Book Title: Acharanga Stram Part 05
Author(s): Shilankacharya
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj
Catalog link: https://jainqq.org/explore/020012/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ श्रीजिनाय नमः ॥ (श्रीसुधर्मास्वामीए रचेल अने श्रीश्रुतकेवलीभद्रबाहुरचित नियुक्तिसहित) ॥ आचाराङ्गसूत्रम् भाग पाञ्चमी ॥ (मूळ अने शीलाहाचायें रचेली टीकाना भाषांतरसहित) जामनगरनिवासी स्व. पण्डित हमराजभाइ शामजीना स्मरणार्थ छपाची प्रसिद्ध करनार-पण्डित हीरालाल हंसराज (जामनगरवाळा) पडतर किंमत रु. २-८-. चश्री जैन भास्करोदय प्रिन्टिग प्रेसमां छाप्यु जामनगर सन १९९१ पनि २०० D966060BOSESEGE66000 For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा ॥७८९॥ सूत्रम् ॥७८९॥ ॥ श्रीजिनाय नमः॥ ॥ श्रीआचाराङ्गसूत्रम् ॥ ( मूळ अने शिलाङ्काचायें रचेली टीकार्नु भाषांतर ) ॥भाग पांचमो॥ छपावी प्रसिद्ध करनार-पण्डित श्रावक हीरालाल हंसराज (जामनगरवाळा) आठमो उद्देशो. सातमो कहीने हवे आठमो कहे छे, तेनो संबंध आ प्रमाणे छे, गया उद्देशाओमां कयु के रोगादि संभवमां काळपर्याये आवेलु भक्त परिज्ञा, इंगित,, के पादपोपगमन मरण करवू युक्त छे, अने अहीं तो अनुक्रमे विहार करता साधुओर्नु काळ पर्याये आवेलं ६ मरण कहे छे, आ संबंधे आवेला उद्देशानुं आ प्रथम मूत्र छे. For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् अनुष्टुप् छंद. आचा० अणुपुवेण विमोहाइं, जाई धोरा समासज ॥ वसुमन्तो, मइमन्तो, सवं नच्चा अणेलिसं ॥१॥ दुविहपि विइत्ता णं; बुद्धा धम्मस्स पारगा ॥ अणुपुत्वीइ सङ्खाए, आरंभाओ (य) तिउद्दई ॥२॥ H७९० I७९०॥ कसाए पयणू किच, अप्पाहारे तितिक्खए ॥ अहभिक्खू गिलाइज्जा, आहारस्सेव अन्तियं ॥३॥ जीवियं नाभिकंखिज्जा, मरणं नोवि पत्थए । दुहओऽवि न सजिज्जा, जीविए मरणे तहा ॥४॥ अनुक्रमे दीक्षा लीधी. हित शिक्षा मळी, मूत्रार्थ मेळवी स्थिर मति थया पछी एकाकी विहार विगेरे प्रतिमा स्वीकारी होय, I 18/ अथवा अनुपूर्वी ते चार वर्षनी संलेखना विधि जेमां चार बरस विकृष्ट तप विगेरे अनुक्रमे पूर्व तप बताव्यो छे ते जाणवू, त्यार-181 पछी मोह रहित ते जेमांथी के जेनाथी मोह दूर थयो, तेवाने भक्त परिज्ञा इंगित के पादपोपगमन अणसण अनुक्रमे करवानां छे, | तेमां धीर ते, क्षोभायमान न याय, तेवा वसु (संयम) वाला तथा मनन, ते मति होय उपादेय छोडवू लेवू ते संबन्धी विचार करनार मतिमंत छे, तथा सर्वे कृत्य अकृत्य जाणीने जे साधुने भक्त परिज्ञा विगेरे कोइ मरण उचित लागे तथा पोतानी धैर्यता संघ-15 यण विगेरे विचारी अद्वितीय (उत्तम) रीते जाणीने तेवा मरणे समाधिनुं पालन करे, (१) बे प्रकारनी अवस्था तथा तपनी बाह्य - अभ्यंतर अवस्थाने विचारी पालन करीने, अथवा मोक्षाधिकारमा वे प्रकारनुं मुकाबु छे, तेमां पण बाह्य ते शरीर उपकरण विगेरे तथा अभ्यंतर रागादि छे तेने हेयपणे जाणे अने त्यागीने आरंभथी दूर थाय एटले, ज्ञाननु फळ हेयने त्यागवानुं छे, कोण त्यागे ? For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७९१ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बुद्धिमान पुरुषो, ते तखने जाणनारा श्रुत चारित्र नामनो धर्म छे, तेनी पार पहोंचनारा छे, अर्थात् सम्यग् जाणनारा छे, ते पंडितो धर्म स्वरूपने जाणनारा प्रवज्याना अनुक्रमे संयम पाळीने जाणे के हवे मारा जीववाथी कंइ विशेष गुण नथी, एथी हवे मोक्षनो अवसर मळ्यो छे, एथी हुं क्या मरणे मरवा योग्य छु एम विचारीने शरीर धारण करवामाटे अन्न पान विगेरे शोधवारुप आरंभथी छुटे छे, (अहीं पांचमीनां अर्थमां चाथी विभक्ति छे) तथा कोइ प्रतिमां (कम्मुणाओ तिट्टई) पाठ छे, एटले आठ भेदवाळा कर्मथी पोते छुटे छे, (व्याकरणना नियम प्रमाणे वर्त्तमानना समीपमां वर्त्तमान माफक थाय छे) पा. ३-३- १३१ना नियम प्रमाणे भविष्यकाळना अर्थमां वर्त्तमान काळ छे, [२] अने ते अभ्युदत मरण माटे संलेखना करतो प्रधान भूत (श्रेष्ट भावे संलेखना करे ते बतावे छे. एटले कप ते संसार छे. तेनो आय ते कषायो छे. ते क्रोध विगेरे चार छे, तेने पातळा [ओछा] करतो थोडं खाय, ते बताये छे:-- ते पण वधारे प्रमाणमां नहि, ते बतावे छे, अल्पाहारी (थोडं खानारो) ते छठ अठम विगेरे संलेखनाना अनुक्रमे आवेला तपने करतो पारणामां पण अल्प खाय, अने अल्प आहार खावाथी क्रोधनो उद्भव थाय, तेनो उपशम करवो. ते बतावे छे तुच्छ | माणसथी पण तिरस्कारनां वचन सांभळे, तो पण सहन करे, अथवा रोग विगेरे पण बरोबर रीते सहन करे, ते प्रमाणे संलेखना करतो आहारने ओछा प्रमाणमां लेवाथी ते मुमुक्षु भिक्षु ग्लानता पामे, ते समये आहारनी अंत अवस्थाने स्वीकारे, एटले चार विकृष्ट विगेरे संलेखनाना क्रमनो तप छोडीने भोजन करे, अथवा ग्लानता पाम्याथी आहारनी समीपमां न जाय. ते आ प्रमाणेहमणां थोडा दिवस खाइ लडं, अने पछी बाकीनी संलेखनानो तप करीश एवीआहार खावानी भावनामां न जाय ॥३॥ वळी For Private and Personal Use Only सूत्रम् ।।७९१॥ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir पी हमाधानानविय R 18 ते संलेखनामा रहेलो अथवा आखी जीदगी सुधी हमेशां ते साधु प्राण धारवा रुप जीवितने न चाहे, तथा भूखनी वेदनाथी, आचा० कंटाळी मरण पण न वांछे तथा जीवित तथा मरणमा संग [ध्यान न राखे (४) त्यारे ते साधु केवो होय ? ते कहे छे: सूत्रम् मज्झत्थो निजरापेही, समाहिमणुपालए ॥ अन्तो वहिं विऊसिज्ज, अज्झत्थं सुद्धमेसए ॥५॥ ॥७९॥ जं किंचुवक्कम जाणे, आऊखेमस्समप्पणो ॥ तस्सेव अंतरद्धाए, खिप्पं सिक्खिज पण्डिए ॥६॥ ॥७९॥ गामे वा अदुवा रणे, थंडिलं पडिलेहिया ॥ अप्पपाणं तु विनाय, तणाई संथरे मुणी ॥७॥ अणाहारो तुहिज्जा. पुट्ठो तथाहियासए ॥ नाइवेलं उवचरे, माणुस्सेहि विपुढवं ॥८॥ रागद्वेपनी वचमा रहे ते मध्यस्थ छे, अथवा जीवित भरणनी आकांक्षा रहित ते मध्यस्थ छे, ते निर्जरानी अपेक्षा राखनार ते निर्जरापेक्षी छे. तेवो साधु जीवन मरणनी आ शंसा रहित समाधि जे अंत वखतनी छे, तेनु पालन करे, अर्थात् कालपर्यायवडे जे Iमरण आवे ते समाधिमा रही पाळे तथा अंदरना कषायोने तथा बहारना शरीर उपकरण विगेरेनो ममत्व छोडी दे, अने अध्यात्मा 13 ते अंतःकरणने शुद्ध करे, एटले मनमा यता रागद्वेष विगेरेनां वधां जोडकां दूर थवाथी विखोतसिका (चंचळता) रहित अंत:करणने बांछे, वळी उपक्रम ते उपक्रम उपाय छे, तेवा कोइ पण उपायने जाणे. प्र०-कोना उपक्रम ? आयुष्यनु क्षेम ते सम्यक् प्रकारे पाळवं. ०-कोना संबन्धी ते आयु छे ? उ-ते आत्मानु-तेनो |परमार्थ आ छे. के आत्मा पोताना आयुध्यनो क्षेमथी प्रतिपालन करवा जे उपायने जाणे ते तेने शीघ्र शीखवे, एटले बुद्धिमान || AMRA-%E For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्रम् ॥७९ ३॥ | साधु ते प्रमाणे वर्ते, पण ते संलेखनाना काळमां बार वर्ष पूरा थता पहेलांज अधवचमां शरीरमा वायु विगेरेना रोकाणथी शीघ्र आचा० | जीवलेण रोग उत्पन्न धाय तो समाधि मरणने वांछतो तेना उपशमना उपायने एषणीय विधिए तेल चोळ, विगेरे करे, अने फरी | पाछी संलेखना शरु करे, अथवा आत्मानं आयु (जीवित) ने कंइ पण आयुना पुद्गलोर्नु संवर्तन (उपकमण) उत्पन्न यएलुं जाणे तो ।।७९३॥ ते संलेखखनाना तपमांज अनाकुल मतिवाळो बनीने शीघ्रज भक्त परिज्ञा विगेरेने बुद्धिमान साधु शीखवे [आदरे] (६) संलेखना दावडे शुद्ध कायवाजो बनीने मरण काळ आवेलो जाणीने | करे? ते कहे छे. । ग्राम--शब्द जाणीतो छे. पण तेनो अर्थ अहों पतिश्रय उपाश्रय बताव्यो छे, प्रतिश्रयज तेने स्थंडिल [संथारानी जग्या] छे. 15 तेने जोइने संथारो करे आवा अरण्य एटले उपाश्रयनी बहार अर्थ बताव्यो, उद्यान अथवा पर्वतनी गुफामां संथारानी जग्या प्रथम निर्जीव जुए, अने गाम विगेरेथी याची लावेला दर्भ विगेरेना सुका घासमा यथा उचित काळनो जाणनारो साधु संथारो करे, घास पाथरीने शुं करे? ते कहे छे| आहार रहित ते अनाहारी बने, तेमां शक्ति अनुसारे त्रण अथवा चारे आहारनु प्रत्याख्यान करी पंच महावतर्नु फरी स्वयं आरोपण करी बधा प्राणी समूहने खमावेलो बनी सुख दुःखमा समभाव राखी पूर्व मेळवेला पुण्यना समूहवडे मरणथी न डरतो | संथारामां पासुफेरवQ करे, परिसह उपसर्गो आवे तेने देह ममख छोडेल होवाथी सम्यक प्रकारे सहन करे, तेमां मनुष्यना अनुकूल प्रतिकूल परीसह उपसर्ग आवतां मर्यादानु उलघन न करे, तेम पुत्र खी विगेरेना सम्बन्धथी आर्त ध्यानने वश न थाय, तेमज प्रतिकूल परीसह उपसर्गोथी क्रोधथी हणायलो न थाय, तेज बतावे छे SCOCCACCHOOL For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ।।७९४ ।। 6*6* www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संपगाय जे पाणा, जेय उड्डूमहाचरा ॥ भुञ्जन्ति मंससोणियं न छणे न मज ॥ ९ ॥ पाणा देहं विहिंसन्ति, ठाणाओ नवि उब्भमे ॥ आसवेहिं विवितेहिं, तिप्पमाणोऽहियासए ॥१०॥ गन्थेहिं विवितेहिं, आउकालस्स पारए || पग्गहिय तरगं चेयं, दवियस्स वियाणओ ॥११॥ अयं से अवरे धम्मे, नायपुत्रेण साहिए ॥ आयवज्जं पडीयारं; विजहिजा तिहा तिहा ||१२|| संसर्पन करे, ते कीडी क्रोष्ट (शियाळ) विगेरे जे प्राणीओ छे, तथा उंचे उडनार गीध विगेरे छे, तथा बीलमां नीचे रहेनारा साप विगेरे छे, तथा सिंह वाघ विगेरे आवीने मांस भक्षण करे, तथा डांस मच्छर विगेरे लोही पीए, ते समये ते जीवाने आहार अ आवेला जाणीने अवंति सुकुमार माफक तेमने हणे नहीं. तेम रजोहरण विगेरेथी उडाडीने खावामां अंतराय न करे (९) विळी आवेलां प्राणीओ मारी कायाने हणशे, पण मारां ज्ञानदर्शन चारिवने नहीं हणे, तेम विचारी कायानो मोह छोडेल होवाथी तेने खातां अन्तरायना भयथी पोते न रोके, अने ते स्थानथी पोते भयना कारणे बीजे खसे नहि. प्र० – केवो बनीने ? उ०- प्राणातिपात विगेरे पांच आश्रवो अथवा विषय कषाय विगेरेथी दूर रहीने शुभ अध्यवसाय वाळो बनीने डांस मच्छर | विगेरेथी लोही पीवातो पण अमृत विगेरेथी सिंचन थवा माफक तेओनी करेली पीडाने पोते तथ्या छतां पण सहन करे; (१०) | वळी वाह्य अभ्यंतर ग्रंथ तथा शरीरना प्रेम विगेरेथी पोते दूर रही तथा अंग उपांग विगेरे जैन आगमथी आत्माने भावतो शुक्ल ध्यान ने धर्म ध्यानमां रक्त बनी मृत्यु कालनो पारगामी बने एटले ज्यां सुधी छेवटना श्वासोश्वास होय त्यां सुधी तेवी समाधि For Private and Personal Use Only सूत्रम् ।।७९४ ॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुत्रम् ७१॥ राखे, आ भक्त प्रत्याख्यान मरणथी मोक्षमां जाय, अथवा देवलोकमां जाय. आचा०NIA भक्त परिज्ञा कहीने हवे गित मरण अडवा श्लोकथी कहे छे. प्रकर्षथी ग्रहित माटे प्रकर्ष ग्रहिछे, अने ते प्रकर्षयी लोधाथी प्रग्रहित तर छे. [अनेक, प्रत्यय लागबाथी] प्रग्रहित तरक छे. हवे इंगित मरण कहे छे कारण के आ भक्त प्रत्याख्यानना नियमथीज ॥७९५॥ चार आहरनुं प्रत्याख्यान छे तथा इंगित प्रदेशमा संथारानी जग्यामांन विहार लेवाथी विशिष्टतर घृति संहनन विगेरेथी युक्त हाय, तेज प्रकर्षथी ले हे, प्र०-आ कोने होय छे ? द्रव्य (संयम जेने होय ते द्रविक छे, अने ते गीतार्थनेज छे, अने ते जघन्यथी पण नव पूर्वनें | 13 ज्ञान होय तेवाने छे. बीनाने नथी, अीं इंगित मरणमां पण संलेखनामां कहेल तृग संथारो विगेरे समज. (११) आ अपर विधि छे ? ते कहे छे. आ उपर बतावेलो विधि भक्त परिज्ञाथी जुदो इंगित मरणनो विधि विशेष प्रकारे वीर वर्द्धमान स्वामीए सम्पक प्रकारे पाप्त कर्यो छे, आ बन्ने जोडे कहेबाथी अने प्रत्यक्ष समान कहेवाथी (इदं) 'आ' विशेषण मुक्यु छे, आ, इङ्गित मरणमां पण प्रत्रज्या विगेरेनो विधि कहेवो, संलेखना पूर्व माफक जाणवी, तेज प्रमाणे उपकरण विगेरे त्यजीने संथारानी | जग्या बरोबर देखीने आलोचना करी पापथी पाछो हटीने पंच महा व्रत फरी उचरीने चार आहारर्नु प्रत्याख्यान करीने संथारामां * से, अहीं आटलं विशेष छे. ____ आत्माने छोडे एटले अंग संबन्धी वेपार विशेष प्रकारे त्यजे. त्रिविधि त्रिविधि ते त्रण मन वचन कायाथी करवु कराव 13/ अनुमोदवु विगेरे वधु आत्म वेपार शिवायन त्यागे. जरुर पडतां पासु फेरनवु पडे हालवु पडे अथवा पेशाब विगेरे करवो होय For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 2 2- सूत्रम् ७९६॥ 8/तो जातेज करे [बीजानी मदद न ले] वळी बधी रीते प्राणीनु रक्षण वारंवार करवु ते बतावे छे. आचा० - हरिएसु न निवजिज्जा, थंडिलं मुणियासए । विओसिज अणाहारो, पुट्ठो तत्थऽहियासए ॥१३॥ इंदिपहिं गिलायंतो, समियं आहरे मुणी ॥ तहावि से अगरिहे, अचले जे समाहिए ॥१४॥ अभिकमे पडिकमे, संकुचए पसारए ॥ काय साहारणहाए, इत्थं वावि अचेयणा ॥१६॥ परिक्कमे परिकिलन्ते, अदुवा चिट्ठ अहायए । ठाणे ण परिकिलन्ते, निसोइजाय अंतसो ॥१६॥ हरित ते द्रोना अकुरा विगेरेमां न मूर, पण निर्दोष जग्या जोइने मूर, तथा बाह्य अभ्यन्तर उपधि छोडीने अनाहारी बनीने 2 8 परिसहो तथा उपसर्गथी फरसायलो पण संथारामां बेठेलो रही सम्यक् प्रकारे सहन करे, (१३) वळी आहारना अभावे मुनि इन्द्रि| योथी ग्लान भाव पामे, तोपण आत्माने समाधिमा राखे एटले शमिनो भाव शमिता एटले समभावने धारण करी आर्तध्यान न करे. तथा जेम समाधान रहे तेम बेसे. एटले संकोचथी खेद पामे तो हाथ विगेरे लांबा करे. तेनाथी पण खेद पामे तो स्थिर चित्ते बेसे. अथवा मुकरर जग्यामां फरे. तेमां पण आ पोते छुट राखेली होबाथी निंदवा जोग नथी ते केवी छे, ते कहे छे. अचळ | प्र ते समाधिमां रहे ते इङ्गित प्रदेशमा पोतानी मेळे शरीर चलावे. पण खेदथी कंटाळी अभ्युदत्त मरणथी चलायमान न थाय. तेथी | ते अचळ छे. (शरीरथी हाले पण शुभ ध्यान चलायमान न थाय.) पोते धर्म ध्यान के शुकध्यानमां मन राखे. अने भावथी निश्चळ रहीने इगित प्रदेशमा संक्रमण विगेरे करे. (१४) ते वतावे छे. For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७९७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रज्ञापकनी अपेक्षाएं संमुख ते अभिक्रमण छे. अर्थात् संथाराथी दूर जाय. तथा प्रतीप एटले पाछो संधारा तरफ आवे पोताना मुकरर भागमां जा आव करे तथा निम्पन्न अथवा निपत्र रहीने जेम समाधि रहे तेम भुजा विगेरेने संकोचे अथवा लांबा करे. म० - शा माटे ? उ० – ते बतावे छे. शरीरनी प्रकृतिना कोमळपणाना साधारण कारणथी करवुं पडे छे. अने कायने साधारणपणुं होवाथी पीडा थतां आयुना उपायना परिहार वडे पोतानो आयुनी स्थिति क्षय थवाथी मरण थाय. [शरीरनो तेवो स्वभाव होवाथी ते करवुं पडे छे. पण तेमने महा सत्त्रपणुं होवाथी शरीरनी पीडा थवाथी चित्तमां खोटो भाव थाय तेम न जाणवुं.] शंका- जेणे कायानो बधो व्यापार रोकेलो छे. ते सुका लाकडा माफक अचेतन पणे पडेलो होय. तेने पुन्यनो समूह घणो एकठो थयेलो छे. तो शा माटे कायाने हलावे ? उ०— तेवो नियम नथी, शुद्ध अध्यवसायथी यथाशक्ति भारवहन करवा छतां तेनी बरोबरज कर्म क्षय छे. अहीं वा अव्यय होवाथी जाणवुं के, पादपोपगमनमां अचेतन अक्रिय माफक इङ्गित मरणवाको सक्रिय होय. तो पण बन्ने समाजन छे. (बन्नेनी भावमां समानता छे. काया संबन्धि इङ्गित मरणमां सक्रिय छे। अने पादपोपगमनमां कायाने हलावत्रानी नथी. माटे अक्रिय छे. अथवा इंगित मरणमा अचेतन सुका लाकडा माफक सर्व क्रिया रहित जेम पादपोपगमनवाळो होय तेम पोते शक्ति होय तो निश्चळ रहे. (१५) तेषु सामर्थ्य न होय तो आ प्रमाणे करे. ते कहे छे. जो बेठे अथवा न बेठे. गात्र भंग थाय तो त्यांथी उठीने फरे ते समये सरळ गतिए नियमित भागमां आवजा करे अने थाकी जाय तो जेम समाधि रहे तेम बेसे अथवा उभो रहे. जो स्थानमां खेद पामे तो बेसे, अथवा पलांठी मारीने अथवा अडवी पलांठी मारीने अथवा उत्कुटुक आसने बेसे अने थाके तो सीधो For Private and Personal Use Only सूत्रम् ।।७९७ ।। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ७९८॥ 8| बेसे तेमां पण उत्तानक ( सीधो उंचे मोढुं राखीने ) मुवे अथवा पासुं फेरवे अथवा सीधो मुवे अथवा लगंडशायी सुवे जेम समाधि रहे तेम करे. (१६) बळीआचा० आसीणेऽणेलिसं मरणं, इन्दियाणि समीरए ॥ कोलावासं समासज्ज, वितहं पाउरे सए ॥१७॥ ॥७९८॥ जओ वजं समुपजे, न तत्थ अवलम्बए ॥ तउ उकसे अप्पाणं, फासे तत्थऽहियासए ॥१८॥ अयं चाययतरे सिया, जो एवमणुपालए ॥ सबगायनिरोहेऽवि, ठाणाओ नवि उब्भमे ॥१९॥ अयं से उत्तमे धम्मे, पुबहाणस्स पग्गहे ॥ अचिरं पडिलेहिता; विहरे चिट्ठ माहणे ॥२०॥ प्र-शु आश्रयीने ? उ०--अपूर्व आ मरण छे. अने ते सामान्य माणसने विचार पण दुर्लभ छे. -तेवो बनीने शुं करे? ते कहे छे. इन्द्रियोना इष्ट अनिष्ट पोताना विषयोथी रागद्वेष न करतां तेने समभावे मेरे कोलावास (घुणना कीडान स्थान ) अथवा उधइनो समुह चोंटेलो देखीने जे चीज होय अथवा तेमां नवी जीवात उत्पन्न न थाय तेवू 18 जोइने खुल्लु देखातुं पोलाण रहित पोताने टेको लेवा शोधे. (१७) | इंगित मरणने आश्रयी जे निषेध छे. ते कहे छे. आ अनुष्ठानथी अथवा टेका विगेरेथी वज्र माफक दूर रहे अर्थात् की-13 डाने यतुं दुःख साधुने वज्र लेप माफक त्यां दोष लागे माटे ते घुणवाळा लाकडानो टेको विगेरे ले नहीं, तथा उंची निची कायाने करता अथवा खराब वचनथी अथवा आर्तध्यान विगेरे मनना योगयी पोताना आत्माने दोष लागतो जाणीने तेनाथी दूर रहे अर्थात् For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाप लागवा न दे अने तेमां धैर्य अने संहनन विगेरे मजबुत होय तो शरीरनी वैयावच्च न करे, अने चडता शुभ भावना कंडकवाको आचार बनी अपूर्व भावनी धाराए चढीने सर्वज्ञना कहेला आगम अनुसारे पदार्थना स्वरुपना निरुपणमां पोतानी मति स्थिर करीने सूत्रम् | आ शरीर आत्माथी जुद् छे. माटे त्यागवा जोग छे एको विचार करीने बधा दुःखना स्पर्शाने तथा अनुकूळ प्रतिकूळ आवेला ॥७९९॥ | उपसर्ग परीसहोने तथा वातपित्त कफना द्वंद्व अथवा जुदा रोगो आवे तो मारे कर्मक्षय करवानो होवाथी हुँ उठ्यो छ माटे मारेज ||॥७९९॥ | आ पूर्वे करेलां पापने भोगववा जोइए. आवो विचार करीने दुःख सहे. कारण के में जे शरीरने त्याग्यु छे. एनेन उपद्रव करशे, पण जे धर्म आचरणने करवूछे, तेने बाधा लगाडे तेम नी. 18|माटे तेवु विचारीने सहे. (१८) इङ्गित मरण का हवे पादपोपगमन अणसण कहे छे. ते जोडाजोड कहेल होवाथी आ विशेषणवडे || | मरणनो विधि बताव्यो छे. आ आयत तर छे ते बतावे छे. मर्यादानी विधिमां आ उपसर्ग छे. ते संपूर्ण यत थतां आयत शब्द छे. | अने उपरना बे अणसण करतां वधारे आयत छे, माटे आयत तर छे. ___ अथवा उपरना बन्ने अणसणथी अतिशय आत्त छे. माटे आत्ततर छे अर्थात् यत्नवी अध्यवसायवाला छे. प्रथम कहेला वे 4 | अणसण करतां पादपोपगमन वधारे दृढतर छ एमां पण इङ्गित मरणमा कह्या मुजब प्रवज्या संलेखना विगेरे बधु जाणवू. ___०-जो आ आयततर छे तो शुं करवु? उ०--कहे छे. जे भिक्षुक आ कहेली विधिएज पादपोपगमन विधिने पाळे तथा शरीरना बधा व्यापार छोडवाथी काया तपे अथवा मूर्छा पामे अथवा मरण समुद्घात आवे, अथवा लोही मांस शियाळीया गीध कीडीओ विगेरेथी खवाय, पीवाय, तो पण महा सखना कारणे पोते जाणे के आ इच्छित मोटुं फळ आव्यु छे तेथी ते स्नानथी For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥८०० द्रव्यथी, अने भावथी ते शुभ अध्यवसायथी चळायमान न थाय. न चीजा स्थाने जाय. (१९) वळी आ अंतःकरणमा उत्पन्न थवाथी प्रत्यक्ष मरण विधि छे. अने ते सौथी श्रेष्ठ होवाथी पादप उपगमन रुप मरणनो धर्म [विशेष विधि छे. उत्तम पणाना कारणा बतावे छे. [मूत्रमा छट्ठी छे, तेनो पांचमीमां अर्थ लइए तो पूर्व स्थानथी एटले भक्त परिज्ञा तथा इंगित मरणना रुपथी आ प्रकर्षथी । सूत्रम् ग्रह छे; माटे पूर्व स्थान प्रग्रह छे. अर्थात् प्रग्रहिततर छे. ते प्रमाणे जे इङ्गित मरणमा कायाने हलाश्वानी छुट हती ते पण अहींया नथी. झाडर्नु मूळ जमीनमां होय, ते पोते बळातुं के छेदातुं स्थानथी खसतुं नथी. तेम पोते साधु झाड माफक चेष्टा क्रिया रहित दुःखमां आवेलो होय तो पण चिलाती पुत्र माफक स्थानथी खसतो नथी. पण त्यांज स्थिर रहे छे ते बतावे छे. अचिर स्थान ते पोताना संथारानी जग्या प्रथमथी जोइने कहेली विधिए तेमां रहे. आ पादपउपगमनना अधिकारथी विहरणनो अर्थ विहार न लेतां| पोते विधिए पालण करे एम जाणवू. पण स्थानथी न खसे तेज बतावे छे. वधा गात्रना निरोधमां पण स्थिर रहे पण खसे नहीं. म.-आवो कोण छे ? उ०--माहण साधु छे. ते बेठो होय उभो होय तो पण शरीरनी खबर राख्या विना जेवी रीते पोते प्रथम कायाने स्थापि होय तेमन अचेतन माफक रहे हाले नहीं (२०) आज वातने बीजी रीते कहे छे. अचित्तं तु तमासज, ठावए तत्थ अप्पगं ॥ वोसिरे सबसो कायं, न मे देहे परीसहा ॥२१॥ जावज्जीवं परीसहा, उवसग्गा इति सड्डया ॥ संवुडे देहभेयाए, इय पन्नेऽहियासए ॥२२॥ भेउरेसु न रजिजा, कामेसु बहुतरेसुवि ।। इच्छा लोभं न सेविजा, धुववन्नं सपेहिया ॥२३॥ For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सासएहिं निमन्तिज्जा, दिवमायं न सदहे ॥ तं पडिवुज्झ माहणे, सत्वं नूमं विहणिया ॥२४॥ चित्त जेमां न होय ते अचेतन (जीव रहित) छे अने तेवी संथारानी जग्या अथवा पाटथु विगेरे मेळवीने तेना उपर समर्थ आचा० पुरुष बेसे अथवा कोइ लाकडाउपर त्यां आत्माने स्थापन करे अने चार प्रकारनो आहार त्यागीने मेरु पर्वत माफक निश्पकंप रहे | * सूत्रम् प्रथम गुरु पासे आलोचना विगेरे क्रिया करीने आत्माथी देहने दूर करे (मोह छोडे) ते समये जो कोइ परीसह उपसर्गो आवे 31 तो भावना भावे के आ मारी देह हवे नथी कारणके में तेने त्यागी छे तो परिसह मने केवी रीते लागे? अथवा मारा शरीरमां८०१ परीसहो नथी, कारणके सारी रीते सहेबाथी ते संबन्धी पीडाना उद्वेगनो अभाव छे. एया परीसहोने कर्म शत्रुने नजीवा माफक | अपरीसहोज माने (शत्रने जीतवाथी आनंद माने तेम परीसहोने जीते) (२१) 8. प.-ते क्या सुधी सहेवा ? आची शंका दूर करवा कहे छे. आखी जींदगी सुधी परीसह अने उपसर्ग सहेवा एम जाणीने तेने सहन करे अथवा मने आखी जींदगी मुधी परिसह उपसर्गो नथी एम जाणीने सहे अथवा ज्यां सुधी जीवित छे त्यां सुधी परिसह उपसर्गनी पीडा थाय छे. तो थोडा आंखना पलकारा सुधी आ अवस्थामा हुं रहेल छ तेवाने तो आ अल्प मात्र छ एम जाणीने कायाने बरोबर संवरीने शरीर त्याग माटे उठेलो छ एम मानीने ते मुनि उचित विधानने जाणनारो कायाने पीडा करनारां जे जे कष्ट आवे ते बरोबर सहे. (२२) आवा साधुने जोइने [आश्चर्य पामीने] कोइ राजा विगेरे भोगोनी निमंत्रणा करे ते बतावे छे. एटले जे भेदावाना स्वभा४ ववाला छे ते भिदुर शब्द विगेरे पांच काम गुणो छे. तेमां राग न करे (मुनि तेनाथी न ललचाय) अथवा बीजी प्रतिमां "कामेसु ४ For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ८०२॥ 3 बहुलेसुवि" पाठ छे. एटले इच्छा मदनरुप जे काम छे. ते घणा प्रमाणमां होय तेमां न ललचाय अर्थात् ते राजा पोतानी कन्यागें । आचा० म तदान वीगेरे आपवा लोभावे. तो पण तेमां गृद्ध न थाय तथा इच्छा रुप लोभ ते इच्छा लोभ छे ते मुनी आ अणमणचें फळ आवता भवमा मने चक्रवर्तीन पद अथवा इन्द्रनी पदवी विगेरे मळो. तेवा अभिलाषन निया' पोते निर्जरानी अपेक्षा राखीने सेवे नहीं ॥८०२॥ (नियाj न करे.) जेम देवतानी रिद्धि समान सनत्कुमार चक्रवर्तीनी रिद्धि देखीने ब्रह्मदत्ते पूर्व भवमा निया' कयु तेम पोते न करे ते प्रमाणे आगममां का छे. | आ लोकनी आशंसा माटे तप न करे (१) तथा परलोकनी आशंसा माटे न करे (२) तथा जीवितनी आशंसा न करे. (३) मरणनी आशंसा (४) काम भोगनी आशंसा (५) माटे संलेखना तप न करे, विगेरे छे. वर्ण--संयम अयबा मोक्ष ते दुःखे करीने जणाय छे. अथवा पाठांतरमा धुववन्न पाठ छे तेनो अर्थ आ छे के अव्यभिचारी ते ध्रुव छे ते ध्रुव वर्ण [संयम] ने अथवा शाश्वती यशकीर्तिने विचारीने काम इच्छा लोभने दूर करे. [२३] | बळी आखी जौंदगी सुधी क्षय न थवाथी शाश्वत छे अथवा प्रतिदिन दान देवाथी शाश्वत अर्थ छे. तेवा सारा विभववडे 15 कोइ ललचावे तो गुरु शिष्यने समजावे छे के तारे तेमां ललचातुं नहीं पण विचार, के आ धन शरीर माटे लेवाय पण ते नाशवंत छे. माटे धन नकामु छे. तेज प्रमाणे कोइपण ते देवतानी मायाथी न ललचाय ते कहे छे. जो कोइ देवता परीक्षा करवा अथवा शत्रपणाथी अथवा भक्तिथी अथवा कौतुक विगेरेथी जुदी जुदी रिद्धिओ बतावी ललचावे तो पण आ देव माया छे एम तुं जाण अने ललचाता नहीं. For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥८०३ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कारण के जो ए माया न होय तो आ पुरुष एकदम क्यांथी आवे अने : आटलं बधुं दुर्लभ द्रव्य ओवा क्षेत्रमां काळमां के भावमां कोण आपे ? आ प्रमाणे देव मायाने तुं जाणी ले अथवा कोइ देवी दिव्यरूप धारण करीने ललचावे तो पण पोते न ललचाय. तेनुं तुं समज. हे साधु ! तुं आ वधी मायाने अथवा कर्म बन्धने जाणीने देव वीगेरेनी कपट जाळने समजीने ललचातो नहीं. (२४) सबहिं अमुच्छिए, आउकालस्स पारए ॥ तितिक्खं परमं नच्चा, विमोहन्नयरं हियं ॥ २५ ॥ तिमि विमोक्षाध्ययनमष्टमं समाप्तम् | उद्देशः ॥ ८-८ ॥ बघा अर्थो, इन्द्रियोना विषयो पांच प्रकारना छे. ते काम गुण छे अथवा तेने प्राप्त करावनार द्रव्य समूह छे. तेमां तुं मूर्छा न पामतो एटले प्राप्त करावनार द्रव्य समूह छे तेमां पोते मूर्छा न पामतो आयु पहोंचे त्यां सुधी पोते स्थिर रहे. अने तेनो एटले क्षय थाय त्यां सुधी रहे ते पारग छे एटले उपर बतावेली विधिए पादपउपगमन अणसणमां रहीने चढता शुभ भाव वडे पोताना आयुना काळनो पार पहोंचनारो थाय. आ प्रमाणे पादपउपगमननी विधि बतावीने समाप्त करवा भक्त परिज्ञा विगेरे त्रणे मरणोना काळक्षेत्र पुरुषनी अवस्थाने वीचारीने योग्यता प्रमाणे करे ते छेल्ला वे पदमां बतान्युं छे. परीसह उपसर्गथी जे दुःख आवे ते बधुं सारी रीते सहन करवु ते त्रणे मरणमां मुख्य छे ते विचारीने मोह रहितनां जे मरणे भक्त परिज्ञा इंगित मरण पादपउपगमन छे. ते त्रणेमां काळ क्षेत्र विगेरेने आश्रयी उत्तम भावे ते करवाथी बधामां समान फळ छे. माटे अभिप्रेत अर्थ मळवाथी हित छे, | माटे यथाशक्ति त्रणमांनुं कोइ पण पोतानी शक्ति प्रमाणे ते अवसरे करं. [हाल तेव्रं संघयण न होवाथी धैर्य न रहे तेम आयुष्यनो For Private and Personal Use Only सूत्रम् ||८०३ ॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काळ बतावनार ज्ञानी साधुना अभावे तेवू अणसण थतु नथी पण यथाशक्ति सागरिक एक बे उपवासर्नु अथवा कलाक वे कलाआचा० कनु अणसण वैयावच्च करनार मांदा साधुनी स्थिरता जोइ करावे छे. अने तेमां निमळ भावनी प्रधानता होवाथी पूर्वना मरण मसूत्रम् जेबोज लाभ छे.] आ प्रमाणे सुधर्मास्वामिए का नय विचार विगेरे तेमां थोडं आवी ग... छे. आठमा अध्ययननो आठमो उद्देशो ॥८०४॥ समाप्त थयो. अने अध्ययन पण समाप्त थयु [टीकाना श्लोक १०२०] आठमु अध्ययन समाप्त. M०४॥ उपधान श्रुत नामर्नु नवमुं अध्ययन. आठमुं अध्ययन का, हवे नवमुं कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबन्ध छे. के पूर्व आठ अध्ययनोमा जे आचारनो विषय कह्यो हतो, तेवो श्री वीर बर्द्धमानस्वामिए पोते पाळेलो छे, तेथी ते नवमां अध्ययनमां कहे छे. तेनो आठमा साथे आ प्रमाणे संबन्ध छे, के तेमां अभ्युद्यत मरण त्रण प्रकारनुं बताव्यु, तेवा कोइ पण अणसणमा रहेलो साधु आठमा अध्ययनमा बतावेल विधिए अति घोर परीसह उपसर्ग सहन करी अने सन्मार्गनो अवतार प्रकट करी चार घाति कर्मनो नाश करीने अनंतज्ञान विगेरे अतिशयोवाळ 18 अप्रमेय महाविषयोन ख तथा परर्नु प्रकाशक एवं केवळज्ञान मेळवनार श्री महावीर प्रभुने समोसरणमां बेठेला अने सखोना हित माटे देशना करे छे तेमने पोते ध्यानमा ध्यावे, एटला माटे आ अध्ययन कहे छे. आवा संबन्धे आवेला आ अध्ययनना चार अनुयोगद्वार कहेवा, तेमां उपक्रमद्वारमा अर्थाधिकार के प्रकारे छे, अध्ययन अर्थाधिकार तथा उद्देशार्थ अधिकार तेमा अध्ययननो | अर्थाधिकार टुंकाणमा पहेला अध्ययनमा कहेल छे, अने तेनेज खुलासावार नियुक्तिकार कहे छे For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit आचा० ॥८०५॥ जो जइया तित्थयरो, सो तइया अप्पणो य तित्यम्मि । वण्णेइ तबोकम्म, ओहाणसुयंमि अज्झयणे ॥२७६।। जे समये जे तीर्थकर उत्पन्न थाय छे, ते पोताना तीर्थमा आचरनो विषय कहेवाने छेवटना अध्ययनमा पोते करेला तपर्नु वर्णन करे छे, (के बीना जीवोने पण तेम करवानी रुचि थाय) आ बधा तीर्थकरोनो कल्प छे, अहीं तो उपधान श्रुत नामनुं छेटु । अध्ययन [ने विषय-] छे, तेथी तेने उपधान श्रुत कहे छे. कोइने शङ्का थाय के जेम बधा तीर्थकरनें केवळ ज्ञान समान छे, तेम तप अनुष्ठान समान छे, के ओछ वधतुं छे ? ते शङ्कान निवारण करवा कहे छे सव्वेसि तवोकम्मं निरुवसगं तु बणिय जिणाणं; । नवरं तु वद्धमाणस्स, सोवसगं मुणेयवं; ॥२७७।। तित्थयरो चउनाणी सुरमहिओ सिज्झियन्वय धुवम्मिः । अणिगृहियबलविरिओ, तवोविहाणंमि उज्जमइ ॥२७८॥ किं पुण अवसेसेहिं दुक्खक्खयकारणासुविहिएहि । होइ न उज्जमियब्वं सपच्चवायमि माणुस्से ? ॥२७९॥ (त्रणे गाथानो अर्थ सरळ होवाथी टीका नथी तो पण टुकामां लखीए छीए) वधा तीर्थङ्करोनो तप शास्त्रमा उपसर्ग रहित बताव्यो छे [पार्श्वनाथनो थोडो होवाथी गण्यो नथी] पण वर्द्धमानस्वामिनो तप उपसर्गवाळो जाणवो. (तेमने संगम देवता विगेरेना घणा उपसर्ग आवेला छे, (२७७) तीर्थङ्कर दीक्षा लीधा पछी तुरत मनःपर्यवज्ञान प्रकट यतां चार ज्ञानवाला थाय छे, देवताओथी पूजाय छे, निश्चये मोक्षमा जनारा छे, तोपण पोतानुं बळ वीर्य न गोपवतां तप विधानमा उद्यम करेछे, (२७८) तो बीजा समान्य गीतार्थ साधु विगेरे ए (तपनो फायदो जाण्या पछी) अने मनुष्यपणानुं जीवन सोपक्रम (विघ्न वाळु होवाथी शा माटे तपमा यथाशक्ति उद्यम न करवो? For Private and Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥८०६ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ed अध्ययननो अधिकार बतावीने उद्देशानो अर्थाधिकार कहे छे चरिया १ सिज्जा य २ परीसहाय ३, आयंकिया (ए) चिगिच्छा (४) य ॥ तवचरणेणऽहिगारो, चउमुद्दे से नायब्बो २८० 'चरण' चराय ते चर्या, एटले 'वर्द्धमानस्वामिना विहारने आ पहेला उद्देशामां वर्णव्यो छे. बीजा उद्देशामां शय्या ते वसति ( रहेवानुं स्थान) जेवुं महावीरे वापर्यु छे तेनुं वर्णन छे. त्रीजा उद्देशामां परीसहो आवेथी निर्जरामाटे चारित्र मार्गथी भ्रष्ट न थतां साधुए तेने सहन करवा, अने तेना उपलक्षणथी अनुकूल तथा प्रतिकूल वर्द्धमानस्वामिने जे परीसहो थया ते बतावे छे. चोथा उद्देशामां भूखनी पीडामां विशिष्ट अभिग्रहनी प्राप्तिमां आहारवडे चिकित्सा [उपाय] करे, अने तप चरणनो अधिकार तो चारे उद्देशामां चाले छे, (गाथार्थ) ऋण प्रकारे निक्षेपो छे, ओघनिष्पन्न, नाम, अने मूत्रालापक तेमां ओघमां अध्ययन, नाममां उपधानश्रुत एवं चे पदनुं नाम छे, ते उपधान अने श्रुतना यथाक्रमे निक्षेपा करवा ए न्याये उपधान निक्षेपनुं वर्णन करे छे. नाठवणुवहाणं दव्वे भावे य होइ नायव्वं । एमेव य सुत्तस्सवि निक्खेवो चडव्विहो होइ ॥ २८२ ॥ नामस्थापना द्रव्य अने भाव एम चार प्रकारे उपधानना निक्षेपा छे, तेज प्रमाणे श्रुतना पण चारन छे, तेमां द्रव्यश्रुत अनुपयुक्त (उपयोग विना) नुं छे, अथवा द्रव्य मेळवावा माटे नैनेतरतु छे. अने भावश्रुत ते अंग उपांगमां रहेलं जे श्रुत छे, तेमां उपयोग होय ते, हवे सुगमनामस्थापना छोडीने द्रव्य विगेरे उप For Private and Personal Use Only सूत्रम् |||८०६ || Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥८०७।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धान बताववा कहे छे. दहा सणे भावहाणं तवो चरित्तस्स । तम्हा उ नाणदंसण तवचरणेहिं इहाहिगयं ॥ २८२ ॥ समीपमा रहने धारण कराय ते उपधान छे. द्रव्य संबन्धी होय ते द्रव्य उपधान छे. ते पथारी विगेरेमां सुखे सुवा माटे माथा नीचे टेको वा ओशीकुं विगेरे मुकाय छे. ते द्रव्य उपधान छे. अने भावनुं उपधान ते भावोपधान छे, ते ज्ञानदर्शन चारित्र अथवा वाह्य अभ्यंतरतप छे. कारण के तेनावडे चारित्रमां परिणत थयेला भाववाळाने उपष्टंभन [आधार] कराय छे. जेथी ते प्रमाणे ज्ञान दर्शन तप अने चरणवडे अहयां अधिकार छे. गाथार्थ म० - शा माटे चारित्रना आधार माटे तपनु भाव उपधान कहे छे ? उ० – कहीए बीए. जह खलु मइलं वत्थं सुज्झइ उदगाइएहिं दव्वेहिं । एवं भाववहाणेण मुज्झए कम्ममहिं ॥ २८३ ॥ (यथा उदाहरणना उपन्यास माटे छे. जेमके आ छे. एम बीजुं पण जाणवुं खलु शब्द वाक्यनी शोभा माटे छे.) जेम मेलं प्रथम पाणी वगेरेथी शुद्ध कराय छे, तेम जीवने पण भाव उपधानरूप बाह्य अभ्यन्तर तपवडे आठे कर्मवी शुद्ध कराय छे. अने अहीं या कर्मक्षयना हेतु माटे तपस्यानुं उपधान श्रुतपणे लेवाथी पर्यायो लेवा जोइए. [ तत्र भेद अने पर्यायोवडे व्याख्या थाय छे.] माटे पर्यायो कहे छे. अथवा तप अनुष्ठानवडे अवधूनन विगेरे कर्म ओछां थवाना जे विशेष उपायो संभवे छे ते बतावे छे. ओधूणण धूणण नासण विणासणं झवण खवण सोहिकरं । छेयण भेयण फेडण, डहणं धुवणं च कम्माणं ॥ २८४ ॥ मां अवधूनन, ते अपूर्वकरणवडे कर्म ग्रन्थि भेदनुं उपादान जाणं. अने ते तपना कोइ पण भेदना सामर्थ्यथी आ क्रिया For Private and Personal Use Only सूत्रम् 160211 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ||૮૦૮|| www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir थाय छे. एटले वाकीना अगीयार भेदमां पण आ जाणवु' तथा 'धूनन' ते भिन्न ग्रन्थिवाळाने अनिवृत्तिकरणवडे सम्यक्त्रमा रहेनुं, तथा 'नाशन' कर्म प्रकृतिनुं स्तिबुक सङ्क्रमणवडे एक प्रकृतिनुं बीजी प्रकृतिमां सङ्क्रमण थत्रु', 'विनाशन' शैलेशी अवस्थमां सम्पूर्णताथी कर्मनो अभाव करवो, 'ध्यापन' उपशमश्रेणिमां कर्मनुं उदयमां न आववु, क्षपण ते अपत्यख्यानादि क्रमवडे क्षपकश्रेणिमां मोह विगेरेनो अभाव करवो, शुद्धिकर- अनंतानुबन्धीना क्षयना प्रक्रमयी क्षायिक सम्यक्त्व मेळववु, 'छेदन' उत्तरोत्तर शुभ अध्यसायमा चडवाथी स्थितिनी ओछाश करवी, 'भेदन' ते बादर संपराय अवस्थामां संज्वलनना लोभना खंड खंड करी नाखवा, (फेडण ) त्ति - चौठाणीआ रसवाळी अशुभ प्रकृतिने ऋण रसवाळी विगेरे बनाववी. 'दहन' ते केवलीसमुद्घातरुप ध्यान अग्निवडे वेदनीयकर्मनुं राखतुल्य बनाववु, अने बाकीना कर्म वळेलां दोरडा माफक बनाव, 'घावन' ते शुभ अध्यवसायथी मिथ्यात्व पुगलोनुं सम्यक्त्वभावे बनाव, आ वधी कर्मनी अवस्थाओ माये उपशमश्रेणी क्षपकश्रेणी केवलि समुद्यात शैलेशी अवस्था प्रकट करवाथी प्रभूत रीते प्रकट थाय छे, [आत्मा निर्मळ करवा कराय छे] एटला माटे प्रक्रमाय (आरंभाय) छे, तेमां उपशमश्रेणीमा प्रथमज अनंतानुबन्धीओनी उपशमनी कहेवाय छे. अहीं असंयतसम्यग्दृष्टि देशविरति प्रमत्त अप्रमत्तमांथी कोइ पण बीजा योगमां जतां आरंभक होय छे, तेमां दर्शन सप्तक एकवडे उपशमाय छे, ते कहे छे. अनंतानुबन्धी चोकडी, उपरनीत्रण लेश्यामां विशुद्ध होवाथी साकार उपयोगवाळो अंतःकोटीकोटी स्थितिनी सत्तावाळो परिवर्तन थती शुभ प्रकृतिओनेज बांधतो प्रति समये अशुभ प्रकृतिओना अनुभागने अनंतगुण हानीए ओछी करतो शुभ प्रकृतिओने अनन्त गुण वृद्धिए अनुभाग (रस) मां व्यवस्था करतो पल्योपमना असंख्य भाग हीन उत्तरोत्तर स्थितिबन्ध करतो करण कालथी For Private and Personal Use Only सूत्रम् [૮૮ના Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥८०९॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पण पहेला अन्तर्मुहुर्त्तमां विशुद्ध मान बनीने त्रण करण करे छे, ते प्रत्येक अंतर्मुहूर्त्तना छे. ते कहे छे - (१) यथा मट्टा (२) अपूर्व (३) अनितिकरण छे - अथवा चोथी उपशांतथी थाय छे. तेमां यथा प्रवृत्त करणमां दरेक समये अनंत गुण वृद्धिवाळी विशुद्धिने अनुभवे छे. तेमां स्थिति घात, रसघात, गुण श्रेणि, गुण सङ्क्रमण आमांथी कोइ पण होतुं नथी तेज प्रमाणे बीजा अपूर्वकरणमां छे. तेनो परमार्थ कहे छे के तेमां अपूर्व अपूर्व क्रियाने मेळवे छे. तेथी अपूर्वे करण छे. तेमां प्रथम समयेज स्थिति घात रस घात गुणश्रेणि गुण सङ्क्रमण अने अन्य स्थिति बन्ध ए पांच पण अधिकार साथै पूर्वे न होता, अने हवे छे, तेथी अपूर्व करण छे. ते प्रमाणे अनिवृत्तिकरणमां अन्य अन्यने परिणामो उल्लंघता नथी. माटे ते अनिवृत्ति करण छे. एनो सार आछे के पहेले समये जे जीवोए आकरण फरस्यो ते बधामां तुल्य परिणाम छे. ए प्रमाणे बीजा समयोमां पण जाणवुं. अहया पण पूर्वे बतावेला स्थितिघात विगेरे पांचे पण अधिकार साथै बर्ते छे. तेथीज आ त्रण करणवडे उपर बतावेला क्रमवडे अनंतानुबंधीना कषायोने उपशमावे छे. उपशमनुं वर्णन. – जेम धूळ पाणीथी छांटीने लाकडाना थाळावडे कुवो करतां चोंटी जवाथी वायु विगेरेथी उडाडवा छतां ते 'धूळ उडती नथी, तेम कर्म धूळ पण विशुद्धि भावरुप पाणीवडे भिंजाबी अनिवृत्ति करण थाळावडे हणतां कर्मरज शांत धावी उदय उदीरण सङ्क्रम निघत निकाचनारूप करणाने अयोग्य थाय छे. (चीकणो कर्म बंध न थाय) तेमां पण प्रथम समये कर्मदलिक थोड उपशांत थाय. अने बीजा तीजा विगेरे समयमां असंख्येय गुण वृद्धिए उपशमता अंतर्मुहूर्त्तमां वधुं शांत थाय छे. आ प्रमाणे एक मतवडे अनन्तानुबन्धीनो उपशम बताव्यो. बीजा आचार्योनो मतभेद - अनंतानुबन्धीनी विसंयोजना बतावे छे, तेमां क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीवो चार गतिमां रहेला For Private and Personal Use Only सूत्रम् ||८०९ ॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० ॥८१०॥ ROCEAC-ANA छे. तेमां पण अनंतानुबन्धीना विसंयोजको छे. तेमां नारक अने देव अविरत सम्यग्दृष्टिो छे, तथा तिर्यंचो अविरत देशविरत छे. मनुष्यो अविरत देश विरत प्रमत्त अप्रमत्त छे. सूत्रम् ए बधा पण यथा संभव विशोधि विवेक वडे परिणत थयेला अनंतानुबन्धीनी विसंयोजना माटे पूर्वे कहेल करण त्रण करे छे. तेमां पण अनंतानुबन्धीनी स्थितिने अपवर्तन करतो पल्योपमना असंख्येय भाग मात्र बनावे छे. अने पल्योपमना असंख्येय भाग IM८१०॥ जेटली मोह प्रकृतिओ जे बन्धाय छे, तेने प्रति समये समावे छे. तेमां पण प्रथम समये स्तोक अने त्यार पछीना समयोमा असंख्येय गुण सङ्क्रमावे छे.ए प्रमाणे छेला समयमां बधासङ्क्रमवडे आवलिका जेटलाने छोडी बाकोनी सर्व सङ्कमावे छे.भने पछी आ-14 वलिकामा रहेल पण स्तिबुक सङ्कमवडे वेदांती वीजी प्रकृति श्रोमा सङ्क्रमावे छे.ए प्रमाणे अनंतानुबन्धो कपायो विसंयोजित थायछे. | दर्शन त्रिकनी उपशमना.-तेमां मिथ्याखनो उपशमक मिथ्यादृष्टि छ, अथवा वेदक सम्यग्दृष्टि छे पण सम्यक्त्व के सम्यग ४ मिथ्याखनो वेदक तेज उपशमक छे. न तेमां मिथ्याखनो उपशम करतो तेनु अंतर करीने प्रथम स्थितिने विपाकवडे भोगवीने मिथ्याखनो उपशम करतो, उपशांत 3 मिथ्यावी बने छे. अने उपशम सम्यगदृष्टि थाय छे. हवे वेदक सम्यग्दृष्टि जी उपशम श्रेणीने स्वीकारतो अनंतानुबन्धीने वीसं2 योजीने संयममा रहेलो आ विधिए दर्शनत्रिकने उपशमावे छे तेमां यथा प्रवृत्त विगेरे पहेला बतावेल त्रण करणोने करीने अंतर-४ करण करतो वेदक सम्यक्त्वनी पहेली स्थितिने अंतर्मुहूर्तनी बनावे छे. अने बाकीनी आवलिका मात्र बनावे छे. त्यार पछी थोडी मोडी एवी मुहर्त मात्रनी स्थिति खंड खंड करीने बध्यमान प्रकृतिओने स्थितिबन्ध मात्र काळवडे ते कर्मना दळियाने सम्यक्त्वनी 64656 For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ।।८११।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथम स्थितिमां प्रक्षेप करतो आ प्रक्रियावडे सम्यक्त्वना बन्धना अभावथी अंतर क्रियमाण करेल थाय छे. मिध्याख सम्यक् - थ्याल प्रथम स्थिति दलिकने आवलिकाना परिमाण मात्र सम्यक्त्वनी प्रथम स्थितिमां स्aिgs सङ्क्रमवडे सङ्क्रमावे छे. तेमां पण सम्यक्त्वनी प्रथम स्थिति क्षीण थतां उपशांत दर्शनत्रिकवालो थाय छे. त्यार पछी चारित्रमोहनीयने उपशमावतो पूर्व माफक ऋण करण करे छे. एमां विशेष आ छे.यथा मवृत्त करण अप्रमत्त गुणस्थानेज थाय छे। अने बीजुं अपूर्वकरण तो आठमुं गुणस्थान छे. तेना प्रथम समयेज स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणि, गुणसङ्क्रम, अपूर्वस्थितिबंध, ए पांचे अधिकार साथै प्रवर्त्ते छे. तेमां अपूर्वकरणना | संख्येय भाग जतां निंद्रा प्रचलाना बंधनो व्यवच्छेद थाय छे. तेमां पण घणां हजार स्थितिनां कंडको गये छते छल्ला समयमां | वीजा भवनी नाम प्रकृतिनी त्रीस प्रकृतिना बंधनो व्यवच्छेद करे ते आ प्रमाणे छे. (१) देवगति (२) अनुपूर्वी (३) पंचेंद्रिय जाति, (४) वैक्रिय (५) आहारक शरीर अने ते (६-७) बन्नेना अंगोपांग, (८) तेजस ( ९ ) कार्मण शरीर (१०) समचतुरस्र संस्थान (११ थी १४) वर्ण गंध रस स्पर्श (१५) अगुरुलघु (१६) उपघात (१७) पराघात (१८) उच्छवास (१९) प्रशस्तविहायोगति (२०) त्रस (२१) बादर (२२) पर्याप्त ( २३ ) प्रत्येक (२४) स्थिर (२५) शुभ (२६) सुभग (२७) सुखर (२८) आदेय (२९) निर्माण (३०) तीर्थङ्करनाम तेथी अपूर्व करणना छल्ला समयमां हास्य रति भय जुगुप्साना बंधनो व्यवच्छेद थाय छे। अने हास्यादि पटकना उदयनो व्यवच्छेद थाय छे. बघा कर्मनो अप्रशस्तनो उपशम निद्धत निकाचना करवानुं व्यवच्छेद थाय छे. (टीकाना काउंसमां लख्युं छे के देशना उपशमनो व्यवच्छेद थाय छे) तेथी ए प्रमाणे असंयत सम्यग्दृष्टि विगेरेथी अपूर्वकरणना अंत सुधी सात कमेनो उपशांत मेळवाय छे. त्यार पछी अनिवृत्तिकरण छे. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ।।८११।। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अने ते नवमो गुण ( गुणस्थान ) तेमा रहेलो एकवीस मोह प्रकृतिनो अंतर करीने नपुंसक वेदने उपशमाचे छे. त्यारपछी स्त्री चार वेद पछी हास्यादि षटक पछी पुरुष वेदना बन्ध उदयनो व्यवच्छेद थाय छे. त्यार पछी बे आवलिकामां एक समय ओछे पुंह * वेदनो उपशम थाय छे. त्यार पछी वे क्रोधनो अने पछी संज्वलन क्रोधनो, पछी एज प्रमाणे मानत्रिक अने मायात्रिकनो उपशम है सूत्रम् ॥८१२॥ करे छे. त्यार पठी संज्वलन लोभना मूक्ष्म खंडो बनावे छे. अने ते करणना काळना चरम समयमां वचला बे लोभने उपशमावे ८१२॥ छे. आ प्रमाणे अनिवृत्तिकरणना अंतमा सतावीस प्रकृति उपशांत थाय छे, त्यार पछी मूक्ष्म खंडोने अनुभवतो मुक्ष्मसंपरायवालो लाथाय छे. (दशमुं गुणस्थान फरसे छे.) तेना अंतमा ज्ञान अंतराय दशक दर्शनावर्ण चतुष्क यशकीर्ति अने उंच गोत्र एम सोळ प्रकृतिना बन्धनो व्यवच्छेद थाय छे. ए प्रमाणे मोहनीय कर्मनी २८ प्रकृति संज्वलन लोभ उपशमावतां उपशांत वीतराग थायर 15छे, (अगीयारमुं गुणस्थान फरसे छे.) अने ते जघन्यथी एक समय अने ते उत्कृष्टथी अंतर्मुहर्त छे. अने ते गुणस्थानेथी पडवार्नु कारण कांतो मनुष्य भव समाप्त थाय अथवा काळ क्षय थाय. अने ते जेम चडेलो छे अने बंधादि व्यवच्छेद करे छे, तेज प्रमाणे पाछो पडतां कर्म बंध बांधे छे. अने तेमांथी कोइ पडतां मिथ्यात नामना पहेला गुणस्थाने पण जाय छे. अने जे भवक्षयथी पडे छे, तेने पहेला समयमांज 18 वधा करणो प्रवर्ते छे. कोइ तो एक भवमां पण वे वार उपशमश्रेणि करे छे. क्षपकश्रेणिनुं वर्णन. आ श्रेणी करनार मनुष्यज आठ वरसनी उपरनो 'आरंभक' होय छे. अने ते प्रथमज करणत्रय पूर्वक अनंतानुबन्धी कषायोने For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥८१३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विसंयोजे छे. ( दूर करे छे.) पछी करण त्रण पूर्वकज मिध्यात्वने अने तेमां बाकी रहेल भागने सम्यग् मिध्यात्वमां नांखतो खपावे छे. ए प्रमाणे सम्यग् मिथ्यात्वने पण खपावे पण विशेष एटलं छे के तेमां बाकी रहेलने सम्यक्त्वमां नांखे छे एज प्रमाणे सम्यक्त्वने खपावे छे. अने तेना छल्ला समयमां वेदक (क्षयउपशम) सम्यग् दृष्टि थाय छे त्यार पछी क्षायिक सम्यग् दृष्टि थाय छे. आ सात कर्म प्रकृतिओ असंयत सम्यग् दृष्टिथी लइने अप्रमत्त गुणस्थान सुधी खपावे छे अने आ सम्यक्त्व पाम्या पहेला जो आयु बन्धायुं होय तो श्रेणिक राजा माफक त्यांज टके छे. पण जेणे आयु बांध्युं नथी अने क्षायिक समक्ति मेळन्युं छे. तेत्रो कषाय अष्टकने खपाववा करणत्रय पूर्वक आरंभे छे. त्यां यथा प्रवृत्त करण अप्रमत्तनेज होय छे अपूर्व करणमां तो स्थितिघात विगेरे पूर्वनी माफक निद्राद्विक अने देवगति विगेरे त्रीस तथा हास्यादि चतुष्कनो यथाक्रम बंध व्यवच्छेद उपशमश्रेणिना क्रम माफक कहेवो अने अनिवृत्तिकरणमां तो थीणद्धि त्रिक नरक तिथेच गति तेनी अनुपूर्व एकेंद्रिय आदि चार जाति आतप उद्योत स्थावर सूक्ष्म साधारण ए सोळ प्रकृतिनो क्षय थाय छे. पछी आठ कपायनो क्षय थाय छे. बीजा आचार्यने मते प्रथम कषाय अष्टकने खपावे छे. त्यारपछी उपर कहेली सोळ प्रकृति खपावे छे. त्यार पछी नपुंसक वेद त्यार पछी हास्यादि पटक पछी पुरुष वेद पछी स्त्री वेद खपावे छे. पछी अनुक्रमे क्रोधथी माया सुधी त्रण संज्वलन कपायने खपावे छे। अने संज्वलन लोभना खंड खंड करी तेमांना बादर खंडोने खपावतो अनिवृत्ति बादर गुणस्थानवाळो होय छे. अने सूक्ष्म खंडोने खपावतो सूक्ष्म संपराय होय छे. तेना अंतमां ज्ञानावरणीनी दर्शनावरणीनी अतरायनी तथा यशकीर्ति उंच गोत्र मळी सोळ प्रकृतिनो बंध व्यवच्छेद करे छे. पछी क्षीण मोही बनीने अंतर्मुहूर्त रहीने तेना अन्तमां छेला समयना पहेलामां वे निद्राने For Private and Personal Use Only सूत्रम् ||८१३॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ८१४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खपावे छे.अन्त समयमां ज्ञान आवरण अने अंतराय पंचक तथा दर्शन आवरण चतुष्क खपावीने आवरण रहित ज्ञान दर्शनवाळो | केवळी (सर्वज्ञ) बने छे. अने ते फक्त एकज सातावेदनीय कर्मने सयोगी गुणस्थान सुधी बांधे छे. आ गुणस्थाने जघन्यथी केवळी अंतर्मुहूर्त अने उत्कृष्टथी पूर्व कोडीमां थोडं ओहुं आयु सुधी होय छे. त्यार पछी आ केवळी भगवानने मालम पडे के अंतर्मुहूर्त आयु बाकी छे। अने वेदनीय कर्म घणुं वधारे छे तो बन्नेनी स्थिति सरखी करवा केवळी समुद्घात अनुक्रमे करे छे. केवळी समुद्घानुं वर्णन. औदारिक कायना योगवाळो आ लोकना अंत सुधी उंचे नीचे पहोंचे त्यां सुधी शरीरना परीणाह (अव-गाहनाना) प्रमाणनो प्रथम समयमा दंड आकार बनावे छे. बीजा समयमां तीछ दिशामां लोकांत पुरवा माटे कपाट (कमाड) माफक औदारिक कार्मण | शरीरना योगमां रहीने बनावे छे. त्रीजा समयमां खुणाओ पुरवा माटे कार्मण शरीर योगमां रहीने मन्धान (मवणी) माफक बनावे छे. अने ते सम श्रेणि पछी श्रेणि लेवाथी लोकनो घणो भाग प्राये पुराय छे। अने चोथा समयमां कार्मण योगवडेज मंथानना | वचमा रहेला अंतरा पुरवा माटे निष्कुटवडे पुरे छे तेज प्रमाणे उलटा क्रमे बीजा चार समयमां ते व्यापारने संकेलता ते ते योगवाळो थाय छे. फक्त 'छट्टा' समयमा मंथाननो उपसंहार करतां औदारिक मिश्रयोगी थाय छे. ते प्रमाणे केवळी भगवान समुयातने संहरीने पछी फलक विगेरे पोते जे गृहस्थ पासे लीधुं होय ते पाछु सोपीने योगनो निरोध करे छे. योग निरोध वर्णन. प्रथम बादर मन योगने रोके छे. पछी वचन योगने अने काय योग जे बादर होय तेने रोके छे पछी एन क्रमे सूक्ष्म मनो For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ ८१४॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir योग रोके छे. पछी मूक्ष्म वचनयोग रोके छे. त्यार पछी मुक्ष्म काय योगने रोकतो अप्रतिपाति नामना शुक्लध्यानना श्रीजा आचा० भेदने आरोहे छे अने सूक्ष्म क्रियाने रोकतो विशेषे करीने क्रिया रोकीने अनिवृत्ति नामना शुक्लध्यानना चोथा पायाने आरोहे छे. | अने तेमां आरुढ थयेलो अयोगी केवळी भावने पामेलो अन्तर्मुहर्त जघन्य उत्कृष्टथी रहे छे. तेमा जे जे कर्मनो उदय आवेल ॥८१५॥ | नथी ते ते कर्मोने स्थितिना क्षयवडे खपावतो अने वेदाति प्रकृतिने बीजी प्रकृतिमा संक्रमावतो खपावनो छेवटना पहेला समयमां आवे छे. ते बखते देवगति साथेनी कर्म प्रकृतिओ खपावे छे. देवगति अनुपूर्वी वैक्रिय आहारक शरीर बन्नेनां अंगोपांग अने बन्धन अने सङ्घात तथा बीजी प्रकृति ओ खपावे छे औदारिक तेजस कर्मिण ए त्रण शरीर तेनां बन्धन अने सनातन छ संस्थान छ सङ्घयण औदारिक शरीरना अंगोपांग वर्ण गंध रस | फरस मनुष्य अनुपूर्वी अगुरु लघु उपघात पराघात उच्छवास प्रशस्त अप्रशस्त विहायोगति तथा अपर्याप्ति प्रत्येक स्थिर अस्थिर शुभ अशुभ सुभग दुर्भग सुस्वर दुःस्वर अनादेय, अयशकीर्ति निर्माण नीचगोत्र कोइ पण एक वेदनीय कर्म खपावे छे. | अने छेल्ला समयमां तो १ मनुष्य गति २ पचेन्द्रिय जाति ३ त्रस ४ वादर ५पर्याप्त ६ सुभग ७ आदेय ८ मशः कीर्ति ९ तिर्थकर नाम १० कोइ एक वेदनीय कर्म ११ आयु १२ उच गोत्र ए बार प्रकृतिओ तीर्थङ्कर खपावे छे, अने कोइ आचाबने मते अनुपूर्वी सहित तेर प्रकृतिओ खपावे छे, अने तीर्थङ्कर न होय, ते प्रथम बतावेली बार अथवा अग्यार खपावे छे, संपूर्ण कर्म क्षय कर्या पछी तुरतज अस्पर्श गतिए एकांतिक अत्यंतिक अनाबाध लक्षणवाळा सुखने अनुभवतो सिद्ध स्थान जे लो13 कना अग्र भागे छे, त्यां पहोंचे छे. ROCRACCCCN For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ८१६॥ www.kobatirth.org हवे उपसंहार करता तीर्थङ्करना आ सेवनथी वीजा जीवोने प्ररोचनता थाय, ते बताववा कहे छे. एवं तु समणुचिन्नं, वीरवरेणं महाणु भावेणं । जं अणुचरित्तु धारा, सीवमचल जन्ति निव्वाणं ॥ २८४ ॥ आ प्रमाणे की विधि ज्ञानादि भाव उपधान अथवा तपने वीरवर्द्धमान स्वामिए स्वयं आदर्यो छे, तो वीजा पण मोक्षामिलापीए आदरवो. ( गाथार्थ ) ब्रह्मचर्य अध्ययननी निर्युक्ति समाप्त थइ. हवे सूत्रानुगममां सूत्र उच्चारखं ते कहे छे Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अहासुयं वइस्सामि, जहा से समणे भगवं उट्ठाए ॥ संखाए तंसि हेमंते, अहुणो पइए इत्था ||१|| आर्य सुधर्मास्वामी ने पूछवाथी जंबूस्वामीने पोते कहे छे, यथाश्रुत अथवा यथा सूत्र हुं कहीश, ते आ प्रमाणे ते श्रमण भगवान् महावीर स्वामी उद्यत विहार स्वीकारीने सर्व अलंकार (भूषण) त्यागीने पांच मुठी लोच करीने इंद्रे आपला एक देवदृष्य वस्त्र धारण करी सामायिकनी प्रतिज्ञा उच्चरीने मनपर्यवज्ञान उत्पन्न थएला आठ प्रकारना कर्म क्षय करवा माटे अने तीर्थ वा माटे उद्यत विहारवाळा बनीने तखने जाणीने ते हेमंत रुतुमां मागशर (गुजराती कारतक) मासमां वद १०ना रोज प्राचीनगामिनी छाया (आथमतो सूर्य) थतां दीक्षा लइने विहार कर्यो. अने कुंड ग्रामथी वे घडी दीवस बाकी रहे कमर गाने आव्या अने त्यां भगवान आव्या पछी अनेक प्रकारना अभिग्रह धारण करीने घोर परीसह सहन करता महासखपणे मलेच्छोने पण शांति पमाडता बार वर्षथी कांइक अधिक छद्मस्थपणे मौनव्रत लइ तप आदर्यो अहीयां भगवाने सामायक उच, त्यारपछी इंट्रें For Private and Personal Use Only सूत्रम् ||८१६॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥८१७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भगवान उपर देवदृष्य वस्त्र खभे मुक्युं तेथी भगवाने पण निःसंग अभिप्रायवडेज धर्मोपकरण बिना बीजा मुमुक्षुभथी पण धर्म थवो अशक्य छे. ए कारणनी अपेक्षाए मध्यस्थ वृत्तिए तेज प्रमाणे धारण कर्यु, पण तेना उपभोगनी इच्छा नथी, एम जाण ते बताववा कहे छे. णो चेविमेण वत्थेण पिहिस्सामि तंसि हेमंते । से पारए आवकहाए, एयंखु अणुधम्मियं तस्स ॥२॥ चत्तारि साहिए मासे, बहवे पाणजाइया आगम्म । अभिरुज्झ कार्य विहरिंसु, आरुसिया णं तत्थ हिंसिंसु ॥ ३ ॥ संवच्छरं साहियं मासं जं न रिक्कासि वत्थगं भगवं । अचेलए तओ चाइ तं वोसिज वत्थमणगारे ॥४॥ भगवान विचारे छे के इंद्रे आपला आ वस्त्रवडे आ मारा शरीर आत्माने ढांकीश नहीं. अथवा हेमंत (शीयाळा) नी ऋतुमा ते वस्त्रवडे शरीरनुं रक्षण करीश नहीं अथवा लज्जा माटे वस्त्र धारण नहीं करूं. ते भगवान केवा छे ? ते बतावे छे. ते भगवान प्रतिज्ञाने पुरी करे छे. अथवा परीषहो अथवा संसारथी पार जाय छे. म० – केटलो काळ ? ते कहे छे. आखी जींदगी सुधी. प्र० - शा माटे आम राखे छे ? उ०- ते वस्त्र धारण करवाथी एम बता के पूर्वना तीर्थङ्करोए ते प्रमाणे वस्त्र धारण कर्तुं छे. (खु अवधारणना अर्थमां छे. अने ते मिन क्रम बतावे छे) बीजा तीर्थङ्करोतुं वस्त्र धारण कर आगम पाठथी बतावे छे. " से बेमि जे य अया जे य पडुप्पन्ना जेय आगमेस्सा अरहंता भगवन्तो जे य पत्रयन्ति जे अ पव्वइ For Private and Personal Use Only सूत्रम् ||८१७॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्सन्ति सब्वे ते सोवही धम्मो देसिअन्योतिकटु तित्थधम्मयाए एसाऽणुधम्मिगत्ति एग देवसमायाए आचा पव्वईमु वा पब्वयंति वा पब्वइस्सन्ति व" त्ति, है सूत्रम् ते हुँ कहुं छु, पूर्वे जे अनन्ता तीर्थङ्करो थया जेओ हाल उत्पन्न याय छे. अने भविष्यमां थशे. जेमणे दीक्षा लीधी छे अने । I૮૨૮l| भविष्यमा लेशे. तेओ बधाए उपधिवाळो धर्म शिष्यो माटे बताववो एम विचारी पोते आ धर्मनो मारग छे एम जाणीने एक देव । ६ दृष्य इन्द्र पासे दीक्षामां लीधु छे. वर्तमानमा ले छे अने भविष्यमा लेशे. वळी कयुछे के गरियस्त्वात्सचेलस्य, धर्म स्यान्यस्तथागतैः । शिष्यस्य प्रत्ययाच्चैव, वखं दधे न लज्जया ॥१॥ वस्त्र सहित साधुना धर्मनु विशेषपणु होवाथी बीजा तीर्थङ्करोए पण शिष्यना विश्वास माटे वस्त्र धारण कर्यु छे. पण लज्जाने | माटे धारण कर्यु नथी. तथा भगवाने दीक्षा लीधा पछी जे देवता संबंधी सुगंध पट लागेल इतो (देवताए सुगंधीनुं विलेपन कयु ।। है हत) तेथी तेनी सुगंधीथी खेंचाइ आवेला भमरा विगेरे भगवानना शरीरने दुःख आपता हता ते बतावे छे. चार महीनाथी पण वधारे । Pघणा पाणीओ भमरा विगेरे शरीरमा डंख मारता हता अने मांस लोहीना अर्थी बनीने करडीने आम तेम दुःख देता हता (ते 3 प्रभुए समभावे सद्यु.) प्र०-भगवान पासे क्यां मुधी ते देव दृष्य वख रा. | उ-ते इंद्रे आपेलुं वस्त्र एक वरसथी कांइक अधिक मास सुधी रघु त्यां सुधी भगवान कल्पमा रह्याछे. माटे त्याग्यु नहीं. त्यार पछी वस्त्रने त्यागनारा यया अर्थात् भगवान वस्त्र त्यागीने अचेल थया, अने ते सुवर्ण वालुका नदीना पूरमां आवेला कांटामा || भरायलुं ब्राह्मणे ली, वळी For Private and Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ८१९ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अदु पोरिसिं तिरियं भित्तिं चक्खुमासज अन्तो सो झायइ । अह चक्खुभीया संहिया ते हन्ता हन्ता बहवे कंदिंसु ॥ ५ ॥ सयणेहिं वितिमिस्सेहिं इत्थिओ तत्थ से परिन्नाय । सागारियं न सेवेइ य, से सयं पवेसिया झाइ ॥ ६ ॥ जे के इमे अगारत्था मीसीभावं पहाय से झाई । पुट्टोवि नाभिभासिं गच्छई नाइवतइ अंजू ॥ ७ ॥ णो सुकरमेयमेगेसिं नाभिभासे य अभिवायमाणे । हयपुत्रे तत्थ दण्डेहिं लूसियपुढे अप्पपुण्णेहिं ॥ ८ ॥ • पछी पुरुष प्रमाण पोरसी आत्म प्रमाण वीथी ( मारग ) जग्या शोधता विहार करे छे. अर्थात् साधुने चालतां तेज ध्यान छे के पोतानी उँचाइ जेटली जग्या शोधीने चालं. प्र० - केवी वीथी छे ? उ० – तीर्यग भिति गाडानी धुंसरी प्रमाण मोठा आगळ सांकडी अने आगळ जतां पहोळी होय छे ते प्रमाणे भगवान जुए छे. प्र० - केवी रीते जुए छे ? उ० - आंखे बरोबर ध्यान राखीने तेमां जुए छे. तेवी रीते चालनारने जोइने कोइ वखत कोइ बाळक कुमार विगेरे पीडा करे ते बतावे छे. (अहीं चक्षु शब्ददर्शननो पर्याय छे.) एटले तेमना दर्शनथीज डरेला एकटा थयेला घणां बाळक विगेरे धूळनी मुठी विगेरेथी |हणी हणीने चाळा पाडवा लाग्या. अने वीजा बाळकोने बोलावीने कं— जुओ ! आ नागो मुंडीओ छे. तथा आ कोण छे ? क्यांथी आव्यो छे ? अने आ कोना संबन्धी छे ? आवी रीते कोलाहल कर्यो. (५) वळी जेनामां सुवाय ते शयन ते रहेवानुं स्थान For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥१९॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० सूत्रम् ॥८२०॥ ८२०॥ छे. तेमां कोई निमित्तथी भेगा मळेला गृहस्थ अथवा बीजा दर्शनवाळाओथी भेगा थतां तेमने एकला जोइने कोइ वखत स्त्रीओ प्रार्थना करे छे. तेथी तेओ शुभ मार्गमां भुंगळ समान ज्ञ परिज्ञावडे तेमने जाणीने प्रत्याख्यान परिज्ञावडे त्यागता मैथुनने सेवता नथी. अने ज्यारे पोते एकला पण शून्य घरमां होय त्यारे भाव मैथुन पण सेवता नथी. आ प्रमाणे ते भगवान पोताना आत्मावडे वैराग्य मार्गे आत्माने दोरीने धर्मध्यान अथवा शुक्ध्यान ध्याय छे. (६) तेज प्रमाणे केटलाक घरमा रहेनार अगारस्थ जे गृहस्थो छे. तेओ साथे कारण पडतां एकमेक थतां पण द्रव्यथी अने भावथी। मिश्र भाव छोडीने ते भगवान धर्मध्यान ध्याय छे. (तेमनी साथे कोइ पण जातनी बातचीत करता नथी.) प्र-शा माटे भगवान बोलाव्याथी अथवा न बोलाव्याथी वोलता नथी. उ.-पोताना कार्य माटेज जाय छे. तेटला माटे तेओ बोलावे तो पण भगवान मोक्ष पंथने अथवा पोताना ध्यानने छोडता नथी. कारण के पोते संयम अनुष्ठानमां वर्त्तता होवाथी ऋजु (सरळ) छे आ संबंधमां नागार्जुनीया कहे छे. पुट्ठो व सो अपुट्ठो व, षो अणुनाइ पावगं भगवं ।। कोइ ग्रहस्थ पूछे, अथवा न पण पूछे, तो पण भगवान पोते पापनी संमति आपता नथी प०-हवे कहेवाती वात बीजाओने सुकर नथी (पण दुष्कर छे) तेथी अन्य प्राकृत पुरुषोथी पळाय तेम नथी, छतां पण भगवाने शा माटे ते आचर्यु ? ते बतावे ठे-बोलावनारा बोलावे तो पण प्रसन्न थइने बोलता नथी, अने जे नथी बोलावता, तेमना उपर कोपता नथी, तेमज प्रतिकूल उपसर्ग करवाथी पण भगवान, तेना उपर विरुप भाव करता नथी ते बतावे छे, भगवान ज्यारे For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥८२१॥ 15 अनार्य (जंगली) देश विगेरेमा विचर्या त्यारे भगवानने ते अनार्य पापीओए प्रथम दंडावडे मार्या, तेज प्रमाणे केश विगेरे खेंची आंचा तोडीने दुःखी कर्या वळी# फरुसाई दुत्तितिक्खाइ अइअच्च मुणी परकममाणे । आघायनदृगीयाई दण्डजुधाई मुहिजुधाई ॥९॥ परुष (कर्कश) वचनोथी बीना पापीओ दुःख देता, तेवा कठोर तिरस्कारने भगवाने न गणतां जगतना स्वभावने जाणता 3| भगवान चारित्रमा पराक्रम बतावी सहन करता तथा ( कोइना प्रेमभावना ) गायेला गीतो अने करेला नाचोथी पोते कौतक | मानता नहोता. तथा दंड युद्ध तथा मुक्काबाजीनी कुस्ती थवानी सांभळी आश्चर्य मानीने खीलेला नेत्रवाळा तथा रोमराजी विक। खरवाळा उत्सुक थता नहोता. गढिए मिहुकहासुसमयंमि नायसुए विसोगे अदक्खु।एयाइसे उरालाई गच्छइ नायपुत्ते असरणयाए ॥१०॥ 18 अवि साहिए दुवे वासे सीओदं अभुच्चा निक्खन्ते। एगत्तगए पिहियच्चे से अहिन्नायदंसणे सन्ते ॥११॥ ६ एपमाणे कोइ माहोमाहे कथा करता होय. अथवा कोइ पोताना सिद्धांतमा कदाग्रही होय. अथवा वे स्त्रीभो पोतानी : & कथामा रक्त होय. ते समये भगवान महावीर हर्ष शोक छोडीने ते वधानी कथामां मध्यस्थ रहीने जोता हता. अने ए तथा बीजा अनुकूल प्रतिकूल परिपह उपसर्ग थतां उदार ( अतिशय ) न सहन थाय तेवा दुःखो आवे तो पण पोते न गणतां संयमअनु| ष्ठानमा रहेला छे. तथा ज्ञात नामना जे क्षत्रीओ तेमना वंशमा जे जन्मेला छे ते ज्ञात पुत्र महावीर आ दुःखने स्मरणमा लावता For Private and Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie 18 नथी. (पण चारित्र निर्मळ पाळे छे.) आचा० ४ अथवा शरण ते घर छे. ते नथी माटे अंशरण छे. अने ते संयम छे ते माटे पोते यत्न करे छे. ते वतावे छे. एमां आश्रय सूत्रम् ॥८२२॥ शंछे के भगवान अतिशय बळ पराक्रमवाळा महाबत पाळबानी प्रतिज्ञारूप मेरु पर्वते चढेला पराक्रम करे छे ? ते भगवान महा ॥८२२॥ वीरे ज्यारे दीक्षा नहोती लीधी त्यारे पण निर्दोष पासुक आहारथी निर्वाह करता हता ते संबंधी कथा कहे छे. ज्यारे भगरान महावीरना माता पिता देवलोकमां गयां त्यारे भगवान महावीरे मातानां गर्भमा जरा न हालवाथी माने अतिशय दुःख थयु हतुं है अने ज्यारे पोते हाल्या त्यारेज माताने धीरज थइ हती, तेथी ते समये अवधिज्ञाने मातानो अभिप्राय जाणानार महावीरमभुए अभिग्रह को हतो के मारा वियोगथी माता पिता कमोते न मरो, ते हेतुने ध्यानमा राखी 'मारे माता पिता जीवतां सुधी दीक्षा | न लेवी.' अने ते प्रमाणे अठावीस बरसनी पोतानी उमर थतां माता पिता देवलोकमां गया. त्यारे अभिग्रहनी प्रतिज्ञा पुरी थी एम जाणीने दीक्षा लेवानी तैयारी करी ते समये नंदीवर्धन नामना मोटाभाइ तथा ज्ञाति बंधुओए प्रभुने प्रार्थना करी के हे प्रभु 'घा उपर खार छांटवा जेवु' माता पिताना वियोगना दुःखमां तमारो वियोग न करो. भगवान महावीरे आ सांभळीने अवधिज्ञाने । जाण्यु के मारा आ दीक्षाना समयमा घणा मनुष्यो बेला थशे, अने मरी जशे, एवं विचारीने तेओने कयु के मारे केटलो काळ रोकावु पडशे ? तेओए कयु के अमने बे वरसमा शोक दूर थशे. प्रभुए कडं के ठीक छे, पण आहार विगेरे लेवु ते मारी इच्छाए यशे पण ते इच्छा तोडवा तमारे न आवq. तेओए विचार्यु के कोइ पण रीते भगवान रहो एम मानीने तेमणे हा पाडी, त्यारपछी भगवान ते वचनने अनुसारे निर्दोष आहार लइने गृहस्थपणामां पण साधु वृत्तिए हता, पछी पोतानी दीक्षानो अवसर जाणीने For Private and Personal use only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पूनम 13 संसारनी असारता विशेष प्रकारे जाणीने तीर्थप्रवर्तन माटे उद्यम करे छे. ते बतावे छे. (१०) भगवान महावीर बे वरसयी काइक 31 आचा० अधिक काळ सुधी काचं पाणी त्यागीने पग धोवा विगेरे क्रिया पण प्रामुक जळवडेज करता जेवी रीते पहेलु व्रत जीवदयार्नु पाळ्यु ॥८२३॥ | तेज प्रमाणे बीजां व्रतो पण पाळ्यां. तेज प्रयाणे एकस भावनावडे भावित अंतःकरणवाळा बनीने अर्धारुप क्रोध ज्वाळाने जेणे ८२३॥ अटकावी छे. अथवा पिहित अर्च एटले शरीरने गुप्त राख्युं छे.(के कोइ पण जीवने पोतानी कायाथी पीडा थवा देता नथी.) ते भगवान महावीर दीक्षा लीधा पछी छमस्थ काळमां सम्यक्त्वभावनावडे भावित हता, (तेमने धर्म उपर निर्मळ श्रद्धा हती) तथा इंद्रियो अने मनवडे पोते शांत हता. (उन्मार्गे जवा देता नहोता) एवा भगवान गृहवासमां पण छेवटना बे वरसमा सावध आरंभना त्यागी हता तो पछी दीक्षा लीधा पछी चारित्रकाळमां शा माटे निःस्पृह न होय ? ते बतावे छे. 18| पुढविंच आउकायं च तेउकायं च वाउकायं च । पणगाई बीयहरियाई तसकायं च सवसो नच्चा ॥१२॥ एयाई सन्ति पडिलेहे, चित्तमन्ताइसे अभिन्नाय । परिवज्जिय विहरित्था इय सङ्खाय से महावीरे ॥१३॥ अदु थावरा य तसत्ताए तसा य थावरत्ताए । अदुवा सबजोणिया सत्ता कम्मुणा कप्पिया पुढो बाला ॥१४॥ a आ भगवान महावीर पृथ्वीकाय अप्काय वायुकाय विगेरे जीवोने सचित्त जाणीने तेनो आरंभ त्यागीने पोते विचरे छे. ते बतावे छे. पृथ्वीकाय सूक्ष्म अने बादर वे भेदे छे. ते सूक्ष्म सर्वत्र छे, अने बादर पण कोमळ अने कठण एम वे भेदे छे. तेमां 5/ कोमळ माटी धोळा विगेरे पांच रंगनी छे. पण कठण पृथ्वी तो पृथ्वी शर्करा वालुका विगेरेथी छत्रीस भेदवाळी छे. ते प्रथम शस्त्र For Private and Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥८२४॥ परिज्ञा नामना पहेला भागमां ( ) पाने छे. त्यांची समजवु. अपकाय पण मूक्ष्म वादर बे भेदे छे. तेमां मूक्ष्म सर्वत्र छे. पण || आचा०बादर अग्नि अङ्गारा विगेरे पांच भेदे छे. वायु, पण तेमज छे. फक्त बादर वायु काय उत्कालिक विगेरे पांच भेदे छे. वनस्पति पण सूक्ष्म बादर बे भेदे छे. सूक्ष्म ॥८२४॥ म सर्वत्र छे. अने बादर अग्र मूळ स्कंध पर्व बीज संमूर्छन एम सामान्यथी छ भेदे छे. ६ वळी ते दरेक प्रत्येक अने साधारण एम वे भेदे छे. प्रत्येक वृक्ष गुच्छा वगेरे बार भेदे छे. अने साधारण तो अनेक प्रकारे छे. ते अनेक भेदवाळो छतां वनस्पतिकाय सूक्ष्म सर्बगत होवाथी अने अतींद्रिय होवाथी तेने छोडीने फक्त भेदोमां बादरकाय लीधी छे ते बतावे छे. पनक लेवाथी बीज अंकुर भाव रहित पनक विगेरे उल विगेरे अनंत काय लेवा अने बीजना ग्रहणथी अग्र | बीन विगेरे लेवां हरित शब्दथी बीजा भेद लेवा (१२) आ प्रमाणे पृथ्वी विगेरे भूतो छे. एम जाणीने तथा ते चेतनावाला छे एम जाणीने भगवान महावीर तेमनो आरंभ छोडीने विचर्या पृथ्वीकाय विगेरे जंतुना बस स्थावरपणे भेदो बताबीने हवे एमनामां परस्पर अनुगम पण छे, ते बतावे छे. (१३) स्थावर ते पृथ्वी पाणी अग्नि वायु बनस्पति छे. ते त्रसपणे एटले बेइंद्रिय विगेरे कर्म वशथी जाय छे. अने त्रस जीवो कृमि विगेरे पृथ्वी विगेरेमा कर्मने लीधे जाय छे. ते प्रमाणे बीजे पण कयुं छे. " अयण्णं भन्ते ! जीवे पूढविक्काइयत्ताए जाव तसकाइयत्ताए उववण्णपुवे ?, हंता गोअमा ! असई अदुधा ऽणंतखुत्तो जाव उववण्ण पुन्वे" ति। गौतमनो म०-हे भगवान ! आ जीव पृथ्वी काय पणेथी लइ त्रसकायपणे पूर्व उत्पन्न थयेल छे ? For Private and Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० उ०-हा, अनेक वार अनंतबार पूर्व उत्पन्न थयेल छ, अथवा बधी योनिओ जे जीवोनां प्रति स्थान छे, ते सर्व योनिक 8 सूत्रम् जीव छे, अने जीवो बधी गतिमां जनारा छे, ते जीको ( मंद बुद्धिथी) बाल छे, अने राग द्वेपथी व्याप्त थइ चीकणां कर्म बांधी ॥८२५॥ पोताना करेलां कर्मनां फळ जुदी जुदी रीते सर्व योनियोमा भोगववावडे कल्पित (व्यवस्था करायला) छे. कयु छे के: 1८२५॥ णत्थि किर सो पएसो, लोए वालग्गकोडिभित्तोऽवि । जम्मणमरणाबाहा अणेगसो जत्थ णवि पत्ता ॥१॥ | आलोकमां वाळना अग्रभाग जेटलो प्रदेश मात्र पण एवो नथी,के ज्यां आ जीवे जन्म मरणनी बाधा अनेक वार प्राप्त करी नथी! वळी रंगभूमिर्न सा काचिच्छुद्धा जगति विद्यते । विचित्रैः कर्मनेपथ्यैर्यत्र सवैन नाटितं ।। २॥ तेवी शुद्ध रंगभूमि जगत्मा कोइ विद्यमान नथी,के ज्यां कर्मने पथ्य (शणगार) पहेरीने सर्व सखो नाच्या नथी! विगेरे छे.(१४) वळीभगवं च एवमन्नेसि सोवहिए हु लुप्पई बाले; कम्मंच सवसो नच्चा, तं पडियाइक्खे पावगे भगवं ॥१५॥ दुविहं समिच्च मेहावि किरियमक्खायऽणेलिसं नाणी; आयाणसोयमइवायसोयं, जोगं च सवसो णच्चा ॥१६॥ व भगवान महावीरे तेमज बीजी रीते जाण्यु के उपधि सहित ते द्रव्यथी तथा भावथी उपधि सहित जे वर्ते ते कर्मथी लेपाय, पछी ते बाळ अज्ञ साधु दुःखोने अनुभवे छे अथवा (हुनो हेतुमां अर्थ लइए तो) सोपधिक बाळ साधु कर्मथी लेपाय छे, तेथी बधी रीते कर्म बंधातुं जाणीने उपधिनुं कर्म त्यागी दीधुं. एटले अंदरथी अने बहारथी जे उपधिरूप पापकर्मनुअनुष्ठान हतुं ते भगवाने 5 व त्यागी दी . ( जरुर होय त्यां सुधी शक्तिना अभावमा उपधि साधुए राबवी, अने पाछळथी शक्तिमान थतां त्यागी देवानो मार्ग For Private and Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥८२६॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भगवाने बताव्यो ) (१५) वळी वे प्रकारवाळा ते द्विविध कर्म छे, इर्या प्रत्यय, अने सांपरायिक छे, ते बन्नेने पण सर्वज्ञ मभुए जाणीने संयम अनुष्ठानरूप जे कर्म छेदवाने माटे अन्यत्र नथी, तेवी अनन्य सदृशी क्रिया बतावी. म० - भगवान केत्रा दता ? उ० – ज्ञानी, (केवळज्ञान प्राप्त थया पछी तेमणे आ क्रिया बतावी.) प्र० - वळी तेमणे बीजुं शुं कां ? उ०- जेनावडे नवां कर्म लेवाय ते आदान खोडं ध्यान छे, तथा इंद्रियोना विकार संबंधी ते स्रोत छे. माटे जे आदान स्रोत छे, तेने जाणीने तथा जीव हिंसारूप तथा तेना लक्षणथी मृषावाद विगेरे पापोने तथा मन वचन कायाना व्यापारवा दुर्थ्यांन छे ते बधे प्रकारे कर्म बंधने माटे छे एम जाणीने तेमणे संयम लक्षणवाळी निर्दोष क्रिया बतावी. वळीअवत्तियं अणाउहिंसयमन्नेसिं अकरणयाए; जस्सित्थिओ परिन्नाया, सङ्घकम्मावहा उस अदक्खु ॥१७॥ आकुट्टी (हिंसा) ने त्यागवाथी अहिंसा छे, ते पापथी अति क्रांत होवाथी निर्दोष छे, ते महावीर प्रभुए पोतेज प्रथम अहिंसा स्वीकारीने बीजाओने पण हिंसानी प्रवृत्तिथी दूर राख्या, तथा जेमने स्त्रीओ स्वरूपथी तथा विपाकथी कडवां फळ आपनारी छे, एवं ज्ञान छे, ते परिज्ञात भगवान छे, तथा तेज स्त्रीओ सर्व कर्म समूहो एटले सर्व पापोना उपादान भूत छे. ते पण एमणे जोयुं छे, तेथीज तेओ संसारं रूप जाणनारा थया तेनो भावार्थ ए छे केः-स्त्रीना स्वभावना आवा परिज्ञानथी तथा ते जाणीने त्यागवाथीज भगवान परमार्थदर्शी थया छे मूळ गुणो बतावीने हवे उत्तर गुण प्रकट करवा कहे छे:| अहाकडं न से सेवे सब सो कम्म अदक्खु यं किंचि पावगं भगवं तं अकुवं वियड भुंजित्था ||१८|| For Private and Personal Use Only सूत्रम् ||८२६ ॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा कोइ गृहस्थे साधुने पूछीने अथवा विना पूछे (छानु) आधा कर्मादि भोजन विगेरे कयु होय तो पोते ते लेता नथी. सूत्रम् ___-शा माटे ? उ०-तेमणे जोयु के, ते लेवाथी बधी रीते आठे प्रकारना कर्मनो बंध थाय छे, तेवु दोषित बीजं पण | सेवता नथी, ते कहे छे, जे कंइ पापबाळु एटले जेनावडे भविष्यमां पापर्नु कारण थाय तेवू भगवाने न लीधुं, पण विकट (पासुका निर्दोष) भोजन विगेरे लीधुं. (१८) वळीवाणो सेवइ य परवत्थं, परपाएवी से न भुञ्जित्था; परिवजि याण उमाणं, गच्छइ संखडिं असरणयाए ॥१९॥ मायण्णे असणपाणस्स, नाणुगिछे रसेसु अपडिन्ने; अच्छिपि नो पमजिजा, नोवि य कंडूयए मुणी गाय से पोते प्रधान (पर) वस्त्र भोगवता नथी. तेम किंमती पात्रमा खाता नथी, तथा पोते अपमान छोडीने आहारने माटे (ज्यां । आहार रंधाय तेवी रसोडानी जग्या) संखंडीमा कोइनु पण शरण (आलंबन ) लीधा विना अदीन मनवाळा 'आ मारो कल्प' छे| एम जाणीने परीपहो 'जीतवा' माटे जाय छे. (१९) ४ आहारनी मात्रा (माप) जाणे छे, माटे मात्रज्ञ प्रभु छे, प्र०-क्यो आहार? उ०-खवाय ते भात विगेरेनुं भोजन, पीवाय ते पाणी, द्राखनुं धोवण विगेरे-तेमां पोते लोलूपी नथी, तेम रस [छवीगइ] मां गृहस्थपणामां पण लोलूपी नहोता, तो पछी दीक्षा 2 लीधा पछीजें तो कहेवू रस लेवाथी एम सूचव्यु, के पोते तेवा पदार्थमां अभिग्रह न धारे के आजे सिंह केसरीया लाडुज 8 दखावा ! पण आवी प्रतिज्ञा राखे के आजे कुल्मास अडदना बाकळा विगेरे खावा ; तथा आंखमां रज पडी होय, तो ते दूर करवा For Private and Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir माटे पण आंख मसळे नहीं ! तथा खणज आवे तो लाकडाना छांडा विगेरेथी पण खणे नहीं. (२०) वळीआचा० अप्पं तिरियं पेहाए. अपि पिट्टओ पेहाए । अप्पं बुइएऽपडिभाणी, पंथपेहि चरे जयमाणे ॥२१॥ सूत्रम् ॥८२८॥ सिसिरंसि अद्धपडिवन्ने,तं वोसिज वत्थमणगारे। पसारित्त बाहं परकमे, नो अवलंबियाण कंधमि ॥२२॥ G८२८॥ एस विहि अणुक्कन्तो माहणेण मईमया । बहुसो अपडिन्नेण भगवया एवं रियन्ति ॥२३॥ त्तिबेमि ॥ उपधानश्रुताध्ययनोद्देशः ॥ १॥ ९ ॥१॥ (अल्प शब्द अभावना अर्थमां छे.) भगवान महावीर विहारमा तीरछी दिशामा जोता नथी तेम बने बाजुए जोता नथी. 5 तेम मार्गमा चालतां कोई पूछे तो पण बोलता नथी. मौनज चाले छे. ते बतावे छे के पोते रस्तामा चालतां पग नीचे जीवोने पीडा न थाय तेज यतना खता हता. (२१) वळी शियाळामां मार्गमां खरी ठंडमां पण देवष्य वस्त्र छोड्या पछी ये बाहु लांबी करीने चाले छे. पण ठंडथी पीडातां हाथने वांका वाळी संकोचता नथी. तेम पोताना खभा उपर पण हाथ राखीने उभा रहेता नवी.हवे समाप्त करवा कहे छे. (२२) आ विहारनो विधि बताव्यो ते भगवान महावीरस्वामी जेभो तखना जाणनारा छे. अने कोइ जातनु निया| कर्यु नथी, तथा ऐश्वर्य विगेरे गुणोथी युक्त छे, तेमणे पोते आचर्यो छे, एज प्रमाणे बीना मोक्षामिलापी साधुभो संपूर्ण कर्म क्षय करवा माटे आचरे छे. आयु सुधर्मास्वामि कहे छ:---- उपधानश्रुतअध्ययननो पहेलो उद्देशो पुरो थयो. For Private and Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥८२९॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पहेलो कहीने जोडाजोडज बीजा उद्देशानी सूत्र गाथानी व्याख्या टीकाकार कहे छे. तेमां प्रथम संबन्ध कहे छे. पहेला उद्देशामां भगवाननी चर्या बतावी. अने तेमां कोइपण शय्या ( वसति) मां रहेवुं पडे, तेथी आ बीजा उद्देशामां तेनुं वर्णन आवशे. आ संबन्धे आवेला उद्देशानुं आ प्रथम सूत्र छे. बोजा उद्देशानी सूत्र गाथाओ चरियासणाई सिजाओ एगइयाओ जाओ बुझ्याओ । आइक्ख ताई सयणासणाई जाई सेवित्था से महावीरे ॥ | आवेसणसभापवासु पणियतालासु एगया वासो । अदुवा पलियठाणेसुपला लपुञ्जेसु एगया वासो ॥२॥ आगन्तारे आरामागारे तह य नगरे व एगया वासो । सुसाणे सुपणगारे वा रुक्खमूले व एगया वासो ॥३॥ एएहिं मुणी सयणेहिं समणे आसि पतेरसवासे । राई दिवंपि जयमाणे अपमत्ते समाहिए झाइ ॥४॥ चरिया (चर्या) मां जे जे शय्या आसन विगेरे जरुरनां होय ते शय्या फलक (पाटीयुं) विगेरे सुधर्मास्वामिए जंबूस्वामिना पूछवाथी भगवान महावीरे जे प्रमाणे उपयोगमां लील छे. ते बतावेल छे. ( आ टीकाकार लखे छे के तेना पहेलांनी टीकामां आ गायानो अधिकार वर्णव्यो नथी, तेनुं कारण ते सुगम छे के सूत्रमां नथी ते सुचन पुस्तकमां जणातुं नथी तेथी अमे पण तेमनो अभिप्राय समजता नथी. ) (१) जंबुस्वामिना प्रश्ननो उत्तर आपे छे. भगवान महावीरने आहारना अभिग्रह माफक प्रतिमा सिवाय माये शय्यानो अभिग्रह नथी. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ ८२९ ॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ||८३०॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फक्त ज्यां छेलो पहोर (चरम पोरसी) थाय त्यांज मालीकनी आज्ञा लइने रहे ते बतावे छे. सर्वथा ज्यां रहेवाय ते आवेश छे. आवेशन - शून्यगृह तथा 'सभा' ते गाम नगर विगेरेमां त्यांना लोकोने माटे तथा आवेला नवा माणसोने सुवा माटे भोंतोवालुं मकान बनावे छे (गुजरातमां जेने चोरो कहे छे) प्रपाणी पात्रानी जग्या (जेने परव कहे छे) ते आवेशन, सभा प्रपा तेमां भगवाने वास कर्यो, तथा पण्यशाळा (दुकान) तथा पलिय एटले लोहार, सुतारनी ओसरीमां तथा पलालना ढगलामां अथवा मांचो उपर लटकाव्यो होय तेना नीचे रहे, पण तेना उपर न वेसे कारण के मांचो पोकळ होय छे. (२) वली प्रसङ्गे आवेला अथवा आवीने त्यां वेसे ते मुसाफरखानु के धर्मशाळा ते गाममां होय अथवा गाम बहार होय तथा | आराम ते घर आराम तथा आगारमां कोइ वखत वास करे, तथा मसाणमां अथवा शून्य घरमां वास करे, (आवेशन तथा शून्य घरनो भेद ए छे के पेलानी भींत मजबुत होय पण बीजामां तेम नहीं कोइ वखत झाडना मूळ नीचे वास कर्यो. (३) उपर बतावेल शयन ते वसतिमां ऋण जगतने जाणनारा ऋतुबद्ध काळमां अथवा चोमासामां भगवान तपस्यामां उयुक्त वनीने अथवा ध्यान राखनारा बनीने वास कर्यो. म० - केटलो काळ ? ते कहे छे. प्रकर्षथी तेरमा वरस सुधी एटले वार वरसथी कंक अधिक मुदत सुधी आखी रात अने | दिवस संयम अनुष्ठानमां उद्यमत्राळा बनीने अप्रमत्त एटले निद्रा विगेरे प्रमाद रहित तथा विस्रोतसिकारहित धर्म ध्यान अथवा शुक्ल ध्यान ध्याय छे वळी णिद्दपि नो पगाहाए, सेवइ भगवं उट्ठाए । जग्गावइ य अप्पाणं इसिं साई य अपडिन्ने ॥