ગુણોને પ્રાપ્ત छ ? ते ४ छ–'सीउसिणच्चाई ' त्यादि.
બાહ્ય અને આભ્યન્તર પરિગ્રહથી રહિત-નિષ્પરિગ્રહી મુનિ અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ પરીષહો સહન કરતાં થકાં અર્થાત્ અનુકૂળ પરીષહમાં અભિલાષી અને પ્રતિકૂળ પરીષહોમાં ઉગી ન બનીને રતિ અને અરતિની ઉપેક્ષા કરી પરીષહોને કષ્ટજનક
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आवाराङ्गसूत्रे
यश्चावर्तस्रोतसोः सङ्गादजागरः, स तु संसारदुःखान्न विमुच्यत इत्याशयेनाह - 'जरामच्चु ० ' इत्यादि ।
मूलम् - जरामच्चुवसोवणीए नरे सययं मूढो धम्मं नाभिजाणइ ॥ सू० ५ ॥
छाया - जरामृत्युवशोपनीतो नरः सततं मूढो धर्म नाभिजानाति ॥ ०५ ॥ टीका — जरामृत्युवशोपनीतः = जरामरण पराधीनः, नरः = मनुष्यः, सततं = सर्वदा, मूढः=मोहनीयोदयाद् विवेकरहितः धर्म = श्रुतचारित्रलक्षणं नाभिजानाति । भावसुप्तः संसारी मोक्षमार्गमप्राप्य पुनः पुनर्जरामृत्युवशंगतो दुःखान्तं नोपयातीति भावः ॥ ०५ ॥
ननु जरामृत्युपारचश्यादेव दुःखान्तो न भवति चेतर्हि तत्पारवश्यवारणाय मुमुक्षुणा किं कर्तव्यमिति जिज्ञासायामाह --' पासिय आउरपाणे' इत्यादि । मूलम् -- पासिय आउरपाणे अप्पमत्तो परिव्वए । मंता एवं मइमं पास || सू० ६॥
छाया— दृष्ट्वा आतुरप्राणान् अप्रमत्तः परिव्रजेत् । मत्वा एतत् मतिमन् पश्य ॥ सू० ६ ॥
जो आवर्त्त और स्रोतके सम्बन्धसे जागरूक नहीं है वह संसारके दुःखोंसे छूट नहीं सकता । इस विषय में कहते हैं - 'जरामच्चु० ' इ० |
जो आवर्त्त और स्रोतके सम्बन्धसे जागरूक नहीं हैं ऐसे मनुष्य जरा और मरणके आधीन होकर निरन्तर मोहनीय कर्मके उदय से विवेकरहित हो श्रुतचारित्ररूप धर्मको नहीं जानते हैं । इसका भाव यही है कि भावसुप्त संसारी मोक्षमार्गको नहीं प्राप्त कर बारंबार जरा और मृत्युके आधीन होकर कभी भी दुःखोंसे छुटकारा नहीं पाते हैं । ५ ।
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જે આવત્ત અને સ્રોતના સંબધથી જાગરૂક નથી તે સંસારના દુ.ખાથી छुटी राउता नथी. ते विषयमा आहे — ' जरामच्चु ० ' इत्यादि.
જે આવત્ત અને સ્રોતના સખ ધથી જાગરૂક નથી તેવા મનુષ્ય જરા અને મરણને આધીન ખની નિરંતર મોહનીય કર્માંના ઉયથી વિવેકરહિત થઈ શ્રુતચારિત્રરૂપ ધર્મ ને બણતા નથી. આને ભાવ એ છે કે ભાવસુસ સ સારી મોક્ષમાર્ગ ને પ્રાપ્ત કર્યા વિના વારંવાર જરા અને મૃત્યુને આધીન મની કઢિ પણ ખેાથી છુટકારે મેળવતા નથી, ૫ સૂ૦ ૫૫
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शीतोष्णीय - अध्य० ३. उ. १
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नामके प्रति अरति और असंयमपरिणामके प्रति रति हो जाती हो सो भी बात नहीं है । क्यों कि यह इन दोनों प्रकारकी परिणतियों को भी कर्मबन्धका कारण जान कर उनकी तर्फसे उपेक्षित रहता है । परीषहों को 'यह अपने लिये कष्टकारी नहीं मानता है प्रत्युत उन्हें अपने लक्षमें अधिकरूप जुटानेवाले होनेसे अपना सहायक ही मानता है । संसार शरीर और भोगों से जो निर्विण्ण-उदास होता है उसे परीषह और उपसर्ग अपने लक्ष्यसे नहीं गिरा सकते हैं। ऐसे व्यक्ति विनकारक कारणकलापों को- परीषहोंको कर्मबन्धके उच्छेदन करने में सुवर्णमें शुद्धि लाने के लिये अग्निरूप सहायककी तरह अपना सहायक माना करते हैं और उनका सहर्ष स्वागत करते हैं ।
निर्ग्रन्थ मुनि मिथ्यात्व अविरति और प्रमादरूप निद्राके अभाव से श्रुतचारित्ररूप धर्मके आराधनमें सदा जागरूक रहता है, एवं परके अपकार करनेके विचाररूप वैरसे विरक्त होता हुआ कर्मरूपी वैरीको निवारण करने में समर्थ होता है । इसलिये हे शिष्य ! तुम भी श्रुत चारित्ररूप धर्मकी आराधना करनेमें सदा जागरूक बन परके अपकार करनेके अध्यवसायसे रहित होकर दुःख एवं दुःखके कारण कर्मोंसे रहित हो जाओगे ॥ सू० ४॥
જતી હોય તે પણ વાત નથી. કારણ કે તે આ બન્ને પ્રકારની પરિણતિને પણ કંધનું કારણ જાણીને તેની તરફથી ઉપેક્ષિત રહે છે. પરિષહોને તે પોતાને માટે કષ્ટકારી માનતા નથી પ્રત્યુત તેને પેાતાના લક્ષમાં અધિકરૂપ જોડવાવાળા હોવાથી પેાતાના સહાયક જ માને છે. સંસાર, શરીર અને ભાગેાથી જે ઉદાસ થાય છે તેને પરીષહ અને ઉપસર્ગ પેાતાના લક્ષથી દૂર કરી શકતા નથી. એવી વ્યક્તિ વિઘ્નકારક કારણકલાને-પરીષહોને ક`ખ ધનુ ઉચ્છેદન કરવામાં સુવર્ણમાં શુદ્ધિ લાવવા માટે અગ્નિરૂપ સહાયકની માફક પોતાના સહાયક માન્યા કરે છે,અને તેઓનુ સહર્ષ સ્વાગત કરે છે.
નિગ્રંથ મુનિ મિથ્યાત્વ અવિરતિ અને પ્રમાદ્યરૂપ નિદ્રાના અભાવથી શ્રુતચારિત્રરૂપ ધર્મનાં આરાધનમાં સદા જાગરૂક રહે છે અને પરના અપકાર કરવાના વિચારરૂપ વૈરથી વિરક્ત બનીને કરૂપી વૈરીનુ નિવારણ કરવામાં સમ થાય છે. માટે હું શિષ્ય ! તમે પણ શ્રુતચારિત્રરૂપ ધર્મની આરાધના કરવામાં સદા જાગરૂક બની પરના અપકાર કરવાના અધ્યવસાયથી રહિત થઈ દુઃખ અને દુઃખના કારણ કથી રહિત મની જશે. ॥ સૂ૦ ૪૫
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आचाराङ्गसूत्रे किञ्चमूलम्-आरंभजं दुक्खमिणंतिणचा, मायी पभाई पुणरेइ गम्भ। उवेहमाणो सदरूवेसुअंजू, माराभिसंकी मरणा पमुच्चइ॥सू०७॥
छाया–आरम्भज दुःखमिदमिति ज्ञात्वा, मायी प्रमादी पुनरेति गर्भम् । उपेक्षमाणः शब्दरूपेषु (यः) ऋजुः, माराभिशङ्की (सः) मरणात् प्रमुच्यते ॥सू० ७॥
टोका-इदं संसारपरिभ्रमणरूपं दुःखम् , आरम्भजम् सावधक्रियानुष्ठानफलभूतम्, इति ज्ञात्वा आत्मकल्याणाय जागृहि। भावसुप्तः किं प्राप्नोतीत्याह-'मायी' इत्यादि।मायी क्रोधादिकपाययुक्तः,कषायमध्यवर्तिमायाग्रहणेन पूर्वापरकषायाणामपि ग्रहणम् । प्रमादी-मद्यादिसेवी पुनः वारं वारं, गर्भमेति-नरकादियातनामनुभूय सकलदुःखहेतुभूत गर्भ प्राप्नोति ।। है । संसारी प्राणी जो जन्म भरणके अनन्त कष्टोंको भोग रहे हैं उसका कारण भावनिद्राका सद्भाव ही है, ऐसा समझकर और प्रभुके उपदेश पर ध्यान देकर हे मतिमान् शिष्य ! तुम अनर्थात्पादक इस निद्राका परित्याग करो, अर्थात् संयमधर्ममें सदा जागरूक रहो, जिससे जरामरणजन्य कष्टीसे तुम्हें छुटकारा मिले॥सू०६॥
फिर भी कहते हैं-'आरंभजं' इत्यादि ।
'सावध क्रियाओंके अनुष्ठानका फल ही यह संसारका परिभ्रमणरूप दुःख है' ऐसा जानकर हे शिष्य ! तुम आत्मकल्याणकी ओर अपनी प्रवृत्ति करो। यहां कषायोंके मध्यवती मायाका ग्रहण करनेसे अन्य कषायोंका भी ग्रहण हो जाता है अतः भावसुप्त प्राणीके ये चिह्न हैं कि वह क्रोधादिक कषायोंसे युक्त होता है। प्रमादसेवी-मद्यादिकका सेवन જન્મ મરણના અનંત કષ્ટને ભોગવી રહ્યા છે તેનું કારણ ભાવનિદ્રાને સદ્ભાવ જ છે એવું સમજીને અને પ્રભુના ઉપદેશ ઉપર ધ્યાન આપીને હે મતિમાન શિષ્ય ! તમે અનર્થોત્પાદક આ નિદ્રાને પરિત્યાગ કરે, અર્થાત્ સંયમધર્મમાં સદા જાગરૂક રહો, જેથી તમને જરામરણજન્ય દુખોથી છુટકારો મળે છે સૂ૦ ૬ છે
३0 ४ छ-' आरंभ' त्याहि
સાવદ્ય કિયાઓના અનુષ્ઠાનનુ ફળ જ આ સંસારના પરિભ્રમણરૂપ દુખ છે. એવું જાણીને હે શિષ્ય! તમે આત્મકલ્યાણની તરફ પિોતાની પ્રવૃત્તિ કરે. અહીં કાના મધ્યવર્તી માયાનું ગ્રહણ કરવાથી અન્ય કક્ષાનું પણ ગ્રહણ થાય છે, માટે ભાવમુખ પ્રાણીનું એ ચિન્હ છે કે તે ધાદિ કષાયથી યુક્ત मन छ, प्रभादसेवी-भवानि सेवन ४२वापार पने छे “पुनपि जननं पुनरपि
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. १
३९३ टीका-आत्मकल्याणार्थी मनुष्यः आतुरप्राणान् भावस्वापजनितजरामरण. पारवश्योपनीतदुःखसागरान्तःपातिप्राणिनः, दृष्ट्वा, अप्रमत्तः भावजागरूकः सन् परिव्रजेत्-संयमाराधनतत्परो भवेत् । मतिमन् हे मेधाविन् शिष्य ! त्वमपि एतत्-सुप्तदूषणू जरामृत्युपारतन्त्र्यम् , मत्वा ज्ञात्वा पश्य-चक्षुरुन्मीलय-संयमधर्म जागृहीत्यर्थः ॥ मू०६॥
यदि जरा और मृत्युकी परवशतासे जीवोंके दुःखोंका अन्त नहीं होता है तो फिर उनकी परवशताको दूर करनेके लिये मुमुक्षुप्राणियोंको क्या उपाय करना चाहिये ? इस प्रकारकी जिज्ञासाका समाधान करनेके लिये कहते हैं-'पासिय आउरपाणे' इत्यादि। ___ "आत्मकल्याणका अभिलाषी मनुष्य भावनिद्रासे उत्पन्न, जरा और मरणकी परवशतासे प्राप्त दुःखरूपी सागरमें पडे हुए प्राणियोंको देख कर भावनिद्राका परित्याग करके संयमकी आराधना करने में सदा तत्पर रहे" प्रभुके इस सर्वोत्तम उपदेशसे हे मेधावी शिष्य ! तुम भी भावनिद्राजन्य जरा और मरणकी परवशतारूप दूषणको जानकर सदा संयमरूप धर्ममें जागरूक रहो ।
भावार्थ-प्रभुका उपदेश है कि-आत्मकल्याणकी कामना करनेवाला मनुष्य भावनिद्राका परित्याग करे, क्योंकि निद्राके सद्भावमें जरा और मरणजन्य अनेक दुःखोंका कभी भी अन्त नहीं आ सकता है। इन दुःखोंसे छुटकारा करनेवाला यदि कोई है तो वह भावनिद्राका अभाव
કદાચ જરા અને મૃત્યુની પરવશતાથી જીવના દુઃખને અંત થતો નથી તે પછી તેની પરવશતાને દૂર કરવા માટે મુમુક્ષુ પ્રાણિઓએ શે ઉપાય કરવો જોઈએ? આવા प्रारनी शासानु समाधान ४२१। भाट छ-'पासिय आउरपाणे 'त्यादि
આત્મકલ્યાણના અભિલાષી મુનિ ભાવનિદ્રાથી ઉત્પન્ન જરા અને મરણની પરવશતાથી પ્રાપ્ત દુઃખરૂપી સાગરમાં પડેલાં પ્રાણીઓને દેખીને ભાવનિદ્રાને પરિત્યાગ કરીને સંયમની આરાધના કરવામાં સદા તત્પર રહે” પ્રભુના આ સર્વેત્તમ ઉપદેશથી હે મેધાવી શિષ્ય ! તમે પણ ભાવનિદ્રાજન્ય જરા અને મરણની પરવશતારૂપ દૂષણને જાણીને સદા સંયમરૂપ ધર્મમાં જાગરૂક રહે.
ભાવાર્થ–પ્રભુને ઉપદેશ છે કે–આત્મકલ્યાણની કામના કરવાવાળા મુનિ ભાવનિદ્રાને પરિત્યાગ કરે, કારણ કે આ નિદ્રાના ભાવમાં જરા અને મરણ જન્ય અનેક દુઃખોને કદિ પણ અંત આવી શકતો નથી. આ દુખેથી છુટકારે કરાવનાર જે કઈ હોય તે તે ભાવનિદ્રાનો અભાવ છે. સંસારી પ્રાણી જે
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माचारागसूत्रे छाया-अप्रमत्तः कामैः, उपरतः पापकर्मभ्यः, वीरो गुप्तात्मा यः खेदज्ञः॥८॥
टीका-यः खेदज्ञः संसारिणां दुःखाभिज्ञः, स कामैरप्रमत्तः कामभोगकृतप्रमादरहितः, पापकर्मभ्य उपरतः मनोवाकायैः सावधव्यापारेभ्यो निवृत्तः, अतएव वीरः कर्मविदारणसमर्थः, गुप्तात्मा आत्मरक्षणपरायणः आत्मोद्धारकारीत्यर्थः ॥८॥
खेदज्ञस्य गुणमाह-'जे पज्जवज्जायसत्थस्स' इत्यादि।।
मूलम्-जे पज्जवज्जायसत्थस्स खेयण्णे, से असत्थस्स खेयन्ने, जे असत्थस्स खेयण्णे, से पज्जवज्जायसत्थस्स खेयन्ने॥९॥ ____ छाया-यः पर्यवजातशत्रस्य खेदज्ञः, सः अशस्त्रस्य खेदज्ञः, यः अशस्त्रस्य खेदज्ञः, स पर्यवजातशत्रस्य खेदज्ञः ॥ सू० ९॥
फिर भी कहते हैं-'अप्पमत्तो' इत्यादि। ___जो संसारी जीवोंके दुःखोंका ज्ञाता है वह कामभोगजन्य प्रमादसे रहित होकर मन वचन और कायसे होनेवाले सावध व्यापारोंसे दूर रहता हुआ कर्मोके नाश करने में समर्थ होता है, यही आत्मरक्षा है। इस अपनी रक्षा करने में वह तत्पर रहता है, अर्थात् अपनी आत्माका उद्धार करनेवाला होता है। सू० ८॥
जो इस प्रकारसे निष्णात बन जाता है उसे क्या लाभ होता है ? सो बताते हैं-'जे पज्जवज्जायः' इत्यादि ।
'पर्यव' शब्दका अर्थ-शब्दादि विषयोंके भेद-प्रकार, 'शस्त्र' शब्दका अर्थ-प्राणिपीडनादि सावद्यकर्म, खेदज्ञ'शका अर्थ-प्राणियों के सावद्यक्रियाजन्य दुःखोंका ज्ञाता, होता है।
शधी ४ - अप्पमतो' त्यादि.
જે સંસારી જીવના દુઃખોને જ્ઞાતા છે તે કામગજન્ય પ્રમાદથી રહિત બનીને મન વચન અને કાયાથી બનનારા સાવદ્ય વ્યાપારથી દૂર રહીને કર્મોને નાશ કરવામાં સમર્થ થાય છે. તે જ આત્મરક્ષા છે. આ પિતાની રક્ષા કરવામાં તત્પર રહે છે, અર્થાત્ પિતાના આત્માને ઉદ્ધાર કરવાવાળે થાય છે. આ સૂટ ૮
જે આવા પ્રકારથી નિષ્ણાત બની જાય છે તેને શું લાભ થાય છે? તે मताने -जे पन्जवजाय०' त्यादि
પર્યવ” શબ્દને અર્ધ-શબ્દદિક વિષયના ભેદ-પ્રકાર, શસ્ત્ર”શબ્દને અ–પ્રાણિપીડનાદિ સાવદ્ય કર્મ, ખેદ” શબ્દને અર્થ–પ્રાણીના સાવદ્ય स्यान्य माना ज्ञाता, थाय छे ।
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. १
एवं भावसुप्तस्य दोषं पर्यालोच्य यः शब्दरूपेषु-इदमुपलक्षणं, तेन शब्दरूपरसगन्धस्पशैषु विषयेषु इत्यर्थः, उपेक्षमाणो रागद्वेपरहितः ऋजुः अवक्रहृदयो मायाप्रमादपरिवर्जितः, माराभिशङ्की पुनः पुनमरणदुःखाभ्यागमशङ्कया भीरुः, तदुःखपरिहारार्थ श्रुतचारित्रधर्मे जागरूक इति यावत्, स मरणात्प्रमुच्यते॥सू०७।। किञ्च___ मूलम्-अप्पमत्तो कामेहि, उवरओ पावकम्मेहि, वीरे आयगुत्ते जे खेयन्ने ॥ सू० ८॥ करनेवाला होता है “पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम् ” बारंबार जन्म मरण और गर्भमें आगमन; इनसे उसका छुटकारा नहीं होता है । सावध क्रियाओंमें तत्पर प्राणी नरकनिगोदादिककी अनन्त यातनाओंको भोगता हुआ इनसे भी अधिक कष्टोंके स्थानभूत गर्भमें जाकर बसेरा करता है। ___ इस प्रकार भावसुप्त प्राणीकी जब यह दशा होती है तब संयमी मुनिका कर्तव्य है कि वह इस भावनिद्राका परिहार करे और पांच इन्द्रियोंके विषयों-शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श-में रागद्वेषरहित होकर मायाप्रमादसे अपनी प्रवृत्तिको सुरक्षित रखता हुआ बारंबार जन्म मरणके दुःखोंको प्राप्त होनेकी आशङ्कासे भयभीत होकर सांसारिक दुःखोंसे छुटकारा पानेके लिये श्रुतचारित्ररूप धर्ममें सदा जागरूक रहे । इस प्रकारकी प्रवृत्तिसे ही प्राणी भरणले छूट सकता है, अन्यथा नहीं ॥ सू० ७॥ मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम् " पारंवार सन्म भए भने गमभ सासમન, તેનાથી તેને છુટકારે થતો નથી. સાવદ્ય ક્રિયાઓમાં તત્પર પ્રાણી નરકનિગોદાદિકની અનન્ત યાતનાઓને ભેગવતાં તેનાથી પણ અધિક કષ્ટોના સ્થાનભૂત ગર્ભમાં સ્થાન લે છે.
આવા પ્રકારે ભાવસુ પ્રાણીની જ્યારે આવી દશા થાય છે ત્યારે સંયમી મુનિનું એ કર્તવ્ય છે કે તે આ ભાવનિદ્રાને પરિત્યાગ કરે. અને પાંચ ઈન્દ્રિ
ના વિષય–શબ્દ, રૂપ, રસ, ગંધ અને સ્પર્શી–માં રાગદ્વેષ રહિત બનીને માયા પ્રમાદથી પિતાની પ્રવૃત્તિને સુરક્ષિત રાખીને વારંવાર જન્મ મરણના દુઃખને પ્રાપ્ત થવાની આશંકાથી ભયભીત બની સાંસારિક દુખેથી છુટકારો મેળવવા માટે શ્રતચારિત્રરૂપ ધર્મમાં સદા જાગરૂક રહે. આવા પ્રકારની પ્રવૃત્તિથી જ પ્રાણી મરણથી છુટી શકે છે, અન્યથા નહિ | સૂત્ર ૭
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आचारागसूत्रे अयं भावः—योऽनुकूलमतिकूलशब्दादिविषयमाप्तिपरिहारार्थं सावधकर्मानुठानं शस्त्ररूपं वेत्ति स संयममपि सर्वजीवोपकारकमशस्त्ररूपं जानाति । शस्त्राशस्त्ररूपतां विदस्तत्र निवर्तते प्रवर्तते च। सकलसावधव्यापारेभ्यो निवृत्त्या संयमाराधने प्रवृत्त्या च मुनेः कर्मक्षयो भवतीति । __ यद्वा-यः पर्यवजातशस्त्रस्य पर्यवजातस्य-शब्दादिपर्यायजनितस्याष्टविधकर्मणः शस्त्रं तपः तदहनजनकत्वात् , तस्य यः खेदज्ञः, सोऽशस्त्रस्य संयमस्यापि खेदज्ञः । रूप संयमके अभ्यास करने में कर्मठ-कुशल-है वह जिन २ कार्योसे प्राणियोंके प्राणोंको कष्ट पहुँचे ऐसी सावध क्रियाओंसे सदा विरक्त ही रहता है। ___ विस्तरार्थ-जो अनुकूल और प्रतिकूल शब्दादिक विषयोंकी प्राप्ति एवं परिहार के लिये सावध क्रियाको शस्त्ररूप मानता है, वह यह भी समझता है कि संयम सर्व जीवोंका उपकारक होनेसे अशस्त्ररूप है। इस प्रकार वह सावद्य क्रियामें शस्त्ररूपता और संयममें अशस्त्ररूपता जान कर अशस्त्ररूप संयममें प्रवृत्त होता है और शस्त्ररूप सावद्य क्रियाओंके अनुष्ठानसे विरक्त होता है। यह मानी हुई बात है कि-मुनिके, कर्माका नाश सकल सावध व्यापारोंकी निवृत्तिसे और संयमकी आराधनामें प्रवृत्ति करनेसे ही होता है। ___अथवा-'पर्यव' शब्दका अर्थ-'शब्दादि पर्याय' है, 'जात' शब्द का अर्थ-'उत्पन्न' है, 'शस्त्र' शब्दका अर्थ 'तप' है। तात्पर्य इसका यह है किशन्दादि पर्यायोंसे उत्पन्न होनेवाले आठ प्रकारके कर्मोंका शस्त्र तप है, જે જે કાર્યોથી પ્રાણીઓના પ્રાણને કષ્ટ પહોંચે એવી સાવધ ક્રિયાઓથી સદા વિરક્ત જ રહે છે.
વિસ્તરાર્થ–જે અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ શબ્દાદિક વિષયની પ્રાપ્તિ તેમજ પરિહાર માટે સાવદ્ય કિયાને શસ્ત્રરૂપ માને છે તે એ પણ સમજે છે કે સ યમ સર્વ જીવોને ઉપકારક હોવાથી અશસ્રરૂપ છે, આ પ્રકારે તે તેમાં શસ્ત્ર અને અશરૂપતા જાણીને અશસ્ત્રરૂપ સંયમમાં પ્રવૃત્ત થાય છે, અને સ્વરૂપ સાવદ્ય ક્રિયાઓના અનુષ્ઠાનથી વિરક્ત થાય છે. એ માનેલી વાત છે કે મુનિને કર્મોને નાશ કલ સાવદ્ય વ્યાપારની નિવૃત્તિથી અને સયમની આરાધનામાં પ્રવૃત્તિ કરવાથી જ થાય છે.
मथवा-'पर्यव' म्हनी मर्थ महा पर्याय छ, 'जात' सनी अर्थ उत्पन्न ' छे. 'शत्र' शहन अर्थ 'त५' छे. तेनु तात्पर्य छ । શબ્દાદિ પર્યાથી ઉત્પન્ન હવાવાળા આઠ પ્રકારના કર્મોનું શસ્ત્ર તપ છે, કારણ
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शीतोष्णीय-अध्य० ३ उ. १
टीका—यः पर्यवजातशस्त्रस्य-पर्यवाः शब्दादिविषयप्रकाराः तेषु तनिमित्तं जातं शस्त्र पर्यवजातशस्त्रं-शब्दादिविषयविशेषोपभोगार्थ यत् प्राणिनां पीडनादिरूपं सावद्यकर्म, तस्य खेदज्ञा-सावधक्रियासमुत्पादितप्राणिदुःखाभिज्ञः, सः अशस्त्रस्य-निरवद्यक्रियारूपस्य संयमस्य खेदज्ञा अभ्यासज्ञः, संयमाराधने यावदधिकदुःखसहनं तावदधिककमनिर्जरा भवतीत्यभिज्ञातेत्यर्थः । यथाशस्त्रस्य-संयमस्य खेदज्ञः, स पर्यवजातशस्त्रस्यापि खेदज्ञः।।
भावार्थ-संसारी जीव शब्दादिक पांच इन्द्रियोंके विषयोंका उपभोग करनेकी लालसाके अधीन बनकर ही अपनी प्रवृत्तिको असंयमित बनाते हैं। उनकी इस असंयमित प्रवृत्तिसे त्रस-स्थावर प्राणियोंको अनेक प्रकारके कष्ट भोगने पड़ते हैं। असंयमी जीवोंकी अनर्गल प्रवृत्ति ही अन्य जीवोंके लिये अनेक प्रकारके कष्टोंको देनेवाली होती है ।संयमी जीव इस बातका सदा विशेष ध्यान रखता है कि कहीं मेरी प्रवृत्तिसे प्राणियोंको दुःख न पहुँचे । इसलिये वह अपनी प्रवृत्तिको इतनी संयमित रखता है कि कोई भी प्राणी उससे दुःखी नहीं हो पाता। वह अपनी इस प्रकारकी प्रवृत्तिको उत्तरोत्तर बढ़ानेका इतना अधिक से अधिक अभ्यास करता है कि यह कभी न कभी वीतराग पदका धारक हो जाता है। वह जानता है कि मैं संयमके आराधनमें जितने अधिक दुःखोंको सहूँगा उतनी ही अधिक मेरे कर्मोंकी निर्जरा होगी, यही वीतरागपद तक पहुँचनेकी उत्तम सीढ़ी है । इस प्रकार जो निरवद्य क्रिया
ભાવાર્થ–સંસારી જીવ શબ્દાદિક પાંચ ઈન્દ્રિયેના વિષયને ઉપભોગ કરવાની લાલસાને આધીન બનીને જ પિતાની પ્રવૃત્તિને અસંયમિત બનાવે છે. તેની આ અસંયમિત પ્રવૃત્તિથી ત્રસ સ્થાવર પ્રાણીઓને અનેક પ્રકારના કષ્ટ ભેગવવા પડે છે. અસંયમી જીવોની સ્વછંદ પ્રવૃત્તિ જ અન્ય જીવો માટે અનેક પ્રકારના કષ્ટને દેવાવાળી બને છે. સંયમી જીવ આ બાબતનું સદા વિશેષ ધ્યાન રાખે છે કે કદાચ મારી પ્રવૃત્તિથી પ્રાણિઓને દુઃખ ન પહોંચે. તેટલા માટે તે પિતાની પ્રવૃત્તિને આટલી સંયમિત રાખે છે કે કોઈ પણ પ્રાણી તેનાથી દુઃખી થતું નથી. તે પિતાની આ પ્રકારની પ્રવૃત્તિને ઉત્તરોત્તર વધારવાનો એટલે અધિકથી અધિક અભ્યાસ કરે છે કે તે કઈને કોઈ વખત વીતરાગપદને ધારક બને છે, તે જાણે છે કે હું જેટલું સંયમ આરાધનમાં દુઃખ સહન કરીશ તેટલી જ મારે કર્મોની નિર્જરા થશે, આજ વીતરાગપદ સુધી પહોંચવાની ઉત્તમ સીડી છે. આ પ્રકારે જે નિરવદ્યકિયારૂપ સંયમને અભ્યાસ કરવામાં કર્મઠ-કુશળ છે તે
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आचाराङ्गसूत्रे
त्याह- 'कर्मणा' इत्यादि । उपाधीयते व्यपदिश्यते येन स उपाधिः = विशेषणम्, यद्वा - उपाधिः - संसारपरिभ्रमणरूपः कर्मणा - ज्ञानावरणीयादिना जायते । जीवस्य यावत् कर्मसंबन्धस्तावदुपाधिर्जायते इत्यर्थः ।
"
उपाधिविधा - आत्मशरीरकर्मभेदात् । तत्रात्मोपाधिः - आत्मनो दुष्प्रयुक्तत्वम्, ततः कर्मोपाधिर्जायते । स एव शरीरोपाधित्वेन व्यपदिश्यते । नारकादिशरीरोहार नहीं होता है । इस प्रकारके व्यवहारका कारण कर्मबन्ध था, वह उसका नष्ट हो चुका है । कर्मबन्धसहित जीवके लिये ही यह व्यवहार घटित होता है, उससे रहित जीव के लिये नहीं । 'उपाधि' शब्दका अर्थ विशेषण है, कर्मबन्धसहित जीवके ही नारकी, मनुष्य आदि विशेषण संगत बैठते हैं। क्यों कि मनुष्यगति-नामकर्मके उदयसे जीव मनुष्यविशेषणवाला होता है, नरकगति नामकर्मके उदयसे जीव 'नारकी' इस विशेषणवाला होता है, इत्यादि । तात्पर्य यह कि - कर्मबन्धसहित जीवके तत्तत्कर्मोदयमें तत्तद्व्यपदेशता घटित होती है । अथवा संसारपरिभ्रमणका नाम भी उपाधि है । यह संसारपरिभ्रमणरूप उपाधि ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के संबन्धसे ही जीवको प्राप्त होती है। जीवको जब तक कर्मका सम्बन्ध रहता है तब तक ही उपाधिका सद्भाव रहता है। आत्मा शरीर और कर्मके भेदसे उपाधि तीन प्रकारकी है । अशुभ वृत्ति - खोटा प्रणिधान आत्माकी उपाधि है । आत्मा जब अशुभ क्रियाओंमें प्रवृत्ति करता है या अशुभ प्रणिधानवाला કાઁબંધ હતું તે તેને નાશ થઈ ચુકેલ છે ક ખ ધસહિત જીવને જ આ વ્યવહાર ઘટિત થાય છે. તેનાથી રહિત જીવના નહિ.
'उपाधि' शब्दनो अर्थ विशेषण छे. उभधसहित अपने ? नारडी, મનુષ્ય આદિ વિશેષણુ સ ગત બેસે છે, કારણ કે મનુષ્યગતિ-નામકર્માંના ઉદયથી જીવ મનુષ્યવિશેષણવાળા થાય છે, નરકગતિ-નામકર્મીના ઉડ્ડયથી જીવ ‘ નારકી’ એવા વિશેષણવાળા થાય છે, ઇત્યાદિ તાત્પય એ કે-કબંધસહિત જીવને તત્તત્કઢિયમાં તત્તવ્યપદેશતા ઘટિત થાય છે. અથવા સ સારપરિભ્રમણનું નામ પણ ઉપાધિ છે. આ મ’સારપરિભ્રમણુરૂપે ઉપાધિ જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્માંના સમધથી જીવને પ્રાપ્ત થાય છે જીવને જ્યાં સુધી કર્માંના સબધ રહે છે ત્યાં સુધી જ ઉપાધિને સદ્ભાવ રહે છે.
આત્મા, શરીર અને કર્મના ભેદથી ઉપાધિ ત્રણ પ્રકારની છે. અનુભવૃત્તિ -ખાટા પ્રણિધાન–વિચાર આત્માની ઉપાધિ છે. આત્મા જ્યારે અશુભ ક્રિયાઓમાં
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. १ योऽशस्त्रस्य खेदज्ञः, स पर्यवजातशस्त्रस्यापि खेदज्ञः। संयमतपःखेदज्ञस्यास्रवनिरोधादनादिभवोपार्जितकर्मणां क्षयो भवतीति भावः ।। सू० ९॥
खेदज्ञस्य मुनेः कर्मक्षयात् किं फलं भवतीत्याह-'अकम्मरस' इत्यादि।
मूलम्-अकम्मस्स ववहारो न विजइ, कम्मुणा उवाही जायइ॥ सू० १०॥
छाया-अकर्मणो व्यवहारो न विद्यते । कर्मणा उपाधिर्जायते ॥ मू० १०॥
टीका-अकर्मणः अष्टविधमरहितस्य व्यवहारः नारकतिर्यग्देवमनुष्यादिव्यपदेशो न भवति । यश्च कर्मवन्धयुक्तः स एव नारकादिव्यपदेशभाग् भवतीक्यों कि तप कौको जलाकर नाश कर देता है। इस शस्त्र-तप-काजो खेदज्ञ-जानकार है वह मुनि अशस्त्र-संयम-का भी जानकार है। जो अशस्त्र-संयमका जानकार है वह शब्दादिपर्यायजनित आठ प्रकारके कोंके विनाश करवाले शस्त्र-तप-का भी जानकार है। इन दोनोंको जाननेवाले मुनि के आस्रवका निरोध होनेसे अनादि अवोंसे संचित काँका क्षय होता है ॥ सू० ९॥
खेदज्ञ झुनिको काँका क्षय होनेसे क्या लाभ होता है ? इसका खुलासा करते हैं-'अकम्मस्स' इत्यादि । __'अकर्मणः व्यवहारोन विद्यते' जो आठ प्रकारके कर्मोंसे रहित हो जाता है उसके चारों प्रकारकी गतियों के सर्वथा अभाव हो जानेसे उसके लिये नारक, तिर्थञ्च, मनुष्य और देव, इत्यादि शब्दोंका व्यवકે તપ કર્મોને બાળીને નાશ કરી નાંખે છે. આ શસ્ત્ર–તપને જે ખેદજ્ઞ જાણકાર છે તે મુનિ અશસ્ત્ર-સંયમને પણ જાણકાર છે, જે અશસ્ત્ર-સંયમને જાણકાર છે તે શબ્દાદિપર્યાયજનિત આઠ પ્રકારના કર્મોને વિનાશ કરવાવાવાળા શસ્ત્ર–તપને પણ જાણકાર છે. એ બનેને જાણવાવાળા મુનિના આસવને નિષેધ હોવાથી અનાદિ ભોથી સંચિત કર્મોને ક્ષય થાય છે કે સૂટ ૯
ખેદજ્ઞ મુનિને કર્મોને ક્ષય થવાથી શું લાભ થાય છે તેને ખુલાસો કરે छे-' अकम्मस्स' त्याहि.
'अकर्मणः व्यवहारो न विद्यते' २ मा १२॥ ४थी २डित थाय छ તેને ચારે પ્રકારની ગતિઓને સર્વથા અભાવ થઈ જવાથી નારક તિર્યંચ મનુષ્ય અને દેવ, ઈત્યાદિ શબ્દને વ્યવહાર થતો નથી. આ પ્રકારના વ્યવહારનું કારણ
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आवारागसूत्रे यद्येवं भवति, तर्हि मुनिना किं कर्तव्यमित्याह-' कम्मं च' इत्यादि ।
मूलम् कम्मं च पडिलेहाए, कम्ममूलं च जं खणं ॥११॥ छाया-कर्म च प्रतिलेख्य, कर्ममूलं च यत् क्षणम् ।। सू० ११॥
टीका-कर्म-ज्ञानावरणीयादि, यद्वा-प्रकृतिस्थित्यादिवन्ध, प्रतिलेख्य-संसारस्य कारणमिति पर्यालोच्य कर्ममूलं-माणिषु सावधव्यापारकरणं रागद्वेषमोहरूपं वा कर्मणः कारणमिति च पर्यालोच्य यत् क्षण-क्षणनं-हिंसन-प्राणातिपातादि, तत् परित्यजेदित्यथैः । उक्तञ्च
यदि ऐसा है तो मुनिको क्या करना चाहिये ? सो कहते हैं'कम्मं च ' इत्यादि ।
जव यह निश्चित हो चुका कि कर्मरूप उपाधिसे ही जीवोंमें नारकादि व्यवहार होता है तो मुनिका कर्तव्य है कि वह ज्ञानावरणीयादि कौको, अथवा उनके प्रकृतिवन्ध, स्थितिवन्ध आदि बन्धोंको संसारका कारण जानकर कर्मों के मूल कारण सावद्य व्यापारको, अथवा राग देष मोहको जान कर प्राणातिपातादिक जो कार्य हैं उनका सर्वथा परित्याग करे। ___भावार्थ-जीवोंमें नारकादि व्यवहार कर्मकृत है, कर्म संसारका कारण है। कर्म जीवोंकी शुभाशुभरूप प्रवृत्तिसे उत्पन्न होते हैं। अशुभादि कर्मों से नारकादि व्यवहार होता है। अशुभादि कर्मोंका मूल कारण हिंसादि पाप या राग द्वेष और मोह हैं। इस लिए ज्ञानी मुनिका कर्तव्य है कि वह उनके मूल कारणोंका सर्वथा त्याग करे। कहा भी है
साम डाय तो मुनि शु ४२ मध्ये १ ते ४ छ–'कम्मं च त्यादि.
ત્યારે એ નિશ્ચય થયો કે કર્મરૂપ ઉપાધિથી જ જીવોમાં નારકાદિ વ્યવહાર થાય છે તે મુનિનું કર્તવ્ય છે કે તે જ્ઞાનાવરણીયાદિ કર્મોને અથવા તેના પ્રકૃતિબંધ,સ્થિતિબંધ આદિ બ ને સંસારનું કારણ જાણીને તે કર્મોનુ મૂલ કારણ સાવદ્ય વ્યાપારને, અને રાગદ્વેષ મોહને જાણને પ્રાણાતિપાતાદિક જે કાર્ય છે તેને સર્વથા પરિત્યાગ કરે. | ભાવાર્થ-જીવોમાં નારકાદિ વ્યવહાર કર્મકૃત છે, કર્મ સંસારનું કારણ છે. કર્મ જેની શુભાશુભરૂપ પ્રવૃત્તિથી ઉત્પન્ન થાય છે. અશુભાદિ કર્મોથી નારકાદિ વ્યવહાર થાય છે. અશુભાદિ કર્મોનું મૂળ કારણ હિંસાદિ પાપ, અથવા રાગદ્વેષ અને મોહ છે. માટે જ્ઞાની મુનિનુ કર્તવ્ય છે કે તે તેના મૂળ કારણનો सहा त्याग २. ह्यु
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शीतोष्णीय-अध्य० ३ उ. १
४०१ पाधिना नारकादिरित्युच्यते, यथा-ज्ञानावरणीयादिकर्मणः सद्भावात् संसारिषु कश्चिन्मतिश्रुतावधिमनःपर्ययवान्, कश्चिन्मन्दमतिः, कश्चिच्चक्षुर्दर्शनी कश्चिदचक्षुदर्शनी, कश्चित् सुखी कश्चिदुःखी, कचिन्मिथ्याष्टिः कश्चित् सम्यग्दृष्टिरित्यादिर्व्यवहारो भवतीति भावः ॥ सू० १०॥ होता है तब इसके कर्मरूप उपाधि होती है। इससे ही जीव शरीर उपाधिवाला होता है। कर्म-उपाधिसे ही जीवोंको शरीर-उपाधि प्राप्त होती है। अशरीरीके कोई उपाधि नहीं होती। नारक आदि शरीरकी उपाधिसे जीव नारक आदि नामोंसे व्यवहृत होता है। उस-उस शरीरकी उपाधिसे जीव उस-उस नामवाला, या उस-उस पर्यायवाला होता है । जैसे-जब ज्ञानावरणीयादि कर्मके सद्भावसे संसारी जीवों में कोई मतिश्रुतज्ञानी, कोई अतिश्रुतअवधिज्ञानी, कोई मति, श्रुत, अवधि, और मनःपर्ययज्ञानी होता है, कोई मन्दबुद्धि होता है; कोई चक्षुदर्शनवाला, कोई अचक्षुदर्शनवाला, कोई सुखी, कोई दुःखी, कोई मिथ्यादृष्टि और कोई सम्यग्दृष्टि होता है तब उनमें 'यह मतिश्रुतज्ञानी है, यह मतिश्रुतअवधिज्ञानी है, यह मति-श्रुत-अवधि-मनःपर्ययज्ञानी है, यह चक्षुदर्शनी है, यह अचक्षुदर्शनी है, यह सुखी है, यह दुःखी है, यह मिथ्यादृष्टि है और यह सम्यग्दृष्टि है' इत्यादि व्यवहार होता है । सू० १०॥ પ્રવૃત્તિ કરે છે અગર અશુભ પ્રણિધાનવાળા થાય છે ત્યારે તેને કર્મરૂપ ઉપાધિ થાય છે, તેનાથી જીવ શરીરઉપાધિવાળા થાય છે. કર્મઉપાધિથી જ જીવેને શરીર ઉપાધિ પ્રાપ્ત થાય છે. અશરીરીને કેઈ ઉપાધિ હોતી નથી. નારક આદિ શરીરની ઉપાધિથી જીવ નારક આદિ નામોથી વ્યવહત થાય છે. તે તે શરીરની ઉપાધિથી જીવ તે તે નામવાળા અગર તે તે પર્યાયવાળા બને છે. જેવી રીતે જ્ઞાનાવરણીયાદિ કર્મના સાવથી સંસારી જીવમાં જ્યારે કઈ મતિ શ્રત અને મન:પર્યવજ્ઞાની થાય છે. કોઈ મંદબુદ્ધિ હોય છે. કોઈ ચક્ષુદનવાળા કેઈ અચક્ષુદર્શનવાળા, કેઈ સુખી કઈ દુઃખી, કઈ મિથ્યાદષ્ટિ અને કેઈ સમ્યગ્દષ્ટિ થાય છે ત્યારે तभा मा भतिश्रुतज्ञानी छे, 24भति-श्रुत-अधिशानी छ, -2मतिश्रुत-मधिમન:પર્યવજ્ઞાની છે, આ ચક્ષુદર્શની છે, આ અચક્ષુદર્શની છે, આ સુખી છે, આ દુઃખી છે, આ મિથ્યાદષ્ટિ છે, અને આ સમ્યગ્દષ્ટિ છે ઈત્યાદિ વ્યવહાર થાય છે. સૂટ ૧૦ છે
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आचाराङ्गसूत्रे
मूलम् - तं परिन्नाय मेहावी विइत्ता लोगं वंता लोगसन्नं से मइमं परक्कमिज्जासि-त्ति बेमि ॥ सू० १३ ॥
छाया - तत् परिज्ञाय मेधावी विदित्वा लोकं वान्त्वा लोकसंज्ञां स मतिमान् पराक्रमेत - इति ब्रवीमि ॥ सू० १३ ॥
।
टीका - तत्कर्मणः कारणं रागद्वेषरूपं परिज्ञाय ज्ञपरिज्ञया कर्मबन्धहेतुं विज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परित्यज्य लोकं विषयकपायव्यामोहितं संसारिणं उसे यह दृढ़ विश्वास हो जावेगा कि आत्मा के ज्ञानादिक गुणोंका घातक यदि कोई हैं तो ये कर्म ही हैं, रागद्वेषको जो ज्ञानादिक गुणोंका घातक सूत्रकारने प्रकट किया है वह कारणमें कार्य के उपचार से किया है । क्योंकि राग-द्वेषसे जीवोंके नवीन कर्मों का बन्ध होता है, अतः राग द्वेष उनके बन्ध में कारण हैं, और कर्मोंका बन्ध कार्य है । इन कर्मोंका अभाव जब तक सर्वज्ञ प्रभु के उपदेशानुसार जीव अपनी प्रवृत्ति नहीं बनायेगा तब तक नहीं कर सकता, अर्थात् संयमकी आराधना विना इनका अभाव नहीं हो सकता । यदि उसे वीतराग बनना है तो उसका कर्तव्य है कि वह राग द्वेषका अन्त करनेके लिये उक्त विधिका पालन करे || सू०१२॥
इसी बातको सूत्रकार फिर पुष्ट करते हैं-' तं परित्राय' इत्यादि । साधु कम बन्धमें मूल कारण राग द्वेषको क्षपरिज्ञासे जान कर और प्रत्याख्यान परिज्ञासे उनका त्याग करे । 'समस्त संसारी जीव विषय - कपायोंसे व्यामोहित हो रहे हैं इस लिये इन विषयोंकी वांछाको
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જ્ઞાનાદિક ગુણોના ઘાતક જે કાઇ હોય તેા તે કર્મ જ છે. રાગ દ્વેષને જે જ્ઞાનાદિક ગુણોના ઘાતક સૂત્રકારે પ્રગટ કર્યા છે તે કારણમાં કાર્યના ઉપચારથી કરેલ છે. કારણ કે રાગ-દ્વેષથી જીવાને નવીન કર્મોનો ખ ધ થાય છે, માટે રાગ-દ્વેષ તેના ખ ધમા કારણ છે, અને કર્માંનો ખધ કાર્ય છે. તે કર્માંનો અભાવ જ્યાં સુધી સર્વજ્ઞ પ્રભુના ઉપદેશાનુસાર જીવ પોતાની પ્રવૃત્તિ નહિ બનાવે ત્યાં સુધી કરી શકતા નથી, અર્થાત્ સયમની આરાધના વિના તેનો અભાવ થઇ શકતો નથી, કદાચ તેને વીતરાગ બનવાનુ છે તે તેનુ કર્તવ્ય છે કે તે રાગ દ્વેષનો અંત કરવા માટે કહેલી વિધિનું પાલન કરે. ॥ સૂ૦ ૧૨ !!
भावाने सूत्रार दूरीथी युष्ट उरे छे-' त परिन्नाय ' 'त्यादि
સાધુ કર્માંના બધાં મૂલ કારણુ રાગ દ્વેષને ન-પરિજ્ઞાથી જાણીને અને પ્રત્યાખ્યાન-પરિજ્ઞાયી તેના ત્યાગ કરે. સમસ્ત સંસારી જીવ વિષય કષાયેાથી ત્યામાહિત થઇ રહેલ છે માટે તેવા વિષયેાની વાંછાને સદા દૂર કરવી જોઇએ.'
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. १
৪০৪ " कर्मणो जायते कर्म, ततः संजायते भवः ।
भवाच्छरीरदुःखं च, ततश्चान्यतरो भवः" ॥१॥ इति ॥ सू० ११॥ अपरं च मुनिकर्तव्यमाह-' पडिलेहिय' इत्यादि ।
मूलम्-पडिलेहिय सव्वं समायाय दोहिं अंतेहिं अदिस्समाणे ॥ सू० १२॥
छाया–प्रतिलेख्य सर्व समादाय द्वाभ्यामन्ताभ्यामदृश्यमानः ॥ सू० १२॥
टीका-प्रतिलेख्य कर्मस्वरूपं पालोच्य सर्वम् सर्वज्ञप्रणीतमुपदेशं संयम वा समादाय गृहीत्वा अन्ताभ्याम् अन्तकृद्भयां-कारणे कार्योपचारात् , आत्मनो ज्ञानादिगुणविघातकाभ्यां द्वाभ्यां रागद्वेषाभ्याम् अदृश्यमाना=अनुपलक्ष्यमाणो वीतराग शब्दव्यपदेश्यो भवति ॥ मू० १२ ॥ "कर्मणो जायते कर्म, ततः संजायते भवः ।
भवाच्छरीरं दुःखं च, ततश्चान्यतरो भवः ॥१॥" इति। जीवोंको कर्मसे ही कर्मका बन्ध होता है। उससे भव-संसार होता है। भवसे शरीर, शरीरसे दुःख और दुःखोंसे फिर अन्य भव उन्हें मिलता रहता है ॥१॥सू०११॥
फिर भी मुनिके कर्तव्य को कहते हैं-'पडिलेहिय ' इत्यादि।
कर्म के स्वरूपकी पर्यायलोचना करके सर्वज्ञकथित उपदेशको अर्थात् संयमको ग्रहण कर आत्माके ज्ञानादिगुणोंके विघातक राग और द्वेष से रहित होता हुआ सुनि-आत्मा वीतराग शब्दका वाच्य हो जाता है।
भावार्थ-मुनिके अन्य कर्तव्य को प्रकट करनेके लिये सूत्रकार कहते हैं कि वह कर्मके स्वरूपका विचार करे। कर्म के स्वरूपका विचार करनेसे
“ कर्मणो जायते कर्म, ततः संजायते भवः । ___भवाच्छरीरं दुःखं च, ततश्चान्यतरो भवः ॥१॥"ति.
જીવોને કર્મથી જ કર્મનો બંધ થાય છે. તેથી ભવ-સંસાર થાય છે. ભવથી શરીર, શરીરથી દુઃખ અને દુખેથી વળી અન્યભવ તેને મળતું રહે છે તે સૂ૦ ૧૧ |
quी ५५५ भुमिना तव्य मामत हे छ-'पडिलेहिय' त्या.
કર્મના સ્વરૂપની પર્યાચના કરીને સર્વજ્ઞકથિત ઉપદેશને અર્થાત્ સંયમને ગ્રહણ કરી આત્માના જ્ઞાનાદિ ગુણોના વિઘાતક રાગ અને દ્વેષથી રહિત બનીને મુનિ–આત્મા વીતરાગ શબ્દનો વાચ્ય થઈ જાય છે. - ભાવાર્થ–મુનિના બીજા કર્તવ્યને પ્રગટ કરવા માટે સૂત્રકાર કહે છે કેતે કર્મના સ્વરૂપનો વિચાર કરવાથી તેને તે દઢ વિશ્વાસ થઈ જશે કે આત્માના
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तृतीयाध्ययनस्य द्वितीयोदेशः ॥
तृतीयाध्ययनस्य प्रथमोद्देश के भावसुप्ताः प्रतिबोधिताः, अथ तेषां स्वापस्य फलं दुःखं भवतीत्यावेदयितुं द्वितीयोदेशकं प्रस्तुवन्नाह - 'जाइं च बुद्धिं च इत्यादि ।
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मूलम् - जाई च बुद्धिं च इहऽज्ज पासे, भूएहिं जाणे पडिलेह सायं । तम्हाऽतिविज्जो परमंति णच्चा, सम्मत्तदंसी न करेइ पावं ॥ सू० १ ॥
छाया - जातिं च वृद्धिं च इह अद्य पश्य, भूतैर्जानीहि प्रतिलेख्य सातम् । तस्मात् अतिविद्यः परमम् इति ज्ञात्वा, सम्यक्त्वदर्शी न करोति पापम् ॥ ० १ ॥ टीका - इह = संसारे अद्यैव = अस्मिन्नेव दिवसे, अलं कालक्षपणेनेति भावः जातिम् = गर्भात्पत्तिं वृद्धि = बालादिवृद्धावस्थापर्यन्तं वर्धनं प्राणिनां पश्यगर्भोत्पत्तितीसरे अध्ययनका दूसरा उद्देश ॥
तृतीय अध्ययनके प्रथम उद्देशमें भावसुप्त प्राणियोंका निरूपण अच्छी तरह से किया जा चुका है। इस द्वितीय उद्देशमें यह समझाया जावेगा कि उनकी इस निद्राका फल उन्हें दुःखके सिवाय कुछ नहीं होता है । इसी विषयको स्पष्ट करनेके लिये सूत्रकार इस द्वितीय उद्देश का प्रारंभ करते हुए प्रथम सूत्र कहते हैं - 'जाई च वुद्धिं च ' इत्यादि ।
शिष्यको संवोधन करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि हे शिष्य ! आज ही तुम इस बातका ज्ञानदृष्टिसे विचार करो, कल परसोंकी बात जाने दो, समय बीतानेसे क्या फायदा ? संसारमें प्राणियोंकी गर्भोत्पत्तिसे ત્રીજા અધ્યયનના ખીજે ઉદ્દેશ,
ત્રીજા અધ્યયનના પ્રથમ ઉદ્દેશમાં ભાવસુપ્ત પ્રાણીએ વિષે સારી રીતે સમાવેલ છે. આ ખીજા ઉદ્દેશમાં એ સમજાવવામાં આવશે કે તેની આ નિદ્રાનુ ફળ તેને દુઃખ સિવાય ખીજું કાઈ થતું નથી. આ વિષયને સ્પષ્ટ કરવા માટે सूत्रार या जीन्न उद्देशना प्रारंभ ने प्रथम सूत्र आहे - ' जाई वुद्धिं च' इत्यादि,
શિષ્યને સખાધન કરીને સૂત્રકાર કહે છે કે હું શિષ્ય ! આજ જ તમે આ બાબતના જ્ઞાનષ્ટિથી વિચાર કરો, કાલ પરમદિવસની વાત જવા દો. સમય વીતાવવામાં શું ફાયદો? સંસારમાં પ્રાણીઓની ગīત્પત્તિથી લગાવી માલાદિ
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. १
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विदित्वा, लोकसंज्ञां विषयवाच्छारूपां वान्त्वा = दूरीकृत्य स मतिमान् = साधुमर्यादारक्षणतत्परः सन् पराक्रमेत=संयमाराधने उद्युक्तो भवेत् । यद्वा-अष्टविधं कर्म क्षपयितुमुत्सहेत । संयमं गृहीत्वा न पश्चात्तापमवलम्बेत, सिंहत्वेन निष्क्रम्य शृगालत्वेन न विहरेत् । अत्र चतुर्भङ्गी वाच्या । इति ब्रवीमि पूर्ववत् ॥ सू० १३ ॥ तृतीयाध्ययनस्य प्रथमोद्देशः समाप्तः ॥ ३१ ॥
सदा दूर करना चाहिये' ऐसा विचार कर उसका सदा परिहार करे, और मुनिपनेकी मर्यादाकी रक्षा करनेमें तत्पर वह मतिमान् मुनि संयम की आराधना करने में दत्तावधान रहे; क्योंकि संयमकी आराधना के विना कर्मों का नाश नहीं हो सकता, इस लिये आठ कमका नाश करनेके अभिप्राय से संयमी आराधना करे । संयमको ग्रहण कर फिर पश्चात्ताप न करे, अर्थात् सिंहद्वृत्तिसे संयमकी आराधना करें किन्तु इसकी आराधना शृगालवृत्तिको स्थान न दे । यहां इस विषय में चतुर्भङ्गी समझनी चाहिये, वह इस प्रकार
(१) सिंहवृत्ति से निकले सिंहवृत्तिसे पाले । (२) सिंहवृत्तिसे निकले शृगालवृत्तिसे पाले । (३) शृगालवृत्तिसे निकले सिंहद्वृत्तिसे पाले । (४) शृगालवृत्ति से निकले शृगालवृत्तिसे पाले ।
इनमें पहला और तीसरा भंग श्रेष्ठ है । ' इति ब्रवीमि ' इसका अर्थ पहले कहा जा चुका है ॥ सू० १३ ॥
॥ तृतीय अध्ययनका प्रथम उद्देश समाप्त ॥ ३-१ ॥
એવા વિચાર કરી તેનો સદ્યા પરિહાર કરે અને મુનિપણાની મર્યાદાની રક્ષા કર વામાં તત્પર તે મતિમાન મુનિ સયમની આરાધના કરવામાં સાવધાન રહે; કારણ કે સંયમની આરાધના વિના કર્મોનો નાશ થઈ શકતા નથી, માટે આ કર્મોનો નાશ કરવાના અભિપ્રાયથી સંયમની આરાધના કરે, સયમને ગ્રહણ કરી પછી પશ્ચાત્તાપ ન કરે, અર્થાત્ સિંહવૃત્તિથી સચમની આરાધના કરે પણ તેની આરાધનામાં શિયાળવૃત્તિને સ્થાન ન આપે. આ ઠેકાણે આ વિષયમાં ચતુર્ભેગી સમજવી જોઈએ, તે આ પ્રકારે—
(१) सिडवृत्तिथी निपुणे, सिडवृत्तिथी पाणे. (२) सिडवृत्तिथी निपुणे शृगासवृत्तिथी पाणे, (3) शृगासवृत्तिथी निश्णे, सिडवृत्तिथी पाणे, (४) शृगास वृत्तिथी निपुणे, शृगासवृत्तिथी पाणे.
तेभां पडेले भने त्रीले लंग उत्तम छे. ' इति ब्रवीमि ' मेनो अर्थ चडेसां કહેવામાં આવેલ છે. ૧૩
ત્રીજા અધ્યયનના પ્રથમ ઉદ્દેશ સમાપ્ત ૩–૧.
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आवाराणसूत्रे तथा-"हीणभिण्णस्सरो दीणो, विवरीओ विचित्तओ ।
दुबलो दुक्खिओ वसइ, संपत्तो चरिमं दसं" ॥३॥ इत्यादि । छाया-जायमानस्य यदुःखं म्रियमाणस्य जन्तोः।
तेन दुःखेन संतप्तो न स्मरति जातिमात्मनः ॥१॥ विरसरसितं रसन् ततः स योनिमुखाद् निस्सरति । मातुरात्मनोऽपि च वेदनामतुलां जनयन् ॥ २॥ हीनभिन्नस्वरो दीनो विपरीतो विचित्तकः ।
दुर्वलो दुःखितो वसति संप्राप्तः चरमां दशाम् ।। ३ ॥ तथा-"हीणभिण्णसरो दीणो, विवरीओ विचित्तओ।।
दुबलो दुक्खिओ वसइ, संपत्तो चरिमं दसं। ॥१॥" इति उत्पन्न होनेवाले एवं मरनेवाले प्राणीको जो दुःख होता है उस दुःखसे संतस बना हुआ प्राणी अपनी उत्पत्तिका स्मरण तक नहीं करता ॥१॥जिस समय यह जीव योनिमुख-गर्भस्थानसे निकलता है उस समय बहुत बुरी तरहसे रोता है, क्यों कि उस समय वह अपनी माता के और अपने लिये अतुल-वर्णनातीत-वेदनाका कारण बनता है ॥२॥
तथा-फिर वह जव वृद्धावस्थामें पहुँचता है तब हीन बन जाता है। इसका स्वर अस्पष्ट-गरगर शब्दवाला हो जाता है, दशा इसकी दयनीय हो जाती है । तरुणावस्थामें इसकी जो हालत थी उससे भिन्न ही इसकी हालत हो जाती है। चित्त भी इसका ठिकाने नहीं रहता। उस समय यह दुर्वल और सदा दु:खित ही रहा करता है ॥३॥ तया-" हीणभिण्णस्सरो हीणो, विवरीओ विचित्तओ।।
दुघलो दुक्खिओ घसर, संपत्तो चरिमं दस" ॥३॥ इति । ઉત્પન્ન થનાર અને મરનાર પ્રાણીને જે દુઃખ થાય છે તે દુઃખથી સંતપ્ત બનેલ પ્રાણી પિતાની ઉત્પત્તિનું સ્મરણ પણ કરતું નથી પાલા જે વખતે આ જીવ એનિમુખ–ગર્ભસ્થાનથી નીકળે છે તે સમય ઘણી જ બુરી રીતે રડે છે; કારણ કે તે વખત તે પિતાને માટે તેમ જ પિતાની માતા માટે અતુલ–વર્ણનાતીત–વેદનાનું કારણ બને છે | ૨
- તથા વળી તે જ્યારે વૃદ્ધાવસ્થામાં પહોંચે છે ત્યારે હીન બની જાય છે. તેને સ્વર અસ્પષ્ટ–ગરગર શખવાળો બની જાય છે. તેની દશા દયાજનક થઈ પડે છે તરૂણ-અવસ્થામાં જે તેની હાલત હતી તે હાલતથી બીલકુલ ભિન્ન તેની હાલત થઈ જાય છે. ચિત્ત પણ તેનું ઠેકાણે રહેતું નથી. આ વખતે તે દુર્બળ અને સદા દુખી જ રહ્યા કરે છે. તે રૂ
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. २
वृद्धिश्च प्राणिनां दुःखसहभाविन्येव भवतीति ज्ञानदृष्ट्याऽवलोकयेत्यर्थः । उक्तञ्च
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जायमाणस्स जं दुक्खं, मरमाणस्स जंतुणो । ते दुक्खेण संतत्तो, न सरइ जाइमप्पणो ॥ १ ॥ विरसरसियं रसंतो, तो सो जोणीमुहाउ निप्फिडइ । माऊए अप्पणोऽवि अ वेअणमउलं जणेमाणो ॥ २ ॥ लगाकर बालादि - वृद्धावस्थापर्यन्तकी सब अवस्थाएँ दुःखोंके साथ २ ही रहनेवाली हैं । संसारी प्राणीकी ऐसी कोई भी अवस्था नहीं है जिसमें दुःखोंका सम्बन्ध न हो । गर्भ में आना और वहां रहना यह एक महा दुःखमय है । यह प्राणी येन केन प्रकारेण वहां से सुरक्षित दशा में उत्पन्न हो जाता है और बाल-युवा- वृद्धावस्था तक पहुंच भी जाता है तो भी इन अवस्थाओं में इस जीवको रंचमात्र भी साता नहीं मिलती है । दुःखोंके सिवाय यहां सुखों का नाम भी नहीं है । अतः गर्भोत्पत्ति और बालादि वृद्धावस्था तक की समस्त दशाएँ दुःखोंके साथर ही रहने वाली हैं । अन्यत्र भी यही बात कही है
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जायमाणस्स जं दुक्खं, मरमाणस्स जंतुणो । तेण दुक्खेण संतत्तो, न सरइ जाइमप्पणो ॥ १ ॥ विरसरसियं रसंतो, तो सो जोणिमुहाउ निप्फिडइ ।
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माऊ अपणोऽवि य, वेयणमउलं जणेमाणो ॥ २ " इति । વૃદ્ધાવસ્થાપયન્તની સઘળી અવસ્થાએ દુઃખોની સાથે ને સાથે રહેવાવાળી છે. સંસારી પ્રાણીની એક પણ અવસ્થા એવી નથી કે જેમાં દુઃખાના સમ ધ ન હોય. ગર્ભ માં આવવું અને ત્યાં રહેવું એ એક મહાન દુઃખ છે. તે પ્રાણી કાઇ પકારે ત્યાંથી સુરક્ષિત દશામાં ઉત્પન્ન થઇ જાય છે અને ખાળ—યુવા— વૃદ્ધાવસ્થા સુધી પહોંચી પણ જાય છે તેા પણ આ અવસ્થામાં આ જીવને રજ માત્ર પણ સાતા મળતી નથી. દુઃખો સિવાય અહી સુખોનુ નામ પણ નથી. માટે ગોઁત્પત્તિ અનેખાળાદ્ધિ વૃદ્ધાવસ્થા સુધીની સમસ્ત દશાએ દુઃખોની સાથે જ રહેવાવાળી છે. અન્યત્ર પણ આ વાત કહેલ છેઃ-~~
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जायमाणस्स जं दुक्खं, मरमाणस्स जंतुणो । तेण दुक्खेण संतत्तो, न सरह जाइमप्पणो ॥ १ ॥ विरसरसियं रसंतो, तो सो जोणीमुहाउ निष्फिडइ । माऊर अपणोऽवि य, वेयणमउलं जणेमाणो ॥ २ ॥ " इति
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आचाराङ्गसूत्रे ____मूलम्-उम्मुंच पासं इह मच्चिएहिं आरंभजीवी उभयाणुपस्सी । कामेसु गिद्धा निचयं करेंति, संसिच्चमाणा पुणरेंति गर्भ ॥ सू० २॥
छाया-उन्मुञ्च पाशम् इह मत्यैः आरम्भजीवी उभयानुदर्शी । कामेषु गृद्धाः निचयं कुर्वन्ति, संसिच्यमानाः पुनर्यन्ति गर्भम् ॥ सू० २ ॥
टीका-'उम्मुंच' इत्यादि । इह-मनुष्यलोके, मत्यैः मनुष्यैः साकं, पाश= वन्धनहेतुं कलत्रादिसम्बन्धम् , यद्वा-पाशं द्रव्यभावभेदाद् द्विविधं, द्रव्यतो रज्ज्वादिकं, भावतो विषयपायादिरूपम् , उन्मुञ्च-उत्-उत्कर्षतः-अतिशयेन निराकुरु । पाशयुक्तो हि कामभोगेच्छयाप्राणिहिंसादिकं करोतीत्याह-'आरम्भजीवी' इत्यादि।
'उम्मुं च पासं' इत्यादि । इस मनुष्यलोकमें मनुष्योंके साथ पाश -बन्धनके हेतु पुत्रकलत्रादि सम्बन्ध-का हे शिव्य ! तुम सर्वथा परिहार करो । अथवा द्रव्य और भावके भेदसे पाश-बन्धन दो प्रकारका है। रस्सी आदि पदार्थ द्रव्यसे, विषयकषायादिक भावसे बन्धन है, इन दोनों प्रकार के बन्धनोंका सर्वथा त्याग करो।
भावार्थ-संसारमें जीवोंके लिये सबसे प्रवल बंधनका कारण पुत्रकलनादिका सम्बन्ध है। आत्मार्थी इस बन्धनके हेतुका जवतक त्याग नहीं करता तब तक वह आत्मकल्याणके मार्गपर आख्ड नहीं हो सकता, इसीलिये उसका सर्वथा त्याग करनेका यहां उपदेश दिया गया है। इस पाशसे युक्त प्राणी कामभोगकी इच्छासे प्राणिहिंसादिरूप आरंभोंको करता है।
· उम्मुंच पासं' त्याहि. या मनुष्यसोभा मनुष्यानी माथे पा-धनना હેતુ પત્રકલત્રાદિક સંબંધ–ને હે શિષ્ય! તમે સર્વથા પરિત્યાગ કરે. અથવા દ્રવ્ય અને ભાવના ભેદથી પાશ–અ ધન બે પ્રકારના છે. રસ્સી આદિ પદાર્થ દ્રવ્યથી, વિષયકષાયાદિક ભાવથી બ ધન છે. એ બન્ને પ્રકારના બ ધનને સર્વથા ત્યાગ કરે.
ભાવાર્થ––સંસારમાં છે માટે બધાથી પ્રબળ બંધનનું કારણ પુત્રકલત્રાદિકનો સંબંધ છે. આત્માર્થી આ બધનના હેતુને ત્યાં સુધી ત્યાગ નથી કરતો ત્યાં સુધી તે આત્મ-કલ્યાણના માર્ગ ઉપર આગળ વધી શકતો નથી. માટે તેને સર્વથા ત્યાગ કરવાને આ ઠેકાણે ઉપદેશ આપેલ છે. આ પાશથી યુક્ત પ્રાણ કામગની ઇચ્છાથી પ્રાણિહિંસાદિરૂપ આર કરે છે.
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. २
४०९ ___ किञ्च-भूतैः उच्चारादिचतुर्दशसु जीवोत्पत्तिस्थानेषु जातैर्भूतग्रामैः सह स्वात्मनः सात-मुखं प्रतिलेख्य-पर्यालोच्य जानीहि । यथा तव सुखं प्रियमस्ति, तथाऽन्येषामपीति, यथा च तव दुःखे द्वेषः तथाऽन्येषामपीति ज्ञात्वा कस्यापि जीवस्य दुःख नोत्पादनीयम् , एवं कृते दुःखं न प्राप्स्यसीति भावः । ___ तस्मात्-प्राणिनां सुखदुःखपालोचनात् , अतिविद्या अतीव विद्या यस्य सः अतिविद्यः-तत्त्वपरिच्छेतृविद्याविभूषितः, परमं-परमश्रेयस्करं निर्वाणपदं तत्पापक सम्यग्दर्शनादिकं वाऽस्ति, इति ज्ञात्वा सम्यक्त्वदर्शी-परमार्थदर्शी सन् पापं न करोति, सावधक्रियां न समाचरतीत्यर्थः ॥ सू० १॥
तथा हे शिष्य ! जीवोंकी उत्पत्तिके जो उच्चार (विष्टा) प्रस्रवण (मूत्र) आदि चौदह स्थान हैं उनमें उत्पन्न हुए जीवोंके साथ अपने सुख की पर्यालोचना करो, अर्थात् इस बातका सदा विचार करो कि जिस प्रकार सुख हमें प्रिय है उसी प्रकार अन्य जीवोंको भी वह प्रिय है, दुःख जिस प्रकार हमें अप्रिय-अनिष्ट है उसी प्रकार वह अन्य जीवोंको भी अनिष्ट है । ऐसा विचार कर या जानकर किसी को भी दुःख नहीं देना चाहिये । इस प्रकारसे विचार करने पर तुम स्वयं दुःख न पाओगे।
इस प्रकार प्राणियों के सुख और दुःखकी पोलोचनासे वास्तविक तत्त्वका प्रकाशक ज्ञान जीवको प्राप्त होता है । उस ज्ञानसे युक्त वह मुक्तिपदको अथवा उसको प्राप्त करानेवाले सम्यग्दर्शनादिको परमपरमकल्याणकारी जानकर समदर्शी हो जाता है और सावध क्रियाओं को नहीं करता है। सू०१॥
तथा शिष्य ! वानी उत्पत्तिमा २ उच्चार-विष्टा प्रस्रवण-भूत्र આદિ ચૌદ સ્થાન છે, તેમાં ઉત્પન્ન થયેલા જીવોની સાથે આપણું સુખની પર્યાલોચના કરે. અર્થાત એ વાતને સદા વિચાર કરે કે જે પ્રકારે સુખ અમોને પ્રિય છે તે પ્રકારે અન્ય જીવોને પણ પ્રિય છે. દુઃખ જે પ્રકારે અમોને અપ્રિય-અનિષ્ટ છે તે પ્રકારે તે અન્ય જીવોને પણ અનિષ્ટ છે. એવો વિચાર કરી અગર જાણીને કેઈને પણ દુઃખ ન આપવું જોઈએ. આ પ્રકારને વિચાર કરવાથી તમે स्वयं ६:५ पाभ।। नहि.
આ પ્રકારે પ્રાણીઓના સુખ અને દુખોની પર્યાલોચનાથી વાસ્તવિક તત્વનું પ્રકાશક જ્ઞાન જીવને પ્રાપ્ત થાય છે. તે જ્ઞાનથી યુક્ત તે મુક્તિપદને અથવા તેને પ્રાપ્ત કરાવનાર સમ્યગ્દર્શનાદિને પરમ–પરમકલ્યાણકારી જાણીને સમદશી થઈ જાય છે અને સાવદ્ય ક્રિયાઓ કરતા નથી કે સૂ૦ ૧ છે
પર
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आचाराङ्गसूत्रे व्रते च मृपावादं यथा-मृगादयश्चैते मृगयार्थ यात्रा सृष्टाः, मृगया च क्रीडार्थ भवतीति । यदि मनोविनोदार्थमपि प्राणिनो हत्वा मोदते तर्हि मांसाधुपभोगार्थ प्राणिनो निहत्य प्रमुदितो भवतीत्यत्र किमाश्चर्यम् । एवमदत्तादानादिदोषानपि स उपादत्ते । एवं चेत्तर्हि किं कर्तव्यं मुनिना ? इत्याह--'अलम्' इत्यादि। वालस्यअज्ञस्य संगेन हास्यादिसङ्गेन प्राणातिपातादिरूपेण वा अलं व्यर्थम् , अज्ञस्य यः संगो हास्यादिरूपः प्राणातिपातादिरूपो वा स सर्वथा वर्जनीय इत्यर्थः । बालस्य सङ्गकरणे दोपं दर्शयति-'वैरम्' इत्यादि। वालस्य सङ्गः आत्मनो वैरं-द्वेपं वद्धयति, नूतनभवानुपङ्गिवैरानुवन्धिकमणा वध्यते इत्यर्थः ॥ मू० ३॥
और झूठ ही कहता है कि ये मृगादिक पशु शिकारके लिये ही विधाताने बनाये हैं। शिकार क्रीडा करनेके निमित्तसे ही की जाती है। शिकार करनेसे मनोविनोद होता है । यदि मनोविनोदके लिये भी प्राणियोंकी हिंसा कर जो आनन्द मानता है वह मांसादिक खानेके लिये यदि उनकी हिंसा कर हर्षित होता है तो इसमें कौनसी अचरजकी बात है ? । इसी प्रकार विषयों में लंपट बना हुआ प्राणी चोरी कुशील आदि पापोंको भी करता है। इसलिये मुनिजनका कर्तव्य है कि वह ऐसे वाल-अज्ञानी की संगतिसे, मनोविनोदके कारण हास्यादिकोंसे, अथवा हिंसादिक पापोंसे दूर रहे। बाल-अज्ञानियोंकी संगति, मनोविनोदके कारण हास्यादिक एवं प्राणातिपातादिकपाप, मुनिके लिये सर्वथा वर्जनीय इस लिये हैं कि इनका संग वैर-देषका वर्धक होता है । इस वैरभावकी वृद्धिसे नूतनभवानुषगा और वैरानुवन्धी कर्मका बन्ध होता है ॥सू० ३॥ કે-આ મૃગાદિક પશુ શિકાર માટે જ વિધાતાએ બનાવેલ છે શિકાર કીડા કરવાના નિમિત્તથી જ કરવામાં આવે છે શિકાર કરવાથી મને વિનંદ થાય છે કદાચ મનેવિદ માટે પ્રાણીઓની હિંસા કરી જે આનદ માને છે તે માંસાદિક ખાવા માટે પણ કદાચ હિંસા કરી હર્ષિત થાય તો તેમાં કંઈ અચરજ નથી. આ પ્રકારે વિષમાં લપટ બનેલ પ્રાણી ચેરી કુશીલ આદિ પાપ પણ કરે છે તેથી મુનિજનનું કર્તવ્ય છે કે તે આવા બેલ–અજ્ઞાનીની સગતિથી, મનોવિદના કારણ હાસ્યાદિથી, અથવા હિંસાદિ પાપોથી દૂર રહે. બાલ–અજ્ઞાનીઓની સંગતિ, મને વિનેદના કારણે હાસ્યાદિક અને પ્રાણાતિપાતાદિક પાપ, મુનિ માટે સર્વથા વર્જનીય આ માટે છે કે તેને સગ વેર–દેવનો વર્ધક થાય છે. આ વિરભાવની વૃદ્ધિથી નૂતનવાનુષગી અને વૈરાનુબ ધી કમને બંધ થાય છે. આ સૂત્ર ૩ !
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. २ ___ यस्तु-आरम्भजीवीआरम्भेण जीवितुं शीलमस्येति सः, आरम्भप्रकल्पितजीविकः, स उभयानुदी-ऐहिकपारत्रिकदुःखभोगी भवतीत्यर्थः ।
कामेषु विषयोपभोगेषु, गृद्धाः लोलुपाः, निचयम् अष्टविधकर्मसंचयं कुर्वन्ति। संसिच्यमानाः कामभोगादिजन्यकर्मरजसा श्लिष्यमाणाः पुनः वारं वारं गर्भ यन्ति-उपयान्ति, संसारचक्रे घटीयन्त्रवद् भ्राम्यन्तीति भावः ॥ मू० २॥ मूलम्-अवि से हासमासज्ज, हंता नंदीति मन्नइ ।
अलं बालस्स संगण, वेरं वड्ढइ अप्पणो॥सू०३॥ छाया--अपि स हासमासाद्य, हत्वा नन्दीति मन्यते ।
अलं बालस्य सङ्गेन, वैरं वर्धयति आत्मनः ॥ मू० ३॥ टीका--'अवि से' इत्यादि। सः अज्ञः-विषयलोलुपो हासम् मनोविनोदम् आसाद्य-स्वीकृत्य, हत्वाऽपि-प्राणिनो निहत्याऽपि नन्दी क्रीडा' इति मन्यते । ___ आरंभसे जीनेका जिसका स्वभाव है वह आरंभजीवी है । महान् आरंभों द्वारा जो अपनी आजीविका करते हैं वे इस लोक और परलोकदोनों के दुःखोंको भोगते हैं। कारण कि विषयभोगोंमें गृद्ध-लोलुपी प्राणी अष्टविधकौंका संचय करते हैं और इन कामभोगोंसे उपार्जित कर्मरूपी धूलिसे लिप्त होकर वे बारंबार अरहटके घटमालकी तरह इस संसाररूपी चक्रमें घूमते रहते हैं । सू० २॥
'अवि से' इत्यादि। __ वह विषयी प्राणी मनोविनोदको पाकर, अर्थात् मनोविनोद करने के अभिप्रायसे प्रेरित होकर प्राणियोंकी हिंसा करके भी आनन्दित होता है । उस हिंसाको यह अपने मनोविनोदका साधन मान क्रीडा समझता है
આરંભથી જીવવાને જેને સ્વભાવ છે તે આરંભળવી છે. મહાન આરંભદ્વારા જે પિતાની આજીવિકા કરે છે તે આ લેક અને પરલોક બંનેના દુઃખો ભોગવે છે, કારણ કે વિષયભોગેમાં ગૃદ્ધ-લેલુપી પ્રાણી અષ્ટવિધ કર્મોને સંચય કરે છે, અને આ કામગથી ઉપાજીત કર્મરૂપી ધૂળથી લિપ્ત બનીને તે વારંવાર રેંટના ઘટમાલની માફક આ સંસારરૂપી ચકમાં ઘૂમત રહે છે સૂટ ૨ 'अवि से' छत्यादि.
તે વિષયી પ્રાણી મનોવિદ માટે અર્થાત્ મને વિનેદ કરવાના અભિપ્રાયથી પ્રેરિત બનીને પ્રાણીઓની હિંસા કરીને પણ આનંદિત થાય છે. તેવી હિંસાને તે પિતાના મને વિનોદનું સાધન માની કીડા સમજે છે. જુઠું બેલે છે, કહે છે
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आचारागसूत्रे ___किंच-अग्रंन्भवोपग्राहिकर्मचतुष्टयं केवलिकर्मेत्यर्थः, मूलं-चतुर्विधं घातिकर्म, यद्वा मूलं मोहनीयं कर्म, अग्रं-तदवशिष्टसप्तकर्माणि, मोहनीयक्षयेण विनाऽन्येषां कर्मणां क्षयो न भवति, तस्मान्मोहनीयस्य मूलवं सिध्यति । उक्तञ्च
" नायगंमि हए संते, जहा सेणा विणस्सइ ।
एवं कम्माणि णस्संति, मोहणिज्जे खयं गए" ॥ इति । छाया--नायके हते सति, यथा सेना विनश्यति ।
एवं कर्माणि नश्यन्ति, मोहनीये क्षयं गते ॥ परीषह एवं उपसर्गों से अविचलित होकर वह पृथक् पृथक् भेद प्रभेदों सहित-विस्तारपूर्वक इस बातकी पर्यालोचना करता है कि अग्र
और मूल तपसंयमके विना आत्मासे पृथक्-अलग नहीं हो सकते हैं। भवोपग्राही अघातिया चार कर्म कि जो केवलिकर्म कहे जाते हैं, वे चार प्रकारके घातिया कम मूल हैं। अथवा मोहनीय कर्मका नाम मूल है। इससे अवशिष्ट सात कमौका नाम अग्र है । मोहनीयके क्षय हुए विना अन्य कर्मों का क्षय नहीं होता है इसलिये मोहनीयमें मूलता सिद्ध होती है। कहा भी है___ "नायगम्मि हए संते, जहा सेणा विणस्सइ । ___एवं कम्माणि णस्संति, मोहणिज्जे खयं गए" ॥१॥
जैसे सेनापतिके मारे जाने पर सेना तितर-बितर होकर भाग जाती है उसी प्रकार मोहनीयके क्षय होने पर अन्य कर्म भी नष्ट हो जाते हैं ॥१॥
પરીષહ અને ઉપસર્ગોથી અવિચલિત બનીને તે પૃથફ પૃથક્ ભેદપ્રભેદે સહિત-વિસ્તારપૂર્વક આ વાતની પર્યાલોચના કરે કે અગ્ર અને મૂલ તપ સંયમ વિના આત્માથી પૃથ-અલગ થઈ શકતા નથી ભોપગ્રાહી અઘાતિયા ચાર કર્યો કે જે કેવલિકમ કહેવાય છે તે ચાર પ્રકારના ઘાતિયા કર્મભૂલ છે. અથવા મોહનીય કર્મનું નામ મૂલ છે. તેનાથી અવશિષ્ટ સાત કર્મોનું નામ અગ્ર છે. મોહનીયને ક્ષય થયા વિના અન્ય કર્મોને ક્ષય થતું નથી. માટે મોહનીયમાં મૂલતા સિદ્ધ थाय छे. घुछ
" नायगम्मि हए संते, जहा सेणा विणस्सइ । ___ण्वं कम्माणि णस्संति, मोहणिज्जे खयं गए" ॥ १ ॥
જેવી રીતે સેનાપતિના મરવાથી સેના છિન્નભિન્ન થઈ ભાગી જાય છે તે પ્રકારે મોહનીય ક્ષય થવાથી અન્ય કર્મ પણ નષ્ટ થઈ જાય છે. ૧u
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. २ यद्येवं तर्हि मुनिना किं कर्तव्यमित्याह- तम्हा' इत्यादि।
मूलम् तम्हाऽतिविज्जो परमति णच्चा, आयंकदंसी न करेइ पावं । अग्गं च मूलं च विगिंच धीरे, पलिच्छिदिया णं निकम्मदंसी ॥ सू०४॥ __ छाया--तस्मात् अतिविद्यः परमम् इति ज्ञात्वा, आतङ्कदर्शी न करोति पापम् । अग्रं च मूलं च विविच्य धीरः, परिच्छिद्य खलु निष्कर्मदर्शी ॥ सू०४॥
टीका--'सम्हा' इत्यादि । तस्माद्-वालसंगेन वैरवर्धनाद्, अतिविद्या= सम्यग्ज्ञानवान् , परमं सर्वोत्कृष्ट-सिद्धिगतिनामधेयं पदं, सर्वविरतिलक्षणं चारित्रं वा अस्तीति ज्ञात्वा, आतङ्कदर्शी-नरकनिगोदादिनानादुःखदर्शकः, पापं-पापानुवन्धि कर्म न करोति । अत्र करोतीत्युपलक्षणम्, न च परेण कारयति, नापि कुर्वन्तमन्यमनुमोदयति। - यदि ऐसा है तो मुनि को क्या करना चाहिये ? सो कहते हैं'तम्हा' इत्यादि। ___ बाल-अज्ञानीके संगसे वैरभावकी वृद्धि होती है। इसलिये जो अतिविद्य-सम्यग्ज्ञानसंपन्न है वह-'सिद्धिगतिनामक परमपद अथवा उसको प्राप्त करानेवाला सर्वविरतिलक्षण चारित्र परम श्रेयस्कर है। ऐसा जानकर नरकनिगोदादिकके अनेक दुःखोंका ज्ञाता, अर्थात् 'नरक निगोदादिकोंके दुःख जीवोंको तब तक भोगने पड़ते हैं कि जब तक सिद्धिपदकी प्राप्ति उन्हें नहीं होती' इस प्रकारका दृढश्रद्धावाला होता हुआ पापानुबन्धी कर्म नहीं करता है । "करोति" यह क्रिया अन्य क्रियाओंकी उपलक्षक है, इससे यह घटित होता है कि वह न दूसरोंसे पापकर्म कराता है और न पापकर्म करनेवालोंकी अनुमोदनाही करता है।
ने या प्रभारी छतो भुनिये शु४२ त ? ते छ–' तम्हा' त्याल
બાલ–અજ્ઞાનીના સંગથી વૈરભાવની વૃદ્ધિ થાય છે, માટે જે અતિવિધ સમ્યજ્ઞાનસંપન્ન છે તે “સિદ્ધિગતિનામક પરમપદ અથવા તેને પ્રાપ્ત કરાવનાર સર્વવિરતિલક્ષણ ચારિત્ર પરમ શ્રેયસ્કર છે એવું જાણીને નરકનિગોદાદિકના અનેક દુઃખોના જ્ઞાતા અર્થાત્ “નરકનિગોદાદિકોના દુઃખ જીવેને ત્યાં સુધી ભેગવવા પડે છે જ્યાં સુધી સિદ્ધિપદની પ્રાપ્તિ તેને થતી નથી” આ પ્રકારના १८ श्रद्धावामनीने पापानुमन्धी ४ ४२ता नथी. “ करोति' 2n या अन्य કિયાઓની ઉપલક્ષક છે, તેથી એ ઘટિત થાય છે કે તે બીજાઓથી પાપકર્મ કરાવતા નથી અને પાપકર્મ કરવાવાળાઓની અનુમોદના પણ કરતા નથી.
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आवाराणसूत्रे अन्यदपि फलं निष्कर्मदर्शिनो भवतीत्याह-' एस मरणा पमुच्चई' इत्यादि।
मूलम्-एस मरणा पमुच्चइ, से हु दिहभए मुणी, लोगंसि परमदंसी विवित्तजीवी उवसंते समिए सहिए सया जए कालकंखी परिव्वए ॥ सू०५॥
_ छाया-एप मरणात् प्रमुच्यते, स एव दृष्टभयो मुनिः, लोके परमदर्शी विविक्तजीबी उपशान्तः समित. सहितः सदा यतः कालाकासी परिव्रजेत् ॥ सू० ५॥
टीका--एपः-निष्कर्मदर्शी मरणात्-आयुःक्षयात् प्रमुच्यते, आयुष्यकर्मवन्धापगमादिति भावः। यदा-आवीचिमरणात् आवीचि अनुसमयं निरन्तरं मरणं-मृत्युः संसारो वा, तस्मात् प्रमुच्यते । केवली भूत्वा अन्यान् वा मोचयति देशनादिना। स पर जीव निष्कर्मदर्शी-अर्थात् कर्मरहित अपनी आत्माको देखनेके स्वभाववाला हो जाता है। इस प्रकारका स्वभाव जीवके ज्ञानावरणीय कर्म के विनाशसे उत्पन्न होता है। इसी अवस्थामें जीव सर्वज्ञ सर्वदर्शी होता है। सू०४॥ ___ जो निष्कर्मदर्शी है उसे और भी दूसरा लाभ होता है, इस बातको प्रकट करते हैं-'एस मरणा पमुच्चइ' इत्यादि।
यह निष्कर्मदर्शी आयुकर्मके बन्धके अभाव होनेपर मरणसे रहित हो जाता है । अथवा वह आवीचिमरणसे छूट जाता है। अनुसमय अर्थात् निरन्तर मरणको आवीचिरमण कहते हैं। अथवा मरण नाम संसारका है । केवली हो जानेसे आत्मा संसारबन्धनसे रहित हो जाता है । सिद्धस्थानमें विराजनेके निश्चयसे उसी भवमें अघातिया कर्मोंका છે. આત્માથી કર્મોના અલગ થવાથી જીવનિષ્કર્મદશી–અર્થાત્ કર્મ રહિત પિતાના આત્માને જેવાના સ્વભાવવાળ થઈ જાય છે. આ પ્રકારને સ્વભાવ જીવને જ્ઞાનાવરણીય અને દર્શનાવરણીય કર્મના વિનાશથી ઉત્પન્ન થાય છે. આ અવસ્થામાં જીવ સર્વજ્ઞ સર્વદર્શી થાય છે. સૂત્ર ૪
જે નિષ્કર્મદર્શી છે તેને બીજે પણ લાભ થાય છે. તે વાતને પ્રગટ કરે છે– 'एस मरणा पमुच्चइत्यादि.
આ નિષ્કર્મદર્શ આયુકર્મના બ ધને અભાવ થવાથી મરણથી રહિત થાય છે અને તે આવચિમરણથી છૂટી જાય છે. અનુસમય અર્થાત્ નિરતર મરણને
વીચિમાર કહે છે. અથવા મરણ નામ સંસારનું છે, કેવળી થઈ જવાથી આત્મા સંપરબ ધનથી રહિત થાય છે, સિદ્ધસ્થાનમાં વિરાજવાના નિશ્ચયથી તેજ ભવમાં
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शोतोष्णोय-अध्य० ३ उ. २
यद्वा-मूलं-मिथ्यात्वम् , अग्रं तु अष्टविधकर्मप्रकृतिरूपं तेषां मिथ्यात्वमूलकत्वात्। उक्तश्च-". ..... · मिच्छत्तेणं उदिपणेणं एवं खलु जीवे अट्ठकम्मपगडीओ बंधइ" इति। धीरः-परीषहोपसगैरक्षोभ्यः सन् विविच्य= पृथक् पृथग भेदोपभेदैः सविस्तरं पर्यालोच्य, परिच्छिद्य-कर्माणि तत्कारणीभूतमिथ्यात्वादीनि तपः-संयमाभ्यां सर्वथा छित्वा स्वात्मनः पृथक्कृत्य, पौगलिकस्य ज्ञानावरणीयादेः कर्मणश्छेदनं द्वैधीकरणरूपं न संभवति, कित्वात्मनः पृथक्करणमेवेति भावः। निष्कर्मदर्शी-स्वात्मानं निष्कर्माणं द्रष्टुं शीलमस्येति तथाविधो भवतीत्यर्थः । ज्ञानावरणीयदर्शनावरणीयकर्मापगमात् सर्वदर्शी भवतीति भावः ॥४॥ ___ अथवा-'मूल' नाम मिथ्यात्वका है । 'अन' नाम आठ प्रकारके कर्मोंका है, क्यों कि आठों कर्मोंका मूलकारण मिथ्यात्व है। इसीलिए मिथ्यात्वको मूल-शब्दसे कहा है । कहा भी है-" मिच्छसेणं उदिण्णणं एवं खलु जीवे अह कम्मपगडीओ बंधई।" इति । मिथ्यात्वके उदयसे जीव आठ कर्मप्रकृतियोंको बांधता है।
इसलिये कर्मों के कारणभूत मिथ्यात्व आदिको तपसंयमद्वारा सर्वथा अपनी आत्मासे अलग कर वह निष्कर्मदर्शी हो जाता है।
सूत्रमें “ परिच्छिद्य" पद आया है, जिसका अर्थ-" छेदन करके" ऐसा होता है। परन्तु पौगलिक ज्ञानावरणीयादि कौका तो छेदन हो नहीं सकता; अत:-'ज्ञानावरणीयादि कर्मोको अपनी आत्मासे " परिच्छिद्य"-अलग करके' ऐसा अर्थ करना चाहिये, क्यों कि कर्मों को आत्मासे पृथक् करना ही उनका छेदन है। आत्मासे कौके अलग होने
Aथा — मूल' नाम मिथ्यात्वनु छ. 'अग्र' नाम 28 नभनु छ, કારણ કે આઠ કર્મોનું મૂલ કારણ મિથ્યાત્વ છે. માટે મિથ્યાત્વને મૂલ શદથી કહેલ छ. युछे"...मिच्छत्तेणं उदिण्णेणं एवं खलु जीवे अट्ठ कम्मपगडीओ बंधर ।" इति । मिथ्यात्वना यथा 04 २४ मप्रतिमा मांधे छे. माटे भेना કારણભૂત મિથ્યાત્વ આદિને તપસંયમ દ્વારા સર્વથા પિતાના આત્માથી જુદા કરી તે નિષ્કર્મદશી થઈ જાય છે.
सूत्रमा “ परिच्छिद्य" ५४ मावदा छे. तेनी अर्थ “छेहन शन" मेम થાય છે. પરંતુ પૌગલિક જ્ઞાનાવરણીયાદિ કર્મોનું તે છેદન બની શકતું નથી माटे ज्ञानावणीयाहि भनि पोताना आत्माथी “ परिच्छिद्य"-नुहा रीन, मेवा અર્થ કરવું જોઈએ. કારણ કે કર્મોને આત્માથી પૃથફ કરવા તે જ તેનું છેદન
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आचाराङ्गस्त्रे
कमित्याह-कालाकाङ्क्षीति । कालं मृत्युकालमाकाङ्क्षितुं शीलमस्येति कालाकाङ्क्षी, तथाविध. सन् परित्रजेत् = यावत् पर्यायागतं पण्डितमर्णं तावदाकाङ्क्षमाणो विविक्तजीवित्वार्दिगुणसमन्वितः संयमाराधने समुद्युक्तो भवेदित्यर्थः ॥ ०५ ॥
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मूलम् - बहुं च खलु पावकम्मं पगडं । सच्चमि धिरं कुबहा । एत्थोवर मेहावी सव्वं पापकम्मं झोसइ ॥ सू० ६ ॥
छाया—बहु च खलु पापकर्म प्रकृतम् । सत्ये धृतिं कुरुष्व । अत्र उपरतो मेधावी सवै पापकर्म झोपयति ॥ स्रु० ६ ॥
टीका- 'बहुं च' इत्यादि । खलु निश्चयेन पापकर्म बहु-बन्धस्थानापेक्षया बहुविधं प्रकृतम् =प्रकथितं, प्रतिबोधितमित्यर्थः । यद्येवं तर्हि तद्व्यपगमार्थं किमाचरणीयमित्यत आह- ' सत्ये ' इत्यादि । हे शिष्य ! सत्ये-सङ्ख्यो भव्येकी आवश्यकता तभी तक है जब तक कि उसे पण्डितमरण प्राप्त नहीं होता । यही बात सूत्रकार प्रकट करते हैं-' कालकंखी' इति, काल शब्द का अर्थ मृत्युकाल है, इसकी आकाक्षा रखनेवालेको कालाकाङ्क्षी कहते हैं । जब तक पर्यायागत पण्डितमरण प्राप्त नहीं होता तब तक उसकी चाहना करता हुआ इन पूर्वोक्त गुणोंसे युक्त होकर वह निष्कर्म - दर्शी संयमकी आराधनामें प्रयत्नशाली या लवलीन रहे । सू० ५ ॥
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'बहुं च ' इत्यादि ।
पापकर्म बन्धस्थानकी अपेक्षासे बहुत प्रकारका कहा गया है। वीनराग प्रभुने बारह प्रकारकी परिषद् सभामें अपनी दिव्य देशनासे बन्धस्थानोंकी अपेक्षासे कर्मोके अनेक भेद भव्य जीवोंको समझाये हैं । साथ में यह भी प्रकट किया है कि इन कर्मोंको आत्मासे दूर करने का उपाय કે જ્યા સુધી તેને પડિતમરણ પ્રાપ્ત નાડું થાય. આ વાત સૂત્રકાર પ્રગટ કરે
-' कालकंखी ' प्रति अस शब्दनो अर्थ मृत्युअण हे तेनी आअंक्षा रामवाવાળાને કાલાકાંક્ષી કહે છે. જ્યાં સુધી પર્યાયાગત પતિમરણ પ્રાપ્ત નથી થતું ત્યાં સુધી તેની ચાહના કરીને પૂર્વોક્ત ગ્રાથી યુક્ત થઇને તે નિષ્કર્મ દર્શી સયમની આરાધનામાં પ્રયત્નશાળી અગર લવલીન રહે ! સૂ॰ ૫ !
" बहुं च " त्यादि
પાપકમ અધસ્થાનની અપેક્ષાથી ઘણા પ્રકારના કહેલ છે. વીતરાગ પ્રભુએ ખાર પ્રકારની પરિદ્-સભામાં પેાતાની દિવ્યદેશનાથી અધાનેાની અપેક્ષાથી ડના અનેક લેક ભવ્ય જીવોને સનન્તવેલ છે. સાથે એ પણ પ્રગટ કરેલ છે केला भेनिः समाधी दूर उखान उपाय हे सचन्निधिः कुञ्चहा" सत्ये
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. २
४१७
दृष्टभय एव, दृष्टं भयम् इहलोकादि सप्तविधं येन स एव मुनिर्भवति । किं च लोके= उच्चारादिचतुर्दशस्थानसमुत्पन्ने जीवसमूहात्मके परम आत्मनः समुत्ककारित्वात् संयमः, तं द्रष्टुं शीलमस्येति परमदर्शी, तथा विविक्तं रागद्वेपरहितत्वादक्लिष्टं जीवितुं शीलमस्येति विविक्तजीवी, अत एव उपशान्तः = उपशमसमन्वितः, अत एव समितः मोक्षमार्ग सम्यग् इतः = प्राप्तः, तथा सहितः ज्ञानचारित्रयुक्तः, अत एव सदा यतः-अनवरतं प्रमादरहितः । उक्तगुणधारणं कियत्कालपर्यन्तमावश्यअभाव कर सिद्धपदका अधिकारी हो जाता है । केवली होकर यह अन्य जीवों को भी सदेशना द्वारा संसारपरिभ्रमण से छुड़ा देता है । इहलोकभय आदि सात प्रकारका भय जिसने देख लिया है वह दृष्टभय है । दृष्टभय ही मुनि होता है। तथा उच्चारादि चौदह स्थानों में समुत्पन्न जीवसमूहरूप लोक में आत्माका उत्कर्षकारी होनेसे परम जो संयम उसको देखनेका जिसका स्वभाव है वह परमदर्शी है । तथा रागद्वेषरहित होनेसे अक्लिष्ट जीनेका जिसका स्वभाव है वह विविक्तजीवी है । यह निष्कर्मदर्शी विविक्तजीवी होता है। इसीलिये वह ' उवसंते ' ' उपशान्तः ' -उपशम से युक्त होता है । कषायोंके उद्रेकका अभाव उपशम है । जब कषायोंमें बिलकुल मन्दता आ जाती है तब वह 'समिए' समितः - मोक्षके मार्गको प्राप्त हुआ कहलाता है । तथा ' सहिए ' सहितः ज्ञान और चारित्रसे युक्त होनेसे वह 'सयाजए' सायतः - निरन्तर यतनावान् अर्थात् प्रमादरहित होता है । इन पूर्वोक्त गुणोंके धारण करने અઘાતિયા કર્મીના અભાવ કરી સિદ્ધપદ્મના અધિકારી થાય છે, કેવળી મની તે અન્ય જીવાને પણ સફેશનાદ્વારા સંસારપરિભ્રમણથી છેડાવે છે. ઈહલેાક ભય આફ્રિ સાત પ્રકારના ભય જેણે જોઈ લીધેલ છે તે પ્રભય છે, ઋભય જ મુનિ થાય છે. તથા ઉચ્ચારાદિ ચૌદસ્થાનામાં સમુત્પન્ન જીવસમૂહરૂપ લેાકમાં આત્માના ઉત્ક કારી થવાથી પરમ જે સયમ તેને દેખવાના જેને સ્વભાવ છે તે પરમદશી છે. તથા રાગદ્વેષરહિત થવાથી અક્લિષ્ટ જીવવાના જેના સ્વભાવ છે તે વિવિક્તજીવી છે. તે નિષ્કઢી વિવિક્તજીવી થાય છે. તેથી તે उवसंते उपशान्तः–७५शभथी युक्त थाय छे, उषायोना उद्रेउनो अलाव उपशम छे, न्यारे उषायामां मिला महता भावी लय हे त्यारे ते 'समिए' समितःभोक्षना भार्गने प्राप्त उरेला अहेवाय छे तथा ' सहिए' सहित: - ज्ञान भने था स्त्रियी युक्त थवाथी ते ' सयाजए' सदायतः - निरंतर यतनावान् अर्थात् प्रभाह રહિત થાય છે. આ પૂર્વોક્ત ગ્રાને ત્યાં સુધી ધારણ કરવાની આવશ્યકતા છે
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आचाराङ्गसूत्रे
मूलम् - अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे से केयणं अरिहए पूरित्तए, से अण्णवहाए अण्णपरियावाए अष्णपरिग्गहाए जणवयवहार जणवयपरियावाए, जणवयपरिग्गहाए ॥ सू० ७ ॥
छाया—अनेकचित्तः खलु अयं पुरुषः, स केतनम् अर्हति पूरयितुम् । सोऽन्यवधाय, अन्यपरितापाय, अन्यपरिग्रहाय, जनपदवधाय, जनपदपरितापाय जनपदपरिग्रहाय ॥ ०७ ॥
टीका—अयं प्रत्यक्षविषयः संसारी पुरुषः खलु = निश्चयेन अनेकचित्तः = कृषिवाणिज्य सेवाद्यनेकवृत्त्याश्रितचित्तो भवति । संसारसुखाभिलाषिणश्चित्तमेकाग्रं न भवतीति भावः । अनेकचित्तः किं कुर्यादित्याह - स केतनम् ' इत्यादि । सोऽनेकचित्तः केतनं= भावकेतनम् इच्छां पूरयितुम् अर्हति ? काकुवचनमेतत् ; नाईतीत्यर्थः । केतनं द्विविधं द्रव्यतो भावतश्च । तत्र द्रव्यकेतनं चालिनी, समुद्रो
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यह संसारी पुरुष निश्चयसे कृषि वाणिज्य सेवा आदि अनेक कार्यों के करनेमें व्यग्रचित्तवाला बना रहता है । क्यों कि संसारी जीवों की अभिलाषा सांसारिक अनेक सुखोंको प्राप्त करनेकी ओर सदा लगी रहती है, इसीलिये वे कृषि वाणिज्य आदि अनेक प्रकारके आजीविकोपयोगी कार्यों के संपादन में रातदिन जुटे रहते हैं, अतः सांसारिक सुखोंके अभिलाषी पुरुषोंका मन किसी एक विषय में एकाग्र नहीं होता है । इस पर सूत्रकार कहते हैं कि-' से केयणं अरिहए पूरितए ' स केतनमहः पूरयितुम्, अर्थात् उसकी इस प्रकारकी ये चेष्टाएँ क्या उस केतन - मानसिक अभिलाषा की पूर्ति कर सकती हैं ? कदापि नहीं । सूत्रकारने यहां काकुवचनका प्रयोग किया है। केतन दो प्रकारका है - (१) द्रव्य - केतन
આ સ સારી પુરૂષ નિશ્ચયથી કૃષિ, વાણિજ્ય, સેવા આદિ અનેક કાર્યોં કરવામાં વ્યંગચિત્તવાળા અની રહે છે. કારણકે સસારી જીવેાની અભિલાષા સાંસારિક અનેક સુખો પ્રાપ્ત કરવાની તરફ સદા લાગી રહે છે તેથી તે ખેતી, વાણિજ્ય આદિ અનેક પ્રકારના આજીવિકાના ઉપયાગી કાર્યાંના સપાદનમાં રાતદિવસ લાગ્યા રહે છે. માટે સાસારિકસુખોના અભિલાષી પુરૂષનુ મન કાઈ એક વિષયમાં એકાગ્ર ખનતુ નથી. भी उपर सूत्रार आहे छे' से केयणं अरिए पूरित ' - केतनमर्हः पूरयितुम्, अर्थात् तेनी या प्रहारनी भा ચેષ્ટાઓ શું તેના કેતન=માનસિક અભિલાષા–ની પૂર્તિ કરી શકે છે? કાપિ નહિ. સૂત્રકારે આ ઠેકાણે કાકુવચનના પ્રયાગ કરેલ છે. કેતન બે પ્રકારના છે.
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शीतोष्णीय अध्य० ३ उ. २
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भ्यो हितः सत्यः संयमस्तस्मिन् धृतिं कुरुष्व । यद्वा - सत्यः = वीतरागप्रणीतागमः यथावस्थिततत्त्वस्वरूपप्रतिबोधनात् तत्र भगवदाज्ञारूपे प्रवचने धृतिं चित्तस्थैर्य कुतर्कपरित्यागेन कुरुष्व । किंच - अत्र = अस्मिन् संयमे भगवत्प्रवचने वा, उपरतः= उप-सामीप्येन रतः = व्यवस्थितः - परायणः, मेधावी - हेयोपादेय विवेकनिपुणः, सर्वनिरवशेषं पापकर्म झोषयति = शोषयति - क्षपयतीत्यर्थः ॥ सू० ६ ।।
कषायादिप्रमादयुक्तः किंगुणो भवतीत्याह- 'अणेगचित्ते ' इत्यादि ।
है - "सच्चम्मि धिरं कुव्वहा" सत्ये धृतिं कुरुष्व, सत्य- संयम में धैर्य धारण करो, इसलिये शिष्यको सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे शिष्य ! तुम यदि इन कर्मों पर विजय करना चाहते हो तो - ' सद्भयो हितः सत्यः-संयमः ' सत्पुरुषोंके लिये हितकारी जो संयम है उसमें अटल रहो । उपसर्ग एवं परीषहोंके आने पर भी इस मार्गसे कभी भी विचलितचित्त न बनो । अथवा सत्य नाम वीतरागप्रणीत आगमका है, क्योंकि इस से ही जीवादिक तत्वोंके यथार्थस्वरूपकी प्ररूपणा होती है । भगवानके इस आज्ञास्वरूप प्रवचनमें कुतकका परिहार कर चित्तको स्थिर करो । कारण कि इस संयम में अथवा वीतरागप्रणीत आगममें अच्छी तरह से लवलीन चित्तवाला मनुष्य हेय और उपादेयके विवेकसे निपुणमति बन कर सम्पूर्ण पापको नष्ट कर देता है । सू० ६ ॥
कषायादिक प्रभादसे युक्त प्राणी किस २ गुणवाले होते हैं ? इसके लिये कहते हैं-' अणेगचित्ते ' इत्यादि ।
धृति कुरुष्व, सत्य - संयममां धैर्य धारण ४. मे भाटे शिष्यने सौंभोधन उरीने કહે છે કે હું શિષ્ય ! તમે જો આ કર્મો ઉપર વિજય કરવા માંગતા હો તા'सद्भ्यो हितः सत्यः- संयमः ' सत् युषाने भाटे हितअरी ने संयम छे तेभां અટલ રહો, ઉપસ અને પરીષહો આવવા છતાં પણુ આ માથી કાઇ વખત પણ વિચલિત ન અનેા. અથવા સત્ય નામ વીતરાગપ્રણીત આગમનું છે, કારણ કે તેનાથી જ જીવાર્દિક તત્ત્વાના યથાર્થ સ્વરૂપની પ્રરૂપણા થાય છે. ભગવાનના આ આજ્ઞાસ્વરૂપ પ્રવચનમાં કુતર્કના પરિહાર કરી ચિત્તને સ્થિર કરો, કારણ કે આ સયમમાં અને વીતરાગપ્રણીત આગમમાં સારી રીતે લવલીન ચિત્તવાળા મનુષ્ય હેય અને ઉપાદેયના વિવેકથી નિપુણુમતિ બનીને સંપૂર્ણ પાપકર્મો નષ્ટ કરી નાંખે છે, ॥ સૂ॰ ૬ ॥
કષાયાદિ પ્રમાદથી યુક્ત પ્રાણી કયા કયા ગુણવાળા થાય છે? તેને માટે अहे छे-' अणेगचित्ते ' दियाहि.
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आचाराङ्गसूत्रे
किं च - " न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति ।
हविषा कृष्णवत्व, भूय एवाभिवर्धते " ॥ २ ॥ इति । इच्छापूरणार्थ व्याकुलितचित्तः किं करोतीत्याह - ' से अण्णवहाए' इत्यादि, यद्वा-' से के य णं अरिहए पूरितए ' इत्यस्य ' स कथ तम् अर्हः पूरयितुम् ' इतिच्छाया । स एतादृशो जनः को वर्तते यः तम् = अनेकचित्तं पुरुषं पूरयितुम् अर्हः समर्थो भवेत्, कस्तदिच्छां पूरयेत्, न कोऽपीति भावः, यतः सोऽनेकचित्तः पुरुषः अन्यवथाद्यर्थं पर्युत्सुको भवति, तदेवाह सूत्रकारः - ' से अण्णवहाए ' इत्यादि । न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवत्मैव, भूय एवाभिवर्धते ॥ १ ॥ " इति । कामविकार विषयभोगोंके सेवन करनेसे शान्त नहीं होता है । प्रत्युत जैसे घृतके डालने से अग्निकी ज्वाला बढ़ती है उसी प्रकार विषयोंके सेवन से विषयवासना की वृद्धि होती है । अपनी इच्छा की पूर्तिके लिये जीव क्या करता है ? इसी बात को कहते हैं-' से अण्णवहाए ' इत्यादि ।
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अथवा " से केयणं अरिहए पूरित्तए " इस वाक्यकी छाया स कश्च तम् अर्हः पूरयितुम् " ऐसी भी होती है । जिसका अर्थ इस प्रकार होता है - कौन ऐसा व्यक्ति हो सकता है कि जो अनेक चित्तवाले मनु
की इच्छाओं की पूर्ति करनेमें समर्थ हो सके ? कारण कि वह अनेकचित्त पुरुष अन्यवध - दूसरेको नारना आदि अनेक सावद्य क्रियाओंके करनेमें उत्सुक बना रहता है । इसी बातको सूत्रकार स्वयं दिखलाते हैं'से अण्णवहाए' इत्यादि ।
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न जातु काम कामानामुपभोगेन शाम्यति ।
इविषा कृष्णवर्त्मव, भूय एवाभिवर्धते " १ ॥ इति ॥ કામવિકાર વિષયભાગનુ સેવન કરવાથી શાત થતો નથી, પણ જેમ ઘી નાંખવાથી અગ્નિની જ્વાળા વધે છે તે પ્રકારે વિષયાના સેવનથી વિષયવાસનાની વૃદ્ધિ થાય છે. પાતાની ઇચ્છાની પૂર્તિ માટે જીવ શુ કરે છે? આ વાતને सूत्रार स्पष्ट उरे छे---' से अण्णवहाए ' इत्यादि.
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અથવા
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से के य णं अरिहए पूरितए " मा वायनी छाया स का तम् अर्ह. पुरयितुम् " भ य थायले अर्थ मा प्रहारे थाय छे - आशु सेवा પ્રાણી થઈ શકે છે કે જે અનેક ચિત્તવાળા મનુષ્યની ઇચ્છાઓની પૂર્તિ કરવામાં સમર્થ હોય ? કારણ કે તે અનેકચિત્ત પુરૂષ અન્યવધ-ખીજાને મારવુંઆદિ અનેક સાવધ ક્રિયાએ કરવામાં ઉત્સુક બની રહે છે. આ વાતને ખતાવે छे-' से अण्णवहाए ' इत्यादि.
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शीतोष्णीय-अध्य० ३ उ. २ वा । भावकेतनम् इच्छा, लोभः। अत्र भावकेतनापेक्षया केतनशब्दः प्रयुक्तः। उक्तं च भगवता-"जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढइ" इत्यादि। अपरं च-"न शयानो जयेन्निद्रां, न भुञ्जानो जयेत् क्षुधाम् ।
न कामयानः कामानां, लाभेनेह प्रशाम्यति " ॥१॥ (२) भाव-केतन। द्रव्य-केतन चालिनी अथवा समुद्र है, और इच्छा, लोभ, ये भाव-केतन हैं। यहां भाव-केतनकी अपेक्षाले 'केतन' शब्दका प्रयोग हुआ है । भगवानने यही बात कही है-" जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढइ।"
अर्थात्-जैसे जैसे लाभ होता है वैसे वैसे लोभ भी बढ़ता है। लाभसे लोभकी वृद्धि होती है। जो अनेक कार्यों में व्यग्रचित्त बना रहता है वह क्या भाव-केतनरूप अपनी इच्छाओंकी पूर्ति कर सकता है ? अर्थात् नहीं कर सकता ? कहा भी है--
"न शयानो जयेन्निद्रां, न भुञ्जानो जयेत्क्षुधाम् ।
"न कामयानः कामानां, लाभेनेह प्रशाम्यति ॥ १॥” इति। जिस प्रकार सोनेसे निद्रा नहीं जीती जा सकती है, और खानेसे भूख नहीं जीती जा सकती है, उसी प्रकार काम-इच्छाओं में फंसा हुवा मनुष्य इच्छाके अनुसार इष्ट वस्तुओंका लाभ होने पर भी उनसे शान्तिलाभ प्राप्त नहीं कर सकता है। फिर भी कहा है-- (१) द्रव्योतन, (२) मापतन. द्रव्योतन यासिनी मथप समुद्र छ, भने २छा અને લોભ, એ ભાવકેતન છે. આ ઠેકાણે ભાવકેતનની અપેક્ષાથી “કેતન” शनी प्रयोग थयेस छ. लगवाने से बात 3डी छ-" जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवइ ।”
અર્થાત્ જેમ જેમ લાભ થાય છે તેમ તેમ લેભ વધે છે. લાભથી લેભની વૃદ્ધિ થાય છે. જે અનેક કાર્યોમાં વ્યગ્રચિત્ત બની રહે છે. તે શું ભાવકેતનરૂપ પોતાની ઈચ્છાઓની પૂર્તિ કરી શકે છે? અર્થાત્ કરી શકતા નથી. કહ્યું પણ છે–
" न शयानो जयेन्निद्रां, न भुञ्जानो जयेत्क्षुधाम् ।
न कामयानः कामानां, लाभेनेह प्रशाम्यति"॥ १॥ इति। જેવી રીતે સુઈ રહેવાથી નિદ્રા જીતી શકાતી નથી અને ખાવાથી ભૂખ જીતી શકાતી નથી તે પ્રકારે કામઈચ્છાઓમાં ફસેલ પ્રાણી–મનુષ્ય ઈચ્છાનુસાર ઈટવસ્તુઓને લાભ થતાં છતાં પણ તેનાથી શાંતિલાભ પ્રાપ્ત કરી શકાતો નથી. વળી પણ કહ્યું છે—
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आधाराङ्गसूत्रे क्लेशाय, यथाऽनुचितकरग्रहणदण्डादिभिरधार्मिका भूपतयः। तथा जनपदपरिग्रहाय मगधादिजनपूदानां परिग्रहाय भवति-स्वस्वत्वोत्पादनेन स्वायत्तीकरणाय, युद्धादिकं करोतीत्यर्थः ॥ सू० ७॥ ___मूलम्-आसेवित्ता एयमद्वं इच्चेवेगे समुट्ठिया, तम्हा तं वीयं नो सेवे, निस्सारं पासिय नाणी ॥सू० ८॥
छाया-आसेव्य एतम् अर्थम् इत्येव एके समुत्थिताः, तस्मात्तं द्वितीयं नो सेवते निःसारं दृष्ट्वा ज्ञानी ॥ म० ८॥
टीका--' आसेवित्ता' इत्यादि । इत्येव-इच्छापूरणार्थमेव एतम्-अर्थम् संग्रह करनेके निमित्त अपनी प्रजासे अनीतिद्वारा धनका संग्रह करते हैं। किसीपर करकी वृद्धि करते हैं; किसीको अभियोगमें फंसा कर उस पर अधिक से अधिक दण्ड भी कर दिया करते हैं। इस प्रकारके भूपति अपनी प्रजाके लिये अपने अधिकृत देशके लिये क्लेशकारक या परितापदायक हुआ करते हैं। जनपदपरिग्रह-अर्थात् दूसरे राजाओं पर चढ़ाई कर वह उनके देशको अपने आधीन करनेका प्रयत्न-चेष्टा करते रहते हैं। मौका पाकर जब वह चढ़ाई कर देते हैं तब उस समय व्यर्थ में नरसंहार जैसा भयङ्कर काण्ड उपस्थित हो जाता है। उनकी इस प्रकारकी प्रवृत्ति धार्मिक नीतिसे ठीक नहीं है। क्यों कि इनकी इस प्रवृत्तिसे अन्य जीवोंको या जनपदको क्लेश तथा सन्ताप होता है। सू०७॥
'आसेवित्ता' इत्यादि।
इच्छाकी पूत्तिके लिये सातवें मूत्रमें प्रतिपादित दूसरे जीवोंका દ્વારા ધનને સ ગ્રહ કરે છે. કોઈ ઉપર કરબોજાની વૃદ્ધિ કરે છે. કોઈને અભિયોગમાં ફસાવી તેની ઉપર અધિકમાં અધિક દંડ પણ કરી નાંખે છે. આ પ્રકારનો રાજા પોતાની પ્રજા માટે અગર પોતાના અધિકૃત દેશ માટે કલેશકારક અને પરિતાતાપદાયક થયા કરે છે જનપદ પરિગ્રહ અર્થાત્ બીજા રાજાઓ ઉપર ચઢાઈ કરી તેના દેશને પોતાના અધિન કરવાના પ્રયત્નમાં રહે છે સમય મળતાં જ જ્યારે તે ચઢાઈ કરે છે ત્યારે તે વખત વ્યર્થમા નરસંહાર જેવું ભયંકર કાંડ ઉપસ્થિત થાય છે, તેની આ પ્રકારની પ્રવૃત્તિ ધાર્મિક નીતિથી ઠીક નથી, કારણ કે તેની આ પ્રવૃત્તિથી અન્ય જીવન અને જનપદને કલેશ તથા સંતાપ ઉત્પન્ન થાય છે સૂટ છો
• आसेवित्ता' इत्यादि ઈચ્છાની પૂર્તિ માટે સાતમાં સૂત્રમાં પ્રતિપાદિત બીજા જીવને વધ પરિ
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. २
૪ર૩ स इच्छापूरणार्थ प्रवर्तमानः अन्यवधाय-अन्येषां प्राणिनां वधाय भवति । यथाचौरः साहसिको वा धनापहरणार्थ धनिनं हन्ति, इत्यादि । तथा-अन्यपरितापाय: अन्येषां जीवानां परितापाय-शारीरमानसक्लेशाय अवति । तथा अन्यपरिग्रहाय =अन्येषां दासदासीनां गोमहिष्यादीनां च परिग्रहाय स्वायत्तीकरणाय भवति । तथा-जनपदवधाय-मगधादयो जनपदास्तेषां वधाय। यथा-म्लेच्छा भूपतयो म्लेच्छधर्ममस्वीकुर्वन्तं जनपदं घ्नन्तीत्यादि । तथा जनपदपरितापाय-जनपदानां ____ मनुष्य जब अपनी इच्छाकी पूर्ति के लिये प्रवृत्ति करता है तब उस की उस प्रवृत्तिसे अन्य प्राणियोंकी हिंसा होती है, अतः वह उसकी प्रवृत्ति अन्य जीवोंकी हिंसाका कारण बनती है। जैसे चोर अथवा साहसिक-डाकू-मनुष्य धनीके धनको चुराने के लिये धनीको मार डालता है। उसकी प्रवृत्तिसे अन्य जीवोंको शारीरिक तथा मानसिक परिताप-क्लेश भोगना पड़ता है। फिर वह अपनी अभिलाषाओंकी पूर्ति के लिये दासी दास आदिको तथा गाय भैंस आदिको कहींसे चुरा लाकर उनका संग्रह करनेमें व्यस्त रहा करता है । जनपद-भगधादि देशोंको वह अपनी प्रवृत्तिसे नस्त-दुःखित कर दिया करता है। जैसे म्लेच्छ राजा म्लेच्छ धर्मको अस्वीकार करनेवाली प्रजाको मार डालते हैं। उसकी प्रवृत्ति लोकोंके परितापके लिये-प्राणियोंको मार्मिक कष्ट पहुंचानेके लिए होती है । अनुचित कर-टैक्सका लेना, अनुचित दण्ड देना, इत्यादिका नाम भी परिताप है । अधार्मिक भूपति अपनी इच्छाकी पूर्ति के लिये धन
મનુષ્ય જ્યારે પિતાની ઈચ્છાની પૂર્તિ માટે પ્રવૃત્તિ કરે છે ત્યારે તેની તે પ્રવૃત્તિથી અન્ય પ્રાણીઓની હિંસા થાય છે, માટે તે તેની પ્રવૃત્તિ બીજા જીની હિંસાનું કારણ બને છે, જેમ ચાર અથવા સાહસિક-ડાકૂ પૈસાવાળા માણસના ધન ચિરી જવા માટે પૈસાવાળાને મારી નાંખે છે. તેની પ્રવૃત્તિથી અન્ય જીવોને શારીરિક તથા માનસિક પરિતાપ–કલેશ ભોગવવું પડે છે. તેમજ તે પોતાની અભિલાષાઓની પૂર્તિ માટે દાસી–દાસ આદિ તથા ગાય-ભેંસ આદિ ક્યાંયથી ચેરી લાવીને તેને સંગ્રહ કરવામાં વ્યસ્ત રહ્યા કરે છે. જનપદ–મગધાદિ દેશેને તે પોતાની પ્રવૃત્તિથી ત્રસ્ત-દુખિત કર્યા કરે છે. જેમ અ૭ રાજા મ્લેચ્છધર્મને અસ્વીકાર કરનારી પ્રજાને મારી નાંખે છે. તેની પ્રવૃત્તિ લોકોના પરિતાપ માટેપ્રાણીઓને માર્મિક કષ્ટ પહોંચાડવા માટે હોય છે. અનુચિત કરબોજા–ટેકસ લે, અનુચિત દંડ આપ, ઈત્યાદિનું નામ પણ પરિતાપ છે, અધાર્મિક રાજા પોતાની ઈચ્છાની પૂર્તિ માટે ધનસંગ્રહ કરવા નિમિત્ત પોતાની પ્રજાથી અનીતિ
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आचारागसूत्रे ____टीका--हे माहन! हे मुने! उपपातं-देवजन्म, च्यवनं देवमरणं च ज्ञात्वा अनन्य अन्यो-मोक्षमार्गादितरः असंयमः, नान्योऽनन्यः असंयमाद्भिन्नः श्रुतचारित्रात्मको धर्मस्तं चर-समाचर ॥ मू० ८॥
हे मुनि ! देवोंके उपपात-जन्म, च्यवन-मरणको जानकर तुम अनन्य-जो श्रुतचारित्ररूप धर्म है उसका सेवन करो। भावार्थ-देवोंकी आयु सागरों की होती है। इतनी बड़ी आयु होते हुए भी विषयभोगोंसे तृप्ति नहीं होती। उन देवोंको वह आयु क्षणसदृश ही लगती है और व्यतीत हो जाती है। वहां के विषयभोग भी सदा स्थिर नहीं हैं, वे भी विनश्वर हैं। जन्म-मरणका चक्कर देवगतिमें देवोंको भी भोगना पड़ता है । अतः संबोधन करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि हे मुनि! 'मनुष्यलोकके विषयभोग ही असार हैं' यह बात नहीं है, किन्तु देवलोकके भी विषयभोग इसी तरह असार हैं। इस गतिमें संयपकी आराधना नहीं होती है, संयमकी आराधना मनुष्यगनिके सिवाय अन्य किसी भी गतिमें नहीं हो सकती है, अतः इस दुर्लभ मनुष्यजन्मको विषयभोगोंकी चाहनामें अथवा उनके सेवन करनेमें नष्ट कर देना यह बुद्धिमान का कर्तव्य नहीं है। यह मत समझो कि-'संयमकी आराधनासे हम देवपर्याय प्राप्त कर वहांके विषयभोगोंको भोगते हुए सुखी हो
હે મુનિ! દેવોના ઉપપાત-જન્મ, ચ્યવન-મરણને જાણીને તમે અનન્ય જે કુતચારિત્રરૂપ ધર્મ છે તેનું સેવન કરે
ભાવાર્થ દેવોનું આયુષ્ય સાગરોનું હોય છે. આટલું મોટું આયુષ્ય હોવા છતા પણ વિષયભોગથી તૃપ્તિ થતી નથી. તે દેવને તે આયુ ક્ષણશ જ લાગે છે અને વ્યતીત થઈ જાય છે. ત્યાંના વિષયોગ પણ સદા સ્થિર નથી તે પણ વિનશ્વર છે. જન્મ મરણનું ચક્કર દેવગતિમાં દેને પણ ભોગવવું પડે છે, માટે શિષ્યને સંબંધન કરીને સૂત્રકાર કહે છે–
હે મુનિ! મનુષ્યલોકના વિષયલેગ જ અસાર છે એ વાત નથી પણ દેવલોકના પણ વિષયભગ આ માફક અસાર છે. આ ગતિમાસયમની આરાધના થતી નથી. સંયમની આરાધના મનુષ્યગતિ સિવાય અન્ય બીજી કોઈ પણ ગ. તિમાં બની શકતી નથી. માટે આ દુર્લભ મનુષ્ય જન્મને વિષયોની ચાહનામાં અને તેનું સેવન કરવામા નષ્ટ કરી નાખે તે બુદ્ધિમાનનું કર્તવ્ય નથી. એમ ન સમજશે કે “સયમની આરાધનાથી અમે દેવપર્યય પ્રાપ્ત કરી ત્યાંના વિષય
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. २
४२५ अन्यवधपरितापपरिग्रहादिकम् आसेव्य पश्चात् तृप्तिहेतुत्वाभावानिःसारं विज्ञाय, एके-भरतादयः समुत्थिताः संयमाराधने प्रवृत्तास्तेनैव भवेन सिद्धिं लब्धवन्तः । तस्माद् यतो वान्तवद्भोग परित्यज्य प्रतिज्ञा कृता 'पुन गार्थ मया न प्रतिष्यते' इति, तस्माद् ज्ञानी-सम्यग्ज्ञानवान् विषयभोग निस्सारं दृष्ट्वा, विषयभोगे कृतेऽपि तृप्त्यभावादिति भावः, भोगलिप्सया तं द्वितीयं-द्वितीयवारं नो सेवते, न पुनस्तत्रासक्तो भवतीति भावः ॥ सू०८॥ न मनुष्याणामेव भोगो निःसारः किंतु देवानामपीत्याह 'उववायं' इत्यादि।
मूलम्-उववायं चवणं च णच्चा अणणं चरमाहणे॥सू०९॥
छाया--उपपातं च्यवनं च ज्ञाला अनन्यं चर माहन ! ॥ सू० ९॥ वध परिताप एवं परिग्रहादिका सेवन करके भी जब इच्छाकी तृप्ति नहीं होती है तब कोई भरतादिक जैसे महापुरुष संयमके आराधन करनेमें प्रवृत्त होते हैं और उसी अवमें मुक्तिका लाभ भी कर लिया करते हैं। इस लिये जो छर्दित-वमन किये हुए अन्नके समान भोगोंका परित्याग कर “फिर अब मैं भोगोंके सेवन करने में प्रवृत्ति नहीं करूँगा" इस प्रकारकी प्रतिज्ञा कर लिया करते हैं, सम्यग्ज्ञानसंपन्न वे ज्ञानी पुरुष विषयभोगोंमें निस्सारताजान कर, अर्थात् “विषयभोगोंके सेवन करने पर भी जीवोंको तृप्ति नहीं होती है" इस प्रकार समझ कर फिर भोगों के सेवन करनेकी इच्छासे दूसरे मृषावाद रूप पापका अथवा असंयम का सेवन नहीं करते हैं ॥ सू० ८॥
मनुष्यों के विषयभोग ही निस्सार नहीं हैं, किन्तु देवोंके भी विषयभोग निस्सार हैं। इसी बातको समझाते हैं-'उववायं' इत्यादि। તાપ તેમજ પરિગ્રહાદિનું સેવન કરીને પણ જ્યારે ઈચ્છાની તૃપ્તિ થતી નથી ત્યારે કઈ ભરતાદિક જે મહાપુરૂષ સંયમનું આરાધન કરવામાં પ્રવૃત્ત થાય છે અને તેજ ભવમાં મુક્તિને લાભ પણ કરી લે છે. માટે વમન કરેલા અન્ન સમાન ભેગોને પરિત્યાગ કરી “હવે પછી હું ભેગનું સેવન કરવામાં પ્રવૃત્તિ નહિ કરું” આવા પ્રકારની પ્રતિજ્ઞા કરી લે છે. સમ્યગ્રજ્ઞાનસંપન્ન તે જ્ઞાની પુરૂષ વિષયભોગોમાં નિસ્સારતા જાણીને અર્થાત્ “વિષયોનું સેવન કરવા છતાં જીવેને તૃપ્તિ થતી નથી” એવા પ્રકારે સમજીને પછી ભેગેનું સેવન કરવાની ઈચ્છાથી બીજા મૃષાવાદરૂપ પાપનું અને અસંયમનું સેવન કરતા નથી. સૂ૦ ૮ છે
મનુષ્યના જ વિષયગ નિસ્સાર છે, એમ નહિ; કિન્તુ દેવના પણ વિષયसाग निस्सार छे. २॥ पातने समन छ-' उववाय' त्याहि.
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भचाराङ्गसूत्रे
वमं, तद् द्रष्टुं शीलमस्येति - अनवमी - सम्यन्दनज्ञानचारित्राराधनपरः, अत एव पापेभ्यः=पापकारणेभ्यः कर्मभ्यः =अष्टादशविधमैथुनेभ्यः निषष्णः = निवृत्तः सन् नन्दी = वैषयिकं सुखं निर्विन्दस्व - जुगुप्तस्व । कामिनीकायस्यातिनिन्द्यत्वात्चत्सङ्गननितमुखस्य हिंसादिपाप हेतुत्वाच्च चतुर्थत्रताराधने सावधानी भवेत्यर्थः ॥० ११॥ किं च- 'कोहाइ' इत्यादि ।
होती हैं उनका नाम प्रजा- स्त्री है। तथा अवम नाम मिध्यादर्शन आदिका है। उससे भिन्न सन्यग्दर्शनादिक अनवम है । इस अनवमको देखनेका जिसका स्वभाव हो वह अनवमदर्शी है। शिष्योंको ब्रह्मचर्यव्रतके पालन करने की शिक्षा देते हुए सूत्रकार कहते हैं कि हे शिष्य ! तुम स्त्रियोंके विषयमें आसक्तचित्त न बनो, स्वपमें भी उनका ध्यान न करो। तथा जघन्य फलके उत्पादक होनेसे मिथ्यादर्शनादिक अवन हैं। उनसे वि परीत अनत्रम - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र हैं ।
इन सम्यग्दर्शनादिककी आराधनासे तुम्हें भ्रष्ट बनानेवाले जो पापके कारणभून अठारह प्रकारके मैथुन हैं, उनसे निवृत्त हुए तुम नन्दी-वैषयिक सुखों की ओर सड़ा घृणादृष्टि रखो ।
भावार्थ - - स्त्रियोंका शरीर सदा अनिनिन्द्य होना है। उसके सेवन से उत्पन्न हुआ वैषयिक सुख हिंसादिक पापका कारण होता है । ऐसी श्रद्धा कर तुम चतुर्थ व्रनकी आराधना में सावधान रहो ॥ सू० ११ ॥ फिर कहते हैं-' कोहाड़माणं ' इत्यादि ।
મિથ્યાદર્શન આદિનુ છે તેનાથી ભિન્ન સમ્યગ્દર્શના િવસ છે, આ તવમને દેખવાને જેના સ્વભાવ છે તે અવમક છે. શિષ્યાને બ્રહ્મચર્યનું પાલન કરવાની શિક્ષા દેનાં સૂત્રધાર કહે છે કે કે શિષ્ય ! તને સ્ત્રીએ નટે સક્તચિત્ત ન અને. સ્વપ્નમાં પણ તેનુ ધ્યાન ન કરે તથા નિદર્શનાદિક જઘન્ય ફૂલના ઉત્પાદક હોવાથી અવમ છે. તેનાથી વિપરીત અનવત્ત સમ્યન, સમ્યન અને સમ્યકૂચરિત્ર છે તેની આરાધનાથી તમને ભ્રષ્ટ બનાવાર પિના કારણભૂત અાર પ્રકારના મૈથુન છે. તેનાથી નિવ્રુત્ત અનીને તમે નન્દી-વૈષયિક સુખેની તરફ સદા ઘણાકિય રાખે
ભાવાર્થ-સિતું શરીર સદા અતિન્ધિ હોય છે. તેા સેવનથી ઉત્પન્ન થયેલ વાચિક સુખ હિંસાદિક પાપોનુ કારણ બને છે. એવી દૃઢ શ્રદ્ધા કરી તમે આધા વ્રતની આરાધનામાં સાવધાન રહો! સૂ॰૧૧ !
वोडे - कोहाइनागं प्रत्यादि
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. किं च--' से ण छणे' इत्यादि ।
मूलम्-से ण छणे ण छणावए छणंतं णाणुजाणए ।सू०१०॥ छाया-स न क्षणुयात् , न क्षाणयेत्, क्षण्वन्तं नानुजानीयात् ॥१०॥
टीका-सा श्रुतचारित्रधर्माराधनपरो मुनिः, माणिनो न क्षणुयात्-न हन्यात् , न क्षाणयेत्-न घातयेत् , क्षण्वन्तं-नन्तमन्यं नानुजानीयात् नानुमोदयेदित्यर्थः ।।
अथ चतुर्थव्रतसिद्धयर्थमुपदिशति- निविद' इत्यादि । ___ मूलम्-निविद नंदि, अरए पयासु, अणोमदंसी निसपणे पावेहिं कस्मेहि ॥ सू० ११ ॥
छायानिविन्दस्व नन्दीम् , अरक्तः प्रजासु, अनवमदर्शी निषण्णः पापेभ्यः कर्मभ्यः ।। सू० ११ ॥ __टोका-प्रजासु-प्रजायन्ते सुतादयो यासु ताः प्रजाः स्त्रियस्तासु, अरक्ता अनासक्तः, तथा अवमं नीचं नीचफलोत्पादकखाद् मिथ्यादर्शनादि, तद्भिन्नम् अनजायेंगे कारण कि वहांक विषयभोग भी असार ही हैं, अतः निदान रहित हो कर ही तुम श्रुतचारित्ररूप धर्मकी आराधना करो ॥ सू० ९॥
फिर भी कहते हैं-' से ण छणे' इत्यादि ।
श्रुतचारित्ररूप धर्मकी आराधना करने में तत्पर हुआ मुनि कभी भी स्वयं प्राणियोंकी हिंसा न करे, दूसरोंसे हिंसा न करावे और हिंसा करनेवालोंकी अनुमोदना भी न करे ॥ सू० १०॥
इसके बाद चतुर्थवत (ब्रह्मचर्यव्रत) की सिद्धि के लिये उपदेश करते हैं-'निविद नंदि इत्यादि।
'प्रजायन्ते सुतादयो यातु ताः प्रजाः' पुत्रादि सन्तान जिनमें उत्पन्न ભેગોને ભોગવતાં સુખી થઈ જશું.” કારણ કે ત્યાંના વિષયસેગ પણ અસાર જ છે. માટે નિદાનરહિત બનીને જ તમે મૃતચારિત્રરૂપ ધર્મની આરાધના કરો. કેસૂલા
३२ ५४ ४ छ--' से ण छणे' छत्याहि.
મૃતચારિત્રરૂપ ધર્મની આરાધના કરવામાં તત્પર બનેલ મુનિ કદિ પણ સ્વયં પ્રાણીઓની હિંસા ન કરે. બીજા પાસે હિંસા ન કરાવે અને હિંસા કરવાવાળાની અનુમોદના પણ ન કરે. સૂટ ૧૦ છે
ત્યાર બાદ ચતુર્થવ્રત (બ્રહ્મચર્યવ્રત)ની સિદ્ધિ માટે ઉપદેશ કરે છે– ‘निविद नंदि' छत्यादि.