५॥ For Private and Personal Use Only | सूत्रम् ||८३०॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संबुज्झमाणे पुणरवि आसिसु भगवं उट्ठाए । निक्खम्म एगया राओवहि चंकमिया मुहत्तागं ॥६॥ सूत्रम् ॥८३१॥ 15 सयहिं तत्थुवसग्गा भीमा आसी अणेगरूवाय। संसप्पगाय जे पाणा अदुवा जे पक्खिणो उवचरन्ति ॥७॥18Insan अदु कुचरा उवचरन्ति गाम रक्खा यसत्तिहत्था य । अदु गामिया उवसग्गा इत्थी इगइया पुरिसा य ॥८॥ भगवान पोते प्रमाद रहित बनीने निद्रा पण वधारे लेता नथी. अने तेज प्रमाणे बार वरसमां अस्थिक गाममा व्यन्तरना उपसर्ग पछी कायोत्सर्गमा रहीने अन्तर्मुहूर्त सुधी स्वमो देखतां सुधी एकवार निद्रा करी हती त्यारपछी उठीने आत्माने कुशळ | अनुष्ठानमा प्रवर्ताचे छे अहींया पण पोते प्रतिज्ञा रहित छे. एटले पोते मनमा इच्छीने सुता नथी. (५) वळी ते वीर प्रभु जाणे छे के आ प्रमाद संसार भ्रमण माटे छे. एम जाणीने संयम उत्थानवडे उठीने विचरे छे. जो अन्दर । रहेतां निद्रा प्रमाद थाय तो त्यार्थी नीकळीने शियाळानी रात विगेरेमा खुल्ली जग्यामां मुहूर्त मात्र निद्रा प्रमाद दूर करवा ध्यानमा उभा रह्या. (६) बळी ज्यां आगळ उत्कुटुक आसन विगेरेथी आश्रय लेवाय तेवा स्थानमा अथवा ते स्थानोवडे ते भगवानने भय करावनारा अनेक जातिना ठन्ड ताप विगेरेथी अथवा अनुकूळ प्रतिकूलरूपे परिषह उपसर्गो थया तथा शून्य घर विगेरेमां अहिं नकुळ (साप नोळीग) विगेरे भगवान मांस विगेरे खाता हता, अथवा मसाण विगेरेमा गीध विगेरे पक्षीओ मांस खाता हता, (तो पण भगवान रागद्वेष करता नहोता.) (७) वळी कुचर ते चोर परदार लंपट विगेरे कोइ शून्य घर विगेरेमां भगवानने दुःख देता हता तथा गाम रक्षा करनारा कोटवाळ ACCESSORSCOCALSCRACROSS For Private and Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir 3/विगेरे त्रिक चोतरा विगेरे उपर उभेला भगवानने जोइने पूछतां जवाब न आपवाथी हाथमा शक्ति कुंत (भाला) विगेरे राखनारा भगवानने पीडा करता हता. तथा इन्द्रियोथी उन्मत्त थयेल स्वीओ भगवान पासे एकांतमा भोगनी याचना सुंदर रुप जोइने करती लसूत्रम् है हती. अथवा शरीर सुगंधी जोइने अथवा पोतानु तेवू सुंदर शरीर बनाववा इच्छता पुरुषो भगवान पासे उपाय पूछता हता. जवाब ।।८३२॥ ॥८३॥ न मळवाथी भगवानने दुःख पण देता हता. ६ इहलोइयाई परलोइयाई भीमाई अणेगरूबाई । अवि सुब्भि दुब्भिगन्धाइं सदाइं अणेगरूवाइं ॥९॥ । अहियासए सया समिए फासाइं विरूवरूवाई । अरई रई अभिभृय रीयइ माहणे अवहुवाई ॥१०॥ स जणेहिं तत्थ पुच्छिसु एगचरावि एगयाराओ। अवाहिए कसाइत्था पेहमाणे सचाहिं अपडिन्ने ॥११॥ . अयमंतरंसि को इत्थ ? अहमंसित्ति भिक्खुआहट्ट । अयमुत्तमे से धम्म तुसिणीए कसाइए झाइ ॥१२॥ क आ लोकमां एटले मनुष्ये करेला दुःखना स्पर्शो तथा देवताए करेला दिव्य स्पर्शी तथा तिर्यचोए करेला उपसर्गोनां दुःखो तथा Bा पर भवे करेलां पापोथी उदयमा आवेलां दुःखोने पोते समताथी सहे छे. अथवा आज जनममा जे दंडाना प्रहार विगेरे दुःख दे। छे. तथा ते शिवायना परलोक संबंधी भीम (भयंकर) जुदा जुदा उपसर्गो आवे छे. ते बतावे छे. एटले सुगंधीवाळा ते फुलनी "माळा तथा चंदन विगेरे छे. अने कोहेलां मुडदा विगेरे दुर्गधवाळा छे तेज प्रमाणे वीणा वेणुं मृदंग विगेरेथी मधुर अवाज तथा कमेलक (उंट) नुं बराडवु विगेरे कानमां कठोर अवाज लागे छे. ते बन्नेमां भगवान रागद्वेष करता नथी. [९] For Private and Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ८३३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तथा बधो काळ पांच समितिओथी युक्त छे अने जे कइ दुःखना स्पर्शो आवे तो संयममां अरति लावता नथी तेम सुंदर भोगोमां रति लावता नथी एम बने परिषहमां समभाव धारीने संयम अनुष्ठानमां वर्ते छे. पोते कोइ पण जीवने दुःख न देवं, एवा माहण बनेला जरुर पडतां एक वे उत्तर आपता विचरे छे. (१०) ते भगवान महावीर साडा वार पक्ष वधारे एवा बार वरस ( बार वरस अने साडा बार पखवाडीयां ) सुधी एकला विचरता शून्यगृह विगेरेमां रहेता लोकोथी पूछाता के तमो कोण छो ? केम अहीं उभा छो अथवा क्यांथी आव्या छो. ते समये पोते मौन रहेता, तथा दुराचारीओ विगेरे एकला भटकतात्यां आवीने कोइ वखत रातमां अथवा दिवसमां पूछता. पण भगवाने उत्तर न आपवाथी क्रोधमां आवी भगवानने मौन देखी तेओ अज्ञानथी दृष्टि छवाइ जतां दंड मुक्की विगेरेथी मारीने पोतानुं अनार्यपणुं आचरता हता. पण भगवान तो समाधिमां रही धर्म ध्यानमा चित्त | राखीने सारी रीते सहेता हता. प्र०- भगवान केवा हता ? उ-प्रतिज्ञा रहित एटले तेनुं वेर लेवुं एवी इच्छा राखता नहोता. प्र० – ते आवेलाओ केत्री रीते पूछता हता ? उ० - अत्र कोण रहेलुं छे ? एम संकेत करीने दुराचारीओ अथवा काम करनाराओ पोताना साथीओनी राह जोइ भगवानने पूछता हता. त्रळी हंमेशां त्यां रहेला दुष्ट ध्यानवाळा पूछे छे. पण भगवान मौन | रहेला हता. पण कोइ वखतघणोज दोष थतो होय तो टाळवाने माटे थोडं बोलता पण हता. प्र० - केवी रीते ? उ० - हुं भिक्षु हुँ, आम बोलतां जो तेओ संमति आपे तो त्यां रहेता, पण ते आवेला दुष्टोनी इच्छानां विघ्न थतुं होय, तो क्रोधायमान थइने मोहांध | वनी वर्तमान लाभ देखनारा तुच्छ बुद्धिथी कहे के अमारा मुकामथी हमणां निरुळ, तो भगवान आ अप्रीतिनुं स्थान छे, एम For Private and Personal Use Only सूत्रम् ||८३३॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ८३४॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विचारि तुर्त नीकळी जता. अथवा भगवान पोते प्रथमथी त्यांना मुख्य धणीनी आज्ञा लीवेली होवाथी नीकळता नहोता, अने आ मारुं ध्यान उत्तम धर्म छे. मारो आचार छे, एम विचारी ते आवनार गृहस्थनां कडवां वचन विगेरे सहन करी मौन रही जे थत्रानुं होय ते थाय, एम मानी दुःख सहन करे, पण ध्यानथी चलायमान थता नहोता. वळी शुं करता ते कहे छे. जंसिप्पेगे पत्रियन्ति सिसिरे मारुए पवायन्ते । तंसिप्पेगे अणगारा हिमवाए निवायमेसन्ति ॥ १३ ॥ संघाडीओ पवेसिस्सामो एहा य समादहमाणा । पिहिया व सक्खामो अइदुक्खे हिमगसंफासा ॥ १४ ॥ तंसि भगवं अपडिन्ने अहे बिगडे अहीयासए । दविए निक्खम्भ एगया राओ ठाइए भगवं समियाए ॥१५॥ एस विहि अणुक्कन्तो माहणेण मईमया । बहुसो अपडिपणेण भगवया एवं रोयन्ति ॥१६॥ तिमि ॥ नवमस्य द्वितीय उद्देशकः ९-२ ॥ शियाळाथी ऋतुमां केटलाक माणसो कपडांना अभावे दांत वीणा विगेरे युक्त कंपता हता. अथवा ठंडीना दुःखनो अनुभव करी आर्त्त ध्यानमां पडता हता. तेवा हिम पडवाना समयमां ठंडो वा वातां केटलाक साधु जेओ पासत्या जेवा हता, तेओमांना | केटलाक तेवी घणी ठंड पडतां दुःखी थइने ठंडने दूर करवा माटे भडको करता अथवा अङ्गारानी सगडी शोधता तथा प्रावार ( कामळो ) विगेरे याचता अथवा अनगार ते पार्श्वनाथ भगवानना तिर्थमां रहेला गच्छवासी साधुओज ठंडथी पीडाइने ज्यां वाय न आवे, तेवी शाळा विगेरे बंध जग्या शोधता हता. (१३) For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ ८३४|| Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ८३५॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वळी (सङ्घाटी शब्दवडे ठंड दूर करनारां वे अथवा त्रण वस्त्र जाणवां) ते सङ्काटी शोधवा माटे ठंडथी पीडाएला विचारता | के अमे क्यांयथी मागी लावीए. अने अन्य धर्मोओ तो एवा समिध बाळवानां लाकडां शोधता हता. के जेने बाळीने ठंड दूर करवा शक्तिवान थइशुं तथा सङ्घाटीवडे एटले कामको विगेरे ओढीने रहेता.. म० शा माटे एवं करे छे ? उ०- कारण के आ हिमनो ठंडो पवन दुःखे करीने सहन थाय छे. आवी सखत ठंडी ऋतुमां कोइ अन्य तापस विगेरे तापणुं तापी ठंड दूर करता, कोइ आ जैन साधु कामळो ओढी निभावता, तेवे समये भगवान शुं करता ? ते कहे छे:-आवी ककडती ठंडी अने ठंडा पवनमां बधा शरीरने पीडा थवा छतां भगवान् जेओ | ऐश्वर्य आदि गुण युक्त छे, तेओ समभावे ठंडने (तापणुं के कपडा बिना) सहे छे. प्र० - भगवान केवा छे ? उ० - प्रतिज्ञा रहित छे. एटले तेओ ज्यां ठंडी न आवे तेनुं बंध कबजावाळूं मकान रहेवा विगेरे माटे याचता नथी. प्र० तेओ कइ जग्याए ठंड सहे छे ? उ०- बाजुनी भींतो रहित तथा उपरनुं ढांकण होय के नहीं, तेवा स्थानमां रहेता, तथा फरी भगवानना गुण कहे छे, राग द्वेष दूर थवाथी शुद्ध आत्मा द्रव्यवाळा अथवा कर्मग्रंथि दूर थवाथी द्रव्य संयम छे. ते द्रववाळा द्रविक (संयमी) छे, तेम मकानमां ठंडी सहेतां कदाच घणी सखत ठंडी पीडे, तो ते ढांकेला मकानथी बहार नीकळी कोइ वार रात्रीमां वे घडी सुधी त्यां रही ठंडी सहन करी पाछा तेज मकानमां आवीने समताथी खच्चरना दृष्टांतथी सहेवा ने शक्तिवान थतां. बीजो उद्देशो समाप्त थयो. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ||८३५|| Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥८३६॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त्रीजो उद्देशो कहे छे. बीजो उद्देशो कहीने हवे त्रीजो कहे छे. तेनो आ प्रमाणे संबंध छे. गया उद्देशामां भगवाननी शय्या ( वसति) नुं वर्णन कर्पु, अने ते स्थानोमां जे उपसर्गो अने परीपही सहन कर्या, ते बताववा आ उद्देशो कहे छे, आ संबंधे आवेला उद्देशानी आ सूत्र गाथाओ छे. तणफासे सीयफासे य तेउ फासे य दंसमसगे य । अहियासए सया समिए फासाइं विरूवरूवाई ॥१॥ अह दुच्चरलाढमचारी वज्जभूमिं च सुब्भभूमिं च । पंतं सिजं सेविंसु आसणगाणि चेत्र पंताणि ॥२॥ लाढेहिं तस्सुवसग्गा बहवे जाणवया लुसिंसु । अह लूहदेसिए भत्ते कुकुरातत्थ हिंसिंस निवसु || ३ || अप्पे जणे निवारेइलुसणए सुणए दसमाणे । छुच्छुकारिंति आहंसु समणं कुक्कुरो दसंतुति ||४|| कुश दर्भ विगेरे तृणना कठोर फरसो, तथा ठंडीना स्पर्शो तथा ग्रीष्म ऋतुमां उनाळा विगेरेनो ताप दुःखदायी हतो अथवा | भगवानने चालतां तेज (अग्नि) कायज हतो, तथा डांसमच्छरो विगेरे हता, तेवा जुदी जुदी जातिना स्पर्शोने भगवान समताथी अथवा समितिवडे सहन करता. बळी दुःखथी विहार थाय, तेवो दुश्कर देश लाढ छे, तेमां पण पोते विचर्या, तेना वे भाग छे, एक वज्र भूमि तथा बीजी शुभ्र भूमि छे, ते बंने जग्याए विचर्या छे, तथा प्रांत ते शून्य ग्रह विगेरे वसतिमां रहीने अनेक उपद्रवो भगवाने सहन कर्या, For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ ८३६॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० सूत्रम् ॥८३७॥ ॥३७॥ तथा धूळना ढगला, जाडी रेती वेकर (वेल्ल) तथा माटीनां ढेफां विगेरेना प्रांत (तुच्छ) आसनो तथा लाकडां जेवां तेवा पडेलां | तेना उपर पोते बेसता, (१) तथा ते लाढा देशमा जे बे विभाग उपर बताव्या तेमां पाये लोकोना आक्रोश तथा कूतरांना करडवा है विगेरेना घणा प्रतिकूल उपसर्गो थया, ते बतावे छे. | जनपदते देश-अने तेमां उत्पन्न थयेला ते जानपद माणसो छे, ते अनार्य देश होवार्थी अनार्यो छे, तेथी ते दुष्टोए दांतथी करडवू, भारे दंडनो प्रहार विगेरेथी दुःख देवु ( अपि शब्दना अर्थमां अथ शब्द छे, तेथी एम जाणवू, के) त्यां भोजन पण लुखं अंतप्रांत आपता, तथा अनार्यपणाथी स्वभावथीन क्रोधी इता अने रुना अभावे घासवडे शरीर ढांकता, तेओ भगवान उपर | विरूप आचरता हता, अने शीकारी कूतराओ भगवान उपर करडवा आवता (३) अने ते देशमां भाग्येन हजारमा एक दयाळु जन हतो के जे करडवा आवेला कूतराने अटकावे, उलटा भगवानने लाकडी विगेरेथी मारीने कतराने तेना उपर दोडाववा सीत्कार (छुछु) करता के कोइ रीते आ साधुने ते कूतराओ करडे ! आवा दुष्ट अने भयङ्कर देशमां पण भगवान् छ मास सुधी रह्या वळीएलिक्खए जणा भुजो बहवे बजभूमि फरुसासी । लर्हि गहाय नालियं, समणा तत्थ य विहरिंसु ॥५॥ एवंपि तत्थ विहरता, पुट्टपुवा अहेसिं सुणिएहिं । संलुच्चमाणा सुणएहिं दुचराणि तत्थ लाढेहिं ॥६॥ निहाय दंडं पाणेहिं तं कायं वोसज्जमणगारे । अह गाम कंट्टए भगवंते, अहियासए अभिसमिच्चा ॥७॥ नागो संगामसीसे वा पारए, तत्थ से महावीरे । एवंपि तत्थ लाहिं अलद्धप्रबोवि एगया गामो ॥८॥ For Private and Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ||८३८॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपर बतावेल कष्ट आपनार ज्यां माणसो छे, तेवा देशमां भगवान वारंवार विचर्या, अने ते वज्र भूमिमां घणा माणसो लुखु खानारा होवाथी क्रोधी हता, अने तेथी साधुने देखीने कदर्थना करे छे, तेथी बीजा साधुओ बौद्ध विगेरेना हता; तेओ शरीर प्रमाण अथवा तेथी चार आंगळ वधारे लांबी नळी (लाकडी) कुतरा हाकत्रा माटे हाथमां राखीने विचरता हता. (५) बळी लाकडी विगेरेनी सामग्री राखवाथी बुद्ध मतना साधुओ विचरी शकता, अने ते प्रमाणे कूतराओथी करडावानो डर तथा तेमने निवारण करवानुं मुश्केल होवाथी अनार्थ लोकना लाढ देशमां गाम विगेरेमां विचरतु मुश्केल हतु ||६|| म० – आवा कठण देशमां भगवान् त्यारे केवी रीते विचर्या: ते कहे छे - पाणीओ जेनावडे दंडाय ते दंड मन वचन काया संबन्धी छे, ते दंडने भगवाने छोडी दीधो, तेज प्रमाणे कायानो मोह छोडीने ते अणगार (भगवाने) गाम कंटक ते गामडाना नीच लोकोनां कठोर वाक्यो निर्जरानुं कारण मानीने समताथी सहन कर्या. (७) म० - केवी रीते सहन कर्या ? ते दृष्टांत बतावीने कहे छे. जेम हाथी संग्रामना मोखरे आगळ वधीने शत्रुना लइकरने भेदीने तेनी पार जाय छे, ते प्रमाणे भगवान महावीर ते लाढ देशमां परीषहनी सेनाने जीतीने तेनाथी पार उतर्या, तथा ते लाढ देशमां गामो थोडां होवाथी कोइवार कोइ स्थळे गाम वखते मळतु पण नहोतु (जंगलमां पण पडी रहेतां.) उवसंकमन्तमपडिन्नं, गामंतियमि अप्पत्तं । पडिनिक्खम्मित्त लूसिंसु, एयाओ परं पलेहीत्ति ॥९॥ For Private and Personal Use Only सूत्रम् શા Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० हयपुवो तत्थ दंडेण, अदुवा मुहिणा अदु कुंतफलेण; । अदु लेलुणा कवालेण, हंडा बहवे कंदिसु ॥१०॥ सूत्रम् ____ गोचरी लेवा जतां अथवा मकानमा रहेवा जतां भगवान प्रतिज्ञा रहित हता, एटले गाम पासे आवेलु होय, अथवा गाम न ॥८३९॥ - आव्यु होय, तो एम नहोता करता के; हुं अहीं हमेशा रहीश, अथवा अहीं नहीं रहुं, तथा त्यां अनार्य लोको भगवाननी पासे 20:३९।। आवीने प्रथम मारता, अने कहेता के आ गामथी दूर जाओ. (९) तथा कदी गाम बहार रहेता तो त्यां पण अनार्य लोको आ-18 | वीने प्रथम दंड (लाकडी) अथवा मुक्कीथी मारता, अथवा भालानी अणीथी माटीना ढेफाथी अथवा घडाना ठीकराथी मारी मारीने है अनार्य लोको वीजाने बोलता के आवो आवो ! तमे जुओ तो खारा के आ कोण छे ? ए प्रमाणे कलकल करता हता. (१०) * मंसाणि छिन्नपुवाणि उठभिया एगया काय; । परीसहाई लुचिंसु, अदुवा पंसुणा उवकारिंसु ॥११॥ उमा लइय निहणिंसु, अदुवा आसणाउ खलइंसु । वोसहकायपयणाऽऽसी दुक्खसहे भगवं अपडिन्ने ॥१२॥ 2 कोइ बखत तो भगवान पासे आवीने तेमना शरीरने ज्ञालो राखीने तेमाथी मांस कापी काढता, तथा बीजा पण दुःख देनारा हा परीषहो आपता, अथवा धृळ्थी हेरान करता. (११) | वळी कोइ वखत भगवानने उंचे उचकीने नीचे पटकता हता, अथवा गोदोहिक उत्कुटुक वीरासन विगेरेथी धक्को मारी पाडी, देता, आई दुःख थवा छतां पण भगवाने तो कायानो मोह मुकी दीघेलो होवाथी परिषह सहन करवामां लीन हता, अने मुश्केलीथी सहन थाय, तेवा परिषहोना दुःखने सहेता, पण ते दुःखने दूर करवानी अथवा देवा करवानी इच्छा न धराववाथी अपतिज्ञावाला हता. For Private and Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० ॥८४०॥ दुःख सहेनारा भगवान केवी रीते हता ते दृष्टांतथी बतावे छे. सुरो संगामसीसे वा संवुडे तत्थ से महावीरे । पडिसेवमाणे फरुसाई; अचले भगवं रीयित्था ॥१३॥ सूत्रम् एस विही अणुकंतो, माहणेण मईमया । बहुसो अपडिन्नेण, भगवया एवं रियति ॥१४॥ X॥८४०॥ __ जेम संग्रामना मोखरे श्रवीर पुरुष शत्रुना सैन्यना भाला विगेरेथी भेदावा छतां पण बखतर पहेरेलु होवाथी पाछो हठतो | नथी, तेज प्रमाणे भगवान महावीर पण ते लाढ विगेरे देशोमां परिषहरुप शत्रुओए पीडा करवा छतां पण कठोर परीषहोना दुःखोने मेरु माफक निष्कंप बनीने धीरजवडे संवृत्त अंगवाळा बनीने सहेता ज्ञान दर्शन चारित्ररुप मोक्ष मार्गमां विचरे छे. (१३)२ आज प्रमाणे गया उद्देशामां बताव्या प्रमाणे बुद्धिमान भगवान महावीर कदाग्रह विना दुःखो सहेता विचर्या नवमा अध्ययननो त्रीजो उद्देशो समाप्त थयो. चोथो उद्देशो कहे छे. त्रीजो उद्देशो कहीने हवे चोथो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे के त्रीजा उद्देशामां भगवाने सहेला उपसर्ग परीषहोनें | वर्णन छे, अने आ उद्देशामां पण रोग आतंक पीडा आवतां पण तेनी चिकित्सा (उपाय) छोडी दइने भयंकर रोग उत्पन्न थया छतां पण बरोबर सहेता, अने एकांत तप चरणमां उद्यम करता, ते बतावशे. आ संबंधे आवेला उद्देशानुं आ प्रथम मूत्र छे: मन को जिले के को देवी मामा की कीम, वा पाने व वर्ग पियो For Private and Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥८४९ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ओमोयरियं चाएइ, अपुट्ठेऽवि भगवं रोगेहिं; । पुढे वा अपुढे वा, नो से साइज्जई तेइच्छं ॥१॥ संसोहणं च वमणं च गायब्भंगणं च सिणाणं च । संवाहणं चन से कप्पे दंतपक्खालणं च परिन्नाए ॥२॥ उपर बतावेला शीतोष्ण दंशमशक आक्रोश ताडना विगेरे परिषहोमां थोडं दुःख होवाथी सहेवा शक्य हता, पण उणोदरी (ओछु खावुं) ते शक्य न होतुं, पण भगवान महावीर तो वातादि क्षोभना अभावे रोगमां सपडायां न होता छतां, पण ओछु खावाने शक्तिवान थया एटले लोको तो रोगमां सपडाया होय, त्यारे ते रोग दूर करवा ओहुं खाता हता, पण भगवान तो ते रोगना अभावमां पण ममत्व ओछो करवा ओछु खाता, अथवा खांसी के दम विगेरेना द्रव्य रोगथी पीडाया नहोता, छतां पण भविष्यमां आववाना भावरोगरूप कर्मने दूर करवा माटे उणोदरी तप करता हता. प्र० - शुं भगवान ने तेवा खांसी दम विगेरेना रोगो थता नहोता ? के भाव रोगो दूर करवाना कारणे उणोदरी तप कर्यो ? उ०—कहे छे भगवानने खांसी विगेरे रोगो स्वभावथीज काया साथ थता हता, अने नवा तो शखना या विगेरे लागवाथी थता, ते बतावे छे. ते भगवान महावीर कुतरांना करडवाथी अथवा खांसी श्वास विगेरेना रोगोथी पीडाय, छतां पण ते चिकित्सा (रोगना उपाय ) ने करता नथी, अर्थात् तेओ रोगनी शांति करवा औषध लेवानी इच्छा करता नहोता. (१) ते बतावे छे, शरीरनुं बरोबर रीते शोध ते निःसोत्र (निसोतर) सुवर्णमुखी विगेरेथी जुलाब लेता नहोता, तथा मदनफळ (मींढळ विगेरेथी उलटी (वमन) करता नहोता, तथा सहस्र पाक तेल विगेरेथी शरीरनुं अभ्यंगन (चोळं) करता नहोता. तथा For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥८४१॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir INI * सूत्रम् % 15 उद्वर्त्तन विगेरेथी स्नान करता नहोता. हाथ पग विगेरेनुं संबाधन (दबावयु) करावता नहोता. तथा आखं शरीर अशुचि (गंदकी) आचा थी भरेलुं छे, एभ जाणीने दातण विगेरेथी दांत साफ करता नहोता. ॥४ ॥ विरए गामधम्महिं, यह माहणे अबहुवाई। सिसिरामि एगया भगवं, छायाए झाइ आसीय ॥३॥ आयावइ य गिम्हाणं, अच्छइ उक्कुडुए अभित्तावे । अदु जाव इत्थ लूहेणं, ओयणमंथुकुम्मासेणं ॥४॥ वळी पांचे इंद्रियोना विषयोमा शब्द विगेरेथी मोह न पामतां संयम अनुष्ठानमां तेने दोरे छे, तेथी तेो विरत छे, तथा माहन (जीवोना रक्षक) प्रभु अबहु (थोड़े) बोलनारा छे, (एक वार बोले तेी अबहु शब्द लीधो छे, बाकी तो अवादी छे एबुं बोलाय) & तथा कोइ वखत शिशिर ऋतु (शीयाळा)मां भगवान धर्म ध्यान अथवा शुक्ल ध्यानमा स्थिर हता. (३) वळी (छट्ठी विभक्तिने सातमीना अर्थमां लेतां) ग्रीष्म ऋतुमा भगवान् (खुल्ला मेदानमा) आतापना लेता ते बतावे छे. उत्कुटुक आसने भगवान् मूर्यना तडका सन्मुख वेसता, अने धर्मना आधाररूप देहने लुखा एवा कोदरा भातथी तथा बोरकूट विगेरेनो साथवो, तथा अडद (जे उत्तर दिशामां थाय छे) अथवा बाफेला वासी अडद अथवा सिद्ध मासा विगेरेथी कायानो निभाव करता. हवे ते काळ अवधि (मुदत)ना विशेषणवडे बतावे हे. एयाणि तिन्नि पडिसेवे, अट्टमासे अजावयं भगवं; । अपि इत्थ इगया भगवं अद्धमासं अदुवा मासंपि ॥५॥ अवि साहिए दुवे मासे छप्पि मासे अदुवा विहरित्था; । राओवरायं अपडिन्ने अन्नगिलायमेगया जे॥६॥ % % % For Private and Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा ॥८४३॥ कदाच कोइने एवी शंका थाय के प्रथम बतावेला भात मंधु तथा अडद साथे मेळवी खाता हशे, तेथी ते दूर करवा कहे छे. सूत्रम के ते प्रणे जो साथे मळे तो साथे लेइ खाता, अने त्रणेमांथी कोइ जुदं जुएं मळे तो तेम लेता अथवा एकल मळे तो तेम लेता दी अर्थात् त्रणमांथी जे मळे ते लेइ निर्वाह करता. 1८४३॥ -आ केटली मुदत सुधी आम करता, ते कहे छे. (शीयाळा उनाळानी आठ मासनी ऋतुने ऋतुबद्ध काळ कहे छे. ते) आठे मास मुधी भगवाने तेवा लुखा भोजनथी निर्वाह कर्यो तथा तेज प्रमाणे पाणी पण अब्धो मास के एक मास भगवाने |8| | तेवू (सार्दू) पीधुं. (५) तथा चे मासथी अधिक अथवा छ मासथी पण वधारे भगवाने पाणी पण पीधा विना रात दिवस निर्वाह करी लीधो, हुं पाणी 'पीश' तेवी इच्छा (पतिज्ञा) पण न करी, तथा कोइवार वासी (खवाय तेवू ) मळ्यु होय तो कोइ ! वार खाइ पण लेता. (६) छ?ण एगया भुंजे अदुवा अहमेण दसमेणं, । दुवालसमेण एगया भुंजे, पेहमाणे समाहि अपडिन्ने ॥७॥ णचा णं से महावीरेनोऽविय पावगं सयमकासी, । अन्ने हिवाण कारित्था, कीरंतंपि नाणुजाणित्था ॥८॥ वळी कोइ बखत छनो तप करी पारj करे हे,एटले प्रथमना दिवसे एक वखत खाय. त्यारपछी चे दिवस उपवास करे,अने चोथे दिवते पार्छ एकवार खाय,एटले प्रथमनो एक वचला चार अने चोथादिवसनो एक टंक मळी छ वखत न खावाथी छठ भक्त थाय छे. ए प्रमाणे बेबे टंक एकेक दिवसना वधारतां आठ भक्त त्यागवाथी अठम अने तेवी रीते दशम तथा बार भक्त पञ्चख्खाण For Private and Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥८४४॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्यु. एटले वचमां पांच उपवास करे अने प्रथमनां दिवसे तथा सातमा दिवसे एक वार खांय. आ बधो तप पोते शरीरमां समाधि राखीने करता पण मन मेलुं करता नहोता, तथा नियाणुं (प्रतिज्ञा ) करता नहोता, (७) तथा हेय उपादेय वस्तु तत्वने महावीरे जाणीने ते महावीर प्रभुए कर्मनी प्रेरणा करवामां वीर बनीने पाप कर्म पोते जाते न कर्यु, न बीजा पासे कराच्युं, अने अन्य पाप करनारने पोते प्रशंस्या नहीं, (८) गामं पविसे नगरं वा घासमेसे कडं परट्टाए । सुविसुद्ध मेसिया भगवं, आयतजोगयाए सेवित्था ॥ ९ ॥ अदु वायसा दिगिच्छत्ता जे अन्ने रसेसिणो सत्ता । घासेसणाए चिंति, सययं निवइए य पेहाए ॥१०॥ भगवान् महावीर गाम अथवा नगरमां पेसीने गोचरी शोधता, पण ते पर माटे बनावेलुं एटले उद्गम दोष रहित होय ते लेता, तथा सुविशुद्ध एटले उत्पाद दोष रहित लेता, आ प्रमाणे एषणा (गोचरी) ना दोष त्यागीने भगवान आयत ते संयम अने मन वचन कायाना योग (व्यापार) वाळा बनीने ज्ञान चतुष्ट्यवडे त्रणे गुप्ति पाळता आयत योगवाळो भात्र (ते आयत योगता ) छे, ते वडे शुद्ध आहार लावी गोचरी करतां पांच दोष थाय, ते टाळीने गोचरी करता [अहींयां पण ४२ दोष गोचरी लेतां अने '५' गोचरी करतां एम ४७ दोष टाळवानुं जाणं] [९] हवे भगवान ज्यारे गोचरीए नीकळता, त्यारे मार्गमां भूखथी पीडायेला कागडा तथा बीजां रस [पाणी] नी इच्छावाळां कपोत कबुतर विगेरे सत्वो [प्राणीओ] तथा खावानुं शोधवा माटे जे प्राणीओ रस्तामां बेठेलां होय, तेमने जमीन उपर बरोबर For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥८४४॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir आचा०४ ॥८४५॥ जोइने तेमने खावा पीवामां अडचण न पडे तेवी रीते हमेशां पोते धीरे धीरे गोचरीने माटे चाले छे. [१०] सूत्रम् | अदुवा माहणं च समणं वा गाम पिण्डोलगं च अतिहिं वा; । सोवागमूसियारिं वा कुक्कुरं वावि विडियं पुरओ है। वित्तिच्छेयं वजन्तो तेसिमप्पत्तियं परिहरन्तो;। मंदं परक्कमे भगवं अहिंसमाणो धासमेसिस्था ॥१२॥ ८४५॥ अथवा ब्राह्मणने लाभ माटे उभेलो जाणीने तथा बौद्ध मतना साधु आजीविक [गोशाळाना मतना] साधु तथा परिव्राट तापस ४ अथवा पार्श्वनाथना अनुयायी जैन साधुमांथी कोइपण होय, अथवा गामना भीखारीओ जे होजरी भरवा माटे भटकता होय, अ-४ | थवा कोइ अतिथि [परोणा] मुसाफर होय, तथा चांडाळ के बीलाडी कूतरुं के कोइपण पाणी मोढा आगळ उभेलं होय तो [११] . तेमनी वृत्तिने छेदवा विना अने मनमांथी दुर्ध्यान काढीने तेमने जरा पण त्रास आप्या विना भगवान् मंद मंद चाले छे, तथा पर एवा कुंथुवा विगेरे नाना जंतुओने दुःख दीधा विना पोते गोचरीमा फरे छे. (१२) अवि सूइयं वा सुकं वा सीयं पिंडं पुराणकुम्मासं । अदु बुक्कतं पुलागं वा लपिंडे अलके दविए ॥१३॥ अवि झाइ से महावीरे आसणत्थे अकुक्कए झाणं । उड़े अहेतिरियं च पेहमाणे समाहिमपडिन्ने ॥१४॥ दहीं विगेरेथी भोजन भीजावेलु होय, तेमज वालचणा विगेरे सुकुं होय, अथवा ठंडु होय अथवा घणा दिवसना रांधेला जुना कुल्माप होय अथवा बुक्कस ते जुनुं धान्य के भात विगेरे होय' अथवा जुनो साथवो बोरकुट विगेरे होय, अथवा घणा | 2 | दिवस, भरेलुं गोरस अने घउना मंडक ( ढेबरां) होय, तथा जवना निष्पाच विगेरे पुलाक होय, ए प्रमाणे ठंडो उनो सारो For Private and Personal use only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥८४६ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir aist रसिक अरसिक गमे तेवो पिंड मळे तो पण रागद्वेष छोडीने वापरता द्रविक (संयमवाळा ) भगवान विचरे हे एटले जो पुरी अथवा सारी गोचरी मळी होय तो अहंकारी थता नथी, तथा न मळतां ओछी मळतां खराब मळतां पोते पोतानी के आपनार गृहस्थनी निंदा करता नथी, (१३) पण तेवो आहार मळतां खाइने अने न मळतां भूख्या रहीने पण सारुं ध्यान महावीर प्रभु करे छे केवी अवस्थामा रहीने ध्यान करे छे, ते बतावे छे. उत्कुटुक गोदोहिक वीरासन विगेरे आसन धारीने मुख विगेरेनी चंचळ चेष्टाने छोडीने धर्म ध्यान के शुक्ल ध्यान ध्याये छे. प्र० - त्यां शुं ध्येयने भगवान धारे छे ? ते कहे छे. उंचे, नीचे तथा तीरच्छा लोकमां जे परमाणु तथा जीव विगेरे विद्यमान छे, तेने द्रव्य पर्याय नित्य अनित्य विगेरे रूपपणे ध्यावे छे. तथा अंतःकरणनी पवित्र समाधिने देखता प्रतिज्ञा रहित बनीने ध्यान करे छे. (१४) अकसाई विगयगेही य सदरूवेसु अमुच्छिए झाई । छउमत्थोऽवि परकममाणो; न पमायं सईपि कुवित्था ॥१५॥ सयमेव अभिसमागम्म, आयएजोगमायसोहीए । अभिनिव्वुडे अमाइल्ले, आवकहं भगवं समियासी ॥ १६ ॥ एस विहि अणुक्कंतो, माहणेण मईमया । बहुसो अपडिनेण, भगवया एवं रिति ॥१७॥ तिमि ९-४ ब्रह्मचर्यश्रुतस्कंधे नवमाध्ययने चतुर्थ उद्देशकः कषाय रहित ( क्रोध विगेरेथी पांपण विगेरे चडाव्या विना ) तथा गृद्ध पशुं दूर करीने तथा शब्द विगेरेमां मूर्च्छा राख्या For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ ८४६ ॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आधा ॥८४७॥ विना ध्यान करे छे, मनने अनुकलमां राग नथी तेम प्रतिकूलमा द्वेष नथी. तथा ज्ञानआवरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अंतराय, ए| सूत्रम् &चार कर्म विद्यमान होवाथी छमस्थ हता, तो पण तेमणे विविध संयमना अनुष्ठानमा पराक्रम बतावीने कषाय विगेरे प्रमादने । एकवार पण न कर्यो, (१५) तथा पोते पोताना आत्माथी तत्वने जाणीने संसार स्वभाव जाणनारा भगवान स्वयंबुद्ध बनी तीर्थ PIC४७॥ प्रवर्तन करवा उद्यम को. कधुं छे के: आदित्यादिर्विवुधविसरः सारमस्यां त्रिलोक्या-मास्कन्दन्तं पदमनुपमं यच्छिवं त्वामुवाच ॥ तीर्थ नाथो लघुभवभयच्छेदि तूर्ण विधत्स्वे-त्येतद्वाक्य त्वदधिगतये नो किमु स्यान्नियोगः ? ॥१॥ आदित्य विगेरे विबुधोनो समूह (नव लोकांकित देवो) छे, तेमणे तेमने कडं के हे नाथ ! आ त्रण लोकमां साररूप अनुपम जे शीघ्र भवोना भय छेदनार अने शिवपद आपनार तीर्थ (जैन शासन) छे. तेमने शीघ्र स्थापन करो! आ प्रमाणे | आयु वाक्य तमारी स्मृति माटे काने न पडथु होत, तो आ नियोग केवी रीते थात ? तथा तीर्थ प्रवर्तन माटे केवी रीते भगवाने उद्यम कर्यो ते बतावे छे:| आत्म शुद्धिवडे एटले पोतानां कर्मनो क्षय उपशम तथा क्षय करवावडे सुपणिहित मन वचन कायाना योगो जे आयत योग छे, तेमने निर्मळ करी तथा विषय कषायो विगेरेने उपशम विगेरेथी दूर करवाथी ठंडी गुण प्राप्त करेला (शांत) भगवान छे. तथा माया रहित तेज प्रमाणे क्रोध मान लोभ रहित बनी जीवतां मुधी पांच समितिए समित ( उपयोग राखी वर्तन करनारा ) तथा त्रण गुप्तिथी गुप्त बनीने रह्या हता. (१६) For Private and Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ||૪|| www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उद्देशो समाप्त करवा कहे छे. आ प्रमाणे शास्त्रमां बतावेली विधिए श्री वर्द्धमानस्वामी जेओ चार ज्ञान युक्त छे, तेमणे अनेक प्रकारे नियणुं कर्या विना आचर्यो, कारण के ते प्रमाणे बीजो मुमुक्षु पण भगवानना दाखलाथी मोक्ष आपनार मार्गवडे आत्महितने आचरतो विचरे, आ प्रमाणे सुधर्मास्वामी जंबूस्वामीने कहे छे. ते हुं कहुं छं. जे वीर प्रभुना चरणनी सेवा करतां में सांभळ्युं छे. आ प्रमाणे सूत्रानुगम तथा सुत्रालापक निष्पन्न निक्षेप सूत्र स्पर्शिक नियुक्ति सहित वर्णव्यो छे. हवे नयोतुं वर्णन करे छे. नैगम संग्रह व्यवहार ऋजुसूत्र शब्द समभिरुढ एवंभूत ए प्रमाणे सामान्यथी ७ नय छे. ते संमतितर्क विगेरेमां लक्षणथी अने विधानथी विस्तारथी कह्या छे, माटे अहींया तेज नयोने ज्ञान क्रिया ए बने नयोमां समावीने समासथी कहीए बीए. आ आचारांग सूना अधिकारमां ज्ञान क्रिया एम वे नयोनो समावेश थाय छे, तेथी तथा ते ज्ञान क्रियाने आधिन मोक्ष होवाथी, अने मोक्ष माटे शाखनी प्रवृत्ति छे, एम जाणवुं, अने अहींआं ज्ञान तथा क्रिया परस्पर संबंध राखीनेज विवक्षित कार्य सिद्धिमां समर्थ छे, पण एकलं ज्ञान के एकली क्रिया समर्थ नथी, माटे अहीं ते बे ज्ञान क्रियां नयने समजावीए छीए. ज्ञान नयवाळानो अभिप्राय. ज्ञान प्रधान छे, पण क्रिया नहीं, कारण के समस्त (वधा) हेय पदार्थने त्यागवा, उपादेयने स्वीकारना, ए प्रवृत्ति ज्ञानने आधीन छे. तेज बतावे छे, के सारी रीते निश्चय करेला सम्य् ज्ञानथी प्रवर्त्तन करनारो अर्थ क्रियानो अर्थी पोतानुं कार्य बगाडतो नथी. कहां छे के. विज्ञप्तिः फलदा पुंसां न क्रिया फलदा मता । मिथ्याज्ञानात् प्रवर्त्तस्य फलासंवाददर्शनाद् ॥ १ ॥ For Private and Personal Use Only सूत्रम् [૧૪] Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥८४९ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुरुषोने जे ज्ञान छे, ते फळ देनारुं छे, पण क्रिया फळदायी नथी. कारण के मिथ्या ज्ञानवाळो क्रिया करवा जाय तो तेनुं अयोग्य फळ साक्षात् देखाय छे, अने सम्यग् प्रकारे ज्ञानथीज पार पहचाय छे, तथा विषय व्यवस्थितिनुं समाधान ज्ञान पूर्वक थाय छे, तथा बधा दुःखोनो नाश ज्ञानथीज थाय छे, अने ज्ञानतुंज अन्वयव्यतिरेकपणुं छे. एटले ज्ञान होय तो फळनी सिद्धि अने ज्ञान न होय तो फळनी असिद्धि छे; माटे दरेक रीते ज्ञाननुं प्रधानपशुं छे, ते बतावे छे. ज्ञानना अभावे अनर्थ दूर करवा माटे | तैयारी करे तो पण करवा जतां अज्ञानताथी पतंगीया माफक अनर्थमां झीपलाइ जाय छे, अने ज्ञानना सद्भावे बघा अर्थाने अने अनर्थना संशयाने विचारीने यथाशक्ति विनोने दूर करे छे, तेमज आगम पण कहे छे, “पढमं नाणं तओ दया" सूत्र छे. आ वधुं क्षायोपशमिकज्ञान आश्रयी कहूं, अने क्षायिकने आश्रयी पण तेज प्रधान छे, कारण के नमेला सुर असुर देवताना मुकुटोना समुदायोनी वेदिकामां जेमना चरण युगलनी पीठ छे, तथा भव समुद्रना तटे पहोंच्या छे. तथा दीक्षा लीली छे, त्रण लोकना बंधु छे, तप चारित्र सारीरीते आदरवा छतां पण ज्यां सुधी जीव अजीव विगेरे बधा पदार्थोनुं परिच्छेद करनार घनघाति कर्म समूह क्षय थवारूप केवळ ज्ञान प्राप्त न थाय त्यां सुधी ते भगवानने मोक्ष प्राप्ति थती | नथी, माटे ज्ञानज युक्तिए युक्त आ लोक परलोक फळनी इच्छित प्राप्ति करनार सिद्ध थाय छे, क्रिया वादीनो नय (अभिप्राय) क्रियाज आलोक परलोकनुं इच्छित फळनी मासिनुं कारण छे. कारण के ते युक्तिए युक्त छे. जो तेम न होय तो ज्ञानवडे देखवा छतां पण अर्थ क्रियाना समर्थन अर्थमां ममाता मेक्षा पूर्वकारी छतां पण जो छोडवा लेवारूप प्रवृत्ति क्रिया न करे तो तेनुं For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ ८४९॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra भाचा० ॥८५०॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्ञान पण निष्फळ जाय हे, कारण के ते ज्ञान अर्थपणुं क्रिया साथै छे, कारण के जेनी जे अर्थ माटे प्रवृत्ति होय, तेनुं तेमां प्रधानपशुं छे, अने ते सिवायनुं अप्रधान (गौण) छे, ए न्याय छे, संविद् वडे विषय व्यवस्थाननुं पण अर्थ क्रियापणाथी अर्थप क्रियानुं प्रधानपशुं बतावे छे, अन्वय व्यतिरेको पण क्रियामां सिद्ध थाय छे, कारण के सम्यक चिकित्सानी विधि जाणनारो यथार्थ औषधी प्राप्ति करे, तो पण उपयोग क्रिया रहित होय तो ते वैद रोगने दूर करी शकतो नथी. तेज कबुं छे. के -- शास्त्राण्यधीत्यापि भवंति मूर्खाः । यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् ॥ संचिन्त्यतामौषधमातुरं हि । किं ज्ञानमात्रेण करोत्यऽरोगम् ॥ १॥ शास्त्रोने मणीने पण केटलाक क्रिया न करनारा मूर्ख होय छे, पण जे थोडं भणेलो होय पण क्रिया करनारो होय ते विद्वान् छे. कारण के औषध चिंतवो, पण ते चिंतवेलं औषध विना क्रिया करे शुं रोगीने निरोगी बनावी शकशे के ? वळीक्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतं यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो न ज्ञानात् सुखितो भवेत् ॥ १ ॥ पुरुषोने क्रियाज फलदायी छे. पण ज्ञान फलदायी नथी कारण के स्त्री. खावाना पदार्थ, तथा भोगववानी वस्तुओनो जाणनार एकला ज्ञानथी सुखीओ यतो नथी! पण ते क्रियाथी युक्त होय ते माणस पोतानी इच्छा प्रमाणे अर्थ मेळवनारो थाय छे. जो पूछता हो के केवी रीते ! तो कहुं हुं. के “निश्वयथी देखेलामां न उत्पन्न धएलुं नथी, " अने ज्यां सकल (वधा ) लोकमां प्रत्यक्ष सिद्ध अर्थ होय त्यां बीजं प्रमाण मागी शकाय नहीं ! तथा परलोकनुं सुख वांच्छतां होय, तेमणे पण तप चारित्रनी क्रियाज करवी, जिनेश्वरनुं वचन पण तेज कहे छे. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥८५०॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥८५९॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चेइयकुलगणसंचे, आयरियाणं च पत्रणय मुए य । सव्वेसुऽवि तेण कथं, तबसंजममुज्जमन्तेणं ॥ १ ॥ चैत्य कुळ गण संघ आचार्य प्रवचनश्रुत, ए बधामां पण तेणे तप अने संयममां उद्यम करवायी कर्यु जाणं, माटे आ क्रियाज स्वीकारवी, कारण के तीर्थकर विगेरेए पण क्रिया रहित ज्ञानने पण अफळ छे बळी कां छे के सुबहुं पि सुमधीतं, किं काहि चरण विप्पहूण (मुक्क) स्स ? अंधस्स जह पलित्ता, दीवसतसहस्सकोडिवि ॥ १ ॥ घणाए सिद्धांत भण्य होय, पण जो चारित्र रहित होय तो ते शुं करी शके ? जेमके घरमां लाखो करोडो दीवा कर्या होय तो पण अंधो केवी रीते कार्य सिद्ध करी शके ? अर्थात् देखवानी क्रियामां विफल होवाथी तेने दीवा नकामा छे. बळी क्षायोपशमिक ज्ञानथी क्रिया प्रधान छे, एम नहि, पण क्षायिक ज्ञानथी पण क्रिया प्रधान छे, जेमके जीव अजीव विगेरे संपूर्ण वस्तु परिच्छेदक केवळज्ञान विद्यमान होय, पण ज्यां सुधी क्रिया समाप्त करनारुं अयोगी गुणस्थाननुं 'ध्यानरूप क्रियापणु' न फरसे, त्यां सुधी भवधारणीय कर्मनो उच्छेद थाय नही, अने तेनो उच्छेद न थवाथी मोक्ष प्राप्ति पण न थाय, माटे ज्ञान प्रधान नवी, | पण चरणनी क्रियामां आलोक अने परलोकना इच्छित फळनी प्राप्ति छे, माटे ते क्रियाज प्रधान फळने अनुभवे छे. आ प्रमाणे ज्ञान विना सम्यक क्रियानो अभाव छे. अने ते क्रियाना अभावथी अर्थ सिद्धि माटे ज्ञाननुं वैफल्य छे. आ प्रमाणे बने नयवाळो पोताना नयनी सिद्धि करी तेथी सामान्य बुद्धिवाको शिष्य व्याकुल मतिवाळो बनीने गुरुने पूछे छे के आमां सत्प तत्व शुं छे ? आचार्यनो उत्तर - हे देवोने प्रिय भाइ ! अमे तो कयुं छेज ? पण तुं भूली गयो ! कारण के ज्ञान तथा क्रियाना अभिप्रायो बन्ने एक बीजाने आधारेज वधा कर्म कंदना उच्छेदरूप मोक्षनां कारणो हे तेनुं दृष्टांत. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ।।८५१ ।। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८५२॥ आखें नगर ज्यारे बळ्यु, त्यारे अंदर रहेला आंधळो पांगळी बन्ने मळी जबाथी मुखेथी बहार नीकळ्या, तेज का छे.. आचा० संजोगसिद्धीऍ फलं वदन्तीति. कारण के एक पैडाथी रथ चालतो नथी, बन्नेनो संयोग थमा कार्यनी सिद्धि थाय छे. पण सूत्रम् ॥८५२॥ स्वतंत्र प्रवृत्तिमां तो विवक्षित कार्यनी सिद्धि थती नथी, ए प्रसिद्धन छे. वळी क्रिया विनानुं ज्ञान हणायुं छे, आगममां पण सर्व 15 नयोना उपसंहारना द्वार वडे आज विषय कह्यो छे. जेमके सम्वेसिपि णयाणं बहुविहवत्तवय णिसामेत्ता । तं सचणय विसुद्धं चरण गुणडिओ साहू ॥१॥ बधा नयोनु घणा प्रकारचें वक्तव्य सांभळीने बधा नयथी विशुद्ध मंतव्यने चरण गुणमां स्थित साधु होय ते माने, तेथी आ आचारांगसूत्र ज्ञान क्रियारूप छे, तेने जाणेला सम्यग् मार्गवाळा साधुओ जेमणे कुश्रुत नदी कषाय माछलानां कुळथी आकुल। बनेल तथा प्रियनो वियोग अभियनो संयोग विगेरे अनेक दुःखथी मळेल महा आवर्त्तवालु मिथ्यात पवननी प्रेरणानी उपस्थापित भय शोक हास्य रति अरति विगेरे तरंगवाळु विश्रसा वेलाथी चित थयेलुं सेंकडो व्याधि मगरना समूहना रहेवासबाळु महा मंभीर भय आपनार त्रास उत्पादक महा संसार अर्णव (समुद्र) ने साक्षात् देखेलो छ, तेवा साधुओ ते संसार समुद्रथी पार जवा इच्छता होय तेमने आ आचारांग मूत्रमा बतावेलुं ज्ञान तथा क्रिया अव्याहत (निर्विघ्न) यानपात्र (बहाण) छे, एटला माटे मुमुक्षुए आत्यंविक, एकांतिक, अनाचाध, शाश्वत, अनंत अजरामर, अक्षय, अव्यावाध तथा समस्त रागद्वेश विगेरे द्वंद्व रहित सम्यग दर्शन, ज्ञान, व्रत, चरणक्रियाकलापथी युक्त परमार्थ श्रेष्ट कार्य जे सर्वोत्तम मोक्ष स्थान छे, तेनी इच्छावाला बनीने ते आचारांग 2 सत्रनो आधार लेवो, तेज ब्रह्मचर्य नामना श्रुतस्कंधनी निवृत्ति कुलबाळा श्री शील आचार्ये "तत्त्वादीत्या" नामनी वाहरि साधुना For Private and Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % % आचाका सहायथी आ टीका समाप्त करी छे, (श्लोक ग्रंथमान ९७६) छे. सूत्रम् द्वासप्तत्यधिकेषु हि शतेषु सप्तमु गतेषु गुप्तानाम् । संवत्सरेषु मासि च भाद्रपद शुक्लपञ्चम्याम् ॥१॥ ॥८५३॥ ७७२ वर्ष गुप्त वंशवाळा राजाभोना संवत्सरनां गये थके भादरवा महिनानी शुक्ल पंचमीए. An८५३॥ शीलाचार्येण कृता गम्भूतायां स्थितेन टीकपा । सम्यगुपयुज्य शोध्यं, मात्सर्यविनाकृतैरायः ॥२॥ शीलाचार्ये गंभूता (गांभु) मां रहीने आ टीका बनावी छे, तेने मात्सर्य [अदेखाइ] कर्या विना उत्तम साधुओए शोधवी. खाऽऽचारस्य मया टीका यत्किमपि संचितं पुण्यम् । तेनाप्नुयाज्जगदिदं निर्वृतिमतुलां सदाचारम् ॥३॥ अने में आ आचारांगनी टीका बनावीने तेथी जे कइ पुण्य उपार्जन कर्यु होय, तेनाथी आ जगत्ना जीवो अतुल मोक्ष तथा सदाचार प्राप्त करो. वर्णः पदमथ वाक्यं पधादि च यन्मया परित्यक्तम् । तच्छोधनीयमत्र च व्यामोहः कस्य नो भवति ? ॥४॥ वर्ण (अक्षर) पद वाक्य पद्य विगेरे जे माराथी पूर्वनी टीका के सूत्रमाथी छुटी गयु होय; तो ते विद्वाने मुधारी लेवू. कारण के व्यामोह (भूल) कोनी नथी थती ? तखादित्या जेनुं बीजुं नाम छे एबी आ आचारांगमूत्रनी वृत्ति ब्रह्मचर्यश्रुतस्कंधनी छे ते समाप्त थइ. आ प्रमाणे श्रीभद्रबाहुस्वामीए रचेल नियुक्ति सहित आचारांगम्त्र प्रथम स्कंधनी श्रीवाइरिगणिए करेल सहायथी श्रीशीलांक आचार्ये तखादित्या एवा बीजा नामवाळी रचेली आवृत्ति संपूर्ण थइ. %* For Private and Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 5 आचा० सूत्रम् ॥८५४॥ & ॥८५४॥ 5 - % % ΦΦΦΦΦΦΦΚ அழற்ழ்ழ்ழ்ழ்ழ்ழ்ழ்ழ்ழ்ழ்ழ்ழ்ழ்ழ்ழ்ழ்ழ் முழற்ற்ற்ழ்ழ்ழ்ழ்ழ்ழ்ழ்ழ்ழ்ழ்ழ்ழ்ற்ற்ற इति श्रीमद्भद्रबाहुस्वामिसंदृब्धनियुक्तिसंकलिताचाराङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धस्य वृत्तिः श्रीवाहरिगणिविहितसाहाय्यकेन श्रीशीलाङ्काचार्येण तत्त्वा दित्यापराभिधानेन विहिताऽऽयाता संपूर्तिम् । ΑφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφK OppooDDY % % % % For Private and Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥८५५॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्कंध २ जो (अध्ययन पांचमुं ) जयस्यनादिपर्यन्तमनेकगुणरत्नभृत । न्यत्कृताशेपतीर्थेशं तीर्थं तीर्थाधिपर्नुतम् ॥ १ ॥ अनादि, अनंत काळ रहेनाएं, अनेक गुण रत्नोथी भरेलुं बधा मतवाळाने सीधे रस्ते लावनार अने तीर्थकरोए नमस्कार करेलं एवं तीर्थ (जैन शासन ) जयवंतु वर्त्ते छे, नमः श्रीवर्द्धमानाय, सदाचारविधायिने । प्रणताशेषगीर्वाणचूडारत्नार्चितांहये ॥ २ ॥ सदाचार बतावनारा अने नमेला बधा देवताओना मुकुटना रत्नोथी जेना पग पूजीत छे. एवा श्रीवर्द्धमानस्वामीने नमस्कार थाओ. आचारमेरोर्गदितस्य लेशतः । मवच्मि तच्छेषिकचूलिकागतम् ॥ आरिप्सितेऽर्थे गुणवान कृती सदा । जायेत निःशेषमशेषितक्रियः ॥ ३॥ आचारांग सूत्ररूप मेरुपर्वतनी चूलिका समान आ चूलिकामां जे थोडो विषय आवेल छे, तेने थोडामां कहुं हुं कारण के कारण के हंमेशा कृत्य करनारो गुणवान पुरुष आरंभेला इच्छित अर्थमां बाकी रहेली क्रिया करवायीज संपूर्णपणा (नी अर्थसिद्धि) ने पामे छे. नव ब्रह्मचर्य अध्ययनरूप आचार प्रथम श्रुतस्कंभ कह्यो, हवे अग्रश्रुतस्कंध आरंभे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे. पूर्व आचारना परिमाणने बतावतां कहां के नवबंभचेरमइओ अट्ठारसपयसहस्सिओ वेओ । हवइ य सपंचचूलो बहुबहुअयरो पयगेणं ॥ १ ॥ नव ब्रह्मचर्यवाळो, अढार हजार पदवाळी पंच चला सहित पदोना अग्रवडे घणो घणो आ वेद (जैनागाम) आचारांग थाय छे. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥८५५॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥८५६ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मां प्रथम स्कंधमां नव ब्रह्मचर्य अध्ययनोने कहां, अने तेमां पण समस्त विवक्षित अर्थ कयो नथी अने कहेलो विषय पण संक्षेपथी कह्यो छे, जेथी न कहेवायेला विषयनो कद्देवा माटे तथा संक्षेपमा कहेला विषयने विस्तारथी कहेवा तेना अग्रभूत (मुख्य) चार चुडाओ पूर्वे कला विषयनो संग्राहिकज अर्थ बतावे छे, तेथी ते अर्थवाळो आ बीजो अग्रश्रुत स्कंध छे. एथी आवा संबंधे आवेला आ स्कंधनी व्याख्या कहेवाय छे, नाम स्थापना सुगमने छोडी द्रव्य अग्रना निक्षेपा बताववा नियुक्तिकार कहे छे. दब्बो (१) गाहण (२) आएस (३) काल (४) कम (५) गणण (६) संचए ७) भावे (८) ।। अगं भावे उ पहाण (१) बहुय (२) उबगारओ (३) तिविहं ॥ निर्युक्ति गाथा, ॥ २८५ ॥ द्रव्य अग्र वे प्रकारे छे, आगम अने नोआगम विगेरे छे. ते सिवाय व्यतिरिक्तमां द्रव्याग्र सचित्त अचित्त मिश्र द्रव्यना वृक्ष (झाड) कुंत [भाला ] विगेरेनो जे अग्रभाग छे ते लेवो. अवगाहना अग्र जे जे द्रव्यनो नीचलो भाग अवगाहना करे ते अवगाहना अग्र छे. जेमके मनुष्य क्षेत्रमां मेरु छोडीने बीजा पर्वतोनी उंचाइनो चोथो भाग जमीनमां दटायेलो छे अने मेरु पर्वतनो एकदजार जोजन भाग दटायेलो छे. आदेश अग्र - आदेश कराय ते आदेश छे अने ते व्यापारनी नियोजना छे. अहीं अग्र शब्द परिमाण वाची तेथी ज्यां परिमित पदार्थोनो आदेश देवाय ते आदेश अग्र छे. ते आ प्रमाणे-त्रण पुरुषोवडे जे कृत्य कराय छे अथवा तेमने जमाडे छे. काला - अधिकमास छे. अथवा अग्र शब्द परिमाणवाचक छे, तेमां अतीतकाल अनादि छे. अनागत [आवनारो] भविष्य | काळ अनंत छे अथवा सर्वद्धा संपूर्ण काळ छे. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥८५६॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir +3 % आचा क्रमाग्र-परिपाटीवडे अन ते क्रमाय छे. आ द्रव्यादि चार प्रकार छे, तेमां द्रव्यान ते एक अणुथी वे अणु अने वे अणुथी। । सूत्रम् Mत्रण अणु विगेरे छे. क्षेत्रान-एक प्रदेशना अवगाढथी वे प्रदेशना अवगाढ सुधी, ये प्रदेशना अवगाढयीत्रण प्रदेश अवगाढ विगेरेछ. ॥८५७॥ कालाग्र-एक समयनी स्थितिथी वे समयनी स्थिति सुधी, वे समयनी स्थितिथी त्रण समयनी स्थिति सुधी. ८५७॥ भावाग्र--एक गुण काळाशथी ये गुण कालाश, वे गुण काळाशथी त्रण गुण काळाश विगेरे छे. गणना अग्र-संख्या धर्म स्थान ते, एक स्थानथी बीजा दश स्थान सुधी ते दश गुणो जेम एक-दश-सो-हजार. संचय अग्र-संचित द्रव्यना उपर जे छे, ते ताम्र उपस्कर सचित्तना उपर शंख छे. भावापना त्रण प्रकार-१ प्रधान अग्र, २ मभूत अग्र, ३ उपकार अग्र, तेमा प्रधान अग्र सचित्त, अचित्त, मिश्र-एम त्रण प्रकारे छे. सचित्त पण बे पगवाळा चार पगवाळां अपद विगेरे त्रण भेदे छे, तेमां द्विपदमां तीर्थङ्कर, चोपदमां सिंह, अपदा कल्पवृक्ष छे. अचित्तमां वैडुर्य विगेरे, मिश्रा तीर्थङ्करज दागीनाथीज अलंकृत होय ते, प्रभूत अग्र ते अपेक्षा राखनार छे. जेमके “जीवा पोग्गल समया दन्न पएसा य पजवा चेव । योवाऽणताणता विसेसमहिया दुवे गंता ॥१॥" १ जीव, २ पुद्रलो, ३ त्रणे कालना समयो, ४ द्रव्यो, ५ प्रदेशो, ६ पर्यवो. १ स्तोक [थोडा], २ अनंत गुणा, ३ अनंत ट्रगुणा, ४ विशेषअधिका वे अनंता [अनंत अनंत गुणा.] ___आ वधामां एक पछी एक अछे, अने पर्याय अन तो सौथी अनछे, उपकार अन तो पूर्वे कहेला विस्तारथी अने न कहेला बताववाथी उपकारमां व छे, जेमके % For Private and Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा ॥८५८॥ ८५८॥ ॐॐॐॐॐ दशवकालिक सूत्रमा जे विषय कहेवानो बाकी रह्यो होय ते चुडामां कहेवाय-एवी बे चुडा दशवकालिकमा छे. अथवा उप६ कार अग्र ते आ आचार श्रुतस्कंधनी चुडानो विषय छे अने तेथी उपकार अग्रनुंज अहीं प्रयोजन छे, अने ते नियुक्तिकार कहे छे. उक्यारेण उ पगयं आयारस्सेव उवरिमाई तु । रुक्खस्स य पचयस्स य जह अग्गाइं तहेयाई ॥२८६॥ आपणे अहींया उपकार अग्रथी अधिकार प्रयोजन] छे. कारण के आ चूडाओ आचाराङ्गमूत्रना उपर वर्ने छ, एटले आचाराना विषयनेज विशेष खुलासाथी कहेवा आ चूडाओ गोठवायेली छे,जेमके वृक्षने अग्र[टोच होय छे,तथा पहाडने टोच (शीखर)होय &छे अने बाकीना अग्रना निक्षेपार्नु वर्णन तो शिष्यनी मति खीलववा माटे छे तथा तेने लीधे उपकार अग्र मुखेथी समजी शकाय.कबुछेकेर उच्चारिअस्स सरिसं, जं केणइ तं परूवए विहिणा । जेणऽहिगारो तमि उ, परूविए होइ मुहगेझं ॥१॥ ४ जे कहेवार्नु होय तेना जेवा पदार्थो विधिए कहेवाथी जेनावडे अधिकार छे तेमां पण बीजा सरखा पदार्थों सांभळवाथी कहे-18 वानो मुख्य पदार्थ पण मुखेथी ग्रहण कराय छे. तेमां हमणां आ कहेवू जोइए के आ चूलाओ [अग्रभागो] कोणे रची छे ? शा माटे ? अथवा क्याथी उद्धरी ते त्रणनो खुलासो करे छे: पेरेहिऽणुग्गडट्ठा सीसहि होउ पागडत्थं च । आयारामओ अत्यो आयारंगेसु पविभत्तो ।। २८७ ॥ श्रुतज्ञाननापारंगामी वृद्ध पुरुषो जे चौद पूर्वी छे तेमणे आरची छे, तथा शिघ्यना उपर अनुग्रह लावीने के एओ सहेलथी समजे. तथा अप्रकट (गुख) अर्थ खुल्लो थाय माटे आचारांग मूत्रमाथी आ बधा विषयोने विस्तारथी कह्यो छे. हवे जे अध्ययनमांधी जे अधिकार लीयो छे. ते विभाग पाडीने कहे छे, For Private and Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा सूत्रम् ॥८५९॥ ८५९॥ बिइअस्स य पंचमए अट्टमगस्स बिइयंमि उसे । भणिओ पिंडो सिज्जा वत्थं पाउग्गहो चेव ॥ २८८ ।। पंचमगस्स चउत्थे इरिया वणिजई समासेणं । छहस्स य पंचमए भासज्जायं वियाणाहि ।। २८९ ॥ ब्रह्मचर्यना नवे अध्ययनोमांथी बीजुं लोकविजय अध्ययन छे. तेना पांचा उद्देशामां आ सूत्र छे, " सव्वामगंध परिमाय निरामगंधो परिन्नए."तेमां आम शब्दयी हणवू. हणावयु, हणताने अनुमोदए त्रण कोटी लीधी छे. गंध शब्द लेवाथी बीजी त्रण लीधी छे. आ छए अविशुद्ध कोटी छे ते नीचे प्रमाणे छे.. ____हणे हणावे हणताने, हणताने अनुमोदे, रांधे रंधावे रांधताने अनुमोदे ते छ छे. तथा ते अध्ययनमांज आ सूत्र छे. “अदिस्समाणो कयविक्कएहिं " आ मूत्रथी त्रण विशोधि कोटी लीधी छे. खरीद करे, खरीद करेरावे अने खरीद करनारने | अनुमोदे ते त्रण छे, तथा आठमा विमोह (विमोक्ष) अध्ययनना बीजा उद्देशामां आ मूत्र छ भिक्खू परकमेज्जा चिटेजवा निसीएज्ज वा तुहिज वा सुसाणंसि वा" इत्यादि थी लइने "बडिया विहरिज्जा तं भिक्खु गाहावती उपसंकमितु वएज्जा अहमाउसंतो समणा ! तुब्भट्टाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई समारम्भ समुदिस्स कीयं पामीचं” इत्यादि, आ वधांने आश्रयीने ११ पिंडैषणाओ रची छे, तथा तेज बीजा अध्ययनमा पाँचमा उद्देशामां आ मूत्र छे, से वस्थं पडिग्गई कंबलं पायपुंछणं उग्गहं च कडासणं" इति, तेमां वस्त्र कांबळ पादपुंछन लेवाथी वस्त्र एषणा लीधी. पात्रां] लेवाथी पात्रैषणा लीधी छे, अवग्रह शब्दथी अवग्रह (इंद्र विगेरेनो पांच प्रकारनो) छे ते लीधी कटाशन लेवाथी शय्या लोधी, For Private and Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥८६०॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तेज प्रमाणे पांचमुं अध्ययन 'आवंति' नामनुं छे. तेना चोथा उद्देशामां आ सूत्र छे, "गामाणुगामं दूइजमाणस्स दूजार्थं दुष्परिकंतं इत्यादि" आ मूत्रथी 'इर्या ' समिति संक्षेपथी वर्णवी. तेथी इर्या अध्ययन रच्युं छे, तथा छट्टा अध्ययनना पाँचमा उद्देशामां आ सूत्र छे, “आ इक्ख हिय कि धम्मकामी" आधी भाषा जात अध्ययन रच्युं छे तेम तुं जाण ॥ २८९ ॥ सतिकगणि सत्त निज्जुढाई महापरिन्नाओ । सत्यपरिना भावण निज्जूढा उ धुय विमुति ॥ २९० ॥ आयारपकप्पो पुर्ण पञ्चवाणस्स तइयवत्थूओ । आयारनामधिज्जा वीसइमा पाहुच्छेया ।। २९१ ।। तथा महापरिज्ञा नामना सातमा अध्ययनमां सात उद्देशा हता, तेमांथी एकेक लेवाथी सात लीघा छे. तथा शस्त्र परिज्ञामांथी भावना अधिकार लीधो छे, तथा धुतअध्ययनना बीजा चोथा उद्देशामांथी विमुक्ति अध्ययन लीधुं छे. ॥९॥ तथा आचार प्रकल्प ते निशीथसूत्र के अने ते प्रत्याख्यान पूर्वनी त्रीजी वस्तु छे तेमां २० मुं पाहुड आचार नामनुं छे तेमांथी लीवेल छे. (आ पांचमी चूडा जुदी पाडी छे.) ब्रह्मचर्यनां नत्र अध्ययनोथी आचार अग्र (चूलिकाओ) रचेल छे. एथी निर्युहन [ रचना ] ना अधिकारथीज ते शखपरिज्ञा अध्ययनथीज ते आचार अग्र (चूला) रची छे, ते बतावे छे. अबोगडो उ मणिओ सत्यपरित्राय दंडनिक्खेवो । सो पुण विभज्जमाणो तहा तहा होइ नायन्चो ।। २९२ ।। अव्यक्त दंड निक्षेपो हतो ते बताव्यो छे, एटले माणीओने पीधारूप जे दंड छे, तेनो निक्षेप ( परित्याग ) छे, अर्थात् संयम छे, ते शस्त्रपरिज्ञा अध्ययनमां गुप्त रीते को हतो, तेथी ते संयमनेज जुदा जुदा भाग पांडीने आठे अध्यनमां अनेक For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥८६०॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥८६१॥ ॥८६॥ आचा०प्रकारे वर्णव्यो छे, एम जाणवू. ___ -आ संयम संक्षेपथी कहेलो छे, ते केवी रीते विस्तारथी कहेवाय छे ? ते कहे छे. एगविहो पुण सो संजमुत्ति अज्झत्थ बाहिरो य दुहा । मणवयणकाय तिविहो चउबिहो चाउजामो उ ॥२९३॥ अविरतिनो त्यागरूप एक प्रकारनो संयम छे अने तेज आध्यात्मिक [अभ्यंतर अने बाह्य एम वे भेद थाय छे, अने मन वचन कायाना योगना भेदथी त्रण प्रकारनो छे, तथा चार महाव्रतना भेदथी चार प्रकारनो छे, पंच य महब्बयाई तु पंचहा राइभोभणे छट्ठा । सीलंगसहस्साणि य आयारस्सप्पवीभागा ।। २९४ ॥ पांच महाव्रतना भेदथी पांच प्रकारको अने रात्रिभोजन विरमण मेळवतो छ प्रकारे छे, ए प्रमाणे अनेक प्रक्रियाथी भेद पाडेला १८ हजार शीलांगना भेद सुधी परिमाणवाळो संयम थाय छे. म०-पण आ संयम केवो छे ? उ-ते प्रवचनमां पांच महाव्रतना भेद तरीके वर्णवाय छे ते कहे . ___ आइक्खिउं विभइडं विनाउं चेव सुहतरं होइ । एएण कारणेणं महब्धया पंच पन्नता ।। २९५ ॥ पंच महाव्रतरूपे व्यवस्थापेलो होय, तो मुखेथी कहेवाय अने शिष्यने मुखेथीज समजाय, ए कारणथीन पांच महाव्रतो बतावेछ, अने ए पांच महावतो अस्खलित (संपूर्ण होय तोज फलवाळा (सिद्धि आपनार) थाय छे, तेवी तेनी रक्षामा यत्र करवो,ते कहे छे. तेसिं च रक्खणट्ठा य भावणा पंच पंच इकिके । ता सत्यपरित्रए, एसो अभितरो होई ॥ २९३ ॥ ते महाव्रतोनी दरेकनी पांच पांच वृत्ति समान भावनाओ छे, ते बी आ बीजा अग्रश्रुत स्कंधमा कहेवाय छे, एथी आ For Private and Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० सूत्रम् ॥८६॥ ॥८६२॥ RECR5 शस्त्रपरिज्ञा अध्ययनमा अभ्यंतर थाय हे. हवे चूडाओर्नु यथास्व (पोतानु) परिमाण कहे छे. ___ जावोग्गहपडिमाओ पढमा सत्तिकगा विइअचूल।। भावण विमुत्ति आयारपक्कप्पा तिनि इअ पंच ॥ २९७ ॥ पिंडैषणा अध्ययनथी आरंभीने अवग्रह प्रतिमा अध्ययन सुधीमां सात अध्ययनोनी पहेली चूडा छे, सात सातनी एकेक ए बीजी चूडा छे, भावना नामनी त्रीजी छे, अने विमुक्ति नामनी चोथी चुडा छे, आचार प्रकल्प निशीथ छे, ते पांचमी चुडा छे, ते चुडानो नाम विगेरे निक्षेपो छ प्रकारनो छे. नाम स्थापना सुगम छे, द्रव्य चुदा व्यतिरिक्तमां-सचित्तमा कुकडानी, अचित्तमा मुकुटना चुडानी मणि छे. मिश्रमां मयूरनी छे, क्षेत्र चुडामां लोक निष्कुट रुप हे, काल चुडामा अधिक मासना स्वभाववाळी, अने भाव चुडामां आज चुडा छे. कारण के ते क्षायोपशमिक ( श्रुनज्ञान ) मां वर्ने छे. आ सात अध्ययन रुप छे, तेमां प्रथम अध्ययन पिढेषणा छे, तेना चार अनुयोगद्वार छे. नामनिष्पन्न निक्षेपामां पिंडैषणा अध्ययन छे, तेना निक्षेपद्वारे सर्वे पिंड नियुक्तिो अहीं | कहेवी, हवे सूत्रानुगममां अस्खलित विगेरे गुण युक्त मूत्र उच्चारवु जोइए, ते कहे छे. से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविढे समाणे से जं पुण जाणिज्जा-असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा पाणेहिं वा पणगेहि वा बीएहि वा हरिएहि वा संसत्तं उम्मिस्सं सीओदएण वा आसित्तं रयसा वा परिघासियं वा तहप्पगारं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परहत्यसि वा परपायंसि वा अफासुयं अणेसणिज्जति मन्त्रमाणे लाभेऽवि संते नो पडिग्गाहिजा ॥ से य आहञ्च पडिग्गहे सिया से तं आयाय -%A-Rs For Private and Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥८६३॥ www.kobatirth.org एतमवकमिज्जा एतमयकमित्ता अहे आरामंसि वा अहे उवस्पयंसि वा अपंडे अप्पपाने अप्पत्रीए अप्पहरिए अप्पो से अदर अपुतिंगपण गदगमट्टियम कडासंताणए विर्गिचिय २ उम्मीसं विसोहिय २ तो संजयामेव भुंजिज्ज वा पीइज्ज वा, जं च नो संचाइज्जा मुत्तए वा पायएवा से तमायाय एगंतमत्रकमिज्जा, अहे झामथंडिलंसि अहिरासिंसि वा किरासिंसि वा तुसरासिंसि वा गोमयरासिंसि वा अन्नयरंसि वा तहष्पगारंसि थंडिलंसि पडिले हिय पडिलेहिय पमज्जिय पर्माज्जय तत्र संजयामेव परिहविज्जा ।। (मू० १) ( से शब्द मगध देशमां पहेली विभक्तिना निर्देशमां वपराय छे. तेथी) जे कोइ भिक्षाथी निर्वाह करनार भावभिक्षु मूळ उत रगुण धारनारी विविध अभिग्रह (तपविशेष ) करनारो उत्तम साधु होय अथवा साध्वी होय, ते भावभिक्षु के साध्वी अशाता वेदनीय विगेरेना कारणोथी आहार ग्रहण करे छे, ते बतावे छे. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir י वेण १ वेबच्चे २ इरियट्टाए य ३ संजमट्टाए ४ तह पाणवत्तियाए ५ छ पुण धम्मचिंताए । १ ॥ १ अशाता वेदनिय कर्मदुर करवा. २ वीजा साधुओनी वेआवच्च करवा ३ इर्या समिति पाळवा माटे, ४ संयम पाळवा माटे ५ जीवित धारण करना ६ अने धर्मचिंतन करवा माटे आहार लेवाय छे, उपर बतावेला कारणोमांथी कोइपण कारणे | आहारनो अर्थी बनीने गृहस्थना घरे जाय, म. शामाटे? उ० 'पिंडवाय पडियाए ' भीक्षा (नो लाभ तेनी प्रतिज्ञा ते) अहीं मने मळशे, तेथी त्यां पेसीने अशन विगेरे जाणे, केवी रीते? ते कहे छे. प्राणि ते ' २ सजा' (वासी पाणीवाळा रांधेला अनाजमां बेइंद्रिय विगेरे ज्ञीणा जीव उत्पन्न थाय छे ते) देखीने ते जीवो होय तो गोचरी न लेवी, तेज प्रमाणे पनक ( जल आवे छे ते ) For Private and Personal Use Only सूत्रम् |||८६३ ॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सूत्रम् www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 8. जोवी, तथा घउंना दाणा विगेरे अडकेल होय, हरित ते दरो जुव्हार विगेरे अंकुरावाळु लीलु घास होय, तेनी साथे मिश्र थइ गयु: आचा० होय, तथा काचा पाणीथी भीजायलं होय, अथवा सचिच रजथी परिगुंडित (खरडायेलु) भोजन पाणी खादिम के स्वादिम होय ते चारे प्रकारनो आहार देनारना हाथमां होय के गृहस्थना वासणमां होय, ते सचित्त अथवा आधाकर्म विगेरे दोषथी अनेषणीय ॥८६॥ ॥८६॥ 15 (दोषित ) होय एवू जाणे तो ते भावभिक्षु मळतुं होय, तो पण न ले, आ उत्सर्गनी विधि छे, हवे अपवादनी विधि कहे छे. के | द्रव्यादि एटले द्रव्य क्षेत्र काळ भाव विचारीने जरुर पडतां लेबु पडे तो ले पण खरो ते बतावे छे, द्रव्यथी ते द्रव्य जरुरर्नु होय, अने बीजे मळ, दुर्लभ होय, तथा क्षेत्रथी ते बधा साधुने साधारण गोचरी मळे तेम न होय एटले लोको दृष्टि रागी होय अथवा विशेषथी अन्यदर्शनीना रागी होय ? कालथी दुकाल विगेरे होय. अने भावथी ग्लान [मंदवाड] विगेरे होय, विगेरे कारणो होय तो गीतार्थ साधु लाभ विशेष होय अने दोप ओछो लागतो होय तो ते ले. वळी कोइ बखत अजाणपणे जीवातवाळु अथवा जीव उत्पन्न थाय ( तेवू विदळ विगेरे ) उन्मिथ भोजन विगेरे लीधुं होय । तो तेनी परठववानी विधि कहे छे. " से अहच्च इत्यादि " एटले कोइवार उपयोग राखवा छतां पण भूल थी ओचिंतु संसक्त विगेरे भोजन लेवायु होय तो, ते 'अनाभोग' देनार, लेनार ए बेना भेदथी चार प्रकारनो थाय छ, [जेमके (१) साधुनो उप-1x योग होय गृहस्थनो न होय, [२] ग्रहस्थनो उपयोग होय साधुनो न होय, [३] बन्नेनो उपयोग न होय, (४) बन्नेनो उपयोग & IM होय.] आवो आहार अशुद्ध आवेलो जणाय तो ते आहार लइने एकांतमा जाय, एटले ज्यां गृहस्थ लोक देखे नहि, तेम आवे | पण नहि, ते एकांत स्थळ अनेक प्रकारचें होय छे. ते बतावे छे. For Private and Personal use only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥८६५॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आराम, उपाश्रय ( अथ शब्द लोक आवता न होय तेवो विशिष्ट प्रदेशना संग्रह माटे छे.) अथवा शून्यगृह विगेरे स्थळ होय ते स्थळ केबुं होय, ते कहे छे. ( अल्पशब्द अभाववाचक छे.) ज्यां इंडा न होय, बीज, हरित, ठार, काचुं पाणी, तथा उतिंग घासना अग्र भागे पाणीनां बिंदु होय ते, पनक लीलण फूलण होय, वधारे पाणीथी भींजायेली माटी होय, मर्कट ते सूक्ष्म जीव अथवा करोलीयानां जाळां जेमां तेना बच्चां होष छे, ते दरेक जीवथी रहित आराम विगेरे स्थळे जइने पूर्वे लीघेला आहारमां जे जीव मिश्रित होय ते देखीदेखीने अशुद्ध आहारने त्यागवो, अथवा भविष्यमां जीव थाय तेवुं साथवो विगेरे होय तेमां जीवो जोइजोइने तेनुं भोजन दूर करीने खावा जेवु बाकी शुद्ध रं होय ते बरोबर जाणीने पोते रागद्वेष छोडीने खाय अथवा पीए कं छे के वायालीसेसण संकडंमि गहणंमि जीव ! ण हु छलिओ । इण्हि जह न छलिज्जसि भुंजतो रागदो सेहिं ॥ १ ॥ ताळीस दोष गोचरीना छे. तेना संकटमां हे जीव ! तुं प्रथम ठगायो नथी, तेम हवे पण गोचरी करतां रागद्वेष वडे ठगातो नहीं! रागेण सगालं दोसेण सधूमगं वियाणाहि । रागद्दोसविमुको भुंजेज्जा निज्जरापेही ॥ २ ॥ रागथी अंगार दोष थाय छे, द्वेपवडे धूम्र दोष लागे छे, माटे रागद्वेषथी रहित बनी सकामनिर्जरानी इच्छा राखी गोचरी करजे! | अने जे आहार विगेरे खावामां के पीवामां बधारे होय ते न खवाय, अथवा अशुद्ध पृथक् कर अशक्य होय तो परठव जोइए, तेथी ते भिक्षु तेवा वघेला के अशुद्ध आहारने लेइने एकांतमां जाय, एकांतमां जइने ते आहारने परठवे, हवे ज्यां परठवे, 'बतावे छे ( अथनो अर्थ पछी छे, वा नो अर्थ अथवा छे ) [ झामेति ] वळेलुं स्थान, [ इंटना निभाडानी जग्या ] अथवा अस्थि अचित्त ठीयाना ढगलामां कीट, ( लोढानो काट )ना ढगलामां, अथवा तुपना ढगलामां सूकां अडायां के तेवा कोइपण ढगलामां For Private and Personal Use Only सूत्रम् ||८६५|| Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 3. पूर्वे बतावेल फासु जग्यामां जइने त्यां वारंवार आंखे जोईने रजोहरण विगेरेथी पुंजीपुंजीने परठवे. प्रत्युपेक्षण अने प्रमार्जनने आचा० | आश्रयी भांगा थाय छे. लसूत्रम् (१) अप्रत्युपेक्षित अप्रमार्जित, (२) अप्रत्युपेक्षित प्रमार्जित (३) प्रत्युपेक्षित अप्रमार्जित. तेमां पण देख्या विना प्रमार्जन करतो ॥८६६॥ 15| एक स्थानथी बीजा स्थाने जतां त्रस जीवोने विराधे छे. अने देखीने पूज्या विना आवता पृथ्वीकाय विगेरेने विराधे छे, बाकीनार ॥८६६॥ चार भांगा नीचे मुजब छे. (४) खराब रीते देखेखें अने पुंजेलु [५] खराब रीते देखेलुं बरोबर पुजेल (६) सारी रीते देखेखें खराब रीते पुजेलं (७) सारी रीते देखेखें. सारी रीते पुजेलु. तेथी आ सातमा भांगामां बतावेलो रीतिए स्थंडिल जोइने उत्तम साधु उपयोग राखीनेज | शुद्ध अशुद्ध पुंजना भागो परिकल्पीने त्यजे [परठवे] हवे औषधिनी विधि कहे छे. से भिक्खू वा भिक्खूणी वा गाहावइ० जाव पवि? समाणे से जाओ पुण आसहीओ जाणिज्जा-कसिणाओ सासियाओ अविदलकडाओ अतिरिच्छच्छिन्नाभो अवुच्छिण्णाओ तरुणियं वा छिवाडि अणभिततभन्जियं पेहाए अफामुयं अणेसणिज्जति मन्त्रमाणे लाभे संते नो पडिग्गाहिज्जा ॥ से मिक्खू वा. जाव पविढे समाणे से जाओ पुण ओसहीओ जाणिज्जा-अकसिणाओ असासियाओ विदलकडाओ तिरिच्छच्छिन्नाओ खुच्छिन्नाओ तरुणियं वा छिवाडि अभिकंतं भज्जियं पेहाए फामुयं एसणिजति मन्त्रमाणे लाभे संते पडिग्गाहिज्जा ।। (मू०२) For Private and Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir He आचा० ते भावभिक्ष गृहस्थना घरमां गयेलो होय, त्यां शालीवीज विगेरे औषधि होय तेने आ प्रमाणे जाणे के आ वधी हणायेली || सूत्रम् लानथी [सचित्त छे] आमां पण चोभंगी हे, तेमां द्रव्यकृत्स्ना ते अशस्त्र उपहत [शखथी हणायेली नथी,] भावकृत्स्ना ते सचित्त | ॥८६७॥ || छे. तेमां कृत्स्ना आ पदवडे चार भांगामांना पहेला त्रण लेवा, एटले द्रव्यथी तथा भावथी बन्ने प्रकारे अचित्त थयेली होय ते ||11८६७।। चोथो भांगो लेवो कल्पे. बाकीना त्रण भांगावाळी न कल्पे. . “सासियाओ" ति-जीवनुं स्वपणुं ते उपजवानुं स्थान प्रत्याश्रय जेमा छे, ते स्वाश्रय छे. अर्थात् अविनष्टयोनिवाळु अनाज छे, अने आगममां पण केटलीक औषधि (अनाज) नो अविनष्ट योनिकाल बताव्यो छे, ते आ प्रमाणे-"एतेसिणं भंते ! सालीणं | K के वइ कालं जोणी संचिटइ" ? एवा मूत्र पाठो छे, [गौतमस्वामी पूछे छे के हे भगवन् आ कमोदनी योनि केटलो काळ सचित्त || 6 (उपजवा योग्य) छे. विगेरे ['अविदल कडाओ' शि-ज्यांसुधी वे फाडचा उपरथी नीचे सुधी सरखां न कर्या होय अर्थात् दाळ न बनावी होय. [कठोळनी माये दाळ सर्वत्र बने छे] 'अतिरिच्छच्छिन्नाओ' ति-कंदली करेली न होय ते. ए द्रव्यथी कृत्स्न (आखी) हे अने भावथी सचित्त होय के न होय. ४ तेज प्रमाणे “अवोच्छिनाओ" ति-जीव रहित न थइ होय, ते अर्थात् भावथी कृत्त (आखी सचित्त) होय, तथा 'तरुणियं लवा छिवार्डि' त्ति-अपरिपक्व मग विगेरेनी शींग [फळी] तेनुन विशेष कहे छे. 'अणभिक्त भजिय' शि-जीवितथी अभिक्रान्त न होय अर्थात् सचिन होय तथा 'अभजिय' अमर्दित 'अविराधित' होय आ प्रमाणे आनो आहार खावायोग्य होय, पण ते अपा18सुक अथवा अने पणीय पोते देखीने सचिन जाणतो होय तो, गृहस्थ आपे तो पण पोते सचिनने ग्रहण करे नहि, हवे तेथी उलटुं 8 For Private and Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा ૮૬૮ सूत्र कहे छे. ते भावभिक्षु तेवी औषधिने असंपूर्ण टुकडा थएली अने अचित्त थयेली विनष्टयोनिवाळी दाळ बनावेली कंदली करेली त तथा फळी अचित्त थयेली अने भांगेली होय अने ते मासुक अने एषणीय (लेवायोग्य) होय अने गृहस्थ आपे तो कारण होय तो सूत्रम् | साधु तेने ले, लेवायोग्य अने न लेवा योग्यना अधिकारवाळा आहार विशेषज कहे छे: ॥८६८॥ से भिक्खू वा० जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा-पिढयं वा बहुरयं वा भुंजियं वा मधुं वा चाउलं वा चाउलपलंबं वा सइ संभजियं अफासुयं जाव नो पडिगाहिज्जा ॥ से भिक्खू वा० जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा-पिहुयं वा जाव चाउलपलंबं वा असई भज्जियं दुक्खुतो वा तिक्खुत्तो वा भज्जियं फासुर्य एसणिज जाव पडिगाहिज्जा [मृ० ३] ते भावभिक्षु गृहस्थने घेर गयेलो पृथुक शाली तथा वरीने शेकीने धाणी बनावे, तेमां तुष विगेरेनी बहु रज होय, तथा घन विगेरेने मुंजेला (अडधा शेकेला) होय एटले एक बाजुथी के छेडा तरफथी शेक्या होय, अथवा तल, घ विगेरे शेक्या होय || तथा घउं विगेरे चूर्ण बनावी शेकेल होय अथवा शालीव्रीहीना तांदळा, अथवा तेनीज कणकी (चाउल पलंब) होय आबु कोइपण जातनुं अनाज विगेरे एकवार थोडुं शेक्युं होय, थोडु बीजा शस्त्रबडे मरडेलु कुटेलुं होय पण ते जो अप्रामुक अने अनेषणीय पोते | | मानतो होय तो तेवू अन्न ले नहि एथी विपरीत होय तो ते लेबु एटले अग्नि विगेरेथी वारंवार शेक्यु होय, अथवा पूरेपुरुं कुटा | होय, अने अधकाचु विगेरे दोषवाळु नहोय; अने मामुक होय तेवी खात्री थाय तो लाभ थतां जरुर होय तो साधु ग्रहण करे. हवे गृहस्थना घरमा पेसवानी विधि कहेछे.से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं जाव पविसिउकामे नो अमउत्थिएण वा गारथिएण वा परिहारिभा For Private and Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandir आचा० सूत्रम् 11८६९॥ ॥८६९॥ 4%A4-%%-- वा अप्परिहारिएणं सदि गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसिज्ज वा निक्खमिज वा ।। से भिक्खू वा० वहिया वियारभूमि वा विहारभर्मि वा निक्खममाणे वा परिसमाणे वा नो अन्नउत्थिएण वा गारथिएण वा परिहारिओ वा अपरिहारिएण सद्धि बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खमिज वा पविसिज्ज वा ।। से भिक्खू वा० गामाणुगाम दूइजमाणे नो अन्नउथिएण वा जाव गामाणुगाम दूइजिज्जा (मू० ४) ते साधुए मृहस्थना घरमा प्रवेश करवो होय तो आटला माणसो साथे न जवू, अथवा पूर्व ते पेठो होय तो, तेनी साथे न नीकळवू. तेमनां नाम बतावे छे. (१) अन्य तीर्थिक ते लाल कपडा राखनारा बाबा विगेरे. गृहस्थो भीखना पिंड उपर जोवनारा में ब्राह्मण विगेरे. तेमनी साथे पेसतां नीचला दोपो थाय छे, जो पाछळ चाले तो तेओनी करेली इर्या प्रत्ययनो कर्मबंध लागे-जी वरक्षा न थाय, तथा नैनशासननी निंदा थाय, तथा तेओनी जातिमा अहंकार थाय के आवा साधुओ पण अमारी पाछळ चाले छे ! ते प्रमाणे कदाच साधु आगळ चाले तो तेओने द्वेष उत्पन्न थाय, अथवा देनार असरल स्वभावी होय तो तेने द्वेष याय, अने वस्तु वहेंचीने आपेतो खराब वखतमा पूरो आहार न मळतां जीवननिर्वाह न थइ शके, तेन प्रमाणे परिहरण ते परिहार , ते परिहार सहित चाले, ते 'पारिहारिक' एटले पिंडदोष त्यागवाथी उद्युक्तविहारी (उत्तम) साधु छे, तेवा उत्तम गुणवाळा साधुए पासत्या, अवसन्न कुशील, संसक्त, यथाछंद एवा पांच प्रकारना कुसाधु साथे गोचरी न जवू, तेमनी साथे जतां अनेषणीय गोचरी आवे, अग्रहण दोष लागे एटले जो पासत्यो 'अनेषणीय' ले, तेवू साधु पण ले, तो तेनी प्रवृत्तिती प्रशंसानो दोष लागे, अने जो न ले तो असंखड विगेरे दोषो थाय, ते, जाणीने गोचरी लेवा माटे गृहस्थना घरमां तेवा साथे पेसे नहीं, तेम नीकळे 04-2016 For Private and Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० ॥८७०॥ 4 पण नहीं, तेवीन रीते तेमनी साथे बीजे पण जवानो निषेध करे छे. एटले साधुने स्थंडिल (विचार) भूमिए जर्बु होय, अथवा | विहार (भणबा) ना स्थळे जq होय, तो अन्य तीथि विगेरे साथे दोषोनो संभव होवाथी न जवु, ते कहे छे स्थंडिल साथे जतार सूत्रम् प्रामुक जल स्वच्छ होय, अस्वच्छ होय, घणुं के थोडं होय, तो तेनाथी जग्या स्वच्छ करतां उपघातनो संभव धाय, अथवा जोडे ॥८७०॥ भणवा जतां सिद्धांतना आलावा गणतां ते पतित साधुने तेवू न रुचवाथी विकथा करी विघ्न करे, ते भय ढ़े अथवा सेह (नवा | शिष्य) आदिने असहिष्णुपणाथी क्लेशनो संभव थाय छे, माटे तेवा साथे साधुए तेवा स्थळमा जर्बु-आवg नहि, तेज प्रमाणे ते ४ | भिक्षुए एक गामथी बीजे गाम जतां के नगरथी बीजे नगर विगेरे स्थळे जतां उपर बतावेल अन्य तीथिओ विगेरे साथे दोषोनो संभव होवाथी जवं नहि-कारण के मात्रुस्थडिल विगेरे रोकवाथी रोग थतां आत्मविराधन थाय, अने मात्रस्थंडिल करवा जतां मासुक, अपामुक ग्रहण विगेरेमा उपघात अने संयमविराधनानो संभव छे, एज प्रमाणे भोजन [गोचरी] करतां पण दोषोनो संभव समजवो, सेहादि विमतारण (शिष्यने कुमार्गे दोरववा) विगेरेनो दोष पण थाय. हवे तेमना दाननो निषेध करे छे. से भिक्खू वा भिक्खूणी वा० जाव पविष्ठे समाणे नो अन्नउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा परिहारिओ वा अपरिहारियस्स असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दिज्जा वा अणुपइज्जा वा ।। [मू०५] ते साधु गृहस्थीना घरमा पेठेल होय, अथवा ते साधु उपाश्रयमांरहेल होय, तो ते साधुए अन्य तीथिओ विगेरेने दोषनो संभव होवाथी आहार पाणी विगेरे पोते आपq नहि, तेम गृहस्थ पासे पोते अपावनहि, जो आपतां देखे तो लोको एवं माने के आसाध | आवा अन्यदर्शनीओनी पण दाक्षिण्यतां (शरम) राखनारा छे. वळी तेमने टेको आपवाथी असंयममा प्रवर्तन विगेरेना दोषो थाय के. % %AE% % For Private and Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा । सूत्रम ॥८७१॥ पिंडना अधिकारथीन 'अनेषणीय' दोष संबंधी निषेध करवा कहे हे.. से भिक्खू वा. जाव समाणे असणं वा ४ अस्सिपडियाए एगं साहम्मियं समुहिस्स पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई समारब्भ समुहिस्स कीय पामिच्चं अच्छिज्ज अणिसह अभिहई आइटु चेएइ, तं तहप्पगारं असणं वा ४ Inc७१॥ पुरिसंतरकडं वा अपुरिसंतरकर्ड वा बहिया नीहडं वा अनीहडं वा अत्तहियं वा अणत्तहियं वा परिभुत्तं वा अपरिभुतं वा आसेवियं वा अणासेवियं वा अफासुयं जाव नो पडिग्गाहिज्जा एवं बहवे साहम्मिया एग साहम्मिणि बहवे साहम्मिणीओ समुद्दिस्स चत्तारि आलावगा भाणियव्वा ॥ (मु० ६) ते साधु गृहस्थने घेर गोचरी गयेलो होय ते नीचे बतावेला दोषोवाळ अशन विगेरे न ले, 'असंपडियाए' ति--जेनी पासे | प्रस्व (द्रव्य) नथी ते अस्व (निग्रंथ) छे, एवा निग्रंथने कोइ भद्रक गृहस्थ जोइने विचारे के आ निग्रंथ छे, माटे तेने माटे सचिन | * अनाज विगेरे आरंभ समारंभ करीने वहोरावीश, संरंभ, समारंभ ने आरंभर्नु स्वरूप आ प्रमाणे छे. संकप्पो संरंभो परियावकरो भवे समारंभो। आरंभो उद्दवओ सुद्धनयाणं तु सव्वेसि ॥१॥ __ संकल्प करवो ते संरंभ छे, परिताप करनारो समारंभ छे. अने उपद्रव करीने कराय ते वधा शुद्ध नयोमा आरंभ मुख्य छ,४ & आ प्रमाणे समारंभ विगेरेने आचरीने आधाकर्म [साधु माटे रसोई बनावे, एनाथी वधी अशुद्ध कोटी लीधी तथा क्रीत-ते मूल्य | आपीने लेवू; पामिच्च-ते उछीतुं लेQ, आछेद्य-ते बलजबरीथी छीनवी लेवू, अनिसृष्ट-ते तेना बधा मालीके मळीने न आपेलं | चोल्लक विगेरे छे, अभ्याहृत गृहस्थे दूरथी लावी आपेलं, आq वेचांतुं विगेरे लावीने आपे, आ वाक्यथी बधी विशुध्धकोटी For Private and Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लीधेली छे, ते आहार चारे प्रकारनो होय, ते आधाकर्म विगेरे दोषथी दोपित होय ते जो गृहस्थ आपे, ते बीजाए करेलु पोते | आचा० आपे, अथवा पोते जाते करीने आपे, तथा घरथी नीकळेलु, अथवा न नीकळ्यु होय अथवा ते दाताएज स्वीकार्यु होय, अथवा सूत्रम् न स्वीकार्य होय, अथवा ते दातार घणं खाध होय अथवा न खाधं होय अथवा थोई चारूयु होय अथवा न चाख्यु होय, आई IN ॥८७२॥ ॥८७२॥ | बधुं होय छतां जो ते अप्रामुक अनेषणीय पोताने मालुम पडे तो मळतुं होय छतां पण लेवू नहीं आ पहेला अने छेल्ला तीर्थकरना | साधुओने (अकल्पनीय) छे, पण २२ तीर्थकरोना साधुओने तो जेने उद्देशीने कर्यु होय तो तेने न कल्पे, बाकी बीजाने कल्पे, आ | प्रमाणे घणा साधुओने आश्री उद्देशीने बनावेलं होय तो ते लेवु कल्पे नहीं, तेज प्रमाणे साध्वीओने आश्रयीपण वे मृत्रनी एकल | बहुल योजना करवी. हवे वीजा प्रकारे अविशुद्ध कोटीने आश्रयी कहे छे. से भिक्खू वा० जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा असणं वा ४ बहवे समणा माहणा अतिहि किवणवणीमए पगणिय २ समुद्दिस्स पाणाई वा ४ समारम्भ जाव नो पडिग्गाहिज्जा ।। (मू०७) ते भावसाधु गृहस्थने घेर गोचरी गयेल होय त्यां एवू जाणे के आ घj भोजन विगेरे घणा श्रमणोने माटे बनाव्युं छे, ते लश्रमणो निग्रंथ, शाक्य, तापस, गैरिक, आजीविक ए पांच छे, तेमने माटे बनावेल होय, ब्राह्मण माटे अथवा भोजनना समय पहेला जे मुसइफर आवे ते अतिथि माटे अथवा कृपण (दरिद्री) माटे वणीमक [भाट विगेरे] माटे उद्देशीने बनावेलुं होय, एटले बेत्रण श्रमण पांच छ ब्राह्मण, एम संख्या गणोने सचित्त वस्तुना आरंभवडे अचित्त रसोइ बनावी होय तो ते भोजन संस्कारवाळु For Private and Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥८७३ ॥ www.kobatirth.org खाधेलं के खाधा पछी बचेलं अथवा अपामुक अनेषणीय आधाकर्मी भोजन मळतुं होय तोपण जाणीने ले नहीं. हवे विशोधि कोटी आश्रयी कहे छे. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir से भिक्खु वा भिक्खुणी वा० जाव पविट्टे समाणे से जं पुण जाणिज्जा - असणं वा ४ बहवे समणा माहणा अतिहिं वणवण समुद्दिस्स जाव चेएइ तं तहष्पगारं असणं वा ४ अपुरिसंतरकडं वा अबहियानीहडं अणतट्टियं अपरिभूत्तं अणासेवियं अफासूयं अणेसणिज्जं जाव नो पडिग्गाहिज्जा अह पुण एवं जाणिज्जा पुरिसंतरकर्ड बहियानीहर्ड अत्तट्ठियं परिभुत्तं आसेवियं फासूयं एसणिज्जं जाव पडिग्गाहिज्जा ॥ ( मू० ८) साधु भोजन विगेरे आवा प्रकारनं जाणे के घणा श्रमण ब्राह्मण अतिथि कृपण वणीमकने माटे उद्देशीने बनावेलं छे, अने कोइ गृहस्थ रसोइ तैयार थया पछी आपे छे, तेवुं भोजन तेज पुरुष त्यांज उभो रहीने पोताना कबजामा राखेलं, खाधाविनानुं, वापर्याविनानुं, अप्रामुक, अनेषणीय आपतो होय तो त्यां गयेला जैन साधुए तेनुं जाण्या पछी ते न लेबुं, ते "जावंतिया भिक्ख” सूत्रथी उलटं हवे कहे छे, (अथ शब्द पूर्वनी अपेक्षाए 'पण' ना अर्थमां छे, पुनःशब्द विशेषणना अर्थमां छे) पण ते भिक्षु एम जाणे के ते भोजन बोजा माटे करेलुं छे, बहार आवेलुं छे, तेणे पोतानुं करेलुं छे, तेणे खाधुं छे, वापर्यु छे, मामुक छे, एषणीय छे. आधुं जाणीने मळे तो ते भोजन साधुए लेबुं, तेनो भावार्थ आ छे, के अविशोधि कोटीवालुं भोजन जेम तेम कर्यु होय तो ते न कल्पे, पण विशोधि कोटीबाळं पुरुषान्तर करेलुं होय, अने तेणे पोतानुं करेलुं होय तो ते साधुने लें कल्पे छे, विशोधि कोटीनो अधिकार कहे छे. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ ८७३॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ८७४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सेभिक्खू वा भिक्खूणी वा गाहाबइकुलं पिंडवायपडियाए पविसिउकामे से जाई पुण कुलाई जाणिज्जा - इमेसु खलु कुले निइए पिंडे दिज्जइ अग्गपिंडे दिज्जर नियए भाए दिज्जई नियए अवड्ढभाए दिज्जइ. तहप्पगाराई कुलाई निइयाई निउमाणाई नो भत्ताप वा पाणाए वा पविसिज्ज वा निक्खमिज्ज वा । एवं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं जं सम्बद्वेहिं समिए सयाजए [मू० ९] तिमि ॥ पिण्डैपणाध्ययन आद्य देशकः ।। १-१-१॥ भिक्षुक गृहस्थीना घरमां जवानी इच्छावाळो आवां कुळा जाणे के, आ कुळोमां नित्य पिंड (पोप) अपाय छे, तथा अग्रपिंड कमोदनो भात विगेरे प्रथमथी भिक्षामा स्थापीने अपाय छे, ते अग्रपिंड नित्य भाग अर्धपोष अपाय छे, तथा पोषनो चोथो भाग अपाय छे, तेवा नित्य दानयुक्त कुल, नित्य दान देवाथी स्वपक्ष तथा परपक्षना साधुओं जाय छे. तेनो भावार्थ आ छे के, स्वपक्ष ते सयंत, परपक्ष वाकीना भिक्षुको ते वधा भिक्षामाटे जता होय, अने ते दानदेनारा एम समजे के घणा भिक्षुकोवे आपीए एथी घणो आरंभ करी तेओ छए कायनो आरंभ करे, अने थोडं रांधे तो बधाने अंतराय धाय माटे बधारे रांधे एवा स्थानमां उत्तम साधु गोचरी माटे के पाणी माटे त्यां न जाय, हवे बधानो उपसंहार करे छे. प्रथमथी छेवटी ते भिक्षुने समग्र जे उद्गम, उत्पादन ग्रहण एषणा संयोजना [ प्रमाणथी वधारे] अंगार धुमकारणोवडे समजीने सुपरिशुद्ध पिंड साधुओए लेवो, तेज ज्ञानाचार समग्रता दर्शन चारित्र तप अने वीर्याचार संपन्नता छे. अथवा आ सूत्रवडे समग्रता देखाडे छे, के जे सरस विरस विगेरे आहार मळे छे, तेनाथी अथवा रूप रस गंध स्पर्शवडे साधु समित छे. अर्थात् समभाव राखनार संयत छे, अथवा पांच समितिथी समित छे, शुभ अशुभमां रागद्वेष रहित छे, आवो साधु हित साधवाथी सहित For Private and Personal Use Only सूत्रम् 11862|| Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा सूत्रम् छ, अथवा ज्ञान दर्शन चारित्र सहित हे, आवो संयम युक्त साध यतना करे (संयम पाळे) आ प्रमाणे सुधर्मास्वामी जंबूस्वामनि & कहे छे के में भगवान पासे सांमब्यं ते तमने कहा, पोतानी मतिकल्पनाथी का नथी. बाकी बधुं पूर्वमाफक जाणवू. पिंटेपणा अध्ययननो पहेलो उद्देशो समाप्त थयो. ॥८७५॥ 1८७५॥ बोजो उद्देशो. पहेलो कहीने हवे बीजो उद्देशो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे. के प्रथम उद्देशामां पिंडर्नु स्वरुप बताधु, अने अहों पण ते संबंधी विशुद्धकोटिने आश्रयी कहे छे. से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं पिंटवायपडियाए अणुपबिहे समाणे से जं पुण जाणिज्जा-असणं वा ४ अट्टमिपोसहिएमु वा अद्धमासिएसु वा मासिएमु वा दोमासिएसु वा तेमासिएसु वा चाउम्मासिएसु वा पचमासिएसु वा छम्मसिएसु वा उऊसु वा उउसंधीसु वा उउपरियट्टमु वा बहवे समणमाहणअतिहिकिवणवणीमगे पगाो उक्खाओं परिएसिजमाणे पेडाए दोहिं उक्वाहि परिएसिज्जमाणे पेहाए तिहिं उक्खाहिं परिएसिज्जमाणे पेहाए कुंभीमुहाओ वा कलोवाइओ वा सनिहिसंनिचयाओ वा परिएसिज्जमाणे पेहाए तहप्पगारं असणं वा ४ अपुरिसंतरकर्ड जाव अणासेवियं अफासुयं जाव नो पडिग्गाहिज्जा । अह पुण एवं जाणिज्जा पुरिसंतरकर जाव आसेविर्य फामुयं पडिग्गाहिज्जा ।। (मु०१०) For Private and Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir __ते भावभिक्षु आवा प्रकारनं भोजन विगेरे जाणे के, आठमनो पोषध उपवास विगेरे ते अष्टमीपौषध ते जेमा होय ते अष्ट-12 आचा० मीपौषध उत्सव छे, तेज प्रमाणे पंदर दिवसे आवनारो ठेठ ऋतुना छेडे आवनारो, विगेरे महिने वे महिने त्रण महिने चार महिने ४ सूत्रम् । छ महिने रुतुमा रुतुसंधिमां अथवा रुतु बदलाता कोइपण निमित्चने उद्देशीने घणाश्रमण माहण अतिथि कृपणवनीमगोने एक पिठ॥८७६॥ ॥८७६॥ कारक (तपेलामां) थी भात विगेरे "परिएसिन्जमाण" आपेलाने खातां देखीने अथवा वेत्रण पिठरकथी अपातुं होय विगेरे जाणवं. र आ 'पिठरक' ते सांकडा मोढानी होय तो कुंभी (चरु) छे, अने 'कलोवाइ' पिच्छी पिटक (देघडो) छे, तेमांथी कोइपणमांथी | अपाय, अथवा संनिधि ते गोरस विगेरेनो संचय होय, तेमांथी अपातुं होय, ["तओ एवं विहं जावंतिय पिंड समणादणं परिएसि जमाणं पेहाए"] ति आवो पिंड अपातो जाणीने तेज पुरुष साधु विगेरेने उद्देशीने बनावीने आपतो होय तो अप्रामुक अनेषXणीय मानतो, मळतुं होय तो पण ते ले नहि, हवे अमुक विशेषणवाडं लेवा योग्य बतावे छे, एटले ते भिक्षु एबुं जाणे के पुरुषांतर थयुं छे. एटले बीजा गृहस्थने तेनी महेनत बदल अथवा बीजा कारणे मळ्यं होय | अने ते पोते तेमांथी पोतार्नु थया पछी वहोरावे, तो एषणीय प्रासुक जाणीने पोते ले. हवे जे कुळोमां गोचरी माटे जवु कल्पे तेनो अधिकार कहे छे से भिक्खू वा २ जाव समाणे से जाइं पुण कुलाई जाणिज्जा, तं जहा-उग्गकुलाणि वा भोगकुलाणि वा राइनकुलाणि वा खत्तियकुलाणि वा इक्खागकुलाणि वा हरिवंसकुलाणि वा एसियकुलाणि वा वेसियकुलाणि वा गंडागकुलाणि वा कोट्टागकुलाणि वा गामरक्खकुलाणि वा वुक्कासकुलाणि वा अन्नयरेसु वा तहप्पगारेसु कुलेम For Private and Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥८७७॥ xxx www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अदुगुछिए अगरहिए असणं वा ४ फासूय जाव पडिग्गाहिज्जा । (मृ० ११) ते भिक्षु गोचरी जवा चाहे तो आवां कुळो जाणीने तेमां प्रवेश करे, उग्रकुळ ते आरक्षिक [कोटवाळ काम ते वखते करनारा] भोगकुळ ते राजाने पूजवायोग्य होय, राजन्यकुळ ते राजाना मित्रतरीके हता, क्षत्रियकुळ राष्ट्रकुट विगेरेमां रहेनार, इक्ष्वाक ते ऋषभदेवना वंशमा जन्मेला, हरिवंश ते नेमिनाथना वंशना, 'एसिअ गोठ वैश्य (वणिज) गंडक ते नापित छे, जे गाममां उद्धोपणानुं काम करे छे, कोहाग (सुतार) बोकशालिय तंतुवाय (कपडां वणनारा) हदे क्यांसुधी कहेशे. ते खुलासा करे छे. के तेवां कुलोमा गोचरीज के ज्यां जवाथी लोकोमां निंदा न थाय, जुदा जुदा देशना दीक्षा लीवेला शिष्योने सहेलथी समजाय तेटला माटे तेवा कुळोनां विशेषणो कहे छे, के न निंदवायोग्य कुळमां गोचरी जाय, एटले चामडानुं काम करनार मोची, चामडीया दासदासी विगेरेना कुळमां गोचरी न जधुं, पण तेनाथी उलटां सारां धर्मी कुळोमां ज्यां गोचरी निर्दोष प्रासुक मळे ते ले. भिक्खू वा २ जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा असणं वा ४ समवासु वा पिंडनियरेसु वा इंदमहेसु वा खंदम वा एवं रुद्रमहेसु वा मुगुंदमहेसु वा भूयमहेसु वा जक्खमहेसु वा नागमहेसु वा धूभमहेसु वा चेइयमसु वा रुक्महे गिरिमहेसु वा दरिमहेसु वा अगडमहेसु वा तलागमहेसु वा दहमहेसु वा नइमहेसु वा सरमहेसु वा सागरमहेसु वा आगरमहेसु वा अन्नयरेसु वा तहष्पगारेसु विरूवरूवेसु महामहेसु वट्टमाणेसु बहवे समणमाहणअतिहिकवणवणीमगे एगाओ उक्खाओ परिए सिज्जमाणे पेहाए दोहिं जाव संनिहिसनिचयाओ वा परिएसिज्जमाणे पेहाए तहष्पगारं असणं वा ४ अवुरिसंतरकर्ड जाव नो पटिग्गाहिजा || अह पुण एवं जाणिजा For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ ८७७॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie * सूत्रम् दिन्नं जं तेसिं दायव्वं, अह तत्थ भुजमाणे पेहाए गाहावइभारियं वा गाहावइभगिणि वा गाहावइपुत्तं वा धुर्य आचा० बा सुहं वा धाई वा दासं वा दासिं वा कम्मकरं वा कम्मकरि वा से पुन्नामेव आलोइज्जा-आउसित्ति वा भगिणिति वा दाहिसि मे इत्तो अन्नयरं भोयण जायं, से सेवं वयंतस्स परो असणं वा ४ आहटु दलइज्जा ॥८७८॥ ઝા ૮૭૮ तहप्पगारं असणं वा ४ सयं वा पुण जा इज्जा परो वा से दिज्जा फामुयं जाव पडिग्गाहिजा ॥ (सू० १२) ते भिक्षु आ प्रमाणे बळी आहार विगेरे ४ प्रकारनो जाणे के आ बीजा पुरुषने अपायो नथी तो अनेषणीय अप्रामुक जाहैणीने पोते न ले, ते केवो आहार ते कहे छे. समवाय (मेळो) शंखच्छेदश्रेणी विगेरेनो पिंड निकर मरेलानी पाछळ पिंड अपाय छे. (गुजरातमा श्राद्ध कहेवाय छे) ते ४ तथा इंद्रउत्सव [प्रथम कार्तिकी पूर्णीमाए थतो] स्कंद ते कार्तिकस्वामीनो महोत्सव पूर्वे करातो रुद्र (महादेव) विगेरे जाणीता छे. | मुकुंद (वळदेव) एटले इन्द्र, स्कंद, रुद्र, मुकुंद, भूत, जक्ष, नाग, स्तुप, चैत्य, वृक्ष, गिरि, दरि, अगड, तलाग, द्रह, नदी, सरोवर, सागर, आगर अथवा तेवा कोइ देव विगेरेने उद्देशीने कोइ महोत्सव करे त्यां जे कोइ श्रमण ब्राह्मण अतिथि कृपण वणीमग विगेरे आवे तेने आपवा माटे भोजन बनावे, तेवू जो कोइ जैनसाधु जाणे के ते रसोइ बनावनारना कबजामां छे, तो ते अशुध्ध जाणीने न ले, जोके त्यां वधाने दान देवातुं न होय, तो पण त्यां घणा माणसो एकठो थयां होय, तेथी त्यां संखडी (रसोइखाना) आगळ आहार लेवा न जवू, तेज विशेषण सहित कहें छे वळी आवो आहार जाणे के जे श्रमण विगेरेने आपवर्नु होय तेने अपायुं छे, अने गृहस्थलोकोने त्यां खातां जुए, तो त्यां | For Private and Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ८७९ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जरुर होय तो आहार माटे जाय, ते गृहस्थोनां नाम कहे छे, जेमके गृहस्थोनी भार्या विगेरेने पूर्वे खातां जुए, अथवा मालिकने जुए, तो मालिकने उद्देशीने साधु बोले के हे आयुष्यमति ! हे वेन ! मने जे कंइ भोजन तैयार होय ते आप, आनुं साधु बोले छते कोइ गृहस्थ भोजन विगेरे लावीने आपे, अने त्यां घणो जनसमूह एकठो थवाथी अथवा तेवां वीजां कारण होय तो साधु पोतानी मेळे याचे, अथवा याच्याविना पण गृहस्थ आपे, अने ते मासुक एषणीय अन्न विगेरे जाणे तो साधु ले. हवे अन्य गामनी चिंता (विचार) ने आश्रयी कहे छे. सेभिक्खू वा २ परं अध्यजीयणमेराए संखडि नच्चा संखडिपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए । से भिक्खू वा २ पाईणं संखर्डिनच्चा पडीणं गच्छे अणाढायमाणे, पडीणं संखडि नच्चा पाईणं गच्छे अणाढायमाणे, दाहि संखडि नच्चा उदीर्णं गच्छे अणाढायमाणे, उईणं संखडि नच्चा दाहिणं गच्छे अणाढायमाणे, जत्थेव सा संखड सिया, जहा गासि वा नगरंसि वा खेडंसि वा कब्बडंसि वा मडवंसि वा पट्टणंसि वा आगरंसि वा दोणमुहंसि वा नेगमंसि वा आसमंसि वा संनिवेसंसि वा जाव रायहाणिसि वा संखटिं संखडिपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए, केवली वूया - आयाणमेयं संखार्ड संखडिपडियाए अभिघारेमाणे आहाकम्मियं वा उद्देसियं वा मीसजायं वा कयग वा पामिचं वा अच्छि वा अणिसिद्धं वा अभिहढंवा आहदु दिजमाणं भुंजिजा (मृ० १३) भिक्षु धाम वधारे अर्ध योजनसुधी क्षेत्रमां जमणनुं ज्यां रसोई होय, त्यां जवानो विचार करे नहि, पण पोताना गाममां अनुक्रपे गोचरी जतां तेनुं जमण होय ते जाणीने शुं करयुं ते कहे छे एटले पूर्वदिशामां जमण जाणे, तो तेथी उलटी For Private and Personal Use Only सूत्रम् 11209,11 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( पश्चिमदिशामां गोचरी जाय, अने पश्चिमदिशामां जमण होय तो पूर्व दिशामां गोचरी जाय, एम बीजी पण दिशामां जाणवू, एटले है आचा० जमणनी जग्याए जवानो अनादर करे. ज्यां जमण होय त्यां न जवू, हवे जमण क्या क्या होय ते कहे छे, गाम ज्यां इंद्रियोनी सूत्रम् पुष्टि थाय अथवा ज्यां करो लागु पडे ते हे, तेज प्रमाणे नगर, खेर कट मडंब पतन (पाटण) आकर द्रोणमुख नैगम आश्रम 1८८०G M८८०॥ 15 राज्यधानी संनिवेश [आ बधा शब्दोनो अर्थ आचारांगना अगाउना भागमा पा० अपायेल छे] आवा स्थानमा संखडि (जमण) जाणीने जवु नहि, केवळीप्रभु कहे छे के, ते जमण कर्मोना उपादाननुं स्थान छे, अथवा बीजी प्रतिपां आदानने बदले आयतन शब्द छे. तेनो अर्थ आ छे के संखडिमां जq ते दोषोनुं स्थान छे. प्र०-संखडीमा जq ते दोपोनें आयतन केवीरीते छे ? ते कहे छे “संखडि संखडि पडियाएति"-जे जे संखडिने उद्देशीने पोते जाय, तो ते जग्याए आमांना कोइपण दोष अवश्ये लागु पडे ते बतावे छे. आधाकर्म, औदेशिक, मिश्र, क्रीत, उद्यतक, आच्छेद्य, अनिसृष्ट, अभ्याहृत आमांथी कोइपण दोपथी दोषित पोते भोजन वापरे, कारण के जमणनो करनारो एवुन मनमां धारे के, आ आवनारो साधु मारा जमणने उद्देशीने आव्यो छे, माटे मारे कोइपण ब्हाने एने आपq एम विचारी आधाकर्म दोषवाळू ४ भोजन विगेरे वनावी आपे, अथवा जे साधु लोलुपी थइने जमणनी बुध्धिए त्यां जाय, ते मूढ बनीने आधाकर्म विगेरेनुं भोजन 21 वापरे. वळी संखडि निमिते आवेला साधुने उद्देशीने ग्रहस्थ वसति (उतरवानुं स्थान) आ प्रमाणे करे ते कहे छे. अस्संजए भिक्खुपडियाए खुड्डियदुवारियाओ महल्लिय दुवारियाओ कुज्जा, महल्लियदुवारियाओ खुडियदुवारियाभो कुज्जा, समाओ सिन्जाओ विसमाओ कुज्जा, विसमाओ सिज्जाओ समाओ कुजा, पवायाओ सिजो For Private and Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० निवायाओ कुज्जा, निवायाओ सिज्जाओ पवायाभो कुज्जा, अंतो वा बहि वा उवस्सयस्स हरियाणि छिदिय छिदिय सूत्रम् दाकिय दालिय संथारगं संथारिजा, एस विलुंगयाओ सिज्जाए, तम्हा से संजए नियंठे तहप्पगारं पुरेसंखडि ॥८८१॥ वा पच्छासंखडि वा संखडिं संखडिपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए, एवं खलु तस्स भिक्खुस्स जाव सया A८८१॥ जए (मू० १३) तिबेमि । पिण्डे पणाध्ययने द्वितीयः १-१-२ असंयत ते गृहस्थ छे, अने ते श्रावक अथवा प्रकृतिभद्रक अन्य दर्शनीय होय, ते साधुओने आवता जाणीने तेमने माटे | सांकडा दरवाजा जे घरने होय ते साधुनिमित्ते मोटा करावे, अथवा घणा मोटा होय ते जरूर जेटला सांकडा करावे, अथवा | सरखी जग्या होय ते स्वीओने आववाना भयथी विषम करावे, अथवा विषम होय ते साधुओना समाधान माटे सरखी बनावे छे, हा तथा घणी हवावाळी जग्याने शीयालो होय तो पवन न आवे तेवी बनाववा आरंभ करे. अने उनाळो होय अने पवन विनानी जग्या । होय तो हवावाळी चनाववा प्रयत्न करे, तथा उपाश्रयना चोकमां लीलु घास होय तो छेदी छेदी-उखेडी उखेडीने उपाश्रय रहेवायोग्य संस्कारवाळो बनावे, अथवा मुवानी जग्या संस्तारकने सुधारे. अने ते मनमा एत्रो उद्देश राखे के साधुनी शय्याना संस्कारमा आपणुं कर्तव्य छे. माटे आपणे करवु जोइए, कारण के तेओ निग्रंथ-अकिंचन छे, वळी गृहस्थ तेम न करे तो कारण आवे साधु पोते (निघृण थइने) करीले. तेटला माटे अनेक दोषयी दुष्ट एवं संखडि (जमण) जाणीने लग्न विगेरेनी प्रथम अने मरण पाछळनी A पछीनी संखडीमां जमणने उद्देशीने साधु न जाय, अथवा आगळ संखडि थवानी छे, माटे प्रथम साधु जाय, अथवा गृहस्थ जग्याने सुधारी राखे, अथवा संखडि पूरी थइ, माटे हवे वधेलु भोजन (मिष्टान्न) खाइशें एवी बुद्धिथी पछीथी साधुभो जाय, DECECE%%ACC For Private and Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir माटे साधुए तेवी संखडिना जमणने उद्देशीने तेवा स्थानमा विहार नकरवो, आज साधुनी संपूर्ण संयमशुध्धि छे, के संखडिमां | है सर्वथा जवान मांडीवाळवं. सूत्रम् ૮૮૨ાા त्रीजो उद्वेशो. ॥८८२॥ बीजो उद्देशो कहीने त्रीजो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे, गया उद्देशामां बताव्युं छे के संखडिमां दोषो जाणीने त्यां४ जवानो निषेध कर्यो, हवे बीजे प्रकारे तेमा रहेला दोषोने बतावे छे. से एगइओ अन्नयरं संखडि आसित्ता पबित्ता छड्डिज वा वमिज्ज वा भुत्ते वा से नो सम्मं परिणमिजा अन्नयरे वा से दुक्खे रोगायके समुप्पजिज्जा केवली बूया आयाणमेयं ॥ (मू० १४) इह खलु भिक्खू गाहावई हिं वा गाहावईणीहिं वा परिवायएहिं वा परिवाईयाहिं वा एगज सधि सुंडं पाउं भो वइमिस्सं हुरत्था वा उपस्सयं पडिले हेमाणो नो लभिज्जा तमेव उवस्मयं संमिस्सीभावमावजिज्जा, अन्नमाणे वा से मत्ते विपरियासियभूए इत्थिविग्गहे वा किलीचे वा तं भिक्खुं उपसंकमित्तु बृया-आउसंतो समण ! अहे आरामंसि वा अहे उवस्सयसि वा राओ वा वियाले वा गामधम्मनियंतियं कटु रहस्सियं मेहुणधम्मपरियारणाए आउट्टामो, तं चेचेगईओ सातिजिजा-अकरणिज चेयं संखाए गए आयाणा [आयतणाणि] संति संविज्जमाणा पच्चवाया भवंति, तम्हा से संजए नियंठे तहप्पगारं पुरेसंखडि वा पच्छासंखडि वा संखडि संखडिपडियाए नो अभिसंधारिज्जा गमणाए (मु०१५) For Private and Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् 11८३॥ आचा० ते भिक्षु कोइ वखत एक चर (एकलो फरनारो) होय, अने ते आगळ-पाछळ संखडिन भोजन खाइने तथा शीखंड के | दूध विगेरे अति लोलुपीपणाथी रसनो स्वादीयो बनीने घणुं खाय, तो विशेष झाडा थाय, अथवा वमन थाय, अथवा अजीरणथी ॥८॥ कोढ विगेरे कोइ रोग थाय, अथवा तुर्त जीव लेनारो आतंक शूळ विगेरे रोग थाय, माटे केवळी सर्वज्ञप्रभु कहे छे के ते संखडिनुं जमण कर्मोनु उपादान हे, ते आदान केवी रीते थाय छे, ते बतावे छे. आ संखडिना स्थानमा आ अपायो (पीडाओ) थाय छे, अथवा जीभनो स्वाद करी इंद्रियो उन्मत्त थतां दुर्गति गमन विगेरे परलोकना अपायो छे, [ खलु शब्द वाक्यनी शोभा माटे छे] ते भिक्षु गृहस्थ अथवा तेना घरनी स्वीओ साथे अथवा परिव्राजक (बाबा) साथे अथवा बावीओ साथे कोइ दिवस एक वाक्य पा(एक चित्त थवा) थी प्रेमी बनीने तेभोनी साथे ते साधु लोलुपपणे कोइ पण जातवें नसो चडावनारुं पीj पण पीए, अने नसो चडतां रहेवानें स्थान याचे, पण जो तेवो शीलरक्षणनो उपाश्रय न मळे तो ते संखडि नजीकनाज मकान (धर्मशाळा विगेरे) मां गृहस्थ अथवा बावी विगेरे ज्या उतर्या होय तेमनी साथे उतरीने एकमेकपणे वर्ते, त्यां नसो चडेलो होवाथी कांतो गृहस्थ पो| ताने भूली जाय अथवा साधु पोताने साधुपणाथी भूले, अने तेथी आq चिंतवे, के हुँ गृहस्थज छु ! अथवा (इंद्रियो पुष्ट थयेल होवाथी) स्वीना शरीरमां मोहित थयेलो अथवा नपुंसक साथे कुचालथी साधुपणुं गुमावे, अथवा तेने उन्मच जोइ कोइ रखडती | स्त्री अथवा नपुंसक तेनी पासे आवीने बोले के हे आयुष्मन् ! हे श्रमण ! हुं तारीसाथे एकांतमां मळवा इच्छं छु, आराममा अAथवा उपाश्रयमा रात्रे अथवा संध्याकाळे ते साधुने इन्द्रियोथी परवश बनेलाने कहे के तमारे त्यां आववू, अने तमारे अमारी | इच्छाथी विपरीत न करवं, पण मारी साथे तमारे हमेशां अमुक स्थळमा आवद्, आ प्रमाणे परवश बनावीने गामनी सीत्रमा अथवा | For Private and Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥८८४॥ ४ कोइ एकांत स्थळमा जइने स्त्रीसंग अथवा कुचेष्टानी विज्ञप्ति करे, अने दुराचारथी भ्रष्ट थवा वखत आवे, माटे संखडिमां जवु अ-131 आचा० M योग्य छे, एम मानीने संखडि (जमण) मां जवु नहि, कारण के आ जमणो कर्मोपादननां कारणो ठे, तेमां कर्म दरेक क्षणे एकठां सूत्रम् | थाय छे, एटले त्यां जवाथी बीनां पण अशुभ कर्मबंधनां कारणो मळी आवे छे, उपर बतावेला त्यां आलोक संबंधी रोगना दुरा॥८८४॥ || चारना अपायो छे. तेमज परलोक संबंधी दुर्गतिगमनना प्रत्यवायो छे, माटे संखडीने उद्देशीने त्यां पहेलां के पछी साधुए जवू नहीं. से भिक्खू वा २ अन्नयरिं संखडि सुच्चा निसम्म संपहावइ उस्सुयभूएण अप्पाणेणं, धुवा संखडी, नो संचाएइतत्थ इयरेयरेहि कुलेहिं सामुदाणियं एसियं वेसियं पिंडवायं पडिग्गाहिला आहारं आहारिचए, माइट्टाणं संफासे, नो एवं करिज्जा ।। से तत्थ कालेण अणुपविसिला तत्थियरेयरेहिं कुलेहिं सामुदाणियं एसियं वेसियं पिंडवायं पडिगाहिशा आहारं आहारिज्जा ।। [मू० १६] ते भिक्ष आगळ-पाछळनी कोइपण 'संखडी' बीजा पासे के जाते सांभळीने निश्चय करे के त्यो अवश्ये जमण छे, तो त्यां उत्सुकपणाथी अवश्य दोडे के मने अद्भूत भोजन मळशे. तो त्यां गया पछी जुदा जुदा घरोथी समुदायनी एपणीय गोचरी आ धाकर्मादि दोष रहित फक्त रजोहरण विगेरेना वेपथी मळे ते उत्पादन दोष रहित लेवी, ते तेनाथी बनी शके नहि, अने कपट लापण करे, प०-केवी रीते ? पोते गुरु पासेथी प्रतिज्ञा' करीने जाय, के जुदा जुदा घेरेथी गोचरी लइश, पण उपर बतावेली रीते तेम लेवा शक्तिवान न थाय. अने संखडिमांज जाय. माटे आलोक परलोकना अपायोना भयने जाणीने संखडि तरफ न जाय. केवी रीते करे. ते कहे छे. ते भिक्षु कारण विशेषे त्यां जाय तो पण योग्य समये जुदा जुदा घरोमा जइने सामुदायिक %AA%D9 % For Private and Personal use only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Re-%E3 सूत्रम् 11८८५॥ % आचा० आहार-पाणी पामुक वेपमाथी मळे ते भात्रीपिंड विगेरे दोपथी रहित लइने आहार करे. से भिक्खू वा २ से जं पुण जाणिज्जा गार्म वा जाव रायहाणि वा इमंसि खलु गामंसि वा जाव रोयहाणिसि ॥८८५॥ वा खडी सिया तपि य गाम वा जाव रायहाणि वा संखडि संखडि पडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए । केवली व्या आयाणमेयं अन्नाऽवमा णं संखडिं अणुपविस्समाणस्स-पाएण वा वाए अकंतपुटवे भवइ, हत्थेण वा हत्थे संचालियपुग्वे भवेइ, पाएण वा पाए आवडियपुब्वे भवड, सीसेण वा सीसे संघट्टियपुग्ने भवइ, कारण वा काए संखोभियपुग्वे भवइ, दंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेलुणा वा कवालेण वा अभिहयपुवेण वा भवइ, सीओदएण वा उस्सित्तपुब्वे भवइ, रयसा वा परिघासियपुव्वे भवइ, अणेसणिज्जे वा परिभुत्तपुव्वे भवइ, अन्नेसि वा दिजमाणे पडिग्गाहियपुब्वे भवइ, तम्हा से संजए नियंठे तहप्पगारं आइन्नावमाणं संखडि संखडिपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए ।। (मू० १७) वळी ते भिक्षु जो आ प्रमाणे जाणे के गाममा, नगरमा अथवा राजधानीमा कोइपण स्थळे संखडि (जमण) थवानी छे त्यां ४ चरक विगेरे अनेक भिक्षाचरो, हशे. त्यां जमणनी बुद्धिए साधु विहार न करे. त्यां जवाथी थता दोषोने मूत्रवडे कहे छे, के केवळी (सर्वज्ञ) प्रभु तेने कर्म उपादान छे. एज बतावे छे. ते संखडि चरक विगेरेथी व्याप्त हशे. एटले १०० नी रसोइ होय त्यां पांचसो भेगा थशे. त्यां थोडी रसोइने लीधे आवा दोषो थाय छे. धक्काधकीमा एकना पग बीजाने लागशे. हाथथी हाथ अथडाशे. पात्रां साथे पात्रां अथडाशे. अथवा माथासाथे माथु भटकाशे. साधुनी काय साथे चरक विगेरेनी काया अथडाशे. ते वखते धको लागतां 83733 For Private and Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्रम | ते बायो कोपायमान थतां झगडो करशे. पछी ते रीसमा आवीने दंड (लाकडी) थी केरीना गोटला विगेरेथी मुकाथी माटीना ढेफाथी आचा०, कपाल [घडाना ठीकरा] थी साधुने घायल करशे, अथवा ठंडा पाणीथी सिंचशे, धूळथी कपडां बगाडशे, आ दोषो तो जगाना संकोचने लीधे थाय छे, पण ओछी रसोइने लीधे आवा दोषो थाय छे. अशुद्ध आहार खावानो वखत आवशे, कारण के थोडं 11८८६॥ ४ रांधेलं अने भिक्षु वधारे होय छे, त्यारे घरधणी एम समजे के मारं नाम सांभळीने आ लोको आव्या छे, माटे मारे कोइपण रीते लपण तेमने आप, जोइए, ए, विचारीने साधुने रांधीने पण आपशे, तेथी दोषित आहार खावानो प्रसंग आवे, अथवा कोइ वखत दानदेनारने बीजा बावा विगेरेने आपवानी इच्छा होय अने वचमां साधु आवीने ले, तेथी घरधणीने तथा बावा विगेरेने खोटुं लागे, माटे आवा दोषोने जाणीने उत्तम साधुए आवी संखडिमां घणा लोको भरायेला होय, त्यां भोजननी तंगीने लीधे अथवा | धक्कामुकीना कारणे संखडिनी बुद्धिए त्यां जवु नहि, हवे सामान्यथी पिंडनी शंकाने आश्रयी कहे छे. से भिक्खू वा २ जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा असणं वा ४ एसणिज्जे सिया अणेसणिजे सिया वितिगिंछसमावन्नेण अप्पाणेण असमाहडाए लेसाए तहण्पगारं असणं वा ४ लाभे संते नो पडिगाहिजा ॥ (मू० १८] ते भिक्षु गृहस्थना घरमा गये लो एपणीय आहरने पण शंकावाळू जाणे, के आ उद्गमादि दोषोथी दुष्ट छे. तो साधए तेवी | शंका थया पछी तेवू लेवू नहि, कारण के "जं संके तं समावजे," ज्यां शंका थाय त्यां ते भोजन लेवू नहि, (आ मुत्रमा एपणीय अथवा अनेषणीय चार प्रकारनो आहार होय, पण पोताने केटलांक कारणोथी मालुम पडे के ते उद्गम दोष विगेरेथी युक्त छे. आवी ज्यां पोतानी लेश्या थइ तो उत्तम साधुए ते लेवु नहि.) हवे गच्छमांथी नीळेकला साधुओने आश्रयी मूत्र कहे छे. For Private and Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir से भिक्खु० गाहावइकुलं पविसिउकामे सव्वं भंडगमायाए गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसिज्ज वा निक्खआचा० मिज वा ॥ से भिक्खू वा २ बहिया विहारभूमि वा वियारभूमि वा निक्खममाणे वा पविसमाणे वा सव्वं भंड सूत्रम् ॥८८७॥ गमायाए बहिया विहारभूमि वा वियारभूमि वा निक्खमिज वा पविसिज्ज वा ।। से भिक्खू वा २ गामाणुगाम *॥८८७॥ दृइज्जमाणे सव्वं भंडगमायाए गामाणुगाम दुइजिज्जा ॥ (मू०१९) ते भिक्षु गच्छमांथी जिनकल्पी विगेरे मुनि नीकळ्यो होय, ते गृहस्थने घेर गोचरी लेवा जाय, तो पोतानां बधां धर्मोपकरण साथे लइने गृहस्थना घरमां पेप्से, अथवा नीकळे, तेवा मुनीनां उपकरण अनेक प्रकारे छे. ___“दुगतीग चउक्क पंचग नव दस एकारसेव बारसह" इत्यादि-ते जिनकल्पी वे प्रकारना छे, हाथमाथी पाणी टपके तेवा, | है तथा जे लब्धिवाळा होय तेने पाणीनं विंदु टपके नहि, तेवा मुनिने शक्ति अनुसार विशेष अभिग्रह होवाथी फक्त बेज उपकरण रजोहरण अने मुखवत्रिका छे, अने कोइने शरीरना रक्षग माटे एक मूत्रनुं कपडं होवाथी त्रण उपकरण थया, पण तेवा साधुने वधारे 18 ठंडीना कारणे उनर्नु वस्त्र वधारे राखवाथी चार उपकरण थयां, तेथी पण ठंडी न सहन थाय तो बे मूत्रनां वख राखवाथी पांच थयां. पण लब्धिविनाना जिनकल्पीने सात प्रकारनां पात्रानो निर्योग धवाथो १२ उपकरण थाय छे. "१ पत्तं २ पत्ताबंधो ३ पायहवणं च ४ पायकेसरिया ॥ ५ पडलाइ ६ रयत्ताणं ७ च गोच्छो पायनिज्जोगो ॥१॥" १पात्र २ पात्रानो बंध ३ पात्रस्थापन ४ पात्र केसरिका (पुंजणी) ५पडला ६ रजत्राण ७ गोच्छो. उपरनां पांच तेमां मळतां 3 बार उपकरण वधारेमा वधारे जिनकल्पीने होय, ते गोचरीमा जाय, त्यारे साथे लेइ जाय तेम बीजे स्थळे पण जतां साथे लेइ जाय, For Private and Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० सूत्रम् ॥८८८॥ ૮૮૮ાા ते कहे छे, एटले गाम विगेरेनी बहार स्वाध्याय करवा अथवा स्थडील जवा जाय तो पण बधां उपकरण लेइ जाय, आ बीजुं सूत्र छे, तेज प्रमाणे बोजे गाम जाय तो पण लेइने जाय, ए त्रीजु मृत्र छे. हवे गमनना अभावना निमिन कहे छे. से भिक्खू० अह पुण एवं जाणिज्जा-तिव्वदेसियं वासं वासेमाणं पेहाए तिब्बदेसियं महियं संनिचलमाणं पेहाए महवाएण वा रयं समुध्धुयं पेहाए तिरिच्छसंपाइमा वा तसा पाणा संथडा संनिचयमाणा पेहाए से एवं नच्चा नो सय भंडगमायाए गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए परिसिज वा निक्खमिज वा बहिया विहारभूमि वा वियारभूमि वा निक्खमिज वा पविसिज्ज वा गामाणुगामं दृइजिज्जा ॥ (मू०२०) ते भिक्षु कदी आ जाणे के अहीं लंबाण क्षेत्रमा झाकळ पडे छे, अथवा धुमस पडे छे, अथवा वंटोळीयो वाइने धुळ घणी उडे छे, अथवा तीरछां-पतंगीयां विगेरे झीणां जंतुओ उडीने शरीर साथे आयडे छे, तो ते साधु पूर्वं त्रण मृत्रमा बतावेल उपधि लइने जाय आवे नहि, तेनो परमार्थ आ छे, के जिनकल्पीनो आ कल्प छे के ज्यारे बहार नीकळे त्यारे प्रथम उपयोग दे के वर्षाद झाकळ के धुमस वरसे छे के वरसवानो छे ? जो प्रथम जाणे तो न नीकळे. कारण के तेनी शक्ति एवी छे के छमास मुधी पण उल्लोमा (झाडो पेशाब) रोकी शके, अने स्थविरकल्पी पण उपयोग दे, अने जाण्या पछी कारण होय तो नीकळे खरो. पण पोतानी बधो उपधि लेइने न नीकळे, प्रथम बताबी गया के अधम कुलोमां गोचरी विगेरे माटे जर्बु आवq नहि. पण हवे अनिंदनीक कुलोमां . पण दोषोना देखवाथी त्यां जवानो निषेध छे, ते बतावे छे. से भिक्खू वा २ से जाई पुण कुलाई जाणिज्जा तंजहाखत्तियाण वा राईण वा कुराईण वा रायपेसियाण वा राय For Private and Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वंसट्टियाण वा अंतो वा बाहिं वा गच्छंताण वा संनिविट्ठाण वा निमंतेमाणाण वा अनिमंतेमाणाण वा असणं आचा वा ४ लाभे संते नो पडिगाहिज्जा (मू० २१) ॥ १-१-३ ॥ पिण्डैषणायां तृतीय उद्देशकः ॥ सूत्रम् ૮૮૧ ते भिक्षु एवां कुलो जाणे के, चक्रवर्ती, वासुदेव, बळदेव विगेरे क्षत्रियोनां आ छे, अथवा क्षत्रियोथी अन्य राजाओनां कुळो । HAIN८८९॥ | छे, कुराज ते नानां रजवाडा (नाना ठाकरडा विगेरे) ना कुळो छ, राजना प्रेष्य ते दंडपाशिक [हवालदार फोजदार ना कुळो तथा राजवंशमा रहेला ते राजाना मामा तथा भाणेजो निगेरेनां कुळोमां संतापना भयथी पेसवु नहि, त्यां जतां आवतां अंदर रहेला माणसोथी अथवा बहार रहेला माणसोथी अथवा जता आवता माणसोथी साधुओने नुकशान थाय, माटे कोइ गोचरीनुं निमंत्रण 18/ करे, अथवा भोजन मळतुं होय तोपण त्यां गोचरी लेवा जवू नहि. त्रीजो उद्देशो समाप्त थयो. चोथो उद्देशो. बीजो कहीने चोथो उद्देशो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे. गया उद्देशामा संखडी संबंधी विधि कही, अहीं पण तेनी बाकीनी विधि कहे छे. से भिक्खू वा० जाव समाणे से जं पुण जाणेज्जा मंसाइयं वा मच्छाइयं वा मंसखलं वा आहेणं वा पहेणं वा हिंगोलं वा समेलं वा हीरमाणं पेहाए अंतरा से मग्गा बहुपाणा बहुबीया बहुहरिया बहुओसा बहुउदया बहुउध्या बहुउलिंगपणगदगमट्टीयमकडासंतयाणा बहवे तत्य समणमाहणअतिहिकिवणवणीमगा उवागया उवागमिस्संति ( उवाग For Private and Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥८९०॥ www.kobatirth.org च्छति ) तत्थाना वित्ती नो पन्नस्स निक्खमणपवेसाए नो पन्नस्स वायणपुच्छणपरियहणाणु हम्माणुओगचिंताए, से एवं नचा तहपगारं पुरेसंखर्डि वा पच्छासंखडि वा संखार्ड संखडिपडिआए नो अभिसंधारिजा गमte || से भिक्खू वा० से जं पुण जाणिज्जा मंसाइयं वा मच्छाइयं वा जाव हीरमाणं वा पेहाए अंतरा से मग्गा अष्मा पाणा जाव संताणगा नो जत्थ बहवे समण० जाव उवागमिस्संति अप्पाइन्ना वित्ती पनस्स निक्ख पसाए; पन्नस्स वायण पुच्छण परियट्टा । णुध्येहधम्माणुओगचिंताए, सेवं नचा तहप्पगारं पुरेसंखर्डि वा० अभिसंरिज गमणाए || ( मू० २२ ) ते साधु कोइ गाम विगेरेमा भिक्षा माटे गयो होय, त्यां संखडि आवा प्रकारनी जाणेतो त्यां गोचरी जनुं नहि, जेमां मांस विगेरे प्रधान छे. मांसना वादुओ माटे मुख्य तेज वस्तु होय, एटले प्रथम तेने वधारे रांधे. अथवा बोजी रसोइ पूरी थया पछी | ते तेना स्वादुओ माटे रांधे, त्यां कोइ सगो विगेरे तेयुं अभक्ष्य भोजन घेर लइ जाय, तेनुं देखीने त्यां साधु जाय नहिं तेना दोषो हवे पछी कहेशे, तेज प्रमाणे माछलांथी वधारे प्रधान होय, तेज प्रमाणे मांसखल आश्रयी पण जाणवुं. ज्यां संखडि माटे मांस छेदीने तेने सुकावे, अथवा सुकवेलं, ढगलो करेलु होय, तेज प्रमाणे माछलासंबंधी पण जाणवुं अथवा विवाह पछी वहु घेर आवतां वरना घरे भोजन थाय छे, अथवा बहुने लइ जतां सासरे भोजन थाय छे, हिंगोल, ते मरेलानुं भोजन छे, अथवा यक्षनी यात्रा विगेरे माटे भोजन छे, 'संमेल' ते परिवारना सन्माननुं भोजन, अथवा गोठीयाओनुं भोजन, आवुं कोइपण प्रकारनुं जमण जाणीने त्यां कोइ सगां-बहालांथी ते निमित्ते कंपण लइ जवातुं देखीने त्यां भिक्षामाटे जनुं नहि, त्यां जवाथी थता दोषोने बतावे For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥८९०॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥८९१॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छे, त्यां रस्तामाँ जतां बहु पतंग विगेरे माणीओ होय छे, तथा बहु बीज, बहू हरित, बहु अवश्याय घणुं पाणी बहु उलिंग पनक भींजवेली माटी करोळीयानां जाळां होय छे, तथा त्यां जमण जाणीने घणा श्रमण ब्राह्मण अतिथि कृमण वणीमग आव्या, आवशे अने आवे छे, ते चरक विगेरेथी व्याप्त होय छे, तेथी बुद्धिमान साधुने त्यां जनुं आवकुं कल्पे नहि, तेम त्यां जनारने गीतवाजना संभवथी भणवं भणाव अर्थचिंतयन त्रिगेरे थइ शके नहि, तेथी ते साधुने आवतां जतां घणो काळ लागे, तेथी बहु दोषवाळी संखडिमां ज्यां मांस विगेरे मुख्य छे, तेवा प्रथमना जमणमां के पाछळना जमणमां तेने उद्देशीने साधुए जनुं नहि, हवे अपवाद मार्ग कहे छे. भिक्षु मार्गमां विहार करतां दुर्बळ धाय, मंदवाडमांथी उठ्यो होय, तपचरणथी दुर्बळ थयो होय, अथवा बीजे कर आहार मळे तेनुं स्थान न होय, अथवा त्यांज दवानी चीज मळे तेम होय, तो तेवा जमणमां कारण प्रसंगे जनुं पडे तो जे रस्ते सूक्ष्म जीवो घास बीज के वचमां कांइ न पड्युं होय, तो ते रस्ते मांस विगेरेना दोषो दूर करवा समर्थ होय तो कारणे जाय, अने | पोताने खपनी भक्ष्य वस्तु लइ आवे. (जैनोमां दश विकृति विगह छे. घी, दूध, दहीं, तेल, गोळ, कडाइ एटले एकलं घी, के दूध, दहीं, तेल, गोळ अने कडाइमां घी, तेल पुष्कळ नांखीने तळेल होय ते कडाइ विगय कहेवाय, आ पदार्थों जरूर पडे तो लेवाय छे, पण मांस मदिरा मांखण अने माखी वीगेरेनुं मध. ए अभक्ष्य छे, कारणके तेमां जीवोनी उत्पत्ति छे। अने ते खानारने इंद्रियो | दमन करवी तथा सुबुद्धि राखवी दुर्लभ छे, माटे जैन साधु के श्रावकने वर्जवा योग्य छे, माटे बने त्यांसुधी तेवा रस्ते पण जवानो निषेध छे, वखते खराब वस्तुनी दुर्गंधी आवे तो पण बुद्धि भ्रष्ट थाय छे. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥८९१ ॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SOCIENCE सूत्रम् ८९२॥ चालता पिंडना अधिकारमा भिक्षा संबंधि खुलासावार कहे छे, आचा से भिक्खूबा २ जाव पविसिउकामे से जं पुण जाणिज्जा खीरिणियाओ गावीओ खीरिजमाणीओ पेहाए असणं वा ४ उपसंखडिज्जमाण पेहाए पुरा अप्पजूहिए सेवं नच्चानो गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए निक्खमिज्ज ॥८९२॥ वा पविसिज्ज वा ॥ से तमादाय एगंतमवकभिज्जा अणावायमसलोए चिहिज्जा, अह पुण एवं जाणिज्जाखीरिणियाओ गावीओ खीरियाओपेहाए असणं वा ४ उवक्खडियं पेहाए पुराए जूहिए सेवं नचा तो संजयामेव गाहा० निक्खमिज्ज वा ॥ (मू० २३) ते भिक्षु गृहस्थना घरमा पेसतो आ प्रमाणे जाणे के अहीं तुर्तनी प्रसुतिवाळी गायो दोहवाय छे, तो त्यां गायो । दोहवाती देखीने चारे प्रकारनो आहार रंधातो' जोइने अथवा भात विगेरे रांधेलो तैयार देखीने पण प्रथम बीजाने न आपेलो होय तो पण पवर्तमान अधिकरणनी अपेक्षावाळो प्रकृतिभद्रक विगेरे कोइ गृहस्थ साधुने देखीने श्रद्धावाळो बनीने धणुं दुध | तेमने आ, आवी बुद्धिथी बाछडाने पीडा करे, दोहवाती गायोने त्रास पमाडे, ते कारणथी साधुने परपीडाना कारणे संयम | द तथा आत्मानी विराधना थाय, अने अडघा रंधायेल भात विगेरेने जलदी रांधवा माटे प्रयत्न करे तेथी पण संयम विराधना छे. | माटे तेवू जाणीने साधु गोचरी माटे त्यां न जाय, न नीकळे तेवा स्थळे शें करवु ते कहे छे, ते भिक्षु ते गायनु दोहवू, विगेरे जाणीने एक बाजुए ज्यां गृहस्थ न आवे, न देखे त्यां उभो रहे, त्यां उभा रहेतां आ प्रमाणे * | पछी जाणे के 'गायो दोहवाइ गइ छे, त्यारपछी गोचरीनी जरुर होय तो शुद्ध आहार लेवा योग्य होय ते लेवा जाय अने नीकळे. 545555 For Private and Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० ॥८९३॥ पिंडना अधिकारीज आ कहे हे. सूत्रम् भिक्खागा नामे गे एवमाहंमु-समाणा वा वसमाणा वा गामाणुगामं दुइज्जमाणे खुड्डाए खुलु अयं गामे संनिरुद्धा ए नो महालए से हंता भयंतारो वाहिरगाजि गामाणि भिक्खायरियाए वयह. संति तत्थेगइयस्स भिक्खुस्स 1८९३॥ पुरेसंथुया वा पच्छासंथुया वा परिवसति, तंजहा-गाहावइ वा गाहावइणीओ वा गाहावइपुत्ता वा गाहावइधुयाओ वा गाहावइसण्हाओ वा धाइओ वा दासा वा दासीओ वा कम्मकरा वा कम्मकरीओ वा, तहप्पगाराइं कुलाई पुरेसंथुयाणिवा पच्छासंथुयाणि वा पुवामेव भिक्खायरियाए अणुपविसिस्सामि, अविय इत्थ लभिस्सामि पिंड वा लोयं वा खीरं वा दहि वा नवणीयं वा धयं वा गुलं वा तिलं वा महुँ वा मज्न वा मंसं वा सक्कुलिं वा वा फाणियं वा पूयं वां सिहिरिणं वा, तं पुन्नामेवं भुना पच्चि पडिग्गहं च संलिहिय संमजिय तो पच्छा भिक्खूहि सद्धिं गाहा. पविसिस्सामि वा निक्खमिस्सामि वा, माइटाणं संफासे. तं नो एवं करिजा ॥ से तत्थ भिक्खूहिं सद्धिं कालेण अणुपविसित्ता तत्थियरेयपरेहिं कुलेहि सामुदाणियं एसियं वेसियं पिंडवायं पडिगाहित्ता आहारं आहारिजा, एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खूस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं० (मू०२४ ) ॥ १-१-४॥ पिण्डैपणायां चतुर्थ उद्देशकः ॥ केटलाक साधुओ जे एक स्थळे नंघावळ क्षीण वाथी एक जग्याए रह्या होय, तथा मासकल्पनो विहारकरनारा कोइ र जग्याए मासकल्प रह्या होय ते समये वीजा विहार करनारा परोणा साधु त्यां आवीने उतर्या होय, तेमने पूर्वे स्थिर रहेला ACCOROCOGER For Private and Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥८९४॥ www.kobatirth.org अथवा मासकल्पी उतर्या हाय, तेओ कहे के, आ गाम क्षुल्लक ( नानुं ) छे, अथवा गोचरी आपवामां तुच्छ छे, तथा सूतक विगेरेथी घर अटक्यां छे, माटे घणुंज तुच्छ छे, तेथी हे पूज्य ! आप बने त्यांसुधी नजीकना गाममां गोचरी माटे जजो, तो ते प्रमाणे कर. हवे रहेला साधुनो दोष बतावे छे, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only 1564 56 अथवा त्यां रहेनार साधुना पूर्वना सगां भत्रीजा बिगेरे होय, अथवा पछवाडेना सगां. सासरीयांनां समां विगेरे होय, ते बतावेछे. जेमके गृहस्थ, तेनी स्त्री तेना पुत्रो दीकरोओ, दीकरांनी बहुओ, धावमाता दासदासी नोकर. नोकरडी तेवां संसारी संबंधवाळा पूर्वनां केपछीना सगां-संबंधी होय. तो त्यां पूर्वगोचरी जाउँ, तो त्यां सारुं भोजनशालिना चोखा विगेरे तथा दूध, दहीं, मांखण, घी, गोळ तेल मध, दारु, मांस सक्कुली ( तलसांकळी), गोळनीपेत, पूडा, शीखंड विगेरे गोचरीना बखत पहेलां लावीने लाडं, आ सूत्रमां भक्ष्य अभक्ष्य वस्तुओंनो विवेक मू. २२ मां बताव्यो छे, ते आधारे अपवाद समजवो, अथवा कोइ साधु दुष्ट बुद्धिथी, रसगृधीथी पोताना हिंसक सगां जे पूर्वनां संबंधी होय तो त्यांथी लावीने बारोबार खाय. ( ते माटे आ सूत्रमां तेन निषेध कर्यो के तेणे त्यां जनुं नहि) तेम अविवेकथी वस्तुओ लावीने खाय, पीणुं पीए पछी पातरां ऋणवार साफ करीने पछी गोचरीना समये डाह्या (शांत ) मनवाळो बनीने हुं नवा आवेला परोणा साथे गोचरी जइ आवीश, आबुं कपट कोइ करे तो, ते साधुनुं रसना लोलुपपणाथी साधुपणुं नष्ट थाय छे, माटे बिजा साधुए तेम न करवुं. त्यारे साधुए शुं करवु ते कहे छे. आबेला परोणा साथे त्यां रहेला साधुए गोचरीना वखते जुदाजुदा कुलोमांथी थोडी थोडी सामुदायिक एषणीय (उदगम) दोष रहित ) तथा वैषिक ते फक्त साधुना वेषथी मेळवेल ( धात्री पिंड विगेरे उत्पादन दोष रहित ) गोचरी मेळवीने लेवी आज सूत्रम् ॥८९४॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् आचा०18 साधुनी संपूर्णता छे, (आ मूत्रमा मांस-मदिरावाळां कुटुंचमांथी कोइए दीक्षा लीधी होय, तो तेवाए सगांने घेर गोचरी जुदा || दिन जवं, तेज श्रेयस्कर छे, कारणके कुबुदि केवी खराब छे, अने तेनुं जैन धर्ममां के प्रायश्चित छे ते नीचेन बनेल | ॥८९५॥ | दृष्टांत वांचवा जेवु छे. 11८९५॥ | (कुमारपाळ राजाए जैनधर्म स्वीकार्या पहेलां मांसभक्षण करेलुं अने पाछळथी त्याग कर्यु हतुं, तेने एक समये घेबर खातां | | मांसनो स्वाद आव्यो, तेथी श्रीमान हेमचंद्र आचार्य पासे आवीने पूछयु, के मने वेबरखावु कल्पे के नहि ? गुरुए कह्यु के नहि.४ प-शामाटे ? उ-पूर्वनो दुष्ट स्वभाव मांसभक्षणनो याद आवे. कुमारपाळे कह्यं के त्यारे जो तेवू स्मरण थयुं होय तो तेनुं मने | प्रायश्चित शुं आवे ? उ-बत्रीश दांत पाडी नांखवान. तेज समये लुहारने बोलावी दांत खेंची काढवा का, त्यारे हेमचंद्राचार्य ते | राजानी दृढता जोइ बीजु प्रायश्चित आप्यु आथी समजवान ए छे के 'तेवा' मांसभक्षणवाळा कुटुंबोमां जतां कुमारपाळ | माफक खराब चीज याद आवी जायतो साधुपणुं भ्रष्ट थाय, पण वीजा साधु साथे होय तो तेनी शरमथी त्यां रहेनारो साधु पण । बचे, अने सगांने पण मांस भक्षण न करवा बोध मळवाथी पापथी बचे. चोथो उद्देशो समाप्त. For Private and Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥८९६॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पांचमो उद्देशो. चोथो को हवे पांचमो उद्देशो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध हे, गया उद्देशामां निर्दोष पिड लेवानी विधि कही अने अहीं पण तेज कहे छे. सेभिक्खू वा २ जाव विद्वे समाणे से जं पुण जाणिज्जा - अग्गपिंड उक्विप्पमाणं पेहाए अग्गपिंडं निक्खप्प माणं पेहाए अम्गपिंडं हीरमाणं पेहाए अग्गपिंड परिभाइजमाणं पेहाए अग्गपिंडं परिभुंज्जमाण पेहाए अग्गपिंड हा अगपिंडं परिविज्जमानं पेहाए पुरा असिणाइ वा अवहाराइ वा पुरा जत्थणे समण० वणीमगा खद्धं २ उवसंकर्मति से हंता अमहवि खर्द्ध २ उवसंकमामि, माइद्वाणं संफासे नो एवं करेजा || (सू० २५ ) ते भिक्षु गृहस्थना घरमा गयेलो एम जाणे के देवता माटे तैयार करेलो भात विगेरेनो आहार छे, तेमांथी थोडो थोडो काढे छे. अने वीजा वासणमां नाखे छे, तेवु देखीने अथवा कोइ देवना मंदिरमां लइ जवातु जोड़ने अथवा थोडं थोडं बीजाने | अपातुं जोड़ने तथा बीजाथी खवातुं अथवा देवळनी चारे दिशामां बळि तरीके उछाळातुं अथवा पूर्वे वीजा ब्राह्मण विगेरेए त्यांथी एकवार जमी आवीने घेर लड़ जता होय, अथवा एकवार जमीआवीने श्रमण विगेरे एम माने के बीजीवार पण आपणने त्यां | मळशे, एम धारीने पाछा त्व राधी जता होय, आवु देखीने कोइ भोळो साधु के लालचु साधु ते भोजनना स्वादथी ललचाइने | तेम विचारे के हु पण त्यां जइने गोचरी लावु, आम करवु साधुने कल्पे नहि कारण के आवु करतां तेने पण बीजा माफक कपट करबु पडे. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥८९६ ॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥८९७॥ www.kobatirth.org हवे भिक्षामां फरवानी विधि कहे छे. से भिक्खू वा० जात्र समाणेअंत रा से बप्पाणि वा फलिहाणि वा पागाराणि वा तोरणाणि वा अग्गलाणि वा अगलपासगाणि वा सति परकमे जयामेव परिकमिज्जा; नो उज्जुयं गच्छिज्जा, केवली वूया आयाणमेयं से तत्थ परकममाणे पयलिज्ज वा पक्खलेज्ज वा पत्रडिज्ज वा, से तत्थ पयलमाणे वा पक्खलेजमाणे वा पत्र डमाणे ना, तत्थ सेकाए उच्चारेण वा पासवणेण वा खेलेण वा सिंघाणेण वा वंतेण वा पित्तेण वा पूण्य वा सुक्केण वा सोणिएण वा उबलित्ते सिया, तहप्पगारं कार्यं नो अनंतरहियाए पुढवीए नो ससिणिद्धार पुढवीए नो चित्तता सिलाएनो चित्तमंताए लेलए कोलावासंसि वा दारुए जीवपट्टिए सअंडे सपाणे जाव ससंताणए नो आमज्जिज्ज वा पमज्जिज्ज वा संलिहिज्ज वा निलिहिज्ज वा उब्वलेज वा उच्चट्टिज्ज वा आयाविज्ज वा पायाविज्ज वा, से पुव्वामेव अप्पससरक्खं तणं वा पत्ता कटुं वा सक्करं वा साइज्जा, जाइत्ता से तमायाय gianaकमिज्जा २ अहे झामथंडिल सिवा जाव अन्नयरंसि वा तहष्पगारंसि पडिलेहिय पडिलेहिय पमज्जिय Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ओ संजयामेव आमज्जिज्ज वा जाव पयाविज्ज वा । (सू० २६ ) ते साधु गृहस्थने घेर गोचरी जवा माटे जतां पाडो ( महेल्लो), शेरी, के गाम विगेरेमां पेसतां मार्ग जुए, त्यां रस्तामां जतां वचमां समान भूभागमां अथवा वे गामना वचमां कयारा बनावेल जुए, अथवा घरने के नगरने खाइ के कोट हाय, अथवा तोरणो अर्गला ( अडगलो ) अथवा अर्गलपाशक ( जेमां अर्गलानो अंकोडो नांखे छे, ते जुए, तो ते कारणके लइने ते सीधे For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥९९७॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kebatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥८९८॥ 8 मार्गे न जाय; कारणके त्यां जतां केवळीप्रभु कहे छे के कर्मबंधननु ते कारण छे, वखते संयम विराधना अथवा आत्म विराधना आचा० थायछे ते बतावे छे. तेचे मार्गे जतां मार्गमां वपना कारणे विषमपणाथी कोइ बखत धृजे, कोइ वखत ठोकर खाय, कोइ वखत पढीजाय तो छकायमांथी कोइपण कायने विराधे, तेमज त्यां शरीरना मळथी, पिशावथी बळखा, लीट, वमन, पित्त, ॥८९८॥ परु, वीर्य, लोहीथी खरडाय माटे तेवे मार्गे न जवु पडे तो ठोकरखातां गारामां पडीने खरडाव विगेरे कारणों आ न करे, ते कहे छे. ते साधु तेवा अशुचि गारा विगेरेमां पडतां वचमां वस्त्र राख्या विना खुल्ला शरीरे पृथ्वी साथे स्पर्श न करे, अथवा भीनी । 18 जमीन साथे के धुळवाळी पृथ्वी साथे तथा सचित्त पत्थर साथे तथा सचित्त माटीना देफासाथे अथवा धुणना कीडाथी सडेलु लाकडं जेमां अनेक नानां इंडा होय तेनी साथे अथवा करोळीयाना जाळांवाळी जग्या साथे एकवार न स्पर्श करे, न वारंवार । स्पर्श करे, तेनाथी गारो दूर न करे, तेम त्यां बेसीने कादव दूर करवा खोतरे नहि, तेम त्यां बेसीने उद्दवर्तन ( चोळq ) न करे, तेम सुकायलाने पण त्यां न खोतरे, तेम त्यां उभो रहीने मूर्यने तडके एकवार न तापे, अथवा वारंवार न तापे, शुं करे, दाते कहे छे ते भिक्षु त्यांथी नीकळी अल्प रजवाळू तृण विगेरे याचे, अने अचित्त जग्याए निभाडा विगेरे एकांतमा जोइने त्यां | बेसीने शरीरनो कादव दूर करे, अथवा तडके तपावे. अने पछी दूर करे. अने स्वच्छ करे, वळी शुं करे ? ते कहेछे. से भिक्खू वा० से जं पुण जाणिज्जा गोणं वियालं पडिपहे पेहाए महिसं वियालं पडिपहे पेहाए एवं मणुस्स आसं हत्यि सीहं वग्धं विगं दीवियं अच्छं तरच्छे परिसरं सियालं विरालं मुणयं कोलसुण यंको तियं चिताचिल्ल For Private and Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८९९॥ आचा० इयं वियालं पडिपड़े पेहाए सइ परक्कमे संजयामेव परकमेज्जा, नो उज्जुयं गच्छिज्जा । से भिक्खू वा० समाणे अंतरा से उवाओ वा खाणुए वा कंटए वा घसी वा भिलुगा वा विसमे वा विज्जले वा परियाजिज्जा, सइ ॥८९९॥ परकमे संजयामेव, नो उज्जुयं गच्छिज्जा ।। (मू. २७) ते भिक्षु रस्तामा जतां ध्यान राखे, अने जो त्यां ए, जाणे के रस्तामां गाय, गोधो विगेरे छे, अने ते मारकणो होवाथी * रस्तो बंध छे, अथवा झेरी साप छे, जंगली भेंस के पाडो छे, दुष्ट मनुष्य छे, घोडो हाथी, सिंह, वाघ, वृक (वरगई ), चित्रो, बळद सरभ, जंगली डुक्कर, कोकंतिक, शीयाळना आकार- लोमडी जे, जनावर छे, जे रातमा कोको एम आरडे | 3 छे, चित्ता, चिल्लडय के जंगली जानवर छे. तेवू कोइपण दुःखदायी माणी रस्तामां मालूम पडे तो प्रथम उपयोग दइने खात्री | FI करे, अने चीजो रस्तो होय तो ते सीधे रस्ते न जतां भय विनाना रस्ते जाय, तेज प्रमाणे मार्गमा खाडो होय ठं? होय | कांटा होय, ढोकाव होय, काळी फाटेली माटी होय, उंचानीचा टेकरा होय, कादव होय, तेवी जग्याए बीजो मार्ग होय तो है चक्रावो खाइने पण ते रस्ते जq. पण दुका सोधा रस्ते न जq. कारण त्यां जवाथी सयमनी तथा पोतानी विराधनानो संभव छे. से भिक्खू वा० गाहावइकुल्लस दुवारवाई कंटगबुंदियाए परिपिहियं पेहाए तेसिं पुवामेव उग्गई अणणुनविय अपडिलेहिय अप्पमज्जिय नो अवंगुणिज्ज वा पविसिज्ज वा निक्खमिज्जवा, तेसि पुन्नामेव उग्गह अणुन्नविय पटिलेहिय पडिलेहिय पमज्जिय पमज्जिय तो संजयामेव अवंगुणिज्ज वा पबिसेज्ज वा निक्खमेज्ज वा।। (मू०२८) ते साधु गृहस्थने धेर गोचरी जतां ते घरनुं बार[ दीधेलं जोइने ते घणीनी रजा लीधा विना, आंखथी जोइने रजो For Private and Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ९०० ॥ www.kobatirth.org हरण विगेरेथी पूज्या विना उघाडवु नहि, उघाडीने पेसे नहि, अने न कळे पण नहि, तेना दोषो बतावे छे. गृहस्थने द्वेष थाय ते घरमाथी वस्तु खोत्राय तो साधुना उपर शंका आवे अने उघाडेला द्वारथी पशु विगेरे घरमा पेसी जाय, तेथी संयम अने आत्मविराधना थाय, हवे जो कारण होय, तो अपवादमार्ग कहे छे. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ते घरमा जावानी जरूर होय तो तेना घणीनी रजा लइने आंखे देखीने ओघाथी पुंजीने वारणुं विगेरे उघाडे तेनो भावार्थ आ छे. पोते दरवाजो उघाडीने पेसवु नहि, जो मांदा आचार्य विगेरे माटे त्यां औषध विगेरे मळतुं होय, अथवा वैद्य त्यां रतो होय, अथवा दुर्लभ द्रव्य त्यां मळशे, अथवा ओछी गोचरी मळेली होय, एवां खास कारणो आवेथी दीवेला वारणा आगळ उभो रहीने शब्द करे ( बोलावे ) अथवा पोते संभाळधी पुजीप्रमार्जीने उघाडीने जब. त्यां प्रवेश थया पछीनी विधि कहे छे. सेभिक्खू वा २ से जं पुण जाणिज्जा समणं वा माहणं वा गामपिंडोलगं वा अतिहिं वा पुचपत्र पेहाए नो तेसिं संलोए सपडदुवारे चिट्टिज्जा, से तमायाय एगतमचकमिज्जा २ अणावायमसंलोए चिट्टिज्जा, से से परी अणावायमसंलोए चिमाणस्स असणं वा ४ आहट्टु दलइज्जा, से य एवं वइज्जा - आउसंतो समणा ! इमे भे असणे वा ४ सव्वजणाए निसट्टे तं भुंजह वा णं परिभाएह वा णं तं चेगइओ पडिगाहित्ता तुसिणीओ उवेहिज्जा, अवियाई एयं मममेव सिया, माइट्ठाणं संफासे नो एवं करिज्जा से तमायाए तत्थ गच्छिज्जा २ से पुव्वामेव आलोइआ –आउसंतो समणा ! इमे भे असणे वा ४ सव्वजणाए निसिद्धे तं भुजहवा णं जाव For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ ९००॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् SOCCAS ॥९०१॥ परिभाएह वा णं,सेणमेवं वयंत परा वइज्जा-आउसंतो समणा ! तुम चेव णं परिभाएहि, से तत्थ परिभाएमाणे आचा नो अपणो खधं २ डायं २ ऊसदं २ रसियं २ मणुन्नं २ निधं २ लुक्ख २, से तत्व अमुस्छि र अगिध्धे अग (ना) ढिए अणज्ज्ञोववन्ने बहुसममेव परिभाइजा, से णं परिभाएमाणं परो वइज्जा-आउसंतो समणा ! माणं ॥९०१॥ तु परिभाएहि सन्वे वेगइभा ठिया उ भुक्खामो वा पाहामो वा, से तत्थ भुजमाणे नो अप्पणा खद्धं खद्धं जाव लुक्खं, से तत्थ अमुच्छि ए ४ बहुसममेव अॅजिज्जा वा पाइज्जा वा ॥ (मू० २९) ते साधु गाम विगेरेमा भिक्षा माटे पेठेलो एम जाणे, के आ घरमा प्रथम श्रमण विगेरे पेठेल छे. तो तेने पहेला पेठेलो जोइने दान देनार तथा लेनारने अनीति न थाय, तथा अतरायकर्म न बंधाय, माटे ते बने देखे, त्या उभा न रहेQ, तेमन | नीकळवाना दरवाजा आगळ पण बनेनी अभीति टाळवा विगेरे माटे उभा न रहे, पण ते साधु एकांतमा जइ कोइ न आवे न । देखे, त्यां उभो रहे, त्यां उभा रहेता पण जैन साधुने गृहस्थ जाते आहार आपीने आ प्रमाणे कहे के " तमे भिक्षा माटे बहु | आवेला छो, अने हुँ एकलो याकुलपणाथी आहार वहेंची आपवाने शक्तिवान नथी, हे श्रमणो ! में तमने बधा साधुओने चारे ४ प्रकारनो आहार आप्यो छे. तेथी हवे तमे पोतानी इच्छा प्रमाणे ते आहारने एकठा बेसीने खाओ, वापरो, अथवा व्हेंचीने लो, द आ प्रमाणे गृहस्थ आपे, तो उत्सार्गथी जैन साधुए ते आहार भागमा न लेवो, पण दुकाळ होय, अथवा लांचा पंथमां गोचरीनी तंगी होय तो अपवादथी कारणपडे ले पण खरो, पण ते आहार लेइने एबुं न करे, के ते आहारने छानोमानो लेइ एकांतमां 2 18/पोताने मळेलो माटे थोडो होवाथी हुँ कोइने न आयें, एकलो खाउं तेवू कपट न करे, त्यारे शु करवु ते कद्दे छे. For Private and Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥९०२॥ ते भिक्षु आहारने लइने त्यां वीजा श्रमण विगेरे पासे जइने ते आहार तेमने देखाडे, अने बोले के हे आयुष्यमानो ! हे श्रमणो आ आहार विगेरे आपण बधाने गृहस्थे बहेंच्या विना सामटो आपेल छे, तेथी तमे बधा एकत्र बेसीने खाओ, वापरो आ लसूत्रम् आ प्रमाणे साधुने बोलतो सांभळीने कोइ श्रमण विगेरे आ प्रमाणे कहे, हे साधो ! तमेज अमने बधाने बहेंची आपो, तेवू साधुए ॥९०२॥ न करवू पण कारणे करवू पडे तो आ प्रमाणे करचु, के पोते वहेंचतां घणुं उंचु शाक विगेरे पोते न ले, तेम लुऱ्या पण न ले, पण ते भिक्षु आहारमा मूर्छित थया विना अगृद्धपणे ममता रहित थइने बधाने सरखं वहेंची आपे, कंइपण दाणो विगेरे सहेज |वधारे रहे. ( कारणके तोळीने आप्यु नथी) तो पण बने त्यांमुधी वधाने सरखं बहेंची आपे, पण ते बहेंचतां कोई श्रमण (अन्यदर्शनी) एम बोले, के बहेंचो नहि, पण आपणे बधा साथे बेसीने जमीए, पीए, तो साथे न जमवु, पण पोताना साधुओ होय, पासत्था विगेरे होय के संभोगिक ( साथे गोचरी करे तेवा ) होय, ते बधाने साथे आलोचना आपीने साथे जमवानी आ विधि छे. एटले पोते बधाने सरखु बहेंची आपे, अने बधा त्यां साथे बेसीने खाय पीए, गया मूत्रमा बहारन आलोकस्थान निषेध्यु, हवे त्यां प्रवेशना प्रतिषेधनी विधि कहे छे. से भिक्खू वा से नं पुण जाणिज्जा समण वा माहणं वा गामपिंडोलगं वा अतिहिं वा पुब्बपविटं पेहाए नो ते उवाइक्कम्म पविसिज्ज वा ओभासिज्ज वा, से तमायाय एगतमवक्कभिज्जा २ अणावायमसंलोए चिहिज्जा, अह पुणेवं जाणिज्जा पडिसेहिए वा दिन्ने वा, तओ तमि नियत्तिए संजयामेव पविसिज्ज वा ओभासिज्ज वा एयं० सामग्गिय० (मू०३०) ॥२-१-१-५॥ पिण्डैपणायां पञ्चम उद्देशक;॥ For Private and Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥९०३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भिक्षु गोचरी माटे गाम विगेरेमां पेठेलो एवं जाणे के आ घरमां प्रथम श्रमण विगेरे पेठेलो छे, तो ते पूर्वे पेठेला श्रमण विगेरेने देखीने तेने ओळंगीने पोते अंदर न जाय, तेम त्यां उभो रहीने गृहस्थ पासे भिक्षा पण न मागे, पण तेने पेठेलो जाणीने पोते एकांतमा घणी न देखे तेम उभो रहे पछी ते अंदरना भिक्षुने आपे अथवा ना पाडे, त्यारे ते त्यांथी पाछो नीकळे त्यारपछी जैन साधु अंदर जाय अने आहारनी याचना करे, आज साधुनुं साधुपशुं संपूर्ण रीते छे. पांचमो उद्देशो समाप्त थयो. छट्टो उद्देशो पांचमा पछी छट्टो उद्देशो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध है, गया उद्देशामां श्रमण विगेरेने अंतरायना भयथी गृहप्रवेश निषेध्यो, तेज प्रमाणे अहीं अपर प्राणीओना अंतरायना निषेध माटे कहे छे. सेभिक्खू वा से जं पुण जाणिज्जा - रसेसिणो बहवे पाणा घासेसणाए संथडे संनिवइए पेहाए, जहा - कुक्कड जाइयं वा सूर जाइयं वा अग्गपिंडंसि वा वायसा संथडा संनिवइया पेहाए सः परकमे संजया नो उज्जुयं गच्छज्जा ( मू० ३१ ) ते भिक्षु गोचरी माटे गाम विगेरेमां जतां एम जाणे के आ मार्गमां घणां माणीओ रसनां इच्छुओ होयने पाछळथी For Private and Personal Use Only सूत्रम् | ॥ ९०३ ॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir आचा० सूत्रम् ॥९०४॥ ॥९०४॥ दाणा चुंगवा शेरी विगेरेमां घणा एकठां थइने जमीन उपर पडेलां हे, तेमने ते साधुए जोइने ते तरफ तेणे न जवू, ते माणी ओनां नाम बतावे ठे, कुकडां विगेरे लीधाथी उडता पक्षीओ जाणवा. तेज प्रमाणे मूवरजाति लीधाथी चोपगां ढोर विगेरे चरता होय अथवा अग्रपिंडी (बली) बहार फेकेल होय तेमां कागडा खाता होय तेमने देखीने शरीरमा शक्ति होय त्यांमुधि सम्यक है उपयोग राखीने साधु ते रस्ते न जाय कारणके त्यां जतां अनेक प्राणीने अंतराय थाय छे. अने तेने उडतां के बीजे खसतां तेमनो वध पण वखते याय. हवे गृहस्थना घरमा पेठेल साधुने गोचरीनी विधि कहे छे. से मिक्खू वा २ जाव नो गाहावइकुल्लम्स वा दुवारसाहं अवलंबिय २ चिट्ठिजा, नो गा० दगच्छडणमचए चिडिजा, नो गा० चंदणिउयए चिहिज्जा, नो गा.सिणाणस्स वा बच्चस्स वा संलोए सपडिदुवारे चिडिजा, नो० आलोयं वा थिग्गलं वा संधि वा दगभवणं वा बाहाओ पगिज्झिय २ अंगुलिआए वा उद्दिसिय २ उग्णमिय २ अवनमिय २ निज्झाइज्जा, नो गाहावइअंगुलियाए उद्दिसिय २ जाइज्जा, नो गा० अं० चालिय २ जाइज्जा, नो गा० अं० तजिय २ जाइज्जा, नो गा० अं० उक्खुलंपिय (उखुलुदिय) २ जाइज्जा, नो गाहावई दिय २ जाइज्जा नो क्यणं फरुसं वइज्जा ।। (मू० ३२) ते भिक्षु गृहस्थना घरमा गोचरी पेठेलो नीचली बाबतो न करे, तेना वारणानी शाखाने वारंवार अवलंबीने उभो न रहे. जो ते पकडे, तो वखते जीर्ण होय तो पडी जाय अथवा बरोबर न जामेल होय तो खसी जाय. तेथी संयमनी विराधना थाय तथा धोवानी ( चोकडी) तथा उदक (पाणी) मुकवानी जग्या (पाणीयारा) तरफ तथा आचमन करे त्यां अथवा टांका For Private and Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० सत्रम ॥९०५॥ | करे, टट्टी जइने पग धुवे, ए जग्या तरफ पोते उभो न रहे, के तेवा घरवाळा तरफ पोतानी दृष्टि पडे, तेमां आ दोष छे के, | त्यां देखनाथी खी विगेरेना संबंधीओने शंका थाय अने त्यां लजाइने बरोबर शरीर स्वच्छ न थवाथी तेने द्वेष थाय, तेज * प्रमाणे गृहस्थना गोख झरुखा तरफ दृष्टि न करे, तथा फाट पडेली ते दुरस्त करी होय त्यां न जुए, अथवा चोरे खातर पाडेलु होय, अथवा भीतने सांधो को होय, अथवा उदकगृह (पाणीनुं स्थान ) होय, आ वां स्थानो वारंवार हाथ लांबो करीने ४॥९० होय अथवा आंगुळी उंची करीने तथा माथु उंचं करीने नमावीने अथवा काया नीची नमावीने देखे नहि, वीजाने बतावे पण नहि, (मूत्रमा बेवार ते पाठ बताववानें कारण भार देवानुं छे) जो वारंवार त्यां देखे के बीजाने देखाडे, तो घरमां कंइ चोराय के नाश पामे तो शंका उत्पन्न थाय, वली ते भिक्षु गृहस्थना घरमां पेठेलो गृहस्थने आंगळी वडे उद्देशीने तथा अंगुली चलावीने अथवा आंगळीथी भय बतावीने तथा खरज खणीने तेमज वचनथी ( भाट माफक ) स्तुति करीने याचवू नहि, तथा कोइ बखत गृहस्थ न आपे तो तेने कडवां वचन न कहे, के तुं जक्ष माफक पारकानुं घर रक्षे छे ! तारा नशीवमा दान क्याथी होय ? तारी वातज सारी छे, पण कृत्य सारां नथी ! बळी अक्षरद्वयमेतद्धि, नास्ति नास्ति यदुच्यते तदिदं देहिदेहीति, विपरीतं भविष्यति ॥ १॥ तु ' नथी नथी' एवा वे अक्षर बोले छे, तेने बदले तुं 'आप आप ' ए बे अक्षर घरवालाने कहे, के तेथी विपरीत थशे ! अर्थात् तारुं कल्याण थशे ! (आq पण कटाक्ष बचन साधु न बोले) अह तत्थ कंचि भुंजमाणं पेहाए गाहावई वा० जाच कम्मकरिं वा से पुच्चामेव आलोइज्जा-आउसोत्ति वा भइणित्ति For Private and Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बर-C वा दाहिसि मे इत्तो अन्नयरं भोयणजाय ? से सेवं वयंतस्स परो हत्थं वा मत्तं वा दनि वा भायणं वा सीओदगवियआचा० डेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलिज्ज वा पहोइज्ज वा, से पुब्बामेव आलोइज्जा-आउसोत्ति वा भइणित्ति वा ! मा । सूत्रम् ॥९०६॥ एयं तु में हत्यवा ४ सी ओदगवियड़ेग वा २ उच्छोलेहि वा २, अभिकखसी मे दाउं एवमेव दलयाहिसे सेवं वयंतस्स ॥९०६॥ परो हत्थं वा० सीपी० उसी. उच्छोलित्ता पहोइत्ता आहट दलइज्जा, तहप्पमारेणं पुरेकम्मकएणं हत्थेण वा असणं वा ४ अफामुयं जाव वो पडिगाहिज्जा, अह पुण एवं जाणिज्जा नो पुरेकम्मकएणं उदउल्लेणं तहप्पगारेणं वा उदउल्लेण वा हत्येण वा ४ असणं वा ४ अफासुयं जाव नो पडिगाहिजा । अह पुणेवं जाणिज्जा--नो उदउल्लेण ससिणिरेण सेसं तं चेव एवं-ससरक्खे उदउल्ले, ससिणिद्धे मट्टिया उसे । हरियाले हिंगुलुए, मणोसिला अंजणे लोणे ॥२॥ गेम्य बनिक सेडिय सोरट्टिय पिट्ट कुकुस उक्कुट्ठसंस?ण । अब पुणेव जाणिज्जा नो असंसढे संस? तहप्पगारेण संसट्टेण हत्थेण वा ४ असणं वा ४ फासुयं जाव मडिगाहिज्जा । मू० ३३] गृहस्थना घरमा पेठेलो ते भिक्षु कोइ गृहस्थ विगेरेने खातां जुए, तेने खाता देखीने साधु प्रथम आयु विचारे के आ 5 गृहस्थ, पोते अथवा तेनी स्त्री अथवा तेनी नोकरडी विगेरे कोइ पण खाय छे, ए, विचारीने तेनु नाम लेइ याचना करे, के ६ आयुष्मन् ! के अमुक गृहस्थ अमुक बाइ ! अथवा योग्य बीजं वचन बोलीने कहे के तमारा घरमा जे रंधायुं होय तेमाथी अमने | है आपो ! एम याचना करे, ते तेम आपवाने हाजर न होय, अथवा कारण आवे आ प्रमाणे बोले, पछी तेना घरमांथी याचता || भिक्षुने बीजो गृहस्थ कोइ वखत हाथ डोइ के बीजं वासण काचा पाणीथी के बरोबर न उना थयेला पाणीथी अथवा उनु C CAHRESS For Private and Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir A ॥२०७॥ ४ करेलुं पार्छ काल पहेंचितां सचित्त थयेल होय तेना वडे धुए, अथवा वारंवार धुए, आ प्रमाणे धोवानी चेष्टा करतां पहेलां 8 आचा साधु जोइने विचारे [अर्थात् ध्यान राखे,] अने पछी नेम देखीने तेनुं नाम लेइने निवारे, के तमे काचा पाणी विगेरेथी न घुओ | I पण पहेलो गृहस्थ सचित्त विगेरे धोइनेज आपे तो अमासुक जाणीने साधु ले नहि. ॥९०७॥ वळी ते साधु गृहस्थनां घरमा पेठेलो जो एम जाणे के साधु माटे नहि, पण तेणे कोइ पण कारणे प्रथम काचा पाणीए | हाथ के वासण धोयुं छे, अने तेनां टपकां पडे छे, एवं देखे तो चारे प्रकारनो आहार अपामुक जाणीने लेबो नहि, कदाच पाणीनां टपकां न पडतां होय, पण काचा पाणीथी खरडेला हाथ के वासण होय तोपण ते आपतां साधुए न लेचु, एज पूर्वे : 3 कद्या प्रमाणे न्याय छे, जेम काचा पाणीथी खरडेला हाथे न लेबु, तेम सचित्त रज होय, माटीथी खरडेल होय, तेमां उष ते | खारवाली माटी, हडताळ, हिंगळोक, मणशिल, अंजन, लवण, गेरु, आ वधी पृथ्वीकायनी खाणमांथी नीकळेली सचित्त वस्तुओ में साधुने न कल्पे, [ वर्णिका ते पीळी माटी मेट छे, सेटिका खडी छे, सौराष्ट्रि ते तुवरिका छे, पिष्ट ते छड्याविनाना तंदूल ६ चरण [ भूको ] छे, कुकसा उपरनां कूटेलां छोतरां [ उक्कुठ ] पीलु पर्णिका विगेरेनी खांडणीमां खांडेल चुरो अथवा लीलां पांदडानो चुरो, विगेरे खरडेला हाथ विगेरेथी आपे तो ले नहि. ए प्रमाणे जो खरडेल न होय तो साधु गोचरी ले. पण एम जाणे के खरडायेल छे, पण ते जातिना आहारथी हाथ विगेरे खरडेल छे, तेमां आठ भांगा छे. "असंसट्टे हत्थे असंसट्टे मत्ते निरवसेसे दवे" आमां एकेक पद बदलवाथी आथी आठ भांगा थाय-तेमां संसृष्ट हाथ, संसृष्ट वासण अने शेष द्रव्य बाकी रहेल होय ते ४ For Private and Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ९०८ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आठमो भांगो सर्वोत्तम छे, पण एवं जाणे के, काचा पाणी विगेरेथी असंसृष्ट हाथ विगेरे छे, तो ते लेबुं, अथवा ते जातिना द्रव्यवडे (भक्ष्य वस्तुथी हाथ विगेरे खरडेल होय ते आहारने मासुक जाणीने साधुए लेवो, वळी सेभिक्खू वा २ से जं पुण जाणिज्जा पिहुये वा बहुरयं वा जाव चाउलपलंबं वा असंजए भिक्खुपडियाए चितनंताए सिलाए जाव संताणाए कुट्टिमु वा कुट्टिति वा कुट्टस्संति वा उष्फर्णिसु वा ३ तहष्पगारं पिहूयं वा० अष्फासूयं नो पडिगाहिज्जा ।। (सू० ३४) ते भिक्षु गृहस्थना घरमा पेठेलो जो एवं जाणे, के चोखा विगेरेना कुरमुरा (ममरा) घणी रेतीथी भरेला छे, अथवा अडधा शेकेल चोखा विगेरेना कण विगेरे होय, तेने साधुने उद्देशीनेज सचित्त शिला उपर अथवा बीजवाळी, हरितवाळी अथवा नाना जंतुना इंडावाळी अथवा करोळीयाना जाळावळी शिला उपर ते ममरा के कणोंने फुटेल होय फुटे अथवा फुटशे, (सूत्रमां एकवचन क्रियापदनु छे ते आर्यवचन होवाथी बहुवचनमां लेवु अथवा जातिमां एकवचन पण लेवाय) आम करीने पछी ते घाणी, पन्चा विगेरे सचित मिश्र होय. तेने सचित शिलामां कुटीने साधु माटे झाटके अने मछी आपे, के आपशे, तेव्रं जाणीने ते वो पृथक् विगेरे आहार आपे तोपण ले नहि. सेभिक्खू वा २ जाव समाणे से ज० विलं वा लोणं उब्भियं वा लोणं अस्संजए जाव संताणाए भिदिसु ३ रुचिसु वा ३ बिलं वा लोणं उब्भिमं वा लोणं अफासुगं० नो दडिगाहिज्जा | (सू० ३५) जो ते भिक्षु एवं जाणे, के आ खाणनुं मीठं (बिल बीड) छे, अथवा सिंधव, संजल बिगेरे बधी मीठानी जाति होय, तथा For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ ९०८ ॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥९०९॥ 8/ उदमिन (समुद्रना किनारे कावेलु मीठं,) ते प्रमाणे रुमक विगेरे बीजु मीठे पण लेवू, आई मीठं जे काचुं छे, तेने उपर बतावेल | आचा० शिला उपर कूटीने आपे. अटले साधु माटे भेदे, भेदशे, अथवा वधारे झीणु करवा चूरीने आपे तो लेबु नहि. वळी ॥९०९॥ से भिक्खू वा० से जं. असणं वा ४ अगणिनिकिक्खत्तं तहप्पगारं असणं वा ४ अफासुयं नो०, केवली व्या आयाणमेयं, अस्संजए भिक्खुपडियाए उस्सिंचमाणे वा निस्सिचमाणे वा आमज्जमाणे वा पमन्जमाणे वा ओयारेमाणे वा उच्चत्तमाणे वा अगणिजीये हिंसिज्जा, अह भिक्खूणं पुव्वोवइटा एस पइन्ना एस हेऊ एस कारणे एसुवएसे जंतहप्पगारं असणं वा ४ अगणिगिक्खित्तं अफासयं नो० पडि. एयं० सामग्गियं ।। (मु०३६) । पिण्डेपणायां षष्ठ उद्देशकः २-१-१-६॥ ते भिक्षु गृहस्थना घरमा गोचरी गयेल होय, त्यां चारे प्रकारनो अहार अग्नि उपर वळता साथे लागेल होय तो आहार आपे तो पण लेवो नहि, त्यां केवली प्रभु कहे छे के, आ कर्मा दान छे, तेज प्रमाणे गृहस्थ भिक्षुने उदेशीने त्यां अग्नि उपर रहेल आहारने वीजा वासणमा नाखतो तेमांथी प्रथम आपेल होय ते वधेलामा वीजुं नाखे अथवा हाथथी मसळीने शोधे, तथा प्रकर्षथी शोधे, तथा निचे उतारीने अथवा अग्निने तीरछी करीने जीवोने पीडे. आ वधी बात समजावीने कहे छे के उपर वतावेली साधुनी आ प्रतिज्ञा के के अग्नि साथे लागेलुं भोजन विगेरे अप्रामुक छे, अने ते अनेषणीय छे, एम जाणीने आहार मळतो होय, तो पण ले नहि, आज साधुनुं सर्वथा साधुपणुं छे, पहेला अध्ययननो छट्टो उद्दशो समाप्त थयो. For Private and Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ९९० ॥ www.kobatirth.org सातमो उद्देशो छठी उद्देशो कहीने सातमो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे, गया उद्देशामां संयम विराधना बतावी, अने अहीं संयमनी आत्मानी दानदेनारनी विराधना बतावशे अने ते विराधनाथी जैनशासननी हीलना थाय, ते आा उदेशामां बतावशे. से भिक्खु वा २ से जं० असणं वा ४ खंसि वा थंभसि वा मालंसि वा पासायंसि वा हम्मियतलंसि वा अन्नयरंसि वा तहष्पगारंसि अंतलिक्खजायंसि उवनिक्खित्ते सिया तहप्पगारं मालोहडं असणं वा ४ अफामुयं नो० केवली ब्रूया आयाणमेयं, अस्संजए भिक्खुपडियाए पीढं वा फलगं वा निस्सेणिं वा उद्द्दलं वा आहहु उस्सविय दुरूहिज्जा, सेताथ दुरुहमाणे पयलिज्ज वा पबडिज्ज वा, से तत्थ पयलमाणे वा २ हत्थे वा पायं वा बाहुं वा ऊरुं वा उदरं वा सीसं अन्नयरं वा कार्यसि इंदिजालं लूसिज्ज वा पाणाणि वा ४ अभिहणिज्ज वा वित्तासिज्ज वा लेसिज्ज वा संघसिज्ज वा संघहिज्ज वा परियाविज्ज वा किलमिज्ज वा ठाणाओ ठाणं संक्रामिज्ज वा तं तहप्पगारं मालोहड असणं वा ४ लाभे संते नां पडिगाहिज्जा, से भिक्खू वा २ जाव समाणे से जं० असणं वा ४ कुट्टियाओं वा कोलेज्जाउ वा अस्संजए भिक्खुपडियाए उक्कुज्जिय अजय ओहरिय आहुहु दलइज्जा, तहप्पगारं असणं वा ४ लामे संते नो पडिगाहिज्जा ।। (मू० ३७ ) ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ते भिक्षु गोचरीमां गयेलो जो आ प्रमाणे चारे प्रकारनो आहार जाणे, स्कंध (ते अर्धमाकार-उंची भोंत जेवो होय ) लाकडो के पत्थरनो थंभो होय, तथा मांचडो बांधेलो होय अथवा शीका उपर होय, महेलमां, के हवेलीमां के कोइपण अंतरीक्ष (अधर) For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥११०॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ANCHORDCRA ॥९११॥ स्थानमा आहार राखेल होय तो तेवा उपरथी आहार लइने वहोरावे तो पण मालापत हृदोष लागतो जाणीने न लेबो, केवळी | आचा० प्रभु तेमां आ प्रमाणे दोष बतावे छे, एटले त्यां उंचे वस्तु राखी होय ते लेवा गृहस्थ जाय तो हाथ पहोंचवा माटे साधु माटेज मांची, पाटीयुं, नीसरणी, उंधी उखणी अथवा बीजं कंइ पण अधर टेकवीने तेना उपर चडीने लेवा जाय तो चडतां पडी जाय, ॥९११॥ ६ अने खसीने पडता हाथ, पग भांगतां अथवा इंद्रिय के शरीरमा लागी जाय, तेज प्रमाणे पडतां बीजा जीवोने, प्राणीओने हणे, 8 त्रास पमाडे, अथवा धुळवडे ढांके, घसारो आपे, संघटन करे आ प्रमाणे थतां ते जीवोने परिताप करे, धकवे, एकस्थानथी बीजा स्थानमा खसेडे, आवा दोषो जाणीने शीका के मेडा उपरथी लावीने आपे तो मळती वस्तु पण साधुए न लेवी अथवा ते साधु आहार लेतां आ प्रमाणे जाणे, के माटीनी कोठीमांथी अथवा जमीनमां खोदेल अर्ध गोळाकार खाणमांधी साधुने उद्देशीने कायाने उंचीनीची करीने कुबडी थइने काढे, तथा खाणमां नीची नमीने अथवा तीरछी पडीने आहार लावीने आपे, तो साधुए अधोमालाहुत (नीचे पडीने लीधेल) आहार गृहस्थ पासेथी मळतो होय तो पण लेवो नहि, हवे पृथ्वीकायने आश्रयी कहे छे. से भिक्खू वा० से ० असणं वा ४ मट्टियाउलित्तं तहप्पगारं असणं वा ४ लाभे सं०, केवली०, अस्संज्जए भि० मट्टिओलिगं असणं वा० उभिदमाणं पुढविकाथं समारंभिज्जा तह तेउवाउवणस्सइतसकायं समारंभिज्जा पुणरवि उल्लिंपमाणे पच्छाकम्मं करिज्जा, अह भिक्खूणं पुब्बो० जं तहप्पगारं मट्टिओलित्तं असणं वा लाभे । से भिक्खू० से नं) असणं वा ४ पुढाविकायपइडियं तहप्पगारं असणं वा० अफासुयं० । से भिक्खू० जं असणं वा ४ आउकायइडियं चेव, एवं CREASEAR- HAL CARE For Private and Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ९९२ ॥ www.kobatirth.org गणिकापट्ठियं लाभे० केवली०, अस्संज० भि० अगणि उस्सकिय निस्सकिय ओहरिय आहड दलइज्जा अह भिक्खुणं० जाव नो प्रडि० ।। (मृ० ३८ ) ते भिक्षु गोचरीमां गयेलो आ प्रमाणे जाणे, के पिठरक ( माटीना गोळा ) विगेरेमां माटीथी प्रथम लोंपीने चोडेल होय, तेमांथी काढीने चार प्रकारना आहारमांथी कांइपण आपे तो पश्चात्कर्मना दोपथी मळतो आहार पण न ले, प्र० - शामाटे ? उ० केवळी प्रभु तेने कर्म उपादान कहे छे, के ते गृहस्थ भिक्षुकनी निश्राए माटोथी लींपेलुं वासण होय, तेमांथी काढीने कांइपण आहार आपे, तो ते वासण खोलतां पृथ्वीकायनो आरंभ करे, तेज केवळी प्रभु कहे छे, तथा अग्नि वायुनो तेमज वनस्पति तथा सकायनो पण आरंभ करे, अने साधुने आप्या पछी बाकी रहेल मालना रक्षण माटे ते वासणने पाएं लोंपे माटे साधुने पूर्व कहे| ली आ प्रतिज्ञा होवाथी अने तेज हेतु तेज कारण होवाथी आ उपदेश छे के, तेनुं माटीथी लींपेलुं वासण उघडावीने मळतुं भोजन के वस्तु कंपण लेबुं नहि. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वळ ते भिक्षुक गृहस्थना घरमा पेसतां बळी आवुं भोजन विगेरे जाणे, तो नले, एटले पृथ्वीकाय उपर स्थापेल आहारने जाणीने पृथ्वीकायना संघट्टन विगेरेना भयो अमामुक जाणाने मळतुं होय तो पण नले, एज प्रमाणे पाणी उपर अनिकायमा स्थापेल होय तो पोते ले नहि, कारण के केवळी तेमां आदान कहे छे, तेज बतावे छे, 'असंयत' गृहस्थ भिक्षु माटे अनि उपर स्थापेल वासणने आमतेम फेरवी आहार आपे तेथी ते जीवोने पीडा थाय माटे साधुओनी आ प्रतिज्ञा छे के तेत्रो आहार लेवो नहि. से भिक्खू वा २ से जं० असणं वा ४ अच्चुसिणं अस्संए भि० सुप्पेण वा विदुणेण वा तालियंटेण वा पत्तेण वा साहाए For Private and Personal Use Only सूत्रमू ॥९९२॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥९९३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वा साहाभंगेल वा पिहुणेण वा पिहृणहत्थेण वा वेलेण वा चेलकण्णेण वा हत्थेण वा मुहेण वा फुमिज्ज वा श्री वा, से पुब्वामेव आलोइज्जा- आउसोत्ति वा भइणित्ति वा ! मा एतं तुमं असणं वा अच्चु सिणं सुप्पेण वा जाव फुमाहि वा वीयाहि वा अभिकखसि मे दाउं, एमेव दलयाहि, से सेवं वयंतस्स परो सुप्पेण वा जाव वीइत्ता आहछु दलइज्जा तहप्पगारं असणं वा ४ अफासूयं वा नो पडी० ॥ ( मू० ३९ ) ।। ते भिक्षु गृहस्थना घरमा पेठेलो जो आ प्रमाणे जाणे के आ घणो उनो भात विगेरे साधुने उद्दशीनेज गृहस्थ ठंडो करवा | माटे सूपडाथी, बींजणाथी, मोरना पोंछाना पंखायी अथवा शाखाथी के शाखाना भंगवडे अथवा पोंछाथी अथवा पछाना समूहवडे, वस्त्रथी के वस्त्रना छेडाथी, हाथथी, मोठेथी अथवा तेवा कंइपण ओजारथी फुंकीने ठंडो करे, अथवा वस्त्रथी बींजे, आ प्रमाणे करवा पहेलां साधु लक्ष्य राखीने तेनुं गृहस्थ करे, ते पहेलां तेने नाम दइने बोले के हे भाई ! हे बहेन ! आवुं तमे करीने मने आपवानी इच्छा धरावो छो, तो तेम फुंकया विनाज अमने आपो, आवुं साधु कहे तो पण गृहस्थ हटथी सूपडेथी के मुखना वायुवडे फुंकीने आपे तो तेने अनेषणीय ( दोषित) आहार जाणीने लेवो नहि. ficer अधिकारथीज एषणा दोषोने उद्देशीने कहे छे. से भिक्खू वा २ से जं० असणं वा ४ वणस्सइकायपइद्वियं तहष्पगारं असणं वा ४ वण० लाभे संते नो पडि० । एवं तसकाएवि । (मृ० ४० ) ॥ ते भिक्षु गृहस्थना घरमा गयेलो एवं जाणे, के वनस्पतिकायमां चारे प्रकारनो आहार छे, तो ते जाणीने ले नहि, ए प्रमाणे For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ ९९३ ॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ९९४ ॥ www.kobatirth.org सकायनुं सूत्र पण जाणवुं, अहीं ( वनस्पतिकायमां रहेलुं ) आ सूत्र वडे निक्षिप्त नामनो एषणादोष लेनार आपनार बनेनो भेगो बताव्यो, तेज प्रमाणे वीजा पण एषणादोष यथासंभव सूत्रोमां योजवा ते आ प्रमाणे छे. संकीय मक्खिय निक्खित पिहिय साहरियदा यगुम्मीसे; अपरिणय लित्त छड्डिय, एसण दोसा दस हवंति ॥ १ ॥ (१) अधाकर्म विगेरेथी शंकित आहार विगेरे न लेबुं, (२) पाणी विगेरेथी मृक्षित [ लोंपायेल ] होय, (३) पृथ्वीकाय विगेरेमा स्थापन करेलुं होय, (४) बीजोरा विगेरे फळथी ढांकेलं होय (५) वासणमांथी तुप विगेरे न आपका योग वस्तु बीजी सचित्त पृथ्वी विगेरे उपर नांखीने ते वासण विगेरेथी जे आपे, ते संहृत दोष छे. (६) बाल वृद्ध विगेरे दान देनार शुद्धि तथा शक्ति विनानो होय, (७) सचित्त विगेरे पदार्थथी मिश्रित वस्तु होय, (८) देवनी वास्तु बरोबर अचित्त न थइ होय, अथवा देनार लेनारना भावविनानी होय ते अपरिणत कद्देवाय, (९) चरबी विगेरे निंदानीक पदार्थथी लिप्त होय (१०) छांटा पाडती वहोरावे. आ दस दोष एसणाना कथा, ते टाळवा जोइए. हवे पीवाना आश्रयी कहे छे सेभिक्खू वा २ से जं पुण पाणगजायं जाणिज्जा, तंजहा - उस्सेइमं वा १ संसेइमं वा २ चाउलोदगं वा ३ अन्नयरं वा तहष्पगारं पाणगजायं अहुणाधोयं अणंबिलं अव्युकंतं अपरिणयं अविद्धत्थं अफामुयं जाव नो पडिगाहिज्जा । अह पुण एवं जणिज्जा चिराधोयं अंबिलं वुक्तं परिणयं विद्वत्थं फासूयं पडिगाहिज्ज । से भिक्खु वा० से जंपुण पाणगजायं जाणिज्जा, तं जहा - तिलोदगं वा ४ तुसोदगं वा ५ जवोदगं वा ६ आयामं वा ७ सोवीर वा ८ सुद्धवियर्ड वा ९ अन्नयरं वा तहष्पगारं वा पाणगजायं पुत्र्वामेव आलोइज्जा आउसोति वा भणित्ति वा ! दाहिसि मे इतो अन्नयरं पाणग Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ ९९४ ॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | सूत्रम् ॥