'प्रजायन्ते सुतादयो यासु ताः प्रजाः'પુત્રાદિ સંતાન જેમાં ઉત્પન્ન થાય છે તેનું નામ પ્રજા-સ્ત્રી છે. તથા અવમનામ
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आचारागसूत्रे ___ यथेवं ततः किं कर्तव्यमित्याह- तस्मात् ' इत्यादि । लोभाविष्टाः प्राणिहिंसनादौ प्रवृत्त्या नरकं प्राप्नुवन्ति, तस्माद् वीरः कर्मविदारणोत्साहयुक्तो वधातूमाणिनां हिंसनाद् विरतः सर्वथा निवृत्तः स्यात् । किंच-लघुभूतगामी-लघुर्भूत आत्मा येन स लघुभूतो मोक्षः, तं गन्तुं शीलमस्येति लघुभूतगामी, यद्वा-'लघुभूतकामी' इतिच्छाया, तत्र आत्मानं लघुभूतं कामयते इति लघुभूतकामी-मोक्षामिलापी, मोक्षमार्गारूढः शोकं, 'स्रोत' इतिच्छायापक्षे स्रोतो-भावस्रोतोवा कर्मकारणं, छिन्यातव्यपनयेत् ॥ मू० १२ ॥ सर्वरीतिसे दूर ही रहना चाहिये । हिंसादिक पापकर्मोंसे सदा तीन करण तीन योगसे अर्थात् मन, वचन और काय, एवं कृत कारित और अनुमोदना से जो दूर रहता है वह कर्मवन्धके भारसे भारी नहीं होता है। ऐसे व्यक्तिकी आत्मामें स्वाभाविक रौतिसे लाघव गुणका आविर्भाव होता है और उससे ऊर्ध्वगतिकी प्राप्ति होती है। 'लघुभूत' शब्दका अर्थ मोक्ष है, क्यों कि मुक्तिका लाभ उसी आत्माको होता है कि जिस से कमेंका भार उतर जाता है। कर्मका भार उतर जानेसे आत्मा स्वाभाविक रीतिसे लघु-हल्का हो जाता है। जो चीज वजनमें हल्की होती है वह स्वभावसे ही ऊपरकी ओर उठती है । आत्मा भी जब कर्मवन्धनसे रहित हो जाती है तब इसका भी स्वभाव स्वतः ऊध्र्वगमन करने का हो जाता है । सकल कर्मोका क्षय होना ही आत्माकी मुक्ति है । इस मुक्तिको प्राप्त करनेका जिसका स्वभाव है वह लघुभूतगामी है। अथवा 'लघुभूयगामी' इस पदकी छाया लघुभूतकामी ' ऐसी भी होती है। હિંસાદિક પાપકર્મોથી સદા ત્રણ કરણ ત્રણ યુગથી અર્થાત્ મન વચન કાયા અને કૃત કારિત અને અમેદનાથી જે દૂર રહે છે તે કર્મબંધના ભારથી ભારી થતા નથી. એવી વ્યક્તિના આત્મામાં સ્વાભાવિક રીતથી લાઘવ ગુણને આવિભવ થાય છે અને તેનાથી ઉર્ધ્વગતિની પ્રાપ્તિ થાય છે “લઘુભૂત” શબ્દનો અર્થ મોક્ષ છે કારણ કે મુક્તિનો લાભ તે આત્માને થાય છે કે જેથી કમને ભાર ઉતરી જાય છે કર્મનો ભાર ઉતરી જવાથી આત્મા રવાભાવીક રીતિથી લઘુ હલકો બને છે. જે ચીજ વજનમાં હલકી થાય છે તે સ્વભાવથી જ ઉપરની તરફ ઉઠે છેઆત્મા પણ જ્યારે કર્મબ ધનથી રહિત થઈ જાય છે ત્યારે તેને પ! સ્વભાવ સ્વતઃ ઊર્ધ્વગમન કરવાનો થઈ જાય છે સકલ કર્મોને ક્ષય થવો તે જ આત્માની મુક્તિ છે. તેવી મુક્તિને પ્રાપ્ત કરવાને જેને સ્વભાવ છે તે अधुभूतामा छ. अन मधुमयमा ' मा पहनी छाया 'लघुभूतकामी ' सभ ५५Y
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માય કરવાનો જેને સ્વભાવ છે તે
લઘુભૂતગામી છે. અને લઘ
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शीतोष्णीय-अध्य० ३ उ. २
४२९ ___मूलम्-कोहाइमाणं हणिया य वीरे, लोभस्स पासे निरयं महंतं । तम्हा य वीरे विरए वहाओ, छिन्दिज्ज सोयं लहुभूयगामी ॥ सू० १२॥ ___ छाया-क्रोधादिमानं हन्यात् च वीरः लोभस्य पश्य निरयं महान्तम् । तस्माच्च वीरो विरतो वधात् छिन्द्यात् शोकं लघुभूतगामी ॥ मू० १२॥
टीका-वीर: कर्मविदारणसमर्थः, क्रोधादिमान-क्रोधादीनां मानम् अनन्तानुबन्ध्यादिविशेषं हन्यात्-निवारयेत् । यद्वा-क्रोध आदिर्यस्य स क्रोधादिः, स चासौ मानश्च क्रोधादिमान:-क्रोधहेतुको गर्वस्तं हन्यादित्यर्थः। लोभस्यानन्तानुवन्ध्यादेविपाकं महान्तं दुस्तरं निरयं-नरकं पश्य । उक्तञ्च-'मच्छा मणुआ य सत्तमि पुढषि' इति। अतिलोभाविष्टा मनुष्यास्तन्दुलमत्स्यादयश्च सप्तमपृथिवी भाजो भवन्तीति भावः।
कर्मों के विनाश करनेकी शक्तिसे संपन्न वीर क्रोधादिक कषायों के अभिमानको अर्थात् अनन्तानुबन्धी आदि क्रोध मान माया और लोभको दूर करे । अथवा-क्रोध है आदिमें जिसके वह क्रोधादि है। क्रोधादिरूप जो मान उसका नाम क्रोधादिमान है। जिस गर्वका हेतु क्रोध है उस क्रोधादिकारणक मानको वह नष्ट करे । अनन्तानुबन्धी आदि कषाय सम्बन्धी लोभके विपाकको सदा दुस्तर नरक ही समझना चाहिये । कहा भी है-" मच्छा मणुआ य सत्तलिं पुढविं" अति लोभसे युक्त मनुष्य और मत्स्य-तन्दुलमत्स्य आदि भरकर सातवें नरकमें जाते हैं । जब यह निश्चित सिद्धान्त है कि लोभसे युक्त प्राणी हिंसादिक पापकर्मों में प्रवृत्तियुक्त होनेसे मरकर नरक गतिमें जाते हैं तो जो कौंको नाश करनेवाली शक्तिसे युक्त वीर हैं उन्हें प्राणियोंकी हिलाले सदा
કર્મોના વિનાશ કરવાની શક્તિથી સંપન્ન વીર મુનિ, ક્રોધાદિક કષાયેના અભિમાનને અર્થાત અનન્તાનુબધી આદિ કોધ, માન, માયા અને લેભને દૂર કરે. અથવા કોધ છે આદિમાં જેને તે કોધાદિ છે ક્રોધાદિરૂપ જે માન તેનું નામ ક્રોધાદિમાન છે. જે ગર્વને હેતુ ક્રોધ છે, તે ક્રોધાદિકારણક માનને તે નાશ કરે, અનતાનુબધી આદિ કષાય સંબંધી લોભના વિપાકને સદા દુસ્તર નરક જ सभा मे, युं छ-"मच्छा मणुआ य सत्तमि पुढविं" पति सोमयी યુક્ત મનુષ્ય અને મત્સ્ય-તન્દુલમસ્ય આદિ મરીને સાતમી નરકમાં જાય છે.
જ્યારે એ નિશ્ચિત સિદ્ધાંત છે કે લેભથી યુક્ત પ્રાણી હિસાદિક પાપ કર્મોમાં પ્રવૃત્તિ યુક્ત હોવાથી મરીને નરક ગતિમાં જાય છે તે જે કર્મોને નાશ કરવાવાળી શક્તિથી યુક્ત વીર છે તેને પ્રાણુઓની હિંસાથી સદા સર્વ રીતિથી દૂર જ રહેવું જોઈએ.
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જરૂર
आचाराङ्गसूत्रे ___ इह संसारहूदे मानुष्येपु-मनुष्यभवेषु, उन्मज्जनं-जन्मरूपं लब्ध्वा, मनुष्यभवादन्यत्र संपूर्णमोक्षमार्गप्राप्स्यसंभवादिदं दुर्लभमिति भावः; प्राणिनां-जीवानां ___ इस संसारमें मनुष्यभवकी प्राप्ति दुर्लभ है। यदि कोई पुण्यानुबन्धी पुण्यके उदयसे इस मनुष्यभवकी प्राप्ति तुम्हें हुई है तो तुम इस अमूल्य जीवनको व्यर्थ हिंसादिक कार्यों में लगाकर नष्ट न करो। इसी बात को समझाते हुए सूत्रकार शिष्योंके प्रति कहते हैं-मनुष्यभवके सिवाय अन्य किसी भी भवमें संपूर्ण मोक्षमार्गकी प्राप्ति जीवको नहीं होती है इसीलिये ज्ञानियोंने इसकी प्राप्ति दुर्लभ बतलाई है। इसे प्राप्तकर जीवोंके दस द्रव्य प्राणों (५ इन्द्रिय, ३ वल, १ आयु और १ श्वासोच्छ्वास१०) का वियोग करने में ही इसे व्यर्थ गंवा देना यह बुद्धिमान मनुष्यका काम नहीं है । इस मनुष्यभवकी प्राप्तिकी सफलता तो जब ही है कि इससे संयमका आराधन किया जाय और मुक्तिमार्गका पथिक बना जाय । इसलिये हे शिष्य ! तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम इस दुर्लभतम मनुष्यभवको पाकर व्यर्थ हिंसादिक कार्यों में न फंसकर मोक्षमार्गके पथिक बनो और अपने इस मनुष्यभवको सफल बनाओ, यही सूत्रका आशय है । अर्थात्-अनुष्यभवमें जन्म प्राप्त कर तुम प्राणियोंके प्राणोंका
આ સંસારમાં મનુષ્ય ભવની પ્રાપ્તિ મહા દુર્લભ છે. કદાચ કોઈ પુણ્યાનુબંધી પુણ્યના ઉદયથી આ મનુષ્યભવની પ્રાપ્તિ તમને મળી છે તે તમો આ અમૂલ્ય જીવનને વ્યર્થ હિંસાદિક કાર્યોમાં લગાવીનર્ણન કરે. આ વાતને સમજાવતાં સૂત્રકાર શિષ્યો પ્રતિ કહે છે–મનુષ્ય ભવ સિવાય બીજા કોઈ પણ ભવમાં સંપૂર્ણ મોક્ષમાર્ગની પ્રાપ્તિ જીવને થતી નથી. માટે જ્ઞાનીઓએ તેની પ્રાપ્તિ દુર્લભ બતાવી છે. તેને પ્રાપ્ત કરી જીવના દશદ્રવ્ય પ્રાણ (૫ ઈન્દ્રિય, ૩ બળ, આયુ અને શ્વાસોસ-૧૦)ને વિયોગ કરવામાં જ તેને વ્યર્થ ગુમાવે તે બુદ્ધિમાન મનુષ્યનું કામ નથી.
આ મનુષ્યભવની પ્રાપ્તિની સફળતા તો ત્યારે જ છે કે તેનાથી સંયમનું આરાધન કરવામાં આવે અને મુક્તિ માર્ગને પથિક બની જાય, તેથી હે શિષ્ય ! તમારું કર્તવ્ય છે કે તમે આ દુર્લભ મનુષ્ય ભવ મેળવીને વ્યર્થ હિંસાદિક કાર્યોમાં ન ફસતાં મોક્ષમાર્ગના પથિક બને, અને પિતાના આ મનુષ્યભવને સફળ બનાવે એ જ સૂત્ર આશય છે. અર્થાત મનુષ્યભવમાં જન્મ પ્રાપ્ત કરી તમે પ્રાણીઓના
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. २ किंच-'गंथं ' इत्यादि।
मूलम्-गंथं परिणाय इहऽज्ज धीरे, सोयं परिणाय चरिज्ज दंते। उम्मज्ज लधुं इह माणुसेहि, नो पाणिणं पाणे समारभिज्जासि-त्ति बेमि ॥ सू० १३ ॥ ___ छाया-ग्रन्थं परिज्ञाय इहाय धीरः, स्रोतः परिज्ञाय चरेद् दान्तः। उन्मज्जनं लब्ध्वा इह मानुष्येषु नो प्राणिनां प्राणान् समारभेथाः । इति ब्रवीमि ॥सू० १३॥
टीका-इह संसारे मनुष्यलोके वा, अद्यैव-कालानतिक्रमेण, धीरः सन् ग्रन्थं बाह्याभ्यन्तरभेदाद् द्विविध परिज्ञाय-ज्ञपरिज्ञया बन्धकारणत्वेन विज्ञाय, प्रत्याख्यानपरिक्षया परिवर्जयेत् । किं च स्रोता भावनोतो विपयासक्तिरूपं संसारं परिज्ञाय ज्ञात्वा दान्तः इन्द्रियनोइन्द्रियदमनशीलः चरेत्-संयममाचरेत् । इसका अर्थ यह होता है कि मोक्षका जो अभिलाधी है वह लघुभूतकामी है । मोक्षाभिलाषी मोक्षमार्गपर आरूढ होता हुआ शोक को, अथवा कौके आस्रवके कारणभूत भावस्रोतको अपनी आत्मासे सदा दूर करे ॥ सू० १२॥
और भी कहते हैं-'गंथं परिणाय' इत्यादि ।
इस संसार अथवा मनुष्यलोकमें आत्मार्थी को समय बिताना व्यर्थ है। जहां तक हो सके जल्दी से जल्दी धैर्यशाली बन कर बाह्य
और आभ्यन्तर परिग्रहको ज्ञपरिज्ञासे बन्धका कारण जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञाले उसका त्याग करे। तथा विषयों में आसक्तिरूप संसार को जान कर पंच इन्द्रिय एवं भनका दमन करता हुआ संयमकी आराधनामें अपनेको लगावे ।। થાય છે. તેનો અર્થ એ થાય છે કે મોક્ષને જે અભિલાષી છે તે લઘુભૂતકામી છે. મોક્ષાભિલાષી મોક્ષ માર્ગ ઉપર આરૂઢ થઈને શેકીને અથવા કર્મોના આસવના કારણભૂત ભાવોતને પોતાના આત્માથી સદા દૂર કરે છે સૂ૦ ૧૨
२२॥ ४९ -'गंथं परिणाय' त्यादि.
આ સંસાર અને મનુષ્ય લેકમાં આત્માર્થી માટે સમય વિતાવ વ્યર્થ છે. જ્યાં સુધી બની શકે જલદીમાં જલદી બૈર્યશાળી બનીને બાહ્ય અને આભ્યન્તર પરિગ્રહને જ્ઞપરિજ્ઞાથી બંધનું કારણ જાણી પ્રત્યાખ્યાનપરિજ્ઞાથી તેને ત્યાગ કરે. તથા વિષયેમાં આસક્તિરૂપ સંસારને જાણીને પાંચ ઈન્દ્રિય અને મનનું દમન કરીને સંયમની આરાધનામાં પિતાને લગાડે
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॥ अथ तृतीयाध्ययनस्य तृतीय उद्देशः ॥ इहानन्तरद्वितीयोद्देशके जात्या वृद्धया च दुःखं, तद्भयाच्च शीतोष्णपरीपहसहनं च प्रतिबोधितम् । अथ तत्सहनमात्रेण पापकर्मानाचरणमात्रेण वा चारित्राचरणरहितः श्रमणो न भवतीति प्रतिवोधयितुं तृतीयोद्देशकं प्रस्तुवन् प्रथमं मूत्रमाह'संधि लोगस्स' इत्यादि।
मूलम्-संधि लोगस्स जाणित्ता ॥ सू० १॥ छाया-सन्धि लोकस्य ज्ञात्वा ॥ सू० १॥
। तीसरे अध्ययनका तीसरा उद्देश । इसके द्वितीय उद्देशमें प्राणियोंकी गर्भसे लगा कर बालादि वृद्धावस्था पर्यन्त सब ही अवस्थाएँ दुःखोंसे समन्वित हैं, उन दुःखोंसे भयभीत प्राणियोंको आत्मकल्याणके मार्गस्वरूप संयमकी आराधना करनी चाहिये, इस आराधनामें उन्हें शीत-उष्ण परीषहोंको सहन करना चाहिये, यह सब विषय बतलाया जा चुका है, अर्थात् मोक्षाभिलाषीके लिये यह सब समझाया जा चुका है। अब इस तीसरे उद्देशमें यह समझाया जायगा कि जो चारित्रके आचरणसे रहित है वह भले ही शीत उष्ण परीषहोंको सहे, पापकोंको न भी करे तो भी वह श्रमण नहीं है। इसी अभिप्रायको ले कर सूत्रकार प्रथम सूत्रको कहते हैं-'संधि' इत्यादि।
ત્રીજા અધ્યયનને ત્રીજો ઉદ્દેશ અગાઉના બીજા ઉદેશમાં પ્રાણીઓની ગર્ભથી માંડી બાલાદિ વૃદ્ધાવસ્થા પર્યન્ત સઘળી અવસ્થાઓ દુઃખોથી ભરેલી છે, તે દુઃખોથી ભયભીત પ્રાણીઓને આત્મકલ્યાણના માર્ગ સ્વરૂપ સયમની આરાધના કરવી જોઈએ. આ આરાધનામાં તેણે શીત અને ઉષ્ણ પરીષહો સહન કરવા જોઈએ આ સઘળા વિષયે બતાવવામાં આવેલ છે. અર્થાત્ મેક્ષાભિલાષી માટે આ સઘળું સમજાવવામાં આવેલ છે. હવે આ ત્રીજ ઉદેશમાં એ સમજાવવામાં આવશે કે જે ચારિત્રના આચરણથી રહિત છે તે ભલે શીત અને ઉણુ પરીષહો સહન કરે, પાપકર્મો પણ ભલે ન કરે, તે પણ તે શમણું નથી. આ અભિપ્રાયને લઈને સૂત્રકાર પ્રથમ સૂત્ર કહે છે – 'सर्षि लोगस्स' त्यादि
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. २
४३३
1
प्राणान् = पञ्चेन्द्रियवलत्रयोच्छ्वासनिःश्वासायुष्करूपान् दशविधान् नो समारभेथाः = नातिपातयेरित्यर्थः । प्राणिनां प्राणातिपातं मा कृथा इति भावः । इति ब्रवीमि - इतिशब्दः उद्देशपरिसमाप्तिबोधकः, ब्रवीमि यथा भगवन्मुखान्मया श्रुतं तथा कथयामीत्यर्थः ॥ सू० १३॥
॥ इति तृतीयाध्ययनस्य द्वितीयोदेशः सम्पूर्णः ॥ ३-२ ॥
व्यपरोपण मत करो । ' इति ' शब्द इस उद्देशकी समाप्तिका सूचक है । "ब्रवीमि " यह पद बतलाता है कि जैसा मैंने भगवान् के मुखसे सुना है वैसाही तुमसे कहा है ॥ सू० १३ ॥
॥ तीसरे अध्ययनका दूसरा उद्देश समाप्त ॥ ३-२॥
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प्राणानो धात न ४. " इति शब्द या उदेशनी समाप्तिनुं सूय छे. " ब्रवी મે ભગવાનના મુખથી સાંભળ્યુ છે તેવું જ તમોને
આ પદ મતાવે છે કે જેવું કહ્યુ' છે ! સૂ૦ ૧૩ ॥
ત્રીજા અધ્યયનનો ખીજે ઉદ્દેશ સમાસ ॥ ૩~૨ ॥
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आचाराङ्गसूत्रे यतः सर्वेषां प्राणिनां सुखेऽभिलापो दुःखे द्वेपः, तस्मात् तेषां न हन्तान प्राणातिपातकः स्यात् । अन्यैरपि तान् न विघातयेत् , घ्नन्तमन्यं नानुमोदयेत् । यद्यपि कुतीथिका उद्दिश्यभोजिनो द्रव्यलिङ्गिनो दण्डिनश्च स्वयं पाकादिभिः स्थूलान् पाणिनो न ध्नन्ति, तथाप्यन्यैर्घातयन्ति ॥ सू० २॥ संसारी जीवोंको भी यह सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है। इस लिये उन जीवोंके प्राणोंको मैं किसी भी रूपमें कष्ट न पहुँचाऊँ, दूसरोंसे भी उन्हें मैं कष्ट न पहुंचवाऊं, कष्ट देनेवाले या घात करनेवाले अन्यकी मैं अनुमोदना भी न करूँ। यद्यपि कुतीर्थिक-अन्यमतावलम्बी साधु सन्यासी, उद्दिष्टभोजी, द्रव्यलिङ्गी, तथा दण्डी आदि स्वयं रसोई आदि पकाकर नहीं खाते पीते हैं, इस प्रकार वे स्वयं स्थूल जीवोंकी हिंसा नहीं करते हैं फिर भी दूसरोंसे अपने लिये जीवोंकी हिंसा कराते ही हैं, क्यों कि वे अपने निमित्त पाकादि आरंभ दूसरोंसे कराते हैं, उस आरंभ में जो हिसा होती है उसका निमित्त उन्हें होना पड़ता है।
भावार्थ--सच्चे मुनि होनेके लिये प्राणातिपातादिक पापोंका त्याग मन वचन और कायसे, एवं कृत कारित और अनुमोदनासे करना चाहिये तभी आत्मामें साधुता आती है। ऊपर-ऊपरसे हिंसादि पाप छोड़नेसे अथवा हिंसादिक पाप स्वयं न करने से मुनिपना नहीं आता है। उसकी प्राप्तिके लिये जिस प्रकार जीव स्वयं हिंसाका त्याग करता है, उसी प्रकार वह दूसरोंसे अपने निमित्त हिंसादिक नहीं करा सकता है, और પણ આ સુખ પ્રિય અને દુ ખ અપ્રિય છે માટે તે જીવોને હું કોઈ પણ પ્રકારે દુઃખ ન પહોંચાડું, બીજાથી પણ તેઓને દુખ ન પહોંચડાવું, કષ્ટ દેવાવાળા અને ઘાત કરવાવાળા બીજાઓની હું અનુમોદના પણ ન કરું કદાચ કુતીર્થિક અન્યમતાવલી સાધુ સન્યાસી ઉદ્દિષ્ટભંજી દ્રવ્યલિંગી તથા દડી વિગેરે સ્વય રસેઈ આદિ પકાવીને ખાતા પીતા નથી, તે પ્રકારે તેઓ સ્વય સ્કૂલ જીવોની હિંસા કરતા નથી તે પણ બીજાથી પિતાને માટે જેની હિંસા કરાવે છે જ. કારણ કે તેઓ પોતાના નિમિત્ત પાકાદિ આરંભ બીજાઓથી કરાવે છે. તે આરંભમાં જે હિંસા થાય છે તેનું નિમિત્ત તેને થવું પડે છે
ભાવાર્થ–સાચા મુનિ થવા માટે પ્રાણાતિપાતાદિક પાપને ત્યાગ મન વચન અને કાયાથી તેમજ કૃત કારિત અને અનુમોદનાથી કરવો જોઈએ, ત્યારે જ આત્મામા સાધુતા આવે છે ઉપર–ઉપરથી હિંસાદિ પાપ છોડવાથી અને હિંસાદિક પાપ સ્વયં ન કરવાથી મુનિપણુ આવતું નથી. તેની પ્રાપ્તિ માટે જે પ્રકારે જીવ સ્વય હિંસાને ત્યાગ કરે છે તે પ્રકારે તે બીજાઓથી પણ પિતાને નિમિત્ત હિંસાદિક
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. ३ ___संधानं सन्धिः त्रुट्यतः पुनः संमीलनं, स द्विधा-द्रव्यसन्धिर्भावसन्धिश्चेति । तत्र द्रव्यसन्धिः कुड्यवस्त्रादेः संधानं, भावसन्धिः चारित्रमोहनीयक्षयोपशमः, तं ज्ञात्वा-विदित्वा ज्ञातवत इत्यर्थः, लोकस्य-क्षायोपशमिकादिभावलोकस्य प्रमादः श्रेयसे न भवति । यद्वा-सन्धिः श्रुतचारित्रलक्षणो धर्माराधनावसरः, तं ज्ञात्वा लोकस्य-पड्जीवनिकायरूपस्य दुःखोत्पादन न कुयात् ।। मू०१॥ सर्वत्रात्मौपम्येन सुख दुःखं वा जानीयादित्याह-'आयओ' इत्यादि ।
मूलम्-आयओ बहिया पास, तम्हा न हंतान विघायए ॥२॥ छाया-आत्मतो बहिः पश्य । तस्मान हन्ता न विघातयेत् ॥सू० २ ॥
टीका-आत्मतः यथाऽऽत्मनः सुखं प्रियं, दुःखमप्रियम् , तथा-वहि:आत्मव्यतिरिक्तानां प्राणिनामपि पश्य जानीहि । आत्मतुल्यं सुखं दुःखं सर्वप्राणिनां विज्ञाय किं कर्तव्यमित्याह-'तस्माद्' इत्यादि ।
टूटी वस्तुको जोड़ना इसका नाम संधि है । वह दो प्रकारकी है(१) द्रव्यसन्धि, (२) भावसन्धि । भीत और वस्त्र आदिका जोड़नायह द्रव्य सन्धि, और चारित्रमोहनीयका क्षयोपशम भावसन्धि है। इस सन्धिके ज्ञाता मुनिको क्षायोपशमिकादि भावलोकके विषयमें प्रमाद करना उचित नहीं है । अथवा श्रुतचारित्ररूप धर्मके आराधनका अवसर भी सन्धि है। इसको जानकर षड्जीवनिकायरूप लोकको दुःख उत्पन्न न करे ॥ सू०१॥
'समस्त संसारी जीवोंको सुख तथा दुःख मेरे ही समान प्रिय और अप्रिय हैं। ऐसा जानना चाहिये, इसे स्पष्ट करते हैं-'आयओ' इ०
संयमी जीव सदा इस बातका पूर्ण ध्यान रखे कि-जिस प्रकार मुझे सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है उसी प्रकार मुझसे भिन्न अन्य समस्त
- ભાંગી ગયેલ વસ્તુને જોડવી તેનું નામ સંધિ છે. તે બે પ્રકારની છે. (૧) દ્રવ્યસંધિ (૨) ભાવસંધિ. ભીંત અને વસ્ત્ર આદિનું જોડવું તે દ્રવ્યસંધિ અને ચારિત્રમોહનીય ક્ષપશમ ભાવસંધિ છે. આ સંધિના જ્ઞાતા મુનિને ક્ષાપશમિકાદિ ભાવલોકના વિષયમાં પ્રમાદ કરવો ઉચિત નથી. અથવા શ્રતચારિત્રરૂપ ધર્મનાં આરાધનને અવસર પણ સંધિ છે. તેને જાણીને ષજીવનિકાયરૂપ લોકોને દુખ ઉત્પન્ન ન કરે છે સૂ૦ ૧ A સમસ્ત સંસારી જીવોને સુખ અને દુઃખ મારી જ માફક પ્રિય અને અप्रिय छे, मेg on नये, तेने स्पष्ट ४२ छ–'आयओ'त्यादि.
સંયમી જીવ સદા એ વાતનું પૂર્ણ ધ્યાન રાખે કે જે પ્રકારે મને સુખ પ્રિય અને દુખ અપ્રિય છે તે પ્રકારે મારાથી ભિન્ન અન્ય સમસ્ત સંસારી જીવોને
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आचारागसूत्रे पेक्ष्य-मनसि विचार्य न करोति । तत्र-पापकर्मानाचरणे तस्य किं मुनिः=मुनित्वं कारणं स्यात् ? न, यतस्तत्र पापकर्मानाचरणे अन्योन्यविचिकित्सैव कारणं, न तु मुनिखम् । यस्तु मुनिर्भवति तस्यैव मुनित्वं पापकर्मानाचरणे कारणं भवतीति । यद्वा-'किम् ' इति काक्वा निर्देशः । 'मुणी' इति सप्तम्यन्तम् , ततश्च-'मुनौ'इतिच्छाया । तत्र-तस्मिन् मुनौ-मुनित्वे किं पापकर्मानाचरणमेव कारणम् ? अपि तु न, नहि अन्योन्यविचिकित्सया पापमननुतिष्ठन् मुनिर्भवतीति । तर्हि कथं मुनिभवति ? इत्याह-' समयं तत्थुव्वेहाए ' इत्यादि । तत्र समयम् आगमम् उत्प्रेक्ष्य पर्यालोच्य आत्मानं विप्रसादयेत्, जिनप्रवचनरहस्यपर्यालोचनेनात्मानमप्रमादशुभभावनादिभिर्विविधैरुपायैः प्रसन्नं कुर्यादित्यर्थः । शुभाध्यवसायपूर्वकमागमोक्तानुसारेण यदनुष्ठानं तत्सर्वं मुनित्वे कारणमिति भावः। इदं निश्चयनयाभिप्रायेण । परस्परमें आशा, भय अथवा लज्जा है, न कि मुनित्व । वह तो इन्हीं सब बातोंको मनमें विचार कर पापानुबन्धी कर्म जो पचन पाचन एवं परिग्रह आदि हैं उन्हें नहीं करता है।
अथवा-परस्परकी आशङ्का या भयादिसे पापकर्मोंका नहीं करना क्या यही मुनिपनाका कारण है ? इस प्रकारकी आशङ्काका उत्तर देते हैं'समयं तत्थुव्वेहाए' इत्यादि । समय शब्दका अर्थ 'आगम' तथा 'उत्प्रेक्ष्य' शब्द का अर्थ 'विचार कर' है, अर्थात्-जिनप्रतिपादित आगमके रहस्यका विचार कर 'अप्पाणं विप्पसायए' आत्मानं विप्रसादयेत्, मुनि अपनी आत्माको अप्रमाद एवं शुभ भावनादिक विविध उपायों से प्रसन्न करे। शुभ अध्यवसायपूर्वक आगमप्रतिपादित विधिके अनुसार जो अनुष्ठान मुनि-अवस्थामें करनेयोग्य कहे गये हैं वे सब करे, ये ही अनुठान मुनिपनामें कारण हैं। यह कथन निश्चय नयके अभिप्रायसे किया है। અથવા લજજા છે, ન કે મુનિત્વ. તેઓ (મુનિઓ) તે આ સઘળી વાતને મનમાં વિચાર કરી પાપાનુબ ધી કર્મ જે પચન-પાચન અને પરિગ્રહ આદિ છે તેને કરતા નથી
અથવા–પરસ્પરની આશકા અથવા ભયાદિથી પાપકર્મોનુ નહિ કરવું તે शुभुनिपानु ॥२९५ छ ? या प्रारनी भाशानु स्पष्टी४२७ ४२ छ-' समय तत्यवेहाए 'त्यादि समय नो मथ आगम' तथा 'उत्प्रेक्ष्य ' ने! અર્થે વિચાર કરી” છે અર્થાત્ જીનપ્રતિપાદિત આગમના રહસ્યને વિચાર કરી 'अपाणं विप्पसायए' आत्मानं विप्रसादयेत्-भुनि पाताना मात्माने समाह मने शुल ભાવનાદિકવિવિધ ઉપાથી પ્રસન્ન કરે શુભ અધ્યવસાયપૂર્વક આગમપ્રતિપાદિત વિધિઅનુસાર જે અનુષ્ઠાન મુનિ અવસ્થામાં કરવાગ્ય કહેવામા આવેલ છે તે સઘળા કરે તે જ અનુષ્ઠાન મુનિ પણાનું કારણ છે. આ કથન નિશ્ચયનયના અભિપ્રાયથી કરેલ છે.
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. ३ ____ पापकर्मानाचरणमात्रेण श्रमणो न भवति किं तु सम्यगास्रवनिरोधेनेत्याह'जमिणं' इत्यादि।
मूलम्-जमिणं अन्नमन्नवितिगिच्छाए पडिलेहाए न करेइ पावं कम्मं, किं तत्थ मुणी कारणं सिया ?, समयं तत्थुव्वेहाए अप्पाणं विप्पसायए ॥ सू० ३ ॥
छाया—यदिदम् अन्योन्यविचिकित्सया प्रत्युपेक्ष्य न करोति पापं कर्म । किं तत्र मुनिः कारणं स्यात् ? समयं तत्रोत्प्रेक्ष्य आत्मानं विप्रसादयेत् ॥मू० ३।। ___टीका-यदिदं पापं-पापानुवन्धि कम-पचनपाचनपरिग्रहादिलक्षणम् अन्योन्यविचिकित्सया-विचिकित्सा-आशङ्का भयं लज्जावा, अन्योन्यस्य परस्परस्य या विचिकित्सा आशङ्का, यद्वा-अन्योन्यस्मात् परस्परतो भयं लज्जा वा, तया प्रत्युन अपने लिये हिंसा करनेवालोंकी अनुमोदना ही कर सकता है। यदि ऐसा करता है तो वह साधु नहीं कहला सकता। जो साधु हो कर जीवहिंसाके भयसे स्वयं पाकादिक क्रिया तो नहीं करते हैं परन्तु उद्दिष्ट भोजन लेते हैं, तथा अपने लिये दूसरोंसे भोजन तैयार करवाते हैं वे नव कोटिसे हिंसा के त्यागी नहीं हैं, अतः वे साधु भी नहीं हैं । सू० २ ॥
पाप कर्म नहीं करने मात्रसे प्राणी मुनि नहीं होता है किन्तु कर्मा के आस्रवको भली प्रकार रोकनेसे ही वह मुनि होता है, अब इसी वातको स्पष्ट करते हैं-'जमिणं' इत्यादि।
जो मुनि-अवस्थामें पापकों के नहीं करनेके कारण हैं वे प्रत्यक्ष हैं। वे ये हैं-आशङ्का, भय अथवा लज्जा । अर्थात् मुनि हो कर भी जो पाप नहीं करता है उसमें प्रधान कारण परस्परकी अथवा एक दूसरेसे કરાવતા નથી, અને પિતાને માટે હિંસા કરવાવાળાઓની અનુમોદના પણ કરતા નથી. કદાચ એવું કરે તે તેને સાધુ કહેવામાં આવતું નથી જે સાધુ બની જીવ હિંસાના ભયથી સ્વયં પાકાદિક કિયા નથી કરતા પરંતુ ઉદ્દિષ્ટ ભજન લે છે. તથા પિતાને માટે બીજાઓથી ભોજન તૈયાર કરાવે છે તેઓ નવ કેટિથી હિંસાના ત્યાગી નથી તેમજ તેઓ સાચા સાધુ પણ નથી કે સૂ૦ ૨
પાપકર્મ નહિ કરવા માત્રથી મુનિ બનતા નથી પણ કર્મોના આવ્યવને ભલી प्रा२ २४वाची भुनि याय छे, ते पातने २५४ ४३ छे-'जमिणं' इत्यादि.
જે મુનિ અવસ્થામાં પાપકર્મો નહિ કરવાના કારણે છે ને પ્રત્યક છે. તે આ છે - આશંકા ભય અથવા લા . અર્થાત્ મુનિ બનીને પણ જે પાપ કરતા નથી તેમાં પ્રધાન કારણ પરસ્પરની અથવા એક બીજાથી પરસ્પરમાં નાકા ભય
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आवारागसूत्रे व्यवहारनये तु यः परस्पराशङ्कया भयादिना वा केनचित् कारणेनाऽऽधाकर्मादि परिवजयति, प्रतिलेखनादिकं करोति, मासक्षपणादितपश्चाचरति, तस्य मुनित्वे तदनुष्ठानं कारणं भवत्येव, तादृशानुष्ठानस्य निश्चयनयाश्रितमुनित्वहेतुशुभाध्यवसायजनकत्वात् । निश्चयमुपलब्धुं व्यवहारः शरणीकरणीयो भवति, यथा नद्यादितरणं करचरणप्रचालनादिव्यवहारेण विना नोपपद्यते. यथा वा रज्जुसोपानाद्यालम्बनेन विना प्रसादशिखरारोहणं न संजायते ॥ सू०३॥
आत्मनः प्रसन्नता संयमाराधनतत्परस्य भवति, अतस्तत्र प्रमादो न कार्य इत्याह-' अणण्णपरमं' इत्यादि।
व्यवहार नयकी अपेक्षासे तो जो परस्परकी आशङ्का अथवा भयादिक किसी कारणके वशसे आधाकर्मादिक दोषोंका परिहार करता है, समयानुसार प्रतिलेखनादिक क्रियाओंको, एवं मासक्षपणादिक तपको आचरता है, उस व्यक्तिके मुनिपनेमें ये सब बातें कारण होती हैं । व्यवहार, निश्चयका हेतु होता है । इस प्रकारके व्यावहारिक अनुष्ठान निश्चयनयकी अपेक्षासे मुनिपने के कारणभूत शुभ अध्यवसायके उत्पादक होते हैं । निश्चयको पानेके लिये व्यवहारका अवलम्बन करना ही पड़ता है। जैसे नदी आदिका तैरना हाथ पैर आदिके चलानेरूप व्यवहार क्रिया के विना, अथवा रज्जु-रस्सी या सीढी आदिके अवलम्बन विनामकान के ऊपर चढ़ना नहीं होता है। सू० ३॥ - आत्मामें प्रसन्नता संयमके आराधनमें तत्पर मुनिको ही होती है। इस लिये संयमके आराधनमें मुनिको प्रमाद नहीं करना चाहिये, इस वातको प्रगट करते हैं-'अणण्णपरमं ' इत्यादि ।
વ્યવહારનયની અપેક્ષાથી તે જે પરસ્પરની આશંકા અને ભયાદિક કઈ કારણના વશથી આધાકમદિક દેને પરિહાર કરે છે, સમયાનુસાર પ્રતિલેખનાદિ કિયાઓને તેમજ માસક્ષપણુદિક તપને આચરે છે, તે વ્યક્તિના મુનિપણમાં એ સઘળી વાત કારણ બને છે. વ્યવહાર, નિશ્ચયને હેતુ થાય છે આ પ્રકારના વ્યાવહારિક અનુષ્ઠાન નિશ્ચયનયની અપેક્ષાથી મુનિપણના કારણભૂત શુભ અધ્યવસાયના ઉત્પાદક બને છે નિશ્ચય મેળવવા માટે વ્યવહારનું અવલંબન લેવું જ પડે છે. જેમ નદી આદિનુ તરવું હાથપગ આદિના ચલાવવારૂપ વ્યવહાર કર્યા વગર, અને રજજુ-રસ્સી અગર સીડી આદિના અવલંબન વિના મકાન ઉપર એવું બની શકતું નથી કે સૂઇ ૩
આત્મામાં પ્રસન્નતા સચમ આરાધનમાં તત્પર મુનિને જ થાય છે, માટે સયમ આરાધનમા મુનિએ પ્રમાદ નહિ કરવો જોઈએ. એ વાતને પ્રગટ કરે छे-'अणण्णपरमं 'त्यादि
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. ३
यद्वा-परस्पराशङ्कया भयेन लज्जया वा यदाधाकर्मादीनि परिहरति, यथाकालं प्रतिलेखनादीनि करोति, मासक्षपणानि, आतापनादिकं च समाचरति, तदिदं सर्वं किं मुनित्वे कारणं स्यान्न वा ? इति शिष्याशङ्कानिराकरणाय कथयति-'जमिणं' इत्यादि । अत्रोच्यते-जिनशासने पदार्थतत्त्वाधिगमाय नयद्वयमुपादीयते । तत्र तावन्निश्चयनयमाश्रित्य अन्योपाध्यनावेशेन परिवर्जिताऽकल्पनीयव्यापारखमेव मुनित्वे कारणम् । मुनित्वं हि शुभान्तःकरणपरिणामेन प्रवचनोक्तविधिनाऽनुष्ठितक्रियस्यैव भवति, नान्यस्य । ____ अथवा-परस्परकी आशङ्कासे भयसे या लज्जासे जो आधाकर्मादिक दोषोंका परिहार करता है,और समयानुसार पडिलेहनादिक क्रियाओं को करता है, मासखमण और आतापना आदि योगोंका अनुष्ठान करता है, ये सब क्रियाएँ क्या मुनिपने में कारण हैं या नहीं? इस प्रकार की शिष्यकी आशङ्काका परिहार करनेके लिये सूत्रकारने “जमिणं" इत्यादि सूत्र कहा है । जिनशासनमें पदार्थके स्वरूपको जाननेके लिये दो नयोंका विधान है-(१) निश्चय नय और (२) व्यवहार नय । इनमें प्रथम निश्चयनयकी अपेक्षासे जो अन्य किसी सांसारिक उपाधिके संसगैसे रहित हो कर अकल्पनीय व्यापारसे दूर हो चुका है, इस प्रकारका उसका रहन-सहन ही उसके मुनिपने में कारणभूत है, क्यों कि शुभ अन्तःकरणके परिणामसे शास्त्रोक्त विधिके अनुसार अपनी क्रियाओंको करनेवाले व्यक्तिके ही मुनिपना होता है, अन्यको नहीं।
A અથવા–પરસ્પરની આશંકાથી ભયથી, લજજાથી જે આધાકર્માદિક દેવોને પરિહાર કરે છે, અને સમયાનુસાર પડિલેહનાદિક ક્રિયાઓ કરે છે, માસખમણ અને આતાપના આદિ રોગોનું અનુષ્ઠાન કરે છે, એ સઘળી ક્રિયાઓ શું મુનિપણાનું કારણ છે ચા નહિ? આ પ્રકારની શિષ્યની આશંકાને પરિહાર કરવા માટે सूत्रा२ " जमिणं " त्यादि सूत्र ४ थे. शासनमा पहाय ना स्व३पने જાણવા માટે બે નાનું વિધાન છે. (૧) નિશ્ચયનય અને (૨) વ્યવહારનય. તેમાં પ્રથમ નિશ્ચયનયની અપેક્ષાથી જે અન્ય કેઈ સાંસારિક ઉપાધિના સંસર્ગથી રહિત થઈને અકલ્પનીય વ્યાપારથી દૂર થયેલ છે. આ પ્રકારનું તેનું રહન-સહન જ તેના મુનિપણાનું કારણભૂત છે. કારણ કે શુભ અંતઃકરણના પરિણામથી શાસ્ત્રોક્ત વિધિ-અનુસાર પિતાની ક્રિયાઓને કરવાવાળી વ્યક્તિને જ મુનિપણું થાય છે. બીજાને નહિ.
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आचारागसूत्रे त्यर्थः, सदा सर्वस्मिन् काले, वीरः कर्मविदारणोत्साहवान् , यात्रामात्रया यात्रासंयमयात्रा तदर्थ या मात्रा-जिनप्रवचनोक्तमाहारादिप्रमाणं तया, शरीरं यापयेत्=निर्वहेत-गमयेदित्यर्थः। ___ प्रमाणाधिकेनाहारेण राजपिण्डादिना वा इन्द्रियनिग्रहो न भवति, तस्माद् धर्मोपार्जनसहायभूतस्य शरीरस्य धारणार्थ प्रमाणोपेतमाहारमङ्गीकुर्यात् । एवं कृते सति प्रमादो न भवतीति भावः । उक्तञ्च" आहारार्थ कर्म कुर्यादनिन्छ, स्यादाहारः प्राणसंधारणार्थम् । प्राणाधार्यास्तत्त्वजिज्ञासनार्थ, तत्त्वं ज्ञेयं येन दुःखाद् विमुच्येत् "॥१॥इति॥सू०४॥ इन्द्रियोंको भी उत्तेजना मिलती है, इससे चतुर्थ व्रतकी रक्षामें भी बाधा उपस्थित होती है । इसी बातका विचारकर सूत्रकार कहते हैं-'जायामायाए ' यात्रामात्रया, इति, अर्थात्-संयमयात्राके निर्वाहयोग्य आहारादिकका उचित प्रमाणमें लेना बतलाते हैं। मुनि की सदा यही भावना रहनी चाहिये कि-मैं जैसे भी बने वैसे निर्दोष चारित्रकी आराधना करता हुआ कोको नष्ट करूँ । इस तरहके उत्साहसे संपन्न वह मुनि अपनी संयमरूपी यात्राकी निर्विघ्न परिसमाप्तिके लिये जिनप्रवचनमें प्रतिपादित प्रमाणके अनुरूप आहारादि ग्रहण करे । इससे ही अपने शरीरका निर्वाह करे । प्रमाणसे अधिक आहारके लेनेसे अथवा अकल्पनीय राजपिण्डादिकसे इन्द्रियोंका निग्रह नहीं होता है । इसलिये धर्मके उपार्जनमें सहायक शरीरकी रक्षाके लिये शास्त्रमें प्रतिपादित मात्रानुसार आहार लेना चाहिये । कहा भी है-- ઉત્તેજના મળે છે તેથી ચતુર્થ વ્રતની રક્ષામાં પણ બાધા ઉપસ્થિત થાય છે. मा पातन विया२ ४ सूत्रा२ हे छे-“जायामायाए" यात्रामात्रया, छति અર્થા–સંયમયાત્રાના નિર્વાહાગ્ય આહારાદિકનું ઉચિત પ્રમાણમાં લેવું બતાવેલ છે. સદા મુનિની એ ભાવના રહેવી જોઈએ કે હું જ્યાં સુધી બને ત્યાં સુધી નિર્દોષ ચારિત્રની આરાધના કરીને કર્મોને નાશ કરું, આવા પ્રકારના ઉત્સાહથી સંપન્ન તે મુનિ પિતાની સંયમરૂપી યાત્રાની નિર્વિજ્ઞ પરિસમાપ્તિ માટે જીનપ્રવચનમાં પ્રતિપાદિત પ્રમાણને અનુરૂપ આહારાદિ ગ્રહણ કરે, તેનાથી જ પિતાના શરીરને નિર્વાહ કરે. પ્રમાણથી અધિક આહાર લેવાથી અને અકલ્પનીય રાજપિંડાદિકથી ઈન્દ્રિયોનો નિગ્રહ બનતું નથી માટે ધર્મના ઉપાર્જનમાં સહાયક શરીરની રક્ષા માટે શાસ્ત્રમાં પ્રતિપાદિત માત્રાનુસાર આહાર લેવો જોઈએ, કહ્યું પણ છે—
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. ३
मूलम्-अणण्णपरमं नाणी, नो पमायए कयाइवि ।
आयगुत्ते सया वीरे, जायामायाइ जावए ॥सू०४॥ छाया-अनन्यपरमं ज्ञानी नो प्रमादयेत् कदाचिदपि।
आत्मगुप्तः सदा वीरः यात्रामात्रया यापयेत् ।। सू० ४॥ टीका-ज्ञानी-सम्यग्दृष्टिः, अनन्यपरमं नान्यत् परमम् उत्कृष्टं यस्मात्अनन्यपरमंचारित्रं, तत् कदाचिदपि नो प्रमादयेत् कस्मिन्नपि काले चारित्रे प्रमादं न कुर्यादित्यर्थः । केनोपायेन प्रमादो वारणीयः? इत्यत आह—'आत्मगुप्त' इत्यादि। आत्मगुप्तः आत्मना=इन्द्रियनोइन्द्रियेण गुप्तः, इन्द्रियनोइन्द्रियनिग्रही___ज्ञानी-सम्यग्दृष्टि मनुष्य चारित्रमें किसी भी समय प्रमाद न करे। 'अनन्यपरम' शब्दका अर्थ चारित्र है, क्योंकि "अन्यत् परमं यस्मात् न" जिससे दूसरी कोई वस्तु उत्कृष्ट नहीं है वह अनन्यपरम है । शास्त्र में साक्षात् भोक्षकी प्राप्ति करानेवाला चारित्र ही बतलाया गया है अतः वही सर्वोत्कृष्ट है । प्रमाद चारित्रका विघातक होता है इसी लिये वह सम्यग्दृष्टिके लिये वर्जनीय कहा है । प्रमादको दूर करनेका उपाय बतलाने के लिये सूत्रकार कहते हैं-'आयगुत्ते' इत्यादि, अर्थात् मुनि को सदा आत्मगुप्त-इन्द्रिय और नोइन्द्रिय-मनका विजयी बनना चाहिये। इन पर जब तक विजयरूपी अङ्कश वह प्राप्त नहीं कर लेता है तब तक इनके आधीन बना हुआ साधु प्रमादसे रहित नहीं हो सकता। जिह्वाइन्द्रियकी लोलुपतासे वह मात्रासे भी अधिक आहार ले लेता है। इस से प्रमादकी वृद्धि होती है । तथा अधिक सरस-रसीला आहार लेनेसे
જ્ઞાની–સમ્યગ્દષ્ટિ મનુષ્ય ચારિત્રમાં કઈ પણ સમય પ્રમાદ ન કરે. 'अनन्यपरम' शहना अर्थ यारित्र छ १२१५ “ अन्यत् परमं यस्मात् न" જેનાથી બીજી કોઈ વસ્તુ ઉત્કૃષ્ટ નથી તે અનન્યપરમ છે. શાસ્ત્રમાં સાક્ષાત મોક્ષની પ્રાપ્તિ કરાવનાર ચારિત્ર જ બતાવવામાં આવેલ છે માટે તે જ સર્વોત્કૃષ્ટ છે. પ્રમાદ ચારિત્રને વિઘાતક બને છે, માટે તે સમ્યગ્દષ્ટિ માટે વજનીય કહેલ छ. प्रभाहने हर ४२वाना उपाय मतावा भाटे सूत्रधार ४ छ-'आयगुत्ते' ઈત્યાદિ. અર્થાત મુનિએ સદા આત્મગુપ્ત-ઈન્દ્રિય અને નેઈન્દ્રિય-મનના વિજયી બનવું જોઈએ. તેના ઉપર જ્યાં સુધી વિજયરૂપી અંકુશ તે પ્રાપ્ત નથી કરી લેતા ત્યાં સુધી તેના આધીન બનેલા સાધુ પ્રમાદથી રહિત બની શકતા નથી. જીભ ઇન્દ્રિયની લોલુપતાથી તે માત્રાથી પણ અધિક આહાર લઈ લે છે. તેનાથી પ્રમાદની વૃદ્ધિ થાય છે. તથા અધિક સરસ–રસીલા આહાર લેવાથી ઈન્દ્રિયને પણ
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आचाराङ्गसूत्रे
टीका -- रूपेषु चक्षुर्विषयीभूतेषु मनोज्ञेषु रूपेषु विरागं गच्छेत्, रूपं हि शब्दाद्यपेक्षयाऽतीवाक्षिपति चित्तं, तस्मादिह रूपग्रहणम् । रूपेषु वैराग्यसद्भावे सति शेषविषयेष्वपि तस्य सुतरां संभवादिति भावः । महत्सु = दिव्यभावेन यान्यवस्थितानि रूपाणि तेषु, सूत्रे आर्पखादेकवचनम्, क्षुल्लकेषु क्षुद्रेषु रूपेषु यथा तिरथां, मनुष्याणां तु मध्यमानि रूपाणि तेष्वपि विरागं गच्छेदिति सम्बन्धः । आद्यन्तरूपग्रहणेन मध्यमानामपि ग्रहणम् । अत्र सप्तम्यर्थे तृतीया प्राकृतत्वात् । यद्वा- एकैकं रूपं त्रिविधं - दिव्यमध्यमक्षुद्रभेदात् । कुब्जादीनां क्षुद्राणि, अन्येषां मध्यमानि, केषांचित् पूर्वभवसुकृतिनां दिव्यानि रूपाणि भवन्ति ॥ सू० ५ ॥
४४४
साधुका कर्त्तव्य है कि वह चक्षुरिन्द्रियके विषयभूत जब जब सुंदर रूप हों तब-तब उनमें असारता की भावना भाकर उन से विरक्त होवे । सूत्र में ' रूवेसु-रूपेषु' जो यह पद दिया है उससे सूत्रकार इस बातको 4 बतलाते हैं कि रूप ही शब्दादिक विषयोंकी अपेक्षा चित्तको अपनी ओर अधिक आकृष्ट किया करते हैं । मुनिको जब रूपमें वैराग्यकी जागृति हो जावेगी तब अन्य रसादिक विषयों में तो स्वतः ही उसके चित्तमें वैराग्य जाग्रत हो जावेगा । इस लिये सूत्रकार कहते हैं कि जो बहुत ही ज्यादा सुन्दर स्वरूपवान् दिव्य रूपवाला है, जैसे विशिष्ट रूप देवताओं में मध्यम रूप मनुष्यों में और सामान्य रूप तिर्यश्चों में होते हैं - उनमें कभी भी इष्ट-अनिष्टकी कल्पना से अपने चित्तको वासित न करे, सदा उनमें विरक्त बुद्धि ही रखे । दिव्य, मध्यम और क्षुद्र के भेदसे रूप तीन प्रकार के हैं । कुब्ज आदिमें क्षुद्ररूप, इनसे अन्य में मध्यम रूप और किन्हीं पुण्यात्माओं में दिव्यरूप होते हैं ॥ ०५ ॥
સાધુનુ કર્તવ્ય છે કે તે ચક્ષુરિન્દ્રિયના વિષયભૂત જ્યા જ્યાં સુંદર રૂપ હોય ત્યા ત્યા તેમાં અસારતાની ભાવના ભાવીને તેનાથી વિરક્ત બને. સૂત્રમાં 'रूवेसु-रूपेषु' ले या यह आस छे तेनाथी सूत्रार मे वातने समन्न કે રૂપજ શબ્દાદિક વિષયેાની અપેક્ષા ચિત્તને પેાતાની તરફ અધિક આકૃષ્ટ કર્યા કરે છે, મુનિને જ્યારે રૂપમાં વૈરાગ્યની જાગૃતિ થઈ જશે ત્યારે અન્ય રસાદિક વિષયામા તા સ્વતઃ જ તેના ચિત્તમાં વૈરાગ્ય જાગૃત થઇ જશે માટે સૂત્રકાર કહે છે કે જે ઘણા જ સુંદર સ્વરૂપવાન દિવ્ય સ્વરૂપવાળા છે જેવી રીતે વિશિષ્ટ રૂપ દેવતાઓમા, મધ્યમરૂપ મનુષ્યામાં, અને સામાન્ય રૂપ તિર્યંચામા હોય છે તેમા કાઇ વખત પણુ ઈંટ—અનિષ્ટની કલ્પનાથી પોતાના ચિત્તને વાસિત ન કરે, સદ્દા તેમાં વિરકત બુદ્ધિ જ રાખે, દિવ્ય મધ્યમ અને ક્ષુદ્રના ભેદથી રૂપ ત્રણ પ્રકારના છે કુબ્જ આદિમા ક્ષુદ્રરૂપ, તેનાથી અન્ય મધ્યમ રૂપ અને કઇ પુણ્યાત્માઓમા દિવ્ય રૂપ હોય છે ! સૂ૦-૫૫
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शीतोष्णीय - अध्य० ३. उ.
४४३
आत्मगुप्तः कथं स्यादिति शिष्यजिज्ञासायामाह - ' विरागं' इत्यादि । मूलम् - विरागं रूवेसु गच्छिना महया खुड्डएहिं वा ॥ सू० ५ ॥ छाया -- -विरागं रूपेषु गच्छेत् महत्सु क्षुल्लकेषु वा ।। सू० ५ ॥ " आहारार्थं कर्म कुर्यादनिन्द्यं, स्यादाहारः प्राणसंधारणार्थम् । प्राणा धार्यास्तत्त्वजिज्ञासनार्थ, तत्त्वं ज्ञेयं येन दुःखाद् विमुच्येत् ॥ १ ॥” आहार के लिये अनिन्द्य कर्म करे । आहारका ग्रहण प्राणोंकी रक्षा निमित्त है । प्राणोंकी रक्षा तत्त्वोंकी जिज्ञासा के लिये है, और तत्त्वज्ञान अपनेको (जीवको ) सांसारिक दुःखोंसे छुड़ानेके लिये होता है ।
इसलिये साधुको आहारकी प्राप्तिके लिये अनिन्द्य कर्म (एषणासमितियुक्त प्रवृत्ति) करना चाहिये निन्द्य कर्म नहीं । प्राणोंकी रक्षाके लिये ही आहार ग्रहण करना चाहिये, विषयादिकोंकी या प्रसादकी पुष्टि के लिये नहीं | तत्त्वों की विचारणा करनेके लिये ही प्राणोंकी रक्षा करनी चाहिये, दूसरे जीवोंकी हिंसादिक के लिये नहीं । तत्त्वज्ञानका विचार भी सांसारिक दुःखोंसे छूटनेके लिये करना चाहिये, मान माया आदि कषायकी पुष्टि के लिये नहीं । इसलिये संयमयात्राका निर्वाहके लिये मात्रानुसार आहार लेना चाहिये जिससे प्रमाद नहीं हो ॥ सू० ४ ॥
मुनि - आत्मगुप्त - इन्द्रिय और मनका निग्रह करनेवाला कैसे बने ? ऐसी शिष्य की जिज्ञासाका समाधान करते हैं- ' विरागं ' इत्यादि ।
“आहारार्थ कर्म कुर्यादनिन्द्यं, स्यादाहारः प्राणसंधारणार्थम् ।
प्राणा धार्यास्तत्त्वजिज्ञासनार्थ, तत्त्वं ज्ञेयं येन दुःखाद् विमुच्येत्” ॥१॥ આહાર માટે અનિન્ઘ કર્મ કરે. આહારનું ગ્રહણ પ્રાણાની રક્ષા નિમિત્ત छे, आशोनी रक्षा तत्त्वोनी लज्ञासा भाटे छे, भने तत्त्वज्ञान पोताने (वने) સાંસારિક દુ:ખાથી છેડાવવા માટે થાય છે.
માટે સાધુએ આહારની પ્રાપ્તિ માટે અનિન્થ કર્મ (એષણાસમિતિયુક્ત પ્રવૃત્તિ) કરવુ જોઇએ, નિન્ધ કર્મો નહિ. પ્રાણોની રક્ષા માટે જ આહાર ગ્રહણ કરવો જોઈ એ, વિષયાક્રિકોની અને પ્રમાદની પુષ્ટિ માટે નહિ, તત્ત્વાની વિચારણા કરવા માટે જ પ્રાણોની રક્ષા કરવી જોઈએ – ખીજા જીવાની હિંસાદિક માટે નહિ. તત્ત્વજ્ઞાનના વિચાર પણ સાંસારિક દુઃખોથી છુટવા માટે કરવા જોઈ એ – માન માયા આદિ કષાયની પુષ્ટિ માટે નહિ. માટે સયમયાત્રાના નિર્વાહ માટે માત્રાનુસાર આહાર લેવે! જોઇએ જેથી પ્રમાદ ન થાય. !! સૂ૦ ૪ !!
મુનિ, આત્મગુપ્ત-ઈન્દ્રિય અને મનને નિગ્રહ કરનાર કેવી રીતે મને ? सेवी शिष्यनी कज्ञासानु समाधान रे छे-' विरागं ' त्याहि.
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आचाराङ्गसूत्रे देवानां नारकिणां चागतिविविधैव, तेषां तिर्यग्मनुष्यगतिभ्यामेवाऽऽगमनात् । गतिरप्येवं भवति, केवलं मनुष्याणां गतिः पञ्चविधा प्रोक्ता, तेषां मोक्षगतिसंभवात् । तामागतिं गतिं च, परिज्ञाय संसारचक्रे घटीयन्त्रवत् परिभ्रमणरूपामागति गतिं च बुद्ध्वा मनुष्याणां मोक्षगतिसंभवं चावगत्य स आगतिगतिस्वरूपाभिज्ञः, यद्वा-संसारदुःखभीतो मोक्षगतिसुखगवेपी, रूपादिषु विषयेषु अन्ताभ्याम् स्वसत्तायां मुक्तेरन्तकारित्वादन्तौ रागद्वेषौ ताभ्याम् द्वाभ्यामपि-रागद्वेषाभ्याम् अदृश्यमानःअवर्तमानः, रागद्वेपरहित इत्यर्थः, न छिद्यते केनचित् खड्गादिना, न भिद्यते कण्टकम्चीशूलादिना, न दह्यते दहनादिना, न हन्यते कशादिना नरकगत्यानुपूनरकगतिमें उत्पन्न नहीं होता। इसी प्रकार नारकी जीव भी नरकसे निकल कर दूसरे भवमें देवगति या नरकगतिमें उत्पन्न नहीं होता। मनुष्य एवं तियञ्च तो मर कर दूसरे भवमें मनुष्य, तिर्यञ्च, देव और नरकगतिमें जन्म ले सकता है। मनुष्योंकी गति मुक्तिप्राप्तिकी अपेक्षासे पांच प्रकारकी भी कही गई है । इस प्रकार संसारचक्रमें घटी यन्त्रके समान परिभ्रमणरूप आगति और गति, एवं मनुष्योंमें मोक्षगतिकी संभवताको जानकर उनके स्वरूपका ज्ञाता, अथवा संसारके दुःखों से भयभीत हो कर मोक्षगतिके सुखका गवेषी वह साधु रूपादि विषयों में राग और देषसे रहित हो कर सर्वलोकमें न किसीके द्वारा तलवार आदिसे हाथ पैर आदि में कभी छेदा जाता है, न कण्टकसूची शूलादिसे भेदा जाता है, न अग्नि आदिसे जलाया जाता है और न कोडे आदिसे मारा जाता है और न उसके नरकगलानुपूर्वी आदिका उदय દેવગતિમા અને નરકગતિમાં ઉત્પન્ન થતા નથી. તે પ્રકારે નારકી જીવ પણ નરકથી નીકળી બીજા ભવમાં દેવ ગતિ અગર નરક ગતિમાં ઉત્પન્ન થતાં નથી. મનુષ્ય અને તિર્યંચ તે મરીને બીજા ભવમાં મનુષ્ય તિર્યંચ દેવ અને નરકગતિમાં જન્મ લઈ શકે છે મનુષ્યની ગતિ મુક્તિપ્રાપ્તિની અપેક્ષાથી પાચ પ્રકારની પણ કહેવામા આવેલ છે. આ પ્રકારે સંસારચકમાં ઘટીયત્રની સમાન પરિભ્રમણરૂપ આગતિ અને ગતિ તેમજ મનુષ્યમાં મોક્ષગતિની સંભવતાને જાણીને તેના સ્વરૂપના જ્ઞાતા અને સંસારના દુઃખોથી ભયભીત બનીને મોક્ષગતિના સુખના ગવવી તે સાધુ, રૂપાદિ વિષયોમાં રાગ અને દ્રવથી રહિત બનીને સર્વલોકમાં કેઈનાથી પણ તલવાર આદિથી હાથ પગ આદિમાં કદિપણ છેદવામાં આવતા નથી. તેમજ કટક સૂચી શૂલાદિથી ભેદવામાં આવતા નથી. તેમજ નથી અગ્નિથી બાળવામાં આવતા, તેમજ નથી કેરડા આદિથી મારવામાં
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शीतोष्णीय-अध्य० : ३. उ. ३
किमालम्ब्यैतत् कर्तव्यमित्याह - ' आगई' इत्यादि ।
मूलम् - आगई गई परिष्णाय दोहि वि अंतेहिं अदिस्समाणे । से न छिज्जइ न भिज्जइ न उज्झइ न हम्मइ कंचणं सव्वलो ॥ सू० ६ ॥
छाया -- आगतिं गतिं परिज्ञाय द्वाभ्यामन्ताभ्यामदृश्यमानः । स न छिद्यते . न भिद्यते न दह्यते न हन्यते केनचित् सर्वलोके ॥ मू० ६ ॥
CS.
टीका- 'आगतिं गति' - मिति, आगतिः = आगमनं, गतिर्गमनं, तत्र तिरश्चां मनुष्याणां चागतिश्चतुर्विधा भवति, नरकादिचतुर्विधगतितस्तेषामागमनसद्भावात् । क्या विचार कर रूपादिकों में विरक्त बुद्धिवाला बने ? सो कहते हैं - 'आग' इत्यादि ।
दूसरी गतिसे आनेका नाम आगति और दूसरी गतिमें जानेका नाम गति है । मनुष्य और तिर्यञ्चोंकी आगति चार प्रकार से होती है, अर्थात् चारों गतियोंसे आकर जीव मनुष्य और तिर्यञ्च गतिमें जन्म लेते हैं । देव और नारकियोंकी आगति दो प्रकार से होती है, अर्थात् तिर्यश्च और मनुष्य गतिसे आ कर ही जीव देवगति और नरकगति में उत्पन्न होते हैं। गति भी उन सबकी इसी तरहसे होती है। मनुष्य एवं तिर्यञ्च गतिके जीव चारों गतियों में उत्पन्न हो सकते हैं परन्तु देवगति एवं नरक गतिके जीव मनुष्य और तिर्यञ्च गतिके सिवाय अन्य गतियोंमें जन्म नहीं लेते । देव च्यवकर दूसरे भवमें देवगतिमें और शुं वियार श्री ३षाद्विमां विस्तशुद्धिवाणा भने ? ते आहे — 'आगई ' छत्याहि.
કાક
બીજી ગતિથી આવવાનું નામ આગિત અને ખીજી ગતિમાં જવાનું નામ ગતિ છે. મનુષ્ય અને તિર્યંચોની આગતિ ચાર પ્રકારની હોય છે. અર્થાત્ ચારે ગતિયાથી આવીને જીવ મનુષ્ય અને તિર્યંચ ગતિમાં જન્મ લે છે. દેવ અને નારકીઓની આગતિ એ પ્રકારની હોય છે, અર્થાત્ તિર્યંચ અને મનુષ્ય ગતિથી આવીને જીવ દેવગતિ અને નરકગતિમાં ઉત્પન્ન થાય છે. ગતિ પણ તે સઘળાએની આ પ્રકારે જ હોય છે. મનુષ્ય અને તિર્યંચ ગતિનો જીવ ચારે ગતિમાં ઉત્પન્ન થઇ શકે છે પરંતુ દેવગતિ અને નરકગતિના જીવ મનુષ્ય અને તિર્યંચ ગતિના સિવાય અન્ય ગતિયામાં જન્મ લેતા નથી. દેવ ચવીને મીજા ભવમાં
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आचाराङ्गसूत्रे मिथ्यादृष्टीनामागतिगतिज्ञानाभाव इत्याह-' अवरेण' इत्यादि।
मूलम्-अवरेण पुवे न सरंति एगे किमस्त तीयं ? किं वाऽऽगम्मिस्सं? भासंति एगे इह माणवा उ जमस्स तीयं तं आगमिस्सं ॥ सू०७॥
छाया-अपरेण पूर्व न स्मरन्ति एके किमस्य अतीतं ? किं वा आगमिष्यत् ? भाषन्ते एके इह मानवास्तु यदस्य अतीतं तद् आगमिष्यत् ॥ सू० ७॥
एके अन्ये मिथ्यादृष्टयः, अपरेण पश्चात्कालभाविना सह, पूर्व-पूर्वकालिक न स्मरन्ति, यथा-अस्य जीवस्य किम्-अनेन जीवेन कीदृशं दुःखं सुखं वाऽनुभूत?मिति न स्मरन्ति । तथा-किंवा आगमिष्यत भविष्यत्कालिके नरकादिभवे कीदृशं दुःखं मुखं वाऽस्य जीवस्य भावीति न स्मरन्ति । यदि पुनरस्य जीवस्यातीतानागतगतिचिन्तनं कुर्यात्तर्हि वैराग्यं सुतरामुद्भवेत् । उक्तञ्च
मिथ्यादृष्टियोंको जीवोंकी गति और आगतिका ज्ञान नहीं होता है, इस बातको कहते हैं-' अवरेण' इत्यादि।
मिथ्यादृष्टि जीवोंके भविष्यत् कालमें होनेवाली अवस्थाओंके साथ पूर्वकालिक अवस्थाओंकी तथा भविष्यत्कालमें होनेवाली सुखदुःखादिकों के साथ पूर्वकालिक सुखदुःखादिकोंकी स्मृति नहीं होती है । जैसे इस जीवका समय पूर्व में कैसे२ सुखदुःखादिकोंसे बीता है ? अर्थात् नरक आदि पर्यायोंमें इस जीवने किस२ प्रकारके दुःख अथवा सुख भोगे हैं ? एवं आगामी कालमें नरकादिक पर्यायोंमें यह जीव किस प्रकारके दुःख अथवा सुख भोगेगा? इसका उन्हें स्मरण तक नहीं होता । यदि इस जीवकी अतीत एवं अनागत काल सम्बन्धी गतिका वार-वार विचार किया जाय तो जीवको वैराग्य स्वतः उत्पन्न हो जावे । कहा भी है
મિથ્યાષ્ટિઓને જીવેની ગતિ અને આગતિનું જ્ઞાન થતું નથી એ વાતને हे छ-' अवरेण' छत्यादि - મિથ્યાદષ્ટિ જેના ભવિષ્યકાળમાં બનવાવાળી અવસ્થાઓની સાથે પૂર્વકાલિક અવસ્થાઓની તથા ભવિષ્યકાળમાં થવાવાળા સુખદુઃખાદિકોની સાથે પૂર્વકાલિક સુખદુ ખાદિકોની સ્મૃતિ થતી નથી. આ જીવને સમય પૂર્વમાં કેવા કેવા પ્રકારે સુખદુ માં વીત્યે છે ? અર્થાત્ નરક આદિપર્યાયમા આ જીવે ક્યા કયા પ્રકારના દુઃખ અથવા સુખ જોગવ્યા છે તેમજ આગામી કાળમાં નરકાદિ પર્યાયમાં આ જીવ કેવા કેવા પ્રકારના દુ ખ અથવા સુખ ભોગવશે? તેનું તેને સ્મરણ સુદ્ધાં હેતુ નથી. કદાચ આ જીવની અતીત તેમજ અનાગત કાળ સબ ધી ગતિને વાર વાર વિચાર કરવામાં આવે તે જીવને વૈરાગ્ય સ્વતઃ ઉત્પન્ન થઈ જાય કહ્યું છે –
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. ३ यादिना वा। अयं भावः-तिर्यग्मनुष्यादीनामागतिगतिपरिज्ञानेन रागद्वेषनिवृत्तिः, तयोरभावाच्च छेदनादिना संसारदुःखानि न भवन्तीति ॥ मू०६॥ होता है । 'अन्त' शब्दका अर्थ राग द्वेष है, क्यों कि ये दोनों “अन्तकारित्वात्" अपनी सत्तामें जीवकी मुक्तिका अन्त-निरोध-करनेवाले होते हैं, इन दोनोंके सद्भाव में जीवको सच्चे स्वरूप-मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती है । इसका भावार्थ यह है-तिर्यञ्च अथवा मनुष्यादिकोंकी गति
और आगतिके परिज्ञानसे साधुको अच्छे एवं पुरे रूपादिकोंमें राग द्वेष न हो कर प्रत्युत उनमें मध्यस्थता ही उसे रहती है। रागद्वेषकी निवृत्ति से, छेदन भेदनादिद्वारा सांसारिक दुःखोंका जो उसे अनुभव होता था वह फिर नहीं होता। क्यों कि दुःखोंका अनुभव करानेवाली जो रागपरिणति थी वह उसकी दूर हो चुकी है। दूसरा इसका भाव यह भी हो सकता है कि जब मुनिकी आत्मासे राग द्वेषका अभाव हो जाता है तो उसकी आत्मा अत्यन्त निर्मल एवं विशिष्ट प्रभावशाली हो जाती है। इस अवस्थामें कोई भी ऐसी शक्ति नहीं है जो उसे छेदन भेदन एवं ताडनादिजन्य दुःख पहुंचा सके। 'न हन्यते नरकगत्यानुपूर्व्यादिना वा' इस टीकाका भाव यह है कि-सर्वसंयमीके लिये नरकगति एवं तिर्यञ्च गतिका बन्ध नहीं होता है इस लिये उसकी आनुपूर्वीका भी उसे उदय नहीं होता है। सू० ६॥ આવતાં. અને નહિ તેને નરકગત્યાનપૂર્વી આદિને ઉદય થાય છે. “અન્ત” શબ્દને मथ राग द्वेष छे. २६ से न “अन्तकारित्वात् " पोतानी सत्तामा જીવની મુક્તિને અંત કરવાવાળા હોય છે. એ બન્નેના સંભાવમાં જીવને સચ્ચા સ્વરૂપ-મોક્ષની પ્રાપ્તિ થતી નથી. તેને ભાવાર્થ એ છે કે તિર્યંચ અથવા મનધ્યાદિકેની ગતિ અને આગતિના પરિજ્ઞાનથી સાધુને સારા તેમજ ખરાબ રૂપાદિકોમાં રાગ દ્વેષ ન થઈને પ્રત્યુત તેમાં મધ્યસ્થતા જ તેને રહે છે. રાગદ્વેષની નિવૃત્તિથી, છેદન–ભેદનાદિ દ્વારા સાંસારિક દુઃખોને જે તેને અનુભવ થતું હતું તે પછી થતું નથી. કારણ કે દુઃખોને અનુભવ કરાવનારી જે રાગપરિણતિ હતી તે તેની દૂર થઈ ચૂકેલ છે. બીજું તેને ભાવ એ પણ થઈ શકે છે કે જ્યારે મુનિના આત્માથી રાગ દ્વેષને અભાવ થઈ જાય છે તે તેની આત્મા અત્યત નિર્મળ અને વિશિષ્ટ પ્રભાવશાળી બની જાય છે. આ અવસ્થામાં એવી કઈ પણ શક્તિ નથી કે જે તેને છેદન-ભેદન તેમજ માર મારે આદિ દુઃખ पाडयाडी श. 'न हन्यते नरकगत्यानुपूर्व्यादिना वा' मा टीन माप छ કે સકલસંયમી માટે નરકગતિ અને તિર્યંચગતિને બંધ થતું નથી તેથી તેને તેની આનુપૂર્વીને પણ ઉદય થતું નથી ૬
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४५०
आचाराङ्गस्ने छाया--नातीतमयं न च आगमिष्यन्तम् अर्थ नियच्छन्ति तथागतास्तु । विधृतकल्प एतदनुदर्शी निर्जुष्य क्षपयेत् महर्षिः ॥ मू०८॥
टीका-तथागताः यथा तीर्थकरेण भाषितं तथैव गतं-ज्ञानं येषां ते तथागतास्तत्त्वज्ञानिनस्तु-अतीतमर्थं न नियच्छन्ति-चेतसि नानयन्ति, आगमिष्यन्तमर्थमपि न नियच्छन्ति । किं तु कर्मपरिणामवैचित्र्यात् कर्मानुसारि सुखं दुःखं वा प्राणिनां भवतीत्येवं निणयन्ति । तस्मात्-एतनुदर्शी-वर्तमानार्थानुदर्शी वर्तमानभवसंप्राप्तश्रुतचारित्रधर्माराधनपर इत्यर्थः, अतीतानागतस्वर्गादिसुखानभिचिन्तक इति यावत् , तथाचोक्तम्____जो संसारसागरसे पार हो चुके हैं वे जीवोंकी पूर्वापर-गतिके ज्ञाता सर्वज्ञ भगवान ऐसा नहीं कहते हैं, इसलिये कोंको नाश करने के लिये संयमकी आराधना करनी चाहिये, इस बातको कहते हैं'नाईयमद्वं' इत्यादि।
जैसा तीर्थङ्कर प्रभुने कहा है उसीके अनुसार जिनका ज्ञान है वे तथागत-तत्त्वज्ञानी अतीत अर्थ-अवस्था-को चित्तमें नहीं लाते हैं और न आगामी अर्थ को ही चित्तमें लाते हैं, किंतु 'प्राणियोंके सुख अथवा दःख कमौके अनुसार होते हैं। ऐसा ही वे निर्णय करते हैं। इसलिये वर्तमान भवमें प्राप्त श्रुतचारित्ररूप धर्मकी आराधनामें तत्पर-अर्थात् अतीत और अनागत काल सम्बन्धी स्वर्ग आदिके सुखोंका चितवन नहीं करनेवाला तथा विशुद्ध आचारवाला, अथवा अतीत एवं अनागतके संकल्पको दूर करनेवाला महामुनि निरतिचार संयमका आराधना करके पूर्वोपार्जित कर्मों का नाश करे । ज्ञानी का स्वरूप इस प्रकार कहा है
જે સંસારસાગરથી પાર થઈ ચુકેલ છે તે જીની પૂર્વાપર ગતિના જ્ઞાતા સર્વજ્ઞ ભગવાન એવું કહેતા નથી. માટે કર્મોને નાશ કરવા માટે સંયમની माराधना ४२वी नये. मे पातने ४९ छे-'नोईवमटुं' त्याहि.
જેવું તીર્થકર પ્રભુએ કહ્યું છે તેના અનુસાર જેનું જ્ઞાન છે તે તથાગતતત્વજ્ઞાની અતીત અર્થ—અવસ્થા–ને ચિત્તમાં લાવતા નથી. ન આગામી અર્થને ચિત્તમાં લાવે છે. પણ “પ્રાણિના સુખ અથવા દુખ કર્મોના અનુસાર બને છે” એવો જ તે નિર્ણય કરે છે. માટે વર્તમાન ભવમાં પ્રાપ્ત જે શ્રત ચારિ વરૂપ ધર્મની આરાધનામાં તત્પર અર્થાત્ અતીત અને અનાગત કાળ સંબંધી સ્વર્ગ આદિના સુખનું ચિતવન નહિ કરવાવાળા, તથા વિશુદ્ધ આચારવાળા, અથવા અતીત અને અનાગતના સંકલ્પને દૂર કરવાવાળા મહામુનિ નિરતિચાર સયમની આરાધના કરીને પૂર્વોપાર્જીત કર્મોને નાશ કરે. જ્ઞાનીનું સ્વરૂપ આ પ્રકારે કહ્યુ છે—
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शीतोष्णीय-अध्य० ३ उ. ३ "केण ममेत्थुप्पत्ती ?, कहं इओ तह पुणोऽवि गंतव्वं ।
जो एत्तियंपि चिंतइ, इत्थं सो को न निधिण्णो" ॥ १॥ इति । इह-अस्मिन् मनुष्यलोके, एके पुनर्महामिथ्यादृष्टयो मानवाः मनुष्याः भाषन्ते= कर्मविपाकज्ञानामावादेवं वदन्ति-अस्य जीवस्य यद् अतीतं ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्यशूद्र-गवा-ऽश्व-भवादि, तत्संस्कारवशात्तदेव पुनरन्यस्मिन् भवेऽपि आगमिष्यत्= भावीति ॥ मू० ७॥ ... ये तु संसारसिन्धुमुत्तीर्णास्ते पूर्वापरगतिवेदिनः सर्वज्ञा नैवं वदन्ति । तस्मात् कर्मक्षपणाथै संयमः सेवनीय इत्याह-'नाईय'० इत्यादि ।
मूलम्-नाईयम न य आगमिस्सं, अटुं नियच्छति तहागया उ। विद्यकप्पे एयाणुपस्सी, निज्झोसइत्ता खवए महेसी ॥ सू० ८॥ "केण भमेत्युप्पत्ती ? कहं इओ तह पुणोऽवि गंतव्वं ?।
जो एत्तियं पि चिंतइ, इत्थं सो कोण णिविण्णो ॥१॥" इति। अर्थात् किस कारणसे मेरी इस पर्याय में उत्पत्ति हुई है ? क्या मुझे यहांसे फिर अब दसरी पर्यायमें जाना पडेगा?। जो इतना भी विचार करे तो कौनसा ऐसा जीव है जिसे वैराग्य जाग्रत न हो जाय॥
इस संसार में ऐसे भी महामिथ्यादृष्टि जीव हैं जो कमौके विपाक के ज्ञानसे शून्य हो कर ऐसा कहते हैं कि इस जीवका जो भव, चाहे वह ब्राह्मण सम्बन्धी हो, चाहे क्षत्रिय सम्बन्धी हो, चाहे वैश्य, शद्र, गो और अश्व-घोडा-सम्बन्धी हो; व्यतीत हो चुका है, वही भव उन२ भवोंके संस्कारके वशसे आगामी कालमें फिरसे इसे प्राप्त होगा॥७॥
" केण ममेत्थुप्पत्ती, कहं इओ तह पुणोऽवि गंतव्वं ।
जो एत्तियपि चिंतइ, इत्थं सो को ण णिव्विण्णो" ॥१॥ ति।
અર્થાત્ કયા કારણથી મારી આ પર્યાયમાં ઉત્પત્તિ થઈ છે ? શું મને અહીંયાથી ફરીથી હવે બીજી પર્યાયમાં જવું પડશે . જે એટલે પણ વિચાર કરે તે ક એ જીવ છે જેને વૈરાગ્ય જાગૃત ન થાય?
આ સંસારમાં એવા પણ મહામિથ્યાષ્ટિ જીવ છે જે કર્મના વિપાકના જ્ઞાનથી શૂન્ય બનીને એવું કહે છે કે–આ જીવનો જે ભવ મલે તે બ્રાહ્મણ સંબંધી હોય, ભલે ક્ષત્રિય સંબંધી હોય, ભલે વૈશ્ય, શુદ્ધ, ગાય અને અશ્વઘેડા સંબંધી હાય-વ્યતીત થઈ ગયેલ છે તે જ ભવ તે તે ભવેના સંસ્કારના વશથી આગામી કાળમાં ફરીથી તેને પ્રાપ્ત થશે. તે સૂ૦ ૭ ५७
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आचारागसूत्रे मूलम्-का अरई ? के आणंदे?, इत्थं पि अग्गहे चरे ।
सव्वंहासं परिच्चज, आलीणगुत्तो परिव्वए ॥सू०९॥ छाया-का अरतिः ? क आनन्दः ? अत्रापि अग्रहश्चरेत् ।
सर्व हास्यं परित्यज्य आलीनगुप्तः परिव्रजेत् ॥ सू० ९॥ टीका-ईप्सितस्याप्राप्त्या विनाशेन वा, तथा अनिष्टप्राप्त्या वा यन्मनोदुःखं सा अरतिः, अभिलपितार्थस्य प्राप्तौ सत्यां यो हर्षः सुखं वा स आनन्दः, एतवयं धर्मशुक्लथ्यानलग्नचित्तस्य महर्न भवति, तत्कारणाभावात् । इममेवाथै कथयतिका अरतिः क आनन्द इति । महर्षेः का अरतिः? क आनन्दः । मिथ्यादृष्टेरिवारतिरानन्दश्च महधर्मशुक्लध्यानावेशान समुद्भवत इति भावः । अत्रापि अरतावानन्दे च, अग्रहः अविचलितः सन् चरेत् ध्यानमार्गे विहरेत् ।
इच्छित पदार्थकी अप्राप्ति ले, अथवा उसके विनाशसे या अनिष्ट पदार्थके समागमसे जो मानसिक दुःख होता है उसका नाम अरति है। इष्ट पदार्थकी प्राप्ति होने पर जो हर्ष या सुख होता है उसका नाम आनन्द है। ये दोनों धर्मध्यान या शुक्लध्यानमें लवलीन चित्तवाले महर्षिके नहीं होते हैं, क्यों कि अरति और आनन्दके कारणोंका वहां अभाव हो चुका है। महर्षिके लिये, क्या अरति ? क्या आनन्द ?, दोनों सम हैं । मिथ्यादृष्टिको जिस प्रकार अरति और आनन्द' होते हैं उस प्रकार महर्षिके वे दोनों धर्मध्यान और शुक्लध्यानके प्रभावसे नहीं होते हैं। इसलिये अरति और आनन्दमें चञ्चलचित्त न बन कर महर्पिको अपने ध्यानके मार्ग में लवलीन रहना चाहिये।
ઈચ્છિત પદાર્થની અપ્રાપ્તિથી અથવા તેના વિનાશથી અગર અનિષ્ટ પદાર્થના સમાગમથી જે માનસિક દુ ખ થાય છે તેનું નામ અરતિ છે. ઈષ્ટ પદાર્થની પ્રાપ્તિ થવાથી જે હર્ષ અથવા સુખ થાય છે તેનું નામ આનંદ છે એ બને ધર્મધ્યાન અગર શુકલ ધ્યાનને લવલીન ચિત્તવાળા મહર્ષિને થતાં નથી. કારણ કે અરતિ અને આનંદના કારણોને ત્યાં અભાવ થઈ ચુકેલ છે મહર્ષિ માટે શું અરતિ કે શું આનદ ? બને સરખાં છે મિથ્યાષ્ટિને જેવી રીતે અરતિ અને આનંદ થાય છે, તે પ્રકારે મહર્ષિને તે બને ધર્મધ્યાન અને શુકલધ્યાનના પ્રભાવથી થતા નથી માટે અરતિ અને આનદમાં ચંચળચિત્ત ન બનીને મહર્ષિએ પોતાના ધ્યાનના માર્ગમાં લવલીન રહેવું જોઈએ.
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शीतोष्णीयं- अध्य० ३. उ. ३
" गतं शोचति यो नैव, भविष्यन्नैव वाञ्छति ।
वर्तते वर्तमाने यः सैव ज्ञानी निगद्यते " ॥ १ ॥ इति ।
विधूतकल्पः = विधूतो = विशुद्धः कल्पः = आचारो यस्य सः, यद्वा- विधूतः - अपनीतः कल्पः = अतीतानागतसंकल्पो येन सः, महर्षिः = महामुनिः, निर्जुष्य = संयमं निरतिचारं समाराध्य, क्षपयेत् = पूर्वोपार्जितकर्माणि नाशयेत् ॥ मू० ८ ॥
कर्मक्षपणार्थ समुद्यतस्य महर्षेर्धर्मध्यानतः शुक्लध्यानतो वा यत् फलं भवति तदाह - ' का अरई ' इत्यादि ।
"गतं शोचति यो नैव, भविष्यन्नैव वाञ्छति ।
वर्त्तते वर्त्तमाने यः सैव ज्ञानी निगद्यते ॥ १॥ "
વી
अर्थात् - ' गई बात सोचे नहीं, आगम चिंते नांहि । वर्त्तमान वरते सही, सो ज्ञानी घटमांहि ॥ '
जो बीती हुई बातों पर ध्यान नहीं देता, भविष्यकी बातोंकी चाहना नहीं करता, किन्तु वर्त्तमान अवस्था पर ही संभल कर रहता है, वही ज्ञानी कहलाता है ॥
इस लोकसे टीकाकार इस बातकी पुष्टि कर रहे हैं कि तत्त्वज्ञानी भूत भविष्यत् कालके सांसारिक सुखोंकी स्मृति एवं इच्छा न कर वर्तमान काल में श्रुतचारित्ररूप धर्मकी आराधना करनेरूप अपनी अबस्थामें ही तत्पर रहता है | सू० ८ ॥
कर्मों को नाश करने में कटिबद्ध महर्षि को धर्मध्यान या शुक्लध्यान से जो फल होता है उसको बतलाते हैं-' का अरई ' इत्यादि ।
"गतं शोचति यो नैव, भविष्यन्नैव वान्छति ।
वर्त्तते वर्तमाने यः सैव ज्ञानी निगद्यते ॥ १ ॥ ”
भेट –' गई बात सोचे नही, आगम चिते नाहिं | वर्तमान वरते सही, सो
ज्ञानी घटमाहि ॥
જે વીતી ગએલી વાતો ઉપર ધ્યાન નથી દેતા, ભવિષ્યની વાર્તાની ચાહના નથી કરતા, પણ વર્તમાન અવસ્થા ઉપર જ સંભાળીને રહે છે તે જ જ્ઞાની કહેવાય છે. આ લેાકથી ટીકાકાર આ વાતની પુષ્ટિ કરે છે કે તત્ત્વજ્ઞાની ભૂત ભવિષ્ય કાળના સાંસારિક સુખોની સ્મૃતિ તેમ જ ઈચ્છા ન કરી વર્તમાનકાળમાં શ્રુતચારિત્રરૂપ ધર્માંની આરાધના કરવારૂપ પોતાની અવસ્થામાં જ તત્પર રહે છે. ાસૢ૦૮ા કર્મોના નાશ કરવામાં કટિબદ્ધ મહર્ષિના ધમ ધ્યાન યા શુકલધ્યાનથી જે इज थाय छे ते उडे छे' का अरई ' त्याहि.
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आधाराङ्गसूत्रे किमनेन विन्दुतुल्येन ऋद्धयादिसुखेन ? इति । उक्तञ्च
" न तृप्तोऽसि यदा कामैः, सेवि तैरप्यनेकशः ।
स नाम तेषु वृत्तोऽन्तो, यतो वैराग्यमाप्नुहि" ॥१॥ इति । तस्मात्-अत्रापि अस्मिन् अस्त्यानन्दकारणेऽपि अग्रहः तदनपेक्षमाणःमध्यस्थभावमुपगतः सन् चरेत्-संयममार्ग विहरेत् ।
तथा-सर्व समस्तं हास्य-हासं, तत्स्थानं वा परित्यज्य, आलीनगुप्तः-तत्रआलीन:-आङ–मर्यादया-इन्द्रियनिरोधादिरूपया लीनः, गुप्तः-मनोवाकायकर्मभिः, यद्वा-गुप्तः कूर्मवत्संदृतगात्रा, आलीनश्चासौ गुप्तश्चेत्यालीनगुप्तः, एवंभूतः सन् के तुल्य उस सुखके सामने बिन्दुतुल्य इस ऋद्धि रस आदिके सुखकी क्या गिनती है। कहा भी है“न तृप्तोऽसि यदा कामैः, सेवितैरप्यनेकशः।
स नाम तेषु वृत्तोऽन्तो, यतो वैराग्यमाप्नुहि ॥१॥" हे आत्मन् ! जब तूं अनन्तवार सेवन किये गये इन कामोंसे तृप्त नहीं हुआ; उल्टा इनके भागने से तेरा ही अन्त हुआतो फिर इन के भोगने से तुझे क्या लाभ है ? अतः अब इन से वैराग्य ही लेना सर्वश्रेयस्कर है।
इसलिये उस संयमी को चाहिये कि वह अरति और आनन्द के कारणों में भी अग्रह-अनपेक्षावाला बन कर अर्थात् माध्यस्थ्यभाव रखता हुआ संयममार्ग में विचरे।
तथा-समस्त हास्य अथवा हास्यके स्थानभूत-जिनकी तीर्थङ्करादिकोंने निन्दा की है ऐसे-विषयकषायोंका परित्याग कर इन्द्रियनिग्रही एवं मन, वचन और कायसे सदा सावधक्रियासे रहित होते हुए अथवा અનંતવાર ભગવેલ છે તે સમુદ્રના તુલ્ય તે સુખની સામે બિંદુ તુલ્ય આ અદ્ધિ આદિના સુખની શું ગણના છે કહ્યું પણ છે –
"न तृप्तोऽसि यदा कामः, सेवितरप्यनेकशः ।
स नाम तेयु वृत्तोऽन्तो, यतो वैराग्यमाप्नुहि ॥१॥" હે આત્મા ! જ્યારે અનંત વાર સેવી ચુકેલા તે કામથી જ્યારે તું તૃપ્ત ન થયે, ઉલટુ તેના ભેગવવાથી તારેએ અત થયે, તે પછી તેને ભેગવવાથી તને શું લાભ છે? માટે તે વસ્તુથી વૈરાગ્ય જ લે સર્વ શ્રેયસ્કર છે.
તેથી તે સયમીને જોઈએ કે તે અરતિ અને આનંદના કારણોમાં પણ અમહ–અનપેક્ષાવાળા બની અર્થાત્ માધ્યચ્ય ભાવ રાખીને સંયમ માર્ગમાં વિચરે.
તથા-સમસ્ત હાસ્ય અથવા હાસ્યના સ્થાનભૂત કે જેની તીર્થકરોએ નિંદા કરેલ છે, એવા વિષયકથાને પરિત્યાગ કરી ઈન્દ્રિયનિગ્રહી તેમજ મન, વચન
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शीतोष्णीय-अध्य० ३ उ. ३
४५३. यद्वा-संयमाराधनपरायणस्य महर्षेः का अरतिः? क आनन्दः । अयंभाव:संयमाराधनतत्परस्य कुतश्चित् कारणात् प्रतिकूलपरीषहोपसर्गोपस्थितौ अरतिनभवति । स हि तदानीमेवं चिन्तयति-अनेनात्मना पूर्वभवेषु नरकनिगोदादौ क्षुत्पिपासादिजनितं वधवन्धनादिजनितं च यद् घोरतरं दुःखमनन्तवारं प्राप्तं तत्पुरतः किमेभिरल्पदुःखजनकै परीषहोपसर्गेरिति । तथा-ऋद्धि-रस-शातायुपस्थितौ हर्षः सुखं वा नोत्पद्यते।
स हि तदानीमेवं विभावयति-अनेनात्मना पूर्व देवभवेषु नरलोकदुर्लभं नानाविधऋद्धयादिसुखमनन्तशोऽनुभूतं, तस्य समुद्रसदृशस्य दिव्यसुखस्य पुरतः , अथवा-संयमकी आराधना करनेमें दत्तावधान महर्षिको अरति और आनन्दसे कोई प्रयोजन नहीं है।
तात्पर्य यह है-संयमकी आराधना करने में तत्पर महर्षिके जब किसी कारणसे प्रतिकूल परीषह और उपसर्गकी उपस्थिति होती है उस समय उसे उससे अरति नहीं होती है, किन्तु उसे उस समय यही विचार आता है कि इस आत्माने पूर्वभवमें नरकनिगोदादि गतियों में क्षुधा-तृषाआदि-जनित एवं वध और बन्धन आदिसे उत्पन्न हुए जो घोरतर दुःख अनन्त वार पाये हैं उनके आगे अल्पदुःखजनक ये परीषह और उपसर्ग क्या चीज है ? तथा ऋद्धि, रस, शाता आदिकी उपस्थिति होने पर भी उसे हर्ष या सुख नहीं होता है, क्योंकि उस समय भी वह यही विचार करता है कि इस आत्माने पूर्व-देवभवों में, अनुष्यलोक दुर्लभ ऐसे अनेक प्रकारके ऋद्धि-आदिजन्य सुखोंको अनन्त वार भोगा है तो समुद्र
અથવા સંયમની આરાધના કરવામાં દત્તાવધાન મહર્ષિ અરતિ અને આ નંદથી કોઈ પ્રજન જ નથી.
તાત્પર્ય એ છે કે–સંયમની આરાધના કરવામાં તત્પર મહર્ષિને જ્યારે કઈ કારણથી પ્રતિકૂળ પરીષહ અને ઉપસર્ગની ઉપસ્થિતિ થાય છે તે વખતે તેને તેનાથી અરતિ થતી નથી. પણ તેને તે વખતે તે વિચાર આવે છે કે આ આત્માએ પૂર્વભવમાં નરક નિદાદિ ગતિમાં સુધા તૃષા આદિ જનિત તેમજ વધ અને બંધન આદિથી ઉત્પન્ન થયેલ જે ઘરતર દુઃખ અનન્ત વાર ભેગવેલ છે તેની અપેક્ષા અલ્પ દુખજનક આ પરિષહ અને ઉપસર્ગ કઈ ચીજ છે? તથા ઋદ્ધિ રસ, શાતા આદિની ઉપસ્થિતિ હોવા છતાં પણ તેને હર્ષ અગર સુખ થતું નથી. કારણ કે તે સમય પણ તે એજ વિચાર કરે છે કે આ આત્માએ પૂર્વ દેવભમાં, મનુષ્યલકમાં દુર્લભ એવા અનેક પ્રકારના ઋદ્ધિ આદિ જન્ય સુખને
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आचाराङ्गसूत्रे ___ स्वात्मव्यतिरिक्तस्य संसारकार्ये साहाय्यकारिणः पुत्रकलत्रादेः संसारिणस्तथा हिरण्यसुवर्णादेवच जन्ममरणादिवहुविधानन्तव्यसनोपनिपातसंसारसागरान्तःपतनकारित्वादमित्रं मित्रं मन्यमानः किं मोहाणवे स्वात्मानं निपातयसि ?, परमार्थतः श्रुतचारित्रधर्मानुष्ठानात्स्वात्मैव मित्रं, तद्विरोधिसावधक्रियानुष्ठानादमित्रं च स्वात्मैवास्तीति भावः । उक्तञ्च
"अप्येकं मरणं कुर्यात् , संक्रुद्धो बलवानरिः।
___ मारणानि बनन्तानि, जन्मानि च करोत्ययम् ।।" इति ॥ सू०१०॥ तथा आत्यन्तिक परम सुखका जनक होनेसे उत्कृष्ट बन्धु है। इसलिये जब आत्माका आत्मासे अतिरिक्त इस अवस्थामें कोई वास्तविक दृष्टि से बन्धु-सहायक है ही नहीं; तो फिर हे आत्मन् ! अपने से सदा भिन्न रहे हुओंको तुम अपना सहायक मानने की चाहना क्यों करते हो ?।
तात्पर्य यह है कि-आत्मासे सदा भिन्न रहे हुए ये सांसारिक समस्त पदार्थ, वे चाहे स्त्री, पुत्र, मित्र आदि हों, चाहे हिरण्य, सुवर्ण आदि हों; तुझे सांसारिक कार्यों में ही सहायक होते हैं, पारमार्थिक कार्यों में नहीं। आत्माको इनके ममत्वसे निरन्तर ही जन्म जरा और मरणादिक अनेक प्रकारसे अनेक कष्टों का सामना करना पड़ता है। इन कष्टोंके स्थानभूत इस संसारसमुद्र में उसे वारंवार गोते खाने पड़ते हैं । इसलिये इन्हें अपना सहायक मानना शत्रुको सहायक मानने जैसा है। अतः हे शिष्य! यह निश्चय विश्वास रखकर अपनी संयमयात्रा का निर्वाह करो और બને છે પ્રમાદથી રહિત આત્મા જ આત્માને એકાંતિક તથા આત્યંતિક પરમ સુખને જનક રહેવાથી ઉત્કૃષ્ટ બધું છે. માટે જ્યારે આત્માને આત્માથી અતિરિક્ત આ અવસ્થામાં કઈ વાસ્તવિક દૃષ્ટિથી બંધુ–સહાયક છે જ નહિ, તે પછી હે આત્મન ! પિતાનાથી સદા ભિન્ન રહેલાઓને તે પિતાના સહાયક માનવાની ચાહના શા માટે કરે છે?
ભાવાર્થ–આત્માથી સદા ભિન્ન રહેલા એ સાંસારિક સમસ્ત પદાર્થ—ભલે ચી પુત્ર મિત્ર આદિ હોય, ચાહે હિરણ્ય સુવર્ણ આદિ હોય તને સાંસારિક કામ જ સહાયક બને છે પરમાર્થિક કાર્યોમાં નહિ આત્માને તેના મમત્વથી નિરતર જ જન્મ, જરા અને મરણાદિક અનેક પ્રકારના અનંત કષ્ટોને સામને કરે પડે છે તે કષ્ટોના સ્થાનભૂત આ સંસારસમુદ્રમાં તેને વારવાર ગોથા ખાવા પડે છે માટે તેના પિતાના સહાયક માનવા તે શત્રુને સહાયક માનવા બરાબર છે. માટે હે શિષ્ય! એ નિશ્ચય વિશ્વાસ રાખીને પોતાની સંયમ યાત્રાને નિર્વાહ
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शीतोष्णीय-अध्य० ३ उ. ३ परिव्रजेत्-परि-समन्ताद्व्रजेत्-विहरेत्-संयमानुष्ठानविधायी भवेदित्यर्थः।।सू०९॥ _ स्वात्मनो वीर्यगुणावलम्बनेनैव मोक्षः प्राप्यते न तु परसाहाय्याश्रयणेनेति दर्शयितुं कथयति-'पुरिसा' इत्यादि।
मूलम्-पुरिसा ! तुममेव तुमं मित्तं, किं बहिया मित्तमिच्छसि ॥ सू० १०॥
छाया–पुरुष ! त्वमेव तव मित्रं, किं बहिमित्रमिच्छसि ॥ सू० १० ॥ ___टीका-हे पुरुष !-पुरुषार्थसाधनसमर्थ ! शिष्य ! तव मित्रं त्वमेव आत्मनः कल्याणार्थं समुद्यतस्य-गृहीतसंयमभारस्य तव सहायस्तवात्मैवास्तीत्यर्थः । श्रुतचारित्रधर्माचरणकरणेनैकान्ततोऽत्यन्ततश्च परमसुखजनकत्वात्प्रमादरहित आत्मैवात्मनो मित्रमुपकारी परमार्थतो, न त्वन्य इति भावः । बहिबाह्य स्वात्मनो व्यतिरिक्तं, मित्रं-हितकारिणं सहाय, किम्=कुतः, इच्छसि=अन्वेषयसि। कमठ-कच्छपके समान संवृतशरीर होते हुए वे महर्षि संयमकी आराधना करने में सावधान रहे ॥ सू० ९॥ ____ अपनी आत्माके वीर्यगुणके अवलम्बन से ही मोक्ष प्राप्त होता है किन्तु दूसरोंकी सहायताके सहारे नहीं। इस बातको दिखलाने के लिये कहते हैं-'पुरिसा' इत्यादि । ____ पुरुषार्थ साधन करने में समर्थ हे पुरुष हे शिष्य ! तुम ही स्वयं अपने मित्र हो-अपनी आत्माके कल्याण करने में उद्यत हो कर जो तुमने यह संयमका भार अंगीकार किया है उसमें तुम्हारी आत्मासे अतिरिक्त और दूसरा कोई सहायक नहीं है । श्रुतचारित्ररूप धर्म के आचरण करने से आत्मा अप्रमादी बनता है। प्रमाद से रहित आत्मा ही आत्माका ऐकान्तिक અને કાયાથી સદા સાવદ્ય કિયાઓથી રહિત થઈને, અથવા કમઠ-કચ્છપના સમાન સંવૃતશરીર થઈને તે મહર્ષિ સંયમની આરાધના કરવામાં સાવધાન રહે. સૂલા
પોતાના આત્માના વીર્યગુણના અવલંબનથી જ મોક્ષ પ્રાપ્ત થાય છે, પણ બીજાઓની સહાયતાના સહારાથી થતું નથી. આ વાતને બતલાવવા માટે કહે छ–'पुरिसा' त्यादि.
પુરૂષાર્થ સાધન કરવામાં સમર્થ હે પુરૂષ હે શિષ્ય!તમે પોતે જ તમારી જાતના મિત્ર છે. પિતાના આત્માનું કલ્યાણ કરવામાં ઉદ્યોગી બની જે તમે સંયમને ભાર અંગીકાર કરેલ છે, તેમાં તમારી આત્માથી અતિરિક્ત બીજા કેઈ સહાયક નથી. શ્રુતચારિત્રરૂપ ધર્મનું આચરણ કરવાથી આત્મા અપ્રમાદી
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आचारागसूत्रे
मूलम्-जं जाणिज्जा उच्चालइयं, तं जाणिज्जा दूरालइयं ।
जं जाणिज्जा दूरालइयं, तं जाणिज्जा उच्चालइयं ॥सू०११॥ छाया-यं जानीयात् उच्चालयिकं तं जानीयाद् दूरालयिकम्।।
यं जानीयाद् दूरालयिकं तं जानीयात् उच्चालयिकम् ॥ सू० ११॥ टीका--यं पुरुषम् उच्चालयिकम्-उच्च: कर्मापनयनभावसंपन्नः, आलयःआ-समन्तात् लीयन्ते विचारा यस्मिन् स आलय अन्तःकरणम् , उच्चः आलयः उच्चालयः, सोऽस्यास्तीति-उच्चालयिकस्तम् कर्मणामपनेतारं जानीयात् , तं दूरालयिक कठिनतरतपःसंयमाराधनमापणीयत्वेन दूरे आलयः दूरालया-मोक्षस्थान, सोऽस्यास्तीति दूरालयिकस्तं मोक्षगामिनं जानीयात् । परस्परकार्यकारणभावमदर्शनायोक्तमर्थ गत-प्रत्यागतरूपेण कथयति-'यं जानीयाद्रालयिकम्'
जिसका आत्मा ही मित्र है ऐसे पुरुषकी पहिचान कैसे होती है? इसप्रकारकी शिष्यकी जिज्ञासा होने पर सूत्रकार कहते हैं-'जं जाणिज्जा' इत्यादि।
कर्मीका जो अपनेता है उसका नाम उच्चालयिक, तथा मोक्षगामी का नाम दूरालयिक है । अर्थात्-जो उच्चालयिक-काँका नाश करनेवाला है वह दूरालयिक-मोक्षगामी है, ऐसा समझो। कठिनतर तप
और संयमकी आराधना से प्राप्त होनेवाला होने के कारण दूर जोआलय -स्थान है उसका नाम दूरालय-मोक्ष है । यह जिसके होता है वह दूरालयिक अर्थात् मोक्षगामी है । परस्परमें कार्य-कारण भावका प्रदर्शन करानेके लिये उक्त अर्थको सूत्रकार गत-प्रत्यागत (हेर-फेर) रूपसे कहते हैं जो दूरालयिक-मोक्षगामी-अर्थात् मुक्तिके मार्गपर आरूढ है, उसको
જેનો આત્મા જ મિત્ર છે એવા પુરૂષની ઓળખાણ કેવી રીતે થાય? मा प्रा२नी शिष्यनी शासा थवाथी सूत्रा२४३ छ-'जं जाणिज्जा' त्याह.
કર્મોના જે અપનેતા છે તેનું નામ ત્રિચિ તથા મોક્ષગામીનું નામ दरालयिक छ. अर्थात्-२ यासायिनी ना ४२वावा छे त रामयि મોક્ષગામી છે, એમ સમજે કઠિનતર તપ અને સંયમની આરાધનાથી પ્રાપ્ત થવાવાળા હેવાના કારણે દૂર જે આલય–સ્થાન છે. તેનું નામ હરાલય–મોક્ષ છે. તે જેને થાય છે તે દરલિયિક અર્થાત્ મોક્ષગામી છે. પરસ્પરમાં કાર્યકારણ ભાવનું પ્રદર્શન કરાવવા માટે ઉક્ત અને સૂત્રકાર ગત–પ્રત્યાગત (હેર-ફેર) રૂપથી કહે છે-જે દરાલયિક-મોક્ષગામી અર્થાત્ મુક્તિના માર્ગ ઉપર આરૂઢ છે
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ ३
४५७
आत्मा यस्य मित्रं स कथं ज्ञातव्यः ? इति शिष्यजिज्ञासायामाह - ' जं जाणिज्जा' इत्यादि ।
सोचो कि इस यात्रामें मेरा सहायक मेरी आत्मा ही है, अन्य-आत्मबाह्य- कोई भी पदार्थ नहीं। जो इनकी सहायताकी अपेक्षावाले बनोगे तो अपनी आत्माको मोहरूपी समुद्र में डुबोनेवाले होओगे । इसलिये इनके मोहमें फंस कर आत्माको मोहरूपी समुद्र में डालनेकी चेष्टा न करो और परमार्थसे यह समझते हुए इस यात्रामें आगे बढ़ते रहो कि श्रुतचारित्ररूप धर्मके अनुष्ठानसे आत्माका सहायक आत्मा ही है और तद्विरोधी सावधक्रियाओंके करने से आत्मा ही आत्माका शत्रु है । कहा भी है"अप्येकमरणं कुर्यात् संक्रुद्धो बलवानरिः ।
मरणानि त्वनन्तानि, जन्मानि च करोत्ययम् ॥ १ ॥ " इति । अर्थ- बलवान से बलवान भी शत्रु अगर क्रुद्ध हो कर मारे तो एक ही जन्ममें मारता है, परन्तु सावद्य क्रियामें प्रवृत्त आत्मा स्वयं शत्रु बन कर अनन्तवार अपने आपको मारता है और जन्म लेता है । अर्थात् आत्मा ही अपना शत्रु बन कर चतुर्गति संसार में जन्म मरण करता रहता है, किन्तु कभी भी मोक्षको प्राप्त नहीं होता ॥ १ ॥ सू० १० ॥
"
કરી, અને વિચારે કે—આ યાત્રામાં મારા સહાયક મારા આત્મા જ છે. બીજી બાહ્ય કાઈ પણ પદાર્થ નહિ. જો તેની સહાયતાની અપેક્ષાવાળા મનશે તે પોતાના આત્માને મોહરૂપી સમુદ્રમાં છુડાવનારા ખનશે, માટે તેના મોહમાં સીને આત્માને મોહરૂપી સમુદ્રમાં નાંખવાની ચેષ્ટા ન કરો, અને પરમાર્થ્યથી એ સમજીને આ યાત્રામાં આગળ વધતા રહો. શ્રુતચારિત્રરૂપ ધર્મના અનુષ્ઠાનથી આત્માના સહાયક આત્મા જ છે, અને તેના વિરોધી સાવદ્ય ક્રિયાઓના કરવાથી આત્મા જ આત્માના શત્રુ છે. કહ્યું છે—
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अप्येकमरणं कुर्यात्, संक्रुद्धो बलवानरिः ।
मरणानि त्वनन्तानि, जन्मानि च करोत्ययम् " ॥ १ ॥ इति । અર્થ :—મળવાનથી ખળવાન પણ શત્રુ ક્રોધી થઈને મારે તે એકજ જન્મમાં મારે છે, પરંતુ સાવદ્ય ક્રિયામાં પ્રવૃત્ત આત્મા સ્વયં શત્રુ બનીને અનંત વાર પાતે પાતાને મારે છે, અને જન્મ લે છે. અર્થાત્ આત્મા જ પોતાના શત્રુ બનીને ચતુર્ગતિ સંસારમાં જન્મ મરણ કરતા રહે છે, કિન્તુ કદી પણુ મોક્ષ પ્રાપ્ત કરતા નથી ॥ ૧॥ સૂ૦ ૧૦ ॥
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आचाराङ्गसूत्रे मूलम्-पुरिसा! अत्ताणमेव अभिणिगिज्झ एवं दुक्खा पमुच्चसि ॥ सू० १२॥
छाया---पुरुष ! आत्मानमेवाभिनिगृह्य एवं दुःखात् प्रमोक्ष्यसे ॥ सू०१२ ॥
टीका--हे पुरुष ! परमपुरुषार्थसाधनसमर्थ ! भव्य ! आत्मानमेव स्वस्वरूपावलोकनं श्रुतचारित्रधर्माराधनं वा परित्यज्याऽनादिमिथ्यावाविरत्यादिवासनावशाद् विषयसंगार्थ बहिर्धावमानं स्वात्मानमेव अभिनिगृह्य-मोक्षसाधकधमानुष्ठानप्रवलतरसंस्कारेण ततः प्रतिनिवत्य, एवं पुनःपुनरनेन प्रकारेण स्वात्मानं ज्ञानदर्शनचारित्रात्मनिष्ठं कुर्वन् , दुःखात्-दुःखकारणात् ज्ञानावरणीयादिकर्मवन्धात् प्रमोक्ष्यसे-मुक्तो भविष्यसि ॥ सू० १२ ॥
हे पुरुष-अर्थात् परम पुरुषार्थ-मोक्षके साधनमें समर्थ हे भव्य ! अपनी आत्माको वैषयिक मार्ग से हटा कर आत्मनिष्ठ करो, इसीसे तुम्हारे दुःखोंका अन्त होगा।
भावार्थ-जो संयमी अपनी आत्माको ही संयम-मार्गके साधनमें सहायी मानता है उसे मुक्तिका लाभरूप फल प्राप्त होता है। संसारदशामें फंसे हुए व्यक्तियोंसे, अथवा संयमकी आराधनामें सांसारिक परपदार्थ की सहायताकी ही अपेक्षा रखनेवाले संयमी से स्वरूपका अवलोकन, अथवा श्रुतचारित्र रूप धर्मका आराधन नहीं हो सकता है। जब तक इस प्रकारकी प्रवृत्ति संयमी में उत्पन्न नहीं होती है तब तक वह अपने कर्तव्य-मार्गसे अलग ही रहता है। उसकी आत्मा अनादिकालसे संसक्त ( लगा हुआ) मिथ्यात्व अविरति आदिकी भावनाके वशसे
હે પુરૂષ અર્થાત્ પરમપુરૂષાર્થ–મોક્ષના સાધનમાં સમર્થ હે ભવ્ય ! પિતાના આત્માને વિષયિક માર્ગથી હટાવી આત્મનિષ્ઠ કરે, તેનાથી તમારા દુખોને અંત આવશે
ભાવાર્થ.–જે સયમી પિતાના આત્માને જ સંયમ માર્ગના સાધનમાં સહાયક માને છે તેને મુક્તિના લાભારૂપ ફળ પ્રાપ્ત થાય છે. સંસારદશામાં ફેસેલી વ્યક્તિાથી, અથવા સયમની આરાધનામાં સાંસારિક પરપદાર્થની સહાથતાની જ અપેક્ષા રાખવાવાળા સયમથી સ્વરૂપનું અવલોકન, અથવા કૃતચારિવરૂપ ધર્મનું આરાધન બની શકતું નથી. જ્યાં સુધી આ પ્રકારની પ્રવૃત્તિ સંયમીમાં ઉત્પન્ન નથી થતી ત્યા સુધી તે પિતાના કર્તવ્ય માર્ગથી અલગ જ રહે છે. તેની આત્મા અનાદિ કાળથી સંસક્ત (લાગેલા) મિથ્યાત્વ અવિરતિ
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शीतोष्णीय-अध्य० ३ उ. ३
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इत्यादि । यं पुरुषं दूरालयिकं मोक्षगामिनं मोक्षमार्गारूढं जानीयात्, तमुच्चालयिकं = कर्मणां तदास्रवद्वाराणां चापनेतारं कर्माणि दूरीकर्तुं कृतनिश्चयं सोत्साहं बद्धपरिकरमिति यावत् जानीयात् ॥ ० ११ ॥
स्वात्मैव येन मित्रतयाऽङ्गीकृतः स किं फलं प्राप्नोतीत्याह - 'पुरिसा' इत्यादि । उच्चालयिक = कर्म और उनके आस्रवोंके द्वारों का नाश करनेवाला समझो । क्यों कि वह कर्मों को दूर करनेके लिये कृतनिश्चय एवं उत्सासंपन्न होता है । कर्मों के नाश करने में वह किसी भी प्रकारसे पीछे पैर नहीं रखता है, अर्थात् कटिबद्ध होता है ।
भावार्थ - शिष्यने जो यह प्रश्न किया था कि आत्माको ही जो संयमयात्रा में सहायक मानता है उसकी पहिचान क्या है ? इसका समाधान सूत्रकारने इस सूत्र से किया है । वे कहते हैं कि जो संयमी इस प्रकार की प्रवृत्ति करता है वह कर्मों के दूर करने में सदा कटिबद्ध रहता है । इसी रूपसे वह दृष्टिपथ होता है । उसकी प्रत्येक क्रियाएँ ऐसी होती हैं कि जिनसे कर्मों का आस्रव रुकता है और संचित कर्मों की निर्जरा होती रहती है। ऐसा संयमी मुनि ही मोक्षमार्ग पर आरूढ माना जाता है | सू० ११ ॥
अपनी आत्मा को ही जिसने मित्ररूपसे अंगीकार किया है वह संयमी किस फलको प्राप्त करता है ? इसकेलिये कहते हैं - 'पुरिसा ' इत्यादि ।
તેને ઉચ્ચાલયિક-કમ અને તેના આશ્રવઢારાના નાશ કરવાવાળા સમજો. કારણ કે તે કર્મીને દૂર કરવા માટે કૃતનિશ્ચય તેમજ ઉત્સાહસંપન્ન બને છે. કર્મોના નાશ કરવામાં તે કોઈ પણ પ્રકારે પાછળ પગલું ભરતાં નથી, અર્થાત્ કટિબદ્ધ થાય છે. ભાવા—શિષ્યે જે આ પ્રશ્ન કરેલ હતા કે આત્માનેજ જે સયમયાત્રામાં સહાયક માને છે તેની ઓળખાણ શું છે? તેનું સમાધાન સૂત્રકારે આ સૂત્રથી કરેલ છે, તે કહે છે કે જે સંયમી આ પ્રકારની પ્રવૃત્તિ કરે છે તે કર્મોને દૂર કરવામાં સદા કિટબદ્ધ રહે છે. તેવા રૂપથી તે દૃષ્ટિપથ થાય છે. તેની દરેક ક્રિયાએ એવી હોય છે કે જેનાથી કોના આસવ રોકાય છે, અને સચિત કર્મોની નિર્જરા થતી રહે છે, એવા સંચમી મુનિ જ મોક્ષ માર્ગ પર આરૂઢ માનવામાં આવે છે. ! સૂ॰૧૧ ॥
પેાતાના આત્માને જ જેણે મિત્રરૂપથી અંગીકાર કરેલ છે તે સંયમી કેવા जने आस रे छे तेने भाटे हे छे-' पुरिसा ' त्याहि.
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आचाराङ्गसूत्रे
छाया--पुरुष ! सत्यमेव समभिजानीहि, सत्यस्याज्ञया स उपस्थितो मेधावी मारं तरति । सहितो धर्ममादाय श्रेयः समनुपश्यति ॥ मू० १३ ॥
टीका -- हे पुरुष ! सत्यमेव समभिजानीहि - गुरुदेवं साक्षीकृत्य या श्रुतचारित्रधर्मस्य ग्रहणी तथाssसेवनी च शिक्षा परिगृहीता, ताम् अविस्मरन् परिपालये - त्यर्थः । यद्वा-सत्यः = आगमस्तमेव समभिजानीहि = चरणकरणरूपमागमोक्तमर्थं प्रतिपालयेत्यर्थः । एतत् किमर्थमित्याह - 'सत्यस्य' इत्यादि । सत्यस्य = गुरुदेवं सा1 क्षीकृत्य परिगृहीतायाः श्रुतचारित्रधर्मस्य ग्रहण्या आसेवन्याश्च शिक्षायाः जिनमवचनस्य वा आज्ञया=अनुसरणेन उपस्थितः सन् मेधावी = हेयोपादेयविवेककुशलः, मारं = संसारार्णवं तरति = समुत्तीर्णो भवति । किं च - सहितः = हितेन ज्ञानादिना युक्तः धर्ममादाय श्रुतचारित्रलक्षणं धर्म गृहीत्वा श्रेयः शुभं मोक्षपदं समनुपश्यति, तीर्थङ्करादिभिर्दृष्टं सम्यगवलोकयतीत्यर्थः ॥ ०१३ ॥
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फिर कहते है--' पुरिसा ' इत्यादि ।
हे पुरुष = परमपुरुषार्थ के साधन करने में समर्थ भव्य ! भगवान् तथा गुरुको साक्षी करके जो तुमने ग्रहणी - श्रुतचारित्ररूप धर्मको अंगीकार करनेवाली एवं आसेवनी - उस धर्मको निर्दोष रीति से पालन करनेवाली शिक्षा ग्रहण की है, उसे तुम स्वप्न में भी मत भूलो। इसका अन्त:करणसे पालन करो । अथवा चरणकरणरूप आगमोक्त अर्थ - ( चरणसत्तरी और करणसत्तरी) का पालन करो। जिनप्रवचनकी आज्ञा के अनुसार जो अपनी प्रवृत्ति करता है वह हेय और उपादेय के विवेकसे कुशल हो जाता है । इस कुशलताका यह फल है कि - वह संसारसमुद्र से पार हो जाता है । तथा - आत्माके हितकारी होनेसे हितरूप
als d'gften' Seult.
હે પુરૂષ' = પરમપુરૂષાર્થનુ સાધન કરવામાં સમથ ભવ્ય ભગવાન તથા ગુરૂને સાક્ષી કરીને જે તમે ગ્રહણી-શ્રુતચારિત્રરૂપ ધર્મને અંગીકાર કરવાવાળી, અને આસેવની—તેને નિર્દોષ રીતિથી પાળવાવાળી શિક્ષા ગ્રહણ કરી છે તેને તમે સ્વપ્નમાં પણ ભૂલે નહિ. તેનું અંતઃકરણથી પાલન કરે. અને ચરણકરણરૂપ આગમેાક્ત અર્થ (ચરણુસત્તરી અને કરણસત્તરી )તુ સેવન કરે. જીનપ્રવચનની આજ્ઞાનુસાર જે પેાતાની પ્રવૃત્તિ કરે છે તે હેય અને ઉપાદેયના વિવેકથી કુશળ બની જાય છે, તે કુશળતાનુ એ ફળ છે કે તે સસારસમુદ્રથી પાર થઈ જાય છે, તેમજ આત્માના હિતકારી હાવાથી હિતરૂપ જ્ઞાનાદિ ગુણાથી યુક્ત
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. ३ अपि च--'पुरिसा' इत्यादि ।
मूलम्-पुरिसा ! सच्चमेव समभिजाणाहि, सच्चस्स आणाए से उवट्ठिए मेहावी मारं तरइ। सहिओ धम्ममायाय सेयं समणुपस्सइ ॥ सू० १३ ॥ विषयों की ओर चक्कर काटा करता है और मोक्षके साधक धार्मिक अनुष्ठानके संस्कारों से वञ्चित रहता है । इस बातका ख्याल कर सूत्रकार शिष्यजन के शिक्षार्थ कहते हैं कि-हे शिष्य! यदि तुम परमपुरुषार्थ मोक्ष के साधन करने में अपनेको शक्तिशाली समझते हो तो तुम स्वरूपका अवलोकन में, या श्रुतचारित्ररूप धर्मकी आराधना में अपने को विसर्जित कर दो। जो ऐसा नहीं करते, वे अनादिकालिक मिथ्यात्व एवं अविरति आदिकी लगी हुई वासनाके वश से विषयोंके संगके लिये बाहिरी पदार्थों में प्रवृत्ति करनेवाली अपनी आत्मा को उस ओर से हटा नहीं सकते। इसलिये तुम मोक्षके साधक धार्मिक अनुष्ठानके संस्कार को अपने आपमें प्रवलतर करो, ताकि विषयमार्ग की ओर बढ़ती हुई यह तुम्हारी आत्मा उस ओर न जा सके-उस तरफसे निवृत्त हो जावे। इस प्रकारके बार२ के अभ्यास से आत्माको अपने निजरूप-सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सभ्यक्चारित्र-में स्थापित करते हुए तुम दुःखों के कारणभूत ज्ञानावरणीयादिक कर्मों के बन्धन से मुक्त हो जाओगे॥१२॥ આદિ ભાવનાના વશથી વિષચેની તરફ જ લાગ્યો રહે છે, અને મોક્ષના સાધક ધાર્મિક અનુષ્ઠાનના સંસ્કારોથી વંચિત રહે છે. આ વાતનો ખ્યાલ કરી સૂત્રકાર શિષ્યજનના શિક્ષાર્થ કહે છે કે – હે શિષ્ય ! જે તે પરમપુરૂષાર્થ મેક્ષનું સાધન કરવામાં પિતાને શક્તિશાળી સમજતે હોય તે તું સ્વરૂપના અવલેકનમાં અગર શ્રતચારિત્રરૂપ ધર્મની આરાધનામાં પોતાને વિસર્જિત કરી દે. જે આમ નથી કરતા તે અનાદિકાલિક મિથ્યાત્વ અને અવિરતિ આદિની લાગેલી વાસનાના વશથી વિષયના સંગ માટે બહારના પદાર્થોમાં પ્રવૃત્તિ કરવાવાળા પિતાના આત્માને તે તરફથી હઠાવી શકતા નથી, માટે તમે મોક્ષના સાધક ધાર્મિક અનુષ્ઠાનના સંસ્કારને પિતે પિતામાં પ્રબતર કરે, જેથી વિષયમાર્ગની તરફ વધતે એ તમારે આત્મા એ તરફ જઈ શકે નહિ–તે તરફથી નિવૃત્ત થઈ જાય. આ પ્રકારના વારંવારના અભ્યાસથી આત્માને–પોતાને નિજરૂપ–સમ્યગ્દર્શન સમ્યગજ્ઞાન અને સમ્યકૂચારિત્ર–માં સ્થાપિત કરીને તમે દુઃખના કારણભૂત જ્ઞાનાવરણીયાદિક કર્મોના બંધનથી મુક્ત થઈ જશે. સૂ૦ ૧૨ .
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आचाराङ्गसूत्रे चन रागद्वेषाभिभूताः असंयमरताः स्वार्थ परार्थं वा यस्मिन्-परिवन्दनादौ प्रमाद्यन्ति= आतरौद्रध्यानलग्नेन चेतसा परिवन्दनादिरूपसावधव्यापारेषु प्रवृत्तिरूपं प्रमादं कुर्वन्ति । ते प्रमादकारिणः खल निजात्मनो दुःखं नक्षपयन्ति; किन्तु कर्मोपचयेन वात्मानं दुःखाणवे निपातयन्तीति भावः । यद्वा-'पमोयंति' इति पाठपक्षे 'प्रमो. दन्ते' इति च्छाया । तस्यायमर्थः -'जंसि' यस्मिन् परिवन्दनादौ ' एगे' एकेकेचित् प्रमोदन्ते-हृष्यन्ति-हएं प्राप्नुवन्ति, न तत्तस्य हितायेति भावः ॥ ० १४॥ ____ एतत्पतिपक्षभूतस्वप्रमादी यत् फलं प्राप्नोति तदाह-'सहिओ' इत्यादि। इस प्रकारकी चाहनावाले जो कोई भी मुनि हैं वे राग और द्वेषसे युक्त हैं और असंयममें आसक्त हैं। ऐसे प्राणी स्वार्थ अथवा परमार्थका कुछ भी ख्याल न कर सिर्फ अपनी ख्यातिलाभ पूजादिककी चाहनाके आधीन हो आत और रौद्र ध्यानमें संलग्नचित्त रहा करते हैं और सावद्य व्यापारों में प्रवृत्ति करनेरूप प्रमादका सेवन करते रहते हैं । ये प्रमादकारी प्राणी निश्चित ही अपनी आत्माके दुःखोंको दूर न कर प्रत्युत कौके संचयसे स्वयं अपनी आत्माको दुःखरूपी समुद्र में धकेलते हैं। अथवा सूत्रमें 'पमायंति के स्थानमें कहीं 'पमोयंति' ऐसा भी पाठ है। उसका अर्थ इस प्रकार होता है-जिस परिवन्दन आदिमें कितनेक प्राणी हर्प मनाते हैं किन्तु वह उसकी आत्मा के हितके लिये नहीं होता।म०१४॥ . इससे भिन्न प्रवृत्ति करनेवाला अप्रमादी मुनि जिस फलको पाता है वह दिखलाते हैं-'सहिओ' इत्यादि। કરે છે. આ પ્રકારની ચાહનાવાળા જે કઈ મુનિ છે તે રાગ અને દ્વેષથી યુક્ત છે. અને અસયમમાં આસક્ત છે. એવા પ્રાણી સ્વાર્થ અથવા પરાર્થને જરા પણ ખ્યાલ કરતા નથી, ફક્ત પોતાની ખ્યાતિલાભ અને પૂજાદિકની ચાહનાને આધીન થઈ આર્ત અને રૌદ્ર ધ્યાનમાં સંલગ્નચિત્ત રહ્યા કરે છે, અને સાવધ વ્યાપારમાં પ્રવૃત્તિ કરવારૂપ પ્રમાદનું સેવન કરતા રહે છે. એ પ્રમાદકારી પ્રાણી નિશ્ચિત જ પોતાના આત્માને દુખોથી દૂર ન કરતાં પ્રત્યુત કર્મોના સંચયથી સ્વયં પોતાના मात्माने दु:३पी समुद्रमा नाणे छ. अथवा सूत्रमा 'पमायति' न स्थानमा
या 'पमोयंति' मेव। ५ ५छे, तेना मथ मा प्रकारे थाय छ-२ ५२વદન આદિમાં કેટલાક પ્રાણ હર્ષ મનાવે છે, પણ તે તેના આત્માને હિત માટે હોતું નથી સૂત્ર ૧૪ w
તેનાથી ભિન્ન પ્રવૃત્તિ કરવાવાળા અપ્રમાદી મુનિ જે ફળને પામે છે તે मताये थे-'सहिओ' त्यादि.
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. ३
४६३ प्रमादरहितस्य महर्षगुणा उक्ताः, अथ प्रमादवतो दोषान् दर्शयितुमाह'दुहओ' इत्यादि।
मूलम्-दुहओ जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए, जंसि एगे पमायति ॥सू० १४॥
छाया-द्विहतो जीवितस्य परिवन्दनमाननपूजनार्थ, यस्मिन् एके प्रमाद्यन्ति॥ ___टीका-द्विहतः-द्वाभ्यां रागद्वेषाभ्यां हतः रागद्वेषवशीभतः जीवितस्य-चपलाविलासचञ्चलस्य क्षणभङ्गुरस्य जीवनस्य, सुखाथै, तथा परिवन्दनमाननपूजनार्थ-परिवन्दनं-संस्तवः, यथा-'श्रीमान् आयुष्मान् भवे'-त्यादि, तदथै, तथा माननं-जनसत्कारः, यथा-' अभ्युत्थानासनदानादिभिर्जना मां मानयिष्यन्ती'-ति तदर्थ, तथा पूजनं, यथा-'समुपार्जितग्रामजनपदस्य मम दानमानप्रणामसेवादिभिजनाः पूजनं करिष्यन्ती'-ति, तदर्थं प्राणातिपातादिषु प्रवर्तते । एवम्-एके-ये के ज्ञानादि गुणोंसे युक्त वह संयमी श्रुतचारित्ररूप धर्मकी आराधना कर शुभ एवं तीर्थङ्करादिद्वारा दृष्ट ऐसे मुक्तिस्थानका दर्शक होता है ॥ सू० १३॥
पूर्व सूत्रमें प्रमादरहित महर्षिके गुणोंका कथन किया है, अब प्रमादसंपन्न प्राणीके दोषोंको दिखलाते हैं-'दुहओ' इत्यादि।
जो मनुष्य, राग एवं द्वेष, इन दोनोंसे युक्त है वह बिजलीके चमकारे के समान क्षणभंगुर इस जीवनको सुखी करनेके लिये 'आप लक्ष्मीवान् हों, चिरंजीवी हों' इत्यादि रूपसे अपनी स्तुति करानेके लिये, 'लोग मुझे देख कर खडे होंगे, आसनादिकके प्रदानसे मेरा सन्मान करेंगे' इस प्रकार अन्य जनोंसे सत्कार प्राप्सिके लिये, तथा 'मुझे ग्रामाधिपति या नगराधिपति दान, मान, प्रणाम और सेवा-शुश्रूषा आदिसे प्रतिष्ठित करेंगे' इस प्रकार अपनी पूजाके लिये प्राणातिपातादिक अकृत्योंमें प्रवृत्ति करता है। તે સંયમી થતચારિત્રરૂપ ધર્મની આરાધના કરી શુભ તેમજ તીર્થકરાદિ દ્વારા દષ્ટ એવા મુક્તિસ્થાનના દર્શક બને છે કે સૂ૦ ૧૩
પૂર્વ સૂત્રમાં પ્રમાદરહિત મહર્ષિના ગુણોનું કથન કરેલ છે, હવે પ્રમાદसपन प्राणीना होषो ४३ छ-'दुहओ' त्या
જે મનુષ્ય રાગ અને દ્વેષ, એ બનેથી યુક્ત છે તે વીજળીના ચમકારા સમાન ક્ષણભંગુર આ જીવનને સુખી કરવા માટે “તમે લક્ષ્મીવાન થાઓ ચિરંજીવી થાઓ ઈત્યાદિ રૂપથી પોતાની સ્તુતિ કરાવવા માટે, તથા “લોક મને દેખીને ઉભા થશે, આસનાદિકના પ્રદાનથી મારું સન્માન કરશે. આ પ્રકારે અન્ય જનોથી સત્કાર પ્રાપ્તિ માટે, તથા “મને પ્રામાધિપતિ અગર નગરાધિપતિ દાન, માન, પ્રણામ અને સેવા-સુશ્રુષા આદિથી પ્રતિષ્ઠિત કરશે.” આ પ્રકારે પિતાની પૂજા માટે પ્રાણાતિપાતાદિક અકૃતમાં પ્રવૃત્તિ
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आचारागसूत्रे इत्यादि। द्रविका रागद्वेषविनिर्मुक्तः मुनिरित्यर्थः, लोकाऽऽलोकप्रपश्चात् चतुर्दशरज्ज्वात्मकलोके आलोकात्-दृश्यमानात् प्रपञ्चात्-चतुर्गतिभ्रमणरूपाद् व्यवहाराद् मुच्यतेन्मुक्तो भवतीत्यर्थः। 'इति ब्रवीमि ' अस्य व्याख्यानं प्राग्वत् ॥१०१५॥
॥ तृतीयाध्ययनस्य तृतीयोदेशः संपूर्णः ॥ ३-३॥ ____ भावार्थ–“संधि लोगस्स" इस सूत्रसे लगाकर “णो झंझाएति" यहां तक मुनिके सम्बन्धमें जो कुछ सूत्रकारने प्रकट किया है उस पर वह मुनि यदि हृदयकी लगनसे प्रवृत्तियुक्त होता है तो यह निश्चित है कि वह अवश्य ही राग और द्वेषसे रहित होता हुआ इसचौदह (१४) राजू प्रमाण लोकमें चारों गतियोंके भ्रमणसे मुक्त हो जाता है। 'तिवेमि' इति ब्रवीमि, इस पदका व्याख्यान पहिलेके समान है ॥ सू० १५ ॥
॥ तृतीय अध्ययनका तृतीय उद्देश समाप्त ॥३-३॥
भावार्थ:-" संधि लोगस्स" से सूत्रथी दावी “णो झंझाएति ' त्यां સુધી મુનિના સંબંધમાં જે કાંઈ સૂત્રકારે પ્રગટ કરેલ છે તે ઉપર તે મુનિ જે હૃદયના ભાવથી પ્રવૃત્તિયુક્ત થાય છે તે એ નિશ્ચિત છે કે તે અવશ્ય જ રાગ અને દ્વેષથી રહિત બનીને આ ચૌદ (૧૪) રાજુ પ્રમાણુલોકમાં ચાર ગતિसाना प्रभावी मुद्रत थ नय छे. 'तिवेमि' इति ब्रवामि-24। व्याभ्यान પહેલા સમાન છે. સૂત્ર ૧૫
ત્રીજા અધ્યયનને ત્રીજે ઉદ્દેશ સમાપ્ત છે ૩-૩
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. ३
४६५ मूलम्--सहिओ दुक्खमच्चत्ताए पुट्ठो नो झंझाएति, पासिमं दविए लो गालोगपवंचाओ मुच्चइ-त्तिबेमि ॥ सू० १५॥ ____ छाया--सहितो दुःखमात्रया स्पृष्टः न झन्झायति, पश्येमं द्रविको लोकाऽऽलोकप्रपञ्चान्मुच्यते-इति ब्रवीमि ॥ मू० १५॥
टीका—सहितः ज्ञानचारित्रयुक्तः, दुःखमात्रया शीतोष्णपरीषहसमुत्पन्नया व्याध्युपसर्गजनितया वाऽल्पया महत्या वा स्पृष्टो सन् न झञ्झायतिन्न व्याकुलीभवति, कपायं न कुर्यादित्यर्थः । किंच-हे शिष्य ! इमं वक्ष्यमाणमर्थ, यद्वा-इममुक्तम) 'संधि लोगस्स जाणित्ता' इत्यारभ्य 'णो झंझाएति' इत्यन्तेन प्रतिबोधितं, पश्य हेयोपादेयविवेकेन सम्यग् जानीहि । तमेवार्थ दर्शयितुमाह-'द्रविक'
ज्ञान एवं चारित्रसंपन्न संयमी मुनि शीत-उष्ण परीषहसे उत्पन्न अथवा कोई व्याधि या उपसर्गसे जनित दुःखकी थोड़ी या बहुत मात्रासे स्पृष्ट होता हुआ भी कभी भी आकुलितचित्त नहीं होता है। इस लिये हे शिष्य ! इस आगे कहे जानेवाले अर्थको अथवा “संधि लोगस्स" यहां से लगाकर "णो झंझाएति" यहां तक जो कुछ अभी तक अर्थ प्रकट किया गया है उसको हेय और उपादेयके विवेकसे वासितअन्तःकरण हो तुम पूर्णरूपसे अपने ध्यानमें रखो । “संधि लोगस्स" यहांसे प्रारंभकर "णो झंझाएति" यहां तक जो कुछ भी विषय कहा गया है उसका निचोड़ अर्थ यही है कि-रागद्वेषसे रहित मुनि चौदह (१४) राजुप्रमाण इस लोकमें प्रत्यक्षसे दिखते हुए चतुर्गति में भ्रमणरूप व्यवहारसे सदाके लिये मुक्त हो जाता है।
જ્ઞાન અને સાત્રિ–સંપન્ન સંયમી નિ, શીત, ઉષ્ણ પરીષહથી ઉત્પન્ન થયેલ. અથવા કેઈ વ્યાધિ અગર ઉપસર્ગથી જનિત થેડી અગર વધારે દુઃખની માત્રાથી સ્કૃષ્ટ બનવા છતાં પણ કદિ પણ આકુલિતચિત્ત નથી થતાં. માટે હે શિષ્ય! मा ४ाम वशे ते मथ ने मथवा “संधि लोगस्स" मडीयाथी सन ‘णो झंझाएति' त्यां सुधीरे सत्या२ सुधा म प्रगट रेस છે તેને હેય અને ઉપાદેયના વિવેકથી વાસિત અંતઃકરણ બની તમે પૂર્ણ રૂપથી पोताना ध्यानमा रामा. “संधि लोगस्स” त्यांथी प्रारभ ४३ " णो झंझाएति" ત્યાં સુધી જે કંઈ પણ વિષય કહેવામાં આવેલ છે તેને નિચોડ અર્થ એ છે કે-રાગદ્વેષથી રહિત મુનિ ચૌદ (૧૪) રાજુ પ્રમાણ આ લોકમાં પ્રત્યક્ષથી દેખાતાં ચતુગતિમાં ભ્રમણરૂપ વ્યવહારથી સદાને માટે મુક્ત થઈ જાય છે.
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आधारागसूत्रे ___ मूलम्-सेवंता कोहंचमाणंच मायंचलोभं च, एयंपासगस्स दंसणं, उवरयसत्थस्सपलियंतकरस्स,आयाणं सगडब्भि ॥सू०१॥ __ छाया-स वृमिता क्रोधं च मानं च मायां च लोभं च । एतत् पश्यकस्य दर्शनं उपरतशस्त्रस्य पर्यन्तकरस्य, आदानं स्वकृतभित् ॥ मू० १॥
टीका-स-शुभाध्यवसायपूर्वकसंयमाराधनपरायणः श्रमणः, क्रोधं मान मायां लोभ च वमिता अपनेता भवति । अत्रैकपदेन क्रोधमानमायालोमानिति वक्तव्ये पृथक् पृथगुपादानमेकैकस्य क्रोधादेनन्तानुवन्ध्यादिभेदेन चतुर्विधत्वं दर्शयति । तेषामुपशमो युगपन्न संभवति, तस्मादेकैकस्योपशमार्थ पृथक् पृथक् प्रयत्नो से छूट जाता है। ये सब बातें तीसरे उद्देशकके अन्तिम सूत्रों में प्रकट कर दी गई हैं। परन्तु वह छूटता कैसे है ? सो कहते हैं- से वंता' इत्यादि।
शुभअध्यवसायपूर्वक संयमकी आराधनामें तत्पर श्रमण-मुनि क्रोध, नान, माया और लोभका बमिता-अपनेता-नाशक होता है ।
मूत्र में "क्रोधं मानं मायां लोभं” इस प्रकार इन द्वितीयान्त पदोंका अलग अलग स्वतंत्र प्रयोग किया गया है, उसका कारण क्रोधादिकोंमें एकएकके अनन्तानुबन्धी आदिके भेदसे चार-चार भेदों को दिखाना है। अर्थात्-समास करने पर-"क्रोधमानमायालोभान "-ऐसा एक पद बन जाता है, फिर भी इस एक पदका प्रयोग न कर जो प्रत्येक पद' मत्रमें स्वतन्त्र विभक्तिवाले रखे हैं उसका कारण क्रोध आदि, अनन्तानुवन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यानावरण एवं संज्वलनके भेदसे चार २ प्रकारके हैं, यह बतलाना है। तथा इनका उपशम एक साथ एक ही जगह नहीं होता है किन्तु એ સઘળી વાતે ત્રીજા ઉદ્દેશના અંતિમ સૂત્રમાં તથા આ ઉદેશના અન્ય સૂત્રમાં प्रगट ४२वाभा यावे. ५२न्तु ते छुटेछ वी शते १ ते ४ छ-से वंताईत्यादि.
શુભ અધ્યવસાયપૂર્વક સંયમની આરાધનામાં તત્પર શ્રમણ-મુનિ ક્રોધ, માન, માયા અને લોભના વમિતા–અપનેતા–નાશક બને છે
सूत्रमा "क्रोध, मानं, माया, लोभं" मारे २मा द्वितीयान्त होना मान અલગ સ્વતંત્ર પ્રગટ કરેલ છે તેનું કારણ ક્રોધાદિકોમા એક–એકના અનન્તાનુબ ધી मादिना लेहथीयार यार लेह मतावाना छे. अर्थात् समास ४२वाथी “ क्रोधमानमायालोभान् ” मे मे ५६ मने छे तो मा. मे पहनो प्रयो। न शन જે પ્રત્યેક પદ સૂત્રમાં સ્વતંત્ર વિભક્તિવાળા રાખેલ છે તેનું કારણ ફોધ આદિઅનન્તાનુબંધી, અપ્રત્યાખ્યાન, પ્રત્યાખ્યાનાવરણ અને સંવલનના ભેદથી ચાર ચાર પ્રકારે છે, તે બતાવવાનું છે. તથા તેને ઉપશમ એક સાથે એક જ જગ્યા ઉપર
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। तृतीयाध्ययनस्य चतुर्थ उद्देशः। इहानन्तरतृतीयोद्देशके " न केवलं पापकर्मानाचरणेन मुनिर्भवति, किंतुअप्रमादशुभभावनापूर्वकसंयमानुष्ठानादेवे"-ति प्रतिबोधितं, तत्र शुभभावना-शुभाध्यवसायः, स च कषायवमनाद् भवति। तस्माद् वान्तवत् कषायास्त्याज्या इति बोधयितुं चतुर्थमुद्देशकं कथयन्नाद्यं सूत्रमाह ‘से वंता' इत्यादि । ___ यद्वा-श्रुतचारित्रलक्षणधर्मे जागरूको वैरोपरतः सन् जातिं वृद्धिं च विदित्वा निष्कमदर्शी यो लोकालोकप्रपञ्चात् प्रमुच्यते, स पुनरेवं प्रमुच्यते इति बोधयितुमाह‘से वंता' इत्यादि।
तृतीय अध्ययनका चतुर्थ उद्देश । तीसरे अध्ययनके तीसरे उद्देशमें "केवल पापकर्मके नहीं करनेसे मुनि नहीं होता है किन्तु अप्रमाद तथा शुभभावनापूर्वक संयमके अनुष्ठानसे ही मुनि-अवस्था प्राप्त होती है " यह विषय समझाया गया है। अब-"शुभभावना शुभअध्यवसायरूप है। उस शुभअध्यवसायकी प्राप्ति कषायोंके त्यागसे ही होती है। इसलिये “वान्त-वमन किये हुए अन्नकी तरह कषाय छोड़ने योग्य हैं" - इस विषय को समझानेके लिये इस चतुर्थ उद्देशककी प्ररूपणा करते हुए सूत्रकार कहते हैं'से वंता' इत्यादि। ___ अथवा-जो श्रुतचारित्ररूप धर्म में जागरूक संयमी वैरसे रहित होकर तथा जन्म और बाल्यादि-अवस्थाओंको दुःखसहभाविनी जान कर निष्कर्मदर्शी होता है वह लोग में दृश्यमान चतुर्गतियों में भ्रमणरूप प्रपंच
ત્રીજા અધ્યયનને થે ઉદ્દેશ. ત્રીજા અધ્યયનના ત્રીજા ઉદ્દેશમાં કેવલ પાપ કર્મ નહિ કરવાથી મુનિ થતાં નથી. પણ અપ્રમાદ તથા શુભભાવનાપૂર્વક સંયમના અનુષ્ઠાનથી જ મુનિ અવસ્થા પ્રાપ્ત થાય છે.” આ વિષય સમજાવવામાં આવેલ છે. હવે શુભ ભાવના શુભ અધ્યવસાયરૂપ છે. તે શુભ અધ્યવસાયની પ્રાપ્તિ કષાયેના ત્યાગથી થાય છે. માટે વાત-વમન કરેલા અન્નની માફક કષાય છોડવા યોગ્ય છે. આ વિષયને સમodqan भाटे २॥ यथा शनी ३५९॥ ४२di सूत्र ४ छ-'से वंता' प्रत्याहि.
અથવા–જે કૃતચારિત્રરૂપ ધર્મમાં જાગરૂક સંયમી વૈરથી રહિત બનીને તથા જન્મ અને બાલ્યાદિ અવસ્થાઓને દુખસહભાવિની જાણુને નિષ્કર્મદશી થાય છે તે લેકમાં દ્રશ્યમાન ચતુર્ગતિમાં ભ્રમણરૂપ પ્રપંચથી છુટી જાય છે.
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४७०
आवाराणसत्रे
पश्यकस्य विशेषणमाह-' उपरतशस्त्रस्य' इत्यादि । उपरतशस्त्रस्य-उपरतम्-अपगतं द्रव्यशस्त्र खड्गादि, भावशस्त्रं कपायरूपं च यस्मात् सकाशात् स उपरतशस्त्रस्तस्य, अयं भावा-क्रोधादिकपायवमनमन्तरेण तीर्थंकरस्यापि सर्वपदार्थावभासकं निरावरणज्ञानं न भवति, एवं तदुपदेशानुसारिणाऽन्येन मुमुक्षुणाऽपि क्रोधादिकषायवमनं करणीयमिति । अपरविशेषणमाह-'पर्यन्तकरस्य' इति । पर्यन्तं सर्वथा विनाशं कर्मणां करोति तच्छीलश्चेति पर्यन्तकरस्तस्यैतद् दर्शनमिति सम्बन्धः। युगपत्-एकसाथ-जानते हैं वे पश्य हैं, पश्यको ही पश्यक कहते हैं। 'पश्यक' शब्द तीर्थङ्कर वर्धमान खामीका वाचक है। केवलज्ञानरूपी आलोक (प्रकाश) से देखनेका नाम दर्शन है। भगवानने यह समस्त विषय अपने केवलज्ञानरूप प्रकाशसे प्रत्यक्ष देखा है। श्री सुधर्मास्वामी कहते हैं कि उन्हींके उपदेशसे इसको मैंने जाना है अतः इसमें अन्यथापनकी आशङ्का हो ही नहीं सकती है। भगवानका ज्ञान निरावरण कैसे हुआ ? इस वातको प्रकट करनेके लिये सूत्रकार ' उपरतशस्त्रस्य' इस विशेषण का प्रयोग करते हैं। शस्त्र दो प्रकारके हैं-(१) द्रव्यशस्त्र और (२) भावशस्त्र । तलवार आदि द्रव्यशस्त्र हैं । क्रोधादिक कषाय भावशस्त्र हैं । जब तक आत्मासे भावशस्त्रोंका अभाव-उच्छेद नहीं होता है तब तक ज्ञानमें निरावरणता नहीं आ सकती। भगवान वर्धमान स्वामीने इनका अपनी आत्मासे सर्वथा विनाश कर दिया है, इसीलिये उनका ज्ञान निरावरण है। द्रव्यशस्त्र और भावशस्त्र जिससे सर्वथा दूर हो चुके ત્રિકાળવર્તી પદાર્થોને યુગપ-એક સાથે જાણે છે તે પશ્ય છે. પશ્યને જ પશ્યક કહેવામાં આવે છે. પશ્યક” શબ્દ તીર્થકર વર્ધમાન સ્વામીને વાચક છે. કેવળજ્ઞાનરૂપી આલોક (પ્રકાશ) થી દેખવાનું નામ દર્શન છે. ભગવાને આ સમસ્ત વિષય પોતાના કેવળજ્ઞાનરૂપ પ્રકાશથી પ્રત્યક્ષ દેખેલ છે. શ્રી સુધર્મા સ્વામી કહે છે કે તેમના ઉપદેશથી તે જ્ઞાન મેં જાણેલ છે. માટે તેમાં અન્યથાપણાની આશકા બની શકતી જ નથી. ભગવાનનું જ્ઞાન નિરાવરણ કેવી રીતે થયુ? मा पातने प्रगट ४२१॥ भाटे सूत्र.२ ' उपरतशस्त्रस्य ' मा विशेषाणुनी प्रयोग કરે છે શસ્ત્ર બે પ્રકારના છે. (૧) દ્રવ્યશાસ્ત્ર અને (૨) ભાવશસ્ત્ર તલવાર આદિ દ્રવ્યશસ્ત્ર છે. ક્રોધાદિક કષાય ભાવશસ્ત્ર છે. જ્યાં સુધી આત્માથી ભાવશસ્ત્રોનો અભાવ-ઉચ્છેદ નથી થતો ત્યા સુધી જ્ઞાનમાં નિરાવરણતા આવી શકતી નથી.
- ભગવાન વર્ધમાન સ્વામીએ પોતાના આત્માથી તેને સર્વથા વિનાશ કરી નાખેલ છે, માટે તેમનું જ્ઞાન નિગવરણ છે. દ્રવ્યશાસ્ત્ર અને ભાવશસ્ત્ર જેનાથી
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शीतोष्णीय-अध्य० ३ उ. ४
४६९ विधेय इति भावः । किं च-परमार्थतो मुनित्वं क्रोधादिकषायवमनादेव संपद्यते, नान्यथेति स्वबुद्धया नाहं कथयामि । किंतु तीर्थंकरस्य श्रीवर्धमानस्वामिनो निरावरणज्ञानत्वाद् दृष्टिपथावतीर्णमिति बोधयितुमाह-एतत् पश्यकस्य दर्शनम्' इत्यादि । एतत् यदुक्तं क्रोधादिवमनकर्ता मुनिर्भवतीति, तदेतत् पश्यकस्य पश्यति निरावरणज्ञानत्वाद् जानातीति पश्यः, स एव पश्यकस्तीर्थंकरः श्रीवर्धमानस्वामी, तस्य दर्शनम् केवलालोकेनावलोकनम् , तदुपदेशान्मया ज्ञातमेतदिति भावः। भिन्न २ समयमें भिन्न २ गुणस्थानों में होता है । इस कारण इनके प्रत्येक का उपशम करनेके लिये पृथक-पृथक्-रूपसे प्रयत्न करना पड़ता है। इस समस्त अभिप्रायको स्पष्ट करने के लिये भूत्र में क्रोधादिक पदोंको असमासरूपसे स्वतन्त्र विभक्तिमें रखा है।
तथा-परमार्थ दृष्टिसे मुनिपना क्रोधादिकषायों का निग्रह करनेसे ही प्राप्त होता है, अन्य रीतिसे नहीं। इस बातको सुधर्मा स्वामी कहते हैंहे जम्बू ! मैं अपनी निजी कल्पनासे नहीं कहता हूँ किन्तु तीर्थङ्कर श्री वर्धमान स्वामीने कि जिनका ज्ञान निरावरण है इस बातका साक्षात्कार किया है, अतः उन्हींके कथनानुसार कहता हूँ । इस अपने अभिप्रायको प्रकट करनेके लिये मूत्र में-"एयं पासगस्स दसणं" पद रखा है। क्रोधादिक कवायोंका वमन करनेवाला ही मुनि होता है, यह सिद्धान्त भगवान वर्धमान स्वामीका है। “पश्यति-निरावरणज्ञानत्वात् जानातीति पश्यः, स एव पश्यकः" निरावरणज्ञानशाली होने से जो समस्त त्रिकालवी पदार्थोंको થતું નથી. પણ ભિન્ન ભિન્ન સમયમાં ભિન્ન ભિન્ન ગુણસ્થાનમાં થાય છે આથી પ્રત્યેકના ઉપશમ કરવા માટે પૃથ–પૃથક્ર-રૂપથી પ્રયત્ન કરવો પડે છે. આ તેમાંના સમસ્ત અભિપ્રાયને સ્પષ્ટ કરવા માટે સૂત્રમાં કોધાદિક પદને અસમાસરૂપથી સ્વતંત્ર વિભક્તિમાં રાખેલ છે.
અને પરમાર્થ દૃષ્ટિથી નિપણું ક્રોધાદિ કષાયને નિગ્રહ કરવાથી પ્રાપ્ત થાય છે. અન્ય રીતિથી નહિ. આ વાત માટે શ્રી સુધર્મા સ્વામી કહે છેહે જબ્બ ! મેં મારી પોતાની કલ્પનાથી આ કહ્યું નથી પણ તીથકર શ્રી વર્ધમાન સ્વામી કે જેનું જ્ઞાન નિરાવરણ છે. તેમણે આ વાતને સાક્ષાત્કાર કરેલ છે, માટે તેમના ४थनानुसार ४९ छु. २॥ पोताना अभिप्रायन प्रगट ४२१॥ भाटे सूत्रमा-" एय पासगस्स दसणं" ५४ समेत छ. धा िषायोनु वमन ४२ना२।०४ मुनि मने छ. ये सिद्धांत भगवान मान स्वामीना छ. " पश्यति-निरावरणज्ञानत्वात् जानातीति पश्यः, स एव पश्यकः " निशवरज्ञानाजी डोवाथी रे समस्त
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आचाराङ्गसूत्रे
नन्वस्तु हेयोपादेयोपदेशेन परोपकारकरणात् तीर्थंकरत्वम्, कथमेतावता सर्वज्ञता तस्येति चेन्न, यतः सम्यग्ज्ञानरहितो यथोचितं हेयोपादेयोपदेशं कर्तुं न प्रभवति, यथावस्थितैकपदार्थज्ञानमपि न भवति सर्वज्ञतामन्तरेणेति प्रतिबोधयितुमाह - ' जे एगं ' इत्यादि ।
४७२
यद्वा-ननु ' एतत् पश्यकस्य दर्शनम्' इति यदुक्तं तत्र स पश्यकः किमेकमेव पदार्थ जानाति, आहोस्वित्- अनेकम् ? इति शिष्यजिज्ञासायामाह - जे एगं' इत्यादि ।
न्धसे कषायोंका वमन निरावरण ज्ञानका उत्पादक माना जाता है। जो सकल कर्मों का विनाश करता है, अथवा कर्मोंके विनाश करनेका जिसका स्वभाव है उसका नाम - " पर्यन्तकर " है, उसका यह सिद्धान्त है । जैसे तीर्थङ्कर कपायशत्रकी निवृत्तिसे सकल कर्मों के विनाशक हुए हैं उसी तरहसे उनके उपदेशानुसार अपनी प्रवृत्ति रखनेवाला अन्य भव्यजन भी सकल कर्मोंका विनाशक होता है । इसी अभिप्रायको प्रकट करनेके लिये सृत्रमें ' आदानम् 'पद रखा है । आत्मा के प्रदेशोंके साथ अष्टविध कर्म जिनसे दूध - पानीकी तरह एकक्षेत्रावगाहरूप होकर ठहरते हैं उनका नाम आदान है । वे अठारह पापस्थान हैं । अथवा कर्मों में स्थितिबन्धका कारण होनेसे कषायें भी आदान हैं, इनका वमन करनेवाला 'सगडभि ' स्वकृतभिद् होता है, अर्थात् जो भव्य कर्मों के आदानभूत कषायादिकोंका निराकरण - विनाश करता है वह अपने किये हुए कमका विनाशक होता है | सू० १ ॥
વમન નિરાવરણ જ્ઞાનનું ઉત્પાદક માનવામાં આવે છે. જે સકળ કર્મીને વિનાશ १रे छे अथवा उभेनो विनाश उखान नैनो स्वभाव छे तेनु नाम “ पर्यन्तकर" છે. તેને એ સિદ્ધાત છે જેમ તીર્થંકર કષાયશસ્રની નિવૃત્તિથી સકળ કર્મોના વિનાશક બને છે તે માફ્ક તેના ઉપદેશાનુસાર પેાતાની પ્રવૃત્તિ રાખવાવાળા અન્ય લયંજન પણ સકળ કર્મોના વિનાશક અને છે. આ અભિપ્રાયને પ્રગટ કરવા भाटे सूत्रभां 'आदानम् ' यह राजेस छे. आत्माना अहेशानी नाथे अष्टविध अभ જેનાથી દૂધ-પાણીની માફક એકક્ષેત્રાવગાહરૂપ બનીને રહે છે તેનુ નામ આદાન છે તે અઢાર પાપસ્થાનક છે. અથવા કર્મોંમા સ્થિતિમ ધનુ કારણ હોવાથી કષાયા याटु आदान छे. तेनुं वमन खावाजा 'सगडच्भि' - स्वकृतभिद् थाय छे. अर्थात् જે ભવ્ય કર્મોના આદાનભૂન કષાયાક્રિકોનું નિરાકરણ-વિનાશ કરે છે તે પોતાના કરેલા કર્મોના વિનાશક બને છે. ! સૂ૦ ૧૫
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. ४
४७१ ___ यथा तीर्थंकरः कषायशस्त्रविनिवर्तनात् सकलकर्मणां क्षपयिता, एवमन्योऽपि तदुपदेशानुसारी भव्यो भवतीत्याह-'आदानम्' इत्यादि । आदानम् आदीयते =गृह्यते-आत्मप्रदेशैः सह श्लिष्यतेऽष्टविधं कर्म येन तदादानमष्टादशपापस्थानम् , तस्थितिहेतुत्वात् कषाया वाऽऽदानं तद्वमिता स्वकृतभिद् भवति । यः खलु कर्मणामादानं कषायादि निराकरोति, स स्वकृतकर्मणां भेत्ता भवतीत्यर्थः ॥ ०१ ॥ हैं उसका नाम उपरतशस्त्र है। जब तक आत्मासे कषायोंका वमन नहीं होगा तब तक, चाहे वे कोई भी क्यों न हों; निरावरणशाली नहीं हो सकते। ज्ञानमें जब तक निरावरणता नहीं आती है तब तक किसी भी पदार्थका साक्षात्कार नहीं हो सकता है। अतः समस्त पदार्थोंको हस्तामलकवत् प्रकट करनेवाला ज्ञान सर्वज्ञको कषायोंके वमनसे ही प्राप्त होता है। जब यह सिद्धांत निश्चित है तो उन्हींके उपदेशानुसार प्रवृत्ति करनेवालेअन्य मोक्षाभिलाषीजनको भी क्रोधादिक कषायोंका वमन करना आवश्यक है। क्रोधादिक कषायोंके वमन किये विना ज्ञानमें निरावरणता नहीं आती है । इसकी पुष्टि-'पलियंतकस्स-पर्यन्तकरस्य' इस पदसे करते हैं। यद्यपि यह पद षष्ठयन्त है और पश्यकके विशेषणरूपसे ही प्रयुक्त हुआ है, परन्तु यह इस बातकी घोषणा करता है कि तीर्थङ्कर कषायरूप भावशस्त्रोंके नाशसे ही सकल कोंके नाशक हुए हैं। अतः क्रोधादिक कषायोंका नाश सकल कोके नाश होने में तथा घातियाके नाशमें एवं केवलज्ञानरूपी निरावरण ज्ञानकी प्राप्तिमें कारण है। इस प्रकार परम्परासम्बસર્વથા દૂર થઈ ચૂકેલ છે તેનું નામ ઉપરતશસ્ત્ર છે, જ્યાં સુધી આત્માથી કષાયોનું વમન નહિ થાય ત્યાં સુધી, ભલે તેઓ કોઈ પણ કેમ ન હોય, નિરાવરણજ્ઞાનશાળી બની શકતા નથી. જ્ઞાનમાં જ્યાં સુધી નિરાવરણતા નથી આવતી ત્યાં સુધી કોઈ પણ પદાર્થને સાક્ષાત્કાર થતું નથી. માટે સમસ્ત પદાર્થોને હસ્તામલકવત્ પ્રગટ કરવાવાળું જ્ઞાન સર્વજ્ઞને કષાયોના વમનથી જ પ્રાપ્ત થાય છે. જ્યારે આ સિદ્ધાંત નિશ્ચિત છે તે તેના ઉપદેશાનુસાર પ્રવૃત્તિ કરવાવાળા અન્ય મેક્ષાભિલાષીજનને પણ ફોધાદિક કષાયેનું વમન કરવું આવશ્યક છે. ક્રોધાદિક કષાયેનું વમન કર્યા વગર शानमा निरावत मावती नथी. तेनी पुष्टि 'पलियंतकरस्स-पर्यन्तकरस्य' આ પદથી કરે છે, જો કે આ પદ ષષ્ઠયન્ત છે, અને પશ્યકના વિશેષણરૂપથી જ પ્રયુક્ત થયેલ છે. તે પણ આ એ વાતની ઘોષણા કરે છે કે તીર્થકર કષાવરૂપ ભાવશસ્ત્રોના નાશથી જ સકળ કર્મોના નાશક બનેલ છે. માટે ક્રોધાદિક કષાયાને નાશ સકળ કર્મોને નાશમાં તથા ઘાતિયાના નાશમાં તેમજ કેવળજ્ઞાન રૂપી નિરાવરણ જ્ઞાનની પ્રાપ્તિમાં કારણ છે. આ પ્રકારે પરંપરા–સંબંધથી કષાયોનું
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आचारागसूत्रे ___टीका-यः एक जीवद्रव्यम् अजीवद्रव्यं वा द्रव्यक्षेत्रकालभावतः, अतीतानागतवर्तमानैः सर्वपर्यायैश्च जानाति, स सर्वं जानाति । सकलपदार्थसम्यग्ज्ञानमन्तरेणैकस्य कस्यचित् पदार्थस्य द्रव्यक्षेत्रादिनाऽतीतानागतवर्तमानसर्वपर्यायतश्च ज्ञानं न संभवतीति भावः । इममेवाथ वोधयितुं कार्यकारणभावं प्रदर्शयन्नाह—'यः सर्व जानाति' इत्यादि । यः सर्व लोकान्तर्वति सकलं पदार्थजातं जानाति, स एवं द्रव्यं घटादिकं जानाति । अतीतानागतवर्तमानसर्वपर्यायैस्तत्तत्स्वभावप्राप्त्याऽना___ जो एक जीव द्रव्यको, अथवा अजीव द्रव्यको द्रव्य क्षेत्र काल और भावसे एवं अतीत अनागत और वर्तमानकाल-सम्बन्धी पर्यायोंसे युक्त जानता है वह समस्त पदार्थों को जानता है। समस्त पदार्थों के सम्यग्ज्ञान हुए विना कोई एक विवक्षित पदार्थ द्रव्य क्षेत्र काल और भावसे एवं अतीत अनागत और वर्तमान समस्त पर्यायों से नहीं जाना जा सकता है। इसी अभिप्रायको समझानेके लिये कार्यकारणभाव दिखलाते हुए सूत्रकार कहते हैं-'जे सव्वं जाणइ' 'यः सर्व जानाति ' इति। जो इस लोकके भीतरके समस्त पदार्थों को जानता है वह एक घटादिक द्रव्यको भी जानता है । भूत भविष्यत् और वर्तमानकाल-सम्बन्धी जितनी भी उस द्रव्यकी पर्यायें हैं वे समस्त उस द्रव्यके स्वभाव हैं। इन पर्यायोंसे परिणत द्रव्य तत्तत्स्वभाववाला होता रहता है। इस प्रकार द्रव्यमें उन२ पर्यायोंसे तत्तत्स्वभावकी प्राप्ति होनेसे वह द्रव्य अपने अनादि अनन्तकालपनेसे ( इस रूपसे हुआ, इस रूपसे हो रहा है और इस रूपसे
- જે એક જીવદ્રવ્યને, અથવા અજીવદ્રવ્યને દ્રવ્ય ક્ષેત્ર કાળ અને ભાવથી તેમજ અતીત અનાગત અને વર્તમાનકાળ-સંબધી સમસ્ત પર્યાયથી યુક્ત જાણે છે તે સમસ્ત પદાર્થોને જાણે છે, સમસ્ત પદાર્થોનું સમ્યજ્ઞાન થયા વિના કેઈ એક વિવક્ષિત પદાર્થનું જ્ઞાન દ્રવ્ય ક્ષેત્ર કાળ અને ભાવથી અને અતીત અનાગત અને વર્તમાન સમસ્ત પર્યાયથી થઈ શકતું નથી, આ અભિપ્રાય સમतवा माटे आर्य-२ मा ४२सावतां सूत्र 3 छ-"जे सव्वं जाणइयः सवं जानाति " तिने मना भीतना समस्त पदार्थान. तो छ તે એક ઘટાદિક દ્રવ્યને પણ જાણે છે. ભૂત ભવિષ્ય અને વર્તમાનકાળ સ બ ધી જેટલી પણ તે દ્રવ્યની પર્યાય છે તે સમસ્ત, દ્રવ્યને સ્વભાવ છે તે પર્યાયાથી પરિણત દ્રવ્ય તત્તસ્વભાવવાળા બનતા રહે છે આ પ્રકારે દ્રવ્યમાં તે તે પર્યા
થી તત્તસ્વભાવની પ્રાપ્તિ થવાથી તે દ્રવ્ય પિતાના અનાદિ અનંતકાળપણથી (આ રૂપથી બન્યા, આ રૂપથી બને છે અને હવે આ રૂપથી બનશે) તે તે
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शीतोष्णीय-अध्य० ३० उ. ४
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मूलम् - जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ ॥ सू० २ ॥
छाया - एकं जानाति स सर्व जानाति, यः सर्व जानाति स एकं जानाति। सू० २ ॥
तीर्थङ्कर भगवान् जीवोंको हेय और उपादेयका उपदेश देते हैं । एतावता परके उपकारके कर्त्तृत्वसे उनमें तीर्थङ्करपना भले ही आ जावे इसमें हमें कोई विवाद नहीं है । परन्तु इससे उनमें सर्वज्ञता कैसे सिद्ध हो सकती है ? ऐसी शङ्का नहीं करनी चाहिये । क्यों कि जब तक आत्मा में पदार्थोंका सम्यग - वास्तविक ज्ञान नहीं हो जाता है तब तक तीर्थङ्कर भगवान् उपदेश नहीं देते हैं । जीवोंको उपदेश देना सम्यग्ज्ञान अर्थात् केवलज्ञानके आधीन है । केवलज्ञान उत्पन्न होनेपर त्रिकालवर्त्ती समस्त पदार्थोंका वास्तविक स्वरूप दर्पण में प्रतिविम्बकी तरह प्रतिभासित होने लगता है । केवलज्ञानकी प्राप्ति ही सर्वज्ञता है। इस सर्वज्ञताके विना एक पदार्थका भी वास्तविक स्वरूप ज्ञात नहीं हो सकता है । इस बात को समझानेके लिये कहते हैं- 'जे एगं' इत्यादि ।
अथवा - यह जो अभी कहा है कि-' एयं पासगस्स दंसणं- एतत् पश्यकस्य दर्शनम् ' सो शिष्य यहां पर यह प्रश्न करता है कि - सर्वज्ञ क्या एक ही पदार्थ को जानता है या अनेक पदार्थों को ? ' इस प्रकारके शिष्य के प्रश्नका उत्तर देते हैं - 'जे एगं ' इत्यादि ।
તીર્થંકર ભગવાન જીવાને હેય અને ઉપાદેયના ઉપદેશ આપે છે. એતાવતા ખીજાના ઉપકારના કર્તૃત્વથી તેમાં તીર્થંકરપણું ભલે આવી જાય તેમાં અમને કેઈ વિવાદ નથી, પરંતુ તેથી તેમાં સર્વજ્ઞતા કેવી રીતે સિદ્ધ થાય છે ? એવી શંકા કરવી જોઈ એ નિહ. કારણ કે જ્યાં સુધી આત્મામાં પદાર્થોનું સમ્યગ્–વાસ્તવિક જ્ઞાન થતું નથી ત્યાં સુધી તીર્થંકર ભગવાન ઉપદેશ આપતા નથી. જીવાને ઉપદેશ આપવા સમ્યજ્ઞાન અર્થાત્ કેવળજ્ઞાનને આધીન છે. કેવળજ્ઞાન ઉત્પન્ન થવાથી ત્રિકાળવી સમસ્ત પદાર્થોનું વાસ્તવિક સ્વરૂપ દર્પણમાં પ્રતિબિંબની માફક પ્રતિ ભાસિત થવા માંડે છે. કેવળજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ જ સર્વજ્ઞતા છે. આ સર્વજ્ઞતા વિના એક પણ પઢાનું વાસ્તવિક સ્વરૂપ જ્ઞાત થઈ શકતું નથી, આ વાતને સમાવવા માટે छे' जे एगं' इत्यादि.
अथवा थे? इमला उधुंडे' एवं पासगस्स दंसण - एतन् पश्यकस्य दर्शनम्' જેથી શિષ્ય આ ઠેકાણે એ પ્રશ્ન કરે છે કે સર્વજ્ઞ શું એક જ પદાર્થ ને તણે છે કે मने पहाधने ? मा प्रहारना शिष्यना प्रश्न उत्तर आये छे 'जे एगं' इत्यादि
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माधाराङ्गसूत्रे ति । स च द्रव्यतः सर्वैरात्मप्रदेशः कर्म गृह्णाति, क्षेत्रतः पटूसु दिक्षु, कालतोऽनुसमय, भावतोऽष्टादशभिः स्थानः, पञ्चविधेन वा प्रमादेन, एवं कर्म सर्वतः प्रमादिनं बनातीत्यर्थः । यद्वा-'सर्वतः' इत्यस्य 'सर्वत्र' इत्यर्थः । यथा चौरस्य करच्छेदन-शूलादिभेदन-कशादिताडन-कठिनतरराजकीययन्त्रणादिभयमस्मिन् लोके, परलोकेऽपि नरकनिगोदादियातनाभयं भवति, तथा-प्रमत्तस्य सर्वत्र भयमित्यर्थः । प्रमादरहितस्य तु नास्ति भयमित्याह- सर्वतोऽप्रमत्तस्य' इत्यादि । अप्रमत्तस्य-प्रमादरहितस्य आत्मकल्याणाय संयमाराधने जाग्रत इत्यर्थः, सर्वतः ऐहिकामुष्मिकदुःखकारणात् संसाराद् भयं नास्ति । प्रमादरहितस्य संसारो न भवतीत्यर्थः ॥ सू० ३॥ के कर्मोंका बन्धक होता है । वह द्रव्यकी अपेक्षा समस्त आत्मप्रदेशोंसे कमेंका ग्रहण करनेवाला होता है । क्षेत्रकी अपेक्षा षट्-छह-दिशाओं में, कालकी अपेक्षा प्रत्येक समयमें, भावकी अपेक्षा अठारह (१८) पाप स्थानोंसे, अथवा पांच प्रकारके प्रमादसे कर्मों का बन्धक होता है। इस प्रकार उसके सब तरफसे कर्मोका बन्ध होता रहता है। अथवा 'सर्वतः' 'सर्व प्रकारसे' इसके स्थानमें 'सर्वत्र' ऐसा अर्थ करने पर-प्रमादी के लिये 'सर्वत्र'-सब जगह-भय होता है, ऐसा अर्थबोध होता है। यहां " भय" शब्दका अर्थ 'डर' है जिस प्रकार चोरके लिये इस लोकमें हाथोंके कटने, शूलादिसे भिदने, कशा-चावुक आदिसे ताडने आदि रूपसे कठिनतर राजकीय यन्त्रणाओं-कष्टों-के भोगने का भय होता है, तथा परलोकमें भी नरक-निगोदादिकके अनेक कष्टोंके सहनेका भय होता है, इसीतरहसे प्रमादी प्राणीको सर्वत्र भय ही भय है। आत्मकल्याण નિશ્ચયથી જ્ઞાનાવરણીયાદિક આઠ પ્રકારના કર્મોને બંધક થાય છે. તે દ્રવ્યની
અપેક્ષા સમસ્ત આત્મપ્રદેશથી કર્મોના ગ્રહણ કરવાવાળા બને છે. ક્ષેત્રની અપેક્ષા પછ દિશાઓમાં, કાળની અપેક્ષા પ્રત્યેક સમયમાં, ભાવની અપેક્ષા અઢાર પાપસ્થાનથી અથવા પાચ પ્રકારના પ્રમાદથી કર્મોને બંધક થાય છે, આ પ્રકારે તેને સઘળી બાજુથી કર્મોને બંધ થતો રહે છે. અથવા “સર્વત =સર્વપ્રકારથી તેના સ્થાનમાં “સર્વત્ર” એવો અર્થ કરવાથી પ્રમાદી માટે “સર્વત્ર” દરેક જગ્યાએથી ભય થાય છે, એવો અર્થ બંધ થાય છે. આ ઠેકાણે ભય શબ્દનો અર્થ “ડર” છે જે પ્રકારે ચાર માટે આ લોકમાં ખાદિથી હાથનું કાપવું, શૂલાદિથી ભેદાવું, કશા–ચાબુક આદિથી માર ખા આદિરૂપ કઠિનતર રાજકીય ય ત્રણાઓ-કોને ભગવાન ભય હોય છે, તથા પરલોકમાં પણ નરકનિગોદાદિક અનેક કષ્ટોને સહન કરવાને ભય હોય છે. તેવી રીતે પ્રમાદી પ્રાણીને સર્વત્ર ભય જ ભય છે.
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. ४
४७५ धनन्तकालतया समस्तवस्तुस्वभावपरिज्ञानादित्यर्थः । एकस्य वस्तुनः समग्रस्वरूपं सर्वज्ञ एव जानातीति भावः ॥ सू०२॥ एवं जानन् सर्वज्ञ एव सर्वजीवोपकारकमुपदेशं ददातीत्याह-'सव्वओ' इत्यादि। यद्वा-सर्वज्ञः शिष्येभ्यः प्रमाददोषान् अप्रमादगुणांश्च कथयति-'सव्वओ' इत्यादि।
मूलम्-सव्वओ पमत्तस्य आत्थि भयं, सव्वओ अप्पमत्तस्य नत्थि भयं ॥ सू० ३॥ __ छाया-सर्वतः प्रमत्तस्य अस्ति भयं, सर्वतोऽप्रमत्तस्य नास्ति भयम् ॥ मू०३॥
टीका-प्रमत्तस्य मद्यादिप्रमादयुक्तस्य सर्वतः-द्रव्यक्षेत्रकालभावतः भयंभयकारित्वात् कर्म अस्ति । प्रमादवान् खलु ज्ञानावरणीयादिकमष्टविधं कर्मोपचिनोहोगा) उन उन स्वभावोंवाला जान लिया जाता है। अर्थात् एक वस्तुका समस्त स्वरूप सर्वज्ञ ही जानते हैं ॥ सू० २॥ .
इस प्रकार समस्त द्रव्योंको जाननेवाले सर्वज्ञ ही समस्त जीवोंके लिये हितकारी उपदेश देते हैं । इस बातको सूत्रकार दिखलाते हैं'सव्वओ' इत्यादि। ____ अथवा-सर्वज्ञ स्वयं अपने शिष्योंके प्रति प्रमादके दोषोंको और अप्रमादके गुणोंको प्रदर्शित करते हैं-'सव्वओ' इत्यादि।
मद्यादिप्रमादसेवी व्यक्ति, द्रव्य क्षेत्र काल और भावसे भय-भयकारी होनेसे कर्म-का बन्ध करता है । ' भय' शब्दका अर्थ कर्म है, क्यों कि कर्म जीवोंको सदा भयकारी होते हैं इसलिये यहां कार्यमें कारण का उपचार किया गया है । भय, कर्मों का कार्य है और कर्म, भय के कारण हैं । प्रमादवाला व्यक्ति निश्चयसे ज्ञानावरणीयादिक आठ प्रकार સ્વભાવોવાળા જાણી લેવામાં આવે છે. અર્થાત્ એક વસ્તુનું સમસ્ત સ્વરૂપ સર્વજ્ઞ જ જાણે છે કે સૂ૦ ૨ ( આ પ્રકારે સમસ્ત દ્રવ્યને જાણવાવાળા સર્વજ્ઞ જ સમસ્ત જીવેને માટે हितरी पहेश छ. २॥ वातन सूत्रा२ मताव छ–'सव्वओ' छत्याल,
અથવા સર્વજ્ઞ સ્વયં પોતાના શિષ્યો પ્રતિ પ્રમાદના દેશોને અને અપ્રમાદના शुशीने प्रहर्शित ४२ छ-'सव्वओ' छत्या.
મદ્યાદિપ્રમાદસેવી જીવ દ્રવ્ય ક્ષેત્ર કાળ અને ભાવથી ભય–ભયકારી હોવાથી કર્મને બંધ કરે છે. “ભય’ શબ્દનો અર્થ કર્મ છે. કારણ કે કર્મ જ જીવેને સદા ભયકારી હોય છે. માટે આ ઠેકાણે કાર્યમાં કારણને ઉપચાર કરેલ છે. ભય, કર્મોનું કાર્ય છે અને કર્મ, ભયનું કારણ છે. પ્રમાદવાળા જીવ
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ટ
आचाराङ्गसूत्रे
मूलम् - जे एगं नामे से बहुं नामे, जे बहुं नामे से एगं
नामे ॥ सू०४ ॥
छाया – यः एकं नामयति स बहून् नामयति, यो बहून् नामयति, स एकं नामयति ॥ सू० ४ ॥
टीका—यः एकम्=अनन्तानुवन्धिनं क्रोधं नामयति-उपशमयति स बहून् = अप्रत्याख्यानादीन् तद्भेदान् मानादीन् वा नामयति ।
यद्वा यः एकं सप्रकृतिकं मोहनीयं नामयति-उपगमयति, स बहूनि तदवशिष्टानि सप्रकृतिकानि ज्ञानावरणीयादिकानि सर्वाण्यपि नामयति-उपशमयति । यो बहून्=स्थितिशेपान् नामयति - उपशमयति, स एकम् = अनन्तानुबन्धिनं क्रोधं मोहनीयं वा नामयति = उपशमयति । अत्र नामनम् - उपशमः क्षपणं वा । तथा चायमप्यर्थः
पर एकका अभाव होता है । इस प्रकार गत - प्रत्यागत ( हेर-फेर ) से कार्यकारण भावको दिखाने के लिये कहते हैं- ' जे एगं ' इत्यादि ।
जो अनन्तानुबन्धी क्रोधका उपशम करता है वह अप्रत्याख्यान आदि कषायों का एवं अनन्तानुबन्धी लोभादिकोंका उपशम करता है । यहा - जो एक मोहनीय कर्मका उपशम करता है वह उससे अवशिष्ट ज्ञानावरणीय आदि समस्त कर्मप्रकृतियों का भी उपशम करता है । जो स्थिति से अवशिष्ट कर्मों का उपशम करता है वह एक अनन्तानुबन्धी क्रोध अथवा मोहनीयका भी उपशम करता है। यहां नामन शब्दका अर्थ उपशमन अथवा क्षपण है । उपशमनकी अपेक्षासे यह व्याख्या की है । क्षपणकी अपेक्षासे व्याख्या इस प्रकार है
આ પ્રકારે ગત–પ્રત્યાગત ( હેરફેર )થી કાર્ય કારણ ભાવને બતાવવા માટે કહે छे- ' जे एगं' इत्याहि.
જે અન તાનુખ ધી કષાયોનો અને અનતાનુ ધી લોભાદિનો ઉપશમ કરે છે, આ ઠેકાણે જે એક મેાહનીય કના ઉપશમ કરે છે તે તેનાથી અવશિષ્ટ જ્ઞાનાવરણીય આદિ સમસ્ત કમપ્રકૃતિયાના પણ ઉપશમ કરે છે. જે સ્થિતિથી અવશિષ્ટ કર્મોના ઉપશમ કરે છે તે એક અનન્તાનુષધી ક્રાધ અથવા મેહ નીયને પણ ઉપશમ કરે છે. આ ઠેકાણે નામન શબ્દના અર્થ ઉપશમ અથવા ક્ષપણુ છે. ઉપશમની અપેક્ષાથી આ વ્યાખ્યા કરેલ છે. ક્ષપણની અપેક્ષાથી વ્યાખ્યા આ પ્રકારે છે—
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शीतोष्णीय - अध्य० ३ ७.४
४७७
इह कषायाधिकारो वर्तते, तद्वमनं द्विविधम्-उपशमनवमनं, क्षपणवमनं च । तत्रोपशमनवमनं नामनमिति पर्यायस्तदभिप्रायेणाह - ' जे एगं नामे ' इत्यादि ।
यद्वा- कषायाभावात् प्रमादाभावः, तदभावाच्च सकलमोहनीयाऽभावः, तस्मात् सकलकर्मक्षयः, तदेवमेकाभावे सति बहूनामभावः, बहूनामभावे सति एकाभाव:, इत्येवं गतप्रत्यागतरूपेण कार्यकारणभावं दर्शयितुमाह - ' जे एगं ' इत्यादि । करनेके लिये जो संयमकी आराधनामें जागरूक हैं ऐसे अप्रमादी प्राणीको कहीं भी भय नहीं होता है । वेन इस लोकमें दुःखी होते हैं और न परलोक में । अधिक क्या कहा जाय ? वे इस संसार के भय से ही निर्मुक्त हो जाते हैं । इहलोकसम्बन्धी और परलोकसम्बन्धी दुःखका कारण यह संसार ही उन्हें फिरसे प्राप्त नहीं होता, अर्थात् वे सदा के लिये मुक्त हो जाते हैं || सू० ३ ॥
यहां पर कषायका अधिकार है । कषायका वमन दो प्रकारका है(१) उपशमनवमन, (२) क्षपणवमन । कषायोंका उपशम होना यह उपशमनवमन है, तथा कषायका क्षय होना यह क्षपणवमन है । उपशमनवमनका पर्यायान्तर शब्द नामन है । इस अभिप्राय से कहते हैं'जे एगं' इत्यादि ।
अथवा - कषायों के अभाव से प्रमादका अभाव, प्रमाद के अभाव से समस्त मोहनीका अभाव, उससे सकल कर्मोंका क्षय होता है । इस प्रकार एकका अभाव होने पर बहुतों का अभाव, बहुतों का अभाव होने આત્મકલ્યાણુ કરવા માટે જે સંયમની આરાધનામાં જાગરૂક છે એવા અપ્રમાદી પ્રાણીઓને કાંઇ પણ ભય હોતા નથી. તેઓ નથી આ લેાકમાં દુઃખી થતાં. નથી પરલોકમાં દુ:ખી થતાં. અધિક શુ કહેવુ...? તેએ આ સ ંસારના ભયથી જ નિમુ`ક્ત થઈ જાય છે. આ-લોકસંખ્ધી અને પરલોકસંખ ́ધી દુઃખનું કારણ આ સંસાર જ તેને ફરીથી પ્રાપ્ત થતો નથી, અર્થાત્ તે સદાને માટે મુક્ત થઈ જાય છે ! સૂ॰ ૩ ॥
આ ઠેકાણે કષાયના અધિકાર કષાયાનું વમન એ પ્રકારે છે. (૧) ઉપશમવમન (૨) ક્ષપણુ વમન કષાયાનુ` ઉપશમ થવુ તે ઉપશમવમન છે. તથા કષાયાનું ક્ષય થવું તે ક્ષપણુવમન છે. ઉપશમવમનના પર્યાયાન્તર શબ્દ નામન छे. या मलिप्रायथी उडे छे-'जे एंग' त्याहि.
અથવા કષાયાના અભાવથી પ્રમાદના અભાવ, પ્રમાદના અભાવથી સમસ્ત મેહનીયના અભાવ, તેનાથી સકળ કર્મોનો ક્ષય થાય છે. આ પ્રકારે એકના અભાવ થવાથી મહુનો અભાવ, મહુને અભાવ થવાથી એકના અભાવ થાય છે.
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आवारागस्त्रे ___टीका-लोकस्य षड्जीवनिकायस्य दुःख-दुःखकारणं कर्मास्तीति ज्ञात्वा लोकस्य-पुत्रकलत्रादेस्तथा हिरण्यसुवर्णादेव संयोग-ममस्वलक्षण सम्बन्धं परिग्रह वाऽप्टविधकर्महेतुं वान्त्वा-परित्यज्य धीराः कर्मविदारणसमर्था महायानं यान्त्यनेन मोक्षमिति यानं चारित्रम् , तच्च भवकोटिदुर्लभतया महदस्तीत्याशयेन महायानमित्युच्यते । यान्ति-गच्छन्ति प्राप्नुवन्तीत्यर्थः ।
ननु प्राप्तचारित्रस्य किमेकेनैव भवेन मोक्षा, उत पारंपर्येणेति शिष्यजिज्ञासायामुभयथाऽपि मोक्षो भवतीति बोधयितुमाह-परेण परं यान्ति' इति ।
"इस षड्जीवनिकायरूप लोकके दुःखका कारण कर्म है " ऐसा जान कर कर्मों के नाश करने में शक्तिशाली धीर मुनि, पुत्र स्त्री आदि से, तथा हिरण्य सुवर्ण आदिसे 'ममेदं '-ममत्वभावरूप संयोगका अथवा अष्टप्रकारके कर्मोके आस्रवके कारणरूप परिग्रहका सर्वथा त्याग कर चारित्र को अङ्गीकार करते हैं । " यान" शब्दका अर्थ चारित्र है-" यान्ति अनेन मोक्षमिति यानम्" अर्थात्-जिसके द्वारा मोक्षको प्राप्त करे उस का नाम " यान" है, क्यों कि इसकी प्राप्तिसे जीवोंको मुक्तिका लाभ होता है । " यान" के साथ जो " महा" विशेषण लगा हुआ है वह इसमें महत्ताका द्योतक है । चारित्रमें महत्ता इसी लिये है कि जीवोंको इसकी प्राप्ति करोडों भवोंमें भी दुर्लभ है । इसी अभिप्रायसे चारित्रको महायान कहा है।
जिसको चारित्र प्राप्त हो चुका है ऐसे मुनिकी मुक्ति उसी भवसे हो सकती है ? अथवा भवपरम्परासे ?, इस प्रकारकी शिष्यकी आशङ्काका
આ જીવનિકાયરૂપ લોકના દુઃખનું કારણ કર્મ છે” એવું જાણીને કર્મોને નાશ કરવામાં શક્તિશાળી ધીર મુનિ, પુત્ર સ્ત્રી આદિથી, તથા હિરણ્ય સુવર્ણ माहिथी 'ममेद'-ममत्वमा१३५ सयोगानी, अथवा मट ४२॥ ४ीना मावना ॥२३५ परिसडनी साया त्याग ४३ यात्रिन. भगी।२ ४२ छे. “यान" शम्नी मथ यारित्र छ. " यान्ति अनेन मोक्षमिति यानम् " मत ना द्वारा मोक्ष प्रा ४२ तेनु नाम “ यान" छ, र तनी प्रातिथी वान भु. तिन साम थाय छे. “ यान"नी साथै २ " महा" विशेष सागेस छे. ते તેની મહત્તાને દ્યોતક છે, ચારિત્રમાં મહત્તા એ માટે છે કે જેને તેની પ્રાપ્તિ કરડે ભવમાં પણ દુર્લભ છે. તે અભિપ્રાયથી ચારિત્રને મgવાન કહેલ છે.
જેને ચારિત્ર્યપ્રાપ્ત થઈ ચુકેલ છે તેવા મુનિની યુક્તિ તે ભવથી થઈ શકે છે? અથવા ભવપરંપરાથી ?, આ પ્રકારની શિષ્યની આશંકાનું સમાધાન કરતાં
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. ४ __यः एकम्-नामयति-क्षपयति, स बहूनपि नामयति=क्षपयति । एकस्यानन्तानुवन्धिनः क्रोधस्य क्षपको बहूनांतभेदानामपत्याख्यानादीनां मानादीनां वा कपायाणांक्षपको भवतीति । यद्वा-एकस्य मोहनीयस्य क्षपका, बहूनां तदवशिष्टानां सर्वासां प्रकृतीनां क्षपको भवतीति । तथा-यो बहूनां क्षपकः, स एकस्य क्षपक इति ।।०४॥ ___ बहुकर्मोपशमेनैककर्मोपशमेन वा विना मोहनीयस्योपशमो न भवति, तथा बहुकर्माभावमन्तरेण एककर्माभावमन्तरेण वा मोहनीयकर्मणः क्षयो न भवति । तस्मादेव कारणाज्जन्तूनां बहुविधदुःखसमुद्भव इत्याह-दुक्खं' इत्यादि।
मूलम्-दुक्खं लोगस्स जाणित्ता वंता लोगस्स संजोगंजंति धीरा महाजाणं, परेण परं जंति, नावकंखंति जीवियं ॥सू० ५॥ . छाया-दुःखं लोकस्य ज्ञात्वा वान्त्वा लोकस्य संयोग यान्ति धीरा महायानं, परेण परं यान्ति, नावकाङ्क्षन्ति जीवितम् ।। भू० ५ ॥
जो एकका क्षय करता है वह बहुतोंका क्षय करता है। एक अनन्तानुबन्धी क्रोधका क्षपक अप्रत्याख्यान आदि कषायोंका अथवा अपने भेदस्वरूप मानादि-कषायोंका क्षपक होता है। अथवा-एक मोहनीय कर्मका क्षपक बहुत-तद्वशिष्ट (मोहनीय कर्मसे बाँकी रही ) सब कर्मप्रकृतियोंका क्षपक होता है। इसी प्रकार जो बहुतोंका क्षपक होता है वह एकका भी क्षपक होता है । सू० ४॥ । बहुत कर्मोके उपशम विना अथवा एक कर्मके उपशम विना मोहनीय कर्मका उपशम नहीं होता है, तथा बहत कर्मों के अभाव-क्षय-हए विना मोहनीय कर्मका क्षय नहीं होता है। इसी कारणसे प्राणियोंको अनेक प्रकारके दुःखोंकी उत्पत्ति होती है । इसी बातको मूत्रकार प्रकट करते हैं-'दुक्ख' इत्यादि ।
- જે એકને ક્ષય કરે છે તે બહેને ક્ષય કરે છે. એક અનંતાનુબ ધી કાધને ક્ષપક અપ્રત્યાખ્યાન આદિ કષાયને અથવા પિતાના ભેદસ્વરૂપ માનાદિ કષાયને ક્ષપક થાય છે. અથવા એક મેહનીય કર્મના ક્ષેપક બહે–તદવશિષ્ટ (મેહનીય કર્મથી બાકી રહી ) સઘળી કર્મપ્રકૃતિને ક્ષપક થાય છે. આ પ્રકારે બહુને ક્ષપક થાય છે તે એક પણ ક્ષપક થાય છે. સૂત્ર ૪
બહુ કર્મોના ઉપશમ વિના અથવા એક કર્મના ઉપશમ વિના મેહનીય કર્મને ઉપશમ થતું નથી. તથા બહુ કર્મોનો અભાવ-ક્ષય વિના, અથવા એક કર્મને અભાવ થયા વિના મેહનીય કર્મને ક્ષય થતું નથી. તે કારણથી પ્રાણીચાને અનેક પ્રકારના દુખોની ઉત્પત્તિ થાય છે. આ વાતને સૂત્રકાર પ્રગટ કરે छे-'दुक्खं' त्यादि. . . . . .
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आचाराङ्गसूत्रे
यद्वा- परेण = चतुर्थगुणस्थानेन, परं चतुर्दशगुणस्थानं यावत्, यान्ति=अधितिष्ठन्ति । यद्वा -- परेण अनन्तानुवन्धिकषायक्षयेण, परं= मोहनीयक्षयं घाति - भवोपग्राहिकर्मणां वा क्षयं यान्ति ।
एवंभूता धीराः, जीवितं = आयुः, नावकाङ्क्षन्ति = कियद् व्यतीतं, कियदवशिष्टमिति न विभावयन्ति - दीर्घजीवित्वमसंयमजीवित्वं वा नेच्छन्तीत्यर्थः ॥ ०५ ॥ संयम आराधना योग्य महाविदेहादि क्षेत्रोंमें जन्म प्राप्त कर फिर सम्पूर्ण श्रुतचारित्रधर्मकी आराधनाके प्रभावसे समस्त कर्मोंका क्षयकर अपुनरावृत्तिस्वरूप मोक्षस्थान में जा विराजते हैं।
भावार्थ - ' चारित्रप्राप्त मुनि उसी भवसे अथवा अन्यभव-से भी क्या मोक्ष जाते हैं ?' ऐसी शिष्यकी आशङ्काका शास्त्रकार उत्तर देते हैं कि जो संयमकी आराधना करते हैं वे जीव उसी भवमें, अथवा उस भवमें मोक्ष न जा कर अन्य भवोंसे भी मुक्तिका लाभ कर लेते हैं । जब तक वे मुक्तिका लाभ नहीं कर लेते तब तक वे उत्तम मनुष्यपर्याय एवं देवपर्यायमें उत्पन्न होते रहते हैं । मुक्तियोग्य क्षेत्र और काल की प्राप्ति होते ही पूर्ण संयमकी आराधनाके प्रभावसे घातिया और अघातिया कर्मोका सर्वथा विनाश कर पंचमगति-मुक्तिका लाभ कर लेते हैं ।
“
अथवा- परेण परं यान्ति " इसका यह भी अर्थ होता है किजो कर्मों के नाश करनेकी शक्ति से सम्पन्न वीर हैं वे 'परेण ' चतुर्थ गुणક્ષેત્રામાં જન્મ પ્રાપ્ત કરી ફરીથી જીતચારિત્ર ધર્મની આરાધનાના કારણથી સમસ્ત કર્માંના ક્ષય કરી અપુનરાવૃત્તિસ્વરૂપ મેાક્ષસ્થાનમાં જઈ બિરાજે છે.
ભાવા—ચારિત્રપ્રાસ મુનિ તે ભવથી અથવા અન્ય ભવથી પણ શું મેાક્ષ જાય છે ?” એવી શિષ્યની આશકાના શાસ્ત્રકાર ઉત્તર દે છે કે જે સચમની આરાધના કરે છે તે જીવ તેજ ભવમાં અથવા તે ભવથી મેાક્ષ ન જતાં અન્ય ભવાથી પણ મુક્તિના લાભ કરી લે છે જ્યાં સુધી તે મુક્તિના લાભ નથી કરી લેતા ત્યાં સુધી તે ઉત્તમ મનુષ્યપર્યાય તેમજ દેવપર્યાયમાં ઉત્પન્ન થતા રહે છે, મુક્તિયેાગ્ય ક્ષેત્ર અને કાળની પ્રાપ્તિ થતાં જ પૂર્ણ સયમની આરાધનાના ભાવથી તે ઘાતિયા અને અઘાતિયા કર્મીના સર્વથા વિનાશ કરી પંચમગતિ–મુક્તિના લાલ કરી લે છે.
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अथवा – “ परेण परं यान्ति " तेनो यो पशु अर्थ थाय छे नाश वानी शस्तिथी संपन्न वीर
भेना
ते ' परेण ' थोथा गुणुस्थानथी सगाची
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. ४
૪૮ तद्योग्यक्षेत्रकालप्राप्त्या लघुकर्मणस्तेनैव भवेन मोक्षः, अन्यस्य तु पारम्पर्येण भवति, इह तदेवोच्यते___ यथा—यथाशक्तिसमाराधितसंयमा आयुषोऽन्ते सति कर्मावशेषेण सौधर्माः दिदेवलोकं गच्छन्ति, ततः परं पुनः कर्मभूमावार्यक्षेत्रे सुकुले जन्म लब्ध्वा श्रद्धासंयमादिधर्माराधनेन सौधर्मादिदेवलोकादपि विशिष्टतरं स्वर्गमनुत्तरोपपातिकं यावत प्रयान्ति । ततः परं पुनरपि ततश्च्युतास्तत्समुचितमहाविदेहादिक्षेत्रं पाप्य संपूर्ण श्रुतचारित्रधर्मसमाराधनेन कृत्स्नकर्मक्षयादपुनरावृत्तिकं मोक्षमुपगच्छन्ति । समाधान करते हुए मूत्रकार कहते हैं-उस मुनिकी मुक्ति दोनों प्रकार से होती है, इसी बातको स्पष्ट करते हैं-' परेण परं जति-परेण परं यान्ति' मुक्तिप्राप्तिके योग्य क्षेत्र और कालकी प्राप्तिसे लघुकर्मी जीवों की उसी भवसे, और अन्य जीवोंकी परम्परासे-अन्य-अन्य भवोंसे मुक्ति होती है। इसी बातको टीकाकार स्पष्ट करते हैं जैसे कितनेक जीव अपनी शक्तिके अनुसार संयमका आराधन करते हैं और संयमका आराधन करते२ ही वे उस भव सम्बन्धी आयु का अन्त होने पर काल कर कर्मावशेषसे सौधर्मादि देवलोकोंमें उत्पन्न होते हैं। वहांकी ऋद्धिका गृद्धिरहित हो भोग करते २ उस भव सम्बन्धी आयुका भी अन्त करके वे कर्मभूमि आर्यक्षेत्र और सुकुलमें जन्म पा कर फिरसे श्रद्धा संयमादिक की आराधना करनेमें लवलीन होने के प्रभावसे आयुके अवसानमें सौधर्मादिक देवलोकोंसे भी आगे विशिष्टतर अनुत्तरोपपातिक विमानमें देव हो जाते हैं । वहां से च्यव कर સૂત્રકાર કહે છે કે તે મુનિની મુક્તિ અને પ્રકારથી થાય છે. આ વાતને સ્પષ્ટ ४२ छ–'परेण परं जति'-'परेण परं यान्ति' मुहित प्राप्तिन योग्य क्षेत्र मन. કાળની પ્રાપ્તિથી લઘકમ જીવોની તે ભવથી, અને અન્ય જીવોની પરંપરાથીઅન્ય ભથી રુક્તિ થાય છે, આ વાતને ટીકાકાર સ્પષ્ટ કરે છે–જેવી રીતે કેટલાક જીવો પિતાની શક્તિ-અનુસાર સંયમનું આરાધન કરે છે અને સંયમનું આરાધન કરતાં કરતાં જ તેભવસંબંધી આયને અંત થવાથી તે મરીને કર્માવશેષથી સૌધર્માદિ દેવલોકોમાં ઉત્પન્ન થાય છે. ત્યાંની અદ્ધિને ગૃદ્ધિરહિત થઈ ભેગ કરતાં કરતાં તેભવસંબંધી આયુને પણ અંત કરીને તે કર્મભૂમિ આર્યક્ષેત્ર અને સુકુળમાં જન્મ પામીને ફરીથી શ્રદ્ધાસંયમાદિકની આરાધના કરવામાં વિલીન થવાને પ્રભાવથી આયુના અવસાનમાં સૌધર્માદિક દેવકોથી પણ આગળ વિશિષ્ટતર અનુત્તરાયપાતિક વિમાનમાં દેવ બને છે. ત્યાંથી ચવીને સંયમ આરાધનાને ચગ્ય મહાવિદેહાદિ
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आचाराङ्गसूत्रे छाया-एकं विवेचयन् पृथक् वेवेक्ति, पृथग् विवेचयन् एकं वेवेक्ति ॥०६॥
टोका-एकम् अनन्तानुवन्धिनं क्रोधं, विवेचयन्-क्षपयन् क्षपकश्रेणिसमारूढः संयतः, पृथक् अन्यदपि अनन्तानुवन्धिचतुष्टयं, मिथ्यात्व-मिश्र-सम्यक्त्व-मोहनीयत्रयं चेति मिथ्यात्वसप्तकं, वेवेक्ति-नियमतःक्षपयति । यो वद्धायुष्कः, सोऽपि त्रीन् भवान् नातिकामति । तृतीये भवे नियमतो मोक्षं प्राप्नोति । अवद्धायुष्कस्तु-मोहनीयस्य सप्तविंशतिं काशान् नियमतः क्षपयति, चत्वारि घातिकर्माणि वा, सिध्यन् वा चत्वारि केवलिकर्माणि क्षपयति । ___ अनन्तानुबन्धी क्रोधका क्षय करनेवाला क्षपकश्रेणिमें आरूढ संयत नियमसे अनन्तानुबन्धिचतुष्टय एवं मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय
और सम्यक्त्वमोहनीय, इन सात प्रकृतियोंका क्षय करता है । जो बद्वायुष्क (आयुकर्मका पहले बंध कर चुका है ) वह भी तीन भवों को उल्लंघन नहीं करता, अर्थात् तृतीय भवमें नियमसे मुक्तिका लाभ कर लेता है । अबद्धायुष्क-(जिसने पहले आयुकर्मका बन्ध नहीं किया है वह ) जीव मोहनीय कर्मकी २७ सत्ताईस प्रकृतियोंका नियमसे नाश करता है। अथवा चार घातिया कर्मों का नाश कर के अवशिष्ट चार अघातिया कर्मोंका भी नाश कर देता है ।
भावार्थ-पूर्वोक्त सात प्रकृतियों के क्षयसे जिसने क्षायिक-सम्यक्त्वका लाभ किया है, और क्षायिक-सम्यक्त्वको ले कर क्षपकश्रेणि पर चढा है उस जीवकी मुक्ति नियमतः उसी भवसे हो जाती है। परंतु ऐसा जीव यदि बद्धायुष्क है तो वह उस भवसे मुक्तिका लाभ न कर
અનન્તાનુબંધી કે ક્ષય કરવાવાળા ક્ષપકશ્રેણિમાં આરૂઢ સંયત નિયમથી અનન્તાનુબંધિચતુષ્ટય અને મિથ્યાત્વમોહનીય, મિશ્રમોહનીય અને સમ્યક્ત્વમોહનીય, એ સાત પ્રકૃતિઓને ક્ષય કરે છે. જે બદ્ધાયુષ્ક (આયુકમને જે પહેલાં બંધ કરી ચુકેલ છે) તે પણ ત્રણ નુ ઉલ્લંઘન નથી કરતા, અર્થાત્ ત્રીજા ભવમાં નિયમથી મુક્તિને લાભ કરી લે છે. અબદ્ધાયુષ્ક (જેણે પહેલાં આયુકર્મને બંધ નથી કર્યો તે) જીવ મેહનીય કર્મની ર૭ સતાવીસ પ્રકૃતિને નિયમથી નાશ કરે, છે અથવા ચાર ઘાતીયા કર્મોને નાશ કરીને અવશિષ્ટ ચાર અઘાતિયા કર્મોને પણ નાશ કરી નાખે છે | ભાવાર્થ–પૂર્વોક્ત સાત પ્રકૃતિના ક્ષયથી જેણે ક્ષાયિક–સમ્યકત્વને લાભ કરેલ છે, અને ક્ષાયિક-સમ્યકત્વને લઈને ક્ષપકશ્રેણિ ચઢેલ છે તે જીવની મુક્તિ નિયમતઃ તે ભવથી થઈ જાય છે, પરંતુ તેવા જીવ કદાચ બદ્ધાયુષ્ક છે તે તે, તે
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शीतोष्णीय-अध्य०
उ. ४
રે
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स्थान से लगा कर ' परं ' चौदहवें गुणस्थानतक जाते हैं, अर्थात् अ-इ-उ-क्र-लु " इन पांच ह्रस्व अक्षरोंके उच्चारण करने में जितना समय लगता है उतने समय प्रमाण उस चौदहवें गुणस्थानमें उनकी स्थिति होती है, बाद में वे मुक्तिको प्राप्त करते हैं ।
अथवा - प्रथम 'पर' शब्दका अर्थ अनन्तानुबन्धी कषायका क्षय भी है । द्वितीय ' पर ' शब्दका अर्थ- मोहनीयका नाश, अथवा घाति अघाति कर्मों का विनाश है । इसका यह फलितार्थ होता है कि-अनन्तानुबन्धी कषायके क्षयसे वे मोहनीय का क्षय, अथवा घाति और अघाति कर्मों का क्षय करते हैं ।
भावार्थ - वीरोंको चतुर्थ गुणस्थान से लगा कर जो चौदहवें गुणस्थान तककी प्राप्ति बतलाई गई है उसका यह तात्पर्य है कि समकित की प्राप्ति traint चौथे गुणस्थान में हो जाती है । समकितका लाभ ही जीवोंको साक्षात् (भावचरित्र की अपेक्षा से) या परम्परारूपसे मुक्तिका कारण होता है । जिस व्यक्तिको समतिका लाभ हो जाता है उस भव्यात्माका अर्द्धपुद्गल परावर्तनमात्र काल संसारमें रहने का रहता है, उससे अधिक नहीं। धीरे२ वह अपनी उन्नति करता हुआ आगे २ के गुणस्थानों पर आरोहण कर परिणामोंकी विशुद्धिके प्रभावसे घातिया और अघातिया कर्मोंके नाश
‘परं ' यौहमा गुणस्थानः सुधी लय छे, अर्थात् “ अ-इ-उ-ॠ ऌ” या यांच હસ્વ અક્ષરોના ઉચ્ચારણ કરવામાં જેટલા સમય લાગે છે તેટલા સમય પ્રમાણ તે ચૌદમાં ગુણસ્થાનમાં તેની સ્થિતિ થાય છે, ખાદ્યમાં તે મુક્તિને પ્રાપ્ત કરે છે. અથવા પ્રથમ पर " ” શબ્દના અર્થ અનંતાનુબંધી કષાયના ક્ષય પણ छे, मीले 'पर' शब्हनो अर्थ मोहनीयनो नाश अथवा धाति अघाति भेना વિનાશ છે. તેના એ ફલિતાર્થ થાય છે કે અનંતાનુબંધી કષાયના ક્ષયથી મોહનીયના ક્ષય, અથવા ઘાતિ અને અઘાતિ કોના ક્ષય તે કરે છે.
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ભાવાર્થ :—વીરોને ચાથા ગુણસ્થાનથી લઇને જે ચૌદમાં ગુણસ્થાન સુધીની પ્રાપ્તિ બતાવવામાં આવી છે તેના એ તાત્પ છે કે સમકિતની પ્રાપ્તિ જીવાને ચાથા ગુણસ્થાનમાં થઇ જાય છે. સમિતના લાભ જ જીવાને સાક્ષાત્ (ભાવચારિત્રની અપેક્ષાથી) અગર પરંપરા-રૂપથી મુક્તિનું કારણ થાય છે. જે વ્યક્તિને સમકિતના લાલ થઈ જાય છે તે ભવ્યાત્માના અપુદ્ગલપરાવર્તનમાત્ર કાલ સંસારમાં રહેવાનું રહે છે, તેનાથી અધિક નહિ. ધીરે ધીરે તે પેાતાની ઉન્નતિ કરતાં કરતાં આગળ આગળના ગુણસ્થાના ઉપર આરોહણ કરી પરિણામોની વિશુદ્ધિના પ્રભા
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आवारागसूत्रे किंच-'लोगं च' इत्यादि।
मूलम्-लोगं च आणाए अभिसमिच्च अकुतोभयं ॥सू० ८॥ छाया-लोकं चाऽऽज्ञया अभिसमेत्य अकुतोभयम् ॥ सू०८॥
टीका-च-शब्दः समुच्चयार्थः । लोकं षड्जीवनिकायरूपम् , आज्ञया-जिनप्रवचनेन, अभिसमेत्य-विदित्वा, अकुतोभयम्=कुतश्चित् कारणादुत्पद्यमानस्य भयस्याभावो यथा भवति षड्जीवनिकायलोकस्य, तथारूपं संयमं कुर्यादित्यर्थः।।सू०८॥ पादित आगमके अनुसार प्रवृत्ति करनेवाला अप्रमत्त संयमी जीव क्षपकश्रेणिके योग्य होता है, अन्य नहीं।
भावार्थ-श्रद्धासम्पन्न व्यक्ति संयमकी आराधना कर जब सप्तमगुणस्थानवी हो जाता है तभी वह क्षपकश्रेणिपर आरूढ होनेके योग्य माना जाता है । सू०७॥
और भी कहते हैं-"लोगं च" इत्यादि ।
यहां"च" शब्द समुच्चय अर्थ में है । मुनि इस षड्जीवनिकायरूप लोकको जिनप्रवचन-आगम-से जान कर 'जिस प्रकार भविष्यमें उस षड्जीवनिकायरूप लोकको अपनेद्वारा भयका अभाव हो इस प्रकार संयम की आराधना करता रहे।
भावार्थ-संयमकी आराधना करनेकी आवश्यकता इसी लिये है कि जिससे अन्य जीवोंकी रक्षा होती रहे । असंयम प्रवृत्तिसे जीवोंका घात होता है। ऐसे व्यक्तियोंको इस लोक और परलोकमें सदा भयका કરે છે. અરિહંતદ્વારા પ્રતિપાદિત આગમ-અનુસાર પ્રવૃત્તિ કરવાવાળા અપ્રમત્ત સંયમી જીવ ક્ષપકશ્રેણીને યુગ્ય થાય છે–અન્ય નહિ.
ભાવાર્થશ્રદ્ધાસ પત્ર વ્યક્તિ સંયમની આરાધના કરી જ્યારે સાતમા ગુણસ્થાનવર્સી થઈ જાય છે ત્યારે તે ક્ષેપક શ્રેણી પર આરૂઢ હોવાના યેગ્ય માનવામાં આવે છે. એ સૂ૦ ૭.
qणी मी पY ४९ छ- “ लोगं च "त्याहि
આ ઠેકાણે “a” શબ્દ સમુચ્ચય અર્થમાં છે. મુનિ આ ષડૂજીવનિકાયરૂપ લોકને જનપ્રવચન–આગમથી જાણીને જે પ્રકારે ભવિષ્યમાં તે પરજીવનિકાયરૂપ લેકને પિતાના દ્વારા ભયનો અભાવ હોય એ પ્રકારે સંયમની આરાધના કરતા રહે.
ભાવાર્થ–સંયમની આરાધના કરવાની આવશ્યકતા એટલા માટે છે કે જેનાથી અન્ય જીવોની રક્ષા થતી રહે, અસંયમ પ્રવૃત્તિથી જીવને ઘાત થાય છે. એવી
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. ४
यद्वा-पृथक् अन्यदपि मिथ्यात्वसप्तकं विवेचयन्क्षपयन् , एकम् अनन्तानुवन्धिक्रोधं वेवेक्ति-नियमतः क्षपयति ॥ मू०६॥
केन गुणेन क्षपकश्रेणियोग्यतां प्राप्नोतीति बोधयितुं कर्मक्षपणोद्यतस्य विशेषणान्याह-' सड्ढी' इत्यादि ।
मूलम् -सड्ढी आणाए मेहावी ॥ सू० ७॥ छाया-श्रद्धी आज्ञया मेधावी ॥ मू० ७॥
टीका-श्रद्धी-मोक्षाभिलापरूपा जिनमताभिरुचिः श्रद्धा, साऽस्यास्तीति तथाविधः स हि केवलिनो भावितात्मनोऽनगारस्य वा समीपे धर्म श्रुत्वा संयम प्रतिपद्यते। आज्ञया आहेतागमानुसारेण प्रवर्तमानः, मेधावी-अप्रमत्तसंयमी क्षपकश्रेणियोग्यो भवति, नान्य इत्यर्थः ।। सू० ७॥ दूसरे अथवा तीसरे भवमें तो नियमसे मुक्तिको प्राप्त करनेवाला होता है । यदि अबद्धायुष्क है तो वह उसी भवसे मुक्ति प्राप्त कर लेता है।
इसी तरह-" पुढो विगिंचमाणे एगं विगिंचइ" अर्थात् मिथ्यात्वसप्तकका क्षय करने में प्रवृत्त संयत एक अर्थात् अनन्तानुबन्धी क्रोधका नियमसे क्षय करता है। सू० ६॥
किस गुणसे मुनि क्षपकश्रेणिकी योग्यताको प्राप्त करता है ? इस बातको समझानेके लिये कमौके क्षय करनेमें उद्यत मुनिके विशेषणों को कहते हैं-'सड्ढी' इत्यादि ।
मोक्षकी अभिलाषारूप जिनमतकी ओर अभिरुचिका नाम श्रद्धा है। इस प्रकारकी श्रद्धासे सम्पन्नका नाम श्रद्धी-श्रद्धावान् है। श्रद्धावान् व्यक्ति केवली अथवा अन्य किसी भावितात्मा साधुके समीप धर्मका श्रवण कर संयमको ग्रहण करता है। अरिहन्तदेवद्वारा प्रतिભવમાં મુક્તિનો લાભ ન પામીને બીજા અથવા ત્રીજા ભવમાં તો નિયમથી મુક્તિને પ્રાપ્ત કરવાવાળા થાય છે. જે અબદ્ધાયુષ્ક છે તે તે તેજ ભવથી મુક્તિ પ્રાપ્ત કરી લે છે.
आवशते “ पुढो विगिंचमाणे एग विगिंचइ " अर्थात् भिथ्यात्वसना ક્ષય કરવામાં પ્રવૃત્ત સંયત એક અર્થાત્ અનંતાનુબંધી કેધને નિયમથી क्षय ४२ छ. ॥ सू० ६॥
કયા ગુણથી મુનિ ક્ષેપક શ્રેણીની યોગ્યતાને પ્રાપ્ત કરે છે ? આ વાતને સમनवा माटेर्भाना क्षय ४२वामा उधत मुनिना विशेषणाने छे–'सड्ढी' छत्यादि.
મેક્ષની અભિલાષારૂપ જનમતની તરફ અભિરૂચિનું નામ શ્રદ્ધા છે, આ પ્રકારની શ્રદ્ધાથી સંપનનું નામ શ્રદ્ધી–શ્રદ્ધાવાન છે. શ્રદ્ધાવાન વ્યક્તિ કેવળી અથવા અન્ય કોઈ પણ ભાવિતાત્મા સાધુની સમીપે ધર્મનું શ્રવણ કરી સંચમને ગ્રહણ
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आचाराङ्गसूत्रे
कारकं तदेव शस्त्रमित्युच्यते । एकस्मात् पीडाजनकादन्यत् पीडाजनकं प्रादुर्भवति । यथा-खड्गाभिघातेन शिरःपीडा, ततो ज्वरः, ततोऽपि मूर्च्छादय इति । भावशस्त्रस्य पारम्पर्यं त्वत्रैवोदेशके 'जे कोहदंसी ' इत्यादिनाऽनुपदं वक्ष्यति ।
यथा शस्त्रस्य पारम्पर्यमस्ति न तथा पारम्पर्यमशस्त्रस्यास्तीत्याह – 'नास्ति' इत्यादि । अशस्त्रं संयमः, तत् परेण परं नास्ति-प्रकर्षपरम्परायुक्तं न भवतीत्यर्थः । यथा पृथिव्यादिजीवेषु स्वात्मना समभावः कर्तव्यः, तत्र - ' एगे आया ' इति भगवद्वचनाद् मन्दतीत्रभेदो नास्ति, तस्मात् तत्र समत्वसद्भावात् सामायिकस्य न प्रकर्षपारम्पर्यम् । यद्वा-शैलश्यवस्थासंयमात्परः संयमो नास्ति, तदूर्ध्वं गुणस्थानाभावादिति भावः ॥ मु० ९ ॥
है । पीडाकारक एक ही वस्तुसे अन्य अनेक बातें उत्पन्न होती हैं, जैसे तलवारद्वारा मारने से लगनेवाले के शिरमें पीडा, उससे ज्वर, उससे भी उसे मूर्छा आदि दुःख होते हैं । ये सब बातें द्रव्यशस्त्रमें प्रकर्ष परम्पराकी द्योतक हैं ।
भावशस्त्र प्रकर्षकी परम्परा इसी उद्देशमें इसीके आगे " जे कोहदंसी " इस सूत्र में कहेंगे । जिस प्रकार शस्त्रमें प्रकर्ष की परम्परा है उस प्रकार अशस्त्र में प्रकर्ष परम्परा नहीं है, इस बातको " नत्थि " इस वाक्य से कार प्रकट करते हैं - अशस्त्र नाम संयमका है, वह " परेण परं नास्ति " प्रकर्षपरम्परासे युक्त नहीं होता है। जैसे- पृथिवीकायिकादि जीवोंमें संयमीको आत्मतुल्यताकी भावना रखनी चाहिये, क्यों कि यह वचन है "एगे आया " आत्मा एक है। इस प्रकार की भावनारूप संयम में मन्द और तीव्र भेद नहीं है । इस कारण समस्त पृथिवीकायिकादि અનેક વાતા ઉત્પન્ન થાય છે, જેમ-તલવાર દ્વારા મારવાથી લાગવાવાળાના માથામાં પીડા, તેનાથી જ્વર, તેનાથી તેને મૂર્છા આદિ દુખ થાય છે એ સઘળી વાતા દ્રવ્યશસ્ત્રમાં પ્રક પર પરાની દ્યોતક છે.
ભાવશસ્રમાં પ્રકની પરપરા
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આ જ ઉદ્દેશમાં એનાથી આગળના कोइदंसी " ये सूत्रभां वामां आवशे ने प्रारे शस्त्रमां प्रहर्षनी परपरा छे ते प्रारे शस्त्रभां अपरंपरा नथी. मे वातने " नत्थि " इत्यादि वास्यथी सूत्रार प्रगट उरे छे. सशस्त्र नाम सयभनु छे, ते " परेण परं नास्ति " - પરપરાથી યુક્ત થતું નથી. જેમ-પૃથિવીકાયાદિ જીવામાં સંચમીએ . આત્મ तुझ्यतानी लावना शमवी लेखे, अरण है लगवाननु मे वयन है- 'एगे आया ' આત્મા એક છે. આ પ્રકારની ભાવનારૂપ સંયમમાં મન્ત્ર અને તીવ્ર ભેદ નથી. એ કારણથી સમસ્ત પૃથિવીકાયાદિક જીવોમાં સમતાશાળી સંયમીના સામાયિક
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. ४
४८९ तदपि भयं षड्जीवनिकायलोकस्य शस्त्रादेव भवति । तस्य शस्त्रस्य किं प्रकर्षपरम्पराऽस्ति ? नास्ति वा ? इति शिष्यजिज्ञासायाम् 'अस्ती'-ति बोधयितुमाह'अत्थि' इत्यादि।
यद्वा-शस्त्रतो भयं भवति, अतस्तत् परिहर्तव्यमित्याशयेन-शस्त्रं कथयति'अत्थि' इत्यादि।
मूलम्-अस्थि सत्थं परेण परं, नत्थि असत्थं परेण परं ॥सू०९॥ छाया--अस्ति शस्त्रं परेण परम् , नास्ति अशस्त्रं परेण परम् ॥ सू० ९॥
टीका-शस्त्र-द्रव्यभावभेदाद् द्विविधं तत्र द्रव्यशस्त्रं खड्गादिकं, तत् परेण परम स्ति, लोहकर्तृसंस्कारानुसारेण द्रव्यशस्त्रं तीव्रात् तीव्रतरमस्तीत्यर्थः । यद्वा-यत् पीडासामना करना पड़ता है । संयमी जीव इस प्रकारके भयले सदा निर्मुक्त रहते हैं ॥ सू०८॥
इस षड्जीवनिकायरूप लोकके लिये भय शस्त्रसे ही होता है। यह बात जब निश्चित है तो क्या उस शस्त्र में प्रकर्षकी परम्परा है या नहीं ? इस प्रकार की शिष्यकी आशङ्काका उत्तर कहते हैं-'अस्थि सत्थं' इत्यादि ।
अथवा-शस्त्रसे भय होता है। अतः उसका परिहार करना चाहिये, इस आशयसे शस्त्रको कहते हैं-'अत्थि सत्थं ' इत्यादि ।
शस्त्र, द्रव्य और भावके भेदसे दो प्रकारका है। तलवार वगैरह द्रव्य शस्त्र हैं। इनमें प्रकर्षकी परम्परा, शस्त्रको बनानेवाले लुहारके संस्कार के अनुसार आती है। कोई तलवार अत्यन्त तीक्ष्ण होती है और कोई उससे भी अधिक । अथवा जो जीवको पीडाकारक होता है वही शस्त्र વ્યક્તિઓને આ–લેક અને પરલોકમાં સદા ભયને સામને કરે પડે છે. સંયમી જીવ આ પ્રકારના ભયથી સદા નિમુક્ત રહે છે. સૂ૦૮
આ ષડૂજીવનિકાયરૂપ લેકના માટે ભય શસ્ત્રથી જ થાય છે. એ વાત જ્યારે નિશ્ચિત છે તે શું તે શાસ્ત્રમાં પ્રકર્ષની પરંપરા છે યા નહિ? આ પ્રકારે શિષ્યની माश'र्नु उत्त२ ४ छे–' अस्थि सत्यं' त्याहि.
અથવા શસ્ત્રથી ભય થાય છે, માટે તેને પરિહાર કરવો જોઈએ; એ આશयथी शस्त्रने ४९ छे-'अस्थि सत्थ' त्यादि.
શસ્ત્ર દ્રવ્ય અને ભાવના ભેદથી બે પ્રકારે છે. તલવાર વિગેરે દ્રવ્ય-શસ્ત્ર છે. તેમાં પ્રકર્ષની પરંપરા, શસ્ત્રના બનાવવાળા લુહારના સંસ્કાર અનુસાર આવે છે, કોઈ તલવાર અત્યંત તીક્ષણ હોય છે અને કોઈ તેનાથી પણ અધિક. અથવા જે જીવેને પીડાકારક થાય છે તે શસ્ત્ર છે. પીડાકારક એક જ વસ્તુથી અન્ય
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आचाराङ्गसूत्रे __छाया-यः क्रोधदी स मानदर्शी, यः मानदर्शी स मायादर्शी, यो मायादर्शी स लोभदर्शी, यो लोभदर्शी स प्रेमदर्शी, यः प्रेमदर्शी स द्वेषदर्शी, यो द्वेपदी स मोहदशी, यो मोहदीं स गर्भदर्शी, यो गर्भदर्शी स जन्मदर्शी, यो जन्मदर्शी स मारदर्शी, यो मारदर्शी स नरकदर्शी, यो नरकदर्शी स तिर्यग्दर्शी, यस्तियग्दर्शी स दुःखदर्शी ॥ मू० १०॥ ___टीका-यः क्रोधदर्शी क्रोधं पश्यति-भावयति क्रुध्यतीत्यर्थः, क्रोधं दर्शयतीति यावत् । यथा क्रुद्धस्य दृष्टिस्तीत्रा, प्रसन्नचित्तस्य तु सितकमलवद्धवला भवति। स मानदर्शी मानं पश्यति-भावयति, गवं दर्शयतीति यावत् । एवमग्रेऽपि योजनीयं यावत्-'स मोहदर्शी 'ति । यो मोहदर्शी-मोहाऽऽक्रान्तः, स गर्भदर्शी गर्भ पश्यति-गर्भवासोद्भूतदुःखानुभवी भवतीत्यर्थः । एवं-'स तिर्यग्दर्शी-ति ____ जो क्रोधदर्शी है अर्थात् क्रोधको देखता है-क्रोध करनेकी भावना करता है-क्रुद्ध होता है, दूसरे व्यक्ति पर क्रोध दिखलाता है, जैसे'क्रुद्ध व्यक्तिकी दृष्टि तीव्र होती है, प्रसन्नचित्तवालेकी सफेद कमल जैसी धवल होती है। इस प्रकारसे जो दूसरोंके लिये दृष्टि वगैरह चिह्नोंसे अपनी क्रोधपरिणति दिखलाता है-प्रकट करता है वह मानदर्शी होता है-मानको देखता है-मान करनेकी भावना करता है, मान करता है-अन्यके लिये वह अपनी मानपरिणति प्रकट करता है। इसी प्रकार जो मानदर्शी है वह मायादर्शी होता है। जो मायादर्शी है वह लोभदर्शी है । जो लोभदर्शी है वह रागदर्शी है । जो रागदर्शी है वह द्वेषदर्शी है। जो देषदर्शी है वह मोहदर्शी है । जो मोहदर्शी होता है वह गर्भदर्शी होता है । इसका भाव यह है कि-मोहदर्शी प्राणी गर्भाજે કાધદર્શ છે અર્થાતોધને દેખે છે–ફોધ કરવાની ભાવના કરે છે-કુદ્ધ થાય છે, બીજી વ્યક્તિના ઉપર કોઈ દેખાડે છે જેમ–કુદ્ધ વ્યક્તિની દૃષ્ટિ તીવ્ર હોય છે. પ્રસન્ન ચિત્તવાળાની સફેદ કમળ જેવી ધવળ હોય છે એવા પ્રકારથી જે બીજાઓને માટે દષ્ટિ વિગેરે ચિન્હોથી પોતાની કો–પરિણતિ દેખાડે છે–પ્રકટ કરે છે તે માનદશી થાય છે–માનને દેખે છે–માન કરવાની ભાવના રાખે છે, માન કરે છે બીજાને માટે તે પોતાની માન–પરિણતિ પ્રગટ કરે છે. એ પ્રકારે માનદર્શ છે તે માયાદર્શી હોય છે. જે માયાદર્શ છે તે લોભદશે છે, જે લેભદશ છે તે રાગદર્શી છે. જે રાગદ છે તે દેવદર્શ છે, જે દેવદર્શી છે તે મહદશ છે જે મેહદર્શ છે તે ગર્ભદર્શ છે. તેને ભાવ એ છે કે-મોહદર્શ પ્રાણું ગર્ભાવાસથી ઉત્પન્ન અનન્ત
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शीतोष्णीय-अध्य० इ. उ ४
४९१ भावशस्त्रं कथं परेण परमस्तीत्याह-'जे कोहदंसी' इत्यादि।।
मूलम्जे कोहदंसी से माणदंसी, जे माणदंसी से मायादंसी, जे मायादंसी से लोहदंसी, जे लोहदंसी से पेजदंसी, जे पेजदंसी से दोसदंसी, जे दोसदंसी से मोहदंसी,जे मोहदंसी से गब्भदंसी, जे गब्भदंसी से जम्मदंसी, जे जम्मदंसी से मारदंसी, जे मारदंसी से नरयदंसी,जेनरयदंसी से तिरियदंसी, जे तिरियदंसी से दुक्खदंसी ॥ सू० १०॥ जीवों में समताशाली संयमीके सामायिकरूप चारित्रमें तीव्रमन्दरूप प्रकर्षकी परम्परा नहीं है। अथवा-शैलेशी अवस्थाके संयमसे आगे गुणस्थानका अभाव होनेसे और कोई पर-उत्कृष्ट-संयम नहीं है।।
भावार्थ-शैलेशी अवस्था चौदहवें गुणस्थानमें होती है, क्यों कि इसी गुणस्थानमें चारित्रकी पूर्णता होती है। यथाख्यात-चारित्रसे और कोई चारित्र तो ऐसा उत्कृष्ट है नहीं जो इससे भी अधिक उत्कृष्ट हो, इस लिये इस अवस्थाके चारित्रमें प्रकर्षकी परम्पराका निषेध है। चारित्र के भेदोंमें परस्पर प्रकर्षाप्रकर्षवृत्ति भले ही हो परन्तु किसी भी चारित्र में निजमें प्रकर्षाप्रकर्षवृत्ति नहीं है । यथाख्यात-चारित्र स्वयं प्रकर्षकी अवधिस्वरूप है ॥ सू०९॥
द्रव्यशस्त्रमें प्रकर्षपरम्पराको स्पष्ट कर अब 'भावशस्त्रमें वह प्रकर्षपरम्परा कैसे है?' इसे स्पष्ट करनेके लिये कहते है-'जे कोहदंसी' इत्यादि। રૂપ ચારિત્રમાં તીવમંદરૂપ પ્રકર્ષની પરંપરા નથી. અથવા શૈલેશી અવસ્થાના સંયમથી આગળ ગુણસ્થાનને અભાવ થવાથી બીજે કઈ ઉત્કૃષ્ટ સંયમ નથી.
ભાવાર્થ-શેલેશી અવસ્થા ચૌદમા ગુણસ્થાનમાં થાય છે, કારણ કે તે ગુણસ્થાનમાં ચારિત્રની પૂર્ણતા થાય છે. યથાખ્યાત-ચારિત્રથી બીજા કેઈ ચારિત્ર તે એવું ઉત્કૃષ્ટ છે નહિ કે જે એનાથી પણ અધિક ઉત્કૃષ્ટ હોય. માટે આ અવસ્થાના ચારિત્રમાં પ્રકર્ષની પરંપરાને નિષેધ કરે છે. ચારિત્રના ભેદમાં પરસ્પર પ્રકર્ષાપ્રકષ વૃત્તિ ભલે હોય પરંતુ કોઈ પણ ચારિત્રમાં પિતામાં પ્રકર્ષામકર્ષવૃત્તિ નથી. ચાખ્યાત-ચારિત્ર સ્વયં પ્રકર્ષની અવધિસ્વરૂપ છે. તે સૂર ૯
દ્રવ્યશસ્ત્રમાં પ્રકર્ષ પરંપરાને સ્પષ્ટ કરીને હવે “ભાવશસ્ત્રમાં તે પ્રકર્ષ ५२५२१ वी शते छ १० तेने स्पष्ट ४२वा भाटे ४ छ–'जे कोहदंसी' त्यहि,
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आवारागसूत्रे यस्तु मुमुक्षुः, स क्रोधादिकं परिहरेदित्याह-'से मेहावी' इत्यादि।
मूलम्-से मेहावी अभिणिवहिजा कोहं च माणं च मायं च लोहं च पेजं च दोसं च मोहं च गन्भं च जम्मं च मारं च नरयं च तिरियं च दुक्खं च । एयं पासगस्त दंसणं उवरयसत्थस्स पलियंतकरस्स ॥ सू० ११ ॥ ____ छाया—स मेधावी अभिनिवर्तयेत् क्रोधं च मानं च मायां च लोभं च प्रेम च द्वेपं च मोहं च गर्भ च जन्म च मारं च नरकं च तियञ्चं च दुखं च । एतत् पश्यकस्य दर्शनम् , उपरतशस्त्रस्य पर्यन्तकरस्य ॥ सू० ११॥ ____टीका–स मेधावी क्रोधादिमोहान्तं भावशखं, तथा-गर्भादिदुःखान्तं तत्पयोगफलभूतम् , अभिनिवर्तयेत् परिहरेत्-अपनयेदित्यर्थः । क्रोधादिमोहान्तं भावशस्त्रं सर्वथा परिवर्जयेत् , येन गर्भदुःखादारभ्य निगोददुःखं यावत् सर्वमपि दुःखं न प्राप्नुयादिति भावः।
भावार्थ-ये क्रोधादिक पर-भाव ही भावशस्त्र हैं और क्रोधसे मान, मानसे माया, मायासे लोभ, इत्यादि रूपसे उनमें प्रकर्षपरम्परा है। यह बात प्रकट की गई है। सू० १०॥ __जो मुमुक्षु-मोक्ष जानेकी इच्छा रखनेवाला हो उसको क्रोधादिकका परिहार कर देना चाहिये, इस बातको प्रकट करते हैं-'से मेहावी' इत्यादि।
वह मेधावी मुनि क्रोधसे लगाकर मोह तक भावशस्त्रका तथा उन के प्रयोगसे उत्पन्न उनके फलस्वरूप गर्भावासके दुःखोंसे लेकर निगोदके दुःखों तकका परिहार करे, अर्थात् बुद्धिमानका कर्तव्य है कि वह क्रोधादिक कषायल्प भावशस्त्रका परित्याग करे।क्योंकि क्रोधादिकषायोंके करने से कर्ताको अनेक प्रकारके दुःखोंको भोगना पड़ता है। गर्भावासके दुःखों
लावार्थ:- धादिड ५२-भाव लाश छ, भने अधथी भान, માનથી માયા, માયાથી લોભ, ઈત્યાદિ રૂપથી તેમાં પ્રકઈપર પરા છે, એ વાત प्रगट ४३री छे. ॥ सू.१०॥ -
જે મુમુક્ષુ-મોક્ષ જવાની ઈચ્છા રાખનારા હોય તેને ક્રોધાદિકને પરિહાર शो मे, २मा पातने प्रगट ४२ थे-से मेहावी' छत्यादि
તે મેધાવી મુનિ કેધથી લઈ મોહ સુધી ભાવશસને તથા તેના પ્રયોગથી ઉત્પન્ન તેના ફળસ્વરૂપ ગર્ભાવાસના દુઃખોથી લઈને નિગદના દુઃખે સુધી પરિહાર કરે, અર્થાત્ બુદ્ધિમાનનું કર્તવ્ય છે કે તે ક્રોધાદિકકશાયરૂપ ભાવશસ્ત્રનો પરિત્યાગ કરે, કારણ કે ફોધાદિ કષાયોના કરવાથી કર્તાને તેનાથી અનેક પ્રકારના દુઃખો ભેગવવા
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४९३.
यावदवगन्तव्यम् । यस्तिर्यग्दर्शी= तिर्यग्भवनिगोदसम्बन्धिदुःखदर्शी, स दुःखदर्शी - इह दुःखशब्देन सर्वतः समुत्कृष्टतमं निगोदभवसम्बन्धि दुःखं परिगृह्यते, तत् पश्यति = अनुभवतीत्यर्थः । एतेन गर्भदर्शीत्यादावपि दुःखदर्शित्वेन तिर्यग्दर्शिन एव दुःखदर्शित्वकथनमयुक्तमिति शङ्कावसरो नास्तीति वोध्यम् । अनेन - पारम्पर्यापन्नस्य सर्वस्य भावशस्त्रस्य निदानं क्रोधः, तथा सर्वतः समुत्कृष्टदुःखं निगोदभवेऽस्तीति ध्वनितम् ॥ भ्रू० १० ॥
शीतोष्णीय-अ - अध्य० ३. उ. ४
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वाससे उत्पन्न अनन्त यातनाओंको भोगता है । इसी प्रकार जो गर्भदर्शी है वह जन्मदर्शी है । जो जन्मदर्शी है वह मरणदर्शी है। जो मरदर्शी है वह नरकदर्शी है। जो नरकदर्शी है वह तिर्यग्दर्शी है, जो तिर्यग्दर्शी है अर्थात् तिर्यञ्चगतिस्वरूप निगोदके दुःखों का अनुभवकर्त्ता है वह वहां के सर्वोत्कृष्ट दुःखोंका अनुभव करता है । यही भाव स दुःखदर्शी " इस पद से सूत्रकारने प्रकट किया है। यहां दुःखशब्दसे सर्वोत्कृष्ट निगोदसम्बन्धी दुःखों का ही ग्रहण किया है। इस लिये “यो गर्भदर्शी " इत्यादि पद हैं उनमें भी दुःखदर्शित्व तो आता ही है, फिर भी जो तिर्यग्दर्शी में ही दुःखदर्शित्व स्वतन्त्र रूपसे प्रकट किया गया है वह अयुक्त है । इस प्रकारकी शङ्का करनेका यहां अवसर ही नहीं प्राप्त होता है । इस समस्त कथनसे यह ध्वनित होता है कि इस प्रकर्षपरम्पराप्राप्त भावशस्त्रका निदान - मूल कारण - क्रोध है और सबसे उत्कृष्ट दुःख निगोदभवमें है ।
યાતનાઓને ભાગવે છે. એ પ્રકારે જે ગઢી છે તે જન્મદશી છે. જે જન્મદશી છે તે મરણુદી છે, જે મરણદશી છે તે નરકદી છે. જે નરકઢી છે તે તિર્થંગ્સી છે. જે તિગ્દશી છે અર્થાત્ તિર્યંચગતિસ્વરૂપ નિગોદના દુઃખોના અનુભવકર્તા છે, તે ત્યાંના સર્વોત્કૃષ્ટ દુ:ખોના અનુભવ કરે છે. એ જ ભાવ.
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स दुःखदर्शी ” मे पहथी सूत्र अरे प्रगट उरेल छे. अहीं हुम-शम्हथी सर्वोत्कृष्ट निगोहसमधी हु.जोनुं श्रई उरेस छे. भाटे ने “गर्भदर्शी” त्यिाहि પદ્મ છે તેમાં પણ દુઃખ-દર્શિત્વ તા આવેજ છે તેા પણ જે તિગ્દશીમાં જ દુઃખ-દશિત્વ સ્વતંત્ર રૂપથી પ્રગટ કરેલ છે તે અયુક્ત છે. આ પ્રકારની શંકા કરવાના આ ઠેકાણે અવસર જ પ્રાપ્ત થતા નથી, આ સમસ્ત કથનથી એ ધ્વનિત થાય છે કે આ પ્રક પરંપરાપ્રાપ્ત ભાવશસ્ત્રનુ નિદાન-ફૂલ કારણ ાધ છે. અને બધાથી ઉત્કૃષ્ટ દુઃખ નિદ્રભવમાં છે.
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आचारागसूत्रे टीका- आदानमिति-आदानं कर्मोपादानं क्रोधं, निषेद्धा-अपनेता स्वकृतभित्-पूर्वोपार्जितकर्मक्षपयिता भवतीत्यर्थः ॥ सू० १२॥ __जम्बूस्वामी पृच्छति-'किमत्थि उवाही' इत्यादि ।
मूलम्-किमथि उवाही पासगस्स ?, न विजइ नस्थित्ति वेमि ॥ सू० १३ ॥
छाया-किमस्ति उपाधिः पश्यकस्य, न विद्यते नास्तीति ब्रवीमि ॥१३॥
टीका--पश्यकस्य केवलिना, उपाधिः उपाधीयते इत्युपाधिः, तत्र द्रव्योपाधिहिरण्यसुवर्णादिः, भावोपाधिआनावरणीयादिकं कर्म, यद्वा-उपाधीयते व्यप
आदान-कर्मोके उपादान-ग्रहण करनेमें प्रधानकारण ऐसे क्रोधका जो परिहार करता है वह अपने पूर्वोपार्जित कर्मोका विनाशक होता है।
भावार्थ-अष्टविध कौका मूल कारण क्रोध है, ऐसा समझकर तीर्थङ्कर भगवानने इसका सर्वथा परिहार किया है। अतः इसके परिहारसे वे नवीन कौके बन्धक नहीं हुए, इतना ही नहीं उनकी आत्मामें जो कुछ पूर्वसंचित कर्म थे उनको भी संवरकी प्राप्सिसे उन तीर्थङ्कर प्रभुने नष्ट कर दिये। इसलिये मोक्षाभिलाषी मुनिका कर्तव्य है कि वह वीतराग तीर्थङ्करप्रभुकाआदर्श सामने रखकर उस मार्गका अनुसरण करे ॥सू०१२॥
अव उपाधि के विषय में कहते हैं-'किमत्थि' इत्यादि ।
जम्बूस्वामी श्री सुधास्वामीसे पूछते हैं कि-हे भदन्त! केवली भगवानके उपाधि है क्या? श्री सुधर्मास्वामी कहते हैं कि उनके किसी भी प्रकारकी उपाधि नहीं है। हिरण्यसुवर्णादिरूप द्रव्य-उपाधि और
બાદાન=કર્મોના ઉપાદાન-ગ્રહણ કરવામાં પ્રધાન કારણ જે કંધ છે તેને જે પરિહાર કરે છે તે પોતાના પૂર્વોપાર્જિત કર્મોને વિનાશક બને છે.
ભાવાર્થઅણવિધ કર્મોનું મૂલ કારણ કોધ છે, એવું સમજીને તીર્થંકર ભગવાને તેને સર્વથા પરિહાર કરેલ છે, માટે તેના પરિહારથી તે નવીન કર્મોના બ ધક નથી થયાં, એટલું જ નહિ, જેટલા કંઈ તેની આત્મામાં પૂર્વ સંચિત કર્મ હતા તે સવરની પ્રાપ્તિથી તે તીર્થકર પ્રભુએ નષ્ટ કરી નાખ્યા. માટે મેક્ષાભિલાષી મુનીનું કર્તવ્ય છે કે તે વીતરાગ પ્રભુને આદેશ સામે રાખીને તે માર્ગ અનુસરણ કરે છે સૂ૦ ૧૨.
हवे उपाधिना विषयमा थे-'किमत्थि' त्यादि
જમ્મુ સ્વામી સુધર્મા સ્વામીને પૂછે છે કે હે ભદન્ત! કેવળી ભગવાનને ઉપાધિ છે કે નહિ? શ્રી સુધર્માસ્વામી કહે છે કે તેને કઈ પણ પ્રકારની ઉપાધિ નથી, હિરણ્ય સુવર્ણાદિરૂપ દ્રવ્ય-ઉપાધિ અને જ્ઞાનાવરણીયાદ્ધિફર્મ ભાવ-ઉપાધિ આ
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. ४
४९५ ___एतच्च मया न स्वबुद्धिकल्पनया कथ्यते, किंतु भगवतस्तीर्थंकरस्य समीपे तदुपदेशवचनं यथा मया श्रुतं तथा निगद्यते, इत्याशयेनाह-' एतत् पश्यकस्य दर्शनम्' इत्यादि । अत्रैवोद्देशे कृतव्याख्यानमेतत् ॥ मू०११॥
असौ तीर्थकरः कथंभूतः ? इत्यत आह-आयाणं' इत्यादि।
मूलम्-आयाणं निसिद्धा सगडभि ॥ सू० १२ ॥ छाया--आदानं निषेद्धा स्वकृतभित् ॥ सू० १२॥ से भी अनन्तगुने कष्ट निगोदमें जीव इनके करनेके ही फलस्वरूप भोगता है । अतः मुनिके लिये क्रोधादि कषायोंका परिहार करना ही सर्वश्रेयस्कर है। इनका परिहार करनेसे फिर उसको गर्भवासादिक तथा निगोदके अनन्त कष्टोंको नहीं सहना पड़ता है । इनका त्याग करना ही उन दुःखोंके अभावका हेतु है। श्रीसुधर्मास्वामी जम्बूस्वामीसे कहते हैं-हे जम्बू! यह जो कुछ भी मैंने यहां तक प्रतिपादन किया है वह अपनी बुद्धिसे कल्पित कर नहीं किया है, किन्तु भगवान् तीर्थङ्कर श्रीवर्धमानस्वामीके समीप उनके उपदेशरूप वचन जैसा मैंने सुना है उसी तरहसे कहा है। इसी आशयसे श्री सुधर्मास्वामी " एयं पासगस्स दंसणं” इत्यादि सूत्र की साक्षी देते हैं । इस सूत्रका व्याख्यान इसी उद्देशके पहले सूत्र में किया जा चुका है। सू० ११॥
जिनका यह दर्शन है वे तीर्थङ्कर भगवान् कैसे होते हैं ? सो कहते हैं-'आयाणं' इत्यादि । પડે છે. ગર્ભાવાસના દુઃખોથી અનંતગણ કષ્ટ નિગદમાં જીવ તેના કરવાના ફળ સ્વરૂપ ભેગવે છે, અતઃ મુનિ માટે ક્રોધાદિ કષાયોને પરિહાર કર જ સર્વશ્રેયસ્કર છે. તેને પરિત્યાગ કરવાથી ફરીથી તેને ગર્ભાવાસાદિકના તથા નિગેદના અનંત દુખોને સહન કરવા પડતા નથી. તેને ત્યાગ કરવું જ તે દુઃખના અભાવને હેતુ છે.
શ્રી સુધર્માસ્વામી જખ્ખ સ્વામીથી કહે છે...હે જ ! આ જે કાંઈ પણ મેં અહીંયા સુધી પ્રતિપાદન કરેલ છે તે પોતાની બુદ્ધિથી કલ્પિત કરી કહેલ નથી, પણ ભગવાન તીર્થંકર શ્રી વર્ધમાન સ્વામીના સમીપે તેના ઉપદેશરૂપ વચન જેવું મેં सामनेट छ ते ४ में उस छे. ते २माशयथी श्री सुधास्वामी “एयं पासगस्स दसणं" ઈત્યાદિ સૂવની સાક્ષી આપે છે. આ સૂત્રનું વ્યાખ્યાન આ ઉદ્દેશના પહેલા સૂત્રમાં કરવામાં આવેલ છે. જે સૂ૦ ૧૧
नु २ शन छ तेतीर्थ ४२ मावान वाडीय छ ? छ-'आयाणं' त्याह.
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आचारागसूत्रे "दग्धे वीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नाङ्कर ।
कर्मवीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाङ्कुरः ॥ इति ॥ इति ब्रवीमि-इति-इदं, ब्रवीमि-यथा श्रुतं भगवन्मुखान् तथा कथयामीत्यर्थः।मु०१३॥
॥ तृतीयाध्ययनस्य चतुर्थीदेशः समाप्तः ॥३-४ ।। " तृतीयेऽध्ययने सुप्तजागरूको च वर्णितौ।
सुप्तदुःख मुनित्वे च, कारणं क्रोधवर्जनम् "॥१॥ इति । ॥ इतिश्री विश्वविख्यात-जगहल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभापाकलितललितकलापाऽऽलापक-प्रविशुद्धगयपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-बादिमानमर्दक-शाहूछत्रपति-कोल्हापुरराजमदत्त-"जैनशास्त्राचार्य"-पदभूपित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्य-श्रीघासीलाल-तिविरचितायाम् आचाराङ्गमत्रस्याचारचिन्ता
मणिटीकायां शीतोष्णीयाख्यं तृतीयमध्ययनं संपूर्णम् ॥३॥ हैं। क्यों कि उनके कर्मल्पी बीज जल चुका है, कहा भी है
"दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नाङ्करः। ___ कर्मवीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाङ्करः ॥१॥” इति ।
जिस प्रकार बीजके नष्ट होनेपर अङ्कुर उत्पन्न नहीं होता है उसी प्रकार कर्मरूपी बीजके विनाश होने पर संसाररूपी अङ्कुर उत्पन्न नहीं होता है । 'त्ति वे मि' इति ब्रवीमि इस प्रकार नैं कहता हूँ, अर्थात्भगवानके मुखसे मैने जैसा सुना है वैसा ही तुमसे कहना है॥लू०१३॥
तीसरे अध्ययन का चोथा उद्देश समाप्त ॥३-४॥ इस तृतीय अध्ययनके चार उद्देशोंमें यथाक्रमसे इस प्रकार विषय वर्णित हुए हैं। કારણ કે તેને કમેપી બીજ બળી ગયેલ છે. કહ્યું પણ છે – __" दवे बीजे चथाऽयन्तं, प्रादुर्भवति नाजुरः।
कर्मवीजे तथा दन्धे, न रोहति भवाबुरः" ॥ १ ॥ જેવી રીતે બીજનો નાશ થવાથી અકુર ઉત્પન્ન થતાં નથી તે પ્રકારે કર્મ રૂપી બીજનો વિનાશ થવાથી સારરૂપી અકુર ઉત્પન્ન થતો નથી.
'त्ति बेनि' इति ब्रवीनि- आरेहु छु. अर्थात् लगवानन! મુખથી મે જેવું સાંભળ્યું છે તેવુ જ હું તમને કહું છું. સૂત્ર ૧૩
ત્રીજી અધ્યયનનો ચોથો ઉદ્દેશ સમાપ્ત છે ૩-૪ આ ત્રીજી અધ્યયનના ચાર ઉદ્દેશોમાં યથાકથી આ પ્રકારે વિષય વહિત ध्ये .
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शीतोष्णीय-अध्य० ३ उ ४
४९७ दिश्यते येनेत्युपाधिः-कर्मजनितो नरकादिभवः, अस्ति किम् ? । श्रीसुधर्मास्वामी उत्तरयति-न विद्यते । 'नास्ति' इति-उत्तरवाक्यार्थस्य दाढयबोधनाय, अध्ययनसमाप्तिसूचनाय वाऽर्थतः पुनः कथनम् । यद्वा-'न विद्यते' इत्यन्तं प्रश्नवाक्यम् । पश्यकस्योपाधिः किमस्ति, उत न विद्यते? अत्रोत्तरमाह-नास्तीति । अष्टविधं कर्म, कर्मजनितनरकादिभवो वा केवलिनो न भवतीत्यर्थः । तथा चोक्तं-- ज्ञानावरणीयादिकर्म भाव-उपाधि, इस प्रकारसे उपाधिके दो भेद हैं; इनमेंसे कोई भी उपाधि उनके नहीं है । अथवा कर्मजनित जो नरकादि पर्याय है वह भी उपाधि है, यह उपाधि भी उनमें नहीं है। प्रश्न और उत्तरके रूपमें यह सूत्र है, जैसे-"किमथि उवाही पासगस्स" किमस्ति उपाधिः पश्यकस्य ?, यहां तक प्रश्नवाक्य है "न विज्जइ नत्थि"-न विद्यते नास्ति, यह उत्तर वाक्य है। अर्थात् सर्वज्ञ-तीर्थकर भगवानके उपाधि है कि नहीं? नहीं है । यहां पर "न विद्यते" इस क्रियाकी पर्यायवाची क्रिया जो नास्ति" वतलाई है, सो उत्तरवाक्यके अर्थकी दृढ़ता समझानेके लिये, और अध्ययनकी समाप्ति सूचन करनेके लिये । ____ अथवा-"किमत्थि उवाही पासगस्स न विज्जइ" यहां तक प्रश्नवाक्य है, और “नथि" यह उत्तरवाक्य है। अर्थात्-सर्वज्ञ-तीर्थङ्करको उपाधि है कि नहीं? यहां तक शिष्यका प्रश्न है । गुरुका उत्तर है'नथि'-नहीं है।
भावार्थ-केवली तीर्थङ्कर भगवानके न अष्टविध कर्मरूप उपाधि है और न कर्मजन्य-नरकादिपर्यायरूप उपाधि ही है, वे उपाधिसे निर्मुक्त પ્રકારે ઉપાધિના બે ભેદ છે. તેમાંથી કોઈ પણ ઉપાધિ તેને નથી. અથવા કર્માનિત જે નરકાદિ પર્યાય છે તે પણ ઉપાધિ છે, તે ઉપાધિ પણ તેમનામાં નથી. પ્રશ્ન गने उत्तरन। ३५मां से सूत्र छ, भ-"किमथि उवाही पासगस्स"-किमस्ति उपाधिः पश्यकस्य ? डी सुधी पाय छे. “ न विज्जइ नत्थि"-नविद्यते नास्ति से ઉત્તર વાક્ય છે. અર્થાત્ સર્વજ્ઞ તીર્થકર ભગવાનને ઉપાધિ છે કે નહિ ? નથી. २ " न विद्यते” २॥ यानी पर्यायवायी जियारे" नास्ति " तापीछे તે ઉત્તરવાયના અર્થની દઢતા સમજાવવા માટે, અને અધ્યયનની સમાપ્તિ સૂચન ४२वा नाट. 14वा-"किमत्यि उवाहो पासगस्स न विज्जइ" मी सुधी प्रशवाय छ, मन नित्वि' - उत्तराय छे मर्थात् सः। ती ४२ने पावि नलि ? 15 सुधा प्यने पक्ष छे. शुक्नो उत्त२ -' नत्यि' नथी.
ભાવાર્થ-કેવળી તીર્થકર ભગવાનને અર્થવિધર્મપ ઉપાધિ નથી, અને કર્મજન્ય નરકાદિપર્યાયરૂપ ઉપાધિ પણ નથી. તે તે ઉપાધિથી નિમુક્ત છે.
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। अथाचाराङ्गसूत्रस्य सम्यक्त्वनामकं चतुर्थमध्ययनम् ।
निरुपाधिकं संयमानुष्ठानं मुनित्वस्य मोक्षस्य च कारणमिति प्रायुक्ताध्ययनत्रयेण प्रतिपादितं, तद्धि सम्यक्त्वमन्तरेण न संभवतीत्यतः सम्यक्त्वाख्यं चतुर्थमध्ययनं कथयति । सम्यक्त्वप्रतिवोधकत्वादिदमध्ययनमपि सम्यक्त्वमुच्यते । यथा चतुःशालमध्यगतः प्रदीपः शालाचतुष्टयं प्रद्योतयति, तद्वदिदं मध्यगतमध्ययनं सर्वाध्ययनस्थमाचारमवभासयति । प्रसङ्गतस्तावत् सम्यक्त्वं निरूप्यते
समञ्चति ज्ञानादिगुणं प्रामोतीति सम्यग्-जीवस्तस्य भावः सम्यक्त्वम् । तच तत्त्वार्थश्रद्धानम् , तत्त्वार्थेषु सर्वज्ञवीतरागोपदिष्टतया पारमार्थिकेषु जीवाजीवादिपदार्थेषु श्रद्धानं रुचिरभिप्रीतिः । उक्तञ्च
। आचाराङ्गसूत्रका सम्यक्त्वनामक चतुर्थ अध्ययन ।
उपाधिरहित संयमका आराधन, मुनिपनेका और मोक्षका कारण होता है, यह बात यद्यपि पहिले कहे गये तीन अध्ययनों में अच्छी तरह से प्रकट की जा चुकी है। परन्तु वह संयमाराधन सम्यक्त्वके विना नहीं हो सकता है। इसलिये सम्यक्त्व नामका चौथा अध्ययन कहा जाता है। जैसे आमने-सामनेके चार मकानों के चौक में रखा हुआ दीपक उन चारों ही मकानों को प्रकाशित करनेवाला होता है, ठीक इसी तरहसे सब अध्ययनों के मध्य में रहा हुआ यह अध्ययन भी समस्त अध्ययनों के आचार का प्रकाशक है। इसलिये प्रकरणवश उसीका निरूपण किया जाता है।
ज्ञानादिक गुणों को जो प्राप्त करता है उसका नाम सम्यक् है। इस अपेक्षा से वह सम्यक् जीवस्वरूप है । उसका जो भाव उसे सम्यक्त्व
આચારાંગસૂત્રનું સખ્યત્વનામનું ચોથું અધ્યયન. ઉપાધિરહિત સયમનું આરાધન મુનિપણાનું તથા મોક્ષનુ કારણ થાય છે, આ વિષય પહેલા ત્રણ અધ્યયનમાં સ્પષ્ટ રીતે પ્રકાશિત કરવામાં આવેલ છે પણ આ સંયમરાન સમ્યક્ત્વ વિના બની શકતું નથી માટે સમ્યક્ત્વ નામનું ચોથું અધ્યયન કહેવામાં આવે છે. જેવી રીતે ચાર મકાનોના ચોકમાં રાખેલ એક દીપક ચારે મકાનોને પ્રકાશિત કરે છે તેવી રીતે બધા અધ્યયનના મધ્યમાં સ્થિત આ અધ્યયન બધા અધ્યયનના આચારનું પ્રકાશક છેઆ માટે પ્રકરણ વશ તેનું જ પ્રતિપાદન કરવામાં આવે છે.
જ્ઞાનાદિક ગુણને જે પ્રાપ્ત કરે છે તેનું નામ સભ્ય છે. તે અપેક્ષાએ આ સમ્યફ જીવવરૂપ છે. એને જે ભાવ તેને સમ્યક્ત્વ કહે છે. આ સમ્યક્ત્વ તત્વાર્થ શ્રદ્ધાનરૂપ છે. સર્વસ વીતરાગ પ્રભુદ્વારા ભાવિત હોવાથી પારમાર્થિક સત્ય
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शीतोष्णीय-अध्य० ३. उ. ४
४९९ (१) प्रथम उद्देशमें भावलुप्त संयमियोंके दोष और संयममें जागरूक संयमियों के गुण प्रकट किये हैं।
(२) द्वितीय उद्देशमें भावनिद्रावाले संयमियोंको अनेक दुःखोंका अनुभव करना पड़ता है, यह विषय वर्णित किया गया है।
(३) तृतीय उद्देश में संयमाचरणके विना केवल दुःखोंके सहनमात्र से कोई साधु नहीं कहला सकता, यह विषय प्रतिपादित किया है।
(४) चतुर्थ उद्देशमें छर्दित-धान्त-अन्नके समान कषाय त्यागने योग्य हैं, पापकर्म परिहरणीय हैं, तथा पदार्थोंके स्वरूपको जाननेवाले संयमीके लिये संयम आराधनीय है, इत्यादि समस्त विषय प्रकट किया गया है॥॥१॥ ॥ यह आचाराङ्गसूत्रके शीतोष्णीयनामक तृतीय अध्ययनका
हिन्दी-भाषानुवाद समास ॥३॥ (૧) પ્રથમ ઉદેશમાં ભાવસુ સંયમિઓના દોષ અને જાગરૂક સંયમિએના ગુણ પ્રકટ કરેલ છે.
(૨) બીજા ઉદ્દેશમાં ભાવનિદ્રાવાળા સંયમિઓને અનેક દુઃખોને અનુભવ કરવું પડે છે. એ વિષય વણિત કરેલ છે.
(૩) ત્રીજા ઉદ્દેશમાં સંયમાચરણ વિના કેવળ દુઃખોના સહન માત્રથી કઈ સાધુ કહેવાતા નથી. એ વિષય પ્રતિપાદિત કરેલ છે.
(४) याथा उद्देशमा छहित-बान्त मन समान पाय त्यागवायोग्य छे. પાપકર્મ પરિહરણીય છે. તથા પદાર્થોના સ્વરૂપને જાણવાવાળા સંયમી માટે સંયમ આરોધનીય છે. ઈત્યાદિ સમસ્ત વિષય પ્રગટ કરેલ છે આ આચારાંગસૂત્રના શીષ્ણય નામના ત્રીજા અધ્યયન
ગુજરાતી–ભાષાનુવાદ સમાપ્ત ૩ છે
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५०२
आचाराङ्गसूत्रे
ननु यदुच्यते - " तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यक्त्व " - मितिः तत्र श्रद्धानं तथेतिप्रत्ययः, तीर्थंकरेण यथा प्रतिबोधितं तथैव वस्तुतो जीवाजीवादिपदार्थानां स्वरूपमिति निश्चयपूर्विका प्रीतिरूपा रुचिनाम्नी मानसी परिणतिः । इयं खल्वपर्याप्तकाद्यवस्थायां
रुचि (प्रीति) के साथ जो शुद्ध-निर्दोष विशेषण दिया गया उसका भाव यही है कि वह रुचि (प्रीति) अज्ञान संशय और विपर्यय, इन तीन दोषों से रहित होनी चाहिये, तब ही वह निर्दोष रुचि है । जिसमें इन अज्ञानादि का सद्भाव है वह सत्य रुचि नहीं, किन्तु सदोष रुचि है ।
विशेषार्थ :- परस्पर विरुद्ध अनेक कोटि के स्पर्श करनेवाले ज्ञान को 'संशय' कहते हैं। जैसे-यह स्थाणु है कि पुरुष है ? । विपरीत एक कोटिका निश्चय करनेवाला ज्ञान ' विपर्यय ' कहलाता है - जैसे सीप को चांदी समझना । यह कुछ होगा, ऐसे प्रतिभासको अज्ञान या अनध्यवसाय कहते हैं, जैसे मार्ग चलते हुए को तृणसार्श वगैरह का ज्ञान । ये तीन-अज्ञान, संशय, विपर्यय, रुचिके दूषण हैं । इनसे रहित रुचि ही सम्यक् - यथार्थ रुचि कहलाती है ।
शंका- “तत्त्वार्थश्रद्धान सम्यग्दर्शन है" ऐसा जो सम्यक्त्वका लक्षण कहा गया है, वहां " तथा " इस प्रकार के प्रत्यय-विश्वास का नाम ही श्रद्धान है । अर्थात्- 'तीर्थङ्कर प्रभुने जीवादिक पदार्थों का जिस स्वरूपसे प्रतिपादन किया है, उन जीवादिक पदार्थों का वैसा ही स्वरूप है' इस प्रकार
રૂચિ ( પ્રીતિ ) ની સાથે જે શુદ્ધ-નિષ વિશેષણ આપવામા આવ્યું છે તેના ભાવ એ છે કે તે રૂચિ (પ્રીતિ) અજ્ઞાન, સંશય અને વિષય, આ ત્રણ દોષોથી રહિત હોવી જોઈ એ. ત્યારેજ તે નિર્દોષ ચિ છે. જેમાં આ અજ્ઞાનાદિના સદ્ભાવ છે તે સત્ય રૂચિ નહીં; પણ સદોષ રૂચિ છે
વિશેષાઃ——પરરપર વિરૂદ્ધ અનેક કોટિના (પ્રકારના) સ્પર્શ કરવાવાળા જ્ઞાનને રાશય કહે છે, જેમ– સ્થાણુ છે કે પુરૂષ છે. વિપરીત એક કાટિના નિશ્ચય કરવાવાળા જ્ઞાનને વિપય કહે છે, જેમ-છીપને ચાંદી જણવી આ કાંઈક હશે, આવા પ્રતિભાસને અજ્ઞાન અગર અધ્યવસાય કહે છે, જેમ–માર્ગ પર ચાલવાવાળાને तृपुन्यर्श विगेरेनु ज्ञान, आ त्रपु - अज्ञान, मंशय, विपर्यय - चिनां इषलो छे. मेनार्थी रहित थीन सभ्य-यथार्थ - यी उपाय है.
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शअ—" તત્ત્વાર્યશ્રદ્ધાન સમ્યગ્દર્શન છે” એવું જે સસ્કૃત્વનું લક્ષણ કહેવામા આવે છે ત્યા તયા આવા પ્રકારના પ્રત્યય-વિશ્વાસ-નું નામ જ શ્રદ્ધાન છે અર્થાત્ · તીર્થંકર પ્રભુએ જીવાદિક પદાર્થાને જે સ્વરૂપે પ્રતિપાદન કર્યાં છે. એ જીવાદિક પદાથૅના તેવા જ સ્વરૂપ છે' આવા પ્રકારની નિશ્ચયપૂર્વક જે
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ. १
"जिनोक्ततत्त्वेषु रुचिः, शुद्धा सम्यक्त्वमुच्यते।" इति ।
जिनोक्ततत्त्वेषु जीवाजीवादिपदार्थेषु या शुद्धा अज्ञानसंशयविपर्ययनिराकरणेन निर्मला रुचिः श्रद्धानं सा सम्यक्त्वमुच्यते । कहते हैं । वह सम्यक्त्व तत्त्वार्थश्रद्धानरूप है। सर्वज्ञ वीतराग प्रभुके द्वारा कहे हुए होनेसे पारमार्थिक-सत्यस्वरूप जीव अजीवादिक पदार्थों में जो श्रद्धा-रुचि-प्रीति है उसीका नाम तत्त्वार्थबहान है। कहा भी है
"जिनोक्ततत्त्वेषु रुचिः, शुद्धा सम्यक्त्वमुच्यते” इति ।
अर्थात्-जिनेन्द्र भगवान् द्वारा कहे गये तत्त्वों में जो निर्दोष रुचि-भीति है, उसीका नाम सम्यक्त्व है।
विशेषार्थ:-सर्वज्ञ, वीतराग और हितोपदेशी प्रभुके द्वारा प्रतिपादित किये गये जो जीव-अजीव आदि नौ पदार्थ हैं, वे यहां पर 'तत्त्व'शब्दवाच्य हैं। 'तत्त्व' शब्द का अर्थ पारमार्थिक-वास्तविक है। 'श्रद्धान' शब्दका अर्थ रुचि-दृढ़ विश्वास-आस्था है। जीव अजीवादिक पदार्थ प्रभुद्वारा उपदिष्ट होने से सत्य-वास्तविक हैं। फलितार्थ इसका यही हैजीवादिक पदार्थ वीतराग प्रभुके द्वारा प्रतिपादित किये गये हैं, इसीलिये वे यथार्थ-सत्य तत्व हैं। उनमें जो दृढ़ विश्वास है उसी का नाम तत्त्वार्थश्रद्धान है । इसीका नाम सम्यग्दर्शन है।
સ્વરૂપ જીવ અજીવ આદિ પદાર્થોમાં જે શ્રદ્ધાન-રૂચિ પ્રીતિ છે એનું નામ तत्वा-श्रद्धान छ. युछे___“जिनोक्त तत्त्वेषु रुचिः, शुद्धा सम्यक्त्वमुच्यते " इति ।
અર્થા–જિનેન્દ્ર ભગવાન દ્વારા જે ત કહેવાયા છે એમાં જે નિર્દોષ રૂચિ-પ્રીતિ છે એનું નામ સમ્યક્ત્વ છે.
વિશેષા –સર્વજ્ઞ, વીતરાગ અને હિતોપદેશી પ્રભુદ્વારા પ્રતિપાદિત જે જીવ– અજીવ આદિ નવ પદાર્થ છે તે અહીંઆ તત્વશબ્દવાચ્ય છે, તત્ત્વ–શબ્દનો અર્થ पारमार्थि-वास्तवि छ. श्रद्धान-शहने। मथः ३यि-विश्वास-मास्था छे. જીવ અજીવ આદિ પદાર્થ પ્રભુદ્વારા ઉપદિષ્ટ હોવાથી સત્ય-વાસ્તવિક છે. એને ફલિતાર્થ એ છે કે –જીવાદિક પદાર્થ વીતરાગ પ્રભુદ્વારા પ્રતિપાદિત કરેલ છે. જેથી તે યથાર્થ–સત્ય તત્ત્વ છે, એમાં જે દઢ વિશ્વાસ છે તેનું નામ તત્વાર્થ શ્રદ્ધાન છે. એનું જ નામ સમ્યગ્દર્શન છે.
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आचाराङ्गसूत्रे अत्रोच्यते-तत्वार्थश्रद्धानं सम्यक्त्वस्य कार्यम् । सम्यक्त्वं तु सम्यग्दर्शनापरनामधेयो मिथ्यात्वक्षयोपशमादिजन्यः प्रशमसंवेगादिलक्षणःशुभ आत्मपरिणामविशेपः। अपर्याप्तावस्था में भी उस २ सम्यक्त्व का सद्भाव माना गया है, परन्तु तत्त्वार्थअद्वान वहां नहीं माना गया है। आप तो सम्यक्त्व का लक्षण तत्त्वार्थश्रद्वान कहते हैं।
तत्त्वार्थश्रद्धान अपर्याप्तावस्था के जीवों में नहीं होता; अतः वहां सम्यक्त्व का लक्षण नहीं घटेगा। लक्ष्य में लक्षणका नहीं घटना ही तो अव्याशि है, सो इस लक्षण में अव्याप्ति दोष अनिवार्य है। यदि आप कहेंगे कि हम अपर्याप्तावस्था के जीवों में सम्यक्त्व नहीं मानते तो आपको आगमविरोधरूप दोष आयेगा। क्योंकि आगम में अपप्तिावस्था के जीवों में भी सम्यक्त्व माना गया है।
तथा-सम्यक्त्व का यह लक्षण रागात्मकरुचिरूप होने से वीतराग अवस्था में घटित नहीं होता । कारण कि उस अवस्था रागात्मक रुचि का सर्वथा अभाव है। ऐसी परिस्थितिमें वहां सम्यक्त्व की उत्पत्ति का निर्वाह भी कैसे हो सकेगा ?
समाधान-तत्वार्थश्रद्धान, यह सम्यक्त्व का लक्षण नहीं है; किन्तु उसका कार्य है । सम्यक्त्व, जिसका दूसरा नाम सम्यग्दर्शन है, एवं जी मिथ्यात्व के क्षायोपशमिकादिकले उत्पन्न होता है, तथा जिसके लक्षण प्रशम, संवेगादिक हैं, वह आत्मा का शुभपरिणामविशेष है। અપર્યાપ્તાવસ્થામાં પણ તે તે સમ્યક્ત્વને સદભાવ માનેલ છે, પરન્ત તત્ત્વાર્થ શ્રદ્ધાન ત્યાં માનવામાં નથી આવેલ આપ તો સમ્યક્ત્વનું લક્ષણ તત્ત્વાર્થશ્રદ્ધાન કહો છે.
તવાર્થથદ્વાન અપર્યાપ્તાવસ્થાના જીવમાં હોતુ નથી, માટે ત્યાં સમ્યક્ત્વનું લક્ષણ ઘટશે નહિ લક્ષ્યમાં લક્ષણને સમન્વય નહિ થવાથી જ અવ્યાપ્તિ થાય છે. માટે આ લક્ષણમાં અવ્યાપ્તિ–દેવ અનિવાર્ય છે. કદાચ આપ કહેશે કે અમે અપર્યાપ્તાવસ્થાના જીવોમા સમ્યક્ત્વ નથી માનતા તે આપને આગમવિધરૂપ દોષ લાગશે, કેમ કે આગમમાં અપર્યાપ્તાવસ્થાના જીમાં પણ સમ્યક્ત્વ માનેલ છે
તથા–-સમ્યક્ત્વનું એ લક્ષણ રાગાત્મક રૂચિરૂપ હેવાથી વીતરાગ અવસ્થામાં ઘટિત નથી થતું, કારણ કે આ અવસ્થામાં રાગાત્મક-રૂચિને સર્વથા અભાવ છે. આવી પરિસ્થિતિમાં ત્યા સમ્યક્ત્વની ઉત્પત્તિને નિર્વાડ પણ કેવી રીતે થઈ શકે ?
સમાધાન–તત્વાર્થ-શ્રદ્ધાન એ સમ્યક્ત્વનું લક્ષણ નથી, પણ તેનું કાર્ય છે, સમ્યકત્વ જેનું બીજું નામ સમ્યગ્દર્શન છે, અને જે મિથ્યાત્વના પશમાદિકથી ઉત્પન્ન થાય છે તથા જેનું લક્ષણ પ્રશમ, સવેગાદિક છે તે આત્માનું શુભ પરિણામવિશેષ છે.
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सम्यक्त्व-अध्य ४ उ १
५०३
नेष्यते, सम्यक्त्वं तु तस्यामपीष्टं, षट्पष्टिसागरोपमरूपायाः साद्यपर्यवसितकालरूपायाश्च तस्योत्कृष्टस्थितेः प्रतिबोधनादिति कथं नागमविरोधः ? किंच-तत्त्वार्थश्रद्धानस्य रागात्मकरुचिरूपत्वेन वीतरागे तदभावात् तत्र सम्यक्त्वं कथमुपपद्येत?की निश्चयपूर्वक जो प्रीतिस्वरूप रुचि नाम की मानसिक परिणति है वही तरवार्थ-श्रद्धान है। यह अपर्याप्तावस्था में घटित नहीं होती, परंतु सम्यक्त्व तो वहां पर भी माना गया है। कारण कि कुछ अधिक छासठ ६६ सागर एवं सादि अनन्त उस सम्यक्त्व की उत्कृष्ट स्थिति बतलाई गई है, तब तो आगम से विरोध ही आवेगा।
अर्थाआप तत्वार्थ श्रद्धान सम्यक्त्व का लक्षण करते हैं । लक्षण के दोष-अव्याप्ति, अतिव्याति और असंभव है ।जो लक्षण अपने संपूर्ण लक्ष्य में नहीं घटित होता; वहां अव्याति दोष होता है। जो अपने लक्ष्य में रहते हुए अलक्ष्य में भी रहता है, वहां अतिव्याप्ति दोष होता है। तथा-जिस लक्षण का समन्वय लक्ष्य में नहीं होता, वहां असंभव दोष होता है। यहां प्रकृत में अव्याति दोष होगा। क्योंकि शास्त्रकारों ने क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक ६६ छासठ सागरोपमा और क्षायिक सम्यक्त्व की स्थिति सादि और अनन्त मानी है। क्षायिक या क्षायोपशभिक सम्यक्त्व सहित भरण करनेवाले जीव के પ્રીતિસ્વરૂપ રૂચિ નામની માનસિક પરિણતિ છે તે જ તત્વાર્થ શ્રદ્ધા છે. એ અપર્યાપ્તાવસ્થામાં ઘટિત નથી થતી. પરંતુ સમ્યક્ત્વ તે ત્યાં પણ માનેલ છે. કારણ કે ૬૬ છાસઠ સાગર ઝાઝેરી એવં સાદિ અનંત, એ સમ્યક્ત્વની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ કહેલી છે ત્યારે તે આગમથી વિરોધ આવશે.
' અર્થાત-આપ “તત્વાર્થ શ્રદ્ધાન સમ્યક્ત્વ છે.” એ પ્રકારે સમ્યક્ત્વનું લક્ષણ કહો છે. લક્ષણના દેષ અવ્યાપ્તિ, અતિવ્યાતિ અને અસંભવ છે. જે લક્ષણ પોતાના સમસ્ત લક્ષ્યમાં ઘટિત નથી હોતું, ત્યાં આવ્યાપ્તિ દેષ થાય છે. જે પોતાના લક્ષ્યમાં અને અલક્ષ્યમાં પણ ઘટિત થાય છે ત્યાં અતિવ્યાપ્તિ દોષ થાય છે. અને જે લક્ષણને સમન્વય લક્ષ્યમાં હોતું જ નથી, ત્યાં અસંભવ દોષ થાય છે. અહીંઆ પ્રકૃતમાં અવ્યાપ્તિ-દેષ આવશે, કેમ કે શાસ્ત્રકારોએ ક્ષાપશમિક-સમ્યક્ત્વની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ૬૬ છાસઠ સાગરેપમ ઝાઝેરી અને ક્ષાયિક–સમ્યક્ત્વની સ્થિતિ સાદી અને અનંત માનેલી છે. ક્ષાયિક અથવા ક્ષાપશમિક સમ્યક્ત્વ સહિત મરવાવાળા જીવને
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आचाराङ्गसूत्रे मोहनीय के तीन भेद हैं-मिथ्यात्व (अशुद्धांश) १, मिश्र (अर्धशुद्धांश)२,
और सम्यक्त्व (शुद्धांश) ३। इस कर्म के उद्य में आत्माका गुण सम्यग्दर्शन प्रकट नहीं होता। अर्थात् यह कर्म आत्माके समकित गुणका घातक है । चारित्रमोहनीयके अनन्तानुवंधी-क्रोध, मान, माया और लोभ, अप्रत्याख्यान-क्रोध, मान,माया, लोभ, प्रत्याख्यान-क्रोध, मान, माया, लोभ, संज्वलन-क्रोध, मान, माया, लेभ; एवं नव नोकषाय-हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद और नपुंसकवेद, ये २५ पचीस भेद हैं । यह कर्म आत्मा के चारित्रगुण का घातक होता है। इसके उदय में न तो सर्वसंयम का ही उदय होता है और न देशसंयम का ही। शङ्काकार का यहां पर यह कहना है कि सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में दर्शनमोहनीयत्रय का ही क्षयोपशमादिक कहना चाहिये; क्यों कि वह ही इसका प्रतिपक्षी कर्म है। चारित्रमोहनीय के भेद अनंतानुबंधिचतुष्टय का क्षयोपशमादिक उसके साथ २ क्यों कहा। वह तो सिर्फ आत्मा के चारित्रगुण का ही घातक है ?। इसका यह समाधान है किदर्शनमोहनीय के क्षयोपशमादिक के पहिले ही उनका (कषायों का) क्षयोपशमादि अवश्य हो जाता है, इसके बिना उसका क्षयोपशम आदि એમાં દર્શન–હનીયના ત્રણ ભેદ છે–મિથ્યાત્વ (અશુદ્ધાંશ) 1, મિશ્ર (અર્ધ शुद्धाश) २, भने अन्यत्व (शुद्धांश) 3
આ કર્મના ઉદયમાં આત્માનો ગુણ-સમ્યગ્દર્શન–પ્રગટ નથી થતું. અર્થાત - આ કર્મ આત્માના સમકિત ગુણનુ ઘાતક છે. ચારિત્રમોહનીયના અનતાનુબંધી -ओप, मान माया आने सोल, अप्रत्याध्यान-ओधमान, माया, सोला प्रत्याभ्यान -ध, मान, माया, सोल, वसन-ध-भान-भाय.-होल मने न पाय
त्य, ति, अनि, लय, श, मुगुप्सा, स्वीय, वे सने नपुन वेद, પચીસ ૨૫ ભેદ છે. આ કર્મ આત્માના ચારિત્રગુણનું ઘાતક છે આના ઉદયમાં નથી સર્વસંયમને ઉદય થતો કે નથી દેશસંયમન શકાકારનું અહીંયા એ કહેવાનું છે કે સમ્યગ્દર્શનની ઉત્પત્તિમાં દર્શનમોહનીયત્રયનુ પશમાદિક કહેવું જોઈએ. કારણ કે તે જ એનું પ્રતિપક્ષી કર્મ છે. ચાસ્ત્રિમોહનીયના લેદ અનંતાનુબ ધિચતુષ્ટયના આની સાથે ક્ષયે પશમાદિક કેમ કહ્યા? એ તો ફક્ત આત્માના ચારિત્રગુણના ઘાતક છે? એનું એ સમાધાન છે કેદર્શન મેહનીયના પશમાદિકના પહેલા જ એનું (કષાયોનું) ૫શમાદિ અવશ્ય થઈ જાય છે. આના વિના એનું મેહનીયન) પશમ
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ. १
अत्र मिथ्यात्वशब्देन मिथ्यात्वसप्तकं गृह्यते, तच्चानन्तानुवन्धिकषायचतुष्टयं मिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वमोहनीयत्रयं चेति । इह दर्शनमोहनीयभेदसप्तकं मिथ्यात्वमुच्यते । यद्यपि-अनन्तानुवन्धिकषायचतुष्टयं चारित्रमोहनीयस्य भेदस्तथापि मिथ्यात्वक्षयोपशमाधवसरे तत्पूर्व तस्य क्षय उपशमो वाऽवश्यं भवतीति कृत्वा तदपि मिथ्यात्वशब्देन व्यपदिश्यते । एतच्चाने सम्यक्त्वफलप्रकरणे स्फुटीभविष्यति ।
यहां मिथ्यात्व-शब्द से मिथ्यात्वसप्तक का ग्रहण किया गया है। वे ये हैं अनन्तानुबन्धी कषाय ४ और मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, एवं सम्यक्त्वमोहनीय थे तीन ३। ये सात दर्शनमोहनीय के भेद मिथ्यात्व कहे जाते हैं । यद्यपि अनन्तानुबन्धी ४ कषाय चारित्रमोहनीय के भेद हैं, तो भी मिथ्यात्वके क्षायोपशमादिक के अवसर में उसके पहिले उनका क्षय अथवा उपशम अवश्य ही हो जाता है, इसलिये मिथ्यात्व-शब्दसे उन चारों का भी व्यपदेश होता है।
विशेषार्थ:-मिथ्यात्व यह उपलक्षण शब्द है। उपलक्षण का लक्षण है-"स्वबोधकत्वे सति स्वेतरबोधकत्वम्" अर्थात्-जो स्वबोधक होते हुए अपने से इतर का भी बोधक होता है वह उपलक्षण है। इससे सात प्रकृतियों का ग्रहण होता है। वे ७ प्रकृतियां ये हैं:-अनन्तानुबन्धी क्रोध, अनन्तानुबन्धीमान, अनन्तानुबन्धी माया और अनंतानुबंधी लोभ, तथा मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय एवं सम्यक्त्वमोहनीय । मोहनीय कर्म के मूल भेद दो हैं-एक दर्शनमोहनीय, दूसरा चारित्रमोहनीय। इनमें दर्शन
આ ઠેકાણે મિથ્યાત્વ શબ્દથી મિથ્યાત્વસતકનું ગ્રહણ કરેલ છે. તે એ છેઅનંતાનુબંધી કષાય ચાર ૪, અને મિથ્યાત્વ–મેહનીય, મિશ્ર–મોહનીય, અને સમ્યક્ત્વ–મોહનીય, એ ત્રણ ૩, એ સાત દર્શન–મોહનીચના ભેદે મિથ્યાત્વ કહેવાય છે, કદાચ અનંતાનુબંધી ચાર ૪ કષાય, ચારિત્ર-મેહનીયના ભેદે છે તે પણ મિથ્યાત્વના ક્ષપશમાદિકના અવસરમાં એના પહેલાં એનો ક્ષય અથવા ઉપશમ અવશ્ય થઈ જાય છે, તેથી મિથ્યાત્વ-શબ્દથી આ ચારનું વ્યપદેશ થાય છે.
विशेषार्थ:-भिथ्यात्व मे SAAY श६ छे. सानु सक्षण छ-स्वबोधकत्वे सति स्वेतरबोधकत्वम् , अर्थात्-२वमो५४ डोप छत पोताथी मीन पर બોધક થાય છે તે ઉપલક્ષણ છે. એથી સાત પ્રકૃતિનું ગ્રહણ થાય છે. એ સાત પ્રકૃતિ આ છે –અનંતાનુબંધી કોધ, અનંતાનુબંધી માન, અનંતાનુબંધી માયા અને અનંતાનુબંધી લોભ, તથા મિથ્યાત્વ–મોહનીય, મિશ્ર–મોહનીય અને સમ્યકત્વ–મોહનીય. મોહનીય કર્મના મૂળ ભેદ બે છે. એક દર્શન–મોહનીય, બીજે ચારિત્ર–મોહનીય.