९१५॥ ॥९१५॥ जायं ? से सेवं वयतस्स परो वइज्जा-आउस्सं तो समाणा! तुमं चेवेयं पाणगजायं पडिग्गहेण वा उस्सिचिया गं आचा० उयत्तियो णं गिहाहि, तहप्पगारं पाणगजायं सयं वा गिहिज्जा परो वा से दिज्जा, फामुयं लाभे संते पडिगाहिज्जा । (मू०४१) ते साधु गृहस्थना घरमां पाणी माटे गयेल होय, त्यां ए७ जाणे के आटोगुंदळवार्नु आ पाणी छे, ते उस्सोइम छे, तथा तलने धोवानुं पाणी छे, ते संसेइम छे, अथवा अरणिका विगेरे धोवानुं पाणी छे, तेमां प्रथमनां वे तो प्रासुक छेज; पण त्रीजा चोथा नंबरना पाणी मिश्र छे, ते अमुक काळे परणित [फासु ] थोय छे, ते चावल [चोखा] नुं धोवण छे, तेमां त्रण अनादेश छे, परपोटा थता होय, पाणीनां बिंदुओ वासणने लागेलां शोषाइ गयां होय, अथवा तंदुलरंधाइ गयां होय, पण तेनो खरो आदेश आ छे, के पाणी स्वच्छ थइ गघु होय, [परपोटा बेसीने स्वच्छ थयुं होय तेज लेवाय ]-अनाम्ल ते पोताना स्वादथी अचलित अव्युक्रांत अपरिणत अविध्वस्त अप्रामुक मालुम पडे ते साधुए लेवु नहि, अने तेथी विपरित होय तो गृहण करवू, फरी पाणीना अधिकारथीज विशेष कहे छे. ३ ते भिक्षु गृहस्थना घरमा पेठेलो आq पाणी जाणे, के [४] तलनुं धोवण कोइपण प्रकारे प्रामुक करेलुं पाणी, गृहस्थना से घरमां छे, ए प्रमाणे [५-६] तुषथी, जवथी, अचित्त थयुं होय, [७] आचाम्ल [ ओसामण] [८] आरनाल सोवीर [९] बरोबर Pउनु पाणी शुद्ध विकट अथवा तेवू द्राक्षतुं धोवण विगेरे अचित्त पाणी जुए, तो गृहस्थ ने कहे, के हे भाइ ! हे बाइ ! जे कंइ आधुं 18 अचित्त पाणी होय, ते मने आपो! ते वखते गृहस्थ बोले, के हे साधु ! तमेज आ पाणी पोताना पानरा वडे के काचलीवडे के SACSCRESCIENCER-ANCSCROCUS For Private and Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥९९६॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कडायुं उंचकीने के वांकुवाळीने वासणमांथी लो, ते प्रमाणे कहे तो साधु पोते ग्रहण करे, अथवा गृहस्थ तेने आपे, तो मासुक पाणी साधुए लेबुं. वळी भिक्खु वा से पुण पाणगं जाणिज्जा - अणंतरहियाए पुढत्रीए जाव संताणए उद्धट्टु २ निक्खित्ते सिया, असंजए भिक्खूपडियाए उदउल्लेण वा ससिणिध्येण वा सकसाएण वा मत्तेण वा सीओदेगेण वा संभोत्ता आहहु दलइज्जा, तहपगारं पाणगजायं अफासूयं ० एयं खलु समाग्गियं० ॥ ( सू० ४२ ) ॥ पिण्डैषणायां सप्तमः २-१-१-७ । ते भिक्षु जो आ जाणे के ते अचित पाणी, सचिन पृथ्वीकाय विगेरेमां आंतरा विना मुकेलुं छे, अथवा करोळीयाना जाळा विगेरेमां बीजा वासणमांथी लइ लइने तेमां वासण मुकेलं छे, अथवा ते गृहस्थ भिक्षुने उद्देशीनेज काचा पाणीना गलतां टपकांवडे अथवा सचित पृथ्वी विगेरेना अवयवधी खरडायेलं भाजन होय, अथवा ठंडा पाणीथी मिश्र करीने-भेगुं करीने आपे, ते पाणी 'अनेषणीय' जाणीने लेबुं नहि, आ भिक्षुनी संपूर्ण साधुता >. सातमो उद्देशो समाप्त. आठमो उद्देशो. सातमो कहीने आठमो उद्देशो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे. गया उद्देशामां पाणीनो विचार बताव्यो, अहिं, पण तेज पाणी संबंधी विशेष कहे छे For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥९९६ ॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० सूत्रम् ॥९१७॥ ॥९१७॥ से भिक्खू वा २ से जं पुण पाणगजायं जाणिज्जा, तंजहा-अंबपाणग वा १० अंबाडगपाणगं वा ११ कविठ्ठपाण) १२ माउलिंगपा० १३ मुद्दियापा० १४ दालिमपा० १५ खजूरपा० १६ नालियेरपा० १७ करीरपा० १८ कोलपा० १९ आमलपा०२० चिंचापा०२२ अन्नयरं वा तहप्पगारं पाणगजातं सअट्टियं सकणुयं सबीयगं अस्संजए भिक्खूपडियाए छब्बेण वा दुसेण वा बालगेण वा आविलियाण परिवीलियाण परिसावियाण आह९ दलइज्जा तहप्पगारं पाणगजायं अफा० लाभे संते नो पडिगाहिज्जा ।। (मू०४३)॥ ते साधु गृहस्थना घरमां गयेल आवा प्रकारनुं पाणी जाणे, के केरीनुं तथा अंबाडानुं धोवण (१०-११) छे, तथा कोठ (१२) । नुं धोवण छे, बीजोएं (१३) मुद्रिका (द्राक्ष) धोवग (१४) छे, दाडम (१५) नु, खजुर (१६) नु, नालियेर (१७) केर (१८) कोल (बोर) नुं (१९) आमणां (२०) चिंचा आंबली (२१) तथा तेवां बीजां बधां पाणी-एटले द्राक्ष, बोर, आंवली विगेरे कोइपण पाणीने ते क्षणेज चूरीने कराय छे, तथा अंबाडा विगेरेनुं पाणी वेत्रण दिवस साथे राखीने पलाळे आq पाणी होय अथवा तेची जातनुं बीजुं होय, ते ठळियासाथे वर्ते, अथवा कणुक (छाल विगेरे अवयव ) साथे होय, तथा बीज सहित वर्ते, ठळीयो 8 तथा बीज आमणां विगेरेमा जुदापणुं प्रीतीत छे, आq पाणी गृहस्थ साधुने उद्देशीने द्राक्ष विगेरे चुरीने अथवा वांसनी छालथी 8 बनावेल छाबडी विगेरे पलाळीने अथवा गाय विगेरेनां छडाना पूंचाळना बनावेल चालणावडे अथवा सुगृहीपक्षीना माळा वडे. ठळियो विगेरे दूर करवा एकवार मसलोने के वारंवार चोळीने नथा परिस्रवण करीने-गाळीने साधु पासे लावीने आपे, आ, पाणी | | उदगमदोपथी दुष्ट जाणीने मळतुं होय, तो पण ले नहि, उदगमदोषथी नीचे प्रमाणे छे, For Private and Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा ॥९१८॥ आहाकम्मुद्देशोस्सिय पूतीकम्मे अमीसजाए अ । उवाणा पाहुडियाए पाओअर कीय पामिच्चे ॥१॥ परिट्टिए अभिहडे, उन्भिन्ने मालोहडे इअ अच्छेज्जे अणिसष्टे, अज्झोअरए अ सोलसमे ॥२॥ सूत्रमू (१) साधुना माटे जे सचित्तनुं अचित्त करे, अथवा अचित्त रांधे ते आधाकर्म दोष छे (२) जे पोताना माटे तैयार रसोइ || थइ होय ते लाडुना चूर्ण विगेरे गोळ विगेरेथी साधुने उद्देशीने वधारे संस्कारवाल्लु बनावे, आ समान्यथी छे, (पण विशेषथी जा-| ॥९१८॥ प्राणवा इच्छनारे विशेष मूत्रथी जाणवू (३) आधाकर्मना भागथी मिश्र करे ते पूतीकर्म छे, (४) साधु तथा गृहस्थने आश्रयी प्रथमथी आहार भेगो रंधाय ते मिश्र छे. (५) साधुने माटे खीर विगेरे जुदी काढी राखे ते स्थापना दोष छे, (६) घरमां लग्न विगेरेना अवसर आववानो होय ते साधुने आवेला जाणोने के आववाना जाणी तेमने ते मिष्टान्न विगेरे आपवा माटे आगळ पाछळ करे, 3 ते पाभृतिकादोष छे, (७) साधुने उद्देशीने झरुखा बारी विगेरे उघाडवी, अथवा अंधारामांथी लावीने अजवाळामां मुकवू ते प्रादु करण छे, (८) गव्य विगेरे आपीने खरीद करे ते क्रीतदोष छे साधु माटे कोइर्नु उछीकुं-उछीन ले ते 'पामिच्च' दोष छे (१०) P कोदरा विगेरे आपीने पाडोशीना घरमांथी शालि विगेरेनाचोखा बदले लावे. ते परिवर्तितदोष छे, (११) घर विगेरेथी साधुना | उपाश्रयमां लावीने आपे ते अभ्याहृतदोष छे, (१२) छाण विगेरेथी लींपेलं वासण खोलीने आपे, ते उद्भिन्न दोष छे, (१३) माळा | उपर विगेरेथी-निसरणी वडे लावीने आपे ते मालहत दोष छे, (१४) नोकर विगेरेथी छीनवी लइने आपे ते आ छेद्य दोष छे, (१५) समुदाय आश्रयी रंधायेखें, बधानी रजा लीधा सिवाय एकलो आपे ते अनिमुष्ट दोष छे, (१६) पोताना माटे रंधाता अन्नमां पाछळथी तांदुल विगेरे साधुने आवता सांभळीने रांधतां उमेरे ते 'अध्यवपूरक' दोष छे, आवा कोइपण दोषथी दोषित आहार For Private and Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० सूत्रम् ॥९१९॥ 9+05- ॥९१९॥ होय तो साधुए ते आहार लेवो नहि. पार्छ पण भोजन पाणी विगेरे आश्रयी कहे छे. से भिक्खू वा० २ आगंतारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावईगिहेसु वा परियावसहेसु वा अन्नगंधाणि वा पाणगंधाणि __वा सुरभिगंधाणि वा आघाय २ से तत्थ आसायपडियाए मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झो ववन्ने अहो गंधो २ नो गंधमाघाइज्जा (मू०४४) ते साधु आगंतार ते शहेरनी बहार मुसाफरो आवीने उतरे तेवी धर्मशाळा के मुशाफरखानामां अथवा आराम घरो [बगीचानी अंदरना मकान] मां अथवा गृहस्थना घरोमां पूजाना घरोमां अथवा भिक्षुकना मठमां ज्यां अन्न-पाणीनी सुगंधीना गंधोने मुंघी | मुंघीने तेना स्वादनी प्रतिज्ञाथी मूर्छित गृद्ध घेलो बनेलो अहाहा! | सुगंध छे! एवो प्रेमी बनीने ते गंधने मुंघे नहि. फरी पण आहारने आश्रयी कहे छे से भिक्खू वा २ से जं० सालुयं वा बिरालियं वा सासवनालियं वा अन्नयरं वा तहप्पगारं आमगं असन्थपरिणयं अफामु०। से भिक्खू वा० से जं पुणपिप्पलि वा पिप्पलचुण्णं वा मिरियं वा मिरियचुणं वा सिंगबेरं वा सिंगवेरचुण्णं वा अन्नयरं वा तहप्पगारं वा श्रामगं वा असत्य प० । से भिक्खू वा० से जं पुण पलंबजायं जाणिज्जा, तंजहा-अंबपलंब वा अंबाडगपलंबं वा तालप० जिज्झिरिप० सुरहि० सल्लरप० अन्नयरं तहप्पगारं पलंबजायं आमंग असत्यप० । से भिक्खू ५ से जं पुण पवालजायं जाणिजा, तंजहा-आसोटुपवालं वा निग्गोहप० पिलुंखुप० निपूरप० सल्लइप० अन्नयरं वा तहप्पगारं पवालजायं आमगं असत्थपरिणयं० । से भि० से जं पुण० सरडुयजायं जाणिज्जा, तंजहा-सरडयं वा 5 For Private and Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ९२० ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कसर० दाडिमसर० बिल्लस अन्नयरं वा तहष्पगारं सरडयजायं आमं असत्थ परिणयं० । से भिक्खू वा० से जं पु० तंजा-उबरधुं वा नग्गोहमं० पिलुंखुम० आसात्थमं० अन्नमरं वा तहप्पगारं वा मंथुजायं आमयं दुरुकं साणुवीयं अफासूयं ० || (सू० ४५ ) ते भिक्षु सालक ( पाणीमां थनारुं कंद ) बिरालिय (स्थळमां थनारुं कंद ) सरसवनी कंदलीओ ते कंपण काचुं कंद कांदळ विगेरे शस्त्रोथी परिणत थयेलुं नहोय, तेमज ते भिक्षु पीपर, पीपरनुं चुरण, मरचां मरचांनुं चुरण सींगोंडा सींगोडानुं चुरण अथवा ते कंपण काचं शस्त्र फरस्सीया विनानुं अमासुक होय ते, आंबाना फळ (केरीओ) अंबाडानां फळ, ताडनां फळ झिज्झि ते वल्लीपलास सुरभि ते शतद्रु छे सल्लर छे. आ प्रमाणे जे कंद काचं फळ होय, अने ते शस्त्रथी परिणत न होय तो सचित्त जाणीने लेबुं नहि. वी ते भिक्षु कोइपण जातिनुं प्रवाळ ते पीपळानुं; बडनुं पिलुंखु (पीपरी ) निपुर ( नंदीवृक्ष) शकी अथवा ते वीजुं कांइपण प्रवाळ होय तो, काचुं सचित्त होय तो लेवुं नहि, तेज प्रमाणे ते साधु कोइपण जातिनु 'सरडुअ' ते ठळीयो बंधाया विनानुं फळ होय, ते कोट, दाडम, बिल्लुं अथवा तेवुं कोइपण जातिनुं फळ होय ते. शस्त्रथी परिणत नहोय ते साधुए लेबुं नहि, तेज प्रमाणे साधु उंबरनं मंथुं (चुरण) होय, वडनुं, पिलंखु, पीपळो अथवा तेनुं बीजानुं चुरण होय तो, शस्त्रथी परिणत थया विनानुं होय तो लेबुं नहि, आमंथु थोडं पीसेलुं होय ते दुरुक्क कहेवाय छे, साणुवीय ते तेनां बीज वधां कायम रह्यां होय, तो काचं जाणवुं. ते न कल्पे. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥१२०॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | सूत्रम् स से भिक्खू वा० से जं पुण. आमडाग वा पूइपिन्नागं वा महुं वा मज्जं वा सपि वा खालं वा पुराणगं वा इत्थ पाण अणुप्पआचा , सूयाई जायाई संवुड्डाई अव्वुकताई अपरिणया इत्थ पाणा अविद्धन्था नो पडिगाहिज्जा ।। (मू०४६)। वळी ते साधु एम जाणे के काचां पान ते अरणीक तंदुलीय (तांदळजा) विगेरेनां पांदळां अर्ध काचां अथवा तदन काचां ॥९२१॥ 18/छे, अथवा तेनो खल को छे, मध मांस जाणीतां छे, तथा घी तथा खोल दारुना नीचेनो कचरो आ बधा घणा बरसनां जुनां 8 ॥९२१ होय तो लेवां नहि, कारण के तेमां जीवो उत्पन्न यइ जाय छे, अने तेथी ते अचित्त होतां नथी, मूतमां संवृद्धा विगेरे एक अर्थवाळा | । छतां जुदा जुदा देशना शिष्योने समजाववा मूत्रकारे लीधा छे अथवा तेमां किंचित् भेद छे. (आमां मध अने दारु अभक्ष्य छतां शास्त्र5 कारे चोपडवा माटे कारण विशेष छूट एटला माटे आपीछे के हाथ पग उतरी गयो होय तो तेनो उपयोग करवो पडे, ते संबंधे | साधुने महान् प्रायश्चित छे, माटे वर्तमानकाळमां पण बने त्यां सुधी चोळवा चोपडवामां तेवी चीज न वापरवी, पण बीजो उपायज न होय तो कदाच वापरवी पडे तो पण तेनुं छेदमूत्र प्रमाणे महान प्रायश्चित लेबु के दुर्गति न थाय.) से भिक्खू वा से जं० उच्छुमेरगं वा अंकरेलुगं वा कसेरुगं वा सिंघाडगं वा पूइआलुगं वा अन्नयरं वा० । सेभिक्खू 8 वा० से जं० उपलं वा उप्पलनालं वा भिसं वा भिस- मुणालं वा पुक्खलं वा पुक्खलविभंग वा अन्नयरं वा तहप्पगारं० ॥ (मू० ४७)॥ उच्छमेरंग ते छोलेली शेरडीना टुकडा, अंके करेलं कसेरुग सींगाडां पूइआलूग अथवा तेवू बीजु कंद काचु शखयी हणाया विनानुं होय, तो साधुए लेवु नहि. तेज प्रमाणे लीलुं कमळ, तेनी नाल, अथवा पदमर्नु कद तेनी नाळ, पोकखल, पदमना For Private and Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥९२२॥ केसरा अथवा तेनुं कंद अथवा तेवु कोइपण कंद शस्त्रथी हणायाविनानु काचुं होय तो कल्पे नहि. आचा० से भिक्खू वा २ से जं पु० अग्गबीयाणि वा मूलबीयाणि वा खंघबीयाणि वा पोरवी० अग्गजायाणि वा भूलजा० खं धजा० पोरजा० नन्नत्य तकलिमत्थए ण वा तकलिसीसे ण वा नालियेरमत्थएण वा खज्जूरिमत्थएण वा तालम० अन्न॥९२२॥ यरं वा तह । से भिक्खू वा २ से जं. उच्छं वा काणगं वा अंगारियं वा संमिस्सं विगमियं वित (त्त) ग्गगं वा कंदलीऊमुग अन्नयरं वा तहप्पगा। से भिक्खू वा० से जं० लमुणं लमुणपत्तं वा ल० नालं वा लमुणकंदं वा ल० चोयगं अन्नयरं वा० । से भिक्खू वा० से जं. अच्छियं वा कुंभिपकं तिदुर्ग वा वेलुगं वा कासवनालिय वा अन्नयरं वा तहप्पगारं आमं असत्थप० । से भिक्खू वा० से जं० कणं वा कणकुंडगं वा कणपूयलिय वा चाउलं वा चाउलपिटुं वा तिलं वा निलपिटं वा तिलपप्पगडगं वा अन्नयरं वा तहप्पगारं आमं असत्थप लाभे संते नो प०, एवं खलु तस्स भिक्खुस्स सामगियं ।। (मू०४८)२-१-१-८॥ पिण्डैषणायामष्टम उद्देशकः ॥ ते भिक्षु आईं जाणे, के जवा कुसुम विगेरे अग्रवीज छे, जाइ विगेरेनां मूळ्बीज छे, सल्लकी विगेरे स्कंधबीज छे, अथवा इक्षु 18 (शेरडी) विगेरेनां पर्वबीज छे, तेज प्रमाणे अग्रजात, मृळजात, स्कंधजात, पर्वजात ते तेमांथीज जन्मे छे, पण बीजेथी नहि., ततक्कली (कंदली) मस्तक (वचलो गर्भ) अने कंदलोशीर्ष ते तेनो स्तबक ए प्रमाणे नाळियेर विगेरेमां पण समजवू, अथवा । कंदली विगेरेना मस्तक समान जे कंइ छेदवाथी तुर्तज ध्वंस पामे छे, तेवू बीजं पण काचुं अशस्त्र परिणत होय ते लेवु नहि, तथा । ते भिक्षु एवू जाणे के शेरडी, रोग विगेरेथी छिद्रवाळी थाय अंगारहित (रंगे बगडी गयेल ) होय, तथा छाल छेदाइ गयेली होय, For Private and Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥९२३॥ विगदूमिय, ते वरगडे अथवा शियाळिए थोडी खाधेल होय, आवा छिद्र विगेरेथी ते शेरडी विगेरे अचित्त थती नथी तथा वेत्राग्र आचा | तथा 'कंदली ऊस्मयं ते कंदलिनो मध्य भाग एवं वीजुं पण काचु अपरिणत होय तो लेQ नहि, आ प्रमाणे लसण संबंधी पण ॥९२३॥ जाणवू के अपरणित होय ते न लेवु, आमां 'चोयग' नो अर्थ कोशिकाना आकारे लसणने बहार छाल होय, छे. ते ज्यांसुधी लीली | होय त्यांसुधी सचित्त जाणवी, अच्छियं ते कोइ वृक्षनुं फळ छे, तथा टोंबरु, बीलु कासवनालिय ते श्रीपर्णीनुं फळ छे, आ काचां फळो ने एकदम पकववा खाडामां नाखीने पकवे ते पाकेला पण सचित्त जाणवां, ते साधुने न कल्पे. ( आम जे पकवे ते कुंभीपाक । कहेवाय छे.) क तथा शालि विगेरेना कण ते कणिका छे, तेमां कोइ नाभि ( सचित्तयोनि ) होय, कणिककुंड ते कणकीमिश्रित कुकसा तथा | 18 कणपूयलिय ते कणकीथी मिश्रित पूपलिक कहेवाय छे. आमां पण थोडंक पकवेल होय तो नाभि (सचित्त योनि ) संभवे छे. (बाकी तेमां तल, तलनो पीठ, तलनो पापड विगेरेमा वखते सचित्त योनि होय माटे काचुं लेवु नहि, आवी चीज मळे तोपण | लेवी नहि,) आज साधुनी संपूर्णता साधुता छे. आठमो उद्देशो समाप्त थयो. SACRORECASCIRC For Private and Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ९२४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नवमो उद्देशो. आम कहने नवम उद्देशो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे, गया उद्देशामां अनेषणीय पिंडनो त्याग बताव्यो, अहीं पण बीजे प्रकारे तेज बतावे छे. इह खलु पाईणं वा ४ संतेगझ्या सढा भवंति, गाहावई वा जाव काम्मकरी वा, तेसि च णं एवं वृत्तपुब्वं भवइजे इमे भवंति समणा भगवंता सीलवंतो वयवंतो गुणवंतो संजया संबुडा बंभयोरी उबरया मेहुणाओ धम्माओ, नो खलु एएसि कप्प आहाकम्मिए असणे वा ४ भुतए वा पायए वा, से जं पुण इमं अहं अप्णो अडाए निट्ठियं तं असणं ४ सव्वमेयं समणाणं निसिरामो, अवियाई वयं पच्छा अप्पणो अट्टाए असणं वा ४ चेइस्सामो, पयप्पगारं निग्घोसं सुच्चा निसम्म तहष्पगारं असणं वा अफासूर्य० ॥ ( भू० ४९ ) 'इड' शब्द वाक्यना उपन्यास माटे छे, अथवा मज्ञापकना क्षेत्र आश्रयी छे. खच शब्द वाक्यनो शोभा माटे छे. ) प्रज्ञापकनी अपेक्षाए पूर्व विगेरे दिशाओ छे, अर्थात गुरु-शिष्यने कहे छे, के-पुरुषोमां केटलाक एवा श्रद्धालुओ श्रावक अथवा प्रकृतिभद्रक अन्य पुरुषो होय छे, ते गृहस्थ अथवा कर्म करी ( काम करनारा ) होय छे, तेमने मालीक कहे के, आ. गाममां आ आवेला साधु भगवंतो १८००० भेदे शीलवत पाळनारा छे, तथा पांच महाव्रत तथा छठु रात्रिभोजन विरमणत्रत धारनारा, तथा पिंडविशुद्धि विगेरे उतरगुणयुक्त इंद्रिय मनने दमन करवाथी संयत छे, तथा आस्नवद्वार (पापस्थान) रोकवाथी संतृत छे, नवविध ब्रह्मचर्य | गुल्पि पाळवाथी ब्रह्मचारी छे, मैथुन ( कुसंग ) थी दूर छे, १८ प्रकारनुं ब्रह्मचर्य पाळनारा छे, आवा साधुओने आधाकर्मी विगेरे For Private and Personal Use Only सूत्रमू ॥९२४॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit आचा० C+ ॥९२५॥ ॥९२५॥ दोषित भोजन विगेरे कल्पतुं नथी, माटे आपणे आपणुं रांधेलं बधुं तेमने वोहरावी दइए, आपणा माटे पछवाडे संधी लइथू. तेथी|8| | तेओ आq करे, तेम साधु पोते साक्षात् सांभळे अथवा बीजा पासे सांभळीने जाणीने तेवू भोजन विगेरे अनेषणीय जाणीने मळवा उतां पोते ले नहि. से भिक्खू वा० वसमाणे वा गामाणुगाम वा दृइज्जमाणे से जं० गाम वा जाव रायहाणिं वा इमंसि खलु गामंसि वा रायहाणिसि वा संतेगइस्स भिक्खुस्स पुरेसंथुया वा पच्छासंथुया वा परिवसंति, तंजहा-गाहावई वा जाच कम्म० तहप्पगाराई कुलाई नो पुवामेव भत्ताए वा निक्खमिज का पविसेज वा २, केवली बूया-आयाणमेयं, पुरा पेहाए तस्स परो अट्ठाए असणं वा ४ उकरिज्ज वा उवक्खडिज वा, अह भिक्खूणं पुब्बोवइटा ४ जं नो तहप्पगाराई कुलाई पुवामेव भताए वा पाणाए वा पविसिज्ज वा निक्खमिज्ज २, से तमायाय एगंतमवक्कमिज्जा वा २ अणावायमसंलोए चिट्ठिज्जा, से तत्थ कालेणं अणुपविसिज्जा २ तत्थियरेयरेहिं कुलेहिं सामुदाणियं पसियं वेसियं पिंडवायं एसित्ता आहारं आहारिजा सिया से परो कालेण अणुपविट्ठस्स आहाकम्मियं असणं वा उवकरीज्ज वा उवक्खडिज्जा वा तं चेगइओ तुसिबीओ उवेहेज्जा, आहडमेव पञ्चाइक्खिस्सामि, माइटाणं संफासे, नो एवं करिज्जा, से पुवामेव आलोइज्जा आउसोत्ति वा भइणित्ति वा ! नो खलु मे कप्पइ आहाकम्मियं असणं वा ४ भुत्तए वा पायए वा, मा उवकरेहि मा उवक्खडेहि, से सेवं वयंतस्स परो आहाकम्मियं असणं वा ४ उवक्खडाबित्ता आहुट्ट दलइज्जा तहप्पगारं असणं वा अफामुर्य० ॥ (मू० ५०) ESCIENCER-4-PICASSCORCE For Private and Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥९२६॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandi ते भिक्षु आ जाणे के गामथी लइने राजधानी सुधीनी आ स्थानोमां अमुक साधुना पूर्वनां सगां ते काका विगेरे छे अने | पछवाडेयो थएला सगां सासरीयां विगेरे छे, ते त्यां घरवास करीने रहेलां छे, तेमां गृहस्थथी लइने काम करनार नोकर बाइ सूत्रमू | सुधां छे, तेवां कुळो जे सगां-संबंधीना छे तेमां न जवू, न आवg, सुधर्मास्वामी कहे छे के. तेवू केवली प्रभु कहे छे, के तेमां ॥९२६॥ | अशुभकर्म बंधाय छे, ___०-शामाटे दोष छे ? उ०-ते घरमा साधुने माटे प्रथमथी विचार करी राखे, एटले प्रथमथी गृहस्थ ते साधु माटे उपकरण है | तैयार करावी राखे, तथा रसोइ विगेरे रंधावी तैयार करावे, तेथी साधुओ माटे आ प्रतिज्ञा विगेरे प्रथमथी कहेल छ, केतेवां सगां । संबंधीनां कुलोमा भिक्षाकाळथी पहेला जर्बु आवq नहि, त्यारे शुं करवू ? ते कहे छे, ते आत्मार्थी साधुए ते गाममा पोतार्नु कुळ | जाणीने सगां न जाणे तेवी रीते पोते जाय अने त्यां घळवाळां न आवे, न देखे त्यां एकांतमा रहे, अने गोचरीनां वखते जुदा जुदा कुळमाथी एपणीय आहार बधेथी एटले सगां के बीजांनो भेद राख्या विना वेषमात्रथी मेळवे, एटले उत्पादन दोष विगेरे || लागवा न दे. ते उत्पादन दोषो नीचे मुजब छे. धाई दूइ निमित्ते, आजीव वणीमगे तिगिच्छा य । कोहे माणे माया, लोभे य इवन्ति दस एए ॥१॥ पुट्विपच्छासंथव-विज्जा मंते अचुण्णु जोगे य । उप्पायणाय दोसा सोलसमे मूलकम्मे य ॥ २॥ गोचरी माटे गृहस्थनां छोकरां रमाडवा विगेरेनुं कृत्य करे, ते (१) धात्रीपिंड छे, (२) दुतीपिंड गोचरी माटे गृहस्थनो संदेशो। इतनी माफक लइ जाय (३) अंगुठो तथा प्रश्न रेखा विगेरेनुं फळ बतावी आहार ले ते निमित्तपिंड छे. (४) आजीवपिंड ते पोतानी For Private and Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandi ISI पूर्वनी उत्तमजाति विगेरे वताची पिंड ले ते, (५) वणीमगपिंड ते गृहस्थ जेनो धर्म पाळतो होय तेनी प्रशंसा करी गोचरी ले, AI आचा०1|(६) चिकित्सापिंड ते, गृहस्थने नानी मोटी दवा बताची गोचरी ले ते, (७) क्रोधथी, (८) अहंकारथी, (९) कपट करीने, (१०) सूत्रम् लोभथी वेष विगेरे बदलीने गोचरी ले, (११) पूर्व पश्चात् संस्तवपिंड ते गृहस्थ दान आपे ते पहेलां तेना संबंधीनी प्रशंसा करे| 18 के तमे अवा कुळमां जन्म्याछो, आवा कुळमां परण्याछो-इत्यादि बोलीने गोचरी ले, (१२) विद्यापिंड, ते विद्या बतावी छोकरां ॥९२७॥ 1 भणावीने पिंड ले, (१३) मंत्रपिंड, मंत्रनो जाप बतावीने गोचरी ले (१४) चुर्णपिंट, वशीकरण विगेरे माटे द्रव्य (सुगंधी) चुर्ण || मंत्रीने आपीने गोचरी ले, (१५) योगपिंड-ते अंजन विगेरे आपीने गोचरो ले, (१६) जे अनुष्ठानथी गर्भपात विगेरे थाय तेवू करीने गोचरी ले, आ सोळे दोषो साधुथी उत्पन्न थाय छे माटे उत्पादन कहेवाय छे. (ते न लगाडवा जोइए ) ग्रास एपणाना द दोषो नीचे मुजब छे. १ संजोअणा २ पमाणे ३ इंगाले ४ धम कारणे चेव N (१) आहारना लोलुपपणाथी दहि, गोळ, (साकर ) मेळवीने शीखंड बनावीने खाय, ते संयोजना दोष छे, बत्रीश कोळीयाधी वधारे प्रमाणमां आहार खाय तो प्रमाण अतिरिक्त ( वधारे) दोष कहेवाय, (३) सारी गोचरी राग करीने खाय तो चारित्रने [४] अंगारा माफक बळवाथी अंगार दोष तथा (४) अंत प्रांत आहार मळतां आहार तथा आहार आपनारनी निंदा करतो खाय तो चा रित्रने काळु करवाथी धुम्र दोष छे, (५) वेदना विगेरे कारण विना आहार करे तो कारण अभाव दोष छे. म आ प्रमाणे साधुना वेषमात्रथी प्राप्त करेलु ग्राप एषणा विगेरे दोष रहित आहार लेइने वापरवो, कदाच एम थाय, के गृह स्थ गोचरीना समये साधु जाय तो पण आधाकर्मी अशन विगेरे बनावे, ते वखते साधु उपेक्षा करे, शामाटे ? के ते लेतांज हुँ I EOX For Private and Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 18॥९२८॥ पच्चखाण करीश, अने हुँ ते नहीं लर्ड एवु धारे अने स्वादथी पछी कपट करे, अने ले, पण आई प्रथमज न करवू, केवी रीते 8/ आचा० कर ? ते कहे छे, प्रथम गोचरी लेतां उपयोग राखे, अने तेवू जाणे तो कहे, के हे शेठ ! हे बाइ ! अमने अमारा माटे बनावेलो सत्रम आहार विगेरे खावापीवाने (आधाकर्मी) कल्पतो नथी ! माटे तेने माटे तमारे यत्न न करवो ! आवं कहेवा छतां पण गृहस्थ ॥९२८॥ 18 आधाकर्मी आहार करे तो मळे छतां पण लेवो नहि. से भिक्खू वा से ज० मंसं वा मच्छ वा भजिज्जमाणं पेहाए तिल्लपुयं वा आएसाए उवक्खडिज्जमाणं पेहाए नो खद्धं २ उपसंकमित्त ओभासिज्जा, नन्नत्य गिलाणणीसाए ॥ (मु०५१) ते साधु जो आ जाणे के मांस अथवा माछलां अथवा तेलना पूडाओ ते गृहस्थना घरमा मेमान आववाना छे, तेथी तेवो ४ आहार बनतो त्यां जुए, तो जीभनी लालचथी दोडतो दोडतो शीघ्र न जाय अथवा त्यां जइने याचना करे नहि, पण पूर्व वताव्या & प्रमाणे त्यां दवा विगेरे कारणसर मांदा माटे जवू पडे तोपण संभाळथी जाय. से भिक्खू वा० अन्नयरं भोयणजायं पडिगाहित्ता सुभि सुभि भुच्चा दुभि २ परिहवेइ, माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करिज्जा । सुभि वा दुभि वा सव्वं जिज्जा नो किंचिवि परिदृविज्जा, ।। (मू० ५२) __ते भिक्षु कोइपण जातनुं भोजन लइने सारं सारं खाइ जाय, खराब खराब त्यजी दे, ते कपट छे, माटे तेवू कृत्य साधुए INन करवू पण सारु मार्छ जेवु आवे तेवू संतोषथी समभावे खाइ लेवू पण परठवq नहि. से भिक्खू वा २ अन्नयरं पाणगजायं पडिगाहित्ता पुप्फ आविइत्ता कसायं २ परिहवेइ, माइहाणं संफासे, नोएवं करिज्जा RRCAS For Private and Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir C आचा सत्रम ॥९२९॥ ARRAC-- । पुष्पं पुप्फेइ वा कसायं कसाइ वा सव्वमेयं भुजिज्जा, नो किंचिवि परि० ।। (मू०५३) __आ प्रमाणे पाणीनुं पण समजवं, सारा रंगनुं सारी गंधर्नु होय तो पुष्प कहेवाय अने तेथी विपरीत ते कषाय; एटले सुगंधी पीणुं पीए, अने बीजुं फेंकी दे, तेवू कपट न करवू, कारण के आहारना गृद्धपणाधी मूत्रार्थनी हानि थाय अने कर्मबंध थायसे भिक्खू वा० बहुपरियावन्नं भोयणजायं पडिगाहित्ता बहवे साहम्मिया तत्य वसंति संभोइया ममणुना अपरिहारिया ॥९२९॥ अदूरगया, तेसि अणालोइया अणामंते परिवेइ, माइहाणं संफासे, नो एवं करेज्जा, से तमायाए तत्थ गच्छिज्जा, २ से पुब्बोमेव आलोइज्जा-आउसंतो समाणा ! इमे मे असणे वा पाणे वा ४ बहुपरियावन्ने तं भुंजह णं, से सेवं वयंतं परो वइज्जा-आउसंतो समाणा ! आहारमेयं असणं वा ४ जावइयं २ सरह तावइयं २ भुक्खामो वा पाहामो वा सव्वमेयं परिसडइ सव्वमेयं भुक्खामो वा पाहामो वा ।। (मू०५४) ते साधु कोइ वखत घणुं भोजन विगेरे आचार्य तथा मांदा तथा परोणा विगेरे माटे आणेलु बधाने आपतां घणु वधी जवाथी - न खवाय, तो पोताना साधर्मिक गोचरीना वहेवारवाळा संविज्ञ साधुओ जोडे होय, अथवा घणे दूर न होय, तेवा साधुने पूछया 8 ६ विना फक्त जवाना प्रमादथी परठवोदे, तो साधुपणाने दोष लागे, माटे शुं करवु ? ते कहे छे, ते वधेलो आहार लइने ते साधु बीजा साधुश्री पासे जइने बतावे अने कहे, के हे श्रमण ! आ मारे वधी गयुं छे, ते ९ खाइ शकतो नथी, जेथी तमे किंचित् खाओ, त्यारे तेओ कहे, के अमाराधी बने तेटलं खाइशें, देखीशुं, अथवा बघु खाइशें, देखी . से भिक्खू वा २ से जं. असणं वा ४ परं समुद्दिस्स बहिया नीहडं जं परेहिं असमणुनाय अणिसिटुं अफा. जाव नो For Private and Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ९३०॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पडिगाहिज्जा जं परेहिं समणुष्णायं सम्मं णिसि फासूयं जाब पडिंगाहिज्जा एवं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं ( ० ५५ ) ।। २-१-१-९ ।। पिण्डैषणायां नवम उद्देशकः । ते साधु आवो आहार जाणे के, चार भट विगेरेने उद्देशीने घरमांथी काढेल छे, पण ते आहारने चार भट विगेरे स्वीकार्यो नथी तो ते बहु दोपवाळो जाणीने लेवो नहि, पण जो ते आहार ते घणीए स्वीकारी पोतानो कये होय, अने ते आपे तो लेवो, आसाधुनी सर्व साधुता है. नवमो उद्देशो समाप्त. दशमो उद्देशो. नमो को हवे दशमो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे, नवममां पिंड ग्रहणविधि कयो, अहींया साधारण विगेरे पिंड मेळवीने वसतिमां गयेल साधुप शुं करवुं, ते कहे छे. से एगइओ साहरणं वा पिंडवायं पडिगाहित्ता ते साहम्मिए अणापुच्छित्ता जस्स जस्स इच्छ तस्स तस्स खद्धं खद्धं दल, माइद्वाणं संफासे, नो एवं करिज्जा से तमायाय तत्थ गच्छिज्जा २ एवं वइज्जा आउसंतो समाणा ! संति मम पुरेसंथुया वा पच्छा० तंजहा - भायरिए वा १ उवज्झाए वा २ पवित्तीवा 3 थेरे वा ४ गणी वा ५ गलहरे वा ६ गणावच्छेइए वा ७ अवियाई एएसिं खद्धं खद्धं दाहामि, सेणेवं वयंतं परो वइज्जा - कामं खलु आउसो । अहापज्जत्तं निसि For Private and Personal Use Only 2-% सूत्रम् ॥९३०॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राहि, जावइयं २ परो वदइ तावइयं २ निसिरिजा सव्वमेव परो वयइ सम्वमेयं निसिरिजा ॥ (मु०५६) आचा० ते भिक्षुने वधा साधुओ माटे सामान्य आहार आपेल होय, ते लइने ते वधा साधुओने पूछया विना जेने जे रुचे, तेवु | सूत्रम् पोतानी बुद्धिथी शीघ्र शीघ्र आपे तो दोष लागे, माटे तेवू न करवू, असाधारण पिंड मळतां पण जे करवू ते कहे छे. ॥९३१॥ ते साधु वेषमात्रथी मेळवेलो पिंड मेळवीने आचार्य विगेरे पासे जाय, अने आ प्रमाणे कहे, हे आयुष्मन् ! हे श्रमण में 8/ * अहीं जेनी पासे दीक्षा लीधी छे, तेना सगां छे, तथा जेनी पासे सिद्धांत भण्यो, तेनां संबंधीओ अन्यत्र रह्या छे, तेमनां नाम P] वतावे छे, आचार्य अनुयोग धर (१) उपाध्यायअध्यापक (२) वेयावच्च विगेरेमा यथायोग साधुओने प्रवर्त्तावे ते प्रर्वत्तक (३) छे. || । संयम विगेरेमां सीदाता साधुओने स्थिर करवाथी स्थविर (४) छे, गच्छन अधिप ते गणी (५) छे, आचार्य जेवो साधु गुरुनी | आज्ञाथी साधुना समुदायने लइने जुदो विचरे ते गणधर (६) छे, गणनो अवच्छेदक ते गच्छना निर्वाहनी चिंता करनार (७) छे, | आ प्रमाणे आवा साधुओने उद्देशीने बोले, के हुँ तेमने तमारी आज्ञाथी शीघ्र शीघ्र आपुं, आ प्रमाणे साधुनी विज्ञप्तिथी मोटा साधु तेने आज्ञा आपेथी जेने जोइए तेटलं दरेकने आपे, अथवा वधानी आज्ञा आपे तो बधुं आपे, ( आ सूत्रमा पोताना सगां | आश्रयी छे, अने टीकामां आचार्यदिना सगांने आश्रयी छे, तेथी रहस्यमां भेद पडतो नथी.) से एगइओ मणुनं भोयणजायं पडिगाहित्ता पंतेण भोयणेण पलिच्छाएइ मा मेयं दाइयं संतं दट्टणं सयमाइए आयरिए वा जाव गणावच्छेए वा, नो खलु मे कस्सइ किंचि दायव्वं सिया, माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करिज्जा। से तमायाए तत्थ गच्छिज्जा २ पुवामेव उत्ताणए हत्थे पडिग्गह कटु इमं खलुत्ति आलोइज्जा, नो किंचिवि णिगृहिज्जा । से एगइओ अन्न For Private and Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ।। ९३२ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परं भोयणजायं परिगाहिता भद्दर चा विवन्नं विरसमाहरइ, माइ० नो एवं० ( सू० ५७ ) साधु कोइ जग्याए गोचरी गयो होय, त्यां सारं मिष्टान्न विगेरे भोजन मळ्युं होय, ते लेइने तेना उपर तुच्छ लुखु भोजन विगेरे ढांकी दे, के मारुं आ सारुं भोजन आचार्य विगेरे देखशे तो लेइ लेशे, अने मारे तो आ थोडं सारुं भोजन कोइने आप नथी, एम धारी छुपावे तो कपट कहेवाय, माटे तेवुं न कर, त्यारे भुं करबुं ? ते कई छे. ते बधो आहार लइने छुपाव्या विना सारो माठां बतावी देवो, हवे गोचरी जतां कपट स्थान न करवानुं बतावे छे, के रस्तामां बीजे गाम गोचरी जतां सारं सारुं भोजन मळे, तो त्यां खाइ जइने नबळं नबळु त्यां लड़ ज ए कपट स्थान छे, ते न कर, बळी - सेभिक्खू बा० से जं० अंतरुच्छियं वा उच्छु गंडियं वा उच्छु चोयगं वा उच्छुमेरगं वा उच्छु सालगं वा उच्छुडालगं वासिंबल वा विलयालगं वा अस्सि खलु पडिग्गाहियंसि अप्पे भोयणजाए बहुउज्झियधम्मिए तहप्पगारं अंतरुच्छ्रयं बा० अफा० || से भिक्खू वा २ से जं० बहुअद्वियं वा मंसं वा मच्छं वा बहुकंटथं अस्सि खलु० तहप्पगारं बहुअि वा मंसं० लाभे संतो० । से भिक्खू वा० सिया णं परो बहुट्टिएणं मंसेण वा मच्छेण वा उवनिमंतिज्जा — आउसंतो समाणा ! अभिकखसि बहु अद्वियं मतं पडिगाहितए ? एयप्पगारं निग्घोसं सुच्चा निसम्म से पुव्यामेत्र आलोइज्जा आउसीति वा २ नो खलु मे कप्पड़ बहु० पडिगा, अभिकखसि मे दाउँ जावइयं तावइयं पुग्गलं दलयाहि मा य अट्टियाई, से सेवं वयंतस्स परो अभिद्दु अंतो पडिगाहिगंसि बहु० परिभाइत्ता निहहु दलइज्जा, तहप्पगारं पडिग्गहं परहत्थसि वा परपायंसि वा अफा० नो० । से आहञ्च पडिगाहिए सिया तं नोहित्ति वइज्जा नो अणिहित्ति वइज्जा, से तमायाय एगं For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥९३२॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥९३३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir aranमज्जा २ अहे आरामंसि वा अहे उवस्सयंसि वा अप्पंडे जात्र संताणए मंसगं मच्छगं भुच्चा अट्टियाई कंटए गहाय से मायाय एगतमवक मिज्जा, २ अहे झामथंडिलंसि वा जाव पमज्जिय पमज्जिय परद्वबिज्जा ॥ ( सू० ५८ ) गोचरी गयेलो साधु आवा प्रकारनो आहार जाणे के शेरडीना गांठोना वचला टुकडा, अथवा गांठोवाळा टुकडा अथवा पीलेला शेरडीना छोदिकां (छोतरा ) मेरुक (त्यग्र ) शेरडीना सालग ते दीर्घ शाखा ( सांठा) डालग ते एक टुकडो सिंबली मग चोळा विगेरेनी अचित्त थएली सींग (फळी) 'सिंबली थालग' वालपापडीनी थाळी अथवा फलीओ रांधेली होय, आवी वस्तु जो साधुए खावा माटे लीधी होय तो शेरडी विगेरेना कुचा घणा नीकळे, खावानुं थोडं, अने कुचामां कीडीओ विगेरे संख्याबंध जीवो बुरा हाले मरे, माटे अमासुक होय तो पण न लेवी, अने प्रासुक होय तो पण न लेवा, तेज प्रमाणे कोइ जग्याए उळीया बाळां फळ ते फणस विगेरे अने कांडावाळां ते अननास विगेरे फळ पाकेलां टुकडा कर्या होय, अने कोइ गृहस्थ ते साधुने आपे तो पण साधुए लेवा नहि. हवे कोइ गृहस्थ घणो भक्तिमान होय अने बहु आग्रह करे अने पूछे के आप लेशो के ? आ प्रमाणे तेनी प्रार्थना सांभळीने साधु कहे के हे आयुष्यमन ! मने ते लेवुं कल्पतुं नथी, पण जो तारो खास आग्रह होय तो उळीया रहित कांटा रहित एवो जे वचलो फळनो गर्भ छे, ते आप, पण ध्यान राखजे के ठळीया के कांटा न आवे. आ प्रमाणे सांभळीने पेलो गृहस्थ उळीया विनानुं कांटा विनानुं शोधी शोधीने साधुने आपे, पण ते वखते सचित्त भाग तेना हाथमांथी के तेना वासणमांथी आवे तो पोते न ले, ते प्रमाणे अचित्त फळनो गर्भ आपे तो पोते नोद्दि बोले, तेम अणिहि पण न बोले, For Private and Personal Use Only सूत्रम् | ॥९३३॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पछी ते लेइने ते बगीचामां कोई झाड नीचे अथवा मकानना छापरा नीचे बेसीने ज्यां जीव जंतु एकेंद्रियथी पंचेंद्रिय सुधी 8/ आचा० न होय त्यां पोते शांतिथी बेसीने फळनो गर्भ लीधेलो होय तेने फरीथी जोइले, अने पोताना के गृहस्थना प्रमादथी ठळीयो के सूत्रम् ॥९३४॥ में कांटो रही गयो होय, तो तेने खातां बाजुए राखीने खाइ रह्या पछी एकांतमा जइने अचित्त जग्या कुंभारनो निभाडो विगेरे होय, त्यां जग्या पुंजी पुंजीने परठवे. ॥९३४॥ ___आ जग्याए केटलाक आचार्यनो एवो अभिप्राय छे के आगळ गळत कोढ विगेरेमां ते साधुने अधिक पोडा यती होय, अने • तेने संसारी न करी शकवाथी तेनी उमर जुवान होय, अने वैद एम सलाह आपे के आ रोगनी शांति माटे मरेला जनावर के माछलानो वचलो गर्भ तेना उपर बांधवो, आवा अपवादना कारणे छेदमूत्रना अभिप्राय पमाणे कदाच पेला साधुना रक्षण माटे | ली, होय तो पण तेमां रहेल हाडकुं अथग कांटो संभाळथी एकांतमा लइ जइ परठवो अहीं 'भुज' धातुनो अर्थ भोगववानो छे, द पण खावा माटे नहि, जेम पदाति (पायदळ सेना) नो राजा भोग करे हे, अथवा साधु पाट पाटलाने भोगवे छे. से भिक्खू० सिया से परो अभिहहु अंतो पडिग्गहे बिलं वा लोणं उम्भिय वा लोणं परिभाइत्ता नीहटु दलइज्जा, तहप्पगारं पडिम्गहं परहत्यसि वा २ अफामुयं नो पडि०, से आहच्च पडिगाहिए सिधा तं च नाइदूरगए जाणिज्जा, से तमायाए तत्थ गच्छिज्जा २ पुवामेव आलोइज्जा-आउसोचि वा २ इमं किं ते जाणया दिन्नं, उयाहु अजाणया ? से य भणिज्जा-नो खलु मे जाणया दिन्नं, अजाणया दिन्नं, काम खलु आउसो ! इयाणि निसिरामि, तं भुजह वा णं परिभाएह वा णं तं परेहिं समणुन्नायं समणुसह तो संजयामेव भुजिज वा पीइज्ज वा, नंच नो संचाएइ भोत्तए वा पायए For Private and Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० ॥९३५॥ 2044Cc- वा साहम्मिया तत्थ वसंत्ति संभोइया समणुना अपरिहारिया अदरगया, तेसिं अणुप्पयायचं सिया, नो जत्थ साहम्मिया जहेच बहुपरियावनं कीरइ तहेच कायध्वं सिया, एवं खलु० ॥ (मू०५९) ।।२-११-१-१० ॥ पिण्डैषणायां सूत्रम् दशम उद्दशकः ॥ ॥९३५॥ ते भिक्षु घर विगेरेमा गोचरी जतां कदाच गृहस्थ पासे मांदा विगेरे माटे खांड विगेरे मांगतां बिड लवण खाणमां उत्पन्न यएल मीटुं तथा उद्भिज ते समुद्रन मीठं भूलथी आपे, ते बखते साधुए तेना हाथमां के वासणमांधी तपासीने लेवु के भूलथी खांडने बदले मीटुं न आवे, पण कदाच बनेने उतावळ होवाथी साधुना पात्रमा आची गयु होय अने थोडे दूर गया पछी साधुने । खबर पडे तो पाछो आवीने ते गृहस्थने कहे के, आ तमे खांडने बदले मीठं आपेल हे ते जाणमां के अजाणमां? जो अजाणमा 8 आप्यानुं कहे अने पछी एम कहे के तमने जो खप होय तो वापरजो, आ प्रमाणे गृहस्थ जो रजा आपे तो मामुक होय तो साधुए। वहेंचीने खावं, कदाच अप्रामुक आवे अने गृहस्थ पार्छ न ले तो परठववानो महान दोष जाणीने पोते खाय पीये, वधारे होय नोट नजीक रहेला उत्तम साधुओने वडेंची आपे, तेवा साधर्मिक न होय तो पोतानी शक्ति प्रमाणे वापरे, (बाकीर्नु परठवी दे.) आर 3 साधुनु सर्वथा साधुपणुं छे. ( एटला माटे बने त्यां लगी गोचरी जनारे गोचरीमांज पुरतुं लक्ष्य राखीने वस्तु लेवी के पछवाडे आवी तकलीफ न पडे.) दसमो उद्देशो समाप्त. CAC -%25 For Private and Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ९३६.५ ** www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्यारमो उद्देशो. दशमो उद्देशो को हवे अग्यारमो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे, गया उद्देशामां मळेला पिंडनो (लेवा न लेवा तथा वापरवा परठवत्रा संबंधी) विधि कथो, तेनेज अहों विशेषयी कहे छे. भिक्खागा नामेगे एमासु समाणे वा वसमाणे वा गामाणुगामं वा दुइज्जमाणे मणुन्नं भोयणजायं लभित्ता से भिक्खू गिलाइ, से हंदइ णं तस्साहरह, से य भिक्खू नो भुंजिज्जा तुमं चेत्र णं भुंजिज्जासि, से एगइओ भोक्खामित्तिक पलि उंचिय २ आलोइज्जा, तंजहा इमे पिंडे इमे लोए इमे तित्ते इसे कइयए इसे कसाए इमे अंबिले इमे महुरे, नो खलु इत्तो किंचि गिलाणस्स सयइत्ति माइहाणं संफासे, नो एवं करिज्जा, तहाठियं आलोड़ज्जा तहाठियं गिलाणस्स सयइति, तं तित्तयं तितत्ति वा कडुयं कसायं कसायं अंचिलं अंबिलं महुरं महुरं० ( मू० ६० ) ( भिक्षा माटे विहार करे शुद्ध गोचरी ले माटे भिक्षण शीला ) ते साधुओ समान आचार विचार व्यवहारवाळा एकज जग्याए रखा होय, अथवा बहार गामथी विहार करता आव्या होय, ( वा शब्दथी असमान आचारवळा पण भेळा समजवा ) तेमां कोइ साधु मांदो पडे, तो भिक्षामां फरनारा साधुओ गोचरीमां मनोज्ञ भोजननो लाभ थतां बीजा सोबती साधुने कहे के आ सारं भोजन तमे लेइने मांदा साधुने आपो, अने जो ते न खाय, तो तमेज खाइ ले जो, आ प्रमाणे मांदानी वेयावच्य करनार ने कहेतां ते साधु मांदा माटे आहार लेइने विचार करे के, आ सारं मिष्टान विगेरे स्वादिष्ट वस्तु हुं खाइश, पछी ते मांदा पासे जड़ने सारो For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥९३६॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir RA 18 आहार छपावीने मांदाने कहे के आ आहार तमने भापतां वायु विगेरे वधी जशे माटे तमारे खावा योग्य नथी, कारण के आ| आचा० अपथ्य छे. एटले तेना आगळ आहारन पात्र मुकी कहे के तमारे माटे साधुए आहार आप्यो छे, पण आ तो लूवो छे, तीखो छ, सूत्रम् P कडयो छे, कषायेलो खाटो मधुर छे. ते अमुक रोग उत्पन्न करे तेवो छे. माटे तमने तेनाथी उपकार थाय तेम नथी, आ प्रमाणे ॥९३७ ॥ीशीर | कही मादाने डरावीने-ठगीने पोते खा जाय ते माटे कपट कर्य कहेवाय, तेवू पाप साधुए न करवू, स्यारे तेणे शुं करवू ! ॥९३७॥ ते कहे हे जेवू होय तेवू मांदाने देखाडवू, अर्थात् कपट कर्याविना तने अनुकुळ होय ते वधो आहार समजावीने आपी देवो. भिक्खागा नामेगे एबमाईमु-समाणे वा वसमाणे वा गामाणुगामं दृइज्जमाणे वा मणुन्नं भोयण जायं लभित्ता से य भिक्खू गिलाइ से हंदड णं तस्स आहरह, से य भिक्खू नो भुजिज्जा आहारिजा, से णं नो खलु मे अंतराए आहरिस्सामि, उच्चेयाई आइतणा: उराकम्म ।। (मु०६१) ते साधुओ सुंदर आहार लावीने पोताने त्यां रहेला अथवा नवा परोणा आवेला साधुओने मांदाने उद्दशीने कहे के, आमांथी मांदाने योग्य सारं सारं भोजन लो अने ते न खाय तो पाएं लावजो, पछी लेवा वाळो कहे के हुँ तेने अंतराय पाडया विना 8 तेने योग्य आपीने वाकीनं बधेलं पाळं लावीश. पछी आहार लड़ने मांदाने आहार गया मुत्रमा बताच्या प्रमाणे खोटुं समजावी तेने ठगी ते पोते बधुं खाइ ले, अने आहार आपनार साधुओने मोडेथी जइने कहे के, ते साधुए कंद लीधुं नहि. तो ते पार्छ लावता मने यावच्च करतां गोचरी योग्य समये न वापरवाथी शूळ उठी, तेथी तमारी पासे पाछो आहार न लाव्यो, (पण में 81 For Private and Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥९३८ ॥ www.kobatirth.org जेम तेम दुःखेथी खाइ लीधो ! ) आवुं कपट न करं. माटे शुं करवुं ? ते कहे छे— ते कपट कर्या विना मांदाने बधो आहार बतावी सत्य समजावीने ते जेटलो आहार ले, ते आपवो, अने न ले ने बीजा साधुओने पाछो आपी आववो. fuser अधिकारथीज सातपिंडेपणाने आश्रयी सूत्र कहे छे. अह भिक्खू जाणिज्जा सत्त पिंडेसणाओ सत्त पाणेसणाओ, तत्व खल इमा पढमा पिंडेपणा - असंस हत्थे असं त् तहपगारेण असंसण हत्थेण वा मत्तेण वा असणं वा ४ सयं वा णं जाइज्जा परो वा से दिज्जा फामुयं पडिगाहिज्जा, पढमा पिंडेसणा १ || अहावरा दुच्चा पिंडेसणा-संसद्वे इत्थे संसट्टे मत्ते, तहेव दुच्चा पिंडेपणा २ ।। अहावरा तथा पिंडेसण!-इह खलु पाईणं वा ४ संवेगगाइ सङ्का भवति गाहावई वा जाव कम्मकरी वा, तेसिं च णं अन्नयरे विरुवरुवेमु भाणजाए उवनिक्खित्तपुब्वे सिया, तंजहा थालंसि वा पढरंसि वा सरगंसि वा परगंसि वा वरगंसि वा, अह पुणेवं जाणिज्जा असं हत्थे संसठ्ठे मत्ते, संसठ्ठे वा हत्ये असंसठ्ठे मत्ते से य पडिग्गहधारी सिया पाणिपडिगहिए वा, पुव्वामेव० - अउसोत्ति वा ! २ एएग तु असंसण हत्येण संसद्वेण मत्तेणं संसद्वेण वा हत्येग असंसण मत्तेण असि डिग्गहरंसि वा पार्णिसि वा निहट्टु उचित्तु दलयादि तहप्पगारं भोयणजायं सयं वा णं जाइज्जा २ फासूर्य० पडिगाहिज्जा, तया पिंडेसणा ३ || अहावरा चउत्था पिंडेरणा से भिक्खू वा० से नं० पिहूयं वा जाव चाउलपलंबं वा असि खलु पडिग्गहियंसि अप्पे पच्छाकम्मे अप्पे पज्जबजाए, तहपगारं पि ुयं वा जाव चाउलपलंबे वा सयं वा गं० जाव Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only सूत्रमू ॥९३८ ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥९३९॥ www.kobatirth.org प०ि, चउत्था पिंडेसणा ४ || अहावरा पंचमा पिंडेसणा-से भिक्खू वा २ उग्गहियमेव भोगणजायं जाणिज्जा, तंजहा सारावंसि वा डिंडिमंसि वा कोसरांसि वा, अह पुणेवं जाणिज्जा बहुपरियावने पाणीसु दगलेवे, तहप्पगारं असणं वा ४ सयं० जाव पडिंगाहि०, पंचमा पिंडेसणा ५ || अहावरा छडा पिंडेसणा-से भिक्खु वा २ पग्गहिमेत्र भोयणजायं जाणिज्जा, नं च सयठ्ठाए पग्गहियं, तं पायपरियावन्नं तं पाणिपरियावन्नं फामुयं जं च परद्वाण परगहियं पंडि०, छडा पिंडेसणा ६ || अहावरा सत्तमा पिंडेसणा-से भिक्खू वा० बहुउज्झियधम्मियं भोयण जायं जाणिज्जा. जं चडने बहवे दुपयच उप्पयसमणमाहण अतिहि किंवणवणीमगा नावकरखेति, तहप्पगारं उज्झियधम्मियं भोयणजायं सयंत्राणं जाइज्जा परो वा से दिज्जा जान पडि०, सत्तमा पिंडेसणा ७ ॥ इच्छेयाओ सत्त पिंडेसणाओ, अहावराओ सत्त पाणेसणाओ, तत्थ खलु इमा पढमा पाणेसणा-असंस हत्थे असंसढे मत्ते, तं चेत्र भाणियव्वं, नवरं चउत्थाए नाणतं । से भिक्खू बा० से जं पुण० पाणगजायं जाणिज्जा, तंजहा - तिलोदगं वा ६, असि खलु परिगहिसि अप्प पच्छाम्मे तहेव पडिगाहिज्जा | ( मृ० ६२ ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथ शब्द अधिकारना अंतरमां आवे छे. प्र०—भुं अधिकार बतावे हे ? उ० – सातपिंडेपणा, अने पान (पाणी) नी रमणा ca free एम जाणे के नीचे बतावेली पिंड एसणा तथा पान एसा है, १ असंसट्टा २ संमट्टा ३ उद्धडा ४ अप्पेलवा ५ उग्गहिया ६ पग्गहिया ७ उज्जधम्मा. साधुओना वे भेदो छ, गच्छमा रहेल स्थविर कल्सी भने गच्छधी नीकळेला जिनकल्पी, उपरनी साते पिंडवण: स्थविर For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥९३९॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir CARKA R 18/ कल्पीने लेवाय. पण जिनकल्पीने प्रथमनी वे छोडीने पाछळनी पांचलेबाय छे. आचा प्रथमनी पिंड एषणानुं स्वरुप मसूत्रमू ___ अससंष्ट हाथ, असमुष्ट वासण, अने वहोराव्या पछी वासणमां द्रव्य रहे अथवा न रहे, तेमां जो बील कुल द्रव्य न रहे तो तुर्त || ॥९४०॥ ॥९४०॥ वासण धोवानो पश्चात् कर्मनो दोष लागे, छतां पण गच्छमां बालक, बूढो, तपस्वी विगेरेना आकुळपणाना कारणे निषेध नथी, तेथीज मूत्रमा तेनी चिंता करी नथी, न खरडेलो हाथ, न खरडेलु वासण, तेथो असन विगेरे चार प्रकारनो आहार याचे, अथवा गृहस्थ पोते याच्या विना पण आपे, तो खप होय ते प्रमाणे फामु आहार ग्रहण करे. बीजी पिंडगषणा. खरडेला हाथ, खरडेलं वासण, गृहस्थ पोताना माटे ते वस्तु लेवा हाथ अने वासण खरडे त्रीजी पिंडासणा. प्रज्ञापकनी अपेक्षाए पूर्व विगेरे दिशामा केटलाक श्रद्धालु श्रावको के भद्र गृहस्था रहेता होय, ते शेठथी लइने नोकरडी सुधी || 13 होय छे, तेमना घरमां अनेक जातिना वा तणोमां अन्न विगेरे प्रथम नांखेलं होय छे, ते थालमां पिठर सरग ते शारिका (सरकीया) दिना घासनु बनावलं मपहुं विगेरे परग ते वांजनी बनावेती छाबडो विगेरे छ, 'वरग' ते मणि विगेरे रत्नो जडीने बनावेलु किंमती । वासण होय, तेमां कोई चीज काढीने मुकी होय, तो हाथ न खरडेलो होय अने वासण खरडेलु होय, तो पातरां धारण करनार स्थविर कल्पी अथवां पात्रां छोडीने हाथमा खानार जिनकल्पी होय, तो गृहस्थने प्रथमज कहे हे आयुष्मन् ! अथवा हे बाइ ! - For Private and Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir X: % % % तमे न खरडेला हाये, खरडेला वासणे अथवा खरडेला हाथे, खरडेला वासणे आ पातरामां के आ हाथमा संभाळयी लइने आपो आचा० अथवा पोते जे वस्तु जोइती होय, तेनुं नाम कहीने याचे अने ते गृहस्थ आपे तो फामु आहार ले. सूत्रम् | अहीं खरडेलो हाथ, खरडेलुं वासण अने थोडं द्रव्य पछ्वाडे रहे एवो आठमो भांगो जिनकल्पीने कल्पे. स्थविर कल्पीने तो ॥९४१॥ 18 मूत्र अर्थनी 'हानि' विगेरेना कारणोने लइने बधा भांगा कल्पे हे ॥९४१॥ अल्पलेपानामनी चोथी पिंडेषणा. कुरमुरा ममरा पृथुक विगेरे चोखा शेकीने बनावेला होय, तो ते लेतां वासण हाथने लेप लागतो नथी तथा अल्प ते चोखानी। कणकी विगेरेना बनावेल होय तो अल्पपर्यय कहेवायो ते बनेने लेवाय छे. तेम वाल, चणा विगेरे पण कल्पे. | अवगृहिता (५)-एटले गृहस्थे पोताने खावा माटे वासण धोयु होय के हाथ धोया होय, तेवा वासणमा जी पाणीनो लेप देखातो होय तो लेवू न कल्पे. पण बहु सुकाइ गयु होय तेवा शरावला, डिंडिम (कांसान वापग) तथा कोशक मां खावानुं काढेलु हाय तो साधुने लेबु कल्पे ६ प्रगृहीता-गृहस्थे स्वार्थ माटे के बीजा माटे चरु, हांडी विगेरे रांधवाना वासणमाथी चाटवा विगेरेथी लइने बीजाने वस्तु आपी || होय ते बीजाए न लीधी होय, अथवा साधुने अपावी होय तो प्रगृहीता कहेवाय, ते गृहस्थना वासणमां के हाथमां वस्तु होय तो फासु होय ते ले. उज्झिीत धर्मा-ते घरनी अंदर घणा नोकर चोपगां के अन्य साधु ब्रह्मण अतिथि मागण इच्छे नहि तेवी लूग्वी मादी रसोइ % % - For Private and Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥९४२॥ 18 होय ते परठववा योग्य होय ते, भोजन पोते याचे अथवा गृहस्थ आपे तो ले. आचा० हवे सात पाणीनी एषणाओ कहे छे.-तेमा प्रथमनी त्रण तो भोजन मारुक छे अने चोथीमां भेद छे, कारण के ते पाणी | सूत्रमू | स्वच्छ होवाथी तेमां अल्प लेपपणुं छे, तेथी संदृष्ट वीगेरेनो अभाव छे, आ पछीनी त्रण पाणीनी एपणाओ वधारे वधारे विशुद || होबाथी एवोज क्रम छे. ( अन्न माफक पाणीनुं पण जाणवू) हवे आ बतावेला अथवा पूर्वे वतावेला मूत्र वडे | करवं ते कहे छे. इच्चेयासि सत्तण्हं पिंडेसणाणं सत्तण्हं पाणेसणाणं अन्नयरं पडिमं पडिवज्जमाणे नो एवं वइजा-मिच्छापडिवाना खलु एए भयंतारो, अहमेगे सम्म पडिवन्ने, जे एए भयंतारो एयाभो पडिमा म पडिवजित्ता णं विहरंति, जो य अहमंसि एयं पडिमं पडिवज्जत्ताणं विरामि सब्वेऽवि ते उ जिणाणाए उवहिया अन्नुन्नसमाहीए, एवं च णं विहरंति, एयं खलु तस्स तस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं ।। (मू०६३)२-१-१-११ पिण्डेपणायामेकादश उद्देशकः॥ आ सात पिंडेषणा अथवा पान एषणामांनी कोइपण प्रतिमाने सा स्वीकारीने आq पछीथी न बोले, के-"बीजा साधु Bा भगवंतो सारी रीते पिंडेषणा विगेरे अभिग्रहो पाळता नथी, हुंज एकला बरोबर पाळु छु." तेथी मेंज विशुद्ध अभिग्रह लीधो छे, पण बीजाओए नथी लीधो, आ उपरथी गच्छमाथी नीकळे लाए के ग छमा रहेलाए परस्पर समदृष्टिथी देखवा, पण उत्तम रीते पिंडेषणा पाळनारा चडती अवस्थाए पहोंचेला गच्छमां रहेला साधुए पण पोतानाथी नीचा साधु जेभी प्रथमनी पिंडपषणामां रह्या होय तेमने पण दोष देवो नहि. प्र०-न्यारे भुं करवू ? ते कहे छे. RSSCXX For Private and Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥९४३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आजे साधु भगवंतो पिंडेपणा विगेरे विशेष अभिग्रहोने धारण करीने गाम गाम विचरे छे, अने हुं जे प्रतिमाने धारण करीने विचरुं छं. तेथी अमेधा जिनेश्वरनी आज्ञामां छीर, अथवा जिनाज्ञाए विचरे छे, तेथा अभ्युद्यत विहार करनार संवरवाळा छे, तेओ बधा एक वीजाने समाधिवडे जे गच्छमां जेने जे समाधि बतावी होय तेने 'ते' कारणके गच्छवासिओने उपर बतावी ते | सांते यथाशक्ति पाळवानी छे. गच्छथी नीकळेला ओने पाछळनी पांचनो अभिग्रह छे, ते वडे तेओ प्रयत्न करे, ते प्रमाणे ते | पाळीने विचरता होय ते वधा जिनेश्वरनी आज्ञा उलंघता नथी, ते संबंधमां पूर्वे बतावेली गाथा कहे छे. जोऽवि दुवत्थ तिवत्यो, वहुवत्थ अचेलभवि थरह, न हु ते हीलं. ते परं सव्वैविभ ते जिणाणाए ॥ १ ॥ कोइ कोइ ऋणको वधारे कोइ बीलकुल वस्त्र न पहेरें, तो पण ते परस्पर निंदा न करे, कारण के ते वधा जिनेश्वरनी आज्ञामां छे. आज ते साधुनुं समग्र साधुपणुं छे, ( आ लेटना मूत्रनो परमार्थ एछे के स्व परने दुःख न थाय, तेम विचारपूर्वक गोचरी विगेरे लेवुं वापरखुं, पण ते प्रमाणे निर्वाह न थाय तो बने तेटलं निर्मळ भावथी पाळवा प्रयत्न करवो. पण वधारे उत्कृष्ट मार्ग पाळनारे पण पोते अहंकार करीने बीजानी निंदा न करवी, तेम पोतानी शक्ति वधतां समान्य पाळनारे पण उत्कृष्ट पाळवा प्रयत्न करतो. ) शय्याएषणानामनुं बीजुं अध्ययन — बीजा श्रुत स्कंधनुं प्रथम अध्ययन कडीने हवे बीजं कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे, गया अध्ययनमां धर्मना आधार रूप शरीरनी प्रतिपालना माटे प्रथमज पिंड ग्रहणनो विधि बताव्यो अने ते पिड ( आहार पाणी ) लड़ने ज्यां गृहस्थो न होय तेवा स्थानमा वीपरवृं. तेथी ते स्थानना गुण दोष बतावत्रा आ बीजं अध्ययन कहे छे. आ संबंधे For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ ९४३ ॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥९४४॥ आवेला आ अध्ययनना चार अनुयोगद्वारो कहेवा, तेथी नाम निष्पन्न निक्षेपामा "शय्य एवणा" नाम छे, तेना निक्षेपा करवामां "पिंडैषणा नियुक्ति" ज्यां संभवे त्यां टुंकाणमा प्रथम गाथा वडे अने बीजी एषणाओनी नियुक्तिओने यथायोग संभवता बीजी| गाथा बडे प्रकट करीने त्रीजी गाथा बड़े "शय्या" शब्दना 'छ निक्षेपा' ना विचारमा नाम स्थापना छोडीने नियुक्तिकार कहे-छे. ॥९४४॥ दव्वे खित्ते काले भावे, सिज्जाय जा तहि पगयं केरिसियासिज्जा खलु संजय जोगत्ति नायव्वा ? ॥ २९८ ॥ द्रव्य शय्या क्षेत्र शय्या काळा शय्या अने भाव शय्या ए चार प्रकारे शय्या छे, तेमां द्रव्य शय्यानी जरुर छे, तेथी संयतोने Hकेवो शय्या याग्य छे. तेज हवे बताशे. द्रव्य श-यानी हवे व्याख्या करे छे. तिविहा य दव्वसिज्जा सचित्ताऽचित्त मीसगा चेव । खित्तमि मि खित्ते काले जा जंमि कालंमि ॥ २९॥ त्रण प्रकारनी द्रव्य शय्या छे, सचित्त अवित्त अने मिश्र. तेमां सचित्त ते पृथ्वीकाय विगेरे उपर, अने अचित्त ते प्रामुक पृथ्वी विगेरे उपर, अने मिश्र ते जे अर्धपरिणत पृथ्वी विगेरे उपर जे शय्या होय ते अथवा सचित्त शय्याने वर्णन नियुक्तिकार हवे पछीनी गाथामा पोतेज कहे छे, क्षेत्र शय्या ते जे गाम विगेरे क्षेत्र (स्थान)मां शय्या कराय ते. कालशय्या ते जे ऋतुबद्ध18 काळ विगेरेमा जे शय्या कराय, ते काळ शय्या छे, तेमां सचित्त द्रव्य शय्यानुं दृष्टांत बतावे छे. उक्कल कलिंग गोअम वग्गुमई चेत्र होइ नायव्वा । एयं तु उदाहरणं नायव्वं दवसिजाए ॥ ३०॥ आ गाथानो भावार्थ कथाथी जाणवो. एक अटचीमां चे भाइओ उत्कल अने कलिंग नामना विषम (चिकट) प्रदेशमा पल्लि बनावीने चोरी करे छे. तेमनी बेन For Private and Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandie ६ वल्गुमती नामनी हे, त्यां गौतम नामनो निमिनिी आव्यो, चे भाइओए तेनो सत्कार कर्या, पण वल्गुमतीए खानगीमां कथु के आचा० आ आपणुं भलं करनार भद्रक नथी, आ अहीं रहीने आपणी पल्लीनो विनास करशे, माटे तेने काढवो जोइए, तेथी ते वे भाइ- सूत्रम् ओए तेना वचनथी तेने काठ्यो, पेला निमितिआए पण तेना उपर द्वेषी बनीने आ प्रतिज्ञा करी के "जो हुं बल्गुमतीना उदरने ॥९४५॥ चीरीने तेमां न सुउ तो मारु नाम गौतम नहि." बोजा आचार्यों कहे के के के ते समये तेने वाळको नाना होवाथी बल्गुमती G॥९४५ पोतेज पल्लीनी मालीक हती, अने त्यां उत्कल अने कलिंग नामना वे नवा निमिनिया आवेल हता, तेथी पूर्वे आवेल गौतम निमित्तिPयाने पोते काढयो, तेथी गौनमे द्वेपथी प्रतिज्ञा करीने मार्गमां सरसच वाचतो गयो, चोमासामां सरसो जग्या. ते उगेला सरसवोने आधारे बीजा राजानो प्रवेश करावी ते बधो पल्लोने लुटावीने वाळी नांखी, गौतमे पण वलगुमतीने केद पकडी तेनु पेट चीरावीने द थोडी जीवती तरफडती हती, ते समये तेना पेट उपर मूतो, आ सचित्त द्रव्यशय्या जाणवी. भावशय्यानुं वर्णन. दुविहा य भावसिज्जा कायगए छबिहे य भावंमि । भावे जो जय जया सहदुहगम्भाइसिज्जासु ॥ ३०१॥ वे प्रकारनी भावशय्या छे. (१) काय विषय संबंधी अने छ भाव संबंधी तेमां जे जीव औदयिक विगेरे भावमां जे काळे है वर्ने, ते तेनी छ भावरुष भावशय्या छे, कारण के शयन ने शय्या स्थिति छ, तेज प्रमाणे जे जीव स्त्री विगेरेनी काय (उदर)मां गर्भपणे रहेलो होय, ते जीवने स्त्री विगेरेनी काया भावशय्या के कारण के स्त्री विगेरेनी कायमा मुखमां दुःखमां मुता उठता दरेक वखते ते जीव तेनी अंदर रहेली बधी अवस्थावाळो थाय के, माटे ते काय संबंधी भावशय्या छे. For Private and Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा ॥९४६॥ ॥९४६॥ CARECARE आ अध्यननो बधो अर्थाधिकार शय्या विषय संबंधी छे, अने हवे उद्देशानो अर्थाधिकार बतावका नियुक्तिकार कहे हे. सब्वे वि य सिजविसोहिकारगा तहवि अस्थि उ विसेसो । उद्देसे उद्देसे वुच्छामि समासो किंचि ॥ ३०२ ॥ __भा बधा एटले त्रणे उद्देशा जो के शय्या विशुद्धि करनारा छे, तोपण तेमां दरेकमां कांडक विशेष छे, तेने हुँ टुंकाणमा दीते कहे हे उग्गमदोसा पढमिल्लुमि संसत्त पञ्चवाया य । चियमि सोअवाई बहुविकसिज्जाविवेगो २ य ।। ३०३ ॥ तेमा प्रथम उद्देशामा वसतिना उद्गम दोषा आधा कर्म विगेरे छे, तथा गृहस्थ विगेरेना संसर्गयी अपायो चिंतवेला छे, तथा बीजा उद्देशामां शौचवादि (गृहस्थी ) ना बहु पकारना दोषो तथा शय्यानो विवेक (त्याग) बतावे छे. आ अर्थाधिकार - तइए जयंतछलणा सज्न यस्सऽणुवरोहि जइयव्यं । समविसमाईएमु य समणेणं निजरटाए ३ ॥ ३०४ ॥ त्रीजा उद्देशामां जयणा पाळनार उद्गम विगेरे दोषो त्य जनार साधुने जे छलना थाय, ते दूर करवा प्रयत्न करतो, तथा स्वाध्यायने अनुकूळ ए समविषम विगेरे उपाश्रयमा निर्नराना अर्थी साधुए रहेवू, ए विषय हे, नियुक्ति अनुगम कयो हवे मूत्रानुगममा मूत्र कहे डे से भिक्खू वा० अभिकंखिज्जा उवस्सयं एसित्तए अणुपविसित्ता गाभं वा जाव रायहाणि वा, से में पुण उवस्मयं जाणि जा सभंट जाव ससंताणय तहप्पगारे उपस्सए नो ठाणं वा सिज्ज वा निसीडियं वा चेइज्जा ।। से भिक्ख वा० से जं पुण उवस्मय जाणिज्जा अप्पंडं जाव अप्पमंनाणयं तहप्पगारे उबस्सए पडिले हित्ता पमज्जित्ता तो संजयामेव ठाणं वा RESIC For Private and Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥९४७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ चेज्जा || से नं पुण उवसस्सयं जाणिज्जा अस्सि पडिआए एवं साहम्मियं समुहिस्स पाई ४ समरंभ इसमुद्दिस्स कीयं पामिचं अच्छिज्जं अणि अभिडं आह चेएइ, तहष्पगारे उवस्सए पुरिसंतरकडे वा जाव अणासेविए वा नो ठाणं वा ३ चेइज्जा । एवं बहवे साहम्मिया एवं साहम्मिणि वहवे साहम्मिणीओ | से भिक्खू वा० से जं पुण उ० बहवे समणवणीमए पगणिय २ समुहिस्स तं चेत्र भाणियन्त्रं || से भिक्खू वा० से जं० बहवे समण० समुद्दिस्स पाणाई ४ जाब चेति, तहष्पगारे उवस्सए अपुरिसंतरकडे जाव अणासेविए नो ठाणं वा ३ चेइज्जा ३, अह पुणे जाणिज्जा | पुरिसंतरकडे जाव सेविए पडिलेहित्ता २ तओ संजयामेव वेइज्जा ॥ से भिक्खु वा० से जं पुण अस्संजए भिक्खुपडिया कडिए वा उक्कंचिए वा छने वा लित्ते वा घट्टे वा मट्टे वा समट्टे वा सेपधूमिए वा तहप्पगारे उस्सए अपुरिसंतरकडे जाव णासेविए नो ठाणं वा सेज्जं वा निसीहिं वा चेइज्जा, अट पुण एवं जाणिज्जा पुरिसंतरकडे जाव आमेविए पडिले हित्ता २ तभ चेइज्ज्जा ॥ ( सू० ३४ ) ते भिक्षु उपाश्रयमा रहेवाने जो इच्छतो होय तो गाम विगेरेमां जाय, त्यां जइने साधुने योग्य वसति शोधे, त्यां जो इंडां विगेरे, जंतु युक्त मकान होय, त्यां वास विगेरे न करवो, ते बतावे छे स्थान ते काउपर शय्या ते संधारी करवो. निपीधिका ते स्वाध्याय (भणवानुं ) आ त्रण न करवां, ( अर्थात् जीव जंतुवाळा मकानमां उतरं नहि.) पण जेमां जंतु न होय त्यां उतरी ते काउसरग विगेरे करवो हवे उपाश्रय संबंधी उद्गम विगेरे दोषो बतावे छे. भिक्षु एवं जाणे के कोइ श्रावके आ उपाश्रय कराव्यो छे, पण ते एक साधु जे जिनेश्वरनी आज्ञा प्रमाणे अनुष्ठान करे छे, For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥९४७॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्र 18/तेने उद्देशीने जीवोनो आरंभ करीने बनावेलो छ, अथवा ते साधुने उद्देशीने वेंचातो लीधी छे, अथवा अन्य पासेथी उछीको लीधो आचा० छ, अथवा नोकर विगेरे पासेथी बळजबरीथी लीधो छे, बधानो सामटो होय, तेमां बधानी रजा लीधा विना लीयो होय अथ वा तैयार थयेलुं मकान के तंबु विगेरे बीजी जग्याथी लावेल होय, आवा स्थानने श्रावक साधुनी पासे आचीने आपे, तो तेवा । ॥९४८॥ उपाश्रयमा ज्यां मुधी बीजो पुरुष तेवा मकानने न वापरे, त्यां मुधी पोते तेमां काउसम्ग विगेरे के रहेवास न करे, आ एक साधु आश्रयी का. ते प्रमाणे घणा साधु एक साध्वो के घणी साध्वीने उद्देशीने ते आश्रयी पण समजवु, वळो त्यारपछी श्रमण वणी-4 है मगआश्रयी मूत्रमा पण पिढेषणा मूत्र प्रमाणे जाणवू, एरले ते मूत्रमा समजवू के प्रथम पोते न उतरवू पण साधु सिवाय बीजो || कोइ गृहस्थ उतरे, त्यारपछी पोते उतरे तथा साधु जाणे के आ उपाश्रय साधुने माटे गृहस्थे वांसनी कांबी (खापटो) विगेरेथी। बांधेल छे, दर्भ विगेरेथी छायेल छे, छाण विगेरेथी लींप्यो छे, खडो विगेरे खडबचड पदार्थथी घस्यो छे, अने तेने कलि विगेरेना लेपथी कोमळ वनाव्यो छे, तथा जमीन साफ करी संस्कार्यो छे, दुर्गंधी दूर करवा धुप विगेरेथी धुपाव्यो छे, आ, जो साधु माटे करेलं होय तो ज्यां सुधी कोइ गृहस्थ न वापरे, त्यां सुधी ते मकानमा पोते काउ नग्ग विगेरे न करे, पण ज्यारे बीजो वापरे, तेवू जाणे त्यार पछी ते मकान पडिलेही प्रमार्जीने काउसग विगेरे करे. से भिक्खू वा० से जं० पुण उवस्मयं जा० अस्संजए भिक्खुपडियाए खुडियाओ दुवारियाो महल्लियाओ कुज्जा, जहा पिंडेसणाए जाच संथारगं संथारिज्जा बहिया वा निनक्खु तहप्पगारे उवस्सए अपु० नो टाणं ३ अह पुणेवं. पुरिसंतरकडे आसेविए पडिलेहिता २ तओ संजयामेव आन चेइज्जा ॥ से भिक्खू वा० से ० अस्संजए भिक्खुपडियाए उदग्गप्प For Private and Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा सुत्रम् ॥९४९॥ ॥९४९॥ म्याणि कंदाणि वा मूलाणि वा पत्ताणि वा पुकाणि वो फलाणि वा बीयाणि वा हरियाणि वा ठोणाओ ठाणं साहरइ बहिया वा निण्णक्खू त० अपु० नो ठाणं वा चेइज्जा, अह पुण० पुरिसंतरकडं चेइज्जा ॥ से भिक्खू वा से जं. अस्संज। भि० पीढं वा फलगं वा निस्सेणि वा उदुखलुं वा ठाणाओ ठाणं साहरह बहिया वा निण्णक्खू तहप्पगारे उ० अपु० नो ठाणं वा चेइज्जा, अह पुण० पुरिसं० चेइज्जा, ॥ (मु० ६५) ते भिक्षु आत्रा प्रकारनो उपाश्रय जाणे के ते गृहस्थे साधुने उद्देशीने नानी बारीनु मोटुं बारj कयु छे, तेवा मकानमां ज्यां सुधी गृहस्थ विगेरे बीजो पुरुष ते मकान न वापरे त्यां सुधी साधु तेने न वापरे, आ बंने मूत्रमा पण उत्तर गुणो वर्णव्या छे, ते | पूर्वे बतावेला दोषथी दुष्ट शय्या होय तो पण बीजा पुरुषे स्वीकार्या पछी कल्पे, पण मूळ गुणथी दुष्ट होय तो बीजा पुरुषे स्वीA कार्या पछी पण कल्पती नथी, मूळ गुगना दोयो नीचे मुजब छे, “पट्टी वंसोदो धारणा उचत्तारि मूलवेलीओ” एटले प्रष्ठ बांस विगेरेथी साधु विगेरे माटे जे वसति तैयार करावाय, ते मूळ गुणथी दुष्ट छे.. पीठनो वांसडो, बे धारण करनारा, तथा चार मूळ वेलीओ होय-(साधु माटे वांसडा उभा करीने मकान बनावे ते साधुने ६ कल्पे नहिं ) वळी ते साधु आवो उपाश्रय जाणे के गृहस्थ साधुने उद्देशीने पाणीथी तैयार थयेलां कंद विगेरे वीजा मकानमा ( ते ट खाली करवा माटे) लइ जाय छ, अथवा तेनो बहार ढगलो करे छे, तेवा मकानमा ज्यां सुधी बीजो माणस आवीने न रहे त्यां। Pमुधी साधु तेमां न उतरे, पण बीजाए वापर्या पछी साधु तेमां रहे, तेज प्रमाणे अचित वस्तु पण घरमाथी बहार काढे तोपण पुरुषांतर थया पछी साधुए ते मकान वापरयु; कारण के तेमां पण फेरफार करतां त्रस जीवनो वध थवानो सभंव छे. बळी स For Private and Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ९५० ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir से भिक्खू वा० से जं० तं जहा खंधेसि वा मंचंसि वा भालंसि वा पासा० हम्मि० अनयरंसि वा तदप्यगारंसि अंतलिक्खजासि, नन्नत्थ आगाढाणागाढेहिं कारणेहिं ठाणं वा नो चेइज्जा ॥ से आहच चेइए सिया नो तत्थ सीओदगत्रियडेण वा २ हत्थाणि वा पायाणि वा अच्छीणि वा दंताणि वा मुहं वा उच्छोलिज वा, पहोहइज वा, नो तत्थ ऊस पकरेज्जा, तंजहा—उच्चारं वा पा० खे० सिं० तं वा पित्तं वा पूर्व वा सोणियं वा अन्नयरं वा सरीरावयवं व, केवली बूया आयाणमेयं, से तत्थ ऊसढं पगरेमाणे पर्यालिज्ज वा २, से तत्थ पयलमाले वा पत्रडमाणे वा हत्थं वा जाव सीसं वा अन्नयरं वा कार्यसि इंदियजालं लूसिज्ज वा पाणि ४ अभिहणिज्ज वा जाव ववरोविज्ज वा, अथ भिक्खूणं पुन्बोहा ४ नं तहप्पगारं उवस्सए अंतलिक्खजाए नो ठाणंसि वा ३ चेइज्जा ।। ( मू०६६) ते भिक्षु आव उपाश्रय जाणे, के ते एक थांभाना उपर बनावेलुं मकान छे, अथवा मांचडा उपर छे, अथवा माळा उपर छे, प्रासाद ते बीजे मजले मकान आप्युं छे, ( प्रासाद ते सारं पाकुं मकान बांध होय ते छे ) - हर्म्यतल ते भोंरावाळु मकान छे, | आवा मकानम बने त्यांसुधी साधुए निवास न करवा, पण बीजा मकानना अभावे तेनुं मकान वापरलुं पडे तो शुं करं ते कड़े छे. त्यां ठंडा पाणी विगेरेथी हाथ धुवे नहि, तथा त्यां रहीने टट्टी जत्रा विगेरेनी क्रिया न करे, कारण के केवळी प्रभु तेमां कर्म बंध अने संयमनी विराधना बतावे छे, त्यां त्याग करतो पडी जाय, अने पडतां हाथ पग विगेरे शरीरना अवयवने नुकशान थाय तथा पोते पडतां बीजा जीवोने पीडे, अथवा जीवथी हणे, आ प्रमाणे नुकशान जाणीने साधुए कांतो तेवा अधरना के भोंयराना स्थानमां उतरनुं नहि, ( अथवा उतर पढे तो संभाळीने चडं उतर के जग्या वापरवी.) वळी - For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ ९५०॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir से भिक्खू वा० से जं० सइत्थिय सखुटुं सपमुभत्तपाणं तहप्पगारे सागारिए उबस्सए नो ठाणं वा ३ चेइज्जा । आयाआचा० णमेयं भिक्खूस्स गाहावइकुलेण सद्धिं संवसमाणस्स अलसगे वा विमूइया वा छड्डी वा उचाहिज्जा अन्नयरे वा से दुक्खे सूत्रम् रोगायके समुपज्जिज्जा, अस्संजप कलुणपडियाए तं भिक्खुस्स गायं तिल्लेण वा घएण वा नवणीएण वा वसाए वा अ॥९५१॥ भंगिज्जा वा मक्खिज्ज वा सिणाणेण वा करण वा लुद्धेण वा वण्णेण वा चुग्णेण वा पउमेण वा आघसिज्ज वा पघं ॥९५१॥ सिज्ज वा उन्नलिज वा उमटिज वा सीओदगवियडेण वा उसिणोद्गवियडेण वा उच्छोलिज्ज वा पक्खालिज्ज वा सिणाविज वा सिंचिन्ज वा दारुणा वा दारुपरिणाम कटु अगणिकार्य उन्नालिज्ज वा पन्जालिज्ज वा उजालित्ता कार्य आयाविजा वा प० अह भिक्खूणं पुवोवइट्ठा जं तहप्पगारे सागारिए उवस्सए नो ठाणं वा ३ चेइज्जा ।। (मू० ६७) ते भिक्षु वळी आवो उपाश्रय जाणे के तेमां स्त्रीश्रो रहेली छे, अथवा ते वाळकोवाळु छे, अथवा ते मकान सिंह कुतरो बिलाडी विगेरे क्षुद्र पाणीथी रोकायेलुं छे, पशुओ रखाय छे, तथा भोजन पाणी छे, अथवा पशुओने चारो पाणी आपवामां आवे छे, आवा गृहस्थथी आकुळ उपाश्रयमा साधुए स्थान विगेरे न करवू, कारणके तेमां नीचे मुजब दोषो छे, तथा । 'कर्म' बंधननां कारणो8 छे. (१)गृहस्थना कुटुंब साथे वसतां त्यां शंका रहित भोजन विगेरेनी क्रिया न थाय, अथवा कोइ पण जातनो व्याधि थाय, ते बतावे छे, 'अलसग' ते हाथपग विगेरेनो अटकाव, अथवा श्चययु ते लकरानो रोग थाय, विशूचिका (शूळ) छी नो रोग थाय आवी व्याधियो साधुने उत्पन्न थाय अथवा तेवा बीजो ताव विगेरे कोइ रोग थाय, अथवा तुर्त प्राण लेनारो शूळ विगेरे रोग Bथाय, तेवा रोगथी पीडायेला साधुने देखीने कारुण्यथी अथवा भक्तिथी गृहस्थ ते भिक्षुना शरीरने तेल विगेरेथी चोळे, अथवा | For Private and Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥९५२॥ ६ थोडं मसळे, पछी सुगंधी द्रव्यथी उवटण करे, कल्क ते कषाय द्रव्यनो कवाथ ( नाशक जील्लामा शीखाखाइ विगेरे पाणीमां 31 उकाली नाहावामां उपयोग करे छे,) लोध ते सुगंधी द्रव्य छे, वर्णक ते कपीलो विगेरे छे, जब विगेरे, चूर्ण-पदमक जाणीतुं सूत्रमू IP छ, विगेरे द्रव्य वडे थोडं थोडं घसे अने चोळीने तेनुं उद्वर्तन करे, पछी ठंडा के उंना पाणीथी थोडुं स्नान करावे, अथवा वारं॥९५२॥ 15वार स्नान करावे, अथवा माथा विगेरेमां के नाभिना उपरना अंगमा पाणी सींचे, अथवा लाकडाथी अथवा लाकडां मांहोमांहे घसीने अग्नि बाळे, भटको करे, तेम करीने पछी साधुना शरीरने एकवार तपावे, के वारंवार तपावे, आवा दोषो जाणीने साधुने आ प्रतिज्ञा विगेरे छे. के तेवा गृहस्थना रहेवासवाळा मकानमां काउसग्ग विगेरे न करवू. (तेम निवास पण न करवा.) आयाणमेयं भिक्खुस्स सागारिए उवस्सए संवसमाणस्स इह खलु गाहावई वा जाव कम्मकरी वा अन्नमन्नं अकोसंतो वा पचंति वा भति वा उद्दर्षिति वा, अह भिक्खूणं उच्चावयं मणं नियंछिज्जा, एए खलु अन्नमन्नं अकोसंतु वा मा वा अकोसंतु जाव प्रा वा उद्दतुि, अह भिवस्वृणं पुव० जं तहप्पगारे सा० नो ठाणं वा ३ चेइज्जा । (मु०६८) गृहस्थना रहेवासवाळा घरमां उतरतां साधुने कर्मर्नु उपादान छे, तेथी त्यां बहु दोषो छे, तेज बतावे छे, के आवा घरमां गृहस्थ माहोमांहे आक्रोश विगेरे करे, ते कलेश करतां देखीने साधु कदाच उंचुं नीचुं मन करे, ( उंचं मन ते आq न करे तो 3 Hठीक, अने अवच ते भले करे,) तेबीज रीते माहोमांहे गृहस्थना घरमां घरवाळां परस्पर कलेश उपद्रव विगेरे करे तो पण साधुने IF असमाधि थाय, माटे त्यां न उतरवू.. __ आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावईहिं सद्धिं संवसमागस्स, इह खलु गाहावई अप्पणो सयट्टाए अगणिकायं उऽजालिज्जा वा For Private and Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् 30 पज्जालिज्ज वा विझविज वा, अह भिक्खू उच्चावयं मणं नियछिज्जा, एए खलु अगणिकार्य उ० वा २ मा वा उ. आचा० पज्जा लिंतु वा मा वा प०, विज्झवितु वा गा वा वि०, अह भिक्खूणं पु० ज तहप्पगारे उ० नो ठाणं वा ३ चेइज्जा ॥ ॥९५३॥ गृहस्थ साथे एक मकानमा रहेतां गृहस्थ निश्चयथी पोताना माटे अग्निकाय बाळशे, भडको करशे, अथवा बुज्ञावशे, ते समये| साधुना मनमां गया मूत्रमा कह्या प्रमाणे उंचा निचा भाव प्रगट थशे अने व्यर्थ कर्म बंध थशे, माटे तेवा स्थानमा साधुए उतरवु नहि, है आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावईहिं सद्धि संवसमाणस्स, इह खलु गाहावइस्त कुंडले वा गुणे वा मणी वा मुत्तिए वा हिरणेसु वा सुवण्णेसु वा कडगाणि वा तुडियाणि वा तिसराणि पालंबाणि वा हारे वा अद्भहारे वा एगावली ग कणगावली वा मुत्तावली वा रायणावली वा तरुणीयं वा कुमारि अलंकिविभूसियं पेहाए, अह भिक्खू उच्चाव परिसिया वा सा नो वा परिसिया इय वा णं बूया इय वा णं मणं साइज्जा, अह भिक्खूणं पु०४ जं तहप्पगारे उबस्सए नो० ठा०॥ (मू०७०) वळी गृहस्थ साथे वसतां नीचला दोषो छे, घरमां गृहस्थने माटे बनावेला दागीना कुंडल, सोनानो दोरो, मणी, मोती चांदी द सोनानां कडां बाजुबंध त्रणसेर वाळो हार अमखां हार अर्धहार एकावलि कनकावलि मुक्तावलि रत्नावलि विगेरे जुए, अथवा तेवा । दागीना पहेरेली सुंदर कुमारिकाने जुए, तेने देखीने ते साधु उंचा नीचां वचन बोले के आ सारो दागीनो के मुंदर कन्या छे, 3 अथवा आ खामीवाळो दागीनो के कन्या छे, तेज प्रमाणे मनमा रागद्वेष करे, KAARCRACK For Private and Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावई हिं सद्धिं संवसमाणस्स, इह खलु गाहावइणीभो वा गाहावइधृयाओ वा गा० सुहाओ वा आचा० गा० धाईओ वा गा० दासीओ वा गा० कम्मकरीओ वा तासिं च णं एवं वुत्तपुव्वं भवइ-जे इमे भवंतिसमणा भगवंतो । सूत्रमू जाव उवरया मेहुणाओ धम्माओ, नो खलु एएसि कप्पइ मेहुणधम्म परियारणाए आउट्टित्तए, जा य खलु एएहिं सद्धि ॥९५४॥ मेहुणधम्म परियारणाए आउट्टाविज्जा पुत्तं खलु सा लभिज्जा उयस्सि तेयरिंस वच्चस्सि जसस्सि संपराइयं आलोयणदरसणिज्ज, एयप्पगारं निग्घोसं सुच्चा निसम्म तासिं च णं अन्नयरी सङ्कतं तवस्सि भिक्खु मेहुणधम्म पडियारणाए आ उट्टाविज्जा, अह भिक्खूणं पु० जं तहष्पगारे सा० उ० नो ठा ३ चेइज्जा एयं खलु तस्स० ॥ (मू०७१) पहमा सिज्जा सम्मत्ता २-१-२-१॥ वळी गृहस्थ साथे वसतां आ दोषो छे, गृहस्थनी स्त्री, दीकरी, दीकरानी बहु, धावमाता, दासी, नोकरडी बोले अथवा ती तेमना आगळ पूर्वे कोइ बोल्युं होय, के जे आ जैनना साधु भगवंतो महाव्रत पाळनारा मैथुन (संसार संग) थी विरत थएला छे, P तेमने निश्चयथी मैथुन सेवन करवू कल्पतुं नथी, अने तेथी जे कोइ स्त्री तेमनी साथे संबंध करे, अने पुत्र संपादन करे तो ते पुत्र | बळवान दीप्तिमान रुपवान कीर्तिवाको थाय, आq सांभळीने तेओ विचारीने कोइ पुत्र वांछक (वांझणी) स्त्री साधुने कुसंग करवा प्रार्थना करे, आवा दोषो जाणीने साधुभोने तेवा मकानमा उतरवानी मना करेली छे, आज भिक्षुनुं सर्वथा साधुपणुं छे. RECRACANCHC For Private and Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥९५५॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बीजो उद्देशो. (प्रकरण ) पहेलो उद्देशा कहीने बीजो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे, के गया उद्देशामां गृहस्थना घरमां वास करतां थता दोषो बताव्या, अहींया पण तेवा विशेष दोषो वसति संबंधी बतावे छे. नामे समायारा भवंति से भिक्खू य असिणाणए मोयसमायारे से तग्गंधे दुग्गंचे पडिकूले पडिलोमे यात्रि भवइ, जं पुख्वं कम्मं तं पच्छा कम्मं पच्छा कम्मं तं पुरे कम्मं तं भिक्खुपडियाए वट्टमाणा करिज्जा वा नो करिज्जा वा, अह भिक्खूणं पु० अं तहप्पगारे उ० नो ठाणं ॥ ( मू०७२ ) केटलाक गृहस्थो शुचि समाचारवाळा भागवत विगेरेना भक्त अथवा भोगीओ ( वारंवार स्नान करनारा अथवा सुगंधी चंदन अगर केसर कर्पूर विगेरे वस्तुनो लेप करनार शोखीनो ) होय छे, अने साधुओ तेवी रीते वारंवार के एकवार खास कारण बिना फासु पाणीथी पण ब्रह्मचर्यना भंगना दोषने लीघे स्नान करनारा नथी, तथा कारण प्रसंगे मोया (पेशाब) नो पण उपयोग करनारा छे, (ज्यारे जंगलमां उतर्या होय अथवा उजड जग्यामां उतर्या होय, त्यां ओचींतो साप करडे तो तेना झेरथी बचवा रातना वैदनी खटपट न बनी शके, माटे पेशावनो उपयोग पूर्वे थतो, सांभळवा प्रमाणे ओचींतो खीलो के ठोकर लागी लोडी पुष्कळ नीकळ्तुं होय, तो पेशावनी धारा करवायी बंध पडे छे, तेत्रा कोइ पण कारणे बखते कोइ साधुए उपयोग कर्यो होय तो वारंवार स्नान करनारा गृहस्थने दुगंच्छा थाय ) माटे भिक्षु तेनी गंधवाळा छे, तथा कोइनो पेशाब गंधातो होय, परसेवो वास मारतो होय, For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥९५५॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० ॥ ९५६ ॥ तो ते गृहस्थने खोढुं लागे, अने गृहस्थने ते गमे नहि. ( बनेना रस्ता उलटा छे.) माटे फावे नहि. (सूत्रमां पडिकूल पडिलोमा एक अर्थवाळा छतां वने कवानुं कारण फकत अतिशय विरुद्धता बतावी छे.) तथा ते गृहस्थ साधुना कारणेज भोजन तथा जमवाना | स्थानमां तेमने स्नान पूर्वे कर होय, ते पछीथी करे छे, अने पाछळ करवानुं होय ते पहेलुं करे एम आगळ पाछळ घरमा कार्य | थतां साधुओने अधिकरण दोष थाय छे, अथवा ते गृहस्थाने जमवानो काल थयो होय तो पण साधुने लीधे न खाय, तेथी अंतराय | कर्म बंधाय, मननी पीडा विगेरेनो संभव थाय, अथवा ते साधुओ गृहस्थनी शरमथी पूर्वे पडीलेहणा करवानी ते पछी करे, अथवा | काळ वीती गया पछी करे, अथवा न पण करे, माटे साधुओनी आ मतिज्ञा छे, के तेवा गृहस्थना वापरता घरमा निवास न करवो. आयाणमेयं भिक्खुस्स गाद्दावईहिं सद्धि सं०, इह खलु गाहावइस्स अप्पणो सयद्वाए विरूवरूवे भोयणजाए उवक्खडिए सिया, अह पच्छा भिक्खुपडियाए असणं वा४ उवक्खडिज्ज वा उवकरिज्ज वा उवकरिज्ज वा तं च भिक्खू अभिकंखिज्जा एवा पाय वा वियट्टितए वा, अह भि० जं नो तह० || ( मू० ७३) आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावरणा सद्धि संव> इह खलु गाहावइस्स अप्पणो सयद्वार विरूवरूबाई दारुयाई भिन्नपुव्वाईं भवति, अह पच्छा भिक्खुपडियाए ि aart दारुयाई मंदिज्ज वा किणिज्ज वा पामिच्चेज्ज वा दारुणा वा दारुपरिणामं कट्ट अगणिकार्य उ० प०, तत्थ भिक्खु अभिकंखिज्जा यावित्तए वा पयावित्तए वा वियट्टित्तए वा, अद भिक्खू० जं नो तहप्पगारे० ॥ ( मू० ७४ ) गृहस्थ साथै साधु उतरे ता तेने आवां पण कर्म बंधन छे, के गृहस्थ प्रथम पोताना माटे जुदी जुदी जातनुं रांधे, अने पाछळथी साधु माटे अशन विगेरे चारे प्रकारनो आहार रांधे, अथवा भोजननुं वासण आगळ मूके ते देखीने भिक्षुक तेने For Private and Personal Use Only सूत्रम् ८ ॥ ९५६ ॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जना जुदा सूत्रमू १७॥ ४ खावा पीवानी इच्छा करे, आथवा त्यां बेसवानी माधु इच्छा करे, नेटला माटे रहेगाना घरमां न उतरवु (७३) । आचा० एज प्रमाणे गृहस्थे पोताना माटे जुड़ी जुड़ी जातिनां लाकडां चीरीने मुक्यां होय छे, अने पाछळथो साधु माटे जुदा जुदा लाकडां चीरावे, खरीद करे, बदलो करे, अथवा ठंडीना दिवस होय तो तापणा माटे अग्निकाय सळगावे, भडको करे, त्यांमुधी ॥९५७॥ तापवानी एकवार इच्छा करे, वारंवार तापवानी इच्छा करे, अथवा त्यां जइने बेसे, माटे तेवा स्थानमा कर्मबंधन कारण जाणीने साधुए उतरवू नहि. (मू-७४) वळी. सेभिक्खू वा० उच्चारपासवणेण उपाहिज्जमाणे राओ वा वियाले वा गाहाईकुलस्स द्वारवाई अाणिज्जा, तेणे य तस्संधिचारी अणुपबिसिज्जा, तस्स भिक्खुस्स नो कप्पइ एवं वइत्तए-अयं तेणो परिसइ वा नो वा पविसइ उबल्लियइ वा नो वा. आवयइ वा नो वा. वयइ वा नो वा० तेण हडं अनेण हडं तस्स हडं अन्नस्य हडं अयं तेणे अयं उवचरए अयं हंता अयं इत्थमकासी तं तबस्सि भिक, अनेणं तेणंति संकर, अह भिक्खूणं पु० जाव नो ठा०॥ (मू०७५) ते भिक्षु मृहस्थना घरमा साथे रहेलो स्थंडील विगेरेना कारणे रात्रे के परोडीये उपाश्रयनुं द्वार उघाडे, त्यां छिद्र शोधनारो 18 चोर पेसी जाय, ते देखीने साधुने आबु बोलवू न कल्पे, के आ चोर घरमा पेसे छे, तथा चोर पेसतो नथी, ते प्रमाणे छुपी जाय छे के छुपातो नथी, अथवा कुदी आवे छे, अथवा नथी आवतो, ते बोले छे, अथवा नथी बोलतो, ते अमुक माणसे चोयु, अथवा बीजे चोयु, तेनुं चोर्यु, के बीजार्नु चोर्यु, आ चोर छ अथवा तेने सहायता करवा पाछळ चालनारो छे, आ शस्त्र धारक छे, आ मारनारो घातक छे, एगे आ अहों कयु छे, विगेरे न बोलवं कारग के तेयो चोरने पीडा थाय, अथवा ते चोर साधु उपर द्वेष For Private and Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥२५॥ करीने तेनेज मारशे, विगेरे दोपो छे, अने जो साधु तेप्रमाणे चोरी करनारा चोरने न बतावे तो ते घरवाळांने आ साधु नदी आचा० | पण चोर छे एवी शंका थाय माटे आवा दोषो जागीने साधुए गृहस्थने रहेवाना घरमा न उतरवू. फरीथी वसतिना दोषो बतावे छे. से भिक्खू वा से जं. तणपुंजेसु वा पलालपुंजेसु वा सअंडे जाव ससंताणए तहप्पगारे उ० नो ठाणं वा० ॥ ३ ॥ से ॥९५८॥ भिक्खू वा० से जं० तणपुं पलाल० अप्पंडे जाव चेइज्जा ॥ (मूल ७६) ते साधु घासनो ढगलो होय, पराळनो पुंज होय, पण त्यां इंडां पडेलां होय, तेवा मकानमा साधु न रहे, पण उपर बतावेला घास के पराळमां इंदा न होय तेवा मकानमा उतरवु, ( अस शब्दनी अर्थ अभाववाची छे.) हवे वसतिना परित्यागना उद्देशानो अर्थाधिकार कहे हेसे आगंतारेसु आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अभिक्खण साहम्मिएहि उवयमाणेहिं नो उवइज्जा ॥ (मू०७७) लोकोने उतरवानां मुसाफरखाना के बगीचानी अंदरनां घरो के मठो अथवा ज्यां पोताना सरखी समाचारीवाळा साधुओ 5 वारंवार आवीने उतरता होय, तेवा स्थानमा मासकल्प विगेरे न करवो. ( के बोजाने उतरतां संकोच न थाय) हवे कालातिक्रांत वसतिना दोषो कहे छेसे आगंतारेसु वा ४ जे भयंतारो उडुबद्रियं वा वासावासिय वा कप्पं उबाइणित्ता तत्थव भुजो संवसंति, अयमाउसो! कालाइकंतकिरियावि भवति १ ।। (मू० ७८) ACCORRORSCHOOL For Private and Personal use only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥९५९॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साधु भगवंतो ते सफरखाना विगेरेमां शीतोष्ण रुतुमां मासकल्प करीने पाछा चोमासुं ते मकानमां करीने फरीथी कारण विमा रहे, तो ( गुरु शिष्यने कहे छे) हे आयुष्मन् काल अतिक्रम दोष संभवे छे, तेज प्रमाणे स्त्री विगेरेनो प्रतिबंध अथवा स्नेहथी उद्गम विगेरे दोषोनो संभव थाय छे, माटे तेवुं स्थान साधुने न कल्पे. हवे उपस्थान दोषने बतावे छेसे आगंतारेमु वा ४ जे भयंतारी उडु० वासा० कप्पं उवाइणावत्ता तं दुगुणा दु (ति) गुणेण वा अपरिहरित्ता तत्थेव भुज्जो० अयमाउसो ! उवद्वाणकि० २ ।। (मू० ७९ ) जे साधुओ मुसाफरखाना विगेरेमां शीयाळा उनाळामां मासकल्प करीने अथवा चोमानुं करीने अथवा बीजे एक मास रहीने मणो णगणो कल्पवडे न छोडीने अर्थात् वे त्रण मास सुधी ते मकानमां न वस तेवो कल्प उलंघीने पाछा त्यांज वसे छे, माटे आवो उपाय उपस्थान क्रिया दोषथी दुष्ट थाय छे, माटे तेवाउपाश्रयमां साधुने उतर करपतुं नथी. हवे अभिक्रांत वसति बताववा कहे छे इह खलु पाईणं वा ४ संतेगइया सढा भवति, तंजडा - गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा, तेर्सि च णं आयारगोयरे नो मुनिसंते भवर, तं सद्दहमाणेहिं पत्तियमाणेहिं गेयमाणेहि बहवे समण माहण अतिरिकिवणवणीमए समुद्दिस्स तत्थ २ अगारीहिं अगाराई चेहयाई भवंति, तंजहा आएसणाणि वा आयतणाणि वा देवकुलाणि वा सहाओ वा पत्राणि वा पणियगिहाणि वा पणियसालाओ वा जाणगिहाणि वा जाणसालाओ वा सुहाकम्मैताणि वा दम्भकम्मताणि वा बद्धकंवा ० वकयकं० इंगालकम्मं० कटुक० सुसाणक० सुण्णागारगिरिकंदरसं तिसेलोवद्वाणकम्मंताणि वा भवणगिहाणि वा, For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥९५९॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ९६० ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जे भयंतारो तप्पगाराई आएसगाणि वा जान गिहाणि वा तेहि उवयमाणेहिं उवयंति अयमाउसो ! अभितकिरिया यावि भवइ ३ || ( मू० ८० ) ( अहीं प्रज्ञापक विगेरेनी अपेक्षाए ) पूर्व विगेरे दिशामां श्रावको अथवा प्रकृतिभद्रक अन्य गृहस्थो नोकरी सुधी होय, तेओने साधुनो “आवो उपाश्रय कल्पे" एवी खबर न होय पण उपाश्रय आपवाथी स्वर्ग विगेरेनुं फळ प्राप्त थाय, ते क्यांयथी जाणीने श्रद्धा करीने हृदयमां ते मचवाथी घणा साधु विगेरेने उद्देशीने त्यां आराम विगेरेमां यानशाला विगेरे पोताना माटे करतां साधु विगेरेने जग्या आपका माटे ते मकानो मोटा कराव्यां होय, ते मकानोनां नाम कहे छे, आदेशन (लुवारनी शाळा ) आयतन ( देवकुलनी जोडे बनावेल ओरडाओ ) देवकुल (देवळ) सभा ( चारवेदने भगवानी पाठशाळा ) परत्र पुण्य ( दुकानो ) पुण्यशाळा (घशाळा) यान ग्रह ( रथ विगेरे राखवानुं स्थान ) यानशाळा ( रथ विगेरे बनाववानुं स्थान ) सुवाकर्म ते ( ज्यां खडीनु परिकर्म थाय) आ प्रमाणे दर्भ वर्ध वल्कन अंगार काष्ठ कर्म विगेरे छे, पटले जेमां घास चामडां झाडनी छाल के कोयला के लाकडांना कामनुं कारखानुं होय, मसाण होय, शून्य घर होय, शांतिकर्तनुं घर होय, पर्वत उपरनुं घर होय, सुधारेली पहाडनी गुफा होय, शैल उपस्थान ( पाषाणनो मंडप ) होय, आवां घरो चरक ब्राह्मणो विगेरेथी पूर्वे वपरायां होय, पछी खाली पडेलां होय, तो पछवाडे साधु तेमां उतरे, तो तेमां अल्प दोष (निर्दोष) होय, छे, आधुं गुरु शिष्यने कहे छे, ( अर्थात् तेवा मकानमां उतराय छे. ) इह खलु पाईणं वा जाव रोयमागेहिं बडवे समणमाहणअतिहित्रिण वणिमए समुद्दिस्स तत्थ तत्थ अगारिहिं अगाराई For Private and Personal Use Only सूत्रम् | ।। ९६०॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० ॥९६१॥ ॥२६॥ चेइयाई भवंति, तं०-आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा, जे भयंताणो तहप्प० आएसणाणि जाव गिहाणि वा तेहिं अणोवयमाणेहि उवयंति अयमाउसो ! अणभिक्कतकिरिया यावि भवइ ॥ (मू० ८१) उपरना मूत्र प्रमाणे पूर्व विगेरे दिशामा गृहस्थथी ते कर्म करी मुधीनां माणसोए साधुने मकान उतरवा आपवानुं विशेष पुण्य फळ जाणीने श्रमण ब्राह्मण अतिथि विगेरेने आश्रयी आदेशन घर विगेरे बनाव्यां होय, तेमां पूर्वे श्रमण ब्राह्मणो विगेरे न उताँ होय, तेमां साधु उतरे, तो ते दोषवाळी जग्या छे, माटे ते उतरवा योग्य नथी. हुवे न उतरवा योग्य वसति कहे छेइह खलु पाईणं वा ४ जाव कम्मकरीओ वा, तेसिं च णं एवं वुत्तपुव्वं भवइ-जे इमे भवंति समणा भगवंतो जाव उवरया मेहुणाओ धम्माओ, नो खलु पएसि भयंतारणंकप्पर आहाकम्मिए उबस्सए वत्थए, से जाणिमाणि अह अप्पणो सहवाए चेइयाई भवंति, तं०-आएसणाणि वा जावगिहाणि वा, सव्वाणि ताणि समणाणं निसिरामो, अवियाई वयं पच्छा अप्पणो सयहाए चेइस्सामो, तं०-आएसणाणि वा जाव०, एयप्पगारं निग्धोसं सुच्चा निसम्म जे भयंतारो तहप्प आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा उबागच्छांति इयराइयरेहि पाहुडेहिं बट्टति, अयमाउसो ! वजकिरियावि भवति ५॥ (मू०८२) आ पूर्व विगेरे दिशामां गृहस्थ अथवा नोकरडी होय, अने तेओने पूर्वे एयूँ कहेवामां आव्यु होय, के आ साधु भगवंतो पोते ब्रह्मचर्य पाळनार छे, तेओने साधु माटे बनावेलु मकान उतरवाने कल्पतुं नथी, एटला माटे आपणे आपणा माटे बनावेलु घर छे,8 For Private and Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० - - ॥९६२॥ ॥९६२॥ 8 ते रहेवा आपी दइए, अने आपणे माटे नवं बनावी लइशें, आची रीते गृहस्थे बनावेलुं मकान सूत्र ८. मां बतावेल विगतवाल होय, ते सुंदर के मध्यम होय, तो पण साधुओने रहेवा आपे, तो ते वर्ण्य क्रियावाळु ( त्याज्य मकान ) होवाथी तेमां | उतरवू नहि. हवे महावा नामथी वसतिनुं वर्णन करे छे. इह खलु पाईणं वा ४ संतेगइआ सा भवंति, तेसिं च णं आयारगोयरे जाव तं रोयमाणेहिं बहवे समणमाहण जाव वणीमगे पगणिय २ समुद्दिस्स तत्थ २ अगारीहिं अगारई चेइयाइं भवंति, तं०-आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा, जे भयंतारो तहप्पगाराइं आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा उबागच्छति इयराइयरेहिं पाहुडेहिं०, अयमाउसो! महावज्जकिरियावि भवइ ६॥ (मू०८३) आ बधुं सुगम छे, के श्रावके श्रमणमाहण वणीमग माटे मकान बंधाव्यु होय, तेमां जो साधुओ स्थान करे, तो महावl नामनी वसति थाय छे, माटे आ विशुद्ध कोटी अकल्प्य छे, तेमां उतरवू नहि, ६ ॥ हवे सावध अभिधान (नामनी) वसति कहे छे. इह खलु पाईणं वा ४ संतेगइया जाव तं सद्दहमाणेहिं तं पत्तियमाणेहिं तं रोयमाणेहिं बहवे समणमाहणअतिहिकिवणवणीमगे पगणिय २ समुदिस्स तत्थ २ आगाराई चेइयाइं भवंति तं-आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा जे भयंतारो तहप्पगाराणि आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा उवागच्छंति इयराइयरेहिं पाहुडेहिं, अयमाउसो ! सावजकिरिया यावि भवइ ७ ॥ (मू०८४) - - 4584% For Private and Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ९६३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आ प्राये सुगम छे, फक्त विशेष आ छे के पांच प्रकारना निर्ग्रथो शाक्य तापस गैरीक अने आजीविकrवा श्रमणो माटे कल्पीने बनावेल वसति होय, तो ते सावध अभिधान वसति थाय छे, आ अकल्पनीय छे, पण विशुद्ध कोटी छे, आमां स्थान करतां सावध क्रिया थाय छे. हवे महासावद्य वसतिनुं वर्णन करे छे. इह खलु पाई वा ४ जाव तं रोयमाणेहिं एवं समणजायं समुद्दिस्स तत्थ २ अगारीहिं अगारा चेहयाई भवन्ति, तं० आसणाणि जाव गिहाणि वा महया पुढविकायसमारंभेणं जाव महया तसकायसमारंभेणं महया विरूवरूवेहिं पात्रकम्मकिच्चेहि, तंजा—छायणओ लेवणओ संथारदुवारपिहणओ सीसोदए वा परडवियपुब्वे भवइ अगणिकाये वा उज्जालिपुव्वे भवइ, जे भयंतारो तह० आएसणाणि वा० उवागच्छेति इयराइयरेहिं पाहुडेहिं दुपकखं ते कम्मं सेवंति, अयमाउसो ! महासावज्जकिरिया यावि भवइ ८ ।। ( मू० ८५ ) एक साधर्मिक (साधु) ने उद्देशीने कोइ गृहपति विगेरेए पृथ्वीकाय विगेरेनो संरंभ समारंभ आरंभ विगेरे कंड़ पण महान आरंभ करीने जुदा जुदा पाप कृत्योवडे एटले छापरुं ढांक, लपावनुं, संथारा माटे वारणं ढांकवा माटे, विगेरे प्रयोजनने उद्देशीने प्रथम काचं पाणी नांखे, अथवा अनि प्रथम वाळे, विगेरेथी आरंभ करेला मकानमां स्थान विगेरे करतां वे पक्षनुं कर्म | सेवन करे छे. ते आ प्रमाणे आधाकर्मी वसतिना सेवनथी गृहस्थपणुं अने तेमां ममत्वना कारणे राग द्वेषपणुं छे, तेथी तथा इर्यापथ अने सांपरायिक इत्यादि दोषो छे. तेथी ते महासावय क्रिया अभिधान वसति छे. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥९६३॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० सूत्रमू ॥९६४॥ ॥९६४॥ AAAAAAAAESAE% हवे अल्प क्रियावाळी वसति कहे छे. इह खलु पाईणं वा० रोयमाणेहिं अप्पणो सयट्ठाए तत्थ २ अगारीहिं जाव उज्जालिय पुब्वे भवइ, जे भयंतारो तहप्प. आएसणाणि वा० उवागछंति इयराइयरेहिं पाहुडेहिं एगपक्खं ते कम्मं सेवंति, अयमाउसो ! अप्पसावज्जकिरिया यावि भवइ ९ ॥ एवं खलु तस्स० (मू०८६)॥२-१-१-२-२॥ शय्यैपणायां द्वितीयोदेशकः॥ प्रथम बताच्या प्रमाणे ते घरमा गृहस्थोए पोताना माटे ते घरमां कंइ पण सावध क्रिया करी होय, तेवा मकानमां पाछळ्थी | साधओ आवी उतरे तो ते एक पक्षनु कर्म सेवन करे छे, आवा मकानमा उतरतां साधुओने अल्प (दोष विनानी) क्रिया छे, अर्थात ते मकानमा उतरतां दोष नथी. आज साधुन सर्वस्व छे. कालइकंतु १ वठाण २ अभिकता ३ चेव अणभिकंता ४ य । बज्जा य ५ महावज्जा ६ सावज्ज ७ मह ८ ऽप्पकिरिआ.९ य ॥ १॥" १काल अतिक्रांत २ उपास्थान ३ अभिक्रांत ४ अनभिक्रांत ५ वय ६ महावज्यं सावध ८ महासावध अल्पक्रिया. एम नव प्रकारे नव मूत्रोमा वसति बतावी. तेमां अभिक्रांत अने अल्पक्रिया ए वे बसति योग्य छे, वाकीनी अयोग्य छे.. आ प्रमाणे बीजा अध्यननो बीजो उद्देशो पूरो थयो. For Private and Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् आचा० त्रीजो उद्देशो, बीजो कह्या पछी त्रीजो उद्देशो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध हे, गया उद्देशामां अल्पक्रियावाळी शुद्ध वसति बतावी. अहीं | ॥९६५॥ 3/ पण प्रथम सूत्रथी तेथी विपरीत शय्या बतावे छे. से य नो सुलभे फासुए उंछे अहेसणिजे नो य खलु सुद्धे इमेहिं पाहुडेहि, तंजहा-छायणओ लेवणो संथारदुवारपिहणओ पिंडवाएसणाओ, से य भिक्खू चरियारए ठाणरहे निसीहियारए सिज्जासंथारपिंडवाएसणारए, संति भिक्खूणो एवमक्खाइणो उज्जुया नियागपडिवना अमायं कुब्बाणा वियाहिया, संतेगइया पाहुडिया उक्खित्तपुब्बा भवइ, एवं निक्खित्तपुव्वा भवइ, परिभाइयपुब्बा भवइ, परिभुत्तपुब्बा भवइ परिदृवियपुवा भवइ, एवं वियागरेमाणे समियाए वियागरेइ ?, हंता भवइ ।। (मू० ८७) अहिं कोई वखत कोइ साधु वसति शोधवा माटे अथवा भिक्षा लेवा माटे गृहस्थने घरे जतां कोई श्रद्धालु श्रावक आ प्रमाणे 18 कहे, के आ गाममां घणुं अन्न पाणी मळे छे, माटे अहियां आपे वसति याचीने रहे, योग्य छ,द आ प्रमाणे कहेवाथी साधु कहे, के हे श्रावक :पिंड ( अन्न पाणी) प्रामुक (निर्दोष) दुर्लभ नथी पण ते मळवा छतां ज्यां। बेसीने गोचरी करीए ते आधाकर्मादि दोष रहित उपाश्रय मळयो दुर्लभ छे, तेम 'उं छ' एटले छादन विगेरे उत्तर गुणना दोषथी| पण रहित होय ( ते मळवो दुर्लभ छे) तेज बतावे छे SARORE For Private and Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रमू G॥९६६॥ 'अहेसणिज' एटले मूळ उत्तर गुणोमा दोष न लगाडे ते एषणीय उपाश्रय होय छे, तेवो मळवो दुर्लभ छे. ते मूळ उत्तर आचा० व गुणो पा प्रमाणे छे. . पट्टी वंसो दो धारणाओ चत्तारि मूलवेलीओ। मूलगुणेणिं विसुद्धा एसा आहागडा बसही ॥१॥ ॥९६६॥ पीठनो वांस बे धारण चार मूळवेलीओ आवु कांइ पण स्थान गृहस्थे पोताना माटे बनावेलु होय, तो मूळ गुण विशुद्ध ६ वसति जाणवी. __सगकडणोकंपण छायण लेवण दुवारभूमीओ परिकम्मविप्पमुका एसा मूलुत्तरगुणेसु ॥ २॥ वांसने कपाचवा, ठोकठाक करवी, बारगानी भूमिने आच्छादन करवं, लेपन करवू, आ परिकर्मथी विषमुक्तमूळ उत्तर ४ गुणो वडे विशुद्ध छे. दुमिअधूमिअवासिअउज्जोवियवलिकडा अ वत्ता य । सिता सम्मट्ठावि अ विसोहिकोडीगया बसही ॥३॥ धोळेली, धुप करेली, सुगंधीवाळी बनावेली, उद्योत करेली, बलिपूजन करेली खुल्ली मुकेली, पागाथी सिंचेली, संमृष्ट 8|करेली, आ विशोधी कोटीमां गयेली वसति छे. में आ जग्याए प्राये उत्तर गुणोनो संभव होवाथी तेनेज बतावे छे, अने आ वसति आ कर्मना उपादान कर्मोबडे शुद्ध थती नथी ते बतावे छे. दर्भ विगेरेथी छायेल होय, छाण विगेरेथी लींपेल होय, अपवर्तक ने आश्रयी संस्तारक को होय, तथा वारणुं नानं मोटुं For Private and Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥९६७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्य होय, तथा कमाडने आश्रयी ढांक, उघाडवुं विगेरे छे. बळी पिंडपात एषणाने आश्रयी दोषो कहे छे. कोइ स्थानमा साधु रहेला होय तो तेमने ते घरना मालिक शय्यातर पोताना घरमां आहार लेवा प्रार्थना करे, तेना घरम आहार लेवो न कल्पे. तेथी ना पाडवाथी तेने द्वेष थाय, विगेरे कारणें उत्तर गुणो युक्त उपाश्रय मळवो दुलर्भ हे, माटे बने त्यां सुधी साधुए शुद्ध उपाश्रय जोड़ने उतर तेथी कहां छे के,— मूल्लत्तरगुणसुद्धं थीपमुपंडगविवज्जियं वंसहिं । सेवेज्ज सव्वकालं विवज्जए हुति दोसा उ ॥ १ ॥ मूळ उत्तर गुणथी शुद्ध तथा स्त्री पशु नपुंसकधी वर्जित मकान सर्व काळ सेवे, अने दोषोने दूर करे. मूळ उत्तर गुण शुद्ध मळवा छतां भणवा विगेरेनी सगवडता युक्त तथा खाली मळवो मुश्केल छे, ते कहे छे-तेमां भिक्षाचचर्यामां रक्त, निरोधना असहिष्णुंपणाथी संक्रमणना स्वभाववाळा ( योग्य विहार करनारा ) तथा स्थानरत ते कायोत्सर्ग करनारा, निपीधिकारत ते स्वाध्याय करनारा, शय्याने सर्वाग बडे सुखधी सुवाय, ते संस्तारक २ || हाथ प्रमाणवाळो, अथवा शयन ते शय्या छे, तेने माटे संस्थारक (संथारो) ते शय्या संस्तारक रत ते मंदवाड विगेरेना कारणे सूता होय, तथा गोचरी मळेथी ग्रास एषणारत छे, आ प्रमाणे केटलाक साधुओ यथास्थित वसतिना गुण दोषो चतावनारा थाय छे, तेओ ऋजु छे, तथा नियागते संयम के मोक्ष छे, तेने पामेला छे, तथा तेओ माया ( कपट) रहित होवाथी उत्तम गुणवाळा साधुओ छे. आ प्रमाणे गृहस्थोने वसतिना गुण तथा दोष बतावीने साधुओ जाय, त्यारपछी निर्दोष वसति साधुओने आपत्रा योग्य न होय, तो श्रावको साधु माटे वसति बनावे, अथवा पूर्वे करेली अपूर्ण होय तो छादन विगेरेथी रहेवा योग्य बनावे, पछी उपदेश आपनारा अथवा बीजा साधुओ For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥९६७॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit + 4 + आवेथी केटलाक श्रावको छळ करे छे, अने कहे के ( पाभृतिकाती पेटे भाभृतिक वसति होय तेनो अर्थ आ छ के, दानने माटे आचा० कल्पेली राखेल छे.) वसति तेवी वसति पूर्व साधुओने बतावेली होय, के तमे ज्यारे आवो त्यारे अहिं उतरजो, ते उत्क्षिप्त पूर्वा || सूत्रम् वसति छे, तथा एम कहे के अमे पूर्वे आ मारे रहेवा माटे बनावी छे, ते निक्षिप्त प्रपूर्वा छे; तथा "परिभाइ यपुल्ब" ते अमे आ ॥९६८॥ | वसति पहेलाथा अभारा भतिजा विगेरे माटे कल्पेली छे, तथा बीजा गृहस्थोए पण आ रहेवानं मकान वापर्यु छ, तथा ते H गृहस्थ कहे छ के अमे एने प्रथमी पाडी नांखवा राखेल छे, जो तमारे आ उपयोगमा न आवे तो अमे एने पाडी नाखीY, आ प्रमाणे भक्तिथी कोई गृहस्थ छलना करे तो साधुए ठगवानुं नहि; पण दोपोने दूर करवा प्रयत्न करवो. -आ प्रमाणे छलनाना संभवमां पण यथावस्थित वसतिना गुण दोषी गृहस्थे पूछतां साधु कहे तो शुं सम्यकज प्रकट करशे? अथवा एवं प्रकट करतो साधु शुं सम्यक प्रकट कहेनारो थशे? आचार्य कहे हा! ( हंत! अव्यय शिष्यना आमंत्रणमा छे) ते सम्यकज कहेनारो थाय छे. हवे तेवा कार्यना वशथी चरक कार्पटिक विगेरे साथे उतरवू पडे तो तेनी विधि कहे छे. से भिक्खू वा० से जं पुण उवस्सयं नाणिज्जा खुडियाा खुड्डदुवारियाओ निययाभो संनिरुद्धाओ भवन्ति, तहप्पगा. उवस्सए राओ वा चियाले वा निक्खममाणे वा प० पुरा हत्येण वा पच्छ। पाएण वा तो संजयामेव निक्खमिज वा २, केवली बृया आयाणमेयं, जे तत्थ समणाण वा माहणाण वा छत्तए वा मत्तए दंडए वा लट्टिया वा भिसिया वा नालिया वा चेल वा चिलिमिली वा चम्मए वा चम्मकोसए वा चम्मछेयणए वा दुब्बद्ध दुनिक्खित्ते अणिकंपे चलाचले भिक्खू य राओ वा वियाले वा निक्खममाणे वा २ पयलिज्ज वा २; से तत्य पयलमाणे वा० इत्थं वा० लूसिज्ज वा ४ जाव क For Private and Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ ववरोविज्ज वा, अह मिक्खूणं पुन्नोवइदं जं तह० उपस्सए पुरा हत्येण निक्व० वा पच्छा पारणं तओ संजयामेव नि० पविसिज्ज वा आचा ते भिक्षु आवो उपाश्रय जाणे, के नानी वसति छ, अथवा दरवाजा नाना छ, अथवा ते नीची छे, अथवा गृहस्थथी भराइ गइ छे, अने ते वसतिमां-साधुने उतरवानी जग्यामां शय्यातरे बीजा केटलाक दिवस रहेनार चरक विगेरेना साधुने उतरवा ॥९६९॥ 18 आपेल छे, अथवा साधुना आव्या पहेला ते जग्यामां चरक विगेरे उतरेला छे, अने पाछळथी साधुने तेमां जग्या आपेल छे, तो रात्र के परोडीए कारण वशे बहार जतां आवतां जेम चरक विगेरेना साधुना उपकरणने उपघात न थाय, अथवा तेना शरीरना अवयवनो उपघात न थाय, तेम प्रथम हाथ फेरवताज, अने यतनाथी जवा आश्वानी क्रिया करवी, जो तेम न करतां अयतनाथी चाले तो केवळी तेमां कर्म आदन बतावे छे. एटले त्यां श्रमण ब्राह्मणोना छत्रने मात्राने दंडने लाकडीने भिसिका नालिका वखने चिलिमिली ( यमनिका-पडदो) ने चामडाने चर्मकोश पगमां तलीये पहेरवानी चामडानी खल्लक विगेरे चर्मछेदनक दुर्बद्ध * दुनिक्षिप्त वस्तु पडी होय, त्यां अनिष्कंप होय ते चलाचल थतां दोष लागे तेथी पोते न अथडाय तेम साधुए चालवू, नहि तो | तेना उपकरणने नुकशान थाय अथवा तेना हाथ पगने नुकशान थाय, माटे संभाळीने जवु आव, से आगंतारेसु बग अणुवीय उवस्सयं जाइज्जा, जे तत्थ ईसरे जे तत्थ समहिटाए ते उपस्सयं अणुनविजा-कामं खलु आउसो! अहालंदं अहापरिचायं वसिस्सामो जाव आउसंतो! जाव आउसंतस्स उवस्सए जाव साहम्मियाई ततो उवस्सयं गिहिस्सामो तेण परं विहरिस्सामो ॥ (मू० ८९) हवे वसतिनी याचनानी विधि कहे छे. ते मिक्षु पूर्वे बतावेला आगंतार विगेरे स्वरुपवाळा रहेवा योग्य मकानमा प्रवेश करीने अने विचार करीने आ उपाश्रय For Private and Personal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आवा ॥९७० केवो छे? एनो मालिक कोण छे? विगेरे पूछीने उपाश्रयने याचे. H हवे जे घरनो स्वामी छे, अथवा घरना मालिके तेनी रक्षा माटे जेने सोंप्यु होय, तेनी पासे उपाश्रयनी याचना करे, ते आH सूत्रम् प्रमाणे हे आयुष्मन! तारी इच्छाथी तुं आज्ञा आपे तो अमुक दिवस आठला भागमां अमे रहीशुं. त्यारे ते वखते गृहस्थ कहे, के तमने केटला दिवस जरुर पडशे? त्यारे साधुए कहेवू, के शीयाळे, उनाळे खास कारण विना एक मास अने चोमासु होय तो चार | ९७०॥ मासनी जरूर छे, एम याचना करवी, त्यारे कदाच गृहस्थ कहे, के मारे तेटलो काळ अहीं रहेवू नथी, अथवा तेटलो काळ वसति है अपाय तेम नथी, त्यारे साधुए ते मकान लेवा, कांइ खास कारण होय तो कहेवू के ज्यां सुधी आप रहो त्यां सुधी अथवा आपना कवजामां होय त्यां सुधी अमे एमां रहीशुं, त्यार पछी अमे विहार करी जहशें, पण गृहस्थ पूछे, के साधुनी संख्या केटली छे? तो 8 कहेवू, के अमारा आचार्य समुद्र जेवा छे, तेथी परिमाण नक्की नथी, कारण के कार्यना अर्थीओ केटलाक आवे, अने भणवा विगेहै रेनु कृत्य थइ रहेता केटलाक जाय छे, तेथी जेटला हाजर हशे, तेटला माटे याचना छे, अर्थात् साधुए घरधणी साथे साधुनुं परिमाण नकी न करचुं, बळी से भिक्खू वा. जस्मुवस्सए संवसिज्जा तस्स पुव्बामेव नामगुत्तं जाणिज्जा, तो पच्छा तस्स गिहे निमंतेमाणस्स वा अनिमंतेमाणस्स वा असणं वा ४ अफासुयं जाव नो पडिगाहेजा ॥ (म० ९०) ते साधु जेना घरमां निवास करे तेनुं प्रथम नाम गोत्र जाणी ले, त्यार पछी तेना घरमां निमंत्रणा करे, अथवा न करे तो पण चारे कारनो अमासुक आहार ग्रहण न करे (नाम-गोत्र पूछ्वानुं कारण ए छे के आवेला साधु परोणाओ सुखेथी घर पूछता आवी शके.) For Private and Personal use only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ९७९ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir से भिक्खू वा० से जं० ससागारियं सागगियं सउदयं को पनस्स निक्खमणपवेसाए जावऽणुचिंताए तहप्पगारे उवस्सए नो ठा० भिक्षु एवं जाणे के आ उपाश्रयमां गृहस्थ रहे छे. अथवा अग्नि बळे छे, अथवा पाणी (सचित) रहे छे, त्यां आगळ साधुए काउसग्ग करवा के ध्यान करवा के भणवा रहेनुं नहि. (स्वां निवास न करवो ) सेभिक्खु वा० से जं० गाहावइकलस्स मज्झमज्झेणं गंतुं पंथए पडिबद्धं वा नो पनस्स जाव चिन्ताए तह उ० नो ठा० ॥ (० ९२ जे उपाश्रयम तय होय त्यां गृहस्थना घर मध्येनो मुख्य रस्तो होय त्यां बहु अपायनो संभव होवाथी तेवी जग्याए न रहेबुं सेभिक्खू वा० से जं०, इह खलु गाहावई वा० कम्मकरीओ वा अन्त्रमन्नं अकोसंति वा जाव उद्दवंति वा नो पन्नस्स०, सेवं नचा तप्पगारे उ० नो ठा० ॥ ( मू० ९३ ) ते बुद्धिमान साधु एम जाणे, के आ जग्गामां गृहस्थ अथव नेना घरमां काइपण नोकर विगेरे परस्पर लडे छे. एक बीजाने उपद्रव करे छे, ते जाणीने ते घरमां साधुए निवास न करवो, कारण के त्यां रहेतां गणवामां के समाधिमां विघ्न थाय छे. से भिक्खू वा० से जं० पुण० इह खलु गाहावई वा कम्मकरीओ वा अन्नमन्नस्स गायं तिल्लेण वा नव० घ० वसा वा अभंगेति वा मक्खेति वा नो पण्णस्स जाव तहप० उ० नो ठा० ( मू० ९४ ) ते साधु एम जाणे के आ घरमा गृहस्थ अथवा नोकरडी विगेरे कोइपण परस्पर एक बीजाना शरीरने तेस, माखण, घी के चरबीथी चोळे छे, अथवा कल्कं विगेरेथी उद्वर्त्तन करे के, त्यां प्रज्ञसाधुने निवास करवो न कल्पे. सेभिक्खू वा० से जं पुण० - इह खलु गाडावई वा जाव कम्मकरीओ अन्नमनस्स गायं सिणाणेण वा क० लु० चु० For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥९७१॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ९७२ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प० आर्धसंति वा पसंति वा उच्चलंति वा उव्वर्हिति वा नो पन्नस्स० ॥ ( सू० ९५ ) ते भिक्षु एम जाणे के आ घरमां गृहस्थो के घरनां माणसो परस्पर स्नान करे छे, अथवा शरीरे सुगंधी पदार्थो तेल चूर्ण विगेरे एकवार घसे छे, अथवा वारंवार घसे छे, तेवा मकानमां बुद्धिमान् साधुए न उतरखुं. से भिक्खू० से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा, इह खड गाहावती वा जान कम्मकरी वा अणमण्णस्स गायं सिओदग० उसिणो० उच्छो पहोयंति सिर्चति सिणार्वति वा नो पन्नस्स जाव नो ठाणं० ॥ ( मू० ९६ ) ते भिक्षुने एम मालूम पडे के आ उपाश्रयमां गृहस्थना घरनां माणसो ठंडा पाणीथी के उना पाणीथी परस्पर छांटे छे, धुए छे, सिंचे छे, स्नान करावे छे, तेवा स्थानमां बुद्धिमान् साधुने उतरखुं न कल्पे. से भिक्खू वा० से जं० इह खलु गाहावई' वा जाव कम्मकरीओ वा निगिणा ठिया निगिणा उल्लीणा मेहुणधम्मं विनवित रहस्सियं वा तं मंतंति नो पन्नस्स जात्र नो ठाणं वा ३ चेइज्जा ॥ ( मू० ९७ घर स्त्रीओ कasi काढीने बेमर्याद पणे बेसे, अथवा संसारसंग संबंधी कई पण छानी वात एक बीजाने रात्रि संबंधी कहे अथवा कांइपण खानगी वात अकार्य संबंधी चिंतवे, तेवा स्थानमां साधुप निवास न करवो, कारण के त्यां रहेवाथी स्वाध्यायमां विघ्न थाय, अने चित्तमां कुवासना विगेरेना दोषो थाय छे. बळी सेभिक्खू वा शे जं पुण उ० आइन्नसंलिक्खं नो पन्नस्स० ॥ ( ० ९८ ) ते भिक्षु एम जाणे के आ घरमां उत्तम शृंगाररसनां चित्रो छे, त्यां प्रज्ञसाधुए न उतरखुं, कारण के त्यां उतरवाथी भींतोनां For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ ९७२ ॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥९७३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चित्रो जोवाथी भणवामां विघ्न थाय, तथा तेवां स्त्री संबंधी चित्रो जोवाथी पूर्वे भोगवेला संसार भोगो याद आवे तथा न भोगवेला नवा साधुने कौतुक विगेरेनो संभव थाय छे. हवे फलहक विगेरे संस्तारक संबंधी कहे छे. सेभिक्खु बा० अभिकंखिज्जा संथारगं एसित्तए, से जं० संथारगं जागिज्जा सअंडं जात्र ससंताणयं, तहत्यगारं संथारं लाभे संते नो पडि० १ ।। से भिक्खु वा से जं० अप्पंडं जाव संताणगरुय तहष्पगारं नो प० २ || से भिक्खू वा० अप्पंडं लहुयं अपाडिहारियं तह० नोप० ३ ॥ से भिक्खू वा० अप्पंडं जाव अप्पसंताणगं लहुअं पाडिहारियं नो अहाबद्धं तहपगारं लाभे संते नो पडिगाहिज्जा ४ || से भिक्खू वा २ से जं पुण संथारगं जाणिज्जा अप्पंडं जाव संताणगं लहुअं पाडिहारिअं अहाबद्धं, तहष्पगारं संधारगं लाभे संते पडिगाहिज्जा ५ ॥ ( मू० १९ ) ते साधुने वा माटे पाटीउं जोइए ते संबंधी आ सूत्रमां पांचभांगा बताया है. (१) जो ते पाटीयामां घुण विगेरेना किडानां इंडा जाणवामां आवे, अर्थात् ते सडेलं होय, काणां पडेलां होय, काणा पडेलां होय तेमां 'जीवात' ना कारणे संयम विराधनाथी ते न कल्पे, (२) जो ते पाटीयुं घणुं भारे होय तो वजनना लीधे उंचुं नीचुं करतां पोतानी आत्मविराधना थाय तेथी ते पण न कल्पे (३) ते पाटीयाने प्रतिहार (गृहस्थ पार्छु राखवा तैयार न होय तो लेबुं-मुक नकल्पे कारणके परठवतां दोष लागे, (४) सांधा बरोबर न जोड्या होय तो तेना सांधा नीकळी जवाथी पडी जत्राय के अंगने | नुकशान थाय. आ चारे भांगावा पाटीउं दोषित होवाथी बुद्धिमान् साधुए लेवुं नहिं, पण पांचमां भांगामां बतावेल तथा काणा विनानुं घं भारे नहि, पार्छु राखवा हा पाडे, तथा पाटीयांना के लाकडाना टुकडा जडेला होय, सांधा मजबुत कर्या होय ते दोष For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ ९७३ ॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ब आचा ॥९७४॥ ४ विनानुं पाटीयु मळे तो साधुए लेQ. हवे संथाराने उद्देशीने अभिग्रहोगें विशेष कहे के इच्चेयाई आयतणाई उवाइक्कम-अह भिक्खू जाणिज्जा इमाई चाहिं पडिमाहि संथारगं एसित्तए, तत्य खलु इमा पढमा ४ सूत्रम् पटिमा-से भिक्खू वा २ उद्दिसिय २ संथारंग जाइज्जा, जहा-इक्कडं वा कढिणं वा जंतुयं वा परगं वा मोरगं वा तणगं वा सोरगं वा कुसं वा कुच्चगं वा पिप्पलग वा पलालगं वा, से पुब्बामेव आलीइज्जा-आउसोति वा भ० दाहिसि ॥९७४॥ मे इत्तो अन्नयरं संथारगं? तह संथारगं सयं वा वाणं जाइज्जा परो वा देजा फासुयं एसणिजं जाव पडि पढमा पडिमा मू०१०० पूर्वे बतावेला घरोना दोषो तथा संथाराना दोषो दूर करीने तथा हवे पछीना पण संथाराना दोषो टाळीने संथारो लेवो. ते कहे छे ते भिक्षु एम जाणे, के चार अभिग्रहनी प्रतिमाओ बडे संथारो शोधवानो छे, बतावे. (१) उद्दिष्ट २ प्रेक्ष्य ३ तेना घरनोज ४ यथासंस्तृत छे. तेमां उद्दिष्टमां फलहक विगेरेमांथी कोइ पण एक लइश, पण बीजो है नहि. आ प्रथम प्रतिमा छे, (२) जेवी मनमा पूर्वे धारी छे, तेवी आंखे देखीश तोज लइश पण बीजी नहि. (३) ते पण ते शय्यातरना घरमां तैयार हशे तोज लइश; पण बीजेथी लावीने सुइश नहि, (४) ते पण संस्तारक फलहक विगेरे जेवो इशे तेवोज वापरीश. आ चार प्रतिमाओमां गच्छमाथी निकळेला जिन कल्पी विगेरेने प्रथमनी चे कल्पती नथी, पाछली बेमांथी कोइपण कल्पे छे, पण स्थविर कल्पीने चारे कल्पे छे, ते मूत्र वडे बतावे छे, तेमांनी पहेलीने उद्देशी उद्देशीने इक्कट विगेरे कोइपण लइश, तेने ते मल्या पछीथी बीजं मळतुं होय तो पण ले नहि, इक्कड तथा ERMANESCOM For Private and Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥९७५॥ www.kobatirth.org नीचलां पाथरणां घणी शरदी (मीनाश) वाळां देशमां साधु साध्वीओने पाथरवानी आशा छे. ते इकड, कठिण (सादडी) जंतुक ने एक जातना घासनुं पाथरशुं छे, परक जेनावडे फुलो गुंथाय तेनुं बनावेलं अथवा मोरनां पीछां गुंथीने बनावेल, तथा घासनुं, तथा शरना सांठानुं, दर्भना घासनुं, कुवडाना रेसानुं, पीपळाना पाननुं, तथा पराळना घासनुं होय, तेवुं कोइ पण पाथरशुं याचे, तेमनुं कोइ पण पाथर आपे. तो ते लेइने बापरे. ॥ अहावरा दुच्या पडिमा से भिक्खू वा० पेहाए संथारगं जाइज्जा, तंजहा गाहावई वा कम्मकरिं वा से पुव्वामेत्र आलोइज्जा आउ० ! भइ० ! दाहिसि मे? जाब पडिगाहिज्जा, दुच्चा पडिमा २ अहावरा तच्चा पडिमा से भिक्खू बा० जस्सुवस्सए संवसिज्जा जे तत्थ अहासमभागए, तंजहा इकडे इ वा जाव पलाले इ वा तस्स लाभे संवसिज्जा तस्सालाभे उक्कुड़ए वा नेसज्जिए वा विहरिज्जा तथा पडिमा || ३ ( मू० १०१ ) प्रथमनी प्रतिमा करतां आ बीजीमां आटलं विशेष छे, के आ संस्तारक नजरे देखे, तोज मागे, ते गृहस्थ स्वयं आपे, अथवा साधु याचना करे, अने आपे तो लड़ने वापरे. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त्रीजी प्रतिमा — जेने त्यां उतर्यो होय, तेना घरमांज तेनुं कई आसन मळे तो लेइने बापरे, पण जो न मळे तो ते गच्छमां रहेल अथवा जिनकल्पी विगेरे होय ते उत्कटुक आसने बेसीने अथवा पद्मासन (पलांठी वारीने) विगेरेथी रात्री पूरी करे अहावरा चउत्था पडिमा से भिक्खु वा अहासंथडमेव संथारगं जाइज्जा, तंजहा - पुढविसिलं वा कट्टसिलं वा अहासंथडमेव, तस्स लाभे संते संबसिज्जा, तस्स अलाभे उक्कड़ए वा २ विहरिज्जा, चउत्था पडिमा ४ || ( मू० १०२ ) For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥९७५॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥९७६॥ आ प्रतिमा धारी साधु ज्यां उतयों होय, त्यां पत्थरनी शिला अथवा लाकडा सुवा योग्य पाटी विगेरे मळे अने गृहस्थ आचा० पासे याचतां मळे तो वापर, नहि तो उत्कटुक अथवा पलांठी वारीने रात पूरी करवी. इच्चेया णं चउण्हं पडिमाणं अन्नयरं पडिभ पडिवज्जमाणे तं चेव जाव अन्नोऽनसमाहीए एवं च णं विहरति ।। (मू० १०३) ॥९७६॥ ४ आ चारे प्रतिमाओमांनी कोइ पण प्रतिमाने स्वीकारनारो साधु होय ते बोजी प्रतिमा स्वीकारनारने निंदे नहि, कारण के ६ ते बधा जिनेश्वरनी आज्ञाने अवलंबीने समाधिथी रहे छे. से भिक्खू वा० अभिकखिज्जा संथारगं पञ्चप्पिणित्तए, से जं पुण संथारगं जाणिज्जा सअंडं जाव ससंताणयं तहप्प. संथारगं नो पच्चप्पिणिज्जा ।। (मू०१०४) हवे संथारो पालो आपवानी विधि कहे छे. मिक्षु पाछो आपवानो संथारो ज्यारे पाछो आपवा चाहे न्यारे तेमां देखे के गरोळी विगेरेनां इंडांथी व्याप्त होय अने पडिलेदहण करवा योग्य न होय तो ते पाछु आपे नहिं. से भिक्खू० अभिकखिज्जा सं० से जं. अप्पंड० तहप्पगारं० संथारंग पडिलेहिय २५० २ आयाविय २ विहुणिय २ 8 तओ संजयामेव पच्चप्पिणिज्जा ।। (मू० १०५) पछी ते अमुक वखत पछी जाणे के ते संस्थारमार्नु इंदु जीव रहित थयु छे तेवा संथारानी प्रतिलेखना करीने पुंजीने तडके तपाबीने सेज साज जयणाथी झाटकीने गृहस्थने पाछो आपे. हवे वसतिमां वसवानी विधि कहे छे, .. से भिक्खू वा० समाणे वा वसमाणे वा गामाणुगाम दुइज्जमाणे वा पुब्बामेव पन्नस्स उच्चारपासवणभूमि पडिलेहिजा, For Private and Personal Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० ॥९७७॥ SSENSESS-CREASER-CA-% 94% केवली बूया आयाणमेयं-अपडिलेहियाए, उच्चारपासवणभूमीप, से मिक्खू वा० राओ वा वियाले वा उच्चारपासवर्ण परिहबेमाणे पयलिज्ज वा २, से तत्थ पयलमाणे वा २ हत्थं वा पायं वा जाव लूसेज व पाणाणि वा ४ ववरोविज्जा, सुत्रम् अह भिक्खू णं पुजं पुब्बामेव पन्नस्स उ० भूमि पडिले हिज्जा ।। (सू० १०६) ते साधु-साध्वीए एक जग्याए रहेतां के विहार करतां प्रथमथी स्थंडिल मात्रानी जग्या जोइ लेवी, जो दिवस छतां जोइन 8 ॥९७७॥ राखे तो केवळी प्रभु तेमा दोष बतावे छे, कारण के ते भिक्षु के साध्वी रात्र के विकाले तेवा स्थानमा स्थंडिल मात्र परठवतां पग। खसी जतां तेना हाथ पग भांगे, अथवा इंद्रियोने नुकशान थाय अथवा अन्य प्राणीना प्राण पण ले, पटला माटे साधु-साध्वीए हा प्रथमथी ठल्ला मात्रानी जग्या दिवस छतां जोइ लेवी. से भिक्खू वा २ अभिकसिज्जा सिज्जासंथारंगभूमि पडिले हित्तए नन्नत्य आयरिएण वा उ. जाव गणावर एण या बालेण वा चुट्टेण वा सेहेण वा गिलाणेण वा आएसेण वा अंतेण वा मज्शेण वा समेण वा विसमेण वा पवारण वा निवाणए वा, तो संजयामेव पांडलेहिय २ पमज्जिय २ तो संजयामेव बहुफासुर्य सिज्जासंथारगं संथरिज्जा॥(मू १०७) ते साधुए प्रथमथी आचार्य उपाध्याय विगेरेथी गणावच्छेदक सुधीना अथवा बाळ वृद्ध नवा शिष्य, मांदा अथवा परोणानी जग्या छोटी दइने छेडेनी जग्या अथवा मध्यमां अथवा सम के विषम (खबचडी) जग्या होय, पवन आवे न आवे, तो पण तेमा संतोष राखी पडिलेहणा प्रमार्जन करीने संथारो पाथरवो. हवे शयननी विधि कहे हे. से भिक्खू वा० बहु संथरिता अभिकंखिज्जा बहुफामुए सिज्जासंथारए दुहित्तए ।। से भिक्खू बहु० दुरूहमाणे पुवामेव HOCOCCANCE- % For Private and Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रमू ॥९७८॥ ससीसोबरियं कायं पाए य पमज्जिय २ तओ संजयामेव बहु० दुरूहित्ता तओ संजयामेव बहु० सइज्जा ॥ (मू० १०८) ते साधु-साध्वीए बहु पामुक (निर्दोष) जग्यामां संथारो पाथरीने तेमांज पोते यतनाथी शयन करवू पण ते साधु-साध्वी आचा० प्रथमथी ते शय्यामां मुवा पहेलां पगथी माथा सुधीनी जग्या पूंजीवी तथा पोतानुं आटुं शरीर तथा पग प्रमार्जीने बहु संभाळीने ॥९७८॥ यतनाथी सुचु. हवे मुतेलानी विधि कहे छे, से भिक्खू वा० बहु० सयमाणे नो अनमन्नस्स हत्थेण हत्थं पाएण पायं कारण कार्य आसाइज्जा, से अणासायमाणे तओ संजयामेव बहु० सइज्जा ॥ से भिक्खू वा उस्सासमाणे वा नीसासमाणे वा कासमाणे वा छीयमाणे वा जंभायमाणे वा उड्डोए वा वायनिसग्गं वा करेमाणे पुब्बामेव आसयं वा पोसियं वा पाणिणा परिपेहित्ता तो संजियामेव ऊससिज्ज वा जाव वायनिसर्ग वा करेज्जा ।। (मू० १०९) ते साधु विगेरेए पोते संथारामा सुता एक बीजा साधुने हाथ पगथी के कायाथी अडकवू नहिं. ते प्रमाने अडक्या विना सुबुं ( आमां सूचव्यु के साधुए बनेना हाथ न पहोंचे तेटले दूर संथारो करवो) तथा साधुए श्वासोश्वासलेतां, खांसी आवतां, 18/ छींक खातां, बगामु आवतां, ओडकार आवतो अथवा वायु संचार थतां प्रथम पोताना हाथ बडे यतनाथी मोडं के ते जग्याने सहेज ढांकीने कर, ( आ मूत्रमा मोहुँ उघाडु राखी बगामुं खातां उडतां जंतु घुसी जवावाथी उलटी थाय, अथवा पोतानो खराब वास जोरथी नीकळतां बीजाने कलेश थाय, नी वली जग्या ढांकवार्नु कारण जोरथी वा संचार थतां रोगादि कारणे कपडां खराब थतां अटके,) हवे समान्यथी शय्याने आश्रयी कहे छे. For Private and Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ९७९ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir से भिक्खू वा० समा गया सिज्जा भविज्जा विसमा वेगया सि० पवाया वे० निवाया वे० ससरक्खा वे० अप्पससक्खा बे० सदंसमसगा वेगया अप्पदंसमसगा० सपरिसाडा वे० अपरिसाडा० सउवसग्गा वे० निरुवसग्गा वे० तहष्पगाराहिं सिज्जाहिं संविजमाणाहिं पग्गहियतरागं विहारं विहरिज्जा न किंचिवि गिलाइज्जा, एवं खलु० जं सव्वद्वेहिं सहिए सया जएत्तिबेमि (मू० ११०) २-१-२-२ ।। ते साधुने संथारा माटे कोइ वखते सरखी कोइ वखते खरबचडी कोड़ बखते पवनवाळी कोई बखते हवा विनानी कोइ वखते धूळवाळी कोइ वखते विना धूळनी डांस मच्छरवाळी के डांस मच्छर विनानी अथवा रहेवाने उचित अथवा अनुचित उपसर्गवाळी के बिना भयनी एवी विचित्र जातिनी जग्या मळे तो पण तेमां समभाव धारण करीने रहे, पण ग्लानि के दीनताभाव के अहंकार लाववो नहि. आज साधुनुं सर्वस्त्र छे, माटे तेमां जयणाथी सदाए वर्ते. शय्या नामनुं बीजुं अध्ययन समाप्त थयुं. ईर्ष्या नामनुं श्रीजुं अध्ययन. बीजुं अध्ययन कहीने त्रीजुं कहे छे, तेनो का प्रमाणे संबंध छे, प्रथम अध्ययनमां धर्म शरीरनुं पालन करवा पिंड बताव्यो, ते पिंड आ लोक परलोकना अपायना रक्षण माटे अवश्ये वसति ( मकान )मां वापरवो, तेथी बीजा अध्ययनमां वसतिनुं स्वरूप For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ ९७९ ॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit www.kobatirth.org आचा० ॥९८०॥ बतायु, हवे ते पिंड तथा वसतिने शोधवा माटे गमन करवू, ते आ प्रमाणे करवू, आ प्रमाणे न करवू, ते अहीं बतावयार्नु छे, 181 आ संबंधे आवेला आ अध्ययनना चार अनुगममा नाम निक्षेपण माटे नियुक्तिकार कहे छे. सूत्रमू नाम १ ठवणाइरिया २ दब्वे ३ खित्ते ४ य काल ५ भावे ६ य । एसो खलु इरियाए निक्खेवो छब्बिहो होइ ॥३०५॥ नाम स्थापना मूल्य क्षेत्र काळ अने भाव एम छ प्रकारे इर्यानो निक्षेपो रे, तेमां नाम स्थापना मुगम छोडीने द्रव्य इर्या | 81 ॥९८०॥ बताववा माटे कहे छे. दव्वइरियाभो तिविहा सचित्ताचित्तमीसगा चेव । खित्तमि मि खित्ते काले कालो जहिं होइ ।। ३०६॥ तेमां द्रव्य इर्या सचित्त अतित्त मिश्र एम प्रण भेदे छे, अर्थात् इर्या, इरण, गमन त्रणे एक अर्थमा छे, तेमां सचित्त एवो 15 वायु अथवा पुरुष होय तेनुं गमन ते सचित्त इर्या जाणवी, एज प्रमाणे परमाणु आदि द्रव्यनुं गमन ते अचित्त गमन छे. तथा र मिश्र द्रव्य इर्या ते रथादि (जेमां अचित्त रथ सचित्त बळध के माणस) नुगमन जाणवू, क्षेत्रइर्या ते जे क्षेत्रमा गमन कराय, अथवा इर्यानं वर्णन कराय ते क्षेत्रा , तेज प्रमाणे जे काळमां गमन थाय, अथवा इर्यानुं वर्णन थाय ते काळइर्या जाणवी. हवे भाव र्या बताववा कहे छे. भावइरियाओ दुविहा चरणरिया चेव संजमरिया य । समणस्स कहं गमणं निहोसं होई परिसुद्धं ॥ ३०७ ॥ भाव विषयनी इर्याचे प्रकारनी छे, चरण इर्या, अने संयम इर्या तेमां संयम इर्या १७ प्रकारनु संयम अनुष्ठान छे, अथवा | असंख्य संयम स्थानमा एक संयम स्थानथी बीजा संयम स्थानमा जतां संयम इर्या थाय छे, पण चरण इर्या तो "अभ्र वम्र मभ्र - SCSSRCRACASSES - For Private and Personal Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir S+CSC ॥२८॥ विगेरे दोषरहित गोचरी लेवानी छे, ते न मळे, तथा ते नगर विगेरेमा घणा श्रमण, ब्राह्मणो, कृपण, वणीमग विगेरे आवीने आचा० है भरायेला छे, अने बीजा आववाना छे, तेथी घगा मागण भरावासी आकीर्ण वृत्ति छे, एटले भिक्षा माटे अटन तथा स्वाध्याय । सूत्रम् ध्यान करवा बहा जतां आवतां ते घणा भिक्षुक माणसोना भरावाधी ते गाम विगेरे संकोचायेल छे, त्यां जैनसाधुने जर्बु आवg ॥९८१॥ | तथा धर्म चितवन विगेरे क्रिया उपद्रव रहित न थाय. जो आवी अगवडो होय, तो तेवा क्षेत्रमा चोमासुं न करे, पण जो उपर & बतावेली अगवडो न होय एटले भणवानी अने स्थंडिलनी जग्या होय, उचित उपकरण मळता होय, पिंड शुद्ध मळतो होय, अन्य भिक्षुको सामान्य प्रमागमा होय, जतां श्रावतां घणो समय न लागतो होय, तो त्यां चोमासु करवं. हवे वर्षाकाळ पुरो थये क्यारे । | विहार न करवो ने कहे छे. अह पुणेवं जाणिज्जा-चत्तारि मासा वासावासाणं वीइकंता हेमंताण य पंचदसरायकप्पे परिवुसिए, अंतरा से मग्गे बहुपाणा जाव ससंताणगा नो जत्थ बहवे जाव उगगमिस्संति, सेवं नवा नो गामणुगाम दुइजि जा ।। अह पुणेवं जाणिजा चत्तारि मासा. कप्पे परिवसिए, अंतरा से मग्गे अपंडा जाच ससंताणगा बहवे जत्थ समण उवागमिस्संति सेवं नचा तओ संजयामेव० दुइ जिज ॥ (मू० ११३) हवे आ प्रमाणे साधुओ जाणे, के चोमासा संबंधी चारमास पूरा थाय छे, अर्थात् कार्तिकी चोमासु पूरु थयुं छे, त्यां जो भी उत्सर्गथी दृष्टि न होय, तो एक मेज बीजे स्थळे जइने पारणु करवू पण जो दृष्टि चालु होय तो हेमंत रुतुना पांच-दस दीवस गये || ४यके विहार करवो, तेमां पण जो बीजे गाम जतां मार्गमा नानां जंतुना इंडो पड्यां होय, गारो होय, करोळीयाना जाळां बाझी 31 -CHHAARCH For Private and Personal Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पढमे उवागमण निग्गमो य अद्धाण नावजयणा या विइए आरूढ छलणं जंघासतार पुच्छा य ॥ ३११ ।। पहेला उद्देशामां वर्षाकाळ विगेरेमा उपागमन ते स्थान लेवू, तथा निर्गम ते शरत्काळ विगेरेमा विहार जेयो होय, तेवो अत्रे| आचा० सूत्रमू कहेवाय छे, अने यतनाथी मार्गमा चालवू आ णे वातो पहेला उद्देशामां छे, वीजा उद्देशामा नात्र विगेरेमा चडनारनुं छलन ॥९८२॥ 15(पक्षेपण) वर्णवशे, अने जघासंतार पाणीमां यतना राखबी, तथा जुदा जुदा प्रश्नमा साधुए शुं करघु ते अहीं कहे छे, ॥९८२॥ तइयमि अदायणया अप्पडिबंधो य होइ उवहिमि । बजे यब्वं च सया संसारियरायगिहगमणं ।। ३१२ ।। जीजा उद्देशमा जो कोइ पाणी वगेरे संबंधी पूछे, ते जाणतो होय छतां न जाणवापणुं बतावg ते अधिकार छे, तथा उपाधिमां अप्रतिबंधपणुं राखवू, ते कदाच चोराइ जाय तो पण स्वजन पासे अथवा राजग्रहमां फरीयाद करवा न जवू, हवे मूत्रानुगममां अस्खलित विगेरे गुणोवाळु मूत्र उच्चारवू ते आ प्रमाणे छे. अम्भुवगए खलु वासवासे अभिपवु? वहवे पणा अभिसंभूया वहवे बीया अहुणाभिन्ना अंतरा से मांगा बहुपाणा बहुबीया जाव ससंताणगा अणभिकता पंथा नो विनाया मग्गा सेवं नया नो गामणुंगामं दूजिजा, तओ संजयामेव वासावासं उबलिइज्जा ॥ (मू०१११) मुख्यत्वे वर्षारुतु आवे छते अने वरसाद वरसे छते साधुए शुं करवू, ते कहे . अहीं वर्षाकाळ अने दृष्टि आश्रयी चार भांगा | Pथाय छे, तेमां साधुओने आज समाचारी के. एटले निर्व्याघात ते अषाढ चोमासु आव्या पहेलांज घास, फलक, डगल, भस्म । मात्रकादिनो परिग्रह करवो, अर्थात् चोमासु बेसतां पहेला पण वारे वरसाद पडतां घगां नाना पागीश्रो इंद्रोपर बीयावक गर्द ने For Private and Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भक विगेरे (संभूछिम जंतुओ) उत्पन्न थाय छे, तथा घणा नवा घासना अंकुरा प्रकट थाय छे, तेथी तेवे मार्गे जतां ते पाणीओ आचा द तथा घासना अंकुरायी ते करोळीयाना समूह सुधी मार्गमा पथरायेला होय, तेथी रस्तो शोधमो मुश्केल पडे. तेथी ते जीवोना सूत्रम् रक्षण माटे एक गामथी बीजे गाम न जाय, तेथी संयत (साधु) पोतेज समय जोइने अवसर आवतां चोमासुं करी ले.( आने ॥९८३॥ 8 माटे कल्पमूत्रमा खुलासो करे छे के अपाड चोमासा पहेलां बरसाद आवी जाय तो एक मास प्रथमथी पण चोमासु करे, पण ॥९८३॥ प्र असाढमां तो अवश्ये स्थिरता करवी) हवे अपवाद मार्ग को छे. से भिक्खू वा० सेज गाम वा जाव रायहाणिं वा इमंसि खलु गामंसि वा जाव राय नो महई विहारभूमी नो महई वियारभूमी नो मुलभे पीढफलगसिज्जासंथारगे नो मुलभे फामुए उंछे अहेसणिजे जत्य बहवे समण वणीमगा उवागया उवागमिस्संति य अच्चाइन्ना वित्ती नो पन्नस्स निक्खमणे जाव चिंताए, सेवं नच्चा तहप्पगारं गाम वा नगरं वा जाव रायहाणिं वा नो वासावासं उवल्लिइज्जा ।। भि० से जं गाम वा जान राय० इमंसि खलु गामंसि वा जाव महई विहारभूमी महई वियार० सुलभे जत्थ पीढ ४ मुलभे फा० नो जत्थ वहवे समण उवागमिस्संति वा अप्पाइन्ना वित्ती जाव रायहाणि वा तओ संजयामेव वासावासं उवलिजा ।। (मु० ११२) ते भिक्षु तेवी राजधानी विगेरे कोइपण स्थानमां आव्या पछी एम जाणे के विहार (स्वाध्याय) भूमी तथा विचार (स्थंडिल) भूमि उचित मळे तेवी नथी, तथा साधुने योग्य पीठ फलक शया संथारो विगेरे चोमासामा खास वापरवा योग्य उपकरणो के ॐ वस्तुओ मळवी दुर्लभ छे, तथा प्रामुक गोचरी मळवी दुर्लभ , तथा एषणीय आहार न मळे, तेज कहे छे-एटले साधुने उद्गम 81 For Private and Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा सूत्रमू ॥२८॥ ४/चर" धातुनो गति अर्थ हे, चरतिनो भाव ल्युट रुप चरण तेज रुपे इर्या ते चरण इर्या छे. अर्थात् चरणनो अर्थ गति अथवा गमन छे. अने ते श्रमणर्नु चरण कया प्रकारे भावरूप (निर्दोष) गमन थाय? ते कहे छे. आलंबणे य काले मग्गे जयणाइ चेव परिसुद्धं । भंगेहि सोलसविहं जं परिसुद्धं पसत्यं तु ॥ ३०८॥ म प्रवचन संघ गच्छ आचार्य विगेरेना माटे प्रयोजन आवतां साधु गमन करे, ते आलंबन छे, तथा साधुने विहरण योग्य अवसर छे, ते काळ छे, तथा जनो (माणसो) ए पगवडे खुंदेला मार्गे यतना ते युगमात्र दृष्टि राखवी तेज आलंबन काळमार्ग यतनानां पदोवडे एकेक पद व्यभिचारथी जे भंगो थाय ते प्रमाणे गणतां १६ भांगा थाय, तेमां जे परिशुद्ध होय तेज प्रशस्त छे, अने हवे ते बतावे छे. चउकारणपरिसुद्ध अहवावि (हु) होज कारणजाए । आलंबणजयणाए काले मग्गे य जइयव्यं ।। ३०९ ।। दो चार कारणोए साधुनुं गमन शुद्ध थाय छे, आलंबन वडे दिवसे मार्गवडे यतनाथी जाय छे, अथवा अकालमां पण ग्लान विगेरेना आलंबने यतनाथी जतां शुद्ध गमन होय छे, अने आवे मार्गे साधुए यत्न करवो, नामनिष्पन्न निक्षेपो कह्या, हवे उद्देश ४ अर्थाधिकारने आश्रयी कहे छे, सम्वेवि ईरियविसोहिकारगा तहवि अत्यि उ विसेसो । उद्देसे उद्देसे वुच्छामि जहक्कम किंचि ॥ ३१ ॥ सर्वे एटले आ त्रणे पण जो के इर्या विशुद्धकारक छे, तो पण त्रणे उद्देशामां कांइक विशेष छे, ते दरेकने यथाक्रमे किंचित कही हवे प्रतिज्ञा प्रमाणे कहे हे. For Private and Personal Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥९८५॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गयेलां होय, अने ब्राह्मण श्रमण विगेरे मागण न आवेला होय, अथवा थोडा बखतमां आवत्राना न होय तो मागसर शुद १५ | सुधी त्यां रहेबुं. त्यारपछी गमे तेम होय तोपण त्यां रहेवुं नहि, पण जो दृष्टि न होय, कादव न श्रमण ब्राह्मण आव्या होय, आववाना होय, तो कार्तिकी पूर्णिमा पछी तुर्त विहार करवो. होय, मार्ग इंडां विनानो होय, हवे मार्गनी यतना कहे छेसे भिक्खू वा० गामणुगामं दृइज्जमाणे पुरओ जुगमायाए पेहमाणे दहूण तसे पाणे उद्ध पादं रीइज्जा साहहुँ पायं रीइज्जावितिरिच्छं वा कडे पायं रीइजा, सड़ परकमे संजयामेव परिकमिज्जानो उज्जुयं गच्छिना, तओ संजियामेव गामणुगामं दुइज्जिज्जा ।। से भिक्खू वा० गामा० दृइज्जमाणे अंतरा से पाणाणि वा बी० हरि० उदए वा मट्टिआ वा अविद्वत् स परकमे जाव नो उज्जयं गच्छिजा, तओ संजया० गामा० दृइज्जिज्जा | ( मू० ११४ ) भिक्षु बीजे गाम जतां मोढा आगळ युगमात्र (चार हाथ प्रमाण ) गाडाना उद्धि (घसारा) ना आहारे भूभाग ( जमीन ) देखतो चाले, त्यां मार्गमां त्रस जीवो जे पतंग विगेरे छे, ते पगने अडकीने नीकळे, अथवा पगना तळीयां नीचे अडकीने नीकळे तो ते जीवोनी रक्षा खातर शरीरमां शक्ति होय त्यां सुधी बीजे मार्गे जनुं, पण बीजो रस्तो के जवानी शक्ति न होय, तो ते रस्ते जतां ज्यारे तेवां जंतुओ पग पासे आवे त्यारे ते त्यां पग संभाळीने मुकवो के ते चगद्दाइ न जाय, एटले ज्यारे सामे आवे त्यारे तेने | पग पग साथै अथडावा देवां नहीं, पण जो पग नीचे दबाइ जाय तेम होयतो नीचे देखीने ते जग्याए पगन मुकवां, अथवा पगनी एडी मुकीने चालबुं, अथवा पग वांको करीने चालवं, आ प्रमाणे एक गामथी बीजे गाम जीव जंतुनी रक्षा करतां जर्बु. बळी साधुने एक गामथी बीजे गाम जतां मार्गमां नाना जीव जंतु बीज हरियाणी (लीळं घास) पाणी, माटी अथवा रस्तो For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ ९८५ ॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० 1182511 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir न पड्यो होय, तो तेवा सीधा मार्गे न जनुं, पण जीव-जंतु विनांना तथा कादव माटी पाणी विनाना मार्गे चक्रावो खाइने ज्यांची लोको जतां होय तेवा रस्ते साधुए जनुं, पण बीजो रस्तो न होय, अथवा जवानी शक्ति न होय, तो ते मार्गे यतनाथी चालवू. वळी से भिक्खू वा० गामा० दुइज्जमाणे अंतरा से विरूत्ररूवाणि पञ्चतिगाणि दमृगाययागि मिलक्लूणि अणायरियाणि दुसपाणि दुष्पन्नवणिज्जाणि अकालालपडिवोहीणि अकालपरि भोईणि सइ लाढे विहाराएं संथरमाणेहिं जाणवएहिं नो faraडिया पवज्जिज्जा गमणाए, केवलो ब्रूया आयाणमेय, तेणं वाला अयं तेणे अयं उवचरए अयं ततो आगपतिभिक्खु अकोसिज्ज वा जाव उदविज्ज वा वत्थं प० कं० पाय० अच्छिदिज्ज वा भिंदिज्ज अवहरिज्ज वाप रिहविज्ज वा, अह भिक्खूणं पु० जं तहप्पगाराई विरु० पञ्चंतियाणि दस्रुगा० जाव विहारबत्तियाए नो पवज्जिज्ज वा गमणाए तओ संजया गा० ० ॥ ( सू० ११५ ) ते भिक्षुने बीजे गाम जतां एम मालुम पडे, के आ मार्गे जतां वचमां विरुप रुपवाळा महादुष्ट एवा चोरोनां स्थान छे, तथा बर्बर शबर पुलिंद विगेरे म्लेच्छथी प्रधान एवा अनार्य लोकां जे गंगा सिंधुनी वचमांना २२ || आर्य देश छोडीने बोजा देशोमां रहेला छे, तेओ दुःखेथी आर्थोनी संज्ञा समजे छे, तथा महा कष्टी आर्य धर्मने समजे अने अनार्य संकल्पने छोडे, तथा अकाळमां पण भटकनारा छे. कारणके अडवीर. त्रे पण शिकार विगेरे माटे जाय छे, तथा अकाले ( बखत विना) भोजन करनारा छे, माटे ज्यां सुधी वीजा देशोना सारां गामो विचरवानां होय त्यां सुधी तेवा अनार्य देशोना क्षेत्रमां हुं जइश, एवी प्रतिज्ञा साधुए न करवी, (अर्थात् त्यां जनुं नहि ) त्यां जवाथी केवलीप्रभु तेमां दोष बतावे छे, कारण के त्यां जवाथी संयमनी विराधना थाय, For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ ९८६ ॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie सूत्रम् ॥९८७॥ छे, तग त्यां भात्मानी विराधनामा संयमनी विराधना पण थाय , ते बतावे , ते म्ठेरछ विगेरे अनार्यो आ प्रमाणे बोले छे. 18 आचा० " आ चोर छे ! आ शत्रनो चर तेना गामथी आवेलो दुत छे ! एम कहीने वचनथी तिरस्कार करे, दंडनी ताडना करे, अने छेवटे जीव पण ले. तथा बस्त्रो विगेरे पण खंचवी ले, पछी साधुने काढी मुके, माटे साधुओने आ शीखामण छे, के तेमणे तेवा मार्गे ॥९८७॥ जवू नहि, पण तेवा मार्गने छोडीने संयत सारे मार्गे विहार करी ने बीजे गाम जाय. से भिक्खू० दुइज्जमाणे अंतरा से अरायाणि वा गणरायाणि वा जुवरायाणि वा दोरजाणि वा वेरज्जाणि वा विरुद्धरउजाणि वा सइ लाढे विहाराण संथ० जण नो विहारवडियाए० केवली व्या आयाणमेयं, तेणं वाला तं चेव जात्र गमणाए तओ सं० गा०दृ०॥ (मू०११६) ते भिक्षुने विहार करता एम मालुम पडे के ते मार्गे राजा मरीगयो छे, सामंतोए राज्य ते वहंची लीधुंहे, अथवा युवराजने गादी मळी नथी, वे राज्य थयां होय, वैर वध्यां होय, विरुद्ध (शत्रु) गजानुं जोर होय, तो तेवा लडाइ तोफाननां उपद्रववाळा मार्गे बीजो सारो देश अथवा गामो विचरवानां होय तो तेवा मार्गे विहार न करवो, केवळीप्रभु तेमां कर्मादान बतावे डे, त्यां ४ जतां ते विरुद्ध पक्षना माणसो ते साधुने चोर के जासुस मानीने पूर्वना मूत्रमा कह्या मुजब पीडा पमाडशे, उपद्रव करशे अथवा & जीवथी पण हणशे, कपडा खुचवी बुरा हाले काढी मुकशे, माटे तेवा मार्गे न जचु, से भिक्खू वा गा दुइज्जमाणे अंतरा से विहं सिया, से जं पूण विहं जाणिज्जा एगाहेण वा दुआहेण वा तिआहेण वा चउआहेण वा पंचाहेण वा पाउणिज्न वा नो पाणिज्ज वा तहप्पगारं विह अणेगाहगमणिज्ज सहलाढे जाव गमणाए, For Private and Personal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आवा० ॥ ९८८ ॥ www.kobatirth.org केवली वूया आयाणमेयं, अंतरा से वासे सिया पाणेसु पणएस वा बीएस वा हरि० उद० मट्टियाए वा अविद्धत्थाए, अह भिक्खू जं तह० अणेगाह० जाव नो पत्र० तओ सं० गा० दू० ॥ ( मू० ११७ ) भिक्षु ग्रामांतर जतां एम जाणे के ते मार्गमां जतां मैदान उलंगवामां केटलाक दिवसो लागशे, एटले एक आखो दिवस | अथवा वे त्रण चार पांच दिवसे ते मार्ग उलंघासे, तेवा मार्गे बीजो हुंको मार्ग मळतो होय तो तेवा उजड रस्ते जबुं नहि. कारके तेवा मार्गे जतां केवळी ज्ञानीए अनेक दोषो बताव्या छे, जेमके वखते वरसाद आवे तो पानी भराइ जाय, लीलग फूलण इथ जाय, लीलाघासनां बीज अंकुरा फुटी नीकळे, रस्तो कादश्थी (गाराथी) भराइ जाय, मार्ग मुझे नहि, माटे तेवा अनेक दिवसना मेदानवाळा मार्ग जनुं नहि. हवे नावने आश्रयी कहे छे से भ० वा गामा दुइज्जिज्जा ० अंतरा से नावासंतारिमे उदए सिया से जं पृण नावं जाणिज्जा असंजए अभिक्खुपडियाए किणिज्ज वा पामिच्छेज्ज वा नावाए वा नावं परिणामं कट्टु थालाओ वा नाव जलंसि ओगाहिज्जा जलाओ वा नावं थलंसि उकसिज्जा पुण्णं वां नावं डस्सिचिज्जा सन्नं वा नावं उप्पीला विज्जा तहध्वगारं नावं गार्मिणि वा अहेगा ० तिरियगामि० परं जोयण मेराए अद्धजोयणमेराए अप्पतरे वा भुज्जतरे वा नो दुरुहिज्जा गमणाए । से भिक्खू वा० पुत्रामेत्र तिरिच्छपाइमं नावं जाणिज्जा, जाणित्ता से तमयाए एगंतमत्रकमिज्जा २ भण्डगं पडिले हिज्जा २ एगओ भोयणभंडगं करिज्जा २ ससीसोवरीयं कार्यं पाए पमज्जिज्जा सागारं भत्तं पञ्चाक्वइज्जा, एगं पाये जले किया एवं पार्थ थले किच्चा तओ सं० नावं दुरुहिज्जा ।। ( मू० ११८ ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ ९८८ ॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा * सूत्रम् २॥ COEC ते भिक्षु प्रामान्तर जतां मार्गमां एम जाणे के आ वचपां आवेली नदी नाव विना उतराय तेम नथी तो नाव संबंधी तपास तपास करे के गृहस्थ खास भिक्षुक माटे नाव खरीद करे अथवा उछीती ले, अथवा अदलो बदलो करे, अथवा स्थळथी जळमां के जळथी स्थळमा लावे, भरेला वहाणने खाली करे, अथवा खुंची गयु होय तो साधु माटेज बहार कढावे, तेवी नावने उंचे लइ5 जवा नीचे लइ जवा अथवा तीरछी दिशामा अथवा कोइपण दिशामा लइ जबी पडे तो एक जोजन मर्यादा माटे अडधा जोजन (बे गाउ) माटे अथवा थोडे घणे दूर जवा माटे साधुए तेची नावमां बेसवु नहि, पण साधु एम जाणे के नाव तेना मालिके पोतान है योजनने तीरछी दिशामां हंकारी छे, तो ते वहाणमा जतां पहेला पोताना उपकरणोने एकांतमा जइने पडिलेहवां गोचरीनां | | पात्रां तपासी लेवां तथा पोताना शरीरने पगथी माथा सुधी पुंजवु, तथा सागारी अणसण करवु ( एटले आ जळथी बहार नीकडं तो मने आहार पाणी वापरतुं कल्पे, नहितो नहि.) पछी एक पग जळमां एक पग थळमां (पाणीनी उपर) मुकी साधुए नाव उपर चडवू (आ मूत्रमा साधु माटे जो नाव पेलेपार लइ जाय तो बने त्यांसुधी तेवी नावमा न बेसबुं. पण गृहस्थेने मादे जवा आववा माटे नाव चालु थइ होय तेमां बेसबु ) हवे कारण पडे नावमा बेसबुं पडे तो नावमां चडवानी विधि कहे छे. से मिक्खू वा. नावं दुरुहमाणे नो नावाओ पुरओ दुरुहिज्जा नो नावाओ मग्गो दुरुहिज्जा नो नावाआ मज्झओ दुरूहिज्जा नो बाहओ पगिझिय २ अंगुलियाए उद्दिसिय २ ओणमिय २ उअमिय २ निज्झाइज्जा । से णं परो नावागओ नावागयं वइज्जा-आउसंतो ! समणा एयं ता तुमं नावं उकसाहिजा वा बुक्कसाहि वा खिशाहि वा रज्जूयाए वा गहाय आकासाहि, नो से तं परिनं परिजाणिज्जा, तुसिणीओ उवेहिज्जा । से णं परो नावागओ नावाग० वइ०-आउसं० नो E CAREER For Private and Personal Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० सुत्रमू ॥९९०॥ संचाएसि तुभं नावं उकसित्तए वा ३ रज्जूयाए वा गहाय आकसितए वा आहार एवं नावाए रज्जूयं संयं चेव णं वयं नावं उसिस्सामो वा जाव रज्जुए वा गहाय आकासिस्सामो, नो से तं प० तुसि०। से णं प० आउसं० एअंता तुम नावं आलित्तेण वा पीढएण वा बसेण वा बलएण वा अवलुएण वा वाएहि, नो से तप० तुसि । से णं परो० एयंता तुम नाचाए उदयं हत्थेण वा पाएण वा मतेण वा पडिग्गहेण वा नावाउस्सिवणेण वा उस्प्तिचाहि, नो से तं, से णं परो० समणा ! एयं तुम नावाए उत्तिंग हत्थेण वा पाएग वा बाहुणा वा ऊरुणा वा उदरेण वा सीसेग वा काएण वा उस्सिचणेण वा चेलेण वा मट्टियाए वा कुसपत्तएण वा कुविंदएण वा पिहेहि, नो से तं ॥ से भिक्खू वा २ नावाए उत्र्तिगेण उदयं आसवमाणं पेहाए उवरुवरि नावं कज्जलावेमाणि पेहाए नो परं उघसंकमित्तु एवं बूया-आउसंतो! गहावह एयं ते नावाए उदयं उत्तिगेण आसवइ उवरुवरि नावा वा कजलावेइ, एयप्पगारं मणं वा वायं वा नो पुरओ कट्ट विहरिजा अप्षुस्सुए अबहिल्लेसे एगंतगएण अप्पाणं विउसेजा समाहीए, तो सं० नावासंतारिमे व्यउदए आहारियं रीइज्जा, एयं खलु सया जइज्जासि तिबेमि ।। इरियाए पढमो उद्देशो (मू० ११९) २-१-३-१॥ ते साधुए नावमां बेसतां नावना अग्र भागे बेसवु नहि, कारण के तेथी निर्यामक (खलासी) ने पोताना कार्यमा हरकत थाय; तथा बीजा लोकोने चडवा पहेला पोते चढी न बेसे; कारण के वहाणने चालववाना अधिकरणनो दोष लागे, तेम नावना बरोबर मध्य भागमा चडी न बेसे, तेम वहाणनां (पडखां) पकडीने आंगळीओबडे ताकी ताकीने उंचा नीचा थइने जोवु नहि. नावमा चढेला साधुने नाववाळा कहे, के हे साधुओ ! आ नावने तमे खेचो, आ दिशा तरफ वळो, अमुक वस्तु दरियामा ACCRECIRCRACRENCE For Private and Personal Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥९९१ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फेंको, अथवा दोरहेथी पळीने खेचो, ते प्रमाणे कहे तोपण साधुए तेम न करवुं, पण चूप बेसी रहेवुं. ळी ते नाविक साधुने कहे, के हे साधुओ ! जो तमे नाव न खेंची शको, के समान न फेंकी शको, तो दोरडं लावीने अमने आपो, एटले दोरडं हाथमां आवतां अमे नावने खेंचीशुं, ते वचन पण सुनिए स्वीकारखुं नहि, पण चूप रहेनुं. नावमा चडेला साधु नाविक कहे के हे साधु ! तमे नावने आलित्त वडे पीढ हलेसांवडे वांसवडे वळावडे अवलकवडे आगळ चलावो, ते वात पण साधुए स्वीकारवी नहि, पण चूप बेसी रहें. नावमा चडेला साधु नाविक एम कहे, के–आ नात्रमां भराएला पाणीने हाथवडे पगवडे वासणथी के पांतरांथी अथवा नावना हथीआरथी काढी नांखो, पण ते साधुए करवुं नहि, पण मौन धारण करीने बेस. ते नावमां बेठेला साधुने नाविक कहे, के हे साधुओ ! तमे नात्रमां पडेला नांणाने हाथ, पग, बाहु, जांघ, उरू, पेट, माथा के कायावडे अथवा वहाणमा रहेला उस्सिचणवडे अथवा वस्त्र, माटी, कमळपत्र के कुरुविंद नामना घासवडे ढांकी, पण ते स्वीकार नहि, भौन बेसी रहेनुं ते भिक्षुए अथवा साध्वी नात्रमां छिद्र पडतां पाणी भरातुं देखीने उपर उपर नात्रमां पाणी चडतुं देखीने वीजा माणसोने एम कहेतुं नहि के हे गृहस्थ ! आ वहाणमां पाणी भराय छे, अने नाव डुबी जशे, आ प्रमाणे मनथी अने वचनथी संकल्प - वि कल्प न करतां वरडा न पाडतां शांत रहेनुं, शरीर उपकरणनी उत्सुक्ता तथा बहारनुं ध्यान छोडीने एकांतमां आत्माने समाधिमा राखतो, अने जे प्रमाणे नात्र पाणीमां चाले तेम चालवा दे किनारे पहोंचं आ प्रमाणे सदा यत्न For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ ९९९ ॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ९९२ ॥ www.kobatirth.org करो अर्थात् नावना उपर ध्यान न राखतां आत्ममसाधिए वर्त्तनुं आज भिक्षुनी सर्व सामग्री छे. बोजा अध्ययननो पहेलो उद्देशो समाप्त थयो. बीजो उद्देशो. पहेलो उद्देशो कहीने हवे बीजो उदेशों कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे, गया उद्देशामां नात्रमां बेठेला साधुनी विधि कही. अहीं पण तेज कहे छे, आ संबंधे आवेला उद्देशानुं आ प्रथम सूत्र छे. से णं परो यात्रा० आउसंतो ! संमणा एयं ता तुमं छत्तगं वा जाव चम्मलेयणगं वा गिण्डाडि, एयाणि तुमं विरूत्ररूत्राणि सत्यजायाणि धारेहि, एयं वा तुमं दारगं वा पज्जेहि, नो से तं० ॥ ( मू० १२० ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ते नामां बेठेला साधुने नाविक विगेरे गृहस्थ कहे, के तमे मारा छत्रने पकडो. अथवा चामडं छेदवानुं हथी आर अथवा बीजा हथीआर पकडो, अथव आ मारा बाळकने पाणी पीवडावो, आवी प्रार्थना नात्रिक विगेरे करे तो ते स्वीकारवी नहि, पण मौन रहेनुं, उपर प्रमाणे नाविकनुं कहेतुं न करवाथी ते क्रोधी थइने साधुने नावमांथी फेंकी दे तो शुं करवुं ते कहे छे:से णं परो नावागए नावगयं वएज्जा आउसंतो ! एस णं समणे नावाए भंडभारिए भवइ, से णं बाधाए गहाय नावाओ उदगंसि पक्खिविज्जा, एयप्णारं निग्घोसं सुच्चा निसम्म से य चीवरधारी सिया खिप्पामेव चीवराणि उब्वेढिज्जा वा निवे, ढज्ज वा उप्फेस वा करीज्जा, अह० अभिकंत क्रूरकम्मा खलु वाला बाहाहिं गहाय, ना० पक्खिविज्जा से पुवामेव वइज्जा For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ ९९२ ॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥९९३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आसतो ! गाहावई मा मत्तो बाहाए गहाय नात्राओ उदगेंसि पक्खिवह, सयं चेव णं अहं नावाओ उदगंसि ओगाहिसामि, से वं वर्यंत परो सहसा बलसा वाहाहिं ग० पक्खिविज्जा तं नो सृमणे सिया नो दुम्मणे सिया नो उच्चावयं मणं नियंछिज्जा नो तेसिं बलणं घायए बढाए समुद्विज्जा, अप्पुस्ए जात्र समाहीए तभो सं० उदगं पविज्जा ।। (मृ० १२१ ) साधु उद्देशीने नाविक बीजा माणसाने कहे, के आ साधु काम, कर्या विना वहाणमा मात्र भांड अथवा उपकरणवडे बीजा रूप बेठो छे, माटे तेने बाहुथी पकडीने नदीमां फेंकी दो. आ प्रमाणे तेमनी पासे सांभळे, अथवा बीजा पासेथी ते वात जाणीने जिनकल्पी के स्थवीरकल्पी मुनि होय, तेमां स्थविरकल्पी मुनिए तुर्त पोतानी पासे वोजावाळां नकामां कपडा उतारीने जरुर जोगi resia उपधि विगेरेने शरीरे वींटी लेवां, अथवा माथे बांधी लेवां, आ प्रमाणे उपकरण वींटी लीवेलो साधु निर्व्याकुलताथी सुखेथां पाणीमां तरे छे, पछी तैयार थइ तेमने धर्मोपदेश आपे, साधुनो आचार समजावे, छतां एम नक्की जाणे के आ दुष्टो मने बाहुथी पकडीने पाणीमां नांखवानांज छे, तो नांखे ते पहेलां मुनिए कहेवूं के तमारे गने बाहुथी पकडीने पाणीमां नांखवानी जरूर नथी. हुं जातेज पाणीमां झपला छं आवुं बोलवा छतां पण ते दुष्टो बहुधी पकडीने साधुने पाणीमां नाखी दे, तो मुनिए मनमां रागद्वेष न करवो, तथा दीनता के संकल्प-विकल्प पण न करवा, तेम तेमने मारवा के दःख देवा तैयार न थ, पण उत्सुकता रहित पाणीमां पडबुं. हवे उदकमां पडेलानी विधि कहे ले. सेभिक्खू बा० उदगंसि पत्रामाणे नो हत्थेण हत्थं पारण पायं कारण कार्य आसाइज्जा, से अणासावणार आणासाय For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ ९९३ ॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २- आचा० सूत्रमू ॥९९४॥ ॥९९४॥ माणे तो सं० उदगंसि पविज्जा ।। से मिक्ख वा० उदगंसि पवमाणे नो उम्मुग्गनिमुग्गियं करिज्जा, मामेयं उदगं कन्ने वा अच्छीसु वा नक्कंसि वा मुहंसि वा परियाव जिजा, तो. संजयामेव उदगंसि पविजा ॥ से भिक्खू वा उदगंसि पवमाणे दुबलियं पाउणिज्जा खिप्पामेव उवहिं विनिचिज वा विसोहिज्ज वा, ना चेव णं साइज्जिज्जा, अह पु० पारए सिया उदगाओ तीरं पाउणित्तए, तो संजयामेव उदउल्लेण वा ससिणग्रेण वा कारण उदगतीरे चिहिज्जा ।। से भिक्खु वा० उदउल्लं वा २ कार्य नो आमज्जिज्जा वा णो पमज्जिज्जा वा संलिहिज्जा वा निलिहिज्जा वा उबलिज्जा वा उवहिज्जा वा आयाविज्ज वा पया०. अह पु० विगोदओ मे काए छिन्नसिणेहे काए तहप्पगारं कार्य आमज्जिज वा पयाविज्ज वा तभी सं० गामा० दुइज्जिाज्जा ।। (मू० १२२) ते मुनिए पाणीमां पड्या पछी हाथ साथे हाथ, पग साथे पग के शरीरवडे कोइ पण भागमां अपकाय विगेरेनी रक्षा माटे | स्पर्श करवो नहि, तथा पाणीमां तणातो डुबकीओ मारवी नहि, कारण के डुबकी न मारवाथी कान आंख नाक मोढा विगेरेभां पाणी न भराय तेम पोते डुबी जाय नहि, पण ज्यारे पोताने डुबवा वखत आवे अने थाकी गयो होय, तो उपाधिनो मोह छाडी देवो, अथवा भारवाळी उपाधि छोडी देवी, पछी पोते जाणे के हुँ किनारे जवा समर्थ छु, त्यारे किनारे नीकळी आवे, अने | पाणी टपकता शरीरे कीनारा उपर उभो रहे, अने इर्यावही पडिकमे. पण ते मुनिए भिना शरीरने पाणी रहित करवा आमळवू घसवु दावq छांटq के तपाबु नहि, पण पाणीने पोतानी मेळे | नीतरवा देवू पण ज्यारे जाणे के पाणी नीतरी गयुं छे, भीनाश ओछी थइ गइ छे, त्यारपछी कायाने शरदी रहित करवा तडके बार For Private and Personal Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तपावची, अने त्यां सुधी किनारेज उभा रहे, अने शरीर मूकाया पछीज वीजा गाम तरफ विहार करवो, पण त्यां उभा रहेवाथी आचा चोरनो भय लागतो होय तो तुर्त कायाने स्पर्श कर्या विनाज हाथ लांचा राखी गाम तरफ चाल्या जवू. सूत्रम् से भिक्खू वा गामणुंगाम दुइज्जमाणे नो परेहि सद्धि परिजविय २ गामा० दुइ०, तो० सं० गामा० इ० ॥ (मु० १२३) || ॥९९५॥ ॥९९५॥ मुनिए विहार करतां मळेला गृहस्थो साथे बहु बकबकाट करता जर्बु नहि, पण शांतिथी चालवू, हवे जंघा सुधीना पाणीमां उतरवानी विधि कहे छे. से भिक्खू वा गामा० ० अंतरा से जंघासंतारिमे उदगे सिया, से पुवामेव ससीसोवरियं कायं पाए य पमजिज्जा २ एग पायं जले किच्चा एग पायं थले किच्चा तो सं० उदगंसि आहारिय रीएज्जा ॥ से मि. आहारियं रीयमाणे नो हत्येण हत्थं जाव अणासायमाणे तो संजयामेव जंघासंतारिमे उदए आहरियं रीइज्जा ॥ से मिक्खू वा जंघासंतारिमे उदए आहारियं रीयमाणे नो सागवडियाए नो परिदाहपडियाए महइमहालयंसि उदयसि काय विउसिज्जा, तो संजियामेव जंघासंतारिमे उदए अहारियं रीएज्जा, अह पुण एवं जाणिज्जा पारए सिया उदगाभो तीरं पाउणित्तए, तो संजयामेव उदउल्लेण वा २ कारण दगतीरए चिहिज्जा ।। से मि० उदउल्लं वा कार्य ससि. कायं नो आमज्जिज्ज वा नो० अह पु० विगोदए मे काए छिन्नसिणेहे तहप्पगारं कायं आमज्जिज्ज वा० पायविज्ज वा तो सं० गामा० इ० ते साधु विहार करी बीजे गाम जतां मार्गमा जांच डुबे तेटलं पाणी होय. तो उपरतुं शरीर मुहुपत्तिथी तथा नाभी निचेन | 13 अडधुं शरीर ओपाथी पुंजीने पाणीमां प्रवेश करे, अने पाणीमा पेठा पछी एक जलमां मुकावो, बीजो पग उचो करीने जवू, पण For Private and Personal Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ९९६ ॥ www.kobatirth.org बे पग वडे पाणी डोळता जत्रुं नहि, पण जयणाथी पाणी उतरनुं, जेम सरलताथी जवाय तेम जाय, पण विकार करतो आम तेम जोतो न चाले. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ते भिक्षु जंघासुधीना पाणीमां उतरी जतां हाथ साथ हाथ पग साथ पग विगेरे, अपकायनी रक्षा माटे लगाडवां नहि, तेज | प्रमाणे सुख मेळवावा दाह मटाडवा. उंडापाणीमां-छाती सुधीना पाणीमां उतरनुं नहि, फकत जंघा सुधीना पाणीमांज उतरखुं, पण पाणीमां उतर्या पछी उपकरण सहित चालवा पोताने असमर्थ जुए अने डुबवानो वखत आवे तो वोजावाळां उपकरण त्यजी देवा. पण शक्तिवान होय तो उपकरण सहित उतरे, पछी किनारे जइने इर्यावहि करी पाणी नीतरी गया पछी कायानी भीनाश ओछी थाय पछा शरीर तपावीने विहार करे. हवे पणीमांथी नीकळया पछीनी गमन विधि कहे छे. सेभिक्खू बा० गामा दुइज्जमाणे नो मट्टियाग एहिं पाएहिं हरियाणि छिंदिय २ विकुज्जिय २ विफालिय २ उम्मग्गेण रिहा गच्छिज्जा, जमेथे पाएहिं मट्टियं विष्यामेत्र हरियाणि अवहरंतु, माइट्टाणं संफासे, नो एवं करिज्जा, से पुच्चामे अपहरियं मग्गं पडिलेहिज्जा तओ० सं० गामा || से भिक्खू वा २ गामणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से वप्पाणि वा फ० पा० तो० अ० अग्गलपासगाणि वा गड्डाओ वा दरीओ वा सइ परकमे संजयामेव परिकमिज्जा नो उज्जु०, केवली ०, सेत्थ परकममाणे पयलिज्ज वा २, से तत्थ पयलमाणे वा २ रुक्खाणि वा गुच्छाणि वा गुम्माणि वा लयाओ वा बल्लीओ वा तणाणि वा गहणाणि वा हरियाणि वा अवलंबिय २ उत्तरिज्जा, जे तत्थ पाडिपदिया उवागच्छति ते पाणी जाइज्जा २, तओ सं० अवलंबीय २ उत्तरिज्जा तओ सं० गामा० दू० ॥ से भिक्खू वा० गा० दुइज्माणे अंतरा से For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥९९६॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥९९७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जवसाणि वा सगडाणि वा रहाणि वा सवकाणि वा परचकाणि वा से णं वा विरूवरूवं सनिरुद्धं पेहाए सइ परकमे सं० नो० उ० से णं परो सणागओ वइज्जा आउसंतो ! एस णं समणे सेणाएं अभिनिवारियं करेइ, से णं बाड़ाहे गहाए आगसह, से णं परो बाहाहिं गहाय आगसिज्जा, तं नो सुमणे सिया जान समाहीए तभ० सं० गामा० दुइ० || ( मू० १२५) ते भिक्षु नदीना पाणीमांथी नीकळेलो होय, ते वखते जो उन्मार्गे जइने गाराथी खरडेला पगे लीला घासने छेदीने के वांकुं वाळीने तथा खेंची काढीने पोताना पग साफ करवाना इरादाथी वनस्पतिने दुःख दे तो ए कपटनुं निंदित कार्य छे, माटे तेम न करवुं, पण प्रथमथी तद्दन ओछा घासवाळो मार्ग जोवो, अचित्त जम्यामां जइ प्रथम बताच्या प्रमाणे गारो दूर करवो पछी बीजे गाम विहार करवो. साधु विहार करतां मार्गमां वम (किल्लो) फलिह (खाइ) प्राकार (कोट) तोरण अर्गल अर्गलपासक वाडा गुफा (कोतर) ओळंगवाना आवे तो छती शक्ति तेवा सीधा मार्गे न जनुं; पण दूरना खाडा विनाना रस्ते जनुं, कारण के त्यां जतां खाडा विगेरेमां पडतां सचित झाड विगेरेने पकडे, तो केवळी प्रभुए तेमां दोषो बताव्या छे, पण बीजो रस्तो न होय अने खास कारणे ते मार्गे जनुं पढे अने पग खसे तेवुं होय, तो झाड गुच्छा गुल्मलता वेला घास छोडवा अथवा जे पकडवा जोग हाथमां आवे, ते लइने उतरवुं, अथवा रस्तामां जता मुसाफरनी मदद मागीने हाथ पकडीने उतरखुं, पछी गाराथी के खाडाथी बहार आवी संभाळथी बीजे गाम विहार करवो. ते भिक्षु विहार करतां मार्गमां घरं जयनां खेतर आवे, गाडां रथ होय, के ते गामना राजानुं के बीजा राजानुं लश्कर For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ ९९७ ॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥९९८॥ 18/ पडेलु होय, तो बीजो रस्तो मळतां ते रस्ते न जवं, कारणके त्यां जतां बहु अपायो छे, पण बीजो रस्तो न होय, शक्ति न होय, 181 आचा08 तो ते मार्मे जतां सेनानो अजाण्यो माणस साधुने न ओळखबाथी बीजा माणसोने कहे के "आ जासुस आवेलो छे, माटे धक्को में ६ सूत्रम् | मारीने बाहुमांथी पकडीने बहार काढो" अने ते प्रमाणे कदाच करे, तो पण तेमना उपर क्रोध न लावतां समाधि विहार करे, ॥९९८॥ से भिक्खू वा० गामां० हज्जमाणे अंतरा से पाडिवहिया उवागच्छिज्जा ते णं पडिव हिया एवं वइज्जा-आउ० समणा! केवइए एस गामे वा जाव रायहाणी वा केवईया इत्थ आसा हत्थी गामपिंडोलगा मणुस्सा परि वसंति ! बहुभत्ते बहुउदए बहुजणे बहुजबसे से अप्पभत्ते अप्पुदए अप्पनणे अपजबसे ? एयप्पगाराणि पसिगाणि पुच्छिज्जा, एयप्प० पुट्ठो वा अपुट्ठो वा नो वागरिजा, एवं ख ठु० जं. सबटठेहिं० (मू० १२६)॥२-१-३-२ ते साधु साध्वीने मार्गे चालतां मुसाफरो मळे, तेओ आ प्रमाणे पूछे के हे साधुओ! तमारा विहारमा आबेलं गाम के राज्यधानी केवी मोटी छे ! तथा अहीं केटला घोडा हाथी गामना भीखारीओ के माणसो बसे छे, अथावा घणु रांधेलं अन्न पाणी के अनाज मळे छे ? के ओर्छ भोजन पाणी के अनाज मळे छे ? एवा प्रकारना प्रश्नो पूछे, अथवा न पण पूछे, तो पण पोते बोलवू नहि, (भाषातर वाळा आचारांगमूत्रमा पाठ विशेष छे. एतप्पा गाराणि पसिणाणि णो पुच्छेज्जा आवा प्रश्नो मुनिए पण मुसाफरने पूछवा नहि,) आज साधुनुं सर्व साधुपणु छे. For Private and Personal Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥९९९॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त्रीजो उद्देशो. उद्देश कही हवे जो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध ले गयामां गमनविधि बतावी, अहीं पण तेज कहे छे. आ संबंधे आवेला उद्देशानुं आ प्रथम सूत्र छे. सेभिक्खु वा गामा० दूइजमाणे अंतरा से वप्पाणि वा जाव दरीओ वा जाव कुडागाराणि वा पासायाणि वा नुमगिहाणि वा रुक्खगिहाणि वा पत्र्वयगि० रुक्खं वा चेड़यकडं आएसणाणि वा जात्र भवणगिहाणि वा नो वाहाओ परिज्झिय २ अंगुलिआए उद्दिसिय २ ओणमिय २ उन्नमिय २ निज्झाइज्जा, तओ सं० गामा० ॥ से भिक्खू वा० गामा० द० माणे अंतरा से कच्छाणि वा दवियाणि वा नुमाणि वा वलयाणि वा गहणाणि वा गहणविदुग्गाणि वणाणि वा वगवि० पव्वयाणि वा पव्त्रयवि० अगडाणि वा तलागाणि वा दहाणि वा नईओ वा वावीओ वा पुक्खरिणीओ वा दीहियाओ वा गुंजालियाओ वासराणि वा सरपंतियाणि वा सरसरपंतियाणि वा नो बहाओ पगिज्झिय २ जाव निज्झाइज्जा, केवली०, जे तत्थ मिगा वा पमू वा पंखी वा वा सरीसिवा वा सीहा वा जलचरा वा थलचरा वा सहचरा वा सत्ता से उत्तसिज्ज वा वित्तसिज्ज वा वार्ड वा सरणं वा कंखिज्जा, चारिति मे अयं सपणे, अह भिक्खु णं पु० जं नो बाहाओ पगिज्झय २ निज्झाइज्जा, तओ संजयामेव आयरिउवज्झाएहिं सद्धिं गामाणुगामं दइज्जिज्जा ॥ ( मृ० १२७ ) ते भिक्षु बीजे गाम जतां वचमां जुए के खाइ, कोट, मेडावाळां घर, पर्वत उपरना घर, भाँयरां, वृक्षथी प्रधान घर, अथवा For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥९९९॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ १००० ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir झाड उपरनां निवासस्थान, गुफाओ, झाडना नीचे व्यंतरनां स्थळ, व्यंतर माटे करेली देरडीयो, मठो, भवनगृह विगेरे जे कंइ रम| णीय स्थान होय, ते हाथ उंचा करी करीने अंगुलीथी उद्देशी उद्देशीने उंचा नीचा थइने जोवां नहि, तेम बीजाने बताववां पण नहि, | तेमां दोषो आ छे के, ते स्थानमां आग लागे के चोरी थाय तो ते साधु उपर शंका आत्रे, तथा गृहस्थो एम जाणे के, आ उपरथी | त्यागी छतां अंदरथी इंद्रियोथी परवश छे, तथा त्यां बेठेलो पक्षीनो समुदाय त्रास पामे, माटे साधु तेनुं न करतां शांतिथी विहार करे, तथा मार्गे विहारमां नीचली वावतो होय, नदीना नीचाण भागमां बसेला (कच्छ) देशो अथवा मूळा वालोळनी वाडीओ, दवियाणि (बीड) जेमां राजा तरफथी घास माटे जमीन रोकेली होय छे ते, तथा नीचाणना खाडा (खीण) वलयो (नदीए वींटेला भूमीभागो ) गहन उजाड प्रदेशे, अथवा पाणी विनानुं रण अथवा उजाड पहाळी किल्ला वन मोटां वन पर्वत पर्वतसमूह होय, तथा कुवा तळाव कुंड नदीओ बावडीओ कमळवाळी तथा लांबी वावडीओ गुंजालिका बांकी वावडीओ सरोवर सरोवरनी श्रेणि होय, जोडे जोडे तळाव होय, आ वधुं देखवा योग्य होय, छतां पण हाथ उंचा करने के आंगळीथी इशारत करीने बताव नहि, तथा देख नहि, केवळी प्रभु तेमां नीचला दोषो बतावे छे, कारण के तेमां रहेला मृगो बीजां पशु पक्षी साप सौंह जलचर थलचर | खेचर विगेरे जीवो होय, ते त्रास पामे, भडके, अथवा शरण लेवा आम तेम दोडे, तेथी तेनी नजीकमां रहेनार लाकोने साधु | उपर शक आवे माटे साधुए मार्गमां चालतां तेम न कर, माटे शास्त्र जाणनारा एवा आचार्य उपाध्याय विगेरे गीतार्थ साधुओ पोते विचरे. हवे आचार्य विगेरे साथे चालतां साधुनी विधि कहे छे. सेभिक्खू वा २ आयरिउवज्झा० गामा० नो आयरियउवज्झायस्स हत्थेण वा इत्थं जाव अणासायमाणे तओ संजयामेव For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥१००० Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥१००५॥ www.kobatirth.org आयरि० सद्धिं जाव दजिज्जा ॥ से भिक्खू वा आय० सद्धि दूइजमाणे अंतरा से पाडिवडिया नागच्छि जा, ते णं त्ता एवं वइज्जा आउसंतो! समण ! के तुम्भे? कओ वा एह ? कहिं वा गच्छहि ?, जे तत्थ आयरिए वा उवज्झाए वा से भासिज्ज वा वियागरिज्ज वा आय रेउवज्झायस्स भासमाणस्स वा वियागरेमाणस्स वा नो अंतरा भासं करिजा, तओ० सं० अहाराईणिए बा० दुइजिज्जा ।। से मिक्खू वा अहाराइणियं गामा० दु० नो राईणियस्स हत्थे हत्ये जाव अणासायमाणे तो सं० अहाराइणियं गामा० दू० ॥ से भिक्खू वा २ अहाराइणिअं गामाणुगामं दृइज्जमाणे अंतरा से पाडिव हिया उगच्छिज्जा, ते णं पाडिपहिया एवं वइज्जा आउसंतो! समणा! के तुम्मे? जे तत्थ सव्वराइणिए से असिज्जा वा वारिज्ज वा, राइणियस्स भासमाणस्स वा वियागरेमाणस्स वा नो अंतरा भासं भासिज्जा, तत्र संजयामेव अहाराइणियाए गामाणुगामं दुइज्जिज्जा | ( मू० १२८ ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ते भिक्षु आचार्य विगेरेनी साथे विहार करतां गुरु विगेरेथी एटलो दूर उभी रहे, के हाथ विगेरेनो स्पर्श न धाय, तथा ते | मिक्षु आचार्य विगेरेनी साथे जतां मुसाफरो पूछे के हे साधुओं! तमे कोण छो? क्यांथी आवो छो? क्यां जवाना छो? ते समये जे | आचार्य उपाध्याय विगेरे जे मोटा होय, ते उत्तर आपे, अथवा खुलासाथी समजावे, पण आचार्यादि उत्तर आपे, तेमां पोते वचमां कंड पण न बोले, तेमज जे रत्नाधिक ( चारित्रपर्याये के ज्ञाने मोटा होय ते) आगळ चाले, पोते पछवाडे चाले, अने चार हाथनी दृष्टि राखी चाले, ते भिक्षु वळी जे आचार्यने बदले रत्नाधिक साथे चालतो होय, तेमने पण हाथ विगेरेथी स्पर्श न करे, अने रस्तामां मुसाफरो मळतां ते पूछे तो रत्नाधिके उत्तर आपको, एटले सौथी मोटाए उत्तर आपको, पण ते मोटा साधु बोलता होय, For Private and Personal Use Only सूत्र yeor Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥१००२॥ त्यारे वचमां अन्य साधुए बोलवू नहि, तेज प्रमाणे संयतोए मोटा रत्नाधिक साधुने आगळ करीने विहार करवो. वळीःआचा०18 से भिक्खू वा. दुइज्जमाणे अंतरा से पाडिवहिया उवागच्छि जा, ते णं पा० एवं वइज्जा-आउ० स० अवियाई इत्तो पडिवहे पासह, तं०-मणुस्सं वा गोणं वा महिसं वा पहुं वा पक्खि वा सिरोसिवं वा जलयरं वा से आइक्खह दंसेह, तं ॥१००२॥ नो आइक्खिज्जा नो देसिज्जा, नो तस्स तं० परिन्नं परिजाणिज्जा, तुसिणिए उवे हिज्ज, जाणं वा नो जाणंति वइज्जा, तो स. गामा० दु० ॥ से भिक्खू वा. गा० द. अंतरा से पाडि. उवा०, ते णं पा० एवं वइज्जा-आउ० स०! अवियाई इत्तो पडिवहे पासह उदगपमृयाणि कंदाणि वा मूलाणि वा तया पत्ता पुप्फा फला बीया हरिया उदगं वा संनिहियं अगणिं वा संनिखितं से आइक्खह जाव इज्जिज्जा ।। से भिक्खू वा० गामा दुइज्जमाणे अंतरा से पाडि. उवा०. ते णं पाडि• एवं आउ० स० अवियाई इत्तो पडिवहे पासह जवसाणि वा जाव से णं वा विरूवरूवं संनिविट्ट से आइक्खह जाब दुइज्जिज्जा ।। से भिक्खू वा० गामा० दुइज्जमाणे अंतरा पा० जाव आउ० स० केवइए इत्तो गामे वा जाव रायहाणि वा से आइक्खह जाव दुइज्जिज्जा ।। से भिक्खू वा २ गामाणुगाभं दूइज्जेज्जा, अंतरा से पाडिपडिया आउसंतो समणा! केवइए इत्तो गामस्स नगरस्स वा जाव रायहाणीए वा मग्गे से आइक्खह, तहेव जाव दृइज्जिजा(मू० १२९) ते साधुने मार्गमां जतां कोइ मुसाफर पूछे के, हे साधु! तमे रस्तामां आवतां कोइ माणस जोयो? बळध मेंस पशु पंखी सरीसृप जलचर जे कंइ देख्यु होय ते कहो, अथवा बतावो, तो ते समये साधुए कंइ पण बोलवू नहि, तेम बतावq नहि, तेनी ते वात साधुए कबुल राखवी नहि, मौन रहे, अथवा जाणतो होय. तो पण नथी जाणतो, एम कहेवू, तेज प्रमाणे समाधियी विहार करवो. RECRANCC+SECO-ORIES --OCRACANCERNG For Private and Personal Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥१००३॥ तेज प्रमाणे साधुने मार्गमा पूछे, के जळमां धनारां कंद मूळ छाल पांदडां फूल फळ वीज हरित (भाजी) पाणी अथवा स्थापेला आचा. अग्नि होय तो नतावो, ते समये पण मौन रहे, जाणवा छतां, 'नथी जाणतो' एम कहेवू, अथवा पूछे के मार्गमां जब घउंनां खेतर . है अथवा जु, जुहूँ जे जोयु होय ते कहो, तोपण मौन रहेg, तेज प्रमाणे पूछे के अहोथी गाम अथवा राजधानी केटली दूर छे? तो ॥१००३॥ पण मौन रहे, अथवा अमुक गाम अथवा नगर के राज्यधानीए क्यो रस्तो जाय छे? विगेरे पूछे तो मौन रहे, पण ते संबंधी उत्तर आपत्रो नहि. से भिक्खू० गा. द. अंतरा से गोणं वियालं पडिवहे पेहाए जाव चित्तचिल्लई वियालं प० पेहाए नो तेसि भीओ उम्मग्गेणं गच्छिज्जा नो मग्गाओ उम्मग्गं संकमिज्जा नो गहणं वा वणं वा दुग्गं वा अणुपविसिज्जा नो रुक्खंसि दूरुद्दिज्जा नो महइमहालयंसि उदयंसि कायं विउसिज्जा नो वाई वा सरणं वा सेणं वा सत्यं वा कंखिज्जा अप्पुस्मुए जाव समाहीए तओ संजयामेव गामाणुगाम दुइज्जिज्जा ॥ से भिक्खू, गामाणुगाम दुइज्जमाणे अंतरा से विहं सिया, से जं पुण विहं सिया, से जं पुण विहं जाणिज्जा इमंसि खलु विहंसि बहवे अमोसगा। उवगरणपडियाए संपिडिया गच्छिउजा, नो तेसि भीओ उम्मग्गेण गच्छिज्जा जाव समाहोए तओ संजयामेव गामणुगामं दृइज्जेज्जा ।। (मू० १३०) ते भिक्षुने विहार करतां मार्गमां बळध के साप उन्मत्त थएलो जुए, सिंह चीतरो अथवा तेनुं बच्चु जुए, तो तेना भयथी Wडरीने उन्मार्गे जवु नहि, तेम उज्जड अरण्यमांघुसवू नहि, तेम झाड उपर पण चडवू नहि, तेम पाणीमां पण पेसयु नहि, तेम 5. वाडामां पेसवु नहि, बीजानु शरण चाहवू नहीं, पण उत्सुकता राख्या विना शांतिथी जg आ मूत्र जिनकल्पी आश्रयी हे, पण BR-CRAE% WEARNER-ENROERA For Private and Personal Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit 18 स्थविर कल्पीए तो साप विगैरेने बाजुए टाळी नीकळवु, वळी ते मार्गे चालतां लांबी उजाड अटवी आवे, अने तेमां चोरो रहेता 8 होय, अने ते चोरो उपधि लेवा आवता होय, तो पण तेना डरथी उन्मार्गे जवू नहि, पण सीधे रस्ते शांतिथी विहार करता जq. | FI आचा से भिक्खू वा. गा० द. अंतरा से आमोसगा संपिडिया गच्छिज्जा ते णं आ० एवं वदज्जा-आउ० सं० ! आहार ॥१००४० एवं वत्थं वा०४ देहि निखिवाहि, तं नो दिज्जा निक्खिविग्जा, नो वंदिय २ जाइज्जा, नो अंजलि कटु जाइज्जा, नो ॥१००४॥ कलुणपडियाए जाइज्जा, धम्मियाए जायणाए जाइज्जा, मुसिणीयभावेण वा ते णं आमोसगा सयं करणिज्जेतिकटु अकोसंति वा जाव उद्दविति वा वत्थं वा ४ अच्छिदिज्ज वा जाव परिदृविज्ज वा, तं नो गामसंसारणियं कुज्जा, नो रायसंसारियं कुज्जा, नो परं उवसंकमित्तु बूया-आउसंतो ! गाहावई एए खलु आमोसगा उवगरणपडियाए सर्वकरणिज्जतिकटु अकोसंति या जाव परिहवंति वा एयप्पगारं मणं वा वायं वा नो पुरओ कटु विहरिज्जा, अप्पुस्सुए जाव समाहीए तओ संजयामेव गामा० दुइ० ॥ एयं खलु० सया जइ० (मू० १३१) तिबेमि ।। समाप्तमीर्याख्यं तृतीयमध्ययनम् ।। भिक्षुने विहार करतां चोरी भेगा थइने उपकरण याचे, तो तमने हाथमा अर्पण करवा नदि, बलवी ग्रहण करे तो जमीन उपर नांस्खी देवां, अने चोरे लीधा पछी तेने वंदन करीने याचवां नहि, तेम हाथ जोडीने दीनताथी पण याचवो नहि, पण धर्म18 समजावीमे याचवां अथवा चुप रहीने उपेक्षा करवी, तथा ते चोरो पोताना कर्त्तव्य प्रमाणे आक्रोश करे, दंडी मारे अथवा जीव ले, तो पण तेना सामे यर्बु नहि, पण तेओ माल विनानां समजी पाछां फेंकी दे, फाडी नांखे तो पण तेमनी चेष्टा गाममां के राजकूळमां कहेवी, नहि, अथवा वीजा गृहस्थने पण एम न कहेवू के आ चोरोए आ प्रमाणे कर्यु छे. तथा मनथी के वचनथी तेना KAR For Private and Personal Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥१००५॥ www.kobatirth.org उपर दुर्भाव बतावको नहि, पण उत्सुकता छोडी समाधियी विहार करी बीजे ग्राम जब. आज साधुनी साधुता छे. श्रीजुं अध्ययन समाप्त थयुं. --- Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धुं अध्ययन भाषा जातम् श्रीजुं अध्ययन कं, हवे चोथुं कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे, त्रीजा अध्ययनमां पिंडविशुद्ध माटे गमनविधि कही त्यां गयेलाए मार्गमां आ प्रमाणे बोलवु आम न बोलवं, ते बतावशे, आ संबंधे आवेला आ भाषा जात अध्ययनना चार अनुयोगद्वारा थाय छे, तेमां निक्षेपनिर्युक्ति अनुगममां भाषाजात शब्दोना निक्षेपा माटे नियुक्तिकार कहे छे. जह: बकं तह भासा जाए छकं च होइ नायन्त्रं । उप्पत्तीए ? तह पज्जवं २ तरे ३ जायगहणे ४ य ।। ३१३ वाक्य शुद्धि नामना अध्ययनमां जेम वाक्यनो पूर्वे निक्षेप कर्यो छे, ते प्रमाणे भाषानो पण करतो. जात शब्दना निक्षेपानुं वर्णन. पण जात शब्दनो छ प्रकारे निक्षेपो करवो, नाम स्थापना क्षेत्र काळ अने भाव छे, एमां नाम स्थापना सुगम छे, द्रव्य जात आगमथी अने नो आगमथी छे, तेमां व्यतिरिरिक्तमां निर्मुक्तिकार पाछळनी अडधी गाथाथी कहे छे, ते चार प्रकारे उत्पत्तिजात, पर्यवजात, अंतरजात, अने ग्रहण जात छे. (१) तेमां उत्पत्तिजात ते जे द्रव्यो भाषा वर्गणानी अंदर पडेल काययोगथी ग्रहण करेलां For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥१००५॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ ते वाग्योगवडे निसृष्ट श्रयेला भाषा पणे उत्पन्न थाय, ते उत्पत्तिजात छ, अर्थात् जे द्रव्य भाषापणे उत्पन्न थाय ते. (२) तेज आचा०४ वाचाथी निसृष्ट भाषा द्रव्योबडे जे विश्रेणीमा रहेला भाषा वर्गणानी अंदर रहेलां निसृष्ट द्रव्यना पराघात बढे भाषा पर्यायपणे जे || सूत्रम् * उत्पन्न थाय छे, ते द्रव्योपर्यवजात कहेवाय छे, (३) जे द्रव्यो अंतराले समश्रेणिमांज निसृष्ट द्रव्यनी साथे मिश्रित भाषा परिणामने । ।।१००६॥ I भजे, ते अंतरजात छे. (४) बळी जे द्रव्यो समश्रेणिमा रहेला भाषापणे परिणमेलां कर्ण शष्कुली (काननी अंदर )ना काणामां ॥१००६॥ पेठेलां ग्रहण कराय छे, ते अनंत प्रदेशवाळां द्रव्ययी छे, तथा असंख्यपदेशवाळा अवकाशमां अवगाढेलो क्षेत्रथी छे, काळथी एक ये प्रणथी मांडीने असंख्यात समय सुधीनी स्थितिवाळां छे, भावथी वर्ण गंध रस स्पर्शवाळां छे, ते आवां द्रव्यो 'ग्रहणजात' 13/छे, द्रव्यजात का, क्षेत्रादिजात तो स्पष्ट होवाथी नियुक्तिकारे कद्यां नथी, ते आ प्रमाणे छे, जे क्षेत्रमा भाषाजाननु वर्णन चाले, अथवा जेटलं क्षेत्र स्पर्श करे, ते क्षेत्रजात छे, एज प्रमाणे जे काळमां वर्णन चाले ते कालजात छे, भावजात तो तेज उत्पत्ति पर्यव अंतर ग्रहण द्रव्य सांभळनारना कानमां जणाय, के “आ शब्द" छे, एवी बुद्धि उत्पन्न करे, पण अहिं अधिकार द्रव्य भाषाजात बडे छे कारण के द्रव्यनी प्रधान विवक्षा के, द्रव्यनो विशिष्ट अवस्था भाव हे, ते माटे भाव भाषा जात बडे पण अधिकार छे. उद्देशाना अर्थाधिकार माटे कहे छ:सब्वेवि य वयणविसोहिकारगा तहवि अत्यि उ विसेसो । वयणविभत्ती पढमे उप्पत्ती वजणा बीए ॥ ३१४ । -COLOCACCORSCROLOGESCORC For Private and Personal Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥१००७॥ जो के वे उद्देशा पण वचन विशुद्धि करनारा छे, तो पण ते दरेकमां विशेष छे, ते आ छे, पथमना उद्देशामां वचननी विभक्ति आचा० दि छे, एटले एकवचनथी लइने सोळ प्रकारना वचननो विभाग छे. तथा आव॒ वचन बोलवू, आq नहि, तेनुं वर्णन छे बीजा उद्देशामां क्रोध विगेरेनी उत्पत्ति जेम न थाय, तेम बोलवू, हवे मूत्र अनुगममा अस्खलितादि गुणयुक्त मूत्र छे, ते आ प्रमाणे :॥१००७॥ से भिक्खू वा २ इमाई वयायाराई मुच्चा निसम्म इमाई अगाया राई अणारियपुवाई जाणिज्जा-जे कोहा वा वायं विउंजंति जे माणा वाजे मायाए वा. जे लोभा वा वायं विनंति जाणओ वा फरुसं वयंति अजाणो वा फ० सव्वं चेयं सावज वजिज्जा विवेगमायाए, धुवं चेयं जाणिज्जा अधुवं चेयं जाणिज्जा असणं वा ४ लभिय नो लभिय भुंजिय नो भुजिय अदुवा आगो अदुवा नो आगो अदुवा एइ अदुवा नो एइ अदुवा पहिइ अदुवा नो एहिइ इत्थवि आगए इत्थवि नो आगइ इत्थवि एड् इत्थवि नो एति इत्थवि एहिति इत्यवि नो एहिति ॥ अणुवीड निहाभासी समियाए संजए भासं भासिज्जा, तंजहा-एगवयणं १ दुवयणं २ बहुव० ३ इत्थि० ४ पुरि० ५ नपुंसमवयर्ण ६ अज्झत्यव०७ उवणीयवयणं ८ अवणीयवयणं ९ उवणीयअवणीयव० १० अषणीयउवणीयव० ११ तीयव० १२ पडुप्पन्नव०१३ अणागयव० १४ पच्चक्खवयणं १५ परुक्खव०१६ से एगवयणं वईस्सामीति एगवयणं वइज्जा जाव परक्खवयणं वइस्सामीति परुक्खवयणं वइज्जा, इत्यो वेस पुरि सोवेस नपुंसगं वेस एयं वा चेयं अन्न वा चेयं अणुचीइ निट्ठाभासी समियाए संजए भासं भासिज्जा, इच्छयाई आययणाई उपातिकम्म ॥ अह भिक्खू जाणिज्जा चत्तारि भासज्जायाई, तंजहासच्चमेगं पढमं भासज्जायं १ बीर्य मोसं २ लईयं सच्चामोसं ३ जं नेव सच्चं नेव मोसं नेव सच्चामोसं असञ्चामोसं माम तं For Private and Personal Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ १००८ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चत्थं भासजायं ४ || से बेमि जे अईया जे य पड़प्पन्ना जे अणागया अरहंता भगवंतो सन्वे ते एयाणि चैव चत्तारि भाज्जायाई भासिं वा भासंति वा भासिस्संति वा पन्नर्विषु वा ३, सव्वाईं च णं एयाई अचित्ताणि वण्णताणि गंधमताणि रसमंताणि फासमंताणि चओवचइयाई विप्परिणामधम्माई भवतीति अक्खायाई ॥ मू० १३२ ) साधु आ अंतःकरणमा उत्पन्न थएला ( इदम् आ प्रत्यक्ष समीप वाची शब्द वडे बतावेल होवाथी ) तथा जोडाजोड वाणी संबंधी आचार ते वागाचार ( वाणीना आचार) सूत्रकार बतावे छे ते सांभळीने तथाहृदयमां जाणीने भाषा समिति वडे ते साधुए वचन बोल. ते हवे विगत कार कहे छे. तेमां प्रथम आवी भाषा न बोलवी, ते अनाचरित भाषानुं वर्णन करे छे, ते न बोलवा योग्य अनाचार कहे छे, एटले, जे क्रोधथी वाचा बोले छे, जेमके तुं चोर छे दास छे ! तथा केटलाक मानथी बोले छे, जेमके हुं उत्तम जातिनो हुं तुं अधम जातिनो छे, तथा मायाथी बोले छे जेमके हुं मांदो छु. (पण मांदो होय नहि ) अथवा बीजानो सावध (पापवाळी) संदेशो कोइ उपाय वडे कहीने पछी मिध्यादुष्कृत करे छे, आ तो माराथी सहसा (उतावळथी) बोलाइ गयुं छे! तथा कोइ लोभयी बोले के आ वचन बोलवाथी हुं कंइक मेळवीश. तथा कोइनो दोष जाणता होय, तेनो दोष उघाडवा वडे कठोर वचन बोले छे, अथवा अजाण पणे बोले छे, आ बधुं उपर कहेलुं सघलुं क्रोधादिनुं वचन पाप सहित होवाथी ( सावद्य छे माटे ) ते वर्जनुं, अर्थात् विवेकी बनीने साधुए ते वचन न बोलं. तथा कोइ साथे साधु बोलतां निश्वायात्मक वाचा न बोलवी के " अमुक बरसाद विगेरे घनशेज" तेवीज़ रीते अध्रुव पण For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ १००८ ॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा CARBASA जाणवू, ( के आम नहिज बने ) अथवा कोई साधुने भिक्षा माटे कोइ ज्ञाति के कुलमा प्रवेश करतो जोइने तेने उद्देशीने बीजा 8 साधुओ आवु बोले के आपणे खाइ लो, ते लइनेज आवशे, अथवा तेने माटे राखी मुको ते कइ पण लीधा विनाज आवशे || सूत्रम् M अथवा त्यांज खाइने अथवा खाधा विनाज आवशे, तेवु निश्चयात्मक वचन पण न बोलवू, तथा आवी वाणी न बोलवी, के राजा || C॥१००९॥ विगेरे आव्यो छेज, तथा ते नथीज आव्यो, अथवा आवेछेज, आववानो नथीज, तथा ते आवशेज, अथवा आवशेज नहि, ए प्रमाणे टू पत्तन मठ विगेरे आश्रयी पण भूत विगेरे त्रणे काळ आश्रयी योजg, ते बधानो सार आले के जे अर्थने पोते बरोबर न जाणे त्यां आगळ आ 'एमज छे' एम न बोलवू, सामान्यथी साधुने बधी जग्याए लागु पडतो आ उपदेश छे के विचारीने, सम्यग रीते निश्चय करीने अथवा श्रुत उपदेश बडे | व प्रयोजन वढे साधारण 'निश्चय आत्मक' बनीने भाषा समिति वडे अथवा रागद्वेष छोडीने सोल वचननी विधि जाणीने भाषा बोले, जेवी भाषा बोलवी ते सोळ भकारना वचननी विधिवाळी भाषा बतावे छे. सोळ प्रकारनी भाषा. (१) एक वचन जेमके 'वृक्षः' (२) द्वि वचन 'वृक्षौ' (३) बहु वचन 'वृक्षाः' आ त्रण वचन थया. त्रण प्रकारना लिंग आश्रयी कहे छे. (४) स्त्री वचन वीणा, कन्या, (५) ध्रुवचन घटः, पटः (६) नपुंसक वचन पीठं, देवकुलं (देवल) अध्यात्न वचन. (७) आत्मामा रहेलं ते अध्यात्म (हृदयमा रहेलु) तेना परिहार करवावडे अन्य बोलवा जतां बीजुंज (खरु) सहसात्कारे बोलाइ जाय. (८) उपनीत वचन ते प्रशंसानुं वचन जेम सुंदर स्त्री (९) तेथी उलटुं अपनीत निंदाचाळ वचन कुरुपवाळी स्त्री. (१०) - O- I क व Recret .. For Private and Personal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ १०१०॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऊपनीत अपनीत वचन कंइक प्रशंसा योग्य गुण बतावी निंदा आत्मकगुण बतावे जेमके आ स्त्री सुंदर छे, पण कुलटा छे. (११) | अपनीत उपनीत वचन ते प्रथमथी उलटुं छे, जेमके आ स्त्री कुरुपा छे पण शीलवत पाळनारी सती छे. (१२) अतीत वचन कृतवान् | कर्यु. (१३) वर्त्तमान वचन करे छे, (१४) अनागत वचन 'करशे' (१५) प्रत्यक्ष वचन आ देवदत्त छे. (१६) परोक्षवचन ते देवदत्त छे, आ प्रमाणे सोळ वचनो छे, आ सोळ वचनोमां साधुने जरूर पडे, त्यारे एक वचननी विविक्षामां एक वचन बोले, ते परोक्ष वचन सुधीमां ज्यां जवं योग्य होय त्यां तेनुं बोले, तथा स्त्री विगेरे देखे छते आ स्त्रीज छे, अथवा पुरुष अथवा नपुंसक छे, जे | होय तेबुं बोले, आ प्रमाणे विचारी निश्चय करीने सत्य बोलनारो समितिवडे अथवा समपणे संयत भाषा बोले, तथा पूर्वे कलां अथवा हवे पछी कहेवाता दोषोनां स्थान छोडीने भाषा बोले, ते भिक्षु चार प्रकारनी भाषाओ जाणे, ते आ प्रमाणे (१) सत्यभाषाजात - ते यथार्थ वचन अवितथ (खरेख) बोलवु गाय होय तो गाय अश्व होय तो अश्व कहेवो. (२) एथी विपरीत ते मृषा (ठ) बोलं - एटले गायने अश्व कहेवो, अश्वने गाय कहेवी. (३) सत्यमृषा-जेमां थोडं सत्य थोई असत्य. जेमके-देवदत्त घोडा उपर बेसीने जतो होय तो उंट उपर : बेसीने देवदत्त जाय छे एम कहे. (४) बोलायेली भाषामां सत्य, जुठ के मिश्रपणुं न होय, ते आमंत्रण आज्ञापन विगेरेमां सत्य जुठ नथी ते असत्यामृषा चोथी भाषा छे, आ वधुं सुधर्मास्वामी पोतानी बुद्धिथी नथी कधुं तेथी कहे छे, के जे पूर्वे तीर्थंकर थाय, वर्तमानमां छे अने भविष्यमा यशे ते वधा तीर्थकरोए कं छे, हमणां कहे छे अने कहेशे, के आ वर्षाए भाषाद्रव्य अचित्त छे, वर्ण गंध रस फरस For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ १०१०॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | वाळां, चय, उपचय विगेरे विविध परिणाम धर्मवाळां छे, एबुं तीर्थकरे कहेल छे, अहीं वर्ण विगेरे गुणो बताववाथी शब्दनु मूर्त आचा पिणुं बताव्यु, पण अन्यलोक एवं माने डे, के 'शब्द आकाशनो गुण' छे, ते आकाशने वर्ण विगेरे नथी माटे शब्द रुपी नहि सूत्रम् ॥१०११॥ * पण अरुपी छे, तेम जैनो मानता नथी, तथा चय-उपचय धर्म बतावधाथी शब्दनु अनित्यपणु बताव्यु; कारण के शब्दद्रव्योर्नु ॥१०११॥ विचित्रपणुं सिद्ध थाय छे. हवे शब्दोनुं कृतव प्रकट करवा कहे छे. से भिक्खू वा० से जं पुण जाणिज्जा पुचि भासा अभासा भासिजमाणी भासा भासा भासासमयवीइकता च णं भासिया भासा अभासा ।। से भिक्खू वा० से जं पुण जाणिज्जा जा य भासा सच्चा १ जा य भासा मोसा २ जा य भासा सच्चामोसा ३ जा य भाषा असचऽमोसा ४, वहप्पगारं भासं सावज्ज सकिरियं ककसं कड़यं निरं फरुसं अण्हयकरि छेयण करि भेयणकरि परियावणकरि उद्दवणकरि भूओवघाइयं अभिकंख नो भासिज्जा ॥ से मिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण जाणिज्जा, जा य भासा सच्चा सहुमा जा य भासा असच्चामोसा तहप्पगारं भासं असावज्जं जाव अभूओवघाइयं अभिकख भासं भासिज्जा ।। (मु०१३३) ते भिक्षु आ प्रमाणे शब्दने जाणे, के भाषा द्रव्य वर्गणाओनो वाक्योग निसरवार्थी पूर्वे जे आ भाषा हती, ते वाकयोगबडे | निसरवाथीज भाषा कहेवाय छे, आ कहेवाथी तालवू ओठ विगेरेना व्यापारथी पूर्वे जे शब्द नहोता, ते ते उत्पन्न करवाथी खुलेखुलं || (प्रकट) कृतक (बनाववा) पणुं मूचव्यु छे. जेम माटीना पिंडमां प्रथम घडो नहातो, ते कुंभारे प्रयोजन आवतां दंडचक्रवडे घडाने 18 वनाव्यो, तेम ते भाषा बोलाया पछी नाश पामती होवाथी शब्दोनुं बोलाया पछीना काळमां अभाषापणुं , जेमके घडो फुटवाथी 8 For Private and Personal Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit www.kobatirth.org सूत्रम् C 8 ठीकरां थयां, त्यारे ते कपाळ (ठीक6-ठीच) नीअवस्थामां घडो ते अघडो थयो छे, आ वाक्योबडे शब्दोनो पूर्व अभाव तथा ४ आचा० प्रध्वंस (नाश थवाथी) अभाव बताव्यो छे, हवे चारे भाषामांधी न बोलवा योग्य भाषाने कई छे, ते भिक्षु आ प्रमाणे जाणे के १ सत्य २ मृषा ३ सत्यामृपा ४ असत्यामृषा एम भाषा चार भेदे छे. तेमा मृषा सत्यामुषा तो बोलवा योग्य नथी, पण सत्य ॥१०१२॥ वचन पण कर्कश विगेरे दुर्गुणवाडं न बोलवू, ते वताचे छे. 6॥१०१२॥ (१) अवध (पाप) सहित वर्ते, ते 'सावध भाषा' सत्य होय तो पण न बोलवी, (२) सक्रिय ते जेमां अनर्थ दंडनी क्रिया है प्रवर्ते, ते पण भाषा साधुए न बोलवी (३) कर्कश ते चावेला अक्षरवाळी (४) कटुक-ते चिचने उद्वेग करनारी (२) निष्ठुर ते महक प्रधान (ठपका रूप) (६) परुपा ते पारकाना मर्म उघाडवा रुप (७) कर्माखव करनारी, तेज प्रमाणे छेदन भेदन ते ठेठ अप-12 8 द्रावण करनारी सुधी जे जीवोने उपताप करनारी होय, ते मनथी विचारीने सत्य होय तो पण न बोलवी, हवे बोलवानी भाषा & कहे छे. ते भिक्षु आ प्रमाणे जाणे, के जे भाषा सत्य छे, तथा कोमळ विगेरे गुणोवाळी जीवोने उपताप न करनारी भाषा छे, ते बोलवी, तथा कुशाग्रहबुद्धिवडे विचारीने जे मूक्ष्म भाषा बोलाय, ते वखते मृषा पण सत्य जेवी गुणकारी थाय, जेम के मृग 18/ देख्यु होय, छतां शिकारी आगळ ते मृगनी रक्षा खातर 'न देख्यु' कहे, तो सत्य जेवुज गुणकारी छे, काके के. 'अलिअं न भासिअव्वं अस्थि हु सचंपि जं न वत्तव्यं । सच्चपि होइ अलिअंजं परपीडाकरं वयणं ॥१॥ । जेम जूठ न बोलवु, तेम सत्य पण जे परने पीडाकारक वचन होय ते जूठा जेवू जाणीने बोलवू नहि, तथा जे असत्यामृपा छे ते आमंत्रणी (भावो) आज्ञापकनी (आम करो) विगेरे पण जे असावद्य अक्रिय अकठोर जीवने दुःख न देनारी होय, ते मनथी OCOCCASI -- ॐ For Private and Personal Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विचारीने हमेशां साधुए बोलवीआचा० से भिक्खू वा पुमं आमंतेमाणे आमंतिए वा अपडिसुजेमाणे नो एवं वइजा-होलित्ति वा गोलित्ति वा वसुलेत्ति वा सूत्रम् कुपक्खेत्ति वा घडदासित्ति वा साणेत्ति वा तेणित्ति वा चारिएत्ति वा माईति वा मुसाबाइनि वा, एयाई तुम ते जणगा ॥१०१३॥ चा, एअप्पगारं भासं सावजं सकिरियं जाव भूआवघाइयं अभिकंख नो भासिज्जा ।। से भिक्खू वा. पुमं आमंतेमाणे 4॥१०१३॥ आमंतिए वा अप्पडिसुणेमाणे एवं वइज्जा-अमुगे इ वा आउसोति वा आउसंतारोति वा सावगेशि वा उवासग्गेत्ति वा धम्मिएचि वा धम्मपिएति वा, एयप्पगारं भासं असावज जाव अभिकंख भासिज्जा ॥ से मिक्खु वा २ इत्थि आमंतेमाणे आमंतिए य अप्पडिमुणेमाणे नो एवं बहज्जा-होली इ वा गोलिनि वा इत्थीगमेणुं नेयव्वं ।। से भिक्खू वा २ इत्यि आमंतेमाणे आमंतिए य अप्पडिमुणेमाणी एवं वइज्जा-अउसोत्ति वा भइणित्ति वा भोईति वा भगवईति वा साविगेति वा उवासिएत्ति वा धम्मिएत्ति वा धम्मप्पिएत्ति वा, एयप्पगारं भासं असावज जाव अभिकंख भासिज्जा ।। (मू०१३४) ते साधु जरुर पडतां कोइ माणसने बोलावे, अथवा पूर्वे बोलाव्यो होय, पण ते माणसे लक्ष्य न आप्यु होय, तो तेने आवा ६ कठोर शब्दो न कहेवा, के तुं होल, गोल ( आ बने शब्दो बीजा देशमा अपमान रुपे छे,) तथा वृषल अथवा कनात घटदास 8 कुत्तो चोर, अथवा चारिकमायी मृषावादी अथवा तुं! आवो अथवा तारां मावाप आवां छे! आ भाषा कठोर होवाथी साधुए न बोलबी, पण तेथी विपरीत ते अकठोर भाषा बोलबी, एटले आमंत्रण कर्या छतां पेला पुरुषर्ने लक्ष्य न होय, तो शांतिथी कहेQ |P 15/ के हे भाइ ! आयुष्मन् ! अथवा बहु आयुष्मन्त श्रावक धर्म प्रिय-अर्थात् तेने प्रिय लागे, तेवू वचन कहे, तेज प्रमाणे स्त्रीने For Private and Personal Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० सुत्रमू ॥१०१४॥ ॥१०१४॥ www.kabatirth.org आश्रयी पण होली गोली विगेरे कठोर वचन न कहेवां, पण तेनुं लक्ष्य खेंचवा आयुष्मती, बाइ भोगी भगवती श्राविका उपासिका धार्मिका धर्म मिया इत्यादि असावध वचन विचारीने बोलवू. एज प्रमाणे अभाषणीय भाषाना बोजा प्रकारो वतावे छे. से मि० नो एवं वइज्जा-नभोदेवित्ति वा गन्जदेवित्ति वा विजुदेवित्ति वा पवुट्टदे० निवुढदेवित्तिए वा पडउ वा वासं मा वा पडउ निष्फजउ वा सस्सं मा वा नि० विभाउ वा रयणी मा वा विभाउ उदेउ वा मूरिए मा वा उदेउ सो वा राया जयउ वा मा जयउ, नो एयप्पगारं भासं भासिज्जा ।। पन्नवं से भिक्खू वा २ अंतलिक्खेति वा गुज्झाणुचरिएत्ति वा संमुच्छिए वा निवइए वा पो वइजा वुटबलाहगेत्ति वा, एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं जं सबढेहिं समिए सहिए सया जाइज्जासि तिबेमि २-१-४-१॥ भाषाध्ययनस्य प्रथमः ।। (मू०१३५) वळी ते साधु असंतने योग्य आवी जे भाषा के तेने न बोले, जेमके नभोदेव, गर्जतोदेव, विजळादेव प्रवृष्टदेव निवृष्टदेव (आमां वर्षाद वीजळी विगेरेने देव न कहेवो ते सूचव्यु छे.) तथा वर्षाद पडो अथवा न पडो, मूर्य उगो, अथवा न उगी, आ राजा जीतो अथवा न जीतो, आवी भाषा पण न बोले, पण कारण पडे वरसादने अंगे बोलवु पडे, तो संयत भाषाए आ प्रमाणे बोलके अंतरीक्षमाथी बरसाद पडे छे. अथवा गुहयानु चरित छे, संमूर्छिम छे अथवा वादळां वरसे छे, आ प्रमाणे साधु साध्वीए | खुशामत विनानुं सादं वचन बोलवू, तेज साधुनी साधुता छे, ते सर्व अर्थोवढे समजीने समिति सहितपणे बोलवामा प्रयत्न करचो. चोथो अध्ययननो १ लो उद्देशो पूरो थयो. For Private and Personal Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ १०१५॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बीजो उद्देशो. पहेलो कहीने बीजो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध ले गया उद्देशामां वाच्य अवाच्यनुं विशेषपणुं बतान्युं, अहीं पण तेज बाकीनुं कहे छे, आ संबंधे आवेला उद्देशानुं आ प्रथम सूत्र छे, सेभिक्खू वा जहा वेगईयाई रुवाई पासिज्जा तहात्रि ताई नो एवं वइज्जा, तंजा—गंडो गंडीति वा कुट्टी कुट्टीति वा जाब मेमेहुणीति हत्यच्छिन्नं वा हत्यच्छिन्नेत्ति वा एवं पायछिन्नेत्ति वा नकछिणे वा कण्णछिन्ने वा उछिन्नेति वा, यावन्ने तहपगारा एयपगाराहिं भामाहिं वृझ्या कुष्पंति माणवा ते यात्रि तहष्पगाराहिं भासाहिं अभिकख नो भासिज्जा ॥ से भिक्खू वा० जहा वेगइयाई रुवाई पासिज्जा तहावि ताई एवं बड़ज्जा - तं जहा — ओयंसी ओयंसित्ति वा तेयंसि तेयंसीति वा जस्सी जसंसीइ वा वच्चंसी बच्चंसी वा अभिख्यंसी २ पडिख्वंसी २ पासाइयं २ दरिस णिज्जं दरिसणीयत्ति वा, जे यावने तहप्पारा तहपगाराहिं भासाई बुझ्या २ नो कुष्पंति माणवा तेयावि तहपगारा एयपगाराहिं भासाहि अभिकंख भासिज्जा ।। से भिक्खू वा० जहा वेगझ्याई वाई पासिज्जा, तंत्रढा-चप्पाणि वा जाब गिहाणि वा, तहावि ताई नो एवं बज्जा, तंजढा-मुकडे इ वा खुट्टुकडे इ वा साहुकडे वा कलाणे इ वा करणिज्जे इवा, एयपगारं भासं सावज्जं जाव नो भासिज्जा ।। से भिक्खू वा० जहा वेगईयाई रुवाई पासिज्जा, तंजहा - बप्पाणि वा जाव गिहाणि वा तहावि ताई एवं वइज्जा, तंजहा- आरंभकडे इ वा सावज्जकडे इ वा पयत्तकडे इ वा पासाइयं पासाइए वा दरीसजीयं दरसणीयंति वा अभिरुवं अभिवंति वा पडिरूवं पडिरूवंति वा एयप्पगारं भासं असावज्जं जाव भासिज्जा ।। (मू० १३६) For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥१०१५॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 14 ॐ - सूत्रम् २०१६ ॥१०१६॥ ते भिक्षु कोइ पण रुपो जुए, तो पण तेवां रुषो बोले नहि, जेमके कोइने गंडमाळनो रोग थयो होय गंडीपद (गुमडांवाळा) तथा कोढीया अथवा पूर्वे बताच्या प्रमाणे १६ रोगवाळाने ते रोगवाळो कही चीडाववो नहि, ते छेवटे मधु मेही सुधी छे. आ रोगीओ सिवाय कोइने पाछळथी अंगमा खोड आवी होय, हाथ छेदायेलो होय, तेम पग नाक कान होठ विगेरे छेदायला होय, तथा काणो होय कुंट होय, तेवाने तेवा शब्दोए बोलाववाथी तेओ कोपायमान थाय छे, माटे तेवाने तेवो वचनयी बोलाववो नहि. तेवाने जरुर पडतां केवी रीते बोलाववा ते कहे छे, ते भिक्षु कदाच गंडीपद विगेरे व्याधिवाळा माणसने जुए, अने तेने बोलाववो होय, तो तेनो कोइपण सारो गुण जोइने तेने उद्देशीने हे ओजस्त्री ! हे तेजस्वी ! इत्यादि आमंत्रणे बोलाववो. ____ आ संबंधमां कृष्णावासुदेवन दृष्टांत छे. एक सडेलो कुतरो राजमार्गमां पडेलो तेनी दुर्गधथी कृष्णना माणसो आडे रस्ते उता, पण कृष्णे पोते तेज रस्ते जइ तेनी | दर्गधीनी उपेक्षा करी फक्त तेना मोढामां सुंदर दांतनी श्रेणी जोइ तेनी प्रशंशा करी, तेज प्रमाणे साधुए तेवा रोगामांथी कोइपण गुण शोधी तेने बोलावा, एटले पराक्रमी तेजस्वी वक्ता यशस्वी मुरुप मनोहर रमणीय देखवा योग्य अथवा तेवो जे गुण होय, तेने उद्देशीने बोलाववो, के तेनाथी ते नाखुश न याय. | तथा मुनिए कोट किल्ला घर विगेरे जोइने एम न कहे के आ रुडा बनावेला छे, खुब बनाव्या छे, फायदाकारक छे, अथवा है तमारे आवा करवा लायक छे, एवा प्रकारनी बोजी पण अधिकरणने अनुमोदनारी सावध भाषा बोलवी नहि. छतां जरुर पढे, तो कहेंचु, के महा आरंभथी आ करेल छे, तथा बहु महेनते करेल छे, तथा प्रासाद विगेरे रमणिक देखावा CARNALECRUSCRELOCALC For Private and Personal Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥१०९७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir योग्य छे, सरखी बांधणीवाळा शोभीता छे, विगेरे निरवद्य भाषा बोलवी. से भिक्खू वा २ असणं वा० उबक्खडियं तहाविहं नो एवं वइज्जा, तं० सुकडेत्ति वा मुहुकडे इ वा साहुकडे इ वा कल्ला इवा करणिज्जे इवा, एयप्पगारं भासं सावज्जं जाव नो भासिज्जा ।। से भिक्खू वा २ असणं वा ४ उवक्खडियं पेहाथ एवं वइज्जा, तं० - आरंभकडेत्ति वा सावज्जकडेत्ति वा पयत्तकडे इ वा भद्दयं भवेत्ति वा ऊस ऊसढे इ वा रसियं २ मणुनं २ एयप्पगारं भासं असावज्जं जाव भासिज्जा ।। ( सू० १३७ ) साधुए कोई जग्या रस्सोइ तैयार थएली जोइ होय तो एम न कहेतुं के पकवान सारां कर्या छे, सारी तळ्यां छे, सुंदर बनाव्यां छे, कल्याण करनारां छे, बीजाए आवां करवा योग्य छे, आवुं सावय वचन साधुए बोलं नहि. पण जरुर पडतां तेनुं चारे प्रकारनुं अशन विगेरे जोइने कहें के आरंभथी सावध प्रयासे बनावेलुं छे, तथा सारां होय तो सारां ताजा होय तो ताजा रसवाळां मनोज्ञ एम निर्दोष भाषा बोलवी. फरीथी अभाषणीय बतावे छे से मिक्खु वा भिक्खुणी वा मणुस्सं वा गोणं वा महिसं वा मिगं वा पसुं वा पक्खि वा सरीसिवं वा जलचरं वा से तं परिवृढकार्यं पेहाए नो एवं वइज्जा-धूळे इ वा पामेइले इ वा वट्टे इ वा वझे इ वा पाइये इ वा, एयप्पगारं भासं साव जंजाब नो भासिज्जा ।। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा मणुस्सं वा जान जलयरं वा सेतं परिवृढकार्यं पेहाए एवं वइजा परिवृढकाएत्ति वा उवचियकापत्ति वा थिरसंघयणेत्ति वा चियमंससोणिएत्ति वा बहुपडिपुनई दिइएत्ति वा एयपगारं भासं असावज्वं नाव भासिज्जा ॥ से भिक्ख वा २ विरूवरूवाओ गाओ पेहाए नो एवं वडज्जा, तंजहा गाओ दुज्झाओति For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥१०१७॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit आचा० सूत्रम् ॥१०१८॥ ॥१०१८॥ Artha वा दम्मेत्ति वा गोरहत्ति वा वाहिमशि वा रहजोग्गति वा, एयप्पगारं भासं सावजं जाव नो भासिज्जा ।। से भि. विरूवरूवाओ गाओ पेहाए एवं वइज्जा, तंजहा-जुबंगविचि वा घेणुतिं वा रसवइत्ति वा हस्से इ वा महल्ले इ वा महव्वए इ वा संवहणित्ति वा, एअप्पगारं भासं असावजं जाव अभिकंख भासिज्जा ॥ से भिक्खू वा० तहेब गंतुमुज्जाणाई पन्चयाई वणाणि वा रुक्खा महल्ले पेहाए नो एवं चहज्जा, तं०-पासायजोग्गाति वा तारणजोग्गाइ वा गिहजोग्गाइ वा फलिहजो० अग्गलजो० नावाजो० उदग० दोणजो० पीढचंगवेरनंगलकुलियतलट्टीनाभिगंडीपासणजो० सयणजाणवस्सयजोगाई वा, एयप्पगारं० नो भासिज्जा ॥ से भिक्खु वा तहेव गंतु० एवं वइज्जा तंजहा-जाइमंता इ वा दीहवट्टा इ वा महालया इ वा पाययसाला इ वा विडिमसाला इ वा पासाइया इ वा जाव पडिरूवाति ग एयप्पगारं भासं असावज्ज जाव भासिज्जा ।। से भि. बहुसंभूया वणफला पेहाए तहावि ते नो एवं वइज्जा, तंजहा-पका इ वा पायखज्जा इ वा वेलोइया इ वा टाला इ वा वेहिया इवा, एयप्पगारं भासं सावज्ज जाव नो भासिज्जा ।। से भिक्खू० बहुसंभूया वणफला अंबा पेहाए एवं वइज्जा, तं०-असंथडा इ वा बहुनिवटिमफला इ वा बहुसंभूयां इ वा भूयरुचित्ति वा, एयपगारं भा० असा० ॥ से० बहुसंभूया ओसही पेहाए नहावि ताओ न एवं वइज्जी, तंजहा-पक्का इ वा नीलीया इ वा छवीइया इ वा लाइमा इ वा भन्जिमा इ वा बहुखज्जा इवा, एयप्पगा० नो भासिज्जा ॥ से बहु० पेहाए तहावि एवं वइज्जा, तं०-रुढा इ वा बहुसंभूया इ वा थिरा इ वा ऊसढाइ वा गम्भिया इ वा पम्या इ वा संसारा इवा, एयप्पगारं भासं असावज्जं जाव भासि०॥ (१३८) For Private and Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥१०१९॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ते साधु के साध्वी रस्तामां माणस बळद मृग पशु पक्षी सरीसृप जलचर कोइ पण पुष्ट शरीरवाळं देखे तो आबुं न बोलवु, के " आ स्थुल प्रमेदुर वृत्त अथवा वध करवा योग्य अथवा वहन करवा योग्य छे, अथवा मारीने रांधवा योग्य छे, अथवा देवताने बळी आपवा योग्य है. पण माणसथी लइने जलचर सुधीनुं कोइ पण पशु पंखी के जंतु परिवृद्ध (जाडा) शरीरवाळु देखीने जरुर पडतां आवी रीते बोल के आ जाडा शरीरनो छे, उपचित (पुष्ट) कायवाळो छे, स्थिर संघयणवाळो छे, अथवा लोही मांसे पुष्ट छे, अथवा पांच इंद्रयो पुरी छे, आवी निर्दोष भाषा बोले. तेज प्रमाणे जुदा जुदा रुपत्राळी गायोने साधु देखे, तो तेणे आवुं न कहेवुं, के आ गायो दोहवा योग्य छे, अथवा दोहवानो वखत छे, अथवा आ गोधलो (जुवान वळद ) वाहन करवा जेवो छे, अथवा रथने योग्य छे, आवी सवाद्य भाषा न बोलवी, पण जरुर पडतां जुदी जुदी गायोने जोइ आ प्रमाणे बोलवु के आ युवान गाय है, अथवा रसवती धेनु छे, आ नानो बळद छे, आ मोटो छे, अथवा महाव्यय (मूल्य) वाळो छे, संवहन छे, आवो निरवद्य भाषा बोले. तेज प्रमाणे साधु उद्यनमां जतां पर्वत वन विगेरेमां मोटां झाड देखीने आवुं न बोले के, आ महेल बनावत्रा योग्य, तोरण योग्य छे, घर योग्य, फलिहाने योग्य, अर्गला नाव के पाणी लाववाने परनाळ बनववा योग्य अथवा द्रोण बनाववा योग्य पीढ चंगबेर हळ कुलिकयंत्रनी लाकळी (घाणी) नाभि गंडि असाण विगेरे ओजारनी वस्तुओ बनाववा योग्य छे, तथा सुवानां पाटीआं गाडी गाडां उपाश्रय बनाववा योग्य छे. अथवा तेनुं कंइ पण बीजुं सावध वचन न बोले. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ १०१९ ॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra I4 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा पण जरूर पडतां तेवां वृक्षो बतावां पडे, तो आ उत्तम जातिनां वृक्षो के, जाटा थडवाळा , मोटा पाट विशाळ शाखाबाळां F| विस्तीर्ण शाखावाला देखावा योग्य रमणीय छे, आवी निरवध भाषा बोले. # ते साधु मार्गमा घणां फळबाळां झाडो देखे, तो आ न बोले के आ पाकां फळ छे, गोटली बंधायेला फळ छे. ते खालामा || सूत्रम् ॥१०२०॥ नाखीने कोद्रव के पराम्ना घासथी पकावीने खाचा योग्य छे. ताथ बरोबर पाकेला होवाथी झाड उपरथी तोडी लेवा योग्य छ,8/॥१०२०।। कारणके हवे वधारे वखत उपर रही शके तेम नथी. 'टाल' ते गोटली बंधाया विनानां कोमळ फळके, तथा आ फळोए पेशी | संपादन करवाथी चीरवा योग्य छे, आवी फळ संबंधी सावध भाषा साधुए न बोलवी, पण जरुर पडतां नीचे प्रमाणे बोलवू-श्रा || फळना भारथी असमर्थ झाडो छे, घणां फळवाला छे, बहु संभूत छे, तथा भूतरुप ते कोमळ फळो छ, आवां आंबानां झाड प्रधान 8/होबाथी तेनो दृष्टांत आपेल , आवी निरवध भाषा साधुए बोलबी. त तथा पाकेली औषधि देखीने एम न बोलवू, के आ पाकी छे, अथवा नीली आर्दा पाणीवाळी छालवाळी धाणी बनावा योग्य रोपवा योग्य, आ रांधवा योग्य भंजन करवा योग्य बहु खावा योग्य अथवा धूख बनाववा योग्य छे. पण जरुर पडतां आम बोले 15/ के भा रुदा औषधि छे, आबी निरवध भाषा बोलवी. वळी से मिक्खू वा तहप्पगाराई सदाई मुणिज्जा तहावि एयाई नो एवं वइज्जा, तंजहा-मुसद्देत्ति वा दुसद्देत्ति वा. एयप्पगारं भासं सावज नो भासिजा ॥ से भि० तहावि ताई एवं वइज्जा, तंजहा-मुसद्द सुसरित्ति वा दुसई दुसदित्ति वा, एयप्पगारं असावजं जाव भासिज्जा, एवं रूबाई किष्णहेति वा गंधाई मुरभिगंधित्ति वा २ रसाई वित्ताणि वा ५फसाई । For Private and Personal Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥१०२१॥ कक्खडाणि वा ८ ॥ (मू० १३९) आचा० कोइ जग्याए साधु शब्द सांभळे तो एम न बोले के भा सुंदर के के खराब छे, अथवा मांगलिक छे के अमांगलिक छे, पण तेवा शब्दो बोलवानी जरूर पडे तो पछी शोभनने शोभन अने अशोभनने अशोभन कहे, ए प्रमाणे रुप (वर्ण) पांचने आश्रयी वे ॥१०२१॥ 18| गंध सुरभि विगेरे तथा रस तीखा विगेरे पांच, अने कर्कश विगेरे आठ फरस आश्रयी पण विचारीने निरवध भाषा जरुर पडतां बोलवी. । से मिक्खू वा. वंता कोहं च माणं च माय च लोभं च अणुवीइ निहाभासी निसम्मभासी अतुरियभासी विवेगमासी समियाए संजए भासं भासिज्जा ५ एवं खलु० सया जइ (मु० १४०) तिबेमि २-१-४-२ भाषाध्ययनं चतुर्थम् २-१-४ उपर बधां मूत्रो कहीने छेवडनो सार कहे छे के ते साधु साध्वीए क्रोध मान माया लोभने दूर करी विचारी मुद्दानी वात निश्चय करीने धैयता राखी विवेकपूर्वक भाषा समिति युक्त पोते बनीने बोले आ भिक्षुनुं सर्वस्व छे. . चोधुं अध्ययन समाप्त धयुं. ___ चोथु कहीने पांचमु कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे, चोथामां भाषासमिति बतावी, त्यारपछी एषणासमिति कहेवाय छे. • ते वस्त्रनी अंदर रहेली (तेने आश्रयी ) कहे छे.... आ संबंधे आवेला आ अध्ययनना चार अनुयोगद्वारा उपक्रम विगेरे थाय छे, तेमां उपक्रमनी अंदर रहेल अध्ययनना अर्था| धिकारमा 'वस्त्र एषणा' बतावी छे, अने उद्देशानो अधिकार बताववा नियुक्तिकार कहे छे. For Private and Personal Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पढमे गहणं बीए धरणं, पगयं तु दबवत्थेणं एमेव होइ पायं, भावे पायं तु गुणधारी ॥ ३१५ ॥ आचा० पहेला उद्देशामां वस्त्रनी लेवानी विधि बतावी छे, बीजामा राखबानी विधि छे, नामनिष्पन्न निक्षेपामा वस्त्र एषणा छे, तेमा। | सूत्रम् * वखनो नाम विगेरे चार प्रकारे निक्षेपो छे, नाम स्थापना मुगम छे, द्रव्य वस्त्र त्रण प्रकारनुं छे, पकेंद्रियथी बनेलं ते रु विगेरेर्नु ॥१०२२॥ बनावेलुं सुतराऊ कापड छे, विकलेंद्रियथी बनेलुं चीनांशुक (रेशमी) वस्त्र छे, पंचेंद्रियथी बनेलं ते कंबळ रत्न विगेरे छे, अने भाव ॥१०२२॥ वस्त्र अढार हजार शीलांग (संपूर्ण ब्रह्मचर्य) छे, पण अहों तो द्रव्य वस्खथी अधिकार छे, ते नियुक्तिकारे बतावेल छे, तेज प्रमाणे वस्त्र माफक पात्रांनो चार प्रकारे निक्षेपो छे, एम मानीनेज आ गाथामा नियुक्तिकारे अनि टुंकाणमां पात्रांनो निक्षेपो P अडधी गाथामां बताव्यो छे, तेमां द्रव्य पात्र ते एकइंद्रिय विगेरेथी बनेलं, अने भावपात्र तो साधु पोनेज गुगधारी होय ते छे. हवे मूत्रानुगममा अस्खलितादि गुणयुक्त मूत्र वालधुंजाइए ते आहे से मि. अभिकंखिज्जा वत्थं एसित्तए, से जं पुण वत्थं जाणिज्जा, तंजहा-जंगियं वा भंगियं वा सणियं वा पोत्तगं वा खोमियं वा तूलकडं वा, तहप्पगारं वत्वं वा जे निम्गंथे तरुणे जुगवं बलवं अप्पायके थिरसंघयणे से एगं वत्थं धारिजा नो बीयं जा निग्गंथी सा चत्तारिसंघाडीओ धारिजा, एगं दुहत्थवित्थारं दो तिहन्थवित्थाराओ एग चउहत्यवित्थारं, तहप्पगारेहिं बत्थेहि असंधिज्जमाणेहि, अह पच्छा एगमेगं संसिविज्जा ।। (मू०१४१) ज्यारे ते साधुने वखनी जरूर पड़े, त्यारे आ प्रमाणे तपास करे, आ गियं-उंट विगेरेना उनन बनावेलुं छे, तथा भंगिक | ते विकलेंद्रियनी लानु (रेशमी) वस्त्र छे, साणय ते शण झालनी छाल विगेरेनुं बनावेलुं छे, पोत्तग ते ताड पाना पांदळां81 For Private and Personal Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥१०२३ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सीबीने बनावेलुं छे, (खोमियं) ते रुनु बनावेलं सुतराउ कापड छे, तुलकड 'आ लाकडाना तूल' थी बनावेलं छे, एज प्रमाणे तेवं बीजुं पण वस्त्र जरुर पडतां राखे, जेवा साधुए जेटलां वस्त्र राखत्रां ते कहे छे. जे साधु जुवान छे. बळवान् छे, निरोगी छे, दृढ शरीरवाळो छे, अने धैर्य जेनु दृढ छे, आवो साधु शरीरना रक्षण माटे एक वस्त्र धारण करे, पण बीजुं नहि, पण बीजुं वस्त्र प आचार्य विगेरे माटे राखे, ते पोते धारण न करे (उपयोगमां ले नहि ) पण जे बाळक होय, दुर्बल, वृद्ध अल्प शक्तिवालो, अल्प धैर्यवाळो होय, ते साधु जेम समाधि रहे, तेम वे ऋण पण धारण करे, पण जिनकल्पी तो जेवी प्रथमथी प्रतिज्ञा करे, ते प्रमाणे राखे, तेने अपवाद मार्ग नथी. साध्वीनां वस्त्रो. साध्वीओ चार बस्त्रो राखे. एक वे हाथ परिमाणनु ते उपाश्रयमां ओढीनेज वेसे, वे त्रण हाथ पढोलां होय तेमानुं एक उजळं | गोचरी समये ओढे अने बीजुं बहार स्थंडिल जनुं होय त्यारे ओढे, चोधुं वस्त्र चार हाथ होय ते समवसरण विगेरेमां (व्याख्यान | सांभळवा जतां) अखा शरीरने ढांकवाने माटे राखे, कोइ वखत आव्रं वख न मळे तो पूर्वनु वीजा साथे सांधी ले अने ओढे. से मि० परं अद्धजायण मेराए वत्यपडिया० नो अभिसंधारिज्ज गमणाए ॥ ( मू० १४२ ) बळी ते भिक्षु वस्त्र लेवाने माटे अडवा योजन (वेगाउ) थी बधारे दूर जवानो विचार न करे. से मि० से जं० अस्सिपडियाए एवं साहम्मिय समुद्दिस्स पाणाई जहा पिंडेपणाए भाणियव्वं ॥ एवं बहवे साहम्मिया एग साहम्मिणि बहवे साहम्मिणीओ बहवे सामणमाहण० तहेव पुरिसंतरकडा जहा पिंडेसणाए । ( सू० १४३ ) आ मुत्रमां ने विभागो जीवोने दुःख देइ जे वस्त्रो बनावेल होय ते संबंधी छे. तेमां प्रथम विभागमां एक साधुने उद्देशीने For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥१०३३॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥१०२४ ॥ www.kobatirth.org बनावेल होय, तो आधाकर्मिक होवाथी पिंडेशणामां बताव्या प्रमाणे जाणवुं के ते न कल्पे. विभागमां घणा साधु एक साध्वी अथवा घणी साध्वीओ आश्रयी तेमज घणा श्रमण माहण आश्रयी बनावेल होय तो तेमने वस्त्र आप्या पछी पण साधुने न कल्पे. हवे उत्तर गुण आश्रयी कहे छे. से मि० से जं० असंजए भिक्खुपडियाए कीथं वा घोयं वा रतं वा घ वा महं वा संपधूमियं वा तहप्पगारं वत्यं अपुरिसंतरकडं जाव नो० अह पु० पुरिसं० जाव पडिग : हिज्जा || ( सू० १४४ ) साधुने उद्देशीने गृहस्थे खरीधुं होय, धोयुं होय, रंग्युं होय, घस्युं होय, कोमल बनाव्य होय, धुपथी सुगंधीवाल बनायुं होय, ते ज्यांसुधी बीजा माणसने न आपे, त्यांसुधी न कल्पे, बीजाने आप्या पछी ते कल्पे. सेभिक्खु वा २ से जाई पुण वत्थाई जाणिज्जा विरूवरूवाई महद्धणमुल्लाई, तं - आईणगाणि वा सहिणाणि वा सहिणकल्लाणाणि वा आयाणि वा कायाणि वा खोमियाणि वा दुगुल्लाणि वा पट्टाणि वा मलयाणि वा पन्नाणि वा असुयाणि वा चीर्णसुयाणि वा देसरागाणि वा अमिलाणि वा गज्जफलाणि वा फालियाणि वा कोयवाणि वा कंबलगाणि वा पात्रराणि वा अनयराणि वा तह वत्थाई महद्धणमुल्लाई लाभे संते नो पडिगाहिज्जा | से भि० आइण्णपाउरणाणि वाणि जाणिज्जा, तं— उद्दाणि वा पेसाणि वा पेसलाणि वा किडमिगाईणगाणि वा नीलमिगाईणगाणि वा गोरमि० कणगाणि वा कणगताणि वा कणगपट्टाणि वा कणगखइयाणि वा कणगफुसियाणि वा वग्गाणि वा विवरयाणि वा (विगाणि वा ) आभरणाणि वा आभरणवि चित्ताणि वा, अन्नयराणि तह० आईणपाउरणाणि वत्थाणि लाभे संते नो० ॥ (मू० १४५) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥। १०२४ ॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥१०२५॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ते साधु वळी महा धन मूल्यनां (किंमती) वस्त्र जाणे, तो ते मळतां होय तो पण ले नहि, ' आ जिन' ते उंदर विगेरेनां चाड अथवा वाळां बनेलां (धुंसा कहेवाथ छे ते ) तथा श्लक्ष्ण तेमां जुदी जुदी जातनां रंगित चित्र बनाव्यां होय, कल्याण (घणां सुंदर वस्त्रो होय, 'आयाणि' कोइ ठंडा देशमां बकरानां वाळ घणा किंमती होय तेनां बनावेलां वस्त्र (शाल) होय, तथा कोइ देशमां इंद्र नील वर्ण (रंग) नो कपास थाय छे, तेनां बनावेलां क्षोमिक - सामान्य रुनां बनावेल (पण किंमती) होय, तथा गौड देशमां बनेल उत्तम रुन बनावेल होय, पट्ट सूत्र नां बनावेल पट्ट वस्त्र, मलय देशना बनावेलां सूचनां मलय वस्त्र पन्नुन्न झाळनी छालना तंतुमांथी बनावेल, अंशुक तथा चिन अंशुक विगेरे जुदा जुदा देशमां बनेलां भारे किंमतनां वस्त्रो तथा आवां | बीजी जातनां पण जे भारे वस्त्रो होय ते आ लोक तथा परलोकना अपायो छे, माटे भारे किंमतनुं वस्त्र मळ होय तो पण आत्मार्थी साधुए लेवुं नहि. तथा ते साधुए अजिननां बनावेलां वस्त्रो लेवां नहि, जेमके 'उद्र' ते सिंधु (सिंध) देशमां एक जातनां माछलां थाय छे, तेना सुक्ष्म चामडाना वस्त्रो बनावेल होय, 'पेस' सिंधमांन एक जातनां पशु थाय छे तेना चामडामांथी बनावेल तथा पेसल तेनाज चामडांना पण सूक्ष्म रुवांथी बनावेल होय तथा काळां नीलां गौरां अनेक जातिनां मृगो होय छे, तेना चामडानां बनावेलां, तथा 'कनक' | ते वस्त्रमां सोनाना रसथी सुंदर कम होय तथा कन कांतिकनी जेवां सुंदर होय, कनक रस पट्ट कर्य होय तथा सोनानां रसथी स्तबक बनावी सुंदर बनाव्यां होय, तथा कनक स्पृष्ट विगेरे वस्त्रो पूर्वे यतां दृशे, (हालमां तेना तार बनावी जोडे वणे छे, ते जरीवाळा दुपट्टा विगेरे बने छे ) तथा वाघनां चामळांनां वस्त्र तथा वाघना चामळाथी विचित्र बनान्युं होय, तथा आभरण प्रधान [ दागीना माफक For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥१०२५॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org 15 तेमां मोती हीरा जड्या होय-गुंथ्या होय] तथा आभरण विचित्र गिरि विडक विगेरेथी विभूषित कर्या हाय, तथा तेवां बीजां भारे || चामडांथी बनावेल भारे किंमतनां सुंदर वस्त्रो मळतां होय तोपण लेवां नहि. हवे वस्त्र ग्रहणना अभिग्रहनी विशेष विधिने कहे छे. आचा० सूत्रम् इच्छेइयाई आयतणाई उवाइकम्म अह भिक्खू जाणिज्जा चउहि पडिमाहि वत्थं एसित्तए, तत्य खलु इमा पढमा पडिमा, ॥१०२६॥ से भि०२ उद्देसि वयं जाइज्जा, तं०-जंगियं वा जाव तूलकडं वा, तह० वत्थं सयं वा ण जाइज्जा, परो. फामुयं० ॥१०२६॥ पडि०, पढमां पडिमा १। अहावरा दुच्चा पडिमा-से मि० पेहाए वत्थं जाइज्जा, गाहावई वा० कम्मकरी वा से पुवामेव आलोइज्जा-आउसोत्ति वा २ दाहिसि मे इत्तो अन्नयरं वत्थं ?, तहष्प० वत्थं सयं वा० परो० फासुयं एस० लाभे० पडि०, दुच्चा पडिमा २। अहावरा तच्चा पडिमा-से भिक्खू वा० से नं तं पुण. अंतरिजं वा उत्तरिज्जं वा तहप्पगारं वत्थं सयं० पडि०, नचा पडिमा ३। अहावरा चउत्था पडिमा-से. उज्झियधम्मियं वत्थं जाइज्जा जं चऽन्ने बहवे समण वणीमगा नावकखंति तहप्प. उज्झिय वत्थ सयं परो० फासुयं जाव प०, चउत्थापडिमा ४ इञ्चेयाणं चउण्हं पडिमाणं जहा पिंडेसणाए । सिया णं एताए एसणाए एसमाणं परो वइज्जा-आउसंतो समणा ! इजाहि तुमं मासेण वा दसराएण वा पंचराएण वा सुते मुततरे वा तो ते वयं अन्नयरं वत्थं दाहामो, एयप्पगारं निग्धोसं सुच्चा नि० से पुच्चामेव आलोइज्जा-आउसोत्ति वा ! २ नो खलु मे कप्पइ एयप्पगारं संगारं पडिसुणित्तए, अभिकखसि मे दाङ इयाणिमेव दलयाहि, से णेवं वयंत परो वइज्जा-आउ० स०! अणुगच्छाहि ती ते वयं अन्न वत्थं दाहामो, से पुवामेव आलोइज्जा-आउसोत्ति ! वा २.नो खलु मे कप्पइ संगारवयणे पडिमुणित्तए०, से सेवं वयंत परो णेया वइज्जा-आउसोत्ति CRECIRC- AAAAAESARGAON CRACCI) For Private and Personal Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥१०२७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वा भणित्ति वा ! आहरेयं वत्थं समणस्स दाहामो, अवियाई वयं पच्छावि अप्पणो स्यहार पाणाई ४ समारंभ समुद्दिस्स जा चेहस्सामो, एयपगारं निग्घोसं सुच्चा निसम्म तहष्पगारं वत्थं अफासु जाव नो पडिगाहिज्जा ।। सिआ णं परो नेता वज्जा आउसोति ! वा २ आहार एवं वन्धं सिणाणे वा ४ आसित्ता वा प० समणस्स णं दाहामो एयप्पगारं निग्घोसं सुच्चा नि० से पुवामेव आउ० भ० ! मा एयं तुमं त्रत्थं सिणाणेण वा जाव पघंसाहि वा, अभि० एमेव दलयाहि, से सेवं वयंतस्स परो सिणाणेण वा पर्वसित्ता दलइज्जा, तहप्प वत्थं अफा० नो प० से णं परो नेता वइज्जा० भ० ! आहार एवं वत्थं सीओदगवियडेण वा २ उच्छोलेत्ता वा पोलेत्ता वा समणस्स णं दाहामो०, एय० निग्घोसं तदेव नवरं मा पयं तुमं वत्थं सीओदग० उसि० उच्छोलेहि वा पोलेहि वा, अभिकखसि, सेसं तहेव जाव नो पडिग:हिज्जा ।। से णं परो ने० आ० भ० ! आहरेयं वत्थं कंदाणि वा जाव हरियाणि वा विसोहित्ता समणस्तणं दाहामो. एय० निग्घोसं तहेव, नवरं मा एयाणि तुमं कंदाणि वा जाव विसोदेहि, नो खलु मे कप्पड़ एप्पगारे वत्थे पडिग्गाहितए, से सेवं वयं तस्स परो जाव विसोहित्ता दलइज्जा तहप्प वत्थं अफासूअं नो प० ॥ सिया से परो नेता वत्थं निसिरिज्जा, से पुब्बा० आ० भ० ! तुमं चेत्र णं संतियं वत्थं अंतोअंतेणं पडिले डिज्जिस्सामि केवली वूया आ०, वत्थं तेण बद्धे सिया कुंडले वा गुणे वा हिरण्णे वा सुवण्णे वा मणी वा जाव रयणावली वा पाणे वा नए वा हरिए वा, अह भिक्खू णं पु० जं पुथ्वामेव वत्थं अंतोअंतेण पडिलेहिज्जा । ( सू० १४६ ) हवे पछीनां कहेवातां आयतनोने उलंघीने साधु चार अभिग्रहवाळी प्रतिमाओने धारीने ते प्रमाणे बखोने शोधवानुं जाणे, For Private and Personal Use Only सूत्रम् ||१०२७॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharva Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१) उद्दिष्ट में पूर्व जे वस्त्र संकल्प्यु छे, ते याचिश, (२) प्रेक्षित-में पूर्वे जे देख्यु छे, तेज याचीश पण बीजूं नहीं. (३) अंतर परिभोग अथवा उत्तरीय परिभोगवडे शय्यातरे वसने पहेरीने वापरी नांख्या जेवू करी दीधुं होय ते लइश. (४) जे तद्दन फेंकी का / सूत्रम् देवा जेवू वस्त्र होय तेने याचिश. आ उपर बतावेलां चार सूत्रोनो समुदाय अर्थ छे. आ चारे प्रतिमाओनी बाकीनी विधि पिढेपणा ॥१०२८॥ हमाफक जाणवी. (स्थविरकल्पीने चारे कल्पे, जिन कल्पीने पाछळनी बेज कल्पे, पण ते बधा जिनेश्वरनी आज्ञामां होवाथी | ॥१०२८॥ व परस्पर निंदे नहि.) A (णं वाक्यनी शोभा माटे छे) हवे साधु वस्त्र शोधवा जतां कोइ गृहस्थ एम वायदो करे, के तमे मास, दस दिवस के पांच दिवस पछी आवशो, तो हुं आपीश. आयु कहे तो साधुए ते स्वीकारवु नहि, पण कहेवु के आप, होय तो हमणांज आपो, अमे। ६ वायदानुं स्वीकारता नथी. फरीथी गृहस्थ कहे के तो थोळीवार पछी आवजो हुँ आपीश, ते पण स्वीकार, नहि. कहेवू के भाइ! 8 आपq होय तो हमणां आपो, ते वखते मृहस्थ पोतानी बेन विगेरेने बोलावी कहे, के वस्त्र घरमा छे ते लाव, आपणे साधुने ते वस्त्र आपी दइए अने आपणा माटे पाणी विगेरेनो आरंभ करीने पछी आपणे बनावी लइशृं. आq वस्त्र 'पश्चात् कर्म' ना भयवाळू होवाथी मळतुं होय छतां पण लेवू नहि. तेज प्रमाणे गृहस्थ कहे, के आ वस्त्र स्नान करी सुगंधी द्रव्यवडे सुंदर बनावी आपीए, न ते सांभळीने साधुए ना पाडवी, छतां हस्थ हठ करीने सुगंधीवाळु बनावा जाय तो लेवु नहि. M एज प्रमाणे गृहस्थ पाणीथी धोइने आपवा कहे, तो एमने एम याचवू, पण ते हठ करे, तो ते ले, नहि. अथवा गृहस्थ 18| कहे के तेमां कंद बिगेरे छे, ते दूर करीने वस्त्र आपीए, ते वस्त्र मळे तो पण लेवू नहि. बळी ते गृहस्थ निर्दोष बस्त्र आपे, तो CRAC-CX For Private and Personal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥१०२९॥ www.kobatirth.org लेतां कहे के हुं ते वखने वधे जोइ लडं, पण तेनी समक्ष एक छेडाथी बीजा छेडा सुधी जोया बिना लेबुं नहि, कारण के जाया | विना लेतां केवळी प्रभु तेम दोष बतावे छे, कारण के तेमां कांइ पण कुंडळ, दोरो, चांदी, सोनुं, मणी, रत्नावळी विगेरे आभारण बांध्युं होय, अथवा सचित्त वस्तु, जंतु, वीज, भाजी होय तो दोष लागे, माटे साधुनी आ प्रतिज्ञा छे, के बस्त्र देखीने लें से भि० से जं० सअंडं० ससंताणं तदप्य० वत्थं अफा० नो प० ॥ से भि० से जं अप्पंडं जाव संताणगं अनलं अथिरं अधुवं अधारणिज्जं रोइज्जत न रुच्चाइ तह अफा० नो प० ॥ से भि० से जं अप्पंड जाव संताणगं अलं थिरं धुवं धारणिज्जं रोइज्जतं रुच्चाइ, तह० वत्थं फासू० पडि० ॥ से भि० नो नवए मे वत्थेत्तिकट्टु नो बहुदेसिएण सिणाणेण वा जाव पसिज्जा ।। से भि० नो नवए मे वत्थेत्तिक नो बहुदे० सीओदगवियढेण वा २ जाव पहोइज्जा ।। से भिक्खू वा २ दुगंधे मे वत्थत्ति नो बहु० सिणाणेण तहेब बहुसीओ० उस्सि० आलावओ ॥ ( सू० १४७ ) ते भिक्षु लेवाना वने नाना जंतुनां इंडावाळु समजे, अथवा करोळीयाना जाळावाळु समजे तो मळवा छतां पण ले नहि, कदाच इंडा विनानुं होय, पण घणुं हीन (नानुं) होय तो काम पुरतुं न थाय, माटे अनल कहेवाय ते लेवुं नहि. तथा अस्थिर (जीर्ण) होय, अथवा अध्रुव ते स्वल्पकाळ्नी अनुज्ञापना होय, तथा अप्रशस्त प्रदेशवाळु होय, अथवा खंजर विगेरे कलंकवाळं होय तो लेबुं नहि, तेज बतावे छे. चत्तारि देविया भागा, दो य भागा य माणुसा । आसुरा य दुवे भागा, मज्झे देवीमुत्तमो लाभो, माणुसे अ मज्झिमो । आसुरेस अ गेलन्नं मरणं For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वत्थस्स रक्खसो ॥ १ ॥ जाण रक्खसे ॥ २ ॥ सूत्रम् ॥१०२९॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० 119-3011 www.kobatirth.org चार देवता संबंधी भाग छे, अने वे भाग मनुष्य संबंधी छे, वे भाग असुर संबंधी छे, वखना मध्य भागमां राक्षसना भागो छे. (१) दैविक्रमां उत्तम लाभ हे, मनुष्यमां मध्यम है, आसुर भागमां मांदापणुं छे, अने राक्षस भागमां मृत्यु छे, एवं जाण - तेनी स्थापना आ प्रमाणे - लक्खण हीणों उवही, उवहणई नाणदंसण चरितं Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लक्षणथी हीन जे उपधि छे, ते ज्ञान, दर्शन अने चारित्रने हणे छे, तेथी हीन होय ते लेखूं नहि, तथा प्रशस्य मानवाळु होय, पण ते आपतां दाता [देनार] नुं मन नाराज थतुं होय, तो ते साधुने कल्पे नहि. आ प्रमाणे अनल अथिर अध्रुव अधारणीय ए चार पदोथी सोळ भागा थाय छे, तेमां प्रथमना पंदर अशुद्ध छे, पण चारे मांगे शुद्ध एवो सोळमो भांगोज काम लागे. माटे सूत्रमां अलं (समर्थ) स्थिर, ध्रुव धारणीय ए चार गुणवाळु वस्त्र मळे तो लेवं कहां ले. हवे ते भिक्षु एम जाणे के मारुं वस्त्र नधुं नथी, माटे थोडा घणा पाणीथी सुगंधी द्रव्यथी थोडं मसळीने के यथुं मसळाने सुगंधीवाळु बनावे, अथवा मारुं वस्त्र नवुं न होवाथी थोडा पाणीथी घोड़ लडं, एवं पण न करे. अर्थात् आ बने पाठो जिनकल्पीने आश्रयी है. के भिक्षुने कपडुं मेलना लीधे गंधातु होय तो पण ते मेल दूर करवा सुगंधी द्रव्यवडे के पाणीवडे धुवे नहि, पण | स्थविरकल्पीने एटलं विशेष छे के सुगंधीवाळु बनाववा माटे नहि, पण लोकोनी निंद दूर करवा तथा रोगादिना कारणो दूर करवा मासुक पाणी विगेरेथी मेल दूर करवा यतनाथ धुवे पण खरी. हवे धोयेलां कपडांने यतनाथी सुकाववानी विधि कहे छे. से भिक्खू वा० अभिकंखिज्ज वत्थं आयावित्तए वा प०, तहप्पगारं वत्थं नो अनंतरहियाए जाव पुढवीए संतणए आया For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥१०३०॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० ॥१०३१॥ ॥१०३१॥ विज्ज वा प०॥ से भि० अभि० वत्थं आ०प० त० वत्थं थूणंसि वा गिहेल्गसि वा उसुयालंसि वा कामजलंसि वा अन्नयरे तहप्पगारे अंतलिवखजाए दुबद्धे दुनिक्खित्ते अणिकंपे चलाचले नो आoनो प०॥ सेक्खू वा० अभि. आयावित्तए वा तह० वत्थं कुकियसि वा भित्तंसि वा सिलंसि वा लेउसि वा अन्नयरे वा तह० अंतलि. जाच नो आयाविज वा प० ।। से मि० वत्वं आया०प०प० तह० वत्थं संधंसि वा मं० मा० पासा० इ. अन्नयरे वा तह. अंतलि. नो आयाविज वा०प० । से० तमायाए एगंतमवक्कमिज्जा २ अहे झामथंडिल्लंसि वा जाव अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिल्लंसि पडिलेडिय २ पमज्जिय २ तओ सं० वत्थं आयविज वा पया०, एवं खलु. सया जइज्जासि (मू.१४८) चिबेमि ।। २-१-५-१ वत्थेसणस्स पढमो उद्देसो समत्तो ।। ते भिक्षु अव्यवहित जग्यामां वस्त्र न सुकवे, वळी सुकववा इच्छे, तो थांभा उपर. उंबरा उपर, ऊखळी उपर तथा स्नान पीठ (नावाहना ओटला) उपर न मुकवे, तथा कुक्यि भिंत, शिला, लेलु अथवा तेवा अधर स्थान उपर पडवाना भयथी सुकवे नहि, तथा स्कंध मांचो प्रासाद हवेलो अथवा तेवा बीजा कोई अधर भागा पडवाना भयथी मुकावे नहि, पण जो सुकाववानी खास 8 जरुर हो तो, एकांतमा जइने अचित्त जग्या जोइने ओयाथी पुंजीने आतापना विगेरे करे, आज भिक्षुनी सर्व सामग्री छे. ( आमां 8 कपडा सुकववान स्थान अचित्त जग्या बतावी, तथा अधर लटकता राखवानी ना पाडी, तथा जमीन पर पडतां यतना न रहे, माटे जग्या पुंजीने एकांता मुकवां वधारे सारं छे.) __ पहेलो उद्देशो कहीने बीजो कहे छे, तेनो प्रमाणे संबंध छे. गया उद्देशामां वस्त्र लेवानी विधि बतावी, अने आ उद्देशामां For Private and Personal Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandir २८.२२% Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobirth.org पहेरवानी विधि कहे छे, आ संबंधे आवेला उद्देशानु आ प्रथम मूत्र छे, से भिक्खू वा० अहेसणिजाई वत्थाई जाइज्जा अहापरिग्गहियाई वत्थाई धारिज्जा नो धोइजा नो रएज्जा नो धोयर ताई आचा० है सूत्रमू वत्थाई धारिजा अपलि उंचमाणो गामंतरेसु० ओमचेलिए, एवं खलु वत्थधारिस्स सामग्गियं ।। से भि० गाहावइकुलं ॥१०३२॥ पविसिउकामे सव्वं चीवरमायाए गाहावइकुलं निक्खमिज्ज वा पविसिज्ज वा, एवं बहिय विहारभूमि वा वियारभूमि वा ॥१०३२॥ गामणुगाम वा दृइज्जिाज्जा, अह पु० तिव्वदेसियं वा वासं वासमाणं पेहाए जहा पिंडेसणाए नवरं सब्वं चीवरमायाए॥ ते साधु साधुपणाने योग्य कपड़ा याचे अने जेवां लीधां होय तेवांज पहेरे. पण तेमां कंड पण शोभा करे नहि. ते कहे छे. लीधेला वस्त्रने धुए नहि, रंगे नहि तथा वकुशपणुं धारण करोने धोइने रंगेला कपडा काइ आपे तो पण लेइने पहेरे नहि तथा तेवां 18 साधुने योग्य कपडां पहेरीने बीजे गाम जतां वस्त्रोने छुपाच्या विना मुखथीज विहार करे, कारण के प्राये आ असार वस्त्रनो धारण करनारो छे, आज साधुनुं संपूर्ण साधुपणुं छे, के आवां सादां कल्पनीय वस्त्र पहेरवा. बळी ते भिक्षु गोचरी जाय तो वस्त्रो वां साथे लेइ जाय तेज प्रमाणे स्थंडिल जाय अथवा अभ्यास करवा बहार जाय तो| 8. पण लेइने जाय, पण एटलं ध्यान राखवू के पिंडएपणामां कह्या मुजब वरसाद के धुमस वरसतां होय तो जिनकल्पी बहार न जाय अने स्थविरकल्पी जोइए तेटलांज वख बहार लइ जाय, (आ मूत्रो जिनकल्पी आश्रयी छे, तेम वस्त्रधारीनुं विशेषण होवाथी | स्थविरकल्पीने पण लागु पडे, तो तेमां विरुद्ध नथी, पिंडैपणामां उपधिने लेइ जवानुं का. आ मूत्रमा वस्त्रोने आश्रयी कयुं छे, ACCOR ) For Private and Personal Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥१०३३॥ हवे वापरवा लीधेलुं वस्त्र बगळतां शुं करवू ते कहे छे. आचा से एगइओ मुहुराग २ पाहिहारिय वत्थं जाइज्जा जाव एगाहेण वा दु.ति. चउ० पंचाहेण वा विष्पवसिय २ उवाग च्छिज्जा, नो तह वत्य अप्पणो गिहिज्जा नो अन्नमन्नस्स दिज्जा, नो पामिञ्चं कुज्जा, नो वत्थेण नत्थपरिणाम करिज्जा, ॥१०३३॥ नो परं उबसंकमिना एवं वइज्जा-आउ० समणा ! अभिकंखसि वत्थं धारिचए वा परिहरितए वा ?, थिरं वा संतं नो पलिच्छिदिय २ परदृविज्जा, तहप्पगारं नत्थं ससंधियं वत्थं तस्स चेव निसिरिज्जा नो णं साइजिज्जा ।। से पगइओ एयप्पगारं निग्योसं मुच्चा नि० जे भयंतारो तहप्पगाराणि वत्थाणि ससंधियाणि मुहुत्तरी २ जाव एगाहेण वा०५विप्पवसिय २ उबागच्छंति, तह. वत्याणि नो अप्पणा गिण्हति नो अन्नमनस्स दलयंति तं चेव जाव नो साइज्जति, बहुवयणेण वा भाणियचं, से हंता अहमवि मुहुत्तंग पाडिहारियं वत्थं जाइचा जाब एगाहेण वा ५ विप्पवसिय २ उबागच्छिस्सामि, अबियाई एयं ममेव सिया, माइट्टाणं संफासे नो एवं करिज्जा ॥ (मू० १५०) कोइ साधु बीजा साधु पासे वे घडी वापरवा माटे वस्त्र मागेतो अने मागीने कारण प्रसंगे बीजे गाम विगेरे स्थळे गयो त्यां है एकथी पांच दिवस सुधी रह्यो अने त्यां एकलो होवाथी मुवामां ते वख बगडी गयु, पाछळथी ते वस्त्र लावीने जेर्नु हतुं तेने P तेवू वस्त्र पार्छ आपे, तो तेना पूर्वना स्वामीए लेवु नहि, लइने बीजाने पण आपq नहि, तेम कोइने उछीनु पण आप, नहि, के 18| तु आ हमणां ले अने थोडा दिवस पछी बीजं मने पाछु आपजे. तथा ते वस्त्रनो ते समये पण बदलो न करे, तेम बीजा साधु पासे जइने आळ बोलवू पण नहि-के हे आयुष्यमन् ! श्रमण ! तुं आवा वखने पहेरवा के बापरवा इच्छे ले के ? पण ते वस्त्र जो कोइ For Private and Personal use only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharva Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्रम् नारा॥१०३४॥ बीजो साधु कारण प्रसंगे एकलो जवा इच्छतो होय तो तेने ते वस्त्र आपq, कदाच ते वस्त्र जो जीर्ण थइ गयेलं होय, तो तेना भाचा झीणा झीणा टुकळा करीने परठवी देवु, पण फाटेला वखने तेनो पूर्वनो स्वामी पहेरे नहि, पण ते वगाळनार साधुनेज पार्छ आपी देवू अथवा कोइ एकलो जतो होय तो तेने आपी देवू, आ प्रमाणे घणां वस्त्र आश्रयी (बहुवचनमां पण) जाणी लेवू. ॥१०३४॥ वळी ते साधुने आवीरीते बस्त्र पार्छ मळतु जोइ बीजो साधु तेवो लालचथी उपरनो विषय समजीने ९ पण बीजार्नु वस्त्र | मुहूर्त माटे याचीने पांच दिवस सुधी बहार जइ वापरी आवीने बगाडी आईं के ते वस्त्र पछी मारुंज थइ जाय ! आ कपट छे, दमाटे साधुए तेवू न करवु. से मि० नो वण्णमंताई वत्थाई विवष्णाई करिज्जा विषण्णाईन वण्णमंताई करिज्जा, अन्न वा वत्थं लभिस्सामितिक? नो अन्नम अस्स दिज्जा, नो पामिर्च कुज्जा नो वत्षेण वत्थपरिणामं कुज्जा, नो परं उवसंकमितु एवं वदेजा-आउसो० समभिकखसि मे वत्यं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ?, थिरं वा संतं नो पलिच्छिदिय २ परिविज्जा, जहा मेयं वत्थं पावगं परो मन्त्रइ, परं च णं अदत्तहारी पडिपहे पेहाए तस्स वस्थस्स नियाणाय नो तेर्सि भीओ उम्मग्गेणं गच्छिज्जा, जान अपुस्मुए, तो संजियामेव गामाणुगाम दुइज्जिज्जा ।। से भिक्खू बा० गामणुगा दुइज्जमाणे अंतरा से विहं सिया, से जं पुण विहं जाणिज्जा इमंसि खलु विहंसि बहवे अमोसगा वत्थपडिवाए सपिडिया गच्छेज्जा, णो तेसि भीओ उम्मग्गेणं गच्छेज्जा जाव गामा० दुइज्जेज्जा ।। से भि० दुइज्जमाणे अंतरा से आमोसगा पडियागच्छेज्जा, ते णं आमोसगा एवं वदेज्जा-आउस ! अहारेयं वयं देहि णिक्खिवाहि जहा रियाए णाणत्तं वत्थपडियाए, एय खलु० सया नइज्जासि For Private and Personal Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥१०३५॥ 1-% www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( सू० १५१ ) तिबेमि वत्थेसणा समत्ता ॥ २-१-१-२ भिक्षु रंगाळ व कारण विशेषथी लीघां होय, तो चोर विगेरेना भयथी रंग विनानां न बनावे, उत्सर्गथी तो एज अधिकार छेके व त्र लेवांज नहि अने लीधां होय तो तेने रंग उतरवाप्रयत्न न करवो, अथवा वर्ण ( खराब रंगनां) होय तो सारा रंगवाळां बनाववां नहि. अथवा आ सादा बने बदले सारुं मेळवीश, एवी इच्छाथी बीजाने आपी देतुं नहि, तेम प्रामित्य करतुं नहि, तथा वस्त्रथी वस्त्र परिणाम कर नहि, तेम बीजा पासे जइने एवं बोलं नहि, के हे आयुष्यमन् ! आ मारुं वस्त्र ओढवा परवाने तुं इच्छे छे ? अथवा सारुं होय तो टुकडा करीने फेंको देवु नहि, के जेथी मारुं वस्त्र बीजो गृहस्थ एम जाणे के ए खराब हतुं ( माटे फंकी दीधुं छे) वळी मार्गमां चोरना भयथी वस्त्रना रक्षण माटे उन्मार्गे डरीने न जाय तथा दोडवानी उत्सुकता राखवा विना इर्यासमिति पाळतो जाय अने गाम गाम विहार करे. वळी रस्तामां जतां उज्जड मेदान जाणे, ज्यां वस्त्र लुंटनारा बहु चोरो वसता होय, तो तेमना डरथी पण उन्मार्गे न जाय, पण यतनाथी विहार करे, कदाच ते रस्ते जतां चोरो आवे अने वस्त्र मागे, अथवा लुंटी ले, तो शांतिथी उपदेश आपत्रो. न माने तो बाजुए परठवी देवु अने फरी उपदेश देतां आपे तो लेवं, पण कोइने कहेतुं नहि, तेम चोरने पकडववा नहि, बगेरे वधुं पूर्व माफक जाण बुं पांच अध्ययन समाप्त थयुं. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥१०३५॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा सूत्रम् ॥१०३६॥ ॥१०३६॥ पात्राएषणा नामर्नु छटुं अध्ययन. पांचमुं कहीने हवे छठे अध्ययन कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे. प्रथम अध्ययनमां पिंडविधि बतावी, ते आगममां कडेल विधिए वसतिमां आवीने वापरवं, माटे बीजामां बसतिनी विधि बतावी, ते शोधवा माटे त्रीजामा इर्यासमिति कही, पिंडैषणामां नीकळेलाए केवी भाषा वापरवी, तेथी भाषामिति कही, अने ते पडेला विना पिंड न लेबाय माटे पांचमामां वखएषणा कही, ते | पिंडने पात्र विना लेवाय नहि, माटे आ संबंधवडे पात्र एषणा अध्ययन आव्यु, एना चार अनुयोगद्वारा थाय छेतेमां नाम निष्पन्न निक्षेपामां पात्रएषणा अध्ययन छे, एनो निक्षेपो अर्थाधिकार एना पूर्वना अध्ययनमांज टुंकाणमां बताववा माटे नियुक्तिकारे कहेलो छे, मूत्रानुगममां अस्खलितादि गुणयुक्त मूत्र उच्चारQ जोइए ते आ छे. से भिक्खू वा अभिकंखिज्जा पायं एसित्तए, से जं पुण पादं जाणिज्जा, तजहा-अलाउयपायं वा दारुपायं वा मट्टियापायं वा, तहप्पगारं पायं जे निग्गंथे तरुणे जाव थिरसंघयणे से एगं पायं धारिज्जा नो विइयं ।। से मि० परं अद्धजोयणमेराए पायपडियाए नो अभिसंधारिज्जा गमणाए । से भि० से जं अस्सि पडियाए एगं साहम्मियं समुहिस्स पाणाई ४ जहा पिंडेषणाए चत्वारि आलावगा, पंचमे बहवे समण पगणिय २ तहेव ॥ से भिक्खू वा० अस्संजए भिक्खुपडियाए बहवे सपणमाहणे० वत्थेसणाऽऽलावओ ॥ से भिक्खू वा० से जाइं पुण पाया जाणिज्जा विरुवरुवाई महद्धणमुल्लाई, तं०अयपा याणि वा तउपाया० तंबसाया० सीसगपा०हिण्णपा० सुवण्णपा० रीरिअपाया० हारपुडपा० मणिकायकंसपाया० CASSOCIRCANCH A R For Private and Personal Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥१०३७॥ www.kobatirth.org संखसिंगपा० दंतपा० चेलपा. सेलपा० चम्मपा० अन्नयराई वा तह० विरुवरुबाई महद्धणमुल्लाई पायाई अफासुयाई नो० ॥ सेमि० से जाई पुण पाया विरूव० महद्धणबंधणाई, तं० - अयबंधणाणि वा जाव चम्मबंधणाणि वा, अन्नयराई तहप्प० महद्धणबंधणाई अफा० नो प० ॥ इच्चेयाई आयतणाई उवाइ कम्म अह भिक्खू जाणिज्जा चउहिं पडिमाहि पायं एसित्तए तत्थ खलु इमा पढमा पडिमा से भिक्खू० उद्दिसिय २ पायं जाइज्जाः तंजहा - अलाउयपायं वा ३ तह ० पायं सयं वा णं जाइज्जा जाव पडि० पदमा पडिमा १ । अहावरा० से० पेहाए पायं जाइज्जा, तं०--गाडावई वा कम्मi am से पुवामेव अलोइज्जा, आउ० भ० ! दाहिसि मे इतो अन्नयरं पादं तं०-लाउपायं वा ३, तह० पायं सयं वा पडि०, दुच्चा पडिमा २ । अहा से भि० से जं पुण पाये जाणिज्जा संगइयं वा वेजइयंतियं वा तहप्प० पायं सयं वा जाव पडि०, तथा पडिमा ३ । अहावरा चउत्था पडिमा से भि० उज्झियधम्मियं जाएजा जावने बहवे समणा जाव नावखति तह जाएज्जा जाव पडि०, चउत्था पडिमा ४ । इच्चेइयाणं चउन्हं परिमाणं अन्नयरं पडिमं जहा पिंडेस ए से णं एयाए एसणाए एसमाणं पामित्ता परो बइज्जा, आउ० स० ! एज्जासि तुमं मासेण वा जहा वत्थेसणाए से णं परो नेता व० -आ० भ० ! आहारेयं पायें तिल्लेण वा० घ० नव० बसाए वा अन्यंगित्ता वा तहेव सीओदगाई कंदाई तहेव ॥ से णं परो ने०-आउ० स० ! मुहुत्तगं २ जाव अच्छाहि ताव अम्हे असणं वा उवकरेसु वा उबक्खडेसु बा, तो ते वयं आउसो० ! सपाणं सभायणं पडिग्गई दाहामो तुच्छए पडिग्गहे दिने समणस्स नो मुटु साहु भवइ, से पुण्यामेव आलोइज्जा आउ० भइ० ! नो खलु मे कप्पर आहाकम्मिए असणे वा ४ श्रुत्तए बा०, मा उबकरेहि मा For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥१०३७॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० www.kobatirth.org उखडेह, अभिकखसि मे दार्ज एमेव दलयाहि, से सेवं वयंतस्स परो असणं वा ४ उवकरिता उवक्खडिता सपाणं सभोयणं पडिग्गहगं दलइज्जा तह० पडिग्गहगं अफामुय जाव नो पडिगाहिज्जा | सिया से परो उवणिक्षा पडिग्गहगं निसिरिज्जा, से पुवामे० आउ० भ० ! तुमं चेत्र णं संतियं पडिग्गहगं अंतोअंतेणं पडिले हिस्सामि, केवली० आयाण० अंतो पडिग्गहसि पाणाणि वा बीया० हरि०, अह भिक्खूणं पु० जं पुत्रामेव पडिग्गहगं अंतोअंतेगं पडि० सअंडाई स आलावा माणियव्या जहा वत्थेसणाए, नाणनं तिल्लेण वा घ० नव० बसाए वा मिणाणादि जाव अनयरंसि वा पगा० थंडिलसि पडिलेहिय २ पम० २ ० संजर आमज्जिज्जा, एवं खलु० सया एज्जा (मू० १५२ ) तिमि ।। २-१-६-१ ते भिक्षु पात्र शोधवानी इच्छा करे, तो आ प्रमाणे प्रथम जाणे, के आ प्रमाणे पात्रां छे, तुंबडानां पात्र छे, लाकडाना पात्र छे, माटीनां पात्र छे, आमांथी कोइपण जातिनां पात्रां ( मुख्यत्वे लाकडानां ) होय, तो तरुण अने स्थिर संघयवाळ बळवान साधु होय तो एक पात्र धारण करे, पण वे नहि, आ जिनकल्पी विगेरेने माटे छे, पण स्थविरकल्पी जुवान विगेरे शक्तिवान होय तोपण मात्र क सहित बीजुं पात्रं धारण करे, तेमां संवाळामां रहेला साधुने एकमां आहार अने बीजामां पाणी लेवा काम लागे, अथवा आचार्य विगेरे माटे अशुद्ध वस्तु ( मात्र विगेरे ) लेवा काम लागे. पोताना रहेबाना स्थानथी जरूर पडतां थे गाउ सुधो पात्रां लेवा माय, पण वधारे नहि हवे ते गृहस्थ एक साधु बगी साध्वी एक साधु एक साध्वी, घणा साधु एक साध्वी, घणा साधु घणी साध्वीने उद्देशीने आरंभ करीने जो पात्रां तैगर कर्या होय ते साधु साध्वीने सदोष होवाथी न कल्पे, पण जो श्रमण, माहण, ।। १०३८ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only सूत्रम् ।। १०३८।। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा FACC- सूत्रम् ॥१०३९॥ गामना भिखारी निगेरेने उद्देशीने बनावेलां होय तो पुरुषांतर थया पछी कल्पे, आ वधुं विंडेषणामां बताव्या प्रमाणे जाणी लेवू, वळी ते भिक्षु एवी जातिनां जुदाजुदा गनां भारे मूल्यनां पात्रा जागे ते न ले, ते बतावे छे. लोढानां तथा तृपु ( कलाइना जेबी धातु ) नां पात्रां, तांबाना पातरां, सीसानां, हिरण्य (चांदी) नां, सोनानां पातरां रीरिय ॥१०३९॥ हारपुड (बीजी जातिना लोढां ) नां, मणिरत्ननां जडेलां के कांसानां पातरां मखसिंग हाथीदांत चेल सेल चामडानां तेवां बीजां | कोइ पण जातिनां भारे मूल्यनां पातरां शोभीतां होय तो ते अपामुक जाणीने लेबां नहि. तेज प्रमाणे पातरानां बंधन उपर बताव्या प्रमाणे भारे मूल्यनां लोढाथी ने चामडा सुधीनां होय ते न लेवां, (प्रामुक होय छतां पण भारे मूल्यनां होवाथी ममत्व थाय, | तथा चोरवाना कारणे असमाधि थाय, माटे साधुने तेवां पात्र तथा पात्र बंधननी मना छे.) आ प्रमाणे पापस्थान निवारीने चार प्रतिमाओथी पात्रां शोधे. (१) अमुक पात्रुज तुंबानु, लाकडानुं के माटीनुं लइश, (२) देखेढुंज पातरं याचीश (३) सगतिक ते पोते ते पात्राने वापरयु होय तथा वेज्जयंतियं-ते थे त्रण पात्रामा पर्यायवडे वापर्यु होय तेवू याचे (४) कोइ पण तेने न चाहे, तेवू पोते ले. आ प्रमाणे चार प्रतिज्ञामांनी कोइ पण प्रतिज्ञाए साधु पातरां शोधवा जाय त्यारे गृहस्थ कहे के हे साधु ! तमे पातरां लेवा | एकमास पछी आवजो, पातरां तमने आपीश त्यारे साधुए कहेवू के तेनु मुदत करेलां पात्रां न कल्पे, त्यारे वस्त्र एषणामां बता व्या प्रमाणे ओछी मुदतनो वायदो करे, त्यारे पण तेज उत्तर आपत्रो, ते बे घडीनी मुदत सुधीनो पण वायो न स्वीकारची, 18 त्यारे कहे, के आपणे आपणा माटे नवां बनावी . तैयार तेमने आपी दो, भा, धणी पोते पोताना घरना माणसोने-वेन दीकरीने CAR For Private and Personal Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra M www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० ॥१०४०॥ कहे त्यारे पण साधुए ना पाडवी. बळी ग्रहस्थ पातानी बेन विगेरेने कहे के कोरुं पातरूं न आप. पण ते पात्राने तेल घी माखण छासबढे घसीने आप, तथा त र पाणीथी धोइने अथवा काचु पणी के कंद विगेरे खाली करीने आप, अथवा कहे के हे साधु ! तमे वे घडी पछी फरीने आवो, तो | अमे अशनपान खादिम स्वादिम तैयार करीए छीए, अथवा संस्कारवाळु बनावीए छीए, तेथी हे आयुष्मन् ! हे साधु ! तमने ॥१०४०॥ | भोजन पाणी सहित पातरां आपीशू, एकला खाली पात्रां साधुने आपवाथी शोभा न वधे. आ सांभळीने साधुए कहे, के हे भव्या-18 | मन ! अमने अमारा माटे बनावेलुं के वधारे रांधेलं भोजन पाणी खावा पीवाने काम लागतुं नथी, माटे तैयार न करो, न संस्कार | रवाळ बनावो, जो पात्रां आपवानी इच्छा होय, तो एमने एमज आपो. __आq कहेवा छतां गृहस्थ हठ करी साधु माटे रांधीने के संस्कारी बनावीने पात्रां भरी आपवा मांडे तो अप्रामुक जाणीने 81 4 साधुए लेवां नहि, कदाच एमने एम पात्रां बहार लावीने मुके, तो तेने कहेQ के हे गृहस्थ ! हुं तमारा देखतांज आ पात्रां देखी हैं| लडं के तेनी अंदर नानां जंतुओ के बीज के वनस्पति होय तो केवळो प्रभु तेमा दोष बतावे छे, माटे साधुए प्रथम जोइ लेवां, अने जंतु विगेरेथी संयुक्त होय तो ते जीवो दूर करी शकाय तेम न होय तो अमासुक जाणीने पात्रां लेबां नहि, पण जो तेवां 3 जंतु विगेरे न होय तो लेवां, (ते बधुं वस्त्रएषणा माफक जाणी लेईं) आमां विशेष एटलुं छे के तेल घो नवनीत के वसा (छाश) थी धोइने ते चीकटवालं पात्रांनुं धोवण कोइ अचीच जग्या जोइने पडिलेही प्रमार्जीने परठवे. आज साधुनी साधुता छ के जयणाथी दरेक कार्य करे. For Private and Personal Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥१०४१॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बीजो उद्देशो. पहला उद्देशा साथै आनो संबंध आ छे, के गया सूत्रमां पात्रांतुं जो बतायुं, अने अहीं पण तेनुंज बाकीनुं बनावे छे, आ संबंधे आवेला उद्देशानुं आ पहेलुं सूत्र छे. से भिक्खू वा २ गाहावइकुलं पिंड पविट्टे समाणे पुब्वामेत्र पेहाए पडिग्गहगं अव पाणे पमज्जिय स्यं तओ सं० गाहावई० पिंड० निक्ख० प० प०, केवली०, आउ० ! अंतो पडिग्गहगंसि पाणे वा बीए वा हरि० परियात्रज्जिज्जा, अह भिक्खूणं पु० जं पुन्त्रामेव पेढाए पडिग्गहं अवहट्ट पाणे पमज्जिय रयं तभ सं० गाहावइ० निक्खमिज्ज वा २ ॥ ते भिक्षु गृहस्थना घरमा गोवरी लेवां जतां पहेलां बरोबर रीते पात्रां तपासे, अने गोचरी लेता पहेला पण तपासे, अने कीडी विगेरे प्राणी चडेलुं जोए तो तेने संभाळीने बाजुए मुके, तथा रज पूंजीने साधु गृहस्थना घरमा पेसे, अथवा नीकळे, तेथी | आपणा पात्रांनीज विधि छे, कारण के अहीं पण प्रथम पात्रां बरावर तपासीने पूंजीने पिंड लेवो, तेथी ते पण पात्रां संबंधीज | विचार छे, म० पात्रां शामाटे पूंजीने गोचरी लेवी ? उ-केवळी प्रभु पात्रां पूंज्या विना गोचरी लेतां कर्मबंध बतावे छे ते आ प्रमाणे छे. पात्रामा बेइंद्रिय विगेरे जीवो चडी जाय ले, अथवा बीजो अथवा रज होय तेवां पात्रामां गोचरी लेतां कर्मनुं उपादान थाय छे, माटेज साधुओने आ प्रतिज्ञा विगेरे पूर्व बतावेल ले के, प्रथम पात्रां देखीने जीव जंतु के रज होय तो दूर करीने गृहस्थना For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥१०४१॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० सूत्रमू ॥१०४२॥ ॥१०४२॥ SECRENCREASO4RECCEECHESHRESS घरमा जर्बु आवq. वळी से भि. जाव समणे सिया से परो आह? अंतो पडिग्गहगंसि सीओदगं परिभाइत्ता नीही दलहज्जा, तहप्प० पडिग्गहगं परहत्थंसि वा परिपायंसि वा अफासुयं जाव नो प०, से य आहच पडिग्गहिए सिया खिप्पामेव उदगंसि साहरिज्जा, से पडिग्गहमायाए पाणं परिहविजा, ससिणिद्धाए वा भूमीए नियमिज्जा ॥ से० उदउल्लं वा ससिणिद्धं वा पडिग्गहं नो आमज्जिज्ज वा २अह पु० विगओदए मे पडिग्गहए छिन्नसिणेहे तह. पडिग्गहं तओ० सं० आमज्जिज्ज वा जाव पायाविज वा से मि० गाहा. पविसिउकामे पडिग्गहमायाए गाहा०पिंड० परिसिज्ज वा नि० एवं बहिया विहाभूरमी वा गामा० दुइजिज्जा, तिव्वदेसीयाए जहा बिइयाए वत्थेसणाए नवरं इत्थ पडिग्गहे, एयं एल तस्स० नं सबहिं सहिए सया जएजासि (मू० १५४ ) त्तिबेमि ।। पाएसणा सम्मत्ता ॥२-१-६-२। 'ज्यारे ते भिक्षु गृहस्थना घरमा गोचरी पाणी माटे गयेलो होय, ते समये पाणी याचतां कदाच ते गृहस्थ भूलथी अथवा द्वेष बुद्धिथी अथवा भक्तिना कारणे अथवा विमर्ष पाणाथी घरमां रहीने बीजा पात्रांमां के पोताना वासणा थंडं पाणी जुदं लइने बहार काढीने वहोरावे, ते समये तेवू काचं पाणी पारका (गृहस्थ) ना हाथमां के वासणमां जाणे तो अप्रामुक जाणीने न ले, पण कदाच भूलथी के ओचीतु गृहस्थे नांखी दी, होय तो तेज समये पाणी आपनार गृहस्थना वासणमांज पार्छ नांखी देवं, पण कदाच ते न ले तो, कुवा विगेरेमा ज्यां ते जातीनुं पाणी होय त्यां परठवचानी विधिए परठववू, पण तेवा पाणीनो अभाव होय अथवा दूर होय तो ज्यां छाया होय के खाडो होय त्यां परठवषु अथवा जो चीजो घडो होय, तो ते घडो के पाणी वासण कोइने For Private and Personal Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥१०४३॥ 5. ज्यां बाधा न थाय त्यां ते घडो पाणी मुधांज मुकी दे, पण पाणी पाई आप्या पछी के खाली कर्या पछी तेने जलदी सुकाववा आचा० लूसवो नहि, पण पाणी नीतर्या पछी थोडो मुकातां तडके मुकत्रो के लंछी नांखवो. ॥१०४३॥ वळी गृहस्थना घरमां गोचरी पाणी लेवा जतां पोतानां बीजां पात्रां साथे लइ जा, तेज प्रमाणे परगाम विहार करतां भणवा | | जतां स्थंडिल जतां पोतानां पात्रां साथे लइ जवां ए बधुं वस्त्र एसणा माफक जाणवू, पण फक्त अहीं पात्रां संबंधी जाणवू. विशेष ए ध्यानमा राख, के वरसाद के झाकळ पडतुं होय तो पात्रां साथे न जq. आज साधुनी सर्व सामग्री छे के हमेशा | यतनाथी वर्तवू. इति पात्र पपणा. छटुं अध्ययन समाप्त थयु. CAKAC%8CARE R-ACC सातमुं अध्ययन अवग्रह प्रतिमा. छटुं अध्ययन कहीने सातमु कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे, पिंड शय्या वस्ख पात्र विगेरेनी एषणाओ अवग्रहने आश्रयी थाय छे, तेथी आवा संबंधे आवेला आ अध्ययनना चार अनुयोग द्वारा कहेवा जोइये, तेमा उपक्रमनी अंदर रहेल अधिकार आ छे, के साधुए आ प्रमाणे विशुद्ध अवग्रह लेबो, नामनिष्पन्न नियेपामां 'अवग्रह प्रतिमा' एवं नाम छे, तेमां अवग्रहना नाम स्थापना निक्षेपा सुगम होबाथी छोडीने द्रव्य विगेरे चार प्रकारनो निक्षेपो नियुक्तिकार बतावे हे. For Private and Personal use only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ १०४४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दवे खित्ते काले भावेऽवि य उग्गहो चउद्धा उ । देविंद १ रायउग्गह २ गिडबड़ ३ सागरिय ४ साहम्मी ।। ३१६ ।। द्रव्य अवग्रह क्षेत्र अवग्रह काळ अवग्रह अने भाव अवग्रह एम चार प्रकारनो अवग्रह है. अवग्रहनुं वर्णन. अथवा सामान्यथी पांच मकारनो अवग्रह ले. (१) देवेंद्रो अवग्रह - ते लोकना मध्य भागमां रहेल मेरु पर्वतना रुचक प्रदेशथी दक्षिणना अर्ध भागमा रहेल जग्यानो. (२) राजा - ते चक्रवर्त्ती महाराजा के बादशाहनो भरत विगेरे क्षेत्र आश्रयी जे जग्या तेना वंशमां होय तेमां साधु विचरे ते. (३) गृहपति - ते गामडामा रहेनार महत्तर (पटेल) विगेरेनी पासे गामना महेल्ला विगेरेनो अवग्रह. (४) शय्यातर (घरघणी) नो तेनी खाली पडेली घघशाळा विगेरेमां ज्यां साधु उतरे छे, ते (५) साधर्मिक ते साधुओ जेओ मास कल्पवडे त्यां रह्या होय तेओनी पासे तेमनी मागेली जग्यामां उतरवुं ते वसति विगेरेना अवग्रह १। जोजन छे, ( बने दिशामां २॥ - २॥ गाउ जतां ) चारे दिशामां जाय, आ प्रमाणे पांच प्रकारनो अवग्रह वसति विगेरे लेतां यथावसरे अनुज्ञा लेवा योग्य छ. हवे प्रथम बतावेल द्रव्यादि अवग्रह बतावत्रा कहे ले दग्गहो उ तिविहो सचित्ताचित्तमीस ओ चैव । खित्तु गोऽवि तिविडो दुविहो कालुग्गहो होइ ॥ ३१७ ।। द्रव्यनो अवग्रह ऋण प्रकारनो छे. शिष्य विगेरेनो सचित्त छे, रजोहरण विगेरेनो अचित्त अने शिष्य रजोहरण विगेरे साथे स्वीकारतां मिश्र अवग्रह छे, क्षेत्र अवग्रह पण सचित्त विगेरे त्रण प्रकारनोज छे, अथवा गाम नगर अरण्य भेदथी ऋण प्रकारनो छे, For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥१०४४॥ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥१०४५॥ काल अवग्रह तुबद्ध (आठमास) तथा वर्षाकाळ (चारमास) नो अपग्रह एम चे भेदे रहेआचा० हवे भाव अवाह बतावे हेमइउग्गहो य गहणुग्गहो य भावुग्गहो दुहा होइ । इंदिय नोइंदिय अत्यवंजणे उग्गहो दसहा ॥ ३१८ ॥ ॥१०४५॥ भाव अवग्रह ये प्रकारनो छे, मति अवग्रह अने ग्रहण अवग्रह हे, तेमां मति अवग्रह पण बे पकारनो छे, अर्थावग्रह अने व्यंजन अवग्रह छे, तेमां अर्थावग्रह इंद्रिय तथा नोइंद्रिय (मन) ना भेदथी छ प्रकारनो छे, अने व्यंजन अवग्रह चक्षु इंद्रिय अने मन छोडीने बाकी चार इंद्रियोनो अवग्रह छे, ते वधाए भेदवाळो दस प्रकारनो मतिभाव अपग्रह ( मतिवडे पदार्थोनो जे समान्य बोध 18/ समजाय ते ) छे, हवे ग्रहण अवग्रह बतावे छे - गहणुग्गहम्मि अपरिग्गहस्स समणस्स गहणपरिणामी । कह पाडिहारियाऽपाडिहारिए होइ ? जइयध्वं ।। ३१९ ॥ अपरिग्रहवाळो ते मुनि छे, तेने ज्यारे पिंड [गोचरी वसति [स्थान] वस्त्र पातरां लेबानो विचार थाय, त्यारे ते ग्रहण भाव अवग्रह छे. ते वखते साधुने एवी बुद्धि होवी जोइए के केवी रीते ते वसति विगेरे मने शुद्ध मळी शके ? तथा प्रातिहारिक & पार्छ अपाय ते पाट पाटला विगेरे अप्रतिहारक (पार्छ न अपाय ते गोचरी विगेरे) मने शुद्ध मळे तेमां यत्न करवो, अने प्रथम पांच प्रकारनो इंद्र विगेरेनो अवग्रह बताव्यो ते आ ग्रहण अवग्रहमां समजवो. आ प्रमाणे नाम निष्पन्न निक्षेपो थयो, हवे मूत्रानुगममा मूत्र कहे हे समणे भविस्सामि अणगारे अकिंचणे अपुत्ते ! अपम् परदत्तभोई पावं कम्मं नो करिस्सामित्ति समुट्ठाए सव्वं भंते ! SCSCRICRO RICROSSSC-SACROCARE - - - - For Private and Personal Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie M अदिनादाण पथक्खामि, से अणुपविसित्ता गाम वा जाव रायहागि वा नेव सयं अदिनं गिहिज्जा नेवऽहं अदिग्ध आचा गिण्डाविजा अदिनं गिण्हतेचि अने न समणुजाणिज्जा, जेहिदि सद्धि संपब्बइए तेसिपि जाई छत्तगं वा जाव चम्मडेय सूत्रम् णगं वा तेसिं पुब्बामेव उग्गहं अणणुनविय अपडिलेहिय २ अपमज्जिय २ नो उग्गिहिज्जा वा परिगिहिज्ज वा, तेसिं ॥१०४६॥ पुव्यामेव उग्गई जाइज्जा अणुनविय पडिलेहिय पमग्निय तओ सं० उग्गिव्हिज्ज वा प० ॥ (मू० १५५) ॥१०४६॥ श्रम सहन करे ते श्रमण [तपस्वी] छे, ते हुँ आवी रीते बन, एम साधु विचारे ते कहे छे, 'अनगार' अग ते वृक्ष छे, | तेनाथी जे बेने ते अगार [घर] छे, ते जेने न होय ते अमगार अर्थात् घरनो फांसो (ममत्व) जेणे छोड्यो होय, ते छे, 'अकिंचन जेनी पासे कंइपण न होय ते अर्थात निष्परिग्रह छे तथा अपुत्र' ते स्वजन बंधु रहित अर्थात् निर्मम के एज प्रमाणे 'अपुश' ते ४ ये पगवाळां चार पगवाळां विगेरेथी रहित छे, तथा परदत्तभोजी (गोचरी लावी खानारो) हुँ बनीने पाप कर्म करीश नहि, आ४ प्रमाणे दीक्षा लइने पछी आवी प्रतिज्ञावाळो थाय ते बतावे के, शिष्य गुरुने कहे छे. हे गुरु ! सर्वथा अदनादानतुं पचक्षण करुं . अर्थात् दांत शोधवा [खोतरवा] माटे जोइती सळी के तणखलुं पण पारकाए नहि आपेलं नहि ल अवां विशेषणो श्रमणनां लेबाथी बौर बाबा विगेरेमां श्रमणपणुं बहारथी नाम मात्र होचा छतां गुणोना अभावे तेमनामां | Hश्रमणपणुं ली, नथी, पण उपर बतावेल अदचादा न त्याग करनार जैन साधुज श्रमण छे. एवो अकिंचण साधु गाम अथवा राजधानीमा जइने पोते अदत्त ग्रहण न करे, न बीजा पासे लेवडावे, अने बीजा ग्रहण करनारनी प्रशंसा न करे, बळी जे साधुओ साथे पोते दीक्षा लोधो होय अथवा उतरेल होय तेओनां उपकरण पण तेमनी आज्ञा RECTORAK For Private and Personal use only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा १०४७॥ CCCOUNRE विना ले नहि ते बताने छे, - छत्र ते माथानुं दांक' वरसादमां स्थंडिल जतां माथा उपर वर्षाकल्प (कावळो) विगेरे नांखे ते छत्रक छे, अथवा कुंकण सुत्रम् देश विगेरेमा घणो वरसाद पडे तेवा देशमां कारण प्रसंगे छत्री वापरवानी आजा छे, ते छत्र लेवू होय अथवा चर्म छेदनक 8| विगेरे कोइ पण चीज विना पूछे ले नहि, एक बार पण न ले, अनेकवार पण ले नहि. ॥१०४७॥ साना साधुओनी वस्तु लेवानी विधिमथम जेनी वस्तु होय तेने पूछी लेवू, अने पछी आंखेगी जोइने अने रजोहरण विगेरेथी पंजीने एकवार के अनेकवार ले 12 से भि. आगंतारेसु वा ४ अणुवीइ उग्गहं जाइज्जा, जे तत्थ ईसरे जे तत्थ समहिट्ठए ते उग्गहं अणुनविजा-काम खलु आउसो०! अहालंदं अहापरिचायं वसामो जाव आउसो : जाव आउसंतस्स उग्गहे जाव साहम्मिया एइतावं उग्गहं उग्गिहिस्सामो, तेण परं निहरिस्सामो ।। से किं पुण तत्थोग्गहंसि एवोग्गडियंसि जे तत्थ साहम्मिया संभोइया समणुन्ना उवागच्छिना जे तेण सयमेसित्तए असणे वा ४ तेण ते साहम्मिया ३ उवनिमंतिजा, नो चेव णं परवडियाए ओगिज्झय २ उपनि०॥ (मू०१५६) ते मुनि मुसाफरखानामा प्रवेश करीने अने विचार करीने यतिने योग्य क्षेत्र जोइने साधुओने जोइए तेटली वसति विगेरेनो अवग्रह याचे, कोनी पासे याचवू ते कहे छे, जे घरनो मालिक होय अथवा मालिके जेने त्यां काम करवा राख्यो होय तेमनी पासे जइने क्षेत्र अवग्रह याचे, केवी रीते ? ते बतावे छे, साधु मालिक होय अथवा तेना गुमास्ता विगेरेने उद्देशीने कहे, हे आयु मन् ! HOROSCAकककक-. For Private and Personal Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir P आचा ॥१०४८॥ ॥१०४८॥ तमारी इच्छा प्रमाणे तमे जेटलो काळ आज्ञा आपो, जेटली जग्या वापरवा आपो, ते प्रमाणे अमे अहीं रहीए, एटले हे गृहस्थ तमे जेटली जग्या वापरवा आपशो, तेटलो समय अमे तथा अमारा साधुओ आ जग्या वापरशुं, तेथी आगळ (पछी) विहार करीशुं, पछी मालिके ते मकानमा उतरवानी जग्या आप्या पछी साधुए शुं करवू ते कहे छे. ते जग्याए केटलाएक परोणा साधुओ एक समाचारी आचरनारा उद्युक्त विहारी आवे, तेमने पूर्वना मोक्षाभिलाषी साधुए उतरवा देवा, तथा विहार करता पोतानी | मेळे त्यां तेवा उत्तम साधुओ आव्या होय तेमने अशन पान विगेरे चारे आहार लावीने तेमनी इच्छानुसार लेवा प्रार्थाना करवी के आ हु आहार विगेरे लाव्यो छु, आपनी इच्छा प्रमाणे लइने मारा उपर अनुग्रह करो. पण बीजा साधुना लावेला आहारनी | परभारी निमंत्रणा पोते न करे, पण पोते जाते लावीने तेमनी इच्छानुसार आपे... से आगंतारेसु वा ४ जाव से किं पुण तत्थोग्गहंसि एवोग्गहियंसि जे तत्थ साहम्मिआ अन्नसंभोइआ समणुन्ना उवागच्छिज्जा जे तेण सयमेसित्तए पीढे वा फलए वा सिज्जा वा संथारए वा तेण ते साहम्मिए अन्नसंभोइए समणुन्ने उवनिमंतिज्जा नो चेवणं परवडियाए ओगिज्झिय उवनिमंतिजा ॥ से आगंतारेसु वा ४ जाव से किं पुण तत्थुग्गहंसि एवोग्गहियंसि जे तत्थ गाहावईण वा गाहा. पुत्ताणं वा मूई वा पिप्पलए वा कण्णसोहणए वा नहच्छेयणए वा तं अप्पणो एगस्स अट्ठाए पाडिहारियं जाइत्ता नो अन्नमन्नस्स दिज वा अणुपइज्ज वा, सयंकरणिज्जतिकटु, से तमायाए तत्थ गच्छिज्जा २ पुब्बामेव उत्ताणए हत्थे कटु भूमीए वा ठवित्ता इमं खलु २ त्ति आलोइज्जा, नो चेव णं सयं पाणिणा परपाणिसि पचप्पिणिज्जा ।। (मू० १५७) A NCARRORSCORNO For Private and Personal Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra औचा० ॥१०४९ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टीकाकारे आ मूत्रनो अर्थ पूर्व माफक होवाथी विशेष लख्यो नथी. ते साधु मुसाफरखाना विगेरेमां उतरेलो होय त्यां बीजा उत्तम साधुओ आवे. पण जो तेमनी समाचारी जुदी होय तो गोचरीनो व्हेवार न होवाथी फक्त पीठ फलक विगेरेनी निमंत्रणा करे, वळी ते घरमाथी घरघणी पासे के तेना पुत्र पासेथी कारण विशेषे मुड़ अस्त्रो कान खोतरणी अथवा नयणी पोताना माटे याची होय, तो एके बीजाने आपकी नहि, तेम लेवी नहि, पण ज्यारे पोतानुं कार्य पूरुं थाय, त्यारे पोते जाते जइगे पोताना | हाथमां इथेळीमां राखीने कहे के आ तमारी वस्तु सूइ विगेरे लो, पण जो ते स्त्री विगेरे होय तो जमीन उपर मुकीने कहें के आ तमारी वस्तु लो, पण साधुए गृहस्थ के स्त्रीने हाथोहाथ आपकी नहि ( वखते लागी जाय ) से भि० से जं० उग्गहं जाणिज्जा अनंतरहियाए पुढवी जाव संताणए तह० उग्गहं नो गिव्हिज्जा वा २ ।। सेमि जंण उग्गहं सिवा ४ तह० अंतलिक्खजाए दुबद्धे जात्र नो उगिण्डिज्जा वा २ ।। से भि० से नं० कुलियंसि बा ४ जाव नो उगिण्डिज्ज वा २ ।। से मि० खंसि वा ४ अन्नयरे वा तह० जाव नो उग्गहं उगिण्हिज्ज वा २ । से भि० से जं> पुण० ससागारियं० सखुपसुभन्तपाणं नो पनस्स निक्खमणपवेसे जात्र धम्माणुओगचिंताए, सेवं नच्चा तह० उबस्सए ससागारिए० नो उवग्ग उगिण्डिज्जा वा २ || से भि० से जं० गाहावइकुलस्स मज्झंमज्झेणं गंतुं पंथे पडिबद्धं वा नो पन्नस्स जाव सेवं न० ॥ से भि० से जं० इह खलु गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा अन्नमन्नं अकोसंति वा तव तिल्लादि सिणाणादि सीओदगविग्रडादि निगिणाइ वा जहा सिज्जाए आलावगा, नवरं उग्गहवरान्वया || से भि० से जं० आइन्नसलिक्खे नो पन्नस्स० उगिण्डिज्ज वा २, एयं खलु० ॥ ( मू० १५८ ) उग्गहपडिमाए पढमो उद्देशो For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥१०४९ ॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ १०५०॥ www.kobatirth.org साधुए अवग्रह लेतां जो के ते सचित्त जग्या न होय, तथा अधर जग्या होय त्यां न उतरे, बाळक तथा पशुओने खावा पीवानुं अपातुं होय, तेवी जग्यामां धर्म ध्यान विगेरे पंडित पुरुषने न थाय, माटे तेनुं मकान न याचं तेमज ते मकानमां थइने जवानो रस्ता होय, अथवा घरनां माणसो नोकर-चाकर विगेरे त्यां लडतां होय तथा तेल मसळतां होय, तथा स्नान विगेरे ठंडा | उना पाणीथी करतां होय, त्यां न उतरखुं. आ वधुं पूर्वे शय्याना अंगे कं छे, ते प्रमाणे जाणवुं, पण अहीं विषय वसति अवग्रह संबंधी जाणवो. इति प्रथम उद्देशः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बीजो उद्देशो. पहेलो उद्देशो कह्यो, हवे बीजो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे, गया उद्देशामां अवग्रह बताव्यो अने अहीं पण तेनुंज बाकी रहेलुं कहे छे. तेनुं आ सूत्र छे. तारे वा ४ अणुवीड़ उग्गहं जाइज्जा, जे तत्थ ईसरे० ते उग्गहं अणुन्नविज्जा कामं खलु आउसो ! अहालंद अहापरिन्नायं वसामो जाव आउसो ! जात्र आउसंतस्स उग्गहे जाव साहम्मि आए ताव उग्गहं उग्गिण्डिस्सामो, ते परं वि० से कि पुण तत्थ उग्गहंसि एवोग्गहियंसि जे तत्थ समणाण वा माह० छत्तए वा जाव चम्मछेदणए वा तं ना For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥१०५०॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० ॥१०५१॥ अंतोहितो बाहिं नीणिज्जा बहियाओ वा नो अंतो परिसिज्जा, सुत्तं वा नो पडिबोहिज्जा, नो तेसि किंचिंवि अप्पत्तियं पडिणीय करिजा ।। (मू० १५९).. . । सूत्रम् ते साधु धर्मशाळा विगेरेमां उतरेलो होय, त्यां पूर्वे ब्राह्मण विगेरे ते गृहस्थनी रजा लइ उतर्यो होय, तेज स्थानमां बीजी | जग्याना अभावे उतरवू पडे, तो ते स्थानमां उतरेला ब्राह्मण विगेरेनुं छत्र विगेरे जे कंइ उपकरण होय, ते मकाननी अंदर पडयु होय तो बहार लइ जवु नहि तेम बहारथी अंदर लावq नहि, तेम मूतेला ब्राह्मण विगेरेने जगाडवा नहि, तेमन तेमना मनमा पण अप्रीति थाय तेम न करवू तथा तेमनी साथे विरोधभाव पण न करवो. से भि० अभिकंखिज्जा अंबवणं उबागच्छित्तए जे तत्थ ईसरे २ ते उग्गह अणुजाणाविज्जा-कान खलु जाब विहरिस्सामो, से किं पुण. एवोग्गहियसि अह बिक्खू इच्छिज्जा अंबं भुत्तए वा से जं पुण अंबं जाणिज्जा सअंडं ससंताणं तह० अंबं अफा० नो प० ॥ से भि० से जं. अप्पंड अप्पसंताणगं अतिरिच्छछिन्नं अयोच्छिन्नं अफामुयं जाव नो पडिगाहिज्जा ।। से मि० से जं. अप्पड वा जाव संताणगं तिरिच्छछिन्नं वुच्छिन्नं फा० पडि० ॥ से भि० अबभित्तंग वा अंबपेसियं वा अंबचोयगं वा अंवसालगं वा अंबडालर्ग वा भुत्तए वा पायए वा, से जं. अंबभित्तगं वा ५ सअंडं अफा० नो पडि० ॥ से भिक्खू वा २ से जं. अंव वा अंबभिचगं वा अप्पड. अतिरिच्छछिन्नं २ अफा० नो प०॥ से जं. अंबडालगं वा अप्पंड ५ तिरिच्छच्छिन बुकिछन्नं फामुयं पडि० ॥ से भि० अभिकंखिज्जा उच्छुवर्ण उवागच्छित्तए, जे तत्थ ईसरे जाव उग्गहसि ॥ अह भिक्खू इच्छिज्जा उच्छु भुचए वा पा०. से जं. उच्छु जाणिज्जा सअंडं जाव नो For Private and Personal Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् C प०, अतिरिच्छछिन्नं तहेव. तिरिच्छछिन्नेऽवि तहेव ।। से भि० अभिकखि० अंतरुच्छुयं वा उच्छुगंडियं वा उच्छुचोयगं आचा. वा उच्छुसा० उच्छुडा० भुगए वा पाय०, से जं० पु० अंतरुच्छ्यं वा जाव डालग वा सअंडे नो प० ।। से भि० से जं. अंतरुच्छुयं वा० अप्पंड वा० जाव पडि. अतिरिच्छच्छिन्नं तहेव ॥ से भि० लहसणवणं उवागच्छिाए, तहेव तिन्निवि ॥१०५२॥ आलावगा, नवरं लहसुणं ॥ से भि० ल्हमुणं वा ल्हमुणकंदं वा ल्ह. चोयगं वा ल्हमुणनालगं वा भुत्तए वा २ से जं. 10॥१०५२॥ लसुणं वा जाव लसुणबीय वा सअंडं जाव नो प० एवं अतिरिच्छच्छिन्नेऽवि तिरिच्छछिन्ने जाव प० ।। (मृ० १६०) ते भिक्षु कदाचित आम्र वनमा गृहस्थ पासे अवग्रह याचे, त्यां उतरीने कारण पढे आंबा (केरी) खावाने इच्छे, ता सडेला IP के कीडावाळा के करोळीयाना जाळांवाला अमासुक होय ते लेवा नहि. तथा आंबा इंडा विनाना अने सज्या पिनाना होय, पण जो तिरछा न छेद्या होय तथा अखंडित होय, तो तेने अमासुक जाणीने लेवा नहि, पण जो कीडा विनाना तीरछा चीरेला अने मामुक (अचित्त) होय तो कारण पडे ले, तेज प्रमाणे (अंबभित्ति) अळधां फाडीयां, (अंबपेसी) आंबानां नानां फाडीयां (अंबचोयग) आम्रछाल [सालग] रस, (टालग) केरीना झीणा टुकडा होय ते अचित्त होय तो लेवा. आ प्रमाणे इक्षु मूत्रना प्रणे आलावा लेवा तथा अंतरुच्छु पर्बना मध्य भाग लेवा, आ प्रमाणे लसणनां प्रणे मूत्र लेवां, आमां जे वातो न समजाय ते निशीथ सूत्रना सोळमा उद्देशाथी जाणवी. हवे अवग्रहना अभिग्रह संबंधी विशेष कहे . से भि. आगंतारेसु बा ४ जावोग्गडियंसि जे तत्थ गाइबईण वा गाहा. पुत्वाण वा इच्छेयाई आयतणाई उवाइकम्म अह ACARCISCARE SAGE For Private and Personal use only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥१०५३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भिक्खू जाणिज्जा. इमाहिं सत्तर्हि पडिपाहि उग्गहं उरिगण्हित्तर, तत्थ खलु इमा पढमा पडिमा - से आगंतारेसु वा ४ अणुवीर उग्गहं जाइज्जा जाव विहरिस्सामो पत्रमा पडिमा १ । अहावरा० जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ - अहं च खलु अन्नेसिं भिक्खूणं अट्ठाए उग्गहं उग्गिहिस्सामि, अएणेसिं भिक्खूणं उग्गहे उग्गहिए, उबल्लिसामि, दुच्चा पडिमा २ अहाबरा० जस्स णं भि० अहं च० उग्गिण्डिस्सामि अन्नेसिं च उग्गहे उग्गहिए नो उवल्लिस्सामि, तच्चा पडिमा ३। अहावरा० जस्स णं भि० अहं च० ना उग्गहं उग्गिहिस्सामि, अन्नेसिं च उग्गहे उग्गहिए उवल्लिस्सामि, चउत्था पडिमा ४ अहावरा० जस्स णं अहं च खलु अप्पणो अट्ठाए उग्गहं च उ०, नो दुण्डं नो तिण्डं नो चउण्हं नो पंचण्डं पंचमा पडिमा ५१ अहावरा से भि० जस्स एवं उग्गहे उबल्लिइज्जा जे तत्थ अहासमन्नागए इकडे वा जाव पलाले तस्स लाभे संबसिज्जा तस अलाभे उकडुओ वा नेसज्जिओ वा विहरिज्जा, छट्टा पडिमा ६। अहावरा स० जे भि० अहासंथडमेव व उग्गह जाइज्जा, तंजा - पुढविसिलं वा कट्टसिलं वा अहासंथडमेव तस्स लाभे संते, तस्स अलाभे उ० ने० विहरिज्जा, सामा पडिमा ७ । इच्छेयासि सतहं परिमाणं अन्नयरं जहा पिंडेसणाए || (सू० १६१ ) ते साधु धर्मशाळा विगेरेमां अवग्रह मागीने उतर्या पछी त्यां रहेनारा गृहस्थो विगेरेना पूर्वे बतावेला दोषो त्यजीने तथा हवे पछी जे कर्म उपादानना कारणो बतावसे ते छोडीने अवग्रह लेवाने समजे. ते भिक्षु सात प्रतिमा [ अभिग्रह विशेष ] वडे अवग्रह ले, तेमां पहेली पडिमा आ छे के ते साधु धर्मशाळा विगेरेमां उतरवा | पहेलां चितवी राखे के मारे आनो उपाश्रय मळे तोज उतरवनुं ते सिवाय नहि. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥१०५३ ॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - सूत्रम् ॥१०५ - - बीजा साधुने आवो अभिग्रह होय छे के हुँचीजा साधुओ माटे अवग्रह याचीश अथवा बीजाए याचेला अवग्रहमा रहीश. प्रथमनी प्रतिमामा सामान्य छे अने आ प्रतिमा तो गच्छमा रहेला उद्युक्त विहारीने होय, तेओ साथे गोचरी करता हाय । आचा० । अथव। न पण करता होय-तो पण साये उतरता होवाथी एक बीजा माटे वसति याचे हे. ॥१०५४॥ त्रीजी प्रतिमावाळो साधु एमो विचार करे के हुँ पोते बीजाने माटे अवग्रह याचीश, पण वीजाना याचेलामा रहोश नहि. आ प्रतिमा आहालंदिक साधुओने माटे हे. कारण के तेश्रो गच्छवासी आचार्य पासे मूत्र अर्थ भगता होवाथी आचार्य माटे मकान याचे छे. चोथी प्रतिमामा ए अभिग्रह छे. के हुं बीजाने माटे अवग्रह याचीश नहि. पण वीजाए मागेला अवग्रहमा रहीश, आ अभिग्रह 8 गच्छमा रहेला अभ्युदत विहारी गच्छमा रहोने जिनकल्पी थवाने माटेज अभ्यास करता होय नेमने माटे छे. । पांचमी प्रतिमा आ प्रमाणे के के हुं पोतेना माटे अवग्रह याचीश, पण वीजा त्रण, चार, पांच माटे अवग्रह नहि याचु, आ IP जिनकल्पी थवाने माटे अभिग्रह छे. 51 हूं अवग्रह याचीश पण त्यांज उत्कट विगेरे संथारो लइश; नहि तो उत्कुटुक अथवा बेठेलो के उभेलो आखी रात पुरी करीश. आ छट्ठी प्रतिमा जिनकल्पी विगेरेने छे. । सातमी प्रतिमा उपर प्रमाणे छे के हुँ उपर बतावेल संथारो करवा शिलादिक विगेरे तैयार हशे तेज लइश. आमां विशेष एटलं छे के तैयार होय तोज ले, नहि तो बेठे बेठे के उभे उभे रात्री पुरी करे, आ पण जिनकल्पी विगेरेनी छे. CROCESSING For Private and Personal Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir COR ___ आ साते पतिमा वहेनारा साधुओ जिनकल्पी विगेरे जिनेश्वरनी आज्ञामां होबाथी यथाशक्ति पाळता होवाथी वधारे पाळनारो आचा. होय ते पोताने उंचो न माने तेम चीजानी निंदा न करे. ए वधुं पिंडएपणा माफक जाणवं. । सूत्रम् सुर्य मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु थेरेहि भगवं तेहिं पंचविहे उग्गहे पन्नेत्ते, तं०-देविंदउग्गहे १ राय उग्गहे ॥१०५५॥ २ गाहावइउग्गहे ३ सागारिय उग्गहे ४ साहम्मिय उग्ग० ५ एवं खलु तस्सा भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं ॥१०५५॥ (मू० १६२) उग्गहपडिमा सम्मत्ता । अध्ययनं समाप्तं सप्तमम् ।। २-१-७-२ ॥ सुधर्मास्वामी जंबूस्वामीने कहे के के भगवान महावीरे आ उद्देशामां बतावेलो देवेंद विगेरेनो अवग्रह सारी रीते समजीने साधुए पाळवो. (ए साधुनी साधुता छे) अवग्रह प्रतिमा नामनुं सातमुं अध्ययन समाप्त थयुं तथा आचारांगनी पहेली चूला समाप्त थइ.10 सप्तसप्तिकाख्या द्वितीया चुला । पहेली चूलिकानां सात अध्ययन कह्यां हवे बीजी चूलिका कहे छे तेनो पहेली साथे आ प्रमाणे संबंध छे. गइ चूलामा वसतिनो अवग्रह बताव्यो, ते स्थानमा रहीने केवा स्थानमा कार्योत्सर्ग तथा स्वाध्याय उच्चार पेसाब विगेरे x करवो ते अहींआ बतावे छे. आ चुलामां सात अध्ययन छे एवं नियुक्तिकार बतावे छे. सत्तिक्कगाणि इक्कस्सरगाणि पुढच भणियं तहिं ठाणं । उट्टाणे पगयं निसीहियाए तहि छक्कं ॥ ३२० ॥ सात अध्ययनोमां बीजा उद्देशा नथी, माटे एक सरवाळा छे. तेमां पहेलुं अध्ययन स्थान नामनुं छे. तेनी व्याख्या अहीं करे छे. आ संबंधे आवेला आ अध्ययनना चार अनुयोगद्वार थाय छे, [ए पूर्वे बतावेल छे ] उपक्रममा अध्ययननो अर्थाधिकार आ छे, ४ DCASTESCORE AAAAACAREE For Private and Personal Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | सूत्रमू १०५६॥ and 5/ के साधुए केवा स्थानमां आश्रय लेबो, नाम निपन्न निक्षेपामां स्थान ए नाम छे. एना नाम विगेरे चार निक्षेपा थाय छे, तेमां आचा० H अहीं द्रव्यने आश्रयी उद्भवस्थानवडे अधिकार छे. ते नियुक्तिकार कहे छे. उद्धवस्थानमा प्रस्ताव छे. बीजुं अध्ययन निशीथिका Wछे. तेनो छ प्रकारे निक्षेप छे, ते तेना स्थानमां कही . हवे मूत्र कई छे. ॥१०५६॥ से भिक्ख वा० अभिकंखेज्जा ठाणं ठाइत्तए, से अणुपरिसिज्जा गामं वा जाव रायहाणि वा, से जं पूण ठाणं जाणिज्जा सअंडं जाव मक्कडासंताणयं तं तह० ठाणं अफासुर्य अणेस० लाभे संते नो ५०, एवं सिज्जागमेण नेयव्वं जाच उदयपमूयाईति ।। इच्चेयाई आयतणाई उवाइकम्म २ अह भिक्खू इच्छिज्जा चरहिं पडिमाहिं ठाणं ठाइत्तए, तत्थिमा पढमा पडिमा-अचिचं खलु उपसजिजा अवलंबिज्जा कारण विप्परिकम्माइ सवियारं ठाणं ठाइस्सामि पढमा पडिमा । अहावरा दुच्चा पडिमा- अचि खलु उपसिज्जजेज्जा अवलंबिज्जा कारण विप्परिकम्माइ नो सवियारं ठाणं ठाइस्सामि दुच्चा पडिमा । अहावरा तच्चा पडिमा-अचित्तं खलु उवस्सज्जेज्जा अवलंपिज्जा नो कारण विपरिकम्माई नो सवियारं ठाणं ठाइस्सामित्ति तच्चा पडिमा । अहावरा चउत्था पडिमा-अचि खलु उपसज्जेजा नो अवलंबिज्जा कारण नो परकम्माई नो सवियारं ठाणं ठाइस्सामित्ति वोसट्टकाए वोसट्टकेसमंमुलोमनहे संनिरुद्ध वा ठाणं टाइस्सामित्ति चउत्था पडिमा, इच्चेयासि च उपहं पडिमाणं जाच पग्गहियतरायं विहरिज्जा, नो किचिवी बइज्जा, एवं खलु तस्स० जाव जइज्जासि तिबेमि (मू० १६३) ॥ ठाणासकिय सम्म ॥२-२-८ ॥ पूर्वे बतावेलो साधु जो स्थानमा रहेवाने इच्छे, तो गाम विगेरेमा प्रवेश करे. त्यां इंडावाळु तथा करोळीयाना जाळावाळ - A- 23 For Private and Personal Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० मकान जो अमासुक मळे, तो मळतुं होय तो पण न ले, तेज प्रमाणे बीजां सूत्रो पण शय्या माफक समजी लेवां, ते ज्यां सुधी | पाणी तथा कंदथी व्याप्त होय तो पण ते लेवां नहिं, हवे प्रतिमाना उद्देशने आश्रयी कहे छे, एटले पूर्वे बतावेला दोषोवाळां तथा हवे पछी कहेवाता दोषोवाळां पण स्थानो छोडीने चार प्रतिमाओ बडे साधु रहेवा इच्छे, ते कारणभूत अभिग्रह विशेष चार ॥१०५७।५ प्रतिमाओ छे तेनुं स्वरूप अनुक्रमे बतावे छे. (१) कोई साधुने आवोज अभिग्रह होय के हुं अचित्त उपाश्रयनुं स्थान याचीश, तेज प्रमाणे कोइ अचित भींत विगेरेने | कायावडे टेको लइश, वळी परिस्पंद करीश, एटले हाथपग विगेरेथी आकुंचन विगेरे करीश, [ लांबा पडोळा करीश, ] (२) बीजी प्रतिमामां विशेष आ छे, के आकुंचन प्रसारण तथा भींतनो टेको विगेरे लइश, पण पाद विहरण ( पगेथी चालवानुं ) मकानमां पण नहि करूं. (३) त्रीजीमां आकुंचन प्रसारण करे, पण पाद विवरण के टेको लेवानुं न करे. (४) लांबा पोळा हाथ विगेरे न वरे, तेम न चाले, न 'टेको' ले, पण ते कायानो मोह सर्वथा मुकनारो थाय, तथा बाळ दाढी मूछ लोम नख विगेरे पण न हलावे. आवी रीते संपूर्ण कायोत्सर्ग करनारो मेरु पर्वत माफक निष्प्रकंप रहे, ते बखते जो | कोइ आवीने तेना केश बिगेरे खेंचे, तो पण स्थानथी चलायमान थाय नहि; आ चारमांनी कोइ पण प्रतिमा धारण करेलो बीजी प्रतिमा घारेलाने हलको न माने, तेम पोते अहंकारी न बने तेम एवं वचन पण न बोले, के हुं श्रेष्ट छु, बीजो उतरतो छे. आ प्रमाणे प्रथम अध्ययन समाप्त धर्यु. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥१०५७॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ १०५८ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निपीथिका – 'बोजु अध्ययन' पहेलुं अध्ययन कहीने वीजुं कहे छे, तेनो संबंध आ छे के गया अध्ययनमा स्थान तान्युं ते केधुं होय तो भगवाने योग्य थाय, अने ते स्वाध्याय भूमिमां शुं करवु, शुं न करवं, ते अहीं कहेशे, आ संबंधे आ अध्ययन आव्युं छे. एना चार अनुयोगद्वार थाय छे, तेनुं नाम निष्पन्न निक्षेपामां "निपीथिका " एवं नाम छे, आ निपीथिकानो नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काळ भाव छ प्रकारे निक्षेपो छे, नाम स्थापना पूर्व माफक छे, द्रव्य निषीथनो आगमथी ज्ञशरीर भव्यशरीर छोडीने जे द्रव्य प्रच्छन्न (छानुं) होय ते छे, [टीकाना संशोधके टीपणामां लख्युं छे के निशीथ निषीध वनेनुं प्राकृतमां एक 'निसीह' शब्द वडे बोलतं होवाथी एज प्रमाणे निक्षेपानुं वर्णन छे, तेज प्रमाणे निपीधिका निशीथिका बने नामनुं एकपणुं छे. क्षेत्र निपीय ते 'ब्रह्मलोक' नामना देवलोकमा रिष्ट विमाननी पासे 'कृष्ण राजाओ' जे क्षेत्रमां छे, ते तथा जे क्षेत्रमां निपीयनुं वर्णन चाले ते काळनिषीथ ते कृष्ण [ काळी अंधारी ] रात्रिओ अथवा जे काळे निषीधनुं वर्णन चाले, भावनिषीथ 'नो आगमथी' आ कहेवातुं मूत्रनु अध्ययनज छे, कारण के ते आगमनो एक देश छे, नाम निष्पन्न निक्षेपो पुरो थयो, इवे सूत्रानुगममां सूत्र कहे छे, से भिक्खु वा २ अभिक० निसीहिये फासूयं गमणाए से पुण निसीहियं जाणिज्जा - सअंडं तह० अफा० नो चेइस्सामि || से भिक्खू० अभिकं खेज्जा निसीडिय गमणाए, से पुण नि० अप्यपाणं अप्यवीयं जाव संताणयं तह० निसीहियं फासूयं areसामि, एवं सिज्जागमेणं नेयव्वं जाव उदयप्पनूया ॥ जे तत्थ दुवम्गा तिवग्गा चउवरगा पंचवरगा वा अभिसंधा For Private and Personal Use Only सूत्रम् ||१०५८॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥१०५९॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रिंति निसीहियं गामणाए ते नो अन्नमन्नस्स कार्य आलिंगिज्ज वा बिलिंगिज्ज वा चुंविज्ज वा दंतेहिं वा नहिं वा अच्छिदिज्ज वा बुच्छि०, एयं खलु० जं सव्वद्वेर्हि सहिए समिए सया जज्जा, सेयमिणं मनिज्जासि तिमि || ( सू० १६४ ) निसीहियासत्तिकयं ।। २-२-९ ॥ ते उत्तम साधु रहेला स्थानमां अयोग्यताना कारणे वीजे स्थळे भणवानी जग्याए जया इच्छे, तो त्यां डां वगेरे पड्यां होय तो अमामुक जाणीने न जाय, पण इंडांविनानी फामु जग्या होय ते ग्रहण करे, आ प्रमाणे बीजां सूत्रो पण शय्या माफक समजवां ते पाणीथी उत्पन्न थयेलां कंद विगेरे पड्यां होय तो ते जग्याए पण भणवा न वेसे. त्यां गया पछीनी विधि कहे छे त्यां गयेला वे ऋण के वधारे साधु होय तो परस्पर एकेकनी कायानो स्पर्श न करे, तेम जेनाथी मोहनो उय थाय तेम वळगे पण नहि, | तथा कंदर्प प्रधान जेमां छे एवं मुख चुंबन विगेरे न करे, (मोढाने मोढुं न लगाडे) आज वर्शन साधुनुं सर्वस्थ छे, अने तेथी बधां परलोकना प्रयोजनवडे युक्त है, तथा ते प्रमाणे वर्त्तनार पांच समिति पाळतो जींदगी सुधी संयम अनुष्ठान आचरे, अने आज परम कल्याण छे, एवं उत्तम साधु माने. निधिका नामनुं बीजं अध्ययन समाप्त भयं उच्चार प्रश्रवण - त्रीजुं अध्ययन. हवे त्रीजुं सप्तैकक अध्ययन कहे हे, तेनो पूर्वना अध्ययन साथै आ प्रमाणे संबंध छे, ते गया अध्ययनमां निषीधिका कही For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥१०५९॥ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छे, त्यां केवी जमीन उपर स्थंडील मात्रं (झाडं पेसाब कर ते बतावे छे, एना नाम निष्पन्न निक्षेपामा उच्चार पश्रवण एयुं नाम छे, तेनी निरुक्तिने माटे नियुक्तिकार कहे छे, आचा० उच्चावर सरीराओ उच्चारों पसवइति पासवणं । तं कह आयरमाणस्स होइ सोही न अइयारो ? ।। ३१२ । सूत्रम् ॥ १०६० ॥ शरीरमाथी जोरथी दूर करे. अथवा मेल साफ करे [चरे] ते उच्चार (विष्ठा) छे, तथा प्रकर्षथी श्रवे (नीकळे) ते पेसाव ९ ॥ ९०६०॥ | एकिका ( आ शब्द केटली जग्याए तेज रुपे वपराय छे, एटले निशाळमां छोकराने पेशाब करवा जत्रुं होय तो मास्टरने कहे के मास्टर एकी जाउं ? ) आ स्थंडिल तथा मात्रं केवी रीते करे तो अतिचार न लागे ते पछोनी गाथामां बतावे छे, सुणिणा छक्कायदयावरेण सुत्तभणियंमि आगासे । उच्चारविसग्गो, कायन्त्रो अध्यमत्तेणं ॥ ३२२ ॥ छ जीव निकायना रक्षणमां प्रयत्न करनार साधुए हवे पछी कहेवाता सूत्र प्रमाणे स्थंडिलमां उच्चार पश्रवण अप्रमत्तपणे करवां नियुक्ति अनुगम पछी सूत्र अनुगम कहे छे, से भि० उच्चारपासवण किरियाए उन्वाहिज्जमाणे सयस्स पायपुंछणस्स असईए तओ पच्छा साहम्मियं जाइज्जा ॥ से भि० से पु० थंडिलं जाणिज्जा सअंडं० तह० थंडिलंसि नो उच्चारपासवणं वोसिरिज्जा ।। से भि० जं पुण थं० अप्पपाणं जात्र संतणयं तदृ० थं उच्चा० वोसिरिज्जा | से भि० से जं० अस्सिपडियाए एवं साहम्मियं समुद्दिस्स वा अस्सि० बहवे साहम्मिया स० अस्सि प० एवं साहम्मिणि स० अस्सिप बहवे साहम्मिणीओ स० अस्सि० बहवे समण० पगपि २ समु० पाणाई ४ जाव उद्देसिथं चेण्ड, तह० थंडिल्लं - पुरिसंतरकड जान बहियानीहढं वा अनी अन्नयरंसि वा For Private and Personal Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥१०६१॥ तहप्पगारंसि थे. उच्चारं नो बोसि ॥ से मि० से जं. बहवे समणमा० कि.व. अतिही समुहिस्स पाणाई भूयाई आचा० जीवाई सत्ताई जाच उद्देसियं चेएइ, तह. थंडिलं पुरिसंतरगडं जाव बहियाअनीहई अन्नयरंसि वा तह. थंडिल्लंसि नो उच्चारपासवण०, अह पुण एवं जाणिज्जा-अपुरिसंतरगडं जाव बहिया नीहई अन्नयरंसि तहप्पगारं० यं० उच्चार० ॥१०६१॥ बोसि०॥० ज० अस्सिपडियाए कयं वा कारियं वा पामिच्चियं वा छन्नं वा घट्ट वा मटं वा लित्तं वा संमटुं वा संपधूवियं वा अन्नयरंसि वा तह. थंडि० नो उ. ॥ से भि० से जं पुण थं० जाणेजा, इह खलु गाहावइ वा गाहा. पुत्ता वा कंदाणि वा जाव हरियाणि वा अंतरानो वा बाहिं नीहरंति बहियाओं वा अंतो साहरंति वा अन्नयरंसि वा नह० थं नो उच्चा० ॥ से भि० से जं पुण० जाणेजा-खधंसि वा पीढं सि वा मंचंसि वा मालंसि वा अमुसि वा पासायास वा अन्नयरंसि वा० ० नो उ० ॥ से मि० से जं पुण. अणंतरहियाए पुढवीए ससिणिद्धाए पु० ससरक्खाए पु० मट्टियाए मक्कडाए चित्तताए सिलाए चित्तमंताए लेलुयाए कोलावासंसि वा दारुसि वा जीवपइद्वियंसि वा जाव मकडासंताणयसि अन्न तह. थं० नो उ० ।। (मू० १६५) कोई साधु कोइ बखते टट्टी पेसाब करवानी ताकीदे पीडातो होय अने रस्तामा तेवी छुटनी जग्या न मळे तो तेणे कुंडी द अथवा तेवु योग्य साधन समाधि माटे मेळवी तेमां स्थंडिल जइ परठवी आवर्बु, पण जो पोनानी पासे हाजर न होय तो बीजा साधु पासे याचवु अने तेनी पतिलेखना विगेरे करीने ते उपयोगमा लेवू, आधी एम मृच व्यु के स्थंडिल पेसाबने रोकवा नहि, बळी शंका थाय पहेलांज बने त्यां लगी साधुए नीकळवू, अने ज्यां स्थंडिल जाय त्यां प्रथम देखे के इंडा के नानाजंतु कीडीओ For Private and Personal Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ।। १०६२ ।। www.kobatirth.org | के करोळीयानां जाळां वगेरे नथी, जो इंडां विगेरे होय तो त्यां टट्टी न जाय, हवे ते साधु एम जाणे के कोइ माणसे एक अथवा | घणा साधु साध्वीने आश्रयी स्थंडिलनी जग्या बनावी होय, अथवा श्रमण माहण विगेरेने उद्देशीने बनावी होय, तो ते जग्याने | वीजा पुरुषे स्वीकारी होय के न स्वीकारी होय तो पण मूल गुणथी दोषित होवाथी तेमां उच्चार प्रश्रवण न कर. ते साधुए यावंतिक स्थंडिलमां अपुरुषांतर कृतमां स्थंडिल न जाय; पण बीजाए वार्या पछी तेनो उपयोग पोते पण करे, वळी उत्तर गुण अशुद्ध ते खरीद करी होय, बदले लीघी होय विगेरे कारणे दोषित होवाथी तेमां स्थंडिल न जाय, अथवा स्थंदि | लनी जग्यामाथी कंद विगेरेने छोकरां विगेरे बहार काढे, अथवा, ते जग्यामां कंद विगेरे नांखे तो तेमां साधुए स्थंडिल न ज तथा स्कंध पीठ मांचडो माळो अट्टप्रासाद विगेरेनी अधर जग्या के उंची जग्या के नीची जग्या ज्यां समाधिथी न बेसाय तेवी | जग्याए स्थंडिल न जनुं, तेज प्रमाणे सचित्त पृथ्वी विगेरे उपर स्थंडिल न जनुं भनी होय, सचित्त रजवाळी होय, माटी करोळीयानां जाळां, सचित्त पत्थरनी शिला, माटोनां ढेफां, धुळना कीडावाळं लाकडं के नानां जतुंथी व्याप्त करोळीयाना जाळानां समुदायथी व्याप्त होय के ते कंड़ पण अमामुक स्थान होय त्यां स्थंडिल न जं. से भि० से जं० जाणे० – इह खलु गाहावई वा गाहावइपुत वा कंदाणि वा जाव बीयाणि वा परिसाडिँसु वा परिसाडिंति वा परिसाडिस्संति वा अन्न० तह० नो उ० ॥ से भि० से जं० इह खलु गाहावई वा गा० पुता वा सालीणि वा वणवा मुगाणि वा मासाणि वा कुलत्थाणि वा जत्राणि वा जवजवाणि वा परिंसु वा पइरिंति वा परिस्संति वा अन्नयसि वा तह० थंडि० नो उ० ।। से भि० २ जं० आमोयाणि वा घासाणि वा भिलुयाणि वा विज्जुलयाणि वा Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥१०६२ ॥ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० सूत्रम् ॥१०६३॥ ॥१०६३॥ खाणुयाणि वा कडयाणि वा पगडाणि वा दरीणि वा पदुग्गाणि वा समाणि वा २ अन्नयरंसि तह० नो उ० ॥ से भिक्खु० से जं० पुण थंडिल्लं जाणिज्जा माणुसरंधणाणि वा महिसकरणाणि वा बसहक. अस्सक. कुकंडक. मकडक. हयक० लावयक० वट्टयक तित्तिरक० कोयक. कविजलकरणाणि वा अन्नयरंसि वा तहानो उ से मि. से जं. जाणे. वेहाणसट्टाणेसु वा गिद्धपट्टठा वा तरुपडणटाणेसु वा० मेरुपडणठा० विसभक्षणयठा० अगणिपडणवा. अन्नयरंसि वा तह० नो उ०॥ से मि० से जं० आरामाणि वा उज्जाणाणि वा वणाणि वा वणसंडाणि वादे बकुलाणि वा सभाणि वा पवाणि वा अन्न तह नो उ०॥ से भिक्खु. से जं पुण जा० अट्टालयाणि वा चरियाणि वा दाराणि वा गोपुराणि वा अन्नयरंसि वा तह. थं० नो उ० ॥ से भि. से जं० जाणे. तिगाणि बा चउकाणि वा चचराणि चा चउम्मुहाणि वा अन्नयरंसि वा तह. नो उ० ।। से भि० से जं० जाणे. इंगालदाहेसु खारदाहेसु वा मडयदाहेसु वा मडयचभियासु वा मइयचेइएमु वा अन्नयरंसि वा तह. थं० नो उ० । से जं जाणे. नइयायतणेमु वा पंकाययणेसु वा ओघाययणेमु वा सेयणवहंसि वा अन्नयरंसि वा तह. थं० नो उ० ॥ से भि० से जं जाणे नवियासु वा मट्टियखाणि आसु नवियामु गोप्पहेलियासु वा गवाणीसु वा खाणीसु वा अन्नयरंसि वा तह थं० नो उ०॥ से जं जा डागवचंसि वा सागव० मूलग० इत्थंकरवचंसि वा अन्नयरंसि वा तह. नो उ० वो० ॥ से भि• से जं असणवणंसि वा सणव० धायइव० केयइवणंसि वा अंचव० असोगव० नावग० पुन्नागव. चुल्लगव० अन्नयरेसु तह. पत्तोवेएस वा पुप्फोवेएमु वा फलोवेएम वा बीओवेएसु वा हरिओ वेएस वा नो उ० वो० ॥ (मृ० १६६) For Private and Personal Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साधु साध्वीए नीचली जग्याए स्थंडिल न जq-ते बतावे छे-जे जग्यामां गृहस्था अथवा तेना पुत्रो विगेरे कंद बीज ६ विगेरे त्रणे काळमां नाखता होय, तथा गृहस्थलोक अथवा तेना पुत्रो विगेरेए शाली चोखा व्रीही मग अडद कलथी जव जवजव आचा वाव्यां होय, वावता होय अथवा वाववाना होय; अथवा ज्यां आमोक ते कचराना ढगला (उकरडा) मां घास भूमिराजीआ-भिलुक ॥१०६४॥ सूक्ष्मभूमिराजीओ विज्जल स्थाणु तथा कडय प्रगर्ता-मोटारवाडा, तथा दरीप्रदुर्ग भींतो तथा कोल्ला बुरुज आ बतावेला स्थान वखते सम हाय कोइ जग्याए विषम होय (माटो विगेरे पडवानो डर होय) तेथी तेवी जग्याए स्थंडिल जतां पोते पडी जाय नो आत्मविराधना थाय, अने वीजा जीवा नीचे चगदाइ जतां संयम विराधना थाय तथा माणसोने माटे रांधवानी जग्या (चूला) होय, अथवा भेस बळध घोडा कुकडा माकडां (वांदरा) हय लावक वट्टय तितर कबुतर कपिजल विगेरे पशु पक्षी माटे खावा पीवारों 8/ अथवा शीखवानुं के तेवू बोजु कंइ पण कार्य थतुं होय तथा ते स्थानमा तेमने रखाता होय ते जग्याए स्थंडिल जवाथी लोक | विरुद्ध प्रवचननो उपघात विगेरे थाय माटे त्यां न जवू, बळी आपघात करवानां स्थान जेमा झाडे फांसो खाय लोक मरतां होय, टर गीध विगेरे पक्षीओ पासे काया चुंयावी मरवा लोही चोपडी सुतां होय, झाड उपरथी नीचे कदीने मरतां होय, अथवा झाड 31 माफक स्थिर थइ अनशन बडे मरतां होय, मेरु (पर्वत) उपरथी पडीने मरतां होय, तथा विषभक्षण करी मरतां होय, अग्रिमां बळी3 मरतां होय, अथवा तेवां बीजां मरवांनां स्थान होय, त्यां साधुए स्थंडिल न जवू, तेज प्रमाणे आराम [जेमां काळी विशेष होय. उद्यान वन वनखंड देवल सभा परब विगेरेनी जग्यामां स्थंडिल न जाय, अट्टालक चरिय दरवाजा गोपुर अथवा तेवा गाम शहेरना । कोट कील्लानां स्थान होय त्यां स्थंडिल न जवू, तेज प्रमाणे त्रिकोग चतुष्क [ज्यां त्रण के चार रस्ता मळतां होय ] के चातारो For Private and Personal Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavidin Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandir FACH | होय तेबा स्थानमां पण स्थंडिल न जचु, तेज प्रमाणे अंगारा पाळवानी जग्या, खारो तैयार करवानी जग्या अथवा मळदां वाळवानी आचा० | जग्या, ज्या मळदानां पगला होय, देरी होय. अथवा कबरो होय अथवा तेवा बीजा कोइ पण स्थानमा स्थंडिल न जवू, तथा सूत्रम् जे जग्याए पाणी पवित्र मानी लोक नहाता होय तेबा लौकिक तीर्थ स्थानमां, तथा पकायतन ज्या माटी पवित्र मानी लोक आळो-2 ॥१०६५॥ 18| टतां होय, भोपायतन एटले परंपराथी ज्यां लोको पवित्र स्थान मानता होय अथवा जे रस्तेथी तळावमा पाणीनी नीको होय त्यां||॥१०६७॥ स्थंडिल न जवू, तथा माटी खोदवानी नवी खाण होय, अथवा गायोनी पहेलो अथवा खवडाववान स्थान होय, अथवा बीजा खाणो होय त्यां स्थंडिल न जर्बु तथा डाग (पांदडांवाळ शारख,) तथा बीजा शाख तथा मूळा थवानी जग्यामां हत्थंकरनी जग्यामा स्थंडिल न जवू, तथा अशन वन शणन वन धावडोनुं वन केतकीनुं वन आंबानु, अशोकनुं नाग पुन्नाग चुलक विगेरेनुं वन होय, तथा पांदडां फूल फळ बीज भाजी विगेरेथी युक्त स्थान होय त्यां साधुए स्थंडिल न जवू प्र० त्यारे केवी रीते स्थंडिल जg ? ते कहे छेसे मि० सयपाययं वा परपाययं वा गहाय से तमायाए एगतमवक्कमे अणाचार्यसि असंलोयसि अप्पपाणंसि जाव मकडासंताणयंसि अहारामंसि वा उवस्सयंसि तओ संजयामेव उच्चारपासवर्ण योसरिज्जा, से तमायाए एगंतमवकमे अणावाहं सि जाव संताणयसि अहारामंसि वा झामथंडिल्लंसि वा अन्नयरंसि वा तह. थंडिल्लंसि अचित्तंसि तओ संजयामेव उच्चारपासवणं वोसिरिज्जा, एवं खलु तस्स० सया जइज्जासि (मू० १६७) त्तिवेभि । उच्चारपासवणसत्तिको सम्मत्तो ॥ ते साधु पोतान के कारण प्रसंगे बीजानु पात्रु ( तृपणी के तुंबडी पहोळा मोढानी) लइ जाय अने ज्या लोको न जुए अथवा | For Private and Personal Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ १०६६॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir न आवे तथा जीवात न होय, तेवा आराम के रहेवाना मकानमां एकांतमां बेसी माटीनी कुंडी विगेरेमां टट्टी के पेसाब करीने ते कुंडी विगेरेने लइ ज्यां निर्जीव स्थान होय त्यां परउवे, आज साधुनुं सर्वस्थ अने समाधि के के स्त्रपरने पीडा न थाय, तेम स्थंडिल जर्बु. “शब्द सप्तक” – चोथुं अध्ययन. जीजा साथे चोथानो आ प्रमाणे संबंध छे, के पहेलामां स्थान, बीजामां स्वाध्याय, त्रीजामां स्थंडिल विगेरेनी विधि बतावी. ते त्रणेमां रहेला साधुने अनुकूल के पतिकूल शब्दो संकाय तो ते सांभळीने साधुए राग द्वेष न करवो, आ संबंधे आला आ अध्ययनना चार अनुयोग्यद्वारमां नाम निष्पन्न निक्षेपामा “शब्द सप्तक" एवं नाम छे, एना नाम स्थापना सुगम निक्षेपाने छोडी द्रव्य निक्षेपो नियुक्तिकार पाछली अडवी गाथावडे बतावे छे. [ द ठाणाई भात्रो वनकसिगं स भावो य ] | दव्यं सहपरिणयं भावो उ गुण य कित्ती य ।। ३२३ ॥ नो आगमधी द्रव्य व्यतिरिक्तमां शब्द पणे जे भाषा द्रव्यो परिणत थाय छे, ते अहिआं लेवां, भावशब्द तो आगमथी जेने | शब्दोमां उपयोग होय, अने नो आगमथी अहिंसादि लक्षणवाळा गुणो समजवा, कारण के आ हिंसा जुठ वगेरथी दूर रहेवुं, ते गुणोथी प्रशंसा पामे छे अने कीर्त्ति तो जे तीर्थकर प्रभुने चोत्रीश अतिशय प्रकट धतां बीजा करतां अधिक रुप संपदायुक्त पोते थवाथी लोकमां भा अन् देव छे, एम मसिद्ध थाय ते कीर्त्ति छे. For Private and Personal Use Only सूत्रम् | ॥१०६६॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥१०६७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नियुक्ति अनुगम पछी तुतं मूत्र आ अनुगममां सूत्र कहेतुं ते छे. भ० मुगद्दाणि वा नंदीस० झल्लरीस० अन्नयराणि वा तह० विरूवरूवाईं साई वितताई कन्नसोयणपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए । से भि० अहावेगझ्याई सद्दाई सुणेइ, तं वीणासद्दाणी वा विपंचीसं० पिप्पी (बद्धी) सगस० तूणयपद्दा० वणयस० तुंबवीणियसद्दाणि वा हुंकुणसहाई अन्नयराई तह० विरूवरूवाई० सद्दाई बितताई कण्णसोपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए । सेनि० अहावेगइयाई सहाई सुणेड़, तं- तालसद्दाणि वा कंसतालसद्दाणि वा लत्तियसदा० गांधियस९ किरिकिरियास० अन्नयरा० तह० विरूव सद्दणि कण्ण० गमणाए । से भि० अहावेग० तं० संखसद्दाणि वा वेणु० सस९ खरमुहिस० परिपिरियास० अक्षय० तह० विरूव० सदाई झुसिराई कन्न० || ( मू० १६८) पूर्वे बतावेलो भिक्षु जो वितत, तत, घन पोकळ, एवा वाजींना चार भेदवाळा मधुर शब्दोने सांभळे, (तो तेने राग थाय) ते सांभळवानी इच्छाथी पोते ते तरफ न जाय. वितत एटले मृदंग नन्दी झालर विगेरे छे तथा वीणा विपंची बद्धीसक (सरणाइ) विगेरे तंत्रीनां वाजां छे. वीणा विगेरेनो भेद तंत्रीनी संख्याथी जाणवो. घन एटले हस्तताल कांसी विगेरे छे. लत्तिकानो अर्थ कांसी छे अने गोहिका एटले काख अने हाथमां राखीने वगाळवानुं बाजुं छे. किरिकिरिया ते वांस विगेरेनी कांबीनुं बाजुं छे, शुषिर ते शंख, वेणु विगेरे पोकल वाजां छे. पण खरमुही ते तोहाडिक छे अने पिरिपिरिचय ते कोलियकना पुटथी जडेली बांस विगेरेनी नळी छे. आवां कोड़ पण वाजत्र वांगतां होय तो साधुए ते तरफ For Private and Personal Use Only सूत्र ॥ १०६७॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 424-7 आचा० सूत्रमू ॥१०६८॥ ॥१०६८॥ - ROCCASSOCICICC न ज. वळी से भि० अहावेग० सं० वप्पाणि वा फलिहाणि वा जाव सराणि वा सागराणि वा सरसरवतियाणि वा अन्न तह. विरूव. सहाई कण्ण० ।। से मि० अहावेत. कच्छाणि वा प्रमाणि वा गहणाणि चा वणाणि वा वणदग्गाणि पश्ययाणि वा पब्वयदुग्गाणि वा अन्नः। अहा० त० गामाणि वा नगराणि वा निगमाणि वा र.यहाणाणि वा आसमपट्ट णसंनिवेसाणि वा अन्न तह० नो अभि० ॥ से भि० अहावे. आरामाणि वा उजाणाणि वा वणाणि वा वणसंडाणि वा देवकुलाणि वा सभाणि वा पवाणि वा अन्नय० तहा०सद्दाई नो अभि० ॥ से मि० अहावे. अट्टाणि वा अट्टालयाणि वा चरियाणि वा दाराणि वा गोपुराणि वा अन्न तह सद्दाई नो अभि० ॥ से भि० अहवे तंजहा-तियाणि वा चउक्काणि वा चच्चराणि वा चउम्मुहाणि वा अन्न तह० सदाई नो अभि० ॥ से भि० अहावे. तंजड़ा-महिसकरणहाणाणि वा वसभक अस्सक० हत्थिक. जाव कविंजलकरणहा अन्न तह नो अभि० ॥ से भि० अहावे. तंज० महिसजुद्धाणि वा जाव कर्विजलजु० अन्न तह. नो ।। से भि. अहावेत. जूहियठाणाणि वा हयजू० गयज० अन्न तह नो अभि०॥ (मु०.१६९) ते साधु कदाच कोइपण जातना शब्दाने खांभळे के वप ते क्यारा छे एटले तेनी सुंदरतानुं वर्णन सांभळे अथवा ते खतरना क्यारा विगेरेमां मधुर गायन विगेरे यतुं होय तो ते सांभळवानी इच्छाथी त्यां न जाय वप्रथी जाणवू के तेज प्रमाणे फलिह सरोवर सागर तलावडीओ जोवा साधुए न जq तथा त्यां वाजींत्र वागतुं होय तो पण सांभळवा न जवू. तेज प्रमाणे कच्छ,म गहन बन अथवा वनमांना पर्वतो अथवा पर्वतनाकिल्ला किल्ला पण जोवा न जवू तथा गाम नगर निगम राजधानी आश्रम पाटण सन्निवेश 2 -13 For Private and Personal Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ १०६९॥ www.kobatirth.org विगेरेमां मधुर शब्द सांभळवा न जनुं तथा आराम उयन वन वनखंड देशं सना परब विगेरेमां वाजां सांभळवा न ज तथा अट्ट अट्टालक चरित दरवाजा तथा नगरना दरवाजे शब्द सांभळवा न जनुं तथा त्रिक चोक चोतरो चोमुख स्थानमां न जवं तथा | पाडा वळद घोडा हाथी विगेरेनां. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ते कपिंजल सुधीनां का शीखववाना स्थानमां जोवा न जवं तथा ज्यां तेमनुं मैथुन थ होय त्यां न जत्रुं, तेम तेमनुं युद्ध थतुं होय अथवा तेमनी क्रिया थती होय ते जोवा न ज से भि० जात्र सुणेइ, तंजहा अक्वाइयठाणाणि वा माणुम्माणियद्वाणाणि वा महताऽऽहयनदृगीय वाईयततीतलतालतुडियपपवाइयहाणाणि वा अन्न० तह० सहाई नो अभिसं० ॥ से भि० जात्र सुणे, तं० कलहाणि वा डिंत्राणि वा डमराणि वाज्जाणिवा वेर० विरुद्धर० अन्न० तह० सदाई नो० ॥ से भि० जान सुणेइ खुट्टियं दारियं परिमुत्तमंडियं अलंकियं निवुज्झमाणि पेहाए एगं वा पुरिसं बहाए नीणिजमाणं पेहाए अन्नयराणि वा तह० नो अभि० ॥ से भि० अन्नपराई विरूव महासवाई एवं जाणेज्जा तंजहा बहुसगडाणि वा बहुरहाणि वा बहुमिलक्खुणि वा बहुपच्चंताणि वा अन्न०० विरूव० महासवाई कनसोपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए । से भि० अन्नयराई विरुव० महस्वाई एवं जाणिज्जा तंजा - इत्थीणि वा पुरिसाणि वा थेराणि वा डहराणि वामज्झिमाणि वा आभरण विभूसियाणि वा गायंताणि वा वाताणि वा नताणि वा हसंताणि वा रताणि वा मोहताणि वा विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं परिभुजंताणि वा परिभायताणि वा विछडियमाणाणि वा विगोवयमाणाणि वा अन्नय० तह० विरूव० महु० कन्नसोय० ॥ से भि० नो इहलोइएटि For Private and Personal Use Only - सूत्रम् ॥९०६९॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ १०७०॥ www.kobatirth.org सदेहिं नो परलोइएहिं स० नो सुएहिं स० नो अमुएहिं स० नो दिट्ठेहिं सदेहिं नो अदिट्ठेहिं स० नो कंतेहिं सहिं सज्जिज्जानो गज्झिना नो मुज्झिज्जानो अज्झविवज्जिज्जा, एयं खलु० जाव० नएजासि ( मू० १७० ) तिमि ॥ सहसत्तिक ।। २-२-४ ॥ तेज प्रमाणे ज्यां कथाओ कहेबाती होय, मापा तोल विगेरे यतुं होय अथवा तेनुं वर्णन थतुं होय त्यां न जनुं तथा मोटा अवाजे नाटक गीत वाजींत्र तंत्री त्रीतल ताल देतथी थतुं होय त्यां सांभळवा न जनुं तथा कजीआ बालकोना खेल डमर अथवा | वे राज्योनी लडाइ होय अथवा बहारवटीया राज्य विरुद्ध फरता होय, ते सांभळे तो त्यां न जाय. अथवा ते साधु एम सांभळे, के कोई सुंदर बालिकाने आखा शरीरे स्नान करावी वस्त्राभूषणथी शणगारी घोडा उपर बेरा, डेली छे तो त्यां न जनुं. अथवा कोइ पुरुषने वध करना लड़ जता होय ते अथवा दुःख देवा संबंधी बीजुं कंड सांभळवा मळे त्यां न जाय, अथवा ते साधु महा पाप आश्रवनां स्थान ते घणां गाडां रथो विगेरेथी युक्त म्लेच्छो अथवा हलका प्रकारना माणसो युक्त होय, त्यां कानने आनंद पमाडनार सांभळवातु मळशे तेवी बुद्धिए न जाय, ते तेज प्रमाणे ज्यां महोत्सवो होय के जेनी अंदर स्त्री पुरुष बुढा बाळक अथवा मध्यम वयनां माणसो सुंदर वस्त्रालंकार पहेरीने गायनो विगेरेनी क्रिया करे छे, त्यां सांभळवानी बुद्धिथी न जाय. हवे वा परमार्थ कमां समजावे छे. आलोक अने परलोकना महा दुःखना भयथी डरेलो एटले आ लोकमां सांभळवाना रसमां मनुष्य विगेरेथी भय छे, साधु Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only सूत्रम् 11309011 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandit Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ___ अने परलोकमां परमाधामी (जमडा) ना मार खावा पडशे एम विचारीने मोह छोडे, अथवा आ लाक के परलोकना खीना आचा0 के देवीना शमोमां न ललचाय, तथा तेवा शब्दो सांभळ्या होय, के नहि, अथवा साक्षात् मळ्या होय के नहि, नो पण नेमां राग सूत्रम् IPI न करे, तेमा गृद्धता न करे, तेमां मुंझाय नहि, न तलीन थाय, अर्थात् जे कानने कबजामा राखी मधुरमा आनंद न माने, हितना ॥१०७१॥ ४ कडवा शब्दोमां खेद न माने. तेन तेनुं पूर्ण साधुपणुं छे. ॥१०७॥ जो तेम इंद्रियोने कवजामां न राखी शब्दो सांभळवा जाय, नो भण, गणवू न थाय, तथा राग द्वेष थाय, ए प्रमाणे बीजा पण आ लोक परलोक संबंधी दुःखो जाणीने विचारवा. रूप सप्तक नामनुं पांच, अध्ययन चोथु समक कहीने हवे रुप सप्तक कहे छे. तेनो आ प्रमाणे संबंध छे. गया उद्देशामां श्रवण इंद्रिय आश्रयी रागद्वेपनी उत्पत्ति निषेधी. तेम अहीं आंखने आश्रयी निषेधशे, आ संबंधे आवेला अध्ययनना नाम नि-निक्षेपामा (रुप सप्तक एकक) नाम हे. रुपना चार प्रकारे निक्षेपा हेनाम स्थापना सुगमने छोडीने द्रव्यभाव निक्षेपा कहेवा नियुक्तिकार गाथा कहे छे. दवं संठाणाई भावी बन्न कसिणं सभावो य । [दव्वं सद्द (रूव) परिणयं भावो उ गुणा य कित्ती य] || ३२४ ।। नो आगमथी द्रव्य व्यतिरिक्तमां पांचे स्थानो परिमंडळ (पूर्ण गोळो) विगेरे आकारो डे, अने भावरुष बे प्रकारे वर्णथी तथा ? स्वभावथी छे, तेमां वर्णयी बधा (पांचे) वर्णो छे अने स्वभाव रुप ते अंदरमा रहेला क्रोध विगेरेथी भापण चढावी कपाळमां सळसे A ल-%DEOALNADroom RICRORESCRICE. For Private and Personal Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० २- ॥१०७२। २-4 -CR-CACA पाडीने आंख लाल करीने अनुचित वचन बोलवां, एथी विपरीत प्रसन्न थइने रागनां वचन बोलवां, कर्तुं छे के रुटस्स खरा दिट्ठी उप्पलधवला पसन्नचित्तस्स । दुहियास ओमिलायइ गंतुमणस्मुस्मुआ होइ ॥१॥ क्रोधीने आंख लाल होय, अने प्रसन्न थाएलानी कमळ जेवी धोळी होय, दुःखी जीवनी मींचायला जेवी होय, अने जवा + सूत्रम् इच्छनारनी खांख उत्सुक होय. MU१०७२॥ से भि० अहावेगइयाई रूवाई पासइ, तं० गंथिमाणि वा वेढिमाणि वा पूरिमाणि वा संघाइमाणि वा कटुकम्माणि वा पोत्थकम्माणि वा चित्तक० मणिकम्माणि का दंतक पत्तछिजकन्माणि वा विविहाणि वा वेढिमाई अन्नयराई० विरू० चक्खुदंसणपडियाए नो अभिसंधारिज गमणाए, एवं नाय वा जहा सद्दपडिमा सव्वा वाइत्तवज्जा रूवपडिमाचि ।। (मू. १७१) पञ्चमं सत्तिकयं ।। २-२-६।। ते भाव साधु गोचरी विगेरेना कारणे बहार फरतां जुदी जुदी जातिनां रुपो जुए, तेमां मोह न करे, हवे ते रुपानी विगत बतावे छे. फुलो विगेरेथी साथीओ विगेरे मुंथीने बनाव्यो होय, तथा वस्त्र विगेरे वींटीने पुतळो विगेरे बनावेल होय, तथा अमुक चीजो पुरीने पुरुष विगेरेनो आकार बनाव्यो होय, तथा कपडांना ककडा शीवी ने कांचळी विगेरे बनावे-ते संघातिम छे, लाकडानां रथ विगेरे काष्ट कर्म छे. तथा पुस्तको, लेपर्नु काम, चित्रो, तथा जुदां जुदां मणि रत्नोवडे सायीा विगेरे बनावेल होय, हाथीदांतनी पुतळी विगेरे होय, पांदडां छेदीने आकार बनाव्यो होय, आ प्रमाणे अनेक मनोहर वस्तुभो देखीने आंखने प्रसन्न करवानी इच्छाथी न जाय, अर्थात् जयूँ तो दूर रहो पण मनमां अभिलाषा पण देखवानी न करे, तथा पूर्वे शब्दोना अधिकारमा बताव्यु ते R For Private and Personal Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥१०७३ ।। www.kobatirth.org प्रमाणे अहीं पण योज के आलोक संबंध के परलोक संबंधी सांभळं होय के न सांळ होय, देख्धुं होय के नहि देख्युं होय, तो ते ते दरेक जातिना रुपमां राग गृद्धता, मोह के तल्लीनता न करवी, जो रुपमां राग विगेरे करशे तो आ लोकमां मनुष्य विगेरेथी अने परलोकमां परमाधामीना मार पडशे. परक्रिया नामनुं छटुं अध्ययन. रुप अध्ययन कहने पर क्रिया नामनुं छठु अध्ययन कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गयां वे अध्ययनमां रागद्वेपनी उत्पत्तिनां निमित्त मधुर शब्द अने रुपनो निषेव बताव्यो, तेनेज अहीं बीजे प्रकारे कहेशे, आवे संबंधे आवेला अध्ययनना नाम निष्पन्न निक्षेपामां परक्रिया एवं आदान पदवडे नाम है, तेमां प्रथम पर शब्दनो छ मकारनो निक्षेप अडधी गाथावडे कहे छे. कं परकिक त १ दन्न २ माएस ३ कम ४ बहु ५ पहाणे ६ । 'पर' शब्दो छ प्रकारे निक्षेगे छे, नाम स्थापना सुगम है, भने द्रव्यादि पर पण एकेक छ प्रकारे हे. १ तत्पर २ अन्यपर ३ आदेशपर ४ क्रमपर ५ बहुपर ६ प्रधानपर है, तेमां प्रथम द्रव्यपर तेजरुपे वर्त्तमानां विद्यमान होय, जेमके एक परमाणुथी बीजो परमाणु जुदा छे अन्यपर ते अन्यरुपे पर छे, जेमके एक वे अणुवालो, ऋण अणुवाको तेमज वे अणुवाळो एक अणुवालो के ऋण अणुवाळो छे, आदेशपर ते आदेश (आज्ञा) अपाय छे ते, जेमके कोइ कार्यमां मजुर विगेरेने रखाय छे ते आदेशपर छे, पण 'क्रमपर' तो चार प्रकारे हे, तेमां द्रव्यथी क्रम पर ते एक प्रदेशिक द्रव्यथी वे प्रदेशिक द्रव्य छे For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥१०७३॥ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० सत्रम - ॥१०७४। - - ए प्रमाणे चे अणुकथी त्रण अणुक विगेरे हे. क्षेत्रमा एक प्रदेशमा रहेल तेनाथी के प्रदेश अवगाहमा रहेलं है, तथा काळथी एक समयनी स्थितिवाळाथी वे समयनी स्थितिवाळू विगेरे छे, भावथी क्रम पर ते एक गुण काळथी वे गणुं काळ विगेरे छे. ए। प्रमाणे बधा रंगमां जाणवू. ___"बहु पर" ते बहुपणे पर एटले एकथी बीजु बहु होय ते जाणवू जेमके ॥१०७४॥ जीवा पुग्गल समया दब्ध पएसा य पन्जवा चेव । थोबाणताणंता विसेसअहिया दुबेणंऽता ॥१॥ जीव साथी थोडा छे तेवी पुद्गला अनंतगुणा हे, तेनाथी समयो द्रव्यना प्रदेशो अने तेनां पर्यायो अनंत तथा विशेष अधिक | छ. फक्त बेमां अंनंतगणा छ. .. प्रधानपर ते बे पगवानामां तीर्थकर ले तथा चोपगामां सिंह विगेरे अने अपदमा अर्जुन, सुवर्ण, फणस विगेरे झाडो छ, ए8 प्रमाणे क्षेत्रकाळ भाव पर विगेरेने पण तत्पर विगेरे छ प्रकारे क्षेत्र विगेरे प्रधानपणाथी पहेलांनी माफक पोतानी बुद्धिए योजवां सामान्यथी तो जंबूद्वीपक्षेत्रथी पुष्कर विगेरे क्षेत्रो पर छे तथा काळ पर ते बरसादनी रुतुथी शरद रुतु हे, भावपर औदयि| कथी औपशमिक विगेरे हे. हवे मूत्रानुगममा मूत्र उच्चार, जोइए ते आ छे. परकिरियं अज्झत्थिय संसेसियं नो तं सायए नो तं नियमे, सिया से परो पाए आमजिज्ज वा पमजिज वा नो तं सायए नो तं नियमे । से सिया परो पायाः संवाहिज वा पलिपदिज्ज वा नो तं सायए नी त नियमे । से सिया परो पायाई कुसिज्ज वा रइज्ज वा नो तं सायए नो नियमे । से सिया परो पायाई तिल्लेण वा ५० बसाए वा वा मक्खिन्ज For Private and Personal Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir P A आचा० सुत्रम् ॥१०७५॥ ॥१०७५॥ NGANA वा अभिगिज्ज वा नो तं२। से सिय परो पायालुद्धेण वा ककेण वा चुनेण का वण्णेण वा अल्लो ढिज्ज वा उच्चलिज्ज वा नो तं २ से सिया परो पायाई सीओदगवि यडेण वा २ उच्छोलिज्ज वा पहोलिज्ज वा नो तं० । से सिया परो पाषाई अनयरेण विलेवण जाएण आलिंपिज्ज वा विलिंपिज्ज वा नो तं । से सिया परो पायाई अनयरेण धृवणजाएण धृविज्ज वा पधृ० नो तं २ । से सिया परो पायाभो आणुयं वा कंटयं वा नीहरिज्ज वा विसोहिज्ज वा नो तं० २ से सिया परो पायाओ पूर्व वा सोणियं वा नीहरिज्ज वा विसो० नो तं०२ से सिया परो कार्य आमज्जेज्ज वा पमज्जिज्ज वा नो तं सायए नो तं नियमे । से सिया परो कार्य लोट्टेण वा संवाहिज्ज वां पलिमदिज्ज वा नो तं०२। से सिया परो कार्य तिल्लेण वा घ. वसा० मक्विज्ज वा अभंगज्ज वा नो तं० २। से सिया परो कार्य लुटेण वा ४ उल्लोढिज्ज वा उबलिज्न वा नो तं०२१ से सिया परो कार्य सीओ० उसिणो० उच्छोलिज्ज वा प० नो तं०२। से सिया परो कार्य अन्नयरेण विलेवणजाएग आलिंपिज्ज वा २ नो तं० २। से० कार्य अन्नयरेण धृवणजाएण धृविन वा प० नो तं० २। से० कायसि वणं आमजिज्ज वा २ नो तं २। से० वर्ण संवाहिज्ज वा पलि. नो तं० । से० वर्ण तिल्लेण वा घ०२ मक्विज वा अभं० नो तं० २। से० वर्ण लुद्धेण वा ४ उल्लोडिज वा उब्बलेज वा नो तं० २। से सिया परो कार्यसि वर्ण सीभो. उ. उच्छोलिज्ज वा १० नोतं.२ से.सि वर्ण वा गंर्ड वा अरई वा पुलयं वा भगंदलं या अन्नयरेण सत्यजाएणं अछिदिज्ज वा विच्छिदिज्ज वा नो तं० २ । से सिया परो अन्न० जाएण आच्छिदित्ता वा विञ्छिदित्ता वा पूर्व वा सोणियं वा नीहरिज्ज वा वि० नो तं० २। से० कार्यसि गंड वा अरई या पुलइयं +AA RECA.. -% .. For Private and Personal Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ICA आचा० CA- सूत्रम् ॥१०७६॥ - - www.kobatirth.org वा भगंदलं वां आमज्जिज्ज पा २ नो तं० २ । से. गंडं वा ४ संवाहिज्ज का पलि. नो तं०२। से० काय गंड वा ४ तिल्लेण वा ३ मक्खिज्ज वा २ नो तं०२। से० गंडं वा लुढेण वा ४ उल्लोढिज्ज वा उ० नो तं०२। से गंडं वा ४ सीओदग २ उच्छोलिज्ज वा प० नो तं०२ । से- गंडं वा ४ अन्नयरेणं सत्यनाएणं अच्छिदिज्ज वा वि० अन्न सत्य. अच्छिदित्ता वा २ पूर्व वा २ सोणियं वा नीहरू विसो० नो त सायए २ । से सिया परो कार्यसि सेयं वा जल्लं वा नीहरिज वा वि० नो तं० २ । से सिया परो अच्छिमलं वा कण्णमलं वा दंतमलं वा नहम नीहरिज वा नो २ नो तं० २। से सिया परो दीहाई वालई दीहाई वा रोमाई दीहाई भमुहाई दीहाई कखरोमाई दीहाई वस्थिरीमाई कप्पिज्ज वा संठविजन वा नो २ से सिया परो सीसाओ लिक्खं वा जयं वा नीहरिज्ज वा वि० नो तं० २। से सिया परो अंकसि वा पलियंकसि वा तुयहावित्ता वा पायाई आमन्जिज्ज वा पम०, एवं हिहिमो गामो पायाइ भाणियव्यो । से सिया परो अंकसि वा २ तुयहावित्ता हारं वा अद्धहारं वा उरत्थं वा गेवेयं वा मउ वा पालंबं वा मुवन्नमुत्तं वा आविहिज्ज वा पिणहिज्ज वा नो तं० २। से० परो आरामंसि वा उज्जाणंसि वा नीहरित्ता वा पविसित्ता वा पायाई आमज्जिज्ज वा प० नो तं साइए ।। एवं नेयव्या अन्नमन किरियावि ।। (मू० १७२) । अहीं साधुधी पर कोइपण गृहस्थ होय, ते कंइपण क्रिया साधुना अंग उपर करे, तो ते समये साधुए ते क्रियाने कर्मबंधन, कारण जाणीने तेने मनथी पण इच्छे नहि. तेम वचनथी के कायायो पण न करवा दे. आ पर क्रियाने खुलासाथी समजावे छे, कोइ अन्य श्रावक धर्म श्रद्धायो साधुना पग उपर लागेली धुळ ने कट विगेरेथा दर - - - - - - - For Private and Personal Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करे अथवा तेवू चीजें कई प्रमार्जन विगेरे करे तेने साधु मन, वचन, कायाथी सारुं न जाणे, तेम चोळे, मसळे, तो पण सारुं न जाणे तेम तेल विगेरेथी के बीणा पदार्थथी अभ्यंगन करे अथवा लोधर विगेरेथी उद्वर्जन करे तथा ठंडापाणी विगेरेथी छंटकाव करे । सत्रा मतेम कोइ सुगंधी द्रव्यथी लेप करे तेम विशिष्ट धुपथी शरीर सुगंधी बनावे अथवा पगमां लागेलो कांटो काढे अथवा पगमाथी ॥१०७७॥ | खराब परु के लोही काढे तो तेने सारुं मन वचन कायाथी न जाणे जेवी रीते पगर्नु कहा, ते प्रमाणे अंगतां पण कृत्य जाणी ॥१०७७॥ लेबां. तेज प्रमाणे गुमडां आधी पण जाणवु तथा शरीरमां नस्तर विगेरे मारीने के मलम विगेरे लगाडीने गुमडां विगेरे सारां में करे तो ते मन वचन कायाथी अनुमोदे नहिं. | अथवा शरीर उपरथी परसेवो के मेल दूर करे तो पण सारुं न माने तथा आंखनो काननों दांतनो के नखनो मेल दूर करे तो सारुं न माने, तेम माथाना के शरीरना वाळ रोम के भांपणाना के काखना वाळ के गुप्तभागना वाळ कापे के सरखा करे। तो सारुं न माने बळी ते साधुने अंकमां अथवा पल्यंकमां तेज प्रमाणे हार अर्धहार कंठी गळचवो पहेरावे अथवा मुकुट के झुमखा पहेरावे. कंदोरो पहेरावे तेने सारुं न जाणे; ते वखने साधु आराम अथवा उद्यानमां होय त्यां गृहस्थ आवीने उपरनी क्रिया करे ४ तो साधु तेने सारुं न जाणे. से सिया परो दैणं असुद्धणं वा वइचलेण वा तेइच्छं आउट्टे से० अमुर्तण बदबलेणं तेइच्छं आउट्टे ।। सेसिया परो गिलाणस्स सचित्ताणि वा कंदाणि वा मूलाणि वा तयाणि वा हरियाणि वा खणितु कट्टित्तु वाकट्टा वित्त वा तेइच्छं आउट्टाविज्ज नो तं सा. बडवेयणा पाणभृयजीवसत्ता वेयण वेइंति, एयं खलुक समिए सया जए सेयमिणं मनिज्जासि 4-02-%२.A.XAX For Private and Personal Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ १०७८ ॥ www.kobatirth.org (सू० १७३ ) तिमि । छट्टओ सत्तिकओ ।। २-२-६ ॥ ते साधुने बीजो कोइ माणस शुद्ध अथवा अशुद्ध वचनवळ ते मंत्र विगेरेथी रोग समावे ( बिंदु विगेरे उतारे ) तो पोते सारु जाणे नहिं तथा बीजो मांदा साधुनी दवा माटे कंदमूळ विगेरे खोदीने खोदावीने लावीने दवा करे तो तेने सारं न जाणे बनी शके तो दुःख भोगवतां आवी भावना भाववी के पूर्वे जीवे कर्म कर्या छे अने तेनां फळ भोगवे छे माटे बीजा कंदमूळ विगेरेने | दुःस्व दइने तथा बीजा प्राणीओने शरीर मन संबंधी पीडा आपीने पोते फरीथी दुःख भोगवशे, कारणके पाणी भूत जांव सत्रो छे, ते हाल दरेक पोताना पूर्वे करेला कृत्यना विपाकने भोगवे छे कं छे के पुनरपि सहनीयो दुःखपाकस्तत्रायें न खलु भवति नाशः कर्मणां सञ्चितानाम् । इति सहगणयित्वा यद्यदायाति सम्यक्, सदसदिति विवेकोऽन्यत्र भूयः कुतस्ते ? ।। १ ।। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हे साधु! तारे आ दुःखनो विपाक सहेवो जोइए; कारण के पूर्वे करेला कर्मोनो संचय करेलो छे ते समजीने हवे पछी जे जे सुख दुःख आवे ते समभावे सहन कर, ए सिवाय बीजे तारो विवेक क्यांथी होय? आ प्रमाणे छट्टाथी तेरमा सुत्री सात अध्ययन समाप्त छे. पूर्वे कला प्रमाणे बीजाए करेली क्रिया अनुमोदवी नहिं. तेम अहीं सातमा अध्ययनमां अन्य अन्य क्रिया पण करवानी निषेध करे छे. आ प्रमाणे छट्ठा सातमा अध्ययननो संबंध छे, नाम नि. निक्षेपामा अन्यो अन्य क्रिया एवं नाम छे तेनी बाकी रहेली reat गाथाने नियुक्तिकार कहे छे. अने छकं तं पुण तदनमाएसओ चैत्र || ३२५ || For Private and Personal Use Only सूत्रम् ૫૨૩૮૫ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir AA-% A ROCHECORGICA अन्यना छ प्रकारे निक्षेपा के. नाम-स्थापना मुगम छे. द्रव्य अन्य निक्षेपामां पर शलमा जे खुलासो को छे तेम अहीं पण आचा०1४ जाणवू, अहीं परक्रिया के अन्य क्रिया कारण प्रसंगे गच्छवासीने करवी पडे तेमां जयणा रास्ववी. गच्छमाथी नीकळेलाने औषध | सूत्रम् विगेरे क्रियानुं प्रयोजन नथी. ते नियुक्तिकार बतावे छे. ॥१०७९॥ जयमाणस्स परो जं करेइ जयणार नत्थ अहिगारो। निप्पडिकम्मरस उ अनमन्त्रकरणं अजुत्तं तु ॥ ३२६ ॥ ॥१०७९॥ सत्तिकाणं निज्जुत्ती समना ।। साधुए जयणाथी काम करवू कराव, रागद्वेष न करवा, पण जीनकल्पीने ते घटतुं नथी, तेओ दवा विगेरेथी. दूर छे, 12 से भिक्खू वा २ अन्नमन्त्रकिरियं अज्झत्थियं संसेइयं नो तं सायए २॥ से अन्नमनं पाए आमजिज्ज वा० नो तं०, सेसं त चेब, एयं खलु० जइज्जासि (मु.१७४) तिबेमि ॥ सप्तमम् ॥ २-२-७॥ अन्यो अन्य एटले परस्पर क्रिया ते माधुए मांहो मांहे पण वास कारण विना चोळ, चांपवु दाबनुं विगेरे न कर. जरुर पडे करतां राग द्वेष न करगे. आप्रमाणे बीजी चुलिका समाप्त थइ. भावना नामनी त्रीजी चूलिका. बीनी कहीने हवे श्रीजी चूलिका कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे, के आ आचारांग मूत्रनो विषय प्रथम वर्धमान स्वामिए 3 करो, ते उपकारी होवाथी तेनी वक्तव्यता खुलासाथी कहेचा तथा पंचमहाव्रत लीधेला साधुए पिंड शय्या विगेरे ( संयम शरीर 3 RA -. For Private and Personal Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Achagya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit कावा 3/ रक्षार्थे ) लेवा, ते. बे चूलिकामां बताव्यु. तेज प्रमाणे महाव्रतोने बरोबर पाळवा माटे भावना भाववी, ते आ त्रीजी चूलिकामां 8 आचा० कहेशे. तेथी आवा संबंधे आवेली आ चूलिका (चूडा) ना चार अनुयोग द्वार कहेवा, तेमां उपक्रम द्वारमा रहेलो आ अर्याधिकार छे, के अप्रशस्त भावना त्यागीने प्रशस्त भावना भाववी, नामनि-निक्षेपामा 'भावना' ए नाम छे, तेना नाम स्थापना विगेरे चार ॥१०८० | प्रकारनो निक्षेप छे, नाम स्थाप्ना मुगमने छोडी द्रव्यादि निक्षेपो नियुक्तिकार कहे छे. Pu१०८०॥ दवं गधंगतिलाइएसु सीउण्हविसहणाईसु । भावंमि होइ दुविहा पसत्य तह अप्पसत्था य ॥ ३२७ ॥ नो आगमथी, द्रव्य भावना व्यतिरिक्तमा जोइ वगेरेना फूलो विगेरे गंधवाना द्रव्यथी जे तेल वगेरे द्रव्य (पदार्थ) मा जे।। वासना (सुगंधी) लावे, ते द्रव्य वासना छे, तथा शीतमां उछरेलो माणस शीत (टंड) सहे, उष्ण देशमां उछरेलो ताप सहे, तथा कसरत करनारो अनेक कायकष्ट सहे, तेज प्रमाणे बीजा कोइ पण पदार्थ वडे अथवा पदार्थनी जे भावना (धर्म समज्या विनानी) होय ते द्रव्य भावना छे, अने भाव संबंधी जे प्रशस्त अ प्रशस्त भेद बडे वे प्रकारनी भावना छे, तेमां प्रथम अप्रशस्त कहेछ,, पाणिवहमुसाबाए अदत्तमेहुणपरिग्गहे चेव । कोहे माणे माया लोभे य हवंति अपसत्था ।। ३२८ ॥ जीवहिंसा जूठ चोरी मैथुन परिग्रह क्रोध मान माया अने लोभ ए नव पापोमा प्रथम शंकाथी अने पछी वारंवार निठुर। थइने निःशंकपणे वर्ते, ते अप्रशस्त भावना कयु छे केः करोत्यादौ तावत्सघृणहृदयः किश्चिदशुभ, द्वितीय सापेक्षो विमृशति च कार्य च कुरुते । तृतीयं निःशङ्को विगतघृणमन्यत्प्रकुरुते, ततः पापाभ्यासात्सततमधुमेषु परमते॥ REGA For Private and Personal Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥१०८१॥ www.kobatirth.org मुज्ञपुरुषो भव्यात्माओने बचाववा उपदेश आपे छे के जीवहिंसा विगेरे पापो बाळक बुद्धिना माणसो प्रथम डरीने छुपां | करे छे. के रखेने मारी लोकमां निंदा थशे, पण त्यां कुटेव न छुटे तो पछी अपेक्षा विचारी कुयुक्ति लगाडीने जाहेर पाप करे छे, त्यार पछी निःशंक थइने लज्जा दयाने छोडी नवां नवां पाप करे छे, अने छेवटे पापना अभ्यासथी हमेशां पापमांज रमे छे. प्रशस्त भावना. दंसणनाणचरिते तववेरग्गे य होइ उ पसत्था । जा य जहा ता य नहा लक्खण बुच्छं सलक्खणओ ॥ ३२९ ॥ दर्शन ज्ञान चारित्र तप वैराग्य विगेरेमा जे प्रशस्त भावना होय छे, ते प्रत्यकने लक्षणत्री कहीश. दर्शन भावना. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तित्थगण भगवओ पत्रयणपावयणि अइसइङ्काणं । अभिगमणनमणद रिसण कित्तणसंपूणाथुणणा ॥ ३३० ॥ तीर्थकर मञ्जु बार अंग (जैन सिद्धांत) जेनुं बीजुं नाम गणिपिटक ( भगवंतना वचन रूप रत्नोने राखवानो पेटारो ) तथा मावचनि ते गणधरो तथा महान प्रभाविक आचार्यो युग प्रधांनो तथा अतिशय ऋद्धिवाळा केवलज्ञानी मनःपर्यव तथा अवधिज्ञान तथा चदपूर्वी तथा आमर्श औषधि लब्धिधारक मुनिओ विगेरेनुं बहु मान करवा सामे जड़ने दर्शन कर तेमना उत्तम गुणोने | प्रशंसवा. सुगंधथी पूजन स्तोत्र वडे स्नवन करं, ( आमां देव मनुष्यने जे उचित होय ते करबु . ) आ प्रमाणे हमेशां करवाथी दर्शन शुद्धि थाय छे, जम्मा भिसेयनिक्खमणचरणनाणुप्पया य निव्वाणे । दियलो अभवणमंदरनंदीसरभोमनगरेसुं ।। ३३१ ।। For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥१०८१ ॥ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra IA Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करन सत्रम ॥१०८२॥ www.kobatirth.org अट्टावयमुजिते गयग्गपयागपयए य धमचके य । पासरहावंतनगं चमरुपायं च वंदामि ।। ३३२ ।। तीर्थकरोनी जन्मभूमि, दीक्षा लेवाना वरघोडामां, चारित्र लीधुं ते जग्या, तथा केवळ ज्ञान तथा निर्वाण भूमि, तथा देवलोकमां आचा० मेरु पर्वत, नंदीश्वर द्वीप विगेरे तथा पाताळनां भवनोमां जे शाश्वता जिनेश्वरनां विंधो छ, तथा अष्टापद गिरनार दशाणर्णकूटमा ॥१०८२॥ तथा तक्षशिलामां धर्म चक्रना स्थानमां, तथा अहिछत्रा नगरीमा ज्यां धरणेंद्रे पार्श्वनाथ प्रभुनो महिमा को छे, तथा रथावत पर्वत्त ज्यां वज्र स्वामिए पादपोपगमन अणशण कर्यु छ, तथ ज्यां वर्धमान स्वामीने आश्रयी चमरेंद्रे उत्पतन कयु छे. आ बधा से स्थानोमा जइने यथायोग्यपणे वंदन पूजन स्तवन ध्यान करवाथी दर्शन शुद्धि थाय छे. गणियं निमित्त जुत्ती संदिही अवितहं इमं नाणं । इय एग मुवगया गुणपञ्चाया इमे अत्था ।। ३३३॥ व गुणमाहप्पं इसिनामकित्तणं सुरनरिंदपूया य । पोराणचेइयाणि य इय एसा दंसणे होइ ।। ३३४ ॥ नैन सिद्धांतने जाणनारा जे महान साधुपुरुषो छे. तेमनामां गुणने आश्रयो आ बाबतो छे, जेमके बीजगणित विगेरेमां कोई पार पामेलो होय तथा ज्योतिषना आठे अंगमां पत्रीण होय तथा दृष्टिवाद नामना बारमा अंगमां बतावेल तमाम दर्शनोनी बतावेली ४/ जुदी जुदी युक्तिओने पोते जाणे अथवा द्रव्यना संयोगोने अथवा हेतुओने जाणे. तथा सम्यग् ("अविपरीत" ) दृष्टि होय के जेथी देवताओथी पण पोते चलयमान् न थाय. व तथा अवितथ जेनुं ज्ञान होय आवा पवित्र आचार्य विगेरेना गुणोनी प्रशंसा करतां पोताना आत्मानी श्रद्धा निर्मळ थाय छ, 13/ तेज प्रमाणे कोइ पण गुण- वर्णन करतां ते पवित्र पुरुषना गुणो मळे के, तथा मंदबुद्धिवाळाने तेवा गुणो कीर्तन न थाय तो For Private and Personal Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तेवा पूर्व महर्षिनां नामो लेबाथी पण धर्ममां श्रद्धा थाय छे, अथवा तेवा पुरुषने सुरनरना स्वामिओए पूज्या ते कथा सांभळतां आचाका अथवा पुराणां चैत्योने पूजवाथी के तेवी बीजी क्रिया करवाथी तेओने गुणोनी वासना मळनाथी दर्शन शुद्धि थाय छे, ते दर्शननी । सुत्रम् | प्रशस्त भावना के. ज्ञान भावना. ॥१०८३॥ ततं जीवाजीचा नायन्ना जागणा इहं दिट्ठा । इह कनकरणकारगसिद्धी इह बंधमुक्खो य ॥ ३३५ ॥ ॥१०८३॥ बद्धो य बंधहेउ बंधणबंधप्फलं सुकहियं तु । संसारपवंचोऽवि य इडयं कहिओ जिणवरेहिं ।। ३३६ ॥ नाणं भविस्सई एवमाइया वायणाइयाओ य । सज्झाए आउत्तो गुरुकुलबासो य इय नाणे ॥ ३३७ ॥ जीनेश्वरनुं वचन जेवी रीते पदार्थों छे तेवी रीते संपूर्ण पदार्थो वर्णन करे छे, तेथी ते पाचन कहेवाय छे. अने ते ज्ञान 8 भणबाथी मोक्षनुं प्रधान अंग सम्यकदर्शन प्रगट करे छे. कारण के तत्वोनुं स्वरूप जाणीने तेमां श्रद्धा करवी तेज सम्यग । दर्शन के. जीव, अजीव, पुन्य, पाप, आश्रत्र, संपर बंध, निर्जरा अने मोक्ष ए नव तत्त्वो छे, ते नव पदार्थोने नवतत्व ज्ञानना अर्थीए हाबरोबर जाणवा जोइए अने ते जाणवानुं साधन जिनेश्वरना वचनमाज छे. व बळी आ जिनवचनमांज परमार्थ रुप छेवटचें कार्य मोक्ष छे ते मोक्ष मेळववानी क्रिया करवामां महान उपकारक सम्यगदर्शन दज्ञान-चारित्र मुख्यपणे छे, कारक (क्रिया करनारो) साधु सभ्यग दर्शन विगेरेनुं अनुष्ठान बरोबर करनार छे अने ते प्रमाणे क्रिया करवाथी आज जैन, दर्शनमा छेवटे मोक्षनी प्राप्ति के तेज क्रियासिद्धि जाणवी तेने बतावे के. RECAUGU For Private and Personal Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथम कर्मबंधननुं स्वरूप जाणवू अने तेमां विरक्त थर्बु तेथी कर्मक्षय थतां मोक्ष प्राप्ति थाय, आवो क्रिया बौद्ध विगेरे दर्शनमां | दिन होवाथी मोक्षनी क्रियासिद्धि पण अशक्य छे. आचा० 1 सूत्रम् ___आ प्रमाणे प्रथम ज्ञान भणवाथी अने ते प्रमाणे वर्त्तवाथी ज्ञान भावना थाय छे तथा आठ प्रकारना कर्मना पुद्गलोथी जीव ॥१०८४॥ दरेक प्रदेशे बंधाएलो छे, तथा मिथ्यात अविरति प्रमाद कषाय अने योगो कर्म बंधनना हेतुश्री छे अने आठ प्रकारना कर्मवर्गणानुं ID१०८४॥ रुप पूर्वे कह्या प्रमाणे बंधन छे अने ते उदय आवतां एनुं फळ चार गतिवाळा संसारमा भ्रमण करीने सुख दुःखने भोगववान छे. है आ बधुं जिनवचमांज कहेलुं छे. __अथवा दुनियामां जे कंइ सुभाषित हितकारक वचन छे ते अहीं प्रवचनमां कहेलुं छे ते ज्ञानभावना छे. वळी आ जिनवचनमां आ संसारनुं जे विचित्र स्वरुप छे ते विस्तारथी कडं छे. त तथा हुँ निर्मळ भावे भणीश तो मारुं ज्ञान वधारे निर्मळ थशे एवी ज्ञानभावना भाववी अर्थात् रोज रोज नवु नवु ज्ञान संपामदन करवू, आदि शब्दथी एकाग्रचित्त विगेरे गुणो आ ज्ञानथी थाय छे. वळी अज्ञानी जे कर्म करोडो वरसे खपावे छे तेने ज्ञानी एक श्वासोश्वासमा खपावे छे. आवां कारणोथी ज्ञान भणवू, एटले ज्ञाननो संग्रह थाय. कर्मनी निर्जरा थाय भूली न जवाय अने स्वाध्याय करतां चित्तमां आनंद है रहे आ कारणोथी ज्ञानभावना वडे दरेक साधुने गुरुकुळवास थाय छे ते बतावनारी गाथा कहे छे. "णाणस्स होइ भागी धिरयरओ दंसणे चरित्ते य । धन्ना आवकहाए गुरुकुलबासं न मुश्चन्ति ॥ १॥" MARACCORCHAR For Private and Personal Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir KA- क CC - - ज्ञाननो भागी थाय, श्रद्धा अने चारीत्रमा स्थिर चित्तवाळो थाय, आवां कारणोथी जेओ गुरुकुलबास नयी मुक्ता, तेवा । आचा०12 पुरुषोने धन्य छे. आवी ज्ञाननी भावना जाणवी. हवे चारित्रनी भावना कहे हे. सूत्रम् साहुमहिंसाधम्मो सच्चमदत्तविरई य बंभं च । साहु परिग्गविरई साहु तो बारसंगो य ।। ३३८ ।। वेरगमप्पमाओ एगत्ता (ग्गे) भावणा य परिसंगं । इय चरणमणुगयाओ भणिया इत्तो तबो वुच्छं ॥ ३३९॥ H॥१०८५॥ ___ अहिंसादि लक्षणवाळो जैनधर्म श्रेष्ट छे. आ पहेला व्रतनी भावना छे तथा आ जिनेश्वर वचनमा निर्मळ सत्य छे तेवू चीजे | नथी. आ बीजा महाबतनी भावना छ, त्रीजा व्रतनी भावनामां अहीं पारको माल न लेवानुं बरोबर बताव्युं छे, चोथा महाव्रतनी भावनामां ब्रह्मचर्यनी नववाहो पाळवार्नु अहीं बताव्यु छे, पांचमां महाव्रतनी भावनामां जरुरनां उपकरण सिवाय परिग्रहर्नु त्यागपणुं 8 | सर्वोत्तम जिन वचनमां बताव्यु छे चार प्रकारनो तप पण अहीं इंद्रियोना विजय माटे तथा कर्मो खपाचवा माटे अहीं बताव्यो छे. वैराग्य भावनामा संसारनां देखीतां मुखो परिणामे तथा अंतरदृष्टिए जोतां दुःखरुप छे माटे विष्टा समान जागीने दरथी 18 त्यागवा योग्य छे एम भाव... अप्रमाद भावनामा जाणवू के जे जीवो दारु विगेरेना कुव्यसनां के क्रोधादि करीने के इंद्रियोने वश थइ केवां दुःख भोगवे र ते विचारी पांचे प्रमादोने छोडवानुं अहीं छे. एकाग्रभावनामां आ गाथा विचारवी. " एको मे सासओ अप्पा, णाणदंसणसंजुओ । सेसा मे बहिरा भाषा, सत्वे संजोगलक्खणा ॥१॥" - - ब-ब-CACA - - - - न For Private and Personal Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - सूत्रम् १०८६॥ - www.kobatirth.org जे कोइ संसारी जीव के साधु देखीता मनोहर विषयोथी मुंझाइने विहलथाय अथवा तेवा सुंदर विषयोना वियोगमां घेलो आचा० | थाय तेव। पुरुषने चित्तामां अपूर्व शान्ति प्राप्त करवा आ उपदेश छे के तु तारा हृदयमा आ प्रमाणे विचार, के मारो आत्मा मा । निरंतर रहेनारा जन्म मरणथी मुक्न ज्ञान दर्शनना लक्षणबाळो छे, बाकी, जे कंइ शरीर विगेरे चलायमान देखाय छे ते कर्मना में ॥१०८६॥ संयोगी मने मळेलुं छे, हुं तेनाथी जुदो छु मारुं स्वरूप चेतन छे अने शरीर विगेरे जड छे. (आ निश्चय नयनी भावना जाणवी.) आ भावनाओ रुपिओनु अंग छे अने चारित्रने आश्रयी (टेको आपनार) हे. (हवे तपनी भावना कहे छे.) किह मे हविजऽवंझो दिवसो ? किं वा पहू तवं काउं? को इह दब्वे जोगो खित्ते काले समयभावे ? ॥ ३४०॥ साधुए निर्मळ चारित्र पाळवा हमेशा चितवनकर, के विगइओ विगेरे त्यागीने मारो दिवस हमेशां क्यारे सफळ थशे ? तथा है क्यो तप करवाने शक्तिवान छ ? तथा क्या द्रव्य विगेरेमा मारो निर्वाह थशे ? आबुं चिंतव, तेमां बने त्यांमुधी साधुए द्रव्यमां #उत्सर्गथी बाल चणा विगेरे वापरवा, क्षेत्रमा ज्यां घी दुध मळे के लुखा रोटला मळे तो पण संतोषथी विहार करवो, काळमां ठंडीमां के उनाळामा विहार करवो तथा भवमा हुँ सानो होबाथी आ तप करवाने शक्तिवान छु आवी रीते द्रव्य क्षेत्र काळ भावथी विचारी| | यथाशक्ति उपकरण विगेरे जोइतांज राखीने परिसहो सहेवा तप करवो. तत्वार्थमूत्रना छठा अध्यायमा २३ मा मृत्रमा का छे । के यथाशक्ति त्याग अने तप करवो. उच्छाहपालणाए इति (एव) तवे संजमे य संघयणे । वेरग्गेऽणिच्चाई होइ चरिते इह पगयं ॥ ३४१ ॥ - - - SHRIME क ट For Private and Personal Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir + सूत्रम् RCACA- तथा अणसर विगेरे तपस्यामां पोतानुं बळ अने वीर्य न गोपवतां उत्साह राखयो अने लीधेला तपने पुरो पाळबो. आचा “तित्थयरो चउनाणी सुरमहिओ सिज्झि अब्बयधुवम्मि । अणिगृहिअबलविरिओ सव्वत्थामेमु उज्जमइ ॥ १ ॥ कि पुण अवसेसेहिं दुक्खक्खयकारणा सुविहि एहिं । होइ न उज्जमिअव्वं सपञ्चवायंमि माणुस्से ? ॥ २॥" ॥१०८७॥ तीर्थकर दिक्षा लेतांज चार ज्ञानी थाय छे, देवता पूजे छे, निश्चमोक्षमा जवाना हे, आटलं छतां पण पोतार्नु घातीकर्म खपाववा बळ वीर्यने न गोपावतां अघोर तपश्चर्या करे . तो ते सिवायना बीजा सारा साधुभो दुःखनो क्षय करवा अने मनुष्य जीवन अनेक विघ्नोवाळु छे तो तेमणे शामाटे पुरो उद्यम न करवो जोइए ? आवी तपनी भावना भाववी, संयम भावना इंद्रियो अने|| १ मनने वश राखवा माटे छे तथा संघयण ते वर्ज रुषभ विगेरेमा तपनो निर्वाह थइ शके तेवी भावना भाववी. आ प्रमाणे बार भावनाओ भाववाथी आत्म निर्मळ थाय छे, एम भावनानु स्वरुप अनेक प्रकारे थाय छे ते शियोने जाणवा माटे लख्यु छे. पण चालु वातमां तो चारित्र भावना साथे प्रयोजन छे, माटे वीर प्रभु चरित्र नियुक्तिनो अनुगम कहीने मूत्रनुं उच्चारण करतां कहे छे. महावीर प्रभुनु चरित्र. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे पंचहत्थुत्तरे यावि हुत्था, तंजहा-हत्युत्तराई चुए चइता गम्भं वक्रते हत्युत्तराहि गब्भाओ गम्भं साहिरए हत्थुत्तराहि जाए इत्युत्तराहि मुंडे भविता आगाराओ अणगारियं पब्वइए हत्थुत्तराहि कसिणे पडिपुन्ने अव्वाघाए निरावरणे अणंते अणुत्तरे केवलवरनाणदंसणे समुप्पने, साइणा भगवं परिव्वुए (मू० १७५) ते काळ ते समय एटले विक्रम संवतना ४७० वरस पहेलां महावीर प्रभुनो जन्म थयो एवी हालनी गणतरी छे अने नब MARA A-C. . For Private and Personal Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा०४ सुत्रम् ॥१०८८॥ www.kobatirth.org 5. महिना अने साडासात दिवस पहेला महावीर स्वामि माताना उदरमा आव्या हता तेने जैनमतमा प्रभुनु च्यवन थयु विगेरे वाचतो कहे छे. जैनोमां दरेक तीर्थकरनां पांच कल्याणक छे एटले च्यवन जन्म दिक्षा केवळज्ञान अने मोक्ष छे महावीर प्रभुने एक माताना गर्भमांथी बीजी माताना गर्भमां मुक्या तेने गर्भापहार कहे छे टुंकाणमां समजाववा प्रथम चंद्रनक्षत्र कहे छे. ॥१०८८॥ महावीर प्रभुने च्यवन गर्भापहार जन्म दिक्षा केवळज्ञान ए उत्तराफाल्गुनीमां थयां छे अने भगवाननो मोक्ष स्वाति नक्षत्रमा थयो छे. ते विस्तारथी पछीना मूत्रमा छे. समजे भगवं महावीरे इमाए ओसप्पिणीए सुसमसुसमाए समाए वीइकताए समाए वीइकंताए मुसमदुस्समाए समाए वीइकंताए दूसमसुसम.ए समाए बहु विकाए पन्नहत्तरीए वासेहिं मासेहि व अद्धनवमेहिं सेसेहि जे से गिम्हाणं चउत्थे मासे अट्ठमे पक्खे आसाढमुद्धे तस्स णं आसाढसुद्धस्स छट्टीपक्खेण हत्युतराहिं नक्वत्तेणं जोगमुवागएणं महाविजयसिदत्यपुप्फुसरवरपुंडरीयदिसासोबस्थिपबद्धमाणाओ महाविमाणाओ वीस सागरोवमाई आउयं पालइया आउक्खएणं ठिइक्खएणं भवक्खएणं चुए चदत्ता इह खलु जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे दाहिणभरहे दाहिणमाहकुंड पुरसंनिवेसंमि उसमदत्तस्स महाणस्स कोडालसगोत्तस्स देवाणंदाए माहणीए जालंधरस्स गुत्ताए सीहुन्भवभूएणं अप्पाणेण कुच्छिसि गब्भं वक्कते; समणे, भगवं महावीरे तिनाणोवगए या बि हुत्था, चइस्लामिचि जाणइ चुएमिचि जाणइ चयमाणे न याणेइ, मूहुमे णं से काले पन्नत्ते तबो णं ममणे भगवं महावीरे हियाणुकंपएणं देवेणं जीयमेयं तिकटु जे से वासाणं तच्चे मासे पंचमे पक्खे आसोयबहुले तस्स णं आसोयबहुलस्स तेरसीपक्खेणं हत्थुचराहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं चासाहिं For Private and Personal Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ब- आचा ब- सूत्र ब- ॥१०८९॥ १०८९॥ ब- 14 राइंदिरहि वइकंतेहिं तेसीइमस्स राईदियस्स परियाए वट्टमाणे दाहिणमाहणकुंडपुरमंनिवेसाओ उत्तरखनियकुंड पुरसंनिवेसंसि नायाणं खतियाणं सिद्धत्थस्स खचियस्स कासवगुत्तस्स तिमलाए खत्तियाणीए वासिहसगुताए अमुभाणं पुग्गलाणं अवहारं करिता मुभाण पुग्गलाण पक्खेवं करित्ता कुच्छिसि गम्भ साहरइ, जेवि य से तिसलाए खत्तियाणीए कुच्छिसि गम्भे तंपि य दाहिणमाहणकुंडपुरसंनिवेसंसि उस० को० देवा० जालंधरायणगुत्ताए कुच्छिसि गम्भं साहरइ, समणे भगवं महावीरे तिब्राणोवगए याचि होत्था-साह रजिस्सामित्ति जाणइ साहरिजमाणे न याणइ साहरिएमित्ति जाणइ समणाउसो ! । तेण कालेणं तेणं समएणं तिसलाए खत्तियाणीए अहऽनया कयाई नवण्हं मासाणं बहुपडिपुत्राणं अट्ठमाणराइंदियाणं वीइताणं जे से मिम्हाण पढमे मासे दुचे पक्खे चित्त सुद्धे तस्स णं चितसुद्धस्स तेरसीपक्खेणं हत्थु० जोग. समणं भगवं महावीरं अरोग्गा अरोग्ग पमृया । जण्ण राई तिसलाख. समण महावीरं अरोया अरोयं पमूयात oणं राई भवणवइवाणमंतरजोइसियविमाणवासिदेवेहि देवोहि य अयंतेहिं उप्पयंतेहि य एगे महं दिब्वे देवुजोए देवसन्निवाए देवकहकहए अप्पिजलगभूए यावि हुत्या । जण्णं रयणि तिसलाख. समणं० पमूया तणं रयणि बहवे देवा य देवीश्री य एगं महं अमयवासं च १ गंधवासं च चुनवासं च ३पुष्फवा०४ हिरनवासं च ५ रयणवासं च ६ वासिस. जणं रयणि तिसलाख. समण पमूया तण्णं रयणि भवणवइवाणमंतरजोइसियविमाणवासिणो देवा य य देवीओ य समणस्स भगवओ महावीरस्स मुइकम्माईतिस्थयराभिसेयं च करिस, जो णं पभिइ भगवं महावीरे तिसलाए ख० कुञ्छिसि गम्भं आगए तो णं पभिइ त कुलं विपुलेणं हिरनेणं मुबन्नेणं धन्नेणं माणिकेणं मुत्तिएण संखसिलप्पवालेणं अईच २ ब- ब- ब- . .. .. For Private and Personal Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० ॥१०९०॥ - परिवाइ, तो णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अम्मापियरो एयमढे जाणित्ता निव्वतदसाहसि बुकंतसि मुइभूयंसि विपुलं असणपाणखाइमसाइमं उवक्खडार्विति २ गा मित्तनाइसयणसंबंधिवग्ग उवनिमंतंति मित्त. उपनिमंतित्ता बहवे । सूत्रम् समणमाहणकिवणवणीमगाहिं भिन्छुडगपंडरगाईण विच्छटुंति विग्गोविति विस्ताणिति दायारेसु पज्जमाईति विच्छडित्ता विग्गो० विसाणिशा दाया. पन्जभाइना मित्तनाइ भुंजाविति मित्त० भुंजावित्ता मित्त० वग्गेण इममेयारूवं नाम- ॥१०९०॥ धिज्ज कारवितिजओ णं पभिइ इमे कुमारे ति० ख० कुच्छिसि गम्भे आहूए तो णं पमिइ इमं कुलं विपुलेणं हिरनेणं. संखसिलप्पवालेण अतीव २ परिवाइ ता होउ णं कुमारे बदमाणे, तभी णं समणे भगवं पहावीरे पंचधाइपरिडे, तंखीरधाईए १ मज्जणधाईए २ मंडणधाईए ३खेलावणधाइए ४ अंकधा०५ अंकाओ अंकं साहरिजमाणे रम्मे मणिकुष्टिमतले गिरिकंदरसमुल्लीणेविव चंपयपायवे अहाणुपुच्चीए संबइ, ताणं समणे भगवं० विनायपरिणय (मित्ते) विणियवत्तालभाव अप्पुस्मुयाई उरालाई माणुसगाई पंचलक्खागा कामभोगाई सहफरिसरसरूवगंधाई परियारेमाणे एवं च न विहरइ ।। (मू० १७६.) श्रमण भगवान महावीर आ अवसर्पिणीना चाथा आराने छेडे पंचोतेर बरसने साडाभाठ महिना बाकी रहे छे, ते ग्रीष्मरुतुना18 चोथे महिने आठमे पखवाडीए अषाढ शुद छट्टने दिवसे महाविज्य सिद्धार्थ पुष्पोपत्तर वर पुंडरिकदिशा सौवस्तिक वर्धमान नामना महाविमानमांथी देवता संबंधी बीस सागरपमर्नु आयु पुरु करीने भव तथा स्थितिनो क्षय थतां चवीने आ जंबूद्वीपना भरत क्षेत्रना दक्षिण अर्धभरतमा दक्षिण ब्राह्मणकुंडस्थानमां कोडालगोत्री रुषभदत्त ब्राह्मणना घरमां जालंधर गोत्रनी देवानंदा ब्राह्मणीनी - - - -X For Private and Personal Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥१०९१ ॥ X-X4-4 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | कुखमां सिंहना बानी माफक अवतर्या. ते समये श्रमण भगवान महावीर त्रण ज्ञान सहित हता तेथी देवलोकमां जाण्युं के हुं | च्यवीश गर्भमां अवतर्या पछी जाणे के हुं चव्यो, पण चत्रवानो काळ थोडो होवाथी तेनुं ज्ञान धतुं नथी के हुं चं छं. त्यार पछी महावीर ने खरी भक्तिथी देवताए पोताना हंमेशना अचार प्रमाणे ८२ दिवस थया पछी आसो ( गुजराती (भादरवो ) तेरसना ते ब्राह्मणीना कुख मांथी त्यांथी थोडे दूर आवेला क्षत्रियकुंड नगरमां ज्ञातवंशीय काश्यप गोत्रना सिद्धार्थ | क्षत्रिय राजानी भार्या वाशिष्ट गोत्रनी त्रिशला क्षत्रियाणीनी कुखमां अशुभ पुद्गलो दूर करीने शुभ पुद्गलो मुकीने भगवानने आ | गर्भमां मुक्या अने त्रिशला क्षत्रियाणीनो गर्भ देवानंदानी कुखमां मुक्यो. प्रभुने ज्यारे एक गर्भमांथी बीजे मुकवाना हता त्यारे ऋण ज्ञानवाळा होवाथी पोते जाणे के मने लड़ जशे तेम लइ जतां न जाणे के लड़ जाय छे। अने त्यां लड़ गया पछी मुके ते पण जाणे के मने सुक्यो, ( अवधि ज्ञानीने आज जणाय छे. के आ | प्रमाणे अमुक देवता करे छे, करशे के कर्यु.) वळी गणधरो पोताना शिष्योने कहे छे, हे आयुष्यमन् श्रमण ! ते काळ ते समय विषे ९ मास ने साडासात दिवसनी बने गर्भ स्थानमां गर्भ स्थिति पुरी करीने ग्रीष्मस्तुमा पहेलो मास वीजुं पखवाडीयुं चैत्र शुद १३ ना दिवसे निरोगी त्रिशला माताए निरोगी पुत्र श्रमण भगवान् महावीर ने जन्म आप्यो. प्रभुना जन्म समये मधरात पछी भुवनपति वानव्यंतर जयोतिषी वैमानिक देवदेवीओना आववाथी आकाशमां एक महान द्रव्य प्रकाश अने कोळाहळ घयो. अने ते समये देवदेवीओए आवीने सुगंधी जळ, सुगंधी वस्तु, चुर्ण फुल सोनारुपानी अने रत्ननी दृष्टि करी. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ।। १०९१ ॥ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 14 आचा० CSC- S ॥१०९२॥ जे रात्रीए भगवान जन्म्या ते समये देवदेवीए महावीर प्रभुनुं जम्म संबंधी सूतिकर्म विगेरे कर्यु अने मेरु पर्वत उपर प्रभुने / लइ जइने जन्माभिषेक कर्यो. वळी प्रभू माताना गर्भमां हता ते समये प्रभुना पुन्योदयथी देवताए तेमना मातापिताना घरमां नवारसीयुं धन लावीने नाख्यु । सूत्रम् तथा बीजी दरेकरीते मातपितानुं धन, सोनुं चांदी रत्न शंख माणेक मोती परवाळां बधो रीते वध्यां तेथी पूर्वे करेला विचार | ॥१०९२॥ प्रमाते पुत्र जन्मनुं दस दिवसनुं मृति कार्य कर्या पछी बारमे दिवसे चार प्रकारनो आहार तैयार करावीने मित्र ज्ञाति स्वजन तथा संबंधी वर्गने बोलावीने तथा श्रमण ब्राह्मण भिक्षुक विगेरेने तथा आंधळां पांगळां विगेरे दरदीोने बोलावी तेमने इच्छित आपीने २ मन संतुष्ट करीने मातापिता ए बधांनी समक्ष पोताना पुत्रनुं नाम तेना गुण प्रमाणे एटले आ पुत्र वृद्धि करनार छ ए, अनुभवेलं ४ अने विचार करी राख्या प्रमाणे जाहेर करीने वर्धमान राख्यु, त्यार पछी महावीर प्रभु माटे दुध धवरावनार स्नान करावनार | शखगार करावनार खेलावनार खोळामां बेसाडनार एवी पांच धावमाताओ राखी अने ए पांच माताओ उपरात तेमना पुन्योदयथी | मनोहर शान्त मुद्रावाळा प्रभुने जोइने प्रसत्र धइने अनेक स्त्रीओ पोताना खोळामा रमाडवा लेती भा प्रमाणे लोकोने आनंद पमाडता | मणीरत्नोथी विभूषित घरमा जेम पर्वनी गुफामां चंपक झाड उछरे तेम मोटा थाय. प्रभुनी युवावस्था. धीरे धीरे बाळ अवस्था दुर थतां विशेष ज्ञान पामीने अनुभववाळा प्रभु उत्सुकता छोडीने मनुष्य संधी पांचे इंद्रियोनां सुंदर कामभोगने भोगवतां शब्द स्पर्श रस रुत गंध विगेरेने अनुभवे छे अने काळ सुखे निर्गमन कर छे. ECSHORE For Private and Personal Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० सुत्रम् ॥१०९३॥ १०९३॥ समणे भगवं महावीरे कासवगुत्ते तस्स णं इमे तिनि नामधिज्जा एवमाहिति; तंजहा-अम्मापिउसंति बदमाणे १ सहसमुइए समणे २ भीमं भयभेरवं उरालं अवेलयं परीसह-सहत्तिक देवेहिं से नाम कार्य समणे भगर्व महावीरे ३, समणस्स गं भगवो महावीरस्स पिया कासवगुत्तेणं तस्स णं तिनि नाम तं०-सिद्धत्ये इ वा सिज्जसे इ वा जसंसे इवा, समणस्त पं० अम्मा वासिहस्सगुत्ता तीसे णं तिन्नि ना० त०-तिसला इ वा विदेहदिना इ वा पियकारिणि । वा समणस्स भ० पित्तिअए मुपासे कासवगुत्तेणं, समण. जि? भाया नंदिवद्धणे कासवगुत्तेणं, समणस्स णं जेट्टा भइणी सुदंसणा कासवगुणं, समणस्स णं भग. भज्जा जसोया कोडिन्नागुत्तेणं, समणस्स पं. धूया कासवगो तेणं तीसे णं दो नामधिज्जा एवमा०-अणुज्जा इ वा पियदसणा इवा, समणस्स णं भ. नत्तइ कोसीया गुणं तीसे गं दो नाम० तै-सेसवई इ वा जसबई इवा, (मू० १७७) प्रभुना अने तेमना कुटुंबना नामो. काश्यप गोत्रीय प्रभुन मातापिताए वर्धमान नाम पाडयु, स्वभावीक गुणोथी श्रमण नाम पाडयु अने भयंकर भूत विगेरेना तथा बीजा देव मनुष्योना वधाए परिसहो सह्या माटे देवोए श्रमण भगवान महावीर एबुं नाम पाडयुं. भगवान महावीरना पिता काश्यप गोत्रना तेमनां त्रण नाम इतां-सिद्धार्थ, श्रेयांस, यशस्वी. भगवाननी माता वशिष्ट गोत्रनी; तेना त्रण नाम छे, त्रिशला, विदेह दिन्ना पियकारिणि. भगवानना काका सुपार्च, मोटा भाइ नंदिवर्धन, मोटी बेहेन मुदर्शना ए बधा काश्यप गोत्रीय हता. भगवाननी भार्या यशोदा A-CA- A-CA-% For Private and Personal Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥। १०९४ ।। www.kobatirth.org कौडिन्य गोत्रनी हती. भगवाननी पुत्री काप्यपगोत्रीनी तेना के नाम ले- अनवद्या, प्रियदर्शना. भगवाननी दौहित्री कौशिक गोत्रनी तेना के नाम शेषवती, यशोमती. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समणस्स ० ३ अन्मापियरो पासवचिज्जा समणोवासगा यात्रि हुत्था, ते णं बहूई वासाई समणोवासगपरियागं पालइत्ता छहं जीवनिकायाण सारक्खनिमित्तं आलोइसा निंदित्ता गरिहित्ता पडिकमित्ता अहारिहं उत्तरगुणपायच्छिलाई पडिव - जित्ता संथारगं वा दुरूद्दित्ता भत्तं पच्चक्खायंति २ अपच्छिमार मारणं तियाए संलेहणासरीरए झुसियसरीरा कालमा से कालं किया सरीरं विधजहित्ता अच्चुए कप्पे देवताए बबन्ना, तभी णं आउक्खएग भव० टि० चुए चइता महाविदेहे वासे चरमेणं उस्सासेणं सिज्झिस्संति बुज्झिरांति मुश्च्चिसंति परिनिच्वाइस्संति सव्यदुक्खाणभूतं करिस्पति (मू० १७८) भगवान्ना मा बाप पार्श्व परंपराना श्रमणोना उपासक हता, तेओ घणां वर्ष श्रमणोपासकपणुं पाणी छ कायना जीवनी रक्षणार्थे (पापनी) आलोचना करी निंदी गर्छौ पडिकमी यथायोग्य प्रायश्चित लइ दर्भ संस्तारक उपर बेसी भक्त प्रत्याख्यान करी | डेल्ली मरण पर्यंतना शरीर-संलेखना वडे शरीर शोषी काल समये काल करी ते शरीर छोडी अच्युत कल्पमां देवपणे उप्तन्न थयां. त्यांथी आयु क्षय थतां चवीनेमहात्रिदेह क्षेत्रमां छेल्ले ऊसासे सिद्धबुद्ध मुक्त भइ निर्वाण पामी सर्व दुःखनो अंत करशे. तेणं कालेणं २ समणे भ० नाए नायपुत्ते नायकुलनिव्वत्ते विदेहे विदेहजच्चे विदेहम्माले तीसं वासाई विदेहंसित्तिकडे अगारमज्झे सिक्षा अम्मापिऊहिं कालगहिं देवलोगमणुपतेहिं समत्तपइने चिच्चा हिरनं चिचा सुवनं चिया बलं चिचा वाहणं चिचा धणकणगरयण संतसारसावइज्जं चिच्छडित्ता विग्गोवित्ता विसाणित्ता दायारेमु णं दाइसा परिभाइत्ता संच्छ For Private and Personal Use Only सूत्रम् ।। १०९४ ।। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - सुत्रम् জাম্বা | ॥१०९५॥ Hu१०९५॥ - - दलइत्ता जे से हेमंताणं पढमे मासे पढमे पक्खे मग्गसिरबहुले तस्स णं मग्गसिरबहुलस्स दसमीपक्खेणं इत्युत्तरा० जोग० अभिनिक्रवमणाभिषाए याचि हुत्था,-संवच्छ रेण होहिइ अभिनिक्खमणं तु जिणवरिंदस्स | तो अत्थसंपयाणं पवत्तई पुन्बमूराओ ॥१॥ एगा हिरनकोडी अटेव अणूणगा सयसहस्सा । मूरोदयमाईयं दिइ जा पायरासुति ॥ २ ॥ त्तिन्नेव य कोडिसया अटासीई च हुति कोडीयो । असि च सयसहस्सा एवं संवच्छरे दिन्नं ॥ ३ वेसमणकुंडधारी देवा लोगतिया महिढाया। बोर्हिति य तित्थयरं पन्नरसमू कम्मभूमीसु ॥ ४ ॥ बंभ म य कप्पमी बोद्धब्बा कज्हराइणो मझे । लोगंतिया विमाणा अट्ठसु वत्था असंखिज्जा ॥ ५॥ पए देवनिकाया भगवं बोटिंति जिणवरं वीरं । सबजगज्जीवहियं अरिहं ! तित्थं पचत्तेहि ॥ ६ ॥ तभो णं समणस्स भ० म. अभिनिक्खमणाभिष्पाय जाणित्ता भवणवइवा० जो विमाणवासिणो देवा य देवीभो य सएहि २ रूवेहि सएहि २ नेवत्थेहिं सए० २ चिधेहि सचिट्टाए सबजुईए सव्ववलसमुदएणं सयाई २ जाणविमाणाई दुरुति सया० दुरूहित्ता अहाबायराई पुग्गलाई परिसाउंति २ अहासुहमाई पुग्गलाई परियाइंति २ उ उप्पयति उ१ उप्पइत्ता ताए उक्किट्ठाए सिग्याए चलाए तुरियाए दिवाए देवगईए अहे णं ओर यमाणा २ तिरिएणं असखिज्जाइंदीवसमुद्दाई वीइक्कममाणा २ जेणेव जंबुद्दीवे दीवे तेणेव उवागच्छति, २ जेणेव उत्तरखत्ति य कुंडपुरसंनिवेसे तेणेव उपागच्छंति उत्तरखत्तियकुडपुरसंनिवेस्स उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए तेणेव झति वेगेण ओवइया, तो णं सक्के देविंदे देवराया सणियं २ जाणविमाणं पट्टवेति सणियं.२ जाणविमाणं पट्टवेत्ता सणिय २ जाणविमोणाओ पच्चोरुहइ सणिय २ एगतमवकमइ एगतमवकमित्ता महया वेउचिएणं समुग्धारण समोहणइ २ एमं महं नाणामणिकणग - - - - - For Private and Personal Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 1 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० | सुत्रमू ॥१०९६॥ ॥१०९६॥ 4%AAAAAAA रयणभत्तिचित्तं मुभं चारु कतरुवं देवच्छंदयं विउब्वइ, तस्सं णं देवच्छंदयस्स बहुमज्झदेसभाए एगं महं सपायपीढं नाणामणिकणयरयणचिचिचं मुभं चारुकंतरूवं सीहासणं विउचइ, २ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २ समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पायाहिणं करेइ २ समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ २ समणं भगवं महावीरं गहाय जेणेव देवच्छंदइ, तेणेव उवागच्छइ सणियं २ पुरत्याभिमुहं सीहासणे निसीयावेइ सणियं २ निसीयावित्ता सयपागसहस्सपागेहि तिल्लेहिन्भंगेइ गंधकासाईएहि उल्लोलेइ २ सुद्धोदएण मज्जावेइ २ जस्स णं मुल्लं सयसहस्सेणं तिपडोलतित्तिएणं साहिएणं सीतेण गोसीसरत्तचंदणेणं अणुलिंपइ २ ईसि निस्सासवायवोज्झं वरनयरपट्टणुग्गयं कुसलनरपसंसियं अस्सलालापेलवं छेयारियकणगखइयतकर्म सलक्षणं पट्टजुयलं नियंसावेइ २ हारं अद्धहारं उरत्थं नेवत्वं एगावलि पालंबमुत्तं पट्टमउडरयणमालाउ आविधावेइ आविधाविना गंथिमवेढिमपूरि मसंघाइमेणं मल्लेणं कप्परुक्खमिव समलंकरेइ २ चा दुच्चपि महया वेउब्वियसमुग्याएणं समोइणइ २ एग महं चंदप्पहं सिवियं सहस्सवाहणियं विउब्वति, तंजहाईहामिगउसभतुरनरमकरविहगवानरकुंजररुरुसरभचमरसदलसीहवणलयभत्तिचित्तलयविजाहरमिहुणजुयलजंतजोगजुत्तं अचीसहस्समालिणीय सुनिरूविय मिसिमिसिंतरूवगसहस्सकलिय ईसि मिसमाणं भिब्भिसमाणं चक्खुल्लोयणलेसं मुत्ताहलाताजालंतरोवियं तवणीयपवरलंबूसपलंतमुतदागं हारदहारभूसणसमोणय अहियपिच्छणिज्ज पउमलयभचिचिरी असोगलयभत्तिचितं कुंदलयभत्तिचितं नाणालयभति. विरइयं सुभं चारुकतारूवं नाणामणिपंचवन्नघटापडायपडिमंडियग्गसिहरं पासाइयं दरिसणिज्जं मुरूवं-सीया उवणीया जिणवरस्स जरमरणविष्पमुकस्स । ओसत्तमल्लदामा जलथलयदिव्वकुसुमेहि AAAAAAAAC For Private and Personal Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० सूत्रम् ॥१०९७॥ +KAC -A ॥१०९७॥ ॥१॥ सिवियाइ मज्झयारे दिवं वररयणस्वचिंचइयं । सीहासणं महरिहं सपायपीढं जिणवररस ॥२॥ आलइय मालमउडो भामुरबुंदी वराभरणधारी। खामियवत्थ नियत्यो जस्स य मुल्लं सयसहस्सं ॥ ३ ॥ छ?ण उ भरोणं अज्झवसाणेण मुंदरेण जिणो । लेसाहिं विसुझंतो आरुहई उत्तम सीयं ॥४॥सीहासणे निविट्ठो सकीसाणा य दोहि पासेडिं । वीयंति चामराहिं मणिरयणविचित्तदंडाहिं ॥५॥ पुचि उक्खित्ता माणुसेहि साहटु रोमकूवेहिं । पच्छा वहंति देवा सुरअसुरा गरुलनागिंदा ।। ६ ।। पुरओ सुरा वहंती असुरा पुण दाहिणमि णसंमि । अवरे वहति गरुला नागा पुण उत्तरे पासे ॥ ७ ॥ वणसंड व कुसुमिय पउमसरो वा जहा सरयकाले सोहइ कुसुमभरेणं इय गगणयलं सुरगणेहिं ॥ ८॥ सिद्धत्थवणं व जहा काणायारवण व चंपयवणं वा । सोहः कु०॥९॥ वरपदहभेरिझल्लरिसंखसयसहस्सिएहिं तुरेहि । गयणयले धरणियले तूरनिनाओ परमरम्मो ॥ १०॥ ततविततं घणझुसिरं आउज्जं चरन्विहं बहुविहीय वाईति तत्य देवा बहुहिं आनट्टगसएहि ॥ ११ ॥ तेण कालेणं तेणं समएणं जे से हेमताणं पढमे मासे पढमे पक्खे मग्गसिरबहुले तस्म णं मग्गसिरबहुलस्स दसमीपक्खणं सुव्वएणं दिवसेणं विजएणं मुहुरोणं हत्युत्तरानक्खनेणं जोगोवगएणं पाईणगामिणीए छायाए निइयाए पोरिसीए छ?णं भनेणं अपाणएणं एगसाडगमायाए चंदप्पभाए सिवियाए सहस्सबाहिणियाए सदेवमणुयामुराए परिसाए समणिज्जामाणे उत्तरखत्तियकुंडपुरसंनिवेसस्स मज्झमज्झेणं निगच्छइ २ जेणेव नायसंडे उज्जाणे तेणे व उवागच्छइ २ इसि रयणिप्पमाणं अच्छोप्पेणं भूमिभाएणं सणिय २ चंदप्पभं सित्रियं सहस्सवाहिणि ठवेइ २ सणियं २ चंदप्पभाओ सीयानो सहस्सवाहिणिओ पञ्चोयरइ २ सणियं २पुरत्याभिमुहे सीहासणे निसीयइ आभरणालंकार A C4 .. For Private and Personal Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा सूत्रम् ॥१०९८॥ ॥१०९८॥ www.kobatirth.org ओमुअइ, तो णं वेसमणे देवे भसुब्यायपडिओ भगवो महावीरस्स हंसलवखणेणं पडेणं आभरणालंकारं पडिच्छइ, तोणं समणे भगवं महावीरे दाहिणेणं दाहिगं वामेणं वाम पंचमुट्टियं लोयं करेइ, तओणं सके देविदे देवराया समणस्स भगवओ महावीरस्स जन्नवायपडिए वइरामएणं थालेण केसाई पडिच्छर २ अणुजाणेसि भतेत्तिकटु खीरोयसागरं साहरइ, तो णं समणे जाव लोयंकरित्ता सिद्धाणं नमुकारं करेइ २ सव्यं मे अकरणिज्नं पावकम्मंतिकटु सामाइयं चरिच पडिवजइ २ देवपरिसं च मणुयपरिसं च आलिक्खचित्तभूयमिव ठवेइ-दिब्बो मणुस्सघोसो तुरियनिनाओ य सकरयणेगं । खिप्पामेव निलुको जाहे पडिबजर चरितं ॥१॥ पडिवज्जितुं चरिच अहोनिसं सधपाणभूयहियं । साहटु लोमपुलाया सब्वे देवा निसामिति ॥ २॥ तो णं समणस्स भगवओ महावीरस्स सामाइयं खोवसमियं चरि पडिवनस्स मणपज्जवनाणे नामं नाणे समुप्पन्ने अाइज्जेहिं.दीवहिं दोहि य समुद्देहि सन्नीणं पचिंदियाणं पज्जत्ताणं वियत्तमणसाणं मणोगयाई भावाई जाणेइ । तभी णं समणे भगवं महावीर पवइए समाणे मिचन्नाई सयणसंबंधिवर्ग पडिविसज्जेइ, २ इमं एयारूवं अभिग्गई अभिगिण्हइ-चारस वासाई बोस टुकाए चियत्तदेहे जे केइ उपसग्गा समुप्पज्जति, तंजहा-दिव्या वा माणुस्सा तेरिच्छिया वा, ते सव्वे उवसग्गे समुप्पन्ने समाणे सम्म सहिस्सःमि खमिस्सामि अहिभासइस्सामि, तो णं स. भ. महावीरे इमं एयारूवं अभिग्ग अभिगिहित्ता वासिहचत्तदेहे दिवसे मुहुत्तसेसे कुम्मारगाम समणुपत्ते, ती णं स. भ. म० वोसिट्टचत्तदेहे अणुत्तरेणं आलएगं अणुत्तरेणं विहारेणं एवं संजमेणं पग्गहेणं संवरेणं तवेणं बंभचेरवासेणं खंतीए मुत्तीए समिईए गुत्तीए तुष्टीएठाणेणं कमेणं सुचरियफलनिब्वाणुमुत्तिमग्गेणं अप्पाणं भात्रमाणे विहरइ, एवं वा -----क वाकर For Private and Personal Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ब- आचा० ब- सूत्रम् ब- ॥१०९९॥ B॥१०९९॥ ब- ब- विहरमाणस्स जे केइ उक्सग्गा समुप्पज्जति-दिव्वा वा माणुस्सा वा तिरिच्छिया वा, ते सव्वे उवसग्गे समुप्पन्ने समाणे अणाउले अव्वहिए अद्दीणमाण मे तिविहमणवयणकायगुत्ते सम्म सहइ खमह तितिक्खइ अहिआसेइ, तोणं समणस्स भगवश्री महावीरस्स एएणं विहारेणं विहरमाणस्स बारस वासा वीइकना तेरसमस्स य वासस्स परियाए वट्टमाणस्स जे से गिम्हाणं दुच्चे मासे चउत्थे पक्खे चइसाहसुद्धे तास णं वेसाहसुद्धम्म दसमीपक्खेणं सुन्न एग दिवसेणं विजएणं मुहुनेणं हत्युत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगोवगएणं पाईणगामिणीए छयाए वियनाए पोरीसीए नंभियगामस्स नगरस्स बहिया नईए उज्जुवालियाए उत्तरकले सामागस्स गाढावइस्स कटकरणंसि उडूंनाणूअहोसिरस्स झाणकोट्टोवगयस्स वेयावतस्स चेइयस्स उत्तरपुरच्छिमे दिसीभागे सालरुकावस्स अदरसामते उकुडुयस्स गोदाहियाए आयावणाए आयावेमाणस्स छ?ण भत्तेणं अपाणएणं मुकझाणंतरियाए वट्टमाणस्म निवाणे कमिणे पडिपुन्ने अव्वाहए निरावरणे अणते अणुचरे केवलवरनाणदसणे समुप्पन्ने, से भगवं अरहं जिणे केवली सम्बन्न सवभावदरिसी सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स पज्जाए जाणइ, तं आगाई गई ठिई चयणं उबवायं भुनं पीयं कई पडिसेवियं आविकम्मं रहोकम्मै लवियं कहियं मणोमाणसियं सचलोए सजीवाणं मनभावाई जाणमाणे पासमाणे एवं च णं विहरह, जणं दिवस समणम्म भगवो महावीरस्स निवाणे कसिणे जाव समुप्पन्ने तणं दिवसं भवयवइवाणमंतरजोइसियविमाणवासिदेवेहि य देवीहि य उवयं तेहि जाव उप्पिंजलगम्भूए यावि हुत्था; तो णं समणे भगवं महावीरे उत्पन्नवरनाणदसणधरे अपाणं च लोगं च अभिसमिक्ख पुव्वं देवाणं धम्ममाइक्खा, तनो पच्छा मणुसपणं, तभो णं समणे भगवं महावीरे उप्पननाणदंपणधरे गोयमाणं समणाण पंच महन ब- ब- ब- ब- - . For Private and Personal Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥११०० ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir याई संभावणाई छज्जीवनिकाय आतिक्खति भासा पहवे, तं पुढवीकार जात्र तसकाए, पढमं भने ! महव्त्रयं पखामि पाणावायं से सहुभ वा वायरं वा तसं वा थावरं वा नेव सयं पाणाइवायं करिज्जा ३ जावज्जीवाए तिविहं तिविणं मणसा वयसा कायसा तस्स भंते! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि, तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवति, तत्थिमा पढमा भावणा ते काले ते समये जगतुख्यात, ज्ञात (सिद्धार्थ) पुत्र ज्ञातवंशोत्पन्न, विशिष्ट देहधारी, (त्रीशला ) पुत्र, कंदर्पजेता, गृहवासथी उदास एवा श्रमण भगवान् महावीरे त्रीश वर्ष घरवासमां वसी, माबाप कालगत थइ देवलोक पहोंचतां पोतानी प्रतिज्ञा समाप्त थइ जाणी सोनुं, रुपुं, सेनावाहन, धनधान्य, कनकरत्न, तथा दरेक कीमती द्रव्य छोडी (दानार्थे) अर्पण करी, दान दइ, शीयाळाना | पेला मासमां पेले पक्षे मागसर वदि १०ना दिने उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्रना योगे दीक्षा लेवानो अभिप्राय कर्यो. ते पछी भगवाननो निष्क्रमणाभिप्राय जाणीने चारे निकायना देवो पोतपोताना रूप, वेष तथा चिन्हो धारण करी सघळी रुद्धि, श्रुति, तथा बळ साथै पोतपोताना विमानोपर चडी बादर पुद्गलो पलटावी सूक्ष्म पुगलोमां परणमावी उंचे उपडी अत्यंत शीघ्रता अने चपळतावाळी दिव्य देवगतिथी नीचे उतरता तिर्यक्लोकमां असंख्याता द्वीप समुद्र उल्लंघीने ज्यां जंबूद्वीप छे, त्यां आत्री क्षत्रियकुंड नगरना इशान कोणमां उतावळा आवी पहोंच्या. त्यावाद शक नामे देवमा इंद्रे धीमे धीमे विमानने त्यां थापी, धीमे धीमे तेमांथी उतरी, एकांते जइ मोहोटो वैक्रिय समु यात करी एक महान मणि- सुवर्ण तथा रत्नजडित, शुभ मनोहर रूपवालुं देवच्छेदक (ओरडो) विकु (चना) ते For Private and Personal Use Only सूत्रम् ।। ११०० ॥ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आघा० ॥११०१ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | देवच्छेदकनी बच्चोवच्च मध्य भागे एक तेलुंज रमणीय पादपीठिका सहित एक महान् सिंहासन त्रिकुर्यु पछी ज्यां भगवान हता, त्यां आवीने भगवाननी त्रणवार प्रदक्षिणा करी बांदी नमी भगवानने लड़ ज्यां देवच्छेदक हतुं त्यां आवी धीमे धीमे पूर्व दिशा सामे भगवान ने सिंहासनमा बेसाड्या पछी शतपाक अने सहस्रपाक तैलोबडे मर्दन करी गंधकापायिक वखवडे लुंछीने पवित्र पाणीथी नवरात्री लक्षमूल्यवाळु थंड रक्तगोशीर्षचंदन घसी तैयार करी लेना वडे लेपन कर्यु. त्यारवाद निश्वासना लगारेक वायुथी चलायमान थनारा, खणायलां नगर के पाटणमां बनेलां, चतुर जनोमां वखणाएलां, घोडानां फीण जेवां मनोहर, चतुर कारीगरीए सोनाथी खंचेला, हंस समान स्वच्छ वे वस्त्रो पहेराव्यां. पछी हार, अर्धहार उरस्थ, एकावळि मांलंब, सूत्रपट्ट, मुकुट तथा रत्नमाळादि आभरणो पहेराव्यां. पछी जूदी जूदी जातनी फूलनी मालाओथी पुष्पतरुना माफक शणगार्या पछी इंद्रे पाछो बीजीवार वैक्रिय समुद्घात करी हजार जण उपाडी शके एवी एक महान् चंद्रप्रभा नामे शित्रिका विकुर्थी. ए शिविकानुं वर्णन आ प्रमाणे - ए शिविका इहामृग, बळद, घोडा, नर, मगर. पक्षी, वानर, हाथी, रुरु, सरभ, चमरीगाय, वाघ, सिंह, वननी लताओ, तथा अनेक विद्याधरयुग्मना यंत्रयोगे करी युक्त हती तथा हजारो तेज राशिओथी भरपूर हती, रमणीय अने झगझगायमान हजारो चित्रामणोथी भरपूर अने देदीप्यमान अने आंखथी सामे नहि जोड़ शकाय तेवी हती अनेक मोतीओोथी विराजित सुवर्णमय प्रतरवाळी हती तथा झूलती मोतीओनी माळा, हारो अर्द्धहार, विगेरे भूषणोथी शोभती हती, अतिशय देखना लायक हती, पद्मलता, अशोकलता विगेरे अनेक लताओधी चित्रित हती. शुभ तथा मनोहर आकारवाळो हती. अनेक प्रकारनी पंचवर्णी मणिओवाळी घंटा तथा पताकावडे शोभीता अग्रभागवाळी हती तथा मनोहर देखवालायक अने सुंदर आकारवाळी हती. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥११०१ ॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -2 3 ते काले ते समये शियाळाना प्रथम मासे प्रथम पक्षे मागशर वदि १० ना सुबत नामना दिवसे विज्य मुहूर्ते उत्त राफाल्गुनी नक्षत्रो आवतां पूर्वमा छाया वळतां छेल्ला पहोरमां पाणी वगरना चे अपवासो करी एक पोतनुं वस्त्रधारी सहस्त्र || आचा० सूत्रम् वाहिनी चंद्रप्रभा नामनी शिविका उपर चडी देव मनुष्य तथा असुरोनी पर्षदाओ साथे चालता चालता क्षत्रियकुंडपुर ॥११०२॥ संनिवेशना मध्यमां थइने ज्यां ज्ञातखंड नामे उद्यान हतुं त्यां भगवान आव्या. आवीने धीमे धीमे भूमिथी एक हाथ ॥११० २॥ | उंशी शिविका स्थापी धीमे धीमे तेमांथी उतर्या, उतरीने धीमे धीमे पूर्वाभिमुख सिंहासन पर बेसी आभरण-अलंकार उतारवा लाग्या. त्यारे वैश्रवण देवे गोदोहासने रहो सफेदवबमां भगवानना ते आभरणालंकार ग्रहण कर्या. पछी भगाने जमणा हाथथी जमणा अने डाबा हाथथी डाबा केशोनो पंचमुष्टिथी लोच को. त्यारे शक्रदेवेंद्र गोदोहासने ही भगवान्ना | ते वाळ हीराना थाळमां ग्रहण करीने भगवानने जणावीने क्षीर समुद्रमा पहोंचाया. ए प्रमाणे भगवाने लोच कर्या पछी सिद्धोने नमस्कार करी "मारे कंइ पण पाप नहिं करवु" एम ठराव करी सामायिक चारित्र स्वीकार्य.ए वेळा देवो नथा मनुष्योनी पर्षदाओ चित्रामणनी माफक (गडवड रहितपणे स्तब्ध) बनी रही. 51 एरीते भगवाने क्षायोपशमिक सामायिक चारित्र लोधा पछी तेमने मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न भयु. तेथी अढी द्वीप तथा वे समु-18 पद्रना पर्याप्त अने व्यक्त मनवाळा संचि पंचेंद्रियोना मनोगत भाव जाणवा लाग्या. पछी प्रत्रजित थयेला भगवाने मित्र, ज्ञाति, सगा तथा संवन्धीभोने विसर्जित करी एवो अभिग्रह लीधोके "बार वर्ष लगी हुँ कायानी सार संभाल महि करता जे कंड देव, मनुष्य के तिर्यची तरफथी उपसर्गो थशे ते बधा रुडी रीते सहीश, खमीश भने AAAAAA-CA A-ACEREAK For Private and Personal Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥११०३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आत्मामां समभाव राखीश. आवो अभिग्रह लइ शरीरनी ममताथी रहित थया थका एक मुहूर्त जेटलो दिवस होतां कुमार गामे आवी पहोंच्या पछी भगवान उत्कृष्ट आलय, उत्कृष्ट विचार तेमज नेवाज संयम, नियम, संवर, तप, ब्रह्मचर्य, क्षांति, त्याग, संतोष समिति गुप्ति, स्थान कर्म तथा रूडा फळवाळा निर्माण अने मुक्तिना आत्मा पोताने भावता थका विचरवा लाग्या. एम विचरतां जे कां देव, मनुष्य तथा तिर्यचो तरफथी उपसर्ग घया ते सर्वे भगवाने स्वच्छभावमां रही अणपीडातां अदीनमन घरी अदीनवचन कायाए गुप्त रही सम्यक् रीते सह्या खम्या तथा आत्माना समभावमां रथा. आवी रीते विचरतां भगवानने चार वर्ष व्यतिक्रम्या. हवे तेरमा वर्षनी अंदर उनाळाना बीजे मासे बीजे पक्षे वैशाकमुदी १०ना सुव्रत नामना दिने विजयमुहुर्ते उत्तराफाल्गुनीना यांगे पूर्व दिशाए छाया वळतां छेले पढोरे भिकगामनी बाहेर रुजुवालिका नदीना उत्तर किनारे श्यामाक गाथापतिना काष्टकर्म स्थळमां व्यावृत्त नामना चैत्यना इशानकोणमां शाळवृक्षनी पासे अर्धा उभा रही गोदोहासने आतापना करतां थकां तथा पाणी वगरना वे उपवासे जंघाओ उंची राखी माधुं नीचे घाली ध्यान कोष्टमा रहेता थकां शुकल ध्यानमां वर्त्ततां छेवटनुं संपूर्ण प्रतिपूर्ण अव्याहत निरावरण अनंत उत्कृष्ट केवलज्ञान तथा केवलदर्शन उपन्युं हवे भगवान अर्हन्, जिन, केवली, सर्वज्ञ, सर्वभावदर्शी थइ देव, मनुष्य तथा असुरप्रधान (आखा लोकना पर्याय जाणवा लाग्या, एटले के तेनी आगति-गति, स्थिति, च्यवन, उपपात, खाधुं पीधुं, करेलुं करावेलं, प्रगट काम, छानां काम, बोलेलं कहेलं. के मनमा राखेलं एम भाखा लोकमां सर्व जीवोना सर्व भाव जाणता देखता थका विचरवा लाग्या. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥११०३॥ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥११०४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जे दिने भगवानने केवलज्ञान दर्शन उपन्यां ते दिने भवनपत्यादि चारे जातना देवदेवीओ आवतां जतां आकाश देवमय तथा घोलुं थइ रं. ए रीते उपजेलां ज्ञान दर्शनने धरनार भगवाने पोताने तथा लोकने संपूर्णपणे जोड़ने पहेलां देवाने धर्म कही संभळाव्यो, अने पछी मनुष्यने. पछी उपजेला ज्ञान दर्शनना धरनार श्रमण भगवान महावीरे गौतमादिक श्रमण निर्धन्धोने भावना सहित पांच महाव्रत तथा पृथ्विकाय विगेरे छ जीवनिकाय कही जणाव्या. (पांच पांच भावना सहित पांच महाव्रत) दीक्षा लेनार साधुए आम बोलं - पहेले मात्रत - हे भगवान् ! हुं सर्व प्राणातिपात त्याग करूँ हुँ, ते ए रीते के सूक्ष्म के के बादर, त्रस के स्थावर जीवनो यावज्जीव पर्यंत मन वचन कायाए करी त्रिविधे त्रिविधे पोते घात न करीश, बीजा पासे न करावीश अने करताने रुडुं न मानीश तथा ते जीवघातने पडिक छु, निहुं हुं गरहुं हुं अने तेवा स्वभावने वोसरावं छं भावना कहे छे. इरियासमिए से निग्गंथे नो अणइरियासमिएत्ति, केवली बूया० - अणइरियासमिए से निग्गंथे पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई अभिहणिज्ज वा वत्तिज्ज वा परियाविज्ज वा लेखिन वा उदविज्ज वा इरियासमिए से निग्गंथे नो इरिया असमइत्ति पढमा भावणा १ । अहावरा दुच्चा भावणामणं परियाणा से निम्गंथे, जे य मणे पात्रए, सावज्जे सकिरिए अण्हयकरे छे करे भेयक अहिगरणिए पाउसिए पारियाए पाणाइवाइए भूभवचाइए, तहप्पगारं मणं नो पधारिजा गमणाए For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥११०४॥ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥११०५॥ www.kobatirth.org मणं परिजाइ से निग्गंथे, जे य मणे उपावएत्ति दुच्या भावणा २ । अहावरा तथा भावणा - बई परिजाणइ से निग्गंथे, माय वई पात्रिया सावज्जा सकिरिया जाब भूओवघाइया तहपगारं वई नो उच्चारिता, जे बई परिमाणइ से निम्गंथे, जान व अप्पावियत्ति तच्चा भावणा ३ । अहावरा चउत्था भावणा- आयाणभंडम त्तनिक्खेवणासमिए से निम्गंथे, नो अणायाणभंडमनिक्खेवणासमिए, केवली ब्रूया० - आयाण भंडमत्त निक्खेवणा असमिए से निम्गंथे पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई अभिहणिज्जा वा जाव उद्दविज्ज वा तम्हा आयाणभंडमत्त निक्खेवणासमिए से निग्गंथे, नो आयाणभंड निक्खेवणा समिति चउत्था भावणा ४ | अहावरा पंचमा भावणा-आलोइयपाणभोयणभोई, से निग्गंथे नो अणालोइयपाणभोणभोर, केवली वूया० - अणालोईयपाणभायणभाई से निग्गंथे पाणाणि वा ४ अभिहणिज वा जान उद्दविज वा तुम्हा आलोइयपाणभोयणभोई से निग्गंथे नो अणालोइयपाणभोयणभाईसि पंचमा भावणा ५ । एयात्रता महत्रए सम्भं कारण फासिए पालिए तीरिए किट्टिए अवट्ठिए आणाए आराहिए यावि भवइ, पढमे भंते! महत्व पाणावायोओ वेरमणं || अहावरं दुच्चं महत्वयं पच्चक्रखामि सव्वं मुसावार्थ वइदोस से कोडा वा लोहा वा भया वा हासा वा नेव सयं मुसं भासिज्जा नेवणं मुखं भासाविज्जा अनंपि मुसं भासतं न समणुमन्भिज्जा तिविहं तिविद्देणं मणसा वयसा कायसा, तस्स भंते! पटिकमामि जान वोसिरामि, तस्सि माओ पंच भावणाओ भवति तन्थिमा पढमा भावणा-अणुबीमासी से निग्गंथे नो अणणुवी इभासी, केवली वूया० - अणणुवीभासी से निग्गंथे समावज्जिज्ज मोसं वयणाए; अणुत्री भासी से निग्गंथे नो अणणुवी भासित्ति पदमा भावणा । अहावरा दुच्चा भावणा-काहं परियाण से निगं ये For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥११०५ ॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ।। ११०६ ।। ।। www.kobatirth.org नो कोहणे सिया, केवली वूया - कोहपत्ते कोहनं समवइज्जा मोसं वयणाए, कोई परियाणइ से निग्गंथे न य कोहणे सियत्ति दुच्चा भावा । अहावरा तच्चा भावणा-लोभ परियाणा से निग्गंथे तो अ लोभणए सिया, केवली बूया-लोभपत्ते लोभी समात्रइज्जा मोसं वयणाए लोभं परियाण से निग्गंथे नो य लोभणए सियत्ति तच्चा भावणा । अहावरा चउत्था भावणा-भयं परिजाणइ से निग्गंथे नो भयभीरुए सिया, केवली वूया -भयपत्ते भीरू समावइज्जा मोसं वयण ए, भयं परिमाणड़ से निम्गंथे तो भयभीरुए सिया चउत्था भावणा ४ । अहावरा पंचमा भावणा -हासं परियाणा से निगं नो य हासणए सिया, केव० हासपत्ते हासी समावइज्जा मोसं वयणाए, हासे परियाणड़ से निग्ये नो हासणए सियति पंचमी भावणा५ । एतावता दोच्चे महत्वए सम्भं काएग फासिए जाव आणाए आरादिए यात्रि भवइ दुच्चे भंते! मन्त्रए । अहावरं तच्चं भंते ! महच्चयं पच्चखामि सव्वं अदिन्नादाणं' से गामे वा नगरे वा रन्ने वा अवा बहु वा अशुं वा धूलं वा चित्ततं वा अचित्तमं वा नेव सयं अदिन्नं गिण्डिजा नेवन्नेहिं अदिनं गिण्हा विज्जा अदिन्न अन्नंपि, गिन्हंत न समणुजाणिज्जा जावज्जीवाए जात्र बोसिरामि, तस्सिमात्र पंच भावणाओं भवति, तत्थिमा पढमा भावणा - अणुवीर मिउग जाई से निग्गंथे नो अणणुवीमिउग्गहं जाई से निग्गंथे, केवली वूया - अणपुत्री मिउहं जाइ निथे अदिन्नं गिण्हेज्जा, अणुवीड़ मिउग्गह जाइ से निम्गंथे नो अणणुत्रो मिउग्गहं जाइति पढमा भावणा १ | अहावरा दुच्चा भावणा - अणुन्नविय पाणभोद्यणभोइ से निग्र्गथे नो अणणुन्नविअ पाणभांयणभाइ, केवली बूयाअणुत्रविय पाणभोयणभोर से निग्गंथे अदिन्नं भुंजिज्जा तन्हा अणुन्नविय पाणभोयगभोर से निग्गंथे नो अणणुन्न For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ।।११०६ ।। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० है। सूत्रम् ॥११०७॥ u.१०७॥ AAS.CCREASST.. विय पाणभोयणभोइति दुच्चा भावणा २ । अहावरा तच्चा भावणा-निग्गथेगं उम्गहंसि उग्गहियं स एतावताव उग्गहणसीलए सिया, केवली व्या-निग्गंथेणं उग्गर सि अणुग्ग हियसि एतावता अणुग्गहणतीले अदिन गिणि जा, निग्गथेणं उग्गहं उग्गहियसि एतावताव उग्गहणसीलएत्ति तच्चा भावणा । अहावरा चरित्या भाषणा-निग्गयेगं उम्गसि उग्गहियसि अभिक्रवणं २ उग्गहणसीलए सिया, केवली वूया-निग्गंथेणं उगहंसि उ अभिक्रवणं २ अणुग्गहणसीले अदिन्नं गिण्डि ज्जा. निग्गंथे उग्गहसि उग्गहियसि अभिक्खणं २ उग्गहणसीसएतिचउत्था भावणा | अहावरा पंचमा भावणाअणुचीइ मिउग्गहजाद से निग्गथे साहम्मिएमु, नो अणणुबीइ मिरगहनाइ, केवली बूया-अणणुवीइ मिउग्गहजाइ से निग्गंथे साहम्मिए अदिन अगिण्डिजा अणुवीइमिउग्गह जाइ से निग्गंथे साहम्मिएमु नो अणणुवीइमिउगह जाती इइ पंचमा भावणा, एतावया तचे महन्धए सम्म० जाव आणाए भाराहए यावि भवा. तचे भते! महग्वयं ॥ अहावरं चउत्थं नहब्वयं पञ्चक्खामि सत्वं मेहुण, से दिव्यं वा माणुस्सं वा तिरिक्खनो णयं वा नेव सयं पेढणं गच्छे जा तं चेवं अदिनादाणवतनया भणियबा जाव वोसिरामि, तस्तिमाओ पंच भावणाभो भवंनि तत्थिमा पढमा भावणा-नो निग्गंथे अभिक्खणं २ इत्थीणं कई कहित्तए सिया, केवली बूया-निग्गंथेग २ इत्थीण कई कहेमाणे सतिभेया संतिविभंगा संतिकेवलीपन्नताओ धम्मा श्री भंसिना, नो निग्गथे णं अभिक्खणं २ इत्यण कहं कहित्तए मियत्ति पढमा भावणा १। अहावरा दुचा भावणा-नो निग्गये इत्पीगं मणोहराई २ इंदियाई आलोइराए निजाइत्तए सिया, केवली बृया-निगंथे णं इत्थीणं मणोहराई २ दियाई आलोए माने निज्झाएमाणे संतिभेया संति विभंगा जाच धम्माभो MERIENDSHERS For Private and Personal Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा सुत्रमू न ॥११०८॥ ॥११०८॥ ARCANCE भंसिज्जा नो निष्णषे इत्थीणं मनोहराई २ इंदियाई आलोइलए नियाइनए सियगि दुचा भावणा २ । अहावरा तच्चा भावणा-नो निग्गंथे इत्थीणं पुवरयाई पुब्धकीलियाई मुमरित्तए सिया, केवली बूया-निग्गंथे णं इत्थीणं पुवरयाई पुवकोलियाई सरमाणे संतिभेया जाव भंसिज्जा, नो निग्गंथे इत्थीणं पुवरयाई पुब्बकीलियाई सरिचए सियत्ति तच्चा भावणा ३ । अहावरा चउत्था भावणा-नाइमत्तपाणभोयणभोई से निग्गंथे न पणीयरसभायणभोई से निम्गंथे केवली व्या-अइमत्तपाणभोयणभोई से निग्गंथे पणियरसभोयणभोई संतिभेया जाव भंसिजा, नाइमत्तपाणभोयणभोई से निग्गंथे नो पणीयरसभोयणभोइत्ति चउत्था भावणा ४ । अहावरा पंचपा भावणा--नो निग्गथे इत्थीपसुपंडगसंमत्ताई सयणासणाई सेवितए सिया, केवली बृया--निग्गंथे णं इत्थीपमुपंडगसंसत्ताईसयणासणाई सेवेमाणे संतिभेया जाव संसिज्जा, नो निग्गंथे इत्थीपमुपंडगसंसत्ताईसयणासणाई सेवित्तए सियत्ति पंचमा भावणा ५, एतावया चउत्थे महन्वए सम्म कारण फासेइ जाव आराहिए यावि भवइ चउत्थं भते ! महत्वयं ।। अहावरं पंचमं मंते ! महब्वयं सव्वं परिग्गरं पश्चक्खामि से अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतमचिन वा नेव सयं परिग्महं गिहिज्जा नेवबेहिं परिग्गरं गिहाविज्जा अन्नपि परिग्गहं गिण्हतं न समणुजाणिज्जा जाव बोसिरामि, तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवतितत्थिमा पढमा भावणा-सोयो णं जीवे (मणुबा) मणुनाई सहाईमुणेई मणुन्नामणुन्नेहि सहेहि नो सज्जज्जा नो रज्जिज्जा नो गिज्झज्जा नो मुज्झि (च्छे) ज्जा नो अज्योववज्जिज्जा नो विणिधायमावज्जेज्जा, केवली बृयानिग्गथं णं मणुन्नामणुन्नेहिं सद्देहिं सज्जमाणे रज्जमाणे जाव विणिघायमावज्जमाणे संतिभेया संतिविभंगा संतिकेवलि - CRA . X For Private and Personal Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० सुत्रम् - ॥११०९॥ - - पन्नताओ धम्माओ भसिज्जा, न सका न सोउ सद्दा, सोतविसयमागया । रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए ॥१॥ सोयओ जीवे मणुन्नामणुन्नाई सहाई मुणेड़ पढमा भावणा १ । अहावरा दुचा भावणा-वक्खूओ जीवो मणुबामणुभाई रूवाईपासाइ मणुनामणुनेहि रूबंहि सग्जमाणे जाव विणिघायमावज्जमाणे संतिभेया जाव भंसिज्जा,-न सका रूवमटु, चक्खुविसयमागयं । रागदोसा उ जे तत्य, ने भिक्खू परिवज्जए ॥१॥ चक्खूओ जीवो मणुन्ना २ रूवाई पासाइ, दुचा भावणा । अहावरा तच्चा भावणा-याणओ जोवे मणुन। २ई गंधाई अग्यायइ मणुनामणुन्नेहि गंधेहि नो सज्जिज्जा नो रजिजा जाब नो विणिघायमावन्जिना केवली यूपा-मणुबामणुन्नेहि गंधेहि सज्जमाणे जाव विणिघायमावजमाणे संतिभेया जाव भंसिजा, न सका गंधमग्याउ, नासाविसयमागथं । रागदासा उ जे तत्य, ते मिक्खू परिवजए ॥ ॥ घाणो जीवो मणुना २ इगंधाई अग्यायइति तचा भावणा ३ । अहावरा चउत्था भावणा जिब्भाओ जीवो मणुन्ना २रसाई अस्साएइ, मणुनामणुन्नेहिं रसेहि नो सज्जिज्जा जाव नो पिणियायमावजिज्जा केवली वृया-निग्गंथे णं मणुनामणुनेहिं रसेहिं सज्जमाणे जाव विणिघायमावजमाणे संतिभेया जाव भंसिजा,-न सक्का रसमस्साउं, जीहाविसयमागयं । रागद्दोषा उजे तत्थ, ते भिक्खू परिवजए ॥१॥ जीहाओ जीवो मणुन्ना २ई रसाई अस्साएइत्ति चउत्था भावणा ४ । अडावरा पंचमा भावणा-फासुनी जीवो मणुन्ना २६ फासाई पडिसेवेएइ मणुन्नामणुन्नेहिं फासेहिं नो सज्जिज्जा जाव नो विणिघायमावज्जिज्जा, केवली बृया-निग्गंथे णं मणुन्नमणुन्नेहिं फासेहि सज्जमाणे जाव विणिघायमावज्जमाणे संतिभेया संतिविभंगा संतिकेवली पन्नत्ताओ धम्माओ भंसिज्जा,-न सका - - - - - - For Private and Personal Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रमू ॥१११०॥ फासमवेएउं, फासविसयमागयं । रागद्दोसा०॥१॥ फासी जीवो मणुन्ना २ईफासाई पडिसंवेएति पंचमा भावणा आचा ५। एतावता पंचमे महब्बते सम्म अवटिए आणाए आराहिए यावि भवइ, पंचम भंते ! महब्धय । इच्चेएहिं पंचमहब्ब एहि पणवीसाहि य भावणाहिं संपन्ने अणगारे अहामुयं अहाकपं अहामग्गंसम्मं कारण फासित्ता पालित्ता तीरित्ता ॥१११०॥ किट्टित्ता आणाए अराहित्ता यावि भवइ ।। (मू० १७९) तेनी आ पांच भावना छे. प्रथम भावना-मुनिए दर्यासमिति सहित थइ वर्तवू पण रहित थइ न वर्त; कारण के केवळज्ञानी कहे छे के जे इर्यासमिति || रहित होय ते मुनि प्राणादिकनो घात विगेरे करतो रहे छे माटे निग्रंथे इर्यासमितिथी वर्तवु. ए पहेलो भावना बीजी भावना ए के निग्रंथ मुनिए मन ओलखवू एटले के जे मन पाप भरेलु, सदोष (भुंडी) क्रिया सहित, कर्मबंधकारि, छेद E करनार, भेद करनार, कलहकारक, पद्वेष भरेलं, परितप्त तथा जीव-भूतनुं उपघातक होय-तेवा मनने नहि धारयुं, बीजी भावना. श्रीजी भावना ए के निग्रंथे वचन ओळखg एटले के जे वचन पाप भरेलुं सदोष (भुंडी) क्रियावा . यावत् भूतों पघातक 15 होय-ते, वचन नहि उच्चारवं. एम वचन जाणीने पापरहित वचन उच्चार, ए त्रीजी भावना. दि चोथी भावना ए के, निग्रंथे भंडोपकरण लेतां राखतां समिति सहित थइ वर्तवू पण रहितपणे न वर्शवु. केमके केवली कहे छे के आदान भांड निक्षेपणा समिति-रहित निथे पाणादिकनो घात विगेरे करतो रहेछ. माटे निथे ते समिति सहित था वर्ग. ए चोथी भावना छे. CRIMAR For Private and Personal use only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥११११ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पांचमी भावना ए के निचे आहारपाणी जोड़ने वापरवां, वगर जोए न वापरवां केमके केवली कहे छे के बगर जोए आहारपाणी वापरनार निर्बंथ प्राणादिकनो घात विगेरे करे माटे निर्ग्रथे आहारपाणी जोडने वापरai. नहि के वगर जोड़ने ए पांचमी भावना. ए भावनाओथी महाव्रत रुडीरीते कायाए स्पर्शित, पालित, पार पाडेल, किर्त्तित, अवस्थित अने आज्ञा प्रमाणे आराधित थाय छे. ए पहेलुं प्राणातिपात विरमणरूप महाव्रत छे ते हुं स्वीकारुं छु बीजुं महाव्रत - " सघळं मृषावादरुप वचनदोष त्याग करूं छं एटले के, क्रोध, लोभ, भय, के हास्यथी यावज्जीव पर्यंत त्रिविधे त्रिविधे एटले मन वचन कायाए करी मृपाभाशण करूं नहि, कराखुं नहि. अने करताने अनुमोदु नहि तथा ते मृषाभाषणने | पडिक छु. निंदुं हुं गहुँ छु अने तेवा स्वभावने वोसराकुं हुं तेनी आ पांच भावना छे त्यां पेली भावना आ, निर्ग्रथे विमासीने बोलवु वगर विचारे न बोलबुं; केमके केवळी कहे छे के बगर विमासे बोलनार निर्ग्रथ मृषा वचन बोली जाय माटे निर्बंथे विमासीने बोलवु नहि के बगर विमासे ए पेली भावना. बीजी भावना ए के निग्रंथे क्रोधनुं स्वरूप जाणी क्रोधी न थवं केमके केवली कहे छे के क्रोधी जीव मृषा बोली जाय माटे निर्ग्रथे क्रोधनुं स्वरुप जाणी क्रोधी न थवं ए बीजी भावना. त्रीजी भावना ए के निर्ग्रथे लोभनुं स्वरुप जाणी लोभी न थः केमके केवली कहे छे के लोभी जीव मृषा बोली जाय माटे निर्ग्रथे लोभी न थनुं ए त्रीजी भावना. चोथी भावना ए के निर्ग्रथे भयनुं स्वरूप जाणी भयभीरु न थ; केमके केवली कहे छे के भीरु पुरुष मृषा बोली जाय माटे भीरु न थ ए चोथी भावना. पांचमी भावना ए के हास्यनुं For Private and Personal Use Only सूत्रम् ।। ११११ ॥ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kotbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मा कर ॥१११२॥ स्वरुष जाणी निथे हास्य करनार न थq, केमके केवली कहे के के हास्य करनार पुरुष मृषा बोली जाय माटे निथे हास्य कर नार न थवं. केमके केवली कहे छे के हास्य करनार पुरुष मृषा बोली जाय माटे निथे हास्य करनार न थq ए पांचमी भावना. आचा० ए भावनाओथी महाबत रुडी रीते कायाए करी स्पर्शित अने यावत् आज्ञा प्रमाणे आराधित थाय छे. ए बीजुं महावत.. ॥१११२॥ त्रीजु महाव्रत-" सर्व अदत्तादान तनुं छु, एटले के गाम नगर के अरण्यमा रहेढं थोडु के झाझं, नानू के महोटुं, सचित्त के अचित्त अणदीधेलं [वस्तु] हुँ यावज्जीव त्रिविधे त्रिविधे एटले मन-वचन-कायाए करी लई नहि, लेवरावु नहि. लेनारने अनुमत थउ नहि. तथा अदत्तादानने पडिकमु छ यावत् तवा स्वभावने वोसरावु छु." तेनी आ पांच भावनाओ के.-त्यां पहेली भावना आ के निथे विचारीने परिमित अवग्रह भागयो, पण वगर विवारे अपरिमित २ | अवग्रह न मागवा, केमके केवळी कहे छे के वगर विचारे अपरिमिन अवग्रह मागनार निग्रंथ अदत्त लेनार थइ जाय. माटे विचाहैरीने परिमित अवग्रह मागवो. ए पेहेलो भावना बीजी भावना ए के निथे रजा मेळवीने आहारपाणी वापरवा. पण रजा मेळव्या वगर न वापरवा; केमके केवळी कहे छ के वगर रजा मेळवे आहारपाणी वापरनार निग्रंथ अदत लेनार थइ पडे माटे रजा मेळवीने आहारपाणी वापरवा ए बीजी भावना. त्रीजी भावना ए के निग्रंथे अवग्रह मागतां प्रमाण सहित(काळक्षेत्रनी हद बांधी) अवग्रह लेवा. केमके केवळी कहे छे के प्रमाण विना अवग्रह लेनार निग्रंथ अदत्त लेनार थइ जाय माटे प्रमाण सहित अवग्रह लेवो ए त्रीजी भावना. चोथी भावना ए के निथे अवग्रह मागतां वारंवार हद बांधनार य. केमके केवळी कहे छे के वारंवार हद नहि बांधनार FACAR.CO-O- For Private and Personal Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुत्रम् // 1113 // Re - पुरुष अदत्त लेनार थइ जाय माटे वारंवार हद बांधनार थर्बु ए नोथी भावना. आचा० पांचमी भावना ए के विचारीने पोताना साधर्मिक पासेथी पण परिमित अवग्रह मागवो; केमके केवळी कहे के के तेम न करनार निग्रंथ अदत्त लेनार यह जाय. मारे साधार्मिक पासेथी पण विचारीने परिमित अवग्रह मागवो. नहि के वगर विचारे | // 1113 // 8 अपरिमित. ए पांचमी भावना, ए भावनाभोथी महाव्रत रुडी रीते यावत् आज्ञा प्रमाणे आराधित थाय छे. ए पीजं महावत. चोथु महाव्रत-"सर्व भैथुन तर्जु छ एटले के देव मनुष्य तथा तिर्यंच संबन्धी मैथुन हुँ यावज्जीवत्रिविधे त्रिविधे करुं नहि." इत्यादि अदत्तादान माफक बोल. व तेनी आ पांच भावनाओछे. त्यां पहेली भावना ए के निर्ग्रन्थे वारंवार स्त्रीनी कथा कह्या करवी नहि केमके केवळी कहे | छे के वारंवार स्त्री कथा करतां शांतीनो भंग थवाथी निर्ग्रन्थ शांतिथी तथा केवळी भाषित धर्मथी भ्रष्ट थाय. माटे निग्रन्थे वारंवार खी कथाकारक न थ ए पहेली भावना. 4 बीजी भावना ए के निर्ग्रन्थे खीओनी मनोहर इन्द्रियो जोवी के चितववी नहि. केमके केवळी कहे के, के तेम करतां शांति ह भंग थवाथी धर्मभ्रष्ट थवाय. माटे निर्ग्रन्थे खीओनी मनोहर इंद्रियो जोवी के तपासवी नहि. ए बीजी भावना. त्रीजी भावना ए के निग्रन्थे स्वीओ साथे पूर्व रमेली रमत-क्रीडाप्रो याद न करवी; केमके केवळी कहे हे के ते याद करतां 18 शांति भंग थवाथी धर्मभ्रष्ट धवाय, माटे निग्रन्थे स्त्रीभो साथे पूर्वे रमेली रमत गमतो संभारवी नहि. ए त्रीजी भावना. व.स RI K .२-बारक A. .. For Private and Personal Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org चौथी भावना ए के निर्ग्रन्ये अधिक खानपान न वापर, तथा सरता रसवाडं खानपान न वापर; केमके केवळी कहे छ8 के अधिक तथा झरता रसवालु खानपान भोगवतां शांति भंग थवाथी धर्मभ्रष्ट थवाय माटे अधिक आहार के विशेश घी द्धवाळो / आहार निर्धन्ये न करवो ए चोथी भावना. // 1114 // पांचमी भावना ए के निये स्त्री, पशु, तथा नपुंसकथी घेरायेल शय्या तथा आसन न सेवां; केमके केवळो कहेछ के // 1114 // तेवां शय्या-आसन सेवतां शांतिभंग थवाथी निथ धर्म भ्रष्ट थाय माटे निये स्त्री, पशु पंडकथी घेरायेल शय्या आसन न सेवबां. / ए पांचमी भावना. एरीते महावत रुडीरीते कायाए करी स्पर्शित तथा यावत् आराधित थाय छे ए चोयुं महात्रत. or पांचमुं महाव्रत-"सर्व परिग्रह तनुं ई. एटले के थोडं के घj, नानु के मोटु, सचित के अचित, हुँ पोते लई नहि बीजाने हा लेबरावू नहि, अने लेताने अनुमत थाउं नहीं यावर तेवा भावने वोसरा छ. है तेनी आ पांच भावनाओ हे. त्यां पेली भावना ए के कानवी जीवे भला भूडा शब्द सांपला तेमां आसक्त, रक, गृद, मोहित, तल्लीन के विवेकभ्रष्ट न थq. केमके केवळी कहे छ के तेम थतां शांति भंग थवाथी शांति तथा केवलिभाषित थथी भ्रष्ट थवाय छे / 18 बीजी भावना ए के चक्षुथी जीवे भला भंडां रूप देखतां तेमां आसक्त के या विवेकभ्रष्ट न य. केके केरळा कहे छे के तेम थतां शांति भंग थवाथी यावत् धर्म भ्रष्ट थवाय छे, / त्रीजी भावना ए के नाकथी जोवे भला मुंडा गंध संघनां तेमां आसक्त के यान विवेकभ्रष्ट न थ. केमके केवळो कहे छे 5 के तेम थतां शांतिभंग थवाथी यावत् धर्म भ्रष्ट थवाय छे. For Private and Personal Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir CA- CREAC%E . - - चोथी भावना ए के जीभयी जीवे भल मुंडां रस चाखतां तेमा आसक्त के विवेकभ्रष्ट न थ केमके केवळी कई छ आचाक के तेम थतां शांतिभंग थवाथी धर्मभ्रष्ट थवाय छे. सूत्रम् पांचमी भावना ए के भला मुंडा स्पर्श अनुभवतां तेमां आसक्त के विवेकभ्रष्ट न चुकेमके केवळी कहे के के तेम 31 // 1115 // 8/ यतां शांति भंग थवाथी धर्मभ्रष्ट थवाय छे. एरीते महाव्रत रुडी रीते कायाथी स्पर्शित, पाळित पार पहोंचाडेल, कीर्तित, अवस्थित अने आज्ञाथी आराधित पण थाय Pए पांचमुं महाव्रत. ए महाव्रतोनी पचीश भावनावडे संपन्न अणगार मूत्र, कल्प तथा मार्गने यथार्थ पणे रुडी रीते कायाथी स्पर्शी, 18 पाळी, पार पहोंचाडी, कीर्तित करी आज्ञानो आराधक पण थाय छे. विमुक्ति अध्ययन. भावना नामर्नु त्रीजुं कहीने विमुक्ति नामर्नु चोथु अध्ययन कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छ, त्रीजामां महात्रतनी भावनाओ बतावी छे, तेम अहीं पण अनित्य भावना कहे छे, आ संबंधे आवेला अध्ययनना चार अनुयोगद्वारो थाय छे, तेमां उपक्रममा द्रा रहेल अर्थाधिकार बतावचा नियुक्तिकार कहे छे. अणिच्चे पव्वए रुप्पे भुयगस्स तहा (या) महासमुद्दे य / एए खलु अहिगारा अज्झयणंमी विमुत्तिए / 342 // आ अध्ययनमा अनित्यत्व, पर्वत, भुजंगपणुं अने समुद्रनो एम पांच अधिकार छे, ते यथायोग्य मूत्रमांज कहींY. नामनिष्पन्न नि. मां विमुक्ति नाम छे, एमा नामादि निक्षेपा उत्तराध्ययनमूत्रना विमुक्ति (विमोक्ष) अध्ययनमां बताव्या - . - . Recca.. -कर. For Private and Personal Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit सूत्रम् // 1116 // - |प्रमाणे जाणवा, तेथी अहीं टुंकाणमा नियुक्तिकार कहे छे. नो चेव होइ मुक्खो, सा उ विमुत्ति पगयं तु भावेणं / देसविमुका साहू, सव्वविमुक्का भवे सिद्धा / / 3 43 // आचा० जे मोक्ष तेज विमुक्ति हे, एना निक्षेपा मोक्ष माफक जाणवा, अहीं अधिकार भाव विमुक्तिनो ठे, भाव विमुक्ति देश अने में // 1116 // सर्व एम वे भेदे छे, देशथी सामान्य साधुथी मांडीने भवस्थ (शरीरधारी) केवली सुधी जाणवा, सर्व विमुक्ति तो आठ कर्मना अय हा थवाथी सिद्धो जाणवा, मूत्रानुगममां मूत्र उच्चारधू, ते कहे हे अनित्य अधिकार. अणिच्चमावासमुविति जंतुणो, पलोयए मुच्चमिणं अणुत्तरं / विउसिरे दिन्नु अगारबंधणं, अभीरु आरंभपरिग्ग है चए // 1 // जेमां जीव रहे ते आवास छे, एटले मनुष्य विगेरे भवमां मळेलं शरीर छे. तेने प्राणोओ वारंवार मेळवे छे, के जे चार गतिमा जीव ज्या ज्या उत्पन्न थाय छे, त्यां अनित्य भाव पामे डे, (अर्थात् गतिमां एके निश्चळ स्थान नथी) आ प्रमाणे जिनेश्वरतुं वचन समजीने बिद्वान पुरुप पुत्र स्त्री धन धान्य विगेरेवाळु घरन बंधन छोडे, तथा साते प्रकारना भव छोडीने परिसह उपसर्गथी न डरतो सावधकृत्य तथा बाह्य अभ्यंतर परिग्रह छोडे पर्वत अधिकार. तहागयं भिक्खुमणंतसंजय, अणेलिस विन्नु चरंतमेसणं / तुदति वायादि अभिद्ववं नरा, सरेहि संगामगर्य व कुंजरं // 2 // प्रथम श्लोकमां बतावेल अनित्य भावना भावेलो, घर बंधन छोडेलो, आरंभ परिग्रह रहित अनंत काय विगर एकेंद्रियादि - - - - For Private and Personal Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir M उ. // 1117 // - - अनंता जीवोनी यातना करवाथी अनंत संयत बनेलो एवा उत्तम साधुने जिनेश्वरना वचनमा प्रवीण शुद्ध गोचरीने लेतो जाणीने आचा तेवा उत्तम गुणोथी रहित माणसो पापथी हणायेल आत्मावाळाचनीने कधवां वचनोवढे पीडे हे. तथा ते भो माटीनां ढेफां विगेरेथी सूत्रम् जेम लडाइमां गयेला हाथीने तीरो मारे तेम ते उत्तम साधुने पीडे छे. . // 1117 // 18/ तहप्पगारेहि जणेहि हीलिए,ससहफासा फरुसा उईरिया / तितिकम्यए नणि अट्टचेयसा, गिरिच वारण न संपवेयए // 3 // पूर्वे कहेला अगार्य जेवा पुरुषोए पीडेलो एटले कडवां कटोर वचनोए आक्रोश करोने अनि टंड ताप विगेरेथी दुःखी करीने हीलना करी होय, तो पण मुनि तेने समता भावे सहे, कारण के ज्ञानी साधु समजे ले के में पूर्व करेला अशुभ कृत्यो कर्भ रुपे 1 उदयमां आव्या छे, एम मानीने चित्तमा कुविकल्प न करतां पर्वत माफक धैर्य गग्वीने तनाथी कंपे नहि, अर्थात वायुथी पहाड न कंपे, तेम पोते एग्य देनारथी कजीओ न करे, तेम चारित्र मुकी न दे, रुपार्नु हटांन. उवेहमाणे कुसलेहि संवसे, अकंतदुक्खी तस धावरा दुही / अल्सए सबसहे महामुणी, तहा हिसे मुसमणे समाहिए // 4 // परिसह उपसर्गाने सहतो अथवा इष्ट अने अनिष्ट विषयोनी उपेक्षा करतो माध्यस्थभाव धारीने गीतार्थ साधुओ साये वसे, ते अशाता वेदनीय दुःखथी पीडाता त्रस थावर जीवाने पोते न पी.डतो पृथ्वी माफक सर्व सहेनार तथा वरोवर रीतेत्रण जगनना। स्वभावने जाणनार महामुनि बनीने पोते विचरे, तेथी नेने मुश्रमणनी उपमा आपी हे, विऊ नए धम्मपयं अणुत्तरं, विणीयताहस्स मुणिस्स झाय भो / समाहियस्मऽग्गिसिहा व तेयमा, नवो य पन्ना य नमो य वर / / / . - . - . . - . . For Private and Personal Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit सूत्रम् // 1998 // - विद्वान ते काळने जाणनारो, नमेलो (विनयवान) प्रधान एवां शांति विगेरे धर्म पदोने जाणीने तृष्णाने दूर करेल. धर्मध्यान 4 आचा०॥ ध्यावतां अने बधी धर्म क्रियामां उपयोग राखतां तेनो तप तथा कीर्ति बधे छे. दिसोदिसंऽणंतजिणेण तारणा, महब्बया खेमपया पवेइया / महागुरु निपरा उईरिया, तमेव ते उत्तिदिसं पगासगा // 3 // // 1118 // भावदिशा तु एकेंद्रियादि सर्व जीवोने विषे क्षेमपद ते रक्षणस्थान रुप व्रतोने अनंत ज्ञानी जीनेश्वरे बताव्यां छे, ते सामान्य माणसथी न पळाय माटे महागुरु छ, अने ते व्रतो पाळवाथी पूर्वनां चीकणां कर्माने पण दूर करे छे, तथा अज्ञान अंधकार दूर है करवाथी त्रिदिशामा प्रकाश पडे ले, ते जेम अग्नि उपर नीचे अने तीरछो प्रकाश करे छे, एम आ महाव्रतो पण कर्म अंधकारने दूर करवाथी प्रकाशक छे. मूळ गुणोनी स्तुति करी उत्सर गुणो वर्णवे छे, सिएहि भिक्खुअसिए परिब्बए, असज्जमित्थीसु चइज पूयणं / अणिस्सिओ लोगमिणं तहा परं, न मिज्जई कामगुणेटिं पंडिए // 7 // म सिता ते आठ कर्मे करीने अथवा राग द्वेष विगेरेना कारणरूप गृहपाशथी बंधायेला गृहस्थो अथवा अन्य दर्शनीओ छे, तेमना पाशामा साधु पोते रागद्वेषथीन फसाय, अने पोताना संयम अनुष्ठानमां रक्त रहे; तथा खोश्रो साथे प्रसंग न राखतां पूजन प्रा तजे, अर्थात सत्कार मान पाननो अभिलापी न थाय, तथा आलोक तथा परलोकमा मुख छे एम मानीने विषय सुख विगेरनो पण अभिलाषी न थाय, आ प्रमाणे मनोज्ञ शन्दो विगेरेथी पण लोभाय नहि. तेज पंडित के. एटले परिणामे कडवां फळ विषय अभिलाषमां के एम जाणनारोन दीर्घदर्शी मुनि छे. -ACCIA-3-4-4 For Private and Personal Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा PRECACC0% A // 1119 // तहा विमुकस्स परिनचारिणो. घिईमो दुक्खखमस्स भिक्खुणो / विसुज्झई जंसि मलं पुरेकडं, समीरियं रुपमलं व नोइणा // 8 // उपर कहेला बोध प्रमाणे मूल उत्तर गुण धारीने पाळवाथी विमुक्त धयेल तथा मळेला ज्ञानथी ज्ञपरिज्ञावडे सद्भसदनो विवेक सूत्रम् समजीने चालनारो एटले प्रथम ज्ञानथी विचारीने पछी क्रिया करे छे, तथा संयममां धैर्य राखे, अशाता वेदनीय उदयमा आवतां दुःख आवे तो समताथी सहे, न खेद करे, तेमन तेनी शांति माटे वैद्य औषधनी पण घणी झंखना न करे, आवा भिक्षुनां पूर्व 4 // 1119 // | करेलां को जेम रूपानो मेल अनिथी दूर थाय छे, तेम तपश्चर्या विगेरेथी दूर थाय छे. - सापनी चामडीन दृष्टांत :से हु परिनासमयंमि वट्टई, निराससे उवरय मेहुणा चरे / भुयंगमे जुन्नतयं जहा चए, विमुच्चई से दुहसिज माहणे // 9 // उपर कहेला मूल उत्तर गुण, धारक साधु पिंडएषणा अध्ययनमा बतावेला अर्थ प्रमाणे परिज्ञा समये वर्ने छे, बोले ते, पाळे छे, तथा आ लोक परलोकनी आशंसा (आकांक्षा) रहित तथा मैथुनथी दूर, एटले पांचे महावत पाळनारी होय तेने जेम साप जुनी कांचळीने त्यागीने निर्मळ थाय, तेम पोते दुःख शय्या ते नरक विगेरेना भ्रमणथी मुकाय के. -: समुद्रनुं दष्टांत. :जमाहु ओहं सलिलं अपारय, महासमुहं व भुयाहि दुत्तरं / अहे य णं परिजाणाहि पंडिए, से हु मुणी अंतकडेति बुच्चई तीर्थकर अथवा गणधरो भुनाथी मोटो समुद्र तरवो दुर्लभ छ, ए दृष्टांते उपदेश आपे छे के जेम समुद्र पाणीथी भरेलो छे तेम आश्रव द्वारो छे, मिथ्यात्व विगेरे पार विनानुं पाणी छे, तेथी संसार सागर तरवो दुष्कर के एम जपरिज्ञा वडे जाणीने 2 E-STER-SER. R KI .. For Private and Personal Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir A सूत्रम् // 1120 // . www.kobatirth.org प्रत्याख्यान परिज्ञावडे तुं परिहर अर्थात् सझसद् ना विवेकने जाणणनार हे पंडित मुनि ! तु महावतरुपनावबडे संसार-18 सागरने तरी जा, आ प्रमाणे जाणीने वर्ते छे तेज अलंकृत मोक्षमा जनार हे. // 10 // जहा हि बद्धं इह माणवेहि, जहा य तेसिं तु विमुक्ख आहेए / अहां तहा बन्धविमुक्व.जे विऊ, से हु मुणी अंतकडेत्ति बुच्चई // 1120 // मिथ्यात्व विगेरे जे प्रकारे प्रकृति स्थिति विगेरेथी आस्मा साथे जहपुद्गलने कर्मरुपे एकमेकं करी बांध्या छ, तेने आ | संसारमा मनुष्यो सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र वडे तोडे छे, तेज मोक्ष कयो छे, आ प्रमाणे बंध अने मोक्षतुं बरोबर सरूप जाणीने # ते प्रमाणे वर्तनार कर्मनो अंतकृत मुनि कहेवाय छे. // 11 // इमंमि लोए परए य दोसुवि, न विजई बंधण जस्स किंचित्रि / से हु निरालंबणमप्पइटिए, कलंकलीभावपहं विमुच्चइ 12 // त्तिबेमि / / विमुत्ती सम्मत्ता // 2-4 // आचारांगमूत्रं समाए / ग्रन्याय 2554 // आ लोक अने परलोकमा जेने जरापण बन्धन नथी, ते निरालंबन अर्थात् आ लोक परलोकनी आशंसा रहित क्यांय पण न बंधायेलो अशरीरी [मिद्ध] छे, तेज संसारमा गर्भादे रूप कलंक भावथी मुकाय छे. अर्थात् केवळोने के सिद्धोने फरी जन्म नथी-ा प्रमाणे प्रभु पासे जाणीने हुँ कई छ. हवे नयो कहे पूर्वे ज्ञान क्रियाना एकांत नयने अनुचित ठरावी सर्व नय संमत जैन शासन के एम बतांब्यु छे त्यांची जाणवं. आचारटीकाकरणे यदाप्त, पुण्यं मया मोक्षगमैकहेतुः / तेनापनीयाशुभराशिमुच्चैराचारमार्गमवणाऽस्तु लोकः // 1 // आचारांग मूत्रना अंतमां नीचली त्रण गाथाश्री छे. . . . . . ) For Private and Personal Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयारस्स भगवओ चउत्थ-चूलाइ एस निज्जुत्ती / पंचमचूलनिसीहं तस्स य उवरि भणीहामि // 344 // सत्तहिं छहि चउचउहि य पंचहि अट्ट चउहि नायब्बा / उद्देसएहिं पढमे मुयखंधे नत्र य अज्झयणा / 345 // इक्कारस तिति दोदो दोदो उद्देसरहिं नायचा / सत्तय अट्टयनवमा इकसरा हुँति अज्झयणा // 346 // तथा महापरिज्ञा नामर्नु अध्ययन विच्छेद जवाथी तेनी नियुक्तिनुं विवरण टीकाकारे न करवाथी नीचे मुकी है पाहणे महसदो परिमाणे चेव होइ नायव्यो / पाहण्णे परिमाणे य छबिहो होइ निक्खेवो // // दव्वे खित्ते काले भावंमि य होती या पहाणा उ / तेसि महासदो खलु पाहण्णेणं तु निष्फन्नो // 2 // दब्वे खेत्ते काले भावमि य जे भवे महंता उ / तेसु महासदो खलु पमाणओ होति निष्फनो // 3 // दब्वे खेचे काले भावपरिण्णा य होइ बोद्धव्वा / जाणणओववक्खणओ य दुविहा पुणेकेका // 4 // भावपरिण्णा दुविहा मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य / मूलगुणे पंचविहदुहाविहा पुण उत्तरगुणेसु // 5 // पाहण्णेण उ पगय परिणाएय तहय दुविहाए / परिणाणेमु पहाणे महापरिण्णा तो होइ / / 6 / / देवीणं मणुईणं तिरिक्खजोणीगयाण इत्थीणं / तिविहेण परिचाओ महापरिणाए निज्जुनी // 7 // AONENDIN00000000000.. - आचाराङ्गसूत्र समाप्त थयु.. GENOMDHONORANONDIA For Private and Personal Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassaqarsuri Gyanmandir ଆBBSessssssbBBS इति श्रीआचारांगसूत्रं समाप्तम् | For Private and Personal Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www kobatirth org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir P: 2708 SD For Private and Personal Use Only