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ई
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आचाराङ्गसूत्रे
अस्य च लक्षणस्य मनोरहितेषु सिद्धादिष्वपि समन्वयो भवति । यद्वा-तत्त्वार्थश्रद्धानमिति लक्षणं सरागसम्यक्त्वस्यैव, अत एव स्थानाङ्गसूत्रे प्रोक्तम्“ दसविहे सरागसम्मत्तदंसणे पण्णत्ते, तं जहानिसग्गुवएसई, आणाई सुत्तवीयरुइमेव ।
अभिगमवित्थाररुई, किरिया - संखेव - धम्मरुई " ॥ १ ॥ इति । एवं चापर्याप्त कादौ वीतरागे च रुच्यभावेऽपि न क्षतिः ।
जीवाइनवपयत्थे, जे जाणइ तस्स होइ सम्मत्तं । भावेण सद्दहंते, अयाणमाणे वि सम्मत्तं ॥ ” ॥१॥ अर्थात् जीवादिक नव पदार्थों को जो जानता है उसको सम्यक्त्व होता है । तथा नहीं जानने पर भी उनका भाव से श्रद्धान करनेवाले के भी सम्यक्त्व कहा गया है । इस कथन से इस लक्षणका समन्वय मनरहित सिद्धादिकों में भी हो जाता है ।
अथवा - " तत्त्वार्थश्रद्वान " यह लक्षण सराग सम्यक्त्व का ही समझना चाहिये, इसलिये स्थानाङ्गसूत्र में " दसविहे " इत्यादि दस प्रकार का सराग सम्यग्दर्शन कहा गया है । जैसे
" दसविहे सरागसम्मत्तदंसणे पण्णत्ते, तं जहानिसरगुवएसरुई, आणारुई सुत्तवीयरुइमेव । अभिगमवित्थाररुई, किरिया - संखेव - धम्मरुई " ॥१॥ सरागसम्यग्दर्शनके दस प्रकार ये हैं- (१) निसर्गरुचि, (२) उप
जीवाइनवपयत्थे, जे जाणइ तस्स होइ सम्मत्तं ।
भावेण सदहंते, अयाणमाणे वि सम्मत्तं " ॥ १॥
અર્થાત્—જીવાદિક નવ પદાર્થોને જે જાણે છે તેને સટ્રૂત્વ થાય છે. અને ન જાણવા છતાં પણ ભાવથી તેનુ શ્રદ્ધાન કરવાવાળાને પણ સમ્યકૃત્વ કહેવામા આવેલ છે. આ વાકયથી આ લક્ષણના સમન્વય મનરહિત સિદ્ધાદિકામાં પણ થાય છે,
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અથવા—“ તત્વાર્થં શ્રદ્ધાન ” એ લક્ષણ સમ્યક્ત્વનું જ સમજવું જોઇએ; માટે સ્થાનાંગસૂત્રમાં “ દશવહે ” ઇત્યાદિ દશ પ્રકારના સરાગ સમ્યગ્દર્શન કહ્યા છે. જેમ'दसविहे सरागसम्मत्तदंसणे पण्णत्ते, तं जहा -
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6.
निसग्गुवएस रुई, आणारुई सुत्त - वीय- रुइमेव ।
अभिगम - वित्थाररुई, किरिया - संखेव - धम्मरुई " ॥ १ ॥ इति ।
सराग सभ्यग्दर्शनना दृश प्रार आ छे- (१) निसर्ग ३थि, (२) 34
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सम्यक्त्व - अध्य० ४. उ. १
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उक्तञ्च चावश्यकसूत्रे -
" से य सम्मत्ते पसत्यसम्मत्त मोहणिजकम्माणु वेयणोपसमक्खयसमुत्थे पसमसंवेगाइलिंगे सुहे आयपरिणामे पण्णत्ते " इति ।
छाया - तच्च सम्यक्त्वं प्रशस्तसम्यक्त्वमोहनीय कर्मानुवेदनोपशमक्षयसमुत्थः प्रशमसंवेगादिलिङ्गः शुभः आत्मपरिणामः प्रज्ञप्त इति ।
कार्ये कारणोपचारात् तत्त्वार्थश्रद्धानमपि सम्यक्त्वमुच्यते । तथा चोक्तं'जीवाइनवपयस्थे, जो जाणइ तस्स होइ सम्मत्तं । भावेण सदहंते, अयाणमाणे वि सम्मत्तं " ॥ इति ।
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हो ही नहीं सकता | इसका खुलासा आगे सम्यक्त्व के फलके प्रकरण में अच्छी तरह से हो जायगा ।
आवश्यक सूत्रमें यही बात कही है
" से य सम्मन्ते पत्थसम्प्रन्तमोहणिज्जकम्माणुवेषणोवसमक्खयसमुत्थे समसंवेगाइलिंगे सुहे आयपरिणामे पण्णत्ते " इति । अर्थात्वह सम्यग्दर्शन प्रशस्त सम्यक्त्वमोहनीय कर्म के अनुवेदन के उपास और क्षय से उत्पन्न होता है, तथा प्रशमसंवेगादिक लिङ्गों से जाना जाता है, एवं यह आत्मा का शुभ परिणाम कहा गया है । तत्त्वश्रद्वा सम्यक्त्वका कार्य है, यह ऊपर कहा जा चुका है और सम्यक्त्व उसका कारण है । अतः कार्य में कारण के उपचार - आरोप से कार्य-तत्त्वार्थद्वान भी सम्यक्त्वरूप से कह दिया जाता है । अन्यत्र भी ऐसा ही कहा है-
આદિ થઈ જ શકતુ નથી. એને ખુલાસા આગળ સમ્યક્ત્વના ફળના પ્રકરણમાં ઘણી જ સરલ રીતે થઇ જશે,
આવશ્યકસૂત્રમાં આ વાત કહી છે—
“ से य सम्मत्ते पसत्थसम्मत्तमोह णिज्जकम्माणुवेयणोवसमक्खयसमुत्थे पसमसंवेगाइलिंगे सुहे आयपरिणामे पण्णत्ते " इति ।
અર્થાત્—આ સમ્યગ્દર્શન પ્રશસ્ત સમ્યકૃત્વ-માહનીય કમના અનુવેદનના ઉપશમ અને ક્ષયથી ઉત્પન્ન થાય છે; તથા પ્રશમસ વેગાદિક લિંગોથી જાણવામાં આવે છે; અને તે આત્માના શુભ પરિણામ કહેવામાં આવે છે. તત્ત્વા શ્રદ્ધાન સમ્યક્ત્વનું કાર્ય છે, એ ઉપર કહેવામાં આવેલ છે અને સમ્યકૃત્વ એનું કારણ છે, એથી કાર્યમાં કારણના ઉપચાર–આરોપથી કાય—તત્વા શ્રદ્ધાન પણ સમ્યકૃત્વ રૂપથી કહેવામાં આવે છે. બીજી જગ્યાએ એમ કહેવામાં આવેલ છે—
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आवाराङ्गसूत्रे
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नाणं च दंसणं चैव चरितं च तवो तहा ।
वीरियं उवओगो य, एयं जीवस्स लक्खणं " ॥१॥ इति ।
अत्र ज्ञानादिकं जीवस्वरूपव्यञ्जकरूपं जीवलक्षणमुक्तं, तेन ज्ञानादीनामनभिव्यक्तावपि पृथिव्यादिषु जीवसद्भावः । शुद्धात्मपरिणामरूपं सम्यक्त्वं नान्यममाणविषयस्तस्मात् स्वानुभवगम्यमेवेति निणयते ।
एतच्चात्रापि पञ्चमाध्ययने शुद्धात्मस्वरूपं प्रतिबोधतया भगवता वक्ष्यतेनाणं च दंसणं चैव, चरितं च तवो तहा । वीरियं ज्वओगो य. एयं जीवस्स लक्खणं ॥ १ ॥ " इति ।
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ. १
५०९ वस्तुतस्तु-इदं सम्यक्त्वलक्षणं न तत्स्वरूपं, किंतु तल्लिङ्गं तद्वयञ्जकमिति यावत्। व्यङ्गन्यभूतं सम्यक्त्वं हि मिथ्यात्वक्षयोपशमादिजन्यं शुद्धात्मपरिणामरूपं परमार्थतोऽनाख्येयं स्वानुभवगम्यमेव ।। ___यथा वहिव्यजकस्य धूमस्यासद्भावेऽपि संतप्तायोगोलके वहिरस्ति, तथा तत्त्वा
भिरुच्यभावेऽपि आत्मपरिणामरूपसम्यक्त्वमस्त्येव। अत एवोत्तराध्ययनसूत्रे प्रोक्तम् । देशरुचि, (३) आज्ञारुचि, (४) सूत्ररुचि, (५) बीजरुचि, (६) अभिगम रुचि, (७) विस्ताररुचि, (८) क्रियारुचि, (९) सक्षेपरुचि, १० धर्मरुचि॥
इस अपेक्षासे अपर्याप्त अवस्था एवं वीतरागदशा में रागात्मक रुचिका अभाव होने पर भी उसके सद्भाव में किसी भी प्रकारकी क्षति नहीं आती।
यथार्थ में तो यह सम्यक्त्व का लक्षण-सम्यक्त्व का स्वरूप-नहीं है। किन्तु उसका व्याक एक लिङ्ग है । जो लिङ्ग होता है वह अपने लिङ्गी का बोधक या व्यञ्जक हुआ करता है। मिथ्यात्वके क्षयोपशमादिक से उत्पन्न होनेवाला, तथा शुद्ध आत्मपरिणामस्वरूप वह सम्यक्त्व तो वास्तवमें अनाख्येय-वचनके अगोचर ही है। जैसे-अग्निका अभिव्यञ्जक धूम हुआ करता है, परन्तु तप्त अयोगोलक (लोहे के पिण्ड) में उसके अभाव में भी अग्निका सद्भाव रहता है। उसी तरह से तत्त्वार्थट्टान के अभाव में भी आत्मपरिणामस्वरूप सम्यक्त्वका सद्भाव सिहादिकों में रहता ही है । इसलिये उत्तराध्ययन सूत्र (अध्य० २८) में कहा हैहेश३थि, (3) माज्ञा३थि, (४) सूत्र३थि, (५) मी४३न्थि, (६) लिम३थि, (७) विस्त॥२३थि, (८) जिया३थि, (6) स२५३थि, (१०) भ३थि.
આ અપેક્ષાથી અપર્યાપ્ત અવસ્થા તેમજ વીતરાગ દશામાં રાગાત્મક રૂચિને અભાવ હોવા છતાં પણ તેના સદ્દભાવમાં કઈ પણ પ્રકારે ક્ષતિ આવતી નથી.
યથાર્થમાં તે આ સમ્યક્ત્વનું લક્ષણ-સમ્યક્ત્વનું સ્વરૂપ–નથી, પણ તેનું વ્યંજક એક લિંગ છે. જે લિંગ થાય છે તે પિતાના લિંગીના બોધક અગર વ્યંજક થયા કરે છે. મિથ્યાત્વના ક્ષપશમાદિકથી ઉત્પન્ન થવાવાલા, તથા શુદ્ધ આત્મપરિણામસ્વરૂપ એ સમ્યક્ત્વ તે વાસ્તવમાં અનાગ્યેય–વચનનું અગોચર છે, જેમ અગ્નિને અભિવ્યંજક ધૂમ થયા કરે છે, પરંતુ તપ્ત અગોલક (લોહના પિંડ)માં એના અભાવમાં પણ અગ્નિને સદ્ભાવ રહે છે. એવી રીતે તત્વાર્થશ્રદ્ધાનના અભાવમાં પણ આત્મપરિણામસ્વરૂપ સમ્યત્વને સદ્ભાવ સિદ્ધાદિકેમાં પણ રહે છે. તેથી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર અધ્ય. ૨૮ માં કહ્યું છે–
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आचाराङ्गसूत्रे
सम्यक्त्व भेदः - सम्यक्त्वं द्रव्यभावभेदाद् द्विविधम् । तत्र द्रव्यतः सम्यक्त्वं विशोधिता मिथ्यात्वपुद्गला एव । विशोधिता हि मिथ्यात्वपुद्गला अतिस्वच्छसूक्ष्मवस्त्रमिव दृष्टेरध्यवसायात्मकस्य सम्यक्त्वस्याऽऽवरका न भवन्ति, तस्मात् तत्र सम्यक्त्वोपचारः । भावतस्तु-मिथ्यात्वक्षयोपशमादिजन्यः शुभ आत्मपरिणामविशेषः ।
सम्यक्त्वके भेद -
सम्यक्त्व दो प्रकार का है - (१) द्रव्य - सम्यक्त्व, (२) भाव - सम्यक्त्व मिथ्यात्व प्रकृति के जो विशुद्ध पुद्गल हैं वे द्रव्यसम्यक्त्व है । ये विशुद्ध मिथ्यात्व के पुद्गल, जिस तरह सूक्ष्म वस्त्र दृष्टिका रोधक नहीं होता उसी तरह अध्यवसायस्वरूप सम्यक्त्व के प्रतिबन्धक नहीं होते । अर्थात् जैसे सूक्ष्मवस्त्र दृष्टिका प्रतिबन्धक नहीं होता, ठीक इसी प्रकार से वह मिथ्यात्व का शुद्ध पुंज सम्यकदर्शनरूप दृष्टिका रोधक नहीं होता । इस कारण उसे उपचार से सम्यक्त्व कहा गया है । मिथ्यात्व कर्म के क्षयोपशमादिक उत्पन्न हुआ आत्माका शुभ परिणाम भावसम्यक्त्व है । अन्य प्रकार से भी सम्यक्त्व दो प्रकार का है - (१) नैश्चयिक - सम्यक्त्व, (२) व्यावहारिक - सम्यक्त्व । एक पौगलिक - सम्यक्त्व, दूसरा अपौलिक - सम्यक्त्व । एक नैसर्गिक और दूसरा आधिगमिक सम्यक्त्व |
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સમ્યક્ત્વના ભેદ
सभ्यद्दत्व में प्रभारनु छे. (१) द्रव्य -सभ्यत्व (२) भाव-सभ्यद्दत्व, मिथ्यात्व પ્રકૃતિના જે વિશુદ્ધ પુદ્ગલ છે તે દ્રવ્ય-સમ્યક્ત્વ છે. જેવી રીતે સૂક્ષ્મ વસ્ર દૃષ્ટિનુ રાધક નથી થતું તેવી રીતે એ વિશુદ્ધ મિથ્યાત્વના પુદ્ગલ અધ્યવસાયસ્વરૂપ સમ્યક્ત્વના પ્રતિબન્ધક નથી થતા અર્થાત્—જેવી રીતે સૂક્ષ્મ વજ્ર દૃષ્ટિનુ પ્રતિખ ધક નથી થતું, ઠીક આ પ્રકારથી તે મિથ્યાત્વના વિશુદ્ધ પુદ્ગલ પુંજ સમ્યગ્નશનરૂપ ષ્ટિના રોધક નથી થતા. આ કારણે તેને ઉપચારથી સમ્યક્ત્વ કહેવામાં આવે છે મિથ્યા કર્મના ક્ષયાપશમાદિકથી ઉત્પન્ન થયેલા આત્માના શુભ પરિણામ ભાવ-સમ્યક્ત્વ છે. ખીન્ન પ્રકારે પણ સમ્યક્ત્વ એ પ્રકારના છે (૧) નૈૠયિકसभ्यद्दत्य (२) व्यावहारिङ-सभ्यत्य मे चौहूगसि सभ्यद्दल, जीन्नु भयोहूगञ्जिङ-सभ्यद्दत्व, भेः निसर्ग भने जीलु अधिगम-सभ्यद्दत्व,
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सम्यक्त्व - अध्य० ४. उ. १
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" सव्वे सरा णियङ्कंति तका जत्थ ण विज्जइ, मई तत्थ ण गाहिआ " इत्यादि । छाया - "सर्वे खरा निवर्त्तन्ते, तर्का यत्र न विद्यते, मतिस्तत्र न ग्राहिता" इत्यादि । स्वानुभव विषयत्वेऽपि सम्यक्त्वस्येक्षुक्षीरादिरसमाधुर्यविशेषाणामिव वाग्विषयत्वाऽभावादनाख्येयत्वम् । तथा चोक्तम्
" इक्षुक्षीरगुडादीनां माधुर्यस्यान्तरं महत् । तथापि न तदाख्यातुं सरस्वत्यापि पार्यते " ॥ २ ॥
"सच्चे सरा णियद्वंति तक्का जत्थ ण विज्जह, मई तत्थ ण गाहिआ" इत्यादि । समस्त खरोंकी वहां पर निवृत्ति होती है, तर्क भी वहां प्रवेश नहीं कर सकता है, एवं बुद्धि के भी वह अगम्य है । इत्यादि ।
शुद्ध सम्यक्त्व को जो वचनातीत एवं खानुभवगम्य कहा है वह इस प्रकार से - जैसे - इक्षु - (गन्ना) और दुग्धादिककी मधुरता उपभोक्ता के ही अनुभवगम्य होती है । उससे यदि कोई यह पूछे कि गन्ना कैसा मीठा है ? दूध की मधुरता कैसी है ?, तो वह इस बातको बचन से नहीं कह सकता, वह तो उनकी मधुरता अपने निजी अनुभव से ही जानता है । यही बात अन्यत्र भी कही है ।
" इक्षु-क्षीर-गुड़ादीनां, माधुर्यस्यान्तरं महत् । तथापि न तदाख्यातुं, सरस्वत्यापि पार्यते " ॥ १ ॥ यद्यपि गन्ना, दूध और गुड आदि मिष्ट पदार्थों की मधुरता में बहुत ही अन्तर है, तो भी उनके उस अन्तर को सरखती भी नहीं कह सकती ॥ १ ॥
" सव्वे सरा णिति तक्का जत्थ ण विज्जई । मई तत्थ ण गाहिया " त्याहि. સમસ્ત સ્વરાની જ્યાં નિવૃત્તિ થઇ જાય છે, ત્યાં તર્ક પણ પ્રવેશ કરી શકતે નથી તેમ જ બુદ્ધિથી પણ તે અગમ્ય છે. ઈત્યાદિ. શુદ્ધ સમ્યક્ત્વને જે વચનાતીત અને સ્વાનુભવગમ્ય કહેલ છે તે આ પ્રકારે કે જેવી રીતે ઈક્ષુ ( શેરડી ) અને દુગ્ધાદિકની મધુરતા ઉપલેાક્તાથી અનુભવગમ્ય હાય છે. કદાચ કોઇ તેને પૂછે કે શેરડી કેવી મીઠી છે ? દૂધની મધુરતા કેવી છે ?, તે તે આ વાતને વચનથી કહી શકશે નહિ. તે તે તેની મધુરતાને પેાતાના નિજ અનુભવથી જ જાણે છે. આ વાત ખીજી જગ્યાએ પણ કહેવામાં આવી છે—
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इक्षु-क्षीर- गुडादीनां, माधुर्यस्यान्तर महत् 1
तथापि न तदाख्यातुं, सरस्वत्यापि पायते ॥ १ ॥ " इति ।
જો કે--શેરડી, દૂધ અને ગાળ આદિ મિષ્ટ પદાર્થોની મધુરતામાં ઘણો જ ભેદ છે તા પણ એ ભેદને સરસ્વતી પણ કહી શકતી નથી.
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आचारागसूत्रे __ प्रकारान्तरेण सम्यक्त्वं दशधा, तद्यथा-(१) औपशमिक-(२) क्षायिक-(३) भायोपशमिक-(४) सास्वादन-(५) वेदकभेदात् पञ्चविधम् । तत्र प्रत्येकं नैसगिकाधिगमिकभेदाद् द्वैविध्ये दशविधत्वं भवति ।
(१) अनन्तानुवन्धिकपायचतुष्टयोपशमानन्तरं मिथ्यात्द-मिश्र-सम्यक्त्व-मोहनीयकर्मणां सर्वथोपशमाजातो जीवस्य तत्त्वरुचिरूपः शुभपरिणामः औपशमिकं सम्यक्त्वम् । एतचोपशमश्रेणिप्रतिपन्नस्य जीवस्य भवति ।
(२) तेषां सर्वथा भयेण निवृत्तं जीवस्य शुभपरिणामरूपं दायिकं सम्यक्त्वम् । (३) क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वं प्रोच्यते-अनन्तानुवन्धिकषायचतुष्टय
अन्य प्रकार से सम्यक्त्व दश प्रकार का भी कहा गया है, जैसे(१) औपशमिक, (२) क्षायिक, (३) क्षायोपशमिक, (४) सास्वादन, और (६) वेदक। ये पांचों ही निसर्ग और अधिगम के भेद से दो दो प्रकारके होते हैं, इस प्रकार सम्यक्त्व के दश भेद हो जाते हैं।
(१) अनन्तानुवन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ, इन चार कषायों के उपशम ( सत्ता में स्थित रहने )के बाद मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय एवं सम्यक्त्वमोहनीय कर्म के सर्वथा उपशम से उत्पन्न हुआ जो तत्त्वरूचिरूप जीवका शुभ परिणामविशेष है वह औपशमिकसम्यक्त्व है। यह सम्यक्त्व उपशम श्रेणिवाले जीव के होता है ।
(२) अनन्तानुवन्धी आदि (७) सात प्रकृतियों के सर्वथा क्षय से जो जीव को शुभ परिणाम उत्पन्न होता है वह क्षायिक-सम्यक्त्व है २। (३) क्षायोपामिक-सम्यक्त्व का लक्षण इस प्रकार है--
બીજા પ્રકારે સમ્યક્ત્વ દશ પ્રકારના પણ કહેવામાં આવે છે. જેમ(1) भोपशभिड, (२) क्षायि, (3) क्षा५शभिर, (४) सास्वाइन, मने (५) વેદક. એ પાંચે નિસર્ગ અને અધિગમના ભેદથી બે બે પ્રકારના છે. એ રીતે સમ્યક્ત્વના દશ ભેદ થઈ જાય છે.
(૧) અનન્તાનુબન્ધી કે માન માયા અને લેભ, એ ચાર કષાયેના ઉપશમ (સત્તામાં સ્થિત રહેવું) પછી મિથ્યાત્વ મોહનીય, મિશ્રમોહનીય અને સમ્ય
ત્વ મોહનીય કર્મોના સર્વથા ઉપશમથી ઉત્પન્ન થયેલાં જે તત્વચિરૂપ જીવના શુભ પરિણામવિશેષ છે તે પથમિક–સમ્યકત્વ છે. આ સમ્યક્ત્વ ઉપશમ શ્રેણીવાળા જીવને થાય છે (૧).
(૨) અનંતાનુબ ધી આદિ ૭ સાત પ્રકૃતિના સર્વથા ક્ષયથી જે જીવને શુભ પરિણામ ઉત્પન્ન થાય છે તે ક્ષાયિક-સમ્યક્ત્વ છે (૨).
(૩) સાપશમિક સમ્યક્ત્વના લક્ષણ આ પ્રકારે છે –
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सम्यक्त्व - अध्य० ४. उ. १
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/ प्रकारान्तरैरपि सम्यक्त्वं द्विविधम्, यथा-नैश्वयिक- व्यावहारिकभेदाद् द्विविधम्, पौगलिका पौगलिकभेदाद् द्विविधम्, नैसर्गिकाधिगमिकभेदाद् द्विविधमिति । तत्र मिथ्यात्वक्षयोपशमादिजन्यं शुद्धात्मपरिणामविशेषरूपं नैश्वयिकं सम्यक्त्वम् । व्यावहारिकं तु कुदेवकुगुरुकुधर्मपरित्यागपूर्वकं निश्चितरूपेण सुदेवसुगुरुधर्मस्वीकरण रुचिरूपं तत्त्वार्थश्रद्धानादिकमपि ।
तथा -- अपनीतमिध्यात्वस्वभावसम्यक्त्वपुञ्जगतपुद्गलवेदनसमुत्थं क्षायोपशमिकं वेदकं च पौगलिकं सम्यक्त्वम् । अपौद्गलिकं तु पुलवेदनवर्जितं केवलजीवपरिणामरूपं क्षायिकसोपशमिकं च । नैसर्गिकमाधिगमिकं च सम्यक्त्वं प्रथमाध्ययने तृतीयोदेशे प्रागेव वर्णितम् ।
भाव- सम्यक्त्व का जो लक्षण कहा है वही नैश्चयिक - सम्यक्त्व का स्वरूप है । अर्थात् मिथ्यात्वकर्म के क्षयोपशमादिक से उत्पन्न हुआ आत्मा का शुभ अध्यवसायविशेष ही नैश्चयिक - सम्यक्त्व है । कुदेव, कुगुरु और धर्म का परिहार-त्याग-पूर्वक निश्चितरूप से खुदेव, सुगुरु और सुधर्म का स्वीकार करना, तथा रुचिरूप से तत्त्वार्थ का श्रद्धान करना आदि व्यवहार - सम्यक्त्व है । इसी प्रकार मिथ्यात्व स्वभाव जिस से दूर हो चुका है ऐसा जो सम्यक्त्वप्रकृति का पुंज है उसके भीतर रहे हुए पुलों के वेदनसे उत्पन्न हुआ जो क्षायोपशमिकसम्यक्त्व एवं वेदकसम्यक्त्व है वह पौगलिक - सम्यक्त्व है । उस पुल के वेदन से रहित केवल जीव के परिणामस्वरूप जो क्षायिक सम्यक्त्व और औपाक्षिक सम्यक्त्व है, वह अपौङ्गलिक - सम्यक्त्व है । नैसर्गिक और आधिगमिक सम्यक्त्वका वर्णन प्रथम अध्ययन के तीसरे उद्देश में किया जा चुका है ।
ભાવ-સમ્યક્ત્વનું જે લક્ષણ કહ્યું છે તે નૈૠયિક-સમ્યક્ત્વનું સ્વરૂપ છે. અર્થાત્ મિથ્યાત્વ કર્મના ક્ષાપશમાદિકથી ઉત્પન્ન થયેલ આત્માનું શુભ અધ્યવસાયવિશેષ જ નૈૠયિક-સમ્યકૃત્વ છે. કુદેવ, કુશુરૂ અને કુધર્મના પરિહારત્યાગ—પૂર્વક નિશ્ચિતરૂપથી સુદેવ, સુગુરૂ અને સુધના સ્વીકાર કરવા, તથા રૂચિરૂપથી તત્ત્વાર્થનું શ્રદ્ધાન કરવું આદિ વ્યવહાર–સમ્યક્ત્વ છે. આ પ્રકારે મિથ્યાત્વ સ્વભાવ જેનાથી દૂર થઇ ગયેલ છે એવા જે સમ્યક્ત્વ પ્રકૃતિના પુંજ છે એની અંદર રહેલા પુગલોના વેઢનથી ઉત્પન્ન થયેલા જે ક્ષાયેાપશમિક–સમ્યક્ત્વ તેમજ વેકસમ્યક્ત્વ છે તે પૌદ્ગલિક સમ્યક્ત્વ છે. એ પુદ્ગલના વેદનથી રહિત કેવલ જીવના પરિણામસ્વરૂપ જે ક્ષાયિક–સમ્યકૃત્વ અને ઓપશમિક-સમ્યકૃત્વ છે આ અપૌદ્ગલિક સમ્યકૃત્વ છે. નિસર્ગ અને અધિગમ સમ્યફ્ત્વનું વર્ણન પ્રથમ અધ્યયનના ત્રીજા ઉદ્દેશમાં કરવામાં આવેલ છે,
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आचारागसूत्रे आत्मपरिणामरूपस्य सम्यक्त्वस्यानावरकत्वादयं विशोधितपुद्गलपुजोऽप्युपचारतः सम्यक्त्वमुच्यते । सम्यक्त्वपुद्गलवेदनसमुद्भूतत्वादिदं सम्यक्त्वं पौद्गलिकम् । उदय में नहीं आया है-सिर्फ सत्ता में ही बैठा हुआ है, बस इसीका नाम सदवस्थारूप उपशम है, इसीको अनुदित अनुदय अवस्था भी कहते हैं। यहां पर जो मिथ्यात्व की अनुदयावस्था कही गई है वह निथ्यात्वके कुछ भाग की तथा मिश्रपुंजकी अपेक्षा को लेकर ही कही गई है, क्योंकि इनका यहां पर उदय नहीं है तथा सम्यक्त्वप्रकृतिका ही कितनेक अंश से उदय है। इसप्रकार उदित मिथ्यात्व के क्षय से और अनुदित उसी मिथ्यात्व के उपशम से और कितनेक सम्यक्त्व-कर्मके पुगलों के वेदन होनेसे यह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व उत्पन्न होता है। इस प्रकार से क्षायोपशामिक सम्यक्त्व का लक्षण सुघटित हो जाता है। __यह सम्यक्त्व आत्मपरिणामरूप सम्यक्त्व का अलावारक-आवरण करनेवाला नहीं होने से उपचार से सम्यक्त्व कहा गया है, क्योंकि इस सम्यक्त्वमें विशोधितपुदलपुंज का-सम्यक्त्व-प्रकृतिका उद्य है और उसीके उदयरूप वेदन से यह सम्यक्त्व हुआ है, इसलिये पुद्गलजनित होने से यह पौगलिक है। इस पौगलिक कार्य का जो सम्यक्त्व कहा गया है वह इसी हेतु से कि वह आत्मपरिणामरूप जो सम्यक्त्व है उसका आवरण नहीं करता है। જે હજુ સુધી ઉદયમાં આવેલ નથી ફક્ત સત્તામાં બેઠેલ છે, બસ એનું નામ સદવસ્થારૂપ ઉપશમ છે, એને અનુદિત–અનુદયઅવસ્થા પણ કહે છે. અહીંયા જે મિથ્યાત્વની અનુદયાવસ્થા કહેવાઈ છે તે મિથ્યાત્વના કેઈ ભાગની અને મિત્રપુજની અપેક્ષાએ કહેવાઈ છે કારણ કે એનો આ જગ્યાએ ઉદય નથી, તથા સચિકૃત્વપ્રકૃતિનો છેડા ભાગે ઉદય છે. આ પ્રકારે ઉદિત મિથ્યાત્વના ક્ષયથી, અને અનુદિત એજ મિથ્યાત્વના ઉપશમથી અને કેટલાક સમ્યક્ત્વકર્મના પુગલોના વેદન હોવાથી આ શાપથમિક સભ્યત્વ ઉત્પન્ન થાય છે. આ પ્રકારથી ક્ષાયોપથમિક સમ્યક્ત્વના લક્ષણ સુઘટિત થઈ જાય છે.
આ સમ્યક્ત્વ આત્મ–પરિણામરૂપ સમ્યકત્વના અનાવારક-ઓવર કરવા વાળાં નહિ-હોવાથી ઉપચારથી સમ્યક્ત્વ કહેવામાં આવેલ છે, કારણ કે આ સમ્યકત્વમાં વિવિપુગલjજને–સમ્યક્ત્વ પ્રકૃતિને ઉદય છે અને એના ઉદયરૂપ વેદનથી એ સમ્યક્ત થયેલ છે, માટે પુગલજન્ય હોવાથી આ પૌલિક છે, અને આ પોગલિક કાર્યને જે સમ્યક્ત્વ કહેલ છે તે આ હેતુથી કે તે આત્મપરિણામરૂપ જે સભ્યત્વ છે એનું આવરણ નથી કરતું.
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सम्यक्त्व - अध्य० ४. उ. १
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क्षयान्तरं मिथ्यात्वमोहनीयकर्मणां क्षयोपशमात् सम्यक्त्वमोहनीय कर्मणामुदयाच संजात आत्मपरिणामः क्षायोपशमिकसम्यक्त्वम् । तत्रेदमवगन्तव्यम् - यदुदीर्णमुदयमागतं मिथ्यात्वमोहनीयं कर्म, तद्धि विपाकोदयेन वेदितत्वात् क्षयं प्राप्तम् यच्च शेषसत्तायामनुदितं वर्तते, तदुपशान्तम् । उपशान्तं नाम - अनुदयावस्थापन्नम् । तत्र - मिथ्यात्वमिश्रपुञ्जावाश्रित्यानुदयावस्थापन्नं सम्यक्त्वपुञ्जमाश्रित्य तु अधिकांशतया उदीर्णावस्थापन्नम् । तदेवमुदितस्य मिथ्यात्वस्य क्षयेणानुदितस्य चोपशमेन सम्यतवकर्मपुद्गलानां कियताञ्चिद्वेदनेन च निर्वृत्तं = निष्पन्नं क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वमुच्यते ।
अनन्तानुबन्धी चार कषायों के क्षय के अनन्तर, मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के क्षयोपशम से, एवं सम्यक्त्वमोहनीय कर्म के उदय से जो आत्मा का परिणाम उत्पन्न होता है वही क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है, अर्थात् इस सम्यक्त्व में मिथ्यात्व के कुछ भागका क्षय हो जाता है और कुछ भागका उपशम रहता है, वह इस प्रकार से कि - मिथ्यात्व के जो सर्वघातिस्पर्द्धक हैं उनका तो उदयभावी क्षय ( उदय में आये हुए सर्वघातिस्पर्द्धकों का विना फल दिये ही खिर जाना ) हो जाता है, एवं उन्हीं के आगामी कालमें उदय आनेवाले निषेकों ( कर्म पुद्गलोंके रचनाविशेषों) का सवस्थारूप उपशम रहता है, और सम्यक्त्व प्रकृति जो देशघाती है उसका यहां पर उदय रहता है, अतः यहां पर मिथ्यात्वमोहनीय कर्म का जितना भी अंश उदय में आया है, वह तो विपाकरूप उदय से वेद लिया गया है, इसलिये उतने भाग का तो क्षय हो चुका है, एवं जो अवशिष्ट अवेदित भाग है कि जो अभी तक
અનંતાનુબંધી ચાર કષાયાના ક્ષયના અનન્તર મિથ્યાત્વ–મોહનીય કર્માંના ક્ષયેાપશમથી અને સમ્યક્ત્વ-મોહનીય કર્માંના ઉદયથી જે આત્માના પરિણામ-ભાવઉત્પન્ન થાય છે તે ક્ષાયેાપશમિક–સમ્યક્ત્વ છે. અર્થાત્ આ સમ્યક્ત્વમાં મિથ્યાત્વના કોઈ ભાગના ક્ષય થઈ જાય છે અને કાઈ ભાગના ઉપશમ રહે છે. તે એ પ્રકારથી કે મિથ્યાત્વના જે સઘાતી સ્પર્ષીક છે તેના તેા ઉડ્ડય—–ભાવી ક્ષય ( ઉર્જાયાગત સર્વઘાતિ સ્પરૢકોનું ફળ આપ્યા વિના તુટી જવું) થઈ જાય છે અને એના આગામી કાળમાં ઉડ્ડય આવવાવાળા નિષેકો ( કર્મ પુદ્ગલાના રચના વિશેષ ) ના સદવસ્થારૂપ ઉપશમ રહે છે અને સમ્યક્ત્વપ્રકૃતિ જે દેશઘાતી છે એના આંહી ઉત્ક્રય રહે છે, એટલે અહીંયા મિથ્યાત્વમાહનીય કર્મીના જેટલે પણ અંશ ઉયમાં આવ્યો તે તા વિપાકરૂપ ઉદયથી વેઢવામાં આવેલ છે જેથી એટલા ભાગના તે ક્ષય થઇ ગયેલ છે. અને જે અવશિષ્ટ અવેતિ ભાગ છે
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माचारातसूत्रे
सति मिथ्यात्वाभिमुखतयाऽनन्तानुवन्धिकषायोदयादौपशमिकसम्यक्त्वोपरि व्यलीकचिचस्य तत्सम्यक्त्वमुद्वमतस्तद्रसास्वादनं जवन्यतः समयमात्रे, उत्कर्षतच षडाबलिकायां भवति, तस्मादिदं सम्यक्त्वं सास्वादनमुच्यते । अस्मिन् सम्यक्त्वेऽनन्तातुवन्धिकषायोदय सत्त्वेनात्मपरिणामनैर्मल्याभावादव्यक्ता तत्त्वार्थानभिरुचिस्तिष्ठति, मिथ्यात्वे तु व्यक्ता, इत्येव तयोर्भेदः ।
यद्वा-इदं सासादननाम्नाऽपि निगद्यते । तत्र - आयम् = औपशमिकसम्यक्त्वलाभं सादयति=अपनयतीत्यासादनम् = अनन्तानुवन्धिकषायवेदनम् । तस्मिन् उसी प्रकार मिथ्यात्व के उदय होनेसे मिथ्यात्वप्राप्तिके सम्मुख हुआ जीव भी अनन्तानुवन्धी कषाय के उदय से जब औपशमिक सम्यक्स्वके ऊपर अरुचि - चित्तवाला होकर उसका वमन-त्याग कर देना है, अर्थात् —जब वह सम्यक्त्व उससे छूट जाता है, तब उसका आस्वादन भी उसे कमसे कम एक समय तक, और ज्यादा से ज्यादा छह आवलिकाल तक बना ही रहता है । इस कारण इस सम्यक्त्व को सास्वादनसम्यक्त्व कहा गया है | इस सम्यक्त्व में अनन्नानुवन्धी कषाय के उदद्य का सद्भाव होने से (क्रोधादिकों में से किसी एक के उदयका सद्भाव होने से) आत्मा के परिणामों में यथावत् निर्मलना-विशुद्धि का अभाव हो जाता है। इससे यहां तत्त्वार्थ के प्रति यद्यपि व्यक्त - प्रगट-रूप में अप्रीति - अरुचि नहीं है; फिर भी अव्यक्त रूपसे वह यहां है ही । इसीलिये तो मिथ्यात्व और सास्वादनमें इसी अप्रीति की व्यक्ताव्यक्तता से भेद माना गया है । વપ્ર,સિના સન્મુખ થયેલ જીવ પણ અનંતાનુંધી કષાયના ઉડ્ડયથી જ્યારે ઓપાનિક સભ્યત્વના ઉપર અગ્નિચિત્તવાળા થર્ડને એને વમન ત્યાગ કરે છે. અર્ધાત્ ત્યારે તે સમ્યક્ત્વ ઘટી જાય છે ત્યારે એવુ આસ્વાદન પણ એને આછામાં ઓછા એક સમય સુધી અને વધારેમાં વધારે દ–અવલિકાળ સુધી રહે છે. આ કારણે આ સભ્યશ્ર્વને સાસ્વાદન સમ્યકૃત્વ કહેવામાં આવેલ છે.
આ સમ્યક્ત્વમાં અન ંતાનુબ ધી કષાયના ઉદયને સદ્ભાવ હોવાથી ( ક્રોધ!વિકાસ થી કેઈ એકના ઉદયને! સદ્ભાવ હોવાથી) આત્માના પરિણામેામાં યથાવત્ નિર્મળતા શુિદ્ધિ તેમ અભાવ થઇ જાય છે, તેથી અહીંયા તત્ત્વાના પ્રતિ પિ ત પ્રગટ રૂપ. અપ્રીતિ-અરૂચી નથી; તે! પશુ અવ્યક્તરૂપથી તે અહીંયા છે જ, તેથી તે મિથ્યાત્વ અને સારાટમાં એ જ અપ્રીતિની વ્યક્તાઅકતાથી એક માનવામાં આવે છે.
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ. १
५१७. ननु क्षायोपशमिकसम्यक्त्वरयौपशमिकसम्यक्त्वात्को भेदः ? इति चेदुच्यतेक्षायोपशमिके मिथ्यात्वदलिकवेदनं विपाकतो नास्ति, प्रदेशतस्तु विद्यते । औपशमिके तुं प्रदेशतोऽपि नास्तीति विशेष इति ।
(४) अथ सास्वादनं सम्यक्त्वमुच्यते-आस्वादनेन-सम्यक्त्वरसास्वादनेन सह वर्तत इति सास्वादनम् । यथा-क्षीरान्नं भुक्त्वा तद्विपये चित्तविकारेण यदि कश्चित् तद्वमति, तदाऽसौ वमनकाले क्षीरानरसमास्वादयति, तथा मिथ्यात्वोदये
शंका--क्षायोपशमिक-सम्यक्त्व में और औपशभिक-सम्यक्त्व में क्या भेद है ? शंकाकारका अभिप्राय यहाँ पर इतना ही है कि जैसे क्षायोपशमिक-सम्यक्त्व में मिथ्यात्वका उदय नहीं है, उसी प्रकार से उपशनसम्यक्त्व में भी नहीं है। फिर इन दोनों में अन्तर क्या है ?
उत्तर--इन दोनों में अन्तर है और वह इस प्रकार से है कि क्षायोपशामिक सम्यक्त्व में मिथ्यात्वके दलियों का वेदन यद्यपि विपाकरूप से नहीं है परन्तु देशोदय से उनका बेदन वहाँ पर है ही। औपशभिक सम्यक्त्व में तो दोनों रूप से ही उनका बेदन नहीं है ।
(४) अब सास्वादनसम्यक्त्व का स्वरूप कहते हैं--
"सह-आस्वादनेन वर्तते इति सास्वादनम् ' अर्थात् जो सम्यक्त्वरूप रसके आस्वादन ले सहित हो उसका नाम सास्वादनसम्यक्त्व है। जैसे कोई व्यक्ति खीर खाकर पश्चात् चित्त में तविषयक विकार होनेपर वमन करता है उस समय में भी वह उसके रसास्वादका अनुभव करता है,
' શંકા-ક્ષાયોપથમિક-સમ્યકૃત્વમાં અને ઔપશમિક-સમ્યકૃત્વમાં છે ભેદ છે? શંકાકારને અભિપ્રાય આ ઠેકાણે એ છે કે જેવી રીતે લાપશમિક–સમ્યકૃત્વમાં મિથ્યાત્વને ઉદય નથી તેવી જ રીતે ઉપશમ–સમ્યક્ત્વમાં પણ નથી તે પછી એ બન્નેમાં ભેદ શું છે? . ઉત્તર—એ બનેમાં ભેદ છે અને તે આ પ્રકારે છે–ક્ષાપશમિક–સમ્યકત્વમાં મિથ્યાત્વના દલિયોનું વેદન છે, જો કે વિપાકરૂપથી નથી પરંતુ પ્રદેશદયથી એનુ વેદન ત્યાં છે જ ઔપશમિક–સમ્યક્ત્વમાં તે બને રૂપથી તેનું વેદન છે જ નહિ. (૩)
(४) वे सास्वाहन-सभ्यत्वन २१३५ ४ छ:
'सह आस्वादनेन वर्त्तते इति सास्वादनम् --मर्थात र सभ्यत्१३५२सना આસ્વાદનથી સહિત છે એનું નામ સાસ્વાદન-સમ્યક્ત્વ છે, જેમકે કઈ વ્યક્તિ દૂધપાક જમ્યા પછી ચિત્તમાં તવિષયક વિકાર થવાથી વમન કરે છે એ સમયમાં પણ તે એના રસાસ્વાદને અનુભવ કરે છે. આ પ્રકારે મિથ્યાત્વના ઉદયથી મિથ્યા
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१.
आचारागसूत्रे
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(५) वेदकसम्यक्त्वपुच्यते-वेदयति-अनुभवति सम्यक्त्वपुद्गलानिति वेदकोऽनुभविता, तदर्थान्तर्भूतत्वात् सम्यक्त्वमपि वेदकम् । सम्यक्त्वपुगलपुञ्जस्य बहुतरक्षपितस्य चामपुद्गलानां ग्राससमये वेदकसम्यक्त्वं भवति । तथाहि-क्षपकश्रेणिप्राप्तोऽन्तानुवन्धिकपायचतुष्टयमपि क्षपयित्वा मिथ्यात्वमिश्रपुद्गलपुञान् क्षपयति,
शमिकसम्यक्त्वसे पतित होकर मिथ्यात्वके सम्नुख होता है-(अभी मिथ्यात्व प्राप्त नहीं हुआ है किन्तु उसके सम्मुख ही हुआ है); सो जब तक यह जीव मिथ्यात्वरूपी भूमि को प्राप्त नहीं हुआ है, अर्थात्जब तक सम्यक्त्वरूपी पर्वत से गिर कर बीच में ही है, तब तक उस जीवका जो सम्यक्त्व है उसका नाम सासादन है ४।
(५) वेदकसम्यक्त्व का स्वरूप
वेदयतिअनुवति सम्यक्त्वपुद्गलान-इति वेदका अनुभविता, तदर्थान्तभूतत्वात् सम्यक्त्वमपि वेदकम् ।। ____ अर्थात्-सम्यक्त्वप्रकृति के पुद्गलों का जो अनुभव करनेवाला है, उसे बेदक-अनुभविता कहते हैं। उससे अभिन्न होनेसे सम्यक्त्व भी वेदक कहलाता है। राज्यक्त्वप्रकृति के जितने भी पुद्धलपुंज हैं, उनमें से अधिकतर पुनलपुंजों का क्षय हो चुकने पर बाकी जो चरमपुद्गलपुंज रहते हैं उनके प्रासके समीप (नष्ट करने के समय)में वह वेदकसम्यक्त्व होता है। क्षपकरेणीको पास हुआ जीव अनंतानुबंधिचतुष्टय ત્યારે એ જીવ ઔપથમિક - સમ્યક્ત્વથી પતિત થઈ મિથ્યાત્વની સન્મુખ થાય છે ( હજુ મિથ્યાત્વમા પ્રાપ્ત નથી થયે પણ એની સન્મુખ થયો છે) માટે જ્યાં સુધી એ જીવ મિથ્યાત્વરૂપી ભૂમિને પ્રાપ્ત નથી થયે, અર્થાત-જ્યાં સુધી સમ્યકૃત્વરૂપી પર્વતથી પડીને વચમાં જ છે તે સમય તે જીવનું જે સમ્યકૃત્વ છે તેનું નામ સાસદન છે (6)
(५) ३६४-सभ्यरत्यनु २५३५ ४ छे–'वेदयति अनुभवति सम्यक्त्वपुद्गलान् इति वेदका अनुभविता, तदर्थान्तर्भूतत्वात् सम्यक्त्वमपि वेदकम्'
' અર્થા–સમ્યકત્વઘકૃતિના પુદ્ગલેને જે અનુભવ કરવાવાળો છે, એને વેદક-અનુભવિતા કહે છે. એનાથી અભિન્ન હોવાથી સમ્યકત્વ પણ વેદક કહેવાય છે. સ ર્વપ્રકૃતિના જેટલા પણ પુગલપુંજ છે, એમાથી અધિકતર
લપુજને નાશ થયા પછી બાકી જે ચરમ પુદ્ગલ રહે છે એના ગ્રાસની સમીપ (નાશ કરવાના સમય)માં તે વેદ-સમ્યકત્વ થાય છે. ક્ષપકશ્રેણીને પ્રાપ્ત થયેલા જવ અનતાનુબ ધિ-ચતુષ્ટયનુ પણ ક્ષણ કરીને મિથ્યાત્વપ્રકૃતિ
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सम्यक्त्व-अध्य०४ उ. १ सति हि-अनन्तसुखदो निःश्रेयसतरुबीजभूत औपशमिकसम्यक्त्वलाभो जघन्यतः समयमात्रेण उत्कर्षतः षड्भिरावलिकाभिरपगच्छति।आसादनमित्यत्र पृषोदरादित्वाद् यकारलोपः, 'कृबहुल'-मिति कर्तर्यनट् । आसादनेन सह वर्तत-इति सासादनम् । अनन्तानुवन्धिकषायोदये सति औपशमिकसम्यक्त्वात् प्रपतन् मिथ्यात्वसंक्रमणाभिमुखः सन् यावत् मिथ्यात्वभूमिं न प्रामोति तदन्तराले वर्तमानस्य यत् सम्यक्त्वं तत् सासादनं भवति । ___ अथवा-यह सम्यक्त्व सासादन के नाम से भी कहा जाता है, अर्थात् इसका दूसरा नाम सासादनसम्यक्त्व भी है । 'आयं सादयतिअपनयतीत्यासादनम् ; आसादनेन सह वर्तते-इति सासादनम्' अर्थात्'आय' नाम औपशमिकसम्यक्त्वके लाभका है। उस लाभ को जो हटाता है, उसे आसादन कहते हैं । उसके सहित होने से वह सासादन कहा जाता है। इस सम्यक्त्व की प्राप्तिरूप लाभको हटानेवाला अनंतानुबंधी कषाय के उदयका वेदन ही है । क्यों कि इसके होने पर अनन्त सुखदाता और निश्रेयस-मोक्षरूप वृक्षका बीजरूप जो औपशमिक सम्यक्त्व है उसका लाभ-सद्भाव कम से कम एक समय तक और अधिक से अधिक छह आवलिकाल तक ही रह कर फिर दूर हो जाता है। इसका फलितार्थ यही है कि औपशमिकसम्यक्त्वमें जो अनंतानुबंधी कषाय का उपशम है वह अपने काल-अन्तर्मुहूर्त-तक ही रहता है। इसके बाद जब उस कषाय का उदय हो जाता है तब यह जीव औप
અથવા–આ સમ્યક્ત્વ સાસાદનના નામથી પણ કહેવામાં આવે છે. અર્થાત્ मेनु भी नाम सासाहन-सभ्यत्व पाए छे. 'आयं सादयति-अपनयतीत्यासादनम्, आसादनेन सह वर्त्तते इति सासादनम् ' अर्थात् 'आय' नाम सौपशभि सभ्यत्वना લાભનું છે. એ લાભને જે હઠાવે છે એને આસાદન કહે છે. એના સહિત હોવાથી તે સાસાદન કહેવાય છે.
આ સમ્યક્ત્વની પ્રાપ્તિરૂપ લાભને હઠાવવાવાળા અનંતાનુબંધી કષાયના ઉદયનું વેદન જ છે, કારણ કે આના હોવાથી અનઃ સુખ દેવાવાળા અને નિશ્રેયસ–મેક્ષ-રૂપ વૃક્ષના બીજસ્વરૂપ જે ઔપશમિક–સમ્યકત્વ છે એને લાભ– સદુભાવ ઓછામાં ઓછા એક સમય સુધી અને વધારેમાં વધારે છે આવલી કાળ સુધી રહીને પછી દૂર થઈ જાય છે. એને ફલિતાર્થ એ છે કે ઓપશમિક સમ્યકૃત્વમાં જે અનંતાનુબંધી કષાયને ઉપશમ છે તે પોતાના કાલ– અન્તર્મુહૂર્ત સુધી રહે છે. ત્યારબાદ જ્યારે એ કષાયને ઉદય થઈ જાય છે
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વરર
आचारागसूत्रे नन्वेवं सति वेदकस्य बायोपशमिकात् को भेद , सम्यक्सपुद्गलपुञ्जवेदनस्योभयत्रापि तुल्यत्वात् ? अत्रोच्यते-वेदके खलु सर्वोदितसम्यक्त्वपुद्गलपुजचरमग्रासवेदनम् , क्षायोपशमिकसम्यक्त्वकाले तु चरमग्रासवर्तिसम्यक्त्वपुद्गला अवशिष्टास्तिठन्ति, तेन तद्वर्जितपुद्गलानां वेदनं भवति, इति विशेषोऽवधारणीय इति। उक्तञ्च
शंका--यदि यही बात है कि इन दोनों सम्यक्त्वों में सम्यक्त्व प्रकृति के पुजों का वेदन होता है तो फिर वेदकसम्यक्त्वका क्षायोपशमिकसम्यक्त्वसे भेद ही क्या रहा ?
समाधान-वेदकसम्यक्त्व में सम्यक्त्वप्रकृति के चरमपुद्गलों का वेदन होता है, और क्षायोपशमिकसम्यक्त्व में इनसे अवशिष्टोंका। वस, यही इन दोनों में भेद है। इसी बात को “वेदके खलु सर्वोदितसम्यक्त्वपुद्गलपुचचरमग्रासवेदनम् , भायोपशनिकसम्यक्त्वकालेतु चरमग्रासवर्तिसम्यक्त्वपुद्गला अवशिष्टास्तिष्ठन्ति"। इन पंक्तियों में टीकाकारने स्पष्ट किया है । अर्थात्-वेदकसम्यक्त्व में सम्यक्त्वप्रकृतिके उदित हुए समस्त पुद्गलपुंजोंमेंसे सिर्फ चरमपासवर्ती पुद्गलों का वेदन होता है । क्षायोपशमिक-सम्यक्त्व के समय में तो उस चरमग्रासवर्ती पुद्गलपुंज से अवशिष्ट सम्यक्त्वप्रकृति के पुद्गलपुंजों का वेदन होता है। कल्पना कीजिये-सम्यक्त्वप्रकृति के समस्त पुलपुंजोंकी संख्या १०० है ।
શકા--જે એ વાત છે કે જ્યારે એ બને સમ્યમા સમ્યકત્વપ્રકતિના પુજેનું વેદના થાય છે તે પછી વેદક–સમ્યક્ત્વના ક્ષાપશમિક-સમ્યકત્વથી ભેદ જ શે રહ્યો?
સમાધાન––વેદક–સમ્યકત્વમાં સમ્યક્ત્વપ્રકૃતિના ચરમ પુગલનુ વેદના થાય છે, અને સાયોપશમિક-સમ્યફવમાં એનાથી અવશિષ્ણનુ વેદના થાય છે. બસ આજ આ બનેમાં ભેદ છે.
मा पातने “वेदके खलु सर्वोदितसम्यक्त्वपुद्गलपुञ्जचरमग्रासवेदनम् क्षायोपशमिकसम्यक्त्वकाले तु चरमग्रासवर्तिसम्यक्त्वपुद्गला अवशिष्टास्तिष्ठन्ति"
આ પક્તિઓમા ટીકાકારે સ્પષ્ટ કરી છે. અર્થાત વેદક–સમ્યક્ત્વમાં સમ્યકૃત્વપ્રકૃતિના ઉદિત થયેલ બધા મુદ્દગલjજેમાથી ફક્ત ચરમગ્રાસવર્તી પુદ્ગલોનુ જ વેદન થાય છે
લાયોપથમિક-સભ્યત્વના સમયમાં તે આ ચરમમાસવર્તી પુગલપુંજથી અવશિષ્ટ સમ્યક્ત્વ પ્રકૃતિના અવ્યવહિત પૂર્વવર્તી પુગલપુજેન વેદના થાય છે. કપના કરિયે કે સમ્યક્ત્વ-પ્રકૃતિના સમસ્ત પગલપુની સખ્યા ૧૦૦ છે.
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सम्यक्त्व - अध्य० ४. उ.
ततः परं सम्यक्त्वपुज्जमपि उदीयदीर्यानुभवेन निर्जरयति, तेनोदीरणीयसम्यक्त्वपुजाभावो जायते, तदेवं चरमग्रासेऽवतिष्ठमानेऽद्यापि सम्यक्त्वपुद्गलानां कियतापिवेद्यमानत्वात् वेदकं सम्यक्त्वमुपजायते । इदमपि सम्यक्त्वं पौगलिकं विज्ञेयम् ।
क्षायोपशमिकसम्यक्त्वी जीवः सम्यक्त्वमोहनीयपुञ्जस्याधिकांश क्षपयित्वा यदा सम्यक्त्वमोहनीयस्यान्तिमपुद्गलानां वेदनं करोति तदानीं जायमान आत्मपरिणाम वेदसम्यक्त्वमिति निष्कर्षः । वेदकसम्यक्त्व प्राप्त्यनन्तरं क्षायिकसम्यक्त्वं लभ्यत एव ।
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का भी क्षपण करके मिथ्यात्वप्रकृति और मिश्रप्रकृति के पुद्गलपुंजोंका जब क्षय कर देता है तब उसके बाद सम्यक्त्वप्रकृति के पुंजोंकी अपने अनुभव से उदीरणा करके निर्जरा करता है। ऐसा करने से उदीरणीयउदीरणा करने योग्य - सम्यक्त्वप्रकृति के पुंजों का अभाव हो जाता है । इस प्रकार अन्तिम ग्रास के रहने पर उस समय भी कितनेक अंतिम अंशवर्ती सम्यक्त्यप्रकृति के पुदलपुंजों का अनुभव होता है। इसका अनुभव करना ही वेदक - सम्यक्त्व है । यह सम्यक्त्व भी पौगलिक जानना चाहिये ।
इसका फलितार्थ यही है कि क्षायोपशमिक - सम्यक्त्ववाला जीव सम्यक्त्वमोहनीय कर्म के पुद्गलपुंजके अधिकांश भागका क्षय करके जब उसी सम्यक्त्वमोहनीय कर्म के अंतिम पुगलों का वेदन करता है उस समय में उत्पन्न होनेवाला आत्मपरिणाम वेदक- सम्यक्त्व है । वेदकसम्यकी प्राप्ति के बाद जीव क्षायिकसम्यक्त्व को प्राप्त कर ही लेता है । અને મિશ્રપ્રકૃતિના પુદ્ગલપુંજાના જ્યારે ક્ષય કરી નાખે છે ત્યારે પછી સમ્યક્ત્વ પ્રકૃતિના પુંજની પોતાના અનુભવથી ઉદીરણા કરીને નિરશ કરે छे. खेभ કરવાથી—ઉદીરણીય-ઉદીરણા કરવા ચૈાગ્ય સમ્યક્ત્વ પ્રકૃતિના પુંજના અભાવ થઇ જાય છે. આ પ્રકારે અન્તિમ ગ્રાસના રહેવાથી તે સમય પણ કેટલાક અતિમ અંશવર્તી સમ્યક્ત્વપ્રકૃતિના પુદ્ગલપુંજાના અનુભવ થાય છે. એના અનુભવ કરવા તે વેદ-સમ્યક્ત્વ છે. આ સમ્યક્ત્વ પણ પૌદ્ગसिङ भागवु हो.
આના ફિલતાથ એ છે કે ક્ષાાપશમિક સમ્યક્ત્વવાળા જીવ સમ્યકૃત્વમાહનીય કના પુદ્ગલપુંજના અધિકાંશ ભાગના ક્ષય કરીને જ્યારે એ સમ્યક્ત્વ-મેાહનીય કના અંતિમ પુદ્ગલાનું વેદન કરે છે તે સમયમાં ઉત્પન્ન થવાવાળા આત્મપરિણામ વેઢક-સમ્યક્ત્વ છે, વેદ્નક–સમ્યકત્વની પ્રાપ્તિ પછી ક્ષાયિક-સમ્યક્ત્વને જીવ પ્રાપ્ત કરી જ લે છે.
sa
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आचाराङ्गसूत्रे छाया-क्षीणे दर्शनमोहे, त्रिविधेऽपि क्षायिकं भवति सम्यक् (सम्यक्त्वम् ) ।
वेदकमिह सर्वोदित-चरमकपुद्गलग्रासम् ॥१॥ उपशमश्रेणिगतस्य तु, भवति हु औपशमिकं तु सम्यक्त्वम् । यो वा अकृतत्रिपुज्ज, अक्षपितमिथ्यात्वो लभते सम्यक् (सम्यक्त्वम्)॥२॥ उपशमसम्यक्त्वात् च्युत्वा मिथ्यात्वमप्राप्नुवतः । सास्वादनसम्यक्त्वं, तदन्तराले पडावलिकम् ॥३॥ मिथ्यात्वं यदुदीर्ण, तत्क्षीणमनुदितं चोपशान्तम् ।।
मिश्रीभावपरिणतं, वेद्यमानं क्षायोपशमम् (क्षायोपशमिकम् ) ॥४॥ इति। मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय और सम्यक्त्वमोहनीयरूप दर्शनमोहनीय कर्म के सर्वथा क्षय होने पर ही क्षायिक-सम्यक्त्व होता है, सब दित पुद्गलों में चरम-अन्तिम-अंशवी पुद्गलोंका वेदन होना वेदकसम्यक्त्व है ॥ १॥ उपशमश्रेणिप्राप्त जीवों को उपशमसम्यक्त्व का लाभ होता है। अथवा जिसने मिथ्यात्वकर्म के तीन पुंज नहीं किये हैं ऐसे मिथ्यादृष्टि जीव के, तथा जिसने मिथ्यात्वका क्षय भी नहीं किया है किंतु उसका उपशम किया है उस जीव के उपशमसम्यक्त्व होता है। मिथ्यादृष्टि जीवके ७ प्रकृतियों (अनन्तानुबन्धी ४, मिथ्यात्वमोहनीय५, मिश्रमोहनीय६, सम्यक्त्वमोहनीय ७) के उपशमसे उपशमसम्यक्त्व होता है; ऐसा सिद्धान्तकारों ने कहा है। ८वें ९वें १०वें और ११ वें गुणस्थानमें उपशमसम्यक्त्व होता है, क्यों कि ये उपशमश्रेणि के स्थान हैं । तथा अनादि-मिथ्यादृष्टि जीव
“મિથ્યાત્વમોહનીય, મિશ્રમોહનીય અને સમ્યક્ત્વમોહનીયરૂપ દર્શનમોહનીય કર્મને ક્ષય થયા પછી જ ક્ષાયિક–સમ્યક્ત્વ થાય છે, બધા ઉદિત પુદ્ગલેમા ચરમ-અન્તિમ-અશવન્ત પુદ્ગલેનું વેદના થવું વેદક–સમ્યકત્વ છે (૧) ' ઉપશમશ્રેણિપ્રાપ્ત જીવોને ઉપશમ-સમ્યક્ત્વને લાભ થાય છે. અથવા જેણે મિથ્યાત્વકર્મના ત્રણ પુંજ નથી કર્યા, એવા મિથ્યાષ્ટિ જીવને તથા મિથ્યાત્વને ક્ષય કર્યો નથી પણ તેને ઉપશમ કર્યો છે, એ જીવને ઉપશમ-સમ્યક્ત્વ થાય છે મિથ્યાષ્ટિ જીવની સાત ૭ પ્રકૃતિ (અનન્તાનુબંધી ૪, મિથ્યાત્વમેહનીય પ, મિશ્રમોહનીય ૬, સભ્યત્વમોહનીય ૭)ના ઉપશમથી ઉપશમસમ્યક્ત્વ થાય છે, એવું સિદ્ધાંતકારોએ કહ્યું છે. ૮ માં, ૯માં, ૧૦ માં અને ૧૧ માં ગુણસ્થાનમાં ઉપશમસમ્યક્ત્વ થાય છે, કારણ કે એ ઉપશમશ્રેણીનું સ્થાન છે. તથા અનાદિ
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ. १
"खीणे दंसणमोहे, तिविहम्मि वि खाइयं भवे सम्म । वेयगमिह सयोइय,-चरमिल्लयपुग्गलग्गासं ॥१॥ उवसमसेढिगयस्स उ, होइ हु उवसाभियं तु सम्मत्तं । जो वा अकयतिपुंजो, अखवियमिच्छो लहइ सम्मं ॥२॥ उवसमसम्मत्ताउ, चइउं मिच्छं अपावमाणस्स । सासायणसम्मत्तं, तयंतरालम्मि छावलियं ॥३॥ मिच्छत्तं जमुइन्न, तं खीणं अणुइयं च उवसंतं ।
मिस्सीभावपरिणयं, वेइज्जतं खओवसमं " ॥ ४॥ इति । इनमें से ९९ वेंतकके पुलपुंजोंका वेदन क्षायोपशमिकसम्यक्त्वमें होगा, अन्तिम १०० वें का वेदन वेदकसम्यक्त्व में। इस अन्तिम १०० वें का वेदन क्षायोपशमिक-सम्यक्त्वमें नहीं होगा ५। औपशमिकसम्यक्त्वादिकों का स्वरूप इन गाथाओं में भी संक्षेपरूप से इस प्रकार कहा हैगाथा-खीणे दंसणमोहे, तिविम्मि वि खाइयं भवे सम्म ।
वेयगमिह सव्वोइय,-चरमिल्ल्यपुग्गलग्गासं ॥१॥ उवसमलेढिगयस्स उ, होइ हु उवसामियं तु सम्मत्तं । जो वा अकयतिपुंजो, अखवियमिच्छो लहइ सम्मं ॥२॥ उवसमसम्मत्ताउ, चइड मिच्छं अपावमाणस्स। सासायणसम्मत्तं, तयंतरालम्मि छावलियं ॥३॥ मिच्छत्तं जमुइन्नं, तं खीणं अणुइयं च उवसंतं ।
मिस्सीभावपरिणयं, वेइज्जतं खओवसमं ॥४॥" इति। આમાંથી ૯૯ સુધીના પુદ્ગલપુંજનું વેદન ક્ષાપશમિક-સમ્યકત્વમાં થશે. અન્તિમ ૧૦૦ માનું વેદ વેદક-સમ્યક્ત્વમાં થશે (પ).
ઔપથમિક-સમ્યક્ત્વાદિકેનું સ્વરૂપ આ ગાથાઓમાં પણ સક્ષેપરૂપથી मा प्रशारे ४युछे:--
" खीणे दसणमोहे, तिविहम्मि वि खाइयं भवे सम्म । वेयगमिह सव्वोइय,-चरमिल्लयपुग्गलग्गासं ॥ १ ॥ उवसमसेढिगयस्स उ, होइ हु उवसामियं तु सम्मत्तं । जो वा अकयतिपुंजो, अखवियमिच्छो लहइ सम्मं ॥२॥ उवसमसम्मत्ताउ, चइउ मिच्छं अपावमाणस्स। सासायण-सम्मत्तं, तयंतरालम्मि छावलियं ॥ ३ ॥ मिच्छत्तं जमुइन्नं, तं खीणं अणुइयं च उवसंतं । मिस्सीभावपरिणय, वेइज्जं तं खओवसमं" ॥ ४ ॥ इति ॥
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आचारागसूत्रे प्रकारान्तरेणापि सम्यक्त्वस्य दशविधत्वं स्थानाङ्गादौ प्रतिवोधितम्, यथा(१) निसर्गरुचिः, (२) उपदेशरुचिः, (३) आज्ञारुचिः, (४) मूत्ररुचिः, (५) वीजरुचिः, (६) अधिगमरुचिः, (७) विस्ताररुचिः, (८) क्रियारुचिः, (९) संक्षेपरुचिः (१०) धर्मरुचिरिति ।
तत्र-निसर्गः स्वभावस्तेन रुचिर्जिनोक्ततत्त्वाभिलापरूपा यस्य स निसर्गरुचिः१ । उपदेशो गुर्वादिभिर्वस्तुतत्त्वकथनं, तेन रुचिर्यस्य स उपदेशरुचिः२। जो क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का लक्षण कहा है, वह भी सुघटित हो जाता है; कारण कि यहां पर मिथ्यात्वमोहनीय मिश्रमोहनीय और सम्यक्त्वमोहनीय प्रकृतियों के अनुदीर्ण पुंज उपशम-अवस्था में रहते हैं एवं उदीर्ण मिथ्यात्व का क्षय है, और सम्यक्त्व प्रकृति के दलोंका वर्तमान में उदय हो रहा है। __प्रकारान्तर से भी सम्यक्त्व दस प्रकार का है, वह स्थानाङ्ग आदि सूत्रों में वर्णित है, जैसे-(१) निसर्गरुचि, (२) उपदेशरुचि, (३) आज्ञारुचि, (४) सूत्ररुचि, (५) वीजरुचि, (६) अधिगमरुचि, (७) विस्ताररुचि, (८) क्रियारुचि, (२) संक्षेपरुचि, (१०) धर्मरुचि।।
निसर्ग नाम स्वभाव का है; स्वभाव से ही जिस जीव को जिनोक्त तत्त्वों में रुचि-अभिलाषा होती है उसके यह सम्यक्त्व होता है। अर्थात्-स्वभाव से ही जीव की रुचि जिसके द्वारा जिनकथित तत्त्वों में हुआ करती है वह निसर्गरुचि है (१)। गुर्वादिक के उपदेश से तत्त्वों में जो પણ સુઘટિત થઈ જાય છે, કારણ કે આ ઠેકાણે મિથ્યાત્વમોહનીય મિશ્રમોહનીય અને સમ્યક્ત્વમોહનીય પ્રકૃતિના અનુદીર્ણ પુંજ ઉપશમ અવસ્થામાં રહે છે, એવં ઉદણ મિથ્યાત્વને ક્ષય છે અને સમ્યક્ત્વપ્રકૃતિના દળિઓને વર્તમાનમાં उहय थाय छे.
પ્રકારાન્તરથી પણ સમ્યક્ત્વ દશ પ્રકારના છે, તે સ્થાનાંગ આદિ સૂત્રમાં पर्पित छ भ-(१) निसर्ग३थि, (२) उपदेश३थि, (3) माज्ञा३थि, (४) सूत्र ३थि, (५) भी।३थि, (6) अधिगम३थि, (७) विस्ता२३थि, (८) जिया३थि, (6) ५३थि, (१०) धर्म३थि.
નિસર્ગ નામ સ્વભાવનું છે; સ્વભાવથી જ જે જીવને જીત તોમાં રૂચિ-અભિલાષા થાય છે તેને આ સભ્યત્વ થાય છે અર્થાત–સ્વભાવથી જ જીવની રૂચિ જેના દ્વારા જિનધિત તમા થયા કરે છે, તે નિસર્ગરૂચિ છે (૧). ગુવાદિકના ઉપદેશથી તમા જે રૂચિ જીવને માટે પેદા કરવામાં આવે
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ. १
____ ५२५ ___ यन्मिथ्यात्वमुदीर्ण तत् क्षीणम् । यत् अनुदितम् अनुदीर्ण तन्मिथ्यात्वं, मिश्रीभावपरिणतं-मिश्रमोहनीयं, च शब्दात् सम्यक्त्वदलिकं यदनुदीर्णमनुदितं तदपि, उपशान्तम्, अनुदीर्णानुदितमिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वदलिकेतित्रयमुपशमावस्थमित्यर्थः । वेद्यमानम्-उदयावस्थां समापन्नं सम्यक्त्वदलिकं यत्र तत् भायोपशमिकं सम्यक्त्वमुच्यते, इत्यर्थः॥४॥ के सर्वप्रथम उपशमसम्यक्त्व होता है। यह जीव मिथ्यात्व कर्म के तीन पुंज नहीं करता है और न मिथ्यात्वका क्षय ही करता है ॥२॥ उपशमसम्यक्त्व से च्युत होकर मिथ्यात्व को नहीं प्राप्त हुए जीव के ही अन्तराल समय में कम से कम १ समय और अधिक से अधिक ६ आवलीकाल तक सास्वादन-सम्यक्त्व रहता है॥३॥ उदय प्राप्त मिथ्यात्व का नाश और अनुदित मिथ्यात्वका उपशम, इन दो अवस्थाओं से मिश्रित क्षायोपशमिक-सम्यक्त्व है॥४॥ ___ इस सम्यक्त्व में उदयप्राप्त मिथ्यात्वका विनाश-क्षय होता है और अनुदीर्ण मिथ्यात्व का क्षय नहीं है; किन्तु उसका परिणमन मिश्र प्रकृति के रूपमें है, और इसका यहां पर उपशम है। इसी प्रकार सम्यक्त्वप्रकृति का पुज भी जो अनुदीर्ण है वह भी उपशम अवस्था में है। यह बात भी श्लोकमें आये हुए 'च' शब्द से प्रकट है। अतः 'जोक्षय
और उपशम से उत्पन्न होता है, वह क्षायोपशमिक-सम्यक्त्व है' इस प्रकार મિથ્યાષ્ટિ જીવને સર્વ પ્રથમ ઉપશમસમ્યકત્વ થાય છે. આ જીવ મિથ્યાત્વ કર્મના ૩ ત્રણ પુંજ નથી કરતે, તેમજ મિથ્યાત્વને ક્ષય પણ નહિ. (૨) ઉપશમસમ્યક્ત્વથી જુદા પડી મિથ્યાત્વને નહિ પ્રાપ્ત થયેલ જીવને અંતરાળ સમયમાં ઓછામાં ઓછું ૧ એક સમય અને વધારેમાં વધારે ૬ છ આવલીકાળ सुधी सास्वाहन-सभ्यत्व २ छ. (3) - ઉદયપ્રાપ્ત મિથ્યાત્વને નાશ અને અનુદિત મિથ્યાત્વને ઉપશમ, એ બે અવસ્થાઓથી મિશ્રિત લાપશમિકસમ્યક્ત્વ છે. (૪).
આ સમ્યકત્વમાં ઉદયપ્રાપ્ત મિથ્યાત્વને વિનાશ-ક્ષય થાય છે, અને અનુદીર્ણ મિથ્યાત્વનો ક્ષય નથી, પણ એનું પરિણમન મિશ્રપ્રકૃતિના રૂપમાં છે, અને તેને અહીંયા ઉપશમ છે. આ પ્રકારે સમ્યક્ત્વપ્રકૃતિના પુંજ પણ જે અનુદીર્ણ છે તે પણ ઉપશમ અવસ્થામાં છે. આ વાત પણ લેકમાં આવેલ “ચ” શબ્દથી પ્રગટ છે, માટે “જે ક્ષય અને ઉપશમથી ઉત્પન્ન થાય છે, તે ક્ષયોપશમ–સમ્યક્ત્વ છે” એવી રીતે જે ક્ષાપશમિકસમ્યક્ત્વનું લક્ષણ કહ્યું છે, તે
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माचारात्सूत्रे
विहित विधिके अनुसार संयमका अनुष्ठान करना क्रिया है, इसमें जिस जीवकी रुचि होती है वह क्रियारुचि नामका सम्यक्त्व है ( ८ ) । संक्षेप नाम संग्रहका है, उसमें जो रुचि हो वह संक्षेपरुचि है । अर्थात्जिस जीवको विस्तृतरूपसे पदार्थपरिज्ञान नहीं है उसको संक्षेप में रुचि हुआ करती है । इसी अपेक्षा से इस सम्यक्त्व का नाम संक्षेपरुचि है । इस सम्यक्त्ववाला जीव जीवादिक पदार्थों में विस्ताररूप से रुचिसंपन्न नहीं होता; किन्तु संक्षेपरूप से ही उन्हें समझ कर उनमें दृढ़ आस्थावाला हो जाता है (९) । धर्मास्तिकायादिक जो अमूर्तिक पदार्थ हैं, उनमें अथवा श्रुत एवं धर्मादिकमें जीवको जिसके द्वारा रुचि होती है वह धर्मरुचि है (१०) । यद्यपि सम्यक्त्व आत्माका निजी गुण है, परन्तु इस दस प्रकार के सम्यक्त्व कथन में जो उसका जीव से भिन्न रूपमें जो कथन किया है वह इस बात की पुष्टि करता है कि गुण और गुणीमें कथंचित् भिन्नता और कथंचित् अभिन्नता है । द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा से गुण और गुणी अभिन्न हैं । पर्यायार्थिक नयकी विवक्षा से ये दोनों लक्षण, संख्या आदिकी अपेक्षा से भिन्न २ हैं । यह दशप्रकार के सम्यक्त्व का वर्णन हुआ (१०) ।
છે (૭) શાસ્ત્રવિહિત વિધિના અનુસાર સયમનુ જે અનુšાન કરવુ તે ક્રિયા છે, તેમા જે જીવની રૂચિ થાય તે ક્રિયારૂચિ નામનું સમ્યક્ત્વ છે (૮). સક્ષેપ નામ સગ્રહનુ છે એમા જેની રૂચિ હોય તે સક્ષેપરૂચિ છે. અર્થાત્ જે જીવને વિસ્તૃતરૂપથી પટ્ટા પરજ્ઞાન નથી તેને સક્ષેપમાં રૂચિ થયા કરે છે, એ અપેક્ષાથી એ સમ્યક્ત્વનું નામ સક્ષેપરૂચિ છે. આ સમ્યક્ત્વવાળા જીવ જીવાદિક પદાર્થોમા વિસ્તારરૂપથી રૂચિસ પન્ન નથી થતા; પણ સક્ષેપરૂપથી જ તેને સમઅને એમાં દૃઢ આસ્થાવાળા બની રહે છે (૯). ધર્માસ્તિકાયાદિક જે અમૂર્તિક પદ્મા છે એમાં, અથવા શ્રુત એમજ ધર્માદિકમાં જીવની જેના દ્વારા રૂચિ થાય છે તે ધર્માં રૂચિ છે (૧૦). યદ્યપિ સમ્યકૂલ આત્માને નિગુણ છે; પરંતુ આ દશ પ્રકારના સમ્યક્ત્વ કથનમાં તેનુ જીવથી ભિન્નરૂપમાં જે કથન કર્યું છે તે એ વાતની પુષ્ટિ કરે છે કે ગુણુ અને ગુણીમાં કથચિત્ ભિન્નતા અને કથ ચિત્ અભિન્નતા છે. વ્યાર્થિક નયની અપેક્ષાથી ગુણુ અને ગુણી અભિન્ન છે, પર્યાયાચિંક નયની વિવાી એ બન્ને લક્ષણ સંખ્યા આદિની અપેક્ષાથી ભિન્નભિન્ન છે. આ દશ પ્રકારના મમ્યકૂનું વર્ણન થયુ. ૧૦
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ. १
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"
आज्ञा=सर्वज्ञत्रीतरागवचनात्मिका, तत्र रुचिरभिलापो यस्य स आज्ञारुचिः ३ । सूत्रम् - आचाराङ्गादिकम् आवश्यक - दशवैकालिकादिकं च तेन रुचिर्यस्य स सूत्ररुचिः ४ | वीजमिव वीजं यदेकमप्यनेकार्थबोधजनकं वचः, तेन रुचिर्यस्य स बीरुचि: ५ | अधिगमेन - विशिष्टपरिज्ञानेन रुचिर्यस्य सः अधिगमरुचिः ६ । विस्तार:- सकलद्वादशाङ्गस्य नयैः पर्यालोचनम् तेन परिवर्धिता रुचिर्यस्य स विस्ताररुचिः ७ | क्रिया = यथाविधि संयमानुष्ठानं तस्यां रुचिर्यस्य स क्रियारुचिः ८ संक्षेपः संग्रहः, तत्र रुचिर्यस्य स संक्षेपरुचिः । विस्तरार्थपरिज्ञानाभावेन संक्षेपे रुचिर्भवति ९ । धर्मास्तिकाये श्रुतधर्मादौ वा रुचिर्यस्य स धर्मरुचिः १० । इह सम्यक्त्वस्य जीवभेदेन कथनं गुणगुणिनोः कथंचिदभेदोऽस्तीति बोधनार्थम् ।
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रुचि जीव के लिये पैदा करायी जाती है उसका नाम उपदेशरुचि है (२) सर्वज्ञ वीतराग प्रभुके वचनों में जो रुचि जीव को होती है उसे आज्ञारुचि कहते हैं (३) । आचाराङ्ग आदि अप्रविष्ट एवं आवश्यक, दश वैकालिक आदि अङ्गवाद्यों के द्वारा तत्त्वों में जीव की जो प्रीति-श्रद्धा कराई जाती है वह सूत्ररुचि नामका सम्यक्त्व है (४) । जिस प्रकार एक ही वीजसे अनेक फलों की उत्पत्ति हुआ करती है उसी प्रकार जिस एक वचन से अनेक पदार्थों की प्रतीति हो उसका नाम बीज है, उससे जिस जीवको तत्त्वों में रुचि जागृत होती है उसका नाम वीजरुचि है (५) । विशिष्ट ज्ञानको अधिगम कहते हैं, इसके द्वारा जिस जीवको तत्त्वों में रुचि होती है उसे अधिगमरुचि कहते हैं ( ६ ) । सम्पूर्ण नयोंके द्वारा सकल द्वादशांग का पर्यालोचन करना, इसका नाम विस्ताररुचि है । इस के द्वारा जीव की रुचि तत्त्वों में परिवर्धित कराई जाती है (७) । शास्त्र
છે તેનું નામ ઉપદેશચિ છે (ર). સર્વજ્ઞ વીતરાગ પ્રભુના વચનામાં જે રૂચિ જીવની થાય છે તેને આજ્ઞારૂચિ કહે છે (૩). આચારાંગ આદિ અગપ્રવિષ્ટ
એમ જ આવશ્યક, દશવૈકાલિક, આદિ અગબાહ્યો દ્વારા તત્ત્વામાં જીવની જે પ્રીતિ–શ્રદ્ધા કરાવામાં આવે છે તે સૂત્રરૂચિ નામનું સમ્યક્રૂત્વ છે (૪). જેવી રીતે એકજ ખીજથી અનેક લેાની ઉત્પત્તિ થાય છે એ પ્રકારે એક જ વચનથી અનેક પદાર્થોની જે પ્રતીતિ થાય તેનુ નામ ખીજ છે,તેનાથી જે જીવને તત્ત્વામાં રૂચિ જાગૃત થાય છે તેનુ નામ બીજરૂચિ છે (૫). વિશિષ્ટ જ્ઞાનને અધિગમ કહે છે. એના દ્વારા જે જીવને તત્ત્વામાં રૂચિ થાય છે એને અધિગમરૂચિ કહે છે. (^) સ પૂર્ણ નયેાના દ્વારા સકલ દ્વાદશાંગનું પર્યાલોચન કરવું તેનું નામ વિસ્તારરૂચિ છે, એના દ્વારા જીવની રૂચિ તત્ત્વામા પરિધિત કરવામાં આવે
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आवाराङ्गसूत्रे,
क्षयोपशमिकं जघन्यतः सकृत् उत्कृष्टतस्त्वसंख्यातवारम् । क्षायिकं तु प्रादुर्भूतं सन् पुनर्न प्रतिनिवर्तते । प्रादुर्भावानन्तरमविच्छेदेन सर्वदा तिष्ठति ।
(३) सम्यक्त्वस्यान्तरकालः ।
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औपशमिक - सास्वादन - क्षायोपशमिकसम्यक्त्वानां प्रत्येकमन्तरकालो जघ न्यतोऽन्तर्मुहूर्तम्, उत्कृष्टतस्तु देशोनार्द्धपुगलपरावर्तनकालः । वेदकस्याऽन्तरं न भवति, तदनन्तरं नियमतः क्षायिकसम्यक्त्वोत्पत्तेः संभवात् । क्षायिकसम्यक्त्वं साद्यनन्तं च, तस्य पुनर्निवृत्त्यभावादन्तरं न भवति ।
क्षायोपशमिक सम्यक्त्व जघन्यसे एक बार और उत्कृष्टसे असंख्यात बार उत्पन्न होता है । क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न होनेके बाद फिर निवृत्त नहीं होता । वह तो उत्पन्न होने के बाद अविच्छिन्नरूपसे सर्वदा रहता है। (३) सम्यक्त्वका अन्तरकाल
औपशमिक, सास्वादन, और क्षायोपशमिक सम्यक्त्वमें से प्रत्येक का विरहकाल जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ कम अर्धपुलपरावर्तनकाल प्रमाण है । वेदक - सम्यक्त्वमें विरहकाल संभवित नहीं है, क्यों कि इस सम्यक्त्व के अनंतर नियम से क्षायिक सम्यक्त्वका लाभ जीवको हो जाता है । क्षायिक - सम्यक्त्व में अंतरकाल नहीं है, कारण कि इसका सद्भाव होने पर जीव को मुक्तिका लाभ हो जाता है, इसी लिये यह सम्यक्त्व सादि और अनन्त है । एक बार समकित हो कर फिर छूट जाने पर फिर से उसकी प्राप्ति होने में जितना समय लगता है। उसका नाम विरह - काल है । वेदक- सम्यक्त्वमें विरह - कालका अभाव ક્ષાયિક સમ્યક્ત્વ ઉત્પન્ન થયા પછી ફરી નિવૃત્ત થતું નથી તે તે ઉત્પન્ન થયા પછી અવિચ્છિન્નરૂપથી સદા રહે છે.
(૩) સમ્યકૂર્તીનો અંતરકાલ
ઓપશમિક, સાસ્વાદન અને ક્ષાયેાપશમિક સમ્યકૂ, એ પ્રત્યેકના વિરહકાલ જઘન્ય અતર્મુહૂર્ત અને ઉત્કૃષ્ટ કાઈ ઓછુ અર્ધ પુદ્ગલપરાવત નકાળ પ્રમાણુ છે. વેઢક સમ્યક્ત્વમા વિરહકાળ સભવિત નથી, કારણ કે આ સમ્યકૃત્વની પછી નિયમથી ક્ષાયિક-સમ્યક્ત્વને લાભ જીવને થઈ જાય છે ક્ષાયિક સમ્યકૂમા અતરકાલ નથી, કારણ કે એના સદ્ભાવ થવાથી જીવને મુક્તિના લાભ વઈ ાય છે, તેથી આ સમ્યક્ત્વ સાદિ અને અનત છે એક વાર સમ્યક્ત્વ થઇને પછી જ્યારે તે છુટી ય છે ત્યારે ફરીથી તેની પ્રાપ્તિ થવામાં જેટલા સમય લાગે છે તેનુ નામ વિરહકાળ છે, વેદક-સમ્યક્ત્વમા વિરહકાળના અભાવ
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सम्यक्त्व-अध्य ४ उ. १
_____ ५२९ (१) सम्यक्त्वस्थितिः। सास्वादनसम्यक्त्वस्य स्थितिरेकसमयमात्रं जघन्यतः, उत्कर्षतस्तु पडावलिकाः, औपशमिकसम्यक्त्वस्य स्थितिजघन्योत्कृष्टा चान्तर्मुहूर्तम् । वेदकसम्यक्त्वस्य स्थितिजघन्योत्कृष्टा चैकसमयमात्रम् । क्षायोपशमिकसम्यक्त्वस्य जघन्या स्थितिरेकसमयमात्रम् , उत्कृष्टा तु किंचिदधिकषट्पष्टिसागरोपमा, क्षायिकसम्यक्त्वस्य स्थितिः सायपर्यवसितकालरूपा।
(२) सम्यक्त्वस्य प्रादुर्भावव्यवस्था !! एकभवमाश्रित्यौपशमिकसास्वादनसम्यक्त्वे जघन्यतः सकृदेव प्रादुर्भवतः। उत्कृष्टतस्तु पञ्चवारम् । वेदकसम्यक्त्वं जघन्यत उत्कृष्टतश्चैकवारं प्रादुर्भवति ।
(१) सम्यक्त्वकी स्थिति । सास्वादन सम्यक्त्वकी स्थिति जघन्य एक समय मात्र और उत्कृष्ट छह ६ आवलिका प्रमाण है, औपशमिक और वेदक सम्यक्त्वकी स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की है।क्षायोपशमिक सम्यक्त्वकी जघन्य एकसमयमात्र उत्कृष्ट कुछ अधिक ६६ छासठ सागर प्रमाण है, और क्षायिक सम्यक्त्वकी स्थिति सादि अनंत है।
(२) सम्यक्त्वकी उत्पत्तिकी व्यवस्थाएक भवकी अपेक्षा औपशमिक सम्यक्त्व और सास्वादन सम्यक्त्व जघन्यसे एक वार ही उत्पन्न होते हैं और उत्कृष्टसे पांच बार। वेदक सम्यक्त्व उत्कृष्टसे और जघन्य से एक ही बार उत्पन्न होता है।
(१) सभ्यत्पनी स्थिति સાસ્વાદન સમ્યક્ત્વની સ્થિતિ જઘન્ય એક સમય માત્ર અને ઉત્કૃષ્ટ છ આવલિકા પ્રમાણ છે. ઔપશમિક અને પ્રેરક સમ્યક્ત્વની સ્થિતિ જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટ અનર્મદની છે. ક્ષાયોપથમિક-સમ્યક્ત્વની જઘન્ય એકસમયમાત્ર, ઉત્કૃષ્ટ કાંઈ અધિક ૬૬ છાસઠ સાગર પ્રમાણ છે, અને ક્ષાયિક–સમ્યક્ત્વની સ્થિતિ સાદિ અનંત છે.
(૨) સમ્યત્વની ઉત્પત્તિની વ્યવસ્થા એક ભવની અપેક્ષાએ પશમિક સમ્યફત્વ અને સાસ્વાદન સમ્યક્ત્વ જઘન્યથી એક વાર જ ઉત્પન્ન થાય છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી પાંચ વાર. વેદક સભ્ય કૃત્વ ઉત્કૃષ્ટથી અને જઘન્યથી એક જ વાર ઉત્પન્ન થાય છે. શ્રાપથમિક સમ્યક્ત્વ જઘન્યથી એક વાર અને ઉત્કૃષ્ટથી અસંખ્યાતવાર ઉત્પન્ન થાય છે.
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आचारास्त्रे मिथ्यात्व है। सम्यक्त्वी जीवके इसका अभाव है।
सम्यक्त्वके होने पर श्रुतश्रवण की अभिलाषा, श्रुतधर्मके प्रति अनुराग और चारित्रधर्मके प्रति अनुराग, एवं चतुर्विध संघ की वैयावृत्ति करनेका नियम जीवके जागृत होता है। इनमें आगे २ के प्रति पूर्व २ को कारणता है, अर्थात् श्रुतधर्मका अनुराग जीव के तब ही जागृत हो सकेगा जब उसके अन्तरंगमें श्रुतश्रवणकी इच्छा होगी, श्रुतश्रवणेच्छा के विना श्रुतमें अनुराग नहीं हो सकता, जब सद्गुणों में अनुराग है तो यह श्रुतभक्तिरूप कार्य श्रुतश्रवणने विना नहीं हो सकता, श्रुतश्रवण नी बिना इच्छा के संभावित नहीं । श्रुतधर्मके अनुरागके प्रति श्रुतश्रवण की वाञ्छा कारण है। चारित्रधर्मके प्रति अनुराग भी जीवको तब ही होगा जब उसके अन्तरंग में श्रुतधर्मका अनुराग होगा ।श्रुतातुराग का अभिप्राय यही है कि शास्त्रप्रतिपादित मार्ग पर दृढ़ आस्था। इस मार्ग पर दृढ़ आस्थावाला जीव ही चारित्रधर्मका स्वयं आराधन करनेवाला, अथवा उसके धारक मुनियों के प्रति अनुरागी बनता है, अनास्थावाला नहीं, अतः चारित्रधर्मके अनुराग का कारण श्रुतानुराग ही है । चारित्र धर्म में जब तक अनुराग नहीं होगा तब तक यह जीव किसी प्रकार भी चतुर्विध संघ की सेवा करने का नियमकर्ता नहीं हो सकता; अतः उन કરણ મિથ્યાત્વ છે. સમ્યફવી જીવને એને અભાવ છે
- સભ્યત્વના હોવાથી શ્રુતપ્રવાહની અભિલાષા, ધૃતધર્મ પ્રતિ અનુરાગ અને ચરિત્રધર્મ પ્રતિ અનુરાગ એમજ ચતુર્વિધ સંઘની વૈયાવૃત્તિ કરવાનો ન્યિ જીવને જાગૃત થાય છે. એમાં આગળ૨ ન. પ્રતિ પૂર્વ નાં કારણતા છે. અર્થાત્ કુતધર્મને અનુરાગ જીવને ત્યારે જ જાગૃત થાય છે. જ્યારે એના અંતરંગમાં
તાવરની ઇરછા થાય છે. શ્રુતવણેછા વિના ધુતમાં નુરાગ થઈ જ શકતું નથી. ત્યારે ગુણેમાં અનુરાગ છે તે એ શ્રુતલક્તિરૂપ કાર્ય કૃતશવ વિના નથી થતું. કુતશ્રવ પણ વગર વ સલવિત નથી. કૂતધર્મના અનુરાગની પ્રતિ કુતવણની ઈચ્છા કારણે છે. ચરિત્રધર્મના પ્રતિ અનુરાગ પણ જીવને ત્યારે જ થશે જ્યારે એના અંતરંગાના અતધર્મને અનુર. ડય. કુતાનુરાગને અભિપ્રાય એ છે કે શાસપ્રતિપાદિત માર્ગ પર ટક -રાવાઈ જીવ જ ચરિત્રધનું વય રાધન કરવાવાળા, અથવા એના ધાક સુનિયોની પ્રતિ નુરાગી બને છે. અનાસ્થાવ.. નહિ. માટે ચારિત્ર ધર્મના અનુરાવાનું કારણ શુતાનુરાગ જ છે. ચારિત્રધાન ત્યા સુધી અનુરાગ નહિ થાય ત્યાં સુ એ જીવ કે ઈ પ્રકારે પણ તુવિધ સઘની સેવા કરવાને નિય
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ. १
५३१ (४) सम्यक्त्वस्य फलम्सम्यक्त्वे सति-असद्ग्रहः आप्तवचनवाधितार्थेषु पक्षपातो न भवति। असद्ग्रह प्रति मिथ्यात्वोदयस्य कारणत्वात् सम्यक्त्वस्य मिथ्यात्वक्षयोपशमजन्यत्वेन सम्यक्त्वसद्भावकाले मिथ्यात्योदयाभावात् ।
सम्यक्त्वे सति श्रुतश्रवणवाञ्छा, श्रुतचारित्रधर्मरागः, चतुर्विधतीर्थवैयावृत्त्यनियमश्च भवति । एपामुत्तरोत्तरं प्रति पूर्वपूर्वस्य हेतुत्वं बोध्यम् । है, क्यों कि वेदक-सम्यक्त्व होने पर उसके बाद फिर क्षायिक-सम्यक्त्व होता है, वेदक-सम्यक्त्व नहीं । वेदक-सम्यक्त्वके छूटने पर यदि वेदकसम्यक्त्व की प्राप्ति फिर से होती तो विरहकाल वहां संभवित होता। इस प्रकार क्षायिक-सम्यक्त्वके होने पर जीव अपनी स्थिति को पूर्ण कर मुक्ति स्थानका ही स्वामी बन जाता है, अतः एक बार क्षायिक सम्यक्त्वके होने पर फिर उसी जीवको क्षायिक-सम्यक्त्वकी प्राप्ति नहीं करनी पड़ती। अतः यहाँ पर भी विरहकाल संभावत नहीं।
(४) सम्यक्त्वका फलसम्यक्त्वके होते ही जीव कदाग्रहसंपन्न नहीं होता है। उसकी दृष्टि-श्रद्धा आप्तवचन से अबाधित पदार्थों में अनुरागवाली होती है, इनसे भिन्न पदार्थों में नहीं। क्योंकि कदाग्रह का कारण मिथ्यात्व का उदय बतलाया है और मिथ्यात्व के क्षयोपशमादिसे सम्यक्त्व उत्पन्न होता है। सम्यक्त्वके होने पर मिथ्यात्वका अभाव हो जाता है । कारण के अभावमें कार्य का अभाव सुतरां सिद्ध ही है । कदाग्रह का कारण છે; કારણ કે વેદક-સમ્યક્ત્વ થયાં પછી ક્ષાયિક-સમ્યકત્વ થાય છે, વેદક-સમ્યફત્વ નહિ. વેદક-સભ્યત્વના છુટ્યા પછી જે વેદક–સમ્યક્ત્વની ફરીથી પ્રાપ્તિ થતી હોત તે વિરહકાળ ત્યાં સંભવિત થાત. એ પ્રકારે ક્ષાયિક સમ્યક્ત્વ થયા પછી જીવ પિતાની સ્થિતિને પૂર્ણ કરીને મુક્તિસ્થાનને સ્વામી બની જાય છે. તેથી એક વાર ક્ષાયિક-સમ્યક્ત્વ થતાં તે જ જીવને પછીથી ક્ષાયિક-સમ્યક્ત્વની પ્રાપ્તિ કરવી પડતી નથી, માટે આ ઠેકાણે પણ વિરહકાળ સંભવિત નથી."
__ (6) सभ्यश्त्यनु इस સમ્યક્ત્વ થવાથી જીવ કદાઝહસંપન્ન થતો નથી, એની દષ્ટિ–શ્રદ્ધા આપ્ત વચનથી અબાધિત પદાર્થોમાં જ અનુરાગવાળી થાય છે, એથી ભિન્ન પદાર્થોમાં નહિ. કેમ કે કદાગ્રહનું કારણ મિથ્યાત્વને ઉદય બતાવ્યું છે, અને મિથ્યાત્વના ઉપામાદિથી મ્યક્ત્વ ઉત્પન્ન થાય છે. સમ્યક્ત્વના હોવાથી મિથ્યાત્વને અભાવ થઈ જાય છે. કારણના અભાવમાં કાર્યનો અભાવ સ્વતઃ સિદ્ધ છે. કદાગ્રહનું
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आचाराङ्गसूत्रे __ अनोच्यते-मिथ्यात्वक्षयोपशमावसरे ज्ञानावरणीयानन्तानुवन्धिकषायरूपचारित्रमोहनीयादिकर्मणामपि भयोपशमो भवतीति कृत्वा सम्यक्त्वे सति श्रुतश्रवणेच्छादयो भवन्तीत्युच्यते । यथा केवलज्ञानावरणक्षयजन्यमपि केवलज्ञानं चारित्रमोहनीयांशकवायक्षये सत्येव भवतीति । यथा वा मिथ्यात्वक्षयोपशमलभ्यमपि सम्यक्त्वमनन्तानुवन्धिकपायरूपचारित्रमोहनीयोदये सति न लभ्यते । उक्तञ्चउपयुक्त प्रतीत होता है। निष्कर्ष यही है कि श्रुतश्रवणेच्छादिकों को सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रका ही फल मानना चाहिये, सम्यक्त्व का नहीं। __ समाधान--शङ्काकारकी शङ्का ठीक नहीं । कारण कि जिस समय मिथ्यात्वका क्षयोपशम होता है उस समय ज्ञानावरणीय और अनन्तानुबंधिकषायल्प चारित्रमोहनीयादिक कर्मों का भी क्षयोपशम होता है । इसी ध्येय को लेकर-'सम्यक्त्व के होने पर श्रुतश्रवणेच्छादिक होते हैं। ऐसा कहा गया है। जैसे-केवलज्ञान, केवलज्ञानावरणके क्षय से उत्पन्न होता है, परन्तु जब तक चारित्रमोहनीय कर्म के अंश-भेदस्वरूप कषायों का क्षय नहीं होता तब तक केवलज्ञानकी उत्पत्ति नहीं होती, अतः केवलज्ञान की उत्पत्ति इनके क्षय होने पर ही होती है। इसी प्रकार सम्यक्त्व भी यद्यपि मिथ्यात्वके क्षयोपशम से ही होता है, परन्तु जब तक अनंतानुबंधिकषायल्प चारित्रमोहनीयका उदय बना रहता है तब तक यह प्राप्त नहीं हो सकता है। માનવુ ઉપયુકત પ્રતીત થાય છે. નિષ્કર્ષ એ છે કે શ્રુતશ્રવણેદિકોને સમ્યગુજ્ઞાન અને સભ્યશારિત્રનું જ ફળ માનવુ જોઈએ, સમ્યક્ત્વનું નહિ
સમાધાન–શકાકારની શંકા ઠીક નહિ, કારણ કે જે વખતે મિથ્યાત્વને પશમ થાય છે તે વખતે જ્ઞાનાવરણીય અને અન તાનુબ ધિકવાયરૂપ ચારિત્ર મોહનીયાદિક કર્મોને પણ ક્ષય થાય છે
એ ધ્યેયને લઈને જ-સમ્યક્ત્વના થવાથી શ્રુતશ્રવણેચ્છાદિક થાય છે”એવું કહેવામા આવ્યુ છે જેવી રીતે કેવળજ્ઞાન કેવળ જ્ઞાનાવરણના ક્ષયથી ઉત્પન્ન થાય છે, પરંતુ ત્યા સુધી ચારિત્રમોહનીય કર્મના અંશ–ભેદ-સ્વરૂપ કષાયોનો ક્ષય નથી થતો ત્યાં સુધી કેવળજ્ઞાનની ઉત્પત્તિ નથી થતી, માટે કેવળજ્ઞાનની ઉત્પત્તિ એનો ટાય થવાથી જ થાય છે એવી જ રીતે સન્યત્વ પણ યદ્યપિ મિથ્યાત્વના
યોપશમથી જ થાય છે, પરંતુ ત્યા સુધી અને તાનુબંધકવાયરૂપ ચારિત્ર મેનીયન ઉદય બન્યું રહે છે ત્યા સુધી તે પ્રાપ્ત થતું નથી
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उं. १
नन्वसद्ग्रहस्य मिथ्यात्वोदयजन्यत्वेन सम्यक्त्वे सति तत्क्षयोपशमादस्तु तदभावः, किंतु श्रुतश्रवणेच्छादीनां ज्ञानचारित्रांशरूपत्वेन ज्ञानावरणीयचारित्रमोहनीयवीर्यान्तरायकर्मक्षयोपशमजन्यत्वात् कथं सम्यक्त्वफलरूपत्वं तेषाम् ? इति चेत् , की सेवा आदि करनेरूप नियम के प्रति चारित्रधर्मका अनुराग ही कारण होता है।
शङ्का--माना कि असद्ग्रह के मिथ्यात्वोदयजन्य होने से मिथ्यात्व के क्षयोपशम से उस असद्ग्रहका अभाव हो जाता है, परन्तु श्रुतश्रवणेच्छा वगैरह जो ज्ञान और चारित्रके अंशरूप हैं, इन्हें सम्यक्त्व का फल कैसे माना जा सकता है ? कारण कि इनके रोधक ज्ञानावरणीय, चारित्रमोहनीय और वीर्यान्तर कर्म हैं, इनके क्षयोपशम से उनका प्रादुर्भाव होता है, अतः श्रुतश्रवणेच्छा बगैरह को सम्यक्त्वका फल न मानकर ज्ञानावरणीय आदि क के क्षयोपशमकाही फल मानना चाहिये।
विशेषार्थ--शङ्काकारका अभिप्राय यह है कि श्रुतश्रवणेच्छा मिथ्यात्व के क्षयोपशमादिसे नहीं होती है; किन्तु वह श्रुतज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशमसे ही जीव को होती है । श्रुतज्ञानावरणीय कर्म ज्ञानावरणीय कर्म का एक भेद है। चारित्रधर्मके प्रति जीवका अनुराग भी चारित्रमोहनीय कर्म के क्षयोपशमाधीन है, अतः इसे भी सम्यक्त्व का फल न मान कर चारित्रमोहनीय के क्षयोपशम का ही फल मानना મર્તા નથી થતો. માટે એની સેવા કરવારૂપ નિયમની પ્રતિ ચારિત્રધર્મને અનુરાગ જ કારણ રૂપ થાય છે.
કામાન્યું કે અસદુગ્રહ મિથ્યાત્વોદયજન્ય હવાથી મિથ્યાત્વના ક્ષપશમથી એ અસગ્રહને અભાવ થઈ જાય છે. પરંતુ શ્રતશ્રવણેચ્છા વિગેરે જે જ્ઞાન અને ચારિત્રના અંશરૂપ છે એને સમ્યક્ત્વનું ફળ કેવી રીતે માનવામાં આવે? કારણ કે એના રોધક જ્ઞાનાવરણીય ચારિત્રમોહનીય અને વીર્યાન્તરાય કર્મ છે. એના ક્ષપશમથી એને પ્રાદુર્ભાવ થાય છે. માટે શ્રુતશ્રવણેછા વિગેરેને સમ્યક્ત્વનું ફળ ન માનીને જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મોના ક્ષાપશમનું જ ફળ માનવું જોઈએ.
વિશેષાર્થ–શંકાકારને એ અભિપ્રાય છે કે શ્રુતશ્રવણેચ્છા મિથ્યાત્વના ક્ષોપશમાદિથી નથી થતી કિન્તુ તે મૃત જીવને જ્ઞાનાવરણીય કર્મના ક્ષપશમથી જ થાય છે. શ્રુતજ્ઞાનાવરણીય કર્મ જ્ઞાનાવરણીય કર્મને એક ભેદ છે. ચારિત્રધર્મની પ્રતિ જીવને અનુરાગ પણ ચારિત્રમોહનીય કર્મના ક્ષપશમાધીન છે. માટે એને સમ્યક્ત્વનુ ફળ ન માનીને ચારિત્રમેહનીયના ક્ષાપશમનું જ ફળ
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आधाराङ्गसूत्रे " पढमिल्लयाण उदये नियमा, संजोयणा कसायाणं ।
सम्मइंसणलं , भवसिद्धिया वि न लहंति " ॥ इति । छाया-"प्राथमिकानामुदये नियमात् संयोजना केपायाणाम् ।
सम्यग्दर्शनलाभ, भवसिद्धिका अपि न लभन्ते ॥ १॥ ननु वैयावृत्यनियमस्य तपःमभेदत्वेन चारित्रांशरूपखात् सम्यक्त्वे सति चावश्यंभावादविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानं विलुप्येत ? इति चेत् , न,का क्षयोपशम नहीं होता, नय तक मिथ्यात्व का क्षयोपशम नहीं हो सकता। इसी लिये मिथ्यात्वके क्षयोपशमके अवसर में अनंतानुबंधी कपायका क्षयोपशम अपेक्षणीय होता है । निष्कर्ष-श्रुतश्रवणेच्छादिकों का अव्यवहित-मुख्य-कारण सम्यग्दर्शन ही है, अतः ये उसके ही फल स्वरूप से यहां प्रकट किये गये हैं। कहा भी है
"पडमिल्लयाण उदये, नियमा संजोयणा कसायाणं।
सम्मइंसणलंभं, भवसिद्धिया विन लहंति" ॥१॥ इति । शङ्का-वैयावृत्यनियम को आपने सम्यक्त्व का फल कैसे कह दिया ? कारण कि वह तो अंतरंग चारित्रका एक भेद है। यदि इस वैयावृत्त्य नियमों का सम्यक्त्व के होने पर अवश्यंभाव माना जावे तो फिर अविरतसम्यग्दृष्टि नामका चतुर्थे गुणस्थान ही नहीं बन सकता, कारण कि इस अवस्था में भी आंशिक रूपसे चारित्रका सद्भाव इस मान्यता से सिद्ध हो जाता है।
એથી મિથ્યાત્વના ક્ષયોપશમન અવસરમાં અનતાનુબ ધી કષાયને ક્ષપશમ અપેક્ષણય થાય છે. નિષ્કર્ષ–યુતશ્રવણેચ્છાદિકોનું અવ્યવહિત-મુખ્ય-કારણ સમ્યગ્દર્શન જ છે, માટે એ એના જ ફલસ્વરૂપથી અહીંયા પ્રગટ કરવામાં આવેલ છે કહ્યું પણ છે–
• पढमिल्लुयाण उदये, नियमा संजोयणा कसायाणं । ___ सन्मईसणलंभ, भवसिद्धिया वि न लहंति" |॥ १ ॥ इति ।
શકા–વૈયાવૃચ નિયમને આપે સમ્યક્ત્વનું ફળ કેવી રીતે કહ્યું, કારણ કે તે તે અન્તરંગ ચારિત્રને એક ભેદ છે. યદિ સમ્યકત્ર થવાથી એને અવથંભાવ માનવામા આવે તો પછી અવિરતસમ્યગ્દષ્ટિ નામનું ચતુર્થ ગુણસ્થાન બની શકતું નથી, કારણ કે આ અવસ્થામાં પણ આશિક રૂપથી ચરિત્રને સદ્ભાવ આ માન્યતાથી સિદ્ધ થાય છે.
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ. १
विशेषार्थ-कारण दो प्रकारके हुआ करते हैं-एक संनिकट-कारण दूसरा व्यवहित-कारण, संनिकट-कारण को मुख्य कारण और व्यवहित कारण को गौण कारण भी कहते हैं। प्रकृतमें श्रुतश्रवणेच्छादिकों का मुख्य कारण सम्यग्दर्शन ही है, क्यों कि विना सम्यग्दर्शन के इनका सद्भाव नहीं हो सकता, सम्यग्दर्शन के होने पर ही ये होते हैं, इसी लिये ये सम्यग्दर्शन के फलरूप से कहे गये हैं। " एक कार्य के अनेक कारण भी होते हैं, परन्तु जो मुख्य होता है वही प्रधान माना जाता है।" इस नीतिके अनुसार भले ही श्रुतश्रवणेच्छादिकों का कारण ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का क्षयोपशम भी हो, परन्तु ये सब व्यवहित कारण हैं । दृष्टान्त के लिये-केवलज्ञानकी प्राप्तिका मुख्य कारण केवल ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय ही है, परन्तु जब तक मोहनीय कर्मका क्षय नहीं होता, तब तक केवलज्ञानावरणीय कर्मका क्षय नहीं हो सकता।
" खीणमोहस्सणं अरहओ तओ कम्मंसा जुगवं खिज्जंति, तं जहा -नाणावरणिज्जं, दसणावरणिज्जं, अंतराइयं" (स्था. स्था. ३ उ. ४) । यही बात इस सूत्र में प्रगट की गई है । इसी तरह सम्यग्दर्शन भी मिथ्यात्व के क्षयोपशम से होता है, परन्तु जब तक अनंतानुबंधी कषाय
વિશેષાર્થ –કારણ બે પ્રકારે થયા કરે છે એક સંનિકટ-કારણું, બીજું વ્યવહિત-કારણ. સનિકટ-કારણને મુખ્ય કારણ અને વ્યવહિત કારણને ગૌણ કારણ પણ કહે છે. પ્રકૃતમાં શ્રુતશ્રવણેચ્છાદિકોનું મુખ્ય કારણ સમ્યગદર્શન છે, કારણ કે સમ્યગ્દર્શન વિના તેને સદ્ભાવ નથી થતું. સમ્યગ્દર્શનના થવાથી તે થાય છે, તેથી તે સમ્યગ્દર્શનના ફળરૂપથી કહેવામાં આવે છે. “એક કાર્યના અનેક કારણો પણ થાય છે પરંતુ જે મુખ્ય થાય છે તે જ પ્રધાન માનવામાં આવે છે” આ નીતિ–અનુસાર ભલે શ્રુતશ્રવણેચ્છાદિકોનુ કારણ જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મોને ક્ષપશમ પણ હોય, પરંતુ એ બધા વ્યવહિત કારણ છે. દષ્ટાન્તને માટેકેવળજ્ઞાનની પ્રાપ્તિનું મુખ્ય કારણ કેવળજ્ઞાનાવરણીય કર્મને ક્ષય જ છે, પરંતુ
જ્યાં સુધી મેહનીય કર્મને ક્ષય નથી થતું ત્યાં સુધી કેવળજ્ઞાનાવરણીય કર્મને क्षय नथी थतो.
।।। “खीणमोहस्स- णं अरहओ तओ कम्मंसा जुगवं खिज्जंति, तं जहा-नाणावरणिज्जं, दसणावरणिज्ज अंतराइयं (स्था. स्था. ३ उ ४)
આ વાત આ સૂત્રથી પ્રગટ કરી છે. એ પ્રકારે સમ્યગદર્શન પણ મિથ્યાત્વના ક્ષપશમથી થાય છે, પરંતુ જ્યાં સુધી અનંતાનુબંધી કષાયને શપશમ નથી થતું ત્યાં સુધી મિથ્યાત્વને ક્ષપશમ નથી થતો.
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आधाराशस्त्रे ननूपशान्तमोहादीनां सम्यक्त्वे सत्यपि कृतकृत्यतया श्रुतश्रवणेच्छादयो न भवन्ति, तथा च कार्यकारणभावनियामकान्वयव्यतिरेकविरहात् तेषां सम्यक्त्वसम्यग्दृष्टि कहलाता है । अल्पतम चारित्रके सद्भावसे यह चारित्ररूपसे विवक्षित नहीं हो सकता है । जैसे-संमृर्छजन्म से उत्पन्न हुए जीव अत्यन्न सामान्य संज्ञाका सद्भाव रहने पर भी विशिष्ट संज्ञाके अभाव होने से असंज्ञी ही कहे जाते हैं। हां, महाव्रतादिकरूप विशिष्ट चारित्र यदि कोई होता तो यह व्रती कहलाता। क्यों कि-समस्त महाव्रतरूपी चारित्रके सद्भाव में ही व्रतित्व स्वीकार किया जाता है । इसी वस्तु को टीकाकार कहते हैं--
"विरतत्वं हि महाव्रतादिरूपानल्पचारित्रसद्भाव एव स्वीक्रियते" इति। ठीक है; जैसे-मात्र एक रुपया के रहने पर कोई धनी नहीं माना जाता है ?, जैसे एक ही गाय के अस्तित्वमें कोई गोपाल नहीं कहा जाता है, और जैसे एक गांठ सोंठके रखने से कोई पंसारी नहीं होता है, उसी प्रकार इस अल्पनम आंशिक चारित्र के अस्तित्व से भी सम्यग्दृष्टि (अविरतदशासंपन्न सम्यग्दृष्टि जीव ) चारित्री नहीं बन सकता। __शङ्का-उपशान्तमोहवाले जीवों के सम्यक्त्वके होने पर भी श्रुतअवणेच्छादिक नहीं होते हैं, कारण कि वे कृतकृत्य हो चुके हैं। इस તેથી આ અવિરતસમ્યગ્દષ્ટિ કહેવાય છે અલ્પતમ ચારિત્રના સદ્દભાવથી એ ચારિત્રરૂપથી વિવક્ષિત નથી થઈ શકતું. જેમ સંમૂર્ઝન જન્મથી ઉત્પન્ન થયેલ જીવ અત્યન્ત સામાન્ય સંજ્ઞાને સદ્દભાવ હોવા છતા પણ વિશિષ્ટ સન્નાને અભાવ હોવાથી અસક્સી કહેવાય છે. હાં, મહાવ્રતાદિક વિશિષ્ટ ચરિત્ર યદિ કઈ હોત તે તે વ્રતી કહેવાત ? કારણ કે-સમસ્ત મહાવ્રતરૂપી ચારિત્રના ભાવમાં જ વ્યતિત્વ સ્વીકાર કરવામાં આવે છે, એ જ વસ્તુને ટીકાકાર કહે છે -- __“ विरतत्वं हि महाव्रतादिरूपानल्पचारित्रसद्भाव एव स्वीक्रियते "ति
ઠીક પણ છે જેમ ફક્ત એક રૂપિયાના રહેવાથી કઈ ધનવાન નથી કહેવાતે, જેમ એક ગાય રહેવાથી કે ગોપાલ નથી કહેવાતે, અને જેમ સુઠની એક ગાંડ રાખવાથી કઈ ગાધી નથી થતું, તે પ્રકારે આ અલ્પતમ આંશિક ચારિત્રના અસ્તિત્વથી પણ સમ્યગ્દષ્ટિ (અવિરતદશા પન્ન સમ્યગ્દષ્ટિ જીવ) ચારિત્રી બની શકતું નથી.
શકા-ઉપશાન્તડવાળા અને સમ્યકૃત્વ હોવા છતાં પણ કૃતવણેઅાદિક નથી થતા, કારણ કે તે કૃતકૃત્ય થયેલ છે, તેથી કાર્યકરભાવનું નિયામક
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सम्यक्त्व-अध्य० ४ उ. १
वैयावृत्त्यनियमरूपचारित्रस्याल्पतमत्वेन चारित्रतया तद्विवक्षाया अभावात् । यथा-संमूर्छनजानां संज्ञासामान्यसत्त्वेऽपि विशिष्टसंज्ञाया अभावादसंज्ञित्वमङ्गीकृतम् । विरतत्वं हि महाव्रतादिरूपानल्पचारित्रसद्भाव एव स्वीक्रियते । यथा-एकरूप्यकमात्रधनेन धनवानयमिति न व्यपदिश्यते, यथा वा नाप्येकया गया गोमान्; यथा वा एकेनैव शुण्ठीग्रन्थिना 'पंसारी'ति-भापापदव्यपदेश्यो बणिग्न भवतीति। __शङ्काकार की शङ्का का खुलासा इस प्रकार है-चतुर्थगुणस्थानवर्ती जीवके चारित्रका सद्भाव नहीं माना गया है, कारण कि वह अविरतदशासंपन्न है । उसके केवल एक सम्यग्दर्शनरूपी ज्योतिका प्रादुर्भाव है, चारित्र का नहीं । चारित्रका सद्भाव पंचमगुणस्थान से प्रारंभ होता है। अब यदि वैयावृत्त्यनियम को सम्यग्दर्शन का फल माना जावेगा तो सम्यग्दर्शन के होने पर इसका सद्भाव अवश्य मानना ही पडेगा । ऐसी दशा में चतुर्थगुणस्थानवी जीयके भी आंशिकरूप से चारित्र का सद्भाव सिद्ध हो जाता है, तब वह अविरत न रह कर विरत ही सिद्ध हुआ।
समाधान-वैयावृत्यनियम चारित्र का एक भेद है, परन्तु वह पूर्ण यारिन नहीं है, आंशिक चारित्र ही है, और यह यहां पर बहुत ही अल्प दशामें है, इस लिये उसकी चारित्ररूप से यहां विवक्षा नहीं है । महाव्रतादिरूप विशिष्ट पारिन ही चारित्ररूपसे विवक्षित होते हैं, वे यहां पर नहीं हैं; अतः सम्यग्दर्शनका अस्तित्व होने पर भी इस दशामें इस प्रकारका कोई भी चारित्र यहां पर नहीं है। इसी लिये यह अविरत
શંકાકારની શંકાને ખુલાસે આ પ્રકારે છે–ચતુર્થગુણસ્થાનવતી જીવને ચારિત્રને સદ્ભાવ માનવામાં નથી આવ્યો, કારણ કે તે અવિરતદશાસંપન્ન છે. તેને ફક્ત એક સમ્યગ્દર્શનરૂપી જ્યોતિને પ્રાદુર્ભાવ છે, ચારિત્રને નહિ. ચારિત્રને સદ્ભાવ પંચમગુણસ્થાનથી પ્રારંભ થાય છે. હવે જે વૈયાવૃત્યનિયમને સમ્યગ્દર્શનનું ફળ માનવામાં આવે તે સમ્યગ્દર્શનના થવાથી એને સદ્ભાવ અવશ્ય માન પડે. આવી દશામાં ચતુર્થગુણસ્થાનવત્તી જીવને પણ આંશિક રૂપથી ચારિ ત્રને સદ્ભાવ સિદ્ધ થાય છે, ત્યારે એ અવિરતિ ન રહીને વિરત જ સિદ્ધ થાય છે.
સમાધાન––વૈયાવૃત્યનિયમ ચારિત્રનો એક ભેદ છે, પરન્ત તે પૂર્ણ ચારિત્ર નથી, આંશિક ચારિત્ર છે, અને તે અહીંયા ઘણું જ અલ્પ દશામાં છે, એથી એના ચારિત્રરૂપથી આ ઠેકાણે વિવેક્ષા નથી. મહાવ્રતાદિપ વિશિષ્ટ ચારિત્ર જ ચારિત્રરૂપથી વિવક્ષિત થાય છે, તે આ ઠેકાણે નથી, માટે સમ્યગ્દર્શનનું અસ્તિત્વ હોવા છતાં પણ આ દશામાં આ પ્રકારનું કોઈ પણ ચારિત્ર આ ઠેકાણે નથી,
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आधाराङ्गसूत्रे ___ भावतो व्रतानीकरणमपि सम्यक्त्वस्य फलं भवति, परन्तु सम्यक्त्वे सति कदाचित् तद् भवति, कदाचिन्न । यद्यपि ग्रन्थिभेदादेव सम्यक्त्वमुद्भवति सम्यक्त्ववांश्च व्रताङ्गीकरणमेवोपादेयतरं विजानाति; तथापि यावत्यां कर्मस्थितौ सत्यां सम्यक्त्वलामो भवति तावत्यामेव बताङ्गीकरणं न संभवति । व्रताङ्गीकरणं प्रति चारित्रमोहनीयकर्मक्षयोपशमस्य सम्यक्त्वप्राप्तिकरणकर्मक्षयोपशमापेक्षयाऽधिकतरस्य कारणत्वात् ।
और श्रुतश्रवणेच्छादिकों में परस्पर कार्यकारण संबंध सुघटित हो जाता है। अथवा-सम्यग्दर्शन और श्रुतश्रवणेच्छादिकों में जो कार्यकारण भाव संबंध कहा गया है वह श्रावक-अवस्था में होनेवाले सम्यग्दर्शनकी अपेक्षा से समझ लेना चाहिये । श्रावक-अवस्था में विद्यमान सम्यक्त्व श्रुतश्रवणेच्छादिकों का जनक वहां पर होता है।
सद्भावनापूर्वक व्रतादिकों का अंगीकार करना भी सम्यक्त्व का फल है। यहां टीका में जो “अपि" शब्द दिया गया है उसका अभिप्राय यह है कि सम्यक्त्व के होने पर व्रतादिकों का आचरण कभी होता भी है और कभी नहीं भी होता। यह नियम नहीं कि सम्यक्त्व के होने पर व्रतादिक अनुष्ठानों का सद्भाव जीवों के होवे ही । यद्यपि रागदेषकी प्रबल ग्रन्थि के भेद से ही सम्यक्त्व उत्पन्न होता है, और सम्यश्वी जीव व्रतादिक अनुष्ठानों का अंगीकार करना श्रेयस्कर मानता है, परन्तु जितनी कर्म की स्थिति रहने पर सम्यक्त्वका लाभ होता है उतनी स्थितिमें व्रत સમ્યગ્દર્શન અને મૃતશ્રવણેચ્છાદિકોમાં પરસપર કાર્યકારણ સંબધ સુઘટિત થઈ જાય છે અથવા-સમ્યગ્દર્શન અને મૃતશ્રવણે છાદિકમાં જે કાર્યકારણભાવ સંબધ કહેવામા આવ્યા છે તે શ્રાવક-અવસ્થામાં બનવાવાળા સમ્યગ્દર્શનની અપેક્ષાથી સમજી લેવું જોઈએ શ્રાવક–અવસ્થામાં વિદ્યમાન સમ્યક્ત્વ મૃતશ્રવણેચ્છાદિકોને ઉત્પાદક ત્યાં અવશ્ય થાય છે
સદ્ભાવનાપૂર્વક રતાદિકોનુ અગીકાર કરવું તે પણ સમ્યક્ત્વનુ ફળ છે. महीमाटीमा रे " अपि" शण्ट माथ्य। छे सनी मलिप्राय ये छे हैं સમ્યક્ત્વના થવાથી ગ્રતાદિકનું આચરણ કેઈ વખત થાય પણ છે અને કોઈ વખત નથી પણ થતું. એ નિયમ નથી કે સમ્યક્ત્વના થવાથી ગ્રતાદિક અનુઘડાનેને સદભાવ જીને થાય જ કદાચ રાગદ્વેષની પ્રબલ પ્રશ્વિના ભેદથી જ સમ્યક્ત્વ ઉત્પન્ન થાય છે, અને સમ્યક્ત્વી જીવ ગ્રતાદિક અનુષ્ઠાનેનું અંગીકાર કરવું શ્રેયકર માને છે, પરંતુ જેટલી કર્મની સ્થિતિ રહેવાથી સમ્યક્ત્વને
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सम्यक्त्व - अध्य० ४ उ १
"
फलस्व न संभवतीति चेत्, मैवम् श्रुतश्रवणेच्छादीनां मोहोपशान्तिफलकत्वेन फलरूपेण तेष्वपि श्रुतश्रवणवाञ्छादिसद्भावात्, यद्वा-श्रावकावस्थायां यत् सम्यत्तत्रं तदाश्रित्य श्रुतश्रवणेच्छादयो भवन्तीति विवक्षया तेषां सम्यक्त्वफलत्वं संभवत्येवेति । लिये कार्यकारणभाव नियामक अन्वय और व्यतिरेकका विघटन होनेसे सम्यक्त्व और श्रुतश्रवणेच्छादिकों में परस्पर में कार्यकारणभाव नहीं बन सकता ।
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समाधान - श्रुतश्रवणेच्छादिकों का मोहोपशांति फलवाले होनेसे फलरूपसे वहां पर सद्भाव है ।
विशेषार्थ - अभी प्रतिवादीने जो सम्यग्दर्शन और श्रुतश्रवणेच्छादिकोंका यहां पर कार्यकारणभाव, अन्वय व्यतिरेक केन घटने से नहीं स्वीकार किया था उसका समाधान करते हुए आचार्य महाराज कहते हैं किहे शिष्य ! उपशान्त मोहवाले जीवों में भी श्रुतश्रवणेच्छादिकों का सद्भाव है । यदि इनका यहां पर सद्भाव न माना जावे तो इन जीवोंकी उपशांतता हुई है वह घटित नहीं हो सकती । मोहकी उपशांतता श्रुतश्रवणेच्छादिकों का फल है, और श्रुतश्रवणादिक सम्यग्दर्शनके फल स्वरूप हैं, एतावता वे निष्फल हों यह बात नहीं; कारण कि फल भी तो स्वयं फलवान् हुआ करते हैं, अतः उपशान्त मोहवाले जीवों में विद्यमान सम्यग्दर्शन सफल है; निष्फल नहीं, इस लिये सम्यग्दर्शन અન્વય અને વ્યતિરેકનું વિઘટન હોવાથી સમ્યકૢત્વ અને શ્રુતશ્રવણેચ્છાદિકોમાં પરસ્પરમાં કાર્ય કારણભાવ ખની શકતા નથી.
સમાધાન——શ્રુતશ્રવણેચ્છાઢિકોના મહાપશાંતિ ફળવાળા હોવાથી ફળરૂપથી ત્યાં પણ સદ્ભાવ છે.
વિશેષા—અત્યારે પ્રતિવાદીએ જે સમ્યગ્દર્શન અને શ્રુતશ્રવણેચ્છાઢિકાના આ ઠેકાણે કાર્ય કારણ—ભાવ અન્વયવ્યતિરેકના નહિ ઘટવાથી સ્વીકાર કરેલ નથી, એનુ સમાધાન કરતાં આચાર્ય મહારાજ કહે છે કે-ભાઈ! ઉપશાન્તમોહવાળા જીવામાં પણ શ્રુતશ્રવણુચ્છાદિકોનો સદ્ભાવ છે. જો તેને ત્યાં સાવ ન માનવામાં આવે તો આ જીવાના મેાહની જે ઉપશાંતતા થઇ છે તે ઘટિત થતી નથી. માહની ઉપશાંતતા શ્રુતશ્રવણુચ્છાદિકોનુ ફળ છે, અને શ્રુતશ્રવણાદિક સમ્યગ્દર્શનનું ફળસ્વરૂપ છે, તેથી તે સમ્યગ્દર્શન નિષ્ફળ થાય એવી કોઇ વાત નહિ, કારણ કે ફળ પણુ સ્વય' ફળવાન થયા કરે છે, તેથી ઉપશાન્તમોહવાળા જીવામાં વિદ્યમાન સમ્યગ્દર્શન સફળ થાય છે; નિષ્ફળ નહિ. આ માટે
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आचारागसूत्रे उत्कृष्ट स्थिति है वह जव अन्तःकोटाकोटीसागर प्रमाण रह जाती है तव ही जीव सम्यक्त्वप्राप्ति करने के योग्य होता है । जैसे मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति (७०) सत्तर कोडाकोडी सागर प्रमाण है। इस स्थितिको यथाप्रवृत्तिकरण परिणाम से जीव क्षय करता हुआ जब पल्यके असंख्यातवे भाग न्यून-कम एक कोडाकोडी सागर की कर लेता है तब राग-द्वेषरूपी प्रवल ग्रन्धि के भेदसे सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। आयुकर्मको छोड़ कर इसी प्रकार शेष कर्मों की स्थिति भी अन्तःकोटाकोटीसागरप्रमाण रह जानी चाहिये । कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति में और जघन्य स्थितिमें जीव के सम्यक्त्व की उत्पत्ति नहीं होती, यह नियम है। सम्यक्त्वकी पाप्ति आयुकर्म को छोड़ कर शेष मोहनीयादि (७)सात कर्मों की अन्तः कोडाकोड सागरकी स्थिति रह जाने पर ही होती है। इसके बाद अवशिष्ट कर्मस्थिति जब पल्योपमपृथक्त्व प्रमाण क्षीण हो जाती है उस समय जीव भावकी अपेक्षा अणुव्रतरूप चारित्र की प्राप्ति करता है । इस कर्मस्थितिमें इतना जब परिवर्तन हो जाता है तव ही भावसे व्रतप्राप्ति हुआ करती है । इससे यह साबित होता है कि 'सम्यग्दर्शनके होने पर जीव भावसे व्रत-चारित्र प्राप्त कर ही लेता है। यह नियम नहीं है । दीर्घतर-उत्कृष्ट कर्मस्थितिमें द्रव्य से ही ( भावशून्य ) મોહનીયાદિ કર્મોની જેટલી જેટલી ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ છે તે જ્યારે અન્ત કોટકેટી સાગર પ્રમાણે રહી જાય છે ત્યારે જ જીવ સભ્યત્વે પ્રાપ્ત કરવાને ચગ્ય થાય છે. જેમ મોહનીય કર્મની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ (૭૦) સિત્તેર કડાકોડી સાગર પ્રમાણે છે. આ સ્થિતિને યથાપ્રવૃત્તિકરણ પરિણામથી જીવ ક્ષય કરીને જ્યારે પલ્યના અમ ખ્યાતમા ભાગ ન્યૂન કેડાકોડી સાગરની કરે છે ત્યારે રાગદ્વેષરૂપી પ્રબલ ગ્રન્વિના ભેદથી અભ્યત્વને પ્રાપ્ત કરે છે, આયુકર્મને છોડીને આ જ પ્રકારે શેવ કર્મોની સ્થિતિ પણ અન્નકેટકેટીસાગરપ્રમાણ રહેવી જોઈએ. કર્મોની ઉકષ્ટ સ્થિતિમાં અને જઘન્ય સ્થિતિમા સમ્યકત્વની ઉત્પત્તિ જીવને નથી થતી, એ નિયમ છે સમ્યક્ત્વની પ્રાપ્તિ આયુકમને છોડીને શેવ મેહનીયાદિ (૭) સાત કર્મોની એક કેડીકેડ સાગરની સ્થિતિ રહેવાથી જ થાય છે. ત્યાર બાદ અવશિષ્ટ કર્મસ્થિતિ ત્યારે પપમપૃથકૃત્વપ્રમાણુ ક્ષીણ થઈ જાય છે તે વખતે જીવ, ભાવની અપેક્ષા આણુવ્રતરૂપ ચારિત્રની પ્રાપ્તિ કરે છે. આ પ્રકારે કર્મસ્થિતિમાં એટલું ત્યારે પરિવર્તન થાય છે ત્યારે ભાવથી વ્રતપ્રાપ્તિ થાય છે એથી એ સાબિત થાય છે કે “સમ્યગ્દર્શનના થવાથી જીવ, ભાવથી વ્રતचारित्र प्रात श्री . ' से नियम नथी, त२-४५८ स्थितिभा द्रव्य.
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सम्यक्त्व - अध्य० ४. उ. १
अत्रेदमवगन्तव्यम् - ज्ञानावरणीयादिकर्मस्थितेर्हि द्विप्रभृतिनवपर्यन्तसंख्यारूपे पल्योपमपृथक्त्वे वेदनादपगते सति भावतो बताङ्गीकरणं भवति । तत्र क्रमः - मोहनीयादिकर्मणामुत्कृष्टा स्थितिः सागरोपमकोटीकोटीसप्तत्यादिका, तन्मध्यात् तावतीं स्थिति यथामवृत्तिकरणेनादौ क्षपयति, येन पल्योपमानामसंख्येयभागन्यूना एकसागरोपमकोटीकोटी शेषा स्थितिर्भवति । ततो ग्रन्थिभेदेन सम्यक्स्वं प्राप्नोति । तदनन्तरं शेषकर्मस्थितेः पल्योपमपृथक्त्वे क्षपिते सत्यणुव्रतं लभते, एवमेव भावतो व्रतमाप्तिर्भवति, परन्तु दीर्घतरकर्म स्थितौ सत्यामपि द्रव्यतोऽणुव्रतं महाव्रतं च भवति । तथा चोक्तम्
का अंगीकार करना संभवित नहीं होता । सम्यक्त्व की प्राप्ति होना एक बात है और चारित्रकी प्राप्ति होना इस से भिन्न बात है । सम्यक्त्व की उत्पत्तिका कारण मिथ्यात्व (दर्शनमोहनीयादिक) का क्षयोपशमादिक हैं और चारित्र की उत्पत्तिका कारण चारित्रमोहनीय कर्मका क्षयोपशम है। यह क्षयोपशम, सम्यक्त्वकी प्राप्ति के कारण की अपेक्षा व्रत अंगीकार करने में अधिकतर रूपसे कारण माना गया है । सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर भी यदि चारित्रमोहनीय कर्मका क्षयोपशम नहीं हुआ है तो चारित्र की प्राप्ति जीवको नहीं होती है । सम्यक्त्वके होते ही चारित्रमोहनीय कर्मका क्षयोपशम नहीं होता है, किन्तु सम्यक्त्वके होने पर जब ज्ञानावरणीयादिक कर्मों की स्थिति अपनी२ स्थितिमेंसे दो से लगा कर नौ पल्य तक और घट जाती है तब ही जीव भावकी अपेक्षा व्रतोंको अंगीकार करता है । इसका क्रम इस प्रकार है- मोहनीयादि कर्मोंकी जितनी र
લાભ થાય છે તેટલી સ્થિતિમાં વ્રતનુ અંગીકાર કરવું સંભવિત નથી. સમ્ય કૃત્વની પ્રાપ્તિ થવી એક વાત છે અને ચારિત્રની પ્રાપ્તિ થવી એનાથી ભિન્ન વાત છે. સમ્યક્ત્વની ઉત્પત્તિનું કારણ મિથ્યાત્વના ( દર્શનમોહનીયાદિના ) ક્ષયાપશમાદિક છે. ચારિત્રની ઉત્પત્તિનું કારણ ચારિત્રમોહનીય કર્મના ક્ષાશમ છે. આ ક્ષયાપશમ, સમ્યક્ત્વની પ્રાપ્તિના કારણની અપેક્ષાએ વ્રત અંગીકાર કરવામાં અધિકતર રૂપથી કારણ માનવામાં આવે છે. સમ્યક્ત્વની પ્રાપ્તિ થાય તા પણ જો ચારિત્રમાહનીય કર્મના ક્ષાપશમ નહિ થયા હોય તે ચારિત્રની પ્રાપ્તિ જીવને નથી થતી. સમ્યકૂના થવાથી જ ચારિત્રમેાહનીય કા ક્ષાપશમ નથી થતા; પણ સમ્યક્ત્વના થવાથી જ્યારે જ્ઞાનાવરણીયાદિક કર્મોની સ્થિતિ પાતપેાતાની સ્થિતિમાંથી મેથી માંડીને નવ પલ્ય સુધી ઘટી જાય છે ત્યારે જીવ, ભાવની અપેક્ષા ત્રતાને અંગીકાર કરે છે. એના ક્રમ આ પ્રકારે છે–
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माधारास्त्रे देवादितिनाप्यनन्तरं संख्याने सागराग्नेषु जारितेषु सर्वपिरतिचारित्रं लभने । तदनन्तरनपि संख्या सागपनेषु झपिन पानश्रेणि प्रतिपद्यते । ततोऽपि मंख्याने सागरोपमेषु अपितेयु सपनवेनिर्भवति । ततस्तलिन्नेव नरे नोक्ष इति । एवं यन्य सन्यासनप्रनिपनि तवैव देवमनुष्यनवेषु संसरणं कुर्वनो देशावित्यादिलानो भवति । सन्यक्त्वं दिअनन्नानन्द-रूपानुपन नोभतुखस्य कारणम् । उक्तल
"जात्यन्यस्य यथा पुंसवनुमाने शुभाइये । सदर्शनं तयवान्य, सन्यस्वे सति जायते ! १ !! आनन्दो जायतेऽत्यन्तं. सानिकोऽत्य महात्मनः।
सहाव्युगिने यद् व्याक्तिन्य सज्ञवधम् ॥ ॥ २॥ इति । वीचोल्लान ले झप्ति हो जावे नव देशविरनिका लाभ होता है। देशविरति-श्रावतचारित्र-पंचन गुस्थान की प्रातिके अनलर संख्या सागरप्रनाग स्थितिले क्षय होने पर सर्वदिरति-मुनिवन-पष्ठगुणस्थानकी प्राप्ति होती है। इसके बाद संख्यातसागरममाण स्थितिके व्यतीत हो जानेपर उपशमणि और फिर संख्यातसागरप्रमाणत्यिति के क्षय होने पर क्षपकणिका लान होता है। फिर उसी भवसे उसको नुक्तिकी प्राप्ति हो जाती है। देशविरति आदि चारित्रका लाभ उसी जीवके होता है कि जिसने अपने सन्यक्त्व की विराधनादेव मनुष्यभवाने रहते हुए नहीं की है। अर्थात् देवपर्याय में या ननुष्यपर्याय में जिसके सन्यक्त्वकी विराधना हो गई है उत्त जीवके देशविरति आदि चारित्र का लाभ नहीं होता। यह सन्यक्त्व अनन्तानन्दरूप अनुपन मोक्षसुखका कारण है। जैसे कहा हैત્યારે દેશરિરી. ૯ , કે. દેશરિરતિ–...વરાત્રિ પર ગુરુની સિન્ડ છે વાતાવરપ્રા. દિને ય રા વિવિनुन्निन- . या प्रति ५५ . २.२ २.२
मा. श्री . ना . वितिने... ५.. ..... . -
यो देने मी
५ . अविकत्रित ६ ते ७५ ६ ३ २६... न्य५नी दि. ३ नयन ने नया ४२. यो-३ - २ अनुभ-यय- रेने न्यानो वि.५. लेकिन ने
ते ३.
ॐ ॐ ॐन :
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सम्यक्त्व-अध्यp ४. उ. १
" सबजियाणं जम्हा, सुत्ते गेविज्जगेसु उववाओ। भणिओ जिणेहि सो न य, लिंगं मोत्तुं जओ भणियं ॥१॥ जे सणवावण्णा, लिंगग्गहणं करिति सामन्ने ।
तेसि पि य उववाओ, उक्कोसो जाब गेविज्जा" ॥ २ ॥ इति । छाया-सर्वजीवानां यस्मात्सूत्रे ग्रैवेयकेषूपपातः ।
भणितो जिनैः स न च लिङ्ग मुक्त्वा यतो भणितम् ॥१॥ ये दर्शनव्यापन्ना, लिङ्गग्रहणं कुर्वन्ति श्रामण्ये ।
तेषामपि चोपपात, उत्कर्षों यावद् ग्रैवेयकान् ॥२॥ इति । अयमत्र सारांश:-यावत्यां कर्मस्थितौ सत्यां सम्यक्त्यं प्राप्तं, तन्मध्यात् पल्योपमपृथक्त्वरूपे स्थितिभागेऽनुक्रमेण वीर्योल्लासात् क्षपिते सति देशविरतो भवति। अणुव्रत-महाप्रतरूप चारित्र प्राप्त करता है, जिसका फल कर्मक्षय नहीं है। द्रव्यचारित्रका अभिप्राय भावशून्य चारित्र है। यह चारित्र सम्यग्दर्शनमूलक नहीं होता। भावचारित्र ही सम्यग्दर्शनमूलक होता है । कहा भी है" सव्वजियाणं जम्हा, सुत्ते गेविज्जगेसु उववाओ।
भणिओ जिणेहि सो न य, लिंगं मोत्तुं जओ भणियं ॥१॥ जे दंसणवावण्णा, लिंगग्गहणं करिति सामन्ने ।
तेसि पि य उववाओ, उक्कोसो जाव गेविज्जा ॥२॥” इति। इन सब पूर्वोक्त कथनका सारांश यही है कि-जितनी कर्मस्थितिके रह जाने पर सम्यक्त्वका लाभ हुआ है, उस स्थितिमें से कम से कम पल्योपमपृथक्त्व (दो से लगाकर ९ पल्य तक) प्रमाण स्थिति થી જ (ભાવશૂન્ય) અણુવ્રત મહાવ્રતરૂપ ચારિત્ર પ્રાપ્ત કરે છે, જેનું ફળ કર્મ ક્ષય નથી. દ્રવ્યચારિત્રને અભિપ્રાય ભાવશૂન્ય ચારિત્ર છે. આ ચારિત્ર સમ્યગ્દર્શનમૂલક નથી થતું. ભાવચારિત્ર જ સમ્યગ્દર્શનમૂલક થાય છે. કહ્યું પણ છે –
" सव्वजियाणं जम्हा, सुत्ते गेविज्जगेसु उववाओ । भणिओ जिणेहि सो न य, लिंगं मोत्तुं जओ भणियं ॥ १ ॥ जे दसणवावण्णा लिगग्गहणं करिति सामन्ने ।। तेसिपि य उववाओ उक्कोसो जाव गेविज्जो" ॥२॥ इति ।
આ બધા પૂર્વોક્ત કથનને સાર એ છે કે જેટલી કર્મસ્થિતિના રહેવાથી સમ્યકત્વને લાભ થાય છે, આ સ્થિતિમાંથી ઓછામાં ઓછું પલ્યોપમ પૃથકૃત્વ (બે થી માંડી ૯ પલ્ય સુધી) પ્રમાણુ સ્થિતિ વીર્ષોલ્લાસથી ક્ષપિત થઈ જાય
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आचाराङ्गसूत्रे
ननु यदुक्तं सम्यक्त्वे सति कदाचिद् व्रताङ्गीकरणं नापि भवतीति, तत् कथं संभवति ? उच्यते
यदा सम्यक्त्वलाभानन्तरं नवपल्योपमाधिकस्थितिको देवेषूत्पद्यते तदा तस्यापवस्थायां यावतीं स्थिति क्षपयति तावतीमन्यां बध्नाति ततो देशोनसागरोपमकोटीकोटीरूपाया अधिकृतकर्मस्थितेः पल्योपमपृथक्त्वस्यापगमो न भवतीति-अतो देवभवे देशविरतिलाभो न संभवति, तस्मात् सम्यक्त्वे सत्यपि व्रतानङ्गीकरणं सिद्धम् ।
और भी - - यह सम्यक्त्व बारह प्रकारके श्रावक धर्मका द्वार है १, मूल है २, प्रतिष्ठान (आलम्बन) है ३, आधार है ४, भाजन - पात्र है ५, और निधिरूप है ६ ॥ ३॥
फिर भी - जिस प्रकार ऊपर क्षेत्र में बोये हुए बीज नहीं ऊगते हैं उसी प्रकार मिथ्यात्ववासित जीव में व्रतोंका उदय नहीं होता || ४ ||
शङ्का - सम्यक्त्व के होने पर कदाचित् व्रतका लाभ नहीं भी होता है, यह बात कैसे संभव होती है ? ।
समाधान - सम्यक्त्व के होने पर भी व्रतका लाभ नहीं होता, यह बात एक तो ऊपर कथित प्रकार से प्रकट की गई है, और दूसरा प्रकार यह भी हैजिस जीवको सम्यक्त्वका लाभ हुआ है वह अपनी आयुके अन्तमें atest अधिक स्थितिका बंध कर देवपर्याय में उत्पन्न हुआ उस समय वह उस पर्याय में से जितनी भी स्थितिका क्षय करता है उतनी और दूसरी स्थितिका बंध भी करता रहता है । सम्यक्त्वके उत्पादन के પ્રકારના શ્રાવક ધર્મનું દ્વાર છે ૧, મૂલ છે ૨, પ્રતિष्ठान (आसमन) छे 3, साधार ४, लान्/न-पात्र छेप भने निधि छे ६. (3) વળી—જે પ્રકારે ઉપર ક્ષેત્રમાં વાવેલા ખીજ ઉગતા નથી તે પ્રકારે મિથ્યાત્વવાસિત જીવમા વ્રતના ઉત્ક્રય થતા નથી (૪) શકા—સમ્યક્ત્વના થવાથી વ્રતના લાભ કોઇ વખત નહી પણ થાય, આ વાત કેમ સભવે છે?
ક્રી–આ સમ્યક્ત્વ ખાર
સમાધાન—સમ્યકૃતના થવાથી પણ વ્રતને લાભ નથી થતા, એ વાત એક તા ઉપર કથિત પ્રકારથી પ્રગટ કરી છે, અને ખીન્ને પ્રકાર એ પણ છે—જે જીવને સમ્યક્ત્વના લાલ થયેા છે તે પેાતાની આયુના અતમાં નવ પલ્યથી અધિક સ્થિતિના બધ કરીને દેવપર્યાયમાં ઉત્પન્ન થયા, તે વખત તે પર્યાયમા જેટલીસ્થિતિનેા ક્ષય કરે છે તેટલી બીજી સ્થિતિના તે બંધ પણ કરે છે. એ પ્રકારે સમ્યકૃત્યના ઉત્પાદનના સમયની
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सम्यक्त्व-अध्य० ४ उ. १ अन्यच--" द्वारं मूलं प्रतिष्ठानमाधारो भाजनं निधिः ।
द्विषट्कस्यास्य धर्मस्य, सम्यक्त्वं परिकीर्तितम्" ॥३॥ अपरं च-"सस्यानीबोषरक्षेत्रे, निक्षिप्तानि कदाचन ।
न ब्रतानि प्ररोहन्ति, जीवे मिथ्याखवासिते"॥४॥ इति । "जात्यन्धस्य यथा पुंसश्चक्षुलाभे शुभोदये। सद्दर्शनं तथैवास्य, सम्यक्त्वे सति जायते ॥१॥ आनन्दो जायतेऽत्यन्तं, सात्त्विकोऽस्य महात्मनः।
सबोध्युपगमे यद्,-व्याधितस्य सदौषधम् " ॥२॥ अन्यच्च-"द्वारं १ मूलं २ प्रतिष्ठान ३ माधारो४ भाजनं ५ निधिः ६।
द्विषट्कस्यात्य धर्मस्थ, सम्यक्त्वं परिकीर्तितम्" ॥३॥ अपरश्च-"सस्यानीवोषरक्षेत्रे, निक्षिप्तानि कदाचन ।
न ब्रतानि प्ररोहन्ति जीवे मिथ्यात्ववासिते" ॥४॥ अर्थात्-जन्मान्ध पुरुषको शुभ कौके उदयसे नेत्रोंके खुल जाने पर जिस प्रकार सद्दर्शन ( समस्त वस्तुओंका दीखना ) होता है उसी प्रकार इस जीवको सम्यक्त्वका लाभ होने पर यथार्थ ज्ञान होता है ।। __ जिस प्रकार रोगीको श्रेष्ठ औषधसे आरोग्यप्राप्ति होने पर आनन्द होता है उसी प्रकार सबोधि (सम्यक्त्व) के प्राप्त होने पर उस महात्मा पुरुष को सात्त्विक अत्यानन्द होता है ॥२॥
" जात्यन्धस्य यथा पुंसश्चक्षुर्लाभे शुभोदये । सदर्शनं तथैवास्य, सम्यक्त्वे सति जायते ॥ १ ॥ आनन्दो जायतेऽत्यन्तं, सात्त्विकोऽस्य महात्मनः ।
सद्बोध्युपगमे यद्वद्, व्याधितस्य सदोषधम् " ॥२॥ अन्यच्च-" द्वारं१ मूलं२ प्रतिष्ठान३,-माधारो४ भाजनं५ निधिः ६
द्विषट्कस्यास्य धर्मस्य, सम्यक्त्वं परीकीर्तितम् ॥ ३ ॥ अपरं च-“ सस्यानीवोषरक्षेत्रे, निक्षिप्तानि कदाचन।।
न व्रतानि प्ररोहन्ति, जीवे मिथ्यात्ववासिते" ॥ ४ ॥ અર્થા–જન્માંધ પુરૂષને શુભ કર્મના ઉદયથી નેત્રના ખુલવાથી જે પ્રકારે સદર્શન (દરેક વસ્તુઓનું દેખવું) થાય છે, તે પ્રકારે આ જીવને સમ્યક્ત્વનો साल थपाथी यथार्थ ज्ञान थाय छे. (१)
જે પ્રકારે રોગીને શ્રેષ્ઠ ઔષધિથી આરોગ્યપ્રાપ્તિ થવાથી આનંદ થાય છે તે પ્રકારે સાધિ (સમ્યક્ત્વ)ની પ્રાપ્તિ થવાથી તે મહાત્મા પુરૂષને સાત્વિક सत्यानन्द याय छे. (२)
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आचारागसूत्रे
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नन्वात्मपरिणामरूपं सम्यक्त्वं कथं विज्ञेयं भवेदिति चेत् , उच्यते-सम्यक्त्वकार्यरूपैः शमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्यैः साधुसामाचारीप्रवृत्त्यादिरूपैः सामायिकपौषधप्रतिक्रमणत्यागप्रत्याख्यानादिश्रावकाचाररूपैश्च वाह्यप्रशस्तव्यापारैरेतदवगन्तुं शक्यते । तत्रक्त्वप्राप्तिके विना कर्मक्षय होता ही नहीं है। सम्यक्त्वके विना ज्ञान
और चारित्र निष्फल है। इनकी सफलता का मूल कारण यदि कोई है तो वह एक सम्यक्त्व ही है । सम्यक्त्वी जीव के ही ज्ञान तप चारित्र सफल होते हैं, अणुव्रत, गुणव्रत एवं शिक्षाव्रत-रूप श्रावकका देश चारित्र भी सम्यक्त्व के सद्भावमें ही सफल माना गया है, इस लिये सम्यक्त्व ही मोक्षका कारण है।
शङ्का-सम्यक्त्व तो आत्माका एक परिणाम है, उसका अस्तित्व कैसे जाना सकता है ?
शङ्काकारका अभिप्राय यहां इस प्रकारका है कि जब सम्यक्त्व आत्माका एक परिणाम है तो वह भी अमूर्त ही होगा। अर्थात्-जिस प्रकार आत्मा अमूर्त है उसी प्रकार वह सम्यक्त्व भी अमूर्त होगा, फिर उसके अस्तित्वका बोध कैसे होता है ? ।
इस शडाका समाधान करते हुए आचार्य महाराज कहते हैं किबात ठीक है; परन्तु उसके कार्यों से उसके अस्तित्व का भान होता है। शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा, आस्तिक्य, साधुओंकी समाचारीरूप प्रवृत्ति आदि, एवं सामायिक, पोषध, प्रतिक्रमण, त्याग, प्रत्याख्यान થતા નથી, સમ્યક્ત્વ વિના જ્ઞાન અને ચારિત્ર નિષ્ફળ છે, એની સફળતાનું મૂળ કારણ જો કોઈ હોય તો તે એક સમ્યક્ત્વ જ છે સમ્યક્ત્વી જીવને જ જ્ઞાન તપ ચારિત્ર સફળ થાય છે અણુવ્રત, ગુણવ્રત અને શિક્ષાત્રતરૂપ શ્રાવકનુ દેશચારિત્ર પણ સમ્યક્ત્વના ભાવમાં જ સફળ મનાય છે, તેથી સમ્યક્ત્વ જ મોક્ષનું કારણ છે
શકા–રામ્યક્ત્વ તે આત્માનું એક પરિણામ છે, તેનું અસ્તિત્વ કેવી રીતે જાણી શકાય ? શકાકારને અભિપ્રાય આ ઠેકાણે આ પ્રકારને છે કે જ્યારે સમ્યક્ત્વ આત્માનું એક પરિણામ છે તો તે પણ અમૂર્ત થશે અર્થાત-જે પ્રકારે આત્મા અમૂર્ત છે તે પ્રકારે તે સમ્યક્ત્વ પણ અમૃત્ત થશે, પછી તેના અસ્તિત્વની બોધ કેવી રીતે થાય ? આ શંકાનું સમાધાન કરતા આચાર્ય મહારાજ કહે છે ૮–વાત ઠીક છે, પરંતુ તેના કાર્યોથી તેના અસ્તિત્વનુ ભાન થાય છે શમ, સંવેગ નિર્વેદ, અનુકંપા, આસ્તિષ્પ, સાધુઓની સમાચારરૂપ પ્રવૃત્તિ આદિ, અને મા
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सम्यक्त्व-अध्य० ४ उ. १ यस्य सम्यक्त्विनो व्रतमाप्तिनं भवति, स तु अव्रती सम्यग्दृष्टिः श्रावको निगद्यते ।
किंच-सम्यक्साभावे सति मोक्षो न लभ्यते । मिथ्यादृष्टिहि कुशास्त्रप्रतिबोधितां संयमनियमादिरूपां निवृत्तिमाचरन्नपि, स्वजनधनभोगान् परित्यजन्नपि, शीतोष्णक्षुत्पिपासादिभिर्दुःखस्य परां काष्ठामुपगच्छन्नपि सम्यक्त्वरहितत्वेन मोक्षसिद्धये न प्रभवति । सम्यक्त्वाभावे सति कर्मक्षयो न भवति । सम्यक्त्ववतामेव ज्ञानतयश्चारित्राण्यपि सफलीभवन्ति । सम्यक्त्वे सत्येव चाणुव्रतगुणवतशिक्षात्रतानि भवितुमर्हन्ति, तस्मात् सम्यक्त्वं मोक्षस्य वीजमिति बोध्यम् । समय की कुछ कम कोटाकोटीसागरोपम स्थितिमेंसे पल्योपमपृथक्त्वरूप स्थितिका अपगम-अभाव नहीं होनेसे देवपर्यायमें देशविरति का लाभ संभवित नहीं होता।
जिस सम्यक्त्वीको ब्रतप्राप्ति नहीं होती है वह सम्यग्दृष्टि श्रावक कहलाता है। इसको कभी न कभी (अर्धपुद्गलपरावर्तनकालके बाद) मुक्तिका लाभ अवश्य हो जाता है, परन्तु जिसके मूलमें सम्यक्त्व ही नहीं है उसको मुक्तिपद की प्राप्ति हो नहीं सकती। मिथ्यादृष्टि जीव (द्रव्यलिङ्गी मुनि जैसा) खोटे २ शास्त्रों के द्वारा प्रतिपादित संयम नियमादिरूप चारित्रका पालन करनेपर भी वजन धन एवं पांच इन्द्रियों के विषयों का परित्यागी होने पर भी, और अनेक प्रकारसे शीत उष्ण, भूख और प्यास आदि परीषहजन्य कष्टों का कठोर से कठोर सामना करते हुए भी सम्यक्त्व से रहित होनेके कारण ही मोक्षरूपी सिद्धि का भागी नहीं माना गया है। यह तो अटल सिद्धान्त है कि-सम्यકાંઈ ઓછી કેટકેટીસાગરોપમ સ્થિતિમાંથી પલ્યોપમપૃથકૃત્વરૂપ સ્થિતિને અપગમ–અભાવ નહિ થવાથી દેવપર્યાયમાં દેશવિરતિને લાભ સંભવિત થતું નથી.
જે સમ્યક્રવીને વતપ્રાપ્તિ નથી થતી તે અવિરતસમ્યગ્દષ્ટિ શ્રાવક કહેવાય છે. એને કોઈ વખત (અર્ધપગલપરાવર્તન કાળની પછી) મુક્તિને લાભ અવશ્ય થાય છે. પણ જેના મૂળમાં સમ્યક્ત્વ નથી તેને મુક્તિપદની પ્રાપ્તિ થતી નથી. મિથ્યાષ્ટિ જીવ (દ્રવ્યલિંગી મુનિ જેવા) ખોટા ખોટા શાદ્વારા પ્રતિપાદિત સંયમનિયમાદિરૂપ ચારિત્રનું પાલન કરવાથી સ્વજન ધન અને પંચેન્દ્રિયના વિષયેને પરિત્યાગી હોવા છતાં પણ, અને અનેક પ્રકારથી શીત, ઉણ, ભૂખ અને ખાસ આદિ પરિષહજન્ય કન્ટેને કઠેરમાં કઠોર સામનો કરવા છતાં પણ સમ્યક્ત્વથી રહિત હોવાના કારણે મેક્ષરૂપી સિદ્ધિને ભાગી માનવામાં આવતો નથી. એ તે અટલ સિદ્ધાંત છે કે –સમ્યક્ત્વામિ વિના કર્મ ક્ષય
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माचारात सूत्रे
(३) निवदाख्येन सम्यक्त्वपरिणामेन जीवो मन्यते - ' नारकतिर्यङ्मनुष्य देवभवेषु सर्वेष्वेव दुःखमस्ति, अतः सर्वमेव जगन्निःसार-मिति । अपि च ममत्वविपवेगरहितो भवति ।
५५०
(४) प्राणिवर्ग समन्तादवलोक्यानुकम्पाख्येन सम्यक्त्वपरिणामेन -' इमे संसारचक्रपरिभ्रान्ताः गारीरैर्मानसैव विविधदुःखैः पराभूताः सन्ती' - ति मत्वा स्वात्मौपम्येन तेषां दुःखान्यनुभूय स्वकीय परकीयभावाऽभावपूर्वकमभयदानेन, प्राणिनां रीत स्वभाववाला है' इसका तात्पर्य यही है कि वह कर्म के उदद्य के आधीन नहीं है, अपितु आत्मा का निजस्वभाव है । एक बार जिस जीव को इसकी प्राप्ति हो जाती है उसको फिर इस संसारमें परिभ्रमण नहीं करना पड़ता, एवं जीव को वहां पर निरतिशय अनंत आनन्द की प्राप्ति होती है इसलिये वह मोक्ष स्वयं अपूर्व अनंत आनन्द का एक धाम है | संवेग परिणामवाला जीव इस प्रकारके मोक्षसुखकी ही अभिलाषा करना है ।
(३) निर्वेद - निवेद्गुणवाला जीव - 'नरक, निर्यञ्च देव और मनुव्यभवमें सर्वत्र ही दुःखका साम्राज्य छाया हुआ है इस लिये यह समल जगत दुःखका एक भाजन है' ऐसा समझ कर उसको निःसार-साररहित ही जानता है । ममतारूप जहर से वह दूर ही रहता है।
(४) अनुकंपा - दुःखी जीवों पर दयाभाव होना ही अनुकंपा है। इस गुणवाला जीव संसारस्थ समस्त प्राणिवर्ग को शारीरिक मानसिक વિપરીત સ્વભાવવાળે છે એને તાપ એ છે કે તે કર્મના ઉદયને આધીન નથી પણ આત્માને નિજસ્વભાવ છે. એક ાર જે જીવને નેક્ષની પ્રાપ્તિ થઈ ગઈ તે પછી એને આ સસાના પરિભ્રમણ કરવું પડતું નથી. અને જીવને ત્યાં નિવૃતિશાય અનંત આનંદની પ્રાપ્તિ ધાય છે, તેથી તે મેાક્ષ પોતે અપૂર્વ અનંત અનંદને ધામ છે. સવેગપરિનવાળે જીવવા પ્રકારના મેક્ષ સુખનીજ
અભિલાષા કરે છે,
(3) निवेद—निवे दनुहु वाणी उब-- नरड, तिथेय, डेव जने भनुष्य नवभां સવંત્ર દુખતુ સામ્રાજ્ય જ પધરાયેલું છે. એથી સમસ્ત આ જગત દુઃખતુ એક લજ્જત છે' એવું સમજીને તેને નિઃસાર-સારરહિત માને છે. મમતારૂપી ઝેરથી તે દૂર જ રહે છે (४) अनुकंपा जी व उपर दावी तेनु नाननुया है, વ...! જીવ સારના સમસ્ત પ્રણુિવર્ણ ને અનેક શારીરિક માનસિક કષ્ટોથી
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ.१
५४९ (१) शमरूपेण सम्यक्त्वपरिणामेन सर्वस्मिन्नपि काले प्रतिकूलकारिणेऽपि न क्रुध्यति ।
(२) संवेगाख्येन तेन 'सकलमहीमण्डलेश्वरस्य देवेन्द्रस्य च मुखं परमार्थतो दुःखमेव, कर्मजन्यत्वात् सावसानत्वादस्वाभाविकत्वाचेति मन्यमानो मोक्षादन्यत् किंचिन्न वाञ्छति, मोक्षो हि स्वाभाविकात्मपरिणामरूपः कर्माजन्यः पर्यवसानरहितो निरतिशयानन्दरूपश्चास्ति । आदि जो बाहर के प्रशस्त व्यापार हैं ये ही उसके कार्य हैं। इनसे ही उसके अस्तित्वका बोध होता है।
(१) शम--शमरूप सम्यक्त्वके परिणामवाला जीव किसी भी समय अपने से प्रतिकूल आचरण करनेवालों पर भी क्रोध नहीं करता है, अर्थात्-कषायों का शमनरूप यह परिणाम है, अथवा कषायों का शमन ही शम है।
(२) संवेग-संसाराभीरुता संवेग:---संसारसे भयभीत होना ही संवेग है । इस परिणामवाला जीव चक्रवर्ती और इन्द्र के भी वैषयिक सुखों को अपनी दृष्टि से दुःखरूप ही मानता है। कारण कि वह उनका सुख, कर्म-( सातावेदनीय) के उदयाधीन होने से सान्त-नाशवान है, एवं यह आत्मिक स्वभाव से प्रतिकूल है, और मोक्ष तो इससे विपरीत स्वभाववाला है, अतः उसके अतिरिक्त और कोई भी सांसारिक पदार्थ इसकी दृष्टि का मोहक नहीं बन सकता, इसलिए मोक्ष के अतिरिक्त और किसी भी पदार्थ की प्राप्तिकी वांछा इसके नहीं रहती। मोक्ष इससे विपમાયિક પિષધ, પ્રતિકમણ, ત્યાગ, પ્રત્યાખ્યાન આદિ જે બાહ્ય પ્રશસ્ત વ્યાપાર છે તે જ તેના કાર્યો છે, તેનાથી જ તેના અસ્તિત્વને બોધ થાય છે.
(१) शम-शभ३५ सभ्यत्वना परिणामवाणो ०१ मत पाताथी પ્રતિકૂળ આચરણ કરવાવાળા ઉપર પણ કેધ કરતું નથી. અર્થાત્ કષાયના શમનરૂપ આ પરિણામ છે, અથવા કષાયાને શમન જ શમ છે.
(२) संवेग-'संसाराद्भीरता संवेगः' संसारथी लयभीत थर्बु त सवेर છે. આ પરિણામવાળા જીવ ચકવતી અને ઈદ્રોના વૈષયિક સુખોને પણ પોતાની દષ્ટિથી દુઃખરૂપ જ માને છે કારણ કે તે એના સુખ, કર્મ (સાતવેદનીય)ના ઉદયાધીન હોવાથી સાંત–નાશવાન છે, એ આત્મિક સ્વભાવથી જ પ્રતિકૂળ છે, અને મોક્ષ તો એનાથી વિપરીત સ્વભાવવાળો છે. એથી એનાથી અતિરિક્ત બીજે કેઈ પણ સાંસારિક પદાર્થ એની દૃષ્ટિને મોહક નથી બની શકતે, તેથી મોક્ષના અતિરિક્ત કઈ પણ પદાર્થની પ્રાપ્તિની વાંછના એને રહેતી નથી. “મોક્ષ એથી
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आचारागसूत्रे तपासमाराधनैः, तथाहि-पर्याप्तापर्याप्तकादिभेदवतां पृथिव्ययतेजोवायुवनस्प-द्वीन्द्रियादिविविधत्रसानां च त्रिकरणत्रियोगैरुपमर्दनपरिहारपूर्वकरक्षणरूपम चतं, तथा स्वस्त्रभेदेवहुविधमृपावादादत्तादानमैथुनपरिग्रहपरिहाररूपाणि नि, शीतोष्णादिकठिनतरपरिवहसहनपूर्वकसप्तदशविधसंयमसमाराधनम् , अनशग्रतरद्वादशविधतपश्चरणजनितशरीरादिशोपणेन धन्यमुनिवद् घोरतरकष्टसहनं -। तथा-किं पुनमहाविस्तरदुरधिगमसामायिकादिद्वादशाङ्गरूपश्रुतज्ञानरपि ?
चेन्न, इंसादि महाव्रत संयम और तप आदिके पालन एवं आराधन करने
आवश्यकता क्या है ? अर्थात्-एक सम्यग्दर्शन से ही जीवको मुक्ति लाभ हो जावे तो पर्याप्त और अपर्याप्त-भेदविशिष्ट एकेन्द्रियवीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, और वनस्पतिकायके जीवों एवं द्वीन्द्रियादिक अनेक प्रकारके ब्रम जीवों की कृन कारित अनुना और मन वचन कायसे विराधना का त्याग करना, एवं उनका ण करना जो अहिंसा-महाव्रत है उसका पालन १, तथा अनेक प्रकामृषावाद २, अनेक प्रकार के अदत्तादान-चोरी ३, मैथुन ४, एवं परि५ का त्यागरूप पांच महाव्रतों का आराधन, एवं कठिनतर परिषहों सहनपूर्वक (१७) सतरह प्रकारके संयम का सेवन करना, तथाधन्य की तरह अनशनादिक (१२) बारह प्रकार के तपके आचरणसे उत्पन्न रादिक शोपण से घोरतर कष्टों का सहन करना; ये सभी बिल्कुल व्यर्थ हैं ? तथा सामायिकादिद्वादशांगरूप श्रुतज्ञान, कि जो महाડાત્રત સયમ અને તપ વિગેરેનું પાલન અને આરાધના કરવાની આવશ્યકતા . છે? અર્થા–એક સમ્યગ્દર્શનથી જ જીવને મુક્તિને લાભ થઈ જાય તે પ્તિ અને અપર્યાપ્ત ભેદ-વિશિષ્ટ એકેન્દ્રિય-પૃથ્વીકાય, અકાય, તેજસ્કાય, કાય, અને વનસ્પતિકાય–ના જીવની, અને બેઈન્દ્રિયાદિક અનેક પ્રકારના ૫ જીવોની કૃત કારિત અનુમોદના અને મનવચન કાયાથી વિરાધનાને ત્યાગ કર, ને તેનું રક્ષણ કરવું જે અહિંસા મહાવ્રત છે તેનું પાલન ૧, તથા અનેક પ્રકારના પાવાદર અનેક પ્રકારના અદત્તાદાન–ચોરી ૩, મિથુન, અને પરિગ્રહ પ ના ત્યાગરૂપ ચમડાત્રનોનું આરાધન, અને કઠિનતર પરિવહન સહનપૂર્વક સનર પ્રકારે સંયમનું વન કરવું, નયા ધન્યમુનિની પેછે અનશનાદિક બાર પ્રકારના તપના આચરણથી પિન્ન શરીરાદિક દેવાથી ઘરતર કષ્ટનું સહન કરવું, એ બધા બિલકુલ જ
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सम्यक्त्व-मध्य० ४ उ. १ रक्षणेन, मार्यमाणानां संकटान्मोचनेन, धर्मोपदेशेन मोक्षमार्गे योजनया च यथा
सामर्थ्य मनुग्रहं कुरुते । __(५) आस्तिक्यपरिणामेन च ' यदिह तीर्थकरैः प्रतिबोधितं तत् सर्वमेव सत्य, तथैव सर्वे जीवाजीवादयोऽर्थाः सन्ति निश्शकम् ' इति मन्यते । स च कासादिविस्रोतसिकारहितो भवति ।
एवंभूतैः शमादिपरिणामैः सम्यक्त्वं विज्ञेयं भवितुमहति । लब्धसम्यक्त्वश्च सम्यग्दृष्टिरित्युच्यते । स चान्तर्मुहूर्तकालमपि सम्यक्त्वेन स्पृष्टश्चेदुत्कृष्टतो देशोअनेक कष्टों से व्यथित ही अनुभव किया करता है, और अपने समान ही उन्हें मान कर उनके उन दुःखों का स्वयं अनुभव करके निष्पक्ष दृष्टि से युक्त हो कर उनके उन दुःखों को दूर करने की यथाशक्ति कोशिश में रहता है । अपनी शक्तिके अनुसार उनकी रक्षा करता है। भरते हुए तथा घातकद्वारा मारे जाते हुए जीवों को यथाशक्ति बचाता है और मोक्षमार्गसे विपरीत जनों को सहर्मके उपदेश से भावित कर उन्हें मोक्षमार्ग में लगाने की अपनी शक्तिके अनुसार चेष्टा भी करता है।
(५) आस्तिक्य-"जो जिनेन्द्रदेवने कहा है वह सर्प ही सत्य है" इस प्रकार दृढ आस्थावाली मति ही आस्तिक्य भाव है। इस आस्तिक्य भाववाला जीव जिनप्रतिपादित तत्वों में निश्शंक होकर हद आस्थासम्पन्न होता है । वह जीव जिनवचनों में शंकाकासादिरहित होता है।
इन पूर्वोक्त शमादिभावरूप चिहोंसे सम्यक्त्व का अस्तित्व जाना जाता है । जीव यदि सम्यग्दर्शनका एक अंतमुहूर्त भी स्पर्श कर लेता વ્યથિત જ અનુભવ કર્યા કરે છે. અને પિતાના સમાન જ તેઓને માનીને તેઓના તે દુખોને અનુભવ સ્વયં કરીને નિષ્પક્ષદષ્ટિયુક્ત થઈ તેઓના તે દુઃખને દૂર કરવાની યથાશક્તિ કોશિશમાં રહે છે, પિતાની શક્તિના પ્રમાણમાં તેની રક્ષા કરે છે. મસ્તા જીવને તથા ઘાતકી દ્વારા મરાતા જીવને યથાશક્તિ બચાવે છે, અને મોક્ષમાર્ગથી વિપરીત જનોને ધર્મના ઉપદેશથી ભાવિત કરી તેને મોક્ષમાર્ગમાં લગાડવામાં પોતાની શક્તિ અનુસાર ચેષ્ટા કરે છે.
(५) आस्तिस्य- विजनेन्द्र देवे ह्यां छे ते सर्व सत्य छे." 2Alરની દઢ આસ્થાવાળી મતિ જ આસ્તિય ભાવ છે. આ આસ્તિકયભાવવાળાં જીવ જિનપ્રતિપાદિત તત્તમાં નિશંક થઈને દઢ આસ્થાવાળા થઈ જાય છે. તે જીવ જિન વચનમાં શંકાકાંક્ષાદિરહિત હોય છે.
આ પૂર્વોક્ત શમાદિભાવરૂપ ચિહ્નોથી સમ્યક્ત્વનું અસ્તિત્વ જાણવામાં આવે છે. જીવ જે સમ્યગ્દર્શનને એક અંતર્મુહૂર્ત પણ સ્પર્શ કરી લે છે તે નિયમથી
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आचाराङ्गसूत्र 'से हु मुणी परिण्णायकम्मे ' इति पुनः पुनर्वदता सम्यक्चारित्रमेव मोक्षमाप्तिकारणमिति प्रतिबोधितम् । उत्तराध्ययनेऽपि
" नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा ।
अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं "॥१॥ (अ०२८) सम्यग्ज्ञान भी सम्यक्चारित्र को उत्पन्न करता हुआमोक्षका कारण माना गया है । ज्ञानकी सत्ता भले ही आत्मा में हो परन्तु जब तक वह आत्मामें चारित्रपरिणाम को उत्पन्न नहीं कर देता, तब तक मोक्ष का जनक नहीं हो सकता। इसी अभिप्राय को ले कर भगवानने इसी प्रथम अध्ययन में "सेतु मुणी परिण्णायकम्मा" अर्थात्-जो छ काय के आरंभ को जपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यानपरिजा से त्यागता है वही मुनि चारित्रवान् गिना जाता है । इस कथन द्वारा भी सम्धक्चारित्र को ही मोक्षप्राप्तिका कारण प्रकट किया है। उत्तराध्ययनके २८ वें अध्ययनमें भी इसकी पुष्टि की गई है। जैसे" नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा ।
अगुणिस्स नत्यि मोक्खो, नत्थि अभोक्खस्स निव्वाणं "॥१॥ अर्थात्-सम्यग्दर्शनरहित आत्मामें सम्यग्ज्ञान नहीं होता। सम्यग्ज्ञान से रहिन आत्मा को चारित्रगुणकी प्राप्ति नहीं होती। चारित्र गुण की प्राप्ति किये बिना मोक्ष नहीं होता, एवं अमुक्तका निर्वाण नहीं होता ॥ १॥ उत्त० अ० २८॥
સમ્યજ્ઞાન પણ સમ્યક-ચારિત્રને ઉત્પન્ન કરતા મોક્ષનું કારણ માનવામાં આવે છે જ્ઞાનની સત્તા ભલે જ આત્મામા છે, પરંતુ જ્યાં સુધી તે આત્મામાં ચાપિરિણામને ઉત્પન્ન નથી કરતું ત્યાં સુધી મોક્ષનું ઉત્પાદક નથી થતું આ मित्रायने ने लगवाने या प्रथम अध्ययनमा “ से हु मुणी परिणायकम्मा " અર્થા–જે છે કાયના આરે ભને ઝપરિત્રાથી જાણીને પ્રત્યાખ્યાનપરિસાથી ત્યાગે છે તે જ મુનિ ચારિત્રવાન માનવામાં આવે છે આ કથન દ્વારા પણ સમ્યક્રચારિત્રને જ મેક્ષપ્રાપ્તિનું કારણ પ્રગટ કર્યું છે. ઉત્તરાધ્યયન અધ્યયન ૨૮માં પણ એની પુષ્ટિ કરી છે જેમ–
" नादसणिरस नाणं, नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा । __ अगुणिस्स नत्थि मोवो, नत्थि अमोक्खस्स निव्याणं" ।।१॥ उत्त०अ०२८॥ અર્થાતુ–
રાશિનરહિત આત્મામાં અભ્યજ્ઞાન નથી થતુ સમ્યજ્ઞાનથી રહિત આત્માને ચારિત્ર ગુણની પ્રાપ્તિ થતી નથી ચારિત્રગુણની પ્રાપ્તિ કર્યા વિના મોક્ષ થતુ નથી, અને અમુકનનુ (કર્મથી મુક્ત નહિ તેનું) નિર્વાણ થતું નથી. ૧
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संम्यक्त्व - अध्य० ४. उ.
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ज्ञानचारित्रसमुत्पादनद्वारा सम्यक्त्वस्य मोक्षं प्रति कारणत्वात् तथाहि न केवलं सम्यक्त्वमात्रेण सिद्धिपदं लब्धुं शक्यते, किन्तु सम्यक्त्वकार्यरय तदभिव्यञ्जकस्य चारित्रस्यैव मोक्षं प्रति साक्षात्कारणतया तेनैव तत्माप्तिर्भवितुमर्हति सम्यग्ज्ञानमपि चारित्रोत्पादनद्वारेणैव मोक्षजनकम् । यतश्चारित्र परिणामेनैव ज्ञानमपि मोक्षाय प्रभवति, न केवलं स्वसत्तामात्रेण । अत एव भगवताऽचैव प्रथमाध्ययने विस्तारसम्पन्न एवं दुरधिगम है, उसका श्रवण, मनन आदि करना भी हिसार ही है ? |
समाधान --- शङ्काकार की यह शङ्का ठीक नहीं है; क्यों कि स्वतन्त्र सम्यग्दर्शन मोक्षका कारण नहीं माना गया है। जब तक जीव को सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती है तब तक उसके ज्ञान और चारित्र मिथ्यारूप में रहते हैं । ज्ञान और चारित्र में सम्यक्पना इसी सम्यक्त्व के द्वारा आता है, अतः सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की उत्पत्ति द्वारा ही सम्यक्त्व मोक्षका हेतु होता है । इसी अभिप्रायको ले कर सम्यक्त्व, मोक्ष का कारण कहा गया है। जब तक सम्यक्त्व पूर्ण ज्ञान और पूर्ण चारित्र को उत्पन्न नहीं कर देता तब तक वह मोक्षका कारण नहीं होता। मुक्ति सम्यक्चारित्र से ही प्राप्त होती है, इस कारण से सम्यक् चारित्र ही मुक्तिका साक्षात् कारण है । यह चारित्र सम्यक्त्व का कार्य और उसका अभिव्यंजक-प्रकाशक होता है ।
ન્ય છે ? તથા સામાયિકાહિદ્વાદશાંગરૂપ શ્રુતજ્ઞાન, કે જે મહાવિસ્તારસંપન્ન અને દુરધિગમ છે; તેનું શ્રવણ મનન આદિ કરવું પણ નિસ્સાર જ છે ?
સમાધાન~~શ કાકારની શંકા ઠીક નથી, કારણ કે સમ્યગ્દર્શન મોક્ષનું સ્વતન્ત્ર કારણ માનવામાં આવ્યું નથી. જ્યાં સુધી જીવને સમ્યકત્વની પ્રાપ્તિ નથી થતી ત્યાં સુધી તેનું જ્ઞાન અને ચારિત્ર મિથ્યારૂપમાં રહે છે. જ્ઞાન અને ચારિત્રમાં સમ્યપણું આ સમ્યકત્વદ્વારા આવે છે, એથી સભ્યજ્ઞાન અને સમ્યક્ચારિત્રની ઉત્પત્તિ દ્વારા જ સમ્યકત્વ મોક્ષના હેતુ થાય છે. આ અભિપ્રાયને લઈ ને જ સમ્યકત્વને મેાક્ષનું કારણ કહેવામાં આવ્યું છે. જ્યાં સુધી સમ્યકત્વ પૂર્ણ જ્ઞાન અને પૂર્ણ ચારિત્રને ઉત્પન્ન નથી કરતું ત્યાં સુધી તે મેાક્ષનુ કારણ નથી થતું. મુક્તિ સમ્યક્-ચારિત્રથી જ પ્રાપ્ત થાય છે, આ કારણથી સફ્ ચારિત્ર જ મુક્તિનું સાક્ષાત્ કારણ છે. આ ચારિત્ર સમ્યકત્વનું કાય અને તેનુ
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आचारागसूत्रे " शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा, यस्तु क्रियावान् पुरुपः स विद्वान् । सुचिन्तितं चौपधमातुराणां, न नाममात्रेण करोत्यरोगम् " ॥१॥
सम्यक्त्वसद्भावे शमसंवेगादयो गुणाः प्रसभमुदयन्ते, तदानीं कथमपि तदुदयं प्रतिरोद्धं न कञ्चन समर्थो भवति । उक्तञ्च" असमसुखनिधानं धाम संविग्नतायाः, भवमुखविमुखत्वोदीपने सद्विवेकः ।
नरनरकपगुत्वोच्छेदहेतुनराणां, शिवसुग्वतस्वीजं शुद्धसम्यक्त्वलाभः"॥१॥ विषयक अभ्यास, एवं परिपक्व ज्ञान क्या कभी औषधिसेवनके विधि की अनभिजता में नीरोगता का कारण हो सकता है ? नहीं हो सकता। यदि हो सकता तो फिर उसका नाम रटनेवाले रोगी पुरुषों की बात ही क्या कहनी ? उन्हें भी उससे फायदा हो जाना चाहिये। कहा भी है"शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मृी, यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् ।
सुचिन्तितं चौपचमातुराणां, न नाममात्रेण करोत्यरोगम् " ॥१॥ ___ शास्त्रोको पढ़कर भी मनुष्य मूर्ख रह जाते हैं। जो क्रियावान् है वही विद्वान् है । बीमार व्यक्तिको सुचिन्तित भी औषधि नाममात्र लेने से आरोग्यदायक नहीं होती ॥१॥
सम्यक्त्वके सद्भावमें शमसंवेगादिक गुणोंकी उत्पत्ति अवश्य होती है, उनको रोकने के लिये कोई भी समर्थ नहीं हो सकता, क्यों कि यह सर्वगुणसम्पन्न है । कहा भी है.
" असमसुखनिधानं धाम संविग्नतायाः, ___भवसुखविमुखत्वोद्दीपने सटिवेकः। नरनरकपशुत्वोच्छेदहेतुर्नराणां,
शिवसुखतरुवीज शुद्धसम्यक्त्वलामः" ॥१॥ અનભિજ્ઞતામા ની રેગતાનું કારણ કેઈ વખત બની શકે છે ?–નથી બની શકતું. જે બની શકે તે પછી તેનું નામ લેવાવાળા રોગી પુરૂષોની વાત જ શુ કહેવી? તેને પણ તેનાથી ફાયદે થવી જોઈએ કહ્યું પણ છે.--
." शाखाण्यवीत्यापि भवन्ति मूर्खा,-यस्तु क्रियावान् पुरुपः स विद्वान् । सुचिन्तितं चापधमातुराणा, न नाममात्रेण करोत्यरोगम्" ॥ १ ॥
શાસ્ત્રને અભ્યાસ કરીને પણ મનુષ્ય મૂર્ખ રહી જાય છે. જે કિયાવાન છે તે વિદ્વાન છે બનાર મનુષ્યને સુચિન્તિત પણ એવધિ નામમાત્ર લેવાથી આગ્યદાયક નથી થતી ૧
સમ્યક્ત્વના ભાવમાં શમસ વેગાદિક ગુણાની ઉત્પત્તિ અવશ્ય થાય છે, એને ફરવાને માટે કઈ સમર્થ થતું નથી કારણ કે તે સર્વગુણસંપન્ન છે. કહ્યું પણ છે--
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सम्यक्त्व - अध्य० ४ उ. १
सूत्रकृताङ्गे व " एवं खु नाणिणो सारं, जं न हिंसह किंचणं ।
BA
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अहिंसा समयं चेव, एयावतं वियाणिया ॥ १ ॥
(अ० ११) ज्ञानं हि क्रियापरिणामानापन्नं सत् कमप्यर्थं साधयितुं न शक्नोति । यथा शास्त्राभ्यसनकुशलोऽपि तदर्थविज्ञाननिपुणोऽपि तदुक्तधर्मानाचरणेन तदभ्यसनादिकं सर्वं निष्फलीकुर्वन्नहि विद्वत्पदं लभते । यथा वा - औषधस्वरूपगुणप्रज्ञावतामपि वैद्यानां तत्सविधिसेवन क्रियामन्तरेण तस्मज्ञा नैरुज्यं न जनयति, यद्यौपधज्ञानवतामियमवस्था, तर्हि का वार्त्ता केवलं तन्नामरटनशीलानां जनानाम् । तथा चोक्तम्सूत्रकृताङ्ग में भी यही लिखा है
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एवं खु नाणिणो सारं, जं न हिंसह किंचणं ।
अहिंसा समयं चेव, एयावंतं वियाणिया " ॥ १ ॥ ( सू० अ० ११) ज्ञान जब तक क्रियात्मक ( चारित्ररूप ) नहीं होता तब तक वह किसी भी इष्ट अर्थ की पुष्टि नहीं कर सकता । जैसे - शास्त्र के अभ्यास करने में कुशलमति व्यक्ति उसके अर्थका विशिष्ट ज्ञाता होकर भी जब तक शास्त्रविहित मार्ग को जीवनमें क्रियात्मकरूप नहीं देता तब तक वह उसके अभ्यास या ज्ञान से अपने किसी भी इच्छित कार्य की सिद्धि नहीं कर सकता है, और न वह यथार्थ विद्वत्ता के पदसे ही विभूषित हो सकता है । अतः उसको क्रियात्मक रूप देने के विना जैसे उसका वह अभ्यास एवं ज्ञान निष्फल है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन भी ज्ञान- क्रियाके अभाव में मोक्षका साधक नहीं होता है । वैद्यका औषधिસૂત્રકૃતાંગમાં પણ એ જ લખ્યુ છે-
66 एवं खु नाणिण सारं, जं न हिंसइ किंचणं ।
अहिसा समयं चेव, एयावतं वियाणिया " ॥ १ ॥ सूत्र० अ० ११ । જ્ઞાન જ્યાં સુધી ક્રિયાત્મક (ચારિત્રરૂપ ) નથી થતું ત્યાં સુધી તે કોઇ પણ ઈષ્ટ અર્થની પુષ્ટિ નથી કરી શકતું. જેમ શાસ્ત્રના અભ્યાસ કરવામાં કુશલમતિ મનુષ્ય એના અર્થના વિશિષ્ટ જ્ઞાતા હેાવા છતાં પણ જ્યાં સુધી શાસ્ત્રવિહિત માર્ગોને જીવનમાં ક્રિયાત્મકરૂપથી નથી ઉતારતા ત્યાં સુધી તે તેના અભ્યાસના જ્ઞાનથી પોતાના કોઈ પણ ઈચ્છિત કાર્યની સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી, અને યથાર્થ વિદ્વત્તાના પત્રથી પણ તે વિભૂષિત થઈ શકતા નથી. એથી તેને ક્રિયાત્મક રૂપ આપ્યા વિના જેમ તેના આ અભ્યાસ તેમજ જ્ઞાન નિષ્ફળ છે તે પ્રકારે સમ્યગ્દર્શન પણ જ્ઞાન-ક્રિયાના અભાવમાં મોક્ષનું સાધક થતુ નથી. વૈદ્યના ઔષધવિષયક અભ્યાસ અને પરિપકવ જ્ઞાન ઔષધિસેવનના વિધિની
તે
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आयारागसूत्रे यथामत्तिकरणम् , अपूर्वकरणम् , अनिवृत्तिकरणं चेति । यथा-अनादिसंसिद्धप्रकारेण प्रवृत्तिः अवर्तमान-यथाप्रत्ति, क्रियते कर्मक्षपणमनेनेति करणं-जीवपरिणाम रूपम् । यथाप्रवृत्ति च तत् करणं चेति यथाप्रवृत्तिकरणम् ।
एवमुत्तस्त्रापि करणशब्देन कर्मधारयो बोध्यः । एवं चानादिकालात् कर्मक्षपणप्रवृत्तोऽध्यवसायविशेषो यथाप्रवृत्तिकरणमिति फलितम् । एतानि त्रीण्यपि करणानि भव्यानां भवन्ति । अभव्यानां तु प्रथममेव यथाप्रवृत्तिकरणं भवति नेतरद्वयम् । ___ अनादि परंपरा से जो प्रवर्त्तमान है वह यथाप्रवृत्ति है, तथा कर्म क्षय जिसके द्वारा किया जाता है वह करण है, यह करण जीवका परिगामस्वरूप ही है। यथाप्रवृत्तिरूप जो करण है उसका नाम यथाप्रवृत्तिकरण है। यह इसका निरुक्त-अर्थ है। इसी प्रकार आगे भी करण शब्द के साथ कर्मधारय समास का संबंध कर लेना चाहिये । इस प्रकार अनादि कालसे कर्मक्षय करने में प्रवृत्त जीवका परिणामविशेष ही यथाप्रवृत्तिकरण है, यही इसका फलितार्थ है। ये तीन करण भव्यों के होते हैं। अभव्यों के सिर्फ प्रथम ही करण होता है, अन्तके दो नहीं होते। ___यथाप्रवृत्तिकरणरूप परिणाम जीवके होता ही रहता है । इसके द्वारा जीव उदयमें आये हुए ज्ञानावरणीयादिक आठ कर्माकी प्रकृतियों का क्षय करता रहता है। इस लिये इस परिणामके कर्मक्षय का कारण होने से जीव इसके बल पर यथासंभव कर्मस्थितिका क्षय करता हुआ घन-कठिनतर रागदेपरूपी ग्रन्धिके समीप तक पहुँच जाता है। यह प्रन्थि
અનાદિ પર પરાથી જે પ્રવર્તમાન છે તે યથાપ્રવૃત્તિ છે, અને કર્મક્ષય જેના દ્વારા કરવામાં આવે છે તે કરણ છે. આ કરણ જીવના પરિણામસ્વરૂપ છે યથાપ્રવૃત્તિરૂપ જે કરણ છે તેનું નામ યથાપ્રવૃત્તિકરણ છે. તે એને નિરૂક્ત–અર્થ છે. આ પ્રકારે આગળ પણ કરણ-શબ્દની સાથે કર્મધારય સમાસને સબધ કરી લે જોઈએ આ પ્રકારે અનાદિકાળથી કર્મક્ષય કરવામાં પ્રવૃત્ત જીવનું પરિણામ વિશેષ જ યથાપ્રવૃત્તિકર છે, તે તેનું ફલિતાર્થ છે એ ત્રણ કરણ ભવ્યોને થાય છે અભવ્યોને ફક્ત પ્રથમ જ કરણ થાય છે, બાકીના બે નથી થતા
યથાપ્રવૃત્તિકરણરૂપ પરિણામ જીવને થતા જ રહે છે એના દ્વારા જવ ઉદયમાં આવેલા જ્ઞાનાવરણીયાદિક આઠ કર્મોની પ્રકૃતિને ક્ષય કરતે રહે છે તેથી આ પરિણામ કક્ષયનુ કારણ હોવાથી આ જીવ તેના બલ ઉપર યયાસ બવ કર્મસ્થિતિને ક્ષય કરતા ઘન-કડિનતર રાગદ્વેષરૂપી ગ્રન્થિની સમીપ સુધી પહોચી જાય છે. આ પ્ર%િ એટલી ગાઢ-પ્રબલતમ છે કે જેનું આ
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सम्यक्त्व - अध्य० ४. उ. १
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किंच - " सम्यक्त्वरत्नान्न परं हि रत्नं, सम्यक्त्ववन्धोर्न परोऽस्ति बन्धुः । सम्यक्त्वमित्रान्न परं हि मित्रं, सम्यक्त्वलाभान्न परोऽस्ति लाभः " ॥ २ ॥ तदेवं सम्यक्त्वमिह मोक्षस्य वीजमिति सिद्धम् । सम्यक्त्वप्राप्तिक्रमः ।
अनादिमिथ्यादृष्टेर्जीवस्य सम्यक्त्वमाप्तौ यथाक्रमं त्रीणि करणानि भवन्ति ।
यह सम्यक्त्व अनुपम सुखका निधान है, वैराग्यकी उत्पत्ति का कारण है, वैराग्यको प्रकट करने में शुद्ध विवेक है, चार गतिके दुःखोंका उच्छेद करने में कारण है और मोक्षसुखरूप वृक्षका यह बीज है ॥ १ ॥ और भी कहा है
सम्यक्त्वरत्नान्न परं हि रत्नं, सम्यक्त्वबन्धोर्न परोऽस्ति बन्धुः । सम्यक्त्वमित्रान्न परं हि मित्रं, सम्यक्त्वलाभान्न परोऽस्ति लाभः " ॥२॥ सम्यक्त्व - रत्नसे कोई उत्कृष्ट रत्न नहीं है, इससे बढ़कर कोई बन्धु नहीं है । यह सम्यक्त्व परम मित्र है, और इसका लाभ ही परसलाभ है | इससे यह सिद्ध हुआ कि सम्यक्त्व मोक्षका मूल कारण है । सम्यक्त्वकी प्राप्तिका क्रम
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अनादि मिथ्यादृष्टि जीव जब सम्यक्त्वप्राप्तिके संमुख होता है उस समय उसके यथाक्रमसे तीन करण होते हैं- (१) यथाप्रवृत्तिकरण, (२) अपूर्वकरण, (३) अनिवृत्तिकरण ।
असम सुखनिधान धाम संविग्नतायाः, भवसुखविमुखत्वोद्दीपने सद्विवेकः । नरनरकपशुत्वोच्छेदहेतुर्नराणां, शिवसुखतरुबीज शुद्धसम्यक्त्वलाभः " ॥३॥
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આ સમ્યક્ત્વ અનુપમ સુખનું નિધાન છે. વૈરાગ્યની પ્રાપ્તિનુ કારણ છે. વૈરાગ્યને પ્રગટ કરવામાં શુદ્ધ વિવેક છે. ચાર ગતિના દુઃખના ઉચ્છેદ કરવામાં કારણ છે અને મોક્ષસુખરૂપ વૃક્ષતુ એ બીજ છે. ॥ ૧ ॥ વળી પણ કહ્યું છે— सम्यक्त्वरत्नान्न परं हि रत्न, सम्यक्त्वबन्धोर्न परोऽस्ति बन्धुः । सम्यक्त्वमित्रान्न परं हि मित्रं, सम्यक्त्वलाभान्न परोऽस्ति लाभः " ॥२॥ સમ્યક્ત્વરત્નથી કાઇ ઉત્કૃષ્ટ રત્ન નથી. એનાથી વધીને કાઈ ખંધુ નથી. આ સમ્યક્ત્વ પરમ મિત્ર છે, અને એના લાભ જ પરમ લાભ છે ! ૧u એથી એ સિદ્ધ થયું કે સમ્યકૃત્વ મેાક્ષનું મૂળ કારણ છે. સમ્યક્ત્વની પ્રાપ્તિનો ક્રમ
અનાદ્ધિમિથ્યાર્દષ્ટિ જીવ જ્યારે સમ્યક્ત્વપ્રાપ્તિને સન્મુખ થાય છે તે વખતે તેને યથાક્રમથી ત્રણ કરણ થાય છે (૧) યથાપ્રવૃત્તિકરણ (૨) અપૂર્વ કરણ, (३) अनिवृत्तिउरण.
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પદ્ર
आधाराङ्गसूत्रे ग्वाते, तथा अनंत दुःखों की परंपराको सहते हुए इस जीवके स्वाभाविक रीति से-बिना किसी प्रयत्न के-विशुद्ध यथाप्रवृत्तिकरण नामका परिणाम प्रगट होता है, जिसके द्वारा यह जीव दीर्घतर कर्मस्थिति को भी इतनी खपा देता है कि जिससे आयुकर्म को छोड़ कर शेष ज्ञानावरणीयादिक समस्त सात कौकी स्थिति पल्य के असंख्यातवें भाग कम एक कोटाकोटीसागरप्रमाण अवशिष्ट रह जाती है।
विशेषार्थ-जैसे पर्वतप्रदेशमें बहनेवाली नदीका पत्थर उसकी प्रबल धारासे आहत हो इधर-उधर टकरा कर स्वाभाविक रीतिसे गोलमोल हो जाया करता है, उसी प्रकार अनादिकालसे कर्मके वशीभूत होकर संसाररूपी समुद्र में पड़ा हुआ यह जीवरूपी पाषाणखण्ड भी चतुर्गतियों के दुःवरूपी प्रबलतम प्रवाहों से रात-दिन टकरार कर गोलमोलस्वरूप यथाप्रवृत्तिकरणरूप-अवस्थासंपन्न हो जाता है । जिस प्रकार नदीका पाषाण विना किसी प्रयत्न एवं अनाभोगरूपसे (स्वाभाविकरूपसे) गोल हो जाया करता है उसी प्रकार यह करण भी विना किसी प्रयत्न से-स्वाभाविकरूप से ही जीव को प्राप्त हो जाया करता है। यह जीव का विशुद्ध परिणाम है। इसके प्रभावसे उसके आयुकर्म को छोड़ कर अवशिष्ट (शेष ) सात कर्मोकी उत्कृष्ट स्थिति घट कर पल्यके असंપ્રયને વિશુદ્ધ યથાપ્રવૃત્તિકરણ નામનું પરિણામ પ્રાદુર્ભત (પ્રગટ) થાય છે જેના દ્વારા આ જીવ દીર્ઘતર કર્મ સ્થિતિને પણ એટલી ખપાવી દે છે કે જેથી આયુકર્મને છોડીને શેષ જ્ઞાનાવરણીયાદિક સમસ્ત સાત કર્મોની સ્થિતિ પલ્યના અસંખ્યાતમાં ભાગ હીન એકટાકોટિસાગરપ્રમાણ અવશિષ્ટ રહી જાય છે.
વિશેષાર્થ-જેમ પર્વતપ્રદેશમાં વહેવાવાળી નદીને પત્થર એની પ્રબલ ધારાથી અહીં-તહીં અથડાઈ કુટાઈને સ્વાભાવિક રીતિથી ગોળમટોળ થઈ જાય છે, તે પ્રકારે અનાદિ કાળથી કર્મના વશીભૂત થઈને સંસારરૂપી સમુદ્રમાં પડી રહેલા આ જીવરૂપી પાષાણખડ પણ ચતુર્ગતિના દુઃખરૂપ પ્રબલ પ્રવાહથી રાતદિન અથડાઈને ગળમોલસ્વરૂપ યથાપ્રવૃત્તિકરણરૂપ-અવસ્થાસંપન્ન થઈ જાય છે જેમ નદીના પાષાણ, કઈ પ્રયત્ન વિના અને અનાભોગરૂપથી (સ્વાભાવિક રૂપથી) ગેળ થયા કરે છે તે પ્રકારે આ કરણ પણ કઈ પ્રયત્ન વિના સ્વાભાવિક રૂપમાં જ જીવને પ્રાપ્ત થઈ જાય છે. આ જીવને વિશુદ્ધ પરિણામ છે. આના પ્રભાવથી એ જીવના આયુકમને છોડીને અવશિષ્ટ (શેય) સાત કર્મોની
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सम्यक्त्व-अध्य० ४ उ. १
अध्यवसायश्य सर्वदैव भावादुदयप्राप्तानां ज्ञानावरणीयाद्यष्टकर्मप्रकृतीनां क्षपणेन कर्मक्षयकारणतया यथामत्तिकरणेन यथासंभवं कर्मस्थिति क्षपयतो जीवस्य धनरागद्वेषपरिणामरूपो ग्रन्थिरवतिष्ठते, यथाप्रवृत्तिकरणस्य मन्दविशुद्धिपरिणामरूपत्वेन ग्रन्थिभेदनसामर्थ्याभावात् । ____ ननु तर्हि यथापत्तिकरणेन कियती कर्मस्थितिः क्षपिता भवति ? उच्यतेयथा गिरिनद्यां पापागवण्डानि तद्वेगतो घर्षणादिना वर्तुलाकाराणि जायन्ते, एवमनादिकालतः पूर्वपूर्वकर्मवगाच्चतुर्गतिकसंसारसागरं प्राप्तस्यानन्तदुःखानि सहमानस्य जीवस्य परिणामस्वभावतयाऽनाभोगनिर्वर्तितेन यथाप्रवृत्तिकरणाख्येन विशुद्धिपरिणामेन दीर्घतराऽपि कर्मस्थितिस्तथा क्षपिता भवति यथाऽऽयुर्वर्जानां ज्ञनावरणीयादिकर्मणां सर्वेषां स्थितिः पल्योपमासंख्यातभागन्यूनैककोटीकोटीसागरोपमप्रमाणाऽवशेषा तिष्ठति । इतनी गाढ-प्रबलतम होती है कि जिसका इस परिणामके द्वारा भेदन करना सर्वथा अशक्य कार्य है । जीवको इस ग्रन्थिके देश तक पहुंचाना ही इस परिणाम का काम है । ग्रन्थिका भेदन इसके द्वारा इस लिये नहीं होता है कि यह परिणाम मन्दविशुद्धिवाला है।
शङ्का-आपका कथन ठीक है; परन्तु अभी तक यह मालूम नहीं हो रहा है कि इस परिणामके द्वारा कितनी कमस्थितिका क्षय होता है।
उत्तर-जैसे पर्वतीय नदी में पाषाणखण्ड नदीके प्रबल प्रवाह के वेगसे लुड़कते हुए और इधर उधर से टकराते हुए स्वाभाविक रीतिसे गोलमोल हो जाता है, उसी प्रकार अनादिकालसे कर्मकी अनवच्छिन्न संतति (अटूट परंपरा) के वशीभूत रह कर चतुर्गतिस्वरूप इस संसार महासागरमें गोते પરિણામદ્વારા ભેદન કરવું સર્વથા અશક્ય કાર્ય છે. જીવને આ ગ્રથિના દેશ સુધી પહોંચાડવું જ આ પરિણામનું કામ છે ગ્રથિનું ભેદન એના દ્વારા તે માટે નથી થતું કે આ પરિણામ મવિશુદ્ધિવાળું છે.
શંકા–આપનું કથન ઠીક છે, પરંતુ હજુ સુધી એ માલુમ નથી કે આ પરિણામ દ્વારા કેટલી કર્મસ્થિતિને ક્ષય થાય છે.
ઉત્તર-જેમ પર્વતીય નદીમાં પાષાણખંડ એના પ્રબલ પ્રવાહના વેગથી આમ-તેમ અથડાઈને ઘસાતો ઘસાતો સ્વાભાવિક રીતિથી ગોળમોલ થઈ જાય છે, તે જ પ્રકારે અનાદિ કાળથી કર્મની અનાવચ્છિન્નસંતતિ-અતુટપરંપરાને વશીભૂત રહીને ચતુર્ગતિસ્વરૂપ આ સંસારમહાસાગરમાં ગોથા ખાતાં અને અનંત દુઃખોની પરંપરાને સહન કરતાં એ જીવને સ્વાભાવિક રીતિથી-વિના કોઈ
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आचारागसूत्रे भवति । एतदनन्तरं कश्चिदेव महात्मा भव्यजीवस्तु यथाप्रवृत्तिकरणाख्यपरिणामादप्यधिकविशुद्धिपरिणाम प्राप्तुमर्हति, स एवापूर्वकरणाख्यः परिणामः । तं प्राप्यासौ निशितकुठारधारयेव परमविशुद्धया घनरागडेपातिदृढसंस्काररूपं ग्रन्थि सर्वथा छिनत्ति भिनत्ति च । ___ यत् पूर्व न जातं तदपूर्वम्, अपूर्वं च तत् करणं चेत्यपूर्वकरणम् । अयं परिणामः सकृदेव भवति, न तु पुनः पुनरिति । यथाप्रतिकरणं खमव्यानामप्यनन्तशः प्रादुर्भवति । तस्मादभव्या अपि यथाप्रवृत्तिकरणेन कर्म क्षपयित्वा ग्रन्थि यावदनन्तशः समागच्छन्ति ।
अपूर्वकरणपरिणामेन ग्रन्थेः सर्वथा भेदने कृते सति तदपेक्षयाऽप्यधिकविशुद्धिपरिणामो भवति, स त्वनिवृत्तिकरणपरिणामः । तदव्यवहितोत्तरकाले जीवः सम्यक्त्वं नियमतः प्राप्नोति, न चासो सम्यक्त्वमनवाप्य निवर्तते, तस्मादनित्तिग्रन्थिको सर्व प्रकार से छिन्न-भिन्न कर डालता है। यह परिणाम जीव को पहिले कभी भी प्राप्त नहीं हुआ इसी लिये इसकी अपूर्वकरण संज्ञा है ।जो पहिले न हुआ हो वह अपूर्व है । अपूर्व जो करण वह अपूर्वकरण है। वह परिणाम जीवके लिये एकवार ही होता है, बारंबार नहीं। यथाप्रवृत्तिकरण तो अभव्यों के अनन्तबार भी हो जाता है, इस लिये वे इस के द्वारा कर्मो का क्षपण कर अन्थिदेश तक अनंतबार आ जाते हैं। ____ अपूर्वकरण-परिणाम से ग्रन्थिका सर्वथा भेद होने पर इसके अनन्नर उस से भी अधिक विशुद्ध परिणाम उत्पन्न होता है, जिस का नाम अनिवृत्तिकरण है । इसके द्वारा व्यवधानरहित इसीके उत्तरकालमें (इसी समय) जीव नियमसे सम्यक्त्व की प्राप्ति कर लेता है। નાખે છે અને ભેદી નાખે છે. આ પરિણામ જીવને પહેલા કેઈ વખત પણ પ્રાપ્ત નથી થયુ તેથી એની અપૂર્વકરણ સંજ્ઞા છે જે પહેલા નથી થયું તે અપૂર્વ છે અપૂર્વ જે કરણ તે અપૂર્વ કારણ છે આ પરિણામ જીવને માટે એક વાર જ થાય છે, વારંવાર નહિં યથાપ્રવૃત્તિકરણ તે અભવ્યાને અન ત વાર પણ થાય છેઆથી તે એના દ્વારા કર્મોનુ પણ કરીને પ્રથિદેશ સુધી અન તીવાર આવે છે
અપૂર્વકરણ-પરિણામથી ગ્રન્થિનો સર્વથા ભેદ થવાથી એના પછી આનાવી પણ અધિક વિશુદ્ધ પરિણામ ઉત્પન્ન થાય છે, જેનું નામ અનિવૃત્તિકહ્યું છે એના કારણે રાવધાનરહિત એના ઉત્તરકાળમા (એ જ વખતે) જીવ નિયમથી સમ્યકત્વની પ્રાપ્તિ કરી લે છેઆ પરિણામ ગમ્યકત્વપ્રાપ્તિ કરાવ્યા
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ.
अत्रान्तरे च जीवस्य कमजनितो घनरागद्वेपपरिणामरूपः कर्कशनिविडचिरप्ररूढगूढवक्रग्रन्थिवद् दुर्भेद्यः कर्मस्थितिविशेपो ग्रन्धिर्भवति ।
अभव्योऽपि जीवः ग्वलु यथाप्रवृत्तिकरणेन प्रागुक्तकर्मणां दीर्घतरस्थिति हासयन्नेककोटीकोटीसागरोपमप्रमाणां कर्तुमर्हति, परन्तु ग्रन्थिभेदनाय न समर्थों ख्यातवें भाग कम एककोटाकोटिसागरप्रमाण (अन्तःकोटाकोटि सागरप्रमाण ) रह जाती है।
इसके बाद जीवके कर्मजनित-कर्मों से उत्पन्न की गई-और सघन कठिनतर रागद्वेष परिणामवाली कर्मों की विशेषस्थितिरूप एक ग्रन्थि होती है, जो अत्यन्त कठोर, सघन और पुरानी गूढ गांटके समान दुर्भेद्य होती है। जैसे-बहुत पुरानी कठोर गांठका-कि जो चिकनाई आदिके संबंधसे अत्यन्त चिपट गई है और जिसका फंदा भी नजर नहीं आ रहा है, एवं जो टेड़ी मेड़ी लगी हुई है; उसका खोलना शक्य है, उसी प्रकार की यह कर्मस्थिति भी एक दुर्भेद्य गांठ है। ___अभव्य जीव भी इसी यथाप्रवृत्तिकरण द्वारा आयुकर्म सिवाय अन्य सात कर्मोकी उत्कृष्ट स्थिति को खपा कर एक कोटाकोटी सागर प्रमाण कर देता है। परन्तु ग्रन्थिभेदन नहीं कर सकता। इसके पश्चात् कोई ही महात्मा भव्य जीव यथाप्रवृत्तिकरण से भी अधिक विशुद्धिसंपन्न अपूर्व करण को प्राप्त करता है। इसके द्वारा वह धन रागद्वेषरूप अतिदृढ़ ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ઘટીને પલ્યના અસંખ્યાતમાં ભાગ હીન એક કોટાકોટીસાગર प्रमाण (सन्तोटाटिसागरप्रमा) २ही तय छे.
ત્યાર બાદ જીવની કર્મ નિત-કર્મોથી ઉત્પન્ન થયેલી–અને સઘન કઠિનતર રાગદ્વેષપરિણામવાળી કર્મોની વિશેષ સ્થિતિરૂપ ક બ્ધિ હોય છે, જે અત્યન્ત કઠેર, સઘન અને જુની ગૂઢ-ગાંઠની સમાન દુર્ભેદ્ય હોય છે. જેમ ઘણું જુની કઠણ ગાંઠનું, કે જે ચિકણાપણું વિગેરેના સંબંધથી અત્યન્ત ચેટી ગયેલ છે, અને જેને સાંધે પણ નજર નથી આવતું, અને જે વાંકીચુકી લાગેલી છે; એનું તેડવું જેમ અશક્ય હોય છે. તે જ પ્રકારની આ કર્મ સ્થિતિ પણ એક દુર્ભેદ્ય ગાંઠ છે.
અભવ્ય જીવ પણ આ યથાપ્રવૃત્તિકરણદ્વારા આયુકર્મ સિવાય અન્ય સાત કર્મોની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિને ખપાવીને એકટાકેટીસાગરપ્રમાણ કરી દે છે, પરંતુ સ્થિભેદન કરી શકતા નથી. એના પશ્ચાત્ કોઈ પણ મહાત્મા ભવ્ય જીવ યથાપ્રવૃત્તિકરણથી પણ અધિકવિશુદ્ધિસપન્ન અપૂર્વ-કરણને પ્રાપ્ત કરે છે. એના દ્વારા તે ઘન-રાગવરૂપ અતિદત પ્રશ્વિને સર્વ પ્રકારથી છેદી
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आचाराङ्गसूत्रे रान्तर्मुहूर्तकाले उदेप्यमाणं मिथ्यात्वदलिकं द्विधा विधाय तत्रैकं दलिकमनिवृत्तिकरणान्तिमसमयपर्यन्ते उदयमानमिथ्यात्वदलिकेषु निक्षिपति, द्वितीयं दलिकं त्वनिवृत्तिकरणाव्यवहितोत्तरकालिकान्तर्मुहूर्तसमाप्त्यनन्तरकाले उदेप्यमाणैमिथ्यात्वदलिकैः सह संयोजयति । तथा चानिवृत्तिकरण कालाव्यवहितोत्तरकाले प्रथमोऽन्तर्मुहूतकाल एकस्तादृशः संजायते यत्र मिथ्यात्वकर्मणां किंचिदपि दलिकं नैव तिष्ठति । तथाचानेनान्तरकरणेन भव्यस्तस्मिन्नन्तर्मुहूर्ते उदययोग्यमिथ्यात्वदलिकहै वह कहते हैं जिसके अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, इन दो विशुद्ध परिणामों से विशिष्ट शक्तिका विकास हुआ है ऐसा भव्य जीव व्यवधानरहित अनिवृत्तिकरण के उत्तर अन्तर्मुहर्त-समय में आगामी कालमें उदय आने योग्य मिथ्यात्व दलियों के दो टुकडे-भाग करता है। उसमें एक टुकडे को अनिवृत्तिकरणके अन्तिमसमयपर्यन्त उद्यागत मिथ्यात्वके दलियों में प्रक्षिप्त करता है, और दूसरे भागको अनिवृत्तिकरण के अव्यवहिन उत्तरकालीन अन्तर्मुहूर्त की समाप्तिके अनन्तर (अन्तररहित ) कालमें उदय आने योग्य मिथ्यात्व के दलियों के साथ संयुक्त करता है । इस तरह अनिवृत्तिकरण कालके व्यवधानरहित उत्तर कालमें प्रथम अन्तमुहर्तकाल एक ऐसा काल होता है कि जिसमें मिथ्यात्व कर्मका एक भी दलिया शेष नहीं रहता। इस अन्तरकरण परिणाम के द्वारा भव्य जीव उस अन्तर्मुहर्तकाल में उदय योग्य मिथ्यात्व के दलियों के प्रथम स्थितिस्प एक भागको उसके पूर्वकालवी जो अકરણનું કાર્ય છે. આ કાર્ય એના દ્વારા જીવ જે પ્રકારથી કરે છે તે કહે છે જેને અપૂર્વકરણ અને અનિવૃત્તિકરણ, આ બે વિશુદ્ધ પરિણામોથી વિશિષ્ટ શક્તિને વિકાસ વે છે આવા ભવ્ય જીવ વ્યવધાન રહિત અનિવૃત્તિકરણની પછી અતમુહૂર્ત સમયમાં આગામી કાળમા ઉલ્ય આવવાયેગ્યમિથ્યાત્વના દલિના બે ટુકડા–ભાગ કરે છે એના એક ટુકડાને અનિવૃત્તિકરણના અતિમ સમયના અન્તમાં ઉદયામત મિથ્યાત્વના દલિમાં પ્રસિદ્ધ કરે છે અને બીજા ભાગને અનિવૃત્તિકરણના અવ્યવહિન ઉત્તરનલીન અન્તર્મુહૂર્તની સમાપ્તિને અનન્તર (અતરરહિત) કાળમાં ઉદય આવવા યોગ્ય મિથ્યાત્વના દલિની સાથે સંયુક્ત કરે છેઆ રીતે અનિવૃત્તિકરશુળના વ્યવધાન રહિત ઉત્તર કાળમા પ્રથમ અન્તર્મહતકાળ એક એવો કાળ થયું છે કે જેમા મિથ્યાત્વ કર્મને એક પણ દલિયુ શેષ નથી રહેતું. આ અતર
– પરિણામદાર ભવ્ય જીવ આ અન્તમુહૂર્ત કાળમા ઉદયગ્ય મિથ્યાત્વના દલિચોના સ્થિનિરૂપ એક ભાગને એને પૂર્વકાળવાર્તા જે અનિવૃત્તિકરણને
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ.१ करणमित्युच्यते । तस्य स्थितिकालोऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणः, तदानीं जीवस्य वीर्यसमुल्लासोऽपूर्वकरणापेक्षया परिवर्धते । तस्यान्तर्मुहूर्तप्रमाणायां स्थितौ संख्येयेषु भागेषु गतेषु सत्स्वेकस्मिंश्च संख्येयतमे भागे शेषे तिष्ठति सति मिथ्यात्वप्रदेशवेद्यदलिकाभावकरणरूपम् अन्तरकरण प्रवर्तते । अन्तरकरणाख्यत्त्य जीवपरिणामरयापि स्थितिकालोऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणः, परंत्वन्तर्मुहूर्तस्यासंख्यातभेदसद्भावेनानिवृत्तिकरणकालस्वरूपान्तर्मुहूर्तापेक्षया तदन्तिमभागवर्ती न्यूनोऽयमन्तस्करणकालोऽन्तर्मुहूर्तमिति ।
अनिवृत्तिकरणस्यान्तिमे भागेऽन्तरकरणस्य कार्य प्रारभ्यते, तद्यथा-अपूर्वकरणानिवृत्तिकरणलक्षणविशुद्धिपरिणामजनितसामर्थ्यसमन्वितो भव्यस्तदव्यवहितोत्तयह परिणाम सम्यक्त्व प्राप्त कराये विना छूटता ही नहीं है, इसी लिये इसका नाम “ अनिवृत्तिकरण" पड़ा है । इसकी स्थिति अन्तमुहर्त की है, जीवके अपूर्वकरणकी अपेक्षा इस समय अधिक मात्रामें वीर्योल्लास बढ़ता है । अन्तर्मुहर्तप्रमाण स्थिति में से संख्यात भाग घटते २ जब उसका अन्तिम संख्यातवां भाग अवशिष्ट रह जाता है उस समय अन्तरकरण होता है । यह मिथ्यात्व के प्रदेशोंके वेदन करने योग्य दलियों के अभाव (क्षय ) का कारण होता है। इसकी भी स्थिति अन्तमुहूर्त की है। यह अन्तर्मुहूर्त जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। अनिवृत्तिकरण के कालका अन्नमुहर्त उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त है। अन्नहितके भी असंख्यात भेद हैं। ___अनिवृत्तिकरण के अंतिम भागमें अन्तःकरणका कार्य प्रारम्भ होता है। मिथ्यात्वके प्रदेशों के वेदन करने योग्य दलियों का अभाव करना ही अन्तरकरणका कार्य है। वह कार्य इसके द्वारा जीव जिस प्रकार से करता વગર છુટતો જ નથી, તેથી તેનું નામ “અનિવૃત્તિકરણ” પડ્યું છે, એની સ્થિતિ અંતર્મુહર્તની છે જીવને અપૂર્વકરણની અપેક્ષા સમયે અધિક માત્રામાં વિલાસ વધે છે. અન્તર્મુહૂર્ત પ્રમાણ સ્થિતિમાંથી સંખ્યાત ભાગ ઘટતાં ઘટતાં
ત્યારે તેને અંતિમ સંખ્યાતમો ભાગ અવશિષ્ટ રહી જાય છે તે વખતે અન્તરકરણ થાય છે આ મિથ્યાત્વના પ્રદેશના વેદન કરવા યોગ્ય દલિના અભાવ ( क्षय) वें ॥२ थाय छे. गेनी ५४ स्थिति अन्तभुइतनी छ. २ मन्त. મુહૂર્ત જઘન્ય અન્તર્મુહૂર્ત છે. અનિવૃત્તિકરણના કાળનુ અંતર્મુહૂર્ત ઉત્કૃષ્ટ અંતર્મુહૂર્ત છે અંતર્મુહૂર્તના પણ અસંખ્તાત ભેદ છે.
અનિવૃત્તિકરણના અતિમ ભાગમાં અન્ડરકરણનું કાર્ય પ્રારંભ થાય છે મિથ્યાત્વના પ્રદેશોના વેદન કરવા યોગ્ય દલિનો અભાવ કર, એ જ અંતર
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आचारागसूत्रे अनिवृत्तिकरणान्तिमसमये व्यतीते सति यावदन्तर्मुहृतं कथमपि मिथ्यात्वदलिकानामुदयो न भवति तदानीं येपां मिथ्यात्वदलिकानामुदयसंभवस्तेषु केपांचिद् दलिकानां तत्पूर्वकाले, केयांचित् तत्पश्चात्कालेऽन्तरकरणेनोदयार्हता संपायते । अनिवृत्तिकरणस्य चरमसमयपर्यन्तं मिथ्णत्वदलिकानामुदयसद्भावेन तावकाठपर्यन्तं जीवो मिथ्यात्वी वर्तते, परं खनिवृत्तिकरणकाले व्यतीते सति सपदि जीवनोपशमिकसम्यक्त्वं प्राप्यते, तदानी मिथ्यात्वमोहनीयकर्मणो विपाकतः प्रदेशतश्च सर्वधोदयाभावात् , अत एव जीवस्य स्वाभाविकः सम्यक्त्वपरिणामः प्रकटीभवति । इदं च सम्यक्त्यमौपशमिकमित्युच्यते । उक्तञ्च
" जा गंठी ता पढम, गठि समइच्छओ भवे बीयं । __ अणियट्टीकरणं पुण, सम्मत्तपुरक्खडे जीवे" ॥ १ ॥ छाया-यावद्ग्रन्थिस्तावत्प्रथमं (करण) ग्रन्थि समतिक्रामतो ( भिन्दानस्य ) भवेद् द्वितीयम् । अनिवृत्तिकरणं पुनः सम्यक्त्वपुरस्कृते जीवे (भवति) ॥१॥इति। पीछे उद्यमें आनेकी योग्यता आती है। अनिवृत्तिकरण के चरम समय पर्यन्त मिथ्यात्व के दलियों का उदय होनेसे उतने समय तक जीव मिथ्यात्वी रहता है, परन्तुज्योंही अनिवृत्तिकरण का काल समाप्त हो जाता है त्यों ही जीव झटिति औपशामक-सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है। इस समय मिथ्यात्वमोहनीय कर्म का न तो विपाकोदय ही रहता है और न प्रदेशोदय ही। सर्वप्रकार से उसके उदय का इस समय अभाव रहता है। इसी लिये जीव का नैसर्गिक औपशमिकसम्यक्त्वर परिणाम उद्भूत (प्रगट) हो जाता है। कहा भी है
"जा गंठी ता पढमं, गंठिं समइच्छओ भवे वीयं ।
अणियही करणं पुण, सम्मत्तपुरकानडे जीवे" ॥१॥ ग्रन्थिदेश नक जीवको पहुंचा देना यह यथाप्रवृत्तिकरण (प्रथम ઉદયકાળની પછી ઉદયમાં આવવાની યોગ્યતા આવે છે. અનિવૃત્તિકરણના ચરમ સમયના અતિ ભાગમા મિથ્યાત્વના દલિયોને ઉદય હોવાથી એટલા સમય સુધી જીવ મિથ્યાત્વી રહે છે, પરંતુ જ્યારે અનિવૃત્તિકરણને કાળ સમાપ્ત થઈ જાય છે
ત્યારે જ જીવ ઝટિતિ ઔપથમિક સભ્યત્વને પ્રાપ્ત કરી લે છે. આ સમયે મિધ્યમહનીય કર્મને નથી વિપાકોદય જ રહેતા અગર નથી પ્રદેશોદય જ. સર્વ પ્રકારવી તેના ઉદયને આ વખત અભાવ રહે છે તેથી જીવનું નિમર્ગિક પમિકમ્યકત્વરૂપ પરિમ પ્રગટ થઈ જાય છે કહ્યું છે —–
· जा गठी ता पढम, गठि समइच्छओ भये वीयं । अणियट्टीकरणं पुण, सन्मत्तपुरक्खडे जीवे" ॥ १ ॥
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ. १
स्यैकभागं प्रथमस्थितिरूपं तत्पूर्वकालवनिवृत्तिकरणस्य चरमभागे उदयमानमिथ्यात्वदलिकैः सह संयोज्य स्वोदयकालात् प्रागेवोदयं प्रापयति, तेन तस्य मिथ्यात्वदलिकस्य स्वोदयकाले उदयं प्रतिरुणद्धि । द्वितीयभागस्यापि द्वितीयस्थितिनाम्नस्तस्मादन्तर्मुहूर्तादव्यवहितोत्तरकाले उदेश्यमाणतया स्वोदयकाले उदयं प्रतिरोधयतिः तदेवमनिवृत्तिकरणानन्तरोदय योग्यदलिकानां व्यवधानकरणादन्तरकरणमित्युच्यते । निवृत्तिकरण का अन्तिम भाग है उसमें उद्यमान मिथ्यात्व के दलियों के साथ संयुक्त करके उसे अपने निज उदयकालसे पहिले ही उदय में ले आता है, इस से वह भव्य जीव उस मिथ्यात्व के दलिये के उदय को उसके अपने उदयकालमें रोक देना है। तथा दूसरी स्थितिरूप मिथ्यात्वका जो द्वितीय भाग है, जो उस अन्तर्मुहूर्त से व्यवधानरहित उत्तर कालमें उदय में आने योग्य है; उसके उदय को उसके अपने उदयकाल में रोक देता है । इस प्रकार अनिवृत्तिकरण के अनन्तर उदययोग्य मिथ्यात्व के दलियों के उदय में व्यवधान करनेवाला होने से यह 6 अन्तरकरण' कहलाता है । यह करण मिथ्यात्वके दलियों को अगले और पिछले भाग में मिला देता है। अनिवृत्तिकरण का अंतिम समय पूर्ण होने पर अन्तर्मुहर्त तक मिथ्यात्यके दलियोंका किसी भी तरह से उदय नहीं हो सकता । उस समय जिन मिथ्यात्वके दलियोंका उदय संभव था, उनमें से कितनेक दलियों में अपने उदयकाल से पहिले ही उदयमें आने की योग्यता आती है, और कितनेक दलियों में अपने उदयकालसे
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અંતિમ ભાગ છે તેમાં ઉદ્દયમાન મિથ્યાત્વના દલિયેની સાથે સંયુકત કરીને તેને પેાતાના નિજ ઉદ્દયકાળથી પહેલા જ ઉદયમાં લઈ આવે છે, આ કારણે તે ભવ્ય જીવ તે મિથ્યાત્વના દલિયાના ઉદયને તેના પેાતાના ઉદયકાળમાં રોકી દે છે, અને બીજી સ્થિતિરૂપ મિથ્યાત્વના જે બીજો ભાગ છે જે તે અન્તર્યું કૂતથી વ્યવધાનરહિત ઉત્તર કાળમાં ઉદયમા આવવા ચાગ્ય છે તેના ઉદયને તેના પેાતાના ઉદ્દયકાળમાં રોકી દે છે. આ પ્રકારે અનિવૃત્તિકરણના અનન્તર ઉદયયેાગ્ય મિથ્યાત્વના દલિયેાના ઉદ્ભયમા વ્યવધાન કરવાવાળા હોવાથી આ · અન્તરકરણ ' કહેવાય છે.
,
આ કરણ સિથ્યાત્વના દલિયાને આગળ અને પાછળના ભાગમાં જેડી આપે છે, અને અનિવૃત્તિકરણના અંતિમ સમય પૂર્ણ થતાં તેની પછી અ ંતર્મુહૂત સુધી મિથ્યાત્વના દલિયાના કોઇ પણ પ્રકારથી ઉડ્ડય થતા નથી. તે જે મિથ્યાત્વના નલિયાનો ઉદય સંભવ હતા, તેમાથી કેટલાક દદલયેનાં પેાતાના ઉદયકાળના પહેલાં જ ઉદયમાં આવવાની યાગ્યતા આવે છે, અને ફેટલાક લિયામાં પેતાના
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आचाराङ्गसूत्रे न्तरकरणं कृत्वाऽनुपदोक्तरीत्या प्रथममौपशमिकसम्यक्त्वं लभते । अयमौपशमिकसम्यक्त्वमन्तमुहर्तमनुभूय तदनन्तरमवश्यं सर्वप्रतिपातेन पुनर्मिथ्यात्वी भवति ।
(२) यस्तीविशुद्धिपरिणामी भवति, स खल्वपूर्वकरणमारूढो मिथ्यात्वं त्रिपुत्रीकृत्य तदनन्तरमनिवृत्तिकरणे प्रविष्टः सम्यक्त्वपुञोठयात् प्रथमतया भायोपगमिकं सम्यक्त्वमवाप्नोति, परन्तु कृतत्रिपुञोऽयं प्रथमतयौपशमिकसम्यक्त्वं न लभते । - औपगमिकसम्यक्त्वं द्विविधम् प्रन्थिभेदजन्यम् , उपशमश्रेणिभावि चेति । तत्र प्रथमं ग्रन्यिभेदजन्यं मन्दविशुद्धिपरिणामिनो जीवस्य भवति, द्वितीयं तूपशमअभाव होनेसे मिथ्यात्व के तीन पुंज करनेकी शक्ति से शून्य रहना है, इसलिये यह अनिवृत्तिकरण को प्राप्त हो कर अन्तरकरण करके उपर्युक्त रीतिसे सर्व प्रथम औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। औपशमिक सम्यक्त्वकी अन्तर्मुहर्तपरिमित स्थितिका अनुभव कर पश्चात् उसके पूर्ण होते ही अवश्य सर्वप्रतिपात से वह पुनः मिथ्यात्वी हो जाता है।
(२) जो तीवविशुद्धपरिणामी होता है वह अपूर्वकरण में रह कर मिथ्यात्व के तीन पुंज करके पश्चात् अनिवृत्तिकरण में प्रविष्ट होकर सम्यक्त्वमोहनीयपुंजके उदयसे सर्वप्रथम क्षायोपशमिक सम्यक्त्वका लाभ करता है, उपशम सम्यक्त्वका नहीं।
औपशमिक सम्यक्त्वके दो भेद हैं । (१) ग्रन्थिभेदजन्य और दूसरा (२) उपशमणिभावि । इनमें ग्रंथिभेदजन्य उपशमसम्यक्त्व, मन्दविशुद्धिपरिणामवाले जीव के होता है । दूसरा उपशमणिप्राप्त जीव મિથ્યાત્વના ત્રણ પુંજ કરવાની શક્તિથી શૂન્ય રહે છે તેથી આ અનિવૃત્તિકરણને પ્રાપ્ત કરીને અને અન્ડરકરણ કરીને ઉપર બતાવેલી રીતિથી સર્વ પ્રથમ ઔપશમિક સભ્યત્વને પ્રાપ્ત કરે છે. અન્તમુહૂર્તની પથમિક સમ્યક્ત્વની સ્થિતિને અનુભવ કરીને પછી તેના પૂર્ણ થતા જ અવશ્ય સર્વપ્રતિપાતથી તે પુનઃ મિથ્યાત્વી થઈ જાય છે.
જે (૨) તીવિશુદ્ધપરિણામી હોય છે તે અપૂર્વકરણમાં રહીને મિથ્યાત્વના ત્રણ પંજ કરીને પછી અનિવૃત્તિકણમાં પ્રવિષ્ટ થઈને સભ્યત્વમોહનીય પંજના ઉદયથી સર્વ પ્રથમ શપથમિક સમ્યકત્વને લાભ કરે છે, ઉપશમ– સમ્યક્ત્વને નહિ.
ઓપશમિક-મુખ્યત્વના બે લેટ છે (૧) એક ગ્રટિજન્ય અને બીજે (૨) ઉપશમહિલાવી. આમાં પ્રભેિદજન્ય ઉપશમસખ્યત્વ મવિશુદ્ધિ
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सम्यक्त्व-अध्य०४. उ. १
अन्यच्च
" काऊण गठिभेयं, सहसंमइयाए पाणिणो कोइ ।
परवागरणा अन्ने, लहंति सम्मत्तवररयणं " ॥२॥ सम्यक्त्वाधिकारी जीवो द्विविधः--(१) मन्दविशुद्धिपरिणामी, (२) तीव्रविशुद्धिपरिणामी चेति । तत्र
(१) मन्दविशुद्धिपरिणामी भव्योऽपूर्वकरणमारूढो ग्रन्थिभेदं विधायाऽपि तीव्राध्यवसायाभावान मिथ्यात्वं त्रिपुञ्जीकर्तुं शक्नोति । ततोऽनिवृत्तिकरणं प्राप्याकरण) का, और उसका भेदन करना-अपूर्वकरण (द्वितीय करण )का,
और सम्यक्त्वके सन्मुख जीवको कर देना यह अनिवृत्तिकरण (तृतीय करण ) का कार्य है ॥१॥ फिर भी-- "काऊण गंटिमेयं, सहसंमइयाए पाणिणो केइ।
परवागरणा अन्ने, लहंति सम्मत्तवररयणं"॥२॥ ग्रन्थिभेद करके कितनेक प्राणी निसर्ग-स्वभाव-जातिस्मरण आदि से सम्यक्त्व को प्राप्त करते हैं और कितनेक परके उपदेशसे पाते हैं।।
सम्यग्दृष्टि (सम्यग्दर्शनसहित जीव) दो प्रकार के होते हैं(१) मन्दविशुद्विपरिणामवाले और (२) तीव्रविशुद्धिपरिणामवाले।
इनमें से-(१) मन्दविशुद्धिपरिणामवाला भव्य जीव अपूर्वकरण परिणाम के अवलम्बन से ग्रन्थि का भेदन करके भी तीव्र अध्यवसाय के
સ્થિદેશ સુધી જીવને પહોંચાડવે એ યથાપ્રવૃત્તિકરણ (પ્રથમ કરણ )નું અને એનું ભેદન કરવું અપૂર્વકરણ (બીજા કરણ) નું, અને સભ્યત્વની સન્મુખ જીવને કર, એ અનિવૃત્તિકરણ (ત્રીજા કરણ)નું કાર્ય છે ! ૧ વળી–
"काऊण गंठिभेयं, सहसंमइयाए पाणिणो केइ । ___ परवागरणा अन्ने, लहंति सम्मत्तवररयणं " ॥ २ ॥ પ્રન્થિભેદ કરીને કેટલાંક પ્રાણી નિસર્ગ–સ્વભાવ-જાતિસ્મરણ આદિથી સમ્યક્ત્વને પ્રાપ્ત કરે છે, અને કેટલાક બીજાના ઉપદેશથી મેળવે છે. ૨૫
સમ્યગ્દષ્ટિ (સમ્યગ્દર્શન સહિત જીવ) બે પ્રકારના હોય છે. (૧) મન્દ વિશુદ્ધિપરિણામવાળાં અને (૨) તીવિશુદ્ધિપરિણામવાળાં.
આમાંથી (૧) મવિશુદ્ધિપરિણામવાળાં ભવ્ય જીવ અપૂર્વકરણ પરિણામના અવલંબનથી રશ્વિનું ભેદન કરીને પણ તીવ્ર અધ્યવસાયને અભાવ હોવાથી
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आचाराङ्गसुत्रे
प्राप्तिश्चतुर्थपञ्चमषष्ठसप्तमैषु कस्मिश्चिद् गुणस्थाने भवितुमर्हति, परं तु अष्टमगुणस्थाने तत्प्राप्तिरवश्यमेव भवति ।
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मिथ्यात्वं त्रिपुञ्जीकृत्य सम्यक्त्वपुञ्जोदयात् आयोपशमिकं सम्यक्त्वमवाप्नोतिइति यदुक्तं, तत्रायं क्रमः - केवलिप्रभृतीनां वचः श्रुत्वा जातिस्मरणादिना वा सम्यक्त्यस्वरूपं ज्ञात्वाऽपूर्वकरणे वर्धमानपरिणामो दर्शनमोहनीयापरनानकमिथ्यात्वपुद्गलान् युगपत् त्रिधा करोति, सम्यक्त्वमोहनीय - मिश्रमोहनीय - मिथ्यात्वमोहनीयभेदात् । तत्र तावत् सम्यक्त्वमोहनीयमुच्यते—
सम्यक्त्व भी है । उपशमश्रेणिगत जीवोंको जो समकित होता है वह उपशमश्रेणिभावि औपशमिकसम्यक्त्व है । यह सम्यक्त्व चौथे, पांचवें, छठवें और सानवें गुणस्थानों में से किसी एक गुणस्थानमें हो सकता है, परन्तु आठवें गुणस्थानमें तो उसकी प्राप्ति जीवको अवश्य ही हो जाती है ।
मिथ्यात्व के तीन पुंज करने के बाद जीव उन तीन पुंजों में से एक सम्यक्त्वमोहनीयपुंजके उदयसे क्षायोपशमिक सम्यक्त्वकी प्राप्ति किया करता है । यह जो बात ऊपर कही गई है वहां पर इस प्रकारका क्रम समझना चाहिये। केवली वगैरह के वचन सुन कर अथवा जातिस्मरणादिक से सम्यक्त्वके स्वरूपको जान कर अपूर्वकरणमें जिसका परिणाम वृद्धिंगत हो रहा है, ऐसा जीव दर्शनमोहनीय कर्म को जिसका दूसरा नाम मिथ्यात्व पुल है उसको एक साथ तीन भेदों में, अर्थात् — मिध्यात्वमोहनीय, मित्रमोहनीय और सम्यक्त्वमोहनीयके रूपमें परिणमाता है ।
પણ છે. ઉપશમશ્રેણિગત જીવોને જે સમ્યક્ત્વ થાય છે તે ઉપશમણિભાવી
ઓપશનિક સમ્યક્ત્વ છે. આ સમ્યક્ત્વ ચોથા, પાંચમા, છઠ્ઠા અને સાતમા ગુહ્યુ સ્થાનાનાથી કોઇ એક ગુણસ્થાનમાં થઈ શકે છે, પરંતુ અના ગુરુસ્થાનમાં તો તેની પ્રાપ્તિ વને અવશ્ય જ થઈ ાય છે
મિથ્યાત્વના ત્રણ પુંજ કર્યાં ખાદ જીવ આ ત્રણ કુંન્નેમાંથી એક રમ્યમેહનીયપુંજના ઉદયથી ફાયેાપશનિક સમ્યક્ત્વની પ્રાપ્તિ કર્યાં કરે છે. આજે વાત ઉપર કહેવાઈ ગઈ છે ત્યા આ પ્રકારને ન સમજવા જોઇએ-કેવળી વિગેરેનું વચન સુણીને અધવા અતિસ્મરણાદિથી સમ્યકૂના સ્વરૂપને નણીને અપૂર્વકરણુમાં જેને પરિણામ વૃદ્ધિંગત થઈ રહ્યો છે; એ જીવ દનમોહનીય કને, જેનુ બીતુ નામ મિથ્યાત્વપુલ છે તેને એકરાય ત્રણ ભેના, અર્થાત્ મિથ્યાત્વમહનીય, મિશ્રનોહનીય અને સમ્યક્ત્વમોહનીયના રૂપમાં પરિણાવે છે.
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संम्पप-प्रप) ४. उ.१
५७ श्रेणिगतस्य । तत्रोपशमश्रेणिगतः सम्यक्त्वी देशप्रतिपातेन सर्वप्रतिपातेन वा प्रतिपतति-मिथ्यात्वमवाप्नोति । अस्मिन् सम्यक्त्वे प्राप्ते सति जीवस्य पदार्थानां स्फुटतया निश्शङ्ख प्रतीतिर्जन्मान्धस्य नेत्रलाभे सतीव जायते। सदौषधसेवनेन रोगे प्रतिनिवृत्ते व्याधितेनेव मिथ्यात्वमहारोगेऽपगते सत्यपूर्व आनन्दोऽनुभूयते जीवेन।
ग्रन्थिभेदजन्यमौपशमिकसम्यक्त्वमनादिमिथ्यात्विभव्यानां भवति । इदं च प्रथमोपशमसम्यक्त्वमित्यपि कथ्यते। उपशमश्रेणिभाविन औपशमिकसम्यक्त्वस्य को होता है। उपशमश्रेणिप्राप्त जीव नियमसे वहां से सर्वदेशके प्रतिपात से अथवा एकदेशके प्रतिपात से नीचे के गुणस्थानको प्राप्त हो जाता है। ___ जैसे--जन्मान्धको नेत्रके लाभ होने पर पदार्थों की प्रतीति विना किसी सन्देह के स्फुटरूपसे होने लगती है उसी प्रकार इस सम्यक्त्व के प्राप्त होने पर जीवादि पदार्थोंकी प्रतीति भी विना किसी सन्देह के स्फुटरूप से जीवको होती है। तथा जिस प्रकार निर्दोष औषध के सेवन से रोगके चले जाने पर रोगी पुरुप अपूर्व आनन्दका अनुभव करता है, उसी प्रकार मिथ्यात्व महारोगके नष्ट होने पर इस समकित वाला जीव भी अपूर्व आनन्दका अनुभव करता है।
ग्रंथिभेद से उत्पन्न सम्यक्त्व (औपशमिक सम्यक्त्व ) अनादि. मिथ्यादृष्टिभव्यजीवों के होता है। इस सम्यक्त्वका दूसरा नाम प्रथપરિણામવાળા જીવને થાય છે. બીજી ઉપશમશ્રેણિયાત જીવને થાય છે. ઉપશમશ્રેણિપ્રાપ્ત જીવ નિયમથી ત્યાંથી સર્વ દેશના પ્રતિપાતથી અથવા એક દેશના પ્રતિપાતથી નીચેના ગુણસ્થાનમાં આવીને આખરે મિથ્યાત્વગુણસ્થાનને પ્રાપ્ત यह तय छे.
જેવી રીતે જન્માંધને નેત્રને લાભ થતાં જ પદાર્થોની પ્રતીતિ કઈ જાતના સંદેહ વિના સ્કુટરૂપથી થવા માંડે છે, તે પ્રકારે આ સમ્યક્ત્વની પ્રાપ્તિ થતાં જ જીવાદિ પદાર્થોની પ્રતીતિ પણ કઈ જાતના સંદેહ વગર સ્કૂટરૂપથી જીવને થાય છે. તથા જે પ્રકારે નિર્દોષ ઔષધના સેવનથી રોગને નાશ થતાં જ રોગી પુરૂષ અપૂર્વ આનંદને અનુભવ કરે છે તેવી રીતે મિથ્યાત્વ–મહારોગને નાશ થતાં જ આ સમ્યક્ત્વવાળા જીવ પણ અપૂર્વ આનંદનો અનુભવ કરે છે.
नि-नयी ५ नभ्य५८ (औपशभि:-सभ्यत्व) नादिभिथ्याદષ્ટિ ભવ્ય જીને થાય છે. આ સમ્યક્ત્વનું બીજું નામ પ્રથમ શમસંખ્યત્વ
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५७४
आचारागसूत्रे ___ यथा-सतुपकोद्रया भक्षणेन मादका भवन्ति, त एव यद्यपनीततुपास्तक्रादिना शोधितास्तहि मदं न जनयन्ति, तथा मिथ्यात्यमोहनीयपुद्गलाः जीवं हिताहितज्ञानरहितं कुर्वन्ति । तत्र द्विस्थानकादिश्चतुःस्थानकान्तः सर्वघाती रसस्तिष्ठति । यदि स्वकीयविशुद्धपरिणामवलात्तेषां सर्वघातिरूपं रसं अपयति, तदा स्वाभाविकस्यैकस्थानकरसस्य सद्भावे मिथ्यात्वमोहनीयपुद्गला एव सम्यक्त्वमोहनीया उच्यन्ते । विशोधितत्वादिदं कर्म तत्त्वरुचिरूपसम्यक्त्वं न प्रतिरोधयति, परं त्वेतत्कर्मोदयादात्मस्वभावरूपमौपशमिकसम्यक्त्वं क्षायिकसम्यक्त्वं च न प्रादुर्भवति, सूक्ष्मतत्त्वसमालोचनायां गङ्काश्चोत्तिष्ठन्ति, यतः सम्यक्त्वे मालिन्यमुपजायते । अस्मादेव दोपादेतत् कर्म सम्यक्त्वमोहनीयं व्यपदिश्यते । है । यही शोधित मिथ्यात्वपुद्गलपुञ्ज तत्त्वार्थश्रद्वानरूप जीवके परिणाम का अनावारक होने की वजह से कारण में कार्य के उपचार से सम्यक्त्व कहा गया है। ____ जैसे-सतुष (तुषयुक्त) कोद्रव ( अन्नविशेष) खाने पर मादकता उत्पन्न करते हैं; परन्तु जब वे ही कोद्रव निस्तुष कर दिये जाते हैं और तक (छाश) वगैरह के द्वारा उनका मादक अंश दूर कर दिया जाता है तव उनमें से मादकशक्तिका अभाव हो जाता है और खाने पर फिर वे मादकता पैदा नहीं करते । ठीक इसी तरह से यह मिथ्यात्वमोहनीय जब तक अशोधित अवस्था में रहता है तभी तक जीव को हिताहितविवेकसे शून्य करता रहता है; क्यों कि इसमें द्विस्थान से लेकर चतुःस्थान तक वाला सर्वघाती रस रहता है। परन्तु ज्यों ही इसमें से सर्वघाती रस का क्षय हो जाता है त्यों ही यह शुद्ध अवस्थावाला पुत्र कहછે. આ જ શોધિત મિથ્યાત્વપુગલપુંજ તત્ત્વાર્થ શ્રદ્ધાનરૂપ જીવના પરિણામનો અનવારક હોવાથી કારણમાં કાર્યના ઉપચારથી સમ્યક્ત્વ કહેવાય છે.
જેમ સતુવ (તુષયુક્ત) કેદ્રવ (અન્નવિશેષ) ખાવાથી માદકતા ઉત્પન્ન કરે છે; પરંતુ જ્યારે તે જ કેદ્રવ નિસ્તુપ કરી દેવામાં આવે છે અને તક (છાસ) વિગેરે દ્વારા તેને માદક અશ દૂર કરવામાં આવે છે ત્યારે તેમાથી માદક શક્તિને અલાવ થઈ જાય છે, અને ખાવાથી ફરી તે માદકતા પેદા કરતું નથી. ઠીક આ પ્રકારે આ મિથ્યાત્વમોહનીય જ્યા સુધી અશેષિત અવસ્થામાં રહે છે ત્યાં સુધી જીવને હિતાહિતવિવેકથી શૂન્ય કરતું રહે છે, કારણ કે આમાં દ્વિસ્થાનથી લઈને ચારસ્થાનવાળા સર્વઘાતી રસ રહે છે, પરંતુ ત્યારે જ તેનાથી સર્વઘાતી રસને ક્ષય થઈ જાય છે. ત્યારે જ શુદ્ધ અવસ્થાવાળા પુંજ
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सम्यक्त्व-अध्यं० ४. उ.
सम्यक्त्वमोहनीयस्य स्वरूपम्यस्य कर्मणः प्रभावात् जीवाजीवादिनयतत्त्वेषु श्रद्धा समुत्पद्यते तत् सम्यक्त्वमोहनीयम् । यथा-उपनेत्रं नेत्रावरकं सदपि दृष्टिं न प्रतिरुणद्धि, तथैव सम्यक्त्वमोहनीयमावरणस्वरूपमपि सद् विशुद्धत्वात् तत्त्वात् श्रद्धानं नहि विघातयति, तस्मात् सम्यक्त्वमोहनीयकर्मत एव नवतत्त्वेषु श्रद्धा, भवतीति सिद्धम् ।
अपूर्वकरणाध्यवसायेन यस्य मिथ्यात्वपुद्गलपुञ्जस्य मिथ्यात्वस्वभावोऽपनीतः स शोधितमिथ्यात्वपुद्गलपुञ्जः, स एव तत्वार्थश्रद्धानरूपस्य जीवपरिणामस्यानावरकत्वादुपचारतः सम्यक्त्वमुच्यते। ___ सम्यक्त्वमोहनीयका स्वरूप इस प्रकार है-जिस कर्मके प्रभाव से जीवादिक नौ तत्त्वों में जीवको श्रद्धा उत्पन्न होती है उसका नाम सम्यक्त्वमोहनीय है। जिस प्रकार चश्मा नेत्रोंका प्रतिबन्धक होता हुआ भी पदार्थों के देखने में दृष्टिका विघात नहीं करता, उसी प्रकार यह सम्यक्त्वमोहनीय कर्म यद्यपि मिथ्यात्वका अंश होने से आवरण स्वरूप है तो भी उसका शोधित अंश होने की वजह से विशुद्ध है, इसलिये वह तत्त्वश्रद्वान का विघातक नहीं होता है । जीव को नव तत्त्वों में श्रद्धा इसी सम्यक्त्वमोहनीय के द्वारा उत्पन्न होती है । यद्यपि यह मिथ्यात्व काही अंश है तो भी श्रद्धा का विघातक नहीं है, कारण कि अपूर्वकरणरूप परिणाम इसमें से श्रद्धाविघातक अंश को, कि जिसका दूसरा नाम मिथ्यात्व स्वभाव है; दूर कर देता है। यह शोधित मिथ्यात्वपुद्गलपुंज
સમ્યક્ત્વ મોહનીયનું સ્વરૂપ આ પ્રકારે છે
સમ્યકત્રમેહનીયનું સ્વરૂપ—જે કર્મના પ્રભાવથી જીવાદિક નવ તમાં જીવને શ્રદ્ધા ઉત્પન્ન થાય છે તેનું નામ સમ્યક્ત્વમોહનીય છે. જેવી રીતે ચશ્મા નેના પ્રતિબંધક હોવા છતાં પણ પદાર્થોના દેખવામાં દષ્ટિનો વિઘાત નથી કરતાં તેમ આ સમ્યત્વમોહનીય કર્મ જે કે મિથ્યાત્વને અંશ હોવાથી આવરણસ્વરૂપ છે તે પણ તેના શોધિત અંશ હોવાથી વિશુદ્ધ છે, તેથી તે તત્વશ્રદ્ધાનને વિઘાતક નથી થતું. જીવને નવતમાં શ્રદ્ધા આ સમ્યક્ત્વ–મોહનીય દ્વારા ઉત્પન્ન થાય છે, જો કે આ મિથ્યાત્વનો જ અંશ છે તે પણ શ્રદ્ધાને વિઘાતક નથી. કારણ કે અપૂર્વકરણરૂપ પરિણામ આમાંથી શ્રદ્ધાવિઘાતક અશેને જેનું બીજું નામ મિથ્યાત્વસ્વભાવ છે તેને દૂર કરે છે. આ શધિત મિથ્યાત્વપુગલપંજ
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आवारागसूत्रे ॥मिश्रमोहनीयम् ॥ येपां केचिदंशाः सतुपाः केचिद् विशुद्धास्तैः कोद्रवैः साम्यं मिश्रमोहनीयपुद्गलानाम् । एतत्कर्मोदयात्तत्त्वरुचिर्नोत्पद्यते, न चातत्त्वरुचिरपि। मिश्रमोहनीयकर्मपुद्गलेषु द्विस्थानको रसः सर्वघाती विद्यते।
॥ मिथ्यात्वमोहनीयम् ॥ सतुपकोद्रवसमा मिथ्यात्वमोहनीयपुद्गलाः, तस्मादेतत्कर्मोदयाज्जीवो हितमहितरूपेण जानाति, हितरूपेण चाहितमपि । मिथ्यात्वमोहनीयकर्मपुद्गलेषु चतुःस्थानकस्त्रिस्थानको द्विस्थानकाच रसो भवति ।
मिश्रमोहनीयजिन कोद्रवों का कुछेक अंश सतुष हैं और कुछेक अंश निस्तुष हैं, उन कोद्रवों के साथ मिश्रमोहनीय के पुद्गलों की समानता जानना चाहिये । इस कर्म के उदयसे न तो तत्त्वरुचिरूप सम्यक्त्व उत्पन्न होता है,
और न अतत्त्वरुचि मिथ्यात्व ही । इस कर्म के पुद्गलों में सर्वघातिरस का द्वितीय (तीव्रतर ) अंश है।
मिथ्यात्वमोहनीयसतुप कोद्रवों के स्थानापन्न मिथ्यात्वमोहनीय के पुद्गल हैं। इस कर्म के उदय से जीव अहितकारी पदार्थो को हितकारी और हितकारी पदार्थों को अहितकारी मानता रहता है । इस कर्म के पुद्गलों में चतुः स्थानक, त्रिस्थानक और द्विस्थानक रस रहता है।
भिभाडनीयજે કદ્રને કઈ કઈ અશ સતુષ છે અને કઈ કઈ અશ નિસ્તુષ છે. એ કેન્દ્રોની સાથે મિશ્રમેહનીયના પુદ્ગલેની સમાનતા સમજવી જોઈએ. આ કર્મના ઉદયથી નથી તવરૂચિરૂપ સમ્યફત્વ ઉત્પન્ન થતું અને નથી અતત્વરૂચિ રૂપ મિથ્યાત્વજ.આ કર્મના પુદ્ગલમાં સર્વઘાતિ રસને બીજે (તીવ્રતર) અશ છે.
મિથ્યાત્વમોહનીયસતુષ કેન્દ્રના સ્થાનાપન્ન મિથ્યાત્વમોહનીયના પુગલે છે આ કર્મના ઉદયથી જીવ અહિતકારી પદાર્થોને હિતકારી, અને હિતકારી પદાર્થોને અહિતકારી માન રહે છે. આ કર્મના પગલોમા ચતુ સ્થાનક, ત્રિસ્થાનક, અને દ્વિસ્થાનક રસ રહે છે.
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ. १ लाने लगता है । मिथ्यात्वप्रकृति यह सर्वधातिप्रकृति है। इसमें बहुत भाग सर्वघातिरस है और शेष एक भाग देशघातिरस है। कमां में मन्द, तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम इस प्रकारकी चार शक्तिरूप रस रहता है। इनमेंसे इस मिथ्यात्व कर्म में तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम ये तीन शक्तियां-जिन्हें सर्वघातिरस कहा गया है-हैं। यदि कोई भव्य जीव अपने विशुद्ध परिणामके बलसे इसमें से इन तीन शक्तिरूप सर्वघातिरसका क्षय कर देता है तो उसमें स्वभावतः एक स्थानक रस का ही सद्भाव रहता है । इस परिस्थिति में मिध्यात्वमोहनीय का नामान्तर ही सम्यक्त्वमोहनीय हो जाता है। शुद्ध होनेसे यह कर्म यद्यपि तत्त्वरुचिरूप सम्यक्त्व का प्रतिरोधक नहीं होता है तो भी इसके सद्भाव में एक तो आत्मस्वभावरूप औपशमिकसम्यक्त्व, एवं क्षायिकसम्यक्त्व का प्रादुर्भाव नहीं होता, दूसरे इसके अस्तित्व में भूक्ष्म तत्त्व की गवे. षणा करते समय शङ्काओंका भी उत्थान हो जाया करता है, जिससे समकित में मलिनता आ जाती है । इसी दोषकी वजह से इस कर्मकी "सम्यक्त्वमोहनीय" यह संज्ञा पड़ी है। કહેવાવામાં આવે છે. મિથ્યાત્વપ્રકૃતિ એ સર્વઘાતિ પ્રકૃતિ છે. એમાં ઘણે ભાગ સર્વઘાતિ રસ છે અને શેષ એક ભાગ દેશઘાતિ રસ છે. કર્મોમાં મંદ, તીવ્ર, તત્રતર અને તીવ્રતમ, આ પ્રકારની ચાર શક્તિરૂપ રસ રહે છે. એનાંથી આ મિથ્યાત્વ કર્મમાં તીવ્ર, તીવ્રતર અને તીવ્રતમ, એ ત્રણ શક્તિઓ–જેને સર્વ ઘતિ રસ કહેવામાં આવે છે–રહે છે. જે કોઈ ભવ્ય જીવ પોતાના વિશુદ્ધ પરિણામના બળથી એમાંથી આ ત્રણ શક્તિરૂપ સર્વઘાતિ રસને ક્ષય કરી દે છે તે તેમાં સ્વભાવતઃ એક સ્થાનક રસને જ સદ્દભાવ રહે છે. આ પરિસ્થિતિમાં મિથ્યાત્વમેહનીયનું નામાન્તર જ સમ્યક્ત્વમોહનીય થઈ જાય છે. શુદ્ધ હોવાથી તે કર્મ જે કે તત્વરૂચિરૂપ સમ્યક્ત્વનું પ્રતિરોધક નથી થતું તે પણ એના સર્ભાવમાં એક તો આત્મસ્વભાવરૂપ ઔપશમિકસમ્યક્ત્વ અને ક્ષાયિકસમ્યક્ત્વને પ્રાદુર્ભાવ નથી થતું, બીજું એના અસ્તિત્વમાં સૂક્ષ્મ તત્ત્વોની ગવેરણ કરતી સમય શંકાઓની પણ ઉત્પતિ થઈ જાય છે, જેથી સમ્યક્ત્વમાં મલિનતા આવી જાય છે. આ દેશના કારણથી આ કર્મની “સમ્યકૃત્વમોહનીય ” એ સંજ્ઞા પડી છે.
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વ૮
आचारागसूत्रे मिथ्यात्वे च । तत्र प्रवर्धमानपरिणामः सम्यग्दृष्टिमिश्रपुद्गलान् सम्यक्त्वे संक्रमयति, मिथ्यादृष्टिस्तु तान् मिथ्यात्वे । स च सम्यक्त्वदलिकात् पुग्लान् आकृष्य मिथ्यात्व एव संक्रमयति, न तु मिश्रे । तस्य सम्यक्त्वांशाभावात् ।।
__ सम्यग्दर्शनप्राप्तौ सत्यां हीयमानपरिणामस्तु मिश्रपुद्गलान् मिथ्यात्वपुद्गलांश्च न सम्यक्त्वपुदलान् करोति, न च तस्य केचिदन्ये शोधितपुद्गलाः सन्ति, यान् संप्रति प्रस्तुतसम्यक्सपुञ्जनिष्ठाकाले वेदयेत् । ततः सम्यक्त्वपुद्गलानामन्तिमग्रासं वेदयित्वा पूर्व लब्धसम्यक्त्वोऽपि पश्चान्मिथ्यात्वमेव संक्रामति । मिश्रप्रकृति से मिश्रपुद्गलपुत्र को खींच कर सम्यक्त्वप्रकृति के रूपमें,
और मिथ्यादृष्टि जीव उन्हीं पुद्गलों को मिथ्यात्व प्रकृति के रूप में परिणमाता है । तथा सम्यक्त्वप्रकृति के दलिये से पुद्गलों को लेले कर वही मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्व में ही उनका संक्रमण किया करता है, मिश्रमें नहीं; कारण कि उसके सम्यक्त्वका अंश भी नहीं है।
सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होने पर भी जिसका परिणाम हीयमान है ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव मिश्रप्रकृति के पुद्गलपुंजों का, एवं मिथ्यात्वप्रकृति के पुद्गलपुंजोंका सम्यक्त्वप्रकृति के पुद्गलपुंजों में संक्रमण नहीं करता; कारण कि उसके निकट दूसरे कोई शोधित पुद्गल नहीं हैं कि जिन्हें वह वर्तमान में प्राप्त सम्यक्त्वप्रकृति के पुगलोंके समाप्ति काल में वेदन कर सके । इसलिये वह जीव यषि लन्धसम्यक्त्व है तो भी हीयमानपरिणामवाला होने से सम्यक्त्वप्रकृति के अन्तिम ग्रास का वेदन कर पीछे से मिथ्यात्व में ही संक्रमण करता है। પરિણામવાળા સમ્યગ્દષ્ટિ જીવ મિશ્રપ્રકૃતિથી મિશ્ર પુદ્ગલપુંજને ખેંચીને સમ્યક્ત્વ પ્રકૃતિના રૂપમાં, અને મિથ્યાષ્ટિ જીવ તે જ પુદગલને મિથ્યાત્વપ્રકૃતિના રૂપમાં પરિમાવે છે. તથા સમ્યક્ત્વપ્રકૃતિના દલિયાથી પુગલેને લઈ-લઈને તે મિથ્યાદૃષ્ટિ જીવ મિથ્યાત્વમાં જ તેનુ સંક્રમણ કર્યા કરે છે, મિશ્રમ નહિ; કારણ કે તેને સમ્યક્ત્વને અંશ પણ નથી.
સમ્યગ્દર્શનની પ્રાપ્તિ થતાં પણ જેના પરિણામ હીયમાન છે એ સમ્યદૃષ્ટિ જીવ મિશ્ર પ્રકૃતિના પગલપુનું અને મિથ્યાત્વપ્રકૃતિના પગલjજેનું સમ્યકત્વપ્રકૃતિના પુદ્ગલપુરમાં સંક્રમણ નથી કરતા. કારણ કે એની નજીક બીજા કોઈ શથિત પુદગલ નથી કે જેને તે વર્તમાનમાં પ્રાપ્ત સમ્યક્ત્વપ્રકૃતિના પુગલની સમાપ્તિ કાળમાં વેદન કરી શકે. તેથી તે જીવ જો કે લબ્ધરામ્યકુત્વ છે તો પણ હીયમાન પરિણામવાળા હોવાથી સમ્યક્ત્વપ્રકૃતિના અતિમ નાનો વેદન કરી પછીથી મિથ્યાત્વમાં જ સંમણ કરે છે,
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सम्यक्त्व - अध्य० ४. उ. १
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एकस्य चतुर्थाशश्चतुःस्थानकः, तृतीयांशस्त्रिस्थानकः, द्वितीयांशो द्विस्थानक उच्यते । यश्च रसः स्वाभाविकः स एकस्थानक इति बोध्यम् । शुभाशुभफलप्रदा कर्मणां तीव्रतमा शक्तिश्चतुस्थानकरसः, तथा तीव्रतरा शक्तिस्त्रिस्थानकरसः, तीव्रा शक्तिर्द्विस्थानकरसोऽवगन्तव्यः । मन्दशक्तिस्त्वेकस्थानको रस इत्यन्यत्र विस्तरः ।
अथैतेषां त्रिविधानां पुद्गलानां किं परस्परं संक्रमो भवति, किं वा न ? उच्यतेभवतीति । प्रवर्धमानपरिणामः सम्यग्दृष्टिः मिथ्यात्वदलिकात् पुद्गलानाकृष्य मिश्रे सम्यक्त्वे च संक्रमयति । मिश्रपुद्गलानां संक्रमो द्वयोर्भवति - सम्यक्त्वे ।
एक रस का चतुर्थांश चतुःस्थानक, तृतीय अंश त्रिस्थानक, और द्वितीय अंश विस्थानक होता है। अर्थात् शुभ और अशुभरूप अपने २ फल देनेवाले प्रत्येक कर्मों के तीव्रतम अंश की चतुःस्थानक, तीव्रतर अंश की त्रिस्थानक और द्वितीय तीव्र अंश की द्विस्थानक एवं प्रथम मन्द अंश की एक स्थानक संज्ञा है । प्रथम अंश स्वाभाविक है । इसीलिये उसे एक स्थानक कहा है । इस विषयका खुलासा अन्य शास्त्रों में विस्तार से किया गया है ।
प्रश्न- इन तीन प्रकार के पुद्गलों का परस्पर में संक्रमण होता है या नहीं ?
उत्तर- हां, होता है। जिसका अध्यवसाय अहर्निश वृद्धिंगत हो रहा है ऐसा सम्यक्त्वी जीव मिथ्यात्वके दलिये से पुद्गलपुञ्जको खींच कर मिश्र और सम्यक्त्व प्रकृति के पुद्गलपुत्रोंमें उन्हें संक्रमित करता है । मिश्रप्रकृति के पुद्गलोंका संक्रमण मिथ्यात्व और सम्यक्त्व, इन दोनों प्रकृतियों में होता है । प्रवर्धमानपरिणामवाला सम्यग्दृष्टि जीव
એક રસના ચતુર્થાંશ ચતુઃસ્થાનક, તૃતીય અંશ ત્રિસ્થાનક, અને દ્વિતીય અશ દ્વિસ્થાનક હોય છે. અર્થાત શુભ અને અશુભ-રૂપ પાતપે. તાનાં ફળ દેવાવાળાં પ્રત્યેક કર્મોની તીવ્રતમ અંશની ચતુઃસ્થાનક, તીવ્રતર શની ત્રિસ્થાનક અને દ્વિતીય તીવ્ર અંશની દ્વિસ્થાનક અને પ્રથમ મઢ અ’શની એકસ્થાનક સંજ્ઞા છે. પ્રથમ અંશ સ્વાભાવિક છે, તેથી તેને એક સ્થાનક કહે છે. આ વિષયના ખુલાસે બીજા શાસ્ત્રોમાં વિસ્તારથી આપ્યા છે.
પ્રશ્ન——આ ત્રણ પ્રકારના પુદ્ગલાના પરસ્પરમાં સંક્રમણ થાય છે કે નહિ ?
ઉત્તર——હાં, થાય છે. જેનેા અધ્યવસાય અહર્નિશ વૃદ્ધિંગત થતો રહે છે એવો સમ્યકૂી જીવ મિથ્યાત્વના દલિયાથી પુદ્ગલપુંજને ખેંચીને મિશ્ર અને સમ્યક્ત્વ-પ્રકૃતિના પુદ્દગલ પુંજોમાં એને સંક્રમિત કરે છે. મિશ્રપ્રકૃતિના પુદ્ગલાના સંક્રમણ મિથ્યાત્વ અને સમ્યક્ત્વ, એ અને પ્રકૃતિઓમાં થાય છે, પ્રવમાન
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नावाराङ्गसूत्रे
(२) अनिवृत्तिकरणं सम्यक्त्वपुरस्कृते जीवे भवति । कथं तत् सम्यक्त्वं भवति ? उच्यते—उपदेशतः स्वयं वा । तत्र पथिदृष्टान्तः यथा कचिन्नष्टपथः पुरुषोऽन्यं दृष्ट्वा तदुपदेशतो मार्गमारोहति, कचित् स्वयमेवोहापोहं कृत्वा तथा कचिदाचार्यादीनामुपदेवतः सम्यक्त्वं लभते कश्चित् स्वयमेव जातिमरणादिना ।
(३) ज्वरदृष्टान्तोऽप्यत्रैव, यथा-ज्वरितः कश्विदौषधादारोग्यं लभते, कश्चित्तु तद् विनैव लङ्घनादिनाः तथाऽत्रापि कस्यचिन्मिथ्यात्वं गुर्वाद्युपदेशतो नश्यति, कस्यचित्तु स्वयमेव तत्त्वपर्यालोचनतः ।
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यह जीव ग्रन्थिदेश तक पहुँच जाता है। अर्थात् - इस करण के प्रभाव से उत्कृष्ट भी कर्मस्थिति क्षय होते २ ग्रंथि रूपमें अवशिष्ट रह जाती है।
(२) सम्यक्त्व के संमुख हुए जीव के अनिवृत्तिकरण होता है । समकित की प्राप्ति के दो उपाय हैं - (१) गुर्वादिकका उपदेश, (२) निसर्ग । यहां पर मार्ग का दृष्टान्त है । जैसे- कोई २ मार्ग भूला पथिक उसी मार्ग पर चलते हुए दूसरे को देख कर या उससे पूछ कर तथा कोई २ स्वयं तर्कवितर्क करके अपने मार्ग की प्राप्ति कर लिया करते हैं, उसी तरह कोई २ प्राणी आचायोदिक गुरुओं के उपदेश से और कोई २ स्वयं अपने आप जातिस्मरणादिक साधनों से समकित का लाभ कर लेते हैं ।
(३) ज्वर का दृष्टान्त भी यहीं पर घटित होता है । जैसे- किसी रोगी का ज्वर औषधि के सेवन से और किसी २ का बिना औषधि के केवल लंघनादिक करने से शान्त हो जाता है, उसी प्रकार किसी २ जीव કર્મસ્થિતિ ઘટતી ઘટતી એટલી એકી રહી જાય છે કે જેન્ત કારો એ જીવ કન્વિદેશ સુધી પહેાંચી જાય છે, અત્યંત્ કરના પ્રભાવી ઉત્કૃષ્ટો કર્મસ્થિતિ કાય થતાં થતાં ગ્રન્થરૂપમાં અવશિષ્ટ રહી જાય છે.
(૨) સમ્યક્ત્વના સન્મુખ થયેલ અને અને ત્તકરણ થાય છે, સમ્ય ફ્ત્વની પ્રાપ્તિના એ ઉપચે છે (૧) સુવા દેકના ઉપદેશ, (ર) નિસર્ગ. આ કેકાણે માર્ગના ઇન્ત છે, જેમ કે કેઈ નાથા સુરિ તે માર્ગ પર ચાલતા બીજને દેખીને અગર તેને પૂછીને, તથા કેટ કે સ્વયં તર્ક વિતર્ક કરીને પેાતાના નાગની પ્રાપ્ત કરી લે છે. તેવી રીતે કેઈ કેઈ પ્રી આચાર્યદક ગુરૂએા ઉપદેશથી અને કે સ્વયં પે.તે પેાતાના તિસ્મરણાદિક સાધનથી સવા લાલ કી લે છે.
(૩) સ્વરને ખલે પણ આ કેકો ઘટત થાય છે. જેમ કે કઈ ગી સ્વર અધીના સેવનથી, અને કેટ કેટને અંધેરા ઘનદિ કરવાથી
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संम्यक्त्व - अध्य० ४. उ. १
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मिथ्यात्वपुञ्जस्य क्षयाभावे यः सम्यग्दृष्टिः स त्रिपुञ्जी, क्षीणे तु मिथ्यात्वपुजे द्विपुञ्जी, मिथ्यात्वपुञ्जस्य मिश्रपुञ्जस्य च क्षये त्वेकपुञ्जी, सम्यक्त्वपुञ्जस्यापि क्षये तु क्षायिकसम्यक्त्वी भवतीति ।
कारणवशात् सम्यक्त्वप्राप्तावष्टौ दृष्टान्ताः सन्ति । यथा - (१) गिरिनदीप्रस्तरः (२) पन्थाः, (३) ज्वरः, (४) वस्त्रम्, (५) जलम्, (६) पिपीलिका, (७) पुरुषः (८) कोद्रवश्चेति ।
(१) यथावृत्ताख्ये करणे गिरिनदीप्ररतरदृष्टान्तः, यथा गिरिनद्यां प्रस्तरखण्डास्तद्वेगतो घर्षणादिना वर्तुला जायन्ते, एवं यथाप्रवृत्तकरणप्रभावाद् दीर्घतराया अपि कर्मस्थितस्तावत् क्षपणं भवति यावता ग्रन्थिरूपः शेषोऽवतिष्ठते ।
मिथ्यात्वपुंज का जिसने क्षय नहीं किया है ऐसा जीव समकित की प्राप्ति होने पर त्रिपुंजी, मिथ्यात्व के क्षय होने पर द्विपुंजी, और मिथ्यात्वपुंज एवं मिश्र पुंजके क्षय होनेपर एकपुंजी ( सम्यक्त्वपुंजवाला ) होता है, तथा एक पुंज - सम्यक्त्वप्रकृति के क्षय होने पर क्षायिकसम्यक्वी हो जाता है ।
समकित प्राप्ति में आठ दृष्टान्त हैं -- (१) गिरिनदीप्रस्तर, (२) मार्ग, (३) ज्वर, (४) वस्त्र, (५) जल, (६) कीड़ी, (७) पुरुष, और ८वां कोद्रव । इनका खुलासा अर्थ इस प्रकार है
(१) पहिला दृष्टान्त यथाप्रवृत्तिनामक करण में है । जैसे- पर्वत ऊपर से बहनेवाली नदीमें पत्थरों के टुकडे उसके प्रवाह के वेगसे इधर-उधर घिसे जाकर गोल हो जाते हैं, इसीप्रकार यथाप्रवृत्तिकरण के प्रभाव से उत्कृष्ट भी कर्मस्थिति घटते २ इतनी कम रह जाती है जिसकी वजह से
મિથ્યાત્વપુજના જેણે ક્ષય નથી કર્યાં એવા જીવ સમ્યક્ત્વની પ્રાપ્તિ થતાં ત્રિપુજી, મિથ્યાત્વના ક્ષય થતાં દ્વિપુજી, મિથ્યાત્વપુજ અને મિશ્રપુજના ક્ષય થતાં એકપુજી ( સમ્યક્ત્વપુંજવાળા ) થાય છે, તથા એક પુજસમ્યક્ત્વપ્રકૃતિના ક્ષય થતાં જ ક્ષાયિકસમ્યક્ત્વી થઈ જાય છે.
सभ्यद्दत्वनी आप्तिमां आहे हृष्टान्तो छे. (१) गिरिनद्वीप्रस्तर, (२) भार्ग, (3) ४१२, (४) वस्त्र, (५) ४ण, (६) डीडी, (७) यु३ष, भने (८) अद्रव, એના સ્પષ્ટ અર્થ આ પ્રકારે થાય છે
(૧) પહેલા દૃષ્ટાન્ત યથાપ્રવૃત્તિનામવાળા કરમાં છે. જેમ પતથી વહેવાવાળી નદીમાં પત્થરના ટુકડા તેના પ્રવાહના વેગથી અહીં-તહીં ઘસડાઈ જેમ ગાળ થઈ જાય છે, તે પ્રકારે યથાપ્રવૃત્તિકરણના પ્રભાવથી ઉત્કૃષ્ટી
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आयारागसूत्रे (६) नन्वभव्याः कथं तस्मिन् यथाप्रवृत्तिकरणेऽवतिष्ठन्ते, कथं वा ततः प्रतिपतन्ति, ?, भव्या वा ग्रन्धि भित्त्वा कथं ततः परतो गच्छन्ति ?; अत्रोच्यतेपिपीलिकादृष्टान्तात् । तथाहि-काश्चित् पिपीलिका अनाभोगतो विलानिस्सृत्य इतस्ततो गन्तुं प्रवृत्ताः, काश्चिदपूर्वकरणेन वृक्षादावारूढाः, तासामपि मध्ये पक्षरहितास्तत्रैव तिष्ठन्ति, ततः प्रत्यवरोहन्ति च । काश्चित् पक्षोद्भवेन तत उड्डीयन्ते । इह यथा पिपीलिकानामितस्ततो गमनं यथाप्रवृत्तिकरणेन, वृक्षादावारोहणमपूर्वकरणेन, उड्डयनमनिवृत्तिकरणेन, तथाऽत्रापि नन्थिदेशगमनं यथाप्रत्ति
(६) अभव्य जीव कैसे यथाप्रवृत्तिकरणमें स्थित होते हैं ? और कैसे फिर वहां से च्युत हो जाते हैं ? तथा भव्य जीव ग्रन्थि का भेदन कर कैसे उससे आगे बढ़ जाते हैं ?, ऐसी शंका को दूर करने के लिए पिपीलिका-दृष्टान्त की सार्थकता है।
जैसे कितनेक पिपीलिकाएँ (कीडियां) यों ही अपने विलसे बाहर निकल कर इधर-उधर घूमने लगती हैं, और इनमेंसे कितनीक पिपीलिकाएँ अपूर्वकरण से वृक्षादिक के ऊपर चढ़ जाती हैं । अनन्तर उनमें पांखरहित कितनीक वहीं पर रह जाती हैं, और कितनीक वहां से उतर आती हैं, और कितनीक पिपीलिकायें कि जिनके पर होते हैं वे वहांसे उड़ जाती हैं । जैसे पिपीलिकाओं का इधर-उधर भ्रनण यथाप्रवृत्तिकरणसे होता है, वृक्षादिक पर उनका चढ़ना अपूर्वकरण से होता है, एवं वहां से उनका उड़ जाना अनिवृत्तिकरणसे होता है, उसी प्रकार जीवका ग्रन्थि देश तक जाना-यथाप्रवृत्तिकरणके द्वारा होता है, ग्रन्थिका
(૬) અભવ્ય જીવ કેવીરીતે યથાપ્રવૃત્તિકરણ કરે છે? અને કેવી રીતે પછી ત્યાંથી પતિત થઈ જાય છે ? તથા ભવ્ય જીવ કન્વિનું ભેદન કરીને કેવી રીતે એનાથી આગળ વધી જાય છે ? આવી શકાને દૂર કરવાને માટે પપીલિકા ઓ (કિડીઓ)ના છાતની સાર્થકતા છે. જેમ કેટલીક પિપીલિકાઓ (કીડિઓ) એમજ પોતાના દરથી બાહર નિકળીને અહીંતહીં ફરવા લાગે છે, અને તેઓમાથી કેટલીક કીડિઓ વૃક્ષાદિકની ઉપર ચડી જાય છે. બાદમાં તેઓમાથી પાપરહિત કેટલીક કીડિઓ ત્યાં જ રહી જાય છે, અને કેટલીક કીડિઓ ત્યાથી ઉતરી આવે છે, તથા કેટલીક કીડિઓ-કે જેઓ પાખસહિત હોય છે તેઓ ત્યાંથી ઉડી જાય છે. જેમ કીડિઓનું અહીંતહીં ફરવું યથાપ્રવૃત્તિકરણથી થાય છે, વૃક્ષાદિની ઉપર તેનુ ચવું અપૂર્વકરણથી થાય છે, અને ત્યાંથી તેઓનું ઉડવું અનિવૃત્તિકરણથી થાય છે, તે જ પ્રમાણે જીવનુ પ્રદેિશ સુધી જવું તે યથાપ્રવૃત્તિકરણદ્વારા થાય
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ.
(४-५) तीव्रविशुद्धिपरिणामिजीवस्य प्रथमतया क्षायोपशमिकसम्यक्त्त्वं भवति, तत् खल्वपूर्वकरणवशात् । तत्रापूर्वकरणेन जीवो मिथ्यात्वदलिकं त्रिधा करोति, तद्यथा-(१) मिथ्यात्वं, (२) सम्यमिथ्यात्वं, (३) सम्यक्त्वं चेति । तत्र (४) वस्त्र, (५)जलं चेति दृष्टान्तद्वयम् । यथा किंचिद् वस्त्रं जलं वा मलिनं भवति, किंचिदीपद् विशुद्धं, किंचित् शुद्धम् , तथा मिथ्यात्वदलिकमप्यपूर्वकरणवशात् किंचिन्मिथ्यात्वरूपं मलिनं भवति, किंचित् सम्यग्मिथ्यात्वरूपमीपद् विशुद्धं, किंचित् सम्यक्त्व रूपं शुद्धम् । का मिथ्यात्व गुर्वादिक के उपदेश से, और किसी २ का अपने आप तत्त्वों की पर्यालोचना से नष्ट हो जाता है ।
(४-५) तीव्रविशुद्धपरिणामवाले जीव के अपूर्वकरण के प्रभाव से सर्वप्रथम क्षायोपशमिकसम्यक्त्व होता है। अपूर्वकरण के प्रभाव से ही जीव मिथ्यात्व के (३) तीन भाग करता है--(१) मिथ्यात्व, (२) सम्यग्मिथ्यात्व, (३) सम्यक्त्व । यहां पर वस्त्र और जल ये दो दृष्टान्त घटित होते हैं । जैसे-कोई वस्त्र अथवा जल अत्यन्त मलिन होता है, और कोई उससे कुछ कम मलिन, और कोई २ विल्कुल साफ-निर्मल होता है, उसी तरह से जीव अपूर्वकरण के प्रभाव से मिथ्यात्व के तीन टुकडे कर देता है, उनमें कोई टुकड़ा विल्कुल मलिन, और कोई टुकड़ा कुछ कम मलिन, एवं कोई टुकड़ा विल्कुल साफ-शुद्ध होता है। विल्कुल मलिन टुकड़े का नाम मिथ्यात्व, कुछ कम मलिन टुकड़े का नाम सम्यग्मिथ्यात्व, और सर्वथा शुद्ध टुकड़े का नाम सम्यक्त्व है। શાંત થઈ જાય છે, તે પ્રમાણે કઈ કઈ જીવને મિથ્યાત્વ ગુર્વાદિકના ઉપદેશથી, અને કોઈ કોઈને પોતાની મેળે તત્તની પર્યાલચનાથી નષ્ટ થઈ જાય છે.
(૪--૫) તીવ્ર વિશુદ્ધ પરિણામવાળા જીવને અપૂર્વકરણના પ્રભાવથી સર્વ પ્રથમ ક્ષાપશમિક-સમ્યક્ત્વ થાય છે. અપૂર્વકરણના પ્રભાવથી જ જીવ મિથ્યાत्पना माग रेछे-(1) भिथ्यात्य, (२) सभ्यमिथ्यात्य, (3) सभ्यत्व. આઠેકાણે વસ્ત્ર અને જળ, આ બે દુછાત ઘટિત થાય છે. જેમ કેઈ વસ્ત્ર અથવા જળ અત્યન્ત મલિન છે, અને કેઈ એનાથી ઓછું મલિન, અને કઈ કઈ બિલકુલ સાફ-નિર્મળ હોય છે, તેમજ જીવ અપૂર્વકરણના પ્રભાવથી મિધ્યાત્વના પણ ત્રણ ભાગ કરી નાંખે છે. તેમાં કઈ ભાગ બિસ્કુલ મલિન અને કોઈ ભાગ ઘેડો મલિન, કઈ ભાગ તદ્દન સાફ-શુદ્ધ હોય છે. તન મલિન ભાગનું નામ મિથ્યાત્વ, ઘેડા ઓછા મલિન ભાગનું નામ સમ્મગ્નિથ્યાત્વ, અને સર્વથા શુદ્ધ ભાગનું નામ સભ્યત્વ છે.
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आवाराङ्गले समायातम्" इति । तत्रैकः पुरुषस्तौ समापतन्तौ विलोक्य प्रथमत एव निवृत्तः, द्वितीयस्तद्वाक्यश्रवणेन खड्गदर्शनेन च संजातभयस्तत्रैव स्थितः, तृतीयस्तु परमसाहसिकः प्रकटीकृतकृपाणस्तौ द्वावपि चौरौ पश्चात्कृत्य तत् स्थानमतिक्रान्तः । ___ इह त्रयाणामपि या प्रथमतः क्रमेण गतिः सा यथामवृत्तिकरणम् , यत्तु तद्भयं तदपूर्वकरणम् , यञ्च तौ पराजित्य तत्परतो गमनं तत् तृतीयमनिवृत्तिकरणं द्रष्टव्यम् । यच्च ततः पलायनं तत् पतनम् ।
(८) अपूर्वकरणेन मिथ्यात्वं त्रिधा करोतीति यदुक्तं तत्र कोद्रवदृष्टान्तः। स तु मागेव निरूपितः। है। यह सुनते ही उनमें से एक पुरुष तो पहिले से ही कहीं भाग गया। दूसरा उनकी बात सुन कर और तलवार देख कर वहीं पर चुपचाप खड़ा रह गया। तीसरेने जो परमसाहसी था अपनी तलवार निकाल कर उनका सामना किया और उन्हें परास्त कर आगे बढ़ गया। यहां तीनों का गमन करना यह यथाप्रवृत्तिकरण के, तथा उनमें से दूसरे का भयान्वित हो कर वहीं पर खडे रहना यह अपूर्वकरणके और तीसरे का चोरोंको परास्त कर आगे बढ़ना यह अनिवृत्तिकरणके स्थानापन्न समझना चाहिए । तथा भागना यह पतन का स्थानापन्न है।
(८) अपूर्वकरण-परिणाम के द्वारा यह जीव जो मिथ्यात्वके तीन खण्ड करना है वहां पर कोद्रय का दृष्टान्त लागू पड़ता है। इस दृष्टान्त का समन्वय पहिले किया जा चुका है। તે અમોને આપી દ્યો, નહિ તે તમારે મોત આ વખતે નજીક છે. આ સાંભળતાં જ તેમાંથી એક પુરૂષ તે પહેલેથી જ ક્યાંક ભાગી ગયે, બીજે તેમની વાત સાંભળી અને તલવાર દેખીને ચુપચાપ ઉભો રહ્યો, ત્રીજે જે ઘણે સાહસિક હતે તેણે પિતાની તલવાર કાઢીને સામે થઈ ગયે અને તેમને ભગાડીને આગળ વધી ગયો
આ ઠેકાણે ત્રણેનું જવું તે યથાપ્રવૃત્તિકરણનું, તથા આમાથી બીજાનું લયભીત થઈ ત્યા રેકાઈ જવું તે અપૂર્વકરણનું, અને ત્રીજનું ચોરેને હરાવીને આગળ વધવુ તે અનિવૃત્તિકરણનું સ્થાનાપન્ન સમજવું જોઈએ જે ભાગવું તે પતનનું સ્થાનાપન્ન છે.
(૮) અપૂર્વકરણ પરિણામ દ્વારા આ જીવ જે મિથ્યાત્વના ત્રણ ખંડ કરે છે ત્યા કોકવન દુષ્ટત લાગૂ પડે છે. આ દુષ્ટાન્તને સમન્વય પહેલાં જ वामा नाच्यो छे.
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सम्यक्त्व - अध्य० ४. उ. १
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करणेन, ग्रन्थिभेदनमपूर्वकरणेन, सम्यक्त्वम निवृत्तिकरणेन । पक्षरहितास्तु यथा वृक्षा स्थितास्ततः प्रत्यवरोहन्ति, तथाऽध्यवसायस्य मान्धात् कोऽपि तीव्रविशोधिरहितोऽपूर्वकर णेन ग्रन्थिभेदं कर्तुमुद्यतोऽपि तीव्ररागद्वेषपरिणामोदयात् तत्रैव तिष्ठति, पश्चात् तत एव परावर्तते ।
(७) अत्रैव पुरुषदृष्टान्तोऽपि यथा त्रयो मनुष्याः भयङ्करं पन्थानं भयेन गच्छन्तः सायंकाले समागते त्वरमाणा व्रजन्ति । अत्रान्तरे खड्गहस्तौ द्वौ चौरौ पार्श्वद्वयतः संप्राप्तौ । तौ चैवमाक्षिपतः - "क्व गच्छथ यूयं ? युष्माकमिदानीं मरणं भेदन करना यह अपूर्वकरण के द्वारा होता है, और समकित की प्राप्ति करना यह अनिवृत्तिकरण के द्वारा होता है। पक्षरहित पिपीलिकाएँ जैसे वृक्षादिक पर चढ़ कर वहां से फिर उतरती हैं उसी प्रकार अध्यवसाय की मन्दतासे जीव भी तीव्रविशुद्धिसम्पन्न परिणाम के विना अपूर्वकरण के द्वारा ग्रन्थिभेद करनेमें उद्यत होता हुआ भी तीव्र राग-द्वेष परिणामके उदयसे वहीं पर ठहर जाता है और पीछे वहां से लौट आता है; आगे नहीं बढ़ सकता ।
(७) यहीं पर पुरुषका दृष्टान्त भी लागू पड़ता है । जैसे तीन मनुष्य भय से संत्रस्त हो विकट मार्ग से जाते हुए सायंकाल के समय अपने स्थानकी ओर बहुत ही शीघ्रतासे आगे बढ़ रहे थे, इनमें से एक के पास ही तलवार थी । इसी समय तलवार लिये हुए दो चोर भी जो इनके पीछे लगे हुए थे, वे उनके सामने आ कर बोले- 'तुम लोग कहां जाते हो ? जो कुछ हो हमें दे दो, नहीं तो तुम्हारी इस समय मृत्यु निकट છે. પ્રન્થિનું ભેદન કરવું, તે અપૂર્વકરણદ્વારા થાય છે, અને સમકિતની પ્રાપ્તિ કરવી તે અનિવૃત્તિકરણ દ્વારા થાય છે. પાંખરહિત કીડિઓ જેમ વૃક્ષાદિની ઉપર ચઢીને ઉતરે છે. તે પ્રમાણે અધ્યવસાયની મંદતાથી જીવ પણ તીવ્ર વિશુદ્ધસંપન્ન પરિણામના અભાવે અપૂર્વકરણદ્વારા ગ્રન્થિભેદ કરવામાં તૈયાર હોવા છતાં પણ તીવ્રરાગદ્વેષપરિણામના ઉદયથી ત્યાં જ રોકાઇ જાય છે અને પછી ત્યાંથી ફ્રી આવે છે અને આગળ વધી શકતાં નથી.
(૭) એ જ ઠેકાણે પુરૂષના દૃષ્ટાન્ત પણ લાગુ પડે છે જેમ–સાયંકાળની વખત વિકટ માથી જતાં ત્રણ મનુષ્ય ભયથીદુઃખી હતા, અને પોતાના સ્થાનની તરફ ઘણી જ શીવ્રતાથી આગળ વધી રહ્યા હતા. તેમાં એકની પાસે તલવાર હતી. આ વખતે તલવારવાળા એ ચાર જે તેમની પછવાડે પડ્યાં હતાં તે એમની સામે આવી ખોલ્યાં ‘–તમે લાફ ફયાં જાએ છે? તમારી પાસે જે હાય
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आचारागसूत्रे __ अतीताः अतीतकालिका अनन्ताः, येच प्रत्युत्पन्नाः वर्तमानकालिकाः-पञ्चभरतेषु पञ्चैरवतेषु पञ्चमहाविदेहेषु वर्तमानाः, ये च आगमिष्यन्तः भविष्यत्काले आगामिनोऽनन्ताः, ते सर्वे अर्हन्तो भगवन्तः एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण, आख्यान्तिपरप्रश्नावसरे कथयन्ति ।
अत्र वर्तमानग्रहणमुपलक्षणं, तेनातीतानागतयोरपि ग्रहणम् । तथा च-एवमाचख्युः, एवमाख्यास्यन्तीत्यपि योजनीयम् । एवं सर्वत्र क्रियासु योजनीयम् । तथाएवं भापन्ते-सुरनरपरिपदि सर्वजीवानां स्वस्वभाषापरिणामिन्याऽधमागध्या भापया ब्रुवन्ति । तथा-एवं प्रज्ञापयन्ति-हेतुदृष्टान्तादिना प्रकर्षण बोधयन्ति । तथा -एवं प्ररूपयन्ति-तत्तद्भेदं प्रदर्श्व प्रकर्षेण निर्णयन्ति । ____ अतीतकाल में जितने भी अनन्त तीर्थकर हुए हैं, तथा पांच भरत, पांच ऐरवत और पांच महाविदेह क्षेत्र में जितने विद्यमान हैं, और भविष्यत्कालमें जितने भी तीर्थकर होंगे उन सोने दूसरों के प्रश्नावसरमें इसी प्रकार से कहा है, कहते हैं और कहेंगे। यहां पर “आख्यान्ति" यह वर्तमानकालिक क्रिया है, इससे भूत और भविष्यत्-कालीन क्रिया भी समझ लेना चाहिए । आगे भी जहां पर वर्तमान क्रियापदका प्रयोग हो, वहां पर भूत और भविष्यत्-कालीन क्रियापदका उपलक्षण से अध्याहार कर लेना चाहिये।
"एवं भाषन्ते" उन समस्त तीर्थङ्कर महाप्रभुओंने देव, अनुष्यों की सभामें अपनी अर्धमागधी भाषाके द्वारा, जो भाषा समस्त जीवोंकी भाषामें परिणत हो जाती है, इस प्रकार स्पष्ट कहा है।
અતીતકાળમા જેટલા પણ અન ત તીર્થંકર થયાં છે, તથા પાંચ ભરત પાંચ ઐરવત અને પાંચ મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં જેટલાં વિદ્યમાન છે, અને ભવિષ્યકાળમાં જેટલાં પણ તીર્થકર થશે તે બધા બીજાના પ્રશ્નાવસરમાં આ પ્રકારથી કહ્યું છે, કહે છે मन शे.
२ 00 “आख्यान्ति" ते पतमानासि लिया छ, मेथी भूत અને ભવિષ્યકાલિક ક્રિયા પણ સમજી લેવી જોઈએ આગળ પણ જે ઠેકાણે વર્તમાનકાલિક ક્રિયાપદને પ્રયોગ છે, ત્યાં પણ ભૂત અને ભવિષ્યકાલિક ક્યિાપદને ઉપલક્ષણથી અધ્યાહાર કરી લેવો જોઈએ.
____ "एवं भापन्ते " मा समस्त तीर्थ२ महाप्रभुयोगे हे मनुष्योनी सलाम પિતાની અર્ધમાગધીભાષા દ્વારા–જે ભાષા સમરત ની ભાષામાં પરિણત થઈ જાય છે–આ પ્રકારે સ્પષ્ટ કહ્યું છે,
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सम्यक्त्व-अध्य०४ उ. १
आहेतधर्म एव श्रद्धेय इति बोधयितुं श्रीसुधर्मास्वामी कथयति-से बेमि' इत्यादि। ___मूलम्-से बेमि, जे अईया जे य पडुप्पन्ना जे य आगमिस्सा अरहंता भगवंतो ते सव्वेवि एवमाइक्खंति एवं भासंति एवं पण्णविति एवं परूविति--सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता नहंतव्वा, न अज्जावेयव्वा, न परिघेत्तव्वा, नपरियावेयव्वा, न उद्दवेयव्वा॥ सू० १॥
छाया-तद् ब्रवीमि, ये अतीता ये च प्रत्युपन्नाः ये चागमिष्यन्तः अर्हन्तो भगवन्तस्ते सर्वेऽपि एवमाख्यान्ति, एवं भापन्ते, एवं प्रज्ञापयन्ति, एवं प्ररूपयन्तिसर्व प्राणाः सर्वे भूताः सर्वे जीवाः सर्वे सत्त्वाः न हन्तव्याः, न आज्ञापयितव्याः, न परिग्रहीतव्याः, न परितापयितव्याः, नापद्रावयितव्याः॥ मू० ॥१॥ ____तीर्थंकरैर्गणधरैश्च स्वस्वशिष्येभ्यो यत् सम्यक्त्वमुक्तं तदहं ब्रवीमि कथयामि। यद्वा-' से' इत्यस्य स इतिच्छाया। येन मया भगवतः श्रीवर्धमानस्वामिनस्तीर्थंकरस्य सकाशे तद्वचनेन तत्त्वज्ञानं लब्धं, सोऽहं ब्रवीमि । भगवदुक्तमेवार्थ कथयामि, तस्मान्मम वाक्यं श्रद्धेयमिति भावः ।
अर्हन्त प्रभुके द्वारा प्रतिपादित धर्म ही श्रद्धा करनेके योग्य है। इस वातका प्रतिबोध करानेके लिये श्रीसुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं--' से बेमि' इत्यादि।
हे जम्बू ! तीर्थङ्करों ने एवं गणधरादिकों ने अपने २ शिष्योंके लिये जिस सम्यक्त्वका उपदेश दिया है उसी सम्यक्त्वका मैं व्याख्यान करता हूं। अथवा भगवान श्रीवर्धमान तीर्थङ्कर के निकट जो उनके वचनोंद्वारा सुना है, वही मैं कहता हूँ, किन्तु अपनी तर्फसे कुछ भी नहीं कहता हूँ।
અહંત પ્રભુદ્વારા પ્રતિપાદિત ધર્મ જ શ્રદ્ધા કરવાગ્ય છે” આ વાતને प्रतियो५ ४२वाने भाटे श्री भुधास्वामी ४ छ-' से वेमि' त्यादि.
હે જખૂ! તીર્થકરોએ તેમ જ ગણધરાદિકોએ પિતાપિતાના શિને માટે જે સમ્યકત્વને ઉપદેશ આપ્યું છે તે સમ્યક્ત્વનું હું પણ વ્યાખ્યાન કરું છું. અથવા ભગવાન શ્રી વર્ધમાન તીર્થંકર પાસે તેમના વચનોથી જે સાંભળ્યું છે તે હું કહું છું પણ મારી તરફથી કાંઈ પણ કહેતા નથી,
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आचाराङ्गसूत्रे
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विष शस्त्रादिक से प्राणवियोग न करें । प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व, ये यद्यपि जीव के ही पर्यायवाची शब्द हैं, फिर भी भिन्न रूपसे जो इनका यहां पर निर्देश किया है वह पर्यायभेद मान कर ही किया है, और पर्यायभेद से अर्थभेद होता है इसलिये यहां पुनरुक्ति दोषकी संभावना नहीं है । जो इन्द्रियादिक दश प्राणोंको यथासंभव धारण करते हैं वे प्राणी कहलाते हैं । वे और स्थावर के भेद से दो प्रकार के होते हैं । द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रियपर्यन्त जीव त्रस, और एकेन्द्रिय- पृथिवीकायादिक जीव स्थावर हैं । ये सब हैं, होंगे एवं हुए हैं, इसलिये भूत कहलाते हैं । ये चौदह प्रकारके हैं । ये सब जीते हैं, आगे भी जीयेंगे और भूतकाल में जीये, इसलिये इनकी 'जीव' संज्ञा सार्थक है । नारकी, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवके भेदसे ये चार गतिवाले हैं । तथा ये समस्त ही अपने२ कर्मोदयजन्य सुख दुःखोंकी सत्तावाले होते रहते हैं; इसलिये सत्त्व हैं ।
तीर्थङ्कर प्रभु तत्त्वों की विवेचना, भेद और पर्यायों के द्वारा किया करते हैं, इस कारण से पर्याय - शब्दोंका निर्देश किया गया है । अथवा 'सर्व जीवों के ऊपर अत्यन्त दया रखनी चाहिये' इस बात को बार बार समझाने के अभिप्राय से भी इन पर्याय शब्दों का कथन है | सू० १ ॥
पडयाडे. ' न उद्दवेयव्वा' विष शस्त्राहिस्थी तेना प्राणोनो वियोग न पुरे आली, ભૂત, જીવ અને સત્ત્વ, આ ખધા શબ્દો જો કે જીવના જ પર્યાય શબ્દો છે તે પણ ભિન્ન ભિન્ન રૂપથી જેઓને આ ઠેકાણે નિર્દેશ કર્યાં છે તે પર્યાયભેદ માનીને જ કર્યાં છે, અને પર્યાયભેદથી અર્થભેદ થાય છે, માટે આ ઠેકાણે પુનરૂક્તિ દોષની સંભાવના નથી જે ઇન્દ્રિયાક્રિક દશ પ્રાણેાને યથામ ભવ ધારણ કરે છે તે પ્રાણી કહેવાય છે તે ત્રસ અને સ્થાવરના ભેદથી એ પ્રકારે હાય છે એઇન્દ્રિયથી લઇને પચેન્દ્રિયપર્યન્ત જીવ ત્રસ, અને એકેન્દ્રિય–પૃથ્વીકાયાકિ लव स्थावर छे. आ अधा-छे, थशे तेमन थमेस छे, तेथी भूत हेवाय छे. તે ચૌદ પ્રકારના છે. એ ખધા જીવે છે આગળ પણ જીવશે અને ભૂતકાળમાં જીવ્યા તેથી તેની જીવ सज्ञा सार्थ? छे, नारडी, तिर्यय, मनुष्य भने देवना ભેદથી એ ચાર ગતિવાળા છે. તથા એ સમસ્ત પાતપેાતાના કર્મોદયજન્ય સુખ દુ:ખેાની સત્તાવાળા હાય છે તેથી સત્ત્વ છે.
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તીર્થંકરપ્રભુ તત્ત્વોની વિવેચના, ભેદ અને પર્યાય દ્વારા કરે છે. આ ખ્યાલથી પણ પર્યાય-શબ્દોના નિર્દેશ કરવામાં આવ્યા છે. અથવા · સ જીવાની ઉપર અત્યંત દયા રાખવી એઈ એ ' આ વાતને વાર વાર સમજાવવાના અભિપ્રાયથી આ પર્યાય-શબ્દોનું કથન છે ! સૂ॰ ૧ u
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सम्यक्त्व-अध्य० ४ उ. १
५८७ ___ सर्वेऽर्हन्तो भगवन्त एवं किमाख्यान्तीति जिज्ञासायामाह-सवे पाणा' इत्यादि । सर्वे निरवशेषाः प्राणा: प्राणिनः पृथिव्यादयः स्थावराः, द्वीन्द्रियादिपञ्चेन्द्रियपर्यन्ताः त्रसाश्चेत्यर्थः, इन्द्रियादिमाणानां यथासंभवं धारणात् तेषु प्राणित्वमस्तीति भावः। तथा सर्वे भूताः भवन्ति अविष्यन्त्यभूवन्निति च भूताः चतुर्दशभूतग्रामरूपाः, तथा-सर्वे जीवाः जीवन्ति जीविष्यन्त्यजीविषुरिति जीवाः नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवरूपाश्चतुर्गतिकाः, तथा सर्वे सत्त्वाः स्वकृतकर्मजन्यसुखदुःखसत्तावन्तः। तत्त्वानां भेदपर्यायैः प्रतिवोधनमहन्तो भगवन्तः कुर्वन्तीति कृत्वा पर्यायशब्दनिर्देशः । यद्वा-सर्वमाणिषु पुनः पुनर्दयाभावसमुत्पादनाय पर्यायशब्दनिर्देशः।न हन्तव्याः दण्डादिभिर्न ताडयितव्या इत्यर्थः । नाज्ञापयितव्याः अनभिमतकार्येषु न प्रवतयितव्याः, न परिग्रहीतव्याः इमे भृत्यादयो ममेति कृत्वा परिग्रहरूपेणस्वाधीनतयान स्वीकर्तव्याः, न परितापयितव्याः न अन्नपानाधवरोधनेन ग्रीष्मातपादौ स्थापनेन च पीडनीयाः, नापद्रावयितव्यान विषशस्त्रादिना मारयितव्याः॥०१॥ 'एवं प्रज्ञापयन्ति' हेतु दृष्टान्तादिक के द्वारा अच्छी तरह से समझाया है, और एवं प्ररूपयन्ति' अदप्रभेदपूर्वक स्पष्ट रीति से निर्णय किया है।
समस्त तीर्थङ्करों ने क्या कहा ? इस प्रकार की जिज्ञासा होने पर भगवान् कहते हैं-'सव्वे पाणा' इत्यादि।
समस्त प्राणी, समस्त भूत, सलत जीव और समस्त सत्वों को अर्थात् किसी को भी न हंतव्वा' डंडे आदि से न हने । 'न अज्जावेथव्वा' न इनको मारनेके लिये आज्ञा दे। 'न परिघेतव्वा' 'ये भृत्यादिक मेरे अधीन हैं' ऐसा समझ कर उन्हें दास नहीं बनावें। 'न परियावेयव्वा' अन्नपानी आदि बंध करके तथा धूप आदिमें रख कर न पीड़ा पहुंचावे 'न किलामेयव्वा' बन्धनादि से न खेद पहुंचावे 'नउद्दवेयव्या' इनका
एवं प्रज्ञापयन्ति' तु दृष्टान्तkिseी सारी शते समतव्यु छ भने “ एवं प्ररूपयन्ति " लेहमनेहपूर्व ४ स्पष्ट शतिथी निणय यो छ.
સમસ્ત તીર્થકરેએ શું કહ્યું? આ પ્રકારની જાણવાની ઈચ્છા થવાથી ભગवान छ-'सव्वे पाणा' ऽत्याहि.
સમસ્ત પ્રાણી, સમ ભૂત, સમસ્ત જીવ અને સમસ્ત સને અર્થાત્ કોઈને ५५ 'न तव्या' ८४ी माहिथीन भारे. 'न अज्जावेयव्या' न भावाने भाटे माज्ञा माघे, 'न परिघेतव्वा' 2 नोहि भारी आशामा छ ' मेधुं समलने तेमाने. स न मनावे. 'न परियावेयव्वा' भन्न पाणी माहिम शने तथा 1331 माहिमा राभान न पी. पडाया3. 'न किलामेयव्वा' ५ नाहिथी मेहन
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आचारागसूत्रे अत एवैप नित्यः अविनाशी, सर्वदा पञ्चसु महाविदेहेषु सद्भावात् । तथा शाश्वतः शाश्वतगतिकारणत्वात् , यद्वा-यतो नित्यस्तस्माच्छाश्वतः । अयमेव धर्मः श्रद्धेयो ग्राह्यश्चेत्यत्र हेतुं प्रदर्शयन् विशेषणान्तरमाह-' समेत्य' इत्यादि । लोकंपजीवनिकायं दुःखदावानलान्तःपतितं, समेत्य केवलज्ञानेन प्रत्यक्षतया विज्ञाय, खेदज्ञैः सर्वप्राणिदुःखाभिज्ञैस्तीर्थकरैः, प्रवेदितः प्रतिबोधितः। धर्मोऽयं मया न स्वमनीपाकल्पित इति च सुधर्मस्वामिना शिष्यमुद्दिश्य सूचितम् । ___ तीर्थंकराणामुपदेशो यथा भवति, तं प्रकारमाह-तद् यथेत्यादि । यथा येन प्रकारेण तत् प्रतिबोधितं तत् प्रदर्शयामीत्यर्थः । उत्थितेषु वा-उत्थिताः धर्माचरणार्थमुधताः, तेषु वा, तथा अनुत्थितेषु अनुत्थिताः-तद्विपरीतास्तेषु वा । उत्थिताऽनुत्थितसाधारणस्तदुपदेशो भवतीत्यर्थः । योग्य है। यह अन्य विशेषणों के द्वारा खुलासा करते हुए श्रीसुधर्मास्वामी कहते हैं कि-समस्त जीवों के नाना प्रकार के क्लेशोंके ज्ञाता श्रीतीर्थङ्कर प्रभुने दाखरूपी दावानलसे जलते हए इस पड़जीवनिकायस्वरूप लोक को अपने केवलज्ञानसे प्रत्यक्ष कर इसी धर्मका उपदेश दिया है, अतः धर्मके आदि प्रवर्तक श्री तीर्थङ्कर प्रभु ही हैं । इस प्रकार श्रीसुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामीसे सूचित किया है कि मैंने अपनी कल्पना से कुछ भी नहीं कहा है। - उन तीर्थङ्करोंका उपदेश-प्रवाह जिस एकरूपसे जहां २ बहा उसी को प्रकट करते हुए श्रीसुधर्मास्वामी कहते हैं कि उनका उपदेश सिर्फ उन्हीं जीवोंके लिये नहीं हुआ जो धर्माचरण करनेमें उस्थित-उद्यत थे, किन्तु जो अनुत्थित-अनुद्यत थे उन्हें भी प्रभुने धर्म समझाया, अर्थात् ધર્મ, શ્રદ્ધા કરવા યોગ્ય અને પ્રહણ કરવાયોગ્ય છે. આ વાતની અન્ય વિશેષણોદ્વારા ખુલાસો કરતાં શ્રી સુધર્માસ્વામી કહે છે કે–સમસ્ત જીવોના નાના પ્રકારના કલેશેના જ્ઞાતા શ્રી તીર્થંકરપ્રભુએ દુઃખરૂપી દાવાનળથી બળતાં આ જીવનિકાયસ્વરૂપ લોકને પિતાના કેવળજ્ઞાનથી પ્રત્યક્ષ કરીને આ જ ધર્મને ઉપદેશ આપે છે. એથી આ ધર્મના આદિપ્રવર્તક શ્રી તીર્થંકરપ્રભુ જ છે, આ પ્રકારે શ્રીસુધર્માસ્વામી પિતાના શિષ્ય જ બુસ્વામીને સૂચિત કરે છે કે-મેં મારી પિતાની કલ્પનાથી કાઈ પણ નથી કહ્યું - આ તીર્થકરોને ઉપદેશ-પ્રવાહ જે એકરૂપથી જ્યાં જ્યાં થયે તેને જ પ્રકાશિત કરતા શ્રીમુધર્માસ્વામી કહે છે કે–એમને ઉપદેશ કેવલ તેવા છે માટે નથી થયે કે જે ધર્માચરણ કરવામા ઉદ્યત હતા, કિન્તુ જે જીવો ધર્માચરણ કરવામાં અનુઘત હતા તેમને પણ પ્રભુએ ધર્મ સમજાવ્યો. અર્થાત્ એમને ઉપ
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ. १ सम्यक्त्वमुद्भावयितुम् आहेतधर्मस्य महिमानमाह-'एस धम्मे' इत्यादि।
मूलम्-एस धम्मे सुद्धे निइए सासए समिच्च लोयं खेयपणेहिं पवेइए, तं जहा-उट्टिएसु वा अणुडिएसु वा, उवटिएसु वा अणुवट्टिएसुवा, उवरयदंडेसु वा अणुवरयदंडेसु वा, सोवहिएसु वाअणोवहिएसुवा,संजोगरएसु वा असंजोगरएसुवा।सू०२॥
छाया--एप धर्मः शुद्धः नित्यः शाश्वतः समेत्य लोकं खेदज्ञैः प्रवेदितः। तद् यथा-उत्थितेषु वा अनुत्थितेषु वा, उपस्थितेषु वा अनुपस्थितेषु वा, उपरतदण्डेषु वा अनुप्रतदण्डेषु वा, सोपधिकेषु वा अनुपधिकेषु वा, संयोगरतेषु वा असंयोगरतेषु वा ॥ मू०२॥ __टीका-एपः अनन्तरोक्तः सर्वार्हद्भगवत्प्ररूपितः, धर्मः सर्वप्राणिप्राणातिपातविरमणादिरूपः, शुद्धः-निर्मला-पापानुवन्धरहित इत्यर्थः। आहतधर्मादन्यस्तु धर्मत्वेन यः शाक्यादेरभिमतः स खल्वसर्वज्ञसरागोपदिष्टत्वेन हिंसादिदोषानुवन्धसद्भावेन च न शुद्ध इति भावः।
सम्यक्त्वका उद्भावन करनेके लिये जिनेन्द्रप्रतिपादित धर्मकी महिमा कहते हैं--' एस धम्मे' इत्यादि ।
समस्त जीवों के घात करनेका निषेधरूप यही धर्म-जिसे समस्त तीर्थङ्कशेने प्रतिपादित किया है-पापानुबंध से रहित होनेसे निर्मल है, इसके अतिरिक्त बौद्धादिकों का अभिमत जो सिद्धान्त है वह हिंसादिदोषविशिष्ट होनेसे निर्मल नहीं है; यह बात 'निर्मल' इस पद से प्रकट होती है। पञ्चमहाविदेहों में सदा वर्तमान होने के कारण यह अविनाशीध्रौव्यस्थितिवाला है, शाश्वतगति-मोक्षका कारण होनेसे, अथवा नित्य होनेसे यह शाश्वत है, अतः यही धर्म श्रद्धा करने योग्य एवं ग्रहण करने
સમ્યક્ત્વ પ્રગટ કરવા માટે જીનેન્દ્ર પ્રતિપાદિત ધર્મને મહિમા કહે છે'एस धम्मे' इत्यादि।
સમસ્ત જીના ઘાત કરવાના નિષેધરૂપ આ જ ધર્મ કે જેને સમસ્ત તીર્થકરોએ પ્રતિપાદિત કર્યો છે, પાપાનુબંધથી રહિત હોવાથી નિર્મળ છે. એનાથી અતિરિક્ત બૌદ્ધાદિકોને અભિમત જે સિદ્ધાંત છે તે હિંસાદિદોષવિશિષ્ટ डापायी निभ नथी, 2 पात “ निर्मल " 20 पहथी प्रगट थाय छे. यમહાવિદેહોમાં સદા વર્તમાન હોવાથી આ અવિનાશી–ધ્રુવ સ્થિતિવાળે છે. શાશ્વતગતિ–મેક્ષનું કારણ હોવાથી, અથવા નિત્ય હોવાથી તે શાશ્વત છે. તેથી આ જ
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आचारागसूत्रे तथा उपरतदण्डेषु वा-एकेन्द्रियादीन् प्राणिनो दण्डयतीति दण्डो मनोवाकायरूपः, उपरतो दण्डो येषां ते उपरतदण्डाः-मुनयः, तेषु वा, तद्विपरीता अनुपरतदण्डाः-गृहस्थाः, तेषु वा । एतदुभयसाधारणोऽप्युपदेशस्तेषामित्यर्थः ।
तथा-सोपधिकेषु वा इति । उपधीयते गृह्यते इत्युपधिः द्रव्यतो हिरण्यसुवदिः, भावतो रागद्वेपादिः, सहोपधिना वर्तन्त इति सोपधिका-भरतादयस्तेषु वा। अनुपधिकेषु वान विद्यते उपधिर्येषां तेऽनुपधिकाः-काष्टहारादयस्तेषु वा । एतद्द्येऽपि तीर्थकरोपदेशः समान एव भवतीत्यर्थः। प्रकट करता है । इस विषयमें रोहतक चोरका दृष्टान्त शास्त्रों में प्रसिद्ध ही है। इसी प्रकार उपस्थितों और अनुपस्थितों में, उपरतदंडवालों में और अनुपरतदंडवालों में, सोपधिकों में और निरुपधिकों में, तथा संयोगरतों में
और असंयोगरतों में भी प्रभुका धार्मिक उपदेश एक ही सरीखा हुआ है। जो प्रभु का धार्मिक उपदेश सुननेकी अभिलाषाले समवसरण में आते हैं वे 'उपस्थित' कहलाते हैं, और इससे विपरीत 'अनुपस्थित'। एकेन्द्रियादिक स्थावर और द्वीन्द्रियादिक ब्रस जीवों की हिंसाके कारणभूत मानसिक, वाचिक एवं कायिक व्यापारों से जो निवृत्त हो चुके हैं वे 'उपरतदण्ड' कहे जाते हैं, जैसे मुनिराज । इससे उल्टे 'अनुपरतदण्ड' हैं जैसे गृहस्थ। जो ग्रहण की जावे उसे 'उपधि' कहते हैं। यह दो प्रकार की है-एक 'द्रव्य-उपधि' दूसरी 'भाव-उपधि'। 'द्रव्य-उपधि '-हिरण्यसुवर्णादि, और 'भाव-उपधि' रागद्वेषादि हैं। इस उपधिसे युक्त जो होते हैं वे 'सोपधिक ' जैसे भरतादिक, और इस उपधिसे रहित जो हैं આ વિષયમાં રેહતક ચોરની દષ્ટાન્ત શાસ્ત્રમાં પ્રસિદ્ધ છે. આ પ્રકારે ઉપસ્થિત અને અનુપસ્થિતિમાં, ઉપરતદડવાળામાં અને અનુપરતદંડવાળામાં, સોપથિકમાં અને નિરૂપધિમાં, તથા સ ગરતમાં અને અસગરતમાં પણ પ્રભુને ધાર્મિક ઉપદેશ એક જ સરખો છે. જે પ્રભુને ધાર્મિક ઉપદેશ સાભળવાની भावनाथी समवस२६४मा मावे छ तेसो ' उपस्थित' उपाय छे. मन तनाथी विपरीत 'अनुपस्थित.' सन्द्रिया िस्थाप२ मने मेन्द्रिया िस योनी डिसाना કારણભૂત માનસિક વાચિક અને કાયિક વ્યાપારેથી જે નિવૃત્ત થઈ ચુકેલાં તે 'उपरतदण्ड' डेवाय छे, म भुनिया. अनाथी Beti "अनुपरतदण्ड” छ, रेम
उत्या. रेडए४२वामां आवे तेने उपधि' हे छे. मा. प्रा२नी छे. એક દ્રવ્ય-ઉપાધિ અને બીજી ભાવ–ઉપધિ દ્રવ્ય-ઉપાધિ હિરણ્યસુવર્ણાદિ અને नाव-उपवि. रागपाहिजे. २उपविसहित ये होय छे ते 'सोपधिक' म
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ. १ ___ यद्वा-द्रव्यतः ये उत्थिताः, अनुत्थिताः, तेषु तेषु वा । यथा-उत्थितेष्वेकादशसु गणधरेषु श्रीवर्धमानस्वामिना भगवता धर्म उपदिष्टः। अनुत्थितेषु यथा चण्डकौशिकादिषु । तथा उपस्थितेषु वा =धर्म श्रोतुं ग्रहीतुं वा थे वाञ्छन्ति ते उपस्थितास्तेषु वा, यथा चिलातिपुत्रादिषु । अनुपस्थितेषु वा-तद्विपरीता अनुपस्थिताः तेषु वा, यथा-इन्द्रनागादिषु, अनिच्छयाऽपि श्रवणेन कर्मपरिणामवैचित्र्यात् तेषां क्षयोपशमसंभवात्, यथा रोहकचोरस्य क्षयोपशमः संजातः। उपस्थितानुपस्थितेष्वपि समानस्तदुपदेशो भवतीत्यर्थः। उनके उपदेशका प्रवाह उभयसाधारण (दोनोंके लिये समान) था।अथवा जो जीव धर्माचरण से उस समय बाह्य भी थे, किंतु भगवानके दिव्य उपदेशका पान कर जो सुमार्ग में आनेकी योग्यता रखते थे, उन्हें भी प्रभुने धर्मका उपदेश दिया । जैसे-ग्यारह (११) गणधर जो द्रव्यतः उत्थित थे उन्हें श्रीवर्धमानप्रभुने सद्धर्मका स्वरूप समझा कर सन्मार्गगामी किया । अनुत्थितों में भी इसी प्रकार से प्रभुके उपदेशका प्रवाह बहा है, जैसे चण्डकौशिकादिकों में । धर्मको सुननेकी अभिलाषा रखनेवाला चिलातिपुत्रादिकोंको, और अनुपस्थित-इससे बहिर्भूत इन्द्रनागादिकों को भी प्रभुने अपने धर्म के उपदेशका पान कराया है। धर्मके जाननेकी अभिलाषा से रहित प्राणी को भी जो धर्म सुनाया जाता है उसका कारण यही है कि जिस प्रकार अनिच्छा से पिया हुआ भी अमृत अपने गुण को प्रकट करता है उसी प्रकार श्रुतधर्म भी कर्म के परिणमनकी विचित्रता से क्षयोपशम का कारण होता हुआ अपना प्रभाव દેશપ્રવાહ બનેને માટે સાધારણ–બરાબર છે. અથવા જે જીવો ધર્માચરણથી તે વખત બહાર પણ હતા, કિન્તુ ભગવાનના દિવ્ય ઉપદેશનું પાન કરીને જે સુમાર્ગમાં આવવાની ચેગ્યતા રાખતા હતા, તેને પણ ભગવાને ઉપદેશ આપ્યો જેમ ગ્યારહ (૧૧) ગણધરે જે દ્રવ્યથી ઉસ્થિત હતા તેઓને શ્રીવર્ધમાન પ્રભુએ સદુધર્મનું સ્વરૂપ સમજાવીને સન્માર્ગ તરફ વાળ્યા. અનુસ્થિતિમાં પણ આ પ્રકારે પ્રભુને ઉપદેશપ્રવાહ ચાલે છે, જેમ ચંડકૌશિકાદિકોમાં. ઉપસ્થિત-ધર્મને સાંભળવાની અભિલાષા રાખવાવાળા ચિલાતિપુત્રાદિકોને, અને અનુપસ્થિતએનાથી બહિર્મેત ઈન્દ્રનાગાદિકોને પણ પ્રભુએ પિતાના ધર્મના ઉપદેશનું પાન કરાવ્યું છે ધર્મ સાંભળવાની અભિલાષાથી રહિત પ્રાણીને પણ જે ધર્મ સંભળાવવામાં આવે છે તેનું કારણ એ જ છે કે જે પ્રકારે અનિચ્છાથી પિવાએલું પણ અમૃત પિતાના ગુણને પ્રગટ કરે છે, તે જ પ્રકારે મૃતધર્મ પણ કર્મના પરિણમનની વિચિત્રતાથી ક્ષચપશમનું કારણ થતા પિતાને પ્રભાવ પ્રગટ કરે છે.
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आचाराङ्गसूत्रे इदं तद्वाक्यार्थरूपं वस्तु, तथा च तथैव-तीर्थंकरभगवद्भिर्यथा प्ररूपितं तथैव वस्तुसद्भावोऽपीत्यर्थः । एकेन्द्रियादिपञ्चेन्द्रियान्ताः स्थावस्त्रसरूपाः सर्वे प्राणिनो न हन्तव्याः, एप धर्मः शुद्धो नित्यः शाश्वत इत्यादि यथा प्ररूपितं तद्वाक्यार्थोऽपि तथैव विद्यते, तस्मात् सत्यमेवेदं वचनमिति भावः । अनेन श्रद्धानलक्षणं सम्यक्त्वं प्ररूपितम् । अस्मिंश्चेदं प्रोच्यते इति-इदं श्रद्धानलक्षणं सम्यक्त्वम् , अस्मिंश्चआहेतप्रवचनविषय एव प्रोच्यते विधेयतया प्रकर्षेणोपदिश्यते । केवलमार्हतप्रवचनविपये पुनः पुनरतिशयेन वा श्रद्धानलक्षणं सम्यक्त्वमास्थ्यमित्युपदिश्यते तिथंकररित्यर्थः ॥ मू० ३॥ दार्थों का जिस स्वरूप का भगवानने अपनी दिव्यवाणीद्वारा प्रतिपादन किया है उन पदार्थों का स्वरूप और उनका अस्तित्व उसी प्रकार से है। अन्यथा नहीं। इस प्रकारका तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यक्त्व सिर्फ अहंन्त प्रभुके द्वारा प्रतिपादित वचनों में ही विश्वास रखने से जीवों को प्राप्त होता है।
इस सूत्र में तीन बार " च " शन्दका प्रयोग किया है वह नियम का द्योतक है। इससे यह समझना चाहिये कि भगवानने जो उस स्थावर जीवों को नहीं मारनेरूप शुद्ध, नित्य, शाश्वत धर्म के उपदेशरूप वचन कहे हैं वे सत्य हैं। कारण कि जिन पदार्थों का प्रतिपादन प्रभुने अपनी वाणी द्वारा किया है उन पदार्थो का स्वरूप ठीक वैसा ही है, अर्थात्-भगवान के वचन इसलिये प्रमाण हैं कि उन वचनों के प्रतिपाद्य अर्थ में किसी भी प्रकार से विसंवादादिक नहीं देखा जाता। अर्थ સ્વરૂપમાં ભગવાને પિતાની દિવ્ય વાણી દ્વારા પ્રતિપાદન કર્યું છે તે પદાર્થોનું સ્વરૂપ અને તેનું અસ્તિત્વ તે પ્રકારનું જ છે, અન્યથા નહિ આ પ્રકારનું તત્વાર્થ શ્રદ્ધાનરૂપ સભ્યત્વ ફક્ત અહંતપ્રભુદ્વારા પ્રતિપાદિત વચનમાં જ વિશ્વાસ રાખવાથી જીને પ્રાપ્ત થાય છે.
આ સૂત્રમાં જે ત્રણ વાર “ર” શબ્દનો પ્રયોગ કર્યો છે તે નિયમનો દ્યોતક છે. તેથી એ સમજવાનું છે કે ભગવાને જે ત્રણ સ્થાવર જીવને નહિ મારવારૂપ શુદ્ધ, નિત્ય, શાશ્વત ધર્મના ઉપદેશરૂપ વચન કહ્યું છે તે સત્ય જ છે, કારણ કે જે પદાર્થોનું પ્રતિપાદન પ્રભુએ પોતાની વાણદ્વારા કર્યું છે તે પદાર્થોનું સ્વરૂપ તેવું જ છે. અર્થાત્ ભગવાનનું વચન એટલા માટે પ્રમાણે છે કે તે વચનોના પ્રતિપાદ્ય અર્થમા કેઈ પણ પ્રકારથી વિસ વાદદિક નથી દેખાતું.
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ. १
तथा-संयोगरतेषु वा-संयोगः पुत्रकलनादिसम्बन्धस्तस्मिन् रता-आसक्ताः संयोगरताः-गृहस्था देशविरतिश्रावकारतेषु वा। असंयोगरतेषु-असंयोगः संयमस्तत्र रता असंयोगरताः-उपशमश्रेण्यादिसम्पन्नास्तेषु वा। एतदुभयविधेष्वपि समान एव तदुपदेशो भवतीत्यर्थः।
अयं भावः-तीर्थंकराणामुपदेशः सूर्योदय इव प्रबोध्यविशेषमनपेक्ष्य प्रवतते, तस्मात् तत्र नास्ति रागद्वेषपक्षपातादिदोषलेशावसर इति ॥ सू०२॥
सम्यक्त्वस्य स्वरूपमाह- तच्चं' इत्यादि ।
भूलम्-तच्चं चेयं तहा चेयं अस्सि चेयं पवुच्चइ ॥सू०३॥ छाया-तथ्यं चेदं तथा चेदं अस्मिश्चेदं प्रोच्यते ॥सू० ३ ॥
टीका--इदं भगवद्वचनं तथ्यं च-सत्यमेव । अत्र मूत्रे चकारो नियमार्थः । वे 'निरुपधिक' हैं, जैसे कठियारादिक । पुत्रकलबादिक के मोहमें जो फंसे हुए हैं ऐसे गृहस्थ 'संयोगरत' जैसे देशविरति श्रावक, और इनके त्यागी संयमी साधु 'असंयोगरत' कहलाते हैं जैसे उपशमश्रेण्यादिसंपन्न। इसका फलितार्थ यही है कि जिस प्रकार सूर्यका उदय ऊंचनीच के पक्षपात से रहित हो कर समस्त जगतको प्रकाश देता है ठीक उसी तरह प्रभुका दिव्य धार्मिक उपदेश भी उत्थित और अनुत्थितादिकों के पक्षपात विना समस्त जीवोंके हितके लिये एक ही जैसा होता है, कारण कि पक्षपातादिदोषों को कारण रागद्वेष ही है, और प्रभु वीतरागी हैं, इसलिये वे पक्षपातादि दोषों से रहित हैं। सू०२॥
सम्यक्त्व के स्वरूप को प्रकट करते हुए श्री सुधर्मास्वामी कहते हैं'तच्चं चेयं' इत्यादि।
भगवान् तीर्थङ्कर प्रभुके वे वचन सत्य ही हैं, कारण कि जिन पमताहि मन मा पपिडित २ छे ते 'निरुपधिक' छ, म यिा । पुत्रसत्राहिना भाडभर इसेदा छ मेवा गृहस्थी 'संयोगरत' म देशविति श्रा१४. मने तेना त्यागी सयभी साधु ' असंयोगरत' ४वाय छ, म उपशमશ્રેણ્યાદિસંપન્ન. એને ભાવ એ છે કે જેમ સૂર્યને ઉદય ઉંચનીચના પક્ષપાતથી રહિત થઈને સમસ્ત જગતને પ્રકાશ આપે છે તે જ માફક પ્રભુને દિવ્ય ધાર્મિક ઉપદેશ પણ ઉસ્થિત અને અનુત્યિતાદિકોના પક્ષપાતથી રહિત થઈને સમસ્ત જીવના હિતને માટે એક જ સરખે હોય છે, કેમ કે પક્ષપાતાદિ દેનું કારણ રાગ-દ્વેષ જ છે અને પ્રભુ વીતરાગી છે, તેથી તે પક્ષપાતાદિષથી રહિત છે એ સૂત્ર ૨ છે
सभ्यत्वना स्व३५ने ४८ ४शन. श्रीसुधारणामा छ-'तच्चं चेय त्यादि. ભગવાન તીર્થંકર પ્રભુના તે વચનો સત્ય જ છે, કારણ કે જે પદાર્થોનું જે
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आचारागसूत्रे भावः । न निक्षिपेदिति तत् सम्यक्त्वं न त्यजेत् । यदि संसर्गादिना मिथ्यादृष्टयो मिथ्यात्वं स्थापयेयुः, तदा स्वात्मनः सामर्थ्यगुणं प्रकाशयेदित्यर्थः । यद्वा-न निक्षिपेदिति-निक्षेपण छर्दनं वमनमित्यर्थः, यथा कश्चिद् आचार्य समीपे व्रतानि गृहीत्वा पश्चात् कालान्तरे तत्परतो निक्षिप्योत्पव्रजति, पुनरागत्य गृह्णाति, तथा न सम्यक्त्वं कदापि परित्यजेत् , किंतु यावज्जीवमनुपालयेदित्यर्थः। यद्वा-धर्म= यथाऽवस्थितं धर्म श्रुतचारित्ररूपं, तथा तेनैव प्रकारेण ज्ञात्वा तं श्रुतधर्म चारित्रधर्म च न निक्षिपेत् न त्यजेत् ॥ सू० ४ ॥ अनुकम्पा आदि जो समकित के कार्य हैं वे प्राप्त हो जाते हैं, उनसे ही समकितका अस्तित्व जाना जाता है, अतः इन कार्यों को करने से समकित का प्रकाश होता है, नहीं करने पर उसका आच्छादन होता है। यदि कदाचित् मिथ्यादृष्टियों की संगति भी हो जावे' और वै मिथ्यात्व की ओर ले जाने का प्रयत्न भी करें तो भी उस समय अपनी शक्ति का प्रकाशन कर समकित का परित्याग नहीं करना चाहिये । अथवा जैसे कोई जीव आचार्य के समीप व्रतों को धारण कर पश्चात् कालान्तर में उनके निकट उनका वमन-त्याग कर चला जाता है, और फिर आकर उन्हें धारण कर लेता है, उस प्रकार इस सम्यक्त्वका वमन नहीं करना चाहिये, किंतु प्राप्त होने पर इसको प्रयत्नपूर्वक यावज्जीवन पालते रहना चाहिये । अथवा-समकित के कार्यरूप श्रुतचारित्रधर्म की जिस प्रकार से अवस्थिति है उसी रूपसे उन्हें जान कर फिर नहीं छोड़ना चाहिये॥४॥ અને અનકમ્પા આદિ જે સમકિતના કાર્ય છે તે પ્રાપ્ત થઈ જાય છે. તેનાથી જ સમકિતનું અસ્તિત્વ જાણવામાં આવે છે માટે તે કાર્યોને કરવાથી સમકિતને પ્રકાશ થાય છે, અને નહિ કરવાથી તે ઢંકાઈ જાય છે, અને કદાચ મિથ્યાષ્ટિએની સંગત પણ થઈ જાય અને તેને મિથ્યાત્વની તરફ લઈ જવાનો પ્રયાસ પણ કરે તે પણ તે વખત પિતાની શક્તિને પ્રકાશ કરી સમકિતને ત્યાગ નહિ કર જોઈએ અથવા જેમ કોઈ જીવ આચાર્યની સમીપ વ્રતને ધારણ કરીને પછી કાળાન્તરમાં તેની નજીક તેને વમન–ત્યાગ કરી ચાલ્યા જાય છે અને ફરી આવીને જેમ તેને ધારણ કરી લે છે તે પ્રકારે આ સમ્યક્ત્વને વમન -ત્યાગ કરે નહિ જોઈએ, પણ પ્રાપ્ત થયા પછી તેને પ્રયત્નપૂર્વક જાવજીવજીવનપર્યન્ત પાળતા રહેવું જોઈએ અથવા સમકિતના કાર્યરૂપ થતચારિત્ર ધર્મની જે પ્રકારે અવસ્થિતિ છે તે રૂપમાં તેને જાણીને છોડવું ન જોઈએ સૂ૦ ૪.
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सम्यक्त्व-अध्य० ५. उ. १
उक्तरीत्या सम्यक्त्वरूपं प्रदर्य, तत्माप्त्यनन्तरं तत्र स्थिरीकरणाय सम्यग्दृष्टेः कर्तव्यं प्रतिबोधयति-तं आइत्तु' इत्यादि ।
मूलम्-तं आइत्तु न निहे न निक्खिवे जाणित्तु, धम्म जहा-तहा ॥ सू०४॥
छाया-तत् आदाय न निहुवीत, न निक्षिपेत्, ज्ञात्वा धर्म यथा-तथा ॥४॥
टीका-तत्-सम्यग्दर्शनापरनामकं सम्यक्त्वम् , आदाय-गृहीत्वा प्राप्येति यावत् , धर्म श्रुतचारित्ररूपं, यथा-तथा येन केनापि प्रकारेण शुरूपदेशादिना ज्ञात्वा, यद्वा-धर्म वस्तुस्वभावं ज्ञात्वा न निढुवीत, सम्यक्त्वं तत्कार्याऽकरणेन नाऽऽच्छादयेदित्यर्थः । प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पादिभिः सम्यक्त्वं प्रकाशयेदिति की प्रमाणतासे ही वचन में प्रमाणता आती है । जब प्रतिपाद्य अर्थरूप धार्मिक उपदेश विसंवाद आदि से रहित है तो फिर क्यों नहीं उसके प्रतिपादक वचनों में सत्यता आवेगी? अवश्य ही आवेगी। इस प्रकारकी दृढ़ आस्था ही तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यक्त्व है । सू० ३॥
पूर्वोक्त रीतिसे सम्यक्त्वका स्वरूप प्रकट कर उसकी प्राप्तिके बाद उसमें सुस्थिर करनेके लिये सम्यग्दृष्टि जीव का कर्तव्य प्रकट करते हुए श्री सुधर्मास्वामी कहते हैं-'तं आइत्तु न निहे ' इत्यादि। ___ जीव उस समकित को प्राप्त कर गुरूपदेशादिकरूप जिस किसी भी प्रकारसे श्रुतचारित्ररूप धर्म को अथवा वस्तुस्वभावको जान कर उस समकित को आच्छादित नहीं करे और न उसको छोड़े। समकित को प्राप्त कर लेने पर समकिती जीव को प्रशम, संवेग, निर्वेद और અર્થની પ્રમાણતાથી જ વચનમાં પ્રમાણતા આવે છે. જ્યારે પ્રતિપાદ્ય–અર્થરૂપ ધાર્મિક ઉપદેશ વિસંવાદ આદિથી રહિત છે તે પછી તેના પ્રતિપાદક વચનમાં કેમ સત્યતા ન આવે? અવશ્ય જ આવે. આ પ્રકારની દઢ આસ્થા જ તત્ત્વાર્થ શ્રદ્ધાનરૂપ સમ્યક્ત્વ છે સૂ૦ ૩ !
પૂર્વોક્ત રીતિથી સમ્યકત્વનું સ્વરૂપ પ્રગટ કરીને તેની પ્રાપ્તિ પછી તેમાં સુસ્થિર કરવાને માટે સમ્યગ્દષ્ટિ જીવનું કર્તવ્ય પ્રગટ કરતાં શ્રીસુધર્માસ્વામી ४ छे-'तं आइत्तु न निहे' इत्यादि.
જીવ તે સમકિતને પ્રાપ્ત કરી ગુરૂ-ઉપદેશ આદિ કેઈ પણ પ્રકારે મૃત ચારિત્રરૂપ ધર્મને અથવા વસ્તુસ્વભાવને જાણીને તે સમકિતને ઢાકે નહિ, અને તેને છેડે પણ નહિ. સમકિત મેળવ્યા પછી સમકિતી જીવને શમ, સંવેગ નિર્વેદ
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आधारासूत्र किंच-"नो लोगस्से." त्यादि ।
मूलम्-नो लोगस्सेसणं चरे ॥ सू० ६ ॥ छाया--नो लोकस्यैषणां चरेत् ॥ सू० ६ ॥
टीका--लोकस्य प्राणिवर्गस्य, एपणाम्-एपणा अनुक्लेषु शब्दादिविषयेषूपानहीं है। इसी प्रकार स्वर्गादिक सुखोंकी वाञ्छा करना भी समकितीके लिये योग्य नहीं। अनुकूल शब्दों के सुनने से हर्षित होना, एवं प्रतिकूल शब्दों के सुनने से दुःखित होना, स्वादिष्ट रसादिकों के मिलनेसे आनन्द मानना, और प्रतिकूल रसादिकोंकी प्राप्तिमें आकुलित हो जाना, सुगन्धित पदार्थो के सूंघने में प्रेम प्रदर्शित करना, और दुर्गधित वस्तुओं पर अरुचि रखना, कोमलादि स्पर्टी में प्रमुदितमन होना, एवं कठिनादि स्पर्शी के होने पर म्लानवदन होना; यह समकिती के लिये सर्वथा अयोग्य ही है। समकिती तो समदृष्टि होता है। इस तरह की रागद्वेषमयी विषमदृष्टि उसमें नहीं होनी चाहिये। प्रतिकूल और अनुकूल शब्दादिकों की प्राप्ति में उसे यही भावना करनी चाहिये कि ये सब पुगल की पर्यायें सदा बदलती रहती हैं-पर्यायें स्थिररूप नहीं हैं, अतः इन अस्थिर पर्यायों में राग करनेसे और द्वेष रखने से मुझे कौनसा लाभ हो सकता है ? ॥ सू०५॥
तथा--'नो लोगस्स' इत्यादि।
सम्यग्दृष्टि जीव लोकैपणा न करे, जिस प्रकार लोक, अनुकूल ઈચ્છા પણ સમકિતીને માટે ગ્ય નથી અનુકૂળ શબ્દ સાંભળીને હર્ષિત થવું, અને પ્રતિકૂળ શબ્દ સાંભળીને દુ ખી થવું, સ્વાદિષ્ટ રસાદિક મળવાથી આનંદ માન, અને પ્રતિકૂળ રસાદિકથી વ્યાકુળ થવું, સુગંધિત પદાર્થોના સૂઘવામાં પ્રેમ દેખાડે અને દુર્ગન્ધિત વસ્તુઓ ઉપર અરૂચિ રાખવી, કોમલાદિ સ્પર્શમાં આન દિત થવું અને કઠણ આદિ સ્પર્શોમાં મોઢું બગાડ્યું; આ બધુ સમકિતીને માટે સર્વથા અયોગ્ય જ છે, સમકિતી તે સમદષ્ટિ હોય છે. આવા પ્રકારની રાગદ્વેપવાળી વિષમણિ તેને હેવી જોઈએ નહિ પ્રતિકૂળ અને અનુકૂળ શબ્દ વિગેરેમાં તેણે ભાવના રાખવી જોઈએ કે આ બધા પર્યાય છે. પર્યાય સદા બદલાતી જ રહે છે, પર્યાય રિરૂપ નથી, માટે આ અસ્થિર પર્યાયમાં રાગ કરવાથી અને રાખવાથી મને શું લાભ થવાનો છે ! સૂત્ર ૫ છે
तयानो लोगस्से 'त्यादि સમ્યગ્દષ્ટિ જીવ લેવણ કરે નહિ, અર્થ-જે પ્રકારે લેક, અનુકુળ શબ્દો
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ. १ अपरं च सम्यग्दृष्टिकतव्यमाह-'दिठेहिं ' इत्यादि ।
मूलम्-दिहेहिं निव्वेयं गच्छिज्जा ॥ सू० ५॥ छाया—दृष्टेषु निर्वेदं गच्छेत् ॥ सू० ५॥
टीका--दृष्टेषु दृष्टिपथसमागतेषु ऐहिकेष्टानिष्टशब्दादिविषयेषु, अस्योपलक्षणार्थत्वात् स्वर्गादिसम्बन्धिष्वपि, निर्वेद-वैराग्यं, गच्छेत्-कुर्यादित्यर्थः । यदा यदा-शब्दाः श्रवणगोचराः, रसा आस्वादिताः, गन्धा आघाताः, स्पर्शा वा स्पृष्टा भवन्ति, तदा तदा भावयेत्-शब्दादयः खलु पुइलास्त एव कदाचित् प्रियशब्दादिरूपेण कदाचिदप्रियशब्दादिरूपेण परिणमन्ते, अतः तेषु पुद्गलपरिणाणामरूपेषु को रागः कश्च वा द्वेष इति ॥ मू० ५ ॥
और भी सम्यग्दृष्टिका कर्तव्य कहते हैं-'दिदेहि' इत्यादि। दृष्ट पदार्थों में निर्वेद-इष्टानिष्ट शब्दादि विषयों में विरक्तभाव हो, संसार के जितने भी मनोज्ञ और अमनोज्ञ पंचेन्द्रियों के विषयभूत श. ब्दादि पदार्थ हैं उनमें सम्यग्दृष्टि जीवको विरक्त भाव रखना चाहिये, कारण कि ये शब्दादि सब पौगलिक हैं । जो कभी मनोज्ञ प्रतीत होते हैं वे ही कालान्तर में अमनोज्ञ रूपसे भी परिणमित होते हुए देखे जाते हैं। अथवा जो एक की अपेक्षा मनोज्ञ हैं वे ही दूसरे की अपेक्षा अमनोज्ञ हो जाते हैं । निम्ब हमारी अपेक्षा अमनोज्ञ है परन्तु ऊँटकी अपेक्षा मनोज्ञ है। फलितार्थ यही है कि संसार का कोई भी पदार्थ सर्वथा न मनोज्ञ है न अमोज्ञ है, मनकी कल्पनाशक्ति ही उसको मनोज्ञ और अमनोज्ञ रूपसे भान कराती है, अतः उनमें राग द्वेष करना समकिती जीवका कर्तव्य
log पशु सभ्यष्टिर्नु तव्य ४ छ-" दिद्वेहिं " . त्याहि.
દેખીત પદાર્થોમાં નિર્વેદ-ઈષ્ટ અને અનિષ્ટ શબ્દાદિ નિષોમાં વિરક્તભાવ હોય, સંસારના જેટલા પણ મનેજ્ઞ અને અમનેશ પંચેન્દ્રિયના વિષયભૂત શબ્દ આદિ પદાર્થ છે તેમાં સમ્યગ્દષ્ટિ જીવને વિરક્તભાવ રાખવો જોઈએ, કારણ કે એ બધા પૌગલિક છે. જે કોઈ વખત મનેઝ પ્રતીત થાય છે તે જ કાળાતરમાં અમને જ્ઞરૂપથી પણ પરિમિત થતાં દેખવામાં આવે છે. અથવા જે એકની અપેક્ષા મને છે, તે બીજાની અપેક્ષા અમનોજ્ઞ થઈ જાય છે. લીંબડે આપણું અપેક્ષાએ મનેz છે, પરંતુ ઊંટની અપેક્ષાએ મનોજ્ઞ છે. ફલિતાર્થ એ છે કે સંસારને કોઈ પણ પદાર્થ સર્વથા મનોજ્ઞ પણ નથી તેમજ અમનેઝ પણ નથી. મનની કલ્પના-શક્તિ જ તેને મનોજ્ઞ અને અમનોજ્ઞ પ્રતિફળિત કરાવે છે, માટે તેમાં રાગદ્વેષ કરે તે સમકિતી જીવનું કર્તવ્ય નથી. એ જ પ્રકારે સ્વર્ગાદિક સુખોની
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६००
आचारागसूत्रे यद्वा-इयम् उपक्रान्ता, ज्ञातिः सम्यक्त्वरूपा परिणतिः, यस्य नास्ति, तस्यान्या-विवेकिनी परिणतिः साद्यानुष्ठानपरिहारकारिणी कुतः स्यादित्यर्थः ।।०७॥ सम्यक्त्वे निष्यमतिस्थिरीकरणाथै पुनराह-'
दिसुयं' इत्यादि। मूलम्-दिडंसुयं मयं विण्णायं जं एवं परिकहिज्जइ॥सू०८॥ छाया—दृष्टं श्रुतं मतं विज्ञातं यदेतत् परिकथ्यते ॥ मू० ८॥
टीका-यदेतत् सम्यक्त्वं मया परिकथ्यते, तत् दृष्टं तीर्थंकरैः केवलालोकेनावलोकितम् , ततः श्रुतं गगधरादिभिः श्रवणविषयीकृतं, मतं लघुकर्मणां मनोवृत्ति को दृषित करनेवाली होने से ही समकिती के लिये हेय वतलाई गई है।
अथवा--'सम्यक्त्व की अप्राप्ति में सम्यग्ज्ञान नहीं होता है। इस बात को भी इसी सूत्र में कहते हैं-'जस्स नस्थि' इत्यादि ।
जिस जीवके पास सम्यक्त्वपरिणति नहीं है उसको सावध व्यापारोंसे हटानेवाली विवेकपरिणति भी कैसे हो सकती है? अर्थात् नहीं हो सकती है ॥ सू०७॥
सम्यक्त्वने शिष्यकी बुद्धिको दृढ़ करने के लिये सुधर्मास्वामी फिरसे कहते हैं--'दिलं सुयं' इत्यादि ।
जिस समकिनका मैंने वर्णन किया है वह दृष्ट, श्रुत, अनुमत और विज्ञात है। यहां पर सुधर्मास्वामी समकितके विषयमें खुलासा करते हुए कहते हैं कि-हे जम्बू ! जिस समकिनका यहां वर्णन किया गया है वह मैने अपनी बुद्धि से नहीं कहा है; किंतु 'दृष्टं'-तीर्थङ्करों ने उसका મનોવૃત્તિને દૂષિત કરવાવાળી હોવાથી જ સમકિતને માટે હેય છે, એમ કહ્યું છે.
અથવા સમ્યક્ત્વની પ્રાપ્તિમાં સમ્યગ્સાન થતું નથી. આ વાતને પણ આ सूत्रमा जे-जत्सनत्थियादि.
જે જીવની પાસે સમ્યફત્વપરિણતિ નથી તેને સાવદ્ય વ્યાપારથી દૂર કરવાવાળી વિવેકપરિણતિ પણ કેવી રીતે થઈ શકે ? અર્થાત્ થઈ શકતી નથી માસૂછા
સમ્યક્ત્વમાં શિષ્યની બુદ્ધિને દૃઢ કરવાને માટે સુધર્માસ્વામી ફરીથી કહે - दि@ सुर्य' त्यादि
જે સમક્તિનું મેં વર્ણન કર્યું છે તે દુષ્ટ, શ્રુત, અનુમત અને વિજ્ઞાત છે આ ડેકાણે સુધર્માસ્વામી સમકિતવિષયમાં ખુલાસો કરીને કહે છે કે-હે જખુ! જે સમકિતનું આ ડેકાણે વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે તે મેં પિતાની બુદ્ધિથી नधी यु; ५६ दृष्टं' ती शये तेनो पोतानाशान३पी प्रशिथी साक्षा
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ. १ देयबुद्धिः, प्रतिकूलेषु हेयबुद्धिस्तां न चरेत्न कुर्यात् ।। सू०६॥ ___लोकैषणाचरणस्य फलमाह--"जस्स नत्थि" इत्यादि । यद्वा-सम्यक्त्वालाभे सम्यग्ज्ञानं न भवतीत्याह--'जस्स नस्थि' इत्यादि।
मूलम्-जस्स नत्थि इमा जाई अण्णा तस्सकओ सिया॥७॥ छाया--यस्य नास्ति इयं जातिः अन्या तस्य कुतः स्यात् ॥ मू० ७ ॥
टीका-यस्य साधोः इयं जातिः-लोकैषणाबुद्धिः नास्ति, तस्य अन्या-अन्यविधा सावधव्यापारप्रवृत्तिः कुतः स्यात् । भोगेच्छा हि लोकैपणा, तत्परित्यागेन सावधक्रियासु प्रवृत्तिनापजायते, इति भावः । शब्दादिकों में उपादेय-बुद्धि एवं प्रतिकूल विषकण्टकादिकों में हेय-बुद्धि रखते हैं उस प्रकार समकिती जीवको अनुकूल पदार्थों में उपादेय-बुद्धि
और प्रतिकूल पदार्थों में हेयबुद्धि नहीं रखनी चाहिये, अपि तु मध्यस्थभाव रखना चाहिये ॥ सू०६॥
लोकैषणा का फल कहते हैं-'जस्स नस्थि' इत्यादि ।
इस प्रकार लोकैषणा की बुद्धि रखनेवाले जीवके सावद्य व्यापारों से निवृत्ति नहीं हो सकती है ।भोगेच्छारूप ही लोकैषणा है। जिस साधु को इस प्रकारकी लोकैषणा नहीं है उसकी प्रवृत्ति शब्दादि विषयों में नहीं होती है । अनुकूल प्रतिकूल पदार्थों में हेयोपादेयधुद्धि रखनेवाला व्यक्ति नियमतः इस प्रकार के कार्यों में प्रवृत्ति कर अपनी मनोवृत्तिको दूषित किया करता है, जबकि समकिती निरन्तर अपनी प्रवृत्ति को निर्मल बनाने की ही कोशिश में रहता है, अतः इस प्रकारकी प्रवृत्ति આદિમાં ઉપાદેય બુદ્ધિ અને પ્રતિકૂળ વિષ કાંટા વિગેરેમાં હેયબુદ્ધિ રાખે છે તે પ્રમાણે આ સમકિતી જીવને અનુકૂળ પદાર્થોમાં ઉપાદેયબુદ્ધિ અને પ્રતિકૂળ પદાર્થોમાં હેયબુદ્ધિ રાખવી જોઈએ નહિ, બલકે મધ્યસ્થ ભાવ રાખવો જોઈએ છે સૂ૦ ૬
सोपणानु ३ ४ छ-'जस्स नत्थि' त्यादि
આ પ્રકારની લેવૈષણાની બુદ્ધિ રાખવાવાળા જીવને વ્યાપારમાંથી નિવૃત્તિ થતી નથી. ભોગેચ્છારૂપ જ કૈવણું છે, જે સાધુને આ પ્રકારની લેકેષણા નથી થતી તેની પ્રવૃત્તિ શબ્દ આદિ વિષયમાં થતી નથી. અનુકૂળ પ્રતિકૂળ પદાર્થોમાં હેય-ઉપાદેય-બુદ્ધિ રાખવાવાળા જીવ નિયમથી આ પ્રકારના કાર્યોમાં પ્રવૃત્તિ કરીને પિતાની મનોવૃત્તિને દૂષિત કર્યા કરે છે, જ્યારે સમકિતી હંમેશા પોતાની પ્રવૃત્તિને નિર્મળ બનાવવાની મહેનત કર્યા કરે છે, માટે આ પ્રકારની પ્રવૃત્તિ
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आवारातसूत्रे
यद्येवं ततः किं कर्तव्यमित्याह - " अहो य राओ य" इत्यादि ।
मूलम् - अहो अ राओ य जयमाणे धीरे सया आगयपण्णाणे पत्ते वहिया पास अप्पमत्ते सया परिकमिज्जासि - तिवेमि । सू१०। ॥ पदमो उसो समत्तो ॥ ४-१ ॥
छाया - अश्व रात्रि च यतमानो धीरः सदा आगतप्रज्ञानः प्रमत्तान् वहिः पश्य, अप्रमत्तः सदा पराक्रमेथाः, इति ब्रवीमि ॥ १० ॥
॥ प्रथम उद्देशः समाप्तः ॥
टीका -- अहश्च रात्रिं च = अहर्निशं यतमानः = मोक्षप्राप्तये समुद्युक्ता, धीरः= मिथ्यादृष्टिभिः संसर्गादिना स्थापितेऽपि मिथ्यात्वे विशुद्धिपरिणामधारामनवरु
जो प्राणी इस समकित के लाभ से वंचित रहता है वह अनन्त काल तक अनन्न वार माता-पिता के साथ 'ये मेरे माता-पिता हैं, मैं इनका पुत्र हॅू' इस प्रकारका संबंध करता है, और अन्नमें मृत्युका ग्रास बनकर एकेन्द्रियादिक कुयोनियों में भ्रमण करता है ।
अथवा शब्दादिविषयों में आसक्ति धारण कर अनन्तवार एकेन्द्रियादिक पर्यायों में उत्पन्न होता रहता है, तथा वहांके अनन्त कष्टों को सहन करता रहता है। अर्थात् - असम्यक्त्वी जीव संसार के दुःखसे कभी भी छुटकारा कहीं पाता ॥ सू० ९ ॥
अगर ऐसा हो तो क्या करना चाहिये ? सो कहते है- 'अहो य राओ य' इत्यादि ।
जम्बू ! तुम अहर्निश मोक्षप्राप्ति के लिये प्रयत्नशील बनो, और धीर वीर वन कर सदा उत्तरोत्तर हेयोपादेयके विवेक से विशिष्ट જે પ્રાણી આ સમકિતના લાભથી વંચિત રહે છે તે અનંતકાળસુધી जनती वार भाता-पितानी भाये - भा भारा भाता-पिता छे, हुं भनो पुत्र छु' આ પ્રકારના સ ખ ધ કરે છે, અને છેવટના મરીને એકેન્દ્રિયાકિ યાનિએમા ભ્રમણ કરે છે અથવા શબ્દ આદિ વિષયોમાં આસક્તિ ધારણ કરી અનંતીવાર એકેન્દ્રિયાક્રિક પર્યાયામા ઉત્પન્ન થાય છે, તથા ત્યાના અનત દુઃખોને સહન કરતા રહે છે. અર્થાત્ અસમ્યક્ત્વી જીવ સંસારના દુઃખાથી કયારે પણ છુટતા નથી, ાસૢા
ले या भ्रमाचे ेतो झुं खुले मे ? ते उडे - अहो च राओ यहत्यादि હે જમ્બુ'તમે અહર્નિશ મોક્ષપ્રાપ્તિને માટે પ્રયત્નશીલ અને, અને ધીર વીર બનીને ડુમેશાં ઉત્તરાત્તર હેયોપાદેયના વિવેકથી વિશિષ્ટ અીને અસયમી
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ. १
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भव्यानां मतं, विज्ञातं = ज्ञानावरणीय क्षयोपशमात्, अतः सम्यक्त्वलाभे तद्रक्षणे च प्रयतितव्यमित्यर्थः ॥ मु० ८ ॥
ये तु सम्यक्त्वमुपेक्षन्ते तेषामनन्तदुःखमयी संसारगतिर्नैव विरमतीत्याह'समेमाणा पलेमाणा ' इत्यादि ।
मूलम् - समेमाणा पलेमाणा पुणो पुणो जाई पकप्पंति ॥ सू० ९ ॥ छाया -- समायन्तः प्रलीयमानाः पुनः पुनर्जातिं प्रकल्पयन्ति ॥ ०९ ॥
टीका - समायन्तः - समागच्छन्तः = आर्हतागमविषये श्रद्धानलक्षणसम्यक्त्वा - करणेन मातापित्रादिभिः सह संसारसम्बन्धं कुर्वन्तः, प्रलीयमानाः = मृत्युवशाद् मातापित्रादिभ्यो वियुज्यमानाः, यद्वा- प्रलीयमानाः शब्दादिविषयेषु समासक्ति कुर्वाणाः पुनः पुनः=अनन्तशः जातिम् = एकेन्द्रियादिरूपां प्रकल्पयन्ति । सम्यक्त्वमनवाप्ताः संसारदुःखतो न मुच्यन्त इति भावः ॥ सू० ९ ॥
अपने केवलज्ञानरूपी प्रकाश से साक्षात्कार किया है, 'श्रुतं ' - गणधरादिकोंने उनसे सुना है, ' मतं ' - हलुकर्मी भव्योंने उसे माना है, और 'विज्ञातम् ' - अपने ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशमानुसार उन्होंने इसे जाना है, अतः सम्यक्त्वका लाभ होने पर उस की रक्षा करने में सदा सावधान रहना चाहिये || सू० ८ ॥
जो व्यक्ति इस सुन्दर समकितके प्रति उपेक्षा भाव रखता है उसके इस अनन्त दुःखरूप संसारका अन्त नहीं आता, यही बात कहते हैं" सममाणा " इत्यादि ।
जो प्राणी प्रभुप्रतिपादित आगमकी श्रद्धारूप इस समकित से शून्य रहता है वह संयोग वियोग को पाता हुआ जन्म मरण कर बारंबार एकेन्द्रियादिक भवों में भटकता फिरता है ।
और ये छे. 'श्रुतं' गणुधराहिमे तेमनाथी सांलन्सुं छे. ' मतं ' हजुर्भी लव्योमे ते भान्यु छे, भने ' विज्ञातम् ' पोताना ज्ञानावरणीय अर्भना क्षयोपશમ અનુસાર તેઓને તેમણે જાણ્યાં છે, તેથી સમ્યક્ત્વના લાભ થઈ ગયા પછી તેની રક્ષા કરવામાં હમેશાં સાવધાન રહેવુ જોઈએ ! સૂ૦ ૮
જે જીવ આ સુંદર સમકિત પ્રત્યે ઉપેક્ષાભાવ રાખે છે તેનો આ અનંત दुः३य संसारनो अंत भावतो नथी. आपात हे छे' समेमाणा' इत्यादि. જે પ્રાણી પ્રભુપ્રતિપાદિત આગમની શ્રદ્ધારૂપ આ સમકિતથી શૂન્ય રહે છે તે સ‘યેાગ–વિયેાગને મેળવતા જન્મ મરણ કરીને વારંવાર એકેન્દ્રિયાકિ ભવેામાં ભટકતા ફરે છે.
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आचाराङ्गसूत्र विशुद्धिपरिणाममकर्षे सोत्साहं प्रयतमानो भव । यद्वा-पराक्रमेथाः अष्टविधकर्मशत्रून् विजेतुं विशुद्धिपरिणामप्रकर्षेण वीर्यगुणसामर्थ्यमुद्भावयेत्यर्थः । इति-अधिकारपरिसमाप्तौ, ब्रवीमि-भगवन्मुखाद्यथा श्रुतं तथा कथयामीत्यर्थः ॥ सू० १० ॥
॥ इति चतुर्थाध्ययने प्रथम उद्देशः सम्पूर्णः ॥ ४-१॥ रहे । इससे हेयोपादेयका विवेक जागृत होगा और इस विवेकवुद्धिसे वह यह समझ सकेगा कि 'जो समकितसे शुन्य हैं वे इस धर्मसे बहिभूत हैं अतः मैं भी पांच प्रकारके प्रमादोंका त्याग कर मोक्षतरु का बीजस्वरूप समकितकी प्राप्ति करनेमें, और प्राप्त समकित की रक्षा करने में कारणभूत विशुद्ध परिणाम धाराके बढ़ानेमें सदा यत्न करता रहूं।' अथवा 'इस अनन्त संसारमें अनन्तकष्टप्रदाता कर्मरूप शत्रुही हैं; अतः इन्हें परास्त करनेके लिये भी मैं अपने भीतर विशुद्ध परिणामोंकी धारा यहा कर वीर्यगुणस्वरूप अपनी शक्तिका विकास करूं तो अवश्य ही सफलता प्राप्त कर लूंगा' इस प्रकार सदा उस भव्य जीव को उत्साहित रहना चाहिये। सू० १०॥
॥ चतुर्थ अध्ययन का प्रथम उद्देशक संपूर्ण ॥४-१॥ અને આ વિવેકબુદ્ધિથી તે એ સમજી શકશે કે “જે સમકિતથી શૂન્ય છે તે આ ધર્મથી બહિર્ભત છે, તેથી હું પણ પાંચ પ્રકારના પ્રમાદને ત્યાગીને મોક્ષવૃક્ષના બીજસ્વરૂપ સમતિની પ્રાપ્તિ કરવામાં, અને મેળવેલાં સમકિતની રક્ષા કરવામાં કારણભૂત વિશુદ્ધ પરિણામધારાને વધારવામાં હમેશા યત્ન કરતો રહું.” અથવા“આ અનન્ત સંસારમાં અન ત દુ ખ આપવાવાળા કર્મરૂપ શત્રુ જ છે, તેને પરાજય કરવાને માટે પણ મારા અંતરની વિશુદ્ધ પરિણામોની ધારા વહાવીને વીર્યગુણસ્વરૂપ મારી શક્તિને વિકાસ કરું તે અવશ્ય સફળતા પ્રાપ્ત થશે એવા પ્રકારે હમેશા ભવ્ય જીવે ઉત્સાહી રહેવું જોઈએ. આ સૂત્ર ૧
ચોથા અધ્યયનને પ્રથમ ઉદ્દેશ સંપૂર્ણ ૪-૧
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ. १ न्धानः, अत एव सदा-सर्वस्मिन् काले, आगतप्रज्ञान:-उत्तरोत्तरप्रवर्धमानहेयोपादेयविवेकपरिणामः सन् , प्रमत्तान्-असंयतान् , बहिः आहेतधर्माद्वहिरवस्थितान् अलब्धसम्यक्त्वान् इति यावत् , पश्य। दृष्ट्वा च अप्रमत्तः पञ्चविधप्रमादरहितः सन् सदा अविच्छेदेन पराक्रमेथा: मोभतरुवीजस्य सम्यक्त्वस्य लाभार्थ रक्षणार्थच हो कर असंयमी जीवों के संसर्ग से सदा दूर रहो। एवं स्वकर्तव्य में अप्रमत्त हो सम्यग्दर्शन की प्राप्ति और उसका रक्षण करने के लिए, अथवा कर्म शत्रुओं पर विजय पानेके लिये कटिबद्ध रहो । हे जम्बू ! मैंने जैसा भगवान से सुना है वैसा ही तुम्हें कहता हूं।
इस सूत्रमें जम्बूस्वामीको संवोधन करते हुए श्रीसुधर्मास्वामी कहते हैं कि-हे जम्बू ! जब प्रत्येक प्राणीका लक्ष्य मोक्षकी प्राप्ति करनेका है तो उसका यह प्रधान कर्तव्य है कि वह सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन की प्राप्ति करनेके लिये अहर्निश-सदा कटिबद्ध रहे, कारण कि-एक तो इसके अभाव में मुक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती, दूसरे सांसारिक अनन्त कष्टों का अन्त भी नहीं आ सकता । यद्यपि यह बात निश्चित है कि मिथ्यादृष्टि जीव अपने संसर्ग से मिथ्यात्वकी स्थापना करने में कसर नहीं रखते हैं तो भी भव्य जीवका कर्तव्य है कि वह ऐसे समयमें अपनी विशुद्ध परिणामवाराको न रोके; किन्तु परिणामों में विशुद्धता जिस प्रकारसे वढे उस प्रकार से उसको बढ़ाने का उत्तरोत्तर प्रयत्न करता જીના સંસર્ગથી સદા દૂર રહો, અને કર્તવ્યમાં અપ્રમત્ત થાવ, સમ્યગ્દર્શનની પ્રાપ્તિ અને તેના રક્ષણ માટે, અથવા કર્મશત્રુઓ ઉપર વિજય મેળવવાને માટે કટિબદ્ધ રહો. હે જમ્મુ ! જેમ ભગવાન પાસેથી સાંભળ્યું છે તેમ તમને કહું છું.
આ સૂત્રમાં જબૂસ્વામીને સંબોધન કરીને શ્રીસુધર્માસ્વામી કહે છે કેહે જબ્બ ! જ્યારે દરેક પ્રાણીનું લક્ષ મોક્ષની પ્રાપ્તિ કરવાનું છે તે તેનું એ મુખ્ય કર્તવ્ય છે કે પહેલાં સમ્યગ્દર્શનની પ્રાપ્તિ કરવાને માટે હમેશાં તૈયાર રહે, કારણ કે એક તે તેના અભાવમાં મુક્તિની પ્રાપ્તિ થતી નથી, તેમજ બીજું સાંસારિક અનંત દુઃખો અંત પણ નથી આવતું. જો કે આ વાત નિશ્ચિત છે કે મિથ્યાષ્ટિ જીવ પિતાના સંસર્ગથી મિથ્યાત્વની સ્થાપના કરવામાં કસર રાખતો નથી, તે પણ ભવ્ય જીવનું કર્તવ્ય છે કે તે આવા સમયમાં પોતાની વિશુદ્ધ પરિણામધારાને ન રોકી રાખે, પણ પરિણામ વિશુદ્વના જે પ્રકારે વધે તે પ્રકારે, તેને વધારવામાં ઉત્તરોત્તર પ્રયત્ન કરતા રહે. એનાથી હેયપદેયનો વિવેક જાગશે
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ओधाराङ्गसूत्रे ___टीका-ये आस्रवाः अप्टविधं कर्मास्रवति यैस्ते आस्रवाः कर्मवन्धहेतवो विपया., ते परिस्रवाः परि-समन्तात् स्रवति-अपगच्छति अष्टप्रकारं कर्म यैस्ते परिस्रवाः कर्मनिराहेतवः, विषयमुखाऽऽसक्तानां सकचन्दनवनितादयो विषयाः कर्मबन्धजनकत्वादास्रवा भवन्ति, त एव सेवनचिन्तनादिभिः संसारानन्तदुःखकरणतया प्रतीयमाना हेयोपादेयविवेकवतां तत्त्वज्ञानिनां वैराग्यजनकत्वात् परिस्रवा भवन्ति । यथा भरतस्य आस्रवाः परिस्रवरूपेण परिणता वभूवुः, यथा वा-समुद्रपालस्य, यथा वा नमिराजः । तथा चोक्तम्___ 'ये आस्रवाः' जो किसी अपेक्षासे कर्मवम्धके हेतु हैं 'ते परिस्त्रवाः' वे ही किसी दूसरी अपेक्षासे कौकी निर्जराके भी हेतु हैं। 'ये परिवाः ' जो निर्जरा के हेतु हैं 'ते आस्रवाः ' वे आस्रव के भी हेतु हैं । 'ये अनास्रवाः ' जो आस्रवसे भिन्न हैं 'ते अपरित्रवाः' वे कर्मबन्ध के भी कारण हैं। ये अपरिस्रवाः' जो कर्मबन्धके कारण हैं 'ते अनास्रवा' वे कर्मबन्ध के कारण नहीं भी हैं।
(१) 'ये आस्रवास्ते परिस्रवाः ' ज्ञानावरणादिक आठ प्रकारके कर्म जिनके द्वारा आते हैं ऐसे कर्मबन्ध के कारणरूप जो विषयकषायादिक हैं उन्हें आस्रव कहते हैं। तथा जिनके द्वारा अष्ट प्रकारके कर्म सर्वथा निर्जरित होते हैं, ऐसे निर्जराके कारण जो तपसंयनादिक हैं उन्हें परिसवकहते हैं। विषयसुखों में आसक्त मनवालेके लिये माला चन्दन एवं वनितादिक जो पांच इन्द्रियों के विषय हैं वे कर्मवन्धके कारण होनेसे आस्रव होते हैं, कारण कि वह उनके सेवनसे अपने को परमसुखी मानता है, एवं उन्हें
· ये आस्रवा ' अपेक्षाथी भगना हेतु छ 'ते परिस्रवाः । ते 50 मपेक्षाणे भनी निना हेतु छ 'ये परिस्रवा '२ निशन हेतु छे ते आलवाः' ते मारपना ५६ हेतु छ. ये अनास्त्रवाः' मासवथी भिन्न छ 'ते अपरित्रवा' ते भावना ५५ २६छे 'ये अपरित्रवाः' धन आरए। छ 'ते अनास्रवा' ते म ना रए होता ५ नथी.
(1) 'ये आलवास्ते परिस्रवा.' नानाव२ िमा २॥ द्वा२। આવે છે એવા કર્મબધના કારણરૂપ જે વિષયકવાયાદિક છે તેને આસવ કહે છે તથા જે દ્વારા આઠ પ્રકારના કર્મ સર્વથા નિર્જરિત થાય છે, એવા નિર્જરાના જે કારણ છે તેને પવિ કહે છે વિષયમુખોમા આસક્તમનવાળાને માળા, ચંદન અને શ્રી આદિક જે પાચ ઇન્દ્રિના વિષય છે તે કર્મબન્ધના કારણ હોવાથી અવ થાય છે, કારણ કે તે તેના સેવનથી પિતાને ઘણે સુખી માને છે, અને તેને
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॥ अथ चतुर्थाध्ययनस्य द्वितीय उद्देशः ॥ इहानन्तरप्रथमोद्देशके सम्यग्दर्शनं प्रतिवोधितम् । तच्च नवतत्त्वश्रद्धानात्मकम् । तत्र-किं तत्त्वं संसारकारणं ? किं च मोक्षकारणम् ? इत्युभयोनिर्णयमन्तरेण मुमुक्षोः सम्यग्दर्शनं न संभवतीत्यतः सम्यक्त्वप्रतिवोधनप्रसङ्गागते आस्रवनिर्जरे संसारमोक्षहेतुभूते प्रतिबोधयितुमाह-'जे आसवा' इत्यादि। मूलम्-जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा । जे अणासवा ते अपरिस्सवा, जे अपरिस्सवा ते अणासवा ॥सू०१॥ छाया--ये आस्रवास्ते परिस्रवाः, ये परिस्रवास्ते आस्रवा। ये अनास्रवास्ते अपरिस्रवाः, ये अपरिस्रवास्ते अनास्रवाः ॥ मू० १॥
॥चौथे अध्ययन का दूसरा उद्देश ॥ सम्यक्त्व नामक चतुर्थ अध्ययनके प्रथम उद्देशकमें सम्यग्दर्शन का स्वरूप समझा दिया गया है । वहां यह कहा गया है कि वह सम्यग्दर्शन नव तत्वों की श्रद्धास्वरूप है। वे नवतत्त्व ये हैं-१ जीव, २ अजीव, ३ पुण्य, ४ पाप, ५ आस्रव, ६ संवर, ७ निर्जरा, ८ वन्ध और ९मोक्ष। मोक्षाभिलाषी को जब तक यह निश्चय नहीं हो जाता कि इनमें से कौनसा तत्व संसारका कारण है और कौनसा मोक्षका, तब तक उसके समकित की प्राप्ति नहीं हो सकती, अतः उसके लिये इस सम्यक्त्वयोधन के प्रकरणमें आये हुए तत्त्वों मेंसे 'आस्रव संसार का और निर्जरा मोक्षका कारण है ' इस वातको स्पष्ट करने के लिए कहते हैं- 'जे आसवा' इत्यादि।
ચોથા અધ્યાયને બીજો ઉદેશ સભ્યત્વ નામના ચોથા અધ્યયના પહેલા ઉદ્દેશમાં સમ્યગ્દર્શનનું સ્વરૂપ સમજાવવામાં આવ્યું છે. ત્યાં બતાવવામાં આવ્યું છે કે તે સમ્યગ્દર્શન નવ તોની શ્રદ્ધાસ્વરૂપ છે. આ નવ તત્વ નીચે પ્રમાણે છે –
५१, २०५२, पुण्य 3, पा५४, ५५, २६, Mali७, ५५८, અને મોક્ષ જ્યાં સુધી મોક્ષાભિલાવીને એ નિશ્ચય નથી થતો કે આમાથી કયું તત્વ સંસારનું કારણ છે? અને કયું મોક્ષનું ?, ત્યાં સુધી તેને સમકિતની પ્રાપ્તિ થતી નથી, એથી તેને માટે આ સમ્યક્ત્વબોધનના પ્રકરણમાં આવેલ તોમાંથી આસવ સંસારનું અને નિર્જરા મોક્ષનું કારણ છે, આ વાતને સ્પષ્ટ કરવાને भाटे ४९ छ- 'जे आसवा' त्याहि.
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आयारागसूत्रे ___ रागद्वेषमलिनमनसो वैषयिकसुखोन्मुखस्य सर्वे संसारकारणं भवति, यथा निम्बरसाक्रान्तरसनस्य श्रीरशर्करादिकं सर्व मधुरं कटुतया परिणमते । सम्यग्दृष्टेस्तु विषयवितृष्णस्य सर्व स्रक्चन्दनवनिताऽऽदिकमशुचि दुःखकारणं चेति भावयतः प्रादुर्भूतसंवेगस्य तदेव मोक्षजनकं भवति ।
उक्तार्थमेव ढयितुं परावृत्य कथयति-"जे परिस्सवा" इत्यादि । य एव परिस्रवाः निर्जराहेतवस्तपःसंयमादयस्त एव कर्मोदयप्रतिरुद्धशुभपरिणामस्य मावद्यक्रियाप्रवृत्तस्य जन्तोद्धिरससातगौरवप्राप्तिमनसः आत्रवा भवन्ति । कर्मनिर्जरार्थ यावन्ति संयमस्थानानि तावन्त्येव कर्मवन्धनायासंयमस्थानानि । यथा नागेश्वरीब्राह्मण्याः परिस्रवा आस्रवरूपेण परिणता बभूवुः ॥ ___राग द्वेषसे आकुल एवं वैषयिक सुखमें लवलीन जीवके लिये पंचेन्द्रियों के सभी विषय संसारके कारण होते हैं। जैसे-नीम के रसपान करनेसे जिसकी जीभका स्वाद कटु ( कडुआ) हो चुका है ऐसे व्यक्ति के लिये मीठा पदार्थ भी कडुआ प्रतीत होता है। सम्यग्दृष्टि जीवके लिये, कि जिसका चित्त विषयादिकोंसे वितृष्ण-तृष्णारहित हो चुका है, वे ही माला चन्दन आदि समस्त विषय अपवित्र और दुःखके ही कारणरूप प्रतीत होते हैं, अत इनसे उनका चित्त सदा विरक्त रहा करता है, इसलिये उनके प्रति संवेगभाव की जागृति होनेसे वे ही वस्तुएं उसके लिये निर्जराका काम करती हैं।
निर्जरा ही मोक्षका कारण है, इसी बातको दृढ करनेके लिये ऊपर कहे हुए अर्थ को ही घुमाकर कहते हैं-(२) “ ये परिस्रवास्ते आस्रवाः' इत्यादि । जो तपसंयमादिक भाव ज्ञानी के परिस्रवाः' निर्जरा के कारण होते है, वे ही अज्ञानी के कि-जिस की अपने कर्मके
( રાગદ્વેષથી વ્યાકુળ તેમજ વૈષયિક સુખમાં રાચેલાં અને માટે પાચ ઈન્દ્રિયોના બધા વિષયો સસારના કારણે થાય છે, જેમ લીંબડાને રસ પીવાથી જેની જીભને સ્વાદ કડે બનેલ છે તેવી વ્યક્તિને માટે મીઠો પદાર્થ પણ કડ લાગે છે સમ્યગ્દષ્ટિ જીવ કે જેનું ચિત્ત વિષયાદિકની તૃષ્ણથી રહિત છે તે માળા, ચદન આદિ સમસ્ત વિષયને અપવિત્ર અને દુ ખનું કારણ માને છે, તેથી તે વિષયોથી તેનું ચિત્ત હમેશા વિરક્ત રહ્યા કરે છે. આ માટે તેના પ્રતિ સવેગભાવની જાગતિ થવાથી તે જ વસ્તુઓ તેને માટે નિજેરાનું કામ કરે છે.
નિર્જરા જ મોક્ષનું કારણ છે. આ વાતને દઢ કરવાને માટે ઉપર કહેલા सन १३२वीने डे 2-(२) 'ये परित्रवास्ते आस्रवाः' त्यादि.२ त५, सयम . साविला। ज्ञानी भाटे 'परिनवाः' निराना २५ थाय छ, ते सज्ञानी माटे
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ. २
" यथाप्रकारा यावन्तः संसारावेशहेतवः ।
तावन्तरतद्विपर्यासा,-निर्वाणसुखहेतवः " ॥ १ इति ॥ शाश्वत-नित्य समझता है, 'ये मेरे हैं और में इनका हूं' इस प्रकारकी उसकी सदा मान्यता होती है, उनके विगाड़में अपना विगाड़, और उनके सुधार में अपना सुधार मानता है, तब ज्ञानी कि जिसके हृदयमें हेयोपादेयका विवेक जागृत हो रहा है और जो कर्म के उदयसे इनका सेवन भी करता है फिर भी इनसे अपनेको जलमें कमल की तरह सर्वथा भिन्न ही देखता है, ये ही पांच इन्द्रियोंके विषय उसको सांसारिक अनन्त कष्टोंके कारणरूप प्रतीत होनेसे वैराग्य के जनक, परिस्रव-होते हैं, इस कारण उसके लिये ये आघव कर्मकी निर्जराके ही कारण हैं। जैसे छह ग्वण्डों का राज्य करनेवाले भरतचक्रवर्ती के लिये एवं समुद्रपाल तथा नमि राजर्पिके लिये वे ही पदार्थ जो अज्ञानीके लिये आस्रव के कारण थे, निर्जरा के ही कारण हुए। जैसे कहा है--
" यथाप्रकारा यावन्तः, संसारावेशहेतवः ।।
नाचन्नस्तद्विपर्यासाः, निर्वाणसुखहेतवः" ॥१॥इति । अर्थात्-जिस प्रकारके जितने संसारपरिभ्रमण के कारण होते हैं, उनसे विपरीत प्रकारके उनने ही सोक्षमुखके कारण होते हैं ॥१॥ શાશ્વત-નિત્ય સમજે છે. “આ માગ છે અને હું તેમને હું આ પ્રકારની તેની સદા માન્યતા રહે છે. તેના બગડવામાં પિતાનું ખરાબ થએલ, અને તેના સુધારામાં પોતાને સુધારે માન્યા કરે છે. ત્યારે જ્ઞાની કે જેના હૃદયમાં હે પાદેયનો વિવેક અગ્રત થયેલ છે અને કર્મના ઉદયથી તેનું સેવન પણ કરે છે તે પણ તેનાથી પિતાને જળમાં કમળની માફક સર્વથા બિન્નપણે દેખે છે. આ પાંચ ઈન્દ્રિયોના વિષયો ને સાસરિક અનન્ત દુઃખનું કારરૂપ પ્રતીત થવાથી તેના માટે તે વૈરાગ્યના કર્તા બને છે, આ કાર તેના માટે તે કર્મની નિશાના જ કારણ છે. જેમાં છ ખંડનું રાજ્ય કરવાવાળા ભરત ચક્રવર્તીને માટે અને સમદ્રપલ નવા નમિરાજપિંને માટે તે જ પદાર્થો, જે અજ્ઞાનીને માટે આવના કારણ હતા, નિર્જરના જ કારણે થયા. જેમ કહ્યું છે–
" यथाप्रकारा यावन्तः, संमागवेनाइतवः। ___ तावन्तत्तद्विपर्यासाः, निर्वाण सुखहेतवः " ॥ १॥ इति ।
–જે પ્રકારના જેટલા સંપરપરિબ્રમણના કારક ઘાય છે, તેનાથી विपी 27 २४ २ ५ २ः याय 2. (1)
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आचाराङ्गसूत्रे
(१) ये वास्ते परिस्रवाः, (३) ये अनावास्ते परिस्रवाः,
(२) ये आस्रवास्ते अपरिस्रवाः, (४) ये अनावास्ते अपरिस्रवाः, (१) ये आस्रवाः - आस्रवन्ति = कर्म संचिन्वन्तीत्यास्रवाः = कर्मबन्धकर्तारो जीवाः, त एव परिस्रवाः =कर्मनिर्जशकर्तारः । अस्मिन् प्रथमभङ्गे सर्वे संसारिणो जीवाः प्रविष्टाः, ते हि प्रतिक्षण मिथ्यात्वादिभिरागन्तुकानां कर्मणां बन्धं, पूर्वार्जितानां च निर्जरां कुर्वन्ति ।
तथा - ( २ ) ये वास्ते अपरिस्रवाः, इति द्वितीयभङ्गवर्त्तिनो जीवाः
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(४) ' ये अपरिस्रवास्ते अनास्रवाः ' जो कर्मके बन्ध कराने में कारण होते हैं वे ही प्रचचनके उपकारके अभिप्राय से किये हुए होने से कर्मबन्धके कारण नहीं होते, जैसे बालग्लानादिके लिये नित्यपिण्डादि का ग्रहण करना । इस नृत्रमें आदि अंत के दो ही भंग बतलाये गये हैं, मध्य के नहीं, उनका ग्रहण करने पर इस सूत्र में चतुर्भङ्गी इस प्रकार से बनती है
(१) ये आस्रवाः - ते परिस्रवाः, (२) ये आस्रवाः - ते अपरिस्रवाः (३) ये अनास्रवाः - ते परिस्रवाः, (४) ये अनास्रवाः - ते अपरिस्रवाः
१ - यहां पर प्रथम भङ्ग में समस्त संसारी जीवों का समावेश हो जाता है, कारण कि वे ही जीव प्रतिक्षण मिथ्यात्वादिक जो कर्मबन्धके कारण है उनसे कर्मोंका बन्ध करते रहते है, और पूर्वोपार्जित संचित कर्मों की निर्जरा भा किया करते हैं ।
२- द्वितीय भङ्ग शून्य है; कारण - ऐसे कोई भी जीव नहीं हैं जो
(४) ' ये अपरिस्रवाः ते अनास्रवाः ' ? उर्भ श्ववामां अरण मने थे, પ્રવચનના ઉપકાર કરવાના અભિપ્રાયથી કરવામા આવેલતે જ કખ યના કારણ થતા નથી, જેમ ખાળ—ગ્લાનાદિ માટે નિત્યપિડાદિનુ ગ્રહણ કરવુ. આ સૂત્રમા આઢિઅતના એ ભગ ખતાવેલ છે, મધ્યના નહિ. આના ગ્રહણ કરવાથી આ મુત્રમા ચતુભંગી આ પ્રકારે અને છે
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- ते अपरिस्रवाः ।
(१) ये आस्रवाः - ते परिस्रवाः, (२) ये आलवाः (3) ये अनास्रवाः ते परिवा:, (४) ये अनास्रवाः (૧) અહીં પ્રથમ લગમા સમસ્ત સ સારી જીવાના સમાવેશ થઈ જાય છે, કારણ કે તે જ જીવ પ્રતિક્ષણ મિથ્યાત્વાદિક જે કખ ધના કારણા છે તે એથી કર્મના અધ કરે છે, અને પૂર્વાપાત સચિત કર્મોની નિર્જરા કરે છે (૬) મીત્તે ભ ગ શૂન્ય છે, કારણ કે એવા કોઇ પણ જીવ નથી જે આસવકર્તા
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ते अपरिस्रवाः,
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ. २
६०९ ये अनास्रवाः आस्रवेतराः-व्रतविशेपाः, तेऽपि कर्मोदययशादशुभाध्यवसायवतो जन्तोरपरिस्रवाः कर्मवन्धकारणानि भवन्ति, यथा वान्तसम्यक्त्वस्य मुनेः । तथा-ये अपरिवाः कर्मवन्धहेतवः ते प्रवचनोपकारादिना क्रियमाणाः अनास्त्रवाः भवन्ति, कर्मवन्धजनका न भवन्तीत्यर्थः, यथा वालग्नानाद्यर्थं नित्यपिण्डादिग्राहकस्य । ___ यद्वा-अत्र सूत्रे चतुर्भङ्गी प्रोच्यते, तथाहिउद्यसे शुभ परिणामधारा रुकी हुई है, सावद्य क्रियाओं के करनेमें ही जिसकी प्रवृत्ति चालू रहती है, और जो ऋद्धि, रस, सात गौरवकी प्राप्ति करनेके अभिप्राय से ही तप संयमादिकोंका आराधन करता है उसके आस्रव-नवीन २ कों के आने के बार होते हैं। समकितके विना की गई समस्त ही क्रियाएं कर्मबन्धका कारण होती हैं। अज्ञानियों के तपसंयमादिक, समकित के अभावमें मिथ्यारूप-असंयमरूप होते हैं, अतः वे उसके निर्जराके हेतु न हो कर उल्टे आस्रवके ही कारण बनते हैं । समकिती के कर्मनिर्जराके लिये जितने भी संयमस्थान हैं उतने ही अज्ञानियों के कर्मबन्धके लिये असंयमस्थान भी हैं। इस विषयमें नागेश्वरी ब्राह्मणीका दृष्टान्त प्रसिद्ध है, उसके लिए परिस्रव आस्त्रवरूपसे परिणत हुए हैं।
(३) 'ये अनास्रवास्ते अपरिस्रवाः'-जिनसे कर्मवन्ध नहीं होता ऐसे जो व्रतविशेष हैं वे भी, कर्मोदयके वशसे जिसके अध्यवसाय अशुभ हो रहे हैं ऐसे अज्ञानी जीवके लिये कर्मवन्धके ही कारण होते हैं। જેની પિતાના કર્મના ઉદયથી શુભ પરિણામધારા બધ છે, સાવદ્ય-કિયાઓ કરવામાં જ જેની પ્રવૃત્તિ ચાલુ છે, અને જે કાદ્ધિ, રસ, સાત ગૌરવની પ્રાપ્તિ કરવામાં જ પસંયમાદિનું આરાધન કરે છે તેને માટે આસવના-નવા નવા કર્મોના આવવાના-દાર થાય છે. સમકિત વગર કરવામાં આવેલી બધી ક્રિયાઓ કમર બંધના કારણે થાય છે. અજ્ઞાનિઓના તપ સંયમાદિ સમતિના અભાવમાં મિ. ધ્યારૂપ-અસંયમરૂપ થાય છે, તેથી તે નિર્જરાના હેતુ ન થઈને આસવના જ કારણ બને છે. સમકિતીના કર્મનિર્જરાને માટે જેટલા પણ સંયમ–સ્થાને છે તેટલા જ અજ્ઞાનિઓના કર્મ બંધના માટે અસંયમ–સ્થાનો પણ છે. આ વિષયમાં નાગેશ્વરી બ્રાહ્મણીનું દૃષ્ટાંત પ્રસિદ્ધ છે. તેને માટે પરિસ્ટવ, આસવરૂપથી પરિણત થયેલ છે.
(3) • ये अनासवास्ते अपरियाः' नायी नयी यता गोवा ? વ્રત-વિશેષ છે તે પણ કર્મોદયના વશથી જેના અધ્યવસાય અશુભ જ રહેલા છે, એવા અજ્ઞાની જીવન માટે કર્મબંધના જ કારણ બને છે.
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आचाराङ्गसूत्रे नन्वेवं 'ये परिस्रवास्ते आस्रवाः' इति स्वीकारे त्रयोदशे सयोगिकेवलिगुणस्थाने ऐपिथिकक्रियया समागतं कर्म निर्जस्यतो मुनेः पुनर्नवीनकर्मवन्धापत्तौ सत्यां कर्मवन्धपरम्परोच्छेदः कदापि न स्यात् , तथा च-आगमोक्तमोक्षवादस्य वैयर्थ्य प्रसज्येत ? इति चेत् , उच्यते
त्रयोदशगुणस्थानसमागतकर्मणो निर्जरा यदि जीवेन प्रयत्नविशेषेण क्रियेत तर्हि यथोक्तरीत्या तन्निर्जराकर्तुर्मुनेः पुनरपि नवीनकर्मवन्धकर्तृत्वमापघेत, परन्तु नैवं भवति, यतः-तस्य कर्मणो निर्जरा स्वभावादेव जायते । ____ शंका-"जो निर्जरा करनेवाले है वे नवीन कर्मका बन्ध करनेवाले हैं " इस प्रकारके पूर्वोक्त भङ्गकी स्वीकृतिमें सयोगि-केवलिनामक तेरहवें गुणस्थानवी जीवों के भी नवीन कर्मबन्धका सद्भाव मानना पडेगा; कारण कि वहां पर निर्जरा भी होती है और ई-पथ क्रियासे नवीन कर्माका बन्ध भी होता है । इस प्रकार की मान्यता के अनुसार तो वहां कभी भी कर्मबन्ध की परम्परा का उच्छेद ही नहीं हो सकेगा; फिर आगममें जिस मुक्तिवाद का समर्थन किया हुआ मिलता है वह सर्वथा असंगत ही ठहरेगा?
उत्तर-यह आपका कहना तब ठीक हो सकता, जब कि त्रयोदश गुणस्थानवी जीवके आगत कर्मों की निर्जरा किसी प्रयत्न विशेषसे साध्य होती मानी जाती, परंतु ऐसी मान्यता तो है ही नहीं, क्यों कि वहां पर आगत कर्मों की निर्जरा स्वतः-स्वभाव से ही होती है।
२४-'ये परिस्रवास्ते आखवा ' अर्थात्-“२ नि२॥ ४२वापामा छ ते નવીન કર્મોના બંધ કરવાવાળા છે. ” આ પ્રકારે જે માનવામાં આવે તે સગિકેવળીનામના તેરમાં ગુણસ્થાનવતી જેને પણ નવા કર્મના બંધને સદ્ભાવ માનવો પડશે, કારણ કે ત્યાં નિર્જરા પણ થાય છે અને ઈર્યાપથકિયાથી નવા કર્મનો બધ પણ થાય છે આવા પ્રકારની માન્યતાના અનુસાર તે ત્યાં કોઈ વખત પણ કમબ ધની પર પરાને ઉછેદ થઈ શકે નહિ, તે પછી આગમમાં જે મુક્તિવાદનુ સમર્થન કરેલું છે તે સર્વથા અસ ગત જ થઈ જશે.
ઉત્તર–આ આપનુ કહેવુ ત્યારે સંગત થાય, જ્યારે ત્રદશગુણસ્થાનવર્તી જીવના આગત-કર્મોની નિર્જરા કોઈ પ્રયત્નવિશેષાધીન માનવામાં આવે, પરન્તુ એવી માન્યતા તે છે જ નહિ, કેમ કે તે ઠેકાણે આગત (આવેલા) કર્મોની નિર્જરા સ્વભાવથી જ થાય છે.
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सम्यक्त्व -अध्य० ४. उ. २ केऽपि नोपलभ्यन्ते, कुतः ? ये-आस्रवाः-कर्मबन्धक रस्तेऽवश्यमेव कर्मनिर्जराकारो भवन्ति, तस्माते-अपरिस्रवाः कर्मनिर्जरायाः अकारो न भवन्ति ।
तथा-(३) ये अनास्रवाः कर्मवन्धस्याऽकर्तारस्ते परित्रवाः पूर्वकर्मनिर्जराकर्तारः, इत्येतस्मिन् तृतीयभङ्गे चायोगिकेवलिनश्चतुर्दशगुणस्थानवर्तिनः सन्ति। ___ तथा-(४) ये अनास्रवास्ते अपरिस्रवाः, इति चतुर्थंभङ्गे सिद्धाः सन्ति, तेपामनास्रवत्वादपरिस्रवत्वाच । अनाद्यन्तभङ्गी मत्रे गृहीतौ । आद्यन्तमङ्गग्रहणेन मध्यमभङ्गद्वयं सुतरां गृह्यते ॥ ___ यद्वा-ये आसवाःकर्मवन्धकारो जीवारते परिस्रवाः कर्मनिर्जराकारो भवन्ति । तथा-ये परिस्रवाः कर्मनिर्जराकाररते आस्रवाः पुनर्नवीनकर्मवन्धकारो भवन्ति । आस्रवकर्ता होते हुए भी निर्जरा के को नहीं, जो कर्मवन्धके कर्ता होते हैं वे अवश्य ही कर्मकी निर्जरा के भी कर्ता होते हैं।
३-तृतीय भङ्गमें अयोगिकेवलिनामक चौदहवं गुणस्थान में रहनेवाले जीवोंका ग्रहण है, कारण कि उनके नवीन कौके बन्धका अभाव है, और पूर्वोपार्जित कर्मों की निर्जरा का सद्भाव है ।
४-चतुर्थ भङ्ग में सिद्ध जीवोंका ग्रहण किया गया है, वहां पर न कर्मों का आस्रव है और न उनकी निर्जरा ही है।
अथवा-जो जीव आस्त्रव-कर्मबन्धके करनेवाले हैं वे परिस्रव-कर्मनिर्जराके करनेवाले हैं, तथा-जो परिस्रव-कर्मनिर्जरा के करनेवाले हैं वे आस्रव-फिरसे नवीन कर्मों के बन्ध करनेवाले हैं। હોવા છતા નિર્જરાનો કર્તા ન હોય? જે કર્મબંધનો કર્તા હોય છે તે અવશ્ય જ કર્મની નિર્જરાન પણ કર્તા હોય છે.
(૩) ત્રીજો ભંગમાં અયોગિકેવળી નામના ચૌદમાં ગુણસ્થાનમાં રહેવાવાળા જીનું ગ્રહણ છે, કારણ કે તેને નવા કર્મના બંધન અભાવ છે, અને પૂર્વોપાજીત કર્મોની નિર્જશનો સદ્ભાવ છે.
(૪) ચોથા ભાગમાં સિદ્ધ જીવેનું ગ્રહણ કરેલું છે. ત્યાં નથી કર્મોનું આસવ અને નથી તેઓની નિજો.
गया-२ वी आलव-भीना मध वाले ते परिखव-भी निशन ४२वाया 2, तथा परिम्व-भनिना ४२वाया ते आलव - नवीन ना ५ श्वापा छे.
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आंधाराङ्गसूत्रे एवञ्च--'ये आस्रवास्ते परिस्रवाः, ये परिस्रवास्ते आस्रवा.' इति पूर्वार्द्धवाक्यं चतुर्गतिभ्रमणाधिकारिजीवाभिप्रायेण कथितम् । 'ये अनास्रवास्ते अपरिवाः, ये अपरिस्रवारते अनासवाः' इत्युत्तरार्द्धवाक्यं तु सिद्धापेक्षया; ते हि-नवीनकर्मबन्धकर्तृत्वाऽभावादनासवाः, सकलपूर्वकर्मक्षयेण नवीनकर्मवन्धाभावेन च निरणीयकर्माभावात्कमनिर्जराया अकाररतस्मादपरिस्रवाः।
तथा-सकलपूर्वकर्मक्षयेण नवीनकर्मानागमनेन च निर्जरणीयकर्माभावात्कर्मनिर्जराया अकर्तृत्वाद् अपरिस्रवाः, नवीनकर्मवन्धकर्तृत्वाभावाच्च अनास्रवाः, इति । निर्जरा नियमसे होती है, इसे रोकनेवाली कोई भी शक्ति नहीं है, इसलिये चौदहवें गुणस्थानवी जीवके प्रति भी यह आक्षेप नहीं होता।
इस प्रकार " ये आस्रवास्ते परिस्रवाः, ये परित्रवास्ते आस्रवाः" यह पूर्वार्ध वाक्य चतुर्गतियों में भ्रमण करनेके अधिकारी जीवों की अपेक्षा से ही कहा गया है। तथा-"ये अनास्त्रवास्तेअपरित्रवायेः अपरिस्रवास्ते अनास्रवाः" यह उत्तरार्द्ध वाक्य सिद्धों की अपेक्षासे कहा गया है, कारण कि एक तो वे नवीन कर्मवन्धके कर्ता नहीं हैं इससे वे अनास्रव हैं। दूसरे उनमें पूर्वके सकल काँका क्षय और आगामी नवीन कर्मबंधका अभाव भी हो चुका है, इसलिये निर्जराके भी कर्ता नहीं माने गये हैं। इसलिये वे अपरिस्रव हैं। तथा-उनमें पूर्वसंचित सकल कर्म के क्षय से और नवीन की के नहीं आने के कारण निर्जरा करने योग्य कर्मोके अभाव से कर्मोंकी निर्जराके का नहीं होने के कारण वे अपरिस्रव हैं, और नवीन कौके बन्ध नहीं करने के कारण वे अनास्रव है। નિર્જરા નિયમથી થઈ જાય છે, તેને રોકવાવાળી કઈ પણ શક્તિ નથી, માટે ચૌદમા ગુણસ્થાનવત્ત જીવન પ્રતિ પણ આ આક્ષેપ થઈ શકતો નથી
॥ सारे "ये आस्त्रवास्ते परित्रवाः, ये परिस्नवास्ते आसवा " मा પૂર્વાર્ધ વાક્ય ચતુર્ગનિયામાં ભ્રમણ કરવાવાળા જીવોની અપેક્ષાથી જ કહેલ છે तया-"ये अनास्नबाम्ते अपरिस्रवाः, ये अपरिस्नवास्ते अनासवाः" ! उत्तरार्थ વાક્ય સિદ્ધોની અપેક્ષાએ કહેલ છે. કારણ કે એક તે તે નવા કર્મબંધના કર્તા નથી તેથી તે અનાસવ છે બીજુ તેમાં પૂર્વના સકળ કર્મને ક્ષય અને આગામી નવા કર્મ ઘને અભાવ પણ થઈ ચુકેલ છે, માટે નિર્જરા કરવાયોગ્ય કર્મોનો અભાવ થવાથી તે નિર્જન પણ કર્તા માનવામાં આવેલ નથી, માટે તે અપરિશ્વવ છે તથા–તેમાં પૂર્વ સચિન સકળ કર્મના ક્ષયથી, અને નવીન કર્મોનાં નહિ આવવાથી, નિર્જરા કરવાગ્ય કર્મોને અભાવ થવાથી કર્મોની નિજાના કન નહીં હોવાને લીધે તે અપરિસવ છે. અને નવીન કર્મો તે બધ નહી કરવાથી તે અનાસવ છે
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सम्यक्त्व-अध्य० ४ उ. २
अत्र परिस्रवपदार्थे जीवप्रयत्नकृता निर्जरा परिगृह्यते, एवं च नोक्तदोपप्रसङ्गः । त्रयोदशगुणस्थाने उक्तकमैव जीवो निर्जरयति, प्रथमसमये ऐपिथिककर्मणो बन्धः, द्वितीये तद्वेदनं, तृतीये च तन्निजरेत्येवं क्रमेण वन्धो निर्जरा चेति द्वयं सयोगिकेचलिगुणस्थानं यावत् प्रवर्तते । तत्रत्या निर्जरा न जीवप्रयत्नजनिता किंतु स्वभावादेवेति पुनः पुनः स्मृतिपथमानेतव्यम् । ___ तथा-चतुर्दशगुणस्थानवर्तिजीवोऽपि नैतद्वाक्यविषयः । तस्याघातिकर्मचतुष्टयनिर्जराकर्तृत्वं प्रयत्नविशेषमनपेक्ष्य भवति, केवलज्ञानोत्पत्तौ सत्यां तत्सामर्थ्यांदवशिष्टकर्मचतुष्टयनिर्जराया अवश्यम्भावनिष्पत्तेः । ____ "परिस्रव" इस शब्द में जीवके प्रयत्न से होनेवाली निर्जरा काही ग्रहण किया गया है, अतः उस गुणस्थानवी जीव के नवीन कर्मबंध के प्रति कर्तापन किसी प्रकार भी संभवित नहीं हो सकता है। वहां प्रथम समय में ईर्यापथ क्रियासे आगत कर्मका बंध होता है, द्वितीय समयमें उसका वेदन और तृतीय समयमें उसकी निर्जरा । इस प्रकारका क्रम उस जीव के तब तक चालू रहता है जब तक उस जीव के उस गुणस्थानवर्त्तापना रहता है, अतः यह मानना कि उसके आगत कर्मों की निर्जरा किसी प्रयत्नविशेषाधीन होती है, यह एक भ्रम ही है, क्यों कि उन कर्मों की निर्जरा तो स्वाभाविक ही है।।
तथा चौदहवें गुणस्थानवी जीवमें अवशिष्ट अघातिया कौकी निर्जरा के प्रति कर्तृत्व प्रयत्नविशेषके विना स्वतः ही है, कारण कि केवलज्ञानकी उत्पत्ति होने पर उसके प्रभावसे उन अघातिया कर्मों की
___" परिस्रव” 240 २१७४मा पन प्रयत्नथी थापाणी मिशनु २१ अड કરેલ છે, તેથી આ ગુણસ્થાનવર્તી જીવનું નવીન કમબન્ધ કરવામાં કર્તાપણું કોઈ પણ પ્રકારે સંભવિત થઈ શકતું નથી. ત્યાં પ્રથમ સમયમાં ઈર્યાપથકિયાથી આગત (આવતા) કર્મ બંધ થાય છે, બીજા સમયમાં તેનું વેતન અને ત્રીજા સમયમાં તેની નિર્જરા આ પ્રકારનો કમ તે જીવને ત્યાં સુધી ચાલુ રહે છે ત્યાં સુધી તે જીવને તે ગુણસ્થાનવર્તી પણું રહે છે. આથી એમ માનવું કે તેના આગત કર્મની નિર્જરા કોઈ પ્રયત્નવિશેષાધીન હોય છે. એ એક ભ્રમ જ છે, કારણ કે તે કર્મોની નિરા તે સ્વભાવથી જ થાય છે.
તથા–ચૌદમાં ગુણસ્થાનવર્તા જીવમાં અવશિષ્ટ (બાકી રહેલા) અદ્યાતિયા કર્મોની નિશ પ્રતિ કિર્તાપણું કોઈ એક પ્રયત્ન વગર સ્વતઃ જ છે. તેનું કારણ એ છે કે કેવળજ્ઞાનની ઉત્પત્તિ થતાં જ તેના પ્રભાવથી તે અઘાતિયા કમની
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आचारागसूत्रे वध्यमान, तपःसंयमसमाराधनेन च मुच्यमानम् , आज्ञया आहेतागमानुसारेण, अभिसमेत्य सम्यग विज्ञाय, पृथक्-अन्यान्यप्रकारेण प्रवेदितं च अतीतानागतवतमानैः सर्वतीर्थकरैः प्रबोधितं वन्धकारणं निर्जराकारणं च, अभिसमेत्य-ज्ञावा, को नाम धर्माचरणे प्रवृत्तो न भवेत् ? अपि तु भवे देवे दित्यर्थः॥ सू०२॥ . आर्हतप्रवचनानुसारी चतुर्दगपूर्वधरादिरपि जीवानां हिताय प्रवेदयतीत्याह'आघाइ नाणी' इत्यादि।
___ मूलम्-आघाइ नाणी इह माणवाणं संसारपडिवण्णाणं संवुज्झमाणाणं विन्नाणपत्ताणं अट्टावि संता अदुवा पमत्ता अहासच्चमिणं-तिवमि ॥ सू० ३॥ ___ छाया--आख्याति ज्ञानी इह मानवेभ्यः संसारप्रतिपन्नेभ्यः संबुध्यमानेभ्यः विज्ञानप्राप्तेभ्यः, आर्ता अपि सन्तः अथवा प्रमत्ताः यथासत्यमिदम् इति ब्रवीमि ॥३॥ ___टीका-ज्ञानी-प्रवचनज्ञानसंपन्नः, इह-प्रवचने प्रोक्तं धर्म मानवेभ्यः, आख्याति-इत्यन्वयः, मनुष्याणां सर्वसंवरचारित्रसंभवात्तेभ्य उपदिशतीत्यर्थः । आराधनसे रहित इस षड्जीवनिकायरूप लोकको तथा अतीत, अनागत और वर्तमान समस्त तीर्थङ्करों द्वारा भिन्न २ प्रकारसे उपदिष्ट बंधके कारणों एवं निर्जरा के कारणों को जिनागमसे जान कर धर्माचरण करने में प्रवृत्त नहीं होगा ? अपितु अवश्य ही होगा॥ सू० २॥
अर्हन प्रभुके प्रवचनानुसार प्रवृत्ति करनेवाले चतुर्दशपूर्व के पाठी गणधरादिक भी जीवों के हिनके लिये ही उपदेश करते हैं; यही बात प्रकट की जाती है-'आघाइ नाणी' इत्यादि।
जिनेन्द्रोपदिष्ट प्रवचनके ज्ञानसे संपन्न ज्ञानी गणधरादिक शास्त्रविहित धर्मका प्रतिपादन, हेयोपादेय-विवेकशील संसारी मनुष्यों के પજીવનિકાયરૂપ લેકને, તથા અતીત અનાગત અને વર્તમાન સમસ્ત તીર્થ કરો દ્વારા જુદા જુદા પ્રકારથી ઉપદિષ્ટ બધના કારણેને અને નિર્જરના કારણોને જીનાગમથી જાણીને ધર્માચરણ કરવામાં પ્રવૃત્ત ન થાય ? પરતુ અવશ્ય જ થાય સૂરા
અર્ડન્ત પ્રભુના પ્રવચન અનુસાર પ્રવૃત્તિ કરનાર ચતુર્દશચૌદ પૂર્વના પાડી ગgધરાદિક પણ જીવના હિતને માટે જ ઉપદેશ કરે છે. આ વાત પ્રગટ ८२वामा माछ-' आघाइ नाणी' यानि
જનેન્દ્ર ભગવાને કહેલાં પ્રવચનના જ્ઞાનથી સંપન્ન જ્ઞાની ગણધરાદિક શાસ્ત્રવિહિત ધર્મનું પ્રતિપાદન હેપદેયવિવેકશીલ સંસારી મનુષ્યને માટે કરે છે. આ સૂત્રમાં
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ. २
६१५ यद्वा-अनास्त्रवापरिरवयोः क्रमं दर्शयति-'येऽनास्त्रवास्तेऽपरित्रवाः' इति। ये प्रथमे समयेऽनास्रया भवन्ति-कर्मवन्धका न भवन्ति, ते तत्पश्चात् समये अपरिस्रवा भवन्ति-कर्मनिर्जरका न भवन्ति, बढस्यैव कर्मणो निर्जरणीयत्वात् । एवं येऽपरिसवारतेऽनास्त्रवा इति बोध्यम् । एतदपि व्याख्यानं सिद्धापेक्षया ।। म०१ ॥ यहोवं ततः किम् ? इत्याह-'ए पए' इत्यादि ।
मूलम्-एए पए संबुज्झमाणे लोयंच आणाए अभिसमिच्चा पुढो पवेइयं ॥सू० २ ॥
छाया-एतानि पदानि संवुध्यमानः लोकं चाज्ञयाऽभिसमेत्य पृथक् प्रवेदितम्।।
टीका---एतानि अनन्तरोक्तानि, पदानि='ये आस्रवास्ते परिस्रवाः' इत्यादीनि संबुध्यमानः सम्यग् जानन्, तथा लोकं-पड्जीवनिकायम् आस्रवागतकर्मणा
अथवा-अनास्त्रब और अपरिस्रव के क्रमको दिखाते हैं-"ये अनास्रवास्ते अपरित्रवाः ' जो प्रथम समयमें अनानव हैं-कर्मबन्ध के कर्ता नहीं हैं, वे उसके बाद के समय में अपरित्रव हैं-कर्म की निर्जरा करनेवाले नहीं हैं, कारण कि जो कोसे बंधा हुआ होता है वही उनकी निर्जरा करनेवाला भी होता है। जो कर्मोसे बंधा हुआ ही नहीं है वह निर्जरा भी किसकी करेगा। इसी प्रकार "येअपरिस्रवास्ते अनास्त्रवाः" यह वाक्य भी समझ लेना चाहिये। यह विवरण भी निद्रोंकी अपेक्षा से ही किया गया है ऐसा समझना चाहिये । स० १॥
यदि ऐसा है तो इससे क्या? इसका उत्तर कहते हैं-'एए पए संवुज्झमाणे ' इत्यादि ।
इन पूर्वोक्त पदों को अच्छी तरहसे जाननेवाला कौनसा ऐसा प्राणी होगा जो आरवसे आये हुए कर्मों से बंधे हुए, और तप एवं संयम के
અથવા–અનાસવ અને અપસ્લિવના કમને બતાવે છે—
ये अनानवाम्ते अपरिलवाः " २ प्रथम समयमा मनासक छे-भावना કર્તા નથી તે ત્યારબાદના સમયમાં પરિવ છે-કર્મની નિર્જરા કરવાવાળાં નથી, કારણ કે જે કર્મોથી બધાએલા રહે છે તે તેની નિર્જશ કરવવાવાળા પણ હોય છે. જે કર્મોથી બધાયેલા જ નથી તે નિર્જરા પણ કેની કરશે ?. આ જ ५३. ये अपरिवारते अनावदा ' l पाय ५ नमो . २१ વિવેચન પણ સિદ્ધોની અપેક્ષાથી જ કરેલ છે. જે ૪૦ ૧
से गमछेतो तनाथी ? कानु उत्त२४- गा पा संयुज्झमाणे' त्यादि।
તે પૂર્વોક્ત પદને ઘણી સારી રીતે જાણનાર કે તે પ્રાણ હશે જે આજથી આવેલા કર્મોથી બંધાયેલા અને તપ સંયમના આરાધનાથી રહિત અ.
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आचारागसूत्रे ज्ञानीका दिया गया धार्मिक उपदेश इस पद्धति का होता है जो पूर्वोक्तविशेषणविशिष्ट मानवों में अपने कर्तव्य मार्गकी अवश्य २ जागृति करता हुआ उन्हें धर्मकी भावनासे भावित कर देता है। यदि कोई किसी कारण से आतुर-पीडित या प्रमत्त-प्रमादशावाला भी हो तो भी वह उस उपदेशहारा प्रतियोधित हो जाता है। यही अट्टावि संता अदुवा पमत्ता" इस पद से स्पष्ट किया गया है। किसी कारणवशजो आन्ध्यानमें लवलीन है, अथवा रागद्वेष आदि कारणों से या वैषयिक किसी भी संबंध से जो प्रात्त हो रहे है। ऐसे मानव भी ज्ञानी के दिव्य उपदेश से धार्निक लाभसे संपन्न हुए है । जैसे-आत चिलातिपुत्र वगैरह और प्रमत्त शालिभद्रादिकोंने धर्मका लाभ ज्ञानीके उपदेशसे लिया है।
इस सत्र में "मनुष्यों के लिये ज्ञानी धर्मका उपदेश देते हैं" यह जो प्रकट किया गया है. उसका कारण यह है कि उनमें सर्वसंवर और सर्वविरनिरूप चारित्राराधन करनेकी अधिकारिता है। यद्यपि प्रभुका धार्मिक आख्यान-स्रोत मेघधाराकी तरह एकसी धारामें सर्वत्र पक्षपात रहित वहता है। उनकी पर्षदा-समवसरण में जो (१२) बारह प्रकारकी परिषद होती है उसमें सबके लिये प्रभुकी दिव्यवाणी एकरूपमें विना किसी भेदभावके उन २ जीवोंकी भाषामें परिणत होती है। સનીએ આપેલ ધાર્મિક ઉપદેશ પણ આ પદ્ધતિને હોય છે જે પૂર્વોક્ત વિશેપ–વિશિષ્ટ મનુષ્યોમાં પોતાના કર્તવ્ય માગની અવશ્ય અવશ્ય જાગ્રતિ કરતાં કરતા તેમાં ધર્મની ભાવના ભરી દે છે. કદાચ કઈ કઈ કારણથી પીડિત અગર પ્રમાદદશાવાળા પણ હોય તે પણ તે આ ઉપદેશદ્વારા પ્રતિબોધિત થઈ જાય છે, नाट "अट्टा वि संता अदुवा पमत्ता” ॥ पोथी २५४ अरेस छे. २९ વશ જે આધ્યાનમા તત્પર છે, અથવા રાગદ્વેષ આદિ કારણોથી યા વૈષચિક કઈ પણ સબંધથી જે પ્રમત્ત થઈ રહ્યા છે, એવા મનુષ્ય પણ જ્ઞાનીના દિવ્ય ઉપદેશથી ધાર્મિક લાભ પ્રાપ્ત કરે છે, જેમ આર્તા–ચિલતિપુત્ર વિગેરે, અને પ્રમત્ત–શાલિભદ્રાદિકોએ ધર્મને લાભ જ્ઞાનીના ઉપદેશથી લીધો છે.
આ મૂત્રમા મનુષ્યોને માટે જ્ઞાની ઘર્મને ઉપદેશ આપે છે” આ જે પ્રગટ કરેલ છે તેનું કારણ એ છે કે–તેમા સર્વસંવર અને સર્વ—વિરતિરૂપ ચારિત્ર ચારાધન કરવાની એગ્યતા છે પ્રભુનું ધાર્મિક આખ્યાનસ્ત્રોત વરસાદધારાની માફક એક ધારાથી સર્વત્ર પક્ષપાતરહિત વહે છે તેમની પર્વદા-સમવસરણ–માં જે બાર પ્રકારની પરિષદ ભરાય છે તેમાં બધાને માટે પ્રભુની દિવ્ય વાણી કોઈ પs સેદભાવ વિના-એક રૂપમાં તે તે જીવોની ભાષામાં પરિણત થાય છે,
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ. २
६१७ कथंभूतेभ्यो मानवेभ्यः ? संसारप्रतिपन्नेभ्यः चतुर्गतिषु वर्तमानेभ्यः, केवलिप्रभृतीनामुपदेशश्रवणप्रयोजनं नास्तीति भावः । संसारिष्वपि धर्मग्रहणयोग्या एव उपदेशाही इत्यत आह-संवुध्यमानेभ्य इति, यथोपदिष्टं धर्मज्ञातृभ्य इत्यर्थः । असंज्ञिनो नोपदेशाहीः, इत्यतस्तान् व्यावर्तयितुं विशेपणान्तरमाह-विज्ञानप्राप्तेभ्य इति हेयोपादेयज्ञानवद्भ्यः-सर्वथापर्याप्तकेभ्यः संशिभ्य इत्यर्थः । लिये करते हैं । इस सत्रमें जिनेन्द्रप्रतिपादित सद्धर्मका उपदेश संसारी मानवों के लिये जो प्रकट किया गया है उसका कारण यही है कि उनमें ही सर्वसंवर और सर्वविरतिरूप चारित्र के आराधन करने की योग्यता रही हुई है। उनमें भी जो धर्मग्रहण करनेकी योग्यता से सम्पन्न होते हैं उन्हें ही धर्मका उपदेश दिया जाता है, और वहीं पर वह असरकारक होता है । जो अपर्याप्तावस्थामें रहे हुए हैं वे धार्मिक उपदेशके पात्र नहीं हैं। यही बात 'संधुध्यमान' और 'विज्ञानप्राप्त ' इन दो विशेषणों से प्रकट की गई है। जो धार्मिक उपदेशको यथावत् नहीं समझ सकते वे उस उपदेश से लाभ भी कुछ नहीं प्राप्त कर सकते। एवं जो अपर्याप्त हैं, असंज्ञी हैं, उन पर भी उपदेश अपना कुछ भी प्रभाव नहीं दिखा सकता। मनके विना विचारशक्तिका अभाव होनेसे वे उस लाभसे सर्वथा वंचित ही रहते हैं, अतः जो संज्ञी हैं, जिनमें 'यह हेय है यह उपादेय है' इस प्रकारका ज्ञान जागृत हो रहा है, वहीं पर दिया गया धार्मिक उपदेश अपना प्रभाव प्रकट करता है। જિનેન્દ્રપ્રતિપાદિત સદ્ધર્મને ઉપદેશ સંસારી જીવન માટે જે પ્રગટ કરવામાં આવેલ છે તેનું કારણ એ જ છે કે તેમાં સર્વ-સંવર અને સર્વ—વિરતિરૂપ ચારિત્રનું આરાધન કરવાની યોગ્યતા રહેલી છે. તેમાં પણ જે ધર્મ ગ્રહણ કરવાની યેગ્યતાથી સંપન્ન હોય છે તેને જ ધમને ઉપદેશ આપવામાં આવે છે, અને ત્યાં જ તે અસરકારક પણ થાય છે. જે અપર્યાપ્તાવસ્થામાં રહેલાં છે તે ધાર્મિક उपदेशने पात्र नथी, 2 बात संवुध्यमान' भने 'विज्ञानप्राप्त' मा मे विशे. પણેથી પ્રગટ કરેલ છે. જે ધાર્મિક ઉપદેશને યથાવત્ નથી સમજી શકતા તે એ ઉપદેશથી કાંઈ પણ લાભ પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી. તેમજ જે અપર્યાપ્ત છે અસંજ્ઞી છે તેની ઉપર પણ ઉપદેશ પિતાને કાંઈ પણ પ્રભાવ પાડી શકતો નથી. મન વગર વિચાર-શક્તિનો અભાવ હોવાથી તે એ લાલથી સર્વથા દૂર જ રહે છે, પણ જે સંજ્ઞી છે જેમાં - આ હેય છે, આ ઉપાદેય છે” આવા પ્રકારના જ્ઞાનની જાગૃતિ છે તેવાઓને ધમને ઉપદેશ પિતાને પ્રભાવ બતાવી શકે છે.
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आचारागसूत्रे स्मिन् विषये सम्यक्त्वं कुर्यादिति भावः । इति इदं ब्रवीमि यथा मया भगवद्वाक्यं श्रुतं तथा कथयामीत्यर्थः । दुर्लभं सम्यक्त्वं चारित्रं वा प्राप्य प्रमादो न कर्तव्य इति भावः ॥ मू० ॥ ____प्रमादवतां संसारिणां पुनः पुनमरणं जन्म च निरवसानं भवतीति वोधयितुमाह
-'नाणागमो' इत्यादि। अवश्यंभावी है। ये संमूछिम मनुष्य होते हैं। इसी बातको प्रकट करने के लिये सूत्र में 'संयुध्यमान' और 'विज्ञानप्राप्त ' ये दो विशेषण दिये गये हैं। ____कैसी २ दशासंपन्न जीवों ने प्रभुकी धर्मदेशना से धर्मलाभ लिया है, यह बात चिलातिपुत्र और शालिभद्र आदिके दृष्टान्तसे स्पष्ट की गई है। इनका कथानक शास्त्रों में वर्णित है। - हे जम्बू! इस विषयमें जो मैंने कहा है, अथवा आगे भी जो कहा जायगा वह सव सर्वथा सत्य ही है । मुमुक्षुका कर्तव्य है कि वह इस विषयमें पूर्ण श्रद्धालु हो, कारण कि प्रभुके मुख से जैसा सुना है वैसा ही मैं तुझे कहता हूं, अतः हे जम्बू ! दुर्लभ सम्यक्त्व और चारित्रको प्राप्त कर प्रमादका सेवन न करो, यही वारबार कहना है ॥सू० ३॥
प्रमादी संसारी जीवोंका पुनः पुनः मरण और जन्म निरंतर होता रहता है, यही प्रकट किया जाता है-नाणागमो' इत्यादि । मनुष्य खाय छे, मा ८८ पातने प्रगट ४२वाने भाटे सूत्रमा 'संवुध्यमान' भने 'विज्ञानप्राप्त' मे में विशेष मापेसा छे.
કેવી કેવી દશાવાળા જીને પ્રભુની ધર્મદેશનાથી ધર્મનો લાભ થયેલ છે તે વાત ચિલતિપુત્ર અને શાલિભદ્ર આદિના દષ્ટાન્તથી સ્પષ્ટ છે ( આની કથા શાસ્ત્રોમાં વર્ણવેલી છે) | હે જમ્મુ ! આ વિષયમાં જે મે કહ્યું છે અને આગળ પણ જે કહેવામાં આવશે તે બધું સાચુ જ છે મોક્ષાભિલાષીનું કર્તવ્ય છે કે તે આ વિષયમાં પૂર્ણ શ્રદ્ધાળુ રહે, કારણ કે પ્રભુના મુખથી જેવું સાંભળ્યું છે તેવું જ હું તમોને કહું છું, માટે હે જમ્મુ' દુર્લભ સમ્યક્ત્વ અને ચારિત્રને પ્રાપ્ત કરીને પ્રમાદનું સેવન ન કરે, એ જ વારંવાર કહેવાનું છે. એ સૂત્ર ૩ છે
પ્રમાદી સસારી જીવોના વારવાર મરણ અને જન્મ નિરતર થયા કરે છે, तेने प्रगट ४२पामा आवे छे-'नाणागमोऽत्यादि.
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सम्यक्त्व-अध्य० ४ उ २
ज्ञानी यथा धर्ममाख्याति तथा दर्शयति-'आर्ताअपि' इत्यादि । आर्ताअपि =कुतश्चित् कारणात् आतुरा अपि, अथवा रागद्वेषोदयात् अन्यस्माद् वा विषयसंगवशात् प्रमत्ता अपि सन्तः प्रतिबुध्यन्ते, यथा-आताश्चिलातिपुत्रादयः, प्रमत्ताः शालिभद्रादयो धर्म विदन्ति स्म, तथा ज्ञानी पुरुषो धर्ममुपदिशतीत्यर्थः। एतस्मिन् विषये श्रद्धानं विधेयमिति दर्शयितुमाह-'यथासत्यमिदम्' इति । मया यत् कथितं कथ्यमानं च तदिदं यथासत्यं सत्यमनतिक्रम्य वर्तते-इत्यर्थः, मुमुक्षुरफिर भी जो यहां पर मनुष्यों के लिये ज्ञानी पुरुष धर्मका उपदेश देते हैं उसका कारण उनमें सर्वसंवर और सर्वविरतिरूप चारित्राराधन करने की योग्यता ही है । और उसी योग्यता को लक्षमें रख कर यह कहा गया है।
मनुष्यों के सिवाय अन्यगतियों के जीवों में यह योग्यता नहीं है। तिर्यञ्चगतिके जीव (५) पांच गुणस्थानों से आगे नहीं बढ़ सकते हैं। देवगति के जीवों में (४) चार गुणस्थानही पाये जाते हैं, अन्य गुणस्थान नहीं। मनुष्यों में ही (१४) चौदह गुणस्थानोंके आराधन करनेकी योग्यता है। इतना होने पर भी जो पर्याप्त नहीं हैं किन्तु अपर्याप्तदशावर्ती हैं, वे उपदेशके पात्र ही नहीं है।
'निर्वृत्त्यपर्यातक' ये हैं जिनकी अभी पर्याप्तियां पूर्ण नहीं हुई हैं, एक अन्तर्नुहर्त में नियम से पूर्ण हो जावेगी। 'लब्ध्यपर्याप्तक' वे है-जो पर्याप्तियों की पूर्णतासे रहित हैं, और अन्तर्मुहूर्त में जिनका भरण તે પણ જે આ ઠેકાણે “મનુષ્યને માટે જ્ઞાની પુરૂષ ધર્મનો ઉપદેશ આપે છે આવું જે કહેવામાં આવ્યું છે તેનું કારણ તેમાં સર્વ—સંવર અને સર્વવિરતિરૂપ ચારિત્ર આરાધન કરવાની યોગ્યતા જ છે. અને તે યોગ્યતાને ધ્યાનમાં રાખીને આ કહેવામાં આવેલ છે.
મનુષ્ય સિવાય બીજી ગતિઓના જીવમાં આ ગ્યતા નથી. તિર્યંચ ગતિના જીવે પાંચ ગુણસ્થાનથી આગળ વધી શકતા નથી. દેવગતિમાં છેને ચાર ગુણસ્થાન જ દેખાય છે, બીજ ગુણસ્થાને નથી. મનુષ્યમાં જ ચૌદ ગુણસ્થાન આરાધના કરવાની યેગ્યતા છે. આટલું હોવા છતાં જે પર્યાપ્ત નથી પણ અપર્યાપ્તદશાવર્ત તે ઉપદેશને પાત્ર નથી
निर्वत्यपर्याप्तक' त छ, नी ।उनु पर्याप्ति पुरी 45 नथी, मे मतभुतभा नियमयी पूल थशे. 'लवपर्याप्तक' तेरे पर्याप्तिमानी - તાથી રહિત છે, અને અંતમુહુર્તમાં જેનું મરણ અવસ્થંભાવી છે, તે સંમૂછિમ
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६२२
आचाराङ्गसूत्रे
ये तु रागान्धतया प्रमत्ता धर्म नाभिजानन्ति ते किंभूता भवन्तीत्याह - 'इच्छा' इत्यादि । इच्छया = विषयसुखवाञ्छया, प्रणीताः विषयाभिमुखं प्रकर्षेण नीताः, इच्छापरतन्त्रा इत्यर्थः । यद्वा - इहेन्द्रियाद्यनुकूला प्रवृत्तिरिच्छा, तया संसाराभिमुखं मन्त्रसाधना करे; तो भी वह कराल कालके तीखे दांतों से चीरा ही जाता है, अर्थात् किसी प्रकार भी प्राणी मृत्यु से नहीं बच सकता ॥१॥
उपक्रम - मृत्युका निमित्त कारण। जैसे-दण्ड, चाबुक, शस्त्र, रस्सी, विष आदि । निरुपक्रम - निमित्त रहित - आयुके पूर्ण होने पर अपनेआप मृत्युको प्राप्त होना ।
इस सूत्र में यह प्रकट किया जा रहा है कि जो राग और द्वेषसे अन्धे होकर प्रसादी हुए हैं और धर्म को नहीं जान रहे हैं वे विषयसुख की वाञ्छा से ही विषयों में आसक्त होते हैं । अपनी उस अभिलापा की पूर्ति करनामात्र ही वे अपना परम कर्तव्य समझते हैं । इस समय उन्हें न्याय अन्याय का कुछ भी ध्यान नहीं रहता है । इच्छा की पूर्ति करनामात्र ही एक लक्ष्य होता है । इन्द्रियों के अनुकूल प्रवृत्तिका नाम ही इच्छा है । जो इन्द्रियोंके इन्हें अनुकूल जचा उसमें ही अन्धे होकर ये गिर पड़ते हैं, 'इसका भविष्य में क्या परिणाम होगा ?' यह विचार इन्हें नहीं रहता । इच्छाओंके आधीन बने हुए मनुष्य संसारकी ओर ही दौड़ लगा रहे हैं । निवृत्तिमार्गसे वे दूर हैं । निवृत्तिमार्गकी प्राप्ति સાધના કરે તો પણ તે કરાળકાળના તીખા દાંતથી ચિરાઈ જ જાય છે, અર્થાત્ પ્રાણી મૃત્યુથી કોઈ પ્રકારે પણ ખચી શકતા નથી. ॥ ૧ ॥
उपक्रम–मृत्युनु निभित्तारण, भ-हांडे, यामुटु, शस्त्र, रस्सी, विप माहि. निरुपक्रम—निभित्तरहित - आयुष्य यु३ थवाथी आयभेणे मृत्युने वश थवुं. આ સૂત્રમાં એમ કહેવામાં આવેલ છે કે જે રાગ અને દ્વેષથી અંધ બનીને પ્રમાદી બને છે અને ધર્મને જાણતા નથી તે વિષયસુખની ઈચ્છાથી વિષ્યામા આસક્ત બને છે. પેાતાની આ ઇચ્છાને પૂર્ણ કરવામા જ પેાતાનુ પરમ કર્તવ્ય સમજે છે. આ વખતે ન્યાય અન્યાયના કોઈ ખ્યાલ રાખતા નથી ઈચ્છાને પૃષઁકરવાના જ માત્ર એક ખ્યાલ રાખે છે ઈન્દ્રિયાને અનુકૂળ પ્રવૃત્તિનુ નામ જ ઈચ્છા છે જે ઈન્દ્રિયાને અનુકૂળ ગમ્યુ તેમાજ અધ બનીને તેઓ પડે છે . એનુ ભવિષ્યમા શુ પિરણામ આવશે ’ આ વિચાર એને નથી આવત ઈચ્છાઆને આધીન બનેલો મનુષ્ય સસારની તરફ જ દોટ લગાવે છે. નિવૃત્તિ માથી તે દૂર છે. નિવૃત્તિ માર્ગની પ્રાપ્તિ વિના ઈચ્છા પર અકુશ થતુા
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सम्यक्त्र - अध्य० ४. उ. २
ફેરફ
मूलम् - नाणागमो मच्चुमुहस्त अस्थि, इच्छा पणीया वंकानिकेया कालग्गहीया निचये निविट्ठा पुढो पुढो जाई पकप्पयंति । सू०४। छाया - नानागमो मृत्युमुखस्यास्ति इच्छा प्रणीता वकानिकेताः, कालगृहीता निचये निविष्टाः पृथक् पृथग् जातिं प्रकल्पयन्ति ॥ म्र० ४ ॥
टीका - मृत्युमुखस्यानागमः संसारिणां नास्तीत्यन्वयः । एवंभूतः कश्चिदपि संसारी नास्ति, य उपक्रमेण निरुपक्रमेण वा मृत्युमुखे नाऽऽपततीत्यर्थः । उपक्रमां = निमित्तं दण्डकशाशखरज्जुविषादयः, निरुपक्रमो= निमित्ताभावः । तथा चोक्तम्" नश्यति नौति याति वितनोति करोति रसायनं क्रियां, चरति गुरुतानि विवराण्यपि विशति विशेषकातरः । तपति तपांसि खाइति मितानि करोति च मन्त्रसाधनं, तदपि कृतान्तदन्तयन्त्रक्रकचक्रमणैर्विदार्यते " ॥ १ ॥ इति,
ऐसा कोई संसारी जीव नहीं है जो कि उपक्रम - निमित्तसे अथवा अनुपक्रम - विना निमित्त से मृत्युके मुखमें नहीं पड़ना हो। कहा भी है" नश्यति नौति याति विननोति करोति रसायनक्रियां, चरति गुरुतानि विवराण्यपि विशति विशेषकातरः । तपति तपांसि खादनि मिनानि करोति च मन्त्रसाधनं, नदपि कृतान्तदन्तयन्त्रक्रकचक्र मणैर्विदार्यते ॥ १ ॥ " इनि । अर्थात् — कायर पुरुष मृत्युके भयसे चाहे कहीं भग जाय, या मृत्यु की लाचारी करे, कहीं चला जाय, कोई प्रपञ्च करे, अथवा अमर होनेके लिये रसायन क्रिया ( कायाकल्प ) करे, तथा बडे २ व्रत करे, पहाड़ों की गुफाओं में छिप जावे, अनेक प्रकारके तप तपे, परिमित खोराक खावे, એવા કેઈ સંસારી જીવ નથી જે નિમિત્તથી અથવા વગર નિમિત્તથી મૃત્યુના સુખમાં ન પડતા હોય. ફ્લુ દે
नश्यति नौति याति वितनोति करोति रसायनक्रियां,
चरति गुरुतानि विवराण्यपि विशति विशेषकातर. | तपति तपांसि खाइति नितानि करोति च मन्त्रसाधनं, तदपि कृतान्तन्तयन्त्रक्रकचक्रमणैर्विदार्यते " ॥ १ ॥ इति । અર્થાત્—કાયર પુરૂ મૃત્યુન: લયથી ભલે કેઇ જગ્યાએ ભાગી જાય, અથવા મૃત્યુની લાચારી કરે, કઈ જગ્યાએ ચાલી તય, કોઇ પ્રપંચ કરે, અથવા અસર ધાને માટે રસાત ક્રિય: ( કાયાકલ્પ ) કરે, તથા મેટ! વ્રત કરે, પહાડેશની ગુફાઓમાં છુપાદ ક્ષય, અનેક પ્રકારના તપ કરે, પરિમિત ખોરાક ખાય, નેત્ર
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६२४
आचारागसूत्रे जनयन्ति । रागद्वेषवशात्प्रमादिनः संसारिणो धर्ममनववुध्य इन्द्रियानुकूलविषये मोहं प्राप्य पुनः पुनः कर्मोपचयं कुर्वन्तस्तद्वन्धात् पच्युता न भवन्तीति भावः ॥४॥
प्रमादवतां पुनः पुनर्जातिप्रकल्पने का हानिर्भवतीति शिष्यजिज्ञासायामाह'इहमेगेसिं तत्थ तत्थ' इत्यादि ।
मूलम्-इहमेगेसिं तत्थ तत्थ संथवो भवइ । अहोववाइए फासे पड़िसंवेयंति ॥ सू० ५॥
छाया—इहैकेषां तत्र तत्र संस्तवो भवति । अधऔपपातिकान् स्पर्शान् प्रति संवेदयन्ति ॥ मू० ५॥
टीका-अस्मिन् लोके, एकेपां-मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकपायवतां, तत्र-तत्र नरकादियातनास्थानेषु, संस्तवाअकर्पण परिचयो भवति, तत्र पुनः-पुनर्गमनवशाकष्टों को सहन करता रहता है । सारांश यह है कि-रागद्वेषके वश से संसारी जीव धर्म को नहीं समझ कर इन्द्रियां और मन के अनुकूल विषयों में मुग्ध होकर वारंवार कर्मपरंपरा की वृद्धि करता हुआ कर्मों से रहित नहीं होता है । सू० ४॥
प्रमादशाली जीवों की एकेन्द्रियादिक योनियों में जन्म धारण करने पर क्या हानि होती है ? ऐसी शिष्यकी जिज्ञासा होने पर उत्तर देते हैं-'इहमेगेसिं' इत्यादि।
इस संसार में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषायवाले जीवों का छेदन, भेदन, वन्धन आदि कष्टों के स्थानभूत नरकादिमें बारम्बार उत्पन्न होने से उन नरकादिकोंके साथ अधिक परिचय हो जाता है, इससे वे वहां के दुःखों को भोगते रहते हैं। અનત દુઃખને સહન કરતા રહે છે આ કથનને સાર એ છે કે–રાગ દ્વેષના કારણથી સ સારી જીવ ધર્મને નહિ સમજીને ઈન્દ્રિો અને મનના અનુકૂળ વિષયોમાં મુગ્ધ થઈને વારંવાર કર્મપરંપરાની વૃદ્ધિ કરે છે, અને કર્મોથી રહિત થતા નથી પ ક
પ્રમાદશાળી છની એકેન્દ્રિયાદિક યોનિમાં જન્મ ધારણ કરવાથી શું નુકभान याय छ ? वी शिष्यनी जामा वाथी उत्त२ माघे छ-'इहमेगेसिं त्याल.
આ સંસારમા મિથ્યાત્વ, અવિરતિ, પ્રમાદ અને કપાયવાળા જીવોને છેદન ભેદન, બન્ધન આદિ દુ.ખેના સ્થાનભૂત નરકાદિમાં વારંવાર ઉત્પન્ન થવાથી તે નરકાદિકોની સાથે અધિક પરિચય થઈ જાય છે, તે ત્યાના દુઓને ભેગવતા રહે છે.
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सम्यक्त्व-अध्य० ४ उ. २
६२३ प्रणीता इत्यर्थः । अत एव-यङ्कानिकेताः वङ्कः असंयमस्तस्य आ-समन्तात् निकेताः आश्रयाः, अत एव-कालगृहीताः कालेन-मृत्युना गृहीताः-पुनःपुनर्मरणदुःखभागिनः, यद्वा-कालगृहीताः-गृहीतः कालो यैस्ते कालगृहीताः, आपलानिप्ठान्तस्य परनिपातः, धर्माचरणाय कालाभिसन्धायिनः-'वृद्धावस्थायां परुन् वा परारि या तनयदुहितपरिणयानन्तरं वा धर्म करिष्यामः' इत्येवं संकल्पकारिण इत्यर्थः । अत एव निचये निविष्टाः अव्यतो हिरण्यायुपचये, भावतः कर्मोपचये निविष्टाः संलग्नाः सन्तः, पृथक पृथक् अन्यामन्याम् जातिम्=एकेन्द्रियादिकाम् अनन्तवारं प्रकल्पयन्ति विना, इच्छाओं पर अंकुश नहीं हो सकता है, यह निर्विवाद सिद्ध है। जहां नक प्रवृत्तिमार्ग है वहीं नक संसार है। निवृत्तिमार्गकी प्राप्ति ही मंसारका माक्षात् या परम्परारूपसे अन्त है। इच्छाओं पर विजय पाना यही तो संयमभाव है। इसके विपरीत असंयमभाव है। असंयमी जीव धर्मकी प्राप्ति करने में काल-समयका बहाना किया करते हैं"अभी नो जवानीका समय है सांसारिक आनन्द भोग लूं, वृद्धावस्था आने पर धर्म धारण कर लूंगा । अथवा आगामी वर्ष में या उसके बाद के वर्ष में अथवा पुत्र-पुत्रियों का विवाह करके फिर धर्म करूंगा।" इस प्रकार का विचार करते २ ही वे काल के ग्रास बन जाते हैं और धर्मके लाभ से वंचित रह जाते हैं । विपयेच्छा के आधीन बना हुआ संसारी मनुष्य जिम किमी प्रकारस हिरण्य-सुवर्णादिक परिग्रहके मंचय करने में ही अपने जीवन के अधिकांश भाग को नष्ट कर देता है, और उपाजिन कर्मानुमार एकेन्द्रियादिक योनियोग अनंतवार जन्ममरण के अनंत નધી. તે નિવિવાદ સિદ્ધ છે. ત્યાં સુધી પ્રવૃત્તિમા છે ત્યા સુધી સરકાર છે. નિવૃત્તિની પ્રાપ્તિ સંગારને સાકાતું સાગર પરંપરાથી અંત છે. છાઓ ઉપર વિજય શાળવે તે જ સમયમ–ભાવ છે. તેથી વિપરીત અસંયમભાવ છે. - વા મી ક પની પ્રાપ્તિ કરવામાં સમયનું બહાનું બતાવે છે–ડવ, તો
मीन: 4.4, HR: .. 3, 441 -य५७ी १.२९ ।। १. १९३३ -
ना. मारना नाम ५५ पुर-
45 1. . . वि... शन ........ ... .iti
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आचाराङ्गसूत्रे
टीका— क्रूरेषु=घोरतरपरिणामेषु वधवन्धादिषु कर्मसु क्रियासु, तिष्ठन्= प्रवृत्तः, भृगम्=अत्यर्थ-चिरं नरके परितिष्ठति - तत्र वैतरणीतरणाऽसिपत्रपाताऽऽदिजनितं चोरतरं दुःखमनुभवन दीर्घकालमवस्थितो भवतीत्यर्थः । क्रूरेषु कर्मषु अतिष्ठन्=अप्रवृत्तस्तु भृशं=सर्वथा नरके नो परितिष्टति = उपस्थितो न भवति, न तत्रोत्पद्यते इत्यर्थः ।
६२६
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यद्वा — भृशं क्रूरैः =अतिकुटिलैः प्राणातिपातादिभिः कर्मभि = व्यापारैः भृशम् =अत्यर्थं-चिरं नरके परितिष्ठति । एवम् अभृशं क्रूरैः = मन्दक्रूरैः कर्मभिः नरके भृशम्-अत्यर्थ-चिरं नो परितिष्ठति, श्रेणिकवत् ॥ ० ६ ॥
जिनका परिणाम घोरतर है, ऐसे वध - बंधनादिक जो क्रूर कर्म हैं उनमें प्रत्ति करनेवाला प्राणी मरकर नरकों में उत्पन्न होता है, और चिरकाल तक अनेक सागरपर्यन्न वहां के दुःख भोगना, वैतरणी नदी में तैरना, शाल्मली - सेमर जानके वृक्षों के तलवार की धार के सदृश पत्तों के गिरने से देह का चीरे जाना आदि जो भयंकर दुःख हैं उन्हें भोगता हुआ वहीं पर अपनी भुज्यमान आयुको व्यतीत करता है । जो इन क्रूर कर्मों के सेवन में प्रवृत्ति नहीं करता है वह नरक - निगोद में उत्पन्न नहीं होता है ।
अथवा - अतिकुटिल जो प्राणातिपात आदि कर्म हैं उनके द्वारा यह प्राणी चिरकाल तक नरक में निवास करता है और मन्द क्रूर कम के द्वारा वहां चिरकाल तक नहीं, किन्तु कुछ काल तक ही श्रेणिक राजा की तरह रहता है || सू० ६ ॥
જેના પરિણામ ધારતર છે એવા વધુ ખ ધનાદિક જે જે ક્રૂર કર્મ છેતેમાં પ્રવૃત્તિ કરવાવાળા પ્રાણી મરીને નરકમા ઉત્પન્ન થાય છે, અને ચિરકાળ સુધી અનેક સાગર પર્યન્ત ત્યાંના દુ.ખને લાગવવું, વૈતરણી નદીમાં તરવું, શાહ્નવી-સેમર તતના વૃક્ષોના તલવારની ધાર જેવા પાદડાઓના પડવાથી દેહનું ચીરાઈ જવું આદિ જે ભયંકર દુ.ખા છે તેને લેગવતાં ભાગવતાં ત્યા જ પેાતાના ભુખ્ત્યમાન આયુષ્યને વ્યતીત કરે છે, જે આવા કુર કર્મોનું સેવન કરવામાં પ્રવૃત્તિ કરતા નથી તે નરક-નિગેત્રમાં ઉત્પન્ન થતા નથી
૨.થવા~~~તિકુટિલ જે પ્રાતિપાત આદિ કર્મો છે તેએ દ્વારા આવા માાં ચિરકાળ સુધી નરકમા નિવાસ કરે છે, અને મંદ કોં દ્વારા ત્યા ચિરકાળ સુધી નિહ પણુ કાંઇક ઓછા સમય સુધી કેણિક રાન્તની માફ્ક રહે છે, “સૂ૦૬૫
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ. २
६२५. दिति भावः । तत्परिचये सति किं भवतीत्याह-'अधऔपपातिकान्' इत्यादि। भोगेच्छापरतन्त्रतयेन्द्रियानुकूलाऽऽचरणेन नरकादिस्थानं संप्राप्ताः, अधऔपपातिकान् नरकादिसम्बन्धिनः, स्पर्शान-दुःखानि प्रतिसंवेदयन्ति अनुभवन्ति ॥५॥
ननु भोगेच्छाविवशाः सर्वेऽपि अधऔपपातिकान् स्पर्शान् प्रतिसंवेदयन्ति, किं वा तेषु कश्चिदेवेति जिज्ञासायामाह-'चिट्ठ कूरेहिं' इत्यादि ।
मूलम्-चिट्ठ कूरेहि कम्महि चिट्ठ परिचिट्ठइ । अचिट्ठ कूरेहिं कम्मेहि नो चिट्ठ परिचिट्ठइ ॥ सू० ६॥ ___ छाया-तिष्ठन् क्रूरेषु कर्मसु भृशं परितिष्ठति । अतिष्ठन् रेषु कर्मसु नो भृशं परितिष्ठति। __ यद्वा-भृशं क्रूरैः कर्मभिः भृशं परितिष्ठति । अभृशं क्रूरैः कर्मभिः नो भृशं परितिष्ठति ॥ मू० ६॥
जो कर्मबन्ध के कारण मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय के सेवन करने में ही रातदिन संलग्न रहते हैं, एवं विषयमोगों की इच्छा के आधीन होने से धार्मिक आचारविचार से शन्य हैं, इन्द्रियों के अनुकूल आचरण करने में ही जो लगे हैं वै मृत्यु के पास बनकर नरकादियोनियों में-कि जहां पर छेदन, भेदन, बन्धनादि अपार कष्ट हैं-बार बार उत्पन्न होते हैं और वहां के उन अनन्त कष्टों को भोगते रहते हैं।०५॥
क्या विषयभोगोंकी इच्छा के पराधीन बने हुए समस्त ही प्राणी नरकादियोनियों के कष्टों को भोगते हैं या उनमें से कोई २ ? इस प्रकार के प्रश्नका उत्तर कहते हैं-'चिठें कूरेहिं ' इत्यादि ।
જે મનુષ્ય કર્મબંધના કારણ મિથ્યાત્વ અવિરતિ પ્રમાદ અને કપાયના સેવન કરવામાં રાત-દિન રચ્યા-પચ્ચે રહે છે, અને વિષયભોગેની ઈચ્છાને આધીન હોવાથી ધાર્મિક આચાર વિચારથી શૂન્ય છે, ઈન્દ્રિયોના અનુકુળ આચરણ કરવામાં જ જે લાગેલ છે, તે મૃત્યુને પ્રાસ બનીને નરકાદિ નિયામાં કે જે ઠેકાણે છેદન-ભેદન બંધનાદિ અપાર દુઃખે છે, ત્યાં વારંવાર ઉત્પન્ન થાય છે અને ત્યાના તે અનન્ત દુખોને ભગવતો રહે છે. સૂત્ર ૫
શું વિષયગોની ઇચ્છાને પરાધીન બનેલા સમસ્ત પ્રાણી નરકાદિ નિયામાં દુખોને ભોગવે છે કે તેમાથી કઈ કઈ ભોગવે છે? આ પ્રકારના પ્રશ્નના જવાબમાં
थे-चिट्ठं कूरेहिं त्याहि.
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आचारातसूत्रे
श्रुतकेवलिनोऽपि तदेव वदन्ति । दिव्यज्ञानवन्तः केवलिनः, चतुर्दशपूर्वधराः श्रुतकेवलिनश्चेत्युभये यथार्थवादित्वादेकमेवार्थं वदन्ति, न तु विरुद्धमिति भावः ॥७॥ एवं वक्ष्यमाणेऽप्यर्थे तेपामेकवाक्यताऽस्तीत्याह-' आवंती ' इत्यादि ।
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मूलम् - आवंती केयावंती लोयंसि समणा य माहणा य पुढो विवायं वयंति - " से दिडं चणे, सुयं चणे, मयं चणे, विष्णायं चणे, उड्ढं अहं तिरियं दिसासु सव्वओ सुपडिलेहियं च णेसव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता हतव्वा अजावेया परिघेतवा परियावेयवा उद्दवेयवा, इत्थवि जाणह, नत्थित्थ दोषो, " - अणारियवयणमेयं ॥ सू० ८॥
((
छाया -- यावन्तः कियन्तो लोके श्रमणाच ब्राह्मणाच पृथग विवादं वदन्तितत् दृष्टं च नः श्रुतं च नः, नतं च नः, विज्ञातं च नः, ऊर्ध्वमधस्तिर्यग् दिशामु सर्वत्र सुप्रतिलेखितं च नः सर्वे प्राणाः सर्वे भूताः सर्वे जीवाः सर्वे सत्त्वाः हन्तव्याः आज्ञापयितव्याः परिग्रहीतव्याः परितापयितव्याः अपद्रावयितव्याः, अत्रापि जानीत, नास्त्यत्र दोषः " अनार्यवचनमेतत् ॥ सु० ८ ॥
3
टीका — लोके - मनुष्यलोके यावन्तः कियन्तः बहव इत्यर्थः श्रमणाः दण्डि शाक्यादयः, ब्राह्मणाः=औ देशिक भोजिनः पृथक् = अन्यप्रकारेण विवादं = धर्मविरुद्धवचनं वदन्ति । तद्विवादस्वरूपं दर्शयितुमाह - तद् दृष्टस्' इत्यारभ्य यावत् स्वरूप के प्रतिपादन करने में जरा भी भिन्नता नहीं है । केवली और श्रुतकेवल यथार्थवक्ता होनेसे एक ही अर्थका प्रतिपादन करते हैं, विरुद्ध अर्थका नहीं || सृ० ७ ॥
इसी प्रकार आगे कहे जानेवाले अर्थ में भी एकवाक्यता होती है; वह दिखलाते हैं- " आवंती यावंती ' इत्यादि ।
इस लोक में जितने भी श्रमण और ब्राह्मण हैं वे सब धर्मके विरुद्ध पृथक् २ रूपसे प्ररूपणा करते हैं और कहते हैं कि - "जो कुछ भी हमारी
તેને જાણવામા ખનેના જ્ઞાનના જગ પણ ભિન્નતા નથી કેવળી અને શ્રુતકેવળી યથાર્થ વક્તા ડોવાથી એક જ અર્થનો પ્રતિપાદન કરે છે, વિરૂદ્ધ અર્થના નહિ. રાસૂ॰ા
આ જ પ્રકારે આગળ કહેવામા આવનારા અમાં પણ એકવાકયતા થાય छे, ते तावे' आवंती केयावंती' इत्यादि
આ લોકમા જેટલા પણ શ્રમવુ એટલેનડી શકયાદિક અને બ્રાહ્મણ એટલે ઓશિક અહાર લેવાવાળા છે તે બધા, ધર્મની વિરૂદ્ધ જુદા જુદા રૂપે પ્રરૂપણા
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सम्यक्त्व-अध्य०४ उ. २
६२७ एवं को वदति, यस्य वचनेऽस्माकं श्रद्धा समुत्पद्येत ? इति जिज्ञासायामाह'एगे वयंति' इत्यादि। ___मूलम्-एगे वयंति अदुवावि नाणी,नाणी वयंति अदुवावि एगे ॥ सू० ७॥
छाया-एके वदन्ति अथवाऽपि ज्ञानिनः । ज्ञानिनो वदन्ति अथवाऽपि एके ॥७॥
टीका-एके चतुर्दशपूर्वधराः श्रुतकेवलिनो यद् वदन्ति, अथवा ज्ञानिनः निरावरणज्ञानवन्तः सर्वज्ञा अपि तदेव वदन्ति । उक्तार्थमेव परावयं कथयति-'ज्ञानिनः' इत्यादि । ज्ञानिनः निरावरणज्ञानवन्तः केवलिनो यद् वदन्ति, अथवा-एकेऽपि=
श्री जम्बूस्वामी श्रीसुधर्मास्वामी से पूछते हैं कि हे भदन्त ! ऐसी प्ररूपणा कौन करते हैं कि जिनके वचनों में हम श्रद्धा करें ? श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं-' एगे वयंति' इत्यादि ।
इस प्रकारका प्रतिपादन चतुर्दश पूर्व के पाठी श्रुतकेवली श्रीगणधरादिक देव करते हैं, और यही बात निरावरणज्ञानशाली श्री सर्वज्ञ भगवान भी कहते हैं। दोनों का इस विषयमें एक मत है। इस विषय की आचार्य महाराज फिर पुष्टि करते हैं कि-जिस अर्थका प्रतिपादन केवली करते हैं उसीका प्रतिपादन श्रुतकेवली महाराज करते हैं। कारण कि केवली और श्रुतकेवली के कथनमें रंचमात्र भी फरक नहीं होता है। केवली भगवान केवलज्ञानविशिष्ट होते हैं, और श्रुतकेवली चौदह पूर्व के पाठी होते हैं; अतः ये दोनों यथार्थवक्ता हैं। यद्यपि केवली और श्रुतकेवली के ज्ञानमें प्रत्यक्ष और परोक्ष के रूपसे भिन्नता है; परन्तु वस्तु
શ્રી જખ્ખસ્વામી શ્રી સુધર્માસ્વામીને પૂછે છે કે – હે ભદન્ત ! આવી પ્રરૂપણ કોણ કરે છે જે તેનાં વચનામાં અમે શ્રદ્ધા કરીએ ? શ્રી સુધર્માસ્વામી કહે છે– ----' एगे वयंति' इत्यादि.
આ પ્રકારનું પ્રતિપાદન ચતુર્દશ પૂર્વના પાઠી, શ્રુતકેવળી, શ્રીગgધરાદિક દેવ કરે છે, અને આ વાત નિરાવરણજ્ઞાનશાળી શ્રી સર્વજ્ઞ ભગવાન પણ કહે છે. આ વિષયમાં બનેના એક મત છે. આ વિષયની આચાર્ય મહારાજ ફરીથી પુષ્ટિ કરે છે કે જે અર્ધનું પ્રતિપાદન કેવળી કરે છે તેજ અર્થનું પ્રતિવાદન શ્રુતકેવળી મહારાજ કરે છે, કારણ કે કેવળી અને કેવળીના વચનોમાં જરા પણ ફરક પડતો નથી. કેવળી ભગવાન કેવળજ્ઞાન-વિશિષ્ટ છે અને કુતકેવળી ચૌદ પૂર્વના પાડી છે, માટે આ બન્ને યધાર્યવક્તા છેજો કે કેવળી અને ભૂતકેવળીના જ્ઞાનમાં પ્રત્યક્ષ અને પરેશ રૂપથી ભિન્નતા છે પરંતુ વસ્તુ સ્વરૂપના પ્રતિપાદન કરવામાં અગર
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आधाराङ्गसूत्र
जो कुछ भी प्रतिपादन किया है वह निर्दोष एवं परस्परविरुद्धार्थता से रहित है । अल्पज्ञों के वचनों में यह बात नहीं पाई जाती, उनके वचन सदोष और परस्परविरुद्धार्थप्ररूपक हुआ करते है। यही बात इस सूत्र में भाष्यरूपसे प्रकट का गई है।
दुनिया में जितने भी ब्राह्मण या श्रमण, दण्डी, बुद्धमतानुयायी आदि हे वे सब धर्मतत्व के यथार्थ स्वरूपसे अनभिज्ञ हैं। उनकी मान्यता परस्परविरुद्धार्थप्ररूपक है। हिंसादिक पापों के सेवन करनेमें इनकी मान्यतानुसार कोई दोष नहीं है।
वे ऐसे ही इन अकृत्यों की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि-जो कुछ हमारे यहां कहा गया है वह कपोलकल्पित-असत्य नहीं है। किंतु हमने अपने दिव्यज्ञानसे इसका साक्षात्कार किया है। अथवा-हमारे आचायो ने अपने दिव्यज्ञानसे इसका साक्षात्कार किया है। हमने यह अपने आचार्यादिकों से सुना है । युक्तियुक्त होनेसे हमें या हमारे आचार्योंके लिये यह मान्य है। पदार्थो का भेद पर्यायों द्वारा विश्लेषण करने से हमने
और हमारे आचार्यों ने यह भेद अच्छी तरह जान भी लिया है। प्रत्येक दिशामें हमने तथा हमारे आचार्यों ने प्रत्यक्षादि प्रमाणों से इसका भलीप्रकार शान्तचित्त होकर निर्णय भी कर लिया है कि-समस्त प्राणी, समस्त છે તે નિર્દોષ અને પરસ્પર વિરૂદ્ધતાથી રહિત છે અલ્પજ્ઞોના વચનોમાં આ વાત દેખવામાં આવતી નથી તેના વચન સદેપ અને પરસ્પર વિરૂદ્ધાર્થ પ્રરૂપક થયા કરે છે. આ વાત આ સૂત્રમાં ભાવ્યરૂપથી પ્રગટ કરેલ છે
સસારમાં જેટલા શ્રમણ, દડી બુદ્ધિમતાનુયાયી આદિ છે અને બ્રાહ્મણ-દેશિક આહારના લેવાવાળા છે ધર્મતત્વના યથાર્થ સ્વરૂપથી અનભિજ્ઞ છે, તેમની માન્યતા પરસ્પરવિરૂદ્ધાર્થ પ્રરૂપક છે, હિંસાદિક પાપનુ સેવન કરવામાં તેમની માન્યતા મુજબ કઈ દોષ નથી તે આવા કૃત્યની પુષ્ટિ કરતા કહે છે કે-જે કઈ અમોને કહેવામાં આવ્યું છે તે કપોળકલ્પિત–અસત્ય નથી, પણ અમે પોતાના દિવ્યજ્ઞાનથી એને સાક્ષાત્કાર કરેલ છે. અથવા–અમારા આચાર્યોએ પિતાના દિવ્ય જ્ઞાનથી અને સાક્ષાત્કાર કરેલ છે. અમોએ આ અમારા આચાર્યાદિકોથી સાભળ્યું છે. ચનિયત હોવાથી અને તેમજ અમારા આચાર્યોને માટે માન્ય છે, પદાર્થોના ભેદ વર્યા દ્વારા પૃથક્કરણ કરવાથી અમે અને અમારા આચાર્યોએ આ ભેદો સારી રીતે જાણી લીધેલ છેપ્રત્યેક દિશામાં અમે તથા અમારા આચાર્યોએ પ્રત્યક્ષાદિ પ્રમોથી તેને સારી રીતે શાતચિત્તે નિર્ણય પણ કર્યો છે કે–સમસ્ત પ્રાણી,
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सम्यक्त्व-अध्य० ४ उ.२ 'नास्त्यत्र दोपः इति । तद् दृष्टं च नः' इति, यद्वयं वक्ष्याभरतदस्माकं दृष्टम्-दिव्यज्ञानेन प्रत्यक्षीकृतम् । 'नः' इति कर्तुः सम्वन्धसामान्यविवक्षायां षष्ठी । यद्वा -अस्माकमाचाप्टम् । श्रुतं च नः अस्माकं श्रुतं च आचार्यादिभ्यः । मतं च ना=युक्तियुक्तत्वादस्माकम् अस्मदाचार्याणां वा अभिमतम् । विज्ञातं च ना=पदार्थानां भेदपयां यैरस्माकम् , अस्मदाचार्याणां वा विज्ञातम् । एतच्च-ऊर्ध्वम् , अधः, तिर्यक्षु दिशासु-दशसु दिक्षु इत्यर्थः; सर्वतः प्रत्यक्षादिभिः सर्वैः प्रमाणैः सर्वप्रकारेण वा सुपतिलेखितं च नः=मनःमणिधानादिनाऽस्माकमस्मदाचार्याणां वा सुष्टु पर्यालोचितं च । यद् दृष्टं श्रृंत मतं विज्ञातं सुप्रतिलेखित, तत्स्वरूपं प्रदर्शयति-" सर्वे प्राणाः" इत्यादि । सर्वे प्राणाः सर्वे भूताः सर्वे जीवाः सर्वे सत्त्वा हन्तव्याः, आज्ञापयितव्याः, परिग्रहीतव्याः, परितापयितव्याः, अपद्रावयितव्याः, एतद् वाक्यं प्राग्मान्यता है वह हमारी देखी हुई है, हमारी सुनी हुई है, हमारी मानी हुई है और हमारी जानी हुई है, तथा अर्ध्व (उंची) अधः (नीची) और तिर्यग् (तिरछी), इन समस्त दिशाओं में हमने अथवा हमारे आचायौने अच्छी तरह से इसका पर्यालोचन भी किया है कि समस्त प्राणी, समस्त भूत, समस्त जीव, और समस्त सत्त्व मारने योग्य हैं, मारनेके लिए आज्ञा देने के योग्य हैं, मारनेके लिए ग्रहण करनेके योग्य हैं, परितापित करनेके योग्य हैं और विष-शस्त्रादिक के द्वारा वध करने योग्य हैं । यह हमारा अभिमत निर्दोष है।" ये सब अनार्यों के वचन हैं, आयों के नहीं।
स्पष्टार्थ-परस्परविरुद्धार्थ का कथन अल्पज्ञता के होने पर ही होता है । केवली और श्रुतकेवली पदार्थों के जानकार होते हैं; अतः उन्होंने કરે છે અને કહે છે–“જે કાંઈ અમારી માન્યતા છે તે અમારી દેખેલી છે, અમારી સાંભળેલી છે, અમારી માનેલી છે અને અમારી જાણેલી છે तथा 4-(श्री) अधः (नीची) अन तियन (तिरछी) 2 सभरत દિશાઓમાં અમે તથા અમારા આચાર્યોએ ઘણી સારી રીતે તેનું પર્યાલચન કર્યું છે કે સમસ્ત પ્રાણી, સમસ્ત ભૂત, સમસ્ત જીવ, અને સમસ્ત સત્વ મારવા યોગ્ય છે, મારવા માટે આજ્ઞા આપવા યોગ્ય છે, મારવા માટે પ્રહણ કરવા ચાગ્ય છે, પરિતાપિત કરવા ગ્ય છે, અને વિષ શસ્ત્રાદિક દ્વારા વધ કરવા યોગ્ય છે, આ અમારા અભિપ્રાય નિર્દોષ છે. આ બધા અનાર્યોના વચન છે. આર્યોના નથી.
સ્પષ્ટાર્થ–પરસ્પર વિરૂદ્ધાર્થનું કથન અપગ્રતા હોવાથી થાય છે, કેવળી અને કનકેવળી પદાર્થોના જાણકાર છે, માટે તેમણે જે કોઈ પ્રતિપાદન કર્યું
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६३२
आचाराङ्गसूत्रे ये तु आस्तेि किं वदन्तीति शिष्यजिज्ञासायामाह-'तत्थ जे' इत्यादि ।
मूलम्-तत्थ जे आरिथा ते एवं वयासी-“से दुद्दिढं चभे, दुस्सुयं च भे, दुम्मयं च भे, दुबिण्णायं च भे, उड्ढं अहं तिरियं दिसासु सबओ दुप्पडिलेहियं च भे; जंणं तुब्भे एवं आइक्खह, एवं भासह, एवं परूवेह; एवं पण्णवेह-सवे पाणा ४,हंतवा ५, इत्थ वि जाणह नस्थित्थ दोसो" अणारियवयणमेयं ॥ सू० ९॥ __ छाया-तत्र ये आर्यास्त एवमवादिषुः-तद् दुर्दृष्टं च वः, दुःश्रुतं च वः, दुर्मतं च वः, दुर्विज्ञातं च वः, ऊर्ध्वम् अधः तिर्यग दिशासु सर्वतः दुष्पतिलेखितं च वः, यत् खलु यूयमेवम् आख्याथ, एवं भापध्वे, एवं प्ररूपयथ, एवं प्रज्ञापयथ-सर्वे प्राणाः ४ हन्तव्याः ५। अत्रापि जानीत, नास्त्यत्र दोषः।" अनार्यवचनमेतत् ॥ म० ९॥
टीका--ये देशतो भाषातश्चारित्रतश्चार्यास्ते, तत्र-उक्तविषये, एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादिषुः उक्तवन्तः-तद् दुर्दृष्टं च वः' इत्यादि । युष्माभिर्यदुक्तं-'तद् दृष्टं च नः' इति, तद् वः युष्माकं युष्मदाचार्याणां वा दृष्टं दुर्दृष्टम् रीत की अनार्यसंज्ञा है । ये क्रूरकर्मी होते हैं। यह प्राणियों के पीडाकारक समस्त पूर्वोक्त कथन इन्हीं अनार्यों का प्रतिपादित किया हुआ है।८।
यदि यह पूर्वोक्त समस्त धर्मविरुद्ध कथन अनार्यों का है तो फिर आर्यों की मान्यता कैसी है ? इस प्रकार शिष्यकी जिज्ञासा का समाधान किया जाता है-'तत्थ जे आरिया' इत्यादि। _इस पूर्वोक्त कथनमें आर्यों की इस प्रकार की प्रत्युत्तररूप मान्यता है, अर्थात्-देश से, भाषा से और चारित्र से जो आर्य हैं उनका इस प्रकार का कथन है कि-आपने व आपके आचार्यों ने जो देखा है, जो અનાર્ય સંજ્ઞા છે. તે કુકર્મ હોય છે. પ્રાણીઓને માટે પીડાકારક આ સમસ્ત પૂત કથન આ અનાર્યોના જ પ્રતિપાદિત કરેલા છે સુર ૮ છે
આ પૂર્વોક્ત સમસ્ત ધર્મવિરૂદ્ધ કથન અનાર્યોના છે તે પછી આર્યોની मान्यता दी छे ? ॥ ५२नी शिष्यनी अनु समाधान -'तत्य जे आरिया' त्यादि.
આ પૂર્વોક્ત કથનમાં આર્યોની આ પ્રકારની પ્રત્યુત્તરરૂપ માન્યતા છે, ધો-દેશથી લાવાથી અને ચારિત્રથી જે આર્ય છે તેનું આ પ્રકારનું કથન છે ક-તમે તમારા આચાર્યોએ જે દેખ્યું છે, સાભળ્યું છે, માન્ય છે અને જે
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ. २ व्याख्यातम् । अत्र धर्मविषये-मन्दिरनिर्माणप्रतिमाप्रतिष्ठादौ, अपिशब्दादौदेशिके, तथा-विहारादौ श्रावकं सार्थीकृत्य स्वसेवाद्यर्थमनुज्ञाप्य तत्कृताऽऽहारादिग्रहणे च जानीत, अत्र अस्मिन्नुक्तविपये नास्ति दोषः नास्ति पापानुवन्ध इति । अनार्यवचनमेतदिति । आराद् याताः सर्वसावधव्यापारेभ्यो दूरं गता इति-आर्याः, तद्विपरीता अनार्या:-क्रूरकर्माणः, तेषां प्राण्युपमर्दकं वचनमेतत् ।। मू० ८ ॥ भूत, समस्त जीव और समस्त सत्त्व मारने योग्य है, मारनेकी आज्ञा देने योग्य हैं, मारने के लिये ग्रहण करने योग्य हैं, परितापित करनेयोग्य हैं और विषशस्त्रादिकों के द्वारा वध करनेयोग्य हैं । प्राणी सत्त्व आदि शब्दों का व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ पहिले प्रकट किया जा चुका है।
इसी प्रकार जिनप्रतिपादित धर्म में भी मंदिरादिक के निर्माण करने की एवं जिनतिला बनवा कर उसकी प्रतिष्ठा करने की जो प्रथा चालू है वह पद्धति भी सदोष है, उपादेय नहीं है । तथा साधुओ में औदेशिक आहार ग्रहण करने की एवं विहारादिक करते समय अपनी सेवा करवाने के बहाने से श्रावकों को साथ लेकर उनके द्वारा तैयार किये आ. हारादिक लेनेकी एक प्रकार की जो प्रथा सी चल पड़ी है, और उसमें जो दोप-पापानुबंध नहीं मानते हैं, प्रत्युत इसका किसी दूसरे रूपसे समर्थन करते हैं; यह सब पूर्वोक्त कथन अनार्यो का ही समझना चाहिये।
सापद्य व्यापार से जो दूर रहते हैं उनकी आर्यसंज्ञा और विपસમસ્ત ભૂત, સમસ્ત જીવ, અને સમસ્ત સત્ત્વ મારવા યોગ્ય છે, મારવાની આજ્ઞા દેવા ગ્ય છે, મારવા માટે ગ્રહણ કરવા યોગ્ય છે, પરિતાપિત કરવા છે, અને વિષશયાદિક દ્વારા વધ કરવા યોગ્ય છે. પ્રાણી સત્ત્વ આદિ શબ્દોને વ્યુત્પત્તિસિદ્ધ અર્થ પહેલાં જ પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે.
આ પ્રકારે જીનપ્રતિપાદિત ધર્મમાં પણ મંદિરાદિક નિર્માણ કરવાનું, તેમજ જિનપ્રતિમા બનાવી તેની પ્રતિષ્ઠા કરવાની જે પ્રથા ચાલુ છે તે પદ્ધતિ પણ સદોષ છે, ઉપાદેય નથી. તથા સાધુઓમાં શિક આહાર લેવાની તેમજ વિહારાદિક કરતી વખતે પોતાની સેવા કરવાના બહાને શ્રાવકને સાથે લઈને તેના દ્વારા તૈયાર કરેલા આહાર પાણી લેવાની એક પ્રકારની જે પ્રથા ચાલુ થઈ છે, અને તેમાં જે દેશ–પાપાનુબંધ નથી માનતા, અને દરેક તે બાબતને બીજરૂપથી સમર્થન કરે છે તે બધા પૂર્વોક્ત કથન અનાર્યોને જ સમજવા જોઈએ.
સાવદ્ય વ્યાપારથી જે દૂર રહે છે તેની આર્ય સંજ્ઞા, અને તેનાથી વિપરીતની
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६३४
आवारागसूत्रे ___ एवं केवलिनो दण्डिशाक्यादीनां वादे हिंसादिदोपसद्भावाद्धर्मविरोध प्रदर्श्य स्वमतं प्रतिबोधयितुं वदन्ति-वयं पुण' इत्यादि। __मूलम्-वयं पुण एवमाइक्खामो, एवं भासामो, एवं पन्नवेमो, एवं परूवेमो-सवे पाणा, सो भूया, सवे जीवा, सवे सत्ता ण हतवा, ण अज्जावेयवा,ण परिघेतवा, णपरियावेयवा, ण उद्दवेयहा। एत्थवि जाणह, णत्थित्थ दोसो।आरियवयणमेयं॥सू० १०॥ स्त्रादिकों के द्वारा वध करने योग्य है, इसमें कोई दोष नहीं है।' यह जो आपका कथन है, आपका भाषण है, आपकी प्रज्ञापना है, आपकी प्ररूपणा है, तथा इसे जो आपने निर्दोष प्रकट किया है; वे सब अनार्यों के ही वचन है और सदोष हैं, कारण कि आपके व आपके आचार्यों के इन वचनों में प्रवृत्ति करनेवाला प्राणी केवल पापका ही उपाजैन करनेवाला होता है, धर्मका नहीं, अतः अनार्यवचन होने से ये त्याज्य ही हैं। इस पूर्वोक्त कथन का तात्पर्य यही है कि यह सब कथन धर्मविरुद्ध होनेसे जीवों में असदाचार की प्रवृत्ति का कारण होने से सदोष एवं पापानुबन्ध का हेतु है, अतः अनार्य वचन होने से यह सर्वथा निन्दनीय एवं गर्हणीय है ॥ सू० ९॥
केवली भगवान इस प्रकार दण्डी शाक्यादिकों के कथन में हिंसादिक दोषों का सद्भाव होनेसे धर्मविरुद्धता प्रदर्शित कर अपना सिद्धान्त प्रकट करने के लिये कहते हैं-'वयं पुण' इत्यादि। આજ્ઞા દેવા યોગ્ય છે, મારવાને ગ્રહણ કરવા યોગ્ય છે, પરિતાપિત કરવા ગ્ય છે, અને વિપશસ્ત્રાદિકો દ્વારા વધ કરવા યોગ્ય છે, આમાં કોઈ પણ દેશ નથી” આ પ્રકારે જે તમારૂં કથન છે, તમારું ભાષણ છે, તમારી પ્રજ્ઞાપના છે, તમારી પ્રરૂપણું છે, તથા એને જે તમોએ નિર્દોષ પ્રગટ કરેલ છે તે બધા અનાર્યોના જ વચને છે અને સદોષ છે, કારણ કે તમારા તેમજ તમારા આચાર્યોના આ વચનોમાં પ્રવૃત્તિ કરવાવાળા પ્રાણુ કેવળ પાપના જ ઉપાર્જન કરવાવાળા બને છે, ધર્મના નહીં, માટે અનાર્યવચન હોવાથી તે તજવા યોગ્ય છે. આ પ્રત કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે આ બધા કથન ધર્મ–વિરૂદ્ધ હોવાથી એને અમદાચારની પ્રવૃત્તિનું કારણ હોવાથી મદોષ અને પાપાનુબ ધને હેતુ છે, માટે અનાર્યવચન હોવાથી તે સર્વથા નિન્દનીય તેમજ ગહણીય છે લા
કેવળી ભગવાન આ પ્રકારે દંડી શાયાદિકના કથનમા હિંસાદિક દેને ભાવ હોવાથી ધર્મ–વિરૂદ્ધતા પ્રદર્શિત કરી પિતાને સિદ્ધાંત પ્રગટ કરવાને माटे छे-'वयं पुण' याह.
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सम्यक्त्व-अध्य. ४. उ. २
६३३ =दुष्टं दृष्टं न तु सम्यग् दृष्टमित्यर्थः । एवं यावत् " दुष्पनिलेखितं च व" इति स्वयमूहनीयम् । पुनरपि त एवार्याः प्रागुक्तश्रमणादिवचनं हिंसादिप्रवर्तकतया सदोपमिति बोधयितुं यदवादिपुस्तदाह-' यत् खलु यूयमेवम्' इत्यादि । एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण यूयं यद्वचनमाख्याथ, एवं यद् भापध्वे, एवं यत् प्रज्ञापयथ, एवं यत् प्ररूपयथ-सर्वे प्राणाः ४ हन्तव्याः ५ इत्यादि, यावत्नास्त्यत्र दोप इति, तदेतत् सर्वमनार्यवचनं हिंसादिप्रवर्तकतया पापानुवन्धि वचनं युष्मदाचार्याणां वेत्यर्थः ।। सू० ९ ॥ सुना है, जो माना है, और जो जाना है एवं प्रत्येक दिशामें जिसकी प्रत्यक्षादि प्रमाणों के द्वारा अच्छीतरह से छान-बीन की है; वह सर्वथा सदोष है-वह आपका व आपके आचार्यों का देखना, सुनना, मानना, एवं जानना और पर्यालोचना करना दोषोंसे रिक्त नहीं है, अतः आपने व आपके आचार्यों ने जो देग्वा है वह सुन्दर निर्दोष नहीं देखा, जो सुना है वह निर्दोष नहीं सुना, जो माना है वह निषि नहीं माना, जो जाना है वह निर्दोष नहीं जाना, एवं जो प्रत्यक्षादि प्रमाणों द्वारा प्रत्येक दिशामें पर्यालोचना की है वह भी निर्दोप नहीं की। यह सब उनका व आपका नाममात्रका ही देखना सुनना वगैरह हुआ है, कारण कि यह आपका पूर्वोक्त कथन जीवों की हिंसादिक पापों में प्रवृत्ति की जागृति करानेवाला है, अतः 'समस्त प्राणी, समस्त जीव, समस्त भूत
और समस्त सत्त्व मारने योग्य हैं, मारने की आज्ञा देनेयोग्य हैं, मारने के लिए ग्रहण करने योग्य हैं, परितापित करनेयोग्य हैं और विप-शજાણ્યું છે તેમજ પ્રત્યેક દિશામાં જેની પ્રત્યક્ષાદિ પ્રમાણે દ્વારા સારી રીતે શોધ કરી છે તે સર્વથા સદોષ છે. તે તમારૂં તેમજ તમારા આચાર્યોનું દેખવું, સાંભળવું, માનવું, તેમજ જણવુ અને પર્યાચના કરવી તે દેપોથી મુક્ત નથી, માટે તમોએ તેમજ તમારા આચાર્યોએ જે દેખ્યું છે તે સુદર–નિર્દોષ નથી દેખ્યું, જે સાંભળ્યું છે નિર્દોષ નથી સાભળ્યું, જે માન્યું તે નિર્દોષ નથી મળ્યું, તેમજ જે જણ્ય છે તે નિર્દોષ નથી જાણ્યું, અને જે પ્રત્યક્ષાદિપ્રમાણે દ્વારા પ્રત્યેક દિશામાં પર્યાચના કરી છે તે પણ નિર્દોષ નથી કરી, આ બધુ તેઓનું તેમજ તમારૂં નામમાત્રનું દેખવું સાભળવુ વિગેરે થયું છે, કારણ કે તમારું પૂર્વોક્ત કધન જીવોની હિંસાદિક પાપિમાં પ્રવૃત્તિ જાગ્રત કરવાવાળું છે, માટે “સમસ્ત પ્રાણી, સમસ્ત ભૂત, સમસ્ત જીવ, અને સમસ્ત સત્વ મારવા ગ્યા છે, મારવાની
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आचाराङ्गसूत्रे दोपो नास्ति; हिसादिप्रवर्तकवाभावादिति भावः । एतच्च आर्यवचनम् देशतो भापातश्चारित्रतश्च ये आयर्यास्तेषां वाक्यं, तस्मानास्त्यत्र दोप इत्यर्थः ।। मू० १०॥
दण्डिशाक्यादीनां पापण्डिनां धर्मविरुद्धवादप्रशमनाय केवलिनो यद् वदन्ति तदाह-'पुव्वं निकाय ' इत्यादि ।
मूलम्-पुवं निकाय समयं पत्तेयं पत्तेयं पुच्छिस्सामो, हं भो पवाउया ! किं भे सायं दुक्खं असायं? समिया पडिवण्णे यावि एवं वूया-सवेसि पाणाणं सवेसि भूयाणं सोसि जीवाणं सवेसिं सत्ताणं असायं अपरिनिवाणं महब्भयं दुक्खं-तिबेमि ॥सू०११॥ . छाया---पूर्व निकाय्य समयं प्रत्येकं प्रत्येकं प्रक्ष्यामः, हं भोः प्रावादुकाः ! किं युप्माकं सातं दुःश्वम् असातम् ? सम्यकप्रतिपन्नांश्च अग्येवं ब्रूयातू–सर्वेषां प्राणानां सर्वेषां भूतानां सर्वेषां जीवानां सर्वेषां सत्त्वानां असातम् अपरिनिर्वाणं महाभयं दुःखम्-इति ब्रवीमि ॥ मू० ११ ॥ ___टीका-भोः प्रावादुकाः ! वयं पूर्वम् आदौ, समयम्-आगमम् आगमोक्तमर्थ, निकाय्य व्यवस्थाप्य, युष्मान् प्रत्येकं प्रत्येकं पक्ष्यामः, दुःखं युष्माकं किं सातं मनोऽनुकूलं, किं वा असातम्-मनःप्रतिकूलम् ? देशसे, भाषासे और चारित्रसे जो आर्य हैं उनका कथन है, इसी कारण यह निर्दाप है। आर्य देशमें जो उत्पन्न हुए है वे देशसे आर्य, आर्याकी भाषा जो बोलते हैं वे भाषासे आर्य और चारित्र का जो आराधन करते हैं वे चारित्रसे आर्य कहलाते हैं ॥ म्ह० १०॥ ___दण्डीशाक्यादिक पाखण्डियों के धर्मविरुद्ध कथनको शान्त करने के लिये केवलियों का जो कथन है वह कहा जाता है-'पुव्वं निकाय'इत्यादि।
हे वादियों ! हम सबसे प्रथम आगमोक्त-अर्थतत्त्वकी व्यवस्था कर के आप लोगों में से प्रत्येक को यह पूछते हैं कि आप दुःख किसे मानते લ્યો. દેશથી, ભાષાથી અને ચારિત્રથી જે આર્ય છે તેનું આ જ કથન છે, આ માટે જ આ નિર્દોષ છે આર્ય દેશમાં જે ઉત્પન્ન થયા છે તે દેશથી આર્ય, આર્યોની ભાષા બોલે છે માટે ભાષાથી આર્ય અને ચારિત્રનું જે આરાધના કરે છે તે થિી આર્ય કહેવાય છે. સૂ૦ ૧૦ |
દંડીશાકયાદિક પાખડિયોના ધર્મવિરૂદ્ધ કથનને શાંત કરવા માટે કેવयानुर थन छ तेहे थे-'पुव्वं निकाय' त्यादि
વાદવિવાદ કરવાવાળા અમે સૌથી પ્રથમ આગમત અર્થ-ત-ની વ્યવસ્થા કરીને તમારે તેમાથી દરેકને પૂછીએ છીએ કે તમે દુખ કેને માને છે ? જે
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सम्यक्त्व-अध्य० ४ उ. २
छाया---वयं पुनरेवमाख्यामः, एवं भाषामहे, एवं प्रज्ञापयामः, एवं प्ररूपयामःसर्वे पाणाः सवें भूताः, सर्वे जीवाः, सर्वे सत्त्वाः, न हन्तव्याः १, न आज्ञापयितव्याः२, न परिग्रहीतव्याः ३, न परितापयितव्याः ४, न अपद्रावयितव्याः ५ । अत्रापि जानीत, नास्त्यत्र दोषः । आयेवचनमेतत् ॥ मू० १०॥ ___टीका-वयं पुनरित्यादि । अत्र पुनः-शब्द उक्तश्रमणादिवैलक्षण्यद्योतनाय । यथा धर्मविरुद्धवादो न भवति, तथा वयम् एवं वक्ष्यमाणरीत्या आख्यामः, एवं भाषामहे, एवं प्रज्ञापयामः, एवं प्ररूपयामः-सर्वे प्राणाः ४ न हन्तव्याः ५ । एतानि पदानि माग व्याख्यातानि । अत्रापि-अत्रैव-अस्मिन् उक्तविपये-सर्वे प्राणाः ४ न हन्तव्याः ५, इत्यत्रैव जानीत यूयमवबुध्यध्वम् , अत्र-अस्मिन्-अस्मद्वाक्ये
इस सूत्रमें "पुनः" यह शब्द पूर्वोक्त श्रमणादिकों की मान्यतासे केवलियों की मान्यतामें भिन्नप्रकारता का द्योतन करनेवाला है, अर्थात् केवलियों का कथन इस प्रकारका नहीं है, किन्तु ऐसा है कि जिससे उसमें किसी भी प्रकार धर्मसे विरोध नहीं आ सकता है। उनका कहना है कि हम तो इस प्रकार का कथन करते हैं, भाषण करते हैं, प्रज्ञापना करते हैं, प्ररूपणा करते हैं कि-समस्त प्राणी, समस्त जीव, समस्त भूत और समस्त सत्व न मारने योग्य हैं, नमारनेकी आज्ञा देने योग्य हैं, न मारनेके लिए ग्रहण करने योग्य हैं, न परितापित करने योग्य हैं और न विषशस्त्रादिकों के द्वारा वध करने योग्य ही हैं । ( इन समस्त पदों का विवरण पहिले लिखा जा चुका है) यह हमारा कथन हिंसादिक पापों में जीवों की प्रवृत्ति करानेवाला नहीं होनेसे प्रमाणरूप निर्दोष है । यह आप अच्छी तरहसे समझ लें । यही
આ સૂત્રમાં “પુન” આ શબ્દ પૂર્વોક્ત શ્રમણદિકોની માન્યતાથી કેવળીયોની માન્યતામાં ભિન્ન-પ્રકારના પ્રકાશિત કરે છે. અર્થા-કેવળીઓનું કથન આ પ્રકારનું નથી પણ આમ છે જેનાથી કંઈ પણ પ્રકારે ધર્મથી વિરોધ આવી શકતે નથી. એમનું કહેવું છે કે-અમે તે આ પ્રકારનું કથન કરીએ છીએ, ભાષણ કરીએ છીએ, પ્રજ્ઞાપના કરીએ છીએ અને પ્રકપણે કરીએ છીએ કે સમસ્ત પ્રાણી, સમસ્ત ભૂત, સમસ્ત જીવ અને સમસ્ત સત્ત્વ મારવા યોગ્ય નથી, મારવાની આજ્ઞા દેવા એગ્ય નથી, મારવાને માટે ગ્રહણ કરવા યોગ્ય નથી, પરિતાપિત કરવા યોગ્ય નથી, તેમજ વિષ અને શસ્ત્રાદિકોથી વધ કરવાને યોગ્ય નથી. (આ સમસ્ત પદાર્થોનું વિવેચન પહેલાં કરવામાં આવ્યું છે) આ અમારું કથન હિસાદિક પાપમાં જીવોની પ્રવૃત્તિ કરવાવાળું નહિ હોવાથી પ્રમાણરૂપ નિર્દોષ છે. એ તમે સારી રીતે સમજી
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आचाराङ्गसूत्रे घोरमित्यर्थः । तथा - महाभयम् - निखिलप्राणिमाणोद्वेजकत्वान्महाभयरूपम् । इत्येवं ब्रूयात्='प्रत्येकं प्रत्येकं गणयिला, सर्वे प्राणिनो न हन्तव्या नाज्ञापयितव्या न परिग्रहीतव्या न परितापयितव्याः, नापद्रावयितव्याः, यतो हिंसादिकरणे दोपः प्रसज्येत' इत्येवं वचनं वदेदित्यर्थः । यस्तु हिंसादिकरणे दोषो नास्तीति वदति, तदनार्थवचनम् - इति प्रत्यक्षानुमानोपमा दिममाणैः सिद्धमिति भावः । इति ब्रवीमीति पूर्ववद् व्याख्याऽवगन्तव्या ॥ प्र०११ ॥
॥ चतुर्थाध्ययनस्य द्वितीय उद्देशः समाप्तः ॥ ४-२ ॥
पहुंचानेवाली होने से महाभयरूप प्रतीत होती है, अतः समस्त प्राणी, समस्त भूत, समस्त जीव और समस्त सत्त्व न मारने योग्य हैं, न मारने की आज्ञा देने योग्य है, न मारनेके लिए ग्रहण करनेयोग्य हैं न परितापित करने योग्य हैं और न वध करने योग्य हैं । अशाता देने से हिंसादिक दोषों का भागी होना पड़ता है । जो हिंसादिक पापों के करने में दोष नहीं मानते हैं वे अनार्य है और " हिंसादिक पापों के करने में दोप नहीं है " उनके ये वचन अनार्यवचन ही हैं। श्री सुधर्मास्वामी कहते है - हे जम्बू ! जैसा मैंने भगवान के समीप सुना है वैसा ही कहता हूँ ॥ ० १९ ॥
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॥ चौथे अध्ययनका दूसरा उद्देश समाप्त ॥ ४-२ ॥
તેમના પ્રાણાને દુઃખ પહેચાડવાવાળી હાવાથી મહાભયરૂપ પ્રતીત થાય છે, માટે સમસ્ત પ્રાણી, સમસ્ત ભૂત, સમસ્ત જીવ અને સમસ્ત સત્ત્વ નહિ મારવાયોગ્ય છે, નહિ મારવાની આજ્ઞા દેવા યોગ્ય છે, નહિ મારવાને ગ્રહણ કરવા યોગ્ય છે, નહિ પરિતાપિત કરવાને યોગ્ય છે, નહિ વધ કરવા ચેાગ્ય છે અશાતા દેવાથી હિંસાદિક દોષોનું ભાગી બનવુ પડે છે. જે હિંસાદિક પાપ્ત કરવામાં દોષ નથી માનતા તે અનાર્ય છે, અને હિંસાદિક પાપે કરવામા પ નથી” એમ જે તેનું વચન છે આ અનાર્ય વચન છે સુધર્માસ્વામી કહે છે—હે જમ્મૂ જેવુ' મે ભગવાન સમીપે સાલખ્યુ છે તેવુ કહુ છુ સૂ૦ ૧૧ ૫
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ચેાથા અધ્યયનના મીજો ઉદ્દેશ સમાસ ૫ ૪૨ u
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ २ __एवं पृष्टाः सन्तो यदि ते 'दुःखं सातम् ' इति ब्रूयुस्तदा तेषां प्रत्यक्षागमलोकविरोध आपद्येत, यदि तु दुःखमसातम् ' इति वदेयुस्तदा सम्यक्प्रतिपन्नान् यथार्थमथै ज्ञातवतः मावादुकान् स्वतः स्तम्भितवाक्प्रचारान् , अप्येवम्अपिशब्दः संभावनाथद्योतका; एवं संभाव्यते-दुःखं भवतामेव नासातरूपं, किंतु सर्वेषामपि प्राणिनां सर्वेषामपि भूतानां सर्वेषामपि जीवानां सर्वेषामपि सत्त्वानां दुःखम्-असातं मनःप्रतिकूलम्-अप्रियमित्यर्थः । तथा-अपरिनिर्वाणम् अशान्तं है ? जो शाता-मनके अनुकूल है वह दुःख है ? या जो अशाता-मनके प्रतिकूल है वह दुःख है ?
मनके अनुकूल शाताको यदि दुःख माना जावे तो इसमें प्रत्यक्ष तथा आगम प्रमाणसे और लोकसे भी विरोध आता है, कारण कि मन अपने अनुकूल पदार्थ के सेवनमें सुख मानता है, यह प्रत्यक्षसिद्ध बात है। आगममें भी 'मनोऽनुकूलं सुग्वं ' यह लिखा हुआ है, अर्थात मनोऽनुकूल पदार्थों की प्राप्ति शातावेदनीय कर्मके उदयसे ही जीवोंको प्राप्त होती है, ऐसा शास्त्रका वचन है । लोक भी मनोऽनुकूल पदार्थके सेवनमें सुख है-ऐसा ही कहते और मानते हैं।
मनके प्रतिकूल अशाता को यदि दुःख माना जावे तो जोयथार्थवक्तासमझदार प्रवादी हैं और जो इस विषय में केवल मौन हैं उनसे हम यही कहेंगे कि जिस प्रकार अशाता तुम्हें दुःखरूप प्रतीत होती है उसी तरहसे समस्त प्राणियों को, समस्त भूतों को, समस्त जीवों को और समस्त सत्त्वों को यह अशाता महाघोर और उनके प्राणों को कष्ट શાતા-મનને અનુકૂળ છે તે દુઃખ છે ? અગર જે અશાતા–મનને પ્રતિકૂળ છે તે हु.५ छ १
મનને અનુકૂળ–શાતાને કદાચ દુઃખ માનવામાં આવે તો તેમાં પ્રત્યક્ષ તથા આગમપ્રમાણથી અને લકથી પણું વિરેાધ આવે છે, કારણ કે મન પિતાના અનુકુળ પદાર્થના સેવનમાં સુખ માને છે એ પ્રત્યક્ષ-સિદ્ધ વાત છે. આગમમાં પણ 'मनोऽनुकूलं सुख ' म सर छ, अर्थात्-मनना मनु पानी प्राप्ति જીવને શાતા વેદનીય કર્મના ઉદયથી જ થાય છે, એવું શાસ્ત્રનું વચન છે, લોક પણ મનને અનુકૂલ પદાર્થના સેવનમાં સુખ છે એવું જ કહે છે તેમ જ માને છે. મનને પ્રતિકૂળ અશાતાને કદાચ દુખ માનવામાં આવે તે જે યથાર્થ વક્તા-સમજદાર પ્રવાદી છે અને જે આ વિષયમાં કેવળ મૌન છે તેને પણ અમે એ જ કહીશું કે
–જે પ્રકારે અશાતા તમોને દુઃખરૂપ પ્રતીત થાય છે તે માફક સમસ્ત પ્રાણિયો સમસ્ત ભૂત; સમસ્ત જીવો અને સમસ્ત સને આ અશાતા મહાઘેર અને
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भावाराङ्गसूत्रे
कस्य गुणमाह-' स सर्वलोके' इत्यादि । योऽनार्य मत्वा धर्मवहिष्क्रान्तलोकं नानुसरति, स सर्वलोके = समस्ते मनुष्यलोके, ये केचिद् विद्वांसस्ततोऽप्यधिको विज्ञः = विद्वानित्यर्थः ॥ मु० १ ॥
नहीं जानते है एवं हिंसादिक पाप कार्यों में जीवों को प्रवर्तित कराने के लिये मिथ्या उपदेश करते है, उनका अनुसरण नहीं करना चाहिये । जिस प्रकार घासके तृण के ऊपर समझदार जीवके हृदयमें न राग होता है और न द्वेष ही होता है: किन्तु सदा माध्यस्थ्यभाव रहता है । इसी प्रकार जो आन धर्म के विपरीत चलनेवाले है और उससे अपनी वृत्ति को विरुद्ध बनाये हुए है उनके प्रति भी भगवान् का यही आदेश है कि हे महानुभावों! तुम भी राग द्वेष न करके उनके प्रति उपेक्षाभाव ही रक्खो; कारण कि इस उपेक्षाभावसे आत्मामें शांति की मात्रा अधिक रूपमें जागृत होती रहती है । नवीन कर्मों का बंध, जो उसके प्रति रागद्वेष करने से उत्पन्न होता है वह रुक जाता है, अतः धर्मवहिर्भूत मनुष्यों को अनार्य समझ कर जो उनका अनुसरण नहीं करता है वह मनुष्य इस लोक में जितने भी विद्वान् है उन सबसे अधिक विज्ञ विद्वान् है। यहां पर जो उस व्यक्ति को समस्त विद्वानों से अधिक विद्वान् बनलाया गया है, वह तत्वों का सम्यक् प्रकारसे जाननेवाले होनेसे ही समझना चाहिये, कारण कि वह समकिती जीव अपने प्रयोजनभूत तत्त्वों से ही मतलब
હિંસાદિક પાપ કાર્યોમા જીવોની પ્રવૃત્તિ કરાવવામા મિથ્યા ઉપદેશ આપે છે તેનુ અનુમરણ નહિ કરવુ જેઈ એ. જેમ ઘાસના તણખલા ઉપર સમજદાર જીવના હૃદયના રાગ તેમજ દ્વેષ હોતો નથી પણ હમેશા મધ્યસ્થ ભાવ રહે છે, તે પ્રકારે જે આ ત ધ થી વિપરીત ચાલવાવાળા છે, અને તેનાથી જેની વૃત્તિ વિરૂદ્ધ બનેલી છે તેના પ્રત્યે પણ ભગવાનના એ જ આદેશ છે કે હે દેવાનુપ્રિય ! તમે ગમ દ્વેષ ન કરતા તે પ્રત્યે ઉપેક્ષા ભાવજ રાખેા, કારણ કે આ ઉપેક્ષાભાવથી આત્મામા શાતિની માત્રા અધિક રૂપમા જાગ્રત થાય છે. નવીન કર્માંના ખ ધ, જે તે પ્રત્યે રાગ દ્વેષ કરવાથી ઉત્પન્ન થાય છે તે રાકાઈ જાય છે, તેથી ધવિમુખ મનુષ્યાને અનાય સમજીને જે તેનું અનુસરણ નથી કરતા તે મનુષ્ય આ લેકમા જેટલા વિદ્વાને છે તે બધા કરતા પણ અધિક વિદ્વાન છે, પણ આ ઠેકાણે તે વ્યક્તિ જેને બધા વિદ્વાનેા કરતા વધારે જાણવાવાળા બતાવેલ છે તે તત્ત્વાના સમ્યક્ પ્રકારથી તાવાવાળા હેાવાથી જ સમજવું તેઇએ, કારણ કે તે સમક્તિી જીવ પાનાના પ્રત્યેાજન—ભૂત તત્ત્વાથી જ મતલબ રાખે છે એનાથી વિમુખ તત્ત્વોમા
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अथ चतुर्थाध्ययनस्य तृतीय उद्देशः ।। इहानन्तरद्वितीयोदेशके दण्डिशाक्यादिपापण्डिमतनिराकरणेन सम्यक्त्वं स्थिरीकृतम् । सत्यपि सम्यक्त्वे निरवद्यतपश्चरणमन्तरेण कर्मक्षयो न भवतीत्यत स्तत्र प्रवर्तयितुं तृतीयोद्देशकं कथयति । तत्र प्रथमं धर्मवहिष्क्रान्तस्यानार्यतया तदुपेक्षा करणीयेति बोधयितुमाह-'उवेहि णं' इत्यादि। ___ मूलम्-उवेहि णं बहिया य लोगं, से सबलोगंमि जे केइ विण्णू ॥ सू० १॥
छाया-उपेक्षस्व खलु वहिश्च लोकम् , स सर्वलोके ये केचिद् विज्ञः ॥ मू०१॥
टीका--बहिः धर्माद बहिष्क्रान्तं लोकं खलु-निश्चयेन उपेक्षस्व-मा अनुसर । दण्डिशाक्यादिपापण्डिमतं मा अनुमन्यस्वेत्यर्थः। धर्मवहिष्क्रान्तलोकोपेक्ष
चौथे अध्ययनका तीसरा उद्देश इस पीछेके द्वितीय उद्देश में दण्डी शाक्यादिक पाखण्डियोंकी मान्यताका निराकरण करके सम्यक्त्वको सुस्थिर किया; परन्तु इतने मात्र से कर्मक्षय नहीं हो सकता, कर्मक्षय तो निरतिचार तपश्चरण से ही होता है, इसलिये उस तपमें जीवों की प्रवृत्ति कराने के लिये इस तृतीय उद्देशका कथन प्रारंभ किया जाता है। इसमें सर्वप्रथम धर्मसे बहिभूत जो व्यक्ति हैं वे अनार्य हैं और उनके साथ रागद्वेष न करते हुए उपेक्षाभाव ही रखना चाहिये, इस बातका परिज्ञान कराने के लिये कहते हैं-'उवेहि णं' इत्यादि।
धर्मसे बहिर्भूत व्यक्तियों की सदा उपेक्षा ही करनी चाहिए। अर्थात्-दण्डी शाक्यादिक जो धर्मसे बहिभूत हैं, धर्मका यथार्थ स्वरूप
ચોથા અધ્યયનનો ત્રીજો ઉદ્દેશ. પાછળનાં બીજા ઉદેશમાં ઠંડી-શાયાદિક પાંખડીઓની માન્યતાનું નિરાકરણ કરીને સમ્યક્ત્વને સુસ્થિર કર્યું, પણ આટલાથી જ કર્મક્ષય થઈ શકે નહિ. કર્મક્ષય તે નિરતિચાર તપશ્ચરણથી જ થાય છે, માટે તે તપમાં જીની પ્રવૃત્તિ કરવાને માટે આ ત્રીજા ઉદેશના કથનને પ્રારંભ કરવામાં આવે છે. આમાં સર્વપ્રથમ ધર્મથી બહિર્ભત જે વ્યક્તિ છે તે અનાર્ય છે અને તેની સાથે રાગ દ્વેષ ન કરતાં ઉપેક્ષા ભાવ જ રાખવું જોઈએ, આ વાતનું પરિજ્ઞાન કરવાને માટે કહે છે____' उवेहि णं' त्यादि.
ધર્મથી બહિશ્ત વ્યક્તિયોની સદા ઉપેક્ષા જ રાખવી જોઈએ. અર્થા–દંડી શાક્યાદિક જે ધર્મથી બહિત છે, ધર્મનું યથાર્થ સ્વરૂપ નથી જાણતા તેમજ
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आचाराङ्गसूत्रे पलितसादृश्यात्पलितमित्युच्यते; त्यजन्ति, आत्मनोमालिन्यकरणाद्रजोरूपमप्टविधं कर्मापनयन्ति ते विद्वांस इति भावः । ये निक्षिप्तदण्डाः सन्तोऽष्टविधं कर्म क्षपययन्ति, एवंभूताः के जीवविशेषाः सन्तीति शिप्यजिज्ञासायामाह-'नरा' इत्यादि। न्तन अष्टविध कौ को, जो वस्त्रादिकों को धूलके समान आत्मा को मलिन कर रहे हैं; अपनेसे दूर कर देता है, और वही विद्वान् भी है। शिष्यने जो यह प्रश्न किया था कि 'जिनधर्म से बहिभूत व्यक्तियों में उपेक्षाभाव धारण करनेवाला व्यक्ति उत्तम विद्वान् क्यों बन जाता है?' उसका ही यह समाधान है-'वेत्तीति विद्वान्'-अर्थात् जिसके भीतर स्वपर का विवेक जागृत हो रहा है वही विद्वान है। इस प्रकारकी विद्वत्ता माप्त करनेके लिये सर्वप्रथम इस बातका ज्ञानदृष्टिसे अवश्य विचार करना चाहिये कि ये कर्म जो अनादि कालसे मेरी आत्मा के साथ क्षीरनीरकी तरह संबंधित हो रहे है, इसका कारण क्या है ?, सूक्ष्म विचार करने पर ज्ञात होगा कि इनके साथ अभीतक संबंध होनेका कारण मन, वचन और कायकी सावध प्रवृत्ति ही है, अतः जैसे २ यह प्रवृत्ति रुकेगी वैसे२ नवीन की का आस्रव रुकेगा और संचित कर्मों की निर्जरा होगी। मन और कायकी सावध प्रवृत्ति को रोकनेके लिये तप संयम के आराधन करनेकी पूर्ण आवश्यकता शास्त्रकारों ने बतलाई है । तप संयम के आराधन करने से सावध व्यापारों का जितने २ अंश में अभाव होगा उतने२ કર્મોને-ધૂળ જેમ વસ્ત્રાદિકોને મલિન કરે છે તેમ આત્માને જેઓ મલિન કરી રહ્યા છે તેઓને-પોતાથી દૂર કરી નાખે છે, અને તે જ વિદ્વાન પણ છે શિષ્ય જે પ્રશ્ન કરેલ હતું કે “જીનધર્મથી વિમુખ વ્યક્તિઓમાં ઉપેક્ષાભાવ ધારણ કરવાવાળી વ્યક્તિને ઉત્તમ વિદ્વાન કેમ માનવામાં આવે છે ? ” તેનું આ સમાधान - वेत्तीति विद्वान् 'मर्थात् नी २५४२ स्व-५२न वि त छ તે જ વિદ્વાન છે આ પ્રકારની વિદ્વત્તા પ્રાપ્ત કરવા માટે સર્વ પ્રથમ આ વાતનું જ્ઞાનદ્રષ્ટિથી વિચાર અવશ્ય કરવો જોઈએ કે આ કર્મો જે અનાદિ કાળથી મારા આત્માની સાથે દૂધ-પાણીની માફક એક થઈ રહ્યા છે તેનું કારણ શું છે? સૂક્ષ્મ વિચાર કરવાથી જ્ઞાત થશે કે એની સાથે હજી સુધી સંબંધ રહેવાનું કારણ મન, વચન અને કાયાની સાવદ્ય પ્રવૃત્તિ જ છે, માટે જેમ જેમ આ પ્રવૃત્તિ શેકશે તેમ તેમ નવા કર્મોને આસવ અને સચિત કર્મોની નિર્જરા થશે. મન, વચન અને કાયાની સાવદ્ય પ્રવૃત્તિ રોકવાને માટે તપ સ યમ આરાધના કરવાની આવશ્યકતા શાસ્ત્રકારોએ બતાવી છે તય સંયમની આરાધના કરવાથી સાવદ્ય વ્યાપારનો જેટલા જેટલા અંશે અભાવ થશે, તેટલા તેટલા અંશે આત્મામાં
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ. ३
६४१ ननु ते विद्वांस. कथं विज्ञेयाः ? इति शिष्यजिज्ञासायामाह-'अणुवीइ' इत्यादि।
मूलम्-अणुवीइ पास, निक्खित्तदंडा जे केइ सत्ता पलियं चयंति, नरामुयच्चा धम्मविउ-त्ति अंजू ,आरंभजं दुक्खमिणं-ति णच्चा, एवमाहु संमत्तदंसिणो ॥ सू० २॥ ___ छाया-अनुविचिन्त्य पश्य, निक्षिप्तदण्डाः ये केऽपि सत्त्वाः पलितं त्यजन्ति, नरा मृतार्चा धर्मविदः ऋजवः आरम्भजं दुःखम् इदमिति ज्ञात्वा एवमाहुः सम्यक्त्वदर्शिनः ॥ मू० २॥ ___टीका-अनुविचिन्त्य=पुनः पुनः पर्यालोच्य, पश्य=ज्ञानदृष्टया विलोकय, ये केऽपि सत्त्वाः जीवाः, निक्षिप्तदण्डाः परित्यक्तमनोवाकायमयसावधव्यापाररूपदण्डाः सन्तः, पलित-पुरातनं कर्मेत्यर्थः, अनादिकालवस्थायित्वेन चिरन्तनं कर्मापि रखता है, इनसे बहिर्भूत तत्त्वों में उसकी सदा उपेक्षा ही बनी रहती है। जहां अपने में स्वपरका विवेक जागृत हो रहा है वही दुनियां में विद्वानों से भी अधिक विद्वान है । अनेक शास्त्रों का अध्येता हो कर भी जो इस ज्ञानसे शून्य है वह विद्वान् होकर भी सिद्धान्तज्ञों की दृष्टि में मूख ही है ॥ सू० १॥
जिनधर्म से बहिर्भूत व्यक्तियों के प्रति उपेक्षाभाव धारण करनेवाला मनुष्य विद्वान् क्यों बतलाया गया है? इस प्रकार शिष्य की जिज्ञासा होने पर कहते हैं-'अणुवीइ ' इत्यादि।
जो मनुष्य बारंवार विचार करके तथा ज्ञानदृष्टि से देखकर मन, वचन और कायके सावधव्यापाररूप दण्डों से रहित हो जाता है वही अनादिकालसे आत्माके साथ एकक्षेत्रावगाहरूप होने से आबद्ध चिरતેની સદા ઉપેક્ષા જ રહે છે. જે જીવમાં સ્વ–પરને વિવેક જાગ્રત રહે છે તે જ સંસારમાં સૌ વિદ્વાન કરતાં પણ અધિક વિદ્વાન છે. અનેક શાને જાણકાર હોવા છતાં પણ જે જ્ઞાનથી શૂન્ય છે તે વિદ્વાન હોવા છતાં પણ સિદ્ધાની દૃષ્ટિમાં મૂર્ણ જ છે. જે સૂઇ ૧ છે - જિનધર્મથી વિમુખ વ્યક્તિયો પ્રતિ ઉપેક્ષાભાવ ધારણ કરવાવાળા મનુષ્યને વિદ્વાન કેમ માનવામા આવેલ છે? આ પ્રકારની શિષ્યની જીજ્ઞાસા થવાથી કહે छे-'अणुवीद' त्यादि.
જે મનુષ્ય વારંવાર વિચાર કરીને તથા જ્ઞાન દષ્ટિથી જોઈ મન, વચન અને કાયાના સાવઘવ્યાપારરૂપ દંડાથી રહિત થઈ જાય છે તે જ અનાદિ કાળથી એક જ ક્ષેત્રમાં રહેવાવાળા હોવાથી આત્માની સાથે બંધાયેલા પુરાતન અષ્ટવિધ
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आचारागसूत्रे संस्कारराहित्याद् मृतेव मृता-अर्चा शरीरं येषां ते मृतार्चाः, शुश्रूपाविभूपादिवर्जितशरीरा इत्यर्थः । यद्वा-अर्चा अर्चिः, तत्सादृश्यात् क्रोधोऽप्यर्चा, स च कपायमात्रोपलक्षणम् । तथा च-मृता नष्टा अर्चा कपायरूपा येपां ते मृतार्चाः, कपायरहिता इत्यर्थः । किंच-धर्मविदः श्रुतचारित्रधर्मज्ञानवन्तः,
"मृतेव मृता अर्चा-शरीरं येषां ते मृतार्चाः" अर्थात्-शारीरिकशुश्रूषाविभूषारूपसंस्काररहित होनेसे मृतके समान है शरीर जिनका ऐसे अपने शरीरमें निस्पृहवृत्ति रखनेवाले मनुष्यशिरोमणि ही इन कमी पर विजय लाभ करते हैं । अथवा "अर्चा-अचिः” अर्थ है ज्वाला । जिस प्रकार अग्निकी ज्वाला लाल होती है उसी प्रकार क्रोध भी लाल होता है। अतः ज्वालाके सादृश्य से क्रोध को भी अर्चा कहा है। क्रोध यह अन्य कपायों का उपलक्षण है, इससे मान, माया और लोभ का भी ग्रहण हो जाता है। जिनकी आत्मासे कषायरूप अर्चा नष्ट हो चुकी है, अर्थात् जो कषायरहित हो चुके हैं वे मनुष्य ही अष्टविध कमी के नष्ट करनेमें विशिष्टशक्तिशाली होते हैं । संसारमें बहुत से ऐसे भी बहुत से मनुष्य होते हैं कि जिन्हें शारीरिक शृङ्गार करने का जीवन में अवसर तक ही प्राप्त नहीं होता है, भील आदि ऐसे ही मनुष्यों में हैं; अतः इनकी भी यह अवस्था कर्मक्षपण के योग्य मानी जानी चाहिये ? इस प्रकारकी आशंकाको दूर करनेके लिये ही "भृता " ___“ मृतेव मृता अर्चा-शरीरं येपां ते मृतार्चाः ” अर्थात् २: शुश्रूषा વિભૂષારૂપ સરસ્કાર રહિત હોવાથી મૃતકશ જેનું શરીર છે, આવા પોતાના
શરીરમાં નિસ્પૃહ વૃત્તિ રાખવાવાળા મનુષ્યશિરોમણિ જ આ કર્મો ઉપર विय साल २ छ, अथवा “ अर्चा-अर्चिः "नो पथ छ रे પ્રકારે અગ્નિની જવાળા લાલ હોય છે તે પ્રકારે કંધ પણ લાલ છે, માટે વાળાની દુતાથી ફોધને પણ અર્વા કહે છે, ક્રોધ-શબ્દ બીજા કષાયોનું ઉપલક્ષણ છે આમા માન, માયા અને લોભને પણ સમાવેશ થાય છે. જેના આત્માથી કવાયરૂપી અને નાશ થયેલ છે, અર્થા–જે કાયરહિત છે તે જ મનુષ્ય આઠ પ્રકારના કર્મોનો ક્ષય કરવામાં વિશિષ્ટ શક્તિશાળી છે. સંસારમાં એવા પણ ઘણા માણસો છે કે જેને શારીરિક શુંગાર કરવાનો અવસર જીવનને કઈ વખત પણ પ્રાપ્ત થતી નથી, ભીલ આદિ એવા મનુષ્ય છે, માટે તેની પા! આ અવરથા કર્મક્ષપણુયોગ્ય માનવી જોઈએ ? આ પ્રકારની
नि ३. श्याने भाट “ मृतार्चा " नो अर्थ “ कपायरहित"
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ. ३
६४३. नराः मनुष्याः, तेषामेव निरवशेषकर्मक्षपणसामर्थ्यमस्तीति भावः । तत्रापि साधारणतया न सर्वे मनुष्या अशेषकर्मक्षपणसामर्थ्यवन्तः इति बोधयितुं तद्विशेषणमाह-'मृतार्चा' इति ।। अंशमें आत्मा में निर्मलता जागृत होगी। इस निर्मलता के आते ही स्वतः शब्दादि विषयों में जीवको उपेक्षाभावकी जागृति हो जाती है। मनुष्य को तप संयम ही उत्तम विद्वत्ता के स्थान पर लाकर रखनेबाला होता है, इसीलिये सिद्धान्तकारों ने ऐसे मनुष्यको विद्वानों में
श्रेष्ठ माना है। ___ यहां पर पलित' शब्द का अर्थ 'पुरातनकर्म' है। अनादिकालिक होने के कारण पुरानन कर्म भी पलित-श्वेतकेश सदृश हैं, अतः उन्हें यहां पलित कहा गया है। इसका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार मनुष्य पलित-सफेद केश को शीघ्र उखाड़ डालता है उसी प्रकार मन, वचन और कायकी सावद्य प्रवृत्ति को त्याग करनेवाला मनुष्य भी उन पुरातन का को शीघ्र नष्ट कर देता है। यह काम सामान्य जीवों से नहीं हो सकता इसलिये इस कार्य के करनेवाले विशेष जीव ही होते है, इसी बातको प्रकट करने के लिये सूत्रकार इस सूत्र में "नराः" इस पदका विन्यास करते हैं; क्यों कि समस्त कर्मों के विनष्ट करने की साक्षात् शक्ति मनुष्य में ही रही हुई है। इनमें भी सभी मनुष्य समस्त कर्मों के क्षपण करने में समर्थ नहीं होते हैं; यही बात “मृतार्चा" इस पदसे प्रकट की गई है। નિર્મળતા જાગૃત થશે. આ નિર્મળતા આવવાથી શબ્દાદિવિષયમાં જીવને ઉપેક્ષા ભાવની જાગૃતિ થાય છે. મનુષ્યને તપ સંયમ જ વિદ્વત્તાના સ્થાન પર લાવીને રાખવાવાળાં છે, માટે સિદ્ધાંતકારેએ આવા મનુષ્યને વિદ્વાનોમાં ઉત્તમ માનેલ છે.
२ आणे 'पलित' श५-४ने। २मय 'पुरातनकर्म' छ. मनाहिसि डोवाना रणे પુરાતન કર્મો પણ પલિત–વેતકેશસદૃશ છે, માટે તેઓને અહીં પલિત કહ્યા છે. આને અભિપ્રાય આ છે કે-જે પ્રકારે મનુષ્ય પલિત–સફેદ વાળને શીઘ્ર ઉખાડી નાખે છે તે પ્રકારે મન વચન કાયાની સાવધ પ્રવૃત્તિને ત્યાગ કરવાવાળા મનુષ્ય પણ આ પુરાણું કર્મોને શીધ્ર નષ્ટ કરી દે છે. આ કામ સામાન્ય જીવથી થઈ શકતું નથી, માટે આ કાર્યને કરવાવાળા કેઈક જ જીવ હોય છે. આ વાતને प्रगट ४२वाने माटे सूत्रारे २॥ सूत्रमा “ नराः" ॥ ५४ शभ्यु छ भ બધા કર્મોને નાશ કરવાની સાક્ષાત્ શક્તિ મનુષ્યમાં જ રહેલી છે. આમાં પણ मथा मनुष्यो स४ र्भानी क्षय ४२वामा समर्थ थता नथी. २मा पात 'मृतार्चा' આ શબ્દથી પ્રગટ કરવામાં આવી છે.
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आचारागसूत्रे आरम्भनम् कृपिवाणिज्यादिसकलसावधव्यापार आरम्भः, तस्माज्जातम् , इति ज्ञात्या= आरम्भे कृते सति प्राणिनां दुःखमुत्पद्यते' इति विदित्वा ततो निवृत्ता नराः सर्वं कर्म अपयन्तीत्यर्थः । अस्मिन् विपये श्रद्धानं विधेयमिति बोधयितुमाह -एवमाहुः सम्यक्त्वदर्शिन इति । सम्यक्त्वदर्शिनः सम्यक्त्वं प्राप्ताः केवलिप्रभृतयः, अथवा समवदर्शिनः रागद्वेपाभावेन एकेन्द्रियादिसर्वजीवे तुल्यभावेनावलोकिनः एवम्-उक्तरीत्या आहुः बदन्ति । तस्मादत्र श्रद्धानं विधेयमितिभावः।२।
कुतः सम्यक्त्वदर्शिनो वदन्तीति जिज्ञासायामाह- ते सव्वे' इत्यादि।
कृपि-खेती, वाणिज्य-व्यापार आदि सावद्य कार्योंका नाम आरंभ है। इस आरम्भ से ही समस्त जीवों को दुःख उत्पन्न होता है और इस दुःखका समस्त ही जीव अपने २ स्वानुभवरूप प्रत्यक्ष से साक्षात् अनुभव करते हैं, ऐसा समझ कर जो मनुष्य उस सावद्य व्यापारसे निवृत्त हो जाते हैं वे ही समस्त कों का क्षय करते हैं। इस प्रकार के इस कथनमें भव्य प्राणियों को श्रद्धा करना चाहिये । इस प्रकारकी सूचना करते हुए सूत्रकार कहते है कि इस प्रकार का यह कथन समकित को प्राप्त हुए केवली आदि महापुरुषोंने, अथवा जो समदर्शी हैं, समस्त जीवोंको राग द्वेष के अभाव होनेसे अपने तुल्य समझते हैं-उन्होंने किया है । इस विषयमें निश्शङ्क होकर दृढ श्रद्धा ही करनी चाहिये ॥ सू० २॥
सम्यक्त्वदर्शी केवली आदि ऐसा क्यों कहते हैं ? इस प्रकारकी शिष्यकी जिज्ञासा शांत करनेके लिये सूत्रकार कहते हैं-'ते सव्वे' इत्यादि।
| ખેતી, વ્યાપાર આદિ સાવદ્ય કાર્યોનું નામ આર ભ છે આ આર ભથી જ સર્વ જીવોને દુ ખ ઉત્પન્ન થાય છે, અને આ દુ અને સર્વ જીવ પિતપોતાના સ્વાનુભવરૂપ પ્રત્યક્ષથી સાક્ષાત્ અનુભવ કરે છે એવું સમજીને જે મનુષ્ય આવા સાવદ્ય વ્યાપારથી નિવૃત્ત થઈ જાય છે તે જ સર્વ કર્મોને ક્ષય કરે છે. આવા પ્રકારના આ કથનમાં ભવ્ય પ્રાણિઓએ શ્રદ્ધા રાખવી જોઈએ આ પ્રકારની સુચના કરતા સૂત્રકાર કહે છે કે-આવા પ્રકારનું આ કથન સમકિતને પ્રાપ્ત થયેલા કેવળી આદિ મહાપુરૂએ, અથવા સમદર્શી છે, રાગદ્વેષ રહિત હોવાથી સર્વ જેને પિતાના તુલ્ય માને છે, તેઓએ કર્યું છે, આ વિષયમાં નિર્ણાંક થઈને દઢ શ્રદ્ધા જ રાખવી જોઈએ છે સૂ૦ ૨ .
સમ્યકત્વદર્શ કેવળી આદિ આ પ્રકારે કેમ કહે છે ? આ પ્રકારની नव्यनी शासाने शन्त ४२वा भाटे सूत्रधार ४ - ते सव्वे' इत्यादि.
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सम्यक्त्व-अध्य० ४ उ. ३ अत एव ऋजवा सरलहृदयाः, अमायिन इत्यर्थः । मनुष्याः किं कृत्वा एवं भवन्तीती जिज्ञासायामाह-' आरम्भजम्' इत्यादि। इदं सर्वप्राणिप्रत्यक्षं दुःखम् शब्दका अर्थ " कषायरहित” किया है। यद्यपि असाता-अशुभ कर्म के तीव्र उदय होने से वे उस प्रकारकी सामग्री से रहित हैं फिर भी वे उस जातकी कषाय से रहित नहीं हैं, अतः शारीरिक संस्कार से रहित होकर भी जो कषायोंसे रहित होते हैं वे ही कर्मक्षपण करनेमें शक्ति-सम्पन्न होते हैं। सच्चे शारीरिक संस्कार से विहीन वे होंगे जो इस शरीर को अपवित्र एवं मल, रुधिर, राध (पीव ) की थैली मान कर निस्सार समझेंगे । शारीरिक संस्कार करना यह एक जातकी कषाय है । इस प्रकार के मनोभाव की जागृति आत्मामें विना श्रुतचारित्र धर्म के ज्ञान हुए नहीं हो सकती, अतः 'धर्मविदः' यह विशेषण इसी बातकी पुष्टि करता है । धर्मके यथार्थ स्वरूप को जान कर उस पर श्रद्धा रखनेवाला मनुष्य ही धार्मिक नियमों को अपनी आत्मामें उतारनेकी चेष्टा या उत्साह से सम्पन्न होता है । धार्मिक ज्ञान भी उसीकी आत्मामें अपना प्रभाव प्रकट करता है और वही 'अमायावी' सरल हृदयवाला होता है। मायावी-दुरंगी चाल चलने वाले-मनुष्य धर्मका सेवन करते हुए भी उससे जैसा फल प्राप्त उन्हें होना चाहिये वैसे फलसे सदा वंचित ही रहते हैं। यही बात सूत्रकारने "ऋजवः” इस पदसे स्पष्ट की है। કર્યો છે. જો કે અસાતા-અશુભ કર્મ–ને તીવ્ર ઉદય હોવાથી તે તેવા પ્રકારની સામગ્રીથી રહિત છે તે પણ તે તેવા પ્રકારના કષાયથી રહિત નથી, માટે શારીરિક સંસ્કારથી રહિત થઈને પણ જે કષાયોથી રહિત થાય છે તે જ કર્મક્ષપણ કરવામાં શક્તિસંપન્ન થાય છે. સાચા શારીરિક સંસ્કારથી દૂર તેજ થશે જે આ શરીરને અપવિત્ર અને મળ, લેહી, રસ્સીની થેલી માનીને નિસ્સાર સમજશે. શારીરિક સંસ્કાર કરે તે પણ એક જાતને કષાય છે. આ પ્રકારના મનોભાવની नति मात्मामा श्रुतयारित्र धर्मनु शान थया २ थती नथी माटे 'धर्मविदः ' २मा विशेष २॥ वातनी पुष्टि ४२ छ. यमन यथाथ २१३५ने नशीन તેના ઉપર શ્રદ્ધા રાખવાવાળા મનુષ્ય જ ધાર્મિક નિયમને પિતાના આત્મામાં ઉતારવાની ચેષ્ટા અને ઉત્સાહ રાખે છે. ધાર્મિક જ્ઞાન પણ તેના જ આત્મામાં पोताना प्रभाव पाछे, मने ते 'अमायावी' स२१ हयवाणी डाय छे. માયાવી–માયા-કપટથી ચાલવાવાળો-મનુષ્ય ભલે તે ધર્મનું સેવન કરતા હોય તે પણ જેવું ફળ તેને મળવું જોઈએ તેવા ફળથી તે સદા વંચિત જ રહે છે. या पातवें स्पष्टी४२५ सूत्ररे " ऋजवः” २५४थी अयु छ.
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आचाराङ्गसूत्रे जप्रत्याख्यानभेदाद् द्विविधाम् , उदाहरन्ति-कथयन्ति । ज्ञपरिज्ञया अष्टविध कर्म सर्वथा परिज्ञाय, प्रत्याख्यानपरिज्ञया तत् सर्व परिहरेदिति वदन्तीत्यर्थः॥३॥ ___यदि सर्वज्ञाः कर्मपरिज्ञामुदाहरन्ति, तस्मात् किं कर्तव्यम् ? इति शिष्यजिज्ञासायामाह-' इह आणाकंखी' इत्यादि। ___मूलम्-इह आणाकंखी पंडिए अणिहे, एगमप्पाणं संपेहाए धुणे सरीरं ॥ सू० ४ ॥
छाया-इह आज्ञाकासी पण्डितः अस्निहः, एकमात्मानं संप्रेक्ष्य धुनीयात् शरीरम् ॥ ४ ॥ प्रकृतियां ८ हैं और उत्तरप्रकृतियां १४८ हैं। सूत्र में 'दुःख' शब्द से उसके कारणभूत कर्मों का कारण में कार्य के उपचार से ग्रहण किया है। केवली भगवान् वे हैं जो समस्त जीवों को धार्मिक मर्यादा के अनुसार ही हितका उपदेश देते हैं और स्वयं जो अष्ट कर्मों में से चार घातिया कर्मों को नष्ट कर चुके है, अवशिष्ट चार अघातिया कोका नाश करने में जो लगेहुए हैं, शारीरिक और मानसिक आधि व्याधि जिनमें नहीं है, और जो यही प्रवचन करते हैं कि जो दुःखसे छूटने की अभिलाषा रखते हैं उनका कर्तव्य है कि वे पहिले दुःखके कारणभूत कर्मों के ज्ञाता बन और फिर ज्ञानपूर्वक चारित्रके आराधन से उनका समूल विच्छेद करें ।। स० ३ ॥
यदि सर्वज्ञ भगवान् कर्मपरिज्ञा का कथन करते हैं तो इससे भव्य जीवों का क्या कर्तव्य है ? ऐसी शिष्य की जिज्ञासा होने पर कहते हैं'इह आणाकंग्ची' इत्यादि । प्रतिमा १४८ थे, सूत्रमा 'दुख' शथी तेना ४।२९ भूत भर्भानु ारमा કાર્યને ઉપચારથી ગ્રહણ કરેલ છે કેવળી ભગવાન તે છે જે સર્વ જીને ધાર્મિક મર્યાદા અનુસાર જ હિતને ઉપદેશ આપે છે, અને પિતે આઠ કર્મમાંથી ચાર ઘાતિયા કર્મોને નાશ કરી ચૂક્યા છે, અવશિષ્ટ રહેલા ચાર અઘાતિયા કર્મોને નાશ કરવામાં જે લાગેલ છે, શારીરિક અને માનસિક આધિ-વ્યાધિ જેમા નથી, અને જેઓનું પ્રવચન આ પ્રકારનું છે કે જે દુખથી છુટવાની અભિલાષા રાખે છે તેમનું કર્તવ્ય એ છે કે–પહેલા દુખના કારણભૂત કર્મોને જાણે અને પછી જ્ઞાનપૂર્વક ચારિત્રનું આરાધન કરવાથી તેને સમૂળો નાશ કરે છે સૂ૦ ૩ છે
યદિ સર્વર ભગવાન કર્મ પરિજ્ઞાનું કથન કરે છે તે તેથી ભવ્ય જીતુ ३१ तव्य ? वी शिष्यनीज्ञासा यवाथी हे-'इह आणाकंखी'त्याहि.
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ. ३
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मूलम्-ते सत्वे पावाइया दुक्खस्स कुसला परिणमुदाहरंति इय कम्म परिणाय सबसो ॥ सू० ३॥ . छाया-ते सर्वे प्रावादिकाः दुःखस्य कुशलाः परिज्ञामुदाहरन्ति इति कर्म परिज्ञाय सर्वशः । सू० ३॥ ___टीका-यतस्ते सर्वे सर्वविदः, प्रावादिकाः प्रकर्षण आ-धर्ममर्यादापुरस्सरं वदितुं शीलं येषां ते प्रावादिनस्त एव प्रावादिकाः-यथावस्थितार्थं प्रतिबोधयितुं वाग्मिन इत्यर्थः । दुःखस्य-शारीरमानसदुःखकारणस्य, कारणे कार्योपचारात् अष्टविधकर्मण इति यावत्, अपनोदने कुशलाः प्रवीणाः सन्तः, सर्वशः= सर्वप्रकारैः मूलोत्तरप्रकृतिपकारैरित्यर्थः, कर्म परिज्ञाय इति-अनया रीत्या परिज्ञा
वे समस्त सर्वज्ञ केवली भगवान् कि जिनका स्वभाव धार्मिकमर्यादा के अनुसार ही बोलने-उपदेश देनेका है, अर्थात्-जो वाग्मीयथावस्थित पदार्थका प्रतिबोधन करनेमें पटु है और जो शारीरिक और मानसिक दुःखके कारणभूत अष्टविध कर्म को नष्ट करने में कुशल हैं, मूल और उत्तर प्रकृति के भेदसे विविधरूप (८ और १४८) कर्म को जान कर ज्ञपरिज्ञा और प्रत्याख्यानपरिज्ञाके भेदसे दो प्रकार की परिज्ञाका प्रतिपादन करते हैं, अर्थात्-'ज' परिज्ञा से अष्ट प्रकार के कर्म को जान कर 'प्रत्याख्यान' परिज्ञा से उस समस्त कर्मका परिहार करे, ऐसा कहते हैं।
परिज्ञा दो प्रकारकी है (१) ज्ञपरिज्ञा, (२) प्रत्याख्यानपरिज्ञा। ज्ञाता ज्ञपरिज्ञाले कर्मों के स्वरूपादिक को जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञासे-ज्ञानपूर्वक त्यागसे उनके नाश करने में उद्यमशील होता है । कर्मों की मूल
તે બધા સર્વજ્ઞ કેવળી ભગવાન, જેઓને સ્વભાવ ધાર્મિક મર્યાદા અનુસાર જ બલવાને-ઉપદેશ દેવાને–છે, અર્થાત્ જે વામી યથાવસ્થિત પદાર્થનું પ્રતિબોધન કરવામાં કુશળ છે, અને જે શારીરિક અને માનસિક દુઃખના કારણભૂત આઠ પ્રકારના કર્મોને નાશ કરવામાં કુશળ છે, મૂળ અને ઉત્તર પ્રકૃતિના ભેદથી વિવિધરૂપ (આઠ કર્મ અને એકસો અડતાલીસ પ્રકૃતિપ કર્મ) કમને જાણીને જ્ઞપરિણા અને પ્રત્યાખ્યાન–પરિજ્ઞાના ભેદથી બે પ્રકારની પરિક્ષાનું પતિપાદન કરે છે. मर्थात्-'ज्ञ' परिज्ञाथी. 24034&२॥ भने gीने 'प्रत्याख्यान ' परिक्षाथी ते સમસ્ત કર્મને નાશ કરે, એમ કહે છે. ___ परिक्षा में प्रा२नी छे. (१) श-परिज्ञा, (२) प्रत्यायान-परिज्ञा, शाता
પરિસાથી કર્મોના સ્વરૂપાદિક જાણીને પ્રત્યાખ્યાન–પરિજ્ઞાથી જ્ઞાનપૂર્વક ત્યાગથી તેને નાશ કરવામાં ઉદ્યમશીલ રહે છે. કર્મોની મૂલ પ્રકૃતિ ૮ છે, અને ઉત્તર
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आधाराङ्गसूत्रे उपादेय क्या है और हेय क्या है ? इस प्रकार का परिपक्व-पुष्ट विवेक जब आत्मामें स्थिरता धारण कर लेगा तब बाह्य पदार्थों में जो राग और देषकी भावना जागृत हो जाया करती है वह रुक जायगी, यहां तक कि जो शरीर, आत्माका अत्यन्त निकट सम्बन्धी है उसके प्रति भी 'ममेदं' भावका सर्वथा हास हो जावेगा और 'तप-संयम ही उपादेय वस्तु है' इसका भान अच्छी तरह से होने लगेगा।
तात्पर्य इसका यही है कि कर्म के स्वरूपको जान कर मनुष्य सांसारिक पदार्थों की ओर से उपेक्षाभाव धारण करे। इससे मोह की न्यूनता होते २ समकित की उत्पत्ति और पुष्टि होगी। इसकी पुष्टि होने पर आहेत प्रवचनके आराधन की ओर ही ध्यान आकृष्ट होगा। इससे हेयोपादेय का विवेक जागृत होकर आत्माको परपदार्थों की ओर रागडेप की परिणति से रहित करेगा; तब जाल होगा कि यह आत्मा स्वजन-स्त्री-पुत्र-मित्रादिकों से और शरीर से सर्वथा भिन्न-जुदा है, उनके साथ इसका किसीभी प्रकार का सम्बन्ध नहीं है। उनके सुधारबिगाड़ में इसका यत्किचित् भी सुधार-विगाड़ नहीं है। इस प्रकार की धारणा परिपुष्ट होने पर ज्ञानी आत्मा जैसे कञ्चुक (कांचली) को सर्प निर्ममत्वभावले छोड़ देता है उसी प्रकार इस शरीर में 'ममत्व' भाव અને તેથી તમે સમજી શકશે કે અમારૂ ઉપાદેય શું છે અને હેય શું છે? આ પ્રકારનો પરિપકવ–પુષ્ટ વિવેક જ્યારે આત્મામાં સ્થિર થશે ત્યારે જ બહારના પદાર્થોમાં જે રાગ દ્વેષની ભાવના જાગૃત થાય છે તે રોકાઈ જશે, ત્યાં સુધી ॐ शरी२ मात्मानु अत्यत लट समाधी छे तेना प्रति ५ 'ममेदं ' लावना
આ મારૂં છે” એવા ભાવનો સર્વથા નાશ થઈ જશે, અને “તપ સયમ જ ઉપાદેય વસ્તુ છે તેનું ભાન સારી રીતે થઈ જશે
આને અભિપ્રાય એ છે–મનુષ્યનું કર્તવ્ય છે કે તે સાસારિક પદાર્થો પ્રતિ ઉપેક્ષાભાવ ધારણ કરે આથી મેહની અલ્પતા થતા થતા સમકિતની ઉત્પત્તિ અને પુષ્ટિ થશે. સમકિતની પુષ્ટિ ઘતા જ આહંત પ્રવચનનું આરાધના કરવાની તરફ ધ્યાન દોરશે, અને તેથી હેપાદેયનો વિવેક જાગૃત થઈ આત્માને પરપદાર્થોની તરફ રાગદ્વેષપરિણતિરહિત કરશે, ત્યારે ભાન થશે કે આ આત્મા સ્વજન સ્ત્રી પુત્ર મિત્રાદિકોશી અને શરીરથી સર્વથા જુદો છે, તેની સાથે આત્માને કેઈ પ્રકારને સબધ નથી તેમના સુધરવા બગડવામાં તેને એટલે આત્માને જરા પણ સુધારી-બગાડો નથી આ પ્રકારની ધારણું પાકી થવાથી સાપ જેમ કાચળીને મમતા વગર છોડી દે છે તે રીતે જ તે જ્ઞાની
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सम्यक्त्व - अध्य० ४. उ. ३
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टीका--इह =अस्मिन् मनुष्यलोके, आज्ञां सर्वज्ञनिदेशं काङ्क्षितुं शीलमस्येति आज्ञाकाङ्गी सम्यक्त्वस्य दृढीकरणेन पुनः पुनरार्हतागमश्रवणमननसमाराधनशीलः, अत एव पण्डितः = हेयोपादेयविवेकनिपुणः, अत एव अस्निह: - स्निह्यतीति स्निह: रागवान्, न स्निह इत्यस्निहः, स्निह इत्युपलक्षणं, तेन रागद्वेषरहित इत्यर्थः, आत्मानम् एकं स्वजनधनशरीरादिभ्यः पृथग्भूतं संप्रेक्ष्य विविच्य पर्यालोच्य शरीरं = स्वदेह धुनीयात् = निर्ममत्वभावेन निराद्रियेत, कञ्चुके सर्प इव शरीरे ममत्वं परित्यजेदित्यर्थः । अयं भावः - स्वजनधनशरीरादिषु क्षणभङ्गुरत्वादिदोपदर्शनेन रागागमो भवति । तदनन्तरमयमात्मा - एक एवास्तीति पर्यालोचयति । यथा
DROGE
इस मनुष्यलोक में सर्वज्ञ भगवानकी एकमात्र आज्ञाके समाराधन करनेके स्वभाववाला हेयोपादेय के विवेक करनेमें निपुणमतिवाला और रागद्वेषसे विरक्तबुद्धिवाला भव्य जीव अपनी आत्माकी पर्यालोचना करके शरीर को निर्ममत्व - भावसे रखे।
'शरीर में जितना अधिक ममत्व होगा उतना ही अधिक इस संसार के चक्र में फँसेगा । ' ममेदं' भावसे शरीरकी सेवा ही आत्मकल्याण से विमुख होने की निशानी है, अतः सूत्रकार यहां पर इसी बात का उल्लेख करते हुए उपदेश देते हैं कि - हे भव्य ! तुम सर्व प्रथम समकित को दृढ करो। इसकी दृढता होने पर तुम्हें अपने कल्याण का मार्ग अपने आप ज्ञात होने लगेगा । उस समय तुम्हारा आत्मस्वभाव शब्दादि विषयों की ओर न झुक कर प्रभुप्रतिपादित आगमके श्रवण, मनन और उसके समाराधन की ओर ही झुकेगा । उससे तुम समझ सकोगे कि हमारा
આ મનુષ્યલાકમાં સર્વજ્ઞ ભગવાનની એક માત્ર આજ્ઞાનું આરાધન કરવાનાં સ્વભાવવાળા, હૈયોપાદેયના વિવેક કરવામાં નિપુણ તિવાળા અને રાગ દ્વેષથી વિરક્ત બુદ્ધિવાળા ભવ્ય જીવ પોતાના આત્માની પર્યાાચના કરીને શરીરને નિમત્વ ભાવથી રાખે.
શરીરમાં જેટલે અધિક મમત્વ હશે તેટલા જ અધિક આ સંસારના ચક્રમાં इसाशे. ' ममेदं ' लावथी -' मा भाई छे' - मेवा लावथी शरीरनी सेवा ४ आत्मકલ્યાણથી વિમુખ થવાની નિશાની છે, માટે સૂત્રકાર આ ઠેકાણે આ વાતને ઉલ્લેખ કરીને ઉપદેશ આપે છે કે-હે ભવ્ય ! તમે પહેલાં સમકિતને દૃઢ કરક સમકિતની દૃઢતા હોવાથી તમને તમારા કલ્યાણના માર્ગ આપમેળે જાણવામાં આવશે. એવે વખતે તમારા આત્મસ્વભાવ શબ્દાદિ વિષયેાની તરફ તિાં પ્રભુપ્રતિપાદિત આગમનું શ્રવણ મનન અને તેના આરાધનની તરફ વળશે,
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अपरं च -
अन्यच्च
किंच
मातापितृसहस्राणि पुत्रदारशतानि च । संसारेष्वनुभूतानि यान्ति यास्यन्ति चापरे " ॥ ३॥ एकः प्रकुरुते कर्म, भुनक्त्येकञ्च तत्फलम् । जायते म्रियते चैक, - एको याति भवान्तरम् " ॥ ४॥ -" सदैकोऽहं न मे कश्चित्, नाहमन्यस्य कस्यचित् । न तं पश्यामि यस्याहं, नासौ भावीति यो मम ॥५॥ " न खलु विघटिताः पुनर्घटन्ते,
"
न च घटिताः स्थिरसंगतं श्रयन्ते ।
तथा
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पिपतिषुमवशं रुजन्ति वश्याः
"
तटतरुमाप इवाऽऽपगागणस्य ॥ ६ ॥ इति । तस्मात् स्वजनधनशरीरादिषु ममत्वं परिवर्जयेदिति ॥ भ्रू० ४ ॥ मातापितृसहस्राणि पुत्रदारशतानि च । संसारेष्वनुभूतानि यान्ति यास्यन्ति चापरे " ॥ ३ ॥ इति । तथा " एकः प्रकुरुते कर्म, भुनक्त्येकञ्च तत्फलम् । जायते म्रियते चैक, - एको याति भवान्तरम् ॥ ४ ॥ सोऽहं न मे कश्चित्, नाहमन्यस्य कस्य चित् । न तं पश्यामि यस्याsहं, नासौ भावीति यो मम न खलु विघटिताः पुनर्घटन्ते,
५॥
न च घटिताः स्थिर संगतं श्रयन्ते । पिपतिपुमवशं रुजन्ति वश्याः,
आवारात सूत्रे
"
पिपतिषुमवशं रुजन्ति वश्याः,
तटतरुमाप इवापगागणस्य मातापितृसहस्राणि पुत्रदारशतानि च । संसारेष्नुभूतानि, यान्ति यास्यन्ति चापरे ” ॥ ३ ॥ इति । एकः प्रकुरुते कर्म, मुनक्त्येकश्च तत्फलम् । जायते म्रियते चेक, - एको याति भवान्तरम् ॥ ४ ॥ सदैकोऽहं न मे कश्चित्, नाहमन्यस्य कस्यचित् । न तं पश्यामि यस्याहं, नासौ भावीति यो मम ॥ ५ ॥ न खलु विघटिताः पुनर्घटन्ते,
न च घटिताः स्थिरसंगतं श्रयन्ते ।
॥ ६ ॥ इति ।
तटतरुमाप इवाऽऽपगागणस्य " ॥ ६ ॥ इति ।
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संम्यक्त्व - अध्य० ४, उ. ३
44 कायः संनिहितापायः, संपदः पदगापदाम् । समागमाः सापगमाः, सर्वमुत्पादि भगुरम् ॥ १ ॥ नायमत्यन्तसंवासः, कस्यचित् केनचित् सह । अपि स्वेन शरीरेण, किमुतान्यैः पृथग्जनैः ॥ २ ॥
का परित्याग करता है । वह जानता है कि इन स्वजन धन और शरीरादिकों के साथ जो इस ज्ञाता द्रष्टा आत्मा का सम्बन्ध हुआ है वह केवल संयोगमात्र है। संयोगसम्बन्धवालों का वियोग अवश्यंभावी है | ज्ञान और आत्मा का जिस प्रकार तादात्म्यसम्बन्ध है उस प्रकार का सम्बन्ध इसके साथ इनका नहीं है, अतः इनका यह संयोग क्षणभंगुर है, और आत्माका स्वभाव शाश्वत है, फिर क्षणिक पदार्थों के साथ राग करनेसे लाभ ही क्या है ? | इस प्रकारके विवेकपूर्ण सद्विचारों से जब उनके प्रति उसकी दृष्टि रागरहित होती है और आत्मस्वभावकी ओर विशेष उन्मुख होती है तब वह विचारता है कि मैं एकाकी हूं, संसारमें मेरा कोई नहीं है और मैं भी किसीका नहीं हूँ। कहा भी है66 कायः संनिहितापायः, संपदः पद्मापदाम् । समागमाः सापगमाः, सर्वमुत्पादि भंगुरम् ॥ नायमत्यन्तसंवासः कस्यचित् केनचित्सह । अपि स्वेन शरीरेण, किमुतान्यैः पृथग्जनैः ॥ २ ॥ આત્મા આ શરીરના મમત્વભાવનો ત્યાગ કરે છે. તે જ્ઞાની જાણે છે કે-આ સ્વજન ધન અને શરીરક્રિકોની સાથે જે આ જ્ઞાતા દ્રષ્ટા આત્માનો સમંધ થયેલ છે તે કેવળ સંયોગમાત્ર છે. સયાગ—સમધવાળાઓના વિયેાગ અવશ્ય ભાવી છે. જ્ઞાન અને આત્માના જે પ્રકારે તાદાત્મ્ય સંબંધ છે તે પ્રકારના સમધ તેની સાથે તેના નથી, માટે આ તેના સયાગ ક્ષણુભંગુર છે, અને આત્માને સ્વભાવ શાશ્વત છે, પછી ક્ષણિક પદ્યાર્થીની સાથે રાગ કરવાથી લાભ જ શું છે?, આવા પ્રકારના વિવેકપૂર્ણ સવિચારોથી જ્યારે તેના પ્રતિતેની દૃષ્ટિ રાગ–રહિત થાય છે, અને આત્મસ્વભાવની તરફ વિશેષ ઉન્મુખ થાય છે ત્યારે આ રીતે વિચારે છે કેહું એકલા જ છું, સ સારમાં મારૂં કઈ નથી, અને હું પણ કોઇનો नथी. उद्धुं पशु छे
१ ॥
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कायः संनिहितापायः, संपदः पदमापदाम् । समागमाः सापगमाः, सर्वमुत्पादि भंगुरम् ॥ १ ॥ नायमत्यन्तसंवासः, कस्यचित्केनचित्सह । अपि स्वेन शरीरेण, किमुतान्यैः पृथग्जनैः ॥ २॥
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किंच - कसेहि अप्पाणं ' इत्यादि ।
मूलम् - कसेहि अप्पाणं जरेहि अप्पाणं ॥ सू० ५॥
छाया - कुशं कुरु आत्मानं जारय आत्मानम् ॥ ०५ ॥
टीका - - आत्मानं = शरीरम्, इह आत्मशब्दः शरीरवाची गृह्यते; कुशं कुरु= तपश्चरणादिना शरीरशोपणे प्रवृत्तो भवेदित्यर्थः । तथा - आत्मानं शरीरं जारय= जीर्णे कुरु, तपश्चरणेन तथा कुरु यथा जराजीर्णमिव भवेदित्यर्थः । शुश्रूषाविभूषापरिद्वारेण शरीरस्य निःसारतामापादय, स्वदेहं निर्बलं रूक्षं च कुरुष्वेति भावः ॥०५॥ नहीं; जो अभी साथ में रह रहे हैं वे भी सदा साथ रहनेके नहीं । जिस प्रकार नदियों के तट पर खडे हुए वृक्षोंको उनका जल उखाड़ कर फेक देता है उसी प्रकार मेरे ये स्वजनादिक मुझे हर तरह से आत्मस्वरूप से उखाड़ देने की कोशिश में लगे हुए हैं ॥ ६ ॥
इसलिये मनुष्यको चाहिये कि इन संयोगी पदार्थों से ममत्वरहित होकर आत्मकल्याणके मार्गका पथिक वने ॥ सू० ४ ॥
भगवान् अपनी दिव्यदेशनामें भव्य जीवों को समझाते हुए कहते हैंकसेहि अप्पाणं ' इत्यादि ।
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आचाराङ्गसूत्रे
हे भव्य ! तूं इस शरीरका तपस्या आदि शुभ साधनों के द्वारा शोषण कर, तथा तपस्या भी ऐसी कर कि जिससे यह शरीर जरावृद्धावस्था से जीर्ण हुए के समान हो जावे ।
शरीर के प्रति ममता रख कर उसकी सेवाशुश्रूषा और विभूषा आदि न कर; किन्तु तपश्चर्या के द्वारा इसे निर्बल और रूक्ष वना ॥ ०५ ॥
સાથે રહે છે તે પણ હમેશાં સાથે રહેનાર નથી જેવી રીતે નદીના કિનારા ઉપરના વૃક્ષાને તેનુ પાણી ઉખાડીને ફેકી દે છે તેવી જ રીતે મારા આ સ્વજનાહિક મને કાઇ પ્રકારે આત્મ સ્વરૂપથી ઉખાડી દેવાની કેશિશમા લાગેલાં છે (૬)
માટે મનુષ્યાને સમજવું જોઈએ કે
ઞયેગી પદાર્થોથી મમત્વ-રહિત
થઈ ને આત્મકલ્યાણના માર્ગ મા આગળ વધે. પ્રસૂ૦ ૪૫
ભગવાન પાતાની દિવ્યદેશનામા ભવ્ય જીવોને સમાવતા કહે છે— कसेहि अप्पाण' त्यिादि.
હું ભવ્ય ' હું આ શરીરનું તપ આદિ શુભસાધનદ્વારા શેષણ કર, અને તપ પણ એવી રીતે કર કે જેથી નાફ આ શરીર જરા-વૃદ્ધાવસ્થાથી જીણ જેવું થઈ ાય. શરીર પ્રતિ મનતા રાખીને તેની સેવા શુશ્રુષા અને વિભૂષા આદિ ન કુ, કિન્તુ તપશ્ચર્યાદ્વારા તેને નિળ અને રૂક્ષ બનાવ ॥ ३०५ ॥
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ. ३
यह शरीर जो मुझे प्राप्त हुआ है उसका पतन अवश्यंभावी है । संपत्ति अनेक विपत्तियों की जननी है। इष्टमित्रादिकों का समागम ध्रुव नहीं है । सब पदार्थ उत्पत्ति और विनाश स्वभाववाले है ॥१॥ यहां पर किसी को किसी के साथ निवास स्थिर नहीं है। दूसरों की तो बात ही क्या करनी ? अरे ! इस शरीर के साथ भी तो आत्माका सम्बन्ध स्थिर नहीं है ॥ २॥ इस अनन्त संसारमें जो मेरे हजारों मातापिता हो गयेवे दूसरे ही थे; अभी जो हैं वे दूसरे ही हैं; आगे जो होंगे वे भी दूसरे ही होंगे ॥३॥ फिर भी कहा है
यहां पर जीव अकेला ही शुभाशुभ काँका कर्ता है और अकेला ही शुभाशुभ फलोंका भोक्ता है । यह अकेला ही मरता है और अकेला ही भवान्तरमें जाता है ॥४॥ ____ मैं सदा अकेला हूँ, न मेरा कोई है और न मैं किसीका हूँ। मैं जिनका हूँ ऐसे अपने पिता-पितामहादिकों को आज नहीं देख रहा हूँ, क्यों कि वे कालकवलित होगये। और ऐसा भी कोई नहीं होगा जिसका मैं होऊँ। अर्थात्-मेरे कालकवलित हो जाने पर मैं भी अपने पुत्रादिकों का नहीं रहूंगा ॥५॥ जो इस संसारसे परलोकवासी हो गये हैं वे अब मिलनेके
આ શરીર જે મને પ્રાપ્ત થયેલ છે, તેને નાશ જરૂર છે. સંપત્તિ અનેક વિપત્તિઓની માતા છે. ઈષ્ટ મિત્રને સમાગમ પણ ધ્રુવ નથી. જે ઉત્પત્તિશીલ પદાર્થો છે તે બધા ક્ષણભંગુર છે. (૧) અહીં કોઈને કોઈની સાથે નિવાસ સ્થિર નથી. બીજાની તે વાત જ શી કરવી? અરે! આ શરીરની સાથે આત્માને સંબંધ પણ સ્થિર નથી. (૨) આ અનંત સંસારમાં જે મારા હજારો માતા પિતા અને સેંકડે પુત્રો અને સ્ત્રિઓ થઈ ગયા તે બીજા જ હતા અને જે અત્યારે છે તે પણ બીજા જ છે, અને જે આગળ થશે તે પણ બીજા જ થશે. પાકા વળી પણ કહ્યું છે—
અહીં જીવ એકલે જ શુભાશુભ કર્મોને કર્યા છે, અને એકલો જ શુભાશુભ ફળને ભક્તા છે. તે એકલે જ મરે છે અને એક જ ભવાન્તરમાં જાય છે. (૪)
હમેશાં હું એકલું છું, મારે કઈ નથી, તેમ જ હું પણ કોઈનો નથી. જેનો હું છું એવા પિતાના બાપ દાદાઓને આજે હું તે નથી, કેમ કે–તે બધા કાળકાવળિત થઈ ગયા, અને એ પણ કઈ નહિ થશે જેને હું થાઉં, અર્થાત– મારું શરીર છુટ્યા પછી હું પણ પિતાના પુત્રાદિકોને રહીશ નહિ (૫) જે આ સંસારથી પરેલેકવાસી થયા છે તે હવે મળવાનાં નથી, જે હાલ
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आवाराङ्गसूत्रे
उक्तरीत्या रागनिवृत्तिं प्रदर्श्य द्वेषनिवृत्तिमाह-' विगिंच कोहं ' इत्यादि । मूलम् - विगिंच कोहं अविकंपमाणे इमं निरुद्धाउयं संपेहाए ॥७॥ छाया-विश्व क्रोधम् अविकम्पमानः इमं निरुद्धायुष्कं संप्रेक्ष्य ॥ ०७ ॥ टीका -- इमं = मनुष्यलोकं, निरुद्वायुष्कम् = अवर्धितायुष्कं संप्रेक्ष्य = पर्यालोच्य, अविकम्पमानः क्रोधजनितकम्परहितः प्रशमगुणसमन्वितः सन्नित्यर्थः क्रोधम्प्रज्वलनरूपातिक्रूराध्यवसायः क्रोधस्तं वेविश्व = परित्यज, क्रोधमतिपदं सकलकपायोपलक्षणम् ॥ म्० ७ ॥
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पूर्वोक्त रीति से रागकी निवृत्ति प्रकट कर अब द्वेषकी निवृत्ति कहते fafia कोहं' इत्यादि ।
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इस मनुष्यलोकको अवर्धित - नियमित आयुवाला जान क्रोधसे उत्पन्न हुए विकार - परिणामसे रहित होकर अर्थात् प्रशमगुणसम्पन्न होकर आत्माको जलानेवाले क्रूर अध्यवसायस्वरूप इस क्रोधका, उपल क्षणसे- मान, माया और लोभ का भी त्याग कर ।
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तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार रागभाव त्याज्य है उसी प्रकार द्वेषभाव भी त्याज्य है, अतः जब किसी भी सचेतन, अचेतन वस्तु पर द्वेष होता है तब आत्मामें क्रोध पैदा होता है; क्रोधसे शरीरमें कंप की जागृति होती है; शारीरिक कंप से आत्मा के प्रदेशों में भी एक प्रकार की परिस्पंदरूप क्रिया होती है जिससे उस हालत में अधिक श्वास- उच्छ्वास चलने लगते हैं, अधिक श्वासोच्छ्वासों के चलने से आयुकर्म के अविभागी प्रतिच्छेदों-विभागों का ह्रास होता है, और इस तरह से अकाल में ही आयु
પૂર્વોક્ત રીતિથી રાગની નિવૃત્તિ પ્રગટ કરી, હવે દ્વેષની નિવૃત્તિ કહે છેविगिंच कोहं' त्याहि
આ મનુષ્યલેાકને અવધિ ત–નિયમિત આયુવાળે જાણીને ક્રોધથી ઉત્પન્ન થયેલ વિકારપરિણામથી રહિત થઈ અર્થાત્ પ્રશમગુણસંપન્ન થઈ આત્માને બાળવાવાળા ક્રૂરઅધ્યવસાયસ્વરૂપ આ ક્રોધના, ઉપલક્ષણથી માન માયા અને લેાભનેા ત્યાગ કર તાત્પર્ય એ છે કે-જે પ્રકારે રાગભાવ ત્યાજ્ય છે તે પ્રકારે દ્વેષભાવ પણ ત્યાજ્ય છે, માટે જ્યારે કાઇ પણ સચેત-અર્ચત વસ્તુ ઉપર દ્વેષ થાય છે ત્યારે આત્મામા કોધ પેદા થાય છે ક્રોધથી શરીર ધ્રુજવા માડે છે. શરીરના ધ્રુજવાથી આત્માના પ્રદેશોમાં પણ એક પ્રકારની પરિક્સ્પદ્યરૂપ ક્રિયા થાય છે જેથી તેવી હાલમા અધિક શ્વાસ-ઉચ્છ્વાસ ચાલવા લાગે છે, અધિક વ્હાઞાાસાના ચાલવાથી આયુકના અવિભાજ્ય પ્રતિછે—વિભાગે ના હામ
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सस्यक्त्व - अध्य० ४. उ. ३
किमर्थम् इत्येतदिति जिज्ञासायामाह -- 'जहा जुन्नाई' इत्यादि । मूलम् - जहा जुन्नाई कट्ठाई हववाहो पमत्थइ, एवं अत्तसमाहिए अणि ॥ सू० ६ ॥
छाया - - यथा जीर्णानि काष्ठानि हव्यवाट् प्रमथ्नाति एवम् आत्मसमाहितः अस्निहः ॥ ०६ ॥
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टीका—यथा हव्यवाट्=अग्निः, जीर्णानि =असाराणि शुष्काणि, काष्ठानि प्रमथ्नाति = त्वरितं भस्मसात् करोति, एवम् अनेन प्रकारेण अस्निहः शब्दादिविषयेषु रागरहितः सन् शरीरादौ निर्ममो भूत्वा इति फलितार्थः; आत्मसमाहितः= आत्मनि=आत्मनः शुभ परिणामे सम्यग्दर्शनादौ समाहितः = सावधान : आत्मनिष्ठ इत्यर्थः, अतएव - अस्निहः शब्दादिविषयेषु रागरहितः सन् ज्ञानावरणीयाद्यष्टविधकर्मकाष्ठानि प्रमथ्नातीत्यर्थः ॥ ०६ ॥
इस प्रकार शरीरको निर्बल और रूक्ष करनेकी आवश्यकता क्यों है ? इसको कहते है- 'जहा जुन्नाई ' इत्यादि ।
जिस प्रकार शुष्क काष्ठको अग्नि शीघ्र भस्म कर देती है उसी प्रकार शब्दादि विषयों में निर्मम होकर केवल आत्मा के शुभपरिणामरूप समकित आदि में सावधान- आत्मनिष्ठ हुआ मनुष्य ज्ञानावरणी - यादिक अष्ट प्रकारके कर्मरूप काष्ठको जला देता है - नष्ट कर देता है।
शरीरमें जब तक ममत्वभाव रहता है तब तक यथावत् तपश्चर्यादिक साधनों का अनुष्ठान नहीं हो सकता है, अतः यथावत् तपश्चर्यादिक अनुष्ठानों को करने के लिये शरीर में निर्ममत्व भावकी जागृति अवश्य आवश्यकीय है। ऐसा होने पर यथावत् अनुष्ठित तपश्चर्यादिक साधनों से कर्मों का नाश अवश्यंभावी है | मू० ६ ॥
આ પ્રકારે શરીરને નિષ્ફળ અને રૂક્ષ મનાવવાની આવશ્યક્તા શા માટે? तो अछे - 'जहा जुन्नाई' धत्याहि.
જેમ સુકા લાકડાને અગ્નિ જલ્દી મળી નાંખે છે તેમ શબ્દાઢિવિષયામાં મમતા વગર થઈ ને ફક્ત આત્માના શુભપરિણામરૂપ સમકિત આદિમાં સાવધાન—આત્મનિષ્ઠ થયેલેા મનુષ્ય જ્ઞાનાવરણીયાક્રિક આઠ પ્રકારના કર્મરૂપ કાષ્ઠોને माणी नांचे छे-नाश रे छे.
શરીરમાં જ્યાં સુધી મમતાભાવ રહે છે ત્યાં સુધી ખરાખર રીતે તપશ્ચર્યા દિક સાધનાનું અનુષ્ઠાન બનતું નથી, માટે ખરેખર રીતે તપશ્ચર્યાદિક અનુષ્ઠાનાને કરવા શરીરમાં નિમત્વ ભાવની જાગૃતિની ખાસ જરૂર છે. આમ થવાથી સરખી રીતે અનુષ્ઠિત તપશ્ચર્યાદિકસાધનદ્વારા કર્મોના અવશ્ય નાશ થાય છે. ॥ સૂ॰ ૬૫
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आचाराङ्गसूत्रे प्राणिनां दुःखं जानीहि, यद्वा-क्रोधादिना प्रज्वलितात्मनो यन्मानसं दुःखमुपजायते तज्जानीहि। अथ-आगामि-क्रोधजनितकर्मविपाकोदयाज्जायमानमनागतकालिकं दुःखं च जानीहि । आगामिनो दुःखस्य प्राप्तिस्थानमाह-' पृथक् ' इत्यादि। पृथक्-अन्यत्र नरकनिगोदादौ स्पर्शान्-दुःखानि च क्रोधी स्पृशेत्-अनुभवेत् । अत्र चकारः समुच्चयार्थः, क्रोधप्रज्वलितात्मनो न केवलं वर्तमानकालिक एव मनस्तापः किंतु भविष्यत्कालेऽपि नरकादौ क्रोधजनितकर्मफलभूतं दुःखं भवतीत्यर्थः । मोक्षकरना कराना और अनुमोदना, इन तीन करणों से, एवं मन, वचन तथा काय से दूसरे जीवों की हिंसादिक करने में प्रवृत्त होता है तब उन प्राणियों को दुःग्व अवश्य उत्पन्न होता है । अथवा-क्रोधादि कषाय से आत्मा जब संतप्त हो जाता है तब उसके लिये अवश्य मानसिक कष्ट होता है । तथा क्रोध कषाय करते समय जीव जिन कर्मों का बंध करता है और जब वे तीन अनुभागरूपसे उदयमें आते हैं तब उनका फल दुःखरूप ही होता है । इस फलकी प्राप्ति जीवको नरकनिगोदादि गतियों में वहां के अनंत कष्टों को भोगने के रूपमें होती है। ____ यहां पर 'चकार' समुच्चय अर्थ को प्रकट करता है, अर्थात्क्रोधसे संतप्त आत्मा केवल वर्तमानकालमें (उसी भव में ) ही मनस्तापरूप दुःखको नहीं भोगता है; किन्तु आगामी कालमें (परभवमें) भी नरकादि गतियों में उस क्रोधसे जनित कर्मके फलरूप दुःखका अनुभव करता है, इसलिये क्रोधादिक कषायों को छोड़ कर मोक्ष मार्ग में प्रवृत्ति કરાવવું, અને અનમેદવુ, આ ત્રણ કારણથી, અને મન, વચન, કાયાથી બીજા જીવોની હિંસા આદિ કરવામાં પ્રવૃત્ત થાય છે ત્યારે આ પ્રાણીને દુ ખ અવશ્ય થાય છે અથવા–ફોધાદિ કષાયથી આત્મા જ્યારે સંતપ્ત થઈ જાય છે ત્યારે તેને માટે માનસિક કષ્ટ અવશ્ય થાય છે તથા કોધકષાય કરતી વખતે જીવ જે કર્મોને બ ધ કરે છે, અને જ્યારે તે તીવ્ર અનુભાગરૂપથી ઉદયમાં આવે છે ત્યારે તેનું ફળ દુ:ખરૂપ જ થાય છે આ ફળની પ્રાપ્તિ જીવને નરકનિગોદાદિ ગતિમા ત્યાન અનત કન્ટેના ભેગવવારૂપે થાય છે
___ 'चकार 'सभुस्यय अर्थ ने प्रगट ४२ छ, अर्थात्-ओपथी सतत આમા કેવળ વર્તમાનકાળમાં (આ ભવમાં જ) મનતાપરૂપી દુખને ભેગવતે નથી, પરંતુ આગામી કાળમાં (પરભવમાં) પણ નરકાદિ ગતિઓમા તે ક્રોધથી ઉત્પન્ન થયેલા કર્મના ફળરૂપ દુઃખને અનુભવ કરે છે, માટે ફોધાદિષાને
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ.३
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___ किंच--दुक्खं च जाण' इत्यादि ।
मूलम्-दुक्खं च जाण अदु आगमेस्सं, पुढो फासाइंच फासे, लोयं च पास विफंदमाणं ॥ सू०८॥
छाया-दुःखं च जानीहि अथ आगामि, पृथक् स्पर्शान् च स्पृशेत, लोकं च पश्य विस्पन्दमानम् ॥ सू०८॥ ___टीका--क्रोधादिवशात् त्रिकरणत्रियोगैः प्राणातिपातादिकरणे समुत्पद्यमान कर्म की स्थिति पूर्ण हो जाती है, अतः भगवान का कथन है कि कषायरूप क्रोध करते समय इस बातका प्रत्येक आत्महितैषी जीवको विचार करना चाहिये कि जिस प्रकार घड़ी की चाबी उसके नीचे चलते हुए गोले को अधिक-बारंबार घुमानेसे असमयमें खाली हो जाती है उसी प्रकार कषायादि करने से आयुकर्म की स्थिति भी असमयमें खिर जाती है। आयुकर्म की निर्जरा तो होती है परन्तु बद्ध आयु में उत्कर्षण (अधिकता ) नहीं होता। जिस प्रकार जीव सात कर्मों को प्रत्येक समय बांधता और निर्जीर्ण करता है उस प्रकार आयुकर्म को नहीं बांधता। जितनी कुछ आयुकर्म की स्थिति बंध चुकी वह उतनी ही रहेगी, उसमें फिर वृद्धि नहीं हो सकती। हां ! बाह्य निमित्तों को लेकर उसमें अपकर्षण ( हास) जरूर होता है । सू० ७॥
फिर भगवान कहते हैं-'दुक्खं च जाण' इत्यादि।
यह निश्चित है कि-क्रोधादिक कषायके आधीन होकर जब जीव થાય છે, અને આવી રીતે અકાળે આયુકર્મની સ્થિતિ પૂર્ણ થઈ જાય છે, માટે ભગવાનનું કથન છે કે-કષાયરૂપ કોધ કરતી વખતે પ્રત્યેક આત્મહિતૈષી જીવને વિચાર કરવું જોઈએ કે જેમ ઘડીયાળની ચાવી તેની નીચે ચાલતા લોલકને વારંવાર અધિક ઘુમાવવાથી અસમયમાં ખાલી થઈ જાય છે, તેમ કષાયાદિ કરવાથી આયુકર્મની સ્થિતિ પણ અસમયમાં ખલાસ થઈ જાય છે. આયુ કર્મની નિર્જરા તે થાય છે પણ બદ્ધ-બાંધેલા આયુમાં ઉત્કર્ષણ (અધિકપણું) નથી હતું. જેવી રીતે જીવ સાત કર્મોને પ્રત્યેક સમય બાંધે છે, અને તેની નિર્જરા કરે છે, તેવી રીતે આયુકર્મને નથી બાંધતે. જેટલી પણ આયુકર્મની સ્થિતિ બંધાએલી છે તે તેટલી જ રહેશે. તેમાં વધારે થઈ શકતું નથી. હાં, બાહ્ય નિમિત્તો લઈને તેમાં અપકર્ષણ (હાસ) અવશ્ય થાય છે. સૂ૦ ૭
quी मावान हे छे–'दुक्खं च जाण' त्याहि. એ નિશ્ચિત છે કે-કોધાદિક કષાયને આધીન થઈ જ્યારે જીવ કરવું,
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आचाराङ्गस्ने जब उनका अपने अवाधाकाल को छोड़ कर उदय आवेगा तब वह भी नीव्रतम रूपसे ही अपना फल देगा, अतः जीव या तो इसी भवमें नजन्य दुःखादिकों का पूर्ण भोक्ता होगा, और यदि अवशिष्ट वचेंगे तो उनका फल उसे नरकनिगोदादि में जाकर भोगना पडेगा। यही यात इस सत्र में प्रकट की गई है। 'चकार' शब्द जो सूत्रमें पड़ा है वह यह भी प्रकट करता है कि-क्रोधकषाय के वश होकर प्राणातिपातादिक में प्रवृत्ति करनेवाला जीव तज्जन्य दुःख को इस भवमें और परभवमें (नरकनिगोदादिकों में) भी भोगता है।
क्रोधकपाय से जिस समय आत्मा संतप्त हो जाता है उस समय उस आत्मा का मन संतप्त होता है, मनका संतप्त होना ही भावहिंसा है। मनके संताप से अशुभ कमों का आत्रव होता है। ___अन्तमें सूत्रकार उपसंहार करते हुए कहते हैं कि जब क्रोधादिक कपायों के करने से जीवों को दुःख भोगना पड़ता है और संसार में कोई भी प्राणी दुःख को नहीं चाहता, सब सुखके ही अभिलाषी हैं, तो भव्य का कर्तव्य है कि वह इस दुःख के अभावरूप मोक्ष मार्ग में प्रवृत्ति करे। संसार में थोड़ा सा भी सुख नहीं है । जिसे जीवने सुख मान रखा है वह काल्पनिक है । आकुलता का जब तक सर्वथा अन्त नहीं हो થશે એવી સ્થિતિમાં જ્યારે પિતાના અબાધાકાળને છોડીને તેને ઉદય થશે ત્યારે તે પણ તીવ્રતમરૂપથી જ પિતાનુ ફળ આપશે, માટે જીવ કા તો આ ભવમાં જ તજન્ય દુખાદિકોને પૂર્ણ રૂપે ભગવશે, અને જે અવશિષ્ટ બચશે તે તેનું ફળ તેણે નરક નિગોદાદિમા જઈને ભેગવવું પડશે આ જ વાત આ સૂત્રમાં प्रगट ४२वामा भावीछे 'चकार' शो सूत्रमा छ, ते ओम प्रगट रेछे કે—ધ-કવાયને વશ થઈ પ્રાણાતિપાતાદિકમા પ્રવૃત્તિ કરવાવાળા જીવ તજન્ય દુઃખને આ ભવમા અને પરભવમાં (નરકનિદાદિકોમા) પણ ભોગવે છે.
-કષાયથી જે વખતે આત્મા સંતપ્ત થઈ જાય છે, તે વખતે તે આત્માનું મન સંતપ્ત થાય છે. મનનું સતત થવું એ જ ભાવહિંસા છે
મનના મ તાપથી અશુભ કર્મોના આસવ થાય છે આ તમા સૂત્રકાર ઉપલહાર કરતાં કહે છે કે-જ્યારે ધાદિક કાર્યો કરવાથી અને દુઃખ ભોગવવું પડે છે અને સારા કોઈ પણ પ્રાણી અને નથી ચાહતે, બધા સુખના જ અભિલાષી છે. ત્યારે ભવ્ય પ્રાણીનું કર્તવ્ય છે કે આ દુખના અભાવરૂપ મોલમાર્ગમાં પ્રવૃત્તિ કર. બારમા શે પણ ગુણ નથી, છે જેને સુખ માન્યું છે તે કાલ્પનિક છે આકુળતાને ત્યા સુધી સર્વથા અંન નથી તે ત્યાં
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सम्यक्त्व - अध्य० ४ उ. ३
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मार्गे प्रवर्तयितुमाह--' लोकं च' इत्यादि । विस्पन्दमानं दुःखागमभयात् कम्पमानं लोकं = जीवनिकायं पश्य, प्रशमसमन्वितः सन् दुःखभयात्कम्पमानं जीवलोकं दयादृष्ट्याऽवलोकयेत्यर्थः ॥ सू० ८ ॥
कराने के लिये सूत्रकार कहते हैं कि हे भव्य ! दुःखकी प्राप्ति के भयसे कंपायमान इस षड्जीवनिकाय को तूं देख, अर्थात् प्रशमभाव से युक्त होकर दुःखके भय से त्रस्त जीवलोक को सदा तूं दयादृष्टिसे देख |
बन्ध चार प्रकारका है - प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध । इनमें योगसे प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध होते हैं । कषायसे स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध होते हैं । रंगका काम कपड़े को रंगने का है परन्तु हरी और फिटकरी के समागम से जिस प्रकार वह रंग कपडे पर गहरा हो जाता है उसी प्रकार कषाय की अल्पता और अधिकता कर्मे स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धकी अल्पता और अधिकता में कारण होती है, अत एव कषाय यदि तीव्र होगी, तो कर्मों का तीव्र स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध होगा । कषाय मध्यमांशवाली होगी तो उनका मध्यमांश बंध होगा । बुद्धिपूर्वक प्राणातिपातादि सावद्य व्यापार करते समय जीवको अनन्तानुबन्धी क्रोधकषाय का तीव्रतम अंश होता है, ऐसी हालतमें जीव को जो कर्मों का बंध होगा वह तीव्रतम स्थिति और अनुभागबंध को ही लेकर होगा। ऐसी हालत में છેડીને મેાક્ષમામાં પ્રવૃત્તિ કરાવવા સૂત્રકાર કહે છે કે હે ભવ્ય । દુઃખના ભયથી કંપાયમાન આ ષડ્ઝનિકાયને તું દેખ, અર્થાત્-પ્રશમભાવથી યુક્ત થઈ દુ:ખના ભયથી ત્રાસેલા જીવલેાકને સદા તું યાદૃષ્ટિથી દેખ.
અંધ ચાર પ્રકારના છે-પ્રકૃતિબંધ, સ્થિતિમ ધ, અનુભાગમધ અને પ્રદેશમધ. આમાં યાગથી પ્રકૃતિબંધ અને પ્રદેશબંધ થાય છે. કષાયથી સ્થિતિમ ધ અને અનુભાગખંધ થાય છે. રંગનું કામ કપડાને રગવાનું છે પરંતુ હરડાં અને ફટકડીથી જે પ્રકારેતે રંગ વધારે ગાઢા થાય છે તે પ્રકારે કષાયની અલ્પતા અને અધિકતા કર્માંના સ્થિતિમ ધ અને અનુભાગમધની અલ્પતા અને અધિકતામાં કારણ થાય છે, માટે કષાય જો તીવ્ર હશે તો કર્મનો સ્થિતિબંધ અને અનુભાગમ ધ તીવ્ર થશે. કષાય મધ્યમાંશવાળા હશે તે કર્મનો સ્થિતિમ ધ અને અનુભાગમ ધ મધ્યમ થશે. બુદ્ધિપૂર્વક પ્રાણાતિપાતાદ્રિ સાવદ્ય વ્યાપાર કરતી વખતે જીવને અ ન તાનુખ ધી ક્રોધકષાયના તીવ્રતમ અંશ થાય છે, તેવી હાલતમાં જીવને જે તે સમયે કર્મોના અંધ થશે તે તીવ્રતમ સ્થિતિમ`ધ અને અનુભાગમધને જ લઇને
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आधारासूत्र से सर्वदा शांत हो चुके हैं, और इसीलिये पापकर्मों में जो निदानबन्ध से रहित हैं वे परम सुख के स्थानरूप से कहे गये हैं।
टीकाकारने जो क्रोधादिक कषायों के लिये अग्नि की उपमा दी है वह सार्थक है, कारण कि जिस प्रकार अग्नि से अत्यन्त तप्त लोहे का गोला पानी में डालने पर अपने चारों ओर के पानी को खींचता है उसी प्रकार यह आत्माभी जब कषायों से अत्यन्त संतप्त हो जाता है तब अपनी चारों ओर भरी हुई कार्मणवर्गणाओं को मन, वचन, कायरूप नालियों से खींचता है । खाया हुआ अन्न जिस प्रकार रस-रुधिर-आदि रूपमें परिणत होता है उसी प्रकार गृहीत वे कार्मणवर्गणाएँ भी ज्ञानावरणादिककर्मरूपसे एकही साथ परिणत हो जाती हैं । कर्मरूप से बंधी हुई इन कार्मणवर्गणाओं की चार प्रकार की अवस्थाएँ होती हैं, प्रकृतिबंध, स्थितिबंध अनुभागबंध और प्रदेशबंध । यह निश्चित है कि जब कोई एक पदार्थ किसी दूसरे पदार्थ को आवृत करता है या उसकी शक्ति का घात करता है तब आवरण करनेवाले पदार्थ में-'आवरण करने का स्वभाव, आवरण करने का काल, आवरणकी शक्ति की हीनाधिकता और आवरण करने वाले पदार्थ का परिमाण, ये चार अवस्थाएँ एक साथ प्रकट होती हैं । यही बात इन बंध के भेदों में भी समझना चाहिये । आत्मा आत्रियमाण है તે સર્વથા શાત થયેલ છે આથી જે પાપકર્મોમા નિદાનબધથી રહિત છે તેને પરમ સુખના સ્થાનરૂપ કહેવામાં આવેલ છે. ટીકાકારે કાધાદિક કષાયને માટે જે અગ્નિની ઉપમા આપી છે તે બરોબર છે, કારણ કે જે પ્રકારે અગ્નિથી અત્યત તપાવેલ લખંડને ગેળે પાણીમાં નાંખવાથી પિતાના ચારે બાજુના પાણીને ખેંચે છે તે પ્રકારે ત્યારે આત્મા પણ કવાથી અત્યન્ત સતત થાય છે ત્યારે પોતાની ચારે બાજુ ભરેલી કામણવર્ગણાઓને મન-વચન-કાયારૂપ નાળિયેથી ખેચે છે જેવી રીતે ખાધેલું અનાજ રસ રૂધિર આદિ રૂપમાં પરિણત થાય છે તે પ્રકારે ગૃહીત આ કામણવર્ગણાઓ પણ જ્ઞાનાવરણાદિક કર્મરૂપથી એક જ સાથે પરિણત થઈ જાય છે. કર્મરૂપથી બધેલી આ કામણગણાઓની ચાર પ્રકારની અવસ્થાઓ થાય છે–પ્રતિબંધ સ્થિતિ ધ, અનુભાગબંધ અને પ્રદેશમાં ધ, એ નિશ્ચિત છે કે જ્યારે કે એક પદાઈ કઈ બીજા પદાર્થને આવૃત કરે છે અગર તેની શક્તિને ઘાત કરે છે ત્યારે આવરણ કરનાર પદાર્થોમા–આવરણ કરવાના સ્વભાવ ૧, આવરણ કરવાને કાળ ૨, આવરહની શક્તિની હીનાધિકતા ૩, અને આવરણ કરનાર પદાર્થનું પરિમાણ ૪ આ ચાર અવસ્થાને એક સાથે પ્રગટ થાય છે, આ વાત ન ધના ભેદ્યમાં પણ અમજવી
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आधाराणसूत्रे उक्तार्थमुपसंहरन्नाह--' तम्हा' इत्यादि । मूलम्-तम्हाअतिविजो नो पडिसंजलिज्जासि-त्ति बेमि ॥सू०१०॥ छाया--तस्मात् अतिविद्वान् न पतिसंज्वले:-इति ब्रवीमि ॥ म० १० ॥
टीका--हे शिष्य ! तस्मात् यतः क्रोधादिकपायवान् अनन्तदुखं प्राप्नोति तस्मात्, त्वम्-अतिविद्वान्-आहेतागमपरिशीलनजनितसम्यग्ज्ञानवान् सन् न प्रतिसंज्वले क्रोधवह्निनाऽऽत्मानं न प्रतापयरित्यर्थः । कपायेषु क्रोधस्य प्राधावह सर्वघाति द्रव्य का अनन्तवां भाग होता है, और जो देशघाति द्रव्य है यह देशघाति द्रव्य का अनन्तबहुभाग होता है। इसमें भी देशघाति द्रव्य का बटवारा देशघाती प्रकृतियों में ही होता है, सर्वघाति द्रव्य का बटवारा सर्वघाती देशघाती दोनों प्रकारकी प्रकृतियों में होता है, और नौ नोकपायों को देशघानी द्रव्य ही प्राप्त होता है, सर्वघाती नहीं ॥ म०९॥ ___ उक्त अर्थका उपसंहार करते हुए सम्रकार कहते हैं-'तम्हा अतिविज्जो' इत्यादि। ___ जब यह निर्विवाद सिद्ध है कि क्रोधादिक कषायवाले जीव अनन्त यातनाओं को इस लोक और परलोक में भोगते हैं तो हे शिष्य ! अर्हतप्रतिपादित आगम के परिशीलन से सम्यग्ज्ञानसंपन्न होते हए तुम क्रोधरूप अग्नि से अपनी आत्मा को कभी भी प्रज्वलित नहीं करना। यहां અન તમે ભાગ હોય છે, અને જે દેશઘાતિક દ્રવ્ય છે તે દેશઘાતિક દ્રવ્ય અનત બહુભાગ હોય છે. આમ પણ દેશઘાતી દ્રવ્યની વહેંચણી દેશદ્યાતિ પ્રકૃતિમાં જ થાય છે, સર્વઘાતિ દ્રવ્યની વહેંચણી સર્વઘાતિ દેશઘાતિ અને પ્રકારની પ્રકૃતિમાં થાય છે, અને નવનકથાને દેશઘાતિ દ્રવ્ય જ પ્રાપ્ત થાય છે, સર્વ ઘાતિ નહિ ! સૂત્ર ૯
31 याने GA२ ४२ता सूत्रा२४ छ-' तम्हा अतिविज्जो' प्रत्याहि.
ત્યારે આ નિર્વિવાદ સિદ્ધ છે કે કોધાદિક કષાયવાળો જીવ અનંત યાતनामाने नाउमा भने ५२मा सागवे छे त्यारे शिष्य । अतिविद्वान्-मई त પ્રતિપાદિત આગમનના પશ્ચિલનથી સમ્યજ્ઞાનમ પન્ન થતાં તમે ધરૂપ અગ્નિથી પિતાના આત્માને કેઈ વખતે પણ સળગાવશે નહિ. આ જગ્યાએ કંધની પ્રધા
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सम्यकत्व-अध्य० ४ उ. ३
और कर्म आवरण हैं, अतः कर्म की भी बंध के समय में चार अवस्थाएँ प्रगट होती हैं । ये चारों अवस्थाएँ कर्मबंध के प्रथम समय में ही सुनिश्चित हो जाती हैं। उदाहरणार्थ-जिस समय हम लालटेनको वस्त्रसे ढांकते हैं उसी समय उस आवरण करनेवाले वस्त्रमें चार अवस्थाएँ स्पष्टतः प्रतिभासित होती हैं
(१) वस्त्रका स्वभाव लालटेन के प्रकाशको आवृत करना (२) निश्चित काल तक लालटेन के प्रकाश को आवृत किये रहना (३) लालटेन के प्रकाश आवृत करने की शक्ति का वस्त्र में हीनाधिक रूपसे पाया जाना
और (४) आवृत करने वाले वस्त्र का परिमाण। ___उन गृहीत कार्मणवर्गणाओं का प्रत्येक कर्म में बटवारा इस प्रकार से होता है। यदि आयुकर्म का भी बंध हो रहा है तो आयुकर्म को सब से थोड़ा द्रव्य मिलता है। नामगोत्र में प्रत्येक को इससे अधिक द्रव्य मिलता है तो भी इन दोनों कमी का द्रव्य समान रहता है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय में प्रत्येक को इससे अधिक द्रव्य मिलता है तो भी इनका द्रव्य परस्पर समान होता है। इससे मोहनीय कर्म को अधिक द्रव्य मिलता है और इससे वेदनीय कर्मको अधिक द्रव्य मिलता है । घातिया को को जो द्रव्य मिलता है इसमें जो सर्वघाति द्रव्य है જોઈએ. આત્મા આત્રિયમાણ છે અને કમ આવરણ છે, માટે બધા સમયમાં કર્મની પણ ચાર અવસ્થાઓ પ્રગટ થાય છે. આ ચારે અવસ્થાઓ કર્મ—બંધના પ્રથમ સમયમાં જ સુનિશ્ચિત થઈ જાય છે. દાખલા તરીકે જ્યારે બત્તીને વસ્ત્રથી ઢાંકીએ ત્યારે આવરણ કરવાવાળા તે વસ્ત્રમાં ચાર અવસ્થાએ સ્પષ્ટ પ્રતિભાસિત થાય છે– (૧) વસ્ત્રને સ્વભાવ બત્તીના પ્રકાશને રેકવું. (૨) નિશ્ચિત સમય સુધી બત્તીના પ્રકાશને રોકી રાખવે. (૩) બત્તીનો પ્રકાશ આવૃત કરવાની શક્તિને વસ્ત્રમાં હીનાધિકરૂપથી સભાવ. (૪) આવૃત કરનાર વસ્ત્રનું પરિમાણ. ગ્રહણ કરવામાં આવેલી તે કાર્મણવર્શણાઓની વહેંચણી પ્રત્યેક કર્મમાં આ પ્રકારે થાય છે–જે આયુ કર્મને બંધ થઈ રહ્યો છે તે આયુ કર્મને બધાથી થોડું દ્રવ્ય મળે છે, નામ-ગેત્રમાં પ્રત્યેકને તેથી અધિક દ્રવ્ય મળે તે પણ આ બને કર્મોના દ્રવ્ય સમાન રહે છે. જ્ઞાનાવરણ, દર્શનાવરણ અને અંતરાયમાં પ્રત્યેકને તેથી અધિક દ્રવ્ય મળે છે તે પણ તેઓનું દ્રવ્ય પરસ્પર સમાન હોય છે. એનાથી મેહનીય કર્મને અધિક દ્રવ્ય મળે છે અને વેદનીય કર્મને એનાથી પણ અધિક દ્રવ્ય મળે છે. ઘાતિયા કર્મોને જે દ્રવ્ય મળે છે તેમાં જે સર્વઘાતિક દ્રવ્ય છે તે સર્વઘાતિક દ્રવ્યને
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। अथ चतुर्थाध्ययनस्य चतुर्थ उद्देशः । इहानन्तरतृतीयोदेशकेऽनवद्यतपो वर्णितम् । तच्च संयमव्यवस्थितस्यैव संपूर्णतया भवति, तस्मात् संयमं प्रतिबोधयितुं चतुर्थोदेशकं कथयन्नादौ गृहीतप्रव्रज्यस्य कर्तव्यमाह-'आवीलए' इत्यादि ।
मूलम्-आवीलए पवीलए निप्पलिए जहित्ता पुव्वसंजोगं हिच्चा उवसमं ॥ सू० १॥
छाया-आपीडयेत् प्रपीडयेत् निष्पीडयेत् त्यक्त्वा पूर्वसंयोग हित्वा उपशमम् ॥
टोका--पूर्वसंयोग-पूर्वकालिकं मातापित्रादिसम्बन्ध, उपलक्षणात्पश्चात्संयोग श्वशुरादिसम्बन्धमपि त्यक्त्वा, यद्वा-पूर्व अनादिभवसमायातत्वेन प्राक्तनोऽसंयमः, तेन सह संयोगः पूर्वसंयोगस्तं त्यक्त्या, तथा-उपशमं कर्मोपशमकार
॥ चौथे अध्ययनका चौथा उद्देश ॥ इसके पहिले तृतीय उद्देशक में निरवद्य-निर्दोष तप का वर्णन किया जा चुका है, परन्तु निर्दोष तप की आराधना संपूर्ण रीति से जब तक जीव संयम में स्थित नहीं हो सकता तब तक उससे नहीं हो सकती; अतः संयम को प्रतियोधित करने के लिये इस चतुर्थ उद्देशक का प्रारम्भ किया जाता है। उसमें भी जिसने दीक्षा धारण की है, उसका सर्व प्रथम क्या कर्तव्य है ? इसका निरूपण सत्रकार करते हैं-'आपीलए' इत्यादि।
पूर्वकालिक-पूर्वकाल से सम्बन्ध रखनेवाले मातापिता आदि के तथा पश्चात्कालिक-श्वशुरादि के सम्बन्ध को, अथवा अनादि जन्मपरम्परा से संबंधित होने के कारण प्राक्तन असंयम भाव के अभी तक के
ચોથા અધ્યયનને ચેલે ઉદ્દેશ. આ પહેલાં ત્રીજા ઉદેશમાં નિરવદ્ય-નિર્દોષ તપનું વર્ણન કરેલ છે, પરંતુ નિર્દોષ તપની આરાધના સંપૂર્ણ રીતિથી જ્યાં સુધી જીવ સયમમાં સ્થિત નથી તે ત્યાં સુધી થઈ શકતી નથી, માટે સંયમને પ્રતિબંધિત કરવાને માટે આ
થા ઉદ્દેશને પ્રારંભ થાય છે. તેમાં પણ જેણે દીક્ષા ધારણ કરેલી છે. તેનું સર્વ प्रथम शुर्तव्य छे तेनु ३५५५ सूत्र२ ४२ छ-' आवीलए' त्यादि.
પૂર્વકાળથી સંબંધ રાખનાર માતા પિતા આદિના, તથા પછીના કાળમાં સંબંધ રાખવાવાળા શ્વશુરાદિના સબંધને, અથવા અનાદિ જન્મપર પરાથી સંબંધિત હોવાને કારણે પૂર્વ કાલિક જે અસયમભાવ છે તેના આજ સુધીના સંબંધને છોડી
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ. ३
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न्यात् क्रोधप्रतिषेधेनाऽन्येषामपि कषायाणां प्रतिषेधः कर्तव्य इति वोधितम् । इति = अयमुदेशकः समाप्यते । ब्रवीमि भगवतः समीपे यथा श्रुत तथा कथयामीत्यर्थः || सू० १० ॥
॥ चतुर्थाध्ययनस्य तृतीय उद्देशः समाप्तः ॥ ४-३ ॥
पर क्रोध की प्रधानता बतलाई है, इससे अन्य कथायों का भी परित्याग समझ लेना चाहिये । हे जम्बू ! मैंने भगवान् के समीप जैसा सुना है वैसा ही तुझे कहता हूँ ।
॥ चौथे अध्ययनका तीसरा उद्देश समाप्त ॥ ४-३ ॥
નતા બતાવી છે તેથી બીજા કષાયેાના પણ પરિત્યાગ રામજી લેવા જાઈ એ. હૈ જમ્મૂ ! ભગવાનની પાસે જેવું મે સાંભળ્યું છે તેવું જ તને કહું છું. ચેાથા અધ્યયનના ત્રીને ઉદ્દેશ સમાપ્ત ૫ ૪-૩ ૫
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आचाराङ्गसूत्रे
उपशमाश्रयणस्य फलं प्रदर्शयन् गृहीतमव्रज्यस्य मुमुक्षोः कर्तव्यमाह — 'तम्हा अविमणे ' इत्यादि ।
मूलम् - तम्हा अविमणे वीरे सारए समिए सहिए सया जए ॥ सू० १ ॥
छाया-
-- तस्मात् अविमना वीरः स्वारतः समितः सदा यतेत ॥ सू० २ ॥ टीका--तस्मात्-उपशमाश्रयणात्, वीरः = कर्म विदारणसमर्थः अविमनाः-संयमाराधने खेदरहितः, अत एव स्वारतः = सुष्ठु आरतः = यावज्जीवनमर्यादया संयमाऽऽचरणे तत्पर, समितः = समितिसमन्वितः सहितः - हितेन सह सहितः सम्यगूज्ञानादिगुणयुक्तः, सदा सर्वकालं यतेत = संयमाराधनभारोद्वहनमतिज्ञामङ्गीकृत्य तत्परिपालनार्थं प्रयतमानो भवेदित्यर्थः ॥ मृ० २ ॥
पुनः पुनः संयमानुष्ठानोपदेशे हेतुं प्रदर्शयन्नाह - - ' दुरणुचरो' इत्यादि । उपशमसंयम के आश्रय करने के फलको दिखाते हुए सूत्रकार जिसने दीक्षा अंगीकार कर ली है ऐसे मोक्षाभिलापी मुनि का कर्तव्य बतलाते हैं - ' तम्हा अविमणे ' इत्यादि ।
उपशमसंयम के आश्रय करनेसे कर्म को नष्ट करने की शक्ति से संपन्न जीव संयम के आराधन करने में खेदरहित होकर यावज्जीवन संयम के आराधना में तत्पर होता हुआ समिति से और सम्यग्दर्शनज्ञानादि गुणों से युक्त होकर सर्वदा संयम के आराधनरूपी भार को वहन करने की प्रतिज्ञा को अंगीकार कर उसके पालन करने में प्रयत्न शील बने || सू० २ ॥
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पुनः पुनः संयम के अनुष्ठान करने के उपदेश में कारण प्रकट करते हुए सूत्रकार कहते हैं-' दुरणुचरो ' इत्यादि ।
ઉપશમ–સ યમના આશ્રય કરવાના ફળને દેખાડતા સૂત્રકાર જેણે દીક્ષા અગીऔर उसी के सेवा भोक्षालिसापी भुनिनु उर्तव्य हे छे-'तम्हा अविमणे त्याहि. ઉપશમ–મયમના અાશ્રય કન્વાથી કને નષ્ટ કરવાની શક્તિવાળા જીવ નયમનુ આરાધન કરવામા ખેતરહિત થઇને યાવજ્જીવન સયમના આરાધનમાં તત્પર બનીને સિમિતથી અને સમ્યગ્દર્શનનાનાદિ ગુણાથી યુક્ત થઈને હંમેશાં સંયમના આગધનરૂપી ભારને વહન કરવાના નિયમને અંગીકાર કરીને તેનુ પાલન કરવામાં પ્રયત્નશીલ અને, સ્૦ ૨૫
વારવાર સયનનુ અનુષ્ડાન કરવાના ઉપદેશમા કારણુ પ્રગટ કરીને સૂત્ર२४ - दुरणुचरो प्रत्यादि
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सम्यक्त्व - अध्य० ४. उ ४
णत्वात्संयमं हित्वा = गत्वा प्राप्येति यावत्, आपीडयेत् प्रथमप्रव्रज्याकालेऽविकृष्टेन तपसा शरीरमीपत्पीडयेदित्यर्थः । प्रपीडयेत् - तदनन्तरं प्रकर्षेण विकृष्टतपसा शरीरं पीडयेत् । ततः निष्पीडयेत् = पण्डितमरणेन शरीरं त्यक्तुमना मासार्थमासक्षपणादिरूपघोरतरतपोभिः शरीरं निश्चयेन पीडयेदित्यर्थः । यद्वा - आपीडयेत् = सम्यग्दृष्टचादिषु गुणस्थानेषु ज्ञानावरणीयादिकं कर्म ईपत् पीडयेत् ततः प्रपीडयेत्= अपूर्वकरणानिवृत्तिवादरयोः, ततः - निष्पीडयेत् - सूक्ष्मसं परायावस्थायाम्, यद्वाअष्टविधं कर्म उपशमश्रेण्यामापीडयेत्, क्षपकश्रेण्यां प्रपीडयेत्, शैलेश्यवस्थायां निष्पीडयेदित्यर्थः ॥ म्र० १ ॥
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सम्बन्ध को छोड़ कर कर्मों के उपशम का कारण होने से उपशम-संयम को प्राप्त कर प्रथम दीक्षा के अवसर पर साधारण तप के द्वारा शरीर को किञ्चित् कृश करे । पश्चात् उत्कृष्ट तप से शरीर को पूर्ण रीति से कुश करे । तदन्तर पंडितमरण से शरीर का नियमपूर्वक परित्याग करे ।
अथवा सम्यग्दृष्ट्यादिक-चतुर्थादिक गुणस्थानों में ज्ञानावरणीयादिक कर्मों की स्थितिका ह्रास करे, पश्चात् अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण में उनकी स्थिति का पहिलेकी अपेक्षा और अधिक हास करे । इस के अनंतर सूक्ष्म संपराय नामके दशवें गुणस्थान में और अधिक हास करे ।
अथवा - उपशमश्रेणी में ज्ञानावरणादिक कर्मों का ह्रास करे, क्षपकश्रेणी में और after ह्रास करे तथा शैलेशी अवस्था में उनका समूल नाश करे || सू० १ ॥
કર્માંના ઉપશમનુ` કારણ હોવાથી ઉપશમસંયમને પ્રાપ્ત કરી પ્રથમ દીક્ષાના અવસરે સાધારણ તપ દ્વારા શરીરને આપીડિત-કિચિત્ દુખળું કરે. પછી ઉત્કૃષ્ટ તપથી શરીરને પૂર્ણ રૂપથી દુબળું કરે. ત્યાર પછી પંડિતમરણથી શરીરને નિયમપૂર્વક પરિત્યાગ કરે.
અથવા———સમ્યગ્દપ્રથાદિક-ચેાથા આદિ ગુણસ્થાનામાં જ્ઞાનાવરણીયાદિક કર્મોની સ્થિતિને ઘટાડે. પછી અપૂર્વકરણ અને અનિવૃત્તિ કરણમાં તેની સ્થિતિને પહેલાંની અપેક્ષા વધારે ઘટાડો કરે, ત્યાર બાદ સુક્ષ્મસાંપરાય નામના દેશમા ગુણ સ્થાનમાં એથી વધારે ઘટાડા કરે.
અથવા—ઉપશમ–શ્રેણીમાં જ્ઞાનાવરણાદિક કાના ઘટાડા કરે, ક્ષપકશ્રેણીમાં એથી અધિક ઘટાડો કરે, તથા શૈલેશી અવસ્થામાં તેને સમૂળો નાશ કરે. સૂ૦ ૧૫
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आचारागसूत्रे शनादितपसा वा शरीरं शोपयेत्यर्थः । शरीरशोषणस्य फलमाह-' एप' इत्यादि । एप =स्वशरीरशोपकः पुरुषः-मोक्षार्थी जनो द्रविकान्द्रवः संयमः स विद्यते यस्यासौ, संयमीत्यर्थः, तथा-वीरः कर्मविदारणसमर्थः, तथा-आदानीया भव्यानां ग्राह्यः श्रद्धेयवचन इत्यर्थः, व्याख्याता तीर्थकरैः कथितः। यश्च ब्रह्मचर्ये ब्रह्मचर्याख्यमहाव्रते संयमे वा उपित्वा स्थित्वा-तत्परो भूत्वेति यावत् , समुच्छ्रयं कर्मोपचयं धुनाति हासयति-अपयतीत्यर्थः, सोऽपि-आदानीयो व्याख्यात इति सम्बन्धः।४। प्रमादरहितानां गुणान् प्रदर्य प्रमादवतां दोपानाह-'नित्तहिं ' इत्यादि।
मूलम्-नित्तेहिं पलिच्छिन्नहिं आयाणसोयगढिए बाले अव्वोच्छिन्नबंधणे अणभिकंतसंजोए तमंसि अवियाणओ आणाए लंभो नत्थि-त्ति बेमि ॥ सू० ५॥ ___छाया-नेत्रैः प्रतिच्छन्नैः आदानस्रोतोगद्धो वालः अव्युच्छिन्नबन्धनः अनभिक्रान्तसंयोगः तमसि अविजानत आज्ञाया लाभो नारित-इति ब्रवीमि ॥ स०५॥
टीका-ने-चक्षुरादिभिरिन्द्रियैः, प्रतिच्छन्नैः स्वस्वविपयतोऽपवारितैःआहारादिक से अथवा अनशनादिक तप के द्वारा शरीर का शोपण करे।
इस क्रिया का आचरण करनेवाला वह मोक्षाभिलाषी संयमी जीव कर्मों को नष्ट करने की शक्ति से समन्वित होता हुआ भव्य पुरुषों के लिये उपादेयवचनवाला होता है, ऐसा तीर्थङ्करों ने कहा है। तथा जो ब्रह्मचर्य में अथवा संयम में तत्पर होकर कर्मों को नष्ट करता है वह भी भव्यों के लिये माननीयवचनवाला होता है । मृ०४॥
प्रमादसहित व्यक्तियों में क्या क्या दोष उत्पन्न होते हैं ? यह बात सूत्रकार कहते हैं-'नित्तेहिं ' इत्यादि ।
अपने२ विषयों से अपवारित-प्रतिरुद्ध चक्षुरादिक इन्द्रियों से युक्त શદિકથી અથવા અનશનાદિક તપ દ્વારા શરીરનું શેપણ કરે.
આ ક્રિયાનું આચરણ કરવાવાળો તે મોક્ષાભિલાપી સંયમી જીવ કર્મોને નષ્ટ કરવાની શક્તિથી સંપન્ન થઈ ભવ્ય પુરૂ માટે ઉપાદેય વચનવાળો થઈ જાય છે, એમ તિર્થકરોએ કહ્યુ છે તથા જે બ્રહ્મચર્યમાં અને સયમમા તત્પર થઈ કર્મોનો નાશ કરે છે તે પણ ભવ્યાને માટે માનનીય–વચનવાળી થાય છે સૂ૦ ૪.
પ્રમાદ સહિત વ્યક્તિઓમા શુ શુ દેય ઉત્પન્ન થાય છે? આ વાત સૂત્ર१२ ४ - नित्तेहिं । त्यादि.
પિતાપિતાના વિષયથી નિવારિત ચક્ષુ-આદિ ઈન્દ્રિયોથી યુક્ત થઈને, બ્રહ્મ
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ. ४
६६९ मूलम्-दुरणुचरो मग्गो वीराणं अनियगामीणं ॥सू०३॥ छाया-दुरनुचरो मार्गों वीराणामनिवृत्तगामिनाम् ॥ मू०३॥
टीका--मागः संयमरूपः पन्थाः अनिवृत्तगामिनां न निवतते यस्मात् सः -अनिवृत्तो मोक्षः, तत्र गन्तुं शीलं येषां ते-अनिवृत्तगामिनस्तेपां, वीराणां-कर्मविदारणसमर्थानां प्रमादरहितानां दुरनुचरः-दुखेन सह अनु-पूर्वपूर्वतीर्थंकरेभ्यः पश्चात् चर्यते-गम्यते इति दुरनुचरः दुःखानुगम्यः-सदुःखमनुसेव्योऽस्ति, तस्मात् पुनः पुनः संयमानुष्ठानोपदेशः क्रियत इति भावः ॥ मू० ३॥ तन्मार्गानुचरणं प्रमादपरित्यागाद् भवतीत्याह-'विगिंच' इत्यादि।
मूलम्-विगिंच मंससोणियं, एस पुरिसे दविए वीरे आयाणिज्जे वियाहिए जे धुणाइ समुस्सयं वसित्ता वंभचेरांसि ॥सू० ४॥ ___ छाया--विक्ष्य मांसशोणितम् , एप पुरुषो द्रविको वीर आदानीयो व्याख्यातो यो धुनाति समुच्छ्रयम् उपित्या ब्रह्मचर्य ॥ म०४ ॥
टीका--मांसशोणितं स्वशरीरस्थं वेविश्व-अपनय-अन्तप्रान्ताहारादिना अन
यह संयम रूप मार्ग, मुक्ति को प्राप्त करने की इच्छावाले पुरुष जो कि वीर-कर्मों के नष्ट करने में शक्तिशाली एवं अप्रमादी हैं उनके लिये भी दुरनुचर-अर्थात् अतिकष्टसाध्य है, क्यों कि पूर्व-पूर्व तीर्थदरों ने इस के आचरण करने की जो विधि प्रदर्शित की है उसी के अनुसार यह आचरित किया जाता है, अतः इसके अनुष्ठान करने का वारंवार उपदेश दिया जाता है । सू० ३॥
उस संयमरूप मार्गका आचरण प्रमाद के त्याग से होता है, इसी यात की पुष्टि करते हैं-'विगिंच मंससोणियं' इत्यादि।
संयमी अपने शरीर के मांसशोणित को सुखावे, अर्थात् अन्नप्रान्त જ આ સંગમરૂપ માર્ગ, મુક્તિને પ્રાપ્ત કરવા ઇચ્છનાર પુરૂષ જે વીર એટલે કે કર્મનો ક્ષય કરવામાં શક્તિશાળી અને અપ્રમાદી છે તેના માટે પણ દુરનુચર અર્થાત્ અતિકષ્ટસાધ્ય છે, કારણ કે પહેલાના તીર્થકરોએ તેનું આચરણ કરવાની જે વિધિ બતાવી છે. તદનુસારે જ એનું આચરણ કરવામાં આવે છે, માટે એનું અનુષ્ઠાન કરવાને ઉપદેશ વારંવાર કરવામા આવેલ છે. જે અ૦ ૩
આ સયમરૂપ માર્ગનું આવરણ પ્રમાદના ત્યાગથી થાય છે આ વાતની पुटि ४३ ४--विगिंच मससोणियं' त्यादि.
પાંચમી પનાના શરીરના માસ લેહીને સુકાવે, અર્થાત્ અંના આહા
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૨૭૨
आचाराङ्गसूत्रे
तस्य वालरय तमसि=मोहरूपे भावान्धकारे वर्तमानस्य, अत एव - अविजानतः = आत्महितमनवबुध्यमानस्य आज्ञायाः = भगवतीर्थंकरोपदेशरूपस्य प्रवचनस्य लाभो नास्ति । अनादिमिथ्यात्वप्रतिच्छन्नविवेकज्ञानस्य महामोहवशादाऽऽर्हतमवचनश्रवणे प्रवृत्त्यभावाद् हेयोपादेयविवेकानर्हत्वाच्च सम्यक्त्वाभासंभव इति भावः । यद्वा-आज्ञा=बोधिः–सम्यक्त्वम्, तस्या लामो नास्तीत्यर्थः । इति = एतद् ब्रवीमि यथा भगवद्वचनं श्रुतं तथा कथयामीत्यर्थः ॥ सु० ५ ॥
तो शास्त्रकारों की दृष्टिमें वह व्यक्ति असंयमी ही है । वह उन२ पदार्थों का सेवन नहीं कर रहा है, ब्रह्मचर्य जैसे महाव्रत में वह स्थित हो, अन्य भव्य प्राणी भी उसके उपदेश को श्रद्धाकी दृष्टि से देखते और मानते हों; तो भी उसके संसार के कारणभूत कर्मों का बन्ध कभी भी नष्ट नहीं हो सकता । ऐसा व्यक्ति एक प्रकार का 'बकवृत्ति' ही है। वह उपर से शुभ्र - निर्दोष प्रतीत होते हुए भी भीतर से अशुभ्र - मलिन ही है। दिखाने के लिये ही उसने बाह्यरूपमें माता-पितादिक अथवा असंयमभावों से संबंध छोड़ रक्खा है, भीतर से नहीं, अतः ऐसे व्यक्तियों को - कि जिन्हें वास्तविक रीति से हेयोपादेय का विवेक नहीं है, जो यह भी नहीं समझते हैं कि मेरा स्वयंका हित किस में है ? इतने गहरे अंधकार में पडे हुए हैं उन्हें वीतराग प्रभु की वाणीका रसास्वाद कभी भी नहीं आ सकता ।
'आदीयते यत्-तत् आदानम् ' अर्थात् सावध क्रिया में प्रवृत्ति रखઅઞયમી જ છે, ભલે તે પદાર્થોનુ સેવન તે ન કરતા હોય, બ્રહ્મચર્ય જેવા મહા વ્રતમા ભલે તે સ્થિત હાય, ખીન્ન ભવ્ય પ્રાણી પણ તેના ઉપદેશને શ્રદ્ધાની દૃષ્ટિથી દેખતા અને માનતા હોય, તે પણ તેના સ સારના કારણભૂત કર્માંના अध अवणन पशु नष्ट यतो नथी मेवी व्यक्ति से प्रारना 'बकवृत्ति ' જ છે. તે ઉપરથી શુભ્ર નિર્દોષ દેખાતા છતા પણ અતરથી અશુભ્ર–મલિન જ
છે. દેખાડવાને જ માટે તેણે માહ્યરૂપમા માતા-પિતાદિક, અથવા અસચમ ભાવાથી સુખ ધ છેડી દીધેલ હોય છે, પણુ અંતરથી નહિ, માટે આવી વ્યક્તિઆને-કે જેને વાસ્તવિક રીતિથી હેયાપાદેયને વિવેક હોતા નથી, અને જેએ એટલા ગાઢ અંધકારમા પડેલા હોય છે કે મારૂં સ્વયંનુ—પેાતાનુ હિત શેમા છે ? એની પણ જેએને સમજ હાતી નથી, તેઓને વીતરાગ પ્રભુની વાણીનો રસાસ્વાદ કારે યહુ આવી શકતા નથી.
आदीयते यत तव आदानम् - अर्थात् सावद्य प्रियामां प्रवृत्ति राजनार आयी ફાગ જે બહુણ કરવામા આવે છે તે આદાન-કર્મ છે, અને તે મસારના બીજરૂપ
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ. ४ प्रतिरुद्धैर्युक्तोऽपि, ब्रह्मचर्ये स्थितोऽपि, आदानीयो भूखाऽपि, यदि-आदानस्रोतोगृद्धः-आदीयते-गृह्यते सावधक्रियाप्रत्तेन यत्-तदादानं-संसारवीजरूपं कर्म, तस्य स्रोतांसि शब्दादिविषयभोगाः, तत्र गृद्धा-आसक्तो भवति, तर्हि स वाला मोहोददयान्मूढः सन् अव्युच्छिन्नयन्धनः अव्युच्छिन्नं बन्धनं यस्य स तथोक्तः-अत्रुटितकर्मवन्धः स्यादित्यर्थः । किं च-स वालः अनभिक्रान्तसंयोगः स्यादित्यन्वयः । अनभिक्रान्तः अनतिलविन्तः संयोगः-मातापित्रादिसम्बन्धः, अथवा-असंयमसंवन्धो येन सः-अनभिक्रान्तसंयोगः स्यादित्यर्थः । यः पूर्व गृहीतप्रव्रज्यः पश्चाद् विषयभोगासक्तो भवति चेत्तहि स मूढः कदापि शतसहस्रभवान्तेऽपि कर्मवन्धोच्छेदं नाप्नोति, नापि मातापित्रादिसांसारिकसम्बन्धावसानं पश्यतीति वर्तुलार्थः । होकर भी, ब्रह्मचर्य में स्थित रह कर भी, तथा आदानीय-लोकमान्य हो कर भी जो आदानस्रोतोगद्ध, अर्थात् शब्दादि विषयभोगों में आसक्त हो जाता है उस बाल-अज्ञानी का कर्मबन्ध कभी भी नष्ट नहीं होता, और न वह माता-पिता आदि के सम्बन्ध को, अथवा असंयम के भाव को ही अपने से दूर कर सकता है।
तथा-अज्ञानरूप अंधकार में रहने वाला यह बाल अज्ञानी, कि जो अपने हितको ही नहीं समझता है, भगवान् तीर्थङ्कर के उपदेशरूप प्रव. चनका लाभ नहीं ले सकता।
विशेपार्थ:-संयम का लक्षण सिद्धान्तकारों ने इन्द्रियवृत्तिनिरोधः संथमः' इन्द्रियों की वृत्ति का निरोध करना ही बतलाया है। इन्द्रियों की वृत्ति का निरोध कर लेने पर भी यदि संयमी व्यक्ति के हृदय में उनके विषयभूत पदार्थों के सेवन के प्रति लालसा याने रागभाव बना हुआ है ચર્ચ સ્થિત રહીને અને આદાનીય-લેકમાન્ય પણ થઈને જે આદાન
–અર્થાત્ શબ્દાદિ વિષયોમાં આસકત બની જાય છે તે બાળ–અજ્ઞાનીને કર્મબઘ કયારે પણ છૂટતું નથી અને તે માતા-પિતા–આદિના સંબંધને અથવા અસંયમભાવને પિતાથી દૂર કરી શકતો નથી. તથા અજ્ઞાનરૂપી અંધકારમાં રહેનાર તે બાળ અજ્ઞાની જે પિતાના હિતને પણ સમજાતું નથી તેને ભગવાન તીર્થકરના ઉપદેશરૂપ પ્રવચનને લાભ પણ મળી શકતા નથી.
विपाय:-संयननु सक्ष सिद्वान्ताशेरे 'इन्द्रियवृत्तिनिरोधः संयमः' ઈદ્રિાની વૃત્તિને નિરોધ કર, તેમ બતાવેલ છે. ઇન્દ્રિયની વૃત્તિને નિરોધ કરી લેવા છતાં પણ જે સંયમી વ્યક્તિના હૃદયમાં તેના વિષયભૂત પદાર્થોના વિન કરવાની લાલસા એટલે રાગભવ થાય તે શાસ્ત્રકારની દ્રષ્ટિમાં તે વ્યક્તિ
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आवारागसूत्रे ___ "यः पूर्व गृहीतप्रव्रज्यः पश्चाद् विषयभोगासक्तो भवति चेत्तर्हि स मृडः कदापि-शतसहस्रभवान्तेऽपि कर्मवन्धोच्छेई नाप्नोति, नापि मातापित्रादिसांसारिकसंबन्धावसानं पश्यतीति।"
जो पहिले दीक्षा अंगीकार कर के भी फिर पीछे मोह के प्रवल उदय से पांच इन्द्रियों के विषयभोगों में आसक्त हो जाता है वह मूढ है-बाल है। उसके कर्म के बन्ध का उच्छेद-अवसान लाखों भवों में भी नहीं हो सकता, और न वह मातापितादिकल्प सांसारिक संबंध का अंत ही कर सकता है। 'तमसि' यह पद गाढ़ अन्धकार का वाचक सप्तमी विभक्ति का एक वचन है। जिस प्रकार अन्धकार में वर्तमान व्यक्ति अपने हाथ पर भी रखी हुई वस्तु का अवलोकन नहीं कर सकता है, ठीक इसी प्रकार मोहरूप भावान्धकार में रहा हुआ व्यक्ति भी अपनी आत्मा में ही समाये हुए अपने हितरूप कर्नव्य को नहीं जान सकता है। ऐसे जीव के लिये भगवान् तीर्थकर प्रभु की उपदेशरूप वाणी का भी लाभ नहीं हो सकता है, कारण कि अनादिकालिक मिथ्यात्व से उसका विवेकज्ञान लुप्त हो रहा है, और प्रबल मोह के उदय से अर्हन्तप्रभु की वाणी का लाभ लेने में असमर्थ बन रहा है, अतः उस की उनकी वाणीके श्रवण करने में अन्तरंग
"पूर्व गृहीतप्रत्रयः पञ्चाद् विघचभोगासत्तो भवति चेत्तहि स मूढः कदापि शतसहत्वभवान्तेऽऽपि कर्मबन्धोच्छेदं नाग्नोति, नापि मातापित्रादिसांसारिकसन्बन्धावसानं पश्यतीति”
જે પહેલાં દીક્ષા અંગીકાર કરીને પછી મોહના પ્રબળ ઉદયથી પાંચ ઈનિચેના વિયોગમાં આક્ત થઈ જાય છે તે મૂઢ છે-બળ છે, તેના કર્મના બધનો ઉછેદ લાખે ના પણ નથી થતો. તેમ જ તે માતાપિતાદિરૂપ સંબધને પણ અંત લાવી શકતો નથી.
" तनसि" ! ५६ २६५४ानुं वायॐ सतना वितरित क्यान છે. જે પ્રકારે અધિકારના કેઈમાણસ પોતાના હાથ ઉપર પણ રાખેલી વસ્તુને ફેખી શકતા નથી તે પ્રકારે મોહરૂપ ભાવ-અંધકારમાં રહેલે જીવ પણ આભામાં રહેલા પોતાના હિતરૂપ કર્તવ્યને જાણી શકતો નથી, એવા જીવને ભગવાન તીર્થંકર પ્રભુની ઉપદેશ વાવીને પણ લાભ થઈ શકતો નથી, કારણ કે અનાદિ કાળના મિથ્યાત્વથી તેનું વિવેકસાન લુસ થયેલું છે, અને પ્રબળ માંહના ઉદયવી તે અનન્તપ્રભુની વાણીનો લાભ લેવામાં અસમર્થ બનેલ છે, તેથી તેને તેમની વાડીનું વરુ કરવામાં અતરંગાથી પ્રવૃત્તિ પણ થતી નથી. અથવા હેયે
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ. ४
ફરૂ नेवाले प्राणी के द्वारा जो ग्रहण किया जाता है वह आदान-कर्म है, और वह संसार का बीजरूप है। बीज से ही वृक्ष तैयार होता है, विना बीज के नहीं; यह संसाररूप महावृक्ष भी इस कमरूप बीज का ही फल है। इस से यह फलितार्थ निकलता है कि बीज की किसी निमित्त से अंकुरोस्पादन शक्ति विनष्ट हो जाती है तब वह जिस प्रकार अपने कार्य को नहीं कर सकता है उसी प्रकार राग-द्वेषादिक कषायों के अभाव में गृहीत कार्मणवर्गणाओं की भी जीवको परतन्त्रादिरूप करने की, अथवा जीव के ज्ञानादिक गुणों का घात आदि करने की शक्ति नष्ट हो जाती है । इस आदान का स्रोत शब्दादिक इन्द्रियों के विषयभोग ही हैं, उनमें जो गृद्धआसक्त है वह आदानस्रोतोगृद्ध है। जो मोह के उदय से पर-पदार्थों में तल्लीन है एवं हेयोपादेय के ज्ञान से विकल है वही यहां पर बाल है। जो मोहाधीन-आत्मज्ञान से रहित है-चाहे वह व्याकरणादिक एवंन्यायशास्त्रादि ग्रन्थों का अध्येता भी क्यों न हो वह बाल-मूर्ख ही है। संयम को ग्रहण कर पश्चात् प्रबल मोह के उदय से असंयमभाव को प्राप्त करनेवाले बड़े से बड़े विद्वान् भी शास्त्रों में 'बाल' नामसे वर्णित किये गये हैं। यही बात टीकाकार इस प्रकार से प्रकट करते हैं-- છે. બીજથી જ વૃક્ષ તૈયાર થાય છે, બીજ વિના નહિ. આ સંસારરૂપ મહાવૃક્ષ પણ આ કર્મરૂપ બીજનું જ ફળ છે. આથી એ સારાંશ નિકળે છે કે– જ્યારે કોઈ પણ નિમિત્તથી બીજની અંકુરોત્પાદનશક્તિ નષ્ટ થઈ જાય છે ત્યારે તે જે પ્રકારે પિતાના કાર્યને નથી કરી શકતું તે પ્રમાણે રાગદ્વેષાદિક કક્ષાના અભાવમાં ગૃહીત કામણવર્ગણાઓની પણ જીવને પરતંત્રાદિરૂપ કરવાની, અથવા જીવના જ્ઞાનાદિક ગુણેને ઘાત આદિ કરવાની શક્તિને નાશ थाय छे. २. 'आदान'नु खोत (भा) Ale Uन्द्रियोना विषयमा ०४ છે, આમાં જે વૃદ્ધ-આસક્ત છે તે આદાનસ્રોતાગૃદ્ધ છે, એટલે કર્મ આવવાના કારણમાં ગૃદ્ધ રહે છે. જે મોહના ઉદયથી પરપદાર્થોમાં આસકત છે તેમજ હેપાદેયના જ્ઞાનથી વિકળ છે તે જ આ ઠેકાણે બાળ છે. જે મોહાધીન–આત્મજ્ઞાનથી રહિત છે, ભલે તે વ્યાકરણાદિક અને ન્યાય શાના ગ્રંથને અભ્યાસી કેમ ન હોય તે પણ તે બાળ-મૂર્ખ જ છે. મેટામાં મોટે વિદ્વાન પણ સંયમને ગ્રહણ કરી પાછળથી પ્રબળ મોહના ઉદયથી અસંયમભાવને પ્રાપ્ત કરવાવાળો મેટામાં મેટે વિદ્વાન પણ શાસ્ત્રોમાં “બાળ” આ નામથી કહેવામાં આવ્યા છે. એ જ વાતને ટીકાકાર આ સારાંશથી પ્રગટ કરે છે –
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आधारागसूत्रे ___ यद्वा-यस्त्वतीतं सुखं न स्मरति, नापि भविष्यत्कालिकं वान्छति, तस्य वर्तमानमुखेऽपि रागो नैव स्यादित्याह-'जस्स नत्थि' इत्यादि । यस्य भोगविपाकं जानतः, पुरा-पूर्व-पूर्वभुक्तसुखानुस्मरणं नास्ति, पश्चात् पश्चाद्भावी-आगामिभोगाभिलापो नास्ति, तस्य मध्ये वर्तमानकाले कुतः भोगेच्छा स्यात् । मोहनीयकर्मोपशमात्तस्य भोगेच्छा नैव भवेदिति भावः ॥ सू० ६ ॥
प्रश्न-जिन्हों ने पूर्व में समकित प्राप्त नहीं किया है और भविष्य में जो नहीं प्राप्त करेंगे, ऐसे ही जीव तो वर्तमान में समकित की प्रासि किया करते हैं। यदि " आदावन्तेऽपि यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा " यह अटल नियम मान लिया जावेगा तो फिर किसी भी जीवको समकित का लाभ नहीं हो सकेगा?
उत्तर-यह कथन अव्यवहार राशिमें रहनेवाले जीवों की अपेक्षा से ही समझना चाहिये। व्यवहार राशि में रहे हुए जीवोंकी अपेक्षासे नहीं।
अथवा इस सत्रका व्याख्यान इस प्रकारसे भी होता है
भोगों के विपाक को महा कष्टप्रद जान कर जो पूर्व में भोगे हुए पांच इन्द्रियोंके विषयसुख का स्मरण तक नहीं करता है और उस सुख की भविष्यत्कालिक प्राप्ति की वाञ्छा से सर्वथा दूर है, ऐसे व्यक्ति को चतेमानकाल में प्राप्त वह सुख भोगेच्छारूप राग का कारण कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता।
પ્રશ્ન–જેઓએ પૂર્વમાં સમકિત પ્રાપ્ત નથી કર્યું અને આવતા કાળમાં પણ જેઓ સમક્તિ પ્રાપ્ત કરશે નહિ, આ પ્રકારના જ છ વર્તમાનમાં સમકિતની પ્રાપ્તિ रेछे ने "आदोवन्तेऽपि यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा " २ मटर नियम मानવામાં આવે તે પછી કઈ પણ જીવને સમકિતને લાભ થઈ શકે નહિ?
ઉત્તર–આ કથન અવ્યવહાર--રાશિમાં રહેનાર ની અપેક્ષાથી જ સમજવું જોઈએ, વ્યવહાર--રાશિમાં રહેલા જીવોની અપેક્ષાએ નહિ
અથવા આ સૂત્રનું વ્યાખ્યાન આ પ્રકારે પણ થાય છે–ભેગોના વિપાકને મહા કટપ્રદ જાણીને જે પૂર્વમા ભગવેલાં પાંચ ઇન્દ્રિયના વિષયસુખનું સ્મરણ સુદ્ધાત કરતું નથી, અને તે મુખની ભવિષ્યમાં પણ પ્રાપ્તિની વાછાથી સર્વથા દૂર છે,
વા જીવને વર્તમાનકાળમાં પ્રાપ્ત તે સુખ ભેગેચ્છારૂપ રાગનું કારણ કેવી રીતે હોઈ શકે? અર્થાત્ નથી થતુ
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सम्वत्व - अध्य० ४ उ. ४
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भावमसि वर्तमानस्य वालस्य कथं सम्यक्त्वलाभासम्भवः ? इति जिज्ञासायामाह —' जस्स नत्थि ' इत्यादि ।
मूलम् - जस्स नत्थि पुरा पच्छा मज्झे तस्स कुओ सिया ||६| छाया- -यस्य नास्ति पुरा पश्चात् मध्ये तस्य कुतः स्यात् ॥ सू० ६ ॥ टीका -- यस्य = मोहतमसि वर्तमानस्य जीवस्य पुरा = पूर्वस्मिन् काले पश्चात् = भविष्यत्काले नास्ति = पूर्व सम्यक्त्वं नाभूत्, अग्रेऽपि न तद् भविष्यति, तस्य मध्ये =मध्यभवे- वर्तमानजन्मनि, कुतः स्यात् कथं भवेत् न भवेदित्यर्थ । " आदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा " इति लोकन्यायस्य सर्वानुभवसिद्धत्वादिति भावः । अव्यवहारराश्यपेक्षयैतत् ।
आज्ञायाः
से प्रवृत्ति ही नहीं होती । अथवा हेयोपादेय के विवेक के अयोग्य होने से ऐसे मनुष्य को सम्यक्त्व का लाभ असम्भव है, यह भी " लाभो नास्ति " इस वाक्य का अर्थ होता है, क्यों कि-' आज्ञा' का द्वितीय अर्थ बोधि- समकित है उसका लाभ ऐसे मनुष्य को होता नहीं ।। सू० ५ ॥
भावान्धकार में रहा हुआ बाल जीव सम्यक्त्व के लाभ से वंचित रहता है । इसकी पुष्टि सूत्रकार करते हैं-' जस्स नत्थि पुरा' इत्यादि ।
मोहरूपी अन्धकार में रहनेवाला अज्ञानी जीव पूर्व जन्म में और आगामी जन्ममें समकित के लाभ से वंचित रहता है तो मध्य अर्थात् वर्तमान जन्म में वह समकित का लाभ कर लेगा यह कैसे सम्भव हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता । 'आदावन्ते च यन्नास्ति वर्त्तमानेsपि सतथा " जिसकी सत्ता आदि और अन्त में नहीं है उसकी सत्ता वर्तमान में भी नहीं होती है । यह एक सामान्य सा नियम है ।
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પાદેયના વિવેકને અયેાગ્ય હોવાથી આવા મનુષ્યને સમ્યક્ત્વનો લાભ અસંભવ છે આ પણ “ आज्ञायाः लाभो नास्ति " मा वायनो अर्थ थाय छे, उभ } આજ્ઞા ના ખીજો અર્થ બોધિ એટલે સમકિત છે, તેને લાભ આવા મનુષ્યને થતા નથી. ॥ સૂ॰ ૫ ॥
ભાવ-અંધકારમાં રહેલાં ખાળ જીવ સમ્યક્ત્વના લાભથી વ ંચિત રહે છે. यानी पुष्टि सूत्रअ२ १३ छे -' जस्स नत्थि पुरा ' इत्यादि.
માહરૂપી અંધકારમાં રહેનાર અજ્ઞાની જીવ પૂર્વ જન્મમાં અને આવતા જન્મમાં સમકિતના લાભથી વંચિત રહે છે, તેા પછી મધ્ય અર્થાત્ વમાન જન્મમાં તે સમિતનો લાભ કરી લેશે, તેના સંભવ કેવી રીતે હોય ? અર્થાત્ સ ંભવ होतो नथी. " आदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा " - नी सत्ता यहि भने અંતમાં નથી તેની સત્તા વમાનમાં પણ નથી હોતી, એ એક સામાન્ય નિયમ છે.
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आचाराङ्गसूत्रे
रमणमपि सम्यक्त्वशब्दव्यपदेश्यमिति भावः । इति = एवं पश्यत - यूयं जानीत । यतः - येन=आरम्भोपरमणरूपेण कारणेन घोरं = घोरदुःखजनकं कर्मवन्धं, वधं, दारुणं= दुःसहं परितापं=शारीरं मानसं च दुःखं नाप्नोतीत्यर्थः, तस्मात् सकलसावद्यव्यापारेभ्यो निवर्तितव्यमिति भावः । यद्वा - येन - आरम्भेण सावधानुष्ठानेन घोरं वन्धं वधं दारुणं परितापं च प्राप्नोति तस्मादारम्भादुपरतो भवेदित्यर्थः ॥ ०७ ॥ कि समकित के होने पर ही आरम्भनिवृत्ति होती है, तो भी कारण में कार्य के उपचार से ही आरम्भनिवृत्ति को समकित कहा गया है, ऐसा समझना चाहिये ।
जीव इस सावध व्यापार के परित्याग से ही कर्मबन्ध, वध और और दुःसह शारीरिक एवं मानसिक कष्टों से सदा यचता है, इस लिये आत्महितैषी का कर्तव्य है कि वह इस सावयव्यापाररूप क्रिया से सदा दूर रहे |
विशेषार्थ - यह निश्चित सिद्धान्त है कि सावध व्यापार से जीवों के परिणामों में दुर्वृत्ति सदा जागृत रहती है। उससे जीव तरह-तरह के साधनों के जुटाने में ही अपने जीवन को बिता देता है। ऐसा क्यों होता है ? जब हम इसका मुक्ष्म निरीक्षण करते हैं तो हमें इस की तह का पता अच्छी तरह से लग जाना है कि वह यह विषयभोगेच्छा ही है ।
इसके फदमें फसा हुआ जीव ज्ञाता एवं तत्त्वज्ञ बनने का ढोंग ही करना है । उसके पास में निज के हित के लिये कुछ भी नहीं होता ।
નિવૃત્તિ સમકિતનુ કાર્ય છે, કારણ કે સમકિતના થવાથીજ આરંભનિવૃત્તિ થાય છે, તે પણ કારણમા કાર્યના ઉપચારથી આર ભનિવૃત્તિને જ સમિકત કહેવામા આવેલ છે, એમ સમજવું જોઇએ
જીવ આ માદ્ય-વ્યાપારના પરિત્યાગથી કખ ધ, વધુ અને ૬ સહ શારીરિક માનસિક કન્ટેોથી સદા બચે છે, માટે આત્મહિતષીનુ કર્તવ્ય છે કે તે સદા આ સાવદ્ય-વ્યાપારથી દૂર રહે,
વિશેષાએ નિશ્ચિત સિદ્ધાન્ત છે કે સાવદ્ય વ્યાપારાથી જવાના પરિણામામા સદા દૃત્તિ જાગૃત રહે છે, તે થકી જીવ તરહ–તરહના સાધનાને એકત્રિત ફરવામા જ પોતાના જીવનને વ્યતીત કરી દે છે એમ કેમ બને છે? ત્યારે અમે તેનુ સૂક્ષ્મ નિરીક્ષણ કરીએ છીએ ત્યારે અમાને ચાકસપણે તેનુ સમાધાન મળી જાય છે કે તે આ વિષય ભાગેાજ છે
અની પકડમા સેલા જીવ જ્ઞાતા અને તત્ત્વજ્ઞ મનવાના ઢાગ જ કરે છે તેની પાસે પેાતાના હિતને માટે કાઈ પણ હાતુ નથી, પેાતાના વિષય કપાયની
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ ४
६७७ ___ यस्य कालत्रयेऽपि भोगेच्छा नास्ति, स किंभूतः स्यादित्याह-से हु' इत्यादि।
मूलम् -से हु पन्नाणमंते बुद्धे आरंभोवरए। सम्ममेयंति पासह । जेण बंधं वहं घोरं परियावं च दारुणं ॥ सू० ७॥
छाया-स हु प्रज्ञानवान् बुद्धः आरम्भोपरतः । सम्यगेतदिति पश्यत । येन वन्धं वधं घोरं परितापं च दारुणम् ।। सू० ७॥
टीका-हु-यतः-भोगाभिलापरहितः, तस्मात् स प्रज्ञानवान्-जीवाजीवादिपदार्थानां सम्यग्ज्ञाता, अत एव बुद्धः तत्त्वज्ञः, आरम्भोपरत आरम्भा सावद्यव्यापारस्तस्मादुपरतो-निवृत्तः । एतद्-आरम्भोपरमणं, सम्यक् सम्यक्त्वमस्ति। सम्यक्त्वे सति हि आरम्भनिवृत्तिरुपजायते, तस्मात् सम्यक्त्वकार्यतयाऽऽरम्भीप
बात भी ठीक है; जिसके मोहनीय कर्म का उपशम हो चुका है उस व्यक्ति के लिये भोगेच्छा-विषयसुखों को भोगने की लालसा-हो ही कैसे सकती है? भोगेच्छा यह मोहनीय कर्म का ही एक कार्य है, अतः जब मोहनीय कर्म ही उपशम अवस्था है तब भोगेच्छारूप कार्यका आविर्भाव हो भी कैसे सकता है । मू० ६॥
जिसके त्रिकाल में भी भोगेच्छा नहीं है उसकी प्रशंसा करते हुए सूत्रकार कहते हैं-'से हु' इत्यादि।
भोगों को भोगने की अभिलाषा से रिक्त होने के कारण वह संयमी जीवाजीवादिक नव तत्त्वों के वास्तविक स्वरूप का ज्ञाता बन कर तत्त्वज्ञ होता हुआ आरम्भ-सावद्यव्यापाररूप प्रवृत्ति-से परे हो जाता है, यही सम्यक्त्व है । यद्यपि आरम्भनिवृत्ति, समकित का कार्य है; क्यों
વાત પણ ઠીક છે, જેને મેહનીય કમને ઉપશમ થયેલ છે તે વ્યક્તિને માટે ભોગેચ્છા–વિષયસુખોને ભોગવવાની લાલસા જ કેવી રીતે થઈ શકે છે, ભોગેચ્છા તે મેહનીય કર્મનું જ એક કાર્ય છે, માટે જ્યારે મેહનીય કર્મ જ ઉપશમ અવસ્થામાં છે ત્યારે ભેગેચ્છારૂપ કાર્યને આવિર્ભાવ કેવી રીતે થઈ શકે ? અર્થાથઈ શકતું નથી. સૂત્ર છે
જેને ત્રણ કાળમાં પણ ભેગેછા નથી તેની પ્રશંસા કરતાં સૂત્રકાર કહે D-'से हु' त्यादि.
ભેગને ભોગવવાની અભિલાષાથી રિકત હોવાના કારણે જીવાજીવાદિક નવ તના વાસ્તવિક સ્વરૂપના જ્ઞાતા તે સંયમી તત્ત્વજ્ઞ બનીને આરંભ–સાવધ વ્યાપારરૂપ પ્રવૃત્તિથી દૂર થઈ જાય છે, એ જ સમ્યક્ત્વ છે, જો કે આરંભની
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आचाराङ्गसूत्रे किं कृत्वा सावधव्यापारंपरित्यजेदिति जिज्ञासायामाह-पलिच्छिदिय'इत्यादि।
मूलम्-पलिच्छिदिय बाहिरगं च सोय, निकम्मदंसी इह मच्चिएहि ॥ सू० ८॥
छाया-प्रतिच्छिद्य बायकं च स्रोतः निष्कर्मदी इह मर्येषु ॥ म० ८॥
टीका--बायकं वर्भिवं हिरण्यरजतमातापित्रादिसम्बन्धरूपं, यद्वा-माणातिपातादिकं स्रोत: आस्रवं कर्मवन्धकारणं, च-शब्दाद् रागद्वेषात्मकं विषयाभिलापरूपं वा आन्तरं स्रोतो वा प्रतिच्छिद्य-प्रतिरुथ्य, इह-अस्मिन् लोके, मत्]पु-मनुष्येषु मध्ये निफर्मदर्शी-कर्मणो निष्कान्तः निष्का-मोक्षः, तं द्रष्टुं शीलमस्येति निफर्मदी-मोक्षाभिलापी सन् सावधव्यापारं परित्यजेदित्यर्थः। यद्वा-इह-अस्मिन् लोके मर्येषु-मनुष्येषु बाह्यकं स्रोतः प्रतिच्छिद्य निष्कर्मदर्शी भवति, मोक्षं प्राप्नोतीत्यर्थः ॥ म०८॥ प्रकार के घोर वध, बंधन और दारुण परिताप का कारण समझ कर उनसे सर्वथा विरक्त ही रहता है। सू० ७॥
इसी विषयकी पुष्टि करते हुए सूत्रकार कहते हैं-'पलिच्छिदिय इत्यादि
माता-पिता आदिक सचित्त, सुवर्ण-रजतादिक अचित्त परिग्रहरूप अथवा हिंसादिक पापरूप बहिरङ्ग स्रातका एवं रागद्वेष अथवा विषयाभिलाषरूप अन्तरंग स्रोत का निरोध कर इस लोक के अन्दर मनुष्योंमें वसनेवाला निष्कर्मदर्शी--मोक्षाभिलाषी जीव सावध व्यापार का परित्याग करे।
शास्त्रकारों ने परिग्रह दो प्रकार का बतलाया है । (१) बाह्य परिग्रह और (२) अन्तरङ्ग परिग्रह। धनधान्यादिक और मातापितादिक बाह्य परिग्रह है, विषयाभिलाषादिक तथा देषादिक अन्तरङ्ग परिग्रह है। 'परिग्रह થઈ જાય છે, અને સાવદ્ય વ્યાપારને અનેક પ્રકારના ઘેર બધ, બ ધન અને દારૂપરિતાપનું કારણ સમજીને તેનાથી સર્વથા વિરક્તજ રહે છે. સૂ૭ છે
AL Qषयनी पुष्टि ४२ता सूत्रा२ ४ छ-'पलिच्छिदिय' त्यादि. માતા-પિતા-આદિક સચિત્ત, સુવર્ણ રજતાદિક અચિત્ત પરિગ્રહરૂપ અથવા સાદિક-પાપરૂપ બલ્ડિર ગ સ્રોત (માર્ગ) નો તેમજ રાગ દ્વેષ અથવા વિષયાભિલાષારૂપ અતર ગ સ્રોતને નિરોધ કરી આ લોકની અંદર મનુષ્યમાં વસવાવાળ નિષ્ફર્મદ–મોધ્યાભિલાષી જીવ સાવદ્ય વ્યાપારને પરિત્યાગ કરે.
શાસકારોએ પરિડ બે પ્રકારને બતાવેલ છે (૧) બાહ્ય પરિગ્રહ અને (૨) અંતર પરિગ્રહ ધનધાન્યાદિક અને માતા-પિતાદિક બાહ્ય પરિગ્રહ છે, અને વિષયાનિલાબાદિ, તથા રાગ-દ્વેષાદિક અતરગ ગરિમડુ છે. પરિગ્રહ શબ્દને
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सम्यक्त्व - अध्य० ४. उ. ४
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अपने विपयकपाय की पुष्टि जैसे भी हो, उसके लिये वह विहित अविहित सब तरह के उपायों को काम में लाता है । ऊपर से ही वह साधुवेपधारी है, भीतर से वह अपने सच्चे हितके साधनों का नाश करता है । संसार में धर्मका पतन भी इसी की ओट लेकर हुए हैं और हो रहे हैं तथा आगे भी होंगे ।
यह बड़ी बलवती व्याधि है। इसकी चिकित्सा सद्गुरु ही कर सकते हैं, अतः उनका कथन है कि सर्व प्रथम आत्महितैषी जीव इसकी चिकित्सा कराने के लिये अपने में योग्यता लावे । यह योग्यता एक ही भवमें जी को प्राप्त नहीं हो सकनी । जो भी वर्त्तमान भवमें योग्य हुए हैं वे सव पूर्वके आराधक जीव थे, अतः इस व्याधि की चिकित्सा कराने की योग्यता प्राप्त करने की जीवमें कटिबद्धता होनी चाहिये। यह कटिबद्धता ही समकिन है, चाहे यह स्वभाव से हो या परके उपदेश से ।
यह तो निश्चित है कि इस प्रकार की योग्यता से संपन्न आत्मा भोगों में लालसावाला नहीं होता। उसकी प्रवृत्ति वहां पर तपे हुए लोहे पर पांच रखने जैसी ही होती है, अतः धीरे २ अपनी उच्चनि करता हुआ विषयभोगेच्छा से सदा के लिये दूर हो जाता है और सावद्य व्यापारों को अनेक
પુષ્ટિ માટે તે વિહિત અવિહિત બધા પ્રકારના ઉપાયા કરે છે. ઉપરથી જ તે સાધુવેષધારી છે . પણ અ તરથી તે પેાતાના સાચા હિતના સાધનોના નાશ જ કરે છે. સંસારમાં ધર્મનું પતન પણ આવા જીવાના નિમિત્તે થયું છે, થઈ રહેલું છે અને આગળ પણ થશે.
આ મેટી બળવાન વ્યાધિ છે. એની ચિકિત્સા સદ્ગુરૂ જ કરી શકે છે. માટે તેમનું કથન છે–સવ પ્રથમ આત્મહિતૈષી જીવ તેની ચિકિત્સા કરાવવા માટે પેાતાનામાં યોગ્યતા લાવે. ચેાગ્યતા એક જ ભવમાં જીવને પ્રાપ્ત થતી નથી. જે વમાન ભવમાં ચેાગ્ય થયેલ છે તે બધા પૂર્વના આરાધક જીવ હતા, માટે આ વ્યાધિની ચિકિસા કરાવવાની ચેાગ્યતા પ્રાપ્ત કરવા માટે જીવમાં કટિમદ્ધતા હોવી ોઇએ. આ કિટબદ્ધતા જ સમિકિત છે, ભલે તે સ્વભાવથી હોય અગર પારકાના ઉપદેશથી હોય.
આ નિશ્ચિત છે કે આવી યેાગ્યતાથી સ ંપન્ન આત્મા ભેગામાં લાલસા રાખનાર નથી ઘતા. તેની પ્રવૃત્તિ ત્યાં તપેલા લેાઢા ઉપર પગ રાખવા જેવી થાય છે, માટે તે ધીર ધીરે પોતાની યુક્તિ-પ્રયુક્તિથી વિષય ભેગેચ્છાથી સદાને માટે ફ્ર
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आवारागसूत्रे ननु कर्मोपादानरूपं स्रोतः किं कृत्वा प्रतिच्छेद्यमिति जिज्ञासायामाह-- 'कम्मुणा' इत्यादि।
मूलम्-कम्मुणो सफलत्तं दतॄणं तओ निज्जाइ वेयवी॥सू०९॥ छाया--कर्मणः सफलत्वं दृष्ट्वा ततो नियोति वेदवित् ।। मू० ९ ॥
टीका-मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकपाययोगैः क्रियते इति कर्म-ज्ञानावरणीयादिकम् , तस्य, सफलत्व-ज्ञानावरणादिस्वस्वफलजननावश्यम्भावं, दृष्ट्वा वेदवित्-वेद्यते तच्चान्यनेनेति वेदःआहेतागमः, तं वेत्तीति वेदवित्-सर्वज्ञोपदेशजन्यसम्यग्ज्ञानवानित्यर्थः, ततः कर्मण. कर्मवन्धकरणात् नियांतिदुरीभवति, कर्मवन्धननिवन्धनसकलसावधव्यापारं परिवर्जयतीत्यर्थः। म०९॥ व्यापारों से सदा विरक्त रहे । जिससे जीवों को थोडे से भी कष्टादिक का अनुभव हो ऐसी कोई भी क्रिया वह न करे । सावधक्रिया करनेवाले मनुष्यों के सम्पर्क में रहते हुए भी अपने को उस व्यापार से बचा कर रखना यही तो संयमी नुनिकी विशेषता है।
निष्कर्मदर्शी-इस शब्द का अर्थ मोक्षाभिलाषी है, क्यों कि कर्मों के सम्बन्ध से रहित जो स्थान है वह निष्कर्म है, उस स्थान को देखने का जिस का स्वभाव है ऐसा जीव निष्कर्मदर्शी कहलाता है। सूत्र में "च" शब्द अन्तरङ्ग परिग्रह का बोधक है ॥ सू० ८॥
संयमी मुनि क्या समझ कर कर्मों के आने में कारणरूप इस स्रोत को बन्द करे ? इस प्रकार की जिज्ञासा का समाधान करते हुए सूत्रकार कहते हैं-' कम्मुणो' इत्यादि।
कर्मों को अपने २ फल का देनेवाला जानकर वह ज्ञानी-संयमी मुनि उन कर्मो से और उनके कारणों से दूर ही रहता है। વ્યાપારથી સદા વિરક્ત રહે જેનાથી જીવોને થડ પણ કષ્ટાદિકનો અનુભવ થાય તેવું કોઈ કાર્ય તેઓ ન કરે સાવદ્ય-વ્યાપાર કરવાવાળા મનુષ્યના સંપર્કમાં રહેવા છતાં પણ પિતાની જાતને તેવા વ્યાપારથી દૂર રાખવું, એ જ સયમી મુનિની વિશેષતા છે
'निष्कर्मदशी' मा शण्डनम भोलिसापीछे, ४२५ र्भाना सपथी રહિત જે સ્થાન છે તે નિષ્કર્મ છે, તે સ્થાનને દેખવાને જેને સ્વભાવ છે તેવો જીવ નિષ્કર્મદશી કહેવાય છે. સૂત્રમાં “ર” શબ્દ અનરગ પરિચર્ડ બોધક છે સૂ૦ ૮ - શું સમજીને સંયમી મુનિ કમેને આવવાના કારણરૂપ આ સ્ત્રોતને બધ કરે ? मा २नी शासानु समाधान २ता सूत्रस२ हे छे–'कम्मुणों त्यादि.
કમને પિતાના ફળને દેવાવાળા જાણીને તે સમયમી મુનિ તે કર્મોથી અને તેના કારણોથી ર જ રહે છે.
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ. ४ शब्द का अर्थ यही है कि जिससे जीव कर्मों का ग्रहण करे। अर्थात् ममत्वभावसे ग्रहण करने को परिग्रह कहते हैं । मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, ये सब अन्तरङ्ग-परिग्रह हैं। इन्हींसे जीव नवीन२ कर्मों का बन्ध किया करता है।
जिस प्रकार नौकामें पानी आने का कारण छिद्र होता है, उसी प्रकार आत्मामें नवीन २ कर्मों के आनेके लिये परिग्रह छिद्र के स्थानापन्न माना गया है । जैसे-मिथ्यादर्शनजन्य कर्मों का बंध (१) प्रथम गुणस्थान तक; अविरतिजन्य कर्मों का बन्ध (४) चतुर्थ गुणस्थान तक, प्रमादजन्य कमौका बन्ध (६) षष्ठ गुणस्थान तक, कषायजन्य कर्मोंका बन्ध (१०) दशवें गुणस्थान तक, और योगजन्य कर्मों का बन्ध सयोगकेवलीनामक (१३) तेरहवें गुणस्थान तक जीवोंके होता है । स्रोत शब्द का अर्थ प्रवाह भी है। जिस प्रकार जलाशयों में प्रवाह के द्वारा पानी आता है उसी प्रकार अंतरङ्ग और बहिरङ्ग परिग्रहरूप प्रवाहद्वारा आत्मामें नवीन २ कर्मोंका बंध हुआ करता है, अतः संयमी जीव बाह्य परिग्रह से सर्वथा विरक्त हो जाता है । अन्तरङ्ग परिग्रह से भी वह अपने पदके अनुसार विरक्त ही रहता है। इसीलिये सूत्रकार कहते हैं कि जिस संयमी मुनिका लक्ष एक मोक्ष प्राप्ति करने का ही है वह मनुष्यलोकमें रहता हुआ भी सावध અર્થ એ જ છે કે જેનાથી જીવ કર્મોને ગ્રહણ કરે, અર્થાત્ મમત્વ-ભાવથી ગ્રહણ કરવું તેને પરિગ્રહ કહે છે. મિથ્યાત્વ, અવિરતિ, પ્રમાદ, કષાય અને વેગ, એ બધા અંતરંગ-પરિગ્રહ છે, એનાથી જ જીવ નવા નવા કર્મોને બંધ કરે છે.
જેમ નૌકામાં પાણી આવવાનું કારણ છિદ્ર છે તેમ આત્મામાં નવા નવા કર્મોને આવવાને માટે પરિગ્રહ છિદ્ર છે. મિથ્યાદર્શનજન્ય કર્મોને બંધ. પ્રથમ ગુણસ્થાન સુધી, અવિરતિજન્ય કર્મોને બંધ ચેથા ગુણસ્થાન સુધી. પ્રમાદજન્ય કર્મોને બંધ છઠ્ઠા ગુણસ્થાન સુધી, કષાયજન્ય કર્મોને બંધ દશમા ગુણસ્થાન સુધી અને ગજન્ય કર્મોને બંધ સયોગકેવળીનામક તેરમા ગુણસ્થાન સુધી જીવેને થાય છે. સ્ત્રોત શબ્દનો અર્થ પ્રવાહ પણ છે, જેમ જળાશયામાં પ્રવાહ-દ્વારા પણ આવે છે તેમ આ અંતરંગ અને બહિરંગ પરિગ્રહરૂપ પ્રવાહદ્વારા આત્મામાં નવા નવા કર્મોને બંધ થયા કરે છે, માટે સંયમી જીવ બાહ્ય–પરિગ્રહથી સર્વથા વિરકત થઈ જાય છે. અંતરંગ પરિગ્રહથી પણ તે પિતાના પદના અનુસાર વિરકત જ છે. આ માટે જ સૂત્રકારનું કથન છે કે જે સંયમી મુનિન લક્ષ્ય એક મેક્ષપ્રાપ્તિ કરવાનું જ છે તે મનુષ્ય લેકમાં રહેવા છતાં પણ સાવદ્ય
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ओचाराङ्गसूत्रे ___टीका--'भो' इति शिप्यामन्त्रणार्थः । स वक्ष्यमाणविषये शिष्यस्य पुनः पुनरवधानार्थमामन्त्रण द्योतयति । भोः शिप्य! ये केचन वीराः कर्मविदारणार्थमुत्साहवन्तः, समिताः समितियुक्ताः, सहिताः स्वहितार्थमुद्युक्ताः सम्यग्ज्ञानादियुक्ता वा, सदायताः सर्वदा संयमाराधनसावधानाः, संघटदर्शिनः हेयोपादेयस्य निरन्तरदर्शिनः, यद्वा-अव्यावाधानन्दस्वरूपमोक्षाभिलापिणः, आत्मोपरताः
पांच समितियों में लवलीन, आत्महित की प्राप्ति में उद्यमी अथवा सम्मग्ज्ञानादिक गुणों से युक्त, सर्वदा संयम की आराधना करने में सावधान, हेयोपादेय के विवेक से युक्त अथवा अव्याबाध-आनन्द-स्वरूप मोक्षके अभिलाषी, कषायविशिष्टआत्मासे सदा परे रहनेवाले और यथावस्थितकर्मलोक की अथवा शब्दादिविषयों की सदा उपेक्षा करने वाले, कर्मों को विदारण करने में उत्साहशाली जो कोई भव्य वीर पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशा में हुये हैं वे सव सत्य-मोक्षस्थानमें स्थित हो चुके हैं।
सूत्रकार इस सूत्र में निर्दोष तप-चारित्र की आराधना का फल प्रकट करते हुए शिष्यों से कह रहे हैं कि जिन भव्यवीरों ने पांच समितियों का निर्दोष रीतिसे पालन किया है, आत्महित की प्राप्ति में जिन्होंने कुछ भी नहीं बाकी रखा, निर्दोप संयम की आराधना करने में ही जिन्हों ने अपने जीवन को विताया, हेयोपादेय के सुन्दर विवेक से जिन्होंने मोह-ममत्व पर विजय प्राप्त की, जिन्होंने कषाय के उदय को
પાંચ સમિતિઓમાં રાચવાવાળાં, આત્મહિતની પ્રાપ્તિમાં ઉદ્યમી, અથવા સમ્યજ્ઞાનાદિક ગુણોથી યુક્ત, સર્વદા સંયમની આરાધના કરવામાં સાવધાન, હેયોપાદેયના વિવેકથી યુક્ત, અથવા અવ્યાબાધ–આન દસ્વરૂપ મેક્ષના અભિલાપી, કપાયવિશિષ્ટ આત્માથી સદા દૂર રહેવાવાળાં, અને યથાવસ્થિત કર્મલોકની અથવા શબ્દાદિવિષયેની સદા ઉપેક્ષા કરવાવાળાં કર્મોનું વિદ્યારણ કરવામાં ઉત્સાહશાળી જે ભવ્ય વીરો, પૂર્વ, પશ્ચિમ, ઉત્તર અને દક્ષિણ દિશાઓમાં થયા છે તે બધા સત્ય-મેષસ્થાનમાં સ્થિત થઈ ચૂકેલ છે.
સુત્રકાર આ સૂત્રમાં નિર્દોષ તપ-ચારિત્રની આરાધનાનું ફળ પ્રગટ કરીને શિને કહે છે કે જે ભવ્ય વીરાએ પાંચ સમિતિઓનુ નિર્દોષ રીતિથી પાલન કર્યું છે, આત્મહિતની પ્રાપ્તિમાં જેમણે કાઈ પણ બાકી ન રાખ્યું, નિર્દોષ નયમની આરાધના કરવામા જ જેમણે પોતાના જીવનને વીતાવ્યા, હાપાદેયના સુદર વિવેકથી જેઓએ મેહુ મમત્વ ઉપર વિજય પ્રાપ્ત કર્યો, જેઓએ કષાયના
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ. ४
ममैव नायमाशयः किन्तु सर्वेषामहतामिति दर्शयितुं भगवान् प्राह-'जे खलु भो' इत्यादि।
यद्वा- सम्यक्त्वम्मुक्तं, निरवह्यं तपश्चारित्रमपि, इदानीं तत्फलमाह--'जे खलु भो' इत्यादि। ___मूलम्-जे खलु भो! वीरा समिया सहिया सयाजया संघडदंसिणो आओवरया अहातहा लोयं उवेहमाणा पाईणं पडीणं दाहिणं उईणं इय सच्चंसि परिविचिद्धिंसु ॥सू०१०॥
छाया-ये खलु भो! वीराः समिताः सहिताः सदायताः संघटदर्शिनः,आत्मोपरताः यथातथा लोकमुपेक्षमाणाः प्राचीनं मतीचीनं दक्षिणम् , इति सत्ये परिव्यस्थुः॥१०॥
मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगों के द्वारा जो किये जाते हैं वे कर्म हैं। ये ज्ञानावरणीयादिक के भेद से आठ प्रकारके हैं। आत्मा के साथ इनका सम्बन्ध अनादिकाल से हो रहा है। कोई भी कर्म जब तक अपना फल नहीं देता तब तक वह आत्मासे नष्ट नहीं होता; यह नियम है, अतः वह वेदवित्-सम्यग्ज्ञानी पुरुष कसे और उन कर्मों के कारण मिथ्यादर्शनादिकोंसे, तथा मिथ्यादर्शनादिके कारण कपायों से सदा दूर ही रहता है । अर्थात् कर्मबन्ध के कारणभूत समस्त सावध व्यापार का वह त्याग कर देता है। सू० ९॥ ___ इस कथन में सब तीर्थङ्करों की सम्मति प्रदर्शित करते हैं-'जे खल भो' इत्यादि । अथवा समकित को कहा और निर्दोष तप चारित्र को भी कहा; अब उसका फल कहते हैं-'जे खलु भो' इत्यादि। - મિથ્યાદર્શન, અવિરતિ, પ્રમાદ, કષાય અને ગદ્વારા જે કરવામાં આવે છે તે કર્મ છે. તે જ્ઞાનાવરણીયાદિકના ભેદથી આઠ પ્રકારના છે. આત્માની સાથે તેને સંબંધ અનાદિ કાળથી થઈ રહ્યો છે. કઈ પણ કર્મ જ્યાં સુધી પિતાનું ફળ नथी. २॥५तुं त्यो सुची ते यात्माथी नष्ट थतुं नथी, ये नियम छ. तेथी त वेदવિ7=સમ્યજ્ઞાની પુરૂષ કર્મોથી અને તે કર્મોના કારણે મિથ્યા-દર્શનાદિકો અને મિથ્યાદર્શનાદિકના કારણ કષાયોથી સદા દૂર જ રહે છે. અર્થાત્ કર્મબંધના કારણભૂત સમસ્ત સાવદ્ય વ્યાપારને તે સદા ત્યાગ કરી દે છે. એ સૂત્ર ૯ છે
२॥ ४थनमा मा तीर्थशनी समिति प्रदर्शित ४२ छ-'जे खलु भो' ઈત્યાદિ. અથવા સમકિત કહ્યું, નિર્દોષ તપ ચારિત્ર પણ કહ્યું હવે તેનું ફળ ४ छ-'जे खलु भो' प्रत्याहि.
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आचारागसूत्रे भी भूल न आने देना, कषायों से सदा सावधान रहना और शब्दादिक विपयों में सदा उपेक्षाभाव रखना, ये सब बातें-क्रियाएँ कर्मशत्रुओं पर विजय पाने में सैन्य का काम देती हैं । मोक्षाभिलाषी आत्मा सेनापति है, कर्मों की मूल-उत्तर-प्रकृतिरूप सेना शत्रुसैन्य है, उस पर विजय प्राप्त करने में इस योद्धा की ये पूर्वोक्त क्रियाएँ एक अक्षौहिणी सेना जैसी हैं, अतः यह आत्मा नियमसे कर्मसेना का पराभव कर अपने स्वभाव से ही मोक्ष का पूर्ण भोक्ता बन जाता है। इसमें जरा भी सन्देह नहीं।
सूत्र में "भो" शब्द शिष्यों के संबोधन के लिये आया है। वह भगवान् के कहे गये वचनों में शिष्यों का पुनः पुनः ध्यान आकर्षित करने के लिये कहा गया है। मूल में 'परिविचिद्धिंसु' यह भूतकालिक क्रियापद है । यह वर्तमान और भविष्यत्कालिक क्रियापद का भी उपलक्षण है। इसका अभिप्राय यह है कि भूतकाल में जितने भी वीर हुए है उन सबने तो मोक्ष का मार्ग प्राप्त कर ही लिया है, वर्तमान में भी जो पांच भरतक्षेत्र, पांच ऐरवत क्षेत्र और पांच महाविदेह क्षेत्र में संख्यात वीर हैं वे और अनागत कालमें जो अनंत वीर होंगे वे सब मोक्षके भोक्ता बनेंगे। ___ की के विदारण करने में उत्साहसम्पन्न को 'वीर,' पांच समितियों વિવેકમાં જરા પણ ભૂલ ન આવવા દેવી, કષાયથી સદા સાવધાન રહેવું, આ બધી વાતો-ક્રિયાઓ-કર્મશત્રુઓ ઉપર વિજય મેળવવામાં સૈન્યનું કામ કરે છે મેલાભિલાષી આત્મા સેનાપતિ છે. કર્મોની મૂળ-ઉત્તરપ્રકૃતિરૂપ સેના શત્રુસૈન્ય છે, તેના ઉપર વિજય પ્રાપ્ત કરવામાં આ દ્ધાની તે પૂર્વોકત ક્રિયાઓ એક અક્ષૌહિણી સેના જેવી છે, માટે તે આત્મા નિયમથી કમસેનાને પરાભવ કરીને પિતાના સ્વભાવથી જ મોક્ષને પૂર્ણ ભક્તા બની જાય છે, તેમાં જરા પણ સંદેહ નથી.
સૂત્રમાં “ભે” શબ્દ શિષ્યના સ બેધનને માટે આવેલ છે, તે ભગવાને કહેલા વચનેમા શિષ્યોનું વાર વાર ધ્યાન આકર્ષિત કરવાને માટે કહેવામાં આવેલ
भूगमा 'परिविचिदिसु' मा भूतालियाप छ । वर्तमान मन लविष्यકાલિક ક્રિયાપદનુ પણ ઉપલક્ષણ છે, આને અભિપ્રાય એ છે કે–ભૂતકાળમાં જેટલા વીરે થયેલા છે તે બધાએ મોક્ષને માર્ગ પ્રાપ્ત કરી જ લીધેલ છે વર્તમામાનમાં પUજે પાંચ ભરતક્ષેત્ર, પાચ ઐરવત ક્ષેત્ર અને પાંચ મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં સંખ્યાત વીર છે, તેઓ અને આવતા કાળમાં જે અનંત વિરે થશે તેઓ બધા મેલના લેતા બનશે.
नु वि२५ ४२पामा SHISH-पत्नने 'वीर,' पाय समिति गानु पादन
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सम्यक्त्व-अध्य०४ उ ४ आत्मनः कपायात्मन उपरता निवृत्ताः यथातथा यथावस्थितं, लोकं कर्मलोकं, शब्दादिविषयलोकं वा, उपेक्षमाणाः दृष्ट्याऽपश्यन्त आसन् , ते प्राच्यादिदिश्ववस्थिताः, सत्ये सत्यसुखजनकत्वात् सत्यो मोक्षमार्गः, तत्र, परिव्यस्थुः स्थितवन्तः, इदमुपलक्षणम्-तेनानागतवर्तमानयोरपि क्रियापदे संयोजनीये, यथा- ये वीराः सन्ति ते वर्तमानकाले पञ्चदशकर्मभूमिषु संख्येयास्तिष्ठन्ति, ये च भविष्यन्ति, ते चानागतकालेऽनन्ताः स्थास्यन्तीति ॥ मू० १०॥ निष्फल किया और इस कर्ममय लोक की अथवा शब्दादिक पांचइन्द्रियों के विषयों की तरफ थोड़ा सा भी ध्यान नहीं दिया, उन भव्यवीरों नेचाहे वे किसी भी दिशा में क्यों न रहें हों-नियम से मोक्ष को अपने हाथ में कर लिया है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की एकता के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती, यह जैनसिद्धान्त का अटल नियम है। पांचसमिति वगैरह के पालन में अपने को विसर्जित कर देना यह बात सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की आराधना से ही आत्माको उपलब्ध होती है। सूत्र में "वीर" शब्द इसी बात की पुष्टि करता है । बाह्य जगत में शत्रुओं पर विजय प्राप्त करनेवाले लाखों क्या करोड़ों भी मनुष्य मिल सकते हैं, परन्तु जो अपने आत्मशत्रुओं-कर्मों पर विजय प्राप्त करने की कोशिश में हैं वे लाखों में क्या करोड़ों में भी एक दो मिलेंगे। पांच समितियों में लवलीन रहना, आत्महित की प्राप्ति में सदा उद्यम करते रहना, सर्वदा संयम की आराधना में जरा भी प्रमादशील न बनना, हेयोपादेय के विवेक में थोड़ी सी ઉદયને નિષ્ફળ બનાવ્યું અને આ કર્મમય લેકની અથવા શદાદિક પાંચ ઇન્દ્રિયના વિષયની તરફ થોડું પણ ધ્યાન નથી આપ્યું તેવા ભવ્ય વીરોએ ભલે તેઓ કોઈ પણ દિશામાં હોય તો પણ નિયમથી મોક્ષને પ્રાપ્ત કરેલ છે. સમ્યગદર્શન સમ્યગૂજ્ઞાન અને સમ્મચારિત્રની એકતા વિના મોક્ષની પ્રાપ્તિ થતી નથી, એ જૈન-સિદ્ધાંતને અટલ નિયમ છે. પાંચ સમિતિ વિગેરેના પાલનમાં પિતાને વિસર્જીત કરી દેવું, એ વાત સમ્યગ્દર્શન, સમ્યજ્ઞાન અને સમ્યક્રચારિત્રની આરાધનાથી જ આત્માને ઉપલબ્ધ થાય છે. સૂત્રમાં જે વીર” શબ્દ છે તે આ વાતની જ પુષ્ટિ કરે છે. બાહ્ય જગતમાં શત્રુઓ પર વિજય કરનારાઓ લાખ તે શું પણ કરે મનુષ્ય મળી રહેશે, પરંતુ પિતાના આત્મશત્રુઓ-કર્મ પર વિજય પ્રાપ્ત કરવાની કે શિશમાં હોય તેવા લાખ બલ્ક કરેડેમાં પણ એક-બે મળશે. પાંચ સમિતિઓમાં રચ્યા રહેવું, આત્મહિતની પ્રાપ્તિમાં સદા ઉદ્યમ કરતા રહેવું, સર્વદા સંયમની આરાધનામાં જરા પણ પ્રમાદશીલ ન બનવું, હે પાદેયના
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आचाराङ्गसूत्रे
यिष्यामः । वीरादिविशेषणशब्दा अनन्तरपूर्वमुत्रे व्याख्याताः । शिष्यः पृच्छतिकिमम्ति उपाधिरिति । किं तेषां महापुरुषाणामुपाधिरस्ति ?, उत्तरवाक्यमाह - 'पयकस्य' इत्यादि । पश्यकस्य - सम्यग्दर्शनादिकं मोक्षमार्गं पश्यतीति पश्यः, स एव पश्यक, तस्य कर्मजनितोपाधिर्न विद्यते नास्ति इति ब्रवीमि मया यथा भगवद्वाक्यं श्रुतं तथा कथयामीत्यर्थः ॥ भ्रू० ११ ॥
चतुर्थाध्ययनस्य चतुर्थी देशः समाप्तः ॥ ४-४ ॥
भावार्थ- जब तक जीव अपने शुद्धस्वरूप-निर्विकार आनन्द-स्वरूप मुक्तिको प्राप्त नहीं कर लेता है तब तक वह कर्मों से निर्लिप्त नहीं हो सकता है । ऐसी अवस्था में जब तक सांसारिक दशा है अथवा संसार में रहना है तब तक कर्मों के चक्कर में प्रत्येक प्राणी फॅसा हुआ ही है । जो कर्मों का कर्ता है वह उसके फल का भी भोक्ता माना जाता है । यद्यपि यह नियम अटल है परन्तु ज्ञानी जीव उसके अपवादस्वरूप हैं, क्यों कि चारित्रमोहनीय के उदयसे जब तक चारित्र का अभाव उनकी आत्मामें नहीं हुआ है तब तक दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न होनेवाला कर्मबन्ध उनको नहीं होता है। जितने अंश में परपदार्थों से निवृत्ति है उतने अंशों में आत्मा में शुद्धि का सद्भाव भी है, अर्थात् दर्शन मोहनीय कर्म के उपशम, क्षय और क्षयोपशम से जितनी भी आत्मा से अनत्त्वश्रद्वानपरिणति का अंत होगा उतनी ही आत्मजागृतिरूप शुद्धपरिणति का विकास वहां पर होगा ।
ભાવાર્થ
જ્યા સુધી જીવ પોતાના શુદ્ધસ્વરૂપ-નિર્વિકાર આન–સ્વરૂપ મુક્તિને પ્રાપ્ત નથી કરી લેતા,ત્યાં સુધી તે કર્મોથી નિર્લિપ્ત થતા નથી. આવી અવસ્થામા ત્યા સુધી સાંસારિક દશા છે, અથવા સંસારમાં રહેવાનુ છે ત્યાં સુધી કર્મોના ચક્કરમાં પ્રત્યેક પ્રાણી માયેલાં જ છે જે કર્મોના કર્તા છે તે તેના ફળનેા પણ ભાક્તા મનાય છે, જે કે આ નિયમ અટલ છે છતાં પણ જ્ઞાની જીવ તેના અપવાદસ્વરૂપ છે, કેમ કે ચારિત્રમોહનીયના ઉદ્દયથી જ્યાં સુધી ચારિત્રના અભાવ તેના આત્મામા નથી થયા ત્યાં સુધી દર્શન-મેાહનીય કર્મના ઉદ્દયથી ઉત્પન્ન થનાર કર્મબધ તેને થતું નથી. જેટલા અંશમાં પરપદાર્થોની નિવૃત્તિ છે તેટલા અંશામા આત્મામા શુદ્ધિના સદ્ભાવ પણ છે, અર્થાત્ દર્શન–માહનીય -ના ઉપશમ, ક્ષય, અને ક્ષયેાપશમથી આત્મામા જેટલી પણ અતત્ત્વશ્રદ્ધાન પરિપતિના અંત થશે તેટલી જ આત્માગૃતિરૂપ શુદ્ધ પરિણતિના વિકાસ ત્યાં થશે,
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सम्यक्त्व-अध्य० ४. उ. ४ तेषां सत्यावस्थायिनां ज्ञानमाह-'साहिस्सामो' इत्यादि।
मूलम्-साहिस्सामो नाणं वीराणंसमियाणं सहियाणं सयाजयाणं संघडदंसीणं आओवरयाणं अहातहा लोयमुवेहमाणाणं, किमाथि उवाही? पासगस्सन विज्जइ, नत्थि-त्ति बेमि ॥सू०११॥ ___ छाया-साधयिष्यामो ज्ञानं वीराणां समितानां सहितानां सदायतानां संघटदर्शिनाम् आत्मोपरतानां यथातथा लोकमुपेक्षमाणानां, किमस्ति उपाधिः पश्यकस्य ? न विद्यते नास्ति, इति ब्रवीमि ॥म० ११॥ ____टीका-तेषां वीराणां समितानां सहितानां सदायतानां संघटदर्शिनाम् आत्मोपरतानां यथातथा लोकमुपेक्षमाणानां ज्ञानम् अभिप्राय, साधयिष्यामः कथके पालन करनेवाले को 'समित,' आत्मकल्याण में उद्यमशाली अथवा ज्ञानादिक गुणों से युक्त को 'सहित', सर्वदा संयम की आराधना में सावधान को 'सदायत,' हेयोपादेय के विवेक से युक्त अथवा अव्यायाध आनन्दस्वरूप मोक्ष की अभिलाषावाले को 'संघटदर्शी' और कषायों से उपरत-निवृत्त जीवों को 'आत्मोपरत' कहते हैं। सू० १०॥
मोक्षमार्ग में रहनेवाले उन वीर-आत्माओं के ज्ञान के विषय में सूत्रकार कहते हैं:-सहिस्सामो नाणं' इत्यादि।
हर वीर, ससित, सहित, सदायत, संघटदर्शी, आत्मोपरत, यथावस्थित लोक की उपेक्षा करनेवाले उन मोक्षमार्ग के पथिकों के ज्ञान के विषय में आगे कथन करेंगे। अभी तो इतना ही कहते हैं कि उन वीरादिविशेषणविशिष्ट आत्माओं के कर्मजनित कोई भी उपाधिनहीं है। ४२वावाने समित', यात्म४यामा अधम अथवा ज्ञाना िशुशोथी युतने 'सहित', सह सयमनी माराधनामा सावधानने 'सदायत', योपायना विवे४थी युमत व्यायाधमान स्१३५ माक्षनी मनिसाषावाणाने 'संवटेदी' मने पायोथी 6५२त-निवृत्त लवाने 'आत्मोपरत' हे छ. ॥सू० १०॥
મોક્ષમાર્ગમાં રહેવાવાળા તે વિર–આત્માઓના જ્ઞાનના વિષયમાં સૂત્રકાર छ" साहिस्सामो नाणं" त्यादि.
समे , समित, सङित, सहायत, सघशी, मात्मा५२त मने यथाવસ્થિત લેડની ઉપેક્ષા કરવાવાળાં તે મોક્ષના પથિકેના જ્ઞાનના વિષયમાં આગળ કહીશું. હમણાં તો આટલું કહીએ છીએ કે તે વીરાદિવિશેષણવિશિષ્ટ આત્માએને કમજનિત (કર્મથી થનારી) કોઈપણ ઉપાધિ નથી.
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आवाराङ्गसूत्रे
सम्यक्त्व को पुष्ट करनेवाली युक्ति से सम्यक्त्व का वर्णन तथा अनार्यो के वचनों का निराकरण करके सम्यक्त्वका फल इस चौथे अध्ययन में कहा गया है ॥ १ ॥
६९०
यह आचाराङ्गसूत्र के सम्यक्त्व नामके चौथे अध्ययनकी आचारचिन्तामणि- टीकाका हिन्दी भाषानुवाद सम्पूर्ण ॥ ४ ॥
સમ્યક્ત્વને પુષ્ટ કરવાવાળી યુકિતથી સમ્યક્ત્વનું નન, તથા અનાનિા વચનનુ નિરાકરણ કરીને સમ્યક્ત્વનું ફળ આ ચોથા અધ્યયનમાં કહ્યુ છે, ॥ ૧ ॥
આ આચારાંગસૂત્રના સમ્યક્ત્વનામના ચેાથા અધ્યયનની આચાર્ચિંતામણિ–ટીકાને ગુજરાતી અનુવાદ સપૂર્ણ ૫ ૪૫
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सम्यक्त्व-अध्य० ४ उ. ४
सम्यक्त्वकरया, युक्त्या, सम्यक्त्वं तत्फलानि च । विदूष्यानार्यवचनं, चतुर्थेऽध्ययनेऽब्रवीत् ॥ १ ॥ इति । ॥ इतिश्री - विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक- पञ्चदशभाषाकलितललित-कलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थ निर्मापक-वादिमानमर्दक-शाहूछत्रपति - कोल्हापुर राजप्रदत्त - " जैनशास्त्राचार्य " - पदभूपित - कोल्हापुर राजगुरु - बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्म दिवाकर पूज्य - श्रीघासीलाल - प्रतिविरचितायाम् आचाराङ्गमुत्र - स्याssचार चिन्तामणिटीकायां सम्यक्त्वाख्यं चतुर्थमध्ययनं सम्पूर्णम् ॥ ४ ॥
44
समकित के प्राप्त होते ही आत्मा में आत्मस्वरूप का भान होने से आंशिक रूप में सम्यग्ज्ञान और स्वानुभव में रमणरूप आंशिक चारित्र भी समfect को उत्पन्न हो जाता है, अतः यहां पर सूत्रकार मोक्षमार्ग के पथिकों को कर्मजन्य उपाधिका अभाव बतलाते हैं, क्यों कि अज्ञानी जीवों को ही कर्मजन्य उपाधि हुआ करती है, ज्ञानी जीवों के नहीं । इस प्रकरण की समाप्ति करते हुए श्री सुधर्मास्वामी कहते हैं कि हे जम्बू ! जिस प्रकार से मैंने यह भगवान के समीप सुना है उसी प्रकार मैं कहता हूँ || सू० ११ ॥
चौथे अध्ययनका चौथा उदेश समाप्त ॥ ४-४ ॥
चौथे अध्ययन में जो विषय कहे गये हैं उनका संक्षिप्त वर्णन श्लोक द्वारा करते हैं--' सम्यक्त्वकरया' इत्यादि ।
સમકિત પ્રાપ્ત થતાં જ આત્મામાં આત્મસ્વરૂપનું ભાન થવાથી આંશિક રૂપમાં સભ્યજ્ઞાન અને સ્વાનુભવમાં રમણુરૂપ આંશિક ચારિત્ર પણ સમકિતીને ઉત્પન્ન થાય છે, માટે આ ઠેકાણે સૂત્રકાર માક્ષમાર્ગના પથિકાને ક જન્ય ઉપાધિના અભાવ ખતાવે છે, કેમકે અજ્ઞાની જીવેાને જ કર્મજન્ય ઉપાધિ થાય છે, જ્ઞાની જીવાને નહિ.
આ પ્રકરણની સમાપ્તિ કરતાં શ્રી સુધર્માંસ્વામી કહે છે કે હે જમ્મૂ ! જે પ્રકારે મેં ભગવાનની સમીપ આ સાંભળ્યુ છે તે પ્રકારે હું કહું છું. ાસૂ॰૧૧૫ ચેાથા અધ્યયનના ચેાથેા ઉદ્દેશ સમાપ્ત ૫ ૪-૪ ॥
ચેાથા અધ્યયનમાં જે વિષય કહેવાયા છે તેનુ' સક્ષિપ્ત વર્ણ ન શ્લાકદ્વારા १२ छे' सम्यक्त्वकरया ' त्याहि.
८७
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[[૨]
આદ્ય મુરબીશ્રી-૪ (ઓછામાં ઓછી રૂ. ૫૦૦૦ ની રકમ આપનાર) ૧૦૦૦૦
શેઠ શાતિલાલ મંગળદાસભાઈ, પ્રમુખ સાહેબ અમદાવાદ ૬૦૦૦ શેઠ હરખચંદ કાલીદાસભાઈ
ભાણવડ (હા. શેઠ લાલચંદભાઈ જેચ દભાઈ નગીનદાસભાઈ
વૃજલાલભાઈ તથા વલભદાસભાઈ) ૫૨૫૧ કોઠારી જેચંદભાઈ અજરામર હા. હરગોવિંદભાઈ જેચંદ રાજકોટ ૫૦૦૧ શેઠ ધારશીભાઈ જીવનભાઈ
સેલાપુર મુરબ્બીશ્રીઓ-૨૦ (ઓછામાં ઓછી રૂ. ૧૦૦૦ ની રકમ આપનાર) ૩૬૦૫ વકીલ જીવરાજ વર્ધમાન હા. કેકારી કહાનદાસભાઈ તથા વેણીલાલભાઈ
જેતપુર ૩૬૦૪ દેશી પ્રભુદાસ મુળજીભાઈ
રાજકેટ ૩૨૮લાના મહેતા ગુલાબચ દ પાનાચંદ ૩૧૦૧ સંઘવી પીતામ્બરદાસ ગુલાબચંદ
જામનગર ૨૫૦૦ શેઠ શામજીભાઈ વેલજી વીરાણી
રાજકોટ २००० નામદાર ઠાકર સાહેબ લખધીરસી હજી બહાદુર મેરબી
શેઠ લહેરચદ કુંવરજી હા શેઠ ન્યાલચંદભાઈ લહેરચંદ સીધપુર ૨૦ ૦ ૦ શાહ છગનલાલ હેમચદ વસા હા મેહનલાલભાઈ
તથા મોતીલાલભાઈ ૧૯૬૩ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ .
મારી ૧૦૦૧ શેઠ આત્મારામ માણેકલાલ
અમદાવાદ ૧૦૦૧ શેઠ માણેકલાલ ભાણજીભાઈ
પિરબંદર ૧૦૦૦ શેઠ મેમચંદ તુલસીદાસ
રતલામ ૧૦૦૦ કેકારી છબીલદાસ હરખચંદ
મુંબઈ ૧૦૦૦ કોઠારી રંગીલદાસ હરખચંદ
શહેર ૧૦૦૨ બગડીઆ જગજીવનદાસ રતનશી
દામનગર ૧૦૦૧ શ્રીમાન ચંદ્રસિંહજી મહેતા (રેલ્વે મેનેજર સાહેબ) કલકત્તા ૧૦૦૧ મહેતા પોપટલાલ માવજીભાઈ
જામજોધપુર ૧૦૦૧ મહેતા સેમચદ નેણશીભાઈ (કરાંચીવાળા) મેરબી ૧ ૦૦૧ શાહુ હરીલાલ અનુપચંદ
ખંભાત ૧૦૦૨ દોશી કપુરચંદ અમરશી હે દલપતરામ કપુરચંદ દોશી
જામ જોધપુર
૨૦૦૦
મુંબઈ
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[૧] શ્રી અખિલ ભારતવેતામ્બર સ્થાનક્વાસી
જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ
ગરેડીઆ કુવા રેહ– ગ્રીન લેજ પાસે
રાજકોટ
સમિતિની શરૂઆત તા. ૧૮-૧૦-૪૪ થી તા. ૩૧-૧-૫૭ સુધીમાં દાનવીર મહાશયે તરફથી મળેલી રકમની નામાવલી,
(રૂ. ૨૫૦ થી ઓછી રકમ આ યાદીમાં સામેલ કરેલ નથી.)
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૭૫૧
૫૦૧
૪૦૨
૪૦૦
૩૫૩
૩૦૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૦
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૪૭૪ા
૨૫૧
૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૫૧
૨૫
૫૧
શાહ રગજીભાઈ માહનલાલ કામદાર રતીલાલ દુર્લભજી જેતપુરવાળા
પ્રથમ વર્ગના મૈમ્બરા–૧૮૫
(આછામા ઓછી રકમ રૂા. ૨૫૦ આપનાર)
શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સ`ઘ
ધી વાડીલાલ ડાઈંગ એન્ડ પ્રિન્ટીંગ વર્કસ
શેઠ રતનશી હીરજીભાઈ હા. ગારધનદાસભાઈ
શેઠ જેચ'દભાઈ માણેકચ દ
સ ઘવી માણેકચંદ માધવજી
શેઠ લાલજીભાઈ માણેકચંદ (લાલપુરવાળા)
શેઠ રામજી ઝીણાભાઈ
પંચમીયા ભવાનભાઈ કાળાભાઈ
શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ
શેઠ રતીલાલ ન્યાલચંદ
માજી પરશુરામ છગનલાલ શેઠ (ઉદેપુરવાળા) શેઠ મગનલાલ છગનલાલ વિશ્રામ (ધ્રાફાવાળા) શેઠ જેઠાલાલ ગારધનદાસ
શેઠ ખુશાલચ દભાઈ કાનજીભાઈ હા. શેઠ પ્રતાપભાઈ
શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સઘ
અમદાવાદ
મુંબઈ
ઘ. બહેન સતાક કચરા હા. આતમચદખાઈ, ઘેટાલાલભાઈ
તથા અમૃતલાલભાઈ વાલજી (કલ્યાણુવાળા)
શેડ છેાટાલાલ કેશવજી
શાહ લક્ષ્મીચ ૪ કપુરચંદ
શાહ ચતુરદાસ ઠાકરશીભાઈ
ખઢરીયા કાન્તીલાલ મકલાલ (સ્ટેશન માસ્તર) શાહ કેશવલાલ જેચ'દ
શાહ ખીમચંદ સેાભાગચંદ્ર વસનજી
ધ્રાફા
રાજકોટ
જામજોધપુર
ભાણુવડ
ભાભુવડ
ભાણવડ
ભાણવડ
વડીઆ
વાંકાનેર
રાજકોટ
રાજકોટ
રાજકોટ
ઉપલેટા
ઉપલેટા
ઉપલેટા
ખાખીજાળીયા
જામનગર
જેતલસર જ કશન
જામનગર
સુરેન્દ્રનગર
વેરાવલ
વેરાવલ
સ્વ. ખામડા વચ્છરાજ તુલસીદાસનાં ધર્મપત્ની કમળખાઈ તરફથી હા. માણેકચદભાઈ તથા કપુરચંદભાઈ
શેડ છગનલાલ નાગજીભાઈ ઘેલાણી ત્રીકમજી લાધાભાઈ
ગોંડલ
મુંબઈ
જુનારદેવ
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સહાયક મેમ્બર-૨૧
૭૫૦
૭૫૦
૭૦૦
૫૦૧ ૫૦૦
૫૦૦
૫૦૦
૫૦૦
(ઓછામાં ઓછી રૂા. પ૦૦ ની રકમ આપનાર) શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ હ. શેઠ ઝુંઝાભાઈ વેલસીભાઈ ,
વઢવાણ શહેર મેદી કેશવલાલ હરચંદ
સાબરમતી શેઠ નરોત્તમદાસ ઓઘડભાઈ
જોરાવરનગર શેઠ શીવલાલ ડમરભાઈ
લીંબડી કામદાર તારાચંદ પિપટલાલ ધોરાજીવાળા
રાજકોટ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ
થાનગઢ શેઠ તારાચંદજી પુખરાજજી
ઔરંગાબાદ શ્રી સ્થાનકવાસી જન સંઘ
ઔરંગાબાદ ૧૫૦ શેઠ શેષમલજી જીવરાજજી ૧૨૫ , અનરાજજી લાલચંદજી ૧૨૫ , ધુકડચંદજી રૂપચંદજી ૧૦૦ , દગડુમલજી ચાંદમલજી ૫૦૦ મહેતા મોહનલાલ કપુરચંદ
રાજકોટ શેડ ગોવીંદજી પિપટભાઈ
રાજકેટ મહેતા મુળચંદ રાઘવજી હા. મગનલાલભાઈ તથા દુર્લભજીભાઈ ધ્રાફા શેઠ હરખચંદ પરસોત્તમ હા ભાઈ ઈદુકુમાર
ચારવાડ શેડ ખીમજી બાવાભાઈ હા. તેમના પુત્ર કુલચંદભાઈ નાગરદાસભાઈ, ગુલાબચંદભાઈ તથા જમનાદાસભાઈ મુંબઈ શેર મણીલાલ મોહનલાલ ડગલી હા. શેડ મુલજીભાઈ મણીલાલ મુંબઈ શેઠ ઈશ્વરલાલ પુરૂષોતમદાસ
અમદ્દાવાદ શેડ ચંદુલાલ છગનલાલ વ કાંતીલાલભાઈના સ્મરણાર્થે હ શેડ બાલચંદ સાકરચંદ
મુંબઈ ઇ. સ. બેન મોરી મગનલાલ તે મહેતા સાચં? તુલસીદાસનાં ધર્મપત્નિ
રતલા રવ દિનાથી કંટાઇન ભરણા છે. વેરચંદ સંતીલાલ (જબુગાવાળા)
મેઘનાર
૫૦૦
૫૦૦
૫૦૦ ૫૦૦
૫૦૧ ૫૦૧ ૫૦૧ ૫૦૧
અમદાવાદ
૫૦૦
પ૦૬
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૨૫૧
૨૫૧
૨૫૦
૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧
જેતપુર
૨૮૭ ૨૫૧
૨૫૦
ધોરાજી
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
અ. સ. બહેન બચીબહેન બાબુભાઈ
ધોરાજી શેઠ નેમચદ સવજીભાઈ મોદી
લાલપુર શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા. પ્રમુખ શેઠ પ્રેમચદ ભગવાનલાલ નંદુરબાર શેઠ અમૃતલાલ હીરજીભાઈ જસાપરવાળા હા. નરભેરામભાઈ જેતપુર , દેશી છોટાલાલ વનેચંદ કામદાર લીલાધર જીવરાજના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્ની બાઈ ઝબકબહેન તરફથી હા. ભાઈ શાંતિલાલ જેતલસર શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ
જામજોધપુર સ્વ. બહેન વિજ્યાગૌરી રાયચદ હા શેઠ રાયચંદ પાનાચંદ ધોરાજી ગાધી પિપટલાલ જેચ દભાઈ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ હા. પ્રમુખ રાયચદ વૃજલાલ અજમેર
વીછીયા શેઠ મુળચદ પિપટલાલ હા મણીલાલભાઈ તથા જેસી ગલાલભાઈ
લાલપુર શેઠ મણીલાલ મીઠાભાઈ હા. હરિલાલભાઈ હાટીના માળીયાવાળા
જુનાગઢ સ્વ. વસાણી હરગોવીદદાસ છગનલાલના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્ની બાઈ છબલબેન તરફથી શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ
ચુડા (ઝાલાવાડ) શેઠ મગનલાલજી બાગચા
ઉદેપુર શેઠ ચાંપશીભાઈ સુખલાલ
સુરેન્દ્રનગર શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ
બોટાદ સ્વ. પૂજ્ય માતુશ્રી સમરતભાઈના સ્મરણાર્થે હા. ડોકટર સાહેબ નરોત્તમદાસ ચુનીલાલ કાપડીયા રાણપુર સ્વ. તુરખીયા લહેરચંદ માણેકચંદ સુદામડાવાળાના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્ની જીવતીબાઈ તરફથી હા જયંતીલાલ લહેરચદ ડભાસ શ્રી સ્થા જૈન મોટા સંઘ
ધ્રાંગધ્રા શાહ દીલીપકુંવર સવાઈલાલ હા. શેઠ સવાઈલાલ ત્રબકલાલ
વઢવાણ શહેર શેઠ છેટુભાઈ હરગાવી દદાસ કટેરીવાળા
મુંબઈ રા. . નાથાલાલ ડી હેતા
મેંમ્બાસી સંઘવી પ્રાણલાલ લવજીભાઈ
જામખંભાળીયા
૨૫૧
બોટાદ
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૨૫૧
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શેઠ ગીરધરલાલ કરમચંદ
અમદાવાદ શેઠ છોટાલાલ વખતચંદ
અમદાવાદ ગોસલિયા હરિલાલ લાલચંદ
અમદાવાદ શેઠ પ્રેમચંદ માણેકચંદ
અમદાવાદ શેઠ માણેકલાલ ભગવાનદાસ
ખંભાત શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ હા. શેઠ મોહનલાલ ઈચ્છારામ ખ ભાત શેઠ રમણીકલાલ એ. કપાસી
આણંદ બહેન સુરીબહેન (લક્ષ્મીબેન) હા. મહેતા હરીલાલ પીતામ્બરદાસ
પાલણપુર શેઠ વાડીલાલ નેમચંદ વકીલ
વીરમગામ શાહ વિઠલદાસ મોદી માતર
વીરમગામ શાહ નાગરદાસ માણેકચંદ
વીરમગામ શાહ મણીલાલ જીવણલાલ
વિરમગામ શાહ નાગરદાસ વાઘજીભાઈ
અમલનેર શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ
અમલનેર શેઠ મનુભાઈ મુળચંદ (ઈજીનીયર સાહેબ) રાજકોટ શેઠ શાંતિલાલ પ્રેમચંદ [તેમનાં ધર્મપત્નીના વરસીતપ પ્રસંગે ખુશાલીના] રાજકોટ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ હા. ચંપાલાલજી મારવે
ડોંડાઈચા શેઠ મોતીલાલજી રણજીતલાલજી હીંગડા
ઉદેપુર શેઠ બાદરમલજી સુરજમલજી બેન્કર્સ
યાદગીરી, શેઠ નેપાલજી મીઠાભાઈ
હાટીના માળીયા ઉદાણી ન્યાલચંદ હાકેમચંદ [વકીલ]
રાજકેટ શેઠ પ્રજારામ વિઠલજી
રાજકેટ શેઠ મેઘરાજજી દેવીચંદજી મહેતા
મદ્રાસ પટેલ ગોવીંદલાલ ભગવાનજી
કેલકી પટેલ ખીમજી જેઠાભાઈ વાઘાણી
કોલકી શેઠ હકીમચંદદીપચંદ ગોંડલવાળા સ્ટેશન માસ્તર ભક્તિનગર રાજકોટ શેઠ વસનજી નારણજી
જામખંભાળીયા શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ
જામખંભાળીયા શેઠ કીશનલાલ પૃથ્વીરાજ
ખીચન (પાલી) શેઠ પદમસી ભીમજી ફેફરીયા
ભાણવડ
૨૫૦
૨૫૧ ૨૫૦ ૨૫૦ ૨૫૧
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લખતર
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મુંબઈ
૨૫૧
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શાહ જાદવજી ઓઘડભાઈ સદાદવાળાના મરણાર્થે હા. ભાઈ શાંતીલાલ જાદવજી
લખતર ભાવસાર ચુનીલાલ પ્રેમચંદભાઈ
સુરેન્દ્રનગર શ્રી વર્ધમાન વેતામ્બર સ્થા. શ્રાવક સંઘ હ. શેઠ કેસરીમલજી અને પાંદજી ગુગળીયા મલાડ (મુંબઈ) દેશી ઠાકરશી ગુલાબચંદના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપની સમરતબેન વૃજલાલ તરફથી હા. ભાઈ જયંતિલાલ ઠાકરશી શાહ અમુલખ ઉર્ફ બચુભાઈ નાગરદાસનાં ધર્મપત્ની અ, સૌ. બેન લીલાવંતીના વરસી તપનાં પારણાની ખુશાલીમાં હા. ભાઈ કાંતીલાલ નાગરદાસ
વીરમગામ કામદાર કેશવલાલ હીમતરામ પ્રેફેસર સાહેબ (ગેડલવાળા) વડેદરા શેઠ ડુંગરશી હંસરાજ વીસરીયા શેઠ ધનરાજ મુળચંદ મુથા
લેનાવાલા (પુના) મહેતા નાનાલાલ છગનલાલનાં ધર્મપત્ની સ્વ. ચંચળબેન તથા પુરીબેનના સ્મરણાર્થે હા. ભાઈ મનહરલાલ નાનાલાલ
મુ. વણી (વીરમગામ) દેશી ચુનીલાલ ફુલચંદ મેરબીવાળા મુ. શાલખની (બંગાળ) શાહ હીરાચંદ છગનલાલ હ. શાહ ચીમનલાલ હીરાચંદ સાણંદ શેઠ મોહનલાલ જેઠાભાઈના સ્મરણાર્થે હા શેઠ આત્મારામ મેહનલાલ શાહ રમણીકલાલ કાળીદાસ તથા અ. . કાંતાબેન રમણકલાલ (ધ્રાંગધ્રાવાળા) ડોકટર મયાચંદ મગનલાલ હા. ડે. રતનચંદ મયાચંદ કલાલ સ્વ. શાહ નાથાલાલ ઉમેદચંદના સ્મરણાર્થે હા. શાહ રતીલાલ નાથાલાલ
કલોલ શ્રી સ્થા. દરીયાપુરી જૈન સંઘ હ, ભાવસાર દામોદરદાસ ઈશ્વરભાઈ
કડી શાહ મણીલાલ તલકચંદના સ્મરણાર્થે હા. મારફતીયા ચંદુલાલ મણીલાલ
કલેલા અ. સિ. ચંપાબેન હ. શેઠ જીવરાજ લાલચંદ દેશી સાણંદ પટેલ મહાસુખલાલ ડેસાભાઈ
સાણંદ
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કલેલ
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મુંબઈ
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ધંધુકા
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બાવીશી મણીલાલ ચત્રભુજના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્ની બાઈ મણીબેન તરફથી હા. ભાઈ રસીકલાલ, અનીલકત તથા વિનોદરાય આસનસોલ શેઠ માણેકલાલ અમુલખરાય મહેતા
ઘાટકોપર ભાવસાર ખેડીદાસ ગણેશભાઈ
ધંધુકા શાહ પિપટલાલ ધનજીભાઈ સ્વ ગુલાબચંદભાઈના સ્મરણાર્થે હા. વેરા પોપટલાલ નાનચંદ
ધંધુકા શેઠ ચત્રભુજ વાઘજીભાઈ વસાણી સ્વ. મેહનલાલ નરસીદાસના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્ની સુરજબેન મોરારજી તરફથી
બરવાળા શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ
પાણશણ (લીંબડી) સઘણું મુળશંકર હરજીવનભાઈને મરણાર્થે હા. તેમના પુત્રો જયંતિલાલભાઈ તથા રમણીકલાલભાઈ ઉપલેટા શાહ મગનલાલ ગોકળદાસ હા. રતીલાલ મગનલાલ
વઢવાણ શહેર સંઘવી મુળચંદ બેચરભાઈ હ. જીવનલાલ ગફલદાસ
વઢવાણ શહેર બહેન સુર્યબાળા નૌતમલાલ જસાણી [ વરસીતપનાં પારણાંની ખુશાલીમાં ]
રાજકેટ શાહ રાયચ દ ઠાકરશીના સ્મરણાર્થે હા. ભાઈ શાંતીલાલ રાયચંદ ભાવસાર હરજીવનદાસ પ્રભુદાસના સ્મરણાર્થે હા. ભાઈ ત્રીભોવનદાસ હરજીવનદાસ શાહ તલકશી હીરાચંદના સ્મરjથે હા. ભાઈ અમૃતલાલ તલકશી
લખતર શાહ ચુનીલાલ માણેકચંદ
લખતર શેઠ વૃજલાલ સુખલાલ
વઢવાણ શહેર શેઠ કાંતિલાલ નાગરદાસ
વઢવાણ શહેર વેરા ચત્રભુજ મગનલાલ
વઢવાણ શહેર સંઘવી શીવલાલ હીમજીભાઈ
વઢવાણ શહેર શાહ દેવશીભાઈ દેવકરણ
વઢવાણ શહેર
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લખતર
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મુંબઈ
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વેરા ધનજીભાઈ લાલચંદ સ્થા. જૈન સંઘ હા. વોરા પાનાચંદ ગોબરદાસ
વઢવાણ શહેર સ્વ. અમૃતલાલ વર્ધમાનના સ્મરણાર્થે હા. કહાનજીભાઈ અમદાવાદ અમૃતલાલ દેશી શ્રી વીરમગામ સ્થા. જૈન શ્રાવિકા સઘ
વીરમગામ સ્વ. ત્રિભવનદાસ દેવચંદ તથા સ્વ. અ. સૌ. ચંચળ બેનના સ્મરણાર્થે હા ડોકટર હિંમતલાલ સુખલાલ , શાહ મુલચંદ કાનજીભાઈ તરફથી હા. શાહ નાગરદાસ ઓઘડભાઈ શેઠ મોહનલાલ પીતાંબરદાસ હા. ભાઈ કેશવલાલ તથા મનસુખલાલભાઈ શાહ રતનશી મણશીની કુ. ભાવસાર ભેગીલાલ જમનાદાસ
અમદાવાદ શાહ શીવજી માણેકભાઈ
બેશઝા કચ્છ શાહ લુણાજી ગુલાબચંદ (સંજેલી)
પંચમહાલ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા. શાહ પ્રેમચંદ દલીચંદ (સંજેલી શાહ કુવરજી ગુલાબચંદ (લીમડી) શાહ પાનાચંદ સંઘજીભાઈ હા. ત્ર બકલાલ રતીલાલ મુંબઈ શાહ અમુલખભાઈ મુળજી હા પ્રકાશચંદ અમુલખ હારીજ સ્વ બેન ચદ્રકાતાના મરણાર્થે હા અમુલખ મુળજીભાઈ ,, સ્વ. પદમશી સુરચંદના સ્મરણાર્થે હા શીવલાલ પદમશી મેસાણા શાહ ગોકળદાસ શામજી ઉદાણું
એડન કેમ્પ બાટવીયા ગીરધરલાલ પ્રમાણુંદ હા. અમીચંદ ગીરધરલાલ
ખાખીજાળીયા શ્રીમતિ આ સો. બેન ચદ્રાવતી તે શ્રીમાન બહેતલાલજી નાહરનાં ધર્મપત્નિ હા. શેઠ રણજીત લાલજી હીંગડ ઉદેપુર સ્વ. શેઠ વીરચંદભાઈ જેસીગ લખતરવાળાના સ્મરણાર્થે હા. કેશવલાલ વીરચંદ શેઠ
મુંબઈ છાજેડ ઘાસીરામ ગુવાબચંદ (લીમડી)
પંચમહાલ મહેતા પ્રભુદાસ મુળજીભાઈ
ધોરાજી શ્રીમતી હીરાબેન નથુભાઈને વરસીતપ નીમીતે હા. નથુભાઈ નાનચંદ શાહ
વીરમગામ સ્વ. મણિયાર પરસેતમ સુંદરજીના સ્મરણાર્થે હા, સાકરચઠ પરસોતમ
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શાહ શાકરચંદ કાનજી
નાદ રાહ હિમતલાલ હરજીવનદાસ
મુંબઈ શાહ જીતેન્દ્રકુમાર વાડીલાલ મકરંદ (રાજ સીતાપુરવાળા)
સાબરમતી અ. સા. નમરતબેન પ્રેમચંદ ૬૮ પ્રેમચંદ માણેકચંદ (ાજ સીતાપુરવાળા) સાબરમતી શા. કાંતીલાલ ત્રીભોવનદાસ
અમદાવાદ સ્વ. શેઠ ઉજમશી નાની ના કરાશે તેમના પુત્ર તરફથી હા. શેઠ ચુનીલાલ નાનચંદ વીરમગામ cવ. શાહ મલાલ લક્ષ્મીચંદના મરણાર્થે તેમના પુત્રે તરફથી હા. ખીમચંદભાઈ
વિરમગામ વ. શેઠ હરીલાલ પ્રભુદાસના માર્ગે હ. શેઠ અનુભાઈ હરીલાલ
વીરમગામ સંઘવી જેચંદભાઈ નારાણદાસ
વીરમગામ વ. શાહ વેલશીભાઈ સાકરચંદના સમરણાર્થે હા. ચીમનલાલ વેલશી કાજવાળા
વીરમગામ શાહ પાચાલાલ પીતામ્બરઠાસ
અમદાવાદ પારેખ મણીલાલ ટેકરશી લાતીવાળા તરફથી મોટીબેનના સ્મરણાર્થે
વિરમગામ શાહ નારાણદાસ નાનજીભાઈના સુપુત્ર વાડીબાઈનાં ધર્મપત્ની અ. છે. નારંગબેનના વરસીતપ નિમિત્તે હ. શાનીલાઈ વીરમગામ શાહ પિટલાલ મેહનલાલ
અમદાવાદ શેઠ પેમચંદ નાકર લાલા પુરપાર જેન (સેન્ટ્રલ બેંક )
દીલી ૨. છબીલદાર ને કળાસને ત્મા તેમના નિ બાળાબેન તરફથી જા. મજુતા કનારી વીરમગામ પઠ તીલાત પાડીલાલ શેડ તલઈ નંદાસ -. ની કમબેન તે ફામાર ઘનદાર દલાલનાં
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અમદાવાદ
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emociomerciciosesozando000semessissosias પૂજ્ય આચાર્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજનાં
બનાવેલાં સૂ. કાશમીરથી કન્યાકુમારી
તેમજ કરાંચી....થી... કલકત્તા
સુધી દરેક સ્થળે હોંશથી વંચાય છે.
કારણ કે કેવી રીતે શાસ્ત્રો તૈયાર કરવાનું અનેખું કાર્ય
હજુ સુધી કઈ કરી શકયું નથી.
શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સમાજ
ઉ પ ર ત શ્રી દેરાવાસી સંપ્રદાયના મહાન આચાર્યશ્રી રામવિજયસૂરીજી
તથા અન્ય મુનિવરેએ
તેમજ તેરાપંથી મધુસભા કલકત્તાવાળાએ આ સૂત્ર અપનાવ્યાં છે.
દેશ-પરદેશના મેમ્બરે સૂત્ર વાંચી જૈન ધર્મના શ્રુતજ્ઞાનને અણમે
લાભ લઈ રહ્યા છે. હસણુંજ લંડનની ઈનડીઆ એફીસ લાયબ્રેરીએ આ સૂત્રો મગાવ્યા છે.
આપ રૂપીઆ ૨૫૧-૦-૦ મોકલી મેમ્બર તરીકે નામ નેંધાવી હસ્તે હપ્ત લગભગ રૂપીઆ પાંચસો સુધીની કિંમતનાં શાસ્ત્રો વિના મૂલ્ય મેળવી શકે છે,
વધુ વિગત માટે લખેઃ
છે. ગ્રીન લેજ પાસે, ગડીકુવા રોડ , શ્રી અખિલ ભારત છે. સ્થા. જૈન રાજકેટ.
શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ, ecocecasal compo2012.osessorach
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ગોધરા
૩૦૧
બીપી.
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૨૫૨ ૨૫૧
શેઠ મણીલાલ શીવલાલ
વીરમગામ શાહ ત્રીવનદાસ ભગવાનજી પાનેલીવાળા જામજોધપુર શાહ નટવરલાલ ચંદુલાલ
અમદાવાદ શાહ ત્રીભોવનદાસ છગનલાલ શાહ નરસીદાસ ત્રીવનદાસ
અમદાવાદ બીપીનચંદ્ર તથા ઉમાકાંત ચુનીલાલ ગે પાણી રાણપુર હા. પાણી ચુનીલાલ માણેકચંદ શ્રી શાહપુર દરીયાપુરી આઠકટો સ્થા. જૈન ઉપાશ્રય હા. વહીવટ કરનાર શેઠ ઈશ્વરદાસ પુરષોતમદાસ અમદાવાદ શ્રી છીપાળ દરીયાપુરી આઠકેટી સ્થા. જૈન સંઘ હ. શેઠ ચંદુલાલ અમૃતલાલ શ્રી. સ્થાનકવાસી છોટી જૈન સંઘ હ મહેતા ચુનીલાલ વેલજી
માંડવી (કચ્છ) વકીલ મણીલાલ કેશવલાલ મહેતા
વડેદરા વે મણીલાલ પિપટલાલ
અમદાવાદ શાહ ચીનુભાઈ બાલાભાઈ c/o શાહ બાલાભાઈ મહાસુખરામ છે શા. ભાઈલાલ ઊજમશી
અમદાવાદ સ્વ. કેશવલાલ મુળજીભાઈનાં ધર્મપત્ની, સ્વ. અમૃતબાઈને મરણાર્થે હ ભાઈલાલ કેશવલાલ થાનગઢવાળા શુરેન્દ્રનગર પુરીબેન ચીમનલાલ કલ્યાણજી સંઘવી લીમડીવાળાના સ્મરણાર્થે હ. વાડીલાલ મોહનલાલ જેઠારી
સાણંદ પારેખ નેમચંદ મેતીચંદ મુળીવાળાના સ્મરણાર્થે હ. ભીખાલાલ નેમચંદ
સાણંદ સંઘવી નારણદાસ ધરમશીના સ્મરણાર્થે હું જયંતીલાલ નારણદાસ
સાણંદ શા. પ્રવિણચંદ્ર નરસીદાસ સાણંદવાળા બોડેલી (ગુજરાત) મહેતા અમૃતલાલ જેઠાલાલ સીવીલ ઈજીનીયર સાહેબ લાખેરી
(રાજસ્થાન) ડે. કુ. સરરવતી બહેન શેઠ
અમદાવાદ શ્રી સૌરાષ્ટ્ર સ્થા. જૈન સંઘ
૨૫૧
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અમદાવાદ
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પુજ્ય મહાત્મા તથા મહાસતિજીને
નમ્ર પ્રાર્થના
ચાર્યશ્રી વાસીલાલજી મહારાજશ્રી રાત દિવસના અથાગ પરિશ્રમ સાથે એક કંતાનના કકડા પર બેસીને સમાજના ભવિષ્યના વારસદાર માટે આગમ સંશોધન કરી અણમોલ વારસો તૈયાર કરી રહ્યા છે, તે કાર્યમાં અનેક મહાત્માઓ પ્રશંસા બતાવીને સકીય સહકાર આપી રહ્યા છે. આપને અમારી નમ્ર વિનંતી છે કે આવા મહદ કાર્યમાં ઉપદેશ દ્વારા મદદગાર થઈ શકે તેટલી સમાજને આપની જરૂર છે માટે વગર વીલંબે સારા જૈન સમાજના ઉત્કર્ષ કાર્યમાં આપને ફાળે નેંધા.
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________________ આપ આ સમિતિના કાર્યમાં કઈ રીતે મદદગાર થઈ શકે? રૂા. 5000] ઓછામાં ઓછા આપીને સંસ્થાના આદ્ય મુરબ્બીશ્રી તરીકે મુબારક નામ લખાવી શકે છે, આપને ફેટે તથા આપનુ જીવનચરીત્ર શાસ્ત્રમાં છાપવામાં આવે છે. રૂા. 3000] ઓછામાં ઓછા આપીને આપના વડીલના સ્મરણાર્થે એક શાસ્ત્ર આપના નામથી છપાવી શકે છે સમીતિને એક શાસ્ત્ર છપાવવામાં લગભગ રૂા. 6000) થી રૂ. 8000) ખર્ચ થાય છે. તે છતાં ત્રણ હજારમાં આપને નામે. શાસ્ત્ર બહાર પાડવામાં આવશે. રૂ. 251 ઓછામાં ઓછા આપીને લાઈફ મેમ્બર તરીકે આપનું નામ દાખલ કરાવી શકે છે આપને 32 સૂત્રો તથા તેના તમામ ભાગે મફત મળી શકે છે. ( રૂ. 500 ની કીંમતનાં શાસ્ત્રો હફતે હફતે આપને મળી શકે છે.) સ્થાનકવાસી સમાજમાં આ એક જ સંસ્થા શાસ્ત્રો ચાર ભાષામાં પ્રગટ કરીને સર્વ ઉપગી વાંચન રજુ કરે છે આપને જ્યારે કેઈ શાસ્ત્રની જરૂર હોય ત્યારે તેમજ કેઈ સાધુ મુનીરાજને વહેરાવવાની ઈચ્છા હોય ત્યારે શાસ્ત્ર બીજેથી નહિ મંગાવતાં આ સમિતિ પાસેથી મંગાવી લેવા વિનંતી છે. એક અપીલ દીક્ષા પ્રસંગે વરસીતપ અને બીજી તપશ્ચર્યાએાનાં પારણુ પ્રસંગે મહાવીર જયંતી, પર્યુષણ, તથા દીવાળી જેવા તહેવાર પ્રસંગે લગ્નપ્રસંગ તથા પુત્ર જન્મની ખુશાલીમાં. વડીલના સ્મરણાર્થે તેમની તીથી પ્રસંગે તેમજ બીજા સર અવસરે બનતી મદદ આ સંસ્થાને મોકલવા ખાસ નિધ રાખશે.